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पुस्तक लेकर थोड़ी देर पढ़ते थे। ऐसे समय कई बार सुचरिता उनके पास जाकर बैठती रही है ओर सुचरिता के अनुरोध पर परेशबाबू उसे पढ़कर सुनाते रहे हैं। नियमानुसार आज भी परेशबाबू अपने कमरे में अकेली बत्ती जलाकर एमर्सन का ग्रंथ पढ़ रहे थे। धीरे-से कुर्सी खींचकर सुचरिता उनके पास बैठ गई। परेशबाबू ने पुस्तक रखकर एक बार उसके चेहरे की ओर देखा। सुचरिता का संकल्प टूट गया- वह घर की कोई बात न कर सकी। बोली, "बाबा, मुझे भी पढ़कर सुनाओ।" परेशबाबू पढ़कर उसे समझाने लगे। दस बज जाने पर पढ़ाई समाप्त हुई। तब सुचरिता यह सोचकर कि सोने से पहले परेशबाबू के मन में किसी प्रकार का क्लेश उत्पन्न न हो, कोई बात कहे बिना धीरे-धीरे जाने लगी। स्नेह-भरे स्वर में परेशबाबू ने उसे पुकारा, "राधो!" वह लौट आई। परेशबाबू ने कहा, "तुम अपनी मौसी की बात कहने आई थी न?" उसके मन की बात परेशबाबू जान गए हैं, इससे विस्मित होते हुए सुचरिता ने कहा, "हाँ बाबा, लेकिन अब रहने दो, कल सबेरे बात होगी।" परेशबाबू ने कहा, "बैठो।" सुचरिता के बैठ जाने पर वह बोले, "यहाँ तुम्हारी मौसी को कष्ट होता है, यह बात मैं सोचता रहा हूँ। उनका धर्म-विश्वास ओर आचरण लावण्य की माँ के संस्कारों को इतनी अधिक चोट पहुँचाएगा, पहले यह मैं ठीक नहीं जान सका। जब साफ़ देख रहा हूँ कि इससे उन्हें दुःख होता है तब इस घर में तुम्हारी मौसी को रखने से वह घुटती ही रहेंगी।" सुचरिता ने कहा, "मौसी यहाँ से जाने के लिए तैयार बैठी हैं।" परेशबाबू ने कहा, "मैं जानता था कि वह जाएँगी। तुम दोनों ही उनके एकमात्र अपने हो- उन्हें ऐसे अनाथ होकर तुम लोग नहीं जाने दे सकोगे, यह भी मैं जानता हूँ। इसीलिए कुछ दिनों से मैं इस बारे में सोच रहा था।" उसकी मौसी किस संकट में पड़ी हैं, यह परेशबाबू समझते हैं और
इस बारे में सोचते भी रहे हैं, यह बात सुचरिता ने बिल्कुल नहीं सोची थी। कहीं वह जानकर दुःख न पाएँ इस डर से वह इतने दिनों से बड़ी सावधान रहती आई थी। उसे परेशबाबू की बात सुनकर बड़ा अचरज हुआ और उसकी ऑंखें डबडबा आईं। परेशबाबू ने कहा, "तुम्हारी मौसी के लिए मैंने मकान ठीक कर रखा है।" सुचरिता ने कहा, "लेकिन वह तो.... " "किराया नहीं दे सकेंगी- यही न, लेकिन किराया वह क्यों देंगी- किराया तुम दोगी।" अवाक् होकर सुचरिता परेशबाबू के चेहरे की ओर ताकती रही। परेशबाबू ने हँसकर कहा, "उन्हें अपने ही घर में रहने देना, किराया नहीं देना होगा।" सुचरिता और भी विस्मत हो गई। परेशबाबू ने कहा, "कलकत्ता में तुम्हारे दो मकान हैं, क्या नहीं जानतीं? एक तुम्हारा, एक सतीश का। मरते समय तुम्हारे पिता मुझे कुछ रुपया सौंप गए थे। उसी पर सूद जोड़कर मैंने कलकत्ता में दो मकान ख़रीदे हैं। अब तक उनका जो किराया आता रहा है, वह भी जमा होता रहा है। तुम्हारे मकान के किराएदार अभी कुछ दिन पहले चले गए हैं- वहाँ रहने में तुम्हारी मौसी को कोई परेशानी न होगी।" सुचरिता ने कहा, "वहाँ वह क्या अकेली रह सकेंगी?" परेशबाबू ने कहा, "उनके अपने तुम लोगों के रहते हुए वह अकेली क्यों रहेंगी?" सुचरिता ने कहा, "मैं यही बात कहने आज आई थी। मौसी चले जाने के लिए बिल्कुल तैयार हैं, सोच रही थी कि मैं उन्हें अकेली कैसे जानू दूँगी। इसीलिए तुम्हारा उपदेश लेने आई थी। जो तुम कहोगे वही करूँगी।" परेशबाबू ने कहा, "हमारे घर से लगी हुई यह जो गली है, इसी गली में दो-तीन मकान छोड़कर तुम्हारा मकान है- इस बरामदे में खड़े होने से वह मकान दीख जाता है। तुम लोग वहाँ रहोगे तो ऐसे अरक्षित नहीं रहोगे- बराबर देखता-सुनता रहूँगा।" एक बहुत बड़ा बोझ सुचरिता की छाती पर से उतर गया। बाबा को छोड़कर कैसे जाऊँगी? यह चिंता उसका पीछा नहीं छोड़ रही ी, लेकिन जाना ही होगा, यह भी उसे बिल्कुल निश्चित दीख पड़ता है। आवेगपूर्ण हृदय लिए सुचरिता चुपचाप परेशबाबू के पास बैठी रही। परेशबाबू भी जैसे अपने को अंतःकरण की गहराई में डुबोए हुए स्तब्ध बैठे रहे। सुचरिता उनकी शिष्या थी, उनकी कन्या थी, उनकी सुहृदय थी-वह उनके जीवन से और यहाँ तक कि उनकी ईश्वरोपासना से भी गुँथी हुई थी। जिस दिन वह चुपचाप आकर उनकी उपासना में योग देती उस दिन जैसे उनकी उपासना एक विशेष पूर्णता पा लेती। प्रतिदिन अपने मंगलपूर्ण स्नेह से सुचरिता के जीवन को गढ़ते-गढ़ते उन्होंने अपने जीवन को भी एक विशेष आकृति दे दी थी। जैसी भक्ति और एकांत नम्रता के साथ सुचरिता उनके निकट आ खड़ी हुई थी वैसे कोई और उनके पास नहीं आया था। फूल जैसे आकाश की ओर ताकता है उसी तरह उसने अपनी संपूर्ण प्रकृति उनकी ओर उन्मुख और उद्धाटित कर दी थी। ऐसे एकाग्र भाव से किसी के पास आने से मनुष्य की दान करने की शक्ति अपने आप बढ़ जाती है- अंतःकरण जल-भार से झुके हुए बादल की भाँति अपनी परिपूर्णता के कारण ही झुक जाता है। अपना जो कुछ सत्य है, श्रेष्ठ है उसे किसी अन
ुकूल चित्त को प्रतिदिन दान करते रहने के सुयोग के बराबर कोई दूसरा शुभ योग मनुष्य के लिए नहीं हो सकता, सुचरिता ने वही दुर्लभ सुयोग परेशबाबू को दिया था। इसीलिए उनका संबंध सुचरिता के साथ अत्यंत गंभीर हो गया था। उसी सुचरिता के साथ आज उनके बाह्य संपर्क के टूटने का अवसर आ गया है- अपने जीवन-रस से पूरी तरह फल को पकाकर पेड़ से उसे मुक्त कर ही देना होगा। इसके लिए मन-ही-मन वह जिस गहरी टीस का अनुभव कर रहे थे उसे वह अंतर्यामी के सामने निवेदित करते जा रहे थे। सुचरिता का पाथेय जुट गया है, अपनी शत् से प्रशस्त मार्ग पर सुख-दुःख, आघात-प्रतिघात और नए अनुभव की प्राप्ति का जो आह्नान उसे मिलेगा उसकी तैयारी परेशबाबू कुछ दिन पहले से ही देख रहे थे। मन-ही-मन वह कह रहे थे- जाओ वत्से, यात्रा करो। तुम्हारे चिर जीवन को मैं मात्र अपनी बुध्दि और अपने आश्रय से छाए रखूँ, यह कभी नहीं हो सकता- ईश्वर तुम्हें मुझसे मुक्त करके विचित्र के भीतर से तुम्हें चरम परिणाम की ओर खींच ले जावें, उन्हीं में तुम्हारा जीवन सार्थक हो। यह कहकर शैशव से ही स्नेह में पली हुई सुचरिता को मन-ही-मन वह अपनी ओर से ईश्वर को अर्पित की गई पवित्र उत्सर्ग सामग्री की भाँति सौंप रहे थे। वरदासुंदरी पर परेशबाबू ने क्रोध नहीं किया, न अपनी गृहस्थी के प्रति मन में किसी विरोधाभाव को कोई आश्रय दिया। वह जानते थे कि नई वर्षा की जल-राशि तंग किनारों के बीच सहसा आ जाने से बड़ी हलचल मचती है- उसका एक मात्र उपाय यही है कि उसे खुले क्षेत्र की ओर बह जाने दिया जाए। वह जानते थे कि कुछ दिनों से सुचरिता के आसपास इस छोटे-से परिवार में जो अप्रत्याशित घटनाएँ घटित होती रही हैं, उन्होंने उसके जमे हुए संस्कारों को हिला दिया है। उसे यहाँ रोके रखने की चेष्टा न करके उसे मुक्त
ि देने से ही उसके स्वभाव के साथ सामंजस्य स्थापित होगा और शांति हो सकेगी। यह समझकर चुपचाप वह ऐसा आयोजन हर रहे थे कि जिससे सहज ही यह शांति और सामंजस्य स्थापित हो सके। थोड़ी देर दोनों चुपचाप बैठे रहे कि घड़ी में ग्यारह बज गए। तब परेशबाबू उठ खड़े हुए और सुचरिता का हाथ पकड़कर उसे दुमंज़िले के बरामदे में ले गए। साँझ के आकाश की धुंध तब तक छँट गई थी और निर्मल अंधकार में तारे जगमगा रहे थे। परेशबाबू सुचरिता को पास खड़ी कर निस्तब्ध रात में प्रार्थना करते रहे- संसार का सारा असत्य नष्ट कर हमारे जीवन में परिपूर्ण सत्य की निर्मल मूर्ति उद्भासित हो उठे।
सोचने वाले आदमी को भी बरदाश्त नहीं करते। हां, वे भीड़ ही चाहते हैं। क्योंकि भीड़ बिल्कुल मशीन है। भीड़ से कोई डर नहीं, भीड़ खंडन नहीं करती, भीड़ उलट कर जवाब नहीं देती। भीड़ से कोई टक्कर नहीं, कोई चुनौती नहीं। भीड़ उधर खड़ी है, डेड मॉस है। आप बोले चले जा रहे हैं जो आपको बोलना है, जो कहना है आप कहे चले जा रहे हैं। लेकिन जब आप एक व्यक्ति के सामने खड़े होते हैं, तो एक जिंदा आदमी है और वह आपको कुछ भी नहीं बोलने देगा। वह रोकेगा, टोकेगा भी, गलत भी कहेगा, लड़ेगा भी, झगड़ेगा भी। और जब दो व्यक्ति बातचीत करेंगे, तो उनमें एक बोलने वाला, दूसरा सुनने वाला, ऐसा नहीं रह जाता, वे दोनों ही बोलने वाले होते हैं, दोनों ही सुनने वाले होते हैं। और उसमें ऐसा नहीं होता है कि एक सत्य जानता है, और दूसरा नहीं जानता। उसमें दोनों के संघर्षण से सत्य निकलता है। लेकिन गुरु को ख्याल होता है कि सत्य मेरे पास है, मुझे देना है, निकालने का सवाल कहां है? दे देना है तो आप चुपचाप ले लो और रास्ते पर हो जाओ। इसलिए आमतौर से धर्मगुरु हैं, नेता हैं, भीड़ को चलाने वाले लोग हैं व्यक्ति को पसंद नहीं करते हैं। व्यक्ति के साथ डर जाएंगे। और यह बड़ी आश्चर्य की बात है कि जो लोग बड़ी-बड़ी भीड़ को भी प्रभावित करते हैं, वे एक छोटे से व्यक्ति से घबड़ा जाएंगे, कंप जाएंगे। हिटलर जैसा आदमी लाखों लोगों को कंपाएगा, लेकिन अकेले कमरे में एक आदमी के साथ नहीं बैठ सकता है घंटे भर । इतना डर जाएगा। शादी नहीं की है हिटलर ने मरने के दिन तक, सिर्फ इसीलिए कि और किसी को तो कमरे के बाहर रोक सकते हैं; लेकिन एक औरत को, जिससे शादी कर लेंगे वह कमरे में साथ होगी। और साथ होने से इतना डर लगता है एक आदमी से ! क्यों? क्योंकि भीड़ में आदमी, भीड़ में नेता जो है वह अपने को व्यवस्थित कर लेता है। वह जैसा दिखाना चाहता है, वैसा हो जाता है। लेकिन चौबीस घंटे थोड़े ही पोज कर सकते हैं। चौबीस घंटे तो मुश्किल हो जाएगी, तुम मर जाओगे। तो हिटलर ने किसी को दोस्त नहीं माना जिंदगी भर । उसके, जो उसके साथ थे वे कहते थे, या तो उसके तुम दुश्मन हो सकते हो या उसके अनुयायी हो सकते हो। दोस्त होने का कोई उपाय नहीं है। कोई उसके कंधे पर हाथ नहीं रख सकता है। और कोई उसके पास ज्यादा देर नहीं बैठ सकता है। वह हमेशा मंच पर होगा, आप हमेशा मंच के नीचे होंगे। साथ होने का उपाय नहीं है। नेता छोड़ते ही नहीं उपाय आपको। हां, वह नहीं छोड़ता, वह नहीं छोड़ता, क्योंकि... हां, वह सब चला जाएगा। व्यक्ति से सीधा उलझना बहुत कठिन बात है। और एक छोटे से छोटा आदमी इतना अदभुत आदमी है कि जिसका कोई हिसाब नहीं। लेकिन भीड़ में कोई भी कोई नहीं है, वह तो नोबडीनेस है कोई भी कोई नहीं है । वहां बेधड़क, वहां कुछ भी नहीं है। वह नथिंगनेस है। इधर मुझे तो निरंतर ऐसा लगता है कि सीधा एक-एक व्यक्ति से बाद में मुझे, लेकिन इसका कुछ अर्थ मिला। कम्युनिकेशन है, संवाद है कुछ। इसलिए तय किया है... आप तो बहुत घूमते हैं। आ
पको लगता है कम्युनिकेट करना आसान है इंडिविजुअल के साथ ? वह स्टेंडर्ड ऑफ इंटेलिजेंस है कंट्री में। यह बहुत ही रेयर होती है... । नहीं-नहीं आप हमें ही अपने, या काम में, पेशे में, शहर में लगता है कि किसी इंटेलिजेंस आदमी से मिल कर एक अजीब खुशी होती है। बड़ी कम खुशी मिलती है कि बात करते हैं जैसे दीवाल दीवाल से टकरा कर वापस आ जाते हैं। आपको आज इस देश में इंटेलेक्चुअल स्टेंडर्ड क्या लगता है ? बहुत कम है, बहुत कम है। लेकिन बहुत कम होने का कारण यह नहीं है कि बुद्धिमान लोग मुल्क में कम हैं। असल में बहुत गलती हो गई। शिक्षित आदमी बुद्धिमान समझा जा रहा है, इसलिए दिक्कत हो गई है। और हम उसी में खोजते हैं बुद्धिमानी। एजुकेटेड को और इंटेलिजेंस को हम एकसाथ इकट्ठा माने हुए हैं। कोई आदमी शिक्षित है ठीक से, डिग्री है उसके पास तो वह बुद्धिमान होगा, यह जरूरी नहीं है। डिग्री जरूरी नहीं है। नहीं, डिग्री जरूरी नहीं है, यह नहीं कह रहा। यह कह रहा हूं कि डिग्री होने से आदमी इंटेलिजेंट है, यह जरूरी नहीं है। बल्कि सच यह है कि डिग्री पाने का हमारा जो रास्ता है, उसमें इंटेलिजेंट आदमी पिछड़ जाएगा, स्टुपिड आगे हो जाएगा। हमारा जो रास्ता है, जो ढंग है, क्योंकि हमारी सारी शिक्षा बहुत गहरे में स्मृति की परीक्षा है, बुद्धिमत्ता की नहीं। और बुद्धिमान आदमी जो है वह बहुत जल्दी भूलता है। और बुद्धिहीन आदमी जो है वह कुछ चीजों को पकड़ लेता है और कभी नहीं छोड़ता है। और पकड़े इसलिए रखता है कि नया कुछ समझने का तो उपाय नहीं है, यही उसकी संपत्ति है। बुद्धिमान आदमी समझता है और छोड़ देता है। क्योंकि क्या पकड़ना है? कल जब फिर सामना होगा जिंदगी का, तो फिर बुद्धिमत्ता काम कर लेगी। तो बुद्धिमान स्मृति इकट्ठी नहीं करता, बुद्धू स्मृति
इकट्ठी करता है। और स्मृति की जो प्रशिक्षण है, उसमें हम खोजने जाते हैं कि इंटेलिजेंट आदमी कहां है? तो शिक्षित आदमी जरूरी रूप से बुद्धिमान आदमी नहीं है। लेकिन अगर हम यह भ्रम छोड़ दें और सहज आदमी में खोजने चले जाएं, तो बहुत बुद्धिमान लोग दिखाई पड़ेंगे। कभी गांव में एक निपट गंवार जिसको हम कहेंगे, वह बुद्धिमान हो सकता है। लेकिन हमारे जो मेजरमेंट हैं, उनमें हो सकता है वह न पकड़ में आ सके, क्योंकि हमने मेजरमेंट गलत बना रखे हैं। इसमें उसकी गलती नहीं है। बुद्धिमत्ता तो बहुत है, लेकिन शिक्षित होने को बुद्धिमत्ता समझें, तब फिर कठिनाई हो जाती है। और, और वैसे आदमी से... क्योंकि बुद्धिमत्ता के भी बहुत रूप हैं। अक्सर यह होता है कि जो मेरी बुद्धिमत्ता है, वैसे ही आदमी को मैं बुद्धिमान समझ पाता हूं। और बुद्धिमत्ता की बहुत दिशाएं हैं, बहुत आयाम हैं, डाइमेन्शंस बहुत हैं। यानी बुद्धिमत्ता कोई एक ऐसी चीज नहीं है कि वह एक ही तरह की होती है। अब एक पेंटर है। उसके पास एक तरह की विजडम है। उसके पास एक तरह की बुद्धिमत्ता है। और हो सकता है अगर गणितज्ञ से उसकी मुलाकात हो, तो गणितज्ञ समझे कि यह आदमी इटेंलिजेंट नहीं है। क्योंकि गणितज्ञ के पास एक तरह की बुद्धिमत्ता है, जहां दो और दो चार ही होते हैं। जहां सब बंधा हुआ, फिक्स्ड है। पेंटर की बात बहुत अलग है। वॉनगाग का एक, एक चित्र है। जिसमें उसने दरख्त इतने बड़े बनाए हैं कि चौखटे के पार निकल गए हैं। पेंटिंग छोटी पड़ गई है, और पेंटिंग का आकाश भी छोटा पड़ गया है, और दरख्त हैं कि पार चले जा रहे हैं, और सूरज वगैरह ऐसे छोटे-छोटे से कोने में पड़े हैं जिनका कोई हैसियत नहीं। उसका एक मित्र उसे देखने आया और उस मित्र ने कहा कि यह क्या पागलपन है? दरख्त इतने बड़े और सूरज इतना सा? इसमें कोई गणित भी तो है! यह कैसा गणित है? दरख्त इतने बड़े सूरज इतना सा ? तुम्हें कुछ प्रपोर्शन का अनुपात का ख्याल नहीं? अनुपात की जो भाषा है, वह गणित की भाषा है। प्रपोर्शन की जो बात है वह गणित की भाषा है। तो उस चित्रकार ने कहाः मैं कोई गणितज्ञ नहीं हूं, और सूरज ने कोई गणित से सहमत होने को ठेका ले लिया है? मैंने तो कुछ और ही बात चित्रित की है। गणित से इसका कोई लेना-देना नहीं। तो उस आदमी ने पूछाः चित्रित किया है? दरख्त हैं। उसने कहा कि नहीं, मैं दरख्तों को कभी भी ऐसा नहीं देख पाया। मैं उनको, दरख्तों को सदा ऐसे ही देख पाया हूं कि वे पृथ्वी की आकांक्षाएं हैं, आकाश को छूने की । दरख्त जो हैं वह पृथ्वी की आकांक्षाएं हैं आकाश को छूने की। एंबीशंस हैं पृथ्वी की। तो पृथ्वी अभी तक नहीं जीत पाई है, लेकिन हमें क्या बाधा है? हम उन्हीं को जीता देते हैं। हम आकाश को... यह जो आदमी है, इसको वह गणित वाला कहेगा, ठीक है, फिजूल हुआ यह । यह नापना था, तौलना था। नाप और तौल की एक दुनिया है, वहां की एक बुद्धिमत्ता है। लेकिन एक और तरह की बुद्धिमत्ता होती है। अब एक संगीतज्ञ है, उसकी और तरह की बुद्धिमत्ता है। ए
क तार्किक है, उसकी और तरह की बुद्धिमत्ता है। एक प्रेमी है, उसकी और तरह की बुद्धिमत्ता है। और एक किसान है, उसकी और तरह की बुद्धिमत्ता है। एक मिट्टी खोदने वाला है, उसकी और तरह की बुद्धिमत्ता है। लेकिन अटल सच बात यह है कि जितने तरह के लोग हैं, उतनी तरह की बुद्धिमत्ताएं हैं। और हम जब भी तौलने जाते हैं, तो हमारी बुद्धि को हम कसौटी बना लेते हैं। वह दूसरा आदमी उस कसौटी पर नहीं बैठता; क्योंकि वह दूसरा आदमी हमारे जैसा नहीं है। तब कठिनाई हो जाती है। एक मुझे बहुत प्रीतिकर रहा है हमेशा, एक फकीर है, उस पर गांव के लोगों ने राजा को इल्जाम लगा दिया है और कह दिया है कि यह जो फकीर है यह नास्तिक है, अधार्मिक है। और इसके बोलने पर रुकावट डालनी जरूरी है, सारा गांव बरबाद हो जाएगा। तो राजा ने उस फकीर को बुला लिया। और उस फकीर ने कहा कि किसने तुम्हें यह खबर दी? क्योंकि मुझे पता ही नहीं कि नास्तिकता, अधार्मिकता तौलने का मापदंड कहां है? मैं तो उसकी खोज ही कर रहा हूं। मुझे पता चल जाए, तो मैं भी उस तराजू पर बैठ कर अपने को तौल लूं कि मैं आदमी धार्मिक हूं कि अधार्मिक ? कहा किसने? उसने कहा कि मेरे ये पंडित बैठे हैं, इन्होंने कहा है। तो उसने कहा कि इन पंडितों से, इसके पहले कि मैं अपनी जांच करवाऊं, एक छोटा सा सवाल पूछना है। पंडित तैयार हो गए। ऐसे पंडित हमेशा तैयार होते ही हैं, वे रेडीमेड ही होते हैं। उसके पास कुछ, उसके पास कुछ ऐसा नहीं होता कि वह किसी चीज का मुकाबला करता हो। उसके पास चीजें तैयार होती हैं। मुकाबला सिर्फ बहाना होता है, खूंटियां होती हैं, जिन पर जो उसके दिमाग ने सदा से तैयार कर रखा है, वह टांग देते हैं। वे तैयार हो गए। उस फकीर ने एक-एक कागज उनको दे दिया और कहा कि मैं एक प्रश्न पूछता हूं, तुम सब उ
त्तर लिख दो। तो उन्होंने सोचा कि कोई कठिन प्रश्न पूछेगा। और मजा यह है कि सब कठिन प्रश्नों के उत्तर तैयार हैं। सरल प्रश्न मुश्किल बात है। क्योंकि उसका उत्तर कहीं लिखा होता नहीं। उस फकीर ने बड़ा सरल पूछा। उसने पूछा, वॉट इज ब्रेड ? रोटी क्या है? उन्होंने सोचा था, पूछेगा, ब्रह्म क्या है? परमात्मा क्या है? मोक्ष क्या है? प्रेम क्या है? यह कैसा गंवार आदमी आ गया है कि जो पूछता है कि रोटी क्या है? यह भी कोई सवाल है? यह कोई तत्वज्ञान है? उन्होंने कहाः यह भी कोई सवाल है? उसने कहाः मैं तो बिल्कुल नासमझ आदमी हूं, बस ऐसा ही सरल सवाल पूछ सकता हूं। आपकी बड़ी कृपा होगी, जवाब दे दें। आप इस पर लिख दें। राजा भी हैरान हुआ कि इसको काहे के लिए पकड़ लाए हैं? यह क्या नास्तिक होगा? यह बेचारा, ऐसी सरल बातें भी अभी इसे पता नहीं कि रोटी क्या है! इसके सवाल कोई मैटाफिजिक्स के, कोई ज्ञान के तो नहीं हैं। पंडितों ने लिखने में बड़ी मुश्किल में पड़ गए; क्योंकि कहीं नहीं पढ़ा था कि रोटी क्या है? पढ़ा ही नहीं था किसी किताब में, लिखा ही नहीं था किसी ब्रह्मसूत्र में, किसी गीता में, किसी कुरान में! कहीं भी नहीं लिखा है कि रोटी क्या है। बड़ी मुश्किल में पड़ गए। एक ने लिखा है कि रोटी एक तरह का भोजन है। अब और क्या करे। दूसरे ने लिखा है कि रोटी--गेहूं, पानी और आग का जोड़ है। किसी ने लिखा है कि रोटी बड़ी ताकतवर चीज है। किसी ने कहा, रोटी भगवान का वरदान है। किसी ने लिखा, किसी ने लिखा कि रोटी क्या है, यह कहना मुश्किल है, क्योंकि रोटी सब कुछ है। खून भी वही है, हड्डी भी वही है, मांस भी वही है, मज्जा भी वही है। सभी वही है । तो रोटी क्या है, कहना बहुत मुश्किल है। रोटी बड़ी मिस्ट्री है। एक ने लिखा है कि पहले यह पता चल जाए कि पूछने वाले का मतलब क्या है, तभी मैं बता सकता हूं। सातों कागज लेकर राजा के सामने उसने कहा, ये कागज देख लें। अब इन पंडितों को यह भी पता नहीं है कि रोटी क्या है? और ये सात इस पर भी राजी नहीं हैं कि रोटी क्या है? ये इस पर कैसे राजी हो गए कि ईश्वर क्या है? और आस्तिकता क्या है? और नास्तिकता क्या है? इन्होंने कैसे तौल लिया वह मुझे पता बता दें आप? तो मैं भी उस तराजू पर चढ़ जाऊं। अभी मुझे ही पता नहीं है कि मैं कौन हूं? नास्तिक हूं कि आस्तिक हूं। इनको कैसे पता चल गया है ? एक तरह की बुद्धिमत्ता उन पंडितों के पास भी थी । किताबों में जो लिखा था वह जानते थे। और यह आदमी बड़ा होशियार है, वह किताब की बात ही नहीं पूछी। यह आदमी भी एक तरह की बुद्धिमत्ता लिए हुए है, जो उससे गहरी है। यानी इसके पास भी एक विजडम है। हम, अक्सर होता है कि क्या कठिनाई है कि हमें बुद्धिमान आदमी नहीं मिलता है; क्योंकि हमारी जो बुद्धिमत्ता है, हम उसी को तौलते चलते हैं। और हां, और दूसरी बात यह होती है कि जाने-अनजाने, जो हमसे सहमत हो जाए वह बुद्धिमान मालूम पड़ता है, जो कि ठीक नहीं है। जो कि ठीक नहीं है। मुश्किल तो यही है कि जो बुद्धिमान
है वह सहमत जरा मुश्किल से हो सकेगा। और हमारा मन कहता है कि जो सहमत हो जाए उसको हम बुद्धिमान मान लें। सरल है वह बात। बहुत सरल है, लेकिन जरा कठिन है सहमति। जो सहमत हो जाए वह बुद्धिमान आदमी है! यानी हमारी नजर में उसकी बुद्धिमत्ता हमारी सहमति से हम तौल लेते हैं। और जब कि बुद्धिमान आदमी का सहमत होना जरा मुश्किल है। अपनी नजर है, अपनी दृष्टि है, अपना सोचना है। और मैं मानता यह हूं कि कोई आदमी किसी से सहमत हो ही क्यों? असल में सहमति की आकांक्षा बहुत गहरे में वायलेंस है। जब मैं यह आकांक्षा करूं कि मुझसे आपको सहमत होना चाहिए, तो मैं किसी न किसी गहरे तल पर आपको मिटाना चाहता हूं, और अपने को उसमें बिठाना चाहता हूं। मैं आपको मारना चाहता हूं। हां, आपको डॉमिनेट करना चाहता हूं, मारना चाहता हूं। तो हम यह भी ख्याल में रखते हैं कि जो हमसे सहमत हो जाए, वह बुद्धिमान है। और इसीलिए यह हो जाता है कि गुरुओं और महात्माओं के पास निपट बुद्धू इकट्ठे हो जाते हैं, जो उनसे सहमत हो जाते हैं। वह सोचते हैं कि बहुत अच्छे लोग इकट्ठे हो गए हैं। और वे जो, वे जो इकट्ठे हो गए हैं वे वही लोग हैं जो उनसे सहमत हो जाते हैं। वाल्तेयर के खिलाफ कोई एक आदमी था, डिडरो। और उसने वाल्तेयर के खिलाफ बहुत सी बातें कहीं। और वह एक दिन वाल्तेयर को रास्ते पर मिल गया। तो उसने वाल्तेयर से कहा कि आप तो सोचते हो कि इस आदमी को मरवा डालूं। तो वाल्तेयर ने कहाः क्या कहते हो? घर चलो। आज मैंने डायरी में तुम्हारे संबंध में एक वाक्य लिखा है। वह घर उसे लाया। डायरी में उसने एक वाक्य लिखा है कि जो मुझसे असहमत हैं और मेरे विरोध में हैं, उन्हें उस तरह के सोचने का अधिकार और हक है और उस तरह बोलने का। अगर इसकी लड़ाई में मुझे अपनी जान गंवानी पड़े, तो मैं ज
ान गंवा दूंगा। लेकिन वे गलत हैं, इसे कहने का अधिकार मैं मानता रहूंगा। मैं जान लगा दूंगा उनके इस अधिकार के लिए कि उन्हें यह सोचने का हक है, लेकिन वे गलत हैं यह कहने का हक मुझे है। आखिर इतना हमें ख्याल हो कि हम सहमति न खोज रहे हों, तो बहुत बुद्धिमान लोग मिल सकते हैं। लेकिन सहमति खोजने की वजह से कठिनाई बढ़ जाती है। और फिर यह होता है कि जाने-अनजाने किसी न किसी रूप में हम उस आदमी को पसंद करते हैं, जो किसी न किसी भांति हमारे जैसा है। जिससे हमारी कांफ्लिक्ट न हो। और दुख की बात यही है कि जो हमारे जैसा है वह हमें कोई रस नहीं दे सकता है। रस हमें वही दे सकता है, जो हमसे मतभेद रखता हो। उतना ही रखते हैं। हां, वह गलती में है और इसलिए हम भूल में पड़ कर थोड़े दिन में पछताने लगते हैं। हम हमेशा यह कर लेते हैं कि जो हमारे जैसा है उसको चुन लेते हैं। पहले मौके पर वही अच्छा लगता है, क्योंकि वे हमारे ही दर्पण हैं जो हमें ही दिखाई पड़ जाते हैं। फिर चार दिन बाद मुश्किल शुरू हो जाती है; क्योंकि यह आदमी तो बिल्कुल हमारे जैसा है। बोरिंग तो लाने वाला है। पश्चिम में जो सारे के सारे प्रेम-विवाह की असफलता है, उसकी बुनियाद में कारण यह है। हर व्यक्ति उसको प्रेम कर लेता है पहले मौके पर, जो उसे अपने जैसा लगता है। लेकिन जब साथ रहता है, तो अपने जैसा आदमी सुखद नहीं मालूम पड़ता । भिन्न चाहिए, भेद चाहिए। उसकी अपनी रुचि, अपना व्यक्तित्व चाहिए, और वह बिल्कुल मेरे जैसा है, तो वह कॉपी छाया मालूम होने लगता है। वह व्यर्थ हो जाता है । छाया, कॉपी मालूम होने लगता है। वह व्यर्थ हो जाता है। उसमें हमें कोई रस नहीं रह जाता है। और एक बात है कि उसे हमें जीतने की आगे कोई जरूरत नहीं रह जाती है। वह जीत ही लिया गया है, बात खत्म हो गई है। तो वह अक्सर हो जाता है। और इसलिए अपने से विरोधी को प्रेम करने की क्षमता जब तक न बढ़े, तब तक न तो हम कीमती मित्र बना सकते हैं, न कीमती पत्नी खोज सकते हैं, न कीमती पति खोज सकते हैं, न कीमती साथी खोज सकते हैं। हम खोज ही नहीं सकते, अपने से विरोधी को जब तक हम प्रेम करने की क्षमता न विकसित कर ले। इसलिए पता नहीं चलता है कि कितनी बुद्धिमत्ता है। बुद्धिमत्ता तो बहुत है, बहुत है। कई बार ऐसी जगह होती है, जहां हम कभी नहीं सोचते हैं। अभी तक का कोई डेढ़ सौ दो सौ वर्षों में कालेज के प्रोफेसर हैं, ये बुद्धिमान समझे जाते रहे हैं। लेकिन दुनिया में जितने आविष्कार किए हैं वे उन लोगों ने किए हैं जिनका युनिवर्सिटी से कोई संबंध नहीं है। यानी प्रोफेसर्स के नाम का आविष्कार न के बराबर है। भूल-चूक है। हां, वे बुद्धिमान होने का... और ऐसी जगह से, ऐसे अनजान कोने से कोई आदमी कुछ खोज लेता है जिसका हम कभी ख्याल ही नहीं करते कि यह भी बुद्धिमान हो सकता है। कोई ख्याल ही नहीं उठ सकता है। बहुत बार ऐसा होता है कि रॉ-इंटेलिजेंस जो है, वह दिखाई नहीं पड़ती है। कच्ची युनिवर्सिटी से नहीं गुजरी है, पक नहीं गई है, कच्ची है, दि
खाई नहीं पड़ती। लेकिन कच्ची बुद्धिमत्ता में विकास की ज्यादा संभावनाएं होती है और बहुत उपाय, मार्ग होते हैं। और पकी हुई बुद्धिमत्ता पके हुए घड़े की तरह हो जाती है जिसको अब नहीं ढाला जा सकता। कच्चा घड़ा है, वह अभी बहुत तरह से शक्ल ले सकता है। तो रॉ-इंटेलिजेंस तो बहुत है दुनिया में और भी बड़े मजे की स्थितियां हैं कि यह जो जिसको हम बुद्धिमान, समझदार कहते हैं, जिस प्रक्रिया से, हम इसे गुजारते हैं जिस प्रक्रिया को, जिस प्रोसेस से, वह सब बुद्धिमत्ता छीन लेती है। हेनरी थारो था, तो वह विश्वविद्यालय से पढ़ कर लौटा। वह अपने गांव का पहला ग्रेजुएट था। तो गांव के लोगों ने स्वागत किया। और उस गांव के एक बूढ़े आदमी ने स्वागत में कहा हेनरी थारो के लिए कि यह हमारे गांव का पहला स्नातक है, इसलिए मैं इसको आदर देने नहीं आया हूं। मैं तो आदर देने इसलिए आया हूं कि यह लड़का विश्वविद्यालय से अपने को बचा कर वापस लौट आया; कहा कि विश्वविद्यालय से अपने को बचा कर वापस लौट आया है। बिल्कुल अभी भी ताजा है, बासा नहीं पड़ गया। इसको मार नहीं पाए इसके प्रोफेसर, गुरु इकट्ठे होकर इसकी जान नहीं ले पाए। यह अब भी सोचता है। और अब भी फ्रेश पॉइंट्स पर, ताजे दृष्टिकोण पर खड़ा हो जाता है। और अभी भी इस तरह भाव नहीं इसमें पैदा हो गया है कि मैं जान लिया हूं। अभी भी इसमें ह्युमिलिटी है कि खोजता हूं, कुछ पता नहीं है। वह इसमें है, मैं इसलिए इसका स्वागत करने आया हूं। और यह सच बात है कि यह बहुत रेयर घटना है। हमारी जो पच्चीस साल की तालीम की व्यवस्था है, वह बुद्धिमत्ता को मारने की है। संभावना भी हो, तो उसको छांट डालने की है। क्योंकि बुद्धिमत्ता बहुत गहरे में विद्रोह है। और न समाज विद्रोह चाहता है, न बाप विद्रोह चाहता है, न मां, न गुरु
, न नेता, कोई विद्रोह नहीं चाहता। और जिस आदमी में थोड़ी भी बुद्धि है, वह विद्रोही हो जाएगा। क्योंकि उसकी बुद्धि पच्चीस जगह कहेगी कि यह गलत है। पूछेगा, क्यों है? हजार सवाल उठाएगा। और सब जवाब जो पुराने पके-पके हैं उन सबको गड़बड़ कर देगा, सबको हिला देगा, डुला देगा और चीजों को अराजक कर देगा। तो इसलिए बुद्धि का डर रहा है दुनिया में हमेशा । इसलिए बुद्धिमान आदमी पैदा न हो पाए, इसकी हमारी सारी चेष्टाएं हैं। सारी चेष्टाएं है। बाप भी बेटे से कहता है कि जो आज्ञाकारी है, वह अच्छा है। लेकिन जिसमें थोड़ी बुद्धि है, वह एकदम आज्ञाकारी नहीं भी हो सकता है। आज्ञा मान सकता है, आज्ञा तोड़ भी सकता है। वे दोनों संभावनाएं सदा मौजूद रहेंगी। वह कभी न भी कह सकता है, हां भी कह सकता है, लेकिन हां ऐसी नहीं होगी कि जिसके भीतर का न बिल्कुल मार डाला गया है। मगर बाप को यह पसंद नहीं पड़ेगा कि लड़का जो न भी कह देता हो। बाप के अहंकार के विरोध में है यह बात कि कोई लड़का और न कहे! स्कूल का शिक्षक भी नहीं चाहता कि कोई न कहे। देश का नेता भी नहीं चाहता कि कोई न कहे। सब चाहते हैं आज्ञा, आज्ञा चुपचाप मानो और चलो। तो, बुद्धिमत्ता नष्ट हो जाएगी, जंग खा जाएगी। बहुत गहरे में समझा जाए तो बुद्धि आती है निगेटिव से सदा ही। उसमें जो निखार आता है, वह इनकार से आता है। कि जैसे कोई पत्थर की मूर्ति बनाता हो, तो छेनी से तोड़ डालता है जगह-जगह से। वह मूर्ति पत्थर से नहीं बनती, वह मूर्ति छेनी से और तोड़े गए टुकड़ों से निर्मित होती है अंततः । जो छान कर काट डाला गया है, उससे निर्मित होती है। नहीं तो पत्थर तो पत्थर ही है, उसमें अगर तोड़ नहीं होती, तो बना रह जाता है। तो प्रतिभा भी निषेध से, निगेटिव से, काटने से, तोड़ने से, इनकार से बनती है। और कोई पसंद नहीं करता है इसको, तो हम सब मार डालते हैं मिल कर। मैं भी उस आदमी को पसंद करूंगा कि जो मैं कहूं कि यह, वैसा कहे हां, ऐसा ही। यह मेरे अहंकार को बड़ा गहरा तृप्ति होती है इस बात की कि जो मैं कहता हूं वही ठीक है, और अकेला मैं नहीं मानता और लोग भी मानते हैं। इसलिए लोग अनुयायियों को खोजने निकल जाते हैं। जितने लोग अनुयायियों को खोजते हैं, यह बहुत गहरे में, इन्हें भरोसा नहीं है कि जो यह कह रहे हैं वह ठीक है। जब बहुत लोग भी इसको ठीक कहते हैं, तब उनको भी भरोसा आता है कि यह ठीक ही होगा। जब इतने लोग मानते हैं, तो गलत हो कैसे सकता है? जो आदमी जितना भीतर भरोसे से कम है, भरोसा कम है जिसमें अपनी बात का, वह उतने अनुयायी खोजेगा। अनुयायी जो हैं वे सब्स्टीट्यूट हैं, कांफिडेंस लाने वाले हैं। तो वह सबको राजी करना चाहेगा, सहमत करना चाहेगा, और वह तोड़ेगा, लोगों की प्रतिभाएं नष्ट करेगा। अब तक आदमी ने प्रतिभा को जगने नहीं दिया, बुद्धिमत्ता को पैदा नहीं होने दिया। इसलिए वह कम है; वैसे वह बहुत है। और अगर उसे फूटने का मौका मिले, तो दुनिया अनूठी हो जाए, लेकिन तब उस दुनिया में नियम थोड़े कम हो जाएंगे। उस
दुनिया में ढांचे टूट जाएं। उस दुनिया में व्यक्ति हों, समाज कम होगा। जितनी बुद्धिमत्ता होगी, उस दुनिया में इंडिविजुअल्स होंगे, सोसाइटी मिट जाएगी । इंडिविजुअल डिसिप्लिन होगी। इनर डिसिप्लिन होगी जो उसके भीतर से आती है। तो उस खतरे से बचने के लिए बुद्धिमान को हम पैदा नहीं होने देते हैं। इसलिए सुकरात को जहर पिला देते हैं, जीसस को सूली पर लटकाते हैं। हमने बुद्धिमान आदमी के साथ अच्छा व्यवहार ही नहीं किया कभी। तो वह पैदा कैसे हो? वह उसका होना बिल्कुल अव्यावहारिक है, क्योंकि हम सब मिल कर उसको मार डालते हैं। इसलिए नहीं दिखता विजयजी। वैसे तो बुद्धिमानी बहुत है। हर आदमी में है। ऐसे तो जन्म से उसको मिलती ही है। अगर वह खुद ही उसको खोता चला जाए, तो बात अलग है। सौदा कर लेता है वह, कनवीनियंस खरीद लेता है, इंटेलिजेंस खो देता है। कुछ सौदा है। सुविधा इसी में है कि ज्यादा बुद्धिमानी न विकसित की जाए। सुविधा है बहुत इसमें। बिल्कुल यही है कारण । हालत ही यही है। बात ही यही है। सब जगह इंटेलिजेंस को नुकसान पहुंचा है। सब जगह इंटेलिजेंस को नुकसान पहुंचा है। नहीं उनको नहीं बचने दिया जाएगा, उनको खत्म ही कर दिया जाएगा। इसलिए नहीं मिलता है। नहीं तो ऐसे तो एक-एक आदमी और अगर हम बहुत सहानुभूति से खोजने लगें, तो भी फर्क पड़ेगा। क्योंकि जब हम किसी व्यक्ति के पास परीक्षक की तरह जाते हैं। तब उस व्यक्ति के सब द्वार-दरवाजे बंद हो जाते हैं। वह एकदम क्लोज्ड हो जाता है। और डर जाता है और डिफेंसिव हो जाता है। और जब कोई आदमी डिफेंसिव हो गया, तो फिर हमें उसके असली का पता नहीं चलता कि भीतर क्या है ! उसके पास अत्यंत सहानुभूति से, सिम्पैथी से ही जाने की जरूरत है, बड़े प्रेम से, परीक्षक की तरह नहीं। तो शायद एक साधारण से आदमी मे
ं भी इतनी बुद्धिमत्ता के फूल खिलने लगते हैं, लेकिन कभी किसी ने उसको सहानुभूति से नहीं देखा था, वह डर गया सब फूल उसने भीतर छिपा लिए। वह डरा हुआ खड़ा है कि भई कुछ गड़बड़ न हो जाए। यह आदमी... हर आदमी डिफेंस की हालत में हमने डाल दिया है। ऐसी बेहूदी सोसाइटी हमने बनाई हुई हैं दुनिया में अभी तक कि हर आदमी रक्षा की हालत में पड़ा हुआ है, डिफेंसिव हो गया है। और जब भी कोई डिफेंसिव हो जाए, तब वह कभी खुलता ही नहीं, क्योंकि खुलने में डर है। वह हमेशा सिकुड़ा रहता है, बंद रहता है। और इसलिए कई बार ऐसा होता है कि जिन्हें आप प्रेम करने लगते हैं, प्रेम के बाद आप पाते हैं कि उनमें बुद्धिमत्ता है। वह प्रेम उनकी बुद्धिमत्ता को एकदम निकालने का, खुलने का मार्ग बन जाता है। और दूसरा उनमें बिल्कुल बुद्धिमत्ता नहीं पाता। बेवकूफ कहेगा, क्योंकि उसको दिखता है कि उसमें कुछ भी तो नहीं है। और सच बात यह है कि न केवल बुद्धिमत्ता बल्कि जीवन की सारी चीजें सहानुभूति की हवा में खिलती हैं। यानी सच बात तो यह है कि कोई आदमी इतना सुंदर नहीं होता है जितना उसको कोई प्रेम करने वाला मिल जाता है तब वह हो जाता है एकदम से। इतना होता ही नहीं वह कभी कोई आदमी सुंदर, क्योंकि वह हमेशा डिफेंसिव है, वह सब सिकुड़ा रहता है, लेकिन जब कोई उसके पास बहुत प्रेम से आता है, तो उसकी सब पंखुड़ियां खिल जाती हैं। अब वह डर नहीं है इससे कोई, वह पूरा खुल जाता है। लोग कहते हैं कि सौंदर्य को हम प्रेम करते हैं। यह आधा हिस्सा है। प्रेम करके हम सौंदर्य निर्मित करते हैं, यह ज्यादा गहरा और ज्यादा मूल्यवान हिस्सा है। हम सौंदर्य क्रिएट, निर्मित करते हैं। और उसी तरह इंटेलिजेंस भी पैदा होती है। उसी तरह सहमत भी पैदा होता है, कांफिडेंस भी पैदा होता है। लेकिन कोई किसी को प्रेम ही नहीं करता है। हम सब प्रेम चाहते हैं, इसलिए किसी की इंटेलिजेंसी हम नहीं खोल पाते हैं और न किसी का सौंदर्य हम प्रकट कर पाते हैं। हम प्रेम चाहते हैं, और वह देने से खुलेगा। और मजा यह है कि अगर हम दें तो प्रेम लौटता है और मांगें तो रुक जाता है। वह मांगने से कभी आता ही नहीं। दुनिया में मांगने से सिर्फ कूड़ाकर्कट मिल सकता है, मूल्यवान कुछ भी नहीं मिल पाता है मांगने से। मूल्यवान तो किसी गहरे रिस्पांस से आता है, और रिस्पांस तो तब होता है जब मैं दूं। तो इसलिए बहुत प्रेम की कमी होने की वजह से दुनिया में बहुत कम लोग बुद्धिमान दिखाई पड़ते हैं। वह प्रेम की कमी है। कोई किसी को प्रेम ही नहीं कर रहा है। एक अमरीकी फिल्म अभिनेत्री थी, ग्रेटा गार्बो। उसका कहीं कोई जीवन पढ़ता था। वह यूरोप के किसी छोटे से कोने के गांव में, बीस वर्ष, अठारह वर्ष तक की हो गई तब तक एक नाईबाड़े में लोगों की दाढ़ी पर साबुन लगाने का काम करती थी। दो पैसा मिल जाता दाढ़ी पर साबुन लगाने का । दाढ़ी तो नाई काटता है। साबुन लगाने का काम कोई लड़की कर देती है। एक अमरीकी डायरेक्टर घूमने आया था और उस नाईबाड़े में दाढ़ी बनवान
े गया था। वह लड़की तो वर्षों से साबुन लगा रही थी। लेकिन साबुन लगाने वाली लड़कियों को देखता कौन है? वह उस डायरेक्टर की दाढ़ी पर साबुन लगा रही थी। उसने आईने में उस लड़की को देखा--हाउ ब्यूटीफुल! और ग्रेटा गार्बो ने लिखा है कि मैं पहली दफा सुंदर हुई। उसके पहले मुझे पता ही नहीं था। मुझे पता ही नहीं था। एक आदमी ने, एक आदमी ने कहा कि कितनी सुंदर है, और बस सब बदल गया। और एकदम सब बदल गया। वह अट्ठारह साल कहां खो गए मुझे पता नहीं, मैं दूसरी ही व्यक्ति हो गई तत्क्षण। मैं साबुन लगाने वाली लड़की नहीं थी फिर । हाथ मेरा रुक गया। बात ही बदल गई थी। सब कुछ बदल गया था, जैसे एक नींद टूट गई थी। सौंदर्य का बोध उसे फिर अभिनय की खोज में ले गया। उसने लिखा है कहीं कि एक, एक आदमी ने चलते हुए इतना सा कह दिया कि कितनी सुंदर है। इसकी मैं प्रतीक्षा कर रही थी, मेरा सौंदर्य इसकी प्रतीक्षा करता था कभी, मगर मुझे पता ही नहीं था। मुझे पता ही नहीं था कभी। ऐसे ही बुद्धिमत्ता भी प्रतीक्षा करती है, लेकिन कोई कभी कहे और किसी के प्रेम में वह खिल जाए। कोई चौंका दे उसे। लेकिन हालतें उलटी हैं, हालतें उलटी हैं कि हर आदमी दूसरे आदमी को बुद्धिमान तो मानने को राजी ही नहीं है; क्योंकि उसके अहंकार को चोट लगती है इस बात से। इसलिए हर आदमी हर दूसरे आदमी को बुद्धिहीन सिद्ध करने की सब तरह की कोशिश कर रहा है। चारों तरफ से यह कोशिश चल रही है। बाप भी यह नहीं चाहता कि बेटा उससे ज्यादा बुद्धिमान हो जाए, इतना बाप भी नहीं चाहता, मां भी नहीं चाहती कि उसकी बेटी उससे ज्यादा सुंदर हो जाए। मां भी नहीं चाहती। और अगर मां के सामने भी उसकी बेटी को कोई कह देता है कि बहुत सुंदर है, तो मां पर जो गुजरती है, उसका ख्याल करना मुश्किल है। तो वह जो, जो-जो ह
वा चाहिए चारों तरफ वह एक साइकिक एटमास्फियर चाहिए जहां चीजें पैदा हों। वह हमने पिछले पांच हजार सालों में पैदा नहीं कर पाए। और इसलिए अधिकतम लोग, जो बहुत सुंदर हो सकते थे, साधारण मर जाते हैं। बहुत से लोग जो बुद्धिमान हो सकते थे, साधारण मर जाते हैं। बहुत से लोग जो बिल्कुल असाधारण हो सकते थे, कि जिनका होना खूबी होती जमीन पर, वह बिल्कुल ही एक कोने में ऐसे मर जाते हैं कि थे या नहीं, कभी पता नहीं चलता। इसको ही मैं कहता हूं कि बहुत से लोग बिना आत्मा को पाए मर जाते हैं। मैं जब आत्मा की बात करता हूं, तो मुझे यह सारा ख्याल होता है कि बहुत से लोग आत्मा पाए बिना मर जाते हैं। उनको पता ही नहीं चलता कि वह थे भी। इसका मतलब यह हुआ कि पाना दूसरे पर ही निर्भर है? अपने आप पर भी तो होना चाहिए? हां, हां, यह ठीक बात है। यह ठीक बात है। यह अपने पर निर्भर होना चाहिए, लेकिन निन्यानबे प्रतिशत दूसरे पर निर्भर होता है। क्योंकि जो होना चाहिए, वह है नहीं होना तो यही चाहिए कि प्रत्येक पर निर्भर हो । लेकिन निन्यानबे प्रतिशत यह दूसरे पर निर्भर होता है। एक प्रतिशत ही स्वयं पर निर्भर होता है। और वह जो एक प्रतिशत है, वह भी आपको लगता ही है कि स्वयं पर निर्भर है। वह भी बहुत गहरे अर्थों में दूसरों पर निर्भर होता है, जैसे दोनों संभावनाएं हैं कि एक आदमी को आप कहें, बहुत बुद्धिमान है। उसकी हवा, उसके आस-पास के सारे लोग उसे बुद्धिमान कहते हों, मानते हों, तो उसकी बुद्धिमत्ता पैदा हो जाए। और यह भी संभव है, लेकिन यह बहुत मुश्किल से संभव है कि सारे लोग उसको बुद्धिहीन कहते हों, तो वह डिफेंस में बुद्धिमान होने की चेष्टा में लग जाए और सिद्ध करके बता दे कि बुद्धिमान है। लेकिन यह भी दूसरे पर ही निर्भर होना है। इसमें फर्क नहीं पड़ा दोनों में। लेकिन यह संभावना बहुत कम है, यह संभावना बहुत कम है। सौ में एक है। और इसीलिए हमने जो समाज बनाया है उसमें कभी-कभी वह जिसको हम बुद्धिमान, प्रतिभाशाली कहें, वह हो पाता है। वह जो लड़ कर, विरोध में खड़ा हो जाता है, सामान्यतः यह नहीं होगा। यह ऐसा ही है मामला जैसे कि इस कमरे में हम प्लेग के कीटाणु फैला दें। पचास मित्र बैठे हैं और चालीस मित्र बीमार पड़ जाएं, और बाकी दस कहें, यह तो अपने पर निर्भर है, प्लेग के कीटाणुओं से क्या होता है, देखो हम भी तो यहीं प्लेग के कीटाणुओं में हैं, लेकिन हम बीमार नहीं पड़े हैं। तो यह सवाल प्लेग के कीटाणुओं का नहीं है। लेकिन बात ऐसी नहीं है। वह जो चालीस लोग बीमार पड़ गए हैं, अगर प्लेग के कीटाणु न होते तो वे बीमार न पड़ते? और ये जो दस बीमार नहीं पड़ पा रहे हैं, ये भी उतने स्वस्थ नहीं हो सकते हैं जितने कि प्लेग के कीटाणु न होते तो होते? उतने स्वस्थ ये भी नहीं हो सकते। भला बीमार न पड़ गए हों, भला मर न गए हों, लेकिन फिर भी उतने स्वस्थ नहीं हो सकते हैं जितने कि ये भी हुए हैं। यानी मेरा कहना यह है कि समाज ने अब तक व्यक्ति को विकसित होने में सहायता नहीं दी है,
तब कहीं दस-पांच लोग लाख दो लाख करोड़ में विकसित हो जाते हैं। अगर समाज ने मौका दिया होता, जिसको मैं ऑपरच्युनिटी कह रहा हूं, ऐसा अवसर दिया होता, तो लाखों लोग विकसित होते और ये जो दस लोग हैं न यह और हजार गुना ज्यादा विकसित होते। क्योंकि ये तो इतने विरोध में इतने विकसित हो पाए, इनको तो कहना ही क्या था! हम खाद न डालें, और दस पौधे लगा दें, तो हो सकता है एकाध पौधे में फूल आ जाए एक गरीब सा फूल, और बाकी नौ पौधे बिना फूल के रह जाए तो हम कहें, यह तो अपने भीतर की बात है, इसमें आ गया, नौ में नहीं आया। लेकिन खाद डालने पर नौ में भी आता और इसमें जो फूल आता, उसका तो हिसाब लगाना मुश्किल है कि वह कैसा होता ! ऐसा दुबलाया, कुम्हलाया हुआ फूल न होता। जिंदा फूल बड़ा फूल होता। उसकी शान अलग होती। तो मेरा कहना यह है कि यह बात तो सच है कि भीतर हमारे संभावनाएं हैं, लेकिन संभावनाओं के लिए अवसर बड़ी कीमती बात है, बड़ी कीमती बात है। और संभावनाओं के लिए लड़ना चाहिए, अवसर की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए, यह भी मैं नहीं कह रहा हूं। लेकिन अवसर भी निर्मित हो, इसकी धारणा विकसित करनी चाहिए। लड़ना ही पड़ेगा एक-एक आदमी को । आज की प्रतिभा जो है वह भविष्य की है? यह भी आप ठीक कहते हैं। असल में प्रतिभा सदा ही भविष्य की होती है। प्रतिभा सदा ही भविष्य की होती है। और जिसे हम आज समझ पाते हैं कि प्रतिभा है, उसे हम इसीलिए समझ पाते हैं कि वह प्रतिभा नहीं है और अतीत की प्रतिभाओं की कुछ नकल है । तो ही हम समझ पाते हैं। क्योंकि अभी सच में जो आज प्रतिभाशाली पैदा होगा व्यक्ति, न तो उसकी प्रतिभा को जांचने के आज मापदंड होते हैं, न आंख होती है, न लोग होते हैं, न हवा होती है। सौ दो सौ वर्ष लग जाएंगे। प्रतिभाशाली आदमी के ऊपर दोहरी कठिनाइयां
हैं। वह अपनी प्रतिभा से सृजन भी करे, और अपनी प्रतिभा को पहचानने के योग्य हवा और मापदंड भी खड़ा करे, वह मर कर भी नहीं हो पाता। और अक्सर ऐसा होता है कि दो-चार सौ वर्ष बीत कर कुछ ख्याल में आ पाता है वह आदमी। यह भी ठीक कहते हैं आप। जो बहुत चरम प्रतिभा की बात है, वह तो सदा ही भविष्य की है। और उसे स्वीकृति आज तक तो नहीं मिली, लेकिन मेरा मानना है कि समाज ऐसा होना चाहिए, कि चाहे हम प्रतिभा को आज बिल्कुल माप न पा रहे हों, जांच भी न पा रहे हों, अनबूझ हो, न पहचान में, पकड़ में आती हो, तो भी समाज ऐसा चाहिए की भविष्य की संभावनाओं को भी आदर देता हो । अब तक हम सिर्फ अतीत की उपलब्धियों को आदर देते हैं, भविष्य की संभावनाओं को नहीं। अतीत की उपलब्धियों को आदर देते हैं। और अतीत की उपलब्धियों को आदर न दें, तो भी चल जाएगा, क्या फर्क पड़ता है। यानी सवाल यह है कि आज अगर बुद्ध की प्रतिभा पहचान ली जाए और हम आदर भी दें, तो फर्क क्या पड़ता है? बात खत्म हो गई है। लेकिन भविष्य की संभावनाओं को पहचानना बहुत जरूरी है, क्योंकि वह होने वाला है। और अगर हम उसे पहचानते हैं, तो उसके होने में साथी और सहयोगी बन जाएंगे। वास्तविकता को देखने में तो बहुत ही सरल है। एक बगीचे में फूल खिले हैं, इनको कोई भी देख लेता है। लेकिन एक बीज की संभावनाओं को पहचानना पारखी की बात है। समाज ऐसा भी होना चाहिए कि वह भविष्य की संभावनाओं को भी अंगीकार करता हो। और भूल-चूक के लिए राजी होता हो। क्योंकि जब भी नये रास्तों पर कोई चलता है, तो गिरता भी है, भूल-चूक भी करता है, भटकता भी है। यानी मेरा कहना यह है कि भटकने को एक बारगी ही बुरा नहीं मान लेना चाहिए, अगर हमें संभावनाओं को आदर देना हो तो। और जितने मापदंड हमारे पास हों उनको अंतिम नहीं मान लेना चाहिए, अगर हमें संभावनाओं को आदर देना हो तो, और हमें सदा इस बात का बोध होना चाहिए कि जो जाना गया है, जो पाया गया है, वह बहुत थोड़ा है उसके सामने जो जाना जाएगा और जो पाया जाएगा। इसका बोध अगर समाज को हो, तो यह कठिनाई नहीं होगी । भविष्य की प्रतिभा को भी ख्याल में रखना जरूरी है। आप समझते हैं ऐसा हो सकता है? बिल्कुल हो सकता है। क्योंकि जो भी सोचा जा सकता है वह किसी न किसी रूप से हो सकता है। वह सोचा जा सकता है न! तो वह हो भी सकता है। यह दूसरी बात है कि कितना फासला लगे, कितनी कठिनाई हो, कितनी मुश्किल हो। लेकिन अब तो मुझे लगता है कि जो मैं कह रहा हूं वह बहुत शीघ्रता से हो सकता है। क्योंकि सारी दुनिया में जो कुंठा है वह है ही इसलिए कि अधिकतम लोगों को स्वयं होने का मौका नहीं मिल पाता है, और कोई कारण नहीं है। एंग्विश जो है आज की पीढ़ी का, सारे युग का, सारे जगत का, वह जो परेशानी है, बेचैनी है, वह बेचैनी अब भौतिक नहीं है। गरीब मुल्कों को छोड़ दें, वहां की बेचैनी और है। वह बेचैनी अब एकदम भौतिक नहीं है। अब वह बेचैनी बहुत गहरे अर्थों में आत्मिक हो गई है। आत्मिक इस अर्थों में कि हर व्यक्ति अपने व्यक
्तित्व को खोज लेने के लिए आतुर हो गया है। यह आतुरता इतनी तीव्र है कि अगर उसे मौका नहीं मिलता है, तो दुखी होगा, पछताएगा, आत्मघात करेगा, शराब पीएगा, मरेगा, छुरा मारेगा, कुछ करेगा, जहां से, जहां से वह टूटेगा। क्योंकि यह, यह बड़ा महत्व का मामला है कि जो व्यक्ति कुछ सृजन कर सकता है, अगर सृजन न कर पाए तो उसकी सारी शक्ति विध्वंस बनने ही वाली है। क्योंकि शक्ति के दो ही उपाय हैं, या तो वह सृजनात्मक हो जाए या विध्वंस बन जाए। और जब भी सृजन की शक्ति ठहर जाती है तो वह विध्वंस बन जाती है। इसलिए मीडियाकर आदमी कभी विध्वंसक नहीं होता। जिसके पास कोई प्रतिभा जैसी चीज नहीं है बहुत, वह कभी विध्वंसक नहीं होता। क्योंकि विध्वंस के लिए सृजनात्मक शक्ति चाहिए। और जब वह, वह फ्रस्ट्रेट होती है, रुकती है, दबाव पड़ता है टूट पड़ती है, तो फिर वह फोड़ने लगती है, मिटाने लगती है, जो बना सकती थी वह मिटाने लगती है। ऐसी जो स्थिति बन गई है, उस स्थिति को देख कर ऐसा लगता है कि हम उस दबाव के करीब पहुंच रहे हैं जहां कठिनाई व्यक्ति की नहीं रह गई है, जहां कि सामूहिक रूप से व्यक्ति कठिनाई में पड़ गए हैं। व्यक्ति ही कठिनाई में पड़ गया है जहां । तो इस बात की संभावना है कि इस दबाव में, इस चुनौती में, इस मरण के किनारे खड़े होने में, हो सकता है कि हम सारे ढांचे को तोड़ सकें जो कल ने बनाया था। नया ढांचा दे सकें, इसमें कोई बहुत असंभव अब नहीं मालूम होता है। क्या ऐसा नहीं है कि लोग थक जाते हैं एक पर्टिकुलर सिस्टम से? बिल्कुल, बिल्कुल थक जाते हैं। क्योंकि पुराना एस्टाब्लिश्मेंट सुव्यवस्थित था। बहुत डरा हुआ नहीं था, शांति से सोया हुआ था, तैयार था, कोई बात न थी। यह जो क्रांतिकारी इतनी मुश्किल से सत्ता में पहुंचता है और ताकत इसके हाथ
में आती है, इतनी मुश्किल से कि छीने जाने के प्रति इतना सजग और डर जाता है कि यह सब तरह के रास्ते तोड़ देता है, कि कहीं से कुछ गड़बड़ न हो जाए। तो क्रांतिकारी तो हमेशा सत्ता में आने पर क्रांति-विरोधी सिद्ध होता है। और इसलिए मेरा मानना है कि ठीक-ठीक क्रांतिकारी कभी भी एस्टाब्लिश्मेंट में जाने को राजी नहीं होगा, एस्टाब्लिश्मेंट में जाने को राजी नहीं होगा। और यह भी मेरा मानना है कि क्रांति कोई ऐसी घटना नहीं है कि एक तिथि में घटती है, और फिर खत्म हो जाती है। क्रांति एक सतत प्रक्रिया है, कांस्टेंट कंटिन्युटी है। यानी मैं ऐसा नहीं मानता कि उन्नीस सौ सत्रह में फलानी तारीख को क्रांति हो गई रूस में, और फलानी तारीख को चीन में, और फलानी तारीख को हिंदुस्तान में। दो तरह के समाज हैं। और अभी तक का जो समाज है वह असल में स्थितिस्थापक है, एस्टाब्लिश्मेंट वाला ही है। जो क्रांति नहीं चाहता, लेकिन जब इतनी मुश्किल हो जाती है उस व्यवस्था में तो उसी व्यवस्था के भीतर से क्रांति दबाव से निकल आती है, फिर नई व्यवस्था निर्मित हो जाती है। अब तक कोई क्रांतिकारी समाज निर्मित नहीं हुआ । क्रांतिकारी समाज का मतलब यह है कि जिसमें क्रांति की कभी जरूरत न पड़ेगी, क्योंकि क्रांति रोज चलती ही रहेगी। यानी हम किसी भी दिन किसी चीज को एस्टाब्लिश्ड नहीं मान लेंगे, और रोज मौके रहेंगे प्रयोग के, और रोज हम बदलते रहेंगे। और जो हमने कल बनाया था, उसे जिन्होंने बनाया है वह मिटाने की हिम्मत भी रखेंगे। तो ही, तो यह तो बिल्कुल ठीक है, अब तक तो यही होता रहा है और आगे भी यही हो सकता है। लेकिन वह बेमानी है अब । यानी इतना पांच हजार साल का अनुभव यह कहता है कि क्रांतियां सब असफल हुई। कोई क्रांति सफल नहीं हुई। क्योंकि लगा कि सफल होती है, सफल होते ही ऐसा लगा कि सब गड़बड़ हो गया ! वह तो क्रांति खुद ही वही हो गई है, जो उसका दुश्मन था! तो अब तो हमें क्रांति की प्रक्रिया पर फिकर करनी चाहिए क्रांति करने की नहीं! एक क्रांति की सतत गति हो। हम क्रांतिकारी चित्त पैदा करें, ऐसा चित्त जो कहीं एस्टाब्लिश्ड फार्म लेता ही नहीं, व्यक्ति ही नहीं लेता। और अगर ऐसी समाज की स्थिति, मनःस्थिति को हम ढाल सकें, जो रोज बदलती चली जाए नदी की धारा की तरह। ऐसा नहीं है कि नदी की धारा कल बही थी, तो अब बहने का काम न रहा। उसे नदी रहना है तो आज भी बहना है, और नदी रहना है तो कल भी बहना है। नदी रहना है तो बहते ही रहना है, और नहीं तो तालाब हो जाएगी। वह सब नदियां तालाब हो जाती हैं; बहने से बचेंगी, तालाब हो जाती हैं। अब तक की सब क्रांतियां तालाब बन गई, क्योंकि हम क्रांति को एक घटना समझे हैं, हमने समझा है कि ऐसी क्रांति कोई चीज है कि एक दफा कर लो फिर निपट गए। क्रांति ऐसी कोई चीज नहीं है। वह तो ऐसी चीज है कि उसे करते ही रहो, यानी वह जीवन का ढंग ही बन जाए । क्रांति कोई घटना न हो, जीने का ढंग ही हो । हम जीएं ही ऐसे कि वह क्रांति बन जाए। जीने की व्यवस्था ही क्रांत
ि की हो, तब ऊबने का सवाल ही नहीं उठता, तब ऊबने की कोई बात ही नहीं है, क्योंकि हम कहीं स्वीकार करके रुकते नहीं हैं। दूसरी जो बात कहते हैं वह भिन्न है। दूसरी जो बात आप कहते हैं कि ऐसा भी हो सकता है कि व्यक्ति अपने को पा ले, तो उससे ऊब जाए। नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। क्योंकि व्यक्ति पूर्ण रूप से कभी अपने को पा ही नहीं पाता। वह इतना अनंत विस्तार है व्यक्ति का अपने को पाना कि ऐसी घड़ी कभी नहीं आती जब कोई कह दे कि मैंने अपने को पा लिया। और ऐसी घड़ी अगर आती है तो वह आदमी ऊब जाएगा फिर। फिर ऊबना पक्का है उसका, क्योंकि जो चीज पा ली गई है, उससे हम ऊब ही जाते हैं लेकिन मेरी दृष्टि में व्यक्ति के भीतर जो संभावना इतनी अनंत है कि हम थक कर कहने लगते हैं कि हमने पा लिया। असल में हम कभी अपने को नहीं पा पाते। यानी कोई चित्रकार यह नहीं कह सकता कि उसने कोई चित्र बना लिया, बात खत्म हो गई है अब । ऐसा कह ही नहीं सकता वह । रवींद्रनाथ की जिंदगी में तो बहुत, कल्याणजी बड़ी बढ़िया घटना घटी है। मर रहे हैं जिस दिन, बीचबीच में बेहोश हो जाते हैं। फिर आंख खुल जाती है तो बात करने लगते हैं। गीत लिखाने लगते हैं। जिस दिन मरे हैं, उस दिन चार-छह दफे बेहोशी के बाद होश आया है, तो फिर अब उठ नहीं सकते हैं, तो बोल कर गीत लिखाने लगते हैं। मुंह लड़खड़ा रहा है... तो गीत तो किसी ने कहा कि आप छोड़िए फिकर, आपने बहुत गीत लिखा लिए, छह हजार! आपके गीत संगीत में बंध गए हैं। ऐसा अब तक दुनिया में कभी नहीं हुआ है। शैली के भी दो ही हजार हैं गीत जो संगीत में बंध जाएं। वह महाकवि है, तो आप महाकवि से भी महाकवि हैं। अब आप चिंता मत करिए। अब आप शांत रहिए। उन्होंने कहाः लोग क्या कहेंगे कि क्या इस कवि ने अपने को पा लिया? यानी मरने के पहले मर गया
था? न मुझे मरने दो, और मुझे लिखाने दो। यानी यह कवि होना एक प्रोसेस है। यह कोई ऐसी बात थोड़े ही है कि बस हो गया पूरा कि छह हजार लिख लिए। कंटीन्युअस मरने की आखिरी घड़ी तक वे लिखा रहे हैं। और आखिरी घड़ी में जो उन्होंने कुछ वचन लिखाया है, उसमें एक वचन बहुत अदभुत है, वह जो लिखवाया उन्होंने कि लोग कहते हैं कि मैं महागायक हूं। लेकिन हे परमात्मा! उनकी बात मत सुन लेना, क्योंकि वे बिल्कुल गलत कहते हैं। अभी मैं तो साज बिठा पाया था अभी, गाया कहां था? अभी तान-तंबूरा सब ठोंक-पीट कर तैयार कर लिया था, अब गाने को था, अब तेरा बुलावा आ गया। जिस आदमी को ठीक से पकड़ आ गई है व्यक्तित्वको गहरे अनंत में ले जाने की, वह किसी दिन ऐसा नहीं पाएगा, उसको हजार जन्म दो तुम, और हजार जन्मों के बाद भी वह कहेगा कि अभी हुआ क्या? अभी तो यात्रा शुरू हुई है, अभी हम चले हैं, अभी पहुंच कहां गए? जिंदगी में पहुंचना नहीं है, चलना है; सिर्फ मृत्यु में पहुंचना है। इसलिए जिनको पहुंचने का ख्याल पैदा हो जाता है, वे मर जाते हैं उसी वक्त, उसी वक्त मर गए, फिर वे जीते नहीं। फिर ऊब जाएंगे। फिर ऊबना निश्चित है। यानी जीवन से हम कभी भी नहीं ऊबते, हम असल में मरने से ऊबते हैं। और हम खुद अपने हाथ से मर जाते हैं, क्योंकि मरना कनवीनिएंट पाते हैं, मरना बड़ा सरल है। एक आदमी ने दस किताबें लिख लीं, दस गीत गा लिए, बात खत्म हो गई । वह निश्चिंत हो गया, प्रतिष्ठित हो गया, लोगों ने आदर दिया, बात समाप्त हो गई। अब वह बैठ गया है, पहुंच गया। मंजिल पा ली उसने। अब वह मरा। अब वह मर ही गया। यानी यह मुझे ऐसे ही लगता है कि जैसे एक आदमी साइकिल चला रहा है, तो ऐसा नहीं है कि पैडल कोई वक्त पर रोक ले और कहे कि अब बस ठीक है, अब चलना हो चुका, अब चल रहा है। पैडल रोक ले, और साइकिल चल जाए, ऐसा नहीं होने वाला है। वह साइकिल चल रही है पूरे वक्त, क्योंकि पैडल चल रहा है। जिस दिन पैडल रुका, साइकिल रुकी। यानी साइकिल का चलना पैडल के चलने से कुछ अलग चीज नहीं है । तो वह जो जिंदगी की गति है, वह हमारी आत्म-खोज से कोई भिन्न चीज नहीं है। वह चल रही है तो जिंदगी है। नहीं तो हम गए। और बहुत लोग मर जाते हैं। और बहुत लोग जो हम कहें कि कुछ उपलब्ध कर लेते हैं, वह बहुत जल्दी मर जाते हैं। क्योंकि एक उपलब्धि हुई और बात खत्म हो गई। और उनके मरने का भी कारण यह है कि बहुत कम है यह उपलब्धि। जो मैं कह रहा हूं कि अगर इसके अनंत फैलाव हों, और हर व्यक्ति उपलब्ध कर रहा हो, तो कोई इतनी जल्दी ठहरेगा नहीं। कोई नहीं ठहरेगा। लेकिन अभी ठहर जाता है। क्योंकि पीछे लोग दिखाई पड़ते हैं कि आ गए हैं हम एक शिखर पर जहां कोई भी नहीं है। बात ठीक है। यहां तो खत्म हो गया है मामला। तो ऐसा मुझे कभी भी नहीं लगता है कि हम कभी भी अपने को पा लेते हैं। तो प्रतिभा का जहां तक सवाल है, ऐसे व्यक्ति जिनके हमें दर्शन हुए, जैसे गांधी, टैगोर, अरविंदो, इनकी प्रतिभा को आप संपन्न मानते हैं, तो हम लोग आपसे जानना चाहेंगे
उनकी प्रतिभा जो थी देश के लिए, समाज के लिए, व्यक्ति के लिए, उनके खुद के लिए वह प्रतिभा संपन्न थी या नहीं? इसी में दो-तीन बातें पूछ रहे हैं आप । पहली तो बात यह है कि प्रतिभा सदा उस व्यक्ति के लिए ही सार्थक और संपन्न होती है जिसकी है। और दूसरों के लिए सदा बांधने वाली सिद्ध होगी और रोकने वाली सिद्ध होगी। प्रतिभा जो है, वह जिस व्यक्ति के भीतर है, उसके लिए तो समृद्धि और सार्थकता देने वाली होती है। लेकिन दूसरों को सदा बांधने वाली और रोकने वाली सिद्ध होती है। अब तक ऐसा होता रहा है। अब तक ऐसा होता रहा है। जैसे गांधीजी की प्रतिभा गांधीजी के लिए तो एक आनंद है, लेकिन गांधीवादियों के लिए बिल्कुल कारागृह है। उनको बांध गई बुरी तरह, कस गई बुरी तरह। तो मैं जिस प्रतिभा की बात कर रहा हूं, मेरा कहना ही यह है कि ऐसी मनोदशा होनी चाहिए समाज की कि प्रतिभा का आदर हो, स्वागत हो, सम्मान हो, अनुगमन न हो। उसके पीछे कोई न जाए। क्योंकि जब भी प्रतिभाशाली के पीछे आप गए, तो आप अपनी हत्या कर रहे हैं। आप मिटे । आपका व्यक्तित्व गया। आप गए, आप खत्म हो गए। और इसलिए अनुयायी बनना मैं सुसाइडल मानता हूं किसी का भी, बड़े से बड़े का भी। और इसलिए दुनिया में हमेशा जो बड़े लोग होते हैं, जैसा अब तक हुआ है, तो उनके पीछे दस-पच्चीस साल के लिए बड़े अंधेरे का युग आता है। उसका कारण है। वे बड़े लोग इस तरह बुद्धि को कुंठित कर जाते हैं कि दस-पचास साल लग जाते हैं उनसे छूटने में फिर, फिर उनसे बचने में। यानी अब गांधी से बचने में पचास साल लगेंगे इस मुल्क को। जब कहीं झंझट छूटेगी। तब, और मजा यह कि गांधी से छूटने की जरूरत न पड़ती, अगर आप न बंधते तो। यह सवाल गांधी से छूटने का नहीं है, आप बंध गए हैं इसलिए उपद्रव है। गांधी ठीक हैं और वह अदभ
ुत व्यक्ति हैं, बात खत्म हो गई है। अरविंद ठीक हैं और रवींद्रनाथ ठीक हैं और ऐसे हजार लोग होने चाहिए, लाख लोग होने चाहिए। फिर जब हम पूछते हैं यह बात, तो हमारे मन में ख्याल ही यह होता है कि क्या इनका अनुगमन किया जाए? गांधी अगर ठीक हैं तो हम पूछते ही इसलिए हैं कि क्या इनके पीछे चलें? मैं मानता हूं कि कोई भी ठीक हो सकता है, लेकिन पीछे चलना कभी ठीक नहीं है। और ठीक होना व्यक्तिगत, निजी घटना है। आप, पीछे नहीं जाना है आपको। आप पीछे गए कि आप गए, बुरी तरह गए। और अब तक ऐसे ही हुआ है कि बड़ी प्रतिभाओं से हमें फायदा तो कम हुआ है, नुकसान ज्यादा हुआ है। फायदा हो सकता था, अगर हमने उनकी इंडिविजुअल यूनिकनेस को स्वीकार किया होता। हमने कहा होता कि राम राम हैं, बहुत अदभुत हैं। और कृष्ण कृष्ण हैं, बहुत अदभुत हैं। बुद्ध बुद्ध हैं, बहुत अदभुत हैं। और सौभाग्य है कि पृथ्वी पर हुए और हमने उन्हें देखा और जाना। लेकिन हम इस चक्कर में पड़ गए कि हम बुद्ध कैसे हो जाएं। तो हम एक नकली बुद्ध हो सकते हैं ज्यादा से ज्यादा, और कुछ भी नहीं हो सकते हैं। क्योंकि मेरी दृष्टि में कोई दो आदमी न तो एक जैसे हैं और न हो सकते हैं, न कोई संभावना है। कोई मार्ग भी नहीं है। और अगर किसी व्यक्ति ने किसी दूसरे जैसे होने की कोशिश की, तो वह सिर्फ आवरण ओढ़ सकता है। और आत्मा की हत्या करेगा, तभी दूसरे जैसा हो सकता है। और अब तक के सारे महापुरुष दुखदायी सिद्ध हुए; सुखदायी हो सकते थे, हो नहीं पाए। और जहरीले सिद्ध हुए। क्योंकि हमारी पकड़ यह रही कि उनका अनुगमन करो, उनको मान कर चलो, उन जैसे हो जाओ। फिर दूसरी बात यह है कि प्रतिभाशाली जो भी कह देता है, वह प्रतिभाशाली है, इसलिए ठीक नहीं हो जाता है। ठीक होना जरूरी नहीं है। प्रतिभा बिल्कुल गलत हो सकती है, और प्रतिभा हो सकती है। यानी कुछ ऐसा नहीं है जरूरी कि प्रतिभा है किसी के पास, तो उसका ठीक होना भी अनिवार्य है। प्रतिभा पूरी हो सकती है और बिल्कुल गलत हो सकती है। आप मेरा मतलब समझ रहे हैं न? और बहुत प्रतिभाएं गलत हुई हैं। वे प्रतिभाएं तो इतनी हैं कि वह आकर्षित करती हैं, अभिभूत कर लेती हैं। लेकिन वे बिल्कुल गलत हैं। गुरु और शिष्य की जो परंपरा चली है, उस विषय में क्या ख्याल है आपका? बड़ी खतरनाक है परंपरा, बड़ी खतरनाक है। और बहुत नुकसान पहुंचाया है गुरुओं ने। मेरी समझ यह है कि अच्छी दुनिया होगी, तो उसमें गुरु तो नहीं होंगे, शिष्य होंगे। इसको थोड़ा समझ लेना चाहिए। क्योंकि मैं इनको दो हिस्सों में तोड़ देता हूं। गुरु तो नहीं होंगे। क्योंकि ऐसा कोई भी आदमी जिसको गुरु होने का ख्याल है, पागलखाने में भेज देने जैसा आदमी है। जिसको यह ख्याल पैदा हो गया कि मैं गुरु हूं, उसका इलाज करवाना चाहिए, वह न्यूरोटिक है। लेकिन शिष्य दुनिया में होने चाहिए। शिष्य होने का मेरा मतलब है एटीट्यूट ऑफ लर्निंग, वह सभी में होना चाहिए। एक आदमी सीखे, सीखे, सीखे। सीखने की भावना तो... शिष्य का मतलब इतना है कि सीखने क
ा भाव। वह सीखे जितना सीख सके। और मजा यह है कि गुरु सीखने में बाधा डालते हैं। क्योंकि जब भी कोई गुरु बनता है तो वह बांध लेता है। और सब और तरफ से सीखने के रास्ते बंद कर देता है। वह कहता है सीखो यहां और कहीं से नहीं। तो महावीर को जिसने गुरु बना लिया, वह मोहम्मद से नहीं सीख सकता। और मोहम्मद अदभुत आदमी है, उससे बहुत सीखने को है। और जिसने मोहम्मद को पकड़ लिया, वह अब बुद्ध की तरफ आंख नहीं उठाएगा। और ये तो बड़े-बड़े गुरु हैं। छोटे-छोटे गुरु बहुत हैं। वे भी सब रोकते हैं। मेरा कहना यह है कि सीखने की क्षमता और सीखने का भाव प्रत्येक में होना चाहिए, और मरने तक होना चाहिए। यानी जो आदमी जीवन भर शिष्य बना रहे मरते वक्त तक, वह अदभुत आदमी है। लेकिन हमारे यहां कुछ ऐसा है कि आदमी जन्म से गुरु हो जाता है। मरने तक शिष्य रहना बहुत दूर की बात है, जन्म से ही गुरु हो जाता है। शिष्यत्व तो बड़ा ही, बहुत इनोसेंट और बहुत निर्दोष भाव है। वह बहुत अदभुत भाव है। सीखने की तैयारी है। इससे बड़ी सरलता और विनम्रता दूसरी नहीं हो सकती है। एक मुसलमान फकीर था, बायजीद । वह जब मरने के करीब है, तो उसके शिष्यों ने उससे पूछा है, मित्रों ने पूछा है कि आपने कहां से सीखा, कौन था गुरु? तो बायजीद ने कहाः अगर गुरु होता तो बहुत कम सीख पाता। गुरु कोई भी न था, इसलिए बहुत सीखा। जो भी मिला, उसी से सीखा। और ऐसा भी नहीं था कि आदमियों से ही सीखा। दरख्त से सूखा पत्ता गिर रहा था, तो उससे भी सीखा। कल यह पत्ता हरा था और आज सूख कर गिर गया और मैं रास्ते भर सोचता चला आया, उस गिरे हुए पत्ते को देख कर कि गिरना पड़ेगा। हरे कब तक रहोगे, सूखना पड़ेगा। और उस पत्ते को मैंने नमस्कार कर लिया कि आज तू अच्छे वक्त पर गिर गया कि मैं निकलता था। तेरी बड़ी कृ
पा है। नहीं तो यह ख्याल ही नहीं आता कि सूखा पत्ता कल तक हरा था, वह कितनी अकड़ और शान में था, फिर सूख कर गिर गया और उसके सूखने की, गिरने की खबर वृक्ष को हो भी नहीं पाई, खबर भी नहीं हुई, किन्हीं पत्तों ने शोर भी नहीं मचाया कि कहां जाते हो। किसी ने कुछ नहीं कहा, वह चुपचाप गिर गया, जमीन पर पड़ा है। तेरी बड़ी कृपा है कि तू गिर गया जब मैं गुजरता था। क्योंकि समझ में आई है यह बात कि अभी हरे हैं, कल सूख जाएंगे। बायजीद ने कहाः एक बार मैं एक गांव में गया, रात के कोई बारह बज गए। गांव में भटक गया रास्ता, तो गांव में कोई नहीं मिला। एक चोर मिला, वह अपनी चोरी को निकला था। तो मैंने उससे पूछा कि मित्र रास्ता बता सकोगे? मैं कहां जाऊं, कहां ठहरूं? रात अंधेरी है, मुझे ठहरने का कुछ पता नहीं है! उस चोर ने कहाः तुम साधु मालूम पड़ते हो। क्योंकि साधु होना ऊपर से ही दिख जाता है। लेकिन मेरा तुम्हें पता नहीं तुम किससे पूछ रहे हो, मैं चोर हूं, और चोर होना कभी ऊपर से नहीं दिखता, वह तो भीतर होता है। तो तुम मुझे पहचान नहीं पाओगे। लेकिन मैं तुम्हें बता दूं कि मैं चोर हूं। और अगर तुम्हारी मर्जी हो तो तुम मेरे घर ठहर सकते हो। घर खाली है। और मैं रात भर तो बाहर रहूंगा, तुम निश्चिंत होकर ठहर सकते हो। लेकिन बायजीद ने कहा अपने मित्रों से कि मैंने उस दिन पहली दफा जाना कि चोर की इतनी हिम्मत हो सकती है कि कह दे कि मैं चोर हूं। और मैं साधु हूं, लेकिन मैं हिम्मत से कह नहीं सकता कि मैं साधु हूं; क्योंकि भीतर मेरे चोर मौजूद है! और उस आदमी के भीतर साधु जरूर मौजूद था तभी वह कह सका कि मैं चोर हूं, नहीं तो कहना बहुत मुश्किल था। एकदम मुश्किल था। तो मैंने उसके पैर छू लिए। वह कहने लगा, यह आप क्या करते हैं? यह आप क्या करते हैं? मैंने कहा कि मैं तेरे पैर छूता हूं। क्योंकि चोर स्वयं को कहने की हिम्मत सिर्फ साधु में होती है। चल मैं तेरे घर चलता हूं। मैं उसके घर गया। वह मुझे सुला कर चला गया। और पांच बचे के करीब फिर लौटा। नींद खुली तो मैंने पूछा कि कुछ मिला? कुछ लाए? तो वह कहने लगा, आज तो नहीं, लेकिन कल फिर कोशिश करेंगे। फिर आकर वह सो गया। वह दिन भर सोया रहा। दोपहर को उठा तो बड़ा मस्त था, नाचता था, गीत गाता था। तो मैंने उससे कहाः तुझे कुछ मिला नहीं? तो उसने कहाः कल मिल जाएगा? फिर रात गया, मैं महीने भर उसके घर था। और हर बार यह हुआ कि सुबह वह आया और मैंने पूछा, कि कहो कुछ मिला? आज तो नहीं मिला, लेकिन कल फिर कोशिश करेंगे। फिर महीने भर के बाद मैंने छोड़ दिया उसका घर। फिर मैं भगवान की खोज में वर्षों भटकता रहा और बार-बार ऐसा होने लगा कि अब नहीं मिलता, तो छोड़ दो यह ख्याल । तभी उस चोर का ख्याल आ जाता कि वह आदमी रोज लौट कर कहता था कि कल फिर कोशिश करेंगे। तो वह तो साधारण धन चुराने गया था, फिर भी हिम्मत बड़ी थी। हम भगवान को चुराने चले हैं और हिम्मत बड़ी कमजोर है, कैसे काम चलेगा? तो फिर मैं टिका ही रहा, और जब भी हारने लगता मन,
तब फिर उस चोर का ख्याल आ जाता, वह कहता कि कल और कोशिश करेंगे। तो उसी चोर को... उस चोर से जो सीखा था, उसी से मैंने परमात्मा को पाया, नहीं तो पा नहीं सकता था। तो उसने मरते वक्त ऐसी बहुत सी बातें कहीं, तो ऐसे बहुत से गुरु मिले। एक गांव से गुजरता था, एक छोटा सा बच्चा दीया लिए जा रहा था। पूछा उससे, कहां जाते हो दीये को लेकर? उसने कहाः मंदिर में चढ़ाने । तो मैंने उससे कहा, कि तुमने ही जलाया है दीया? उसने कहाः मैंने ही जलाया है। तो मैंने उससे पूछा कि जब तुमने ही जलाया है, तो तुम्हें पता होगा कि रोशनी कहां से आई है? कहां से आई है बता सकते हो? तो उस बच्चे ने नीचे से ऊपर तक मुझे देखा । फूंक मार कर रोशनी बुझा दी और कहा कि अभी आपके सामने चली गई, बता सकते हैं, कहां चली गई है? और आप बता देंगे कि कहां चली गई, तो मैं भी बता दूंगा कि कहां से आई थी। तो मैं सोचता हूं, वहीं चली गई होगी, जहां से आई थी। उस बच्चे ने कहाः वहीं चली गई होगी? तो उस बच्चे के पैर छूने पड़े। और कोई उपाय न था इसके सिवाय। नमस्कार करनी पड़ी कि तू अच्छा मिल गया। हमने तो मजाक की थी, लेकिन मजाक उलटी पड़ गई। मजाक ही की थी बच्चे से लेकिन बहुत उलटी पड़ गई, बहुत भारी पड़ गई। और अज्ञान इस बुरी तरह से दिखाई पड़ा है कि ज्योति का पता नहीं कि कहां से आती है और कहां जाती है ! और बड़े ज्ञान की हम बातें किए जा रहे हैं। उस दिन से मैंने ज्ञान की बातें करना बंद कर दिया। क्या फायदा? जब एक ज्योति का पता नहीं है तो भीतर की ज्योति की बातें कर रहे हैं। कुछ पता नहीं। तो फिर मैं चुप रहने लगा, उस बच्चे ने मुझे चुप करवाया। हजारों किताबें पढ़ी थीं, जिनमें लिखा थाः मौन रहो। नहीं रहा, लेकिन उस बच्चे ने ऐसा चुप करवा दिया। कि कई वर्ष बीत गए, मैं नहीं बोला
। लोग पूछते थे, बोलो। तो मैं लिख देता था कि एक दीये की ज्योति कहां जाती है यह तो बताओ? मतलब क्या है बोलने से? कुछ पता ही नहीं है तो बोलूं क्या? तो इसको मैं कहता हूं, एटीट्यूट ऑफ लर्निंग और डिसाइपलशिप, शिष्यत्व तो गुरु तो बिल्कुल नहीं होने चाहिए दुनिया में, और शिष्य सब होने चाहिए। और अभी हालत यह है कि गुरु सब हैं, और शिष्य खोजना बहुत मुश्किल मामला है। वह मिल ही नहीं सकता। वह मिल ही नहीं सकता। हां, बिल्कुल नहीं मिल सकता है। हमें यह उत्सुकता होती है जानने की कि आप सक्सेस हुए। क्या करते थे, आपकी शुरुआत कैसे हुई, कहां से आपने यह चालू किया? लोगों के ख्यालातों को चैनेलाइज करने का कब से ख्याल हुआ आपको? किस ख्याल से शुरू किया और क्यों शुरू किया? बहुत ही कठिन बात है आप जो पूछते हैं। कठिन कई कारणों से है। एक तो यह कि जिंदगी कुछ ऐसी चीज है कि वह ठीक कहां से शुरू होती है कभी नहीं बताया जा सकता। यानी जहां से शुरू होती है, वे कहते हैं, वह हमेशा माना हुआ बिंदु होता है। और दूसरी कठिनाई यह है कि अपने संबंध में कुछ भी कहना बड़ा मुश्किल मामला है, बहुत कठिन है। हां, इसलिए कठिन है कि दूसरे को तो हम बाहर से देखते हैं तो तस्वीरें अंक जाती हैं। प्रतिबिंब होते हैं हमारे पास। कल ऐसा था, परसों ऐसा था । हम अपने को कभी देखते नहीं। और भीतर अपनी कोई तसवीर नहीं अंकती। वहां तो एक धारा ही होती है, अलग-अलग नहीं होते हैं। तो भी मुश्किल हो जाता है और फिर जब भी हम बताने जाते हैं तो और मुश्किल हो जाता है। क्योंकि जब हम बताने जाते हैं तो कुछ खंडों को ही छू पाते हैं, और बीच के हिस्से गैप रह जाते हैं, और उनमें कई बार जोड़ दिखाई भी नहीं पड़ता। जैसे कि कोई एक सीढ़ियां जा रही हों हजारों, और उसमें से हम दस-पांच सीढ़ियां चुन कर बता दें, बीच की सीढ़ियां गिर जाएं, तो उन सीढ़ियों के बीच कोई तुक, कोई संबंध नहीं दिखाई पड़ता। फिर भी कोशिश की जा सकती है कि क्या। जो पहली से पहली मुझे ख्याल में आती है बात, चारों तरफ एक अदभुत झूठ का बोध होना शुरू हुआ जो पिता कह रहे हैं उसमें, जो मां कह रही है उसमें, जो मित्र कह रहे हैं उसमें, जो शिक्षक कह रहे हैं उसमें, जो मंदिर का पुजारी कह रहा है, जो नेता कह रहा है उसमें। ऐसा लगा कि एक चारों तरफ एक गहरा झूठ सबको घेरे हुए है और यह भी समझ में आना शुरू हुआ कि वह झूठ मुझे भी घेर रहा है। यानी मैं जिस ढंग से देखता हूं, वह झूठ था। क्योंकि भीतर से मैं कुछ और ढंग से देखना चाहता था। और जो बात मैंने कही, वह थी ही नहीं। रास्ते पर एक आदमी मिला और उससे कहा कि नमस्कार! आपको देख कर बड़ी खुशी हुई। भीतर मन हो रहा था, यह आदमी कहां से दिख गया सुबह-सुबह, कहीं दिन खराब न हो जाए। तो यह भी दिखाई पड़ना शुरू हुआ कि वह चारों तरफ का जो झूठ है, वह मुझको भी पकड़े ले रहा है। और अगर जल्दी जागे नहीं, तो शायद वह पकड़ ही लेगा। फिर उससे छूटना बहुत मुश्किल हो जाएगा। वह सब तरफ से घेरे लिए चला जा रहा है। जिससे कोई प
्रेम नहीं है, उससे कह रहे हैं, बहुत प्रेम है। जो मुझे पहला बोध होना शुरू हुआ बहुत छोटी उम्र से, वह यह था कि एक अजीब झूठ चारों तरफ पकड़े हुए है। कि घर में लोग बैठे हुए हैं, वह छोटे बच्चे को बाहर मुझसे कहलवा देते हैं कि वह घर पर नहीं हैं। या मुझे बाहर भेजते हैं देखने कि देख लेना कौन है । अगर फलां आदमी हो तो कहना घर में हैं, और फलां आदमी हो तो कहना घर में नहीं हैं। तो मैं बहुत हैरान हुआ कि यह घर में होना भी फलां-फलां आदमी पर निर्भर होता है या कि यह घर में होना कोई सच्चाई है या यह भी झूठ है, जो कि कोई होता है तो आदमी घर में है कोई नहीं है तो घर में नहीं हैं। मुझे जो पहला स्मरण आता है वह यह कि चारों तरफ सब चीजों में एक अजीब झूठ है। मुझे मंदिर में ले जाया गया है, पत्थर की मूर्ति, मुझे पत्थर की मूर्ति दिखाई पड़ रही है और मेरे घर के लोग कह रहे हैं कि भगवान हैं। वह इतना सरासर झूठ मालूम पड़ रहा है कि बिल्कुल पत्थर की मूर्ति है, इसको मैंने बाजार में बिकते भी देखा है। यह बाजार में से खरीद कर मंदिर में भी लाई जाती है। और भगवान कहीं दिखाई नहीं पड़ रहा है और मेरे घर के लोग हाथ जोड़े हुए खड़े हैं। इनका हाथ जोड़ना एकदम झूठ मालूम पड़ रहा है। सरासर झूठ मालूम पड़ रहा है। जो मुझे पहला ख्याल आता है, जो मुझे बचपन से पकड़ना शुरू हो गया, वह यह कि एक फाल्स सूडो है जो चारों तरफ सबको पकड़े हुए हैं। और जैसे-जैसे मैं बड़ा होने लगा, वैसे-वैसे मुझे दिखाई पड़ने लगा कि सब तरफ एकदम घना झूठ है और अब दो ही उपाय हैं अगर या तो यह झूठ मुझे पकड़ लेगा, और अगर झूठ पकड़ लेता है, तो फिर जीवन में सत्य की खोज का कोई रास्ता नहीं रह जाता। जिंदगी क्या है? उसका पता ही नहीं चलेगा कभी। और पता ही नहीं चलता। लंदन में एक फोटोग्राफ
र था। वह अपने दरवाजे पर एक तख्ती लगाए हुए है। और उसमें उसने दाम लिख रखे हैं, और लिख रखा है कि आप जैसे हैं, अगर वैसी ही फोटो उतरवानी हो, तो पांच रुपये, और जैसे आप दिखाई पड़ना चाहते हैं, अगर वैसी फोटो उतरवानी हो तो दाम दस रुपये। और जैसा आप सोचते हैं कि आप हैं, अगर वैसी फोटो उतरवानी हो तो दाम पंद्रह रुपये । एक आदमी गया उसकी दुकान पर, उसने कहा, बड़ी मुश्किल है। हम तो सोचते हैं फोटो एक ही तरह की होती है। यानी मेरी फोटो एक ही तरह की होगी, तीन तरह की कैसे हो सकती है? और यहां ऐसे लोग भी आते हैं कि यह पिछले पंद्रह और दस रुपये वाली फोटो ही उतरवाते हैं? उस फोटोग्राफर ने कहाः आप पहले आदमी हैं जो पहले नंबर की फोटो उतरवाने का ख्याल कर रहे हैं। यहां अब तक कोई आया ही नहीं, जिसने पहले नंबर की फोटो उतरवाई हो। यह मुझे बोध एकदम से गहरा पकड़ने लगा रोज-रोज, और बड़ी अड़चन हो गई उससे शुरू, बहुत अड़चन हो गई, बहुत परेशानी शुरू हो गई। क्योंकि जहां-जहां वह मुझे दिखाई पड़ने लगा, वहीं मुश्किल शुरू हो गई। घर के बुजुर्गों को कहने लगा, यह क्या मामला है? शिक्षकों को कहने लगा, यह क्या बात है? और तब एक बात मुझे इतनी साफ दिखाई पड़ने लगी कि यह अगर झूठ मुझे पकड़ लेता है, तो जिंदगी खो गई। तो जैसा हूं वैसा ही दिखाई पडूं और जैसा मुझे दिखाई पड़े वैसा ही कहूं। और जैसा मुझे ठीक लगे उसको वैसा ही जीऊं, चाहे उसका कोई भी परिणाम हो। एक बात पक्की है कि मैं झूठ होने को राजी नहीं हूं, मैं जैसा हूं वैसा ही रहूंगा। तो फिर किसी चीज पर विश्वास करना मुश्किल हो गया कि भगवान है, कि आत्मा है, कि पिछला जन्म है, कि कर्म है--किसी भी चीज पर विश्वास करना मुश्किल हो गया। और प्रत्येक चीज पर। क्योंकि सब विश्वास मुझे झूठे मालूम पड़े। असल में विश्वास झूठ का दूसरा नाम है। जो आपको नहीं मालूम होता, नहीं दिखाई पड़ता, उसको मान रहे हैं, तो वह झूठ है। इतना पढ़ा मैंने कि कहीं से कुछ पता चल जाएगा। इतने लोगों के पास गया, इतने लोगों से मिला, इतना भटका कि कहीं से कोई बता सकेगा। लेकिन फिर धीरे-धीरे पता चला कि कोई दूसरा शायद बता भी नहीं सकता। एक बात पक्की मेरे मन में हो गई कि विश्वास नहीं करूंगा। जान लूंगा तो जान लूंगा, नहीं जानूंगा तो अज्ञानी रहूंगा। विश्वास नहीं करूंगा। और इसने तो कुछ ऐसी हालत में पहुंचा दिया था कुछ दिन कि घर के लोग समझते थे मैं पागल हो गया, क्योंकि ऐसी छोटी-छोटी चीजों पर भी मुझे शक होने लगा कि जैसे मेरे पिता हैं तो मैं उनसे पूछने लगा कि इसको मैं कैसे मानूं कि आप मेरे पिता हैं? मुझे क्या पक्का है? मुझे क्या पक्का है? और क्यों मानूं? और जब कोई चीज पर विश्वास न करने की सख्त हिम्मत कर ली, जो अड़चन होनी थी वह स्वाभाविक ही थी, सब तरफ अड़चन हो गई और साथ ही एक भीतर एक वैक्यूम आना शुरू हो गया। जब हम किसी चीज पर विश्वास ही न करें, तो भीतर कौन सी चीज को पकड़ें? किसको पकड़ें? क्या है भीतर? कोई पकड़ने का उपाय नहीं रहा कि कोई सहारा ब
ना लें, कोई विचार पकड़ लें, कोई धर्म पकड़ लें, कोई संप्रदाय पकड़ लें; कुछ मानना है मेरे को, कोई किताब, गीता, कुरान, कोई सहारा बन जाए। तो भीतर एक वैक्यूम आया। वह कोई एक वर्ष मैं बिल्कुल वैक्यूम में ही था । वैक्यूम में, मतलब आप आकर बैठ गए और मुझे पता नहीं कि आप आ गए हैं। आपको देख रहा हूं कि आप आ गए हैं, आप बैठे हैं, आप चले गए। लेकिन कल आप मुझे पूछें कि मैं आया था, तो मुझे पता नहीं। यानी आंखें बिल्कुल ऐसी हो गईं जैसे दर्पण हों--कोई आया और कोई गया । और एक वर्ष तक शायद मैं ज्यादातर पड़ा ही रहा, उठा भी नहीं। क्योंकि ऐसा, जब कोई भी विश्वास न रहा, तो यह भी होने लगा कि घर के लोग कहते हैं कि खाना खा लो, तो मैं कहता, खाया तो ठीक, नहीं खाया तो ठीक; क्योंकि खाना खाने से किसको क्या मिल गया है? कहते कि उम्र कम हो जाएगी, शरीर कमजोर हो जाएगा, मर जाओगे, बीमार पड़ जाओगे। तो मैं उनसे पूछता कि आपको पक्का भरोसा है कि आप खाना खाते रहेंगे, तो मरेंगे नहीं? अगर ऐसा हो तो मैं चल कर खाना खा लूं। आप मुझे ऐसा बता दें कि जो लोग खाना खाते रहे वे नहीं मरे, तो मैं भी खाना खा लेता हूं। और मैं आपसे यह पूछता हूं कि जिंदा रह कर आपको क्या मिल गया है जो मुझे जिंदा रहने की आप सलाह देते हैं? धीरे-धीरे घर के लोगों ने भी छोड़ दी फिकर कि जो करना हो करो, जो न करना हो न करो। और तब उस वैक्यूम में मैं बिल्कुल आटोमेटा जैसा हो गया, यानी मैं उठ कर क्यों जा रहा हूं, कहां, यह मुझे भी ख्याल में न रहा। बस चीजें आटोमेटिक हो गईं। प्यास लगी है, तो जाकर पानी पी लिया है। भूख लगी है, तो जाकर चौके में बैठ गया हूं। नहीं लगी तो दो दिन गुजर गए, चार दिन गुजर गए। स्नान करने गया हूं तो घंटों गुजर गए, दिन गुजर गए, नान ही करता रहा हूं। घर के लोग
ों ने समझा कि पागल हो गया है। मुझे भी बीच-बीच में शक एक ही बस दोहरता था, सब खो गया है तो बस एक ही बात दोहरती थी कभी-कभी दूसरे लोगों की आंखों में देख कर कि शायद मैं पागल हो गया हूं। लेकिन मैंने कहा कि ठीक है, अगर इस खोज में पागल ही हो जाना है, तो पागल हो जाना भी ठीक है। वह शून्य जितना बढ़ता चला गया करीब दो या तीन बार मैं कोई कई दिनों तक कोमा में चला गया बिल्कुल, यानी दो-चार दिन बेहोश ही पड़ा रहा, होश ही नहीं है । एक वर्ष... लेकिन मैंने इससे भागने की कोशिश नहीं की। क्योंकि मैंने सख्त मान यह लिया था कि जो भी हो, मैं जानना ही चाहता हूं, या मर जाऊं या जान लूं। एक वर्ष तक निरंतर इस शून्य में गुजरते-गुजरते एक दिन कोई आधी रात होगी, जैसे मैं एकदम से उठ खड़ा हूं। और कोई तीन दिन से बेहोश था। और जैसे कोई एक्सप्लोजन हो गया भीतर, कोई चीज एकदम से फूट गई, कोई बंद द्वार खुल गया, कोई दीया एकदम से जल जाए और अंधेरे में चीजें दिखाई पड़ने लगें। वह हुआ, उस होने के बाद सब बदल गया। उस होने के बाद मैं एकदम नार्मल हो गया। एकदम चुपचाप, सीधा, नार्मल हो उस दिन के बाद कोई अविश्वास न रहा, कोई विश्वास भी न रहा। दोनों ही चले गए, दोनों ही चले गए। और एक सीधी दृष्टि हो गई। अब मेरे पास कोई पक्का नहीं है मुझे ख्याल कि क्या कहूंगा आप से। आप कोई बात पूछ लेते हैं, तो मुझे दिखाई पड़ने लगता है। और जो मुझे दिखाई पड़ता है वह आपसे कह देता हूं। उसमें मुझे भी पता नहीं कि इस शब्द के बाद दूसरा शब्द क्या आएगा और इसके बाद क्या कहूंगा, यह मुझे कुछ पता नहीं है। और जब कोई नहीं है, तब मैं बिल्कुल खाली हूं। जब कोई आ गया है तो सोच-विचार खत्म ही हो गया। यानी अब बस जब बोल रहा हूं, तभी विचार है। नहीं बोल रहा हूं, तो बिल्कुल, बिल्कुल मौन हूं। लेकिन इतनी अदभुत शांति और ऐसे आनंद का अनुभव हुआ है कि मैंने ईश्वर का अर्थ ही यही कर लिया है, और जीने का एक बिल्कुल ही नया... खाना भी खा रहा हूं तो ऐसा नहीं है कि खाना मुझे कोई छोटा आनंद है। उतना ही आनंद है जितना परमात्मा का है। उसमें फर्क नहीं है। आपसे बात कर रहा हूं, तो आनंद मुझे उतना ही है कि जितना परमात्मा से बात करूं, उसमें मुझे फर्क नहीं है। सो रहा हूं तो उसमें भी आनंद है। अब जो भी कर रहा हूं, यानी अब ऐसा नहीं है कि कोई मेरे लिए धार्मिक कृत्य है और कोई अधार्मिक कृत्य है, और कोई सांसारिक बात है और कोई पारलौकिक बात है। छोटी से छोटी चीज में, और सब चीजों में रस है। ऐसी किसी चीज में मुझे विरस है ही नहीं। वैराग्य जैसी चीज ही नहीं है मुझे किसी चीज में कि मुझे विराग है, किसी चीज से भी, सभी चीजों में। और मैं तो इतना हैरान हुआ हूं कि अब तो मैं वैराग्य की परिभाषा ही यह करने लगा हूं कि राग अगर पूर्ण हो जाए, तो वैराग्य हो जाता है। और स्वाद अगर पूर्ण आ जाए, तो स्वाद से मुक्ति हो जाती है। तो अब तो जो भी चीजें हैं, उसमें कैसा पूरा... उसमें पूरा ही डूब जाता हूं। खाना खा रहा हूं, तो पूरा ही ख
ा रहा हूं, यानी उस वक्त मैं खाना ही खा रहा हूं, उस वक्त कुछ और नहीं कर रहा हूं। सो रहा हूं, तो बस सो ही रहा हूं। कल की कोई बात करता है तो ही मुझे कल का ख्याल आता है; नहीं तो कल जब आएगा जब उसे देख लेंगे। अभी जो है, है। आपके घर ठहरता हूं, तो आप ही मेरे परिवार के हैं। मुझे याद ही नहीं आता किसी और का फिर। और आपका घर छोड़ कर गया, तो फिर मुझे आप याद ही नहीं आते कभी। फिर आऊंगा दुबारा, तो फिर ऐसे लगेगा कि आप ही के साथ था सदा । और बिल्कुल याद आ जाएंगे और पूरे याद आ जाएंगे। किसी को भूलता ही नहीं और किसी को याद भी नहीं करता कभी। यानी एक तो न भूलना ऐसा होता है कि हम किसी को याद करते रहते हैं तो नहीं भूलते। तो कभी किसी को याद ही नहीं करता। तो बस जब वह सामने आ जाता है, तो याद आ जाता है। जब वह चला जाता है, तो उसी के साथ उसकी याद भी चली जाती है। एकदम जैसे एक खाली मकान हो, वैसी हालत हो गई है। लेकिन अदभुत! और न कुछ छोड़ने का मन है, न कुछ पकड़ने की बात है। न किसी के पक्ष में हूं, न किसी के विपक्ष में हूं। और यह भी पक्का नहीं है कि जो आपसे कहता हूं, उसका आग्रह भी नहीं है कि उसे कोई माने। क्योंकि मैंने तो सब मान कर एक दिशा पाई है। इसलिए तो लोगों को कहता रहता हूं कि जहां तक बने, किसी को मानना मत। मुझको भी मत मानना, मानना ही मत। और न मानने में ठहरने की कोशिश करना। और अगर ठहर गए कभी न मानने में, तो वह हो जाएगा जो जानना है। और मानने वाला कभी जानने तक नहीं पहुंचता है। और जिस दिन से यह हुआ है, उस दिन के पहले मैं किसी से बात ही नहीं करता था। यानी आप मुझसे बात करवाना ही मुश्किल था। यानी ऐसा भी हो जाता था कि कोई मित्र आ गया है, और जबरदस्ती मुझे हिला रहा है और वह कहता है कि इस बात का जवाब दो, मैं बैठा उसे
देख रहा हूं, कोई जवाब ही नहीं है। और यह भी नहीं कहूंगा कि मैं नहीं कहता हूं, नहीं कहूंगा। मुझे कोई रुचि भी नहीं थी किसी और में। लेकिन उस विस्फोट के बाद एक और अजीब घटना घटी है, और वह यह कि यह अनुभव होना शुरू हुआ कि आनंद को जितना बांट दो वह उतना बढ़ जाता है। तो अब कोई ऐसा नहीं है कि मैं किसी के माइंड को चैनेलाइज कर रहा हूं। जैसा आप बोलते हैं, किसी के माइंड को चैनेलाइज नहीं कर रहा। मुझे जो लगा है वह कह देता हूं और अपने रास्ते पर चला जाता हूं। फिर उस कहने के पीछे यह भी नहीं है कि आपने उसे माना, पकड़ा, स्वीकार किया। आपसे कोई संबंध ही नहीं बांधता कि कोई मेरा शिष्य हुआ, कि कोई अनुयायी हुआ, कि कोई, कोई मेरा साथी हो गया । ऐसा भी कुछ भी नहीं है बात। और ख्याल ही नहीं है। बस बात इतनी है कि आपने मुझे सुन लिया, मेरी बात सुन ली और मेरे भीतर जो--जैसे कोई बादल भर जाए पानी से, तो बरस कर कोई धरती पर कृपा नहीं करता है, बल्कि धरती कृपा करती है कि बरस जाने देती है। जे. कृष्णमूर्ति के विचार और आपके विचार कहां तक मिल सकते हैं? मिल सकते हैं, बहुत से विचारों से मिल सकते हैं। दुनिया में कोई समझदार आदमी का कभी फालोअर में ख्याल नहीं रहा, कभी नहीं रहा। लेकिन फालोअर सभी को मिल जाते हैं, जे. कृष्णमूर्ति को भी और सबको । विचार मेल खा सकते हैं बहुत से । सच तो यह है, यानी मेरा कहना तो यह है कि अगर मैं कुछ जान रहा हूं, तो यह हो ही नहीं सकता कि वह दूसरे जानने वालों से मेल न खाता हो। यह हो ही नहीं सकता है। अगर मैं जान रहा हूं तो वह मेल खाएगा ही। यह हो सकता है कि युग बदलते हैं, भाषा बदल जाती है, शब्द बदल जाते हैं, कहने के ढंग बदल जाते हैं। और फिर एक-एक व्यक्ति के साथ अपना-अपना माध्यम होता है। अब बुद्ध और महावीर एक ही साथ थे बिहार में, और कई बार ऐसा हुआ, एक ही गांव में ठहरे, और एक बार तो ऐसा हुआ कि एक ही धर्मशाला के आधे हिस्से में बुद्ध ठहरे, आधे में महावीर ठहरे। और दोनों ऐसी उलटी बातें बोलते हुए मालूम पड़ते हैं। लेकिन दोनों बिल्कुल एक ही बात बोल रहे हैं। मुझसे किसी ने पूछा कि जब एक ही गांव में और एक ही धर्मशाला में बुद्ध और महावीर ठहर, तो मिले क्यों नहीं? तो मैंने कहा, मिलने की कोई जरूरत न थी। मिलने की जरूरत वहीं होती है, जहां कुछ भेद होता है। वहां कोई भेद नहीं था, मिलने की कोई जरूरत न थी । शब्द बिल्कुल अलग-अलग हैं और शब्द उलटे भी हैं। महावीर कहते हैं, आत्मा को पा लेना सबसे बड़ा ज्ञान है और बुद्ध कहते हैं आत्मा को मानने से बड़ा अज्ञान नहीं है। ये दोनों एक ही बात कह रहे हैं। उनके कहने का रास्ता बिल्कुल दूसरा है। महावीर कहते हैं, आत्मा को पा लेना सबसे बड़ा ज्ञान है। लेकिन वह कहते हैं कि तुम नहीं हो आत्मा। तुम अहंकार हो, इसको छोड़ दो, इसको जाने दो, तो आत्मा मिल जाएगी। और बुद्ध आत्मा को ही अहंकार कहते हैं, वे कहते हैं, आत्मा को छोड़ दो तो वह मिल जाएगा जो है, और तब कोई दिक्कत नहीं रह जाती है। असल में
दुनिया में जिन्होंने भी कुछ कभी जाना हो, उनके शब्द में रत्ती भर का भी भेद नहीं हो सकता। होने का कोई उपाय नहीं है। अगर भेद दिखता हो तो वह हमको दिखता है, वह हमको दिखता है भेद। क्योंकि हमारे पास सिर्फ शब्द होता है, अनुभूति नहीं होती है। और शब्द में भेद हो सकते हैं। अनुभूति में कोई भेद नहीं है। जब हम कहने जाते हैं तो भेद शुरू हो जाते हैं। लाओत्से ने जिंदगी भर नहीं लिखा कुछ। बहुत लोगों ने कहा कि लिखो। उसने कहाः पहले बहुत लोग लिख चुके हैं, उससे कुछ फायदा हुआ? और अगर उससे फायदा नहीं हुआ, तो मुझसे और क्यों कुछ कागज खराब करवाते हो, तुम रहने दो। मैं नहीं लिखता। अस्सी वर्ष का हो गया तो छोड़ कर जा रहा था चीन को। तो उसके गांव, चुंगी पर रुकवा लिया सम्राट ने चीन के और कहा कि ऐसे नहीं जाने देंगे, वह जो तुम जानते हो लिख जाओ। उसने कहा, मैं लिखे देता हूं, लेकिन जो मैं जानता हूं, पहली तो बात उसको लिख नहीं सकता और दूसरी बात, अगर कोई तरह से कोशिश भी करूं, तो तुम उसको पढ़ कभी नहीं पाओगे। क्योंकि तुम वही पढ़ सकते हो जो तुम जानते हो। उससे ज्यादा तुम कैसे जानोगे? और मुझे एक आदमी नहीं दिखाई पड़ता। उसने कहाः जो मेरी किताब पढ़ कर जान लेगा, तो क्यों मेहनत करवाते हो? लेकिन नहीं माना। तो उसने एक किताब लिखी-ताओ तेह किंग। एक छोटी सी किताब लिखी। इससे छोटी किताब नहीं है दुनिया में; और इससे कीमती किताब भी नहीं है। कीमती इस लिहाज से कि पहला ही वाक्य उसने लिखा, कि मुझे बड़ी दिक्कत में डाल रहे हो, सत्य कहा नहीं जा सकता और मैं कहने जा रहा हूं। और जैसे ही कहा जाता है वैसे ही सब गड़बड़ हो जाता है। वह जो जानना है, वह इतना बड़ा है और शब्द इतना छोटा है कि जैसे कोई सागर को जाने और एक प्याली में भर कर आ जाए घर, तो जो घर ल
े आए और उसे किसी को बताए कि यह सागर रहा तो प्याली में देखे वह सागर को, और जितना जान ले उतना भी शब्द में नहीं जाना जा सकता। लेकिन जो भी जिन्होंने कभी जाना है, वह एक ही है, वह दो हो नहीं सकता। शब्द बदलते रहेंगे, रोज बदलते रहेंगे। गीता में जो है, कुरान में जो है, बाइबिल में, महावीर में, बुद्ध में वह यही है, लेकिन यह हम जानें तो ही ख्याल में आता है नहीं तो नहीं आता। और उसे अगर पाना हो, उसे अगर जानना हो, तो किसी को पकड़ मत लेना-- महावीर को, बुद्ध को या कृष्णमूर्ति को, या मुझे, या किसी को भी। पकड़ा कि खो गया। पकड़े कि बासी चीज पकड़ ली और गए। तो सारी चेष्टा यह नहीं है कि मैं आपको कह कर कुछ समझा दूंगा। कहने की सारी चेष्टा यह है कि शायद थोड़ी सी बेचैनी आप में हो जाए। और एक मूवमेंट शुरू हो जाए, गति हो जाए और कहीं आप चल पड़ें, कोई यात्रा शुरू हो जाए। यह जो आप कहते हैं, चैनेलाइज नहीं कर रहा हूं। यह जो आप बोल रहे हैं, इसका कोई लक्ष्य तो है न ? बिल्कुल नहीं। नहीं देवानंदजी, बिल्कुल नहीं। क्योंकि मेरा मानना यही है कि लक्ष्य सिर्फ दुखी चित्त में होता है। सिर्फ दुखी आदमी के पास लक्ष्य होता है। संसार में चार आदमी अगर अच्छा सोचने लगें, तो यह लक्ष्य ही हो गया? नहीं, नहीं, यह मैं नहीं कह रहा हूं कि अच्छा सोचने लग जाएं, जैसा सोचना चाहिए, तो फिर तो मुझे बताना पड़े कि कैसे सोचना चाहिए। वह मैं नहीं कह रहा हूं। और जैसा लक्ष्य की बात उठाई, तो बहुत अच्छी बात उठाई। क्योंकि आमतौर से हमारा ख्याल यह है कि जो भी हम करते हैं, उसका कोई लक्ष्य होना चाहिए। और मजा यह है कि लक्ष्य भविष्य में होता है, और करना वर्तमान में होता है। और वर्तमान और भविष्य कभी नहीं मिलते। मिलते ही नहीं। लक्ष्य सदा वर्तमान में होता है और करना सदा अभी होता है। इसलिए एक और तरह की जिंदगी भी है कि जहां करना ही लक्ष्य होता है। जैसे कि एक आदमी चला है, कहीं जा रहा है, दिल्ली जा रहा है पैदल चल कर, तो उससे आप पूछते हैं, कहां जा रहे हो? तो वह कहता है कि दिल्ली जा रहा हूं। लक्ष्य है
मनुष्य हजारों वर्षों से इस तरह सोचता रहा है कि आदमी का शरीर अलग है और आदमी की आत्मा अलग है। इस चिंतन के दो खतरनाक परिणाम हुए। एक परिणाम तो यह हुआ कि कुछ लोगों ने आत्मा को ही मनुष्य मान लिया, शरीर की उपेक्षा कर दी। जिन कौमों ने ऐसा किया उन्होंने ध्यान का तो विकास किया, लेकिन औषधि का विकास नहीं किया। वे औषधि का विज्ञान न बना सके। शरीर की उपेक्षा कर दी गई। ठीक इसके विपरीत कुछ कौमों ने आदमी कोशरीर ही मान लिया और उसकी आत्मा को इनकार कर दिया। उन्होंने मेडिसिन और औषधि का तो बहुत विकास किया, लेकिन ध्यान के संबंध में उनकी कोई गति न हो पाई। जब कि आदमी दोनों है एक साथ। कह रहा हूं कि भाषा में थोड़ी भूल हो रही है, जब हम कहते हैं--दोनों है एक साथ, तो ऐसा भ्रम पैदा होता है कि दो चीजें हैं जुड़ी हुई । नहीं, असल में आदमी का शरीर और आदमी की आत्मा एक ही चीज के दो छोर हैं। अगर ठीक से कहें तो हम यह नहीं कह सकते कि बॉडी धन सोल, ऐसा आदमी है। ऐसा नहीं है। आदमी साइकोसोमेटिक है, या सोमेटोसाइकिक है। आदमी मनस-शरीर है, या शरीर-मनस है। मेरी दृष्टि में, आत्मा का जो हिस्सा हमारी इंद्रियों की पकड़ में आ जाता है उसका नाम शरीर है और आत्मा का जो हिस्सा हमारी इंद्रियों की पकड़ के बाहर रह जाता है उसका नाम आत्मा है। अदृश्य शरीर का नाम आत्मा है, दृश्य आत्मा का नाम शरीर है। ये दो चीजें नहीं हैं, ये दो अस्तित्व नहीं हैं, ये एक ही अस्तित्व की दो विभिन्न तरंग-अवस्थाएं हैं। असल में दो, द्वैत, डुआलिटी की धारणा ने मनुष्य-जाति को बड़ी हानि पहुंचाई। सदा हम दो की भाषा में सोचते रहे और मुसीबत हुई। पहले हम सोचते थेः मैटर और एनर्जी। अब हम ऐसा नहीं सोचते। अब हम यह नहीं कहते कि पदार्थ अलग और शक्ति अलग। अब हम कहते हैं, मैटर इ. ज एनर्जी। अब हम कहते हैं, पदार्थ ही शक्ति है। सच तो यह है कि यह पुरानी भाषा हमें दिक्कत दे रही है। पदार्थ ही शक्ति है, ऐसा कहना भी ठीक नहीं है। कुछ है, एक्स, जो एक छोर पर पदार्थ दिखाई पड़ता है और दूसरे छोर पर एनर्जी, शक्ति दिखाई पड़ता है। ये दो नहीं हैं। ये एक ही ऊर्जा, एक ही अस्तित्व के दो छोर हैं। ठीक वैसे ही आदमी का शरीर और उसकी आत्मा एक ही अस्तित्व के दो छोर हैं। बीमारी दोनों छोरों में किसी भी छोर से शुरू हो सकती है। शरीर के छोर से शुरू हो सकती है और आत्मा के छोर तक पहुंच सकती है। असल में जो भी शरीर पर घटित होता है, उसके वाइब्रेशंस, उसकी तरंगें आत्मा तक सुनी जाती हैं। इसलिए कई बार यह होता है कि शरीर से बीमारी ठीक हो जाती है और आदमी फिर भी बीमार बना रह जाता है। शरीर से बीमारी विदा हो जाती है और डाक्टर कहता है कि कोई बीमारी नहीं है और आदमी फिर भी बीमार रह जाता है और बीमार मानने को राजी नहीं होता कि मैं बीमार नहीं हूं। चिकित्सक के जांच के सारे उपाय कह देते हैं कि अब सब ठीक है, लेकिन बीमार कहे चला जाता है कि सब ठीक नहीं है। इस तरह के बीमारों से डाक्टर बहुत परेशान रहते हैं, क्योंकि उनके पा
स जो भी जांच के साधन हैं वे कह देते हैं कि कोई बीमारी नहीं है। लेकिन कोई बीमारी न होने का मतलब स्वस्थ होना नहीं है। स्वास्थ्य की अपनी पाजिटिविटी है। कोई बीमारी का न होना सिर्फ निगेटिव है। हम कह सकते हैं कि कोई कांटा नहीं है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि फूल है। कांटा नहीं है, इससे सिर्फ इतना ही पता चलता है कि कांटा नहीं है। लेकिन फूल का होना कुछ बात और है। लेकिन चिकित्सा-शास्त्र अब तक, स्वास्थ्य क्या है, इस दिशा में कुछ भी काम नहीं कर पाया है। उसका सारा काम इस दिशा में है कि बीमारी क्या है। तो अगर चिकित्सा शास्त्र से हम पूछें-- बीमारी क्या है? तो वह परिभाषा करता है, डेफिनीशन करता है। उससे पूछें कि स्वास्थ्य क्या है? तो वह धोखा देता है। वह कहता है, जब कोई बीमारी नहीं होती तो जोशेष रह जाता है वह स्वास्थ्य है। यह धोखा हुआ, यह परिभाषा नहीं हुई। क्योंकि बीमारी से स्वास्थ्य की परिभाषा कैसे की जा सकती है? यह तो वैसे ही हुआ जैसे कांटों से कोई फूल की परिभाषा करे। यह तो वैसे ही हुआ जैसे कोई मृत्यु से जीवन की परिभाषा करे। यह तो वैसे ही हुआ जैसे कोई अंधेरे से प्रकाश की परिभाषा करे। यह तो वैसे ही हुआ जैसे कोई स्त्री से पुरुष की परिभाषा करे या पुरुष से स्त्री की परिभाषा करे । नहीं, चिकित्सा-शास्त्र अब तक नहीं कह पाया - व्हाट इ. ज हेल्थ ? स्वास्थ्य क्या है? वह इतना ही कह सकता है--व्हाट इ.ज डि.जी. ज? बीमारी क्या है? स्वभावतः, उसका कारण है। उसका कारण यही है कि चिकित्सा-शास्त्र बाहर से पकड़ता है। बाहर से बीमारी ही पकड़ में आती है। वह जो भीतर है मनुष्य का आंतरिक अस्तित्व, वह जो इनरमोस्ट बीइंग, वह जो भीतरी आत्मा, स्वास्थ्य सदा वहीं से पकड़ा जा सकता है। इसलिए हिंदी का "स्वास्थ्य" शब्द बहुत अदभुत
है। अंग्रेजी का "हेल्थ" शब्द "स्वास्थ्य" का पर्यायवाची नहीं है। हेल्थ तो हीलिंग से बना है, उसमें बीमारी जुड़ी है । हेल्थ का तो मतलब है हील्ड-- जो बीमारी से छूट गया। स्वास्थ्य का मतलब यह नहीं है कि जो बीमारी से छूट गया। स्वास्थ्य का मतलब है जो स्वयं में स्थित हो गया--दैट वन हू हैज रीच्ड टु हिमसेल्फ, वह जो अपने भीतर गहरे से गहरे में पहुंच गया। स्वस्थ का मतलब है, स्वयं में जो खड़ा हो गया। इसलिए स्वास्थ्य का मतलब हेल्थ नहीं है । असल में दुनिया की किसी भाषा में स्वास्थ्य के मुकाबले कोई शब्द नहीं है। दुनिया की सभी भाषाओं में जोशब्द हैं वे डि.जी.ज या नो-डि.जी.ज के पर्यायवाची हैं। स्वास्थ्य की धारणा ही हमारे मन में बीमार न होने की है। लेकिन बीमार न होना जरूरी तो है स्वस्थ होने के लिए, पर्याप्त नहीं है; इट इज नेसेसरी बट नॉट इनफ-कुछ और भी चाहिए। वह दूसरे छोर पर वह जो हमारे भीतर हमारा अस्तित्व है, वहां से कुछ हो सकता है। बीमारी बाहर से शुरू हो, तो भी भीतर तक उसकी प्रतिध्वनियां पहुंच जाती हैं। अगर मैं शांत झील में एक पत्थर फेंक दूं, तो जहां पत्थर गिरता है, चोट वहीं पड़ती है, लेकिन तरंगें दूर झील के तटों तक पहुंच जाती हैं, जहां पत्थर कभी नहीं पड़ा। ठीक जब हमारे शरीर पर कोई घटना घटती है, तो तरंगें आत्मा तक पहुंच जाती हैं। और अगर चिकित्सा-शास्त्र सिर्फ शरीर का इलाज कर रहा है, तो उन तरंगों का क्या होगा जो दूर तट पर पहुंच गईं? अगर हमने पत्थर फेंका है झील में और हम उसी जगह पर केंद्रित हैं जहां पत्थर गिरा और पानी में गड्ढा बना, तो उन तरंगों का क्या होगा जो कि पत्थर से मुक्त हो गईं, जिनका अपना अस्तित्व शुरू हो गया? जब एक आदमी बीमार पड़ता है तोशरीर की चिकित्सा के बाद भी बीमारी से पैदा हुई तरंगें उसकी आत्मा तक प्रवेश कर जाती हैं। इसलिए अक्सर बीमारी लौटने की जिद्द करती है। बीमारी की लौटने की जिद्द उन तरंगों से पैदा होती है जो उसकी आत्मा के अस्तित्व तक गूंज जाती हैं और जिनका चिकित्सा-शास्त्र के पास अब तक कोई उपाय नहीं है। इसलिए चिकित्सा शास्त्र बिना ध्यान के सदा ही अधूरा रहेगा। हम बीमारी ठीक कर देंगे, बीमार को ठीक न कर पाएंगे। वैसे डाक्टर के हित में है यह कि बीमार ठीक न हो। बीमारी भर ठीक होती रहे, बीमार लौटता रहे! दूसरा जो छोर है, वहां से भी बीमारी पैदा हो सकती है। सच तो यह है कि मैंने कहा कि वहां बीमारी है ही, जैसा मनुष्य है। जैसा मनुष्य है, वहां एक टेंशन है ही भीतर। जैसा मैंने कहा कि कोई पशु इस तरह डिसईज्ड नहीं है, इस तरह रेस्टलेस नहीं है, इस तरह बेचैन और तनाव में नहीं है। उसका कारण है--कि किसी पशु के मस्तिष्क में बिकमिंग का, होने का कोई ख्याल नहीं है। कुत्ता कुत्ता है। उसे होना नहीं है। आदमी को आदमी होना है, है नहीं। इसलिए हम किसी कुत्ते से यह नहीं कह सकते कि तुम थोड़े कम कुत्ते हो। सब कुत्ते बराबर कुत्ते होते हैं। लेकिन किसी आदमी से संगत रूप से कह सकते हैं कि आप थोड़े कम आदम
ी हैं। आदमी पूरा पैदा नहीं होता। आदमी का जन्म अधूरा है। सब जानवर पूरे पैदा होते हैं। आदमी अधूरा पैदा होता है। कुछ काम है जो उसे करना पड़ेगा, तब वह पूरा हो सकता है। वह जो पूरा न होने की स्थिति है, वह उसकी डि.जी.ज है। इसलिए वह चौबीस घंटे परेशान है। ऐसा नहीं है, आमतौर से हम सोचते हैं कि एक गरीब आदमी परेशान है, क्योंकि गरीबी है। लेकिन हमें पता नहीं है कि अमीर होते ही से परेशानी का तल बदलता है, परेशानी नहीं बदलती। सच तो यह है कि गरीब इतना परेशान कभी होता ही नहीं जितना अमीर परेशान हो जाता है। क्योंकि गरीब को एक तो जस्टीफिकेशन होता है परेशानी का--कि मैं गरीब हूं। अमीर को वह जस्टीफिकेशन भी नहीं रह जाता। अब वह कारण भी नहीं बता सकता कि मैं परेशान क्यों हूं? और जब परेशानी अकारण होती है, तब परेशानी भयंकर हो जाती है। कारण से राहत मिलती है, कंसोलेशन मिलता है, क्योंकि कारण से यह भरोसा होता है कि कल कारण को अलग भी कर सकेंगे। लेकिन जब कोई बीमारी अकारण खड़ी हो जाती है तब कठिनाई शुरू हो जाती है। इसलिए गरीब मुल्कों ने बहुत दुख सहे हैं; जिस दिन वे अमीर होंगे उस दिन उनको पता चलेगा कि अमीर मुल्कों के अपने दुख हैं। हालांकि मैं पसंद करूंगा, गरीब के दुख की बजाय अमीर का दुख ही चुनने योग्य है। जब दुख ही चुनना हो तो अमीर का ही चुनना चाहिए। लेकिन तीव्रता बेचैनी की बढ़ जाएगी। इसलिए आज अमेरिका जितना बेचैन और परेशान है, उतना आज पृथ्वी पर कोई भी नहीं है। हालांकि जितनी सुविधा अमेरिका के पास है, उतनी कभी किसी समाज के पास नहीं थी। असल में अमेरिका में पहली दफे डिसइल्यूजनमेंट हुआ, पहली दफे भ्रम टूट गए। सोचते थे कि कारण के कारण हम परेशान हैं। अमेरिका को पहली दफा पता चलना शुरू हुआ है कि कारण नहीं है। परेशानी कारण की
वजह से नहीं है, आदमी परेशानी है। वह नई परेशानी खोज लेता है। वह जो उसके भीतर एक अस्तित्व है, वह चौबीस घंटे मांग कर रहा है उसकी जो नहीं है। जो है, वह रोज बेकार हो जाता है। जो मिल जाता है, वह बेकार हो जाता है। जो नहीं है, वह आकर्षित करता है। वह जो नहीं है, उसको पाने की निरंतर चेष्टा है। नीत्शे ने कहीं कहा है कि आदमी एक सेतु है, स्ट्रेच्ड बिट्वीन टू इंपासिबिलिटीज। दो असंभावनाओं के बीच में फैला हुआ पुल है। निरंतर असंभव के लिए आतुर, पूरे होने के लिए आतुर । इस पूरे होने की आतुरता से सारे धर्म पैदा हुए। और यह जानना उपयोगी होगा कि एक दिन धर्मगुरु और चिकित्सक पृथ्वी पर एक ही आदमी था। धर्मगुरु ही चिकित्सक था, पुरोहित ही चिकित्सक था। वह जो प्रीस्ट था, वही डाक्टर था। और आश्चर्य न होगा कि कल फिर स्थिति वही हो जाए। थोड़ा सा फर्क होगा। अब जो चिकित्सक होगा वही पुरोहित हो सकता है ! अमेरिका में वह घटना घटनी शुरू हो गई है, क्योंकि पहली दफा यह बात अमेरिका में साफ हो गई है कि सवाल सिर्फ शरीर का नहीं है। बल्कि यह भी साफ होना शुरू हो गया है कि अगर शरीर बिल्कुल स्वस्थ हुआ तो मुसीबतें बहुत बढ़ जाएंगी, क्योंकि पहली दफे भीतर के छोर पर जो रोग हैं, उनका बोध शुरू हो जाएगा। हमारे बोध के भी तो कारण होते हैं। अगर मेरे पैर में कांटा गड़ा होता है तो मुझे पैर का पता चलता है। जब तक कांटा पैर में न हो, पैर का पता नहीं चलता। और जब पैर में कांटा होता है तो मेरी पूरी आत्मा एरोड हो जाती है, तीर बन जाती है पैर की तरफ । वह सिर्फ पैर को ही देखती है, कुछ और नहीं देखती--स्वाभाविक । लेकिन पैर से कांटा निकल जाए, फिर भी आत्मा कुछ तो देखेगी। भूख कम हो जाए, कपड़े ठीक मिल जाएं, मकान व्यवस्थित हो जाए, जो पत्नी चाहिए वह मिल जाए-- हालांकि इससे बड़ा दुख नहीं है दुनिया में। जिनको चाही गई पत्नी मिल जाए, उनके दुख का कोई अंत नहीं है; क्योंकि चाही गई पत्नी न मिले तो कम से कम आशा में एक सुख रहता है; वह भी खो जाता है। मैंने सुना है एक पागलखाने के संबंध में। एक आदमी गया है एक पागलखाने को देखने। सुप्रिनटेंडेंट उसे घुमा रहा है। और एक कठघरे में उसने पूछा कि इस आदमी को क्या हो गया है? उस सुप्रिनटेंडेंट ने--वह एक पागल है, अपने सींकचों में बंद, एक तस्वीर को लिए हुए, उसे हृदय से लगा रहा है, कुछ गीत गा रहा है --तो उस सुप्रिनटेंडेंट ने कहा कि इस आदमी को जिस स्त्री से प्रेम था, वह इसे मिल नहीं पाई, यह पागल हो गया है। फिर दूसरे कठघरे में एक दूसरा आदमी सींकचे तोड़ने की कोशिश कर रहा है, छाती पीट रहा है, बाल नोच रहा है। पूछा कि इस आदमी को क्या हो गया है? तो उस सुप्रिनटेंडेंट ने कहा कि इसको वही स्त्री मिल गई, जो उसको नहीं मिल पाई! यह इसलिए पागल हो गया है। लेकिन जिसको नहीं मिल पाई वह आनंद में था तस्वीर के साथ, इतना फर्क था। जिसको मिल गई वह छाती पीट रहा था और सींकचों से सिर फोड़ रहा था, वह आनंद में नहीं था । धन्यभागी हैं वे प्रेमी, जिनक
ो उनकी प्रेयसियां नहीं मिल पातीं! असल में जो हमें नहीं मिल पाता उसके लिए हम सदा ही आशा बांध कर जी पाते हैं। मिलते ही आशा टूट जाती है और हम खाली हो जाते हैं। जिस दिन चिकित्सक शरीर से आदमी को छुटकारा दिला देगा, उस दिन चिकित्सक को दूसरा काम पूरा करना ही पड़ेगा। जिस दिन हम आदमी को बीमारी से मुक्त करा देंगे, उस दिन हम आदमी को पहली दफे आध्यात्मिक बीमारी को पैदा करने की सिचुएशन, स्थिति देंगे। वह पहली दफे भीतर परेशान होगा और पूछना शुरू करेगा कि अब सब ठीक हो गया, लेकिन कुछ भी ठीक नहीं है! यह बहुत आश्चर्य की बात नहीं है कि हिंदुस्तान के चौबीस तीर्थंकर राजाओं के बेटे हैं; बुद्ध राजा के बेटे हैं; राम, कृष्ण, ये सब शाही परिवारों से आए हैं। इनकी बेचैनी शरीर के तल से समाप्त हो गई है। इनकी बेचैनी भीतर के तल से शुरू हो गई है। मेडिसिन आदमी को ऊपर से उसके शरीर की व्यवस्था और बीमारी से मुक्त करने की चेष्टा है। लेकिन ध्यान रहे, आदमी सब बीमारियों से मुक्त होकर भी आदमी होने की बीमारी से मुक्त नहीं होता। वह जो आदमी होने की बीमारी है, वह असंभव की चाह है। वह जो आदमी होने की बीमारी है, वह किसी भी चीज से तृप्त न होना है। वह जो आदमी होने की बीमारी है, वह सदा जो मिल जाए उसे व्यर्थ कर देना है और जो नहीं मिला उसकी सार्थकता में लग जाना है। वह आदमी होने की बीमारी का इलाज ध्यान है। बीमारियों का इलाज चिकित्सक के पास है, चिकित्सा के पास है, लेकिन बीमारी - वह जो आदमी जिसका नाम है -- उस बीमारी का इलाज ध्यान के पास है। और उस दिन चिकित्सा-शास्त्र पूरा हो सकेगा, जिस दिन हम आदमी के भीतरी छोर को भी समझ लें और उसके साथ भी काम शुरू कर दें। क्योंकि मेरी अपनी समझ ऐसी है कि भीतरी छोर पर वह जो बीमार आदमी बैठा हुआ है, वह हजार
ों तरह की बीमारियां बाहर के छोर पर भी पैदा करता है। जैसा मैंने कहा--शरीर पर बीमारी पैदा हो, तो उसके वाइब्रेशंस, उसकी तरंगें अंतरात्मा तक पहुंच जाती हैं। अगर अंतरात्मा बीमार हो, तो उसकी तरंगें भी शरीर के छोर तक आती हैं। इसीलिए तो दुनिया में हजारों तरह की चिकित्साएं चलती हैं; हजारों तरह की पैथीज हैं दुनिया में। यह हो नहीं सकता। यह होना नहीं चाहिए। अगर पैथोलॉजी एक साइंस है, तो हजारों तरह की नहीं हो सकतीं। लेकिन हजारों तरह की हो सकती हैं, क्योंकि आदमी की बीमारियां हजारों तरह की हैं। कुछ बीमारियों को एलोपैथी फायदा पहुंचा ही नहीं सकती। जो बीमारियां भीतर से बाहर की तरफ आती हैं, उनके लिए एलोपैथी एकदम बेमानी हो जाती है। जो बीमारियां बाहर से भीतर की तरफ जाती हैं, उनके लिए एलोपैथी बड़ी सार्थक हो जाती है। जो बीमारियां भीतर से बाहर की तरफ आती हैं, वे बीमारियां शारीरिक होती ही नहीं, शरीर पर केवल प्रकट होती हैं। उनके होने का तल सदा ही साइकिक या और गहरे में स्प्रिचुअल होता है; या तो मानसिक होता है या आध्यात्मिक होता है। अब जिस आदमी को मानसिक बीमारी है, उसका अर्थ यह हुआ कि उसकोशारीरिक चिकित्सा कोई फायदा नहीं पहुंचा सकेगी। शायद नुकसान पहुंचाए। क्योंकि चिकित्सा कुछ करेगी उस आदमी के साथ। और उसका कुछ करना अगर फायदा नहीं पहुंचाता तो नुकसान पहुंचाएगा। सिर्फ वे ही चिकित्साएं नुकसान नहीं पहुंचातीं जो फायदा भी नहीं पहुंचा सकती हैं। जैसे होमियोपैथी कोई नुकसान नहीं पहुंचा सकती, क्योंकि फायदे का भी कोई डर नहीं है। लेकिन होमियोपैथी से फायदा होता है। पहुंचा नहीं सकती, इसका यह मतलब नहीं कि होमियोपैथी से फायदा नहीं होता है। फायदा होता है। फायदा होना दूसरी घटना है, फायदा पहुंचाना बिल्कुल दूसरी घटना है। ये दो चीजें हैं अलग-अलग। फायदा होता है। फायदा इसलिए होता है कि वह आदमी अगर बीमारी को मनस के तल से पैदा कर रहा है, तो उस बीमारी के लिए फाल्स मेडिसिन की जरूरत है, उसे झूठी औषधि की जरूरत है। उसे सिर्फ भरोसा दिलाने की जरूरत है कि वह ठीक है। वह बीमार नहीं है, सिर्फ बीमार होने के ख्याल में है। उसे भरोसा भर आ जाए। वह राख से भी आ सकता है किसी साधु की, वह गंगा के जल से भी आ सकता है। और अभी तो बहुत प्रयोग चलते हैं, जिसको आप औषधि - आभास, प्लेसिबो कहें, उसके बहुत प्रयोग चलते हैं। अगर दस मरीज एक ही तरह की बीमारी के मरीज हैं, उनमें तीन को एलोपैथी की चिकित्सा दी जाए, तीन को होमियोपैथी की दी जाए, तीन को नेचरोपैथी की दी जाए, बड़े मजे की बात यह है कि सब पैथियां बराबर ठीक करती हैं और बराबर मारती हैं। अनुपात में कोई बहुत फर्क नहीं पड़ता। तब थोड़ा सोचने जैसा मामला हो जाता है कि बात क्या है? मेरी दृष्टि में, एलोपैथी अकेली वैज्ञानिक चिकित्सा है। लेकिन चूंकि आदमी अवैज्ञानिक है, इसलिए वैज्ञानिक चिकित्सा अकेला काम नहीं कर सकती है। एलोपैथी अकेली विज्ञान के ढंग से आदमी के शरीर के साथ व्यवहार करती है। लेकिन आदमी चूंकि भ
ीतर से काल्पनिक भी है, प्रोजेक्टिव भी है, प्रक्षेप भी करता है, इसलिए एलोपैथी पूरा काम नहीं कर पाती। सच तो यह है कि जिस मरीज पर एलोपैथी काम नहीं कर पाती, वह मरीज अवैज्ञानिक ढंग से बीमार है। अवैज्ञानिकढंग से बीमार होने का मतलब क्या है? यह शब्द बड़ा अजीब सा लगेगा! क्योंकि वैज्ञानिक ढंग की चिकित्सा हो सकती है, अवैज्ञानिक ढंग की चिकित्सा हो सकती है। मैं आपसे कह रहा हूं कि वैज्ञानिक ढंग से बीमार होना भी होता है, अवैज्ञानिक ढंग से भी बीमार होना होता है। अन-साइंटिफिक वे ज ऑफ बीइंग इल हैं। असल में जो बीमारी चित्त के तल से शुरू होती है और शरीर पर आती है, वह वैज्ञानिक रूप से हल नहीं हो सकती। अब एक स्त्री को मैं जानता हूं, युवती को, जिसकी आंखें अंधी हो गईं। लेकिन जो अंधापन था वह साइकोलाजिकल ब्लाइंडनेस थी। उसकी आंखें सच में ही अंधी नहीं हो गई थीं। आंख के जानकारों ने कहा कि आंखें बिल्कुल ठीक हैं; लड़की धोखा दे रही है। लेकिन लड़की बिल्कुल धोखा नहीं दे रही थी। क्योंकि आप उसको आग की तरफ छोड़ दें, तो वह आग की तरफ भी चली जाती थी। वह दीवाल से भी टकराती थी और सिर भी फोड़ लेती थी। वह लड़की धोखा नहीं दे रही थी, आंखें उसकी सच में ही अंधी हो गई थीं। लेकिन चिकित्सक की पकड़ के बाहर थी बीमारी। मेरे पास उसे लाए थे। तो मैं उसको समझने की कोशिश किया। पता चला कि किसी से उसका प्रेम है और घरवाले लोगों ने उसके प्रेमी से उसका मिलना-जुलना बंद कर दिया। जब मैं निरंतर उससे थोड़े दो-चार दिन बात किया, तो उसने कहा कि मुझे तो सिवाय उसके किसी को देखने की इच्छा ही नहीं है। यह संकल्प कि सिवाय उसके अब देखना ही नहीं है किसी को, इतनी तीव्रता से अगर मन में उठे कि अब उसके सिवाय देखने का कोई अर्थ ही न रहा, तो आंखें साइकोलाजिकली
ब्लाइंड हो जाएंगी, आंखें अंधी हो जाएंगी, आंखें देखना बंद कर देंगी। यह आंख की एनाटॉमी को देख कर नहीं समझा जा सकेगा; क्योंकि आंख की एनाटॉमी बिल्कुल ही ठीक होगी, आंख का यंत्र बिल्कुल ही ठीक होगा। सिर्फ पीछे से जो ध्यान देने वाला था आंख के, वह सरक गया, उसने हटा लिया अपना हाथ। यह हम रोज अनुभव करते हैं, लेकिन हमारे ख्याल में नहीं है कि हमारे शरीर का यंत्र तभी तक काम करता है जब तक हम पीछे मौजूद होते हैं। अब एक युवक खेल रहा है--हाकी के मैदान पर या फुटबाल के मैदान पर। उसके पैर को चोट लग गई है, खून बह रहा है। उसे कोई पता नहीं है। सबको दिखाई पड़ रहा है देखने वालों को, उसको भर दिखाई नहीं पड़ रहा है। फिर खेल बंद हो गया आधा घंटे बाद । वह पैर पकड़ कर बैठ गया है और चिल्ला रहा है कि मुझे चोट कब लग गई? बहुत दर्द है! यह आधा घंटा हो गया चोट लगे! हुआ क्या? इसके पैर में चोट लगी; इसके पैर का यंत्र बिल्कुल ठीक है, क्योंकि आधा घंटे बाद उसने खबर दी। आधा घंटे पहले खबर क्यों न मिल सकी? इसकी अटेंशन वहां मौजूद नहीं थी; इसकी अटेंशन हट गई थी। इसका ध्यान वहां नहीं था; इसका ध्यान खेल में था। और ध्यान इतना था खेल में कि पैर पर होने लायक कोई ध्यान की मात्रा न बची थी जो पैर में दौड़ जाए। पैर खबर देता रहा होगा। पैर के स्नायुओं ने झटके दिए होंगे। पैर ने खटखटाए होंगे अपने तार। पैर ने अपने एक्सचेंज पर पूरी खबर भेजी होगी। लेकिन वह जो एक्सचेंज पर आदमी था, वह सोया हुआ था, वह गहरी नींद में था, या वह कहीं और मौजूद था। वह एब्सेंट था। वह उपस्थित नहीं था । आधा घंटे बाद जब वह आया वापस, तब पता चल सका कि पैर में चोट है। मैंने उसके घर के लोगों को कहा कि आप एक काम करें। मैं समझता हूं कि जिसे देखने के लिए उसने सोचा था कि उसकी आंखें हैं, अगर उसे आपने नहीं देखने दिया, तो उसने पार्शियल स्युसाइड कर ली है, आंखों की आत्महत्या कर ली है। और कुछ नहीं हो गया है, आंशिक आत्महत्या में गुजर गई है वह लड़की। आप उसके प्रेमी को मिलने दें । उन्होंने कहा, इससे आंख का क्या संबंध है? मैंने कहा, एक कोशिश करके देखें। और जैसे ही उसको खबर की गई कि उसके प्रेमी से मिलने की उसे आज्ञा है। और उसे खबर की गई कि पांच बजे उसका प्रेमी मिलने आएगा। वह दरवाजे के बाहर आकर खड़ी हो गई। उसकी आंख ठीक है! नहीं, यह धोखा नहीं है, डिसेप्शन नहीं है। और अब तो हिप्नोसिस ने इतने प्रयोग किए हैं कि हम समझ सकते हैं कि धोखे का कोई उपाय नहीं है। अगर ठीक से सएमोहित व्यक्ति के हाथ में, गहरे सएमोहन में गए व्यक्ति के हाथ में--यह मैं अपने किए हुए प्रयोग की बात आपसे कर रहा हूं-- अगर साधारण कंकड़ उठा कर रख दिया जाए और कहा जाए कि अंगारा है, तो वह ठीक वैसा ही व्यवहार करेगा जैसा अंगारे के साथ करता है-फेंकेगा, चिल्लाएगा, चीखेगा कि मैं जल गया! यहां तक ठीक है, लेकिन हाथ पर फफोला भी आ जाएगा, तब दिक्कत शुरू होती है। अगर हाथ पर, मन में इस ख्याल से कि अंगारा रख दिया है, फफोला आ सकता
है, तो फिर इस फफोले का इलाज आपकोशरीर से शुरू करना खतरनाक है। इस फफोले का इलाज मन की तरफ से शुरू करना पड़ेगा। आदमी का एक ही छोर हमारे ख्याल में है और इसलिए धीरे-धीरे हमने शरीर की बीमारियां तो कम कर ली हैं और मन की बीमारियां बढ़ती चली गई हैं। अब तो, जो बहुत वैज्ञानिक भाषा में सोचते हैं, वे भी इस बात के लिए राजी हैं कि कम से कम फिफ्टी-फिफ्टी का अनुपात हो गया है-- पचास प्रतिशत बीमारियां मानसिक हैं। हिंदुस्तान में नहीं, क्योंकि मानसिक बीमारी के लिए मन का होना भी जरूरी है। हिंदुस्तान में अभी भी पंचानबे प्रतिशत बीमारियां शारीरिक हैं। लेकिन अमेरिका में अनुपात बढ़ता जा रहा है। मानसिक बीमारी का मतलब यह है कि उसका जन्म होता है भीतर और वह फैलती है बाहर की तरफ। मानसिक बीमारी आउट-गोइंग है और शारीरिक बीमारी इन-गोइंग है। अगर मानसिक बीमारी का आपने शारीरिक इलाज किया तो मानसिक बीमारी दूसरा रास्ता तत्काल खोजेगी। इसलिए मानसिक बीमारी के सिर्फ हम झरने बंद कर सकते हैं-- एक जगह से, दूसरी जगह से, तीसरी जगह से। वे चौथी जगह से निकलेंगे, पांचवीं जगह से निकलेंगे। और जहां भी कमजोर हिस्सा होगा व्यक्तित्व का, वहां से निकलना शुरू हो जाएगा। इसलिए चिकित्सक कई दफे बीमारी ठीक करने में सहयोगी नहीं होता, एक बीमारी को हजार बीमारियां बना देने में सहयोगी हो जाता है। जो एक धारा से निकल सकती है बात, वह अनेक धाराओं में बह कर निकलने लगती है, क्योंकि जगह-जगह हम रुकावट लगा देते हैं। ध्यान मेरे लिए दूसरे छोर की चिकित्सा है। स्वभावतः, औषधि निर्भर करेगी पदार्थ पर, ध्यान निर्भर करेगा चेतना पर। ध्यान की कोई गोली नहीं हो सकती। हालांकि कोशिश चलती है। एल. एसड़ी है, मैस्कलीन है, मारिजुआना है। हजार उपाय चलते हैं। हजार उपाय चलते हैं
कि ध्यान की भी हम कोई गोली बना लें। लेकिन ध्यान की कोई गोली हो नहीं सकती। असल में ध्यान की गोली बनाने की कोशिश वही पुरानी जिद्द है कि हम इलाज बाहर से ही करेंगे। सब इलाज हम बाहर से ही करेंगे। अगर भीतर चित्त भी रुग्ण होगा तो भी इलाज हम बाहर से ही करेंगे; इलाज भीतर से नहीं करेंगे। लेकिन मैस्कलीन हो, एल.एसड़ी. हो, और-और तरह के ड्रग्स हों, जो धोखा दे सकते हैं स्वास्थ्य का, आंतरिक स्वास्थ्य का, लेकिन वे आंतरिक स्वास्थ्य बना नहीं सकते। कोई रासायनिक ढंग से हम मनुष्य के अंतिम छोर पर नहीं पहुंच सकते हैं। जितने हम भीतर जाते हैं, उतनी ही रासायनिक गतिविधि क्षीण होती चली जाती है। जितने हम भीतर जाते हैं मनुष्य के, उतना ही पौदगलिक, फिजिकल, मैटीरियल एप्रोच कम अर्थ की रह जाती है। नॉन-मैटीरियल एप्रोच, कहना चाहिए कि एक साइकिक, मानसिक पहुंच लेकिन अभी तक नहीं हो पाया कुछ प्रिज्युडिसिस के कारण, कुछ पक्षपातों के कारण। और बड़े मजे की बात है कि डाक्टर, दुनिया के दो-तीन मोस्ट आर्थाडॉक्स प्रोफेशंस में से एक है। जो लोग दुनिया में बहुत आर्थाडॉक्स हैं, उनमें प्रोफेसर्स और डाक्टर्स अग्रणीय हैं। ये जल्दी पुरानी धारणाएं नहीं छोड़ते। इसके कारण भी हैं। शायद स्वाभाविक कारण हैं। बड़ा स्वाभाविक कारण तो यह है कि डाक्टर्स और प्रोफेसर्स अगर जल्दी पुरानी धारणाएं छोड़ें, बहुत फ्लेक्सिबल हों, तो प्रोफेसर्स बच्चों को सिखाने में मुश्किल में पड़ जाएंगे। चीजें फिक्स्ड होनी चाहिए, तो वे ठीक से सिखा पाते हैं। तय होनी चाहिए, अनिश्चित नहीं होनी चाहिए; तरल नहीं होनी चाहिए, लिक्विड नहीं होनी चाहिए, ठोस होनी चाहिए; तो उनको सिखाते वक्त कांफिडेंस होता है। और प्रोफेसर्स को जितनी कांफिडेंस की जरूरत होती है उतनी चोर और डाकुओं को भी नहीं होती! उसे आत्मविश्वास होना चाहिए कि वह जो कह रहा है वह बिल्कुल एब्सोल्यूटली ठीक है। और जिसको भी ऐसी प्रोफेशनल जरूरत है कि वह बिल्कुल पूर्णरूप से ठीक है, वह आर्थाडॉक्स हो जाता है। शिक्षक आर्थाडॉक्स हो जाते हैं। उससे भारी नुकसान पहुंचता है। क्योंकि शिक्षा सबसे कम आर्थाडॉक्स होनी चाहिए। नहीं तो विकास में बाधा डालेगी। इसलिए दुनिया में कोई शिक्षक आमतौर से आविष्कारक नहीं होते। सारी यूनिवर्सिटीज में इतने प्रोफेसर्स हैं, लेकिन आविष्कार यूनिवर्सिटी के बाहर लोग करते हैं, भीतर नहीं करते! नोबल प्राइज पाने वाले सत्तर प्रतिशत से ऊपर लोग यूनिवर्सिटीज के बाहर के लोग हैं। दूसरा धंधा जो बहुत ही आर्थाडॉक्स है वह डाक्टर का है। उसका भी प्रोफेशनल कारण है कि उसे बहुत जल्दी निर्णय लेने पड़ते हैं। मरीज अभी मर रहा है! अगर बहुत सोच-विचार करे, तो सोच-विचार तो हो जाएगा, लेकिन मरीज नहीं बचेगा। अगर वह बहुत अन-आर्थाडॉक्स हो और बहुत नये-नये प्रयोग करता हो, तो खतरा है। उसे तत्काल ... तत्काल उत्तर जिसे खोजने हैं, वह हमेशा पुराने ज्ञान पर निर्भर होता है, नये ज्ञान की झंझट में नहीं पड़ता। तत्काल उत्तर, जिसे रेडीमेड उत्त
र चाहिए चौबीस घंटे, उसे हमेशा पुराने ज्ञान पर निर्भर होना पड़ता है। इसलिए मेडिकल साइंस मेडिकल रिसर्च से करीब-करीब तीस साल पीछे चलती है। मेडिकल प्रोफेशन मेडिकल रिसर्च से कम से कम तीस साल पीछे चलता है। और इसलिए बहुत से मरीजों को बेकार मरना पड़ता है और परेशान होना पड़ता है। क्योंकि सच में जो अब नहीं होना चाहिए, वह होता चला जाता है। पर वह प्रोफेशनल दिक्कत है। और इसलिए चिकित्सक की कुछ मान्यताएं जड़बद्ध हैं बहुत गहरे में। उनमें एक मान्यता उसकी औषधि पर भरोसा है आदमी से ज्यादा । रासायनिक तत्वों पर भरोसा है, केमिकल्स पर ज्यादा भरोसा है बजाय चेतना के। कांशसनेस से ज्यादा केमिस्ट्री महत्वपूर्ण है उसे। इसका बड़ा घातक परिणाम हो रहा है। क्योंकि जब तक केमिस्ट्री महत्वपूर्ण है, तब तक कांशसनेस पर प्रयोग नहीं किए जा सकते। इधर कुछ दो-चार प्रयोग की बात मैं करना चाहूंगा, जिनसे ख्याल आ सके। अब जैसे, मां से बच्चा पैदा हो, तो पेनलेस चाइल्ड बर्थ पुरानी समस्या है। पुरानी समस्या है कि मां से बच्चा बिना दर्द के कैसे पैदा हो जाए? हालांकि धर्मगुरु इसके खिलाफ हैं कि बिना दर्द के बच्चा पैदा हो। असल में धर्मगुरु इसके ही खिलाफ हैं कि दुनिया बिना दर्द की हो जाए। क्योंकि दुनिया जिस दिन बिना दर्द की होगी, धर्मगुरु एकदम आउट ऑफ प्रोफेशन हो जाएगा, उसका कोई मतलब नहीं रह जाएगा। दर्द है, दुख है, पीड़ा है, तो पुकार है। शायद भगवान भी एक दिन निग्लेक्टेड हो जाए, अगर दुनिया में दुख न हो। शायद ही कोई जाकर प्रार्थना करे; क्योंकि हम दुख
अपना अंतिम पर्चा खत्म करके जैसे ही नैना परीक्षा-भवन से निकली उसकी सहेलियों ने उसे घेर लिया। "अरे सुन नैना, हम सबने छुट्टियों में गोवा जाने की योजना बनायी है। तू भी हमारे साथ चल रही है।" सबने समवेत स्वर में कहा। उनकी बात सुनकर नैना का चेहरा खिल उठा। लेकिन तभी कुछ याद आते ही उसने उदास स्वर में कहा "नहीं यार, इस बार मैं तुम लोगों के साथ नहीं जा सकती। माँ ने पहले ही छुट्टी की योजना बना ली है।" "इस बार क्या, हर बार तू यही कहती है। जा तू अपनी माँ के साथ ही जा। ज़िन्दगी भर माँ की बिट्टो रानी बनी रह।" सारी सहेलियों ने नाराज होते हुए कहा और वहाँ से चली गयी। उनकी बात सुनकर नैना का मूड खराब हो गया। अपने गुस्से को किसी तरह काबू करते हुए वो घर की तरफ चल पड़ी। "अरे आ गयी बिट्टो रानी? कैसा गया पर्चा?" नैना की माँ सुनीता जी ने नैना को देखते ही पूछा। नैना बिना कोई जवाब दिये अपने कमरे में चली गयी। सुनीता जी घबराकर उसके कमरे में गयी और बोली "क्या बात है नैना? सब ठीक है ना? अगर पर्चा ठीक नहीं हुआ तो कोई बात नहीं। अगली बार और मेहनत कर लेना।" "ऐसा कुछ नहीं है। बस मुझे थोड़ी देर के लिए अकेला छोड़ दो आप।" नैना ने अपना गुस्सा छुपाने की कोशिश करते हुए कहा। नैना की माँ सुनीता जी को हमेशा से ही घूमने का बहुत शौक था। लेकिन ना उनके माता-पिता को इतनी फुर्सत थी कि उन्हें कहीं लेकर जाते और ना अब शादी के बाद उनके पति को ही घूमने में दिलचस्पी थी। वो दिन-रात बस अपने व्यापार में ही डूबे रहते थे। तब सहेलियों के साथ बाहर जाने की बात कल्पना से भी परे हुआ करती थी। नैना सुनीता जी की उनकी एकलौती बेटी थी। जबसे नैना बड़ी हुई, सुनीता जी उसकी छुट्टियों में उसे साथ लेकर घूमने की अपनी इच्छा पूरी करती थी। नैना भी हमेशा छुट्टीयों में नयी-नयी जगह देखने के लिए उत्साहित रहती थी। लेकिन इधर जबसे वो कॉलेज में गयी थी, तबसे सहेलियों को समूह बनाकर घूमने जाता देखकर उसकी भी इच्छा होती थी की वो भी माँ की जगह उनके साथ जाये। लेकिन हर बार सुनीता जी पहले से ही योजना तैयार रखती थी, जिसे मना कर पाने की हिम्मत नैना में नहीं होती थी। आज भी ऐसा ही कुछ हुआ था जिसके कारण नैना का मूड खराब हो गया था और उसे सुनीता जी पर गुस्सा आ रहा था कि वो योजना बनाने से पहले कभी उससे क्यों नहीं पूछती। इसलिए वो उनकी बात का जवाब दिये बिना सीधे अपने कमरे में आ गयी। वो सोच में डूबी ही थी कि तभी फिर सुनीता जी की आवाज़ आयी "लगता है सारे इडली-सांभर आज मुझे अकेले ही खाने होंगे।" इडली-सांभर नैना की कमजोरी थी। वो तुरंत उठी और हाथ-मुँह धोकर खाने की मेज पर आ गयी। खाते-खाते नैना ने पूछा "तो माँ, इस बार हम कहाँ जा रहे हैं?" "इस बार हम गंगोत्री जा रहे हैं। मेरी कबसे इच्छा थी कि माँ गंगा को हिमालय से निकलते हुए देखूँ।" सुनीता जी ने उत्साह से कहा। गंगोत्री जाने की बात सुनकर नैना अजीब सा मुँह बनाते हुए बोली "क्या माँ तुम भी। ये कोई मेरी तीर्थ करने की उम्र है? इसस
े तो अच्छा मैं अपनी सहेलियों के साथ गोवा चली जाऊँ।" "ओह्ह अब समझी की मेरी बिट्टो रानी का मूड क्यों खराब था। तुझे सहेलियों के साथ गोवा जाना है तो कोई बात नहीं। तू जा। हम फिर कभी चले जायेंगे।" सुनीता जी सहजता से बोली। नैना ने उनकी तरफ देखते हुए कहा "नहीं ठीक है, हम गंगोत्री ही चलेंगे। मैं तैयारी कर लेती हूँ।" सुनीता जी मन ही मन सोच रही थी कि अगली छुट्टियों में वो नैना को उसकी सहेलियों के साथ ही भेजेंगी। उधर नैना सोच रही थी कि अगली बार वो सुनीता जी से कह देगी की वो उनकी बेटी है, हमउम्र सहेली नहीं। इसलिए वो भी अपनी सहेलियों के साथ जाये और नैना को भी अपने तरीके से जीने दे। अगली सुबह नैना और सुनीता जी गंगोत्री की तरफ निकल चुकी थी। हवाई-जहाज से देहरादून पहुँचकर उन्होंने वहाँ से गंगोत्री के लिए टैक्सी ली। अपने ठहरने के लिए उन्होंने पहले ही होटल की बुकिंग करवा ली थी। होटल पहुँचते-पहुँचते शाम ढ़ल चुकी थी। इसलिए आज उन दोनों ने थोड़ी देर आराम करने के बाद आस-पास थोड़ा घूमने की योजना बनायी। गंगोत्री का ठंडा-सुहावना मौसम नैना और सुनीता जी दोनों को बहुत रास आ रहा था। अगली सुबह तैयार होकर दोनों माँ-बेटी गंगोत्री मंदिर की तरफ चल पड़ी। नैना तेज कदमों से आगे-आगे चली जा रही थी और सुनीता जी पीछे रह जा रही थी। "ओफ्फ हो माँ, थोड़ा तेज चलो ना। वरना बहुत भीड़ हो जायेगी।" नैना ने झल्लाते हुए कहा। सुनीता जी हँसते हुए बोली "अरे बिट्टो रानी, तेरी और मेरी उम्र का फर्क भी तो देख।" मंदिर पहुँचते-पहुँचते वहाँ दर्शन और पूजा के लिए कतारें लगना शुरू हो चुकी थी। नैना और सुनीता जी भी कतार में खड़ी होकर अपनी बारी की प्रतीक्षा करने लगी। मंदिर में पूजा और दर्शन के बाद वो दोनों गोमुख जो कि माँ गंगा का उद्गम है, उस तरफ
बढ़ चली। हालांकि गोमुख की चढ़ाई कठिन नहीं थी, फिर भी सुनीता जी की साँस थोड़ी फूलने लगी थी। इसलिए वो बीच-बीच में कुछ देर के लिए रुक जा रही थी। नैना एक बार फिर उनकी तरफ देखकर झल्लाई "ओफ्फ हो माँ, जब चला नहीं जा रहा तो यहाँ आयी ही क्यों? पहले ही हमें मंदिर में कितनी देर हो गयी। अब यहाँ भी देर कर रही हो।" "आ रही हूँ बिट्टो रानी। गुस्सा क्यों कर रही है। अभी तो पूरा दिन पड़ा है।" सुनीता जी बोली। अचानक ही नैना के कानों में किसी की हँसी की आवाज़ गूँजी। नैना ने आश्चर्य से आवाज़ की तरफ देखा तो पाया गंगा की लहरों के किनारे एक वृद्धा बैठी थी। उनके कपड़े जीर्ण-शीर्ण थे और चेहरे पर दुखों की लकीरें छायी हुई थी। उनकी हँसी भी आँसुओं से भरी हुई प्रतीत हो रही थी। इसके बावजूद उनके संपूर्ण व्यक्तित्व में कुछ ऐसा आकर्षण था कि नैना बार-बार उनकी तरफ देखने से स्वयं को रोक नहीं पा रही थी। उनकी हँसी का कारण जानने के लिए नैना उनके पास पहुँची और बोली "आप मुझे ही देखकर हँस रही थी ना? क्या मैं इसकी वजह जान सकती हूँ?" "बिल्कुल जान सकती हो। जिस तरह तुम अभी-अभी अपनी माँ पर चिल्ला रही थी उसे देखकर मुझे हँसी आ गयी। तुम कलयुगी इंसानों की तो आदत हो चुकी है अपनी जीवनदायिनी को पीड़ा पहुँचाना, उसके प्रति कृतघ्नता का व्यवहार रखना। तुम कभी नहीं सुधरोगे।" वृद्धा ने सहज भाव से कहा। उनकी बात सुनकर नैना गुस्से से बोली "आप हैं कौन जो इस तरह मुझे जज कर रही हैं? मेरी मर्जी मैं अपनी माँ से चाहे जैसे बात करूँ। ये हमारे आपस का मामला है। आप अपनी हँसी, अपने उपदेश किसी और के लिए बचाकर रखिये।" वृद्धा ने कोई जवाब नहीं दिया। बस मुस्कुराते हुए नैना को देखती रही। सुनीता जी के पहुँचते ही नैना उनके साथ आगे बढ़ गयी। लेकिन बार-बार पीछे मुड़कर उस वृद्धा की तरफ देखने से वो स्वयं को रोक नहीं पा रही थी। गोमुख से वापस लौटते हुए नैना ने देखा वो वृद्धा अब भी वहीं बैठी हुई थी। ना जाने क्या सोचकर नैना उनके पास पहुँची और बोली "आप अभी तक यहीं बैठी हैं? क्या आप अपने परिवार से बिछड़ गयी हैं या रास्ता भूल गयी हैं? कोई मदद चाहिए आपको तो बोलिये। कहीं जाना है तो बताइए मैं पहुँचा दूँगी।" वृद्धा ने एक नज़र नैना को देखा और कहा " हाँ, जाना तो है अब इस पृथ्वी से हमेशा के लिए। लेकिन कोई मेरी मदद नहीं कर सकता। अपनी मदद अब मुझे स्वयं ही करनी है। तुम जाओ। और हो सके तो अपनी माँ पर कभी झल्लाना मत।" नैना उनकी बातों का अर्थ समझने की कोशिश करती हुई सुनीता जी के साथ आगे बढ़ गयी। सारी रात नैना के दिलों-दिमाग में वही वृद्धा और उनकी बातें घूमती रही। उसने दूसरी बातों में अपना ध्यान लगाने की बहुत कोशिश की लेकिन उसे नाकामयाबी ही मिली। आज नींद भी उससे रूठी हुई मालूम हो रही थी। अब वो बस बेसब्री से सुबह होने का इंतज़ार कर रही थी। सूरज की पहली किरण निकलते ही उसने सुनीता जी को जगाया और बोली "माँ, उठो ना प्लीज। जल्दी से तैयार हो जाओ। हमें गोमुख जाना है।" सुनीता
जी अलसाये स्वर में बोली "गोमुख? फिर से? पर क्यों?" "चलो ना माँ प्लीज। मैं वादा करती हूँ धीरे चलने की वजह से मैं तुम पर गुस्सा नहीं करुँगी।" नैना ने आग्रह करते हुए कहा। सुनीता जी बिस्तर से उठते हुए बोली "अच्छा, अच्छा ठीक है, चलो चलते हैं।" थोड़ी ही देर में नैना और सुनीता जी गोमुख के रास्ते पर थे। कल जहाँ नैना को वो वृद्धा मिली थी वहाँ पहुँचकर नैना ने इधर-उधर देखा लेकिन उसे कोई नज़र नहीं आया। निराश होकर वो लौट ही रही थी कि उसके कानों में आवाज़ आयी "मुझे ही ढूँढ़ रही हो क्या? आओ इधर आ जाओ।" नैना ने देखा थोड़ी दूर पर लहरों के बीच बैठी हुई वो वृद्धा अपने मैले हाथ-पैरों को साफ करने का जतन कर रही थी। नैना भी उनके पास एक पत्थर पर बैठ गयी और बोली "माफ कीजियेगा पर आपके शरीर पर इतनी मैल है कि वो आसानी से साफ नहीं होगी। इसमें बहुत वक्त लगेगा।" "हाँ जानती हूँ। फिर भी नाकामयाब कोशिश करती रहती हूँ। क्या करूँ अब अपना मैला शरीर मुझसे बर्दाश्त नहीं होता।" वृद्धा के स्वर में उदासी की झलक थी। उनकी बात सुनकर नैना ने कहा "अगर आप रोज स्नान करती, साफ-सफ़ाई करती तो ये मैल कभी जमता ही नहीं।" "मेरी स्वच्छता जिनकी जिम्मेदारी थी, जब मेरे वो बच्चे अपने कर्त्तव्य से विमुख हो गये तो बुढ़ापे में इस माँ की तो ये दशा होनी ही थी।" वृद्धा ने शून्य में देखते हुए जवाब दिया। "ओह्ह अब मैं समझी। आपके बच्चे आपको नहाने के लिए साबुन नहीं देते। बड़े दुष्ट हैं। आप पुलिस में उनकी शिकायत कीजिये। मैं मदद करूँगी आपकी।" नैना ने दिलासा देने की कोशिश करते हुए कहा। उसकी बात सुनकर वृद्धा मुस्कुराते हुए बोली "तुम बड़ी भोली हो बेटी। लेकिन मैंने कल कहा था ना मेरी मदद मुझे स्वयं ही करनी है।" "ठीक है, आप मेरी मदद मत लीजिये। लेकिन कम से
कम अपना परिचय तो दीजिये। आप कौन हैं? और कल से अभी तक यहाँ अकेली क्यों बैठी हैं? ना जाने आपमें ऐसी क्या बात है कि मैं सारी रात बस आपके बारे में ही सोचती रही। और सुबह होते ही आपसे मिलने आ गयी। और आपने कल कहा था ना कि माँ पर गुस्सा मत करना तो आज मैंने उन पर बिल्कुल गुस्सा नहीं किया। कसम से। आप चाहे तो उनसे पूछ लीजिये।" नैना के स्वर में जिज्ञासा और अधीरता दोनों थी। उसकी बातें सुनकर वृद्धा ने कहा "मेरा परिचय जानना चाहती हो तो मुझे सच्चे मन से एक वचन देना होगा। दोगी? झूठ बोलकर स्वयं को बुद्धिमान समझने की भूल मत करना।" "नहीं-नहीं आप ऐसा मत सोचिये। मैं आपकी हर बात मानूँगी।" नैना ने तुरंत जवाब दिया। वृद्धा के आकर्षण में बंधी नैना स्वयं आश्चर्य में थी कि वो क्यों उनकी हर बात मानना चाहती है। वृद्धा बोली "बस इतना वचन दो की कभी अपनी माँ पर गुस्सा नहीं करोगी। उनके लिए मन में कोई दुर्भावना नहीं रखोगी। सहेली की तरह उनके सुख-दुख को साझा करोगी। उनके बूढ़े-कमजोर कदमों को अपने कदमों की मजबूती दोगी।" "मैं वचन देती हूँ। मैं ऐसा ही करूँगी।" नैना के इतना कहते ही वृद्धा ने उसकी आँखों पर अपनी हथेली रख दी। नैना की आँखें प्रत्यक्ष में बंद थी पर अपने अवचेतन मन के साथ वो उस समय-काल में पहुँच चुकी थी जब उसका जन्म हुआ था और वो नवजात शिशु थी। उसने देखा कभी उसकी माँ रात-रात भर स्वयं जागकर उसे सुला रही है, और अगली सुबह नियत वक्त पर बिना शिकायत के उठकर रोज के अपने काम भी कर रही है। कभी अपनी थकान भूलकर उसके पीछे-पीछे भाग रही है, उसके साथ खेल रही है। तो कभी उसकी मामूली सी तबियत बिगड़ने पर भी परेशान होकर कई रातों तक जाग रही है। कभी उसकी फ़रमाइश पर गर्मी में भी रसोई में लगी है तो कभी उसके चेहरे पर मुस्कान देखने के लिए उसके बचपने में भी उसका साथ दे रही है। मानों उनका सारा अस्तित्व, सारी खुशियाँ, सब कुछ बस नैना में सिमट गया हो। ये सब देखते और महसूस करते हुए जब नैना की बंद आँखों से आँसुओं की धार बहने लगी तब वृद्धा ने अपनी हथेली हटा ली और बोली "कभी गहराई से सोचना, पिता अर्थात पुरुष के पास तो फिर भी उनके सहकर्मियों और मित्रों का सहारा होता है, लेकिन एक स्त्री का जीवन अधिकांशतः अपने परिवार और बच्चों के इर्द-गिर्द ही सिमट कर रह जाता है। उसे ही अपनी दुनिया मानकर अपना सुख-संतोष उसी में खोज लेना एक बहुत बड़ी खूबी है उनकी। तुम याद करके बताओ क्या कभी तुमने अपनी माँ को शिकायत करते देखा कि तुम्हारी देखभाल करने की वजह से वो अपनी सहेलियों के साथ कहीं मौज-मस्ती करने नहीं जा सकी या फिर घर कि जिम्मेदारियों से बंधे-बंधे वो थक गयी हैं और उन्हें तुम सबसे कुछ दिनों का अवकाश चाहिए?" नैना ने बिना कोई जवाब दिये बस खामोशी से एक बार अपनी माँ की तरफ और एक बार उन वृद्धा की तरफ देखा। खामोशी को तोड़ते हुए वृद्धा ही पुनः बोली "मैं जानती हूँ इसका जवाब ना ही है। तुम ही बोलो अब की अगर बड़े होने पर, सक्षम होने पर कुछ पल के लिए अपन
ा व्यक्तिगत स्वार्थ, अपनी पसंद को किनारे रखकर हम अपना थोड़ा सा वक्त अपनी माँ को दे दें, उनके पीछे छूट सके सपनों को उनके साथ मिलकर पूरा करें तो क्या इसमें कोई हर्ज़ है? आखिर वो भी तो अपने बच्चों में ही अपना मित्र, अपनी सखी तलाशती है।" "आप बिल्कुल ठीक कह रही हैं। मैं कितनी मूर्ख हूँ कि मैंने माँ के साथ मिलकर इस ट्रिप को एंजॉय करने की जगह बेवजह अपना भी मूड खराब रखा और उनका भी। और तो और उन पर गुस्सा भी हुई। माँ प्लीज मुझे माफ़ कर दो। अब मैं ऐसा कभी नहीं करूँगी।" सुनीता जी के गले लगते हुए नैना बोली। उन्होंने प्यार से नैना के सर पर हाथ रखते हुए कहा "कोई बात नहीं बिट्टो रानी। सहेलियों के बीच ये सब होता रहता है।" अब वृद्धा से मुखातिब होते हुए नैना ने कहा "आपने मुझे मेरी गलती का अहसास करवाया। इसके लिए मैं हमेशा आपकी आभारी रहूँगी और आपको कभी नहीं भूलूँगी। क्या अब आप मुझे अपनी कहानी बतायेंगी? आपकी इस स्थिति के पीछे क्या भेद है? हो सकता है जिस तरह आपने मेरी मदद की, मैं भी आपकी मदद कर पाऊँ।" "आजकल के बच्चे बड़े ही ज़िद्दी होते हैं। अपनी बात मनवाना उन्हें बखूबी आता है। मैं समझ गयी हूँ बिना मेरे बारे में जाने तुम चैन से नहीं बैठोगी। इसलिए सुनो, मैं गंगा हूँ, वही गंगा, जिसका स्त्रोत देखने तुम यहाँ गंगोत्री आयी हो।" "क्या? गंगा? आप? सचमुच?" नैना विस्मय से उन्हें देख रही थी। नैना की आश्चर्य से भरी हुई आँखों की तरफ देखते हुए वृद्धा बोली "अगर तुम्हें मेरी बात पर भरोसा है तब ही मैं आगे कुछ कहूँगी। वरना जाने दो। तुम अपने रास्ते जाओ, मुझे मेरे हाल पर रहने दो।" "नहीं, नहीं, आप अपनी कहानी सुनाइये। हमें आप पर पूरा यकीन है। हमारे वेद-पुराणों में भी तो कहा गया है कि गंगा महज एक नदी नहीं देवी हैं, और देव
ी-देवता हमारी तरह शरीर धारण करने में सक्षम होते हैं।" नैना ने उन्हें आश्वस्त किया। वृद्धा ने कहा "अच्छा लगा जानकर की किसी ने तो मेरा विश्वास किया। वरना जिसे भी मैं अपना परिचय देती हूँ वो मुझे पागल समझकर हँसता हुआ आगे बढ़ जाता है।" "नहीं-नहीं माँ, हमारे मन में ऐसी कोई बात नहीं है। अपनी दिव्यता का अहसास तो आप मुझे करवा ही चुकी हैं। इसलिए अब मेरी जिज्ञासा और बढ़ती जा रही है।" नैना बोली। "कभी-कभी सोचती हूँ काश, तुम इंसानों ने मुझे देवी की जगह साधारण नदी ही समझा होता तो अपने पाप, अपने जीवन की गंदगी मेरे आँचल में डालकर उसे यूँ बदबूदार, गंदगी का घर ना बनाते। आज मेरी ये जीर्ण-शीर्ण दशा ना होती। मैं वैसी ही स्वच्छ और निर्मल होती जैसी अपने पिता के घर में थी।" और गंगा अतीत की यादों में डूबती चली गयी। ब्रह्मा जी अपने लोक में बैठकर भगवान विष्णु के वामन अवतार की लीला देख रहे थे। पहले दो पगों में महाराज बली से पृथ्वी और स्वर्ग दक्षिणा में लेने के पश्चात अब वो तीसरा पग महाराज बलि के सर पर रख चुके थे। तभी ब्रह्मा जी की नज़र प्रभु के चरणों पर गयी जो धूल-मिट्टी से सन गयी थी। तत्काल ब्रह्मा जी ने अपना वेश बदला और एक सेवक के रूप में महाराज बलि के यज्ञस्थल पर पहुँच गये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने भगवान वामन से कहा "प्रभु, समस्त सृष्टि का कल्याण करने के लिए हम सब आपके आभारी हैं। आपका ये सेवक आपके चरण धोने की आज्ञा चाहता है।" "अवश्य" प्रभु ने अपने चरण आगे बढ़ा दिये। ब्रह्मा जी ने अपने कमंडल के जल से उन्हें धोया और फिर उस जल को वापस अपने कमंडल में भर लिया। कमंडल में पुनः जल भरते ही उनके साथ-साथ वहाँ उपस्थित सभी लोगों के आश्चर्य की सीमा नहीं रही जब उन्होंने देखा कि वो जल पूरी तरह स्वच्छ था। ब्रह्मा जी ने कौतूहल से भगवान वामन की तरफ देखते हुए कहा "हे लीलाधर, ये आपकी कौन सी लीला है?" "स्वयं सृष्टि के सृजनहार मुझसे पूछ रहे हैं?" प्रभु के चेहरे पर मोहिनी मुस्कान खेल रही थी। "अब जब आप मुझे पहचान चुके हैं तो इस अद्भुत जल की भी पहचान बता दीजिये पालनहार।" ब्रह्मा जी अपने स्वरूप में आते हुए बोले। भगवान वामन ने उनके सवाल का जवाब देते हुए कहा "इस जल की उत्पत्ति आपके कमंडल में हुई है, इसलिए समस्त संसार इसे आपकी पुत्री के रूप में जानेगा। हम इनका नाम रखते हैं 'गंगा'।" उनके इतना कहते ही कमंडल के जल से एक मनोहारी युवती प्रकट हुई औऱ भगवान वामन को प्रणाम करते हुए बोली "प्रभु, गंगा का प्रणाम स्वीकार कीजिये। साथ ही आशीर्वाद दीजिये की मैं 'विष्णुपदी' के नाम से भी जानी जाऊँ।" "तथास्तु" कहकर भगवान वामन इस स्वरूप को त्यागकर अपने विष्णु स्वरूप में बैकुंठ के लिए प्रस्थान कर गये। अब गंगा ने ब्रह्मा जी को प्रणाम किया और बोली "पिताजी, मेरे लिए क्या आज्ञा है?" "ब्रह्मलोक चलो पुत्री।" गंगा को साथ लेकर ब्रह्मा जी अपने लोक लौट आये। एक दिन गंगा उद्यान में भ्रमण करती हुई सोच में डूबी हुई थी कि तभी ब्रह्मा जी वहाँ आये और
बोले "क्या बात है? किचिंत हमारी पुत्री किसी चिंता में नज़र आ रही है।" "पिताश्री, मैं सोच रही थी मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है?" गंगा ने अपनी जिज्ञासा सामने रखी। ब्रह्मा जी मुस्कुराये और बोले " इतनी सी बात? देव हो या मनुज, इस सृष्टि में सभी का एक उद्देश्य होता है, तुम्हारा भी होगा, जो मैं तुम्हें सही वक्त आने पर बताऊँगा। तब तक धैर्य धारण करो गंगे।" "जो आज्ञा पिताश्री।" कहकर गंगा ने स्वयं को ध्यानमग्न कर लिया। कपिल मुनि के श्राप से महाराज सगर के साठ-हजार पुत्रों की मृत्यु हो चुकी थी, लेकिन उन्हें मुक्ति नहीं मिली थी। क्रोधित कपिल मुनि से अपने पुत्रों की भूल के लिए क्षमा-याचना करने के पश्चात जब महाराज सगर ने उनसे अपने पुत्रों की मुक्ति का मार्ग पूछा तब कपिल मुनि बोले "राजन, जब स्वर्ग में बहने वाली गंगा नदी इस पृथ्वी पर आयेंगी और तुम्हारे पुत्रों की अस्थियों को स्पर्श करेगी तब ही उनका उद्धार होगा।" ये सुनकर व्यथित महाराज सगर ने अपने पौत्र अंशुमान को अपना राज्यभार सौंपा और स्वयं गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिए तपस्या करने चले गये। महाराज सगर, तत्पश्चात महाराज अंशुमन, फिर उनके पुत्र दिलीप सबने गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिए तपस्या की, लेकिन असफल होकर मृत्यु को प्राप्त हुए। तत्पश्चात महाराज दिलीप के पुत्र महाराज भगीरथ ने प्रण लिया कि वो अपनी कठोर और एकनिष्ठ तपस्या से इस अधूरे कार्य को अवश्य पूर्ण करेंगे। कभी आपका ये उपकार" आख़िरकार भगीरथ की तपस्या से भगवान ब्रह्मा प्रसन्न हुए और गंगा को पृथ्वी पर भेजने के लिए तैयार हो गए। गंगा के जीवन का उद्देश्य अब उनके सामने प्रकट करने का वक्त हो चुका था। ये विचारकर भगवान ब्रह्मा गंगा के पास पहुँचे "पुत्री, उठो, तुम्हारे जीवन का उद्देश्य तुम्हारी प्र
तीक्षा कर रहा है।" "कौन सा उद्देश्य पिताश्री?" गंगा ने पूछा। ब्रह्मा जी ने पृथ्वी की तरफ देखते हुए कहा "महाराज भगीरथ का मनोरथ पूर्ण करने हेतु तुम्हें मृत्युलोक अर्थात पृथ्वी पर जाना है पुत्री, और उनके पूर्वजों का उद्धार करते हुए सृष्टि के अंत तक पृथ्वी पर ही रहकर अपने निर्मल-पवित्र जल से एक माँ की भांति सम्पूर्ण प्राणियों का पालन-पोषण करना है।" "जो आज्ञा पिताश्री। लेकिन क्या पृथ्वी मेरे जल का अथाह वेग संभाल सकेगी?" गंगा के स्वर में चिंता थी। गंगा की बात सुनकर ब्रह्मा जी भी चिंतित हो गये और अपनी आँखें बंद कर ली। कुछ क्षणों के पश्चात जब उनके नेत्र खुले तब उनके होंठो पर मुस्कान खेल रही थी। उन्हें इस तरह मुस्कुराते हुए देखकर देवी गंगा बोली "जान पड़ता है, पिताश्री ने इस समस्या का समाधान ढूँढ़ लिया है।" "हाँ पुत्री, तुमने सही समझा।" ये कहकर ब्रह्मा जी पुनः महाराज भगीरथ के पास चले गये। ब्रह्मा जी को सामने पाकर महाराज भगीरथ ने उन्हें प्रणाम किया और देवी गंगा के पृथ्वी पर अवतरण के बारे में पूछा। ब्रह्मा जी बोले "वत्स, पुत्री गंगा पृथ्वी पर आने के लिए तैयार है। लेकिन ये इतना सरल नहीं होगा। तुम अपनी तपस्या से भगवान शिव को प्रसन्न करो ताकि वो गंगा के अथाह वेग को अपनी जटाओं में संभालकर उसे पृथ्वी पर उतार सकें, वरना गंगा के वेग से ये सारी सृष्टि पाताल में समा जायेगी।" "जो आज्ञा भगवन।" कहकर महाराज भगिरथ पुनः तपस्या में लीन हो गये। और कर सके पूर्ण मनोरथ भगीरथ का" आख़िरकार उनकी तपस्या के फलस्वरूप भगवान शिव ने गंगा को अपने शिश पर स्थान देना स्वीकार कर लिया। साथ ही पर्वतराज हिमालय को आज्ञा दी कि उनकी जटाओं से निकली हुई गंगा को वो अपनी पुत्री के रूप में स्वीकार करके उसके पृथ्वी पर जाने का मार्ग प्रशस्त करें। अपने पिता की आज्ञा लेकर देवी गंगा ब्रह्मलोक से पृथ्वी की तरफ बह चली औऱ भगवान शिव की जटाओं से होते हुए हिमालय पर गोमुख नामक स्थान पर उतरी, जो पृथ्वी पर गंगा का उद्गम-स्थल है, जहाँ पर आगे चलकर गंगोत्री तीर्थ बसा। ये जग जाने पहचान मेरी भी" भगीरथ के पीछे चलती हुई गंगा ने उनके पूर्वजों की अस्थियों को स्पर्श करके उन्हें मोक्ष प्रदान किया। तब से उनका एक नाम भागीरथी भी पड़ा। धीरे-धीरे गंगा के तटों पर अनेक नगर बसे, सभ्यताएँ पनपी। मनुष्यों ने उन्हें पूजनीय देवी का स्थान दिया। गंगा में स्नान करके लोगों ने स्वयं को पापमुक्त करने की प्रथा शुरू की। और साथ ही शुरू हुई गंगा के दूषित होने की कहानी। नगरों के उद्योग-धंधों के अवशिष्टों से लेकर नगर की नालियों का गंदा जल भी गंगा में प्रवाहित किया जाने लगा। अपने घरों का कचरा भी लोग गंगा की गोद में डालने लगे ये सोचकर कि गंगा तो देवी हैं, माँ हैं, सम्पूर्ण अस्वच्छता को अपने आँचल में समेटकर हमें स्वच्छ रखना ही उनका कर्तव्य है। लेकिन माँ के प्रति संतान के भी कुछ कर्तव्य होते हैं इसे कृतघ्न मनुष्य भूल गये। वृद्धा गंगा की आँखों से बहते अश्रु जब उनकी
हथेलियों पर गिरे तब वो अतीत से वर्तमान में अर्थात कलियुग में लौट आयी। "अब शायद तुम मेरी इस जीर्ण-शीर्ण दशा का कारण जान चुकी हो।" उन्होंने नैना की तरफ गहरी नज़रों से देखा। वृद्धा गंगा से उनकी व्यथा-कथा जानकर नैना की आँखों में भी आँसू आ गये थे। उनके आँसुओं को पोंछते हुए देवी गंगा बोली "अब आँसू बहाने से क्या लाभ मेरी बच्ची। तुम इंसानों को जो कर्म करने थे तुम कर चुके। इसके परिणामस्वरूप मैंने तय कर लिया है कि अब मैं इस पृथ्वी पर और अधिक दिनों तक नहीं रहूँगी। मैं अपने पालक पिता पर्वतराज हिमालय से ये प्रार्थना करूँगी की वो मुझे सदा-सर्वदा के लिए मेरे पिताश्री भगवान ब्रह्मा के लोक वापस जाने की आज्ञा प्रदान करें।" "नहीं-नहीं माँ। अपने बच्चों को ऐसा कठोर दंड मत दो। आप चली जायेंगी तो ये मानव सभ्यता, ये सृष्टि ही नष्ट हो जायेगी। हम मनुष्यों का अस्तित्व ही मिट जायेगा।" नैना अधीरता से बोली। "और तुम मनुष्यों ने जो मेरी दुर्दशा की, मेरे स्वच्छ-निर्मल जल को नालियों के जल से भी ज्यादा दूषित कर दिया, की आज मुझे स्वयं अपने अस्तित्व से घृणा होने लगी है, उस दुख का हिसाब कौन देगा? तुम मनुष्यों के ही कृत्यों का परिणाम है ये की कई जीवनदायिनी नदियां सूखकर विलुप्त हो चुकी हैं, अब मुझे भी इसी मार्ग पर चलना होगा। तभी शायद इस सृष्टि के इतिहास में मैं अपना कुछ सम्मान बचा सकूँगी।" देवी गंगा ने अश्रुपूरित नेत्रों से कहा। नैना उनके पैरों पर सर रखते हुए बोली "माँ, आज आपने ना सिर्फ मुझे मेरी माँ के प्रति मेरे कर्तव्यों को समझाया है, वरन आपके और इस प्रकृति के प्रति भी मेरे दायित्वों के संबंध में मुझे सजग किया है। आपकी ये बेटी आपको वचन देती है कि यहाँ से लौटकर वो जी-जान लगाकर आपकी सेवा में जुट जायेगी, लोगों को जा
गरूक करेगी, उन्हें जीवनदायिनी माँ गंगा के प्रति उनका भूला हुआ कर्तव्य याद दिलायेगी, और सबके साथ मिलकर पुनः आपके जल को स्वच्छ और निर्मल बनायेगी। ताकि अगली बार जब हमारी मुलाकात हो तो आप अपनी बेटी को इस जीर्ण-शीर्ण अवस्था में नहीं, अपितु अपने मनोहारी धवल रूप में दर्शन दें। बस मुझे आशीर्वाद दीजिये और मेरा मार्गदर्शन कीजिये माँ।" माँ गंगा ने स्नेह से नैना के सर पर हाथ रखते हुए कहा "यदि तुम्हारा हृदय, तुम्हारा संकल्प सच्चा है तो ईश्वर तुम्हें अवश्य सफलता प्रदान करेंगे मेरी बच्ची।" "माँ मुझे वचन दीजिये की आप हमारी धरती छोड़कर नहीं जायेंगी। आपका आशीर्वाद हमें यूँ ही मिलता रहेगा।" नैना ने एक बार फिर अधीरता से कहा। "जब तक इस माँ की गोद में तुम जैसे बच्चे खेलते रहेंगे, ये माँ कहीं नहीं जायेगी। जाओ अपने उद्देश्य में सफल हो।" माँ गंगा नैना को आशीष देते हुए बोली। नैना ने हाथ जोड़कर उनके चरणों में सर झुकाया। सुनीता जी की आवाज़ से अचानक नैना का ध्यान भंग हुआ "क्या कर रही हो नैना? यहाँ पानी के बीच क्यों बैठी हो? और किसे प्रणाम कर रही हो? मैं कब से देख रही हूँ तुम पता नहीं स्वयं से ही क्या बातें किये जा रही हो। तुम ठीक हो ना बिट्टो रानी?" नैना ने सर उठाकर देखा तो सामने कोई नहीं था। बस अविरल बहती हुई जलधारा थी। "अरे वो वृद्धा, मेरा मतलब माँ गंगा कहाँ गयी? उन्हें ही प्रणाम कर रही थी मैं। आपने भी तो देखा था उन्हें।" नैना ने जवाब दिया। सुनीता जी आश्चर्य से नैना की तरफ देखते हुए बोली "ये क्या बोल रही है तू? कौन वृद्धा? लगता है गोवा ना जा पाने के दुःख में तुझे सदमा लगा है। मेरी ही गलती है। तुझे जबर्दस्ती यहाँ लेकर नहीं आना चाहिए था।" स्वयं को संभालते हुए नैना ने कहा "नहीं-नहीं माँ, आपने बिल्कुल ठीक किया जो मुझे यहाँ लेकर आयी, वरना मैं कभी जान ही नहीं पाती की मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है।" एक बार फिर नैना ने आँखें बंद की और माँ गंगा का ध्यान करते हुए मन ही मन बोली "माँ, एक बार फिर आपका आभार की आपने अपने प्रताप से मेरी सोयी हुई चेतना को जागृत किया।आपके धवल रूप में दर्शन की आकांक्षा लिए आपकी ये बेटी एक बार फिर आपकी गोद में जरूर आयेगी।" अपनी माँ के प्रति सारे पूर्वाग्रहों और शिकायतों को हमेशा के लिए पीछे छोड़कर गंगोत्री से वापस लौटती हुई नैना अपने साथ ले जा रही थी युगों-युगों से मनुष्यों को पापमुक्त करके सदा उनका कल्याण करने वाली माँ गंगा को उनका पुरातन स्वरूप लौटाने की कोशिश करके उन्हें इस धरती से विलुप्त होने से रोकने का एक दृढ़-संकल्प। गोमुख के मुहाने पर खड़ी माँ गंगा भी अपनी इस पुत्री को आशीर्वाद देते हुए ईश्वर से उसकी सफलता की प्रार्थना में लीन हो चुकी थी। नहीं है इस पृथ्वी का आने वाला कल"
कन्धे पर धारण किया है। दाऊ, जब आपका कार्य पूरा होगा, आप भी हल को कन्धे से उतारकर रख देंगे; फिर भी वह सदैव आपके नाम से चिपका रहेगा- भविष्य में जग आपको 'हलधर' के नाम से ही जानेगा। "यदि आप क्षत्रियत्व के बारे में कहना चाहते हैं, तो क्षत्रियत्व जन्म पर नहीं पराक्रम पर निर्भर करता है। मुझे लगता है, इसीलिए भगवान ने हमें संकेतात्मक आशीर्वाद दिया है। इसीलिए अपना उपहार उन्होंने मेरे लिए सँभालकर रखा है। " "ठीक कहा तुमने! मैं जानता था कि तुम अचूक रूप से यही कहोगे । हे श्रीकृष्ण-बलराम, मैं तुम्हें मनःपूर्वक आशीर्वाद देता हूँ- 'कृष्ण-राम की जय होऽ... जय होऽऽ!" दायीं ओर से मुझे और बायीं ओर से दाऊ को वक्ष से लगाते हुए भृगुश्रेष्ठ ने प्रेमपूर्वक हम दोनों के कन्धे थपथपाये। कितनी आश्वासक ऊष्मा थी उनके स्पर्श में! वेण्णा- तट पर भृगु-आश्रम में दो दिन आस्थापूर्ण आतिथ्य स्वीकार कर हम गोमन्त पर्वत की ओर चल पड़े। कृष्णा नदी पार कर कोयना-घाटी से हम शूर्पारक के भृगु-आश्रम के पास आ गये। उसे देखते हुए हम गोमन्तक राज्य की सीमा पर गोमन्त पर्वत की पादभूमि में पहुँत गये। गोमन्त ! हमारे आज तक लाँघे सभी पर्वतों में अधिक घने अरण्योंवाला था यह पर्वत ! खड़ी रेखा में दूर-दूर तक फैला हुआ - ऊँचा और दुर्लंघ्य । इसकी पादभूमि में कई योजनों तक ऊँचे, घने और मोटे पर्गोंवाले सागवान - वृक्षों के सघन वन फैले हुए थे। उनके पीछे क्रमशः ऊँचे-ऊँचे होते गये, दूर तक फैले इस पर्वत पर जामुन, आम, ऐन, खैर, अंजन, सीसम, कांचन आदि वृक्षों के घने वन फैले हुए थे। मात्र पर्वत के शिखर पर समतल भूमि दिख रही थी। वह भाग भी घनी हरियाली और विरल पेड़-पौधों से भरपूर था। वहाँ से पश्चिम में कदम्ब वंश के गोमन्तक राज्य का कुछ भाग स्पष्ट दिखाई देता था। इस समतल भूमि पर एक ऊँचा, विशाल, सीसम वर्ण का शिलाखण्ड था । उस पर खड़े होकर देखने से गोमन्तक के उस ओर फैले पश्चिम सागर की लपलपाती जलरेखा, अस्त होते सूर्यकिरणों में चमकती हुई धुँधली सी दिखाई पड़ती थी। मैं और दाऊ अपने विशिष्ट साथियों सहित गोमन्त के घने अरण्य में घुस गये। सन्ध्या समय तक हम पर्वत शिखर पर पहुँच गये। वहाँ पहुँचते ही हमारे सैनिकों ने परशु, कुल्हाड़ी, हँसिया चलाकर लकड़ियाँ इकट्ठा कीं और पर्वत शिखर की समतल भूमि पर टिकाऊ पर्णकुटियाँ खड़ी कर दीं। उस दिन उस ऊँचे शिलाखण्ड पर चढ़कर, आँखों पर हाथ की छाया करते हुए मैंने सुदूर दिखती पश्चिम सागर की रुपहली जलरेखा को आँख भरकर देखा। निकट ही खड़े दाऊ से मैंने कहा, "मेरी समझ में नहीं आता दाऊ, जब हम गोकुल में थे, मुझे सदैव यमुना का आकर्षण रहता था । शंखासुर के निमित्त जब से मैंने इस पश्चिम सागर को देखा है, तब से मेरे भीतर इसके प्रति इतना आकर्षण क्यों हुआ है ?" एक बार सुदूर दिखती जलरेखा की ओर, और एक बार मेरी आँखों की ओर देखते हुए दाऊ ने कहा, "तुम्हें लहराते जल के सागर का आकर्षण है और हम जैसों को तुम्हारी पानीदार आँखों का! कहाँ मथुरा और कहाँ यह गो
मन्त पर्वत? छोटे, कहाँ-से-कहाँ आ गये हैं हम?" देर तक हम उस शिलाखण्ड पर सुख-दुःख की बातें करते रहे। मेरी अन्वेषक दृष्टि सन्धिप्रकाश में गोमन्त पर्वत के परिसर पर घूमती रही। गुप्तचरों से प्राप्त दक्षिण देश की जानकारी मैं दाऊ को देने लगा। पूर्व की ओर अँगुली से निर्देश करते हुए मैंने कहा, "सामने जो दिख रहा है, वह है वनवासी राज्य । उसके नीचे दक्षिण में पाण्ड्य और मलय राज्य हैं। जहाँ यह आर्यभूमि समाप्त होती है, वहाँ कुमारी नाम का भूशिर है। दाहिनी ओर से आता पश्चिम सागर, पूर्व से आता पूर्व सागर और इन दोनों से बड़ा, इनसे आड़ा मिलनेवाला दक्षिण सागर भी है । " पशु-पक्षियों से भरे, नयनाभिराम गोमन्त पर हमारे दिन आनन्द से व्यतीत होने लगे। मैंने और दाऊ ने एक सप्ताह भर घूम-घूमकर जितना देख सकते थे, गोमन्त पर्वत को देख लिया। पर्वत से नीचे उतरने के लिए जहाँ-जहाँ स्थान था, उन ढलानों को भी हमने देखा - ध्यान में रखा । यहाँ के विविध रसपूर्ण फलों, खनिजयुक्त जल और शीतल, मन्द पश्चिम पवन के कारण मुझे और दाऊ को तो इस पर्वत से प्रेम ही हो गया ! आनन्द-भरे वे दिन पर्वत पर कब उदित होते थे और कब अस्त होते थे, पता ही नहीं चलता था हमें ! हमारे अग्रदूतों के दिये सन्देश के अनुसार, जैसे-जैसे माहिष्मती, पद्मावत, वनवासी और हरित- इन यादव-राज्यों से सशस्त्र चतुरंग दल सेनाएँ गोमन्त पर्वत पर आने लगीं, हमारा आनन्द बढ़ता ही गया । महारथी, आजानुबाहु, सेनापति सात्यकि जब सेना सहित हमसे आ मिला, तब तो उसकी पराकाष्ठा हो गयी! गोमन्त पर्वत पर अब जहाँ भी अवकाश मिला, यादव - सेना का पड़ाव डाला गया। पर्वत की पादभूमि से शिखर के समतल मंच तक, हमारे सशस्त्र दूत पूरे गोमन्त पर्वत की सभी गतिविधियों की सूक्ष्म सूचनाएँ हमें देने लगे। पर्वत को
अब तक एक विशाल सैन्य-शिविर का रूप प्राप्त हो गया था। दण्डकारण्य पार करते हुए, भृगुश्रेष्ठ परशुराम से मिलकर जब से हम गोमन्त पर्वत पर आये हैं, तब से ही मेरे मन के वन में आशंका के काक-पक्षी की काँव-काँव निरन्तर सुनाई देने लगी है- 'यहाँ कुछ-न-कुछ अवश्य घटित होनेवाला है! अगली पीढ़ियों को सदैव स्मरण रखने योग्य जैसा कोई नाटक यहाँ अवश्य रंग लाएगा!...' रह-रहकर मेरी आँखों के आगे आ रही है एक आकृति! मेरी प्रिय मथुरा को लगातार सशस्त्र आक्रमणों द्वारा निर्दयता से कुचल डालनेवाले मदान्ध जरासन्ध की आकृति है वह। उसके पीछेपीछे उसके अधीन शिशुपाल जैसे उसके हितकर्ता मित्रों की आकृतियाँ। प्रतिदिन पर्वत शिखर मंच के शिलाखण्ड पर चढ़कर अस्त होती सूर्य-किरणों में चमकती सागर की रुपहली जलरेखा को देखते हुए मेरा मन एक ही ताल बजाने लगा है- 'जरासन्ध... जरासन्ध ! वह रुकनेवाला नहीं है, दण्डकारण्य पार करके वह अवश्य हम पर टूट पड़ेगा।' वैसा ही हुआ! हमें यहाँ आये एक महीना हो रहा था कि एक दिन उदित होते सूर्य-बिम्ब के साथ ही पर्वत की पादभूमि से उठी दुन्दुभि, नगाड़ों, रणभेरियों की सम्मिश्र तुमुल ध्वनि गोमन्त के घने अरण्यों से आ टकरायी । चढ़ते सूर्य के साथ वह रण-कोलाहल भी चढ़ता गया। कई रणवाद्यों की गगनभेदी ध्वनि के कारण सदैव आनन्द से चहचहाते पक्षियों में से कुछ भयभीत होकर और भी जोर से चहचहाते हुए उड़कर कहीं दूर चले गये। कुछ भय के मारे अपने-अपने नीड़ों में सिमटकर बैठ गये। मैं, दाऊ, सात्यकि, दक्षिण देश के अन्य यादव-राज्यों के सेनापति- हम सभी उस ऊँचे विशाल शिलाखण्ड पर चढ़ गये । वक्ष पर धारण किये लौहत्राण के ऊपर झूलती वैजयन्तीमाला पर हाथ फिराता हुआ मैं पर्वत की पादभूमि का निरीक्षण करने लगा। वहाँ चतुरंगदल मागध-सेना का सागर लहरा रहा था, कोलाहल कर रहा था । सर्वत्र मागधों के त्रिकोणी, सिन्दूरिया रंग की ध्वजाओं की पंक्तियाँ-हीपंक्तियाँ फैली हुई थीं। उनके पीछे चेदिराज की ध्वजाओं की पंक्तियाँ थीं। अभिप्राय स्पष्ट था-प्रतिशोध विवेक की सीमा को लाँघ गया था। जरासन्ध ने मेरे लिए मथुरा पर किये सत्रहवें आक्रमण को दक्षिण दिशा में -गोमन्त तक फैलाया था। जामाता कंस के वध के कारण मुझ पर उसका क्रोध प्रतिदिन बढ़ता हुआ अब चरम सीमा को पहुँच गया था। वेदिराज शिशुपाल सहित वह मेरे पीछे पड़ा था । यहाँ आकर सीधे गोमन्त पर्वत से भिड़ गया था! उसके साथ अपनी-अपनी सेना सहित आये कलिंगराज श्रुतायु, काश्मीरनरेश गोनर्द, किन्नरराज द्रुम, मालवराज सूर्याक्ष, वेणुदारि, छागली, सोमक आदि राजा भी थे। अब हमारी चीते जैसी चपल गतिविधियाँ आरम्भ हो गयीं। पहले मैंने पर्वत की पादभूमि में सागवान - वृक्षों के वन में बिखरे अपने सैनिकों को पर्वत के ऊपर बुलवा लिया। मैंने अपनी सेना को पर्वत की रचना के अनुकूल विभाजित किया। संरक्षण का पक्का पैंतरा बदला । संयम और शान्ति किस चिड़िया का नाम है, जरासन्ध के मागधों को इसका पता ही नहीं था। वे सीधे सागवान के वन में घुसने ल
गे। घात में बैठी हमारी यादव-सेना ने उनका कड़ा प्रतिकार किया और उनको मृत्यु के घाट उतार दिया। इससे वन में घुसने का प्रयास करनेवाला मागधों का दूसरा दल पीछे हटा। और भागने लगा। किन्तु इससे समाप्त न होनेवाले एक दीर्घकालीन युद्ध का आरम्भ हुआ। जरासन्ध और शिशुपाल प्रतिदिन सैनिकों की नयी टुकड़ियाँ उस घने वन में हमारे सैनिकों पर आक्रमण करने के लिए भेजने लगे। उनमें से कई सैनिक तो आवश्यक विश्राम के अभाव में अकारण ही गिर पड़ने के कारण आहत होने लगे । नाटक का यह पूर्वरंग चार दिनों तक चलता रहा। गोमन्त के आधे विस्तार पर हम यादव फैले हुए थे। उसकी पादभूमि में जरासन्ध, शिशुपाल के अनगिनत सैनिक थे । - और हमारे बीच में था घना अरण्या। युद्ध का यह दृश्य शत्रुओं को पर्वत के अरण्य में तिल-भर भी घुसने न देते हुए तटस्थ ही बना रहा। मथुरा के काले को अपनी पकड़ में लेने के लिए जरासन्ध उतावला हो गया था। दाँत पीसते हुए 'काले' को गढ़ा के प्रहारों से चकनाचूर कर देने के सपने देखनेवाले जरासन्ध की आक्रामकता में बाधा पड़ गयी । कवचधारी जरासन्ध प्रतिदिन अपनी सेना में भ्रमण कर रहा था। हताश होकर वह अपनी ग्रीवा ऊपर उठाकर पर्वत शिखर की ओर देखता था। विवश होकर क्रोध से वह अपने सेनाधिकारियों पर बरस पड़ता था ... मुझे और दाऊ को गोमन्त पर्वत से बाहर खींचने के लिए उसने गोमन्त पर्वत में ही आग लगा देने का निर्णय किया। उसने अपने अश्व और गजदलों को पीछे हटाया । जलते पलीते लिये, शिरस्त्राणधारी, कवच धारण करनेवाले पदाति दलों को उसने पर्वत की पादभूमि के चतुर्दिक् फैल जाने की आज्ञा दी। आग उगलनेवाली कौन-सी चाल वह चलनेवाला है, यह मैं जान गया। मैंने और दाऊ ने अपने सैनिकों को आदेश दिये - पर्वत छोड़कर, जहाँ भी स्थान मिले, वहाँ से पर्वत की पश्च
िम पादभूमि में एकत्रित हो जाएँ। मागध-सैनिकों के जलते पलीते छुआते ही धरती पर पड़े सूखे पत्ते क्षण-भर में ही कर्पूर की भाँति धड़ाधड़ जलने लगे। आनन-फानन में ही अग्नि की लपलपाती ज्वालाओं ने गोमन्त पर्वत की पूरी पादभूमि को अपनी लपेट में ले लिया। बहती पवन के साथ आकाश की ओर उड़ान भरनेवाली अग्नि की प्रचण्ड लपटों ने हाहाकार मचा दिया ! बाघ, चीते, हाथी, पक्षी, नाग, अजगर आदि प्राणी अग्नि में झुलस गये। सागवान, ऐन, अंजन, कांचन, खैर, जामुन आदि ऊँचे-ऊँचे वृक्ष जलकर गिरने से घोर सम्मिश्र कड़कड़ाहट की ध्वनि होने लगी। जैसे ही गोमन्त का जलता घना अरण्य भव्य अग्निकुण्ड का भयावह रूप धारण कर दहकने लगा, जलती राख के उष्ण कण वायु के झोंकों पर सर्वत्र बिखरने लगे। जलते गोमन्त पर्वत की आँच जब असहनीय हो गयी तो जरासन्ध के सैनिक सिटपिटाकर अर्ध योजन तक पीछे हट गये। जरासन्ध और शिशुपाल ने तो आनन्दविभोर होकर अपने शिविर में मैरेयक मद्य के कुम्भ-के-कुम्भ पीकर आनन्दोत्सव मनाना आरम्भ किया। उन्होंने तो सोचा थाजैसे भट्ठी की तपती राख में शकरकन्द को भूना जाता है, वैसे ही कृष्ण-बलराम गोमन्त के जलते भट्ठे में भुन गये होंगे ! यहाँ समस्त यादव-सैनिकों को पर्वत की पश्चिम दिशा से सुरक्षित बाहर निकालकर मैं और दाऊ भी कब के पर्वत को छोड़ चुके थे। धनुष से निकला बाण अपने लक्ष्य पर पहुँचकर ही रुकता है, उसी प्रकार गोमन्त पर्वत की यह दावाग्नि समय आने पर अपने-आप ही बुझनेवाली थी। उसे जलाना जरासन्ध के हाथ में था, किन्तु उसे बुझाना उसके हाथ में नहीं था और न दाऊ के, न मेरे ! एक ओर से वनवासी राज्य के और दूसरी ओर से गोमन्तक राज्य के परिसर को प्रकाशित कर देनेवाली इस दावाग्नि को साक्षी रख हमारी सेना ने दक्षिण देश की सेना से हाथ मिलाया। इस सम्मिलित सेना ने पूरे पर्वत की परिक्रमा करते हुए मघोन्मत, असावधान जरासन्ध और शिशुपाल पर अचानक एक शक्तिशाली आक्रमण कर दिया। मागध और चेदियों के शस्त्र सँभालने के पहले ही युद्ध का आरम्भ हुआ। रणवाद्यों के तुमुल नाद के साथ हमारी सेना द्वारा किये गये इस बलशाली आक्रमण से, दावानल की आँच से चौंधिया गयी शत्रुसेना हड़बड़ा गयी । मागध धैर्यशाली, युद्ध में निष्णात, पराक्रमी और संख्या में बहुत अधिक थे। फिर भी अपने शूर सैनिकों को उत्साहित करते हुए, हाथी पर हौदे में बैठकर मैं और दाऊ शत्रु पर टूट पड़े। दाऊ का पहला ही सामना हुआ राजा दरद से। शीघ्र ही दाऊ ने अपने संवर्तक हल से दरद को रथ से नीचे खींच लिया और सौनन्द मूसल के एक ही प्रबल प्रहार से उसका वध कर डाला । इसके पहले कभी जो घटित नहीं हुआ था, वह आज हो गया । आर्यावर्त में अपने पराक्रम का आतंक उत्पन्न करनेवाला सम्राट् जरासन्ध पीछे हट गया और भागने लगा ! उसकी चतुरंगिनी सेना भी उसके पीछे-पीछे भाग खड़ी हुई। मेरी सैनिकी प्रतिचाल सफल हो गयी । अब हमारी उत्साहित सेना मागधों का पीछा करने लगी। सौनन्द मूसल हाथ में लिये मैं और संवर्तक हल लिये दाऊ रथ पर आरूढ़ होकर अपनी से
ना का नेतृत्व करने लगे। आगे मागध-वेदि और उनके पीछे यादव। यह खेल सन्ध्या होने तक चलता रहा। अन्ततः उनको वनवासी राज्य की सीमा से बाहर भगाकर ही हम लौट आये। जरासन्ध और शिशुपाल ने जहाँ पड़ाव डाला था, वहीं हमने भी अपना पड़ाव डाला। पर्वत जल ही रहा था। दिन के प्रकाश की भाँति प्रतीत होते उसके उजाले में हमारे सैनिकों ने नये शिविर लगाये। रात्रि का भोजन पकाया। पिछले कई दिनों से युद्ध करते और आज मागधों का पीछा करते हुए श्रान्त होने के कारण हमारे सैनिक शिविरों के आगे खुली धरती पर विश्राम करने लगे। दाऊ तो युद्ध हो - न हो, आस्तरण से पीठ लगते ही कुछ ही क्षणों में खर्राटे भरने लगते थे, आज भी वे खर्राटे भरने लगे। सोने से पहले उन्होंने कहा, "छोटे, दावाग्नि का इतना बड़ा प्रकाश मैंने इसके पहले कभी नहीं देखा " मध्यरात्रि तक मुझे नींद ही नहीं आ रही थी। मैं शिविर से बाहर आया। आगे जलते हुए दावानल को देखते हुए मैं अपने-आप में खो गया। विचारों का दावानल मेरे मन में फैलने लगा - 'सुन्दर वनश्री से सजे इस पर्वत को जलाकर क्या पाया जरासन्ध ने? अकारण ही कितने निरीह प्राणी उसकी क्रोधाग्नि की बलि चढ़ गये ? मानवी बुद्धि जब क्रोधान्ध हो जाती है, तब कितनी विध्वंसक बनती है वह ! जरासन्ध... जरासन्ध ! यज्ञ में बलि देने हेतु कई राजाओं को गिरिव्रज के कारागृह में डालनेवाला- सम्राट् कहलानेवाला ! इसके सत्रह आक्रमणों का हमने सामना किया। यह स्वयं ही द्वेष का, राज- अहंकार का प्रचण्ड दावानल है । उस पर अस्थायी रोक लगाना कोई उपाय नहीं है, उसके स्थान का आभास उसे कराना ही होगा।' दूसरे ही दिन हमारी विजयी सेना भृगुश्रेष्ट परशुराम के शुर्पारक आश्रम की ओर बढ़ने लगी। हमारी विजय का समाचार वहाँ पहले ही पहुँच चुका था। आश्रमवासियों ने हमारा
प्रचण्ड स्वागत किया। अब मेरा मन खिंचा जा रहा था केवल भगवान परशुराम के चौंधिया देनेवाले तेजस्वी, भव्य मुखमण्डल के प्रत्यक्ष दर्शन की ओर । गोमन्त पर चले जाने का उनका निर्देश कितना अचूक था ! उनसे मेरी भेंट ही न होती तो? जरासन्ध से हमारा खुली-समतल भूमि पर ही सामना होता तो? भृगुश्रेष्ट अद्यापि वेण्णा नदी के तट पर ही थे । शूर्पारकों का आतिथ्य स्वीकार कर मैं और दाऊ अपनी विजयी सेना सहित वेण्णा-तट के आश्रम की ओर चल पड़े। दण्डकारण्य पार कर हमारे पीछे-पीछे दक्षिण देश में उतरा सेनापति सात्यकि भी हमारे साथ था। जरासन्ध और शिशुपाल पर प्राप्त विजय से वह अत्यन्त प्रभावित हुआ था। वैसे उसकी मूल प्रकृति उतावली ही थी । कोयना-घाटी की यात्रा में दाऊ, सात्यकि और मैं एक ही रथ में थे। हमें मथुरा छोड़े हुए कई महीने हो गये थे। इस बीच वहाँ की कोई सूचना हमें नहीं मिल पायी थी। एकएक कर मैंने उससे पूरा समाचार जान लिया। कुछ-कुछ बातें वह स्वयं ही कह रहा था- "मथुरा में महाराज उग्रसेन और अन्य सभी प्रमुख यादव इन आक्रमणों से ऊब गये हैं। आपके और बलराम के मथुरा छोड़ने पर भी उन्हें भय लगता है कि मागध कहीं पुनः आक्रमण न कर दें।" "सेनापति, जरासन्ध और उसके मित्र मथुरा पर अब कभी आक्रमण नहीं करेंगे। मैंने मन-हीमन कुछ निश्चय किया है। मथुरा लौटने पर राजसभा में मैं उसे उद्घाटित करूँगा । जिस स्थिति में और जिस प्रकार मैंने मथुरा को छोड़ा है, उसका शूल मुझसे अधिक यादवों को ही चुभ रहा है; उसे निकालना आवश्यक है। उचित समय पर मैं वह करूँगा ।" सात्यकि के कन्धे पर हाथ रखकर मैंने उसको धैर्य बँधाया। हम वेण्णा के तट पर भृगु - आश्रम के समीप आ गये। पिछली बार दाऊ, मैं, विपृथु और कुछ गिने-चुने यादव ही यहाँ आये थे। इस बार दक्षिण देश का विजयी यादव सैन्य दल भी हमारे साथ था । इस समय अपने समस्त शिष्यों सहित प्रत्यक्ष भृगुश्रेष्ठ परशुराम हमारे स्वागत के लिए आगे आये । और हाँ उनके कन्धे पर वह विख्यात, चौड़े फलवाला परशु चमक रहा था। मैं, दाऊ, सात्यकि और अन्य सभी ने उस तेजस्वी, द्रष्टा, योगी पुरुष को आदर सहित प्रणाम किया। तत्परता से हमें ऊपर उठाकर वक्ष से लगाते हुए उन्होंने स्वागत के बदले विदाई का आशीर्वाद दिया- "जयोऽस्तु ।" उसे सुनकर दाऊ और सात्यकि चौंक पड़े। किन्तु उनका अभिप्राय जानकर मैं नित्य की भाँति मुस्कराया। भृगुश्रेष्ठ की आँखें कुछ अलग ही भाव से भरी हुई मुझे स्पष्ट दिखाई दे रही थीं। अपनी विशाल पर्णकुटी की ओर चलते हुए, मेरे कन्धे पर बड़े प्रेम से हाथ रखकर उन्होंने कहा, "प्रकृति की सैकड़ों वर्षों की साधना से समृद्ध हो पाया गोमन्त जैसा पर्वत जरासन्ध ने जला डाला। इससे तुम व्याकुल हुए, यह उचित ही है। किन्तु मुझे स्पष्ट दिख रहा है, भविष्य में तुम्हें भी ऐसा ही निर्णय करना पड़ेगा - इससे भी घने वन को जलाने का ! मानव-कल्याण हेतु वह तुम्हें करना ही पड़ेगा ।" ज्येष्ठ भृगु मुख भरकर मुस्कराये। हम आचार्य-कुटी में आ गये थे। हमें फलाहार प्
रस्तुत किया गया । कुटी के मध्य दिन-रात धधकता भव्य यज्ञकुण्ड था। उसके समीप व्याघ्रचर्म बिछाये ऊँचे काष्ठासन पर भृगुश्रेष्ठ बैठ गये। पूर्वाभिमुख होने के कारण उन्हें आकाश में तपता सूर्य स्पष्ट दिखाई दे रहा था। उसकी सर्वस्पर्शी किरणों में नहायी, घुमावदार वेण्णा नदी भी उनको दिखाई पड़ रही थी। उनके दोनों ओर, जहाँ भी अवकाश मिला, उनके शिष्यगण और हमारे प्रमुख यादव खड़े थे। मैं और दाऊ यज्ञकुण्ड की दूसरी ओर भृगुवर के सम्मुख मृगचर्म पर बैठ गये। हमारे सैनिक कुटी के बाहर आश्रम परिसर में फैले हुए थे। जिस प्रकार अंकपाद आश्रम में घन-गम्भीर, नादमय स्वर में आचार्य सान्दीपनि हमें ज्ञानबोध कराते थे, उसी गुरु-भाव से भगवान बोलने लगे, "हे राम-श्रीकृष्ण, इसके पूर्व आर्यावर्त के दक्षिणी छोर - दण्डकारण्य को लाँघकर केवल दशरथ-पुत्र श्रीराम लक्ष्मण सहित आये थे। अब तुम आ गये हो और तुमसे भेंट करने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ है । "जब से तुमसे भेंट हुई है, मैं सोच रहा हूँ, तुमसे मेरी भेंट कराने में प्रकृति का - परमात्मा का क्या उद्देश्य हो सकता है ? आयु और अनुभव में तुमसे ज्येष्ठ होने के कारण मुझे जो स्पष्ट प्रतीत हो रहा है, वह मैं तुम्हें बता रहा हूँ। "- जो दुर्बलों के जीवन की, अधिकारों की रक्षा करता है, वही सच्चा क्षत्रियत्व है - वही सच्चा पुरुषार्थ है। "जीवन क्या होता है, अधिकार का अर्थ क्या है, उत्तरदायित्व क्या होता है, प्रकृति का अभिप्राय क्या होता है, इसका बोध जो सरलता से कराता है, वही ब्रह्मत्व है । "जन्म से ब्राह्मण होते हुए भी कर्म से मैंने निष्ठापूर्वक क्षत्रियत्व का पालन किया है। सर्वांगीण जीवन में बाधा डालनेवाले, किसी का भी आदर न करनेवाले मदोन्मत्त क्षत्रियत्व का मैंने निर्दलन किया है। किसी भी रा
जसिंहासन का लोभ किये बिना ही सम्पूर्ण आर्यावर्त में भृगु - आश्रम स्थापित करते हुए ज्ञानदान का ब्रह्मकर्म में जीवन-भर निष्ठापूर्वक करता आया हूँ ... "जीवन का जो अर्थ मुझे ज्ञात है, वह मैं तुम्हें बताता हूँ। "ज्ञान, विज्ञान और प्रज्ञान जीवन के प्रमुख अंग हैं। ज्ञान का अर्थ है चराचर सृष्टि की समग्र जानकारी। पूरे आर्यावर्त और दक्षिण देश में भ्रमण करके जो ज्ञान मुझे प्राप्त हुआ, उसे मैंने अपने आश्रमों में बाँटने का प्रबन्ध कराया है। "विज्ञान का अर्थ है विशेषज्ञान - सूक्ष्म-सेसूक्ष्म ज्ञान । ब्रह्मास्त्र की विद्या से मैंने वह प्राप्त किया और अपने योग्य शिष्यों को प्रदान किया। "प्रज्ञान का अर्थ है अपने स्वयं सहित सम्पूर्ण जीवन का समग्र ज्ञान । अपने अन्दर और प्रत्येक सचेतन-अचेतन में निहित चिरन्तन चैतन्य का जो अन्वेषण करता है, वह प्रज्ञान होता है। " अब तुम्हें मैं जो बता रहा हूँ, वह ज्ञान-विज्ञान से परे, प्रज्ञान के क्षेत्र से सम्बद्ध है, अतः महत्त्वपूर्ण है। "हे राम एवं श्रीकृष्ण, यद्यपि तुम यदुकुलोत्पन्न हो, परन्तु तुम न केवल अठारह यादव शाखाओं के हो, न शूरसेन राज्य के, न ही आर्यावर्त के ! निरन्तर बहती मानवी जीवन-गंगा के घाट पर चिरन्तन जलते दीप हो तुम ! स्थल-काल की, कुल की मर्यादाएँ तुम्हें बाँध नहीं सकतीं। "हे श्रीकृष्ण, तुम्हारी आँखों में मुझे अपना उत्तराधिकारी दिखाई दिया है। अतः आज मैं तुम्हें एक अनमोल, स्वर्गीय उपहार दे रहा हूँ। उसे ग्रहण करने की, उचित समय पर उसका प्रक्षेपण और विसर्जन करने की क्षमता मुझे केवल तुममें ही दिखाई दे रही है। एकमात्र तुम ही उसके लिए योग्य हो ।" ज्येष्ठ भृगु ने धीरे-धीरे अपनी आँखें बन्द कर लीं। उनकी योगमुद्रा यज्ञकुण्ड में प्रदीप्त अग्नि में की भाँति दहकती दिखने लगी । अपने पांचजन्य की ध्वनि से समानता रखनेवाले, जो मैंने पहले कभी न सुने थे, ऐसे मन्त्रबोल उनके मुख से अबाध रूप में निकलने लगे। उस मन्त्रघोष ने उपस्थितों को मुग्ध कर दिया। मेरे स्मृति-पटल पर वे शब्द अपने-आप अंकित होने लगे। मेरे शरीर का कण-कण अपूर्व रूप में रोमांचित हो उठा। क्षणार्द्ध में आचार्य-कुटी को गुंजायमान कर देनेवाले विविध स्वर सुनाई देने लगे। धीरे-धीरे वह स्वरदण्ड बढ़ता गया। आँखों को चौंधिया देनेवाले-शतकोटि सूर्यों की आभा को लजानेवाले प्रकाश से कुटी प्रदीप्त हो उठी! ध्यानस्थ, शुभ्र दाढ़ी- जटाधारी तेजस्वी भृगुश्रेष्ठ की ऊपर उठायी दाहिनी तर्जनी क्षण-भर के लिए स्थिर हो गयी। उस पर बारह आरोंवाला, वज्रनाभ, गरगर घूमता सुलक्षण चक्र दिखने लगा । प्रत्यूषा में मानस-सरोवर पर दिखनेवाले ब्रह्मकमल की कली की भाँति वह दिख रहा था। उसके दिव्य तेज से सबकी आँखें चौंधिया गयीं! उस तेज के अतिरिक्त कुछ भी उन्हें दिखाई नहीं दे रहा था। सब भयभीत हो गये । दाऊ भी हड़बड़ा गये । हाँ, मुझे-केवल मुझे ही भृगुवर की तर्जनी पर घूमता चक्र स्पष्ट दिख रहा था। आँखों को चौंधियानेवाला वह तेजपुंज मुझे गोकुल की रा
सपूर्णिमा की ज्योत्स्ना की भाँति शीतल प्रतीत होने लगा। भृगुश्रेष्ठ के नेत्र-संकेत पर मैं दाऊ के पास से उठकर उनके सम्मुख गया। मेरे कान में मन्त्रोच्चारण करते हुए उन्होंने कहा, "प्रत्यक्ष ही देखो इस सुदर्शन चक्र के प्रभाव को । " भृगुवर ने मन्त्र बुदबुदाते हुए उस तेजचक्र को प्रक्षेपित किया। वेण्णा नदी को पार कर सुदूर पर्वत-श्रेणियों को स्पर्श कर वह उसी वेग से लौटकर उनकी तर्जनी पर स्थित हुआ । गरगर घूमते वलयों को समेटता हुआ, वह जैसे प्रकट हुआ, वैसे ही लुप्त हो गया । भृगु राम ने बन्द आँखों से ही कमण्डल का अभिमन्त्रित जल मेरे करतल पर डालते हुए कहा, "आचमन करो।" मैंने आचमन किया। वे आगे कहने लगे, "वसुदेव-पुत्र श्रीकृष्ण, आज से मेरे इस सुदर्शन चक्र के अधिकारी तुम हो गये हो । हे अच्युत, इसकी जन्मकथा तो तुम जानते ही हो। इसकी स्मृति को पुनर्जागृत करने हेतु मैं तुम्हें बता रहा हूँ-"युगों पहले प्रत्यक्ष शिव ने त्रिपुरासुर को- अर्थात् उसकी जीवन-विनाशक क्रूर शक्तियों को जलाने हेतु इस सुलक्षण चक्र का निर्माण किया था। प्रत्यक्ष विष्णु ने..." कुछ कहने से पहले भृगुवर रुक गये। आँखें खोलकर मेरी ओर देखने लगे। कुछ देर पहले यज्ञकुण्ड की भाँति दिखती उनकी दृष्टि अब शान्त हो गयी थी। उनके होंठों के कोरों से निकलकर दाढ़ी में घुल जानेवाली गूढ़- रम्य हँसी क्षण-भर के लिए मुझे अपनी ही हँसी लगी। उस विचार से मेरे मुख पर भी हँसी झलक आयी । भृगुश्रेष्ठ पुनः आँखें बन्द करते हुए बोले, " 'विष्णु', क्या है, यह मैं तुम्हें क्या बताऊँ ? तुम तो जानते ही हो ! हमारे विष्णु ने शिव को सहस्र कमल अर्पण कर 'सुदर्शन' प्राप्त किया और उसे अग्नि को प्रदान कर दिया । अग्नि ने वह वरुण को दिया और वरुण से वह मुझे प्राप्त हुआ है। जीवन में
कभी मैंने सुदर्शन का उपयोग नहीं किया, आवश्यकता ही नहीं पड़ी। परशु से ही मेरा जीवन-कार्य सम्पन्न होता रहा है। "आज से तुम इस सुदर्शन चक्र के पूर्ण अधिकारी बन गये हो । जब कभी तुम्हें तीव्र आवश्यकता प्रतीत होगी, तभी इसका प्रक्षेपण करना। तुम्हें सत्य, न्याय और धर्म की रक्षा करनी है। छाया की भाँति तुम्हारा साथ देते हुए बलराम को तुम्हारा छत्र बनकर रहना है । "हे यादवो, जिन्हें युग-युगों तक धारित किया जाए, ऐसे जीवन-सत्य बलराम के हल से आर्यभूमि को खोदकर तुम्हें बीज रूप से बोने हैं, उनको बढ़ाना है और उनका पालन करना है । इस सुदर्शन को उनकी रक्षा करनी है । "मेरा जीवन-कार्य अब समाप्त हो गया है। मुझे लगता है कि तुम ही इस कार्य के एकमात्र उत्तराधिकारी हो। शूर्पारक आश्रम के भार्गवों को अन्तिम उपदेश देकर मैं सीधे हिमालय चला जाऊँगा। "ज्येष्ठ भृगु के नाते मैं तुम्हें आशीर्वाद दे रहा हूँ - जयतु श्रीकृष्ण जयतु बलराम!- जयतु उस दिन भृगुश्रेष्ठ को वन्दन कर जब हम कुटी से बाहर आये, अब तक घटी घटना से चौंधिया गये बलदाऊ ने मुझसे कहा, "छोटे, तुम्हारी वैजयन्तीमाला, तुम्हारा पांचजन्य शंख और अजितंजय धनुष के कारण पहले ही तुम सब यादवों से अलग लगते थे। आज तो जिस पर दृष्टि ठहर ही न पाए, ऐसे अपार तेज से तुम्हारा मुखमण्डल दमक रहा है! गोमन्त की बड़वाग्नि का प्रकाश जिसके आगे कुछ भी नहीं है, ऐसा तेजोमय दिख रहा है वह ! छो...टे... मु... झे..." झिझककर वे रुक गये। "दाऊ, निःशंक होकर आप मुझे 'छोटे' कहिए ।" मैंने उनकी झिझक को दूर करने हेतु कहा। फिर भी उन्होंने पूछा, "सचमुच, तुम कौन हो?" मन-ही-मन सुदर्शन के मन्त्रबोलों के साथ लय साधते हुए, दूसरी ओर एक हाथ दाऊ के हाथ में और दूसरा सात्यकि के कन्धे पर रखते हुए मैंने उनसे कहा, "दाऊ, आप उचित कहते हैं -- मैं आपका अनुज ही हूँ, छोटा हूँ! क्यों सात्यकि, तुम्हें क्या लगता है ?" मेरा प्रश्न सात्यकि के मस्तिष्क तक पहुँचा ही नहीं। सुदर्शन के सुन्न कर देनेवाले अनुभव से वह अब तक बाहर निकल ही नहीं पाया था। अत्यन्त समाधान के साथ भृगु - आश्रम में दो दिनों तक निवास करते हुए हम क्रौंचपुर के यादव राजा सारस के आमन्त्रण पर उनके राज्य में जाने के लिए निकल पड़े। उनके सेनापति एक टुकड़ी के साथ हमारा मार्गदर्शन कर रहे थे। उनके पीछे-पीछे चलते हुए एक सप्ताह के बाद हम वरदा नदी के तट पर बसे क्रौंचपुर पहुँच गये। हमारी गोमन्त-विजय का समाचार यहाँ कब का पहुँच चुका था। राजा सारस ने अपने राज्य की सीमा पर हमारा भव्य स्वागत किया। लाल मिट्टी के इस उर्वर प्रदेश में भाँति-भाँति के स्वादिष्ट फल हमें खिलाये गये। यहीं से हमने पद्मावत, माहिष्मती और समुद्र-तट के यादव राजाओं के लिए उपहार भिजवाये। मथुरा लौटते समय दण्डकारण्य के पास से हम उनकी सेनाओं को वापस भेजनेवाले थे। राजा सारस ने एक विशेष राजसभा का आयोजन किया। हमें एक सालंकृत, सुशोभित छत्र और अश्वों सहित राजरथ उपहार में दिया गया। कत्थई रंग के उन चमकदार
अश्वों को देखकर मुझे दारुक, अपने प्रिय शुभ्र-धवल अश्व शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलाहक सहित अपने सुलक्षण गरुड़ध्वज रथ का तीव्रता से स्मरण हुआ। मुझे तीव्रता से प्रतीत हुआ कि अब मथुरा लौटना चाहिए । राजा सारस की राजसभा की राजनर्तिकाओं के भाव-समृद्ध नृत्यों का हमने आनन्द उठाया। वनवासी राज्य के स्वादिष्ट खाद्यपदार्थों का आस्वाद भी हमने लिया । राजा सारस से विदा लेते हुए मैंने उनसे कहा, "यादवराज, हम फिर कब मिलेंगे, कह नहीं सकता; किन्तु मेरा मन कहता है, आप हमारे शूरसेन राज्य को भूलेंगे नहीं। सहायता की आवश्यकता पड़ने पर आप अवश्य उपस्थित होंगे। अपना भ्रातृभाव बनाये रहेंगे।" राजा सारस हमें विदा देने के लिए उनके राज्य की सीमा तक आ गये। पड़ाव के बाद पड़ाव डालते हुए हम मार्गक्रमण करने लगे। उस राज्य के स्थान-स्थान के सरोवरों से लौटते क्रौंच पक्षियों के झुण्ड-के-झुण्ड हमें दिखाई देने लगे। ताम्रपर्णी नदी पार कर हम घटप्रभा के तट पर आये। मैं, दाऊ और सात्यकि अपने शिविर में बैठे थे। यात्रा में आनेवाली रुकावटों की चर्चा हो रही थी। दाऊ और सात्यकि में ही बातें हो रही थीं। दक्षिण देश के चारों राज्यों के सेनापति बीच-बीच में उनके प्रश्नों के उत्तर में कुछ कह रहे थे। मैं केवल सुन रहा था । जब से मुझे सुदर्शन के मन्त्र प्राप्त हुए थे- मेरी चित्तवृत्ति पूर्णतः बदल गयी थी। अब कुछ कहने की अपेक्षा सुनना ही अच्छा लग रहा था । दृष्टि अब दूर तक- भविष्य में उड़ान भरना चाह रही थी । मुझे लग रहा था कि भूर्जपत्र की भाँति मनुष्य को भी अथ से इति तक पढ़ने की अद्भुत शक्ति मुझे प्राप्त हुई है! विशाल वट अथवा अश्वत्थ - वृक्ष की धरती में छिपी सहस्रों जड़ों से लेकर लाखों पर्णों की सरसराहट तक का मुझे सरलता से आभास हो रहा था।
मुझे तीव्रता से प्रतीत हो रहा था कि यह शक्ति देह, मन और काल से भी परे है। दाऊ और सात्यकि की चर्चा में मैं सम्मिलित था भी और नहीं भी ... तभी हमारी सेना के गुप्तचर विभाग का प्रमुख एक हट्टे-कट्टे नागरिक को साथ लिये शिविर में आया । अभिवादन कर उसने कहा, "यह करवीर का नगरवासी है। यह आपसे निवेदन करना चाहता है, न्याय माँगना चाहता है!" मैंने उस करवीरवासी पर आपादमस्तक एक दृष्टिपात किया। वह तिलमिलाकर बोलने लगा, "हे श्रीकृष्ण महाराज, क्या हमें इस पद्मावत राज्य को छोड़कर जाना पड़ेगा? यहाँ का राजा शृगाल शृगाल जैसी ही हिंसक वृत्ति का हो गया है ! किसी की भी स्त्री, सम्पत्ति, धरती को वह हड़प लेता है। कई नगरजन उसके लालच की बलि चढ़ चुके हैं। कई तो राज्य छोड़कर भाग खड़े हुए हैं। हमने सुना है कि मथुरा के राजा कंस का अन्यायी होने के कारण आपने, अपना मामा होते हुए भी, वध किया है। हमें आपके अतिरिक्त अन्य कोई ऐसा नरश्रेष्ठ दिख नहीं रहा है, जो शृगाल को दण्ड दे सके। इसलिए इतनी लम्बी यात्रा करते हुए मैं आपके दर्शन के लिए यहाँ आया हूँ-समस्त करवीरवासियों की ओर से ! कुछ भी कीजिए, बचाइए हमें इस दुष्ट से !" मैं उठकर उसके समीप गया। उसके 'महाराज' सम्बोधन से मुझे हँसी आयी । न मैं किसी राजसिंहासन का स्वामी था, न होने की मेरी इच्छा थी। मैं अभिषिक्त राजा नहीं था, फिर भी उसने मुझे 'महाराज' कहा था। उसके कन्धे पर हाथ रखकर जैसे ही मैंने उसे थपथपाया, वह मेरे पैरों पर गिर पड़ा। उस स्पर्श से मेरे पाँव के अँगूठे से मस्तक तक वही प्रणवनाद गूँज उठा जो सुदर्शन चक्र के प्रकट होने के पहले गूँज उठा था। मैंने उसे ऊपर उठाकर सान्त्वना देते हुए सात्यकि से कहा, "सेनापति, हम करवीर से होते हुए मथुरा जाएँगे।" हमारी सेना करवीर की दिशा में चल पड़ी। पद्मावत राज्य के माण्डलिक शृगाल का पंचगंगा के तट पर बसा करवीर राज्य छोटा-सा था। किन्तु मदोन्मत्त, उद्धत शृगाल अपने-आप को अजेय, बलाढ्य सम्राट् ही मानता था । पंचगंगा नदी के तट पर उसने लाल मिट्टी का सुदृढ़ परकोटा बनवाया था । उसको लाँघने के कई मार्ग सात्यकि ने बताये। मैंने उन्हें केवल सुन लिया। हाथियों का एक झुण्ड भेजकर मैंने उस दुर्ग के द्वार को तुड़वाया । दाऊ, मैं और सात्यकि कुछ सैनिकों सहित अन्दर घुस गये। शृगाल और हमारे सैनिकों की मुठभेड़ आरम्भ हो गयी । हम शृगाल के प्रासाद तक पहुँच गये। वह प्रासाद की सबसे ऊपरी सीढ़ी पर खड़ा था और मैं सबसे निचली सीढ़ी के पास खड़ा था । शृगाल सुदृढ़ शरीर - राष्टिवाला लड़ाकू योद्धा था। अपनी करवीरी बनावट की प्रचण्ड, गोलाकार गदा को उठाकर वह चिल्लाया- "मथुरा से भाग खड़े हुए वसुदेव के भगोड़े, गोमन्त पर भड़क उठी बड़वाग्नि का लाभ उठाकर तू सम्राट् जरासन्ध को भगा सका है, किन्तु यह करवीर नगरी है - अजेय मल्लों की नगरी । मैं ही यहाँ का सम्राट् हूँ। चलता बन यहाँ से, नहीं तो चीर डालूँगा मैं तुझे " मुझे उसके दहकते शब्द सुनाई ही नहीं दिये। मन की गुफा में गूंजते,
प्रदर्शन के लिए उत्सुक सुदर्शन के पवित्र मन्त्रबोल गतिमान होकर मेरे मन और मस्तिष्क में गरगर घूमने लगे। होठों से उनकी तेजस्वी शृंखलाएँ निकलने लगीं। अंगारों की भाँति दहकते तेजकण शरीर में भ्रमण करने लगे। आँखें अपने-आप बन्द हो गयीं। अब मैं वसुदेव-पुत्र कृष्ण नहीं रहा था, बन गया था दहकते तेज का केवल एक स्तम्भ ! मेरा दाहिना हाथ अपने-आप ऊपर उठा। बँधी मुट्ठी की मेरुदण्ड की भाँति खड़ी तर्जनी पर प्रचण्ड गति से घूमता तेजस्वी सुदर्शन चक्र प्रकट हुआ। दृष्टि ठहर न पाए इतनी तीव्रता से वह गरगर घूमने लगा । लक्ष्यवेध करने हेतु मेरा हाथ अपने-आप हिला । सुदर्शन का पहला प्रक्षेपण हो गया। पलक झपकने से पहले ही शृगाल के मुकुटधारी मस्तक के मदोन्मत्त कण्ठनाल को वह अचूक भेद गया। उसका कवचधारी पुष्ट धड़ रक्त से सीढ़ियों को रँगता हुआ, गड़गड़ाकर नीचे गिर पड़ा। पीछे-पीछे उसका रक्तलांछित मस्तक भी लुढ़कता हुआ आ गया। मेरे मस्तक को चूर-चूर कर देनेवाली उसकी लौहगदा भी खनखनाकर सीढ़ियों से टकराती हुई नीचे आ गिरी। तीनों मेरे पैरों में आ पड़े थे । मुझसे रक्त का स्पर्श होते ही, चक्र गरगराता हुआ लौट आया और मेरी तर्जनी पर स्थित हुआ। उस पर मानवी रक्त की एक बूँद भी नहीं थी । गूंजती ध्वनियाँ धीरे-धीरे कम होती गयीं। अपने वलयों को समेटता हुआ चक्र भी धीरे-धीरे लुप्त हो गया । करवीर नगरी अब शृगाल से मुक्त हो गयी थी। शृगाल का एकमात्र पुत्र था शक्रदेव। सागवान की सुडौल पट्टी की भाँति सुदृढ़ - युवावस्था पाँव रखता हुआ । इस मुठभेड़ में वह आहत हुआ था। हमारे सैनिकों ने उसे रस्सी से बाँधकर दाऊ और मेरे समक्ष प्रस्तुत किया। हमें करवीर में अपना राज्य स्थापित नहीं करना था। कंस-वध के पश्चात् मथुरा में मैंने जो किया, वही मुझे यहाँ भी करना था -
शृगाल-पुत्र को करवीर के राजसिंहासन पर बिठाना था । वह नवयुवक हम दोनों की ओर अत्यन्त तिरस्कार और क्रोध से देख रहा था। यह तेज कुछ अलग ही था। उसे उचित मोड़ देकर जीवनीय बनाना ही उचित था। मैंने शृगाल-पुत्र के समीप जाकर, उसकी रस्सियाँ काटकर उसे बन्धनमुक्त किया। यद्यपि वह क्रूद्ध आँखों से हमारी ओर देख ही रहा था, मैंने स्नेहपूर्वक उसके कन्धे पर हलके से थपकी दी। उसकी आँखों के भाव बदलने लगे। उसकी निर्भय आँखों में आँखें गड़ाकर मैंने कहा, "हे शृगालपुत्र, अपने पिता के जीवन-विनाशक मार्ग का अनुसरण मत कर वह उचित नहीं होगा। यह राज्य हम तुम्हें ही सौंप रहे हैं। यहाँ तुम प्रजा को सुख-शान्ति दिलानेवाले कल्याणकारी राज्य का निर्माण करो।" अब उसमें बड़ा ही परिवर्तन आया। उसने झुककर मुझे अभिवादन किया। उसको ऊपर उठाकर मैंने वक्ष से लगाया। उस रात्रि हमने पंचगंगा तट की उर्वरा भूमि के सुवासिक तन्दुल के भात का स्वाद चखा। करवीर एक तीर्थक्षेत्र था। अतः हमने पंचगंगा में स्नान भी किया। एक सप्ताह के पश्चात् हमें विदा देने के लिए शक्रदेव सहित पंचगंगा के तट पर आये नगरजनों ने जयघोष किया-'मथुराधिपति महाराऽज श्रीऽकृष्ण-बलराम की जऽय... जय होऽ! करवीराधिपति शक्रदेव महाराऽज की ऽ जऽय... जय होऽ!' कुन्तल, अश्मक देशों को पीछे छोड़ते हुए कई पड़ाव डालने के पश्चात् विदर्भ की सीमा पर हमने पड़ाव डाला । वैदर्भियों की प्रसिद्ध राजनगरी कौण्डिन्यपुर यहाँ से कुछ ही योजन दूर थी । उस राज्य से हमारे स्वागत के लिए कोई भी आनेवाला नहीं था। यहाँ के राजा भीष्मक कब के जरासन्ध से हाथ मिला चुके थे। उनका पुत्र रुक्मि हमारे सात्यकि की ही भाँति उतावला था, शीघ्रक्रोधी था। रुक्ममालि, रुक्मरथ, रुक्मबाहु और रुक्मकेश - इन चार भ्राताओं का दृढ़ समर्थन उसे प्राप्त था। इसी पड़ाव पर सात्यकि ने मुझसे पूछा, "महाराज भीष्मक के पास दूत भेजकर क्या हम अनुमति लेंगे? यहाँ अम्बिका माता का एक अत्यन्त प्राचीन, भव्य, सुघड़ मन्दिर है। देवी के दर्शन करेंगे हम " "नहीं - अभी नहीं देवी के दर्शन करेंगे अवश्य, किन्तु उचित समय पर !" मैंने मुस्कराते हुए सात्यकि के प्रस्ताव को अस्वीकार किया। साथ ले आये दक्षिण देश के सेनादलों को एक भव्य समारोह में उपहार देकर हमने उन्हें विदा किया।
• बंदीगृह में राजमाता के आदेश से हलचल मच गई . बंदी युवराज को तत्काल राजमाता के कक्ष में उपस्थित किया गया । बेड़ियों में जकड़ा युवराज चन्द्रचूड़ शांत था । उसकी आकृति पर मृत्यु भय की छाया तक नहीं थी । राजमाता के सम्मुख आते ही उसने शांत - मुद्रा में उनका शिष्टतापूर्वक अभिवादन करते हुए कहा- राजमाता के श्रीचरणों में उत्कल युवराज चन्द्रचूड़ का प्रणाम स्वीकार हो माता ! आपके दर्शन की अभिलाषा आज पूरी हुई .... मेरे लिए क्या आदेश है राजमाता ? ' राजमाता के नयन फिर से छलक गए . ' यह क्या ... मेरे लिए राजमाता की आँखों में आँसू ? आश्चर्य ... यह मैं क्या देख रहा हूँ माते ? ' ' क्यों ... क्यों किया तुमने ऐसा ? ... तुम्हारे लिए क्या जग में सुन्दरियों की कमी थी ? ... तुम्हारी एक इच्छा पर न जाने कितनी कुमारियाँ न्यौछावर हो जातीं । तुम्हारे जैसे सुदर्शन , शक्तिशाली और ऐश्वर्य सम्पन्न युवराज के लिए इस जग में क्या मेरी निर्मोही पुत्री ही बची थी , पुत्र ? क्यों किया तुमने ऐसा ... कहो मुझे क्यों किया ... ? ' ' मेरे लिए आपके हृदय में इतनी संवेदना है , यही बहुत है राजमाता ... ! रही भुवनमोहिनी की बात तो जान लें , माता ... मेरा हृदय - कमल उसी निर्मोही के लिए खिलता है । • जगत की दूसरी किसी सुन्दरी के लिए मेरे अंतस् में कोई स्थान नहीं । मैंने अपने मन - प्राण और जीवन उसी को समर्पित कर दिए हैं । अब मेरे जीवन की स्वामिनी आपकी पुत्री ही है । इसे वह स्वीकार करे तो मेरा सौभाग्य , तिरस्कार करे तो मेरा दुर्भाग्य और मेरे प्राण हर ले तो यह अधिकार है उसका ... वस्तु तो अंततः उसी की है माता ! ' ' धन्य हो पुत्र ... ! तुम्हारी जननी भी धन्य है , जिसने अपनी कोख से तुझ जैसे रत्न को जन्म दिया । मेरी पुत्री तुम्हें वर लेती तो उस जैसी बड़भागी भला कौन होती इस धरा पर .. परन्तु विधाता के लेख को भला कौन मिटा पाया है ? अब तो मेरी पुत्री भी टंका कापालिक से वचनबद्ध हो चुकी है । मृत्युदण्ड देकर वह तुम्हें इस दुर्दान्त कापालिक को सौंप देगी । मैं भी कितनी विवश हूँ , पुत्र .... कि चाहूँ भी तो उस कापालिक का तिरस्कार कर तुम्हें मुक्त नहीं कर सकती । उसकी सिद्धियां उसकी शक्ति इतनी अपरिमित हैं कि इच्छा मात्र से सम्पूर्ण शंखाग्राम को क्षण में श्मशान बना दे वह क्या करूँ मैं पुत्र ... क्या करूँ ? ' कहते - कहते राजमाता का कंठ अवरूद्ध हो गया । ' आप इस प्रकार व्यथित न हों , माता ! ... मृत्यु - वरण हेतु अब मुझे प्रस्थान करना है ... मुझे आज्ञा दें माता ! ' फफककर रो पड़ी राजमाता और जंजीरों में जकड़ा युवराज चन्द्रचूड़ , माता को अंतिम प्रणाम कर हतप्रभ सैनिकों के साथ लौट चला । चार हाथ ऊँचे काले भुजंग कापालिक टंका की वेशभूषा भी काली थी । पैरों में व्याघ्रचर्म की पादुका , कमर से बंधी काली धोती । वक्ष पर लटके बंदरों के मुण्डों की माला कमर तक फैली लम्बी जटाएँ । भाल पर सिन्दूर का गोल टीका और बड़ी बड़ी प्रज्वलित आँखें । दोनों आँखों के ऊपर आप
स में जुड़ी मोटी भवें और कानों में कुण्डल की तरह लटकती मानव उंगलियों की हड्डियां । कलाइयों में कौड़ियों के कंगन तथा हाथ में बड़ा चिमटा । देखते ही सिहरन उत्पन्न हो जाए , ऐसा ही था विकट कापालिक टंका का स्वरूप । मुस्कुराता तो उसकी मुस्कान जहरीली हो जाती । हँसता तोहँसी विद्रूप हो जाती और ठहाके लगाता तो वह विकट अट्टहास हो जाता । सहज मानवीय गुणों से विरक्त टंका कापालिक मानव शरीर में जीवित पिशाच ही था । उसकी आँखों में रक्त की पिपासा और जिह्ना पर उष्ण रूधिर की प्यास हमेशा बनी रहती । मुण्ड से विच्छेदित बलि पड़ चुके तन की तीव्र छटपटाहट देख उसका चित्त प्रसन्न हो जाता । इच्छा होती , ऐसा उत्सव उसके जीवन में नित्य आये परन्तु वचनबद्ध था वह । अधीर हृदय से वर्ष भर विवशता में उसे प्रतीक्षा करनी होती थी , तब शंखाग्राम की ओर से बलि हेतु उसे एक कुँवारे तरूण का दान प्राप्त होता था । ऐसी ही दुर्दान्त और दुर्द्धर्ष विकट - सिद्धियों से युक्त था कापालिक टंका । आज वह अत्यधिक प्रसन्न था । चन्द्रचूड़ जैसा सुन्दर , सजीला , सशक्त एवं पुष्ट शरीर का तरुण आज बलि के लिए उसे प्राप्त होगा । उसके उष्ण - रूधिर से जब माता का वह अभिषेक करेगा तो माँ कितनी प्रसन्न हो जाएँगी ! इन्हीं विचारों में मुदित टंका आ पहुँचा भुवनमोहिनी के नृत्योत्सव में । नर - नारी और बाल - वृद्ध से भरे प्रेक्षागृह में मानो साक्षात् काल का ही पदार्पण हुआ । सभी में तत्काल भय की लहर दौड़ गयी । नृत्य - महोत्सव के विशाल मंच पर राजमाता के साथ विराजी भुवन मोहिनी टंका को देखते ही मुस्कुरायी- आओ कापालिक पधारो ! तुम्हारी ही प्रतीक्षा थी । माता का पूजन सम्पन्न करचुकी हूँ ... तुम्हारा प्रसाद तुम्हारे समक्ष उपस्थित है । इस धृष्ट युवक को बलि हेतु स्वीकार करो
, कापालिक ! ' टंका की भूखी दृष्टि उत्कल युवराज चन्द्रचूड़ पर गयी । राजकीय वेशभूषा और आभूषणों से युक्त युवराज का समस्त शरीर बेड़ियों में बँधा था । परन्तु युवराज के नेत्रों में भय की छाया तक नहीं थी । शांतचित्त वह खड़ा था । प्रेक्षागृह में उपस्थित सहस्र जोड़ी नेत्रों में विवश - सहानुभूति भरी थी । इतने तेजस्वी युवराज की निरर्थक बलि से सभी के हृदय संतप्त थे । हा विधाता ! यह तेरी कैसी निर्मम लीला है ! हमारी भुवनमोहिनी , जिसकी अंकशायिनी बनकर अपने जीवन को सार्थक कर सकती थी , उसी निर्मोही ने युवराज को प्राण - दण्ड देकर कैसा अनर्थ कर दिया ! जनसामान्य की वेश - भूषा में कुँवर दयाल सिंह , आ माधव तिरहुतिया और उसकी पत्नी अमला तिरहुतिया के साथ दर्शकों के मध्य विराजे हुए थे । भगवती बंगेश्वरी मंदिर के विस्तृत प्रांगण में एक ओर भगवती की भव्य प्रतिमा स्थापित थी , दूसरी ओर विशाल मंच पर शंखाग्राम की स्वामिनी अपने परिजनों , अधिकारियों , वादकों एवं प्रतियोगियों के साथ उपस्थित थी । मंच पर ही बेड़ियों में जकड़ा भयमुक्त युवराज , भावना - शून्य मुखमुद्रा में एक ओर निर्भय खड़ा था और भयंकर मुद्रा धारण किये टंका कापालिक मंथर गति से उसकी तरफ बढ़ा चला जा रहा था । दोनों की तीक्ष्ण दृष्टि एक - दूसरे की आँखों में गड़ी थी । युवराज की भयमुक्त मुद्रा कापालिक को असहज कर रही थी । युवराज के पास पहुँच कर कापालिक टंका ने कटाक्ष किया ' मूढ़ ! कदाचित् तुम्हें ज्ञात नहीं ... तुम्हारी इह - लीला के अवसान का क्षण आ उपस्थित हुआ है । मैं अपनी इन्हीं भुजाओं से तुम्हारी बलि देकर माता को प्रसन्न करूंगा । ' ' मुझे ज्ञात है ! ' निर्भीक वाणी में युवराज ने कहा- परन्तु पुत्र की बलि लेकर भला किस माता को प्रसन्नता हो सकती है , कापालिक ? ... और जिसे मैंने अपने हृदय - कमल सहित अपने मन और प्राण समर्पित कर दिये हैं उस निर्मोही की प्रसन्नता के लिए यों भी मैं बलि हेतु स्वयं प्रस्तुत हूँ कापालिक ! ' चंद्रचूड़ के निष्कपट स्वर के कम्पन ने क्षणभर के लिए भुवनमोहिनी की चेतना को कम्पित कर दिया । ऐसा निर्दोष समर्पण ! विस्मित हो सोचा उसने , परन्तु अगले ही क्षण संवेदनाओं की इस दुर्बलता से वह बलात् मुक्त हो गयी । विकट अट्टहास गूंजा कापालिक का । उसके अट्टहास से वायुमंडल में भय का संचार हो गया । भयाक्रांत दर्शक आश्चर्य से भर गये । युवराज की दृढ़ता ने सभी को आश्चर्यचकित कर दिया था । उसके प्रति सबके हृदय से मूक साधुवाद के स्वर फूटने लगे । कापालिक के नेत्रों से निकलने वाली क्रोधाग्नि मंद हो गयी । उसके अधर पर विद्रूप मुस्कान उभर आयी , टंका आज तुम पर अतिप्रसन्न है देवी भुवनमोहिनी ... ! तुमने आज इस अमूल्य मानव तन का उपहार देकर मुझे पूर्ण संतुष्ट किया है ... ! कहो , प्रतिदान में तुम्हें क्या दूं ? ... इस क्षण जो चाहोगी , तत्क्षण तुम्हें प्रदान करूंगा । ' भुवनमोहिनी टंका से कुछ कहती कि तभी उसकी दृष्टि प्रेक्षागृह में उपस्थित कुँवर दयाल सिंह क
ी ओर अनायास चली गयी । कुँवर उठकर दृढ़ता से मंच की ओर चला आ रहा था । कापालिक की दृष्टि भी तत्काल दयाल सिंह पर पड़ी यह अद्भुत तेजस्वी प्राणी कौन है देवी ? ' उत्सुक कापालिक ने कहकर सोचा- ऐसे देवदूत की नरबलि यदि उसे प्राप्त हो जाए तो समस्त जीवन ही धन्य हो जाये ! ' मैं स्वयं विस्मित हूँ कापालिक ! ' भुवनमोहिनी ने कहा- हमारे शंखाग्राम में ऐसा पुरूष - सौंदर्य ! ... यह तो कोई देव - पुरुष प्रतीत होता है कापालिक ! ' तब तक कुँवर मंच पर उपस्थित हो चुका था । उसने शीश नवाकर कापालिक को प्रणाम किया । तत्पश्चात् भुवनमोहिनी की वंदना कर उससे विनती की ' मैं कुँवर दयाल आपके श्रीचरणों में नमन करके कुछ निवेदन करना चाहता हूँ देवि ! आज्ञा हो तो निवेदित करूँ ... ? ' मुग्ध नेत्रों से कुँवर को निहारती भुवनमोहिनी ने हाथ उठाकर आज्ञा दी ' अवश्य ! अवश्य कहो कुँवर ! शंखाग्राम की स्वामिनी भुवनमोहिनी आज इस समारोह में तुम्हारा अभिनंदन करती है । हमारे अंचल में तुम्हारा स्वागत है । तुम्हारी देह - यष्टि एवं मुखाकृति देवताओं के सदृश है । तुम्हारे मुखमण्डल पर अपरिमित तेज की आभा है । तुम्हें अनायास देख कर ऐसा प्रतीत हुआ मानो गंधर्वो के राजकुँवर ही स्वयं हमारे महोत्सव में पधारे हैं । तुम्हें अपने मध्य उपस्थित पाकर मेरा हृदय प्रफुल्लित है ... कहो , तुम कौन हो और क्या कहना चाहते हो ? " कुँवर ने विनीत भाव से कर जोड़ते हुए कहा- मैं देवि कामायोगिनी का शिष्य और एक तुच्छ जिज्ञासु हूँ देवी ! उन्होंने कृपापूर्वक अपने षट्चक्र - नृत्य की मेरी साधना सम्पन्न कराने के उपरांत शेष शिक्षण हेतु , आपके शिष्यत्व में उपस्थित होने की प्रेरणा दी है ... मुझपर यदि आप प्रसन्न हैं ... तो मुझे अपनी शरण में लेने की कृपा कर मेरी अभिलाषा पूर्ण करें
देवी ... ! ' विस्मय - विमुग्ध हो भुवनमोहिनी मुस्कुराई , फिर बोलीं- ' बड़े चतुर हो योगी ... और क्यों न हो ? ... षट्चक्र - नृत्य की विख्यात • नृत्यांगना देवी कामायोगिनी ने जिसे शिष्यत्व प्रदान किया तो वह पुरूष साधारण मानव तो कदापि नहीं हो सकता । परन्तु तुमने अर्द्ध परिचय देकर मुझसे अपना शेष परिचय छिपा लिया है प्रिय ... ! ' कहकर वे हँस पड़ी । फिर हँसते हुए ही पुनः कहा- अपने शंखाग्राम में मैं तुम्हारा स्वागत कर ही चुकी हूँ । अब यह जानकर कि तुम्हें देवी कामायोगिनी ने मेरे पास भेजा है ... मैं पुनः तुम्हारा स्वागत करती हूँ और प्रसन्नतापूर्वक तुम्हें अपना • शिष्य ग्रहण करती हूँ ... परन्तु इसके पूर्व वह कहो , जो निवेदित करना चाहते हो ... ! ' कुँवर ने नतजानु हो भुवनमोहिनी को नमस्कार करते हुए कहा ' देवी ... आपने मुझे शिष्य स्वीकार कर मेरी अभिलाषा पूरी कर दी है ... कृपया अपने शिष्य का सर्वप्रथम नमन स्वीकार करें ! " फिर उठकर उसने विनीत भाव से कहा- देवी अब मुझे निवेदन की आज्ञा दें । ' ' कहो प्रिय ... ! क्या कहना चाहते हो ... ? ' मुग्ध भाव से भुवनमोहिनी ने कहा । ' यदि आप रुष्ट न हों तो शिष्य निवेदन करे । ' ' निर्भय ! निःसंकोच कहो प्रिय ... ! ' मुदित भुवनमोहिनी ने कहा । ' जग में नरबलि की जघन्य - प्रथा सर्वत्र समाप्त हो चुकी है देवी ! हम सभी जगन्माता की संतान हैं ... इस सर्वथा निर्दोषयुवराज के तर्क से मैं शत प्रतिशत सहमत हूँ देवी ... ! अपने ही पुत्र की बलि भला माता कैसे स्वीकार कर सकती हैं ? ' ' चुप हो जा मूढ़ । ' अचानक ही कापालिक की चीख गूँजी . हाथों में चिमटा उठाये कापालिक के नेत्रों से अंगारे बरसने लगे । कुँवर के अत्यंत पास आकर क्रोधित कापालिक ने चेतावनी दी - ' काल - मोह से ग्रस्त युवक ! मेरी उपस्थिति में ही मेरी अवहेलना का दुस्साहस ! मूर्ख , क्या तुझे अपने प्राणों का कोई भय नहीं ? ... क्या तुझे पता नहीं ... तेरी विषाक्त वाणी का प्रतिकार टंका कैसे करेगा ? ... अथवा तूने मेरे विकट कोप के प्रतिकार में स्वयं को समर्थ समझने की भूल कर दी है ? ' ' शांत टंका ... ! शांत ... ! ' भुवनमोहिनी ने अपनी भुजा उठाते हुए हस्तक्षेप किया- ' इस युवक का वह उद्देश्य नहीं जो तुमने समझा है । इसने मात्र अपना निर्दोष विचार प्रकट किया है ... तुम्हारा अपमान अथवा तिरस्कार नहीं किया है ... इसने । ' ' तुम कुछ भी कहो देवी भुवनमोहिनी , परन्तु मैं इसे स्वयं का अपमान ही मानता हूँ । ' क्रोधित टंका ने पुनः कहा - ' इसने तत्काल मुझसे क्षमा याचना न की तो आज सभी देख लेंगे ... किस प्रकार मेरी कोपाग्नि में दग्ध होकर यह तत्काल राख में परिणत हो जाएगा । ' ' ऐसा दुस्साहस न करना टंका ! " शांत स्वर में ही भुवनमोहिनी ने कहा । ' मुझे चेतावनी दे रही हो देवी भुवनमोहिनी ? " भुवनमोहिनी के अधरों पर रहस्यमयी मुस्कान उभरी । मुस्कुराकर उसने कहा - ' कदाचित् तुम्हारे अंहकार ने तुम्हें भ्रमित कर दिया है टंका ! तुम्हारे साथ - साथ शंख
ाग्राम के निवासी भी यही समझते हैं कि तुम्हारे भय से भयभीत होकर मैं नर बलि हेतु प्रत्येक वर्ष एक तरुण तुम्हें अर्पित करती हूँ । परन्तु आज सब जान जाएँ उच्च - स्वर में उसकी उद्घोषणा गूँजी - ' मैं भुवनमोहिनी किसी के भय से नरबलि देने हेतु विवश नहीं हूँ । प्राण - दण्ड प्राप्त अपराधियों को मैं स्वयं दण्डित करूँ अथवा तुम जैसे किसी कापालिक को बलि हेतु दे दूँ , मेरी दृष्टि में दोनों एक ही है । ' भुवनमोहिनी के कथन ने जहाँ शंखाग्राम के निवासियों में उत्साह का संचार कर दिया , वहीं राजमाता अत्यधिक भयभीत हो गयीं । कापालिक टंका कुछ क्षण किंकर्तव्यविमूढ़ रहकर अपमान - बोध के कारण अत्यंत कुपित हो गरजा ' सावधान भुवनमोहिनी ... ! वहीं ठहरी रह ... ! तेरे अहंकार का तत्काल नाश करता हूँ मैं । ' कहते ही अत्यंत वेग से वह भुवनमोहिनी की ओर लपका । समस्त जनों की सांसें जहाँ की तहाँ रूक गयीं , तभी कुँवर । दयाल ने बलपूर्वक टंका की बांह पकड़कर उसे रोका रुक जाओ कापालिक ! तुम्हारा मूल अपराधी तो मैं हूँ ... देवी भुवन मोहिनी नहीं ... ! मेरे प्राण लेकर यदि तुम्हारा क्रोध शांत हो जाए तो मैं प्रस्तुत हूँ कापालिक ! ' क्या कहा ? ' क्रूरतापूर्ण वाणी में कापालिक ने कहा ! ' तू अपना । बलिदान करेगा ? ... हा ... हा ... हा ... ! ' विकट अट्टहास किया उसने । उसकी मुखाकृति पर धूर्ततापूर्ण मुस्कुराहट उभर आयी और उसने कहा- अपनी इच्छा से स्वीकार करता है तू ... बोल , इस धृष्ट युवराज के स्थान पर अपनी बलि देगा ? ' ' अवश्य कापालिक ... ! मेरी बलि दे दे तू ... परन्तु वचन दे मुझे कि यह तुम्हारी अंतिम नर - बलि होगी । मेरे पश्चात तू किसी नरकी बलि नहीं देगा । ' फिर से हँस पड़ा कापालिक । अट्टहास रुका तो उसने कहा ' तेरी निर्भीकता पर प्रसन्न हूँ
मैं ... परन्तु तू क्या इस स्थिति में है युवक कि मुझसे अपनी शर्त्त मनवा ले ? ' यह कहकर कापालिक फिर से हँस पड़ा । वस्तुतः इस देवदूत की कांति वाले तरुण को बलि हेतु प्राप्त होता देख उसका मन अत्यंत मुदित था । परन्तु उसके दुस्साहस ने उसे खिन्न कर दिया । फिर भी , अनायास प्राप्त हुए इस परम सौभाग्य से वह कदापि विमुख होना नहीं चाहता था । उसके नेत्रों में धूर्त्तता भर आयी । धूर्त्तताभरी वाणी में ही उसने पुनः कहा , ' बोल अपनी बलि स्वीकार है तुझे ? ' जनसमूह में कोलाहल भर आया । सबसे बुरी स्थिति आढ़तिया माधव और उसकी पत्नी अमला की थी । अनायास उपस्थित इस संकट को दोनों विवश हो देख रहे थे । हे कमला मैया .. ! रक्षा करना । नेत्रों को बंदकर आढ़तिया माधव ने प्रार्थना की । भगवती बंगेश्वरी ऐसी ही प्रार्थना उसकी पत्नी भी कर रही थी । भुवनमोहिनी मंद - मंद मुस्कराती मौन खड़ी थी । आज इस मूर्ख कापालिक को वास्तविक ज्ञान होना आवश्यक है । अपनी तामसी सिद्धियों के अहंकार में यह मूढ़ कुछ विशेष ही मतवाला हो गया है । तत्काल बने अपने शिष्य की रक्षा में तत्पर हो वह खड़ी खड़ी मुस्कराती रही । ' बोलता क्यों नहीं मूर्ख ... ! ' कापालिक ने फिर से सक्रोध प्रश्न किया - ' अपनी बलि स्वीकार है तुझे ? " ' स्वीकृति तो प्रदान कर ही चुका हूँ कापालिक ! ' कुँवर ने हँसते हुए ही कहा- मेरी बलि तुम्हें स्वीकार है या नहीं इसका निश्चय तुम्हें करना है । यद्यपि मेरे अनुरोध को मानना तुम्हारी बाध्यता नहीं , तथापि वास्तविकता यही है कि मैंने स्वयं अपनी बलि हेतु स्वयं को प्रस्तुत किया है इसीलिए बलि के पूर्व तुम्हें मेरी इच्छा स्वीकार करनी चाहिए ... बोलो ... ! वचन दो मुझे । ' ' यह सत्य है युवक ' कापालिक ने कहा ॥ ' आज तक किसी ने अपनी इच्छा से बलि नहीं दी अपनी । तुमने स्वयं को समर्पित कर वास्तव में मुझे प्रसन्न कर दिया है । तुम पर प्रसन्न होकर तुम्हें एक अवसर प्रदान करता हूँ । तुमसे मैं पाँच प्रश्न करूंगा । तुमने मेरे पाँच प्रश्नों में से किसी एक का भी उत्तर दे दिया तो तुम्हारी इच्छा पूर्ण करते हुए तुम्हें वचन दे दूंगा । तुम्हारे पश्चात् यह टंका कापालिक किसी नर की बलि नहीं देगा । ' कुँवर की प्रतिक्रिया के पूर्व ही देवी भुवनमोहिनी तत्परतापूर्वक कापालिक के समीप आ गयी । मुस्कुराते हुए उसने कहा- यदि मेरे शिष्य ने तुम्हारे सभी प्रश्नों के उत्तर दे दिए , तो क्या करोगे टंका ? ' ' करूँगा क्या ? ... मेरी प्रतिज्ञा तो सर्वविदित ही है ... कापालिक का दृढ़ स्वर गूँजा ' मुक्त कर दूंगा इसे ... साथ ही नर बलि भी समाप्त कर दूंगा । ' ' ठीक है टंका ! ' भुवनमोहिनी ने कुँवर से कहा- तुमने देवी कामायोगिनी के षट्चक्र - नृत्य की साधना की है प्रिये ... ! मुझे विश्वास है ... टंका के प्रश्नों का समाधान सहजतापूर्वक करने में तुम सक्षम होगे । ' प्रत्युत्तर में कुँवर मुस्कराकर रह गया । उसके मौन पर भुवनमोहिनी ने पुनः कहा - ' आज भगवती बंगेश्वरी देवी की अनुकम्पा स
े वह घटित होगा , जो पूर्व में कभी घटित नहीं हुआ ।... टंका की शंकाओं का समाधान करके तुम इससेअपनी शंकाएँ प्रस्तुत करना । प्रत्येक वर्ष टंका ही प्रश्न करता आया है ... आज इससे तुम प्रश्न करना प्रिय .... !! ' जो आज्ञा देवी ! ' कुँवर ने मस्तक झुकाकर कहा- कमला मैया की यही इच्छा है तो , यही हो ! मैं कापालिक के प्रश्नों के लिए तैयार हूँ । ' ' ठहरो ! ' राजमाता ने इस बार अपना मौन तोड़ा- अब इस उत्कल देश के युवराज को बंदी बनाकर रखने का कोई औचित्य शेष नहीं रहा । इसे प्राण दण्ड से मुक्ति प्राप्त हो चुकी है । इसे मुक्त कर उपर्युक्त आसन प्रदान करो ! ' ' हाँ ... हाँ ... मुक्त कर दो इसे । ' कापालिक ने भी उत्साह में कहा । युवराज चन्द्रचूड़ की बेड़ियाँ तत्काल खोल दी गयीं । बेड़ियों से मुक्त चन्द्रचूड़ तीव्रगति से कुँवर दयाल के समीप आया । उसकी आँखें सजल हो गयी थीं । मुग्ध नेत्रों से कुँवर को निहारता उसने अनायास कुँवर को अपने आलिंगन - पाश में पूरी शक्ति से आबद्ध कर लिया । कापालिक टंका के नेत्रों में चमक भर गयी । चन्द्रचूड़ के प्रगाढ़ आलिंगन में आबद्ध कुँवर का प्रभायुक्त नर - तन उसे विमोहित कर रहा था । टंका की कल्पना में भगवती बंगेश्वरी की बलिवेदी साकार हो गयी । उसने मुदित हो देखा - पीठ पीछे दोनों हाथ बांधे यह युवक मलकाठ पर गर्दन रख कर बैठा है । उसके कपाल पर सिन्दूर पुता है और वह अपनी दोनों भुजाओं में गड़ासा उठाये भगवती की वंदना कर रहा है । अपनी कल्पना पर विमुग्ध हो गया टंका । ऐसा निर्दोष मानव तन ! वाह टंका- वाह ... ! धन्य है तू ... धन्य है ! अब उसे क्षण भर भी निरर्थक व्यर्थ न कर इस अमूल्य नर तन को प्राप्त करना है । आतुर हो उसने कहा- बस अब बंद करो यह निरर्थक आलिंगन प्रत्यालिंगन , ' युवराज ! इस हठी क
े कारण अकारण ही तेरे प्राण आज बच गये । अब मुक्त हो तू जीवन का आनंद भोग और मूढ़ युवक ... ! तू तैयार हो जा मेरे प्रश्नों के लिए । ' युवराज चन्द्रचूड़ को अपने आलिंगन से अलग करते हुए कुँवर मुस्कुराया । स्निग्ध नेत्रों से वह मुस्कुराता हुआ कापालिक के समीप आया । ' बोल तैयार है तू ? ' सिद्धि से मदांध टंका ने पुनः पूछा । ' पूछ कापालिक टंका ... ! क्या पूछना चाहता है ? ' हँस पड़ा कापालिक ! पंछी स्वयं जाल में आ पहुँचा । आँखें बंदकर उसने ध्यान किया । हे देवी ... ! इस मूढ़ की प्रज्ञा हर ले तू ... हर ले देवी ! । इसे ऐसा भ्रमित कर दे कि इसकी चेतना और बुद्धि - दोनों स्तम्भित हो जाएँ .... और मैं इसके चमकीले केश खींचता तेरी वेदी तक लेता चला जाऊँ । ' ' किस चिन्तन में डूब गया टंका ' ! मुस्कराया कुँवर । ' तुम्हारे लिए ही प्रार्थना कर रहा था , देवी से ' , कापालिक ने • कुटिलतापूर्ण मुस्कान के साथ कहा - ' तुम्हारी बलि स्वीकार कर तुम्हें मुक्ति प्रदान करने की वे कृपा करें । ' कहकर उसने पुनः • विकट अट्टहास किया । वातावरण पुनः भयाक्रांत हो गया । वातायन में उसकी विषैली हँसी गुंजायमान हो गयी । हँसी रुकी तो उसने कहा - ' बड़े - बड़े योगी ज्ञानी और मुझ जैसे तंत्र - विशारद जिस मुक्ति हेतु • जीवनपर्यन्त साधना और प्रार्थना में निमग्न रहते हैं और फिरभी उन्हें मुक्ति प्राप्त नहीं होती ... आज यह टंका तुम्हें सहज ही मुक्ति देगा ... सहज ! ' ' यह मुक्ति क्या है टंका ? ' - विनोद किया कुँवर ने । ' उत्तम ! ' हँसा कापालिक शिकार ने स्वयं अवसर प्रदान कर दिया ... चलो , प्रथम प्रश्न से ही इसे धराशायी कर दूँ । इस विचार ने उसे अतिप्रसन्न कर दिया । उसने गरजकर कहा- ' मूढ़ , प्रश्न तू नहीं ... मैं करूँगा । तो बता मुझे । मेरा प्रथम प्रश्न यही है • कि ज्ञान क्या है ? जीवन की परम उपलब्धि क्या है और मुक्ति का मार्ग क्या है ? ' कहकर परम संतुष्टि से टंका मुस्कराया । कुँवर ने माता कमला को अपने अंतस् में प्रणाम कर शांत वाणी में कहा- ' क्या सत्य है , क्या असत्य - उसके भेद को जान लेना ही ज्ञान है टंका । किसे कहें है और किसे कहें नहीं है इन दोनों के मध्य भेद - रेखा खींच लेना ही जीवन की परम उपलब्धि है और क्या ' स्वप्न ' है क्या ' यथार्थ , इसके अंतर को समझ लेना ही मुक्ति का मार्ग है कापालिक ! ' देवी भुवनमोहिनी की प्रारंभिक तालियों पर जनसमूह ने करतल ध्वनि करते हुए कुँवर दयाल को साधुवाद दिया । चारों ओर हर्ष की लहरें फैल गयीं । टंका हताश हो गया । देवी भगवती ने उसकी प्रार्थना क्यों ठुकरा दी ? पराजय की कुंठा ने उसे कुपित कर दिया । अब वह स्वयं इसकी मेधा , इसकी बुद्धि हर लेगा । कापालिक ने अपने नेत्रों को बंद कर लिया । मोहन और वशीकरण क्रिया के प्रयोग , अनुष्ठान , पटल , पद्धति और पुरश्चरण को चेतना में भली भाँति स्थापित कर मंत्रोच्चारण प्रारंभ किया । अब वह पूर्ण संतुष्ट था । उसे विश्वास था , उसने इसकी मेधा हर ली थी । अब इसकी बुद्धि
बालक के सदृश अबोध हो चुकी है । संतुष्ट कापालिक के नेत्रों में पुनः धूर्त्तता का संचार हो गया । मंद - मंद हँसते हुए उसने कहा- मेरे प्रथम प्रश्न का तुमने समुचित उत्तर देकर मुझे संतुष्ट कर दिया युवक ! मैंने वचन दिया था तुम्हें । मेरे एक भी प्रश्न का तुमने समाधान कर दिया तो तेरी बलि के उपरांत यह कापालिक टंका पुनः किसी नर की बलि नहीं देगा । आज मैं इस स्थल पर इसकी घोषणा करता हूँ । शंखाग्राम के निवासियों को मैं इसी क्षण से भय मुक्त करता हूँ ।'- कहकर कुटिलतापूर्वक मुस्कराते हुए उसने कुँवर की आँखों में अपनी दृष्टि गड़ा दी । ' तुम्हारे बुद्धि - कौशल और मेधा अपूर्व है , युवक ! मैं तुमपर प्रसन्न हूँ और अपना दूसरा प्रश्न इसी विषय पर करता हूँ । ध्यान से मेरा प्रश्न सुनो और अच्छीतरह विचारकर सावधानीपूर्वक इसका उत्तर दो ... यह बुद्धि क्या है ... बुद्धि में संशय क्यों होता है और इस द्वंद्व से मुक्ति कैसे संभव है ? ' ' चतुर कापालिक ! ' हँसकर कहा कुँवर ने एक प्रश्न के नेपथ्य में तुम तीन प्रश्नों को उपस्थित कर देते हो । अपने प्रथम प्रश्न में तुमने यही किया था और द्वितीय में भी ... परन्तु फिर भी मैं बताता हूँ तुम्हें ... ध्यान से सुनो ! शक्ति ही चेतना है , चेतना ही मेधा और मेधा ही बुद्धि है । परन्तु , जहाँ बुद्धि है , वहाँ संशय है और जहाँ संशय है , वहाँ द्वंद्व है । द्वंद्व मनुष्य का स्वभाव है । धैर्यपूर्वक द्वंद्व से पार हो जाना ही तपश्चर्या है । इस तपश्चर्या से ही द्वंद्व से मुक्त हुआ जा सकता है और कोई विकल्प नहीं । ' पुनः करतल ध्वनि के मध्य टंका का मन करने लगा कि वह अपनी लम्बी जटाओं को नोंचकर फेंक दे । प्रथम बार उसके मंत्र निष्फल हुए थे । असंभव ही घटित हुआ था उसके जीवन में यह भला संभव कैसे हुआ
? सोचा उसने । उसने पूरी एकाग्रता से मंत्रों का विधिपूर्वक संकल्प के साथ संधान किया था , फिर यह किस प्रकार असफल हो गया ?' तृतीय प्रश्न उपस्थित करो टंका ! ' यह मधुर स्वर देवी भुवनमोहिनी का था - ' तुम्हारी चतुराई मैंने देखी थी , परन्तु फिर भी मौन थी । अपना तृतीय प्रश्न पूछो । ' देवी भुवनमोहिनी के कारण टंका को अतिरिक्त अवकाश न मिला , अन्यथा अन्य अमोघ प्रहार का विचार वह अवश्य करता । तभी कुँवर ने भी और पास आकर कह दिया , ' हाँ ... हाँ ... कापालिक ! क्या है तुम्हारा अगला प्रश्न ? ' कुपित टंका ने कहा- यह जीवन क्या है और जीवन पर्यन्त मनुष्य करता क्या है ? सावधानीपूर्वक विचार करके बताओ अन्यथा बलि हेतु तैयार हो जाओ ! " ' जीवन एक अज्ञात यात्र है कापालिक । इसका प्रारंभ और अंत एक समान नहीं होता । अंत सदा अनिर्णीत है । । मनुष्य जो इच्छा करता है , वह सदा पूर्ण होती नहीं । इसीलिए जीवन की प्रारम्भिक इच्छा इसकी अंतिम निष्पत्ति नहीं । मनुष्य अपने भाग्य के निर्माण में चेष्टारत तो हो सकता है , परन्तु अंतिम निर्णय उसके वश में नहीं होता , निष्पत्ति विधि के अनुसार ही होती है और जैसा कि तुमने पूछा है जीवन पर्यन्त मनुष्य करता क्या रहता है तो मेरे विचार से जीवन पर्यन्त वह मरने के अतिरिक्त और कुछ नहीं करता । मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन मृत्यु का एक निर्धारित क्रम है , जिसका प्रारंभ मनुष्य के जन्म से होकर मृत्यु में पूर्ण होता है । " कुँवर के कथन ने परिवेश को मौन - शांत कर दिया । व्याकुल कापालिक अति सावधान हो चिन्तनमग्न हो गया । यह युवक वह नहीं , जो दीखता है । उसके अमोघ मंत्र इस पर निष्प्रभावी हो गये । इसके नेपथ्य में अवश्य कोई महान् रहस्य है । इसके स्वरूप को पूर्णरूपेण जाने बिना उसकी योजना निश्चय ही असफल हो जाएगी । वास्तव में यह है कौन ? और वह कौन - सी अदृश्य शक्ति है , जिसका आश्रय इसे प्राप्त है ? इन्हीं विचारों में वह मग्न हो गया । इसी क्षण देवी भुवनमोहिनी ने कुँवर को पास बुलाकर मंद स्वर में कहा- ' कापालिक टंका ने मंत्र - बल से तुम्हारी चेतना कुंद करने की अफसल चेष्टा की थी प्रिय ! मुझे सुखद आश्चर्य है कि माता आदि शक्ति ने स्वयं तुम्हारी सहायता की । परिणामस्वरूप , इस विकट कापालिक की धूर्त्तता व्यर्थ हो गयी । परन्तु अब तुम्हें अत्यंत सावधान हो जाना है प्रिय ! यह दुष्ट अब कुछ भी कर सकता है । ' ' आपने सत्य ही कहा है देवि ... ! परन्तु आप चिन्तित न हों ... मुझे मेरी माता पर पूर्ण विश्वास है । यों भी सदाचार को नष्ट करने की शक्ति कदाचार में नहीं होती है देवि ... ! ' । संतुष्ट हो गयी देवी भुवनमोहिनी । प्रसन्न होकर उसने कहा ' तुम्हारा कल्याण हो वत्स ... ! परन्तु सावधान रहना आवश्यक है । ' ' मैं सावधान ही हूँ देवि ... ! और अब तो आपकी भी शुभकामनाएँ मेरे साथ हैं । मुझे आज्ञा दें तो कापालिक के सम्मुख जाऊँ । ' ' जाओ प्रिये ! ' कुँवर जब लौटकर टंका के पास पुनः आया , तब अपने नेत्र बंद किये अपनी योगिनियों
का आह्वान कर रहा था । ' हे तमोगुणी योगिनियो ! आज तुम्हारा अनन्य भक्त टंका तुम्हारा आह्नान कर रहा है । मैंने तुम सबको संतुष्ट कर डाकिनी , शाकिनी , हाकिनी , धूमावती , नागमोहिनी , अधोर , कपालसंकलिनी , प्रेत , पिशाच और वैताल विद्याओं को सिद्ध किया है । मारण , मोहन , वशीकरण , उच्चाटन , विद्वेषण , शांतिकर्म आदि षट्कर्म तथा विभिन्न प्रकार के तमोगुणी तांत्रिक । सिद्धियों के विकट अनुष्ठान करके मैंने पूर्णता प्राप्त की है । क्या मेरी समस्त सिद्धियाँ इस एक अकेले मानव के समक्ष परास्त हो जाएँगी ? क्या तुम सब यों मेरी उपेक्षा कर दूर खड़ी मूक बनी रहोगी ? आओ मेरे पास आओ ... !! तत्काल नृत्यमंच का वायुमण्डल भारी हो गया । समस्त योगिनियां सूक्ष्म रूप में टंका के समक्ष आ उपस्थित हुई । ' हे माता आदि शक्ति ! ' -योगिनियों के सूक्ष्म अस्तित्व का भान होते ही भुवनमोहिनी ने नेत्रों को बंद कर प्रार्थना प्रारंभ कर दी । और विजयी भाव से मुस्कुराते कापालिक टंका ने अपने नेत्र खोले । कुँवर उसके समक्ष शांत भाव से खड़ा था । कापालिक को नेत्र खोलते देख उसने शांत भाव से ही कहा ' चिन्तन हो चुका हो तो प्रश्न करो टंका ? " ' इतने प्रसन्न मत हो मूढ़ ! ' आक्रोशित टंका ने समस्त योगिनियों को उपस्थित पाकर विषाक्त मुस्कान के साथ कहा- बता वह क्या है जिसके न होने की सम्भावना ही नहीं और वह क्या है , जो न कभी था और न कभी हो सकता है ? ' जनसमुदाय में व्याकुलता भर गयी । लोगों में कानाफूसी होने लगी । इस प्रश्न में रहस्यमय चतुराई भरी है । कापालिक ने अबूझ प्रश्न किया है , इस बार उसने इस युवक को वाक् - जाल में उलझा दिया है । इसे प्रश्न बदलना होगा । चतुर्दिक् ऐसी ही चर्चा होने लगी , परन्तु कुँवर हँस पड़ा । ' तुम्हारे प्रश्नों में तुम्हा
री जिज्ञासा नहीं है टंका ! ' कुँवर ने विहँस कर कहा - ' अपने प्रत्येक प्रश्न के उत्तर तुमने पूर्व से ही निर्धारित कर रखा है और यह भी सत्य है कि मेरे उत्तर तुम्हारे द्वारा पूर्व • निर्धारित उत्तर से अलग हैं , फिर भी मैंने जो कहा है , वह शाश्वत है । इसीलिए तुम्हें विवश होकर सहमत होना पड़ रहा है । इस बार तुम्हारे चतुर्थ प्रश्न में तुम्हारी धूर्त्ततापूर्ण चतुराई छिपी है , फिर भी सुन- ' तुमने पूछा है । वह क्या है , जिसके न होने की सम्भावना ही नहीं , तो मेरा उत्तर है- जो सदैव से है जिसके न होने की सम्भावना ही नहीं , वह ' सत् ' है और कभी नहीं था और फिर कभी नहीं हो सकता है , वही ' असत् ' उत्तर देकर कुँवर शांत भाव से मुस्कुराया और प्रेक्षागृह जन • समूह की करतल ध्वनि से पुनः गूंज उठा । व्यग्र कापालिक ने व्यथित हो अपनी योगिनियों को बंद नेत्रों से देखा । उसकी अतीन्द्रियों में विस्मय भर गया । कुष्ठ - ग्रस्त एक बुढ़िया ! उसके चतुर्दिक् आनंदमग्न योगिनियाँ कर जोड़े खड़ी थीं । कौन है यह बुढ़िया ? इसके रोम - रोम से घृणित कुष्ठ का स्राव हो रहा है और ये योगिनियाँ चारों ओर से इसे घेरे आनंदित हो रही हैं । अपनी चेतना को एकाग्र कर उसने जिज्ञासा की । वीणा के तार - सी मधुर वाणी उसके अंतस् में गूंजी- ' मूर्ख ! इनके वास्तविक स्वरूप के दर्शनों का अभी तू अधिकारी नहीं बना है । योगियों के सहस्त्रों जन्मों के पश्चात् ही जब उनके पुण्य का उदय होता है तो वे इनके स्वरूप दर्शन के अधिकारी होते हैं । तुमने इनके वीभत्स रूप का दर्शन कर लिया , इसे ही इनकी कृपा और अपना सौभाग्य मान और इनके कृपा - पात्र उस नर - रत्न की शरण ले , जिसकी बलि की लालसा में तू अपने ही सर्वनाश को उद्यत है । 'चकित टंका ने तदुपरांत अपने मानस में देखा , मुस्कराते हुए युवक के शरीर की आभा सूर्य के समान प्रज्वलित हो गयी है और कुष्ठ - पीड़ित वह वृद्धा उसके ही अंदर खड़ी मंद - मंद मुस्करा रही है । ज्ञान - चक्षु के खुलते ही कापालिक के नेत्र खुल गये । उसके नेत्रों से जल - प्रवाह प्रवाहित होने लगा और वह कुँवर के प्रति अगाध श्रद्धाशिक्त हो तत्काल दंडवत् हो गया । ' क्षमा स्वामी ... ! ' लेटे हुए ही उसने मस्तक उठाकर कर जोड़ते हुए कहा- मुझे क्षमा प्रदान करें , अब किसी और प्रश्न की धृष्टता मैं नहीं कर सकता स्वामी ! ' कह कर कापालिक वहीं नतजानु होकर बैठ गया । उसके नेत्रों से अविरल अश्रु प्रवाहित होने लगे । अत्यंत विनीत स्वर में उसने पुनः कहा- मुझ मूढ़ को उपदेश दें स्वामी ... ! मैं अपनी शक्तियों के मोह से मोहित हो गया था ... मुझे उपदेश देकर मेरे अंतस् के अंधकार को समाप्त कर दें , स्वामी ... !! ' शांत हो कापालिक ... शांत ! ' करुणा से भरे कुँवर ने कहा- तुम्हें कदाचित् भ्रम हो गया है । मैं न कोई सिद्ध हूँ न योगी । मैं कोई संत - महात्मा भी नहीं हूँ , कापालिक ! मैं तो एक साधारण विवश मानव हूँ , जो प्रयोजनवश पहले कामरूप और अब शंखाग्राम आया है । देवी कामा
योगिनी ने कृपा करके मुझे कामरूप में शिक्षा दी और उनकी ही प्रेरणा से इस शंखाग्राम में देवी भुवनमोहिनी की शरण में उपस्थित हूँ । प्रयोजन पूर्ण होते ही अविलंब अपने अंचल में लौटना है मुझे । मुझ पर और मेरे अंचल पर बड़ी भारी विपदा आन पड़ी है , जिसका निवारण किये बिना मुझे शांति नहीं प्राप्त होने वाली है । इसीलिए , उठो कापालिक ... ! मैं तुम्हारी श्रद्धा - भक्ति के अनुकूल नहीं ... मुझ पर प्रसन्न हो तो मुझे अपना स्नेह प्रदान करो ! " ' नहीं स्वामी ... ! मुझे अपने उपदेश से अनुगृहीत करें ! मेरी समस्त शक्तियाँ आज क्यों इस प्रकार निष्फल हो गयीं ? यह अकारण नहीं हो सकता स्वामी ! ' ' तुम शक्ति के उपासक हो कापालिक ; क्योंकि तांत्रिक साधना का अर्थ ही है शक्ति की साधना शक्ति स्वयं में निष्पक्ष और निरपेक्ष होती है टंका । शक्ति स्वयं में न शुभ है , न अशुभ परन्तु , शक्ति न किसी का कल्याण करती है न अकल्याण । अग्नि से प्रकाश भी हो सकता है और आग भी लग सकती है । परिणाम तो प्रयोग पर निर्भर है । यह शुद्ध अंतःकरण वालों को भी उपलब्ध हो सकती है और शुद्ध अंतःकरण वालों को भी और विडम्बना यह है कि शुद्ध अंतःकरण वाले साधकों को यह शीघ्र ही उपलब्ध हो जाती है । ' ' वह क्यों स्वामी ? ' विस्मित टंका ने जिज्ञासा की । ' क्योंकि शक्ति की आकांक्षा शुद्ध हृदय की आकांक्षा है । शुद्ध अंतःकरण वाले साधक - गण शक्ति की साधना शक्ति - अर्जन के लिए नहीं , अपितु शांति और आनंद की उपलब्धि के लिए करते हैं । शक्ति शुद्ध हृदय की वासना है और शुद्ध हृदय की कामना । शक्ति से शुद्धि और अशुद्धि का कोई सम्बन्ध नहीं है , क्योंकि इसकी उपलब्धि होती है साधना से । ' ' शक्ति का स्रोत क्या है स्वामी ? ' उत्सुक टंका ने पूछा । ' शक्ति का स्रोत मन है । जब
हम क्रोध में होते हैं तो मन स्थिर हो जाता है । इसीलिए क्रोधी मनुष्य को ऐसा आभास होता है कि उसकी शक्ति कई गुणा बढ़ गयी है । वास्तव में क्रोध में स्थिर मन एकाग्र हो जाता है और एकाग्रता से शक्ति उत्पन्न होती है । अच्छे और बुरे हृदय में शक्ति का स्रोत एक ही है ,परन्तु हृदय- हृदय में अंतर है । यदि हृदय शुद्ध है तो शक्ति अमृत का कार्य करेगी और हृदय शुद्ध है तो वही शक्ति विष बन जायेगी । मेरी कामना है कापालिक की तुम्हारी विषाक्त शक्तियाँ अमृत बन जाएँ । इससे तुम्हारा भी कल्याण होगा और जगत का भी । ' गद्गद् हृदय से उठकर टंका खड़ा हो गया- आपके आदेश का इसी क्षण से पालन होगा स्वामी ! अब यह टंका कापालिक आपकी ही सेवा में रत होकर जगत के कल्याणार्थ ही कार्य करेगा । मैं मूढ़ ... अज्ञानी अपनी तुच्छ सिद्धियों के अहंकार मद में चूर था ... मुझे क्षमा करें ! मैं आज और इसी क्षण से आपका दास बन गया स्वामी ... ! मुझे आज्ञा दें ... ! आपकी प्रसन्नता के लिए मैं क्या करूँ ? ' मंद - मंद मुस्कराते हुए दयाल ने कहा- ' अपने आराध्य की • प्रसन्नता के लिए तुमने आज तक जो भी उचित अथवा अनुचित किया , सम्पूर्ण समर्पित भाव से किया । क्षमा अथवा पुरस्कार .... जो देना होगा तुम्हें वही देगा कापालिक ! ... और मैं तुम्हें स्वामी नहीं , मित्र भाव से स्वीकारूँगा । तुम्हें स्वीकार हो तो आओ ... ! ' कहकर दयाल ने अपनी दोनों बांहें फैला दीं । पाषाण में भी जल होता है , नहीं तो टंका की आँखें कैसे भर । आई ? विह्वल कापालिक लिपट गया अपने स्वामी से हर्षातिरेक में वादकों की हथेलियाँ बरबस मृदंग पर जा पहुँची और प्रेक्षागृह के नर - नारी हर्ष में कोलाहल करने लगे । करतल ध्वनि से समस्त वातावरण गूंज उठा । कुँवर के आलिंगन से मुक्त होकर कापालिक ने अपना । मुण्डमाल उतार कुँवर को समर्पित कर कहा- मेरी समस्त सिद्धियां आपको समर्पित हैं स्वामी ! कृपाकर इसे ग्रहण कर मुझे अनुगृहीत करने की कृपा करें । आपके ग्रहण करते ही यह मुण्डमाला स्थूल नेत्रों से अदृश्य होकर सूक्ष्म रूप में सदा आपके साथ रहेगी । इसे ग्रहण करें स्वामी ... ! " आश्चर्य से सभी की आँखें फैल गयीं । कुँवर ने ज्यों ही अपने वक्षस्थल पर कापालिक का मुण्डमाल ग्रहण किया ... भक्क की ध्वनि हुई और वह तत्काल अदृश्य हो गयी । ' अब मुझे आज्ञा दें तो मैं देवी भुवनमोहिनी सहित समस्त । उपस्थित जन से क्षमा याचना करना चाहता हूँ । ' कापालिक ने कर जोड़कर कहा । कुँवर के अधरों पर स्नेहिल मुस्कान खेलने लगी । उसकी मूक सहमति पर हँसती हुई भुवनमोहनी ने आगे आकर कहा ' इसकी अब कोई आवश्यकता शेष नहीं टंका । इस मनमोहन ने तुम्हारे सम्पूर्ण व्यक्तित्व को परिवर्तित कर स्थिति ही बदल दी है । सकारात्मक स्वरूप ग्रहण करते ही तुम्हारी समस्त शक्तियां स्वयमेव द्विगुणित हो जाएँगी ... विश्वास करो ... ! ' ' आपका आभारी हूँ देवी ... ! इस अहंकारी कापालिक ने आपके भी गुप्त स्वरूप को आज ही पहचाना है । आप महान् हैं देवी ... ! मुझे क
्षमा करते हुए प्रस्थान की आज्ञा दें ... ! ' ' जाओ ... प्रसन्नतापूर्वक जाओ टंका ! ' भुवनमोहिनी ने आशीर्वाद की मुद्रा में कहा- ' तुम्हारा कल्याण हो ! ' टंका ने विनयावनत हो कुँवर को करबद्ध हो कर कहा- यह दास सदा - सूक्ष्म रूप में आपके साथ उपस्थित रहेगा स्वामी ... ! परन्तु दास के इस स्थूल शरीर को अब आज्ञा दें ... ! '
सागर के धूसर नील पानी में साँझ का सूरज डूब गया। साथ में दया का दिल भी - हे देवा! आज क्या मुँह लेकर घर जाऊँगा! रूप आस लगाकर बैठी होगी... हथेली में अपना पूरा मन बाँधे उसने आकाश को देखा - कुछ जतन करो भगवन! ऐसे तो गुजर नहीं होगी। सात दिनों से दरिया का पानी लिसरा पड़ा है - काले-काले तेल के चकत्तों से भरा हुआ... कहीं दूर बीच समंदर में तेल का जहाज डूबा है। हजारों लीटर तेल हर क्षण पानी में रिस रहा है, लहरों पर तैरकर किनारे तक पहुँच रहा है, जल के जीव मर रहे हैं। हर तरफ हाहाकार मचा है। बड़े जहाजवालों को परेशानी नहीं। वे दरिया में दूर निकलकर मछली पकड़ लाएँगे। मगर उन जैसों का क्या? छोटी-सी नाव उसकी, वहशी लहरों की चपेट में आकर चिंदी-चिंदी हो जाएगी। वह अपनी औंधी पड़ी नाव को सूनी आँखों से देखता है फिर पाँव पर लहराते दरिया को - जरा तू ही सिमटकर छोटा हो जा, मेरी नाव तुझे नाप ले... दो बित्ते की नाव और चार बित्ते का सागर... बोल, होगा...? वह उम्मीद से भरकर पानी को निहारता है और फिर एकदम नाउम्मीद हो जाता है। लहरों पर कालिख का चमकता हुआ वरक चढ़ा है। रेत पर मरती हुई मछलियों की तड़प बिखरी पड़ी है। दूर एक पक्षी अपने तेल लिथड़े पंखों से उड़ने के प्रयास में बार-बार छटपटा रहा है। दया के अंदर उदासी के गहरे बादल उमड़ते हैं। नहीं, अब कुछ न हो सकेगा। अपने थके कदमों से वह उठकर घर की ओर चल पड़ता है - एक कदम आगे तो दो कदम पीछे। पीछे समंदर की बोझिल लहरें उसाँसें लेती-सी किनारे पड़ धीमें पाँव आतीं, लौटती हैं। तेल के मैले जजीरों ने उसकी गति बाँध दी है, देह में विष की पुडिया घोल दी है। वह जीए तो कैसे। दया उसके सवाल सुनता है और अपना भूल-भूल जाता है। ग्राम देवता के थान पर माथा टेककर दया बाहर निकला तो उसका हृदय थोड़ा शांत था। आखिर उनके माथे पर उनके पितरों, देवचर, रावलनाथजी के हाथ हैं। एकदम तो बह जाने नहीं देंगे। कुछ न कुछ तो होगा, आज नहीं तो कल। जब वह बोझिल कदमों से घर पहुँचा तो रूप को अपने लिए इंतजार करते हुए पाया। वह आँगन में तुलसी चौरे के पास दीया बाले बैठी थी - सज-धज के। शायद कहीं जाना था उसे। बहुत सुंदर लग रही थी - पूनम के चाँद की तरह। माथे पर आधे चाँद की बिंदी, लाल नौवारी साड़ी, सोने का मंगलसूत्र, हरे काँच की चूड़ियाँ। दया उसे निष्पलक देखता रह गया। गभर्वती होकर उसका लावण्य दिन-दिन बढ रहा है। ऐसे समय में उसे और सुख, जतन देने की दरकार है। दया के मुँह से अनायास आह फिसल जाती है। उसकी आहट पाकर रूप चौंक कर उठ आती है - कितनी देर लगा दी। आज मुझे कलशी फुगड़ी में जाना है, याद नहीं? पूरे गाँव की सुहागनें जुट रही हैं भूमिका देवी के मंदिर में। नीलू की मौसी चार बार हाँक मारकर गई है। 'अभी आई, अभी आई' करके तबसे टाल रही हूँ। चलो, तुम्हें खाना परोस दूँ। अब और नहीं रुक सकती। दया चुपचाप आसन पर बैठ जाता है। आज नहाने का भी मन नहीं। आँगन के एक कोने में कंडे की नीली आँच पर ताँबे की बड़ी गगरी में नहाने का पानी गरम ह
ो रहा है। काँसे की बड़ी किनारी टूटी थाल पर नाशनी की काली, मोटी, अनगढ रोटियाँ और सूखी नारियल की चटनी। दया चुपचाप खाता है। आज कोई हील-हुज्जत या माँग नहीं। अच्छे बच्चे की तरह गस्सा तोड़ रहा है, कौर निगल रहा है। उसे देख-देखकर रूप का हृदय टूट रहा है। हाय री मजबूरी! जो दया कभी मछली के बिना खाना मुँह से नहीं लगाता था, आज कैसा चुपचाप रोटी, चटनी खा रहा है। दया जानता है, रूप की आँखें उसी पर लगी है, इसलिए एक बार भी नजरें नहीं उठाता। सर झुकाकर अपने सूखे निवालों से जुझता रहता है। रूप के घर से निकलकर जाने के बाद ही वह उठकर हाथ धोता है और फिर गोबर लीपे आँगन में चाँपा के फूलते पेड़ के पास चटाई बिछाकर लेट जाता है। रात रानी और चंपा की मीठी गंध से हवा बोझिल है। आकाश के झक, नील सीने पर पूनम का पूरा चाँद फटा पड़ रहा है लगता है, गाँव के मंदिर में औरतों की फुगड़ी शुरू हो गई है। उनके समवेत स्वर में गाने की आवाज सुनाई पड़ रही है। आज ये औरतें भूमिका देवी तथा वन देवी की स्तुति में सारी रात नाचेंगी, गाएँगी। अपनी चिंता के गहरे भँवर में डूबता-उतराता न जाने कब दया को नींद आ गई थी। भोर रात को रूप फुगड़ी से लौटकर उसके बगल में लेटी तो उसकी नींद उचट गई। उस समय पूरब में सुपारी के जंगल के ऊपर आकाश का रंग गहरा काशनी हो रहा था। ठंडी बहती भोर की हवा में कहीं आसपास रातभर झरते हरसिंगार की बासी-उनींदी गंध थी। दूर दरिया के गर्जन में जल पक्षियों का उदास शोर घुला हुआ था। दया का मन अनचन कर उठा। समंदर रो रहा है, धरती और आकाश भी। सबको उसकी जरूरत है जैसे। वह बिस्तर से उठकर दरिया की और चल देता है। रास्ते में माधव और अंकुश भी मिलते हैं। सबकी आँखों में जगार है, सबके चेहरे पर चिंता। भविष्य जब अधर पर लटक रहा हो, वर्तमान में कौन स
ंतुष्ट रहेगा। सबका भगवान ये दरिया है और अब यह दरिया ही बीमार पड़ गया है। नील देह पर कालिख पुती है, लहर-लहर हल्कान। हुआ जा रहा है। 'क्या होगा और कब होगा!' मंगेश का सर भन्नाया हुआ है। चार दिनों से घर में अन्न का दाना नहीं, बच्चे बिलख रहे हैं। 'किसको पड़ी है हमारी। हजार झंडे, हजार पार्टियाँ। कोई इसे कोस रहा है, कोई उसे कोस रहा है। बीच में मर रहे हैं हम। कोई ईमान से बताए, किसके राज में हम सुख से रहें? अगर किसी का भला हुआ तो बस इन्हीं नेताओं का। गरीब की चिता की आग पर रोटियाँ सेंकनेवाले गिद्ध... मंगेश की आँखों में खून था, आँसू सारे कबके बह चुके थे। तान ने उसे बढ़कर सँभाला, वर्ना न जाने वह किसकी जान ले लेता। रामा अपना सर पकड़े अब तक चुप बैठा था। मंगेश की बातें सुनकर उसके खून में भी आग लग गई। काँपते हुए उठा और गुर्राया - अरे, हमने कब इनसे सुख-सुविधाएँ माँगी थी। कुदरत ने हमें जो दिया था, हम उसी में संतुष्ट थे। सर पर आकाश था, नीचे धरती का बिछौना... अपने जल, जंगल, जमीन से हमें सब कुछ मिल जाता था - दो वक्त की रोटी, नींद और सुकून... मगर अब तो सब छिन गया। न गरीब के सर पर आकाश रहा, न पाँव के नीचे जमीन... आजादी, उन्नति, आधुनिकता के नाम पर सब झपट ले गए! उस रात पंचायत घर के आँगन में भी देर रात तक बैठकी होती रही। अभाव, असुविधा और भूख ने सभी को बेहाल कर रखा था, उत्तेजित भी। एक आर-पार की लड़ाई के लिए सबकी मुट्ठियाँ रह-रहकर बँध रही थी, जबड़े कस रहे थे। हवा में चिनगारी के कण तैर रहे थे, बस एक आगाज की दरकार थी। रघु के तेवर सबसे उग्र थे, जवान खून था, पूरे उबाल पर - 'कोई कहेगा दद्दा, ये हमारा वही गोवा है? कभी यहाँ हरियाली, समंदर और चारों तरफ खुशहाली थी। और अब...? - सिर्फ मरती हुई मछलियाँ और कंगाल होता दरिया... टूटी हुई नाव की तरह है हाल हमारा, न पानी में उतर सकते हैं, न किनारे पर टिक सकते हैं; हमारा तो दोनों कूल गया!' 'रोज नए-नए कानून बनाकर ये हमसे हमारी जमीन और दरिया हथियाने में लगे हैं। ऐसे तो हम जल्दी ही बेदखल हो जाएँगे।' धीरे-धीरे अपनी बात कहते हुए नरेन की आवाज में गुस्से से ज्यादा चिंता थी। अगले ही महीने उसकी छोटी बहन की शादी होनी तय हुई थी। 'हो क्या जाएँगे पूत, समझो हो गए। कल ही कलंगुट के मछवारों को अपना गाँव खाली करके जाने की सरकारी नोटिस मिली है। कहते हैं, समंदर के इतने पास नहीं रह सकते, अब कहो, समंदर ही हमारा सदियों का पड़ोसी, मछली को भी पानी से खतरा होता है...!' गोकुल की बात सुनकर सबके चेहरे का रंग उतर गया था। दरिया तो उनके नसों में बहता हैं, वे दरिया से दूर जाकर कैसे जिएँगे! काँच के बक्से में कभी दरिया बँधता है, कि मछली ही जीती है। कभी पाँच सितारा होटल के नाम से जगह घेरी जा रही है तो कभी कालोनियाँ जमीन निगल रही है। अब स्थानीय लोग कहाँ जाएँ। जहाँ पाँव रखो, लोग आँखें तरेरते आ जाते हैं। कुदरत का तोहफा ये कैसे इस तरह से बेचकर खा सकते हैं? अंधेर है... अनपढ़ लोगों के दिमाग में
सवाल तो उठते हैं, मगर जवाब नहीं सूझते। दया आकर बगल में लेटा तो रूप ने अपनी आँखें बंद की। अब तक उसी के इंतजार में जाग रही थी। जब तक दया घर नहीं लौट आता, उसे चैन नहीं मिलता। आजकल दिन ही ऐसे पड़े हैं। चारों तरफ अशांति और झमेला। रूप को चिंता होती है। दया भावुक है, जोश में कुछ कर-करा न बैठे। उसे अपने पहले बच्चे के जन्म के लिए माँ के घर जाना था, मगर यहाँ की हालत को देखते हुए वह अब तक बात टालती आ रही थी। वह अकेली पड़ी सोचती और सोचती है। न जाने ये दिन कब बदलेंगे। कब पहले जैसा जीवन होगा - निश्चिंत और खुशियों से भरा । उसे वे दिन याद आते हैं जब उन दो जनों का छोटा-सा परिवार हर तरह से खुशहाल था। दया रात-रातभर नाव लेकर मछली पकड़ने के लिए दरिया में रहता था। बारिश के बाद नारियल पूर्णिमा में समंदर की पूजा कर मछेरे अपनी-अपनी नाव लेकर पानी में उतर जाते थे। यह मछली का मौसम होता था। खूब मछलियाँ मिलती थी। घर में पैसा आता था। दो साल पहले बारिश के बाद जब दया ने मछली बेचकर बहुत पैसा कमाया था, उसके लिए दो तोले का बाजूबंद खरीद लाया था। कुछ साल पहले यही मार्च का महीना - कपास की खुलती गाँठों और हवा में बेहिसाब उड़ते आवारा फूलों के दिन... गहरी उमस में पसीना और नींद से बोझिल तन-मन! कोंकण समुद्री पट्टी का आम मौसम, हमेशा की तरह... उस दिन भी दया दरिया से सुबह-सुबह लौटकर सीधे बाजार गया था। हाँ बाबा! वह भूल सकती हूँ। रूप ने सूखी मछली का संबल आगे बढ़ाया था, अल्मुनियम की कटोरी भरकर - जितना चाहे मनभर खा लो। कल मंगलबार है। मछली नहीं पकेगी। 'यानी वही तेरी दाल और अचार... दया ने मुँह बनाया था। 'हाँ, और क्या? रूप के होठों पर हँसी काँप रही थी। 'तो फिर कच्चे केले की भाजी बना देना।' 'सो दूँगी।' 'खूब सारी हरी मिर्च और कसा
हुआ नारियल डालकर!' 'हाँ बाबा...' 'सरसों के साथ करी पत्ते का छौंक लगाना न भूलना! 'नहीं भूलूँगी, बस? चम्मच से नारियल की सूखी चटनी उसकी थाल में डालते हुए अब रूप ने आँखें तरेरी थी। दया मुस्कराकर खाने लगा था - रुक, रात को मजा चखाता हूँ। बहुत मस्ती चढ़ी है तुझे। चल, अब मटकी से उर्राक (काजू की शराब) डालकर ला। ठंडा हुआ होगा।' 'भट्टी से तो चढ़ाकर ही आए हो, और कितनी पियोगे! हल्के गुस्से में रूप के होंठ सुज गए थे। ऐसे में वह बहुत प्यारी दिखती है। दया ने उसे आँख भर देखा था - 'चल मेरी सानी, थोड़ी और पिला दे। देख तो कितनी गर्मी पड़ रही है। समंदर भी सूखता जा रहा है, फिर मैं तो इनसान ठहरा।' 'ज्यादा बातें मत बना, समंदर तेरी तरह बेवड़ा नहीं है।' खाना खकर दया आँगन में उतरकर कुल्ला कर आया था। 'जरा-सा लेटूँगा। नंदिनी को नीचेवाले गोठे में बाँधकर आ। सुबह से रँभा रही है। गर्मी में आई है। सोने नहीं देगी।' भूना हुआ सौंफ फाँकते हुए वह चटाई पर जा लेटा था। गाय को दूसरी जगह बाँधकर रूप हाथ पंखा लिए उसके बगल में आ बैठी थी - अच्छा दया, मोर्चे का क्या हुआ? 'होना क्या था, दया की पलकें बोझिल हो रही थी - बड़ी-बड़ी कंपनियों के जहाज हैं दरिया में। उन लोगों ने खूब खिलाया-पिलाया है मंत्रियों को। हम गरीब मछेरों के जाल उनसे टूटते-फूटते हैं तो परवाह किसे है। राजनेताओं के अपने स्वार्थ है, व्यापारियों के अपने। बीच में घुन की तरह पिसते हैं हम गरीब। 'तो क्या कुछ भी न हो सकेगा?' रूप की आवाज में चिंता थी। आखिर मछली पकड़ना उनकी आजीविका का एकमात्र साधन था। आए दिन समंदर में मछली पकड़नेवाले बड़े-बड़े जहाज उतर रहे थे। उनके रास्ते में आकर गरीब मछेरों के छोटे जाल टूटते रहते थे। पिछले साल मुन्ना उनके जाल की ओर बढ़ते हुए जहाजों को सावधान करने के लिए पानी में उतरा तो टूटे हुए जाल की लपेट में आकर मारा गया। गुस्से में आई भीड़ ने राज्य सभा भवन के सामने प्रदर्शन किया। बहुत हंगामा हुआ। पुलिस की गोली में एक की जान चली गई। राजनीतिक पार्टियाँ झूठी हमदर्दी का मुखौटा ओढ़े अपना-अपना झंडा, बैनर लेकर हाजिर हो गए। खूब रोटी सेंकी गई गरीब की चिता पर। मगर हुआ कुछ भी नहीं। आखिर सबने मिलकर चंदा करके मारे जानेवाले की शहादत की याद में चौक पर एक मूर्ति की स्थापना कर दी - मूर्ति के एक हाथ में चप्पू, दूसरे कंधे पर जाल। साल में एक बार उसके शहादत दिवस पर उसकी मूर्ति साफ-सूफ करके उस पर माला चढ़ा दी जाती है। भाषण-वाषण भी होता है। इसके बाद बाकि पूरे साल उसके नीचे बैठकर उसकी पागल, बूढ़ी माँ कटोरा लेकर भीख माँगती है। ऊपर मूर्ति के माथे, कंधे पर पक्षी उड़ते-बैठते बीट करते रहते हैं। यही तो है शहीदों का हाल यहाँ पर! रूप को चिंता होती है। दया को भी होती होगी। मगर वह मुँह से कुछ कहता नहीं। रूप पेट से है। उसे यह सब बताकर परेशान करना ठीक नहीं। बाहर की बातें घर में लाकर भी क्या होगा। मगर घर में बैठकर भी रूप को गंध आती है। हवा में बारूद है, धुआँ भी। समं
दर में आग लगी है, मछलियाँ जल रही हैं। बीमार पड़ा है दरिया, छीज रहा है निरंतर... 'हे देवा! रूप मन्नत माँगकर महालसा देवी के मंदिर में मोगरे की वेणी चढ़ा आती है, तुलसी की माला भी। शनिवार को हनुमानजी के पाँव में तेल ढालती है - शनि की कोप दृष्टि से बचाना प्रभु! उस दिन दया की मनःस्थिति अजीब थी। उसे पिछवाड़े की तरफ पड़ने वाली पहाड़ी पर खींच ले गया था। सामने नजर पड़ते ही रूप का दिल धक से रह गया था। आगे की पहाड़ियाँ एकदम नंगी खड़ी थीं। पूरी तरह उघड़ी, खुली हुई। लाल मिट्टी घाव की तरह दगदगा रही थी जैसे। चारों तरफ दैत्यकार मशीनों का शोर मचा था। जंगल तहस-नहस किए जा रहे थे। 'अरे, अब ये क्या हो रहा है! रूप को सचमुच रोना आ गया था। 'जंगल साफ किए जा रहे हैं। यहाँ बहुत बड़ी कंपनी के बँगले और कालोनियाँ बनेंगी।' कहते हुए दया की आवाज में भी अजीब डूब थी। रूप ने अपनी जलती पलकों को भींचा था। कभी ठीक उन्हीं पहाड़ियों की तलहटी में वसंत के मौसम में उन्होंने प्रेम का पहला फल चखा था। उन दिनों पहली बार रूप अपनी भाभी के इस गाँव में घूमने आई थी। दया बाजार मे मछली बेचकर लौट रहा था। आज सीपियों के अच्छे दाम मिले थे। भर दुपहरी में सुपारी के गहरे हरे जंगल में रूप को हाथ में चंपा का फूल लिए खड़ी देखा तो देखता ही रह गया। जैसे समंदर, धूप और हवा से गूँथकर बनी थी वह - सुंदर, मुलायम और चमकीली - बहती हुई लहर की तरह! घर में ले जाने के लिए लाई हुई मछली की टोकरी उसने उतारकर जमीन पर रख दी थी। आई घर पर उसकी राह तक रही होगी, उसे ख्याल नहीं रहा। तेज धूप के एक छोटे-से दायरे में सूरजमुखी की तरह दपदपाती हुई रूप के लावण्य में डूबा न जाने वह कबतक खड़ा रह गया था, बिना कुछ कहे। साथ में रूप भी। वसंत और प्रेम का टोना दोनों पर एक साथ चल
ा था। दया का साँवला चमकता चेहरा और जवान मछलियों से भरा कठोर पत्थर जैसा शरीर रूप के कच्चे मन में एकदम से उतर गया था। दया ने बढ़कर उसकी कलाई पकड़ी तो वह एक-दो बार कसमसाकर शिथिल पड़ गई। दया सधा मछेरा था, समझ गया - मछली आर-पार बिंध गई हैं। उसने अपना सुनहरा जाल समेटा - उसे खींचकर काजू की महकती झाड़ियों में ले गया। अंदर छिपी हुई चिड़ियाँ चौंककर चहचहाईं, एक बुलबुल का जोड़ा फुर्रऽ से उड़कर आम के जंगल में खो गया। रूप के अंतर में रोमांच की ऊँची लहरें उठ-उठकर गिरने लगीं, देह बाँस के पत्ते की तरह सिहर गया। उसके नासपुटों में दया की पसीने से भीगी देह की गंध थी - नमकीन, सोंधी, ठीक समंदर की तरह। दया ने उसके कान की लबें चूमते हुए कहा - तू मुझे भा गई है। रूप ने अपने होठ काट लिए। कुछ कह न सकी। दिल बेतरह धड़क जो रहा था। 'क्या कहती है, मेरा घर बसाएगी? दया ने कुछ और हिम्मत की। 'नहीं!' रूप ने उसके उद्दंड हाथ रोके। 'क्यों?' दया को गुस्सा आ गया - 'मैं नहीं जँचता?' 'वो बात नहीं।' रूप की आँखों, होंठों पर रुलाई के गहरे आसार। 'तो फिर?' दया के हाथ फिर बेसब्र। 'अरे देवा! ये क्या किया...!' रूप की रुलाई फूट पड़ी - वहिणी क्या कहेगी... और भाऊजी! दया ने उसके आँसू पोंछे थे - उनसब से मैं निपट लूँगा, बस तेरी हाँ चहिए। 'अब भी पूछता है पागल! रूप की बड़ी-बड़ी आँखों में अब सुहाग की सुर्ख झिलमिल थी। 'काहे?' दया एकदम अबाध्य। 'पाप लगता है, आजी कहती हैं। पहले लगन हो जाने दो।' 'अच्छा! तो फिर चल, वह भी कर लेते हैं...' दया उसे खींचकर सातेरी देवी के मंदिर ले गया था। रूप 'अरे रे' करती रह गई थी। ढलती दुपहरी के इस समय मंदिर एकदम निर्जन पड़ा था। पुजारी पूजा के बाद कपाट भेड़कर जा चुका था। फूल बेचनेवाली औरतें भी अपनी-अपनी डलिया सँभालकर तब तक जा चुकी थीं। गर्भगृह में फैले अगरबत्ती के सुगंधित धुएँ और असीम शांति को महसूस करते हुए रूप ने अपनी आँखें मूँदी थी - ये सब क्या हो रहा है! देवी की काली मूर्ति दीए की सुनहरी पाँत के आलोक में झिलमिला रही थी। जैसे मुस्करा रही हो। दया ने वहाँ पहुँचते ही देवी के पाँव से चुटकी भर सिंदूर उठाकर उसकी माँग भर दी थी। वह एकदम सन्न रह गई थी। अब दो तुलसी की मालाएँ उठाकर एक उसे थमाते हुए दूसरी उसने उसके गले में डाल दी थी। रूप को चुपचाप खड़ी देखकर उसने उसके हाथ पकड़कर अपने गले में जबरन माला डलवा ली थी - चल, हो गया लगन! रूप हिलक-हिलककर रो पड़ी थी - बाबा हमको जान से मार देंगे दया। 'अब तू मेरी घरवाली है, कोई हाथ लगाकर तो देखे! एक बार फिर उसे घसीटते हुए दया सुपारी के जंगल में ले गया था। वहाँ एक कोने में नारियल के सूखे पत्तों का ढेर लगा था। अंदर एक छोटी-सी कोठरी थी, जमीन पर पुआल बिछा था। 'यह कुटिया मैंने बनाई है। यहाँ लेटकर मैं रोज सपने देखता था कि एक दिन तू - मेरी जीवन संगिनी - यहाँ आएगी - ठीक इसी तरह! उसने उसे बड़े जतन से पुआल पर लिटा दिया था - अब पाप नहीं लगता न...? रूप ने अपनी पलकें भींचकर न
में सर इधर-उधर हिलाया था। मुँह से कुछ नहीं कहा था। दया ने उसके सीने में चेहरा धँसाकर एक गहरी साँस ली थी - तेरी देह से मछली की गंध आती है। मैं तुझे मत्स्यगंधा पुकारूँगा। ठीक? 'और मैं तुझे सागर पुकारूँगी, तेरे शरीर से समंदर की सोंध, नमकीन महक जो आती है...' दया की उँगलियों के गर्म पोरों में रूप का शरीर किसी रुपहली मछली की तरह काँपकर फिसल गया था। बाहर ज्वार चढ़ा समंदर दूर तक उठ आया था, उसके गर्जन में आदिम चाहना का उन्माद स्पष्ट हो कर अब सुनाई पड़ने लगा था। उफनते पानी में नारियल के पेड़ कई-कई हाथ डूबे सरसरा रहे थे। चारों तरफ लहरों की हरहराहट और समुद्री पक्षियों की चीख छाई हुई थी - गहरी निःस्तब्धता में डूबी हुई चीख! उस दिन दोपहर का सूरज कब लाल होकर अरब सागर के सीने में उतर गया, दोनों को पता ही नहीं चला था। एक पागल दरिया ज्वार के पूरे उन्माद के साथ अपनी मछली की रुपहली देह में उतरकर हमेशा के लिए खो गया था, और वह छोटी-सी मछली अपने सीने में दरिया का अछोर विस्तार समेटकर उसी में डूबकर तर गई थी। सात फेरे में सात जन्मों का फेर था, मगर जब जाल ही मछली की मुक्ति हो जाए और मछली जाल का चिर बंधन, तब किसी बात का गिला कहाँ रह जाता है! उस साँझ जब वे वहाँ से बाहर निकले थे, पूर्णिमा का सुडौल चाँद पूरब के गहरे रंगे हुए आकाश पर सोने की थाल की तरह जगमगा रहा था। पहाड़ की तलहटी में बसे उनके गाँव में सिगमोत्सव की तैयारियाँ उस दिन जोर-शोर से चल रही थी। उसी में रूप की बहन, जीजा रूप को यहाँ-वहाँ ढूँढ़ते फिर रहे थे। दोपहर को घर से निकली लड़की साँझ ढले भी घर नहीं लौटी थी। चिंता तो होनी ही थी। जब गाँवभर ने दोनों को एकसाथ देखा, सबके माथे पर बल पड़ गए। रूप की माँग में सिंदूर दपदपा रहा था। दया के गले में माला। बहन
का चेहरा जहाँ यह सब देखकर उतर गया, जीजा की त्योरियाँ चढ़ गईं। बहन ने रूप को सँभाला, बहनोई ने दया का गिरेबान पकड़ लिया। चारों तरफ सनसनी फैल गई। पूरा गाँव दो हिस्से में बँट गया। फिर तो लाठियाँ चलीं, सर फूटे, खून की धार बह गई। काफी हंगामे के बाद आखिर पंचायत बैठी। पंचायत का फैसला रूप और दया के हक में ही हुआ। फिर तो सब फिर से एक हो गए। खूब जश्न मनाया गया। रातभर नाच-गाना, खाना-पीना... फेनी की नदी बह गई। सुबह लोग नींद से जागे तो रात के खुमार में कहीं रंज का निशान नहीं था। रूप इस गाँव की बहू थी तो दया उस गाँव का दामाद। दरिया में गहरे हलचल के बाद अब अछोर शांति पसर गई थी। इसके बाद का जीवन सपने जैसा था दोनों के लिए। समंदर के किनारे बसे इस छोटे-से गाँव में दोनों ने अपना छोटा, सुंदर नीड़ बाँधा था। दया के अपने परिवार में कोई था नहीं। एक चाचा और उसका परिवार पड़ोस में था। दोनों के दिन सुख-चैन से बीत रहे थे। दरिया में मछली थी, आकाश में चाँद और मन में खूब सारा प्यार... और क्या चाहना था उनको? कुछ भी तो नहीं। गर्मी के मौसम में जंगलों में जगह-जगह शराब की भट्टियाँ बैठतीं। रूप अपने पेड़ों से काजू के फल चुन लाती, फिर उन्हें पैरों से कुचलकर उनका रस निकाला जाता। काजू के रस का मीठा नीरा शर्बत... मिट्टी के बर्तनों में दिनों तक रस सड़ाया जाता... हवा उन दिनों काजू की शराब की गंध से बोझिल रहती है। साँस लेकर ही जैसे नशा-सा हो जाता है। दया सुबह-सुबह नारियल के पेड़ से रस उतार लाता था - हल्का मीठा, झागदार... पीकर खुमार चढ जाता था। फिर न जाने क्या हुआ। धीरे-धीरे हवा बदल गई, मौसम का मिजाज और तेवर बदल गया। गोवा की हरियाली में कालिख घुलने लगी। समंदर में बड़े-बड़े जहाज उतरे, जमीन पर होटल, ईमारतें और कालोनियाँ खड़ी हुई। बाजार अनजाने चेहरों से भर गए। पहले-पहल ये तब्दीलियाँ बहुत सामान्य थीं, मगर जल्दी ही स्पष्ट हो उठीं। हर तरफ इसका असर दिखने लगा और लोग चौंककर बेचैन होने लगे। जमीन घटने लगी, समंदर रीतने लगा और अंत में पानी से ही नहीं, खाने की थालियों से भी मछली गायब होने लगी। सबका माथा ठनका - ये क्या हो रहा है! इसके बाद बाजार से लोग उठकर घर तक आने लगे, दरवाजे खटखटाने लगे। किसी को जमीन चाहिए तो किसी को पानी। मेहमानों को घर में जगह तो दी जाती है, मगर घर नहीं। अब तो प्रश्न अस्तित्व का था, अस्मिता का था। अपनी विरासत किसी को कैसे सौंप दे! चेहरा खोकर मुखौटे की जिंदगी कैसे जिए! दया अक्सर रूप से कहता - पैसे के लालच में सब अपनी जमीन बेच रहे हैं। जब कुछ न बचेगा तब लोग रहेंगे कहाँ और खाएँगे क्या? ये पैसा? सरकार को भी अपनी वोट की राजनीति चलानी है। वोट के लिए सबको यहाँ-वहाँ बसा रहे हैं, उन्हें लाइसेंस दिलवा रहें हैं, वोटर लिस्ट में नाम डलवा रहे हैं। रूप को पहले-पहल ये बातें समझ में नहीं आती थी। हँसकर उड़ा देती थी। एक बार कोई बड़ा व्यापारी उनकी जमीन खरीदने के लिए आया। यहाँ पर होटल बनवाना चाहता था। मुँह माँगी रकम द