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भीष्म आदि गुरुजन शोक के योग्य नहीं हैं। मनुष्य का शरीर विनाशशील है, किंतु आत्मा का कभी नाश नहीं होता। यह आत्मा ही परब्रह्म है। 'मैं ब्रह्म हूँ'- इस प्रकार तुम उस आत्मा का अस्तित्व समझो। कार्य की सिद्धि और असिद्धि में समानभाव से रहकर कर्मयोग का आश्रय ले क्षात्रधर्म का पालन करो। इस प्रकार श्रीकृष्ण के ज्ञानयोग, भक्तियोग एवं कर्मयोग के बारे में विस्तार से कहने पर अर्जुन ने फिर से रथारूढ़ हो युद्ध के लिये शंखध्वनि की। दुर्योधन की सेना में सबसे पहले पितामह भीष्म सेनापति हुए। पाण्डवों के सेनापति धृष्टद्युम्न थे। इन दोनों में भारी युद्ध छिड़ गया। भीष्मसहित कौरव पक्ष के योद्धा उस युद्ध में पाण्डव-पक्ष के सैनिकों पर प्रहार करने लगे और शिखण्डी आदि पाण्डव- पक्ष के वीर कौरव-सैनिकों को अपने बाणों का निशाना बनाने लगे। कौरव और पाण्डव-सेना का वह युद्ध, देवासुर-संग्राम के समान जान पड़ता था। आकाश में खड़े होकर देखने वाले देवताओं को वह युद्ध बड़ा आनन्ददायक प्रतीत हो रहा था। भीष्म ने दस दिनों तक युद्ध करके पाण्डवों की अधिकांश सेना को अपने बाणों से मार गिराया। भीष्म ने दस दिनों तक युद्ध करके पाण्डवों की अधिकांश सेना को अपने बाणों से मार गिराया। भीष्म की मृत्यु उनकी इच्छा के अधीन थी। श्रीकृष्ण के सुझाव पर पाण्डवों ने भीष्म से ही उनकी मृत्यु का उपाय पूछा। भीष्म ने कहा कि पांडव शिखंडी को सामने करके युद्ध लड़े। भीष्म उसे कन्या ही मानते थे और उसे सामने पाकर वो शस्त्र नहीं चलाने वाले थे। और शिखंडी को अपने पूर्व जन्म के अपमान का बदला भी लेना था उसके लिये शिवजी से वरदान भी लिया कि भीष्म कि मृत्यु का कारण बनेगी। १०वे दिन के युद्ध में अर्जुन ने शिखंडी को आगे अपने रथ पर बिठाया और शिखंडी को सामने देख कर भीष्म ने अपना धनुष त्याग दिया और अर्जुन ने अपनी बाणवृष्टि से उन्हें बाणों कि शय्या पर सुला दिया। तब आचार्य द्रोण ने सेनापतित्व का भार ग्रहण किया। फिर से दोनों पक्षो में बड़ा भयंकर युद्ध हुआ। मतस्यनरेश विराट और द्रुपद आदि राजा द्रोणरूपी समुद्र में डूब गये थे। लेकिन जब पाण्डवो ने छ्ल से द्रोण को यह विश्वास दिला दिया कि अश्वत्थामा मारा गया। तो आचार्य द्रोण ने निराश हों अस्त्र शस्त्र त्यागकर उसके बाद योग समाधि ले कर अपना शरीर त्याग दिया। ऐसे समय में धृष्टद्युम्न ने योग समाधि लिए द्रोण का मस्तक तलवार से काट कर भूमि पर गिरा दिया। द्रोण वध के पश्चात कर्ण कौरव सेना का कर्णधार हुआ। कर्ण और अर्जुन में भाँति-भाँति के अस्त्र-शस्त्रों से युक्त महाभयानक युद्ध हुआ, जो देवासुर-संग्राम को भी मात करने वाला था। कर्ण और अर्जुन के संग्राम में कर्ण ने अपने बाणों से शत्रु-पक्ष के बहुत-से वीरों का संहार कर डाला। यद्यपि युद्ध गतिरोधपूर्ण हो रहा था लेकिन कर्ण तब उलझ गया जब उसके रथ का एक पहिया धरती में धँस गया। गुरु परशुराम के शाप के कारण वह अपने को दैवीय अस्त्रों के प्रयोग में भी असमर्थ पाकर रथ के पहिए को निकालने के लिए नीचे उतरता है। तब श्रीकृष्ण, अर्जुन को उसके द्वारा किये अभिमन्यु वध, कुरु सभा में द्रोपदी को वेश्या और उसकी कर्ण वध करने की प्रतिज्ञा याद दिलाकर उसे मारने को कहते है, तब अर्जुन ने अंजलिकास्त्र से कर्ण का सिर धड़ से अलग कर दिया। तदनन्तर राजा शल्य कौरव-सेना के सेनापति हुए, किंतु वे युद्ध में आधे दिन तक ही टिक सके। दोपहर होते-होते राजा युधिष्ठिर ने उन्हें मार दिया। दुर्योधन की सारी सेना के मारे जाने पर अन्त में उसका भीमसेन के साथ गदा युद्ध हुआ। भीम ने छ्ल से उसकी जांघ पर प्रहार करके उसे मार डाला। इसका प्रतिशोध लेने के लिये अश्वत्थामा ने रात्रि में पाण्डवों की एक अक्षौहिणी सेना, द्रौपदी के पाँचों पुत्रों, उसके पांचालदेशीय बन्धुओं तथा धृष्टद्युम्न को सदा के लिये सुला दिया। तब अर्जुन ने अश्वत्थामा को परास्त करके उसके मस्तक की मणि निकाल ली। फिर अश्वत्थामा ने उत्तरा के गर्भ पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। उसका गर्भ उसके अस्त्र से प्राय दग्ध हो गया था, किंतु भगवान श्रीकृष्ण ने उसको पुन: जीवन-दान दिया। उत्तरा का वही गर्भस्थ शिशु आगे चलकर राजा परीक्षित के नाम से विख्यात हुआ। इस युद्ध के अंत में कृतवर्मा, कृपाचार्य तथा अश्वत्थामा तीन कौरवपक्षिय और पाँच पाण्डव, सात्यकि तथा श्रीकृष्ण ये सात पाण्डवपक्षिय वीर जीवित बचे। तत्पश्चात् युधिष्ठिर राजसिंहासन पर आसीन हुए। ब्राह्मणों और गांधारी के शाप के कारण यादवकुल का संहार हो गया। बलभद्रजी योग से अपना शरीर त्याग कर शेषनाग स्वरुप होकर समुद्र में चले गये। भगवान कृष्ण के सभी प्रपौत्र एक दिन महामुनियों की शक्ति देखने के लिये एक को स्त्री बनाकर मुनियों के पास गए और पूछा कि हे मुनिश्रेष्ठ! यह महिला गर्भ से है, हमें बताएं कि इसके गर्भ से किसका जन्म होगा? मुनियों को ज्ञात हुआ कि यह बालक उनसे क्रिडा करते हुए एक पुरुष को महिला बना उनके पास लाए हैं। मुनियों ने कृष्ण के प्रपौत्रों को श्रापा कि इस मानव के गर्भ से एक मूसल लिकलेगा जिससे तुम्हारे वंश का अन्त होगा। कृष्ण के प्रपौत्रों नें उस मूसल को पत्थर पर रगड़ कर चूरा बना नदी में बहा दिया तथा उसके नोक को फेंक दिया। उस चूर्ण से उत्पन्न वृक्ष की पत्तियों से सभी कृष्ण के प्रपौत्र मृत्यु को प्राप्त किये। यह देख श्रीकृष्ण भी एक पेड़ के नीचे ध्यान लगाकर बेठ गये। 'ज़रा' नाम के एक व्याध (शिकारी) ने अपने बाण की नोक पर मूसल का नोक लगा दिया तथा भगवान कृष्ण के चरणकमल को मृग समझकर उस बाण से प्रहार किया। उस बाण द्वारा कृष्ण के पैर का चुम्बन उनके परमधाम गमन का कारण बना। प्रभु अपने संपूर्ण शरीर के साथ गोलोक प्रस्थान किये। इसके बाद समुद्र ने द्वारकापुरी को अपने जल में डुबा दिया। तदनन्तर द्वारका से लौटे हुए अर्जुन के मुख से यादवों के संहार का समाचार सुनकर युधिष्ठिर ने संसार की अनित्यता का विचार करके परीक्षित को राजासन पर बिठाया और द्रौपदी तथा भाइयों को साथ ले हिमालय की तरफ महाप्रस्थान के पथ पर अग्रसर हुए।
भीष्म ने महाभारत की लड़ाई कितने दिनों तक लड़ी थी ?
दस दिनों
bhishma ne mahabharat kii ladaai kitne dinon tak ladi thi ?
भीष्म आदि गुरुजन शोक के योग्य नहीं हैं। मनुष्य का शरीर विनाशशील है, किंतु आत्मा का कभी नाश नहीं होता। यह आत्मा ही परब्रह्म है। 'मैं ब्रह्म हूँ'- इस प्रकार तुम उस आत्मा का अस्तित्व समझो। कार्य की सिद्धि और असिद्धि में समानभाव से रहकर कर्मयोग का आश्रय ले क्षात्रधर्म का पालन करो। इस प्रकार श्रीकृष्ण के ज्ञानयोग, भक्तियोग एवं कर्मयोग के बारे में विस्तार से कहने पर अर्जुन ने फिर से रथारूढ़ हो युद्ध के लिये शंखध्वनि की। दुर्योधन की सेना में सबसे पहले पितामह भीष्म सेनापति हुए। पाण्डवों के सेनापति धृष्टद्युम्न थे। इन दोनों में भारी युद्ध छिड़ गया। भीष्मसहित कौरव पक्ष के योद्धा उस युद्ध में पाण्डव-पक्ष के सैनिकों पर प्रहार करने लगे और शिखण्डी आदि पाण्डव- पक्ष के वीर कौरव-सैनिकों को अपने बाणों का निशाना बनाने लगे। कौरव और पाण्डव-सेना का वह युद्ध, देवासुर-संग्राम के समान जान पड़ता था। आकाश में खड़े होकर देखने वाले देवताओं को वह युद्ध बड़ा आनन्ददायक प्रतीत हो रहा था। भीष्म ने दस दिनों तक युद्ध करके पाण्डवों की अधिकांश सेना को अपने बाणों से मार गिराया। भीष्म ने दस दिनों तक युद्ध करके पाण्डवों की अधिकांश सेना को अपने बाणों से मार गिराया। भीष्म की मृत्यु उनकी इच्छा के अधीन थी। श्रीकृष्ण के सुझाव पर पाण्डवों ने भीष्म से ही उनकी मृत्यु का उपाय पूछा। भीष्म ने कहा कि पांडव शिखंडी को सामने करके युद्ध लड़े। भीष्म उसे कन्या ही मानते थे और उसे सामने पाकर वो शस्त्र नहीं चलाने वाले थे। और शिखंडी को अपने पूर्व जन्म के अपमान का बदला भी लेना था उसके लिये शिवजी से वरदान भी लिया कि भीष्म कि मृत्यु का कारण बनेगी। १०वे दिन के युद्ध में अर्जुन ने शिखंडी को आगे अपने रथ पर बिठाया और शिखंडी को सामने देख कर भीष्म ने अपना धनुष त्याग दिया और अर्जुन ने अपनी बाणवृष्टि से उन्हें बाणों कि शय्या पर सुला दिया। तब आचार्य द्रोण ने सेनापतित्व का भार ग्रहण किया। फिर से दोनों पक्षो में बड़ा भयंकर युद्ध हुआ। मतस्यनरेश विराट और द्रुपद आदि राजा द्रोणरूपी समुद्र में डूब गये थे। लेकिन जब पाण्डवो ने छ्ल से द्रोण को यह विश्वास दिला दिया कि अश्वत्थामा मारा गया। तो आचार्य द्रोण ने निराश हों अस्त्र शस्त्र त्यागकर उसके बाद योग समाधि ले कर अपना शरीर त्याग दिया। ऐसे समय में धृष्टद्युम्न ने योग समाधि लिए द्रोण का मस्तक तलवार से काट कर भूमि पर गिरा दिया। द्रोण वध के पश्चात कर्ण कौरव सेना का कर्णधार हुआ। कर्ण और अर्जुन में भाँति-भाँति के अस्त्र-शस्त्रों से युक्त महाभयानक युद्ध हुआ, जो देवासुर-संग्राम को भी मात करने वाला था। कर्ण और अर्जुन के संग्राम में कर्ण ने अपने बाणों से शत्रु-पक्ष के बहुत-से वीरों का संहार कर डाला। यद्यपि युद्ध गतिरोधपूर्ण हो रहा था लेकिन कर्ण तब उलझ गया जब उसके रथ का एक पहिया धरती में धँस गया। गुरु परशुराम के शाप के कारण वह अपने को दैवीय अस्त्रों के प्रयोग में भी असमर्थ पाकर रथ के पहिए को निकालने के लिए नीचे उतरता है। तब श्रीकृष्ण, अर्जुन को उसके द्वारा किये अभिमन्यु वध, कुरु सभा में द्रोपदी को वेश्या और उसकी कर्ण वध करने की प्रतिज्ञा याद दिलाकर उसे मारने को कहते है, तब अर्जुन ने अंजलिकास्त्र से कर्ण का सिर धड़ से अलग कर दिया। तदनन्तर राजा शल्य कौरव-सेना के सेनापति हुए, किंतु वे युद्ध में आधे दिन तक ही टिक सके। दोपहर होते-होते राजा युधिष्ठिर ने उन्हें मार दिया। दुर्योधन की सारी सेना के मारे जाने पर अन्त में उसका भीमसेन के साथ गदा युद्ध हुआ। भीम ने छ्ल से उसकी जांघ पर प्रहार करके उसे मार डाला। इसका प्रतिशोध लेने के लिये अश्वत्थामा ने रात्रि में पाण्डवों की एक अक्षौहिणी सेना, द्रौपदी के पाँचों पुत्रों, उसके पांचालदेशीय बन्धुओं तथा धृष्टद्युम्न को सदा के लिये सुला दिया। तब अर्जुन ने अश्वत्थामा को परास्त करके उसके मस्तक की मणि निकाल ली। फिर अश्वत्थामा ने उत्तरा के गर्भ पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। उसका गर्भ उसके अस्त्र से प्राय दग्ध हो गया था, किंतु भगवान श्रीकृष्ण ने उसको पुन: जीवन-दान दिया। उत्तरा का वही गर्भस्थ शिशु आगे चलकर राजा परीक्षित के नाम से विख्यात हुआ। इस युद्ध के अंत में कृतवर्मा, कृपाचार्य तथा अश्वत्थामा तीन कौरवपक्षिय और पाँच पाण्डव, सात्यकि तथा श्रीकृष्ण ये सात पाण्डवपक्षिय वीर जीवित बचे। तत्पश्चात् युधिष्ठिर राजसिंहासन पर आसीन हुए। ब्राह्मणों और गांधारी के शाप के कारण यादवकुल का संहार हो गया। बलभद्रजी योग से अपना शरीर त्याग कर शेषनाग स्वरुप होकर समुद्र में चले गये। भगवान कृष्ण के सभी प्रपौत्र एक दिन महामुनियों की शक्ति देखने के लिये एक को स्त्री बनाकर मुनियों के पास गए और पूछा कि हे मुनिश्रेष्ठ! यह महिला गर्भ से है, हमें बताएं कि इसके गर्भ से किसका जन्म होगा? मुनियों को ज्ञात हुआ कि यह बालक उनसे क्रिडा करते हुए एक पुरुष को महिला बना उनके पास लाए हैं। मुनियों ने कृष्ण के प्रपौत्रों को श्रापा कि इस मानव के गर्भ से एक मूसल लिकलेगा जिससे तुम्हारे वंश का अन्त होगा। कृष्ण के प्रपौत्रों नें उस मूसल को पत्थर पर रगड़ कर चूरा बना नदी में बहा दिया तथा उसके नोक को फेंक दिया। उस चूर्ण से उत्पन्न वृक्ष की पत्तियों से सभी कृष्ण के प्रपौत्र मृत्यु को प्राप्त किये। यह देख श्रीकृष्ण भी एक पेड़ के नीचे ध्यान लगाकर बेठ गये। 'ज़रा' नाम के एक व्याध (शिकारी) ने अपने बाण की नोक पर मूसल का नोक लगा दिया तथा भगवान कृष्ण के चरणकमल को मृग समझकर उस बाण से प्रहार किया। उस बाण द्वारा कृष्ण के पैर का चुम्बन उनके परमधाम गमन का कारण बना। प्रभु अपने संपूर्ण शरीर के साथ गोलोक प्रस्थान किये। इसके बाद समुद्र ने द्वारकापुरी को अपने जल में डुबा दिया। तदनन्तर द्वारका से लौटे हुए अर्जुन के मुख से यादवों के संहार का समाचार सुनकर युधिष्ठिर ने संसार की अनित्यता का विचार करके परीक्षित को राजासन पर बिठाया और द्रौपदी तथा भाइयों को साथ ले हिमालय की तरफ महाप्रस्थान के पथ पर अग्रसर हुए।
पांडवों के सेनापति कौन थे ?
धृष्टद्युम्न
pandavon ke senapati koun the ?
भू आकृति के अनुसार असम राज्य को तीन विभागों में विभक्त किया जा सकता है : 1. उत्तरी मैदान अथवा ब्रह्मपुत्र का मैदान जो कि सम्पूर्ण उत्तरी भाग में फैला हुआ है। इसकी ढाल बहुत ही कम है जिसके कारण प्राय: यह ब्रह्मपुत्र की बाढ़ से आक्रान्त रहता है। यह नदी इस समतल मैदान को दो असमान भागों में विभक्त करती है जिसमें उत्तरी भाग हिमालय से आनेवाली लगभग समानान्तर नदियों, सुवंसिरी आदि, से काफी कट फट गया है। दक्षिणी भाग अपेक्षाकृत कम चौड़ा है। गौहाटी के समीप ब्रद्मपुत्र मेघालय चट्टानों का क्रम नदी के उत्तरी कगार पर भी दिखाई पड़ता है। बूढ़ी दिहिंग, धनसिरी तथा कपिली ने अपने निकासवर्ती अपरदन की प्रक्रिया द्वारा मिकिर तथा रेग्मा पहाड़ियों को मेघालय की पहाड़ियों से लगभग अलग कर दिया है। सम्पूर्ण घाटी पूर्व में 30 मी॰ से पश्चिम में 130 मी॰ की ऊँचाई तक स्थित है जिसकी औसत ढाल 12 से॰मी॰ प्रति कि॰ मी॰ है। नदियों का मार्ग प्राय: सर्पिल है। 2. मिकिर तथा उत्तरी कछार का पहाड़ी क्षेत्र भौम्याकृति की दृष्टि से एक जटिल तथा कटा फटा प्रदेश है और आसाम घाटी के दक्षिण में स्थित है। इसका उत्तरी छोर अपेक्षाकृत अधिक ढलवा है। 3. कछार का मैदान अथवा सूरमा घाटी जलोढ़ अवसाद द्वारा निर्मित एक समतल उपजाऊ मैदान है जो राज्य के दक्षिणी भाग में स्थित है। वास्तव में इसे बंगाल डेल्टा का पूर्वी छोर ही कहा जा सकता है। उत्तर में डौकी भ्रंश इसकी सीमा बनाता है। इस राज्य की प्रमुख नदी ब्रह्मपुत्र (तिब्बत की सांगपी) है जो लगभग पूर्व पश्चिम में प्रवाहित होती हुई धुबरी के निकट बंगलादेश में प्रविष्ट हो जाती है। प्रवाहक्षेत्र के कम ढलवाँ होने के कारण नदी शाखाओं में विभक्त हो जाती है तथा नदीस्थित द्वीपों का निर्माण करती है जिनमें माजुली (129 वर्ग कि॰मी॰) विश्व का सबसे बड़ा नदी स्थित द्वीप है। वर्षाकाल में नदी का जलमार्ग कहीं कहीं 8 कि॰मी॰ चौड़ा हो जाता है तथा झील जैसा प्रतीत होता है। इस नदी की 35 प्रमुख सहायक नदियाँ हैं। सुवंसिरी, भरेली, धनसिरी, पगलडिया, मानस तथा संकाश आदि दाहिनी ओर से तथा लोहित, नवदिहिंग, बूढ़ी दिहिंग, दिसांग, कपिली, दिगारू आदि बाई ओर से मिलने वाली प्रमुख नदियाँ हैं। ये नदियाँ इतना जल तथा मलबा अपने साथ लाती है कि मुख्य नदी गोवालपारा के समीप 50 लाख क्यूसेक जल का निस्सारण करती है। ब्रह्मपुत्र की ही भाँति सुवंसिरी आदि भी मुख्य हिमालय (हिमाद्री) के उत्तर से आती है तथा पूर्वगामी प्रवाह का उदाहरण प्रस्तुत करती है। पर्वतीय क्षेत्र में इनके मार्ग में खड्ड तथा प्रपात भी पाए जाते हैं। दक्षिण में सूरमा ही उल्लेख्य नदी है जो अपनी सहायक नदियों के साथ कछार जनपद में प्रवाहित होती है। भौमिकीय दृष्टि से आसाम राज्य में अति प्राचीन दलाश्म (नीस) तथा सुभाजा (शिस्ट) निर्मित मध्यवर्ती भूभाग (मिकिर तथा उत्तरी कछार) से लेकर तृतीय युग की जलोढ़ चट्टानें भी भूतल पर विद्यमान हैं। प्राचीन चट्टानों की पर्त उत्तर की ओर क्रमश: पतली होती गई है तथा तृतीयक चट्टानों से ढकी हुई हैं। ये चट्टानें प्राय: हिमालय की तरह के भंजों से रहित हैं। उत्तर में ये क्षैतिज हैं पर दक्षिण में इनका झुकाव (डिप) दक्षिण की ओर हो गया है। भूकम्प तथा बाढ़ आसाम की दो प्रमुख समस्याएँ हैं। बाढ़ से प्राय: प्रतिवर्ष 8 से 10 करोड़ रुपए की माल की क्षति होती है। 1966 की बाढ़ से लगभग 16,000 वर्ग कि॰मी॰ क्षेत्र जलप्लावित हुआ था। स्थल खण्ड के अपेक्षाकृत नवीन होने तथा चट्टानी स्तरों के अस्थायित्व के कारण इस राज्य में भूकम्प की सम्भावना अधिक रहती है। 1897 का भूकम्प, जिसकी नाभि गारो खासी की पहाड़ियों में थी, यहाँ का सबसे बड़ा भूकम्प माना जाता है। रेल लाइनों का उखड़ना, भूस्खलन, नदी मार्गावरोध तथा परिवर्तन आदि क्रियाएँ बड़े पैमाने पर हुई थीं और लगभग 10,550 व्यक्ति मर गए थे। अन्य प्रमुख भूकंपक्रमश: 1869, 1888, 1930, 1934 तथा 1950 में आए। काँप तथा लैटराट इस राज्य की प्रमुख मिट्टियाँ हैं जो क्रमश: मैदानी भागों तथा पहाड़ी क्षेत्रों के ढालों पर पाई जाती हैं। नई काँप मिट्टी नदियों के बाढ़ क्षेत्र में पाई जाती है तथा धान, जूट, दाल एवं तिलहन के लिए उपयुक्त है। यह प्राय: उदासीन प्रकृति की होती है। बाढ़ेतर प्रदेश की वागर मिट्टी प्राय: अम्लीय होती है। यह गन्ना, फल, धान के लिए अधिक उपुयक्त है। पर्वतीय क्षेत्र की लैटराइट मिट्टी अपेक्षाकृत अनुपजाऊ होती है। चाय की कृषि के अतिरिक्त ये क्षेत्र प्राय: वनाच्छादित हैं। तृतीय युग का कोयला तथा खनिज तेल इस प्रदेश की मुख्य सम्पदाएँ हैं। खनिज तेल का अनुमानित भण्डार 450 लाख टन है जो पूरे भारत का लगभग 50 प्रतिशत है तथा प्रमुखतः बह्मपुत्र की ऊपरी घाटी में दिगबोई, नहरकटिया, मोशन, लक्वा, टियोक आदि के चतुर्दिक्‌ प्राप्य है।
स्थलाकृति के अनुसार असम कितने भागो में विभाजित है?
तीन
sthalakriti ke anusaar assam kitne bhaago main vibhajit he?
भू आकृति के अनुसार असम राज्य को तीन विभागों में विभक्त किया जा सकता है : 1. उत्तरी मैदान अथवा ब्रह्मपुत्र का मैदान जो कि सम्पूर्ण उत्तरी भाग में फैला हुआ है। इसकी ढाल बहुत ही कम है जिसके कारण प्राय: यह ब्रह्मपुत्र की बाढ़ से आक्रान्त रहता है। यह नदी इस समतल मैदान को दो असमान भागों में विभक्त करती है जिसमें उत्तरी भाग हिमालय से आनेवाली लगभग समानान्तर नदियों, सुवंसिरी आदि, से काफी कट फट गया है। दक्षिणी भाग अपेक्षाकृत कम चौड़ा है। गौहाटी के समीप ब्रद्मपुत्र मेघालय चट्टानों का क्रम नदी के उत्तरी कगार पर भी दिखाई पड़ता है। बूढ़ी दिहिंग, धनसिरी तथा कपिली ने अपने निकासवर्ती अपरदन की प्रक्रिया द्वारा मिकिर तथा रेग्मा पहाड़ियों को मेघालय की पहाड़ियों से लगभग अलग कर दिया है। सम्पूर्ण घाटी पूर्व में 30 मी॰ से पश्चिम में 130 मी॰ की ऊँचाई तक स्थित है जिसकी औसत ढाल 12 से॰मी॰ प्रति कि॰ मी॰ है। नदियों का मार्ग प्राय: सर्पिल है। 2. मिकिर तथा उत्तरी कछार का पहाड़ी क्षेत्र भौम्याकृति की दृष्टि से एक जटिल तथा कटा फटा प्रदेश है और आसाम घाटी के दक्षिण में स्थित है। इसका उत्तरी छोर अपेक्षाकृत अधिक ढलवा है। 3. कछार का मैदान अथवा सूरमा घाटी जलोढ़ अवसाद द्वारा निर्मित एक समतल उपजाऊ मैदान है जो राज्य के दक्षिणी भाग में स्थित है। वास्तव में इसे बंगाल डेल्टा का पूर्वी छोर ही कहा जा सकता है। उत्तर में डौकी भ्रंश इसकी सीमा बनाता है। इस राज्य की प्रमुख नदी ब्रह्मपुत्र (तिब्बत की सांगपी) है जो लगभग पूर्व पश्चिम में प्रवाहित होती हुई धुबरी के निकट बंगलादेश में प्रविष्ट हो जाती है। प्रवाहक्षेत्र के कम ढलवाँ होने के कारण नदी शाखाओं में विभक्त हो जाती है तथा नदीस्थित द्वीपों का निर्माण करती है जिनमें माजुली (129 वर्ग कि॰मी॰) विश्व का सबसे बड़ा नदी स्थित द्वीप है। वर्षाकाल में नदी का जलमार्ग कहीं कहीं 8 कि॰मी॰ चौड़ा हो जाता है तथा झील जैसा प्रतीत होता है। इस नदी की 35 प्रमुख सहायक नदियाँ हैं। सुवंसिरी, भरेली, धनसिरी, पगलडिया, मानस तथा संकाश आदि दाहिनी ओर से तथा लोहित, नवदिहिंग, बूढ़ी दिहिंग, दिसांग, कपिली, दिगारू आदि बाई ओर से मिलने वाली प्रमुख नदियाँ हैं। ये नदियाँ इतना जल तथा मलबा अपने साथ लाती है कि मुख्य नदी गोवालपारा के समीप 50 लाख क्यूसेक जल का निस्सारण करती है। ब्रह्मपुत्र की ही भाँति सुवंसिरी आदि भी मुख्य हिमालय (हिमाद्री) के उत्तर से आती है तथा पूर्वगामी प्रवाह का उदाहरण प्रस्तुत करती है। पर्वतीय क्षेत्र में इनके मार्ग में खड्ड तथा प्रपात भी पाए जाते हैं। दक्षिण में सूरमा ही उल्लेख्य नदी है जो अपनी सहायक नदियों के साथ कछार जनपद में प्रवाहित होती है। भौमिकीय दृष्टि से आसाम राज्य में अति प्राचीन दलाश्म (नीस) तथा सुभाजा (शिस्ट) निर्मित मध्यवर्ती भूभाग (मिकिर तथा उत्तरी कछार) से लेकर तृतीय युग की जलोढ़ चट्टानें भी भूतल पर विद्यमान हैं। प्राचीन चट्टानों की पर्त उत्तर की ओर क्रमश: पतली होती गई है तथा तृतीयक चट्टानों से ढकी हुई हैं। ये चट्टानें प्राय: हिमालय की तरह के भंजों से रहित हैं। उत्तर में ये क्षैतिज हैं पर दक्षिण में इनका झुकाव (डिप) दक्षिण की ओर हो गया है। भूकम्प तथा बाढ़ आसाम की दो प्रमुख समस्याएँ हैं। बाढ़ से प्राय: प्रतिवर्ष 8 से 10 करोड़ रुपए की माल की क्षति होती है। 1966 की बाढ़ से लगभग 16,000 वर्ग कि॰मी॰ क्षेत्र जलप्लावित हुआ था। स्थल खण्ड के अपेक्षाकृत नवीन होने तथा चट्टानी स्तरों के अस्थायित्व के कारण इस राज्य में भूकम्प की सम्भावना अधिक रहती है। 1897 का भूकम्प, जिसकी नाभि गारो खासी की पहाड़ियों में थी, यहाँ का सबसे बड़ा भूकम्प माना जाता है। रेल लाइनों का उखड़ना, भूस्खलन, नदी मार्गावरोध तथा परिवर्तन आदि क्रियाएँ बड़े पैमाने पर हुई थीं और लगभग 10,550 व्यक्ति मर गए थे। अन्य प्रमुख भूकंपक्रमश: 1869, 1888, 1930, 1934 तथा 1950 में आए। काँप तथा लैटराट इस राज्य की प्रमुख मिट्टियाँ हैं जो क्रमश: मैदानी भागों तथा पहाड़ी क्षेत्रों के ढालों पर पाई जाती हैं। नई काँप मिट्टी नदियों के बाढ़ क्षेत्र में पाई जाती है तथा धान, जूट, दाल एवं तिलहन के लिए उपयुक्त है। यह प्राय: उदासीन प्रकृति की होती है। बाढ़ेतर प्रदेश की वागर मिट्टी प्राय: अम्लीय होती है। यह गन्ना, फल, धान के लिए अधिक उपुयक्त है। पर्वतीय क्षेत्र की लैटराइट मिट्टी अपेक्षाकृत अनुपजाऊ होती है। चाय की कृषि के अतिरिक्त ये क्षेत्र प्राय: वनाच्छादित हैं। तृतीय युग का कोयला तथा खनिज तेल इस प्रदेश की मुख्य सम्पदाएँ हैं। खनिज तेल का अनुमानित भण्डार 450 लाख टन है जो पूरे भारत का लगभग 50 प्रतिशत है तथा प्रमुखतः बह्मपुत्र की ऊपरी घाटी में दिगबोई, नहरकटिया, मोशन, लक्वा, टियोक आदि के चतुर्दिक्‌ प्राप्य है।
कछार मैदान या सूरमा घाटी असम राज्य में कहाँ स्थित है?
दक्षिण
kachaar maidan yaa suurama ghati assam rajya main kahan sthit he?
भू आकृति के अनुसार असम राज्य को तीन विभागों में विभक्त किया जा सकता है : 1. उत्तरी मैदान अथवा ब्रह्मपुत्र का मैदान जो कि सम्पूर्ण उत्तरी भाग में फैला हुआ है। इसकी ढाल बहुत ही कम है जिसके कारण प्राय: यह ब्रह्मपुत्र की बाढ़ से आक्रान्त रहता है। यह नदी इस समतल मैदान को दो असमान भागों में विभक्त करती है जिसमें उत्तरी भाग हिमालय से आनेवाली लगभग समानान्तर नदियों, सुवंसिरी आदि, से काफी कट फट गया है। दक्षिणी भाग अपेक्षाकृत कम चौड़ा है। गौहाटी के समीप ब्रद्मपुत्र मेघालय चट्टानों का क्रम नदी के उत्तरी कगार पर भी दिखाई पड़ता है। बूढ़ी दिहिंग, धनसिरी तथा कपिली ने अपने निकासवर्ती अपरदन की प्रक्रिया द्वारा मिकिर तथा रेग्मा पहाड़ियों को मेघालय की पहाड़ियों से लगभग अलग कर दिया है। सम्पूर्ण घाटी पूर्व में 30 मी॰ से पश्चिम में 130 मी॰ की ऊँचाई तक स्थित है जिसकी औसत ढाल 12 से॰मी॰ प्रति कि॰ मी॰ है। नदियों का मार्ग प्राय: सर्पिल है। 2. मिकिर तथा उत्तरी कछार का पहाड़ी क्षेत्र भौम्याकृति की दृष्टि से एक जटिल तथा कटा फटा प्रदेश है और आसाम घाटी के दक्षिण में स्थित है। इसका उत्तरी छोर अपेक्षाकृत अधिक ढलवा है। 3. कछार का मैदान अथवा सूरमा घाटी जलोढ़ अवसाद द्वारा निर्मित एक समतल उपजाऊ मैदान है जो राज्य के दक्षिणी भाग में स्थित है। वास्तव में इसे बंगाल डेल्टा का पूर्वी छोर ही कहा जा सकता है। उत्तर में डौकी भ्रंश इसकी सीमा बनाता है। इस राज्य की प्रमुख नदी ब्रह्मपुत्र (तिब्बत की सांगपी) है जो लगभग पूर्व पश्चिम में प्रवाहित होती हुई धुबरी के निकट बंगलादेश में प्रविष्ट हो जाती है। प्रवाहक्षेत्र के कम ढलवाँ होने के कारण नदी शाखाओं में विभक्त हो जाती है तथा नदीस्थित द्वीपों का निर्माण करती है जिनमें माजुली (129 वर्ग कि॰मी॰) विश्व का सबसे बड़ा नदी स्थित द्वीप है। वर्षाकाल में नदी का जलमार्ग कहीं कहीं 8 कि॰मी॰ चौड़ा हो जाता है तथा झील जैसा प्रतीत होता है। इस नदी की 35 प्रमुख सहायक नदियाँ हैं। सुवंसिरी, भरेली, धनसिरी, पगलडिया, मानस तथा संकाश आदि दाहिनी ओर से तथा लोहित, नवदिहिंग, बूढ़ी दिहिंग, दिसांग, कपिली, दिगारू आदि बाई ओर से मिलने वाली प्रमुख नदियाँ हैं। ये नदियाँ इतना जल तथा मलबा अपने साथ लाती है कि मुख्य नदी गोवालपारा के समीप 50 लाख क्यूसेक जल का निस्सारण करती है। ब्रह्मपुत्र की ही भाँति सुवंसिरी आदि भी मुख्य हिमालय (हिमाद्री) के उत्तर से आती है तथा पूर्वगामी प्रवाह का उदाहरण प्रस्तुत करती है। पर्वतीय क्षेत्र में इनके मार्ग में खड्ड तथा प्रपात भी पाए जाते हैं। दक्षिण में सूरमा ही उल्लेख्य नदी है जो अपनी सहायक नदियों के साथ कछार जनपद में प्रवाहित होती है। भौमिकीय दृष्टि से आसाम राज्य में अति प्राचीन दलाश्म (नीस) तथा सुभाजा (शिस्ट) निर्मित मध्यवर्ती भूभाग (मिकिर तथा उत्तरी कछार) से लेकर तृतीय युग की जलोढ़ चट्टानें भी भूतल पर विद्यमान हैं। प्राचीन चट्टानों की पर्त उत्तर की ओर क्रमश: पतली होती गई है तथा तृतीयक चट्टानों से ढकी हुई हैं। ये चट्टानें प्राय: हिमालय की तरह के भंजों से रहित हैं। उत्तर में ये क्षैतिज हैं पर दक्षिण में इनका झुकाव (डिप) दक्षिण की ओर हो गया है। भूकम्प तथा बाढ़ आसाम की दो प्रमुख समस्याएँ हैं। बाढ़ से प्राय: प्रतिवर्ष 8 से 10 करोड़ रुपए की माल की क्षति होती है। 1966 की बाढ़ से लगभग 16,000 वर्ग कि॰मी॰ क्षेत्र जलप्लावित हुआ था। स्थल खण्ड के अपेक्षाकृत नवीन होने तथा चट्टानी स्तरों के अस्थायित्व के कारण इस राज्य में भूकम्प की सम्भावना अधिक रहती है। 1897 का भूकम्प, जिसकी नाभि गारो खासी की पहाड़ियों में थी, यहाँ का सबसे बड़ा भूकम्प माना जाता है। रेल लाइनों का उखड़ना, भूस्खलन, नदी मार्गावरोध तथा परिवर्तन आदि क्रियाएँ बड़े पैमाने पर हुई थीं और लगभग 10,550 व्यक्ति मर गए थे। अन्य प्रमुख भूकंपक्रमश: 1869, 1888, 1930, 1934 तथा 1950 में आए। काँप तथा लैटराट इस राज्य की प्रमुख मिट्टियाँ हैं जो क्रमश: मैदानी भागों तथा पहाड़ी क्षेत्रों के ढालों पर पाई जाती हैं। नई काँप मिट्टी नदियों के बाढ़ क्षेत्र में पाई जाती है तथा धान, जूट, दाल एवं तिलहन के लिए उपयुक्त है। यह प्राय: उदासीन प्रकृति की होती है। बाढ़ेतर प्रदेश की वागर मिट्टी प्राय: अम्लीय होती है। यह गन्ना, फल, धान के लिए अधिक उपुयक्त है। पर्वतीय क्षेत्र की लैटराइट मिट्टी अपेक्षाकृत अनुपजाऊ होती है। चाय की कृषि के अतिरिक्त ये क्षेत्र प्राय: वनाच्छादित हैं। तृतीय युग का कोयला तथा खनिज तेल इस प्रदेश की मुख्य सम्पदाएँ हैं। खनिज तेल का अनुमानित भण्डार 450 लाख टन है जो पूरे भारत का लगभग 50 प्रतिशत है तथा प्रमुखतः बह्मपुत्र की ऊपरी घाटी में दिगबोई, नहरकटिया, मोशन, लक्वा, टियोक आदि के चतुर्दिक्‌ प्राप्य है।
कछार मैदान या सूरमा घाटी किसके द्वारा निर्मित है?
जलोढ़ अवसाद
kachaar maidan yaa suurama ghati kiske dwaara nirmit he?
भू आकृति के अनुसार असम राज्य को तीन विभागों में विभक्त किया जा सकता है : 1. उत्तरी मैदान अथवा ब्रह्मपुत्र का मैदान जो कि सम्पूर्ण उत्तरी भाग में फैला हुआ है। इसकी ढाल बहुत ही कम है जिसके कारण प्राय: यह ब्रह्मपुत्र की बाढ़ से आक्रान्त रहता है। यह नदी इस समतल मैदान को दो असमान भागों में विभक्त करती है जिसमें उत्तरी भाग हिमालय से आनेवाली लगभग समानान्तर नदियों, सुवंसिरी आदि, से काफी कट फट गया है। दक्षिणी भाग अपेक्षाकृत कम चौड़ा है। गौहाटी के समीप ब्रद्मपुत्र मेघालय चट्टानों का क्रम नदी के उत्तरी कगार पर भी दिखाई पड़ता है। बूढ़ी दिहिंग, धनसिरी तथा कपिली ने अपने निकासवर्ती अपरदन की प्रक्रिया द्वारा मिकिर तथा रेग्मा पहाड़ियों को मेघालय की पहाड़ियों से लगभग अलग कर दिया है। सम्पूर्ण घाटी पूर्व में 30 मी॰ से पश्चिम में 130 मी॰ की ऊँचाई तक स्थित है जिसकी औसत ढाल 12 से॰मी॰ प्रति कि॰ मी॰ है। नदियों का मार्ग प्राय: सर्पिल है। 2. मिकिर तथा उत्तरी कछार का पहाड़ी क्षेत्र भौम्याकृति की दृष्टि से एक जटिल तथा कटा फटा प्रदेश है और आसाम घाटी के दक्षिण में स्थित है। इसका उत्तरी छोर अपेक्षाकृत अधिक ढलवा है। 3. कछार का मैदान अथवा सूरमा घाटी जलोढ़ अवसाद द्वारा निर्मित एक समतल उपजाऊ मैदान है जो राज्य के दक्षिणी भाग में स्थित है। वास्तव में इसे बंगाल डेल्टा का पूर्वी छोर ही कहा जा सकता है। उत्तर में डौकी भ्रंश इसकी सीमा बनाता है। इस राज्य की प्रमुख नदी ब्रह्मपुत्र (तिब्बत की सांगपी) है जो लगभग पूर्व पश्चिम में प्रवाहित होती हुई धुबरी के निकट बंगलादेश में प्रविष्ट हो जाती है। प्रवाहक्षेत्र के कम ढलवाँ होने के कारण नदी शाखाओं में विभक्त हो जाती है तथा नदीस्थित द्वीपों का निर्माण करती है जिनमें माजुली (129 वर्ग कि॰मी॰) विश्व का सबसे बड़ा नदी स्थित द्वीप है। वर्षाकाल में नदी का जलमार्ग कहीं कहीं 8 कि॰मी॰ चौड़ा हो जाता है तथा झील जैसा प्रतीत होता है। इस नदी की 35 प्रमुख सहायक नदियाँ हैं। सुवंसिरी, भरेली, धनसिरी, पगलडिया, मानस तथा संकाश आदि दाहिनी ओर से तथा लोहित, नवदिहिंग, बूढ़ी दिहिंग, दिसांग, कपिली, दिगारू आदि बाई ओर से मिलने वाली प्रमुख नदियाँ हैं। ये नदियाँ इतना जल तथा मलबा अपने साथ लाती है कि मुख्य नदी गोवालपारा के समीप 50 लाख क्यूसेक जल का निस्सारण करती है। ब्रह्मपुत्र की ही भाँति सुवंसिरी आदि भी मुख्य हिमालय (हिमाद्री) के उत्तर से आती है तथा पूर्वगामी प्रवाह का उदाहरण प्रस्तुत करती है। पर्वतीय क्षेत्र में इनके मार्ग में खड्ड तथा प्रपात भी पाए जाते हैं। दक्षिण में सूरमा ही उल्लेख्य नदी है जो अपनी सहायक नदियों के साथ कछार जनपद में प्रवाहित होती है। भौमिकीय दृष्टि से आसाम राज्य में अति प्राचीन दलाश्म (नीस) तथा सुभाजा (शिस्ट) निर्मित मध्यवर्ती भूभाग (मिकिर तथा उत्तरी कछार) से लेकर तृतीय युग की जलोढ़ चट्टानें भी भूतल पर विद्यमान हैं। प्राचीन चट्टानों की पर्त उत्तर की ओर क्रमश: पतली होती गई है तथा तृतीयक चट्टानों से ढकी हुई हैं। ये चट्टानें प्राय: हिमालय की तरह के भंजों से रहित हैं। उत्तर में ये क्षैतिज हैं पर दक्षिण में इनका झुकाव (डिप) दक्षिण की ओर हो गया है। भूकम्प तथा बाढ़ आसाम की दो प्रमुख समस्याएँ हैं। बाढ़ से प्राय: प्रतिवर्ष 8 से 10 करोड़ रुपए की माल की क्षति होती है। 1966 की बाढ़ से लगभग 16,000 वर्ग कि॰मी॰ क्षेत्र जलप्लावित हुआ था। स्थल खण्ड के अपेक्षाकृत नवीन होने तथा चट्टानी स्तरों के अस्थायित्व के कारण इस राज्य में भूकम्प की सम्भावना अधिक रहती है। 1897 का भूकम्प, जिसकी नाभि गारो खासी की पहाड़ियों में थी, यहाँ का सबसे बड़ा भूकम्प माना जाता है। रेल लाइनों का उखड़ना, भूस्खलन, नदी मार्गावरोध तथा परिवर्तन आदि क्रियाएँ बड़े पैमाने पर हुई थीं और लगभग 10,550 व्यक्ति मर गए थे। अन्य प्रमुख भूकंपक्रमश: 1869, 1888, 1930, 1934 तथा 1950 में आए। काँप तथा लैटराट इस राज्य की प्रमुख मिट्टियाँ हैं जो क्रमश: मैदानी भागों तथा पहाड़ी क्षेत्रों के ढालों पर पाई जाती हैं। नई काँप मिट्टी नदियों के बाढ़ क्षेत्र में पाई जाती है तथा धान, जूट, दाल एवं तिलहन के लिए उपयुक्त है। यह प्राय: उदासीन प्रकृति की होती है। बाढ़ेतर प्रदेश की वागर मिट्टी प्राय: अम्लीय होती है। यह गन्ना, फल, धान के लिए अधिक उपुयक्त है। पर्वतीय क्षेत्र की लैटराइट मिट्टी अपेक्षाकृत अनुपजाऊ होती है। चाय की कृषि के अतिरिक्त ये क्षेत्र प्राय: वनाच्छादित हैं। तृतीय युग का कोयला तथा खनिज तेल इस प्रदेश की मुख्य सम्पदाएँ हैं। खनिज तेल का अनुमानित भण्डार 450 लाख टन है जो पूरे भारत का लगभग 50 प्रतिशत है तथा प्रमुखतः बह्मपुत्र की ऊपरी घाटी में दिगबोई, नहरकटिया, मोशन, लक्वा, टियोक आदि के चतुर्दिक्‌ प्राप्य है।
दुनियां का सबसे बड़ा नदीय द्वीप का क्या नाम है?
माजुली
duniyaan kaa sabase bada nadeey dweep kaa kya naam he?
भू आकृति के अनुसार असम राज्य को तीन विभागों में विभक्त किया जा सकता है : 1. उत्तरी मैदान अथवा ब्रह्मपुत्र का मैदान जो कि सम्पूर्ण उत्तरी भाग में फैला हुआ है। इसकी ढाल बहुत ही कम है जिसके कारण प्राय: यह ब्रह्मपुत्र की बाढ़ से आक्रान्त रहता है। यह नदी इस समतल मैदान को दो असमान भागों में विभक्त करती है जिसमें उत्तरी भाग हिमालय से आनेवाली लगभग समानान्तर नदियों, सुवंसिरी आदि, से काफी कट फट गया है। दक्षिणी भाग अपेक्षाकृत कम चौड़ा है। गौहाटी के समीप ब्रद्मपुत्र मेघालय चट्टानों का क्रम नदी के उत्तरी कगार पर भी दिखाई पड़ता है। बूढ़ी दिहिंग, धनसिरी तथा कपिली ने अपने निकासवर्ती अपरदन की प्रक्रिया द्वारा मिकिर तथा रेग्मा पहाड़ियों को मेघालय की पहाड़ियों से लगभग अलग कर दिया है। सम्पूर्ण घाटी पूर्व में 30 मी॰ से पश्चिम में 130 मी॰ की ऊँचाई तक स्थित है जिसकी औसत ढाल 12 से॰मी॰ प्रति कि॰ मी॰ है। नदियों का मार्ग प्राय: सर्पिल है। 2. मिकिर तथा उत्तरी कछार का पहाड़ी क्षेत्र भौम्याकृति की दृष्टि से एक जटिल तथा कटा फटा प्रदेश है और आसाम घाटी के दक्षिण में स्थित है। इसका उत्तरी छोर अपेक्षाकृत अधिक ढलवा है। 3. कछार का मैदान अथवा सूरमा घाटी जलोढ़ अवसाद द्वारा निर्मित एक समतल उपजाऊ मैदान है जो राज्य के दक्षिणी भाग में स्थित है। वास्तव में इसे बंगाल डेल्टा का पूर्वी छोर ही कहा जा सकता है। उत्तर में डौकी भ्रंश इसकी सीमा बनाता है। इस राज्य की प्रमुख नदी ब्रह्मपुत्र (तिब्बत की सांगपी) है जो लगभग पूर्व पश्चिम में प्रवाहित होती हुई धुबरी के निकट बंगलादेश में प्रविष्ट हो जाती है। प्रवाहक्षेत्र के कम ढलवाँ होने के कारण नदी शाखाओं में विभक्त हो जाती है तथा नदीस्थित द्वीपों का निर्माण करती है जिनमें माजुली (129 वर्ग कि॰मी॰) विश्व का सबसे बड़ा नदी स्थित द्वीप है। वर्षाकाल में नदी का जलमार्ग कहीं कहीं 8 कि॰मी॰ चौड़ा हो जाता है तथा झील जैसा प्रतीत होता है। इस नदी की 35 प्रमुख सहायक नदियाँ हैं। सुवंसिरी, भरेली, धनसिरी, पगलडिया, मानस तथा संकाश आदि दाहिनी ओर से तथा लोहित, नवदिहिंग, बूढ़ी दिहिंग, दिसांग, कपिली, दिगारू आदि बाई ओर से मिलने वाली प्रमुख नदियाँ हैं। ये नदियाँ इतना जल तथा मलबा अपने साथ लाती है कि मुख्य नदी गोवालपारा के समीप 50 लाख क्यूसेक जल का निस्सारण करती है। ब्रह्मपुत्र की ही भाँति सुवंसिरी आदि भी मुख्य हिमालय (हिमाद्री) के उत्तर से आती है तथा पूर्वगामी प्रवाह का उदाहरण प्रस्तुत करती है। पर्वतीय क्षेत्र में इनके मार्ग में खड्ड तथा प्रपात भी पाए जाते हैं। दक्षिण में सूरमा ही उल्लेख्य नदी है जो अपनी सहायक नदियों के साथ कछार जनपद में प्रवाहित होती है। भौमिकीय दृष्टि से आसाम राज्य में अति प्राचीन दलाश्म (नीस) तथा सुभाजा (शिस्ट) निर्मित मध्यवर्ती भूभाग (मिकिर तथा उत्तरी कछार) से लेकर तृतीय युग की जलोढ़ चट्टानें भी भूतल पर विद्यमान हैं। प्राचीन चट्टानों की पर्त उत्तर की ओर क्रमश: पतली होती गई है तथा तृतीयक चट्टानों से ढकी हुई हैं। ये चट्टानें प्राय: हिमालय की तरह के भंजों से रहित हैं। उत्तर में ये क्षैतिज हैं पर दक्षिण में इनका झुकाव (डिप) दक्षिण की ओर हो गया है। भूकम्प तथा बाढ़ आसाम की दो प्रमुख समस्याएँ हैं। बाढ़ से प्राय: प्रतिवर्ष 8 से 10 करोड़ रुपए की माल की क्षति होती है। 1966 की बाढ़ से लगभग 16,000 वर्ग कि॰मी॰ क्षेत्र जलप्लावित हुआ था। स्थल खण्ड के अपेक्षाकृत नवीन होने तथा चट्टानी स्तरों के अस्थायित्व के कारण इस राज्य में भूकम्प की सम्भावना अधिक रहती है। 1897 का भूकम्प, जिसकी नाभि गारो खासी की पहाड़ियों में थी, यहाँ का सबसे बड़ा भूकम्प माना जाता है। रेल लाइनों का उखड़ना, भूस्खलन, नदी मार्गावरोध तथा परिवर्तन आदि क्रियाएँ बड़े पैमाने पर हुई थीं और लगभग 10,550 व्यक्ति मर गए थे। अन्य प्रमुख भूकंपक्रमश: 1869, 1888, 1930, 1934 तथा 1950 में आए। काँप तथा लैटराट इस राज्य की प्रमुख मिट्टियाँ हैं जो क्रमश: मैदानी भागों तथा पहाड़ी क्षेत्रों के ढालों पर पाई जाती हैं। नई काँप मिट्टी नदियों के बाढ़ क्षेत्र में पाई जाती है तथा धान, जूट, दाल एवं तिलहन के लिए उपयुक्त है। यह प्राय: उदासीन प्रकृति की होती है। बाढ़ेतर प्रदेश की वागर मिट्टी प्राय: अम्लीय होती है। यह गन्ना, फल, धान के लिए अधिक उपुयक्त है। पर्वतीय क्षेत्र की लैटराइट मिट्टी अपेक्षाकृत अनुपजाऊ होती है। चाय की कृषि के अतिरिक्त ये क्षेत्र प्राय: वनाच्छादित हैं। तृतीय युग का कोयला तथा खनिज तेल इस प्रदेश की मुख्य सम्पदाएँ हैं। खनिज तेल का अनुमानित भण्डार 450 लाख टन है जो पूरे भारत का लगभग 50 प्रतिशत है तथा प्रमुखतः बह्मपुत्र की ऊपरी घाटी में दिगबोई, नहरकटिया, मोशन, लक्वा, टियोक आदि के चतुर्दिक्‌ प्राप्य है।
असम राज्य में बहने वाली मुख्य नदी का क्या नाम है ?
ब्रह्मपुत्र
assam rajya main bahane vaali mukhya nadi kaa kya naam he ?
मंदिरों से अनोखी चीजों तक, यहां से मनोरम दृश्‍य और रोमांचकारी गतिविधियां मनाली को हर मौसम और सभी प्रकार के यात्रियों के बीच लोकप्रिय बनाती हैं। कुल्‍लूकुल्लू घाटी को पहले कुलंथपीठ कहा जाता था। कुलंथपीठ का शाब्दिक अर्थ है रहने योग्‍य दुनिया का अंत। कुल्‍लू घाटी भारत में देवताओं की घाटी रही है। यहां के मंदिर, सेब के बागान और दशहरा हजारों पर्यटकों को कुल्‍लू की ओर आकर्षित करते हैं। यहां के स्‍थानीय हस्‍तशिल्‍प कुल्‍लू की सबसे बड़ी विशेषता है। शिमलाहिमाचल प्रदेश की राजधानी और ब्रिटिश कालीन समय में ग्रीष्‍म कालीन राजधानी शिमला राज्‍य का सबसे महत्‍वपूर्ण पर्यटन केन्‍द्र है। यहां का नाम देवी श्‍यामला के नाम पर रखा गया है जो काली का अवतार है। शिमला लगभग 7267 फीट की ऊँचाई पर स्थित है और यह अर्ध चक्र आकार में बसा हुआ है। यहां घाटी का सुंदर दृश्‍य दिखाई देता है और महान हिमालय पर्वती की चोटियां चारों ओर दिखाई देती है। शिमला एक पहाड़ी पर फैला हुआ है जो करीब 12 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में है। इसके पड़ोस में घने जंगल और टेढ़े-मेढे़ रास्ते हैं, जहां पर हर मोड़ पर मनोहारी दृश्य देखने को मिलते हैं। यह एक आधुनिक व्यावसायिक केंद्र भी है। शिमला विश्व का एक महत्त्वपूर्ण पर्यटन स्थल है। यहां प्रत्येक वर्ष देश-विदेश से बड़ी संख्या में लोग भ्रमण के लिए आते हैं। बर्फ से ढकी हुई यहां की पहाडि़यों में बड़े सुंदर दृश्य देखने को मिलते हैं जो पर्यटकों को बार-बार आने के लिए आकर्षित करते हैं। शिमला संग्रहालय हिमाचल प्रदेश की कला एवं संस्कृति का एक अनुपम नमूना है, जिसमें यहां की विभिन्न कलाकृतियां विशेषकर वास्तुकला, पहाड़ी कलम, सूक्ष्म कला, लकडि़यों पर की गई नक्काशियां, आभूषण एवं अन्य कृतियां संग्रहित हैं।
शिमला कितने किलोमीटर में फैला हुआ है ?
12 वर्ग किलोमीटर
shimla kitne kilometre main failaa hua he ?
मंदिरों से अनोखी चीजों तक, यहां से मनोरम दृश्‍य और रोमांचकारी गतिविधियां मनाली को हर मौसम और सभी प्रकार के यात्रियों के बीच लोकप्रिय बनाती हैं। कुल्‍लूकुल्लू घाटी को पहले कुलंथपीठ कहा जाता था। कुलंथपीठ का शाब्दिक अर्थ है रहने योग्‍य दुनिया का अंत। कुल्‍लू घाटी भारत में देवताओं की घाटी रही है। यहां के मंदिर, सेब के बागान और दशहरा हजारों पर्यटकों को कुल्‍लू की ओर आकर्षित करते हैं। यहां के स्‍थानीय हस्‍तशिल्‍प कुल्‍लू की सबसे बड़ी विशेषता है। शिमलाहिमाचल प्रदेश की राजधानी और ब्रिटिश कालीन समय में ग्रीष्‍म कालीन राजधानी शिमला राज्‍य का सबसे महत्‍वपूर्ण पर्यटन केन्‍द्र है। यहां का नाम देवी श्‍यामला के नाम पर रखा गया है जो काली का अवतार है। शिमला लगभग 7267 फीट की ऊँचाई पर स्थित है और यह अर्ध चक्र आकार में बसा हुआ है। यहां घाटी का सुंदर दृश्‍य दिखाई देता है और महान हिमालय पर्वती की चोटियां चारों ओर दिखाई देती है। शिमला एक पहाड़ी पर फैला हुआ है जो करीब 12 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में है। इसके पड़ोस में घने जंगल और टेढ़े-मेढे़ रास्ते हैं, जहां पर हर मोड़ पर मनोहारी दृश्य देखने को मिलते हैं। यह एक आधुनिक व्यावसायिक केंद्र भी है। शिमला विश्व का एक महत्त्वपूर्ण पर्यटन स्थल है। यहां प्रत्येक वर्ष देश-विदेश से बड़ी संख्या में लोग भ्रमण के लिए आते हैं। बर्फ से ढकी हुई यहां की पहाडि़यों में बड़े सुंदर दृश्य देखने को मिलते हैं जो पर्यटकों को बार-बार आने के लिए आकर्षित करते हैं। शिमला संग्रहालय हिमाचल प्रदेश की कला एवं संस्कृति का एक अनुपम नमूना है, जिसमें यहां की विभिन्न कलाकृतियां विशेषकर वास्तुकला, पहाड़ी कलम, सूक्ष्म कला, लकडि़यों पर की गई नक्काशियां, आभूषण एवं अन्य कृतियां संग्रहित हैं।
कुल्लू घाटी को पहले किस नाम से जाना जाता था ?
कुलंथपीठ
kullu ghati ko pehle kis naam se janaa jaataa tha ?
मंदिरों से अनोखी चीजों तक, यहां से मनोरम दृश्‍य और रोमांचकारी गतिविधियां मनाली को हर मौसम और सभी प्रकार के यात्रियों के बीच लोकप्रिय बनाती हैं। कुल्‍लूकुल्लू घाटी को पहले कुलंथपीठ कहा जाता था। कुलंथपीठ का शाब्दिक अर्थ है रहने योग्‍य दुनिया का अंत। कुल्‍लू घाटी भारत में देवताओं की घाटी रही है। यहां के मंदिर, सेब के बागान और दशहरा हजारों पर्यटकों को कुल्‍लू की ओर आकर्षित करते हैं। यहां के स्‍थानीय हस्‍तशिल्‍प कुल्‍लू की सबसे बड़ी विशेषता है। शिमलाहिमाचल प्रदेश की राजधानी और ब्रिटिश कालीन समय में ग्रीष्‍म कालीन राजधानी शिमला राज्‍य का सबसे महत्‍वपूर्ण पर्यटन केन्‍द्र है। यहां का नाम देवी श्‍यामला के नाम पर रखा गया है जो काली का अवतार है। शिमला लगभग 7267 फीट की ऊँचाई पर स्थित है और यह अर्ध चक्र आकार में बसा हुआ है। यहां घाटी का सुंदर दृश्‍य दिखाई देता है और महान हिमालय पर्वती की चोटियां चारों ओर दिखाई देती है। शिमला एक पहाड़ी पर फैला हुआ है जो करीब 12 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में है। इसके पड़ोस में घने जंगल और टेढ़े-मेढे़ रास्ते हैं, जहां पर हर मोड़ पर मनोहारी दृश्य देखने को मिलते हैं। यह एक आधुनिक व्यावसायिक केंद्र भी है। शिमला विश्व का एक महत्त्वपूर्ण पर्यटन स्थल है। यहां प्रत्येक वर्ष देश-विदेश से बड़ी संख्या में लोग भ्रमण के लिए आते हैं। बर्फ से ढकी हुई यहां की पहाडि़यों में बड़े सुंदर दृश्य देखने को मिलते हैं जो पर्यटकों को बार-बार आने के लिए आकर्षित करते हैं। शिमला संग्रहालय हिमाचल प्रदेश की कला एवं संस्कृति का एक अनुपम नमूना है, जिसमें यहां की विभिन्न कलाकृतियां विशेषकर वास्तुकला, पहाड़ी कलम, सूक्ष्म कला, लकडि़यों पर की गई नक्काशियां, आभूषण एवं अन्य कृतियां संग्रहित हैं।
शिमला का नाम किस देवी के नाम पर रखा गया है ?
श्‍यामला
shimla kaa naam kis devi ke naam par rakhaa gaya he ?
मई और नवम्बर 1995 के बीच उन्होंने सार्क मन्त्रिपरिषद सम्मेलन की अध्यक्षता की। मुखर्जी को पार्टी के भीतर तो मिला ही, सामाजिक नीतियों के क्षेत्र में भी काफी सम्मान मिला है। अन्य प्रचार माध्यमोंमें उन्हें बेजोड़ स्मरणशक्ति वाला, आंकड़ाप्रेमी और अपना अस्तित्व बरकरार रखने की अचूक इच्छाशक्ति रखने वाले एक राजनेता के रूप में वर्णित किया जाता है। जब सोनिया गान्धी अनिच्छा के साथ राजनीति में शामिल होने के लिए राजी हुईं तब प्रणव उनके प्रमुख परामर्शदाताओं में से रहे, जिन्होंने कठिन परिस्थितियों में उन्हें उदाहरणों के जरिये बताया कि उनकी सास इंदिरा गांधी इस तरह के हालात से कैसे निपटती थीं। मुखर्जी की अमोघ निष्ठा और योग्यता ने ही उन्हें यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी और प्रधान मन्त्री मनमोहन सिंह के करीब लाया और इसी वजह से जब 2004 में कांग्रेस पार्टी सत्ता में आयी तो उन्हें भारत के रक्षा मंत्री के प्रतिष्ठित पद पर पहुँचने में मदद मिली। सन 1991 से 1996 तक वे योजना आयोग के उपाध्यक्ष पद पर आसीन रहे। 2005 के प्रारम्भ में पेटेण्ट संशोधन बिल पर समझौते के दौरान उनकी प्रतिभा के दर्शन हुए। कांग्रेस एक आईपी विधेयक पारित करने के लिए प्रतिबद्ध थी,लेकिन संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन में शामिल वाममोर्चे के कुछ घटक दल बौद्धिक सम्पदा के एकाधिकार के कुछ पहलुओं का परम्परागत रूप से विरोध कर रहे थे। रक्षा मन्त्री के रूप में प्रणव मामले में औपचारिक रूप से शामिल नहीं थे, लेकिन बातचीत के कौशल को देखकर उन्हें आमन्त्रित किया गया था। उन्होंने मार्क्सवादी कम्युनिष्ट नेता ज्योति बसु सहित कई पुराने गठबन्धनों को मनाकर मध्यस्थता के कुछ नये बिंदु तय किये, जिसमे उत्पाद पेटेण्ट के अलावा और कुछ और बातें भी शामिल थीं; तब उन्हें, वाणिज्य मन्त्री कमल नाथ सहित अपने सहयोगियों यह कहकर मनाना पड़ा कि: "कोई कानून नहीं रहने से बेहतर है एक अपूर्णकानून बनना। " अंत में 23 मार्च 2005 को बिल को मंजूरी दे दी गई। मुखर्जी की खुद की छवि पाक-साफ है, परन्तु सन् 1998 में रीडिफ.कॉम को दिये गये एक साक्षात्कार में उनसे जब कांग्रेस सरकार, जिसमें वह विदेश मंत्री थे, पर लगे भ्रष्टाचार के बारे में पूछा गया था तो उन्होंने कहा -"भ्रष्टाचार एक मुद्दा है। घोषणा पत्र में हमने इससे निपटने की बात कही है। लेकिन मैं यह कहते हुए क्षमा चाहता हूँ कि ये घोटाले केवल कांग्रेस या कांग्रेस सरकार तक ही सीमित नहीं हैं। बहुत सारे घोटाले हैं। विभिन्न राजनीतिक दलों के कई नेता उनमें शामिल हैं। तो यह कहना काफी सरल है कि कांग्रेस सरकार भी इन घोटालों में शामिल थी। "24 अक्टूबर 2006 को जब उन्हें भारत का विदेश मन्त्री नियुक्त किया गया, रक्षा मंत्रालय में उनकी जगह ए.के. एंटनी ने ली। प्रणव मुखर्जी के नाम पर एक बार भारतीय राष्ट्रपति जैसे सम्मान जनक पद के लिए भी विचार किया गया था। लेकिन केंद्रीय मंत्रिमण्डल में व्यावहारिक रूप से उनके अपरिहार्य योगदान को देखते हुए उनका नाम हटा लिया गया। मुखर्जी की वर्तमान विरासत में अमेरिकी सरकार के साथ असैनिक परमाणु समझौते पर भारत-अमेरिका के सफलतापूर्वक हस्ताक्षर और परमाणु अप्रसार सन्धि पर दस्तखत नहीं होने के बावजूद असैन्य परमाणु व्यापार में भाग लेने के लिए परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह के साथ हुए हस्ताक्षर भी शामिल हैं। सन 2007 में उन्हें भारत के दूसरे सबसे बड़े नागरिक सम्मान पद्म विभूषण से नवाजा गया। मनमोहन सिंह की दूसरी सरकार में मुखर्जी भारत के वित्त मन्त्री बने। इस पद पर वे पहले 1980 के दशक में भी काम कर चुके थे। 6 जुलाई 2009 को उन्होंने सरकार का वार्षिक बजट पेश किया। इस बजट में उन्होंने क्षुब्ध करने वाले फ्रिंज बेनिफिट टैक्स और कमोडिटीज ट्रांसक्शन कर को हटाने सहित कई तरह के कर सुधारों की घोषणा की। उन्होंने ऐलान किया कि वित्त मन्त्रालय की हालत इतनी अच्छी नहीं है कि माल और सेवा कर लागू किये बगैर काम चला सके। उनके इस तर्क को कई महत्वपूर्ण कॉरपोरेट अधिकारियों और अर्थशास्त्रियों ने सराहा।
वर्ष 2004 में जब कांग्रेस पार्टी सत्ता में आई तब प्रणव मुखर्जी को किस पद पर रखा गया था ?
रक्षा मंत्री
varsh 2004 main jab congress party satta main ai tab pranav mukherjee ko kis pad par rakhaa gaya tha ?
मई और नवम्बर 1995 के बीच उन्होंने सार्क मन्त्रिपरिषद सम्मेलन की अध्यक्षता की। मुखर्जी को पार्टी के भीतर तो मिला ही, सामाजिक नीतियों के क्षेत्र में भी काफी सम्मान मिला है। अन्य प्रचार माध्यमोंमें उन्हें बेजोड़ स्मरणशक्ति वाला, आंकड़ाप्रेमी और अपना अस्तित्व बरकरार रखने की अचूक इच्छाशक्ति रखने वाले एक राजनेता के रूप में वर्णित किया जाता है। जब सोनिया गान्धी अनिच्छा के साथ राजनीति में शामिल होने के लिए राजी हुईं तब प्रणव उनके प्रमुख परामर्शदाताओं में से रहे, जिन्होंने कठिन परिस्थितियों में उन्हें उदाहरणों के जरिये बताया कि उनकी सास इंदिरा गांधी इस तरह के हालात से कैसे निपटती थीं। मुखर्जी की अमोघ निष्ठा और योग्यता ने ही उन्हें यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी और प्रधान मन्त्री मनमोहन सिंह के करीब लाया और इसी वजह से जब 2004 में कांग्रेस पार्टी सत्ता में आयी तो उन्हें भारत के रक्षा मंत्री के प्रतिष्ठित पद पर पहुँचने में मदद मिली। सन 1991 से 1996 तक वे योजना आयोग के उपाध्यक्ष पद पर आसीन रहे। 2005 के प्रारम्भ में पेटेण्ट संशोधन बिल पर समझौते के दौरान उनकी प्रतिभा के दर्शन हुए। कांग्रेस एक आईपी विधेयक पारित करने के लिए प्रतिबद्ध थी,लेकिन संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन में शामिल वाममोर्चे के कुछ घटक दल बौद्धिक सम्पदा के एकाधिकार के कुछ पहलुओं का परम्परागत रूप से विरोध कर रहे थे। रक्षा मन्त्री के रूप में प्रणव मामले में औपचारिक रूप से शामिल नहीं थे, लेकिन बातचीत के कौशल को देखकर उन्हें आमन्त्रित किया गया था। उन्होंने मार्क्सवादी कम्युनिष्ट नेता ज्योति बसु सहित कई पुराने गठबन्धनों को मनाकर मध्यस्थता के कुछ नये बिंदु तय किये, जिसमे उत्पाद पेटेण्ट के अलावा और कुछ और बातें भी शामिल थीं; तब उन्हें, वाणिज्य मन्त्री कमल नाथ सहित अपने सहयोगियों यह कहकर मनाना पड़ा कि: "कोई कानून नहीं रहने से बेहतर है एक अपूर्णकानून बनना। " अंत में 23 मार्च 2005 को बिल को मंजूरी दे दी गई। मुखर्जी की खुद की छवि पाक-साफ है, परन्तु सन् 1998 में रीडिफ.कॉम को दिये गये एक साक्षात्कार में उनसे जब कांग्रेस सरकार, जिसमें वह विदेश मंत्री थे, पर लगे भ्रष्टाचार के बारे में पूछा गया था तो उन्होंने कहा -"भ्रष्टाचार एक मुद्दा है। घोषणा पत्र में हमने इससे निपटने की बात कही है। लेकिन मैं यह कहते हुए क्षमा चाहता हूँ कि ये घोटाले केवल कांग्रेस या कांग्रेस सरकार तक ही सीमित नहीं हैं। बहुत सारे घोटाले हैं। विभिन्न राजनीतिक दलों के कई नेता उनमें शामिल हैं। तो यह कहना काफी सरल है कि कांग्रेस सरकार भी इन घोटालों में शामिल थी। "24 अक्टूबर 2006 को जब उन्हें भारत का विदेश मन्त्री नियुक्त किया गया, रक्षा मंत्रालय में उनकी जगह ए.के. एंटनी ने ली। प्रणव मुखर्जी के नाम पर एक बार भारतीय राष्ट्रपति जैसे सम्मान जनक पद के लिए भी विचार किया गया था। लेकिन केंद्रीय मंत्रिमण्डल में व्यावहारिक रूप से उनके अपरिहार्य योगदान को देखते हुए उनका नाम हटा लिया गया। मुखर्जी की वर्तमान विरासत में अमेरिकी सरकार के साथ असैनिक परमाणु समझौते पर भारत-अमेरिका के सफलतापूर्वक हस्ताक्षर और परमाणु अप्रसार सन्धि पर दस्तखत नहीं होने के बावजूद असैन्य परमाणु व्यापार में भाग लेने के लिए परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह के साथ हुए हस्ताक्षर भी शामिल हैं। सन 2007 में उन्हें भारत के दूसरे सबसे बड़े नागरिक सम्मान पद्म विभूषण से नवाजा गया। मनमोहन सिंह की दूसरी सरकार में मुखर्जी भारत के वित्त मन्त्री बने। इस पद पर वे पहले 1980 के दशक में भी काम कर चुके थे। 6 जुलाई 2009 को उन्होंने सरकार का वार्षिक बजट पेश किया। इस बजट में उन्होंने क्षुब्ध करने वाले फ्रिंज बेनिफिट टैक्स और कमोडिटीज ट्रांसक्शन कर को हटाने सहित कई तरह के कर सुधारों की घोषणा की। उन्होंने ऐलान किया कि वित्त मन्त्रालय की हालत इतनी अच्छी नहीं है कि माल और सेवा कर लागू किये बगैर काम चला सके। उनके इस तर्क को कई महत्वपूर्ण कॉरपोरेट अधिकारियों और अर्थशास्त्रियों ने सराहा।
प्रणव मुखर्जी ने सार्क कैबिनेट सम्मेलन की अध्यक्षता कब की थी ?
मई और नवम्बर 1995
pranav mukherjee ne saarc cabinet sammelan kii adhyakshata kab kii thi ?
मई और नवम्बर 1995 के बीच उन्होंने सार्क मन्त्रिपरिषद सम्मेलन की अध्यक्षता की। मुखर्जी को पार्टी के भीतर तो मिला ही, सामाजिक नीतियों के क्षेत्र में भी काफी सम्मान मिला है। अन्य प्रचार माध्यमोंमें उन्हें बेजोड़ स्मरणशक्ति वाला, आंकड़ाप्रेमी और अपना अस्तित्व बरकरार रखने की अचूक इच्छाशक्ति रखने वाले एक राजनेता के रूप में वर्णित किया जाता है। जब सोनिया गान्धी अनिच्छा के साथ राजनीति में शामिल होने के लिए राजी हुईं तब प्रणव उनके प्रमुख परामर्शदाताओं में से रहे, जिन्होंने कठिन परिस्थितियों में उन्हें उदाहरणों के जरिये बताया कि उनकी सास इंदिरा गांधी इस तरह के हालात से कैसे निपटती थीं। मुखर्जी की अमोघ निष्ठा और योग्यता ने ही उन्हें यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी और प्रधान मन्त्री मनमोहन सिंह के करीब लाया और इसी वजह से जब 2004 में कांग्रेस पार्टी सत्ता में आयी तो उन्हें भारत के रक्षा मंत्री के प्रतिष्ठित पद पर पहुँचने में मदद मिली। सन 1991 से 1996 तक वे योजना आयोग के उपाध्यक्ष पद पर आसीन रहे। 2005 के प्रारम्भ में पेटेण्ट संशोधन बिल पर समझौते के दौरान उनकी प्रतिभा के दर्शन हुए। कांग्रेस एक आईपी विधेयक पारित करने के लिए प्रतिबद्ध थी,लेकिन संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन में शामिल वाममोर्चे के कुछ घटक दल बौद्धिक सम्पदा के एकाधिकार के कुछ पहलुओं का परम्परागत रूप से विरोध कर रहे थे। रक्षा मन्त्री के रूप में प्रणव मामले में औपचारिक रूप से शामिल नहीं थे, लेकिन बातचीत के कौशल को देखकर उन्हें आमन्त्रित किया गया था। उन्होंने मार्क्सवादी कम्युनिष्ट नेता ज्योति बसु सहित कई पुराने गठबन्धनों को मनाकर मध्यस्थता के कुछ नये बिंदु तय किये, जिसमे उत्पाद पेटेण्ट के अलावा और कुछ और बातें भी शामिल थीं; तब उन्हें, वाणिज्य मन्त्री कमल नाथ सहित अपने सहयोगियों यह कहकर मनाना पड़ा कि: "कोई कानून नहीं रहने से बेहतर है एक अपूर्णकानून बनना। " अंत में 23 मार्च 2005 को बिल को मंजूरी दे दी गई। मुखर्जी की खुद की छवि पाक-साफ है, परन्तु सन् 1998 में रीडिफ.कॉम को दिये गये एक साक्षात्कार में उनसे जब कांग्रेस सरकार, जिसमें वह विदेश मंत्री थे, पर लगे भ्रष्टाचार के बारे में पूछा गया था तो उन्होंने कहा -"भ्रष्टाचार एक मुद्दा है। घोषणा पत्र में हमने इससे निपटने की बात कही है। लेकिन मैं यह कहते हुए क्षमा चाहता हूँ कि ये घोटाले केवल कांग्रेस या कांग्रेस सरकार तक ही सीमित नहीं हैं। बहुत सारे घोटाले हैं। विभिन्न राजनीतिक दलों के कई नेता उनमें शामिल हैं। तो यह कहना काफी सरल है कि कांग्रेस सरकार भी इन घोटालों में शामिल थी। "24 अक्टूबर 2006 को जब उन्हें भारत का विदेश मन्त्री नियुक्त किया गया, रक्षा मंत्रालय में उनकी जगह ए.के. एंटनी ने ली। प्रणव मुखर्जी के नाम पर एक बार भारतीय राष्ट्रपति जैसे सम्मान जनक पद के लिए भी विचार किया गया था। लेकिन केंद्रीय मंत्रिमण्डल में व्यावहारिक रूप से उनके अपरिहार्य योगदान को देखते हुए उनका नाम हटा लिया गया। मुखर्जी की वर्तमान विरासत में अमेरिकी सरकार के साथ असैनिक परमाणु समझौते पर भारत-अमेरिका के सफलतापूर्वक हस्ताक्षर और परमाणु अप्रसार सन्धि पर दस्तखत नहीं होने के बावजूद असैन्य परमाणु व्यापार में भाग लेने के लिए परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह के साथ हुए हस्ताक्षर भी शामिल हैं। सन 2007 में उन्हें भारत के दूसरे सबसे बड़े नागरिक सम्मान पद्म विभूषण से नवाजा गया। मनमोहन सिंह की दूसरी सरकार में मुखर्जी भारत के वित्त मन्त्री बने। इस पद पर वे पहले 1980 के दशक में भी काम कर चुके थे। 6 जुलाई 2009 को उन्होंने सरकार का वार्षिक बजट पेश किया। इस बजट में उन्होंने क्षुब्ध करने वाले फ्रिंज बेनिफिट टैक्स और कमोडिटीज ट्रांसक्शन कर को हटाने सहित कई तरह के कर सुधारों की घोषणा की। उन्होंने ऐलान किया कि वित्त मन्त्रालय की हालत इतनी अच्छी नहीं है कि माल और सेवा कर लागू किये बगैर काम चला सके। उनके इस तर्क को कई महत्वपूर्ण कॉरपोरेट अधिकारियों और अर्थशास्त्रियों ने सराहा।
प्रणव मुखर्जी को विदेश मंत्री पद के लिए किस वर्ष नियुक्त किया गया था ?
24 अक्टूबर 2006
pranav mukherjee ko videsh mantri pad ke liye kis varsh niyukt kiya gaya tha ?
मई और नवम्बर 1995 के बीच उन्होंने सार्क मन्त्रिपरिषद सम्मेलन की अध्यक्षता की। मुखर्जी को पार्टी के भीतर तो मिला ही, सामाजिक नीतियों के क्षेत्र में भी काफी सम्मान मिला है। अन्य प्रचार माध्यमोंमें उन्हें बेजोड़ स्मरणशक्ति वाला, आंकड़ाप्रेमी और अपना अस्तित्व बरकरार रखने की अचूक इच्छाशक्ति रखने वाले एक राजनेता के रूप में वर्णित किया जाता है। जब सोनिया गान्धी अनिच्छा के साथ राजनीति में शामिल होने के लिए राजी हुईं तब प्रणव उनके प्रमुख परामर्शदाताओं में से रहे, जिन्होंने कठिन परिस्थितियों में उन्हें उदाहरणों के जरिये बताया कि उनकी सास इंदिरा गांधी इस तरह के हालात से कैसे निपटती थीं। मुखर्जी की अमोघ निष्ठा और योग्यता ने ही उन्हें यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी और प्रधान मन्त्री मनमोहन सिंह के करीब लाया और इसी वजह से जब 2004 में कांग्रेस पार्टी सत्ता में आयी तो उन्हें भारत के रक्षा मंत्री के प्रतिष्ठित पद पर पहुँचने में मदद मिली। सन 1991 से 1996 तक वे योजना आयोग के उपाध्यक्ष पद पर आसीन रहे। 2005 के प्रारम्भ में पेटेण्ट संशोधन बिल पर समझौते के दौरान उनकी प्रतिभा के दर्शन हुए। कांग्रेस एक आईपी विधेयक पारित करने के लिए प्रतिबद्ध थी,लेकिन संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन में शामिल वाममोर्चे के कुछ घटक दल बौद्धिक सम्पदा के एकाधिकार के कुछ पहलुओं का परम्परागत रूप से विरोध कर रहे थे। रक्षा मन्त्री के रूप में प्रणव मामले में औपचारिक रूप से शामिल नहीं थे, लेकिन बातचीत के कौशल को देखकर उन्हें आमन्त्रित किया गया था। उन्होंने मार्क्सवादी कम्युनिष्ट नेता ज्योति बसु सहित कई पुराने गठबन्धनों को मनाकर मध्यस्थता के कुछ नये बिंदु तय किये, जिसमे उत्पाद पेटेण्ट के अलावा और कुछ और बातें भी शामिल थीं; तब उन्हें, वाणिज्य मन्त्री कमल नाथ सहित अपने सहयोगियों यह कहकर मनाना पड़ा कि: "कोई कानून नहीं रहने से बेहतर है एक अपूर्णकानून बनना। " अंत में 23 मार्च 2005 को बिल को मंजूरी दे दी गई। मुखर्जी की खुद की छवि पाक-साफ है, परन्तु सन् 1998 में रीडिफ.कॉम को दिये गये एक साक्षात्कार में उनसे जब कांग्रेस सरकार, जिसमें वह विदेश मंत्री थे, पर लगे भ्रष्टाचार के बारे में पूछा गया था तो उन्होंने कहा -"भ्रष्टाचार एक मुद्दा है। घोषणा पत्र में हमने इससे निपटने की बात कही है। लेकिन मैं यह कहते हुए क्षमा चाहता हूँ कि ये घोटाले केवल कांग्रेस या कांग्रेस सरकार तक ही सीमित नहीं हैं। बहुत सारे घोटाले हैं। विभिन्न राजनीतिक दलों के कई नेता उनमें शामिल हैं। तो यह कहना काफी सरल है कि कांग्रेस सरकार भी इन घोटालों में शामिल थी। "24 अक्टूबर 2006 को जब उन्हें भारत का विदेश मन्त्री नियुक्त किया गया, रक्षा मंत्रालय में उनकी जगह ए.के. एंटनी ने ली। प्रणव मुखर्जी के नाम पर एक बार भारतीय राष्ट्रपति जैसे सम्मान जनक पद के लिए भी विचार किया गया था। लेकिन केंद्रीय मंत्रिमण्डल में व्यावहारिक रूप से उनके अपरिहार्य योगदान को देखते हुए उनका नाम हटा लिया गया। मुखर्जी की वर्तमान विरासत में अमेरिकी सरकार के साथ असैनिक परमाणु समझौते पर भारत-अमेरिका के सफलतापूर्वक हस्ताक्षर और परमाणु अप्रसार सन्धि पर दस्तखत नहीं होने के बावजूद असैन्य परमाणु व्यापार में भाग लेने के लिए परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह के साथ हुए हस्ताक्षर भी शामिल हैं। सन 2007 में उन्हें भारत के दूसरे सबसे बड़े नागरिक सम्मान पद्म विभूषण से नवाजा गया। मनमोहन सिंह की दूसरी सरकार में मुखर्जी भारत के वित्त मन्त्री बने। इस पद पर वे पहले 1980 के दशक में भी काम कर चुके थे। 6 जुलाई 2009 को उन्होंने सरकार का वार्षिक बजट पेश किया। इस बजट में उन्होंने क्षुब्ध करने वाले फ्रिंज बेनिफिट टैक्स और कमोडिटीज ट्रांसक्शन कर को हटाने सहित कई तरह के कर सुधारों की घोषणा की। उन्होंने ऐलान किया कि वित्त मन्त्रालय की हालत इतनी अच्छी नहीं है कि माल और सेवा कर लागू किये बगैर काम चला सके। उनके इस तर्क को कई महत्वपूर्ण कॉरपोरेट अधिकारियों और अर्थशास्त्रियों ने सराहा।
सोनिया गांधी जब राजनीति में शामिल होने के लिए सहमत हुईं तब उनके प्रमुख सलाहकार कौन थे ?
प्रणव
sonia gandhi jab raajnneeti main shaamil hone ke liye sahamat huin tab unke pramukh salaahkaar koun the ?
मई और नवम्बर 1995 के बीच उन्होंने सार्क मन्त्रिपरिषद सम्मेलन की अध्यक्षता की। मुखर्जी को पार्टी के भीतर तो मिला ही, सामाजिक नीतियों के क्षेत्र में भी काफी सम्मान मिला है। अन्य प्रचार माध्यमोंमें उन्हें बेजोड़ स्मरणशक्ति वाला, आंकड़ाप्रेमी और अपना अस्तित्व बरकरार रखने की अचूक इच्छाशक्ति रखने वाले एक राजनेता के रूप में वर्णित किया जाता है। जब सोनिया गान्धी अनिच्छा के साथ राजनीति में शामिल होने के लिए राजी हुईं तब प्रणव उनके प्रमुख परामर्शदाताओं में से रहे, जिन्होंने कठिन परिस्थितियों में उन्हें उदाहरणों के जरिये बताया कि उनकी सास इंदिरा गांधी इस तरह के हालात से कैसे निपटती थीं। मुखर्जी की अमोघ निष्ठा और योग्यता ने ही उन्हें यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी और प्रधान मन्त्री मनमोहन सिंह के करीब लाया और इसी वजह से जब 2004 में कांग्रेस पार्टी सत्ता में आयी तो उन्हें भारत के रक्षा मंत्री के प्रतिष्ठित पद पर पहुँचने में मदद मिली। सन 1991 से 1996 तक वे योजना आयोग के उपाध्यक्ष पद पर आसीन रहे। 2005 के प्रारम्भ में पेटेण्ट संशोधन बिल पर समझौते के दौरान उनकी प्रतिभा के दर्शन हुए। कांग्रेस एक आईपी विधेयक पारित करने के लिए प्रतिबद्ध थी,लेकिन संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन में शामिल वाममोर्चे के कुछ घटक दल बौद्धिक सम्पदा के एकाधिकार के कुछ पहलुओं का परम्परागत रूप से विरोध कर रहे थे। रक्षा मन्त्री के रूप में प्रणव मामले में औपचारिक रूप से शामिल नहीं थे, लेकिन बातचीत के कौशल को देखकर उन्हें आमन्त्रित किया गया था। उन्होंने मार्क्सवादी कम्युनिष्ट नेता ज्योति बसु सहित कई पुराने गठबन्धनों को मनाकर मध्यस्थता के कुछ नये बिंदु तय किये, जिसमे उत्पाद पेटेण्ट के अलावा और कुछ और बातें भी शामिल थीं; तब उन्हें, वाणिज्य मन्त्री कमल नाथ सहित अपने सहयोगियों यह कहकर मनाना पड़ा कि: "कोई कानून नहीं रहने से बेहतर है एक अपूर्णकानून बनना। " अंत में 23 मार्च 2005 को बिल को मंजूरी दे दी गई। मुखर्जी की खुद की छवि पाक-साफ है, परन्तु सन् 1998 में रीडिफ.कॉम को दिये गये एक साक्षात्कार में उनसे जब कांग्रेस सरकार, जिसमें वह विदेश मंत्री थे, पर लगे भ्रष्टाचार के बारे में पूछा गया था तो उन्होंने कहा -"भ्रष्टाचार एक मुद्दा है। घोषणा पत्र में हमने इससे निपटने की बात कही है। लेकिन मैं यह कहते हुए क्षमा चाहता हूँ कि ये घोटाले केवल कांग्रेस या कांग्रेस सरकार तक ही सीमित नहीं हैं। बहुत सारे घोटाले हैं। विभिन्न राजनीतिक दलों के कई नेता उनमें शामिल हैं। तो यह कहना काफी सरल है कि कांग्रेस सरकार भी इन घोटालों में शामिल थी। "24 अक्टूबर 2006 को जब उन्हें भारत का विदेश मन्त्री नियुक्त किया गया, रक्षा मंत्रालय में उनकी जगह ए.के. एंटनी ने ली। प्रणव मुखर्जी के नाम पर एक बार भारतीय राष्ट्रपति जैसे सम्मान जनक पद के लिए भी विचार किया गया था। लेकिन केंद्रीय मंत्रिमण्डल में व्यावहारिक रूप से उनके अपरिहार्य योगदान को देखते हुए उनका नाम हटा लिया गया। मुखर्जी की वर्तमान विरासत में अमेरिकी सरकार के साथ असैनिक परमाणु समझौते पर भारत-अमेरिका के सफलतापूर्वक हस्ताक्षर और परमाणु अप्रसार सन्धि पर दस्तखत नहीं होने के बावजूद असैन्य परमाणु व्यापार में भाग लेने के लिए परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह के साथ हुए हस्ताक्षर भी शामिल हैं। सन 2007 में उन्हें भारत के दूसरे सबसे बड़े नागरिक सम्मान पद्म विभूषण से नवाजा गया। मनमोहन सिंह की दूसरी सरकार में मुखर्जी भारत के वित्त मन्त्री बने। इस पद पर वे पहले 1980 के दशक में भी काम कर चुके थे। 6 जुलाई 2009 को उन्होंने सरकार का वार्षिक बजट पेश किया। इस बजट में उन्होंने क्षुब्ध करने वाले फ्रिंज बेनिफिट टैक्स और कमोडिटीज ट्रांसक्शन कर को हटाने सहित कई तरह के कर सुधारों की घोषणा की। उन्होंने ऐलान किया कि वित्त मन्त्रालय की हालत इतनी अच्छी नहीं है कि माल और सेवा कर लागू किये बगैर काम चला सके। उनके इस तर्क को कई महत्वपूर्ण कॉरपोरेट अधिकारियों और अर्थशास्त्रियों ने सराहा।
प्रणव मुखर्जी को पद्म विभूषण से कब सम्मानित किया गया था ?
सन 2007
pranav mukherjee ko padam vibhushan se kab sammanit kiya gaya tha ?
मजे की बात यह कि इण्डियन पार्लियामेण्ट्री लाइब्रेरी में आज उसका कोई रिकार्ड ही मौजूद नहीं है। यह भी आरोप लगाया गया कि शास्त्रीजी का पोस्ट मार्टम भी नहीं हुआ। 2009 में जब यह सवाल उठाया गया तो भारत सरकार की ओर से यह जबाव दिया गया कि शास्त्रीजी के प्राइवेट डॉक्टर आर०एन०चुघ और कुछ रूस के कुछ डॉक्टरों ने मिलकर उनकी मौत की जाँच तो की थी परन्तु सरकार के पास उसका कोई रिकॉर्ड नहीं है। बाद में प्रधानमन्त्री कार्यालय से जब इसकी जानकारी माँगी गयी तो उसने भी अपनी मजबूरी जतायी। शास्त्रीजी की मौत में संभावित साजिश की पूरी पोल आउटलुक नाम की एक पत्रिका ने खोली। 2009 में, जब साउथ एशिया पर सीआईए की नज़र (अंग्रेजी: CIA's Eye on South Asia) नामक पुस्तक के लेखक अनुज धर ने सूचना के अधिकार के तहत माँगी गयी जानकारी पर प्रधानमन्त्री कार्यालय की ओर से यह कहना कि "शास्त्रीजी की मृत्यु के दस्तावेज़ सार्वजनिक करने से हमारे देश के अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध खराब हो सकते हैं तथा इस रहस्य पर से पर्दा उठते ही देश में उथल-पुथल मचने के अलावा संसदीय विशेषधिकारों को ठेस भी पहुँच सकती है। ये तमाम कारण हैं जिससे इस सवाल का जबाव नहीं दिया जा सकता। सबसे पहले सन् 1978 में प्रकाशित एक हिन्दी पुस्तक ललिता के आँसू में शास्त्रीजी की मृत्यु की करुण कथा को स्वाभाविक ढँग से उनकी धर्मपत्नी ललिता शास्त्री के माध्यम से कहलवाया गया था। उस समय (सन् उन्निस सौ अठहत्तर में) ललिताजी जीवित थीं।
लाल बहादुर शास्त्री जी के निजी डॉक्टर का क्या नाम था ?
आर०एन०चुघ
laal bahadur shastri ji ke nijee doctor kaa kya naam tha ?
मजे की बात यह कि इण्डियन पार्लियामेण्ट्री लाइब्रेरी में आज उसका कोई रिकार्ड ही मौजूद नहीं है। यह भी आरोप लगाया गया कि शास्त्रीजी का पोस्ट मार्टम भी नहीं हुआ। 2009 में जब यह सवाल उठाया गया तो भारत सरकार की ओर से यह जबाव दिया गया कि शास्त्रीजी के प्राइवेट डॉक्टर आर०एन०चुघ और कुछ रूस के कुछ डॉक्टरों ने मिलकर उनकी मौत की जाँच तो की थी परन्तु सरकार के पास उसका कोई रिकॉर्ड नहीं है। बाद में प्रधानमन्त्री कार्यालय से जब इसकी जानकारी माँगी गयी तो उसने भी अपनी मजबूरी जतायी। शास्त्रीजी की मौत में संभावित साजिश की पूरी पोल आउटलुक नाम की एक पत्रिका ने खोली। 2009 में, जब साउथ एशिया पर सीआईए की नज़र (अंग्रेजी: CIA's Eye on South Asia) नामक पुस्तक के लेखक अनुज धर ने सूचना के अधिकार के तहत माँगी गयी जानकारी पर प्रधानमन्त्री कार्यालय की ओर से यह कहना कि "शास्त्रीजी की मृत्यु के दस्तावेज़ सार्वजनिक करने से हमारे देश के अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध खराब हो सकते हैं तथा इस रहस्य पर से पर्दा उठते ही देश में उथल-पुथल मचने के अलावा संसदीय विशेषधिकारों को ठेस भी पहुँच सकती है। ये तमाम कारण हैं जिससे इस सवाल का जबाव नहीं दिया जा सकता। सबसे पहले सन् 1978 में प्रकाशित एक हिन्दी पुस्तक ललिता के आँसू में शास्त्रीजी की मृत्यु की करुण कथा को स्वाभाविक ढँग से उनकी धर्मपत्नी ललिता शास्त्री के माध्यम से कहलवाया गया था। उस समय (सन् उन्निस सौ अठहत्तर में) ललिताजी जीवित थीं।
लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु की कहानी सबसे पहले किस पुस्तक में प्रकाशित हुई थी ?
ललिता के आँसू
laal bahadur shastri kii mrityu kii kahani sabase pehle kis pustak main prakashit hui thi ?
मजे की बात यह कि इण्डियन पार्लियामेण्ट्री लाइब्रेरी में आज उसका कोई रिकार्ड ही मौजूद नहीं है। यह भी आरोप लगाया गया कि शास्त्रीजी का पोस्ट मार्टम भी नहीं हुआ। 2009 में जब यह सवाल उठाया गया तो भारत सरकार की ओर से यह जबाव दिया गया कि शास्त्रीजी के प्राइवेट डॉक्टर आर०एन०चुघ और कुछ रूस के कुछ डॉक्टरों ने मिलकर उनकी मौत की जाँच तो की थी परन्तु सरकार के पास उसका कोई रिकॉर्ड नहीं है। बाद में प्रधानमन्त्री कार्यालय से जब इसकी जानकारी माँगी गयी तो उसने भी अपनी मजबूरी जतायी। शास्त्रीजी की मौत में संभावित साजिश की पूरी पोल आउटलुक नाम की एक पत्रिका ने खोली। 2009 में, जब साउथ एशिया पर सीआईए की नज़र (अंग्रेजी: CIA's Eye on South Asia) नामक पुस्तक के लेखक अनुज धर ने सूचना के अधिकार के तहत माँगी गयी जानकारी पर प्रधानमन्त्री कार्यालय की ओर से यह कहना कि "शास्त्रीजी की मृत्यु के दस्तावेज़ सार्वजनिक करने से हमारे देश के अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध खराब हो सकते हैं तथा इस रहस्य पर से पर्दा उठते ही देश में उथल-पुथल मचने के अलावा संसदीय विशेषधिकारों को ठेस भी पहुँच सकती है। ये तमाम कारण हैं जिससे इस सवाल का जबाव नहीं दिया जा सकता। सबसे पहले सन् 1978 में प्रकाशित एक हिन्दी पुस्तक ललिता के आँसू में शास्त्रीजी की मृत्यु की करुण कथा को स्वाभाविक ढँग से उनकी धर्मपत्नी ललिता शास्त्री के माध्यम से कहलवाया गया था। उस समय (सन् उन्निस सौ अठहत्तर में) ललिताजी जीवित थीं।
लाल बहादुर शास्त्री की पत्नी का क्या नाम था ?
ललिता शास्त्री
laal bahadur shastri kii patni kaa kya naam tha ?
मध्य प्रदेश के सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) वर्ष 2014-15 के लिए 84.27 बिलियन डॉलर था। प्रति व्यक्ति आय वर्ष 2013-14 में $871,45 था, और देश के अंतिम से छठे स्थान पर हैं। 1999 और 2008 के बीच राज्य की सालाना वृद्धि दर बहुत कम (3.5%) थी। इसके बाद राज्य के सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर में काफी सुधार हुआ है, और 2010-11 और 2011-12 के दौरान 8% एवं 12% क्रमशः बढ़ गया। राज्य में कृषिप्रधान अर्थव्यवस्था है। मध्य प्रदेश की प्रमुख फसलों में गेहूं, सोयाबीन, चना, गन्ना, चावल, मक्का, कपास, राइ, सरसों और अरहर शामिल हैं। प्रदेश में इंदौर, सोयबीन की मंडी के लिए और सीहोर गेहूं की मंडी के लिए देश भर का केंद्र हैं। लघु वनोपज (एमएफपी) जैसे की तेंदू, जिसके पत्ते का बीड़ी बनाने में इस्तेमाल किया जाता हैं, साल बीज, सागौन बीज, और लाख आदि भी राज्य की ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए योगदान देते हैं। मध्य प्रदेश में 5 विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) है: जिनमे 3 आईटी/आईटीईएस (इंदौर, ग्वालियर), 1 खनिज आधारित (जबलपुर) और 1 कृषि आधारित (जबलपुर) शामिल हैं। अक्टूबर 2011 में, 14 सेज प्रस्तावित किया गए, जिनमे से 10 आईटी/ आईटीईएस आधारित थे। इंदौर, राज्य का प्रमुख वाणिज्यिक केंद्र है। इसके राज्य के केंद्र में स्थित होने के कारण, यहाँ कई उपभोक्ता वस्तु कंपनियों ने अपनी विनिर्माण केंद्रों की स्थापना की है। .राज्य में भारत का हीरे और तांबे का सबसे बड़ा भंडार है। अन्य प्रमुख खनिज भंडार में कोयला, कालबेड मीथेन, मैंगनीज और डोलोमाइट शामिल हैं।
इंदौर कौन सी फसल का प्रमुख बाज़ार है ?
सोयबीन की मंडी
indore koun si fasal kaa pramukh bazaar he ?
मध्य प्रदेश के सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) वर्ष 2014-15 के लिए 84.27 बिलियन डॉलर था। प्रति व्यक्ति आय वर्ष 2013-14 में $871,45 था, और देश के अंतिम से छठे स्थान पर हैं। 1999 और 2008 के बीच राज्य की सालाना वृद्धि दर बहुत कम (3.5%) थी। इसके बाद राज्य के सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर में काफी सुधार हुआ है, और 2010-11 और 2011-12 के दौरान 8% एवं 12% क्रमशः बढ़ गया। राज्य में कृषिप्रधान अर्थव्यवस्था है। मध्य प्रदेश की प्रमुख फसलों में गेहूं, सोयाबीन, चना, गन्ना, चावल, मक्का, कपास, राइ, सरसों और अरहर शामिल हैं। प्रदेश में इंदौर, सोयबीन की मंडी के लिए और सीहोर गेहूं की मंडी के लिए देश भर का केंद्र हैं। लघु वनोपज (एमएफपी) जैसे की तेंदू, जिसके पत्ते का बीड़ी बनाने में इस्तेमाल किया जाता हैं, साल बीज, सागौन बीज, और लाख आदि भी राज्य की ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए योगदान देते हैं। मध्य प्रदेश में 5 विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) है: जिनमे 3 आईटी/आईटीईएस (इंदौर, ग्वालियर), 1 खनिज आधारित (जबलपुर) और 1 कृषि आधारित (जबलपुर) शामिल हैं। अक्टूबर 2011 में, 14 सेज प्रस्तावित किया गए, जिनमे से 10 आईटी/ आईटीईएस आधारित थे। इंदौर, राज्य का प्रमुख वाणिज्यिक केंद्र है। इसके राज्य के केंद्र में स्थित होने के कारण, यहाँ कई उपभोक्ता वस्तु कंपनियों ने अपनी विनिर्माण केंद्रों की स्थापना की है। .राज्य में भारत का हीरे और तांबे का सबसे बड़ा भंडार है। अन्य प्रमुख खनिज भंडार में कोयला, कालबेड मीथेन, मैंगनीज और डोलोमाइट शामिल हैं।
वर्ष 2014-15 में मध्य प्रदेश का सकल राज्य घरेलू उत्पाद कितना था ?
84.27 बिलियन डॉलर
varsh 2014-15 main madhya pradesh kaa sakal rajya gharelu utpaada kitna tha ?
मध्य प्रदेश के सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) वर्ष 2014-15 के लिए 84.27 बिलियन डॉलर था। प्रति व्यक्ति आय वर्ष 2013-14 में $871,45 था, और देश के अंतिम से छठे स्थान पर हैं। 1999 और 2008 के बीच राज्य की सालाना वृद्धि दर बहुत कम (3.5%) थी। इसके बाद राज्य के सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर में काफी सुधार हुआ है, और 2010-11 और 2011-12 के दौरान 8% एवं 12% क्रमशः बढ़ गया। राज्य में कृषिप्रधान अर्थव्यवस्था है। मध्य प्रदेश की प्रमुख फसलों में गेहूं, सोयाबीन, चना, गन्ना, चावल, मक्का, कपास, राइ, सरसों और अरहर शामिल हैं। प्रदेश में इंदौर, सोयबीन की मंडी के लिए और सीहोर गेहूं की मंडी के लिए देश भर का केंद्र हैं। लघु वनोपज (एमएफपी) जैसे की तेंदू, जिसके पत्ते का बीड़ी बनाने में इस्तेमाल किया जाता हैं, साल बीज, सागौन बीज, और लाख आदि भी राज्य की ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए योगदान देते हैं। मध्य प्रदेश में 5 विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) है: जिनमे 3 आईटी/आईटीईएस (इंदौर, ग्वालियर), 1 खनिज आधारित (जबलपुर) और 1 कृषि आधारित (जबलपुर) शामिल हैं। अक्टूबर 2011 में, 14 सेज प्रस्तावित किया गए, जिनमे से 10 आईटी/ आईटीईएस आधारित थे। इंदौर, राज्य का प्रमुख वाणिज्यिक केंद्र है। इसके राज्य के केंद्र में स्थित होने के कारण, यहाँ कई उपभोक्ता वस्तु कंपनियों ने अपनी विनिर्माण केंद्रों की स्थापना की है। .राज्य में भारत का हीरे और तांबे का सबसे बड़ा भंडार है। अन्य प्रमुख खनिज भंडार में कोयला, कालबेड मीथेन, मैंगनीज और डोलोमाइट शामिल हैं।
वर्ष 2013-14 में मध्य प्रदेश राज्य की प्रति व्यक्ति आय कितनी थी ?
$871,45
varsh 2013-14 main madhya pradesh rajya kii prati vyakti aay kitni thi ?
मध्य-16 वीं शताब्दी और 17-वीं शताब्दी के अंत के बीच मुग़ल साम्राज्य भारतीय उपमहाद्वीप में प्रमुख शक्ति थी। 1526 में स्थापित, यह नाममात्र 1857 तक बचा रहा, जब वह ब्रिटिश राज द्वारा हटाया गया। यह राजवंश कभी कभी तिमुरिड राजवंश के नाम से जाना जाता है क्योंकि बाबर तैमूर का वंशज था। फ़रग़ना वादी से आए एक तुर्की मुस्लिम तिमुरिड सिपहसालार बाबर ने मुग़ल राजवंश को स्थापित किया। उन्होंने उत्तरी भारत के कुछ हिस्सों पर हमला किया और दिल्ली के शासक इब्राहिम शाह लोधी को 1526 में पानीपत के पहले युद्ध में हराया। मुग़ल साम्राज्य ने उत्तरी भारत के शासकों के रूप में दिल्ली के सुल्तान का स्थान लिया। समय के साथ, उमेर द्वारा स्थापित राज्य ने दिल्ली के सुल्तान की सीमा को पार किया, अंततः भारत का एक बड़ा हिस्सा घेरा और साम्राज्य की पदवी कमाई। बाबर के बेटे हुमायूँ के शासनकाल के दौरान एक संक्षिप्त राजाए के भीतर (1540-1555), एक सक्षम और अपने ही अधिकार में कुशल शासक शेर शाह सूरी के अंतर्गत अफगान सूरी राजवंश का उदय देखा। हालाँकि, शेर शाह की असामयिक मृत्यु और उनके उत्तराधिकारियों की सैन्य अक्षमता ने 1555 में हुमायूँ को अपनी गद्दी हासिल करने के लिए सक्षम किया। हालाँकि, कुछ महीनों बाद हुमायूं का निधन हुआ और उनके 13 वर्षीय बेटे अकबर ने गद्दी हासिल करी। मुग़ल विस्तार का सबसे बड़ा भाग अकबर के शासनकाल (1556-1605) के दौरान निपुण हुआ।
बाबर किसका वंशज था?
तैमूर
babar kiskaa vanshaj tha?
मध्य-16 वीं शताब्दी और 17-वीं शताब्दी के अंत के बीच मुग़ल साम्राज्य भारतीय उपमहाद्वीप में प्रमुख शक्ति थी। 1526 में स्थापित, यह नाममात्र 1857 तक बचा रहा, जब वह ब्रिटिश राज द्वारा हटाया गया। यह राजवंश कभी कभी तिमुरिड राजवंश के नाम से जाना जाता है क्योंकि बाबर तैमूर का वंशज था। फ़रग़ना वादी से आए एक तुर्की मुस्लिम तिमुरिड सिपहसालार बाबर ने मुग़ल राजवंश को स्थापित किया। उन्होंने उत्तरी भारत के कुछ हिस्सों पर हमला किया और दिल्ली के शासक इब्राहिम शाह लोधी को 1526 में पानीपत के पहले युद्ध में हराया। मुग़ल साम्राज्य ने उत्तरी भारत के शासकों के रूप में दिल्ली के सुल्तान का स्थान लिया। समय के साथ, उमेर द्वारा स्थापित राज्य ने दिल्ली के सुल्तान की सीमा को पार किया, अंततः भारत का एक बड़ा हिस्सा घेरा और साम्राज्य की पदवी कमाई। बाबर के बेटे हुमायूँ के शासनकाल के दौरान एक संक्षिप्त राजाए के भीतर (1540-1555), एक सक्षम और अपने ही अधिकार में कुशल शासक शेर शाह सूरी के अंतर्गत अफगान सूरी राजवंश का उदय देखा। हालाँकि, शेर शाह की असामयिक मृत्यु और उनके उत्तराधिकारियों की सैन्य अक्षमता ने 1555 में हुमायूँ को अपनी गद्दी हासिल करने के लिए सक्षम किया। हालाँकि, कुछ महीनों बाद हुमायूं का निधन हुआ और उनके 13 वर्षीय बेटे अकबर ने गद्दी हासिल करी। मुग़ल विस्तार का सबसे बड़ा भाग अकबर के शासनकाल (1556-1605) के दौरान निपुण हुआ।
पानीपत की पहली लड़ाई कब हुई थी?
1526
panipat kii pehali ladaai kab hui thi?
मध्य-16 वीं शताब्दी और 17-वीं शताब्दी के अंत के बीच मुग़ल साम्राज्य भारतीय उपमहाद्वीप में प्रमुख शक्ति थी। 1526 में स्थापित, यह नाममात्र 1857 तक बचा रहा, जब वह ब्रिटिश राज द्वारा हटाया गया। यह राजवंश कभी कभी तिमुरिड राजवंश के नाम से जाना जाता है क्योंकि बाबर तैमूर का वंशज था। फ़रग़ना वादी से आए एक तुर्की मुस्लिम तिमुरिड सिपहसालार बाबर ने मुग़ल राजवंश को स्थापित किया। उन्होंने उत्तरी भारत के कुछ हिस्सों पर हमला किया और दिल्ली के शासक इब्राहिम शाह लोधी को 1526 में पानीपत के पहले युद्ध में हराया। मुग़ल साम्राज्य ने उत्तरी भारत के शासकों के रूप में दिल्ली के सुल्तान का स्थान लिया। समय के साथ, उमेर द्वारा स्थापित राज्य ने दिल्ली के सुल्तान की सीमा को पार किया, अंततः भारत का एक बड़ा हिस्सा घेरा और साम्राज्य की पदवी कमाई। बाबर के बेटे हुमायूँ के शासनकाल के दौरान एक संक्षिप्त राजाए के भीतर (1540-1555), एक सक्षम और अपने ही अधिकार में कुशल शासक शेर शाह सूरी के अंतर्गत अफगान सूरी राजवंश का उदय देखा। हालाँकि, शेर शाह की असामयिक मृत्यु और उनके उत्तराधिकारियों की सैन्य अक्षमता ने 1555 में हुमायूँ को अपनी गद्दी हासिल करने के लिए सक्षम किया। हालाँकि, कुछ महीनों बाद हुमायूं का निधन हुआ और उनके 13 वर्षीय बेटे अकबर ने गद्दी हासिल करी। मुग़ल विस्तार का सबसे बड़ा भाग अकबर के शासनकाल (1556-1605) के दौरान निपुण हुआ।
मुगल वंश की स्थापना किसने की थी?
बाबर
mughal vansh kii sthapana kisne kii thi?
मध्य-16 वीं शताब्दी और 17-वीं शताब्दी के अंत के बीच मुग़ल साम्राज्य भारतीय उपमहाद्वीप में प्रमुख शक्ति थी। 1526 में स्थापित, यह नाममात्र 1857 तक बचा रहा, जब वह ब्रिटिश राज द्वारा हटाया गया। यह राजवंश कभी कभी तिमुरिड राजवंश के नाम से जाना जाता है क्योंकि बाबर तैमूर का वंशज था। फ़रग़ना वादी से आए एक तुर्की मुस्लिम तिमुरिड सिपहसालार बाबर ने मुग़ल राजवंश को स्थापित किया। उन्होंने उत्तरी भारत के कुछ हिस्सों पर हमला किया और दिल्ली के शासक इब्राहिम शाह लोधी को 1526 में पानीपत के पहले युद्ध में हराया। मुग़ल साम्राज्य ने उत्तरी भारत के शासकों के रूप में दिल्ली के सुल्तान का स्थान लिया। समय के साथ, उमेर द्वारा स्थापित राज्य ने दिल्ली के सुल्तान की सीमा को पार किया, अंततः भारत का एक बड़ा हिस्सा घेरा और साम्राज्य की पदवी कमाई। बाबर के बेटे हुमायूँ के शासनकाल के दौरान एक संक्षिप्त राजाए के भीतर (1540-1555), एक सक्षम और अपने ही अधिकार में कुशल शासक शेर शाह सूरी के अंतर्गत अफगान सूरी राजवंश का उदय देखा। हालाँकि, शेर शाह की असामयिक मृत्यु और उनके उत्तराधिकारियों की सैन्य अक्षमता ने 1555 में हुमायूँ को अपनी गद्दी हासिल करने के लिए सक्षम किया। हालाँकि, कुछ महीनों बाद हुमायूं का निधन हुआ और उनके 13 वर्षीय बेटे अकबर ने गद्दी हासिल करी। मुग़ल विस्तार का सबसे बड़ा भाग अकबर के शासनकाल (1556-1605) के दौरान निपुण हुआ।
अकबर का शासनकाल कब से कब तक रहा था?
1556-1605
akbar kaa shasankaal kab se kab tak rahaa tha?
मध्य-16 वीं शताब्दी और 17-वीं शताब्दी के अंत के बीच मुग़ल साम्राज्य भारतीय उपमहाद्वीप में प्रमुख शक्ति थी। 1526 में स्थापित, यह नाममात्र 1857 तक बचा रहा, जब वह ब्रिटिश राज द्वारा हटाया गया। यह राजवंश कभी कभी तिमुरिड राजवंश के नाम से जाना जाता है क्योंकि बाबर तैमूर का वंशज था। फ़रग़ना वादी से आए एक तुर्की मुस्लिम तिमुरिड सिपहसालार बाबर ने मुग़ल राजवंश को स्थापित किया। उन्होंने उत्तरी भारत के कुछ हिस्सों पर हमला किया और दिल्ली के शासक इब्राहिम शाह लोधी को 1526 में पानीपत के पहले युद्ध में हराया। मुग़ल साम्राज्य ने उत्तरी भारत के शासकों के रूप में दिल्ली के सुल्तान का स्थान लिया। समय के साथ, उमेर द्वारा स्थापित राज्य ने दिल्ली के सुल्तान की सीमा को पार किया, अंततः भारत का एक बड़ा हिस्सा घेरा और साम्राज्य की पदवी कमाई। बाबर के बेटे हुमायूँ के शासनकाल के दौरान एक संक्षिप्त राजाए के भीतर (1540-1555), एक सक्षम और अपने ही अधिकार में कुशल शासक शेर शाह सूरी के अंतर्गत अफगान सूरी राजवंश का उदय देखा। हालाँकि, शेर शाह की असामयिक मृत्यु और उनके उत्तराधिकारियों की सैन्य अक्षमता ने 1555 में हुमायूँ को अपनी गद्दी हासिल करने के लिए सक्षम किया। हालाँकि, कुछ महीनों बाद हुमायूं का निधन हुआ और उनके 13 वर्षीय बेटे अकबर ने गद्दी हासिल करी। मुग़ल विस्तार का सबसे बड़ा भाग अकबर के शासनकाल (1556-1605) के दौरान निपुण हुआ।
भारतीय उपमहाद्वीप को किस सम्राज्य ने सौ वर्षों तक एक प्रमुख शक्ति के रूप में बनाए रखा था?
मुग़ल साम्राज्य
bhartiya upmahadweep ko kis samrajya ne sau varshon tak ek pramukh shakti ke rup main banaae rakhaa tha?
मन चित एक है। जीव सिर्फ़ नाम की आराधना करता है। इसको जीवित मुक्त कहते हैं। (३) नाम पदार्थ: नाम आराधना से प्राप्त किया हुआ निराकारी ज्ञान है। इसको धुर की बनी भी कहते हैं। ये बगैर कानो के सुनी जाती है और हृदय में प्रगत होती है। यह नाम ही जीवित करता है। आँखें खोल देता है। ३ लोक का ज्ञान मिल जाता है। (३)जन्म पदार्थ: ""नानक नाम मिले तां जीवां"", यह निराकारी जन्म है। बस शरीर में है लेकिन सुरत शब्द के साथ जुड़ गयी है। शरीर से प्रेम नहीं है। दुःख सुख कुछ भी नहीं मानता, पाप पुण्य कुछ भी नहीं। बस जो हुकम होता है वो करता हैधर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को चार पदार्थों में नहीं लिया गया। श्री गुरु गोबिंद सिंह जी कहते हैं: ज्ञान के विहीन लोभ मोह में परवीन, कामना अधीन कैसे पांवे भगवंत कोसिखमत में भक्तों एवम सत्गुरों ने निरंकार को अकार रहित कहा है। क्योंकि सांसारिक पदार्थ तो एक दिन खत्म हो जाते हैं लेकिन परब्रह्म कभी नहीं मरता। इसी लिए उसे अकाल कहा गया है। यही नहीं जीव आत्मा भी आकर रहित है और इस शरीर के साथ कुछ समय के लिए बंधी है। इसका वजूद शरीर के बगैर भी है, जो आम मनुष्य की बुधि से दूर है। यही कारण है की सिखमत मूर्ति पूजा के सख्त खिलाफ़ है। सत्गुरुओं एवं भक्तों ने मूर्ती पूजकों को अँधा, जानवर इतियादी शब्दों से निवाजा है। उस की तस्वीर बने नहीं जा सकती। यही नहीं कोई भी संसारी पदार्थ जैसे की कबर, भक्तो एवं सत्गुरुओं के इतिहासक पदार्थ, प्रतिमाएं आदिक को पूजना सिखों के बुनयादी उसूलों के खिलाफ़ है। धार्मिक ग्रंथ का ज्ञान एक विधि जो निरंकार के देश की तरफ लेकर जाती है, जिसके समक्ष सिख नतमस्तक होते हैं, लेकिन धार्मिक ग्रंथों की पूजा भी सिखों के बुनयादी उसूलों के खिलाफ है। सिखमत में हर जीव को अवतार कहा गया है। हर जीव उस निरंकार की अंश है। संसार में कोई भी पंची, पशु, पेड़, इतियादी अवतार हैं। मानुष की योनी में जीव अपना ज्ञान पूरा करने के लिए अवतरित हुआ है। व्यक्ति की पूजा सिख धर्म में नहीं है "मानुख कि टेक बिरथी सब जानत, देने, को एके भगवान"। तमाम अवतार एक निरंकार की शर्त पर पूरे नहीं उतरते कोई भी अजूनी नहीं है। यही कारण है की सिख किसी को परमेशर के रूप में नहीं मानते। हाँ अगर कोई अवतार गुरमत का उपदेस करता है तो सिख उस उपदेश के साथ ज़रूर जुड़े रहते हैं। जैसा की कृष्ण ने गीता में कहा है की आत्मा मरती नहीं और जीव हत्या कुछ नहीं होती, इस बात से तो सिखमत सहमत है लेकिन आगे कृष्ण ने कहा है की कर्म ही धर्म है जिस से सिख धर्म सहमत नहीं। पैग़म्बर वो है जो निरंकार का सन्देश अथवा ज्ञान आम लोकई में बांटे। जैसा की इस्लाम में कहा है की मुहम्मद आखरी पैगम्बर है सिखों में कहा गया है कि "हर जुग जुग भक्त उपाया"।
मूर्ति पूजा का विरोध कौन सा धर्म करता है?
सिखमत
murti puja kaa virodh koun sa dharm karata he?
मन चित एक है। जीव सिर्फ़ नाम की आराधना करता है। इसको जीवित मुक्त कहते हैं। (३) नाम पदार्थ: नाम आराधना से प्राप्त किया हुआ निराकारी ज्ञान है। इसको धुर की बनी भी कहते हैं। ये बगैर कानो के सुनी जाती है और हृदय में प्रगत होती है। यह नाम ही जीवित करता है। आँखें खोल देता है। ३ लोक का ज्ञान मिल जाता है। (३)जन्म पदार्थ: ""नानक नाम मिले तां जीवां"", यह निराकारी जन्म है। बस शरीर में है लेकिन सुरत शब्द के साथ जुड़ गयी है। शरीर से प्रेम नहीं है। दुःख सुख कुछ भी नहीं मानता, पाप पुण्य कुछ भी नहीं। बस जो हुकम होता है वो करता हैधर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को चार पदार्थों में नहीं लिया गया। श्री गुरु गोबिंद सिंह जी कहते हैं: ज्ञान के विहीन लोभ मोह में परवीन, कामना अधीन कैसे पांवे भगवंत कोसिखमत में भक्तों एवम सत्गुरों ने निरंकार को अकार रहित कहा है। क्योंकि सांसारिक पदार्थ तो एक दिन खत्म हो जाते हैं लेकिन परब्रह्म कभी नहीं मरता। इसी लिए उसे अकाल कहा गया है। यही नहीं जीव आत्मा भी आकर रहित है और इस शरीर के साथ कुछ समय के लिए बंधी है। इसका वजूद शरीर के बगैर भी है, जो आम मनुष्य की बुधि से दूर है। यही कारण है की सिखमत मूर्ति पूजा के सख्त खिलाफ़ है। सत्गुरुओं एवं भक्तों ने मूर्ती पूजकों को अँधा, जानवर इतियादी शब्दों से निवाजा है। उस की तस्वीर बने नहीं जा सकती। यही नहीं कोई भी संसारी पदार्थ जैसे की कबर, भक्तो एवं सत्गुरुओं के इतिहासक पदार्थ, प्रतिमाएं आदिक को पूजना सिखों के बुनयादी उसूलों के खिलाफ़ है। धार्मिक ग्रंथ का ज्ञान एक विधि जो निरंकार के देश की तरफ लेकर जाती है, जिसके समक्ष सिख नतमस्तक होते हैं, लेकिन धार्मिक ग्रंथों की पूजा भी सिखों के बुनयादी उसूलों के खिलाफ है। सिखमत में हर जीव को अवतार कहा गया है। हर जीव उस निरंकार की अंश है। संसार में कोई भी पंची, पशु, पेड़, इतियादी अवतार हैं। मानुष की योनी में जीव अपना ज्ञान पूरा करने के लिए अवतरित हुआ है। व्यक्ति की पूजा सिख धर्म में नहीं है "मानुख कि टेक बिरथी सब जानत, देने, को एके भगवान"। तमाम अवतार एक निरंकार की शर्त पर पूरे नहीं उतरते कोई भी अजूनी नहीं है। यही कारण है की सिख किसी को परमेशर के रूप में नहीं मानते। हाँ अगर कोई अवतार गुरमत का उपदेस करता है तो सिख उस उपदेश के साथ ज़रूर जुड़े रहते हैं। जैसा की कृष्ण ने गीता में कहा है की आत्मा मरती नहीं और जीव हत्या कुछ नहीं होती, इस बात से तो सिखमत सहमत है लेकिन आगे कृष्ण ने कहा है की कर्म ही धर्म है जिस से सिख धर्म सहमत नहीं। पैग़म्बर वो है जो निरंकार का सन्देश अथवा ज्ञान आम लोकई में बांटे। जैसा की इस्लाम में कहा है की मुहम्मद आखरी पैगम्बर है सिखों में कहा गया है कि "हर जुग जुग भक्त उपाया"।
सिख धर्म में जीवित प्राणी को क्या कहा जाता है?
अवतार
sikh dharm main jivit praani ko kya kaha jaataa he?
मन चित एक है। जीव सिर्फ़ नाम की आराधना करता है। इसको जीवित मुक्त कहते हैं। (३) नाम पदार्थ: नाम आराधना से प्राप्त किया हुआ निराकारी ज्ञान है। इसको धुर की बनी भी कहते हैं। ये बगैर कानो के सुनी जाती है और हृदय में प्रगत होती है। यह नाम ही जीवित करता है। आँखें खोल देता है। ३ लोक का ज्ञान मिल जाता है। (३)जन्म पदार्थ: ""नानक नाम मिले तां जीवां"", यह निराकारी जन्म है। बस शरीर में है लेकिन सुरत शब्द के साथ जुड़ गयी है। शरीर से प्रेम नहीं है। दुःख सुख कुछ भी नहीं मानता, पाप पुण्य कुछ भी नहीं। बस जो हुकम होता है वो करता हैधर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को चार पदार्थों में नहीं लिया गया। श्री गुरु गोबिंद सिंह जी कहते हैं: ज्ञान के विहीन लोभ मोह में परवीन, कामना अधीन कैसे पांवे भगवंत कोसिखमत में भक्तों एवम सत्गुरों ने निरंकार को अकार रहित कहा है। क्योंकि सांसारिक पदार्थ तो एक दिन खत्म हो जाते हैं लेकिन परब्रह्म कभी नहीं मरता। इसी लिए उसे अकाल कहा गया है। यही नहीं जीव आत्मा भी आकर रहित है और इस शरीर के साथ कुछ समय के लिए बंधी है। इसका वजूद शरीर के बगैर भी है, जो आम मनुष्य की बुधि से दूर है। यही कारण है की सिखमत मूर्ति पूजा के सख्त खिलाफ़ है। सत्गुरुओं एवं भक्तों ने मूर्ती पूजकों को अँधा, जानवर इतियादी शब्दों से निवाजा है। उस की तस्वीर बने नहीं जा सकती। यही नहीं कोई भी संसारी पदार्थ जैसे की कबर, भक्तो एवं सत्गुरुओं के इतिहासक पदार्थ, प्रतिमाएं आदिक को पूजना सिखों के बुनयादी उसूलों के खिलाफ़ है। धार्मिक ग्रंथ का ज्ञान एक विधि जो निरंकार के देश की तरफ लेकर जाती है, जिसके समक्ष सिख नतमस्तक होते हैं, लेकिन धार्मिक ग्रंथों की पूजा भी सिखों के बुनयादी उसूलों के खिलाफ है। सिखमत में हर जीव को अवतार कहा गया है। हर जीव उस निरंकार की अंश है। संसार में कोई भी पंची, पशु, पेड़, इतियादी अवतार हैं। मानुष की योनी में जीव अपना ज्ञान पूरा करने के लिए अवतरित हुआ है। व्यक्ति की पूजा सिख धर्म में नहीं है "मानुख कि टेक बिरथी सब जानत, देने, को एके भगवान"। तमाम अवतार एक निरंकार की शर्त पर पूरे नहीं उतरते कोई भी अजूनी नहीं है। यही कारण है की सिख किसी को परमेशर के रूप में नहीं मानते। हाँ अगर कोई अवतार गुरमत का उपदेस करता है तो सिख उस उपदेश के साथ ज़रूर जुड़े रहते हैं। जैसा की कृष्ण ने गीता में कहा है की आत्मा मरती नहीं और जीव हत्या कुछ नहीं होती, इस बात से तो सिखमत सहमत है लेकिन आगे कृष्ण ने कहा है की कर्म ही धर्म है जिस से सिख धर्म सहमत नहीं। पैग़म्बर वो है जो निरंकार का सन्देश अथवा ज्ञान आम लोकई में बांटे। जैसा की इस्लाम में कहा है की मुहम्मद आखरी पैगम्बर है सिखों में कहा गया है कि "हर जुग जुग भक्त उपाया"।
"आत्मा मरती नहीं है और आत्मा की हत्या होती है" यह बात किसने कही है?
कृष्ण
"aatma marati nahin he or aatma kii hatya hoti he" yah baat kisne kahi he?
महाभारत ग्रंथ का आरम्भ निम्न श्लोक के साथ होता है:परन्तु महाभारत के आदिपर्व में दिये वर्णन के अनुसार कई विद्वान इस ग्रंथ का आरम्भ "नारायणं नमस्कृत्य" से, तो कोई आस्तिक पर्व से और दूसरे विद्वान ब्राह्मण उपचिर वसु की कथा से इसका आरम्भ मानते हैं। यह महाकाव्य 'जय संहिता', 'भारत' और 'महभारत' इन तीन नामों से प्रसिद्ध हैं। वास्तव में वेद व्यास जी ने सबसे पहले १,००,००० श्लोकों के परिमाण के 'भारत' नामक ग्रंथ की रचना की थी, इसमें उन्होने भारतवंशियों के चरित्रों के साथ-साथ अन्य कई महान ऋषियों, चन्द्रवंशी-सूर्यवंशी राजाओं के उपाख्यानों सहित कई अन्य धार्मिक उपाख्यान भी डाले। इसके बाद व्यास जी ने २४,००० श्लोकों का बिना किसी अन्य ऋषियों, चन्द्रवंशी-सूर्यवंशी राजाओं के उपाख्यानों का केवल भारतवंशियों को केन्द्रित करके 'भारत' काव्य बनाया। इन दोनों रचनाओं में धर्म की अधर्म पर विजय होने के कारण इन्हें 'जय' भी कहा जाने लगा। महाभारत में एक कथा आती है कि जब देवताओं ने तराजू के एक पासे में चारों "वेदों" को रखा और दूसरे पर 'भारत ग्रंथ' को रखा, तो 'भारत ग्रंथ' सभी वेदों की तुलना में सबसे अधिक भारी सिद्ध हुआ। अतः 'भारत' ग्रंथ की इस महत्ता (महानता) को देखकर देवताओं और ऋषियों ने इसे 'महाभारत' नाम दिया और इस कथा के कारण मनुष्यों में भी यह काव्य 'महाभारत' के नाम से सबसे अधिक प्रसिद्ध हुआ। महाभारत में ऐसा वर्णन आता है कि वेदव्यास जी ने हिमालय की तलहटी की एक पवित्र गुफा में तपस्या में संलग्न तथा ध्यान योग में स्थित होकर महाभारत की घटनाओं का आदि से अन्त तक स्मरण कर मन ही मन में महाभारत की रचना कर ली। परन्तु इसके पश्चात उनके सामने एक गंभीर समस्या आ खड़ी हुई कि इस काव्य के ज्ञान को सामान्य जन साधारण तक कैसे पहुँचाया जाये क्योंकि इसकी जटिलता और लम्बाई के कारण यह बहुत कठिन था कि कोई इसे बिना कोई गलती किए वैसा ही लिख दे जैसा कि वे बोलते जाएँ।
महाभारत की रचना किसने की थी ?
वेदव्यास जी
mahabharat kii rachana kisne kii thi ?
महाभारत ग्रंथ का आरम्भ निम्न श्लोक के साथ होता है:परन्तु महाभारत के आदिपर्व में दिये वर्णन के अनुसार कई विद्वान इस ग्रंथ का आरम्भ "नारायणं नमस्कृत्य" से, तो कोई आस्तिक पर्व से और दूसरे विद्वान ब्राह्मण उपचिर वसु की कथा से इसका आरम्भ मानते हैं। यह महाकाव्य 'जय संहिता', 'भारत' और 'महभारत' इन तीन नामों से प्रसिद्ध हैं। वास्तव में वेद व्यास जी ने सबसे पहले १,००,००० श्लोकों के परिमाण के 'भारत' नामक ग्रंथ की रचना की थी, इसमें उन्होने भारतवंशियों के चरित्रों के साथ-साथ अन्य कई महान ऋषियों, चन्द्रवंशी-सूर्यवंशी राजाओं के उपाख्यानों सहित कई अन्य धार्मिक उपाख्यान भी डाले। इसके बाद व्यास जी ने २४,००० श्लोकों का बिना किसी अन्य ऋषियों, चन्द्रवंशी-सूर्यवंशी राजाओं के उपाख्यानों का केवल भारतवंशियों को केन्द्रित करके 'भारत' काव्य बनाया। इन दोनों रचनाओं में धर्म की अधर्म पर विजय होने के कारण इन्हें 'जय' भी कहा जाने लगा। महाभारत में एक कथा आती है कि जब देवताओं ने तराजू के एक पासे में चारों "वेदों" को रखा और दूसरे पर 'भारत ग्रंथ' को रखा, तो 'भारत ग्रंथ' सभी वेदों की तुलना में सबसे अधिक भारी सिद्ध हुआ। अतः 'भारत' ग्रंथ की इस महत्ता (महानता) को देखकर देवताओं और ऋषियों ने इसे 'महाभारत' नाम दिया और इस कथा के कारण मनुष्यों में भी यह काव्य 'महाभारत' के नाम से सबसे अधिक प्रसिद्ध हुआ। महाभारत में ऐसा वर्णन आता है कि वेदव्यास जी ने हिमालय की तलहटी की एक पवित्र गुफा में तपस्या में संलग्न तथा ध्यान योग में स्थित होकर महाभारत की घटनाओं का आदि से अन्त तक स्मरण कर मन ही मन में महाभारत की रचना कर ली। परन्तु इसके पश्चात उनके सामने एक गंभीर समस्या आ खड़ी हुई कि इस काव्य के ज्ञान को सामान्य जन साधारण तक कैसे पहुँचाया जाये क्योंकि इसकी जटिलता और लम्बाई के कारण यह बहुत कठिन था कि कोई इसे बिना कोई गलती किए वैसा ही लिख दे जैसा कि वे बोलते जाएँ।
व्यास जी द्वारा लिखे गए पुस्तक "भारत" में कितने छंद है ?
वेद व्यास जी
vyas ji dwaara likhe gaye pustak "bharat" main kitne chand he ?
महाभारत ग्रंथ का आरम्भ निम्न श्लोक के साथ होता है:परन्तु महाभारत के आदिपर्व में दिये वर्णन के अनुसार कई विद्वान इस ग्रंथ का आरम्भ "नारायणं नमस्कृत्य" से, तो कोई आस्तिक पर्व से और दूसरे विद्वान ब्राह्मण उपचिर वसु की कथा से इसका आरम्भ मानते हैं। यह महाकाव्य 'जय संहिता', 'भारत' और 'महभारत' इन तीन नामों से प्रसिद्ध हैं। वास्तव में वेद व्यास जी ने सबसे पहले १,००,००० श्लोकों के परिमाण के 'भारत' नामक ग्रंथ की रचना की थी, इसमें उन्होने भारतवंशियों के चरित्रों के साथ-साथ अन्य कई महान ऋषियों, चन्द्रवंशी-सूर्यवंशी राजाओं के उपाख्यानों सहित कई अन्य धार्मिक उपाख्यान भी डाले। इसके बाद व्यास जी ने २४,००० श्लोकों का बिना किसी अन्य ऋषियों, चन्द्रवंशी-सूर्यवंशी राजाओं के उपाख्यानों का केवल भारतवंशियों को केन्द्रित करके 'भारत' काव्य बनाया। इन दोनों रचनाओं में धर्म की अधर्म पर विजय होने के कारण इन्हें 'जय' भी कहा जाने लगा। महाभारत में एक कथा आती है कि जब देवताओं ने तराजू के एक पासे में चारों "वेदों" को रखा और दूसरे पर 'भारत ग्रंथ' को रखा, तो 'भारत ग्रंथ' सभी वेदों की तुलना में सबसे अधिक भारी सिद्ध हुआ। अतः 'भारत' ग्रंथ की इस महत्ता (महानता) को देखकर देवताओं और ऋषियों ने इसे 'महाभारत' नाम दिया और इस कथा के कारण मनुष्यों में भी यह काव्य 'महाभारत' के नाम से सबसे अधिक प्रसिद्ध हुआ। महाभारत में ऐसा वर्णन आता है कि वेदव्यास जी ने हिमालय की तलहटी की एक पवित्र गुफा में तपस्या में संलग्न तथा ध्यान योग में स्थित होकर महाभारत की घटनाओं का आदि से अन्त तक स्मरण कर मन ही मन में महाभारत की रचना कर ली। परन्तु इसके पश्चात उनके सामने एक गंभीर समस्या आ खड़ी हुई कि इस काव्य के ज्ञान को सामान्य जन साधारण तक कैसे पहुँचाया जाये क्योंकि इसकी जटिलता और लम्बाई के कारण यह बहुत कठिन था कि कोई इसे बिना कोई गलती किए वैसा ही लिख दे जैसा कि वे बोलते जाएँ।
वेद व्यास द्वारा लिखी गई पहली पुस्तक का क्या नाम है ? ?
भारत
veda vyas dwaara likhi gai pehali pustak kaa kya naam he ? ?
महाराजा शरवन्थ के ५वीं शताब्दी के तांबे की स्लेट पर पाये गये अभिलेख में महाभारत को एक लाख श्लोकों की संहिता बताया गया है। वह अभिलेख निम्नलिखित है:सरस्वती नदीप्राचीन वैदिक सरस्वती नदी का महाभारत में कई बार वर्णन आता हैं, बलराम जी द्वारा इसके तट के समान्तर प्लक्ष पेड़ (प्लक्षप्रस्त्रवण, यमुनोत्री के पास) से प्रभास क्षेत्र (वर्तमान कच्छ का रण) तक तीर्थयात्रा का वर्णन भी महाभारत में आता है। कई भू-विज्ञानी मानते हैं कि वर्तमान सूखी हुई घग्गर-हकरा नदी ही प्राचीन वैदिक सरस्वती नदी थी, जो ५०००-३००० ईसा पूर्व पूरे प्रवाह से बहती थी और लगभग १९०० ईसा पूर्व में भूगर्भी परिवर्तनों के कारण सूख गयी थी। ऋग्वेद में वर्णित प्राचीन वैदिक काल में सरस्वती नदी को नदीतमा की उपाधि दी गई थी। उनकी सभ्यता में सरस्वती नदी ही सबसे बड़ी और मुख्य नदी थी, गंगा नहीं। भूगर्भी परिवर्तनों के कारण सरस्वती नदी का पानी यमुना में चला गया, गंगा-यमुना संगम स्थान को 'त्रिवेणी' (गंगा-यमुना-सरस्वती) संगम मानते है। इस घटना को बाद के वैदिक साहित्यों में वर्णित हस्तिनापुर के गंगा द्वारा बहाकर ले जाने से भी जोड़ा जाता है क्योंकि पुराणों में आता है कि परीक्षित की २८ पीढियों के बाद गंगा में बाढ़ आ जाने के कारण सम्पूर्ण हस्तिनापुर पानी में बह गया और बाद की पीढियों ने कौशाम्बी को अपनी राजधानी बनाया। महाभारत में सरस्वती नदी के विनाश्न नामक तीर्थ पर सूखने का सन्दर्भ आता है जिसके अनुसार मलेच्छों से द्वेष होने के कारण सरस्वती नदी ने मलेच्छ (सिंध के पास के) प्रदेशो में जाना बंद कर दिया। द्वारकाभारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग ने गुजरात के पश्चिमी तट पर समुद्र में डूबे ४०००-३५०० वर्ष पुराने शहर खोज निकाले हैं। इनको महाभारत में वर्णित द्वारका के सन्दर्भों से जोड़ा गया है। प्रो॰एस.आर राव ने कई तर्क देकर इस नगरी को द्वारका सिद्ध किया है। यद्यपि अभी मतभेद जारी है क्योंकि गुजरात के पश्चिमी तट पर कई अन्य ७५०० वर्ष पुराने शहर भी मिल चुके हैं।
महाराजा शरवंत के ताम्रपत्र पर मिले शिलालेख में महाभारत को कितने श्लोकों की संहिता के रूप में वर्णित किया गया है ?
एक लाख श्लोकों
maharaja sharvant ke tamrapatr par mili shilaalekh main mahabharat ko kitne shlokon kii samhita ke rup main varnit kiya gaya he ?
महाराजा शरवन्थ के ५वीं शताब्दी के तांबे की स्लेट पर पाये गये अभिलेख में महाभारत को एक लाख श्लोकों की संहिता बताया गया है। वह अभिलेख निम्नलिखित है:सरस्वती नदीप्राचीन वैदिक सरस्वती नदी का महाभारत में कई बार वर्णन आता हैं, बलराम जी द्वारा इसके तट के समान्तर प्लक्ष पेड़ (प्लक्षप्रस्त्रवण, यमुनोत्री के पास) से प्रभास क्षेत्र (वर्तमान कच्छ का रण) तक तीर्थयात्रा का वर्णन भी महाभारत में आता है। कई भू-विज्ञानी मानते हैं कि वर्तमान सूखी हुई घग्गर-हकरा नदी ही प्राचीन वैदिक सरस्वती नदी थी, जो ५०००-३००० ईसा पूर्व पूरे प्रवाह से बहती थी और लगभग १९०० ईसा पूर्व में भूगर्भी परिवर्तनों के कारण सूख गयी थी। ऋग्वेद में वर्णित प्राचीन वैदिक काल में सरस्वती नदी को नदीतमा की उपाधि दी गई थी। उनकी सभ्यता में सरस्वती नदी ही सबसे बड़ी और मुख्य नदी थी, गंगा नहीं। भूगर्भी परिवर्तनों के कारण सरस्वती नदी का पानी यमुना में चला गया, गंगा-यमुना संगम स्थान को 'त्रिवेणी' (गंगा-यमुना-सरस्वती) संगम मानते है। इस घटना को बाद के वैदिक साहित्यों में वर्णित हस्तिनापुर के गंगा द्वारा बहाकर ले जाने से भी जोड़ा जाता है क्योंकि पुराणों में आता है कि परीक्षित की २८ पीढियों के बाद गंगा में बाढ़ आ जाने के कारण सम्पूर्ण हस्तिनापुर पानी में बह गया और बाद की पीढियों ने कौशाम्बी को अपनी राजधानी बनाया। महाभारत में सरस्वती नदी के विनाश्न नामक तीर्थ पर सूखने का सन्दर्भ आता है जिसके अनुसार मलेच्छों से द्वेष होने के कारण सरस्वती नदी ने मलेच्छ (सिंध के पास के) प्रदेशो में जाना बंद कर दिया। द्वारकाभारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग ने गुजरात के पश्चिमी तट पर समुद्र में डूबे ४०००-३५०० वर्ष पुराने शहर खोज निकाले हैं। इनको महाभारत में वर्णित द्वारका के सन्दर्भों से जोड़ा गया है। प्रो॰एस.आर राव ने कई तर्क देकर इस नगरी को द्वारका सिद्ध किया है। यद्यपि अभी मतभेद जारी है क्योंकि गुजरात के पश्चिमी तट पर कई अन्य ७५०० वर्ष पुराने शहर भी मिल चुके हैं।
भूवैज्ञानिकों के अनुसार सरस्वती नदी पूर्ण प्रवाह में कब बहती थी ?
५०००-३००० ईसा पूर्व
bhuvaigyanikon ke anusaar saraswati nadi purna pravaah main kab bahati thi ?
महाराजा शरवन्थ के ५वीं शताब्दी के तांबे की स्लेट पर पाये गये अभिलेख में महाभारत को एक लाख श्लोकों की संहिता बताया गया है। वह अभिलेख निम्नलिखित है:सरस्वती नदीप्राचीन वैदिक सरस्वती नदी का महाभारत में कई बार वर्णन आता हैं, बलराम जी द्वारा इसके तट के समान्तर प्लक्ष पेड़ (प्लक्षप्रस्त्रवण, यमुनोत्री के पास) से प्रभास क्षेत्र (वर्तमान कच्छ का रण) तक तीर्थयात्रा का वर्णन भी महाभारत में आता है। कई भू-विज्ञानी मानते हैं कि वर्तमान सूखी हुई घग्गर-हकरा नदी ही प्राचीन वैदिक सरस्वती नदी थी, जो ५०००-३००० ईसा पूर्व पूरे प्रवाह से बहती थी और लगभग १९०० ईसा पूर्व में भूगर्भी परिवर्तनों के कारण सूख गयी थी। ऋग्वेद में वर्णित प्राचीन वैदिक काल में सरस्वती नदी को नदीतमा की उपाधि दी गई थी। उनकी सभ्यता में सरस्वती नदी ही सबसे बड़ी और मुख्य नदी थी, गंगा नहीं। भूगर्भी परिवर्तनों के कारण सरस्वती नदी का पानी यमुना में चला गया, गंगा-यमुना संगम स्थान को 'त्रिवेणी' (गंगा-यमुना-सरस्वती) संगम मानते है। इस घटना को बाद के वैदिक साहित्यों में वर्णित हस्तिनापुर के गंगा द्वारा बहाकर ले जाने से भी जोड़ा जाता है क्योंकि पुराणों में आता है कि परीक्षित की २८ पीढियों के बाद गंगा में बाढ़ आ जाने के कारण सम्पूर्ण हस्तिनापुर पानी में बह गया और बाद की पीढियों ने कौशाम्बी को अपनी राजधानी बनाया। महाभारत में सरस्वती नदी के विनाश्न नामक तीर्थ पर सूखने का सन्दर्भ आता है जिसके अनुसार मलेच्छों से द्वेष होने के कारण सरस्वती नदी ने मलेच्छ (सिंध के पास के) प्रदेशो में जाना बंद कर दिया। द्वारकाभारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग ने गुजरात के पश्चिमी तट पर समुद्र में डूबे ४०००-३५०० वर्ष पुराने शहर खोज निकाले हैं। इनको महाभारत में वर्णित द्वारका के सन्दर्भों से जोड़ा गया है। प्रो॰एस.आर राव ने कई तर्क देकर इस नगरी को द्वारका सिद्ध किया है। यद्यपि अभी मतभेद जारी है क्योंकि गुजरात के पश्चिमी तट पर कई अन्य ७५०० वर्ष पुराने शहर भी मिल चुके हैं।
ऋग्वेद में वर्णित प्राचीन वैदिक काल में, सरस्वती नदी को किसकी उपाधि दी गई थी ?
नदीतमा
rugveda main varnit pracheen vaidic kaal main, saraswati nadi ko kiski oopaadhi di gai thi ?
महाराजा शरवन्थ के ५वीं शताब्दी के तांबे की स्लेट पर पाये गये अभिलेख में महाभारत को एक लाख श्लोकों की संहिता बताया गया है। वह अभिलेख निम्नलिखित है:सरस्वती नदीप्राचीन वैदिक सरस्वती नदी का महाभारत में कई बार वर्णन आता हैं, बलराम जी द्वारा इसके तट के समान्तर प्लक्ष पेड़ (प्लक्षप्रस्त्रवण, यमुनोत्री के पास) से प्रभास क्षेत्र (वर्तमान कच्छ का रण) तक तीर्थयात्रा का वर्णन भी महाभारत में आता है। कई भू-विज्ञानी मानते हैं कि वर्तमान सूखी हुई घग्गर-हकरा नदी ही प्राचीन वैदिक सरस्वती नदी थी, जो ५०००-३००० ईसा पूर्व पूरे प्रवाह से बहती थी और लगभग १९०० ईसा पूर्व में भूगर्भी परिवर्तनों के कारण सूख गयी थी। ऋग्वेद में वर्णित प्राचीन वैदिक काल में सरस्वती नदी को नदीतमा की उपाधि दी गई थी। उनकी सभ्यता में सरस्वती नदी ही सबसे बड़ी और मुख्य नदी थी, गंगा नहीं। भूगर्भी परिवर्तनों के कारण सरस्वती नदी का पानी यमुना में चला गया, गंगा-यमुना संगम स्थान को 'त्रिवेणी' (गंगा-यमुना-सरस्वती) संगम मानते है। इस घटना को बाद के वैदिक साहित्यों में वर्णित हस्तिनापुर के गंगा द्वारा बहाकर ले जाने से भी जोड़ा जाता है क्योंकि पुराणों में आता है कि परीक्षित की २८ पीढियों के बाद गंगा में बाढ़ आ जाने के कारण सम्पूर्ण हस्तिनापुर पानी में बह गया और बाद की पीढियों ने कौशाम्बी को अपनी राजधानी बनाया। महाभारत में सरस्वती नदी के विनाश्न नामक तीर्थ पर सूखने का सन्दर्भ आता है जिसके अनुसार मलेच्छों से द्वेष होने के कारण सरस्वती नदी ने मलेच्छ (सिंध के पास के) प्रदेशो में जाना बंद कर दिया। द्वारकाभारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग ने गुजरात के पश्चिमी तट पर समुद्र में डूबे ४०००-३५०० वर्ष पुराने शहर खोज निकाले हैं। इनको महाभारत में वर्णित द्वारका के सन्दर्भों से जोड़ा गया है। प्रो॰एस.आर राव ने कई तर्क देकर इस नगरी को द्वारका सिद्ध किया है। यद्यपि अभी मतभेद जारी है क्योंकि गुजरात के पश्चिमी तट पर कई अन्य ७५०० वर्ष पुराने शहर भी मिल चुके हैं।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने गुजरात के पश्चिमी तट पर कितने साल पुराने जलमग्न शहरो की ख़ोज की है ?
४०००-३५०० वर्ष
bhartiya puraatatv surveykshan ne gujarat ke pashchimi tat par kitne saal puraane jalmagn shahro kii khoj kii he ?
महाराजा शरवन्थ के ५वीं शताब्दी के तांबे की स्लेट पर पाये गये अभिलेख में महाभारत को एक लाख श्लोकों की संहिता बताया गया है। वह अभिलेख निम्नलिखित है:सरस्वती नदीप्राचीन वैदिक सरस्वती नदी का महाभारत में कई बार वर्णन आता हैं, बलराम जी द्वारा इसके तट के समान्तर प्लक्ष पेड़ (प्लक्षप्रस्त्रवण, यमुनोत्री के पास) से प्रभास क्षेत्र (वर्तमान कच्छ का रण) तक तीर्थयात्रा का वर्णन भी महाभारत में आता है। कई भू-विज्ञानी मानते हैं कि वर्तमान सूखी हुई घग्गर-हकरा नदी ही प्राचीन वैदिक सरस्वती नदी थी, जो ५०००-३००० ईसा पूर्व पूरे प्रवाह से बहती थी और लगभग १९०० ईसा पूर्व में भूगर्भी परिवर्तनों के कारण सूख गयी थी। ऋग्वेद में वर्णित प्राचीन वैदिक काल में सरस्वती नदी को नदीतमा की उपाधि दी गई थी। उनकी सभ्यता में सरस्वती नदी ही सबसे बड़ी और मुख्य नदी थी, गंगा नहीं। भूगर्भी परिवर्तनों के कारण सरस्वती नदी का पानी यमुना में चला गया, गंगा-यमुना संगम स्थान को 'त्रिवेणी' (गंगा-यमुना-सरस्वती) संगम मानते है। इस घटना को बाद के वैदिक साहित्यों में वर्णित हस्तिनापुर के गंगा द्वारा बहाकर ले जाने से भी जोड़ा जाता है क्योंकि पुराणों में आता है कि परीक्षित की २८ पीढियों के बाद गंगा में बाढ़ आ जाने के कारण सम्पूर्ण हस्तिनापुर पानी में बह गया और बाद की पीढियों ने कौशाम्बी को अपनी राजधानी बनाया। महाभारत में सरस्वती नदी के विनाश्न नामक तीर्थ पर सूखने का सन्दर्भ आता है जिसके अनुसार मलेच्छों से द्वेष होने के कारण सरस्वती नदी ने मलेच्छ (सिंध के पास के) प्रदेशो में जाना बंद कर दिया। द्वारकाभारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग ने गुजरात के पश्चिमी तट पर समुद्र में डूबे ४०००-३५०० वर्ष पुराने शहर खोज निकाले हैं। इनको महाभारत में वर्णित द्वारका के सन्दर्भों से जोड़ा गया है। प्रो॰एस.आर राव ने कई तर्क देकर इस नगरी को द्वारका सिद्ध किया है। यद्यपि अभी मतभेद जारी है क्योंकि गुजरात के पश्चिमी तट पर कई अन्य ७५०० वर्ष पुराने शहर भी मिल चुके हैं।
गंगा-यमुना संगम को किस नाम से जाना जाता हैं ?
त्रिवेणी
ganga-yamuna sangam ko kis naam se janaa jaataa hai ?
मुंबई की संस्कृति परंपरागत उत्सवों, खानपान, संगीत, नृत्य और रंगमंच का सम्मिश्रण है। इस शहर में विश्व की अन्य राजधानियों की अपेक्षा बहुभाषी और बहुआयामी जीवनशैली देखने को मिलती है, जिसमें विस्तृत खानपान, मनोरंजन और रात्रि की रौनक भी शामिल है। मुंबई के इतिहास में यह मुख्यतः एक प्रधान व्यापारिक केन्द्र रहा है। इस खारण विभिन्न क्षेत्रों के लोग यहां आते रहे, जिससे बहुत सी संस्कृतियां, धर्म, आदि यहां एकसाथ मिलजुलकर रहते हैं। मुंबई भारतीय चलचित्र का जन्मस्थान है। —दादा साहेब फाल्के ने यहां मूक चलचित्र के द्वारा इस उद्योग की स्थापना की थी। इसके बाद ही यहां मराठी चलचित्र का भी श्रीगणेश हुआ था। तब आरंभिक बीसवीं शताब्दी में यहां सबसे पुरानी फिल्म प्रसारित हुयी थी। मुंबई में बड़ी संख्या में सिनेमा हॉल भी हैं, जो हिन्दी, मराठी और अंग्रेज़ी फिल्में दिखाते हैं। विश्व में सबसे बड़ा IMAX डोम रंगमंच भी मुंबई में वडाला में ही स्थित है। मुंबई अंतर्राष्ट्रीय फिल्म उत्सव और फिल्मफेयर पुरस्कार की वितरण कार्यक्रम सभा मुंबाई में ही आयोजित होती हैं। हालांकि मुंबई के ब्रिटिश राज में स्थापित अधिकांश रंगमंच समूह १९५० के बाद भंग हो चुके हैं, फिर भी मुंबई में एक समृद्ध रंगमंच संस्कृति विकसित हुयी हुई है। ये मराठी और अंग्रेज़ी, तीनों भाषाओं के अलावा अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में भी विकसित है। यहां कला-प्रेमियों की कमी भी नहीं है। अनेक निजी व्यावसायिक एवं सरकारी कला-दीर्घाएं खुली हुई हैं। इनमें जहांगीर कला दीर्घा और राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय प्रमुख हैं। १८३३ में बनी बंबई एशियाटिक सोसाइटी में शहर का पुरातनतम पुस्तकालय स्थित है। छत्रपति शिवाजी महाराज वस्तु संग्रहालय (पूर्व प्रिंस ऑफ वेल्स म्यूज़ियम) दक्षिण मुंबई का प्रसिद्ध संग्रहालय है, जहां भारतीय इतिहास के अनेक संग्रह सुरक्षित हैं। मुंबई के चिड़ियाघर का नाम जीजामाता उद्यान है (पूर्व नाम: विक्टोरिया गार्डन्स), जिसमें एक हरा भरा उद्यान भी है। नगर की साहित्य में संपन्नता को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति तब मिली जब सलमान रुश्दी और अरविंद अडिग को मैन बुकर पुरस्कार मिले थे। यही के निवासी रुडयार्ड किपलिंग को १९०७ में नोबल पुरस्कार भी मिला था। मराठी साहित्य भी समय की गति क साथ साथ आधुनिक हो चुका है।
दुनिया का सबसे बड़ा आईमैक्स डोम थिएटर मुंबई में कहां स्थित है?
वडाला
duniya kaa sabase bada imax dom theatre mumbai main kahaan sthit he?
मुंबई की संस्कृति परंपरागत उत्सवों, खानपान, संगीत, नृत्य और रंगमंच का सम्मिश्रण है। इस शहर में विश्व की अन्य राजधानियों की अपेक्षा बहुभाषी और बहुआयामी जीवनशैली देखने को मिलती है, जिसमें विस्तृत खानपान, मनोरंजन और रात्रि की रौनक भी शामिल है। मुंबई के इतिहास में यह मुख्यतः एक प्रधान व्यापारिक केन्द्र रहा है। इस खारण विभिन्न क्षेत्रों के लोग यहां आते रहे, जिससे बहुत सी संस्कृतियां, धर्म, आदि यहां एकसाथ मिलजुलकर रहते हैं। मुंबई भारतीय चलचित्र का जन्मस्थान है। —दादा साहेब फाल्के ने यहां मूक चलचित्र के द्वारा इस उद्योग की स्थापना की थी। इसके बाद ही यहां मराठी चलचित्र का भी श्रीगणेश हुआ था। तब आरंभिक बीसवीं शताब्दी में यहां सबसे पुरानी फिल्म प्रसारित हुयी थी। मुंबई में बड़ी संख्या में सिनेमा हॉल भी हैं, जो हिन्दी, मराठी और अंग्रेज़ी फिल्में दिखाते हैं। विश्व में सबसे बड़ा IMAX डोम रंगमंच भी मुंबई में वडाला में ही स्थित है। मुंबई अंतर्राष्ट्रीय फिल्म उत्सव और फिल्मफेयर पुरस्कार की वितरण कार्यक्रम सभा मुंबाई में ही आयोजित होती हैं। हालांकि मुंबई के ब्रिटिश राज में स्थापित अधिकांश रंगमंच समूह १९५० के बाद भंग हो चुके हैं, फिर भी मुंबई में एक समृद्ध रंगमंच संस्कृति विकसित हुयी हुई है। ये मराठी और अंग्रेज़ी, तीनों भाषाओं के अलावा अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में भी विकसित है। यहां कला-प्रेमियों की कमी भी नहीं है। अनेक निजी व्यावसायिक एवं सरकारी कला-दीर्घाएं खुली हुई हैं। इनमें जहांगीर कला दीर्घा और राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय प्रमुख हैं। १८३३ में बनी बंबई एशियाटिक सोसाइटी में शहर का पुरातनतम पुस्तकालय स्थित है। छत्रपति शिवाजी महाराज वस्तु संग्रहालय (पूर्व प्रिंस ऑफ वेल्स म्यूज़ियम) दक्षिण मुंबई का प्रसिद्ध संग्रहालय है, जहां भारतीय इतिहास के अनेक संग्रह सुरक्षित हैं। मुंबई के चिड़ियाघर का नाम जीजामाता उद्यान है (पूर्व नाम: विक्टोरिया गार्डन्स), जिसमें एक हरा भरा उद्यान भी है। नगर की साहित्य में संपन्नता को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति तब मिली जब सलमान रुश्दी और अरविंद अडिग को मैन बुकर पुरस्कार मिले थे। यही के निवासी रुडयार्ड किपलिंग को १९०७ में नोबल पुरस्कार भी मिला था। मराठी साहित्य भी समय की गति क साथ साथ आधुनिक हो चुका है।
बॉम्बे एशियाटिक सोसाइटी कब बनाया गया था?
१८३३ में
bombai aciatic socity kab banaaya gaya tha?
मुंबई की संस्कृति परंपरागत उत्सवों, खानपान, संगीत, नृत्य और रंगमंच का सम्मिश्रण है। इस शहर में विश्व की अन्य राजधानियों की अपेक्षा बहुभाषी और बहुआयामी जीवनशैली देखने को मिलती है, जिसमें विस्तृत खानपान, मनोरंजन और रात्रि की रौनक भी शामिल है। मुंबई के इतिहास में यह मुख्यतः एक प्रधान व्यापारिक केन्द्र रहा है। इस खारण विभिन्न क्षेत्रों के लोग यहां आते रहे, जिससे बहुत सी संस्कृतियां, धर्म, आदि यहां एकसाथ मिलजुलकर रहते हैं। मुंबई भारतीय चलचित्र का जन्मस्थान है। —दादा साहेब फाल्के ने यहां मूक चलचित्र के द्वारा इस उद्योग की स्थापना की थी। इसके बाद ही यहां मराठी चलचित्र का भी श्रीगणेश हुआ था। तब आरंभिक बीसवीं शताब्दी में यहां सबसे पुरानी फिल्म प्रसारित हुयी थी। मुंबई में बड़ी संख्या में सिनेमा हॉल भी हैं, जो हिन्दी, मराठी और अंग्रेज़ी फिल्में दिखाते हैं। विश्व में सबसे बड़ा IMAX डोम रंगमंच भी मुंबई में वडाला में ही स्थित है। मुंबई अंतर्राष्ट्रीय फिल्म उत्सव और फिल्मफेयर पुरस्कार की वितरण कार्यक्रम सभा मुंबाई में ही आयोजित होती हैं। हालांकि मुंबई के ब्रिटिश राज में स्थापित अधिकांश रंगमंच समूह १९५० के बाद भंग हो चुके हैं, फिर भी मुंबई में एक समृद्ध रंगमंच संस्कृति विकसित हुयी हुई है। ये मराठी और अंग्रेज़ी, तीनों भाषाओं के अलावा अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में भी विकसित है। यहां कला-प्रेमियों की कमी भी नहीं है। अनेक निजी व्यावसायिक एवं सरकारी कला-दीर्घाएं खुली हुई हैं। इनमें जहांगीर कला दीर्घा और राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय प्रमुख हैं। १८३३ में बनी बंबई एशियाटिक सोसाइटी में शहर का पुरातनतम पुस्तकालय स्थित है। छत्रपति शिवाजी महाराज वस्तु संग्रहालय (पूर्व प्रिंस ऑफ वेल्स म्यूज़ियम) दक्षिण मुंबई का प्रसिद्ध संग्रहालय है, जहां भारतीय इतिहास के अनेक संग्रह सुरक्षित हैं। मुंबई के चिड़ियाघर का नाम जीजामाता उद्यान है (पूर्व नाम: विक्टोरिया गार्डन्स), जिसमें एक हरा भरा उद्यान भी है। नगर की साहित्य में संपन्नता को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति तब मिली जब सलमान रुश्दी और अरविंद अडिग को मैन बुकर पुरस्कार मिले थे। यही के निवासी रुडयार्ड किपलिंग को १९०७ में नोबल पुरस्कार भी मिला था। मराठी साहित्य भी समय की गति क साथ साथ आधुनिक हो चुका है।
भारतीय सिनेमा की स्थापना किसने की थी?
दादा साहेब फाल्के
bhartiya cinema kii sthapana kisne kii thi?
मुंबई की संस्कृति परंपरागत उत्सवों, खानपान, संगीत, नृत्य और रंगमंच का सम्मिश्रण है। इस शहर में विश्व की अन्य राजधानियों की अपेक्षा बहुभाषी और बहुआयामी जीवनशैली देखने को मिलती है, जिसमें विस्तृत खानपान, मनोरंजन और रात्रि की रौनक भी शामिल है। मुंबई के इतिहास में यह मुख्यतः एक प्रधान व्यापारिक केन्द्र रहा है। इस खारण विभिन्न क्षेत्रों के लोग यहां आते रहे, जिससे बहुत सी संस्कृतियां, धर्म, आदि यहां एकसाथ मिलजुलकर रहते हैं। मुंबई भारतीय चलचित्र का जन्मस्थान है। —दादा साहेब फाल्के ने यहां मूक चलचित्र के द्वारा इस उद्योग की स्थापना की थी। इसके बाद ही यहां मराठी चलचित्र का भी श्रीगणेश हुआ था। तब आरंभिक बीसवीं शताब्दी में यहां सबसे पुरानी फिल्म प्रसारित हुयी थी। मुंबई में बड़ी संख्या में सिनेमा हॉल भी हैं, जो हिन्दी, मराठी और अंग्रेज़ी फिल्में दिखाते हैं। विश्व में सबसे बड़ा IMAX डोम रंगमंच भी मुंबई में वडाला में ही स्थित है। मुंबई अंतर्राष्ट्रीय फिल्म उत्सव और फिल्मफेयर पुरस्कार की वितरण कार्यक्रम सभा मुंबाई में ही आयोजित होती हैं। हालांकि मुंबई के ब्रिटिश राज में स्थापित अधिकांश रंगमंच समूह १९५० के बाद भंग हो चुके हैं, फिर भी मुंबई में एक समृद्ध रंगमंच संस्कृति विकसित हुयी हुई है। ये मराठी और अंग्रेज़ी, तीनों भाषाओं के अलावा अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में भी विकसित है। यहां कला-प्रेमियों की कमी भी नहीं है। अनेक निजी व्यावसायिक एवं सरकारी कला-दीर्घाएं खुली हुई हैं। इनमें जहांगीर कला दीर्घा और राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय प्रमुख हैं। १८३३ में बनी बंबई एशियाटिक सोसाइटी में शहर का पुरातनतम पुस्तकालय स्थित है। छत्रपति शिवाजी महाराज वस्तु संग्रहालय (पूर्व प्रिंस ऑफ वेल्स म्यूज़ियम) दक्षिण मुंबई का प्रसिद्ध संग्रहालय है, जहां भारतीय इतिहास के अनेक संग्रह सुरक्षित हैं। मुंबई के चिड़ियाघर का नाम जीजामाता उद्यान है (पूर्व नाम: विक्टोरिया गार्डन्स), जिसमें एक हरा भरा उद्यान भी है। नगर की साहित्य में संपन्नता को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति तब मिली जब सलमान रुश्दी और अरविंद अडिग को मैन बुकर पुरस्कार मिले थे। यही के निवासी रुडयार्ड किपलिंग को १९०७ में नोबल पुरस्कार भी मिला था। मराठी साहित्य भी समय की गति क साथ साथ आधुनिक हो चुका है।
भारतीय सिनेमा का जन्मस्थान कहाँ है?
मुंबई
bhartiya cinema kaa janmasthan kahan he?
मुंबई के अधिकांश निवासी अपने आवास व कार्याक्षेत्र के बीच आवागमन के लिए कोल यातायात पर निर्भर हैं। मुंबई के यातायात में मुंबई उपनगरीय रेलवे, बृहन्मुंबई विद्युत आपूर्ति एवं यातायात की बसें, टैक्सी ऑटोरिक्शा, फेरी सेवा आतीं हैं। यह शहर भारतीय रेल के दो मंडलों का मुख्यालय है: मध्य रेलवे (सेंट्रल रेलवे), जिसका मुख्यालय छत्रपति शिवाजी टर्मिनस है, एवं पश्चिम रेलवे, जिसका मुख्यालय चर्चगेट के निकट स्थित है। नगर यातायात की रीढ़ है मुंबई उपनगरीय रेल, जो तीन भिन्न नेटव्र्कों से बनी है, जिनके रूट शहर की लम्बाई में उत्तर-दक्षिण दिशा में दौड़ते हैं। मुंबई मैट्रो, एक भूमिगत एवं उत्थित स्तरीय रेलवे प्रणाली, जो फिल्हाल निर्माणाधीन है, वर्सोवा से अंधेरी होकर घाटकोपर तक प्रथम चरण में मेट्रो रेल सेवा में हैमुंबई भारत के अन्य भागों से भारतीय रेल द्वारा व्यवस्थित ढंग से जुड़ा है। रेलगाड़ियां छत्रपति शिवाजी टर्मिनस, दादर, लोकमान्य तिलक टर्मिनस, मुंबई सेंट्रल, बांद्रा टर्मिनस एवं अंधेरी से आरंभ या समाप्त होती हैं। मुंबई उपनगरीय रेल प्रणाली 6.3 मिलियन यात्रियों को प्रतिदिन लाती ले जाती है। बी ई एस टी द्वारा चालित बसें, लगभग नगर के हरेक भाग को यातायात उपलब्ध करातीं हैं। साथ ही नवी मुंबई एवं ठाणे के भी भाग तक जातीं हैं। बसें छोटी से मध्यम दूरी तक के सफर के लिए प्रयोगनीय हैं, जबकि ट्रेनें लम्बी दूरियों के लिए सस्ता यातायात उपलब्ध करातीं हैं।
पहले चरण की मुंबई मेट्रो सेवा की शुरुआत किन क्षेत्रों के बीच की गई थी ?
वर्सोवा से अंधेरी होकर घाटकोपर
pehle charan kii mumbai metro seva kii shuruyaat kin kshetron ke bich kii gai thi ?
मुंबई के अधिकांश निवासी अपने आवास व कार्याक्षेत्र के बीच आवागमन के लिए कोल यातायात पर निर्भर हैं। मुंबई के यातायात में मुंबई उपनगरीय रेलवे, बृहन्मुंबई विद्युत आपूर्ति एवं यातायात की बसें, टैक्सी ऑटोरिक्शा, फेरी सेवा आतीं हैं। यह शहर भारतीय रेल के दो मंडलों का मुख्यालय है: मध्य रेलवे (सेंट्रल रेलवे), जिसका मुख्यालय छत्रपति शिवाजी टर्मिनस है, एवं पश्चिम रेलवे, जिसका मुख्यालय चर्चगेट के निकट स्थित है। नगर यातायात की रीढ़ है मुंबई उपनगरीय रेल, जो तीन भिन्न नेटव्र्कों से बनी है, जिनके रूट शहर की लम्बाई में उत्तर-दक्षिण दिशा में दौड़ते हैं। मुंबई मैट्रो, एक भूमिगत एवं उत्थित स्तरीय रेलवे प्रणाली, जो फिल्हाल निर्माणाधीन है, वर्सोवा से अंधेरी होकर घाटकोपर तक प्रथम चरण में मेट्रो रेल सेवा में हैमुंबई भारत के अन्य भागों से भारतीय रेल द्वारा व्यवस्थित ढंग से जुड़ा है। रेलगाड़ियां छत्रपति शिवाजी टर्मिनस, दादर, लोकमान्य तिलक टर्मिनस, मुंबई सेंट्रल, बांद्रा टर्मिनस एवं अंधेरी से आरंभ या समाप्त होती हैं। मुंबई उपनगरीय रेल प्रणाली 6.3 मिलियन यात्रियों को प्रतिदिन लाती ले जाती है। बी ई एस टी द्वारा चालित बसें, लगभग नगर के हरेक भाग को यातायात उपलब्ध करातीं हैं। साथ ही नवी मुंबई एवं ठाणे के भी भाग तक जातीं हैं। बसें छोटी से मध्यम दूरी तक के सफर के लिए प्रयोगनीय हैं, जबकि ट्रेनें लम्बी दूरियों के लिए सस्ता यातायात उपलब्ध करातीं हैं।
मुंबई शहर के मध्य रेलवे का मुख्यालय का क्या नाम है ?
छत्रपति शिवाजी टर्मिनस
mumbai shahar ke madhya railway kaa mukhyalay kaa kya naam he ?
मुंबई के अधिकांश निवासी अपने आवास व कार्याक्षेत्र के बीच आवागमन के लिए कोल यातायात पर निर्भर हैं। मुंबई के यातायात में मुंबई उपनगरीय रेलवे, बृहन्मुंबई विद्युत आपूर्ति एवं यातायात की बसें, टैक्सी ऑटोरिक्शा, फेरी सेवा आतीं हैं। यह शहर भारतीय रेल के दो मंडलों का मुख्यालय है: मध्य रेलवे (सेंट्रल रेलवे), जिसका मुख्यालय छत्रपति शिवाजी टर्मिनस है, एवं पश्चिम रेलवे, जिसका मुख्यालय चर्चगेट के निकट स्थित है। नगर यातायात की रीढ़ है मुंबई उपनगरीय रेल, जो तीन भिन्न नेटव्र्कों से बनी है, जिनके रूट शहर की लम्बाई में उत्तर-दक्षिण दिशा में दौड़ते हैं। मुंबई मैट्रो, एक भूमिगत एवं उत्थित स्तरीय रेलवे प्रणाली, जो फिल्हाल निर्माणाधीन है, वर्सोवा से अंधेरी होकर घाटकोपर तक प्रथम चरण में मेट्रो रेल सेवा में हैमुंबई भारत के अन्य भागों से भारतीय रेल द्वारा व्यवस्थित ढंग से जुड़ा है। रेलगाड़ियां छत्रपति शिवाजी टर्मिनस, दादर, लोकमान्य तिलक टर्मिनस, मुंबई सेंट्रल, बांद्रा टर्मिनस एवं अंधेरी से आरंभ या समाप्त होती हैं। मुंबई उपनगरीय रेल प्रणाली 6.3 मिलियन यात्रियों को प्रतिदिन लाती ले जाती है। बी ई एस टी द्वारा चालित बसें, लगभग नगर के हरेक भाग को यातायात उपलब्ध करातीं हैं। साथ ही नवी मुंबई एवं ठाणे के भी भाग तक जातीं हैं। बसें छोटी से मध्यम दूरी तक के सफर के लिए प्रयोगनीय हैं, जबकि ट्रेनें लम्बी दूरियों के लिए सस्ता यातायात उपलब्ध करातीं हैं।
मुंबई उपनगरीय रेल प्रणाली प्रतिदिन कितने यात्रियों को सेवा प्रदान करती है ?
6.3 मिलियन
mumbai upnagareey rail pranali pratidin kitne yatriyon ko seva pradaan karti he ?
मुख्य उल्लेख :महाभारत के पात्रअभिमन्यु : अर्जुन के वीर पुत्र जो कुरुक्षेत्र युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुये। अम्बा : शिखन्डी पूर्व जन्म में अम्बा नामक राजकुमारी था। अम्बिका : विचित्रवीर्य की पत्नी, अम्बा और अम्बालिका की बहिन। अम्बालिका: विचित्रवीर्य की पत्नी, अम्बा और अम्बिका की बहिन। अर्जुन : देवराज इन्द्र द्वारा कुन्ती एवं पान्डु का पुत्र। एक अतुल्निय धनुर्धर जिसको श्री कृष्ण ने श्रीमद् भगवद् गीता का उपदेश दिया था। बभ्रुवाहन : अर्जुन एवं चित्रांग्दा का पुत्र। बकासुर : महाभारत काव्य में एक असुर जिसको भीम ने मार कर एक गांव के वासियों की रक्षा की थी। भीष्म : भीष्म का नामकरण देवव्रत के नाम से हुआ था। वे शान्तनु एवं गंगा के पुत्र थे। जब देवव्रत ने अपने पिता की प्रसन्नता के लिये आजीवन ब्रह्मचारी रहने का प्रण लिया, तब से उनका नाम भीष्म हो गया। द्रौपदी : द्रुपद की पुत्री जो अग्नि से प्रकट हुई थी। द्रौपदी पांचों पांड्वों की अर्धांगिनी थी और उसे आज प्राचीनतम् नारीवादिनियों में एक माना जाता है। द्रोण : हस्तिनापुर के राजकुमारों को शस्त्र विद्या देने वाले ब्राह्मण गुरु। अश्व्थामा के पिता। यह विश्व के प्रथम "टेस्ट-टयूब बेबी" थे। द्रोण एक प्रकार का पात्र होता है। द्रुपद : पांचाल के राजा और द्रौपदी एवमं धृष्टद्युम्न के पिता। द्रुपद और द्रोण बाल्यकाल के मित्र थे! दुर्योधन : कौरवों में ज्येष्ठ। धृतराष्ट्र एवं गांधारी के १०० पुत्रों में सबसे बड़े। दुःशासन : दुर्योधन से छोटा भाई जो द्रौपदी को हस्तिनपुर राज्यसभा में बालों से पकड़ कर लाया था। कुरुक्षेत्र युद्ध में भीम ने दुःशासन की छाती का रक्त पिया था। एकलव्य : द्रोण का एक महान शिष्य जिससे गुरुदक्षिणा में द्रोण ने उसका अंगूठा मांगा था। ]गांधारी : गंधार के राजा की पुत्री और धृतराष्ट्र की पत्नी।
महाभारत में अभिमन्यु किसका पुत्र था?
अर्जुन
mahabharat main abhimanyu kiskaa putr tha?
मुख्य उल्लेख :महाभारत के पात्रअभिमन्यु : अर्जुन के वीर पुत्र जो कुरुक्षेत्र युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुये। अम्बा : शिखन्डी पूर्व जन्म में अम्बा नामक राजकुमारी था। अम्बिका : विचित्रवीर्य की पत्नी, अम्बा और अम्बालिका की बहिन। अम्बालिका: विचित्रवीर्य की पत्नी, अम्बा और अम्बिका की बहिन। अर्जुन : देवराज इन्द्र द्वारा कुन्ती एवं पान्डु का पुत्र। एक अतुल्निय धनुर्धर जिसको श्री कृष्ण ने श्रीमद् भगवद् गीता का उपदेश दिया था। बभ्रुवाहन : अर्जुन एवं चित्रांग्दा का पुत्र। बकासुर : महाभारत काव्य में एक असुर जिसको भीम ने मार कर एक गांव के वासियों की रक्षा की थी। भीष्म : भीष्म का नामकरण देवव्रत के नाम से हुआ था। वे शान्तनु एवं गंगा के पुत्र थे। जब देवव्रत ने अपने पिता की प्रसन्नता के लिये आजीवन ब्रह्मचारी रहने का प्रण लिया, तब से उनका नाम भीष्म हो गया। द्रौपदी : द्रुपद की पुत्री जो अग्नि से प्रकट हुई थी। द्रौपदी पांचों पांड्वों की अर्धांगिनी थी और उसे आज प्राचीनतम् नारीवादिनियों में एक माना जाता है। द्रोण : हस्तिनापुर के राजकुमारों को शस्त्र विद्या देने वाले ब्राह्मण गुरु। अश्व्थामा के पिता। यह विश्व के प्रथम "टेस्ट-टयूब बेबी" थे। द्रोण एक प्रकार का पात्र होता है। द्रुपद : पांचाल के राजा और द्रौपदी एवमं धृष्टद्युम्न के पिता। द्रुपद और द्रोण बाल्यकाल के मित्र थे! दुर्योधन : कौरवों में ज्येष्ठ। धृतराष्ट्र एवं गांधारी के १०० पुत्रों में सबसे बड़े। दुःशासन : दुर्योधन से छोटा भाई जो द्रौपदी को हस्तिनपुर राज्यसभा में बालों से पकड़ कर लाया था। कुरुक्षेत्र युद्ध में भीम ने दुःशासन की छाती का रक्त पिया था। एकलव्य : द्रोण का एक महान शिष्य जिससे गुरुदक्षिणा में द्रोण ने उसका अंगूठा मांगा था। ]गांधारी : गंधार के राजा की पुत्री और धृतराष्ट्र की पत्नी।
अर्जुन के पिता का क्या नाम था ?
पान्डु
arjuna ke pita kaa kya naam tha ?
मुख्य उल्लेख :महाभारत के पात्रअभिमन्यु : अर्जुन के वीर पुत्र जो कुरुक्षेत्र युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुये। अम्बा : शिखन्डी पूर्व जन्म में अम्बा नामक राजकुमारी था। अम्बिका : विचित्रवीर्य की पत्नी, अम्बा और अम्बालिका की बहिन। अम्बालिका: विचित्रवीर्य की पत्नी, अम्बा और अम्बिका की बहिन। अर्जुन : देवराज इन्द्र द्वारा कुन्ती एवं पान्डु का पुत्र। एक अतुल्निय धनुर्धर जिसको श्री कृष्ण ने श्रीमद् भगवद् गीता का उपदेश दिया था। बभ्रुवाहन : अर्जुन एवं चित्रांग्दा का पुत्र। बकासुर : महाभारत काव्य में एक असुर जिसको भीम ने मार कर एक गांव के वासियों की रक्षा की थी। भीष्म : भीष्म का नामकरण देवव्रत के नाम से हुआ था। वे शान्तनु एवं गंगा के पुत्र थे। जब देवव्रत ने अपने पिता की प्रसन्नता के लिये आजीवन ब्रह्मचारी रहने का प्रण लिया, तब से उनका नाम भीष्म हो गया। द्रौपदी : द्रुपद की पुत्री जो अग्नि से प्रकट हुई थी। द्रौपदी पांचों पांड्वों की अर्धांगिनी थी और उसे आज प्राचीनतम् नारीवादिनियों में एक माना जाता है। द्रोण : हस्तिनापुर के राजकुमारों को शस्त्र विद्या देने वाले ब्राह्मण गुरु। अश्व्थामा के पिता। यह विश्व के प्रथम "टेस्ट-टयूब बेबी" थे। द्रोण एक प्रकार का पात्र होता है। द्रुपद : पांचाल के राजा और द्रौपदी एवमं धृष्टद्युम्न के पिता। द्रुपद और द्रोण बाल्यकाल के मित्र थे! दुर्योधन : कौरवों में ज्येष्ठ। धृतराष्ट्र एवं गांधारी के १०० पुत्रों में सबसे बड़े। दुःशासन : दुर्योधन से छोटा भाई जो द्रौपदी को हस्तिनपुर राज्यसभा में बालों से पकड़ कर लाया था। कुरुक्षेत्र युद्ध में भीम ने दुःशासन की छाती का रक्त पिया था। एकलव्य : द्रोण का एक महान शिष्य जिससे गुरुदक्षिणा में द्रोण ने उसका अंगूठा मांगा था। ]गांधारी : गंधार के राजा की पुत्री और धृतराष्ट्र की पत्नी।
शिखंडी के पिछले जन्म का क्या नाम था ?
अम्बा
shikhandi ke pichley janm kaa kya naam tha ?
मुख्य उल्लेख :महाभारत के पात्रअभिमन्यु : अर्जुन के वीर पुत्र जो कुरुक्षेत्र युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुये। अम्बा : शिखन्डी पूर्व जन्म में अम्बा नामक राजकुमारी था। अम्बिका : विचित्रवीर्य की पत्नी, अम्बा और अम्बालिका की बहिन। अम्बालिका: विचित्रवीर्य की पत्नी, अम्बा और अम्बिका की बहिन। अर्जुन : देवराज इन्द्र द्वारा कुन्ती एवं पान्डु का पुत्र। एक अतुल्निय धनुर्धर जिसको श्री कृष्ण ने श्रीमद् भगवद् गीता का उपदेश दिया था। बभ्रुवाहन : अर्जुन एवं चित्रांग्दा का पुत्र। बकासुर : महाभारत काव्य में एक असुर जिसको भीम ने मार कर एक गांव के वासियों की रक्षा की थी। भीष्म : भीष्म का नामकरण देवव्रत के नाम से हुआ था। वे शान्तनु एवं गंगा के पुत्र थे। जब देवव्रत ने अपने पिता की प्रसन्नता के लिये आजीवन ब्रह्मचारी रहने का प्रण लिया, तब से उनका नाम भीष्म हो गया। द्रौपदी : द्रुपद की पुत्री जो अग्नि से प्रकट हुई थी। द्रौपदी पांचों पांड्वों की अर्धांगिनी थी और उसे आज प्राचीनतम् नारीवादिनियों में एक माना जाता है। द्रोण : हस्तिनापुर के राजकुमारों को शस्त्र विद्या देने वाले ब्राह्मण गुरु। अश्व्थामा के पिता। यह विश्व के प्रथम "टेस्ट-टयूब बेबी" थे। द्रोण एक प्रकार का पात्र होता है। द्रुपद : पांचाल के राजा और द्रौपदी एवमं धृष्टद्युम्न के पिता। द्रुपद और द्रोण बाल्यकाल के मित्र थे! दुर्योधन : कौरवों में ज्येष्ठ। धृतराष्ट्र एवं गांधारी के १०० पुत्रों में सबसे बड़े। दुःशासन : दुर्योधन से छोटा भाई जो द्रौपदी को हस्तिनपुर राज्यसभा में बालों से पकड़ कर लाया था। कुरुक्षेत्र युद्ध में भीम ने दुःशासन की छाती का रक्त पिया था। एकलव्य : द्रोण का एक महान शिष्य जिससे गुरुदक्षिणा में द्रोण ने उसका अंगूठा मांगा था। ]गांधारी : गंधार के राजा की पुत्री और धृतराष्ट्र की पत्नी।
भीष्म का नाम किसके नाम पर रखा गया था?
देवव्रत
bhishma kaa naam kiske naam par rakhaa gaya tha?
मुख्य उल्लेख :महाभारत के पात्रअभिमन्यु : अर्जुन के वीर पुत्र जो कुरुक्षेत्र युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुये। अम्बा : शिखन्डी पूर्व जन्म में अम्बा नामक राजकुमारी था। अम्बिका : विचित्रवीर्य की पत्नी, अम्बा और अम्बालिका की बहिन। अम्बालिका: विचित्रवीर्य की पत्नी, अम्बा और अम्बिका की बहिन। अर्जुन : देवराज इन्द्र द्वारा कुन्ती एवं पान्डु का पुत्र। एक अतुल्निय धनुर्धर जिसको श्री कृष्ण ने श्रीमद् भगवद् गीता का उपदेश दिया था। बभ्रुवाहन : अर्जुन एवं चित्रांग्दा का पुत्र। बकासुर : महाभारत काव्य में एक असुर जिसको भीम ने मार कर एक गांव के वासियों की रक्षा की थी। भीष्म : भीष्म का नामकरण देवव्रत के नाम से हुआ था। वे शान्तनु एवं गंगा के पुत्र थे। जब देवव्रत ने अपने पिता की प्रसन्नता के लिये आजीवन ब्रह्मचारी रहने का प्रण लिया, तब से उनका नाम भीष्म हो गया। द्रौपदी : द्रुपद की पुत्री जो अग्नि से प्रकट हुई थी। द्रौपदी पांचों पांड्वों की अर्धांगिनी थी और उसे आज प्राचीनतम् नारीवादिनियों में एक माना जाता है। द्रोण : हस्तिनापुर के राजकुमारों को शस्त्र विद्या देने वाले ब्राह्मण गुरु। अश्व्थामा के पिता। यह विश्व के प्रथम "टेस्ट-टयूब बेबी" थे। द्रोण एक प्रकार का पात्र होता है। द्रुपद : पांचाल के राजा और द्रौपदी एवमं धृष्टद्युम्न के पिता। द्रुपद और द्रोण बाल्यकाल के मित्र थे! दुर्योधन : कौरवों में ज्येष्ठ। धृतराष्ट्र एवं गांधारी के १०० पुत्रों में सबसे बड़े। दुःशासन : दुर्योधन से छोटा भाई जो द्रौपदी को हस्तिनपुर राज्यसभा में बालों से पकड़ कर लाया था। कुरुक्षेत्र युद्ध में भीम ने दुःशासन की छाती का रक्त पिया था। एकलव्य : द्रोण का एक महान शिष्य जिससे गुरुदक्षिणा में द्रोण ने उसका अंगूठा मांगा था। ]गांधारी : गंधार के राजा की पुत्री और धृतराष्ट्र की पत्नी।
अर्जुन को श्रीमद् भगवद गीता का उपदेश किसने दिया था?
श्री कृष्ण
arjuna ko shrimad bhagavad gita kaa upadesh kisne diya tha?
मूल रूप में भक्तो अवम सत्गुरुओं की वाणी का संग्रेह जो सतगुरु अर्जुन देव जी ने किया था जिसे आदि ग्रंथ कहा जाता है सिखों के धार्मिक ग्रंथ के रूप में प्रसिद्ध है | यह ग्रंथ ३६ भक्तों का सचा उपदेश है और आश्चर्यजनक बात ये है की ३६ भक्तों ने निरंकार को सम दृष्टि में व्याख्यान किया है | किसी शब्द में कोई भिन्नता नहीं है | सिख आदि ग्रंथ के साथ साथ दसम ग्रंथ, जो की सतगुरु गोबिंद सिंह जी की वाणी का संग्रेह है को भी मानते हैं | यह ग्रंथ खालसे के अधीन है | पर मूल रूप में आदि ग्रंथ का ज्ञान लेना ही सिखों के लिए सर्वोप्रिया है |यही नहीं सिख हर उस ग्रंथ को सम्मान देते हैं, जिसमे गुरमत का उपदेश है |आदि ग्रंथ या आदि गुरु ग्रंथ या गुरु ग्रंथ साहिब या आदि गुरु दरबार या पोथी साहिब, गुरु अर्जुन देव दवारा संगृहित एक धार्मिक ग्रंथ है जिसमे ३६ भक्तों के आत्मिक जीवन के अनुभव दर्ज हैं | आदि ग्रंथ इस लिए कहा जाता है क्योंकि इसमें "आदि" का ज्ञान भरपूर है | जप बनी के मुताबिक "सच" ही आदि है | इसका ज्ञान करवाने वाले ग्रंथ को आदि ग्रंथ कहते हैं | इसके हवाले स्वयम आदि ग्रंथ के भीतर हैं | हलाकि विदवान तबका कहता है क्योंकि ये ग्रंथ में गुरु तेग बहादुर जी की बनी नहीं थी इस लिए यह आदि ग्रंथ है और सतगुरु गोबिंद सिंह जी ने ९वें महले की बनी चढ़ाई इस लिए इस आदि ग्रंथ की जगंह गुरु ग्रंथ कहा जाने लगा |भक्तो एवं सत्गुरुओं की वाणी पोथिओं के रूप में सतगुरु अर्जुन देव जी के समय मोजूद थीं | भाई गुरदास जी ने यह ग्रंथ लिखा और सतगुरु अर्जुन देव जी दिशा निर्धारक बने | उन्हों ने अपनी वाणी भी ग्रंथ में दर्ज की | यह ग्रंथ की कई नकले भी तैयार हुई |आदि ग्रंथ के १४३० पन्ने खालसा दवारा मानकित किए गए |दसम ग्रन्थ, सिखों का धर्मग्रन्थ है जो सतगुर गोबिंद सिंह जी की पवित्र वाणी एवं रचनाओ का संग्रह है। गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने जीवनकाल में अनेक रचनाएँ की जिनकी छोटी छोटी पोथियाँ बना दीं। उन की मौत के बाद उन की धर्म पत्नी माता सुन्दरी की आज्ञा से भाई मनी सिंह खालसा और अन्य खालसा भाइयों ने गुरु गोबिंद सिंह जी की सारी रचनाओ को इकठा किया और एक जिल्द में चढ़ा दिया जिसे आज "दसम ग्रन्थ" कहा जाता है। सीधे शब्दों में कहा जाये तो गुरु गोबिंद सिंह जी ने रचना की और खालसे ने सम्पादना की। दसम ग्रन्थ का सत्कार सारी सिख कौम करती है। दसम ग्रंथ की वानियाँ जैसे की जाप साहिब, तव परसाद सवैये और चोपाई साहिब सिखों के रोजाना सजदा, नितनेम, का हिस्सा है और यह वानियाँ खंडे बाटे की पहोल, जिस को आम भाषा में अमृत छकना कहते हैं, को बनाते वक्त पढ़ी जाती हैं। तखत हजूर साहिब, तखत पटना साहिब और निहंग सिंह के गुरुद्वारों में दसम ग्रन्थ का गुरु ग्रन्थ साहिब के साथ परकाश होता हैं और रोज़ हुकाम्नामे भी लिया जाता है। सरब्लोह ग्रन्थ ओर भाई गुरदास की वारें शंका ग्रस्त रचनाए हैं | हलाकि खालसा महिमा सर्ब्लोह ग्रन्थ में सुसजित है जो सतगुरु गोबिंद सिंह की प्रमाणित रचना है, बाकी स्र्ब्लोह ग्रन्थ में कर्म कांड, व्यक्ति पूजा इतियादी विशे मोजूद हैं जो सिखों के बुनयादी उसूलों के खिलाफ हैं | भाई गुरदास की वारों में मूर्ती पूजा, कर्म सिधांत आदिक गुरमत विरुद्ध शब्द दर्ज हैंसिख धर्म का इतिहास के लिए कोई भी ऐतिहासिक स्रोत को पूरी तरंह से प्र्पख नहीं मन जाता | श्री गुर सोभा ही ऐसा ग्रन्थ मन गया है जो गोबिंद सिंह के निकटवर्ती सिख द्वारा लिखा गया है लेकिन इसमें तारीखें नहीं दी गई हैं | सिखों के और भी इतिहासक ग्रन्थ हैं जैसे की श्री गुर परताप सूरज ग्रन्थ, गुर्बिलास पातशाही १०, श्री गुर सोभा, मन्हीमा परकाश एवं पंथ परकाश, जनमसखियाँ इतियादी | श्री गुर परताप सूरज ग्रन्थ की व्याख्या गुरद्वारों में होती है | कभी गुर्बिलास पातशाही १० की होती थी | १७५० के बाद ज्यादातर इतिहास लिखे गए हैं | इतिहास लिखने वाले विद्वान ज्यादातर सनातनी थे जिस कारण कुछ ऐतिहासिक पुस्तकों में सतगुरु एवं भक्त चमत्कारी दिखाए हैं जो की गुरमत फलसफे के मुताबिक ठीक नहीं है | गुरु नानक का हवा में उड़ना, मगरमच की सवारी करना, माता गंगा का बाबा बुड्ढा द्वारा गर्ब्वती करना इतियादी घटनाए जम्सखिओं और गुर्बिलास में सुसजित हैं और बाद वाले इतिहासकारों ने इन्ही बातों के ऊपर श्र्धवास मसाला लगा कर लिखा हुआ है | किसी सतगुर एवं भक्त ने अपना संसारी इतिहास नहीं लिखा | सतगुरु गोबिंद सिंह ने भी जितना लिखा है वह संक्षेप और टूक परमाण जितना लिखा है | सिख धर्म इतिहास को इतना महत्त्व नहीं देता, जो इतिहास गुरबानी समझने के काम आए उतना ही सिख के लिए ज़रूरी है |आज सिख इतिहास का शुद्धीकरण करने में लगे हैं।
कर्मकांड, व्यक्ति पूजा किस ग्रंथ में शामिल हैं ?
स्र्ब्लोह ग्रन्थ
karmkand, vyakti puja kis granth main shaamil hai ?
मूल रूप में भक्तो अवम सत्गुरुओं की वाणी का संग्रेह जो सतगुरु अर्जुन देव जी ने किया था जिसे आदि ग्रंथ कहा जाता है सिखों के धार्मिक ग्रंथ के रूप में प्रसिद्ध है | यह ग्रंथ ३६ भक्तों का सचा उपदेश है और आश्चर्यजनक बात ये है की ३६ भक्तों ने निरंकार को सम दृष्टि में व्याख्यान किया है | किसी शब्द में कोई भिन्नता नहीं है | सिख आदि ग्रंथ के साथ साथ दसम ग्रंथ, जो की सतगुरु गोबिंद सिंह जी की वाणी का संग्रेह है को भी मानते हैं | यह ग्रंथ खालसे के अधीन है | पर मूल रूप में आदि ग्रंथ का ज्ञान लेना ही सिखों के लिए सर्वोप्रिया है |यही नहीं सिख हर उस ग्रंथ को सम्मान देते हैं, जिसमे गुरमत का उपदेश है |आदि ग्रंथ या आदि गुरु ग्रंथ या गुरु ग्रंथ साहिब या आदि गुरु दरबार या पोथी साहिब, गुरु अर्जुन देव दवारा संगृहित एक धार्मिक ग्रंथ है जिसमे ३६ भक्तों के आत्मिक जीवन के अनुभव दर्ज हैं | आदि ग्रंथ इस लिए कहा जाता है क्योंकि इसमें "आदि" का ज्ञान भरपूर है | जप बनी के मुताबिक "सच" ही आदि है | इसका ज्ञान करवाने वाले ग्रंथ को आदि ग्रंथ कहते हैं | इसके हवाले स्वयम आदि ग्रंथ के भीतर हैं | हलाकि विदवान तबका कहता है क्योंकि ये ग्रंथ में गुरु तेग बहादुर जी की बनी नहीं थी इस लिए यह आदि ग्रंथ है और सतगुरु गोबिंद सिंह जी ने ९वें महले की बनी चढ़ाई इस लिए इस आदि ग्रंथ की जगंह गुरु ग्रंथ कहा जाने लगा |भक्तो एवं सत्गुरुओं की वाणी पोथिओं के रूप में सतगुरु अर्जुन देव जी के समय मोजूद थीं | भाई गुरदास जी ने यह ग्रंथ लिखा और सतगुरु अर्जुन देव जी दिशा निर्धारक बने | उन्हों ने अपनी वाणी भी ग्रंथ में दर्ज की | यह ग्रंथ की कई नकले भी तैयार हुई |आदि ग्रंथ के १४३० पन्ने खालसा दवारा मानकित किए गए |दसम ग्रन्थ, सिखों का धर्मग्रन्थ है जो सतगुर गोबिंद सिंह जी की पवित्र वाणी एवं रचनाओ का संग्रह है। गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने जीवनकाल में अनेक रचनाएँ की जिनकी छोटी छोटी पोथियाँ बना दीं। उन की मौत के बाद उन की धर्म पत्नी माता सुन्दरी की आज्ञा से भाई मनी सिंह खालसा और अन्य खालसा भाइयों ने गुरु गोबिंद सिंह जी की सारी रचनाओ को इकठा किया और एक जिल्द में चढ़ा दिया जिसे आज "दसम ग्रन्थ" कहा जाता है। सीधे शब्दों में कहा जाये तो गुरु गोबिंद सिंह जी ने रचना की और खालसे ने सम्पादना की। दसम ग्रन्थ का सत्कार सारी सिख कौम करती है। दसम ग्रंथ की वानियाँ जैसे की जाप साहिब, तव परसाद सवैये और चोपाई साहिब सिखों के रोजाना सजदा, नितनेम, का हिस्सा है और यह वानियाँ खंडे बाटे की पहोल, जिस को आम भाषा में अमृत छकना कहते हैं, को बनाते वक्त पढ़ी जाती हैं। तखत हजूर साहिब, तखत पटना साहिब और निहंग सिंह के गुरुद्वारों में दसम ग्रन्थ का गुरु ग्रन्थ साहिब के साथ परकाश होता हैं और रोज़ हुकाम्नामे भी लिया जाता है। सरब्लोह ग्रन्थ ओर भाई गुरदास की वारें शंका ग्रस्त रचनाए हैं | हलाकि खालसा महिमा सर्ब्लोह ग्रन्थ में सुसजित है जो सतगुरु गोबिंद सिंह की प्रमाणित रचना है, बाकी स्र्ब्लोह ग्रन्थ में कर्म कांड, व्यक्ति पूजा इतियादी विशे मोजूद हैं जो सिखों के बुनयादी उसूलों के खिलाफ हैं | भाई गुरदास की वारों में मूर्ती पूजा, कर्म सिधांत आदिक गुरमत विरुद्ध शब्द दर्ज हैंसिख धर्म का इतिहास के लिए कोई भी ऐतिहासिक स्रोत को पूरी तरंह से प्र्पख नहीं मन जाता | श्री गुर सोभा ही ऐसा ग्रन्थ मन गया है जो गोबिंद सिंह के निकटवर्ती सिख द्वारा लिखा गया है लेकिन इसमें तारीखें नहीं दी गई हैं | सिखों के और भी इतिहासक ग्रन्थ हैं जैसे की श्री गुर परताप सूरज ग्रन्थ, गुर्बिलास पातशाही १०, श्री गुर सोभा, मन्हीमा परकाश एवं पंथ परकाश, जनमसखियाँ इतियादी | श्री गुर परताप सूरज ग्रन्थ की व्याख्या गुरद्वारों में होती है | कभी गुर्बिलास पातशाही १० की होती थी | १७५० के बाद ज्यादातर इतिहास लिखे गए हैं | इतिहास लिखने वाले विद्वान ज्यादातर सनातनी थे जिस कारण कुछ ऐतिहासिक पुस्तकों में सतगुरु एवं भक्त चमत्कारी दिखाए हैं जो की गुरमत फलसफे के मुताबिक ठीक नहीं है | गुरु नानक का हवा में उड़ना, मगरमच की सवारी करना, माता गंगा का बाबा बुड्ढा द्वारा गर्ब्वती करना इतियादी घटनाए जम्सखिओं और गुर्बिलास में सुसजित हैं और बाद वाले इतिहासकारों ने इन्ही बातों के ऊपर श्र्धवास मसाला लगा कर लिखा हुआ है | किसी सतगुर एवं भक्त ने अपना संसारी इतिहास नहीं लिखा | सतगुरु गोबिंद सिंह ने भी जितना लिखा है वह संक्षेप और टूक परमाण जितना लिखा है | सिख धर्म इतिहास को इतना महत्त्व नहीं देता, जो इतिहास गुरबानी समझने के काम आए उतना ही सिख के लिए ज़रूरी है |आज सिख इतिहास का शुद्धीकरण करने में लगे हैं।
दशम ग्रंथ को किस समुदाय द्वारा अपनाया गया था?
सिखों
dasham granth ko kis samudaay dwaara apanaaya gaya tha?
मूल रूप में भक्तो अवम सत्गुरुओं की वाणी का संग्रेह जो सतगुरु अर्जुन देव जी ने किया था जिसे आदि ग्रंथ कहा जाता है सिखों के धार्मिक ग्रंथ के रूप में प्रसिद्ध है | यह ग्रंथ ३६ भक्तों का सचा उपदेश है और आश्चर्यजनक बात ये है की ३६ भक्तों ने निरंकार को सम दृष्टि में व्याख्यान किया है | किसी शब्द में कोई भिन्नता नहीं है | सिख आदि ग्रंथ के साथ साथ दसम ग्रंथ, जो की सतगुरु गोबिंद सिंह जी की वाणी का संग्रेह है को भी मानते हैं | यह ग्रंथ खालसे के अधीन है | पर मूल रूप में आदि ग्रंथ का ज्ञान लेना ही सिखों के लिए सर्वोप्रिया है |यही नहीं सिख हर उस ग्रंथ को सम्मान देते हैं, जिसमे गुरमत का उपदेश है |आदि ग्रंथ या आदि गुरु ग्रंथ या गुरु ग्रंथ साहिब या आदि गुरु दरबार या पोथी साहिब, गुरु अर्जुन देव दवारा संगृहित एक धार्मिक ग्रंथ है जिसमे ३६ भक्तों के आत्मिक जीवन के अनुभव दर्ज हैं | आदि ग्रंथ इस लिए कहा जाता है क्योंकि इसमें "आदि" का ज्ञान भरपूर है | जप बनी के मुताबिक "सच" ही आदि है | इसका ज्ञान करवाने वाले ग्रंथ को आदि ग्रंथ कहते हैं | इसके हवाले स्वयम आदि ग्रंथ के भीतर हैं | हलाकि विदवान तबका कहता है क्योंकि ये ग्रंथ में गुरु तेग बहादुर जी की बनी नहीं थी इस लिए यह आदि ग्रंथ है और सतगुरु गोबिंद सिंह जी ने ९वें महले की बनी चढ़ाई इस लिए इस आदि ग्रंथ की जगंह गुरु ग्रंथ कहा जाने लगा |भक्तो एवं सत्गुरुओं की वाणी पोथिओं के रूप में सतगुरु अर्जुन देव जी के समय मोजूद थीं | भाई गुरदास जी ने यह ग्रंथ लिखा और सतगुरु अर्जुन देव जी दिशा निर्धारक बने | उन्हों ने अपनी वाणी भी ग्रंथ में दर्ज की | यह ग्रंथ की कई नकले भी तैयार हुई |आदि ग्रंथ के १४३० पन्ने खालसा दवारा मानकित किए गए |दसम ग्रन्थ, सिखों का धर्मग्रन्थ है जो सतगुर गोबिंद सिंह जी की पवित्र वाणी एवं रचनाओ का संग्रह है। गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने जीवनकाल में अनेक रचनाएँ की जिनकी छोटी छोटी पोथियाँ बना दीं। उन की मौत के बाद उन की धर्म पत्नी माता सुन्दरी की आज्ञा से भाई मनी सिंह खालसा और अन्य खालसा भाइयों ने गुरु गोबिंद सिंह जी की सारी रचनाओ को इकठा किया और एक जिल्द में चढ़ा दिया जिसे आज "दसम ग्रन्थ" कहा जाता है। सीधे शब्दों में कहा जाये तो गुरु गोबिंद सिंह जी ने रचना की और खालसे ने सम्पादना की। दसम ग्रन्थ का सत्कार सारी सिख कौम करती है। दसम ग्रंथ की वानियाँ जैसे की जाप साहिब, तव परसाद सवैये और चोपाई साहिब सिखों के रोजाना सजदा, नितनेम, का हिस्सा है और यह वानियाँ खंडे बाटे की पहोल, जिस को आम भाषा में अमृत छकना कहते हैं, को बनाते वक्त पढ़ी जाती हैं। तखत हजूर साहिब, तखत पटना साहिब और निहंग सिंह के गुरुद्वारों में दसम ग्रन्थ का गुरु ग्रन्थ साहिब के साथ परकाश होता हैं और रोज़ हुकाम्नामे भी लिया जाता है। सरब्लोह ग्रन्थ ओर भाई गुरदास की वारें शंका ग्रस्त रचनाए हैं | हलाकि खालसा महिमा सर्ब्लोह ग्रन्थ में सुसजित है जो सतगुरु गोबिंद सिंह की प्रमाणित रचना है, बाकी स्र्ब्लोह ग्रन्थ में कर्म कांड, व्यक्ति पूजा इतियादी विशे मोजूद हैं जो सिखों के बुनयादी उसूलों के खिलाफ हैं | भाई गुरदास की वारों में मूर्ती पूजा, कर्म सिधांत आदिक गुरमत विरुद्ध शब्द दर्ज हैंसिख धर्म का इतिहास के लिए कोई भी ऐतिहासिक स्रोत को पूरी तरंह से प्र्पख नहीं मन जाता | श्री गुर सोभा ही ऐसा ग्रन्थ मन गया है जो गोबिंद सिंह के निकटवर्ती सिख द्वारा लिखा गया है लेकिन इसमें तारीखें नहीं दी गई हैं | सिखों के और भी इतिहासक ग्रन्थ हैं जैसे की श्री गुर परताप सूरज ग्रन्थ, गुर्बिलास पातशाही १०, श्री गुर सोभा, मन्हीमा परकाश एवं पंथ परकाश, जनमसखियाँ इतियादी | श्री गुर परताप सूरज ग्रन्थ की व्याख्या गुरद्वारों में होती है | कभी गुर्बिलास पातशाही १० की होती थी | १७५० के बाद ज्यादातर इतिहास लिखे गए हैं | इतिहास लिखने वाले विद्वान ज्यादातर सनातनी थे जिस कारण कुछ ऐतिहासिक पुस्तकों में सतगुरु एवं भक्त चमत्कारी दिखाए हैं जो की गुरमत फलसफे के मुताबिक ठीक नहीं है | गुरु नानक का हवा में उड़ना, मगरमच की सवारी करना, माता गंगा का बाबा बुड्ढा द्वारा गर्ब्वती करना इतियादी घटनाए जम्सखिओं और गुर्बिलास में सुसजित हैं और बाद वाले इतिहासकारों ने इन्ही बातों के ऊपर श्र्धवास मसाला लगा कर लिखा हुआ है | किसी सतगुर एवं भक्त ने अपना संसारी इतिहास नहीं लिखा | सतगुरु गोबिंद सिंह ने भी जितना लिखा है वह संक्षेप और टूक परमाण जितना लिखा है | सिख धर्म इतिहास को इतना महत्त्व नहीं देता, जो इतिहास गुरबानी समझने के काम आए उतना ही सिख के लिए ज़रूरी है |आज सिख इतिहास का शुद्धीकरण करने में लगे हैं।
कर्मकांड, व्यक्ति पूजा का विरोध किस धर्म के द्वारा किया जाता है ?
सिखों
karmkand, vyakti puja kaa virodh kis dharm ke dwaara kiya jaataa he ?
मूल रूप में भक्तो अवम सत्गुरुओं की वाणी का संग्रेह जो सतगुरु अर्जुन देव जी ने किया था जिसे आदि ग्रंथ कहा जाता है सिखों के धार्मिक ग्रंथ के रूप में प्रसिद्ध है | यह ग्रंथ ३६ भक्तों का सचा उपदेश है और आश्चर्यजनक बात ये है की ३६ भक्तों ने निरंकार को सम दृष्टि में व्याख्यान किया है | किसी शब्द में कोई भिन्नता नहीं है | सिख आदि ग्रंथ के साथ साथ दसम ग्रंथ, जो की सतगुरु गोबिंद सिंह जी की वाणी का संग्रेह है को भी मानते हैं | यह ग्रंथ खालसे के अधीन है | पर मूल रूप में आदि ग्रंथ का ज्ञान लेना ही सिखों के लिए सर्वोप्रिया है |यही नहीं सिख हर उस ग्रंथ को सम्मान देते हैं, जिसमे गुरमत का उपदेश है |आदि ग्रंथ या आदि गुरु ग्रंथ या गुरु ग्रंथ साहिब या आदि गुरु दरबार या पोथी साहिब, गुरु अर्जुन देव दवारा संगृहित एक धार्मिक ग्रंथ है जिसमे ३६ भक्तों के आत्मिक जीवन के अनुभव दर्ज हैं | आदि ग्रंथ इस लिए कहा जाता है क्योंकि इसमें "आदि" का ज्ञान भरपूर है | जप बनी के मुताबिक "सच" ही आदि है | इसका ज्ञान करवाने वाले ग्रंथ को आदि ग्रंथ कहते हैं | इसके हवाले स्वयम आदि ग्रंथ के भीतर हैं | हलाकि विदवान तबका कहता है क्योंकि ये ग्रंथ में गुरु तेग बहादुर जी की बनी नहीं थी इस लिए यह आदि ग्रंथ है और सतगुरु गोबिंद सिंह जी ने ९वें महले की बनी चढ़ाई इस लिए इस आदि ग्रंथ की जगंह गुरु ग्रंथ कहा जाने लगा |भक्तो एवं सत्गुरुओं की वाणी पोथिओं के रूप में सतगुरु अर्जुन देव जी के समय मोजूद थीं | भाई गुरदास जी ने यह ग्रंथ लिखा और सतगुरु अर्जुन देव जी दिशा निर्धारक बने | उन्हों ने अपनी वाणी भी ग्रंथ में दर्ज की | यह ग्रंथ की कई नकले भी तैयार हुई |आदि ग्रंथ के १४३० पन्ने खालसा दवारा मानकित किए गए |दसम ग्रन्थ, सिखों का धर्मग्रन्थ है जो सतगुर गोबिंद सिंह जी की पवित्र वाणी एवं रचनाओ का संग्रह है। गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने जीवनकाल में अनेक रचनाएँ की जिनकी छोटी छोटी पोथियाँ बना दीं। उन की मौत के बाद उन की धर्म पत्नी माता सुन्दरी की आज्ञा से भाई मनी सिंह खालसा और अन्य खालसा भाइयों ने गुरु गोबिंद सिंह जी की सारी रचनाओ को इकठा किया और एक जिल्द में चढ़ा दिया जिसे आज "दसम ग्रन्थ" कहा जाता है। सीधे शब्दों में कहा जाये तो गुरु गोबिंद सिंह जी ने रचना की और खालसे ने सम्पादना की। दसम ग्रन्थ का सत्कार सारी सिख कौम करती है। दसम ग्रंथ की वानियाँ जैसे की जाप साहिब, तव परसाद सवैये और चोपाई साहिब सिखों के रोजाना सजदा, नितनेम, का हिस्सा है और यह वानियाँ खंडे बाटे की पहोल, जिस को आम भाषा में अमृत छकना कहते हैं, को बनाते वक्त पढ़ी जाती हैं। तखत हजूर साहिब, तखत पटना साहिब और निहंग सिंह के गुरुद्वारों में दसम ग्रन्थ का गुरु ग्रन्थ साहिब के साथ परकाश होता हैं और रोज़ हुकाम्नामे भी लिया जाता है। सरब्लोह ग्रन्थ ओर भाई गुरदास की वारें शंका ग्रस्त रचनाए हैं | हलाकि खालसा महिमा सर्ब्लोह ग्रन्थ में सुसजित है जो सतगुरु गोबिंद सिंह की प्रमाणित रचना है, बाकी स्र्ब्लोह ग्रन्थ में कर्म कांड, व्यक्ति पूजा इतियादी विशे मोजूद हैं जो सिखों के बुनयादी उसूलों के खिलाफ हैं | भाई गुरदास की वारों में मूर्ती पूजा, कर्म सिधांत आदिक गुरमत विरुद्ध शब्द दर्ज हैंसिख धर्म का इतिहास के लिए कोई भी ऐतिहासिक स्रोत को पूरी तरंह से प्र्पख नहीं मन जाता | श्री गुर सोभा ही ऐसा ग्रन्थ मन गया है जो गोबिंद सिंह के निकटवर्ती सिख द्वारा लिखा गया है लेकिन इसमें तारीखें नहीं दी गई हैं | सिखों के और भी इतिहासक ग्रन्थ हैं जैसे की श्री गुर परताप सूरज ग्रन्थ, गुर्बिलास पातशाही १०, श्री गुर सोभा, मन्हीमा परकाश एवं पंथ परकाश, जनमसखियाँ इतियादी | श्री गुर परताप सूरज ग्रन्थ की व्याख्या गुरद्वारों में होती है | कभी गुर्बिलास पातशाही १० की होती थी | १७५० के बाद ज्यादातर इतिहास लिखे गए हैं | इतिहास लिखने वाले विद्वान ज्यादातर सनातनी थे जिस कारण कुछ ऐतिहासिक पुस्तकों में सतगुरु एवं भक्त चमत्कारी दिखाए हैं जो की गुरमत फलसफे के मुताबिक ठीक नहीं है | गुरु नानक का हवा में उड़ना, मगरमच की सवारी करना, माता गंगा का बाबा बुड्ढा द्वारा गर्ब्वती करना इतियादी घटनाए जम्सखिओं और गुर्बिलास में सुसजित हैं और बाद वाले इतिहासकारों ने इन्ही बातों के ऊपर श्र्धवास मसाला लगा कर लिखा हुआ है | किसी सतगुर एवं भक्त ने अपना संसारी इतिहास नहीं लिखा | सतगुरु गोबिंद सिंह ने भी जितना लिखा है वह संक्षेप और टूक परमाण जितना लिखा है | सिख धर्म इतिहास को इतना महत्त्व नहीं देता, जो इतिहास गुरबानी समझने के काम आए उतना ही सिख के लिए ज़रूरी है |आज सिख इतिहास का शुद्धीकरण करने में लगे हैं।
गुरु गोबिंद सिंह की पत्नी का क्या नाम था?
माता सुन्दरी
guru gobind singh kii patni kaa kya naam tha?
मूल रूप में भक्तो अवम सत्गुरुओं की वाणी का संग्रेह जो सतगुरु अर्जुन देव जी ने किया था जिसे आदि ग्रंथ कहा जाता है सिखों के धार्मिक ग्रंथ के रूप में प्रसिद्ध है | यह ग्रंथ ३६ भक्तों का सचा उपदेश है और आश्चर्यजनक बात ये है की ३६ भक्तों ने निरंकार को सम दृष्टि में व्याख्यान किया है | किसी शब्द में कोई भिन्नता नहीं है | सिख आदि ग्रंथ के साथ साथ दसम ग्रंथ, जो की सतगुरु गोबिंद सिंह जी की वाणी का संग्रेह है को भी मानते हैं | यह ग्रंथ खालसे के अधीन है | पर मूल रूप में आदि ग्रंथ का ज्ञान लेना ही सिखों के लिए सर्वोप्रिया है |यही नहीं सिख हर उस ग्रंथ को सम्मान देते हैं, जिसमे गुरमत का उपदेश है |आदि ग्रंथ या आदि गुरु ग्रंथ या गुरु ग्रंथ साहिब या आदि गुरु दरबार या पोथी साहिब, गुरु अर्जुन देव दवारा संगृहित एक धार्मिक ग्रंथ है जिसमे ३६ भक्तों के आत्मिक जीवन के अनुभव दर्ज हैं | आदि ग्रंथ इस लिए कहा जाता है क्योंकि इसमें "आदि" का ज्ञान भरपूर है | जप बनी के मुताबिक "सच" ही आदि है | इसका ज्ञान करवाने वाले ग्रंथ को आदि ग्रंथ कहते हैं | इसके हवाले स्वयम आदि ग्रंथ के भीतर हैं | हलाकि विदवान तबका कहता है क्योंकि ये ग्रंथ में गुरु तेग बहादुर जी की बनी नहीं थी इस लिए यह आदि ग्रंथ है और सतगुरु गोबिंद सिंह जी ने ९वें महले की बनी चढ़ाई इस लिए इस आदि ग्रंथ की जगंह गुरु ग्रंथ कहा जाने लगा |भक्तो एवं सत्गुरुओं की वाणी पोथिओं के रूप में सतगुरु अर्जुन देव जी के समय मोजूद थीं | भाई गुरदास जी ने यह ग्रंथ लिखा और सतगुरु अर्जुन देव जी दिशा निर्धारक बने | उन्हों ने अपनी वाणी भी ग्रंथ में दर्ज की | यह ग्रंथ की कई नकले भी तैयार हुई |आदि ग्रंथ के १४३० पन्ने खालसा दवारा मानकित किए गए |दसम ग्रन्थ, सिखों का धर्मग्रन्थ है जो सतगुर गोबिंद सिंह जी की पवित्र वाणी एवं रचनाओ का संग्रह है। गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने जीवनकाल में अनेक रचनाएँ की जिनकी छोटी छोटी पोथियाँ बना दीं। उन की मौत के बाद उन की धर्म पत्नी माता सुन्दरी की आज्ञा से भाई मनी सिंह खालसा और अन्य खालसा भाइयों ने गुरु गोबिंद सिंह जी की सारी रचनाओ को इकठा किया और एक जिल्द में चढ़ा दिया जिसे आज "दसम ग्रन्थ" कहा जाता है। सीधे शब्दों में कहा जाये तो गुरु गोबिंद सिंह जी ने रचना की और खालसे ने सम्पादना की। दसम ग्रन्थ का सत्कार सारी सिख कौम करती है। दसम ग्रंथ की वानियाँ जैसे की जाप साहिब, तव परसाद सवैये और चोपाई साहिब सिखों के रोजाना सजदा, नितनेम, का हिस्सा है और यह वानियाँ खंडे बाटे की पहोल, जिस को आम भाषा में अमृत छकना कहते हैं, को बनाते वक्त पढ़ी जाती हैं। तखत हजूर साहिब, तखत पटना साहिब और निहंग सिंह के गुरुद्वारों में दसम ग्रन्थ का गुरु ग्रन्थ साहिब के साथ परकाश होता हैं और रोज़ हुकाम्नामे भी लिया जाता है। सरब्लोह ग्रन्थ ओर भाई गुरदास की वारें शंका ग्रस्त रचनाए हैं | हलाकि खालसा महिमा सर्ब्लोह ग्रन्थ में सुसजित है जो सतगुरु गोबिंद सिंह की प्रमाणित रचना है, बाकी स्र्ब्लोह ग्रन्थ में कर्म कांड, व्यक्ति पूजा इतियादी विशे मोजूद हैं जो सिखों के बुनयादी उसूलों के खिलाफ हैं | भाई गुरदास की वारों में मूर्ती पूजा, कर्म सिधांत आदिक गुरमत विरुद्ध शब्द दर्ज हैंसिख धर्म का इतिहास के लिए कोई भी ऐतिहासिक स्रोत को पूरी तरंह से प्र्पख नहीं मन जाता | श्री गुर सोभा ही ऐसा ग्रन्थ मन गया है जो गोबिंद सिंह के निकटवर्ती सिख द्वारा लिखा गया है लेकिन इसमें तारीखें नहीं दी गई हैं | सिखों के और भी इतिहासक ग्रन्थ हैं जैसे की श्री गुर परताप सूरज ग्रन्थ, गुर्बिलास पातशाही १०, श्री गुर सोभा, मन्हीमा परकाश एवं पंथ परकाश, जनमसखियाँ इतियादी | श्री गुर परताप सूरज ग्रन्थ की व्याख्या गुरद्वारों में होती है | कभी गुर्बिलास पातशाही १० की होती थी | १७५० के बाद ज्यादातर इतिहास लिखे गए हैं | इतिहास लिखने वाले विद्वान ज्यादातर सनातनी थे जिस कारण कुछ ऐतिहासिक पुस्तकों में सतगुरु एवं भक्त चमत्कारी दिखाए हैं जो की गुरमत फलसफे के मुताबिक ठीक नहीं है | गुरु नानक का हवा में उड़ना, मगरमच की सवारी करना, माता गंगा का बाबा बुड्ढा द्वारा गर्ब्वती करना इतियादी घटनाए जम्सखिओं और गुर्बिलास में सुसजित हैं और बाद वाले इतिहासकारों ने इन्ही बातों के ऊपर श्र्धवास मसाला लगा कर लिखा हुआ है | किसी सतगुर एवं भक्त ने अपना संसारी इतिहास नहीं लिखा | सतगुरु गोबिंद सिंह ने भी जितना लिखा है वह संक्षेप और टूक परमाण जितना लिखा है | सिख धर्म इतिहास को इतना महत्त्व नहीं देता, जो इतिहास गुरबानी समझने के काम आए उतना ही सिख के लिए ज़रूरी है |आज सिख इतिहास का शुद्धीकरण करने में लगे हैं।
गुरु गोबिंद सिंह की सभी रचनाओं क्या कहा जाता है?
दसम ग्रन्थ
guru gobind singh kii sabhi rachanaaon kya kaha jaataa he?
मूलत: सूर्य षष्ठी व्रत होने के कारण इसे छठ कहा गया है। यह पर्व वर्ष में दो बार मनाया जाता है, किन्तु काल क्रम में अब यह बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश वासियों तक ही सीमित रह गया है। आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से नवरात्रोत्सव आरंभ होता है। नवरात्रोत्सव में घटस्थापना करते हैं। अखंड दीप के माध्यम से नौ दिन श्री दुर्गादेवी की पूजा अर्थात् नवरात्रोत्सव मनाया जाता है। श्रावण कृष्ण अष्टमी पर जन्माष्टमी का उत्सव मनाया जाता है। इस तिथि में दिन भर उपवास कर रात्रि बारह बजे पालने में बालक श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव मनाया जाता है, उसके उपरांत प्रसाद लेकर उपवास खोलते हैं, अथवा अगले दिन प्रात: दही-कलाकन्द का प्रसाद लेकर उपवास खोलते हैं। आश्विन शुक्ल दशमी को विजयादशमी का त्यौहार मनाया जाता है। दशहरे के पहले नौ दिनों (नवरात्रि) में दसों दिशाएं देवी की शक्ति से प्रभासित होती हैं, व उन पर नियंत्रण प्राप्त होता है, दसों दिशाओंपर विजय प्राप्त हुई होती है। इसी दिन राम ने रावण पर विजय प्राप्त की थी। किसी भी हिन्दू का शाकाहारी होना आवश्यक नहीं है हालांकि शाकाहार को सात्विक आहार माना जाता है। आवश्यकता से अधिक तला भुना शाकाहार ग्रहण करना भी राजसिक माना गया है। मांसाहार को इसलिये अच्छा नहीं माना जाता, क्योंकि मांस पशुओं की हत्या से मिलता है, अत: तामसिक पदार्थ है। वैदिक काल में पशुओं का मांस खाने की अनुमति नहीं थी, एक सर्वेक्षण के अनुसार आजकल लगभग 70% हिन्दू, अधिकतर ब्राह्मण व गुजराती और मारवाड़ी हिन्दू पारम्परिक रूप से शाकाहारी हैं। वे गोमांस भी कभी नहीं खाते, क्योंकि गाय को हिन्दू धर्म में माता समान माना गया है। कुछ हिन्दू मन्दिरों में पशुबलि चढ़ती है, पर आजकल यह प्रथा हिन्दुओं द्वारा ही निन्दित किये जाने से समाप्तप्राय: है। प्राचीन हिंदू व्यवस्था में वर्ण व्यवस्था और जाति का विशेष महत्व था। चार प्रमुख वर्ण थे - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र। पहले यह व्यवस्था कर्म प्रधान थी। अगर कोई सेना में काम करता था तो वह क्षत्रिय हो जाता था चाहे उसका जन्म किसी भी जाति में हुआ हो। लेकिन मध्य काल में वर्ण व्यवस्था का स्वरुप विदेशी आचार - व्यवहार एवं राज्य नियमों के तहत जाति व्यवस्था में बदल गया। विदेशी आक्रमणकारियों का शासन स्थापित होने से भारतीय जनमानस में भी उन्हीं प्रभाव हुआ। इन विदेशियों नें कुछ निर्बल भारतीयों को अपनी विस्ठा और मैला ढोने मे लगाया तथा इन्हें स्वरोजगार करने वाले लोगों (चर्मकार, धोबी, डोम {बांस से दैनिक उपयोग की वस्तुओं के निर्माता} इत्यादि) से जोड़ दिया। अंग्रेजो नें इस व्यवस्था को और अधिक विकृत किया एवं जनजातियों को भी शामिल कर दिया। ।
छट का पर्व मुख्यतः भारत के किस प्रांत में मनाया जाता है?
बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश
chat kaa parv mukhyatah bharat ke kis praant main manaaya jaataa he?
मूलत: सूर्य षष्ठी व्रत होने के कारण इसे छठ कहा गया है। यह पर्व वर्ष में दो बार मनाया जाता है, किन्तु काल क्रम में अब यह बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश वासियों तक ही सीमित रह गया है। आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से नवरात्रोत्सव आरंभ होता है। नवरात्रोत्सव में घटस्थापना करते हैं। अखंड दीप के माध्यम से नौ दिन श्री दुर्गादेवी की पूजा अर्थात् नवरात्रोत्सव मनाया जाता है। श्रावण कृष्ण अष्टमी पर जन्माष्टमी का उत्सव मनाया जाता है। इस तिथि में दिन भर उपवास कर रात्रि बारह बजे पालने में बालक श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव मनाया जाता है, उसके उपरांत प्रसाद लेकर उपवास खोलते हैं, अथवा अगले दिन प्रात: दही-कलाकन्द का प्रसाद लेकर उपवास खोलते हैं। आश्विन शुक्ल दशमी को विजयादशमी का त्यौहार मनाया जाता है। दशहरे के पहले नौ दिनों (नवरात्रि) में दसों दिशाएं देवी की शक्ति से प्रभासित होती हैं, व उन पर नियंत्रण प्राप्त होता है, दसों दिशाओंपर विजय प्राप्त हुई होती है। इसी दिन राम ने रावण पर विजय प्राप्त की थी। किसी भी हिन्दू का शाकाहारी होना आवश्यक नहीं है हालांकि शाकाहार को सात्विक आहार माना जाता है। आवश्यकता से अधिक तला भुना शाकाहार ग्रहण करना भी राजसिक माना गया है। मांसाहार को इसलिये अच्छा नहीं माना जाता, क्योंकि मांस पशुओं की हत्या से मिलता है, अत: तामसिक पदार्थ है। वैदिक काल में पशुओं का मांस खाने की अनुमति नहीं थी, एक सर्वेक्षण के अनुसार आजकल लगभग 70% हिन्दू, अधिकतर ब्राह्मण व गुजराती और मारवाड़ी हिन्दू पारम्परिक रूप से शाकाहारी हैं। वे गोमांस भी कभी नहीं खाते, क्योंकि गाय को हिन्दू धर्म में माता समान माना गया है। कुछ हिन्दू मन्दिरों में पशुबलि चढ़ती है, पर आजकल यह प्रथा हिन्दुओं द्वारा ही निन्दित किये जाने से समाप्तप्राय: है। प्राचीन हिंदू व्यवस्था में वर्ण व्यवस्था और जाति का विशेष महत्व था। चार प्रमुख वर्ण थे - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र। पहले यह व्यवस्था कर्म प्रधान थी। अगर कोई सेना में काम करता था तो वह क्षत्रिय हो जाता था चाहे उसका जन्म किसी भी जाति में हुआ हो। लेकिन मध्य काल में वर्ण व्यवस्था का स्वरुप विदेशी आचार - व्यवहार एवं राज्य नियमों के तहत जाति व्यवस्था में बदल गया। विदेशी आक्रमणकारियों का शासन स्थापित होने से भारतीय जनमानस में भी उन्हीं प्रभाव हुआ। इन विदेशियों नें कुछ निर्बल भारतीयों को अपनी विस्ठा और मैला ढोने मे लगाया तथा इन्हें स्वरोजगार करने वाले लोगों (चर्मकार, धोबी, डोम {बांस से दैनिक उपयोग की वस्तुओं के निर्माता} इत्यादि) से जोड़ दिया। अंग्रेजो नें इस व्यवस्था को और अधिक विकृत किया एवं जनजातियों को भी शामिल कर दिया। ।
नवरात्रि का त्योहार कब शुरू होता है?
आश्विन शुक्ल प्रतिपदा
navaratri kaa tyohaar kab shuru hota he?
मूलत: सूर्य षष्ठी व्रत होने के कारण इसे छठ कहा गया है। यह पर्व वर्ष में दो बार मनाया जाता है, किन्तु काल क्रम में अब यह बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश वासियों तक ही सीमित रह गया है। आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से नवरात्रोत्सव आरंभ होता है। नवरात्रोत्सव में घटस्थापना करते हैं। अखंड दीप के माध्यम से नौ दिन श्री दुर्गादेवी की पूजा अर्थात् नवरात्रोत्सव मनाया जाता है। श्रावण कृष्ण अष्टमी पर जन्माष्टमी का उत्सव मनाया जाता है। इस तिथि में दिन भर उपवास कर रात्रि बारह बजे पालने में बालक श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव मनाया जाता है, उसके उपरांत प्रसाद लेकर उपवास खोलते हैं, अथवा अगले दिन प्रात: दही-कलाकन्द का प्रसाद लेकर उपवास खोलते हैं। आश्विन शुक्ल दशमी को विजयादशमी का त्यौहार मनाया जाता है। दशहरे के पहले नौ दिनों (नवरात्रि) में दसों दिशाएं देवी की शक्ति से प्रभासित होती हैं, व उन पर नियंत्रण प्राप्त होता है, दसों दिशाओंपर विजय प्राप्त हुई होती है। इसी दिन राम ने रावण पर विजय प्राप्त की थी। किसी भी हिन्दू का शाकाहारी होना आवश्यक नहीं है हालांकि शाकाहार को सात्विक आहार माना जाता है। आवश्यकता से अधिक तला भुना शाकाहार ग्रहण करना भी राजसिक माना गया है। मांसाहार को इसलिये अच्छा नहीं माना जाता, क्योंकि मांस पशुओं की हत्या से मिलता है, अत: तामसिक पदार्थ है। वैदिक काल में पशुओं का मांस खाने की अनुमति नहीं थी, एक सर्वेक्षण के अनुसार आजकल लगभग 70% हिन्दू, अधिकतर ब्राह्मण व गुजराती और मारवाड़ी हिन्दू पारम्परिक रूप से शाकाहारी हैं। वे गोमांस भी कभी नहीं खाते, क्योंकि गाय को हिन्दू धर्म में माता समान माना गया है। कुछ हिन्दू मन्दिरों में पशुबलि चढ़ती है, पर आजकल यह प्रथा हिन्दुओं द्वारा ही निन्दित किये जाने से समाप्तप्राय: है। प्राचीन हिंदू व्यवस्था में वर्ण व्यवस्था और जाति का विशेष महत्व था। चार प्रमुख वर्ण थे - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र। पहले यह व्यवस्था कर्म प्रधान थी। अगर कोई सेना में काम करता था तो वह क्षत्रिय हो जाता था चाहे उसका जन्म किसी भी जाति में हुआ हो। लेकिन मध्य काल में वर्ण व्यवस्था का स्वरुप विदेशी आचार - व्यवहार एवं राज्य नियमों के तहत जाति व्यवस्था में बदल गया। विदेशी आक्रमणकारियों का शासन स्थापित होने से भारतीय जनमानस में भी उन्हीं प्रभाव हुआ। इन विदेशियों नें कुछ निर्बल भारतीयों को अपनी विस्ठा और मैला ढोने मे लगाया तथा इन्हें स्वरोजगार करने वाले लोगों (चर्मकार, धोबी, डोम {बांस से दैनिक उपयोग की वस्तुओं के निर्माता} इत्यादि) से जोड़ दिया। अंग्रेजो नें इस व्यवस्था को और अधिक विकृत किया एवं जनजातियों को भी शामिल कर दिया। ।
छट का पर्व साल में कितनी बार मनाया जाता है?
दो बार
chat kaa parv saal main kitni baar manaaya jaataa he?
मूलत: सूर्य षष्ठी व्रत होने के कारण इसे छठ कहा गया है। यह पर्व वर्ष में दो बार मनाया जाता है, किन्तु काल क्रम में अब यह बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश वासियों तक ही सीमित रह गया है। आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से नवरात्रोत्सव आरंभ होता है। नवरात्रोत्सव में घटस्थापना करते हैं। अखंड दीप के माध्यम से नौ दिन श्री दुर्गादेवी की पूजा अर्थात् नवरात्रोत्सव मनाया जाता है। श्रावण कृष्ण अष्टमी पर जन्माष्टमी का उत्सव मनाया जाता है। इस तिथि में दिन भर उपवास कर रात्रि बारह बजे पालने में बालक श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव मनाया जाता है, उसके उपरांत प्रसाद लेकर उपवास खोलते हैं, अथवा अगले दिन प्रात: दही-कलाकन्द का प्रसाद लेकर उपवास खोलते हैं। आश्विन शुक्ल दशमी को विजयादशमी का त्यौहार मनाया जाता है। दशहरे के पहले नौ दिनों (नवरात्रि) में दसों दिशाएं देवी की शक्ति से प्रभासित होती हैं, व उन पर नियंत्रण प्राप्त होता है, दसों दिशाओंपर विजय प्राप्त हुई होती है। इसी दिन राम ने रावण पर विजय प्राप्त की थी। किसी भी हिन्दू का शाकाहारी होना आवश्यक नहीं है हालांकि शाकाहार को सात्विक आहार माना जाता है। आवश्यकता से अधिक तला भुना शाकाहार ग्रहण करना भी राजसिक माना गया है। मांसाहार को इसलिये अच्छा नहीं माना जाता, क्योंकि मांस पशुओं की हत्या से मिलता है, अत: तामसिक पदार्थ है। वैदिक काल में पशुओं का मांस खाने की अनुमति नहीं थी, एक सर्वेक्षण के अनुसार आजकल लगभग 70% हिन्दू, अधिकतर ब्राह्मण व गुजराती और मारवाड़ी हिन्दू पारम्परिक रूप से शाकाहारी हैं। वे गोमांस भी कभी नहीं खाते, क्योंकि गाय को हिन्दू धर्म में माता समान माना गया है। कुछ हिन्दू मन्दिरों में पशुबलि चढ़ती है, पर आजकल यह प्रथा हिन्दुओं द्वारा ही निन्दित किये जाने से समाप्तप्राय: है। प्राचीन हिंदू व्यवस्था में वर्ण व्यवस्था और जाति का विशेष महत्व था। चार प्रमुख वर्ण थे - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र। पहले यह व्यवस्था कर्म प्रधान थी। अगर कोई सेना में काम करता था तो वह क्षत्रिय हो जाता था चाहे उसका जन्म किसी भी जाति में हुआ हो। लेकिन मध्य काल में वर्ण व्यवस्था का स्वरुप विदेशी आचार - व्यवहार एवं राज्य नियमों के तहत जाति व्यवस्था में बदल गया। विदेशी आक्रमणकारियों का शासन स्थापित होने से भारतीय जनमानस में भी उन्हीं प्रभाव हुआ। इन विदेशियों नें कुछ निर्बल भारतीयों को अपनी विस्ठा और मैला ढोने मे लगाया तथा इन्हें स्वरोजगार करने वाले लोगों (चर्मकार, धोबी, डोम {बांस से दैनिक उपयोग की वस्तुओं के निर्माता} इत्यादि) से जोड़ दिया। अंग्रेजो नें इस व्यवस्था को और अधिक विकृत किया एवं जनजातियों को भी शामिल कर दिया। ।
कृष्ण पक्ष के आठवें दिन कौन सा त्यौहार मनाया जाता है?
जन्माष्टमी
krishna paksh ke aathven din koun sa tyohaar manaaya jaataa he?
मूलत: सूर्य षष्ठी व्रत होने के कारण इसे छठ कहा गया है। यह पर्व वर्ष में दो बार मनाया जाता है, किन्तु काल क्रम में अब यह बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश वासियों तक ही सीमित रह गया है। आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से नवरात्रोत्सव आरंभ होता है। नवरात्रोत्सव में घटस्थापना करते हैं। अखंड दीप के माध्यम से नौ दिन श्री दुर्गादेवी की पूजा अर्थात् नवरात्रोत्सव मनाया जाता है। श्रावण कृष्ण अष्टमी पर जन्माष्टमी का उत्सव मनाया जाता है। इस तिथि में दिन भर उपवास कर रात्रि बारह बजे पालने में बालक श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव मनाया जाता है, उसके उपरांत प्रसाद लेकर उपवास खोलते हैं, अथवा अगले दिन प्रात: दही-कलाकन्द का प्रसाद लेकर उपवास खोलते हैं। आश्विन शुक्ल दशमी को विजयादशमी का त्यौहार मनाया जाता है। दशहरे के पहले नौ दिनों (नवरात्रि) में दसों दिशाएं देवी की शक्ति से प्रभासित होती हैं, व उन पर नियंत्रण प्राप्त होता है, दसों दिशाओंपर विजय प्राप्त हुई होती है। इसी दिन राम ने रावण पर विजय प्राप्त की थी। किसी भी हिन्दू का शाकाहारी होना आवश्यक नहीं है हालांकि शाकाहार को सात्विक आहार माना जाता है। आवश्यकता से अधिक तला भुना शाकाहार ग्रहण करना भी राजसिक माना गया है। मांसाहार को इसलिये अच्छा नहीं माना जाता, क्योंकि मांस पशुओं की हत्या से मिलता है, अत: तामसिक पदार्थ है। वैदिक काल में पशुओं का मांस खाने की अनुमति नहीं थी, एक सर्वेक्षण के अनुसार आजकल लगभग 70% हिन्दू, अधिकतर ब्राह्मण व गुजराती और मारवाड़ी हिन्दू पारम्परिक रूप से शाकाहारी हैं। वे गोमांस भी कभी नहीं खाते, क्योंकि गाय को हिन्दू धर्म में माता समान माना गया है। कुछ हिन्दू मन्दिरों में पशुबलि चढ़ती है, पर आजकल यह प्रथा हिन्दुओं द्वारा ही निन्दित किये जाने से समाप्तप्राय: है। प्राचीन हिंदू व्यवस्था में वर्ण व्यवस्था और जाति का विशेष महत्व था। चार प्रमुख वर्ण थे - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र। पहले यह व्यवस्था कर्म प्रधान थी। अगर कोई सेना में काम करता था तो वह क्षत्रिय हो जाता था चाहे उसका जन्म किसी भी जाति में हुआ हो। लेकिन मध्य काल में वर्ण व्यवस्था का स्वरुप विदेशी आचार - व्यवहार एवं राज्य नियमों के तहत जाति व्यवस्था में बदल गया। विदेशी आक्रमणकारियों का शासन स्थापित होने से भारतीय जनमानस में भी उन्हीं प्रभाव हुआ। इन विदेशियों नें कुछ निर्बल भारतीयों को अपनी विस्ठा और मैला ढोने मे लगाया तथा इन्हें स्वरोजगार करने वाले लोगों (चर्मकार, धोबी, डोम {बांस से दैनिक उपयोग की वस्तुओं के निर्माता} इत्यादि) से जोड़ दिया। अंग्रेजो नें इस व्यवस्था को और अधिक विकृत किया एवं जनजातियों को भी शामिल कर दिया। ।
हिन्दू धर्म के अनुसार किस पशु को माँ का दर्जा दिया गया है ?
गाय
hindu dharm ke anusaar kis pashu ko maan kaa darja diya gaya he ?
मोर अपने नर के असाधारण पंख प्रदर्शन पंख के कारण सर्वश्रेष्ठ तरीके से जाने जाते हैं, जो वास्तव में उनके पीछे की तरफ बढ़ते हैं और जिसे पूंछ समझ लिया जाता है। अत्यधिक लम्बी पूंछ की "रेल" वास्तविकता में ऊपरी अप्रकट भाग है। पूंछ भूरे रंग की और मोरनी की पूंछ छोटी होती है। पंखों की सूक्ष्म संरचना के परिणामस्वरूप रंगों की अद्भुत घटना परिलक्षित होती है। नर की लंबी रेल पंख (और टार्सल स्पर) जीवन के दूसरे वर्ष के बाद ही विकसित होती हैं। पूरी तरह से विकसित पंख चार साल से अधिक उम्र के पक्षियों में पाए जाते हैं। उत्तरी भारत में, प्रत्येक के लिए यह फ़रवरी महीने के शुरू में विकसित होता है और अगस्त के अंत में गिर जाता है। उड़ान भरने वाले पंख साल भर में रहते हैं। माना जाता है कि अलंकृत पंखों का प्रदर्शन यह मादाओं से प्रेमालाप और यौन चयन के लिए अपने पंखों को उठा कर उन्हें आकर्षित करने के लिए करते हैं कई अध्ययनों से पता चला है कि पंखों की गुणवत्ता पर ही मादा नर की हालत का ईमानदार संकेत देखकर नर का चुनाव करती हैं। हाल के अध्ययनों से पता चला है कि मादा द्वारा नर के चुनाव में अन्य संकेत भी शामिल हो सकते हैं। छोटे समूहों में मादाएं चारा चुगती हैं, जिसे मस्टर के रूप में जाना जाता है, आम तौर पर इनमें एक नर और 3-5 मादाएं होती हैं। प्रजनन के मौसम के बाद, झुंड में केवल मादा और युवा ही रहते हैं। यह सुबह खुले में पाए जाते हैं और दिन की गर्मी के दौरान छायादार स्थान में रहते हैं। गोधूलि बेला में वे धूल से स्नान के शौकीन होते हैं, पूरी झुंड एक पंक्ति में एक पसंदीदा जलस्थल पर पानी पीने जाते हैं। आमतौर पर जब वे परेशान होते हैं, भागते हैं और बहुत कम उड़ान भरते हैं। मोर प्रजनन के मौसम में विशेष रूप से जोर से आवाज निकालते हैं। रात को जब वे पड़ोसी पक्षियों को आवाज निकालते हुए सुनते हैं तो चिंतित होकर उसी श्रृंखला में आवाज निकालने लगते हैं। मोर की सामान्यतः छह प्रकार के अलार्म की आवाज के अलावा करीब सात किस्म की आवाज अलग अलग लिंगों द्वारा निकाली गई आवाज को पहचाना जा चुका है। मोर ऊँचे पेड़ों पर अपने बसेरे से समूहों में बांग भरते हैं लेकिन कभी कभी चट्टानों, भवनों या खंभों का उपयोग करते हैं। गिर के जंगल में, यह नदी के किनारे किसी ऊंची पेड़ को चुनते हैं। गोधूलि बेला में अक्सर पक्षी अपने पेड़ों पर बने बसेरे पर से आवाज निकालते हैं। बसेरे पर एकत्रित बांग भरने के कारण, कई जनसंख्या इन स्थलों पर अध्ययन करते हैं। जनसंख्या की संरचना की जानकारी ठीक प्रकार से नहीं है, उत्तरी भारत (जोधपुर) के एक अध्ययन के अनुसार, नरों की संख्या 170-210 प्रति 100 मादा है लेकिन दक्षिणी भारत (इंजर) में बसेरा स्थल पर शाम की गिनती के अनुसार 47 नरों के अनुपात में 100 मादाएं पाई गईं।
कौन सा पक्षी अपने पंख प्रदर्शन के लिए जाना जाता है?
मोर
koun sa pakshi apane pankh pradarshan ke liye janaa jaataa he?
मोर अपने नर के असाधारण पंख प्रदर्शन पंख के कारण सर्वश्रेष्ठ तरीके से जाने जाते हैं, जो वास्तव में उनके पीछे की तरफ बढ़ते हैं और जिसे पूंछ समझ लिया जाता है। अत्यधिक लम्बी पूंछ की "रेल" वास्तविकता में ऊपरी अप्रकट भाग है। पूंछ भूरे रंग की और मोरनी की पूंछ छोटी होती है। पंखों की सूक्ष्म संरचना के परिणामस्वरूप रंगों की अद्भुत घटना परिलक्षित होती है। नर की लंबी रेल पंख (और टार्सल स्पर) जीवन के दूसरे वर्ष के बाद ही विकसित होती हैं। पूरी तरह से विकसित पंख चार साल से अधिक उम्र के पक्षियों में पाए जाते हैं। उत्तरी भारत में, प्रत्येक के लिए यह फ़रवरी महीने के शुरू में विकसित होता है और अगस्त के अंत में गिर जाता है। उड़ान भरने वाले पंख साल भर में रहते हैं। माना जाता है कि अलंकृत पंखों का प्रदर्शन यह मादाओं से प्रेमालाप और यौन चयन के लिए अपने पंखों को उठा कर उन्हें आकर्षित करने के लिए करते हैं कई अध्ययनों से पता चला है कि पंखों की गुणवत्ता पर ही मादा नर की हालत का ईमानदार संकेत देखकर नर का चुनाव करती हैं। हाल के अध्ययनों से पता चला है कि मादा द्वारा नर के चुनाव में अन्य संकेत भी शामिल हो सकते हैं। छोटे समूहों में मादाएं चारा चुगती हैं, जिसे मस्टर के रूप में जाना जाता है, आम तौर पर इनमें एक नर और 3-5 मादाएं होती हैं। प्रजनन के मौसम के बाद, झुंड में केवल मादा और युवा ही रहते हैं। यह सुबह खुले में पाए जाते हैं और दिन की गर्मी के दौरान छायादार स्थान में रहते हैं। गोधूलि बेला में वे धूल से स्नान के शौकीन होते हैं, पूरी झुंड एक पंक्ति में एक पसंदीदा जलस्थल पर पानी पीने जाते हैं। आमतौर पर जब वे परेशान होते हैं, भागते हैं और बहुत कम उड़ान भरते हैं। मोर प्रजनन के मौसम में विशेष रूप से जोर से आवाज निकालते हैं। रात को जब वे पड़ोसी पक्षियों को आवाज निकालते हुए सुनते हैं तो चिंतित होकर उसी श्रृंखला में आवाज निकालने लगते हैं। मोर की सामान्यतः छह प्रकार के अलार्म की आवाज के अलावा करीब सात किस्म की आवाज अलग अलग लिंगों द्वारा निकाली गई आवाज को पहचाना जा चुका है। मोर ऊँचे पेड़ों पर अपने बसेरे से समूहों में बांग भरते हैं लेकिन कभी कभी चट्टानों, भवनों या खंभों का उपयोग करते हैं। गिर के जंगल में, यह नदी के किनारे किसी ऊंची पेड़ को चुनते हैं। गोधूलि बेला में अक्सर पक्षी अपने पेड़ों पर बने बसेरे पर से आवाज निकालते हैं। बसेरे पर एकत्रित बांग भरने के कारण, कई जनसंख्या इन स्थलों पर अध्ययन करते हैं। जनसंख्या की संरचना की जानकारी ठीक प्रकार से नहीं है, उत्तरी भारत (जोधपुर) के एक अध्ययन के अनुसार, नरों की संख्या 170-210 प्रति 100 मादा है लेकिन दक्षिणी भारत (इंजर) में बसेरा स्थल पर शाम की गिनती के अनुसार 47 नरों के अनुपात में 100 मादाएं पाई गईं।
मोर किस अवस्था में जोर से आवाज़ निकालते है?
प्रजनन के मौसम में
mor kis avasthaa main jor se awaz nikaalte he?
मोर अपने नर के असाधारण पंख प्रदर्शन पंख के कारण सर्वश्रेष्ठ तरीके से जाने जाते हैं, जो वास्तव में उनके पीछे की तरफ बढ़ते हैं और जिसे पूंछ समझ लिया जाता है। अत्यधिक लम्बी पूंछ की "रेल" वास्तविकता में ऊपरी अप्रकट भाग है। पूंछ भूरे रंग की और मोरनी की पूंछ छोटी होती है। पंखों की सूक्ष्म संरचना के परिणामस्वरूप रंगों की अद्भुत घटना परिलक्षित होती है। नर की लंबी रेल पंख (और टार्सल स्पर) जीवन के दूसरे वर्ष के बाद ही विकसित होती हैं। पूरी तरह से विकसित पंख चार साल से अधिक उम्र के पक्षियों में पाए जाते हैं। उत्तरी भारत में, प्रत्येक के लिए यह फ़रवरी महीने के शुरू में विकसित होता है और अगस्त के अंत में गिर जाता है। उड़ान भरने वाले पंख साल भर में रहते हैं। माना जाता है कि अलंकृत पंखों का प्रदर्शन यह मादाओं से प्रेमालाप और यौन चयन के लिए अपने पंखों को उठा कर उन्हें आकर्षित करने के लिए करते हैं कई अध्ययनों से पता चला है कि पंखों की गुणवत्ता पर ही मादा नर की हालत का ईमानदार संकेत देखकर नर का चुनाव करती हैं। हाल के अध्ययनों से पता चला है कि मादा द्वारा नर के चुनाव में अन्य संकेत भी शामिल हो सकते हैं। छोटे समूहों में मादाएं चारा चुगती हैं, जिसे मस्टर के रूप में जाना जाता है, आम तौर पर इनमें एक नर और 3-5 मादाएं होती हैं। प्रजनन के मौसम के बाद, झुंड में केवल मादा और युवा ही रहते हैं। यह सुबह खुले में पाए जाते हैं और दिन की गर्मी के दौरान छायादार स्थान में रहते हैं। गोधूलि बेला में वे धूल से स्नान के शौकीन होते हैं, पूरी झुंड एक पंक्ति में एक पसंदीदा जलस्थल पर पानी पीने जाते हैं। आमतौर पर जब वे परेशान होते हैं, भागते हैं और बहुत कम उड़ान भरते हैं। मोर प्रजनन के मौसम में विशेष रूप से जोर से आवाज निकालते हैं। रात को जब वे पड़ोसी पक्षियों को आवाज निकालते हुए सुनते हैं तो चिंतित होकर उसी श्रृंखला में आवाज निकालने लगते हैं। मोर की सामान्यतः छह प्रकार के अलार्म की आवाज के अलावा करीब सात किस्म की आवाज अलग अलग लिंगों द्वारा निकाली गई आवाज को पहचाना जा चुका है। मोर ऊँचे पेड़ों पर अपने बसेरे से समूहों में बांग भरते हैं लेकिन कभी कभी चट्टानों, भवनों या खंभों का उपयोग करते हैं। गिर के जंगल में, यह नदी के किनारे किसी ऊंची पेड़ को चुनते हैं। गोधूलि बेला में अक्सर पक्षी अपने पेड़ों पर बने बसेरे पर से आवाज निकालते हैं। बसेरे पर एकत्रित बांग भरने के कारण, कई जनसंख्या इन स्थलों पर अध्ययन करते हैं। जनसंख्या की संरचना की जानकारी ठीक प्रकार से नहीं है, उत्तरी भारत (जोधपुर) के एक अध्ययन के अनुसार, नरों की संख्या 170-210 प्रति 100 मादा है लेकिन दक्षिणी भारत (इंजर) में बसेरा स्थल पर शाम की गिनती के अनुसार 47 नरों के अनुपात में 100 मादाएं पाई गईं।
दक्षिणी भारत में पुरुष और महिला का जनसँख्या अनुपात कितना है ?
47 नरों के अनुपात में 100 मादाएं
dakshini bharat main purush or mahila kaa jansankhya anupaat kitna he ?
मोर अपने नर के असाधारण पंख प्रदर्शन पंख के कारण सर्वश्रेष्ठ तरीके से जाने जाते हैं, जो वास्तव में उनके पीछे की तरफ बढ़ते हैं और जिसे पूंछ समझ लिया जाता है। अत्यधिक लम्बी पूंछ की "रेल" वास्तविकता में ऊपरी अप्रकट भाग है। पूंछ भूरे रंग की और मोरनी की पूंछ छोटी होती है। पंखों की सूक्ष्म संरचना के परिणामस्वरूप रंगों की अद्भुत घटना परिलक्षित होती है। नर की लंबी रेल पंख (और टार्सल स्पर) जीवन के दूसरे वर्ष के बाद ही विकसित होती हैं। पूरी तरह से विकसित पंख चार साल से अधिक उम्र के पक्षियों में पाए जाते हैं। उत्तरी भारत में, प्रत्येक के लिए यह फ़रवरी महीने के शुरू में विकसित होता है और अगस्त के अंत में गिर जाता है। उड़ान भरने वाले पंख साल भर में रहते हैं। माना जाता है कि अलंकृत पंखों का प्रदर्शन यह मादाओं से प्रेमालाप और यौन चयन के लिए अपने पंखों को उठा कर उन्हें आकर्षित करने के लिए करते हैं कई अध्ययनों से पता चला है कि पंखों की गुणवत्ता पर ही मादा नर की हालत का ईमानदार संकेत देखकर नर का चुनाव करती हैं। हाल के अध्ययनों से पता चला है कि मादा द्वारा नर के चुनाव में अन्य संकेत भी शामिल हो सकते हैं। छोटे समूहों में मादाएं चारा चुगती हैं, जिसे मस्टर के रूप में जाना जाता है, आम तौर पर इनमें एक नर और 3-5 मादाएं होती हैं। प्रजनन के मौसम के बाद, झुंड में केवल मादा और युवा ही रहते हैं। यह सुबह खुले में पाए जाते हैं और दिन की गर्मी के दौरान छायादार स्थान में रहते हैं। गोधूलि बेला में वे धूल से स्नान के शौकीन होते हैं, पूरी झुंड एक पंक्ति में एक पसंदीदा जलस्थल पर पानी पीने जाते हैं। आमतौर पर जब वे परेशान होते हैं, भागते हैं और बहुत कम उड़ान भरते हैं। मोर प्रजनन के मौसम में विशेष रूप से जोर से आवाज निकालते हैं। रात को जब वे पड़ोसी पक्षियों को आवाज निकालते हुए सुनते हैं तो चिंतित होकर उसी श्रृंखला में आवाज निकालने लगते हैं। मोर की सामान्यतः छह प्रकार के अलार्म की आवाज के अलावा करीब सात किस्म की आवाज अलग अलग लिंगों द्वारा निकाली गई आवाज को पहचाना जा चुका है। मोर ऊँचे पेड़ों पर अपने बसेरे से समूहों में बांग भरते हैं लेकिन कभी कभी चट्टानों, भवनों या खंभों का उपयोग करते हैं। गिर के जंगल में, यह नदी के किनारे किसी ऊंची पेड़ को चुनते हैं। गोधूलि बेला में अक्सर पक्षी अपने पेड़ों पर बने बसेरे पर से आवाज निकालते हैं। बसेरे पर एकत्रित बांग भरने के कारण, कई जनसंख्या इन स्थलों पर अध्ययन करते हैं। जनसंख्या की संरचना की जानकारी ठीक प्रकार से नहीं है, उत्तरी भारत (जोधपुर) के एक अध्ययन के अनुसार, नरों की संख्या 170-210 प्रति 100 मादा है लेकिन दक्षिणी भारत (इंजर) में बसेरा स्थल पर शाम की गिनती के अनुसार 47 नरों के अनुपात में 100 मादाएं पाई गईं।
मोर का प्रजनन किस पर निर्भर होता है?
पंखों की गुणवत्ता
mor kaa prajnan kis par nirbhar hota he?
मोरारजी देसाई का जन्म 29 फ़रवरी 1896 को गुजरात के भदेली नामक स्थान पर हुआ था। उनका संबंध एक ब्राह्मण परिवार से था। उनके पिता रणछोड़जी देसाई भावनगर (सौराष्ट्र) में एक स्कूल अध्यापक थे। वह अवसाद (निराशा एवं खिन्नता) से ग्रस्त रहते थे, अत: उन्होंने कुएं में कूद कर अपनी इहलीला समाप्त कर ली। पिता की मृत्यु के तीसरे दिन मोरारजी देसाई की शादी हुई थी। मोरारजी देसाई की शिक्षा-दीक्षा मुंबई के एलफिंस्टन कॉलेज में हुई जो उस समय काफ़ी महंगा और खर्चीला माना जाता था। मुंबई में मोरारजी देसाई नि:शुल्क आवास गृह में रहे जो गोकुलदास तेजपाल के नाम से प्रसिद्ध था। एक समय में वहाँ 40 शिक्षार्थी रह सकते थे। विद्यार्थी जीवन में मोरारजी देसाई औसत बुद्धि के विवेकशील छात्र थे। इन्हें कॉलेज की वाद-विवाद टीम का सचिव भी बनाया गया था लेकिन स्वयं मोरारजी ने मुश्किल से ही किसी वाद-विवाद प्रतियोगिता में हिस्सा लिया होगा। मोरारजी देसाई ने अपने कॉलेज जीवन में ही महात्मा गाँधी, बाल गंगाधर तिलक और अन्य कांग्रेसी नेताओं के संभाषणों को सुना था। मोरारजी देसाई ने मुंबई प्रोविंशल सिविल सर्विस हेतु आवेदन करने का मन बनाया जहाँ सरकार द्वारा सीधी भर्ती की जाती थी। जुलाई 1917 में उन्होंने यूनिवर्सिटी ट्रेनिंग कोर्स में प्रविष्टि पाई। यहाँ इन्हें ब्रिटिश व्यक्तियों की भाँति समान अधिकार एवं सुविधाएं प्राप्त होती रहीं। यहाँ रहते हुए मोरारजी अफ़सर बन गए। मई 1918 में वह परिवीक्षा पर बतौर उप ज़िलाधीश अहमदाबाद पहुंचे। उन्होंने चेटफ़ील्ड नामक ब्रिटिश कलेक्टर (ज़िलाधीश) के अंतर्गत कार्य किया। मोरारजी 11 वर्षों तक अपने रूखे स्वभाव के कारण विशेष उन्नति नहीं प्राप्त कर सके और कलेक्टर के निजी सहायक पद तह ही पहुँचे। मोरारजी देसाई ने 1930 में ब्रिटिश सरकार की नौकरी छोड़ दी और स्वतंत्रता संग्राम के सिपाही बन गए। 1931 में वह गुजरात प्रदेश की कांग्रेस कमेटी के सचिव बन गए। उन्होंने अखिल भारतीय युवा कांग्रेस की शाखा स्थापित की और सरदार पटेल के निर्देश पर उसके अध्यक्ष बन गए। 1932 में मोरारजी को 2 वर्ष की जेल भुगतनी पड़ी। मोरारजी 1937 तक गुजरात प्रदेश कांग्रेस कमेटी के सचिव रहे। इसके बाद वह बंबई राज्य के कांग्रेस मंत्रिमंडल में सम्मिलित हुए। इस दौरान यह माना जाता रहा कि मोरारजी देसाई के व्यक्तितत्त्व में जटिलताएं हैं। वह स्वयं अपनी बात को ऊपर रखते हैं और सही मानते हैं। इस कारण लोग इन्हें व्यंग्य से 'सर्वोच्च नेता' कहा करते थे।
मोरारजी देसाई के पिता कौन थे ?
रणछोड़जी देसाई
morarji desai ke pita koun the ?
मोरारजी देसाई का जन्म 29 फ़रवरी 1896 को गुजरात के भदेली नामक स्थान पर हुआ था। उनका संबंध एक ब्राह्मण परिवार से था। उनके पिता रणछोड़जी देसाई भावनगर (सौराष्ट्र) में एक स्कूल अध्यापक थे। वह अवसाद (निराशा एवं खिन्नता) से ग्रस्त रहते थे, अत: उन्होंने कुएं में कूद कर अपनी इहलीला समाप्त कर ली। पिता की मृत्यु के तीसरे दिन मोरारजी देसाई की शादी हुई थी। मोरारजी देसाई की शिक्षा-दीक्षा मुंबई के एलफिंस्टन कॉलेज में हुई जो उस समय काफ़ी महंगा और खर्चीला माना जाता था। मुंबई में मोरारजी देसाई नि:शुल्क आवास गृह में रहे जो गोकुलदास तेजपाल के नाम से प्रसिद्ध था। एक समय में वहाँ 40 शिक्षार्थी रह सकते थे। विद्यार्थी जीवन में मोरारजी देसाई औसत बुद्धि के विवेकशील छात्र थे। इन्हें कॉलेज की वाद-विवाद टीम का सचिव भी बनाया गया था लेकिन स्वयं मोरारजी ने मुश्किल से ही किसी वाद-विवाद प्रतियोगिता में हिस्सा लिया होगा। मोरारजी देसाई ने अपने कॉलेज जीवन में ही महात्मा गाँधी, बाल गंगाधर तिलक और अन्य कांग्रेसी नेताओं के संभाषणों को सुना था। मोरारजी देसाई ने मुंबई प्रोविंशल सिविल सर्विस हेतु आवेदन करने का मन बनाया जहाँ सरकार द्वारा सीधी भर्ती की जाती थी। जुलाई 1917 में उन्होंने यूनिवर्सिटी ट्रेनिंग कोर्स में प्रविष्टि पाई। यहाँ इन्हें ब्रिटिश व्यक्तियों की भाँति समान अधिकार एवं सुविधाएं प्राप्त होती रहीं। यहाँ रहते हुए मोरारजी अफ़सर बन गए। मई 1918 में वह परिवीक्षा पर बतौर उप ज़िलाधीश अहमदाबाद पहुंचे। उन्होंने चेटफ़ील्ड नामक ब्रिटिश कलेक्टर (ज़िलाधीश) के अंतर्गत कार्य किया। मोरारजी 11 वर्षों तक अपने रूखे स्वभाव के कारण विशेष उन्नति नहीं प्राप्त कर सके और कलेक्टर के निजी सहायक पद तह ही पहुँचे। मोरारजी देसाई ने 1930 में ब्रिटिश सरकार की नौकरी छोड़ दी और स्वतंत्रता संग्राम के सिपाही बन गए। 1931 में वह गुजरात प्रदेश की कांग्रेस कमेटी के सचिव बन गए। उन्होंने अखिल भारतीय युवा कांग्रेस की शाखा स्थापित की और सरदार पटेल के निर्देश पर उसके अध्यक्ष बन गए। 1932 में मोरारजी को 2 वर्ष की जेल भुगतनी पड़ी। मोरारजी 1937 तक गुजरात प्रदेश कांग्रेस कमेटी के सचिव रहे। इसके बाद वह बंबई राज्य के कांग्रेस मंत्रिमंडल में सम्मिलित हुए। इस दौरान यह माना जाता रहा कि मोरारजी देसाई के व्यक्तितत्त्व में जटिलताएं हैं। वह स्वयं अपनी बात को ऊपर रखते हैं और सही मानते हैं। इस कारण लोग इन्हें व्यंग्य से 'सर्वोच्च नेता' कहा करते थे।
मोरारजी देसाई की शिक्षा कहाँ से हुई थी ?
एलफिंस्टन कॉलेज
morarji desai kii shiksha kahan se hui thi ?
मोरारजी देसाई का जन्म 29 फ़रवरी 1896 को गुजरात के भदेली नामक स्थान पर हुआ था। उनका संबंध एक ब्राह्मण परिवार से था। उनके पिता रणछोड़जी देसाई भावनगर (सौराष्ट्र) में एक स्कूल अध्यापक थे। वह अवसाद (निराशा एवं खिन्नता) से ग्रस्त रहते थे, अत: उन्होंने कुएं में कूद कर अपनी इहलीला समाप्त कर ली। पिता की मृत्यु के तीसरे दिन मोरारजी देसाई की शादी हुई थी। मोरारजी देसाई की शिक्षा-दीक्षा मुंबई के एलफिंस्टन कॉलेज में हुई जो उस समय काफ़ी महंगा और खर्चीला माना जाता था। मुंबई में मोरारजी देसाई नि:शुल्क आवास गृह में रहे जो गोकुलदास तेजपाल के नाम से प्रसिद्ध था। एक समय में वहाँ 40 शिक्षार्थी रह सकते थे। विद्यार्थी जीवन में मोरारजी देसाई औसत बुद्धि के विवेकशील छात्र थे। इन्हें कॉलेज की वाद-विवाद टीम का सचिव भी बनाया गया था लेकिन स्वयं मोरारजी ने मुश्किल से ही किसी वाद-विवाद प्रतियोगिता में हिस्सा लिया होगा। मोरारजी देसाई ने अपने कॉलेज जीवन में ही महात्मा गाँधी, बाल गंगाधर तिलक और अन्य कांग्रेसी नेताओं के संभाषणों को सुना था। मोरारजी देसाई ने मुंबई प्रोविंशल सिविल सर्विस हेतु आवेदन करने का मन बनाया जहाँ सरकार द्वारा सीधी भर्ती की जाती थी। जुलाई 1917 में उन्होंने यूनिवर्सिटी ट्रेनिंग कोर्स में प्रविष्टि पाई। यहाँ इन्हें ब्रिटिश व्यक्तियों की भाँति समान अधिकार एवं सुविधाएं प्राप्त होती रहीं। यहाँ रहते हुए मोरारजी अफ़सर बन गए। मई 1918 में वह परिवीक्षा पर बतौर उप ज़िलाधीश अहमदाबाद पहुंचे। उन्होंने चेटफ़ील्ड नामक ब्रिटिश कलेक्टर (ज़िलाधीश) के अंतर्गत कार्य किया। मोरारजी 11 वर्षों तक अपने रूखे स्वभाव के कारण विशेष उन्नति नहीं प्राप्त कर सके और कलेक्टर के निजी सहायक पद तह ही पहुँचे। मोरारजी देसाई ने 1930 में ब्रिटिश सरकार की नौकरी छोड़ दी और स्वतंत्रता संग्राम के सिपाही बन गए। 1931 में वह गुजरात प्रदेश की कांग्रेस कमेटी के सचिव बन गए। उन्होंने अखिल भारतीय युवा कांग्रेस की शाखा स्थापित की और सरदार पटेल के निर्देश पर उसके अध्यक्ष बन गए। 1932 में मोरारजी को 2 वर्ष की जेल भुगतनी पड़ी। मोरारजी 1937 तक गुजरात प्रदेश कांग्रेस कमेटी के सचिव रहे। इसके बाद वह बंबई राज्य के कांग्रेस मंत्रिमंडल में सम्मिलित हुए। इस दौरान यह माना जाता रहा कि मोरारजी देसाई के व्यक्तितत्त्व में जटिलताएं हैं। वह स्वयं अपनी बात को ऊपर रखते हैं और सही मानते हैं। इस कारण लोग इन्हें व्यंग्य से 'सर्वोच्च नेता' कहा करते थे।
मोरारजी देसाई का जन्म कब हुआ था ?
29 फ़रवरी 1896
morarji desai kaa janm kab hua tha ?
मोरारजी देसाई का जन्म 29 फ़रवरी 1896 को गुजरात के भदेली नामक स्थान पर हुआ था। उनका संबंध एक ब्राह्मण परिवार से था। उनके पिता रणछोड़जी देसाई भावनगर (सौराष्ट्र) में एक स्कूल अध्यापक थे। वह अवसाद (निराशा एवं खिन्नता) से ग्रस्त रहते थे, अत: उन्होंने कुएं में कूद कर अपनी इहलीला समाप्त कर ली। पिता की मृत्यु के तीसरे दिन मोरारजी देसाई की शादी हुई थी। मोरारजी देसाई की शिक्षा-दीक्षा मुंबई के एलफिंस्टन कॉलेज में हुई जो उस समय काफ़ी महंगा और खर्चीला माना जाता था। मुंबई में मोरारजी देसाई नि:शुल्क आवास गृह में रहे जो गोकुलदास तेजपाल के नाम से प्रसिद्ध था। एक समय में वहाँ 40 शिक्षार्थी रह सकते थे। विद्यार्थी जीवन में मोरारजी देसाई औसत बुद्धि के विवेकशील छात्र थे। इन्हें कॉलेज की वाद-विवाद टीम का सचिव भी बनाया गया था लेकिन स्वयं मोरारजी ने मुश्किल से ही किसी वाद-विवाद प्रतियोगिता में हिस्सा लिया होगा। मोरारजी देसाई ने अपने कॉलेज जीवन में ही महात्मा गाँधी, बाल गंगाधर तिलक और अन्य कांग्रेसी नेताओं के संभाषणों को सुना था। मोरारजी देसाई ने मुंबई प्रोविंशल सिविल सर्विस हेतु आवेदन करने का मन बनाया जहाँ सरकार द्वारा सीधी भर्ती की जाती थी। जुलाई 1917 में उन्होंने यूनिवर्सिटी ट्रेनिंग कोर्स में प्रविष्टि पाई। यहाँ इन्हें ब्रिटिश व्यक्तियों की भाँति समान अधिकार एवं सुविधाएं प्राप्त होती रहीं। यहाँ रहते हुए मोरारजी अफ़सर बन गए। मई 1918 में वह परिवीक्षा पर बतौर उप ज़िलाधीश अहमदाबाद पहुंचे। उन्होंने चेटफ़ील्ड नामक ब्रिटिश कलेक्टर (ज़िलाधीश) के अंतर्गत कार्य किया। मोरारजी 11 वर्षों तक अपने रूखे स्वभाव के कारण विशेष उन्नति नहीं प्राप्त कर सके और कलेक्टर के निजी सहायक पद तह ही पहुँचे। मोरारजी देसाई ने 1930 में ब्रिटिश सरकार की नौकरी छोड़ दी और स्वतंत्रता संग्राम के सिपाही बन गए। 1931 में वह गुजरात प्रदेश की कांग्रेस कमेटी के सचिव बन गए। उन्होंने अखिल भारतीय युवा कांग्रेस की शाखा स्थापित की और सरदार पटेल के निर्देश पर उसके अध्यक्ष बन गए। 1932 में मोरारजी को 2 वर्ष की जेल भुगतनी पड़ी। मोरारजी 1937 तक गुजरात प्रदेश कांग्रेस कमेटी के सचिव रहे। इसके बाद वह बंबई राज्य के कांग्रेस मंत्रिमंडल में सम्मिलित हुए। इस दौरान यह माना जाता रहा कि मोरारजी देसाई के व्यक्तितत्त्व में जटिलताएं हैं। वह स्वयं अपनी बात को ऊपर रखते हैं और सही मानते हैं। इस कारण लोग इन्हें व्यंग्य से 'सर्वोच्च नेता' कहा करते थे।
मोरारजी देसाई को किस वर्ष गुजरात प्रदेश कांग्रेस कमेटी का सचिव बनाया गया था ?
1931
morarji desai ko kis varsh gujarat pradesh congress cameti kaa sachiv banaaya gaya tha ?
मोरारजी देसाई का जन्म 29 फ़रवरी 1896 को गुजरात के भदेली नामक स्थान पर हुआ था। उनका संबंध एक ब्राह्मण परिवार से था। उनके पिता रणछोड़जी देसाई भावनगर (सौराष्ट्र) में एक स्कूल अध्यापक थे। वह अवसाद (निराशा एवं खिन्नता) से ग्रस्त रहते थे, अत: उन्होंने कुएं में कूद कर अपनी इहलीला समाप्त कर ली। पिता की मृत्यु के तीसरे दिन मोरारजी देसाई की शादी हुई थी। मोरारजी देसाई की शिक्षा-दीक्षा मुंबई के एलफिंस्टन कॉलेज में हुई जो उस समय काफ़ी महंगा और खर्चीला माना जाता था। मुंबई में मोरारजी देसाई नि:शुल्क आवास गृह में रहे जो गोकुलदास तेजपाल के नाम से प्रसिद्ध था। एक समय में वहाँ 40 शिक्षार्थी रह सकते थे। विद्यार्थी जीवन में मोरारजी देसाई औसत बुद्धि के विवेकशील छात्र थे। इन्हें कॉलेज की वाद-विवाद टीम का सचिव भी बनाया गया था लेकिन स्वयं मोरारजी ने मुश्किल से ही किसी वाद-विवाद प्रतियोगिता में हिस्सा लिया होगा। मोरारजी देसाई ने अपने कॉलेज जीवन में ही महात्मा गाँधी, बाल गंगाधर तिलक और अन्य कांग्रेसी नेताओं के संभाषणों को सुना था। मोरारजी देसाई ने मुंबई प्रोविंशल सिविल सर्विस हेतु आवेदन करने का मन बनाया जहाँ सरकार द्वारा सीधी भर्ती की जाती थी। जुलाई 1917 में उन्होंने यूनिवर्सिटी ट्रेनिंग कोर्स में प्रविष्टि पाई। यहाँ इन्हें ब्रिटिश व्यक्तियों की भाँति समान अधिकार एवं सुविधाएं प्राप्त होती रहीं। यहाँ रहते हुए मोरारजी अफ़सर बन गए। मई 1918 में वह परिवीक्षा पर बतौर उप ज़िलाधीश अहमदाबाद पहुंचे। उन्होंने चेटफ़ील्ड नामक ब्रिटिश कलेक्टर (ज़िलाधीश) के अंतर्गत कार्य किया। मोरारजी 11 वर्षों तक अपने रूखे स्वभाव के कारण विशेष उन्नति नहीं प्राप्त कर सके और कलेक्टर के निजी सहायक पद तह ही पहुँचे। मोरारजी देसाई ने 1930 में ब्रिटिश सरकार की नौकरी छोड़ दी और स्वतंत्रता संग्राम के सिपाही बन गए। 1931 में वह गुजरात प्रदेश की कांग्रेस कमेटी के सचिव बन गए। उन्होंने अखिल भारतीय युवा कांग्रेस की शाखा स्थापित की और सरदार पटेल के निर्देश पर उसके अध्यक्ष बन गए। 1932 में मोरारजी को 2 वर्ष की जेल भुगतनी पड़ी। मोरारजी 1937 तक गुजरात प्रदेश कांग्रेस कमेटी के सचिव रहे। इसके बाद वह बंबई राज्य के कांग्रेस मंत्रिमंडल में सम्मिलित हुए। इस दौरान यह माना जाता रहा कि मोरारजी देसाई के व्यक्तितत्त्व में जटिलताएं हैं। वह स्वयं अपनी बात को ऊपर रखते हैं और सही मानते हैं। इस कारण लोग इन्हें व्यंग्य से 'सर्वोच्च नेता' कहा करते थे।
मोरारजी देसाई को विश्वविद्यालय प्रशिक्षण पाठ्यक्रम में प्रवेश कब मिला था ?
जुलाई 1917
morarji desai ko vishvavidhyalay prashikshan paathyakram main pravesh kab mila tha ?
मोहनदास करमचन्द गान्धी का जन्म पश्चिमी भारत में वर्तमान गुजरात के एक तटीय नगर पोरबंदर नामक स्थान पर २ अक्टूबर सन् १८६९ को हुआ था। उनके पिता करमचन्द गान्धी सनातन धर्म की पंसारी जाति से सम्बन्ध रखते थे और ब्रिटिश राज के समय काठियावाड़ की एक छोटी सी रियासत (पोरबंदर) के दीवान अर्थात् प्रधान मन्त्री थे। गुजराती भाषा में गान्धी का अर्थ है पंसारी जबकि हिन्दी भाषा में गन्धी का अर्थ है इत्र फुलेल बेचने वाला जिसे अंग्रेजी में परफ्यूमर कहा जाता है। उनकी माता पुतलीबाई परनामी वैश्य समुदाय की थीं। पुतलीबाई करमचन्द की चौथी पत्नी थी। उनकी पहली तीन पत्नियाँ प्रसव के समय मर गयीं थीं। भक्ति करने वाली माता की देखरेख और उस क्षेत्र की जैन परम्पराओं के कारण युवा मोहनदास पर वे प्रभाव प्रारम्भ में ही पड़ गये थे जिसने आगे चलकर महात्मा गांधी के जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। इन प्रभावों में सम्मिलित थे दुर्बलों में उत्साह की भावना, शाकाहारी जीवन, आत्मशुद्धि के लिये उपवास तथा विभिन्न जातियों के लोगों के बीच सहिष्णुता। मई १८८३ में साढे १३ वर्ष की आयु पूर्ण करते ही उनका विवाह १४ वर्ष की कस्तूर बाई मकनजी से कर दिया गया। पत्नी का पहला नाम छोटा करके कस्तूरबा कर दिया गया और उसे लोग प्यार से बा कहते थे। यह विवाह उनके माता पिता द्वारा तय किया गया व्यवस्थित बाल विवाह था जो उस समय उस क्षेत्र में प्रचलित था। परन्तु उस क्षेत्र में यही रीति थी कि किशोर दुल्हन को अपने माता पिता के घर और अपने पति से अलग अधिक समय तक रहना पड़ता था। १८८५ में जब गान्धी जी १५ वर्ष के थे तब इनकी पहली सन्तान ने जन्म लिया। किन्तु वह केवल कुछ दिन ही जीवित रही। और इसी वर्ष उनके पिता करमचन्द गांधी भी चल बसे।
मोहनदास करमचंद गांधी का जन्म कब हुआ था?
२ अक्टूबर सन् १८६९
mohandas karamchand gandhi kaa janm kab hua tha?
मोहनदास करमचन्द गान्धी का जन्म पश्चिमी भारत में वर्तमान गुजरात के एक तटीय नगर पोरबंदर नामक स्थान पर २ अक्टूबर सन् १८६९ को हुआ था। उनके पिता करमचन्द गान्धी सनातन धर्म की पंसारी जाति से सम्बन्ध रखते थे और ब्रिटिश राज के समय काठियावाड़ की एक छोटी सी रियासत (पोरबंदर) के दीवान अर्थात् प्रधान मन्त्री थे। गुजराती भाषा में गान्धी का अर्थ है पंसारी जबकि हिन्दी भाषा में गन्धी का अर्थ है इत्र फुलेल बेचने वाला जिसे अंग्रेजी में परफ्यूमर कहा जाता है। उनकी माता पुतलीबाई परनामी वैश्य समुदाय की थीं। पुतलीबाई करमचन्द की चौथी पत्नी थी। उनकी पहली तीन पत्नियाँ प्रसव के समय मर गयीं थीं। भक्ति करने वाली माता की देखरेख और उस क्षेत्र की जैन परम्पराओं के कारण युवा मोहनदास पर वे प्रभाव प्रारम्भ में ही पड़ गये थे जिसने आगे चलकर महात्मा गांधी के जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। इन प्रभावों में सम्मिलित थे दुर्बलों में उत्साह की भावना, शाकाहारी जीवन, आत्मशुद्धि के लिये उपवास तथा विभिन्न जातियों के लोगों के बीच सहिष्णुता। मई १८८३ में साढे १३ वर्ष की आयु पूर्ण करते ही उनका विवाह १४ वर्ष की कस्तूर बाई मकनजी से कर दिया गया। पत्नी का पहला नाम छोटा करके कस्तूरबा कर दिया गया और उसे लोग प्यार से बा कहते थे। यह विवाह उनके माता पिता द्वारा तय किया गया व्यवस्थित बाल विवाह था जो उस समय उस क्षेत्र में प्रचलित था। परन्तु उस क्षेत्र में यही रीति थी कि किशोर दुल्हन को अपने माता पिता के घर और अपने पति से अलग अधिक समय तक रहना पड़ता था। १८८५ में जब गान्धी जी १५ वर्ष के थे तब इनकी पहली सन्तान ने जन्म लिया। किन्तु वह केवल कुछ दिन ही जीवित रही। और इसी वर्ष उनके पिता करमचन्द गांधी भी चल बसे।
मोहनदास करमचंद गांधी की शादी कब हुई थी?
मई १८८३
mohandas karamchand gandhi kii shaadi kab hui thi?
मोहनदास करमचन्द गान्धी का जन्म पश्चिमी भारत में वर्तमान गुजरात के एक तटीय नगर पोरबंदर नामक स्थान पर २ अक्टूबर सन् १८६९ को हुआ था। उनके पिता करमचन्द गान्धी सनातन धर्म की पंसारी जाति से सम्बन्ध रखते थे और ब्रिटिश राज के समय काठियावाड़ की एक छोटी सी रियासत (पोरबंदर) के दीवान अर्थात् प्रधान मन्त्री थे। गुजराती भाषा में गान्धी का अर्थ है पंसारी जबकि हिन्दी भाषा में गन्धी का अर्थ है इत्र फुलेल बेचने वाला जिसे अंग्रेजी में परफ्यूमर कहा जाता है। उनकी माता पुतलीबाई परनामी वैश्य समुदाय की थीं। पुतलीबाई करमचन्द की चौथी पत्नी थी। उनकी पहली तीन पत्नियाँ प्रसव के समय मर गयीं थीं। भक्ति करने वाली माता की देखरेख और उस क्षेत्र की जैन परम्पराओं के कारण युवा मोहनदास पर वे प्रभाव प्रारम्भ में ही पड़ गये थे जिसने आगे चलकर महात्मा गांधी के जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। इन प्रभावों में सम्मिलित थे दुर्बलों में उत्साह की भावना, शाकाहारी जीवन, आत्मशुद्धि के लिये उपवास तथा विभिन्न जातियों के लोगों के बीच सहिष्णुता। मई १८८३ में साढे १३ वर्ष की आयु पूर्ण करते ही उनका विवाह १४ वर्ष की कस्तूर बाई मकनजी से कर दिया गया। पत्नी का पहला नाम छोटा करके कस्तूरबा कर दिया गया और उसे लोग प्यार से बा कहते थे। यह विवाह उनके माता पिता द्वारा तय किया गया व्यवस्थित बाल विवाह था जो उस समय उस क्षेत्र में प्रचलित था। परन्तु उस क्षेत्र में यही रीति थी कि किशोर दुल्हन को अपने माता पिता के घर और अपने पति से अलग अधिक समय तक रहना पड़ता था। १८८५ में जब गान्धी जी १५ वर्ष के थे तब इनकी पहली सन्तान ने जन्म लिया। किन्तु वह केवल कुछ दिन ही जीवित रही। और इसी वर्ष उनके पिता करमचन्द गांधी भी चल बसे।
गाँधी जी की मां पुतलीबाई किस समुदाय से थी?
वैश्य समुदाय
gandhi ji kii maa putalibai kis samudaay se thi?
मोहनदास करमचन्द गान्धी का जन्म पश्चिमी भारत में वर्तमान गुजरात के एक तटीय नगर पोरबंदर नामक स्थान पर २ अक्टूबर सन् १८६९ को हुआ था। उनके पिता करमचन्द गान्धी सनातन धर्म की पंसारी जाति से सम्बन्ध रखते थे और ब्रिटिश राज के समय काठियावाड़ की एक छोटी सी रियासत (पोरबंदर) के दीवान अर्थात् प्रधान मन्त्री थे। गुजराती भाषा में गान्धी का अर्थ है पंसारी जबकि हिन्दी भाषा में गन्धी का अर्थ है इत्र फुलेल बेचने वाला जिसे अंग्रेजी में परफ्यूमर कहा जाता है। उनकी माता पुतलीबाई परनामी वैश्य समुदाय की थीं। पुतलीबाई करमचन्द की चौथी पत्नी थी। उनकी पहली तीन पत्नियाँ प्रसव के समय मर गयीं थीं। भक्ति करने वाली माता की देखरेख और उस क्षेत्र की जैन परम्पराओं के कारण युवा मोहनदास पर वे प्रभाव प्रारम्भ में ही पड़ गये थे जिसने आगे चलकर महात्मा गांधी के जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। इन प्रभावों में सम्मिलित थे दुर्बलों में उत्साह की भावना, शाकाहारी जीवन, आत्मशुद्धि के लिये उपवास तथा विभिन्न जातियों के लोगों के बीच सहिष्णुता। मई १८८३ में साढे १३ वर्ष की आयु पूर्ण करते ही उनका विवाह १४ वर्ष की कस्तूर बाई मकनजी से कर दिया गया। पत्नी का पहला नाम छोटा करके कस्तूरबा कर दिया गया और उसे लोग प्यार से बा कहते थे। यह विवाह उनके माता पिता द्वारा तय किया गया व्यवस्थित बाल विवाह था जो उस समय उस क्षेत्र में प्रचलित था। परन्तु उस क्षेत्र में यही रीति थी कि किशोर दुल्हन को अपने माता पिता के घर और अपने पति से अलग अधिक समय तक रहना पड़ता था। १८८५ में जब गान्धी जी १५ वर्ष के थे तब इनकी पहली सन्तान ने जन्म लिया। किन्तु वह केवल कुछ दिन ही जीवित रही। और इसी वर्ष उनके पिता करमचन्द गांधी भी चल बसे।
गुजराती में गांधी का अर्थ क्या होता है?
पंसारी
gujarati main gandhi kaa arth kya hota he?
यद्यपि सिक्किम के अधिकांश आवासित क्षेत्र में, मौसम समशीतोष्ण (टैंपरेट) रहता है और तापमान कम ही 28 °सै (82 °फै) से ऊपर यां 0 °सै (32 °फै) से नीचे जाता है। सिक्किम में पांच ऋतुएं आती हैं: सर्दी, गर्मी, बसंत और पतझड़ और वर्षा, जो जून और सितंबर के बीच आती है। अधिकतर सिक्किम में औसत तापमान लगभग 18 °सै (64 °फै) रह्ता है। सिक्किम भारत के उन कुछ ही राज्यों में से एक है जिनमे यथाक्रम वर्षा होती है। हिम रेखा लगभग ६००० मीटर (१९६०० फीट) है। मानसून के महीनों में प्रदेश में भारी वर्षा होती है जिससे काफी संख्या में भूस्खलन होता है। प्रदेश में लगातार बारिश होने का कीर्तिमान ११ दिन का है। प्रदेश के उत्तरी क्षेत्र में शीत ऋतु में तापमान -40 °C से भी कम हो जाता है। शीत ऋतु एवं वर्षा ऋतु में कोहरा भी जन जीवन को प्रभावित करता है जिससे परिवहन काफी कठिन हो जाता है। सिक्किम में चार जनपद हैं। प्रत्येक जनपद (जिले) को केन्द्र अथवा राज्य सरकार द्वारा नियुक्त जिलाधिकारी देखता है। चीन की सीमा से लगे होने के कारण अधिकतर क्षेत्रों में भारतीय सेना का बाहुल्य दिखाई देता है। कई क्षेत्रों में प्रवेश निषेध है और लोगों को घूमने के लिये परमिट लेना पड़ता है। सिक्किम में कुल आठ कस्बे एवं नौ उप-विभाग हैं। यह चार जिले पूर्व सिक्किम, पश्चिम सिक्किम, उत्तरी सिक्किम एवं दक्षिणी सिक्किम हैं जिनकी राजधानियाँ क्रमश: गंगटोक, गेज़िंग, मंगन एवं नामची हैं। यह चार जिले पुन: विभिन्न उप-विभागों में बाँटे गये हैं। "पकयोंग" पूर्वी जिले का, "सोरेंग" पश्चिमी जिले का, "चुंगथांग" उत्तरी जिले का और "रावोंगला" दक्षिणी जिले का उपविभाग है। सिक्किम हिमालय के निचले हिस्से में पारिस्थितिक गर्मस्थान में भारत के तीन पारिस्थितिक क्षेत्रों में से एक बसा हुआ है। यहाँ के जंगलों में विभिन्न प्रकार के जीव जंतु एवं वनस्पतियाँ पाई जाती हैं। अलग अलग ऊँचाई होने की वज़ह से यहाँ ट्रोपिकल, टेम्पेरेट, एल्पाइन और टुन्ड्रा तरह के पौधे भी पाये जाते हैं। इतने छोटे से इलाके में ऐसी भिन्नता कम ही जगहों पर पाई जाती है। सिक्किम के वनस्पति में उपोष्णकटिबंधीय से अल्पाइन क्षेत्रों से होने वाली प्रजातियों की एक बड़ी शृंखला के साथ रोडोडेंड्रॉन, राज्य पेड़ शामिल है। सिक्किम की निचली ऊँचाई में ऑर्किड, अंजीर, लॉरेल, केला, साल के पेड़ और बांस, जो उप-उष्णकटिबंधीय प्रकार के वातावरण में पनपते हैं। 1,500 मीटर से ऊपर समशीतोष्ण ऊँचाई में, ओक्स, मैपल, बर्च, अल्डर, और मैग्नीओली बड़ी संख्या में बढ़ते हैं। अल्पाइन प्रकार की वनस्पति में जूनिपर, पाइन, एफआईआर, साइप्रस और रोडोडेंड्रॉन शामिल हैं, और आमतौर पर 3,500 मीटर से 5,000 मीटर की ऊँचाई के बीच पाए जाते हैं। सिक्किम में करीब 5,000 फूल पौधे हैं, 515 दुर्लभ ऑर्किड, 60 प्राइम्युलस प्रजातियां, 36 रोडोडेंड्रॉन प्रजातियां, 11 ओक्स किस्मों, 23 बांस की किस्में, 16 शंकुधारी प्रजातियां, 362 प्रकार के फर्न और फर्न सहयोगी, 8 पेड़ के फर्न, और 424 औषधीय पौधों है।
सिक्किम में कितने जिले हैं ?
चार
sikkim main kitne jile hai ?
यद्यपि सिक्किम के अधिकांश आवासित क्षेत्र में, मौसम समशीतोष्ण (टैंपरेट) रहता है और तापमान कम ही 28 °सै (82 °फै) से ऊपर यां 0 °सै (32 °फै) से नीचे जाता है। सिक्किम में पांच ऋतुएं आती हैं: सर्दी, गर्मी, बसंत और पतझड़ और वर्षा, जो जून और सितंबर के बीच आती है। अधिकतर सिक्किम में औसत तापमान लगभग 18 °सै (64 °फै) रह्ता है। सिक्किम भारत के उन कुछ ही राज्यों में से एक है जिनमे यथाक्रम वर्षा होती है। हिम रेखा लगभग ६००० मीटर (१९६०० फीट) है। मानसून के महीनों में प्रदेश में भारी वर्षा होती है जिससे काफी संख्या में भूस्खलन होता है। प्रदेश में लगातार बारिश होने का कीर्तिमान ११ दिन का है। प्रदेश के उत्तरी क्षेत्र में शीत ऋतु में तापमान -40 °C से भी कम हो जाता है। शीत ऋतु एवं वर्षा ऋतु में कोहरा भी जन जीवन को प्रभावित करता है जिससे परिवहन काफी कठिन हो जाता है। सिक्किम में चार जनपद हैं। प्रत्येक जनपद (जिले) को केन्द्र अथवा राज्य सरकार द्वारा नियुक्त जिलाधिकारी देखता है। चीन की सीमा से लगे होने के कारण अधिकतर क्षेत्रों में भारतीय सेना का बाहुल्य दिखाई देता है। कई क्षेत्रों में प्रवेश निषेध है और लोगों को घूमने के लिये परमिट लेना पड़ता है। सिक्किम में कुल आठ कस्बे एवं नौ उप-विभाग हैं। यह चार जिले पूर्व सिक्किम, पश्चिम सिक्किम, उत्तरी सिक्किम एवं दक्षिणी सिक्किम हैं जिनकी राजधानियाँ क्रमश: गंगटोक, गेज़िंग, मंगन एवं नामची हैं। यह चार जिले पुन: विभिन्न उप-विभागों में बाँटे गये हैं। "पकयोंग" पूर्वी जिले का, "सोरेंग" पश्चिमी जिले का, "चुंगथांग" उत्तरी जिले का और "रावोंगला" दक्षिणी जिले का उपविभाग है। सिक्किम हिमालय के निचले हिस्से में पारिस्थितिक गर्मस्थान में भारत के तीन पारिस्थितिक क्षेत्रों में से एक बसा हुआ है। यहाँ के जंगलों में विभिन्न प्रकार के जीव जंतु एवं वनस्पतियाँ पाई जाती हैं। अलग अलग ऊँचाई होने की वज़ह से यहाँ ट्रोपिकल, टेम्पेरेट, एल्पाइन और टुन्ड्रा तरह के पौधे भी पाये जाते हैं। इतने छोटे से इलाके में ऐसी भिन्नता कम ही जगहों पर पाई जाती है। सिक्किम के वनस्पति में उपोष्णकटिबंधीय से अल्पाइन क्षेत्रों से होने वाली प्रजातियों की एक बड़ी शृंखला के साथ रोडोडेंड्रॉन, राज्य पेड़ शामिल है। सिक्किम की निचली ऊँचाई में ऑर्किड, अंजीर, लॉरेल, केला, साल के पेड़ और बांस, जो उप-उष्णकटिबंधीय प्रकार के वातावरण में पनपते हैं। 1,500 मीटर से ऊपर समशीतोष्ण ऊँचाई में, ओक्स, मैपल, बर्च, अल्डर, और मैग्नीओली बड़ी संख्या में बढ़ते हैं। अल्पाइन प्रकार की वनस्पति में जूनिपर, पाइन, एफआईआर, साइप्रस और रोडोडेंड्रॉन शामिल हैं, और आमतौर पर 3,500 मीटर से 5,000 मीटर की ऊँचाई के बीच पाए जाते हैं। सिक्किम में करीब 5,000 फूल पौधे हैं, 515 दुर्लभ ऑर्किड, 60 प्राइम्युलस प्रजातियां, 36 रोडोडेंड्रॉन प्रजातियां, 11 ओक्स किस्मों, 23 बांस की किस्में, 16 शंकुधारी प्रजातियां, 362 प्रकार के फर्न और फर्न सहयोगी, 8 पेड़ के फर्न, और 424 औषधीय पौधों है।
सिक्किम में कुल कितने मौसम होते हैं ?
पांच
sikkim main kul kitne mausam hote hai ?
यद्यपि सिक्किम के अधिकांश आवासित क्षेत्र में, मौसम समशीतोष्ण (टैंपरेट) रहता है और तापमान कम ही 28 °सै (82 °फै) से ऊपर यां 0 °सै (32 °फै) से नीचे जाता है। सिक्किम में पांच ऋतुएं आती हैं: सर्दी, गर्मी, बसंत और पतझड़ और वर्षा, जो जून और सितंबर के बीच आती है। अधिकतर सिक्किम में औसत तापमान लगभग 18 °सै (64 °फै) रह्ता है। सिक्किम भारत के उन कुछ ही राज्यों में से एक है जिनमे यथाक्रम वर्षा होती है। हिम रेखा लगभग ६००० मीटर (१९६०० फीट) है। मानसून के महीनों में प्रदेश में भारी वर्षा होती है जिससे काफी संख्या में भूस्खलन होता है। प्रदेश में लगातार बारिश होने का कीर्तिमान ११ दिन का है। प्रदेश के उत्तरी क्षेत्र में शीत ऋतु में तापमान -40 °C से भी कम हो जाता है। शीत ऋतु एवं वर्षा ऋतु में कोहरा भी जन जीवन को प्रभावित करता है जिससे परिवहन काफी कठिन हो जाता है। सिक्किम में चार जनपद हैं। प्रत्येक जनपद (जिले) को केन्द्र अथवा राज्य सरकार द्वारा नियुक्त जिलाधिकारी देखता है। चीन की सीमा से लगे होने के कारण अधिकतर क्षेत्रों में भारतीय सेना का बाहुल्य दिखाई देता है। कई क्षेत्रों में प्रवेश निषेध है और लोगों को घूमने के लिये परमिट लेना पड़ता है। सिक्किम में कुल आठ कस्बे एवं नौ उप-विभाग हैं। यह चार जिले पूर्व सिक्किम, पश्चिम सिक्किम, उत्तरी सिक्किम एवं दक्षिणी सिक्किम हैं जिनकी राजधानियाँ क्रमश: गंगटोक, गेज़िंग, मंगन एवं नामची हैं। यह चार जिले पुन: विभिन्न उप-विभागों में बाँटे गये हैं। "पकयोंग" पूर्वी जिले का, "सोरेंग" पश्चिमी जिले का, "चुंगथांग" उत्तरी जिले का और "रावोंगला" दक्षिणी जिले का उपविभाग है। सिक्किम हिमालय के निचले हिस्से में पारिस्थितिक गर्मस्थान में भारत के तीन पारिस्थितिक क्षेत्रों में से एक बसा हुआ है। यहाँ के जंगलों में विभिन्न प्रकार के जीव जंतु एवं वनस्पतियाँ पाई जाती हैं। अलग अलग ऊँचाई होने की वज़ह से यहाँ ट्रोपिकल, टेम्पेरेट, एल्पाइन और टुन्ड्रा तरह के पौधे भी पाये जाते हैं। इतने छोटे से इलाके में ऐसी भिन्नता कम ही जगहों पर पाई जाती है। सिक्किम के वनस्पति में उपोष्णकटिबंधीय से अल्पाइन क्षेत्रों से होने वाली प्रजातियों की एक बड़ी शृंखला के साथ रोडोडेंड्रॉन, राज्य पेड़ शामिल है। सिक्किम की निचली ऊँचाई में ऑर्किड, अंजीर, लॉरेल, केला, साल के पेड़ और बांस, जो उप-उष्णकटिबंधीय प्रकार के वातावरण में पनपते हैं। 1,500 मीटर से ऊपर समशीतोष्ण ऊँचाई में, ओक्स, मैपल, बर्च, अल्डर, और मैग्नीओली बड़ी संख्या में बढ़ते हैं। अल्पाइन प्रकार की वनस्पति में जूनिपर, पाइन, एफआईआर, साइप्रस और रोडोडेंड्रॉन शामिल हैं, और आमतौर पर 3,500 मीटर से 5,000 मीटर की ऊँचाई के बीच पाए जाते हैं। सिक्किम में करीब 5,000 फूल पौधे हैं, 515 दुर्लभ ऑर्किड, 60 प्राइम्युलस प्रजातियां, 36 रोडोडेंड्रॉन प्रजातियां, 11 ओक्स किस्मों, 23 बांस की किस्में, 16 शंकुधारी प्रजातियां, 362 प्रकार के फर्न और फर्न सहयोगी, 8 पेड़ के फर्न, और 424 औषधीय पौधों है।
सिक्किम राज्य में भूस्खलन होने का प्रमुख कारण क्या हैं ?
भारी वर्षा
sikkim rajya main bhuskhalan hone kaa pramukh kaaran kya hai ?
यद्यपि सिक्किम के अधिकांश आवासित क्षेत्र में, मौसम समशीतोष्ण (टैंपरेट) रहता है और तापमान कम ही 28 °सै (82 °फै) से ऊपर यां 0 °सै (32 °फै) से नीचे जाता है। सिक्किम में पांच ऋतुएं आती हैं: सर्दी, गर्मी, बसंत और पतझड़ और वर्षा, जो जून और सितंबर के बीच आती है। अधिकतर सिक्किम में औसत तापमान लगभग 18 °सै (64 °फै) रह्ता है। सिक्किम भारत के उन कुछ ही राज्यों में से एक है जिनमे यथाक्रम वर्षा होती है। हिम रेखा लगभग ६००० मीटर (१९६०० फीट) है। मानसून के महीनों में प्रदेश में भारी वर्षा होती है जिससे काफी संख्या में भूस्खलन होता है। प्रदेश में लगातार बारिश होने का कीर्तिमान ११ दिन का है। प्रदेश के उत्तरी क्षेत्र में शीत ऋतु में तापमान -40 °C से भी कम हो जाता है। शीत ऋतु एवं वर्षा ऋतु में कोहरा भी जन जीवन को प्रभावित करता है जिससे परिवहन काफी कठिन हो जाता है। सिक्किम में चार जनपद हैं। प्रत्येक जनपद (जिले) को केन्द्र अथवा राज्य सरकार द्वारा नियुक्त जिलाधिकारी देखता है। चीन की सीमा से लगे होने के कारण अधिकतर क्षेत्रों में भारतीय सेना का बाहुल्य दिखाई देता है। कई क्षेत्रों में प्रवेश निषेध है और लोगों को घूमने के लिये परमिट लेना पड़ता है। सिक्किम में कुल आठ कस्बे एवं नौ उप-विभाग हैं। यह चार जिले पूर्व सिक्किम, पश्चिम सिक्किम, उत्तरी सिक्किम एवं दक्षिणी सिक्किम हैं जिनकी राजधानियाँ क्रमश: गंगटोक, गेज़िंग, मंगन एवं नामची हैं। यह चार जिले पुन: विभिन्न उप-विभागों में बाँटे गये हैं। "पकयोंग" पूर्वी जिले का, "सोरेंग" पश्चिमी जिले का, "चुंगथांग" उत्तरी जिले का और "रावोंगला" दक्षिणी जिले का उपविभाग है। सिक्किम हिमालय के निचले हिस्से में पारिस्थितिक गर्मस्थान में भारत के तीन पारिस्थितिक क्षेत्रों में से एक बसा हुआ है। यहाँ के जंगलों में विभिन्न प्रकार के जीव जंतु एवं वनस्पतियाँ पाई जाती हैं। अलग अलग ऊँचाई होने की वज़ह से यहाँ ट्रोपिकल, टेम्पेरेट, एल्पाइन और टुन्ड्रा तरह के पौधे भी पाये जाते हैं। इतने छोटे से इलाके में ऐसी भिन्नता कम ही जगहों पर पाई जाती है। सिक्किम के वनस्पति में उपोष्णकटिबंधीय से अल्पाइन क्षेत्रों से होने वाली प्रजातियों की एक बड़ी शृंखला के साथ रोडोडेंड्रॉन, राज्य पेड़ शामिल है। सिक्किम की निचली ऊँचाई में ऑर्किड, अंजीर, लॉरेल, केला, साल के पेड़ और बांस, जो उप-उष्णकटिबंधीय प्रकार के वातावरण में पनपते हैं। 1,500 मीटर से ऊपर समशीतोष्ण ऊँचाई में, ओक्स, मैपल, बर्च, अल्डर, और मैग्नीओली बड़ी संख्या में बढ़ते हैं। अल्पाइन प्रकार की वनस्पति में जूनिपर, पाइन, एफआईआर, साइप्रस और रोडोडेंड्रॉन शामिल हैं, और आमतौर पर 3,500 मीटर से 5,000 मीटर की ऊँचाई के बीच पाए जाते हैं। सिक्किम में करीब 5,000 फूल पौधे हैं, 515 दुर्लभ ऑर्किड, 60 प्राइम्युलस प्रजातियां, 36 रोडोडेंड्रॉन प्रजातियां, 11 ओक्स किस्मों, 23 बांस की किस्में, 16 शंकुधारी प्रजातियां, 362 प्रकार के फर्न और फर्न सहयोगी, 8 पेड़ के फर्न, और 424 औषधीय पौधों है।
सिक्किम राज्य का औसत तापमान कितना होता है?
18 °सै (64 °फै)
sikkim rajya kaa ausat taapmaana kitna hota he?
यह नया मनुष्य जातियों एवं धर्मों में विभक्त न होकर धर्म, मानव एवं देश के संरक्षण के लिए सदैव कटिबद्ध रहने वाला है। सबको साथ लेकर चलने की यह संचरना, निस्संदेह, सिख मानस की थाती है। फिर, सिख धर्म का परम लक्ष्य मानव-कल्याण ही तो है। कदाचित इसी मानव-कल्याण का सबक सिखाने के लिए गुरु गोविन्द सिंह ने औरंगजेब को एक लम्बा पत्र (ज़फ़रनामा) लिखा था, जिसमें ईश्वर की स्तुति के साथ-साथ औरंगजेब के शासन-काल में हो रहे अन्याय तथा अत्याचार का मार्मिक उल्लेख है। इस पत्र में नेक कर्म करने और मासूम प्रजा का खून न बहाने की नसीहतें, धर्म एवं ईश्वर की आड़ में मक्कारी और झूठ के लिए चेतावनी तथा योद्धा की तरह मैदान जंग में आकर युद्ध करने के लिए ललकार है। कहा जाता है कि इस पत्र को पढ़कर औरंगजेब की रूँह काँप उठी थी और इसके बाद वह अधिक समय तक जीवित नहीं रहा। गुरु जी से एक बार भेंट करने की उसकी अन्दरुनी इच्छा भी पूरी न हो सकी। यह कोई श्रेय लेने-देने वाली बात नहीं है कि सिख गुरुओं का सहज, सरल, सादा और स्वाभाविक जीवन जिन मूल्यों पर आधारित था, निश्चय ही उन मूल्यों को उन्होंने परम्परागत भारतीय चेतना से ग्रहण किया था। देश, काल और परिस्थितियों की माँग के अनुसार उन्होंने अपने व्यक्तित्व को ढालकर तत्कालीन राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक जीवन को गहरे में प्रभावित किया था। सिख गुरुओं ने अपने समय के धर्म और समाज-व्यवस्था को प्रभावित किया था। सिख गुरुओं ने अपने समय के धर्म और समाज-व्यवस्था को एक नई दिशा दी। उन्होंने भक्ति, ज्ञान, उपासना, अध्यात्म एवं दर्शन को एक संकीर्ण दायरे से निकालकर समाज को उस तबके के बीच पहुँचा दिया, जो इससे पूर्णत: वंचित थे। इससे लोगों का आत्मबोध जागा और उनमें एक नई दृष्टि एवं जागृति पनपी, वे स्वानुभूत अनुभव को मान्यता देने लगे। इस प्रकार निर्गुण निराकार परम शक्ति का प्रवाह प्रखर एवं त्वरित रूप से प्राप्त हुआ। सिख धर्म की एक अन्य मार्के की विशिष्टता यह है कि सिख गुरुओं ने मनुष्य को उद्यम करते हुए जीवन जीने, कमाते हुए सुख प्राप्त करने और ध्यान करते हुए प्रभु की प्राप्ति करने की बात कही। उनका मानना था कि परिश्रम करनेवाला व्यक्ति सभी चिन्ताओं से मुक्त रहता है। गुरु नानक ने तो यहाँ तक कहा है कि जो व्यक्ति मेहनत करके कमाता है और उसमें कुछ दान-पुण्य करता है, वही सही मार्ग को पहचानता है। सिख गुरुओं द्वारा प्रारंभ की गई ‘लंगर’ (मुफ्त भोजन) प्रथा विश्वबन्धुत्व, मानव-प्रेम, समानता एवं उदारता की अन्यत्र न पाई जाने वाली मिसाल है। सिख गुरुओं ने कभी न मुरझाने वाले सांस्कृतिक एवं नैतिक मूल्यों की भी स्थापना की। उन्होंने अपने दार्शनिक एवं आध्यात्मिक चिन्तन से भाँप लिया था कि आने वाला समय कैसा होगा। इसलिए उन्होंने अन्धी नकल के खिलाफ वैकल्पिक चिन्तन पर जोर दिया। शारीरिक-अभ्यास एवं विनोदशीलता को जीवन का आवश्यक अंग माना। पंजाब के लोकगीतों, लोकनृत्यों एवं होला महल्ला पर शास्त्रधारियों के प्रदर्शित करतबों के मूल में सिख गुरुओं के प्रेरणा-बीज ही हैं। इन लोकगीतों एवं लोक नृत्यों की जड़ें पंजाब की धरती से फूटती हैं और लोगों में थिरकन पैदा करती हैं। भांगड़ा और गिद्धा पंजाब की सांस्कृतिक शान हैं, जिसकी धड़कन देश-विदेश में प्राय: सुनी जाती है। पंजाबी संस्कृति राष्ट्रीयता का मेरुदण्ड है। इसके प्राण में एकत्व है, इसके रक्त में सहानुभूति, सहयोग, करुणा और मानव-प्रेम है। पंजाबी संस्कृति आदमी से जोड़ती है और उसकी पहचान बनाती है। विश्व के किसी कोने में घूमता-फिरता पंजाबी स्वयं में से एक लघु पंजाब का प्रतिरूप है। प्रत्येक सिख की अपनी स्वतंत्र चेतना है, जो जीवन-संबंधी समस्याओं को अपने ही प्रकाश में सुलझाने के उद्देश्य से गम्भीर रूप से विचार करती आई है।
गुरु गोबिंद सिंह ने मानव कल्याण का पाठ पढ़ाने के लिए किसको पत्र लिखा था?
औरंगजेब
guru gobind singh ne maanav kalyaan kaa paath padhaane ke liye kisko patr likhaa tha?
यह नया मनुष्य जातियों एवं धर्मों में विभक्त न होकर धर्म, मानव एवं देश के संरक्षण के लिए सदैव कटिबद्ध रहने वाला है। सबको साथ लेकर चलने की यह संचरना, निस्संदेह, सिख मानस की थाती है। फिर, सिख धर्म का परम लक्ष्य मानव-कल्याण ही तो है। कदाचित इसी मानव-कल्याण का सबक सिखाने के लिए गुरु गोविन्द सिंह ने औरंगजेब को एक लम्बा पत्र (ज़फ़रनामा) लिखा था, जिसमें ईश्वर की स्तुति के साथ-साथ औरंगजेब के शासन-काल में हो रहे अन्याय तथा अत्याचार का मार्मिक उल्लेख है। इस पत्र में नेक कर्म करने और मासूम प्रजा का खून न बहाने की नसीहतें, धर्म एवं ईश्वर की आड़ में मक्कारी और झूठ के लिए चेतावनी तथा योद्धा की तरह मैदान जंग में आकर युद्ध करने के लिए ललकार है। कहा जाता है कि इस पत्र को पढ़कर औरंगजेब की रूँह काँप उठी थी और इसके बाद वह अधिक समय तक जीवित नहीं रहा। गुरु जी से एक बार भेंट करने की उसकी अन्दरुनी इच्छा भी पूरी न हो सकी। यह कोई श्रेय लेने-देने वाली बात नहीं है कि सिख गुरुओं का सहज, सरल, सादा और स्वाभाविक जीवन जिन मूल्यों पर आधारित था, निश्चय ही उन मूल्यों को उन्होंने परम्परागत भारतीय चेतना से ग्रहण किया था। देश, काल और परिस्थितियों की माँग के अनुसार उन्होंने अपने व्यक्तित्व को ढालकर तत्कालीन राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक जीवन को गहरे में प्रभावित किया था। सिख गुरुओं ने अपने समय के धर्म और समाज-व्यवस्था को प्रभावित किया था। सिख गुरुओं ने अपने समय के धर्म और समाज-व्यवस्था को एक नई दिशा दी। उन्होंने भक्ति, ज्ञान, उपासना, अध्यात्म एवं दर्शन को एक संकीर्ण दायरे से निकालकर समाज को उस तबके के बीच पहुँचा दिया, जो इससे पूर्णत: वंचित थे। इससे लोगों का आत्मबोध जागा और उनमें एक नई दृष्टि एवं जागृति पनपी, वे स्वानुभूत अनुभव को मान्यता देने लगे। इस प्रकार निर्गुण निराकार परम शक्ति का प्रवाह प्रखर एवं त्वरित रूप से प्राप्त हुआ। सिख धर्म की एक अन्य मार्के की विशिष्टता यह है कि सिख गुरुओं ने मनुष्य को उद्यम करते हुए जीवन जीने, कमाते हुए सुख प्राप्त करने और ध्यान करते हुए प्रभु की प्राप्ति करने की बात कही। उनका मानना था कि परिश्रम करनेवाला व्यक्ति सभी चिन्ताओं से मुक्त रहता है। गुरु नानक ने तो यहाँ तक कहा है कि जो व्यक्ति मेहनत करके कमाता है और उसमें कुछ दान-पुण्य करता है, वही सही मार्ग को पहचानता है। सिख गुरुओं द्वारा प्रारंभ की गई ‘लंगर’ (मुफ्त भोजन) प्रथा विश्वबन्धुत्व, मानव-प्रेम, समानता एवं उदारता की अन्यत्र न पाई जाने वाली मिसाल है। सिख गुरुओं ने कभी न मुरझाने वाले सांस्कृतिक एवं नैतिक मूल्यों की भी स्थापना की। उन्होंने अपने दार्शनिक एवं आध्यात्मिक चिन्तन से भाँप लिया था कि आने वाला समय कैसा होगा। इसलिए उन्होंने अन्धी नकल के खिलाफ वैकल्पिक चिन्तन पर जोर दिया। शारीरिक-अभ्यास एवं विनोदशीलता को जीवन का आवश्यक अंग माना। पंजाब के लोकगीतों, लोकनृत्यों एवं होला महल्ला पर शास्त्रधारियों के प्रदर्शित करतबों के मूल में सिख गुरुओं के प्रेरणा-बीज ही हैं। इन लोकगीतों एवं लोक नृत्यों की जड़ें पंजाब की धरती से फूटती हैं और लोगों में थिरकन पैदा करती हैं। भांगड़ा और गिद्धा पंजाब की सांस्कृतिक शान हैं, जिसकी धड़कन देश-विदेश में प्राय: सुनी जाती है। पंजाबी संस्कृति राष्ट्रीयता का मेरुदण्ड है। इसके प्राण में एकत्व है, इसके रक्त में सहानुभूति, सहयोग, करुणा और मानव-प्रेम है। पंजाबी संस्कृति आदमी से जोड़ती है और उसकी पहचान बनाती है। विश्व के किसी कोने में घूमता-फिरता पंजाबी स्वयं में से एक लघु पंजाब का प्रतिरूप है। प्रत्येक सिख की अपनी स्वतंत्र चेतना है, जो जीवन-संबंधी समस्याओं को अपने ही प्रकाश में सुलझाने के उद्देश्य से गम्भीर रूप से विचार करती आई है।
औरंगजेब की किस गुरु से मिलने की इच्छा पूरी नहीं हो सकी थी?
गुरु गोविन्द सिंह
aurangzeb kii kis guru se milane kii ichha puri nahin ho saki thi?
यह नया मनुष्य जातियों एवं धर्मों में विभक्त न होकर धर्म, मानव एवं देश के संरक्षण के लिए सदैव कटिबद्ध रहने वाला है। सबको साथ लेकर चलने की यह संचरना, निस्संदेह, सिख मानस की थाती है। फिर, सिख धर्म का परम लक्ष्य मानव-कल्याण ही तो है। कदाचित इसी मानव-कल्याण का सबक सिखाने के लिए गुरु गोविन्द सिंह ने औरंगजेब को एक लम्बा पत्र (ज़फ़रनामा) लिखा था, जिसमें ईश्वर की स्तुति के साथ-साथ औरंगजेब के शासन-काल में हो रहे अन्याय तथा अत्याचार का मार्मिक उल्लेख है। इस पत्र में नेक कर्म करने और मासूम प्रजा का खून न बहाने की नसीहतें, धर्म एवं ईश्वर की आड़ में मक्कारी और झूठ के लिए चेतावनी तथा योद्धा की तरह मैदान जंग में आकर युद्ध करने के लिए ललकार है। कहा जाता है कि इस पत्र को पढ़कर औरंगजेब की रूँह काँप उठी थी और इसके बाद वह अधिक समय तक जीवित नहीं रहा। गुरु जी से एक बार भेंट करने की उसकी अन्दरुनी इच्छा भी पूरी न हो सकी। यह कोई श्रेय लेने-देने वाली बात नहीं है कि सिख गुरुओं का सहज, सरल, सादा और स्वाभाविक जीवन जिन मूल्यों पर आधारित था, निश्चय ही उन मूल्यों को उन्होंने परम्परागत भारतीय चेतना से ग्रहण किया था। देश, काल और परिस्थितियों की माँग के अनुसार उन्होंने अपने व्यक्तित्व को ढालकर तत्कालीन राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक जीवन को गहरे में प्रभावित किया था। सिख गुरुओं ने अपने समय के धर्म और समाज-व्यवस्था को प्रभावित किया था। सिख गुरुओं ने अपने समय के धर्म और समाज-व्यवस्था को एक नई दिशा दी। उन्होंने भक्ति, ज्ञान, उपासना, अध्यात्म एवं दर्शन को एक संकीर्ण दायरे से निकालकर समाज को उस तबके के बीच पहुँचा दिया, जो इससे पूर्णत: वंचित थे। इससे लोगों का आत्मबोध जागा और उनमें एक नई दृष्टि एवं जागृति पनपी, वे स्वानुभूत अनुभव को मान्यता देने लगे। इस प्रकार निर्गुण निराकार परम शक्ति का प्रवाह प्रखर एवं त्वरित रूप से प्राप्त हुआ। सिख धर्म की एक अन्य मार्के की विशिष्टता यह है कि सिख गुरुओं ने मनुष्य को उद्यम करते हुए जीवन जीने, कमाते हुए सुख प्राप्त करने और ध्यान करते हुए प्रभु की प्राप्ति करने की बात कही। उनका मानना था कि परिश्रम करनेवाला व्यक्ति सभी चिन्ताओं से मुक्त रहता है। गुरु नानक ने तो यहाँ तक कहा है कि जो व्यक्ति मेहनत करके कमाता है और उसमें कुछ दान-पुण्य करता है, वही सही मार्ग को पहचानता है। सिख गुरुओं द्वारा प्रारंभ की गई ‘लंगर’ (मुफ्त भोजन) प्रथा विश्वबन्धुत्व, मानव-प्रेम, समानता एवं उदारता की अन्यत्र न पाई जाने वाली मिसाल है। सिख गुरुओं ने कभी न मुरझाने वाले सांस्कृतिक एवं नैतिक मूल्यों की भी स्थापना की। उन्होंने अपने दार्शनिक एवं आध्यात्मिक चिन्तन से भाँप लिया था कि आने वाला समय कैसा होगा। इसलिए उन्होंने अन्धी नकल के खिलाफ वैकल्पिक चिन्तन पर जोर दिया। शारीरिक-अभ्यास एवं विनोदशीलता को जीवन का आवश्यक अंग माना। पंजाब के लोकगीतों, लोकनृत्यों एवं होला महल्ला पर शास्त्रधारियों के प्रदर्शित करतबों के मूल में सिख गुरुओं के प्रेरणा-बीज ही हैं। इन लोकगीतों एवं लोक नृत्यों की जड़ें पंजाब की धरती से फूटती हैं और लोगों में थिरकन पैदा करती हैं। भांगड़ा और गिद्धा पंजाब की सांस्कृतिक शान हैं, जिसकी धड़कन देश-विदेश में प्राय: सुनी जाती है। पंजाबी संस्कृति राष्ट्रीयता का मेरुदण्ड है। इसके प्राण में एकत्व है, इसके रक्त में सहानुभूति, सहयोग, करुणा और मानव-प्रेम है। पंजाबी संस्कृति आदमी से जोड़ती है और उसकी पहचान बनाती है। विश्व के किसी कोने में घूमता-फिरता पंजाबी स्वयं में से एक लघु पंजाब का प्रतिरूप है। प्रत्येक सिख की अपनी स्वतंत्र चेतना है, जो जीवन-संबंधी समस्याओं को अपने ही प्रकाश में सुलझाने के उद्देश्य से गम्भीर रूप से विचार करती आई है।
गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा औरंगजेब को लिखे गए पत्र को क्या जाता है ?
ज़फ़रनामा
guru gobind singh ji dwaara aurangzeb ko likhe gaye patr ko kya jaataa he ?
यह नया मनुष्य जातियों एवं धर्मों में विभक्त न होकर धर्म, मानव एवं देश के संरक्षण के लिए सदैव कटिबद्ध रहने वाला है। सबको साथ लेकर चलने की यह संचरना, निस्संदेह, सिख मानस की थाती है। फिर, सिख धर्म का परम लक्ष्य मानव-कल्याण ही तो है। कदाचित इसी मानव-कल्याण का सबक सिखाने के लिए गुरु गोविन्द सिंह ने औरंगजेब को एक लम्बा पत्र (ज़फ़रनामा) लिखा था, जिसमें ईश्वर की स्तुति के साथ-साथ औरंगजेब के शासन-काल में हो रहे अन्याय तथा अत्याचार का मार्मिक उल्लेख है। इस पत्र में नेक कर्म करने और मासूम प्रजा का खून न बहाने की नसीहतें, धर्म एवं ईश्वर की आड़ में मक्कारी और झूठ के लिए चेतावनी तथा योद्धा की तरह मैदान जंग में आकर युद्ध करने के लिए ललकार है। कहा जाता है कि इस पत्र को पढ़कर औरंगजेब की रूँह काँप उठी थी और इसके बाद वह अधिक समय तक जीवित नहीं रहा। गुरु जी से एक बार भेंट करने की उसकी अन्दरुनी इच्छा भी पूरी न हो सकी। यह कोई श्रेय लेने-देने वाली बात नहीं है कि सिख गुरुओं का सहज, सरल, सादा और स्वाभाविक जीवन जिन मूल्यों पर आधारित था, निश्चय ही उन मूल्यों को उन्होंने परम्परागत भारतीय चेतना से ग्रहण किया था। देश, काल और परिस्थितियों की माँग के अनुसार उन्होंने अपने व्यक्तित्व को ढालकर तत्कालीन राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक जीवन को गहरे में प्रभावित किया था। सिख गुरुओं ने अपने समय के धर्म और समाज-व्यवस्था को प्रभावित किया था। सिख गुरुओं ने अपने समय के धर्म और समाज-व्यवस्था को एक नई दिशा दी। उन्होंने भक्ति, ज्ञान, उपासना, अध्यात्म एवं दर्शन को एक संकीर्ण दायरे से निकालकर समाज को उस तबके के बीच पहुँचा दिया, जो इससे पूर्णत: वंचित थे। इससे लोगों का आत्मबोध जागा और उनमें एक नई दृष्टि एवं जागृति पनपी, वे स्वानुभूत अनुभव को मान्यता देने लगे। इस प्रकार निर्गुण निराकार परम शक्ति का प्रवाह प्रखर एवं त्वरित रूप से प्राप्त हुआ। सिख धर्म की एक अन्य मार्के की विशिष्टता यह है कि सिख गुरुओं ने मनुष्य को उद्यम करते हुए जीवन जीने, कमाते हुए सुख प्राप्त करने और ध्यान करते हुए प्रभु की प्राप्ति करने की बात कही। उनका मानना था कि परिश्रम करनेवाला व्यक्ति सभी चिन्ताओं से मुक्त रहता है। गुरु नानक ने तो यहाँ तक कहा है कि जो व्यक्ति मेहनत करके कमाता है और उसमें कुछ दान-पुण्य करता है, वही सही मार्ग को पहचानता है। सिख गुरुओं द्वारा प्रारंभ की गई ‘लंगर’ (मुफ्त भोजन) प्रथा विश्वबन्धुत्व, मानव-प्रेम, समानता एवं उदारता की अन्यत्र न पाई जाने वाली मिसाल है। सिख गुरुओं ने कभी न मुरझाने वाले सांस्कृतिक एवं नैतिक मूल्यों की भी स्थापना की। उन्होंने अपने दार्शनिक एवं आध्यात्मिक चिन्तन से भाँप लिया था कि आने वाला समय कैसा होगा। इसलिए उन्होंने अन्धी नकल के खिलाफ वैकल्पिक चिन्तन पर जोर दिया। शारीरिक-अभ्यास एवं विनोदशीलता को जीवन का आवश्यक अंग माना। पंजाब के लोकगीतों, लोकनृत्यों एवं होला महल्ला पर शास्त्रधारियों के प्रदर्शित करतबों के मूल में सिख गुरुओं के प्रेरणा-बीज ही हैं। इन लोकगीतों एवं लोक नृत्यों की जड़ें पंजाब की धरती से फूटती हैं और लोगों में थिरकन पैदा करती हैं। भांगड़ा और गिद्धा पंजाब की सांस्कृतिक शान हैं, जिसकी धड़कन देश-विदेश में प्राय: सुनी जाती है। पंजाबी संस्कृति राष्ट्रीयता का मेरुदण्ड है। इसके प्राण में एकत्व है, इसके रक्त में सहानुभूति, सहयोग, करुणा और मानव-प्रेम है। पंजाबी संस्कृति आदमी से जोड़ती है और उसकी पहचान बनाती है। विश्व के किसी कोने में घूमता-फिरता पंजाबी स्वयं में से एक लघु पंजाब का प्रतिरूप है। प्रत्येक सिख की अपनी स्वतंत्र चेतना है, जो जीवन-संबंधी समस्याओं को अपने ही प्रकाश में सुलझाने के उद्देश्य से गम्भीर रूप से विचार करती आई है।
लंगर किस धर्म गुरुओ द्वारा शुरू किया गया था?
सिख गुरुओं
lungar kis dharm guruo dwaara shuru kiya gaya tha?
यह शहर पहाड़ की चोटी पर स्थित है। यहां सड़कों का जाल बिछा हुआ है। ये सड़के एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। इन सड़कों पर घूमते हुए आपको औपनिवेशिक काल की बनी कई इमारतें दिख जाएंगी। ये इमारतें आज भी काफी आकर्षक प्रतीत होती है। इन इमारतों में लगी पुरानी खिड़कियां तथा धुएं निकालने के लिए बनी चिमनी पुराने समय की याद‍ दिलाती हैं। आप यहां कब्रिस्‍तान, पुराने स्‍कूल भवन तथा चर्चें भी देख सकते हैं। पुराने समय की इमारतों के साथ-साथ आपकों यहां वर्तमान काल के कंकरीट के बने भवन भी दिख जाएंगे। पुराने और नए भवनों का मेल इस शहर को एक खास सुंदरता प्रदान करता है। यह मठ दार्जिलिंग से आठ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। सक्या मठ सक्या सम्‍प्रदाय का बहुत ही ऐतिहासिक और महत्‍वपूर्ण मठ है। इस मठ की स्‍थापना १९१५ ई. में की गई थी। इसमें एक प्रार्थना कक्ष भी है। इस प्रार्थना कक्ष में एक साथ्‍ा ६० बौद्ध भिक्षु प्रार्थना कर सकते हैं। 11वें ग्यल्वाङ ड्रुगछेन तन्जीन ख्येन्-रब गेलेगस् वांगपो की मृत्‍यु १९६० ई. में हो गई थी। इन्‍हीं के याद में इस मठ की स्‍थापना १९७१ ई. में की गई थी। इस मठ की बनावट तिब्‍बतियन शैली में की गई थी। बाद में इस मठ की पुनर्स्‍थापना १९९३ ई. में की गई। इसका अनावरण दलाई लामा ने किया था। यह मठ चौरास्‍ता से तीन किलोमीटर की दूरी पर आलूबरी गांव में स्थित है। यह मठ बौद्ध धर्म के योलमोवा संप्रदाय से संबंधित है। इस मठ की स्‍थापना श्री संगे लामा ने की थी। संगे लामा योलमोवा संप्रदाय के प्रमुख थे। यह एक छोटा सा सम्‍प्रदाय है जो पहले नेपाल के पूवोत्तर भाग में रहता था। लेकिन बाद में इस सम्‍प्रदाय के लोग दार्जिलिंग में आकर बस गए। इस मठ का निर्माण कार्य १९१४ ई. में पूरा हुआ था। इस मठ में योलमोवा सम्‍प्रदाय के लोगों के सामाजिक, सांस्‍‍कृतिक, धार्मिक पहचान को दर्शाने का पूरा प्रयास किया गया है। विश्‍व में शांति लाने के लिए इस स्‍तूप की स्‍थापना फूजी गुरु जो कि महात्‍मा गांधी के मित्र थे ने की थी। भारत में कुल छ: शांति स्‍तूप हैं। निप्‍पोजन मायोजी बौद्ध मंदिर जो कि दार्जिलिंग में है भी इनमें से एक है। इस मंदिर का निर्माण कार्य १९७२ ई. में शुरु हुआ था। यह मंदिर १ नवम्बर १९९२ ई. को आम लोगों के लिए खोला गया। इस मंदिर से पूरे दार्जिलिंग और कंचनजंघा श्रेणी का अति सुंदर नजारा दिखता है। टाइगर हिल का मुख्‍य आनंद इस पर चढ़ाई करने में है। आपको हर सुबह पर्यटक इस पर चढ़ाई करते हुए मिल जाएंगे। इसी के पास कंचनजंघा चोटी है। १८३८ से १८४९ ई. तक इसे ही विश्‍व की सबसे ऊंची चोटी माना जाता था। लेकिन १८५६ ई. में करवाए गए सर्वेक्षण से यह स्‍पष्‍ट हुआ कि कंचनजंघा नहीं बल्कि नेपाल का सागरमाथा जिसे अंगेजों ने एवरेस्‍ट का नाम दिया था, विश्‍व की सबसे ऊंची चोटी है। अगर आप भाग्‍यशाली हैं तो आपको टाइगर हिल से कंजनजंघा तथा एवरेस्‍ट दोनों चाटियों को देख सकते हैं। इन दोनों चोटियों की ऊंचाई में मात्र ८२७ फीट का अंतर है। वर्तमान में कंचनजंघा विश्‍व की तीसरी सबसे ऊंची चोटी है। कंचनजंघा को सबसे रोमांटिक माउंटेन की उपाधि से नवाजा गया है। इसकी सुंदरता के कारण पर्यटकों ने इसे इस उपाधि से नवाजा है। इस चोटी की सुंदरता पर कई कविताएं लिखी जा चुकी हैं। इसके अलावा सत्‍यजीत राय की फिल्‍मों में इस चोटी को कई बार दिखाया जा चुका है। शुल्‍ककेवल देखने के लिए नि: शुल्‍कटावर पर चढ़ने का शुल्‍क १० रु.टावर पर बैठने का शुल्‍क ३० रु.यहां तक आप जीप द्वारा जा सकते हैं। डार्जिलिंग से यहां तक जाने और वापस जाने का किराया ६५ से ७० रु. के बीच है। टाइगर हिल के निकट ईगा चोइलिंग तिब्‍बतियन मठ है। यह मठ गेलुगस् संप्रदाय से संबंधित है। इस मठ को ही घूम मठ के नाम से जाना जाता है। इतिहासकारों के अनुसार इस मठ की स्‍थापना धार्मिक कार्यो के लिए नहीं बल्कि राजनीतिक बैठकों के लिए की गई थी। इस मठ की स्‍थापना १८५० ई. में एक मंगोलियन भिक्षु लामा शेरपा याल्‍तसू द्वारा की गई थी। याल्‍तसू अपने धार्मिक इच्‍छाओं की पूर्त्ति के लिए १८२० ई. के करीब भारत में आए थे। इस मठ में १९१८ ई. में बुद्ध की १५ फीट ऊंची मूर्त्ति स्‍थापित की गई थी। उस समय इस मूर्त्ति को बनाने पर २५००० रु. का खर्च आया था। यह मूर्त्ति एक कीमती पत्‍थर का बना हुआ है और इसपर सोने की कलई की गई है। इस मठ में बहुमूल्‍य ग्रंथों का संग्रह भी है। ये ग्रंथ संस्‍कृत से तिब्‍बतीयन भाषा में अनुवादित हैं। इन ग्रंथों में कालीदास की मेघदूत भी शामिल है। इसके बाद इस मठ की पुर्नस्‍थापना संत एंड्रूज चर्च के पास १८६१ ई. की गई।
मठ का निर्माण कब पूरा हुआ था?
१९१४ ई
math kaa nirmaan kab puraa hua tha?
यह शहर पहाड़ की चोटी पर स्थित है। यहां सड़कों का जाल बिछा हुआ है। ये सड़के एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। इन सड़कों पर घूमते हुए आपको औपनिवेशिक काल की बनी कई इमारतें दिख जाएंगी। ये इमारतें आज भी काफी आकर्षक प्रतीत होती है। इन इमारतों में लगी पुरानी खिड़कियां तथा धुएं निकालने के लिए बनी चिमनी पुराने समय की याद‍ दिलाती हैं। आप यहां कब्रिस्‍तान, पुराने स्‍कूल भवन तथा चर्चें भी देख सकते हैं। पुराने समय की इमारतों के साथ-साथ आपकों यहां वर्तमान काल के कंकरीट के बने भवन भी दिख जाएंगे। पुराने और नए भवनों का मेल इस शहर को एक खास सुंदरता प्रदान करता है। यह मठ दार्जिलिंग से आठ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। सक्या मठ सक्या सम्‍प्रदाय का बहुत ही ऐतिहासिक और महत्‍वपूर्ण मठ है। इस मठ की स्‍थापना १९१५ ई. में की गई थी। इसमें एक प्रार्थना कक्ष भी है। इस प्रार्थना कक्ष में एक साथ्‍ा ६० बौद्ध भिक्षु प्रार्थना कर सकते हैं। 11वें ग्यल्वाङ ड्रुगछेन तन्जीन ख्येन्-रब गेलेगस् वांगपो की मृत्‍यु १९६० ई. में हो गई थी। इन्‍हीं के याद में इस मठ की स्‍थापना १९७१ ई. में की गई थी। इस मठ की बनावट तिब्‍बतियन शैली में की गई थी। बाद में इस मठ की पुनर्स्‍थापना १९९३ ई. में की गई। इसका अनावरण दलाई लामा ने किया था। यह मठ चौरास्‍ता से तीन किलोमीटर की दूरी पर आलूबरी गांव में स्थित है। यह मठ बौद्ध धर्म के योलमोवा संप्रदाय से संबंधित है। इस मठ की स्‍थापना श्री संगे लामा ने की थी। संगे लामा योलमोवा संप्रदाय के प्रमुख थे। यह एक छोटा सा सम्‍प्रदाय है जो पहले नेपाल के पूवोत्तर भाग में रहता था। लेकिन बाद में इस सम्‍प्रदाय के लोग दार्जिलिंग में आकर बस गए। इस मठ का निर्माण कार्य १९१४ ई. में पूरा हुआ था। इस मठ में योलमोवा सम्‍प्रदाय के लोगों के सामाजिक, सांस्‍‍कृतिक, धार्मिक पहचान को दर्शाने का पूरा प्रयास किया गया है। विश्‍व में शांति लाने के लिए इस स्‍तूप की स्‍थापना फूजी गुरु जो कि महात्‍मा गांधी के मित्र थे ने की थी। भारत में कुल छ: शांति स्‍तूप हैं। निप्‍पोजन मायोजी बौद्ध मंदिर जो कि दार्जिलिंग में है भी इनमें से एक है। इस मंदिर का निर्माण कार्य १९७२ ई. में शुरु हुआ था। यह मंदिर १ नवम्बर १९९२ ई. को आम लोगों के लिए खोला गया। इस मंदिर से पूरे दार्जिलिंग और कंचनजंघा श्रेणी का अति सुंदर नजारा दिखता है। टाइगर हिल का मुख्‍य आनंद इस पर चढ़ाई करने में है। आपको हर सुबह पर्यटक इस पर चढ़ाई करते हुए मिल जाएंगे। इसी के पास कंचनजंघा चोटी है। १८३८ से १८४९ ई. तक इसे ही विश्‍व की सबसे ऊंची चोटी माना जाता था। लेकिन १८५६ ई. में करवाए गए सर्वेक्षण से यह स्‍पष्‍ट हुआ कि कंचनजंघा नहीं बल्कि नेपाल का सागरमाथा जिसे अंगेजों ने एवरेस्‍ट का नाम दिया था, विश्‍व की सबसे ऊंची चोटी है। अगर आप भाग्‍यशाली हैं तो आपको टाइगर हिल से कंजनजंघा तथा एवरेस्‍ट दोनों चाटियों को देख सकते हैं। इन दोनों चोटियों की ऊंचाई में मात्र ८२७ फीट का अंतर है। वर्तमान में कंचनजंघा विश्‍व की तीसरी सबसे ऊंची चोटी है। कंचनजंघा को सबसे रोमांटिक माउंटेन की उपाधि से नवाजा गया है। इसकी सुंदरता के कारण पर्यटकों ने इसे इस उपाधि से नवाजा है। इस चोटी की सुंदरता पर कई कविताएं लिखी जा चुकी हैं। इसके अलावा सत्‍यजीत राय की फिल्‍मों में इस चोटी को कई बार दिखाया जा चुका है। शुल्‍ककेवल देखने के लिए नि: शुल्‍कटावर पर चढ़ने का शुल्‍क १० रु.टावर पर बैठने का शुल्‍क ३० रु.यहां तक आप जीप द्वारा जा सकते हैं। डार्जिलिंग से यहां तक जाने और वापस जाने का किराया ६५ से ७० रु. के बीच है। टाइगर हिल के निकट ईगा चोइलिंग तिब्‍बतियन मठ है। यह मठ गेलुगस् संप्रदाय से संबंधित है। इस मठ को ही घूम मठ के नाम से जाना जाता है। इतिहासकारों के अनुसार इस मठ की स्‍थापना धार्मिक कार्यो के लिए नहीं बल्कि राजनीतिक बैठकों के लिए की गई थी। इस मठ की स्‍थापना १८५० ई. में एक मंगोलियन भिक्षु लामा शेरपा याल्‍तसू द्वारा की गई थी। याल्‍तसू अपने धार्मिक इच्‍छाओं की पूर्त्ति के लिए १८२० ई. के करीब भारत में आए थे। इस मठ में १९१८ ई. में बुद्ध की १५ फीट ऊंची मूर्त्ति स्‍थापित की गई थी। उस समय इस मूर्त्ति को बनाने पर २५००० रु. का खर्च आया था। यह मूर्त्ति एक कीमती पत्‍थर का बना हुआ है और इसपर सोने की कलई की गई है। इस मठ में बहुमूल्‍य ग्रंथों का संग्रह भी है। ये ग्रंथ संस्‍कृत से तिब्‍बतीयन भाषा में अनुवादित हैं। इन ग्रंथों में कालीदास की मेघदूत भी शामिल है। इसके बाद इस मठ की पुर्नस्‍थापना संत एंड्रूज चर्च के पास १८६१ ई. की गई।
मठ का निर्माण किस शैली में किया गया था?
तिब्‍बतियन शैली
math kaa nirmaan kis style main kiya gaya tha?
यह शहर पहाड़ की चोटी पर स्थित है। यहां सड़कों का जाल बिछा हुआ है। ये सड़के एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। इन सड़कों पर घूमते हुए आपको औपनिवेशिक काल की बनी कई इमारतें दिख जाएंगी। ये इमारतें आज भी काफी आकर्षक प्रतीत होती है। इन इमारतों में लगी पुरानी खिड़कियां तथा धुएं निकालने के लिए बनी चिमनी पुराने समय की याद‍ दिलाती हैं। आप यहां कब्रिस्‍तान, पुराने स्‍कूल भवन तथा चर्चें भी देख सकते हैं। पुराने समय की इमारतों के साथ-साथ आपकों यहां वर्तमान काल के कंकरीट के बने भवन भी दिख जाएंगे। पुराने और नए भवनों का मेल इस शहर को एक खास सुंदरता प्रदान करता है। यह मठ दार्जिलिंग से आठ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। सक्या मठ सक्या सम्‍प्रदाय का बहुत ही ऐतिहासिक और महत्‍वपूर्ण मठ है। इस मठ की स्‍थापना १९१५ ई. में की गई थी। इसमें एक प्रार्थना कक्ष भी है। इस प्रार्थना कक्ष में एक साथ्‍ा ६० बौद्ध भिक्षु प्रार्थना कर सकते हैं। 11वें ग्यल्वाङ ड्रुगछेन तन्जीन ख्येन्-रब गेलेगस् वांगपो की मृत्‍यु १९६० ई. में हो गई थी। इन्‍हीं के याद में इस मठ की स्‍थापना १९७१ ई. में की गई थी। इस मठ की बनावट तिब्‍बतियन शैली में की गई थी। बाद में इस मठ की पुनर्स्‍थापना १९९३ ई. में की गई। इसका अनावरण दलाई लामा ने किया था। यह मठ चौरास्‍ता से तीन किलोमीटर की दूरी पर आलूबरी गांव में स्थित है। यह मठ बौद्ध धर्म के योलमोवा संप्रदाय से संबंधित है। इस मठ की स्‍थापना श्री संगे लामा ने की थी। संगे लामा योलमोवा संप्रदाय के प्रमुख थे। यह एक छोटा सा सम्‍प्रदाय है जो पहले नेपाल के पूवोत्तर भाग में रहता था। लेकिन बाद में इस सम्‍प्रदाय के लोग दार्जिलिंग में आकर बस गए। इस मठ का निर्माण कार्य १९१४ ई. में पूरा हुआ था। इस मठ में योलमोवा सम्‍प्रदाय के लोगों के सामाजिक, सांस्‍‍कृतिक, धार्मिक पहचान को दर्शाने का पूरा प्रयास किया गया है। विश्‍व में शांति लाने के लिए इस स्‍तूप की स्‍थापना फूजी गुरु जो कि महात्‍मा गांधी के मित्र थे ने की थी। भारत में कुल छ: शांति स्‍तूप हैं। निप्‍पोजन मायोजी बौद्ध मंदिर जो कि दार्जिलिंग में है भी इनमें से एक है। इस मंदिर का निर्माण कार्य १९७२ ई. में शुरु हुआ था। यह मंदिर १ नवम्बर १९९२ ई. को आम लोगों के लिए खोला गया। इस मंदिर से पूरे दार्जिलिंग और कंचनजंघा श्रेणी का अति सुंदर नजारा दिखता है। टाइगर हिल का मुख्‍य आनंद इस पर चढ़ाई करने में है। आपको हर सुबह पर्यटक इस पर चढ़ाई करते हुए मिल जाएंगे। इसी के पास कंचनजंघा चोटी है। १८३८ से १८४९ ई. तक इसे ही विश्‍व की सबसे ऊंची चोटी माना जाता था। लेकिन १८५६ ई. में करवाए गए सर्वेक्षण से यह स्‍पष्‍ट हुआ कि कंचनजंघा नहीं बल्कि नेपाल का सागरमाथा जिसे अंगेजों ने एवरेस्‍ट का नाम दिया था, विश्‍व की सबसे ऊंची चोटी है। अगर आप भाग्‍यशाली हैं तो आपको टाइगर हिल से कंजनजंघा तथा एवरेस्‍ट दोनों चाटियों को देख सकते हैं। इन दोनों चोटियों की ऊंचाई में मात्र ८२७ फीट का अंतर है। वर्तमान में कंचनजंघा विश्‍व की तीसरी सबसे ऊंची चोटी है। कंचनजंघा को सबसे रोमांटिक माउंटेन की उपाधि से नवाजा गया है। इसकी सुंदरता के कारण पर्यटकों ने इसे इस उपाधि से नवाजा है। इस चोटी की सुंदरता पर कई कविताएं लिखी जा चुकी हैं। इसके अलावा सत्‍यजीत राय की फिल्‍मों में इस चोटी को कई बार दिखाया जा चुका है। शुल्‍ककेवल देखने के लिए नि: शुल्‍कटावर पर चढ़ने का शुल्‍क १० रु.टावर पर बैठने का शुल्‍क ३० रु.यहां तक आप जीप द्वारा जा सकते हैं। डार्जिलिंग से यहां तक जाने और वापस जाने का किराया ६५ से ७० रु. के बीच है। टाइगर हिल के निकट ईगा चोइलिंग तिब्‍बतियन मठ है। यह मठ गेलुगस् संप्रदाय से संबंधित है। इस मठ को ही घूम मठ के नाम से जाना जाता है। इतिहासकारों के अनुसार इस मठ की स्‍थापना धार्मिक कार्यो के लिए नहीं बल्कि राजनीतिक बैठकों के लिए की गई थी। इस मठ की स्‍थापना १८५० ई. में एक मंगोलियन भिक्षु लामा शेरपा याल्‍तसू द्वारा की गई थी। याल्‍तसू अपने धार्मिक इच्‍छाओं की पूर्त्ति के लिए १८२० ई. के करीब भारत में आए थे। इस मठ में १९१८ ई. में बुद्ध की १५ फीट ऊंची मूर्त्ति स्‍थापित की गई थी। उस समय इस मूर्त्ति को बनाने पर २५००० रु. का खर्च आया था। यह मूर्त्ति एक कीमती पत्‍थर का बना हुआ है और इसपर सोने की कलई की गई है। इस मठ में बहुमूल्‍य ग्रंथों का संग्रह भी है। ये ग्रंथ संस्‍कृत से तिब्‍बतीयन भाषा में अनुवादित हैं। इन ग्रंथों में कालीदास की मेघदूत भी शामिल है। इसके बाद इस मठ की पुर्नस्‍थापना संत एंड्रूज चर्च के पास १८६१ ई. की गई।
11वें ग्यालवांग ड्रगचेन तंजिन खैन - रब गेलेग्स वांगपो का निधन कब हुआ था?
१९६० ई
11wein gyalwang drugachen tangine khen - rab geleigs wangpo kaa nidhan kab hua tha?
यह शहर पहाड़ की चोटी पर स्थित है। यहां सड़कों का जाल बिछा हुआ है। ये सड़के एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। इन सड़कों पर घूमते हुए आपको औपनिवेशिक काल की बनी कई इमारतें दिख जाएंगी। ये इमारतें आज भी काफी आकर्षक प्रतीत होती है। इन इमारतों में लगी पुरानी खिड़कियां तथा धुएं निकालने के लिए बनी चिमनी पुराने समय की याद‍ दिलाती हैं। आप यहां कब्रिस्‍तान, पुराने स्‍कूल भवन तथा चर्चें भी देख सकते हैं। पुराने समय की इमारतों के साथ-साथ आपकों यहां वर्तमान काल के कंकरीट के बने भवन भी दिख जाएंगे। पुराने और नए भवनों का मेल इस शहर को एक खास सुंदरता प्रदान करता है। यह मठ दार्जिलिंग से आठ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। सक्या मठ सक्या सम्‍प्रदाय का बहुत ही ऐतिहासिक और महत्‍वपूर्ण मठ है। इस मठ की स्‍थापना १९१५ ई. में की गई थी। इसमें एक प्रार्थना कक्ष भी है। इस प्रार्थना कक्ष में एक साथ्‍ा ६० बौद्ध भिक्षु प्रार्थना कर सकते हैं। 11वें ग्यल्वाङ ड्रुगछेन तन्जीन ख्येन्-रब गेलेगस् वांगपो की मृत्‍यु १९६० ई. में हो गई थी। इन्‍हीं के याद में इस मठ की स्‍थापना १९७१ ई. में की गई थी। इस मठ की बनावट तिब्‍बतियन शैली में की गई थी। बाद में इस मठ की पुनर्स्‍थापना १९९३ ई. में की गई। इसका अनावरण दलाई लामा ने किया था। यह मठ चौरास्‍ता से तीन किलोमीटर की दूरी पर आलूबरी गांव में स्थित है। यह मठ बौद्ध धर्म के योलमोवा संप्रदाय से संबंधित है। इस मठ की स्‍थापना श्री संगे लामा ने की थी। संगे लामा योलमोवा संप्रदाय के प्रमुख थे। यह एक छोटा सा सम्‍प्रदाय है जो पहले नेपाल के पूवोत्तर भाग में रहता था। लेकिन बाद में इस सम्‍प्रदाय के लोग दार्जिलिंग में आकर बस गए। इस मठ का निर्माण कार्य १९१४ ई. में पूरा हुआ था। इस मठ में योलमोवा सम्‍प्रदाय के लोगों के सामाजिक, सांस्‍‍कृतिक, धार्मिक पहचान को दर्शाने का पूरा प्रयास किया गया है। विश्‍व में शांति लाने के लिए इस स्‍तूप की स्‍थापना फूजी गुरु जो कि महात्‍मा गांधी के मित्र थे ने की थी। भारत में कुल छ: शांति स्‍तूप हैं। निप्‍पोजन मायोजी बौद्ध मंदिर जो कि दार्जिलिंग में है भी इनमें से एक है। इस मंदिर का निर्माण कार्य १९७२ ई. में शुरु हुआ था। यह मंदिर १ नवम्बर १९९२ ई. को आम लोगों के लिए खोला गया। इस मंदिर से पूरे दार्जिलिंग और कंचनजंघा श्रेणी का अति सुंदर नजारा दिखता है। टाइगर हिल का मुख्‍य आनंद इस पर चढ़ाई करने में है। आपको हर सुबह पर्यटक इस पर चढ़ाई करते हुए मिल जाएंगे। इसी के पास कंचनजंघा चोटी है। १८३८ से १८४९ ई. तक इसे ही विश्‍व की सबसे ऊंची चोटी माना जाता था। लेकिन १८५६ ई. में करवाए गए सर्वेक्षण से यह स्‍पष्‍ट हुआ कि कंचनजंघा नहीं बल्कि नेपाल का सागरमाथा जिसे अंगेजों ने एवरेस्‍ट का नाम दिया था, विश्‍व की सबसे ऊंची चोटी है। अगर आप भाग्‍यशाली हैं तो आपको टाइगर हिल से कंजनजंघा तथा एवरेस्‍ट दोनों चाटियों को देख सकते हैं। इन दोनों चोटियों की ऊंचाई में मात्र ८२७ फीट का अंतर है। वर्तमान में कंचनजंघा विश्‍व की तीसरी सबसे ऊंची चोटी है। कंचनजंघा को सबसे रोमांटिक माउंटेन की उपाधि से नवाजा गया है। इसकी सुंदरता के कारण पर्यटकों ने इसे इस उपाधि से नवाजा है। इस चोटी की सुंदरता पर कई कविताएं लिखी जा चुकी हैं। इसके अलावा सत्‍यजीत राय की फिल्‍मों में इस चोटी को कई बार दिखाया जा चुका है। शुल्‍ककेवल देखने के लिए नि: शुल्‍कटावर पर चढ़ने का शुल्‍क १० रु.टावर पर बैठने का शुल्‍क ३० रु.यहां तक आप जीप द्वारा जा सकते हैं। डार्जिलिंग से यहां तक जाने और वापस जाने का किराया ६५ से ७० रु. के बीच है। टाइगर हिल के निकट ईगा चोइलिंग तिब्‍बतियन मठ है। यह मठ गेलुगस् संप्रदाय से संबंधित है। इस मठ को ही घूम मठ के नाम से जाना जाता है। इतिहासकारों के अनुसार इस मठ की स्‍थापना धार्मिक कार्यो के लिए नहीं बल्कि राजनीतिक बैठकों के लिए की गई थी। इस मठ की स्‍थापना १८५० ई. में एक मंगोलियन भिक्षु लामा शेरपा याल्‍तसू द्वारा की गई थी। याल्‍तसू अपने धार्मिक इच्‍छाओं की पूर्त्ति के लिए १८२० ई. के करीब भारत में आए थे। इस मठ में १९१८ ई. में बुद्ध की १५ फीट ऊंची मूर्त्ति स्‍थापित की गई थी। उस समय इस मूर्त्ति को बनाने पर २५००० रु. का खर्च आया था। यह मूर्त्ति एक कीमती पत्‍थर का बना हुआ है और इसपर सोने की कलई की गई है। इस मठ में बहुमूल्‍य ग्रंथों का संग्रह भी है। ये ग्रंथ संस्‍कृत से तिब्‍बतीयन भाषा में अनुवादित हैं। इन ग्रंथों में कालीदास की मेघदूत भी शामिल है। इसके बाद इस मठ की पुर्नस्‍थापना संत एंड्रूज चर्च के पास १८६१ ई. की गई।
भारत में कितने शांति स्तूप हैं?
छ:
bharat main kitne shanti stupa hai?
यह शहर पहाड़ की चोटी पर स्थित है। यहां सड़कों का जाल बिछा हुआ है। ये सड़के एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। इन सड़कों पर घूमते हुए आपको औपनिवेशिक काल की बनी कई इमारतें दिख जाएंगी। ये इमारतें आज भी काफी आकर्षक प्रतीत होती है। इन इमारतों में लगी पुरानी खिड़कियां तथा धुएं निकालने के लिए बनी चिमनी पुराने समय की याद‍ दिलाती हैं। आप यहां कब्रिस्‍तान, पुराने स्‍कूल भवन तथा चर्चें भी देख सकते हैं। पुराने समय की इमारतों के साथ-साथ आपकों यहां वर्तमान काल के कंकरीट के बने भवन भी दिख जाएंगे। पुराने और नए भवनों का मेल इस शहर को एक खास सुंदरता प्रदान करता है। यह मठ दार्जिलिंग से आठ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। सक्या मठ सक्या सम्‍प्रदाय का बहुत ही ऐतिहासिक और महत्‍वपूर्ण मठ है। इस मठ की स्‍थापना १९१५ ई. में की गई थी। इसमें एक प्रार्थना कक्ष भी है। इस प्रार्थना कक्ष में एक साथ्‍ा ६० बौद्ध भिक्षु प्रार्थना कर सकते हैं। 11वें ग्यल्वाङ ड्रुगछेन तन्जीन ख्येन्-रब गेलेगस् वांगपो की मृत्‍यु १९६० ई. में हो गई थी। इन्‍हीं के याद में इस मठ की स्‍थापना १९७१ ई. में की गई थी। इस मठ की बनावट तिब्‍बतियन शैली में की गई थी। बाद में इस मठ की पुनर्स्‍थापना १९९३ ई. में की गई। इसका अनावरण दलाई लामा ने किया था। यह मठ चौरास्‍ता से तीन किलोमीटर की दूरी पर आलूबरी गांव में स्थित है। यह मठ बौद्ध धर्म के योलमोवा संप्रदाय से संबंधित है। इस मठ की स्‍थापना श्री संगे लामा ने की थी। संगे लामा योलमोवा संप्रदाय के प्रमुख थे। यह एक छोटा सा सम्‍प्रदाय है जो पहले नेपाल के पूवोत्तर भाग में रहता था। लेकिन बाद में इस सम्‍प्रदाय के लोग दार्जिलिंग में आकर बस गए। इस मठ का निर्माण कार्य १९१४ ई. में पूरा हुआ था। इस मठ में योलमोवा सम्‍प्रदाय के लोगों के सामाजिक, सांस्‍‍कृतिक, धार्मिक पहचान को दर्शाने का पूरा प्रयास किया गया है। विश्‍व में शांति लाने के लिए इस स्‍तूप की स्‍थापना फूजी गुरु जो कि महात्‍मा गांधी के मित्र थे ने की थी। भारत में कुल छ: शांति स्‍तूप हैं। निप्‍पोजन मायोजी बौद्ध मंदिर जो कि दार्जिलिंग में है भी इनमें से एक है। इस मंदिर का निर्माण कार्य १९७२ ई. में शुरु हुआ था। यह मंदिर १ नवम्बर १९९२ ई. को आम लोगों के लिए खोला गया। इस मंदिर से पूरे दार्जिलिंग और कंचनजंघा श्रेणी का अति सुंदर नजारा दिखता है। टाइगर हिल का मुख्‍य आनंद इस पर चढ़ाई करने में है। आपको हर सुबह पर्यटक इस पर चढ़ाई करते हुए मिल जाएंगे। इसी के पास कंचनजंघा चोटी है। १८३८ से १८४९ ई. तक इसे ही विश्‍व की सबसे ऊंची चोटी माना जाता था। लेकिन १८५६ ई. में करवाए गए सर्वेक्षण से यह स्‍पष्‍ट हुआ कि कंचनजंघा नहीं बल्कि नेपाल का सागरमाथा जिसे अंगेजों ने एवरेस्‍ट का नाम दिया था, विश्‍व की सबसे ऊंची चोटी है। अगर आप भाग्‍यशाली हैं तो आपको टाइगर हिल से कंजनजंघा तथा एवरेस्‍ट दोनों चाटियों को देख सकते हैं। इन दोनों चोटियों की ऊंचाई में मात्र ८२७ फीट का अंतर है। वर्तमान में कंचनजंघा विश्‍व की तीसरी सबसे ऊंची चोटी है। कंचनजंघा को सबसे रोमांटिक माउंटेन की उपाधि से नवाजा गया है। इसकी सुंदरता के कारण पर्यटकों ने इसे इस उपाधि से नवाजा है। इस चोटी की सुंदरता पर कई कविताएं लिखी जा चुकी हैं। इसके अलावा सत्‍यजीत राय की फिल्‍मों में इस चोटी को कई बार दिखाया जा चुका है। शुल्‍ककेवल देखने के लिए नि: शुल्‍कटावर पर चढ़ने का शुल्‍क १० रु.टावर पर बैठने का शुल्‍क ३० रु.यहां तक आप जीप द्वारा जा सकते हैं। डार्जिलिंग से यहां तक जाने और वापस जाने का किराया ६५ से ७० रु. के बीच है। टाइगर हिल के निकट ईगा चोइलिंग तिब्‍बतियन मठ है। यह मठ गेलुगस् संप्रदाय से संबंधित है। इस मठ को ही घूम मठ के नाम से जाना जाता है। इतिहासकारों के अनुसार इस मठ की स्‍थापना धार्मिक कार्यो के लिए नहीं बल्कि राजनीतिक बैठकों के लिए की गई थी। इस मठ की स्‍थापना १८५० ई. में एक मंगोलियन भिक्षु लामा शेरपा याल्‍तसू द्वारा की गई थी। याल्‍तसू अपने धार्मिक इच्‍छाओं की पूर्त्ति के लिए १८२० ई. के करीब भारत में आए थे। इस मठ में १९१८ ई. में बुद्ध की १५ फीट ऊंची मूर्त्ति स्‍थापित की गई थी। उस समय इस मूर्त्ति को बनाने पर २५००० रु. का खर्च आया था। यह मूर्त्ति एक कीमती पत्‍थर का बना हुआ है और इसपर सोने की कलई की गई है। इस मठ में बहुमूल्‍य ग्रंथों का संग्रह भी है। ये ग्रंथ संस्‍कृत से तिब्‍बतीयन भाषा में अनुवादित हैं। इन ग्रंथों में कालीदास की मेघदूत भी शामिल है। इसके बाद इस मठ की पुर्नस्‍थापना संत एंड्रूज चर्च के पास १८६१ ई. की गई।
11वें ग्यालवांग ड्रगचेन तंजिन खैन - रब गेलेग्स वांगपो की याद में बनाए गए मठ का अनावरण किसके द्वारा किया गया था?
दलाई लामा
11wein gyalwang drugachen tangine khen - rab geleigs wangpo kii yaad main banaae gaye math kaa anaavaran kiske dwaara kiya gaya tha?
यहां के अधिकांश निर्माण उन १४ वर्षों के ही हैं, जिनमें अकबर ने यहां निवास किया। शहर में शाही उद्यान, आरामगाहें, सामंतों व दरबारियों के लिये आवास तथा बच्चों के लिये मदरसे बनवाये गए। ब्लेयर और ब्लूम के अनुसार शहर के अंदर इमारतें दो प्रमुख प्रकार की हैं- सेवा इमारतें, जैसे कारवांसेरी, टकसाल, निर्माणियां, बड़ा बाज़ार (चहर सूक) जहां दक्षिण-पश्चिम/उत्तर पूर्व अक्ष के लम्बवत निर्माण हुए हैं और दूसरा शाही भाग, जिसमें भारत की सबसे बड़ी सामूहिक मस्जिद है, साथ ही आवासीय तथा प्रशासकीय इमारते हैं जिसे दौलतखाना कहते हैं। ये पहाड़ी से कुछ कोण पर स्थित हैं तथा किबला के साथ एक कोण बनाती हैं। किन्तु ये निर्णय सही सिद्ध नहीं हुआ और कुछ ही समय के बाद अकबर को राजधानी फतेहपुर सीकरी से हटानी पड़ी। इसके पीछे पानी की कमी प्रमुख कारण था। फतेहपुर सीकरी के बाद अकबर ने एक चलित दरबार की रचना की जो पूरे साम्राज्य में घूमता रहता था और इस प्रकार साम्राज्य के सभी स्थानों पर उचित ध्यान देना संभव हुआ। बाद में उसने सन १५८५ में उत्तर पश्चिमी भाग के लिए लाहौर को राजधानी बनाया। मृत्यु के पूर्व अकबर ने सन १५९९ में राजधानी वापस आगरा बनायी और अन्त तक यहीं से शासन संभाला। आगरा शहर का नया नाम दिया गया अकबराबाद जो साम्राज्य की सबसे बड़ा शहर बना। शहर का मुख्य भाग यमुना नदी के पश्चिमी तट पर बसा था। यहां बरसात के पानी की निकासी की अच्छी नालियां-नालों से परिपूर्ण व्यवस्था बनायी गई। लोधी साम्राज्य द्वारा बनवायी गई गारे-मिट्टी से बनी नगर की पुरानी चारदीवारी को तोड़कर १५६५ में नयी बलुआ पत्थर की दीवार बनवायी गई। अंग्रेज़ इतिहासकार युगल ब्लेयर एवं ब्लूम के अनुसार इस लाल दीवार के कारण ही इसका नाम लाल किला पड़ा। वे आगे लिखते हैं कि यह किला पिछले किले के नक्शे पर ही कुछ अर्धवृत्ताकार बना था। शहर की ओर से इसे एक दोहरी सुरक्षा दीवार घेरे है, जिसके बाहर गहरी खाई बनी है। इस दोहरी दीवार में उत्तर में दिल्ली गेट व दक्षिण में अमर सिंह द्वार बने हैं।
अकबर ने आगरा शहर का नाम बदलकर क्या कर दिया गया था?
अकबराबाद
akbar ne agra shahar kaa naam badalakar kya kar diya gaya tha?
यहां के अधिकांश निर्माण उन १४ वर्षों के ही हैं, जिनमें अकबर ने यहां निवास किया। शहर में शाही उद्यान, आरामगाहें, सामंतों व दरबारियों के लिये आवास तथा बच्चों के लिये मदरसे बनवाये गए। ब्लेयर और ब्लूम के अनुसार शहर के अंदर इमारतें दो प्रमुख प्रकार की हैं- सेवा इमारतें, जैसे कारवांसेरी, टकसाल, निर्माणियां, बड़ा बाज़ार (चहर सूक) जहां दक्षिण-पश्चिम/उत्तर पूर्व अक्ष के लम्बवत निर्माण हुए हैं और दूसरा शाही भाग, जिसमें भारत की सबसे बड़ी सामूहिक मस्जिद है, साथ ही आवासीय तथा प्रशासकीय इमारते हैं जिसे दौलतखाना कहते हैं। ये पहाड़ी से कुछ कोण पर स्थित हैं तथा किबला के साथ एक कोण बनाती हैं। किन्तु ये निर्णय सही सिद्ध नहीं हुआ और कुछ ही समय के बाद अकबर को राजधानी फतेहपुर सीकरी से हटानी पड़ी। इसके पीछे पानी की कमी प्रमुख कारण था। फतेहपुर सीकरी के बाद अकबर ने एक चलित दरबार की रचना की जो पूरे साम्राज्य में घूमता रहता था और इस प्रकार साम्राज्य के सभी स्थानों पर उचित ध्यान देना संभव हुआ। बाद में उसने सन १५८५ में उत्तर पश्चिमी भाग के लिए लाहौर को राजधानी बनाया। मृत्यु के पूर्व अकबर ने सन १५९९ में राजधानी वापस आगरा बनायी और अन्त तक यहीं से शासन संभाला। आगरा शहर का नया नाम दिया गया अकबराबाद जो साम्राज्य की सबसे बड़ा शहर बना। शहर का मुख्य भाग यमुना नदी के पश्चिमी तट पर बसा था। यहां बरसात के पानी की निकासी की अच्छी नालियां-नालों से परिपूर्ण व्यवस्था बनायी गई। लोधी साम्राज्य द्वारा बनवायी गई गारे-मिट्टी से बनी नगर की पुरानी चारदीवारी को तोड़कर १५६५ में नयी बलुआ पत्थर की दीवार बनवायी गई। अंग्रेज़ इतिहासकार युगल ब्लेयर एवं ब्लूम के अनुसार इस लाल दीवार के कारण ही इसका नाम लाल किला पड़ा। वे आगे लिखते हैं कि यह किला पिछले किले के नक्शे पर ही कुछ अर्धवृत्ताकार बना था। शहर की ओर से इसे एक दोहरी सुरक्षा दीवार घेरे है, जिसके बाहर गहरी खाई बनी है। इस दोहरी दीवार में उत्तर में दिल्ली गेट व दक्षिण में अमर सिंह द्वार बने हैं।
लाल किले के दोहरी दीवार के दक्षिण दिशा में क्या था?
अमर सिंह द्वार
laal kile ke dohari diwaar ke dakshin disha main kya tha?
यहां के अधिकांश निर्माण उन १४ वर्षों के ही हैं, जिनमें अकबर ने यहां निवास किया। शहर में शाही उद्यान, आरामगाहें, सामंतों व दरबारियों के लिये आवास तथा बच्चों के लिये मदरसे बनवाये गए। ब्लेयर और ब्लूम के अनुसार शहर के अंदर इमारतें दो प्रमुख प्रकार की हैं- सेवा इमारतें, जैसे कारवांसेरी, टकसाल, निर्माणियां, बड़ा बाज़ार (चहर सूक) जहां दक्षिण-पश्चिम/उत्तर पूर्व अक्ष के लम्बवत निर्माण हुए हैं और दूसरा शाही भाग, जिसमें भारत की सबसे बड़ी सामूहिक मस्जिद है, साथ ही आवासीय तथा प्रशासकीय इमारते हैं जिसे दौलतखाना कहते हैं। ये पहाड़ी से कुछ कोण पर स्थित हैं तथा किबला के साथ एक कोण बनाती हैं। किन्तु ये निर्णय सही सिद्ध नहीं हुआ और कुछ ही समय के बाद अकबर को राजधानी फतेहपुर सीकरी से हटानी पड़ी। इसके पीछे पानी की कमी प्रमुख कारण था। फतेहपुर सीकरी के बाद अकबर ने एक चलित दरबार की रचना की जो पूरे साम्राज्य में घूमता रहता था और इस प्रकार साम्राज्य के सभी स्थानों पर उचित ध्यान देना संभव हुआ। बाद में उसने सन १५८५ में उत्तर पश्चिमी भाग के लिए लाहौर को राजधानी बनाया। मृत्यु के पूर्व अकबर ने सन १५९९ में राजधानी वापस आगरा बनायी और अन्त तक यहीं से शासन संभाला। आगरा शहर का नया नाम दिया गया अकबराबाद जो साम्राज्य की सबसे बड़ा शहर बना। शहर का मुख्य भाग यमुना नदी के पश्चिमी तट पर बसा था। यहां बरसात के पानी की निकासी की अच्छी नालियां-नालों से परिपूर्ण व्यवस्था बनायी गई। लोधी साम्राज्य द्वारा बनवायी गई गारे-मिट्टी से बनी नगर की पुरानी चारदीवारी को तोड़कर १५६५ में नयी बलुआ पत्थर की दीवार बनवायी गई। अंग्रेज़ इतिहासकार युगल ब्लेयर एवं ब्लूम के अनुसार इस लाल दीवार के कारण ही इसका नाम लाल किला पड़ा। वे आगे लिखते हैं कि यह किला पिछले किले के नक्शे पर ही कुछ अर्धवृत्ताकार बना था। शहर की ओर से इसे एक दोहरी सुरक्षा दीवार घेरे है, जिसके बाहर गहरी खाई बनी है। इस दोहरी दीवार में उत्तर में दिल्ली गेट व दक्षिण में अमर सिंह द्वार बने हैं।
फतेहपुर सीकरी के बाद अकबर ने क्या बनाया था?
चलित दरबार
fatehpur sikri ke baad akbar ne kya banaaya tha?
यहां के अधिकांश निर्माण उन १४ वर्षों के ही हैं, जिनमें अकबर ने यहां निवास किया। शहर में शाही उद्यान, आरामगाहें, सामंतों व दरबारियों के लिये आवास तथा बच्चों के लिये मदरसे बनवाये गए। ब्लेयर और ब्लूम के अनुसार शहर के अंदर इमारतें दो प्रमुख प्रकार की हैं- सेवा इमारतें, जैसे कारवांसेरी, टकसाल, निर्माणियां, बड़ा बाज़ार (चहर सूक) जहां दक्षिण-पश्चिम/उत्तर पूर्व अक्ष के लम्बवत निर्माण हुए हैं और दूसरा शाही भाग, जिसमें भारत की सबसे बड़ी सामूहिक मस्जिद है, साथ ही आवासीय तथा प्रशासकीय इमारते हैं जिसे दौलतखाना कहते हैं। ये पहाड़ी से कुछ कोण पर स्थित हैं तथा किबला के साथ एक कोण बनाती हैं। किन्तु ये निर्णय सही सिद्ध नहीं हुआ और कुछ ही समय के बाद अकबर को राजधानी फतेहपुर सीकरी से हटानी पड़ी। इसके पीछे पानी की कमी प्रमुख कारण था। फतेहपुर सीकरी के बाद अकबर ने एक चलित दरबार की रचना की जो पूरे साम्राज्य में घूमता रहता था और इस प्रकार साम्राज्य के सभी स्थानों पर उचित ध्यान देना संभव हुआ। बाद में उसने सन १५८५ में उत्तर पश्चिमी भाग के लिए लाहौर को राजधानी बनाया। मृत्यु के पूर्व अकबर ने सन १५९९ में राजधानी वापस आगरा बनायी और अन्त तक यहीं से शासन संभाला। आगरा शहर का नया नाम दिया गया अकबराबाद जो साम्राज्य की सबसे बड़ा शहर बना। शहर का मुख्य भाग यमुना नदी के पश्चिमी तट पर बसा था। यहां बरसात के पानी की निकासी की अच्छी नालियां-नालों से परिपूर्ण व्यवस्था बनायी गई। लोधी साम्राज्य द्वारा बनवायी गई गारे-मिट्टी से बनी नगर की पुरानी चारदीवारी को तोड़कर १५६५ में नयी बलुआ पत्थर की दीवार बनवायी गई। अंग्रेज़ इतिहासकार युगल ब्लेयर एवं ब्लूम के अनुसार इस लाल दीवार के कारण ही इसका नाम लाल किला पड़ा। वे आगे लिखते हैं कि यह किला पिछले किले के नक्शे पर ही कुछ अर्धवृत्ताकार बना था। शहर की ओर से इसे एक दोहरी सुरक्षा दीवार घेरे है, जिसके बाहर गहरी खाई बनी है। इस दोहरी दीवार में उत्तर में दिल्ली गेट व दक्षिण में अमर सिंह द्वार बने हैं।
अकबर ने लाहौर को किस वर्ष भारत के उत्तर-पश्चिमी भाग की राजधानी बनाई?
१५८५
akbar ne lahore ko kis varsh bharat ke uttar-pashchimi bhaag kii rajdhani banaai?
यहां के अधिकांश निर्माण उन १४ वर्षों के ही हैं, जिनमें अकबर ने यहां निवास किया। शहर में शाही उद्यान, आरामगाहें, सामंतों व दरबारियों के लिये आवास तथा बच्चों के लिये मदरसे बनवाये गए। ब्लेयर और ब्लूम के अनुसार शहर के अंदर इमारतें दो प्रमुख प्रकार की हैं- सेवा इमारतें, जैसे कारवांसेरी, टकसाल, निर्माणियां, बड़ा बाज़ार (चहर सूक) जहां दक्षिण-पश्चिम/उत्तर पूर्व अक्ष के लम्बवत निर्माण हुए हैं और दूसरा शाही भाग, जिसमें भारत की सबसे बड़ी सामूहिक मस्जिद है, साथ ही आवासीय तथा प्रशासकीय इमारते हैं जिसे दौलतखाना कहते हैं। ये पहाड़ी से कुछ कोण पर स्थित हैं तथा किबला के साथ एक कोण बनाती हैं। किन्तु ये निर्णय सही सिद्ध नहीं हुआ और कुछ ही समय के बाद अकबर को राजधानी फतेहपुर सीकरी से हटानी पड़ी। इसके पीछे पानी की कमी प्रमुख कारण था। फतेहपुर सीकरी के बाद अकबर ने एक चलित दरबार की रचना की जो पूरे साम्राज्य में घूमता रहता था और इस प्रकार साम्राज्य के सभी स्थानों पर उचित ध्यान देना संभव हुआ। बाद में उसने सन १५८५ में उत्तर पश्चिमी भाग के लिए लाहौर को राजधानी बनाया। मृत्यु के पूर्व अकबर ने सन १५९९ में राजधानी वापस आगरा बनायी और अन्त तक यहीं से शासन संभाला। आगरा शहर का नया नाम दिया गया अकबराबाद जो साम्राज्य की सबसे बड़ा शहर बना। शहर का मुख्य भाग यमुना नदी के पश्चिमी तट पर बसा था। यहां बरसात के पानी की निकासी की अच्छी नालियां-नालों से परिपूर्ण व्यवस्था बनायी गई। लोधी साम्राज्य द्वारा बनवायी गई गारे-मिट्टी से बनी नगर की पुरानी चारदीवारी को तोड़कर १५६५ में नयी बलुआ पत्थर की दीवार बनवायी गई। अंग्रेज़ इतिहासकार युगल ब्लेयर एवं ब्लूम के अनुसार इस लाल दीवार के कारण ही इसका नाम लाल किला पड़ा। वे आगे लिखते हैं कि यह किला पिछले किले के नक्शे पर ही कुछ अर्धवृत्ताकार बना था। शहर की ओर से इसे एक दोहरी सुरक्षा दीवार घेरे है, जिसके बाहर गहरी खाई बनी है। इस दोहरी दीवार में उत्तर में दिल्ली गेट व दक्षिण में अमर सिंह द्वार बने हैं।
मुग़ल काल में आवासीय और प्रशासनिक भवन को क्या कहा जाता था?
दौलतखाना
mogul kaal main awasaiya or prashasnic bhawan ko kya kaha jaataa tha?
यहां देखने लायक कई स्‍थान हैं जैसे, गणेश टोक, हनुमान टोक तथा ताशि व्‍यू प्‍वांइट। अगर आप गंगटोक घूमने का पूरा लुफ्त उठाना चाहते हैं तो इस शहर को पैदल घूमें। यहां से कंचनजंघा नजारा बहुत ही आकर्षक प्रतीत होता है। इसे देखने पर ऐसा लगता है मानो यह पर्वत आकाश से सटा हुआ है तथा हर पल अपना रंग बदल रहा है। अगर आपकी बौद्ध धर्म में रुचि है तो आपको इंस्‍टीट्यूट ऑफ तिब्‍बतोलॉजी जरुर घूमना चाहिए। यहां बौद्ध धर्म से संबंधित अमूल्‍य प्राचीन अवशेष तथा धर्मग्रन्‍थ रखे हुए हैं। यहां अलग से तिब्‍बती भाषा, संस्‍कृति, दर्शन तथा साहित्‍य की शिक्षा दी जाती है। इन सबके अलावा आप प्राचीन कलाकृतियों के लिए पुराने बाजार, लाल बाजार या नया बाजार भी घूम सकते हैं। गंगटोक से 40 किलोमीटर की दूरी पर यह झील स्थित है। यह झील चारों ओर से बर्फीली पहाडियों से घिरा हुआ है। झील एक किलोमीटर लंबा तथा 50 फीट गहरा है। यह अप्रैल महीने में पूरी तरह बर्फ में तब्‍दील हो जाता है। सुरक्षा कारणों से इस झील को एक घंटे से अधिक देर तक नहीं घूमा जा सकता है। जाड़े के समय में इस झील में प्रवास के लिए बहुत से विदेशी पक्षी आते हैं। इस झील से आगे केवल एक सड़क जाती है। यही सड़क आगे नाथूला दर्रे तक जाती है। यह सड़क आम लोगों के लिए खुला नहीं है। लेकिन सेना की अनु‍मति लेकर यहां तक जाया जा सकता है। लाम्पोखरी, गंगटोक से लगभग 70 किलोमीटर की दूरी पर स्थित एक झील है। गंगटोक से यहाँ पाक्योंग अथवा रम्फू होते हुए टैक्सी से पहुंचा जा सकता है। झील चारों ओर से पहाड़ियों से घिरी हुई है।
लंपोखरी झील गंगटोक से कितने किमी की दूरी पर स्थित है?
70 किलोमीटर
lampokhari jhil gangtok se kitne kimi kii duuri par sthit he?
यहां देखने लायक कई स्‍थान हैं जैसे, गणेश टोक, हनुमान टोक तथा ताशि व्‍यू प्‍वांइट। अगर आप गंगटोक घूमने का पूरा लुफ्त उठाना चाहते हैं तो इस शहर को पैदल घूमें। यहां से कंचनजंघा नजारा बहुत ही आकर्षक प्रतीत होता है। इसे देखने पर ऐसा लगता है मानो यह पर्वत आकाश से सटा हुआ है तथा हर पल अपना रंग बदल रहा है। अगर आपकी बौद्ध धर्म में रुचि है तो आपको इंस्‍टीट्यूट ऑफ तिब्‍बतोलॉजी जरुर घूमना चाहिए। यहां बौद्ध धर्म से संबंधित अमूल्‍य प्राचीन अवशेष तथा धर्मग्रन्‍थ रखे हुए हैं। यहां अलग से तिब्‍बती भाषा, संस्‍कृति, दर्शन तथा साहित्‍य की शिक्षा दी जाती है। इन सबके अलावा आप प्राचीन कलाकृतियों के लिए पुराने बाजार, लाल बाजार या नया बाजार भी घूम सकते हैं। गंगटोक से 40 किलोमीटर की दूरी पर यह झील स्थित है। यह झील चारों ओर से बर्फीली पहाडियों से घिरा हुआ है। झील एक किलोमीटर लंबा तथा 50 फीट गहरा है। यह अप्रैल महीने में पूरी तरह बर्फ में तब्‍दील हो जाता है। सुरक्षा कारणों से इस झील को एक घंटे से अधिक देर तक नहीं घूमा जा सकता है। जाड़े के समय में इस झील में प्रवास के लिए बहुत से विदेशी पक्षी आते हैं। इस झील से आगे केवल एक सड़क जाती है। यही सड़क आगे नाथूला दर्रे तक जाती है। यह सड़क आम लोगों के लिए खुला नहीं है। लेकिन सेना की अनु‍मति लेकर यहां तक जाया जा सकता है। लाम्पोखरी, गंगटोक से लगभग 70 किलोमीटर की दूरी पर स्थित एक झील है। गंगटोक से यहाँ पाक्योंग अथवा रम्फू होते हुए टैक्सी से पहुंचा जा सकता है। झील चारों ओर से पहाड़ियों से घिरी हुई है।
पुराना बाजार और लाल बाजार गंगटोक से कितनी दुरी पर स्थित है?
40 किलोमीटर
purana bazaar or laal bazaar gangtok se kitni duri par sthit he?
यहां देखने लायक कई स्‍थान हैं जैसे, गणेश टोक, हनुमान टोक तथा ताशि व्‍यू प्‍वांइट। अगर आप गंगटोक घूमने का पूरा लुफ्त उठाना चाहते हैं तो इस शहर को पैदल घूमें। यहां से कंचनजंघा नजारा बहुत ही आकर्षक प्रतीत होता है। इसे देखने पर ऐसा लगता है मानो यह पर्वत आकाश से सटा हुआ है तथा हर पल अपना रंग बदल रहा है। अगर आपकी बौद्ध धर्म में रुचि है तो आपको इंस्‍टीट्यूट ऑफ तिब्‍बतोलॉजी जरुर घूमना चाहिए। यहां बौद्ध धर्म से संबंधित अमूल्‍य प्राचीन अवशेष तथा धर्मग्रन्‍थ रखे हुए हैं। यहां अलग से तिब्‍बती भाषा, संस्‍कृति, दर्शन तथा साहित्‍य की शिक्षा दी जाती है। इन सबके अलावा आप प्राचीन कलाकृतियों के लिए पुराने बाजार, लाल बाजार या नया बाजार भी घूम सकते हैं। गंगटोक से 40 किलोमीटर की दूरी पर यह झील स्थित है। यह झील चारों ओर से बर्फीली पहाडियों से घिरा हुआ है। झील एक किलोमीटर लंबा तथा 50 फीट गहरा है। यह अप्रैल महीने में पूरी तरह बर्फ में तब्‍दील हो जाता है। सुरक्षा कारणों से इस झील को एक घंटे से अधिक देर तक नहीं घूमा जा सकता है। जाड़े के समय में इस झील में प्रवास के लिए बहुत से विदेशी पक्षी आते हैं। इस झील से आगे केवल एक सड़क जाती है। यही सड़क आगे नाथूला दर्रे तक जाती है। यह सड़क आम लोगों के लिए खुला नहीं है। लेकिन सेना की अनु‍मति लेकर यहां तक जाया जा सकता है। लाम्पोखरी, गंगटोक से लगभग 70 किलोमीटर की दूरी पर स्थित एक झील है। गंगटोक से यहाँ पाक्योंग अथवा रम्फू होते हुए टैक्सी से पहुंचा जा सकता है। झील चारों ओर से पहाड़ियों से घिरी हुई है।
तिब्बत विज्ञान संस्थान में किस विषय से सम्बंधित शिक्षा दी जाती है?
तिब्‍बती भाषा, संस्‍कृति, दर्शन तथा साहित्‍य
tibet vigyaan santhaan main kis vishay se sambandhit shiksha di jaati he?
यहां स्थापित करने के लिए राजा मानसिंह द्वारा संरक्षक देवी की मूर्ति, जिसकी पूजा हजारों श्रद्धालु करते है, पूर्वी बंगाल (जो अब बंगला देश है) के जेसोर से यहां लाई गई थी। एक दर्शनीय स्तंभों वाला हॉल दीवान-ए-आम और एक दो मंजिला चित्रित प्रवेशद्वार, गणेश पोल आगे के प्रांगण में है। गलियारे के पीछे चारबाग की तरह का एक रमणीय छोटा बगीचा है, जिसकी दाई तरफ सुख निवास है और बाई तरफ जसमंदिर। इसमें मुगल व राजपूत वास्तुकला का मिश्रित है, बारीक ढंग से नक्काशी की हुई जाली की चिलमन, बारीक शीशों और गचकारी का कार्य और चित्रित व नक्काशीदार निचली दीवारें। मावठा झील के मध्य में सही अनुपातित मोहन बाड़ी या केसर क्यारी और उसके पूर्वी किनारे पर दिलराम बाग ऊपर बने महलों का मनोहर दृश्य दिखाते है। पुराना शहर - कभी राजाओं, हस्तशिल्पों व आम जनता का आवास आमेर का पुराना क़स्बा अब खंडहर बन गया है। आकर्षक ढंग से नक्काशीदार व सुनियोजित जगत शिरोमणि मंदिर, मीराबाई से जुड़ा एक कृष्ण मंदिर, नरसिंहजी का पुराना मंदिर व अच्छे ढंग से बना सीढ़ियों वाला कुआँ, पन्ना मियां का कुण्ड समृद्ध अतीत के अवशेष हैं। जयगढ़ किला मध्ययुगीन भारत के कुछ सैनिक इमारतों में से एक। महलों, बगीचों, टांकियों, अन्य भन्डार, शस्त्रागार, एक सुनोयोजित तोप ढलाई-घर, अनेक मंदिर, एक लंबा बुर्ज और एक विशालकाय तोप - जयबाण जो देश की सबसे बड़ी तोपों में से एक है। जयगढ़ के फैले हुए परकोटे, बुर्ज और प्रवेश द्वार पश्चिमी द्वार क्षितिज को छूते हैं। नाहरगढः जयगढ की पहाड़ियों के पीछे स्थित गुलाबी शहर का पहरेदार है - नाहरगढ़ किला। यद्यपि इसका बहुत कुछ हिस्सा ध्वस्त हो गया है, फिर भी सवाई मान सिंह द्वितीय व सवाई माधोसिंह द्वितीय द्वारा बनाई मनोहर इमारतें किले की रौनक बढाती हैं सांगानेर - (१२ किलोमीटर) - यह टोंक जाने वाले राजमार्ग पर स्थित है। इसके ध्वस्त महलों के अतिरिक्त, सांगानेर के उत्कृष्ट नक्काशीदार जैन मंदिर है। दो त्रिपोलिया (तीन मुख्य द्वार) के अवशेषो द्वारा नगर में प्रवेश किया जाता है। शिल्प उद्योग के लिए शहर महत्वपूर्ण केन्द्र है और ठप्पे व जालीदार छपाई की इकाइयों द्वारा हाथ से बने बढिया कपड़े यहां बनते है। यह कपड़ा देश व विदेश में प्रसिद्ध है। गोनेर - दूरी -(17 किलोमीटर) जयपुर की छोटी काशी के उपनाम से विख्यात कस्बा। जयपुर एवं दौसा जिले के ग्रामीण अंचल के आराध्य श्री लक्ष्मी जगदीश महाराज मंदिर का भव्य एवं प्रसिद्ध ऐतिहासिक मंदिर स्थित है। इसके अतिरिक्त ऐतिहासिक प्राचीन किला, बावड़ियाँ एवं जगन्नाथ सागर तालाब स्थित है। राज्य स्तरीय राज्य शैक्षिक प्रबंधन एवं प्रशिक्षण संस्थान तथा जिला स्तरीय जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान स्थित है। बगरू - (34 किलोमीटर) - अजमेर मार्ग पर, पुराना किला, अभी भी अच्छी अवस्था में है। यह अपने हाथ की छपाई के हथकरघा उद्योग के लिए उल्लेखनीय है, जहां सरल तकनीको का प्रयोग होता है। इस हथकरघाओं के डिजाइन कम जटिल व मटियाले रंगो के होते है। रामगढ़ झील - (32 किलोमीटर उत्तर - पूर्व) - पेड़ो से आच्छादित पहाड़ियो के बीच एक ऊंचा बांध बांध कर एक विशाल कृत्रिम झील की निर्माण किया गया है। यद्यपि जमवा माता का मंदिर व पुराने किले के खंडहर इसके पुरावशेष है। विशेषकर बारिश के मौसम में इसके आकर्षक प्राकृतिक दृश्य इसको एक बेहतर पिकनिक स्थल बना देते है। सामोद - (40 किलोमीटर उत्तर - पूर्व) - सुन्दर सामोद महल का पुनर्निमाण किया गया है तथा यह राजपूत हवेली वास्तुकला का बेहतर नमूना है व पर्यटन लिए उत्तम स्थल। विराट नगर- (शाहपुरा - अलवर मार्ग 86 किलोमीटर दूर) - खुदाई करने पर निकले एक वृत्ताकार बुद्ध मंदिर के अवशेषों से युक्त एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थान है जो राजस्थान का असाधारण व भारत का आरंभिक प्रसिद्ध मंदिर है। बैराठ में मौर्य, मुगल व राजपूत समय के स्मृतिचिन्ह भी हैं। अकबर द्वारा निर्मित एक खान (? ), एक रमणीय मुगल बगीचा और जहांगीर द्वारा निर्मित चित्रित छतरियों व दीवारों से युक्त असाधारण इमारत अन्य आकर्षण हैं। सांभर(पश्चिम से 14 किलोमीटर) - नमक की विशाल झील, पवित्र देवयानी कुंड, महल और पास ही स्थित नालियासार के प्रसिद्ध है। जयसिंहपुरा खोर - (अजमेर मार्ग से 12 किलोमीटर) - मीणा कबीले के इस आवास में एक दुर्गम किला, एक जैन मंदिर और हरे भरे वृक्षों के बीच एक बावड़ी है। माधोगढ़ - तुंगा (बस्सी लालसोट आगरा मार्ग से 40 किलोमीटर) - जयपुर व मराठा सेना के बीच हुए एतिहासिक युग का तुंगा गवाह है। सुंदर आम के बागों के बीच यह किला बसा है। चाकसू—चाकसू से 2 किमी पूर्व में शीतला माता का मंदिर है जिसमे प्रतिवर्ष चैत्र कृष्ण प्रतिपदा अष्टमी को यहां मेला भरता है जिसमे लाखो की संख्या में लोग इकट्ठा होते हैं। जयसिंह शहर की स्थापना जयसिंह द्वितीय, आमेर के राजा ने की थी, जो 1688 से 1758 तक शासन कर रही थी। उन्होंने अपनी राजधानी जयपुर से 11 किलोमीटर (7 मील), आमेर से बढ़ती जनसंख्या को समायोजित करने और उनकी कमी को कम करने की योजना बनाई। पानी। [5] जय सिंह ने जयपुर के लेआउट की योजना बनाते समय आर्किटेक्चर और आर्किटेक्ट्स पर कई किताबों से परामर्श किया। विद्याधर भट्टाचार्य के स्थापत्य मार्गदर्शन के तहत, जयपुर वास्तुशास्त्र और शिल्पा शास्त्र के सिद्धांतों के आधार पर योजना बनाई गई थी। [8] शहर का निर्माण 1726 में शुरू हुआ और प्रमुख सड़कों, कार्यालयों और महलों को पूरा करने में चार साल लगे। शहर को 9 ब्लॉकों में विभाजित किया गया था, जिनमें से दो में राज्य की इमारतों और महलों में निहित है, शेष सात लोगों को जनता के लिए आवंटित किया गया था। विशाल गगनचुंबी इमारतों का निर्माण, सात गढ़वाले गेटों से छेड़ा गया। [5]जयपुर भारत के सबसे अधिक सामाजिक समृद्ध विरासत शहरी इलाकों में एक असाधारण है।
विशाल तोप बर्ज किस किले में स्थित है ?
जयबाण
vishaal top barj kis kile main sthit he ?
यहां स्थापित करने के लिए राजा मानसिंह द्वारा संरक्षक देवी की मूर्ति, जिसकी पूजा हजारों श्रद्धालु करते है, पूर्वी बंगाल (जो अब बंगला देश है) के जेसोर से यहां लाई गई थी। एक दर्शनीय स्तंभों वाला हॉल दीवान-ए-आम और एक दो मंजिला चित्रित प्रवेशद्वार, गणेश पोल आगे के प्रांगण में है। गलियारे के पीछे चारबाग की तरह का एक रमणीय छोटा बगीचा है, जिसकी दाई तरफ सुख निवास है और बाई तरफ जसमंदिर। इसमें मुगल व राजपूत वास्तुकला का मिश्रित है, बारीक ढंग से नक्काशी की हुई जाली की चिलमन, बारीक शीशों और गचकारी का कार्य और चित्रित व नक्काशीदार निचली दीवारें। मावठा झील के मध्य में सही अनुपातित मोहन बाड़ी या केसर क्यारी और उसके पूर्वी किनारे पर दिलराम बाग ऊपर बने महलों का मनोहर दृश्य दिखाते है। पुराना शहर - कभी राजाओं, हस्तशिल्पों व आम जनता का आवास आमेर का पुराना क़स्बा अब खंडहर बन गया है। आकर्षक ढंग से नक्काशीदार व सुनियोजित जगत शिरोमणि मंदिर, मीराबाई से जुड़ा एक कृष्ण मंदिर, नरसिंहजी का पुराना मंदिर व अच्छे ढंग से बना सीढ़ियों वाला कुआँ, पन्ना मियां का कुण्ड समृद्ध अतीत के अवशेष हैं। जयगढ़ किला मध्ययुगीन भारत के कुछ सैनिक इमारतों में से एक। महलों, बगीचों, टांकियों, अन्य भन्डार, शस्त्रागार, एक सुनोयोजित तोप ढलाई-घर, अनेक मंदिर, एक लंबा बुर्ज और एक विशालकाय तोप - जयबाण जो देश की सबसे बड़ी तोपों में से एक है। जयगढ़ के फैले हुए परकोटे, बुर्ज और प्रवेश द्वार पश्चिमी द्वार क्षितिज को छूते हैं। नाहरगढः जयगढ की पहाड़ियों के पीछे स्थित गुलाबी शहर का पहरेदार है - नाहरगढ़ किला। यद्यपि इसका बहुत कुछ हिस्सा ध्वस्त हो गया है, फिर भी सवाई मान सिंह द्वितीय व सवाई माधोसिंह द्वितीय द्वारा बनाई मनोहर इमारतें किले की रौनक बढाती हैं सांगानेर - (१२ किलोमीटर) - यह टोंक जाने वाले राजमार्ग पर स्थित है। इसके ध्वस्त महलों के अतिरिक्त, सांगानेर के उत्कृष्ट नक्काशीदार जैन मंदिर है। दो त्रिपोलिया (तीन मुख्य द्वार) के अवशेषो द्वारा नगर में प्रवेश किया जाता है। शिल्प उद्योग के लिए शहर महत्वपूर्ण केन्द्र है और ठप्पे व जालीदार छपाई की इकाइयों द्वारा हाथ से बने बढिया कपड़े यहां बनते है। यह कपड़ा देश व विदेश में प्रसिद्ध है। गोनेर - दूरी -(17 किलोमीटर) जयपुर की छोटी काशी के उपनाम से विख्यात कस्बा। जयपुर एवं दौसा जिले के ग्रामीण अंचल के आराध्य श्री लक्ष्मी जगदीश महाराज मंदिर का भव्य एवं प्रसिद्ध ऐतिहासिक मंदिर स्थित है। इसके अतिरिक्त ऐतिहासिक प्राचीन किला, बावड़ियाँ एवं जगन्नाथ सागर तालाब स्थित है। राज्य स्तरीय राज्य शैक्षिक प्रबंधन एवं प्रशिक्षण संस्थान तथा जिला स्तरीय जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान स्थित है। बगरू - (34 किलोमीटर) - अजमेर मार्ग पर, पुराना किला, अभी भी अच्छी अवस्था में है। यह अपने हाथ की छपाई के हथकरघा उद्योग के लिए उल्लेखनीय है, जहां सरल तकनीको का प्रयोग होता है। इस हथकरघाओं के डिजाइन कम जटिल व मटियाले रंगो के होते है। रामगढ़ झील - (32 किलोमीटर उत्तर - पूर्व) - पेड़ो से आच्छादित पहाड़ियो के बीच एक ऊंचा बांध बांध कर एक विशाल कृत्रिम झील की निर्माण किया गया है। यद्यपि जमवा माता का मंदिर व पुराने किले के खंडहर इसके पुरावशेष है। विशेषकर बारिश के मौसम में इसके आकर्षक प्राकृतिक दृश्य इसको एक बेहतर पिकनिक स्थल बना देते है। सामोद - (40 किलोमीटर उत्तर - पूर्व) - सुन्दर सामोद महल का पुनर्निमाण किया गया है तथा यह राजपूत हवेली वास्तुकला का बेहतर नमूना है व पर्यटन लिए उत्तम स्थल। विराट नगर- (शाहपुरा - अलवर मार्ग 86 किलोमीटर दूर) - खुदाई करने पर निकले एक वृत्ताकार बुद्ध मंदिर के अवशेषों से युक्त एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थान है जो राजस्थान का असाधारण व भारत का आरंभिक प्रसिद्ध मंदिर है। बैराठ में मौर्य, मुगल व राजपूत समय के स्मृतिचिन्ह भी हैं। अकबर द्वारा निर्मित एक खान (? ), एक रमणीय मुगल बगीचा और जहांगीर द्वारा निर्मित चित्रित छतरियों व दीवारों से युक्त असाधारण इमारत अन्य आकर्षण हैं। सांभर(पश्चिम से 14 किलोमीटर) - नमक की विशाल झील, पवित्र देवयानी कुंड, महल और पास ही स्थित नालियासार के प्रसिद्ध है। जयसिंहपुरा खोर - (अजमेर मार्ग से 12 किलोमीटर) - मीणा कबीले के इस आवास में एक दुर्गम किला, एक जैन मंदिर और हरे भरे वृक्षों के बीच एक बावड़ी है। माधोगढ़ - तुंगा (बस्सी लालसोट आगरा मार्ग से 40 किलोमीटर) - जयपुर व मराठा सेना के बीच हुए एतिहासिक युग का तुंगा गवाह है। सुंदर आम के बागों के बीच यह किला बसा है। चाकसू—चाकसू से 2 किमी पूर्व में शीतला माता का मंदिर है जिसमे प्रतिवर्ष चैत्र कृष्ण प्रतिपदा अष्टमी को यहां मेला भरता है जिसमे लाखो की संख्या में लोग इकट्ठा होते हैं। जयसिंह शहर की स्थापना जयसिंह द्वितीय, आमेर के राजा ने की थी, जो 1688 से 1758 तक शासन कर रही थी। उन्होंने अपनी राजधानी जयपुर से 11 किलोमीटर (7 मील), आमेर से बढ़ती जनसंख्या को समायोजित करने और उनकी कमी को कम करने की योजना बनाई। पानी। [5] जय सिंह ने जयपुर के लेआउट की योजना बनाते समय आर्किटेक्चर और आर्किटेक्ट्स पर कई किताबों से परामर्श किया। विद्याधर भट्टाचार्य के स्थापत्य मार्गदर्शन के तहत, जयपुर वास्तुशास्त्र और शिल्पा शास्त्र के सिद्धांतों के आधार पर योजना बनाई गई थी। [8] शहर का निर्माण 1726 में शुरू हुआ और प्रमुख सड़कों, कार्यालयों और महलों को पूरा करने में चार साल लगे। शहर को 9 ब्लॉकों में विभाजित किया गया था, जिनमें से दो में राज्य की इमारतों और महलों में निहित है, शेष सात लोगों को जनता के लिए आवंटित किया गया था। विशाल गगनचुंबी इमारतों का निर्माण, सात गढ़वाले गेटों से छेड़ा गया। [5]जयपुर भारत के सबसे अधिक सामाजिक समृद्ध विरासत शहरी इलाकों में एक असाधारण है।
जयपुर नगर का प्रमुख संगठनकर्ता कौन थे ?
जय सिंह
jaipur nagar kaa pramukh sanghathankarta koun the ?
यहां स्थापित करने के लिए राजा मानसिंह द्वारा संरक्षक देवी की मूर्ति, जिसकी पूजा हजारों श्रद्धालु करते है, पूर्वी बंगाल (जो अब बंगला देश है) के जेसोर से यहां लाई गई थी। एक दर्शनीय स्तंभों वाला हॉल दीवान-ए-आम और एक दो मंजिला चित्रित प्रवेशद्वार, गणेश पोल आगे के प्रांगण में है। गलियारे के पीछे चारबाग की तरह का एक रमणीय छोटा बगीचा है, जिसकी दाई तरफ सुख निवास है और बाई तरफ जसमंदिर। इसमें मुगल व राजपूत वास्तुकला का मिश्रित है, बारीक ढंग से नक्काशी की हुई जाली की चिलमन, बारीक शीशों और गचकारी का कार्य और चित्रित व नक्काशीदार निचली दीवारें। मावठा झील के मध्य में सही अनुपातित मोहन बाड़ी या केसर क्यारी और उसके पूर्वी किनारे पर दिलराम बाग ऊपर बने महलों का मनोहर दृश्य दिखाते है। पुराना शहर - कभी राजाओं, हस्तशिल्पों व आम जनता का आवास आमेर का पुराना क़स्बा अब खंडहर बन गया है। आकर्षक ढंग से नक्काशीदार व सुनियोजित जगत शिरोमणि मंदिर, मीराबाई से जुड़ा एक कृष्ण मंदिर, नरसिंहजी का पुराना मंदिर व अच्छे ढंग से बना सीढ़ियों वाला कुआँ, पन्ना मियां का कुण्ड समृद्ध अतीत के अवशेष हैं। जयगढ़ किला मध्ययुगीन भारत के कुछ सैनिक इमारतों में से एक। महलों, बगीचों, टांकियों, अन्य भन्डार, शस्त्रागार, एक सुनोयोजित तोप ढलाई-घर, अनेक मंदिर, एक लंबा बुर्ज और एक विशालकाय तोप - जयबाण जो देश की सबसे बड़ी तोपों में से एक है। जयगढ़ के फैले हुए परकोटे, बुर्ज और प्रवेश द्वार पश्चिमी द्वार क्षितिज को छूते हैं। नाहरगढः जयगढ की पहाड़ियों के पीछे स्थित गुलाबी शहर का पहरेदार है - नाहरगढ़ किला। यद्यपि इसका बहुत कुछ हिस्सा ध्वस्त हो गया है, फिर भी सवाई मान सिंह द्वितीय व सवाई माधोसिंह द्वितीय द्वारा बनाई मनोहर इमारतें किले की रौनक बढाती हैं सांगानेर - (१२ किलोमीटर) - यह टोंक जाने वाले राजमार्ग पर स्थित है। इसके ध्वस्त महलों के अतिरिक्त, सांगानेर के उत्कृष्ट नक्काशीदार जैन मंदिर है। दो त्रिपोलिया (तीन मुख्य द्वार) के अवशेषो द्वारा नगर में प्रवेश किया जाता है। शिल्प उद्योग के लिए शहर महत्वपूर्ण केन्द्र है और ठप्पे व जालीदार छपाई की इकाइयों द्वारा हाथ से बने बढिया कपड़े यहां बनते है। यह कपड़ा देश व विदेश में प्रसिद्ध है। गोनेर - दूरी -(17 किलोमीटर) जयपुर की छोटी काशी के उपनाम से विख्यात कस्बा। जयपुर एवं दौसा जिले के ग्रामीण अंचल के आराध्य श्री लक्ष्मी जगदीश महाराज मंदिर का भव्य एवं प्रसिद्ध ऐतिहासिक मंदिर स्थित है। इसके अतिरिक्त ऐतिहासिक प्राचीन किला, बावड़ियाँ एवं जगन्नाथ सागर तालाब स्थित है। राज्य स्तरीय राज्य शैक्षिक प्रबंधन एवं प्रशिक्षण संस्थान तथा जिला स्तरीय जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान स्थित है। बगरू - (34 किलोमीटर) - अजमेर मार्ग पर, पुराना किला, अभी भी अच्छी अवस्था में है। यह अपने हाथ की छपाई के हथकरघा उद्योग के लिए उल्लेखनीय है, जहां सरल तकनीको का प्रयोग होता है। इस हथकरघाओं के डिजाइन कम जटिल व मटियाले रंगो के होते है। रामगढ़ झील - (32 किलोमीटर उत्तर - पूर्व) - पेड़ो से आच्छादित पहाड़ियो के बीच एक ऊंचा बांध बांध कर एक विशाल कृत्रिम झील की निर्माण किया गया है। यद्यपि जमवा माता का मंदिर व पुराने किले के खंडहर इसके पुरावशेष है। विशेषकर बारिश के मौसम में इसके आकर्षक प्राकृतिक दृश्य इसको एक बेहतर पिकनिक स्थल बना देते है। सामोद - (40 किलोमीटर उत्तर - पूर्व) - सुन्दर सामोद महल का पुनर्निमाण किया गया है तथा यह राजपूत हवेली वास्तुकला का बेहतर नमूना है व पर्यटन लिए उत्तम स्थल। विराट नगर- (शाहपुरा - अलवर मार्ग 86 किलोमीटर दूर) - खुदाई करने पर निकले एक वृत्ताकार बुद्ध मंदिर के अवशेषों से युक्त एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थान है जो राजस्थान का असाधारण व भारत का आरंभिक प्रसिद्ध मंदिर है। बैराठ में मौर्य, मुगल व राजपूत समय के स्मृतिचिन्ह भी हैं। अकबर द्वारा निर्मित एक खान (? ), एक रमणीय मुगल बगीचा और जहांगीर द्वारा निर्मित चित्रित छतरियों व दीवारों से युक्त असाधारण इमारत अन्य आकर्षण हैं। सांभर(पश्चिम से 14 किलोमीटर) - नमक की विशाल झील, पवित्र देवयानी कुंड, महल और पास ही स्थित नालियासार के प्रसिद्ध है। जयसिंहपुरा खोर - (अजमेर मार्ग से 12 किलोमीटर) - मीणा कबीले के इस आवास में एक दुर्गम किला, एक जैन मंदिर और हरे भरे वृक्षों के बीच एक बावड़ी है। माधोगढ़ - तुंगा (बस्सी लालसोट आगरा मार्ग से 40 किलोमीटर) - जयपुर व मराठा सेना के बीच हुए एतिहासिक युग का तुंगा गवाह है। सुंदर आम के बागों के बीच यह किला बसा है। चाकसू—चाकसू से 2 किमी पूर्व में शीतला माता का मंदिर है जिसमे प्रतिवर्ष चैत्र कृष्ण प्रतिपदा अष्टमी को यहां मेला भरता है जिसमे लाखो की संख्या में लोग इकट्ठा होते हैं। जयसिंह शहर की स्थापना जयसिंह द्वितीय, आमेर के राजा ने की थी, जो 1688 से 1758 तक शासन कर रही थी। उन्होंने अपनी राजधानी जयपुर से 11 किलोमीटर (7 मील), आमेर से बढ़ती जनसंख्या को समायोजित करने और उनकी कमी को कम करने की योजना बनाई। पानी। [5] जय सिंह ने जयपुर के लेआउट की योजना बनाते समय आर्किटेक्चर और आर्किटेक्ट्स पर कई किताबों से परामर्श किया। विद्याधर भट्टाचार्य के स्थापत्य मार्गदर्शन के तहत, जयपुर वास्तुशास्त्र और शिल्पा शास्त्र के सिद्धांतों के आधार पर योजना बनाई गई थी। [8] शहर का निर्माण 1726 में शुरू हुआ और प्रमुख सड़कों, कार्यालयों और महलों को पूरा करने में चार साल लगे। शहर को 9 ब्लॉकों में विभाजित किया गया था, जिनमें से दो में राज्य की इमारतों और महलों में निहित है, शेष सात लोगों को जनता के लिए आवंटित किया गया था। विशाल गगनचुंबी इमारतों का निर्माण, सात गढ़वाले गेटों से छेड़ा गया। [5]जयपुर भारत के सबसे अधिक सामाजिक समृद्ध विरासत शहरी इलाकों में एक असाधारण है।
संरक्षक देवी की मूर्ति कहाँ से लाई गई थी ?
जेसोर
sangrakshak devi kii murti kahan se laai gai thi ?
यहां स्थापित करने के लिए राजा मानसिंह द्वारा संरक्षक देवी की मूर्ति, जिसकी पूजा हजारों श्रद्धालु करते है, पूर्वी बंगाल (जो अब बंगला देश है) के जेसोर से यहां लाई गई थी। एक दर्शनीय स्तंभों वाला हॉल दीवान-ए-आम और एक दो मंजिला चित्रित प्रवेशद्वार, गणेश पोल आगे के प्रांगण में है। गलियारे के पीछे चारबाग की तरह का एक रमणीय छोटा बगीचा है, जिसकी दाई तरफ सुख निवास है और बाई तरफ जसमंदिर। इसमें मुगल व राजपूत वास्तुकला का मिश्रित है, बारीक ढंग से नक्काशी की हुई जाली की चिलमन, बारीक शीशों और गचकारी का कार्य और चित्रित व नक्काशीदार निचली दीवारें। मावठा झील के मध्य में सही अनुपातित मोहन बाड़ी या केसर क्यारी और उसके पूर्वी किनारे पर दिलराम बाग ऊपर बने महलों का मनोहर दृश्य दिखाते है। पुराना शहर - कभी राजाओं, हस्तशिल्पों व आम जनता का आवास आमेर का पुराना क़स्बा अब खंडहर बन गया है। आकर्षक ढंग से नक्काशीदार व सुनियोजित जगत शिरोमणि मंदिर, मीराबाई से जुड़ा एक कृष्ण मंदिर, नरसिंहजी का पुराना मंदिर व अच्छे ढंग से बना सीढ़ियों वाला कुआँ, पन्ना मियां का कुण्ड समृद्ध अतीत के अवशेष हैं। जयगढ़ किला मध्ययुगीन भारत के कुछ सैनिक इमारतों में से एक। महलों, बगीचों, टांकियों, अन्य भन्डार, शस्त्रागार, एक सुनोयोजित तोप ढलाई-घर, अनेक मंदिर, एक लंबा बुर्ज और एक विशालकाय तोप - जयबाण जो देश की सबसे बड़ी तोपों में से एक है। जयगढ़ के फैले हुए परकोटे, बुर्ज और प्रवेश द्वार पश्चिमी द्वार क्षितिज को छूते हैं। नाहरगढः जयगढ की पहाड़ियों के पीछे स्थित गुलाबी शहर का पहरेदार है - नाहरगढ़ किला। यद्यपि इसका बहुत कुछ हिस्सा ध्वस्त हो गया है, फिर भी सवाई मान सिंह द्वितीय व सवाई माधोसिंह द्वितीय द्वारा बनाई मनोहर इमारतें किले की रौनक बढाती हैं सांगानेर - (१२ किलोमीटर) - यह टोंक जाने वाले राजमार्ग पर स्थित है। इसके ध्वस्त महलों के अतिरिक्त, सांगानेर के उत्कृष्ट नक्काशीदार जैन मंदिर है। दो त्रिपोलिया (तीन मुख्य द्वार) के अवशेषो द्वारा नगर में प्रवेश किया जाता है। शिल्प उद्योग के लिए शहर महत्वपूर्ण केन्द्र है और ठप्पे व जालीदार छपाई की इकाइयों द्वारा हाथ से बने बढिया कपड़े यहां बनते है। यह कपड़ा देश व विदेश में प्रसिद्ध है। गोनेर - दूरी -(17 किलोमीटर) जयपुर की छोटी काशी के उपनाम से विख्यात कस्बा। जयपुर एवं दौसा जिले के ग्रामीण अंचल के आराध्य श्री लक्ष्मी जगदीश महाराज मंदिर का भव्य एवं प्रसिद्ध ऐतिहासिक मंदिर स्थित है। इसके अतिरिक्त ऐतिहासिक प्राचीन किला, बावड़ियाँ एवं जगन्नाथ सागर तालाब स्थित है। राज्य स्तरीय राज्य शैक्षिक प्रबंधन एवं प्रशिक्षण संस्थान तथा जिला स्तरीय जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान स्थित है। बगरू - (34 किलोमीटर) - अजमेर मार्ग पर, पुराना किला, अभी भी अच्छी अवस्था में है। यह अपने हाथ की छपाई के हथकरघा उद्योग के लिए उल्लेखनीय है, जहां सरल तकनीको का प्रयोग होता है। इस हथकरघाओं के डिजाइन कम जटिल व मटियाले रंगो के होते है। रामगढ़ झील - (32 किलोमीटर उत्तर - पूर्व) - पेड़ो से आच्छादित पहाड़ियो के बीच एक ऊंचा बांध बांध कर एक विशाल कृत्रिम झील की निर्माण किया गया है। यद्यपि जमवा माता का मंदिर व पुराने किले के खंडहर इसके पुरावशेष है। विशेषकर बारिश के मौसम में इसके आकर्षक प्राकृतिक दृश्य इसको एक बेहतर पिकनिक स्थल बना देते है। सामोद - (40 किलोमीटर उत्तर - पूर्व) - सुन्दर सामोद महल का पुनर्निमाण किया गया है तथा यह राजपूत हवेली वास्तुकला का बेहतर नमूना है व पर्यटन लिए उत्तम स्थल। विराट नगर- (शाहपुरा - अलवर मार्ग 86 किलोमीटर दूर) - खुदाई करने पर निकले एक वृत्ताकार बुद्ध मंदिर के अवशेषों से युक्त एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थान है जो राजस्थान का असाधारण व भारत का आरंभिक प्रसिद्ध मंदिर है। बैराठ में मौर्य, मुगल व राजपूत समय के स्मृतिचिन्ह भी हैं। अकबर द्वारा निर्मित एक खान (? ), एक रमणीय मुगल बगीचा और जहांगीर द्वारा निर्मित चित्रित छतरियों व दीवारों से युक्त असाधारण इमारत अन्य आकर्षण हैं। सांभर(पश्चिम से 14 किलोमीटर) - नमक की विशाल झील, पवित्र देवयानी कुंड, महल और पास ही स्थित नालियासार के प्रसिद्ध है। जयसिंहपुरा खोर - (अजमेर मार्ग से 12 किलोमीटर) - मीणा कबीले के इस आवास में एक दुर्गम किला, एक जैन मंदिर और हरे भरे वृक्षों के बीच एक बावड़ी है। माधोगढ़ - तुंगा (बस्सी लालसोट आगरा मार्ग से 40 किलोमीटर) - जयपुर व मराठा सेना के बीच हुए एतिहासिक युग का तुंगा गवाह है। सुंदर आम के बागों के बीच यह किला बसा है। चाकसू—चाकसू से 2 किमी पूर्व में शीतला माता का मंदिर है जिसमे प्रतिवर्ष चैत्र कृष्ण प्रतिपदा अष्टमी को यहां मेला भरता है जिसमे लाखो की संख्या में लोग इकट्ठा होते हैं। जयसिंह शहर की स्थापना जयसिंह द्वितीय, आमेर के राजा ने की थी, जो 1688 से 1758 तक शासन कर रही थी। उन्होंने अपनी राजधानी जयपुर से 11 किलोमीटर (7 मील), आमेर से बढ़ती जनसंख्या को समायोजित करने और उनकी कमी को कम करने की योजना बनाई। पानी। [5] जय सिंह ने जयपुर के लेआउट की योजना बनाते समय आर्किटेक्चर और आर्किटेक्ट्स पर कई किताबों से परामर्श किया। विद्याधर भट्टाचार्य के स्थापत्य मार्गदर्शन के तहत, जयपुर वास्तुशास्त्र और शिल्पा शास्त्र के सिद्धांतों के आधार पर योजना बनाई गई थी। [8] शहर का निर्माण 1726 में शुरू हुआ और प्रमुख सड़कों, कार्यालयों और महलों को पूरा करने में चार साल लगे। शहर को 9 ब्लॉकों में विभाजित किया गया था, जिनमें से दो में राज्य की इमारतों और महलों में निहित है, शेष सात लोगों को जनता के लिए आवंटित किया गया था। विशाल गगनचुंबी इमारतों का निर्माण, सात गढ़वाले गेटों से छेड़ा गया। [5]जयपुर भारत के सबसे अधिक सामाजिक समृद्ध विरासत शहरी इलाकों में एक असाधारण है।
जयपुर की छोटी काशी किसे कहा जाता है ?
गोनेर
jaipur kii choti kaashi kise kaha jaataa he ?
यहां स्थापित करने के लिए राजा मानसिंह द्वारा संरक्षक देवी की मूर्ति, जिसकी पूजा हजारों श्रद्धालु करते है, पूर्वी बंगाल (जो अब बंगला देश है) के जेसोर से यहां लाई गई थी। एक दर्शनीय स्तंभों वाला हॉल दीवान-ए-आम और एक दो मंजिला चित्रित प्रवेशद्वार, गणेश पोल आगे के प्रांगण में है। गलियारे के पीछे चारबाग की तरह का एक रमणीय छोटा बगीचा है, जिसकी दाई तरफ सुख निवास है और बाई तरफ जसमंदिर। इसमें मुगल व राजपूत वास्तुकला का मिश्रित है, बारीक ढंग से नक्काशी की हुई जाली की चिलमन, बारीक शीशों और गचकारी का कार्य और चित्रित व नक्काशीदार निचली दीवारें। मावठा झील के मध्य में सही अनुपातित मोहन बाड़ी या केसर क्यारी और उसके पूर्वी किनारे पर दिलराम बाग ऊपर बने महलों का मनोहर दृश्य दिखाते है। पुराना शहर - कभी राजाओं, हस्तशिल्पों व आम जनता का आवास आमेर का पुराना क़स्बा अब खंडहर बन गया है। आकर्षक ढंग से नक्काशीदार व सुनियोजित जगत शिरोमणि मंदिर, मीराबाई से जुड़ा एक कृष्ण मंदिर, नरसिंहजी का पुराना मंदिर व अच्छे ढंग से बना सीढ़ियों वाला कुआँ, पन्ना मियां का कुण्ड समृद्ध अतीत के अवशेष हैं। जयगढ़ किला मध्ययुगीन भारत के कुछ सैनिक इमारतों में से एक। महलों, बगीचों, टांकियों, अन्य भन्डार, शस्त्रागार, एक सुनोयोजित तोप ढलाई-घर, अनेक मंदिर, एक लंबा बुर्ज और एक विशालकाय तोप - जयबाण जो देश की सबसे बड़ी तोपों में से एक है। जयगढ़ के फैले हुए परकोटे, बुर्ज और प्रवेश द्वार पश्चिमी द्वार क्षितिज को छूते हैं। नाहरगढः जयगढ की पहाड़ियों के पीछे स्थित गुलाबी शहर का पहरेदार है - नाहरगढ़ किला। यद्यपि इसका बहुत कुछ हिस्सा ध्वस्त हो गया है, फिर भी सवाई मान सिंह द्वितीय व सवाई माधोसिंह द्वितीय द्वारा बनाई मनोहर इमारतें किले की रौनक बढाती हैं सांगानेर - (१२ किलोमीटर) - यह टोंक जाने वाले राजमार्ग पर स्थित है। इसके ध्वस्त महलों के अतिरिक्त, सांगानेर के उत्कृष्ट नक्काशीदार जैन मंदिर है। दो त्रिपोलिया (तीन मुख्य द्वार) के अवशेषो द्वारा नगर में प्रवेश किया जाता है। शिल्प उद्योग के लिए शहर महत्वपूर्ण केन्द्र है और ठप्पे व जालीदार छपाई की इकाइयों द्वारा हाथ से बने बढिया कपड़े यहां बनते है। यह कपड़ा देश व विदेश में प्रसिद्ध है। गोनेर - दूरी -(17 किलोमीटर) जयपुर की छोटी काशी के उपनाम से विख्यात कस्बा। जयपुर एवं दौसा जिले के ग्रामीण अंचल के आराध्य श्री लक्ष्मी जगदीश महाराज मंदिर का भव्य एवं प्रसिद्ध ऐतिहासिक मंदिर स्थित है। इसके अतिरिक्त ऐतिहासिक प्राचीन किला, बावड़ियाँ एवं जगन्नाथ सागर तालाब स्थित है। राज्य स्तरीय राज्य शैक्षिक प्रबंधन एवं प्रशिक्षण संस्थान तथा जिला स्तरीय जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान स्थित है। बगरू - (34 किलोमीटर) - अजमेर मार्ग पर, पुराना किला, अभी भी अच्छी अवस्था में है। यह अपने हाथ की छपाई के हथकरघा उद्योग के लिए उल्लेखनीय है, जहां सरल तकनीको का प्रयोग होता है। इस हथकरघाओं के डिजाइन कम जटिल व मटियाले रंगो के होते है। रामगढ़ झील - (32 किलोमीटर उत्तर - पूर्व) - पेड़ो से आच्छादित पहाड़ियो के बीच एक ऊंचा बांध बांध कर एक विशाल कृत्रिम झील की निर्माण किया गया है। यद्यपि जमवा माता का मंदिर व पुराने किले के खंडहर इसके पुरावशेष है। विशेषकर बारिश के मौसम में इसके आकर्षक प्राकृतिक दृश्य इसको एक बेहतर पिकनिक स्थल बना देते है। सामोद - (40 किलोमीटर उत्तर - पूर्व) - सुन्दर सामोद महल का पुनर्निमाण किया गया है तथा यह राजपूत हवेली वास्तुकला का बेहतर नमूना है व पर्यटन लिए उत्तम स्थल। विराट नगर- (शाहपुरा - अलवर मार्ग 86 किलोमीटर दूर) - खुदाई करने पर निकले एक वृत्ताकार बुद्ध मंदिर के अवशेषों से युक्त एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थान है जो राजस्थान का असाधारण व भारत का आरंभिक प्रसिद्ध मंदिर है। बैराठ में मौर्य, मुगल व राजपूत समय के स्मृतिचिन्ह भी हैं। अकबर द्वारा निर्मित एक खान (? ), एक रमणीय मुगल बगीचा और जहांगीर द्वारा निर्मित चित्रित छतरियों व दीवारों से युक्त असाधारण इमारत अन्य आकर्षण हैं। सांभर(पश्चिम से 14 किलोमीटर) - नमक की विशाल झील, पवित्र देवयानी कुंड, महल और पास ही स्थित नालियासार के प्रसिद्ध है। जयसिंहपुरा खोर - (अजमेर मार्ग से 12 किलोमीटर) - मीणा कबीले के इस आवास में एक दुर्गम किला, एक जैन मंदिर और हरे भरे वृक्षों के बीच एक बावड़ी है। माधोगढ़ - तुंगा (बस्सी लालसोट आगरा मार्ग से 40 किलोमीटर) - जयपुर व मराठा सेना के बीच हुए एतिहासिक युग का तुंगा गवाह है। सुंदर आम के बागों के बीच यह किला बसा है। चाकसू—चाकसू से 2 किमी पूर्व में शीतला माता का मंदिर है जिसमे प्रतिवर्ष चैत्र कृष्ण प्रतिपदा अष्टमी को यहां मेला भरता है जिसमे लाखो की संख्या में लोग इकट्ठा होते हैं। जयसिंह शहर की स्थापना जयसिंह द्वितीय, आमेर के राजा ने की थी, जो 1688 से 1758 तक शासन कर रही थी। उन्होंने अपनी राजधानी जयपुर से 11 किलोमीटर (7 मील), आमेर से बढ़ती जनसंख्या को समायोजित करने और उनकी कमी को कम करने की योजना बनाई। पानी। [5] जय सिंह ने जयपुर के लेआउट की योजना बनाते समय आर्किटेक्चर और आर्किटेक्ट्स पर कई किताबों से परामर्श किया। विद्याधर भट्टाचार्य के स्थापत्य मार्गदर्शन के तहत, जयपुर वास्तुशास्त्र और शिल्पा शास्त्र के सिद्धांतों के आधार पर योजना बनाई गई थी। [8] शहर का निर्माण 1726 में शुरू हुआ और प्रमुख सड़कों, कार्यालयों और महलों को पूरा करने में चार साल लगे। शहर को 9 ब्लॉकों में विभाजित किया गया था, जिनमें से दो में राज्य की इमारतों और महलों में निहित है, शेष सात लोगों को जनता के लिए आवंटित किया गया था। विशाल गगनचुंबी इमारतों का निर्माण, सात गढ़वाले गेटों से छेड़ा गया। [5]जयपुर भारत के सबसे अधिक सामाजिक समृद्ध विरासत शहरी इलाकों में एक असाधारण है।
जयसिंह शहर की स्थापना किसने की थी ?
जयसिंह द्वितीय
jaisingh shahar kii sthapana kisne kii thi ?
ये उत्तर भारत में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के बाद सबसे अधिक है। परंपरानुसार लखनवी आम (खासकर दशहरी आम), खरबूजा एवं निकटवर्ती क्षेत्रों में उगाये जा रहे अनाज की मंडी रही है। यहां के मशहूर मलीहाबादी दशहरी आम को भौगोलिक संकेतक का विशेष कानूनी दर्जा प्राप्त हो चुका है। मलीहाबादी आम को यह विशेष दर्जा भारत सरकार के भौगोलिक संकेतक रजिस्ट्री कार्यालय, चेन्नई ने एक विशेष क़ानून के अंतर्गत्त दिया गया है। एक अलग स्वाद और सुगंध के कारण दशहरी आम की संसार भर में विशेष पहचान बनी हुई है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार मलीहाबादी दशहरी आम लगभग ६,२५३ हैक्टेयर में उगाए जाते हैं और ९५,६५८.३९ टन उत्पादन होता है। गन्ने के खेत एवं चीनी मिलें भी निकट ही स्थित हैं। इनके कारण मोहन मेकिन्स ब्रीवरी जैसे उद्योगकर्ता यहां अपनी मिलें लगाने के लिए आकर्षित हुए हैं। मोहन मेकिन्स की इकाई १८५५ में स्थापित हुई थी। यह एशिया की प्रथम व्यापारिक ब्रीवरी थी। लखनऊ का चिकन का व्यापार भी बहुत प्रसिद्ध है। यह एक लघु-उद्योग है, जो यहां के चौक क्षेत्र के घर घर में फ़ैला हुआ है। चिकन एवं लखनवी ज़रदोज़ी, दोनों ही देश के लिए भरपूर विदेशी मुद्रा कमाते हैं। चिकन ने बॉलीवुड एवं विदेशों के फैशन डिज़ाइनरों को सदा ही आकर्षित किया है। लखनवी चिकन एक विशिष्ट ब्रांड के रूप में जाना जाये और उसे बनाने वाले कारीगरों का आर्थिक नुकसान न हो, इसलिए केंद्र सरकार के वस्त्र मंत्रालय की टेक्सटाइल कमेटी ने चिकन को भौगोलिक संकेतक के तहत रजिस्ट्रार ऑफ जियोग्राफिकल इंडिकेटर के यहां पंजीकृत करा लिया है। इस प्रकार अब विश्व में चिकन की नकल कर बेचना संभव नहीं हो सकेगा। नवाबों के काल में पतंग-उद्योग भी अपने चरमोत्कर्ष पर था। यह आज भी अच्छा लघु-उद्योग है।
लखनऊ में पाए जाने वाले प्रसिद्ध आम का क्या नाम है ?
दशहरी आम
lakhanu main paae jane vaale prasiddh aam kaa kya naam he ?
ये उत्तर भारत में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के बाद सबसे अधिक है। परंपरानुसार लखनवी आम (खासकर दशहरी आम), खरबूजा एवं निकटवर्ती क्षेत्रों में उगाये जा रहे अनाज की मंडी रही है। यहां के मशहूर मलीहाबादी दशहरी आम को भौगोलिक संकेतक का विशेष कानूनी दर्जा प्राप्त हो चुका है। मलीहाबादी आम को यह विशेष दर्जा भारत सरकार के भौगोलिक संकेतक रजिस्ट्री कार्यालय, चेन्नई ने एक विशेष क़ानून के अंतर्गत्त दिया गया है। एक अलग स्वाद और सुगंध के कारण दशहरी आम की संसार भर में विशेष पहचान बनी हुई है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार मलीहाबादी दशहरी आम लगभग ६,२५३ हैक्टेयर में उगाए जाते हैं और ९५,६५८.३९ टन उत्पादन होता है। गन्ने के खेत एवं चीनी मिलें भी निकट ही स्थित हैं। इनके कारण मोहन मेकिन्स ब्रीवरी जैसे उद्योगकर्ता यहां अपनी मिलें लगाने के लिए आकर्षित हुए हैं। मोहन मेकिन्स की इकाई १८५५ में स्थापित हुई थी। यह एशिया की प्रथम व्यापारिक ब्रीवरी थी। लखनऊ का चिकन का व्यापार भी बहुत प्रसिद्ध है। यह एक लघु-उद्योग है, जो यहां के चौक क्षेत्र के घर घर में फ़ैला हुआ है। चिकन एवं लखनवी ज़रदोज़ी, दोनों ही देश के लिए भरपूर विदेशी मुद्रा कमाते हैं। चिकन ने बॉलीवुड एवं विदेशों के फैशन डिज़ाइनरों को सदा ही आकर्षित किया है। लखनवी चिकन एक विशिष्ट ब्रांड के रूप में जाना जाये और उसे बनाने वाले कारीगरों का आर्थिक नुकसान न हो, इसलिए केंद्र सरकार के वस्त्र मंत्रालय की टेक्सटाइल कमेटी ने चिकन को भौगोलिक संकेतक के तहत रजिस्ट्रार ऑफ जियोग्राफिकल इंडिकेटर के यहां पंजीकृत करा लिया है। इस प्रकार अब विश्व में चिकन की नकल कर बेचना संभव नहीं हो सकेगा। नवाबों के काल में पतंग-उद्योग भी अपने चरमोत्कर्ष पर था। यह आज भी अच्छा लघु-उद्योग है।
मोहन मेकिंस ने अपनी पहली शराब की भठ्ठी कब स्थापित की थी ?
१८५५
mohan mekins ne apni pehali sharaab kii bhatthi kab sthapit kii thi ?