S.No.
int64 1
700
| Title
stringclasses 17
values | Chapter
stringclasses 18
values | Verse
stringlengths 9
11
| Sanskrit Anuvad
stringlengths 51
107
| Hindi Anuvad
stringlengths 84
475
| Enlgish Translation
stringlengths 75
649
|
---|---|---|---|---|---|---|
301 | Jnana-Vijnana Yoga | Chapter 7 | Verse 7.22 | स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते । लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान् ॥ ७.२२ ॥ | वह पुरुष उस श्रद्धासे युक्त होकर उस देवताका पूजन करता है और उस देवतासे मेरे द्वारा ही विधान किये हुए उन इच्छित भोगोंको निःसन्देह प्राप्त करता है| | Thus, once these people have been given their faith by Me, the devotees try to worship the deities they choose to worship, and they ultimately achieve their desires as ordered and directed by Me, the Deity of deities |
302 | Jnana-Vijnana Yoga | Chapter 7 | Verse 7.23 | अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम् । देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि ॥ ७.२३ ॥ | परन्तु उन अल्प बुद्धिवालोंका वह फल नाशवान् है तथा वे देवताओंको पूजनेवाले देवताओंको प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त चाहे जैसे ही भजें, अन्तमें वे मुझको ही प्राप्त होते हैं| | The Lord said solemnly: But the reward of those ignorant people who worship other deities is only temporary. Those who worship other deities go to those deities after death but those who worship Me, attain Me, and come to Me. |
303 | Jnana-Vijnana Yoga | Chapter 7 | Verse 7.24 | अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः । परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ॥ ७.२४ ॥ | बुद्धिहीन पुरुष मेरे अनुत्तम अविनाशी परम भावको न जानते हुए मन इन्द्रियोंसे परे मुझ – सच्चिदानन्दघन परमात्माको मनुष्यकी भाँति जन्मकर व्यक्तिभावको प्राप्त हुआ मानते हैं| | Dear Arjuna, those people who have little intelligence fail to regard Me as the Supreme, indestructible, the Almighty, and unmanifest (not readily perceived by the senses); instead, they regard Me as a mere mortal and ordinary human being. |
304 | Jnana-Vijnana Yoga | Chapter 7 | Verse 7.25 | नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः । मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम् ॥ ७.२५ ॥ | अपनी योगमायासे छिपा हुआ मैं सबके प्रत्यक्ष नहीं होता, इसलिये यह अज्ञानी जनसमुदाय मुझ जन्मरहित अविनाशी परमेश्वरको नहीं जानता अर्थात् मुझको जन्मने-मरनेवाला समझता है| | Shrouded by My own Yogmaya (divine powers), I am not visible to everybody. Those who are ignorant, however, do not know Me as unborn and indestructible (eternal). They will never be able to see Me, O Arjuna. Only those who are dear and devoted to Me, see Me. |
305 | Jnana-Vijnana Yoga | Chapter 7 | Verse 7.26 | वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन । भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन ॥ ७.२६ ॥ | हे अर्जुन ! पूर्वमें व्यतीत हुए और वर्तमानमें स्थित तथा आगे होनेवाले सब भूतोंको मैं जानता हूँ, परन्तु मुझको कोई भी श्रद्धा-भक्तिरहित पुरुष नहीं जानता| | O Arjuna, although I know of every single being who was in the past, who is at the present, and who will be in the future, nobody really knows Me. |
306 | Jnana-Vijnana Yoga | Chapter 7 | Verse 7.27 | इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत । सर्वभूतानि संमोहं सर्गे यान्ति परन्तप ॥ ७.२७ ॥ | हे भरतवंशी अर्जुन ! संसारमें इच्छा और द्वेषसे उत्पन्न सुख-दुःखादि द्वन्द्वरूप मोहसे सम्पूर्ण प्राणी अत्यन्त अज्ञताको प्राप्त हो रहे हैं| | Arjuna, in this world, most beings are confused and deluded by the doubts created by desire and envy, and they become victims of ignorance and Agyan (lack of wisdom). |
307 | Jnana-Vijnana Yoga | Chapter 7 | Verse 7.28 | येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम् । ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः ॥ ७.२८ ॥ | परन्तु निष्कामभावसे श्रेष्ठ कर्मोंका आचरण करनेवाले जिन पुरुषोंका पाप नष्ट हो गया है, वे राग द्वेषजनित द्वन्द्वरूप मोहसे मुक्त दृढ़निश्चयी भक्त मुझको सब प्रकारसे भजते हैं| | O Arjuna, there are, however, some pious people whose sins have been destroyed and are free from all worldly attachments, who worship Me with a firm, undeluded mind. |
308 | Jnana-Vijnana Yoga | Chapter 7 | Verse 7.29 | जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये । ते ब्रह्म तद्विदुः कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम् ॥ ७.२९ ॥ | जो मेरे शरण होकर जरा और मरणसे छूटनेके लिये यत्न करते हैं, वे पुरुष उस ब्रह्मको, सम्पूर्ण अध्यात्मको, सम्पूर्ण कर्मको जानते हैं| | Arjuna, those who make an effort to attain Me and take refuge in Me, achieve deliverance from old age and death, and they also fully understand Brahma, (the infinite never-ending) Adhyatma (self) and all Karma (actions) in this world. |
309 | Jnana-Vijnana Yoga | Chapter 7 | Verse 7.30 | साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः । प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः ॥ ७.३० ॥ | जो पुरुष अधिभूत और अधिदैवके सहित तथा अधियज्ञके सहित (सबका आत्मरूप) मुझे अन्तकालमें भी जानते हैं, वे युक्तचित्तवाले पुरुष मुझे जानते हैं अर्थात् प्राप्त हो जाते हैं| | Only those wise men (Yogis) who truly know Me as being above all elements of the world (Adhibhutha), above all Deities, and above all sacrifices, experience Me even at the end of their existence on earth (death), and they ultimately attain Me, the Supreme Soul. |
310 | Aksara-ParaBrahma Yoga | Chapter 8 | Verse 8.1 | अर्जुन उवाच । किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते... | अर्जुनने कहा – हे पुरुषोत्तम ! वह ब्रह्म क्या है ? – अध्यात्म क्या है ? कर्म क्या है ? अधिभूत नाम क्या कहा गया है और अधिदैव किसको कहते हैं| | Arjuna asked the Lord: Dear Krishna, I have often encountered the terms Brahman, Adhyatma, Karma, Adhibhutam and Adhidaivam, yet I fail to understand the true meaning of these. |
311 | Aksara-ParaBrahma Yoga | Chapter 8 | Verse 8.2 | अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन । प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः ॥ ८.२ ॥ | हे मधुसूदन ! यहाँ अधियज्ञ कौन है ? और वह इस शरीरमें कैसे है ? तथा युक्तचित्तवाले पुरुषोंद्वारा अन्त समयमें आप किस प्रकार जाननेमें आते हैं| | Arjuna continued: Furthermore, O Krishna, I am puzzld by the Adhiyoga. Who is he? How does he dwell in one’s body? Lastly, dear Lord, how do true Yogis come to know you in the ultimate end. |
312 | Aksara-ParaBrahma Yoga | Chapter 8 | Verse 8.3 | श्रीभगवानुवाच । अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः ॥ ८.... | श्रीभगवान्ने कहा– परम अक्षर ‘ब्रह्म’ है, अपना स्वरूप अर्थात् जीवात्मा ‘अध्यात्म’ नामसे कहा जाता है तथा भूतोंके भावको उत्पन्न करनेवाला जो त्याग है, वह ‘कर्म’ नामसे कहा गया है| | The Lord replied: Dear Arjuna, always remember that Brahma is the Supreme imperishable (everlasting); the Universal Soul. The Jeevatma or the soul within one’s body is known as Adhyatma.Karma is the offering made to the Gods that causes the creation or manifestation and also the preservation or sustenance of beings. |
313 | Aksara-ParaBrahma Yoga | Chapter 8 | Verse 8.4 | अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम् । अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर ॥ ८.४ ॥ | उत्पत्ति विनाश धर्मवाले सब पदार्थ अधिभूत – हैं, हिरण्यमय पुरुष * अधिदैव है और हे देहधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन! इस शरीरमें मैं वासुदेव ही अन्तर्यामीरूपसे अधियज्ञ हूँ| | The Lord further explained: Adhibhutam represents all perishable or temporary objects. Brahma, the Universal Soul is the Adhidaivam. O Arjuna, I the Vasudeva, am Adhiyga here in this body and form. |
314 | Aksara-ParaBrahma Yoga | Chapter 8 | Verse 8.5 | अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् । यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ॥ ८.५ ॥ | जो पुरुष अन्तकालमें भी मुझको ही स्मरण करता हुआ शरीरको त्याग कर जाता है, वह मेरे साक्षात् स्वरूपको प्राप्त होता है – इसमें कुछ भी – संशय नहीं है| | Lord Krishna solemnly proclaimed: O Arjuna, he who thinks only of Me at the time of his death, undoubtedly will come to Me. |
315 | Aksara-ParaBrahma Yoga | Chapter 8 | Verse 8.6 | यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् । तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ॥ ८.६ ॥ | हे कुन्तीपुत्र अर्जुन ! यह मनुष्य अन्तकालमें जिस जिस भी भावको स्मरण करता हुआ शरीरका त्याग करता है, उस उसको ही प्राप्त होता है; क्योंकि वह सदा उसी भावसे भावित रहा है| | O Arjuna, whatever entity (being or object) one thinks about during the time of his death while leaving his body, that is what he shall become in his next life. |
316 | Aksara-ParaBrahma Yoga | Chapter 8 | Verse 8.7 | तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च । मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ॥ ८.७ ॥ | इसलिये हे अर्जुन! तू सब समयमें निरन्तर मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर । इस प्रकार मुझमें अर्पण किये हुए मन-बुद्धिसे युक्त होकर तू निःसन्देह मुझको ही प्राप्त होगा| | Therefore,O Arjuna, think of Me at all times, even while you fight this battle. If you surrender your mind and intellect to Me, dear friend, you will undoubtedly come to Me and unite with Me in heaven. |
317 | Aksara-ParaBrahma Yoga | Chapter 8 | Verse 8.8 | अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना । परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन् ॥ ८.८ ॥ | हे पार्थ ! यह नियम है कि परमेश्वरके ध्यानके अभ्यासरूप योगसे युक्त, दूसरी ओर न जानेवाले न चित्तसे निरन्तर चिन्तन करता हुआ मनुष्य परम प्रकाशरूप दिव्य पुरुषको अर्थात् परमेश्वरको ही प्राप्त होता है| | Arjuna, one who is constantly performing meditation upon God without letting his mind wander in any other direction, achieves supreme salvation (union with God) |
318 | Aksara-ParaBrahma Yoga | Chapter 8 | Verse 8.9 | कविं पुराणमनुशासितार- मणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः । सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप मादित्यवर्णं तमसः परस्तात... | जो पुरुष सर्वज्ञ, अनादि, सबके नियन्ता *, सूक्ष्मसे भी अति सूक्ष्म, सबके धारण-पोषण करनेवाले अचिन्त्यस्वरूप, सूर्यके सदृश नित्य चेतन प्रकाशरूप और अविद्यासे अति परे, शुद्ध सच्चिदानन्दघन परमेश्वरका स्मरण करता है| | Dear Arjuna, one who is constantly fixed in meditation upon God, who is the omniscient (everywhere), omnipotent (ever-powerful), infinite (never-ending) ruler over all being, preserver of everybody, whose form cannot be conceived readily by any being, who is as brilliant as the Sun, and who is beyond the darkness of ignorance. |
319 | Aksara-ParaBrahma Yoga | Chapter 8 | Verse 8.10 | प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव । भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुष... | वह भक्तियुक्त पुरुष अन्तकालमें भी योगबलसे भृकुटीके मध्यमें प्राणको अच्छी प्रकार स्थापित करके, फिर निश्चल मनसे स्मरण करता हुआ उस दिव्य रूप परम पुरुष परमात्माको ही प्राप्त होता है| | The Lord Continued: That devoted person, at time of death, with a controlled mind, full of devotion to God, by the power of Yoga, fixing his last few breath in his life in between his eyebrows, only remembering the Supreme God, obtains God, the Supreme Divine Being. |
320 | Aksara-ParaBrahma Yoga | Chapter 8 | Verse 8.11 | यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः । यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहे... | वेदके जाननेवाले विद्वान् जिस सच्चिदानन्दघनरूप परमपदको अविनाशी कहते हैं, आसक्तिरहित यत्नशील संन्यासी महात्माजन जिसमें प्रवेश करते हैं और जिस परमपदको चाहनेवाले ब्रह्मचारी लोग ब्रह्मचर्यका आचरण करते हैं, उस परमपदको मैं तेरे लिये संक्षेपसे कहूँगा| | The Blessed Lord Spoke: O Arjuna, that which the scholars of the Vedas (those who study and are knowledgeable of the Vedas), who are self-controlled and passion-free. enter into, leading the life of celibacy and detachment from all things and being, this Supreme Being shall be made clear to you briefly. |
321 | Aksara-ParaBrahma Yoga | Chapter 8 | Verse 8.12 | सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च । मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ॥ ८.१२ ॥ | सब इन्द्रियोंके द्वारोंको रोककर तथा मनको हृद्देशमें स्थिर करके, फिर उस जीते हुए मनके द्वारा प्राणको मस्तकमें स्थापित करके, परमात्मसम्बन्धी योगधारणामें स्थित होकर जो पुरुष ‘ॐ’ इस एक अक्षररूप ब्रह्मको उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थस्वरूप मुझ निर्गुण ब्रह्मका चिन्तन करता हुआ शरीरको त्याग कर जाता है, वह पुरुष परमगतिको प्राप्त होता है| | When a Yogi has fully controlled all of his senses, fixes his mind in the heart, concentrates on nothing but God, concentrates all of his life’s breath in his head, fully establishes his being in the practice of Yoga. Just as one is about to leave his body, he should chant “Om” as one of God’s many names, thinking of Me(the Lord) in the last few moments of his life. This is the key to the attainment of the Supreme state known as salvation. |
322 | Aksara-ParaBrahma Yoga | Chapter 8 | Verse 8.13 | ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् > । यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ॥ ८.१३ ॥ | एक-सरलीकृत ओम का उच्चारण करना - ब्रह्म का (प्रतीक) - और मुझे याद करते हुए, जो शरीर को छोड़कर चला जाता है, वह सर्वोच्च लक्ष्य प्राप्त करता है। | Uttering the one-syllabled OM — the (symbol of) BRAHMAN — and remembering Me, he who departs, leaving the body, attains the Supreme Goal. |
323 | Aksara-ParaBrahma Yoga | Chapter 8 | Verse 8.14 | अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः । तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ॥ ८.१४ ॥ | हे अर्जुन ! जो पुरुष मुझमें अनन्य चित्त होकर सदा ही निरन्तर मुझ पुरुषोत्तमको स्मरण करता है, उस नित्य निरन्तर मुझमें युक्त हुए योगीके लिये मैं सुलभ – हूँ, अर्थात् उसे सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ| | O Arjuna, the Yogi who is established in Me, with his mind constantly fixed on Me, continually remembering Me, can easily attain me. |
324 | Aksara-ParaBrahma Yoga | Chapter 8 | Verse 8.15 | मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम् । नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः ॥ ८.१५ ॥ | परम सिद्धिको प्राप्त महात्माजन मुझको प्राप्त होकर दुःखोंके घर एवं क्षणभंगुर पुनर्जन्मको नहीं प्राप्त होते| | O Arjuna, the great sages (wise men,Yogis) having achieved Supreme perfection in their life, come to Me, and do not take rebirth which is temporary and full of suffering. |
325 | Aksara-ParaBrahma Yoga | Chapter 8 | Verse 8.16 | आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन । मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ॥ ८.१६ ॥ | हे अर्जुन ! ब्रह्मलोकपर्यन्त सब लोक पुनरावर्ती हैं, परन्तु हे कुन्तीपुत्र ! मुझको प्राप्त होकर पुनर्जन्म नहीं होता; क्योंकि मैं कालातीत हूँ और ये सब ब्रह्मादिके लोक कालके द्वारा सीमित होनेसे अनित्य हैं| | All the worlds in the universe, including this one, O Arjuna, are subject to appear and disappear, go and return again, to be created and recreated, but, Arjuna, when one has attained Me, he is never born again into this world of suffering and temporary pleasure. |
326 | Aksara-ParaBrahma Yoga | Chapter 8 | Verse 8.17 | सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदुः । रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः ॥ ८.१७ ॥ | ब्रह्माका जो एक दिन है, उसको एक हजार चतुर्युगीतककी अवधिवाला और रात्रिको भी एक हजार चतुर्युगीतककी अवधिवाली जो पुरुष तत्त्वसे जानते हैं, वे योगीजन कालके तत्त्वको जाननेवाले हैं| | Those who knows that Brahma’s (the Supreme Creator) one day lasts 1,000 yugas and one night ends 1,000 yugus, truly know the essence of time. |
327 | Aksara-ParaBrahma Yoga | Chapter 8 | Verse 8.18 | अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे । रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके ॥ ८.१८ ॥ | सम्पूर्ण चराचर भूतगण ब्रह्माके दिनके प्रवेशकालमें अव्यक्तसे अर्थात् ब्रह्माके सूक्ष्म शरीरसे उत्पन्न होते हैं और ब्रह्माकी रात्रिके प्रवेशकालमें उस अव्यक्त नामक ब्रह्माके सूक्ष्मशरीरमें ही लीन हो जाते हैं| | Dear Arjuna, try to understand that all that is visible in this world comes out from within Brahma (Creator of the world) at the start of his day. |
328 | Aksara-ParaBrahma Yoga | Chapter 8 | Verse 8.19 | भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते । रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे ॥ ८.१९ ॥ | हे पार्थ! वही यह भूतसमुदाय उत्पन्न हो होकर प्रकृतिके वशमें हुआ रात्रिके प्रवेशकालमें लीन होता है और दिनके प्रवेशकालमें फिर उत्पन्न होता है| | O Arjuna, all beings in this world, by the force of their nature, are born again and again, and dissolve repeatedly as well. They perish and join Brahma at the start of his night, and are born again at the start of his day. |
329 | Aksara-ParaBrahma Yoga | Chapter 8 | Verse 8.20 | परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः । यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति ॥ ८.२० ॥ | उस अव्यक्तसे भी अति परे दूसरा अर्थात् विलक्षण जो सनातन अव्यक्तभाव है, वह परम दिव्य पुरुष सब भूतोंके नष्ट होनेपर भी नष्ट नहीं होता| | O Arjuna, one should always remember that there is a path that leads out of this cycle and into a world of eternal unmanifest, where one is never subject to being born, destroyed and reborn again. It is a world of immortality in which one lives forever in peace and eternal happiness |
330 | Aksara-ParaBrahma Yoga | Chapter 8 | Verse 8.21 | अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम् । यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥ ८.२१ ॥ | जो अव्यक्त ‘अक्षर’ इस नामसे कहा गया है, उसी अक्षर नामक अव्यक्तभावको परमगति कहते हैं तथा जिस सनातन अव्यक्तभावको प्राप्त होकर मनुष्य वापस नहीं आते, वह मेरा परम धाम है| | The unmanifest (uncreated) is eternal and indestructible, O son of Kunti, and is the ultimate goal for all beings to achieve.When one has finally reached this ultimate goal, he does not come back into this world of temporary pleasure and misery. He achieves supreme bliss, peace and contentment. He then lives forever in My Supreme Abode. |
331 | Aksara-ParaBrahma Yoga | Chapter 8 | Verse 8.22 | पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया । यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम् ॥ ८.२२ ॥ | हे पार्थ जिस परमात्माके अन्तर्गत सर्वभूत हैं और जिस सच्चिदानन्दघन परमात्मासे यह समस्त जगत् परिपूर्ण है, वह सनातन अव्यक्त परम पुरुष तो अनन्य’ भक्तिसे ही प्राप्त होने योग्य है| | Dear Arjuna, that God within whom all beings are contained and that God who rules over all the universe, can be attained by complete devotion. |
332 | Aksara-ParaBrahma Yoga | Chapter 8 | Verse 8.23 | यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः । प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ ॥ ८.२३ ॥ | हे अर्जुन ! जिस कालमें शरीर त्याग कर गये हुए योगीजन तो वापस न लौटनेवाली गतिको और जिस कालमें गये हुए वापस लौटनेवाली गतिको ही प्राप्त होते हैं, उस कालको अर्थात् दोनों मार्गोंको कहूँगा| | Dear Arjuna, now I shall tell you of the two paths by which the Yogi returns (comes back and is born into this world again) and by which the Yogi does not return (is not born into this world again.) |
333 | Aksara-ParaBrahma Yoga | Chapter 8 | Verse 8.24 | अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम् । तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ॥ ८.२४ ॥ | जिस मार्गमें ज्योतिर्मय अग्नि-अभिमानी देवता है, दिनका अभिमानी देवता है, शुक्लपक्षका अभिमानी देवता है और उत्तरायणके छः महीनोंका अभिमानी देवता है, उस मार्गमें मरकर गये हुए ब्रह्मवेत्ता योगीजन उपर्युक्त देवताओंद्वारा क्रमसे ले जाये जाकर ब्रह्मको प्राप्त होते हैं| | Those Yogis who follow the path of fire, light, daytime, bright fortnight, and the six months of the northern path of the sun, go to Brahma and are not born into the world again. |
334 | Aksara-ParaBrahma Yoga | Chapter 8 | Verse 8.25 | धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम् । तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते ॥ ८.२५ ... | जिस मार्गमें धूमाभिमानी देवता है, रात्रि अभिमानी देवता है तथा कृष्णपक्षका अभिमानी देवता है और दक्षिणायनके छः महीनोंका अभिमानी देवता है, उस मार्गमें मरकर गया हुआ सकाम कर्म करनेवाला योगी उपर्युक्त देवताओं द्वारा क्रमसे ले गया हुआ चन्द्रमाकी ज्योतिको प्राप्त होकर स्वर्गमें अपने शुभकर्मोंका फल भोगकर वापस आता है| | Those Yogis who follow the path of smoke, night-time, the dark fortnight, the six months of southern path, go to heaven and are eventually reborn back into the world. |
335 | Aksara-ParaBrahma Yoga | Chapter 8 | Verse 8.26 | शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते । एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः ॥ ८.२६ ॥ | क्योंकि जगत्के ये दो प्रकारके – शुक्ल और कृष्ण – – अर्थात् देवयान और पितृयान मार्ग सनातन माने गये हैं। इनमें एकके द्वारा गया हुआ * – जिससे वापस – – नहीं लौटना पड़ता, उस परम गतिको प्राप्त होता है और दूसरेके द्वारा गया हुआ * फिर वापस आता है अर्थात् जन्म-मृत्युको प्राप्त होता है| | The Blessed Lord Krishna continued: These bright and dark paths are considered to be the two original paths of the universe. By following the bright path, the Yogi reaches the Supreme State from where there is no return. Going by the other path, the Yogi is subject to birth and death as many times as he chooses to follow this path.
|
336 | Aksara-ParaBrahma Yoga | Chapter 8 | Verse 8.27 | नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन । तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन ॥ ८.२७ ॥ | हे पार्थ! इस प्रकार इन दोनों मार्गोंको तत्त्वसे जानकर कोई भी योगी मोहित नहीं होता। इस कारण हे अर्जुन ! तू सब कालमें समबुद्धिरूप योगसे युक्त हो अर्थात् निरन्तर मेरी प्राप्तिके लिये साधन करनेवाला हो| | O Arjuna, knowing these two paths, no Yogi ever becomes confused, deluded or unhappy. Therefore Arjuna, you should try to achieve Yoga, the Supreme state of happiness, at all times. |
337 | Aksara-ParaBrahma Yoga | Chapter 8 | Verse 8.28 | वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु यत् पुण्यफलं प्रदिष्टम् । अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स... | योगी पुरुष इस रहस्यको तत्त्वसे जानकर वेदोंके पढ़नेमें तथा यज्ञ, तप और दानादिके करनेमें जो पुण्यफल कहा है, उन सबको निःसन्देह उल्लंघन कर जाता है और सनातन परमपदको प्राप्त होता है| | Whatever achievements are obtained by the study of the Vedas, by sacrifices, and by giving to charities, the Yogi goes beyond all of these achievements and achieves the ultimate goal and learns the ultimate secret: the attainment of the eternal Supreme state by constantly practising Yoga. |
338 | Raja-Vidya-Raja-Guhya Yoga | Chapter 9 | Verse 9.1 | श्रीभगवानुवाच । इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽश... | श्रीभगवान् बोले- तुझ दोषदृष्टिरहित भक्तके लिये इस परम गोपनीय विज्ञानसहित ज्ञानको पुनः भलीभाँति कहूँगा, जिसको जानकर तू दुःखरूप संसारसे मुक्त हो जायगा| | Lord Krishna continued: Dear Arjuna, I shall explain to you this ultimate secret and Gyan which is the knowledge of all that is manifest (to emerge from Brahma and be born in this world) and all that is unmanifest (to become one with Brahma and forever be liberated from this world of suffering). |
339 | Raja-Vidya-Raja-Guhya Yoga | Chapter 9 | Verse 9.2 | राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम् । प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम् ॥ ९.२ ॥ | यह विज्ञानसहित ज्ञान सब विद्याओंका राजा, सब गोपनीयोंका राजा, अति पवित्र, अति उत्तम, प्रत्यक्ष फलवाला, धर्मयुक्त, साधन करनेमें बड़ा सुगम और अविनाशी है| | This Gyan is the most significant secret knowledge in the universe, O Arjuna. It is very pure and helpful to all beings. It produces direct and favourable results. This virtuous secret is easy to practice and is imperishable. |
340 | Raja-Vidya-Raja-Guhya Yoga | Chapter 9 | Verse 9.3 | अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप । अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि ॥ ९.३ ॥ | हे परंतप! इस उपर्युक्त धर्ममें श्रद्धारहित पुरुष मुझको न प्राप्त होकर मृत्युरूप संसारचक्रमें भ्रमण करते रहते हैं| | Arjuna, those people who do not have faith in these principles and in this secret knowledge do not attain Me (the ultimate goal) and thus, move into a world if darkness and death. |
341 | Raja-Vidya-Raja-Guhya Yoga | Chapter 9 | Verse 9.4 | मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना । मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः ॥ ९.४ ॥ | मुझ निराकार परमात्मासे यह सब जगत् जलसे बरफके सदृश परिपूर्ण है और सब भूत मेरे अन्तर्गत संकल्पके आधार स्थित हैं, किन्तु वास्तवमें मैं उनमें स्थित नहीं हूँ| | I am present in all of the universe (on every world) in my unmanifest (unseen) form. All beings are contained in Me but I am not always contained in them. |
342 | Raja-Vidya-Raja-Guhya Yoga | Chapter 9 | Verse 9.5 | न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम् । भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः ॥ ९.५ ॥ | वे सब भूत मुझमें स्थित नहीं हैं; किन्तु मेरी ईश्वरीय योगशक्तिको देख कि भूतोंका धारण-पोषण करनेवाला और भूतोंको उत्पन्न करनेवाला भी मेरा आत्मा वास्तवमें भूतोंमें स्थित नहीं है| | O Arjuna, you must also understand that all the beings in this universe are not within Me.
Behold the effects of My Yoga (spiritual power), though I sustain and create all beings, in reality, My Self dwells not in these beings. |
343 | Raja-Vidya-Raja-Guhya Yoga | Chapter 9 | Verse 9.6 | यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान् । तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय ॥ ९.६ ॥ | जैसे आकाशसे उत्पन्न सर्वत्र विचरनेवाला महान् वायु सदा आकाशमें ही स्थित है, वैसे ही मेरे संकल्पद्वारा उत्पन्न होनेसे सम्पूर्ण भूत मुझमें स्थित हैं, ऐसा जान| | Arjuna, you must clearly understand that just as the vast wind moves in all directions in the sky, similarly all beings are placed in Me. |
344 | Raja-Vidya-Raja-Guhya Yoga | Chapter 9 | Verse 9.7 | सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम् । कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम् ॥ ९.७ ॥ | हे अर्जुन ! कल्पोंके अन्तमें सब भूत मेरी प्रकृतिको प्राप्त होते हैं अर्थात् प्रकृतिमें लीन होते हैं और कल्पोंके आदिमें उनको मैं फिर रचता हूँ| | O Arjuna, all beings realize and attain My true nature at the end of Brahma’s Day knows as Kalpa. I, the Supreme Being, create them again at the beginning of every Kalpa. |
345 | Raja-Vidya-Raja-Guhya Yoga | Chapter 9 | Verse 9.8 | प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः । भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात् ॥ ९.८ ॥ | अपनी प्रकृतिको अंगीकार करके स्वभावके बलसे परतन्त्र हुए इस सम्पूर्ण भूतसमुदायको बार-बार उनके कर्मों के अनुसार रचता हूँ| | O Arjuna, I create all beings again and again according to their karma (performed actions in their past life) out of My Maya (spiritually powerful nature). |
346 | Raja-Vidya-Raja-Guhya Yoga | Chapter 9 | Verse 9.9 | न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय । उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु ॥ ९.९ ॥ | हे अर्जुन ! उन कर्मोंमें आसक्तिरहित और वे उदासीनके सदृश स्थित मुझ परमात्माको वे कर्म नहीं बाँधते| | Dear Arjuna, Karma has no affect on Me whatsoever. I am unattached and indifferent to Karma. I have no bondage to Karma at all. |
347 | Raja-Vidya-Raja-Guhya Yoga | Chapter 9 | Verse 9.10 | मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् । हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ॥ ९.१० ॥ | हे अर्जुन ! मुझ अधिष्ठाताके सकाशसे प्रकृति चराचरसहित सर्व जगत्को रचती है और इस हेतुसे ही यह संसारचक्र घूम रहा है| | Dear Arjuna, under My supervision, it is through My Maya (nature) that the universe is created with all animate and inanimate (living and non-living) beings. It is because of this fact that the whole universe revolves around the cycle of birth and death. |
348 | Raja-Vidya-Raja-Guhya Yoga | Chapter 9 | Verse 9.11 | अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् । परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् ॥ ९.११ ॥ | मेरे परमभावको न जाननेवाले मूढलोग मनुष्यका शरीर धारण करनेवाले मुझ सम्पूर्ण भूतोंके महान् ईश्वरको तुच्छ समझते हैं अर्थात् अपनी योगमायासे संसारके उद्धार के लिये मनुष्यरूपमें विचरते हुए मुझ परमेश्वरको साधारण मनुष्य मानते हैं| | Not knowing and fully understanding My Supreme Nature, all ignorant and unspiritual people in this world regard Me as insignificant when I am in human form. They fail to see and realize that I am the Lord of all beings. |
349 | Raja-Vidya-Raja-Guhya Yoga | Chapter 9 | Verse 9.12 | मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः । राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः ॥ ९.१२ ॥ | वे व्यर्थ आशा, व्यर्थ कर्म और व्यर्थ ज्ञानवाले विक्षिप्तचित्त अज्ञानीजन राक्षसी, आसुरी और मोहिनी प्रकृतिको’ ही धारण किये रहते हैं| | The Lord spoke onward: These ignorant people with futile hopes, vain actions (Karma), and false knowledge (spiritual and non-spiritual Gyan) have a misleading and evil nature. |
350 | Raja-Vidya-Raja-Guhya Yoga | Chapter 9 | Verse 9.13 | महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः । भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम् ॥ ९.१३ ॥ | परन्तु हे कुन्तीपुत्र ! दैवी प्रकृतिके आश्रित महात्माजन मुझको सब भूतोंका सनातन कारण और नाशरहित अक्षरस्वरूप जानकर अनन्य मनसे युक्त होकर निरन्तर भजते हैं| | But, Arjuna, always heed that all saints, Yogis and wise men, with their godly, spiritual nature,regard Me as the prime cause of all beings (the Creator of the world) and indestructible. They worship Me with one-mindedness, never letting their minds go astray and be affected by worldly objects, attachment to Karma, and false Gyan. |
351 | Raja-Vidya-Raja-Guhya Yoga | Chapter 9 | Verse 9.14 | सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः । नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते ॥ ९.१४ ॥ | वे दृढ़ निश्चयवाले भक्तजन निरन्तर मेरे नाम और गुणोंका कीर्तन करते हुए तथा मेरी प्राप्तिके लिये यत्न करते हुए और मुझको बार बार प्रणाम करते हुए सदा मेरे ध्यानमें युक्त होकर अनन्य प्रेमसे मेरी उपासना करते हैं| | True devotees of mine, O Arjuna, always have a firm belief in Me, constantly chant My name, bowing before Me, are always absorbed in My thought and worship Me with true love and devotion. |
352 | Raja-Vidya-Raja-Guhya Yoga | Chapter 9 | Verse 9.15 | ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते । एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम् ॥ ९.१५ ॥ | दूसरे ज्ञानयोगी मुझ निर्गुण-निराकार ब्रह्मका ज्ञानयज्ञके द्वारा अभिन्नभावसे पूजन हुए भी मेरी उपासना करते हैं और दूसरे मनुष्य बहुत प्रकारसे स्थित मुझ विराट्स्वरूप परमेश्वरकी पृथक् भावसे उपासना करते हैं| | Several people worship Me in different ways, My dear friend. Some choose to worship Me with their offering of knowledge (Gyan Yagya); others worship Me in my absolute (formless) form as part of their own self; and still others choose to worship Me as their Divine Master, in My several different and diverse forms. However, Arjuna, realize that I am One and Universal even though I take on several forms. |
353 | Raja-Vidya-Raja-Guhya Yoga | Chapter 9 | Verse 9.16 | अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम् । मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम् ॥ ९.१६ ॥ | क्रतु मैं हूँ, यज्ञ मैं हूँ, स्वधा मैं हूँ, ओषधि मैं हूँ, मन्त्र मैं हूँ, घृत मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ और हवनरूप क्रिया भी मैं ही हूँ| | Arjuna, you must understand that I am everything in this world.
I am the Vedic rituals; I am the sacrifice and the offerings (Yogya); I am the represent all herbal life
I am the Mantra (Vedic); I am purified butter; I am fire; I am the very act of offering in sacrifices. |
354 | Raja-Vidya-Raja-Guhya Yoga | Chapter 9 | Verse 9.17 | पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः । वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक्साम यजुरेव च ॥ ९.१७ ॥ | इस सम्पूर्ण जगत्का धाता अर्थात् धारण करनेवाला एवं कर्मोंके फलको देनेवाला, पिता, माता, पितामह, जाननेयोग्य,’ पवित्र ओंकार तथा ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ| | I am the sustainer, the father,mother, and grandfather of the whole universe. I represent all that is knowable and worth knowing
I am the Supreme Purifier of all things in the Universe and I represent all of the Vedas in the Universe also, namely, Rig Veda, Yajur Veda and Sama Veda. |
355 | Raja-Vidya-Raja-Guhya Yoga | Chapter 9 | Verse 9.18 | गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत् । प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम् ॥ ९.१८ ॥ | प्राप्त होनेयोग्य परम धाम, भरण-पोषण करनेवाला, सबका स्वामी, शुभाशुभका देखनेवाला, सबका वासस्थान, शरण लेनेयोग्य, प्रत्युपकार न चाहकर हित करनेवाला, सबकी उत्पत्ति प्रलयका हेतु, – स्थितिका आधार, निधान’ और अविनाशी कारण भी मैं ही हूँ| | O Dear Arjuna, I support and preserve all the creation in the universe; I am the Supreme Lord of all; the witness of all occurrences, the shelter; the refuge; the well-wisher of all beings; the absolute beginning and origin of things, and the absolute end termination of all things.
Furthermore, Arjuna, I am the resting place and storage place (refuge) into which all beings come together when the time of universal destruction is at hand. Know Me also, as the one imperishable, indestructible seed from which all beings in the universe are cultivated. |
356 | Raja-Vidya-Raja-Guhya Yoga | Chapter 9 | Verse 9.19 | तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च । अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन ॥ ९.१९ ॥ | मैं ही सूर्यरूपसे तपता हूँ, वर्षाका आकर्षण करता हूँ और उसे बरसाता हूँ। हे अर्जुन ! मैं ही अमृत और मृत्यु हूँ और सत् असत् भी मैं – ही हूँ| | O Arjuna, I am the giver of heat; I am responsible also, for the sending and holding back of rain for the nourishment of all life.
You must understand, My dear friend, that I am the very nectar (the juice) of life within all beings, and at the same time, I am the death of all beings. Arjuna, I am all that is real and unreal in this universe. |
357 | Raja-Vidya-Raja-Guhya Yoga | Chapter 9 | Verse 9.20 | त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते । ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोक-... | तीनों वेदोंमें विधान किये हुए सकामकर्मोंको करनेवाले, सोमरसको पीनेवाले, पापरहित पुरुष मुझको यज्ञोंके द्वारा पूजकर स्वर्गकी प्राप्ति चाहते हैं; वे पुरुष अपने पुण्योंके फलरूप स्वर्गलोकको प्राप्त होकर स्वर्गमें दिव्य देवताओंके भोगोंको भोगते हैं| | Those who perform actions (as described in the three Vedas), desiring fruit from these actions, and those who drink the juice of the pure Soma plant, are cleansed and purified of their past sins. Those who desire heaven, (the Supreme Abode of the Lord known as Indralok) attain heaven and enjoy its divine pleasures by worshipping Me through the offering of sacrifices. Thus, by performing good action (Karma) as outlined by the three Vedas, one will always undoubtedly receive a place in heaven where they will enjoy all of the divine pleasure that are enjoyed by the Deities. |
358 | Raja-Vidya-Raja-Guhya Yoga | Chapter 9 | Verse 9.21 | ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति । एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गताग... | वे उस विशाल स्वर्गलोकको भोगकर पुण्य क्षीण होनेपर मृत्युलोकको प्राप्त होते हैं। इस प्रकार स्वर्गके साधनरूप तीनों वेदोंमें कहे हुए सकामकर्मका आश्रय लेनेवाले और भोगोंकी कामनावाले पुरुष बार बार आवागमनको प्राप्त – होते हैं, अर्थात् पुण्यके प्रभावसे स्वर्गमें जाते हैं और पुण्य क्षीण होनेपर मृत्युलोकमें आते हैं| | However, Arjuna, after all of their good Karma (action) has expired, the enjoyment of all of the happiness, joy and peace that they have encountered in heaven ends as well, and therefore, they are reborn in the world (subject to the cycle of birth and death) once more.
Therefore, Arjuna, all beings who perform attached Karma (actions performed for the purpose of gaining something, i.e. fruits, in return for the action), are always born and reborn into this cycle of birth and death according to the three Vedas. |
359 | Raja-Vidya-Raja-Guhya Yoga | Chapter 9 | Verse 9.22 | अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते । तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥ ९.२२ ॥ | जो अनन्यप्रेमी भक्तजन मुझ परमेश्वरको निरन्तर चिन्तन करते हुए निष्कामभावसे भजते हैं, उन नित्य-निरन्तर मेरा चिन्तन करनेवाले पुरुषोंका योगक्षेम मैं स्वयं प्राप्त कर देता हूँ| | However, Arjuna, for those beings who worship Me with a fixed mind, meditating and constantly thinking of Me, worshipping Me without any desire for rewards in return for their worship, are granted full refuge and salvation in My Supreme Abode (Heaven). These devotees are never reborn in this cycles of birth and death and attain a place in My Abode for Eternity. |
360 | Raja-Vidya-Raja-Guhya Yoga | Chapter 9 | Verse 9.23 | येऽप्यन्यदेवताभक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः । तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् ॥ ९.२३ ॥ | हे अर्जुन ! यद्यपि श्रद्धासे युक्त जो सकाम भक्त दूसरे देवताओंको पूजते हैं, वे भी मुझको ही पूजते हैं; किन्तु उनका वह पूजन अविधिपूर्वक अर्थात् अज्ञानपूर्वक है| | Arjuna, all of those devotees of mine who perform Attached Karma and who have faith in the various Deities (who are all part of and representatives of Me in reality), actually worship Me. However, this worship is really being done out ignorance, (lack of proper knowledge about Me.) |
361 | Raja-Vidya-Raja-Guhya Yoga | Chapter 9 | Verse 9.24 | अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च । न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते ॥ ९.२४ ॥ | क्योंकि सम्पूर्ण यज्ञोंका भोक्ता और स्वामी भी मैं ही हूँ; परन्तु वे मुझ परमेश्वरको तत्त्वसे नहीं जानते, इसीसे गिरते हैं अर्थात् पुनर्जन्मको प्राप्त होते हैं| | Arjuna, I am the Supreme Lord and receiver of all sacred sacrifices. However, those devotees who worship Me for some sort of motive or reward, really do not knows Me, and therefore, they shall always fall in this cycle of birth and death. |
362 | Raja-Vidya-Raja-Guhya Yoga | Chapter 9 | Verse 9.25 | यान्ति देवव्रता देवान्पितॄन्यान्ति पितृव्रताः । भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ॥ ९... | देवताओंको पूजनेवाले देवताओंको प्राप्त होते हैं, पितरोंको पूजनेवाले पितरोंको प्राप्त होते हैं, भूतोंको पूजनेवाले भूतोंको प्राप्त होते हैं और मेरा पूजन करनेवाले भक्त मुझको ही प्राप्त होते हैं । इसलिये मेरे भक्तोंका पुनर्जन्म नहीं होता| | Arjuna, a person only gets what he worship for. Those who worship Deities, attain them. Those who worship ancestors, attain them. Those who worship the spirits, attain spirits, and of course, those who worship Me, will undoubtedly attain Me. |
363 | Raja-Vidya-Raja-Guhya Yoga | Chapter 9 | Verse 9.26 | पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति । तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ॥ ९.२६ ॥ | जो कोई भक्त मेरे लिये प्रेमसे पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्धबुद्धि निष्काम प्रेमी भक्तका प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र पुष्पादि मैं सगुणरूपसे प्रकट होकर प्रीतिसहित – खाता हूँ| | I accept with love, all of the offerings that My selfless devotees present to Me (devotedly) in the form of leaves, flowers, fruits and water. |
364 | Raja-Vidya-Raja-Guhya Yoga | Chapter 9 | Verse 9.27 | यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् । यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥ ९.२७ ॥ | हे अर्जुन! तू जो कर्म करता है, जो खाता है, जो हवन करता है, जो दान देता है और जो तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर| | Arjuna, whatever you do, whatever your actions are, whatever you sacrifice and give, and whatever your religious and sacred parctices may be, offer all of these to Me, dear friend. |
365 | Raja-Vidya-Raja-Guhya Yoga | Chapter 9 | Verse 9.28 | शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः । संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि ॥ ९.२८ ॥ | इस प्रकार, जिसमें समस्त कर्म मुझ भगवान्के अर्पण होते हैं – ऐसे संन्यासयोगसे युक्त चित्तवाला तू शुभाशुभ फलरूप कर्मबन्धनसे मुक्त हो जायगा और उनसे मुक्त होकर मुझको ही प्राप्त होगा| | With your mind religiously and devotedly established in Sannyaas Yoga (offering all of your actions to Me), and therefore being fully released from the bondages and ties to worldly pleasures which result from attachment to Karma (good and bad Karma), you shall ultimately, and definitely, attain Me. |
366 | Raja-Vidya-Raja-Guhya Yoga | Chapter 9 | Verse 9.29 | समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः । ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ॥ ९.२... | मैं सब भूतोंमें समभावसे व्यापक हूँ, नकोई मेरा अप्रिय है और न प्रिय है; परन्तु जोभक्त मुझको प्रेमसे भजते हैं, वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें प्रत्यक्ष प्रकट हूँ| | I regard all beings with equality and with even-mindedness. I neither hate nor love anybody, nor do I like or dislike anyone. However, those who choose to worship Me, with everlasting and pure devotion, are always in Me, and I am in them. |
367 | Raja-Vidya-Raja-Guhya Yoga | Chapter 9 | Verse 9.30 | अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् । साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥ ९.३० ॥ | यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभावसे मेरा भक्त होकर मुझको भजता है तो वह साधु ही माननेयोग्य है; क्योंकि वह यथार्थ निश्चयवाला है । अर्थात् उसने भलीभाँति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वरके भजनके समान अन्य कुछ भी नहीं है| | O Arjuna, you must realize that even if the most evil of men become My devotee and worship Me with a steady and even mind, fully focusing his thoughts and concentrating on Me, he should be considered a saint and a wise man because he is a man of steady wisdom and intelligence since he possesses a decisive mind. |
368 | Raja-Vidya-Raja-Guhya Yoga | Chapter 9 | Verse 9.31 | क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति । कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ॥ ९.३१ ॥ | वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहनेवाली परम शान्तिको प्राप्त होता है । हे अर्जुन! तू निश्चयपूर्वक सत्य जान कि मेरा भक्त नष्ट नहीं होता| | This evil man will then soon become a very pure and pious man in time. He will then attain eternal peace and happiness, Realize this truth O Arjuna, that he who is My true devotees, shall never suffer destruction. |
369 | Raja-Vidya-Raja-Guhya Yoga | Chapter 9 | Verse 9.32 | मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः । स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गति... | हे अर्जुन ! स्त्री, वैश्य, शूद्र तथा पापयोनि– चाण्डालादि जो कोई भी हों, वे भी मेरे शरण होकर परमगतिको ही प्राप्त होते हैं| | Dear Arjuna, by taking refuge in Me, (the true path to bliss and joy), a sinful person, a women, a businessman, and even an untouchable person, will attain, the Supreme state just as the virtuous Brahman, and the devoted great royal sages and wise men. |
370 | Raja-Vidya-Raja-Guhya Yoga | Chapter 9 | Verse 9.33 | किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा । अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम् ॥ ९.३३ ॥ | फिर इसमें तो कहना ही क्या है, जो पुण्यशील ब्राह्मण तथा राजर्षि भक्तजन मेरी शरण होकर परमगतिको प्राप्त होते हैं । इसलिये तू सुखरहित और क्षणभङ्गुर इस मनुष्य शरीरको प्राप्त होकर निरन्तर मेरा ही भजन कर| | O Arjuna, this world is one that is quickly passing, very brief and full of sufferings. Having been born here in such a world, the only way that one can attain true happiness and peace is to worship Me. |
371 | Raja-Vidya-Raja-Guhya Yoga | Chapter 9 | Verse 9.34 | मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु । मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः ॥ ९.३४ ॥ | मुझमें मनवाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करनेवाला हो, मुझको प्रणाम कर । इस प्रकार आत्माको मुझमें नियुक्त करके मेरे परायण होकर तू मुझको ही प्राप्त होगा| | Arjuna, fix your mind only on Me; be my true, dedicated and sincere devotee; offer all sacrifices to Me; bow to Me. Having these things with Me always in mind, you will come to Me inevitably. |
372 | Vibhuti Yoga | Chapter 10 | Verse 10.1 | श्रीभगवानुवाच । भूय एव महाबाहो शृणु मे परमं वचः यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया ॥ १०.१ ॥ | श्रीभगवान् बोले—- हे महाबाहो ! फिर भी मेरे परम रहस्य और प्रभाव युक्त्त वचन को सुन, जिसे मै तुझ अतिशय प्रेम रखने वाले के लिये हित की इच्छा से कहूँगा | | Arjuna, my dear devotee, hear and understand these wise words (full of the highest and most divine knowledge) which I shall disclose to you, for your own good. |
373 | Vibhuti Yoga | Chapter 10 | Verse 10.2 | न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः । अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः ॥ १०.२ ॥ | मेरी उत्पति को अर्थात्त् लीला से प्रकट होने को न देवता लोग जानते है और न महषि जन ही जानते है; क्योंकि मै सब प्रकार से देवताओ का और महषियों का भी आदिकारण हूँ | | Even the Deities and the greatest of wiseman do not know the secret of my birth in this world (in human form). You should understand,my dear friend, that it is from ME that all of these Deities and wisemen originate. |
374 | Vibhuti Yoga | Chapter 10 | Verse 10.3 | यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम् । असंमूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ १०.३ ॥ | जो मुझको अजन्मा अर्थात्त् वास्तव में जन्मरहित, अनादि और लोकों का महान ईश्वर तत्व से जानना है, वह मनुष्यों में ज्ञानवान् पुरुष सम्पूर्ण पापो से मुक्त्त हो जाता है| | The Blessed Lord declared: He who fully understands ME (in all respects) as being without a beginning or an end,and Lord of the universe,is truly the wisest person among all men and is released from all his sins. |
375 | Vibhuti Yoga | Chapter 10 | Verse 10.4 | बुद्धिर्ज्ञानमसंमोहः क्षमा सत्यं दमः शमः । सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च ॥ १०.४ ॥ | निश्चय करने की शक्त्ति, यथार्थ ज्ञान, असम्मूढता, क्षमा, सत्य, इन्द्रियों का वश में करना, मन का निग्रह तथा सुख-दुःख, उत्पत्ति-प्रलय और भय-अभय तथा अहिंसा, समता, संतोष, तप, दान, कीर्ति और अपकीर्ति–ऎसे ये प्राणियो के नाना प्रकार के भाव मुझ से ही होते है| | The intellect, the GYAN (Supreme Knowledge), understanding, forbearance, truth, control over the mind and senses, joys, sorrows, birth, death, fear, fearlessness, non-violence, even-mindedness, contentment, austerity, charity, fame, infamy, all of these and other diverse elements that surround life in this world, arise and begin from ME, the Supreme Soul. |
376 | Vibhuti Yoga | Chapter 10 | Verse 10.5 | अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः । भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः ॥ १०.५ ॥ | निश्चय करने की शक्त्ति, यथार्थ ज्ञान, असम्मूढता, क्षमा, सत्य, इन्द्रियों का वश में करना, मन का निग्रह तथा सुख-दुःख, उत्पत्ति-प्रलय और भय-अभय तथा अहिंसा, समता, संतोष, तप, दान, कीर्ति और अपकीर्ति–ऎसे ये प्राणियो के नाना प्रकार के भाव मुझ से ही होते है| | The intellect, the GYAN (Supreme Knowledge), understanding, forbearance, truth, control over the mind and senses, joys, sorrows, birth, death, fear, fearlessness, non-violence, even-mindedness, contentment, austerity, charity, fame, infamy, all of these and other diverse elements that surround life in this world, arise and begin from ME, the Supreme Soul. |
377 | Vibhuti Yoga | Chapter 10 | Verse 10.6 | महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा । मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः ॥ १०.६ ॥ | सात महषिजन, चार उनसे भी पूर्व में होने वाले सनकादि स्वयम्भुव आदि चौदह मनु —-ये मुझ में भाव वाले सब-के-सब मेरे संकल्प से उत्पन्न हुए है, जिनकी संसार में यह सम्पुर्ण प्रजा है| | The seven great sages (wisemen), their four elders (such as SANAK and the others) and the fourteen MANUS (the forefathers and originators of man-kind, namely SWAYAMBHU MANU and the generation that followed him), who were all my great devotees and were born out of MY will, all the beings that have evolved in the world are descendents of these devotees of mine. |
378 | Vibhuti Yoga | Chapter 10 | Verse 10.7 | एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः । सोSविकल्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः ॥ १०.७ ॥ | जो पुरुष मेरी इस परमेश्वर्य रूप विभूति को और योग शक्त्ति को तत्व जानता है, वह निश्चल भक्त्ति योग से युक्त्त हो जाता है—इसमे कुछ भी संशय नहीं है| | He who fully understands my Supreme Glories and the divine powers of Yoga, will undoubtedly achieve the most Supreme goal of a lifetime, and that is, to become united and enjoined with ME. To achieve this Supreme state one must take part in firm and constant meditation, having only Myself fixed in his mind at all times. |
379 | Vibhuti Yoga | Chapter 10 | Verse 10.8 | अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते । इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः ॥ १०.८ ॥ | मैं वासुदेव ही सम्पूर्ण जगत्त् की उत्पत्ति का कारण हूँ और मुझ से ही सब जगत्त् चेष्टा करता है, इस प्रकार समझ कर श्रद्भा और भक्त्ति से युक्त्त बुद्भिमान् भक्त्तजन मुझ परमेश्वर को निरन्तर भजते है| | Arjuna, recognize Me as the eternal source and MAKER of all that exists in this world. It is because of ME that anything can move in this world. Those who truly know and understand this, are wise people and shall always worship ME with full faith and devotion. |
380 | Vibhuti Yoga | Chapter 10 | Verse 10.9 | मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् । कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥ १०.९ ॥ | निरन्तर मुझ मे मन लगाने वाले और मुझ में ही प्राणो को अर्पण करने वाले भक्त्त जन मेरी भक्त्ति की चर्चा के द्भारा आपस मे मेरे प्रभाव को जानते हुए तथा गुण और प्रभाव सहित मेरा कथन करते हुए ही निरन्तर संतुष्ट होते हैं और मुझ वासुदेव में ही निरन्तर रमण करते हैं | | Those faithful devotees, of MINE whose mind are constantly fixed on ME, enlightening each other spiritually about ME and are always talking about my divine attributes and virtues, are forever contented and delighted. |
381 | Vibhuti Yoga | Chapter 10 | Verse 10.10 | तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् । ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥ १०.१० ॥ | उन निरन्तर मेरे ध्यान आदि में लगे हुए और प्रेम पूर्वक भजने वाले भक्त्तों को मैं वह. तत्व ज्ञान रुप योग देता हूँ. जिससे वे मुझको ही प्राप्त होते हैं | | My true devotees are constantly attached to ME and worship ME with love. I bestow upon these devotees of mine, the Yoga of wisdom by which they are guided to ME, the source of Supreme bliss and eternal contentment. |
382 | Vibhuti Yoga | Chapter 10 | Verse 10.11 | तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः । नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ॥ १०.११ ॥ | हे अर्जुन ! उनके ऊपर अनुग्रह करने के लिये उनके अन्तः -करण में स्थित हुआ मै स्वयं ही उनके अज्ञान जनित अन्धकार को प्रकाश मय तत्व ज्ञान रूप दीपक के द्बारा नष्ट कर देता हूँ | | While dwelling in the hearts of my devotees, I shed MY divine grace upon them and through the light that emanates from the lamp of knowledge (GYAN), I rid them of their darkness that has evolved from their ignorance. |
383 | Vibhuti Yoga | Chapter 10 | Verse 10.12 | अर्जुन उवाच । परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् पुरुषं शाश्र्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् ॥ १०.... | अर्जुन बोले—-आप परम ब्रह्रा, परम धाम और परम पवित्र है ; क्योंकि आपको सब ऋषिगण सनातन दिव्य पुरुष एवं देवों का भी आदिदेव, अजन्मा और सर्व व्यापी कहते हैं, वैसे ही देवषि नारद तथा असित और देवल ऋषि तथा महषि व्यास भी कहते हैं और स्वयं आप भी मेरे प्रति कहते है | | Arjuna said: Dear Lord, You are the highest, the absolute the Supreme, Eternal and everlasting, the greatest purifier, the ultimate resort, Surpasser of all boundaries known to man, the origin of all Deities, the omni-present Spirit, and filled with spiritual Divinity. The greatest seers and divine sages, NARADA, ASIT, DEVAL, VYAS as well as You yourself have said all of these characteristics of You, my Lord. |
384 | Vibhuti Yoga | Chapter 10 | Verse 10.13 | आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा । असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे ॥ १०.१३ ॥ | अर्जुन बोले—-आप परम ब्रह्रा, परम धाम और परम पवित्र है ; क्योंकि आपको सब ऋषिगण सनातन दिव्य पुरुष एवं देवों का भी आदिदेव, अजन्मा और सर्व व्यापी कहते हैं, वैसे ही देवषि नारद तथा असित और देवल ऋषि तथा महषि व्यास भी कहते हैं और स्वयं आप भी मेरे प्रति कहते है | Arjuna said: Dear Lord, You are the highest, the absolute the Supreme, Eternal and everlasting, the greatest purifier, the ultimate resort, Surpasser of all boundaries known to man, the origin of all Deities, the omni-present Spirit, and filled with spiritual Divinity.The greatest seers and divine sages, NARADA, ASIT, DEVAL, VYAS as well as You yourself have said all of these characteristics of You, my Lord. |
385 | Vibhuti Yoga | Chapter 10 | Verse 10.14 | सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव । न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः ॥ १०.१४ ॥ | हे केशव ! जो कुछ भी मेरे प्रति आप कहते हैं, इस सब को मैं सत्य मानता हूँ । हे भगवन् ! आपके लीलामय, स्वरूप को न तो दानव जानते हैं और न देवता ही| | Lord Krishna, I accept all of the Knowledge that You have bestowed upon ME as true. I have also understood, dear Lord, that your very manifestation and origin is not understood by Deities let alone demons. |
386 | Vibhuti Yoga | Chapter 10 | Verse 10.15 | स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम । भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते ॥ १०.१५ ॥ | हें भूतों को उत्पन्न करने वाले ! हे भूतों के ईश्वर ! हे देवों के देव ! जगत्त् के स्वामी ! हे पुरुषोतम ! आप स्वयं ही अपने से अपने को जानते हैं | | Arjuna continued: O Krishna, Originator of all, Lord of all beings, Lord of all Deities, Master and Creator of the World, the FIRST among all men, you alone in this universe, truly know Yourself. |
387 | Vibhuti Yoga | Chapter 10 | Verse 10.16 | वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः । याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि ॥ १०.१६ ॥ | आपको वास्तव में, बिना किसी रिजर्व के, मुझे अपनी दिव्य महिमा के बारे में बताना चाहिए जिसके द्वारा आप इन सभी दुनियाओं में व्याप्त हैं। | You should indeed, without reserve, tell me of Your Divine glories by which You exist pervading all these worlds. |
388 | Vibhuti Yoga | Chapter 10 | Verse 10.17 | कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन् । केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया ॥ १०.१७ ॥ | हे योगेश्वर ! मै किस प्रकार निरन्तर चिन्तन करता हुआ आपको जानूं और हे भगवन् ! आप किन-किन भावों में मेरे द्बारा चिन्तन करने योग्य हैं ? | Lord Krishna, please, fully describe to me, how I shall truly know you by constantly meditating upon you. In how many different forms can I meditate upon you to completely understand you ? |
389 | Vibhuti Yoga | Chapter 10 | Verse 10.18 | विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन । भूयः कथय तृप्तिर्हि शृण्वतो नास्ति मेऽमृतम् ॥ १०.१८ ॥ | हे जनार्दन ! अपनी योग शक्त्ति को और विभूति को फिर भी विस्तार पूर्वक कहिये; क्योकि आपके अमृत मय वचनों को सुनते हुए मेरी तृप्ति नहीं होती अर्थात् सुनने की उत्कण्ठा बनी ही रहती है | | Arjuna demanded further: Lord Krishna, once again, describe fully to me, your divine glories and supreme splendour. My thirst for hearing your sweet and divine words again and again, is not yet quenched. |
390 | Vibhuti Yoga | Chapter 10 | Verse 10.19 | श्रीभगवानुवाच । हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्त... | श्रीभगवान् बोले—हे कुरूश्रेष्ठ ! अब मैं जो मेरी दिव्य विभूतियां हैं, उनको तेरे लिये प्रधानता से कहूँगा; क्योंकि मेरे विस्तार का अन्त नहीं है | | The Blessed Lord said: You are blessed O Best of the KURUS; hence I will declare to you my Divine Glory by its chief characteristics; there is no end to details of Me. |
391 | Vibhuti Yoga | Chapter 10 | Verse 10.20 | अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः । अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ॥ १०.२० ॥ | हे अर्जुन ! मैं सब भूतों के ह्रदय में स्थित सबका आत्मा हूँ तथा सम्पूर्ण भूतों का आदि, मध्य और अन्त भी मैं ही हूँ | | O Gudakesha (the conqueror of slumber) am the soul, seated in the heart of all beings. I am the beginning the middle and also the end of all lives. |
392 | Vibhuti Yoga | Chapter 10 | Verse 10.21 | आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान् । मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी ॥ १०.२१ ॥ | मै अदिति के बारह पुत्रों में विष्णु और ज्योतियों में किरणों वाला सूर्य हूँ तथा मैं उन्नचास वायु देवताओं का तेज और नक्षत्रों का अधिपति चन्द्रमा हूँ| | Among the sons of light I am Vishnu; of radiances, the Glorious Sun. I am the lord of the winds and storms, and of the lights in the night I am the moon. |
393 | Vibhuti Yoga | Chapter 10 | Verse 10.22 | वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः । इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना ॥ १०.२२ ॥ | मै वेदों में सामवेद हूँ, देवों में इन्द्र हूँ, इन्द्रियों में मन हूँ और भूत-प्राणियों की चेतना अर्थात् जीवन शक्त्ति हूँ| | Of the Vedas I am the Veda of songs, I am Indra, the Chief of Gods I am the mind amongst the senses, and in all living beings I am the light of consciousness. |
394 | Vibhuti Yoga | Chapter 10 | Verse 10.23 | रुद्राणां शंकरश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम् । वसूनां पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम् ॥ १०.२३ ॥ | और रुद्रों में से मैं शंकर हूं; यक्षों और राक्षसों में से मैं धन का प्रभु (कुबेर) हूँ; वसुस के बीच मैं पावक (अग्नि) हूँ; और पहाड़ों के बीच मैं MERU हूँ. | And among the RUDRAS I am Shankara; among the YAKSHAS and RAKSHASAS I am the Lord of wealth (KUBERA) ; among the VASUS I am PAVAKA (AGNI) ; and among the mountains I am the MERU. |
395 | Vibhuti Yoga | Chapter 10 | Verse 10.24 | पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम् । सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः ॥ १०.२४ ॥ | पुरोहितों में मुखिया बृहस्पति मुझको जान । हे पार्थ ! मैं सेनापतियों में स्कन्द और जलाशयों में समुद्र हूँ| | I am the divine priest, Brihaspati among the priest, and among warriers Skanda, the God of war. Of lakes I am the vast ocean. |
396 | Vibhuti Yoga | Chapter 10 | Verse 10.25 | महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम् । यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः ॥ १०.२५ ॥ | मै महर्षियों में भृगु और शब्दों में एक अक्षर अर्थात् ओंकार हूँ । सब प्रकार से यज्ञों में जप यज्ञ और स्थिर रहने वालों में हिमालय पहाड़ हूँ| | I am Bhrigu among great seers and of words I am OM, the word of eternity. Of prayers I am the prayer of silence; and of things that move not I am the Himalayas. |
397 | Vibhuti Yoga | Chapter 10 | Verse 10.26 | अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः । गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः ॥ १०.२६ ॥ | मैं समस्त वृक्षो में पीपल का वृक्ष, देवऋषियो में नारद, गन्धर्वों में चित्ररथ और सिद्धों में कपिल मुनि हूँ | | Of trees I am the tree of life, and of heavenly seers, Narada. Among celestial musicians I am Chitra-Ratha, and among seers of earth, Kapila. |
398 | Vibhuti Yoga | Chapter 10 | Verse 10.27 | उच्चैःश्रवसमश्वानां विद्धि माममृतोद्भवम् । ऐरावतं गजेन्द्राणां नराणां च नराधिपम् ॥ १०.२७ ॥ | घोड़ो में अमृत के साथ उत्पन्न होने वाला उच्चैःश्रवा नामक घोड़ा, श्रेष्ट हाथियों में ऐरावत नामक हाथी और मनुष्यों में राजा मुझको जान| | I am the horse of Indra among horses; and of elephants, Indra’s elephant Airavat. Among men I am King of men. |
399 | Vibhuti Yoga | Chapter 10 | Verse 10.28 | आयुधानामहं वज्रं धेनूनामस्मि कामधुक् । प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः सर्पाणामस्मि वासुकिः ॥ १०.२८ ॥ | मैं शस्त्रों में वज्र और गौओं में कामधेनु हूँ । शास्त्रोक्त्त रीति से संतान की उत्पति का हेतु कामदेव हूँ और सर्पों में सर्पराज वासुकि हूँ| | Of weapons I am the thunderbolt, and of cows the cow of wonder. Among creators I am the creator of love, and among serpents the serpent of Eternity. |
400 | Vibhuti Yoga | Chapter 10 | Verse 10.29 | अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम् । पितॄणामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम् ॥ १०.२९ ॥ | मैं नागों में शेषनाग और जलचरों का अधिपति वरुण देवता हूँ और पितरों में अर्यमा नामक पितर तथा शासन करने वालों में यमराज मैं हूँ| | Among the snakes of mystery I am Ananta, and of those born in waters I am Varuna, their Lord. Of the spirits of the fathers am Aryaman, and I am Yama, the ruler of death. |