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रने के लिए करते हैं। वे परमेश्वर के वचनों के प्रसार से मिले अवसर का दोहन परमेश्वर का कार्य और उसकी प्रशंसा पाने के लिए करने की व्यर्थ आशा करते हैं। कितने ही वर्ष गुज़र चुके हैं, परंतु ये लोग परमेश्वर के वचनों का प्रचार करने की प्रक्रिया में न केवल परमेश्वर की प्रशंसा प्राप्त करने में असमर्थ रहे हैं, परमेश्वर के वचनों की गवाही देने की प्रक्रिया में न केवल उस मार्ग को खोजने में असफल रहे हैं जिसका उन्हें अनुसरण करना चाहिए, दूसरों को परमेश्वर के वचनों से सहायता और पोषण प्रदान करने की प्रक्रिया में न केवल उन्होंने स्वयं सहायता और पोषण नहीं पाया है, और इन सब चीज़ों को करने की प्रक्रिया में वे न केवल परमेश्वर को जानने या परमेश्वर के प्रति स्वयं में वास्तविक श्रद्धा जगाने में असमर्थ रहे हैं; बल्कि, इसके विपरीत, परमेश्वर के बारे में उनकी गलतफहमियाँ और अधिक गहरी हो रही हैं; उस पर अविश्वास और अधिक बढ़ रहा है और उसके बारे में उनकी कल्पनाएँ और अधिक अतिशयोक्तिपूर्ण होती जा रही हैं। परमेश्वर के वचनों के बारे में अपने सिद्धांतों से आपूर्ति और निर्देशन पाकर वे ऐसे प्रतीत होते हैं मानो वे बिलकुल मनोनुकूल परिस्थिति में हों, मानो वे अपने कौशल का सरलता से इस्तेमाल कर रहे हों, मानो उन्होंने अपने जीवन का उद्देश्य, अपना लक्ष्य प्राप्त कर लिया हो, और मानो उन्होंने एक नया जीवन जीत लिया हो और वे बचा लिए गए हों, मानो परमेश्वर के वचनों को धाराप्रवाह बोलने से उन्होंने सत्य प्राप्त कर लिया हो, परमेश्वर के इरादे समझ लिए हों, और परमेश्वर को जानने का मार्ग खोज लिया हो, मानो परमेश्वर के वचनों का प्रचार करने की प्रक्रिया में वे अकसर परमेश्वर से रूबरू होते हों। साथ ही, अक्सर वे "द्रवित" होकर बार-बार रोते हैं और
बहुधा परमेश्वर के वचनों में "परमेश्वर" की अगुआई प्राप्त करते हुए, वे उसकी गंभीर परवाह और उदार मंतव्य समझते प्रतीत होते हैं और साथ ही लगता है कि उन्होंने मनुष्य के लिए परमेश्वर के उद्धार और उसके प्रबंधन को भी जान लिया है, उसके सार को भी जान लिया है और उसके धार्मिक स्वभाव को भी समझ लिया है। इस नींव के आधार पर, वे परमेश्वर के अस्तित्व पर और अधिक दृढ़ता से विश्वास करते, उसकी उत्कृष्टता की स्थिति से और अधिक परिचित होते और उसकी भव्यता एवं श्रेष्ठता को और अधिक गहराई से महसूस करते प्रतीत होते हैं। परमेश्वर के वचनों के सतही ज्ञान से ओतप्रोत होने से ऐसा प्रतीत होता है कि उनके विश्वास में वृद्धि हुई है, कष्ट सहने का उनका संकल्प दृढ़ हुआ है, और परमेश्वर संबंधी उनका ज्ञान और अधिक गहरा हुआ है। वे नहीं जानते कि जब तक वे परमेश्वर के वचनों का वास्तव में अनुभव नहीं करेंगे, तब तक उनका परमेश्वर संबंधी सारा ज्ञान और उसके बारे में उनके विचार उनकी अपनी इच्छित कल्पनाओं और अनुमान से निकलते हैं। उनका विश्वास परमेश्वर की किसी भी प्रकार की परीक्षा के सामने नहीं ठहरेगा, उनकी तथाकथित आध्यात्मिकता और उनका आध्यात्मिक कद परमेश्वर के किसी भी परीक्षण या निरीक्षण के तहत बिलकुल नहीं ठहरेगी, उनका संकल्प रेत पर बने हुए महल से अधिक कुछ नहीं है, और उनका परमेश्वर संबंधी तथाकथित ज्ञान उनकी कल्पना की उड़ान से अधिक कुछ नहीं है। वास्तव में इन लोगों ने, जिन्होंने एक तरह से परमेश्वर के वचनों पर काफी परिश्रम किया है, कभी यह एहसास ही नहीं किया कि सच्ची आस्था क्या है, सच्ची आज्ञाकारिता क्या है, सच्ची देखभाल क्या है, या परमेश्वर का सच्चा ज्ञान क्या है। वे सिद्धांत, कल्पना, ज्ञान, हुनर, परंपरा, अंधविश्वास, यहाँ तक कि मानवता के नैतिक मूल्यों को भी परमेश्वर पर विश्वास करने और उसका अनुसरण करने के लिए "पूँजी" और "हथियार" का रूप दे देते हैं, उन्हें परमेश्वर पर विश्वास करने और उसका अनुसरण करने का आधार बना लेते हैं। साथ ही, वे इस पूँजी और हथियार का जादुई तावीज़ भी बना लेते हैं और उसके माध्यम से परमेश्वर को जानते हैं और उसके निरीक्षणों, परीक्षणों, ताड़ना और न्याय का सामना करते हैं। अंत में जो कुछ वे प्राप्त करते हैं, उसमें फिर भी परमेश्वर के बारे में धार्मिक संकेतार्थों और सामंती अंधविश्वासों से ओतप्रोत निष्कर्षों से अधिक कुछ नहीं होता, जो हर तरह से रोमानी, विकृत और रहस्यमय होता है। परमेश्वर को जानने और उसे परिभाषित करने का उनका तरीका उन्हीं लोगों के साँचे में ढला होता है, जो केवल ऊपर स्वर्ग में या आसमान में किसी वृद्ध के होने में विश्वास करते हैं, जबकि परमेश्वर की वास्तविकता, उसका सार, उसका स्वभाव, उसका स्वरूप और अस्तित्व आदि - वह सब, जो वास्तविक स्वयं परमेश्वर से संबंध रखता है - ऐसी चीज़ें हैं, जिन्हें समझने में उनका ज्ञान विफल रहा है, जिनसे उनके ज्ञान का पूरी तरह से संबंध-विच्छेद हो गया है, यहाँ तक कि वे इतने अलग
हैं, जितने उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव। इस तरह, हालाँकि वे लोग परमेश्वर के वचनों की आपूर्ति और पोषण में जीते हैं, फिर भी वे परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग पर सचमुच चलने में असमर्थ हैं। इसका वास्तविक कारण यह है कि वे कभी भी परमेश्वर से परिचित नहीं हुए हैं, न ही उन्होंने उसके साथ कभी वास्तविक संपर्क या समागम किया है, अतः उनके लिए परमेश्वर के साथ पारस्परिक समझ पर पहुँचना, या अपने भीतर परमेश्वर के प्रति सच्चा विश्वास पैदा कर पाना, उसका सच्चा अनुसरण या उसकी सच्ची आराधना जाग्रत कर पाना असंभव है। इस परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण ने - कि उन्हें इस प्रकार परमेश्वर के वचनों को देखना चाहिए, उन्हें इस प्रकार परमेश्वर को देखना चाहिए, उन्हें अनंत काल तक अपने प्रयासों में खाली हाथ लौटने, और परमेश्वर का भय मानने तथा बुराई से दूर रहने के मार्ग पर न चल पाने के लिए अभिशप्त कर दिया है। जिस लक्ष्य को वे साध रहे हैं और जिस ओर वे जा रहे हैं, वह प्रदर्शित करता है कि अनंत काल से वे परमेश्वर के शत्रु हैं और अनंत काल तक वे कभी उद्धार प्राप्त नहीं कर सकेंगे। यदि किसी ऐसे व्यक्ति की, जिसने कई वर्षों तक परमेश्वर का अनुसरण किया है और कई सालों तक उसके वचनों के पोषण का आनंद लिया है, परमेश्वर संबंधी परिभाषा अनिवार्यतः वैसी ही है, जैसी मूर्तियों के सामने भक्ति-भाव से दंडवत करने वाले व्यक्ति की होती है, तो यह इस बात का सूचक है कि इस व्यक्ति ने परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता प्राप्त नहीं की है। इसका कारण यह है कि उसने परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में बिलकुल भी प्रवेश नहीं किया है और इस कारण से, परमेश्वर के वचनों में निहित वास्तविकता, सत्य, इरादों और मनुष्य से उसकी अपेक्षाओं का उस व्यक्ति से कुछ
लेना-देना नहीं है। कहने का तात्पर्य यह है कि ऐसा व्यक्ति परमेश्वर के वचनों के सतही अर्थ पर चाहे कितनी भी मेहनत से कार्य करे, वह सब व्यर्थ है : क्योंकि वह मात्र शब्दों का अनुसरण करता है, इसलिए उसे अनिवार्य रूप से मात्र शब्द ही प्राप्त होंगे। परमेश्वर द्वारा बोले गए वचन दिखने में भले ही सीधे-सादे या गहन हों, लेकिन वे सभी सत्य हैं, और जीवन में प्रवेश करने वाले मनुष्य के लिए अपरिहार्य हैं; वे जीवन-जल के ऐसे झरने हैं, जो मनुष्य को आत्मा और देह दोनों से जीवित रहने में सक्षम बनाते हैं। वे मनुष्य को जीवित रहने के लिए हर ज़रूरी चीज़ मुहैया कराते हैं; उसके दैनिक जीवन के लिए सिद्धांत और मत; उद्धार पाने के लिए जो मार्ग उसे अपनाना आवश्यक है साथ ही उस मार्ग के लक्ष्य और दिशा; उसके अंदर परमेश्वर के समक्ष एक सृजित प्राणी के रूप में हर सत्य होना चाहिए; तथा हर वह सत्य होना चाहिए कि मनुष्य परमेश्वर की आज्ञाकारिता और आराधना कैसे करता है। वे मनुष्य का अस्तित्व सुनिश्चित करने वाली गारंटी हैं, वे मनुष्य का दैनिक आहार हैं, और ऐसा मजबूत सहारा भी हैं, जो मनुष्य को सशक्त और अटल रहने में सक्षम बनाते हैं। वे सत्य की वास्तविकता से संपन्न हैं जिससे सृजित मनुष्य सामान्य मानवता को जीता है, वे उस सत्य से संपन्न हैं, जिससे मनुष्य भ्रष्टता से मुक्त होता है और शैतान के जाल से बचता है, वे उस अथक शिक्षा, उपदेश, प्रोत्साहन और सांत्वना से संपन्न हैं, जो स्रष्टा सृजित मानवजाति को देता है। वे ऐसे प्रकाश-स्तंभ हैं, जो मनुष्य को सभी सकारात्मक बातों को समझने के लिए मार्गदर्शन और प्रबुद्धता देते हैं, ऐसी गारंटी हैं जो यह सुनिश्चित करती है कि मनुष्य उस सबको जो धार्मिक और अच्छा है, उन मापदंडों को जिन पर सभी लोगों, घटनाओं और वस्तुओं को मापा जाता है, तथा ऐसे सभी दिशानिर्देशों को जिए और प्राप्त करे, जो मनुष्य को उद्धार और प्रकाश के मार्ग पर ले जाते हैं। केवल परमेश्वर के वचनों के वास्तविक अनुभवों में ही मनुष्य को सत्य और जीवन की आपूर्ति की जा सकती है; केवल इनसे ही मनुष्य की समझ में आ सकता है कि सामान्य मानवता क्या है, सार्थक जीवन क्या है, वास्तविक सृजित प्राणी क्या है, परमेश्वर के प्रति वास्तविक आज्ञाकारिता क्या है; केवल इनसे ही मनुष्य को समझ में आ सकता है कि उसे परमेश्वर की परवाह किस तरह करनी चाहिए, सृजित प्राणी का कर्तव्य कैसे पूरा करना चाहिए, और एक वास्तविक मनुष्य की समानता कैसे प्राप्त करनी चाहिए; केवल इनसे ही मनुष्य को समझ में आ सकता है कि सच्ची आस्था और सच्ची आराधना क्या है; केवल इनसे ही मनुष्य समझ पाता है कि स्वर्ग, पृथ्वी और सभी चीजों का शासक कौन है; केवल इनसे ही मनुष्य समझ सकता है कि वह जो समस्त सृष्टि का स्वामी है, किन साधनों से सृष्टि पर शासन करता है, उसकी अगुआई करता है और उसका पोषण करता है; और केवल इनसे ही मनुष्य समझ-बूझ सकता है कि वह, जो समस्त सृष्टि का स्वामी है, किन साधनों के ज़रिये मौजूद रहता
है, स्वयं को अभिव्यक्त करता है और कार्य करता है। परमेश्वर के वचनों के वास्तविक अनुभवों से अलग, मनुष्य के पास परमेश्वर के वचनों और सत्य का कोई वास्तविक ज्ञान या अंतदृष्टि नहीं होती। ऐसा व्यक्ति पूरी तरह से एक ज़िंदा लाश, पूरा घोंघा होता है, और स्रष्टा से संबंधित किसी भी ज्ञान का उससे कोई वास्ता नहीं होता। परमेश्वर की दृष्टि में, ऐसे व्यक्ति ने कभी उस पर विश्वास नहीं किया है, न कभी उसका अनुसरण किया है, और इसलिए परमेश्वर न तो उसे अपना विश्वासी मानता है और न ही अपना अनुयायी, एक सच्चा सृजित प्राणी मानना तो दूर की बात रही। एक सच्चे सृजित प्राणी को यह जानना चाहिए कि स्रष्टा कौन है, मनुष्य का सृजन किसलिए हुआ है, एक सृजित प्राणी की ज़िम्मेदारियों को किस तरह पूरा करें, और संपूर्ण सृष्टि के प्रभु की आराधना किस तरह करें, उसे स्रष्टा के इरादों, इच्छाओं और अपेक्षाओं को समझना, बूझना और जानना चाहिए, उनकी परवाह करनी चाहिए, और स्रष्टा के तरीके के अनुरूप कार्य करना चाहिए - परमेश्वर का भय मानो और बुराई से दूर रहो। परमेश्वर का भय मानना क्या है? और बुराई से दूर कैसे रहा जा सकता है? "परमेश्वर का भय मानने" का अर्थ अज्ञात डर या दहशत नहीं होता, न ही इसका अर्थ टाल-मटोल करना, दूर रहना, मूर्तिपूजा करना या अंधविश्वास होता है। वरन् यह श्रद्धा, सम्मान, विश्वास, समझ, परवाह, आज्ञाकारिता, समर्पण और प्रेम के साथ-साथ बिना शर्त और बिना शिकायत आराधना, प्रतिदान और समर्पण होता है। परमेश्वर के सच्चे ज्ञान के बिना मनुष्य में सच्ची श्रद्धा, सच्चा विश्वास, सच्ची समझ, सच्ची परवाह या आज्ञाकारिता नहीं होगी, वरन् केवल डर और व्यग्रता, केवल शंका, गलतफहमी, टालमटोल और आनाकानी होगी; परमेश्वर के सच्चे ज्ञान के बिना मनुष्य में सच
्चा समर्पण और प्रतिदान नहीं होगा; परमेश्वर के सच्चे ज्ञान के बिना मनुष्य में सच्ची आराधना और समर्पण नहीं होगा, मात्र अंधी मूर्तिपूजा और अंधविश्वास होगा; परमेश्वर के सच्चे ज्ञान के बिना मनुष्य परमेश्वर के तरीके के अनुसार कार्य नहीं कर पाएगा, या परमेश्वर का भय नहीं मानेगा, या बुराई का त्याग नहीं कर पाएगा। इसके विपरीत, मनुष्य का हर क्रियाकलाप और व्यवहार, परमेश्वर के प्रति विद्रोह और अवज्ञा से, निंदात्मक आरोपों और आलोचनात्मक आकलनों से तथा सत्य और परमेश्वर के वचनों के वास्तविक अर्थ के विपरीत चलने वाले दुष्ट आचरण से भरा होगा। जब मनुष्य को परमेश्वर में सच्चा विश्वास होगा, तो वह सच्चाई से उसका अनुसरण करेगा और उस पर निर्भर रहेगा; केवल परमेश्वर पर सच्चे विश्वास और निर्भरता से ही मनुष्य में सच्ची समझ और सच्चा बोध होगा; परमेश्वर के वास्तविक बोध के साथ उसके प्रति वास्तविक परवाह आती है; परमेश्वर के प्रति सच्ची परवाह से ही मनुष्य में सच्ची आज्ञाकारिता आ सकती है; परमेश्वर के प्रति सच्ची आज्ञाकारिता से ही मनुष्य में सच्चा समर्पण आ सकता है; परमेश्वर के प्रति सच्चे समर्पण से ही मनुष्य बिना शर्त और बिना शिकायत प्रतिदान कर सकता है; सच्चे विश्वास और निर्भरता, सच्ची समझ और परवाह, सच्ची आज्ञाकारिता, सच्चे समर्पण और प्रतिदान से ही मनुष्य परमेश्वर के स्वभाव और सार को जान सकता है, स्रष्टा की पहचान को जान सकता है; स्रष्टा को वास्तव में जान लेने के बाद ही मनुष्य अपने भीतर सच्ची आराधना और समर्पण जाग्रत कर सकता है; स्रष्टा के प्रति सच्ची आराधना और समर्पण होने के बाद ही वह वास्तव में बुरे मार्गों का त्याग कर पाएगा, अर्थात्, बुराई से दूर रह पाएगा। इससे "परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने" की संपूर्ण प्रक्रिया बनती है, और यही परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का मूल तत्व भी है। यही वह मार्ग है, जिसे परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के लिए पार करना आवश्यक है। "परमेश्वर का भय मानना और दुष्टता का त्याग करना" तथा परमेश्वर को जानना अभिन्न रूप से असंख्य सूत्रों से जुड़े हैं, और उनके बीच का संबंध स्वतः स्पष्ट है। यदि कोई बुराई से दूर रहना चाहता है, तो उसमें पहले परमेश्वर का वास्तविक भय होना चाहिए; यदि कोई परमेश्वर का वास्तविक भय मानना चाहता है, तो उसमें पहले परमेश्वर का सच्चा ज्ञान होना चाहिए; यदि कोई परमेश्वर का ज्ञान हासिल करना चाहता है, तो उसे पहले परमेश्वर के वचनों का अनुभव करना चाहिए, परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करना चाहिए, परमेश्वर की ताड़ना, अनुशासन और न्याय का अनुभव करना चाहिए; यदि कोई परमेश्वर के वचनों का अनुभव करना चाहता है, तो उसे पहले परमेश्वर के वचनों के रूबरू आना चाहिए, परमेश्वर के रूबरू आना चाहिए, और परमेश्वर से निवेदन करना चाहिए कि वह लोगों, घटनाओं और वस्तुओं से युक्त सभी प्रकार के परिवेशों के रूप में परमेश्वर के वचनों को अनुभव करने के अवसर प
्रदान करे; यदि कोई परमेश्वर और उसके वचनों के रूबरू आना चाहता है, तो उसे पहले एक सरल और सच्चा हृदय, सत्य को स्वीकार करने की तत्परता, कष्ट झेलने की इच्छा, और बुराई से दूर रहने का संकल्प और साहस, और एक सच्चा सृजित प्राणी बनने की अभिलाषा रखनी चाहिए...। इस प्रकार कदम-दर-कदम आगे बढ़ते हुए, तुम परमेश्वर के निरंतर करीब आते जाओगे, तुम्हारा हृदय निरंतर शुद्ध होता जाएगा, और तुम्हारा जीवन और जीवित रहने के मूल्य, परमेश्वर को जान पाने के कारण निरंतर अधिक अर्थपूर्ण और दीप्तिमान होते जाएँगे। फिर एक दिन तुम अनुभव करोगे कि स्रष्टा अब कोई पहेली नहीं रह गया है, स्रष्टा कभी तुमसे छिपा नहीं था, स्रष्टा ने कभी अपना चेहरा तुमसे छिपाया नहीं था, स्रष्टा तुमसे बिलकुल भी दूर नहीं है, स्रष्टा अब बिलकुल भी वह नहीं है जिसके लिए तुम अपने विचारों में लगातार तरस रहे हो लेकिन जिसके पास तुम अपनी भावनाओं से पहुँच नहीं पा रहे हो, वह वाकई और सच में तुम्हारे दाएँ-बाएँ खड़ा तुम्हारी सुरक्षा कर रहा है, तुम्हारे जीवन को पोषण दे रहा है और तुम्हारी नियति को नियंत्रित कर रहा है। वह सुदूर क्षितिज पर नहीं है, न ही उसने अपने आपको ऊपर कहीं बादलों में छिपाया हुआ है। वह एकदम तुम्हारी बगल में है, तुम्हारे सर्वस्व पर आधिपत्य कर रहा है, वह वो सब है जो तुम्हारे पास है, और वही एकमात्र चीज़ है जो तुम्हारे पास है। ऐसा परमेश्वर तुम्हें स्वयं को अपने हृदय से प्रेम करने देता है, स्वयं से लिपटने देता है, स्वयं को पकड़ने देता है, अपनी स्तुति करने देता है, गँवा देने का भय पैदा करता है, अपना त्याग करने, अपनी अवज्ञा करने, अपने को टालने या दूर करने का अनिच्छुक बना देता है। तुम बस उसकी परवाह करना, उसका आज्ञापालन करना, जो भी वह देता है उस सबका
प्रतिदान करना और उसके प्रभुत्व के प्रति समर्पित होना चाहते हो। तुम अब उसके द्वारा मार्गदर्शन किए जाने, पोषण दिए जाने, निगरानी किए जाने, उसके द्वारा देखभाल किए जाने से इंकार नहीं करते और न ही उसकी आज्ञा और आदेश का पालन करने से इंकार करते हो। तुम सिर्फ़ उसका अनुसरण करना चाहते हो, उसके साथ उसके आस-पास रहना चाहते हो, उसे अपना एकमात्र जीवन स्वीकार करना चाहते हो, उसे अपना एकमात्र प्रभु, अपना एकमात्र परमेश्वर स्वीकार करना चाहते हो।
कृपा करें और पूरी तरह अश्रद्धालु हो जाएं। डरें मत। भय भी न खाएं। तर्क ही करना है, तो पूरा कर लें। कुतर्क की सीमा का भी कुछ संकोच न करें। पूरी तरह उतर जाएं अपनी अश्रद्धा में। वह पूरी तरह उतर जाना ही आपको नरक में ले जाएगा। और नरक में जाए बिना नरक से कोई छुटकारा नहीं है। और दूसरों की बातें मत सुनें। क्योंकि अधकचरी दूसरों की बातें कोई सहायता न पहुंचाएंगी। जब आप नरक की तरफ जा रहे हों, तो स्वर्ग की बात ही भूल जाएं और पूरी तरह नरक में उतर जाएं। एक बार अनुभव कर लें ठीक से, तो फिर किसी को कहना नहीं पड़ेगा कि श्रद्धा का अमृत क्या है। अश्रद्धा का जहर जिसने देख लिया, वह अपने आप श्रद्धा के अमृत की तरफ चलना शुरू हो जाता है। इस युग की तकलीफ अश्रद्धा नहीं है। इस युग की तकलीफ अधूरापन है। आपका आधा हिस्सा श्रद्धा से भरा है और आधा अश्रद्धा से भरा है। कोई भी यात्रा पूरी नहीं हो पाती। और ध्यान रहे, बुराई से भी छूटने का कोई उपाय नहीं है, जब तक बुराई पूरी न हो जाए। और पाप के भी बाहर उठने का कोई रास्ता नहीं है, जब तक कि पाप में आप पूरी तरह डूब न जाएं। जिसमें हम पूरी तरह डूबते हैं, जिसका हमें पूरा अनुभव हो जाता है, फिर किसी को कहने की जरूरत नहीं होती कि आप इसके बाहर निकल आएं। आप स्वयं ही निकलना शुरू कर देते हैं। अभी तो बहुत लोग आपको समझाते हैं कि श्रद्धा करो और श्रद्धा नहीं आती। क्योंकि जिसने अश्रद्धा ही ठीक से नहीं की है, उसे श्रद्धा कैसे आ सकेगी! श्रद्धा अश्रद्धा के बाद का चरण है। आस्तिक वही हो सकता है, जो नास्तिक हो चुका है। नास्तिकता के पहले सारी आस्तिकता बचकानी, दो कौड़ी की होती है। जिसने नास्तिकता नहीं जानी, वह आस्तिक हो कैसे सकेगा? जिसने अभी इनकार करना नहीं सीखा, उसके हं। का भी कोई मूल्य नहीं है। उसके स्वीकार में भी कोई जान नहीं है। उसका स्वीकार नपुंसक है, इम्पोटेंट है कोई डर नहीं है। न कहें, परमात्मा नाराज नहीं होता है। लेकिन पूरे हृदय से न कहें, तो न भी उबारने वाली हो जाती है। और जिसने पूरी तरह से न कहकर देख लिया और देख लिया कि न कहने का दुख और संताप क्या है और झेल ली चिंता और आग की लपटें, वह आज नहीं कल ही कहने की तरफ बढ़ेगा। उसकी हा में बल होगा। उसकी ही में उसके जीवन का अनुभव होगा। तो मुझसे यह मत पूछें कि आपका चित्त अश्रद्धा से भरा है, तो आप प्रार्थना की तरफ कैसे जाएं। पूरी तरह अश्रद्धा से भर जाएं। आपके लिए प्रार्थना की तरफ जाने के अतिरिक्त कोई मार्ग न बचेगा। मगर अधूरे - अधूरे होना अच्छा नहीं है। परमात्मा की प्रार्थना भी कर रहे हैं और भीतर संदेह भी है, तो प्रार्थना क्यों कर रहे हैं? बंद करें यह प्रार्थना। अभी संदेह ही कर लें ठीक से। और जब संदेह न बचे, तब प्रार्थना शुरू करें। कुछ भी पूरा करना सीखना चाहिए। क्योंकि पूरा करते ही व्यक्तित्व अखंड हो जाता है। आप टुकड़े-टुकड़े में नहीं होते। आपके भीतर पच्चीस तरह के आदमी हैं। आप एक भीड़ हैं। एक मन का हिस्सा कुछ कहता है। दूसरा मन क
ा हिस्सा कुछ कहता है। तीसरा मन का हिस्सा कुछ कहता है। एक देवी मेरे पास आज सुबह ही आई थीं। कहती हैं कि बीस साल से ईश्वर की खोज कर रही हैं। मैंने उनसे कहा कि कल सुबह चौपाटी पर ध्यान के लिए पहुंच जाएं छः बजे। उन्होंने कहा, छः बजे आना तो बहुत मुश्किल होगा। बीस साल से ईश्वर की खोज चल रही है! सुबह छः बजे चौपाटी पर आना मुश्किल है! यह ईश्वर की खोज है! इस तरह के अधूरे लोग कहीं भी नहीं पहुंचते। ये त्रिशंकु की भांति अटके रह जाते हैं। संकोच भी नहीं होता, सोचने में खयाल भी नहीं आता कि मैं कह रही हूं कि बीस साल से मैं ईश्वर को खोज रही हूं और सुबह छः बजे पहुंचना मुश्किल है! यह खोज कितनी कीमत की है ? बीस जन्म भी इस तरह खोजो, तो कहीं पहुंचना नहीं हो पाएगा। यह खोज है ही नहीं। यह सिर्फ धोखा है। ईश्वर से कुछ लेना - देना भी मालूम नहीं पड़ता है। यह भी ऐसे रास्ते चलते पूछ लिया है। यह भी ऐसे ही कि कहीं ईश्वर पड़ा हुआ मिल जाए और फुर्सत का समय हो, तो जैसा ताश खेल लेते हैं, ऐसा उसको भी उठा लेंगे। ईश्वर अगर कहीं ऐसे ही मिलता हों - बिना कुछ खर्च किए, बिना कुछ श्रम किए, बिना कुछ छोड़े, बिना कुछ मेहनत उठाए-तो सोचेंगे; ले लेंगे। इस भाव से जो चलता है, उसकी श्रद्धा भी झूठी है, उसकी अश्रद्धा भी झूठी है। उसकी खोज भी झूठी है। उसका व्यक्तित्व ही पूरा झूठा है। सच्चे होना सीखें। सच्चे होने के लिए धार्मिक होना जरूरी नहीं है। नास्तिक भी सच्चा हो सकता है। फिर नास्तिकता पूरी होनी चाहिए; तो आप सच्चे नास्तिक हो गए। और मैंने अब तक नहीं सुना है कि कोई सच्चा नास्तिक आस्तिक बनने से बच गया हो। सच्चे नास्तिक को आस्तिक बनना ही पड़ता है। क्योंकि जिसकी नास्तिकता तक में सच्चाई है, वह कितने देर तक अपने को आस्तिक बनाने से रोक सकता ह
ै! लेकिन तुम्हारी आस्तिकता तक झूठी है। और जिसकी आस्तिकता तक झूठी है, वह कैसे परमात्मा तक पहुंच सकता है! धार्मिकता भी झूठी है, ऊपर-ऊपर है। जरा - सा खोदो, तो हर आदमी के भीतर नास्तिक मिल जाता है। बस, ऊपर से एक पर्त है आस्तिकता की, स्किन डीप। चमड़ी जरा - सी खरोंच दो, नास्तिक बाहर आ जाता है। और वह जो भीतर है, वही असली है। वह जो ऊपर-ऊपर है, उसका कोई मूल्य नहीं है। तो पहले तो ईमानदारी से इस बात की खोज करें कि अश्रद्धा है, शंका है, तो ठीक है। मेरे चित्त में जो स्वाभाविक है, मैं उसका पीछा करूंगा। तो मैं शंका पूरी करूंगा जब तक कि हार न जाऊं। और जब तक कि मेरी शंका टूट न जाए, तब तक जहां मेरी शंका मुझे ले जाएगी, मैं जाऊंगा। थोड़ी हिम्मत करें और शंका के रास्ते पर चलें। ज्यादा आगे आप नहीं जा सकेंगे। क्योंकि शंका का रास्ता कहां ले जाएगा? शंका का अंतिम परिणाम क्या होगा? संदेह करके कहां पहुंचेंगे? क्या मिलेगा? आज तक किसी ने भी नहीं कहा कि संदेह से उसे आनंद मिला हो। और आज तक किसी ने भी नहीं कहा कि शंका से उसे जीवन की परम अनुभूति का अनुभव हुआ हो। आज तक किसी ने भी नहीं कहा कि इनकार करके उसने अस्तित्व की गहराई में प्रवेश कर लिया हो। आज नहीं कल आपको दिखाई पड़ने लगेगा कि आप अस्तित्व के बाहर - बाहर परिधि पर भटक रहे हैं। आज नहीं कल आपको खुद ही दिखाई पड़ने लगेगा, आपकी शंका ईश्वर को नहीं मिटा रही है, आपको मिटा रही है। और आपका संदेह धर्म के खिलाफ नहीं है, आपके ही खिलाफ है, आपके ही पैरों को और जड़ों को काटे डाल रहा है। जब तक आपको यह दिखाई न पड़ जाए कि आपकी शंका आपकी ही शत्रु है, तब तक, तब तक आप प्रार्थना की यात्रा पर नहीं निकल सकते हैं। मेरे कहने से आप नहीं निकलेंगे। किसी के कहने से आप नहीं निकलेंगे। जब आपकी शंका आपको आग की तरह जलाने लगेगी, तभी! बुद्ध के पास एक आदमी आया था। और वह आदमी कहने लगा, आपकी बातें सुनते हैं, अच्छा लगता है; लेकिन संसार से छूटने का मन नहीं होता अभी। और आप कहते हैं कि संसार दुख है, यह भी समझ में आता है, लेकिन फिर भी अभी संसार में रस है। तो बुद्ध ने कहा, मेरे कहने से कि संसार दुख है, तुझे कैसे समझ में आ सकेगा! और जिस दिन तुझे समझ में आ जाएगा कि संसार में दुख है, तू मेरे लिए रुकेगा! तू छलांग लगाकर बाहर हो जाएगा। बुद्ध ने कहा, तू ऐसा समझ कि तेरे घर में आग लग गई है। तो तू मुझसे पूछने आएगा कि घर से बाहर निकलूं न निकलूं? तू किस से पूछने रुकेगा? अगर मैं तेरे घर में मेहमान भी हूं तो भी तू मुझे भीतर ही छोड़कर बाहर निकल जाएगा। पहले तू बाहर निकल जाएगा। लेकिन तुझे खुद ही अनुभव होना चाहिए कि घर में आग लगी है। तुझे तो लग रहा हो कि घर के चारों तरफ फूल खिले हैं और आनंद की वर्षा हो रही है, और मैं तुझसे कह रहा हूं कि तेरे घर में आग लगी है, तो तू मुझसे कहता है, आपकी बात समझ में आती है। क्योंकि तेरी इतनी हिम्मत भी नहीं है कहने की कि आपकी बात मुझे समझ में नहीं आती। तेरा यह भी साहस नही
ं है कहने का कि तुम झूठ बोल रहे हो। यह घर तो बड़े आनंद से भरा है। आग कहां लगी है! तू बिलकुल कमजोर है। तो तू कहता है कि बात समझ में आती है कि घर में आग लगी है, फिर भी छोड़ने का मन नहीं होता। ये दोनों बातें विरोधी अगर घर में आग लगी है, तो छोड़ने का मन होगा ही। छोड़ने का मन कहना भी ठीक नहीं है। घर में आग लगी हो, तो आपको पता भी नहीं चलता कि आग लगी है। जब आप घर के बाहर हो जाते हैं, ठीक से सांस लेते हैं, तब पता चलता है कि घर में आग लगी है। घर में आग लगी है, यह सोचने के लिए भी समय नहीं गंवाते। भागकर पहले बाहर हो जाते हैं। जिस दिन आपकी शंका, संदेह, अनास्था आपके लिए अग्नि की लपटें बन जाएगी, उसी दिन आप प्रार्थना की तरफ दौड़ेंगे, उसके पहले नहीं । इसलिए मैं आपसे कहता हूं किसी की सुनकर प्रार्थना के रास्ते पर मत चले जाना। किसी की मानकर कि संसार दुख है, परमात्मा को मत खोजने लगना। अपनी ही मानना, क्योंकि आपके अतिरिक्त आप जब भी किसी और की मान लेंगे, आप झूठे हो जाएंगे। तो अच्छा है; बुरा कुछ भी नहीं है। आपकी अश्रद्धा भी आपके जीवन में निखार लाएगी। आपकी नास्तिकता भी आपको तैयार करेगी आस्तिक के लिए। आपका संदेह भी आपको छांटेगा, काटेगा, तराशेगा, और आप ग्य बनेंगे कि परमात्मा के मंदिर में प्रवेश कर सकें। मेरी दृष्टि में परमात्मा के विपरीत कुछ भी नहीं है। हो भी नहीं सकता। इसलिए अगर कोई कहता है कि नास्तिक परमात्मा के विरोध में है, तो वह नासमझ है। उसे आस्तिकता की कोई खबर नहीं है। नास्तिक भी तैयारी कर रहा है आस्तिक होने की। वह भी कह रहा है कि नहीं है परमात्मा। उसके भीतर भी खोज शुरू हो गई है। नहीं तो क्या प्रयोजन है यह कहने से भी कि परमात्मा नहीं है? क्या प्रयोजन है सोचने से कि वह है या नहीं? क्या जरूरत है क
ि अश्रद्धा करके हम अपनी शक्ति नष्ट करें ? वह जो अश्रद्धा कर रहा है, वह असल में श्रद्धा की तलाश में है। वह चाहता है कि हो। लेकिन उसे मालूम नहीं पड़ता कि है। इसलिए इनकार करता है। और इनकार करता है, तो पीड़ा अनुभव करता है। इनकार पूरा होने दें। यह धार तलवार की गहरे उतर जाए और हृदय को काट डाले पूरा। आप प्रार्थना के रास्ते पर आ जाएंगे। प्रार्थना के रास्ते पर आना स्वाभाविक हो जाता है। और जल्दी मत करें। बिना अनुभव के कहीं से भी निकल जाना खतरनाक है। बिना अनुभव के कहीं से भी भाग जाना खतरा है। क्योंकि जहां से भी आप बिना अनुभव के भाग जाते हैं, वह जगह आपका पीछा करेगी। और आपके मन में रस तो बना ही रहेगा। और आपके मन की दौड़ तो उसी तरफ होती ही रहेगी। आप भाग सकते हैं कहीं से भी। लेकिन जिससे आप बिना अनुभव के भाग रहे हैं, वह आपका पीछा करेगा, वह छाया की तरह आपके साथ होगा। तो मेरी दृष्टि भागने की नहीं है। मेरी दृष्टि तो किसी चीज के अनुभव की परिपक्वता में उतर जाने की है। जब पका हुआ पता वृक्ष से गिरता है, तो उसका सौंदर्य अनूठा है। न तो वृक्ष को पता चलता कि पत्ता कब लरि गया; न वृक्ष में कोई घाव होता है पत्ते के गिरने से; न कोई पीड़ा होती। न पत्ते को पता चलता है कि मैंने वृक्ष को कब छोड़ दिया। हवा का एक हलका - सा झोंका काफी हो जाता है। लेकिन कचुचे पत्ते की भी नस-नस तन जाती है। कच्चे पत्ते का टूटना दुर्घटना है। पके पत्ते का गिरना एक सुखद, शात, नैसर्गिक बात है। आप जहां से भी हटें, पके पत्ते होकर हटना। कच्चे पत्ते की तरह मत टूट जाना, नहीं तो घाव रह जाएंगे। और पके पत्ते का जो सौंदर्य है, उससे आप वंचित रह जाएंगे। डरें मत। अभी संदेह है, तो संदेह को पकने दें। और किसी की मत सुनना। क्योंकि चारों तरफ सुनाने वाले लोग बहुत हैं। चारों तरफ आपको सुधारने वाले लोग बहुत हैं। उनसे सावधान रहना। चारों तरफ आपको बनाने वाले लोग बहुत हैं, उनसे जरा बचना। अपनी जीवन - धारा को मौका देना कि वह स्वभावतः जो भी चाहती है, उसके पूरे अनुभव से गुजर जाए। नहीं तो बड़ा उपद्रव होता है। पूरे इतिहास में यह उपद्रव हुआ है। हमारी तकलीफ क्या है? जिस मित्र ने पूछा है, संदेह मन में होगा, प्रार्थना का लोभ भी नहीं छूटता। क्योंकि हमने देखा है उन लोगों को, जो प्रार्थना में आनंदित हैं। तकलीफ कहां खड़ी होती है? मीरा नाच रही है। आपको लगता है कि काश, मैं भी ऐसा नाच सकता! यह नाच संक्रामक है। यह आपके हृदय में भी पुलक जगाता है; प्रलोभन पैदा करता है। यह मीरा की मुस्कुराहट, यह उसकी आंखों की ज्योति, यह उसके चेहरे से बरसती हुई अमृत की धारा, यह आपको भी लगती है कि मेरे जीवन में भी हो। लेकिन मीरा कहती है कि मैं कृष्ण को देखकर नाच रही हूं। भीतर संदेह खड़ा हो जाता है। कृष्ण आपको कहीं दिखाई नहीं पड़ते। मीरा पागल मालूम पड़ती है। यह कृष्ण पर भरोसा करना मुश्किल है। मीरा जिसके लिए नाच रही है, उस पर भरोसा करना मुश्किल है; और मीरा के नाच से बचना भी मुश्किल
है। इससे तकलीफ खड़ी होती है। लगता है, काश, हम भी ऐसा नाच सकते! लेकिन जिस कारण मीरा नाच रही है, उसके लिए तर्कयुक्त प्रमाण नहीं मिलते। किस ईश्वर के लिए नाच रही है, वह ईश्वर कहीं दिखाई नहीं पड़ता। हजार शंकाएं बुद्धि खड़ी करती है। तो हम कहते हैं, कोई ईश्वर वगैरह नहीं है। तो फिर मीरा पागल है, दिमाग इसका खराब है, ऐसा कहकर अपने को समझा लेते हैं। फिर भी वह मीरा की धुन, वह नाच पीछा करता है। वह आपके सपनों में आपके साथ जाएगा। आप उठेंगे और बैठेंगे और लगेगा, कहीं मन का कोई कोना कहेगा, काश! मीरा का ईश्वर सच होता, तो हम भी नाच सकते थे। नाचना आप चाहते हैं; आनंदित आप होना चाहते हैं। ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, जिसकी आनंद की आकांक्षा न हो। और संदेह से आनंद मिलता नहीं। अश्रद्धा से आनंद मिलता नहीं। अनास्था से आनंद मिलता नहीं। और आनंद की आकांक्षा है, और बुद्धि संदेह खड़े कर देती है। जहां आनंद मिल सकता है, वहां बुद्धि सवाल खड़ा कर देती है। और हृदय मांगता है आनंद। और बुद्धि आनंद दे नहीं सकती। इस दुविधा में प्राण उलझ जाते हैं। तो आप भी नकली नाच - नाच सकते हैं। आप भी मजीरा उठाकर नाच सकते हैं। लेकिन वह ऊपर-ऊपर होगा। क्योंकि मीरा के नाच में मीरा के पांव असली काम नहीं कर रहे हैं, मीरा की श्रद्धा असली काम कर रही है। मीरा से अच्छी नर्तकियां होंगी, जो ज्यादा अच्छा नाच लेंगी। लेकिन मीरा के नाच का गुण और है। कितनी ही बड़ी कोई नर्तकी और नर्तक हो, मीरा के नाच में जो बात है, वह उसके नाच में नहीं हो सकती। मीरा के पैर अनगढ़ होंगे। ताल न हो; लय न हो; संगीत का अनुभव न हो; लेकिन कुछ और है, जो संगीत से भी बड़ा है। और कुछ और है, जो व्यवस्था से भी बड़ा है। और कुछ इतना गहन उतर गया है भीतर कि उसके उतरने के कारण नाच हो रहा
है। इस नाच के पीछे कुछ अलौकिक खड़ा है। वह अलौकिक की श्रद्धा न हो, तो नाच तो आप भी सकते हैं, लेकिन आपकी आत्मा में आनंद पैदा नहीं होगा। नाच बाहर - बाहर रह जाएगा। आप भीतर खाली के खाली, रिक्त, उदास, वैसे के वैसे रह जाएंगे। मीरा की श्रद्धा ही केंद्र है। आप संदेह के केंद्र पर नाच सकते हैं, लेकिन मीरा के सुख की अनुभूति आपको नहीं होगी। और बडी कठिनाई इससे खड़ी होती है कि जाग्रत पुरुषों का भी बाहर का जीवन ही हमें दिखाई पड़ता है। उनके भीतर का तो हमें कुछ पता नहीं है। पड़ती है। उनकी आंखों का मौन दिखाई पड़ता है। मन प्रलोभन से भर जाता है। काश, ऐसा हमें भी हो सके! फिर महावीर की बात सुनते हैं, उस पर श्रद्धा नहीं आती। बुद्ध को देखते हैं। उनके आस-पास जो हवा बहती है शांति की, वह हमें भी छूती है। उनके पास पहुंचकर जो स्थान हो जाता है, कि पोर - पोर जैसे किसी ताजगी से भर गए, वह हमें भी प्रतीत होता है। लेकिन बुद्ध की बात सुनकर श्रद्धा नहीं आती। बुद्ध के भीतर जो है, उसका हमें पता नहीं। बाहर जो है, हमें पता है। तो एक बड़ी उलटी प्रक्रिया शुरू होती है कि हम सोचते हैं, जिस भांति बुद्ध बैठे हैं, हम भी बैठ जाएं, तो शायद जो भीतर घटा है, वह हमें भी घट जाएगा। तो महावीर जैसा चलते हैं, हम भी चलने लगें। महावीर ने वस्त्र छोड़ दिए, तो हम भी वस्त्र छोड़ दें। तो अनेक लोग महावीर को देखकर नग्न खड़े हो गए हैं! वे सिर्फ नंगे हैं; दिगंबर नहीं हैं। क्योंकि महावीर की नग्नता के पहले भीतर एक आकाश उत्पन्न हो गया है। उस आकाश में वस्त्र छोड़ दिए हैं। इनके भीतर वह आकाश उत्पन्न नहीं हुआ। इन्होंने सिर्फ वस्त्र छोड़ दिए हैं। इनकी देह भर नंगी हो गई है। महावीर चींटी भी हो, तो पांव फूंक-फूंककर रखते हैं। इसलिए नहीं कि उन्हें डर है कि कहीं चींटी मर न जाए। उनके पीछे चलने वाला भी पांव फूंक-फूंककर रखने लगता है कि कहीं चींटी मर न जाए। लेकिन इसे अपनी ही आत्मा का पता नहीं है, इसे चींटी की आत्मा का पता कैसे हो सकता है! इसे अपने ही भीतर के जीवन का कोई अनुभव नहीं है, चींटी के जीवन का अनुभव कैसे हो सकता है! इसकी अहिंसा थोथी, उथली, ऊपर-ऊपर हो जाती है। ऊपर से आचरण हो जाता है। भीतर का अंतस वैसा का वैसा बना रहता है। भीतर अंतस बदले, तो ही बाहर जो क्रांति घटित होती है; वह वास्तविक होती है। लेकिन यह भूल होती रही है। मैंने सुना है, एक यहूदी फकीर हुआ, बालशेम। थोड़े से जमीन पर हुए कीमती फकीरों में एक। बालशेम से किसी ने पूछा कि तुम जब भी बोलते हो, तो तुम ऐसी चोट करने वाली मौजू कहानी कह देते हो। कहा से खोज लेते हो ये कहानियां? तो बालशेम ने कहा, एक कहानी से समझाता हूं। और बालशेम ने कहा कि एक सेनापति एक छोटे गांव से गुजरता था। बड़ा कुशल निशानेबाज था। उस जमाने में उस जैसा निशानेबाज कोई भी न था। सौ में सौ निशाने उसके लगते थे। अचानक उसने देखा गाव से गुजरते वक्त अपने घोड़े पर, एक बगीचे की चारदीवारी पर, लकड़ी की चारदीवारी, फेंसिंग, उसमें कम से
कम डेढ़ सौ गोली के निशान हैं। और हर निशान चाक के एक गोल घेरे के ठीक बीच केंद्र पर है। डेढ़ सौ ! सेनापति चकित हो गया। इतना बड़ा निशानेबाज इस छोटे गांव में कहा छिपा है! और जो चाक का गोल घेरा है, ठीक उसके केंद्र पर गोली का निशान है। गोली लकड़ी को आर - पार करके निकल गई है। और एकाध मामला नहीं है, डेढ़ सौ निशान हैं ! उसे लगा कि कोई मुझ से भी बड़ा निशानेबाज पैदा हो गया। पास से निकलते एक राहगीर से उसने पूछा कि भाई, यह कौन आदमी है? किसने ये निशान लगाए हैं? किसने ये गोलियां चलाई हैं? इसकी मुझे कुछ खबर दो। मैं इसके दर्शन करना चाहूंगा! उस ग्रामीण ने कहा कि ज्यादा चिंता मत करो। गांव का जो चमार है, उसका लड़का है। जरा दिमाग उसका खराब है। नट-बोल्ट थोड़े ढीले हैं ! उस सेनापति ने कहा, मुझे उसके दिमाग की फिक्र नहीं है। जो आदमी डेढ़ सौ निशाने लगा सकता है इस अचूक ढंग से, वर्तुल के ठीक मध्य में, उसके दिमाग की मुझे चिंता नहीं। वह महानतम निशानेबाज है। मैं उसके दर्शन करना चाहता हूं। उस ग्रामीण ने कहा कि थोड़ा समझ लो पहले। वह गोली पहले मार देता है, चाक का निशान बाद में बनाता है। करीब - करीब धर्म के इतिहास में ऐसा हुआ है। हम सब गोली पहले मार रहे हैं, चाक का निशान बाद में बना रहे हैं! लेकिन राहगीर को तो यही दिखाई पड़ेगा कि गजब हो गया। जिसे पता नहीं, उसे तो दिखाई पड़ेगा कि गजब हो जिंदगी बाहर से भीतर की तरफ उलटी नहीं चलती है। जिंदगी की धारा भीतर से बाहर की तरफ है, वही सम्यक धारा है। गंगोत्री भीतर है। गंगा बहती है सागर की तरफ। हम सागर से गंगोत्री की तरफ बहाने की कोशिश में लगे रहते हैं। अगर आपके भीतर संदेह है, तो घबडाएं मत। संदेह की गंगा को सागर तक पहुंचने दें। और रुकावट मत डालें। आज नहीं कल आप पाएंगे कि सं
देह ही आपको समर्पण तक ले आया। इससे उलटा कभी भी नहीं हुआ है। सभी संदेह करने वाले, सम्यक संदेह करने वाले, राइट डाउट करने वाले लोग समर्पण पर पहुंच गए हैं। अश्रद्धा ही श्रद्धा का द्वार बन जाती है। मगर पूरी अश्रद्धा । अनास्था ईमानदार, प्रामाणिक अनास्था आस्था की जननी है। थोपें मत। ऊपर - ऊपर से थोपें मत। ऊपर की चिंता मत करें। मत पूछें कि मन अनास्था से भरा है, तो कैसे प्रार्थना करें। अनास्था से पूरा भर जाने दें। और मैं आपको कहता हूं कि प्रार्थना का बीज आपके भीतर छिपा है। अनास्था को पूरी तरह बढ़ने दें। यह अनास्था ही उस बीज के लिए भूमि बन जाएगी। प्रार्थना का अंकुर आपके भीतर पैदा होगा। नास्तिक होने से मत डरें अगर आस्तिक होना है। और अगर किसी दिन ईश्वर के चरणों में पूरा सिर रखकर हौ भर देनी है, तो अभी जब तक आपको लगे कि वह नहीं है, तब तक ईमानदारी से इनकार करना । जल्दी ही मत भरना। जल्दी भरी गई ही गर्भपात है, एबार्शन है। उससे जो बच्चा पैदा होता है, वह मुर्दा पैदा होता है। अनास्था के गर्भ को कम से कम नौ महीने तक तो चलने दें। और अगर यह गर्भ पूरा हो गया हो, तो फिर मुझसे पूछने की जरूरत न रह जाएगी। अगर आप सच में ही ऊब गए हों अपनी अश्रद्धा से, तो आप उसे छोड़ ही देंगे, फेंक ही देंगे। न ऊबे हों, तो थोड़ी प्रतीक्षा करें। थोड़ा ऊबे। डर इसलिए नहीं है मुझे, क्योंकि अश्रद्धा से कभी आनंद मिलता नहीं, इसलिए आप तृप्त नहीं हो सकते। आज नहीं कल आप उसे फेंक ही देंगे। श्रद्धा से ही आनंद मिलता है। और बिना आनंद के कोई व्यक्ति कब तक जीवित रह सकता है? धर्म को पृथ्वी से मिटाया नहीं जा सकता तब तक, जब तक कि आदमी आनंद की मांग कर रहा है। जिस दिन आदमी आनंद के बिना जीने को राजी हो जाएगा, उस दिन धर्म को मिटाया जा सकता है, उसके पहले नहीं । धर्म परमात्मा की खोज नहीं है, आनंद की खोज है। और जिन्हें आनंद खोजना है, उन्हें परमात्मा खोजना पड़ता है। और आनंद की खोज हमारे भीतर का नैसर्गिक स्वर है। इससे ही संबंधित एक प्रश्न और एक मित्र ने पूछा है, ईश्वर की ओर श्रद्धा बढाना बहुत कठिन लगता है, क्योंकि उसके अस्तित्व को मानने का कोई ठोस सबूत या कारण नहीं मिलता! ईश्वर की श्रद्धा बढ़ाना बहुत ही कठिन मालूम पड़ता है। बढ़ाइए ही क्यों? ऐसी झंझट करनी क्यों! कौन - सी अड़चन आ रही है आपको कि ईश्वर की श्रद्धा बढ़ानी है! मत बढ़ाइए। छोड़िए ईश्वर की बात ही। बेचैनी क्या है? क्यों चाहते हैं कि ईश्वर की श्रद्धा बढ़े? तो अपने भीतर तलाश करिए। बिना ईश्वर के आपको शांति नहीं मालूम पड़ती। बिना ईश्वर के चैन नहीं मालूम पड़ता। इसलिए श्रद्धा बढ़ाना चाहते हैं। पहले अपने भीतर की इस बात को समझिए कि मेरे भीतर कोई बेचैनी है, जिसकी वजह से ईश्वर की श्रद्धा बढाना चाहता हूं। और अगर बेचैनी ठीक से समझ में आ जाए, तो आप फिर प्रमाण नहीं पूछेंगे, सबूत नहीं पूछेंगे। प्यासा आदमी यह नहीं पूछता कि पानी है या नहीं म् प्यासा आदमी पूछता है, पानी कहा है? प्यास न लगी हो,
तो आदमी पूछता है, पता नहीं, पानी है या नहीं! प्यासे आदमी ने अब तक नहीं पूछा है कि पानी है या नहीं! प्यासा आदमी पूछता है, पानी कहां है? कैसे खोजूं? ईश्वर के प्रमाण की जरूरत क्या है? आपके भीतर ईश्वर के बिना बेचैनी है, यह काफी प्यास है। और यही उसका प्रमाण है। इस बात के फर्क को समझ लें। एक आदमी पूछता है, ईश्वर है या नहीं, इसका प्रमाण चाहिए। मैं प्रमाण नहीं देता। मैं कहता हूं छोड़ो फिक्र। जिसका प्रमाण नहीं, उसकी फिक्र क्यों करनी? ईश्वर को जाने दो, उसकी बला। तुम अपने रास्ते पर जाओ। ईश्वर तुमसे कभी कहने आता नहीं कि मेरा प्रमाण तुमने अभी तक पता लगाया कि नहीं। तो झंझट में पड़ते क्यों हो? क्यों अपने मन को खराब करते हो? शांति से सोओ। क्यों नींद खराब करनी ! अनिद्रा मोल लेनी! क्या बात है ? चैन नहीं है भीतर। कहीं भीतर कोई एक प्यास है, जो बिना ईश्वर के नहीं बुझ सकती। बिना ईश्वर के प्यास नहीं बुझ सकती। वह प्यास भीतर से धक्के देती है कि पता लगाओ ईश्वर का । अपनी प्यास को समझो, ईश्वर को छोड़ो। पानी उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितनी प्यास महत्वपूर्ण है। पानी तो गौण है। अगर प्यास न हो, तो पानी का करिएगा भी क्या ! और अगर प्यास हो, तो हम पानी खोज ही लेंगे। एक नियम जीवन का है कि उसी चीज की प्यास होती है, जो है। जो नहीं है, उसकी प्यास भी नहीं होती। जो नहीं है, उसका कोई अनुभव भी नहीं होता, प्यास का भी अनुभव नहीं होता। उसके अभाव का भी अनुभव नहीं होता। आदमी की प्यास ही प्रमाण है। इसका मतलब यह हुआ कि आपको सब कुछ मिल जाए तो भी तृप्ति न होगी, जब तक कि आपको ईश्वर न मिल जाए। अगर आपको तृप्ति हो सकती है बिना उसके, तो आप तृप्त हो जाएं; ईश्वर को कोई एतराज नहीं है। आप मजे से तृप्त हो जाएं। वह आपकी तृप्ति में बाधा डा
लने नहीं आएगा। लेकिन आप तृप्त हो नहीं सकते। यह कठिनाई ईश्वर की नहीं है। यह आदमी के आदमी के होने के ढंग की कठिनाई है। आदमी इस ढंग का है कि बिना ईश्वर के तृप्त नहीं हो सकता। और इसलिए जब हम आदमी से ईश्वर छीन लेते हैं, तो वह न मालूम किस-किस तरह के ईश्वर गढ़ लेता है। रूस में एक बड़ा प्रयोग हुआ कि कम्युनिस्टों ने ईश्वर छीन लिया। तो आपको पता है क्या हुआ? जैसे ही ईश्वर छिन गया, लोगों ने राज्य को ईश्वर मानना शुरू कर दिया। चर्च से जीसस की मूर्ति तो हट गई, लेकिन क्रेमलिन के चौराहे पर लेनिन की लाश रख दी गई। लोग उसको ही फूल चढ़ाने लगे, उसके ही चरणों में सिर रखने लगे! यह बड़े मजे की बात है। लेनिन तो नास्तिक था। मानता नहीं है कि मृत्यु के बाद कुछ भी बचता है। लेकिन उसकी लाश रखी है क्रेमलिन में। लाखों लोग प्रतिवर्ष चरण छू रहे हैं। किसके चरण छू रहे हैं? जो नहीं है अब उसके? और जो अब नहीं है, वह कभी भी नहीं था। इस मुर्दे को क्यों छू रहे हैं? गहरी प्यास है। कहीं किसी चरण में सिर रखने की आकांक्षा है। किसी अज्ञात के सामने झुकने का मन है। तृप्ति न होगी; तो लेनिन के ही चरणों में सिर रख रहे हैं। ईश्वर को हमने छीन लिया है। तो हमने फिर कुछ भी गढ़ लिया है। लेकिन आदमी बिना श्रद्धा के नहीं रह पाता। ईश्वर की श्रद्धा छीनी, राज्य की श्रद्धा करेगा, नेता की श्रद्धा करेगा। यहां तक कि अभिनेता की श्रद्धा करेगा! कुछ चाहिए जो उसके श्रद्धा का आश्रय बन जाए। कुछ चाहिए जिसके लिए वह समझे कि जी सकता हूं। लेकिन आदमी बिना ईश्वर के नहीं रह सकता। आदमी ईश्वर के बिना बेचैन ही रहता है। एक परम आश्रय चाहिए। तो मैं आपसे नहीं कहता कि कोई प्रमाण है उसका। कोई प्रमाण नहीं है आपकी प्यास के अतिरिक्त। अपनी प्यास को मिटा लो, आपने ईश्वर को मिटा दिया। ईश्वर को मिटाने की फिक्र मत करो। वह आपके वश की बात नहीं है। अपनी प्यास को मिटा लो; ईश्वर मिट गया। और आपकी प्यास के मिटाने का कोई उपाय नहीं है। आप ही हो वह प्यास। अगर प्यास आपसे कोई अलग चीज होती, तो हम उसे मिटा भी लेते। आप ही हो प्यास। आदमी परमात्मा की एक प्यास है। आदमी अलग होता, तो प्यास को हम काट देते। कोई सर्जरी कर लेते। और आदमी को अलग कर लेते। आदमी खुद ही प्यास है। नीत्शे ने कहा है, जिस दिन आदमी अपने से ऊपर जाना बंद कर देगा, उस दिन मर जाएगा। यह अपने से ऊपर जाने की एक प्यास है आदमी के भीतर। जैसे बीज टूटता है और आकाश की तरफ उठना शुरू हो जाता है। वह आकाश की तरफ उठने की आकांक्षा ही वृक्ष बन जाती है। आदमी भी निरंतर अपने से ऊपर उठकर आकाश की तरफ जाना चाहता है। वह आकाश की तरफ जाने की आकांक्षा ही ईश्वर है। आप तब तक बीज ही रहेंगे, जब तक ईश्वर का वृक्ष आप में न लग जाए। जब तक आप ईश्वर न हो जाएं, तब तक कोई संतोष संभव नहीं है। ईश्वर से कम में कोई तृप्ति नहीं है। यही प्रमाण है कि आपके भीतर प्यास है। इसके अतिरिक्त और कोई प्रमाण नहीं है। कोई गणित नहीं है ईश्वर का, कि सिद्ध किया जा सके कि
दो और दो चार होते हैं, ऐसा कोई गणित हो। कोई तर्क नहीं है, जिससे साबित किया जा सके कि वह है। और अच्छा है कि कोई तर्क नहीं है। क्योंकि तर्कों से जो सिद्ध होता है, वह और कुछ भी हो - गणित की थ्योरम हो, विज्ञान का फार्मूला हो - धर्म की अनुभूति नहीं होगी। और अच्छा है कि तर्क से वह सिद्ध नहीं होता, क्योंकि तर्क से कोई चीज कितनी ही सिद्ध हो जाए उससे प्यास नहीं बुझती । समझें। प्यास तो पानी से बुझती है। लेकिन एच टू ओ का फार्मूला कागज पर लिखा रखा हो, बिलकुल गणित से व्यवस्थित, उससे नहीं बुझती। एच टू ओ के फार्मूले को आप पी जाना घोलकर, प्यास नहीं बुझेगी। प्यास तो पानी से बुझेगी। क्योंकि प्यास एक अनुभव मांगती है, एक ठंडक मांगती है, जो आपके प्राणों में उतर जाए। एक रस मांगती है, जो आपके भीतर जाए और आपको रूपांतरित कर दे। फार्मूला तो किताब पर होता है। ईश्वर का कोई फार्मूला नहीं है। और जितनी किताबें ईश्वर के लिए लिखी गई हैं, वे केवल इशारे हैं; उनमें ईश्वर का कोई फार्मूला नहीं है। सब शास्त्र हार गए हैं, अब तक उसे कह नहीं पाए हैं। कभी उसे कहा भी नहीं जा सकेगा। लेकिन शास्त्रों ने कोशिश की है। कोशिश इशारे की तरह है; मील के पत्थर की तरह है कि और आगे और आगे। हिम्मत देने के लिए है, कि बढ़े जाओ; दो कदम और; ज्यादा दूर नहीं है; पास ही है। हिम्मत से कोई बढ़ा चला जाए, तो एक दिन उस अनुभव में उतर जाता है। लेकिन प्रमाण मत खोजना आप। प्रमाण कोई है नहीं। और या फिर हर चीज प्रमाण है। फिर ऐसी कौन - सी चीज है, जो उसका प्रमाण नहीं है? फिर चारों तरफ आंखें डालें। आकाश में सूरज का उगना, और रात आकाश में तारों का भर जाना, और एक बीज का फूटकर वृक्ष बनना, और एक झरने का सागर की तरफ बहना, और एक पक्षी के कंठ से गीत का निकलना। ए
क बच्चे की आंखों में झांकें; और एक काई जमे हुए पत्थर को देखें; और सागर के किनारे की रेत को, और सागर की लहरों को - तो फिर हर जगह उसका प्रमाण है। फिर वही वही है । एक दफा खयाल में आ जाए कि वह है, तो फिर सब जगह उसका प्रमाण है। और जब तक उसका खयाल न आए, तब तक उसका कोई प्रमाण नहीं है।
"हुजूर, माई-बाप, मुझ पर कैसी विपदा आ पड़ी है। कल रात जवान लड़के को पाखाना हुआ। मैं गरीब भीख माँग कर खाने वाला आदमी। डॉक्टर का खर्चा कहाँ से लाता? सोच रहा था, सुबह होते ही सरकारी अस्पताल ले जाऊँगा। डॉक्टर बाबू के पाँव पडूँगा। क्या कहूँ हुजूर, भगवान बड़ा ही निष्ठुर है। मुझसे मेरा कालिया छीन लिया। सुबह होते-होते बेटे की नाड़ी बंद हो गई। मेरा इकलौता बेटा बिशिकेशन जैसा था, हुजूर। भीख माँग-माँगकर बड़ा किया था। बिन माँ के बच्चे को कितने कष्ट से बड़ा किया था। भगवान को यह भी सहन नहीं हुआ, हुजूर। अभी मेरी जेब में इतने पैसे नहीं है उसे श्मशान-घाट ले जा सकूँ, उसकी अंत्येष्टि-क्रिया करा सकूँ। हुजूर, भाई-बाप। कुछ पैसा देते तो लकड़ी खरीदता, श्मशान का खर्चा देता और बच्चे का अंतिम संस्कार करवा देता।" दस-बारह साल के लड़के की लाश के ऊपर एक गंदी धोती ओढाया हुआ है। उसका बाप रोते-रोते जमीन पर लोट रहा है। चेहरे पर है उसकी रुखी दाढ़ी। आँखों से आँसुओं की धारा बह रही हैं। रोते-रोते मुँह से लार भी गिर रही है। पहना हुआ है सात जगह से सिला हुआ एक मैला कोट, फटी-पुरानी धोती जिसे अभी साफ नहीं किया हो - धूल-वूल लगने से मटमैला रंग हो गया है। बड़ी-बड़ी आँखों में गिड, आँखों के नीचे कालापन। नाक से थोड़ा सेंडा निकलकर मूँछों पर चिपक गया है। वह आदमी घूम-घूमकर दया की भीख माँग रहा है। "हुजूर, माई-बाप, दया कीजिए इस गरीब-असहाय भिखारी के ऊपर। मेरा बेटा मर गया है, हुजूर। मेरा सर्वनाश हो गया है।" देखने वाले कुछ लोग वहाँ से खिसक गए, और कुछ लोगों ने पाँच पैसे-दस पैसे फेंक दिए। कुछ लोग पीछे से कौतूहलवश झाँककर देख रहे थे, क्या हो रहा है? सोच रहे थे कोई जादू वाला बाजीगर होगा या फिर जमीन में अपना सिर गाड़ने वाला होगा। अभी ऐसा मंत्र फूँकेगा, लड़के का गला काटकर खून से लथपथ छूरी दिखाएगा! सामने वाले लोग यह देखकर कि कोई मैजिक-वैजिक नहीं हो रहा है, वहाँ से खिसकने लगे थे। पीछे के लोग धक्का मारकर आगे बढ़ रहे थे. लड़के के ऊपर पैसे गिर रहे थे, पाँच पैसे, दस पैसे, पच्चीस पैसे। बूढ़ा रोते-रोते गिड़गिड़ा रहा था "हुजूर, माई-बाप मेरा तो सर्वनाश हो गया। मैं पूरी तरह से लुट गया, हुजूर। मुझ पर दया कीजिए।" बंधुगण! एक जीप भागते हुए चली गई। जीप के अंदर ठसाठस भरे हुए थे छः-सात आदमी। जीप के सामने लगा हुआ था विरोधी दल का झंडा। और पीछे लगा हुआ था एक लाउडस्पीकर। बंधुगण! तूफान पीड़ित उड़ीसावासियों के प्रति शासक दल की घोर अपेक्षा के खिलाफ विरोध करने के लिए सामने आइए। प्रधानमंत्री के उड़ीसा आगमन के खिलाफ विरोधीदल की तरफ से आयोजित विक्षोभ प्रदर्शन में एकजुट होकर सहयोग दीजिए तथा दिखा दीजिए कि उड़िया लोग कमजोर नहीं हैं, भीख-मँगे नहीं हैं। उड़िया आदमी विरोध करना जानते है, अन्यायी, अत्याचारी शासक दल को मुँह तोड़ जवाब देना जानता है। आप संकल्प लीजिए आज प्रधानमंत्री परेड़-ग्राउण्ड में एक भी शब्द नहीं बोल सके। उसके लिए बंधुगण! आइए मेरे साथ जोर से
नारा लगाइए "शासक दल, मुर्दाबाद, मुर्दाबाद! प्रधानमंत्री, लौट जाओ, लौट जाओ!" कोई घुड़सवार तेजी से घोड़ा रपटते हुए जा रहा है। घोड़ा? रपट नहीं रहा है, उड़ रहा है। चारो तरफ धूएँ जैसे कुँहासे के भीतर घुड़सवार उड़ते हुए जा रहा है, ये कैसा घोड़ा है? पक्षीराज? एकदम झकझक सफेद घोड़ा। उसके ऊपर किस तरह वह राजा का मुकुट पहनकर बैठा है। ओ पक्षीराज, ओ पक्षीराज, तुम कहाँ जा रहे हो? चलते रास्ते के किनारे लाश बनकर वह सोया हुआ है। गंदी धोती से ढ़का हुआ केवल पैंट पहने हुए उसका खुला बदन। नींद से उसकी बोझिल आँखें। कैसे आ रही है उसको इतनी गहरी नींद? नींद टूटती है, तो भूख लगती है, भूख मिटती है, तो फिर नींद आने लगती है। बूड़ा अभी पैसे माँग रहा है। चतुर बूढ़ा रोने का अच्छा अभिनय कर रहा था। फिर से वह नींद के आगोश में जाने की चेष्टा करने लगा। भूख मिटाने का यह समय नहीं है। यह तो सपना देखने का समय है। बुढ़े ने पहले से ही आगाह कर दिया है कि धंधे के समय बिल्कुल भी हलचल नहीं होनी चाहिए। यहाँ तक कि अगर चींटी या बिच्छू भी डंक मार दे, तब भी किसी तरह की हलचल नजर नहीं आनी चाहिए। खाँसी आने से भी मत खाँसना। छींक आने से भी मत छींकना। बूढ़े ने इसके लिए दो साल तक पक्की ट्रेनिंग दी है। पहले-पहले कुछ दिक्कत हो रही थी। आजकल शरीर में बिलकुल हलचल नहीं होती है। साँस लेते या छोड़ते समय भी छाती ऊपर-नीचे नहीं होती है। देखने वाले जरुर सोचेंगे कि सचमुच में एक लाश पड़ी हुई है। दीवारों के ऊपर, बाड़ों के ऊपर प्रधानमंत्री के चित्र वाले पोस्टर - चलिए, परेड ग्राउंड। प्रधानमंत्री भाषण देंगे। रास्ते-रास्ते, नुक्कड़-नुक्कड़ पर लाल कपड़े पर सफेद अक्षरों में लिखा हुआ है - 'स्वागतम् प्रधानमंत्री'। दीवारों पर बाड़ों पर काले अक्षरों में लिखे
हुए हैं स्लोगन - "प्रधानमंत्री लौट जाओ"। खूब सारी जीपें इधर से उधर भाग रही हैं। कहीं शासक दल के झंडें दिख रहे हैं। कहीं-कहीं पर विरोधी दल के झंडें। कहीं अधिकारीगण व्यग्र होकर भाग रहे हैं। चारों तरफ माइक बज रहे हैं। चारों तरफ प्रचार-पत्र नजर आ रहे हैं। "बंधुगण! बंधुगण! प्रधानमंत्री की सभा को सफल बनाइए। प्रधानमंत्री को काले झंडें दिखाइए। प्रधानमंत्री के हाथ मजबूत कीजिए। प्रधानमंत्री मुर्दाबाद, जिंदाबाद।" भुवनेश्वर के आस-पास के इलाकों के लोग पैदल आ रहे हैं। बालकाटी, बाली अंता, बाली पाटना, रेतंग जैसे गाँवों के लोग पैदल चलकर भुवनेश्वर आए हैं। देहात के लोग पहने हुए हैं धोती और कुर्ता, सिर पर अजीब ढंग के बाल। चेहरे पर भोलेपन और धूर्तता के मिश्रित भाव। प्रधानमंत्री को नजदीकी से देखने की इच्छा। प्रधानमंत्री मतलब हमारे देश का राजा नहीं तो और क्या है? शायद गाँव का सबसे बड़ा चलता पुर्जा होगा। राजधानी के रुप-रंग देखकर बुद्धू बन गया। किधर जाएँगे? बंधुगण! प्रधानमंत्री का बायकाट कीजिए। बंधुगण! प्रधानमंत्री का स्वागत कीजिए। किधर जाएँ? बुद्धू बनकर इधर-उधर देखते जा रहे थे दौड़ती हुई जीपों को। लाश को रखकर विलाप करते हुए बूढ़े के चारों तरफ धीरे-धीरे भीड़ घटते-घटते पूरी तरह से खत्म हो गई। बूढ़े ने जमीन पर फेंके हुए पैसों को उठाकर धोती के ऊपर रखा। सड़ाक से नाक साफ किया। शर्ट के हाथ से मुँह पोंछा। पाँच पैसे के सिक्के, दस पैसे के सिक्कें और चवलियाँ। किसी-किसी बेचारे ने एक रुपए का सिक्का भी फेंका है। उसको धन्यवाद देना होगा. इस कलयुग में भी दानवीर कर्ण! बूढ़ा गिनने लगा, सब मिलाकर सात रुपया पचपन पैसा। उसमें एक चवन्नी खोटी भी है। जो नहीं चलेगी। इसे रहने देते हैं, यहाँ नहीं चलेगी तो कहीं और चला देंगे। कोई मौका मिलने से किसी न किसी दिन नहीं चलेगी यह चवन्नी क्या? बेटे, केवल सात रुपए पचपन पैसे। इतने कम पसों से क्या होगा? दो पेट के लिए दो दिन के दो समय का जुगाड़, तीन रुपए के हिसाब से भी जोड़ते हैं तो चाहिए कम से कम बारह रुपए। उसके बाद चाय-नाश्ता का खर्च अलग से। आठ आना तो गाँजा, बीड़ी और सिगरेट खरीदने में लग जाएगा। आने-जाने का खर्च? बेटे, यह दुनिया बहुत महँगी हो गई है। लोगों के मन की दया, ममता और भी महँगी। तू अभी मत उठना। और दो तीन घंटे तक ऐसे ही लेटे रहो। मैं जानता हूँ, बेटे, धूप से जमीन तपने लगी है। तेरा शरीर पसीने से तरबतर हो गया होगा। फिर भी मेरे बच्चे, पापी पेट के लिए और थोड़ी देर के लिए ऐसे ही पड़े रहो। आज अच्छा-खासा पैसा मिलेगा। प्रधानमंत्री आ रहे हैं। लोगों की अच्छी -खासी भीड़ इकट्ठा होगी। यदि सौ रुपए के लगभग मिल गए तो बेटे कम से कम तुम्हारे लिए एक गमछा अवश्य खरीद लूँगा। "तीन ट्रकों में मात्र डेढ़ सौ आदमी। इतने में क्या होगा? जानते हो तुम्हारे विधान सभा क्षेत्र से कमसे कम आठ सौ आदमी होने चाहिए।" "लोग राजी नहीं हो रहें हैं। खेती-बाड़ी का समय है। इस दौरान चक्रवात आने से कई घर टूट गए ह
ैं। हमारी तरफ तो काम करने के लिए मजदूर तक नसीब नहीं हो रहे हैं। तब सभा में आने की किसको फुर्सत है? पार्टी की तरफ से प्रति व्यक्ति पाँच रुपया दिया जा रहा था, फिर लोग आने के लिए राजी नहीं हो रहे थे. वो तो मैं हूँ जो उन्हें एक आदमी के लिए आठ रुपए देकर लाया हूँ। तीन रुपए मैने अपने हाथ से लगाए हैं। आप समझ जाइए साढ़े चार सौ रुपए घर के लगे हैं। मैं तो ठहरा एक साधारण विधायक इतने पैसे कहाँ से लाता? मुख्यमंत्री ने निवेदन किया था, कम से कम राज्यमंत्री का एक पद दे देते। मगर मुझे कौन पूछेगा? "तुम एक विधायक होकर ऐसी बात करते हो। जानते नहीं हो, पैसा कैसे आता है?" "आजकल विधायकों की कहाँ पूछ है? तहसीलदार, बी.डी.ओ सभी ने बड़े-बड़े मंत्रियों के साथ अपना याराना सम्बंध स्थापित कर लिया है। सचिव लोगों से उनकी अव्वल नंबर की जान-पह्चान है। तब वे विधायकों को क्यों पूछेंगे? किसी मारवाड़ी के सामने हाथ फैलाकर माँगने से वह कितने पैसे देगा उससे तीन गुणा वसूल करके छोड़ेगा।" "कहो, तब क्या किया जाए? तीस हजार लोगों को इकट्ठा करने की बात हुई है। अभी तक जुगाड़ हुआ है केवल चार हजार आदमियों का। देखने वाले भी आएँगे तो ज्यादा से ज्यादा तीन-चार हजार आदमी। तब भी बीस-पचीस हजार आदमी शेष रह जाते हैं। कम से कम इतनी भीड़ होने पर ही तो यह कहा जा सकता है कि एक लाख से ज्यादा आदमी जुटे थे इस प्रोग्राम में। परेड़ ग्राउंड में पाँच-छ हजार लोग कम पड़ जाएँगे। अगर अच्छी खासी भीड़ नहीं हुई तो मुख्यमंत्री क्या सोचेंगे? प्रधानमंत्री जी के सामने उनकी क्या इज्जत रह जाएगी?"सवेरे के स्वच्छ आकाश में एक घोड़ा उड़ते हुए जा रहा है। कौन से देश? हरी-हरी घास के ऊपर ओस के बूँद अभी भी झिलमिला रही हैं। घोड़ा उड़ते हुए जा रहा है। कौन से देश में? कौन
से गाँव में? इतनी सुबह -सुबह किसान अपना हल लेकर खेत की तरफ जा रहा है। कोई आदमी अपने दोस्तों के साथ हँसते-हँसते तालाब की तरफ जा रहा है। एक ओह, इतनी सुंदर राजकन्या! इतनी सुंदर कन्या होती भी है क्या? अगर थोड़ी सी भी धूप लग गई तो सारा सौन्दर्य दुःख और कष्ट में पिघल जाएगा। आहा, यह सुंदर कन्या ऐसे ही हमेशा हँसती रहे। घोड़ा सरपट दौड़ाकर वह चला गया। वह अपने शरीर पर राजकुमार की पोशाक धारण किए हुए था। घोड़े की हिनहिनाहट से गर्वान्मत्र राजकुमार का शरीर नाचने-झूमने लगा। थकावट के मारे उसकी आँखें बोझिल हो रही थी। केवल अभी तक हुआ था बारह रुपए अस्सीपैसे। सीने के भीतर अजीब-सा लग रहा था। एक कप चारा मिलने से कुछ होता। जेब के अंदर दो-तीन बीड़ी तो जरुर होगी। लेकिन अभी रहने देते हैं। लोग क्या सोचेंगे? बेटा तो मर गया है और इधर बूढ़ा चाय-बीड़ी पी रहा है। धन्धा चौपट हो जाएगा। ऐसे भी इन सब धंधों में खतरा कुछ ज्यादा ही होता है। अगर लड़का थोड़ा भी हिल गया तो बात वहीं खत्म। इसके अलावा, अगर किसी ने ज्यादा पूछताछ की, तो उससे छिपकर जल्दी ही खिसकना पड़ेगा। हमेशा सतर्क रहना पड़ता है - कोई संदेही आँखें घूर तो नहीं रही है। इसके आगे भी, एक शहर में एक दिन से ज्यादा रुकना ठीक नहीं है। परसो थे टाटा में, उत्कल एक्सप्रेस से आज ही भुवनेश्वर उतरा हैं। आज रात को ही किसी दूसरी जगह चले जाएँगे। कहाँ जाएँगे यह तो उसको भी मालूम नहीं है। स्टेशन जाकर जो भी ट्रेन मिलेगी, उसी में चढ़ जाएँगे। ट्रेन छूटने के बाद ही राहत की साँस ले पाएँगे। मुख्य सचिव के कानों में बोला गया था मगर यह बात दो-तीन अन्य आदमियों ने भी सुन ली। एक साथ चार-पाँच रुमाल लिए हाथ प्रधानमंत्री की ओर बढ़े। प्रधानमंत्री किसके हाथ से रुमाल लेंगे? किसको धन्यवाद देंगे? मगर थैंक्स कहकर प्रधानमंत्री ने अपनी पॉकेट से अपना रुमाल निकाल लिया। तूफान प्रभावित इलाकों का दौरा करने के बाद प्रधानमंत्री लौट आए हैं। अभी वह जाएँगे राजभवन की ओर। वहाँ संवाददाता सम्मेलन होने वाला है। कैमरामेन दौड़ रहे हैं। फ्लैश पड़ने लगा है। हवाई-अड्डे पर पुलिस के घेरे में कुछ अधिकारीगण, स्थानीय नागरिक और संवाददाता। फोन बजने लगा. हेलो, हेलो। प्रधानमंत्री ने तूफान प्रबावित इलाकों का दौरा करके लौट आए हैं। अच्छा, अभी वे जाएँगे राजभवन। टेलेक्स चल पड़ा। खड्-खड् रिपोर्ट करने लगा। प्राइम मिनिस्टर अराइव्स एट एअरपोर्ट ऑफ्टर विजिटिंग साइक्लोन एफेक्टेड एरियाज। नेक्सट पोग्र्राम, प्रेस कान्फ्रेंस एट राजभवन। हेलो, हेलो, मैं अमुक अखबार का संपादक बोल रहा हूँ। हेलो, फलाना बाबू हैं? हमारी पत्रिका के रिपोर्टर, हेलो, आप राजभवन पहुँच गए हैं? सुनिए, प्रधानमंत्रीजी को आप तीसरे नंबर का प्रश्न जरुर पूछिएगा। इस बात पर ध्यान दीजिएगा, प्रधानमंत्रीजी का उत्तर सीधा-साधा होना चाहिए। अगर जरुरत पड़ी तो घुमा-घुमाकर भी पूछ सकते हो। हेलो, पूरी बातचीत की रिकार्डिंग कर लीजिएगा। प्रधानमंत्री के मुँह से यह बात कबूल करवा क
े ही छोडिएगा। आप इतने सीनियर आदमी हो। बहुत सारी प्रेस कान्फ्रेंस का भी अनुभव है आपको। याद है ना, रिलीफ कमीशनर के कान्फ्रेंस की सारी बातें। "देखिए हुजूर, मुझ पर कैसी आफत आ पड़ी है।" नाक से नेटा बह रहा है। फों करके उसनेनाक साफ कर दिया। उसके मुँह से कुछ भी बात नहीं निकल रही है। जमीन पर बिछी हुई धोती की तरफ उसने एक नजर घुमाई। चवन्नियां और दस पैसों के सिक्के। एक बार इच्छा हो रही थी सब पैसे गिन ले। लेकिन अपने आप को संभाल लिया। इस धंधे में खूब सावधानी बरतनी पड़ती है। किसी को पता भी नहीं लगना चाहिए कि उसकी निगाहें पैसों पर टिकी हुई है। तुम्हारा बेटा मर गया है, इसलिए तुम रो रहे हो। पैसा-फोड़ी क्या चीज है?" एक बार फिर उसने चिल्लाने की कोशिश की "मेरा इकलौता बेटा था हुजूर।" बोलते-बोलते वह अनुभव कर रहा था कि उसका गला खुल नहीं रहा था। ज्यादा थकान की वजह से उसकी आवाज मानो भर गई हो। आँखों से और पानी निकालना संभव नहीं हो पा रहा था। कितने पैसे हुए होंगे? ज्यादा से ज्यादा चार-पाँच रुपए और बढ़े होंगे। अभी तक पन्द्रह और पाँच यानि बीस रुपए। इतने में क्या होगा? आज के दिन प्रधानमंत्री आ रहे हैं।खूब भीड़ इकट्ठी हो रही है। खूब आमदनी होनी चाहिए। लोगों के झुंड के झुंड जा रहे हैं, मगर मरे हुए लड़के के लिए केवल बीस रुपए। उसके मन में एक बात याद आ गई, मानो उसे कुछ शब्द मिल गए हो। उठकर खड़ा होकर वह कहने लगा, "हुजूर, मानवता मर गई है क्या? एक इंसान के लिए दूसरे इंसान का कोई कर्तव्य नहीं है। एक बारह साल के बच्चे के शव दाह के लिए भी पैसों का जुगाड़ नहीं हो पा रहा है, हुजूर। यहाँ इतनी भीड़ होने से क्या फायदा, हुजूर? राजकन्या के हजार-हजार सपनों से भरी हुई मुलायम पलकों की निगाहों की तरह ओस से भीगी सुबह की कोमल-किरण
ों में घोड़ा अचानक चौंककर खड़ा हो गया। कुछ लोग सामने में घोड़े पर भागते हुए इधर आ रहे थे। राजकुमार की पोशाक धारण किया हुआ दस-बारह साल का लड़का अचानक चौंक पड़ा। कौन हैं वे लोग? क्या दस्युगण? या शत्रु राज्य की सेना? कमर में कसी हुई तलवार को अपनी मुट्ठी से जोर से पकड़ लिया। "महाराज, महाराज! हमारी मदद कीजिए, महाराज।" आगंतुक आश्वारोहियों में से जो मुखिया था, शायद सेनापति होगा। हाथ उठाकर कहने लगा, "महाराज, हमारी राजकुमारी को राक्षस उठाकर ले गए हैं।" "राजकुमारी? तुम्हारी राजकुमारी? कौन है वह? मैं तो उसे नहीं पहचानता हूँ।" "आप जानते हैं, महाराज। आप सरपट घोड़ा भगाते हुए आ रहे थे। हमारी राजधानी के पास कुछ लड़कियों हँसती हुई नदी की तरफ जा रही थी। उन लड़कियों में जो सर्वोत्तम और सबसे ज्यादा सुंदर थी, वही तो हमारी राजकुमारी थी। महाराज, राजकुमारी समेत उन सभी लड़कियों को वह राक्षस उठाकर ले गया है अपनी गुफा में। उन्हें बचाइए, महाराज।" पचहत्तर लोगों का चावल पकाने से तीन बजे तक खत्म नहीं हो पाएगा। कुछ बच ही जाएगा। बचे हुए चावल को शाम के लिए पके भात में मिलाना पड़ता था। लेकिन आज तीन सौ लोगों के लिए चावल पकाया जा चुका है और साढ़े बारह बजे आकर रसोइया पूछ रहा है कि चावल सब खत्म हो गए है ; और पकाना है अथवा नहीं? आहा, प्रधानमंत्री हमारे लिए लक्ष्मीपुत्र है। मगर हर महीने दो बार कम से कम उड़ीसा का दौरा करते, परेड़ ग्राउंड में सभा का आयोजन करवाते तो मजा ही आ जाता। प्रधानमंत्रीजी की ऐसी ही दया रहेगी तो सरकारी बस-स्टैंड के बाहर बाँस की पट्टियों से घेरकर तथा रास्ते में लकड़ी के टेबल-कुर्सी डालकर बनाए गए इस आदर्श हिंदू होटल को एक भव्य भवन में क्यों नहीं परिवर्तित कर देगा पूर्ण साहू। उसके नगदी-डिब्बे के पास में लटकाया हुआ था प्रधानमंत्री का कैलेण्डर साइज फोटो। फोटो के सामने अगरबत्ती लगाई हुई थी। तभी तो शायद आज उसे साँस लेने की भी फुर्सत नहीं मिल रही थी। आहा, हमारे प्रधानमंत्री जैसे दिग्गज नेता और कहीं मिलेंगे? बंधुगण! प्रधानमंत्री के उड़ीसा आगमन पर शासक दल के छलावे से भरे और पक्षपातपूर्ण रवैये के खिलाफ जोरदार विरोध प्रदर्शन कीजिए। पूछिए, शासक दल के मुख्यमंत्री एवं प्रधानमंत्री को, भयंकर आँधी-तूफान के पाँच दिन बाद भी पीड़ित गाँवों तक राहत क्यों नहीं पहुँची? तभी माइक बंद हो गया। आदर्श हिंदू होटल के सामने अचानक एक जीप खड़ी हो गई। सात-आठ आदमी जीप से कूद पड़े "चावल बने हैं या चिकन?" पूर्ण साहू हड़बड़ाते हुए उठकर खड़ा हो गया। अपने काले दाँतो को निपोरकर हंसने लगा। "आइए, आइए, सब कुछ है साहब? गरमा-गरम।" कोई कहने लगा, "ओह! अंदर काफी भीड़ है।" "अभी जगह खाली हो जाएगी, साहब। अरे, लोचन, साहब लोगों को इधर खाली जगह पर बिठाओ।" "प्रधानमंत्री का यह फोटो क्यों लगवाए हो?" "ऐसे ही साहब, कुछ भी नहीं। आप कहते हैं तो अभी खोल देता हूँ। बिल्कुल अच्छा आदमी नहीं है, साहब। अपने उड़ीसा के लिए कुछ भी नहीं कर रहा है। सब
कुछ तो अपने राज्य को दे रहा है। अरे, लोचन, सात प्लेट चावल और सात फुल प्लेट चिकन इधर ले आ।" प्रेस कांफ्रेंस में प्रधानमंत्री बैठे हुए थे। पहना हुआ था उन्होंने सफेद कुर्ता और सफेद चूड़ीदार पायजामा। सिर के ऊपर थी गाँधी टोपी। दो या तीन ऊँगलियों में धारण किए हुए थे रत्न जडित सोने की अंगूठियाँ। हाथ पर एक कीमती घड़ी, पाँव में कीमती चप्पलें और होठों पर मंद-मंद मुस्कराहट। उनको घेरकर खड़े हुए थे बहुत सारे संवाददाता। कुछ कैमरामेन इधर-उधर दौड़ रहे थे। फ्लैश के ऊपर फ्लैश पड़ रही थी। मुख्यमंत्री आज्ञाकारी, दास की भाँति उनके पास बैठे हुए थे। प्रधानमंत्री मुड़कर उनसे कुछ बोल रहे थे। मुख्यमंत्री का सीना फूले नहीं समा रहा था। असंतुष्ट दल के लोगों, आकर देखो, नहीं देख रहे हो मैं प्रधानमंत्री का सबसे नजदीकी आदमी हूँ। देख नहीं रहे हो, कितने अटूट विश्वास के साथ मुझसे बात कर रहे हैं। प्रधानमंत्री का ऐसा व्यवहार सबके लिए, कदापि नहीं, ऐसा व्यवहार सिर्फ मेरे लिए है। "मान्यवर, प्रधानमंत्री जी! क्या आप इस बात को स्वीकार करते हैं कि रिलीफ बाँटने में आपके अधिकारियों ने खूब अनियमितताएँ बरती है, बड़े-बड़े घोटाले किए हैं तथा उड़ीसा का शासक दल उन अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई करने में असमर्थ है? प्रधानमंत्री गंभीर, मगर होठों पर मुस्कराहट तथावत। "मैं इस बात को नहीं मानता हूँ। उड़ीसा सरकार अपने सच्चे मन से आँधी-तूफान के खिलाफ एक लड़ाई लड़ रही है। यह बात अलग है, कुछ अधिकारीगण हमेशा भ्रष्ट गतिविधियों में लिप्त रहते हैं। लेकिन मुझे इस बात पर पूर्ण यकीन है कि उड़ीसा सरकार उन लोगों के खिलाफ सख्त कार्यवाही करने में पीछे नहीं हटेगी।" "आँधी-तूफान आने से पहले अगर लोगों को उनके गाँव से हटा दिया गया होता तो शायद इतने लोग ह
ताहत नहीं होते। सरकार यह बात पहले से जानती थी कि उड़िसा के इन इलाकों में तेज आँधी-तूफान आ सकते हैं, तब बचाव के उपायों की व्यवस्ता क्यों नहीं की गई?" "कोई भी प्राकृतिक आपदा कितनी भी भयंकर हो, गाँव के सारे लोगों को उनकी जमीन-जायदाद छोड़कर हटाना क्या इतना सहज है? धन दौलत, जमीन-जायदाद तथा उनसे जुड़ी हुई उनकीस्मृतियाँ,उनके सेंटीमेंट, उनके इमोशन।" "शासक दल की असंतुष्ट गोष्ठी के बारे में आपकी क्या राय है?" शार्टहैंड की विकृत रेखाएँ, टेपरिकार्डर में रिकार्ड होती जा रही थी प्रधानमंत्री की सारी बातें। टी.वी कैमरे से एक फोटोग्राफर अलग-अलग कोण से प्रधानमंत्री के फोटो ले रहा था। राजभवन के पोस्ट ऑफिस में भयंकर भीड़। टेलीफोन, टेलीग्राम सभी एकदम व्यस्त। अभी पत्रकार लोग समाचार बना रहे हैं, फिर उन्हें भेजने में व्यस्त हो जाएँगे। प्रधानमंत्री यहाँ से रवाना होंगे शासक दल के मुख्य कार्यालय की तरफ। वहाँ सांसदों, विधायकों तथा कार्यकर्ताओं से मुलाकात करेंगे। शासक दल की बड़ी-बड़ी हस्तियाँ इधर-उधर दौड़ रही हैं। कहीं किसी घनघोर जंगल में, चारों तरफ घुप अंधेरा जिधर भी देखो, दिन की भरी दुपहरी में भी रात के काले अंधेरे का भ्रम हो रहा है। वहाँ पर वे लोग सेनापति के साथ खड़े हो गए हैं। इस दुर्बल सेनापति से क्या होगा? ए.डी.एम पलटा सिंह का व्यक्तित्व .................... वह इस चीज को अच्छी तरह जानता है कि उसके व्यक्तित्व में कहीं न कहीं कोई दोष जरुर है, जिसकी वजह से कोई भी पास नहीं फटकता। वह जानता है, कि कोई दूसरा होता तो एस.पी इस तरह चिल्लाकर बात नहीं करता, वरन डर से धीरे-धीरे सँभल कर बातचीत करता। लेकिन पता नहीं क्यों, कई भी उसकी खातिरदारी नहीं करता। विवश होकर पलटा सिंह ने आदेश-पत्र पर अपने हस्ताक्षर कर लिए। कुछ विरोध भी नहीं कर पाया। हस्ताक्षर करते समय उसके हाथ काँप रहे थे। उसे लग रहा था, उसके पाँव भी काँप रहे हैं। लेकिन किस वजह से? दस-बारह के बच्चे की लाश पर रोता हुआ उसका बूढ़ा बाप। इमेज फोटो स्टूडियों के डार्क रुम टेक्निशियन-कम-फोटोग्राफर-कम-प्रोपराइटर, श्री पुण्यश्लोक दास ने फोटो उठाया, फिर रीलघुमाकर देखने लगे। केवल और आठ फोटो लिए जा सकते थे बची हुई रील में। प्रधानमंत्री की मीटींग में थोड़ी और देर लगेगी। पुण्यश्लोक हिसाब लगाने लगा, अभी प्रधानमंत्री एम.एल.ए. मीटिंग में व्यस्त है। उसके बाद लंच करने जाएँगे। भाषण देते हुए प्रधानमंत्री का एक फोटो खींचकर तुरंत ही उसको मास्टर कैंटीन चौक तक दौड़-दौड़कर जाना पड़ेगा। वहाँ अपने डार्करुम में फोटो एक्सपोज करने के बाद वह दौड़ेगा पहले कटक, उसके बाद भुवनेश्वर। जो भी कोई अखबारों के संपादकों के पास पहले पहुँचेगा, उसीका फोटो ग्रहण किया जाएगा। लेकिन बहुत ही मुश्किल काम है, अखबार वालों के कार्यालय कटक और भुवनेश्वर शहर में बहुत दूर-दूर है, एक ही साथ सबको स्पर्श करना नामुमकिन है। भुवनेश्वर से बादामबाड़ी, वहाँ से चाँदनी चौक, फिर आगे जेल रोड़, बक्सी बाजार। इतना
घूम-घमकर 'समाज' कार्यालय पहुँचने पर पता चलेगा कि कोई और फोटोग्राफर फोटो देकर जा चुका है। अगर 'समाज' ऑफिस के लिए बक्शी बाजार की तरफ से जाते हैं, तो बिहारी बाग पहुँचते-पहुँचते पता चलेगा कि 'प्रजातंत्र' कार्यालय में किसी दूसरे फोटोग्राफर ने फोटो दे दिया है। ऊपर से न्यूज एडीचटों का भाव। कहने लगेंगे, मेरा स्टॉफ भी फोटोग्राफर का काम करता है। उसने भी फोटो खींचा है, लेकिन अपने अनुभव से पुण्यश्लोक यह बात अच्छी तरह जानता है कि कौन से अखबार वाले ज्यादा डरपोक हैं। वह बहुत डरा हुआ था। वह राजकुमार की पोशाक पहना हुआ था। उसने सेनापति को डाँटा, "अगर इतना डरोगे तो फिर युद्ध कैसे कर पाओगे?" सीधे वह गुफा के अंदर चला गया। बाकी लोग बाहर खड़े रहे। अंदर था घनघोर अंधेरा। यही अंधेरे में कहीं छुपा होगा वह राक्षस। हो सकता है अभी निकल कर सामने आ जाएगा। वह डरते हुए पाँव बढ़ा रहा था। आगे बढ़ते ही जा रहा था। बढ़ते-बढ़ते सामने एक दरवाजा दिखाई दिया। दरवाजे के भीतर से हल्की-हल्की रोशनी आ रही थी। दरवाजे की फाँक से उसने झाँककर देखा, राजकुमारी समेत वे सारी लड़कियाँ सिर नीचे झुकाकर बैठी हुई थी। उसने दरवाजे को धक्का दिया। खट की आवाज के साथ दरवाजा खुला। राजकुमारी मुँह ऊपर करके देखने लगी। जैसे ही उसने देखा, उसके चेहरे पर प्यार भरी मुस्कराहट छा गई। ए.डी.एम जीप से नीचे उतरे। लोगों की बेशुमार भीड़ देखते ही, वह ए.डी.एम. की जगह ए.एन. पलटा सिंह हो गया। वह हीन भावना से ग्रस्त था. भुवनेश्वर में कई आई.ए.एस अधिकारियों को देखकर उसकी हीन-ग्रंथि जागृत हो उठती है। उसको अक्सर ऐसा लगता है कि उसके व्यक्तित्व में ऐसी कोई न कोई कमी अवश्य है जिस वजह से वह एक परफेक्ट ऑफिसर नहीं बन पा रहा है। उसे इस बात का अनुभव है कि उसके नीचे काम करने
वाले कर्मचारीगण उसकी अवहेलना करते हैं। ऊपर के अधिकारी उसको उचित सम्मान नहीं देते हैं क्योंकि वह एक प्रमोटेड आई.ए.एस ऑफिसर है। ऐसी ही कुछ हीन-भावना हमेशा उसके मस्तिष्क में छाई रहती है। तभी एस.पी. ने आकर कुछ कागज उसके सामने रख दिए। "इन सब कागजों पर हस्ताक्षर कर दीजिए। आवश्यकता पड़ने पर काम आएँगे।" "ये सब क्या कागज हैं? आँखें तरेरते हुए एस.एन. पलटा सिंह ने पूछा। "लाठी चार्ज, गैस फायरिंग, ब्लैंक फायरिंग और फायरिंग आर्डर।" पलटा सिंह के भीतर ए.डी.एम. वाला व्यक्तित्व जाग उठा। वह सिर उठाकर कहने लगा, "सही समय आने दो, जब भीड़ ज्यादा हो जाएगी, तथा स्थिति कंट्रोल के बाहर हो जाएगी या फिर जनता ऐसी कुछ बदमाशी करेगी। उन्हीं अवस्थाओं मं तो इन कागजों पर दस्तखत किए जाएँगे।" "आपको इन चीजों का कितना अनुभव है? पहले कभी ऐसी मीटींग अटेण्ड किए हैं?" एस.पी. ने जोर से चिल्लाकर कहा। "ठीक समय पर ऐसे कार्यक्रम में आदेश पर दस्तखत करवाना क्या संभव है? लोगों में धक्का-मुक्की, लड़ाई-ढगडे, दंगा-फसाद औ मारपीट हो रही होगी। उसी समय पर इन आदेशों पर दस्तखत करवाकर लाठीचार्ज किया जाए तो क्या पुलिस संभाल सकेगी?" तरह मक्खीचूस है। इस वजह से इस बार पुण्यश्लोक ने ठान लिया है कि भुवनेश्वर की प्रेस वालों को पहले फोटो नहीं देगा। परेड़ ग्राउन्ड पहुँचने पर पुण्यश्लोक ने देखा कि सामने से उत्कल फोटो स्टूडियो का राना आ रहा है हँसते हुए मैने उससे कहा, "कितने स्नैप ले लिए हो?" पुण्यश्लोक ने अपनी जेब के अंदर हाथ घुसाकर अपना पास चेक कर लिया। पास जेब में पाकर वह खुश हो गया। फिर उसके दिमाग में इधर-उधर की बातें आने लगी, कहीं ऐसा तो नहीं है राना मुझसे झूठ बोल रहा होगा। अंदर ही अंदर अपना काम कर लिया होगा। सोच रहा होगा कहीं पहले मं फोटो ना सबमिट कर दूँ इसलिए उसने चाल चली होगी। पुण्यश्लोक ने मुँह बिगाड़कर सहानुभूति दिखाने का अभिनय किया। उसके बाद माफी माँगकर वह चला गया। बहुत काम बाकी था उसका। उसके कैमरे में आठ स्वैप लेने अभी भी बाकी थे. फ्लैश लाइट के बल्ब बेग में से बाहर निकालकर वह गिनने लगा। अगर फ्लैश लाइट ने धोखा नहीं दिया तो वह कटक के प्रेस कार्यलयों को जरुर कवर कर लेगा। मंगलू स्वाँई, राज्य मंत्रिमंडल से निष्कासित मंत्री, राज्य सरकार के पार्टी कार्यालय में प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में हो रही विधायकों की सभा में बाहर चला आया। देखिए, असंतुष्ट गोष्ठी के नाम पर कूदने वाले सभी युबा विधायक कितनी शांति से चुपचाप बैठे हुए हैं। इधर स्वाँई अकेला पड़ गया। मुख्यमंत्री इस तरह कह रहे थे, मानो उनके सरकार में केवल स्वाँई ही उनका अकेले विरोधी है। गुस्से में लाल-पीला होकर प्रधानमंत्री उसकी तरफ तिरछी निगाहों से देखने लगे। स्वाँई के मुँह से एक भी शब्द नहीं निकला। असंतुष्ट गोष्ठी के विधायकगण जो स्वाँई को उकसा रहे थे, अभी एकदम चुपचाप हैं। कहाँ चला गयाउनका मुख्यमंत्री के विरोध में सोलह बिंदुओं वाला अभियोग पत्र। किसीके मुँह से यह आवाज नहीं न
िकली कि मुख्यमंत्री सचिवालय में बैटकर केवल अधिकारिक निर्णय लेते हैं। किसी ने यह बी नहीं कहा कि खदान मालिकों का रायल्टी माफ करने के लिए मुख्यमंत्री नेचार करोड़ रुपए की घूस ली है। किसी ने एक बार भी यह आवाज नहीं उठाई कि फुलवाड़ी जिले में डोनामाइट खदान कीलीज अवैध तरीके से आवंटित करने के लिए एक कंपनी से भीतर ही भीतर साँठ-गाँठ की है। विरोधी दल के विधायकों की बात मुख्यमंत्री बिल्कुल नहीं सुनते हैं। ब तक कोई उनके साले की खुशामद नहीं करता है, तब तक उनका कोई काम नहीं होता है। ये सब बातें धरी की धरी रह गई। स्वाँई क्रोध के मारे काँप रहा था। प्रधानमंत्री की घूरती हुई वे गुस्से भरी आँखें उसको बैचेन कर रही थी। अपमान से वह तिलमिला रहा था। भीतर ही बीतर वह इस चीज को भी जानता है कि प्रधानमंत्री के सामने भले मुँह नहं खोले, मगर उसके हाथ में अभी भी उसका समर्थन करने वाले चार-पाँच विधायक हैं। पिछले चुनाव में अपना आदमी समझकर उसने बीस आदमियों को टिकट दिलवाया था। देखते-देखते वे सभी उसकी मुट्ठी से निकल गए। लेकिन आज भी पाच-छ ऐसे विधायक हैं, जो उसके रिजाइन करने पर वे भी साथ में रिजाइन कर देंगे। उसने मन ही मन इस बात को ठान लिया कि एक न एक दिन प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री को किसी न किसी लपेटे में जरुरु लेगा। भले ही, उसके लिए उसे इस्तीफा क्यों न देना पड़े। हालाँकि उससे पहले उसको असंतुष्ट गोष्ठी के विधायकों को मंत्रीपद का लोभ दिखाकर एकजुट करना पड़ेगा। अगर चालीस-पचास विधायक मेरी तरफ हो जाते हैं तो विरोधी दल के साथ मिलकर एक गठबंधन वाली सरकार बनाई जा सकती है। इस विषय पर विरोधी दल के नेता के साथ गोपनीय समझौता करना उचित रहेगा। स्वाँई ने उस बात का निश्चय कर लिया, कैसे भी करके वह मंत्रिमंडल को भंग कर देगा। प्रधानमंत्
री की उन तमतमाई आँखों का वह र्इंट का जवाब पत्थर से देगा। प्रधानंत्री को बी यह बात समझ में आ जाएगी कि मंगलू स्वाँई कितना ताकतवर है। उसके जैसी एक मिल जाए तो जीवन में उसके कोई चाह बाकी नहीं रहेगी. उसने राजकुमारी को हथेली से पकड़ लिया। उसकी मुलायम-मुलायम हथेलियों से उसका सारा शरीर सिहर उठा। कितनी सुंदर अनुभूति थी वह! राजकुमारी कहने लगी, "लौट जाओ राजकुमार, आप लौट जाइए। राक्षस आने ही वाला है। वह आपको मारकर खा जाएगा।" "लौट जाऊँगा?" लड़के ने सीना तानकर कहा! लौटकर जाने के लिए मैं नहीं आया हँ राजकुमारी, आपको यहाँ से छुड़वाने के लिए आया हूँ।" "ऐसा मतकरो, राजकुमार। आप यहाँ से चले जाइए। मेरे जैसी एक साधारण राजकुमारी के लिए आप अपना जीवन खतरे में मत डालिए।" "आपको यहां से किसी भी हालात में लिए बिना नहीं जा सकता हूँ राजकुमारी। जिस दिन मैने आपको नदी की तरफ किलकारी मारते हुए जाते देखा, उसी दिन मैं आपका दिवाना हो गया हूँ।" "राजकुमार।" राजकुमारी ने भागकर उस लड़के को अपनी बाँहों में जकड़ लिया। राजकुमारी के आँखों से खुशी के आँसू बहने लगे। "मुझे आप ही की प्रतीक्षा थी राजकुमार। आपकी जान के लिए मैने दिन-रात भगवान शिव की आराधना की है। राजकुमार, आज से मैं आपकी दासी, चिर-सहचरी हूँ।" विरोधी दल के ऑफिस में टेबल के चारों तरफ आठ-दस आदमी बैठे हुए थे। चपरासी और दरवान का काम करने वाले लड़के ने एक बार सभी को चाय पिला दी। उन आदमियों में से कॉलेज में अध्ययनरत एक युवा कॉलेज यूनियन का सभापति था, उसे जोरदार भूख लग रही थी। मगर कहने में वह हिचकिचा रहा था। पता नहीं, आज लंच नसीब होगा या नहीं। कोई भी लंच के बारे में बात नहीं छेड़ रहा था। विरोधी दल के नेता ने खद्दर का कुरता -पायजामा पहन रखे थे। पाँव में बाटा की चप्पलें, गले में सोने की मोटी चेन तथा हाथ में पहनी हुई थी एक महँगी घड़ी। चेहरे से सौम्य व्यक्तित्व झलक रहा था। हाथ में महँगी सिगरेट पकड़ी हुई है। उसके सामने सभी आदमी भीगी बिल्ली की तरह लग रहे थे, मगर विरोधी दल के नेता के चेहरे पर कोई शिकन नहीं नजर आ रही थी। वह खुश नजर आ रहा था। वह कहने लगा "प्रधानमंत्री, जैसे ही अपने स्थान से उठेंगे वैसे ही हमारा एक्शन शुरु हो जाना चाहिए। प्रदीप, कितने आदमियों का प्रबंध हुआ है?" प्रदीप, जो कि छात्र नेता था, खड़ा होकर कहने लगा, "हमारी यूनियन के समर्थक और बाकी सबी युवक मिलाकर डेढ़ सौ के तकरीबन होंगे, सर।" "वेरी गुड, उन लोगों को कहना कि वे सभी जोर-जोर से नारे लगाएँगे। पुलिस आने से भी उन्हें डरने की कोई जरुरत नहीं है, बल्कि पुलिस से डटकर मुकावला करना होगा। और उनकी सारी लाठियाँ छन लेनी होगी। और अरिंदम, तुम, तुम्हारे साथ जितने आदमी हैं उन सभी की जेब में सडे अंडे और संतरे रखे हैं ना? उनको अच्छी तरह समझा देना कि सभा के शुरुआत में सडे हुए फल फेकेंगे। केवल प्रधानमंत्री के ऊपर ही सड़े हुए अंडे फेकेंगे। अंडे जैसी महँगी चीज किसी दूसरे के ऊपर न फेंके। पहले से उन्हें समझा देना।
" जैसे ही सब हँसने लगे, वैसे ही सेंस ऑफ ह्रूमर के लिए विख्यात विरोधी दल के नेता ने अचानक सबके सामने एक चौंकने वाली खबर दी "आप सभी के लिए एक खुशी की खबर है। प्रधानमंत्री की मीटिंग से स्वाँई ने बॉयकट कर दिया है। वह पार्टी छोड़ने को तैयार हो सकता है। अगर मंगलू स्वाँई अपने साथ बीस विधायक लेकर आता है तो हमारे लिए दस-पंद्रह और विधायक कूटनीति और रुपयों के बल पर खींचना मुश्किल नहीं है। बस, उसके बाद मंत्रिमंडल मैं हमारा वर्चस्व होगा।" की सभा से ही शुरु होती है हमारी योजना। आज से ही अखबारों में चर्चा का विषय छेड़ देने से जनता का भरपूर समर्थन हमारे पक्ष में होगा।" लड़के के चारों तरफ फेंके हुए पैसों को बुढ़े ने उठा लिया। गिनने पर आठ रुपे पचहत्तर पैसे हुए। मन ही मन उसने हिसाब कर लिया कुल मिलाकर अठहत्तर रुपए साठ पैसे होते है और नहीं चलने लायक अठन्नी-चबन्नी मिलाकर दो रुपए अतिरिक्त। सुबह से ही पेट खाली है। पेट में चूहे कूदने लगे हैं। बच्चे ने अभी तक संभाल लिया है। इधर मिट्टी तपने लगी है, कहीं ऐसा न हो कि गर्मी की वजह से बच्चा बेहोश हो जाय अथवा किसी ने उसका हाथ-पाँव खींच लिया तो किए कराए पर पानी फिर जाएगा। लोग पीट-पीटकर मार देंगे, लेकिन अभी तक तो केवल अठहत्तर रुपए ही हुए हैं।भीड़ बेशुमार बढ़ रही है। कुछ और आमदनी होने की संभावना है। ज्यादा नहीं तो कम से कम सौ रुपए तक तो हो ही सकते हैं। "कुछ और देर के लिए धीरज धर, बेटे।" सबकी निगाहों से अपने आपको बचाकर लड़के के पास झककर धीरे से कहने लगा, "और आधे घंटे बाद तुझे ले जाऊँग। मुझे मालूम है कि धरती तपने लगी है। मेरे लाड़ले, सुबह से कुछ भी नहीं खाए हो। तुझे भयंकर भूख लग रही होगी। आज मैं तुझे एक अच्छे होटल में चिकन खिलाऊँगा। केवल और आधे घंटे की बात है बे
टे।" बूढ़ा ड़र रहा है। इतनी भयंकर भीड़। इतनी भयंकर भीड़ का बूढ़े ने कभी सामना नहीं किया था. जहाँ पकड़े गए, वहाँ मारे गए। यहां से निकलते ही, थोडा-बहुत नाश्ता कर लेने के बाद खिसकना पड़ेगा। बूढ़े ने मन ही मन सोच लिया है, यहाँ से खिसकते ही कटक जाना उचित रहेगा। खाना-पीना भी कटक में ही खाया जाएगा। उसके बाद जितना जल्दी हो सकेगा, बस या ट्रेन पकड़कर वह बरहमपुर, राऊरकेला, खड़गपुर और फिर कलकत्ता के लिए प्रस्थान कर देगा। उसे हिन्दी, बंगला, उड़िया, तेलगू सभी भाषाओं की अच्छी जानकारी है। अगर उसे तामिल और मलयालम भाषा आ जाती तो एक बार मद्रास भी घूम लेता। लखनऊ, काशी, इलाहाबाद की तरफ उसने कबी रुख नहीं किया है। बूढ़े ने सुन रखा था कि काशी की तरफ इन सब में अच्छी आमदनी हो जाती है। बूढ़े ने चादर की तरफ देखा। लगभग और दो रुपए जमा हो गए थे। जैसे ही सौ रुपए हो जाएगा वह वहाँ से चला जाएगा। पुलिसवालों ने भी इधर दो-तीन चक्कर काटे हैं। और ज्यादा लोभ नहीं। यह अंतिम बार है। उसने फिर चिल्लाना शुरु किया "हुजूर, माई-बाप! कैसी विपदा आ पड़ी है मुझ पर......." एक ग्रामीण दूसरे ग्रामीण को बता रहा था........ "उस आदमी को देख रहे हो, जिसके सिर पर गाँधी टोपी है, वह आदमी ही हमारा प्रधानमंत्री है। समझे, वही भारत देश का राजा है।" दूसरे ग्रामीण ने हाथ जोड़कर उनको प्रणाम किया। "गजपति महाराज की तरह भगवान है। मानते हो ना? इतने बड़े देश पर जिसका शासन चल रहा है दुर्योधन और युधिष्ठिर की भाँति।" तभी लोगों के बीच धक्का-मुक्की शुरु हो गई। प्रधनमंत्री मंचासीन हो गए। मुख्यमंत्री उठक स्वागत-भाषण देने जा रहे हैं। मुख्यसचिव झुककर के प्रधानमंत्री के कान में कुछ फुसफुसा रहा था। उसकी बात सनक प्रधानमंत्री ने विरक्त भाव से नाक-मौं सिकोड़ लिया। ठीक उसी समय पुण्यश्लोक ने फोटो खींच लिया। तब दिन में एक बजकर पैतीस मिनट हो रहे थे। उसने मन ही मन इस बात का आकलन कर लिया फोटो डेबलेप करने के बाद वह तीन बजे तक कटक पहुँच सकता है। छात्र नेता प्रदीप अपने साथियों को उत्तेजित होकर कहने लगा, "देखते क्या हो? फेंको, फेंको, सड़े हुए फल फेंको।" तभी मुख्यमंत्री खड़ा हो गया। उसी समय एक लड़के ने एक सड़ा हुआ आलू उनकी तरफ फेंका, मगर वह आलू मंच के नजदीक नहीं पहुँच पाया। भीड़ में ही कहीं गिर गया। उसके बाद एक और लड़के ने सड़े फल फेंकने का प्रयास किया, परन्तु कोई भी फल मंच के ऊपर नहीं गिर रहा था। यह देखकर प्रदीप चिल्लाते हुए कहने लगा, "प्रधानमंत्री, मुर्दाबाद!" बाकी लड़के पीछे-पीछे नारे लगाते हुए चिल्लाने लगे, "मुर्दाबाद, मुर्दाबाद।" "शासक दल, मुर्दाबाद।" "मुर्दाबाद, मुर्दाबाद।" "प्रधानमंत्री लौट जाओ।" "लौट जाओ, लौट जाओ।" इर्द-गिर्द की भीड़ पीछे मुड़कर देखने लगी, क्या हो रहा है? तभी प्रदीप ने अपने झोले में से पुआल का बना हुआ एक पुतला निकाला। बड़ी मुश्किल से उस पुतले को बचा कर लाया था सबकी निगाहों से। देखते-देखते उसने पुतले को आग लगा दी। अचानक धुँए और आग
को देखकर भीड़ डर से तितर-बितर होने लगी। कुछ लोग प्रधानमंत्री के भाषण की उपेक्षा पुतलाजलाने के कार्यक्रम को बड़े चाव से देखने लगे। वे जलते हुए पुतले के चारों तरफ खड़े हो गए। प्रदीप ने जोर से नारा लगाया, "प्रधानमंत्री, मुर्दाबाद!" अभी केवल उसके समर्थक ही नहीं वरन अन्य लोग भी उत्तेजित होकर चिल्लाने लगे, "मुर्दाबाद, मुर्दाबाद!" "प्रधानमंत्री लौट जाओ।" "लौट जाओ। लौट जाओ।" पुण्यश्लोक ने भीड़ में से उठते हुए धुँए को देखा। कुछ लोग हाथ उठा-उठाकर नारे लगा रहे थे। पुण्यश्लोक को मानो इसी क्षण के फोटो लेने का इंतजार था। सरकार विरोधी अखबार वाले इस फोटो को अवश्य खरीदेंगे। पुण्यश्लोक मंच के ऊपर से नीचे कूद कर भागने लगा। भीड़ को चीरते हुए, लोहे की पाइप-रेलिंग को कूदते फांदते हुए, औरतों की भीड़ के भीतर से हड़बड़ाकर भागे जा रहा था। तभी राज्य की अर्द्ध सैनिक पुलिस ने उसको उठाकर नीचे पटक दिया। पुण्यश्लोक को पुलिस द्वारा पीटे जाने वाले इस दृश्य का स्नैप अनजाने में उत्कल फोटो स्टूड़ियो के राना ने उठा लिया। पुलिसवालों की मार से पत्रकार तथा फोटोग्राफर घायल नामक शीर्षक वाले फोटो विरोधी दल के अखबार अवश्य खरीद लेंगे। राना मन ही मन प्रफुल्लित हो गया, उसको एक अच्छा स्नैप मिल गया। पुतला जलाने वाले लड़को पर पुलिस वाले टूट पड़े। भीड़ तितर-बितर कर इधर-उधर भागना शुरु हुई। तभी प्रदीप को लगा कि किसी ने उसकी पीठ पर जोर से लाठी मार दी हो। वह घड़ाम से पेट के बल पर गिर गया। भीड़ ने पाँव तले उसको रौंदना शुरु किया। उसका सारा शरीर असहाय पीड़ा से दर्द करने लगा। प्रदीप कुछ समझ नहीं पा रहा था, तभी पीछे से किसी ने अपने जूतों से जोरदार लात मारकर उसको लुढ़का दिया। बड़ी मुश्किल से अपनी आँखें खोलने का प्रयास कर रहा था, मगर आँख
ें नहीं खोल पा रहा था। तभी किसी ने उसके पेट पर लाठी से वार कर दिया। उसने अपनी आत्मरक्षा के लिए ज्यों ही हाथ ऊपर किया, वैसे ही लाठी का दूसरा वार हुआ। उस वार से उसके हाथ की हड्डी टूट गई। टूटी हुई डाल की तरह उसका हाथ झूलने लगा। सारे शरीर में दर्द के मारे वह कराहने लगा। राजकुमारी कहने लगी, "राक्षस आने का वक्त हो गया है। राजकुमार, आप चले जाइए यहाँ से।" वह लड़का आत्म-सम्मान के साथ कहने लगा, "किसी भी परिस्थिति में आपको लिए बिना मैं यहाँ से नहीं जाऊँगा, राजकुमारी। देखिए तो सही, मैं किस तरह राक्षस के छक्के छुड़ाता हूँ। आपका कोई भी बाल बाँका नहीं होने दूँगा।" "राक्षस बहुत ताकतवर है।" "तो मेरी भी बुद्धि कम नहीं है।" "इधर देखिए, राजकुमार, राक्षस आ रहा है। किस तरह धड़धड़ की आवाज हो रही है। कितनी भयंकर आवाजें। जब भी राक्षस आता है, तो आँधी तूफान चलने लगते हैं। पेड़-पौधे हिलने लगते हैं। जमीन थर्राने लगती है, 'हो, हो' करते हुए वह आता है। चले जाइए, राजकुमार, चले जाइए।" परेड़ ग्राउंड में लोगों में भगदड़ मच गई है। क्या हो रहा है? लाठीचार्ज। धोती के ऊपर और जमीन पर बिखरे हुए पैसों को हड़बड़ाकर उठाते हुए बुड्ढा कहने लगा, "उठ जा, बेटे, उठ जा। लाठीचार्ज हो रहा है उधर। चलो, हम लोग भी भगाते हैं यहाँ से।" राजकुमारी की पीठ थपथपाते हुए लड़के ने कहना शुरु किया, "देखती रहो, कुछ भी नहीं होगा। मैं राक्षस के साथ युद्ध करुँगा।" परेड़ ग्राउंड की ओर से लोग एक दूसरे को धक्का-मुक्की करते हुए भागे जा रहे थे. बुड्ढा कहने लगा, "उठ बेटे, काफी कमाई हो चुकी है। जान बच गई तो और कमाएँगे। भीड़ हमारी तरफ ही बढ़ते हुए आ रही है। उठ मेरे, लाड़ले, जल्दी उठ।" अपनी गर्जना से आकाश और पाताल को एक करते हुए क्रोध से फुफकारते हुए उसी की तरफ लपक रहा था वह राक्षस। डर के मारे राजकुमारी काँप रही थी। लड़के मन में लेशमात्र भी भय नहीं था। तलवार तानकर वह राक्षस के सामने खड़ा हो गया। भीड़ बूढ़े के सामने से गुजरने लगी। डरकर लड़के को हिलाते हुए कहने लगा, "उठ, उठ, मेरे बेटे, मेरे लाड़ले। ये कैसी सर्वनाश करने वाली नींद है? उठ, बेटे। भागेंगे। जान बची तो लाखों पाए। उठ मेरे बेटे, मेरे लाड़ले। उठ, उठ,जल्दी उठ।" राक्षस ने गुफा का द्वार खोल दिया और गरजते हुए कहने लगा, "मेरी गुफा में किसने घुसने का दुस्साहस किया। रुक, आज मैं तुझे कच्चा चबा जाऊँगा।" राजकुमारी ने ड़रकर अपनी आँखे भींच ली, "राजकुमार, राजकुमार।" लड़के ने हँसते हुए कहा, "रुक जा राक्षस, तेरा आखिरी समय आ गया है। आज तू जिंदा नहीं बचेगा मेरे हाथों।" भीड़ को अपनी तरफ बढ़ता आते देख बूढ़ा अपने बेटे को गोद में उठाकर भागने लगा। "क्या हो गया है तुझे आज, मेरे बेटे? जाग क्यों नहीं रहा है? क्या मुझ पर गुस्सा हो गए हो? जाग जा, मेरे बेटे। देख, बाहर किस तरह भगदड़ मची हुई है। तू भी दौड़, मेरे साथ, मेरे बेटे। ओह, मेरे प्यारे बेटे।" अकस्मात् बूढ़े के हाथ से छूटकर वह लड़का नीचे गिर गया। बूढ़े क
ो पीछे धकेलते हुए भीड़ आगे बढ़ी जा रही थी। 'मेरे बेटे, मेरे बच्चे, मेरे लाड़ले' रोते-रोते कहते-कहते वह भीड़ के बहाव में दूर फेंका गया। नीचे गिरा हुआ था उसका लड़का। किसी के पाँव से टकराया तो वह आदमी उसको फाँदकर आगे निकल गया। उसके बाद तो फिर कहना ही क्या, लातों के ऊपर लातें। कुछ खाली पाँव, तो कुछ जूते पहने हुए, तो कुछ चप्पल पहने हुए, तो कुछ धूल से भरे पाँव। देखते-देखते ऐसे असंख्य पाँव उस लड़के को रौंदते हुए आगे बढ़ते गए। वह राक्षस उठाकर ले गया उस लड़के को। पता नहीं, उसको मरोड़ दिया क्या, उस राक्षस ने। लड़के का सारा शरीर यंत्रणा से बिलबिला उठा। बहुत ही अस्पष्ट स्वर में वह पुकार रहा था, "राजकुमारी!" राजकुमारी ने भी बिलखते हुए राजकुमार को आवाज लगाई होगी मगर राक्षस की हुंकार के आगे कुछ सुनाई नहीं पड़ी। पीड़ा सहते-सहते हुए भी वह लड़का राजकुमारी के कंठ से दर्द भरी चीत्कार सुनना चाह रहा था। 'राजकुमार,राजकुमार' की करुणा पुकार वह अपने कानों से सुनना चाह रहा था, मगर सुन नहीं पा रहा था। थाने से मुक्त होने के बाद अस्पताल जाकर लौटते समय परेड़ ग्राउंड और यूनिट थ्री के बीच रास्ते में उस दृश्य को देखकर पुण्यश्लोक चौंक उठा। उस समय तक प्रधानमंत्री जा चुके थे। परेड़ ग्राउंड में पूरी निर्जनता छाई हुई थी। भुवनेश्वर संध्या की चपेट में आ चुका था। पुलिस के डंडे खाने से उसके फ्लैश के बल्ब टूटकर टुकड़े-टुकड़े हो गए थे, केवल एक ही फ्लैश बल्ब अक्षत बचा हुआ था। इस बात को लेकर पुण्यश्लोक का मन भारी हो रहा था, मगर जैसे ही उसने उस दृश्य को देखा तो वह अपना दुःख भूल गया। पुण्यश्लोक ने तुरंत अपनी बुद्धि का इस्तेमाल किया और सोचने लगा कि अगर इस दृश्य का फोटो लिया जाए तो उसका एक अलग महत्व रहेगा। प्रधानमंत्री के बार
े में रिपोर्ट देते समय यह फोटो नहीं भी चलेगा तो कोई बात नहीं, मगर आँधी-तूफान, अकाल आदि किसी भी परिस्थिति में यह फोटो काम आ जाएगा। अंतिम बचे हुए एक फ्लैश बल्ब की सहायता से पुण्यश्लोक ने इस दृश्य को अपने कैमरे में अंकित कर लिया और खुश होने लगा। पुण्यश्लोक द्वारा लिए गए फोटो का दृश्य इस प्रकार था। शिरीष पेड़ के सहारे बैठकर अपनी उदास आँखों से ढ़लती हुई शाम को देख रहा है एक बूढ़ा। बहुत समय से बहते हुए आँसू उसकी गाल के ऊपर सूखकर जम चुके थे। पास में पड़ी हुई थी खून से लथपथ एक लड़के की लाश। बूढ़ा और चिल्ला-चिल्लाकर कोई पैसा नहीं माँग रहा था।
एक बार देवलोक की परम सुंदरी अप्सरा उर्वशी अपनी सखियों के साथ कुबेर के भवन से लौट रही थी। मार्ग में केशी दैत्य ने उन्हें देख लिया और तब उसे उसकी सखी चित्रलेखा सहित वह बीच रास्ते से ही पकड़ कर ले गया। यह देखकर दूसरी अप्सराएँ सहायता के लिए पुकारने लगीं, "आर्यों! जो कोई भी देवताओं का मित्र हो और आकाश में आ-जा सके, वह आकर हमारी रक्षा करें।" उसी समय प्रतिष्ठान देश के राजा पुरुरवा भगवान सूर्य की उपासना करके उधर से लौट रहे थे। उन्होंने यह करूण पुकार सुनी तो तुरंत अप्सराओं के पास जा पहुँचे। उन्हें ढाढ़स बँधाया और जिस ओर वह दुष्ट दैत्य उर्वशी को ले गया था, उसी ओर अपना रथ हाँकने की आज्ञा दी। अप्सराएँ जानती थीं कि पुरुरवा चंद्रवंश के प्रतापी राजा है और जब-जब देवताओं की विजय के लिए युद्ध करना होता है तब-तब इंद्र इन्हीं को, बड़े आदर के साथ बुलाकर अपना सेनापति बनाते हैं। इस बात से उन्हें बड़ा संतोष हुआ और वे उत्सुकता से उनके लौटने की राह देखने लगी। उधर राजा पुरुरवा ने बहुत शीघ्र ही राक्षसों को मार भगाया और उर्वशी को लेकर वह अप्सराओं की ओर लौट चले। रास्ते में जब उर्वशी को होश आया और उसे पता लगा कि वह राक्षसों की कैद से छूट गई है, तो वह समझी कि यह काम इंद्र का है। परंतु चित्रलेखा ने उसे बताया कि वह राजा पुरुरवा की कृपा से मुक्त हुई है। यह सुनकर उर्वशी ने सहसा राजा की ओर देखा, उसका मन पुलक उठा। राजा भी इस अनोखे रूप को देखकर मन-ही-मन उसे सराहने लगे। अप्सराएँ उर्वशी को फिर से अपने बीच में पाकर बड़ी प्रसन्न हुई और गदगद होकर राजा के लिए मंगल कामना करने लगीं, "महाराज सैंकड़ों कल्पों तक पृथ्वी का पालन करते रहें।" इसी समय गंधर्वराज चित्ररथ वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने बताया कि जब इंद्र को नारद से इस दुर्घटना का पता लगा, तो उन्होंने गंधर्वों की सेना को आज्ञा दी, "तुरंत जाकर उर्वशी को छुड़ा लाओ।" वे चले लेकिन मार्ग में ही चारण मिल गए, जो राजा पुरुरवा की विजय के गीत गा रहे थे। इसलिए वह भी उधर चले आए। पुरुरवा और चित्ररथ पुराने मित्र थे। बड़े प्रेम से मिले। चित्ररथ ने उनसे कहा, "अब आप उर्वशी को लेकर हमारे साथ देवराज इंद्र के पास चलिए। सचमुच आपने उनका बड़ा भरी उपकार किया है।" लेकिन विजयी राजा ने इस बात को स्वीकार नहीं किया। उन्होंने इसे इंद्र की कृपा ही माना। बोले, "मित्र! इस समय तो मैं देवराज इंद्र के दर्शन नहीं कर सकूँगा। इसलिए आप ही इन्हें स्वामी के पास पहुँचा आइए।" चलते समय लाज के कारण उर्वशी राजा से विदा नहीं माँग सकी। उसकी आज्ञा से चित्रलेखा को ही यह काम करना पड़ा, "महाराज! उर्वशी कहती है कि महाराज की आज्ञा से मैं उनकी कीर्ति को अपनी सखी बनाकर इंद्रलोक ले जाना चाहती हूँ।" राजा ने उत्तर दिया, "जाइए, परंतु फिर दर्शन अवश्य दीजिए।" उर्वशी जा रही थी, पर उसका मन उसे पीछे खींच रहा था। मानो उसकी सहायता करने के लिए ही उसकी वैजयंती की माला लता में उलझ गई। उसने चित्रलेखा से सहायता की प्रार्थना की
और अपने आप पीछे मुड़कर राजा की ओर देखने लगी। चित्रलेखा सब कुछ समझती थी। बोली, "यह तो छूटती नहीं दिखाई देती, फिर भी कोशिश कर देखती हूँ।" उर्वशी ने हँसते हुए कहा, "प्यारी सखी। अपने ये शब्द याद रखना। भूलना मत।" राजा का मन भी उधर ही लगा हुआ था। जब-तक वे सब उड़ न गई; तब तक वह उधर ही देखते रहे। उसके बाद बरबस रथ पर चढ़कर वह भी अपनी राजधानी की ओर लौट गए। महाराज राजधानी लौट तो आये; पर मन उसका किसी काम में नहीं लगता था। वह अनमने-से रहते थे। उनकी रानी ने भी, जो काशीनरेश की कन्या थी, इस उदासी को देखा और अपनी दासी को आज्ञा दी कि वह राजा के मित्र विदूषक माणवक से इस उदासी का कारण पूछकर आए। दासी का नाम निपुणिका था। वह अपने काम में भी निपुण थी। उसने बहुत शीघ्र इस बात का पता लगा लिया कि महाराज की इस उदासी का कारण उर्वशी है। विदूषक के पेट में राजा के गुप्त प्रेम की बातें भला कैसे पच सकती थीं। यहीं नहीं, रानी का भला बनने के लिए उसने यह भी कहा कि वह राजा को इस मृगतृष्णा से बचाने के लिए कोशिश करते-करते थक गया है। यह समाचार देने के लिए निपुणिका तुरंत महारानी के पास चली गई और विदूषक डरता-डरता महाराज के पास पहुँचा। तीसरे प्रहर का समय था। राजकाज से छुट्टी पाकर महाराज विश्राम के लिए जा रहे थे। मन उनका उदास था ही। विदूषक परिहासादि से अनेक प्रकार उनका मन बहलाने की कोशिश करने लगा, पर सब व्यर्थ हुआ। प्रमद वन में भी उनका मन नहीं लगा। जी उलटा भारी हो आया। उस समय वसंत ऋतु थी। आम के पेड़ों में कोंपलें फूट आई थीं। कुरबक और अशोक के फूल खिल रहे थे। भौंरों के उड़ने से जगह-जगह फूल बिखरे पड़े थे; लेकिन उर्वशी की सुंदरता ने उनपर कुछ ऐसा जादू कर दिया था कि उनकी आँखों को फूलों के भार से झुकी हुई लताएँ और कोमल पौधे भी
अच्छे नहीं लगते थे। इसलिए उन्होंने विदूषक से कहा, "कोई ऐसा उपाय सोचो कि मेरे मन की साध पूरी हो सके।" विदूषक ऐसा उपाय सोचने का नाटक कर ही रहा था कि अच्छे शकुन होने लगे और चित्रलेखा के साथ उर्वशी ने वहाँ प्रवेश किया। उन्होंने माया के वस्त्र ओढ़ रखे थे, इसलिए उन्हें कोई देख नहीं सकता था, वे सबको देख सकती थीं। जब प्रमद वन में उतर कर उन्होंने राजा को बैठे देखा तो चित्रलेखा बोली, "सखी ! जैसे नया चाँद चाँदनी की राह देखता है वैसे ही ये भी तेरे आने की बाट जोह रहे हैं।" उर्वशी को उस दिन राजा पहले से भी सुंदर लगे। लेकिन उन्होंने अपने-आपको प्रगट नहीं किया। महाराज के पास खड़े होकर उनकी बातें सुनने लगीं। विदूषक तब उन्हें अपने सोचे हुए उपाय के बारे में बता रहा था। बोला, "या तो आप सो जाइए, जिससे सपने में उर्वशी से भेंट हो सके। या फिर चित्र-फलक पर उसका चित्र बनाइए और उसे एकटक देखते रहिए।" राजा ने उत्तर दिया कि ये दोनों ही बातें नहीं हो सकती। मन इतना दुखी है कि नींद आ ही नहीं सकती। आँखों में बार-बार आँसू आ जाने के कारण चित्र का पूरा होना भी संभव नहीं है। इसी तरह की बातें सुनकर उर्वशी को विश्वास हो गया कि महाराज उसी के प्रेम के कारण इतने दुखी हैं; पर वह अभी प्रगट नहीं होना चाहती थी। इसलिए उसने भोजपत्र पर महाराज की शंकाओं के उत्तर में एक प्रेमपत्र लिखा और उनके सामने फेंक दिया। महाराज ने उस पत्र को पढ़ा तो पुलक उठे। उन्हें लगा जैसे वे दोनों आमने-सामने खड़े होकर बातें कर रहे हैं। कहीं वह पत्र उनकी उंगलियों के पसीने से पुछ न जाए, इस डर से उसे उन्होंने विदूषक को सौंप दिया। उर्वशी को यह सब देख-सुनकर बड़ा संतोष हुआ; पर वह अब भी सामने आने में झिझक रही थी। इसलिए पहले उसने चित्रलेखा को भेजा। पर जब महाराज के मुँह से उसने सुना कि दोनों ओर प्रेम एक जैसा ही बढ़ा हुआ है तो वह भी प्रगट हो गई। आगे बढ़ कर उसने महाराज का जय-जयकार किया। महाराज उर्वशी को देखकर बड़े प्रसन्न हुए; लेकिन अभी वे दो बातें भी नहीं कर पाए थे कि उन्होंने एक देवदूत का स्वर सुना। वह कह रहा था, "चित्रलेखा! उर्वशी को शीघ्र ले आओ। भरत मुनि ने तुम लोगों को आठों रसों से पूर्ण जिस नाटक की शिक्षा दे रखी है, उसी का सुंदर अभिनय देवराज इंद्र और लोक-पाल देखना चाहते हैं।" यह सुनकर चित्रलेखा ने उर्वशी से कहा, "तुमने देवदूत के वचन सुने। अब महाराज से विदा लो।" लेकिन उर्वशी इतनी दुखी हो रही थी कि बोल न सकी। चित्रलेखा ने उसकी ओर से निवेदन किया, "महाराज, उर्वशी प्रार्थना करती है कि मैं पराधीन हूँ। जाने के लिए महाराज की आज्ञा चाहती हूँ, जिससे देवताओं का अपराध करने से बच सकूँ।" महाराज भी दुखी हो रहे थे। बड़ी कठिनता से बोल सके, "भला मैं आपके स्वामी की आज्ञा का कैसे विरोध कर सकता हूँ, लेकिन मुझे भूलिएगा नहीं।" महाराज की ओर बार-बार देखती हुई उर्वशी अपनी सखी के साथ वहाँ से चली गई। उसके जाने के बाद विदूषक को पता लगा कि महाराज ने उसे उर्वशी का जो प
त्र रखने को दिया था वह कहीं उड़ गया है। वह डरने लगा कि कहीं महाराज उसे माँग न बैठें। यही हुआ भी। पत्र न पाकर महाराज बड़े क्रुद्ध हुए और तुरंत उसे ढूँढ़ने की आज्ञा दी। यही नहीं वह स्वयं भी उसे ढूँढ़ने लगे। इसी समय महारानी अपनी दासियों के साथ उधर ही आ रही थी। उन्हें उर्वशी के प्रेम का पता लग गया था। वह अपने कानों से महाराज की बातें सुनकर इस बात की सच्चाई को परखना चाहती थीं। मार्ग में आते समय उन्हें उर्वशी का वही पत्र उड़ता हुआ मिल गया। उसे पढ़ने पर सब बातें उनकी समझ में आ गई। उस पत्र को लेकर जब वह महाराज के पास पहुँची तो वे दोनों बड़ी व्यग्रता से उसे खोज रहे थे। महाराज कह रहे थे कि मैं तो सब प्रकार से लुट गया। यह सुनकर महारानी एकाएक आगे बढ़ीं और बोलीं, "आर्यपुत्र! घबराइए नहीं। वह भोजपत्र यह रहा!" महारानी को और उन्हीं के हाथ में उस पत्र को देखकर महाराज और भी घबरा उठे, लेकिन किसी तरह अपने को सँभालकर उन्होंने महारानी का स्वागत किया और कहा, "मैं इसे नहीं खोज रहा था, देवी। मुझे तो किसी और ही वस्तु की तलाश थी।" विदूषक ने भी अपने विनोद से उन्हें प्रसन्न करने का प्रयत्न किया, लेकिन वह क्यों माननेवाली थीं। बोली, "मैं ऐसे समय में आपके काम में बाधा डालने आ गई। मैंने अपराध किया। लीजिए मैं चली जाती हूँ।" और वह गुस्से में भरकर लौट चलीं। महाराज पीछे-पीछे मनाने के लिए दौड़े। पैर तक पकड़े, पर महारानी इतनी भोली नहीं थीं कि महाराज की इन चिकनी- चुपड़ी बातों में आ जाती। लेकिन पतिव्रता होने के कारण उन्होंने कोई कड़ा बर्ताव भी नहीं किया। ऐसा करती तो पछताना पड़ता। बस वह चली गई। महाराज भी अधीर होकर स्नान-भोजन के लिए चले गए। वह महारानी को अब भी पहले के समान ही प्यार करते, लेकिन जब वह हाथ-पैर जोड़ने पर भ
ी नहीं मानीं तो वह भी क्रुद्ध हो उठे। देवसभा में भरत मुनि ने लक्ष्मी-स्वयंवर नाम का जो नाटक खेला था, उसके गीत स्वयं सरस्वती देवी ने बनाये थे। उसमें रसों का परिपाक इतना सुंदर हुआ था कि देखते समय पूरी-की-पूरी सभा मगन हो उठती थी। लेकिन उस नाटक में उर्वशी ने बोलने में एक बड़ी भूल कर दी। जिस समय वारुणी बनी हुई मेनका ने, लक्ष्मी बनी हुई उर्वशी से पूछा, " सखी! यहाँ पर तीनों लोक के एक से एक सुन्दर पुरुष, लोकपाल और स्वयं विष्णु भगवान आए हुए हैं, इनमें तुम्हें कौन सबसे अधिक अच्छा लगता है?" उस समय उसे कहना चाहिए था'पुरुषोत्तम', पर उसके मुँह से निकल गया 'पुरुख'। इसपर भरत मुनि ने उसे शाप दिया, "तूने मेरे सिखाए पाठ के अनुसार काम नहीं किया है, इसलिए तुझे यह दंड दिया जाता है कि तू स्वर्ग में नहीं रहने पाएगी।" लेकिन नाटक के समाप्त हो जाने पर जब उर्वशी लज्जा से सिर नीचा किए खड़ी थी, तो सबके मन की बात जाननेवाले इंद्र उसके पास गए और बोलो, "जिसे तुम प्रेम करती हो, वह राजर्षि रणक्षेत्र में सदा मेरी सहायता करनेवाला है। कुछ उसका प्रिय भी करना ही चाहिए। इसलिए जब तक वह तुम्हारी संतान का मुँह न देखे, तब तक तुम उसके साथ रह सकती हो।" इधर काशीराज की कन्या महारानी ने मान छोड़कर एक व्रत करना शुरू किया और उसे सफल करने के लिए महाराज को बुला भेजा। कंचुकी यह संदेश लेकर जब महाराज के पास पहुँचा तो संध्या हो चली थी। राजद्वार बड़ा सुहावना लग रहा था। नींद में अलसाये हुए मोर ऐसे लगते थे जैसे किसी कुशल मूर्तिकार ने उन्हें पत्थर में अंकित कर दिया हो। जगह जगह संध्या के पूजन की तैयारी हो रही थी। दीप सजाये जा रहे थे। अनेक दासियाँ दीपक लिए महाराज के चारों ओर चली आ रही थीं। इसी समय कंचुकी ने आगे बढ़कर महाराज की जय-जयकार की और कहा, "देव, देवी निवेदन करती हैं कि चंद्रमा मणिहर्म्य-भवन से अच्छी तरह दिखाई देगा। इसलिए मेरी इच्छा है कि महाराज के साथ मैं वही से चंद्रमा और रोहिणी का मिलन देखूँ।" महाराज न उत्तर दिया, "देवी से कहना कि जो वह कहेंगी वह मैं करूँगा।" यह कहकर वह विदूषक के साथ मणिहर्म्य-भवन की ओर चल पड़े। चंद्रमा उदय हो रहा था। उसे प्रणाम करके वे वहीं बैठ गए और उर्वशी के बारे में बातें करने लगे। उसी समय माया के वस्त्र ओढ़े उर्वशी भी चित्रलेखा के साथ उसी भवन की छत पर उतरी और उनकी बातें सुनने लगी, लेकिन जब वह प्रगट होने का विचार कर रही थी, तभी महारानी के आने की सूचना मिली। वह पूजा की सामग्री लिए और व्रत को वेशभूषा में अति सुंदर लग रही थीं। महाराज ने सोचा कि उस दिन मेरे मनाने पर भी जो रूठकर चली गई थी, उसी का पछतावा महारानी को ही रहा है। व्रत के बहाने यह मान छोड़कर मुझ पर प्रसन्न हो गई है। महारानी ने आगे बढ़कर महाराज की जय-जयकार की और कहा, "मैं आर्यपुत्र को साथ लेकर एक विशेष व्रत करना चाहती हूँ, इसलिए प्रार्थना है कि आप मेरे लिए कुछ देर कष्ट सहने की कृपा करें।" महाराज ने उत्तर में ऐसे प्रिय वचन कहे कि जिन्हे
ं सुनकर महारानी मुसकुरा उठीं। उन्होंने सबसे पहले गंध-फलादि से चंद्रमा की किरणों की पूजा की, फिर पूजा के लड्डू विदूषक को देकर महाराज की पूजा की। उसके बाद बालीं, "आज मैं रोहिणी और चंद्रमा को साक्षी करके आर्यपुत्र को प्रसन्न कर रहीं हूँ। आज से आर्यपुत्र जिस किसी स्त्री की इच्छा करेंगे और जो भी स्त्री आर्यपुत्र की पत्नी बनना चाहेगी, उसके साथ मैं सदा प्रेम करूँगी।" यह सुनकर उर्वशी को बड़ा संतोष हुआ। महाराज बोले, "देवी! मुझे किसी दूसरे को दे दो या अपना दास बनाकर रखो, पर तुम मुझे जो दूर समझ बैठी हो वह ठीक नहीं है।" महारानी ने उत्तर दिया, "दूर हो या न हो, पर मैंने व्रत करने का निश्चय किया था वह पूरा हो चुका है।" यह कहकर वह दास-दासियों के साथ वहाँ से चली गईं। महाराज ने रोकना चाहा, पर व्रत के कारण वह रुकी नहीं। उनके जाने के बाद महाराज फिर उर्वशी की याद करने लगे। उदार-हृदय पतिव्रता महारानी की कृपा से अब उनके मिलने में जो रुकावट थी वह भी दूर हो चुकी थी। उर्वशी ने, जो अबतक सबकुछ देख-सुन रही थी, इस सुंदर अवसर से लाभ उठाया और वह प्रकट हो गई। उसने चुपचाप पीछे से आकर महाराज की आँखें मींच लीं। महाराज ने उसको तुरंत पहचान लिया और अपने ही आसन पर बैठा लिया। तब उर्वशी ने अपनी सखी से कहा, "सखी! देवी ने महाराज को मुझे दे दिया है, इसलिए मैं इनकी विवाहिता स्त्री के समान ही इनके पास बैठी हूँ। तुम मुझे दुराचारिणी मत समझ बैठना।" चित्रलेखा ने भी महाराज से अपनी सखी की भली प्रकार देखभाल करने की प्रार्थना की, जिससे वह स्वर्ग जाने के लिए घबरा न उठे। फिर सबसे मिल-भेंटकर वह स्वर्ग लौट गई। इस प्रकार महाराज का मनोरथ पूरा हुआ। खुशी-खुशी वह भी विदूषक और उर्वशी के साथ वहाँ से अपने महल क ओर चले गए। उर्वशी के आने के बा
द महाराज पुरुरवा ने राजकाज मंत्रियों को सौंप दिया और स्वयं गंधमादन पर्वत पर चले गए। उर्वशी साथ ही थी। वहाँ वे बहुत दिन तक आनंद मनाते रहे। एक दिन उर्वशी मंदाकिनी के तट पर बालू के पहाड़ बना-बनाकर खेल रही थी कि अचानक उसने देखा- महाराज एक विद्याधर की परम सुंदर बेटी की ओर एकटक देख रहे हैं। बस वह इसी बात पर रूठ गई और रूठी भी ऐसी कि महाराज के बार-बार मनाने पर भी नहीं मानी। उन्हें छोड़ कर चली गई। वहाँ से चलकर वह कुमार वन में आई। इस वन में स्त्रियों को आने की आज्ञा नहीं थी। ब्रह्मचर्य का व्रत लेकर भगवान कार्तिकेय यहाँ रहते थे। उन्होंने यह नियम बना दिया था कि जो भी स्त्री यहाँ आएगी वह लता बन जाएगी। इसलिए जैसे ही उर्वशी ने उस वन में प्रवेश किया, वह लता बन गई। इधर महाराज उसके वियोग में पागल ही हो गए और अपने मन की व्यथा प्रकट करते हुए इधर-उधर घूमने लगे। कभी वह समझते कि कोई राक्षस उर्वशी को उठाए लिए जा रहा है। बस वह उसे ललकारते, लेकिन तभी उन्हें पता लगता कि जिसे वह राक्षस समझ बैठे थे कि वह तो पानी से भरा हुआ बादल है। उन्होंने इंद्रधनुष को गलती से राक्षस का धनुष समझ लिया है। ये बाण नहीं बरस रहे हैं, ये बूँदें टपक रही हैं और वह जो कसौटी पर सोने की रेखा के समान चमक रही है, वह भी उर्वशी नहीं है, बिजली है। कभी सोचते, कहीं क्रोध में आकर वह अपने दैवी प्रभाव से छिप तो नहीं गई। कभी हरी घास पर पड़ी हुई बीरबहूटियों को देखकर यह समझते कि ये उसके ओठों के रंग से लाल हुए आँसुओं की बूँदें हैं। अवश्य वह इधर से ही गई हैं। कभी वह मोर को देखकर उससे उर्वशी का पता पूछते, "अरे मोर! मैं तुमसे प्रार्थना करता हूँ कि अगर घूमते-फिरते तुमने मेरी पत्नी को देखा हो तो मुझे बता दो।" लेकिन मोर उत्तर न देकर नाचने लगता। महाराज उसके पास से हटकर कोयल के पास जाते। पक्षियों में कोयल सबसे चतुर समझी जाती है। उसके आगे घुटने टेककर वह कहते, "हे मीठा बोलने वाली सुंदर कोयल! यदि तुमने इधर-उधर घूमती हुई उर्वशी को देखा हो तो बता दो। तुम तो रूठी हुई स्त्रियों का मान दूर करनेवाली हो। तुम या तो उसे मेरे पास ले आओ या झटपट मुझे ही उसके पास पहुँचा दो। क्या कहा तुमने? वह मुझसे क्यों रूठ गई है। मुझे तो एक भी बात ऐसी याद नहीं आती कि जिस पर वह रूठी हो। अरे, स्त्रियाँ तो वैसे ही अपने पतियों पर शासन जमाया करती है। यह ज़रूरी नहीं कि पति कोई अपराध ही करे तभी वे क्रोध करेंगी।" लेकिन कोयल भी इन बातों का क्या जवाब देती! वह अपने काम में लगी रहती। दूसरे का दुख लोग कम समझते हैं। राजा कहते, "अच्छा बैठी रहो सुख से! हम ही यहाँ से चले जाते हैं।" फिर सहसा उन्हें दक्खिन की ओर बिछुओं की सी झनझन सुनाई देती। लेकिन पता लगता वह तो राजहंसों की कूक है जो बादलों की अंधियारी देखकर मानससरोवर जाने को उतावले हो रहे हैं। वह उनके पास जाकर कहते, "तुम मानससरोवर बाद में जाना। ये जो तुमने कमलनाल सँभाली है, इन्हें भी अभी छोड़ दो। पहले तुम मुझे उर्वशी का समाचार बता
ओ। सज्जन लोग अपने मित्रों की सहायता करना अपने स्वार्थ से बढ़कर अच्छा समझते हैं। हे हंस! तुम तो ऐसे ही चलते हो, जैसे उर्वशी चलती है। तुमने उसकी चाल कहाँ से चुराई। अरे,तुम तो उड़ गए। (हँसकर) तुम समझ गए कि मैं चोरों को दंड देनेवाला राजा हूँ। अच्छा चलूँ, कहीं और खोजूँ।" फिर वह चकवे के पास जा पहुँचते। उससे वही प्रश्न करते, लेकिन उन्हें लगता जैसे चकवा उनसे पूछ रहा है -- "तुम कौन हो?" वह कहते, "अरे, तुम मुझे नहीं जानते? सूर्य मेरे नाना और चंद्रमा मेरे दादा हैं। उर्वशी और धरती ने अपने-आप मुझे अपना स्वामी बनाया है। में वहीं पुरुरवा हूँ।" लेकिन चकवा भी चुप रहता। महाराज वहाँ से हटकर कमल पर मंडराते हुए भौरों से पूछने लगते। पर वे भी क्या जवाब देते! फिर उन्हें हाथी दिखाई दे जाता। उसके पास जाकर वह पूछते, "हे मतवाले हाथी! तुम दूर तक देख सकते हो। क्या तुमने सदा जवान रहनेवाली उर्वशी को देखा है। तुम मेरे समान बलवान हो। मैं राजाओं का स्वामी हूँ। तुम गजों के स्वामी हो। तुम दिन-रात अपना दान यानी मद बहाया करते हो, मेरे यहाँ भी दिन-रात दान दिया जाता है। तुमसे मुझे बड़ा स्नेह हो गया है। अच्छा, सुखी रहो। हम तो जा रहे हैं।" और फिर उनको दिखाई दे जाता एक सुहावना पर्वत। उसीसे पूछने लगते, "हे पर्वतों के स्वामी! क्या तुमने मुझसे बिछुड़ी हुई सुंदरी उर्वशी को कहीं इस वन में देखा है। उन्हें ऐसा लगता जैसे पर्वतराज ने कुछ उत्तर दिया है। उन्हें खुशी होती, पर तभी मालूम होता कि वह पर्वतराज का उत्तर नहीं था, बल्कि पहाड़ की गुफा से टकराकर निकलनेवाली उन्हीं के शब्दों की गूँज थी। यहाँ से हटे तो नदी दिखाई दे गई। उसी से उर्वशी की तुलना करने लगे। लेकिन जब वह भी कुछ नहीं बोली तो हिरन के पास जा पहुँचे। उसने भी उनकी बातें अन
सुनी करके दूसरी ओर मुँह फेर लिया।ठीक ही है, जब खोटे दिन आते हैं तो सभी दुरदुराने लगते हैं। लेकिन तभी उन्होंने लाल अशोक के पेड़ को देखा। उससे भी वही प्रश्न किया और जब वह हवा से हिलने लगा तो समझे कि वह मना कर रहा है - उसने उर्वशी को नहीं देखा। इसी प्रकार पागलों की तरह प्रलाप करते हुए जब वह यहाँ से मुड़े तो उन्हें एक पत्थर की दरार में लाल मणि-सा कुछ दिखाई दिया।सोचने लगे कि न तो यह शेर से मारे हुए हाथी का मांस हो सकता है और न आग की चिनगारी। मांस इतना नहीं चमकता और चूँ कि अभी भारी वर्षा होकर चुकी है, इसलिए आग के रहने का कोई सवाल ही नहीं उठता। यह तो अवश्य लाल अशोक के समान लाल मणि है। इसे देखकर मेरा मन ललचा रहा है।यह सोचकर वह आगे बढ़े और मणि को निकाल लिया। लेकिन फिर ध्यान आया कि जब उर्वशी ही नहीं है तो मणि का क्या होगा! इसलिए उसे गिरा दिया। उसी समय नेपथ्य में से किसी की वाणी सुनाई दी, "वत्स! इसे ले लो, ले लो, यह प्रियजनों को मिलानेवाली है और पार्वती के चरणों की लाली से बनी है। जो इसे अपने पास रखता है उसे वह शीघ्र ही प्रिय से मिलवा देती है।" यह वाणी सुनकर महाराज चकित रह गए। उन्हें जान पड़ा कि मानो किसी मुनि ने यह कृपा की है। उन्होंने उस अज्ञात मुनि को धन्यवाद दिया और मणि को उठा लिया। इसी समय उनकी दृष्टि बिना फूलवाली एक लता पर पड़ी। न जाने क्यों उनका मन उछल पड़ा। उन्हें सुख मिला। वह उन्हें उर्वशी के समान दिखाई पड़ी और जैसे ही उन्होंने उसे छुआ, उर्वशी सचमुच वहाँ आ गई; पर उनकी आँखें बंद थीं। उसी तरह कुछ देर बोलते रहे। जब आँखें खोली और उर्वशी को देखा तो वह मूच्र्छित होकर गिर पड़े। उर्वशी भी रोने लगी और उन्हें धीरज बँधाने लगी। कुछ देर बाद महाराज की मूर्च्छा दूर हुई तो उन्हें कार्तिकेय के श्राप के कारण उर्वशी के लता बन जाने के रहस्य का पता लगा। यह भी पता लगा कि पार्वती के चरणों की लाली से पैदा होनेवाली मणि से ही इसे शाप से मुक्ति मिली है। उर्वशी उनसे बार-बार क्षमा माँगने लगी, "मुझे क्षमा कर दीजिए, क्यों कि मैंने ही क्रोध करके आपको इतना कष्ट पहुँचाया।" महाराज बोले, "कल्याणी! तुम क्षमा क्यों माँगती हो! तुम्हें देखते ही मेरी आत्मा तक प्रसन्न हो गई है।" और फिर उन्होंने उसे वह मणि दिखाई, जिसके कारण उसका श्राप दूर हो गया था। उर्वशी ने उस मणि को सिर पर धारण किया तो उसके प्रकाश में उसका मुख अरुण-किरणों से चमकते हुए कमल के समान सुहावना लगने लगा। इसी समय उर्वशी ने याद दिलाया, "हे प्रिय बोलनेवाले! आप बहुत दिनों से प्रतिष्ठान पुरी से बाहर हैं। आपकी प्रजा इसके लिए मुझे कोस रही होगी। इसलिए आइए अब लौट चलें। महाराज ने उत्तर दिया, "जैसा तुम चाहो।" और लौट पड़े। नंदन वन आदि देवताओं के बनों में घूमकर महाराज पुरुरवा फिर अपने नगर में लौट आए। नागरिकों ने उनका खूब स्वागत-सत्कार किया और वह प्रसन्न होकर राज करने लगे। संतान को छोड़ कर उन्हें अब और किसी बात की कमी नहीं थीं। उन्हीं दिनों एक दिन एक
सेवक महारानी के माथे की मणि ताड़ की पिटारी में रखे ला रहा था कि इतने में एक गिद्ध झपटा और उसे मांस का टुकड़ा समझकर उठाकर उड़ गया। यह समाचार पाकर महाराज आसन छोड़कर दौड़ पड़े। पक्षी अभी दिखाई दे रहा था। उन्होंने अपना धनुषबाण लाने की आज्ञा दी। लेकिन जबतक धनुष आया तब तक वह पक्षी बाण की पहुँच से बाहर निकल चुका था और ऐसा लगने लगा था मानो रात के समय घने बादलों के दल के साथ मंगल तारा चमक रहा हो। यह देखकर महाराज ने नगर में यह घोषणा करवाने की आज्ञा दी कि जब यह चोर पक्षी संध्या को अपने घोंसले में पहुँचे तो इसकी खोज की जाए। यह वही मणि थी, जिसके कारण उर्वशी और महाराज का मिलन हुआ था। इसलिए महाराज उसका विशेष आदर करते थे। वह यह बात विदूषक को बता ही रहे थे कि कंचुकी ने आकर महाराज की जय-जयकार की। उसने कहा, "आपके क्रोध ने बाण बनकर इस पक्षी को मार डाला और इस मणि के साथ यह धरती पर गिर पड़ा।"महाराज ने उस मणि को आग में शुद्ध करके पेटी में रखने की आज्ञा दी और यह जानने के लिए कि बाण किसका है उसपर अंकित नाम पढ़ने लगे। पढ़कर वह सोच में पड़ गए। उस पर लिखा हुआ था - यह बाण पुरुरवा और उर्वशी के धनुर्धारी पुत्र का है। उसका नाम आयु है और वह शत्रुओं के प्राण खींचनेवाला है। विदूषक यह सुनकर बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने महाराज को बधाई दी, पर वह तो कुछ समझ ही नहीं पा रहे थे। यह पुत्र कैसे पैदा हुआ। वह तो कुछ जानते ही नहीं। शायद उर्वशी ने दैवी-शक्ति से इस बात को छिपा रखा हो। पर उसने पुत्र को क्यों छिपा रखा? वह इसी उधेड़बुन में थे कि च्यवन ऋषि के आश्रम से एक कुमार को लिये किसी तपस्विनी के आने का समाचार मिला। महाराज ने उन्हें वहीं बुला भेजा और कुमार को देखते ही उनकी आँखें भर आईं। हृदय में प्रेम उमड़ पड़ा और उनका मन करने ल
गा कि उसे कसकर छाती से लगा ले। पर ऊपर से वह शांत ही बने रहे। उन्होंने तापसी को प्रणाम किया आशीर्वाद देकर तापसी ने कुमार से कहा, "बेटा, अपने पिताजी को प्रणाम करो।" कुमार ने ऐसा ही किया। महाराज ने उसे गदगद होकर आशीर्वाद दिया और तब तापसी बोली, "महाराज! जब यह पुत्र पैदा हुआ तभी कुछ सोचकर उर्वशी इसे मेरे पास छोड़ आई थी। क्षत्रिय-कुमार के जितने संस्कार होते है वे सब भगवान च्यवन ने करा दिए हैं। विद्याधन के बाद धनुष चलाना भी सिखा दिया गया है, लेकिन आज जब यह फूल और समिधादि लाने के लिए ऋषिकुमारों के साथ जा रहा था तो इसने आश्रम के नियमों के विरुद्ध काम कर डाला।" विदूषक ने घबराकर पूछा, "क्या कर डाला?"तापसी बोली, "एक गिद्ध मांस का टुकड़ा लिए हुए पेड़ पर बैठा था। उस पर लक्ष्य बाँधकर इसने बाण चला दिया। जब भगवान च्यवन ने यह सुना तो उन्होंने उर्वशी की यह धरोहर उसे सौंप आने की आज्ञा दी। इसलिए मैं उर्वशी से मिलने आई हूँ।" महाराज ने तुरंत उर्वशी को बुला भेजा और पुत्र को गले से लगाकर प्यार करने लगे। उर्वशी ने आते ही दूर से उसे देखा तो यह सोच में पड़ गई, पर तापसी को उसने पहचान लिया। अब तो वह सबकुछ समझ गई। पिता के कहने पर जब पुत्र ने माता को प्रणाम किया तो उसने पुत्र को छाती से चिपका लिया। तापसी ने उसके स्वामी के सामने उसका पुत्र उसे सौंपते हुए कहा, "ठीक से पढ़-लिखकर अब यह कुमार कवच धारण करने योग्य हो गया है, इसलिए तुम्हारे स्वामी के सामने ही तुम्हारी धरोहर तुम्हें सौंप रही हूँ और अब जाना भी चाहती हूँ। आश्रम का बहुत-सा काम रुका पड़ा है।" जाते समय कुमार भी साथ जाने के लिए मचल उठा, पर जब सबने समझाया तो वह आश्रम-जैसी सरलता से तापसी से बोला, "तो आप बड़े-बड़े पंखों वाले मेरे उस मणिकंठक नाम के मोर को भेज देना। वह मेरी गोद में सोकर मेरे हाथों से अपना सिर खुजलाये जाने का आनंद लिया करता था।" तापसी हँस पड़ी और ऐसा ही करने का वचन देकर चली गई।महाराज पुत्र पाकर बड़े प्रसन्न हुए परंतु उर्वशी रोने लगी। यह देखकर महाराज घबरा उठे और इस विषाद का कारण पूछने लगे। उर्वशी बोली, "बहुत दिन हुए, आपसे प्रेम करने पर भरत मुनि ने मुझे शाप दिया था। उस शाप से मैं बहुत घबरा गई थी तब देवराज इंद्र ने मुझे आज्ञा दी थी कि जब हमारे प्यारे मित्र राजर्षि तुमसे उत्पन्न हुए पुत्र का मुँह देख लें तब तुम फिर मेरे पास लौट आना। आपसे बिछोह होने के डर से ही मैं इस कुमार को पैदा होते ही च्यवन ऋषि के आश्रम में पढ़ने-लिखाने के बहाने छोड़ आई थी। आज उन्होंने इसे पिता की सेवा करने के योग्य समझकर लौटा दिया है। बस आज तक ही मैं महाराज के साथ रह सकती थी।" यह कथा सुनकर सबको बड़ा दुख हुआ। महाराज तो मूर्छित हो गए।जब जागे तो उन्होंने तुरंत ही पुत्र को राज्य सौंपकर तपोवन में जाकर रहने की इच्छा प्रगट की। लेकिन इसी समय नारद मुनि ने वहाँ प्रवेश किया। आकाश से उतरते हुए पीली जटावाले, कंधे पर चंद्रमा की कला के समान उजला जनेऊ और गले में मोतियों की
माला पहने, वह ऐसे लगते थे जैसे सुनहरी शाखावाला कोई चलता-फिरता कल्पवृक्ष चला आ रहा हो। पूजा-अभिवादन के बाद उन्होंने कहा कि मैं देवराज इंद्र का संदेशा लेकर आया हूँ। वह अपनी दैवी शक्ति से सबके मन की बातें जाननेवाले हैं। उन्होंने जब देखा कि आप वन जाने की तैयारी कर रहे हैं तो उन्होंने कहलाया है -- "तीनों कालों को जाननेवाले मुनियों ने भविष्यवाणी की है कि देवताओं और दानवों में भयंकर युद्ध होनेवाला है। युद्ध-विद्या में कुशल आप हम लोगों की सदा सहायता करते ही रहें इसलिए आप शस्त्र न छोड़े। उर्वशी जीवन भर आपके साथ रहेगी।" देवराज इंद्र का यह संदेश सुनकर उर्वशी और पुरुरवा दोनों बहुत प्रसन्न हुए। इंद्र ने कुमार आयु के युवराज बनने के उत्सव के लिए भी सामग्री भेजी थी। उसी से रंभा ने आयु का अभिषेक किया। अभिषेक के बाद कुमार ने सबको प्रणाम किया और उनका आशीर्वाद पाया। लेकिन बड़ी महारानी वहाँ नहीं थीं। इसलिए उर्वशी ने आयु से कहा, "चलो बेटा! बड़ी माँ को प्रणाम कर आओ।" और वह उसे लेकर बड़ी महारानी के पास चली। महाराज बोले, "ठहरो, हम सब लोग साथ ही देवी के पास चलते हैं।" लेकिन चलने से पहले नारद मुनि ने उनसे पूछा, "हे राजन। इंद्र आपकी और कौन सी इच्छा पूरी करें।"राजा बोले, "इंद्र की प्रसन्नता से बढ़कर और मुझे क्या चाहिए। फिर भी मैं चाहता हूँ कि जो लक्ष्मी और सरस्वती सदा एक-दूसरे से रूठी रहती हैं, सज्जनों के कल्याण के लिए सदा एकसाथ रहने लगें। सब आपत्तियाँ दूर हो जाए, सब फलें-फूलें, सबके मनोरथ पूरे हों और सब कहीं सुख-ही-सुख फैल जाए।
एक मंजिल ही नहीं ए मेरे दिल, जिंदगी और भी है। अब तक तुमने जो जाना है, वह कुछ भी नहीं अक्षय विवेक ! अभी असली तो जानने कोशेष है। अब तक तुमने जो जीआ है वह कुछ भी नहीं, अक्षय विवेक ! असली जीने को तो अभी शेष है। " है कोई लेवनहारा" -- उसी के लिए पुकार उठाई जा रही है। और तुम्हारे हृदय तक पुकार पहुंची। अब साहस करो। अब हिम्मत जुड़ाओ। चुनौती अंगीकार करो। अज्ञात सागर की चुनौती है! और माना कि नाव हम सबकी छोटी-छोटी है और सागर की उत्ताल तरंगें और अपनी छोटी नाव और अपने छोटे हाथ और अपनी छोटी पतवार देख कर भरोसा नहीं आता कि पार हो सकेंगे! मगर मैं तुमसे कहता हूं : इतने ही छोटे हाथ मेरे, इतनी ही छोटी नाव मेरी -- और मैं पार हुआ। इतने ही छोटे हाथ बुद्ध के, इतनी ही छोटी नाव बुद्ध की और बुद्ध पार हुए। तुम भी पार हो सकोगे। असल में जिसने साहस कर लिया नाव को छोड़ देने का सागर में, वह उसी क्षण पार हो जाता है। जिसने साहस कर लिया सागर में उतरने का, सागर की लहरें ही उसको पार करा देती हैं। रामकृष्ण कहते थेः दोढंग हैं नाव को नदी में छोड़ने के। एक तो पतवार उठाओ, खेओ नाव; और एक है पाल खोलो। रामकृष्ण कहते थेः जिसमें साहस होता है, वह तो पाल खोल देता है। पतवार रख देता है और मस्त होकर लेट जाता है। हवाएं ले चलती हैं। तुम ही परमात्मा से मिलने को उत्सुक नहीं हो, परमात्मा भी तुमसे इतना ही मिलने को उत्सुक है। उसकी हवाएं तुम्हें ले चलेंगी। मगर साहस तो चाहिए, नहीं तो हम किनारे से ही जंजीर बांध कर बैठे रहते हैं। हम किनारा नहीं छोड़ते, किनारे की सुरक्षा नहीं छोड़ते, किनारे की सुविधा नहीं छोड़ते। और मैं तुमसे कह दूंः किनारे पर जीए भी तो मौत से बदतर है । और जिस सागर ने तुम्हें पुकारा है, अगर मझधार में भी डुब गए तो किनारा मिल जाता है। आखिरी प्रश्नः ओशो! प्रार्थना कैसे करें? सुशीला! प्रार्थना प्रेम का परिष्कार है। प्रार्थना प्रेम की सुगंध है। प्रेम अगर फूल तो प्रार्थना फूल की सुवास। प्रेम थोड़ा स्थूल है, प्रार्थना बिल्कुल सूक्ष्म है। प्रेम के जगत में तोशायद शब्दों को थोड़ा लेन-देन हो जाए, प्रार्थना के जगत में तोशब्द बिल्कुल ही व्यर्थ हो जाते हैं। वहां तो मौन ही निवेदन करना होता है। तू पूछती हैः प्रार्थना कैसे करें? प्रार्थना कोई विधि नहीं है। ध्यान की तो विधि होती है, प्रार्थना की कोई विधि नहीं होती। प्रार्थना तो स्वस्फूर्त है, सहज भाव है। जो विधि से करेगा प्रार्थना, उसकी प्रार्थना तो व्यर्थ हो गई; उसकी प्रार्थना तो नकली हो गई; प्रथम से ही झूठी हो गई। प्रार्थना तो आंख खोल कर, हृदय को खोल कर इस जगत में जो महा उत्सव चल रहा है, इसके साथ सम्मिलित हो जाने का नाम है। वृक्ष हरे हैं, तुम भी हरे हो जाओ - - प्रार्थना हो गई ! फूल खिले हैं, तुम भी खिल जाओ -- प्रार्थना हो गई। सूर्य निकला है, तुम भी जग जाओ -प्रार्थना हो गई। हवाएं नाच रही हैं, तुम भी नाचो-प्रार्थना हो गई। प्रार्थना को कोई ढंग नहीं, रूप नहीं, आकार नहीं, व्
यवस्था नहीं। प्रार्थना तो मस्ती है, उन्मत्तता है, दीवानगी है। प्रार्थना तो परमात्मा की शराब को पी लेने का नाम है। बस मत कर देना अरे पिलाने वाले! हम नहीं विमुख हो वापस जाने वाले! अपनी असीम तृष्णा है --तेरा वैभव अक्षय है अक्षय--अरे लुटाने वाले! हम अलख जगाने आए तेरे दर पै! हम मिट जाने आए तेरे दर पै! इस रिक्त पात्र को भर दे, भर दे, भर दे! मदहोश हमें तू कर दे, कर दे, कर दे! हम खड़े द्वार पर हाथ पसारे कब के, हो जाएं अमर--ऐ अमर हमें तू वर दे! है एक बिंदु में सिंधु भरा जीवन का; परिपूरित कर दे मानस सूनेपन का! फिर और! यहां पर पाना ही है खोना, हंस कर पीने में छिपा प्यास का रोना! चलने दे, सुख के दौर अरे चलने दे! भर जाए दुख से उर का कोना-कोना! अपना असीम अस्तित्व दिखा दे हमको ! बस लय हो जाना अरे सिखा दे हमको! तेरी मदिरा का बूंद-बूंद दीवाना ! हम नहीं जानते अपना हाथ हटाना! इस पथ का अथ है नहीं, न इसकी इति है, गति है, गति है, गति है बस बढ़ते जाना! किस ओर चले हैं, है हुआ कहां से आना ? किसने जाना, निज को किसने पहचाना? माना कि कल्पना और ज्ञान है--माना! पर अविश्वास का, भ्रम का यहीं ठिकाना! है एक आवरण, बुना हुआ जिसमें, दिन-रात और सुख-दुख का ताना-बाना! उस ओर? व्यर्थ का यह प्रयास--जाने दे! पाने दे, हमको मुक्ति यहीं पाने दे ! निज आत्मघात कर जग को पछताने दे! लाने दे अपनी मुक्ति, लाने दे अपनी भुक्ति हमें लाने दे! इस रिक्त पात्र को भर दे, भर दे, भर दे! मदहोश हमें तू कर दे, कर दे, कर दे ! हम खड़े द्वार पर हाथ पसारे कब के, हो जाएं अमर--ऐ अमर, हमें तू वर दे! है एक बिंदु में सिंधु भरा जीवन का; परिपूरित कर दे मानस सूनेपन का! प्रार्थना हैः अपने भिक्षापात्र को अस्तित्व के सामने फैला देना। प्रार्थना हैः अपने आंच
ल को चांद-तारों के सामने फैला देना। कहने की बात नहीं। प्रार्थना एक भाव - दशा है, वक्तव्य नहीं। कोई हरे कृष्ण, हरे राम, ऐसा कहने से कोई प्रार्थना नहीं होती। कि "अल्ला-ईश्वर तेरे नाम, सबको सनमति दे भगवान," ऐसा कहने से प्रार्थना नहीं होती! प्रार्थना मौन निवेदन है। प्रार्थनाझुकने की कला है। जहां झुक जाओ घुटने टेक कर पृथ्वी पर, वहीं प्रार्थना है। प्रार्थना अंतर्तम की बात है। शायद आंसू टपकें, या शायद गीत फूटे--कौन जाने! किशायद नाच उठो, कि पैरों में घूंघर बांध लो, कि बांसुरी उठा कर बजाने लगो--कौन जाने! कि चुप हो जाओ, कि बिल्कुल चुप जाओ, कि वाणी सदा को खो जाए--कौन जाने! प्रत्येक को प्रार्थना अनूठे ढंग से घटती है। अद्वितीय ढंग से घटती है। एक की प्रार्थना दूसरे की प्रार्थना नहीं होती। इसलिए प्रार्थना की नकल मत करना । और वहीं अड़चन हो गई है। हमें प्रार्थनाएं सिखा दी गई हैं - - हिंदुओं की, मुसलमानों की, जैनों की, ईसाइयों की। कोई पढ़ रहा है गायत्री; दोहराए जा रहा है तोतों की तरह। कोई पढ़ रहा है नमोकार मंत्र; दोहराए जा रहा है तोतों की तरह। कोई पढ़ रहा है कुरान की आयतें। सुंदर हैं वे आयतें और सुंदर हैं वे मंत्र और प्यारे हैं उनके अर्थ; मगर प्रार्थना इतने से नहीं होती। उधार नहीं होती प्रार्थना । प्रार्थना तो तुम्हारे हृदय का बहाव है। सुशीला, सौंदर्य के प्रति संवेदना को बढ़ाओ, फिर प्रार्थना अपने से पैदा होगी। संगीत सुनो--झरनों का, वृक्षों से गुजरती हुई हवाओं का, कि किसी वीणा पर किसी वीणावादक का। संगीत सुनो सुबह पक्षियों का, कि रात सन्नाटे में झींगुरों का सौंदर्य देखो -- वृक्षों का, चांद-तारों का, पशुओं का, पक्षियों का, मनुष्यों का! जहां-जहां तुम्हें सौंदर्य का, संगीत का, लयबद्धता का, रसमयता का बोध हो, वहां-वहां अपने हृदय को खोल कर बैठ जाओ। वहीं मंदिर है, वहीं तीर्थ है। धीरे-धीरे प्रार्थना का स्वाद लग जाएगा। मैं नहीं कह सकता प्रार्थना क्या है। मैं इतना ही कह सकता हूं कि प्रार्थना कैसी परिस्थिति में अनुभव होती है। संवेदनशीलता की जितनी गहराई बढ़ेगी उतनी ही प्रार्थना अनुभव होगी। उस पर किसी की छाप नहीं होगी। फिर जब जगेगी प्रार्थना, तो तुम्हारी प्रार्थना तुम्हारी होगी। उस पर बस तुम्हारे हस्ताक्षर होंगे। और ईश्वर तक वही प्रार्थना पहुंचती है जो तुम्हारी है, अपनी है, निज है। उधार बातें वहां तक नहीं पहुंचतीं । लोग तो प्रेम-पत्र तक दूसरों से लिखवा लेते हैं। प्रेम-पत्र दूसरों से लिखवाए का क्या मूल्य होगा? कितना ही सुंदर कोई लिख दे, कितने ही बड़े पंडित से तुम प्रेम पत्र लिखवा लो... । मुल्ला नसरुद्दीन एक स्त्री के प्रेम में था। फिर प्रेम टूटा, तो अपनी चीजें वापस मांगने आया, जो-जो उसने भेंट की थीं। स्त्री भी गुस्से में थी, उसने सब चीजें लौटा दीं। फिर भी मुल्ला खड़ा था। तो उसने कहाः अब और क्या चाहिए! सब तो दे दिया जो तुमने मुझे दिया था। उसने कहाः मेरे प्रेम-पत्र? स्त्री ने कहाः उनका क्या
करोगे, प्रेम-पत्रों का ? मुल्ला ने कहाः अब तुझसे क्या छिपाना, एक पंडित जी से लिखवाता था! और अभी मेरी जिंदगी खत्म तो नहीं हो गई। अभी किसी और से प्रेम करूंगा। अब नाहक फिर पंडित जी को पैसे देने पड़ेंगे। तू लौटा दे वे प्रेम-पत्र, फिर मेरे काम आ जाएंगे। जरा नाम ऊपर का बदल दिया। प्रेम-पत्र भी तुम दूसरों से लिखवाओगे? प्रार्थनाएं भी तुम दूसरों से सीखोगे? बस वहीं चूक हो जाएगी। मैं तुम्हें प्रार्थना नहीं सिखा सकता। इतना ही कह सकता हूं कि किन अवसरों में प्रार्थना पैदा होती है। किस परिप्रेक्ष्य में, किस पृष्ठभूमि में प्रार्थना का जन्म होता है। तुम मुझसे यह पूछो अगर कि कलियों को फूल कैसे बनाएं, तो मैं कुछ नहीं कह सकता। क्या मैं तुमसे कहूं कि कलियों को खींच-खींच कर खोल देना, ताकि वे फूल बन जाएं? मर जाएंगी कलियां, फूल तो नहीं बनेंगी। तुम अगर मुझसे पूछो कि वृक्षों से हम फूलों को कैसे निकालें, तो क्या मैं तुमसे कहूं कि खींचो, ताकत लगाओ? ऐसे तो नहीं होगा। मैं इतना ही कह सकता हूं-- खाद देना, पानी देना, भूमि देना, बागुड़ लगा देना। सूरज आ सके, इसका ख्याल रखना। बस तुम परिस्थिति पैदा करना । एक दिन फूल खिलेंगे। कलियां अपने से फूल बन जाएंगी। तुम परिस्थिति देना। प्रार्थना मत सीखो, परिस्थिति दो। और परिस्थिति है--सौंदर्य का बोध, संगीत का बोध । परिस्थिति है-गहन संवेदनशीलता। उसी भाव-भूमि में तुम्हारी प्रार्थना का फूल खिलेगा। और जब फूल खिले, तो फिर फूल जो करवाए करना। पहले से बंधी हुई धारणाएं लेकर मत बैठे रहना। फिर फूल जो करवाए, वही करना। और फूल रास्ता दिखाएगा। फूल मार्गदर्शक हो जाएगा। फूल कहेगा नाचो तो नाचना। फूल कहे गाओ तो गाना। फूल कहे चुप बैठ जाओ तो चुप बैठ जाना। अपने भीतर संवेदना में खिले फूल का इशारा
पहचानना और उसके पीछे चले चलना । वह कच्चा सा धागा तुम्हें परमात्मा तक पहुंचा देगा; या उस कच्चे धागे में बंधा हुआ परमात्मा तुम तक आ जाएगा। कुछ भी हो, बूंद सागर में गिरे कि सागर बूंद में गिरे, बात एक ही है। छठवां प्रवचन विद्रोह के पंख पहला प्रश्नः ओशो! किसी अन्य आश्रम से--जैसे युग निर्माण योजना, मथुरा; रामकृष्ण आश्रम आदि-संबंधित कुछ मित्र आपके आश्रम आना चाहते हैं और यहां के विविध ध्यान-प्रयोगों में भाग लेना चाहते हैं। कुछ ऐसे मित्र हैं जिनके लिए शेगांव के प्रसिद्ध संत गजानन महाराज या शिरडी के साईंबाबा श्रद्धा-स्थान हैं; वे भी आपके आश्रम के ध्यान शिविर में भाग लेना चाहते हैं। परंतु इस धारणा से कि किसी एक जगह श्रद्धा हो तो दूसरी ओर जाना नहीं चाहिए, वह पाप है-इसलिए हिचकिचाते हैं। ओशो, इस पर कुछ समझाने की कृपा करें! युगल किशोर! श्रद्धा साहस की अभिव्यक्ति है। श्रद्धा कायरता नहीं है, श्रद्धा कमजोरी नहीं है। जीवनऊर्जा के कमल के खिलने का नाम श्रद्धा है --श्रद्धा इतनी नपुंसक नहीं होती कि हिचकिचाए, भयभीत हो । श्रद्धा का तो अर्थ ही यही है कि अब कुछ भी उसे डिगा न सकेगा--जहां जाना हो जाओ, जो सुनना हो सुनो, जो समझना हो समझो। हिचकिचाहट तो बताती है कि श्रद्धा कमजोर की है, कायर की है, नपुंसक की है। श्रद्धा के पीछे कहीं संदेह छिपा है। श्रद्धा ऊपर-ऊपर है, भीतर संदेह है। तो डर है कि जरा सी खरोंच लग गई तो श्रद्धा तो टूट जाएगी। कांच की बनी है, सम्हाल-सम्हाल कर चलना होता है। और भीतर का पता है कि भीतर संदेह भरा है; कोई भी उकसा देगा, कोई भी भड़का देगा, तो संदेह प्रकट हो जाएगा। जिन श्रद्धालुओं की तुम बात कर रहे हो उन्हें मैं श्रद्धालु नहीं कहता। वे तो संदेह से भरे लोग हैं। लेकिन इतना साहस भी नहीं है कि अपने संदेह को स्वीकार कर सकें। इतनी भी आत्मश्रद्धा नहीं है कि अपने संदेह को अंगीकार कर सकें; कि ईमानदारी से कह सकें कि हम संदिग्ध हैं, कि अभी श्रद्धा का जन्म नहीं हुआ है। बेईमान हैं, श्रद्धालु नहीं हैं। धोखा दे रहे हैं - दूसरों को ही नहीं, अपने को भी। और जो अपने को धोखा दे रहा है वह परमात्मा को धोखा दे रहा है। आत्मवंचक हैं। श्रद्धा का भय से क्या संबंध? श्रद्धा तो इतनी समर्थ है कि किसी भी परिस्थिति में प्रवेश कर सकती है। आग से गुजरने को राजी है। असली सोना तो आग से गुजर कर और शुद्ध हो जाता है। नकली सोना डरेगा, भयभीत होगा, हिचकिचाएगा, आग में जाने से घबड़ाएगा, भागेगा, बचेगा। जिन श्रद्धालुओं की तुम बात कर रहे हो वे श्रद्धालु नहीं हैं; संदेहग्रस्त लोग हैं। भय के कारण श्रद्धा को ओढ़ लिया है। फिर चाहे वे रामकृष्ण के आश्रम में हों और चाहे अरविंद के और चाहे रमण के, इससे कुछ नहीं पड़ता कि वे कहां हैं। उनकी श्रद्धा ऊपर से ओढ़ी गई श्रद्धा है। और उन्हें अच्छी तरह, भलीभांति पता है कि भीतर संदेह की अग्नि जल रही है, जो कभी भी प्रकट हो सकती है। अवसर की भर बात है, अवसर मिल गया तो आग भीतर की प्रकट हो जाएगी
; इसलिए डरते हैं, इसलिए भयभीत होते हैं। श्रद्धालु को कोई भय नहीं है। रामकृष्ण में जिसकी श्रद्धा है वह मुझमें भी रामकृष्ण को ही पाएगा। मेरे कारण रामकृष्ण में उसकी श्रद्धा कम नहीं होगी, बढ़ेगी। और अगर मेरे कारण कम हो जाए तो न तो उसने रामकृष्ण को पहचाना है और न अभी श्रद्धा से उसका कोई संबंध हुआ है। स्वर होंगे अलग, गीत तो वही है। वाद्य होंगे अलग, संगीत तो वही है। रामकृष्ण हों, रमण हों कि कोई और, अलग-अलग अभिव्यक्तियां हैं--एक ही सत्य की! और जिसकी सत्य पर श्रद्धा है वह सत्य की सारी अभिव्यक्तियों को प्रेम करने में समर्थ होगा। श्रद्धा की सीमा नहीं होती, और सीमा हो तो जानना वह श्रद्धा नहीं है। जो कहे मुझे तो सिर्फ गुलाब के फूल पर श्रद्धा है, मैं चंपा के फूल के पास नहीं जा सकता; कैसे जाऊं, मेरी तो गुलाब के फूल पर श्रद्धा है-वह सिर्फ इतना ही बता रहा है कि वह डरता है के कि कहीं ऐसा न हो कि चंपा की सुगंध आवेष्टित कर ले! कहीं ऐसा न हो कि चंपा में डूब जाऊं और गुलाब भूल जाए! कहीं ऐसा न हो कि चंपा अटका ले, फिर गुलाब तक न आ सकूं! नहीं; जिसकी श्रद्धा है वह तो गुलाब का भी आनंद लेगा और चंपा का भी और चमेली का भी। क्योंकि उसकी श्रद्धा सौंदर्य में होती है। सौंदर्य की कोई सीमा नहीं है; सौंदर्य असीम है, अमाप है, अपरिभाष्य है। श्रद्धा इतनी संकीर्ण नहीं होती कि एक से बंध जाए। श्रद्धा और संकीर्ण, विरोधाभासी शब्द हैं। श्रद्धा विस्तीर्ण होती है, आकाश जैसी होती है। चर्च में भी जा सकता है श्रद्धालु और मंदिर में भी और मस्जिद में भी और गुरुद्वारे में भी-और उसकी श्रद्धा को आंच नहीं आएगी। उसकी श्रद्धा पकेगी, बढ़ेगी, और फूलेगी, और समृद्ध होगी। क्योंकि निश्चित ही जीसस के वचनों में कुछ है जो कृष्ण के वचनों में नहीं
है। और कृष्ण के वचनों में कुछ है जो जीसस के वचनों में नहीं है। कृष्ण के वचनों में एक अपूर्व सुसंस्कृत अभिव्यक्ति है। जीसस के वचनों में एक ग्राम्य सौम्यता है, सरलता है, सीधापन है, सादगी है। बुद्ध के वचनों में कुछ है--सम्राट के बेटे के वचन हैं - बहुत परिष्कृत हैं। कबीर के वचनों में भी कुछ है -- माटी की सुगंध है। होंगे बुद्ध के वचन आकाश के, लेकिन कबीर के वचनों में कुछ है जो बुद्ध के वचनों में नहीं है। माटी की सुगंध नहीं है बुद्ध के वचनों में। और पहली-पहली वर्षा में माटी की सुगंध फूलों को भी मात कर देती है। माटी की सोंधी सुगंध का अपना जगत है। जिसको श्रद्धा है वह तो कबीर में भी डुबकी लगा लेगा और फरीद में भी और नानक में भी और सब जगह से हीरे बटोर लेगा। ऐसा समझो कि एक आदमी कहता हो कि मुझे तैरना आता है, मगर मैं तो सिर्फ गंगा में ही तैर सकता हूं, मैं नर्मदा में न तैरूंगा। कहीं डूब जाऊं तो! मैं गोदावरी में न तैरूंगा, कोई जान थोड़े ही गंवानी है। मैं तो सिर्फ गंगा में ही तैर सकता हूं। ऐसे तैरने वाले पर तुम्हारे मन में क्या विचार उठेगा? इसका तैरना जरूर भ्रांति है। क्योंकि जिसे तैरना आता है, गंगा में तैर सकता है तो नर्मदा में क्या अड़चन है? गोदावरी में क्या अड़चन है? तैरना जिसको आ गया उसके लिए नदियों की बाधा नहीं रह जाती। उसके लिए तो सारी नदियां अपनी हो गईं। उसके लिए तो सारे सागर भी एक दिन अपने हो जाने वाले हैं। और जो पृथ्वी पर तैर लिया है, अगर चांद पर कोई सागर होगा तो उसमें भी तैर सकेगा और मंगल पर कोई सागर होगा तो उसमें भी तैर सकेगा। क्योंकि तैरने की कला नदियों से नहीं बंधती, तालाबों से नहीं बंधती। ऐसी ही श्रद्धा है। श्रद्धा एक कला है। जिसे भरोसा आ गया है कि परमात्मा है; जिसे प्रतीति होने लगी कि अस्तित्व मिट्टी और पत्थर से ही नहीं बना है, मिट्टी और पत्थर में भी चैतन्य छिपा है; मृण्मय में जिसे चिन्मय का बोध होने लगा--उस बोध का नाम श्रद्धा है। फिर यह बोध किस बहाने हुआ, रामकृष्ण के, कि रमण के, कि कृष्ण मूर्ति के, इससे क्या भेद पड़ता है? मेरी अंगुली से तुम्हें चांद दिखाई पड़ा कि कृष्ण की अंगुली से कि क्राइस्ट की अंगुली से, चांद में थोड़े ही फर्क पड़ जाएगा! अंगुलियां भिन्न होंगी-- काली होगी अंगुली, गोरी होगी अंगुली, लंबी होगी, छोटी होगी, दुबली होगी, मोटी होगी; ये अंगुलियों के भेद हैं, इनसे चांद में कोई अंतर न पड़ेगा। जिसको चांद की झलक मिलने लगी वह श्रद्धालु है। और अब जितनी अंगुलियों से मिल सके, लूटेगा, बेधड़क लूटेगा! अब उसे कोई रुकावट नहीं। सारे मंदिर उसके हैं, सारे तीर्थ उसके हैं। काबा भी उसका, काशी भी उसकी, कैलाश भी उसका। लेकिन तुम जिनकी बातें कर रहे हो, युगल किशोर, ये नपुंसक लोग हैं। इन्हें श्रद्धा का कोई भी पता नहीं है। इनकी श्रद्धा भी बड़ी संकीर्ण है। इनकी श्रद्धा बड़ी छोटी है, बड़ी उथली है। है ही नहीं, ढांके बैठे हैं संदेह को। किसी भांति मना-मनु कर अपने को सम्हाल लिया
है। इसलिए डरे हुए हैं। नास्तिक से बात करने में आस्तिक डरता है, यह कैसा आस्तिक? नास्तिक नहीं डरता, आस्तिक डरता है! मैंने किसी नास्तिक को आस्तिक से बात करते डरते नहीं देखा। और मैं तथाकथित आस्तिकों को नास्तिकों से बात करते डरते देखता हूं। यह तो बड़ी उलटी बात हो गई। नास्तिक डरे, अकेला है बेचारा, ईश्वर का कोई सहारा नहीं है, अस्तित्व उसका सूना है, जीवन उसका अर्थहीन है--नास्तिक डरे, गणित ठीक बैठता है। लेकिन आस्तिक डरता है, जो कहता है सारा जगत, कण-कण परमात्मा से व्याप्त है --यह कंपता है ! यह तो बड़ी बेबूझ बात हो गई। यह पहेली कैसे सुलझाओ! यह तो कबीर की उलटबांसी हो गई। मगर कारण साफ है। नास्तिक ईमानदार है, आस्तिक बेईमान है। तुम्हारा तथाकथित आस्तिक बिल्कुल बेईमान है, इसलिए डरता है । डर बाहर से नहीं आता-- नास्तिक क्या कर लेगा? डर भीतर से आता है। उसे अपने ही संदेह का भय है। उसे पता है कि संदेह दबाए बैठा है। कहीं कोई उकसा दे, कहीं कोई कुरेद दे, कहीं कोई ऐसी बात कह दे कि संदेह प्रज्वलित हो उठे, कि श्रद्धा डगमगा जाए ! तो ऐसी जगह जाना ही नहीं। जैन शास्त्र कहते हैंः पागल हाथी भी तुम्हारे पीछे पड़ा हो और पास में हिंदू मंदिर हो तो शरण मत लेना। हाथी के नीचे दब कर मर जाना बेहतर है, हिंदू मंदिर में शरण लेना बेहतर नहीं है। क्यों? क्योंकि वहां कोई असद्भ वचन सुनने को मिल जाएं; वहां कोई मिथ्याज्ञान की बात कान में पड़ जाए तो जन्म-जन्म भटकोगे। हाथी क्या करेगा, सिर्फ शरीर ही ले सकता है; मगर मिथ्या वचन, मिथ्या गुरु, मिथ्या शास्त्र... अगर उनकी बात कान में पड़ गई तो शरीर ही नहीं आत्मा भ्रष्ट हो जाएगी। और यही बात हिंदू ग्रंथों में भी लिखी है, क्योंकि ये सब ग्रंथ एक ही जैसे लोगों ने लिखे हैं--कि अगर जैन मंदिर
के भीतर शरण मिलती हो तो उससे तो बेहतर हाथी के पैर कि नीचे दब कर मर जाना है। तुमने घंटाकरण की कहानी तो सुनी है न, जो अपने कानों में घंटे बांधे रखता था! ये तुम्हारे आस्तिक बस घंटाकरण हैं। वह कानों में घंटे बांधे रखता था, क्यों? ताकि उसके कान में उसके इष्ट देवता के अतिरिक्त और कोई नाम सुनाई न पड़े। अगर उसके इष्ट देवता राम हैं तो राम-राम, राम-राम जपता है और कानों में घंटे बांधे हुए है; चलता है तो घंटे बजते रहते हैं। इसलिए कोई दूसरा इष्ट देवता, कोई कृष्ण-भक्त कहीं कृष्ण का नाम न डाल दे, कहीं कान में कृष्ण का नाम न पड़ जाए। छोटे-छोटे आस्तिकों की तो बात छोड़ दो, तुम्हारे बड़े-बड़े आस्तिक, वे भी कसौटी पर उतरते नहीं। तुलसीदास के जीवन में कथा है कि उन्हें ले जाया गया मथुरा में कृष्ण के मंदिर में तो वे झुके नहीं। जो मित्र उन्हें ले गए थे उन्होंने कहाः आप नमस्कार न करेंगे? उन्होंने कहाः नहीं, मैं तो सिर्फ राम को ही नमस्कार करता हूं। जब तक धनुषबाण हाथ में न लोगे, मैं नमस्कार नहीं करूंगा। तुलसीदास को कण-कण में राम दिखाई पड़ते हैं, लेकिन कृष्ण में राम नहीं दिखाई पड़ते। यह कैसा मजा हुआ! तो वह कण-कण में राम दिखाई पड़ने वाली बात बकवास है। तुलसीदास को कृष्ण से कुछ लेना-देना नहीं, 'से से कुछ लेना-देना नहीं, धनुषबाण ज्यादा मूल्यवान मालूम होता हैं - मार्का, सरकारी मार्का, वह ज्यादा मूल्यवान मालूम होता है। लेबल नहीं झुकेंगे कृष्ण के सामने, राम के सामने झुकेंगे ! और शर्त कि धनुषबाण अगर हाथ लेते हो तो मैं झुक सकता हूं। अब यह राम पर छोड़ दिया, कृष्ण पर छोड़ दिया कि तुम्हारी मर्जी, अगर मेरे झुकने का मजा लेना हो तो ले लो धनुषबाण हाथ में । जिन्होंने कहानी लिखी है, बेईमान रहे होंगे। उन्होंने कहानी लिखी है कि और कृष्ण ने जल्दी से धनुषबाण हाथ में ले लिया। मूर्ति ने धनुषबाण हाथ में ले लिया। तब तुलसीदास झुके। मगर इसमें एक बात साफ है कि यह भक्ति न हुई, यह तो भगवान पर भी शर्त हुई ! यह तो भगवान से भी सौदा हुआ। इसमें तुलसीदास तो दो कौड़ी के हो ही गए। अगर कृष्ण ने धनुषबाण हाथ लिया तो वे भी दो कौड़ी के हो गए। यह भी क्या बात हुई? तुलसीदास न झुकते तो क्या बिगड़ता है? यह तो झुकाने का बड़ा रस हुआ! ये तो जैसे बैठे ही थे। वह तो अच्छा हुआ कि उन्होंने धनुषबाण कहा, कोई और पहुंच जाते, कोई तुलाधर वैश्य के भक्त पहुंच जाते, कहते कि तराजू हाथ में लो, तो वे तराजू हाथ में लेते। कोई मोहम्मद के भक्त पहुंच जाते, वे कहते कि तलवार हाथ में लो। तो कृष्ण को पूरी दुकान ही सजानी पड़ती, सब सामान सामने रखना पड़ता, जब जो आए । कोई जैन भक्त पहुंच जाते, वे कहते नग्न खड़े होओ, दिगंबर, तो जल्दी से चड्ढी इत्यादि उतार कर खड़े होना पड़ता। यह तो बड़ी बेहूदगी हो जाती। मगर यही तुम्हारे आस्तिक की स्थिति है। तुम्हारा आस्तिक कमजोर है, झूठा है। मुझे तो वह नास्तिक प्यारा है जो कम से कम ईमानदार है; जो कहता है मुझे पता नहीं है, इसलिए मैं कैस
े मानूं? इसे कभी पता चल सकता है, क्योंकि इसने अपने अज्ञान को छिपाया नहीं, स्वीकार किया है। और अज्ञान की स्वीकृति सत्य की तरफ पहला चरण है। तो पहली तो बात, युगल किशोर, जिन मित्रों की तुम पूछ रहे हो उनकी आस्था झूठी है, उनकी श्रद्धा बांझ है। दूसरी बात, जहां-जहां वे अटके हैं वहां उन्हें कुछ मिला नहीं, नहीं तो यहां आने की जरूरत क्या? क्या प्रयोजन? गंगा के किनारे जो बसा है और जिसकी प्यास तृप्त हो रही है, अब वह किसलिए जाएगा ब्रह्मपुत्र की तलाश में? पानी तो पानी है । प्यास बुझ गई, बात समाप्त हो गई तो तुम जिनकी बात कर रहे हो--रामकृष्ण आश्रम, अरविंद आश्रम, रमण आश्रम--वहां जो लोग हैं वे यहां आना चाहते हैं, उनका आना चाहना ही बता रहा है कि वहां कुछ हुआ नहीं है । और नपुंसक श्रद्धा से कहीं भी कुछ नहीं होता। रामकृष्ण क्या करेंगे? रमण क्या करेंगे? मैं क्या करूंगा? कोई भी क्या करेगा? तुम्हारी श्रद्धा ही अगर नहीं है, तुम अगर भीतर बिल्कुल निर्बल हो, तुम अगर भीतर बिल्कुल झूठे हो, थोथे हो, ओछे हो, तो तुम्हारी श्रद्धा लेकर तुम जहां भी जाओगे वहीं कुछ भी होने वाला नहीं। वहां कुछ हुआ नहीं है इसलिए यहां आना चाहते हैं। नहीं तो आने की बात क्या थी? अब डर भी लगता है कि कहीं छोड़ कर गए तो कहीं जिन पर अब तक श्रद्धा की वे नाराज न हो जाएं! मिला भी कुछ नहीं है वहां नाराज न हो जाएं, कहीं श्रद्धा डांवाडोल न हो जाए। और तुम्हारे पंडित-पुरोहित तुम्हें ऐसा सिखाते रहे हैं। तुम्हारे पंडित - पुरोहितों ने शिष्य और गुरु के संबंध को तो करीब-करीब पति-पत्नी का संबंध बना दिया है --एक पत्नी-व्रत ! यह कोई विवाह थोड़े ही है-खोज है, अन्वेषण है, जिज्ञासा है। ठीक है तुमने तलाशा एक जगह, पूरा श्रम लगाओ, हो सकता है तुम्हें वहां न मिल स
के। जरूरी नहीं है कि तुम्हें नहीं मिला, इसका यह अर्थ है कि वहां नहीं है। तुमसे तालमेल न बैठा हो, तुम्हारे व्यक्तित्व के अनुकूल न पड़ा हो। रामकृष्ण सभी के अनुकूल नहीं पड़ सकते, नहीं तो वैविध्य मिट जाए। किसी को कुरान ही जमती है और कुरान के वचन ही किसी के प्राणों में पड़े हुए जन्मों-जन्मों के बीजों को अंकुरित करते हैं। और किसी को गीता में ही वर्षा होती है। जहां वर्षा हो जाए... प्रयोजन आम खाने से है या गुठलियां गिनने से? लेकिन लोग गुठलियों से बंधे हुए हैं; आम-वाम खाने का तो पता नहीं है, गुठलियों के ढेर लगाए बैठे हैं। तुम्हें अगर वहां मिल गया तो यहां आने का अकारण कष्ट न करो। अगर नहीं मिला है तो क्षण भर भी रुकना आत्मघात है क्योंकि कौन जाने कल मौत हो! तो तलाशो, दौड़ो, भागो, जहां मिल सकता हो, जहां से खबर मिले कि सूरज उगा है वहां जाओ। यह तो खोजी की जिंदगी है। साधक की जिंदगी तलाश है। जहां तालमेल बैठ जाएगा, कौन जाने कहां बैठ जाए! किससे हृदय की लयबद्धता हो जाए, कौन सा वाद्य तुम्हें मोहित कर ले! जब तक वैसी जगह न आ जाए तब तक बहुत द्वार खटखटाने पड़ते हैं। अपने द्वार पर पहुंचने के लिए बहुत द्वार खटखटाने पड़ते हैं, अपना मंदिर खोजने के लिए बहुत मंदिरों में तलाश करनी पड़ती है। लेकिन लोग तलाश नहीं करना चाहते--गोबरगणेश हैं! जहां बैठ गए बैठ गए। फिर वहां से उठने का नाम नहीं लेते, चाहे कुछ मिले, चाहे न मिले। मैं पुनः याद दिला दूं, मैं यह नहीं कह रहा हूं कि वहां कुछ नहीं है। होगा, जरूर होगा। लेकिन तुम्हें नहीं मिला, यह सवाल है। दूसरों को मिला होगा, दूसरे जानें। तुम्हें अगर नहीं मिला है तो उठो, चलो। पृथ्वी खाली नहीं है; यहां विविध-विविध रंगों में परमात्मा प्रकट होता है। और फिर, शिरडी के साईंबाबा या गजानन महाराज अब तो मौजूद नहीं हैं, न रामकृष्ण, न रमण। जैसे ही सदगुरु विदा होता है वैसे ही एक जाल इकट्ठा हो जाता है वहां, जो सदगुरु के नाम का शोषण शुरू कर देते हैं। इसे रोका नहीं जा सकता। इसे रोकना असंभव है। कौन रोके, कैसे रोके? यह होता ही रहेगा। चालबाज आदमी, होशियार आदमी सदगुरु के नाम का लाभ उठाएंगे। उसकी जिंदगी में तो नहीं ले सकते, उसकी मौजूदगी में तो मुश्किल पड़ती है; लेकिन जब वह मौजूद नहीं रहेगा तो उसकी कब्र बना कर बैठ जाएंगे, चमत्कारों की चर्चाएं चलाएंगे, कहानियां फैलाएंगे, बाजार लगाएंगे, दुकान खोल लेंगे। ऐसी ही दुकानें शिरडी के साईंबाबा और गजानन महाराज, ऐसे लोगों के समाधि स्थलों पर इकट्ठी हो गई हैं। हर चीज की वे एक ही उपयोगिता जानते हैं--कैसे उससे शोषण किया जा सके? जरूर वे तुमसे कहेंगे कि यहां से अगर छोड़ कर गए तो बाबा नाराज हो जाएंगे। बाबा प्रसन्न तो हो नहीं रहे हैं, मगर नाराज जरूर हो जाएंगे! जो बाबा प्रसन्न ही नहीं हो रहे हैं, अब उनके नाराज होने से भी क्या होने वाला है? बाबा जा चुके । और वे बाबा ही नहीं हैं जो नाराज हो जाएं। तुम अगर शिरडी छोड़ कर यहां आओगे तो शिरडी के साईंबाबा की
आत्मा प्रसन्न होगी, आनंदित होगी, कि तुम फिर तलाश पर निकल पड़े हो, शायद कोई द्वार मिल जाए। वह द्वार तो बंद हो गया। जैसे ही कोई सदगुरु विदा होता है इस पृथ्वी से, उसकी सुगंध आकाश में लीन हो जाती है, पीछे छूट जाते हैं पग-चिह्न और पग-चिह्नों के आस-पास इकट्ठे पंडितों पुरोहितों की भीड़। और पंडित-पुरोहित बड़े कुशल हैं शोषण करने में। वे सब भांति का शोषण शुरू कर देते हैं। युगल किशोर! अपने मित्रों को कहनाः तुम्हारी हिचकिचाहट बताती है कि श्रद्धा झूठी है। तुम्हारी हिचकिचाहट बताती है कि अभी तुम्हें जो मिलना था नहीं मिला । तुम्हारी हिचकिचाहट बताती है कि तुम्हें अभी मंदिर की तलाश करनी है। तुम्हारी हिचकिचाहट बताती है कि तुम दुकानदारों के चक्कर में पड़ गए हो । और श्रद्धा इतनी बड़ी है, आकाश जैसी, सबको समा लेती है। श्रद्धा जिसके पास है उसमें राम और कृष्ण और बुद्ध और महावीर और नानक और कबीर सब समाविष्ट हो जाते हैं। श्रद्धा का जादू ऐसा है, श्रद्धा की रसायन ऐसी है कि उसमें राम और कृष्ण में भेद नहीं रह जाता, जीसस और जरथुस्त्र में भेद नहीं रह जाता, महावीर और मीरा में भेद नहीं रह जाता। श्रद्धा की रासायनिक प्रक्रिया ऐसी है कि वह सारे सत्यों को समाविष्ट कर लेती है। और सारे सत्यों को समाविष्ट करके जो परम सत्य प्रकट होता है उसकी समृद्धि अनूठी है, आनंद अपूर्व है। श्रद्धा सारे वाद्यों को इकट्ठा करके आर्केस्टर बना लेती है। हां, बांसुरी का भी एक मजा है-- एकाकी बजती बांसुरी का, जरूर मजा है! लेकिन जब तबले पर थाप भी पड़ती हो और बांसुरी बजती हो तो मजा और गहन हो गया। और जब पीछे कोई सितार भी, सोए सितार को भी जगा दे तो रस और बढ़ा। और फिर कोई तानपूरा भी लेकर बैठ जाए तो बात और गहन होने लगी, नये-नये आयाम जुड़ने लगे। परम
ात्मा अभी भी चुक नहीं गया है, अभी बहुत महावीर होंगे और बहुत बुद्ध होंगे और बहुत मोहम्मद होंगे और बहुत जीसस होंगे। और परमात्मा तब भी चुकेगा नहीं। नये-नये वाद्य जुड़ते जाएंगे, संगीत और सघन होता जाएगा, संगीत और गहन होता जाएगा। कृपण न बनो, कंजूस न बनो । हृदय को खोलो इस विराट आकाश के प्रति। पूरे परमात्मा को ही अंगीकार करो, उसके सब रूपों को अंगीकार करो । फिर जो तुम्हें प्रीतिकर लगता हो, वहां रम रहो। लेकिन इनकार तो कोई भी न हो । श्रद्धा का अर्थ होता है भीतर "हां" का भाव उठा। और "हां" में "नहीं" नहीं होती। "हां" में कोई शर्तबंदी नहीं होती। अपने मित्रों को कहना... और कौन जाने मित्रों के नाम से सिर्फ तुम अपने संबंध में पूछ रहे हो। इसका भी बहुत डर है। इसकी भी बहुत संभावना है। हम सीधा-सीधा भी नहीं पूछते, क्योंकि सीधा-सीधा पूछो, कौन जाने मैं लट्ठ की तरह तुम्हारे सिर पर चोट करूं! तो लोग मित्रों के नाम से पूछते हैं। एक सज्जन आए। वे कहने लगेः मेरे मित्र नपुंसक हैं! उनके लिए कोई ध्यान की विधि हो सकती है? मैंने कहाः तुमने नाहक कष्ट किया! अपने मित्र को क्यों नहीं भेज दिया? उन्होंने कहाः मैंने तो उनसे बहुत कहा, मगर वे संकोचवश आए नहीं। मैंने कहाः उनसे तुम यह कह सकते थे कि तुम चले जाओ और कहना कि मेरे एक मित्र हैं, जो नपुंसक हैं, उनको ध्यान की कोई विधि... । वे थोड़े बेचैन हुए। मैंने कहाः तुम्हारी बेचैनी, तुम्हारी आंखें, तुम्हारा चेहरा सब कह रहा है कि तुम किस मित्र की बात कर रहे हो । सीधी-सीधी बात करो, अपनी बात करो। युगल किशोर ठाकुर ! ठाकुर होकर तुम भी कैसी बात कर रहे! कहां कि मित्रों की बात उठा रहे हो? अपनी ही बात करो, सीधी-सीधी बात करो। ये परिकल्पित मित्र, अगर हों कोई तो जरूर उनको कह देना, मगर अपनी तो गुन लो। उनकी उन पर छोड़ो। यहां तुम आए हो, तुम भी कहीं दूर-दूर खड़े न रह जाना डर के मारे कि अपनी तो श्रद्धा और, आ तो गए तो ठीक, मगर दूर-दूर खड़े रहें। न ध्यान में उतरें, न प्रार्थना में डूबें। सुनें भी तो एक पर्दे की आड़ से, अपने सिद्धांतों की दीवाल बीच में खड़ी रख कर । ऐसा करोगे तो चूक जाओगे। ऐसा करोगे तो एक अवसर और आया था, वह भी व्यर्थ चला जाएगा। अवसर खोओ नहीं, अवसर बहुत मुश्किल से आते हैं। दूसरा प्रश्नः ओशो! एक ओर तो आप आधुनिक यंत्र - विधि के पक्ष में हैं और मानते हैं कि धर्म का फूल औद्योगिक दृष्टि से उन्नत देशों में ही खिलेगा। दूसरी तरफ आप पश्चिम की औद्योगिक सभ्यताओं की विडंबनाओं का भी बखान करते हैं। "या तो यंत्र बचेगा या मनुष्य"--यह आपका ही वाक्य है। इसके अलावा आप अतीत के जिन महापुरुषों, संतों और भक्तों की वाणी की व्याख्या करते हैं, उनमें से कोई नहीं मानता था कि धर्म गरीबों के लिए नहीं है। इन सबकी पारस्परिक संगति कैसे बिठाई जाए? राजकिशोर! मैं यंत्र-विधि के पक्ष में हूं। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि यंत्र - विधि के साथ जुड़ी कुछ घातक संभावनाएं नहीं हैं। उन घातक संभावनाओं से भी मै
ं सचेष्ट करता हूं। बुद्धिमान व्यक्ति तो जहर से भी अमृत बना लेता है और बुद्धू अमृत से भी जहर। विज्ञान ने बहुत बड़ी शक्ति मनुष्य के हाथ में दी है-- टेक्नालॉजी की, यंत्र-विधि की। इससे यह सारी पृथ्वी स्वर्ग बन सकती है। सदियों-सदियों का सपना, जो हम देखते थे कहीं दूर आकाश में स्वर्ग है, वह पृथ्वी पर उतर सकता है। इस पृथ्वी पर, हमारी पृथ्वी पर उतर सकता है! विज्ञान ने एक विराट ऊर्जा का विस्फोट कर दिया है। लेकिन उसके खतरे हैं। उन खतरों से भी मैं सावधान करता हूं। सबसे बड़ा खतरा यह है कि कहीं यांत्रिकता मनुष्य के ऊपर हावी न हो जाए ! कहीं ऐसा न हो कि मनुष्य सिर्फ मशीन का एक गुलाम होकर रह जाए। मनुष्य की मालकियत तो रहनी ही चाहिए । मनुष्य मालिक हो, यंत्र सेवक हो, तो शुभ है। यंत्र मालिक हो, मनुष्य सेवक हो जाए, तो अशुभ है। इसलिए मैं एक और यंत्र - विधि का पूर्ण समर्थन करता हूं। क्योंकि उसके बिना अब पृथ्वी भूखी मरेगी। उसके बिना अब आदमी समृद्ध नहीं हो सकेगा। समृद्धि तो दूर, जीवन की सामान्य सुविधाएं भी आदमी को उपलब्ध नहीं हो सकेंगी। हमने इतनी संख्या बढ़ा ली है! संख्या रोज बढ़ती जा रही है। पृथ्वी उतनी की उतनी है। हर आदमी अपने साथ सौ-पचास एकड़ जमीन भी ले आता तो ठीक था। आदमी चले आते हैं, जमीन उतनी की उतनी है। बुद्ध के जमाने में इस देश की कुल जनसंख्या दो करोड़ थी। आज पाकिस्तान को छोड़ कर, बंगलादेश को छोड़ कर इस देश की जनसंख्या साठ करोड़ है। अगर उन दोनों को भी हम जोड़ लें तो अस्सी करोड़ के करीब पहुंच रही है। इस सदी के पूरे होते-होते एक अरब जनसंख्या भारत की होगी। इस एक अरब जनसंख्या को न तुम भोजन दे सकोगे, न कपड़े दे सकोगे, न दवा दे सकोगे, न छप्पर दे सकोगे। लोग कीड़े-मकोड़े की तरह बिल्लाने लगेंगे। और तुम
हो कि चरखे का गीत गाए जाते हो! इस सदी के पूरे होते-होते तुम्हें पता चलेगा कि गांधीवाद के नाम पर तुमने जो मूढ़ता की है, इससे बड़ी और कोई मूढ़ता नहीं हो सकती थी। गांधी को भविष्य का कोई बोध नहीं था। गांधी मरे - मराए अतीत के प्रशंसक थे। वे रेलगाड़ी के खिलाफ थे, टेलीफोन के खिलाफ थे, पोस्ट आफिस के खिलाफ थे, दवाइयों के खिलाफ थे। मनुष्य ने जो भी मनुष्य के जीवन को सुसमृद्ध करने के लिए विकसित किया, सबके खिलाफ थे। वे चाहते थे, आदमी बाबा आदम के जमाने में वापस लौट चले । मगर यह हो नहीं सकता। यह करना हो, तो करोड़ों लोगों की हत्या करनी होगी पहले। बुद्ध के जमाने में जब दो करोड़ आदमी थे भारत में तो एक तरह की संपन्नता थी। स्वभावतः, इतनी भूमि, इतना विशाल देश और कुल दो करोड़ आदमी! आज भी दो करोड़ हों तो फिर संपन्न हो जाएगा देश। कोई भूखा नहीं मरेगा। और आज भी दो करोड़ संख्या हो तो घरों में ताले न लगाने पड़ेंगे। ये कोई आदमियों की खूबियां नहीं थीं। ये कोई नैतिक गुण नहीं थे बुद्ध के जमाने में, कि लोग घरों में ताला नहीं लगाते थे। ताला लगाने का सवाल ही नहीं था। लेकिन आज उसी देश में अस्सी करोड़ लोग हैं । चालीस गुनी संख्या बढ़ गई; और जमीन उतनी की उतनी है। और ढाई हजार साल में हमने जमीन का शोषण कर लिया। उसके जितने रासायनिक द्रव्य थे, हम सब पी गए। और वापस हमने कुछ नहीं डाला । दूसरे मुल्कों में तो लोग, आदमी मर जाता है तो उसे जमीन में गड़ा देते हैं। तो जो कुछ उसके शरीर में खनिज, विटामिन, जो कुछ भी होते हैं, वापस जमीन में पहुंच जाते हैं। हम वह भी नहीं करते, हम उसे जला देते हैं। तो जिंदगी भर जो खाया-पीया, उसको हम राख कर देते हैं। जमीन में वापस नहीं पहुंच पाता वह फिर । तो ढाई हजार सालों में हम आदमी जलाते रहे और जमीन का शोषण करते रहे। जमीन बांझ हो गई है। उसमें अब कुछ फलता-फूलता नहीं मालूम पड़ता। और संख्या बढ़ती जाती है। यंत्र के अतिरिक्त अब कोई उपाय नहीं है। इसलिए मैं यंत्र-विधि के पूरे पक्ष में हूं, समग्ररूपेण पक्ष में हूं। देश के द्वार दरवाजे खोल दिए जाने चाहिए। हमने देश को एक बंद कारागृह बना लिया है, इसलिए हम सड़ रहे हैं। मेरा बस चले तो मैं देश के सारे द्वार-दरवाजे खोल दूं; सारी दुनिया को निमंत्रित करूं कि आओ! सारी दुनिया की पूंजी निमंत्रित होनी चाहिए कि लोग पूंजी लाएं, कि लोग यंत्र लाएं, कि लोग विज्ञान के नये-नये उपकरण लाएं। और इस देश में जितने ज्यादा उद्योग हो सकें उतने उद्योग फैलें। और दुनिया से लोग आना चाहते हैं। मगर इस देश की मूढ़ताएं ऐसी हैं कि हम चाहते हैं कि दुनिया की पूंजी भारत में न आ जाए, कहीं भारत का शोषण न हो जाए। है कुछ भी पास नहीं... शोषण हो जाने का बड़ा डर है! नंगा नहाए... नहाता ही नहीं। वह नहाता इसलिए नहीं कि अगर नहाऊंगा तो निचोडूंगा कहां? निचोड़ने को कुछ है ही नहीं! वह नहाता ही नहीं है, क्योंकि नहाऊंगा तो फिर सुखाऊंगा कहां? सुखाने को कुछ है ही नहीं। और इस देश के पूंजीपति है
ं, उनको भय है कि अगर दुनिया की पूंजी भारत में आए, और दुनिया का विज्ञान भारत में आए तो उनके कचरा उत्पादन की क्या कीमत रह जाएगी! तुम सोचते हो एंबेसेडर कार की कितनी कीमत होगी? बैलगाड़ी से कम हो जाएगी! अगर इस देश में फोर्ड और शेवरलेट और रॉल्स रॉयस और बें.ज, ये सारे कारखाने खुल जाएं तो एंबेसेडर गाड़ी का तुम सोचते हो क्या हाल होगा? कोई मुफ्त भी लेने को राजी नहीं होगा। क्योंकि जितनी कीमत पर एंबेसेडर मिल रही है उतनी कीमत पर तो बें. ज गाड़ी मिल सकती है। जो तीस साल, चालीस साल चले और फिर भी ऐसा लगे कि ताजी है, नई है। और एंबेसेडर गाड़ी तुम शोरूम से घर तक लाओ और खात्मा। जब युगल किशोर बिरला मरे, तो कहते हैं उन्हें स्वर्ग ले जाया गया... मुझे पक्का पता नहीं कहानी कहां तक सच है, मगर सच ही होगी... वे खुद भी चौंके। मगर फिर सोचा कि शायद मैंने इतने बिरला मंदिर बनवाए इसलिए मुझे स्वर्ग में लाया जा रहा है। स्वर्ग में उन्होंने द्वारपाल से पूछा कि मुझे किसलिए स्वर्ग लाया जा रहा है? तो उन्होंने कहा, इसलिए कि जो-जो तुम्हारी गाड़ी खरीदते हैं, वे कहते हैंः हे राम! तुमने लोगों को जितना राम का नाम याद दिलवाया है, उतना किसी ने नहीं! बड़े-बड़े पंडित - पुरोहित हार गए। तुमने एंबेसेडर क्या बनाई है, ऐसी गाड़ी दुनिया में कोई नहीं! जिसमें हर चीज बजती है, सिर्फ हार्न को छोड़ कर ! तो यह हिंदुस्तानी पूंजीपति है, जिसकी प्रेइंग-लिस्ट पर इस देश के सारे नेताओं के नाम हैं; जो इस देश में बाहर की संपदा को, तकनीक को, विज्ञान को नहीं आने देना चाहता। इसलिए तुम गरीब हो, इसलिए तुम परेशान हो। और तुम परेशान रहोगे। इस देश के द्वार खोल दिए जाने चाहिए। अब यह पृथ्वी खंड-खंड में नहीं होनी चाहिए। अब दुनिया के पास इतना वैज्ञानिक विकास है
कि अगर हम अपने द्वार खोल दें तो यह देश समृद्ध हो सकता है। लेकिन हम पिटी-पिटाई बातें दोहराए चले जाते हैं। हमारे अर्थशास्त्री कौन हैं? चौधरी चरणसिंह जैसे लोग हमारे अर्थशास्त्री हैं। जिनको अर्थशास्त्र का अ ब स भी नहीं आता। अनर्थशास्त्र का आता होगा, अर्थशास्त्र का बिल्कुल नहीं आता। वे अभी तक गांवों का गुणगान किए जा रहे हैं। वे अभी तक गांव की ही प्रशंसा में गीत गाए जा रहे हैं। गांव का कोई भविष्य नहीं है। गांव जा चुके, गांव का कोई भविष्य होना भी नहीं चाहिए। अब नगरों का भविष्य है--सुसंपन्न, सुशिक्षित, सुनियोजित नगरों का भविष्य है। दुनिया से गांव विदा हो रहे हैं। इधर हम गांव की तरफ सारी ताकत लगा रहे हैं। हमारे गांव भी विदा होने चाहिए। और गांव में कुछ भी नहीं है। बीमारी है, गरीबी है, मच्छर है, मक्खियां हैं, कीचड़ है, कबाड़ है। और एक गुलामी है। जब तक गांव नहीं मिटेगा, वह गुलामी नहीं मिटेगी। छोटे-छोटे गांव की गुलामी तुम्हें दिखाई नहीं पड़ती। तुम कवियों की कहानियां और कविताएं पढ़ लेते हो, सोचते हो कि अहा, गांवों में कैसा राम-राज्य! कैसा पंचायत राज्य! और गांव में कैसे लोग मजा कर रहे हैं--कैसी स्वाभाविकता, प्राकृतिकता! तुम्हें गांव की स्थिति का कोई अंदाज नहीं है। इस देश का गांव एक तरह का कारागृह है। इस गांव में जितना शोषण हो सकता है, शहर में नहीं हो सकता। गांव में हरिजन है, उसको कुएं पर पानी नहीं भरने दिया जा सकता। वह सबके साथ पांत में बैठ कर भोजन नहीं कर सकता। पांत में बैठ कर भोजन करने की तो बात दूर, उसकी छाया किसी पर पड़ जाए, तो पाप हो जाए, तो गांव के लोग मिल कर उसकी हत्या कर दें। अगर हरिजनों से कोई मिले-जुले, तो उसका हुक्का-पानी बंद कर दें। गांव इतनी छोटी जगह है कि वहां कोई आदमी व्यक्तिगत जीवन तो जी ही नहीं सकता। वहां कोई निजी जीवन नहीं है। और जहां निजता नहीं है वहां स्वतंत्रता नहीं हो सकती। शहरों ने निजता दी है। शहरों में व्यक्ति निजी हो गए हैं। मैं पक्ष में हूं इस बात के कि यंत्र बढ़ने चाहिए। औद्योगिकता बढ़नी चाहिए। धीरे-धीरे हमारे गांव छोटेछोटे नगरों में रूपांतरित होने चाहिए। लेकिन खतरे हैं, वे भी हमें जान लेने चाहिए। एक खतरा है सबसे बड़ा कि कहीं मनुष्य यंत्र से छोटा न हो जाए। कहीं यंत्र मनुष्य की छाती पर न बैठ जाए। नहीं तो भंयकर गुलामी शुरू हो जाएगी। यंत्र का हमें उपयोग करना है, यंत्र हमारा उपयोग न करने लगे। वैसा डर पश्चिम में पैदा हो गया है कि यंत्र आदमी का उपयोग करने लगा है। हम सावधान हो सकते हैं उससे। कहीं ऐसा न हो जाए कि यंत्र मनुष्य की सारी गरिमा और गौरव छीन ले। यह भी हो सकता है, क्योंकि यंत्र इतना कुशल है। उससे प्रतिस्पर्धा मनुष्य नहीं कर पाएगा। यंत्र की कुशलता इतनी बड़ी है कि जो काम हजार आदमी करें, एक यंत्र कर देगा। तो हजार आदमी बेकार हो गए। तो ये बेकार आदमियों की गरिमा खो जाएगी। ये बेकार आदमी कहां जाएंगे, क्या करेंगे? पश्चिम में जितना ही स्वचालित यंत्र बढ
़ते जाते हैं उतना ही सवाल उठता है कि बेकार आदमियों का क्या करना? लेकिन पश्चिम में समझ है। यहां तो काम जो करता है उसको भी तनख्वाह नहीं मिलती, लेकिन पश्चिम के समृद्ध देशों में जो काम नहीं जिसे मिलता है, उसे काम नहीं मिलने की तनख्वाह मिलती है। बेरोजगारी के लिए तनख्वाह मिलती है। क्योंकि वह भी जिम्मा समाज का है। अगर तुमने यंत्रों के हाथ में काम दे दिया और लोगों को काम नहीं मिलता, तो उनको तनख्वाह दो! वे काम करने को तैयार हैं। धीरे-धीरे यंत्र सारा काम सम्हाल लेंगे। तब खतरे बहुत हैं। एक खतरा तो यह है कि आदमी सदियों से काम का आदी रहा है, खाली बैठने की उसे अकल नहीं है। खाली बैठेगा तो उपद्रव करेगा। झगड़े-झांसे करेगा... झंडा ऊंचा रहे हमारा! चले! अब कुछ काम ही नहीं है... । हिंदू, मुसलमान, ईसाई जूझने लगेंगे, झगड़ने लगेंगे, व्यर्थ के विवाद खड़े हो जाएंगे। या लोग शराब पीएंगे। या दिन - दिन भर टेलीविजन देखेंगे, आंखें खराब करेंगे। या वेश्यागामी हो जाएंगे। तो ये खतरे हैं। और ये खतरे रोके जा सकते हैं। सच तो यह है, सदियों-सदियों का सपना पूरे होने के करीब है। अब आदमी के लिए मौका है संगीत सीखे; अब मौका है ध्यान करे; अब मौका है काव्य रचे, मूर्ति गढ़े; अब मौका है सुंदर बगीचा बनाए । तो इसके पहले कि यंत्र मनुष्य से सारे काम छीन ले, हमें आदमी को जीवन का एक नया ढंग और एक शैली देनी होगी। ध्यान उसमें केंद्र होगा। बिना ध्यान के मनुष्य मर जाएगा, यंत्र उसकी छाती पर बैठ जाएगा। ध्यान का अर्थ ही होता हैः खाली बैठने का मजा । पुराने जमानों में कहा जाता थाः खाली मत बैठो, खाली बैठना शैतान का घर है। पुराने जमाने में जो खाली बैठता उसको गाली देनी ही पड़ती, क्योंकि दस आदमी कमाते, मेहनत करते, तब मुश्किल से पेट भरता था। खा
ली आदमी जो बैठता, आलसी होता, उसकी निंदा करनी होती थी। नये भविष्य में जब यंत्र सारा उद्योग हाथ में ले लेंगे तो हमें कहना पड़ेगाः खाली बैठो, खाली बैठना भगवान का मंदिर है। मैं उसी खाली बैठने की कला को सिखा रहा हूं, ध्यान कह रहा हूं उसको। तो ध्यान अनिवार्य होगा। कला के नये-नये आयाम हमें खोल देने चाहिए, जो सिर्फ राजाओं-महाराजाओं को उपलब्ध थे। ठीक, किसी के दरबार में तानसेन था और किसी के दरबार में बैजू बावरा था, लेकिन अब हमें घर-घर में तानसेन और बैजू बावरा को लाना होगा। तो ही आदमी सुखी रह सकेगा। अन्य यंत्र सारा काम कर लेगा, आदमी क्या करेगा! और खाली आदमी खतरनाक हो सकता है। खाली आदमी बहुत खतरनाक हो सकता है। क्योंकि उसके भीतर सदियों-सदियों के दबे हुए रोग पड़े हैं--क्रोध के, घृणा के, ईर्ष्या के, वे उभरने लगेंगे। इसीलिए यंत्र से जो खतरा है, उससे में सावधान करता हूं, लेकिन यंत्र-विरोधी मैं नहीं हूं। यंत्र के पूरे पक्ष में हूं। खतरा यंत्र से नहीं आता; खतरा आता है आदमी की नासमझी से । तो आदमी को समझदार किया जा सकता है। यंत्र का दूसरा खतरा है कि कहीं प्रकृति को यंत्र नष्ट न कर दे। पश्चिम में वह खतरा पैदा हो गया है। ऐसी झीलें हैं जो मुर्दा हो गई हैं, जिनमें मछलियां मर गईं; क्योंकि फैक्टरियों का इतना तेल उन झीलों में पहुंच गया कि उस तेल ने जहर का काम किया। समुद्र तेल से भरे जा रहे हैं। कबीर ने कहा है... वे तो समझे थे उलटबांसी है, उन्हें क्या पता कि आगे क्या हालत होगी! और उन्होंने कहाः "एक अचंभा मैंने देखा, नदिया लागि आगि!" अब लौटो महाराज! तब तुम ऐसा न कहोगे कि एक अचंभा मैंने देखा नदिया लागि आगि। नदियों में आग लग रही है। अब अचंभा नहीं है यह। क्योंकि नदियों में जहाजों का, कारखानों का इतना तेल पहुंच रहा है कि नदियों के ऊपर तेल की तह जम जाती है, उसमें आग लग जाती है। नदियां मर रही हैं, झीलें मर रही हैं। ऐसी झीलें हैं जिनकी सारी मछलियां मर गईं। और वह झील ही क्या जिसमें मछलियां न हों! उन झीलों का पानी पीया नहीं जा सकता, जहरीला हो गया है। समुद्र में लाखों मछलियां मर रही हैं, सिर्फ इसलिए कि बहुत तेल हमारे जहाजों से छूट रहा है। हवा में इतना धुआं फैल रहा है-- कारखानों का, कारों का, हवाई जहाजों का! जंगल काटे जा रहे हैं, पृथ्वी की हरियाली नष्ट होती जा रही है। बस बनते जा रहे हैं कोलतार के रास्ते, और खड़ी होती जा रही हैं सीमेंट की बड़ी-बड़ी आकाश छूती हुई गगनचुंबी इमारतें और शेष सब नष्ट होता जा रहा है। इसलिए सावधान करना भी जरूरी है। लाभ तो बहुत हैं यांत्रिकता के हानियां भी बहुत हैं! और बुद्धिमानी इसमें नहीं है, जैसा गांधी कहते हैं कि यंत्र ही छोड़ दो। गांधी तो कह रहे हैंः न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी। वे तो कहते हैं, यंत्र को ही जाने दो तो खतरा नहीं रहेगा। लेकिन यंत्र के जाने से जो खतरे पैदा होंगे, वे यंत्र के खतरे से ज्यादा बड़े हैं। जरा सोचो तो! बिजली न रह जाए, ट्रेनें न रह जाएं, सड़कों
पर कारें और बसें न रह जाएं, कारखाने बंद हो जाएं, जरा सोचो सात दिन के लिए सब बंद हो जाएं, जैसे विज्ञान रहा ही नहीं, विज्ञान ने जो भी दिया सात दिन के लिए बंद हो जाए, तुम्हारी दुनिया की क्या स्थिति होगी? सात दिन में भस्मीभूत हो जाएगी। सात दिन में सब गिर जाएगा। तीन दिन के लिए अमरीका के कुछ नगरों में बिजली चली गई, तो बड़ी हैरानी का अनुभव हुआ। एकदम लूट-पाट मच गई! अंधेरा हो गया तीन दिन के लिए, रास्तों पर गुंडे ही गुंडे हो गए! ये गुंडे कहां छिपे थे, पता ही नहीं चलता था पहले। बिजली की रोशनी में छिपे थे। अब अंधेरे में मौका मिल गया। बलात्कार हो गए, स्त्रियां चुरा ली गईं, बच्चों की हत्याएं हो गईं, दुकानें ता. ेड डाली गईं; रास्तों पर निकलना खतरनाक हो गया। बिजली चली गई तो जैसे आदमियत चली गई। तुम जरा सोचो, सात दिन के लिए सारा विज्ञान ने जो भी दिया है बंद हो जाए... । तुम एकदम ऐसे भयंकर उत्पात में पड़ जाओगे कि कल्पना भी नहीं कर सकते। एकदम लूटपाट, आदमी का जंगलीपन प्रकट हो जाएगा। गांधी जो कहते हैं, मैं उसके पक्ष में नहीं हूं। विज्ञान ने जो टेक्नालॉजी दी है वह बहुत उपयोगी है। लेकिन आदमी को थोड़ा समझदार होना पड़ेगा। विज्ञान ने टेक्नालॉजी दी है वह अभी ऐसी है, जैसे बच्चे के हाथ में तलवार। आदमी उतने योग्य नहीं है जितना कि विज्ञान ने उसे साधन दे दिए हैं। आदमी की योग्यता बढ़ानी है; उसे ध्यान देना है, उसे शांति देनी है, उसे आनंदमग्न होने की अवस्था देनी है, उसे थोड़ी करुणा देनी है, उसे थोड़ा प्रेम देना है। वही प्रयोग मैं यहां कर रहा हूं, राजकिशोर! उद्योग के बिना तो कोई उपाय नहीं है, विज्ञान के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं है, पीछे लौटा नहीं जा सकता। आगे ही जाना है! लेकिन आदमी को इस योग्य बनाना है कि वह विज्ञ
ान के खतरों से बच सके और विज्ञान का सदुपयोग कर ले। जरूरी नहीं है कि विज्ञान जंगलों को काटे । हमने गलती से काट डाले हैं। विज्ञान ने अब इस तरह की सुविधा जुटा दी है कि अगर हम चाहें तो समुद्र में बस्तियां बस सकती हैं, जंगल काटने की जरूरत नहीं है। समुद्र में बस्तियां तैराई जा सकती हैं। जमीन पैदावार के काम में लाई जा सकती है और बस्तियां समुद्र में तैराई जा सकती हैं। और समुद्र काफी बड़ा है । पृथ्वी का जितना हिस्सा समुद्र के बाहर है, उससे बहुत ज्यादा हिस्सा समुद्र के भीतर है। सारी बस्तियां समुद्र में तैराई जा सकती हैं। अब विज्ञान ने इसके उपाय बता दिए हैं। अब इसमें कोई अड़चन नहीं है। यही नहीं, बस्तियां आकाश में उड़ाई जा सकती हैं- पूरी की पूरी बस्तियां! जैसे बादल तैरते हों आकाश में जमीन पूरी की पूरी उत्पादन में लग सकती है। ये सारे कोलतार के रास्ते और ये बड़े-बड़े भवन, ये सब विदा किए जा सकते हैं जमीन से। ये सब आकाश में उठाए जा सकते हैं, जहां इनसे कोई खतरा नहीं होगा। और पृथ्वी एक सुंदर उपवन हो सकती है--जिसमें तुम उतर सकते हो कभी-कभी आनंद लेने को और फिर वापस जा सकते हो। समुद्र में और आकाश में बस्तियां होंगी भविष्य में जमीन को तो हमें खाली करना पड़ेगा। इतनी बड़ी संख्या के लिए तभी उत्पादन हो सकता है। और अब हम चांद पर पहुंच गए हैं। आज नहीं कल, जो-जो खतरनाक उत्पादन हैं, जिनसे कि विषाक्त होता है वायुमंडल, वे चांद पर हटाए जा सकते हैं। जिनसे वायुमंडल में जहर फैलता है, वे सब चांद पर हटाए जा सकते हैं। चांद पर कोई खतरा नहीं है क्योंकि कोई आदमी नहीं, कोई जानवर नहीं, कोई पशु-पक्षी नहीं। अगर अणुबम बनाना है तो चांद पर बनाओ, जमीन पर बनाने की कोई जरूरत नहीं है। यह सब संभव है--सिर्फ एक चीज की कमी है और वह यह कि मनुष्य की बुद्धिमत्ता को मुक्त करो। मनुष्य की बुद्धिमत्ता पर पुराने बंधन गिराओ; उसकी बुद्धिमत्ता को निखारो, तराशो, धार धरो। उसी महत कार्य में मैं संलग्न हूं। मेरे काम का मूल्य आज नहीं आंका जा सकता, इस मूल्य को आंकने में सदियां लग जाएंगी। तुम मूल्य `को आंकते हो पुराने हिसाब-किताब से कि शंकराचार्य ने ऐसा किया और बुद्ध ने ऐसा किया और महावीर ने ऐसा किया, आप ऐसा क्यों नहीं करते हैं? मेरे लिए वे कोई मापदंड नहीं हैं। जो बीत गया बीत गया। उसका अब कोई मूल्य नहीं है। भविष्य एक बिल्कुल नया भविष्य है-- जिसका बुद्ध को कोई अंदाज नहीं था; जिसकी कबीर को कोई कल्पना नहीं थी। वे उसके संबंध में सोच भी क्या सकते थे! उसके संबंध में कह भी क्या सकते थे! बीसवीं सदी का कोई बुद्ध ही भविष्य के संबंध में कुछ कह सकता है। एक विराट भविष्य हमारे सामने है। अगर हमने नासमझी की तो आदमी आत्महत्या कर लेगा। अगर हमने थोड़ी समझदारी बरती; अगर हम हिंदू, मुसलमान, ईसाई जैसी क्षुद्रताओं से ऊपर उठ गए; अगर हम भारतीय, पाकिस्तानी, चीनी, ऐसी बेहूदगियों से ऊपर उठ गए; अगर हम काले-गोरे की नासमझियों से ऊपर उठ गए -- तो पृथ्वी इतना सुरम
्य स्वर्ग बन सकती है कि हमारी सारी कल्पनाएं फीकी पड़ जाएं! स्वर्ग की जो हमने कल्पनाएं की थीं, वे फीकी पड़ सकती हैं। शक्ति हमारे हाथ में है। समझ अभी हमारे हाथ में नहीं है। राजकुमार, तुमने पूछाः "एक ओर तो आप आधुनिक यंत्र - विधि के पक्ष में हैं और मानते हैं कि धर्म का फूल औद्योगिक दृष्टि से उन्नत देशों में ही खिलेगा।" निश्चित ही! क्योंकि धर्म मनुष्य की सर्वाधिक ऊंची अवस्था है। जीवन में एक क्रमबद्धता है। भूखा पेट हो तो भजन नहीं हो सकता। भूखे भजन न होहिं गोपाला। पहले तो पेट भरा होना चाहिए, शरीर पर कपड़े होने चाहिए, छप्पर होना चाहिए। शरीर की जरूरत पहली सीढ़ी है। जिसकी शरीर की जरूरतें पूरी नहीं हुईं वह ईश्वर की बातें कर सकता है लेकिन ईश्वर का अनुभव नहीं कर सकेगा। उसकी ईश्वर की बातें भी सिर्फ भूखे पेट को भरने की बातें होंगी। उसकी ईश्वर की बातें वैसी ही होंगी जैसे सड़क के किनारे बैठे भिखमंगे की बातें, जो तुमसे कहता है कि दो, भगवान तुम्हें खूब देगा। जो भगवान तुम्हें खूब देगा, वह इसी को क्यों नहीं खूब दे देता? इससे कभी पूछो भी तो कि तू हमारे लिए आशीर्वाद दे रहा है, तू सीधे ही क्यों नहीं मांग लेता? हम तुझे दें, फिर भगवान हमें दे, इतना चक्कर क्यों? इतना सरकारी लालफीताबाजी क्यों? तू उसी से मांग ले सीधा, झंझट खत्म कर ! जब इतना बड़ा दाता है भगवान, तो तुझे ही दे देगा, हम क्यों बीच में आएं? लेकिन वह तुमसे मांग रहा है कि दो मुझे कुछ, वह तुम्हें करोड़ गुना देगा। उसका न तो भगवान सच्चा है, न उसकी दान की बात सच्ची है, वह सिर्फ तुम्हारा शोषण कर रहा है, तुम्हारी धारणाओं का शोषण कर रहा है। और ध्यान रखना, भिखमंगे को जो देता है, भिखमंगा समझता है कि बुद्धू है। खूब बनाया! भिखमंगे आपस में बैठ कर बात करते ह
ैंः किसको बनाया आज, आज किसको फांसा, आज कौन लुटा? जो नहीं देता, भिखमंगा जानता हैः होशियार आदमी है। भिखमंगे के मन में सम्मान उसका है जो नहीं देता उसको, क्योंकि वह देखता है कि मेरी बातों में नहीं आता। लेकिन भिखमंगे तुम्हारे पुराने संस्कारों को जगा लेते हैं। तुम अगर भूखे हो तो मंदिर में जाकर भी मांगोगे क्या? रोटी, रोजी, कपड़ा। तुम जरा मंदिरों में जाकर खड़े हो जाओ चुपचाप और लोगों की प्रार्थनाएं सुनो, लोग क्या मांग रहे हैं? कोई मांग रहा है कि बेटे को नौकरी मिल जाए; कोई मांग रहा है पत्नी की बीमारी ठीक हो जाए; कोई मांग रहा है कि मकान मिल जाए, मकान नहीं मिल रहा है। तुम भगवान से ये चीजें मांग रहे हो! तुम्हारा भगवान से कोई नाता नहीं है। तुम भगवान को नहीं मांग रहे हो; तुम कुछ और मांग रहे हो। शरीर की जरूरतें पहले पूरी होनी चाहिए। शरीर की जरूरतें पूरी होती हैं तो मन की जरूरतें पैदा होती मन की जरूरतें हैंः संगीत, कला, साहित्य । अब जिस आदमी का पेट भूखा है, उससे कहोः पढ़ो कालिदास! कि पढ़ो मेघदूत, कि यक्ष ने मेघदूत से अपनी प्रेयसी के लिए निवेदन भेजा है! वह कहेगा, भाड़ में जाने दो मेघदूत और उसकी प्रेयसी! अगर बादल कोई संदेश ले जाते हों, तो हमारा संदेश भगवान तक पहुंचा देना कि रोटी कब तक आएगी? कल मैं पढ़ रहा था कि बुद्ध के सामने सुजाता ने जाकर खीर की थाली रखी । बुद्ध ने एक कौर खीर का लिया और थू-थू करके थूक दिया। कहा, यह किस तरह की खीर? सुजाता ने कहाः क्या करें महाराज, राशन के चावल हैं। कालिदास, शेक्सपियर, बायरन, रवींद्रनाथ, इनको समझने के लिए शरीर तृप्त, छप्पर हो, बगिया हो, घर में पुस्तकालय हो, वीणा बजाने की सुविधा हो, रात दीया जला कर शांति से बैठ कर पढ़ने का अवसर हो, संग-साथ हो, वैसा वातावरण-माहौल हो, संगति हो, तो मजा है! भूखे पड़े हैं बंबई के रास्ते के किनारे और पढ़ रहे हैं मेघदूत, यह संभव नहीं है । जब मन की जरूरतें पूरी हो जाती हैं तो आत्मा की जरूरतें पैदा होती हैं। जो तृप्त हो जाता है कला से, संगीत से, साहित्य से, उनके मन में ध्यान, प्रार्थना, योग, तंत्र, इन ऊंचाइयों की बातें आनी शुरू होती हैं। ये सीढ़ियां हैं। इसलिए मैं कहता हूं कि धर्म तो जब कोई देश समृद्ध होता है तभी पैदा होता है । यह देश जब समृद्ध था तो धार्मिक था। अब यह देश धार्मिक नहीं है। लाख तुम्हारे शंकराचार्य चिल्लाते रहें। यह देश धार्मिक नहीं है। यह देश अब धार्मिक अभी हो नहीं सकता। पहले इस देश को इसकी मौलिक जरूरतें पूरी होनी चाहिए, तब यह देश धार्मिक हो सकता है। धर्म पश्चिम में ऊगेगा। सूरज पश्चिम में ऊगेगा, पूरब में तो डूब चुका । हमने ही डुबा दिया। हमने ही मूढ़तापूर्ण बातें कर-कर के डुबा दिया, कि संसार में कुछ सार नहीं है, कि सब माया है, कि शरीर में क्या रखा है, यह तो मिट्टी है! हमने इस तरह की बातें कर-कर के जीवन का एक ऐसा निषेध पैदा कर दिया कि उस निषेध का अंतिम परिणाम यह हुआ कि हम दीन हुए, दरिद्र हुए, गुलाम हुए, स
ड़ गए, गल गए। अब इस सड़े-गले देश में धर्म की बात करनी मखौल उड़ाना है, लोगों का मजाक करना है। धर्म तो औद्योगिक रूप से संपन्नता में ही पैदा होगा। तो निश्चित ही मैं कहता हूं कि उन्नत देशों में ही धर्म का सूरज ऊगेगा। और तुमने पूछा हैः "दूसरी तरफ आप पश्चिम की औद्योगिक सभ्यता की विडंबनाओं का बखान भी करते निश्चित ही! अगर मैं नाव की तारीफ करता हूं, तो इसका यह अर्थ नहीं कि नाव के छेदों की भी तारीफ करूं। नाव की तारीफ करता हूं और सचेत करता हूं कि नाव में छेद हों तो उन्हें भर लेना, अन्यथा डूबोगे, तैराने वाली नाव ही डुबाने वाली हो जाएगी। और पश्चिम की नाव में बहुत छेद हैं। नाव तो है उनके पास कम से कम; हमारे पास तो नाव ही नहीं है, छेद का तो सवाल ही कहां उठता है। पहले तो नाव होनी चाहिए, तब छेद हों। पश्चिम के पास कम से कम नाव तो है ! छेद वाली है, छेद भरे जा सकते हैं। लेकिन नाव ही न हो तो क्या खाक भरोगे!
ठीक दाएँ जहाँ 'लर्न इंगलिश विद दीपिशखा क्लासेज' का बोर्ड था और बाएँ 'तीन महीने में वजन घटाएँ' का ऐलान करती होर्डिंग, उसने अपने संस्थान का बोर्ड लगवाया था और यह उसे खासा उत्साहित करता था 'रिलेशनशिप' बढ़ते-बढ़ते दोनों बोर्डों को निगल चुका था। उसकी वर्कशॉप में ज्यादातर युवा होते या अभी-अभी युवावस्था का पड़ाव पार किए प्रौढ़ जिनके प्रेम, शादी, संतान जैसे उलझे रिश्तों में फँसे होने की गुंजाइश हुआ करती। कुछ पहले से ही शादीशुदा लोग होते या फिर जल्दी ही उनकी शादी की संभावना होती। उस दिन जब उस रहस्यमयी महिला का फोन आया तो वह रूटीन कक्षाओं के बाद दिन भर के केस भी सुलझा चुका था। उस दिन के एक केस में एक महिला अपनी शादी के बारह साल बाद अब अपने पति को छोड़कर अपने उस प्रेमी के पास जाना चाहती थी जिसने महिला की शादी के दस साल बाद तक उसका इंतजार किया था। प्रेमी ने दो साल पहले शादी की थी और अब उसकी पुरानी प्रेमिका लौटकर उसके पास जाना चाहती थी। समस्या यह थी कि जब उसका पुराना प्रेमी उससे मिला, जिसने उससे वादा किया था कि वह कभी भी उसके पास लौटना चाहेगी तो वह उसे सारी मजबूरियों के बावजूद अपना लेगा, तो उसने कहा कि शादी ही नहीं दुनिया के सभी रिश्तों से उसका मोहभंग हो चुका है। प्रेमिका का कहना था कि वह अपने पुराने प्रेमी के भीतर जीवन के प्रति आस्था भरना चहती है और यह काम सिर्फ वही कर सकती है। उसने बड़ी मुश्किल से महिला को यह समझाने में सफलता पाई कि दरअसल वह अपने पुराने प्रेमी के पास नहीं जाना चाहती बल्कि अपने पति को छोड़ना चाहती हैं पति को छोड़ने के बाद अगर वह प्रेमी के पास गई तो शर्तिया वह उसे भी कुछ समय बाद छोड़ने की इच्छा जताएगी क्योंकि हर प्रेमी शादी के बाद पति हो जाता है और बिल्कुल ऐसा ही व्यवहार करता है जैसे पतियों के लिए तय मानकों के अनुसार निर्धारित है और भले ही वह उस समय अपनी काउंसलिंग के लिए वह अपनी फीस में डिस्काउंट पा सकती है लेकिन सुप्रीमो ऐसा बिल्कुल नहीं चाहता। (रिलेशनिशप में हर अगली काउंसलिंग में फीस कम हो जाती है।) सुप्रीमो के नाम से जाने जाने से पहले उसका एक सम्मानजनक नाम था जिसका अर्थ था तेजोमय इनसान। उसका नाम बहुत बड़ा झूठ साबित हुआ था इसलिए उसने आत्महत्या को स्थगित करके लौटने के बाद अपने लिए एक नया नाम चुना था जिसके कई अर्थ थे और जो अपमानजनक व सम्मानजनक दोनों ही परिस्थितियों में लागू होते थे। दुनिया के हर रिश्ते में असफल होने के बाद उसने हर कोच की तरह एक सफल रिश्ते निभानेवाले कोचिंग की नींव डाली जो बहुत सफल हो रही थी। रिश्ते कैसे निभाएँ' नाम से शुरू की गई उस कार्यशाला को जब उसने स्थायी संस्थान में बदला तो उसका नाम उसने 'रिलेशनिशप - ए क्वेश्चन टू सॉल्व' रख दिया जो अंग्रेजी में होने के कारण पहले से ज्यादा भीड़ खींचता था। उसके संस्थान में हर तरह के रिश्ते आते थे लेकिन सबसे ज्यादा स्वाभाविक तौर पर प्रेमी प्रेमिका और पति-पत्नी ही आते थे। उसके पास अनुभवों के अलावा कुछ
नहीं था और बाद में उसने जाना कि दुनिया में यही सबसे ज्यादा कीमती चीजें हैं। उन्हें चाहे जैसे प्रयोग कर सकते हैं। उसने इसका व्यवसायिक प्रयोग किया और आजकल शहर में बड़े आदमियों में गिना जाता है। उस रहस्यमयी महिला का फोन जिस दिन आया वह रात में बिस्तर पर लेटा अपनी दूसरी प्रेमिका को याद कर रहा था और संसार के इस झूठ पर मुस्करा रहा था कि पहला प्यार ही सबसे आकर्षक होता है और इनसान इसे जीवन भर नहीं भूलता। हालाँकि उसके दोनों प्रेम संबंधों का हस्र एक ही रहा था पर फिर भी उसे अपनी दूसरी प्रेमिका की याद ज्यादा आती थी। वह दुनिया के इस झूठ पर भी हँसता था कि इनसान सच्चा प्रेम सिर्फ एक बार करता है। वह जानता था कि ऐसा सिर्फ इंसानों को अपने मन पर नियंत्रण करने के लिए अपनाई गई एक बकवास चाल के अलावा कुछ नहीं है। उस महिला ने उससे फोन पर कहा कि वह एक असाध्य बीमारी से ग्रस्त है और उसने आज तक प्रेम नहीं किया। यह बीमारी अनुवांशिक है और उसके खानदान में इससे बचने की लाखों कोशिशों के बावजूद पिछले पाँच सालों में तीन मौतें हो चुकी हैं और वह अपना समय इससे बचने में लगाकर जाया नहीं करना चाहती। डॉक्टरों के अनुसार वह बहुत जल्दी ही मर जाएगी और उसकी यह अंतिम इच्छा है कि वह मरने से पहले किसी से प्रेम करे। वह मरने से पहले अपने अनुभव दुनिया से बाँटना चाहती है और इसलिए प्रेम करके उसके अनुभवों पर एक किताब लिखना चाहती है। वह उस महिला की पागल इच्छा से पहली बार में जरा भी प्रभावित नहीं हुआ। उसे लगा जैसे टीवी में उसे देखकर कई प्रशंसिकाएँ बार-बार फोन कर उसे परेशान करती रहती हैं, यह भी उनमें से एक है। उसने उसे पाँच लगातार दिनों तक दस से अधिक बार मना किया कि वह उसे दुबारा फोन न करे क्योंकि उसका काम न प्रेम कराना है न ही किताब
लिखवाना। वह किसी ऐसे इनसान की तलाश करे जो उसकी तरह की महिलाओं को पसंद करता हो और अगर प्रेम का रिश्ता निभाने में कोई दिक्कत आती है तब वह उसे निस्संकोच संपर्क करे। वह कुछ प्रकाशन संस्थानों से बात करे और उन्हें इस बात पर राजी करे कि वह उसका शोधग्रंथ छाप दें। उसकी दोनों प्रेमिकाओं ने उससे बहुत टूट कर ठीक उसी तरह उससे प्रेम किया था जिस तरह उसने। वह हर दिन बदलता था क्योंकि हर दिन उसकी उम्र का एक दिन कम होता जाता था पर प्रेमिकाओं को यह बिल्कुल पसंद नहीं था। वह उसे हर रोज उतना ही फ़्रेश और ताजा चाहती थीं जितना वह एक दिन पहले था। वे खुद महीने में एक हफ्ता बुरी तरह डिप्रेशन और चिड़चिड़ेपन का शिकार हो जातीं जो उसे अपनी गलती की तरह झेलना पड़ता मगर उसे रोज एक ही तरह ताजा रहना था। 'अगर आप अपने सेक्रेटरी का नंबर दें तो मैं उनसे कल के लिए समय ले लूँ।' महिला ने मीठी आवाज में कहा था। 'मेरा कोई सेक्रेटरी नहीं। मैं अपने सारे काम खुद करता हूँ। आप अपनी समस्या बताइए। अगर मेरे लायक कुछ हुआ तो मैं आपको जरूर समय दूँगा।' उसने टालनेवाले अंदाज में कहा था। उसकी पिछली जिंदगी, जिसमें वह अकेले दौड़ने पर भी सेकेंड आया करता था, उसके सामने फि़ल्म के कुछ दृश्यों की तरह खुलती थी। सारे दृश्यों को मिलाकर एक धूसर रंग की फिल्म बनती थी और हर बार कलाकार चाहें अलग-अलग हों, उसका क्लाइमेक्स तय था। हर फि़ल्म के अंत में खुद को फि़ल्म का नायक मान रहा व्यक्ति आत्महत्या करने पहुँचता था। फि़ल्म के एक दृश्य में खुद को नायक समझनेवाला व्यक्ति अपने घर में कई बातों को लेकर प्रताड़ित किया जा रहा है। यह प्रताड़ित किया जाना ऐसा है कि किसी को दिखाई नहीं देता, इतना सूक्ष्म कि कभी-कभी तो नायक को भी नहीं। उसके दोनों बड़े भाइयों से हमेशा उसकी तुलना की जाती है और वह हर बार ऐसा महसूस करता है कि अब इससे ज्यादा किसी का अपमान किया जाना मुमकिन नहीं लेकिन अगली बार वह गलत साबित होता है। घर का छोटा बेटा होने के कारण वह शुरू से माँ-बाप का दुलारा था पर पिता की मौत के बाद माँ अचानक बदल गई। उसने करीब जाकर माँ को पहचानने की कोशिश की तो पाया कि वह अपने अस्तित्व को बचाने का संघर्ष कर रही थी। भाभियाँ वैसे तो अच्छी थी पर उन्हें इस बात पर विश्वास नहीं होता था कि कोई पूरी मेहनत से नौकरी खोजे तो उसे क्यों नहीं मिल सकती। वे मेहनत की पुरातन परिभाषा से इस तरह से चिपकी थीं जिस तरह वह ईमानदारी नाम के झूठे और हास्यास्पद विशेषण से। ईमानदारी एक ऐसा शब्द था जो सुनने में बहुत मीठा और नमकीन लगता था और खाना खाने के बाद इसका जाप करने से भोजन पचाने में सहायता मिलती थी। इस शब्द के प्रयोग से अच्छे निबंध लिखे जा सकते थे और बच्चों को डराया और बोर किया जा सकता था। खाली पेट रहने पर अजीर्ण की शिकायत होने पर भी इस शब्द को प्रयोग किया जा सकता था और कई वैद्यों ने इसकी तगड़ी अनुशंसा की थी। कुछ लोगों को इसका जाप करने का नशा भी था और कुछ ऐसे भी लोग थे जो इसे अपने घर
के उस सदस्य की तरह मानते थे जिसकी अरसा पहले मौत हो चुकी हो और उसकी बरसी भी धूमधाम से मनाते थे। एक दृश्य में उसकी प्रेमिका उसे सिर्फ इसलिए छोड़ रही है कि उसे अचानक पता चल गया था कि वह अब भी, उस बला की खूबसूरत लड़की के उसके जीवन में आ जाने के बावजूद ईश्वर को नहीं मानता। पहले अगर नहीं मानता था तो कोई बात नहीं थी, लेकिन अब जबकि वह लड़की उसकी प्रेमिका बनकर उसके जीवन में आ गई है, उसे ईश्वर की सत्ता में विश्वास हो जाना चाहिए, ऐसी लड़की की दृढ़ मान्यता थी। वह बहुत कोशिश करके भी ऐसा नहीं कर पाया। वाकई उस लड़की का उसके जीवन में आना एक असाधारण और स्वप्न के सच होने सरीखी आश्चर्यजनक घटना थी और इसके लिए वह वाकई किसी का, किसी का भी शुक्रगुजार होना चाहता था। वह पेड़ों, नदियों, बादलों, हवाओं और सूरज का आभार प्रकट करना चाहता था। किसी ईश्वर के अस्तित्व को मानने के लिए उसके अंदर से आवाज उसी तरह नहीं आती थी जिस तरह से तमाम दर्द और परेशानियों के बावजूद सिगरेट छोड़ने की नहीं आती थी। वह यह भी जानता था कि जिस दिन अंदर से आवाज आई वह तुरंत छोड़ देगा। 'मैं ईश्वर से आजादी चाहता हूँ', यह उसने अपनी प्रेमिका के उस सवाल के जवाब में कहा था जब उसने पूछा था कि उसका सपना क्या है। बाद में उसे सोचने पर कभी विश्वास नहीं होता कि उस घोर आस्तिक प्रेमिका से उसके अलगाव का कारण उसका यह एक वक्तव्य बना था। अलगाव के बाद उसे पता चला कि दरअसल उसकी प्रेमिका का मकसद उससे प्रेम करना नहीं था बल्कि उसे अपनी तरह बनाना था। वह आज तक नहीं समझ पाया कि उसके वक्तव्य के बदले उसकी प्रेमिका ने जो वक्तव्य दिया था, उसका अर्थ क्या था, सिवाय इसके कि वह खुद को ईश्वर मानती थी। पार्क के एक अँधेरे कोने में बैठ कर पीने का उसका एक ही मकसद था कि मरने
से पहले इतना पी ले कि मरते वक्त दर्द का एहसास न हो। मरना मुश्किल काम है, यह पहला पैग जज्ब होते ही उसे समझ में आ गया था। उसने ढेर सारी सिगरेटें पीं और उनका धुआँ बाहर नहीं निकाला। उसने अँधेरे से खूब बातें कीं और उसे बताया कि वह हमेशा से उससे प्रेम करता है। अँधेरे ने उससे कहा कि वह खूब पीए और उसकी बाँहों में खुद को ढीला छोड़ दे। उसने अँधेरे से कहा कि उसे कई बार लगता है कि दुनिया में उसके कई हमशक्ल घूम रहे हैं और उनके कारण वह हर बार असफल हो जाता है। काम वह करता है और क्रेडिट कोई और ले जाता है। अँधेरे ने कहा कि असफलता मात्र एक शब्द है और उसका कोई अर्थ नहीं होता। एक काँपती परछायीं अचानक उसके सामने आ खड़ी हुई तो वह एकबारगी डर गया। फिर उसे हँसी आई, अब किसी से क्या डरना। सामने मैले कुचैले फटे पुराने कपड़ों में एक भिखारीनुमा आदमी खड़ा था। 'कौन हो तुम...?' उसने सिगरेट का धुआँ अंदर खींचते हुए पूछा था। वह उस बकवास से ऊबकर अपनी बची हुई शराब का अंतिम पैग पीने लगा। उसने उसकी बातों पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया। 'तुम पागल हो और मैं पागलों से बहस कर अपना मूड खराब नहीं करना चाहता।' उसने अंतिम सिगरेट जलाई। इस बार वह मुस्कराया। भुवन ने सिगरेट लेने के लिए उँगलियाँ आगे बढ़ाईं तो उसने उसे सिगरेट थमा दी। उसने उसे सारी बातें कह सुनाई जो उसकी जिंदगी में इस तरह हुई थीं जैसे उनका होना उसकी गलतियों से निश्चित था और इसमें उसकी कोई गलती नहीं थी। 'घर, परिवार, दोस्ती, प्रेम हर रिश्ते में असफल होने के बाद तुम मरकर क्या यह साबित करना चाहते हो कि इन रिश्तों में अगर तुम सफल हो जाते तो नहीं मरते...?' भुवन ने पूछा। वह कुछ नहीं बोला। भुवन उससे पूछता रहा। वह चुप रहा। वह उसे चुप रहने की आखिरी सीमा तक ले आया और वहाँ से धक्का दे दिया। बदले में भुवन ने एडिसन और बल्ब जैसा कुछ बुदबुदाते हुए अपनी जेब से कुछ पैसे निकाले। दोनों थोड़ी देर के लिए खामोश हो गए। थोड़ी देर तक भुवन चुप रहा। उसके बाद उसने दूर पड़ी एक नारियल का खाली खोखड़ की तरफ इशारा करते हुए उसे कहा, उसे ले आने के बाद भुवन ने उसमें पास के गड्ढे से पानी लाकर भर दिया। अचानक उसने उसका सिर पकड़ा और उस छोटे खोखड़ में उसकी नाक घुसा दी। खोखड़ के किनारे से उसकी नाक छिल गई। उसने प्रतिरोध किया। उसने प्रतिरोध करना छोड़ दिया और खुद को भुवन के हवाले कर दिया। उसने अपनी साँस रोक ली और उस पानी में कुछ देर बाद उसका दम घुटने लगा। उसने पूरी ताकत से अपनी साँस को रोक रखा था। ऐन उस वक्त जब उसका दम निकलनेवाला था और उसे अपनी मौत सामने नजर आ रही थी, भुवन ने उसका सिर पानी से बाहर खींच लिया। वह बुरी तरह हाँफ रहा था। भुवनेश्वर ने उसे गौर से देखा। उसने भुवन से कहा कि वह एक प्रयास और करेगा पर पता नहीं क्यों उसे लगता है कि उसे फिर जल्दी ही यही काम करने यहीं आना पड़ेगा। वह अपना शहर छोड़ कर दूर एक अनजान शहर चला गया। वहाँ कुछ दिनों भटकने के बाद उसे एक काम मिल गया। वहाँ से कुछ दिन का
म कर कुछ पैसे बनाने के बाद उसने एक प्रयोग के तौर पर एक हफ्ते के लिए अपनी कंपनी में ही 'रिश्ते कैसे निभाएँ' नाम की कार्यशाला शुरू की थी जिसने उसकी तकदीर बदल दी। उस महिला का नाम अप्रतिममाधुरी था और वह अपने नाम की तरह ही अजीब थी। जब वह उससे मिलने आई तो आते ही उसने सबसे पहला सवाल यही पूछा कि क्या उसने किसी से प्रेम किया है। वह हँसा क्योंकि वह इस सवाल का मतलब कई जन्मों से खोज रहा था। वह आई और वह उसके प्रवाह को रोक नहीं पाया। लगा सब कुछ पहले से तय था और वह इस घटनाक्रम का एक छोटा सा हिस्सा था। उससे मिलने में उसे जरा भी रुचि नहीं थी मगर जब मिला तो पाया कि वह उसके साथ समय बिताने लगा है। एएम जैसा नॉनरोमांटिक नाम रखे जाने के बावजूद वह जरा भी हतोत्साहित नहीं हुई। वह हर रोज सुप्रीमो के साथ घंटो बैठती और दुनिया की उन तमाम चीजों पर बारहा बहस करती जो न तो उसकी जिंदगी में आई थीं और न ही कभी आने की उम्मीद थी जैसे अमेरिका का राष्ट्रपति चुनाव, प्रियदर्शन की फि़ल्मों की गिरती क्वालिटी, सचिन के बैट का वजन, धार्मिक चैनलों की प्रासंगिकता, बरमूडा ट्राएंगल का रहस्य आदि। उसने एक तरह से सुप्रीमो की अवैतनिक सेक्रेटरी का काम सँभाल लिया था। ऑफि़स में काम तो ज्यादा था ही, सुप्रीमो को आराम मिलने लगा तो उसके मन में अप्रतिम के लिए झल्लाहट कुछ कम हो गई। कुछ समय बाद उसे लगने लगा कि उसकी बातें भले बेसिर-पैर की हों, बोर करनेवाली नहीं हैं। उनसे अच्छा खासा टाइम पास किया जा सकता है। खासतौर पर उन अभ्यर्थियों से जो हर इतवार अखबार में विज्ञापन पढ़कर विवाह प्रस्ताव लेकर आ जाते हैं। सुप्रीमो इतवार की अपनी छुट्टी मजे से उनका साक्षात्कार लेने में गुजार देता था और सारे अभ्यर्थियों के चले जाने के बाद दोनों उनकी चर्चा कर घंटों
हँसते रहते थे। आवश्यकता है एक ऐसे इनसान की जिसकी जिंदगी में हवा से ज्यादा प्रेम हो। जो मानता हो कि प्रेम से पेट भी भर सकता है। एक ऐसी महिला को अपने लिए प्रेमी की जरूरत है जिसके अंदर ढेर सारा प्रेम भरा हुआ है। तलाश है एक ऐसे इनसान की जो इतना प्रेम सँभाल सके...। जो पिछले एक वर्ष में कभी किसी चिड़िया की मौत पर रोया हो, किसी तितली को पानी में से निकालकर उसके पंख सुखा उड़ने में मदद की हो, किसी दूसरे के सफल होने पर जिसकी आँख भर आई हो...। 'तुम इनसे शादी क्यों करना चाहते हो यह जानते हुए भी कि इनकी जिंदगी सिर्फ चंद महीने ही बची है?' इस एक मासूम सवाल के एक से एक मनोरंजक जवाब आते। 'मैं मैडम को इनके अंतिम दिनों में प्रेम देकर यह साबित करना चाहता हूँ कि दुनिया से प्रेम अभी खत्म नहीं हुआ है।' एक निरीह से प्राणी ने लगभग गिड़गिड़ाते हुए अपना प्रेम प्रस्ताव प्रस्तुत किया। वह फूट पड़ी, 'मुझे नौकर नहीं चाहिए रामू, भागो यहाँ से...।' रामू बोलते ही उसका गुस्सा अचानक हँसी में बदल गया और उसको इतना अचानक रंग बदलते देख वह भी हँस पड़ा। एक बूढ़ा आया जिसे देख कर यह साफ था कि इसके पेट में आँत और मुँह में दाँत न्यूनतम जरूरत पूरी करने तक ही बच पाए थे पर उसके जज्बात बहुत ताकतवर थे। उसने कहा कि वह बच्चों से बहुत प्यार करता है। उसकी इच्छा थी कि वह अप्रतिम से विवाह कर बच्चे पैदा करे और अप्रतिम के चले जाने के बाद उन बच्चों को अपने प्रेम की निशानी मानकर बाकी की जिंदगी, जो कि वास्तव में बहुत कम बाकी थी, बिताए। दो ऐसे भी लड़के आए जो आज तक हर काम साथ करते आए थे। वे चाहते थे कि वे दोनों मिलकर उससे विवाह करें क्योंकि दोनों मिलाकर ही एक पूरे इनसान जैसे नजर आते थे। उनकी समस्या विकट थी। उन्हें अपने मेलजोल पर घरवालों के दिनोंदिन बढ़ते जा रहे ऐतराज के मद्देनजर अपनी-अपनी जिंदगियों में एक लड़की की व्यवस्था करनी थी। उन्होंने कहा कि वे हफ्ते में आधा-आधा वक्त अप्रतिम को अपने साथ रखना चाहते हैं ताकि उनके घरों में उनकी छवि साफ रह सके। वे दोनों भौंचक रह गए। ऐसा भी हो सकता है, उन्हें भनक भी नहीं थी। एएम पहले तो रविवार को साक्षात्कार लेती, पूरा सोमवार हँसती, मंगलवार को अचानक संजीदा हो जाती और बुधवार को इसे याद कर उसके सामने रोती और कहती कि उसे लोगों की भावनाओं से खेलने का कोई हक नहीं है। वह समझ नहीं पाता था कि एएम की समस्या क्या है। वह उसकी हालत देखकर अपने भीतर झाँकता और धूसर रंग के दृश्यों में खो जाता। रिश्ते इस दुनिया का सबसे बड़ा झूठ हैं और सबसे बड़ा आकर्षण। अचानक मेरे आसपास की भीड़ बहुत तेज भागने लगती है और मैं सिर्फ चुपचाप खड़ा रह जाता हूँ। सब मुझे कुचलते रौंदते मेरे बीच से निकलकर कहीं न कहीं भागने लगते हैं और मैं शरीर पर बिना कोई चोट खाए ये सोचने लगता हूँ कि अभी थोड़ी देर पहले मैं कहाँ भाग रहा था। मुझे भी भागना है और अगर मैं तुरंत नहीं भागा तो मेरा बहुत कुछ छूट जाएगा। मैं अपनी कँपकँपाती टाँगों से भागने लगत
ा हूँ और भागते-भागते मेरे मन में कोई भूला सा खयाल परेशान करता हुआ पूछता है कि भागते हुए मैं जो छोड़ता जा रहा हूँ उसका नाम क्या है ? क्योंकि हम ही रखते हैं उन्हें...।' उसने सरल भाव से कहा। सुप्रीमो धीरे-धीरे अप्रतिम के लिए सचमुच चिंतित होने लगा था। पहले उसका सोचना था कि अप्रतिम को किसी भी ठीकठाक लड़के के साथ जोड़ दिया जाय लेकिन अब उसे लगने लगा था कि अगर यह लड़का गलत निकल गया तो? अगर फलाँ लड़का बाद में चरित्रहीन निकल गया तो? अप्रतिम प्रेम पर जो किताब लिखना चाहती है उसके लिए निहायत जरूरी है कि वह उसे किसी ऐसे हाथ में सौंपे जो बिल्कुल सुरक्षित हो। वह किताब लिखे तो ऐसी कि दुनिया का प्रेम पर विश्वास कायम रह सके। उसे अपने पर फिर कोफ्त हो आई। वह बार-बार ऐसा क्यों सोचने लगता है? उसे क्या जरूरत है किसी के लिए इतनी चिंता करने की और वह भी किसके लिए? एक ऐसी लड़की के लिए जो प्रेम पर किताब लिखना चाहती है? एक ऐसी चीज पर जो दुनिया का सबसे खौफनाक झूठ है... सभी रिश्ते झूठ हैं और इनका सरताज है प्रेम। उसने तय किया अब भी उसकी भावनाएँ कभी-कभी जोर मारती हैं जिसका निष्कर्ष उसने यह निकाला कि चूँकि यह दुनिया का सबसे मजबूत जाल है, कभी-कभी इसकी ओर खिंचाव हो जाना स्वाभाविक है। कल से वह अपने ध्यान की अवधि को बढ़ाएगा। उसकी खुद से इस दौरान रोज ही मुलाकात होने लगी। वह इस तथ्य पर अटल था कि एक आम आदमी बनकर जीने में कोई मजा नहीं। वही पुराने रिश्ते, वही एक तयशुदा एडवेंचर, नहीं उसकी जिंदगी ठीक है। उसे इस जमीन के मियादी रिश्ते नहीं चाहिए। उसने टीवी बंद कर दिया। उसकी नजर अपने आप एएम के कमरे की तरफ चली गई। उसके कमरे की लाइट जल रही थी। उसने खुद अपना मुँह सूँघने की कोशिश की तो उसे लगा कि शराब की महक के अलावा भी कोई महक
उसकी साँसों में शामिल हो रही है। 'हाँ-हाँ क्यों नहीं आइए।' एएम अपने बिस्तर पर लैपटॉप पर कुछ कर रही थी। वह सीधी होकर बैठ गई। 'क्या कर रही थी?' उसने एक तरफ बैठते हुए पूछा। उसने लैपटॉप सुप्रीमो की तरफ मोड़ दिया। सुप्रीमो ने कुछ देर तक स्क्रीन पर निगाहें जमाए रखीं। उसके चेहरे के भाव बदलने लगे। 'क्या तुम्हारा कोई ब... ब... ब्वायफ्रेंड है?' उसने लड़खड़ाती जबान में पूछा और उसी वक्त उसे लगा कि शराब की महक आने से और ब्वायफ्रेंड जैसे बाजारू शब्द को इस्तेमाल करने से उसकी बात को कहीं हल्के में न ले लिया जाय। 'नहीं... आप तो जानते ही...।' एएम ने आराम से मुस्कराते हुए जवाब दिया। एएम उसका चेहरा देखती रही। 'प्रेम में बहुत नंगी बातें होती हैं।' उसकी उँगलियाँ लैपटॉप पर फिसलने लगीं। उसने कुछ लाइनें लिखीं और उन्हें सेलेक्ट कर बोल्ड कर दिया। - प्रेम का सबसे बड़ा आश्चर्य है कि जिसके बिना जीने की एक वक्त कोई सूरत नहीं होती, हम उसके बिना भी जी लेते हैं। - प्रेम में हम हर रोज किसी अंतिम निष्कर्ष पर पहुँचते हैं। - प्रेम में कोई भी निष्कर्ष अंतिम नहीं होता। - प्रेम में हम सबसे ज्यादा उदार होते हैं और सबसे ज्यादा क्रूर। - पूरी दुनिया में आज तक प्रेम की कमी से किसी की मौत नहीं हुई। - इनसान को प्रेम की कोई जरूरत नहीं लेकिन बाजार ने इसे उसके लिए अपरिहार्य बना दिया है। - प्रेम इनसान को उसके वास्तविक स्वरूप से दूर ले जाता है। एएम उसके पास आई तो उसे लगा एक मीठे पानी की नहर उसे छू गई। उसका शरीर एक बार जोर से काँपा और उसे याद आया कि उसे बहुत देर से पेशाब लगी है। वह बिना कुछ बोले निकल गया। अपनी राह पर अकेले चलते-चलते मुझे अचानक कभी-कभी लगने लगता है कि मेरे साथ कोई और भी चल रहा है। अब चूँकि मुझे ऐसी आदत नहीं रही है और मैंने हमेशा अकेला रहने का चुनाव किया है, मुझे अजीब लगता है। मैं यह यकीन से नहीं कह सकता कि मुझे अच्छा लगता है या खराब। - मैं समझ सकती हूँ। - यही तो दिक्कत है कि तुम कुछ नहीं समझ सकती क्योंकि मैं खुद ही नहीं समझ पा रहा हूँ। - जरूरी है कि तुम्हारे समझे बिना मैं कुछ न समझूँ? ये उसी तरह है न कि जेब में मोबाइल के वाइब्रेट करने का भ्रम हो, तुम हाथ जेब में डालो तो पता चले कि मोबाइल तो आज घर पर ही छूट गया। - एह...।' वह चुप हो गया। चीजें उसके आस-पास बदल रही थीं, उसके बाहर बदल रही थीं और उसके भीतर बदल रही थीं। वह पूरी ऊर्जा से उन्हें बदलने से रोक रहा था। हालाँकि उसे कारण नहीं पता था कि वह इन बदलावों को क्यों नहीं होने देना चाहता। यह रोकना कुछ ऐसा था कि किसी लड़के की दाढ़ी मूँछें उग रही हों और वह उन्हें रोकना चाहे। उसने पाया कि वह कभी-कभी किशोरों की तरह फि़ल्मी गीत गुनगुनाने लगा है। उसे कभी खुद पर झल्लाहट होती और अगले ही पल वह खुद को शीशे में देखकर सोचने लगता कि अड़तीस की उम्र में भी वह पैंतीस से ज्यादा का नहीं लगता... ज्यादा से ज्यादा छत्तीस... तो क्या... वह भी तो करीब बत्तीस की होगी ही...
। उसकी झल्लाहट कभी-कभी हद से पार हो जाती तो वह रिश्तों के जाल पर अपनी लिखी कोई किताब पढ़ने लगता। इससे भी हारता तो डायरी लिखने लगता। - लगता है जिंदगी फिर से मुझे अपने जाल में जकड़ रही है। जिंदगी की पकड़ में आने का मतलब है मौत के लिए तैयार रहना, ठीक उसी तरह जैसे किसी रिश्ते को शुरू करने का मतलब है उसके खात्मे के लिए तैयार रहना। किसी रिश्ते की शुरुआत की बात करते वक्त मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि आखिर मैं किस रिश्ते की बात कर रहा हूँ और यह जानना ही मेरे डर का कारण है। मैं जानता हूँ कि मैं निराशावादी इनसान हूँ और यही मेरी सफलता का कारण रहा है। मैं अच्छे दिनों का सुख कभी नहीं उठा पाता क्योंकि उस समय लगातार मेरे मन में यह चलता रहता है कि ये एक दिन खत्म हो जाएँगे। मैं क्या करूँ...? उसकी वर्कशाप में आनेवालों की संख्या बढ़ती जा रही थी। अब इनमें काफी विदेशी भी आने लगे थे जो उसकी ख्याति से प्रभावित होकर अपने रिश्तो की जटिलताओं का समाधान खोजने आ रहे थे। वह उनकी समस्याओं को सुलझा रहा था और अपनी समस्या में उलझता जा रहा था। मगर अब वर्कशॉप में कुछ बदल रहा था। उसके विचार एक रिश्ते को लेकर बदल रहे थे। कुछ नियमित लोग जो अपने कई प्रकार के रिश्तों को लेकर अक्सर भ्रमित रहा करते थे, उसके स्थायी विद्यार्थी थे। वे इन बदलावों को नोट कर रहे थे। 'जब प्रेम तुम्हें अपनी ओर बुलाए तो उसका अनुगमन करो हालाँकि उसकी राहें विकट और विषम हैं। जब उसके पंख तुम्हें ढक लेना चाहें, तो तुम आत्मसमर्पण कर दो, भले ही उन पंखों के नीचे छिपी तलवार तुम्हें घायल करे। ...और जब वह तुमसे बोले तो उसमें विश्वास रखो, भले ही उसकी आवाज तुम्हारे स्वप्नों को चकनाचूर कर डाले, जिस तरह झंझावात उपवन को उजाड़ डालता है। ...क्योंकि प्रेम जिस तरह त
ुम्हें मुकुट पहनाएगा उसी तरह सूली पर भी चढ़ाएगा। जिस तरह वह तुम्हारे विकास के लिए है, उसकी तरह तुम्हारी काट-छाँट के लिए भी। अनाज की बालियों की तरह वह तुम्हें अपने अंदर भर लेता है। तुम्हें नंगा करने के लिए कूटता है। तुम्हारी भूसी दूर के लिए तुम्हें फटकता है। तुम्हें पीसकर श्वेत बनाता है। तुम्हें नरम बनाने तक गूँथता है। ...और तब तुम्हें अपनी पवित्र अग्नि पर सेंकता है जिससे तुम प्रभु के पावन थाल की रोटी बन सको। उसने पाया कि प्रेम में चोट खाए लोग इस तरह की बातों पर सहमत नहीं होते। क्या वे सचमुच प्रेम में ही थे। उसे पहली बार लगा कि प्रेम से मिलते जुलते बहुत सारे रिश्ते आजकल चलन में हैं जो प्रेम का आभास या कहें धोखा देते हैं। उनसे चोट खाकर यह प्रवचननुमा क्लास लेना क्या उसी तरह नहीं है जैसे खासे बुखार के बाद पैरासीटॉमॉल की जगह डाइजीन खाना? जो बर्न इंजरीवाले लोग नहीं उन्हें बरनॉल क्यूँ लगाना। 'देखो तुम्हारे चक्कर में मैं सोच भी दवाइयों की भाषा में रहा हूँ।' उसने अभिभूत से मुस्कराते हुए कहा जिससे उसकी मुलाकात एक डॉक्टर के यहाँ हुई थी। वह एक मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव था और उसके चेहरे से पता नहीं क्यों यह झलकता था कि उसके साथ जो लड़की रहेगी वह हमेशा खुश रहेगी। सुप्रीमो ने कुछ समय पहले उससे एएम के बारे में बात की थी और आज वह अचानक ही चला आया था, मन में एएम से मिलने की इच्छा लेकर। काफी देर तक वह उसे अपनी लाइन की मजबूरियाँ बताता रहा जैसे डॉक्टर बिना महँगे गिफ्ट लिए दवाइयाँ लिखते ही नहीं और कुछ बड़े एमआर बड़े ऑर्डर पाने के लिए अपनी बीवियों को डॉक्टर्स के पास भेजते हैं। वह जान बूझकर बीवी का जिक्र ले आया और बोला कि अगर उसकी शादी हो जाय तो वह कभी अपनी बीवी को किसी डॉक्टर के पास नहीं भेजेगा चाहे वह भगवानदास अस्पताल का डॉक्टर खुराना ही क्यों न हो। खाना अप्रतिम ने बनाया और परोसा भी। स्वाद और परोसने दोनों में सबसे ज्यादा आकर्षित करनेवाली बात थी प्रेम और स्नेह। एमआर खाता रहा और भद्दी नजरों से एएम की ओर देख कर तारीफ करता रहा। वह बार-बार दाल की माँग करता और एएम जब उसके पास जाकर थोड़ा झुक कर दाल देती तो उसके गले की गहराइयाँ देखता हुआ वह अचानक कह उठता - 'बस बस, अब नहीं।' मगर फिर थोड़ी देर बाद फिर दाल की या सलाद की माँग उठाता। 'खाना कैसा लगा ?' एएम को जैसे इन सबसे कोई मतलब ही नहीं था। वह उसी उत्साह से सुप्रीमो को चपातियाँ परोसती एमआर की तरफ मुखातिब हो पूछ बैठी। 'बहुत शानदार। बिल्कुल आपकी तरह...।' वह बेशर्मी से बोला। सुप्रीमो आश्चर्य में था। उसे पहले लगता था कि यह युवक बहुत शालीन और सभ्य है मगर आज उसके मजाक उसके भीतर आग पैदा कर रहे थे। 'सबसे अच्छा क्या लगा आपको...?' एएम ने मुस्कराते हुए पूछा। 'सबसे अच्छा तो लगा आपका इतने प्यार से झुक झुककर परोसना। खाने का स्वाद दुगुना हो गया।' वह हँसता हुआ बोला। एएम भी उसकी हँसी में शामिल हो गई। दोनों हँसने लगे। हँसी की आवाजे धीरे-धीरे उसके कान से दिमाग म
ें गूँजने लगीं। अचानक वह खाना छोड़ उठ खड़ा हुआ। 'क्या हुआ...?' एमआर हैरानी में था। 'बाहर निकलो। मेरे सामने से हटो वरना मैं कुछ कर बैठूँगा...।' वह आखिरी लाइन कुछ इस आवाज में चिल्लाया कि एमआर डर गया और अपना हाथ पास पड़ी नैपकिन में पोंछ, अपना बैग उठा निकल गया। सुप्रीमो पास रखी कुर्सी पर निढाल सा टेढ़ा हो गया। उसने एमआर की दी हुई दवाइयों में से एक सरदर्द की गोली खाई और सोफे पर ही ढेर हो गया। उसकी इच्छा थी कि एएम उसके पास आकर उसका मूड खराब होने का कारण पूछे और उसे समझाए कि छोटी-छोटी बातों पर अपना मूड खराब नहीं करना चाहिए लेकिन वह जब चुपचाप अपने कमरे में चली गई तो उसे अपनी कार्यशाला में अक्सर दोहराई जानेवाली बात याद आई - दुनिया में किसी रिश्ते से कोई भी अपेक्षा उसके खत्म करने की शुरुआत है। उसे लगा उसकी जिंदगी में शतरंज की बिसात की तरह काले और सफेद घर बने हैं और वह कभी काले घर में चला जाता है और कभी सफेद घर में। शायद उससे खेलनेवाला यह भी भूल गया है कि जब उसने खेलना शुरू किया था तो उसकी गोटियाँ किस रंग की थीं। 'मेरी किताब आधी से ज्यादा पूरी हो चुकी है।' एक दिन एएम ने उसे अचानक ही बताया तो वह निराश सा हो गया। 'हाँ।' अद्भुत आत्मविश्वास भरे उत्तर से वह थोड़ा सहम सा गया पर उसने हार नहीं मानी। पहली बार किसी ने सुप्रीमो की बात काटी थी। वह हतप्रभ था और उसे आराम से अपने कमरे में जाते देखता रहा। जैसे-जैसे उसकी जिंदगी ढलान पर जा रही है, मुझे एक अजीब से डर ने जकड़ लिया है। वह आजकल बहुत कमजोर दिखती है। उसके बाल पहले भी काफी कम थे मगर पिछले कुछ समय से तो अजीब तरीके से उड़ते जा रहे हैं। हालाँकि वह हमेशा दुपट्टे से सिर ढक कर रहती है मगर जब कभी उसके सिर से दुपट्टा जरा भी हटता है तो मैं अपनी आँखें फे
र लेता हूँ। वह बहुत कमजोर हो गई है। ऐसी बीमारी उसे वाकई है, मुझे अब भी विश्वास नहीं होता। उसकी दवाइयाँ उसके साथ हँसी खेल कर रही हैं। मगर अब भी वह हर दूसरे रविवार को विज्ञापन जरूर निकलवाती है। मैं बहुत मना करता हूँ कि अब उसे साक्षात्कार लेने नहीं बैठना चाहिए लेकिन वह नहीं मानती और दो दिन खूब हँसती है और दो दिन खूब रोती है। मुझे तो लगता है ज्यादा हँसना और ज्यादा रोना भी उसके लिए खतरनाक ही होगा। शाम को डॉक्टर के यहाँ जाना है। देखते हैं क्या बताता है। 'मैं मर जाऊँगी तो तुम्हें मेरी याद आएगी?' सुप्रीमो को उसका तुम पुकारना बहुत भला लगता था। आजकल वह ऐसे-ऐसे सवाल करती थी कि उसे सँभालना एक बच्चे को सँभालने से भी ज्यादा कठिन हो जाता था। वह ऐसे सवालों पर चुप रह जाता था। मन में बहुत कुछ आता था लेकिन बरसों तक चुप रहने के अभ्यास ने उसे अब थोड़ा संकोची बना दिया था। बादलों से खाली हो चुकी एक शाम को जब वह डॉक्टर के यहाँ से उसे बिना बताए बोझिल कदमों से वापस आ रहा था, उसने आसमान में दो इंद्रधनुष देखे। दोनों इंद्रधनुष एक दूसरे के समानांतर अपनी आभा बिखेर रहे थे। उसने अपनी अड़तीस साल की जिंदगी में पहली बार दो इंद्रधनुष एक साथ देखे थे। उसे बहुत अच्छा लगा और उस वक्त उसे फिर महसूस हुआ कि इस बात को वह किसी से बाँटना चाहता है और उसके कंधे पर सिर रखकर खूब खूब रोना चाहता है। वह थोड़ी देर तक सड़क के किनारे बने फुटपाथ पर नम आँखें लिए बैठा रहा और फिर घर की ओर चल पड़ा। उसने निश्चय किया कि यह बात वह एएम को जरूर बताएगा कि आज उसने जिंदगी में पहली बार दो इंद्रधनुष एक साथ देखे हैं। वह घर पहुँचा तो एक आश्चर्य उसका इंतजार कर रहा था। उसके कमरे की सफाई कर दी गई थी और उसकी किताबें यहाँ वहाँ रख दी गई थीं। वह अपने कमरे खासकर किताबों को किसी को भी हाथ नहीं लगाने देता था। पिछले दो नौकर सिर्फ इसी गलती के कारण नौकरी से निकाले गए थे कि उन्होंने मालिक को खुश करने के लिए मालिक की किताबों की आलमारी साफ कर दी थी। उसे जरा भी गुस्सा नहीं आया बल्कि वह शेल्फ के पास जाकर किताबों को प्यार से सहलाने लगा। 'मैंने तुमसे बिना पूछे यह किया, यह जानते हुए कि तुम्हें अपनी किताबों को किसी का हाथ लगाया जाना पसंद नहीं।' वह पास खड़ी मुस्करा रही थी। वह भी मुस्कराया। उसकी याद में इस नई जिंदगी में पहली बार किसी ने उसकी अकारण तानाशाही को चुनौती दी थी और उसे यह अच्छा लगा था। मगर उसने कुछ भी जाहिर नहीं होने दिया और शेल्फ में से एक महान दार्शनिक की किताब पढ़ने लगा। 'तुमने दवाई खाई?' उसने बात को मोड़ने की गरज से पूछा। 'मैं दर्शन कैसे खाऊँ?' वह हँसने लगी। उसे इस तरह के घटिया मजाकों पर उसे बहुत गुस्सा आता था पर आज वह भी हँस दिया। उसका मन अचानक बहुत उदास हो गया। उसने इंद्रधनुषवाली बात एएम को नहीं बतायी और यूँ ही अकेला खाली सड़कों की खाक छानने निकल गया। जब वह रात शुरू होने के थोड़ी देर बाद लौटा तो उसका मन पूरी तरह बदल चुका था और वह इंद्रधन
ुष की बात पूरी तरह भूल चुका था। उसकी मन हो रहा था कि वह पूरी तरह से खुद को भुला दे। उसे अचानक ही उस दिन भुवनेश्वर की बेतरह याद आई और शक भी हुआ कि क्या वह कभी वाकई इस नाम के आदमी से मिला था। उसने अपनी मिलास, एक बोतल जो रूस से उसका एक शिष्य लाया था और कुछ नमकीन लेकर लॉन में मेज पर ले आया। एएम बरामदे से बाहर आकर खड़ी हो गई। वह थोड़ी देर तक वहीं खड़ी बोतल और गिलास को घूरती रही। फिर बिना कुछ कहे अंदर चली गई। जब वह दो लार्ज पीकर खत्म कर चुका था और उसे हल्का सुरूर आना शुरू हो गया था, उसने देखा कि एएम उसकी मेज के पास खड़ी है। उसे अचानक गुस्सा आया लेकिन उसके हाथ में कुछ देखकर वह अपने गुस्से को दबा गया। एएम ने एक प्लेट मेज पर रखी और चुपचाप वापस भीतर मुड़ गई। उसके जाने के बाद उसने प्लेट में से एक पकौड़ा उठाया और एक पकौड़ा मुँह में डालते ही उसे तीन पैग का नशा महसूस हुआ। इतना स्वादिष्ट पकौड़ा उसने अपनी माँ के हाथ का खाया था जब उसके पिता जिंदा थे। पिता की मौत के बाद माँ के हाथ के पकौड़े उसे कभी पहले जैसे स्वादिष्ट नहीं लगे। माँ के हाथ के पकौड़े पिता का पसंदीदा व्यंजन था। पिता के साथ माँ के हाथ का स्वाद भी चला गया। वह पीना छोड़ बेतहाशा पकौड़े खाने लगा। जब पीने की याद आई तो उसने अचानक एक डबल लार्ज बनाकर एक साँस में खींच गया और बोतल किनारे कर दी। वह पकौड़े खाने लगा और सारे पकौड़े साफ कर गया। इसके बाद प्लेट में बचे पकौड़ों के टुकड़ों को बीन-बीन कर खाने लगा। रात की चाँदनी उसकी प्लेट में भी पड़ रही थी और प्लेट का खालीपन साफ साफ दिख रहा था। वह धीरे से उठा और अंदर एएम के कमरे की ओर चल पड़ा। वह पलँग पर अधलेटी मुद्रा में कुछ पढ़ रही थी। 'मैंने सारा खा लिया। इसमें तुम्हारा भी था क्या?' उसने लड़खड़ाती
आवाज में पूछा। 'नहीं नहीं वो सारा आपका था।' उसने मुस्कराती आवाज में कहा। वह चुप हो गया। इसके बाद के संवाद बोलने में उसे नशे में भी शर्म आई। उसने मन में कहा 'उसमें से एकाध दोगी?' और पलटकर जाने लगा। 'आप और लेंगे?' एएम ने पलँग से उतरते हुए पूछा। वह चुपचाप उसकी ओर देखने लगा और उसकी आँखों से आँसू बहने लगे जो धीरे-धीरे अतिक्रमण करते हुए उसके गालों और वहाँ से उसकी गर्दन तक फिसलने लगे। एएम किचन में यूँ गई जैसे उसने कुछ देखा ही नहीं। उसे उतने नशे में भी इस बात पर शर्मिंदगी हुई कि वह पकौड़ियों के लिए रो रहा है मगर उसे आश्चर्य तब हुआ जब यह सोचते ही उसकी रुलाई और तेज हो गई। इतनी तेज कि वह खुद को रोक नहीं पाया और रोता हुआ अपने कमरे में भाग गया। थोड़ी देर बाद जब एएम उसके कमरे में पहुँची तो उसने पाया कि उसकी देह आरामकुर्सी पर हिल रही है और वह कहीं दूर निकल चुका है। उसने उसे झकझोरा तो वापस आने में उसे थोड़ी देर लगी। 'आप पकौड़ियाँ लेंगे?' एएम के हाथ में प्लेट थी जिसमें पकौड़ियाँ थीं। उसने पकौड़ियों की ओर ध्यान नहीं दिया और एएम का हाथ पकड़ कर अपने सामनेवाली कुर्सी पर बिठा दिया। 'जानती हो इनसान को सबसे ज्यादा दुख कब होता है?' उसकी आवाज लड़खड़ा रही थी। 'जब उसे अपनी माँ की याद आती है।' एएम ने उसके माथे पर हाथ फेरते हुए कहा। 'बकवास... इनसान को सबसे ज्यादा दुख तब होता है कि उसकी जिंदगी के अड़तीस साल बेकार में निकल जाएँ और उसे आधी से ज्यादा जिंदगी खत्म हो जाने पर अचानक किसी दिन यह पता चले कि दो इंद्रधनुष एक साथ भी निकल सकते हैं और वो इतने सुंदर होते हैं एक साथ कि...।' उसकी आवाज टूटने लगी। 'मैं समझ सकती हूँ।' वह उसका सिर सहलाने लगी। 'तुम एक सुंदर इंद्रधनुष हो जिसमें खुशबू भी है। तुम ये पकौड़ियाँ खाओ और बताओ कैसी बनी हैं। ये अभी बनाई अलग से...।' एएम ने पकौड़ियाँ जबरदस्ती उसके मुँह में डाल दीं। वह धीरे-धीरे खाने लगा और एएम की बाँहों में दुबक गया। वहाँ उसे कब नींद आ गई, उसे पता भी नहीं चला। 'बरसों हो गए मुझे माँ से बात किए।' उसने उसके कंधे पर सिर रखते हुए अगले दिन कहा था। 'कमजोर अपनी कमजोरियों को रोकर छिपाते हैं।' उसने निर्णायक आवाज में कहा। उसे लगा एएम अभी बहुत मासूम है, उसे नहीं पता कि किसी के सहारे की चाहत इनसान का सबसे कमजोर पहलू है। वह थोड़ी देर बाद चुपचाप उठ गया। शाम को जब वह अपने घर में दाखिल हुआ तो उसे लगा जैसे किसी बहुत जाने पहचाने घर में घुस रहा है। ऐसा अनुभव उसे पिछले दस साल में कभी नहीं हुआ था। घर की छतें दीवारें और घर की खूश्बू उसे अपनी बाँहों में भर लेने को आतुर थी। उसकी आहट सुन कर एक बूढ़ी औरत किचेन से बाहर निकली जिसे पहचानने में उसे वक्त लगा। उसने इशारों-इशारों में उसे समझाने की कोशिश की कि वह भावुक होकर नहीं रो रहा बल्कि उसे माँ के साथ बिताई बचपन की कुछ बातें याद आ गई हैं। भावुक लोगों के लिए उसके मन में कोई स्नेह या सहानुभूति नहीं होती, वे कमजोर लोग होते हैं। एएम ने
कहा कि उसके मन में भावुक लोगों के लिए बहुत सम्मान होता है क्योंकि वे बहुत मजबूत और बहुत कोमल होते हैं। वह किचेन में चली गई। दस साल का समय भी भुवनेश्वर के चेहरे पर कोई असर नहीं छोड़ पाया था। उसे आश्चर्य हुआ जब भुवन इतनी आसानी से मिल गया। उसे लगा था कि अगर वह उसे खोजने निकलेगा तो कभी नहीं खोज पाएगा, इसलिए अपने आप को इस बात से उदासीन रखता था कि उसकी अक्सर उससे मिलने की तीव्र इच्छा उठती है। उसने बताया कि दस साल में वह जरा भी नहीं बदला। 'जानते हो क्यों?' भुवन ने उसकी सिगरेट छीनते हुए पूछा। 'और न तुम्हारी बातें बदलीं...।' उसने हँसते हुए दूसरी सिगरेट जलाई। 'क्योंकि धुएँ का स्वाद नहीं बदला।' उसने खूब सारा धुआँ छोड़ते हुए अट्टहास लगाया। उसने भुवन के कंधे का सहारा पाकर पिछले दस साल के अपने सारे लिफाफे खोल डाले और बताया कि उसे शक है कि उसके सभी लिफाफों में रखे नोट जाली हैं। भुवन ने उसे सलाह दी कि उसे दूसरी बोतल खोल लेनी चाहिए। दोनों ने खूब पिया और खूब बे-सरो-पा बातें कीं। उसने अपना सिर भुवन के कंधे पर रख दिया। जिस दिन उसने एएम से शादी करने की इच्छा जाहिर की, उसकी माँ गाँव जा चुकी थी और जाने से पहले उसके और एएम के भविष्य में होनेवाले बच्चे का नामकरण कर गई थी। एएम ने वह नाम उसे ही दे दिया और कहा कि अगर वह अपनी पूरी उम्र जिंदा रहती तो उसे गोद ले लेती। उसे नींद में भी ऐसा लगता था कि उसकी जिंदगी बस कुछ पलों की है और वह अक्सर चिहुंक कर जाग जाता था। जागते ही वह एएम के कमरे के पास जाता और धीरे से दरवाजा खोलकर उसके पास जाकर खड़ा हो जाता। अगर एएम के शरीर में कोई हलचल नहीं दीखती तो वह धीरे से उसकी नाक के सामने हथेली रखता और साँस चलती पाकर सुकून भरे कदमों से चलकर वापस अपने बिस्तर पर आ जाता। यह लगभ
ग रूटीन सा बन गया था। मगर जो टूटता है उसे ही रूटीन कहते हैं। 'यहीं सो जाओ न...' उसने पलट कर जाते सुप्रीमो की कलाई पकड़ ली। वह धीरे से उसके बिस्तर पर आ गया और एएम एक बच्चे की तरह उसके सीने में दुबक आई। 'तुम एकदम छोटी बच्ची जैसी लग रही हो।' वह उसे अपनी बाँहों में कसता हुआ फुसफुसाया। 'अगर खामोशी टूट गई तो तुम बच्चे हो जाओगे।' उसने अपनी उँगलियाँ उसके होंठों पर रख दीं। 'मतलब...?' उसने फँसी आवाज में पूछा। वह चुप हो गया और उसे अपने और करीब करने की कोशिश की जो कि मुमकिन नहीं था। थोड़ी देर तक वह उसे अपनी बाँहों में समेटे यह सोचता रहा कि एसी का टेंप्रेचर और घटा देना चाहिए। कमरे में देर तक खामोशी छाई रही। घड़ी की टिकटिक सुनाई देती रही। वह चुप रहा। उसका दिल कर रहा था कि वह इन सारी बकवास बातों का प्रतिवाद करे और उसे समझाए कि इस हालत में ज्यादा बोलना उसके लिए नुकसानदायक है मगर वह चुप रहा। उसकी आँखें बहने लगी थीं और वह धीरे-धीरे नीचे सरकता हुआ एएम के सीने तक आ गया था। वह बोलती रही हालाँकि उसकी आवाज अब कमजोर होती जा रही थी। 'तुम्हारा दुख अपनी जगह पर ठीक है तेजस मगर इसके लिए पूरी दुनिया से बदला...? क्या ये ठीक है सोना...?' उसने उसका सिर अपने सीने में दबाते हुए पूछा। उसने एएम के सीने में चेहरा पूरी तरह से घुसा लिया और दोनों बाँहों से उसे जकड़ लिया। एएम का सीना गीला हो रहा था। उसने अपने दोनों स्तनों के बीच में उसका चेहरा घुसा लिया और उसकी बालों में उँगलियाँ डाल कर सहलाने लगी। वह सो गया और उस रात उसे ऐसी नींद आई जो कई दशकों पहले आई थी। जब वह आठवीं में पढ़ता था और उसकी पसंदीदा कहानियों की किताब, जिसका कवर नीला था और जो महीनों खोए रहने के बाद अचानक मिल गई थी जब वह उसके मिलने की उम्मीद छोड़ चुका था। उसकी तीन कहानियाँ वह पढ़ चुका था और उसे लगता था कि अगर बाकी कहानियाँ अगर वह नहीं पढ़ पाया तो उसकी पूरी जिंदगी अधूरी रह जाएगी। उसने पूरे घर की आलमारियों और कोने बेचैनी से छान मारे थे मगर वह किताब नहीं मिली थी और वह धीरे-धीरे निराशा में जाने लगा था। जिस दिन वह किताब उसे अचानक मिली उसे लगा उसकी जिंदगी की सारी परेशानियाँ अब खत्म हो गई हैं। स्कूल के होमवर्क, दोस्तों के झगड़े और क्लास में पढ़नेवाली लड़कियों को इंप्रेस करना सारी समस्याएँ अचानक बहुत छोटी हो गईं। वह किताब उसे आज तक याद थी और वह नींद भी...। आज से पहले तक। अब से पहले तक। उसने कभी अपने आप को इतना नहीं जाना था जितना एएम ने उसे अपने साथ कुछ दिनों में बता दिया। समय बहुत जल्दी बीत रहा था और वह एक गवाह की तरह सिर्फ देख पा रहा था। कुछ भी करना उसके बस के बाहर की चीज थी और उसके भीतर सब कुछ बदलता जा रहा था। सब कुछ एक अंतहीन सिलसिले के अंत की शुरुआत की तरह चलता जा रहा था। एक दिन अचानक वह सोकर उठा तो उसने पाया कि वह अपने इतने बड़े घर में अकेला रह गया है और एएम घर के हर कोने में होकर भी कहीं नहीं है। वह पहला दिन था जब उसने अपने आप को इतना अ
केला महसूस किया था। वह पूरी दुनिया में अकेला रह गया था और इस बार उसके मन में पहले से भी ज्यादा सवाल अनसुलझे छूटे थे। उसने अपना इंस्टीट्यूट नहीं खोला और कई जन्मों तक सिर्फ घर में कैद पुरानी राहों में भटकता रहा। घर के सारे फोन, सारे नौकर, ई-मेल और मोबाइलों को अपनी जिंदगी से बाहर निकाल दिया। उसका मन करता था कि भुवनेश्वर को घर में बुला ले और उसके साथ शराब पिए लेकिन साथ ही उसे यह भी पता था कि वह बंद दीवारों के पीछे पीना पसंद नहीं करेगा। 'घर चलोगे?' उसने उसी रात कब्रिस्तान में भुवनेश्वर के साथ शराब पीते हुए पूछा। भुवन हँसने लगा। उसने गाँजा मसला और नई सिगरेट भरी। 'इस बार का माल कहाँ से लाए हो भू?' उसने अच्छी सुल्फा क्वालिटी के बारे में पूछा। 'माल तो हर बार वहीं से आता है पार्टनर बस किसी बार चीज अच्छी निकल जाती है कभी खराब... चांस की बात है।' भू ने उसे सिगरेट थमाते हुए कहा। 'चांस की बात है... सब कुछ चांस की बात है।' उसने कश लगाते हुए धीमी आवाज में कहा। थोड़ी देर तक दोनों पैग बनाने और आसमान देखने में व्यस्त रहे। 'तुम्हें याद है मैंने अपनी आत्महत्या स्थगित की थी कई सालों पहले...?' उसने भू के कंधे पर सिर टिकाते हुए पूछा। 'मैं सोचता हूँ अब कर लूँ।' उसने कब्रिस्तान के सन्नाटे में अपना सन्नाटा मिला दिया और हवा की साँय-साँय अचानक डरावनी हो गई। थोड़ी देर तक फिर खामोशी छाई रही। दोनों इस खामोशी से घबराते रहे। वह पीता-पीता अचानक ऊब गया और अपनी गिलास घुमा कर फेंक दिया जो एक कब्र से टकरा कर टूट गई। 'अपना संस्थान बंद कर दूँ?' उसने भू से पूछा। 'हूँ...।' वह लंबी साँस भर निराश होकर उठ गया। उसे भू से यह उम्मीद नहीं थी। वह वहाँ से निकला तो रात गहरा चुकी थी। उसने घड़ी नहीं लगाई थी और यूँ वक्त का अंदाजा
लगाने में मुश्किल हुई। वह सड़क पर चलता हुआ अपने मकान की ओर जा रहा था। अपने इलाके में पहुँचने से कुछ पहले ही उसने यूँ ही आसमान की तरफ देखा और देखता ही रह गया। आसमान में भरी रात दो इंद्रधनुष खिले थे। उसने अपने आस पास देखा कि किसी को इसके बारे में बता सके। पूरी सड़क खाली थी। एक पल को यह भ्रम लगा । इतनी रात में आखिर इंद्रधनुष रात में निकलते हैं? उसने कभी नहीं सुना। मगर क्या पता निकलते हों। उसने तो दो इंद्रधनुषों का एक साथ निकलना भी नहीं सुना था तो भी तो दो इंद्रधनुष एक साथ निकलते ही हैं। उसकी आँखें भर आईं और उसका मन हुआ कि माँ और एएम न सही, रास्ते में कोई चोर या भिखारी भी मिल जाए तो वह उसके कंधे पर सिर टिकाकर उससे यह बता दे। उसने खुद को विश्वास दिलाने के लिए अपना हाथ बढ़ाया और उसे आश्चर्य हुआ कि उसकी एक उँगली इंद्रधनुष को छू गई। उसने अपनी उँगली का सिरा देखा तो उस पर सात रंग लगे हुए थे। उसकी इच्छा हुई कि वह दौड़कर वापस कब्रिस्तान जाए और भू को अपनी उँगली दिखाकर उससे कहे कि वह बहुत अच्छा दोस्त है। उसके शरीर में अचानक एक लहर सी उठी और एक सिहरन से वह क्षण भर को काँप उठा। उसे अपने भीतर कुछ नया-नया सा महसूस हुआ। उसने अपनी हथेली इंद्रधनुष में डुबो ली और सतरंगी हथेली को पैंट की जेब में छिपा लिया कि सुनसान सड़क पर उसके असबाब कोई लूट न ले। घर पहुँच कर उसने अपनी हथेली एक कागज पर छाप ली और उस कागज को सँभाल कर रख लिया। वह जानता था कि वह सड़क पर चाहे अपनी वर्कशॉप में चीख-चीख कर लोगों को बताए लेकिन रात में इंद्रधनुष निकलने की बात कोई भी कभी स्वीकार नहीं करेगा।
बेटे ने पिता के हाथ से बैग झटके से छीन दूर फेंक दिया । " कहीं नहीं जाना है ! " " मुझे रोकेगा ? तेरी इतनी हिम्मत ! " " हिम्मत तो बहुत है , कहिये तो दिखाता हूँ ? " " गया जी जा रहा हूँ ,धर्म -कर्म करने , क्या तू मुझे अब धर्म करने से भी रोकेगा ? " " धर्म -करम... ! .... हुंह ! ....... आप वसीयत बदलने के फ़िराक में हो , मैं सब जानता हूँ , धर्म -करम गया अब तेल लेने " " कैसे रोकेगा बता ? " भृकुटि तान ली उन्होंने . " ऐसे ! " झपट कर उसने पिता की गर्दन दबोच ली । "अब से इस कमरे के बाहर जो कदम भी रखे तो .....ये देख रहे हैं मिटटी के तेल से भरा हुआ कुप्पा ..... ! " सुनते ही बूढ़े के पूरे शरीर में झुरझुरी सी दौड़ गयी। जब से घर - जायदाद इस निकम्मे के नाम किया है , लगता है जैसे खुद को मारने का लाईसेंस दे दिया है । अब वसीयत बदलना क्या आसान होगा ...... ! इसी मनहूस लम्हें के लिए यह पूत पैदा किया था , सोचता हुआ क्रोध को धैर्य के नाम पर पी गया । बाहर गाड़ी रूकने की आवाज़ से उसके कान खड़े हो गये , " कहाँ है तेरा बाप , जरा सामने बुला कर तो ला " धम्म से कुछ लोग बाहर दरवाजे से अन्दर आये । जानी -पहचानी आवाज सुन वह कमरे से निकला , " मोs.....! " अपनी आँखों पर एक बार तो भरोसा ही नहीं हुआ । " मोहरसिंह .... अरे मोहरा तू ! " लंगोटिया यार को सामने पा वह हुलस कर गले लग गया । बचपन की बहुत सारी बातें याद आई । कसाई बने बेटे के चेहरे पर पल -भर में कई रंग आये और गये । उसके चेहरे पर छाई कठोरता , अब मुलायम सी हो गई । सदाचार और शिष्टाचार नें अपना रूप पैरों पर झुक कर दिखाया । "इधर कैसे ........ ? इतने सालों बाद खबर - सुधि लेने आया " बुढा चकित था वर्षों बाद इस तरह उसके आने से । मोहरसिंह की जागिरी किसी से छिपी नहीं थी । दो लट्ठबाज हमेशा उसके साथ ही रहते थे । वहीं कोने में पास खड़ा बेटा पिटारी के साँप सा सिकुड़ा - सिकुड़ा ..... पिता की आज्ञा पाने के लिए तत्पर श्रवणकुमार बन हाथ जोड़े खड़ा था । " यहीं पास में भटठे पर आया था तो किसी ने तेरे हालातों के बारे में बताया तो..............! तू कहे तो इनमें से एक को तेरी सेवा में छोड़ जाऊं " " क्यों छोड़ जाएगा , निपूता थोड़े हूँ जो मेरा देख-भाल करने के लिए तू अपना आदमी छोड़ जाएगा " बुड्ढा छाती फुला कर ....अपने अंश , अपने पौरुष अपने जवान बेटे को नज़र उठा कर देखते हुए बोला । अरे ,कहाँ गए ! ये सब किसकी तस्वीर ले रहे हो तुम ....! " घुटनो तक साड़ी चढाए खुदाई करती मज़दूरन की, तो कही स्तनपात कराती आदिवासी खेतिहर मज़दूर, तो कही उघाडी पीठ के साथ रोटी थेपती महिला की ...कैमरा हटाओ ! " यह सब थोडे ही ना हमे कवरेज करना था। हमे सुखाग्रस्त ग्रामीण ठिकानों का सर्वे कर उस पर रिपोर्ट तैयार करनी है।" "तुमको इन सब के साथ रिपोर्ट तैयार करना होगा , वरना...!" " वरना क्या सिड...? " "वरना मैं दूसरे चैनल वाले के साथ..." "तुम मर्द भी ना.....! " "मुझे ताना मत दो रश्मि! अगर हमने इन तस्वीरों के
साथ रिपोर्ट तैयार नही की तो चैनल का टी.आर.पी कैसे ...?" " हाँ , टी.आर.पी .......मेरे सपने तुम्हारे सपनों से ज्यादा ऊँचे है।" कंधे पर टंगे बैग और हाथ में पकड़े हुए पर्चों के साथ कमल अपनी ही धुन में मस्त हुआ चौधरी साहब के ढाबे में घुसा। सामने दीवार पर उनकी माला लगी तस्वीर देखकर वह चौंक गया। "चल भाग यहाँ से..बड़ा आया दानवीर कर्ण " उस दिन चौधरी साहब ने उसे लगभग धकियाते हुए कहा था। " कौन है यह लड़का ? " पास ही बैठे उनके दोस्त ने जब पूछा तो चौधरी साहब ने अपनी मूँछों पर ताव देकर वापस कुर्सी पर बैठते हुए कहा "किसी संस्था में काम करता है। ससुरा कभी खून दान करने की, तो कभी आँख दान करने की कहता रहता है, और हर दूसरे दिन आ जाता है।" अपने मजबूत हाथ से अपनी जँघा पर थाप जमाते हुए वह दोबारा कमल की तरफ देखकर बोले "वापस मुड़ कर इधर देखना भी मत.." अपने शरीर से उनका प्रेम था ही ऐसा कि जीवित अवस्था में तो दूर, उनका वश चले तो वह मरणोपरांत भी अपने शरीर के अंग न छोड़ें। अपने शरीर के अलावा ढाबे में ही बँधे अपने ही जैसी एक मजबूत कद काठी वाले बकरे से भी उन्हें बड़ा लगाव था। ढाबे को संभालने वाले उनके बच्चों ने कई बार उस बकरे की गरदन अपनी छुरी के नीचे लाने की कोशिश की, मगर चौधरी साहब के कथन "मेरे जीते जी इसे कोई नही छुयेगा। जब मैं मर जाऊँ तब जो चाहे सो करना।" से मानों बकरे को भी अमरत्व मिल चुका था। जबान पर आये शब्दों का जब यथार्थ से परिचय हुआ तो अकस्मात ही चौधरी साहब ह्दयाघात की वजह से चल बसे। मोह का धागा टूटते ही बच्चों ने बकरे के प्राण भी शरीर से अलग कर दिये। इधर ढाबे के बाहर लटके हुए मृत बकरे के अंग ग्राहक रिझा रहे थे, उधर तस्वीर में राख हो चुके बेशकीमती अंग कमल को चिढा रहे थे। गहरी साँस छोड़ते हुए अती
त से बाहर आकर, कमल ने हाथ में पकड़ा हुआ 'अंगदान महादान' का पर्चा मोड़कर वापस अपने बैग में रखा और ढाबे से बाहर आ गया। आज दिल्ली मेट्रो में मंटो से मुलाकात हो गई । दुआ सलाम के बाद ठंडा गोश्त अफ़साने के अदालती मसले पर मालूमात की। उन्होंने दिल्ली के हालात जानना चाहे। यहां ,यहां दिल्ली में तो जिंदा गोश्त पर तकरीरें चल रहीं है। देख रहे हो न ,यह अवाम न जाने किस आपाधापी में लगी है।किस जिजीविषा में जिंदा है,दुनिया की स्याहियो में भी हम रज्जाई है। दिखते रहते हैं अर्धनग्न जिस्म बिना किसी शर्मो हया के । अभी देखो ,यह भीड़ में हलचल, कसमसाहट है, बाहर निकलने की, फँस गई है चक्रव्यूह में, चीख सुनाई दी, किसी ने चिकोटी काटी,कहाँ काटी ,क्यों काटी,किसने काटी नजरें ढूंढ नहीं पाती,सब के सब सफेदपोश जो है ।समझ नहीं आता ये जिस्म जिंदा भी है,रूह है इनमें या सिर्फ चलते, फिरते ,खाते,हगते धरती पर बोझ।इन्हें किसी माँ ने दूध पिलाया है,या सीधे चले आए हैं शैतान के साथ । वाह, क्या तस्वीर है,राजधानी दिल्ली की ? " हलकी धुंध में लिपटे गाँव मे बिजली के बल्ब जुगनुओं की भाँति टिमटिमा रहे हैं। घरों की चिमनी से निकलता धुआँ पेड़ों के पीछे विलीन हो रहा है।थान पर जानवर सोने की तैयारी में जुगाली कर रहे हैं।रोटी की आस में बच्चे किताब की ओट से माँ को निहार रहे हैं। बाहर बाखली में तम्बाकू की खुशबू से लिपटे मर्द दुनिया जहान की बातों में मग्न हैं। वाह ! अपनी जादुई हाथों से अद्भुत चित्र उकेर डाला मृणाल तुमने! कितना खूबसूरत गाँव है।दिल चाहता है अभी उड़ कर वहां पहुंच जाऊँ।" " तुम भी बहुत अच्छा वर्णन कर लेती हो नीलपर्णिका ! अब गाँव को महसूस ही कर सकते हैं । वहां जी नहीं सकते " मृणाल की आवाज़ मानो मन्दिर के गर्भ गृह से आ रही हो। " क्यों ?" उत्सुकता ने नीलपर्णिका को उत्तेजित कर दिया। " क्योंकि अब ये सुंदर मंज़र तस्वीरों में सिमटकर धनवान लोगों की कोठियों में सजते हैं ।" "देखो ! मैं तुम्हें दूसरी तस्वीर दिखाता हूँ।" " ये क्या ? कैसी तस्वीर बनाई है तुमने ? खण्डहर घर, उजड़े खेत, सूनी पगडण्डी और आसमान में जड़ी दो बूढ़ी आँखें ? कितना नीरस और जीवन विहीन है ये चित्र ? मानो इसकी आत्मा ही मर गई हो। कहाँ गए इसके सुंदर चरित्र और रंग ?" "वे ...वे तो , मृग मरीचिका के पीछे महानगरों की सड़ाँध मारती झोपड़ पट्टियों में जीने की चाह में मरने चले गए।" अपने नजदीकी और ख़ास कार्यकर्ताओं के गोपनीय सम्मलेन में बोलते हुए माननीय कह रहे थे , " हमें तस्वीर बदलनी है , पूरी तरह से बदलनी है। सेवा करनी है , आँख मूँद कर सेवा करनी है " . आवासीय सम्मलेन के प्रथम सत्र के बाद भोज का आयोजन था। माननीय ने कहा , " आप लोग भोजन करें , थोड़ा आराम कर लें , उधर लॉबी और हाल में मैंने दूर-दूर से बड़ी-बड़ी तस्वीरें और पेंटिंग्स मंगवाई हैं , उन्हें देखें , एन्जॉय करें , तीन बजे हम लोग द्वितीय सत्र में पुनः सभा-कक्ष में एकत्र होंगे।" महंगी पेंटिंग्स और बड़े बड़े चित
्र देख कर लोग अचंभित थे , माननीय का नया बँगला किसी महल से कम नहीं था। तस्वीरों में अंकित चित्र भी अपनी अपनी कथा कह रहे थे। कहीं कोई शेर किसी निरीह जानवर पर झपट रहा था तो कहीं अलंकृत राजसी वैभव का चित्र चमत्कृत कर रहा था। कुछ पौराणिक चित्र भी थे। सबसे ज्यादा भीड़ कौरवों के दरबार में हुए चीर - हरण प्रसंग की विशाल पेंटिंग के सामने थी। लोग थक नहीं रहे थे उसे देख कर और भूरि भूरि प्रसंशा भी कर रहे थे , उसकी सुंदरता और सजीवता की। मध्य में माननीय की एक विशाल पेंटिंग थी जिसमें वे विशाल जन समुदाय के सम्मुख हाथ जोड़ कर खड़े थे और उनकीं आँखे मुंदी हुयी थी। जन समुदाय में निरीह, गरीब और फटे हाल जनता थी , उसे देख कर कार्य कर्ताओं को माननीय के कथन समझ में आने लगे कि आँख मूँद कर सेवा करों। स्वयं माननीय से निरीह जनता का दुःख देखा नहीं जा रहा था फिर स्वयं वे तो बहुत साधारण लोग थे। सेवा संदेश उन्हें मिल चुका था , चित्रात्मक ढंग से। तीन बज रहे थे लोग धीरे धीरे सभा-कक्ष की ओर बढ़ने लगे। कैमरा जिस तेजी से बिटिया के सुव्यवस्थित घर के कोने-कोने को दिखा रहा था, ख़ान साहब को सुखद अनुभूति होती जा रही थी। कुछ वर्षों के बाद आज अपनी प्यारी बेटी से सीधे सम्पर्क हो पाया था, वह भी स्मार्ट मोबाइल फोन पर वीडियो चैटिंग से! "बेटी, सब ठीक तो है न, तुम्हारी सेहत ठीक है न, ज़रा नज़दीक़ तो आओ कैमरे पर!" "अब्बू मैं हमेशा कहती हूँ न कि आप मेरी ज़रा भी फिक्र न किया करें, ख़ुदा के फ़ज़लो करम से सब बढ़िया है यहाँ!" -बेटी के इन अल्फ़ाज़ को सुनकर ख़ान साहब को कुछ पल शुकून तो मिला, लेकिन स्मार्ट फोन की स्क्रीन पर उसका मुरझाया सा चेहरा, काली सी झाइयां और बड़ी-बड़ी काली आँखों के चारों ओर के काले घेरे देखकर उन्होंने कहा- "हाँ,
वह तो मैं समझ रहा हूँ। शौहर के इंतक़ाल के बाद तुम्हारे बच्चे अपना करियर बनाने बड़े शहरों में जम गए, ससुराल वालों से कोई सहारा भी नहीं तुम्हें, आख़िर कैसे अकेले ख़ुश रह रही हो तुम ?" "अब्बू, ख़ुदा का करम है कि मुझे अनुकम्पा नियुक्ति मिल गई, बस नौकरी, ट्यूशन और घर गृहस्थी की मशरूफ़ियत में पता ही नहीं चलता कि वक़्त कैसे गुजर जाता है!" - बेटी ने बड़े ही आत्मविश्वास से कहा- " अब्बू, कुछ अपनी भी तो सुनाइयेगा, आप तो इतनी ज़ल्दी कितने बूढ़े लगने लगे हैं, लगता है..." "नहीं बेटी, मैं तो मज़े में हूँ, माशा अल्लाह अच्छी ख़ासी पेन्शन मिल रही है। लेकिन तुम्हारी अम्मी के इंतक़ाल के बाद..." "हाँ अब्बू, मैं समझ रही हूँ कि आपकी सही देखभाल और दिलजोई नहीं हो पा रही होगी। बेरोज़गारी की हालत में मेरे दोनों भाइयों को सही बीवियां नहीं मिल पायीं। आपकी पेन्शन का बड़ा हिस्सा उन्हीं की फ़ेमिली में लग जाता होगा!" अपने आँसुओं को पोंछते हुए ख़ान साहब बोले- "ईमानदारी की नौकरी से जितना जो कुछ मैं कर सकता था किया, जितना अभी कर सकता हूँ, कर रहा हूँ। मुझे तो बस तुम्हारी फिक्र रहती है!" "अब्बू, आपको तो इस बात की ख़ुशी होनी चाहिए कि आपकी लाड़ली बिटिया किसी की मोहताज नहीं है! मुसलमानी मोहल्ले में रहते हुए रिश्तेदारों व पड़ोसियों की टोका-टाकी और तंज के बावजूद अगर आप मुझे इतना पढ़ाते-लिखाते नहीं, तो मेरे आज क्या हाल होते?" बेटी की बात सुनकर ख़ान साहब पश्चाताप के आँसुओं के साथ सिसकते हुए बोले- "हाँ, बेटी बिलकुल सही कहा तुमने, लेकिन मुझे मुआफ़ करना, तुम्हारे कॉलेज के प्रोफेसर साहब की सलाह पर तुम्हें पीएच. डी. भी करा दी होती, तुम्हें प्रोफेसर बन जाने दिया होता, तो आज तुम्हें ये क्लर्क जैसी नौकरी न करनी पड़ती!" बिटिया भी अपने आँसुओं को नहीं थाम सकी। वह बस इतना ही कह पायी- "अब्बू लड़की हो या लड़का शादी उतना अहम मुद्दा नहीं है जितना कि उसका अपने पैरों पर खड़ा होना! शादी के चक्कर में लड़की की ज़िन्दगी का तो रुख़ ही बदल दिया जाता है!" अब बूंद-बूंद उसका अस्तित्व सिमटा जा रहा था। ताल के ह्रदय पर दरारों के दर्शन हो रहे थे।वह बुजूर्गों के चेहरे से ही नहीं, मरूभूमि के भी गर्त में उतरती चली गयी। इतनी गहराइयों में कि, उसका लौटकर आना नामुमकिन हो गया। उसके न होने का असर देखिये। रिक्तता भरने के लिए बहुतों ने अपना साम्राज्य कायम कर लिया। अकाल, सूखा, भुखमरी क्या- क्या गिनाऊं ? एक बदहाल माँ की छाती में सूख चुके अमृत के लिए भी व्याकुलता बढ़ती जा रही थी। वह बूंद बादल बनकर ही लौट आये, सब असमान की ओर टकटकी लगाकर एक झलक देखने को आतुर थे।माँ की गोद में, बिलखते मासूम के पेट की आग से ताप पाकर, एक बूंद निकली तो सही, पर आंसू की। अाँखों से छलक कर, गालों तक आई। और उसे सूखने से पहले चित्रकार ने अपनी तस्वीर में कैद कर लिया। अब उस 'तस्वीर' पर पैसों की वर्षा हो रही थी। शहर से बाहर सगुना मोड़ पर रविवार की एक अलसाई सुबह चाय की गुमटी म