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विक रूप से संदेह हो ही सकता है। विदेशी की आँखों में त्रिपुरा के दुर्ग के सामने विजयगढ़ किसी अंश में हीन हो जाए, यह चाचा साहब के लिए असहनीय है। उन्होंने कहा, "ठाकुर, सोचता हूँ, आप त्रिपुरा से बहुत दूर हैं और आप ब्राह्मण हैं, आपका एकमात्र काम देवा-सेवा ही है, आपके द्वारा कोई बात खुलने की संभावना नहीं है।" रघुपति ने कहा, "आवश्यकता क्या है साहब, संदेह हो, तो वह सब बात रहने दीजिए ना। मैं ब्राह्मण का बेटा हूँ, मुझे दुर्ग के समाचारों से क्या प्रयोजन!" चाचा साहब जीभ दाँतों में दबाते हुए बोले, "अरे राम राम, आप पर फिर संदेह किस बात का। चलिए, एक बार दिखा लाता हूँ।" इधर शुजा के सैनिकों के बीच सहसा अव्यवस्था मच गई। शुजा का शिविर जंगल में था, सुलेमान और जयसिंह की सेना ने अचानक आकर उन्हें बंदी बना लिया तथा छिप कर दुर्ग पर हमला करने वालों पर चढ़ाई कर दी। शुजा के सैनिकों ने लड़ाई किए बिना ही बीस तोपें पीछे फेंक कर तोड़ डालीं। दुर्ग में धूम मच गई। विक्रम सिंह के पास सुलेमान का दूत पहुँचते ही उन्होंने दुर्ग का द्वार खोल दिया, स्वयं आगे बढ़ कर सुलेमान और राजा जयसिंह की अगवानी की। दिल्लीश्वर के सैनिकों तथा हाथी-घोड़ों से दुर्ग भर गया। निशान फहराने लगा, शंख और रणवाद्य बजने लगे तथा चाचा साहब की सफेद मूँछों के नीचे उजली हँसी भरपूर ढंग से खिल गई।
माया को आशीष जी के साथ भेजकर त्रिधा भी अपना हैंड बैग उठाकर वापस हॉस्टल की तरफ लौट रही थी और तभी दो हाथों ने पीछे से आकर उसकी आंखें बंद कर ली त्रिधा ने तुरंत उन हाथों को अपनी आंखों से हटाया और पीछे पलट कर देखा तो सामने संध्या खड़ी थी और जोर जोर से हंस रही थी त्रिधा ने संध्या को घूर कर देखा और बोली - "तुमने तो मुझे डरा ही दिया था... तुम यहां पर क्या कर रही हो?" संध्या हंसते हुए बोली - "चलो आंखिर मैंने तुम्हें डराया तो सही! तुम किसी से तो डरती हो।" और इतना कहकर वापस ताली बजा कर हंसने लगी। त्रिधा कहने लगी - "अब हंसना बंद करो और बताओ कि तुम यहां पर क्या कर रही हो?" संध्या ने अपनी आंखें गोल करते हुए त्रिधा के पास आकर कहा - "पिछले साल तो तुमने पता चलने नहीं दिया, मगर इस साल मुझे पता चल ही गया और अब तुम मुझसे बचकर कहीं नहीं जा सकती।" इतना कहकर संध्या ने त्रिधा का हाथ पकड़ा और उसे जबरदस्ती अपने साथ लेकर जाने लगी। त्रिधा भी चुपचाप संध्या के साथ साथ चलने लगी। हालांकि त्रिधा को कुछ समझ में नहीं आ रहा था मगर उसने सोचा संध्या तो बेवकूफ है, उससे रोड पर बहस करने का क्या फायदा! वैसे भी होगा कुछ नहीं बस भीड़ के सामने अपना ही मजाक बनवा लेगी। कुछ देर बाद त्रिधा और संध्या हर्षवर्धन के रेस्टोरेंट में पहुंच गईं। त्रिधा यहां पहले भी आ चुकी थी। आज हर्षवर्धन के रेस्टोरेंट को देखकर त्रिधा हैरानी से अपने मुंह पर हाथ रखे चारों तरफ देख रही थी। हर्षवर्धन का पूरा रेस्टोरेंट खाली था और त्रिधा के पसंदीदा ऑर्किड के फूलों से सा हुआ था। त्रिधा को विश्वास ही नहीं हो रहा था यह रेस्टोरेंट इतना ज्यादा सुंदरता से सजाया हुआ है। मगर उसे समझ नहीं आया कि रेस्टोरेंट क्यों सजा हुआ है! अपनी सोच में ही थी त्रिधा अपनी सोच में ही थी कि तभी पीछे से आकर दो हाथों ने एक बार फिर त्रिधा की आंखों को अपने हाथों से ढक लिया। त्रिधा ने वापस उन हाथों को अपनी आंखों से हटाया और जैसे ही पीछे मुड़कर देखा तो खुशी और हैरानी से उसकी आंखें चौड़ गईं। प्रभात और हर्षवर्धन, दोनों मुस्कुराते हुए उसके सामने खड़े थे। त्रिधा दोनों को देखकर पूछने लगी - "क्या हुआ? तुम तीनों एकसाथ!" प्रभात मुस्कुराते हुए त्रिधा के गले लग गया और बोला - "हैप्पी बर्थडे त्रिधा! पिछली बार हमें कुछ बताया ही नहीं था तुमने इसलिए हम तुम्हारा जन्मदिन नहीं मना पाए मगर इस बार दोनों सालों की कमी पूरी कर देंगे।" "बिल्कुल!" और इतना कहते हुए हर्षवर्धन केक लेकर वहां आ गया। संध्या ने एक गिफ्ट रैप त्रिधा के आगे बढ़ाया और बोली - "ये मेरी तरफ से मेरी त्रिधू के लिए, अभी पहन।" त्रिधा ने खुशी से गिफ्ट ले लिया। देखा संध्या उसके लिए एक खूबसूरत सी रिस्ट वॉच लेकर आई थी। त्रिधा ने घड़ी पहन ली और हर्षवर्धन को देखने लगी। हर्षवर्धन भी त्रिधा को ही देख रहा था और प्रभात उन दोनों को एक दूसरे को निहारते हुए देख कर मुस्कुरा रहा था। प्रभात हर्षवर्धन के पास आकर बोला - "तुझे इसलिए घूर रही है क
्योंकि तूने उसे कुछ गिफ्ट नहीं दिया अब तक।" हर्षवर्धन मुस्कुराते हुए बोला - "मेरा गिफ्ट त्रिधा कभी नहीं भूलेगी... मगर तू क्या लाया है इसके लिए?" प्रभात मुस्कुरा दिया और कहने लगा - "कुछ ऐसा जो त्रिधा को पसंद भी आएगा और जिसे लेने में यह न - नुकुर भी नहीं कर पाएगी। अपनी स्वाभिमानी दोस्त के लिए बहुत सोच समझ कर कुछ लाया हूं।" त्रिधा ने जब केक कट किया तब हर्षवर्धन और प्रभात ने मिलकर त्रिधा के चेहरे पर केक की आइसिंग लगा दी और संध्या मुस्कुराते हुए उन तीनों के फोटो ले रही थी। त्रिधा तीनों को घूरते हुए देख रही थी। कुछ देर बाद त्रिधा ने संध्या, प्रभात और हर्षवर्धन को भी फोटो क्लिक करवाने को कहा और खुद उनके फोटोज़ लेने लगी। कुछ फोटोज़ उसने सिर्फ संध्या और प्रभात के लिए। रेस्टोरेंट्स के सबसे अच्छे हिस्से में जाकर वह उन दोनों के साथ में फोटो ले रही थी। वाकई दोनों साथ में बहुत खूबसूरत लगते थे और आज तो त्रिधा के जन्मदिन के कारण हर्षवर्धन, संध्या और प्रभात, तीनों ही बहुत अच्छे से तैयार होकर आए थे। यह बात अलग थी कि जिस का जन्मदिन था, वह खुद ऐसे ही घूम रही थी। यह सोचकर त्रिधा खिसियानी हंसी हंस पड़ी। त्रिधा ने कभी सोचा भी नहीं था कि ये लोग उसका जन्मदिन इतना खास बना देंगे। कुछ देर बाद सब एक साथ बैठकर बातें करने लगे। हर्षवर्धन ने वेटर को बुलाकर सारा खाना त्रिधा की पसंद का ऑर्डर कर दिया। संध्या और प्रभात हैरानी से हर्षवर्धन को देख रहे थे कि आखिर उसे त्रिधा की पसंद कैसे पता चली! पर त्रिधा हैरान नहीं थी क्योंकि यह सब उसके साथ पहले भी हो चुका है। वह बस मुस्कुरा रही थी हर्षवर्धन को देखते हुए कि कोई तो था जो उसे इस हद तक समझता था कि उन दोनों के बीच शब्दों की जरूरत भी नहीं पड़ती थी। काफी देर तक सब साथ र
हे मगर फिर संध्या घर जाने के लिए कहने लगी क्योंकि उसे देर हो रही थी। हर्षवर्धन अपने हाथों में एक बड़ा सा गिफ्ट रैप लेकर आया। हर्षवर्धन का गिफ्ट देखकर प्रभात और संध्या के साथ-साथ त्रिधा भी हैरानी से उसे ही देख रही थी। हर्षवर्धन ने त्रिधा को जब गिफ्ट थमाया तो उसे छूकर भी त्रिधा को कुछ समझ नहीं आया कि यह क्या है। हर्षवर्धन का गिफ्ट रैप बहुत मोटे गत्तों के बीच पैक किया गया था शायद। त्रिधा हर्षवर्धन से पूछने लगी - "इसमें क्या है हर्षवर्धन? यह तो बहुत बड़ा है।" हर्षवर्धन मुस्कुराते हुए बोला - "हॉस्टल जाकर खोल कर देखना त्रिधा। यहीं खोलोगी तो हॉस्टल ले जाने में परेशानी होगी और मेरा सरप्राइज भी खराब हो जाएगा।" त्रिधा कुछ कह पाती इससे पहले ही प्रभात भी अपना गिफ्ट लेकर त्रिधा के सामने आ गया और उसे पकड़ाते हुए बोला - "इसे भी हॉस्टल जाकर ही खोलना त्रिधा। अभी के लिए बस इतना समझ लो कि कुछ ऐसा है जो तुम बहुत लंबे समय से पाना चाहती थीं मगर इसे खरीद नहीं सकती थीं।" त्रिधा आंखें चौड़ाते हुए बोली - "पर तुमने तो कहा था कि कुछ भी एक्सपेंसिव नहीं है।" प्रभात मुस्कुरा दिया और बोला हॉस्टल जाकर खोल कर देख लेना अगर पसंद नहीं आए तब बोलना। संध्या ने त्रिधा को गले लगा लिया और बोली - "आज का दिन मेरी भी जिंदगी के सबसे अच्छे दिनों में से एक था त्रिधा क्योंकि यह मेरी त्रिधा का जन्मदिन है।" फिर त्रिधा के गाल पर प्यार से हाथ रखते हुए संध्या बोली - "एक बात हमेशा याद रखना त्रिधा हम सब दोस्त हैं और दोस्तों से भी बढ़कर एक परिवार की तरह हैं। परिवार में लड़ाइयां, झगड़े, गलतफहमियां, उलझनें सब होता है, मगर फिर भी प्यार कभी कम नहीं होता। हम सबके बीच भी लड़ाई, झगड़े, गलतफहमियां हो सकती हैं मगर हमारा आपस का प्यार कभी कम नहीं होगा। मुझसे पहले प्रभात पर तुम्हारा हक है क्योंकि प्यार सिर्फ प्यार होता है मगर एक अकेले दोस्त में मां, बाप, भाई, बहन, प्यार, हर रिश्ता होता है। प्रभात को सही रास्ता दिखाना मेरी जिम्मेदारी है मगर कभी मैं भटक जाऊं तो मेरा साथ मत छोड़ना त्रिधा।" संध्या की बात सुनकर त्रिधा ने संध्या को "पागल" कहते हुए गले से लगा लिया इतने में हर्षवर्धन संध्या के पास आ गया और बोला - "बस अब तुम सेंटी मत हो।" फिर त्रिधा को देखते हुए बोला - "ये अकेली ही हम सबके हिस्से का रो लेती है।" हर्षवर्धन की बात सुनकर सब हंस पड़े। आज का दिन चारों ने काफी अच्छा बिताया था और सभी के लिए यादगार भी था आज का यह दिन आखिर एक लंबे समय बाद ये चारों साथ थे। शाम को अपने हॉस्टल में आकर त्रिधा, हर्षवर्धन और प्रभात के दिए हुए गिफ्ट्स खोलकर देख रही थी मगर इससे पहले उसने मुस्कुराते हुए दोनों के गिफ्ट्स के रैपिंग पेपर भी संभाल कर रख लिए। जैसे ही त्रिधा ने प्रभात का गिफ्ट खोलकर देखा तो खुशी से हैरान रह गई। उसमें हाथों के बुने हुए दो स्वेटर थे। उसे याद आया एक बार उसने प्रभात से कहा था कि बचपन में ही उसके मम्मी पापा के चले जाने के कारण व
ह कभी जान ही नहीं पाई कि मां के हाथों से बने स्वेटर स्नेह की कितनी गर्माहट लपेटे होते हैं अपने धागों में। गिफ्ट बॉक्स में स्वेटर के साथ साथ एक नोट भी था "अभी गर्मियां हैं, मगर सर्दियों में यह स्वेटर जरूर पहनना त्रिधा।" त्रिधा मुस्कुरा दी। भराभर गर्मियों में भी स्वेटर पहन कर देख रही थी और पागलों की तरह हंस रही थी वह। अपने मोबाइल में अपनी कुछ तस्वीरें क्लिक करने के बाद उसने स्वेटर संभाल कर रख दिए सर्दियों के इंतजार में और हर्षवर्धन का दिया गिफ्ट खोला तो उसकी चीख निकल पड़ी। हर्षवर्धन ने उसे अपनी बनाई एक पेंटिंग गिफ्ट की थी। यह वही पेंटिंग थी जो त्रिधा को देखने के बाद हर्षवर्धन ने पूरी रात जागकर बनाई थी। त्रिधा पागलों की तरह पूरे कैनवास को छूकर देख रही थी। आज उसे अपने लिए हर्षवर्धन का प्यार समझ आया था। उसे हमेशा लगता था कि कॉलेज खत्म होने के बाद जब वह भोपाल से चली जायेगी तब हर्षवर्धन वक्त के साथ साथ उसे भूल जायेगा मगर आज समझ गई थी वह कि वह भोपाल से जायेगी तो हर्षवर्धन का मन भी अपने साथ ले जाएगी और पीछे बचेगा तो सिर्फ दर्द सिर्फ और सिर्फ हर्षवर्धन झेलेगा उस दर्द को हमेशा के लिए। अपने मोबाइल पर कॉल आने पर त्रिधा चिढ़ गई और बड़बड़ाने लगी - "अब इंसान आराम से अपने गिफ्ट्स भी नहीं देख सकता।" मोबाइल उठाकर देखा हर्षवर्धन ही था। "रोने का कोटा पूरा हुआ आज का?" त्रिधा के कॉल रिसीव करते ही उस ओर से हर्षवर्धन की आवाज सुनाई दी। त्रिधा मुस्कुरा दी और पूछने लगी - "तुम्हें कैसे पता चला?" हर्षवर्धन हंस पड़ा। वह बोला - "बहुत अच्छे से जानता हूं तुम्हें। आज मिले तोहफे देखकर तो तुम्हें गंगा जी, नर्मदा जी को यहां बुलाना ही था।" त्रिधा मुस्कुरा दी और बोली - "तुम्हीं ने बात की न प्रभात और संध्या से।" हर्
षवर्धन बोला - "अरे पागल हो क्या? मुसीबतों का जन्मदिन कौन मनाना चाहता है? तुम मेरी जिंदगी में किसी मुसीबत से कम हो क्या? न साथ हो न दूर हो।" त्रिधा हंस पड़ी और बोली - "बात मत बदलो... तुम्हारे अलावा कौन याद रखता कि मेरा जन्मदिन कब पड़ता है?" हर्षवर्धन थोड़ा गंभीर होकर बोला - "भूल गईं त्रिधा आज संध्या ने क्या कहा था? दोस्त हैं है सब और दोस्तों से भी ज्यादा एक परिवार हैं। लड़ाई, झगड़े, गलतफहमियां हम सबके बीच के प्यार को कभी कम नहीं कर पाएंगी। तुम्हारा जन्मदिन प्रभात ने ही पता किया था कॉलेज में वह भी पिछली साल ही मगर अक्टूबर में पता चला था उसे इसीलिए इस बार उसने ही मुझसे और संध्या से बात की तुम्हें सरप्राइज देने के लिए। वो तो तुम रेस्टोरेंट के पास ही मिल गईं तो थोड़ा प्लान बदलना पड़ा वरना संध्या तो तुम्हारे हॉस्टल आकार तुम्हारे मुंह और आंखों पर पट्टी बांधकर लाने वाली थी तुम्हें।" त्रिधा हैरानी से हर्षवर्धन की बात सुन रही थी। और हर्षवर्धन बोलता जा रहा था "वर्षा के आने के बाद उनका समय बंटा है, तुम्हारे लिए उनका प्यार नहीं। लेकिन तुम्हारे जल्दबाजी में लिए गए फैसले वे दोनों नहीं समझ पाए। त्रिधा कभी कभी गलत हम सब होते हैं मगर गलत होना और बुरा होना दो अलग बातें हैं।" त्रिधा हैरानी से बोली - "मगर मैंने तो उन्हें कभी गलत भी नहीं कहा बुरा क्यों कहूंगी? मैं जानती हूं कि ये परिस्थितियां ही गलत हैं।" हर्षवर्धन ने कहा - "मुझे पता था त्रिधा तुम बहुत समझदार हो और सब कुछ समझती हो मगर तुम्हें समझाना भी मेरा ही तो फर्ज है न!" त्रिधा मुस्कुराते हुए बोली - "हां मैं समझ गई और सिर्फ इतना ही नहीं इसके अलावा और भी बहुत कुछ समझ गई हूं आज मैं।" त्रिधा की बात सुनकर हर्षवर्धन उससे पूछने लगा - "और क्या समझ गईं तुम?" त्रिधा कहने लगी - "तुम्हारी बनाई पेंटिंग देखी मैंने... और अब यह मत पूछना कि मैं क्या समझी हूं... तुम भी बहुत अच्छे से समझ गए कि मैं क्या समझी हूं। गुड नाइट।" कहकर त्रिधा ने मुस्कुराते हुए फोन रख दिया। हर्षवर्धन का कॉल रखते ही त्रिधा के फोन पर प्रभात का कॉल आ गया। त्रिधा ने तुरंत उसका कॉल रिसीव किया। उस तरफ से प्रभात कहने लगा - "क्या कर रही थीं? गर्मियों में ही दोनों स्वेटर पहन कर देख लिए न।" त्रिधा हंस पड़ी और बोली - "तुम्हें कैसे पता कि मैंने स्वेटर पहन कर देखे ही हैं?" प्रभात बोला - "बहुत अच्छे से जानता हूं मैं तुम्हें... अति उत्साहित होने की बहुत पुरानी बीमारी है तुम्हें। वैसे भी जब जब तुम बहुत ज्यादा खुश होती हो तो तुम्हारे एक दो स्क्रू गिर जाते हैं।" त्रिधा मुस्कुरा पड़ी और बोली - "मेरा जन्मदिन इतना खूबसूरत बनाने के लिए तुम्हारा, संध्या और हर्षवर्धन, तीनों का बहुत-बहुत धन्यवाद। आज का दिन में कभी नहीं भूल पाऊंगी मेरी जिंदगी के सबसे अच्छे दिनों में से एक था यह दिन।" कुछ देर प्रभात से बात करने के बाद त्रिधा ने कॉल रख दिया और आराम से अपने बिस्तर पर लेट गई। वह समझ चुकी थी कि वर
्षा गलत तो है मगर उसे प्रभात और संध्या की जिंदगी से दूर करना इतना आसान नहीं है। उसे इन दोनों की जिंदगी से दूर करने के लिए उसे सामान्य होना ही पड़ेगा। वर्षा वह मधुमक्खी है जो शहद परोस कर सबके बीच रहती है मगर त्रिधा यह बखूबी समझ गई थी कि शहद परोसने वाली मधुमक्खियां बहुत खतरनाक होती हैं और मधुमक्खियों को कभी भी सीधे-सीधे नहीं मारते वरना वे पलटकर काटती ही हैं, मधुमक्खियों को मारने के लिए छल शह और मात की जरूरत है और अब त्रिधा यही करने वाली थी। अगले दिन त्रिधा सुबह जल्दी ही सो कर उठ गए और नाश्ता करने के बाद जल्दी जल्दी तैयार होने लगी। आज उसे संध्या, प्रभात और हर्षवर्धन सभी से मिलना था। सबसे पहले वह हर्षवर्धन से मिलने जा रही थी फिर संध्या और उसके मम्मी पापा से मिलकर वह प्रभात के घर उसके मम्मी पापा से मिलकर वापस हॉस्टल लौटने वाली थी। त्रिधा ने हर्षवर्धन को पहले ही कॉल कर दिया था, वह उसे लेने आ गया था। कुछ देर बाद दोनों झील के किनारे खड़े थे। हर्षवर्धन बोला - "तुम झील के इस किनारे का वो किस्सा तो नहीं भूली न त्रिधा?" त्रिधा हंसते हुए बोली - "वो दिन मैं कभी भूल भी नहीं सकती जब तुमने मेरा मोबाइल झील के पानी को समर्पित कर दिया था।" हर्षवर्धन मासूमियत से अपने गाल पर हाथ रखते हुए बोला - "मैं भी कभी नहीं भूल सकता त्रिधा उस दिन को। गुस्से में ही सही मुझे पहली बार छुआ था तुमने।" त्रिधा ने कुछ नहीं कहा बस उसकी आंखों से आंसू बह रहे थे। हर्षवर्धन ने आगे बढ़कर उसके आंसू पोंछे और बोला - "तुम्हें रुलाने का मेरा कोई इरादा नहीं था त्रिधा... सॉरी। मैं बस मजाक कर रहा था। तुम दुखी क्यों होती हो? जिससे प्यार होता है उससे ही तो इंसान नाराजगी जता सकता है न!" त्रिधा ने हर्षवर्धन के गाल को छूकर कहा - "जिससे
प्यार होता है उसे तकलीफ भी नहीं पहुंचाते। तुमने हमेशा मुझे प्यार दिया और मैं तुम्हें सिवाय तकलीफों के कुछ नहीं दे पाई।" हर्षवर्धन त्रिधा के हाथ को अपने हाथों में लेकर मुस्कुराते हुए बोला - "आज तुमने माना तो सही कि तुम भी मुझसे प्यार करती हो। इतना मत सोचो त्रिधा, यह तुम्हारी कॉलेज लाइफ है, इसे एंजॉय करो। मेरे साथ तो तुम्हें जीवन भर ही रहना है और तब न जाने कितनी बार मुझे ऐसे ही तोहफे मिलेंगे।" हर्षवर्धन अपने गाल पर वापस हाथ रखकर हंसते हुए बोला फिर आगे कहने लगा - "तब उदास हो जाना मगर अभी से तुम्हें परेशान होने की जरूरत नहीं है, अभी तो तुम बस अपने करियर और अपने दोस्तों पर ध्यान दो। हर्षवर्धन सिर्फ तुम्हारा था, तुम्हारा है और तुम्हारा ही रहेगा।" त्रिधा नजरें झुकाए हुए बोली - "मैं तो कब का मान चुकी हूं कि बहुत प्यार है मुझे तुमसे।" हर्षवर्धन ने आगे बढ़कर त्रिधा को गले लगाना चाहा मगर कुछ सोचकर रुक गया तब त्रिधा ने आगे बढ़कर उसे गले लगा लिया। कई घंटों तक दोनों ऐसे ही झील के किनारे बैठे रहे। दोपहर में त्रिधा को झील के किनारे बैठना अच्छा लगता था न लोग होते थे और न ही कोई शोर। वह बस सुकून से हर्षवर्धन के साथ ये दिन जी लेना चाहती थी। कुछ देर बाद हर्षवर्धन ने त्रिधा को संध्या के घर के पास छोड़ दिया और खुद अपने घर चला गया। त्रिधा जैसे ही संध्या के घर गई संध्या का छोटा भाई मयंक त्रिधा से लिपट गया और बोला - "त्रिधा दीदी आप कितने दिनों के बाद आई हो। मैंने संध्या को कितना बोला था कि आपको लेकर आए लेकिन यह तो किसी की बात ही नहीं सुनती है और ना ही मुझे आपसे मिलवाने के लिए लेकर जा रही थी। आपको पता है मुझे आपकी कितनी चिंता हो गई थी। आपको पता है मैन आपको कितना याद करता था लेकिन मम्मी पापा के पास तो टाइम ही नहीं होता, बस संध्या ही है पूरे घर में जो फालतू है और यह भी मुझे आपसे मिलवाने नहीं लेकर गई। मैं आपके लिए चॉकलेट भी लेकर आया हूं और एक गिफ्ट भी लेकर आया हूं आप जल्दी मेरे साथ चलो।" मयंक की बात सुनकर त्रिधा हंसने लगी और बोली - "मयंक तुम तो बिल्कुल अपनी संध्या दीदी की तरह हो गए हो! कितना बोलने लगे हो।" त्रिधा की बात सुनकर सब लोग हंसने लगे। संध्या के मम्मी पापा वहीं थे। त्रिधा ने उन दोनों के पैर छुए और फिर उनके गले लग गई। संध्या की मम्मी भी बहुत देर तक त्रिधा के सिर पर प्यार से हाथ फेरती रहीं। वे बोलीं - "वैसे मयंक गलत नहीं कह रहा है बेटा। तू इतने समय से क्यों नहीं आई थी हमसे मिलने?" त्रिधा संध्या को देख कर बोली - "कुछ खास बात नहीं मम्मा। बस ऐसे ही... वक्त ही नहीं मिल पाया।" तब संध्या की मम्मी ने त्रिधा के कान मरोड़ते हुए कहा - "अपने परिवार से मिलने के लिए वक्त मिलता नहीं है बेटा, निकाला जाता है। अबकी बार से अगर तू समय से घर नहीं आई तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा। इस संध्या से तो मैं कह कह कर थक गई थी कि तुझसे बात करवाए मगर इसने कोई बात ही नहीं की। सिर्फ इतना कहती रहती कि उसे किसी से
बात नहीं करनी।" त्रिधा हल्की सी मुस्कुराई और संध्या को देखने के बाद संध्या की मम्मी से बोली - "हां मम्मा बस कॉलेज और पढ़ाई की थोड़ी चिंता थी इसीलिए मूड भी ठीक नहीं रहता था।" संध्या के पापा ने त्रिधा के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा - "कोई बात नहीं बेटा। अब तो एग्जाम हो गए हैं अब छुट्टियों में आती रहना चलो आकर खाना खा लो बाकी सभी बातें होती रहेंगी।" "ओके पॉप्स।" कहकर त्रिधा मुस्कुराती हुई खाना खाने बैठ गई। त्रिधा ने गौर किया संध्या के घर में कुछ भी नहीं बदला था। संध्या के मम्मी पापा आज भी उसे अपनी बेटी की तरह ही प्यार कर रहे थे। मयंक आज भी उसे अपनी बड़ी बहन की तरह सम्मान दे रहा था और उनकी डाइनिंग टेबल पर आज भी त्रिधा की पसंद का ही खाना लगा हुआ था। हां कुछ भी तो नहीं बदला था संध्या के घर में सिवाय संध्या और त्रिधा की दोस्ती के जो अच्छे से अच्छा और बुरे से बुरा समय देख चुकी थी। मगर अब त्रिधा खुश थी उसे पता था उसके दोस्त कहीं नहीं जाएंगे बस उन्हें सही तरह से समझाने भर की जरूरत है। कुछ देर बाद त्रिधा और संध्या एक बार फिर संध्या के रूम में थे और वे दोनों अपनी पसंदीदा मूवी कुछ कुछ होता है देख रहे थे। मूवी में शाहरुख खान और रानी का रोमांस देखकर संध्या बोली - "कितना अच्छा होता न त्रिधा मैं और प्रभात भी कहीं ऐसे ही डांस कर रहे होते।" संध्या की बात सुनकर त्रिधा मुस्कुराने लगी और फिर अगले ही पल सपाट लहजे में उससे कहने लगी - "और कुछ सालों बाद तुम मर भी जाती।" संध्या ने चेहरे पर बिना किसी भाव भंगिमा के त्रिधा की पीठ पर दो तीन मुक्के जड़ दिए और त्रिधा भी संध्या को थप्पड़ मुक्कों से पीटने लगी। बहुत समय बाद ऐसा हो रहा था कि दोनों सहेलियां आपस में इतनी खुश थीं। शाम होने पर त्रिधा एक एक कर सबसे आज्ञ
ा लेकर प्रभात के घर जाने के लिए निकलने लगी। शाम को प्रभात के घर डिनर करने के बाद वह वापस हॉस्टल जाने वाली थी। संध्या, त्रिधा को घर से बाहर तक छोड़ने आई थी। त्रिधा को जाते देखकर संध्या ने उसे कसकर गले लगा लिया और उसके चेहरे को अपने हाथों में लेकर बोली - "इस एक साल में हमारे बीच बहुत कुछ सही नहीं रहा त्रिधा, हमारी दोस्ती ने बहुत सारे उतार-चढ़ाव देखे हैं मगर इन उतार-चढ़ावों के कारण ही हमारी दोस्ती पहले से भी ज्यादा पक्की हो गई है। हम सभी अपने अपने जीवन में एक दूसरे की अहमियत समझने लगे हैं। त्रिधा पुराना जो कुछ हुआ सो हुआ मगर अब मैं सब कुछ बहुत अच्छा कर दूंगी। तुम कभी परेशान मत होना, न मैं तुम्हें कभी छोडूंगी और न ही तुम्हारे प्रभात को कभी तुमसे दूर जाने दूंगी।" त्रिधा ने भी संध्या को अपने गले से लगा लिया और बोली - "मैं जानती हूं संध्या तुम सब ठीक कर दोगी मगर कहीं बहुत देर न हो जाए... कहीं मैं ही तुम सब से दूर न हो जाऊं!" त्रिधा की बात सुनकर संध्या बोली - "ऐसे मत कहो त्रिधा। अब कुछ भी गलत नहीं होगा। बस तुम खुश रहो जितनी खुश तुम कल थीं, उतना खुश मैंने तुम्हें कभी नहीं देखा मैं चाहती हूं तुम्हारी खुशी हमेशा बनी रहे इसके लिए मुझसे जो बन पड़ेगा मैं हमेशा करूंगी।" त्रिधा संध्या के गले लग गई और बोली - "चलो अब जाने दो देर हो रही है।" संध्या के घर से त्रिधा जब प्रभात के घर पहुंची तो उस वक्त प्रभात और उसकी मम्मी हॉल में बैठे हुए थे और प्रभात के पापा अपने रूम में थे। प्रभात के पापा बहुत लंबे समय से त्रिधा से मिलना चाहते थे और इस बार उनकी भी छुट्टियां हो गई थी तो वे भी आ गए। त्रिधा ने प्रभात की मम्मी को इशारे से चुप रहने के लिए कह दिया और पीछे से जाकर प्रभात के कान जोर से ऐंठ दिए। प्रभात समझ गया कि यह त्रिधा ही है और प्रभात पीछे पलटकर अपनी आंखें छोटी करके त्रिधा को घूरने लगा। त्रिधा ने मुंह बिगाड़ दिया और प्रभात की मम्मा के सामने जाकर खड़ी हो गई। प्रभात की मम्मी ने त्रिधा को लाड़ से गले लगा लिया और उन्होंने भी उससे वही शिकायत की जो संध्या की मम्मी ने की थी। प्रभात की मम्मी बोलीं - "बहुत दिनों बाद आई त्रिधा। इतने दिनों से क्यों नहीं आई?" त्रिधा कहने लगी - "बस थोड़ी परेशान थी मम्मी इसीलिए आना नहीं हुआ।" प्रभात के पापा तभी आए। त्रिधा को देखते ही वे पहचान गए कि यह त्रिधा ही है। उन्होंने त्रिधा के सिर पर हाथ रखते हुए कहा - "बहुत प्यारी हो बेटा। प्रभात हमेशा तुम्हारी बहुत तारीफ करता था और इसे तुम्हारी तारीफ सुनने के बाद मैं भी काफी समय से तुमसे मिलना चाहता था। आज तुमसे मिलने के बाद मैं समझ गया कि प्रभात वाकई तुम्हारी झूठी तारीफ नहीं करता। तुम सच में बहुत समझदार दिखती हो" त्रिधा प्रभात को जीभ दिखाकर चिढ़ाती हुई बोली - "थैंक्स पापा।" प्रभात वहां आकर बोला - "बस दिखती ही है समझदार, यह है नहीं समझदार पापा।" कुछ देर बाद त्रिधा ने प्रभात और उसके मम्मी पापा के साथ डिनर किया। आज तो मन
ही मन उसे सिलेब्रिटी वाला फील आ रहा था। सब उससे कितने प्यार से बातें कर रहे थे और सबके साथ बैठकर खाना खाना उसे ऐसा लग रहा था जैसे बरसों बाद परिवार मिला हो। और वाकई पिछले एक साल में वह बिलकुल ही भूल गई थी किसंध्या और प्रभात के पैरेंट्स उसे कितना प्यार करते हैं। वह तो बस प्रभात और संध्या को खो देने के डर से ही बिना सोचे समझे कुछ भी किए जा रही थी। आज त्रिधा को समझ आया कि अगर उनकी दोस्ती टूटती तो संध्या और प्रभात के पैरेंट्स के दिल भी टूटते जिन्होंने त्रिधा को अपनी बेटी मान लिया था। प्रभात के घर त्रिधा ज्यादा देर तक नहीं रुक सकती थी क्योंकि आठ बजते ही उसका हॉस्टल बंद हो जाता था और उससे पहले ही उसे हॉस्टल पहुंचना होता था। त्रिधा जब सबसे मिलकर जाने लगी तो उसने प्रभात के मम्मी पापा के चेहरे पर एक उदासी देखी। त्रिधा समझती थी उन्हें एक बेटी की कमी खलती थी जो त्रिधा ने पूरी कर दी थी। आज उसे अहसास हुआ कि संध्या और प्रभात से अपनी नाराजगी के चलते उसने मम्मी पापा (प्रभात के पैरेंट्स) और मम्मा पॉप्स (संध्या के पैरेंट्स) को कितना दुख दिया था। उनका कितनी बार उससे बात करने का मन हुआ होगा मगर उसने किसी से मिलना तो क्या बात करना तक जरूरी नहीं समझा। अपने दोस्तों से अपनी नाराजगी रखते रखते बड़ों का स्नेह भूल गई थी वह। कुछ देर बाद त्रिधा सबसे मिलकर, बाय बोलकर अपने हॉस्टल के लिए जाने लगी। बाहर अंधेरा हो गया था। प्रभात उसे छोड़ने बाहर तक आया तब बाहर फैले अंधेरे को देखकर उससे बोला - "देर हो गई है त्रिधा, चलो तुम्हें मैं छोड़ आता हूं।" त्रिधा मुस्कुराते हुए प्रभात के गले लग गई और बोली - "नहीं प्रभात मैं चली जाऊंगी। तुम परेशान मत हो वैसे भी हॉस्टल अगली ही गली में है। प्रभात अपना और सबका ध्यान रखना। और सु
नो... मेरे सबसे अच्छे दोस्त बनने के लिए थैंक्स और सुनो... ऐसे ही अकडू खडूस रहना हमेशा और सुनो सुनो... संध्या के पागलपन को झेलना सीखो अब।" प्रभात मुस्कुरा दिया और त्रिधा के सिर पर हाथ रख कर बोला - "मेरी सबसे अच्छी दोस्त बनने के लिए तुम्हारा शुक्रिया त्रिधा।" त्रिधा प्रभात बाय कहकर निकल गई। बाहर रोड पर काफी अंधेरा था, रोड लाइट्स काम नहीं कर रही थी शायद। त्रिधा थोड़ी ही आगे चली थी और सोच रही थी कि प्रभात को साथ ले ही आना चाहिए था। त्रिधा कुछ ही कदम चली होगी और अचानक उसे अपने ठीक पीछे एकदम पीली लाइट्स जलती हुई महसूस हुईं और अगले ही क्षण....
‪थोड़ा सा बायें! ‪थोड़ा सा दाये! ‪मुस्कुराइये! ‪बहुत अच्छा। बहुत अच्छा! ‪हाँ सही है। ‪ दूल्हा बनने की तैयारी हो गई? ‪अरे यार। ‪घोड़ी नहीं सूली चढ़ेगा भाई। ‪ क्या बोल रहा है यार ये। ‪शादी में ऐसा होता है यार। ‪अरे बड़ा मज़ा आने वाला है। ‪अरे ये तो जान छुड़ा के भाग गया। ‪क्या बड़ी मम्मी! अंदर कोई है क्या? ‪अरे हाँ बेटा दो मिनट रुक जा! ‪तेरे बड़े पापा कबसे गये हैं। ‪पहले आया है उसे पहले मौका मिलेगा! ‪कर ना फोटो ही खिंचवा ले। ‪फोटो? ‪आओ न भईया, आपको राजकुमार बनाएँ। ‪आजा ध्रुव, फोटो खिंचवाते हैं। ‪ ये है हमारे पास। ‪मज़ा आ रहा है? ‪पता नहीं! ‪हाँ भईया, थोड़ा बायें। ‪बायें? ऐसे? ‪थोड़ी ठोड़ी ऊपर। ‪हाँ! ‪पता नहीं। ‪सही है। ‪मुझे भी पता नहीं है। ‪है इनकी शादी हो रही है। ‪ भईया एक और फोटो! ‪ध्रुव? बड़ा होकर शादी करेगा? ‪हाँ करूंगा! ‪किससे? ‪मम्मी से। ‪मम्मी से। ‪माफ़ करना बेटा बहुत देर हो गई। ‪अब जा सकते हो। ‪था। ‪मां? कुलकर्णी नाम का लड़का कहाँ से मिलेगा? ‪क्यों चाहिये? ‪फिर। ‪वर्ना मेरी शादी ही नहीं होगी। ‪शादी करने के लिये एक सा सरनेम होना ‪बिल्कुल ज़रूरी नहीं है। ‪और पापा कुलकर्णी! ‪फिर आपने अपना नाम बदल दिया? ‪हाँ! सब करते हैं। ‪क्यों करते हैं? ‪आपकी देखभाल करते हैं। ‪आपका परिवार होते हैं। ‪आपका पति और आप ‪एक दूसरे का परिवार होगे! ‪आपकी और पापा की देखभाल कौन करेगा फिर? ‪तू इतना सब क्यों पूछ रही है? ‪चल अब शब्द लेखन का अभ्यास कर। ‪और मुझे ना पहेली सुलझाने दे। ‪ अच्छा सुन। ‪की ज़रूरत नहीं है। ‪आराम से भी कर सकते हैं। ‪मैं इससे शादी करने वाला हूँ यार। ‪कितनी प्यारी है। ‪ उससे? ‪अबे तेरी शादी होने तक वो बूढ़ी हो गई होगी! ‪तो? सचिन की बीवी उससे पांच साल बड़ी है! ‪हाँ? ‪ठीक है सही है। ‪चल ना हाए, हेलो बोल कर आते हैं। ‪नहीं जाते, हमारी चौप हो जाएगी। ‪ए चल ना यार, प्लीज़! ‪अबे नहीं। ‪नहीं, अबे जाने दे ना! ‪भाई के लिये। ‪भाई के लिये नहीं चलेगा? ‪तू जा ना यार। ‪भाई के लिये, भाई के लिये। ‪मेरे को क्यों लेके जा रहा है? ‪चल ना प्लीज़। भाई के लिये प्लीज़। ‪अपनी भाभी के लिये प्लीज़! ‪ तू अकेले जा ना। ‪हैं। ‪तो मैं वो शुक्रवार को ही लेकर आ जाऊँ? ‪हाँ पर ‪हैं तो क्या होता है? ‪शुरुआत में बस थोड़ा सा नशा देता है। ‪रहता है। ‪कोई टेंशन वाली बात नहीं हैं। ‪हाँ फिर ले आ, करके देखते हैं। ‪कौनसा फ्लेवर लाऊं ये बता? ‪देख मेरे पास गुलाब है, सेब है ‪पान और स्ट्राबेरी है। ‪नहीं पान नहीं, स्ट्राबेरी सही रहेगी! ‪स्ट्राबेरी। ‪स्ट्राबेरी। ‪कर रहे हैं! ‪चल चलते हैं। ‪रुक। ‪सही है! ‪चल चलते हैं। ‪आह, बस ज़रा देखना चाहते थे ‪हाँ, ज़रूर। ‪अच्छा वो शुक्रवार का प्लैन तय है ना? ‪हाँ हाँ एकदम पक्का। ‪पापा तो नहीं हैं ना पक्का? ‪माफ़ करना! कुछ नहीं हुआ। ‪कोई बात नहीं। ‪क्या आप मुझे ये समझा सकती हो? ‪हाँ बिल्कुल। ‪ए, तू! ‪मैथ्स मॉडल वाले लड़के हो ना तुम? ‪राष्ट्रीय मैथ ओलंपियाड। ‪ अरे वाह, अच्छा! ‪टेस
्ला कॉईल कैसे नहीं आता फिर? ‪मुझे आता है ये ध्रुव को नहीं आता। ‪हम्म। ‪दरअसल रहने दो। समझ गया। शुक्रिया, शुभ दिन! ‪अरे यार बच्चे हैं! ‪कोई बात नहीं ध्रुव। आओ मैं समझाती हूँ। ‪देखो। ‪इसको दबाओ ‪से। ‪मुझे भी पढ़ा दोगी? ‪मेरा भी और अभ्यास हो जाएगा। ‪दीदी! ‪बिल्कुल! ‪तुम इसे दबाओ ‪फिर इस ट्यूब को लेकर ‪पास लाओ ‪और फिर ‪ वाह! ‪अच्छा है ना? ‪बहुत अच्छा। ‪हाए! ‪हाए! ‪मम्मी ने खीर बनाई है। ‪चलो चलो काजू! ‪बस बस काजू! काजू! चल अंदर आ! ‪क्या है अंदर इसके? ‪खीर। ‪अरे वाह खीर! मस्त है। ‪तुझे देखते ही इतना ख़ुश हो जाता है ये! ‪याद है इसको जब लेकर आये थे? ‪बिल्कुल किशमिश रंग का थे ये। ‪भूरी किशमिश! ‪और धोया तो? ‪काजू बन गया! ‪तूने नाम बहुत अच्छा रखा है इसका! ‪मैं बहुत खुश हूँ कि काजू आपके पास है। ‪तो मिल जाता है। ‪क्या चल रहा है ये? ‪चलो, जाओ अभी। ‪मना नहीं करते, तो तू रखती काजू को अपने घर? ‪तीन सौ प्रतिशत! ‪तीन सौ प्रतिशत! ‪मोनी आंटी आई थी। ‪आज क्या बोली? ‪आपकी पेड़ से शादी हुई है! ‪पेड़ से? ‪क्या पागल बात है ना? ‪कुछ भी बोलती है वो! ‪उसको देख कर ही पता चल जाता है! ‪विशेषज्ञ हो गई है? ‪हाँ ना! ‪साढ़े छब्बीस की हो गई है! हम्म। ‪बच्चा रहेगा! ‪और सत्ताईस साल के बाद बच्चे करने में ‪बहुत मुश्किल। ‪पर उनका क्या मतलब इस सबसे! ‪तू एक्टिंग बहुत अच्छी करती है उसकी। ‪पर दीदी आप चिंता मत करो! ‪आप टेंशन मत लो। ‪मैं बस थोड़ी हैरान हूँ ‪नहीं की! ‪ना जिससे शादी कर सकूँ! ‪सारी ज़िंदगी का वादा कर सकूँ। ‪ऐसा भी विकल्प होता है क्या? ‪सत्ताईस की उम्र में भी? ‪हैं हम बता? ‪दोस्ती, आराम, सहारा? ‪वो तो मेरा काजू भी दे देता है! ‪दे ताली! ‪अकेलापन नहीं लगता आपको? ‪अकेलापन लोगों को शादी के बाद भी होता है। ‪तुझे क्य
ों अकेलेपन से परेशानी होने लगी? ‪तूने किसी को पकड़ा है ना? ‪नहीं! ‪पटाया है कि नहीं बता सच? ‪अरे नहीं! ‪स्कूल में है ना? ‪सच सच बोल! ‪अरे नहीं। ‪तेरी टीचर को बताऊंगी मैं! ‪नहीं! ‪पापा को भी बताउंगी! ‪अरे? ‪बता! ‪झूठी! ‪ अरे! ‪झूठी, बॉयफ्रेंड है क्या! ‪ध्रुव ये सही नहीं था। ‪थोड़ा सा ही पानी था यार ‪पूरा पानी पी गया यार तू। ‪क्या तुम ठीक हो? ‪मुझे नहीं करना है ये। ‪एक दिन की बात है। हम पहुंच जाएंगे यार। ‪नहीं, यार नहीं ‪ये हमारे बारे में है। ‪मैं और नहीं कर सकती। ‪रुक! क्या मतलब था तुम्हारा? ‪हम ये क्यों कर रहे हैं? ‪क्या कर रहे हैं? ये ट्रैक? ‪ट्रैक तो तू अपने सीवी के लिये कर रहा है। ‪पर ये ‪ये क्यों कर रहे हैं हम? ‪साथ क्यों हैं। ‪सकता हूँ? ‪शब्द इस्तेमाल करना बंद कर। ‪काफी बक़वास लगता है। ‪माफ़ करना, मैं ‪मैं बस सोच रही थी ‪बातचीत याद है? ‪कर रही है क्या? ‪सही क्योंकि... मुझे कुछ नहीं याद। ‪मुझे कुछ भी याद नहीं। ‪नहीं? ‪करते हैं। ‪क्या बोल रही है दिव्या? ‪ऐसे क्यों बात कर रही है? ‪सुन ले ना! ‪इस बारे में। ‪की। सुन ले ना मेरी बात। ‪अरे क्या सुनूं यार? ‪तुझे पिछले डेढ़ साल से कुछ नहीं याद? ‪देख तू कह क्या रही है? ‪ये ‪ऐसा नहीं है यार ‪बेशक़ मुझे कुछ चीज़ें याद हैं। ‪हमने साथ कुछ ख़ास पल गुज़ारे। ‪माफ़ करना, मुद्दा ये नहीं है। मैं बस ‪देखो ‪ध्रुव, तुम बहुत होशियार लड़के हो। ‪चीज़ों के बारे में जानकारी है। ‪हो पर ‪और ना ही मुझे शौक है। ‪इधर उधर सर हिला रही हूँ सबके सामने। ‪धीरे धीरे बोलेगी क्या मुझे समझ नहीं आ रहा। ‪मैं एक उदाहरण देती हूँ। जैसे आनुभाविक। ‪का प्रयोग करा? आनुभाविक क्या है, यार? ‪निरीक्षण करके साबित करूंगा। ‪यही, बस एकदम यही कह रही हूँ मैं! ‪तुम चीज़ों को समझा क्यों रहे हो यार? ‪नहीं दिखता ‪आते हो। ‪नहीं है ना, यार। ‪क्या चाहिये पर मुझे अभी नहीं पता ना। ‪मैं अभी भी तलाश में हूँ। ‪मैंने ‪मैंने बहुत कोशिश करी है। ‪मैं बस नहीं... मैं बस अब और नहीं कर सकती। ‪नहीं था यार। ‪तैयार हूँ। तू मुझे बता ना ‪है, और मैं वो सब ठीक कर दूंगा, यार। ‪मैं अपने आप को बदलने के लिये तैयार हूँ। ‪तू मुझे बता तो दे! ‪नहीं ध्रुव, मैं क्यों बताऊँ। ‪अरे पर क्यों नहीं? ‪क्योंकि जब भी मैं तुम्हारे साथ होती हूँ ‪हूँ ‪और ये मेरे लिये बहुत तकलीफ़ देह है। ‪जिसके साथ हम ख़ुश नहीं। ‪दिव्या ऐसे मत बोल। ‪हम रास्ता निकाल लेंगे ना, यार ऐसे मत बोल। ‪नहीं कर रही। ‪मुझे माफ़ करना, ध्रुव। ‪मैं ये नहीं कर सकती। ‪ये भरा हुआ है। ‪तभी वहाँ से पिया था। ‪तो ये पहले क्यों नहीं बताया? ‪ ध्रुव! ‪भी पीता नहीं! ‪मेरा बच्चा! ‪ इधर आओ मेरे प्यारे! ‪गर्लफ्रेंड भी आ रही हैं। ‪अपने को प्राइवेट रूम मिलेगा। ‪बहुत मज़ा आने वाला है। ‪अरे बोटिंग करेंगे। ‪सनसेट पॉइंट पर फोटो लेंगे। ‪और एको पॉइंट पर ना... आई लव यू चिल्लाएंगे। ‪तो सब जगह से आई लव यू, आई लव यू आएगा! ‪काव्या, मैं तुमसे बात कर रहा हूँ। ‪विवेक, मेरा
एनएम में सिलेक्शन हो गया है। ‪तुझे सेल्स ऐंड मार्केटिंग करनी है ‪सही? ‪तो एमबीए क्यों करना है? ‪किस बात के लिये? ‪पापा की कम्पनी सम्भालो ना यार! ‪और आख़िर में हम दोनों को ही सम्भालनी है। ‪उम्मीद है तुम्हें पता है। ‪विवेक. ज़रा समझने की कोशिश करो। ‪काव्या, क्या तुम मुझसे प्यार करती हो? ‪बिल्कुल मैं करती हूँ। ‪हाँ? ‪दिमाग से सोच ना। ‪दो? ‪तुम बात क्या कर रही हो? ‪तुम्हें कोई अक़्ल है? बात क्या कर रही हो? ‪अरे रिश्ता ख़त्म हो जाता है। ‪प्यार नहीं रहता, एक औपचारिकता रह जाती है। ‪पर मैं ऐसा नहीं होने दूंगी। वादा करती हूँ! ‪मैं हर वीकेंड पर आऊँगी यहाँ। ‪था। हमारी शादी के बाद के लिये! ‪उसका क्या? ‪उनको क्या बोलूंगा मैं? ‪नया बाथरूम, नया संडास। ‪मेरी बात तो सुनो, प्लीज़। ‪हैं! मेरा अपना प्राइवेट रूम होगा! ‪और एमबीए के बाद मस्त नौकरी भी लगेगी। ‪जोशी। वाह। ‪काव्या जोशी मत बोलो! ‪तुम्हें अच्छा लगता था ये कहलवाना, समझीं? ‪अब ये ड्रामे मत कर यहाँ पर। ‪क्या तुम ज़रा भी समझने की कोशिश करोगे? ‪दो ना। ‪मुझे ख़ुशी मिलेगी। ‪पता है, पता है। ‪जा! ‪जाओ, जाओ, जाओ! ‪तेरा तो सही है ना। तेरे तो दो दो हैप्पी। ‪हैप्पी। मेरा क्या? ‪मेरा क्या? ‪काव्या, यार। ‪तोड़ने वाले हैं? ‪फिर मम्मी के इतने करीब क्यों आई यार? ‪नहीं आना चाहिये था ना। ‪क्या रिश्ता तोड़ना? ‪काव्या ‪रहेंगे। ‪एक घर होगा हमारा। बच्चे होंगे हमारे। ‪हम बाद में बात करेंगे ना? ‪भूल जा यार। ‪क्या बात करेंगे? ‪बचा क्या है बात करने के लिये? ‪हैं? ‪क्योंकि काव्या मैं नागपुर में ही बसा हूँ। ‪अगर तुम जाती हो, हम शादी नहीं कर सकते। ‪तो ये शर्त है? ‪या तो विवेक मिलेगा या बम्बई? ‪काव्या तू गलत ले जा रही है। ‪तू मुझे गलत महसूस करवा रहा है। ‪सिर्फ अपने लिय
े कुछ चाहने के लिये ‪मैं ग़लत नहीं हूँ इस सोच में। ‪छोड़ यार ‪कुत्ते वाली भूख लग रही है, यार! ‪सस्ता वाला बड़ा पीज़ा! ‪क्या एक समय एक जैसी बात है, यार! ‪दूंगा। तू टेंशन मत ले यार। ‪अच्छा प्रस्ताव है, मैं सोचूंगी! ‪शुक्रिया! ‪पीज़ा पसंद है। ‪क्या? ‪कुछ भी! ‪सच्ची। ‪अरे वो दूसरा वाला कहीं बेहतर है! ‪सर आपको ज़्यादा अच्छा कौनसा लगता है? ‪ध्रुव। ‪पूछ ही तो रहा हूँ! ये वाला या ये वाला? ‪सर मैं ग्लूटन से अलेर्जिक हूँ। ‪अलेर्जिक है? ‪नब्बे के दशक में होता था क्या यार ये? ‪बुलाते क्या हैं। ‪सुन ‪अगर कुछ ऑफ ऑफ हो तो तू मुझे बता दिया कर। ‪मतलब? ‪मतलब... तू मुझे बस फीडबैक दे दिया कर। ‪कि ध्रुव तुम ऐसे कर लो वैसे कर लो। ‪अपने बारे में ये बदल लो। ‪तू जो बोल मैं कर लूंगा। ‪क्यों? ‪है क्या? ‪नहीं! ‪होता है ना? ‪ही पसंद हूँ जैसा मैं हूँ। ‪क्या? तुम्हें मैं वैसे पसंद नहीं जैसे हूँ? ‪पसंद हो। बस एकदम ऐसे ही। ‪अच्छा कुछ ऑफ़ है, हाँ। ‪बोल यार। ‪ख़ुद के नाम पर था। ‪वाह क्या बात है यार। ‪है ना? ‪ये जैसे ज़िंदगी का नया दौर है। ‪ऐसे जैसे लगे कि अब तुम बड़े हो रहे हो। ‪कौनसा बड़ा, कुलकर्णी? ‪हम तो बस साथ ही रह रहे हैं हम कूल लोग हैं। ‪शादी को अभी बहुत समय है। ‪हैं। ‪ये बेहतर कैसे है? ‪साथ रहना, शादी का अभ्यास नहीं है क्या? ‪हाँ, पर इससे आउट होने का डर नहीं है ना। ‪तो बिना दबाव के बस खेलते रहो। ‪ऐसा है? ‪कुलकर्णी बुलाते हो। ‪नहीं। ‪नहीं बस करो। ‪एक ही तो ले रहा हूँ। ‪नहीं। ‪एक ले रहा हूँ! ‪ध्रुव वो तुम्हारा है ये मेरा। ‪बाँट कर खा रहे हैं ना? ‪नहीं। ‪यार इसमें आठ है। ‪इसीलिये मैंने छोटा मंगवाया था। ‪पर एक? ‪नहीं ध्रुव, ये मुझे खत्म करना था। ‪यार हमारा सिंक अच्छा था। ‪ध्रुव इसका मतलब ‪तू हमारा सिंक खराब कर रही है। ‪तू फाल्तू की बेईमानी मत कर। ‪मैं नहीं कर रहा। ‪तुम्हारा वाला वो होना था ‪नाटकीय थोड़े ही ना हैं, यार। ‪हूँ। मुझे खुद नहीं करनी शादी! ‪तो अंगूठी क्यों दी? ‪क्योंकि ये बातचीत का मुद्दा है ना? ‪सोफे का रंग, परदे का रंग, टीवी ‪अब टीवी बेच दिया ना तूने। ‪मैंने नहीं बेचा ध्रुव। ‪ध्रुव मैं बहुत परेशान हूँ इस वक्त। ‪मैं भी ऐसा ही महसूस कर रहा हूँ। ‪इसलिये तो आ ना बात करते हैं यार। ‪काव्या मैं तीन तक गिनती गिनूंगा, ठीक है? ‪और तीन के बाद? ‪चार, पांच, छह और क्या? ‪पागलों जैसी बात करना बंद कर यार। ‪में बात करनी ही थी ना। ‪तू आ जा ना। ‪मैं बैठ रहा हूँ, तू आजा यार। ‪ये तुमने अचानक से ऐसे क्यों पूछा? ‪जिन्हें सरप्राइज़ पसंद हो। ‪था। चटक गया था मैं। ‪शादी कर लूंगा। ‪कर लें। ‪कौन सब? ‪दिल्ली की सारी ज़िंदा और मरी हुई चीज़ें। ‪पर मुद्दा वो नहीं है। ‪इन सारी चीजों से मुझे एक चीज़ समझ आई है। ‪कि मुझे ज़िंदगी से अभी क्या नहीं चाहिये। ‪जो कि क्या है? ‪शादी यार। ‪ध्यान देना है। ‪काम नहीं कर सकता। ‪बस यही बताना था यार और कुछ नहीं। ‪दिखाओ? ‪दादी की है। ‪ठीक है। ‪चलो तुम्हें तो सही से पता है। ‪हा
ँ और क्या। ‪क्या मतलब? ‪मतलब मैंने इस बारे में बहुत सोचा है। ‪तुमसे शादी करने के बारे में भी सोचा है। ‪मैंने ‪मुझसे ये पूछोगे। ‪और? ‪और वो बस ये ‪कि ये वो नहीं है। ‪नहीं है। ‪पर... तेरे क्या कारण हैं? ‪पता नहीं। ‪चाहिये। ‪एक दूसरे को सब कुछ नहीं बताना चाहिये? ‪नहीं, ध्रुव। ‪माफ़ करना। मुझे वाकई नहीं पता। ‪चीज़ें थोड़ी अलग हैं जबसे मैं वापस आया हूँ। ‪जैसे एक प्रतिशत भी ‪ध्रुव क्या कह रहे हो? ‪यार मैं हूँ ना जिसे पता नहीं है। ‪मैं वो बंदा हूँ। ‪चाहिये। ‪तो तू तरीके से मुझे एक बार समझा दे। ‪ध्रुव मुझे सच में नहीँ पता। ‪कर रही हूँ। ‪क्या बोलने की बात होती है? ‪ये लोग क्यों बोलते हैं? ‪बातचीत के साथ कैसे कर सकता हूँ? ‪लग रहा है? ‪ध्रुव आओ ज़रा बैठो। ‪नहीं। रहने दे। ‪मैं बस थोड़ी खुली हवा में जा रहा हूँ। ‪कहाँ जा रहे हो? ‪आईस क्रीम खाने जा रहा हूँ। ‪ध्रुव तुम्हारा वज़न बढ़ रहा है ना? ‪वाकई? तू अभी इस समय ये चीज़ बोलेगी? ‪खाना खाने से रोकूँ। ‪तेरे दिमाग में क्या चल रहा है? ‪और टोक मत मुझे खाने दे। ‪ ‪ ‪थोड़ा सा बायें! ‪थोड़ा सा दाये! ‪मुस्कुराइये! ‪बहुत अच्छा। बहुत अच्छा! ‪हाँ सही है। ‪ ‪ दूल्हा बनने की तैयारी हो गई? ‪अरे यार। ‪घोड़ी नहीं सूली चढ़ेगा भाई। ‪ क्या बोल रहा है यार ये। ‪शादी में ऐसा होता है यार। ‪अरे बड़ा मज़ा आने वाला है। ‪अरे ये तो जान छुड़ा के भाग गया। ‪ ‪क्या बड़ी मम्मी! अंदर कोई है क्या? ‪अरे हाँ बेटा दो मिनट रुक जा! ‪तेरे बड़े पापा कबसे गये हैं। ‪यार! आज तो मेरी शादी है! मुझे लगा आज तो जो ‪पहले आया है उसे पहले मौका मिलेगा! ‪ कोई नहीं कोई नहीं! तब तक तू एक काम ‪कर ना फोटो ही खिंचवा ले। ‪फोटो? ‪आओ न भईया, आपको राजकुमार बनाएँ। ‪आजा ध्रुव, फोटो खिंचवाते हैं। ‪ ये है हम
ारे पास। ‪मज़ा आ रहा है? ‪पता नहीं! ‪हाँ भईया, थोड़ा बायें। ‪बायें? ऐसे? ‪थोड़ी ठोड़ी ऊपर। ‪हाँ! ‪पता नहीं। ‪सही है। ‪मुझे भी पता नहीं है। ‪ये सब क्या हो रहा है? सबको देख कर लग रहा ‪है इनकी शादी हो रही है। ‪ भईया एक और फोटो! ‪ध्रुव? बड़ा होकर शादी करेगा? ‪हाँ करूंगा! ‪किससे? ‪मम्मी से। ‪ ‪मम्मी से। ‪माफ़ करना बेटा बहुत देर हो गई। ‪अब जा सकते हो। ‪कोई बात नहीं बड़े पापा मैं तो अभी अभी आया ‪था। ‪मां? कुलकर्णी नाम का लड़का कहाँ से मिलेगा? ‪क्यों चाहिये? ‪शादी के बाद मुझे हस्ताक्षर बदलना पड़ेगा ना ‪फिर। ‪वर्ना मेरी शादी ही नहीं होगी। ‪शादी करने के लिये एक सा सरनेम होना... ‪बिल्कुल ज़रूरी नहीं है। ‪शादी के पहले मैं ईला देसाई थी, ‪और पापा कुलकर्णी! ‪फिर आपने अपना नाम बदल दिया? ‪हाँ! सब करते हैं। ‪क्यों करते हैं? ‪शादी के पहले, ‪...मां और पापा ‪आपकी देखभाल करते हैं। ‪आपका परिवार होते हैं। ‪शादी के बाद, ‪आपका पति और आप... ‪एक दूसरे का परिवार होगे! ‪आपकी और पापा की देखभाल कौन करेगा फिर? ‪तू इतना सब क्यों पूछ रही है? ‪चल अब शब्द लेखन का अभ्यास कर। ‪और मुझे ना पहेली सुलझाने दे। ‪ अच्छा सुन। ‪ये हस्ताक्षर ना इतना तेज़ी से करने ‪की ज़रूरत नहीं है। ‪आराम से भी कर सकते हैं। ‪ ‪ ‪मैं इससे शादी करने वाला हूँ यार। ‪कितनी प्यारी है। ‪ उससे? ‪अबे तेरी शादी होने तक वो बूढ़ी हो गई होगी! ‪तो? सचिन की बीवी उससे पांच साल बड़ी है! ‪हाँ? ‪ठीक है सही है। ‪चल ना हाए, हेलो बोल कर आते हैं। ‪नहीं जाते, हमारी चौप हो जाएगी। ‪ए चल ना यार, प्लीज़! ‪अबे नहीं। ‪नहीं, अबे जाने दे ना! ‪भाई के लिये। ‪भाई के लिये नहीं चलेगा? ‪तू जा ना यार। ‪भाई के लिये, भाई के लिये। ‪मेरे को क्यों लेके जा रहा है? ‪चल ना प्लीज़। भाई के लिये प्लीज़। ‪अपनी भाभी के लिये प्लीज़! ‪ तू अकेले जा ना। ‪पता है शुक्रवार को ना पापा टूर पर जा रहे ‪हैं। ‪तो मैं वो शुक्रवार को ही लेकर आ जाऊँ? ‪हाँ पर... ‪पहले ये बता, ‪जब धुआँ पहली बार अंदर लेते ‪हैं तो क्या होता है? ‪शुरुआत में बस थोड़ा सा नशा देता है। ‪उसके बाद तो बस फ्लेवर का ही स्वाद आता ‪रहता है। ‪कोई टेंशन वाली बात नहीं हैं। ‪हाँ फिर ले आ, करके देखते हैं। ‪कौनसा फ्लेवर लाऊं ये बता? ‪देख मेरे पास गुलाब है, सेब है... ‪पान और स्ट्राबेरी है। ‪नहीं पान नहीं, स्ट्राबेरी सही रहेगी! ‪स्ट्राबेरी। ‪स्ट्राबेरी। ‪अबे! ये लोग तो मिल्क शेक के बारे में बात ‪कर रहे हैं! ‪चल चलते हैं। ‪रुक। ‪सही है! ‪चल चलते हैं। ‪आह, बस ज़रा देखना चाहते थे... ‪हाँ, ज़रूर। ‪अच्छा वो शुक्रवार का प्लैन तय है ना? ‪हाँ हाँ एकदम पक्का। ‪पापा तो नहीं हैं ना पक्का? ‪माफ़ करना! कुछ नहीं हुआ। ‪कोई बात नहीं। ‪क्या आप मुझे ये समझा सकती हो? ‪हाँ बिल्कुल। ‪ए, तू! ‪मैथ्स मॉडल वाले लड़के हो ना तुम? ‪राष्ट्रीय मैथ ओलंपियाड। ‪ अरे वाह, अच्छा! ‪टेस्ला कॉईल कैसे नहीं आता फिर? ‪मुझे आता है ये ध्रुव को नहीं आता। ‪मुझे भी आता है
बस थोड़ा अभ्यास चाहियेI ‪हम्म। ‪दरअसल रहने दो। समझ गया। शुक्रिया, शुभ दिन! ‪अरे यार बच्चे हैं! ‪कोई बात नहीं ध्रुव। आओ मैं समझाती हूँ। ‪देखो। ‪इसको दबाओ... ‪अह, दरअसल मैंने भी नहीं पढ़ा बहुत दिनों ‪से। ‪मुझे भी पढ़ा दोगी? ‪मेरा भी और अभ्यास हो जाएगा। ‪दीदी! ‪बिल्कुल! ‪तुम इसे दबाओ... ‪फिर इस ट्यूब को लेकर... ‪पास लाओ... ‪और फिर... ‪ वाह! ‪अच्छा है ना? ‪बहुत अच्छा। ‪ ‪ ‪हाए! ‪हाए! ‪मम्मी ने खीर बनाई है। ‪चलो चलो काजू! ‪बस बस काजू! काजू! चल अंदर आ! ‪क्या है अंदर इसके? ‪खीर। ‪अरे वाह खीर! मस्त है। ‪तुझे देखते ही इतना ख़ुश हो जाता है ये! ‪ ‪याद है इसको जब लेकर आये थे? ‪बिल्कुल किशमिश रंग का थे ये। ‪भूरी किशमिश! ‪और धोया तो? ‪काजू बन गया! ‪तूने नाम बहुत अच्छा रखा है इसका! ‪मैं बहुत खुश हूँ कि काजू आपके पास है। ‪अब बस मैं निकल कर बाहर आती हूँ ‪तो मिल जाता है। ‪क्या चल रहा है ये? ‪चलो, जाओ अभी। ‪और अगर तेरे पाप तुझे ‪मना नहीं करते, तो तू रखती काजू को अपने घर? ‪तीन सौ प्रतिशत! ‪तीन सौ प्रतिशत! ‪ ‪मोनी आंटी आई थी। ‪आज क्या बोली? ‪आपकी पेड़ से शादी हुई है! ‪ ‪पेड़ से? ‪क्या पागल बात है ना? ‪कुछ भी बोलती है वो! ‪उसको देख कर ही पता चल जाता है! ‪देख कर पता चल जाता है? तू बड़ी हावभाव की ‪विशेषज्ञ हो गई है? ‪हाँ ना! ‪साढ़े छब्बीस की हो गई है! हम्म। ‪अगर ऐसे ही चला तो काजू उसका पहला और आख़री ‪बच्चा रहेगा! ‪और सत्ताईस साल के बाद बच्चे करने में... ‪बहुत मुश्किल। ‪पर उनका क्या मतलब इस सबसे! ‪तू एक्टिंग बहुत अच्छी करती है उसकी। ‪ ‪पर दीदी आप चिंता मत करो! ‪आप टेंशन मत लो। ‪मैं बस थोड़ी हैरान हूँ... ‪जैसे, ये थोड़ा पागलपन है कि आपने शादी ही ‪नहीं की! ‪हाँ क्योंकि ऐसा कोई पागल बंदा नहीं मिला ‪ना ज
िससे शादी कर सकूँ! ‪सारी ज़िंदगी का वादा कर सकूँ। ‪ऐसा भी विकल्प होता है क्या? ‪सत्ताईस की उम्र में भी? ‪हां ना। क्यों नहीं होता? शादी क्यों करते ‪हैं हम बता? ‪दोस्ती, आराम, सहारा? ‪वो तो मेरा काजू भी दे देता है! ‪दे ताली! ‪अकेलापन नहीं लगता आपको? ‪अकेलापन लोगों को शादी के बाद भी होता है। ‪तुझे क्यों अकेलेपन से परेशानी होने लगी? ‪तूने किसी को पकड़ा है ना? ‪नहीं! ‪पटाया है कि नहीं बता सच? ‪अरे नहीं! ‪स्कूल में है ना? ‪सच सच बोल! ‪अरे नहीं। ‪तेरी टीचर को बताऊंगी मैं! ‪नहीं! ‪पापा को भी बताउंगी! ‪अरे? ‪बता! ‪झूठी! ‪ अरे! ‪झूठी, बॉयफ्रेंड है क्या! ‪मेरी बेबी उदास महसूस कर रही है ‪वह सोच रही है कि मैं कोई चिंता नहीं ‪कर रहा हूं ‪जब मैं वास्तव में इस समय कर रहा हूँ ‪लेकिन मैं केवल इतना करना चाहता हूं कि मुझे ‪अपना समय चाहिए ‪जब स्थितियां प्रमुख थीं थोड़ी सी कठिनाइयां ‪हुई ‪तुकबंदी करने के लिए एक कठिन शब्द ‪ध्रुव ये सही नहीं था। ‪थोड़ा सा ही पानी था यार... ‪पूरा पानी पी गया यार तू। ‪क्या तुम ठीक हो? ‪मुझे नहीं करना है ये। ‪एक दिन की बात है। हम पहुंच जाएंगे यार। ‪नहीं, यार नहीं... ‪ये हमारे बारे में है। ‪मैं और नहीं कर सकती। ‪रुक! क्या मतलब था तुम्हारा? ‪हम ये क्यों कर रहे हैं? ‪क्या कर रहे हैं? ये ट्रैक? ‪ट्रैक तो तू अपने सीवी के लिये कर रहा है। ‪पर ये... ‪ये क्यों कर रहे हैं हम? ‪अरे तू अचानक से मुझसे पूछेगी कि हम ‪साथ क्यों हैं। ‪तो मैं इसका आनुभाविक रूप से कैसे उत्तर दे ‪सकता हूँ? ‪आनुभाविक... एक तो ये बड़े बड़े ‪शब्द इस्तेमाल करना बंद कर। ‪काफी बक़वास लगता है। ‪माफ़ करना, मैं... ‪मैं बस सोच रही थी... ‪तुम्हें पिछले हफ़्ते हमारी बरिस्ता में हुई ‪बातचीत याद है? ‪हाँ जब हम कोल्ड कॉफी पी रहे थे तब की बात ‪कर रही है क्या? ‪सही क्योंकि... मुझे कुछ नहीं याद। ‪बल्कि पिछले डेढ़ साल से जो हम साथ हैं ‪उसमें से, ‪मुझे कुछ भी याद नहीं। ‪एक सेकंड, क्या मतलब तुम्हें कुछ भी याद ‪नहीं? ‪मेरे ख़्याल से हम एक दूसरे को सिर्फ़ बोर ‪करते हैं। ‪क्या बोल रही है दिव्या? ‪ऐसे क्यों बात कर रही है? ‪सुन ले ना! ‪मैंने पूरे ट्रैक के दौरान बहुत सोचा है ‪इस बारे में। ‪आख़िरकार मेरे पास हिम्मत है ये कहने ‪की। सुन ले ना मेरी बात। ‪अरे क्या सुनूं यार? ‪तुझे पिछले डेढ़ साल से कुछ नहीं याद? ‪देख तू कह क्या रही है? ‪ये... ‪ऐसा नहीं है यार... ‪बेशक़ मुझे कुछ चीज़ें याद हैं। ‪हमने साथ कुछ ख़ास पल गुज़ारे। ‪माफ़ करना, मुद्दा ये नहीं है। मैं बस... ‪देखो... ‪ध्रुव, तुम बहुत होशियार लड़के हो। ‪चीज़ों के बारे में जानकारी है। ‪तुम चीज़ों के बारे में बेहिचक बात कर सकते ‪हो पर... ‪मुझे उन चीज़ों के बारे में जानकारी नहीं है ‪और ना ही मुझे शौक है। ‪और ज़्यादातर मुझे लगता है जैसे मैं ‪मूर्खो की तरह, ‪इधर उधर सर हिला रही हूँ सबके सामने। ‪सुन तू प्लीज़, अह, ‪धीरे धीरे बोलेगी क्या मुझे समझ नहीं आ रहा। ‪मैं एक उद
ाहरण देती हूँ। जैसे आनुभाविक। ‪और तुमने क्या सोच कर आनुभाविक जैसे शब्द ‪का प्रयोग करा? आनुभाविक क्या है, यार? ‪अगर मेरे पास कोई परिकल्पना है तो मैं उसे ‪निरीक्षण करके साबित करूंगा। ‪यही, बस एकदम यही कह रही हूँ मैं! ‪तुम चीज़ों को समझा क्यों रहे हो यार? ‪सच कहूँ तो मुझे तुममे कुछ भी रोचक ‪नहीं दिखता... ‪बस इसके अलावा कि तुम होशियार हो और अव्वल ‪आते हो। ‪तुम्हेँ चीज़ों के बारे में अंदाज़ा भी तो ‪नहीं है ना, यार। ‪तुम्हें भले ही पता चल गया हो कि तुम्हें ‪क्या चाहिये पर मुझे अभी नहीं पता ना। ‪मैं अभी भी तलाश में हूँ। ‪मैंने... ‪मैंने बहुत कोशिश करी है। ‪मैं बस नहीं... मैं बस अब और नहीं कर सकती। ‪दिव्या, क़सम से मुझे इस बारे में कुछ पता ‪नहीं था यार। ‪अच्छा किया तूने बता दिया और मैं बदलने को ‪तैयार हूँ। तू मुझे बता ना... ‪कि तेरे को किस किस चीज़ से तकलीफ़ ‪है, और मैं वो सब ठीक कर दूंगा, यार। ‪मैं अपने आप को बदलने के लिये तैयार हूँ। ‪तू मुझे बता तो दे! ‪नहीं ध्रुव, मैं क्यों बताऊँ। ‪अरे पर क्यों नहीं? ‪क्योंकि जब भी मैं तुम्हारे साथ होती हूँ... ‪मैं खुद को बदलने की कोशिश में लगी रहती ‪हूँ... ‪और ये मेरे लिये बहुत तकलीफ़ देह है। ‪और हमें उस इंसान के साथ नहीं रहना चाहिये ‪जिसके साथ हम ख़ुश नहीं। ‪दिव्या ऐसे मत बोल। ‪हम रास्ता निकाल लेंगे ना, यार ऐसे मत बोल। ‪मैं पहले से ही इस बारे में अच्छा महसूस ‪नहीं कर रही। ‪मुझे माफ़ करना, ध्रुव। ‪मैं ये नहीं कर सकती। ‪ये भरा हुआ है। ‪तभी वहाँ से पिया था। ‪तो ये पहले क्यों नहीं बताया? ‪ ध्रुव! ‪रोने का कोई फ़ायदा नहीं ‪अपना सामान बांधो और भाग जाओ ‪कोई कारण नहीं ‪इसके होने का ‪मैं डायरी में लिख रहा हूं ‪देखो कितना शरीफ़ लड़का है। सॉफ़्ट ड्रिक ‪भी
पीता नहीं! ‪मेरा बच्चा! ‪ ‪पेज ठंडे लगते हैं ‪ इधर आओ मेरे प्यारे! ‪कुछ महीने बाकी हैं और कुछ भी नहीं बचा ‪बताने को ‪और छह साल पहले ‪नए के साथ रहने की कोशिश की ‪और मैं देखता हूं कि मैंने कितने पन्नों को ‪छोड़ दिया ‪लड़की मेरे उदास बेबी को ढूंढ लेगी ‪काव्या, कल्पक, अमे, निपुन, इन सबकी ‪गर्लफ्रेंड भी आ रही हैं। ‪और कल्पक के माथेरन वाले गेस्टहाउस में ‪अपने को प्राइवेट रूम मिलेगा। ‪बहुत मज़ा आने वाला है। ‪अरे बोटिंग करेंगे। ‪सनसेट पॉइंट पर फोटो लेंगे। ‪और एको पॉइंट पर ना... आई लव यू चिल्लाएंगे। ‪तो सब जगह से आई लव यू, आई लव यू आएगा! ‪काव्या, मैं तुमसे बात कर रहा हूँ। ‪विवेक, मेरा एनएम में सिलेक्शन हो गया है। ‪तुझे सेल्स ऐंड मार्केटिंग करनी है... ‪सही? ‪तो एमबीए क्यों करना है? ‪किस बात के लिये? ‪पापा की कम्पनी सम्भालो ना यार! ‪और आख़िर में हम दोनों को ही सम्भालनी है। ‪उम्मीद है तुम्हें पता है। ‪विवेक. ज़रा समझने की कोशिश करो। ‪काव्या, क्या तुम मुझसे प्यार करती हो? ‪बिल्कुल मैं करती हूँ। ‪हाँ? ‪इसीलिये बिनती कर रही हूँ कि तू एक बार ठंडे ‪दिमाग से सोच ना। ‪लम्बी दूरी वाले रिश्ते को एक बार मौका तो ‪दो? ‪तुम बात क्या कर रही हो? ‪तुम्हें कोई अक़्ल है? बात क्या कर रही हो? ‪अरे रिश्ता ख़त्म हो जाता है। ‪आपस का आकर्षण ख़त्म हो जाता है। प्यार ‪प्यार नहीं रहता, एक औपचारिकता रह जाती है। ‪पर मैं ऐसा नहीं होने दूंगी। वादा करती हूँ! ‪मैं हर वीकेंड पर आऊँगी यहाँ। ‪साला मांबाबा ने दूसरी मंज़िल को ठीक करवाया ‪था। हमारी शादी के बाद के लिये! ‪उसका क्या? ‪उनको क्या बोलूंगा मैं? ‪नया बाथरूम, नया संडास। ‪मेरी बात तो सुनो, प्लीज़। ‪हम बम्बई में भी बहुत मस्ती कर सकते ‪हैं! मेरा अपना प्राइवेट रूम होगा! ‪और एमबीए के बाद मस्त नौकरी भी लगेगी। ‪तीन साल मैं सबको बोलता रहा ‪काव्या और विवेक जोशी, काव्या और विवेक ‪जोशी। वाह। ‪काव्या जोशी मत बोलो! ‪तुम्हें अच्छा लगता था ये कहलवाना, समझीं? ‪अब ये ड्रामे मत कर यहाँ पर। ‪क्या तुम ज़रा भी समझने की कोशिश करोगे? ‪एक बार मुझे अपने ख़ुद के लिये निर्णय लेने ‪दो ना। ‪मेरे बारे में भी सोच। तुम्हें पता है इससे ‪मुझे ख़ुशी मिलेगी। ‪पता है, पता है। ‪जा! ‪जाओ, जाओ, जाओ! ‪तेरा तो सही है ना। तेरे तो दो दो हैप्पी। ‪बम्बई भी हैप्पी और तेरा विवेक भी ‪हैप्पी। मेरा क्या? ‪मेरा क्या? ‪काव्या, यार। ‪तुझे पता था ना यार कि हम रिश्ता ‪तोड़ने वाले हैं? ‪फिर मम्मी के इतने करीब क्यों आई यार? ‪नहीं आना चाहिये था ना। ‪क्या रिश्ता तोड़ना? ‪काव्या... ‪यार मैं सोचता था कि हमलोग हमेशा साथ में ‪रहेंगे। ‪एक घर होगा हमारा। बच्चे होंगे हमारे। ‪हम बाद में बात करेंगे ना? ‪भूल जा यार। ‪क्या बात करेंगे? ‪बचा क्या है बात करने के लिये? ‪लेकिन हम रिश्ता तोड़ने की बात कर क्यों रहे ‪हैं? ‪क्योंकि काव्या मैं नागपुर में ही बसा हूँ। ‪अगर तुम जाती हो, हम शादी नहीं कर सकते। ‪तो ये शर्त है? ‪या तो
विवेक मिलेगा या बम्बई? ‪काव्या तू गलत ले जा रही है। ‪तू मुझे गलत महसूस करवा रहा है। ‪सिर्फ अपने लिये कुछ चाहने के लिये... ‪मैं ग़लत नहीं हूँ इस सोच में। ‪छोड़ यार... ‪रोने का कोई फ़ायदा नहीं ‪अपना सामान बांधो और छोड़ो ‪कोई कारण नहीं ‪इसका होने का ‪छह साल पुरानी डायरी पर, मैं लिख रहा हूं ‪कवर निकल चुके हैं ‪पन्ने ठंडे लगते हैं ‪ ‪कुछ महीने बचे हैं ‪और कुछ भी कहने को नहीं बचा है ‪फ़िल्हाल, छह साल पहले ‪नये के साथ रहने की कोशिश की ‪और मैं देखता हूं कितने पन्ने मैंने छोड़ ‪दिये ‪लड़की मेरे उदास बेबी को ढूंढ लेगी ‪कुत्ते वाली भूख लग रही है, यार! ‪आ रहा है ना तेरा महंगा वाला छोटा पीज़ा और ‪सस्ता वाला बड़ा पीज़ा! ‪क्या एक समय एक जैसी बात है, यार! ‪शादी कर ले मुझसे यार! दहेज़ मैं दे ‪दूंगा। तू टेंशन मत ले यार। ‪अच्छा प्रस्ताव है, मैं सोचूंगी! ‪शुक्रिया! ‪वैसे भी, मुझे तुम्हारा बड़ा वाला ‪पीज़ा पसंद है। ‪क्या? ‪कुछ भी! ‪सच्ची। ‪अरे वो दूसरा वाला कहीं बेहतर है! ‪ ‪सर आपको ज़्यादा अच्छा कौनसा लगता है? ‪ध्रुव। ‪पूछ ही तो रहा हूँ! ये वाला या ये वाला? ‪सर मैं ग्लूटन से अलेर्जिक हूँ। ‪ये यहाँ काम करता है और ग्लूटन से ‪अलेर्जिक है? ‪नब्बे के दशक में होता था क्या यार ये? ‪होता तो होगा बस पता नहीं होगा कि इसे ‪बुलाते क्या हैं। ‪सुन... ‪ ‪अगर कुछ ऑफ ऑफ हो तो तू मुझे बता दिया कर। ‪मतलब? ‪मतलब... तू मुझे बस फीडबैक दे दिया कर। ‪कि ध्रुव तुम ऐसे कर लो वैसे कर लो। ‪अपने बारे में ये बदल लो। ‪तू जो बोल मैं कर लूंगा। ‪क्यों? ‪हमारा जैसे अपने आप चल रहा है वो सही नहीं ‪है क्या? ‪नहीं! ‪अच्छा है पर... थोड़ा बहुत बदलाव तो करना ‪होता है ना? ‪ऐसा तो नहीं है कि तुम्हें मैं बिल्कुल वैसे ‪ही पसंद हूँ जैसा मैं ह
ूँ। ‪क्या? तुम्हें मैं वैसे पसंद नहीं जैसे हूँ? ‪पसंद हो। बस एकदम ऐसे ही। ‪अच्छा कुछ ऑफ़ है, हाँ। ‪बोल यार। ‪मुझे पहला शादी का निमंत्रण मिला जो मेरे ‪ख़ुद के नाम पर था। ‪वाह क्या बात है यार। ‪इसमें अच्छा क्या है? ये तो दुख की बात ‪है ना? ‪ये जैसे ज़िंदगी का नया दौर है। ‪ऐसे जैसे लगे कि अब तुम बड़े हो रहे हो। ‪कौनसा बड़ा, कुलकर्णी? ‪हम तो बस साथ ही रह रहे हैं हम कूल लोग हैं। ‪शादी को अभी बहुत समय है। ‪हम तो मस्त हैं यार। अभी तो दो साल ही हुए ‪हैं। ‪ये बेहतर कैसे है? ‪साथ रहना, शादी का अभ्यास नहीं है क्या? ‪हाँ, पर इससे आउट होने का डर नहीं है ना। ‪तो बिना दबाव के बस खेलते रहो। ‪ऐसा है? ‪मुझे अच्छा लगता है जब तुम मुझे ‪कुलकर्णी बुलाते हो। ‪नहीं। ‪नहीं बस करो। ‪एक ही तो ले रहा हूँ। ‪नहीं। ‪एक ले रहा हूँ! ‪ध्रुव वो तुम्हारा है ये मेरा। ‪बाँट कर खा रहे हैं ना? ‪नहीं। ‪यार इसमें आठ है। ‪इसीलिये मैंने छोटा मंगवाया था। ‪पर एक? ‪नहीं ध्रुव, ये मुझे खत्म करना था। ‪यार हमारा सिंक अच्छा था। ‪ध्रुव इसका मतलब... ‪तू हमारा सिंक खराब कर रही है। ‪तू फाल्तू की बेईमानी मत कर। ‪मैं नहीं कर रहा। ‪तुम्हारा वाला वो होना था... ‪यार काव्या तुझे पता है हम इतने ‪नाटकीय थोड़े ही ना हैं, यार। ‪अरे कुछ बोल ना यार! बिल्कुल मैं तुझसे ‪शादी के लिये थोड़े ही ना पूछ रहा ‪हूँ। मुझे खुद नहीं करनी शादी! ‪तो अंगूठी क्यों दी? ‪क्योंकि ये बातचीत का मुद्दा है ना? ‪सोफे का रंग, परदे का रंग, टीवी... ‪अब टीवी बेच दिया ना तूने। ‪मैंने नहीं बेचा ध्रुव। ‪ध्रुव मैं बहुत परेशान हूँ इस वक्त। ‪मैं भी ऐसा ही महसूस कर रहा हूँ। ‪इसलिये तो आ ना बात करते हैं यार। ‪काव्या मैं तीन तक गिनती गिनूंगा, ठीक है? ‪और तीन के बाद? ‪चार, पांच, छह और क्या? ‪पागलों जैसी बात करना बंद कर यार। ‪यार सुन। कभी ना कभी तो हमें बैठ कर इस बारे ‪में बात करनी ही थी ना। ‪तू आ जा ना। ‪मैं बैठ रहा हूँ, तू आजा यार। ‪ये तुमने अचानक से ऐसे क्यों पूछा? ‪पता है हम उन लोगों मे से नहीं ‪जिन्हें सरप्राइज़ पसंद हो। ‪बिल्कुल, मैंने भी मां को ऐसे ही बोला ‪था। चटक गया था मैं। ‪कि आप कैसे सोचती हो कि अचानक से मैं ऐसे ‪शादी कर लूंगा। ‪बल्कि वो ही नहीं। सब चाहते हैं कि हम शादी ‪कर लें। ‪कौन सब? ‪दिल्ली की सारी ज़िंदा और मरी हुई चीज़ें। ‪पर मुद्दा वो नहीं है। ‪इन सारी चीजों से मुझे एक चीज़ समझ आई है। ‪कि मुझे ज़िंदगी से अभी क्या नहीं चाहिये। ‪जो कि क्या है? ‪शादी यार। ‪मुझे अभी नहीं करनी शादी। मुझे अपने काम पर ‪ध्यान देना है। ‪और तुझे पता है ना मैं एक समय पर ज़्यादा ‪काम नहीं कर सकता। ‪बस यही बताना था यार और कुछ नहीं। ‪दिखाओ? ‪दादी की है। ‪ठीक है। ‪चलो तुम्हें तो सही से पता है। ‪हाँ और क्या। ‪क्या मतलब? ‪मतलब मैंने इस बारे में बहुत सोचा है। ‪मैंने शादी के बारे में सोचा है। मैंने ‪तुमसे शादी करने के बारे में भी सोचा है। ‪मैंने... ‪मैंने उस घड़ी का सपना भी दे
खा है जब तुम ‪मुझसे ये पूछोगे। ‪और? ‪और वो बस ये... ‪कि ये वो नहीं है। ‪हाँ। ये नहीं है यार ये पता है। ये सही समय ‪नहीं है। ‪पर... तेरे क्या कारण हैं? ‪पता नहीं। ‪मुझे बस पता है कि मुझे इस समय ये नहीं ‪चाहिये। ‪क्या तुम्हारा मतलब था जब तुमने कहा कि हमें ‪एक दूसरे को सब कुछ नहीं बताना चाहिये? ‪नहीं, ध्रुव। ‪माफ़ करना। मुझे वाकई नहीं पता। ‪चीज़ें थोड़ी अलग हैं जबसे मैं वापस आया हूँ। ‪पर अगर तेरे दिमाग में कुछ भी है, ‪जैसे एक प्रतिशत भी... ‪ध्रुव क्या कह रहे हो? ‪यार मैं हूँ ना जिसे पता नहीं है। ‪मैं वो बंदा हूँ। ‪तुझे तो हमेशा पता होता है कि तुझे क्या ‪चाहिये। ‪तो तू तरीके से मुझे एक बार समझा दे। ‪ध्रुव मुझे सच में नहीँ पता। ‪और वैसे मैं तुमसे कहीं ज़्यादा बुरा महसूस ‪कर रही हूँ। ‪क्या बोलने की बात होती है? ‪ये लोग क्यों बोलते हैं? ‪अगर तू ऐसे कुछ बोलेगी तो मैं ये नॉर्मल ‪बातचीत के साथ कैसे कर सकता हूँ? ‪प्रतियोगिता है क्या कि किसको ज़्यादा बुरा ‪लग रहा है? ‪ध्रुव आओ ज़रा बैठो। ‪नहीं। रहने दे। ‪मैं बस थोड़ी खुली हवा में जा रहा हूँ। ‪कहाँ जा रहे हो? ‪आईस क्रीम खाने जा रहा हूँ। ‪ध्रुव तुम्हारा वज़न बढ़ रहा है ना? ‪वाकई? तू अभी इस समय ये चीज़ बोलेगी? ‪तुमने कहा था कि तुम्हें बाहर का गंदा ‪खाना खाने से रोकूँ। ‪अगर तुझे इतनी ही परवाह है तो बता दे ना कि ‪तेरे दिमाग में क्या चल रहा है? ‪और टोक मत मुझे खाने दे। ‪छह साल पुरानी डायरी में मैं लिख रहा हूं ‪कवर निकले हुए हैं ‪पन्ने ठंडे महसूस होते हैं ‪कुछ महीने बचे हैं ‪बताने को कुछ भी नहीं बचा ‪छह साल पहले नये के साथ रहने की कोशिश की ‪और मैं देखता हूं कितने पन्ने मैंने छोड़ ‪दिये ‪लड़की मेरे उदास बेबी को ढूंढ लेगी
दो - तीन महीने तक गरिमा के पिता सुयोग्य वर की तलाश मे भटकते रहे। अन्त मे पर्याप्त भाग - दौड़ करने के उपरान्त ऐसा वर मिल ही गया, जो सुशिक्षित होने के साथ - साथ सम्पन्न घराने का रोजगाररत भी था। लड़का सरकारी नौकर है और गाँव मे इतनी जमीन - जायदाद भी इतनी है कि आज भी उसके दादा - परदादा की नम्बरदारी का डका बजता है। एक लड़की को सुखी रहने के लिए और क्या चाहिए ! गरिमा के पिता ने प्रफुल्लित मुद्रा मे विजयी मुस्कान बिखेरते हुए कहा, परन्तु गरिमा की माँ की भाव - भगिमा कह रही थी कि वे किसी गम्भीर चिन्ता मे डूबी हुई है। अपनी सूचना की अनुकूल प्रतिक्रिया न पाकर गरिमा के पिता ने पुनः कहा - कहाँ भटक रहा है आज तेरा ध्यान ? मै कब से बोले जा रहा हूँ, और एक तू है कि...! गरिमा की चिन्ता हो रही है। मेरी भोली - भाली बेटी को पता नही कैसी ससुराल मिलेगी ! माँ - बाप अपनी बेटी को कितना भी लाड़ - प्यार कर ले, अन्त मे तो उसे दूसरो के अधीन ही रहना है। ससुराल वाले जैसे चाहेगे वैसे ही रहना पड़ेगा ! तू चिन्ता मत कर ! ऐसा लड़का ढूँढा है तेरी बेटी के लिए कि पास - पड़ोस वाले दाँतो तले उँगली दबा लेगे। देखने - दिखाने लायक है और मालूम है किस खानदान का है ?... चौधरी सज्जन सिह का पोता है ! तू नही जानती, सज्जन सिह के साथ सम्बन्ध जोड़ने के नाम से ही लोगो की छाती चौड़ी हो जाती है और सिर ऊँचा, समझी ! अब बता और क्या चाहिए तुझे तेरी बेटी के लिए ? माँ - बाप तो सभी सोचते है कि उनकी बेटी सुखी रहे, पर उसके भाग्य मे क्या लिखा है, किसको पता है ? उसका भाग्य तो नही पढ़ सकते हम - तुम ! वैसे भी तुमने उनकी धन - सम्पत्ति ही तो देखी है, वे हमारी बेटी के साथ कैसा बर्ताव करेगे ? इसका जवाब अभी कोई नही दे सकता ! अपनी चिन्ता प्रकट करके गरिमा की माँ ने एक लम्बी - सी साँस ली और चुप हो गयी। गरिमा की माँ, भविष्य तो अधकारमय है। मनुष्य का धर्म है कर्मरत रहना, फल देना ईश्वर का काम है। हम अपनी बेटी के लिए जितना भला कर सकते है, करेगे, आगे ईश्वर सबकुछ भला ही करेगा ! अब तुम चिन्ता करना छोड़कर विवाह के कार्य करने मे मन लगाओ ! ठीक कह रहे हो तुम, चिन्ता करने से कुछ भला नही होने वाला ! विवाह का दिन निश्चित होते ही सारा परिवार विवाह सम्बन्धी कायोर् मे तन - मन से जुट गया। सबको बस यही चिन्ता थी कि बिना किसी विघ्न के गरिमा का विवाह सम्पन्न हो जाए। सभी मे एक उत्साह था, एक उमग थी घर की बिटिया की डोली विदा करने की। जब भी गरिमा का कन्यादान करके डोली विदा करने की बात होती थी, तभी प्रिया की बाते आरम्भ होकर वातावरण को बोझिल बना देती थी - कन्यादान करने का सुअवसर बड़े भाग्य वालो को मिलता है। भगवान ने गरिमा को हमारे घर मे जन्म देकर हमे भी भाग्यशाली बना दिया। ऐसे ही किसी सवाद के प्रत्युत्तर मे तुरन्त कोई न कोई दूसरा सवाद प्रस्तुत करके प्रिया की यादे ताजा कर देता और सौभाग्य की प्रसन्नता को दुर्भाग्य की पीड़ा मे बदलते देर न लगती थी - प्रिया को लेकर कित
ने सपने थे सारे परिवार की आँखो मे - हमारी प्रिया ऐसी है, हमारी प्रिया वैसी है ; प्रिया के विवाह मे ऐसा करेगे - वैसा करेगे पर सारे सपने चकनाचूर कर दिये उस लड़की ने ! प्रिया की स्मृति के बादल सबकी आँखो को नम कर देते थे, किन्तु विवाह के कार्य यथावत् चलते रहते थे। अतीत की पीड़ा को वर्तमान से दूर रखने मे ही हित होता है, यह सोचकर कोई भी नही चाहता था कि गरिमा के विवाह के मगलमय शुभ अवसर पर ऐसी कोई भी चर्चा हो जो पीड़ादायक हो। इस प्रकार की चर्चा से और पीड़ा से बचने के लिए परिवार के सभी सदस्य वैवाहिक कार्य मे व्यस्त रहते हुए सार्थक - सकारात्मक विषयो पर बाते करने का प्रयास करते थे। उस समय वे अपने परिवार के बाहर के अन्य व्यक्तियो से बाते करने से बचाव की मुद्रा मे रहने का प्रयास करने लगे थे, ताकि निरर्थक और नकारात्मक चर्चाओ से मुक्त रहकर वैवाहिक - कार्यो को सम्पन्न किया जा सके। गरिमा के व्यवहार से अभी तक उसका लड़कपन झलकता था, किन्तु उसका मस्तिष्क परिपक्वता की दिशा मे कदम बढ़ा चुका था। उसके मस्तिष्क की परिपक्वता तथा चिन्तन - मनन का ही परिणाम था कि उसने अपने विवाह के सम्बन्ध मे न तो अपना कोई मत प्रकट किया था और न ही किसी बात का विरोध किया था। वह पूर्णतः तटस्थ होकर अपने परिवार के विषय मे तथा अपने भविष्य के विषय मे चिन्तन करती रहती थी। अपने विवाह के विषय मे न तो उसके अन्तःकरण मे किसी प्रकार का क्षोभ या तनाव था, न किसी प्रकार का उत्साह था। गरिमा की माँ उसकी ऐसी दशा देखकर कष्ट का अनुभव करती थी। वे उससे एक दिन मे कई - कई बार पूछती थी - क्या हो गया है तुझे ? सारा दिन इसी तरह बैठकर ही पढ़ती रहती है ! मम्मी जी ! काम तो करने नही देती हो आप, फिर क्या करूँ ? लाड़ो अब तुम्हारे कॉलिज की परीक्षा नही हो
ने वाली है, जिसकी तैयारी किताबे पढ़ - पढ़कर करोगी ! अब ससुराल की परीक्षा का समय आ गया है और इसकी तैयारी तुम अपनी सग - सहेलियो के साथ बतिया कर ही भली प्रकार कर सकोगी ! वरना...! गरिमा की भाभी ने चुटकी लेते हुए कहा। वरना क्या ? "वरना सास के घर परीक्षा मे फेल होकर अपनी पहली कक्षा मे ही रह जाओगी ! पहली कक्षा का मतलब समझ रही हो ? भाभी ने विचित्र सी मुद्रा बनाकर प्रश्न किया और तुरन्त ही अपने प्रश्न का उत्तर देते हुए व्यगात्मक शैली मे कहा - मतलब भाई के घर मे ! सास के घर रहकर उसके बेटे और उसके परिवार वालो को प्रसन्न रखने के लिए किताबी ज्ञान काम नही आता है। उस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए हमसे - अपनी भाभी से और अपनी सहेलियो से दीक्षा लेनी पड़ेगी तुम्हे ! वरना...। एक लम्बी साँस लेकर भाभी कुछ क्षण के लिए रुकी और पुनः बोलना आरम्भ किया - सास का जाया इतना सीधा नही होता है, जो सीधी - सादी पत्नी को प्यार से रख ले। और सास ? ... वह तो तिल का ताड़ बनाने मे माहिर होती है। वह ऐसे मौके के तलाश मे रहती है, जब बहू - बेटे मे तकरार हो और उसे बहू को खरी - खोटी सुनाने का सुअवसर मिले ! बहू, तू अपनी सास के बारे मे ऐसा सोचती है ? गरिमा की माँ ने कुढ़ते हुए आर्द्र स्वर मे कहा। नही, मम्मी जी ! मै आपके बारे नही कह रही हूँ ! पर मम्मी जी आपके जैसी सास सबको नही मिलती है। मेरा सौभाग्य था कि आप मेरी सास है ! गरिमा की माँ की प्रवृत्ति बहू के साथ उलझने की नही थी। वैसे भी, उन दिनो वे अपनी बेटी की चिन्ता से, उसकी विदाई के पश्चात् जीवन मे और घर मे रिक्तता की कल्पना - भर से ही हृदय मे उठने वाली भय मिश्रित आशका से असहज - सी रहती थी। अतः वे वहाँ से हटकर किसी - न - किसी महत्वपूर्ण कार्य मे व्यस्त हो जाती थी। उस समय कार्य मे व्यस्त रहते हुए भी उनका मस्तिष्क गरिमा के विषय मे ही चिन्तन करता रहता था कि उनकी बेटी सामान्य लड़कियो के समान अपने विवाह मे उत्साह और उमग मे भरी हुई क्यो नही रहती है ? यह चिन्ता उन्होने एक - दो बार गरिमा के पिता के समक्ष प्रकट करते हुए कहा था - पता नही, गरिमा को क्या हो गया है ? इस उम्र मे लड़कियाँ अपने विवाह की सूचना से ही लजाने लगती है ; झूमने लगती है ; अपनी सखी - सहेलियो से अपने ससुराल के विषय मे और होने वाले पति के विषय मे हँसती है, बतियाती है, पर हमारी गरिमा मे तो अपने विवाह को लेकर कोई उत्साह - उमग है ही नही ! तू उसकी माँ है, तुझे पूछना चाहिए, उसकी क्या समस्या है ? क्या चाहती है ? मेरा पूछना ठीक नही रहेगा, हो सकता है कि ऐसी कोई बात हो जिसे वह मुझसे न कह सके। इसलिय तू ही... ! मैने पूछा है, कई बार पूछा है, पर वह कहती कि कोई भी समस्या नही है और जो जैसा हो रहा है उससे वह सतुष्ट है। ठीक है तो फिर चिन्ता क्यो कर रही है ? देख, जो लड़कियाँ अपने विवाह के समय हँसती - बतियाती फिरती है वे हमारी बेटी जैसी नही होती है। "तो कैसी है आपकी बेटी? हमारी बेटी चिन्तनशील है। नये घर की नयी और बड़ी ज
िम्मेदारी उसके कधो पर आने वाली है, उसे कैसे पूरा करना है, इस विषय मे हर लड़की नही सोचती, हमारी बेटी सोचती है, ठीक अपनी माँ की तरह। गरिमा के पिता हल्के - फुल्के अन्दाज मे बात समाप्त करके अपने कार्य मे तल्लीन हो गये। परन्तु गरिमा की माँ अपनी चिन्ता से मुक्त नही हो सकी। मम्मी जी, आप मेरे लिए जो सामान कपड़े - गहने, जैसे भी लाओगी, मुझे सब - कुछ बहुत - बहुत अच्छा लगेगा, आप भाभी को अपने साथ लेकर चली जाओ। गरिमा, बेटी, तू हमारे साथ क्यो नही चलना चाहती ? माँ, आप जानती हो न, मुझे कपड़ो मे, गहनो मे रुचि नही है। मुझे कपड़ो - गहनो से कोई फर्क नही पड़ता है कि वे कैसे है ! मुझे पढ़ने मे रुचि है, इसलिए मुझे इस बात से फर्क पड़ता है कि मेरा अध्ययन... ! कहते - कहते गरिमा उदास हो गयी और फिर तुरन्त ही समय की सवेदनशीलता को भाँप कर हँसते हुए बोली - कपड़ो - गहनो के रग - डिजाइन के चुनाव मे मेरी प्रतिभा बिलकुल शून्य है। हाथ के सकेत से पुनः समझाते हुए हँसती बोली - बिलकुल जीरो ! जबकि भाभी और आप अच्छे रग और डिजाइन चुन सकती हो ! इसलिए आपसे मेरी प्रार्थना है कि आप व्यर्थ मे मुझे परेशान न करे, स्वय सामान खरीद कर ले आये ! अपना अन्तिम निर्णय सुनाते हुए गरिमा ने अपनी माँ से कहा। गरिमा की माँ अपनी बेटी के स्वभाव से भली - भाँति परिचित थी। वे जानती थी कि उनकी बेटी अपने निश्चय पर अटल रहती है, इसलिए उन्होने गरिमा पर किसी प्रकार का दबाव बनाना उचित नही समझा। गरिमा ने अपने गहना - वस्त्रो पर उसने किसी प्रकार की प्रतिक्रिया नही दी। यहाँ तक कि उसने अपने किसी भी सामान को ध्यानपूर्वक देखना भी आवश्यक नही समझा। उसकी दृष्टि मे देह को सुसज्जित करने वाले उन उपकरणो का कोई महत्व नही था। उसके विचारो के केन्द्र मे सौन्दर्य - उपकरण
ाे के स्थान पर अपने भावी - जीवन की रूपरेखा तथा उसको सार्थक करने वाले उपायो की कुछ स्पष्ट - सी तथा कुछ अस्पष्ट - सी एक लम्बी सूची थी। अपने भावी जीवन के लिए एक योजना थी, जिसकी सफलता - असफलता भविष्य के अन्धकारमय गर्भ मे थी। अपनी इसी योजना को केन्द्र बिन्दु बनाकर गरिमा भाँति - भाँति की कल्पनाएँ करती हुई अनुकूल समय की प्रतीक्षा कर रही थी, जैसे एक बगुला शान्त चित् होकर अपने शिकार की प्रतीक्षा करता है, कब शिकार आये और कब वह उसे पकड़े। प्रतीक्षा तो परिवार के अन्य सदस्य भी कर रहे थे, परन्तु शेष सभी सदस्य गरिमा के विवाह के लिए निश्चित शुभ दिन की प्रतीक्षा कर रहे थे। शीघ्र ही वह दिन भी आ गया, जब गरिमा आशुतोष के साथ परिणय - सूत्र मे बँध गयी और देखते - ही - देखते परिवार की शुभकामनाएँ लेकर अपनी कल्पनाओ के साथ डोली मे बैठकर पिता के घर से पति के घर जाने के लिए विदा हो गयी। पिता के घर से विदा होते समय गरिमा के चित् मे न अपना परिवार छोड़कर जाने का दुख था, न पति के घर जाने की प्रसन्नता थी। उसकी दृष्टि मे दोनो परिवार उसके आश्रय - स्थल थे, जहाँ रहते हुए उसको अपने दायित्वो का निर्वाह करने के साथ अपने जीवन को ऐसी ऊँचाई पर पहुँचाना है, जहाँ पर वह अपने व्यक्तित्व को प्रकाशित कर सके ; अपनी स्वतन्त्र पहचान बना सके। वह नही चाहती थी कि ससार मे उसका आना निरर्थक हो। मनुष्य योनि मे जन्म लेकर निरर्थक - निरुद्देश्य जीवन जीना उसे असह्य था। ससुराल मे आकर गरिमा को एक नये वातावरण मे स्वय को समायोजित करना था। जब वह ससुराल पहुँची, उसे ऐसा अनुभव हुआ जैसे शान्त - शीतल वातावरण से उष्ण और उग्र वातावरण मे आ पहुँची है। घर - परिवार की महिलाएँ जब हास - परिहास करती थी, तो लगता था कि सब - कुछ ठीक है, किन्तु कुछ ही समय मे वह परिहास व्यग - बाणो की वर्षा मे परिवर्तित होकर गरिमा की पीड़ा का कारण बन जाता था। परिपक्व वयः की कुछ स्त्रियाँ, जो सम्भवतः आशुतोष के पास - पड़ोस से अथवा अन्य किसी सम्बन्ध से वैवाहिक समारोह मे आयी थी, वात्सल्यपूर्ण मुद्रा मे बाते करते - करते उपहास और ताने की मुद्रा ग्रहण कर लेती थी। उनके तानो के तरकस मे चार - छः घिसे - पिटे तीर थे, यथा - तेरी माँ ने यह नही सिखाया - वह नही सिखाया। हास - उपहास और तानो से पगी हुई वैवाहिक रस्मो को सम्पन्न करते - करते रात हो गयी। इधर पिछली रात जागने से और फिर यात्रा करने से गरिमा पूरी तरह थक चुकी थी तथा ससुराल की महिलाओ की रस - विहीन बातो से पक चुकी थी। अतः शीघ्र ही गरिमा ने बिस्तर की माँग कर डाली और बिस्तर पर जाते ही गरिमा तुरन्त नीद के आगोश मे समा गयी। हाँ, यह बात अलग है कि जब उसने अपने सोने की इच्छा व्यक्त की थी, तब भी उसे उन महिलाओ के परिहास मिश्रित उपहास का पात्र बनना पड़ा था। अभी तो चार बजे है, आप इतना परेशान क्यो हो रही है ? चार बजे है ! तेरी माँ ने तुजै इतना बी नी समझा कै भेज्जा, बहुएँ जल्दी उठकै चार बजे तक नहा - धोकै पूजा - पाठ कर लेवै है ! उस स्त्र
ी ने गरिमा को डाँटते हुए ताना कसा, तो गरिमा निरुत्तर हो गयी। तभी गरिमा को अपनी सास का स्वर सुनायी पड़ा - कोई बात ना है जिज्जी, बालक है अभी, सैज - सैज के सीक जावेगी। जैसी तेरी मरजी ! तेरी बऊ है ! तू चाहवै तो दिन - रात सुवाये राख ! पर एक बात बताऊँ, बऊ एक बार हात्तो से लिकड़गी, तो फेर सारे कुणबे की नाक मे नकेल कसण लगेगी। समझ ले ! अपनी बात पूरी करके वह स्त्री वहाँ से चली गयी। उसके पीछे - पीछे गरिमा की सास उसको क्रोध शान्त करने के लिए चली गयी और स्थिति को भाँप कर गरिमा ने भी बिस्तर छोड़ दिया। स्थिति को नियत्रण मे रखने के लिए गरिमा को यह आवश्यक अनुभव हुआ कि फिलहाल उसे वे सभी कार्य सास के निर्देशन मे सम्पन्न करने चाहिए, जिनकी उस समाज मे एक बहू से अपेक्षा की जाती है। उस दिन सुबह से शाम तक अधिकाश समय गरिमा ने बैठकर व्यतीत किया। सारा दिन मुहँ - दिखाई की रस्म होती रही और रस्म मे सम्मिलित होने वाली महिलाएँ बहू की शक्ल - सूरत, शिक्षा - सस्कारो तथा दान - दहेज पर अपनी - अपनी टिप्पणी करती रही। अधिकाश महिलाएँ कड़वी - चुभती अप्रिय टिप्पणी करने मे ही गौरव का अनुभव कर रही थी, परन्तु अपवाद स्वरूप कुछ महिलाएँ ऐसी भी थी, जो स्नेहपूर्ण शब्दो मे प्रिय लगने वाली टिप्पणी करके यह आभास करा देती थी कि ससुराल और मायके मे बहुत अधिक अन्तर नही होता है। गरिमा को ऐसा लग रहा था कि दिन अपेक्षाकृत लम्बा हो गया है। खैर, देर से ही सही, दिन बीत गया और रात आ गयी। उस रात आशुतोष के साथ गरिमा की प्रथम भेट थी। आधी रात तक पति - पत्नी एक - दूसरे के विषय मे जानते - पूछते रहे और पे्रमालाप करते रहे। उसी समय गरिमा को प्यास लगी। उसका गला सूखने लगा, किन्तु इधर - उधर दृष्टि ड़ालने पर ज्ञात हुआ कि कमरे मे पानी की व्यवस्था नही है।
पानी पीना है, तो रसोईघर तक जाने का कष्ट उठाना पड़ेगा। गरिमा ने पति से निवेदन किया, किन्तु पति ने रसोईघर मे जाने का मार्ग बताकर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान ली। दो दिन तक परिवार मे उपस्थित महिलाओ के परिहास भरे उपहास और ताने सुन - सुनकर गरिमा मे इतना साहस नही बचा था कि वह अपनी प्यास बुझाने के लिए रात मे अपने शयन - कक्ष से बाहर निकलकर रसोईघर मे प्रवेश कर सके। सम्भवतः उसके पति मे भी इतना साहस नही था कि परिवार मे उपस्थित स्त्रियो की दृष्टि के सामने से गुजरते हुए पत्नी के लिए रसोईघर से पानी ला सके या यह भी हो सकता है कि अपने स्थानीय समाज और सस्कृति के अनुरूप वह पत्नी को सिर पर चढ़ने का अवसर न देने की सावधानी बरत रहा हो। जो भी हो सारी रात गरिमा प्यास से व्याकुल रही। तीन दिन तक ससुराल मे रहने के पश्चात् चौथे दिन गरिमा को लौट - फेर की रस्म के लिए पिता के घर लाया गया और अगले दिन पुनः ससुराल के लिए विदा कर दिया गया। इस बार पिता का घर छोड़ते समय गरिमा का हृदय अत्यन्त क्षुब्ध था। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि उसकी आत्मा पीछे छूटती जा रह है और शरीर आगे बढ़ता जा रहा था। परन्तु शरीर और आत्मा साथ - साथ रह सके, ऐसा कोई उपाय नही सूझ रहा था उसको। निरुपाय होकर उसने एक लम्बी गहरी साँस भरी और आँखे बन्द कर ली। सब कुछ समय के अधीन छोड़कर स्वय को सयत रखने का प्रयास करने लगी और अपने सकल्प पर अपना ध्यान केन्द्रित करने लगी। वह मन नही मन उच्चारने लगी - इतना छोटा नही है हमारा लक्ष्य, जिसे आसानी से प्राप्त किया जा सके ! हमे दृढ़ बनकर बाधाओ को पार करना है ! उच्च लक्ष्य की प्राप्ति उच्च कोटि के साहस, धैर्य और सदगुणो से ही सम्भव है। अपने विचारो मे खोई हुई गरिमा को पता ही न चला कि कब वह पति के घर की दहलीज पर आ पहुँची। उसकी विचार - शृखला तब टूटी, जब वह कार मे बैठी हुई महिलाओ के समूह से घिरी हुई थी और उसके कानो मे विभिन्न प्रकार के हास - परिहास मे डूबे हुए स्वर गूँज रहे थे। आज उन महिलाओ द्वारा किया जा रहा उपहास की सीमा तक पहुँचा परिहास गरिमा को इतना विचित्र नही लगा, जितना अब से पहले लगा था। अब वह उस समाज की सस्कृति से थोड़ा - बहुत परिचित हो चुकी थी और प्रत्यक्ष - अप्रत्यक्ष रूप से स्वीकार कर चुकी थी कि वह स्वय भी अब उसी समाज का एक अग है। ऐसा अग जिसको उस समाज मे अभी अपनी महत्ता सिद्ध करना शेष है। इस बार ससुराल मे आकर गरिमा को ज्ञात हुआ कि विवाह के पश्चात् ससुराल मे व्यतीत किये गये प्रथम तीन दिन उस परिवेश की मात्र झाँकी प्रस्तुत कर रहे थे, वास्तिविक रूप तो धीरे - धीरे आँखो के समक्ष आयेगा। उसने अनुभव किया कि विवाह के पूर्व का जीवन जितना बाधा रहित था, वैवाहिक जीवन उतना ही कटकाकीर्ण है। इस जीवन मे सघर्ष है, दायित्व है, असफलताएँ है और इसके साथ - साथ परिवार के प्रत्येक सदस्य से मिलने वाली उपेक्षा है। स्वय को इसी समाज मे समायोजित करना यद्यपि किसी चुनौती से कम नही है, तथापि स्वय को सिद्ध करने के लिए चुनौतियाँ
स्वीकार करना आवश्यक है। गरिमा ने यह भी अनुभव किया कि उसका कार्य - क्षेत्र छोटा है ; वह किसी प्रकार की आर्थिक, सामाजिक शक्ति की स्वामिनी नही है, किन्तु उसका आत्म - विश्वास बड़ा है। छोटे से कार्य - क्षेत्र मे त्याग, तपस्या और धैर्य से पूरे परिवार के मनोमस्तिष्क अपने अनुकूल ढालने की सामर्थ्य की स्वामिनी है वह। आत्मविश्वास से परिपूर्ण गरिमा प्रातः काल बिस्तर से उठने के समय से देर रात मे सोने के समय तक अनेकानेक छोटी - बड़ी बाधाओ को पार करके आगे बढ़ने लगी। कदम - कदम पर उसके मार्ग मे बाधाएँ उपस्थित होकर उसे आगे बढ़ने से रोकने का प्रयास कर रही थी। सबसे बड़ी बाधा गरिमा और उसकी सास के बीच का पीढ़ी अन्तराल था। घर मे होने वाला प्रत्येक कार्य सास - बहू के बीच विचारो की दूरियो का विषय बन जाता था। गरिमा चाहती थी कि उसकी सास समय के अनुरूप थोड़ा - सा आगे बढ़े और अपने विचारो को गति देते हुए तार्किक ढग से सोचे। परन्तु उसकी सास को अपने बेटे का पूर्ण समर्थन प्राप्त था, इसलिए अपनी रूढ़ परम्पराओ से आगे बढ़ने की आवश्यकता का अनुभव नही होता था या यह भी हो सकता है कि अपनी रूढ़ परम्पराएँ जिन पर उनकी मजबूत पकड़ थी, उन्हे छोड़कर आगे बढ़ने मे सास को अपनी सत्ता के खिसकने का भय सताता हो। गरिमा को इस दशा से बड़ी मानसिक पीड़ा होती थी, जब उसका पति उचित - अनुचित का सज्ञान लिए बिना घोषणा करता था कि उसकी माँ जो कुछ करती है और कहती है, वह उचित होता है, अनुचित हो ही नही सकता है। आशुतोष का इस प्रकार पत्नी के प्रति उपेक्षा पूर्ण - व्यवहार परिवार के अन्य सदस्यो को भी गरिमा के प्रति उपेक्षा पूर्ण और अनुचित व्यवहार के लिए प्रेरित करता है। इस बात का आशुतोष को एहसास ही नही था। पति के इस अज्ञानतापूर्ण व्यवहार से अनेक बार ग
रिमा खिन्न हो उठती थी। कई बार उसे ऐसा प्रतीत होता था कि स्त्री पर शासन करने के लिए पुरुष जाति की यह सोची - समझी रणनीति है, जिसमे वह उचित - अनुचित किये बिना एक स्त्री को प्रत्यक्षतः कुछ अधिक शक्ति प्रदान करता है, ताकि भ्रमित होकर वह अन्य स्त्रियो पर नियत्रण रख सके, जबकि वास्तिविक शक्तियो का स्वामी उस समय भी पुरुष स्वय होता है, चाहे वे शक्तियाँ आर्थिक हो, सामाजिक हो अथवा राजनीतिक हो। गरिमा अपने देवरो अर्थात् आशुतोष के भाइयो को भइया कहकर पुकारती थी। एक दिन आशुतोष की चाची घर पर आयी। आँगन मे बैठकर बातो का सिलसिला आरम्भ हुआ, तो महिलाओ का एक बहुत बड़ा समूह वहाँ पर बन गया। सेवा - सत्कार करने के लिए तथा घर के अन्य कार्यो का दायित्व - भार वहन करने के लिए घर मे बहू तो थी ही, फिर सास - ननद के लिए भी महिलाओ के समूह मे बैठकर हँसने - ठठियाने के अतिरिक्त काम ही क्या बचता है। चूँकि घर मे बहू आ जाने के पश्चात् घर का सारा कार्य - भार यथा - खाना बनाना, झाड़ू लगाना, बर्तन साफ करना, घर - आँगन की लिपाई - पुताई करना, परिवार के सभी सदस्यो के कपड़े धोना अपनो से बड़ो के पैर दबाना, सिर की मालिश करना और बाल सँवारना आदि सेवाएँ बहू के कार्यक्षेत्र मे सुनिश्चित कर देना उस स्थानीय समाज की प्रमुख विशेषता थी, इसलिए उन महिलाओ को दोष देना व्यर्थ है। का कैरे हे ? चाच्ची जी अब बता भी द्यो, का कैरे हे चाच्चा जी ? गरिमा चुपचाप महिलाओ को पानी के गिलास देती रही। सबेरी आसू के चाच्चा ने मेरे सै बुज्झी, आसू की बहू परसान्त, निशान्त कु भैया कहवै ? फेर ? गरिमा की ननद ने बात को आगे बढ़ाने के लिए प्रेरित किया। आस्सू के चाच्चा बोल्ले, तो आस्सू कू बी भैया इ कहण लगै, जैसे परसान्त - निसान्त, वैसा इ आसू। भाभ्भी, वैसे तो तम पढ़ी - लिक्खी हो, पर तमो ने बड़े - छोट्टे सै कैसे बात करणी चैये, यूँ नही सिखाया ? जिणसे तम मुँजोरी कर्री हो, वै म्हारी चाच्ची है। समझ मे आया ? ना आया हो, तो भैया आकै समझावेगा, जब बढ़िया सै समझ मे आ जावेगा। थारा भला तो इसी मे है। अभी तम म्हारी बात कुछ समझ ल्यो ! आग्गै थारी राज्जी है ! आज इसके ऊप्पर सनीच्चर की गिरह है, भैया आत्तो इ सूत्तेगा इसै! आशुतोष सप्ताह के अन्तिम दिन शनिवार को ही घर पर आता था। गाँव के पास कोई भी मुख्य सड़क न होने के कारण यातायात की ऐसी सुविधा सुलभ नही थी कि वह प्रतिदिन निश्चित समय पर कार्यालय मे पहुँच सके। इसलिए वह शनिवार को घर आ जाता था और सोमवार को प्रातः तीन बजे उठता था, तत्पश्चात् तैयारी करके कार्यालय के लिए प्रस्थान करता था। आज शनिवार था। आशुतोष के घर लौटने का दिन था। गरिमा छः दिन तक निरन्तर पति की मधुर याद मे तड़पते हुए इस दिन की प्रतीक्षा करती थी। परन्तु, पति के घर लौटने के पश्चात् भी वह उससे भेट नही कर सकती थी, क्योकि जैसे गरिमा प्रतीक्षा करती थी, वैसे ही परिवार के सभी सदस्य आशुतोष के लौटने की प्रतीक्षा करते थे। और आशुतोष ? उसके़ लिए गरिमा की अपेक्षा परिवार के अन
्य सदस्य अधिक महत्वपूर्ण थे। अपने सस्कारो के अनुरूप आशुतोष को लगता था कि वह अपने समाज का आदर्श सदस्य तथा परिवार का आदर्श बेटा तभी बन सकता है, जब अपनी पत्नी के न्यायोचित अधिकारो का हनन करे ओर उसको यह अनुभव कराये कि पत्नी का महत्व परिवार के अन्य सदस्यो की अपेक्षा उसके जीवन मे नगन्य है। अपने इसी प्रयास मे वह घर लौटकर गरिमा से भेट करने मे सकोच करता था। आशुतोष के इसी दृष्टिकोण का खामियाजा गरिमा को भुगतना पड़ता था। उस दिन भी ऐसा ही हुआ था। आशुतोष ने अपने कार्यालय से लौटकर कुछ समय अपने पिता तथा भाईयो के साथ व्यतीत किया। तत्पश्चात् नहा - धोकर कपड़े बदल कर माँ के पास बैठ गया। गरिमा ने खाना बना दिया था, परन्तु पति के लिए खाना परोसना उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर था। माँ ने अपनी बेटी श्रुति से कहा कि वह भैया के लिए खाना परोस दे। माँ का आदेश पाकर उसने खाना परोस दिया। खाना खाने पश्चात् भी आशुतोष को पत्नी की सुध नही आयी। वह घटो तक वही पर बैठा हुआ माँ के साथ बतियाता रहा, जैसे आज से पहले बतियाता था। दूसरी ओर, आज दोपहर की घटना से गरिमा अत्यन्त व्यथित हो गयी थी और अब अपनी विवशता पर उसकी व्यथा और भी बढ़ रही थी। कुछ समय तक वह अपने कमरे मे प्रतीक्षा करती रही, लेकिन कुछ ही समय मे उसके धैर्य ने उसका साथ छोड़ दिया। वह उठी और उसी स्थान पर पहुँच गयी, जहाँ पर आशुतोष अपनी माँ से बाते कर रहा था। वहाँ जाकर गरिमा ने देखा कि सदैव की तरह आशुतोष और माँ के चारो ओर प्रशान्त, निशान्त, सौरभ और श्रुति घेरा बनाकर बैठे थे। गरिमा भी वही पर बैठ गयी। माँ को शायद यह अच्छा नही लगा, परन्तु उन्होने इस विषय मे कुछ भी नही कहा। गरिमा के बैठने के पश्चात् कुछ क्षणो तक वातावरण मे निःशब्दता भर गयी। कुछ क्षणो पश्चात् श्रुति ने शिकाय
त के लहजे मे कहा - भैया मै तो आज सै गरिमा कू कुछ बी कहूँगी नी, चायै कुछ बी हो जाए ! क्यो ? क्या बात है ? आशुतोष ने गरिमा को कठोरतापूर्वक घूरते हुए माँ से पूछा। का बात है, इस्सैइ बूझ ले। माँ, साफ - साफ बताओ, क्या हुआ है ? आशुतोष ने माँ से पुनः पूछा। तुम्हे अपनी सामर्थ्य के अनुसार नही हमारी जरुरत के अनुसार कार्य करना है ! समझी तुम ! तुम्हे इतनी तमीज नही है कि बड़ो के साथ किस तरह बात की जाती है, कैसे मान दिया जाता है, तो मुँह को बन्द रखा करो ! गरिमा के पास अब चुप रहने के अतिरिक्त अब कोई रास्ता नही था। व्यथित होकर वह वहाँ से खड़ी हो गयी और कमरे मे जाकर बिस्तर पर लेट गयी। कुछ समय तक वह अपने व्यवहारो ओर विषमताओ पर सोचती रही। सोचते - सोचते उसकी आँखो मे आँसू भर आये। अपनी व्यथा को वह आँसुओ मे बहा देना चाहती थी। रोते - रोते कब उसको नीद आ गयी, उसको पता ही नही चला। दिन - भर के काम की थकान से वह इतनी गहरी नीद मे सोयी कि प्रातः चार बजे उसकी आँखे खुली, जबकि आशुतोष बिस्तर छोड़ चुका था। गरिमा की व्यथा अब यह सोचकर और अधिक बढ़ गयी कि उसका पति पूरी रात उसके साथ होकर भी उसके साथ नही था। सप्ताह मे एक बार घर आता है, तब भी पत्नी के सुख - दुख को नही सुन सकता। पूरे परिवार के प्रति उसके कर्तव्य है, लेकिन पत्नी के प्रति उसके अन्तःकरण मे कोई कर्तव्य - भाव नही है। इन्ही पस्थितियो पर सोचती हुई गरिमा उठी और अपने दैनिक कार्या मे व्यस्त हो गयी। माँ ने जो कह दिया, सो कह दिया। मेरे लिए माँ का एक - एक शब्द वेदवाक्य है और तुम्हे भी यही नियम मानना पड़ेगा, यदि यहाँ पर रहना है तो ! ध्यान रखना, आगे से माँ के खिलाफ करना तो दूर, सोचना भी मत ! पर मैने माँ के विरुद्ध कब क्या ? बस ! अब और एक शब्द नही ! गरिमा का वाक्य बीच मे काटकर आशुतोष ने डाँटकर कहा और मुँह फेरकर लेट गया। पति के उत्तर से अपनी उपेक्षा का अनुभव करके गरिमा की व्यथा कम होने की अपेक्षा अधिक हो गयी। उसे आशा थी कि वह अपने सयत - मधुर व्यवहार से पति के दृष्टिकोण को परिवर्तित करने मे सफल हो जाएगी, परन्तु ऐसा नही हो सका। अब उसको ऐसा कोई उपाय नही सूझ रहा था जिससे उसके पति के चित् मे उसके प्रति कर्तव्य - बोध जाग्रत हो सके और वह स्वय परिवार के उपेक्षापूर्ण व्यवहार से मुक्त हो सके। अपनी इसी ऊहापोह मे वह सारी रात नही सो सकी थी, परन्तु निराशा अब भी उसके चित् को स्पर्श तक नही कर पायी थी। असफलताओ को वह अपने लक्ष्य तक पहुँचने के मार्ग मे पड़ाव के रूप मे ग्रहण करती, निराशा उत्पन्न करने वाले कारण भूत तत्व के रूप मे नही, इसलिए वह सकारात्मक दिशा मे सोचने लगी। धीरे - धीरे वह सकारात्मक विचारो के साथ प्रकृतिस्थ हो गयी, परन्तु तब तक अपने चिन्तन - मनन के परिणामस्वरूप वह अपनी जीवन - शैली को बदलने का सकल्प ले चुकी थी।
काव्या का पंखे से लटका हुआ देह मुझे सोचने पर मजबूर कर रहा था. ये किस्मत का कैसा खेल है? कौन कहां पर गलत है ? पुलिस को मिले सुसाइड नोट में स्पष्ट शब्दों में लिखा था. महीप उसके बच्चे का बाप नहीं है. वह उसे भाई मानती थी. उसे राखी बांधती थी. पर कहीं पर भी उसने बच्चे के असली पिता का जिक्र तक नहीं किया था. अपनी मृत्यु के लिए उसने किसी को भी दोष न देते हुए लिखा था, पत्र पढ़कर मेरे आंसू नहीं रूक रहे थे. बच्चे के रोने की आवाज मेरे कानों में पड़ रही थी. पर मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी कि मैं उसे अपनी गोद में उठाऊ. महीप बच्चे को शांत करने में लगा हुआ था और मैं.... मैं सोच के गहरे सागर डूबती चली गई. महीप और मेरी शादी बड़े धूमधाम से हुई. हम दोनों के घर वालो ने अपनी सारी हसरतें पूरी कर ली थी. लेकिन महीप और मेरा चेहरा मुरझाया हुआ था. मैं इस शादी से खुश नहीं थी, शायद महीप भी उसकी मर्जी के बिना ये शादी कर रहे थे. हम दूल्हा-दुल्हन बनकर यंत्रवत सारे रीतिरिवाज निभा रहे थे. महीप की चचेरी, ममेरी बहनों और अन्य लड़कियों ने मुझे सुहाग सेज पर लाकर बिठा दिया था और मुझे छेड़े जा रही थी. लेकिन मुझे इसमें जरा भी रस नहीं आ रहा था. महीप कमरे में आये तो सभी लड़कियां उसे छेड़ते हुये कमरे से बाहर चली गई और दरवाजा बंद कर दिया. मेरा दिल जोरों से धड़क रहा था. अब ये मेरे साथ क्या करेंगे... मैं कैसे इन्हें अपने पास आने दूं... मेरे मन में तो कोई और है. नहीं.... नहीं... मैं इन्हें खुद को छूने भी नहीं दूंगी. मेरा तन और मन दोनों सरल के लिए है. सरल, मेरा सबकुछ, मेरा प्यार, मेरी जिन्दगी है. जब मैं नौंवी में पड़ती थी तभी से उससे प्यार करती हूं. वह उस समय जूनियर कॉलेज में पड़ता था और क्या बाइक चलाता था.... बाइक इतनी झुका लेता कि लगता वह अभी गिर जायेगा, लेकिन ऐसा कभी हुआ नहीं और फिर उसकी वह सिगरेट पीने की स्टाईल हवा में धुएं के वे छल्ले. सब मेरी आंखों के आगे नजर आने लगे थे. सरल मेरी स्कूल के आगे आकर खड़ा हो जाता और मुझे देखते रहता था. मुझे भी उसे देखना अच्छा लगता था. जिस दिन मैं उसे देखकर हलके से मुस्कुराई थी उस दिन तो वह एकदम मेरे सामने आकर खड़ा हो गया और ... "आय लव यु दीपाक्षी" मैं सन्न रह गई, डर गई और नजरें चुराते हुए वहां से तेज कदमों से चलते हुए अपने घर पहुंची. उसकी आवाज अब भी मेरे कानों में गूंज रहीं थी. पूरी रात करवटे बदलते हुए गुजरी. सोच रहीं थी कि कब दिन निकलेगा और मैं उसे देखूंगी उसके 'आय लव यु' का जवाब 'आय लव यु टू' कहकर दूंगी. रात काफी लंबी लगने लगी थी. "तुम मुझे अच्छे लगते हो, मैं भी तुम्हें चाहती हूं" मैंने अपने दिल में जो था वह सीधे सीधे उसे बता दिया. हम छुप छुप कर मिलने लगे. घरवालों से झूठ बोलना सिख गई थी. एक्स्ट्रा क्लास है, सहेली के घर गई थी, आज टीचर ने रोक लिया था. समय पर जो भी बहाना सूझे वह बताने लगी. घरवालों का मुझ पर पूरा विश्वास था. वे सोच भी नहीं सकते थे कि मैं किसी से प्यार करती हू
ं और उससे गार्डन में और कॅफे में मिलती हूं. चार सालों तक हम अपने घरवालों से अपने प्यार की बात छुपाने में कामयाब रहे. वह मेरा ग्रॅज्युएशन का प्रथम वर्ष था. मैंने घर में बताया की मैं अपने कॉलेज के सहेलियों के साथ पिकनिक पर जा रहीं हूं और सरल के साथ उसकी बाइक पर हम शहर से दूर एक तलाब के किनारे गये. वहां झाड़ियों की ओट में हम घंटों बैठे रहे. लेकिन तभी वहां पर किसी संगठन के कार्यकर्ता आये और उन्होंने हमे एक दूसरे से लिपटे हुए देखकर खूब फटकारा. सरल की तो पिटाई भी कर दी. हमसे हमारे फोन लेकर हमारे घरवालों को हमारी तस्वीरे भेज दी और उन्हें फोन लगाकर बोले, थोड़ी देर के लिए मैं रूकी, उनकी प्रतिक्रिया देखना चाहती थी. पर वे शांत उसी तरह बैठे रहे, निर्विकार भाव से. मैं सोचने लगी उन्हें सब सच बताऊ या नहीं. लेकिन मुझे मेरी मर्जी से जिना है तो सच बताना ही पड़ेगा. मैंने बोलना सुरू किया, "मैं किसी और से प्यार करती हूं" वे शांत और निश्चल रहे, उनके चेहरे पर कोई भाव प्रकट ही नहीं हुये. किस मिट्टी का बना है ये आदमी पहली ही रात एक पत्नी अपने पति से कहे की वह किसी और से प्यार करती है तो उस पती का गुस्से से तिलमिलाना बनता है. पर इन पर कोई असर ही नहीं हुआ. क्या ये भी किसी और को चाहते है. मैंने अपनी बात आगे जारी रखी, "ठीक है" बस इतना कहकर वे उठ खड़े हुये और बेड पर से तकिया और कंबल उठाया. कंबल नीचे फर्श पर बिछा कर उसी पर लेट गये. मैं अवाक् उन्हें देखती ही रही. कैसा आदमी है ये. इन्हें गुस्सा क्यों नहीं आया ? ये मुझ पर चिढ़े क्यों नहीं ? तमतमाते हुऐ कमरे से बाहर नहीं निकले. उनका वह शांत स्वभाव मेरे दिल को छू गया. पर मुझ पर तो सरल का नशा कुछ ज्यादा ही हावी था. उस नशे में मुझे सारे ही लोग बुरे नजर आते थे. सम
य बितता गया. बेडरूम में हम साथ जाते पर वे निचे फर्श पर अपना बिस्तर बिछाते और सो जाते. हममें ज्यादा बातें नही होती थी. मैं नौकरी के लिए आवेदन कर रही थी और मुझे एक बैंक में क्लर्क की नौकरी मिल गई. लेकिन मेरी पोस्टिंग एक छोटे कस्बे में हुई. मैं खुश थी कि अब मुझे इस जमघट में रहकर पति-पत्नी वाला नाटक नहीं करना होगा. एक बेडरूम मे सोने से बच जायेगे. लेकिन घरवालों के लिए और समाज के लिए तो हम पति-पत्नी ही थे. हम दोनों के अलग अलग शहर में रहने को लेकर महीप के घरवालों में और मेरे मयके में भी बहस छिड़ गई. आखिर यह तय हुआ कि महीप पति-पत्नी एकत्रीकरण के प्रावधान के तहत जहां मेरी पोस्टिंग हुई है वहीं पर अपना तबादला करवा ले. दो महिने बाद ही महीप अपनी पोस्टिंग करवा कर उस छोटे-से कस्बे में आ गये जहां पहले से ही मैंने एक अपार्टमेंट में टू बेडरूम किचन वाला फ्लैट किराये से ले रखा था. एक बेडरूम में हमने डबल बेड और दोनों के कपडों की अलमारी रख ली थी ताकि हमारे घर से कोई आए तो उन्हें यह न लगे की हम अलग-अलग बेडरूम में सोते है. मुझे अपने मनमर्जी से जिने की पूरी आजादी थी. वे अपनी जिन्दगी जी रहे थे. घर के कामों मे मेरी मदत भी कर देते. कभी वे खाना बनाते तो कभी मैं. यहां तक की वे बर्तन मांजना और झाडू पोछा तक कर लेते थे. मुझे कभी घर आने में देर हो जाती तो फोन करके बस इतना ही पूछते थे कि, 'कब तक आओगी' यह कभी नहीं पूछा की देर क्यों हो रही है, मेरे देर से आने का कारण आज तक उन्होंने नहीं पूछा था. वे मेरा पूरा-पूरा ख्याल रखते, कभी बिमार हो गई तो डॉक्टर के पास ले जाना, दवाई खिलाना और सुश्रुषा करने में उन्होंने कोई कोताही नहीं बरती. लेकित बात बहुत कम करते. उनके इस स्वभाव ने मेरा मन मोह लिया था. लगता काश यदि मैं सरल से प्यार नहीं करती तो ये मेरे लिए कितने 'परफेक्ट' पति थे. अगले जन्म के लिए उन्हें बुक करा लू ऐसा कई बार मेरे दिल में आया. मन यह भी चाहने लगा की ऐसा ही स्वभाव सरल का हो. वो भी इसी तरह मेरी कदर करे, मुझे अपनी पलकों पे बिठाके रखे. लेकिन सपने तो नींद खुलने पर टूटते ही है. दोनों ने हाथ मिलाया. पहले तो सरल ने बताया उसकी अग्निवीर वाली नोकरी का बॉन्ड खत्म हो गया है और अभी फिलहाल बेरोजगार है. नौकरी की तलाश में ही इस शहर आया है. यहां किसी होटल में रूकने की जगह वह सीधे यहां चला आया. उसने कोई गलती तो नहीं की. उसकी बात सुनकर हम दोनों एक दूसरे के चेहरे देखने लगे. हमारे बिच खामोशी छा गई. लेकिन जैसे ही महिप ने कहा वह एक रात क्या सप्ताह पंद्रह दिन रूक सकता है.. उसे कोई एतराज नहीं. महीप की इस बात से मैं आश्वस्त हुई. मुझे इसी बात का डर लग रहा था कि, महीप सरल के रूकने पर नाराज ना हो जाये. मेरी तो इच्छा थी की सरल यही रूके. मेहमानों के लिए यहा कोई अलग कमरा नहीं था. अतः महीप सरल के साथ अपना कमरा शेअर करने के लिए तैयार हुए. तत्पश्चात इधर उधर की बातें करते रहे. रात का खाना खाकर तय नुसार हम अपने बेडरूम में चले
गये. रात तकरीबन दो बजे होंगे मेरे मोबाईल की रिंग बज उठी इतनी रात कौन कॉल कर रहा है, मन ही मन उसे गालियां देते हुए मोबाईल देखा तो वह कॉल सरल का था. यह जानने के लिए बगल के ही कमरे में रहते हुए सरल फोन कैसे कर रहा है, मैं फोन हाथ में लेकर दरवाजे के पास पहुंची और दरवाजा खोला तो देखा सरल सामने ही खडा था. वह जल्दी से अंदर आ गया और दरवाजा बंद कर मुझे अपनी बाहों में जकड़ लिया और "अब जुदाई बर्दाश्त नहीं होती" कहते हुए मुझे चूमने की कोशिश करने लगा. मैं कसमसाई. रात खाना खाते वक्त उसने अपनी जेब से देसी ठर्रे की बोतल निकाली थी और महीप के साथ शेयर करके पिना चाहता था पर महीप ने मना किया तो उसने अकेले ही वह बोतल खाली कर दी थी. उसके मुंह से निकला हुआ शराब की बदबू मेरे नथूनों में समा गई मुझे मतली सी आने लगी. उससे खुद को छुड़ाने के लिए मैंने कहा, "महीप जाग गये और उन्होंने देख लिया तो क्या सोचेगे" वह बोला "अरे वह तो जबरदस्त खर्राटे मार रहा है. दोपहर में देखा नहीं उसने हमें बाहों में देखकर भी अनदेखा वह हमारे रिश्ते के बारें में सब जानता है. उसे क्या फर्क पड़ेगा ?" मैं उसकी मजबुत पकड में छटपटा रहीं थी. उसके शराब की बदबू मुझे सही नही जा रही थी. अपनी पूरी ताकत से उससे अपने आप को छुडाते हुये बोली, "हां ऐसा ही समझ लो... पहले मैं अपने डिवोर्स के पेपर रेडी करती हूं. महीप से तलाक लेती हूं फिर हम शादी कर लेंगे उसके बाद जितनी मर्जी चलानी है चला लेना. मैं रोकूंगी नहीं. पर अभी नहीं... छोडों.. छोड दो" कहते हुए मैंने उससे अपने आप को छुडाया और उसे धक्का देते हुए कमरे से बाहर किया. तभी हम दोनों की नजर बगल के बेडरूम के दरवाजे पर खड़े महीप पर पड़ी. मैं अपने आप को शर्मसार महसूस करने लगी. मानों मैंने कोई बहुत बड़ी च
ोरी की हो. सरल बेशर्मों की तरह चलता हुआ महीप के समिप पहुंचा और दोनों अंदर चले गये. सरल की हरकत ने मुझे सोचने पर मजबुर किया कि क्या वाईक उसे यहां रूकने देना चाहिए. नहीं... नहीं... हम महीप के अच्छे और शांत स्वभाव का फायदा नहीं उठा सकते. दूसरे दिन महीप काम पर चले जाने के बाद मैंने सरल से अपने घर से चले जाने को कहा तो वह मुझसे उल्टी-सीधी बातें करने लगा. तब मैं बोली, "मुझे लगता है हम महीप के सीधे-साधे स्वभाव का गलत फायदा उठा रहे है. वह मुझे तलाक देने के लिए राजी है लेकिन जब तक तलाक नहीं दे देते तब तक मैं उनकी पत्नी हूं और मुझे वैसे ही रहना चाहिए जैसे एक पत्नी रहती है" मेरी इस बात से नाराज होते हुए सरल बोला, "जान... तुम तो सती सावित्री की तरह बात कर रही हो. कही तुम्हें उससे प्यार तो नहीं हो गया. या फिर अब तुम मुझसे पहले उसे चखना चाहती हो." सरल की बात सुनकर मैं दंग रह गई. कितने घटिया और नीच विचार थे उसके. सरल की इस बात ने मेरा गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंचा दिया था. अपने आप ही मेरा हाथ उठा जो तड़ाक की आवाज के साथ सरल के गाल से टकराया. सरल अपने गाल को सहलाते हुय मेरी तरफ गुस्से से देख रहा था. मैं चीख पड़ी, "निकल .. अभी निकल इस घर से" वह बिना कुछ कहे गुस्से से तमतमाते हुये मेरे घर से निकल गया. यह कैसे हुआ ? मुझे महीप को नामर्द कहने पर इतना गुस्सा क्यों आया ? क्या सचमुच मैं महीप से प्यार करने लगी थी ? जिससे मैं सात-आठ सालों से प्यार कर रही थी, जिसका इतने सालों तक इंतजार किया उस पर मैंने हाथ उठा दिया था. और... और क्या ये वही सरल था. जो मुझे अच्छा लगता था. या फिर सच में वह मेरी नादानी थी. उसकी हिम्मत और दिलेरी ने मुझे आकर्षित किया था. लेकिन यह हिम्मत और दिलेरी किस काम की. वह तो किसी की इज्जत नहीं करता, कद्र नहीं करता दूसरों की भावनाओं से उसे कोई सरोकार नहीं. बस उसे अपने मजे की पड़ी है. रात अगर उसे रोका नहीं होता तो वह सारी हदे पार कर जाता. महीप की यह बात सुनकर मुझे अच्छा नहीं लगा. लगा जैसे मुझसे ज्यादा जल्दी महीप को है तलाक की. उन्होंने रात जो देखा उससे वे आहत हो गये है. बोल नहीं रहे पर अंदर ही अंदर शायद टूट गये है. अपनी आंखों के सामने ऐसे नजारे और ना देखना पडे इसलिये ये जल्दी..... जो मैं कर रहीं हूं वह सही है या गलत मेरी कुछ समझ नहीं आ रहा था. मुझे लगा सुबह नाश्ते की टेबल पर जो हुआ वह महीप को बता देती हूं शायद उसी से कुछ रास्ता निकल आये, मेरी दुविधा दूर हो सकती है. यही सोचकर मैंने रात का खाना खाते खाते महीप को सब बता दिया. महीप.... महीप तुम किस मिट्टी के बने हो, ऐसा कैसे सोच सकते हो. मैं तुम्हारी पत्नी हूं, मुझ पर गुस्सा करो. चिल्लाओं, डाटो, मेरे चरित्र पर लांछन लगाओ. ऐसी कई बातें उस क्षण मेरे मन में आई. मुझे खुद पर ही गुस्सा आ रहा था. पर महीप शांत थे. रात भर मैं सोचती रहीं. निंद ने आंखों से तलाक ले लिया था. जिसके इंतजार में मैंने महीप को अपने करीब नहीं आने दिया आज जब
वह दिन आया है तो मैं डगमगा क्यों रहीं हूं महीप सच कहते है, मैंने अपने कदम पीछे नहीं लेने चाहिए. आगे बढ़ना ही जिन्दगी है. जो होगा देखा जायेगा. "फौज की नौकरी तो दो-ढाई साल ही की उसने, उसका तो कोर्ट मार्शल हुआ है" एक एक नई बात मुझे पता चल रही थी. मैंने सावरी से कहा, "ये क्या बता रही है, मुझे शुरू से पूरी बात बता" तब उसने जो बताया वह ये था कि, सरल की फौज की ट्रेनिंग लेह में हो रही थी. ज्यादा थंड होने के कारण सभी जवान खुद को गर्म रखने के लिए रम या किसी अन्य शराब का सहारा लेते थे. उनके ट्रेनिंग सेंटर के पास ही एक छोटा सा गांव था जहां के लोग अलाव के लिए लकडियां चुनने उनके सेंटर तक आते थे. एक शाम दो लडकियां लकड़ी चुनते हुये इनके सेंटर तक पहुंची थी. सरल और उसके साथ तीन लोग और शराब पी रहे थे. उन्होंने उन लडकियों को दबोच लिया और चारों ने उनके साथ जबरदस्ती की. जिसकी कम्पलेंट बाद में गांव वालों ने उनके यूनिट से की तो उन चारों का कोर्ट मार्शल कर उन्हें फौज से निकाल दिया गया और गिरफ्तार कर जेल में डाला गया. लेकिन, सरल जमानत पर लेकर वहीं पर रुका रहा. वह उस गांव पहुंचा और लडकी के परिवार वालों से मिला उनके हाथ पाव जोडे, माफी मांगी और कहां की वे लोग अपनी शिकायत वापस ले ले या कम से कम उसका नाम शिकायत में से हटा दे. तब एक लडकी के परिवार वाले मान गये, उन्होंने शर्त रखी की उनकी लडकी से उसे शादी करनी होगी. सरल ने उस लडकी से शादी कर ली और वही रहकर दूसरी लडकी के परिजनों को शिकायत वापस लेने के लिए मनाता रहा. दूसरी लडकी नाबालिग थी और उसके साथ ज्यादा ही दुर्व्यवहार हुआ था. अतः वे लोग माने नहीं. केस बंद कराने के चक्कर में उसका साल वही पर बित गया. उस लडकी ने एक बच्चे को जन्म दिया. तब दूसरी लडकी ने भी अपनी
शिकायत में से सरल का नाम कटवा दिया. जिससे सरल जेल जाने से तो बच गया लेकिन घटना के वक्त वह वहां मौजूद था इसलिए उसे फौज से निष्कासित कर दिया गया. उसका रेकार्ड अच्छा ना होने की वजह से अब उसे कही नौकरी भी नहीं मिल रही है. वह खूब शराब पीता है और अपनी पत्नी को रोज मारता है और अपनी बर्बादी के लिए उसे ही दोष देता है. सरल की हकीकत जानकर मुझे अपने आप से घृणा होने लगी कि मैं कैसे ऐसे घृणित इंसान से प्यार कर बैठी. शायद वह मेरी नादानी और कम उम्र की सोच थी. लेकिन अब मैं विचारों से परिपक्व हो गई हूं. अपना भला-बुरा समझ सकती हूं भविष्य के बारे में सोच सकती हूं. मुझे सरल के साथ अपना भविष्य अंधकारमय लग रहा था जबकि महीप सच्चे हमदम, हमसफर की तरह नजर आ रहे थे. मैंने फैसला कर लिया कि मैं तलाक के पेपर पर हस्ताक्षर नहीं करूंगी. अब मैं कभी भी महीप का साथ नहीं छोडूंगी. महीप को जैसे ही यह बात बताई. महीप का चेहरा लटक गया. पहली बार उनके चेहरे पर परेशानी के भाव देख रही थी. उनकी बैचेनी देख रही थी. वे मुझे तलाकनामे पर हस्ताक्षर करने के लिए मनाने लगे. खुद से दूर रहने के लिए मुझे कन्वींस करने लगे. अपने तबादले की बात की, मुझे आजाद जिन्दगी का पाठ पढ़ाने लगे. महीप का यह व्यवहार मेरी समझ से परे था. मैं अब ये कैसी बात कर रही थी. जब तक मुझे आस थी मैं सरल के साथ जाऊंगी तब तक तो मैंने महीप के 'हर तरह' के सुख की बात कभी नहीं की और आज मैं खुद स्वार्थी बनकर उनसे ऐसी बातें कर रही थी. दरअसल, अब मुझे पूरी औरत बनना था, एक पत्नी और उससे भी बढ़कर एक मां ...! हां.. मैं भी चाहती थी कि मेरी कोख में मेरा अंश पले-बढ़े, मैं उसे जन्म दूं और फिर... न जाने कहां कहां तक मेरी सोच भागने लगी. आज कल मेरे बैंक में मेरे सहकर्मी मुझसे पूछते, शादी को तीन साल होने को आये खुशखबरी कब दे रही हो. अभी तो गोद में बच्चा आ जाना चाहिये. वरना लोग बांझ होने का लांछन लगाते है. ये अच्छा है की तुम परिवार के साथ नहीं रहती हो वरना रोज ताने सुनने पडते. ऐसी बातें सुनाकर मुझे मां बनने के लिए प्रेरित करते रहते. मेरे साथ पढ़ने वाली मेरी अन्य सहेलियां जिनकी शादी हो चुकी थी वे भी एक दो बच्चों की मां बन चुकी थी और मैंने एक झूठी आस में अपने जीवन के चार साल विवाहित होकर भी बिना वैवाहिक सुख के बिता दिये थे. महीप सच ही बोल रहे थे कि स्वतंत्रता से बढ़कर कोई सुख नहीं. पर फिर भी हम एक-दूसरे से बंध जाते है. अलग अलग भौतिक सुखों की कामना करते है. एक-दूसरे से अपेक्षाएं रखते है. उन अपेक्षाओं के पूरा होने में अपना सुख मानते है. उनको मेरी अपेक्षाओं से अनजान बनते देख मैं सीधे बोल पड़ी, "मैं मां बनाना चाहती हूं .. मां... तुम्हारे बच्चे की, मुझे ये सुख तुम ही दे सकते हो" महीप ने गर्दन झुका ली. कुछ बोले नहीं. मैंने फिर पुछा, "तुमने जवाब नहीं दिया, क्या तुम मुझे ये सुख नहीं दोंगे" वे फिर सोच मे पड गये और होठो ही होठो में बुदबुदाते हुये बोले, "काश.... दे पाता" वे क्या
क्या बुदबुदाये यह मैंने सुन लिया था फिर भी पूछा क्या कहा आपने. तब वे फिर मुझे अपने कसम की दुहाई देने लगे तो मैं बोली, "तोड़ दो..... आप कोई पितामह भीष्म नहीं हो और ना ही ये वह युग है, तुम्हारे कसम तोड़ने से किसी को कोई नुकसान नहीं है." इसी बात को लेकर हममे बहस चलती रही आखिर उन्हें मेरे सवालों का जवाब देना भारी पड़ रहा था तो वे झल्लाते हुये उठकर सीधे बाहर निकल गये. उसके बाद कई बार मैंने उनसे बात करनी चाही लेकिन हर बार मेरी बात काट कर वे बाहर चले जाते. अब वे घर में कम ही रहते. सिर्फ खाना खाने आते या फिर जब मैं घर में ना रहूं तब घर के काम निपटाते. उन्होंने अपने काम की आदत नहीं छोड़ी. उनका व्यवहार देखकर लगने लगा, तो क्या ये घर का सारा काम इसीलिए करते है ताकी मेरे चले जाने के बाद इन्हे काम करने में कोई परेशानी ना हो. वे किसी और पर डिपेन्ड न हो. उन्होंने कहा स्वतंत्रता में ही सुख है तो क्या वे अकेले जीवन व्यतित करने को स्वतंत्रता कहते है और उसमें सुख अनुभव करते है. शायद ऐसा ही हो. मैंने भी आस नहीं छोड़ी और ना ही उन्हें अकेला छोडा. तलाक के पेपर पर मैंने हस्ताक्षर भी नहीं किये. उन्होंने आठ दस बार पूछा मुझसे, "हस्ताक्षर कब करोगी" लेकिन मेरा जवाब ना मिलने पर वे मुझसे बहस नहीं करते थे. अब यही रूटीन हो गया था हमारा. दो अजनबी एक घर में एक छत के नीचे अलग अलग बेडरूम में सोते. अपने अपने हिस्से के काम निपटाते और चले जाते. दो महिने बाद इसमें थोड़ी तबदीली आयी. हमारे जीवन में एक नये सदस्य का आगमन हुआ और मुझे महीप का दूसरा रूप भी देखने को मिला. उनका वह रूप कितना सच्चा और कितना झूठा था ये मैं समझ ही नहीं पा रही थी. उस नये सदस्य का नाम था काव्या. महीप जब उसे लेकर आये तो यही बताया कि वह उनकी बहन है.
.. ना... ना सगी नहीं. बल्कि राखी बहन है. उनके दोस्त कपील की सगी बहन और दूसरे दोस्त अकील की पत्नी. यानी एक अकेली महिला से तीन पुरूष जुड़े हुए थे. और... अब तक उनमें से दो की मौत हो चुकी थी. तिसरे मेरे पति यानी महीप जिंदा थे और अब उस महिला का आगमन महीप के घर में हो गया था. हम तीनों को एक साथ रहते हुऐ महिना दो महिना बीत गया. महीप तो कुछ बताते नहीं थे. लेकिन मैं कुरेद कुरेद कर काव्या से पूछताछ करती रहती. उसके बताये अनुसार उन दो महिनों में काव्या की जो कहानी सामने आयी वह यह कि, महीप, कपील और अकील तीनों बहुत अच्छे दोस्त थे. प्रायमरी स्कूल से ही उनकी दोस्ती थी. एक ही बस्ती में रहते थे, एक ही स्कूल में जाते थे. तीनों का एक-दूसरे के घर आना जाना था. काव्या उनसे दो साल बड़ी थी. लेकिन फिर भी वह उनके साथ खेलती और अपने भाई के साथ साथ महीप को राखी बांधने लगी थी. काव्या ने अकील को कभी राखी नहीं बांधी क्योंकि वह बचपन से ही उसके प्रति कुछ अलग-सा महसूस करती थी. उम्र बढ़ने के साथ साथ उन्हें यह अहसास हुआ कि वह अलग-सा क्या है. अकील और काव्या दोनों एक-दूसरे से प्यार करने लगे थे और शादी करने का फैसला कर लिया था. यह बात कपील और महीप दोनों जानते थे उन्हें कोई एतराज नहीं था पर कपील के घरवाले और काव्या के घरवाले यह बात नहीं जानते थे. उन्होंने तय किया कि सही समय पर यह बात दोनों अपने अपने घरवालों को बतायेगे. तीनों दोस्तों ने अपना ग्रॅज्युएशन पूरा कर लिया और तीनों अच्छे अंको से पास हो गये थे. अतः तीनों एक ही मोटर साइकिल पर बैठ कर शहर से बाहर मौज मस्ती करने निकल पड़े. दिन भर तीनों ने खूब मजा किया शाम को खाना खाने एक ढाबे पर रूके तो अकील ने कहा, "यार बिना कुछ पीये खुशी का मजा नहीं आता चलो एक-एक पेग ले लेते है." हां-ना करते वे दोनों भी मान गये और उन्होंने शराब पी, खाना खाया और फिर तीनों एक ही मोटर साईकिल पर बैठकर घर वापसी के लिए निकले. बाईक अकील चला रहा था उसके पिछे महीप और उसके पिछे कपील बैठा था. रात का समय और तीनों नशे में, तेजी से दौड़ती बाईक का अलग पहिला एक गड्ढे में धंस गया. महीप और कपील दोनों उछल कर सडक के किनारे बने एक टीन के झोपडे पर गिरे. जबकि अकील सडक पर घिसटता चला गया. टीन का वह झोपडा पहले से ही जर्जर और जंग लगा हुआ था. जगह से जगह से टीन टूटा हुआ था. दोनों के शरीर पर उस जंग लगे टीन ने इतने घाव दिये कि कपील की घटनास्थल पर ही मौत हो गई. महीप की दोनों टांगे चिर गई थी. पेट और हाथों पर भी लंबे-लंबे घाव लगे थे. अकील के सडक पर गिरने और घसीटे जाने की वजह से कपडे फट गये और कई जगह से हाथ पाव छिल से गये थे. महीप को पंद्रह दिनों तक अस्पताल में रहना पडा. खून की बोतले चढी. जहां जहां महीप के शरीर पर कटे के घाव थे वहां टांके लगाने पडे. इस घटना ने तीनों के परिवार में नफरत के बीज बो दिये थे. इस दुर्घटना के लिए महीप और कपील के परिवार वाले अकील को दोषी मानने लगे. उसी ने शराब पिने की बात की थी और बाई
क भी वही चला रहा था. कपील और अकील के परिवार वालों में इस बात को लेकर काफी झगडा हुआ. गाली गलौच से लेकर हाथापाई तक. काव्या समझ चुकी थी कि अब वह अकील से प्यार की बात बताती है तो उसके घर वाले शादी की रजामंदी कभी नहीं देंगे. अतः वह छुप छुप कर अकील से मिलती रही. इस घटना के दो महिने बाद ही काव्या के घरवालों को अकील और काव्य के प्रेमसंबंध के बारे में बता चला. अपेक्षानुसार, काव्या के घर वालों ने पहले तो काव्या को खुब लताड़ा. उसके पिता और चचरे भाईयों ने अकील की पिटाई तक कर दी. पुलिस में अकील के खिलाफ झुठी शिकायत कर उसे जेल भेज दिया. लेकिन पुलिस को अकील के घर वालों ने पैसे देकर मामला रफा दफा कर दिया. अब, अकील के घर वाले भी काव्या के परिवार वालों से हद से ज्यादा नफरत करने लगे थे और वे भी नहीं चाहते थे कि काव्या उनके घर की बहु बने. काव्या के घर वाले उसकी शादी उसकी मर्जी के खिलाफ कही और करने वाले थे. हालात ऐसे हो गये कि दोनों ने किसी को भनक तक न लगने दी और कोर्ट में शादी कर ली. जिसमें काव्या का भाई बनकर महीप ने उसकी ओर से गवाह के तौर पर हस्ताक्षर किये थे. काव्या दुल्हन बनकर अकील के घर तो आ गई लेकिन उसे रोज अकील के घर वालों के ताने सुनने को मिलते. घर का माहौल पूरी तरह खराब रहता. अकील भी बेबस था उसके पास कोई नौकरी नहीं थी. वह भी अपने घर वालों के रहमो करम पर था. घर में रोज की किचकिच से वह तंग आ चुका था. इसलिए दिन भर बाहर रहता रात को शराब पीकर घर आता. एक्सीडेन्ट में उसके सर पर अंदरुनी चोट लगी थी. जिसका असर अब होने लगा था. ज्यादा तनाव में रहने के कारण उसका ब्रेन हॅमरेज हुआ और उसकी मौत हो गई. इस बात के लिए अकील के घरवालों ने काव्या पर इल्जाम लगाया और उसे घर से बाहर निकाल दिया. वह अपने मयके पहुंच
ी तो उसके पिता ने भी उसे घर में आसरा देने से इन्कार कर दिया. तब काव्या ने महीप से मदद मांगी. महीप उसे सीधे इस फ्लैट पर ले आया. पहले तो उन्होने उसे अपने बेडरूम में सोने को कहा और खुद बाहर हॉल में सोफे पर सोने की बात की, लेकिन वह नहीं मानी और खुद हॉल में सोने लगी. इन दो महिनों में कई बार मैंने देखा वह रोते रहती और महीप उसे सांत्वना देते रहते थे. पीछले तीन वर्षो में जितनी बातें मुझसे की उससे कई ज्यादा बातें दो महिनों में काव्य से कर चुके थे. मुझे शक होने लगा की महीप का प्यार यही तो नहीं है. सब के सामने राखी बांधकर भाई-बहन बने रहना और एकांत में कुछ और ही रिश्ता कायम करना. मेरे जली कटी सुनाने से वह और दुखी रहने लगी उसका दुख देकर मेरे पति उसके और करीब होते गये. जब तक उन्हें नींद नहीं आती वे काव्या के साथ ही हॉल में बैठे रहते. काव्या ने मेरे घर का किचन संभाल लिया था. घर के सारे काम वह करने लगी थी. एक तरह से वह मेरे घर की मेड बन गई थी. अपने घर के तनाव को कम करने के उद्देश्य से मैंने गर्मी की छुट्टीयों में अपने बड़े भाई के बच्चों और मेरे छोटे भाई को बुला लिया था. वे लोग दस दिनों तक रहे. तब महीप मेरे कमरे में मेरे साथ मेरे बिस्तर पर सोते थे. लेकिन मुझे छूना तो दूर मेरी ओर मुंह तक नहीं करते थे. उनकी यह हरकत मानों मेरी जलती, तड़पती कामना को हवा देने का ही काम कर रही थी. उन दस दिनों तक घर का माहौल काफी खुशनुमा रहा. काव्या मेड सर्वन्ट की तरह दिन भर खटती रही और महीप एक अच्छे पति का सबके सामने नाटक करते रहे. उनके जाने के बाद फिर घर में उदासी छा गई. महीप अपने कमरे में चले गये. वही रूटीन शुरू हुआ. तीन महीने बीते थे कि एक रात अचानक मैंने देखा काव्या बाथरूम में उल्टी कर रही थी और महीप बाथरूम के बाहर खडे थे. वह जैसे ही उठ कर खड़ी हुई उन्होंने उसे सहारा दिया और उसके दोनों कंधो को पकड़कर, उसका सिर अपने कंधे पर टीकाकर उसके शरीर को अपने शरीर का सहारे देते हुए उसके बिस्तर तक ले आये. मुझसे रहा नही गया और मैं तकरीबन चीख पड़ी, "ये क्या हो रहा है ? एैसी बेहयाई, मुझे तो छूते तक नहीं और इसे.... लगता है इसे मां बनाने की पूरी तयारी कर ली है" मेरा वाक्य पूरा होते ही महीप एकदम से उठे और मेरे गालों पर एक झन्नाटेदार थप्पड रसीद दिया और चीखते हुऐ बोले, पहले तो मुझे महीप पर बहुत गुस्सा आया. उसने मुझे तमाचा जड़ दिया था. पर उसकी बात सुनकर लगा कही ये मुझसे तलाक लेने के लिए ऐसा नाटक जानबूझकर तो नहीं कर रहे है. मैं अपने कमरे में जाकर रोती रही और सोचती रही. ये नाटक है तो मैं तलाकनामे पर हस्ताक्षर नहीं करूंगी. दूसरे दिन वे काव्या को लेकर अस्पताल गये. शाम को मैंने पूछा कि डॉक्टर ने क्या कहा तो दोनों में से किसी ने मुझे कुछ नहीं बताया. पर कहते है ना, 'इश्क, मुश्क और औरत का पेट छुपाए नहीं छुपते' काव्या का पेट बढ़ने लगा था. अब तो शक की कोई गुंजाइश ही नहीं थी. काव्या कभी घर से बाहर जाती नहीं थी और घर में सिर
्फ एक ही मर्द था महीप. काव्या कोई कुंती नहीं थी कि उसे किसी ऋषि ने कोई मंत्र दिया हो और कोई देव आकर उसकी कोख में बच्चा डालकर चला गया हो. यह निश्चित ही महीप की करतूत थी. मुझे किसी झूठी आस पर नहीं रहना था. पहले जिससे प्यार किया वह भी बेवफा और आवारा निकला. जब पति को पति के रूप में अपनाना चाहा तो उसने भी दगा दिया. मुझे और छे महीने उनकी बेहयाई सहना था. मेरे लिए एक एक दिन काटना मुश्किल हो रहा था. हमारे आपसी टकराव और बदफैली की बातें आस पड़ोस से लेकर सभी पहचान वालों में फैल गई थी. हर कोई मुझसे हमदर्दी जताता और महीप को भला बुरा कहता. पर इससे उन दोनों पर कोई फर्क नहीं पड रहा था. वे उस कुलटा की तिमारदारी में लग गये. घर का सारा काम खुद करने लगे. उसकी दवा, सेवा सब करने लगे. उसने एक बहुत ही खूबसूरत बच्चे को जन्म दिया. मेरे ही सामने महीप उस बच्चे को गोद में लेकर उसका लाड दुलार करते तो मेरे सिने पर कई कई सांप लोटने लग जाते. उस मनहूस औरत के चेहर पर भी बच्चे को देखकर मुस्कान आ जाती. खुश नजर आने लगी थी. ये मुझसे बर्दाश्त नहीं हो रहा था तो मैंने उसे खूब खरी खोटी सुना दी. उससे कहा कि, "तु बहुत मनहूस है, तु जहां जाती है वहां सिवाय बर्बादी के कुछ नहीं होता. मेरे हंसते खेलते जीवन को तुने नर्क बना दिया है, भाई, पति को खाने के बाद अब तुने महीप की जिन्दगी भी जहन्नुम बना दी है. बाहर लोग उसे कैसी कैसी नजरों से देखते है. उसे कहते है, घर में एक खुबसुरत बिबी के होते हुए दूसरी रखैल लेकर आया है और उससे बच्चा भी पैदा कर दिया. पीठ पीछे मुझे भी ताने मारते है, बांझ कहने लगे है. झूठी हमदर्दी दिखाते है. ये.... ये सब तेरी वजह है हुआ है, तु मर क्यों नहीं जाती" मेरे मुंह से इतना निकलना था कि दूसरे ही दिन काव्या ने खुद
को फांसी लगा ली थी. काव्या के सुसाईड नोट से पुलिस ने आत्महत्या का केस बनाकर फाईल बंद कर दी. तलाक के लिए एक महिना और बचा था. तलाक की एक वजह पंखे से लटककर खत्म हो चुकी थी, महीप का बच्चे से लगाव बढ़ने लगा था. कभी कभी मैं भी बच्चे को देखती तो सोचती इस सारे फेर में इस बच्चे का क्या कसूर है. कितना मासूम और खूबसूरत है. मेरा भी मन उसे गोद में लेकर प्यार करने का होता. लेकिन उसका कसूर ये था कि उसने मेरी कोख से जन्म नहीं लिया था. जब भी उसे उठाकर दुलारने की कोशिश करती मेरी आंखों के आगे उस मनहूस का चेहरा नजर आता. मेरे पति को मुझसे छिनने वाली डायन नजर आती. वक्त सारे घाव भर देता है. यहां तक की जख्मों के निशान तक मिट जाते है. कुछ ऐसा ही इन पंद्रह दिनों में हुआ. महीप मुझे फिर अच्छे लगने लगे. उनका मेरा साथ किया हुआ दुर्व्यवहार मैं भूल गई थी. क्योंकि एक थप्पड के अलावा उन्होंने मुझ पर कभी हाथ नहीं उठाया था उन कुछ दिनों को छोड़ दे तो उंची आवाज में बात तक नहीं की थी. भला उन क्षणों को मै क्यों याद रखू. उनके शालीन स्वभाव का मेरे दिलो दिमाग पर ज्यादा असर था. बच्चे के बहाने वे मुझसे बात करेंगे मेरे करीब आयेगे ये सोचकर मैं बच्चे के साथ खेलने लगी और महीप भी मुझसे बाते करने लगे. कोर्ट की तारीख को सात दिन बचे थे उसके पहले मुझे महीप का मन पलटना था. मैंने तय कर लिया था कि मैं अपनी सहमती खारीज कर दूंगी. लेकिन उसके बाद हमें कोर्ट के चक्कर लगाने पड़ सकते थे और मामला खिचते चला जाता. लेकिन यदि महीप भी मान जाये तो हम अपिलेक्शन ही विड्रा करवा ले. पर इतने कम समय में उसे मनाया कैसे जाये. ऐसे समय में दिमाग में न जाने कैसे कैसे ख्याल आते है जो शायद बचकाने भी लगे लेकिन काम कर गये तो फायदा ही होता है. मेरे मन में आया यदि किसी तरह मेरे और महीप के बिच इन सात दिनों में शारीरिक रिश्ता बन जाये तो मैं उन्हें मना लुंगी. पर वे तो मुझे छूते तक नहीं थे फिर यह मुमकिन कैसे होता. दूसरे ही दिन मैंने अपनी मां को बुला लिया. मेरी मां ने महीप के कमरे पर अपना कब्जा जमा लिया. सास के होते हुए महीप अपनी पत्नी के कमरे के बाहर सोफे पर तो नहीं सो सकते थे. अतः मजबूरन उन्हें मेरे कमरे में सोना पड़ा. रात उनके दुध में मैंने उत्तेजना बढ़ाने वाली दवा मिला कर उन्हें पीने को दिया. इसका उन पर कोई असर नहीं हुआ. तो दूसरी रात मैंने दवा की मात्रा बढ़ा दी. यह रात भी मेरी सूनी ही रही. तिसरी रात दवा की मात्रा एकदम से डबल कर दी. जो की मेरी सबसे बड़ी गलती थी. दवा का जो असर उन पर होना था वह न होते हुए उनके हाथ पाव ऐंठने लगे. वे दर्द से तड़पने लगे. उनकी ऐसी हालत देखकर मैं घबरा गई. दूसरे कमरे से मैंने मां को बुलाया और हॉस्पिटल में फोन लगाकर एम्बुलेन्स बुलवाई. मैं थरथर कांपने लगी. तो ये राज है इनके शांत स्वभाव और अकेलेपन का. इसीलिए मुझसे अलग रहना चाहते थे ताकि इनका राज राज बना रहे. क्या इनके घर वाले भी इस बात से अंजान थे. जरूर होंगे, वरना मुझसे
बच्चे की आस क्यों लगाते. काव्या के मां बनने पर इनके परिवार वालों ने भी उसे खरी खोटी सुनाई थी. उन्हें भी लगता था काव्या की कोख में महीप का ही पाप पल रहा है. लेकिन.... लेकिन यह सब झूठ है. महीप.... महीप नहीं... तो फिर काव्या के बच्चे का बाप कौन है ? कौन आया था मेरे घर में ? इन प्रश्नों ने मुझे फिर बैचेन कर दिया. मैंने बच्चे के पैदा होने से पहले नौ महिनों का हिसाब लगाया और अपने अपार्टमेंट के चौकीदार के पास पहुंची. उससे नौ-दस माह पुराने रजिस्टर मांगे और देखने लगी की कौन हमारे पीठ पीछे घर आया था. तब एक रजिस्टर में एक नाम देखकर मैं चौंक गई. मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था. मैं रजिस्टर के उन पन्नो की फोटो कॉपी लेकर महीप के पास पहुंची और उसे नाम दिखाते हुये पूछा, "यही है ना बच्चे का बाप" मैंने महीप का हाथ बच्चे के सिर पर रखा और बोली, "तुम कसम को बहुत मानते हो इस बच्चे के सिर पर हाथ रखा है इसकी कसम खाओं और बोलो यही है ना इस बच्चे का बाप" उनकी आंखों से आंसू बहने लगे. हां में गर्दन हिलाते हुए उन्होने हामी भरी. क्या करती अपने ही दातों से अपने ही होठो को चबाने जैसी बात थी. चुप रहने के अलावा मेरे पास कोई अन्य विकल्प न था. काव्या मर चुकी थी और मरने से पहले उसने इस बात का कही भी जिक्र नहीं किया था कि उसका बलात्कार हुआ है. अतः कोई पुलिस केस बनता ही नहीं था. मेरे पति ने ही शायद मेरे मयके वालों की इज्जत बचाने के लिए अपना और काव्या का मुहं सिल लिया था.
लेकिन मनुष्य जैसा है, वैसा ही उस परम को जान नहीं सकता। इससे ही दुनिया में नास्तिक दर्शनों का जन्म हो सका। जैसे अंधा आदमी प्रकाश को जानना चाहे, न जान सके, तो अंधा आदमी भी कह सकता है कि प्रकाश एक भ्रांति है। और जिन्हें प्रकाश दिखाई देता है, वे किसी विभ्रम में पड़े हैं, किसी इलूजन में पड़े हैं। जो प्रकाश की बात करते हैं, वे अंधविश्वास में हैं। और अंधे आदमी की इन बातों में तर्कयुक्त रूप से कुछ भी गलत न होगा। अंधे को प्रकाश दिखाई नहीं पड़ता। और प्रकाश को देखने के अतिरिक्त और कोई जानने का उपाय नहीं है। प्रकाश सुना नहीं जा सकता, अन्यथा अंधा भी प्रकाश को सुन लेता। प्रकाश छुआ नहीं जा सकता, अन्यथा अंधा भी उसे स्पर्श कर लेता। प्रकाश का कोई स्वाद नहीं, कोई गंध नहीं। तो जिसके पास आंख नहीं हैं, उसका प्रकाश से संबंधित होने का कोई उपाय नहीं है। तो अंधा आदमी भी कह सकता है कि जो मानते हैं, वे भ्रांति में होंगे; और अगर प्रकाश है, तो मुझे दिखा दो। और उसकी बात में कुछ अर्थ है। अगर प्रकाश है, तो मेरे अनुभव में आए, तो ही मैं मानूंगा। मनुष्य भी परमात्मा को खोजना चाहता है। बिना यह पूछे कि मेरे पास वह आंख, वह उपकरण है, जो परमात्मा को देख ले? इसलिए जो कहते हैं कि परमात्मा है, हमें लगता है कि किसी भ्रम में हैं, किसी मानसिक स्वप्न में, किसी सम्मोहन में खो गए हैं। और या फिर अंधविश्वास कर लिया है किसी भय के कारण, प्रलोभन के कारण। या केवल परंपरागत संस्कार है बचपन से डाला गया मन में, इसलिए कोई कहता है कि परमात्मा है। परमात्मा है या नहीं, यह बड़ा सवाल नहीं है। यह सवाल भी उठाया नहीं जा सकता, जब तक कि हमारे पास वह आंख न हो, जो परमात्मा को देखने में सक्षम है। प्रकाश है या नहीं, यह सवाल ही व्यर्थ है, जब तक देखने वाली आंख न हो। अंधे को प्रकाश तो बहुत दूर, अंधेरा भी दिखाई नहीं पड़ता है। आमतौर से हम सोचते होंगे कि अंधे को कम से कम अंधेरा तो दिखाई पड़ता ही होगा। हमारी धारणा भी हो सकती हो कि अंधा अंधेरे से घिरा होगा। गलत है खयाल। अंधेरे को देखने के लिए भी आंख चाहिए। अंधेरे का अनुभव भी आंख का ही अनुभव है। अंधे को अंधेरे का भी कोई अनुभव नहीं होता। आप आंख बंद करते हैं, तो आपको अंधेरे का अनुभव होता है, क्योंकि आप अंधे नहीं हैं। आपको प्रकाश का अनुभव होता है, इसलिए उसके विपरीत अंधेरे का अनुभव होता है। जिसे प्रकाश का अनुभव नहीं होता, उसे अंधेरे का भी कोई अनुभव नहीं हो सकता। अंधेरा और प्रकाश दोनों ही आंख के अनुभव हैं। प्रकाश मौजूदगी का अनुभव है, अंधेरा गैर-मौजूदगी का अनुभव है। लेकिन जिसे प्रकाश ही नहीं दिखाई पड़ा, उसे प्रकाश की अनुपस्थिति कैसे दिखाई पड़ेगी! वह असंभव है। अंधे को अंधेरा भी नहीं है। और जिसे अंधेरा भी दिखाई न पड़ता हो, वह प्रकाश के संबंध में क्या प्रश्न उठाए! और प्रश्न उठाए भी तो उसे क्या उत्तर दिया जा सकता है! और जो भी उत्तर हम देंगे, वे अंधे के मन को जंचेंगे नहीं। क्योंकि मन हमारी इंद्रियों
के अनुभव का जोड़ है। अंधे के पास आंख का अनुभव कुछ भी नहीं है मन में। तो जंचने का, मेल खाने का, तालमेल बैठने का कोई उपाय नहीं है। अंधे का पूरा मन कहेगा कि प्रकाश नहीं है। अंधा जिद्द करेगा कि प्रकाश नहीं है। सिद्ध भी करना चाहेगा कि प्रकाश नहीं है । क्यों? क्योंकि स्वयं को अंधा मानने की बजाय, यह मान लेना ज्यादा आसान है कि प्रकाश नहीं है। अंधे के अहंकार की इसमें तृप्ति है कि प्रकाश नहीं है। अंधे के अहंकार को चोट लगती है यह मानने से कि मैं अंधा हूं इसलिए मुझे प्रकाश दिखाई नहीं पड़ता। इसलिए मनुष्य में जो अति अहंकारी हैं, वे कहेंगे, परमात्मा नहीं है, बजाय यह मानने के कि मेरे पास वह देखने की आंख नहीं है, जिससे परमात्मा हो तो दिखाई पड़ सके। और ध्यान रहे, जिसको परमात्मा नहीं दिखाई पड़ता, उसको परमात्मा का न होना भी दिखाई नहीं पड़ सकता है। क्योंकि न होने का अनुभव भी उसी का अनुभव होगा, जिसके पास देखने की क्षमता है। नास्तिक कहता है, ईश्वर नहीं है। उसके वक्तव्य का वही अर्थ है, जो अंधा कहता है कि प्रकाश नहीं है। नास्तिक की तकलीफ ईश्वर के होने न होने में नहीं है। नास्तिक की तकलीफ अपने को अधूरा मानने में, अपंग मानने में, अंधा मानने में है। इसलिए जितना अहंकारी युग होता है, उतना नास्तिक हो जाता है। अगर आज सारी दुनिया में नास्तिकता प्रभावी है, तो उसका कारण यह नहीं है कि विज्ञान ने लोगों को नास्तिक बना दिया है। और उसका कारण यह भी नहीं है कि कम्युनिज्म ने लोगों को नास्तिक बना दिया। उसका कुल मात्र कारण इतना है कि मनुष्य ने इधर पिछले तीन सौ वर्षों में जो उपलब्धियां की हैं, उन उपलब्धियों ने उसके अहंकार को भारी बल दे दिया है। इन तीन सौ वर्षों में आदमी ने उतनी उपलब्धियां की हैं, जितनी पिछले तीन लाख वर्ष
ों में आदमी ने नहीं की थीं। आदमी की ये उपलब्धियां उसके अहंकार को बल देती हैं। वह बीमारी से लड़ सकता है। वह उम्र को भी शायद थोड़ा लंबा सकता है। उसने बिजली को बांधकर घर में रोशनी कर ली है। उसके पूर्वज बिजली को आकाश में देखकर कंपते थे और सोचते थे कि इंद्र नाराज है। उसने बिजली को बांध लिया है। अगर पुरानी भाषा में कहें, तो इंद्र को उसने बांध लिया है। घर में इंद्र रोशनी कर रहा है, और पंखे चला रहा है ! आदमी ने इधर तीन सौ वर्षों में जो भी पाया है, उस पाने से उसे बाहर कुछ चीजें मिली हैं और भीतर अहंकार मिला है। उसे लगता है, मैं कुछ कर सकता हूं। और जितना अहंकार मजबूत होता है, उतनी ही नास्तिकता सघन हो जाती है। क्योंकि उतना ही यह मानना मुश्किल हो जाता है कि मुझमें कोई कमी है, कोई उपकरण, कोई इंद्रिय मुझमें खो रही है, अभाव है; मेरे पास कोई उपाय कम है, जिससे मैं और देख सकूं। फिर एक और बात पैदा हो गई। हमने अपनी भौतिक इंद्रियों को विस्तीर्ण करने की बड़ी कुशलता पा ली है। आदमी आंख से कितनी दूर तक देख सकता है? लेकिन अब हमारे पास दूरदर्शक यंत्र हैं, जो अरबों-खरबों प्रकाश वर्ष दूर तारों को देख सकते हैं। आदमी अपने अकेले कान से कितना सुन सकता है? लेकिन अब हमारे पास टेलिफोन है, रेडियो है, बेतार के यंत्र हैं, कोई सीमा नहीं है। हम कितने ही दूर की बात सुन सकते हैं, और कितने ही दूर तक बात कर सकते हैं। एक आदमी अपने हाथ से कितनी दूर तक पत्थर फेंक सकता है? लेकिन अब हमारे पास सुविधाएं हैं कि हम पूरे के पूरे यानों को पृथ्वी के घेरे के बाहर फेंककर चांद की यात्रा पर पहुंचा सकते हैं। एक आदमी कितना मार सकता है? कितनी हत्या कर सकता है? अब हमारे पास हाइड्रोजन बम हैं, कि चाहें तो दस मिनट में हम पूरी पृथ्वी को राख बना दे सकते हैं। सिर्फ दस मिनट में; खबर पहुंचेगी, इसके पहले मौत पहुंच जाएगी! तो स्वभावतः, आदमी ने अपनी बाहर की इंद्रियों को बढ़ा लिया। यह सब इंद्रियों का विस्तार है। इंद्रियों को हमने यंत्रों से जोड़ दिया। इंद्रियां भी यंत्र हैं। हमने और नये यंत्र बनाकर उन इंद्रियों की शक्ति को बढ़ा लिया। इसलिए आदमी इंद्रियों को बढ़ाने में लग गया और उसे यह खयाल भी नहीं कि कुछ इंद्रियां ऐसी भी हैं, जो बंद ही पड़ी हैं। अगर हम पीछे लौटें, तो आदमी की बाहर की इंद्रिय की शक्ति बहुत सीमित थी। और आदमी का बल बहुत सीमित था। आदमी की उपलब्धियां बहुत सीमित थीं। आदमी के अहंकार को सघन होने का उपाय कम था। सहज ही जीवन विनम्रता पैदा करता था। सहज ही चारों तरफ इतनी विराट शक्तियां थीं कि हम निहत्थे, असहाय, हेल्पलेस मालूम होते थे। बाहर तो हमारे बल को बढ़ने का कोई उपाय नहीं दिखाई पड़ता था। इसलिए आदमी भीतर मुड़ने की चेष्टा करता था। आज बाहर के यात्रा-पथ इतने सुगम हैं कि भीतर लौटने का खयाल भी नहीं आता है। आज बाहर जाने की इतनी सुविधा है कि भीतर जाने का सवाल भी नहीं उठता है। आज जब हम किसी से कहें, भीतर जाओ, तो उसकी समझ में नहीं आता।
उससे कहें, चांद पर जाओ, मंगल पर जाओ, बिलकुल समझ में आता है। चांद पर जाना आज आसान है, अपने भीतर जाना कठिन है। और आदमी निश्चित ही, जो सुगम है, सरल है, उसको चुन लेता है। जहां लीस्ट रेजिस्टेंस है, उसे चुन लेता है। आदमी के अहंकार के अनुपात में उसकी नास्तिकता होती है। जितना अहंकार होता है, उतनी नास्तिकता होती है। क्यों? क्योंकि आस्तिकता पहली स्वीकृति से शुरू होती है कि मैं अधूरा हूं। ईश्वर है या नहीं, मुझे पता नहीं। लेकिन परम सत्य को जानने का मेरे पास कोई भी उपाय नहीं है। बुद्धि आदमी के पास है। लेकिन बुद्धि से आदमी क्या जान पाता है? जो नापा जा सकता है, वह बुद्धि से जाना जा सकता है। क्योंकि बुद्धि नापने की एक व्यवस्था है। जो मेजरमेंट के भीतर आ सकता है, वह बुद्धि से जाना जा सकता है। हमारा शब्द है, माया। माया बहुत अदभुत शब्द है। उसका मौलिक अर्थ होता है, दैट ब्दिच कैन बी मेजर्ड, जिसको नापा जा सके, माप्य जो है, जिसको हम नाप सकें। तो बुद्धि केवल माया को ही जान सकती है, जो नापा जा सकता है। समझें। एक तराजू है। उससे हम उसी चीज को जांच सकते हैं, जो नापी जा सकती है। एक तराजू को लेकर हम एक आदमी के शरीर को नाप सकते हैं। लेकिन अगर तराजू से हम आदमी के मन को जानने चलें, तो मुश्किल हो जाएगी। क्योंकि मन तराजू पर नहीं नापा जा सकता। एक आदमी के शरीर में कितनी हड्डियां, मांस - मज्जा है, यह हम नाप सकते हैं तराजू से। लेकिन एक आदमी के भीतर कितना प्रेम है, कितनी घृणा है, इसको हम तराजू से नहीं नाप सकते। इसका यह मतलब नहीं कि प्रेम है नहीं। इसका केवल इतना ही मतलब है कि जो मापने का उपकरण है, वह संगत नहीं है। जो भी नापा जा सकता है, उसे बुद्धि समझ सकती है। जो भी गणित के भीतर आ सकता है, बुद्धि समझ सकती है। जो भी
तर्क के भीतर आ जाता है, बुद्धि समझ सकती है। विज्ञान बुद्धि का विस्तार है। इसलिए वितान उसी को मानता है, जो नप सके, जांचा जा सके, परखा जा सके, छुआ जा सके, प्रयोग किया जा सके, उसको ही। जो न छुआ जा सके, न परखा जा सके, न पकड़ा जा सके, न तौला जा सके, विज्ञान कहता है, वह है ही नहीं । वहां विज्ञान भूल करता है। विज्ञान को इतना ही कहना चाहिए कि उस दिशा में हमारे पास जाने का कोई उपाय नहीं है। हो भी सकता है, न भी हो, लेकिन बिना उपाय के कुछ भी कहा नहीं जा सकता है। परमात्मा का अर्थ है, असीम। परमात्मा का अर्थ है, सब। परमात्मा का अर्थ है, जो भी है, उसका जोड़। इस विराट को बुद्धि नहीं नाप पाती। क्योंकि बुद्धि भी इस विराट का एक अंग है। बुद्धि भी इस विराट का एक अंश है। अंश कभी भी पूर्ण को नहीं जांच सकता। अंश कभी भी अपने पूर्ण को नहीं पकड़ सकता। कैसे पकड़ेगा? अगर मैं अपने हाथ से अपने पूरे शरीर को पकड़ना चाहूं तो कैसे पकडूंगा? कोई उपाय नहीं है। मेरा हाथ कई चीजें उठा सकता है। लेकिन मेरा हाथ मेरे पूरे शरीर को नहीं उठा सकता। अंश है, छोटा है, शरीर बड़ा है। बुद्धि एक अंश है इस विराट में। एक बूंद सागर में है, इस पूरे सागर को नहीं उठा पाती है। तो बुद्धि उपाय नहीं है जानने का। और हम बुद्धि से ही जानने की कोशिश करते हैं। दार्शनिक सोचते हैं, मनन करते हैं, तर्क करते हैं। बुद्धि से सोचते हैं कि ईश्वर है या नहीं। वे जो भी दलीलें देते हैं, वे दलीलें बचकानी हैं। बड़े से बड़े दार्शनिक ने भी ईश्वर के होने के लिए जो प्रमाण दिए हैं, वह बच्चा भी तोड़ सकता है। जितने भी प्रमाण ईश्वर के होने के लिए दिए गए हैं, वे कोई भी प्रमाण नहीं हैं। क्योंकि उन सभी को खंडित किया जा सकता है। इसलिए प्रमाण से जो ईश्वर को मानता है, उसे कोई भी नास्तिक दो क्षण में मिट्टी में मिला देगा। ऐसा कोई भी प्रमाण नहीं है, जो ईश्वर के होने को सिद्ध कर सके। क्योंकि अगर हमारा प्रमाण ईश्वर को सिद्ध कर सके, तो हम ईश्वर से भी बड़े हो जाते हैं। और हमारी बुद्धि अगर ईश्वर के लिए प्रमाण जुटा सके और अगर ईश्वर को हमारे प्रमाणों की जरूरत हो, तभी वह हो सके, और हमारे प्रमाण न हों तो वह न हो सके, तो हम ईश्वर से भी विराट और बड़े हो जाते हैं। मार्क्स ने मजाक में कहा है कि जब तक ईश्वर को टेस्ट-टयूब में न जांचा जा सके, तब तक मैं मानने को राजी नहीं हूं। लेकिन उसने फिर यह भी कहा है कि और अगर ईश्वर टेस्ट-टयूब में आ जाए और जांच लिया जाए, तब भी मानूंगा नहीं, क्योंकि तब मानने की कोई जरूरत नहीं रह गई। जो टेस्ट - ट्यूब में आ गया हो आदमी के, उसको ईश्वर कहने का कोई कारण नहीं रह गया। वह भी एक तत्व हो जाएगा। जैसे आक्सीजन है, हाइड्रोजन है, वैसा ईश्वर भी होगा। हम उससे भी काम लेना शुरू कर देंगे! पंखे चलाएंगे, बिजली जलाएंगे; कुछ और करेंगे। आदमी को मारेंगे, बच्चों को पैदा होने से रोकेंगे, या उम्र ज्यादा करेंगे। अगर ईश्वर को हम टेस्ट-टयूब में पकड़ लें, तो हम उसका भी
उपयोग कर लेंगे। विज्ञान तभी मानेगा, जब उपयोग कर सके। आदमी जो भी प्रमाण जुटा सकता है, वे प्रमाण सब बचकाने हैं। क्योंकि बुद्धि बचकानी है। उस विराट को नापने के लिए बुद्धि उपाय नहीं है। क्या कोई उपाय और हो सकता है बुद्धि के अतिरिक्त? बुद्धि के अतिरिक्त हमारे पास कुछ भी नहीं है। सोच सकते हैं। थोड़ा इसे हम समझ लें कि सोचने का क्या अर्थ होता है, तो इस सूत्र में प्रवेश आसान हो जाएगा। हम सोच सकते हैं। आप क्या सोच सकते हैं? जो आप जानते हैं, उसी को सोच सकते हैं। सोचना जुगाली है। गाय - भैंस को आपने देखा! घास चर लेती है, फिर बैठकर जुगाली करती रहती है। वह जो चर लिया है, उसको वापस चरती रहती है। विचार जुगाली है। जो आपके भीतर डाल दिया गया, उसको आप फिर जुगाली करते रहते हैं। आप एक भी नई बात नहीं सोच सकते हैं। कोई विचार मौलिक नहीं होता। सब विचार बाहर से डाले गए होते हैं, फिर हम सोचने लगते हैं उन पर। सब विचार उधार होते हैं। तो जो हमने जाना नहीं है अब तक, उसको हम सोच भी नहीं सकते। हम सोच उसी को सकते हैं, जिसे हमने जाना है, जिसे हमने सुना है, जिसे हमने समझा है, जिसे हमने पढ़ा है, उसे हम सोच सकते हैं। ईश्वर को न तो पढ़ा जा सकता, न ईश्वर को सुना जा सकता। ईश्वर को सोचेंगे कैसे? ईश्वर है अजात, अननोन। मौजूद है यहीं, लेकिन इसी तरह अज्ञात है, जैसे अंधे के लिए प्रकाश अज्ञात है। और अंधे के चारों तरफ मौजूद है, अंधे की चमड़ी को छू रहा है। अंधे को जो गरमी मिल रही है, वह उसी प्रकाश से मिल रही है। और अंधे को जो उसका मित्र हाथ पकड़कर रास्ते पर चला रहा है, वह भी उसी प्रकाश के कारण चला रहा है। और अंधे के भीतर जो हृदय में धड़कन हो रही है, वह भी उसी प्रकाश की किरणों के कारण हो रही है। और उसके खून में जो गति है, वह भ
ी प्रकाश के कारण है । अंधे का पूरा जीवन प्रकाश में लिप्त है, प्रकाश में डूबा है। अगर प्रकाश न हो, तो अंधा नहीं हो सकता। लेकिन फिर भी अंधे को प्रकाश का कोई भी पता नहीं चलता है। क्योंकि जो आंख चाहिए देखने की, वह नहीं है। अंधा जीता प्रकाश में है, होता प्रकाश में है, लेकिन अनुभव में नहीं आता। हम भी परमात्मा में हैं। उसके बिना न खून चलेगा, न हृदय धड़केगा, न श्वासें हिलेंगी, न वाणी बोलेगी, न मन विचारेगा। उसके बिना कुछ भी नहीं होगा। वह अस्तित्व है। लेकिन उसे देखने की हमारे पास अभी कोई भी इंद्रिय नहीं है। हाथ हैं, उनसे हम छू सकते हैं। जिसे हम छू सकते हैं, वह स्थूल है। सूक्ष्म को हम छू नहीं सकते। यहां भी सूक्ष्मपरमात्मा को अलग कर दें - पदार्थ में भी जो सूक्ष्म है, उसे भी हम हाथ से नहीं छू सकते। हमारे पास कान हैं, सुन सकते हैं। लेकिन कितना सुन सकते हैं? एक सीमा है। आपका कुत्ता आपसे हजार गुना ज्यादा सुनता है। उसके पास आपसे ज्यादा बड़ा कान है। अगर कान से परमात्मा का पता लगता होता, तो आपसे पहले आपके कुत्ते को पता लग जाएगा। घोड़ा आपसे दस गुना ज्यादा सूंघ सकता है। कुत्ता दस हजार गुना सूंघ सकता है। अगर सूंघने से परमात्मा का पता होता, तो कुत्तों ने अब तक उपलब्धि पा ली होती। हमसे ज्यादा मजबूत आंखों वाले जानवर हैं। हमसे ज्यादा मजबूत हाथों वाले जानवर हैं। हमसे ज्यादा मजबूत स्वाद का अनुभव करने वाले जानवर हैं। मधुमक्खी पांच मील दूर से फूल की गंध को पकड़ लेती है। अगर आपके घर में चोर घुसा हो, तो उसके जाने के घंटेभर बाद भी कुत्ता उसकी सुगंध को पकड़ लेता है। उसके जाने के घंटेभर बाद भी! और फिर पीछा कर सकता है। और दस - बीस मील कहीं भी चोर चला गया हो, अनुगमन कर सकता है। हमारे पास जो इंद्रियां हैं, उनसे स्थूल भी पूरा पकड़ में नहीं आता। सूक्ष्म की तो बात ही अलग है। हम जो सुनते हैं, वह एक छोटी - सी सीमा के भीतर सुनते हैं। उससे नीची आवाज भी हमें सुनाई नहीं पड़ती। उससे ऊपर की आवाज भी हमें सुनाई नहीं पड़ती। हमारी सब इंद्रियों की सीमा है, इसलिए असीम को कोई इंद्रिय पकड़ नहीं सकती। हमारी कोई भी इंद्रिय असीम नहीं है। हमारा जीवन ही सीमित है। थोड़ा कभी आपने खयाल किया कि आपका जीवन कितना सीमित है! घर में थर्मामीटर होगा, उसमें आप ठीक से देख लेना, उसमें सीमा पता चल जाएगी! इधर अट्ठानबे डिग्री के नीचे गिरे, कि बिखरे। उधर एक सौ आठ-दस डिग्री के पार जाने लगे, कि गए। बारह डिग्री थर्मामीटर में आपका जीवन है। उसके नीचे मौत, उसके उस तरफ मौत। बारह डिग्री में जहां जीवन हो, वहां परम जीवन को जानना बड़ा मुश्किल होगा। इस सीमित जीवन से उस असीम को हम कैसे जान पाएं! जरा-सा तापमान गिर जाए पृथ्वी पर सूरज का, हम सब समाप्त हो जाएंगे। जरा - सा तापमान बढ़ जाए, हम सब वाष्पीभूत हो जाएंगे। हमारा होना कितनी छोटी - सी सीमा में, क्षुद्र सीमा में है! इस छोटे-से क्षुद्र होने से हम जीवन के विराट अस्तित्व को जानने चलते हैं, और कभी
नहीं सोचते कि हमारे पास उपकरण क्या है जिससे हम नापेंगे! तो जो कह देता है बिना समझे-बूझे कि ईश्वर है, वह भी नासमझ; जो कह देता है बिना समझे - बूझे कि ईश्वर नहीं है, वह भी नासमझ। समझदार तो वह है, जो सोचे पहले कि ईश्वर का अर्थ क्या होता है? विराट! अनंत! असीम! मेरी क्या स्थिति है? इस मेरी स्थिति में और उस विराट में क्या कोई संबंध बन सकता है? अगर नहीं बन सकता, तो विराट की फिक्र छोडूं। मेरी स्थिति में कोई परिवर्तन करूं, जिससे संबंध बन सके। धर्म और दर्शन में यही फर्क है। दर्शन सोचता है ईश्वर के संबंध में। धर्म खोजता है स्वयं को, कि मेरे भीतर क्या कोई उपाय है? क्या मेरे भीतर ऐसा कोई झरोखा है? क्या मेरे भीतर ऐसी कोई स्थिति है, जहां से मैं छलांग लगा सकूं अनंत में? जहां मेरी सीमाएं मुझे रोकें नहीं। जहां मेरे बंधन मुझे बांधें नहीं। जहां मेरा भौतिक अस्तित्व रुकावट न हो। जहां से मैं छलांग ले सकूं, और विराट में कूद जाऊं और जान सकूं कि वह क्या है। अब हम इस सूत्र को समझने की कोशिश करें। परंतु मेरे को इन अपने प्राकृत नेत्रों द्वारा देखने को तू निःसंदेह समर्थ नहीं है, इसी से मैं तेरे लिए दिव्य-चक्षु देता हूं उससे तू मेरे प्रभाव को और योग- शक्ति को देख। कृष्ण ने अर्जुन को कहा कि जो आंखें तेरे पास हैं, प्राकृत नेत्र, इनसे तू मुझे देखने में समर्थ नहीं है। निश्चित ही, अर्जुन कृष्ण को देख रहा था, नहीं तो बात किससे होती! यह चर्चा हो रही थी। कृष्ण को सुन रहा था, नहीं तो यह चर्चा किससे होती ! यहां ध्यान रखें कि एक तो वे कृष्य हैं, जो अर्जुन को अभी दिखाई पड़ रहे हैं, इन प्राकृत आंखों से। और एक और कृष्य का होना है, जिसके लिए कृष्ण कहते हैं, तू मुझे न देख सकेगा इन आंखों से। तो जिन्होंने कृष्ण को प्राकृत आं
खों से देखा है, वे इस भ्रांति में न पड़े कि उन्होंने कृष्ण को देख लिया। अभी तक अर्जुन ने भी नहीं देखा है। उनके साथ रहा है। दोस्ती है। मित्रता है। पुराने संबंध हैं। नाता है। अभी उसने कृष्य को नहीं देखा है। अभी उसने जिसे देखा है, वह इन आंखों, प्राकृत आंखों और अनुभव के भीतर जो देखा जा सकता है, वही। अभी उसने कृष्य की छाया देखी है। अभी उसने कृष्य को नहीं देखा। अभी उसने जो देखा है, वह मूल नहीं देखा, ओरिजिनल नहीं देखा, अभी प्रतिलिपि देखी है। जैसे कि दर्पण में आपकी छवि बने, और कोई उस छवि को देखे। जैसे कोई आपका चित्र देखे। या पानी में आपका प्रतिबिंब बने और कोई उस प्रतिबिंब को देखे । पानी में प्रतिबिंब बनता है, ऐसे ही ठीक प्रकृति में भी आत्मा की प्रतिछवि बनती है। अभी अर्जुन जिसे देख रहा है, वह कृष्ण की प्रतिछवि है, सिर्फ छाया है। अभी उसने उसे नहीं देखा, जो कृष्ण हैं। और आपने भी अभी अपने को जितना देखा है, वह भी आपकी छाया है। अभी आपने उसे भी नहीं देखा, जो आप हैं। और अगर अर्जुन कृष्य के मूल को देखने में समर्थ हो जाए, तो अपने मूल को भी देखने में समर्थ हो जाएगा। क्योंकि मूल को देखने की आंख एक ही है, चाहे कृष्ण के मूल को देखना हो और चाहे अपने मूल को देखना हो। और छाया को देखने वाली आंख भी एक ही है, चाहे कृष्ण की छाया देखनी हो और चाहे अपनी छाया देखनी हो । तो यहां कुछ बातें ध्यान में ले लें। पहली, कि कृष्ण जो दिखाई पड़ते हैं, अर्जुन को दिखाई पड़ते थे, आपको मूर्ति में दिखाई पड़ते हैं..। अब थोड़ा समझें कि आपकी मूर्ति तो प्रतिछवि की भी प्रतिछवि है, छाया की भी छाया है। वह तो बहुत दूर है। कृष्ण की जो आकृति हमने मंदिर में बना रखी है, वह तो बहुत दूर है कृष्ण से। क्योंकि खुद कृष्ण भी जब मौजूद थे शरीर में, तब भी वे कह रहे हैं कि मैं यह नहीं हूं, जो तुझे अभी दिखाई पड़ रहा हूं। और इन आंखों से ही अगर देखना हो तो यही दिखाई पड़ेगा, जो मैं दिखाई पड़ रहा हूं। नई आंख चाहिए। प्राकृत नहीं, दिव्य-चक्षु चाहिए। इन आंखों को प्राकृत कहा है, क्योंकि इनसे प्रकृति दिखाई पड़ती है। इनसे दिव्यता दिखाई नहीं पड़ती। इनसे जो भी दिखाई पड़ता है, वह मैटर है, पदार्थ है। और जो भी दिव्य है, इनसे चूक जाता है। दिव्य को देखने का इनके पास कोई उपाय नहीं है। तो कृष्ण कहते हैं कि मैं तुझे अब वह आंख देता हूं जिससे तुझे मैं दिखाई पड़ सकूं, जैसा मैं हूं - अपने मूल रूप में, अपनी मौलिकता में। प्रकृति में मेरी छाया नहीं, तू मुझे देख । लेकिन तब मैं तुझे एक नई आंख देता हूं। यहां बहुत - से सवाल उठने स्वाभाविक हैं कि क्या कोई और आदमी किसी को दिव्य आंख दे सकता है? कि कृष्ण कहते हैं, मैं तुझे दिव्य - चक्षु देता हूं। क्या यह संभव है कि कोई आपको दिव्य - चक्षु दे सके? और अगर कोई आपको दिव्य - चक्षु दे सकता है, तब तो फिर अत्यंत कठिनाई हो जाएगी। कहां खोजिएगा कृष्ण को जो आपको दिव्य - चक्षु दे? और अगर कोई आपको दिव्य - चक्षु दे सकता ह
ै, तो फिर कोई आपके दिव्य-चक्षु ले भी सकता है। और अगर कोई दूसरा आपको दि॒िव्य - चक्षु दे सकता है, तो फिर आपके करने के लिए क्या बचता है? कोई देगा। प्रभु की अनुकंपा होगी कभी, तो हो जाएगा। फिर आपके लिए प्रतीक्षा के सिवाय कुछ भी नहीं है। फिर आपके लिए संसार के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। इस पर बहुत - सी बातें सोच लेनी जरूरी हैं। पहली बात तो यह है कि कृष्ण ने जब यह कहा कि मैं तुझे दिव्य- • चक्षु देता हूं तो इसके पहले अर्जुन अपने को पूरा समर्पित कर चुका है, रत्ती - मात्र भी अपने को पीछे नहीं बचाया है। अगर कृष्य अब मौत भी दें, तो अर्जुन उसके लिए भी राजी है। अब अर्जुन का अपना कोई आग्रह नहीं है। आदमी जो सबसे बड़ी साधना कर सकता है, वह समर्पण है, वह सरेंडर है। और जैसे ही कोई व्यक्ति समर्पित कर देता है पूरा, तब कृष्ण को चक्षु देने नहीं पड़ते, यह सिर्फ भाषा की बात है कि मैं तुझे चक्षु देता हूं। जो समर्पित कर देता है, उस समर्पण की घड़ी में ही चक्षु का जन्म हो जाता है। लेकिन शायद कृष्ण की मौजूदगी वहां न हो, तो अड़चनें हो सकती हैं, क्योंकि कृष्ण कैटेलिटिक एजेंट का काम कर रहे हैं। जो लोग विज्ञान की भाषा से परिचित हैं, वे कैटेलिटिक एजेंट का अर्थ समझते हैं। कैटेलिटिक एजेंट का अर्थ होता है, जो खुद करे न कुछ, लेकिन जिसकी मौजूदगी में कुछ हो जाए। वैज्ञानिक कहते हैं कि हाइड्रोजन और आक्सीजन मिलकर पानी बनता है। अगर आप हाइड्रोजन और आक्सीजन को मिला दें, तो पानी नहीं बनेगा। लेकिन अगर आप पानी को तोड़े, तो हाइड्रोजन और आक्सीजन बन जाएगी। अगर आप पानी की एक बूंद को तोड़े, तो हाइड्रोजन और आक्सीजन आपको मिलेगी और कुछ भी नहीं मिलेगा। स्वभावतः, इसका नतीजा यह होना चाहिए कि अगर हम हाइड्रोजन और आक्सीजन को जोड़ दें, तो पा
नी बन जाना चाहिए। लेकिन बड़ी मुश्किल है। तोड़े, तो सिर्फ हाइड्रोजन और आक्सीजन मिलती है। जोड़े, तो पानी नहीं बनता। जोड्ने के लिए बिजली की मौजूदगी जरूरी है। और बिजली उस जोड़ में प्रवेश नहीं करती, सिर्फ मौजूद होती है, जस्ट प्रेजेंट। सिर्फ मौजूदगी चाहिए बिजली की बिजली मौजूद हो, तो हाइड्रोजन और आक्सीजन मिलकर पानी बन जाता है। बिजली मौजूद न हो, तो हाइड्रोजन और आक्सीजन मिलकर पानी नहीं बनते। वह जो बरसात में आपको बिजली चमकती दिखाई पड़ती है, वह कैटेलिटिक एजेंट है, उसके बिना वर्षा नहीं हो सकती। उसकी वजह से वर्षा हो रही है। लेकिन वह पानी में प्रवेश नहीं करती है। वह सिर्फ मौजूद होती है। यह कैटेलिटिक एजेंट की धारणा बड़ी कीमती है और अध्यात्म में तो बहुत कीमती है। गुरु कैटेलिटिक एजेंट है। वह कुछ देता नहीं। क्योंकि अध्यात्म कोई ऐसी चीज नहीं कि दी जा सके। वह कुछ करता भी नहीं। क्योंकि कुछ करना भी दूसरे के साथ हिंसा करना है, जबरदस्ती करनी है। वह सिर्फ होता है मौजूद। लेकिन उसकी मौजूदगी काम कर जाती है; उसकी मौजूदगी जादू बन जाती है। सिर्फ उसकी मौजूदगी, और आपके भीतर कुछ हो जाता है, जो उसके बिना शायद न हो पाता। पहली तो बात यह है कि कृष्ण मौजूद न हों, तो समर्पण बहुत मुश्किल है। इसलिए मैं मानता हूं कि अर्जुन को समर्पण जितना आसान हुआ होगा, मीरा को उतना आसान नहीं हुआ होगा। इसलिए मीरा की कीमत अर्जुन से ज्यादा है। क्योंकि कृष्ण सामने मौजूद हों, तब समर्पण करना आसान है। कृष्य बिलकुल सामने मौजूद न हों, तब दोहरी दिक्कत है। पहले तो कृष्ण को मौजूद करो, फिर समर्पण करो। मीरा को दोहरे काम करने पड़े हैं। पहले तो कृष्ण को मौजूद करो; अपनी ही पुकार, अपनी ही अभीप्सा, अपनी ही प्यास से निर्मित करो, बुलाओ, निकट लाओ। ऐसी घड़ी आ जाए कि कृष्ण मालूम पड़ने लगें कि मौजूद हैं। रत्ती मात्र फर्क न रह जाए, कृष्ण की मौजूदगी में और इसमें। दूसरों को लगेगी कल्पना, कि मीरा कल्पना में पागल है। नाच रही है, किसके पास! जो देखते हैं, उन्हें कोई दिखाई नहीं पड़ता। और यह मीरा जो गा रही है और नाच रही है, किसके पास? तो मीरा की आंखों में जो देखते हैं, उन्हें लगता है कि कोई न कोई मौजूद जरूर होना चाहिए! और या फिर मीरा पागल है। जो नहीं समझते, उनके लिए मीरा पागल है। क्योंकि कोई भी नहीं है और मीरा नाच रही है, तो पागल है। जो नहीं समझते, वे समझते हैं, कल्पना है।
मियाँ आजाद के बारे में, हम इतना ही जानते हैं कि वह आजाद थे। उनके खानदान का पता नहीं, गाँव-घर का पता नहीं खयाल आजाद, रंग-ढंग आजाद, लिबास आजाद दिल आजाद और मजहब भी आजाद। दिन भर जमीन के गज बने हुए इधर-उधर घूमना, जहाँ बैठना वहाँ से उठने का नाम न लेना और एक बार उठ खड़े हुए तो दिन भर मटरगश्त करते रहना उनका काम था। न घर, न द्वार कभी किसी दोस्त के यहाँ डट गए, कभी किसी हलवाई की दुकान पर अड्डा जमाया और कोई ठिकाना न मिला, तो फाका कर गए। सब गुन पूरे थे। कुश्ती में, लकड़ी-बिनवट में, गदके-फरी में, पटे-बाँक में उस्ताद। गरज, आलिमों में आलिम, शायरों में शायर, रँगीलों में रँगीले, हर फन मौला आदमी थे। मियाँ आजाद के बारे में, हम इतना ही जानते हैं कि वह आजाद थे। उनके खानदान का पता नहीं, गाँव-घर का पता नहीं खयाल आजाद, रंग-ढंग आजाद, लिबास आजाद दिल आजाद और मजहब भी आजाद। दिन भर जमीन ...Read Moreगज बने हुए इधर-उधर घूमना, जहाँ बैठना वहाँ से उठने का नाम न लेना और एक बार उठ खड़े हुए तो दिन भर मटरगश्त करते रहना उनका काम था। न घर, न द्वार कभी किसी दोस्त के यहाँ डट गए, कभी किसी हलवाई की दुकान पर अड्डा जमाया और कोई ठिकाना न मिला, तो फाका कर गए। सब गुन पूरे थे। कुश्ती में, लकड़ी-बिनवट में, गदके-फरी में, पटे-बाँक में उस्ताद। गरज, आलिमों में आलिम, शायरों में शायर, रँगीलों में रँगीले, हर फन मौला आदमी थे। आजाद की धाक ऐसी बँधी कि नवाबों और रईसों में भी उनका जिक्र होने लगा। रईसों को मरज होता है कि पहलवान, फिकैत, बिनवटिए को साथ रखें, बग्घी पर ले कर हवा खाने निकलें। एक नवाब साहब ने इनको ...Read Moreबुलवाया। यह छैला बने हुए, दोहरी तलवार कमर से लगाए जा पहुँचे। देखा, नवाब साहब, अपनी माँ के लाड़ले, भोले-भाले, अँधेरे घर के उजाले, मसनद पर बैठे पेचवान गुड़गुड़ा रहे हैं। सारी उम्र महल के अंदर ही गुजरी थी, कभी घर के बाहर जाने तक की भी नौबत न आई थी, गोया बाहर कदम रखने की कसम खाई थी। दिनभर कमरे में बैठना, यारों-दोस्तों से गप्पें उड़ाना, कभी चौसर रंग जमाया, कभी बाजी लड़ी, कभी पौ पर गोट पड़ी, फिर शतरंज बिछी, मुहरे खट-खट पिटने लगे। किश्त! वह घोड़ा पीट लिया, वह प्यादा मार लिया। जब दिल घबराया, तब मदक का दम लगाया, चंडू के छींटे उड़ाए, अफीम की चुसकी ली। आजाद ने झुक कर सलाम किया। नवाब साहब खुश हो कर गले मिले, अपने करीब बिठाया और बोले - मैंने सुना है, आपने सारे शहर के बाँकों के छक्के छुड़ा दिए। नवाब साहब के दरबार में दिनोंदिन आजाद का सम्मान बढ़ने लगा। यहाँ तक कि वह अक्सर खाना भी नवाब के साथ ही खाते। नौकरों को ताकीद कर दी गई कि आजाद का जो हुक्म हो, वह फौरन बजा लाएँ, ...Read Moreभी मीनमेख न करें। ज्यों-ज्यों आजाद के गुण नवाब पर खुलते जाते थे, और मुसाहबों की किर-किरी होती जाती थी। अभी लोगों ने अच्छे मिर्जा को दरबार से निकलवाया था, अब आजाद के पीछे पड़े। यह सिर्फ पहलवानी ही जानते हें, गदके और बिनवट के दो-चार हाथ कुछ सीख लिए
हैं, बस, उसी पर अकड़ते फिरते हैं कि जो कुछ हूँ, बस, मैं ही हूँ। पढ़े-लिखे वाजिबी ही वाजिबी हैं, शायरी इन्हें नहीं आती, मजहबी मुआमिलों में बिलकुल कोरे हैं। आजाद यह तो जानते ही थे कि नवाब के मुहाहबों में से कोई चौक के बाहर जानेवाला नहीं इसलिए उन्होंने साँड़नी तो एक सराय में बाँध दी और आप अपने घर आए। रुपए हाथ में थे ही, सवेरे घर ...Read Moreउठ खड़े होते, कभी साँड़नी पर, कभी पैदल, शहर और शहर के आस-पास के हिस्सों में चक्कर लगाते, शाम को फिर साँड़नी सराय में बाँध देते और घर चले आते। एक रोज सुबह के वक्त घर से निकले तो क्या देखते हैं कि एक साहब केचुललेट का धानी रँगा हुआ कुरता, उस पर रुपए गजवाली महीन शरबती का तीन कमरतोई का चुस्त अँगरखा, गुलबदन का चूड़ीदार घुटन्ना पहने, माँग निकाले, इत्र लगाए, माशे भर की नन्ही सी टोपी आलपीन से अटकाए, हाथों में मेहँदी, पोर-पोर छल्ले, आँखों में सुर्मा, छोटे पंजे का मखमली जूता पहने, एक अजब लोच से कमर लचकाते, फूँक-फूँक कर कदम रखते चले आते थे। दोनों ने एक दूसरे को खूब जोर से घूरा। छैले मियाँ ने मुसकराते हुए आवाज दी - ऐ, जरी इधर तो देखो, हवा के घोड़े पर सवार हो! मेरा कलेजा बल्लियों उछलता है। भरी बरसात के दिन, कहीं फिसल न पड़ो, तो कहकहा उड़े। मियाँ आजाद की साँड़नी तो सराय में बँधी थी। दूसरे दिन आप उस पर सवार हो कर घर से निकल पड़े। दोपहर ढले एक कस्बे में पहुँचे। पीपल के पेड़ के साये में बिस्तर जमाया। ठंडे-ठंडे हवा के झोंकों ...Read Moreजरा दिल को ढारस हुई, पाँव फैला कर लंबी तानी, तो दीन दुनिया की खबर नहीं। जब खूब नींद भर कर सो चुके, तो एक आदमी ने जगा दिया। उठे, मगर प्यास के मारे हलक में काँटे पड़ गए। सामने इंदारे पर एक हसीन औरत पानी भर रही थी। हजरत भी पहुँचे।
मियाँ आजाद मुँह-अँधेरे तारों की छाँह में बिस्तर से उठे, तो सोचे साँड़नी के घास-चारे की फिक्र करके सोचा कि जरा अदालत और कचहरी की भी दो घड़ी सैर कर आएँ। पहुँचे तो क्या देखते हैं, एक घना ...Read Moreहै और पेड़ों की छाँह में मेला साल लगा है। कोई हलवाई से मीठी-मीठी बातें करता है। कोई मदारिए को ताजा कर रहा है। कूँजड़े फलों की डालियाँ लगाए बैठे हैं। पानवाले की दुकान पर वह भीड़ है कि खड़े होने की जगह नहीं मिलती। चूरनवाला चूरन बेच रहा है। एक तरफ एक हकीम साहब दवाओं की पुड़िया फैलाए जिरियान की दवा बेच रहे हैं। बीसों मुंशी-मुतसद्दी चटाइयों पर बैठे अर्जियाँ लिख रहे हैं। मुस्तगीस हैं कि एक-एक के पास दस-दस बैठे कानून छाँट रहे हैं - अरे मुंशी जी, यो का अंट-संट चिघटियाँ सी खँचाय दिहो? हम तो आपन मजमून बतावत हैं, तुम अपने अढ़ाई चाउर अलग चुरावत हौ। मियाँ आजाद साँड़नी पर बैठे हुए एक दिन सैर करने निकले, तो एक सराय में जा पहुँचे। देखा, एक बरामदे में चार-पाँच आदमी फर्श पर बैठे धुआँधार हुक्के उड़ा रहे हैं, गिलौरी चबा रहे हैं और गजलें पढ़ रहे ...Read Moreएक कवि ने कहा, हम तीनों के तखल्लुस का काफिया एक है - अल्लामी, फहामी और हामी मगर तुम दो ही हो - वकाद और जवाद। एक शायर और आ जायँ, तो दोनों तरफ से तीन-तीन हो जायँ। इतने में मियाँ आजाद तड़ से पहुँच गए। मेरे खूसट शौहर, खुदा तुमसे समझे! आजाद - वाह! यह तो निराला खत है। न सलाम, न बंदगी। शुरू ही से कोसना शुरू किया। बूढ़े - जनाब, आप खत पढ़ते हैं कि मेरे घर का कजिया चुकाते हैं? पराये झगड़े से आपका वास्ता? जब मियाँ-बीबी राजी है, तब आप कोई काजी हैं! आजाद को नवाब साहब के दरबार से चले महीनों गुजर गए, यहाँ तक कि मुहर्रम आ गया। घर से निकले, तो देखते क्या हैं, घर-घर कुहराम मचा हुआ है, सारा शहर हुसेन का मातम मना रहा है। जिधर देखिए, ...Read Moreकी भीड़, मजलिसों की धूम, ताजिया-खानों में चहल-पहल और इमामबाड़ों में भीड़-भाड़ है। लखनऊ की मजलिसों का क्या कहना! यहाँ के मर्सिये पढ़नेवाले रूम और शाम तक मशहूर हैं। हुसेनाबाद का इमामबाड़ा चौदहवीं रात का चाँद बना हुआ था। उनके साथ एक दोस्त भी हो लिए थे। उनकी बेकरारी का हाल न पूछिए। वह लखनऊ से वाकिफ न थे, लोटे जाते थे कि हमें लखनऊ का मुहर्रम दिखा दो मगर कोई जगह छूटने न पाए। एक आदमी ने ठंडी साँस खींच कर कहा - मियाँ अब वह लखनऊ कहाँ? वे लोग कहाँ? वे दिन कहाँ? लखनऊ का मुहर्रम रंगीले पिया जान आलम के वक्त में अलबत्ता देखने काबिल था। वसंत के दिन आए। आजाद को कोई फिक्र तो थी ही नहीं, सोचे, आज वसंत की बहार देखनी चाहिए। घर से निकल खड़े हुए, तो देखा कि हर चीज जर्द है, पेड़-पत्ते जर्द, दरो-दीवार जर्द, रंगीन कमरे जर्द, लिबास ...Read Moreकपड़े जर्द। शाहमीना की दरगाह में धूम है, तमाशाइयों का हुजूम है। हसीनों के झमकड़ें, रँगीले जवानों की रेल-पेल, इंद्र के अखाड़े की परियों का दगल है, जंगल में मंगल है। वसंत की बहार उमंग पर है, जाफरान
ी दुपट्टों और केसरिये पाजामों पर अजब जोबन है। वहाँ से चौक पहुँचे। जौहरियों की दुकान पर ऐसे सुंदर पुखराज हैं कि पुखराज-परी देखती, तो मारे शर्म के हीरा खाती और इंद्र का अखाड़ा भूल जाती। मेवा बेचनेवाली जर्द आलू, नारंगी, अमरूद, चकोतरा, महताबी की बहार दिखलाती है, चंपई दुपट्टे पर इतराती है। एक दिन आजाद शहर की सैर करते हुए एक मकतबखाने में जा पहुँचे। देखा, एक मौलवी साहब खटिया पर उकड़ू बैठे हुए लड़कों को पढ़ा रहे हैं। आपकी रँगी हुई दाढ़ी पेट पर लहरा रही है। गोल-गोल आँखें, खोपड़ी ...Read Moreउस पर चौगोशिया टोपी जमी-जमाई। हाथ में तसबीह लिए खटखटा रहे हैं। लौंडे इर्द-गिर्द गुल मचा रहे हैं। हू-हक मची हुई है, गोया कोई मंडी लगी हुई है। तहजीब कोसों दूर, अदब काफूर, मगर मौलवी साहब से इस तरह से डरते हैं, जैसे चूहा बिल्ली से, या अफीमची नाव से। जरी चितवन तीखी हुई, और खलबली मच गई। सब किताबें खोले झूम-झूम कर मौलवी साहब को फुसला रहे हैं। एक शेर जो रटना शुरू किया, तो बला की तरह उसको चिमट गए। मतलब तो यह कि मौलवी साहब मुँह का खुलना और जबान का हिलना और उनका झूमना देखें, कोई पढ़े या न पढ़े, इससे मतलब नहीं। आजाद तो इधर साँड़नी को सराय में बाँधे हुए मजे से सैर-सपाटे कर रहे थे, उधर नवाब साहब के यहाँ रोज उनका इंतिजार रहता था कि आज आजाद आते होंगे और सफशिकन को अपने साथ लाते होंगे। रोज फाल ...Read Moreजाती थी, सगुन पूछे जाते थे। मुसाहब लोग नवाब को भड़काते थे कि अब आजाद नहीं लौटने के लेकिन नवाब साहब को उनके लौटने का पूरा यकीन था। एक दिन बेगम साहबा ने नवाब साहब से कहा - क्यों जी, तुम्हारा आजाद किस खोह में धँस गया? दो महीने से तो कम न हुए होंगे। इधर शिवाले का घंटा बजा ठनाठन, उधर दो नाकों से सुबह की तोप दगी दनादन। म
ियाँ आजाद अपने एक दोस्त के साथ सैर करते हुए बस्ती के बाहर जा पहुँचे। क्या देखते हैं, एक बेल-बूटों से सजा हुआ बँगला ...Read Moreअहाता साफ, कहीं गंदगी का नाम नहीं। फूलों-फलों से लदे हुए दरख्त खड़े झूम रहे हें। दरवाजों पर चिकें पड़ी हुई हैं। बरामदे में एक साहब कुर्सी पर बैठे हुए हैं, और उनके करीब दूसरी कुर्सी पर उनकी मेम साहबा बिराज रही हैं। चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ है। न कहीं शोर, न कहीं गुल। आजाद ने कहा - जिंदगी का मजा तो ये लोग उठाते हैं। बेनियाजी तेरी आदत ही सही। हम तो कहते हैं, दुआ करते हैं। मियाँ आजाद एक दिन चले जाते थे। क्या देखते हैं, एक पुरानी-धुरानी गड़हिया के किनारे एक दढ़ियल बैठे काई की कैफियत देख रहे हैं।कभी ढेला उठाकर फेंका, छप। बुड्ढे आदमी और लौंडे बने जाते हैं। दाढ़ी का भी खयाल ...Read Moreलुत्फ यह कि मुहल्ले भर के लौंडे इर्द-गिर्द खड़े तालियाँ बजा रहे हैं, लेकिन आप गड़हिया की लहरों ही पर लट्टू हैं। कमर झुकाए चारों तरफ ढेले और ठीकरे ढूँढ़ते फिरते हैं। एक दफा कई ढेले उठा कर फेंके। आजाद ने सोचा, कोई पागल है क्या। साफ-सुथरे कपड़े पहने, यह उम्र, यह वजा, और किस मजे से गड़हिया पर बैठे रँगरलियाँ मना रहे हैं। यह खबर नहीं कि गाँव भर के लौंडे पीछे तालियाँ बजा रहे हें। एक लौंडे ने चपत जमाने के लिए हाथ उठाया, मगर हाथ खींच लिया। दूसरे ने पेड़ की आड़ से कंकड़ी लगाई। मियाँ आजाद के पाँव में तो आँधी रोग था। इधर-उधर चक्कर लगाए, रास्ता नापा और पड़ कर सो रहे। एक दिन साँड़नी की खबर लेने के लिए सराय की तरफ गए, तो देखा, बड़ी चहल-पहल है। एक तरफ रोटियाँ ...Read Moreरही हैं, दूसरी तरफ दाल बघारी जाती है। भठियारिनें मुसाफिरों को घेर-घार कर ला रही हैं, साफ-सुथरी कोठरियाँ दिखला रही हैं। एक कोठरी के पास एक मोटा-ताजा आदमी जैसे ही चारपाई पर बैठा, पट्टी टूट गई। आप गड़ाप से झिलँगे में हो रहे। अब बार-बार उचकते है मगर उठा नहीं जाता। चिल्ला रहे हैं कि भाई, मुझे कोई उठाओ। आखिर भठियारों ने दाहिना हाथ पकड़ा, बाईं तरफ मियाँ आजाद ने हाथ दिया और आपको बड़ी मुश्किल से खींच खाँच के निकाला। झिलँगे से बाहर आए, तो सूरत बिगड़ी हुई थी। कपड़े कई जगह मसक गए थे। झल्ला कर भठियारी से बोले - वाह, अच्छी चारपाई दी! जो मरे हाथ-पाँव टूट जाते, या सिर फूट जाता, तो कैसी होती? आजाद के दिल में एक दिन समाई कि आज किसी मसजिद में नमाज पढ़े, जुमे का दिन है, जामे-मसजिद में खूब जमाव होगा। फौरन मसजिद में आ पहुँचे। क्या देखते हैं, बड़े-बड़े जहिद और मौलवी,काजी और मुफ्ती बड़े-बड़े अमामे ...Read Moreपर बाँधे नमाज पढ़ने चले आ रहे हैं अभी नमाज शुरू होने में देर है, इसलिए इधर-उधर की बातें करके वक्त काट रहे हैं। दो आदमी एक दरख्त के नीचे बैठे जिन्न और चुड़ैल की बातें कर रहे हैं। एक साहब नवजवान हैं, मोटे-ताजे दूसरे साहब बुड्ढे हैं, दुबले-पतले। मियाँ आजाद एक दिन चले जाते थे, तो देखते क्या हैं, एक चौराहे के नुक्कड़ पर भंगवाले
की दुकान है और उस पर उनके एक लँगोटिए यार बैठे डींग की ले रहे हैं। हमने जो खर्च कर डाला, वह ...Read Moreको पैदा करना भी नसीब न हुआ होगा, लाखों कमाए, करोड़ों लुटाए, किसी के देने में न लेने में। आजाद ने झुक कर कान में कहा - वाह भई उस्ताद, क्यों न हो, अच्छी लंतरानियाँ हैं। बाबा तो आपके उम्र भर बर्फ बेचा किए और दादा जूते की दुकान रखते-रखते बूढ़े हुए। आपने कमाया क्या, लुटाया क्या? याद है, एक दफे साढ़े छह रुपए की मुहर्रिरी पाई, मगर उससे भी निकाले गए। उसने कहा - आप भी निरे गावदी हैं। अरे मियाँ, अब गप उड़ाने से भी गए? भंगवाले की दुकान पर गप न मारूँ, तो और कहाँ जाऊँ? फिर इतना तो समझो कि यहाँ हमको जानता कौन है। मियाँ आजाद तो एक सैलानी आदमी थे ही, एक तिपाई पर टिक गए। देखते क्या हैं, एक दरख्त के तले सिरकी का छप्पर पड़ा है, एक तख्त बिछा है, भंगवाला सिल पर रगड़ें लगा रहा है। एक दिन मियाँ आजाद साँड़नी पर सवार हो घूमने निकले, तो एक थिएटर में जा पहुँचे। सैलानी आदमी तो थे ही, थिएटर देखने लगे, तो वक्त का खयाल ही न रहा। थिएटर बंद हुआ, तो बारह बज गए थे। ...Read Moreपहुँचना मुश्किल था। सोचे, आत रात को सराय ही में पड़ रहें। सोए, तो घोड़े बेचकर। भठियारी ने आ कर जगाया - अजी, उठो, आज तो जैसे घोड़े बेच कर सोए हो! ऐ लो, वह आठ का गजर बजा। अँगड़ाइयों पर अँगड़ाइयाँ ले रहे हैं, मगर उठने का नाम नहीं लेते। दूसरे दिन सवेरे आजाद की आँख खुली तो देखा, एक शाह जी उनके सिरहाने खड़े उनकी तरफ देख रहे हैं। शाह जी के साथ एक लड़का भी है, जो अलारक्खी को दुआएँ दे रहा है। आजाद ने समझा, कोई ...Read Moreहै, झठ उठ कर उनको सलाम किया। फकीर ने मुसकिरा कर कहा - हुजूर, मेरा इनाम हुआ। सच कहिएगा, ऐसे बहुरूपिए कम देखे होंगे। आजाद ने दे
खा गच्चा खा गए, अब बिना इनाम दिए गला न छूटेगा। बस, अलारक्खी की भड़कीली दुलाई उठाकर दे दी। बहुरूपिए ने दुलाई ली, झुक कर सलाम किया और लंबा हुआ। लौंडे ने देखा कि मैं ही रहा जाता हूँ। बढ़ कर आजाद का दामन पकड़ा। हुजूर, हमें कुछ भी नहीं? आजाद ने जेब से एक रुपया निकाल कर फेंक दिया। तब अलारक्खी चमक कर आगे बढ़ीं और बोलीं - हमें? मियाँ आजाद रेल पर बैठ कर नाविल पढ़ रहे थे कि एक साहब ने पूछा - जनाब, दो-एक दम लगाइए, तो पेचवान हाजिर है। वल्लाह, वह धुआँधार पिलाऊँ कि दिल फड़क उठे। मगर याद रखिए, दो दम से ज्यादा ...Read Moreसनद नहीं। ऐसा न हो, आप भैंसिया-जोंक हो जायँ। आजाद ने पीछे फिर कर देखा, तो एक बिगड़े-दिल मजे से बैठे हुक्का पी रहे हैं। बोले, यह क्या अंधेर है भाई? आप रेल ही पर गुड़गुड़ाने लगे और हुक्का भी नहीं, पेचबान। जो कहीं आग लग जाय, तो? मियाँ आजाद के पाँव में तो सनीचर था। दो दिन कहीं टिक जायँ तो तलवे खुजलाने लगें। पतंगबाज के यहाँ चार-पाँच दिन जो जम गए, तो तबीयत घबराने लगी लखनऊ की याद आई। सोचे, अब वहाँ सब मामला ठंडा ...Read Moreगया होगा। बोरिया-बँधना उठाया और शिकरम-गाड़ी की तरफ चले। रेल पर बहुत चढ़ चुके थे, अब की शिकरम पर चढ़ने का शौक हुआ। पूछते-पूछते वहाँ पहुँचे। डेढ़ रुपए किराया तय हुआ, एक रुपया बयाना दिया। मालूम हुआ, सात बजे गाड़ी छूट जायगी, आप साढ़े-छह बजे आ जाइए। आजाद ने असबाब तो वहाँ रखा, अभी तीन ही बजे थे, पतंगबाज के यहाँ आ कर गप-शप करने लगे। बातों-बातों में पौंने सात बज गए। शिकरम की याद आई, बचा-खुचा असबाब मजदूर के सिर पर लाद कर लदे-फँदे घर से चल खड़े हुए। मियाँ आजाद शिकरम पर से उतरे, तो शहर को देख कर बाग-बाग हो गए। लखनऊ में घूमे तो बहुत थे, पर इस हिस्से की तरफ आने का कभी इत्तिफाक न हुआ था। सड़कें साफ, कूड़े-करकट से काम नहीं, गंदगी ...Read Moreनाम नहीं, वहाँ एक रंगीन कोठी नजर आई, तो आँखों ने वह तरावट पाई कि वाह जी, वाह! उसकी बनावट और सजावट ऐसी भायी कि सुभान-अल्लाह। बस, दिल में खुब ही तो गई। रविशें दुनिया से निराली, पौदों पर वह जोबन कि आदमी बरसों घूरा करे। बड़ी बेगम साहबा पुराने जमाने की रईसजादी थीं, टोने टोटके में उन्हें पूरा विश्वास था। बिल्ली अगर घर में किसी दिन आ जाय, तो आफत हो जाय। उल्लू बोला और उनकी जान निकली। जूते पर जूता देखा और आग ...Read Moreगईं। किसी ने सीटी बजाई और उन्होंने कोसना शुरू किया। कोई पाँव पर पाँव रख कर सोया और आपने ललकारा। कुत्ता गली में रोया और उनका दम निकल गया। रास्ते में काना मिला ओर उन्होंने पालकी फेर दी। तेली की सूरत देखी और खून सूख गया। किसी ने जमीन पर लकीर बनाई और उसकी शामत आई। रास्ते में कोई टोक दे, तो उसके सिर हो जाती थीं। सावन के महीने में चारपाई बनवाने की कसम खाई थी। मियाँ आजाद हुस्नआरा के यहाँ से चले, तो घूमते-घामते हँसोड़ के मकान पर पहुँचे और पुकारा। लौंड़ी बोली कि वह तो कहाँ गए हैं, आप बैठिए। आजाद - भाभी साहब से हमारी बंदगी
कह दो ओर कहो, मिजाज पूछते हैं। लौंडी ...Read Moreबेगम साहबा सलाम करती हैं और फर्माती हैं कि कहाँ रहे? आजाद - इधर-उधर मारा-मारा फिरता था। लौंडी - वह कहती हैं, हमसे बहुत न उड़िए। यहाँ कच्ची गोलियाँ नहीं खेलीं। कहिए, आपकी हुस्नआरा तो अच्छी है। यह बजरे पर हवा खाना और यहाँ आ कर बुत्ते बताना। आजाद - आपसे यह कौन कच्चा चिट्ठा कह गया? लौंडी - कहती हैं कि मुझसे भी परदा है? इतना तो बता दीजिए कि बरात किस दिन चढ़ेगी? हमने सुना है, हुस्नआरा आप पर बेतरह रीझ गईं। और, क्यों न रीझें, आप भी तो माशाअल्लाह गबरू जवान हैं। आजाद ने सोचा कि रेल पर चलने से हिंदोस्तान की हालत देखने में न आएगी। इसलिए वह लखनऊ के स्टेशन पर सवार न होकर घोड़े पर चले थे। एक शहर से दूसरे शहर जाना, जंगल और देहात की सैर ...Read Moreनए-नए आदमियों से मिलना उन्हें पसंद था। रेल पर ये मौके कहाँ मिलते। अलारक्खी के चले जाने के एक दिन बाद वह भी चले। घूमते-घामते एक कस्बे में जा पहुँचे। बीमारी से तो उठे ही थे, थक कर एक मकान के सामने बिस्तर बिछाया और डट गए। मियाँ खोजी ने आग सुलगाई और चिलम भरने लगे। इतने में उस मकान के अंदर से एक बूढ़े निकले और पूछा - आप कहाँ जा रहे हैं? मियाँ आजाद और खोजी चलते-चलते एक नए कस्बे में जा पहुँचे और उसकी सैर करने लगे। रास्ते में एक अनोखी सज-धज के जवान दिखाई पड़े। सिर से पैर तक पीले कपड़े पहने हुए, ढीले पाँयचे का पाजामा, केसरिये केचुल ...Read Moreका अँगरखा, केसरिया रँगी दुपल्ली टोपी, कंधों पर केसरिया रूमाल जिसमें लचका टँका हुआ। सिन कोई चालीस साल का। आजाद - क्यों भई खोजी, भला भाँपो तो, यह किस देश के हैं। खोजी - शायद काबुल के हों। आजाद - काबुलियों का यह पहनावा कहाँ होता है। खोजी - वाह, खूब समझे! क्या काबुल में गध
े नहीं होते? दूसरे दिन नौ बजे रात को नवाब साहब और उनके मुसाहब थिएटर देखने चले। नवाब - भई, आबादीजान को भी साथ ले चलेंगे। मुसाहब - जरूर, जरूर उनके बगैर मजा किरकिरा हो जायगा। इतने में फिटन आ पहुँची और आबादीजान छम-छम ...Read Moreहुई आ कर मसनद पर बैठ गईं। नवाब - वल्लाह, अभी आप ही का जिक्र था। आबादी - तुमसे लाख दफे कह दिया कि हमसे झूठ न बोला करो। हमें कोई देहाती समझा है! नवाब - खुदा की कसम, चलो, तुमको तमाशा दिखा लाएँ। मगर मरदाने कपड़े पहन कर चलिए, वर्ना हमारी बेइज्जती होगी। आबादी ने तिनग कर कहा - जो हमारे चलने में बेआबरूई है, तो सलाम। आज तो निराला समाँ है। गरीब, अमीर, सब रँगरलियाँ मना रहे हैं। छोटे-बड़े खुशी के शादियाने बजा रहे हैं। कहीं बुलबुल के चहचहे, कहीं कुमरी के कह-कहे। ये ईद की तैयारियाँ हैं। नवाब साहब की मसजिद का हाल न ...Read Moreरोजे तो आप पहले ही चट कर गए थे, लेकिन ईद के दिन धूमधाम से मजलिस सजी। नूर के तड़के से मुसाहबों ने आना शुरू किया और मुबारक-मुबारक की आवाज ऐसी बुलंद की कि फरिश्तों ने आसमान को थाम लिया, नहीं तो जमीन और आसमान के कुलाबे मिल जाते। दूसरे दिन सुबह को नवाब साहब जनानखाने से निकले, तो मुसाहबों ने झुक-झुक कर सलाम किया। खिदमतगार ने चाय की साफ-सुथरी प्यालियाँ और चमचे ला कर रखे। नवाब ने एक-एक प्याली अपने हाथ से मुसाहबों को दी और सबने ...Read Moreदूधिया चाय उड़ानी शुरू की। एक-एक घूँट पीते जाते हैं और गप भी उड़ाते जाते हैं। मुसाहब - हुजूर, कश्मीरी खूब चाय तैयार करते हैं। हाफिज - हमारी सरकार में जो चाय तैयार होती है, सारी खुदाई में तो बनती न होगी। जरा रंग तो देखिए। हिंदू भी देखे, तो मुँह में पानी भर आए। एक दिन पिछले पहर से खटमलों ने मियाँ खोजी के नाक में दम कर दिया। दिन भर का खून जोंक की तरह पी गए। हजरत बहुत ही झल्लाए। चीख उठे, लाना करौली, अभी सबका खून चूस लूँ। यह हाँक ...Read Moreऔरों ने सुनी, तो नींद हराम हो गई। चोर का शक हुआ। लेना-देना, जाने न पाए। सराय भर में हुल्लड़ मच गया। कोई आँखें मलता हुआ अँधेरे में टटोलता है, कोई आँखें फाड़-फाड़ कर अपनी गठरी को देखता है, कोई मारे डर के आँखें बंद किए पड़ा है। मियाँ खोजी ने जो चोर-चोर की आवाज सुनी, तो खुद भी गुल मचाना शुरू किया - लाना मेरी करौली। ठहर! मैं भी आ पहुँचा। पिनक में सूझ गई कि चोर आगे भागा जाता है, दौड़ते-दौड़ते ठोकर खाते हैं तो अररर धों! गिरे भी तो कहाँ, जहाँ कुम्हार के हंडे रखे थे। गिरना था कि कई हंडे चकनाचूर हो गए। कुम्हार ने ललकारा कि चोर-चोर। यह उठने ही को थे कि उसने आकर दबोच लिया और पुकारने लगा - दौड़ो-दौड़ो, चोर पकड़ लिया। मुसाफिर और भठियारे सब के सब दौड़ पड़े। कोई डंडा लिए है, कोई लट्ठ बाँधे। किसी को क्या मालूम कि यह चोर है, या मियाँ खोजी। खूब बेभाव की पड़ी। सुबह को गाड़ी एक बड़े स्टेशन पर रुकी। नए मुसाफिर आ-आ कर बैठने लगे। मियाँ खोजी अपने कमरे के दरवाजे पर खड़े घुड़कियाँ जमा रहे थे - आ
गे जाओ, यहाँ जगह नहीं है क्या मेरे सिर पर बैठोगे? ...Read Moreमें एक नौजवान दूल्हा बराती कपड़े पहने आ कर गाड़ी में बैठ गया। बरात के और आदमी असबाब लदवाने में मसरूफ थे। दुलहिन और उसकी लौंडी जनाने कमरे में बैठाई गई थीं। गाड़ी चलनेवाली ही थी कि एक बदमाश ने गाड़ी में घुस कर दूल्हे की गरदन पर तलवार का ऐसा हाथ लगाया कि सिर कट कर धड़ से अलग हो गया। उस बेगुनाह की लाश फड़कने लगी। स्टेशन पर कुहराम मच गया। सैकड़ों आदमी दौड़ पड़े और कातिल को गिरफ्तार कर लिया। यहाँ तो यह आफत थी, उधर दुलहिन और महरी में और ही बातें हो रही थीं। रेल से उतर कर दोनों, आदमियों ने एक सराय में डेरा जमाया और शहर की सैर को निकले। यों तो यहाँ की सभी चीजें भली मालूम होती थीं, लेकिन सबसे ज्यादा जो बात उन्हें पसंद आई, वह यह थी ...Read Moreऔरतें बिला चादर और घूँघट के सड़कों पर चलती-फिरती थीं। शरीफजादियाँ बेहिजाब नकाब उठाए मगर आँखों में हया और शर्म छिपी हुई। खोजी - क्यों मियाँ, यह तो कुछ अजब रस्म है? ये औरतें मुँह खोले फिरती हैं। शर्म और हया सब भून खाई। वल्लाह, क्या आजादी है! इधर तो ये बातें हो रही थीं, उधर आजाद से एक आदमी ने आकर कहा - जनाब, आज मेला देखने न चलिएगा? वह-वह सूरतें देखने में आती हैं कि देखता ही रह जाय। नाज से पायँचे उठाए हुए, शर्म से ...Read Moreको चुराए हुए! नशए-बादए शबाब से चूर, चाल मस्ताना, हुस्न पर मगरूर। सैकड़ों बल कमर को देती हुई, जाने ताऊस कब्क लेती हुई। खोजी ने दिल में ठान ली कि अब जो आएगा, उसको खूब गौर से देखूँगा। अब की चकमा चल जाय, तो टाँग की राह निकल जाऊँ। दो दफे क्या जानें, क्या बात हो गई कि वह चकमा दे गया। ...Read Moreचिड़िया पकड़नेवाले हैं। हम भी अगर यहाँ रहते होते, तो उस मरदूद बहुरूपिए को चचा ही
बना कर छोड़ते। इतने में सामने एकाएक एक घसियारा घास का गट्ठा सिर पर लादे, पसीने में तर आ खड़ा हुआ और खोजी से बोला - हुजूर, घास तो नहीं चाहिए? मियाँ आजाद मिरजा साहब के साथ जहाज की फिक्र में गए। इधर खोजी ने अफीम की चुस्की लगाई और पलंग पर दराज हुए। जैनब लौंडी जो बाहर आई, तो हजरत को पिनक में देख कर खूब खिलखिलाई और बेगम ...Read Moreजाकर बोली - बीबी, जरी परदे के पास आइए, तो लोट-लोट जाइए। मुआ खोजी अफीम खाए औंधे मुँह पड़ा हुआ है। जरी आइए तो सही। बेगम ने परदे के पास से झाँका तो उनको एक दिल्लगी सूझी। झप से एक बत्ती बनाई और जैनब से कहा कि ले, चुपके से इनकी नाक में बत्ती कर। जैनब एक ही शरीर बिस की गाँठ। वह जा कर बत्ती में तीता मिर्च लगा लाई और खोजी की खटिया के नीचे घुस कर मियाँ खोजी की नाक में आधी बत्ती दाखिल ही तो कर दी। उफ! इस वक्त मारे हँसी के लिखा नहीं जाता। जरा ख्वाजा साहब की भंगिमा देखिएगा। वल्लाह, इस वक्त फोटो उतारने के काबिल है। न हुआ फोटो। सुबह का वक्त है। आप खारुए की एक लुंगी बाँधे पीपल के दरख्त के साये में खटिया बिछाए ऊँघ रहे हैं, मगर ...Read Moreभी एक हाथ में थामे हैं। चाहे पिएँ न, मगर चिलम पर कोयले दहकते रहें? इत्तिफाक से एक चील ने दरख्त पर से बीट कर दी। तब आप चौंके और चौंकते ही आ ही गए। बहुत उछले-कूदे और इतना गुल मचाया कि मुहल्ला भर सिर पर उठा लिया। हत तेरे गीदी की, हमें भी कोई वह समझ लिया है। आज चील बन कर आया है। करौली तो वहाँ तक पहुँचेगी नहीं तोड़ेदार बंदूक होती, तो वह ताक के निशाना लगाता कि याद ही करता। खोजी ने एक दिन कहा - अरे यारो, क्या अंधेर है। तुम रूम चलते-चलते बुड्ढे हो जाओगे। स्पीचें सुनीं, दावतें चखीं, अब बकचा सँभालो और चलो। अब चाहे इधर की दुनिया उधर हो जाय, हम एक न मानेंगे। चलिए, ...Read Moreकूच बोलिए। आजाद - मिरजा साहब, इतने दिनों में खोजी ने एक यही तो बात पक्की कही। अब जहाज का जल्द इंतिजाम कीजिए। खोजी - पहले यह बताइए कि कितने दिनों का सफर है? आजाद - इससे क्या वास्ता? हम कभी जहाज पर सवार हुए हों तो बताएँ। शाम के वक्त मिरजा साहब की बेगम ने परदे के पास आ कर कहा - आज इस वक्त कुछ चहल-पहल नहीं है क्या खोजी इस दुनिया से सिधार गए? मिरजा - देखो खोजी, बेगम साहबा क्या कह रही हैं। खोजी ...Read Moreकोई अफीम तो पिलवाता नहीं, चहल-पहल कहाँ से हो? लतीफे सुनाऊँ, तो अफीम पिलवाइएगा? बेगम - हाँ, हाँ, कहो तो। मरो भी, तो पोस्ते ही के खेत में दफनाए जाओ। काफूर की जगह अफीम हो, तो सही। खोजी - एक खुशनसीब थे। उनके कलम से ऐसे हरूफ निकलते थे, जैसे साँचे के ढले हुए। मगर इन हजरत में एक सख्त ऐब यह था कि गलत न लिखते थे। सुबह का वक्त था। मियाँ आजाद पलंग से उठे तो देखा, बेगम साहबा मुँह खोले बेतकल्लुफी से खड़ी उनकी ओर कनखियों से ताक रही हैं। मिरजा साहब को आते देखा, तो बदन को चुरा लिया, और छलाँग मारी, तो ...Read Moreकी ओट में थीं। मिरजा - कहिए, आज क्या इरादे हैं? आजाद - इस वक्त
हमको किसी ऐसे आदमी के पास ले चलिए, जो तुरकी के मामलों से खूब वाकिफ हो। हमें वहाँ का कुछ हाल मालूम ही नहीं। कुछ सुन तो लें। वहाँ के रंग-ढंग तो मालूम हों। हमें क्या खौफ है, तूफान आवे या बला टूटे। आँख खुल गई तो न बूढ़े मियाँ थे, न किताब। हुस्नआरा फाल-वाल की कायल न थी मगर फिर भी दिल को कुछ तसकीन हुई। सुबह को वह अपनी बहन सिपहआरा से इस ख्वाब का जिक्र कर रही थी कि लौंडी ने आजाद का खत ला कर उसे दिया। शहर से कोई दो कोस के फासले पर एक बाग है, जिसमें एक आलीशान इमारत बनी हुई है। इसी में शाहजादा हुमायूँ फर आ कर ठहरे हैं। एक दिन शाम के वक्त शाहजादा साहब बाग में सैर कर रहे ...Read Moreऔर दिल ही दिल में सोचते जाते थे कि शाम भी हो गई मगर खत का जवाब न आया। कहीं हमारा खत भेजना उन्हें बुरा तो न मालूम हुआ। अफसोस, मैंने जल्दी की। जल्दी का काम शैतान का। अपने खत और उसकी इबारत को सोचने लगे कि कोई बात अदब के खिलाफ जबान से निकल गई हो तो गजब ही हो जाय। इतने में क्या देखते हैं कि एक आदमी साँड़नी पर सवार दूर से चला आ रहा है। समझे, शायद मेरे खत का जवाब लाता होगा। खिदमतगारों से कहा कि देखो, यह कौन आदमी है? खत लाया है या खाली हाथ आया है? आदमी लोग दौड़े ही थे कि साँड़नी सवार हवा हो गया। शाहजादा हुमायूँ फर महरी को भेज कर टहलने लगे, मगर सोचते जाते थे कि कहीं दोनों बहनें खफा न हो गई हों, तो फिर बेढब ठहरे। बात की बात जाय, और शायद जान के भी लाले पड़ जायँ। देखें, ...Read Moreक्या खबर लाती है। खुदा करे, दोनों महरी को साथ ले कर छत पर चली आवें। इतने में महरी आई और मुँह फुला कर खड़ी हो गई। शाहजादा - कहो, साफ-साफ। महरी - हुजूर, क्या अर्ज करूँ! शाहजादा - वह तो हम तुम्हारी चाल ही से समझ गए थे कि बेढब हुई। कह चलो, बस। महरी
- अब लौंडी वहाँ नहीं जाने की। शाहजादा - पहले मतलब की बात तो बताओ कि हुआ क्या? हुस्नआरा और सिपहआरा, दोनों रात को सो रही थीं कि दरबान ने आवाज दी - मामा जी, दरवाजा खोलो। मामा - दिलबहार देखो कौन पुकारता है? दिलबहार - ऐ वाह, फिर खोल क्यों नहीं देतीं? मामा - मेरी उठती है जूती ...Read Moreभर की थकी-माँदी हूँ। दिलबहार - और यहाँ कौन चंदन-चौकी पर बैठा है? दरबान - अजी, लड़ लेना पीछे, पहले किवाँड़े खोल जाओ। मामा - इतनी रात गए क्यों आफत मचा रखी हैं? दरबान - अजी, खोलो तो, सवारियाँ आई हैं। हुस्नआरा - कहाँ से? अरे दिलबहार! मामा! क्या सब की सब मर गईं? अब हम जायँ दरवाजा खोलने? हुस्नआरा की आवाज सुन कर सब की सब एक दम उठ खड़ी हुई। मामा ने परदा करा कर सवारियाँ उतरवाईं। एक दिन हुस्नआरा को सूझी कि आओ, अब की अपनी बहनों को जमा करके एक लेक्चर दूँ। बहारबेगम बोलीं - क्या? क्या दोगी? हुस्नआरा - लेक्चर-लेक्चर। लेक्चर नहीं सुना कभी? बहारबेगम - लेक्चर क्या बला है? हुस्नआरा - वही, जो दूल्हा भाई ...Read Moreमें आए दिन पढ़ा करते हैं। बहारबेगम - तो हम क्या तुम्हारे दूल्हा भाई के साथ-साथ घूमा करते हैं? जाने कहाँ-कहाँ जाते हैं, क्या पढ़-पढ़के सुनाते हैं। इतना हमको मालूम है कि शेर बहुत कहते हैं। एक दिन हमसे कहने लगे - चलो, तुमको सैर करा लाएँ। फिटन पर बैठ लो। रात का वक्त है, तुम दुशाले से खूब मुँह और जिस्म चुरा लेना। मैंने कानों पर हाथ धरे कि न साहब, बंदी ऐसी सैर से दरगुजरी। वहाँ जाने कौन-कौन हो, हम नहीं जाने के। सवेरे हुस्नआरा तो कुछ पढ़ने लगी और बहारबेगम ने सिंगारदान मँगा कर निखरना शुरू किया। हुस्नआरा - बस, सुबह तो सिंगार, शाम तो सिंगार। कंघी-चोटी, तेल-फुलेल। इसके सिवा तुम्हें और किसी चीज से वास्ता नहीं। रूहअफजा सच कहती हैं कि ...Read Moreइसका रोग है। बहारबेगम - चलो, फिर तुम्हें क्या? तुम्हारी बातों में खयाल बँट गया, माँग टेढ़ी हो गई। हुस्नआरा - है-है! गजब हो गया। यहाँ तो दूल्हा भाई भी नहीं हैं! आखिर यह निखार दिखाओगी किसे? बहारबेगम - हम उठ कर चले जायँगे। तुम छेड़ती जाती हो और यह मुआ छपका सीधा नहीं रहता। हुस्नआरा - अब तक माँग का खयाल था, अब छपके का खयाल है। बहारबेगम - अच्छा, एक दिन हम तुम्हारा सिंगार कर दें, खुदा की कसम वह जोबन आ जाय कि जिसका हक है। आज हम उन नवाब साहब के दरबार की तरफ चलते हैं, जहाँ खोजी और आजाद ने महीनों मुसाहबत की थी और आजाद बटेर की तलाश में महीनों सैर-सपाटे करते रहे थे। शाम का वक्त था। नवाब साहब एक मसनद ...Read Moreशान से बैठे हुए थे। इर्द-गिर्द मुसाहब लोग बैठे हुक्कके गुड़गुड़ाते थे। बी अलारक्खी भी जा कर मसनद का कोना दबा कर बैठीं। जिस जहाज पर मियाँ आजाद और खोजी सवार थे, उसी पर एक नौजवान अंगरेज अफसर और उसकी मेम भी थी। अंगरेज का नाम चार्ल्स अपिल्टन था और मेम का वेनेशिया। आजाद को उदास देख कर वेनेशिया ने अपने शौहर ...Read Moreपूछा - इस जेंटिलमैन से क्योंकर पूछें कि यह बार-बार लं
बी साँसें क्यों ले रहा है? एक आलीशान महल की छत पर हुस्नआरा और उनकी तीनों बहनें मीठी नींद सो रही हैं। बहारबेगम की जुल्फ से अंबर की लपटें आती थीं रूहअफजा के घूँघरवाले बाल नौजवानों के मिजाज की तरह बल खाते थे ...Read Moreकी मेहँदी अजब लुत्फ दिखाती थी और हुस्नआरा बेगम के गोरे-गोरे मुखड़े के गिर्द काली-काली जुल्फों को देख कर धोखा होता था कि चाँद ग्रहण से निकला है। एक दिन मियाँ आजाद मिस्टर और मिसेज अपिल्टन के साथ खाना खा रहे थे कि एक हँसोड़ आ बैठे और लतीफे कहने लगे। बोले - अजी, एक दिन बड़ी दिल्लगी हुई। हम एक दोस्त के यहाँ ठहरे हुए थे। ...Read Moreको उनके खिदमतगार की बीबी दस अंडे चट कर गई। जब दोस्त ने पूछा, तो खिदमतगार ने बिगड़ी बात बना कर कहा कि बिल्ली खा गई। मगर मैंने देख लिया था। जब बिल्ली आई तो वह औरत उसे मारने दौड़ी। मैंने कहा - बिल्ली को मार न डालना, नहीं तो फिर अंडे हजम न होंगे। कई दिन तक तो जहाज खैरियत से चला गया, लेकिन पेरिस के करीब पहुँचकर जहाज के कप्तान ने सबको इत्तिला दी कि एक घंटे में बड़ी सख्त आँधी आनेवाली है। यह खबर सुनते ही सबके होश-हवास गायब हो गए। ...Read Moreने हवा बतलाई, आँखों में अँधेरी छाई, मौत का नक्शा आँखों के सामने फिरने लगा। तुर्रा यह कि आसमान फकीरों के दिल की तरह साफ था, चाँदनी खूब निखरी हुई, किसी को सान-गुमान भी नहीं हो सकता था कि तूफान आएगा मगर बेरोमीटर से तूफान की आमद साफ जाहिर थी। लोगों के बदन के रोंगटे खड़े हो गए, जान के लाले पड़ गए या खुदा, जाएँ तो कहाँ जाएँ, और इस तूफान से नजात क्योंकर पाएँ? कप्तान के भी हाथ-पाँव फूल गए और उसके नायब भी सिट्टी-पिट्टी भूल गए। माल्टा में आर्मीनिया, अरब, यूनान, स्पेन, फ्रांस सभी देशों के लोग हैं। मगर दो दिन से इस जजीरे म
ें एक बड़े गरांडील जवान को गुजर हुआ है। कद कोई आध गज का हाथ-पाँव दो-दो माशे के हवा जरा ...Read Moreचले, तो उड़ जायँ। मगर बात-बात पर तीखे हुए जाते हैं। किसी ने जरा तिर्छी नजर से देखा, और आपने करौली सीधी की। न दीन की फिक्र थी, न दुनिया की, बस, अफीम हो, और चाहे कुछ हो या न हो। रात के ग्यारह बजे थे, चारों बहनें चाँदनी का लुत्फ उठा रही थीं। एका-एक मामा ने कहा - ऐ हुजूर, जरी चुप तो रहिए। यह गुल कैसा हो रहा है? आग लगी है कहीं। हुस्नआरा - अरे, वह शोले निकल ...Read Moreहैं। यह तो बिलकुल करीब है। नवाब साहब - कहाँ हो सब की सब! जरूरी सामान बाँध कर अलग करो। पड़ोस में शाहजादे के यहाँ आ लग गई। जेवर और जवाहिरात अलग कर लो। असबाब और कपड़े को जहन्नुम में डालो। बहारबेगम - हाय, अब क्या होगा! हुस्नआरा - हाय-हाय, शोले आसमान की खबर लाने लगे! रात का वक्त था, एक सवार हथियार साजे, रातों-रात घोड़े को कड़कड़ाता हुआ बगटुट भागा जाता था। दिल में चोर था कि कहीं पकड़ न जाऊँ! जेलखाना झेलूँ। सोच रहा था, शाहजादे के घर में आग लगाई है, खैरियत ...Read Moreपुलिस की दौड़ आती ही होगी। रात भर भागता ही गया। आखिर सुबह को एक छोटा सा गाँव नजर आया। बदन थक कर चूर हो गया था। अभी घोड़े से उतरा ही था कि बस्ती की तरफ से गुल की आवाज आई। वहाँ पहुँचा, तो क्या देखता है कि गाँव भर के बाशिंदे जमा हैं, और दो गँवार आपस में लड़ रहे हैं। अभी यह वहाँ पहुँचा ही था कि एक ने दूसरे के सिर पर ऐसा लट्ठ मारा कि वह जमीन पर आ रहा। लोगों ने लट्ठ मारनेवाले को गिरफ्तार कर लिया और थाने पर लाए। शहसवार ने दरियाफ्त किया, तो मालूम हुआ कि दोनों की एक जोगिन से आशनाई थी। आजाद का जहाज जब इस्कंदरिया पहुँचा, तो वह खोजी के साथ एक होटल में ठहरे। अब खाना खाने का वक्त आया, तो खोजी बोले - लाहौल, यहाँ खानेवाले की ऐेसी तैसी चाहे इधर की दुनिया उधर हो जाय, मगर ...Read Moreजरा सी तकलीफ के लिए अपना मजहब न छोड़ेंगे। आप शौक से जायँ और मजे से खायँ हमें माफ ही रखिए। आजाद तो उधर काहिरे की हवा खा रहे थे, इधर हुस्नआरा बीमार पड़ीं। कुछ दिन तक तो हकीमों और डॉक्टरों की दवा हुई, फिर गंडे-ताबीज की बारी आई। आखिर आबोहवा तब्दील करने की ठहरी। बहारबेगम के पास गोमती के ...Read Moreएक बहुत अच्छी कोठी थी। चारों बहनें बड़ी बेगम और घर के नौकर-चाकर सब इस नई कोठी में आ पहुँचे। हुस्नआरा बेगम की जान अजाब में थी। बड़ी बेगम से बोल-चाल बंद, बहारबेगम से मिलना-जुलना तर्क। अस्करी रोज एक नया गुल खिलाता। वह एक ही काइयाँ था, रूहअफजा को भी बातों में लगा कर अपना तरफदार बना लिया। मामा ...Read Moreपाँच रुपए दिए। वह उसका दम भरने लगी। महरी को जोड़ा बनवा दिया, वह भी उसका कलमा पढ़ने लगी। नवाब साहब उसके दोस्त थे ही। हुसैनबख्श को भी गाँठ लिया। बस, अब सिपहआरा के सिवा हुस्नआरा का कोई हमदर्द न था। एक दिन रूहअफजा चुपके-चुपके उधर आईं, तो देखा, कमरे के सब दरवाजे बंद हैं। शीशे से झाँक कर देखा, हुस्नआरा र
ो रही हैं और सिपहआरा उदास बैठी हैं। रूहअफजा का दिल भर आया। धीरे से दरवाजा खोला और दोनो बहनों को गले लगा कर कहा - आओ, हवा में बैठें। जरीं, मुँह धो डालो। यह क्या बात है! जब देखो, दोनों बहनें रोती रहती हो? रूम पहुँचकर आजाद एक पारसी होटल में ठहरे। उसी होटल में जार्जिया की एक लड़की भी ठहरी हुई थी। उसका नाम था मीडा। आजाद खाना खा कर अखबार पढ़ रहे थे कि मीडा को बाग में टहलते देखा। दोनों ...Read Moreआँखें चार हुईं। आजाद के कलेजे में तीर सा लगा। मीडा भी कनखियों से देख रही थी कि यह कौन आदमी है। आदमी तो निहायत हसीन है, मगर तुर्की नहीं मालूम होता है। मियाँ खोजी पंद्रह रोज में खासे टाँठे हो गए, तो कांसल से जा कर कहा - मुझे आजाद के पास भेज दिया जाय। कांसल ने उनकी दरख्वास्त मंजूर कर ली। दूसरे दिन खोजी जहाज पर बैठ कर कुस्तुनतुनियाँ चले। ...Read Moreमियाँ आजाद अभी तक कैदखाने में ही थे। हमीदपाशा ने उनके बारे में खूब तहकीकात की थी, और गो उन्हें इतमिनान हो गया था कि आजाद रूसी जासूस नहीं हैं, फिर भी अब तक आजाद रिहा न हुए थे।
‎सुपर मॉन्स्टर्स! ‎नई कक्षा! ‎कक्षा बहुत अच्छी लग रही है! ‎नए सुपर मॉन्स्टर्स को बहुत पसंद आएगी! ‎हम उनका स्वागत करना चाहते हैं। ‎बहुत सजावट करनी चाहिए। ‎पकड़ लिया! ‎बचा लिया। ‎तुम ज़रूर लोबो हो। ‎हाँ! और आप ज़रूर मिस मीना होंगी। ‎नई कक्षा को पढ़ाऊँगी। ‎सुनो, दोस्तों, नई टीचर आ गईं! ‎हेलो, मिस मीना! ‎हेलो, सुपर मॉन्स्टर्स! ‎स्कूल की पहली रात बढ़िया रहे। ‎नई कक्षा के लिए कमरा तैयार करना! ‎तब से अब तक तुम कितना कुछ सीख गए हो। ‎कि नए विद्यार्थियों को कैसा लगेगा। ‎कुछ बच्चों के लिए डरावनी हो सकती है। ‎अरे, हाँ। ‎देखो, ऑलिव आई है! ‎ये लोग अभी हमारे पड़ोस में आए हैं। ‎तुम रह लोगी, ऑलिव! ‎तुम होशियार हो, तुम दयालु हो, तुम हो ‎शानदार! ‎स्कूल बहुत कमाल का होगा! ‎आओ दिखाएँ चीज़ें कहाँ रखनी हैं। ‎धन्यवाद। ‎चलो, डॉयल अंकल! जल्दी करो! ‎कितना अच्छा होगा! ‎हेलो! तुम ज़रूर रॉकी हो। ‎आओ! ‎मिलकर अच्छा लगा! ‎हेलो, रॉकी! ‎मन बदल गया। वापस चलो! ‎कोई बात नहीं। ‎तुम ठीक रहोगे। ‎पर मैं यहाँ किसी को नहीं जानता! ‎रॉकी, मैं हूँ ड्रैक! ‎तुम मेरे साथ रह सकते हो। ‎तुम ड्रैक हो? ‎शानदार है, तुम्हारी अदा में भी ‎अदा होती है! ‎तुम्हारी सभी चीज़ें मिल जाएँगी। ‎पानी की बोतल ओह! ‎मेरे क्रेयॉन, मेरे रंगीन चॉक ‎हमारे स्कूल में बहुत सारी किताबें हैं! ‎और चित्रकारी के कई और सामान हैं! ‎ठीक है। ‎रुको! बूबू बनी को कैसे छोड़ दूँ! ‎बूबू बनी, डरो मत। ‎मैं तुम्हें कभी नहीं भूलूँगी! ‎क्या यह पालतू मॉन्स्टर जानवर है? ‎पर मुझे इससे ख़ुशी मिलती है! ‎हेलो, बच्चों! मैं मीना हूँ। ‎तुम ज़रूर सैमी हो। ‎और ज़ोई। और ज़ोई का भाई, ज़ेन! ‎और यह कौन है? ‎बूबू बनी! ‎यह मेरा सबसे अच्छा दोस्त है। ‎मिलकर ख़ुशी हुई, बूबू बनी। ‎तुम्हें बहुत से नए दोस्त भी मिलेंगे। ‎स्कूल के बाद मिलूँगी। ‎दोस्तों, सैमी और ज़ेन को हेलो बोलो। ‎तुम लोग बिलकुल समय पर आए हो। सूरज डूबा! ‎मॉन्स्टर उठे! ‎ऑलिव! ‎रॉकी! ‎सैमी! ‎ज़ेन! ‎सुपर मॉन्स्टर्स! ‎बढ़िया था। ‎मज़ा आ गया! ‎बेताब हूँ। ‎तुम्हारा मतलब ये? ‎पैर पटको! ‎अच्छा पैर पटकती हो, ऑलिव! ‎पटको! ‎पटको! ‎पटको! ‎पटको! ‎तुम भी, फ्रैंकी! ‎अरे, बेचारा नन्हा पौधा। ‎वाह! तुम्हारा पौधों का जादू शानदार है! ‎मुझे बर्फ़ का आता है। ‎देखोगी? ‎हाँ। ‎आँखों को ज़्यादा ठंडक दे रहा है। ‎समझी? ठंडक! ‎यह बहुत सुन्दर है, सैमी! ‎धन्यवाद! ‎उफ़! ‎साथ आओ, रॉकी। ये जगह दिखाता हूँ। ‎ज़रूर। ‎मैं आ रहा हूँ। ‎तुम कर सकते हो, रॉकी! ‎तुम कर रहे हो! ‎किसी ने हेनरी को देखा है? ‎वह रहा! ‎मैं उसे नीचे लाता हूँ। ‎धन्यवाद, ज़ेन! ‎तो अब हम स्कूल शुरू करते हैं। ‎अब यह तुम्हारी कक्षा है। ‎वाह! ‎इस साल तुम ऊपर जामुनी कमरे में जाओगे। ‎वाह! ‎जामुनी कमरा सच में है? ‎बिलकुल है! ‎वाह! ‎वाह! जादुई मंत्र का एक अलग कोना? ‎पर उससे शायद गड़बड़ हो जाए। ‎आओ और मिटाओ भूख मेरी! ‎कितना अद्भुत है! ‎बिलकुल! ‎सुपर मॉन्स्टर शक्तियों को बेहतर कर सकें। ‎आपक
ा मतलब, ऐसे? ‎वाह! फ्रैंकीमैश, मॉन्स्टरस्मैश! ‎हाँ! ‎अच्छा! ‎इसका मतलब जाने का समय हो गया। ‎स्पाइक, वीडा, क्लियो, लोबो ‎एक नए कारनामे के लिए तैयार? ‎नया कारनामा? ‎मिलने म्यूज़ियम जाएँगे। ‎वहीं जाएँगे। ‎म्यूज़ियम में मज़ा आएगा पर वह नया नहीं है। ‎सही कहा। ‎वहां कैसे पहुंचें, यह ज़्यादा ज़रूरी है। ‎मेरे पीछे आओ। ‎वाह! ‎एक जादुई आईना! ‎मेरा इंतज़ार करो। ‎मेरा भी। ‎हेलो, सुपर मॉन्स्टर्स। ‎अच्छा लगा तुम लोग कूद आए! ‎सैमी? तुम कहाँ जा रही हो? ‎स्लेडिंग करने में मज़ा आएगा। ‎उसमें वाक़ई मज़ा आएगा। ‎पर क्यों न तुम हमारे साथ यहीं रहो? ‎हम यहाँ भी बहुत मज़े करेंगे। ‎ठीक है! रहूँगी। ‎उफ़! मैंने इसे तोड़ दिया! ‎रॉकी? ‎कभीकभी ऐसा हो जाता है। ‎मेरी भावनाओं के साथ मेरा रंग बदल जाता है। ‎क्या बात है! ब्लॉक्स में मदद करती हूँ। ‎धन्यवाद, सैमी। तुम बहुत अच्छी हो! ‎ये तो विंगोट हैं! ‎ओहो! फिर से! ‎यह अच्छा है! ‎यह क्या था? ‎बबल और ट्रबल। ‎ड्रैक के पालतू मॉन्स्टर जानवर। ‎अपने जादू से ये कहीं भी जा सकते हैं। ‎मेरे शानदार करतब सह पाती है या नहीं! ‎दोहरी पलटी, आधा घूमना। ‎धन्यवाद! और लोगों को यह पसंद आया! ‎और अब ड्रैक्सटर कोशिश करेगा तीन बार ‎अद्भुत! ‎वाह! ‎यह शानदार था! ‎हेलो, दोस्तों। ‎कैसी गुज़र रही होगी? ‎मैं जाकर देखूँ? ‎हाँ। ‎एकदूसरे को जानने के लिए एक खेल खेलेंगे। ‎मुझे खेल पसंद हैं। ‎मुझे उनसे ख़ुशी मिलती है! ‎अच्छा है! ‎और अपने बारे में कुछ बताने की। ‎और मुझे सुपर मॉन्स्टर्स को पढ़ाना पसंद है। ‎मैं हूँ है। चुटकुले और पहेलियाँ पसंद हैं। ‎क्या एक जैसी ख़ुशबू देता है? ‎तुम्हारी नाक! समझे? ‎मुझे यह चुटकुला बहुत पसंद है। ‎तुम्हारे पास आ रही है, ऑलिव। ‎पकड़ लिया! ‎और मैं बड़ी होकर एक राजकुमारी बनू
ँगी। ‎और एक राष्ट्रपति! एक राजकुमारी राष्ट्रपति! ‎रॉकी, पकड़ो! ‎रुको! मैं तैयार नहीं हूँ! ‎एक अति बहादुर सुपर मॉन्स्टर के लिए है। ‎और मुझ में बहादुरी कुटकुट कर भरी है। ‎अरे। ‎मैं पहुँच क्यों नहीं पा रहा? ‎मुझे ग़ुस्सा आ रहा है! ‎मुझसे एक चीज़ ठीक से नहीं होती! ‎ना तेज़ उड़ पाता हूँ। ना ऊँचा। ‎कोई बात नहीं। ‎तुमने पूरी कोशिश की। ‎चिंता मत करो, रॉकी। मैं लाता हूँ। ‎बढ़िया! ‎कहाँ जा रही हो, सैमी? ‎हेलो, फ्रैंकी। मुझे घर जाना है। ‎याद आ रही है। ‎सैमी, प्लीज़ यहाँ रहकर हमारे साथ खेलो। ‎इस स्कूल में मज़े करने के बहुत से साधन हैं। ‎तो मैं गेंद ज़ोर से नहीं फेंकूँगी। ‎उससे ज़्यादा ताकतवर हूँ। ‎कोई बात नहीं, ऑलिव। ‎मेरे साथ तो ऐसा होता रहता है। ‎हर समय। ‎ताकि शक्तियों का बेहतर इस्तेमाल सीखें। ‎विशेष शक्तियों का इस्तेमाल सीखने आए हो। ‎यह सीखना है उन्हें कब इस्तेमाल नहीं करना। ‎पर फिर भी मज़ा आएगा। ‎जिसे हम तुम्हारे खानों पर टाँगेंगे। ‎अभी करते हैं! ‎अच्छा। आँखें ‎नाक ‎यह सुंदर है! ‎मेरी तरह! ‎ओटमील कुकी भी पसंद आएंगे। ‎मैं सबसे बुरा चित्रकार हूँ! ‎और यह ग़लत रंग है। ‎यह बेहतर है। ‎अरे, लगता है मैं यह धीरेधीरे सीख रहा हूँ। ‎क्या? फिर से? ‎यह ज़मीन कितनी रंगबिरंगी है! ‎वाह! यह मुझे कहाँ लेकर जा रही है? ‎पता चल जाएगा। ‎यह कितना सुंदर और साफ़ है। ‎वाह! मुझे एक चंद्रमा की बग्घी दिख रही है। ‎मुझे भी। ‎हम सब को दिख रही है। ‎यह भी कर सकती है। ‎नए तरीके से इस्तेमाल करना सिखाए। ‎शानदार! ‎यह अद्भुत है! ‎वाह! ‎अरे! तुम दोनों बस भी करो! ‎नहीं! ‎इनके पीछे भागना तो मेरी सूची में नहीं था। ‎चिंता मत करो, मीना। ‎तो आप कुछ भी कर सकती हैं! ‎मुझे यक़ीन है मैं उन्हें पकड़ लूँगी। ‎मैं आई, नन्हें विंगोट! ‎मैं पकड़ता हूँ! ‎वाक़ई। मेरे घर में ऐसा कभी नहीं होता। ‎ओह! माफ़ करना, सैमी। ‎आ जाओ, विंगोट। ‎रॉकी के पास आओ। ‎लगभग पकड़ ही लिया था! ‎मुझसे कोई भी काम नहीं होता। ‎कोई बात नहीं, रॉकी। ‎काश मैं रॉकी की मदद कर पाती! ‎माफ़ करना। ‎मैं ग़ुस्से को काबू नहीं कर पाया। ‎कोई बात नहीं, रॉकी। ‎हम सब कभीकभी परेशान हो जाते हैं। ‎कहानी कौन सुनना चाहेगा? ‎कहानी सुनाने में क्या गड़बड़ हो सकती है? ‎और दूसरों को मदद तो नहीं चाहिए। ‎यह अच्छा विचार है, काट्या। ‎हाँ। ‎ओह! रुको ज़रा... सैमी कहाँ है? ‎सैमी? ‎अरे, नहीं! ‎अरे, नहीं! ‎सब कुछ बिलकुल ठीक है। ‎जब हम सैमी को ढूँढ़ लेंगे। ‎उसे ढूँढ़ने में हम मदद करेंगे। ‎हाँ। ‎मीना, तुम्हें कोई मदद चाहिए? ‎काट्या वहाँ क्या कर रही है? ‎और ना ही थियेटर में। ‎पीछे आंगन में भी नहीं है। ‎सब ठीक तो है? ‎जब हम सैमी को ढूँढ़ लेंगे। ‎वह घर जाने की ज़िद कर रही थी। ‎मुझे डर है, कहीं स्कूल से चली न गई हो। ‎इसमें हम मदद करेंगे। ‎हाँ। ‎हमें बताइए कि क्या करना है। ‎सैमी को ढूँढ़ना होगा। ‎शक्तियाँ इस्तेमाल करनी होंगी। ‎पक्का? ‎सोचसमझकर इस्तेमाल करनी हैं। ‎हाँ, पर अब हमारे सामने बड़ी समस
्या है। ‎बड़े हलों की ज़रूरत होती है। ‎पूरी मॉन्स्टर शक्तियाँ लगा दो! ‎वाह! ‎आप मॉन्स्टर हो! ‎बिलकुल हूँ! ‎वाह! और आप उड़ भी सकती हैं! ‎ज़रूर उड़ सकती हूँ। ‎चलो, चल कर सैमी को ढूँढ़ें। ‎क्या हम यह कर लेंगे? ‎हमें अपनी पूरी कोशिश करनी होगी! ‎हमने हर जगह देख लिया। ‎शायद अब हमें ‎बर्फ़ के टुकड़े ! ‎शायद मुझे पता है कहाँ से आ रहे हैं। ‎मेरे पीछे आओ! ‎हाँ! ‎शानदार! ‎यह बर्फ़ कहाँ से आई? ‎वाह! ये बढ़िया है, ऑलिव। ‎धन्यवाद, मुझे पता है! ‎वाह! ‎इस तरफ़ आओ। ‎सैमी शायद यहींकहीं होगी। ‎काश ऐसा ही हो! ‎है न, बच्चों? ‎बिलकुल। ‎सही है। ‎रॉकी, तुमने कर दिखाया। ‎तुमने सैमी को ढूँढ़ लिया। ‎मैंने ढूंढ़ा? ‎मैंने ढूंढ़ लिया। ‎मैं बहुत तेज़ उड़ा! ‎और ऊँचा उड़ा! और मैंने यह कर लिया। ‎मैंने सैमी को ढूँढ़ा! ‎बढ़िया, रॉकी। ‎शाबाश। ‎तुम सुरागों के पीछे गए। ‎और तुम उड़े भी बढ़िया। ‎सैमी! ‎हमें तुम्हारी चिंता हो रही थी। ‎मुझे पता है तुम घर जाना चाहती हो। ‎तो तुम्हें स्कूल अच्छा लगेगा। ‎मुझे स्कूल पसंद है! ‎सच में? ‎तो तुम स्कूल से क्यों निकली? ‎मैं इन लोगों को ढूँढ़ रही थी। ‎बूबू बनी को ले आएँ। ‎पर ये मेरी बात नहीं समझ रहे। ‎सुना तुमने, बबल? ट्रबल? सैमी को मदद चाहिए। ‎चलो, उस बनी को लेकर आएँ। ‎बूबू बनी! तुम ले आए! ‎धन्यवाद, ड्रैक! धन्यवाद, विंगोट! ‎दोबारा। ‎वापस आओ! ‎अरे, नहीं! ‎चिंता मत करो, ड्रैक। मैं लाता हूँ। ‎हाँ! ‎हाँ! ‎धन्यवाद, रॉकी! तुमने बूबू बनी को बचा लिया! ‎तुम इसे खो दो। ‎उससे तुम उदास हो जाती। ‎बहुत उदास हो जाती। ‎मुझे पता है उदास होना कैसा होता है। ‎और परेशान होना। और ख़ुश होना भी। ‎मैं समझती हूँ। ‎और ख़ास तौर पर तुम्हारे लिए। ‎इसीलिए मैं बूबू बनी को लाना चाहती थी। ‎क्यों? ‎ताकि उसे तुम्ह
ारे साथ बाँट सकूँ। ‎और आप चिंता मत करो। ‎घर जाने की कोशिश नहीं करूँगी। ‎और सबसे अच्छी टीचर के साथ! ‎हाँ! ‎वापस स्वागत है! ‎बिलकुल सही समय पर। ‎जो हमने अब तक नहीं किया ‎रिसेस! ‎वाह! ‎काफ़ी रोमांचक रही! ‎वाक़ई! शायद हम सबने बहुत कुछ सीखा। ‎मैंने तो सीखा। ‎मैं बहुत ख़ुश हूँ, मेरे नए दोस्त बने! ‎और पता है सबसे अच्छी चीज़ क्या है? ‎हम कल फिर यही सब करेंगे! ‎सूरज उगा! ‎सुपर मॉन्स्टर्स! ‎अलविदा! ‎बाद में मिलते हैं! ‎रुको, सैमी! अपना बनी मत भूलो! ‎इसे तुम अपने साथ ले जाओ। ‎बेहतर महसूस नहीं करते। ‎सच में? ‎पर तुम्हें भी इसका साथ पसंद है न? ‎मुझे और भी अच्छा लगेगा। ‎सूरज डूबा! ‎मॉन्स्टर उठे! ‎NETFLIX ओरिजिनल सीरीज़ ‎सुपर मॉन्स्टर्स! ‎नई कक्षा! ‎नई कक्षा ‎कक्षा बहुत अच्छी लग रही है! ‎नए सुपर मॉन्स्टर्स को बहुत पसंद आएगी! ‎स्कूल की पहली रात ‎हम उनका स्वागत करना चाहते हैं। ‎क्योंकि अच्छी तरह स्वागत करने के लिए ‎बहुत सजावट करनी चाहिए। ‎पकड़ लिया! ‎बचा लिया। ‎तुम ज़रूर लोबो हो। ‎हाँ! और आप ज़रूर मिस मीना होंगी। ‎हाँ! मैं सुपर मॉन्स्टर्स की ‎नई कक्षा को पढ़ाऊँगी। ‎सुनो, दोस्तों, नई टीचर आ गईं! ‎हेलो, मिस मीना! ‎हेलो, सुपर मॉन्स्टर्स! ‎मैंने एक सूची बनाई है ‎ताकि हमारे नए विद्यार्थियों की ‎स्कूल की पहली रात बढ़िया रहे। ‎पर लगता है, तुम मेरी सूची में शामिल ‎पहली चीज़ कर चुके हो: ‎नई कक्षा के लिए कमरा तैयार करना! ‎बाप रे। जब तुम यहाँ आए थे, ‎तब से अब तक तुम कितना कुछ सीख गए हो। ‎अपने शुरुआती दिन याद करोगे ‎तो समझ पाओगे ‎कि नए विद्यार्थियों को कैसा लगेगा। ‎स्कूल की पहली रात ‎कुछ बच्चों के लिए डरावनी हो सकती है। ‎अरे, हाँ। ‎देखो, ऑलिव आई है! ‎ये लोग अभी हमारे पड़ोस में आए हैं। ‎तुम रह लोगी, ऑलिव! ‎बस हम जो कहते हैं, याद रखना: ‎तुम होशियार हो, तुम दयालु हो, तुम हो... ‎शानदार! ‎स्कूल बहुत कमाल का होगा! ‎आओ दिखाएँ चीज़ें कहाँ रखनी हैं। ‎धन्यवाद। ‎चलो, डॉयल अंकल! जल्दी करो! ‎सुपर मॉन्स्टर्स के साथ स्कूल जाना ‎कितना अच्छा होगा! ‎हेलो! तुम ज़रूर रॉकी हो। ‎आओ! ‎मिलकर अच्छा लगा! ‎हेलो, रॉकी! ‎मन बदल गया। वापस चलो! ‎कोई बात नहीं। ‎तुम ठीक रहोगे। ‎पर मैं यहाँ किसी को नहीं जानता! ‎रॉकी, मैं हूँ ड्रैक! ‎तुम मेरे साथ रह सकते हो। ‎तुम ड्रैक हो? ‎डॉयल अंकल कहते हैं तुम्हारी उड़ान ‎शानदार है, तुम्हारी अदा में भी... ‎अदा होती है! ‎सैमी, मेरा वादा है, सुबह तुम्हें ‎तुम्हारी सभी चीज़ें मिल जाएँगी। ‎पर मुझे मेरी पसंदीदा किताब, ‎और पसंदीदा कंबल चाहिए ‎एक और पसंदीदा किताब, एक और कंबल चाहिए, ‎पानी की बोतल... ओह! ‎मेरे क्रेयॉन, मेरे रंगीन चॉक... ‎हमारे स्कूल में बहुत सारी किताबें हैं! ‎और क्रेयॉन और चॉक ‎और चित्रकारी के कई और सामान हैं! ‎ठीक है। ‎रुको! बूबू बनी को कैसे छोड़ दूँ! ‎बूबू बनी, डरो मत। ‎मैं तुम्हें कभी नहीं भूलूँगी! ‎क्या यह पालतू मॉन्स्टर जानवर है? ‎नहीं, यह एक खिलौना है, ‎पर मुझे इससे ख
़ुशी मिलती है! ‎हेलो, बच्चों! मैं मीना हूँ। ‎तुम ज़रूर सैमी हो। ‎और ज़ोई। और ज़ोई का भाई, ज़ेन! ‎और यह कौन है? ‎बूबू बनी! ‎यह मेरा सबसे अच्छा दोस्त है। ‎मिलकर ख़ुशी हुई, बूबू बनी। ‎तुम चाहो तो इसे स्कूल ला सकती हो, ‎पर आज रात ‎तुम्हें बहुत से नए दोस्त भी मिलेंगे। ‎यह लो, मॉमी। मैं आपसे और बूबू से ‎स्कूल के बाद मिलूँगी। ‎दोस्तों, सैमी और ज़ेन को हेलो बोलो। ‎तुम लोग बिलकुल समय पर आए हो। सूरज डूबा! ‎मॉन्स्टर उठे! ‎ऑलिव! ‎रॉकी! ‎सैमी! ‎ज़ेन! ‎सुपर मॉन्स्टर्स! ‎बढ़िया था। ‎मज़ा आ गया! ‎मैं इनकी मॉन्स्टर शक्तियाँ देखने को ‎बेताब हूँ। ‎तुम्हारा मतलब ये? ‎पैर पटको! ‎अच्छा पैर पटकती हो, ऑलिव! ‎पटको! ‎पटको! ‎पटको! ‎पटको! ‎तुम भी, फ्रैंकी! ‎अरे, बेचारा नन्हा पौधा। ‎वाह! तुम्हारा पौधों का जादू शानदार है! ‎मुझे बर्फ़ का आता है। ‎देखोगी? ‎हाँ। ‎वाह! बर्फ़ से ढका यह फूल ‎आँखों को ज़्यादा ठंडक दे रहा है। ‎समझी? ठंडक! ‎यह बहुत सुन्दर है, सैमी! ‎धन्यवाद! ‎उफ़! ‎साथ आओ, रॉकी। ये जगह दिखाता हूँ। ‎ज़रूर। ‎मैं आ रहा हूँ। ‎तुम कर सकते हो, रॉकी! ‎तुम कर रहे हो! ‎किसी ने हेनरी को देखा है? ‎वह रहा! ‎मैं उसे नीचे लाता हूँ। ‎धन्यवाद, ज़ेन! ‎सब आ गए हैं, ‎तो अब हम स्कूल शुरू करते हैं। ‎ज़ेन, सैमी, रॉकी, ऑलिव, ‎अब यह तुम्हारी कक्षा है। ‎वाह! ‎और पुराने विद्यार्थियों के लिए, ‎इस साल तुम ऊपर जामुनी कमरे में जाओगे। ‎वाह! ‎जामुनी कमरा सच में है? ‎बिलकुल है! ‎वाह! ‎वाह! जादुई मंत्र का एक अलग कोना? ‎मुझे एक मंत्र आज़माना था, ‎पर उससे शायद गड़बड़ हो जाए। ‎स्वाद से भरी नीली बेरी, ‎आओ और मिटाओ भूख मेरी! ‎कितना अद्भुत है! ‎बिलकुल! ‎यह कमरा आप सबकी ‎सुरक्षा को ध्यान में रखकर बनाया गया है, ‎ताकि आप अपनी ‎सुपर मॉन्स्ट
र शक्तियों को बेहतर कर सकें। ‎आपका मतलब, ऐसे? ‎वाह! फ्रैंकीमैश, मॉन्स्टरस्मैश! ‎हाँ! ‎अच्छा! ‎इसका मतलब जाने का समय हो गया। ‎स्पाइक, वीडा, क्लियो, लोबो... ‎एक नए कारनामे के लिए तैयार? ‎नया कारनामा? ‎मुझे लगा हम मिस्टर गैबमोर को ‎मिलने म्यूज़ियम जाएँगे। ‎वहीं जाएँगे। ‎म्यूज़ियम में मज़ा आएगा पर वह नया नहीं है। ‎सही कहा। ‎पर किसी नई जगह जाना ज़रूरी नहीं, ‎वहां कैसे पहुंचें, यह ज़्यादा ज़रूरी है। ‎मेरे पीछे आओ। ‎वाह! ‎एक जादुई आईना! ‎मेरा इंतज़ार करो। ‎मेरा भी। ‎हेलो, सुपर मॉन्स्टर्स। ‎अच्छा लगा तुम लोग... कूद आए! ‎सैमी? तुम कहाँ जा रही हो? ‎घर। आज आँगन में बर्फ़ का पहाड़ ‎बनाने में और बूबू बनी के साथ ‎स्लेडिंग करने में मज़ा आएगा। ‎उसमें वाक़ई मज़ा आएगा। ‎पर क्यों न तुम हमारे साथ यहीं रहो? ‎हम यहाँ भी बहुत मज़े करेंगे। ‎ठीक है! रहूँगी। ‎उफ़! मैंने इसे तोड़ दिया! ‎रॉकी? ‎कभीकभी ऐसा हो जाता है। ‎मेरी भावनाओं के साथ मेरा रंग बदल जाता है। ‎क्या बात है! ब्लॉक्स में मदद करती हूँ। ‎धन्यवाद, सैमी। तुम बहुत अच्छी हो! ‎ये तो विंगोट हैं! ‎ओहो! फिर से! ‎यह अच्छा है! ‎यह क्या था? ‎बबल और ट्रबल। ‎ड्रैक के पालतू मॉन्स्टर जानवर। ‎अपने जादू से ये कहीं भी जा सकते हैं। ‎ठीक है! देखें, यह जादुई कक्षा ‎मेरे शानदार करतब सह पाती है या नहीं! ‎दोहरी पलटी, आधा घूमना। ‎धन्यवाद! और लोगों को यह पसंद आया! ‎और अब ड्रैक्सटर कोशिश करेगा तीन बार... ‎अद्भुत! ‎वाह! ‎यह शानदार था! ‎हेलो, दोस्तों। ‎ज़ेन की स्कूल में पहली रात ‎कैसी गुज़र रही होगी? ‎मैं जाकर देखूँ? ‎हाँ। ‎एकदूसरे को जानने के लिए एक खेल खेलेंगे। ‎मुझे खेल पसंद हैं। ‎मुझे उनसे ख़ुशी मिलती है! ‎अच्छा है! ‎जिसके पास गेंद जाएगी, ‎उसकी बारी होगी अपना नाम ‎और अपने बारे में कुछ बताने की। ‎मैं शुरू करती हूँ। मेरा नाम मीना है ‎और मुझे सुपर मॉन्स्टर्स को पढ़ाना पसंद है। ‎मैं हूँ है। चुटकुले और पहेलियाँ पसंद हैं। ‎ये सुनो! नाश्ते, लंच और डिनर में ‎क्या एक जैसी ख़ुशबू देता है? ‎तुम्हारी नाक! समझे? ‎मुझे यह चुटकुला बहुत पसंद है। ‎तुम्हारे पास आ रही है, ऑलिव। ‎पकड़ लिया! ‎मेरा नाम ऑलिव है ‎और मैं बड़ी होकर एक राजकुमारी बनूँगी। ‎और एक राष्ट्रपति! एक राजकुमारी राष्ट्रपति! ‎रॉकी, पकड़ो! ‎रुको! मैं तैयार नहीं हूँ! ‎मैं लाता हूँ। यह काम ‎एक अति बहादुर सुपर मॉन्स्टर के लिए है। ‎और मुझ में बहादुरी कुटकुट कर भरी है। ‎अरे। ‎मैं पहुँच क्यों नहीं पा रहा? ‎मुझे ग़ुस्सा आ रहा है! ‎मुझसे एक चीज़ ठीक से नहीं होती! ‎ना तेज़ उड़ पाता हूँ। ना ऊँचा। ‎कोई बात नहीं। ‎तुमने पूरी कोशिश की। ‎चिंता मत करो, रॉकी। मैं लाता हूँ। ‎बढ़िया! ‎कहाँ जा रही हो, सैमी? ‎हेलो, फ्रैंकी। मुझे घर जाना है। ‎बॉल कैच करना मज़ेदार है ‎और बॉल में काफ़ी उछाल भी है, ‎पर मुझे बूबू और घर के बाकी चीज़ों की ‎याद आ रही है। ‎सैमी, प्लीज़ यहाँ रहकर हमारे साथ खेलो। ‎इस स्कूल में मज़े करने के बहुत से स
ाधन हैं। ‎अगर बॉल कैच करना है ‎तो मैं गेंद ज़ोर से नहीं फेंकूँगी। ‎शायद मैं जितना सोचती थी, ‎उससे ज़्यादा ताकतवर हूँ। ‎कोई बात नहीं, ऑलिव। ‎मेरे साथ तो ऐसा होता रहता है। ‎हर समय। ‎इसी कारण से तो हम स्कूल आते हैं ‎ताकि शक्तियों का बेहतर इस्तेमाल सीखें। ‎फ़्रैंकी की बात सही है। तुम यहाँ अपनी ‎विशेष शक्तियों का इस्तेमाल सीखने आए हो। ‎और उसका एक हिस्सा है ‎यह सीखना है उन्हें कब इस्तेमाल नहीं करना। ‎तो... अब कुछ ऐसा जिसके लिए ‎कोई विशेष शक्तियाँ नहीं चाहिए, ‎पर फिर भी मज़ा आएगा। ‎तुम सब अपनीअपनी एक तस्वीर बनाओ ‎जिसे हम तुम्हारे खानों पर टाँगेंगे। ‎अभी करते हैं! ‎अच्छा। आँखें... ‎नाक... ‎यह सुंदर है! ‎मेरी तरह! ‎ग्लोर्ब, अगर तुम्हें यह खाना ‎स्वादिष्ट लग रहा है, ‎तो माँ और मेरे बनाए ‎ओटमील कुकी भी पसंद आएंगे। ‎मैं सबसे बुरा चित्रकार हूँ! ‎और यह ग़लत रंग है। ‎यह बेहतर है। ‎अरे, लगता है मैं यह धीरेधीरे सीख रहा हूँ। ‎क्या? फिर से? ‎यह ज़मीन कितनी रंगबिरंगी है! ‎वाह! यह मुझे कहाँ लेकर जा रही है? ‎पता चल जाएगा। ‎यह कितना सुंदर और साफ़ है। ‎वाह! मुझे एक चंद्रमा की बग्घी दिख रही है। ‎मुझे भी। ‎हम सब को दिख रही है। ‎वाह! मुझे नहीं पता था मेरी ज़ॉम्बी शक्तियाँ ‎यह भी कर सकती है। ‎इस कमरे को इस तरह बनाया गया है ‎कि ये तुम्हें, तुम्हारी मॉन्स्टर शक्तियाँ ‎नए तरीके से इस्तेमाल करना सिखाए। ‎शानदार! ‎यह अद्भुत है! ‎वाह! ‎अरे! तुम दोनों बस भी करो! ‎नहीं! ‎इनके पीछे भागना तो मेरी सूची में नहीं था। ‎चिंता मत करो, मीना। ‎अगर आपको अपने ऊपर भरोसा हो, ‎तो आप कुछ भी कर सकती हैं! ‎मुझे यक़ीन है मैं उन्हें पकड़ लूँगी। ‎मैं आई, नन्हें विंगोट! ‎मैं पकड़ता हूँ! ‎वाक़ई। मेरे घर में ऐसा कभी नहीं होता। ‎ओह! माफ
़ करना, सैमी। ‎आ जाओ, विंगोट। ‎रॉकी के पास आओ। ‎लगभग पकड़ ही लिया था! ‎मुझसे कोई भी काम नहीं होता। ‎कोई बात नहीं, रॉकी। ‎काश मैं रॉकी की मदद कर पाती! ‎माफ़ करना। ‎मैं ग़ुस्से को काबू नहीं कर पाया। ‎कोई बात नहीं, रॉकी। ‎हम सब कभीकभी परेशान हो जाते हैं। ‎कहानी कौन सुनना चाहेगा? ‎कहानी सुनाने में क्या गड़बड़ हो सकती है? ‎मंत्र पढ़ना बंद कर, देखती हूँ कि मीना ‎और दूसरों को मदद तो नहीं चाहिए। ‎यह अच्छा विचार है, काट्या। ‎आज की कहानी, "नन्हा बर्फ़ का गोला ‎जो कर सकता था।" ‎हाँ। ‎"एक बार की बात है, ‎एक नन्हा बर्फ़ का गोला था जो ‎बर्फ़ का आदमी बनने के सपने देखता था।" ‎ओह! रुको ज़रा... सैमी कहाँ है? ‎सैमी? ‎अरे, नहीं! ‎अरे, नहीं! ‎सब कुछ बिलकुल ठीक है। ‎मतलब, बिलकुल ठीक हो जाएगा ‎जब हम सैमी को ढूँढ़ लेंगे। ‎उसे ढूँढ़ने में हम मदद करेंगे। ‎हाँ। ‎मीना, तुम्हें कोई मदद चाहिए? ‎काट्या वहाँ क्या कर रही है? ‎वह किचन में नहीं है। ना ही क्लोसेट में ‎और ना ही थियेटर में। ‎पीछे आंगन में भी नहीं है। ‎सब ठीक तो है? ‎हाँ, मतलब, हो जाएगा ‎जब हम सैमी को ढूँढ़ लेंगे। ‎वह घर जाने की ज़िद कर रही थी। ‎मुझे डर है, कहीं स्कूल से चली न गई हो। ‎इसमें हम मदद करेंगे। ‎हाँ। ‎हमें बताइए कि क्या करना है। ‎अच्छा, बच्चों, हम सब को मिलकर ‎सैमी को ढूँढ़ना होगा। ‎मतलब आपको अपनी सारी सुपर मॉन्स्टर ‎शक्तियाँ इस्तेमाल करनी होंगी। ‎पक्का? ‎आपने कहा था शक्तियाँ ‎सोचसमझकर इस्तेमाल करनी हैं। ‎हाँ, पर अब हमारे सामने बड़ी समस्या है। ‎और बड़ी समस्याओं के लिए ‎बड़े हलों की ज़रूरत होती है। ‎पूरी मॉन्स्टर शक्तियाँ लगा दो! ‎वाह! ‎आप मॉन्स्टर हो! ‎बिलकुल हूँ! ‎वाह! और आप उड़ भी सकती हैं! ‎ज़रूर उड़ सकती हूँ। ‎चलो, चल कर सैमी को ढूँढ़ें। ‎क्या हम यह कर लेंगे? ‎हाँ, कर लेंगे ‎क्योंकि हमारी दोस्त को ‎मदद की ज़रूरत है ‎यह आसान नहीं होगा ‎थोड़ा डर भी लगेगा ‎पर हमें पता है ‎हमारी शक्तियाँ असाधारण हैं ‎तो, चाहे जो भी करना पड़े ‎तैयार हों या नहीं ‎हमें अपनी पूरी कोशिश करनी होगी! ‎एक दोस्त की मदद करने का समय है ‎सफ़ल होने के लिए हमें मिल कर कोशिश करनी है ‎एक दोस्त की मदद करने का समय है ‎सुपर मॉन्स्टर्स आ रहे हैं ‎हमें कोशिश करते रहनी होगी ‎जब आएं मुश्किलें ‎एक दूसरे का सहारा लेना है ‎और कभी हार नहीं माननी ‎पूरा ज़ोर लगाना है ‎हमें और कोशिश करनी है ‎हे, सुपर मॉन्स्टर्स ‎यह ऊँचा उड़ने का समय है ‎हम अपने एक दोस्त को ढूँढ़ रहे हैं ‎अपनी सारी शक्तियाँ इस्तेमाल करनी होंगी ‎एक दोस्त की मदद करने का समय है ‎सफ़ल होने के लिए हमें मिल कर कोशिश करनी है ‎एक दोस्त की मदद करने का समय है ‎सुपर मॉन्स्टर्स आ रहे हैं ‎हमने हर जगह देख लिया। ‎शायद अब हमें... ‎बर्फ़ के टुकड़े ! ‎शायद मुझे पता है कहाँ से आ रहे हैं। ‎मेरे पीछे आओ! ‎हाँ! ‎शानदार! ‎यह बर्फ़ कहाँ से आई? ‎वाह! ये बढ़िया है, ऑलिव। ‎धन्यवाद, मुझे पता है! ‎वाह! ‎इस तरफ़ आओ। ‎सैमी शायद
यहींकहीं होगी। ‎काश ऐसा ही हो! ‎हमें अपनी कक्षा में उसकी कमी खल रही है, ‎है न, बच्चों? ‎बिलकुल। ‎सही है। ‎रॉकी, तुमने कर दिखाया। ‎तुमने सैमी को ढूँढ़ लिया। ‎मैंने ढूंढ़ा? ‎मैंने ढूंढ़ लिया। ‎मैं बहुत तेज़ उड़ा! ‎और ऊँचा उड़ा! और मैंने यह कर लिया। ‎मैंने सैमी को ढूँढ़ा! ‎बढ़िया, रॉकी। ‎शाबाश। ‎तुम सुरागों के पीछे गए। ‎तुमने अच्छा दिमाग़ लगाया, रॉकी, ‎और तुम उड़े भी बढ़िया। ‎सैमी! ‎हमें तुम्हारी चिंता हो रही थी। ‎मुझे पता है तुम घर जाना चाहती हो। ‎पर मुझे यक़ीन है तुम कोशिश करोगी ‎तो तुम्हें स्कूल अच्छा लगेगा। ‎मुझे स्कूल पसंद है! ‎सच में? ‎तो तुम स्कूल से क्यों निकली? ‎मैं इन लोगों को ढूँढ़ रही थी। ‎मैं चाहती थी ये मेरे घर जाकर ‎बूबू बनी को ले आएँ। ‎पर ये मेरी बात नहीं समझ रहे। ‎सुना तुमने, बबल? ट्रबल? सैमी को मदद चाहिए। ‎चलो, उस बनी को लेकर आएँ। ‎बूबू बनी! तुम ले आए! ‎धन्यवाद, ड्रैक! धन्यवाद, विंगोट! ‎दोबारा। ‎वापस आओ! ‎अरे, नहीं! ‎चिंता मत करो, ड्रैक। मैं लाता हूँ। ‎हाँ! ‎हाँ! ‎धन्यवाद, रॉकी! तुमने बूबू बनी को बचा लिया! ‎बचाना ही था। मैं नहीं चाहता था ‎तुम इसे खो दो। ‎उससे तुम उदास हो जाती। ‎बहुत उदास हो जाती। ‎मुझे पता है उदास होना कैसा होता है। ‎और परेशान होना। और ख़ुश होना भी। ‎मैं समझती हूँ। ‎स्कूल की पहली रात ‎मेरे लिए भी बहुत जज़्बाती रही ‎और विंगोट के लिए भी, ‎और ख़ास तौर पर तुम्हारे लिए। ‎इसीलिए मैं बूबू बनी को लाना चाहती थी। ‎क्यों? ‎ताकि उसे तुम्हारे साथ बाँट सकूँ। ‎और आप चिंता मत करो। ‎अब मैं स्कूल के समय ‎घर जाने की कोशिश नहीं करूँगी। ‎मुझे यहाँ अच्छा लगा, अपने नए दोस्त ‎और सबसे अच्छी टीचर के साथ! ‎हाँ! ‎वापस स्वागत है! ‎बिलकुल सही समय पर। ‎मेरी सूची में कुछ है
‎जो हमने अब तक नहीं किया... ‎रिसेस! ‎वाह! ‎हमारा समय कितना अच्छा बीत रहा है ‎हैरान हूँ क्याक्या करूँ ‎यहां सब कमाल का है ‎तुम्हारे साथ खेलना कितना मज़ेदार है ‎दोस्ती तोहफ़ा लगती है ‎दोस्त की मदद करने से सुकून मिलता है ‎मेरा समय कितना अच्छा बीत रहा है ‎हमेशा करने को कुछ नया है ‎सबसे अच्छा समय ‎हैरान हूँ तुम क्याक्या करते हो ‎तुम्हारे और बच्चों के लिए स्कूल की ‎पहली रात ‎काफ़ी रोमांचक रही! ‎वाक़ई! शायद हम सबने बहुत कुछ सीखा। ‎मैंने तो सीखा। ‎मैं बहुत ख़ुश हूँ, मेरे नए दोस्त बने! ‎और पता है सबसे अच्छी चीज़ क्या है? ‎हम कल फिर यही सब करेंगे! ‎सूरज उगा! ‎सुपर मॉन्स्टर्स! ‎अलविदा! ‎बाद में मिलते हैं! ‎रुको, सैमी! अपना बनी मत भूलो! ‎इसे तुम अपने साथ ले जाओ। ‎तुम्हारे साथ रहेगा जब तक ‎बेहतर महसूस नहीं करते। ‎सच में? ‎पर तुम्हें भी इसका साथ पसंद है न? ‎हाँ, पर एक दोस्त के साथ इसे बाँटकर ‎मुझे और भी अच्छा लगेगा। ‎सुपर मॉन्स्टर्स ‎सुपर मॉन्स्टर्स ‎हम हैं सुपर मॉन्स्टर्स ‎दिन में हम इंसान हैं ‎हम हैं सुपर मॉन्स्टर्स ‎रात को मॉन्स्टर्स बन जाते हैं ‎पिचफ़ोर्क पाइन्स में हम सीखते हैं ‎और एक दूसरे को सीखने में मदद करते हैं ‎सूर्यास्त में जादू है ‎तब हम चमकना शुरू करते हैं ‎सूरज डूबा! ‎मॉन्स्टर उठे! ‎मैं ड्रैक, उड़ता हूँ तेज़ ‎क्लियो, हवा की शक्ति ‎स्पाइक, ड्रैगन बादल ‎ज़ोई, ज़ोंबी दृष्टि ‎लोबो, सुपर तेज़ ‎काट्या, जादुई मंत्र ‎फ्रैंकी, पैर पटकता हूँ ‎हम हैं सुपर मॉन्स्टर्स ‎मिलते हैं दोबारा मॉन्स्टर बनने पर
टुकड़ी के साथ एक एजेंट हाथी दाँत की पहरेदारी कर रहा था; पर जंगल की गहराई में, काँपती लाल किरणें गहरे काले रंग की स्तंभों जैसी बिखरी आकृतियों के बीच उठती गिरती लग रही थीं और उन शिविरों की स्थिति दिखला रही थीं, जहाँ मिस्टर कुर्ट्ज़ के भक्त बेचैनी के साथ चौकीदारी कर रहे थे। नगाड़े की एकरस आवाज़ हवा में दबे-दबे झटके और निरंतर कंपन लाती मँडरा रही थी। बहुत सारे लोगों में हरेक अपने ही गरज में अजीब मंत्रोच्चारण-सा कर रहा था और इससे ऐसी एक भिनभिनाती आवाज़ जंगल की अँधेरी सपाट दीवारों में से आ रही थी जैसे बर्रों के छत्ते से आती है और मेरी अधजगी इंद्रियों पर इसका अजीब नशीला प्रभाव पड़ रहा था। मुझे लगता है कि मैं जंगले पर बदन टिकाए सो ही पड़ा था, जब अचानक किसी दबे हुए और रहस्यमय उन्माद के ज़बर्दस्त विस्फोट, फूटती चीखों, से मेरी नींद बौखलाहट भरे अचंभे के साथ टूट गई । झट से वह शोर रुक भी गया और फिर भिनभिनाहट चलती रही, जिससे वही सन्नाटा सुनाई पड़ने लगा और सुकून देता हुआ छा गया। मैंने यूँ ही छोटे कमरे में नज़र दौड़ाई। अंदर प्रकाश जल रहा था, पर मिस्टर कुर्ज वहाँ नहीं था। अपनी आँखों पर मुझे यकीन होता तो मैंने ज़रूर शोर मचाया होता। पर पहले मुझे उन पर विश्वास नहीं हुआ मिस्टर कुर्ट्ज़ का न होना बिल्कुल नामुमकिन लग रहा था। सच यह है कि किसी भी स्पष्ट शारीरिक तकलीफ लाने वाले खतरे से अलग बिल्कुल सादा डर, किसी अमूर्त्त आतंक, से मैं घबरा गया था। यह भावना इतनी गहरी थी कैसे कहूँ - इसलिए कि मुझे नैतिक झटका लगा था, मानो बिना किसी पूर्व आशंका के, सचमुच भयानक कुछ, जिसकी कल्पना भी असहनीय हो और जो आत्मा को कुत्सित लगता हो, मेरे ऊपर थोप दिया गया हो। वैसे यह मनस्थिति बस पल भर को रही और फिर सामान्य कहीं कभी भी हो सकने वाला घातक खतरा, अचानक हमला और हत्या या ऐसा ही कुछ का अहसास आ बैठा। मुझे यह आशंका हुई कि ऐसा कुछ होने ही वाला है। यह सोचना बिल्कुल ठीक और दिलासा देता लगा। सचमुच ऐसा सोचते हुए मैं इतना शांत हो गया कि मैंने शोर तक नहीं मचाया। मुझसे तीन फीट की दूरी पर ही अपने ढीले चोगे में बंद एक एजेंट कुर्सी पर सो रहा था। उन चीखों से वह जगा नहीं था। वह हल्के खर्राटे मार रहा था। मैंने उसे नींद में छोड़ा और उछलकर किनारे उतरा। मैंने मिस्टर कुर्ट्ज़ के साथ गद्दारी न की आदेश था कि मैं उसके साथ विश्वासघात न करूँ लिखित निर्देश था कि मैं अपनी पसंद के दुःस्वप्न के प्रति वफादार रहूँ। इस साए से अकेले जूझने के लिए मैं बेचैन था और आज तक मैं नहीं जानता कि मुझमें इतनी ईर्ष्या क्यों थी कि मैं उस अनुभव के विचित्र अँधेरे पक्ष को किसी के साथ साझा नहीं करना चाहता था। किनारे पर जाते ही मुझे पगडंडी दिखी घास से निकलती चौड़ी पगडंडी। याद आता है कि मैंने खुद से कहा, 'वह पैदल नहीं चल पा रहा। वह चारों पाए चल रहा है अब मैं उसे पकड़ लूँगा।' घास ओंस से गीली पड़ी थी। मैं मुट्ठियाँ भींच कर तेजी से तला। मुझे लगता है कि मेरे मन में उस
से टकराने का और उसकी पिटाई करने का अधकचरा खयाल-सा था। मुझे नहीं मालूम। कुछ कच्चे-पक्के विचार मन में थे। इस पूरे मामले में दूसरी ओर बिलाव के साथ कपड़ा बुनती बुढ़िया मेरी स्मृति में बड़ी बाधा बनकर सबसे ग़लत इंसान सी बैठी थी। मैंने कई एजेंट महानुभावों को कूल्हों पर रखी बंदूकों से हवा में गोलियाँ चलाते देखा। मुझे लगा कि मैं स्टीमर पर वापस नहीं जा पाऊँगा और मैंने कल्पना में सोचा कि अब तो बंदूक के बिना ही बड़ी उम्र तक जंगल में रहना है। ऐसी अजीब बातें अब क्या बताएँ। और मुझे याद है कि मैंने नगाड़ों की ताल का सामना अपने दिल की धड़कनों से किया, और मैं खुश था कि वे बेरोक नियमित ढंग से चल रही हैं । पर मैं उसी पगडंडी पर चलता रहा फिर रुक-रुक कर सुनता रहा। रात बिल्कुल साफ थी। ओस और तारों के प्रकाश से जगमगाता नीला अँधेरा अंतरिक्ष, और इसमें काली आकृतियाँ स्तब्ध खड़ी थीं। मुझे लगा जैसे कि मेरे सामने आगे कोई चीज़ हिलती दिख रही थी। अजीब बात थी कि उस रात हर बात के बारे में मैं निश्चिंत था। पगडंडी से भटककर मैं गोल चक्कर काटकर बढ़ता रहा (याद है कि मैं मन ही मन हँस रहा था) ताकि उस हिलती-डुलती आकृति से आगे बढ़ सकूँ - अगर सचमुच मैंने कुछ देखा ही था। मैं कुर्ज को छलने की कोशिश कर रहा था जैसे कि कोई बचपन का खेल हो । मैं उससे टकराया, और, अगर उसने मेरे आने की आवाज़ न सुनी होती तो मैं उस पर गिर पड़ा होता, पर वह वक्त रहते उठ खड़ा हुआ। डगमगाता, लंबा, फीका, अस्पष्ट, मेरे सामने वह उठ खड़ा हुआ मानो धरती के साँस छोड़ने पर भाप निकली हो, और मेरे सामने धुँधला और चुप वह थोड़ा हिला । मेरे पीछे पेड़ों के बीच से आग धधक रही थी। जंगल से कई तरह की आवाज़ों की बड़बड़ाहट सुनाई पड़ रही थी। मैं चालाकी से उसके आगे आ पहुँचा था;
पर यथार्थ में उसका सामना करते हुए मैं होश में वापस आया। मैंने खतरे के असली फैलाव को जाना। अभी तक हम खतरे से बाहर न थे। अगर वह शोर मचाए तो? उससे खड़ा तक न हुआ जा रहा था, पर उसकी आवाज़ में अब भी खासा दम था। 'भागो छिपो, ' उसने अपनी गंभीर आवाज़ में कहा। आवाज़ में आतंक था। मैंने पीछे देखा। बिल्कुल पास की धूनी हमसे तीस गज से कम दूरी पर थी। रोशनी के पार एक काली आकृति उठ खड़ी हुई, लंबी काली बाँहें हिलाती लंबी काली टाँगों पर दौड़ी। मेर खयाल से उसने सींग लगाए हुए थे - हिरण के सींग । कोई शक - नहीं कि वह कोई ओझा या झाड़-फूँक करने वाला था। देखकर भरपूर शैतान लगता था। मैंने फिसफिसाकर पूछा, "आप जानते हैं कि आप क्या कर रहे हैं?" "बिल्कुल," उस एक शब्द के लिए आवाज़ ऊँची करते हुए उसने जवाब दिया। मुझे लगा आवाज़ कहीं दूर से, फिर भी ऊँची आई, जैसे कोई भोंपू का शोर हो। मैंने मन ही मन कहा, 'अगर यह बंदा शोर मचाए, तो हमारी तो शामत आ गई।' मार-लड़ाई करने का कोई मतलब ही नहीं था, वैसे भी मुझे उस साए उस परेशान घुमंतू बंदे की पिटाई करने से स्वाभाविक वितृष्णा थी। "आप खो जाएँगे," मैंने कहा, "बिल्कुल खो जाएँगे।" तुम समझो कि ऐसे वक्त में समझदारी का उफान-सा आता है। मैंने सही बात कही थी, हालाँकि उस पल, जब आखिर तक टिकने वाली - टिकने वाली - या उससे भी आगे तक हमारी आत्मीयता की नींव ढाली जा रही थी, वह सचमुच जितना खोया हुआ था, उससे अधिक न लौट पाने वाली स्थिति तक उसका खो सकना नामुमकिन था। "मैंने बहुत बड़ी योजनाएँ सोची थीं," वह ढुलमुल अहसास में बड़बड़ाया। "हाँ," मैंने कहा, "पर अगर आप शोर मचाएँगे तो मैं इससे आपका सर फोड़ दूँगा, पास कोई डंडा या पत्थर न था, "गला घोंटकर मार डालूँगा," मैंने बात बदलते हुए कहा । "मैं बड़ी सफलताओं के कगार पर था," उसने चाहत भरे स्वर में आग्रह के साथ कहा। उसकी आवाज़ में ऐसी उदासी थी कि मेरा खून जमने लगा। "अब इस बेवकूफ की वजह से "यूरोप में आपकी सफलता पक्की है," मैंने दृढ़ता से हामी भरते हुए कहा। तुम समझ सकते हो कि मैं उसका गला घोंटने से बचना चाहता था वैसे भी उसका कोई व्यावहारिक फायदा न होता। मैंने उस मंत्र को काटने की कोशिश की - जंगल का भारी, मूक, वशीकरण मंत्र - जो उसकी भूली हुई आदिम प्रवृत्तियों को जगाकर, संतृप्त और भयंकर चाहतों की स्मृतियों से उसे अपने निर्दयी सीने में खींच रहा था। मुझे पक्का यकीन था कि यही एक कारण था जो उसे जंगल के कोने तक, झाड़ियों तक, आग की चमक, नगाड़ों की थाप, अजीबोगरीब मंत्रों की भिनभिनाहट की ओर खींच ले गया था। यही एक बात थी जिससे उसकी बागी आत्मा मान्य आकांक्षाओं के पार फँस चुकी थी। अरे तुम समझते हो कि नहीं कि उस वक्त आतंक सिर पर चोट आने का नहीं था - हालाँकि ऐसे खतरे के डर का तीखा ज़िंदा अहसास भी मुझे था बल्कि आतंक इस बात का था कि मुझे ऐसे बंदे का पाला पड़ा था, जिसके साथ ऊँच-नीच की बात कर समझौता नहीं किया जा सकता था। मुझे उन निगरों की तरह उसी का आवाहन करना
वह खुद जो अपने असाधारण अधःपतन की पराकाष्ठा में खुश था। न तो उसके ऊपर और न ही नीचे कुछ था और मुझे यह बात मालूम थी। उसने खुद को ज़मीं से उखाड़ लिया था। ऐसे आदमी का सामना! उसने ज़मीं को टुकड़े-टुकड़े कर डाला था। वह अकेला था और उसके सामने मैं इस बात से अनजान था कि मैं ज़मीं पर खड़ा था या कि मैं हवा में तैर रहा था। मैं तुम्हें बतलाता रहा हूँ कि हमने क्या बातें कीं - हमारे कहे मुहावरों को दुहराता रहा पर इससे क्या निकलने वाला है? आखिर वे रोज़ाना के बोलचाल के लफ्ज़ ही थे जागे हुए दैनंदिन जीवन में बार-बार कही जाती हैं। तो क्या हुआ? मेरे विचार में इनके पीछे सपनों में कहे जाते लफ्ज़ या दुःस्वप्नों में कहे गए मुहावरों के अर्थ छिपे थे। आत्मा! अगर किसी एक आदमी ने आत्मा के साथ संघर्ष किया है तो वह मैं हूँ। और मैं किसी पागल से बहस नहीं कर रहा था। मानो या न मानो, उसका दिमाग सोलहो आने दुरुस्त था। यह सही है कि वह बड़ी शिद्दत के साथ खुद ही पर केंद्रित था। मेरे पास बच निकलने की यही एक उम्मीद थी। वैसे दूसरा तरीका था कि मैं उसे कत्ल कर सकता था, पर यह अच्छा न था, क्योंकि इससे आवाज़ तो होनी ही थी। पर उसकी आत्मा विक्षिप्त थी। जंगल में रहकर उसने खुद के अंदर झाँकना शुरू कर दिया था और या खुदा! वह पागल हो चुका था। यह मेरे कर्मों का फल ही होगा कि यह सारा कुछ खुद देखने की पीड़ा से मुझे गुजरना पड़ रहा था। ईमानदारी के उसके आखिरी उद्गार से अधिक मानवता में अपने विश्वास पर सवाल खड़ा करने लायक कोई और तकरीर नहीं हो सकती थी। वह खुद से भी जूझ रहा था मैंने सुना, मैंने देखा। मैंने उस उन्मुक्त, अराजक, निर्भय, पर खुद से ही जूझती आत्मा के अकल्पनीय रहस्य को देखा। मैंने दिमाग ठंडा रखा और जब आखिरकार उसे आरामकुर्सी पर लिटा
दिया, मैंने अपना माथा पोंछा। मेरी टाँगें काँप रही थीं, मानो मैं आधा टन वजन ढोते उस चट्टान से उतरा था, जबकि मैंने उसे बस सहारा भर दिया था। उसकी हड्डियों सी दिखती बाँह मेरी गर्दन पकड़े हुए थी और उसका वजन एक बच्चे से ज्यादा न था। अगले दिन मध्याह्न को जब हम चले, अभी तक दरख्तों के पीछे की जिस भीड़ का तीखा अहसास हर वक्त मुझमें चल रहा था, वह फिर जंगल से निकली। भीड़ ने सारा मैदान भर दिया। नंगे, साँस लेते, काँपते शरीरों से ढलान ढँक गई। मैंने जरा भाप भरी, स्टीमर को आगे की ओर घुमाया और दो हजार आँखों ने उस पानी छलकाते, थापते, भयंकर जल-दानव को अपनी पूँछ से पानी को पीटते और हवा में काला धुँआ छोड़ते देखा। बिल्कुल सामने की कतार में आगे, नदी के समांतर, सिर से पैर तक गाढ़े लाल रंग में पुते हुए तीन लोग बेचैनी से आगे-पीछे होते रहे। जब हम फिर आमने-सामने हुए, उनका चेहरा नदी का ओर था, वे ज़मीं पर पैर पटक रहे थे, अपने सींग पहने सिर हिला रहे थे, उनके बैंगनी शरीर झूम रहे थे। वे भयंकर जल - दानव की ओर एक काले पंखों का गुच्छा और मनकों से सजी हुई पूँछ वाला सूखी लौकी-सा दिखता एक गंदा चमड़ा हिला रहे थे। बीच-बीच में एक साथ अजीब शब्दों की लड़ियाँ बना वे चिल्ला रहे थे, जो किसी भी इंसानी बोली से मेल न खाते थे। अचानक रोकी गई भीड़ की वह बड़बड़ाहट किसी ऐयार के शैतानी मंत्र जैसी प्रतिक्रिया थी। हम लोग कुर्ट्ज़ को पायलट वाले कमरे में ले आए थे। वहाँ हवा अच्छी आ रही थी। आरामकुर्सी पर लेटे हुए, वह खुली शटर से बाहर की ओर देख रहा था। मानव शरीरों के उस समंदर में लहरें उमड़ रही थीं, और सिर पर हेलमेट जैसे जूड़े और भूरे गालों वाली स्त्री धार के बिल्कुल किनारे तक दौड़ आई। उसने अपने हाथ फैलाए, चिल्ला कर कुछ कहा और वह जंगली भीड़, अनरुकी साँस में तेज़ी से गरजती हुई इकट्ठी संयोजित ढंग से चिल्ला उठी। "ये क्या कह रहे हैं, आप समझते हैं? " मैंने पूछा। वह धधकती, चाहत भरी आँखों से, उत्कंठा और नफ़रत की अभिव्यक्ति लिए मुझसे परे कहीं देखता रहा। उसने कोई जवाब नहीं दिया, पर मुझे उस के बेजान होंठों पर एक मुस्कान दिखलाई दी; उस मुस्कान का कोई अर्थ न था। एक पल के बाद वे होठ काँपते हुए फड़कने लगे। "मुझे ही नहीं समझ आएगा? " उसने हाँफते हुए धीरे से कहा, मानो कोई अलौकिक शक्ति उसमें से ये शब्द निकलवा रही थी। मैंने सीटी की रस्सी खींची। मैंने ऐसा इसलिए किया कि मैंने देखा कि डेक पर एजेंट संगीत सुनने-सुनाने के लिए बंदूकें निकाल रहे थे। अचानक उठे भोंपू की आवाज़ से उस भीड़ के समंदर में भारी आतंक की लहर दौड़ गई। डेक पर किसी ने निराशापूर्वक कहा, "अरे नहीं! उनको डराकर भगाओ मत!" मैंने बार-बार रस्सी खींची। वे बिखरते हुए दौड़े, उछले, घुटनों पर चलने लगे, झटके से मुड़े, उस आवाज़ के उड़ते आतंक से बचने की कोशिश करते रहे। लाल रंग पुते तीन लोग लंबलेट ज़मीं पर गिर पड़े थे, जैसे कि किसी ने उन्हें गोली चलाकर मार डाला हो। बस उस अद्भुत जंगली स्त्री ने
पलक तक न झपकी, और उसने त्रासद ढंग से उस गंभीर चमकती नदी के ऊपर अपनी बाँहें फैला दीं। तभी डेक पर खड़ी बेवकूफों की भीड़ ने अपना मनोरंजन शुरू कर दिया और धुँए के अलावा मुझे कुछ न दिख रहा अंधकार के जिगर से निकलता भूरा प्रवाह तेज़ी से दौड़ा आया। हम धार पर इस ओर जिस गति से आए थे, उससे दुगुनी गति से चल रहे थे। कुर्ज़ के प्राण भी तेज़ी से धड़क रहे थे। उसकी जान मुर्झा रही थी, जिगर से निकल मुर्झाती हुई काल के अनंत समंदर में खोती जा रही थी। मैनेजर बहुत शांत दिख रहा था। अब उसे विशेष चिंता न थी। उसने हम दोनों को भरपूर और शांत नज़रों से देखा; 'मामला' अपेक्षानुसार ठीक-ठाक निपट गया था। मैं देख रहा था कि 'अनुचित तरीकों वाले समूह में मेरे अकेले के रह जाने का समय करीब आता जा रहा था। एजेंट महानुभावों को मुझसे नाखुशी थी। एक तरह से मुझे मर चुके लोगों में गिना जा रहा था। अजीब ही है कि लालची हैवानों के शिकार इस अँधेरे प्रदेश में मैंने यह अविचारित साझेदारी, बुरे सपनों का यह इंतखाब कैसे किया। कुर्ट्ज़ चर्चाएँ करता रहा। आवाज़ ! अद्भुत आवाज़! अंत तक वह गहरी गूंजती रही। उसके दिल के वीरान अँधेरे में से आती वाक्पटुता की लाजवाब तहों में छिपने की उसकी ताकत से भी ज्यादा उसकी आवाज़ बची रही। ओह! कैसा संघर्ष किया उसने! वह जूझता रहा! उसके थके, मुर्झाते दिमाग में अब सायों में आती तस्वीरें थीं - उत्तम और उद्धत बातों की उसकी अमिट क्षमता को घेर कर चिपकती सी घूमती यश और संपदा की तस्वीरें थीं। मेरी प्यारी, मेरा अड्डा, मेरा पेशा, मेरी योजनाएँ - उसके कभी- कभार उत्तेजित भावनाओं में निकले उद्गार यही थे। आदिम · धरती की तहों में जल्दी ही दफ़न हो जाने उस खोखले बनावटी चरित्र में अक्सर ही असली कुर्ट्ज़ की छवि दिख जाती। पर पैशाचि
क प्रेम, और उनकी वजह से जिन रहस्यों की जड़ों तक वह गया, उनके प्रति अलौकिक नफ़रत, दोनों ही उस अघायी आत्मा को वश करने के लिए जूझ रहे थे, जो झूठी शोहरत, बनावटी फर्क और सफलताओं और ताकत के सभी दिखावों के लिए लालायित, आदिम भावनाओं से भरपूर थी। कभी-कभी वह तिरस्कार लायक बचकानी हरकतें करता। वह माँग करता कि उन भयंकर अनजान इलाकों से जहाँ वह बड़ी सफलताएँ हासिल करना चाहता था, लौटने पर रेलवे स्टेशनों पर राजा आकर उससे मिलें। "उन्हें दिखला दो कि तुम्हारे पास फायदेमंद दक्षता है, तो तुम्हारी योग्यता को स्वीकृति मिलने में कोई कमी न होगी, " वह कहता। "हाँ, अपने मकसद को ज़रूर ध्यान में रखो उद्देश्य सही होने चाहिए हमेशा । " स्टीमर के पास से गुजरते निरपेक्ष पेड़ों के झुंड से भरे एक ही जैसे दिखते विस्तीर्ण प्रांतर, बिल्कुल एक ही जैसे दिखते इकहरे घुमाव, बदलाव, विजय, व्यापार, हत्याओं, सफलताओं के अग्रदूत, किसी और दुनिया के इस कीचड़ सने टुकड़े को धीरज से देखते रहे। मैं स्टीमर चलाता हुआ सामने की ओर देखता रहता। एक दिन कुर्ट्ज़ ने अचानक ही कहा, "शटर बंद कर दो। मुझसे यह देखा नहीं जाता।" मैंने ऐसा ही किया। सन्नाटा फैल गया। अदृश्य जंगल की ओर देखकर वह चीखा, "अभी तो तुम्हारे प्राण-पखेरू दबोचना बाकी है।" जैसा मैंने सोचा था, एक द्वीप के मुहाने पर आकर स्टीमर खराब हो गया और हमें मरम्मत के लिए रुकना पड़ा। इससे हो रही देर से पहली बार कुर्ट्ज़ का मनोबल टूटा। उसने मुझे कागज़ात और फोटुओं भरा एक लिफाफा दिया - सारा कुछ जूतों के फीतों से बाँधा हुआ था। "इनको मेरे लिए सँभाल कर रखना," उसने कहा, "यह बदमाश बेवकूफ (मतलब मैनेजर) जब मेरी नज़र न पड़े तो मेरे बक्से को खोल कर देख सकता है।" दोपहर को मैंने उसे देखा। वह आँखें मूँदे डेक पर लेटा था और मैं चुपचाप पीछे हट गया। पर मैंने उसे बड़बड़ाते सुना, "भली ज़िंदगी जिओ, मर जाओ, मर जाओ..."। मैं सुनता रहा। उसने और कुछ न कहा। क्या वह नींद में किसी भाषण का अभ्यास कर रहा था ? या वह किसी अखबार के लिए तैयार किसी आलेख का कोई वाक्यांश था? वह अखबारों के लिए लिखता था और फिर से लिखना चाहता था ताकि मेरे विचार फैल सकें। यह जिम्मेदारी है।' वह एक ऐसा अँधेरा समाए हुए था, जिसके पार जाना संभव न था। मैंने उसे देखा तो लगा कि मैं ऐसी चट्टान के नीचे लेटे हुए एक आदमी को देख रहा हूँ, जहां सूरज की रोशनी कभी नहीं पहुँचती। पर उसे सँभालने के लिए मैं अधिक वक्त नहीं दे पा रहा था, क्योंकि मुझे इंजिन चालकों को लीक कर रहे सिलिंडरों को खोलने, अलग पुर्जों को जोड़ती छड़ को सीधी करने और ऐसे दूसरे मामलों में मदद करनी पड़ रही थी। मैं ऐसी चीज़ों के नर्क में खोया हुआ था, जंग लगी चीज़ें, धातु का बुरादा, नट, बोल्ट, पाने, हथौड़े, दाँत वाले बरमे, जिनसे मुझे कोई मुहब्बत नहीं और जिनसे मैं नफ़रत करता हूँ। किस्मत से हमारे पास लोहारों वाली एक छोटी भट्ठी थी, जिसे मैं सँभाल रहा था; जब तक कि मैं थकान से गिरने लायक हालत मे
ं न पहुँचूँ। मैं बेकार कल-पुर्जों के ढेर में थका हुआ मेहनत कर रहा था। एक शाम जब मैं एक मोमबत्ती लेकर आया, तो मैंने उसे काँपती आवाज़ में कहते सुना, "मैं मौत के इंतज़ार में यहाँ लेटा हुआ हूँ।" रोशनी उसकी आँखों से फुटभर की कम दूरी पर थी। मैंने किसी तरह बड़बड़ाकर कहा, "क्या बकवास है!" और उसके पास मंत्रमुग्ध-सा खड़ा रहा। उसकी शक्ल में जो बदलाव आ रहे थे, मैंने पहले कभी न देखे थे और मुझे उम्मीद है कि फिर कभी देखने न पड़ेंगे। मैं द्रवित नहीं हुआ था। मैं अभिभूत था। ऐसा लग रहा था जैसे कोई नकाब उठ गया था। हाथी- दाँत जैसे सफेद उस चेहरे पर मुझे गंभीर गौरव, क्रूर ताकत, कायर आतंक कुल मिलाकर एक घनी नाउम्मीदी दिखी। तो क्या उस चरम क्षण में जब पूर्ण ज्ञान मिलता है, वह फिर से सभी चाहतों, लालचों और समझौतों के हर व्यौरे के साथ अपनी ज़िंदगी जी रहा था? किसी साए, किसी झलक की ओर देखते हुए फिसफिसाता हुआ वह चीखा • दो बार वह चीखा, वह ऐसी चीख थी, जो एक साँस भर से ऊँची न थी "दोज़ख़! दोज़ख़!" मैंने बत्ती बुझा दी और केबिन से बाहर निकल आया। सभी एजेंट भोजनागार में खाना खा रहे थे और मैं मैनेजर के उलटी तरफ आकर बैठा। उसने सवालिया नज़र से आँखें उठाकर मुझे देखा और मैं उसे नज़रअंदाज़ करने में सफल हुआ। वह शांत पीछे की ओर झुका। चेहरे पर हैवानियत की छिपी गहराइयों पर परदा डालती विचित्र मुस्कान थी। दिए पर, कपड़ों पर, हमारे हाथों और चेहरों पर छोटी मक्खियों का एक झुंड बराबर बरसता जा रहा था। अचानक मैनेजर के भृत्य ने अपना ढीठ काला सिर दरवाजे के अंदर किया और गहरी नफ़रत भरी आवाज़ में कहा "मिस्टा कुर्ट्ज़ मर गया।" सारे एजेंट देखने के लिए दौड़कर बाहर निकले। मैं बैठा रहा और भोजन करता रहा। मैं जानता हूँ कि इसे बेहद फूहड़पन माना गय
ा। पर मैं ज्यादा नहीं खा पाया। शुक्र यह कि वहाँ एक दिया था बत्ती, है न भयंकर, भयंकर अँधेरा था। मैं उस कमाल के शख्स के पास फिर से नहीं गया, जो धरती पर अपनी आत्मा के दुःसाहसों पर अपनी राय सुना चुका था। वह आवाज़ जा चुकी थी। और वहाँ क्या बचा था? वैसे मुझे यह मालूम है कि अगले दिन एक कीचड़ भरे गड्ढे में एजेंटों ने कुछ दफनाया था। और फिर वे मुझे दफनाने ही वाले थे। पर जैसा तुमलोग देख ही रहे हो, मैं कुर्ट्ज़ का साथ निभाने तुरंत नहीं चल पड़ा। आखिर तक दुःस्वप्न देखने को मैं ज़िंदा रहा ताकि फिर एकबार कुर्ट्ज़ के प्रति अपनी वफादारी दिखा पाऊँ। किस्मत! मेरी नियति! ज़िंदगी भी कैसा परिहास है - तुच्छ मकसदों के लिए निर्दयी तर्कशीलता का रहस्यमय सिलसिला। इससे अधिक से अधिक यही सीखने को मिलता है कि हमें अपने बारे में थोड़ी जानकारी मिल जाती है वह भी बड़ी देर से अनबुझ अफसोसों की फसल। मैं मौत के साथ जूझ चुका हूँ। इससे बढ़कर नीरस कोई और संघर्ष सोचा नहीं जा सकता। यह संघर्ष एक ऐसे अबूझ सियाह माहौल में होता है जो समझ में नहीं आता। इसके दौरान पैरों तले ज़मीं नहीं रहती, आस-पास कुछ नहीं होता, कोई दर्शक नहीं होता, कहीं कोई आवाज़ नहीं आती। इसमें कोई यश नहीं, किसी जीत की कोई गहरी चाहत नहीं, किसी हार का कोई डर नहीं। इसके दौरान बेमन से उगते संशय का बीमार माहौल होता है, अपने वजूद पर कोई यकीन नहीं रहता, और अपने विरोधी पर तो और भी कम होता है। अगर यही आखिरी ज्ञान का स्वरूप है तो ज़िंदगी हमारी कल्पना से भी बड़ी पहेली है। मैं कयामत के दर पर खड़ा था और बड़ी ग्लानि के साथ मैंने जाना कि मेरे पास कहने को कुछ भी नहीं था। यही कारण है कि मैं यह दर्ज़ करता हूँ कि कुर्ट्ज़ कमाल का आदमी था। उसके पास कहने को कुछ था। उसने कहा। मैं भी जीवन से परे छलाँग लगाने ही वाला था, इसलिए मैं उसकी उन नज़रों को बेहतर समझ पाया, जो मोमबत्ती की लौ को नहीं देख पा रहा थीं, पर समूची कायनात को गले लगाने को पूरी तरह खुली थीं। वे अँधेरे में धड़कते सभी दिलों को छेद रही थीं। उसने सार जान लिया था, उसने राय बना ली थी। "दोज़ख़!" वह कमाल का शख्स था। आखिर यह किसी तरह की आस्था की अभिव्यक्ति ही थी। इसमें साफगोई थी, इसमें आत्म-विश्वास था, अपनी फिसफिसाहट में वह विरोध का काँपता सुर समाए हुए थी। इसमें देखे गए सत्य का भयानक चेहरा था चाहत और नफ़रत का भयानक एकीकरण था। ऐसा नहीं है कि मैंने अपनी पराकाष्ठा को ही बेहतर याद रखा हो, जिसमें कि शारीरिक कष्ट से भरपूर, सियाह निराकार की झलक थी चीज़ की, इस कष्ट की भी क्षणभंगुरता के प्रति सावधानी से रची उपेक्षा थी। नहीं, मैं उसकी पराकाष्ठा को जीता रहा हूँ। यही सच है। उसने वह आखिरी छलाँग लगाई, वह धरती के किनारों को लाँघ गया, जबकि मुझे अपने झिझक भरे पैर वापस मोड़ने की इज़ाजत मिल गई। और शायद इसी में सारा फर्क है; शायद सारी समझ, सारा सच, सारी ईमानदारी समय के उसी निहायत छोटे-से पल में भर दी गई है, जब हम अदृश्य की सीमा
को पार कर लेते हैं। शायद! मैं सोचता हूँ कि मेरा यह संक्षिप्त आख्यान नासमझी में की गई अवहेलना न लगा होगा। उसकी चीख बेहतर थी कहीं ज्यादा बेहतर थी। उसमें अनगिनत हार, भयंकर आतंक, घिनौने संतोष से बनी नैतिक जीत थी, स्वीकृति थी। पर वह जीत थी। इसीलिए मैं आखिर तक कुर्ट्ज़ के प्रति वफादार रह गया और आगे भी बना रहा जब लंबे समय के बाद उसकी आवाज़ में नहीं, पर स्फटिक के शिखर जैसी पारदर्शी शुद्ध आत्मा से मुझे उसकी अद्भुत बातों की प्रतिध्वनि फिर एक बार सुनाई दी। नहीं, उन्होंने मुझे दफन नहीं किया, हालाँकि मुझे काँपते हुए अचंभे के साथ धुआँसा-सा याद आता है कि ऐसा वक्त आया था जैसे कि मैं ऐसी अकल्पनीय दुनिया से गुजर रहा था, जहाँ कोई आशा नहीं थी और कोई चाहत न बची थी। उस अवसाद भरे शहर में मैं वापस आ गया था, जहाँ ऐसे लोगों को देखकर मुझे कोफ्त हो रही थी जो एक दूसरे से थोड़े से पैसे हड़पने के लिए, अपना कुख्यात भोजन निगलने, अपनी हानिकर शराब पीने, अपने तुच्छ और मूर्खतापूर्ण सपने देखने के लिए सड़कों पर भागे जा रहे थे। वे मेरे खयालों में अनचाहे घुस आते थे। वे घुसपैठिए थे, जीवन के बारे में जिनकी समझ मुझे परेशान करती दिखावा लगती थी, क्योंकि मुझे पक्का यकीन था कि जो बातें मैं जानता था वे कभी नहीं जान पाएँगे। महज पूरी सुरक्षा के आश्वासन के साथ अपने काम-धाम में लगे सामान्य लोगों की तरह उनका होना, मुझे एक अनजान खतरे के सामने उसे समझने की क्षमता के बिना बेहिसाब मूर्खतापूर्ण सलाहों की बौछार जैसा नापसंद था। उन्हें समझाने की कोई खास इच्छा मुझमें न थी, पर मूर्खतापूर्ण दंभ से भरे उनके चेहरों पर हँसने से मैं खुद को नहीं रोक पाता था। यह कह दूँ कि उस वक्त मैं अस्वस्थ था। मैं सड़कों पर घूमता रहा कई मामले निपटाने थे भले-चं
गे शरीफ़ लोगों पर कड़वी हँसी हँसता रहा। मानता हूँ कि मेरा व्यवहार बदतमीज़ी कहलाएगा, पर उन दिनों मेरी तबियत शायद ही ठीक रही हो। मेरी तबियत को दुरुस्त करने के लिए' मेरी मौसी की कोशिशें नाकामयाब थीं। दरअसल मेरी तबियत नहीं, मेरी सोच को इलाज की ज़रूरत थी। कुर्ट्ज़ ने जो कागज़ात