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चंद्रमोहन शर्मा को-प्रड्यूसर और लीड ऐक्टर अक्षय कुमार की मानें तो उनकी नई फिल्म एयरलिफ्ट की कहानी और किरदार बिल्कुल सच्चे हैं। पहले खाड़ी युद्ध को कवर करने वाले एक सीनियर रिपोर्टर और उस वक्त एयर इंडिया में उच्च पद पर रहे एक अफसर इस कहानी को सच से परे मानते हैं। हालांकि, स्क्रीन पर आप जो कुछ भी देखेंगे वह सब सच के बेहद करीब है। बॉलिवुड की खबरें अपने फेसबुक पर पाना हो तो लाइक करें Nbt Movies फिल्म की कहानी चार अहम किरदारों के इर्द-गिर्द घूमती है। इन चारों को मिलाकर एक लीड किरदार स्क्रीन पर उतारा गया है, जिसे अक्षय कुमार ने निभाया है। यह फिल्म पहले खाड़ी युद्ध पर आधारित है। इस जंग के दौरान कुवैत में फंसे करीब एक लाख सत्तर हजार भारतीय नागरिकों को देश वापस लाए जाने की घटना को डायरेक्टर ने अपने अंदाज से पेश किया है। किरदारों को पर्दे पर उतारने में कुछ फिल्मी आजादी की जरूरत होती है, यही आजादी फिल्म के डायरेक्टर राजा मेनन ने भी ली है। देखिए, फिल्म का ट्रेलर इस घटना को और ज्यादा असरदार ढंग से पेश करने के मकसद से राजा ने फिल्म के कुछ सीन्स को दुबई से करीब चार घंटे की दूरी पर स्थित रसेल खेमा में जाकर शूट किया। गुजरात के भुज और राजस्थान की आउटडोर लोकेशन पर इस फिल्म की अधिकांश शूटिंग की गई है। कहानी : रंजीत कात्याल (अक्षय कुमार), पत्नी अमृता कात्याल (निमरत कौर) और प्यारी-सी बेटी के साथ कुवैत में रहता है। वह शहर का नामी बिज़नसमैन है। खाड़ी युद्ध छिड़ने के बाद बुरी तरह से बर्बाद हुए कुवैत के एक शहर में रह रहे दूसरे भारतीय नागरिकों के साथ रंजीत का परिवार भी फंस जाता है। सरकारी अधिकारी हालात से निपटने के विकल्पों पर विचार कर रहे हैं और ऐसे में कुवैत का रईस बिज़नसमैन रंजीत अपने प्रभाव और रसूख से अपनी फैमिली और फंसे दूसरे भारतीय नागरिकों को वहां से निकालने का मिशन स्टार्ट करता है। कुवैत में हालात खराब हो रहे थे। भारतीय सेना डायरेक्ट कुछ करने में कतरा रही थी। उस वक्त रंजीत ने अपने दम पर दुनिया के सबसे बड़े ऑपरेशन को शुरू करने का फैसला किया। ऐक्टिंग : इस फिल्म में अक्षय कुमार ने एक बार फिर अपने किरदार को पूरी तरह से जीवंत कर दिखाया है। एयरलिफ्ट में अक्षय कुमार ने अब तक के अपने फिल्मी करियर की बेहतरीन ऐक्टिंग की है। अक्षय जब स्क्रीन पर देश के राष्ट्रीय ध्वज के साथ नजर आते हैं, तो उनके चेहरे का एक्सप्रेशन देखकर हॉल में बैठे दर्शक इस सीन से बंध जाते हैं। अक्षय की पत्नी के किरदार में निमरत कौर ने अच्छा काम किया है। बाकी के कलाकारों में पूरब कोहली, इनामुल हक और कुमुद मिश्रा ने बेहतरीन ऐक्टिंग की है। डायरेक्शन : राजा मेनन ने स्क्रिप्ट के साथ पूरा न्याय किया है। डायरेक्टर की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने बॉक्स ऑफिस का मोह त्याग कर कहानी और किरदारों को पूरी तरह से माहौल में समेटा है। वहीं फिल्म के लगभर हर ऐक्टर से उन्होंने बेहतरीन ऐक्टिंग कराई है। वॉर सीन्स को भी उन्होंने पर्दे पर पूरी तरह से जीवंत कर दिखाया है। उनका काम तारीफ के काबिल है। संगीत : ऐसी कहानी में गानों की जरूरत नहीं होती, लेकिन यहां राजा ने गानों का फिल्मांकन ऐसे ढंग से पेश किया है, जो कहानी और माहौल के अनुकूल है। क्यों देखें : अक्षय कुमार को उनके फिल्मी करियर के सबसे बेहतरीन किरदार में देखने के लिए इस फिल्म को देखें। अगर आप अच्छी और मेसेज देने वाली फिल्मों के शौकीन हैं, तो इस फिल्म को फैमिली के साथ देख सकते हैं। | 1 |
अगर आप इस फिल्म को देखने जा रहे हैं तो सबसे पहले तो आप यह जान लीजिए कि बेशक इस फिल्म के साथ प्रडूयसर कुमार मंगत, डायरेक्टर अश्विनी धीर के नाम के साथ परेश रावल का नाम भी जुड़ा हो लेकिन कुछ साल पहले आई फिल्म 'अतिथि तुम कब जाओगे' से इस फिल्म का कुछ लेना-देना नहीं है। यूं तो इस फिल्म के क्लाइमैक्स में आपको पिछली फिल्म के हीरो अजय देवगन भी नजर आएंगे लेकिन इन दोनों फिल्मों में सबसे बड़ा फर्क यह है कि इस बार चाचा जी मुंबई की किसी सोसाइटी की बजाय अपने एक अनजान रिश्तेदार के यहां लंदन जा पहुचे हैं और इस बार चाचा जी के साथ चाची जी भी हैं। दूसरी ओर, 'गेस्ट इन लंदन' पिछली फिल्म से टोटली अलग है। इंटरवल से पहले डायरेक्टर ने अपनी ओर से आपको हंसाने की हर मुमकिन कोशिश की है लेकिन इसमें ज्यादा कामयाब नहीं हो पाए तो इंटरवल के बाद क्लाइमैक्स में फिल्म की कहानी में कुछ ऐसा टर्न आता है कि आपकी आखें नम जाती हैं। वैसे, कुमार मंगत अपनी इस फिल्म को भी पिछली फिल्म के सीक्वल के नाम से ही बनाना चाहते थे लेकिन पिछली फिल्म की प्रॉडक्शन कंपनी से कुछ विवाद के चलते बात नहीं बन पाई तो मंगत अपने अतिथि को गेस्ट का नाम दिया तो मुंबई की बजाय गेस्ट के साथ लंदन पहुंच गए। कहानी: लंदन में रहने वाले आर्यन ग्रोवर (कार्तिक आर्यन) का वर्क वीज़ा खत्म होने वाला है और उसे न चाहते हुए भी वर्क वीज़ा खत्म होने के बाद भारत जाना ही होगा। ऐसे में उसके ऑफिस के कुछ साथी सलाह देते हैं कि अगर वह किसी ब्रिटिश मूल की लड़की के साथ डील करके मैरिज कर ले तो उसे लंदन रहने की स्थाई वीजा आसानी से मिल सकता है। आर्यन को यह आइडिया पसंद आता है और वह लंदन में अपनी फ्रेंड्स के साथ रह रहीं ब्रिटिश मूल की अनाया पटेल ( कृति खरबंदा) के साथ मिलकर नकली शादी करने का प्लान बनाता है। दोनों के बीच एक सीक्रेट डील होती है जिसके मुताबिक नकली शादी होने तक अनाया उसी के साथ रहेगी बस इसके अलावा इनके बीच और कोई रिश्ता नहीं होगा। इसी बीच आर्यन को खबर मिलती है कि इंडिया से उसके चाचा (परेश रावल) और चाची (तनवी आजमी) कुछ दिन उनके साथ रहने के लिए आ रहे हैं। वैसे, आर्यन ने चाचा जी को देखा तक नहीं है बस उसके पास अपने किसी रिश्तेदार का फोन आता है कि उसके पड़ोसी लंदन आ रहे हैं, कुछ दिन उसके घर मेहमान बनकर रहेंगे। अनाया से शादी की डील के होने के बाद अनाया भी कार्तिक के घर में ही रहती है। ऐसे में अचानक इसी घर में चाचा और चाची जी की एंट्री के बाद क्या कोहराम मचता है, यह मजेदार है। फिल्म में परेश रावल और तनवी आजमी दोनों की ऐक्टिंग का जवाब नहीं है। इन दोनों के बीच गजब की ऑनस्क्रीन केमिस्ट्री का इस फिल्म की सबसे बड़ी यूएसपी है। वहीं चाचा जी एकबार फिर पिछली फिल्म के चाचा जी की याद दिलाते हैं। कार्तिक आर्यन और कीर्ति खरबंदा की जोड़ी क्यूट और फ्रेश लगी तो दोनों अपने-अपने किरदार में फिट भी नजर आए। डायरेक्टर अश्विनी धीर की इंटरवल से पहले फिल्म पर कहीं पकड़ नजर नहीं आती, ऐसा लगता है इंटरवल तक उनके पास कहने के लिए कुछ था ही नहीं, लेकिन आखिरी बीस मिनट में धीर फिल्म को ट्रैक पर लाने में कामयाब रहे। राघव सच्चर और अमित मिश्रा का संगीत कहानी और माहौल के मुताबिक है, खासकर फिल्म के दो गाने 'दारू विच प्यार' और 'फ्रेंकी तू सोणा नच दी' का फिल्मांकन अच्छा बन पड़ा है और जेनएक्स की कसौटी पर यह गाने फिट बैठ सकते हैं। अगर आप परेश रावल के पक्के फैन हैं तो गेस्ट से मिलने जाएं लेकिन इस बार अतिथि वाली बात नजर नहीं आएगी। | 0 |
बॉलीवुड वाले चोरी-छिपे हॉलीवुड फिल्मों से कहानियां और दृश्य चुराया करते थे। उन पर न केवल हॉलीवुड वालों ने लगाम कसी बल्कि अपनी हिट फिल्म 'नाइट एंड डे' का हिंदी रिमेक 'बैंग बैंग' नाम से बनाया है। फॉक्स स्टार स्टुडियो के लिए डेढ़ सौ करोड़ रुपये की लागत से फिल्म बनाना मामूली बात है, लेकिन हिंदी फिल्म में इतने दाम में शायद ही किसी ने फिल्म बनाई हो।
इतनी महंगी फिल्म होने से दर्शकों की उम्मीद का बढ़ना भी स्वाभाविक है। फिल्म में जबरदस्त एक्शन, शानदार लोकेशन और बॉलीवुड के दो खूबसूरत चेहरे हैं, जो रोमांचित करते हैं, लेकिन साथ ही फिल्म में कई बोरियत से भरे लम्हों को भी झेलना पड़ता है। फिल्म ठीक-ठाक है, देखी जा सकती है, लेकिन ऐसी भी नहीं है जो लंबे समय तक याद की जा सके। जरूरी नहीं है कि ज्यादा पैसा लगाने से ही फिल्म अच्छी बनती हो।
बैंक रिसेप्शनिस्ट हरलीन (कैटरीना कैफ) शिमला में बोरिंग लाइफ जी रही है। जिंदगी में रोमांच लाने के लिए 'ट्रू लव डॉट कॉम' वेबसाइट के जरिये एक अनजान शख्स विक्की के साथ वह ब्लाइंड डेट फिक्स करती है। राजवीर (रितिक रोशन) को वह विक्की समझ लेती है। बात कुछ आगे बढ़े इसके पहले ही राजवीर पर कुछ लोग गोलियों की बरसात करते हैं। परिस्थितियां कुछ ऐसी बनती है कि हरलीन को न चाहते हुए भी राजवीर के साथ रहना पड़ता है। दरअसल राजवीर ने कोहिनूर हीरा चुरा रखा है, जिसे पाने के लिए पुलिस और एक गैंग उसके पीछे लगे हुए हैं।
फिल्म की स्क्रिप्ट को सुभाष नायर और सुजॉय घोष ने लिखा है। इस एक्शन मूवी को हरलीन के नजरिये से दिखाया गया है। हरलीन के दिमाग में राजवीर को लेकर कई सवाल है, जो दर्शकों के दिमाग में भी पैदा होते हैं। जैसे वह कौन है? क्या चाहता है? उसके पीछे लोग और पुलिस क्यों पड़ी है? उसकी आगे की क्या योजना है? कोहिनूर हीरा उसने क्यों चुराया है? इनके जवाब फिल्म में लंबे समय तक नहीं मिलते हैं और कई बार झुंझलाहट भी होती है कि आखिर बात को इतना खींचा क्यों जा रहा है। धीरे-धीरे सवालों के जवाब मिलते हैं, लेकिन इनके जवाब दर्शक अपनी समझ से पहले ही पा लेता है।
फिल्म में कहानी जैसा कुछ नहीं है और सारा दारोमदार इस बात पर है कि परदे पर जो घटनाक्रम चल रहा है उसके जरिये दर्शकों को बांधा जाए। राजवीर-हरलीन तथा उनको पकड़ने वालों की भागमभाग का सफर है उसमें दर्शकों को मजा आए। पूरी फिल्म एक क्लाइमैक्स की तरह लगती है। राजवीर-हरलीन इस देश से उस देश भागते रहते हैं। इस भागमभाग में एक्शन, रोमांस और कॉमेडी है। ये सफर कई बार मजेदार लगता है तो कई बार बोरिंग। एक्शन के आते ही फिल्म अपने चरम पर आ जाती है, रोमांस ठीक-ठाक है, लेकिन ड्रामा इसकी कमजोर कड़ी है। फिल्म के विलेन का कोहिनूर को चोरी करवाने का जो कारण बताया गया है वो बेहद लचर है।
फिल्म का निर्देशन सिद्धार्थ आनंद ने किया है। एक ऐसे शख्स पर डेढ़ सौ करोड़ रुपये लगाना जिसने अभी तक ढंग की हिट नहीं बनाई है, आश्चर्य की बात है। सिद्धार्थ के सामने 'नाइट एंड डे' मौजूद थी, इसलिए उनका काम आसान था। प्रस्तुतिकरण में उन्होंने ध्यान रखा कि यह अंग्रेजी फिल्म जैसी स्टाइलिश लगे, लेकिन बॉलीवुड के फॉर्मूले से भी वे बच नहीं पाए। खलनायक को उन्होंने टिपिकल तरीके से पेश किया। सिद्धार्थ के निर्देशन में वो कसावट नजर नहीं आती है जो 'नाइट एंड डे' के प्रस्तुतिकरण में है।
फिल्म का एक्शन सबसे बड़ा प्लस पाइंट है, हवाई जहाज, स्टीमर, कारों के जरिये रोमांच पैदा किया गया है और इन एक्शन सींस को बहुत ही सफाई के साथ फिल्माया गया है। इंटरवल के ठीक पहले कार चेजिंग सीन लाजवाब है।
बॉलीवुड के दो सबसे खूबसूरत चेहरे रितिक रोशन और कैटरीना कैफ की जोड़ी शानदार है। रितिक रोशन को बहुत कम कपड़े पहनने को दिए गए हैं ताकि वे अपनी बॉडी का प्रदर्शन कर सके। इस रोल को निभाने के लिए जिस स्टाइल और एटीट्यूड की जरूरत थी उस पर रितिक खरे उतरे हैं। एक्शन सीन उन्होंने बखूबी निभाए। कैटरीना कैफ बेहद मासूम और खूबसूरत लगी। बात को थोड़ा देर से समझने वाली लड़की का किरदार उन्होंने अच्छे से निभाया। कैटरीना और उनकी दादी के बीच के दृश्य अच्छे हैं। डैनी को कम फुटेज मिले हैं। जावेद जाफरी और पवन मल्होत्रा अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं।
फिल्म में दो-तीन गाने अच्छे हैं। 'तू मेरी' में रितिक का डांस देखने लायक है। बैकग्राउंड म्युजिक फिल्म को भव्य बनाता है। फोटोग्राफी, लोकेशन और तकनीकी रूप से फिल्म दमदार है।
कुल मिलाकर 'बैंग बैंग' तभी अच्छी लगेगी जब ज्यादा उम्मीद लेकर थिएटर में न जाया जाए। यूं तो फिल्म ढाई स्टार के लायक है, लेकिन एक्शन की वजह से आधा स्टार अतिरिक्त दिया जा सकता है।
बैनर : फॉक्स स्टार स्टुडियो
निेर्देशक : सिद्धार्थ आनंद
संगीत : विशाल शेखर
कलाकर : रितिक रोशन, कैटरीना कैफ, डैनी, जावेद जाफरी, पवन मल्होत्रा
सेंसर सर्टिफिकेट : युए * 2 घंटे 36 मिनट
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बैनर :
संजय दत्त प्रोडक्शन्स प्रा.लि., रुपाली ओम एंटरटेनमेंट प्रा.लि
निर्माता :
संजय दत्त, संजय अहलूवालिया, विनय चौकसे
निर्देशक :
डेविड धवन
संगीत :
विशाल-शेखर
कलाकार :
संजय दत्त, अजय देवगन, कंगना, अर्जुन रामपाल, लीसा हेडन, चंकी पांडे, सतीश कौशिक
सेंसर सर्टिफिकेट : यू/ए * 2 घंटे 8 मिनट * 15 रील
रासकल्स के गाने में एक लाइन है ‘गए गुजरे रासकल्स’ और यह बात फिल्म पर एकदम सटीक बैठती है। ऐसा लगता है कि इस फिल्म से जुड़े सारे लोग गए गुजरे हैं। फिल्म बेहद लाउड है और हर डिपार्टमेंट का काम खराब है। चाहे वो एक्टिंग हो, म्यूजिक हो या डायरेक्शन। डेविड धवन अपना मिडास टच खो बैठे हैं और रासकल्स में कॉमेडी के नाम पर बेहूदा हरकतें उन्होंने करवाई हैं।
संजय दत्त सौ प्रतिशत इसलिए फिल्म में हैं क्योंकि वे निर्माता हैं वरना वे इस रोल के लायक हैं ही नहीं। वे पचास पार हैं और बुढ़ा गए हैं। परदे पर वे अपने से उम्र में आधी कंगना के साथ चिपका-चिपकी करते हैं तो सीन बचकाना लगता है।
ये बात सही है कि सलमान या आमिर भी अपने से कहीं छोटी उम्र हीरोइन के साथ परदे पर रोमांस करते हैं, लेकिन वे अभी भी फिट हैं। उनमें ताजगी नजर आती हैं। ये बात संजू बाबा में नहीं है और वे फिल्म की बहुत ही कमजोर कड़ी साबित हुए हैं।
और भी कई कड़ियां कमजोर हैं। मसलन कहानी नामक कोई चीज फिल्म में नहीं है। दो छोटे-मोटे चोर एक पैसे वाली लड़की को पटाने में लगे हैं। लड़की के बारे में कुछ भी नहीं बताया गया है कि वह कौन है? कितनी अमीर है? जहां वह मिलती है कि फिल्म के दोनों हीरो उससे ऐसे चिपटते हैं जैसे गुड़ से मक्खी। फिल्म के 90 प्रतिशत हिस्से में यही सब चलता रहता है।
ये सभी लोग बैंकॉक की सेवन स्टार होटल में रूके हुए हैं और वही पर डेविड ने पूरी फिल्म बना डाली है। होटल की लॉबी, स्विमिंग पुल, रूम, गार्डन कोई हिस्सा उन्होंने नहीं छोड़ा है। ढेर सारे हास्य दृश्यों को जोड़कर उन्होंने फिल्म तैयार कर दी है। इन दृश्यों में भी इतना दम नहीं है कि दर्शक कहानी की बात भूल जाएं।
युनूस सेजवाल का स्क्रीनप्ले बेहद घटिया है और सैकड़ों बार देखे हुए दृश्यों को उन्होंने फिर परोसा है। कुछ ही ऐसे दृश्य हैं जिन्हें देख मुस्कान आती है तो दूसरी ओर फूहड़ दृश्यों की संख्या ज्यादा है। एक प्रसंग में तो भूखे और गरीब बच्चों तक का मजाक बना डाला है।
फिल्म के क्लाइमैक्स में दर्शकों को चौंकाने की असफल कोशिश की गई है। संवादों के नाम पर संजय छैल ने घटिया तुकबंदी लिख दी है, जैसे भोसले के हौंसले ने दुश्मनों के घोसले तोड़ दिए या जिंदगी में मौत, फिल्मों में आइटम नंबर और ये एंथनी कभी भी टपक सकता है।
निर्देशक के रूप में डेविड धवन प्रभावित नहीं करते हैं। अधूरे मन से उन्होंने फिल्म पूरी की है। अजय देवगन ने अपना पूरा जोर लगाया है, लेकिन खराब स्क्रिप्ट की कमियों को वे नहीं ढंक पाए। संजय दत्त का अभिनय बेहद खराब है और उन्हें उम्र के मुताबिक रोल ही चुनना चाहिए। कुछ दृश्यों में वे विग के तो कुछ में बिना विग के नजर आएं।
कॉमेडी करना कंगना की बस की बात नहीं है ये बात एक बार फिर साबित हो गई। उनका मेकअप भी फिल्म में बेहद खराब था। छोटे-से रोल मे लीसा हेडन प्रभावित करती हैं। ‘शेक इट सैंया’ में वे सेक्सी नजर आईं।
सतीश कौशिक, चंकी पांडे जैसे बासी चेहरों ने बोर करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। अनिल धवन फिल्म के निर्देशक के बड़े भाई हैं, इसलिए वे भी छोटे-से रोल में नजर आएं, लेकिन उनसे संवाद बोलते नहीं बन रहे थे। अर्जुन रामपाल ने अपना काम ठीक से किया है।
विशाल-शेखर द्वारा संगीतबद्ध गाने जब परदे पर आते हैं तो दर्शक उनका उपयोग ब्रेक के लिए करते हैं। तकनीकी रूप से फिल्म औसत है।
एक अच्छी हास्य फिल्म के लिए उम्दा सिचुएशन, एक्टर्स की टाइमिंग और चुटीले संवाद बेहद जरूरी है। अफसोस की बात ये है कि रासकल्स हर मामले में कमजोर है।
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चश्मे बद्दूर (1981) एक क्लासिक मूवी है, जिसे सई परांजपे ने निर्देशित किया था। इस फिल्म में फारुख शेख, राकेश बेदी, रवि वासवानी और दीप्ति नवल ने लीड रोल निभाए थे। चश्मे बद्दूर की कहानी इतनी बढ़िया है कि इस पर समय की धूल नहीं जम सकती। पचास वर्ष बाद भी इस पर फिल्म बनाई जा सकती है। टीनएजर्स और युवाओं को यह कहानी बेहद अपील करती है।
तीन दोस्त हैं। दो लंपट और एक सीधा-सादा। उनके पड़ोस में एक लड़की रहने आती है। लंपट दोस्त उस लड़की को पटाने की कोशिश करते हैं, लेकिन मुंह की खाते हैं। इस बात को छिपाते हुए वे अपने दोस्तों को नमक-मिर्च लगाकर किस्से बताते हैं और लड़की को बदनाम करते हैं।
जब दोनों दोस्तों को पता चलता है कि उनके सीधे-सादे दोस्त का इश्क उसी लड़की से चल रहा है तो वे ईर्ष्या की आग में जल कर दोनों के बीच गलतफहमी पैदा करने में सफल रहते हैं। बाद में उन्हें गलती का अहसास होता है तो वे इसे सुधारते हैं।
इस कहानी में अश्लीलता और फूहड़ता के तत्व घुसाने के सारी संभावनाएं मौजूद हैं, लेकिन सई ने कहानी की मासूमियत को जिंदा रखते हुए बिना अश्लील हुए बेहतरीन तरीके से इसे स्क्रीन पर पेश किया था।
रीमेक डेविड धवन ने बनाया है जो माइंडलेस और फूहड़ सिनेमा बनाने के लिए प्रसिद्ध हैं। सई इस बात को लेकर खफा भी हैं कि डेविड उनकी क्लासिक फिल्म को फिर बना रहे हैं। डेविड अपना सर्वश्रेष्ठ भी दें तो भी वे सई के नजदीक नहीं फटक सकते हैं। अपनी आदत के मुताबिक वे थोड़े बहके भी हैं, लेकिन सीमा में रहकर। कुल मिलाकर उन्होंने एक ऐसी फिल्म बनाई है जिसे हंसते हुए देखा जा सकता है।
रास्कल जैसी फिल्म बनाने के बाद लगने लगा था कि डेविड अब चूक गए हैं, लेकिन उन्होंने अच्छी वापसी की है और बिना सितारों के फिल्म बनाने का साहस किया है।
चश्मे बद्दूर (2013) पुरानी फिल्म की सीन दर सीन कॉपी नहीं है, लेकिन उसका एसेंस (अर्क) इस फिल्म में मौजूद है। कुछ उम्दा सीन को दोहराया गया है, जैसे चमको वॉशिंग पाउडर वाला सीन, और आज के दर्शक के टेस्ट के मुताबिक जरूरी बदलाव किए हैं।
पिछली बार कहानी दिल्ली की थी, यहां गोआ आ गया है, हालांकि इसको बदलने से कुछ खास बदलाव नहीं दिखता। अनुपम खेर का डबल रोल डेविड ने अपनी स्टाइल में डाला है, घटिया शायरी और एसएमएस वाले जोक भी सुनने को मिलते हैं, लेकिन इनका संतुलन सही है, इसलिए ये अखरते नहीं हैं। स्क्रीनप्ले में कुछ कमियां भी हैं। मसलन जोसेफ और जोसेफीन की शादी कराने वाले दोस्त अचानक इसके खिलाफ क्यों हो जाते हैं। कुछ घटनाक्रम लगातार दोहराए गए हैं जो खीज पैदा करते हैं।
1-बेकार, 2-औसत, 2.5-टाइमपास, 3-अच्छी, 4-बहुत अच्छी, 5-अद्भुत
चश्मे बद्दूर (2013) की खासियत है इसकी ताजगी और ऊर्जा। डेविड ने कहानी को ऐसा दौड़ाया है कि दर्शकों को ज्यादा सोचने का अवसर नहीं मिलता और वह फिल्म में एंगेज रहता है। एक के बाद एक मजेदार सीन आते हैं और ज्यादातर हंसाने में कामयाब रहते हैं। खासतौर पर द्विव्येन्दु शर्मा और सिद्धार्थ वाले सीन।
कहने को तो फिल्म के हीरो अली जाफर हैं, लेकिन सही मानों में द्विव्येन्दु और सिद्धार्थ का रोल पॉवरफुल है। उन्हें बेहतरीन सीन और संवाद मिले हैं। दोनों में सिद्धार्थ बाजी मार ले जाते हैं। उनका अभिनय एकदम नैसर्गिक है। अली जाफर से ओवर एक्टिंग कराई गई है और कई बार वे देवआनंद की मिमिक्री करते नजर आएं। तापसी पन्नु निराश करती हैं।
ऋषि कपूर और लिलेट दुबे वाला ट्रेक हम सैकड़ों फिल्मों में देख चुके हैं और ये बोर करता है। अनुपम खेर और भारती आचरेकर हंसाने में कामयाब रहे हैं।
साजिद-फरहाद के वन लाइनर दमदार हैं और ज्यादातर हास्य उनके लिखे संवादों से ही पैदा हुआ है। खासतौर पर सिद्धार्थ और द्विव्येन्दु के लिए उन्होंने अच्छे डॉयलाग लिखे हैं। गानों का फिल्मांकन और स्टाइल 80 के दशक वाला रखा गया है। शायद इसीलिए एक गाने ढिचकियाऊं में उस दौर के गीतों की तर्ज पर ऊटपटांग बोल हैं। कुछ पुराने हिट गानों का भी सहारा लिया गया है।
डेविड धवन ने अपनी शैली का तड़का लगाकर ‘चश्मे बद्दूर’ बनाई है। पुरानी चश्मे बद्दूर से इसकी तुलना नहीं की जा सकती, लेकिन बावजूद इसके उन्होंने ऐसी फिल्म तो बनाई है जिसे ढेर सारे पॉपकॉर्न और कोला के साथ देखा जा सकता है। हालांकि जो तालियां डेविड के लिए बजती हैं, सही मायनों में 80 प्रतिशत की हकदार सई परांजपे हैं क्योंकि मूल काम तो उनका है।
बैनर :
वायकॉम 18 मोशन पिक्चर्स
निर्देशक :
डेविड धवन
संगीत :
साजिद-वाजिद
कलाकार :
अली जफर, सिद्धार्थ, द्विव्येन्दु शर्मा, तापसी पन्नू, ऋषि कपूर, अनुपम खेर
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 11 मिनट 56 सेकंड
बेकार, 2-औसत, 2.5-टाइमपास, 3-अच्छी, 4-बहुत अच्छी, 5-अद्भुत
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दिल्ली की एक पांच सितारा होटल में डैन (वरुण धवन) होटल मैनेजमेंट ट्रैनी है। यह काम उसे खास पसंद नहीं है और वह बात-बात में चिढ़ता है। तौलियों से वह जूते पोंछ कर गुस्सा निकालता है। होटल में आए ग्राहकों पर भी वह आपा खो बैठता है और अक्सर अपने सीनियर्स से डांट खाता है।
शिउली (बनिता संधू) भी उसके साथ ट्रैनी है। दोनों के बीच कोई खास रिश्ता नहीं है। एक दिन पार्टी करते हुए शिउली तीसरी मंजिल से नीचे गिर जाती है और कोमा में पहुंच जाती है। अस्पताल में डैन उससे अनिच्छा से मिलने जाता है। उसकी हालत देख वह परेशान हो जाता है और रोजाना उससे मिलने जाने लगता है।
शिउली के भाई, बहन और मां से वह कभी नहीं मिला था, लेकिन धीरे-धीरे वह उनके करीब आकर फैमिली मेम्बर की तरह बन जाता है।
'अक्टूबर' में डैन के हमें दो रूप देखने को मिलते हैं। वह दुनियादारी और नियम-कायदों से चलने पर चिढ़ता है। वह ऐसी राह पर था जिस पर चलना उसे पसंद नहीं है, लिहाजा वह बात-बात पर उखड़ने लगता है। उसे किसी तरह का दबाव पसंद नहीं है और दबाव पड़ने पर वह फट जाता है।
होटल में उसके काम करने की शैली से उसके व्यवहार की झलक हमें मिलती है। उसके इसी व्यवहार के कारण उसे कोई बहुत ज्यादा पसंद नहीं करता और दोस्त भी उसे प्रेक्टिकल होने के लिए कहते हैं।
दोस्तों से डैन को पता चलता है कि ऊपर से नीचे गिरने के पहले शिउली ने पूछा था कि डैन कहां है? यह बात उसके दिल को छू जाती है। उसे महसूस होता है कि किसी ने उसके बारे में भी पूछा है तो वह नि:स्वार्थ भाव से शिउली की अस्पताल में सेवा करता है। यह जानते हुए भी कि शिउली कोमा में हैं वह उससे बात करता है और उसके प्रयासों से ही शिउली में इम्प्रूवमेंट देखने को मिलता है।
डैन का होटल से अलग रूप हॉस्पिटल में देखने को मिलता है। यहां उसकी अच्छाइयां नजर आती हैं। वह शिउली के ठीक होने की आशा उसके परिवार वालों में जगाए रखता है। होटल में नियम तोड़ने वाले डैन को जब हॉस्पिटल में बिस्किट खाने से रोका जाता है तो वह मुंह से बिस्किट निकाल लेता है। होटल के व्यावसायिक वातावरण में शायद उसका दम घुटता था, जहां दिल से ज्यादा दिमाग की सुनी जाती है। हॉस्पिटल में दिल की ज्यादा चलती थी इसलिए वह नर्स और गार्ड से भी बतिया लेता था।
जूही चतुर्वेदी ने फिल्म की स्टोरी, स्क्रीनप्ले और डायलॉग लिखे हैं। जूही ने 'अक्टूबर' के माध्यम से कहने की कोशिश की है कि व्यक्ति का व्यवहार पूरी तरह से परिस्थितियों पर निर्भर करता है और इसलिए उसका आंकलन करते समय सभी बातों पर गौर करना चाहिए।
फिल्म में घटनाक्रम और संवाद बेहद कम हैं। साथ ही कहानी भी बेहद संक्षिप्त है, इसलिए निर्देशक शूजीत सरकार के कंधों पर बहुत ज्यादा भार था। शूजीत की तमाम कोशिशों के बावजूद भी यह फिल्म दो घंटे से कम होने के बावजूद लंबी लगती है और फिल्म की स्लो स्पीड से कई लोगों को शिकायत हो सकती है। लेकिन शूजीत, डैन के मन में उमड़ रहे भावनाओं के ज्वार से दर्शकों का कनेक्शन बैठाने में कामयाब रहे हैं। निश्चित रूप से यह बात बेहद कठिन थी।
जुड़वां 2 और मैं तेरा हीरो जैसी फॉर्मूला फिल्मों के बीच वरुण धवन 'बदलापुर' और 'अक्टूबर' जैसी फिल्में भी करते रहते हैं जो यह दर्शाता है कि लीक से हट कर फिल्म करने की चाह उनमें मौजूद है। यह पूरी फिल्म उनके ही कंधों पर थी और उन्होंने बेहतरीन अभिनय किया है। हर सिचुएशन में उनके किरदार की प्रतिक्रिया और सोच एकदम अलग होती है और इस बात को उन्होंने अपने अभिनय से निखारा है। बनिता संधू ने बमुश्किल एक-दो संवाद बोले होंगे। ज्यादातर समय उन्हें मरीज बन कर बिस्तर पर लेटना ही था, लेकिन उन्होंने काफी अच्छे एक्सप्रेशन्स दिए।
शिउली की मां के रूप में गीतांजलि राव और डैन के सीनियर के रूप में प्रतीक कपूर का अभिनय भी जोरदार है। अविक मुखोपाध्याय की सिनेमाटोग्राफी शानदार है। ठंड और कोहरे में लिपटी दिल्ली, आईसीयू और फाइव स्टार के माहौल को उन्होंने कैमरे से बखूबी पकड़ा है।
शूजीत सरकार की फिल्मों से जो अपेक्षा रहती हैं उस पर भले ही फिल्म पूरी नहीं उतर पाती हो, लेकिन देखी जा सकती है। टेस्ट क्रिकेट को देखने वाले धैर्य की जरूरत इस फिल्म को देखते समय भी पड़ती है।
बैनर : राइजि़ंग सन फिल्म्स प्रोडक्शन
निर्माता : रॉनी लाहिरी, शील कुमार
निर्देशक : सुजीत सरकार
संगीत : शांतुनु मोइत्रा, अनुपम रॉय, अभिषेक अरोरा
कलाकार : वरुण धवन, बनिता संधू, गीतांजलि राव, प्रतीक कपूर
सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 1 घंटा 55 मिनट 30 सेकंड
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हसीना एक घरेलू लड़की थी, लेकिन भाई के भाग जाने और पति की हत्या के बाद कहा जाता है कि दाऊद का साम्राज्य उसने संभाल लिया और बतौर दाऊद की प्रतिनिधि भारत में काम किया। एक तरह से वह महिला डॉन थी जिससे लोग दाऊद के कारण घबराते थे। उसने कई मामलों को निपटाया और उसके दरबार में सैकड़ों लोग अपनी परेशानी लेकर आते थे।
फिल्म में दिखाया गया है कि हसीना पर अदालत में मामला चल रहा है। एक बिल्डर ने उसके खिलाफ शिकायत दर्ज कराई है। वकील उससे सवाल करते हैं और जवाब में फिल्म बार-बार पीछे की ओर जाती है और तारीखवार उन घटनाओं का ब्यौरा दिखाया गया है जो हसीना के जीवन में घटते हैं।
हसीना पारकर के बारे में लोगों ने ज्यादा सुना नहीं है और न ही लोगों को उनके बारे में ज्यादा जानकारी है। दाऊद और उसके स्नेह भरे संबंध, फिर उसकी शादी होना, खुशहाल जिंदगी जीना इन सब घटनाओं से भला किसी को क्या सरोकार है? इन बातों पर बहुत सारे फुटेज खर्च किए गए हैं।
एक घरेलू महिला से वह दाऊद का काम कैसे संभालती है, यह बदलाव फिल्म में ठीक से नहीं दिखाया गया है। अचानक वह दाऊद की सत्ता संभाल लेती है और लोग उससे डरने लगते हैं। फिल्म में यह बात देखना एक झटके जैसा लगता है कि अचानक इतना बड़ा बदलाव कैसे आ गया? फिल्म गहराई में नहीं जाती और सतह पर तैरती रहती है।
फिल्म में यह बात स्थापित करने की कोशिश की गई है कि हालात का शिकार होने के कारण उसे सब यह करना पड़ा ताकि दर्शकों को उसके प्रति हमदर्दी हो, लेकिन हसीना आपा से दर्शक हमदर्दी क्यों करें? फिल्म में कई बातें अस्पष्ट भी हैं, जैसे- हसीना के बेटे को किसने मारा, दर्शाया ही नहीं गया।
निर्देशक अपूर्व लाखिया ने स्क्रिप्ट की कमियों पर ध्यान नहीं दिया। उनका प्रस्तुतिकरण कन्फ्यूजिंग है। इतनी बार फिल्म पीछे जाती है, बार-बार तारीखें दिखाई जाती हैं कि सब याद रखना आसान नहीं है। हसीना को जिसके लिए अदालत बुलाया गया था वो बात दिखाई ही नहीं गई है और उससे दूसरी बातों पर ही सवाल किए जाते हैं। कोर्ट रूम ड्रामा भी नाटकीय है और गंभीरता का अभाव है। हसीना पर गाने फिल्माना भी दर्शाता है कि निर्देशक बॉलीवुड लटके-झटके छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं।
श्रद्धा कपूर का अभिनय देखने लायक है। हसीना आपा के किरदार को उन्होंने पूरी फिल्म में पकड़ कर रखा है और सारी भाव-भंगिमाओं को अच्छे से दिखाया है। उम्रदराज हसीना के रोल में वे युवा नजर आती हैं और यहां उन्हें उम्रदराज दिखाया जाना जरूरी था।
श्रद्धा के भाई सिद्धांत कपूर ने दाऊद का किरदार निभाया है और उसे स्टीरियोटाइप पेश किया गया है जैसा हम हर फिल्म में दाऊद को देखते हैं। सिद्धांत का काम औसत से बेहतर है। महिला वकील के रूप में प्रियंका सेठिया को लंबा रोल मिला है जो उन्हें बेहतरीन तरीके से निभाया है। अंकुर भाटिया का अभिनय भी अच्छा है।
कुल मिलाकर 'हसीना पारकर' विषय की गहराई में नहीं उतरते हुए छूती हुई निकल जाती है।
बैनर : स्विस एंटरटेनमेंट प्रा.लि.
निर्माता : नाहिद खान
निर्देशक : अपूर्व लाखिया
संगीत : सचिन जिगर
कलाकार : श्रद्धा कपूर, सिद्धांत कपूर, अंकुर भाटिया, प्रियंका सेठिया
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 3 मिनट 51 सेकंड
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जैसा कि फिल्म के नाम से ही जाहिर है कि हर बार की तरह इस बार भी मिशन इम्पॉसिबल सीरीज का नायक टॉम क्रूज दुनिया को बचाने की खातिर एक असम्भव मिशन पर है। यह मिशन इम्पॉसिबल सीरीज की छठी फिल्म है। फिल्म की कहानी इससे पिछली फिल्म मिशन इम्पॉसिबल : रोग नेशन को आगे बढ़ाती है। पिछली फिल्म में टॉम ने बागी ब्रिटिश एजेंट सोलोमन लेन (शॉन हैरिस) को गिरफ्तार किया था। इस बार फिल्म में नायक ईथन हंट (टॉम क्रूज) की इम्पॉसिबल मिशन फोर्स (आईएमएफ) को आतंकवादी जॉन लार्क और उसके करीबियों की तलाश है, जोकि दुनिया भर में परमाणु विस्फोट कर तबाही मचाना चाहता है। सोलोमन भी इस साजिश में शामिल है।एक सेफ हाउस में रह रहे ईथन को इस मिशन की जिम्मेदारी सौंपी जाती है। बर्लिन में प्लूटोनियम हासिल करने के मिशन के दौरान ईथन के अपने साथी को बचाने के चलते प्लूटोनियम उसके हाथ से निकल गया था। इसलिए इस बार उनके काम में अड़ंगा लगाने के लिए सीआईए डायरेक्टर ने अपने एक आदमी अगस्त वालकर (हेनरी काविल) को भी उनकी टीम में शामिल किया है। वालकर कदम-कदम पर ईथन की राह में रोड़े अटकाता है और उसे धोखा भी देता है। ईथन को जॉन लार्क को प्लूटोनियम खरीदने से रोकना है। इस मिशन में टीम आईएमएफ के अलावा ब्रिटिश जासूस और ईथन की पुरानी दोस्त इलसा फास्ट (रेबेका फर्गुसन) भी उसके साथ आ जाती है और कई मौकों पर उसकी मदद करती है। खास बात यह है कि फिल्म की कहानी आखिर में भारत के सियाचिन आती है। बहरहाल, ईथन अपने मिशन में कामयाब हो पाता है या नहीं यह जानने के लिए आपको सिनेमा जाना होगा।टॉम क्रूज हर बार की तरह शानदार लगे हैं। खास बात यह है कि उनकी 56 साल की उम्र भी बेहतरीन एक्शन सीन्स में आड़े नहीं आती। वरना इस मिशन इम्पॉसिबल सीरीज की पहली फिल्म करीब 22 साल पहले 1996 में आई थी। तब से लेकर अब तक टॉम क्रूज ने इसे अपने दम पर आगे बढ़ाया है और हर बार फैंस को पहले से बेहतर एक्शन सीन्स का तोहफा दिया है। इस बार भी फिल्म जबर्दस्त एक्शन सीन्स दिखाए गए हैं, जो आपकी सांसें थाम देते हैं। खासकर हेलिकॉप्टर वाले सीन देखने लायक हैं। फिल्म के कई सीन्स में बेहतरीन टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल भी दर्शकों को हैरान करता है। फिल्म के राइटर और डायरेक्टर क्रिस्टोफर मैक्वेरी ने एक बार फिर बेहतरीन एक्शन ड्रामा रचा है। फिल्म में जबर्दस्त एक्शन से लेकर रोमांच तक सब कुछ है। टॉम के बाकी साथियों ने भी बढ़िया एक्टिंग की है। खासकर सीआईए एजेंट का रोल करने वाले हेनरी काविल कई सीन्स में हैरान करते हैं। इस हफ्ते अगर आप जबर्दस्त एक्शन और रोमांच देखना चाहते हैं, तो इस फिल्म को मिस ना करें। | 1 |
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निर्माता :
आदित्य चोपड़ा
निर्देशक :
शिमित अमीन
पटकथा-संवाद-गीत :
जयदीप साहनी
संगीत :
सलीम-सुलेमा
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कलाकार :
शाहरुख खान, विद्या मालवदे, अंजन श्रीवास्तव, जावेद खान
भारत में खेलों पर आधारित फिल्में गिनती की बनी हैं। खुशी की बात है कि पिछले एक-दो वर्षों से फिल्मों में भी खेल दिखाई देने लगा है। हॉकी हमारा राष्ट्रीय खेल है और इस समय यह पिछड़ा हुआ खेल माना जाता है। इस खेल पर फिल्म बनाकर निर्देशक शिमित अमीन ने एक साहसिक काम किया है।
‘चक दे इंडिया’ कबीर खान की कहानी है, जो कभी भारतीय टीम का श्रेष्ठ सेंटर फॉरवर्ड रह चुका था। पाकिस्तान के विरूद्ध एक फाइनल मैच में वह अंतिम क्षणों में पेनल्टी स्ट्रोक के जरिये गोल बनाने में चूक गया और भारत मैच हार गया।
मुस्लिम होने के कारण उसकी देशभक्ति पर प्रश्नचिह्न लगा दिया गया। उसे गद्दार कहा गया। उस मैच के बाद खिलाड़ी के रूप में उसका कॅरियर खत्म हो गया।
सात वर्ष बाद वह महिला हॉकी टीम का प्रशिक्षक बनता है। इस टीम को विश्व चैम्पियन बनाकर वह अपने ऊपर लगे हुए दाग को धोना चाहता है, लेकिन उसकी राह आसान नहीं थी।
इन लड़कियों का ध्यान खेल पर कम था। वे केवल नाम के लिए खेलती थीं। अलग प्रदेशों से आई इन लड़कियों में एकता नहीं थी। सीनियर खिलाडि़यों की दादागीरी थी।
कबीर इन खिलाडि़यों के दिमाग में यह बात डालता है कि वे भारतीय पहले हैं, फिर वे महाराष्ट्र या पंजाब की हैं। फिर शुरू होता है प्रशिक्षण का दौर। हर तरफ से बाधाएँ आती हैं और कबीर इन बाधाओं को पार कर अंत में अपनी टीम को विजेता बनाता है।
कहानी बड़ी सरल है, लेकिन जयदीप साहनी की पटकथा इतनी उम्दा है कि पहली फ्रेम से ही दर्शक फिल्म से जुड़ जाता है। छोटे-छोटे दृश्य इतने उम्दा तरीके से लिखे और फिल्माए गए हैं कि कई दृश्य सीधे दिल को छू जाते हैं।
शाहरुख जब अपनी टीम का परिचय प्राप्त करते हैं तो जो लड़की अपने नाम के साथ अपने प्रदेश का नाम जोड़ती है, उसे वे बाहर कर देते हैं और अपने नाम के साथ भारत का नाम जोड़ने वाली लड़की को वे शाबाशी देते हैं। ये उन लोगों पर करारी चोट है, जो प्रतिभा खोज कार्यक्रम में प्रतिभा चुनते समय अपने प्रदेश के पहले होते हैं और भारतीय बाद में।
ऑस्ट्रेलिया में स्टेडियम के बाहर खड़े शाहरुख एक विदेश
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कर्मचारी को भारत का तिरंगा लगाते हुए देखते रहते हैं। एक खिलाड़ी उनसे आकर पूछती है कि सर आप यहाँ क्या कर रहे है
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तो शाहरुख का जवाब होता है कि मैं एक गोरे को तिरंगा फहराते हुए पहली बार देख रहा हूँ।
भारत के लिए खेले एक श्रेष्ठ हॉकी खिलाड़ी की आर्थिक स्थिति क्या होती है, ये निर्देशक ने शाहरुख को एक खटारा स्कूटर पर बैठाकर बिना संवाद के जरिये बयाँ कर दी।
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पुरुषों की छींटाकशी का शिकार भी होना पड़ता है। हॉकी एसोसिएशन के पदाधिकारियों की सोच रहती है कि चकला-बेलन चलाने वाली लड़कियाँ हॉकी क्या खेलेंगी, लेकिन निर्देशक ने कई दृश्यों के जरिये साबित किया है कि महिलाएँ किसी भी मामले में पुरुषों से कम नहीं हैं। शाहरुख एक जगह संवाद बोलते हैं 'जो महिला पुरुष को पैदा कर सकती है वह कुछ भी कर सकती है'।
शिमित का निर्देशन बेहद शानदार है। एक चुस्त पटकथा को उन्होंने बखूबी फिल्माया है। वे हॉकी के जरिये दर्शकों में राष्ट्रप्रेम की भावनाएँ जगाने में कामयाब रहे। एक सीन में मैच के पूर्व जब ‘जन-गण-मन’ की धुन बजती है, तो थिएटर में मौजूद दर्शक सम्मान में खड़े हो जाते हैं।
फिल्म में हर मैच के दौरान सिनेमाघर में उपस्थित दर्शक भारतीय टीम का इस तरह उत्साह बढ़ाते हैं, जैसे स्टेडियम में बैठकर वे सचमुच का मैच देख रहे हों। प्रत्येक दर्शक टीम से अपने आपको जुड़ा हुआ पाता है और यहीं पर शिमित की कामयाबी दिखाई देती है।
शाहरुख खान ने एक कलंकित खिलाड़ी और कठोर प्रशिक्षक की भूमिका को बखूबी निभाया है। वे शाहरुख खान नहीं लगकर कबीर खान लगे हैं। कई दृश्यों में उन्होंने अपने भाव मात्र आँखों से व्यक्त किए हैं। कलंक धोने की उनकी बेचैनी उनके चेहरे पर दिखाई देती है।
उनकी टीम में शामिल 16 लड़कियाँ भी शाहरुख को टक्कर देने के मामले में कम नहीं रहीं। उनकी आपसी नोकझोंक और हॉकी खेलने वाले दृश्य उम्दा हैं। पंजाब और हरियाणा से आई लड़कियों का अभिनय शानदार है।
फिल्म में गाने हैं, लेकिन वे पार्श्व में बजते रहते हैं। इन गीतों का उपयोग बिलकुल सही स्थानों पर किया गया है। जयदीप साहनी के संवाद सराहनीय है।
कुल मिलाकर ‘चक दे इंडिया’ एक बार जरूर देखी जानी चाहिए।
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अंकुर कुमार युद्ध के बीच प्यार का मेसेज देने वाली कई फिल्में हॉलिवुड में आ चुकी हैं। इसके बावजूद मैट रिव्स की 'वॉर फॉर द प्लैनेट ऑफ एप्स' का इंतजार बड़ी बेसब्री से हो रहा था। लंबे इंतजार के बाद आखिरकार फिल्म रिलीज हो गई। पहले यह पिछले साल रिलीज होने वाली थी। 'प्लैनेट ऑफ़ एप्स' की नई रिबूटेड फ्रेंचाइजी की यह तीसरी फिल्म है, जिसे रिलीज होने से पहले ही ऑस्कर कंटेंडर वाली मूवी कहा जाने लगा था। हॉरर सीरिज फिल्म कल्वरफिल्ड के लिए पहचाने जाने वाले मैट रिव्स ने इससे पहले 2014 में रिलीज हुई इस फ्रेंचाइजी की दूसरी फिल्म 'डॉन ऑफ द प्लैनेट ऑफ़ एप्स' भी डायरेक्ट की थी। इसकी कहानी भी वहीं से आगे बढ़ती है। इसके विजुअल इफेक्ट्स, इमोशनल सीन और एक्शन से आप फिल्म के अंत तक बंध जाते हैं। कहानी: साइंस एक्सपेरिमेंट से तेज और चालाक बन जाने वाला सीजर वानरों का अलग साम्राज्य बनाकर ग्रुप का लीडर बन चुका है। साम्राज्य के उदय के दो साल बाद सीजर और उसकी वानर सेना मानवों की मिलिट्री टीम अल्फा-ओमेगा के साथ लड़ाई लड़ रही है। टीम को वानरों के दूसरे गुट के लीडर रेड का साथ मिला हुआ है। जिस वायरस सिमियन फ्लू की वजह से वानर तेज और चालाक बने थे, उसी वायरस की वजह से अब मानव जाति अपनी भाषा और ज्ञान खो रही है। ऐसे में वानर और इंसानों के बीच प्लैनेट पर कब्जे की लड़ाई शुरू हो चुकी है। अल्फा-ओमेगा का विवादित लीडर कर्नल मैक कलोग न सिर्फ वानरों से नफरत करता है, बल्कि वह वायरस से संक्रमित होने वाले इंसानों को भी मारने में यकीन रखता है। कर्नल मैक कलोग द्वारा अपने परिवार के खात्मे के बाद वानरों को बचाने के लिए उनका मसीहा सीजर कर्नल से मिलने जाता है। अब क्या कर्नल मैक कलोग और सीजर के बीच समझौता हो पाएगा या प्लैनेट पर किसका राज होगा, फिल्म देखने के बाद ही पता लग सकेगा। इफेक्ट्स के साथ इमोशन: विजुअल इफेक्ट्स के मामले में हॉलिवुड बॉलिवुड से कहीं आगे है। यह हॉलिवुड फिल्म भी तकनीक के साथ स्टोरी के मामले में भी बेहतरीन साबित हुई है। 'प्लैनेट ऑफ़ एप्स' की पिछली दोनों फिल्में काफी सफल रही है। एक्शन सीन काफी उम्दा हैं। स्टोरी इतनी अच्छी है कि विलेन के रूप में आप कर्नल के साथ इंसानों से भी नफरत करने लगेंगे। वॉर की वजह से अनाथ हुई बच्ची नोवा और उसे अपनी बेटी की रूप में स्वीकार करने वाले वानर मॉरिस से आपको प्यार हो जाएगा। वहीं बैड एप वानर इस गंभीर फिल्म में कॉमेडी एंगल लेकर आया है। उसके कॉमेडी पंच लाजवाब हैं। बैकग्राउंड साउंड इफेक्ट्स वॉर फिल्म को पूरी तरह से जस्टीफाई करते हैं। अगर आप इस फ्रेंचाइजी की पुरानी फिल्में देखी है तो आप इस फिल्म को न मिस करें। यह अब इस फ्रेंचाइजी की सबसे बेहतरीन फिल्म साबित हो सकती है। | 1 |
बाहुबली दो में इसका जवाब इंटरवल के बाद मिलता है। तब तक कहानी में ठोस कारण पैदा किए गए हैं ताकि दर्शक कटप्पा के इस कृत्य से सहमत लगे। भले ही दर्शक जवाब मिलने के बाद चौंकता नहीं हो, लेकिन ठगा हुआ भी महसूस नहीं करता क्योंकि तब तक फिल्म उसका भरपूर मनोरंजन कर चुकी होती है।
बाहुबली को के विजयेन्द्र प्रसाद ने लिखा है। इसकी कहानी रामायण और महाभारत से प्रेरित है। फिल्म के कई किरदारों में भी आप समानताएं खोज सकते हैं। महिष्मति के सिंहासन के लिए होने वाली इस लड़ाई में षड्यंत्र, हत्या, वफादारी, सौगंध, बहादुरी, कायरता जैसे गुणों और अवगुणों का समावेश है, जिनकी झलक हमें लगातार सिल्वर स्क्रीन पर देखने को मिलती है।
निर्देशक एस राजामौली ने इन बातों को भव्यता का ऐसा तड़का लगाया है कि लार्जर देन लाइफ होकर यह कहानी और किरदार दर्शकों को रोमांचित कर देते हैं। राजामौली की खास बात यह है कि बाहुबली के किरदार को उन्होंने पूरी तरह विश्वसनीय बनाया है। हाथी जैसी ताकत, चीते जैसी फुर्ती और गिद्ध जैसी नजर वाला बाहुबली जब बिजली की गति से दुश्मनों पर टूट पड़ता है और पलक झपकते ही जब उसकी तलवार दुश्मनों की गर्दन काट देती है तो ऐसा महसूस होता है कि हां, यह शख्स ऐसा कर सकता है। बाहुबली की इन खूबियों को फिल्म के दूसरे हिस्से में खूब भुनाया गया है।
'बाहुबली द कॉन्क्लूज़न' देखने के लिए 'बाहुबली: द बिगनिंग' याद होना चाहिए वरना फिल्म समझने में थोड़ी मुश्किल हो सकती है। हालांकि पहले भाग में महेंन्द्र बाहुबली के कारनामे थे तो इस बार उसके पिता अमरेन्द्र बाहुबली के हैरतअंगेज कारनामे देखने को मिलते हैं।
पिछली बार हमने देखा था कि महेंद्र बाहुबली को कटप्पा उसके पिता की कहानी सुनाता है। दूसरे भाग में विस्तृत रूप से इस कहानी को देखने को मिलता है। अमरेन्द्र और देवसेना के रोमांस को बेहद कोमलता के साथ दिखाया गया है। चूंकि पहले भाग के बाद कटप्पा की लोकप्रियता बहुत बढ़ गई थी इसलिए दूसरे भाग में उसे ज्यादा सीन दिए गए हैं। कॉमेडी भी करवाई गई है। अमरेन्द्र और देवसेना तथा अमरेन्द्र और शिवागामी के साथ किस तरह से भल्लाल देव और उसका पिता षड्यंत्र करते हैं यह कहानी का मुख्य बिंदू है।
कहानी ठीक है, लेकिन जिस तरह से इसे पेश किया गया है वो प्रशंसा के योग्य है। फिल्म की स्क्रिप्ट बेहतरीन है और इसमें आने वाले उतार-चढ़ाव लूगातार मजा देते रहते हैं। हर दृश्य को बेहतर और भव्य बनाया गया है और फिल्म में कई दृश्य ऐसे हैं जो ताली और सीटी के लायक हैं।
जैसे, बाहुबली की एंट्री वाला दृश्य, बाहुबली और देवसेना के बीच रोमांस पनपने वाले सीन, बाहुबली और देवसेना के साथ में तीर चलाने वाला सीन, भरी सभा में देवसेना का अपमान करने वाले का सिर काटने वाला सीन, ऐसे कई दृश्य हैं।
इंटरवल तक फिल्म भरपूर मनोरंजन करती है। इंटरवल के बाद ड्रामा ड्राइविंग सीट पर आता है और फिर क्लाइमैक्स में एक्शन हावी होता है।
फिल्म की कमियों की बात की जाए तो कुछ को कहानी थोड़ी कमजोर लग सकती है। पहले भाग में जिस भव्यता से दर्शक चकित थे और दूसरे भाग से उनकी अपेक्षाएं आसमान छू रही थी, उन्हें दूसरे भाग की भव्यता वैसा चकित नहीं करती है। क्लाइमैक्स में सिनेमा के नाम पर कुछ ज्यादा ही छूट ले ली गई है और दक्षिण भारतीय फिल्मों वाला फ्लेवर थोड़ा ज्यादा हो गया है। लेकिन इन बातों का फिल्म देखते समय मजा खराब नहीं होता है और इनको इग्नोर किया जा सकता है।
निर्देशक के रूप में एसएस राजामौली की पकड़ पूरी फिल्म पर नजर आती है। उन्होंने दूसरे भाग को और भव्य बनाया है। एक गाने में जहाज आसमान में उड़ता है वो डिज्नी द्वारा निर्मित फिल्मों की याद दिलाता है। कॉमेडी, एक्शन, रोमांस और ड्रामे का उन्होंने पूरी तरह संतुलन बनाए रखा है। जो आशाएं उन्होंने पहले भाग से जगाईं उस पर खरी उतरने की उन्होंने यथासंभव कोशिश की है। एक ब्लॉकबस्टर फिल्म कैसे बनाई जाती है ये बात वे अच्छी तरह जानते हैं और दर्शकों के हर वर्ग के लिए उनकी फिल्म में कुछ न कुछ है।
प्रभाष और बाहुबली को अलग करना मुश्किल है। वे बाहुबली ही लगते हैं। बाहुबली का गर्व, ताकत, बहादुरी, प्रेम, समर्पण, सरलता उनके अभिनय में झलकता है। उनकी भुजाओं में सैकड़ों हाथियों की ताकत महसूस होती है। ड्रामेटिक, एक्शन और रोमांटिक दृश्यों में वे अपने अभिनय से प्रभावित करते हैं। देवसेना के रूप में अनुष्का शेट्टी को इस भाग में भरपूर मौका मिला है। देवसेना के अहंकार और आक्रामकता को उन्होंने बेहतरीन तरीके से पेश किया। वे अपने अभिनय से भावनाओं की त्रीवता का अहसास कराती हैं। भल्लाल देव के रूप में राणा दग्गुबाती अपनी ताकतवर उपस्थिति दर्ज कराते हैं। शिवगामी बनीं रम्या कृष्णन का अभिनय शानदार हैं। उनकी बड़ी आंखें किरदार को तेज धार देती है। कटप्पा बने सत्यराज ने इस बार दर्शकों को हंसाया भी है और उनके किरदार को दर्शकों का भरपूर प्यार मिलेगा। नासेर भी प्रभावित करते हैं। तमन्ना भाटिया के लिए इस बार करने को कुछ नहीं था।
फिल्म की वीएफएक्स टीम बधाई की पात्र है। हालांकि कुछ जगह उनका काम कमजोर लगता है, लेकिन उपलब्ध साधनों और बजट में उनका काम हॉलीवुड स्टैंडर्ड का है। खास तौर पर युद्ध वाले दृश्य उल्लेखनीय हैं। फिल्म का बैकग्राउंड म्युजिक अच्छा है। गानों में जरूर फिल्म मार खाती है क्योंकि ये अनुवादनुमा लगते हैं, लेकिन इनका फिल्मांकन शानदार है। तकनीकी रूप से फिल्म बेहद सशक्त है। सिनेमाटोग्राफी, सेट लाजवाब हैं। कलाकारों का मेकअप उनकी सोच के अनुरूप है।
बाहुबली 2 भव्य और बेहतरीन है। पहले भाग को मैंने तीन स्टार दिए थे क्योंकि आधी फिल्म को देख ज्यादा कहा नहीं जा सकता। पूरी फिल्म देखने के बाद चार स्टार इसलिए क्योंकि ब्लॉकबस्टर मूवी ऐसी होती है।
बैनर : धर्मा प्रोडक्शन्स, एए फिल्म्स, आरको मीडिया वर्क्स प्रा.लि.
निर्देशक : एसएस राजामौली
संगीत : एमएम करीम
कलाकार : प्रभाष, राणा दग्गुबाती, अनुष्का शेट्टी, तमन्ना भाटिया, रामया कृष्णन, सत्यराज, नासेर
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 47 मिनट 30 सेकंड्स
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लिबास से भले ही हम कितने ही आधुनिक हो गए हो, लेकिन बात जब शादी की आती है तो अचानक रूढ़िवादी विचारधाराएं सारी आधुनिकता पर हावी हो जाती हैं। 1981 में के. बालाचंदर ने 'एक दूजे के लिए' बनाई थी, जिसमें लड़के और लड़की को शादी करने में इसलिए अड़चनें आती हैं क्योंकि एक उत्तर भारतीय है तो दूसरा दक्षिण भारतीय। भाषा, पहनावे और संस्कृति की भिन्नताएं रूकावट बनती हैं।
में रिलीज हुई फिल्म '2 स्टेट्स' भी बताती है कि स्थिति बहुत सुधरी नहीं है। अभी भी शादी के लिए लड़के और लड़की में प्यार होना ही काफी नहीं है। कई धरातलों पर समानताएं होना जरूरी है। भारत में शादी लड़के या लड़की से नहीं बल्कि उसके पूरे परिवार से करना होती है क्योंकि ज्यादातरों को शादी के बाद अपने पैरेंट्स के साथ ही रहना होता है। लड़की का लड़के के बजाय लड़के की मां से मधुर संबंध रखना महत्वपूर्ण है। हालांकि अब बड़ी संख्या में विभिन्न जातियों के बीच प्रेम विवाह हो रहे हैं और इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि शादी के बाद पति-पत्नी अपने पैरेंट्स के साथ नही रहते हैं।
स्टेट्स चेतन भगत द्वारा लिखित इसी नाम के उपन्यास पर आधारित है और 'एक दूजे के लिए' तथा इस फिल्म में कई समानताएं हैं, लेकिन प्रस्तुतिकरण के लिहाज से यह फिल्म काफी अलग है। आईआईएम अहमदाबाद में पढ़ने वाले पंजाबी लड़के कृष मल्होत्रा और तमिल लड़की अनन्या स्वामीनाथन में प्रेम हो जाता है। पढ़ाई खत्म होने के बाद दोनों शादी के करने का फैसला लेते हैं। यहां जाकर उन्हें पता चलता है कि शादी के लिए दोनों में प्यार होना ही काफी नहीं है। दोनों अपने माता-पिता की मर्जी से शादी करना चाहते हैं और उन्हें यह करने में काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
शाकाहारी-मांसाहारी, भाषा, संस्कृति, पहनावा, रंग जैसे मुद्दों को लेकर मतभेद उभरते हैं। कृष और अनन्या अपनी शादी के लिए वो सारे काम करते हैं जिससे उनके पैरेंट्स खुश हो, लेकिन सफलता हाथ नहीं लगती। एक बार तो वे ऐसी स्थिति में पहुंच जाते हैं कि उनमें ही मतभेद होने लगते हैं।
जानी-पहचानी कहानी और कमियों के बावजूद फिल्म में रूचि इसलिए बनी रहती है क्योंकि निर्देशक अभिषेक वर्मन के प्रस्तुतिकरण में ताजगी है। फिल्म की शुरुआत में कृष और अनन्या का रोमांस थोड़ा अविश्वसनीय लगता है, लेकिन दिल को छूता है। अनन्या और कृष के बीच में शुरुआत में शारीरिक आकर्षण रहता है जिसे प्यार में तब्दील होते देखना अच्छा लगता है। बीच-बीच में मनोरंजक दृश्य आते रहते हैं जो फिल्म को संभाल लेते हैं। मसलन, अनन्या का हाथ मांगते समय कृष उसके पूरे परिवार के लिए अंगूठी लाता है और कहता है कि वह उसके परिवार के साथ शादी करना चाहता है।
फिल्म में कुछ बातें अखरती हैं, जैसे, कृष और अनन्या के माता-पिता को बहुत ज्यादा ही रूढ़िवादी दिखाया गया है मानो पचास साल पुराना जमाना हो। तीन चौथाई फिल्म पैरेंट्स को मनाने में खर्च हुई है और बीच में कई बार फिल्म खींची हुई प्रतीत होती है।
निर्देशक ने दर्शकों के मनोरंजन का ख्याल रखते हुए कई बार समझौते भी किए और कई सीन ऐसे हैं जो सहूलियत के मुताबिक लिखे गए हैं। जैसे कृष के पिता का हृदय परिवर्तन का अचानक हृदय परिवर्तन हो जाना। एक शादी में दूल्हे का दहेज के लिए अड़ जाना और उसे अनन्या द्वारा मनाना जैसे दृश्य सिर्फ फिल्म की लंबाई बढ़ाते हैं क्योंकि फिल्म की कहानी से इस तरह के दृश्यों का कोई ताल्लुक नहीं है।
अर्जुन कपूर और आलिया भट्ट की केमिस्ट्री दर्शकों को चुम्बक की तरह फिल्म से बांध कर रखती है। आलिया बेहद खूबसूरत लगी हैं और उनका अभिनय फिल्म दर फिल्म निखरता जा रहा है। हालांकि वे तमिल लड़की नहीं लगती है, लेकिन अपने अभिनय से वे इस कमी को बहुत जल्दी कवर कर लेती हैं।
पंजाबी मुंडे के रूप में अर्जुन का अभिनय भी अच्छा है। अपने पिता से बिगड़े रिश्ते और एक प्रेमी की भूमिका उन्होंने अच्छे से निभाई है। फिल्म में एक सीन में कृष कहता है कि पंजाबी सास से खतरनाक कोई नहीं होता है और यह भूमिका अमृता सिंह ने बेहद कुटिलता से निभाई है। रेवती और शिव सुब्रमण्यम ने तमिल पैरेंट्स की भूमिका निभाई।
शंकर-अहसान-लॉय का संगीत '2 स्टेट्स' का निराशाजनक पहलू है। एक भी सुपरहिट गाना नहीं है। प्रेम कहानी में गाने अच्छे लगते हैं, लेकिन '2 स्टेट्स' में ये अखरते हैं।
कमियों के बावजूद आलिया-अर्जुन की केमिस्ट्री, अच्छी एक्टिंग और ताजगी के कारण फिल्म देखी जा सकती है।
बैनर :
नाडियाडवाला ग्रैंडसन एंटरटेनमेंट, धर्मा प्रोडक्शन्स, यूटीवी मोशन पिक्चर्स
निर्माता :
साजिद नाडियाडवाला, करण जौहर
निर्देशक :
अभिषेक वर्मन
संगीत :
शंकर-एहसान-लॉय
कलाकार :
अर्जुन कपूर, आलिया भट्ट, रोनित रॉय, अमृता सिंह, शिव सुब्रमण्यम, रेवती
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 29 मिनट
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निर्माता :
अशोक घई
निर्देशक :
मनोज तिवारी
संगीत :
प्रीतम
कलाकार :
सेलिना जेटली, ईशा कोप्पिकर, गुल पनाग, जावेद जाफरी, चंकी पांडे, दिव्या दत्ता, असावरी जोशी, मुकेश तिवारी, सनी देओल (
मेहमान कलाकार)
केवल वयस्कों के लिए * 12 रील * 1 घंटा 45 मिनट
ज्यादातर ऑफिसेस में कुछ पुरुष बॉस ऐसे होते हैं जो अपने अधीन काम करने वाली महिलाओं/लड़कियों पर बुरी नजर रखते हैं। तरक्की व अन्य प्रलोभन देकर उनका यौन शोषण करते हैं। कुछ लड़कियों की मजबूरी रहती है। कुछ इसे तरक्की की ही सीढ़ी ही मानती हैं और कुछ ऐसी भी होती हैं जो लंपट बॉस को मजा चखा देती हैं।
‘हैलो डार्लिंग’ की कहानी भी कुछ इसी तरह की है। एक अच्छी हास्य फिल्म की रचना इस थीम पर की जा सकती है, लेकिन अफसोस की बात ये है कि न इस फिल्म का निर्देशन अच्छा है और न ही स्क्रीनप्ले। कलाकारों से भी जमकर ओवर एक्टिंग कराई गई है, जिससे ‘हैलो डार्लिंग’ देखना समय और पैसों की बर्बादी है।
हार्दिक (जावेद जाफरी) अपने अंडर में काम करने वाली हर लड़की पर बुरी नजर रखता है। चाहे वो उसकी सेक्रेटरी कैंडी (सेलिना जेटली) हो या सतवती (ईशा कोप्पिकर) और मानसी (गुल पनाग) हो। तीनों उसे सबक सिखाना चाहती हैं।
एक दिन मानसी गलती से हार्दिक की काफी में जहर डाल देती है। हार्दिक कुर्सी से गिरकर बेहोश हो जाता है और तीनों लड़कियों को लगता है कि उनके जहर देने से उसकी यह हालत हो गई है। वे उसे अस्पताल ले जाती हैं।
वहाँ फिर गलतफहमी पैदा होती है। उन्हें लगता है कि हार्दिक मर गया है। उसकी लाश को उठाकर वे समुद्र में फेंकने के लिए उठाती हैं, लेकिन इतनी बड़ी कंपनी में महत्वपूर्ण पदों पर काम करने वाली ये लड़कियाँ इतनी बेवकूफ रहती हैं कि दूसरे आदमी की लाश उठा लेती हैं।
इधर होश में आकर हार्दिक उनकी इस हरकत को कैमरे में कैद कर लेता है और उन्हें ब्लैकमेल करता है। लड़कियाँ उसे कैद कर लेती हैं। किस तरह से वह उनके चंगुल से निकलता है, यह फिल्म का सार है।
दरअसल इस फिल्म से जुड़े लोग यही निर्णय नहीं ले पाए कि वे क्या बनाने जा रहे हैं। बॉस और लड़कियों से शुरू हुई उनकी कहानी थोड़ी देर में ही राह भटक जाती है और कही और जाकर खत्म होती है। ये लड़कियाँ बॉस को सबक सिखाना चाहती हैं, लेकिन उसे घर में कैद करने के बाद वे ऑफिस पर ज्यादा ध्यान देती हैं मानो उनका उद्देश्य ऑफिस को अच्छे से चलाना है। वे ये बात भूल जाती हैं कि हार्दिक को भी सही राह पर लाना है।
फिल्म का क्लाइमैक्स भी बेहद कमजोर है और किसी तरह कहानी को खत्म किया गया है। कमजोर क्लाइमैक्स में सनी देओल को लाया गया है ताकि दर्शकों का ध्यान भटक जाए।
स्क्रीनप्ले भी अपनी सहूलियत से लिखा गया है। मिसाल के तौर पर लड़कियों के घर कैद हार्दिक के हाथ फोन लगता है और बजाय पुलिस को फोन करने के वह घर पर फोन कर बीवी से बात करता है। उसकी बेवकूफ बीवी कुछ समझ नहीं पाती। इसके बाद भी उसे मौका था कि वह अपने दोस्त, ऑफिस या पुलिस को फोन कर अपना हाल बताता, लेकिन वह ऐसा कुछ नहीं करता।
कई दृश्य ऐसे हैं जिन्हें देख लगता है कि हँसाने की पुरजोर लेकिन नाकाम कोशिश की जा रही है। कैरेक्टरर्स भी ठीक से स्थापित नहीं किए गए हैं। हार्दिक अपनी बीवी से क्यों भागता रहता है यह भी नहीं बताया गया है। हद तो ये हो गई कि हार्दिक की बीवी उसे ‘हार्दिक भाई’ कहकर पुकारती है। बिगड़े हुए पतियों को सुधारने वाला एक ट्रेक अच्छा था, लेकिन उसे ठीक से विकसित नहीं किया गया।
एक निर्देशक के रूप में मनोज तिवारी निराश करते हैं। न उन्होंने स्क्रीनप्ले की कमजोरी पर ध्यान रखा और न ही दृश्यों को ठीक से फिल्मा पाए। पूरी फिल्म पर उनकी पकड़ कही नहीं दिखाई देती है।
जावेद जाफरी ने अभिनय के नाम पर तरह-तरह के मुँह बनाए हैं। ईशा कोप्पिकर और सेलिना जेटली में इस बात की प्रतियोगिता थी कि कौन घटिया एक्टिंग करता है। इनकी तुलना में गुल पनाग का अभिनय ठीक है। चंकी ने अभिनय के नाम पर फूहड़ हरकतें की हैं। दिव्या दत्ता ने पता नहीं ये फालतू रोल क्यों स्वीकार किया।
इस फिल्म के निर्माता हैं अशोक घई, जो सुभाष घई के भाई हैं। सुभा
ष
घई में भी इतनी हिम्मत नहीं हुई कि इस फिल्म के साथ अपना नाम जोड़ सके।
लगता है कि प्रीतम ने अपनी रिजेक्ट हुई धुनों को कम दाम में टिका दिया। केवल पुराना सुपरहिट गीत ‘आ जाने जाँ....’ (रिमिक्स) ही सुना जा सकता है। फिल्म देखने से तो बेहतर है कि इसी सदाबहार गाने को एक बार फिर सुन लिया जाए।
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फिल्म में पैसा लगाया गया है, लेकिन वो पानी में बहाने के समान है। फिल्म तो दूर इसके तो पोस्टर से भी दूर रहना चाहिए।
निर्माता-निर्देशक :
शशि रंजन
संगीत :
रूप कुमार राठौड़
कलाकार :
अनुपम खेर, सतीश शाह, शाद रंधावा, समीर दत्तानी, आरती छाबरिया, शमा सिकंदर, सतीश कौशिक, दीपशिखा, गुलशन ग्रोवर, जैकी श्रॉफ
यू/ए * 14 रील
पता नही ‘धूम धड़ाका’ जैसी फिल्में क्यों बनाई जाती हैं? इस फिल्म के जरिये न कोई सार्थक बात सामने आती है और न मनोरंजन होता है। शिक्षा जरूर मिलती है कि ऐसी फिल्मों से दूर रहा जाए।
निर्माता-निर्देशक शशि रंजन ने सिर्फ अपने शौक की खातिर यह फिल्म बनाई है। कहने को तो यह हास्य फिल्म है, लेकिन दर्शक इस फिल्म को देखने के बाद अपने आपको कोसते हुए बाहर निकलता है कि वह क्यों यह फिल्म देखने आया?
फिल्म का हास्य इतना गया गुजरा है कि न समझदार दर्शक को हँसी आती है और न ही फूहड़ हास्य पसंद करने वालों को। ओवर एक्टिंग से भरी इस घटिया नौटंकी से छुटकारा 14 रील खत्म होने के बाद मिलता है, कुछ समझदार दर्शकों ने तो मध्यांतर को ही फिल्म का अंत मान लिया।
मुँगीलाल (अनुपम खेर) एक डॉन है, जिसे एएबीएम (ऑल एशियन भाई मीट) में परिस्थितिवश कहना पड़ता है कि उसका वारिस है। जबकि उसकी शादी भी नहीं हुई है। वर्षों पहले उसने अपनी बहन को घर से निकाल दिया था।
उसे पता चलता है कि उसने कमल नामक संतान को जन्म दिया है। वह उस वारिस की तलाश करता है तो उसके पास कई कमल नाम के लड़के-लड़कियाँ आ जाते हैं। क्या उसके पास आए सारे कमल असली हैं, इसकी वह पड़ताल करता है।
फिल्म की कहानी में हास्य की गुंजाइश थी, लेकिन पटकथा बेहद घटिया है। दृश्यों को इतना लंबा रखा गया है कि संवाद लेखक के पास संवाद खत्म हो गए। फिल्म देखते समय कई सवाल दिमाग में उठते हैं, जिनका जवाब अंत तक नहीं मिलता।
सारे पात्र जोकरनुमा हैं और उनसे ओवरएक्टिंग करवाई गई है। दु:ख की बात तो यह है कि इस फिल्म में अनुपम खेर और सतीश शाह जैसे कलाकारों ने काम किया है। अनुपम खेर की यह फिल्म इसलिए याद रहेगी क्योंकि इसमें उन्होंने अपनी जिंदगी का सबसे घटिया अभिनय किया है।
शाद रंधावा, आरती छाबरिया, शमा सिकंदर और समीर दत्तानी जैसे कलाकारों को काम क्यों नहीं मिलता, यह उनका अभिनय देखकर समझ में आ जाता है। गुलशन ग्रोवर, सतीश कौशिक, जैकी श्रॉफ और दीपशिखा जैसे थके हुए चेहरे बोर करते हैं। फिल्म का एक भी पक्ष उल्लेखनीय नहीं है।
फिल्म में पैसा लगाया गया है, लेकिन वो पानी में बहाने के समान है। फिल्म तो दूर इसके तो पोस्टर से भी दूर रहना चाहिए।
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जैकी चैन और सोनू सूद स्टारर इस फिल्म का बजट 65 मिलियन यूएस डॉलर के करीब माना जा रहा है। फिलहाल, हम ओवरसीज की बात नहीं करते, लेकिन भारत सहित कई दूसरे एशियाई देशों में जैकी चैन का जबर्दस्त जलवा है। जैकी के ऐक्शन देखने को बेकरार उनके फैन्स को वैसे भी अपने चहेते ऐक्शन स्टार की फिल्म देखने के लिए लंबा इंतजार करना पड़ा है। जैकी की पिछली 'द मिथ' कई साल पहले रिलीज हुई, लेकिन मल्लिका शेरावत के साथ बनी जैकी की यह फिल्म इंडियन बॉक्स ऑफिस पर कुछ खास कलेक्शन नहीं कर पाई। ऐसे में अब इस फिल्म की प्रॉडक्शन कंपनी को इस बार भारत में जबर्दस्त कलेक्शन की उम्मीद है। अगर फिल्म के क्रेज और जैकी द्वारा इस फिल्म की गई भारत में प्रमोशन पर नजर डाली जाए तो फिल्म इंडस्ट्री के ट्रेड पंडितों का लगता है कि भारत में इंग्लिश और हिंदी के साथ कई दूसरी भाषाओं में रिलीज़ हुई यह फिल्म पहले वीकेंड पर अच्छा बिज़नस कर सकती है। इस फिल्म डायरेक्टर स्टेनली टॉन्ग चाइना के नामचीन निर्देशकों में से एक है उनके निर्देशन में बनी 'द स्टोन एज वॉरियर्स' बॉक्स ऑफिस पर अच्छी कमाई करने में कामयाब रही। अब जब इस बार स्टेनली को इंटरनैशनल ऐक्शन किंग जैकी चैन के साथ बॉलिवुड के कई स्टार्स का भी साथ मिला है तो उन्होंने इस बार टोटली मसाला ऐक्शन फिल्म बनाई है। कहानी: चाइना के एक म्यूजियम में जैक (जैकी चैन) मशहूर आर्कियॉलजिस्ट है जो अपनी असिस्टेंट कायरा (अमायरा दस्तूर) के साथ विभिन्न विषयों पर शोध कर रहा है। भारत से प्रफेसर अश्मिता (दिशा पटानी) जैक से मिलने चाइना आती है। अश्मिता काफी अर्से से मगध के छिपे खजाने की भारत में तलाश कर रही है। जैक से मिलने पहुंची अश्मिता अपने साथ एक करीब एक हजार साल पुराना नक्शा भी लाई है, जिसकी मदद से मगध के प्राचीन बहुमुल्य असीम खजाने तक पहुंचा जा सकता है। अश्मिता की बात सुनने के बाद जैक इस छुपे खजाने की तलाश में उसकी सहायता करने का फैसला करते है। जैक अपनी असिस्टेंट कायरा और अश्मिता के साथ खजाने की तलाश में भारत आते हैं। भारत आने के बाद जैक खजाने की तलाश में लग जाता है, इस दौरान जैक की टीम का सामना रैंडल (सोनू सूद) से होता है, रेंडल इस छुपे खजाने को अपने पूर्वजों का खजाना बताकर इस खजाने पर अपना अधिकार बता रहा है। यहीं से इन दोनों के बीच टकराव शुरू होता है ऐक्टिंग : करीब 62 साल के हो चुके जैकी चैन के ऐक्शन सीन आपको हैरान कर देंगे, इतनी ज्यादा उम्र के होने के बावजूद जैकी के ऐक्शन सीन में आपको कतई कमी दिखाई नहीं देगी। कोई कमी नहीं दिखाई देगी। इन ऐक्शन सीन में जैकी का अच्छा साथ झांग इकसिंग, मिया मुकी ने दिया है। रेंडल के किरदार में सोनू को कुछ नया करने का मौका नहीं मिला, वैसे भी स्क्रिप्ट में रेंडल के किरदार पर ज्यादा मेहनत नहीं की गई, ऐसे में सोनू अपने किरदार को परफेक्ट ढंग से नहीं निभा पाए। अमायरा दस्तूर और दिशा पटानी को लेकर भी कुछ ऐक्शन सीन हैं, लेकिन इन दोनों ने ऐक्शन सीन से ज्यादा ध्यान कैमरे के सामने अपनी ब्यूटी पेश करने में लगाया है। जैकी चैन और दिशा पटानी के कुछ सीन जरूर अच्छे बन पड़े हैं। निर्देशन : स्टेनली ने पूरी फिल्म चाइना, दुबई और भारत के अलग-अलग लोकेशंस पर शूट की है। स्टेनली ने फिल्म की सिनेमटॉग्रफी पर कुछ ज्यादा ही ध्यान दिया, इसलिए यह गजब की बन पड़ी है। स्टेनली के पास दमदार स्क्रिप्ट नहीं थी, लेकिन इंटरनैशनल ऐक्शन किंग जैकी चैन का साथ था सो उन्होंने सारा ध्यान फिल्म के ऐक्शन सीन को ज्यादा से ज्यादा बेहतरीन बनाने में लगाया और काफी हद तक कामयाब भी रहे। वहीं, इस फिल्म टाइटल 'कुंग फू योग' तो रखा गया है, लेकिन डायरेक्टर पूरी फिल्म में योग को कहीं फिट नहीं कर पाए जो यकीनन इस फिल्म का माइनस पॉइंट है। संगीत : फिल्म के आखिर में फिल्म की पूरी स्टार कास्ट के साथ एक डांस सॉन्ग है। इस गाने की कोरियॉग्राफ़र फराह खान है। बेशक यह गाना आपको समझ नहीं आएगा, लेकिन कैमरे के सामने जैकी का थिरकना आपको जरूर पसंद आएगा। क्यों देखें : अगर जैकी चैन के फैन हैं और ऐक्शन फिल्में मिस नहीं करते तो इस फिल्म को देखें। दुबई में फिल्माई लग्ज़री कार रेस, क्लाइमैक्स में दिशा पटानी, अमायरा दस्तूर का फिल्माया ऐक्शन सीन बेहतरीन बन पड़ा है। अगर कुछ नया या अच्छी कहानी की तलाश में थिअटर जा रहे हैं तो अपसेट हो सकते हैं। | 0 |
घटिया मसाला फिल्मों के बीच ‘रॉक ऑन’ एक ताजे हवा के झोंके के समान है।
निर्माता :
फरहान अख्तर-रितेश सिधवानी
निर्देशक :
अभिषेक कपूर
गीतकार :
जावेद अख्तर
संगीत :
शंकर-अहसान-लॉय
कलाकार :
फरहान अख्तर, प्राची देसाई, अर्जुन रामपाल, पूरब कोहली, ल्यूक केनी, शहाना गोस्वामी, कोयल पुरी
हर इंसान किशोर या युवा अवस्था में कुछ बनने के सपने देखता है, लेकिन बाद में संसार की चक्की में वह ऐसा पिस जाता है कि कमाने के चक्कर में उसे अपने सपनों को कुचलना पड़ता है। कुछ ऐसा ही होता है ‘रॉक ऑन’ के चार दोस्तों जो (अर्जुन रामपाल), केडी (पूरब कोहली), आदित्य श्रॉफ (फरहान अख्तर) और रॉब नेंसी (ल्यूक केनी) के साथ।
चारों का सपना था कि वे देश का सबसे बड़ा बैंड बनाएँ। युवा अवस्था के दौरान वे ऐसे सपने देखते हैं। वे एक प्रतियोगिता जीतते हैं और उन्हें एक कंपनी द्वारा अलबम के लिए साइन भी कर लिया जाता है। अलबम की शूटिंग के दौरान आदित्य और जो में विवाद हो जाता है और अलबम अधूरा रह जाता है।
कहानी दस वर्ष आगे आ जाती है। आदित्य और केडी व्यवसाय में लग जाते हैं। रॉब संगीतकारों का सहायक बन जाता है और जो के पास कुछ काम नहीं रहता। चारों के दिल में अपने शौक के लिए आग जलती रहती है।
आदित्य की पत्नी साक्षी (प्राची देसाई) को आदित्य के अतीत के बारे में कुछ भी नहीं पता रहता। एक दिन पुराना सूटकेस खोलने पर उसके सामने आदित्य के बैंड का राज खुलता है। वह एक बार फिर सभी दोस्तों को इकठ्ठा करती हैं और उनका बैंड ‘मैजिक’ पहली बार परफॉर्म करता है।
इस मुख्य कहानी के साथ-साथ कुछ उप-कथाएँ भी चलती हैं। संगीत से दूर रहने की वजह से आदित्य जमाने से नाराज रहता है और इसकी आँच उसकी पत्नी साक्षी पर भी पड़ती है। दोनों के तनावपूर्ण रिश्ते की कहानी भी साथ चलती है।
जो निठल्ला बैठकर पत्नी की कमाई पर जिंदा रहता है। उसे होटल में जाकर गिटार बजाना मंजूर नहीं है। उसकी पत्नी फैशन डिजाइनर बनने के सपने को छोड़ मछलियों का धंधा करती है क्योंकि घर चलाने की मजबूरी है।
रॉब के अंदर प्रतिभा है, लेकिन संगीतकारों का सहायक बनकर उसे अपनी प्रतिभा को दबाना पड़ता है, जिसका दर्द वह अकेले बर्दाश्त करता है।
फिल्म की मूल थीम ‘जीतने के जज्बे’ को लेकर है, जिसमें दोस्ती, संगीत, ईगो और आपसी रिश्तों को मिलाकर निर्देशक अभिषेक कपूर ने खूबसूरती के साथ परदे पर पेश किया है। उनका कहानी कहने का तरीका शानदार है। फिल्म वर्तमान और अतीत के बीच चलती रहती है और फ्लैश बैक का उपयोग उन्होंने पूरे परफेक्शन के साथ किया है।
अभिषेक द्वारा निर्देशित कुछ दृश्य छाप छोड़ते हैं। वर्षों बाद जब आदित्य से मिलने रॉब और केडी आते हैं तो वे आदित्य से हाथ मिलाते हैं। इसके फौरन बाद आदित्य अपने हाथ धोता है, उसे डर लगता है कि हाथ मिलाने से उसके अंदर मर चुके संगीत के जीवाणु फिर जिंदा न हो जाएँ।
आदित्य के चरित्र में आए बदलाव को निर्देशक ने दो दृश्यों के जरिए खूबसूरती के साथ पेश किया है। आदित्य ऑफिस के गॉर्ड के अभिवादन का कभी जवाब नहीं देता था, लेकिन जब बैंड फिर से शुरू किया जाता है तो वह आगे बढ़कर उनका अभिवादन करता है। निर्देशक ने इन दो दृश्यों के माध्यम से दिखाया है कि संगीत के बिना आदित्य कितना अधूरा था।
चूँकि फिल्म रॉक कलाकारों के बारे में है, इसलिए उन्हें स्टाइलिश तरीके से परदे पर पेश किया गया है। निहारिका खान का कॉस्ट्यूम सिलेक्शन तारीफ के काबिल है। कलाकारों के लुक पर भी विशेष ध्यान दिया गया है।
फिल्म में कुछ कमियाँ भी हैं। निर्देशक यह ठीक से नहीं बता पाए कि आदित्य अपनी पत्नी साक्षी से क्यों नाराज रहता है? रॉब को बीमार नहीं भी दिखाया जाता तो भी कहानी में कुछ खास फर्क नहीं पड़ता। मध्यांतर के बाद फिल्म की गति धीमी पड़ जाती है। कुछ लोगों को ‘रॉक ऑन’ देखकर ‘दिल चाहता है’ और ‘झंकार बीट्स’ की भी याद आ सकती है।
ऐसी फिल्मों में संगीतकारों की भूमिका अहम रहती है। शंकर-अहसान-लॉय का संगीत थोड़ा कमजोर जरूर है, लेकिन फिल्म देखते समय अच्छा लगता है। फिल्म के हिट होने के बाद इसका संगीत भी लोकप्रिय होगा। जेसन वेस्ट के कैमरा वर्क और दीपा भाटिया के संपादन ने फिल्म को स्टाइलिश लुक दिया है।
निर्देशक के रूप में अपनी धाक जमा चुके फरहान अख्तर अच्छे अभिनेता भी हैं। उनका चरित्र कई शेड्स लिए हुए है और उन्होंने हर शेड को बखूबी जिया। अभिनय के साथ-साथ उन्होंने गाने भी गाए हैं। भारी-भरकम संगीत में आवाज का ज्यादा महत्व नहीं रहता है इसलिए उनकी कमजोर आवाज को बर्दाश्त किया जा सकता है।
अर्जुन रामपाल सही मायनों में रॉक स्टार हैं और उन्होंने अपने चरित्र को बखूबी जिया है। उनकी पत्नी डेबी की भूमिका शहाना गोस्वामी ने बेहतरीन तरीके से निभाई है। प्राची देसाई, पूरब कोहली, कोयल पुरी और ल्यूक केनी भी अपनी छाप छोड़ने में सफल रहे हैं।
घटिया मसाला फिल्मों के बीच ‘रॉक ऑन’ एक ताजे हवा के झोंके के समान है।
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ChanderMohan.Sharma@timesgroup.com 'सनम तेरी कसम' की डायरेक्टर जोड़ी का फिल्म बनाने और सोचने का नजरिया बाकी डायरेक्टर्स से अलग है। इन दिनों जहां हॉट ऐक्शन, डबल मीनिंग और बेवजह ऐक्शन स्टंट और थ्रिलर मूवीज़ बनाने का ट्रेंड चला हुआ है तो इस जोड़ी ने दिल को छूने वाली लव-स्टोरी बनाई है। कहानी : इंद्र ( हर्षवर्धन राणे ) मुंबई की एक सोसायटी में अकेला रहता है। इंद्र दिनभर अपने फ्लैट में बने जिम में कसरत करता या फिर नशा करता रहता है। इंद्र को प्यार शब्द से नफरत है। हालांकि, उसका रूबी नाम की एक मेकओवर आर्टिस्ट के साथ लंबे अर्से से रिलेशनशिप है। सोसायटी वालों को इंद्र के बारे में बस इतना पता है कि वह एक अमीर परिवार से है और आठ साल जेल काट कर लौटा है। बॉलिवुड की खबरें पढ़ें सीधे अपने फेसबुक पर, लाइक करें NBT Movies इसी सोसायटी के एक फ्लैट में सरस्वती पार्थसारथी (मावरा हुकेन) अपनी छोटी बहन कावेरी और मां-बाप के साथ रहती है। सरस्वती एक लाइब्रेरी में जॉब करती हैं। साउथ इंडियन फैमिली की सरस्वती अपने पापा जयराम (मनीष शर्मा) को ही अपना आदर्श मानती है। सिंपल लुक वाली सरस्वती फैशन की एबीसी तक नहीं जानती। कावेरी को शिकायत है कि उसी की वजह से उसकी अपने बॉयफ्रेंड से शादी नहीं हो पा रही है। क्योंकि, पापा चाहते हैं कि पहले बड़ी बेटी की शादी हो, लेकिन जयराम, सरस्वती की शादी किसी आईएएस से करना चाहते हैं। सरस्वती के पिता को सोसायटी में रह रहे इंद्र का रहन-सहन और उसका स्टाइल जरा भी पसंद नहीं है, लेकिन चाह कर भी जयराम इंद्र के खिलाफ कुछ कर नहीं पा रहा है। इंद्र शहर के नामी ऐडवोकेट (सुदेश बेरी) का बेटा है, लेकिन पिता से उसे नफरत है। इस बार जब फिर सरस्वती अपने सिंपल लुक को लेकर शादी के लिए रिजेक्ट हो जाती है तो वह रूबी से मेकओवर कराने का फैसला करते हैं। सरस्वती के मां-बाप तिरुपति गए हुए हैं। देर रात सरस्वती इंद्र से मिलने जब उसके फ्लैट पहुंचती है तभी वहां रूबी आ जाती है। हालात ऐसे बनते हैं कि इंद्र बुरी तरह जख्मी हो जाता है। रूबी उसे इसी हाल में छोड़कर चली जाती है। ऐसी हालत में सरस्वती घायल इंद्र को ट्रीटमेंट के लिए लेकर जाती है। यहीं पर पुलिस इंस्पेक्टर की एंट्री होती है, बुरी तरह से घायल इंद्र को छोड़ने सरस्वती जब उसके फ्लैट लौटती है, तभी वहां उसके पापा की एंट्री होती है। ऐक्टिंग : फिल्म के लीड किरदार सरस्वती को पाकिस्तानी ऐक्ट्रेस ने अपनी दमदार ऐक्टिंग से जीवंत कर दिया है। फिल्म के जिस भी सीन में मावरा की मौजूदगी है वही सीन्स फिल्म की सबसे बड़ी यूएसपी हैं। मावरा की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने अपनी पहली ही हिंदी फिल्म में एक सीधी-सादी साउथ इंडियन बहन जी टाइप लड़की के किरदार को बखूबी निभाया। हर्षवर्धन राणे का किरदार इंद्र बार-बार 'आशिकी 2' में आदित्य राय कपूर के किरदार की याद दिलाता है। डायरेक्शन : डायरेक्टर इस बार भी राधिका राव और विनय की जोड़ी ने स्क्रिप्ट को अपने ही अंदाज में हैंडल किया है। अच्छी शुरुआत के बाद बीच-बीच में दोनों ट्रैक से भटके तो सही, लेकिन कहानी और किरदारों के साथ इन्होंने कहीं बेवजह छेड़छाड़ नहीं की। कहानी की स्लो रफ्तार और लीड किरदार इंद्र को कमजोर बनाकर सरस्वती के किरदार को आखिर तक मजबूत बनाने की कोशिश की गई, दर्शकों की बड़ी क्लास को पसंद आए। तस्वीरें: 'रणबीर की दीवानगी ने कर दिया था मुझे बदनाम' संगीत : फिल्म के कई गाने फिल्म की रिलीज से पहले ही म्यूजिक लवर्स की जुबां पर है। टाइटल सॉन्ग सनम तेरी कसम का फिल्मांकन गजब है। फिल्म के लगभग गानों का फिल्मांकन अच्छा और माहौल के मुताबिक किया गया है। क्यों देखें : अगर आपको सिंपल म्यूजिकल लव-स्टोरी पसंद है तो इस फिल्म को एक बार देखा जा सकता है। | 1 |
चंद्रमोहन शर्मा आमतौर से दिवाली से पहले के वीक में ऐसी फिल्में ही बॉक्स ऑफिस पर दस्तक देती है जिनकी अप्रोच सीमित और सब्जेक्ट कुछ हटकर होता है। ऐसे फिल्में फैमिली क्लास की कसौटी पर खरी नहीं उतरतीं लेकिन एक खास वर्ग जरूर इन्हें पसंद करता है। यंग डायरेक्टर मनीष श्रीवास्तव की इस फिल्म में भी ऐसा मसाला मौजूद है जो मल्टिप्लेक्स कल्चर और जेन एक्स की कसौटी पर खरा उतरने का दम रखता है। कहानी हुसैनी (विकास आनंद) की हत्या की जांच एसीपी संकेत पुजारी (नसीरुद्दीन शाह) इंस्पेक्टर समीरा (औरोशिखा) के साथ कर रहा है। केस की जांच के दौरान इन दोनों के हाथ कुछ विडियो फुटेज लगते हैं। इनको संकेत और समीरा बार-बार देखते हैं, इन्हें लगता है ये टेप्स उन्हें कातिल तक पहुंचा सकती हैं। इन्हीं टेप्स से उन्हें दीपक उर्फ आदि (आनंद तिवारी), पैटी (आंचल नंदजोग्र), नीना (मानसी) और जीवन (निशांत लाल) के बारे में पता लगता है। यहीं से कहानी ऐसे चक्रव्यूह में जाकर फंसती है कि हॉल में बैठा दर्शक भी सोच में पड़ जाता है। हुसैनी के मर्डर से जुड़े तार दुबई तक पहुंचते हैं संकेत को जांच में पता लगता है कि हुसैनी का रिश्ता दुबई में बैठे डॉन अजमत खान से है। इस विडियो में ऐसा कुछ भी है जो सोची समझी प्लानिंग करके तैयार किया गया है। संकेत और समीरा को इस टेप के बारे में ऐसा एक राज पता लगता है जिसे सुनकर दोनों के पैरों तले जमीं निकल जाती है। । ऐक्टिंग डायरेक्टर मनीष की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने बॉक्स ऑफिस का मोह किए बिना किरदारों के मुताबिक फिल्म की स्टार कॉस्ट चुनी। सैम के रेाल में अमित सयाल ने बेहतरीन ऐक्टिंग की है। एकबार फिर पुलिस इंस्पेक्टर के रोल में नसीरुद्दीन शाह छा गए। ज्यादातर नए कलाकार है लेकिन हर किसी ने अपने किरदार को अच्छे ढंग से निभाया है। खासकर आदि के रोल में आनंद तिवारी ने अपनी पहचान छोड़ी तो अन्य कलाकारों में मानसी रच, आंचल नन्द्रजोग, दिशा अरोड़ा, निशांत लाल, सिराज मुस्तफा, सनम सिंह सहित सभी ने अपने किरदार को अच्छे ढंग से निभाया है। डायरेक्शन इस फिल्म की कहानी भी मनीष ने लिखी है शायद यही वजह है उनकी कहानी और किरदारों पर पूरी पकड़ है। बेशक इंटरवल से पहले कहानी की रफ्तार कुछ धीमी है लेकिन इंटरवल के बाद कहानी ट्रैक पर फुल स्पीड से लौटती है। हर किरदार को मनीष ने पावरफुल बनाने की अच्छी कोशिश की है। कुछ सीन्स को जरूरत से ज्यादा लंबा किया गया है। नसीर जब भी स्क्रीन पर नजर आते हैं, कहानी की रफ्तार तेज हो जाती है। क्यों देखें अगर आप डार्क और लीक से हटकर बनी सस्पेंस थ्रिलर फिल्मों को कुछ ज्यादा ही पसंद करते हैं तो इस फिल्म को एकबार देखा जा सकता है। | 0 |
बैनर :
पीवीआर पिक्चर्स
निर्माता :
अजय बिजली, दिबाकर बैनर्जी, प्रिया श्रीधरन, संजीव के. बिजली
निर्देशक :
दिबाकर बैनर्जी
संगीत :
विशाल-शेखर
कलाकार :
इमरान हाशमी, अभय देओल, कल्कि कोएचलिन, प्रसन्नजीत चटर्जी, फारुख शेख
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 1 घंटा 54 मिनट
चुनाव नजदीक आते ही शहर को पेरिस या शंघाई बनाने की बातें तेज हो जाती हैं। बिज़नेस पार्क, ऊंची बिल्डिंग और चमचमाते मॉल्स के लिए मौके की जमीन चुनी जाती है। इसका विरोध भी शुरू हो जाता है क्योंकि कुछ लोगों की दुकान विरोध से ही चलती है। राजनीतिक षड्यंत्र शुरू हो जाते हैं और नेता से लेकर तो अफसर तक अपना-अपना हित साधने में जुट जाते हैं।
इस तरह के विषय पर भारत में कई फिल्में बन चुकी हैं और शंघाई में दिबाकर बैनर्जी ने इसे अपने नजरिये से प्रस्तुत किया है। मूलत: इस फिल्म की कहानी ग्रीक लेखक वासिलिस वासिलिकोस की किताब ‘ज़ेड’ से प्रेरित है जिसका भारतीयकरण कर ‘शंघाई’ में प्रस्तुत किया गया है। कही-कही कहानी ‘जाने भी दो यारों’ से भी प्रेरित लगती है।
शंघाई का सबसे बड़ा प्लस पाइंट है दिबाकर बैनर्जी का निर्देशन और प्रस्तुतिकरण। दिबाकर बैनर्जी की गिनती वर्तमान में भारत के बेहतरीन निर्देशकों में से होती है और वे हर विषय पर फिल्म बनाने की क्षमता रखते हैं। फिल्म की हर फ्रेम पर उनकी छाप नजर आती है और एक ही सीन में वे कई बातें कह जाते हैं। कोरियोग्राफर, फाइट मास्टर या स्टार उन पर हावी नहीं होते हैं।
दिबाकर बैनर्जी अपनी यह बात कहने में पूरी तरह सफल रहे हैं कि राजनीति अब सेवा नहीं बल्कि व्यवसाय बन चुकी है और कितनी गिर चुकी है। हालांकि उनका डायरेक्शन क्लास अपील लिए हुए है। उन्होंने दर्शकों के लिए समझने को बहुत कुछ छोड़ा है और यही वजह है कि एक आम दर्शक को फिल्म समझने में कठिनाई हो सकती है।
भारत नगर में सरकार आईबीपी (इंटरनेशनल बिज़नेस पार्क) बनाने की घोषणा करती है। जिस जमीन पर ये बनाया जाना है वहां पर गरीब बस्ती है। सरकार उन्हें दूर जमीन और मकान देने का वादा करती है और आईबीपी को प्रगति से जोड़ती है।
इसी बीच चार्टर्ड फ्लाइट से सोशल एक्टिविस्ट डॉ. अहमदी (प्रसन्नजीत) की एंट्री होती है जो आईबीपी का विरोध करता है। न्यूजपेपर के फ्रंट पेज पर कैसे छपा जाए ये वह बेहतरीन तरीके से जानता है और इसलिए हीरोइन की बगल में खड़े होकर फोटो भी खिंचाता है।
अहमदी के विरोध के स्वर तेज होते है और सरकार घबराने लगती है। इसी बीच एक शराबी ड्राइवर अहमदी को अपनी गाड़ी से कुचल देता है। सरकार इसे एक्सीडेंट बताती है, लेकिन कुछ लोगों का मानना है कि यह मर्डर है।
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विश्व हिंदू परिषद के विरोधों के बीच थिअटर तक पहुंची फिल्म 'लाली की शादी में लड्डू दीवाना' एक पढ़ी-लिखी, आत्मनिर्भर, खूबसूरत लड़की 'लाली' (अक्षरा हसन) और झूठे, मतलबी, लूज़र 'लड्डू' (विवान शाह) की लव स्टोरी है, जिसमें एक नेक-जहीन, अमीर शहजादे 'कबीर' (गुरमीत चौधरी) का तीसरा एंगल भी है। फिल्म की कहानी में झोल की भरमार है। मसलन, साइकल की दुकान के मालिक का बेटा यानी अपना हीरो लड्डू टाटा, बिड़ला, अंबानी बनने का सपना देखता है, पर उसे पूरा करने के लिए ललितपुर से बड़ोदरा जाकर कैफे में वेटर बन जाता है। शायद ही किसी ने टाटा, बिड़ला बनने के लिए यह रास्ता पहले कभी सोचा होगा। यही नहीं, कैफे में बैठे-बैठे अपने लैपटॉप पर करोड़ों की डील करने वाली लाली नौकरी छोड़ते ही सड़क पर आ जाती है, क्योंकि उसका घर, गाड़ी, मोबाइल सब कंपनी का है। मोबाइल का बिल भी कंपनी भरती है। यह कैसी नौकरी थी भई, फिल्म के राइटर साहब शायद भूल गए कि नौकरी करने पर कुछ सैलरी-वैलरी भी मिलती है। फ्लैशबैक और प्रजेंट में झूलती फिल्म कश्मीर की खूबसूरत वादियों, सरसों के खेत जैसे कुछ खूबसूरत सीन के बावजूद इस कदर बोर करती है कि दिल करता है कि काश इसकी समीक्षा न करनी होती तो एक नींद ही मार ली जाती। खैर, फिल्म की शुरुआत होती है लाली की शादी से, जो नौ महीने की प्रेग्नेंट है और वीर से शादी के बंधन में बंधने वाली है। उसी मंडप में लड्डू भी दूल्हा बना बैठा है। तभी लड्डू होने वाली दुल्हन लेक्चर देकर लोगों को पकाना शुरू करती है, लेकिन लड्डू उससे प्रेरित होकर वीर के पास यह खुलासा करने पहुंच जाता है कि लाली के होने वाले बच्चे का बाप वही है। फिर शुरू होता है फ्लैशबैक यानी लाली और लड्डू की अमर प्रेम कहानी, जिसे देखकर लोग फिल्म देखने के अपने फैसले को कोसने पर मजबूर हो जाएंगे। अमीर बनने का सपना देखने वाला लड्डू लाली को अमीरजादी समझकर कॉफी के साथ गुलाब का फूल देकर पटा लेता है। लाली को पाकर उसके मन में लड्डू फूटने शुरू ही होते हैं कि पता चलता है कि लाली ने नौकरी छोड़ दी है और उसकी तरह ठन ठन गोपाल हो चुकी है। लाली को भी लड्डू के झूठ पता चल जाता है। फिर भी वह लड्डू के साथ कश्मीर में प्यार भरे गाने के लिए तैयार हो जाती है। हद तो तब होती है जब लड्डू अपनी गर्लफ्रेंड लाली से बॉस की गलत हरकतों को छोटे लेवल का कॉम्प्रोमाइज बताकर सहने की सलाह देता है। बॉयफ्रेंड की ऐसी नसीहत पर कोई भी लड़की जोर का थप्पड़ लगाएगी, लेकिन लाली चुप रहती है। वह लड्डू पर हाथ तब उठाती है जब वह उसे शादी से पहले प्रेग्नेंट हो जाने पर अबॉर्शन करने को कहता है। इस पर लड्डू के मां-बाप उसे बेदखल कर लाली को अपनी बेटी बना लेते हैं और अमीरजादे वीर से उसकी शादी तय कर देते हैं। अब लाली की शादी वीर से होगी या लड्डू से, ये जानने के लिए आपको फिल्म देखने की नहीं, बस थोड़ा सा दिमाग लगाने की जरूरत है। हां, वीएचपी वाले ये फिल्म जरूर देख सकते हैं, क्योंकि फिल्म देखने के बाद उन्हें ये तसल्ली हो जाएगी कि उनकी हिंदू संस्कृति सही सलामत है, क्योंकि फिल्म में प्रेग्नेंट महिला की शादी और फेरों का ऐसा कोई सीन नहीं है, जिसे लेकर वे बवाल कर रहे थे। फिल्म के डायरेक्टर मनीष हरिशंकर ने अपने तय कॉमिडी ऑफ एरर क्रिएट करने की कोशिश की है, लेकिन पूरी तरह नाकामयाब हुए हैं। फ्लैशबैक और प्रजेंट में झूलती फिल्म कश्मीर की खूबसूरत वादियों, सरसों के खेत जैसे कुछ खूबसूरत सींस के बावजूद दर्शकों को बोर ही करती है। विवान और अक्षरा की ऐक्टिंग बेहद निराशाजनक है। विवान ओवर ड्रमैटिक हैं तो अक्षरा के चेहरे पर इमोशन ही नहीं आते। संजय मिश्रा, दर्शन जरीवाला, सौरभ शुक्ला जैसे सपोर्टिंग कलाकार फिल्म को कुछ गति देने की कोशिश करते हैं, लेकिन बहुत भला नहीं कर पाते। फिल्म का म्यूजिक भी प्रभावी नहीं है। कहीं भी कभी भी आ जाने वाले गाने फिल्म को और बोझिल ही बनाते हैं। | 0 |
किशन गिरहोत्रा (फरहान) के सिंगर बनने के सपने तब एकाएक बिखर जाते हैं जब वह मुरादाबाद के आईएएस ऑफिसर के मर्डर के झूठे केस में फंस जाता है। इसके बाद वह उस अपराध के लिए जेल चला जाता है जो उसने कभी किया ही नहीं था। किशन एनजीओ वर्कर (डायना पेंटी) और जेल के कुछ साथियों की मदद से एक बैंड बनाने का निर्णय लेता है। क्या वह जेल के अंदर अपना बैंड बनाने का सपना पूरा कर पाता है या वह जेल से भागने में सफल हो पाता है? मूवी रिव्यू: सच्ची घटनाओं पर आधारित लखनऊ सेंट्रल एक फील-गुड, ह्यूमन, जेल तोड़कर भागने की इच्छा वाले ड्रामा वाली फिल्म है। यह फिल्म आपको इमोशनली जोड़ती है। हर मुश्किल से जीतने की थीम इस फिल्म को लोगों से कनेक्ट करती है। अपने घर से बाहर लखनऊ सेंट्रल की चारदीवारी के अंदर जीने की एक वजह तलाशते कैदी दर्शकों के दिल के तार को छेड़ देते हैं। अपने परिवार और समाज से ठुकरा दिए जाने के बाद कैदी एक-दूसरे के साथ में सुकून महसूस करते हैं। रंजीत तिवारी ने कैदियों के बीच इस दोस्ती और अनोखे रिश्ते को बहुत खूबसूरती के साथ हैंडल किया है। इस मुद्दे पर उनकी भावुकता को उनके स्टारकास्ट ने कॉम्प्लिमेंट किया है। रॉनित रॉय अपने किरदार पर बहुत सटीक दिखते हैं। वह फिल्म में एक धूर्त और चालाक जेलर की भूमिका निभा रहे हैं। फरहान ने पूरी क्षमता के साथ लखनऊ सेंट्रल को अपने कंधों पर उठाया है लेकिन देसी कैरक्टर को निभाने के लिए किए उनके एफर्ट्स विजिबल हो जाते हैं। उनकी अशुद्ध अंग्रेजी में बात करना आर्टिफिशल लगता है लेकिन उनका किरदार आपको कहानी से कनेक्ट कर देता है। उनका किरदार आपको उनकी बदकिस्मती पर रुला देता है। दीपक डोबरियाल, रवि किसन, राजेश शर्मा, इनाम-उल-हक और गिप्पी ग्रेवाल मुख्य भूमिकाओं में नजर आएंगे। फिल्म के गानों की बात करें तो रंगदारी एक खूबसूरत कंपोजिशन है। डायना पेंटी ने भी फिल्म में अच्छा काम किया है। | 0 |
रामगोपाल वर्मा द्वारा निर्मित फिल्म ‘गो’ के एक दृश्य में राजपाल यादव गुंडों को धमकाते हुए कहते हैं कि भाग जाओ यहाँ से। गुंडे नहीं भागते। फिर वह दूसरी बार कहते हैं ‘मैं दूसरी बार वार्निंग दे रहा हूँ भाग जाओ यहाँ से।‘ गुंडे फिर भी नहीं भागते, लेकिन सिनेमाघर से कुछ दर्शक जरूर भाग जाते हैं।
एक निर्माता के रूप में रामगोपाल वर्मा की बुद्धि पर तरस आता है। पता नहीं क्या सोचकर उन्होंने इतनी घटिया कहानी पर फिल्म बनाने की सोची। मौका देने में अगर वे इतने उदार हैं तो फिल्म बनाने की हसरत पालने वाले हर इनसान को रामू से मिलना चाहिए।
ऐसा लगता है कि नौसिखियों की टीम ने यह फिल्म बनाई है। घिसी-पिटी कहानी, बकवास पटकथा और घटिया निर्देशन। कौन कितना घटिया काम करता है, इसका मुकाबला चल रहा है। पूरी फिल्म दृश्यों की असेम्बलिंग लगती है। कहीं से भी कोई-सा भी दृश्य टपक पड़ता है।
कहानी है दो प्रेमियों की। उनके माता-पिता शादी के खिलाफ रहते हैं। क्यों रहते हैं यह नहीं बताया गया। दोनों मुंबई से गोवा के लिए भाग निकलते हैं। साथ में एक कहानी और चलती रहती है। इसमें उपमुख्यमंत्री की हत्या मुख्यमंत्री ने करवा दी है।
दोनों कहानी के सूत्र आपस में जुड़ जाते हैं। परिस्थितिवश उपमुख्यमंत्री की हत्या का सबूत इन प्रेमियों के हाथ लग जाता है और उन्हें पता ही नहीं रहता। सबूत मिटाने के लिए मुख्यमंत्री के गुंडों के अलावा पुलिस भी इनके पीछे लग जाती है। इन सबसे वे कैसे बचते हैं, ये बचकाने तरीके से बताया गया है।
एक छोटा-सा बैग लेकर भागे ये प्रेमी हर दृश्य में नए कपड़ों में नजर आते हैं। पता नहीं उस बैग में इतने सारे कपड़े कैसे आ जाते हैं? बैग भी मि. इंडिया से कम नहीं है। कभी उनके साथ रहता है तो कभी गायब हो जाता है।
गौतम नामक नए अभिनेता ने इस फिल्म के जरिये अपना कॅरियर शुरू किया है। उसके पास न तो हीरो बनने की शक्ल है और न ही दमदार अभिनय। निशा कोठारी के लिए अभिनय के मायने हैं आँखें मटकाना, तरह-तरह की शक्ल बनाना और कम कपड़े पहनना। केके मेनन ने पता नहीं क्यों यह फिल्म की? राजपाल यादव जरूर थोड़ा हँसाते हैं।
फिल्म के निर्देशक के रूप में मनीष श्रीवास्तव का नाम दिया गया है। पता नहीं इस नाम का आदमी भी है या फिर बिना निर्देशक के काम चलाया गया है। फिल्म बिना ड्राइवर के कार जैसी चलती है, जो कहीं भी घुस जाती है।
निर्माता :
रामगोपाल वर्मा
निर्देशक :
मनीष श्रीवास्तव
कलाकार :
गौतम, निशा कोठारी, केके मेनन, राजपाल यादव, गोविंद नामदेव
गानों से कैंटीन वाले का भला होता है, क्योंकि दर्शक गाना आते ही बाहर कुछ खाने चला जाता है। फिल्म के कुछ दृश्यों में जबरदस्त अँधेरा है। तकनीकी रूप से फिल्म फिसड्डी है। ‘गो’ देखते समय थिएटर से बाहर भागने की इच्छा होती है।
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एक सुपरहीरो की फिल्म से जो अपेक्षाएं होती हैं उस पर आयरन मैन 3 खरी उतरती है। सभी को पता है कि सुपरहीरो की कहानियां अच्छाई बनाम बुराई की होती है, लेकिन दर्शक को जो चीज रोमांचित करती है वो है दमदार प्रस्तुतिकरण, शानदार एक्शन सीक्वेंस और जबरदस्त उतार-चढ़ाव। इन्हीं कसौटी पर आयरन मैन 3 अपने प्रशंसकों को खुश करती है। थ्री-डी इफेक्ट्स फिल्म की जान है और यह फिल्म थ्री-डी वर्जन में ही देखी जानी चाहिए।
टोनी स्टार्क अपने विशाल बंगले में कई आयरन मैन सूट तैयार करता है और इसको लेकर उसका अपनी गर्लफ्रेंड पीपर पॉट्स से विवाद भी होता रहता है। वह लगातार 72 घंटे तक काम करता है लंबे समय से उसने गहरी नींद नहीं ली है।
आतंकवादी मैनडेरिन का आतंक दिन-प्रतिदिन बढ़ते जा रहा है जिससे सभी चिंतित है। पत्रकारों से बात करते हुए टोनी उसे धमकी देते हुए अपने घर का पता भी बता देता है। मैनडेरिन इसे अपने लिए चुनौती मानता है और टोनी के घर पर जबरदस्त हमला करता है। टोनी और उसकी गर्लफ्रेंड किसी तरह अपनी जान बचाते हैं।
टोनी को मृत मान लिया जाता है। उसके हथियार और शक्ति में पहले जैसी बात नहीं होती। वह अपने आपको एक अनजान जगह पर पाता है जहां 10 वर्ष का एक लड़का हर्ले उसकी मदद करता है।
किस तरह से टोनी फिर शक्तिशाली होता है। मैनडेरिन को ढूंढ निकालता है। किस तरह से उसे मैनडेरिन का राज पता चलता है, यह फिल्म का सार है।
फिल्म की कहानी उतनी मजबूत नहीं है, लेकिन परदे पर जिस तरह से इसे पेश किया गया है, वो पूरी तरह दर्शकों को सीट पर बैठे रहने के लिए मजबूर करता है। पहले सीन से आखिरी सीन तक बोरियत का एक भी पल नहीं है। साथ ही फिल्म की अवधि बहुत कम है, इससे फिल्म बेहद कसी हुई लगती है।
चाइनीज थिएटर में विस्फोट वाला दृश्य, टोनी के घर पर तथा अमेरिकी हवाई जहाज पर मैनडेरिन के हमले वाले दृश्य फिल्म की जान है। स्पेशल इफेक्ट्सल इतने बेहतरीन हैं कि सारे दृश्य एकदम वास्तविक लगते हैं। फिल्म का क्लाइमेक्स पैसा वसूल है और इसमें एक्शन जबरदस्त है।
निर्देशक शेन ब्लैक ने कुछ बदलाव आयरन मैन सीरिज में किए हैं और ये बदलाव फिल्म को ऊंचाइयों पर ले जाते हैं। हर्ले वाला प्रसंग जोड़कर फिल्म को बच्चों से जोड़ने की कोशिश की गई है और ये दृश्य अच्छे बन पड़े हैं। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जार्विस से टोनी की नोक-झोक भी उम्दा है। शेन ने एक्शन के अलावा, ह्यूमर और ड्रामे का भी ध्यान रखा है।
रॉबर्ट डाउनी जूनियर ने आयरन मैन के किरदार में जान फूंक दी है। एक्शन के साथ-साथ वे इमोशनल दृश्यों में भी बेहद प्रभावी रहे हैं। बेन किंग्सले का रोल छोटा है, लेकिन उनका अभिनय देखने लायक है।
कुल मिलाकर आयरन मैन में अपने प्रशंसकों को खुश करने वाली सारी खूबियां मौजूद हैं।
निर्माता :
केविन फीज
निर्देशक :
शेन ब्लैक
कलाकार :
रॉबर्ट डाउनी जूनियर, ग्वेनेथ पॉल्ट्रो, बेन किंग्सले
घंटे 10 मिनट
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1- बेकार/ 2- औसत/ 3- अच्छी/ 4- शानदार/ 5- अद्भुत
निर्माता :
ढिलिन मेहता
निर्देशक :
शिवम नायर
कलाकार :
ओम पुरी, नसीरुद्दीन शाह, परेश रावल, बोमन ईरानी, नेहा धूपिया, तारा शर्मा
गुजराती नाटक ‘महारथी’ पर आधारित ‘महारथी’ एक थ्रिलर फिल्म है, जिसके सात सौ से ज्यादा शो हो चुके हैं। इसलिए फिल्म के प्रति उत्सुकता होना स्वाभाविक है। साथ ही नसीर, बोमन, ओमपुरी और परेश रावल जैसे सशक्त कलाकार भी फिल्म के प्रति आकर्षण पैदा करते हैं। फिल्म में वे सारे तत्व मौजूद हैं, जो एक थ्रिलर फिल्म में जरूरी होते हैं और इस वजह से फिल्म में शुरू से आखिरी तक दिलचस्पी बनी रहती है।
मिस्टर एडेनवाला (नसीरुद्दीन शाह) कभी सफल निर्माता थे, लेकिन अब कर्जों में फँसे हैं। मिसेस एडेनवाला (नेहा धूपिया) ने पैसों की खातिर उनसे शादी की थी और अब दोनों एक-दूसरे को पसंद नहीं करते।
एक रात मि. एडेनवाला की जान सुभाष (परेश रावल) बचाता है। बदले में उसे ड्राइवर की नौकरी मिल जाती है। मि. एडेनवाला ने अपना 24 करोड़ रुपए का बीमा करवा रखा है और उनकी मौत के बाद ये सारे रुपए उनकी पत्नी को मिलने वाले हैं। यह बात उनका वकील (बोमन ईरानी), पत्नी और सुभाष भी जानता है।
एक रात पत्नी के तानों से परेशान होकर एडेनवाला अपनी पत्नी और सुभाष के सामने आत्महत्या कर लेते हैं, लेकिन उसके पूर्व अपनी पत्नी को वे चुनौती दे जाते हैं कि वह उनकी आत्महत्या को हत्या साबित करे तभी उसे 24 करोड़ रुपए की राशि मिल सकती है।
सुभाष मौके का फायदा उठाना चाहता है। वह मिसेस एडेनवाला को समझाता है कि कम जोखिम, कम फायदा बिजनेस होता है। ज्यादा जोखिम, ज्यादा फायदा जुआ होता है और कम जोखिम और ज्यादा फायदा एक मौका होता है जो जिंदगी में कभी-कभी आता है। दोनों मिल जाते हैं और एक योजना बनाते हैं जिसके जरिए मिस्टर एडेनवाला की आत्महत्या को हत्या साबित किया जा सके।
आदमी योजना क्या बनाता है और होता कुछ और है। कई चीजें ऐसी घटित हो जाती हैं जिनके बारे में वह सोचता भी नहीं है। यही बात मिसेस एडेनवाला और सुभाष के साथ भी होती है।
फिल्म की खास बात यह है कि इसमें ज्यादा कुछ छिपाया नहीं गया है। अपराधी और पुलिस के हर कदम दर्शक से वाकिफ रहता है। इसलिए रोचकता बनी रहती है। पटकथा कसी हुई है, लेकिन ऐसे लम्हें कम हैं जो दर्शकों को रोमांच से भर दें।
फिल्म में कुछ और कमियाँ भी हैं। नेहा धूपिया की मौत वाला प्रसंग कमजोर है। नसीर का परेश के नाम सारी दौलत कर जाने के पीछे भी कोई ठोस वजह नजर नहीं आती। नि:संदेह परेश रावल ने अच्छा अभिनय किया है, लेकिन उनकी जगह यह किरदार कोई युवा अभिनेता निभाता तो फिल्म की कमर्शियल वैल्यू बढ़ जाती। परेश की उम्र इस किरदार से ज्यादा है। शायद परेश इस नाटक से शुरू से जुड़े हुए हैं, इस वजह से उन्हें लिया गया है।
शराबी और सफलता देख चुके इंसान के रूप में नसीरुद्दीन शाह ने बेहतरीन अभिनय किया है। उनकी तकलीफ को दर्शक महसूस करता है। अभिनय के महारथियों के बीच में रहकर नेहा धूपिया के अभिनय में भी सुधार आ गया।
ओमपुरी जैसे अभिनेता की प्रतिभा के साथ यह फिल्म न्याय नहीं कर पाती। उनका रोल सबसे कमजोर है। बोमन ईरानी ठीक हैं। थ्रिलर फिल्म में गाना नहीं हो तो बेहतर होता है, इसलिए फिल्म में गाना नहीं है। इस फिल्म को जबर्दस्त तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन एक बार देखी जा सकती है।
बेकार/ 2- औसत/ 3- अच्छी/ 4- शानदार/ 5- अद्भुत
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Chandermohan.sharma@timesgroup.com बॉलिवुड में फिल्ममेकर्स के लिए मर्डर मिस्ट्री, सस्पेंस, थ्रिलर ऐसे हॉट सब्जेक्ट हैं जो अक्सर बॉक्स ऑफिस पर हिट रहते हैं, लेकिन ऐसा बहुत कम ही देखने को मिला है जब करीब साढ़े पांच दशक से भी ज्यादा वक्त गुजर चुके किसी सब्जेक्ट पर फिल्में बनाने का जुनून मेकर्स में आज भी बरकरार हो। करीब साढ़े पांच दशक पहले हुए नानावटी केस ने पूरे देश को उस वक्त झकझोर दिया था। इस मर्डर मिस्ट्री को देश का पहला ऐसा केस माना जाता है जब राजनेताओं के साथ-साथ दो अलग-अलग कम्युनिटी के लोग इस केस के साथ जुड़े। इस केस में मरने वाला सिंधी समाज का अमीर बिज़नसमैन था सो इस कम्युनिटी के लोग इस केस के साथ जुड़े। वहीं मारने वाला पारसी कम्युनिटी का नेवी ऑफिसर था सो नौसेना के कमांडर को इस कम्युनिटी का खुला साथ मिला। कोर्ट में इस केस में पारसी नेवी ऑफिसर के लिए उस वक्त के नामी पारसी ऐडवोकेट पेश हुए तो तो सिंधी बिज़नसमैन की फैमिली की ओर से इसी समुदाय के ऐडवोकेट राम जेठमालानी कोर्ट पेश हुए थे। इस टॉपिक पर बनी पहली हिंदी फिल्म की बात करें तो 1963 में रिलीज हुई डायरेक्टर आर. के. नैयर की 'ये रास्ते हैं प्यार के' इस सब्जेक्ट पर बनी पहली फिल्म थी। इसके बाद 1973 में विनोद खन्ना स्टारर अचानक की कहानी भी इस केस की पृष्ठभूमि पर बेस थी। खबरों की मानें तो पूजा भट्ट भी इस टॉपिक पर 'लव अफेयर' टाइटल से फिल्म बना रही हैं। अगर 'रुस्तम' की बात करें तो यह फिल्म इस सब्जेक्ट पर बनी पिछली दोनों फिल्मों से कहीं ज्यादा भव्य और भारी भरकम बजट में बॉक्स ऑफिस पर बिकाऊ स्टार्स और टिकट खिडकी पर बिकाऊ मसालों को के साथ बनी फिल्म है। अक्षय कुमार पिछले कुछ सालों में बॉलिवुड के पहले ऐसे स्टार हैं जिनकी हर साल औसतन चार फिल्में रिलीज हुईं, लेकिन अब अगले चार महीने अक्षय की कोई और फिल्म रिलीज होने के आसार नहीं हैं। ऐसे में अक्षय के फैन अपने चहेते स्टार की इस फिल्म को मिस नहीं करेंगे तो 15 अगस्त के कमाऊ वीक में फिल्म का रिलीज़ होना बॉक्स आफिस पर फायदे का सौदा है तो इस फिल्म के ऑपोज़िट रितिक रोशन स्टारर 'मोहनजोदड़ो' का आना यकीनन इस फिल्म की कलेक्श्न को प्रभावित कर सकता है। फिल्मी खबरें पढ़ें फेसबुक पर. लाइक करें NBT Movies कहानी : इंडियन नेवी का कमांडर रुस्तम पावरी ( अक्षय कुमार ) अपनी खूबसूरत वाइफ सिंथिया पावरी (इलियाना डीक्रूज़) के साथ बेहद खुश जिंदगी गुजार रहा है। 'रुस्तम' को अपनी डयूटी, अपनी वर्दी और अपनी वाइफ से प्यार है। अचानक रुस्तम को नेवी के एक सीक्रेट मिशन पर कुछ अर्से के लिए विदेश जाना पड़ता है। इसी बीच सिंथिया और शहर के अमीर रंगीनमिजाज सिंधी बिज़नसमैन विक्रम मखीजा (अरजन बाजवा) के बीच नजदीकियां बढ़ने लगती हैं। विक्रम और सिंथिया की मुलाकातों को विक्रम की बहन प्रीति मखीजा (ईशा गुप्ता) बढ़ावा देती है, जल्दी ही विक्रम और सिंथिया के बीच लगातार बढ़ती नजदीकियां अवैध संबधों में बदल जाती है। 'रुस्तम' अपनी ड्यूटी कंप्लीट करके एक दिन अचानक जब घर पहुंचता है तो उसे सिंथिला नहीं मिलती है। अलबत्ता सिंथिया को विक्रम मखीजा के लिखे कुछ लव लेटर मिलते हैं और इन्हीं लव लेटर से रुस्तम को पता चलता है कि सिंथिया के विक्रम मखीजा के साथ नाजायज संबध हैं। रुस्तम नेवी ऑफिस जाकर अपने नाम सर्विस रिवॉल्वर इशू कराकर विक्रम के घर पहुंचता है और विक्रम को एक के बाद एक तीन गोलियां मारता है। विक्रम की हत्या के बाद रुस्तम सीधा पुलिस स्टेशन जाकर अपना गुनाह कुबूल करके खुद को सरेंडर कर देता है। विक्रम की बहन प्रीति किसी भी सूरत में रुस्तम को कोर्ट से सख्त सजा दिलवाने पर आमादा है और वह इसके लिए अपनी दौलत और अपनी पहुंच का इस्तेमाल कर रही है। यहीं से शुरू होता है इस केस के साथ पारसी और सिंधी कम्युनिटी के प्रभावशाली लोगों के अलावा मीडिया और आम लोगों का जुड़ना जिस वजह से अदालत में चल रहा यह केस बेहद अहम हो जाता है। ऐक्टिंग : 'स्पेशल 26', 'बेबी' और 'एयरलिफ्ट' के बाद 'रुस्तम' के किरदार में अक्षय कुमार ने एकबार फिर साबित किया है कि उनमें हर किरदार को निभाने की जबर्दस्त क्षमता है। 'जोकर', 'राउडी राठौर', 'एंटरटेनमेंट', 'खिलाड़ी 786' वगैरह में अपने किरदार की वजह से क्रिटिक्स की आलोचनाएं झेलने के बाद अक्षय ने एकबार फिर साबित किया कि वह डायरेक्टर के लिए ऐसे ऐक्टर हैं जो हर किरदार को निभाने का दम रखते हैं। नेवल कमांडर की ड्रेस में अक्षय स्क्रीन पर लाजवाब नज़र आए। पुलिस कस्टडी और कोर्ट के शुरुआती सीन्स में अक्षय की खामोशी देखने लायक है। ईशा गुप्ता ने अपने किरदार के लिए अच्छा होमवर्क किया जिसका असर स्क्रीन पर नजर आया, इलियाना डीक्रूज बस ठीकठाक रहीं। कुमुद मिश्रा, अर्जन बाजवा ने अपने किरदार को बस निभा भर दिया, वकील के रोल में सचिन खेडेकर खूब जमे हैं। निर्देशन : टीनू देसाई ने चर्चित नानावटी केस की पृष्ठभूमि पर लिखी स्क्रिप्ट को दमदार अंदाज में पेश किया है। टीनू को एक सशक्त बेहतरीन कसी हुई स्क्रिप्ट मिली और इसी के चलते टीनू ने इस मर्डर मिस्ट्री को ऐसे ढंग से पेश किया कि दर्शक कहानी और किरदारों के साथ जुड़ पाता हे। टीनू की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने पचास के दशक को स्क्रीन पर बेहतरीन ढंग से दर्शाया। बेशक पचास के दशक में फिल्माएं इस फिल्म के कुछ सीन्स एकता कपूर की 'वन्स अपॉन अ टाइम इन मुंबई' और 'बॉम्बे वेलवेट' की याद दिलाते हैं। फिल्म शुरुआती पंद्रह मिनट सुस्त है, लेकिन इंटरवल के बाद आपको सीट से बांधने का दम रखती है। टीनू ने किरदारों के मुताबिक, हर कलाकार को जरूरी फुटेज दी तो अक्षय से एक बार फिर बेहतरीन ऐक्टिंग करवाने में भी कामयाब रहे। काश, टीनू फिल्म की ऐडिटिंग के वक्त ऐसे सीन पर कैंची चलाकर फिल्म की लंबाई को दस से पंद्रह मिनट कम करते तो फिल्म की रफ्तार स्टार्ट टू लास्ट एक जैसी रहती। संगीत : फिल्म का संगीत पचास के माहौल में कहानी की डिमांड के मुताबिक तैयार किया गया है, रिलीज से पहले दो गाने तेरे संग यारा, और जब तुम होते हो कई म्यूजिक चार्ट में हिट हैं। इन गानों को टीनू ने फिल्म में कहानी का हिस्सा बनाने की अच्छी कोशिश की है। क्यों देखें : अगर आप अक्षय के फैन हैं तो अपने चहेते स्टार को दमदार नए लुक में देखने के साथ एक पावरफुल किरदार में देखने थिअटर जाए, कोर्ट के सीन्स फिल्म का प्लस पॉइंट है। | 0 |
अक्सर लीक से हटकर बनी ऐसी फिल्में जिनका बॉक्स ऑफिस पर ज्यादा क्रेज न हो, फिल्म में ऐसे स्टार्स हो जिनकी टिकट खिड़की पर डिमांड न हो, ऐसी फिल्मों को रिलीज करने से हर कोई कतराता है। यही वजह रही कि पिछले साल ही पूरी होने के बावजूद इस फिल्म को सिनेमाघरों तक पहुंचने में लंबा वक्त लग गया। पिछले साल मुंबई के मामी फिल्म फेस्टिवल में इस फिल्म की स्पेशल स्क्रीनिंग के वक्त इस फिल्म का क्रेज उस वक्त नजर आया जब इसकी स्क्रीनिंग के वक्त पूरा हॉल खचाखच भरा नजर आया तो फिल्म खत्म होने के बाद दर्शकों ने सीटों से खड़े होकर हॉल में मौजूद फिल्म के लीड स्टार राजकुमार राव और डायरेक्टर विक्रमादित्य मोटवानी के लिए तालियां बजाई। बेशक, यह फिल्म दर्शकों की एक ऐसी क्लास की कसौटी पर ही खरा उतरने का दम रखती है जो लीक से हटकर कुछ ऐसा देखने की चाह में थिअटर का रुख करते हैं, जो सच्चाई और वास्तविकता के बेहद नजदीक हो। अगर 'ट्रैप्ड' की बात की जाए तो यह एक ऐसी घटना पर बनी फिल्म है जिस पर आप आसानी से यकीन कर लेंगे। बेशक, फिल्म का क्लाइमैक्स कुछ ड्रामाई लगता है, लेकिन इसके बावजूद फिल्म ऐसे दर्शकों को अंत तक बांधने का दम रखती है, जिनमें मुंबइया मसाला, ऐक्शन, रोमांटिक फिल्मों की भीड़ से हटकर कुछ नया देखने की चाह हो। इस फिल्म के टेस्ट को देखते हुए मेकर्स ने फिल्म को सिंगल स्क्रीन्स में नहीं, बल्कि मल्टिप्लेक्सों में ही रिलीज किया है। इस फिल्म की कहानी की डिमांड के मुताबिक, डायरेक्टर ने फिल्म में इंटरवल नहीं दिया। अगर आप भी इस फिल्म को पूरा इंजॉय करना चाहते हैं और खुद को फिल्म के साथ बांधकर रखते हुए फिल्म देखना चाहते हैं तो आप फिल्म देखते वक्त हॉल से बाहर न जाएं। फिल्म की शुरुआत कुछ सुस्त है, लेकिन शुरुआती बीस मिनट के बाद आप कहानी और लीड किरदार के साथ बंध जाते हैं। कहानी : शौर्या (राज कुमार राव) और नूरी (गीताजंलि थापा) एक-दूसरे से प्यार करते हैं। शौर्या एक कंपनी में सर्विस करता है। हालात ऐसे बनते हैं कि शौर्या को एक दिन में शादी करनी है और उसे इसके लिए पहले रहने के लिए फ्लैट चाहिए। शौर्या का बजट पंद्रह हजार से ज्यादा नहीं बन रहा, ऐसे में मुंबई में कई एजेंट से मिलने के बाद भी शौर्या को इस किराए पर फ्लैट नहीं मिल रहा। ऐसे में शौर्या को एक एजेंट शहर से कुछ दूर कानूनी विवादों के चलते करीब दो साल से खाली स्वर्ग अपार्टमेंट की पैंतीसवी मंजिल पर एक फ्लैट किराए पर देता है। इस अपार्टमेंट में शौर्या के अलावा और कोई नहीं है। अपार्टमेंट के मेन गेट पर एक बूढ़ा वॉचमैन है, जिसे बहुत कम सुनाई देता है। शौर्या इस फ्लैट को किराए पर ले लेता है। फ्लैट में रात गुजारने के बाद शौर्या सुबह जाने की तैयारी कर रहा है। शौर्या ने फ्लैट के मेन गेट पर चाबी लगाई हुई है, अचानक उसे एकबार फिर फ्लैट के अंदर जाना पड़ता है, तभी तेज हवा के एक झोंके से फ्लैट का दरवाजा बंद हो जाता है, चाबी बाहर लटकी रह जाती है। अपार्टमेंट की पैंतीसवी मंजिल पर फंसे शौर्या का मोबाइल फोन भी जवाब दे देता है, अब उसके पास यहां से बच निकलने का कोई रास्ता नहीं है। ऐक्टिंग : पूरी फिल्म शौर्या यानी राजकुमार राव के कंधों पर टिकी है। इस फ्लैट में शौर्या के पास पीने के लिए पानी नहीं, खाने के लिए कुछ नहीं है, ऐसे हालात में पल-पल जिंदगी की जंग हारते बेबस इंसान के किरदार को राव ने अपनी शानदार ऐक्टिंग से जीवंत कर दिखाया है। भूख के चलते फ्लैट में कीड़े-मकड़े खाने के सीन आपको हतप्रभ कर देंगे। राव की प्रेमिका बनी गीताजंलि थापा के पास करने के लिए कुछ नहीं था। निर्देशन : नामी स्टार्स के साथ लुटेरा बनाने के बाद विक्रमादित्य मोटवानी ने लंबे अर्से बाद इस फिल्म के निर्देशन की कमान संभाली, स्क्रिप्ट की डिमांड के मुताबिक, मोटवानी खरे उतरे हैं। ऐसी फिल्में देखने वालों की क्लास अलग होती है और इस क्लास की कसौटी पर विक्रमादित्य खरे उतरेंगे। क्यों देखें : अगर कुछ नया और अलग देखने के शौकीन हैं तो फिल्म आपको पंसद आ सकती है। टाइमपास, ऐक्शन, थ्रिलर, रोमांटिक मसाला फिल्मों के शौकीनों के लिए फिल्म में कुछ भी नहीं। | 1 |
देश भर में महिलाओं के प्रति बढ़ रहे अत्याचारों का कारण कुछ लोग फिल्मों को बताते हैं। ‘ग्रेंड मस्ती’ जैसी फिल्में उनकी बातों को वजन देती है। यह फिल्म महिलाओं को उपभोग की वस्तु बताती है। ये फिल्म दर्शाती है कि हर महिला बड़ी सहजता के साथ उपलब्ध है सिर्फ थोड़ी फ्लर्टिंग की जरूरत है। फिल्म में पुरुष और स्त्री के प्राइवेट पार्ट्स को लेकर कई भद्दे मजाक किए गए और अश्लीलता की सीमा पार की गई है।
इस फिल्म को एडल्ट कॉमेडी की कैटेगरी में डालना उचित नहीं है। भारत में ‘एडल्ट कॉमेडी फिल्म’ का सही मतलब कभी नहीं समझा गया है। ‘ग्रेंड मस्ती’ के निर्देशक इंद्रकुमार ने ‘मस्ती’ फिल्म बनाई थी, जो ‘एडल्ट कॉमेडी’ के नाम पर ठीक-ठाक फिल्म थी, लेकिन ‘ग्रेंड मस्ती’ फूहड़ और दूषित मानसिकता के साथ बनाई गई फिल्म है। इसमें ‘फन’ नहीं बल्कि ‘चीपनेस’ है।
फिल्म के तीनों हीरो के दिमाग में सदैव सेक्स का कीड़ा बुलबुलाता रहता है। जब वे कॉलेज में पढ़ते थे तो स्टुडेंट्स के साथ लेडी टीचर्स भी टू पीस में कॉलेज आती थीं और वे मस्ती किया करते थे।
कॉलेज छोड़ने के बाद तीनों की शादी हो जाती है। तीनों को अपनी खुराक के अनुरूप सेक्स का डोज नहीं मिल पाता क्योंकि किसी की पत्नी पति से ज्यादा कामयाब है तो कही पत्नी बच्चे को संभालने में व्यस्त है।
कॉलेज में एक कार्यक्रम के लिए एक्स स्टुडेंट्स को बुलाया जाता है। तीनों मौज-मस्ती करने पहुंचते हैं, लेकिन कॉलेज में लड़कियां टू-पीस के बजाय बुरके में नजर आती है क्योंकि नया प्रिंसीपल बहुत सख्त है। तीनों प्रिंसीपल की पत्नी, बेटी और बहन से रोमांस करना शुरू कर देते हैं।
फिल्म में कहानी जैसा कुछ है ही नहीं। लेखक
तुषार हीरानंदानी,
मिलाप जवेरी और निर्देशक इंद्र कुमार की यही कोशिश रही है कि हर सीन में फूहड़ता डाली जाए। चाहे संवादों के जरिये, इशारों से या अंग प्रदर्शन से। फूहड़ चुटकुलों से भी काम चलाया गया है। घटियापन को ही हास्य समझ लिया गया है।
फिल्म के पहले सीन में ही ए बी सी के नये मायने बताए गए हैं। ए बोलते ही कैमरा महिलाओं के नितंबों पर जाता है। बी बोलते ही ब्रेस्ट नजर आते हैं। सी बोलते ही दर्शकों को कल्पना करने के लिए छोड़ दिया जाता है। टाइम पूछने पर बताया जाता है ‘ब्रा पेंटीज़’ फिर संभलकर जवाब दिया जाता है ‘बारह पैंतीस’।
कॉमेडी के नाम पर मोटे, नाटे लोगों को भी नहीं छोड़ा गया। ‘लौरा, रोज, मेरी, मार्लो’ जैसे नामों का मजाक बनाया गया है। एक लड़का उसका नाम पूछने पर पहेली के रूप में जवाब देता है ‘मुंह में दूं या हाथ में?’ फिर नाम बताता है ‘प्रसाद’। ऐसे उदाहरणों से फिल्म पटी पड़ी है। आटे में नमक बराबर फूहड़ता हो तो बर्दाश्त किया जा सकता है, लेकिन यहां तो पूरे कुएं में ही भांग है।
सेक्स या ग्लैमर को फिल्म में दिखाया जाना गलत नहीं है, लेकिन नाम, रंग-रूप और स्त्रियों के प्रति भद्दी बातों में मनोरंजन कैसे ढूंढा जा सकता है। एक्टिंग, संगीत और अन्य पक्षों की बात करना बेकार है।
महत्वपूर्ण फैसला अब दर्शकों के हाथ में है। यदि वे इस फिल्म को बॉक्स ऑफिस पर सफल बनाते हैं तो निर्माता-निर्देशकों की इस बात में दम नजर आने लगेगा कि हम क्या करें दर्शक ही ऐसी ‘सस्ती’ फिल्में देखना चाहते हैं।
बैनर :
मारुति इंटरनेशनल
निर्माता :
अशोक ठाकरिया, इंद्र कुमार
निर्देशक :
इंद्र कुमार
संगीत :
आनंद राज आनंद, संजीव दर्शन
कलाकार :
विवेक ओबेरॉय, रितेश देशमुख, आफताब शिवदासानी, मंजरी फडणीस, करिश्मा तन्ना, सोनाली कुलकर्णी, ब्रूना अब्दुल्ला, मरयम जकारिया, कायनात अरोरा, सुरेश मेनन
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सत्तर और अस्सी के दशक में इस तरह की फिल्में बना करती थी जिसमें हीरो के बचपन को खूब दिखाया जाता था। पिता को ईमानदारी की 'सजा' मिल जाती थी। बड़े होकर ये बच्चे अपनी राह पर चल पड़ते हैं और किसी चौराहे पर आमने-सामने हो जाते हैं। यही सब 'सत्यमेव जयते' में दोहराया गया है। फिल्म में एक भी ऐसा पल नहीं है जो पहले कभी नहीं देखा गया हो।
वीर (जॉन अब्राहम) एंग्री यंग मैन है। वह भ्रष्ट पुलिस ऑफिसर्स को चुन-चुन कर जला देता है। पुलिस विभाग में हलचल मच जाती है। पुलिस इंस्पेक्टर शिवांश (मनोज बाजपेयी) को जिम्मेदारी दी जाती है कि वह इस पुलिस के दुश्मन को ढूंढ निकाले।
वीर को जब यह पता चल जाता है तो वह शिवांश को फोन लगा कर हत्याओं के बारे में बात करता है और चुनौती देता है। शिवांश के हाथ एक सूत्र लगता है जिससे वह उसको पकड़ने के करीब पहुंच जाता है। क्या वह वीर को पकड़ लेता है? वीर ये हत्याएं क्यों कर रहा है? इनके जवाब फिल्म में मिलते हैं।
कहानी का सबसे कमजोर पहलु यह है कि जब यह राज खुलता है कि वीर हत्या क्यों कर रहा है, तो उस घटना में और वीर द्वारा की गई हत्याओं में कोई कनेक्शन नजर नहीं आता। वीर को जब पता था कि उसका दुश्मन कौन है तो वो उसी आदमी को खत्म कर सकता था। वह ढेर सारे पुलिस ऑफिसर्स की हत्या क्यों करता है? ठीक है कि वह भ्रष्ट पुलिस ऑफिसर्स को मौत के घाट उतारता है, लेकिन जिस तरह से लेखक ने इन बातों को जोड़ने की कोशिश की है वो बिलकुल भी लॉजिक के हिसाब से सही नहीं है।
शुरुआत में जरूर फिल्म थोड़ी उम्मीद जगाती है, लेकिन जब धीरे-धीरे लॉजिक का साथ छूटने लगता है तो फिल्म का ग्राफ नीचे की ओर तेजी से आने लगता है। और आखिरी के घंटे में तो फिल्म में कोई रूचि ही नहीं रह जाती है।
वीर के लिए बड़े पुलिस ऑफिसर्स की हत्या करना चुटकी बजाने जैसा रहता है। सरेआम पेट्रोल पंप पर और पुलिस थाने में घुस कर वह अपना काम कर जाता है। दूसरी ओर शिवांश को काबिल पुलिस अफसर दिखाया गया है, लेकिन वह असहाय ही नजर आता है। वीर का शिवांश को फोन लगाने वाली बात भी गले नहीं उतरती। क्यों वह अपने लिए ही मुश्किल पैदा कर रहा है? निर्देशक को सिर्फ दोनों की टक्कर दिखाना थी इसलिए यह बात डाल दी गई।
मिलन मिलाप ज़वेरी का ध्यान सिर्फ इसी पर रहा कि किसी भी तरह फाइट सीन डाले जाएं। उन्हें स्टाइलिश बनाया जाए, भले ही वे कहानी में फिट होते हैं या नहीं। यही हाल संवादों का है। सीन में किसी भी तरह संवाद को डाला गया है।
फाइट सीन एक्शन प्रेमियों को थोड़ा खुश करते हैं। हालांकि इनमें नई बात नहीं है, लेकिन जॉन अब्राहम को एक्शन करते देखना अच्छा लगता है।
जॉन अब्राहम का चेहरा पूरी फिल्म में एक सा रहा। कैसा भी सीन हो उनके चेहरे पर कोई भाव नहीं आता। फाइटिंग सीन में तो यह चल जाता है, लेकिन जब इमोशनल सीन आते हैं तो जॉन की पोल खुल जाती है। मनोज बाजपेयी अब एक जैसा अभिनय करने लगे हैं। बागी 2 का ही एक्सटेंशन सत्यमेव जयते में नजर आता है। नई हीरोइन आयशा शर्मा को सिर्फ इसलिए रखा गया कि फिल्म में एक हीरोइन होना चाहिए। आयशा का अभिनय निराशाजनक है।
सत्यमेव जयते के बारे में सत्य बात यही है कि इससे दूर ही रहा जाए।
बैनर : टी-सीरिज सुपर कैसेट्स इंडस्ट्री लि., एमए एंटरटेनमेंट प्रा.लि.
निर्माता : भूषण कुमार, कृष्ण कुमार, मनीषा आडवाणी, मधु भोजवानी, निखिल आडवाणी
निर्देशक : मिलाप मिलन ज़वेरी
संगीत : साजिद वाजिद
कलाकार : जॉन अब्राहम, आयशा शर्मा, मनोज बाजपेयी, अमृता खानविलकर
सेंसर सर्टिफिकेट : केवल वयस्कों के लिए * 2 घंटे 21 मिनट 11 सेकंड
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बैनर :
भंडारकर एंटरटेनमेंट, वाइड फ्रेम पिक्चर्स
निर्माता :
कुमार मंगत पाठक, मधुर भंडारकर
निर्देशक :
मधुर भंडारकर
संगीत :
प्रीतम चक्रवर्ती
कलाकार :
अजय देवगन, इमरान हाशमी, ओमी वैद्य, श्रुति हासन, शाजान पद्मसी, श्रद्धा दास, टिस्का चोपड़ा, रितुपर्णा सेनगुप्ता
सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 2 घंटे 28 मिनट * 16 रील
शुक्र है कि मधुर भंडारकर ने अपना ट्रेक बदला वरना एक जैसी फिल्म बनाते हुए वे टाइप्ड होने लगे थे। पिछली फिल्म ‘जेल’ की असफलता ने उन्होंने सबक सीखते हुए इस बार हल्की-फुल्की रोमांटिक फिल्म ‘दिल तो बच्चा है जी’ बनाई।
ज्यादातर निर्देशक जब अपने कम्फर्ट जोन से बाहर आते हैं तो बेहतर फिल्म नहीं बना पाते हैं। कुछ नया करने की कोशिश में वे बहक जाते हैं। ‘दिल तो बच्चा है जी’ के जरिये मधुर ने कोई महान रचना तो नहीं की है, लेकिन यह फिल्म औसत से बेहतर है। कई जगह स्क्रिप्ट में कसावट की जरूरत महसूस होती है, लेकिन समग्र रूप से यह फिल्म दर्शकों को ‘फील गुड’ का अहसास कराती है।
प्यार के मायने सबके लिए अलग-अलग हैं। कोई सेक्स को ही प्यार समझ बैठता है। किसी का दिल किसी एक से नहीं भरता तो कोई एक पर ही पूरी जिंदगी न्यौछावर कर देता है। इसको आधार बनाकर मधुर भंडारकर, नीरज उडवानी और अनिल पांडे ने ‘दिल तो बच्चा है जी’ की कहानी और स्क्रीनप्ले लिखा है।
वर्षीय नरेन आहूजा (अजय देवगन) का वैवाहिक जीवन असफल रहा। पत्नी से वह तलाक ले रहा है। इसी बीच वह उम्र में अपने से आधी जून पिंटो (शाजान पद्मसी) की ओर आकर्षित होने लगता है।
जून आज की जनरेशन से है, जो किसी से भी अपने दिल की बातें बिंदास तरीके से शेयर करती है। वह अपने बॉस नरेन से भी पूछ बैठती है कि उसने पहली बार सेक्स किस उम्र में किया था। नरेन उसके इस बिंदासपन को ही प्यार समझ बैठता है।
नरेन के दो पेइंग गेस्ट हैं, मिलिंद केलकर (ओमी वैद्य) और अभय (इमरान हाशमी)। मिलिंद के लिए प्यार के मायने हैं शादी और परिवार। उसे इस बात से मतलब है कि वह गुनगुन (श्रद्धा दास) को चाहता है, भले ही गुनगुन उसका और उसके पैसों का उपयोग करती है। सच्चा प्यार ही उसके लिए मायने रखता है।
अभय की जिंदगी तीन ‘एफ’ के इर्दगिर्द घूमती है। फन, फ्लर्टिंग और ....। उसकी जिंदगी का आदर्श वाक्य है- सो और सोने दो। प्यार-व्यार उसके लिए बेकार की बातें थीं, जब तक वह निक्की (श्रुति हासन) से मिलता नहीं है। इन तीनों की प्यार की गाड़ी मंजिल तक पहुँच पाती है या नहीं, यह फिल्म में हल्के-फुल्के तरीके से दिखाया गया है।
इस कहानी में हास्य की भरपूर गुंजाइश थी, लेकिन तीनों लेखक मिलकर इसका पूरी तरह उपयोग नहीं कर पाए। कई जगह फिल्म घसीटते हुए आगे बढ़ती है, खासकर पहले हाफ में। तीनों कैरेक्टर्स को स्थापित करने में जरूरत से ज्यादा समय लिया गया है। इसके बावजूद उन्होंने जितना भी पेश किया है, वह अच्छा लगता है। संजय छैल द्वारा लिखे गए ‘आजकल तक होलसेल में बैडलक चल रहा है’ जैसे चुटीले संवाद कई जगह गुदगुदाते हैं। अजय और शाजान की कहानी सबसे ज्यादा दिलचस्प है और गुदगुदाती है।
निर्देशक मधुर ने प्यार को लेकर अलग-अलग दृष्टिकोण को अपने कैरेक्टर के जरिये सामने रखा है। उनकी तीनों फीमेल कैरेक्टर्स बेहद प्रेक्टिकल और बोल्ड हैं। अभय के साथ निक्की एक रात गुजारती है और सेक्स को लेकर वह बिलकुल असहज नहीं होती। गुनगुन अपने स्वार्थ की खातिर मिलिंद का जमकर शोषण करती है।
एक निर्देशक के रूप में मधुर ने कहानी को इस तरह पेश किया है कि उत्सुकता बनी रहती है। हालाँकि कई जगह दोहराव देखने को मिलता है। फिल्म की लंबाई भी ज्यादा है और अंत भी परफेक्ट नहीं कहा जा सकता है।
अभिनय फिल्म का सबसे सशक्त पहलू है। अजय देवगन ने अपने उम्र से आधी लड़की को चाहने की असहजता को बेहतरीन तरीके से पेश किया है। शाजान पद्मसी फिल्म का सरप्राइज है। उनके खूबसूरत और मासूम चेहरे का निर्देशक ने जमकर उपयोग किया है। शाजान का अभिनय उल्लेखनीय है और इस फिल्म के बाद उन्हें बेहतरीन मौके मिल सकते हैं।
इमरान हाशमी के लिए लंपट व्यक्ति का किरदार निभाना हमेशा से आसान रहा है। इस फिल्म में उनके अभिनय में सुधार नजर आता है। ओमी वैद्य ‘3 इडियट्स’ से उठकर सीधे ‘दिल तो बच्चा है जी’ में चले आए हैं। श्रुति हासन में आत्मविश्वास नजर आया और श्रद्धा दास भी प्रभावित करती हैं।
प्रीतम का संगीत मधुर है, लेकिन हिट गीत की कमी खलती है। हिट गाने इस फिल्म के लिए मददगार साबित हो सकते थे। अभी कुछ दिनों से और जादूगरी अच्छे बन पड़े हैं। कुल मिलाकर कमियों के बावजूद भी ‘दिल तो बच्चा है जी’ रोचक है।
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निर्देशक गौरी शिंदे ने 'इंग्लिश विंग्लिश' बनाकर चौंका दिया था। उनकी फिल्म लीक से हटकर थी और सफल भी रही थी। वे ऋषिकेश मुखर्जी, बासु चटर्जी और गुलजार जैसे निर्देशकों की राह पर चलने वाली निर्देशक हैं। ये मध्यमार्गी फिल्मकार माने जाते हैं जो संदेश देने वाली फिल्म मनोरंजक अंदाज में पेश करते हैं। गौरी शिंदे की दूसरी फिल्म 'डियर जिंदगी' में उन्होंने जिंदगी के मायने समझाने की कोशिश की है। खूब सारा ज्ञान दिया गया है, लेकिन इस बात का ध्यान भी रखा है कि यह 'भारी' न हो जाए।
कियारा (आलिया भट्ट) नामक लड़की के जरिये बात कही गई है। वह कैमरावूमैन है। अपने करियर में बहुत कुछ करना चाहती है, लेकिन अवसर नहीं मिल रहे हैं। अपनी लव लाइफ को लेकर कन्फ्यूज है। माता-पिता से उसकी बनती नहीं है। अपनी जिदंगी को उसने उलझा रखा है। समस्या इतनी जटिल नहीं है जितनी उसने बना रखी है। सिर्फ दोस्तों के साथ रहना उसे अच्छा लगता है।
मुंबई से कियारा को कुछ कारणों से अपने माता-पिता के पास गोआ जाना पड़ता है। यहां उसकी मुलाकात दिमाग के डॉक्टर जहांगीर खान उर्फ जग्स (शाहरुख खान) से होती है। कियारा उससे सलाह लेने के लिए जाती है और जग्स से लगातार मुलाकात उसका जिंदगी के प्रति दृष्टिकोण बदल देती है। उसे समझ में आता है कि उसका व्यवहार और जिंदगी के प्रति नजरिया ऐसा क्यों हो गया है। छोटी-छोटी बातें हमें उलझा कर रख देती हैं और हम जिंदगी के सकारात्मक पहलुओं की ओर देखना बंद कर दु:खी हो जाते हैं। >
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गौरी शिंदे ने फिल्म को लिखा भी है। उन्होंने जो विषय चुना है उस पर लिखना आसान है और फिल्म बनाना बहुत कठिन है, लेकिन वे एक ऐसी फिल्म बनाने में सफल रही हैं जो देखी जा सकती है। जो बात वे कहना चाहती थीं उन्होंने किरदारों के जरिये व्यक्त की है, अब ये दर्शक पर निर्भर करता है कि वह कितना समझता है।
अक्सर कियारा की उम्र के लड़के या लड़की इस स्थिति से गुजरते हैं। माता-पिता और वे आपस में एक-दूसरे को समझ नहीं पाते। प्यार के मायने उन्हें पता नहीं रहते। करियर में कम समय बहुत कुछ कर लेना चाहते हैं। जब चीजें उनके मन के अनुरूप नहीं होती तो वे दु:खी हो जाते हैं और ऐसे समय उन्हें जग्स जैसे गाइड की जरूरत पड़ती है जो उन्हें समझाए और जीवन के मायने बताए। फिल्म के जरिये इन सारी बातों को दर्शाया गया है।
फिल्म को खास बनाते हैं कियारा और जग्स के किरदार। कियारा जहां कन्फ्यूज और कम उम्र की है तो जग्स स्पष्ट और परिपक्व। इस वजह से दोनों एक-दूसरे के पूरक लगते हैं। फिल्म में उनकी बातचीत सुनने लायक है और कुछ बेहतरीन संवाद सुनने को मिलते हैं। कमरे में, समुंदर किनारे और साइकिलिंग करते हुए जग्स, कियारा से बातचीत करता है, जिसके आधार पर कियारा को पता लगता है कि वह कहां गलत है।
जिंदगी की तरह यह फिल्म भी परफेक्ट नहीं है। कुछ खामियां उभर कर आती हैं। मसलन कियारा ऐसी क्यों है, इसका कारण ये बताया गया है कि बचपन में उसे पैरेंट्स का उसे प्यार नहीं मिलता। हालांकि पैरेंट्स की कोई खास गलती नजर नहीं आती, इससे ड्रामा कमजोर होता है। दूसरी शिकायत फिल्म की लंबाई को लेकर होती है। चूंकि कहानी में उतार-चढ़ाव कम और बातचीत ज्यादा है इसलिए फिल्म कहीं-कहीं ठहरी हुई लगती है। अली ज़फर का किरदार महत्वहीन है और इसका ठीक से विस्तार नहीं किया गया है।
निर्देशक के रूप में गौरी शिंदे ने विषय भारी होने के बावजूद फिल्म का मूड को हल्का रखा है। गोआ की खूबसूरती, शाहरुख-आलिया की केमिस्ट्री और संवाद फिल्म को ताजगी देते हैं। छोटे-छोटे दृश्यों से उन्होंने बड़ी बात कहने की कोशिश की है।
कलाकारों का अभिनय फिल्म का सबसे मजबूत पक्ष है। आलिया भट्ट के करियर का यह सर्वश्रेष्ठ अभिनय है। एक ही फिल्म में उन्हें कई रंग दिखाने के अवसर मिले और हर भाव को उन्होंने बारीकी से पकड़ कर व्यक्त किया है। शाहरुख के साथ उनकी पहली मुलाकात और अपने परिवार के सामने उनका फट पड़ने वाले दृश्यों में उन्होंने कमाल का अभिनय किया है। उनका अभिनय दर्शकों को फिल्म से बांध कर रखता है। सीन के अनुरूप तुरंत उनके चेहरे भर भाव आते हैं।
सुपरस्टार का चोला उतारकर एक सामान्य रोल में शाहरुख खान को देखना सुखद है। अपने चार्म से उन्होंने जहांगीर खान की भूमिका को बहुत आकर्षक बना दिया है। फिल्म की कामयाबी या नाकामयाबी का बोझ उन पर नहीं है इसलिए वे तनाव मुक्त दिखे और इसका असर उनके अभिनय पर नजर आया। अपनी बोलती आंखें और संवाद अदागयी से उन्होंने अपने अभिनय को गहराई दी है। अन्य कलाकारों का योगदान भी अच्छा है। 'लव यू जिंदगी' सहित कुछ गीत गहरे अर्थ लिए हुए हैं।
'डियर जिंदगी' की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह जिंदगी के प्रति सकारात्मक और आशावादी होने की बात कहती है।
बैनर : होप प्रोडक्शन्स, धर्मा प्रोडक्शन्स, रेड चिलीज़ एंटरटेनमेंट
निर्माता : गौरी खान, करण जौहर, गौरी शिंदे
निर्देशक : गौरी शिंदे
संगीत : अमित त्रिवेदी
कलाकार : आलिया भट्ट, शाहरुख खान, कुणाल कपूर, अली ज़फर, अंगद बेदी, आदित्य रॉय कपूर
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 29 मिनट 53 सेकंड
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Chandermohan.Sharma@timesgroup.com नई दिल्ली : करीब आठ साल पहले विक्रम भट्ट ने पहली बार न्यू कमर रजनीश दुग्गल और अदा शर्मा को लेकर सीमित बजट में '1920' टाइटल से हॉरर फिल्म बनाई। फिल्म ने अच्छी कलेक्शन भी की। ऐसे में विक्रम को लगा कि एक बार फिर इसी टाइटल से फिल्म बनाई जाए, तो उन्होंने चार साल पहले '1920 एविल रिटर्न्स' फिल्म बनाई और यह फिल्म भी बी और सी सेंटरों के अलावा सिंगल स्क्रीन थिएटरों के दम पर अच्छा बिज़नस करने में कामयाब रही। देखिए फिल्म का ट्रेलर: 1920 लंदन अब एक बार फिर विक्रम अपने इसी पसंदीदा टाइटल के साथ अपनी नई फिल्म लेकर हाजिर हैं। इंडस्ट्री में यह भी अटकलें हैं कि विक्रम ने इस फिल्म को करीब तीन साल पहले ही बना लिया था, लेकिन हालात ऐसे बने कि फिल्म किसी न किसी वजह से हर बार लटकती रही। इस बीच विक्रम ने 'हेट स्टोरी' टाइटल से भी फिल्में बनाईं। अगर बतौर प्रड्यूसर बात करें, तो '1920' और 'हेट स्टोरी' विक्रम भट्ट की कंपनी के लिए हर बार फायदे की फ्रेंचाइजी रहा है। इस बार भी विक्रम ने अपने उन्हीं आजमाए हुए फॉर्म्युले- बुरी आत्माएं, तांत्रिक वगैरह को लेकर यह फिल्म बनाई। ऐसी हॉरर, तंत्र-मंत्र, भूत-प्रेत और बुरी आत्माओं को पर्दे पर देखने वाले दर्शकों की एक खास क्लास रहती है और इसी दर्शक वर्ग के दम पर विक्रम की इस फिल्म ने पहले दिन के पहले शो में दिल्ली के डायमंड थिऐटर में सौ फीसदी ऑक्युपेंसी पाई, तो यूपी के कई सेंटरों में फिल्म की कलेक्शन 40 फीसदी से ज्यादा रही। कहानी : राजस्थान की राजकुमारी शिवांगी (मीरा चोपड़ा) के पति वीर (विशाल करवाल) पर एक चुड़ैल का साया है। पति को चुड़ैल के साए से बचाने के मकसद से राजकुमारी अपने एक्स बॉयफ्रेंड जय (शरमन जोशी) से मदद मांगती है, क्योंकि जय तंत्र-मंत्र जानता है। तीन किरदारों के आसपास घूमती इस कहानी में नया कहने को बस इतना है कि अक्सर हमारी फिल्मों में हिरोइन को बुरी आत्मा घेरती है, लेकिन इस बार विक्रम की इस फिल्म में भूत ने हिरोइन को नहीं, बल्कि हीरो को वश में कर लिया है और हिरोइन अपने हीरो को बचा रही है। ऐक्टिंग : लगता है कि शरमन जोशी ने कुछ नया ट्राई करने की चाह में इस फिल्म में काम किया, लेकिन शुरू से अंत तक उनका किरदार बुझा-बुझा सा ही है। न तो उन्होंने इस किरदार के लिए खास तैयारी की। एक फिल्म करने के बावजूद मीरा चोपड़ा की पहचान दर्शकों के लिए अभी भी बस इतनी ही है कि वह प्रियंका चोपड़ा की चचेरी बहन हैं। अगर ऐक्टिंग की बात की जाए तो लगता है कि मीरा को अभी ऐक्टिंग सीखनी बाकी है। टीवी से फिल्मों में आए विशाल करवाल के करने के लिए कुछ खास नहीं था, फिर भी उन्होंने कम फुटेज के बावजूद अपनी पहचान दर्ज कराई। डायरेक्शन : यंग डायरेक्टर टीनू सुरेश देसाई की यह डेब्यू फिल्म है, यही वजह है कि फिल्म में एक के बाद एक खामी साफ नजर आती है। डायरेक्टर ने दर्शकों को डराने के लिए बरसों पुराने उन्हीं फॉर्म्युलों को अपनाया है, जो कभी रामसे ब्रदर्स अपनाया करते थे। हॉरर के नाम पर डिजिटल साउंड का ज्यादा इस्तेमाल किया गया है, लेकिन वह भी बेअसर लगता है। अच्छा होता कि सुरेश इस स्क्रिप्ट पर काम शुरू करने से पहले फिल्म के प्रड्यूसर विक्रम भट्ट से इस बात की टिप्स ले लेते कि इस आधुनिक तकनीक के दौर में दर्शकों को डराने के लिए कौन से तरीके अपनाए जाएं। संगीत : फिल्म में ऐसा कोई गाना नहीं, जो हॉल से बाहर आने के बाद जुबां पर आने का दम रखता हो। क्यों देखें : अगर शरमन जोशी के नाम पर फिल्म देखने जा रहे हैं, तो बिल्कुल न जाएं। अलबत्ता, हॉरर के नाम पर कुछ भी पचा सकते हैं, तो फिल्म आपके लिए है। | 0 |
बैनर :
इरोज इंटरनेशनल, एसएलबी फिल्म्स
निर्माता :
संजय लीला भंसाली, सुनील ए. लुल्ला
निर्देशक :
बेला सहगल
संगीत :
जीत गांगुली
कलाकार :
बोमन ईरानी, फराह खान, कविन दवे, शम्मी, डेजी ईरानी
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 1 घंटा 52 मिनट
यदि किसी की उम्र तीस या चालीस के पार हो गई हो और शादी नहीं हुई हो तो उसका बड़ा मजाक बनाया जाता है। उसकी पीठ पीछे लोग इस बात को लेकर खूब हंसते हैं। उसमें कमियां ढूंढने का प्रयास करते हैं। वह जहां भी जाता है, उससे ये बात जरूर पूछी जाती है कि खुशखबरी कब सुना रहे हो।
‘शिरीन फरहाद की तो निकल पड़ी’ के हीरो फरहाद का भी यही गम है। 45 का होने आया है और शादी नहीं हो पाई। ब्रा-पेंटी की दुकान पर सेल्समैन है। कभी शादी की बात चलती भी है तो उसका काम सुन लोग भाग खड़े होते हैं। भला ये कैसा काम है? अंडरगारमेंट पहनते सभी हैं, लेकिन उसके बारे में बात करने से हिचकते हैं।
वर्षीय शिरीन उसकी दुकान पर आती है और फरहाद को उससे प्यार हो जाता है। प्यार की कोई उम्र नहीं होती है, लेकिन हमारे यहां यदि 45 वर्ष का अधेड़ इश्क लड़ाए तो उसे बुरा माना जाता है। फरहाद कहता भी है कि प्यार की कोई एक्सपायरी डेट नहीं होती, यह कभी भी हो सकता है।
शिरीन फरहाद की तो निकल पड़ी के साथ सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि फिल्म शुरू होने के कुछ देर बाद यह ट्रेक से उतर जाती है और एक औसत प्रेम कहानी बन कर रह जाती है। इस प्रेम कहानी की विशेषता सिर्फ ये है कि इसमें प्रेम करने वाले फोर्टी प्लस हैं, यदि बीस के भी होते तो कहानी पर कोई खास फर्क नहीं पड़ता। कंसेप्ट को ठीक तरह से डेव्हलप नहीं किया गया है। दो प्रौढ़ इंसानों की लव स्टोरी में कॉमेडी का अच्छा-खासा स्कोप था, जिसका पूरा उपयोग नहीं किया गया है।
कहानी में विलेन है फरहाद की मां। शिरीन को वह इसलिए पसंद नहीं करती क्योंकि उसने फरहाद के पिता द्वारा बनाई गई टंकी तुड़वा दी। यह टंकी फरहाद के घर पर बनी थी। नफरत करने का यह बेहद बेतुका प्रसंग रचा गया है और इसके इर्दगिर्द पूरी कहानी घूमती है। कहानी की नींव कमजोर होने से दर्शक कभी भी फिल्म से जुड़ नहीं पाता।
साथ ही शिरीन-फरहाद की लव स्टोरी में कुछ उम्दा, कुछ उबाऊ और कुछ बचकानी बातें हैं। कई जगह उन्हें ऐसे दिखाया गया है जैसे वे टीन-एजर्स हों। फिल्म का संगीत अच्छां है, लेकिन गानें फिल्म में पैबंद की तरह चिपकाए गए हैं।
हाल ही में ‘फेरारी की सवारी’ में सेंट्रल कैरेक्टर्स पारसी थे, इस फिल्म में भी सारे किरदार पारसी हैं। आमतौर पर फिल्मों में पारसियों को कैरीकेचर की तरह पेश किया जाता है। निर्देशक बेला सहगल ने अपने मैन कैरेक्टर्स को इससे बचा कर रखा है, लेकिन पारसियों की मीटिंग में लड़ने वाले लोग कार्टून नजर आते हैं। एक पारसी बूढ़े का किरदार अच्छा है जो इंदिरा गांधी का दीवाना है और उनसे शादी करना चाहता है।
निर्देशक के रूप में बेला सहगल का पहला प्रयास अच्छा है, लेकिन कमजोर स्क्रिप्ट के चलते वे चाहकर भी ज्यादा कुछ नहीं कर पाईं। कई जगह हंसाने की असफल कोशिश साफ नजर आती है।
बोमन ईरानी ने फरहाद के किरदार को विश्वसनीय तरीके से पेश किया है। फराह खान कुछ दृश्यों में असहज लगीं और उन्होंने खुल कर एक्टिंग नहीं की। डेजी ईरानी और शम्मी ने फरहाद की मां और दादी मां के रोल बखूबी निभाए।
कुल मिलाकर ‘शिरीन फरहाद की लव स्टोरी’ में रोमांस और हास्य का अभाव है।
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निर्माता :
भरत शाह
निर्देशक :
पूजा जतिंदर बेदी
संगीत :
शरीब सबरी - तोषी सबरी
कलाकार :
शाइनी आहूज
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सयाली भगत, जूलिया ब्लिस, तेज सप्र
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सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 1 घंटा 58 मिनट * 14 रील
फिल्म डायरेक्टर बनने के लिए कोई डिग्री या हुनर की जरूरत नहीं होती है। जेब में पैसा हो तो कोई भी फिल्म बना सकता है। शायद यही वजह है कि हर वर्ष ढेर सारी कचरा फिल्में बनती हैं। पूजा जतिंदर बेदी ने भी शायद अपना शौक पूरा करने के लिए ‘घोस्ट’ निर्देशित की है, लिखी भी है और संपादित भी की है।
पूजा का शौक तो पूरा हो गया, लेकिन उनका मजा दर्शकों के लिए सजा बन गया। वे इस फिल्म के जरिये क्या दिखाना चाहती है, समझ में ही नहीं आता। इससे अच्छी हॉरर फिल्में तो रामसे ब्रदर्स बनाते थे। ‘घोस्ट’ में न ढंग की कहानी है, न संवाद। ‘अगर मर्दानगी को अय्याशी कहते हैं तो मैं अय्याश हूं’, जैसे संवाद सुनने को मिलते हैं।
कहानी है सिटी अस्पताल की, जिसमें एक नर्स, डॉक्टर और वार्ड बॉय की क्रूरता पूर्वक हत्या की जाती है। इन लोगों का दिल निकाल लिया जाता है और चेहरा बिगाड़ दिया जाता है। सुहाना (सयाली भगत) इसी अस्पताल में डॉक्टर हैं। फिल्म में उन्हें डॉक्टर कहा गया है इसलिए यकीन करना पड़ता है वरना उनकी ड्रेसेस को देख तो यही लगता है कि वे मॉडल हैं।
पुलिस निकम्मी है। फिल्म में कभी कुछ करती दिखाई नहीं देती। इसलिए मामले को एक प्राइवेट डिटेक्टिव को सौंपा जाता है। उसकी लाइफ स्टाइल को देख कुछ युवा जासूस बनने के लिए प्रेरित हो सकते हैं क्योंकि वह महंगी कारों में घूमता है। पहाड़ों पर जाकर फोटोग्राफी करता है। फाइव स्टार होटल में रूकता है और रात को पब में महंगी शराब पीता है। वह जासूसी करते हुए कभी नजर नहीं आता।
अचानक विजय और सुहाना पर फिल्माया एक रोमांटिक गाना टपक पड़ता है और पता चलता है कि सुहानी तो विजय पर मर मिटी है। विजय का अपने बाप से नाराजगी वाला ट्रेक भी है। दो-चार सीन फिल्म की लंबाई बढ़ाने के लिए इन बाप-बेटों पर भी फिल्मा दिए गए हैं। अमिताभ और दिलीप कुमार की शक्ति वाली स्टाइल में। आखिर में थोड़ी बहुत उठा-पटक के बाद रहस्य पर से परदा उठता है और दर्शक सिनेमाहॉल से ऐसे निकलते हैं जैसे जेल से छूटे हों।
पूजा ने जैसी बेसिर-पैर कहानी लिखी है वैसा ही उनका निर्देशन है। उनके दृश्य दोहराव के शिकार हैं। एक-दो दृश्य ऐसे हैं जहां उन्होंने डर पैदा किया है वरना ज्यादातर दृश्यों में तो पहले से ही पता चल जाता है कि अब डरावनी घटना घटने वाली है और दर्शक पहले से ही तैयार हो जाता है। डरावने चेहरे वाले मेकअप पुरानी सी-ग्रेड फिल्मों की याद दिलाते हैं। गानों को देख फास्ट फॉरवर्ड बटन की याद आती है।
फिल्म के सारे कलाकारों का अभिनय घटिया है। शाइनी आहूजा और सयाली भगत बिलकुल प्रभावित नहीं करते। यही हाल जूलिया का है। तकनीकी रूप से फिल्म बेहद कमजोर है।
कहने को तो ‘घोस्ट’ हॉरर फिल्म है, लेकिन रात को भूत-प्रेत के डर से नहीं बल्कि इस बुरी फिल्म को देखने के अफसोस के कारण नींद नहीं आएगी।
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थ्रीडी
निर्माता :
स्टीवन स्पीलबर्ग, जी. मैक ब्राउन, वाल्टर एफ. पार्क्स, लॉरी मैकडोनाल्ड
निर्देशक :
बैरी सॉनेनफील्ड
कलाकार :
विल स्मिथ, टॉमी ली जोंस, जोश ब्रॉलिन, एलिस ईव, एमा थाम्पसन
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 1 घंटा 43 मिनट
दस वर्ष बाद मैन इन ब्लैक सीरिज की वापसी हुई है। पहले दो भागों में खतरनाक एलियंस से पृथ्वी और पृथ्वीवासियों को बचाने वाले एजेंट जे और के इस बार समय को विपरीत दिशा में ले गए हैं। टाइम ट्रेवल का ट्रेक इस बार ‘मैन इन ब्लैक 3’ में देखने को मिलता है जो बेहद दिलचस्प है। कहा जा सकता है कि दूसरे भाग की तुलना में तीसरा भाग ज्यादा दमदार है।
सीक्रेट एजेंट जे के सामने इस बार दोहरा मिशन है। एजेंट के की जिंदगी खतरे में है। एजेंट जे टाइम ट्रेवल के जरिये 1969 में पहुंच कर न केवल एजेंट के की जिंदगी बचाता है बल्कि एक बार फिर पृथ्वी को दूसरे ग्रहों के वासियों से पैदा होने वाले खतरे से रक्षा करता है।
चंद्रमा पर स्थित जेल से खतरनाक बोरिस भाग निकलता है। बोरिस को 1969 में न केवल एजेंट के ने गिरफ्तार किया था बल्कि उसका एक हाथ भी काट दिया था। बोरिस टाइम ट्रेवल के जरिये 1969 में पहुंच कर एजेंट के को मारना चाहता है।
एक दिन अचानक एजेंट के गायब हो जाता है। एजेंट जे जब उसके बारे में पूछताछ करता है तो उसे पता चलता है कि एजेंट के की मौत को तो चालीस बरस से भी ज्यादा हो गए हैं। एजेंट जे भी वर्ष 1969 में पहुंच जाता है और न केवल एजेंट के को बचाता है बल्कि आर्कनेट के जरिये पृथ्वी को भी बचाने में कामयाब होता है।
एमआईबी 3 में इस बार बजाय स्पेशल इफेक्ट्स के कहानी और ट्रीटमेंट पर ज्यादा फोकस किया गया है। तीसरा भाग थ्री-डी में है, इसके बावजूद अजीबो-गरीब एलियंस और उनसे एजेंट जे और के की फाइट मिसिंग है। फिल्म के थ्री-डी में होने से दर्शक ज्यादा उम्मीद लेकर जाता है और उसे थोड़ी मायूसी होती है। एक रेस्टॉरेन्ट की फाइट ही उल्लेखनीय है जिसमें एक बड़ी फिश को एजेंट जे मार गिराता है।
वर्तमान से भविष्य में या अतीत में जाना वाला विचार भी फिल्मों में नया नहीं है, लेकिन एमआईबी 3 में यह ट्रेक मनोरंजक तरीके से पेश किया गया है और फिल्म का एक बड़ा हिस्सा इसे दिया गया है। यहां पर युवा एजेंट के और एजेंट जे की आपसी बातचीत और नोकझोक सुनने और देखने लायक है।
वाले प्रसंग को उस ऐतिहासिक घटना के साथ जोड़ा गया है जब नील आर्मस्ट्रांग चंद्रमा पर जा रहे थे, लेकिन यहां पर बोरिस से दोनों एजेंट्स की फाइट और आर्कनेट के जरिये पृथ्वी को बचाने वाले प्रसंग में थोड़ी अति हो गई है।
क्लाइमैक्स इमोशनल है जिसमें एजेंट जे को अपने बारे में एक ऐसा राज पता चलता है जिसे एजेंट के ने अब तक छिपा कर रखा था।
निर्देशक बैरी सॉनेनफील्ड ने कहानी को बेहद तेज गति से पेश किया है और काफी कुछ दर्शकों की समझदारी पर भी छोड़ा है। यदि वे एलियंस वाले दृश्यों को ज्यादा रखते (जो एमआईबी सीरिज की खासियत है) तो बेहतर होता। फिल्म का संपादन इतना बढ़िया है कि एक भी सीन फालतू नहीं है।
विल स्मिथ एक बार फिर जबरदस्त फॉर्म में हैं और उन्होंने अपनी एक्टिंग और संवादों के जरिये दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया है। टॉमी ली जोंस को कम फुटेज मिला है और उनका मेकअप भी खराब है। जोश ब्रोलिन ने युवा एजेंट के का रोल बखूबी निभाया है और विल स्मिथ के साथ उनकी जोड़ी खूब जमी है। बोरिस के रूप में जेमैन क्लीमेंट भयानक लगे हैं।
विज्युअल इफेक्ट्स भले ही कम हो, लेकिन एमआईबी 3 में दर्शकों को खुश रखने के लिए काफी मसाला है।
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फिल्म के शुरुआती सीन में सनी (खुशमीत गिल) की दादी (सुरेखा सीकरी) उसके पापा (मनमीत सिंह) से कहती है कि हमारे परिवार ने जो कुछ भी हासिल किया है, वह नाक के दम पर ही है। हमारे यहां सूंघ नहीं पाना देख नहीं पाने के बराबर है। दरअसल, सनी की फैमिली में पीढ़ियों से अचार बनाने का काम होता है। फिलहाल उसके पापा अचार की फैक्ट्री चलाते हैं। ऐसे में, सनी जो कि अपनी नाक में ब्लॉक की वजह से सूंघ नहीं सकता, वह पूरी फैमिली की परेशानी का सबब है। अब आप समझ गए होंगे कि डायरेक्टर अमोल गुप्ते ने इस फिल्म का नाम स्निफ यानी कि गंध क्यों रखा। सूंघ नहीं पाने की वजह से सनी को अपनी रोजाना लाइफ से लेकर स्कूल तक में तमाम परेशानियां झेलनी पड़ती हैं। घरवाले उसे स्पेशलिस्ट को दिखाते हैं, तो वह भी उसकी नाक में ब्लॉक बताकर हाथ खड़े कर लेता है। एक दिन अखबार में मुंबई में बढ़ती कार चोरियों की खबर पढ़कर जासूसी दिमाग के सनी का ध्यान इस ओर जाता है और वह कुछ करने की सोचता है। इसी बीच एक दिन स्कूल की लैब में कुछ ऐसा केमिकल लोचा होता है कि न सिर्फ सनी की नाक का ब्लॉक हट जाता है, बल्कि उसकी सूंघने की क्षमता भी काफी बढ़ जाती है। अब वह दो-दो किलोमीटर दूर तक सूंघ लेता है और किसी का मुंह सूंघ कर यह भी बता देता कि उसने कल क्या खाया था। अपनी सूंघने की क्षमता के दम पर स्कूल में अपनी टीचर के पैसे चोरी होने का मामला सुलझाकर वह हीरो बन जाता है। एक दिन जब सनी की कॉलोनी से ही एक गाड़ी चोरी हो जाती है, तो वह अपनी दूर-दूर तक सूंघने की क्षमता के सहारे चोर तक पहुंचने की सोचता है। वह अपने दोस्तों के साथ मिलकर पुराने मोबाइल फोन और इलेक्ट्रिक डिवाइस से कॉलोनी में एक सीसीटीवी नेटवर्क भी तैयार करता है। कॉलोनी के एक अंकल के कहने पर सनी चोरों का सुराग तलाशने चोर बाजार पहुंचता है। वहां वह कार चोरों के चंगुल में फंस जाता है, लेकिन अपनी बहादुरी से उन्हें पकड़वा देता है। बावजूद इसके उसकी कॉलोनी में चोरी करने वाले चोर का अभी भी पता नहीं लगता। तो क्या सनी असली चोर को तलाश पाता है? इसका पता आप फिल्म देखकर ही लगा पाएंगे। यूं तो भारत में बच्चों के लिए फिल्में कम ही बनती हैं, लेकिन 'तारे जमीन पर' और 'स्टेनली का डिब्बा' जैसी बच्चों की कहानियों पर बेस्ड फिल्में बनाने वाले अमोल गुप्ते लगातार ऐसी फिल्में बना रहे हैं। चिल्ड्रन फिल्म सोसायटी ऑफ इंडिया के चेयरपर्सन रह चुके अमोल का बच्चों की फिल्मों से काफी जुड़ाव है, लेकिन इस बार बतौर डायरेक्टर स्निफ में वह अपनी पिछली फिल्मों जैसा दम नहीं दिखा पाए। हालांकि अपने ऐक्टिंग के शौक के चलते अमोल ने खुद जरूर पर्दे पर अपनी झलक दिखाई है। अमोल की पिछली फिल्में बच्चों के साथ-साथ पैरंट्स को भी अपील करती थीं, लेकिन इस बार स्निफ में वह बात नजर नहीं आती। बावजूद इसके अगर आप अपने स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों को यह फिल्म दिखाने ले जाएंगे, तो यह उन्हें निराश नहीं करेगी। | 0 |
बाइस वर्ष की उम्र तक पढ़ाई। 25 में नौकरी। 26 में छोकरी। 30 में बच्चें। 60 में रिटायरमेंट। ऐसी जिंदगी ‘ये जवानी है दीवानी’ का हीरो बनी (रणबीर कपूर) नहीं जीना चाहता है। उसे हिप्पी स्टाइल में जिंदगी जीना पसंद है। दुनिया का कोई कोना वो छोड़ना नहीं चाहता। शादी वह जरूरी नहीं समझता। उसका मानना है कि आदमी जिंदगी भर दाल-चांवल खाकर कैसे गुजारा कर सकता है?
वैसे भी आजकल फिल्मों में दिखाए जाने वाले ज्यादातर हीरो/हीरोइनों को शादी पर विश्वास नहीं है। पिछले सप्ताह रिलीज हुई ‘इश्क इन पेरिस’ के हीरो का भी यही सोचना था। बनी की सोच आज के युवाओं की शादी के प्रति सोच को दिखाती है। हालांकि भारत में ऐसी सोच वाले युवा बहुत कम हैं, जिनका प्यार/शादी पर यकीन नहीं है। जो हैं, उनमें से भी ज्यादातर में इतना साहस नहीं है कि वे धारा के विपरीत तैर सकें।
खैर, फिल्म की हीरोइन नैना (दीपिका पादुकोण) का मिजाज और सोच बनी से विपरीत है। वह पढ़ाकू है, इसलिए उसे लुक में ज्यादा स्मार्ट नहीं दिखाया गया है। वह बोल्ड नहीं है। मस्ती करने से घबराती है। पढ़ाकू को थोड़ा दब्बू दिखाना फिल्म वालों की पुरानी आदत है। नैना को शौक नहीं है कि वह दुनिया घूमे। वह एक कमरे में भी जिंदगी काट सकती है क्योंकि उसे अपनों के बीच रहना पसंद है।
विपरीत मिजाज वालों के इस द्वंद्व और बनी का बंजारा जिंदगी की तरफदारी करने को अयान मुखर्जी ने अपनी फिल्म में दिखाया है। फिल्म बनी की आधुनिक सोच से शुरू होती है, लेकिन समाप्त होते तक बनी भी प्यार कर बैठता है और शादी के लिए तैयार हो जाता है।
यहां पर अयान कुछ नया नहीं सोच पाए और परंपरागत शैली में अपनी कहानी का उन्होंने समापन किया। शायद भारतीय दर्शकों की मानसिकता और बॉक्स ऑफिस की मांग को ध्यान में रखकर उन्हें ऐसा करना पड़ा हो क्योंकि कपड़ों या चमचमाते मॉल्स से ही भले ही भारतीय आधुनिक लगते हो, लेकिन सोच के मामले में ठेठ देसी हैं। हीरो-हीरोइन का मिलन ही उनके लिए फिल्म का सही अंत है।
‘ये जवानी है दीवानी’ शुरुआत में थोड़ी लड़खड़ाती है। फिल्म शुरू होते ही माधुरी दीक्षित का गाना बिना सिचुएशन के टपक पड़ता है और फिल्म की कहानी से इसका कोई संबंध नहीं है। माधुरी अपनी वही पुरानी अदाओं को दोहराती नजर आती हैं, जो अब उन पर जमती नहीं है। इसके बाद कहानी इंटरवल तक मनाली में घूमती रहती है।
मनाली की सड़कों पर हास्य के पुट के साथ एक लंबा एक्शन सीक्वेंस रखा गया है जो बेहद बचकाना है। शुरुआती कुछ झटकों के बाद फिल्म में धीरे-धीरे पकड़ आ जाती है क्योंकि बनी और नैना के बीच कुछ उम्दा दृश्यों के साथ-साथ उनके दोस्तों की कॉमेडी भी लगातार चलती रहती है। फिर आता है एक छोटा-सा ट्विस्ट। बनी शिकागो चला जाता है।
आठ वर्ष बाद बनी और नैना अपने दोस्त की शादी में मिलते हैं। पृष्ठभूमि में शादी चलती है और यही पर बनी को अहसास होता है कि वह नैना से प्यार करने लगा है। इंटरवल के बाद का यह पूरा ड्रामा ‘बैंड बाजा बारात’ की याद दिलाता है। उस फिल्म में भी एक शादी के दौरान हीरो को महसूस होता है कि वह हीरोइन को प्यार करने लगा है।
अयान मुखर्जी की लिखी कहानी में यह अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि आगे क्या होना वाला है, इसके बावजूद फिल्म इसलिए अपील करती है क्योंकि प्रस्तुतिकरण ताजगी भरा है और युवाओं की पसंद के अनुरूप है।
जहां तक निर्देशन का सवाल है तो अयान शुरुआत के अलावा बीच में भी कुछ जगह डगमगाते हैं। कुछ दृश्यों को बेवजह रखा गया है और इन्हें हटाकर फिल्म की लंबाई को कम किया जा सकता है।
दूसरी ओर कई ऐसे दृश्य भी अयान ने लिखे हैं, जैसे- नैना का बोरिंग लड़की से फन लविंग गर्ल बनना, मन ही मन बनी को प्यार करना, बनी को यह अहसास होना कि वह नैना को चाहने लगा है, बनी और उसके पिता के दृश्य, जो दिल को छूते हैं। चारों दोस्तों की मस्ती हंसाती है। बनी और नैना का कैरेक्टराइजेशन उम्दा है। पहली फ्रेम से ही उनकी हर बात अच्छी लगती है। इनके अलावा उनके दोस्तों के किरदार भी उल्लेखनीय हैं।
रणबीर और दीपिका की केमिस्ट्री इस फिल्म की जान है। दोनों एक-दूसरे के साथ बेहद सहज नजर आते हैं। एक मस्त और बिंदास लड़के के किरदार को रणबीर ने बखूबी निभाया है। दीपिका पादुकोण का किरदार मुंह से कम और चेहरे के भावों से ज्यादा बोलता है। ऐसा रोल निभाना मुश्किल होता है, लेकिन दीपिका इस चैलेंज पर खरी उतरती हैं।
कल्कि को जितने भी दृश्य मिले हैं उनमें वह जबदरस्त हैं। आदित्य रॉय कपूर ने उनका साथ अच्छे से निभाया है। फारुख शेख चंद सीन में नजर आते हैं और अपना प्रभाव छोड़ जाते हैं।
प्रीतम का संगीत और बैकग्राउंड म्युजिक इस फिल्म का प्लस पाइंट है। बलम पिचकारी, बदतमीज दिल, कबीरा, सुभानअल्लाह हिट हो चुके हैं। बदतमीज दिल में रणबीर का डांस देखने लायक है। फिल्म के संवाद आम जिंदगी में जैसे बाते करते हैं, वैसे हैं। बीच-बीच में ‘वक्त बीतता है और हम खर्च होते हैं’ जैसे कुछ उम्दा संवाद भी सुनने को मिलते हैं।
कुल मिलाकर ‘ये जवानी है दीवानी’ उस बात को पुख्ता करती है कि आज का युवा कितना ही आधुनिक होने का दावा करे, प्यार और शादी पर उसका विश्वास अभी भी कायम है। यह बात फिल्
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मे
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मौज-मस्ती के साथ मनोरंजक अंदाज में कही गई है।
बैनर :
धर्मा प्रोडक्शन्स, यूटीवी मोशन पिक्चर्स
निर्माता:
करण जौहर
निर्देशक :
अयान मुखर्जी
संगीत :
प्रीतम चक्रवर्ती
कलाकार :
रणबीर कपूर, दीपिका पादुकोण, कल्कि कोएचलिन, आदित्य रॉय कपूर, कुणाल रॉय कपूर, फारुख शेख, तन्वी आजमी, माधुरी दीक्षित
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 41 मिनट
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निर्माता :
रेणु तौरानी, कुमार एस. तौरानी
निर्देशक :
कूकी वी गुलाटी
संगीत :
सचिन गुप्ता
कलाकार :
विवेक ओबेरॉय, अरुणा शील्ड्स, नंदना सेन, नीरू सिंह, संजय कपूर
यू/ए सर्टिफिकेट * 2 घंटे 15 मिनट
नाम रखने से ही कोई प्रिंस नहीं बन जाता। ये बात ‘प्रिंस’ फिल्म पर पूरी तरह लागू होती है। ‘प्रिंस’ नामक यह फिल्म हर मामले में कंगाल है। कुछ हॉलीवुड और कुछ बॉलीवुड फिल्मों को देख शिराज अहमद ने नई कहानी लिख दी, लेकिन स्क्रीनप्ले इतना बचकाना है कि हैरत होती है फिल्म निर्माता पर कि वह इतने पैसे लगाने के लिए कैसे राजी हो गया।
अक्सर कम्प्यूटर की मनुष्य के दिमाग से तुलना की जाती है, इसलिए इस फिल्म में दिमाग के साथ कम्प्यूटर जैसा व्यवहार किया गया है। कम्प्यूटर की मेमोरी से डेटा को हटाया जा सकता है और फिर लोड भी कर सकते हैं। कुछ ऐसा ही नजारा दिमाग के साथ ‘प्रिंस’ में देखने को मिलता है।
भारत के वैज्ञानिकों ने वर्षों की मेहनत के बाद एक ऐसा चिप तैयार किया है, जिससे मनुष्य के दिमाग से उसकी याददाश्त को इरेज किया जा सकता है। वह मनुष्य भूल जाता है कि वह कौन है। उसके कौन पहचान वाले हैं। वगैरह-वगैरह।
प्रिंस नामक चोर की मेमोरी को भी इरेज कर दिया गया। इसके पहले की उसकी याददाश्त जाती वह चिप को अपने कब्जे में ले एक सिक्के में रखकर कहीं छिपा देता है। सुबह उठने के बाद उसे कुछ याद नहीं रहता क्योंकि कम्प्यूटर की तरह वह रिस्टार्ट हो गया।
प्रिंस के पीछे कुछ बदमाश पड़ जाते हैं और उससे सिक्के के बारे में पूछते हैं जबकि प्रिंस तो अपने बारे में भी नहीं जानता। उसे पता चलता है कि माया नाम की उसकी गर्लफ्रेंड है, लेकिन परेशान तब खड़ी हो जाती है जब तीन-तीन माया उसकी जिंदगी में आ जाती हैं और सभी को उस सिक्के की तलाश है।
प्रिंस न केवल वो सिक्का ढूँढ निकालता है बल्कि अपनी खोई याददाश्त भी हासिल कर लेता है। यह काम करने में उसे कोई परेशानी नहीं होती क्योंकि फिल्म के राइटर ने हर कदम पर उसकी मदद की है।
फिल्म का कंसेप्ट जरूर नया हो सकता है, लेकिन स्क्रीनप्ले में ढेर सारी खामियाँ हैं। एक तरफ तो आप आधुनिक तकनीक और विज्ञान का इस्तेमाल दिखा रहे हैं और दूसरी तरफ तर्क-वितर्क को परे रख दिया गया है।
स्क्रीन पर घटनाक्रम को इस तरह पेश किया गया है मानो कार्टून कैरेक्टर देख रहे हो। कई बार प्रिंस स्पाइडरमैन की तरह एक्शन करता है, जबकि उसे आम आदमी दिखाया गया है। मेमोरी इरेज करने के जो दृश्य स्क्रीन पर दिखाए गए हैं वे बहुत ही बचकाने हैं और उन पर यकीन करना मुश्किल है।
फिल्म में एक्शन और स्टाइल को महत्व दिया गया है इसलिए सीन इन बातों को ध्यान में रखकर लिखे गए हैं कि इन्हें फिल्म में जगह मिले। कुछ कैरेक्टर (जैसे राजेश खट्टर का) बेवजह रखे गए हैं जिनका कहानी से कोई लेना-देना नहीं है।
निर्देशक कुकी गुलाटी ने सारा ध्यान शॉट टेकिंग और फिल्म की स्टाइल पर दिया है। गन और हॉट गर्ल्स को लेकर स्टाइलिश फिल्म बनाने के चक्कर में वे कंटेंट पर ध्यान देना भूल गए और निर्माता के करोड़ों रुपए फूँक डाले।
फिल्म को आखिरी के 30 मिनटों में खींचा गया है, जब प्रिंस विलेन के जूते में एक डिवाइस लगा देता है ताकि उसे पता चल जाए कि विलेन कहाँ है और फिल्म डर्बन से पाकिस्तान-अफगानिस्तान बॉर्डर पर पहुँच जाती है। अंत ऐसा किया गया है ताकि सीक्वल की संभावना बनी रहे।
विवेक ओबेरॉय का अभिनय निराशाजनक है। लेदर जैकेट पहन वे तरह-तरह के पोज देकर गन चलाते रहे। अरुणा शील्ड्स का फिगर अच्छा है, लेकिन एक्टिंग के मामले वे जीरो हैं। नंदना सेन ने पता नहीं ऐसा रोल क्यों स्वीकार कर लिया। नीरू सिंह प्रभावित नहीं करतीं। संगीत के नाम पर केवल एक गीत उम्दा है।
फिल्म के एक्शन सीन उल्लेखनीय हैं। फोटोग्राफी में एरियल शॉट्स का शानदार उपयोग किया गया है। बैकग्राउंड म्यूजिक अच्छा है। कुल मिलाकर ‘प्रिंस’ उस सुंदर शरीर की तरह है जिसमें प्राण नहीं है।
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अपराध और हिंसा पर फिल्म बनाना फिल्म निर्देशक अनुराग कश्यप का कम्फर्ट ज़ोन है, इससे बाहर निकलते हुए उन्होंने रोमांटिक फिल्म 'मनमर्जियां' बनाई है। ये अच्छी बात है कि निर्देशक के रूप में उन्होंने अपनी सरहदें लांघी हैं।
'मनमर्जियां' 1999 में प्रदर्शित फिल्म संजय लीला भंसाली की फिल्म 'हम दिल दे चुक सनम' का अनुराग वर्जन है। यह पहली बार है जब अनुराग ने अपनी फिल्म नहीं लिखी है। इसे कनिका ढिल्लो ने लिखा है और उन्होंने कई फिल्मों से प्रेरणा ली है। जब वी मेट, वो सात दिन और हम दिल दे चुके सनम जैसी फिल्मों की याद आती है।
कहानी अमृतसर में सेट है। विक्की (विक्की कौशल) और रूमी (तापसी पन्नू) एक दूसरे को बेहद चाहते हैं। प्यार के साथ फ्यार भी उनके लिए बहुत मायने रखता है। एक दिन दोनों की चोरी पकड़ी जाती है। रूमी कहती है कि वह विक्की से ही शादी करेगी और यदि विक्की तैयार नहीं हुआ तो वह किसी से भी शादी कर लेगी। जिम्मेदारी के नाम विक्की घबरा जाता है और वह रूमी के घर शादी की बात करने ही नहीं पहुंचता। आखिरकार रूमी लंदन के बैंकर रॉबी (अभिषेक बच्चन) के साथ अरेंज मैरिज के लिए तैयार हो जाती है।
विक्की इस शादी के खिलाफ है। वह रूमी के साथ भाग जाता है, लेकिन उसका लापरवाह स्वभाव फिर आड़े जाता है। उसे पता ही नहीं कि रूमी को लेकर कहां जाना है? क्या करना है? इससे खफा होकर रूमी घर लौट आती है, पर विक्की के प्रति उसकी मोहब्बत में कोई कमी नहीं आती।
शादी के ठीक एक दिन पहले फिर रूमी और विक्की भागने का प्लान बनाते हैं, लेकिन विक्की फिर दगा देता है और रूमी की शादी रॉबी से हो जाती है। रॉबी यह जानते हुए कि रूमी से शादी कर लेता है कि विक्की उसका बॉयफ्रेंड है। शादी के बाद भी विक्की को रूमी भूला नहीं पाती। अपनी मनमर्जी चलाती है जिससे इस यह प्रेम त्रिकोण बेहद जटिल हो जाता है।
फिल्म की कहानी नई नहीं है, लेकिन अनुराग कश्यप का ट्रीटमेंट इस फिल्म को अलग बनाता है। रूमी और विक्की के कन्फ्यूजन को वे काफी हद तक दिखाने में सफल रहे हैं। उन्होंने अपनी बात कहने के लिए दर्जन भर गानों का सहारा लिया है और इस रोमांटिक फिल्म को म्यूजिकल भी बनाया है।
फिल्म कुछ जुदा होने की कोशिश करती है। प्यार को काला या सफेद के बजाय ग्रे कहती है। 'जमाना है बदला, मोहब्बत भी बदली, घिसे पिटे वर्जन नू, मारो अपडेट' कहते हुए 'प्यार' और 'फ्यार' के बीच की लाइन को 'ब्लर' भी करती है, लेकिन इन बातों को हौले से छूती है।
रूमी और विक्की के कैरेक्टर्स के जरिये बताया गया है कि प्यार और फ्यार के लिए शादी जरूरी नहीं है। बिना शादी के ही जब सब ठीक चल रहा है तो शादी कर मामले को क्यों उलझाया जाए? लेकिन समाज इस तरह के रिश्ते को पसंद नहीं करता है। रूमी और विक्की पर दबाव बनाया जाता है कि इस रिश्ते पर शादी की मुहर लगाई जाए।
निर्देशक और लेखक ने युवा पीढ़ी के प्यार को लेकर कन्फ्यूज़न को दर्शाने की कोशिश की है, लेकिन कहीं-कहीं वे खुद भी कन्फ्यूज नजर आए। इसके साथ ही फिल्म की लंबाई (157 मिनट) भी बहुत ज्यादा है इस कारण कई बार फिल्म ठहरी हुई लगती है।
स्क्रिप्ट में इस बात की कमी खलती है कि यदि रूमी का परिवार और विक्की का भी परिवार शादी के लिए राजी है तो विक्की क्यों बार-बार शादी के नाम पर भाग जाता है? विक्की और रूमी के बारे में सब कुछ जानते हुए भी रॉबी क्यों रूमी से शादी करने के लिए तैयार हो जाता है?
स्क्रिप्ट की खामियों को काफी हद तक अनुराग कश्यप अपने निर्देशन के बल पर ढंक लेते हैं। उन्होंने फिल्म को बेहद अच्छे से शूट किया है। दो एक जैसी दिखने वाली लड़कियों के डांस, कहवा पीते खामोश लड़के और स्क्रिप्ट में गानों को गूंथ कर फिल्म को देखने लायक बनाया है। उन्होंने रूमी और विक्की के प्यार को आक्रामकता के साथ दिखाया है। कई जगह फिल्म दोहराव का शिकार भी हुई है।
कनिका ढिल्लो के संवाद अच्छे हैं। 'डिस्कशन अच्छी चीज होती है' जैसे कुछ बेहतरीन संवाद सुनने को मिलते हैं। फिल्म में एक अच्छा सीन लिखा गया है। रूमी जो खुले में सुट्टा लगाने से परहेज नहीं करती है, शादी के बाद अपने प्रेमी से चोरी-छिपे मिलने जाती है। इस पर उसका पति कहता है कि गाड़ी से जाया करो, मुंह छिपाकर चोरी से नहीं। शायद यहीं पर उसकी सोच अपने पति और खुद के प्रति बदलती है।
फिल्म का सबसे चमकदार पहलू रूमी का किरदार है। इतना बिंदास महिला पात्र बहुत ही कम हिंदी फिल्म में देखने को मिला है। अपनी शर्तों पर जीने वाली, डॉमिनेटिंग, इच्छाओं को खुल कर व्यक्त करने वाली रूमी दरअसल इस फिल्म की हीरो है।
तापसी पन्नू ने यह किरदार निभाया है और यह उनके करियर का बेहतरीन अभिनय है। रूमी की आक्रामकता, बिंदासपन, छटपटाहट, प्यार, फ्यार को उन्होंने बेहतरीन तरीके से जिया है। हर सीन में वे अन्य कलाकारों पर भारी पड़ी हैं।
विक्की कौशल का अभिनय भी बेहतरीन है, हालांकि कई बार लगता है कि उनके किरदार को लेखक और निर्देशक ने फिल्म के बीच भूला दिया है। अभिषेक बच्चन का निर्देशक ने चतुराई के साथ उपयोग किया है। वे अभिषेक के अभिनय की रेंज जानते हैं, इसलिए उन्होंने अभिषेक को ऐसे सीन नहीं दिए जहां वे अनकम्फर्टेबल महसूस करें। उन्हें कम संवाद दिए गए हैं।
अमित त्रिवेदी का संगीत शानदार है और फिल्म की कहानी को आगे बढ़ाने में अहम योगदान देता है।
बैनर : ए कलर येलो प्रोडक्शन, इरोस इंटरनेशनल, फैंटम फिल्म्स
निर्माता : आनंद एल. राय
निर्देशक : अनुराग कश्यप
संगीत : अमित त्रिवेदी
कलाकार : तापसी पन्नू, अभिषेक बच्चन, विक्की कौशल
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 37 मिनट 16 सेकंड
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chandermohan.sharma@timesgroup.com ग्लैमर नगरी में यंग डायरेक्टर पवन कृपलानी की पहचान उन डायरेक्टर्स में है जो लीक से हटकर कुछ अलग किस्म की फिल्में बनाते हैं। पवन की पिछली दोनों फिल्में 'रागिनी एमएमएस' और 'डर: एट द मॉल' बॉक्स ऑफिस पर कुछ खास नहीं कर पाई, लेकिन इन फिल्मों को हॉरर फिल्में पसंद करने वाली क्लास ने पंसद किया। इस बार पवन ने इस थ्रिलर साइकॉलजिकल कहानी पर फिल्म बनाई है, सीमित बजट में ऐसी स्टार कास्ट को लेकर बनाई गई इस फिल्म में बेशक एक नई कहानी है, लेकिन इसके बावजूद ऐसे मसाले कहीं नजर नहीं आते जो बॉक्स ऑफिस पर फिल्म को हिट करने का दम रखते हैं। राधिका आप्टे ने अपने किरदार को ऐसे सशक्त ढंग से निभाया कि कल तक राधिका को कमजोर ऐक्ट्रेस मानने वाले भी इस फिल्म में उनके किरदार और बेहतरीन ऐक्टिंग को देखने के बाद उसके फैन बन जाएंगे। फिल्मी खबरें पढ़ें फेसबुक पर, लाइक करें NBT Movies कहानी : आर्टिस्ट महक (राधिका आप्टे) एगोराफोबिया से पीड़ित हैं, यह एक ऐसी बीमारी है जब रोगी घर से बाहर या किसी अनजान जगह पर जाने के नाम से ही बौखला जाता है। महक एक आर्ट एग्ज़िबिशन से आधी रात को लौट रही है, रास्ते में टैक्सी ड्राइवर उसके साथ रेप करने की नाकाम कोशिश करता है। महक खुद को बचाने में कामयाब रहती है, लेकिन इस हादसे के फौरन बाद महक एगोराफोबिया की शिकार हो जाती है। इस बुरे वक्त में महक के साथ उसका खास दोस्त शान (सत्यदीप मिश्रा) उसके साथ है। शान को लगता है अगर महक कुछ वक्त के लिए अपने घर से दूर जाकर कहीं और रहने जाए तो शायद कुछ ठीक हो जाए। शान अपने एक दोस्त के तीन रूम के फ्लैट में महक के साथ रहने के लिए आता है। इस फ्लैट में आने के बाद भी महक का डर खत्म नहीं होता और यहां आकर भी खुद को इस फ्लैट में कैद कर लेती है। फ्लैट में आने के बाद महक को लगता है फ्लैट में एक लाश दफन है। दरअसल, महक और शान के इस फ्लैट में आने से पहले एक लड़की इस फ्लैट में रहती है, जो अचानक गायब हो जाती है। ऐसे में महक को लगता है फ्लैट में उस लड़की की लाश कहीं दफन है। देखिए: फिल्म फोबिया का ट्रेलर ऐक्टिंग : अंत तक पूरी फिल्म महक यानी राधिका आप्टे के आसपास घूमती है और राधिका ने अपनी बेहतरीन ऐक्टिंग से इस किरदार को जीवंत किया है। अपने किरदार को निभाने के लिए राधिका ने कंप्लीट होमवर्क किया और डायरेक्टर पवन के साथ कई वर्कशॉप भी की। इतना ही नहीं किरदार की डिमांड के मुताबिक, राधिका ने ऐसा लुक अपनाया जिसमें वह खूबसूरत दिखाई नहीं देती। शान के रोल में सत्यदीप मिश्र जंचे हैं। अन्य कलाकारों में निक्की के रोल में यशस्वनी ने अपनी पहचान दर्ज कराई है। निर्देशन : पवन कृपलानी ने अंत तक दर्शकों को कहानी और किरदारों के साथ बांधने की अच्छी कोशिश की है। फिल्म की शुरुआत कुछ कमजोर है, लेकिन इंटरवल से कुछ पहले कहानी ट्रैक पर लौटती है। 'रागिनी एमएमएस' से कुछ पहचान बना चुके पवन ने स्क्रिप्ट के साथ पूरी ईमानदारी तो की, लेकिन ऐसा लगता है जैसे उन्होंने फिल्म शुरू करते ही सोच लिया था कि वह मल्टिप्लेक्स कल्चर के लिए फिल्म बना रहे हैं। करीब दो घंटे की इस फिल्म की कहानी को पर्दे पर उतारने के लिए उन्होंने फ्लैशबैक का कुछ ज्यादा ही सहारा लिया है, इसके बावजूद फिल्म अगर बॉक्स ऑफिस पर नहीं टिकती तो इसकी वजह डिफरेंट कहानी और किरदार कहे जाएंगे जो बेहद सीमित क्लास दर्शकों की कसौटी पर ही खरा उतर सकते हैं। संगीत : फिल्म का बैकग्राउंड स्कोर कहानी और महौल पर पूरी तरह से फिट है। क्यों देखें : राधिका आप्टे की बेहतरीन ऐक्टिंग दिल को छूने का दम रखती है। अगर आपको साइको-थ्रिलर फिल्में पसंद हैं तभी फोबिया आपको पसंद आ सकती है। ऐसी पावरफुल स्क्रिप्ट जो लीक से हटकर कुछ अलग किस्म की फिल्में देखने वाली मल्टिप्लेक्स क्लास की ही कसौटी पर खरी उतर सकती है। | 1 |
यदि आप अनुराग कश्यप की डार्क फिल्में पसंद करते हैं तो ‘गुलाल’ आपको अच्छी लगेगी।
बैनर :
जी लाइमालइट
निर्देशक :
अनुराग कश्यप
गीत-संगीत :
पीयूष मिश्रा
कलाकार :
केके मेनन, आदित्य श्रीवास्तव, दीपक डोब्रियाल, जेसी रंधावा, माही गिल, पीयूष मिश्रा, आदित्य श्रीवास्तव
* 8 रील * ए-सर्टिफिकेट
‘गुलाल’ की कहानी अनुराग कश्यप ने आठ वर्ष पहले लिखी थी। उनका कहना है कि जब वे बेहद कुंठित थे और कहानी के जरिये उन्होंने अपना गुस्सा निकाला। ये बात और है कि इस फिल्म के लिए उन्हें कोई निर्माता नहीं मिला और इसी बीच उन्होंने कुछ फिल्में बना डालीं।
‘गुलाल’ में कई कहानियाँ हैं, जिसे ढेर सारे चरित्रों के जरिये पेश किया गया है। छात्र राजनीति, राजपूतों के अलग राज्य की माँग, नाजायज औलाद का गुस्सा, प्रेम कहानी, युवा आक्रोश का गलत इस्तेमाल जैसे मुद्दों को उन्होंने फिल्म में दिखाया है। फिल्म का प्रस्तुतिकरण अनुराग ने यथार्थ के करीब रखा है, इस वजह से फिल्म के किरदार गालियों से भरी भाषा का इस्तेमाल करते हैं।
कहानी का मुख्य किरदार है दिलीप (राजसिंह चौधरी), जो एक सीधा-सादा लड़का है और कॉलेज में आगे की पढ़ाई करने के लिए आया है। वह रांसा (अभिमन्यु सिंह) के साथ रहता है, जो मस्तमौला और बेखौफ इनसान है।
बना (केके मेनन) राजपूतों के पृथक राज्य के लिए धन और नौजवानों को इकट्ठा करता है। छात्र राजनीति में उसकी रुचि है क्योंकि युवाओं के माध्यम से वह धन जुटाता है।
रांसा को वह अपनी पार्टी राजपूताना से जनरल सेक्रेटरी का चुनाव लड़वाता है, लेकिन पारिवारिक दुश्मनी के चलते चुनाव के पहले रांसा का कत्ल हो जाता है। ऐन मौके पर दिलीप को चुनाव लड़वा दिया जाता है और वह चुनाव में किरण को हरा देता है।
अपनी हार से बौखलाए किरण और उसका भाई करण किसी भी तरह जनरल सेक्रेटरी का पद पाना चाहते हैं, इसलिए दिलीप को किरण अपने प्यार के जाल में फँसाती है। जनरल सेक्रेटरी बनने के बावजूद दिलीप, बना की सिर्फ कठपुतली बनकर रह जाता है। वह विद्रोह करता है और उसे बना की असलियत मालूम पड़ती है। ताकत, हिंसा, फरेब, लालच, षड्यंत्र, बेवफाई और नफरत का दिलीप शिकार बन जाता है।
‘गुलाल’ की बेहतरीन शुरुआत से जो आशा बँधती है, वो अंत में पूरी नहीं हो पाती। नए किरदार कहानी से जुड़ते जाते हैं और उसका विस्तार होता है, लेकिन मध्यांतर के बाद फिल्म अनुराग कश्यप के हाथ से निकल जाती है। लेखक के रूप में वे कहानी को ठीक से समेट नहीं पाए। राजनीति को लेकर शुरू की गई बात प्रेम कहानी पर खत्म होती है। कई मुद्दों और चरित्रों को अधूरा छोड़ दिया गया है।
राजस्थान की पृष्ठभूमि पर आधारित कहानी में नयापन नहीं है और इस तरह की फिल्में पहले भी आ चुकी हैं। खून-खराबे के खेल में पुलिस को लगभग भुला ही दिया गया है और ऐसा लगता है चारों ओर जंगलराज है। फिल्म के अंत में बना को जब दिलीप गोली मार देता है, तब दोनों के बीच काफी लंबे संवाद हैं। वो भी ऐसे समय जब दिलीप को गोली लगी हुई है।
लेखक के बजाय अनुराग निर्देशक के रूप में ज्यादा प्रभावित करते हैं। एक ही दृश्य के माध्यम से उन्होंने कई बातें कही हैं। चरित्र को स्थापित करने में ज्यादा फुटेज बरबाद नहीं किए गए हैं। दर्शकों को दृश्यों के माध्यम से समझना पड़ता है कि कौन क्या है और ये बात फिल्म में आगे आने वाले दृश्यों से स्पष्ट होती है, इसलिए सारी बातों को याद रखना पड़ता है।
पीयूष मिश्रा के लिखे गीत फिल्म की कहानी को आगे बढ़ाते हैं। उनकी लिखी हर लाइन सुनने लायक है। गुरुदत्त से अनुराग कश्यप बेहद प्रभावित हैं, इसलिए एक गीत में ‘ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है’ का भी उपयोग किया गया है। फिल्म के संवाद तीखे हैं और तीर की तरह चुभते हैं। राजीव राय की सिनेमाटोग्राफी उल्लेखनीय है। रंग-बिरंगी रोशनी के जरिये कलाकारों के भाव को अच्छी तरह उभारा गया है।
अभिनय की दृष्टि से सारे कलाकार एक से बढ़कर एक हैं। केके मेनन (बना), राजसिंह चौधरी (दिलीप), अभिमन्यु सिंह (रांसा), पंकज झा (जडवाल), दीपक डोब्रियाल, पीयूष मिश्रा और आयशा मोहन ने अपने चरित्रों को जिया है। जेसी रंधावा को ज्यादा मौका नहीं मिला है।
यदि आप अनुराग कश्यप की डार्क फिल्में पसंद करते हैं तो ‘गुलाल’ आपको अच्छी लगेगी।
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Chandermohan.sharma@timesgroup.com अगर डायरेक्टर इंद्र कुमार की पिछली फिल्मों का जिक्र किया जाए तो उनके निर्देशन में बनी दिल, बेटा, राजा, मन, इश्क, और धमाल जैसी साफ सुथरी फिल्में याद आती हैं। नब्बे की शुरुआत में इंद्र कुमार की आमिर खान स्टारर दिल के साथ डायरेक्टर बने और दिल ने बॉक्स ऑफिस पर कामयाबी और कमाई के नए रेकॉर्ड बनाए। इसके बाद अनिल कपूर, माधुरी दीक्षित स्टारर बेटा, इश्क सहित कई सुपरहिट फिल्में बनाई। पहली बार इंद्र कुमार ने 'धमाल' के साथ फुल कॉमिडी फिल्म में हाथ आजमाया। संजय दत्त, अरशद वारसी, स्टारर इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर धमाल मचाया, लेकिन 2004 में इंद्र कुमार ने अजय देवगन जैसे नामी स्टार के साथ मस्ती बनाई और यहीं से हॉट कॉमिडी फिल्मों के साथ उनका नाम जुड़ा। बेशक मस्ती में भी डबल मीनिंग डायलॉग और हॉट सीन्स थे लेकिन इन सीन्स के बावजूद मस्ती को फैमिली क्लास ने भी एन्जॉय किया और फिल्म सुपरहिट साबित हुई। मस्ती की रिलीज के करीब आठ साल बाद इंद्र कुमार ने इस फिल्म का सिक्वल ग्रेट मस्ती बनाया तो इस बार उनकी यह फिल्म बोल्ड सीन्स, डबल मीनिंग डायलॉग के दम पर बॉक्स ऑफिस पर सफल रही। फिल्मी खबरें पढ़ें फेसबुक पर, लाइक करें NBT Movies लेकिन ग्रेट ग्रैंड मस्ती के साथ ऐसा करिश्मा शायद ही हो पाए। वजह साफ है इस बार बेहद कमजोर कहानी, लचर स्क्रिप्ट और बेवजह ठूंसे गए हॉट सीन्स और जरूरत से कहीं ज्यादा डबल मीनिंग डायलॉग हैं जो कहीं भी कहानी का हिस्सा नहीं लगते। वहीं इस फिल्म की स्टारकास्ट भी अनफिट लगती है। दूसरे रिलीज से करीब दो सप्ताह पहले फिल्म के लीक होने का खामियाजा प्रॉडक्शन कंपनी को होगा। कहानी: अमर सक्सेना ( रितेश देशमुख ), मीत मेहता ( विवेक ओबेरॉय ) और प्रेम चावला ( आफताब शिवदासानी ) तीनों अच्छे दोस्त है और तीनों शादीशुदा हैं। इन तीनों की खूबसूरत बीवियां हैं लेकिन तीनों अपनी मैरिज लाइफ से ज़रा खुश नहीं हैं। घर में खूबसूरत बीवी होने के बावजूद तीनों इधर-उधर हाथ पांव मारने से बाज नहीं आते। अमर अपनी बरसों पुरानी हवेली को बेचने के लिए गांव जाने का प्लान बनाता है। अमर के साथ मीत और प्रेम भी मस्ती करने के लिए गांव जाते हैं। गांव जाकर इन्हें पता लगता है कि गांव वाले अमर की हवेली को भूतिया कहते हैं पर ये तीनों दोस्त इस बात को नहीं मानते और हवेली जाते हैं। यहां इनकी मुलाकात रागिनी (उर्वशी रौतेला) से होती है। रागिनी से मिलने के बाद तीनों रागिनी को अपना बनाने के सपने देखने लगते हैं। अब हम आपको रागिनी कौन है, यह नहीं बताएंगे। अगर यह बता डाला तो इस फिल्म देखने की कोई वजह नहीं रहेगी। इसी बीच कहानी में अंताक्षरी बाबा (संजय मिश्रा) रामसे (सुदेश लहरी) और गांव की खूबसूरत लड़की शिनी (सोनाली राउत) की एंट्री होती है। यहीं से एक ऐसा ड्रामा शुरू होता है जो शुरू में कुछ मजेदार लगता है लेकिन चंद मिनट बाद ही आपके सब्र की परीक्षा लेने लगता है। ऐक्टिंग: इस फिल्म में रितेश देशमुख अपने अभिनय के दम पर बाकी सारी कलाकारों पर भारी पड़े। रितेश की डायलॉग डिलीवरी कमाल की है। फिल्म में रितेश की सास के रोल में ऊषा नाडकर्णी अपनी पहचान छोड़ने में कामयाब रहीं। अगर फिल्म की बाकी स्टारकास्ट की बात करें तो विवेक, आफताब, उर्वशी और श्रद्धा दास ने अपने किरदारों को ठीकठाक निभाया है। श्रेयश तलपड़े और सुदेश लहरी का फिल्म में कैमियो है लेकिन दोनों ने अपनी मौजूदगी दर्ज कराई है। निर्देशन: मस्ती की कामयाबी की हैट-ट्रिक मनाने के लिए इस बार इंद्र कुमार को एक बेहद कमजोर और लचर स्क्रिप्ट के अलावा कहानी के लिए अनफिट स्टारकास्ट मिली। फिल्म की कहानी बेहद कमजोर हैं। इंटरवल से पहले कहानी की रफ्तार बेहद सुस्त है तो बाद में इंद्र कुमार कहानी और किरदारों को समेटने में ऐसे उलझे कि जैसे-तैसे कहानी को बस समेट पाए। अगर इंटरवल के बाद की कहानी की बात की जाए तो कहानी गायब नजर आती है। बेशक इंद्र कुमार ने अपनी और से दर्शकों को हंसाने की भरसक कोशिश की लेकिन डबल मीनिंग डायलॉग और हॉट सीन्स से नहीं बल्कि संजय मिश्रा और रितेश की ऐक्टिंग के दम पर। अच्छा होता इंद्र इस सिक्वल को बनाने की जल्दबाजी को छोड़कर पूरे होमवर्क के बाद इस पर काम करते तो शायद मस्ती की हैट-ट्रिक सुपरहिट के साथ मना पाते। संगीत: सवां दो घंटे से भी कम की कहानी में डायरेक्टर साहब ने न जाने क्यूं जरूरत से कहीं ज्यादा गाने फिट कर डाले। बेशक गाने स्क्रीन पर सुनने और देखने में ठीक बन पड़े हैं लेकिन इन गानों को अगर कम किया जाता तो मस्ती की रफ्तार को बढ़ाया जा सकता था। क्यों देखें: अगर मस्ती सीरीज की पिछली दोनों फिल्में देखी हैं तो इस बार यह देखने जाए कि बिना दमदार कहानी और स्क्रिप्ट के इंद्र कुमार ने सीरीज की तीसरी फिल्म को कैसे बना डाला। | 0 |
कहानी बिल्कुल जिंदगी की तरह होती है। शुरुआत और अंत दोनों शुरुआत में ही तय होते हैं। 'हेट स्टोरी' की कहानी भी कुछ ऐसी ही है, जिसमें प्यार से ज्यादा नफरत है। यह फिल्म 'हेट स्टोरी' फ्रैंचाइजी की चौथी फिल्म है। पिछले दिनों 'गोलमाल' फ्रैंचाइजी की भी चौथी फिल्म 'गोलमाल 4' रिलीज हुई है। बेशक, इसे 'हेट स्टोरी' सीरीज का दर्शकों के बीच क्रेज ही कहा जाएगा कि अब इसकी चौथी फिल्म 'हेट स्टोरी 4' रिलीज हो रही है और अब इस सीरीज़ की पांचवी फिल्म को लेकर भी चर्चा है। फिल्म के क्रेज़ का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सुबह के शो में दर्शकों की खासी तादाद मौजूद थी। फिल्म की कहानी ब्रिटेन में रहने वाले दो भइयों आर्यन खुराना (विवान भटेना) और राजवीर खुराना (करण वाही) की है। रिशमा (इहाना ढिल्लन) आर्यन की गर्लफेंड है। उन्हें अपने ब्रैंड के लिए फ्रेश फेस की तलाश है। राजवीर इसके लिए अपनी पुरानी गर्लफ्रेंड की जगह ताशा (उर्वशी रौतेला) को तलाशता है, लेकिन आर्यन भी उस पर लट्टू हो जाता है। राजवीर और आर्यन का बाप विक्रम खुराना (गुलशन ग्रोवर) बड़ा बिज़नसमैन है, जो कि मेयर का इलेक्शन लड़ रहा है। वह आर्यन को राजवीर और ताशा को दूर रखने की जिम्मेदारी देता है। राजवीर ताशा को चाहता और प्रपोज़ करता है, लेकिन आर्यन उसे बाहर भेजकर ताशा को अपना बना लेता है। यही नहीं जब रिशमा उन दोनों को साथ देख लेती है, तो वह उसकी जान ले लेता है। इंटरवल के बाद कहानी में नया मोड़ आता है। तो आखिर में ताशा किसकी होती है? यह तो आपको सिनेमा देखकर ही पता लगेगा।फिल्म के डायरेक्टर विशाल पंड्या ने हर बार इस सीरीज़ की फिल्मों में नए कलाकार और नए एंगल डालने की कोशिश की है। इस बार भी उन्होंने नई कोशिश की है। हालांकि इस बार उनकी टीम में कोई भी नामी सितारा मौजूद नहीं है। बावजूद इसके वह नामी फ्रैंचाइजी सीरीज़ का फायदा उठाकर दर्शकों पर प्रभाव छोड़ने में सफल रहे हैं।देखिए, उर्वशी का जबरदस्त बोल्ड अवतारफिल्म का संगीत अच्छा है, तो 'हेट स्टोरी' सीरीज़ की पिछली फिल्मों की तरह हॉट सीन्स की भरमार है। डायरेक्टर ने फिल्म के लिए खूबसूरत लोकेशन तलाशी हैं। फिल्म के जबर्दस्त डायलॉग कई फिल्मों का डायरेक्शन कर चुके मिलाप मिलन झवेरी ने लिखे हैं, जो कि दर्शकों को पसंद आते हैं। अगर आप रोमांटिक थ्रिलर फिल्मों के शौकीन हैं, तो यह फिल्म आपको निराश नहीं करेगी। | 0 |
रेणुका व्यवहारेकहानी: असम के एक खूबसूरत गांव में रहने वाली धुनू को पेड़ पर चढ़ना, लड़कों के साथ खेलना और अपना थरमाकॉल का गिटार फ्लॉन्ट करना काफी अच्छा लगता है। वह घर के कामों में अपनी विधवा मां का हाथ भी बटाती है। उसका सपना है कि एक दिन उसके पास असल गिटार हो। क्या उसका यह सपना पूरा हो पाएगा?रिव्यू: लेखक-प्रड्यूसर-निर्देशक रीमा दास की असमी फिल्म 'विलेज रॉकस्टार्स' भारत की ओर से ऑस्कर 2019 के लिए बेस्ट फॉरेन लैंग्वेज कैटिगरी के लिए भेजी गई है। यह आशाओं, इच्छाओं और कठिनाइयों के सामने निडरता की बेबाक कहानी है जो स्लो होने के बावजूद आपकी कल्पनाओं को बांधती है। यह एक तरह से रीमा की अपने घर और वहां के खूबसूरत लोगों के लिए भेंट है। जिन लोगों को धीमी चलने वाली कहानियां पसंद नहीं हैं, यहां उनके सब्र की परीक्षा हो सकती है लेकिन रीमा ने अपने अंदाज में सभी किरदारों और उनकी जिंदगी का विवरण देने में समय लिया है। असम के दृश्यों और वहां की धुनों की शानदार सिनेमटॉग्रफी और ऑडियोग्रफी के जरिए रीमा आपको धुनू के सपनों की दुनिया में ले जाती हैं। एक ऐसी दुनिया जो आपको आपके सौभाग्य का एहसास दिलाती है। एक ऐसी दुनिया जहां अपने दुर्भाग्य के बावजूद एक मां अपनी बेटी को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है। वह कहती है कि हमारे पास परिश्रम के अलावा कुछ नहीं है। यह फिल्म गरीबी और उससे होने वाली दुविधाओं को दर्शाती है। इसका थीम ट्रैजडी है लेकिन फिर भी यह खुशियों को ढूंढने की एक दिल छू लेने वाली कहानी है। शानदार विजुअल और इमोशन्स के अलावा रीमा का लेखन भी काफी अच्छा है जिसमें लैंगिक समानता को बड़े ही अच्छे तरीके से कहानी में मिला दिया गया है। धुनू की मां अपनी बेटी की परवरिश बेटे की तरह ही करती है। वह धुनू का साथ देती है और उसे 'लड़की की तरह' रहने की नसीहत देने वाले समाज से लड़ती भी है। फिल्म की महिलाएं उन्हीं सामाजिक, शारीरिक और मानसिक समस्याओं से जूझती हैं जिनसे दो जून की रोटी कमाने के लिए एक पुरुष जूझता है। विलेज रॉकस्टार्स आपको एक ही समय में रुलाती भी है और उत्साहित भी करती है। यह एक छोटी बच्ची और उसकी मां के तकलीफों की कहानी से ज्यादा उन तकलीफों से लड़ने के जज्बे की कहानी है।ट्रेलर: | 1 |
आजकल के मॉडर्न जमाने में यूं तो भूत-प्रेत की बात पर कोई यकीन नहीं करता, लेकिन फिर भी कुछ चीजें ऐसी हैं, जो आपको अपने पर यकीन करने के लिए मजबूर कर देती हैं। स्त्री भी देश के कुछ हिस्सों में प्रचलित एक अवधारणा पर आधारित है। माना जाता है कि कुछ खास दिनों में कोई रूह स्त्री का रूप धर कर घर के मर्द का नाम लेकर दरवाजे पर दस्तक देती है और अगर कोई पुरुष दरवाजा खोल देता है, तो वह उसे अपने साथ ले जाती है। बाहर बस उसके कपड़े पड़े रह जाते हैं। उससे बचने के लिए लोग अपने घर के बाहर 'ओ स्त्री कल आना' लिख देते हैं, जिसे पढ़ कर वह लौट जाती है और यह सिलसिला रोजाना चलता रहता है। फिल्म स्त्री भी एक विचित्र घटना से प्रेरित बताई जाती है। हालांकि, फिल्म में डायरेक्टर अमर कौशिक ने हॉरर के साथ कॉमिडी का भी तड़का लगा दिया है। फिल्म को रियल टच देने के लिए इसकी शूटिंग भी भोपाल के पास एक ऐसी जगह की गई है, जहां ऐसी घटनाओं के बारे में सुनने में आता रहता है। फिल्म से जुड़े सूत्रों के मुताबिक शूटिंग के दौरान भी लोगों को खास हिदायत दी गई थी। फिल्म में विक्की (राजकुमार राव) मध्यप्रदेश के एक छोटे से कस्बे चंदेरी में एक टेलर है। चंदेरी में साल के चार दिन पूजा होती है। माना जाता है कि उन दिनों में स्त्री लोगों को अपना शिकार बनाती है, इसलिए इन दिनों वहां के लोग खासे सावधान रहते हैं। एक दिन उसकी मुलाकात एक अंजान स्त्री (श्रद्धा कपूर) से होती है। विक्की अपने दोस्तों बिट्टू (अपारशक्ति खुराना) और जना (अभिषेक बनर्जी) को उसके बारे में बताता है। विक्की उस लड़की से कई बार मिलता है। इसी बीच विक्की का कोई दोस्त और दूसरा दोस्त जना एक के बाद एक करके स्त्री के शिकार बन जाते हैं। तब बिट्टू विक्की को स्त्री की अजीब हरकतों के बारे में समझाता है, तो वे रुद्रा (पंकज त्रिपाठी) की शरण में जाते हैं, जो उन्हें स्त्री की सच्चाई से परिचित कराता है। विक्की और उसके साथी स्त्री से कैसे छुटकारा पाते हैं? यह जानने के लिए आपको सिनेमा जाना होगा। डायरेक्टर अमर कौशिक ने फिल्म पर कहीं भी अपनी पकड़ कमजोर नहीं पड़ने दी है। फर्स्ट हाफ में फिल्म मजेदार है, तो सेकंड हाफ में आपको थोड़ा डराती भी है। फिल्म आपको आखिर तक बांधे रखती है, लेकिन इसका क्लाइमैक्स और बेहतर हो सकता था। बेशक स्त्री से अमर ने हॉरर कॉमिडी का एक नया जॉनर आजमाया है। राजकुमार राव ने फिल्म में हमेशा की तरह बढ़िया ऐक्टिंग की है। यह राजकुमार का यंग जेनरेशन में क्रेज ही है कि सुबह के शो में युवाओं की खासी भीड़ मौजूद थी। पंकज त्रिपाठी ने एक बार फिर शानदार ऐक्टिंग की है। देसी रोल में उनका कोई जवाब नहीं। वहीं श्रद्धा कपूर के पास फिल्म में करने के लिए बहुत ज्यादा कुछ नहीं था, बावजूद इसके वह ठीक लगी हैं। वहीं अपारशक्ति खुराना और अभिषेक बनर्जी भी मजेदार लगे हैं। फिल्म में सुमित अरोड़ा के डायलॉग खासे मजेदार हैं, जो आपको पेट पकड़ कर हंसने पर मजबूर कर देते हैं। केतन सोढा ने हॉरर फिल्म के लिहाज से दमदार बैकग्राउंड स्कोर दिया है। वहीं फिल्म में दो आइटम नंबर भी हैं। इस वीकेंड आप कुछ लीक से हटकर मजेदार देखना चाहते हैं, तो यह फिल्म मिस मत करिए। | 1 |
बैनर :
यशराज फिलम्स
निर्माता :
आदित्य चोपड़ा
निर्देशक :
मनीष शर्मा
संगीत :
सलीम-सुलैमान
कलाकार :
अनुष्का शर्मा, रणवीर सिंह, नीरज सूद, मनीष चौधरी
सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 14 रील * 2 घंटे 20 मिनट
दिल्ली में होने वाले शादियों पर कई फिल्में बनी हैं और ‘बैंड बाजा बारात’ के रूप में एक और फिल्म हाजिर है। कहानी में कोई नयापन नहीं है, लेकिन फिल्म के हीरो-हीरोइन की कैमेस्ट्री, उम्दा अभिनय, चुटीले संवाद और कुछ हिट गानों के कारण लगातार मनोरंजन होता रहता है।
श्रुति (अनुष्का शर्मा) दिल्ली के एक मध्यमवर्गीय परिवार से है। जिंदगी के प्रति उसका नजरिया स्पष्ट है। पाँच साल बाद वह शादी करना चाहती है और उसके पहले ‘वेडिंग प्लानिंग’ का बिज़नेस शुरू करती है।
बिट्टो (रणवीर सिंह) को श्रुति पसंद आ जाती है और उसको पटाने के लिए वह उसका बिज़नेस पार्टनर बन जाता है। श्रुति उसे इसी शर्त पर पार्टनर बनाती है कि ‘जिससे व्यापार करो, उससे कभी ना प्यार करो’। यानी बात दोस्ती से आगे नहीं बढ़ेगी।
दोनों मिलकर कई शादियाँ करवाते हैं और तरक्की करते हैं। एक रात श्रुति अपना बनाया हुआ नियम खुद तोड़ती है और दोनों सारी हदें लाँघ जाते हैं। इसके बाद बिट्टो के व्यवहार में काफी परिवर्तन आ जाता है। दोनों में अनबन होती है और व्यावसायिक रूप से भी दोनों अलग हो जाते हैं। अलग-अलग व्यवसाय करते हैं, लेकिन उन्हें घाटा होता है। किस तरह से दोनों फिर से बिज़नेस पार्टनर के अलावा लाइफ पार्टनर बनते हैं, यह फिल्म का सार है।
फिल्म सैटल होने में शुरू के पन्द्रह मिनट लेती है और उसके बाद इंटरवल तक भरपूर मनोरंजन करती है। किस तरह ‘शादी मुबारक’ कंपनी के जरिये दोनों अपना व्यवसाय जमाते हैं, ये बहुत दिलचस्प तरीके से दिखाया गया है।
फिल्म के मुख्य किरदार वेडिंग प्लानर हैं इसलिए पृष्ठभूमि में कई शादियाँ होती रहती हैं और कहानी आगे बढ़ती रहती है। शादियों का चटक रंग और धूम-धड़ाका फिल्म में नजर आता है।
दिक्कत शुरू होती है इंटरवल के बाद। बिट्टो और श्रुति के अलग होने के कारणों को लेखक ठीक से पेश नहीं कर पाए। श्रुति अपने ही नियम को तोड़ बिट्टो से प्यार करने लगती है, लेकिन बिट्टो क्यों उससे दूर भागता है? उसके दिमाग में क्या चल रहा है, इसे स्पष्ट नहीं किया गया है। जबकि श्रुति का बिज़नेस पार्टनर बिट्टो इसीलिए बनता है क्योंकि वह उससे प्यार करता था। इससे दोनों के अलग होने का दर्द दर्शक महसूस नहीं करता। अंतिम 15 मिनटों में फिल्म फिर एक बार ट्रेक पर आ जाती है।
इन कमियों के बावजूद फिल्म मनोरंजन करती है और इसका सबसे बड़ा कारण है रणवीर और अनुष्का की कैमेस्ट्री। दोनों ने अपने किरदारों को बारीकी से पकड़कर बखूबी पेश किया है। शुरुआती दो फिल्मों में अनुष्का को कम अवसर मिले थे, लेकिन यहाँ उनका रोल हीरो जैसा है और उन्होंने इसका पूरा फायदा उठाया है।
रणवीर सिंह के आत्मविश्वास को देख लगता ही नहीं कि यह उनकी पहली फिल्म है। एक मँजे हुए अभिनेता की तरह छोटे शहर से दिल्ली आए लड़के का रोल उन्होंने बखूबी निभाया है। कैरेक्टर रोल के लिए अनजाने से चेहरे हैं, लेकिन सभी ने अपना काम खूब किया।
निर्देशक के रूप में मनीष शर्मा प्रभावित करते हैं। मनोरंजक सिनेमा गढ़ने में वे कामयाब रहे हैं। दिल्ली शहर का फ्लेवर और किरदारों का उत्साह स्क्रीन पर नजर आता है। यदि वे इमोशनल सीन को भी अच्छे से पेश करते तो फिल्म का प्रभाव और बढ़ जाता।
सलीम-सुलैमान ने फिल्म के मूड को ध्यान में रखकर धुनें तैयार की हैं और इनमें से ‘तरकीबें, ‘एंवई एंवई’ और ‘दम दम’ सुनने लायक है। वैभव मर्चेण्ट की कोरियोग्राफी भी देखने लायक है।
कुल मिलाकर इस बैंड बाजे वाली बारात में शामिल हुआ जा सकता है।
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1- बेकार/ 2- औसत/ 3- अच्छी/ 4- शानदार/ 5- अद्भुत
निर्माता :
शैलेन्द्र आर. सिंह
निर्देशक :
अनिल सीनियर
कलाकार :
राहुल बोस, कोंकणा सेन शर्मा, इरफान खान, राहुल खन्ना, सोहा अली खान, पायल रोहतगी
वूडी एलन की फिल्म ‘हसबैंड्स एंड वाइव्स’ से प्रेरित होकर निर्देशक अनिल सीनियर ने ‘दिल कबड्डी’ नामक फिल्म बनाई है। फिल्म में पति-पत्नी की दो जोडि़यों ऋषि-सिमी (राहुल बोस-कोंकणा सेन शर्मा) और समित-मीत (इरफान खान-सोहा अली खान) के बनते-बिगड़ते रिश्ते को दिखाया गया है।
बात गंभीरता से नहीं बल्कि हास्य से भरे अंदाज में की गई है। इसे ‘एडल्ट कॉमेडी’ कहा जा सकता है। ऐसा लगता है कि जैसे कैमरा इन जोडि़यों के बेडरूम में लगा है, जिसमें वे सेक्स से लेकर वो सारी बातें करते हैं, जो आमतौर पर पति-पत्नी के बीच होती हैं।
फिल्म के आरंभ में दिखाया गया है कि समित और मीत की शादी को कुछ वर्ष हो गए हैं और दोनों आपस में खुश नहीं हैं। पत्नी को कला फिल्म पसंद है, तो पति को मसाला फिल्म। छोटी-छोटी बातों पर वे लड़ते रहते हैं। दोनों के बीच सेक्स हुए भी कई महीने हो गए हैं और इस वजह से पति अपनी पत्नी से नाराज है। उसका कहना है कि इस कारण दिमाग और शरीर का संतुलन बिगड़ जाता है। दोनों अलग होने का फैसला करते हैं।
ऋषि और सिमी इनके अच्छे दोस्त हैं। दोनों के आपसी संबंध सिर्फ ठीक-ठाक है। ऋषि की चाहत कुछ और थी, इस वजह से पत्नी में उसे कमी दिखाई देती है। उसे अपनी गर्लफ्रेंड की याद आती है जो बहुत सेक्सी थी। समित और मीत के अलगाव का असर उनके रिश्तों पर भी होता है। घटनाक्रम कुछ ऐसे घटते हैं कि फिल्म के अंत में समित और मीत एक हो जाते हैं और ऋषि-सिमी अलग हो जाते हैं।
जहाँ एक ओर पुरुषों को लंपट दिखाया गया है, जिन्हें अपनी पत्नी के बजाय दूसरी औरतें ज्यादा आकर्षक और हॉट लगती हैं, क्योंकि सेक्स को लेकर सबकी अलग-अलग कल्पनाएँ हैं। वहीं पत्नियाँ अपने पति पर बहुत ज्यादा रोक-टोक लगाती हैं और हक जमाती हैं। पति-पत्नी के रिश्तों में शादी के कुछ वर्षों बाद ठहराव आ जाता है। रोमांस गायब हो जाता है। वे एक-दूसरे से बोर हो जाते हैं और वैवाहिक जिंदगी की सीमाएँ लाँघते हैं। इन सारी बातों को गुदगुदाते अंदाज में दिखाया गया है।
पूरी फिल्म में इन दोनों जोडि़यों की जिंदगी से कुछ प्रसंग उठाए गए हैं, जिन्हें निर्देशक ने एक नए अंदाज में पेश किया है। सारे किरदार कई बार कैमरे की ओर मुखातिब होकर सवालों के जवाब उसी अंदाज में देते हैं, जैसे इंटरव्यू के दौरान दिए जाते हैं।
घटनाओं का क्रम निर्धारित नहीं है, कोई-सा भी प्रसंग कभी भी आ जाता है, लेकिन इसके बावजूद फिल्म रोचक लगती है। कई दृश्य हँसाते हैं। मध्यांतर तक फिल्म में पकड़ है, लेकिन इसके बाद फिल्म थोड़ी लंबी खिंच गई है।
फिल्म के कलाकार इसका सबसे सशक्त पहलू है। इरफान खान का किरदार ‘मेट्रो’ फिल्म में उनके द्वारा निभाए गए किरदार का विस्तार लगता है। उन्होंने बेहतरीन अभिनय किया है। सोहा अली खान के चरित्र में कई शेड्स हैं और उन्होंने हर रंग को बखूबी परदे पर पेश किया है। राहुल बोस और कोंकणा सेन हमेशा की तरह शानदार हैं। पायल रोहतगी ने ओवर एक्टिंग की है।
एडल्ट कॉमेडी और सेक्स को लेकर हिंदी फिल्मकार परहेज करते रहे हैं, लेकिन बिना फूहड़ और अश्लील हुए भी एडल्ट कॉमेडी पर फिल्म बनाई जा सकती है। कुल मिलाकर ‘दिल कबड्डी’ हँसाती ज्यादा है, बोर कम करती है।
बेकार/ 2- औसत/ 3- अच्छी/ 4- शानदार/ 5- अद्भुत
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निर्माता :
गौरी खान
निर्देशक :
रोशन अब्बास
संगीत :
आशीष, श्री डी, प्रीतम
कलाकार :
अली फजल, गिसेलो मोंटेरो, जोया मोरानी, सत्यजीत दुबे, सतीश शाह, लिलेट दुबे, विजय राज, मुकेश तिवारी, मनोज जोशी, नवनीत निशान,
मेहमान कलाकार-
शाहर
ु
ख खान
सेंसर सर्टिफिकेट : यू/ए * 14 रील * 2 घंटे 10 मिनट
शाहरुख खान भी यह बात समझ गए थे कि उनके द्वारा बनाई गई फिल्म ‘ऑलवेज कभी कभी’ के चलने की कोई उम्मीद नहीं है। इसलिए उन्होंने भी फिल्म के प्रचार में कोई रूचि नहीं ली। पिछले कई दिनों से वे ‘रा-वन’ का प्रचार कर रहे हैं, लेकिन ऑलवेज कभी कभी के बारे में उन्होंने एक भी शब्द नहीं बोला।
फिल्म इतनी उबाऊ है कि बार-बार सिनेमाघर छोड़ने का मन करता है। दर्शक कितना पक जाता है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जैसे ही फिल्म खत्म होती है और स्क्रीन पर शाहरुख खान के आइटम सांग के साथ नाम आने शुरू होते हैं, कोई भी इस सुपरस्टार पर फिल्माया गया गाना देखने के लिए रूकना भी पसंद नहीं करता।
‘ऑलवेज कभी कभी’ में वही बात की गई है जो हम हाल ही में फालतू और थ्री इडियट्स में देख चुके हैं। पैरेंट्स के सपनों को पूरा करने का बच्चों पर दबाव। पढ़ाई का टेंशन आदि। कई बार दोहराई जा चुकी यह बात फिल्म में इतने बचकाने तरीके से पेश की गई है कि कही भी फिल्म अपना असर नहीं छोड़ पाती। सब कुछ सतही तरीके से कहा गया है। ऐसा लगता है कि फिल्म के जरिये कई बातें निर्देशक और लेखक कहना चाहते थे, लेकिन वे ठीक से कह नहीं पाए और सारा मामला गड़बड़ हो गया।
कहने को तो फिल्म टीनएजर्स को ध्यान में रखकर बनाई गई है, लेकिन फिल्म में वो मौज-मस्ती नदारद है जो इस वर्ग को पसंद है। न ही ये फिल्म इस तरह की कोई बात या मुददा सामने लाती है कि पैरेंट्स इसे देखकर कुछ सीख सकें।
निर्देशक रोशन अब्बास पर अभी भी कुछ कुछ होता है टाइप फिल्मों का हैंगओवर छाया हुआ है। फिल्म को उन्होंने उसी अंदाज में बनाया है और उनका ध्यान फिल्म के लुक और स्टाइलिंग पर रहा है। स्क्रीनप्ले लिखने वालों में उनका भी नाम है और यहाँ पर वे निर्देशक से भी ज्यादा कमजोर साबित हुए हैं। सारे घटनाक्रम ठूँसे हुए लगते हैं और इन घटनाओं को बेहूदा तरीके से आपस में जोड़ा गया है।
रोमियो जूलियट के नाटक के बारे में ढेर सारी बातें कर खूब बोर किया गया है। पुलिस वाला ट्रेक भी बचकाना है। हँसाने के लिए जो दृश्य रखे गए हैं वो खीज पैदा करते हैं। आखिर में पैरेंट्स का अचानक हृदय परिवर्तन होना तर्कसंगत नहीं लगता है। फिल्म का संगीत इसकी एक और कमजोर कड़ी है।
नंदी के रूप में जोया मोरानी अपना प्रभाव छोड़ने में सफल हैं और उन्होंने नैसर्गिक अभिनय किया है। समीर का किरदार निभाया है अली फज़ल ने और उनका अभिनय भी ठीक कहा जा सकता है।
गिसेले मोंटेरो सुंदर है, लेकिन उनकी एक्टिंग के बारे में ये बात नहीं कही जा सकती है। सत्यजीत दुबे भी ओवर एक्टिंग करते रहे। विजय राज, सतीश शाह और मुकेश तिवारी जैसे अभिनेताओं ने पता नहीं क्या सोचकर दोयम दर्जे की भूमिका स्वीकारी।
कुल मिलाकर ऑलवेज कभी कभी को ‘नेवर’ कहना ही उचित है।
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निर्माता :
हेराल्ड क्लोसर
निर्देशक :
रोलैंड एमरिच
कलाकार :
जॉन क्यूसैक, अमांडा पीट, डैनी ग्लोवर, वूडी हैरलसन
दो घंटे 38 मिनट
ये बात सभी लोग मानते हैं कि दुनिया एक दिन खत्म हो जाएगी। हालाँकि इसके पीछे ठोस कारण कोई नहीं दे पाया है। कब खत्म होगी? इसके बारे में कई बार तारीखें घोषित की गई, जिनमें से कुछ गुजर भी गईं।
माया सभ्यता के कैलेंडर ने पृथ्वी की एक्सपायरी डेट दिसंबर 2012 घोषित की है, जिसको आधार बनाकर ‘2012’ का निर्माण किया है। इसमें कुछ वैज्ञानिक तथ्यों का भी इस्तेमाल किया गया है और चार्ल्स हैपगुड की 1958 में प्रस्तुत की गई अर्थ क्रस्ट डिस्प्लेसमेंट थ्योरी का हवाला भी दिया गया है।
खैर, दुनिया जब खत्म होगी तब होगी, लेकिन किस तरह से होगी इसकी कल्पना ‘2012’ में की गई है। तबाही का जो खौफनाक मंजर पेश किया है वो दिल दहला देता है।
सूर्य की गर्मी लगातार बढ़ती है, जिससे पृथ्वी पर हलचल बढ़ने लगती है। इस बात को सबसे पहले एक भारतीय महसूस करता है और उसका अनुमान है कि पृथ्वी का अंत निकट है। वह ये बात अपने अमेरिकी दोस्त को बताता है और बात अमेरिकी राष्ट्रपति तक पहुँच जाती है। राष्ट्रपति अन्य देशों के प्रमुखों को इस भयावह स्थिति के बारे में बताते हैं और आम लोगों से इस बात को छिपाया जाता है ताकि अफरा-तफरी का माहौल न बने।
मानव जाति को बचाने के लिए एक सीक्रेट शिप का निर्माण शुरू किया जाता है ताकि दुनिया भर के चुनिंदा लोग इस महाप्रलय से बच सके। दुनिया भर से पैसा जुटाया जाता है और कुछ अमीर लोग इस शिप में बैठने के लिए 600 करोड़ रुपए प्रति व्यक्ति किराया चुकाते हैं। यह बात कुछ आम लोगों को भी पता चल जाती है और वे भी इस शिप में बैठने की कोशिश करते हैं।
एक तरफ दुनिया खत्म हो रही है तो दूसरी ओर ऐसे समय भी कुछ लोग राजनीति से बाज नहीं आते हैं। एक बिखरता हुआ परिवार त्रासदी की इस घड़ी में एकजुट हो इस विनाश में प्यार और विश्वास पाता है। सीक्रेट शिप के जरिये बचे हुए लोग इस महाप्रलय का सामना करते हुए विजयी होते हैं।
फिल्म में कई किरदार हैं जिनके जरिये प्यार, नफरत, विश्वास, अविश्वास जैसे मानवीय स्वभावों को दिखाया गया है। किस तरह मुसीबत में अपने याद आते हैं। ऐसे समय कोई अपने बारे में ही सोचता है तो कोई मनुष्य जाति के बारे में विचार करता है। एक रेडियो जॉकी का किरदार मजेदार है, जिसे अपने श्रोताओं को सबसे पहले खबर देने की सनक है और वह ज्वालामुखी के बीच खड़ा होकर अपना काम करता है।
फिल्म में ड्रामे की बजाय स्पेशल इफेक्ट्स पर जोर दिया है। शुरू के 15 मिनट बाद विनाश को जो सिलसिला शुरू होता है तो अंत तक चलता है। ज्वालामुखी, भूकंप और सुनामी के जो दृश्य दिखाए गए हैं वे अद्भुत हैं।
जमीन फट जाती है और उसमें शहर समा जाते हैं। पानी में कई शहर डूब जाते हैं। इन सबके बीच विमान में बैठा एक परिवार किस तरह बचता है ये उम्दा तरीके से पेश किया गया है।
स्पेशल इफेक्ट्स सुपरवाइज़र माइक वज़ीना नि:संदेह इस फिल्म के हीरो हैं। इतनी सफाई से उन्होंने अपने काम को किया है कि कुछ भी बनावटी या नकली नहीं लगता।
‘इंडिपेडेंस डे’ और ‘द डे ऑफ्टर टूमारो’ जैसी फिल्म बनाने वाले रोलैंड एमरिच कल्पनाशील और लार्जर देन लाइफ फिल्म बनाने में माहिर हैं। एक बार फिर उन्होंने उम्दा काम किया है, हालाँकि वे अपनी पिछले काम के नजदीक नहीं पहुँच पाए हैं। फिल्म का अंत थोड़ा लंबा हो गया है। कुछ दृश्य को रखने का मोह यदि रोलैंड छोड़ देते तो फिल्म में कसावट आ जाती। फिल्म को भव्य बनाने में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी है।
जॉन क्यूसैक, अमांडा पीट, डैनी ग्लोवर सहित सारे कलाकारों का अभिनय उम्दा है।
आप दुनिया खत्म होने की बात पर विश्वास करें या न करें, लेकिन यह फिल्म आपको कल्पना की ऐसी दुनिया में ले जाती है, जहाँ आप सब कुछ भूल जाते हैं।
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चंद्रमोहन शर्मा बरसों पहले शुरू हुए रीयल लाइफ कपल पर बनने वाली फिल्मों के हिट होने के ट्रेंड को बॉलिवुड के यंग मेकर्स एकबार फिर कैश करना चाहते हैं। इस रेस में यकीनन इम्तियाज अली पहले ही शामिल हो चुके हैं। करियर के शुरुआती दौर में इम्तियाज ने ऐसा एक्सपेरिमेंट करीना कपूर और शाहिद कपूर को लेकर 'जब वी मेट' में किया और फिल्म बॉक्स आफिस पर सुपरहिट रही। अब एक बार फिर इम्तियाज ने रणबीर कपूर और दीपिका पादुकोण को लेकर तमाशा बनाई। हालांकि जहां जब वी मेट के बाद करीना और शाहिद का ब्रेकअप हो गया, वहीं ब्रेकअप के बाद दीपिका और रणबीर दूसरी बार एक साथ आए हैं। इम्तियाज की इस फिल्म ने उन्हें ऐसे मिलाया कि प्रमोशन के दौरान दोनों ने ट्रेन में नाइट जर्नी तक की। बेशक रीयल कपल को लेकर बनी फिल्मों का अच्छा क्रेज बनता है, लेकिन यह हर फिल्म के हिट होने की गारंटी नहीं। वैसे इम्तियाज की इस फिल्म की लीड जोड़ी 'ये जवानी है दीवानी' में धमाल मचा चुकी है। हालांकि यह जोड़ी बैक टु बैक दूसरी हिट दे पाएगी, इतना दमखम इस फिल्म में कम नजर आता है। हां दीपिका-रणबीर की जोड़ी की दमदार केमिस्ट्रिी इनके फैंस के लिए यकीनन पैसा वसूल है। फिल्म और टीवी की खबरें सीधें पढ़ें अपने फेसबुक पर, लाइक करें NBT Movies कहानी : तारा माहेश्वरी (दीपिका पादुकोण) फ्रांस के द्वीप कोर्सिका में मुश्किल में है। तारा का सारा सामान और पासपोर्ट चोरी हो चुका है। इस मुश्किल के वक्त उसकी मुलाकात वेद वर्धन (रणबीर कपूर) से होती है। वेद अपने पिता (जावेद शेख) के सपनों को पूरा करने के लिए अपने ख्वाब को दफन करके इंजीनियर तो बन गया, लेकिन दिल से वेद कुछ और ही बनना चाहता है। यही वजह है कि वह लाइफ को अपने ढंग से एन्जॉय करने के लिए कोर्सिका पहुंचा है। यहीं पर तारा और वेद एक टूर प्लान करते हैं। टूर पर निकलने से पहले वेद और तारा के बीच तय होता है कि दोनों अपनी असली पहचान एक-दूसरे को नहीं बताएंगे। इस टूर के बाद दोनों अपने-अपने शहर लौट जाते हैं। हालांकि लौटने के बाद तारा को पता चलता है कि उसे वेद उर्फ डॉन से प्यार हो चुका है। दिल्ली ट्रांसफर होने पर तारा उसी बार में पहुंचती है, जहां वेद भी अक्सर जाया करता है। हालांकि वेद कोर्सिका से लौटने के बाद दोबारा अपनी पुरानी दुनिया में लौट चुका है और मशीनी जिंदगी जीने लगा है। इस बार वेद से मिलने के बाद तारा को लगता है यह वेद वह नहीं जिसे वह कोर्सिका में मिली थी। इसके बाद दोनों ब्रेकअप कर लेते हैं। क्या वेद खुद को पहचान पाएगा और क्या वेद और तारा दोबारा मिल पाएंगे, यही कहानी तमाशा दिखाने की कोशिश करती है। ऐक्टिंग : दीपिका ने एकबार फिर बेहतरीन ऐक्टिंग की है। तारा के किरदार की मस्ती और बाद में उसके अंदर के दर्द को दीपिका ने अपने अभिनय से जीवंत कर दिखाया है। रणबीर कपूर के किरदार में शेड तो कई हैं, लेकिन इंटरवल के बाद रणबीर कई सीन्स में ओवर ऐक्टिंग के शिकार रहे। अन्य कलाकारों में पीयूष मिश्रा और कम फुटेज के बावजूद जावेद शेख अपनी पहचान छोड़ने में कामयाब रहे। डायरेक्शन : इस बार इम्तियाज अली ने अपनी कहानी के लीड किरदारों को लिखा तो बेहद दमदार, लेकिन फिल्म की फाइनल स्क्रिप्ट के वक्त कुछ नया करने के चक्कर में ऐसे उलझे कि कहानी बेवजह लंबी होती गई। कमजोर स्क्रिप्ट के अलावा कहानी को आगे बढ़ाने के लिए बार-बार फ्लैश बैक सीन्स का प्रयोग कहानी की पहले से सुस्त रफ्तार को और धीमा करने का काम करता है। संगीत : फिल्म का संगीत पहले ही युवाओं में हिट है। अगर कहा जाए तो कमजोर स्क्रिप्ट के बावजूद फिल्म का संगीत दर्शकों को कहानी और किरदारों के साथ जोड़ने में सफल है तो यह गलत नहीं होगा। 'मटरगश्ती', 'हीर' और 'अगर तुम साथ हो' गाने पहले से हिट हैं। ए आर रहमान और गीतकार इरशाद कामिल की जोड़ी ने यकीनन बेहतरीन काम किया है। क्यों देखें : रणबीर और दीपिका के फैन हैं तो इसबार इनके बीच की बेहतरीन केमिस्ट्री आपको अच्छी लगेगी। खूबसूरत विदेशी लोकेशन, दमदार म्यूजिक और इम्तियाज अली का नाम फिल्म की यूएसपी है। वहीं कमजोर स्क्रिप्ट फिल्म का माइनस पॉइंट। फिल्म तमाशा, युवा पीढ़ी को अपनी ओर खींचने का दम रखती है। लेकिन ऐसा 'तमाशा' फैमिली क्लास की कसौटी पर शायद खरा उतरने का दम नहीं रखता। | 1 |
आपने हॉरर फिल्में भी देखी होंगी और कॉमिडी फिल्में भी लेकिन 'नानू की जानू' इन दोनों का ही मजेदार मिश्रण है। फिल्म में आनंद उर्फ नानू (अभय देओल) एक दिल्ली बेस्ड गुंडा है जो लोगों को डरा-धमकाकर उनके मकान को कब्जा करता है। इस काम में डब्बू (मनु ऋषि) उसकी मदद करता है। एक दिन अचानक नानू के साथ अजीब-अजीब चीजें होने लगती हैं। वह डब्बू और पड़ोसियों की मदद मांगता है लेकिन परेशानी से निजात नहीं मिलती है। दरअसल, उसका पाला सिद्धि उर्फ जानू (पत्रलेखा) से पड़ जाता है जो कि भूतनी है और नानू को चाहती है। उसके बाद शुरू होता है मजेदार कॉमिडी का सिलसिला जो आपको पूरी फिल्म के दौरान गुदगुदाता रहता है। आखिरकार जानू अपने नानू को पाने में कामयाब होती है या नहीं, यह जानने के लिए आपको थिअटर जाना पड़ेगा। हालांकि, किसी भूतनी के इंसान को चाहने का प्रयोग हम इससे पहले अनुष्का शर्मा की फिल्म फिल्लौरी में भी देख चुके हैं लेकिन नानू की जानू उस लिहाज से अलग तरह की फिल्म है। यह 2014 में आई तमिल फिल्म 'पिसासु' का रीमेक है। इससे पहले इसका तेलुगू और कन्नड़ में भी रीमेक बन चुका है।यहां देखें ट्रेलर... सिल्वर स्क्रीन पर कम ही नजर आने वाले अभय देओल जब भी किसी फिल्म में दिखते हैं तो उनकी ऐक्टिंग को नजरअंदाज करना मुश्किल हो जाता है। वह अपने लिए लीक से हटकर स्क्रिप्ट ही चुनते हैं। फिल्म में पत्रलेखा का रोल काफी छोटा है। वहीं, मनु ऋषि ने न सिर्फ दर्शकों को गुदगुदाने वाली ऐक्टिंग की है बल्कि हिंदी में फिल्म की स्क्रिप्ट भी लिखी है। उनकी मजेदार स्क्रिप्ट पर डायरेक्टर फराज हैदर ने दर्शकों को मनोरंजन करने वाली फिल्म बनाई है। इससे पहले फराज अभय की नैशनल अवॉर्ड विनर फिल्म 'ओए लक्की, लक्की ओए' के असिस्टेंट डायरेक्टर भी रह चुके हैं। इस बार इस जोड़ी ने फिर साथ में कमाल दिखाया है। बृजेंद्र काला ने भी कुमार के छोटे से रोल में हमेशा की तरह बढ़िया ऐक्टिंग की है। यूं तो इस हफ्ते करीब आधा दर्जन फिल्में रिलीज होने वाली थीं लेकिन इसे नानू की जानू की किस्मत ही कहिए कि ज्यादातर फिल्में पोस्टपोन हो गईं। आखिर में फिल्म जरूर थोड़ी बचकाना हो जाती है लेकिन साथ में रोड सेफ्टी का मेसेज भी देती है। अगर आप इस वीकेंड कुछ मजेदार देखना चाहते हैं तो इस फिल्म को मिस मत कीजिए। | 0 |
मंत्री से ऑफिसर फिरोज (डैनी) पूछने के लिए आता है कि दूसरे देश से आतंकवादी को गुपचुप तरीके से पकड़ने के लिए कोवर्ट काउंटर इंटेलिजेंस के ऑफिसर अजय (अक्षय कुमार) को परमिशन दी जाए। मंत्री पूछते हैं कि यदि अजय पकड़ा गया तो? फिरोज कहता है 'हम बोल देंगे कि हम इसे जानते ही नहीं है। मंत्री जी, ये अलग ही किस्म के बंदे होते हैं। थोड़े से खिसके हुए। ये देश के लिए मरते नहीं बल्कि जिंदा रहते हैं। इन्हें इस बात की भी परवाह नहीं रहती कि सरकार इन्हें क्या देती है?' अजय जैसे ऑफिसर्स की कहानी है 'बेबी', जिनके लिए राष्ट्र सबसे पहले होता है। उनकी उपलब्धि का कोई गुणगान भी नहीं होता क्योंकि उनकी पत्नी तक नहीं जानती कि वे क्या काम करते हैं। पकड़े जाए तो सरकार भी पल्ला छुड़ा लेती है।
चुनिंदा ऑफिसर्स को लेकर पांच वर्ष का एक मिशन बनाया गया है जिसका नाम है 'बेबी'। ये लोग आतंकवादियों को ढूंढ उन्हें मार गिराते हैं। 'बेबी' फिल्म उनके अंतिम मिशन के बारे में हैं। इस यूनिट का हेड फिरोज (डैनी) के नेतृत्व में अजय और उसके साथी (अनुपम खेर, राणा दग्गुबाती, तापसी पन्नू) इंडियन मुजाहिदीन का खास बिलाल खान (केके मेनन) के पीछे हैं जो मुंबई से भाग सऊदी अरब पहुंच गया है। वह मुंबई और दिल्ली में खतरनाक घटनाओं को अंजाम देना चाहता है। एक सीक्रेट मिशन के तहत बेबी की टीम उसके पीछे सऊदी अरब पहुंच जाती है।
'बेबी' का निर्देशन किया है नीरज पांडे ने, जिनके नाम के आगे 'ए वेडनेस डे' और 'स्पेशल 26' जैसी बेहतरीन रोमांचक फिल्में हैं। वास्तविक घटनाओं से प्रेरणा लेकर वे थ्रिलर गढ़ते हैं और सरकारी ऑफिसर्स की कार्यशैली को बखूबी स्क्रीन पर दिखाते हैं। 'बेबी' में भी उनकी यह खूबी नजर आती है। वैसे 'बेबी' देखते समय आपको 'डी डे' और टीवी धारावाहिक '24' याद आते हैं।
नीरज की फिल्में वास्तविकता के नजदीक रहती हैं, लेकिन 'बेबी' में उन्होंने सिनेमा के नाम पर कुछ ज्यादा ही छूट ले ली है। हालांकि जो परदे पर दिखाया जा रहा है उसे न्यायसंगत ठहराने की उन्होंने पूरी कोशिश की है, लेकिन दर्शकों को पूरी तरह संतुष्ट नहीं कर सके।
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फिल्म का पहला हिस्सा थोड़ा लंबा खींचा गया है और कुछ हिस्से गैर जरूरी लगते हैं। मसलन इस्तांबुल पहुंच कर अजय का अपने साथी को आतंकियों से छुड़ाने वाला हिस्सा फिल्म की कहानी के लिए इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितने की फुटेज इस पर खर्च किए गए हैं।
बिलाल की एंट्री के बाद फिल्म में पकड़ आती है और इंटरवल के बाद वाला हिस्सा बेहतरीन है। खासतौर पर फिल्म के अंतिम 40 मिनट जबरदस्त है और इस दरमियान आप कुर्सी से हिल नहीं पाते हैं।
आतंकवादियों के मामले पर फिल्म में नया एंगल यह दिखाया गया है कि सीमा पार के लोग हमारे देश के नागरिकों को उनका हथियार बना रहे हैं। वे हमारी सरकार के खिलाफ खास समुदाय के लोगों के मन में संदेह पैदा कर रहे हैं ताकि उनका काम आसान हो। दूसरी ओर 'बेबी' यूनिट का हेड फिरोज को दिखा कर निर्देशक और लेखक ने यह भी स्पष्ट किया है आतंकवादियों को किसी खास समुदाय से जोड़ कर नहीं देखा जाना चाहिए।
नीरज पांडे द्वारा लिखी गई स्क्रिप्ट में कुछ खामियां भी हैं, जैसे बिलाल, जो अपने आपको कसाब से बड़ा आतंकी मानता है, बड़ी आसानी से मुंबई से भाग निकल आता है। उसके भाग निकलने वाला सीन बेहद कमजोर है और इसका फिल्मांकन सत्तर के दशक की फिल्मों की याद दिला देता है। उस समय भी स्मगलर पुलिस की गिरफ्त से ऐसे ही भाग निकलते थे।
सऊदी अरब में जिस तरह से अपने मिशन को 'बेबी' ग्रुप अंजाम देता है उस पर यकीन करना मुश्किल होता है। हालांकि भारत सरकार की ओर से उन्हें पूरी मदद मिलती है और इसके जरिये फिल्म के निर्देशक ने ड्रामे को विश्वसनीय बनाने की पुरजोर कोशिश भी की है। इन खामियों के बावजूद नीरज रोमांच पैदा करने में सफल रहे हैं। दर्शक पूरी तरह से फिल्म से बंध कर रहते हैं और उत्सुकता बनी रहती है।
रोमांटिक दृश्यों में निर्देशक नीरज की असहजता स्पष्ट दिखाई देती है। इस तरह के सीन उन्होंने मन मारकर 'स्पेशल 26' में भी रखे थे और 'बेबी' में भी यही बात जारी है। अक्षय और उनकी पत्नी के बीच के दृश्यों बेहद सतही हैं।
अक्षय कुमार ने अपनी भूमिका पूरी गंभीरता से निभाई है। एक्शन रोल में वे जमते हैं और 'बेबी' में अजय के किरदार में वे बिलकुल फिट नजर आए। अक्षय के मुकाबले अन्य कलाकारों को कम फुटेज मिले। राणा दग्गुबाती को तो संवाद तक नहीं मिले। छोटे-से रोल में तापसी पन्नू अपना असर छोड़ जाती है। उनका और अक्षय के बीच नेपाल वाला घटनाक्रम फिल्म का एक बेहतरीन हिस्सा है। अनुपम खेर की फिल्म के क्लाइमैक्स में एंट्री होती है और वे तनाव के बीच राहत प्रदान करते हैं। मधुरिमा तूली के पास करने के लिए ज्यादा कुछ नहीं था। रशीद नाज और सुशांत सिंह ने अपने-अपने किरदारों को बेहतरीन तरीके से निभाया है।
फिल्म का बैकग्राउंड म्युजिक बहुत ज्यादा लाउड है। कुछ लोगों को सिर दर्द की भी शिकायत हो सकती है। फिल्म की सिनेमाटोग्राफी ऊंचे दर्जे की है।
'बेबी' और बेहतर बन सकती थी, बावजूद इसके यह फिल्म एक बार देखी जा सकती है।
बैनर : टी-सीरिज सुपर कैसेट्स इंडस्ट्रीज लि., ए फ्राईडे फिल्मवर्क्स, क्राउचिंग टाइगर मोशन पिक्चर्स, केप ऑफ गुड फिल्म्स
निर्देशक : नीरज पांडे
संगीत : मीत ब्रदर्स
कलाकार : अक्षय कुमार, तापसी पन्नू, राणा दग्गुबाती, अनुपम खेर, डैनी, केके मेनन, मधुरिमा टुली, रशीद नाज, सुशांत सिंह
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 39 मिनट 42 सेकंड्स
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बैनर :
जीएस एंटरटेनमेंट प्रा.लि.
निर्माता :
बंटी वालिया, जसप्रीत सिंह वालिया
निर्देशक :
राहुल ढोलकिया
संगीत :
मिथुन
कलाकार :
संजय दत्त, बिपाशा बसु, कुणाल कपूर, शेरनाज पटेल, अनुपम खेर, यशपाल शर्मा
* ए- सर्टिफिकेट * 1 घंटा 55 मिनट
वर्षों से चली आ रही कश्मीर समस्या अब तक हल नहीं हो पाई है। यह आग पता नहीं कब बुझेगी। निर्देशक राहुल ढोलकिया ने ‘लम्हा’ के जरिये बताया है कोई भी नहीं चाहता कि यह आग बुझे।
नेता, पुलिस, सेना, आतंकवादियों के अपने-अपने मतलब हैं इसलिए वे इस समस्या को जस का तस बनाए रखते हैं। सरकार इस समस्या से निपटने के लिए भारी भरकम राशि देती है, जिससे भ्रष्ट अफसरों को पैसा खाने का
मौक
ा मिलता है। नेता अपनी दुकान चलाते हैं। आतंकवादी और कश्मीर की आजादी का सपना दिखाने वाले लोग विदेशी मदद से अपनी जेबें भरते हैं।
इन बातों को दिखाने के लिए जो ड्रामा लिखा (राघव धर, राहुल ढोलकिया) गया है वो बहुत बिखरा हुआ और बोरिंग है। बहुत सारी बातें स्पष्ट नहीं हो पाईं। नि:संदेह लेखक और निर्देशक ने एक अच्छी थीम का चुनाव किया, लेकिन वे अपनी बात को ठीक से नहीं रख पाए।
जब यह खबर आती है कि ऑर्मी, पुलिस, नेता बजाय शांति स्थापित करने के अशांति फैला रहे हैं तो विक्रम (संजय दत्त) नामक ऑफिसर को सीक्रेट मिशन पर भेजा जाता है ताकि वह उन लोगों को बेनकाब कर सके।
घाटी में विक्रम कदम रखता है और उसी दिन अलगाववादी नेता हाजी (अनुपम खेर) पर जानलेवा हमला होता है, लेकिन वह बच जाता है। कौन है इस विस्फोट के पीछे, यह जानने में विक्रम जुट जाता है। इस काम में उसकी मदद करती है अज़ीजा (बिपाशा बसु) जो हाजी की बेटी जैसी है। इस यात्रा में वे कई चेहरों को बेनकाब करते हैं।
स्क्रीनप्ले कुछ इस तरह लिखा गया है कि कई दृश्यों का मुख्य कहानी से कोई लेना-देना नहीं है। उदाहरण के लिए सीमा पर तैनात एक सैनिक इस बात से खफा है कि उसे मात्र सात हजार रुपए मिलते हैं। लंबे समय से वह घर नहीं जा पाया है। उसे खाना खुद बनाना पड़ता है। इस दृश्य को यदि कहानी से जोड़कर दिखाया जाता तो प्रभावी होता।
कश्मीर जैसे संवेदनशील मुद्दे पर यदि फिल्म बनाई जा रही है तो फिल्म वास्तविकता के निकट होना चाहिए, लेकिन इसको लेकर भी निर्देशक राहुल कन्फ्यूज नजर आए। बिपाशा और संजय दत्त जैसे स्टार्स का प्रभाव उन पर हो गया।
संजय दत्त से उन्होंने कुछ ऐसे कारनामे करवाए जो बॉलीवुड का हीरो करता है। साथ ही उसे ठीक से जस्टिफाई भी नहीं किया गया है। प्रस्तुतिकरण भी इतना बेजान है कि दर्शक फिल्म से जुड़ नहीं पाता।
कैरेक्टर ठीक से नहीं लिखे गए हैं और इसका असर कलाकारों के अभिनय पर भी पड़ा है। किसी को समझ में नहीं आया कि वह क्या कर रहा है। संजय दत्त, बिपाशा बसु और अनुपम खेर का अभिनय औसत दर्जे का रहा। कुणाल कपूर निराश करते हैं। महेश मांजरेकर और यशपाल शर्मा का पूरी तरह उपयोग नहीं हो पाया।
फिल्म के गाने थीम के अनुरूप हैं, लेकिन इन्हें नहीं भी रखा जाता तो खास फर्क नहीं पड़ता। जेम्स फोल्ड्स ने कैमरे को ज्यादा ही शेक किया है, जिसकी जरूरत नहीं थी।
कुल मिलाकर ‘लम्हा’ निराश करती है।
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हिंदी सिनेमा के दर्शक इन दिनों बायोपिक बेहद पसंद कर रहे हैं इसलिए निर्माता-निर्देशक इतिहास के पन्नों में ऐसे चरित्र ढूंढ रहे हैं जिन पर फिल्म बनाई जा सके। नीरजा भनोट ने अपनी छोटी सी जिंदगी में इतना बड़ा कारनामा कर दिया कि उन पर फिल्म तो बनती है। फिल्म निर्देशक राम माधवानी ने नीरजा और उनके जीवन की कुछ घटनाओं से प्रेरित होकर 'नीरजा' बनाई है।
किसी व्यक्ति विशेष पर फिल्म बनती है तो कहानी किस तरह की होगी, क्या होगी, ये दर्शकों को पहले से पता रहता है और सारा खेल प्रस्तुतिकरण पर आ टिकता है ताकि दर्शक उन पलों को जी सके। 'नीरजा' भी उन क्षणों का बखूबी महसूस कराती है जब एक विमान का अपहरण हो जाता है और फ्लाइट अटेंडेंट नीरजा अपना हौंसला न खोते हुए सैकड़ों जान बचाती हैं।
फिल्म की यह खूबी है कि शुरुआत 15-20 मिनटों में ही यह बहुत सारी बातें उम्दा तरीके से सामने रख देती है। नीरजा का चुलबुलापन, सुपरस्टार राजेश खन्ना के प्रति दीवानगी, अपने जॉब से प्यार करने वाली और प्रेम के अंकुरित होते बीज के जरिये नीरजा का किरदार बखूबी दर्शकों के दिमाग पर छा जाता है।
सितम्बर 1986 में पैन एम 73 की उड़ान मुंबई से रवाना होती है और कराची में उतरती है, जहां कुछ आतंकी विमान में घुस कर हाइजैक कर लेते हैं। 379 यात्री विमान में सवार हैं। इस कठिन अवसर में भी नीरजा दिमाग को शांत रखते हुए पायलेट को प्लेन हाइजेक का संकेत देती है और सारे पायलेट्स कॉकपिट से भाग निकलते हैं।
अबू निदाल ऑर्गेनाइजेशन के आतंकियों के सामने विकट स्थिति खड़ी हो जाती है क्योंकि विमान उड़ाने वाला कोई नहीं है। वे साइप्रस में कैद अपने साथियों को छुड़ाना चाहते थे, लेकिन पायलेट की मांग में उलझ जाते हैं। घंटों तक विमान कराची एअरपोर्ट पर खड़ा रहता है। बातचीत चलती रहती है और इसी बीच नीरजा अपने यात्रियों को ध्यान रखने का कर्तव्य बखूबी निभाती है।
नीरजा की बहादुरी और निर्णय लेने की क्षमता तब भी दिखाई देती है जब उसे भनक लगती है कि आतंकी सारे पासपोर्ट इकट्ठा कर अमेरिकी नागरिकों को मार सकते हैं। वह अपने साथियों के साथ अमेरिकियों के पासपोर्ट छिपा देती है और आतंकियों के प्लान में बाधा उत्पन्न करती है।
फिल्म का तीन-चौथाई हिस्सा हवाई जहाज के अंदर फिल्माया गया है और एक सीमित स्थान पर फिल्म को केन्द्रित रख कर दर्शकों को बांधे रखना आसान बात नहीं थी, लेकिन निर्देशक राम माधवानी, लेखक और फिल्म के संपादक मोनिषा ने बेहतरीन काम करते हुए न केवल फिल्म को देखने लायक बनाया है बल्कि आप भी उस फ्लाइट में सवार एक यात्री की तरह उस भय से भरे क्षणों को जीते हैं। विमान के अंदर के तनाव को आप महसूस करते हैं। साथ ही नीरजा के परिवार पर उस समय क्या गुजर रही थी इस बात को भी अच्छी तरह पेश किया गया है। फिल्म के अंत में तो भावुक दर्शकों की आंखें गीली हो जाएंगी।
कुछ विज्ञापनों में मॉडल रह चुकीं नीरजा का शादी का अनुभव अच्छा नहीं रहा था। फ्लेशबैक के जरिये उसके अतीत की कड़वाहट को कहानी में बखूबी पिरोया गया है।
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फिल्म कुछ जगह फिसलती भी है कुछ जगह ठहरी हुई लगती है। कुछ बनावटी सीन भी अखरते हैं और फिल्म के बीच एक गाने की गुंजाइश तो बिलकुल नहीं थी। आतंकियों की मांग पर भी थोड़े फुटेज खर्च किए जाने थे। अंत में कुछ भावुक दृश्यों से भी बचा जा सकता था, लेकिन ये छोटी-मोटी कमियां हैं।
निर्देशक राम माधवानी ने एक चैलेंजिंग कहानी पर फिल्म बनाई है और पूरी फिल्म में उन्होंने दर्शकों को जोड़ कर रखा है। नीरजा को वे दर्शकों से सीधा कनेक्ट करने में भी सफल रहे हैं। दो घंटे की फिल्म को यदि वे थोड़ा और छोटा कर देते तो फिल्म में कसावट आ जाती।
लंबे समय तक बॉलीवुड में रहने के बावजूद सोनम कपूर अभी तक बतौर अभिनेत्री छाप नहीं छोड़ पाई हैं। 'नीरजा' के जरिये उन्हें बड़ा अवसर मिला और जिसका उन्होंने पूरा फायदा भी उठाया। अपने अभिनय से वे प्रभावित करती हैं और उनके करियर की यह बेहतरीन फिल्म है।
शबाना आजमी के दृश्य कमजोर लिखे गए हैं, लेकिन वे अपने सशक्त अभिनय के जरिये इस कमी को पूरा करती है। संगीतकार शेखर छोटी भूमिका में औसत रहे हैं। फिल्म में अधिकांश चेहरे नए हैं और यह स्क्रिप्ट की डिमांड भी थी। आतंकी बने दो कलाकारों का अभिनय अच्छा है। नीरजा के पिता के रोल में योगेन्द्र टिक्कू का काम भी शानदार है।
सुपरस्टार राजेश खन्ना की नीरजा बहुत बड़ी फैन थीं। काका की फिल्म का एक संवाद है कि जिंदगी बड़ी होनी चाहिए, लंबी नहीं। इस संवाद को 23 वर्षीय नीरजा ने सही मायनो में जिया था।
बैनर : फॉक्स स्टार स्टुडियोज़, ब्लिंग अनप्लग्ड
निर्माता : अतुल कस्बेकर
निर्देशक : राम माधवानी
संगीत : विशाल खुराना
कलाकार : सोनम कपूर, शबाना आज़मी, शेखर रावजिआनी, योगेन्द्र टिक्कू
सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 2 घंटे 2 मिनट
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मर्दाना कमजोरी पर हिंदी में शायद ही पहले कोई फिल्म बनी होगी। इस विषय पर फिल्म बनाना रस्सी पर चलने जैसा है। जरा सा संतुलन बिगड़ा और धड़ाम। रेखा पार की और फिल्म अश्लील हो सकती थी, लेकिन निर्देशक आरएस प्रसन्ना फिल्म 'शुभ मंगल सावधान' में सधे हुए अंदाज से चले। यह फिल्म तमिल फिल्म 'कल्याणा सामयाल साधम' से प्रेरित है। कहानी का मूल प्लाट छोड़ सब कुछ बदल दिया गया है।
कहानी मुदित (आयुष्मान खुराना) और सुगंधा (भूमि पेडनेकर) की है। मुदित को सुगंधा पसंद आ जाती है और वह ऑनलाइन रिश्ता भिजवाता है। सुगंधा के दिल में भी मुदित धीरे-धीरे बस जाता है। शादी तय हो जाती है। शादी के कुछ दिन पहले घर में सुगंधा अकेली रहती है और मुदित वहां आ पहुंचता है। दोनों अपने पर काबू नहीं रख पाते हैं। इसके पहले की वे कुछ कर बैठे मुदित अपने अंदर 'मर्दाना कमजोरी' पाता है। इसके बाद यह बात दोनों पक्षों में फैल जाती है और हास्यास्पद परिस्थितियां निर्मित होती हैं।
इस गंभीर मुद्दे को फिल्म में हल्के-फुल्के अंदाज से दिखाया गया है। फिल्म में कई दृश्य ऐसे हैं जिन पर आपकी हंसी नहीं रूकती। खासतौर पर जब सुगंधा की मां अलीबाबा और गुफा वाला किस्सा सुनाती है, जब मुदित की कमजोरी के बारे में उसके और सुगंधा के पिता को पता चलता है, सुगंधा के पिता और उनके बड़े भाई की नोकझोंक, मुदित का फिर से बारात लाना वाले सीन उम्दा बन पड़े हैं। फिल्म का स्क्रीनप्ले हितेश केवल्य ने लिखा है और उन्होंने इस बात का ध्यान रखा है कि दर्शकों का भरपूर मनोरंजन हो।
कहानी की सबसे महत्पूर्ण बात यह है कि सुगंधा को जब पता चल जाता है कि मुदित एक कमजोरी से जूझ रहा है तब वह कभी की मुदित से रिश्ता तोड़ने की बात नहीं सोचती। लगातार उस पर उसके पिता दबाव भी डालते हैं, लेकिन वह नहीं मानती। वह सेक्स के बजाय प्यार को अहमियत देती है और इससे प्रेम कहानी पॉवरफुल बनती है।
फिल्म दर्शकों को बांध कर रखती है, लेकिन कुछ दरारें समय-समय पर उभरती है। जैसे, मुदित अपने इलाज के बारे में कभी गंभीर नहीं लगता। बाबा बंगाली के पास जाने के बजाय वह डॉक्टर के पास क्यों नहीं जाता? एक बार सुगंधा के पिता उसे डॉक्टर के पास ले जाते हैं, लेकिन वे जानवरों के डॉक्टरों के पास क्यों ले जाते हैं यह समझ से परे है।
फिल्म में एक दृश्य है कि शादी के ठीक पहले मुदित और सुगंधा एक कमरे में बंद हो जाते हैं। बाहर सारे लोग इस बात पर शर्त लगाते हैं कि कुछ होगा या नहीं। थोड़ी देर बाद वे बाहर आते हैं। मुदित कहता है हो गया और सुगंधा कहती है नहीं हुआ। असल में हुआ क्या, यह बताया नहीं गया। ठीक है, इस सीन से हास्य पैदा किया गया है, लेकिन दर्शक सोचते ही रह जाते हैं कि आखिर हुआ क्या? इसी तरह मुदित और उसकी एक्स गर्लफ्रेंड वाला किस्सा भी आधा-अधूरा सा है। इन कमियों के बावजूद फिल्म में थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद उम्दा सीन आते रहते हैं, लिहाजा कमियों पर ध्यान कम जाता है।
निर्देशक के रूप में आरएस प्रसन्ना का काम अच्छा है। एक मध्मवर्गीय परिवार की तस्वीर उन्होंने अच्छे से पेश की है जो मॉडर्न भी होना चाहता है और थोड़ा डरता भी है। एक संवेदनशील विषय को उन्होंने अच्छे से हैंडल किया है और किरदारों को गहराई के साथ पेश किया है।
आयुष्मान खुराना का अभिनय दमदार है और कुछ दृश्यों में उन्होंने अपनी चमक दिखाई है, लेकिन बाजी मार ले जाती हैं भूमि पेडनेकर। वे जब भी स्क्रीन पर आती हैं छा जाती हैं। एक तेज-तर्रार और मुदित को चाहने वाली लड़की के रोलमें उन्होंने बेहतरीन अभिनय किया है। फिल्म की सपोर्टिंग कास्ट का अभिनय भी शानदार है। नीरज सूद (सुगंधा के पिता), सीमा पाहवा (सुगंधा की मां), चितरंजन त्रिपाठी (मुदित के पिता), सुप्रिया शुक्ला (मुदित की मां) और ब्रजेन्द्र काला (सुगंधा के ताऊ) का अभिनय शानदार है।
हल्की-फुल्की फिल्म पसंद करने वालों को 'शुभ मंगल सावधान' पसंद आ सकती है।
बैनर : इरोस इंटरनेशनल, ए कलर यलो प्रोडक्शन
निर्माता : आनंद एल. राय, कृषिका लुल्ला
निर्देशक : आर.एस. प्रसन्ना
संगीत : तनिष्क-वायु
कलाकार : आयुष्मान खुराना, भूमि पेडनेकर, ब्रजेन्द्र काला, सीमा पाहवा, नीरज सूद, चितरंजन त्रिपाठी, सुप्रिया शुक्ला
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 1 घंटा 45 मिनट 25 सेकंड
शुभ मंगल सावधान को आप पांच में से कितने अंक देंगे?
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बैनर :
बालाजी मोशन पिक्चर्स
निर्माता :
एकता कपूर, शोभा कपूर
निर्देशक :
मिलन लुथरिया
संगीत :
प्रीतम चक्रवर्ती
कलाकार :
अजय देवगन, कंगना, इमरान हाशमी, प्राची देसाई, रणदीप हुड़ा, गौहर खान
सेंसर सर्टिफिकेट : यू/ए * 2 घंटे 24 मिनट
‘वंस अपॉन ए टाइम इन मुंबई’ की शुरुआत में भले ही यह लिख दिया हो कि इस फिल्म की कहानी किसी व्यक्ति से मिलती-जुलती नहीं है, लेकिन फिल्म के शुरू होते ही समझ में आ जाता है कि यह हाजी मस्तान और दाउद इब्राहिम से प्रेरित है।
निर्देशक मिलन लुथरिया ने एक ऐसी फिल्म बनाने की सोची जो 70 के दशक जैसी लगे। आज भी कई लोग उस दौर की फिल्मों को याद करते हैं जब ज्यादातर विलेन स्मगलर हुआ करते थे और लार्जर देन लाइफ का पुट होता था। मिलन ने आधी हकीकत और आधा फसाना के जरिये उस दौर और उन फिल्मों को फिर जीवंत किया है जिन्हें देखना सुखद लगता है।
हाजी मस्तान से प्रेरित किरदार सुल्तान मिर्जा (अजय देवगन) मिल-जुलकर धंधा (स्मगलिंग) करने में विश्वास रखता है। वह उन चीजों की स्मगलिंग करता है जिनकी अनुमति सरकार नहीं देती है, लेकिन उन चीजों की स्मगलिंग नहीं करता जिनकी अनुमति उसका जमीर नहीं देता है।
दाउद पर आधारित किरदार शोएब (इमरान हाशमी) में किसी भी कीमत पर आगे बढ़ने की ललक है। वह सिर्फ अपनी तरक्की चाहता है और सही/गलत में कोई फर्क नहीं मानता है। सुल्तान की तरह वह बनना चाहता है और उसकी गैंग में शामिल हो जाता है।
अपने तेजतर्रार स्वभाव के कारण सुल्तान का विश्वसनीय बन जाता है। कुछ दिनों के लिए सुल्तान उसे अपनी कुर्सी पर बैठने के लिए कहता है और वह मुंबई को खून-खराबा, गैंगवार, ड्रग्स और आतंक के शहर में बदल देता है। इसी को लेकर दोनों के संबंधों में दरार आ जाती है।
कहानी बेहद सरल है और दर्शक इस बात से पूरी तरह वाकिफ रहते हैं कि आगे क्या होने वाला है, लेकिन फिल्म का स्क्रीनप्ले (रजत अरोरा) इस खूबी से लिखा गया है कि आप सीट से चिपके रहते हैं। ड्रामे को तीव्रता के साथ पेश किया गया है और एक के बाद एक बेहतरीन सीन आते हैं।
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chandermohan.sharma@timesgroup.com अगर हम इस फिल्म की डायरेक्टर लीना यादव की बात करें तो ग्लैमर इंडस्ट्री में उनकी अपनी पहचान दो फिल्मों 'शब्द' और 'तीन पत्ती' के साथ है। पिछले दिनों लीना यादव से जब उनके करियर को लेकर हमने बात की तो उन्होंने बेझिझक कबूल किया कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में इतना लंबा वक्त गुजारने के बाद भी वह खुद को बॉलिवुड फिल्मों में फिट नहीं मानती हूं, इसकी वजह उनका फिल्में बनाने का नजरिया और सोच बॉलिवुड मेकर्स से टोटली डिफरेंट है। उन्होंने कहा कि जब संजय दत्त और ऐश्वर्या रॉय को लेकर 'शब्द' बनाई तो इस फिल्म को क्रिटिक्स की तारीफें मिलीं, दर्शकों की एक क्लास ने उनकी फिल्म के सब्जेक्ट को सराहा। लीना की दूसरी फिल्म 'तीन पत्ती' में इंडस्ट्री के महानायक अमिताभ बच्चन के साथ हॉलिवुड स्टार बेन किंग्सले स्क्रीन पर नजर आए, इस फिल्म का सब्जेक्ट भी हिंदी मसाला फिल्मों से अलग था, बॉक्स ऑफिस पर लीना की इन दोनों फिल्मों का बिज़नस ऐसा नहीं रहा कि ट्रेड ऐनालिस्ट उनकी इन फिल्मों को हिट और कमाऊ फिल्मों की लिस्ट में शामिल करते। फिलहाल, 'तीन पत्ती' के लंबे अर्से बाद इस बार लीना ने एकबार फिर अपनी इस नई फिल्म का सब्जेक्ट भी कुछ ऐसा चुना जो बॉलिवुड फिल्मों से अलग था। लीना की इस फिल्म में महिलाओं के यौन शोषण के साथ-साथ पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं को आज भी भोग और उपयोग की सोच के नजरिए को बेहद बोल्ड अंदाज में पेश किया। बेशक उनकी इस फिल्म को भी बॉक्स ऑफिस पर दर्शकों की भीड़ नसीब न हो, लेकिन इस फिल्म को देखने वाली सीमित दर्शकों की क्लास फिल्म की जमकर तारीफें करेगी। दर्शकों की एक क्लास में लीना की इस फिल्म में जमकर परोसे गए हॉट, सेक्सी सीन्स के साथ लगभग हर दूसरे-तीसरे सीन में भद्दी गालियों की भी चर्चा है, लेकिन इन सबके बावजूद लीक से हटकर कुछ अलग और स्क्रीन पर कुछ नया देखने वाले दर्शकों की क्लास इस फिल्म को जरूर पसंद करेगी। पिछले साल जब लीना की इस फिल्म को टोरंटो फिल्म फेस्टिवल में दिखाया गया तो शो के बाद सारा हॉल अगले कुछ क्षण तक तालियों की आवाज से गुंजता रहा। अब तक कई विदेशी फिल्म फेस्टिवल में अपने नाम कई अवॉर्ड कर कर चुकी लीना की इस फिल्म को अपने ही देश में सिनेमा की स्क्रीन तक पहुंचने में करीब एक साल की लंबा इंतजार करना पड़ा। कहानी : कहानी गुजरात कच्छ में कहीं दूरदराज बसे एक छोटे से गांव से शुरू होती है। इस सीन को देखकर दर्शक समझ सकते हैं कि अगले करीब दो घंटों में स्क्रीन पर उन्हें क्या दिखाई देगा। गांव की पंचायत गांव की एक नवविवाहिता को अपने पति के घर लौटने का फैसला देती है, पंचायत पीड़ित महिला की कोई बात नहीं सुनती, महिला पति के घर लौटना नहीं चाहती, क्योंकि वहां उसका बूढ़ा ससुर उसका यौन शोषण करता है, महिला अपना यह दर्द अपनी मां के साथ भी बांटती है, लेकिन मां भी अपनी बेटी की बात नहीं सुनती। बेशक, इस घटना का फिल्म की स्टोरी से कुछ लेना-देना नहीं है, लेकिन यह घटना फिल्म के टेस्ट को जरूर बयां करती है। फिल्म इस गांव की चार महिलाओं की है। रानी (तनिष्ठा चटर्जी) की उम्र करीब 32 साल है, एक ऐक्सिडेंट में उसके पति की मौत हो चुकी है। रानी अब अपने बेटे गुलाब सिंह (रिधि सेन) की शादी करना चाहती है ताकि उसके वीरान घर में बहू आ सके। गुलाब की मर्जी के खिलाफ रानी उसकी शादी कम उम्र की जानकी (लहर खान) से करती है। जानकी अभी स्कूल में पढ़ रही है, इस शादी से बचने के लिए जानकी अपने लंबे बाल तक काट लेती है, लेकिन इसके बावजूद जानकी की शादी गुलाब से होती है। शादी के बाद भी गुलाब अपनी पत्नी को पीटता है, रानी चाहकर भी कुछ नहीं कर पा रही। रानी की एक सहेली लाजो (राधिका आप्टे) है, लाजो शादी के बाद मां नहीं बन सकी तो उसका शराबी पति उसे रोजाना बुरी तरह से पीटता है, इसी गांव में चल रही एक नाटक मंडली में डांस करने वाली बिजली (सुरवीन चावला) डांस ग्रुप में नाचने के साथ गांव के मर्दों की सेक्स की भूख मिटाने का काम भी करती है। रानी, लाजो, बिजली और जानकी को मर्दों से नफरत है, हर राज पुरुष प्रधान समाज में कुचली जा रही इन चारों महिलाओं के इर्दगिर्द घूमती इस कहानी में इन चारों का मकसद पुरुषों की कैद से छुटकारा और उनसे मिलने वाली प्रताड़ना से मुक्ति प्राप्त करना है। ऐक्टिंग : रानी के किरदार में तनिष्ठा चटर्जी ने अपने दमदार अभिनय से अपने किरदार को जीवंत कर दिया है। खूबसूरत बोल्ड बिंदास बिजली के रोल में सुरवीन चावला ने अपने किरदार के साथ पूरा न्याय किया है, वहीं लाजो के रोल में बेशक राधिका आप्टे ने कई बेहद बोल्ड सेक्सी सीन्स किए लेकिन यह सीन उनके किरदार की पहली डिमांड भी थी। कम उम्र में शादी होने के बाद अपने पति गुलाब से प्रताड़ित होती जानकी के रोल में लहर खान ने अपने किरदार में मेहनत की है। निर्देशन : लीना यादव की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने कहानी और किरदारों की डिमांड के मुताबिक मूल सब्जेक्ट के साथ कहीं छेड़छाड़ नहीं की, बेशक लीना की इस फिल्म से पहले महिलाओं के यौन शौषण और उन्हें पुरुष प्रधान समाज में प्रताड़ित करने को लेकर कई फिल्में बन चुकी हैं, लेकिन लीना की यह फिल्म हिंदी फिल्मों में बॉक्स ऑफिस की डिमांड पर परोसे जाने वाले चालू मसालों से कोसों दूर और वास्तविकता के काफी नजदीक है। अगर लीना क्लाइमैक्स पर कुछ और ज्यादा होम वर्क करतीं तो यकीनन फिल्म एक ठोस और नए मेसेज के साथ समाप्त होती। फिल्म में बोल्ड, सेक्सी और हॉट सीन्स और भद्दी गालियों की जमकर भरमार है, लेकिन लीना की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने इन सब को कहानी का हिस्सा बनाकर पेश किया। संगीत : फिल्म का संगीत महौल पर सौ फीसदी फिट है, लोक गीतों और लोक संगीत का समावेश है। क्यों देखें : अगर आप सिनेमा के पर्दे पर कुछ नया और रीऐलिटी के करीब देखना पसंद करते हैं तो यकीनन 'पार्च्ड' आपके लिए है। चालू मसालों और मुंबइया ऐक्शन फिल्मों के शौकीनों को शायद फिल्म पसंद न आए। सेंसर से फिल्म को मिला अडल्ट सर्टिफिकेट फैमिली क्लास और साफ सुथरी फिल्मों के शौकीनों को 'पार्च्ड' से दूर करेगा। 'पार्च्ड' का रिव्यू अंग्रेजी में यहां पढ़ें। | 1 |
रानी (कंगना रनोट) के मेहंदी कार्यक्रम के सीन से जब फिल्म शुरू होती है तो लगता है कि एक ओर लाउड पंजाबी वेडिंग पर आधारित फिल्म देखने को मिलेगी, लेकिन कुछ मिनटों में यह गलतफहमी दूर हो जाती है। रानी को उसका होने वाला पति विजय (राजकुमार राव) शादी के दो दिन पहले बताता है कि स्टेटस में समानता न होने के कारण वह यह शादी नहीं कर सकता। लंदन से लौटने के बाद उसे रानी पिछड़ी हुई लगती है।
आम लड़की रानी जिसने सड़क भी अकेले पार नहीं की, हनीमून पर अकेले जाने का तय करती है। हनीमून को लेकर उसने कई सपने देखे थे। वह अकेली पेरिस के लिए निकल पड़ती है और वहां से एम्सर्टडम। इस बाहरी यात्रा के साथ वह भीतरी यात्रा भी करती है और उसका वो पहलू सामने आता है जिससे उसका परिचय भी पहली बार होता है। एक घबराने और नर्वस रहने वाली लड़की से आत्मविश्वासी लड़की बनने की इस यात्रा के दर्शक साक्षी बनते हैं।
बॉलीवुड में इस तरह की फिल्म और वह भी महिला किरदार को लेकर बनाने का साहस फिल्ममेकर नहीं कर पाते हैं और इस मायने में विकास बहल निर्देशित फिल्म 'क्वीन' अनोखी है। 'क्वीन' कई बार 'इंग्लिश-विंग्लिश' की याद दिलाती है, हालांकि दोनों का विषय और ट्रीटमेंट जुदा है।
क्वीन की कहानी में बहुत ज्यादा ड्रामा नहीं है और न ही निर्देशक का प्रस्तुतिकरण भावुकता से भरा है। न रानी को हालात की मारी दिखाते हुए आंसू बहाउ दृश्य रखे गए हैं और न ही उसमें हो रहे बदलावों को घुमाव भरे ड्रामे के जरिये दिखाया गया है। कहानी के नाम पर रानी की यात्रा है और छोटे-छोटे प्रसंगों के जरिये उसमें हो रहे बदलाव को निर्देशक ने दिखाया है।
फिल्म की स्क्रिप्ट परवेज शेख, चैताली परमार और विकास बहल ने मिलकर लिखी है और उन्होंने कई छोटी-छोटी बातों पर ध्यान दिया है। कई दृश्य ऐसे हैं जो खामोशी से बहुत कुछ कह जाते हैं। भारत में लड़कियों को अति-सुरक्षित माहौल में रखा जाता है, जिससे उनकी स्वतंत्रता तक प्रभावित हो जाती है और व्यक्तित्व निखर नहीं पाता। रानी जहां भी जाती है उसके साथ उसका बहुत छोटा भाई भी साथ में जाता है जो वक्त पड़ने पर शायद ही उसकी रक्षा कर पाए, लेकिन यह उस मानसिकता को दर्शाता है कि लड़की की सुरक्षा के लिए एक मर्द का साथ होना जरूरी है भले ही वह बच्चा हो। 'क्वीन' में रानी के जरिये दिखाया गया है कि जब वह अकेले सफर करती है, होटल में रूकती है, चोर से भिड़ती है, कार ड्राइव करती है तो उसमें आत्मविश्वास जागता है। सुरक्षित माहौल न मिलने पर उसमें खुद करने का जज्बा जागता है।
एम्सर्टडम पहुंचने पर रानी को तीन लड़कों के साथ रूम शेयर करना पड़ता है जिसमें से एक जापानी, एक फ्रेंच और एक रशियन है। इन तीनों के बीच एक भारतीय के जरिये दिखाया गया है कि सांस्कृतिक धरातल पर हम कितने ही अलग हो, भावनाओं के मामले में एक जैसे हैं। बाथरूम में छिपकली नजर आने पर सभी डर जाते हैं। सुनामी में अपने माता-पिता को खोने का दु:ख जापानी को हमेशा सालता रहता है और वह तब बेहतर महसूस करता है जब रानी अपने माता-पिता से बात करती है।
इन गंभीर बातों को हल्के-फुल्के प्रस्तुतिकरण के द्वारा पेश किया गया है। बीच-बीच में मुस्कान लाने वाले प्रसंग आते रहते हैं जो लगातार मनोरंजन करते रहते हैं। रानी की दोस्त विजय लक्ष्मी (लिसा हेडन) और रानी के परिवार के बीच बातचीत वाले सीन हास्य से भरपूर हैं। फिल्म का अंत भी बेहतर तरीके से किया गया है।
हालांकि फिल्म कई बार लंबी प्रतीत होती है और कुछ दृश्यों को अनावश्यक रूप से खींचा भी गया है। रानी के मंगेतर का हृदय परिवर्तन अचानक हो जाना अखरता भी है, लेकिन फिल्म की खूबियों के आगे ये छोटी-मोटी कमजोरियां गौण हैं। अमित त्रिवेदी का संगीत फिल्म का प्लस पाइंट है और निर्देशक ने गानों का उपयोग खूबसूरती से किया है। कई बार फिल्म बोझिल होती है तब अमित का संगीत फिल्म को संभाल लेता है और ऊर्जा से भर देता है। 'लंदन ठुमकदा', 'बदरा बहार', 'ओ गुजरिया' जैसे गीत बेहतरीन बन पड़े हैं।
गैंगस्टर, लाइफ इन मेट्रो, फैशन, तनु वेड्स मनु जैसी फिल्मों से कंगना रनोट साबित कर चुकी हैं कि वे बेहद प्रतिभाशाली एक्ट्रेस हैं और यह पूरी तरह से निर्देशक पर निर्भर करता है कि उनका इस्तेमाल निर्देशक कैसे करता है। कई फिल्मों में कंगना ने बुरा अभिनय भी किया है, लेकिन कसूरवार निर्देशक को माना जा सकता है। 'क्वीन' में कंगना ने कमाल का अभिनय किया है। एक नर्वस, घबराई हुई लड़की जिसकी शादी दो दिन पहले टूट जाती है से लेकर आत्मविश्वासी लड़की के रूप में बदलने के सारे भाव उनके चेहरे पर नजर आते हैं। निर्देशक विकास बहल ने कंगना की उच्चारण संबंधी कमजोरियों को बड़ी सफाई से उनकी खूबी बना दिया है।
लिसा हेडन को इतना बेहतर रोल कभी नहीं मिला। रोल के मुताबिक उन्होंने सेक्स अपील भी परोसी और अच्छा अभिनय भी किया। राजकुमार राव ने अभिनय की एक खास शैली अपना रखी है और वे अब एक जैसे लगते हैं। वे काबिल अभिनेता हैं और एक जैसे अभिनय से उन्हें बचना चाहिए। फिल्म की सपोर्टिंग कास्ट का काम भी उम्दा है।
जो अच्छी फिल्म देखना चाहते हैं उन्हें 'क्वीन' जरूर देखना चाहिए।
बैनर :
वायकॉम 18 मोशन पिक्चर्स, फैंटम प्रोडक्शन्स
निर्माता :
अनुराग कश्यप, विक्रमादित्य मोटवाने
निर्देशक :
विकास बहल
संगीत :
अमित त्रिवेदी
कलाकार :
कंगना रनोट, राजकुमार राव, लिसा हेडन, बोक्यो मिश, जेफरी हो, जोसेफ गिटोब
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 26 मिनट
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शेफ की कहानी: रोशन कालरा (सैफ) एक थ्री-स्टार मिशलिन शेफ हैं, जिसे न्यू यॉर्क के एक रेस्ट्रॉन्ट से इसलिए बाहर निकाल दिया गया था क्योंकि उन्होंने एक कस्टमर को पंच मारा था। उन्हें जबरन ब्रेक लेने को कहा जाता है और वह अपने बेटे अरमान (स्वर) और अलग हो चुकी पत्नी राधा मेनन (पद्म प्रिया) के साथ वक्त बिताने के लिए कोच्चि आ जाते हैं। यह ट्रिप उनके लिए काफी फायदेमंद साबित होता है, क्योंकि इस दौरान वह अपनी बिखरी हुई फैमिली को समेट पाने को एक अच्छी कोशिश करते हैं। उसे उसकी अपनी खूबियों और ताकत का एहसास दिलाने के मकसद से उसकी पत्नी उसे सलाह देती है कि उसे एक नई शुरूआत करनी चाहिए और इसी क्रम में अपना एक फूड ट्रक शुरू करना चाहिए।शेफ रिव्यू: साल 2014 में हॉलिवुड निर्देशक जॉन फैवरो ने शेफ से नाम से जो फिल्म बनाई थी और उसी फिल्म से प्रेरणा लेते हुए बॉलिवुड निर्देशक राजा कृष्णा मेनन ने सैफ अली खान के साथ बनायी है फिल्म 'शेफ' जो दर्शकों को जिंदगी की हकीकत से रूबरू कराने के साथ ही उनके दिल को छू लेती है। शेफ दो स्तर पर काम करती है। पहले स्तर पर फिल्म आपको पाक कला और खाने से जुड़े एक ऐसे सफर पर ले जाती है जहां फिल्म के नायक की खाने बनाने की कला देखकर आपका भी मन करेगा अपना ऐप्रन, चाकू और दूसरी चीजें लेकर सीधे किचन में जाने का और स्क्रीन पर दिखाए गए एक से एक मजेदार खाने को बनाने का जिसे देखते ही लोग ऊंगलियां चाटते रह जाएं। दूसरी और सबसे जरूरी कि यह फिल्म आपको एक बेहतरीन इमोशनल जर्नी पर ले जाएगी, जो बाप-बेटे के बीच कमजोर पड़ रहे रिश्ते को मजबूत करती दिख रही, जिनकी विचारधारा भले अलग है लेकिन उनके बीच की बॉन्डिंग इतनी मजबूत है और कि उसे तोड़ा नहीं जा सकता। रिश्ते की बनावट को इतनी बखूबी यहां हैंडल किया गया है कि कई बार आपकी आंखें नम हो जाएंगी।फिल्म 'शेफ' को-पैरेंटिंग यानी बच्चे के पालन-पोषण में मां-बाप दोनों का सहयोग जरूरी है, इस गुण की ओर भी ध्यान दिलाती है जो आज के शहरी समाज की एक अहम जरूरत बन गई है। फिल्म की कहानी सैफ अली खान के कंधों पर टिकी है। इस बार सैफ अपने शानदार अंदाज़ में पर्दे पर दिख रहे हैं, चाहे वह एक केयरिंग पिता के रोल में हों या फिर हज्बंड के रोल में जो रिश्तों की बेहतरी की कोशिश करते हुए आपको खूब जंचेंगे। पद्मप्रिया काफी आकर्षक दिख रही हैं। इतनी कम उम्र में स्वर अपनी पहचान बनाने में कामयाब नज़र आ रहे। शोभिता धुलिपाला (विनी) ने भी शानदार काम किया है जो कि रोशन की को-वर्कर और फ्रेंड हैं।यह फिल्म आपको फ़न से भरे एक ऐसे रोड ट्रिप पर ले जाएगी, जहां खाने और फैमिली पर खास फोकस है। यहां कुछ मजेदार मुकाबला भी दिखेंगे, लेकिन रितेश शाह के डायलॉग्ज़ स्मार्ट और हाजिर जवाब हैं। हालांकि, फिल्म थोड़ी धीमी नज़र आ रही और यह आपको ठीक वैसा ही लगेगा जैसे आप भूखे पेट लंच टेबल पर बैठे हों और भूख खत्म होने के बाद आपका ऑर्डर आपके सामने आया हो।तो कैसी है शेफ? भले शेफ की कहानी कई जगह आपको जानी-पहचानी सी लगे, लेकिन इस जर्नी को आप इंजॉय करेंगे। अब आप तय करें कि आप इस फिल्म को देखते हुए क्या खाना पसंद करेंगे। पॉपकॉर्न या फिर टेस्टी पास्ता, जिसे रोशन पल में बना लेते हैं। | 0 |
बैनर :
सरोज एंटरटेनमेंट प्रा.लि.
निर्माता :
रचना सुनील सिंह
निर्देशक :
पार्थो घोष
कलाकार :
जैकी श्रॉफ, मनीषा कोइराला, निकिता आनंद, रोजा
एक वक्त ऐसा भी था जब पार्थो घोष का नाम सफल निर्देशकों में गिना जाता था। 100 डेज़, दलाल और अग्निसाक्षी जैसी सफल फिल्में उन्होंने दी थीं। लेकिन वक्त के साथ घोष बदल नहीं पाए और इसका परिणाम ‘एक सेकंड... जो जिंदगी बदल दे’ में देखने को मिलता है।
अरसे से अटकी हुई यह फिल्म अब जाकर रिलीज हुई है। चूका हुआ निर्देशन, जैकी और मनीषा जैसे थके हुए कलाकार, बेजान स्क्रीनप्ले इस फिल्म में देखने को मिलते हैं। 1998 में बनी स्लाइडिंग डोर्स से प्रेरित ‘एक सेकंड... जो जिंदगी बदल दे’ में एक भी चीज उल्लेखनीय नहीं है।
कहानी है एक कपल की, जिसमें पति अपनी पत्नी को धोखा देते हुए अपनी पहली गर्लफ्रेंड से संबंध बनाए हुए है। क्या होता है जब पत्नी एक सेकंड की देरी के कारण ट्रेन मिस कर देती है? इसके बाद दो कहानियाँ समानांतर चलती है, लेकिन पर्दे पर क्या घट रहा है इससे दर्शक कभी भी जुड़ नहीं पाता।
फिल्म का विचार भले ही अच्छा है, लेकिन निर्देशन और स्क्रीनप्ले ने सब गड़बड़ कर दिया। जैकी श्रॉफ ने ऐसे अभिनय किया मानो कोई रूचि ही न हो। यही हाल मनीषा कोइराला का भी है। निकिता आनंद का सारा ध्यान अंग प्रदर्शन पर रहा। रोजा एक्टिंग में जीरो है।
पार्थो घोष का निर्देशन प्रभावित नहीं करता। न वे कहानी को ठीक से पेश कर पाए और न ही कलाकारों से अच्छा अभिनय उन्होंने लिया। फिल्म का संगीत और गानों का फिल्मांकन भी खास नहीं है। अन्य तकनीकी पक्ष भी कमजोर है।
कुल मिलाकर ‘एक सेकंड...जो जिंदगी बदल दे’ देखने का एक भी कारण इस फिल्म में मौजूद नहीं है।
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रामायण की कहानी तो आप सभी ने सुनी होगी कि भगवान राम ने हनुमान और वानरों के राजा सुग्रीव की सहायता से रावण की लंका पर विजय पर प्राप्त करके अपनी पत्नी सीता को छुड़ा लिया था, लेकिन रामायण की कहानी इतनी बड़ी है कि इसकी कई कहानियों को अभी भी कम ही लोग जानते हैं। ऐसी ही एक अनकही कहानी पर प्रसिद्ध कार्टून कैरक्टर छोटा भीम की निर्माता कंपनी ग्रीन गोल्ड ने हनुमान वर्सेज महिरावण फिल्म बनाई है। हनुमान वर्सेज महिरावण फिल्म कहानी रामेश्वरम से शुरू होती है, जहां रामायण से जुड़ी एक साइट पर पुरातत्वविद खुदाई कर रहे हैं। इसी दौरान एक वैज्ञानिक के दो बच्चे अपने पापा के साथ वहां पहुंचते हैं, तो टीम के हेड उन्हें वहां निकली हुई अजीबोगरीब मूर्तियां दिखाते हैं। बच्चे उनके बारे में ज्यादा जानने की जिद करते हैं, तो वह उन्हें उनसे जुड़ी रावण के सौतेले भाई महिरावण की कथा सुनाते हैं। कथा के मुताबिक, राम-रावण युद्ध के दौरान जब रावण हार के कगार पर पहुंच गया, तो उस रात उसने धोखे से लड़ाई जीतने के लिए अपने सौतेले भाई पाताल के राजा महिरावण के पास संदेश भेजा कि वह राम और लक्ष्मण को अगवा करके उन्हें मार दे। महिरावण पहले से ही 998 राजकुमारों की बलि चढ़ा चुका था और उसे अपना यज्ञ पूरा करने के लिए दो और राजकुमारों की जरूरत थी। वह तुरंत सुग्रीव के खेमे में जाकर धोखे से राम और लक्ष्मण को उठाकर अपने राज्य पाताल ले आता है। रावण ने तो राक्षसों को विभीषण को भी मारने को कहा था, लेकिन ऐन मौके पर राम-लक्ष्मण के आने से विभीषण की जान बच गई। विभीषण की मदद से हनुमान भी महिरावण के पीछे-पीछे पाताल पहुंच जाता है। मायावी महिरावण की तरह उसका राज्य भी बेहद रहस्यमय और मायावी था, जहां हनुमान का सामना बेहद खतरनाक मुश्किलों से होता है। लेकिन अपनी जान पर खेलकर हनुमान न सिर्फ महिरावण की मृत्यु का रहस्य पता करते हैं, बल्कि उसे मारकर राम-लक्ष्मण को वापस ले आते हैं। यूं तो गर्मियों की छुट्टियों में बच्चों को ध्यान में रखते हुए हर साल तमाम हॉलिवुड फिल्में रिलीज होती हैं, लेकिन फिल्म के निर्माताओं ने भारतीय बच्चों को अपनी पौराणिक कहानियों से रूबरू कराने की खातिर यह फिल्म बनाई है। पहले इस फिल्म को गर्मियों की छुट्टियों में रिलीज होना था, लेकिन इस दौरान बड़ी बॉलिवुड और हॉलिवुड फिल्मों से क्लैश टालने की खातिर अब इसे स्कूल खुलने पर रिलीज किया गया है। 3डी में बनी इस फिल्म में डायरेक्टर ने कहानी को रोचक ढंग से कहा है और एनिमेशन भी उम्दा क्वॉलिटी का इस्तेमाल किया गया है। फिल्म की कहानी अपने आप में मनोरंजक है, जो डेढ़ घंटे तक आपको बांधे रखती है। हालांकि फिल्म में बॉलिवुड फिल्मों की तर्ज पर गाने थोड़े खलते हैं। बावजूद इसके इस वीकेंड आप अपने बच्चों के साथ इस फिल्म को एन्जॉय कर सकते है। | 1 |
चंद्रमोहन शर्मा बाजीराव मस्तानी रिलीज होने से पहले ही इस फिल्म की चर्चा मीडिया में शुरू हो गई। दरअसल, ग्लैमर इंडस्ट्री में आज भंसाली की इमेज ऐसे चंद बेहतरीन फिल्म मेकर्स में की जाती है जो बॉक्स ऑफिस पर बिकाऊ मसालों के साथ कहीं भी समझौता नहीं करते वरना रितिक रोशन जैसे स्टार को स्टार्ट टू लॉस्ट व्हील चेयर पर बिठाकर गुजारिश बनाने की कल्पना तक इंडस्ट्री का दूसरा कोई नहीं कर सकता। इस बार भंसाली ने अपने बरसों पुराने एक सपने को सिल्वर स्क्रीन पर साकार किया है जो उन्होंने बारह तेरह साल पहले देखा था। हालात ऐेसे बने कि स्क्रिप्ट पर काम लगभग पूरा होने के बावजूद भंसाली को अपने इस सपने को साकार करने में इतना लंबा वक्त लग गया। फिल्म की मेकिंग, सेट्स और संवादों की तुलना बहुत पहले से के. आसिफ साहब की एवरग्रीन फिल्म मुगल ए आजम के साथ की जा रही थी। जिस तरह आसिफ साहब ने अपनी फिल्म के लीड किरदार शहजादा सलीम के माध्यम से शंहशाह अकबर प्यार का पैगाम पहुंचाया था वैसे ही भंसाली की इस फिल्म में यही काम पेशवा बाजीराव ने किया है। यकीनन यह भंसाली साहब का कमाल है कि उन्होंने मराठी कल्चर के साथ-साथ उस वक्त के माहौल को बेहतरीन ढंग से पर्दे पर उतारा है। बेशक इस फिल्म में आइना महल में फिल्माया एक गाना और कुछ संवाद आपको क्लासिक मुगल-ए-आजम की याद दिलाती है। कहानी कहानी 1700 दौर की है जब मराठा साम्राज्य का महान योद्धा पेशवा बाजीराव बल्लाल (रणवीर सिंह) अपने साम्राज्य का चारों और विस्तार करने में लगा हुआ था, बाजीराव की शादी काशीबाई (प्रियंका चोपड़ा) से हुई है, काशीबाई की नजरों में बाजीराव जैसा दुनिया में दूसरा कोई और नहीं, सो वह खुद से कहीं ज्यादा बाजीराव को पसंद करती है। अपने साम्राज्य का विस्तार करने में लगातार बिजी बाजीराव युद्ध और रणभूमि में ही ज्यादा वक्त गुजारता है। इसी दौरान, एक दिन बाजीराव का सामना बुंदेलखंड महाराज छत्रसाल की बेटी मस्तानी (दीपिका पादुकोण) से होता है। मस्तानी बेहद सुंदर है, तलवारबाजी और युद्धकलाओं में उसकी महारत है। युद्ध के मैदान में मस्तानी बाजीराव से मदद लेने आई है ताकि अपने पिता के राज्य को आक्रमणकारियों से बचा सके। इसी युद्ध के दौरान मस्तानी और बाजीराव एक-दूसरे को चाहने लगते है, इसके बाद दोनों विवाह में भी बंध जाते हैं। बाजीराव हिंदू हैं और मस्तानी मुसलमान, ऐसे में दूसरे धर्म की लड़की के साथ बाजीराव की शादी उसकी पहली पत्नी काशीबाई (प्रियंका चोपड़ा) के अलावा मां राधाबाई (तन्वी आजमी), बहन भियुबाई (अनुजा गोखले) के अलावा उसके भाई चिमाजी अप्पा (वैभव) को मंजूर नहीं लेकिन सभी बाजीराव की खुशी के सामने खामोश है। ऐक्टिंग रणवीर को पेशवा के किरदार में देखकर सहज विश्वास नहीं होता है कि ग्लैमर इंडस्ट्री में कुछ अर्सा पहले ही करियर शुरू करने वाला एक हरफनमौला एक्टर इस कद्र बेहतरीन ऐक्टिंग भी कर सकता है। पेशवा के किरदार में रणबीर की एनर्जी और उनकी संवाद अदायगी का बदला अंदाज आपको यकीनन पसंद आएगा। मानना होगा रणवीर सिंह इस फिल्म का सबसे सशक्त पक्ष हैं, उनकी बेहतरीन ऐक्टिंग देखकर लगेगा रणबीर शूटिंग के दौरान इस किरदार में पूरी तरह से खो गए। पेशवा के किरदार के लिए उन्होंने मराठी लहजे पर जबर्दस्त मेहनत की है। मस्तानी के रोल में दीपिका सुंदर लगती है तो साथ ही हाथों में तलवार लिए दीपिका का दूसरा लुक उसके अभिनय को और निखारने का काम करता है। प्रियंका ने अपने किरदार को असरदार ढंग से निभाया है यकीनन काशीबाई का किरदार उनके करियर की चंद बेहतरीन भूमिकाओं में अपनी जगह बनाने का दम रखता है। बाजीराव की मां यानी आई साहब के किरदार में तन्वी आजमी ने ऐसा उम्दा सजीव दमदार अभिनय किया है जो लंबे अर्से तक याद रहेगा। डायरेक्शन भंसाली ने अपनी इस फिल्म में आज के माहौल में ऐसा संदेश देने की अच्छी पहल की है जिसकी आज निहायत जरूरत है, यानी प्यार का कोई धर्म नहीं होता बस। वहीं भंसाली अपनी फिल्म को बेहतरीन महंगे सेट्स और हिंदी फिल्मों में कम ही नजर आने वाले दृश्यों के साथ दिखाने के लिए जाने जाते हैं। हम दिल दे चुके सनम में गुजराती कल्चर तो इस बार भंसाली ने अपनी इस फिल्म में महाराष्ट्रियन कल्चर को असरदार ढंग से पर्दे पर आकर्षक रंगों के साथ पेश किया है। भंसाली की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने रणबीर सिंह से पेशवा बाजीराव के किरदार को पर्दे पर जीवंत कर दिखाया। संगीत इस फिल्म के लगभग सभी गाने रिलीज से पहले ही काफी लोकप्रिय हो चुके है। भंसाली ने फिल्मी पर्दे पर इन गानों को टोटली मराठी अंदाज में पेश किया है। इस फिल्म का गाना अलबेला साजन सलमान स्टारर फिल्म हम दिल दे चुके सनम के गाने की याद दिलाता है। क्यों देखें अगर आप संजय लीला भंसाली की फिल्मों के अलग कलेवर को पसंद करते हैं। रणवीर, दीपिका, प्रियंका चोपड़ा के फैन हैं, तो अपने इन तीनों चहेते स्टार्स को इस बार डिफरेंट लुक में देखने के लिए यह फिल्म जरूर देखें। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर अब फिल्में बनने का ट्रेंड दम तोड़ रहा है ऐसे में हिस्ट्री बेस्ड फिल्मों के शौकीनों के लिए भी एक अच्छा ऑप्शन है। फिल्म बाजीराव मस्तानी का ट्रेलर देखने के लिए यहां क्लिक करें | 1 |
बैनर :
धर्मा प्रोडक्शन्स, रेड चिली एंटरटेनमेंट
निर्माता :
हीरू जौहर, गौरी खान
निर्देशक :
करण जौहर
संगीत :
विशाल-शेखर
कलाकार :
सिद्धार्थ मल्होत्रा, वरुण धवन, आलिया भट्ट, ऋषि कपूर, रोनित रॉय,
मेहमान कलाकार -
बोमन ईरानी, फराह खान, काजोल
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * सेंसर सर्टिफिकेट नंबर : सीआईएल/2/137/2012
* लंबाई : 3988.40 मीटर्स * 16 रील * 2 घंटे 25 मिनट
वयस्क होने की दहलीज पर खड़े किरदारों को लेकर बहुत कम फिल्में बनती हैं जबकि फिल्म देखने वाले दर्शकों में सबसे ज्यादा प्रतिशत इसी वर्ग का होता है। करण जौहर ने अपने करियर में पहली बार साहस दिखाते हुए नए कलाकारों के साथ इस वर्ग के लिए ‘स्टुडेंट ऑफ द ईयर’ बनाई है। वैसे फिल्म निर्माता के रूप में उन्होंने शाहरुख खान की पत्नी गौरी खान को अपना पार्टनर बनाया है क्योंकि बिना शाहरुख के वे कुछ नहीं सोच सकते हैं।
माई नेम इज खान के जरिये करण ने अपना ट्रेक बदला था, लेकिन ‘स्टुडेंट ऑफ द ईयर’ के जरिये वे एक बार फिर अपने चिर-परिचित डांस-सांग-रोमांस और स्टाइलिश सिनेमा की ओर लौट गए हैं। ‘स्टुडेंट ऑफ द ईयर’ में ऐसा कुछ भी नहीं है जो हिंदी सिनेमा के स्क्रीन पर अब तक नजर नहीं आया हो। फिल्म पूरी तरह फॉर्मूलाबद्ध है, लेकिन जिस तरह से एक अनुभवी रसोइया आपकी पसंदीदा डिश को उन्हीं मसालों के साथ और स्वादिष्ट बना देता है वही काम करण जौहर ने किया है।
करण ने अपनी टॉरगेट ऑडियंस की पसंद को ध्यान में रखा है, उनके प्रस्तुतिकरण में ताजगी और मनोरंजन के तत्व शामिल हैं, इस वजह से ‘स्टुडेंट ऑफ द ईयर’ एक मनोरंजक फिल्म के रूप में सामने आती है।
सेंट टेरेसा हाई स्कूल के तीन स्टुडेंट्स अभिमन्यु सिंह (सिद्धार्थ मल्होत्रा), रोहन नंदा (वरुण धवन) और शनाया सिंघानिया (आलिया भट्ट) के इर्दगिर्द कहानी घूमती है। अभिमन्यु और रोहन की पारिवारिक पृष्ठभूमि बेहद अलग है।
रोहन के पिता के पास अरबों रुपये हैं, जबकि अभिमन्यु के माता-पिता अब दुनिया में नहीं रहे और भैया-भाभी के भरोसे वह पलता है। अब ये मत पूछिए कि फाइव स्टार होटल जैसे नजर आने वाले स्कूल का खर्चा उसके भैया कैसे उठाते हैं। यहां गरीब, गरीब इसलिए है कि उसके पास फेरारी कार नहीं है। करण जौहर के लिए गरीबी की परिभाषा थोड़ी अलग होती है।
अभि और रो में बिलकुल नहीं पटती। वे दोस्त बनते हैं, लेकिन उनके रिश्ते तब और बिगड़ जाते हैं जब उनके बीच शयाना आ जाती है। फिर दोनों में स्टुडेंट ऑफ द ईयर का मुकाबला शुरू हो जाता है और प्यार, नफरत और ईर्ष्या जैसी भावनाएं देखने को मिलती हैं।
स्क्रिप्ट में कई खामियां हैं। जैसे यह स्कूल नहीं बल्कि शानदार होटल नजर आता है। सारे स्टुडेंट्स इंटरनेशनल ब्रांड के कपड़े पहने और ब्यूटी पार्लर से निकले नजर आते हैं। साथ ही स्टुडेंट ऑफ द ईयर के लिए जिस तरह से छात्रों के बीच प्रतियोगिता करवाई जाती है, उसमें लड़के और लड़कियों की साथ में साइकिलिंग, तैराकी और दौड़ करवाई जाती है, जो कि पूरी तरह गलत है।
हालांकि फिल्म के अंत में एक स्टुडेंट इस बात को उठाता भी है, लेकिन हैरत इस बात को लेकर होती है कि क्या पच्चीस वर्षों से चली आ रही इस प्रतियोगिता को लेकर किसी के भी दिमाग में इस तरह का प्रश्न नहीं आया।
स्क्रिप्ट की इन कमियों का असर करण अपने शानदार निर्देशन से कम कर देते हैं। उन्होंने फिल्म की गति बेहद तेज रखी है, जिससे दर्शकों को ज्यादा सोचने का अवसर नहीं मिलता। साथ ही किरदार इतने सशक्त हैं कि कहानी पर वे हावी हो जाते हैं, जिससे कई खामियां छिप जाती हैं। छोटे-छोटे दृश्यों से दर्शकों को हंसाया गया है और कहानी को आगे बढ़ाया गया है।
सिद्धार्थ मल्होत्रा, वरुण धवन और आलिया भट्ट के रूप में तीन नए कलाकार बॉलीवुड को मिले हैं। आलिया एक्टिंग के मामले में थोड़ी कमजोर हैं, लेकिन वक्त के साथ-साथ वे सीख जाएंगी। वे ही इस फिल्म में एकमात्र ऐसी कलाकार हैं जो अपनी उम्र के मुताबिक नजर आती हैं। उनकी खूबसूरती और मासूमियत आकर्षित करती है।
तीनों में सबसे ज्यादा दम वरुण धवन में नजर आता है। वरुण न केवल डांस में माहिर हैं बल्कि उनके चेहरे पर हर तरह के भाव आते हैं, ऊंचाई के मामले में वे जरूर मार खाते हैं। सिद्धार्थ मल्होत्रा का चेहरा सख्त है और रोमांस करते समय भी यह सख्त बना रहता है। लेकिन अपने किरदार को वे स्टाइल और एटीट्यूड देने में कामयाब रहें। तीनों के दोस्त बने कलाकारों का काम भी उम्दा है। ऋषि कपूर डीन बने हैं जो जॉन अब्राहम को देख ‘आहें’ भरता है।
विशाल-शेखर का संगीत इस फिल्म का प्लस पाइंट है। कई गानों में उन्होंने पुराने हिट गानों का उपयोग किया है। प्रोडक्शन के नजरिये से फिल्म रिच है और किसी किस्म की कंजूसी नहीं की गई है।
यदि आप हल्की-फुल्की और बबलगम रोमांस टाइप फिल्में पसंद करते हैं तो ‘स्टुडेंट ऑफ द ईयर’ देखी जा सकती है।
बेकार, 2-औसत, 3-अच्छी, 4-बहुत अच्छी, 5-अद्भुत
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अब जब लंबे अर्से बाद टाइगर की एक बार फिर वापसी हुई है तो सलमान के फैन्स भी अपने चेहते टाइगर का वेलकम करने को बेताब है। रिलीज़ से पहले फिल्म के ट्रेलर ने यूट्यूब पर नया रेकॉर्ड कायम किया तो अब फिल्म ने रिलीज़ से पहले सिनेमाघरों में 30 करोड़ से ज्यादा की अडवांस बुकिंग का रेकॉर्ड भी अपने नाम किया। इस फ़िल्म के डायरेक्टर बेशक बदल गए हों लेकिन कहानी और किरदारों को पेश करने का अंदाज पिछली फिल्म से काफी हद तक मिलता है। पिछली फिल्म की कहानी अपने वतन से शुरू हुई तो इस बार आंतकवाद की आग मे बरसों से झुलसते सीरिया की जमीं से शुरू होती है। सलमान की यह फ़िल्म देखकर ताज्जुब होता है कि पाकिस्तान मे फिल्म को क्यों रोका गया, जबकि फिल्म मे ऐसा कुछ भी नहीं जो पाकिस्तान के जरा भी विरुद्ध हो। अलबत्ता पहली बार सिल्वर स्क्रीन पर पाक खुफिया एजेंसी आईएसआई और रॉ का एक एक साथ एक मिशन पर निकलना और कामयाब होना सिनेमा के पर्दे पर देखना अच्छा लगता है। हॉलिवुड फिल्मों को टक्कर देते बेहतरीन ऐक्शन सीन ऑस्ट्रिया और मोरक्को की गजब की खूबसूरत लोकेशन के साथ और 'धूम' के बाद कटरीना के जबरदस्त स्टंट और ऐक्शन सीन फिल्म का प्लस पॉइंट हैं तो वही इंटरवल के बाद फिल्म को बेवजह खींचा जाना चन्द मिनट बाद पर्दे पर बंदूक से लगातार निकलती गोलियों की आवाज आपको कई बार टेंशन का आभास करा सकती है, लेकिन सलमान का स्टाइल और उनका नया कुछ बदला हुआ अंदाज आपको पसंद आ सकता है।स्टोरी प्लॉट: अविनाश सिंह राठौर (सलमान खान) अब करीब आठ साल के एक सुंदर से बेटे जूनियर टाइगर का पापा बन चुका है। अपनी खूबसूरत वाइफ जोया (कटरीना कैफ) और बेटे के साथ टाइगर ऑस्ट्रिया की बर्फीली पहाड़ियों के बीच शांति से अपनी लाइफ गुजार रहा है, लेकिन एक पल भी टाइगर न तो अपने वतन और न ही रॉ को भूल पाया है।यही वजह है कि टाइगर अपनी मौजूदगी का संकेत नई दिल्ली मै बैठे अपने बॉस शिवाय सर (गिरीश कर्नाड) को भेजता रहता है। इसी बीच सीरिया के कई कट्टरपंथी इस्लामिक संगठन आईएस का मुखिया उस्मान (साजिद) एक के बाद एक कई शहरों पर अपना कब्जा करने और इन्हें बर्बाद करने में लगा है, जो अमेरिका को सबक सिखाने के लिए और यहां दहशत फैलाने व बेगुनाह नागरिकों की हत्याएं करने में लगा है। अमेरिकी जर्नलिस्ट को मौत के घाट उतारने के बाद भी उस्मान की कैद में कई अमेरिकी हैं। ऐसे में अमेरिका उस्मान के बेस कैम्प को तबाह करने और उस्मान सहित दूसरे आंतकियों को मारने के लिए सात दिन बाद अटैक करने का प्लान बनाता है। उस्मान के इसी अड्डे में भारत और पाकिस्तान की करीब 40 से ज्यादा नर्स भी हैं जो उस्मान और उसके साथी बगदादी के कब्जे में हैं। अब इन भारतीय नर्सों को भारत वापस लाने का मिशन रॉ प्रमुख शिनॉय टाइगर को सौंपते हैं। टाइगर अपनी टीम में अपने विश्वासपात्र साथियों के साथ जाता है तो वही कभी पाक खुफिया एजेंसी की खास एजेंट रही जोया खान भी आईएस और उस्मान की गिरफ्त से पाकिस्तानी नर्सों को बचाने के मिशन पर सीरिया पहुंचती है। टाइगर के साथ रॉ की टीम और जोया के साथ आईएसआई के दो लोग भी यहां इन सबकी मदद करने में लगा है । करीब 25 सालों से ऑयल रिफाइनरी के लिए मजदूरों का लाने का काम करता है, लेकिन असल मे वह भी रॉ का एजेंट है। जोया और टाइगर के इस मिशन का अंजाम क्या होता है यह देखने के लिए आपको टाइगर से मिलना होगा।पूरी फिल्म सलमान के कंधों पर टिकी है। लंबे अरसे बाद सलमान को इस फिल्म में जबर्दस्त ऐक्शन करते देख उनके फैंस जरूर खुश हो सकते हैं। फिल्म के क्लाइमैक्स में सलमान का शर्ट उतारकर हॉलिवुड फिल्मों के ऐक्शन स्टार की तरह भारी भरकम बंदूक और स्टेनगन को चलाना सिंगलस्क्रीन्स पर जादू चला सकता है। जोया के रोल में कटरीना का जवाब नहीं है। उनपर फिल्माए कुछ ऐक्शन सीन्स काफी अच्छे हैं। यकीनन, ऐसे खतरनाक स्टंट सीन के लिए कटरीना ने काफी होमवर्क किया होगा। अन्य कलाकारों में राकेश के रोल में कुमुद मिश्रा और आतंकी सरगना उस्मान के रोल में साजिद ने बेहतरीन परफॉर्मेंस दी है। रॉ चीफ के रोल में गिरीश कर्नाड काफी जमे हैं। डायरेक्टर अली अब्बास जफर की स्क्रिप्ट पर अच्छी पकड़ है। फिल्म की गति जोरदार है जो आपको एक पल भी स्क्रीन से नजर हटाने का मौका नहीं देती है। इंटरवल के बाद न जाने क्यों फिल्म के क्लाइमैक्स को खींचा गया है। करीब पौने तीन घंटे की फिल्म में एेक्शन की भरमार फैमिली क्लास को शायद न जमे। फिल्म का म्यूजिक रिलीज से पहले हिट हो चुका है। 'स्वैग से करेंगे सबका स्वागत' का फिल्मांकन गजब का है। क्यों देखें: सलमान और कटरीना की दमदार केमिस्ट्री और हैरतअंगेज स्टंट ऐक्शन सीन के साथ फिल्म में एक अच्छा मेसेज भी है। अगर आप सलमान के फैन हैं तो 100 फीसदी यह फिल्म आपको निराश नहीं करेगी। वहीं, अगर आप पहली फिल्म से इसकी तुलना करेंगे या कुछ नया सोचकर इसे देखेंगे तो शायद अपसेट हो सकते हैं। हां, फिल्म का क्लाइमैक्स ऐसा है कि टाइगर के एक बार फिर वापस आने की उम्मीद है।इसे गुजराती में पढ़ें... | 0 |
निखिल आडवाणी उन निर्देशकों में से हैं जो अच्छी भली कहानी को खराब तरीके से प्रस्तुत करते हैं। ज्यादा दूर नहीं जाए तो पिछले सप्ताह रिलीज हुई सुपरहिट फिल्म 'हीरो' का रिमेक उन्होंने ऐसा बनाया कि ओरिजनल 'हीरो' के निर्देशक सुभाष घई सहित फिल्म के निर्माता सलमान खान भी सोच रहे होंगे कि निखिल को उन्होंने यह मौका क्यों दिया?
निखिल की इस काबिलियत पर किसी को शक नहीं है कि 'चांदनी चौक टू चाइना', 'सलाम-ए-इश्क' 'पटियाला हाउस' जैसी फ्लॉप फिल्मों के बावजूद उन्हें अवसर मिले जा रहे हैं। इस हफ्ते यह बंदा 'कट्टी बट्टी' के साथ फिर हाजिर है। हम नहीं सुधरेंगे वाली बात उन फिट बैठती है क्योंकि एक बार फिर उन्होंने 'कट्टी बट्टी' के रूप में एक और पकाऊ-उबाऊ फिल्म दर्शकों के सामने पेश कर दी है।
माधव काबरा उर्फ मैडी (इमरान खान) का पायल (कंगना रनौट) से ब्रेकअप हो गया है। पिछले पांच वर्षों से वे लिव-इन-रिलेशनशिप में थे। पायल के प्यार में मैडी पागल है तो दूसरी ओर पायल के लिए यह महज टाइमपास रहता है। माधव को यकीन नहीं हो रहा है कि पायल उसे छोड़ कर चली गई है। डिप्रेशन में वह गलती से शराब की जगह फिनाइल पी लेता है। उसके दोस्त और बहन ये मानते हैं कि मैडी ने आत्महत्या की कोशिश की है। वे पायल को भूलने की सलाह देते हैं।
बीच-बीच में कहानी पीछे की ओर जाती है कि कैसे पायल और मैडी की मुलाकात हुई थी? कैसे दोनों साथ रहने लगे? इसी बीच मैडी को पता चलता है कि पायल अपने एक्स बॉयफ्रेंड से शादी करने वाली है। वह मुंबई से दिल्ली जाता है ताकि पायल से पूछ सके कि ब्रेक अप की वजह क्या है?
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फिल्म की स्क्रिप्ट बहुत ही कमजोर है और हैरानी की बात तो ये है कि इस पर फिल्म बनाना कैसे मंजूर कर लिया गया? मैडी और पायल की पहली मुलाकात, फिर दोनों का साथ रहने का निर्णय, ये सब कुछ इतना जल्दबाजी में दिखाया गया है कि यकीन करना मुश्किल होता है।
शराब पीने वाला हीरो, टैटू वाली हीरोइन, दोनों सेक्स के लिए आतुर, बढ़िया सेट्स के जरिये लेखक और निर्देशक ने फिल्म को 'कूल' और 'युथफुल' बनाने की कोशिश की है, लेकिन इन सब बातों के बीच जो ड्रामा दिखाया है वह निहायत ही उबाऊ है। पहले हाफ इतना बोर है कि आपको नींद आ सकती है, या फिर आप थिएटर से बाहर निकलने का फैसला कर सकते है। इंटरवल के बाद भी फिल्म में कोई सुधार नजर नहीं आता।
मुंह में पान रखकर हां-ना में जवाब देना, एक बेवकूफ किस्म के बॉस का अपने वर्कर के साथ स्टेच्यु खेलना, ऑफिस में मैडी और उसके दोस्त का आपस में फाइट करना, 'फ्रस्ट्रेटेड वन साइडेड लवर्स एसोसिएशन (फोस्ला)' नामक बैंड का पायल की शादी में पहुंच कर उटपटांग हरकत करने जैसी बातों में मनोरंजन ढूंढना बेवकूफी है।
फिल्म के अंत में एक इमोशनल ट्वीस्ट दिया गया है, जो अपील करता है, लेकिन इसमें बहुत देर कर दी गई है। तब तक फिल्म में आपकी रूचि खत्म हो जाती है। यह ट्वीस्ट पहले दिया गया होता तो निश्चित रूप से फिल्म बेहतर बन सकती थी। जिस बात को दर्शकों और हीरो से छिपा कर रखा गया अंत में बताया गया है, उसे दर्शकों को पहले बताया जाना जरूरी था।
निखिल आडवाणी ने कमजोर स्क्रिप्ट चुनी है और उनका निर्देशन भी सतही है। वे तकनीकी रूप तो मजबूत है, लेकिन कहानी कहने का तरीका उन्हें सीखना होगा।
शंकर-अहसान-लॉय द्वारा संगीतबद्ध 'सरफिरा', 'लिप टू लिप' और 'सौ आंसू' सुनने लायक हैं, लेकिन फिल्म देखते समय ये गाने अखरते हैं। संवाद औसत दर्जे के हैं।
इमरान खान एक जैसा अभिनय करते आए हैं और 'कट्टी बट्टी' में भी वे उसी अंदाज में दिखाई दिए। उनके पास सीमित एक्सप्रेशन्स हैं और उसी के जरिये वे काम चलाते हैं। कंगना रनौट का रोल बहुत बड़ा नहीं है और फिल्म के अधिकांश हिस्से से वे गायब नजर आती हैं। उनका रोल भी ठीक से लिखा नहीं गया है। इमरान की तुलना में उनका अभिनय बेहतर रहा है।
कुल मिलाकर 'कट्टी बट्टी' एक उबाऊ फिल्म है और इससे 'कट्टी' करने में ही भलाई है।
बैनर : यूटीवी मोशन पिक्चर्स, एमे एंटरटेनमेंट प्रा.लि.
निर्माता : सिद्धार्थ रॉय कपूर
निर्देशक : निखिल आडवाणी
संगीत : शंकर-अहसान-लॉय
कलाकार : इमरान खान, कंगना रनौट
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 18 मिनट 32 सेकंड्स
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‘जोधा अकबर’ एक बार जरूर देखी जानी चाहिए। ऐसा लगता है जैसे टाइम मशीन में बैठकर हम सोलहवीं सदी में पहुँच गए हैं और सब कुछ हमारी आँखों के सामने घट रहा है।
निर्माता :
आशुतोष गोवारीकर-रॉनी स्क्रूवाला
निर्देशक :
आशुतोष गोवारीकर
संगीत :
ए.आर. रहमान
कलाकार :
रितिक रोशन, ऐश्वर्या राय, सोनू सूद, कुलभूषण खरबंदा, इला अरुण, निकितिन धीर, प्रमोद माउथो
आशुतोष गोवारीकर अपनी फिल्मों को विस्तार से बनाते हैं। ‘जोधा अकबर’ की प्रेम कहानी को भी उन्होंने लगभग पौने चार घंटे में समेटा है।
इतिहास में कल्पना का समावेश कर सोलहवीं सदी की इस प्रेम कथा को परदे पर पेश किया गया है। फिल्मकार का मानना है कि जोधा-अकबर की प्रेम कहानी को वो श्रेय नहीं मिला है, जो मिलना चाहिए था। जोधा के प्रेम से अकबर को अपनी सोच में एक नई दिशा मिली। वहीं दो भिन्न धर्म और संस्कृतियों का मिलन भी हुआ।
फिल्म की शुरुआत एक भीषण युद्ध से होती है और इससे फिल्म की भव्यता का अंदाजा लग जाता है। इस युद्ध का फिल्मांकन इतना शानदार है कि मुँह से वाह निकल जाता है।
इसके बाद बाल अकबर को दिखाया गया है, जो खून-खराबे के खिलाफ है, लेकिन उसके नाम पर उसके सहयोगी अपनी क्रूरता को अंजाम देते हैं। कहानी छलांग लगाकर युवा अकबर (रितिक रोशन) पर आती है, जो अपने फैसले खुद लेने का निर्णय लेता है।
आमेर के राजा भारमल (कुलभूषण खरबंदा) अपने राज्य की प्रजा के हितों को ध्यान में रखकर मुगलों से दोस्ती करने का फैसला करता है। भारमल चाहता है कि उसकी बेटी जोधा (ऐश्वर्या) से अकबर शादी करें। बिना जोधा को देखे अकबर निकाह के लिए राजी हो जाता है।
जोधा निकाह करने के पहले अकबर के सामने दो शर्त रखती हैं। वह अपना धर्म नहीं बदलेगी और उसे महल के अंदर एक मंदिर बनवाकर दिया जाएगा। अकबर दोनों शर्त कबूल कर लेता है। एक हिंदू लड़की से निकाह करने के बदले अकबर को कट्टरपंथियों की नाराजगी झेलना पड़ती है।
निकाह के बाद अकबर से जोधा दूर-दूर रहती है। वह कहती है कि फतह करना और मन जीतना दोनों अलग-अलग है। फिर शुरू होता है अकबर और जोधा का रोमांस। इस मुख्य कथा के साथ-साथ राजनीति, षड्यंत्र की उपकथाएँ भी चलती रहती हैं।
फिल्म में अकबर और जोधा के व्यक्तित्व पर भी प्रकाश डाला गया है। अकबर एक न्यायप्रिय होने के साथ-साथ सभी धर्मों के प्रति आदरभाव रखता था। जोधा के कहे गए वाक्य फतह करना और मन जीतना दोनों अलग-अलग बात हैं का अकबर पर गहरा प्रभाव पड़ता है।
वह जनता के बीच जाकर उनके हालात पता करता है। हिंदू तीर्थयात्रियों पर लगने वाले कर को हटाता है और लोगों का मन जीतता है। वो हिंदुस्तान को अपना मुल्क मानता है। उसके विचार आज भी सामयिक हैं।
राजकुमारी जोधा राजपूत तेवरों के साथ पेश की गई है। आत्मसम्मान वाला गुण उसमें कूट-कूटकर भरा था। उसने निडरता के साथ मुगल सम्राट अकबर के आगे अपनी शर्त रखी और मनवाने में कामयाब भी हुई। तलवारबाजी और घुड़सवारी में निपुण जोधा एक बहादुर स्त्री थी।
आशुतोष गोवारीकर की इस फिल्म में भव्यता नजर आती है। उनका इस विषय पर किया गया शोध नजर आता है परंतु कुछ कमियाँ भी हैं। पटकथा अच्छी है, लेकिन बहुत शानदार नहीं है।
इस फिल्म में जबरदस्त ड्रामा की गुंजाइश थी, परंतु आशुतोष ने गहराई में जाने के बजाय सतह पर तैरना पसंद किया। जोधा-अकबर की प्रेम कहानी अच्छी है, लेकिन वह दिल को छूती नहीं। न ही आशुतोष ने उस दौर की परिस्थितियों में भीतर तक जाने की कोशिश की है।
संवाद इस फिल्म का दूसरा कमजोर पहलू है। इस तरह की कहानियों में संवाद बेहद दमदार और असरदार होना चाहिए जो दर्शकों को तालियाँ पीटने पर मजबूर कर दें, लेकिन इस तरह के संवाद फिल्म में कम हैं। संवाद में बेहद सरल हिंदी और उर्दू शब्दों का इस्तेमाल किया गया है, जिसे समझने में कोई परेशानी महसूस नहीं होती है।
फिल्म में कुछ दृश्य उल्लेखनीय हैं। मसलन जोधा द्वारा अकबर का नाम लिखना और अनपढ़ होने के कारण अकबर का उसे पढ़ने में असमर्थ होना। वह जोधा को पढ़ने को कहता है और जोधा विचित्र परिस्थिति में फँस जाती है कि एक हिंदू स्त्री अपने पति का नाम कैसे ले।
जोधा का निकाह के पहले अकबर के सामने शर्त रखना।
बावर्चीखाने में जोधा का अकबर के लिए खाना बनाना। वहाँ पर उसका अकबर की दाई माँ (इला अरुण) से वाक् युद्ध। बाद में उसे सबके सामने खाना चखकर यह साबित करना कि उसने खाने में कुछ नहीं मिलाया है और अकबर का बाद में उसी थाली में भोजन करना। अंत में अकबर और शरीफुद्दीन के बीच की लड़ाई।
अकबर के रूप में रितिक थोड़े असहज नजर आए। वे अकबर कम और रितिक ज्यादा लगे। ऐश्वर्या राय उन पर भारी पड़ीं। पहली फ्रेम से दर्शक उन्हें जोधा के रूप में स्वीकार कर लेते हैं। अभिनय की दृष्टि से ‘जोधा अकबर’ ऐश्वर्या की श्रेष्ठ फिल्मों में से एक गिनी जाएगी।
सोनू सूद (राजकुमार सुजामल), इला अरुण (महाम अंगा), कुलभूषण खरबंदा (राजा भारमल), निकितिन धीर (शरीफुद्दीन), उरी (बैरम खान), प्रमोद माउथो (टोडरमल) का अभिनय भी उम्दा है। नीता लुल्ला के कास्ट्यूम उल्लेखनीय हैं। किरण देओहंस का कैमरावर्क अंतरराष्ट्रीय स्तर का है।
एआर रहमान का संगीत फिल्म देखते समय ज्यादा अच्छा लगता है। ‘जश्ने बहारा’, ‘अज़ीम ओ शान शहंशाह’ और ‘ख्वाजा मेरे ख्वाजा’ सुनने लायक हैं। रहमान का बैकग्राउंड संगीत फिल्म को अतिरिक्त भव्यता प्रदान करता है।
फिल्म की लंबाई थोड़ी ज्यादा जरूर है, लेकिन बोरियत नहीं होती। यदि फिल्म संपादित कर तीस मिनट छोटी कर दी जाए तो इससे फिल्म में कसावट आ जाएगी।
‘जोधा अकबर’ एक बार जरूर देखी जानी चाहिए। ऐसा लगता है जैसे टाइम मशीन में बैठकर हम सोलहवीं सदी में पहुँच गए हैं और सब कुछ हमारी आँखों के सामने घट रहा है।
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Chandermohan.sharma@timesgroup.com लीजिए, सलमान एकबार फिर अपने फैन्स से ईद पर ईदी लेने आ गए हैं। इस फिल्म का सलमान के फैन्स के अलावा फैमिली क्लास को भी बड़ी बेसब्री से इंतजार था। अब जब, सुल्तान ईद के दिन रिलीज नहीं हुई तो इसका कुछ खामियाजा प्रॉडक्शन कंपनी को भुगतना पड़ सकता है। सलमान की यह फिल्म बेशक पहले दिन बॉक्स ऑफिस कलेक्शन के चार्ट में नंबर वन पर शायद शामिल न हो पाए, लेकिन अगले चार दिन यकीनन सलमान बॉक्स ऑफिस अपने नाम करने वाले हैं। क्रिकेट को लेकर क्रेज़ के बावजूद इस फिल्म की प्रॉडक्शन कंपनी की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने कुश्ती पर करीब 115 करोड़ के भारी-भरकम बजट में नंबर वन स्टार्स के साथ यह फिल्म बनाई। फिल्मी खबरें पढ़ें फेसबुक पर, लाइक करें NBT Movies कहानी : हरियाणा रेवाड़ी के एक छोटे से गांव में रहने वाला सुल्तान अली खान (सलमान खान) अपने दोस्त गोविंद के साथ केबल टीवी का काम करता है। गांव के लोगों को चैनल दिखाने के काम में लगा सुल्तान अपनी इसी दुनिया में मस्त है। सुल्तान रेवाड़ी से लेकर अपने गांव तक कटी हुई पतंग को लूटने की फील्ड में नंबर वन है। अचानक, एक दिन सुल्तान की मुलाकात आरफा (अनुष्का शर्मा) से होती है। आरफा और उसके पिता का बस एक ही सपना है कि आरफा देश के लिए ओलिंपिंक में रेसलिंग खेले और मेडल जीतकर अपने वतन का नाम रोशन करे। पहली ही नजर में सुल्तान को आरफा से एकतरफा प्यार हो जाता है। सुल्तान जब आरफा से अपने प्यार का एहसास करता है तब आरफा उसे पहले अपनी कुछ अलग पहचान बनाने के लिए कहती है। सुल्तान भी रेसलर बनने का फैसला करके आरफा के पिता के अखाडे में ही कुश्ती के दांवपेच सीखने आता है। अब आरफा भी सुल्तान को अपना दोस्त बना लेती है, लेकिन सुल्तान जब एकबार फिर आरफा के सामने शादी का प्रस्ताव रखता है तो आरफा उसे थप्पड़ मारती है। यही एक थप्पड़ सुल्तान की जिंदगी का मकसद ही बदल देता है। अब सुल्तान का मकसद रेसलिंग में स्टेट चैंपियन बनने का है। स्टेट चैंपियन बनने के बाद सुल्तान की कामयाबी का सफर शुरू होता है। आरफा और सुल्तान का निकाह होता है, इसी के बाद आरफा और सुल्तान की लाइफ में बहुत कुछ होता है। आरफा सुल्तान को छोड़ अपने पिता के घर लौट आती है। सलमान भी रेसलिंग को छोड़कर एक सरकारी दफ्तर में नौकरी करने लगता है, ऐसे में सुल्तान की लाइफ में आकाश ओबेरॉय (अमित साद) की एंट्री होती है, जो दिल्ली में रेसलिंग की वर्ल्ड क्लास चैंपियनशिप करवा रहा है। आकाश से मिलने के बाद सुल्तान एकबार फिर अपने खोये हुए प्यार को हासिल करने और अपनी पहचान साबित करने के लिए रेसलिंग की दुनिया में लौटता है। ऐक्टिंग : स्टार्ट टू लास्ट तक फिल्म सलमान खान के मजबूत कंधों पर टिकी है। रेवाड़ी के एक छोटे से गांव में रहने वाले हरियाणवी पहलवान के इस किरदार में सलमान ने अपने बेहतरीन अभिनय से जान डाल दी है। देसी पहलवान से विदेशी रेसलर के किरदार को निभाने के लिए सलमान ने भाषा सीखने के साथ कुश्ती के कई दांव सीखे तो अपनी 'दबंग', 'बॉडीगार्ड', 'वॉन्टेड', 'रेडी', जैसी पिछली फिल्मों से बनी इमेज से हटकर अपने किरदार को पूरी ईमानदारी के साथ निभाया। वहीं हरियाणवी महिला रेसलर के रोल को अनुष्का शर्मा ने बखूबी निभाया है। अनुष्का ने इस किरदार में जान डालने के मकसद से हरियाणवी भाषा की क्लास अटेंड की। तारीफ करनी होगी फिल्म में सलमान के खास दोस्त गोविंद के किरदार निभाने वाले कलाकार की, जिन्होंने सलमान जैसे मंजे हुए स्टार के ऑपोजिट अपनी दमदार मौजूदगी का दमदार एहसास कराया। कोच के रोल में रणदीप हुड्डा डायरेक्टर की परफेक्ट चॉइस रहे तो आशीष ओबेरॉय के रोल में अमित साद निराश नहीं करते। निर्देशन : अली अब्बास जफर की यह फिल्म एक रेसलर की लाइफ पर बेस्ड है, लेकिन डायरेक्टर ने रेसलर की लव-स्टोरी पर कुछ ज्यादा ही फोकस किया है। इंटरवल से पहले की रफ्तार धीमी होने की वजह से दर्शक कहानी के साथ पूरी तरह से नहीं बंध पाते। अनुष्का और सलमान की लव-स्टोरी को अगर डायरेक्टर कुछ कम करके यही वक्त सुल्तान और आरफा की लाइफ और रेसलिंग पर ज्यादा फोकस करते तो फिल्म की रफ्तार कम नहीं होती। ऐसे में कहानी में बार-बार फ्लैशबैक का इस्तेमाल भी बोर करने लगता है। हां, रणदीप हुड्डा की एंट्री से लेकर ऐंड तक फिल्म रफ्तार पकड़ती है। हां, अली ने फिल्म को परफेक्ट लोकेशंस पर शूट किया, वहीं सलमान पर फिल्माए फाइट सीक्वेंस का जवाब नहीं।. संगीत : इस फिल्म की रिलीज से पहले ही इस फिल्म के दो गाने कई म्यूजिक चार्ट में टॉप फाइव में शामिल हो चुके हैं। टाइटल सॉन्ग सुल्तान का फिल्मांकन बेहतरीन है, वहीं 'जग घूमियां' और 'बेबी' यंगस्टर्स की जुबां पर पहले से है, लेकिन सलमान की इस फिल्म का संगीत उनकी पिछली सुपरहिट फिल्मों के मुकाबले कमजोर है। बेशक, विशाल-शेखर की जोड़ी ने फिल्म की कहानी की गति के मुताबिक फिल्म का म्यूजिक दिया है। फिल्म में कुश्ती और रेसलिंग के सीन के साथ सुनाई देता बैकग्राउंड म्यूजिक दर्शकों को हॉल में तालियां बजाने के लिए प्रेरित करता है। क्यों देखें : अगर आप सलमान खान के फैन हैं तो इस फिल्म को एकबार जरूर देखें, यकीनन सुल्तान के किरदार को स्क्रीन पर जीवंत बनाने के लिए सलमान ने बहुत पसीना बहाया है। फिल्म के क्लाइमैक्स में रेसलिंग चैंपियनशिप के सीन में सलमान और विदेशी फाइटर पर फिल्माए फाइट सीक्वेंस का जवाब नहीं। हां, अगर आप इस फिल्म को देखने किसी मल्टिप्लेक्स में जा रहे हैं तो इस फिल्म को देखने के लिए करीब सवां तीन घंटे का वक्त रिजर्व कर लीजिए। | 0 |
बैनर :
हरी ओम एंटरटेनमेंट कं., इरोज इंटरनेशनल मीडिया लि., एचआर म्युजिक
निर्माता :
हिमेश रेशमिया, ट्विंकल खन्ना, सुनील ए. लुल्ला
निर्देशक :
आशीष आर. मोहन
संगीत :
हिमेश रेशमिया
कलाकार :
अक्षय कुमार, असिन, हिमेश रेशमिया, मिथुन चक्रवर्ती, राज बब्बर, मुकेश तिवारी, जॉनी लीवर, क्लाडिया सिएस्ला
सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 2 घंटे 21 मिनट
खिलाड़ी 786 शुरू होते ही चंद सेकंड का एक एक्शन सीन मूड बना देता है कि हम किस तरह की फिल्म देखने जा रहे हैं। फिर होती है अक्षय कुमार की एंट्री और वे चीखते हैं ‘खिलाड़ी इज़ बैक।‘ लगभग 12 वर्ष बाद उनकी खिलाड़ी सीरिज की कोई फिल्म रिलीज हुई है। खिलाड़ी सीरिज की ज्यादातर फिल्में थ्रिलर हुआ करती थीं, लेकिन ये एक कॉमेडी फिल्म है, जिसमें मनोरंजन का मसाला भरा हुआ है।
पंजाब में रहने वाला बहत्तर सिंह (अक्षय कुमार) कहता है ‘दुनिया में तीन चीजें होती तो हैं, पर दिखाई नहीं देती। पहला भूतों का संसार। दूसरा सच्चा वाला प्यार और तीसरा बहत्तर सिंह की रफ्तार।‘ वह पलक झपकते ही काम कर देता है कि यकीन ही नहीं होता कि यह कब और कैसे हो गया।‘
बहत्तर सिंह के चाचा का नाम इकहत्तर सिंह (मुकेश ऋषि) है और पिता का नाम सत्तर सिंह (राज बब्बर)। एक भाई तिहत्तर सिंह भी था जो बचपन में एक मेले में खो गया था। जैसे इन किरदारों के नाम अजीब हैं वैसे ही इनके काम। बहत्तर सिंह पुलिस वालों की वर्दी पहनकर घूमता है। अवैध सामान ले जा रहे है ट्रकों को पकड़ता है। आधा पुलिस रख लेती है और आधा वो खुद। बदनामी के कारण उसकी शादी नहीं हो पा रही है।
दूसरी ओर मुंबई में इंदु (असिन) की शादी इसलिए नहीं हो पा रही है क्योंकि वह डॉन तात्या तुकाराम तेंदुलकर (मिथुन चक्रवर्ती) की बहन है। तात्या चाहता है कि इंदु की शादी एक शरीफ खानदान में हो। मनसुख (हिमेश रेशमिया) नामक एक बंदा बहत्तर सिंह की शादी इंदु से तय करवाता है। वह तात्या को कहना है कि बहत्तर सिंह पुलिस वाला है और बहत्तर सिंह को ये बताता है कि तात्या पुलिस में है। इस तरह से गलतफहमियां पैदा होती हैं और ये कॉमेडी में बदल जाती है।
खिलाड़ी 786 कोई महान फिल्म होने का दावा नहीं करती है। फिल्म का उद्देश्य स्पष्ट है कि जो दर्शक फिल्म देखने आए हैं उनका भरपूर मनोरंजन हो। वे हंसते-हंसते अपने दु:ख दर्द भूल जाए। उनकी फिल्म आम आदमी को भी पसंद आए। इस उद्देश्य में ‘खिलाड़ी 786’ पूरी तरह सफल है।
फिल्म की कहानी, किरदार, स्क्रिप्ट और संवाद इस तरह लिखे गए हैं कि दर्शकों को हंसी आए। कलाकारों से ओवर एक्टिंग करवाई गई है, फाइट सीन बेहद लाउड हैं, लेकिन फिल्म की थीम को देखते हुए ये बातें अखरती नहीं हैं। हर सीन को कलरफुल बनाया गया है।
फिल्म में मनोरंजन का पक्ष इतना भारी है कि कई बातें इग्नोर की जा सकती हैं, लेकिन कुछ ट्रेक फिल्म में पैबंद के रूप में लगते हैं। भारती और उसके साथी वाला ट्रेक, जिसमें क्लाइमेक्स वे अचानक रिपोर्टर बन जाते हैं। जॉनी लीवर का फिल्म के शुरू में बाथरूम में बंद होना और क्लाइमेक्स में टपकना। संभव है कि फिल्म की अवधि छोटी करने के चक्कर में इनके ट्रेक पर कैंची चल गई हो। असिन के जेल में बंद प्रेमी को भी जरूरत से ज्यादा फुटेज दिया गया है जो खीज पैदा करता है।
निर्देशक आशीष आर. मोहन नए हैं, लेकिन उनके काम में मैच्योरिटी नजर आती है। फिल्म को उन्होंने सरपट दौड़ाया है ताकि दर्शकों को सोचने का ज्यादा वक्त नहीं मिले। पुरानी फिल्मों से भी उन्होंने आइडिए उधार लिए हैं। डेविड धवन और प्रियदर्शन की फिल्म मेकिंग स्टाइल से वे प्रभावित नजर आते हैं।
खिलाड़ी भैया अक्षय कुमार फिल्म की जान है। अपने किरदार को उन्होंने बारीकी से पकड़ा है और उसे एक खास किस्म की बॉडी लैंग्वेज और लुक दिया है। असिन ने फिल्म के ग्लैमर को बढ़ाया है। हिमेश रेशमिया ने ये अच्छा काम किया है कि हीरो बनने की जिद छोड़ दी है और सेकंड लीड रोल की राह पकड़ी है। मिथुन चक्रवर्ती, राज बब्बर, जॉनी लीवर, मुकेश तिवारी मंझे हुए अभिनेता हैं और इस तरह के रोल निभाना उनके लिए चुटकी बजाने जैसा है।
हिमेश रेशमिया का म्युजिक फिल्म का प्लस पाइंट है। हुक्का, लांग ड्राइव, ओ बावरिया फिल्म की वैल्यू को बढ़ाते हैं। कुल मिलाकर खिलाड़ी 786 एक जायकेदार चाट की तरह है जिसमें हर स्वाद मौजूद है।
बेकार, 2-औसत, 3-अच्छी, 4-बहुत अच्छी, 5-अद्भुत
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अगर दिल्ली सहित देश के कई हिस्सों में पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए सांप्रदायिक दंगों पर बनी फिल्मों की बात की जाए तो इन पर अब तक हिंदी-पंजाबी में करीब दर्जनों फिल्में बन चुकी हैं, लेकिन हर फिल्म में इन दंगों के पीछे की साजिश को किसी डायरेक्टर ने पूरी ईमानदारी के साथ स्क्रीन पर पेश नहीं किया, अलबत्ता हर बार दंगों के दौरान हिंसक भीड़ द्वारा बेगुनाहों की बेरहमी से की जा रही हत्याएं, लूटपाट, आगजनी की घटनाओं को दिखाने और दंगा पीड़ितों को करीब 32 साल बाद भी इंसाफ न मिल पाने का दर्द जरूर दिखाया गया। बेशक, आज यह बहस का विषय हो सकता है कि क्या 32 साल पहले हुए इन दंगों के दर्द और जख्मों को आज की यंग जेनरेशन के सामने पेश किया जाना क्या उचित है। इस फिल्म के डायरेक्टर शिवजी राव लोटन मराठी फिल्म इंडस्ट्री में एक जाना-पहचाना नाम हैं, लोटन के निर्देशन में बनी मराठी फिल्म धग ने नैशनल अवॉर्ड भी हासिल किया। अगर इस फिल्म की बात की जाए तो रिलीज से पहले यह फिल्म कई फिल्म फेस्टिवल में दिखाई और जमकर सराही गई, लेकिन देश में इस फिल्म को सेंसर सर्टिफिकेट न मिलने की वजह से रिलीज नहीं किया जा सका। पिछले दिनों सेंसर ने कुछ काट-छांट के बाद फिल्म को ए सर्टिफिकेट के साथ क्लियर किया तो फिल्म कोर्ट में जा अटकी, जिसकी वजह से रिलीज डेट कई बार बदली गई। खैर, अब हाईकोर्ट के आदेश के बाद यह फिल्म रिलीज हो पाई है। कहानी : देविंद्र सिंह (वीर दास) दिल्ली विधुत प्रदाय संस्थान डेसू में बाबू है। कॉलोनी में देविंद्र को हर कोई प्यार करता है, वह भी हर किसी के दुख-दर्द में उनके साथ खड़ा होता है। यही वजह है कि कॉलोनी वाले उसे अपने हर दुख-सुख का साथी मानते हैं। देविंद्र की फैमिली में उसकी खूबसूरत बीवी तेजिंदर कौर (सोहा अली खान) दो बेटे और एक छोटी बेटी है। तेजिंदर और देविंद्र की लाइफ में टर्निंग पॉइंट 31 अक्टूबर को उस वक्त आता है जब पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की उनके दो सिख सुरक्षाकर्मियों द्वारा हुई निर्मम हत्या की खबर के बाद दिल्ली की कई कॉलोनियों में हिसंक दंगे और मारकाट शुरू हो जाते हैं। कल तक देविंद्र के साथ खड़े होनेवाले उसके ऑफिस और कॉलोनी के साथी भी अब उससे दूरी बना लेते हैं। हिसंक दंगाइयों की भीड़ हर ओर लूटपाट और बेगुनाह लोगों को बेरहमी से मौत के घाट उतार रहीं है। तत्कालीन सरकार के नेता भी दंगों को रोकने की बजाए भड़काने में लगे हैं और पुलिस हाथ पर हाथ धरे बैठी है। धीरे-धीरे इन दंगाइयों की भीड़ देविंद्र के घर की और भी बढ़ रही है। ऐसे नाजुक वक्त में देविंद्र के दो हिंदु दोस्त अपने एक सिंगर दोस्त की मदद से इन सभी को हिंसक दंगाई भीड़ से बचाकर एक सुरक्षित स्थान पर ले जाने का फैसला करते हैं। ऐक्टिंग : वीर दास और सोहा अली खान दोनों ही अपने-अपने किरदारों में अनफिट नजर आते हैं, जहां देविंद्र के किरदार में वीर दास की डायलॉग डिलीवरी भी बेहद कमजोर है। लंबे अर्से बाद स्क्रीन पर नजर आईं सोहा अली खान कुछ सीन्स में तो जंचीं, लेकिन दंगों के दौरान अपने तीन छोटे बच्चों के साथ डरी सहमी एक सिख महिला के किरदार को असरदार ढंग से नहीं निभा पाईं। डायरेक्शन : ऐसा लगता है प्रॉडक्शन कंपनी को फिल्म जल्दी शुरू करने की कुछ ज्यादा ही जल्दबाजी रही तभी तो एक कमजोर स्क्रिप्ट रेडी होते ही डायरेक्टर शिवजी ने इस पर काम शुरू कर दिय और यही वजह है कि फिल्म में दिखाए दंगों के कई सीन्स बनावटी लगते हैं तो वहीं कुछ सीन को बेवजह लंबा खींचा गया। खासकर, देविंद्र की फैमिली को उसके दोस्तों द्वारा सुरक्षित जगह पहुंचाने वाला सीन जरूरत से कहीं ज्यादा लंबा है तो वहीं क्लाइमैक्स दर्शकों की कसौटी पर खरा नहीं उतर पाता। लीड जोड़ी के लिए वीर और सोहा का चयन डायरेक्टर का गलत फैसला कहा जाएगा। दंगों के सीन्स पर मेहनत करने की बजाएं डायरेक्टर ने जगह-जगह दंगाइयों को मारपीट और लूटपाट करते दिखाने के अलावा कुछ नया नहीं किया। संगीत : ऐसी पृष्ठभूमि पर बनने वाली फिल्म में गीत-संगीत के लिए ज्यादा स्कोप नहीं रहता। ऐसे में जब ऐसे गंभीर और संवेदनशील सब्जेक्ट को स्क्रीन पर मात्र पौने दो घंटे में निबटाया जा रहा हो, यहीं वजह है फिल्म का कोई गाना न तो दिल को छू पाता है और न ही हॉल से बाहर निकलने के बाद आपको याद रह पाता है। क्यों देखें : अगर 1984 में हुए दंगों के एक पक्ष को जानना चाहते हैं या फिर इस फिल्म के अंत में स्क्रीन पर दिखाए गए इन दंगों के पीछे के कुछ ऐसे फैक्ट्स जो आपको एक ऐसी सच्चाई से अवगत कराएंगे, जिसे आप शायद नहीं जानते हों तो इस फिल्म को एकबार देखा जा सकता है। वर्ना, इस फिल्म में ऐसा कुछ नहीं कि आप अतीत में हुई एक बेहद दुखदायी, शर्मनाक त्रासदी की यादें ताजा करने थिअटर जाएं। | 0 |
कुछ फिल्में वास्तविक घटनाओं को जस का तस प्रस्तुत करती हैं। कुछ सच्ची घटनाओं से प्रेरित होती है जिसके आधार पर काल्पनिक कथा गढ़ी जाती हैं। 'द गाजी अटैक' इसी तरह की फिल्म है।
1971 में भारत-पाकिस्तान के युद्ध के ठीक पहले पाकिस्तानी पनडुब्बी गाजी भारतीय जल सीमा में घुसी जिसके इरादे नेक नहीं थे। वे विशाखापत्तनम पर हमला और भारतीय युद्धपोत आईएनएस विक्रांत को नष्ट करना चाहते थे, लेकिन भारतीय नौसेनिकों की बहादुरी ने उनके इरादे नाकामयाब करते हुए गाजी को नष्ट कर दिया।
गाजी के बारे में पाकिस्तान ने कभी भी स्वीकार नहीं किया कि उनकी पनडुब्बी को भारत ने ध्वस्त किया। यह ऐसा राज है जो समुंदर में दफन है। फिल्म के आरंभ में ही बता दिया गया है कि यह कहानी सच्ची नहीं है। इसे नौसेना का क्लासिफाइड मिशन कहा गया जिसका रिकॉर्ड कही नहीं है। इस मिशन को अंजाम देने वाले सैनिकों की स्तुति में कोई गान भी नहीं होता।
भारतीय पनडुब्बी एस-21 (आईएनएस राजपूत) में कैप्टन रणविजय सिंह (केके मेनन), अर्जुन (राणा दग्गुबाती) और एक्सीक्यूटिव ऑफिसर देवराज (अतुल कुलकर्णी) हैं। इन्हें पता चलता है कि पाकिस्तानी पनडुब्बी गाजी समुंदर में है। गाजी में सवार लोग भी भांप जाते हैं कि एस-21 को पता चल गया है। इसके बाद माइंड गेम शुरू होता है। एक-दूसरे को समुंदर के अंदर चकमे दिए जाते हैं। एक-दूसरे को फांसने के लिए जाल बिछाए जाते हैं।
फिल्म में मनोरंजन और थ्रिल का ग्राफ पनडुब्बी की तरह ऊपर-नीचे होता रहता है। सही मायने में कहा जाए तो अंतिम आधे घंटे में ही फिल्म में रोमांच पैदा होता है जब भारतीय और पाकिस्तानी पनडुब्बी आमने-सामने होती है और हमले में तेजी आती है। इसके पहले का हिस्सा माइंड गेम और दो नौसेनिकों के आदर्शों के टकराव में खर्च किया गया है।
फिल्म की कहानी, स्क्रीनप्ले और निर्देशन का जिम्मा संकल्प रेड्डी ने उठाया है। संकल्प की कहानी में कुछ बातें गैरजरूरी और मिसफिट लगती है। रणविजय को आक्रामक बताया गया है तो अर्जुन हमेशा नियम से चलता है। इसको लेकर दोनों में टकराव होता है और इस टकराव की ड्रामे में ठीक से जगह नहीं बनाई गई है।
इसी तरह तापसी पन्नू का किरदार क्यों रखा गया है, समझ से परे है? क्या केवल फिल्म में एक हीरोइन होनी चाहिए इसलिए तापसी को रखा गया है? उनके किरदार को फिल्म से हटा भी दिया जाए तो रत्ती भर फर्क नहीं पड़ेगा। ऊपर से तापसी को महज दर्शक बना दिया गया है। इन दोनों ट्रेक से फिल्म कई बार ठहरी हुई प्रतीत होती है। 'जन-गण-मन' का बार-बार प्रयोग ठीक नहीं कहा जा सकता है। केवल देशभक्ति की लहर पैदा करने के लिए यह किया गया है।
निर्देशक के रूप में संकल्प की यह पहली फिल्म है और उनके प्रयास की सराहना की जा सकती है। फिल्म में रूचि इसलिए बनी रहती है कि भारत में इससे पहले इस तरह की फिल्म नहीं बनी है। पनडुब्बी के बारे में कई जानकारियां पता चलती है। तकनीकी शब्दों का इस्तेमाल किया गया है, लेकिन दर्शकों को समझ में आ जाता है कि क्या हो रहा है और क्या किया जा रहा है।
निर्देशक के रूप में संकल्प फिल्म के अंतिम आधे घंटे में तनाव और रोमांच पैदा करने में सफल रहे हैं। पनडुब्बी के सेट वास्तविक लगते हैं। केके मेनन, राणा दग्गुबाती और अतुल कुलकर्णी को उन्होंने बराबर फुटेज दिए हैं।
केके मेनन एक काबिल अभिनेता हैं, लेकिन रणविजय के रूप में वे प्रभावित नहीं करते। उनके किरदार की आक्रामकता अभिनय में नहीं झलकती। राणा और अतुल का अभिनय प्रभावी है। तनाव और दबाव को अपने अभिनय के जरिये वे व्यक्त करते हैं। ओम पुरी और नासेर संक्षिप्त भूमिकाओं में दिखाई दिए। तापसी पन्नू को निर्देशक ने बर्बाद किया है।
सिनेमाटोग्राफर के रूप में मधी को एक सीमित जगह ही कैमरा घुमाना था, लेकिन उन्होंने अपना काम अच्छे से किया है।
द गाजी अटैक में निशाना पूरी तरह से टारगेट पर नहीं लगा है, लेकिन अनोखे अनुभव के लिए इसे एक बार देखा जा सकता है।
बैनर : पीवीपी सिनेमा, मैटिनी एंटरटेनमेंट, एए फिलम्स, धर्मा प्रोडक्शन्स
निर्देशक : संकल्प रेड्डी
कलाकार : राणा दग्गुबाती, तापसी पन्नू, केके मेनन, अतुल कुलकर्णी, ओम पुरी
सेंसर सर्टिफिकट : यूए * 2 घंटे 5 मिनट 13 सेकंड
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Chandermohan.sharma@timesgroup.com पिछले साल जब अनुराग कश्यप की बतौर डायरेक्टर 'बॉम्बे वेलवेट' बॉक्स ऑफिस पर पहले ही दिन चारों खाने चित्त हुई तो अनुराग के आलोचकों को उनपर जमकर बरसने का मौका मिल गया। इस बार अनुराग ने ग्लैमर इंडस्ट्री के स्टार्स नहीं, बल्कि अपनी कहानी के किरदारों में फिट होने वाले कलाकारों के साथ काम किया। किसी स्टूडियो में लगाए गए महंगे सेट्स पर नहीं, बल्कि मुंबई की स्लम बस्तियों में जाकर इस फिल्म को बनाया है... तो इस डार्क थ्रिलर फिल्म के साथ आप पहले सीन से बंधकर रह जाते हैं। कहानी : रमन्ना (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) एक सनकी या मानसिक तौर से विक्षिप्त साइकोपैथ किलर है, रमन्ना एक के बाद कई हत्याएं सिर्फ इसलिए कर रहा है कि उसे मारते वक्त एक अजीब सा मजा आता है। हत्या के इसी पल को इंजॉय करने के लिए रमन्ना बेगुनाहों की हत्याएं कर रहा है। करीब नौ हत्याएं करने के बाद रमन्ना खुद ही पुलिस स्टेशन जाकर अपना गुनाह कबूल करता है, लेकिन पुलिस के आला अफसरों को उसकी बात पर यकीन नहीं होता कि वह सच कह रहा है। पुलिस उस पर थर्ड डिग्री यूज करती है ताकि वह सच बताए। एसीपी राघवन (विकी कौशल) रमन्ना से सच उगलवाना चाहता है, सो रमन्ना को थाने से सटी एक पुरानी इमारत के एक बंद पड़े कमरे में बंद कर दिया जाता है। यहां से मौका मिलते ही रमन्ना भाग जाता है। एसीपी राघवन नशे का आदी है, राघवन एक खूबसूरत लड़की सिमी (सोभिता धूलिपाला) के साथ लिविंग रिलेशनशिप में है। पुलिस कस्टडी से भागने के बाद रमन्ना एक बार फिर बेगुनाहों की हत्याएं करने में लग जाता है, लेकिन इस बार उसकी पहली शिकार उसकी अपनी सगी बहन बनती है जो अपने पति और बेटे के साथ खुशहाल जिदंगी गुजार रही है। भूख से बेहाल रमन्ना अपनी बहन के घर आता है, यहां आकर वह अपनी बहन के साथ-साथ उसके पति और करीब दस साल के बेटे को भी बेरहमी से मार देता है। इस बार रमन्ना पुलिस के सामने सरडेंर के लिए नहीं जाता। इस ट्रिपल हत्याकांड के बाद रमन्ना एक के बाद एक हत्याएं कर रहा है, दूसरी ओर एसीपी राघवन पुलिस कस्टडी से भागकर बेगुनाहों को मार रहे रमन्ना को पकड़ने के लिए अपनी टीम के साथ दिन-रात एक किए हुए है। ऐक्टिंग : अगर हम इस फिल्म को अकेले नवाजुद्दीन सिद्दीकी के कंधों पर टिकी फिल्म कहें तो यह गलत नहीं होगा। स्टार्ट से लास्ट तक दर्शकों को स्क्रीन पर रमन्ना की ऐंट्री का इंतजार रहता है। नवाज ने रमन्ना के किरदार को अपने बेमिसाल अभिनय के दम पर पूरी तरह से जीवंत कर दिखाया है, फिल्म की शुरुआत में पुलिस थाने जाकर खुद को नौ लोगों का हत्यारा बताने और अपना गुनाह कबूल करने वाले सीन में नवाज ऐक्टिंग के शिखर पर नजर आते है। रमन्ना के फेस एक्सप्रेशन, के अलावा उनकी डायलॉग डिलीवरी गजब है। फिल्म देखकर लगेगा रमन्ना के किरदार को नवाज से बेहतर कोई दूसरा कलाकार नहीं निभा पाता। एसीपी राघवन के रोल में विकी कौशल खूब जमे हैं। सोभिता को फुटेज कम मिली, लेकिन कम फुटेज के बावजूद शोभिता ने साबित किया कि उन्हें ऐक्टिंग की एबीसी अच्छी तरह से आती है। डायरेक्शन : अनुराग कश्यप ने एक बार फिर अपने टेस्ट की फिल्म बनाई और करीब साढ़े चार करोड़ के बेहद कम बजट में एक ऐसी फिल्म बनाई है, जो क्रिटिक्स की तारीफें बटोरने के अलावा बॉक्स ऑफिस पर यकीनन कमाई कर सकती है। बतौर डायरेक्टर अनुराग ने फिल्म के सभी कलाकारों से बेहतरीन काम लिया तो स्क्रिप्ट की डिमांड पर सही लोकेशन का भी सिलेक्शन किया। इंटरवल के बाद की फिल्म कुछ सुस्त होने लगती है, विकी कौशल और शोभिता पर फिल्माए सीन्स को कम किया जाता तो फिल्म और ज्यादा पावरफुल बन सकती थी। संगीत : ऐसी कहानी में गीत-संगीत के लिए जगह नहीं होती। यही वजह बैकग्राउंड में फिल्माए गाने स्क्रीन पर तो अच्छे लगते हैं, लेकिन हॉल से बाहर आकर आपको याद नहीं रह पाते। क्यों देखें : अगर नवाजुद्दीन सिद्दीकी को आप ऐक्टिंग के शिखर पर देखना चाहते हैं और अनुराग की डार्क शेड फिल्मों के दीवाने हैं तो फिल्म आपको यकीनन पसंद आएगी। फिल्म अडल्ट है, सो साफ-सुथरी और फैमिली क्लास के लिए यह फिल्म बिल्कुल नहीं है। | 0 |
देखी हुई बात जरूरी नहीं है कि सच हो, इस बात के इर्दगिर्द घूमती है फिल्म निर्देशक निशिकांत कामत की 'दृश्यम'। दक्षिण भारतीय भाषाओं में यह फिल्म धूम मचा चुकी है और हिंदी में इसे 'दृश्यम' नाम से ही पेश किया गया है।
कहानी है विजय सालगांवकर (अजय देवगन) की जो गोआ में केबल ऑपरेटर है। चौथी फेल, अनाथ और मध्यमवर्गीय विजय के परिवार में पत्नी नंदिनी (श्रिया सरन) और दो बेटियां हैं। उसकी जिंदगी बिना परेशानी के बीत रही है और उसने कई बातें फिल्म देख कर ही सीखी हैं। आईजी मीरा देशमुख (तब्बू) का बेटा गायब हो जाता है और शक के दायरे में सालगांवकर परिवार आ जाता है।
मीरा को पूरा यकीन है कि उसके बेटे के गायब होने का राज विजय जानता है, लेकिन सारे सबूत इस बात को नकारते हैं। सबूतों के जरिये विजय भ्रम का जाल रच देता है कि मीरा उसमें उलझ जाती है। क्या सचमुच में विजय का परिवार अपराधी है या उसे फंसाया जा रहा है? इस बात का उत्तर मिलता है थ्रिलर 'दृश्यम' में।
दृश्यम की कहानी की विशेषता यह है कि किसी बात को दर्शकों से छिपाया नहीं गया है। अपराधी सामने है और पुलिस उस तक कैसे पहुंचती है इसको लेकर रोमांच पैदा किया गया है। साथ ही व्यक्ति अपने परिवार को किसी भी मुसीबत से बचाने के लिए किस हद तक जा सकता है इस बात को भी कहानी में प्रमुखता दी गई है।
फिल्म की शुरुआत बेहद सुस्त है और जो पारिवारिक दृश्य दिखाए गए हैं वो अपील नहीं करते। कॉमेडी भी बेतुकी लगती है। सालगांवकर परिवार के साथ जो हादसा दिखाया गया है वो लेखक ने अपनी सहूलियत के मुताबिक लिखा है। विजय को मध्यमवर्गीय परिवार का दिखाया है, लेकिन जैसा जीवन वह जीता है वो इस बात से मेल नहीं खाता।
विजय रात भर सिर्फ फिल्म देखने के लिए अपने ऑफिस में क्यों बैठा रहता है? वह मोबाइल फोन का उपयोग नहीं करता। ऑफिस का फोन भी उठाकर रख देता है। ये सारी बातें इसलिए दिखाई गई हैं कि उसके घर होने वाले हादसे के समय वह मौजूद नहीं हो और न ही घर वाले उससे सम्पर्क कर सके।
विजय का पुलिस इंसपेक्टर गायतुंडे से पंगा लेना वाला सीन भी सिर्फ इसलिए रखा गया है कि दोनों में दुश्मनी हो। ये कमजोरियां फिल्म के पहले हाफ को कमजोर करती है। साथ ही फिल्म की लंबाई आपके धैर्य की परीक्षा लेती है। कहानी का सीमित किरदारों के इर्दगिर्द घूमना भी फिल्म की अपील को कम करता है।
फिल्म ट्रेक पर तब आती है जब तब्बू की एंट्री होती है और आईजी के बेटे के गायब होने के बाद पुलिस हरकत में आती है। चोर-पुलिस का खेल शुरू होता है और अगले पल क्या होने वाला है इस बात का रोमांच दर्शक महसूस करते हैं। स्क्रिप्ट की खास बात यह है कि सालगांवकर परिवार के तनाव को दर्शक महसूस करते हैं इसलिए पूरी फिल्म में कुछ कमजोरी के बावजूद रूचि बनी रहती है। यह देखना दिलचस्प लगता है कि किस तरह सालगांवकर परिवार चुनौतियों से निपटता है।
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बतौर निर्देशक निशिकांत का काम औसत से ऊपर है। पहले हाफ में वे निराश करते हैं। उनका प्रस्तुतिकरण सीधा और सरल है, जबकि थ्रिलर फिल्म होने के नाते वे अपने प्रस्तुतिकरण में कई उतार-चढ़ाव ला सकते थे। तारीफ उनकी इस बात के लिए की जा सकती है कि वे किरदारों को दर्शकों से जोड़ने में सफल रहे।
अजय देवगन का अभिनय एक-सा नहीं है। कुछ दृश्यों में उनके उत्साह में कमी नजर आईं और वे असरदार नहीं रहे। श्रिया सरन का काम औसत दर्जे का है। तब्बू को एक सख्त पुलिस ऑफिसर दिखाया गया है, लेकिन उनके अभिनय में वैसी सख्ती नजर नहीं आई। इंसपेक्टर गायतोंडे के रूप में कमलेश सावंत का अभिनय बेहतरीन रहा है।
एक चौथी फेल इंसान किस तरह अपने परिवार को बचाने के लिए अपनी स्मार्टनेस दिखाता है, यह फिल्म का सबसे मजबूत पक्ष है जो ड्रामे में रोमांच पैदा करता है।
बैनर : वायकॉम 18 मोशन पिक्चर्स, पैनोरामा स्टुडियोज़
निर्माता : कुमार मंगत पाठक, अभिषेक पाठक, अजीत अंधारे
निर्देशक : निशिकांत कामत
संगीत : विशाल भारद्वाज
कलाकार : अजय देवगन, श्रेया सरन, तब्बू, रजत कपूर, इशिता दत्ता, कमलेश सावंत
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 43 मिनट 33 सेकंड
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इस शुक्रवार बॉक्स आफिस पर रिलीज हुई दोनों फिल्में उसी टाइटल पर बनी पिछली फिल्मों को बॉक्स आफिस पर मिली जबर्दस्त कामयाबी के बाद ही इनकी प्रॉडक्शन कंपनियों ने बनाई। हैरी बावेजा को अपनी पिछली फिल्म 'चार साहबजादे' का सीक्वल बनाने में करीब 2 साल का वक्त लग गया तो वहीं, फरहान अख्तर ने इसी टाइटल पर बनी अपनी पिछली फिल्म की कामयाबी के करीब 8 साल बाद फिल्म का सीक्वल बनाकर दर्शकों के सामने पेश किया। जहां, चार साहबजादे के बाद सीक्वल का निर्देशन भी हैरी बावेजा ने ही किया, वहीं फरहान ने सीक्वल के निर्देशन की कमान न जाने क्या सोचकर शुजात सौदागर के कंधों पर डाली। यही बदलाव फरहान की इस फिल्म को पिछली फिल्म से बहुत पीछे छोड़ता है। वैसे, अगर शुजात की बात की जाए तो उन्होंने कई साल पहले एक टीवी शो 'बलि' बनाया। अब लंबे गैप के बाद उनका नाम इस फिल्म के साथ जुड़ा। फरहान अख्तर बैनर की पिछली फिल्म का निर्देशन अभिषेक कपूर ने किया और फिल्म जबर्दस्त हिट रही। उनकी इस फिल्म को जहां बेस्ट फिल्म का नैशनल अर्वाड मिला तो वहीं इस फिल्म में बेहतरीन ऐक्टिंग के लिए अर्जुन रामपाल को बेस्ट सपोर्टिंग ऐक्टर का नैशनल अवॉर्ड मिला। फिलहाल, अगर इस फिल्म की बात की जाए तो इस बार फरहान ने फिल्म पर जमकर पैसा लगाया। मेघालय की वादियों तक में जाकर शूट किया। बॉक्स आफिस पर पहचान बना चुकीं श्रृद्धा कपूर को लीड ऐक्ट्रेस बनाकर पेश किया, लेकिन फिल्म की कहानी और किरदारों को और ज्यादा बेहतर बनाने के मामले में कुछ खास नहीं किया। कहानी: 'रॉक ऑन 2' फिल्म वहीं से स्टार्ट होती है जहां पिछली फिल्म खत्म हुई थी, यानी बिछड़े दोस्त 8 साल बाद एकबार फिर मिलते हैं। जो (अर्जुन रामपाल) अब एक म्यूजिक रिऐलिटी शो का जज बन चुका है, इसी के साथ-साथ जो एक नामी म्यूजिक कंपनी का ओनर है। इसी कंपनी से जो का दोस्त और उनके बैंड का मेम्बर के डी (पूरब कोहली) भी जुड़ा है। लेकिन के डी अब जो के लिए काम करता है। बिजनस फैमिली से जुड़ा आदि (फरहान अख्तर) अब मुम्बई छोड़ चुका है आदि का नया ठिकाना मेघालय है। अचानक हालात कुछ ऐसे बनते है कि आदि को एकबार फिर मुंबई आना पडता है। इसी बीच बैंड में न्यू सिंगर जिया शर्मा (श्रृद्धा कपूर) के साथ एक और सिंगर उदय (शशांक अरोड़ा) भी जुड़ चुका है। जिया को बचपन से गाने का का शौक है, लेकिन उसके पिता को मंजूर नहीं कि उनकी बेटी किसी पॉप कल्चर वाले बैंड के लिए गाए। आदि और जिया एक-दूसरे को जानते हैं। एक बार फिर सब मिलते हैं। इन सब का बैंड शुरू होता है और बैंड को कॉन्सर्ट करने के लिए अब शिलांग जाना है। ऐक्टिंग: स्टार्ट टु लॉस्ट पूरी फिल्म फरहान अख्तर के कंधों पर टिकी है। यकीनन आदि के किरदार को फरहान ने अपने बेहतरीन अभिनय से पर्दे पर जीवंत कर दिखाया है। साक्षी यानी प्राची देसाई के किरदार को इस बार कम जगह दी गई जो फिल्म का माइनस पॉइंट है, वहीं जिया शर्मा के रोल में श्रृद्धा कपूर ने अच्छी ऐक्टिंग करने से कहीं ज्यादा खुद को सिंगिग स्टार साबित करने में ज्यादा मेहनत की है, यही वजह है जिया के रोल में श्रृद्धा कहीं प्रभावित नहीं कर पातीं। अगर पिछली फिल्म के जो के यानी अर्जुन रामपाल की बात की जाए तो इस बार अर्जुन ने अपने किरदार के लिए ज्यादा होमवर्क करने की बजाए अपने रोल को बस निभा भर दिया। वहीं अगर फिल्म के दूसरे कलाकारों की बात की जाए तो उन्होंने भी अपने किरदार को बस निभाया ही है। निर्देशन: फरहान ने न जाने क्यूं बेहद कमजोर स्क्रिप्ट के साथ फिल्म का सीक्वल बनाने का फैसला किया। वहीं, डायरेक्टर शुजात सौदागर ने भी स्किप्ट पर मेहनत करने या कहानी को ज्यादा दिलचस्प बनाने और इसमें नयापन लाने के मकसद से अपनी ओर से कुछ खास नहीं किया। यही वजह है इंटरवल से पहले की फिल्म जहां पुराने दोस्तों के फिर से मिलने के आसपास घूमती है तो वहीं इंटरवल के बाद फिल्म की रफ्तार बेहद सुस्त हो जाती है। समझ से परे है रॉक ऑन पहले जेन एक्स की कसौटी पर जबर्दस्त हिट रही और मल्टीप्लेक्सों पर फिल्म ने जबर्दस्त बिजनस भी किया, लेकिन इस बार इसी क्लास की पसंद को दरकिनार करके डायरेक्टर ने कहानी में रिश्तों और दोस्ती के पुट को ज्यादा तवज्जो दी। फिर भी, फिल्म की बेहतरीन लोकेशन का जवाब नहीं। संगीत: शंकर एहसॉन लॉय की तिकड़ी ने माहौल के मुताबिक फिल्म का म्यूजिक तैयार किया है, स्क्रीन पर फिल्म के गाने आपको यकीनन पसंद आएंगे। हां, अगर इन गानों को बार-बार सुना जाए तो यकीनन गाने यंगस्टर्स की कसौटी पर खरा उतरने का दम रखते है। क्यों देखें: अगर फरहान और अर्जुन रामपाल के पक्के फैन है तो लंबे अर्से बाद आई अपने चहेते स्टार्स की इस फिल्म को देख सकते है। मेघालय की नयनाभिराम लोकेशन फिल्म का प्लस पॉइंट है तो वहीं बेहद कमजोर कहानी माइनस पॉइंट है। | 1 |
हॉलीवुड सिनेमा की सबसे बेहतरीन और रोमांचक सिरीज में से एक 'हैरी पॉटर' ने लोगों के दिलों पर एक दशक से भी ज्यादा राज किया है। लेकिन हर कहानी कभी न कभी खत्म होती ही है। सालों से जारी इस शानदार सफर के अंत के बारे में कई कयास लगाए जा रहे थे पर नि:संदेह दस साल पहले शुरू हुई इस महागाथा का अंत भी बेहद शानदार किया गया है।
हैरी पॉटर की सफलता का सबसे बड़ा राज है कि इस फिल्म से दर्शक दिल से जुड़े हैं। एक बहादुर और समझदार नवयुवक के रूप में हैरी को बुराई की ताकतों से लड़ते देखना एक अविस्मरणीय अनुभव है। सीढ़ियों के नीचे बनी कोठरी में रहने वाले 11 साल के मासूम हैरी को कई फिल्मों में बड़ा होते देखते हुए दर्शक खुद-बखुद की इस किरदार के करीब आ गए थे। इस फिल्म के अंतिम भाग 'हैरी पॉटर एंड द डेथली हॉलोज पार्ट 2' में हैरी को दु:साहसी किशोर से एक साहसी युवक के रूप में बदलते देखना और भी अच्छा लगा।
हैरी पॉटर के इस अंतिम भाग में जबरदस्त कम्प्यूटर प्रभाव डाले गए हैं। ड्रेगन की पीठ पर उड़ने से लेकर शैतान लॉर्ड वॉल्डामोर्ट और उसके साथियों के साथ हैरी की लड़ाई शानदार तरह से फिल्माई गई है। डेविड यॉट्स द्वारा निर्देशित और 3डी तकनीक से फिल्माई गई इस फिल्म में ऐसे बहुत से दृश्य है जो दर्शकों को लंबे समय तक याद रहेंगे।
यह भाग शुरू होता है लॉर्ड वॉल्डेमोर्ट द्वारा हैरी के दोस्त और प्राध्यापक डम्बलडोर की कब्र से दुनिया के सबसे शक्तिशाली जादू की छड़ी को हासिल करने से। (डैनियल रैडक्लिफ) हैरी पॉटर और दोस्तों हरमाइनी (एम्मा वॉटसन) और रॉन (रूपर्ट ग्रिंट) महापिशाच लॉर्ड वॉल्डेमोर्ट को मारने के लिए उसकी आत्मा के विभिन्न भागों जो हॉरक्रुक्सेस में छुपे है को नष्ट करने के लिए अपनी जान की बाजी लगा देते हैं।
इस फिल्म में हैरी की भूमिका निभा रहे डेनियल क्लिफ ने बेहद आत्मविश्वास से इस फिल्म में हैरी के किरदार को जिया है। हांलाकि उसके साथियों ने अंतिम फिल्म के लिहाज से कोई ऐसा प्रदर्शन नहीं किया जो यादगार बन जाए पर दस सालों से रुपहले पर्दे पर हर बार रोमांच के नए आयाम बनाती इस महागाथा की समाप्ति ने इन सितारों के लिए नए आसमान खोल दिए हैं।
यूं तो कई कई अच्छी फिल्मों के अंत बुरे होते हैं पर करोड़ो दर्शकों के चहेते किरदार हैरी पॉटर की अंतिम फिल्म का इससे अच्छा अंत हो ही नहीं सकता था। किताबों और फिल्मों से हमने हैरी और उसके साथियों को बड़ा होते देखा है। इसलिए हैरी पॉटर को अलविदा कहने में थोड़ा दुख तो होगा ही...।
बेकार, 2-औसत, 2:5-टाइमपास, 3-अच्छी, 4-शानदार, 5-अद्भुत
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Chandermohan.sharma@timesgroup.com पिछले सप्ताह 'कुंग फू पांडा' और इस हफ्ते 'द जंगल बुक' यानी एग्ज़ाम पीरियड खत्म होने के बाद हॉलिवुड के नंबर वन बैनर की नजरें इंडियन बॉक्स ऑफिस पर पर होने वाली मोटी कलेक्शन की ओर टिकी हैं। बॉक्स ऑफिस पर 'कुंग फू पांडा' कामयाब रही। अब डायरेक्टर जॉन फेवरू की इस फिल्म का सिनेमामालिकों में क्रेज इतना ज्यादा है कि दिल्ली एनसीआर के सभी मल्टिप्लेक्स संचालकों ने एक दिन में दस से बारह शो में रिलीज किया। बॉक्स ऑफिस के शुरुआती रुझानों के मुताबिक, फिल्म को पहले दिन से अच्छी ओपनिंग मिलनी तय है। दरअसल, द जंगल बुक का क्रेज विदेश से कहीं ज्यादा भारत में है। दूरदर्शन पर लंबे समय तक यह सीरीज़ दिखाई गई और जबर्दस्त हिट रही। भारत में जंगल बुक के इसी जबर्दस्त क्रेज को कैश करने के मकसद से फिल्म की प्रॉडक्शन कंपनी डिज़्नी ने अपनी इस फिल्म को अमेरिका से एक वीक पहले भारत में रिलीज किया। थ्री डी, टू के और आइमैक्स तकनीक में बनी इस फिल्म को बच्चों और बड़ों की एक ऐसी परफेक्ट फिल्म कह सकते हैं जो पूरी तरह से पैसा वसूल है। बेशक रिलीज़ से पहले 'द जंगल बुक' सोशल साइट्स पर सेंसर बोर्ड से मिले यूए सर्टिफिकेट की वजह से कुछ ज्यादा ही हॉट हो गई। सोशल साइट्स पर सेंसर बोर्ड को इसके लिए जमकर कोसा गया तो वहीं अब जब फिल्म आपके सामने है तो इसे देखकर ऐसा कहीं नहीं लगता कि फिल्म को यूए सर्टिफिकेट दिया जाना चाहिए था। डायरेक्टर जॉन फेवरू ने जंगल बुक बेशक बच्चों के लिए बनाई है, लेकिन फिल्म की विश्व स्तरीय ऐनिमेशन तकनीक, वीएफएक्स और घने जंगलों की सिनेमेटोग्रफ़ी और डिजिटल साउंड कुछ ऐसी खूबियां है जो दर्शकों की हर क्लास की कसौटी पर खरा उतरने का दम रखती है। एग्ज़ाम में पास होने के बाद आपने अगर अपने बच्चों के साथ शॉपिंग, या आउटिंग वगैरह पर अपने बिज़ी शेडयूल की वजह से नहीं जा पाए तो इस वीक उनके साथ 'द जंगल बुक' देखने जाएं, यकीन मानें बच्चों के साथ-साथ आप भी इस जंगल की दिलचस्प सैर को फुल इंजॉय करेंगे। फिल्मी खबरें पढ़ें सीधे फेसबुक पर, लाइक करें NBT Movies कहानी : विशाल घने जंगल में मोगली (नील सेठी) बिल्कुल अकेला रह रहा है। मोगली के पिता को शेरखान यानी शेर ने मार डाला, लेकिन उस वक्त शेरखान नन्हे मोगली को नहीं देख पाया। अब मोगली जंगल में बिल्कुल अकेला रह गया है। घने जंगल में उसके चारों ओर खूंखार जानवरों का डेरा है। एक दिन मोगली को बगिरा (कालाचीता) मिलता है, जो उसे शेरखान की नजरों से बचाकर रक्षा (भेड़िया) के पास ले जाता है। जंगल में रक्षा अब मोगली को अपने बच्चों की तरह पालती है। कुछ वक्त बाद शेरखान की नज़रें मोगली पर पड़ जाती है। इस बार शेरखान किसी भी सूरत में मोगली को अपना शिकार बनाने को बेताब है। मोगली पर आई इस मुसीबत में उसे खूंखार शेरखान से बचाने के मकसद से जंगल के सभी भेड़िये और बगिरा आपस में मिलकर तय करते हैं कि मोगली को अगर बचाए रखना है तो उसे जंगल से दूर इंसानों की दुनिया में पहुंचाना चाहिए। वहीं जाकर मोगली पूरी तरह से सेफ रह सकता है। इसके बाद बगिरा मोगली को अपने साथ लेकर इंसानों की बस्ती की ओर चल पड़ता है, लेकिन ऐसा हो नहीं पाता, क्योंकि बीच रास्ते में शेरखान उन पर हमला कर देता है। इस हमले की वजह से बगिरा और मोगली एक-दूसरे से अलग हो जाते हैं। बगिरा से अलग होने के बाद मोगली अकेले ही अपने दम पर अपनी मंजिल की ओर चल देता है, मोगली को इस सफर में जंगल के कई दूसरे जानवर भी मिलते हैं। बल्लु भालू और का (सांप) से मोगली मिलता है, इसी बीच मोगली को पता चलता है कि शेरखान ने जंगल में उसका पालन पोषण करने वाले उसके पिता समान भेड़ियों के सरदार को मार डाला है। अब मोगली अपनी मंजिल पर जाने की बजाए शेरखान से बदला लेने का फैसला करता है। ऐक्टिंग: मास्टर नील सेठी ने पहली बार इस फिल्म में ऐक्टिंग की है, लेकिन कैमरे के सामने उनकी एंट्री और अपनी दमदार ऐक्टिंग को देखकर लगता है कि ऐक्टिंग की फील्ड में नील बहुत पहले से हैं। यकीनन, नील इस फिल्म के डायरेक्टर जॉन की कसौटी पर पूरी तरह से खरे उतरे हैं। फिल्म के इकलौते लाइव किरदार मोगली में नील की ऐक्टिंग का जवाब नहीं। नील के अलावा फिल्म में दूसरा कोई आर्टिस्ट नहीं, सो हम इस फिल्म के किरदारों के लिए वॉयस डबिंग करने वाले ग्लैमर इंडस्ट्री के नामी कलाकारों की बात करते हैं। शेरखान के लिए नानापाटेकर ने अपनी दमदार आवाज दी है तो बल्लु भालू के किरदार के लिए इरफान खान ने पंजाबी स्टाइल में अपनी आवाज दी। बल्लु भालू जब भी स्क्रीन पर सीन आता है तो इरफान अपनी अलग स्टाइल में हॉल में बैठे दर्शकों को हंसने का मौका देते हैं। बगिरा के लिए ओमपुरी ने आवाज दी, वहीं प्रियंका चोपड़ा ने सांप के किरदार के लिए आवाज दी है। जहां तक डबिंग की बात है तो हर किसी ने अपने काम को पूरी ईमानदारी के साथ किया है। डायरेक्शन: जॉन फेवरू हॉलिवुड के जानेमाने प्रडयूसर, ऐक्टर, डायरेक्टर हैं। आयरनमैन, आयरमैन 2 और शेफ जैसी चर्चित फिल्मों के दम पर जॉन ने हॉलिवुड में अपनी अलग पहचान बनाई। वहीं इस बार उनकी तारीफ करनी होगी कि उन्होंने स्टार्ट टू लास्ट करीब पौने दो घंटे की इस लाइव ऐनिमेटेड फिल्म को कहीं कमजोर नहीं पड़ने दिया। यकीनन, इस फिल्म का सबसे बेस्ट पार्ट ऐनिमेशन, सिनेमेटोग्रफ़ी और वीएफएक्स है, लेकिन जॉन ने स्क्रिप्ट और किरदारों को स्क्रीन पर कुछ इस तरह से पेश किया कि फिल्म का हर कैरेक्टर असरदार बन पड़ा है। क्यों देंखें : अगर आप भी अपने सोनू-मोनू के साथ 'द जंगल बुक' देखने जाते हैं तो यकीनन आप भी इस फिल्म को देखते हुए अपने बचपन की यादों में खो सकते हैं। फिल्म का हर फ्रेम गजब है, स्क्रीन पर विशाल जंगल के सीन्स के बीच बॉलिवुड के नामी स्टार्स की आवाज का जादू और बेहतरीन थ्री डी तकनीक इस फिल्म की सबसे बडी यूएसपी है, और हां, अगर आप सचमुच इस जंगल की सैर का मजा चाहते हैं तो प्लीज थ्री डी तकनीक में ही इस फिल्म को देखिए, वर्ना इस जंगल सफारी का मजा कुछ किरकिरा हो सकता है। | 1 |
वन नाइट स्टैंड, ये तीन शब्द युवाओं को आकर्षित करने के लिए काफी हैं। यदि इसके साथ सनी लियोन का नाम जोड़ दिया जाए तो सोने पे सुहागा वाली बात हो जाएगी। शायद यही सोच कर 'वन नाइट स्टैंड' के निर्माता-निर्देशक ने फिल्म शुरू की। ये तीन शब्द तो तय कर लिए गए, लेकिन इन शब्दों के इर्दगिर्द कैसी कहानी बुनी जाए, कैसे फिल्म बनाई जाए, इस पर कम दिमाग खर्च किया गया। किसी तरह फिल्म पूरी कर ली गई, लेकिन बिना कहानी के फिल्म को खींचना अच्छे-अच्छे के बस की बात नहीं है। नतीजे में 'वन नाइट स्टैंड' जैसी फिल्म सामने आती है जो मात्र 97 मिनट की है, लेकिन ये समय भी लंबा लगता है।
फिल्म का नाम ही आधी कहानी जाहिर कर देता है। थाईलैंड में सेलिना (सनी लियोन) और उर्विल (तनुज वीरवानी) की मुलाकात होती है। सेलिना मतलब आसमान और उर्विल मतलब समुंदर। दोनों अपने नाम का मतलब बताते हुए कहते हैं जहां दुनिया खत्म होती वहां उनका मिलन होता है।
खैर, बातें होती हैं, रोमांस होता है, हीरो-हीरोइन आकर्षित होते हैं सारी सीमाएं लांघ जाते हैं। उर्विल पुणे लौटता है तो दर्शकों को बताया जाता है कि वह शादीशुदा है। सिमरन (न्यारा बैनर्जी) से उसने पांच वर्ष पहले शादी की थी। सेलिना का नशा उर्विल के दिमाग से नहीं उतरता। वह इंटरनेट पर उसे खोजता है, लेकिन वह नहीं मिलती। अचानक पुणे में वह सेलिना से टकरा जाता है। जब वह सेलिना के बारे में तहकीकात करता है तो उसे पता चलता है कि सेलिना न केवल शादीशुदा है बल्कि उसका एक बच्चा भी है।
खुद झूठ बोलने वाला हीरो, हीरोइन के झूठ बोलने से नाराज हो जाता है। गिलास तोड़ता है, हीरोइन का पीछा करता है, बीवी को सताता है, करियर पर ध्यान नहीं देता। दर्शक हैरान रह जाते हैं कि जो खुद झूठा है वह हीरोइन के झूठ पर इतना परेशान क्यों हो रहा है।
लेखक और निर्देशक समझ नहीं पाते कि अब कहानी को आगे कैसे बढ़ाया जाए। बार-बार चीजों को दोहराया जाता है और कहानी को मंजिल पर पहुंचाए बिना फिल्म को खत्म कर दिया जाता है।
जस्मिन डिसूजा ने फिल्म को निर्देशित किया है। फिल्म को उन्होंने 'कूल' लुक दिया है, लेकिन स्क्रिप्ट की कमजोरी के चलते वे ज्यादा कुछ नहीं कर पाईं। शुरुआती 40 मिनट में वे प्रभावित करती हैं, लेकिन बाद में फिल्म पर से उनका नियंत्रण छूट जाता है।
सनी लियोन को लेकर दर्शकों के दिमाग में एक विशेष किस्म की छवि है। बजाय स्किन शो के उन्हें एक सशक्त रोल देना, जिसमें भरपूर अभिनय की गुंजाइश हो, जोखिम भरा हो सकता है। 'वन नाइट स्टैंड' में यह दांव उल्टा पड़ गया है। सनी लियोन पुरजोर कोशिश करती हैं, लेकिन एक सीमा के बाद उनसे अभिनय नहीं होता।
तनुज वीरवानी ने पूरे आत्मविश्वास के साथ अभिनय किया है, लेकिन फिल्म के आखिर में उन्हें भी समझ नहीं आया कि वे क्या कर रहे हैं। न्यारा बैनर्जी की भूमिका अत्यंत ही कमजोर थी। वे संजी-संवरी चुपचाप सब कुछ सहने वाली पत्नी की भूमिका में हैं।
सिनेमाहॉल छोड़ते समय कुछ दर्शकों की प्रतिक्रिया से पता चला कि सनी लियोन को जिस सेक्सी अंदाज में देखने के लिए उन्होंने टिकट खरीदा था उसकी भरपाई नहीं हो पाई।
फिल्म में एक गाना है- 'दो पैग मार और भूल जा', लेकिन इस फिल्म को भूलने में दो पैग कम हैं।
बैनर : स्विस एंटरटेनमेंट प्रा.लि.
निर्माता : फुरकुन खान, प्रदीप शर्मा
निर्देशक : जस्मिन डिसूजा
संगीत : जीत गांगुली, मीत ब्रदर्स, टोनी कक्कर, विवेक कर
कलाकार : सनी लियोन, तनुज वीरवानी, न्यारा बैनर्जी
सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 1 घंटा 37 मिनट
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सूरज बड़जात्या की फिल्मों में ऐसा परिवार दिखाया जाता है जो तन-मन-धन से खुश है। किसी तरह का मनमुटाव नहीं और नैतिकता का पूरा ध्यान रखा जाता है। इस परिवार से एकदम विपरीत है कनु बहल की फिल्म 'तितली' का परिवार, जो अभावों में जी रहा है। इस परिवार के लिए जिंदगी बदसूरत है। अपने आपको जिंदा रखने के लिए उन्हें जद्दोजहद करना पड़ती है और वे जानवर बन जाते हैं। परदे पर उनके कारनामों को देख सिनेमाहॉल में बैठे आप डिस्टर्ब हो जाते हैं और उनकी मौजूदगी खतरे का अहसास कराती है।
दिल्ली में रहने वाले तीन भाइयों में से सबसे छोटे का नाम तितली (शशांक अरोरा) है। उसकी मां को लड़की चाहिए थी, लेकिन जब तीसरी बार भी लड़का हो गया तो मां ने लड़की वाला नाम रख कर ही काम चला लिया। विक्रम (रणवीर शौरी) और बावला (अमित सियाल) उसके बड़े भाई हैं। छोटी-मोटी नौकरी से इनका गुजारा नहीं होता इसलिए ये दोनों भाई हाइवे पर लोगों को लूटते हैं। तितली भी कभी-कभी उनका साथ देता है, लेकिन वह इस नरक की जिंदगी से छुटकारा पाना चाहता है।
जब दोनों भाइयों को इसकी भनक लगती है तो वे तितली की नीलू (शिवानी रघुवंशी) से शादी करा देते हैं ताकि तितली घर छोड़कर नहीं जाए। साथ ही उन्हें अपनी टीम में एक लड़की की भी जरूरत थी इसलिए वे नीलू को भी इसमें शामिल करते हैं, लेकिन नीलू इसके खिलाफ है। नीलू की यह शादी उसकी मर्जी से नहीं हुई है और वह प्रिंस को चाहती है। तितली और नीलू में एक डील होती है ताकि वे दोनों इस नारकीय जीवन से आजादी पा सके।
कनु बहल और शरत कटारिया ने मिलकर यह कहानी लिखी है जो जिंदगी में बढ़ रही असमानता और आने वाले भयावह भविष्य की ओर इशारा करती है। समाज में अमीर-गरीब की खाई चौड़ी होती जा रही है और इसके दुष्परिणाम क्या होंगे इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है। इस चौड़ी खाई के कारण भ्रष्टाचार और गुंडागर्दी बढ़ती जा रही है। चमचमाते शॉपिंग मॉल्स और दमकते हाइवे के नीचे की गंदगी सतह पर नहीं आई है, लेकिन यदि इस दिशा में सोचा नहीं गया तो यह कभी भी सतह पर आ सकती है।
फिल्म में दिखाया गया है कि परिवार के ये लोग बुरे नहीं हैं बल्कि परिस्थितियां बुरी हैं जिसके कारण ये घिनौने होते जा रहे हैं। पैसों के लिए वे किसी का खून बहाने के लिए तैयार हो जाते हैं। पत्नी हाथ तुड़वाने और पति हाथ तोड़ने के लिए तैयार हो जाता है। पति अपने सामने पत्नी को दूसरे की बांहों में देखना भी कबूल कर लेता है। फिल्म में थूकने और उल्टी करने के दृश्यों से उपकाइयां आती हैं, लेकिन जिस तरीके से यह परिवार रहता है और हरकतें करता है उसको देख भी कुछ लोगों को उपकाइयां आ सकती हैं क्योंकि वे इन लोगों की जिंदगी से परिचित नहीं हैं।
निर्देशक कनु बहल ने फिल्म को एकदम रियल रखा है और यह वास्तविकता ही आपको विचलित करती है। उन्होंने एक परिवार का जीवन आपके सामने उठा कर रख दिया है और दर्शकों को समझने के लिए काफी चीजें छोड़ दी हैं। फिल्म में बैकग्राउंड म्युजिक नहीं के बराबर है। वातावरण में आने वाली आवाजों को जगह दी गई है जिससे फिल्म की विश्वसनीयता और बढ़ गई है। सिंक साउंड का इस्तेमाल भी इसके लिए जिम्मेदार है।
कमी इस बात की लगती है कि फिल्म में एक भी सकारात्मक किरदार नहीं है। जिंदगी अभी इतनी बुरी भी नहीं हुई है कि कोई भला आदमी ही नहीं हो। हालांकि फिल्म के अंत में नीलू और तितली सारी बातों को भूला कर नई शुरुआत का फैसला करते हैं और फिल्म आशावादी संदेश के साथ खत्म होती है।
कलाकारों का अभिनय उत्कृष्ट दर्जे का है। लगता ही नहीं कि कोई एक्टिंग कर रहा है। रणवीर शौरी को छोड़ बाकी कलाकार अपरिचित से हैं और यह स्क्रिप्ट की डिमांड भी थी। रणवीर शौरी, शशांक अरोरा, अमित सियाल, शिवानी रघुवंशी सहित सभी ने अपने किरदारों को बखूबी पकड़ा है।
'तितली' जैसी फिल्म देखना हर किसी के बस की बात नहीं है क्योंकि सच कड़वा और कठोर होता है।
बैनर : यशराज फिल्म्स
निर्माता : दिबाकर बैनर्जी
निर्देशक : कनु बहल
कलाकार : शशांक अरोरा, रणवीर शौरी, अमित सियाल, शिवानी रघुवंशी, ललित बहल
सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 1 घंटा 57 मिनट
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ईरानी फिल्मकार माजिद मजीदी को अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त है। चिल्ड्रन ऑफ हेवन, द कलर ऑफ पैराडाइज़, द सांग ऑफ स्पेरोज़ जैसी बेहतरीन फिल्में वे बना चुके हैं। उनकी फिल्म में मानवीय संवेदनाओं और रिश्तों के समीकरणों को सूक्ष्मता के साथ दिखाया जाता है। वे उन लोगों को फिल्म का मुख्य किरदार बनाते हैं जिन्हें जीवन में हर पल संघर्ष करना होता है और वे आशा का साथ नहीं छोड़ते।
माजिद ने इस बार हिंदी फिल्म 'बियॉण्ड द क्लाउड्स' बनाई और पूरी फिल्म को मुंबई में फिल्माया है। मुंबई विदेशी फिल्मकारों को भी लुभाता रहा है और उनका इस शहर को देखने का नजरिया अलग ही होता है। आमतौर पर हिंदी फिल्मों में चमक-दमक वाली मुंबई देखने को मिलती है, लेकिन ऊंची और चमचमाती बिल्डिंगों के साथ लाखों लोग झुग्गियों में भी रहते हैं जिनका जीवन अभावग्रस्त होता है।
बियॉण्ड द क्लाउड्स की पहली फ्रेम में मुंबई का वो पुल नजर आता है जहां लाखों रुपये की महंगी कारें दौड़ रही हैं। फिर कैमरा पुल के नीचे जाता है जहां संकरी-सी जगह में लोग रहते हैं। यहां से माजिद मजीदी ऐसा मुंबई दिखाते हैं जो बहुत कम दिखाई देता है। कई मुंबईवासी भी अपने इस शहर को पहचान नहीं पाएंगे।
कहानी है आमिर (ईशान खट्टर) की जो ड्रग्स बेचता है और मुंबई की निचली बस्ती में रहता है। उसे बहन तारा ने पाल पोसकर बढ़ा किया है। तारा के साथ एक इंसान गलत व्यवहार करने की कोशिश करता है और तारा उसके सिर पर जोरदार वार कर देती है।
वो आदमी जाता है अस्पताल और तारा पहुंच जाती है जेल में। उस आदमी का जिंदा रहना जरूरी है वरना तारा को हत्या करने के बदले में उम्रकैद हो सकती है। आमिर उसी आदमी की अस्पताल में सेवा करता है जिसने उसकी बहन के साथ गलत व्यवहार किया है।
उस आदमी का परिवार कई दिनों बाद दक्षिण भारत से आता है जिसमें बूढ़ी मां और दो छोटी बेटियां हैं। वे हिंदी नहीं समझते। आमिर उनसे टूटी-फूटी अंग्रेजी में बात करता है (कितनीअजीब बात है कि भारत के दो अलग-अलग प्रांतों में रहने वालों को अंग्रेजी ही जोड़ती है)। सभी की बुरी हालत देख आमिर उन्हें अपने घर ले आता है। उनसे आमिर का एक अनोखा संबंध बन जाता है।
आमिर की इस उलझन को निर्देशक माजिद मजीदी ने बेहतरीन तरीके से दर्शाया है। आमिर की उलझन और दर्द को दर्शक महसूस कर सकते हैं। मुंबई के इस स्ट्रीट स्मार्ट छोरे की अच्छाई बार-बार सतह पर आती रहती है। शुरू में वह उस शख्स के परिवार से नफरत करता है, लेकिन जब अपने घर के बाहर बारिश में उन्हें भीगते देखता है तो घर के अंदर ले आता है। उसका यह हृदय परिवर्तन वाला सीक्वेंस बेहतरीन है।
निर्देशक ने यह दर्शाया है कि प्यार की कोई भाषा नहीं होती है। आमिर और वो परिवार एक-दूसरे की भाषा नहीं समझते हैं, लेकिन आंखों के जरिये एक-दूसरे की मन की बात जान लेते हैं।
फिल्म में एक और सीन कमाल का है जब आमिर लड़की को बेचने के लिए ले जाता है। रास्ते में दोनों शरबत पीते हैं और लड़की का हाथ खराब हो जाता है। जब भीड़ में दोनों अलग होते हैं तो लड़की घबराकर अपने गंदे हाथ से आमिर का जैकेट पकड़ लेती है और जैकेट खराब हो जाता है। आमिर उसी पल समझ जाता है कि वह लड़की उस पर कितना विश्वास करती है कि अपना गंदा हाथ भी उसके जैकेट पर लगा देती है। उसी पल वह उस लड़की को बेचने का इरादा त्याग देता है।
निर्देशक के रूप में माजिद मजीदी प्रभावित करते हैं। कहानी को उन्होंने ऐसे पेश किया है कि दर्शक खुशी, दु:ख और दर्द को महसूस करते हैं। उन्होंने दर्शाया है कि अभावग्रस्त लोग छोटी-छोटी बातों में खुशी ढूंढ लेते हैं। जेल में नारकीय जीवन जीने वाली तारा एक छोटे-से बच्चे से अद्भुत रिश्ता बना लेती है।
तारा द्वारा उस शख्स को मारने वाला सीन माजिद ने अद्भुत तरीके से फिल्माया है। धोबी घाट में सूख रही सफेद चादरों के बीच परछाई के जरिये यह सीन दिखाया गया है। आमिर और छोटी बच्चियों के रिश्ते में मासूमियत और खूबसूरती की सुगंध महसूस कर सकते हैं।
माजिद ने अपने कलाकरों से भी बेहतरीन काम लिया है। ईशान खट्टर ने पहली फिल्म में ही शानदार अभिनय किया है। उन्होंने भावनाओं को त्रीवता के साथ दर्शाया है। गुस्सा, आक्रामकता और अच्छाई के रंग उनके अभिनय में देखने को मिलते हैं। घर जाकर वे गुस्से में जब फट पड़ते हैं उस सीन में उनका अभिनय देखने लायक है। आंखों का इस्तेमाल उन्होंने अच्छे से किया है।
मालविका मोहनन का डेब्यू भी शानदार रहा है। तारा के रूप में उन्होंने अपनी भूमिका गंभीरता के साथ निभाई है। उन्हें थोड़ा और फुटेज दिया जाता तो बेहतर होता। बूढ़ी स्त्री के रूप में जीवी शारदा का अभिनय उल्लेखनीय है। दो छोटी बच्चियों ने अपने अभिनय से फिल्म को मासूमियत दी है।
सिनेमाटोग्राफर अनिल मेहता ने माजिद मजीदी की आंख से मुंबई को दिखाया है। धोबी घाट, सूखती चादरें, कीचड़, कोठा, लोकल ट्रेन, तंग गलियां, झोपड़ी की पृष्ठभूमि में ऊंची बिल्डिंग जैसे रियल लोकेशन्स फिल्म को धार देते हैं। एआर रहमान का बैकग्राउंड म्युजिक कलाकारों की मनोदशा को अनुरूप है और फिल्म को ताकत देता है।
भले ही 'बियॉण्ड द क्लाउड्स' में माजिद अपने उच्चतम स्तर को छू नहीं पाए हों, लेकिन उनकी यह फिल्म देखने लायक है।
बैनर : ज़ी स्टूडियो, नम: पिक्चर्स
निर्देशक : माजिद मजीदी
संगीत : ए.आर. रहमान
कलाकार : ईशान खट्टर, मालविका मोहनन, गौतम घोष, जीवी शारदा
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पिता-पुत्र के रिश्ते पर कई फिल्में बनी हैं, लेकिन पिता-पुत्री के रिश्ते पर कम ही फिल्म देखने को मिली है। इस रिश्ते को लेकर शुजीत सरकार ने 'पीकू' नामक अनोखी फिल्म बनाई है। विकी डोनर, मद्रास कैफे के बाद तीसरी बेहतरीन फिल्म शुजीत ने दी है और साबित किया है कि इस माध्यम पर उनकी तगड़ी पकड़ है।
दिल्ली में रहने वाली पीकू (दीपिका पादुकोण) एक वर्किंग वुमैन है। मां इस दुनिया में नहीं है। घर पर वह अपने सत्तर वर्षीय पिता भास्कर बैनर्जी (अमिताभ बच्चन) की देखभाल करती है। इस उम्र में बीमारी को लेकर फोबिया रहता है और भले-चंगे भास्कर को आश्चर्य होता है जब रिपोर्ट में उन्हें स्वस्थ बताया जाता है। कब्ज की बीमारी से वे पीड़ित हैं और हर बात को वे मोशन से जोड़ देते हैं। होम्योपैथी से लेकर घरेलू नुस्खे तक आजमाए जाते हैं। नियमित अंतराल से ब्लड प्रेशर और बुखार नापते रहते हैं और एक अच्छे मोशन को लेकर दिन-रात चिंता सताती रहती है।
पीकू की उम्र 30 के आसपास है, लेकिन पिता के लिए उसने अपने आपको भूला दिया है। भास्कर बैनर्जी कई बार उसके साथ स्वार्थ से भरा व्यवहार करते हैं। उन्हें डर सताता रहता है कि बेटी ने शादी कर ली तो उनका खयाल कौन रखेगा। जहां उन्हें लगा कि कोई लड़का पीकू में रूचि ले रहा है तो वे अपनी बेटी के सामने ही उसे कह देते हैं कि पीकू वर्जिन नहीं है। इतना खुला और मिठास से भरा रिश्ता है पिता-पुत्री के बीच। इसमें बेवजह की भावुकता नहीं है।
पूरी फिल्म में पीकू और उसके पिता भास्कर बैनर्जी बहस करते रहते हैं। एक-दूसरे की जरा नहीं सुनते, लेकिन इस बहस से ही उनका प्यार टपकता है। कहा भी जाता है कि जिससे ज्यादा प्यार रहता है उसी से छोटी-छोटी बातों पर तकरार होती रही है। इस बात को दर्शाना आसान नहीं है, लेकिन फिल्म की लेखक जूही चतुर्वेदी और निर्देशक शुजीत ने जटिल काम इतने उम्दा तरीके से पेश किया है कि आप लगातार हंसते रहते हैं और दोनों के मजबूत रिश्ते की दाद देते हैं।
भास्कर बैनर्जी की अपनी फिलॉसॉफी है जो सोचने पर मजबूर करती है। उनका मानना है कि लड़की का जब तक कोई उद्देश्य न हो उसे शादी नहीं करना चाहिए। यदि सिर्फ पति की सेवा करना और रात को सेक्स करना हो तो इसके लिए शादी करने की जरूरत नहीं है। बेहतर है कि पति के बजाय माता-पिता की सेवा की जाए। बुढ़ापे में वैसे भी अपने पैरेंट्स को देखभाल की जरूरत पड़ती है। पीकू अपने पिता से शिकायत किए बिना उनकी देखभाल करती है और वह भी पिता की तरह नकचढ़ी हो गई है ताकि लड़के उससे दूर रहे।
भास्कर बैनर्जी दिल्ली से कोलकाता जाते हैं और यह सफर रोड द्वारा तय करते हैं। पीकू के व्यवहार से टैक्सी चलाने वाले ड्रावयर चिढ़े हुए हैं और टैक्सी सर्विस का मालिक राणा चौधरी (इरफान खान) खुद ड्राइव करता है। इस लंबे सफर में कई मजेदार घटनाएं घटती हैं जो देखने लायक हैं।
पिता-पुत्री का रिश्ता, महिलाओं की स्वतंत्रता व आत्मनिर्भरता और पैरेंट्स की देखभाल संबंधी मुद्दे 'पीकू' में उठाए गए हैं, लेकिन यह भारी-भरकम इमोशन से भरी फिल्म नहीं है। फिल्म हल्की-फुल्की है और परतों में ये बात छिपी हुई हैं जिन्हें इशारों में निर्देशक और लेखक ने दर्शाया है।
बंगाली परिवार की पृष्ठभूमि देकर फिल्म को मनोरंजक बनाया गया है। पीकू के घर पर स्वामी विवेकानंद के साथ सत्यजीत रे की तस्वीर भी लगी हुई है जो दिखाती है कि रे के प्रति बंगालियों में कितना आदर है। एक अदद नौकर हमेशा उनके साथ होता है। उन्हें अपनी बुद्धि पर गर्व है। जब गैर बंगाली राणा चौधरी होशियारी वाली बात करता है तो उसे एक बंगाली टोकता है कि क्या आपको यकीन है कि आप बंगाली नहीं हैं?
मोशन को लेकर गजब का ह्यूमर रचा गया है। वैसे भी सुबह-सुबह एक बेहतरीन मोशन होना दुनिया के बड़े सुखों में से एक है। भास्कर बैनर्जी अपनी पोटी को लेकर चिंतित रहते हैं और सेमी सॉलिड या मैंगो पल्प से लेकर उसके रंग तक की चर्चा डाइनिंग टेबल पर करते हैं। वह दिल्ली से कोलकाता के सफर में एक पॉटी करने वाली कुर्सी लेकर साथ चलते हैं और ढाबों में कुर्सी का उपयोग किया जाता है। वेस्टर्न या इंडियन टॉयलेट में कौन-सी बेहतर है इसको लेकर इरफान जो तर्क देते हैं उसे सुन आप हंस बिना नहीं रह सकते हैं।
लेखक जूही चतुर्वेदी का काम तारीफ के काबिल है। एक बेहतरीन फिल्म उन्होंने लिखी है। फिल्म के किरदारों के बीच जो वार्तालाप है वो बेहद मनोरंजक है। भास्कर बैनर्जी और उनके परिवार की जिंदगी का एक हिस्सा दर्शकों के सामने रखा है जो गुदगुदाता है।
शुजीत सरकार ने कलाकारों से अच्छा काम करवाया है और फिल्म को वास्तविकता के करीब रखा है। हर किरदार को उन्होंने बारीकी से उभारा है। चूंकि कहानी किरदारों की जिंदगी का कुछ हिस्सा है और इसमें लंबी-चौड़ी कहानी नहीं है, ऐसे में निर्देशक का काम अहम हो जाता है और यह जिम्मेदारी उन्होंने कुशलता से निभाई है। अलग-अलग जॉनर की फिल्में बना कर शुजीत ने दिखा दिया है कि वे आलराउंडर निर्देशक हैं और किसी एक जॉनर में बंधे रहना उन्हें पसंद नहीं है।
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पीकू की सिर्फ कलाकारों के अभिनय के कारण भी देखी जा सकती है। एक से बढ़कर एक अभिनेता इसमें हैं। एक वृद्ध, जिद्दी, झक्की, आलोचनावादी और जिसे आसानी से खुश न किए जा सके वाले भास्कर बैनर्जी के किरदार अमिताभ बच्चन ने प्राण फूंक दिए हैं। उनके बंगाली उच्चारण सुनने लायक हैं। अमिताभ ने कई भूमिकाएं निभाई हैं, लेकिन इस तरह की भूमिका में उन्हें पहले कभी नहीं देखा गया। बॉलीवुड के शहंशाह का अभिनय देखने लायक है।
इरफान खान का अभिनय सम्मोहित करने वाला होता है। दर्शकों की ख्वाहिश रहती है कि वे हमेशा उन्हें स्क्रीन पर देखे। राणा चौधरी के किरदार को उन्होंने पूरी संपूर्णता के साथ अदा किया है।
अमिताभ और इरफान जैसे दिग्गज कलाकार के बीच अपनी उपस्थिति दर्ज कराना आसान नहीं है, लेकिन फिल्म देखने के बाद दीपिका का किरदार याद रहता है। पिता की सेवा में लगी पीकू अपनी जिंदगी भी जीना चाहती है। वह शिकायत नहीं करती, लेकिन उसका चेहरा सब बयां करता है। दीपिका के चेहरे के एक्सप्रेशन देखने लायक हैं। यह उनके करियर के उम्दा परफॉर्मेंसेस में से एक है।
पीकू को देखने के कई कारण हैं और इसे मिस नहीं करना चाहिए।
बैनर : एमएसएम मोशन पिक्चर्स, सरस्वती एंटरटेनमेंट, राइजिंग सन फिल्म्स प्रोडक्शन्स
निर्माता : एनपी सिंह, रॉनी लहरी, स्नेहा राजानी
निर्देशक : शुजीत सरकार
कलाकार : अमिताभ बच्चन, दीपिका पादुकोण, इरफान खान, मौसमी चटर्जी, जीशु सेनगुप्ता, रघुवीर यादव
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 15 मिनट
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इस समय वास्तविक घटनाओं पर आधारित फिल्मों का चलन है, इसलिए निर्माता-निर्देशक संज
य
गुप्ता ने वर्तमान में बह रही हवा को ध्यान में रखते हुए हुसैन जैदी द्वारा लिखी गई किताब ‘डोंगरी टू दुबई’ के आधार पर ‘शूटआउट एट वडाला’ बनाई।
फिल्म देखने के बाद यह बात पूरी तरह से समझ में आ जाती है कि इस पुस्तक की केवल आड़ ली गई है और फिल्म पूरी तरह से संजय गुप्तामय है। इसमें बेवजह की हिंसा है, अपशब्दों की भरमार है, जगह भरने के लिए एक-दो नहीं बल्कि पूरे तीन आइटम सांग्स हैं।
मन्या सुर्वे की यह कहानी है कि किस तरह परीक्षा में नकल नहीं करने वाला सच्चा और सीधा-सादा मन्या अंडरवर्ल्ड में अपना दबदबा साबित करता है। निर्दोष मन्या को एक भ्रष्ट पुलिस वाला हत्या के मामले में फंसा कर जेल की हवा खिला देता है। उसे उम्रकैद हो जाती है। जेल से वह भाग निकलता है और अपनी गैंग बना लेता है।
उसकी अंडरवल्ड के दूसरे लोगों मकसूद, मस्तान और हकसर भाइयों से लड़ाइयां होती हैं। पुलिस के हाथ बंधे हुए हैं। आखिर में पुलिस मन्या का एनकाउंटर करती है जो मुंबई स्थित वडाला नामक स्थान पर होता है। फिल्म में बताया गया है कि यह पहला एनकाउंटर था, जिसमें पुलिस ने एक गुंडे पर गोली चलाकर उसे मार डाला।
इस वास्तविक घटना को बेहद ही नकली तरीके से पेश किया गया है। अच्छा तो ये होता कि बिना किसी संदर्भ के यह फिल्म बना दी जाती। स्क्रीनप्ले इस तरह से लिखा गया है ताकि ज्यादा से ज्यादा एक्शन सीन शामिल किया जा सके। लेखन में गहराई नहीं है जिसके कारण किरदारों और परदे पर चलने वाले घटनाक्रमों से दर्शक बिलकुल भी जुड़ाव नहीं महसूस करता।
निर्देशक संजय गुप्ता ये तय नहीं कर पाए कि वे अपने किरदारों को किस तरह से पेश करें। एक तरफ तो वे भारी-भरकम शब्दों में डायलॉगबाजी करते हैं तो दूसरी ओर बेवजह गालियां बकते रहते हैं। एक तरफ मन्या औरतों को सम्मान देने की बात करता है तो दूसरी ओर अपनी ही गर्लफ्रेंड को गाली बकता है।
कुछ फूहड़ प्रसंग भी डाल दिए गए हैं। उससे भी मन नहीं भरा तो तीन आइटम नंबर भी झेलना पड़ते हैं, जिनकी इन गानों में कोई सिचुएशन ही नहीं बनती। सनी लियोन का आइटम नंबर तो भी ठीक है, लेकिन प्रियंका चोपड़ा और सोफी चौधरी के आइटम सांग एकदम ठंडे हैं।
संजय गुप्ता ने कहानी को कहने का जो तरीका चुना है वो भी विश्वसनीय नहीं है। एक इंसपेक्टर ढेर सारी गोली मारने के बाद मन्या को पुलिस वैन में अस्पताल ले जा रहा है और मन्या उसे अपनी कहानी सुनाता है। इस कारण कई जगह कन्फ्यूजन पैदा होता है। मन्या के किरदार को भी ठीक तरह से पेश नहीं किया गया है। संजय गुप्ता का सारा ध्यान फिल्म को स्टाइलिश लुक और एक्शन सीक्वेंसेस पर रहा और लेखन पक्ष की कमियों को वे अनदेखा कर गए।
जॉन अब्राहम के अभिनय के स्तर को देखा जाए तो उनका अभिनय ठीक है, लेकिन मन्या के किरदार में वे वो आग और ऊर्जा नहीं फूंक सके जो कैरेक्टर की डिमांड थी। कंगना ने पूरी फिल्म में एक ही एक्सप्रेशन दिया है और जॉन के साथ उनके दो-तीन हॉट सीन हैं। तुषार कपूर ने लगातार फूहड़ संवाद और घटिया अभिनय से बोर किया है।
जॉन अब्राहम को इतना ज्यादा फुटेज दिया गया है कि दूसरे कलाकारों की भूमिका उनके आगे गौण हो गई है, जिनमें मनोज बाजपेयी जैसा अभिनेता भी शामिल है, जिसकी प्रतिभा का उपयोग ही नहीं हो पाया। सोनू सूद और अनिल कपूर का अभिनय जरूर ठीक है। महेश मांजरेकर और रोनित रॉय केवल भीड़ का हिस्सा नजर आए।
एक गैंगस्टर की कहानी और ढेर सारे एक्शन दृश्य भी किसी किस्म की गरमाहट पैदा नहीं कर पाए और यही शूटआउट वडाला की असफलता है।
बैनर :
व्हाइट फीदर फिल्म्स, बालाजी मोशन पिक्चर्स
निर्माता :
एकता कपूर, संजय गुप्ता, शोभा कपूर, अनुराधा गुप्ता
निर्देशक :
संजय गुप्ता
संगीत :
अनु मलिक, आनंद राज आनंद, मीत ब्रदर्स
कलाकार :
जॉन अब्राहम, कंगना, अनिल कपूर, तुषार कपूर, मनोज बाजपेयी, सोनू सूद, महेश मांजरेकर,
मेहमान कलाकार :
प्रियंका चोपड़ा, सनी लियोन, सोफी चौधरी, जैकी श्रॉफ, रंजीत
सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 2 घंटे 30 मिनट 10 सेकंड
बेकार, 2-औसत, 2.5-टाइमपास, 3-अच्छी, 4-बहुत अच्छी, 5-अद्भुत
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बैनर :
बालाजी मोशन पिक्चर्स, एएलटी एंटरटेनमेंट
निर्माता :
एकता कपूर, शोभा कपूर
निर्देशक :
मिलन लथुरिया
संगीत :
विशाल-शेखर
कलाकार :
विद्या बालन, नसीरुद्दीन शाह, इमरान हाशमी, तुषार कपूर, राजेश शर्मा, अंजू महेन्द्रू
सेंसर सर्टिफिकेट : (ए) * 2 घंटे 23 मिनट
दक्षिण भारतीय अभिनेत्री सिल्क स्मिता 80 के दशक में बी-ग्रेड फिल्मों की सुपरस्टार थी। अपनी कामुक अदाओं और अंग प्रदर्शन के जरिये उन्होंने दर्शकों को दीवाना बना दिया था। उनकी जिंदगी में सब कुछ तेजी से घटा और 36 वर्ष की आयु में उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया।
सिल्क की जिंदगी से प्रेरित होकर ‘द डर्टी पिक्चर’ बनाई गई है जो सिल्क के जन्मदिन 2 दिसंबर को रिलीज हुई है। सिल्क से प्रेरित होने की वजह से फिल्म देखते समय यही लगता है कि हम सिल्क की जीवन-यात्रा देख रहे हैं।
‘द डर्टी पिक्चर’ बनाने वालों ने बड़ी चतुराई के साथ ऐसा विषय चुना है, जो हर तरह के दर्शक वर्ग को अपील करे। चूंकि सिल्क और बोल्डनेस एक-दूसरे के पर्यायवाची हैं, इस कारण ‘द डर्टी पिक्चर’ के बोल्ड सीन में हल्कापन नहीं लगता। हालांकि कुछ अश्लील संवादों से बचा जा सकता था, जिसकी छूट फिल्म मेकर ने सिल्क के नाम पर ली है।
गांव में रहने वाली लड़की रेशमा पर सिनेमा इस कदर हावी था कि वह हीरोइन बनने घर से भागकर मद्रास चली जाती है। वहां जाकर उसे समझ में आता है कि उसके जैसी कई लड़कियां हैं जो एक चांस के लिए स्टुडियो के चक्कर लगा रही हैं।
बड़ी मुश्किल से उसे एक फिल्म में काम मिलता है, जिसमें वह उत्तेजक डांस करती है। एक फिल्मकार की नजर उस पर पड़ती है और रेशमा का नया नाम वह सिल्क रख देता है। फिल्मों में सफलता पाने के लिए सिल्क अच्छा-बुरा नहीं सोचती। शरीर तक का इस्तेमाल करती है। वह एक आंधी की तरह है। जहां जाती है तूफान आ जाता है। बोल्ड इतनी कि जो प्रेमी उससे शादी करने वाला है उससे उसके बाप की उम्र पूछती है।
पुरुष बोल्ड हो तो इसे उसका गुण माना जाता है, लेकिन यही बात महिला पर लागू नहीं होती। पुरुष प्रधान समाज महिला की बोल्डनेस से भयभीत हो जाता है। जो सुपरस्टार रात सिल्क के साथ गुजारता है दिन के उजाले में उसके पास आने से डरता है।
सुपरस्टार बनी सिल्क को समझ में आ जाता है कि सभी पुरुष उसकी कमर पर हाथ रखना चाहते हैं। सिर पर कोई हाथ नहीं रखना चाहता। बिस्तर पर उसे सब ले जाना चाहते हैं घर कोई नहीं ले जाना चाहता।
सिल्क के जीवन में तीन पुरुष आते हैं। एक सिर्फ उसका शोषण करना चाहता है। दूसरा उसे अपनाने के लिए तैयार है, लेकिन सिल्क के बिंदासपन और अपने भाई से डरता है। अपने हिसाब से उसे बदलना चाहता है। तीसरा उससे नफरत करता है। उसे फिल्मों में आई गंदगी बताता है, लेकिन अंत में उसकी ओर आकर्षित होता है।
फिल्म में सिल्क की कहानी मनोरंजक तरीके से पेश की गई है। फिल्म इंडस्ट्री को नजदीक से देखने का अवसर मिलता है। वह दौर पेश किया गया जब सिंगल स्क्रीन हुआ करते थे, चवन्नी क्लास में दर्शक गाना पसंद आने पर जेब में रखी चिल्लर फेंका करते थे। सिल्क की कलरफुल लाइफ के साथ-साथ उसके दर्द और उदासी को भी निर्देशन मिलन लथुरिया ने बेहतरीन तरीके से सामने रखा है।
मिलन ने वह दौर, और तमिल फिल्म इंडस्ट्री को बारीकी के साथ पेश किया है, साथ ही उन्होंने अपने कलाकारों से बेहतरीन काम लिया है। इमरान हाशमी और विद्या बालन की प्रेम कहानी को मैच्योरिटी के साथ हैंडल किया है।
‘सूफियाना’ और ‘ऊह ला ला’ गाने के लिए सही सिचुएनशन बनाई है। दूसरे हाफ में कुछ देर के लिए फिल्म मिलन के हाथ से छूटते हुए लगती है, खासतौर पर सिल्क और शकीला का पार्टी में डांस करने वाले प्रसंग से बचा जा सकता था।
रजत अरोरा की स्क्रिप्ट और मिलन का ट्रीटमेंट ऐसा है कि फिल्म मास और क्लास दोनों टाइप के दर्शकों को पसंद आएगी। रजत अरोरा के संवादों पर दर्शक कई जगह हंसते हैं तो कई जगह तालियां बजाते हैं। खासतौर पर सिल्क को पुरस्कृत करने वाले सीन में संवाद सुनने लायक हैं। नसीरुद्दीन शाह के लिए भी बेहतरीन लाइनें लिखी गई हैं।
विद्या बालन इस फिल्म की जान है। कई लोगों को कहना था कि गर्ल नेक्स्ट डोर इमेज वाली विद्या को सिल्क स्मिता के रोल में चुनना गलत कास्टिंग है। विद्या उन लोगों को गलत साबित करती हैं। उनके किरदार को जो बोल्डनेस चाहिए थी, वो विद्या ने दी। कैमरे के सामने वे बोल्ड सीन और कम कपड़ों में बिलकुल नहीं झिझकी।
विद्या ने कई दृश्यों में कमाल का अभिनय किया है, जैसे तुषार कपूर के साथ कार सीखने वाला सीन, सुपरस्टार नसीर की पत्नी से मुलाकात वाला सीन, इमरान हाशमी के साथ शराब पीने वाला सीन। सिल्क के दर्द और प्यार की तड़प उन्होंने जानदार अभिनय के साथ पेश किया है। वर्ष की बेस्ट एक्ट्रेस के पुरस्कार उन्हें निश्चित रूप से मिलेंगे।
एक उम्रदराज सुपरस्टार, जो कि अभी भी कॉलेज स्टूडेंट के रोल करता है, में नसीरुद्दीन शाह का अभिनय देखने लायक है। सुपरस्टार के एटीट्यूड और लटके-झटके को नसीर ने बखूबी पेश किया है। इमरान हाशमी का रोल छोटा है और उन्होंने कमेंट्री ज्यादा की है। लेकिन अपनी इमेज से विपरीत उन्होंने रोल किया है और उनके किरदार में कई शेड्स हैं। अंत में उनका पात्र सहानुभूति बटोर लेता है। तुषार कपूर को जो रोल मिला है वो उन पर सूट करता है, इसलिए वे भी अच्छे लगते हैं।
सिल्क कहती है कि किसी भी फिल्म को चलाने के लिए उसमें सबसे जरूरी तीन चीजें होती हैं- एंटरटेनमेंट, एंटरटेनमेंट और एंटरटेनमेंट। और यही चीज ‘द डर्टी पिक्चर’ में भी है।
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क्या सुभाष घई की 1983 में रिलीज हुई 'हीरो' इतनी महान फिल्म है कि इसका रिमेक बनाया जाए? एक आम कहानी पर आधारित फिल्म तब दमदार संगीत और अच्छे प्रस्तुतिकरण के कारण सफल हो गई थी। पिछले 32 वर्षों के दौरान इस तरह की कहानी पर इतनी सारी फिल्में रिलीज हो गई हैं कि 2015 में रिलीज 'हीरो' की कहानी थकी हुई लगती है। इस लिहाज से 'हीरो' का रिमेक बनाना ही गलत निर्णय है।
'हीरो' जब रिलीज हुई थी तब सलमान खान लगभग 18 वर्ष के होंगे और शायद उन्हें 'हीरो' बेहद पसंद आई होगी। तब से वे इस तरह की फिल्म करने की इच्छा दिल में पाले हुए होंगे। मेंटर बन उन्होंने अपने सपने को पूरा किया है, लेकिन अब 'हीरो' जैसी फिल्मों का जमाना लद चुका है।
सूरज (सूरज पंचोली) एक गुंडा है। वह पाशा (आदित्य पंचोली) के लिए काम करता है। पाशा का आईजी (तिग्मांशु धुलिया) से विवाद चल रहा है। आईजी को सबके सिखाने के लिए पाशा, सूरज को आईजी की बेटी राधा (अथिया शेट्टी) के अपहरण का जिम्मा सौंपता है। राधा के सामने पुलिस वाला बन सूरज जाता है। वह राधा से कहता है कि उसकी जान को खतरा है और आईजी के निर्देश पर उसे दूसरे शहर ले जाना पड़ेगा। सूरज और उसके साथियों के साथ राधा कुछ दिन गुजारती है। राधा और सूरज नजदीक आ जाते हैं।
जब राधा को पता चलता है कि सूरज ने उसका अपहरण किया है तो राधा का दिल टूटता है, लेकिन सूरज उससे दादागिरी छोड़ने का वादा करता है। सूरज को दो वर्ष की सजा हो जाती है और राधा फ्रांस पढ़ने के लिए चली जाती है। राधा के पिता, सूरज और राधा की शादी के खिलाफ हैं। वे किसी और से राधा की शादी नहीं कर दे इसलिए राधा का भाई उन्हें बताता है कि फ्रांस में राधा और रणविजय में नजदीकियां बढ़ रही है, लेकिन इस बात में रत्ती भर सच्चाई नहीं है।
सूरज जेल से छूटता है और राधा उसे लेने के लिए आती है। इसी बीच रणविजय और राधा की झूठी कहानी में तब ट्विस्ट आता है जब सचमुच में रणविजय की एंट्री होती है। राधा के पिता को पता चलता है तो वे बेहद नाराज होते हैं। किस तरह सारी गुत्थियां सुलझती है? क्या राधा-सूरज एक हो पाते हैं? इनके जवाब फिल्म में मिलते हैं।
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सुभाष घई द्वारा लिखी गई कहानी को थोड़े बदलाव के साथ निखिल आडवाणी ने उमेश बिष्ट के साथ मिलकर लिखा है। स्क्रीनप्ले कुछ इस तरह लिखा गया है कि फिल्म सूरज और अथिया का शोकेस बन कर रह गई है। अन्य बातों की उपेक्षा की गई है। फिल्म में डिटेल्स पर बिलकुल भी ध्यान नहीं दिया गया है। क्या हो रहा है, क्यों हो रहा है, ये प्रश्न फिल्म देखते समय लगातार दिमाग में कौंधते रहते हैं।
सूरज गुंडा क्यों है, इसका जवाब नहीं मिलता। आईजी की बेटी का अपहरण, सूरज-राधा में प्यार, सूरज का जिम खोलना इतनी आसानी से हो जाता है कि आश्चर्य होता है। रणविजय वाला ट्रेक निहायत ही बेहूदा है और महज फिल्म की लम्बाई बढ़ाता है। >
एक दृश्य का दूसरे दृश्य से तालमेल नहीं है। सूरज और अथिया द्वारा शो पेश करना सिर्फ दोनों की डांसिंग स्किल्स दिखाने के लिए रखा गया है। ये शो क्यों हो रहा है? अथिया के शो में सूरज कैसे आ गया? इस तरह के कई सवाल हैं।
सवालों को हाशिये पर रखा जा सकता है जब फिल्म में मनोरंजन हो, लेकिन ऐसा कोई सीन फिल्म में नहीं है। कहानी में दम नहीं हो तो कुशल निर्देशक अपने प्रस्तुतिकरण पर दर्शकों को बांध सकता है, लेकिन निखिल आडवाणी सिर्फ नाम के निर्देशक लगे। न उन्होंने स्क्रिप्ट की कसावट पर ध्यान दिया और न ही वे अपने प्रस्तुतिकरण में ताजगी ला सके। फिल्म देख ऐसा लगता है कि बिना निर्देशक के यह फिल्म पूरी कर दी गई हो। फिल्म के आखिर में जब सलमान खान गाने गाते नजर आते हैं तो वे पूरी फिल्म से ज्यादा राहत देते हैं।
सूरज पंचोली और अथिया शेट्टी में आत्मविश्वास तो नजर आता है, लेकिन अभिनय में वे कच्चे हैं। केवल बॉडी बनाना, फाइट और डांस करना ही हीरो बनने की शर्त पूरी करता है तो इसमें सूरज इसमें खरे उतरते हैं। अथिया शेट्टी की संवाद अदायगी दोषपूर्ण है। नकचढ़ी राधा के किरदार में उन्हें सिर्फ चिल्लाना ज्यादा था। बेहतरीन फिल्म बनाने वाले तिग्मांशु धुलिया ने इस फिल्म में राधा के पिता की भूमिका निभाई है और उनके अभिनय में इस बात की झलक मिलती है कि ये सब हो क्या रहा है।
फिल्म का संगीत 'मैं हूं हीरो तेरा' को छोड़ दिया जाए तो ज्यादातर गाने ब्रेक का काम करते हैं। फिल्म की सिनेमाटोग्राफी औसत है।
कुल मिलाकर यह 'हीरो' ज़ीरो के नजदीक है।
बैनर : सलमान खान फिल्म्स, इरोज़ इंटरनेशनल, मुक्ता आर्ट्स लि., एमे एंटरटेनमेंट प्रा.लि.
निर्माता : सलमा खान, सलमान खान, सुभाष घई
निर्देशक : निखिल आडवाणी
संगीत : सचिन-जिगर, अमीत ब्रदर्स अंजान
कलाकार : सूरज पंचोली, अथिया शेट्टी, तिग्मांशु धुलिया, आदित्य पंचोली
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बॉलीवुड फिल्मों के ज्यादातर सीक्वल निशाने पर नहीं लगते। 'हैप्पी भाग जाएगी' का सीक्वल 'हैप्पी फिर भाग जाएगी' पहली फिल्म की परछाई मात्र साबित हुआ है। फिल्म से कुछ उम्दा लोगों के नाम जुड़े हुए थे जिससे उम्मीद जागी थी कि यह सीक्वल सिर्फ पहले भाग की सफलता को भुनाने के लिए नहीं बनाया होगा, लेकिन फिल्म शुरू होने के दस मिनट बाद ही यह आशा, निराशा में बदल जाती है।
हैप्पी पहली फिल्म में पाकिस्तान पहुंच गई थी, इस बार चीन को चुना गया है। एक हैप्पी (डायना पेंटी) के साथ दूसरी हैप्पी (सोनाक्षी सिन्हा) भी आ मिली है। दो हैप्पी होंगी तो कन्फ्यूजन तो होगा ही, बस इसी बात के आसपास कहानी घूमती रहती है।
हैप्पी (सोनाक्षी सिन्हा) चीन में उस इंसान से बदला लेने आई है जो उसके साथ शादी तोड़ देता है। उसी समय चीन में दूसरी हैप्पी (डायना पेंटी) भी अपने पति गुड्डू (अली फज़ल) के साथ मौजूद है। हैप्पी के जरिये चीनी माफिया पाकिस्तान से अपना कुछ काम करवाना चाहते हैं और वे भूल से उस हैप्पी का अपहरण कर लेते हैं जिसकी उन्हें जरूरत नहीं है। अपने इस काम को अंजाम देने के लिए चीनी माफिया भारत से बग्गा (जिमी शेरगिल) और पाकिस्तान से अफरीदी (पियूष मिश्रा) को भी उठवा कर चीन ले आते हैं। मिस्टेकन आइडेंटीटीज़ का फॉर्मूला यहां लगाया गया है, लेकिन यह काम नहीं कर पाया।
फिल्म की कहानी और स्क्रिप्ट पर मेहनत नहीं की गई है। मनोरंजन के नाम पर दिमाग को घर पर भी रख कर आए तो भी यह फिल्म मनोरंजन नहीं करती। फिल्म के लेखक और निर्देशक मुदस्सर अजीज़ पिछली फिल्म के चुटकलों को ही यहां दोहराते नजर आए। उन्होंने लोकेशन बदल कर पूरी फिल्म चीन में बना कर दर्शकों का ध्यान बंटाने की कोशिश की है, लेकिन कामयाब नहीं हो पाए।
फिल्म की कहानी में कोई दम नहीं है और कई सवालों के जवाब नहीं मिलते। स्क्रिप्ट में भी ऐसी बात नहीं है कि यह लगातार हंसाती रहे। कुछ वन लाइनर और कुछ सीन जरूर मजेदार हैं। चीनी को हिंदी बोलते या गाने गाते देखना अच्छा लगता है, लेकिन इस तरह के संवाद और दृश्यों की संख्या बहुत कम है।
शुरुआती आधे घंटे के बाद फिल्म का ग्राफ लगातार नीचे की ओर आता है और आखिरी के 45 मिनट में तो फिल्म उबाऊ हो जाती है। क्लाइमैक्स भी थका हुआ है।
मुदस्सर अजीज़ ने निर्देशक के रूप में अपने लेखन की कमियों को छिपाने की कोशिश की है, लेकिन सफल नहीं हो पाए। उन्होंने फिल्म के दो नए किरदारों (सोनाक्षी सिन्हा और जस्सी गिल) पर ज्यादा फोकस किया है और अली फज़ल, डायना पेंटी, पियूष मिश्रा, जिमी शेरगिल पर कम ध्यान दिया है। यह प्रयोग असफल रहा है क्योंकि दर्शकों को पुराने किरदारों को देखने में ज्यादा दिलचस्पी थी। पियूष और जिमी ज्यादातर दृश्यों में नजर आते हैं, लेकिन उनके पास करने को कुछ नहीं रहता।
सोनाक्षी सिन्हा कन्फ्यूज नजर आई और पूरी फिल्म में भागती ही रहीं। जस्सी गिल का अभिनय प्रभावित करता है। जिमी शेरगिल और पियूष मिश्रा को ज्यादा मौके नहीं मिले। डायना पेंटी और अली फज़ल तो चीन सिर्फ घूमने के लिए गए थे। अपारशक्ति खुराना रंग में नजर नहीं आए। फिल्म का संगीत भी कमजोर है, लेकिन गानों का पिक्चराइजेशन अच्छा है।
इस बार हैप्पी के साथ-साथ दर्शक भी भाग जाएंगे।
बैनर : इरोस इंटरनेशनल, ए कलर येलो प्रोडक्शन
निर्माता : आनंद एल. राय, कृषिका लुल्ला
निर्देशक : मुदस्सर अजीज़
संगीत : सोहेल सेन
कलाकार : सोनाक्षी सिन्हा, जस्सी गिल, जिमी शेरगिल, पियूष मिश्रा, डायना पेंटी, अली फज़ल, अपारशक्ति खुराना
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 17 मिनट 12 सेकंड
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बॉलिवुड में आजकल हॉरर फिल्मों के नाम पर सिर्फ 1920 सीरीज की फिल्में ही आती हैं। ऐसे में भारतीय दर्शकों के पास हॉरर फिल्मों के नाम पर सिर्फ हॉलिवुड की हॉरर फिल्में देखने का ही ऑप्शन है। बेशक वहां भी शैतान से जुड़े ढेरों किस्से हैं, जिन पर हॉलिवुड के निर्माता अक्सर फिल्में बनाते रहते हैं। हॉलिवुड की चर्चित हॉरर फिल्मों में कंज्यूरिंग सीरीज़ की फिल्मों को दर्शकों ने काफी पसंद किया है। 'द नन' कंज्यूरिंग सीरीज़ की ही अगली फिल्म है, जिसे इस सीरीज का सबसे ख़ौफनाक किस्सा बताया जा रहा है। फिल्म के क्रेज का आइडिया इसी बात से लगाया जा सकता है कि 'द नन' का सुबह का शो हाउसफुल था।इस फिल्म की कहानी की शुरुआत 1952 में रोमानिया के सैंट कार्टा में एक ऐबी (ऐसी जगह जहां नन रहती हैं) से हुई थी। माना जाता है कि उस ऐबी के एक दरवाजे में शैतान रहता है और उससे आगे गॉड का राज नहीं है। इसी वजह से आसपास के लोग उससे दूर रहते हैं। एक दिन एक नन उस दरवाजे के भीतर गई और शैतान के हाथों मारी गई, जबकि दूसरी नन ने शैतान से बचने के लिए पहले से की गई प्लानिंग के तहत फांसी लगा ली। उसकी लाश वहां सब्जियां लाने वाले एक आदमी मोरिस को मिली। जब यह खबर फैली, तो उसके बाद वैटिकन ने एक जांच दल गठित किया। उसमें एक पादरी फादर एंथनी बुर्के (डेमियन बिहिर) और एक नन सिस्टर इरीन (टेसा फार्मिगा) जिसने अभी तक शपथ नहीं ली, को रोमानिया भेजा। वे दोनों उस सब्जी वाले के साथ वहां जाते हैं। फादर एंथनी एक ऐसे पादरी हैं, जो अक्सर ऐसी घटनाओं की जांच करते हैं। वहां इन दोनों के साथ अजीब-अजीब घटनाएं होती हैं, लेकिन हिम्मत नहीं हारते और उस रहस्यमय ऐबी से जुड़े रहस्य का खुलासा करने का फैसला करते हैं। सब्जी बेचने वाला मोरिस भी उन दोनों का साथ देने का फैसला करता है। क्या फादर और सिस्टर ऐबी के शैतान को काबू कर पाते हैं? आखिर उस ख़ौफनाक ऐबी का राज क्या है? इस ख़ौफनाक सवाल का जवाब आपको थिअटर जाकर ही मिल पाएगा।हॉलिवुड की तमाम हॉरर फिल्मों की तरह इस फिल्म में भी शैतान और चर्च की जंग दिखाई गई है। हालांकि, इस बार चर्च की ओर से मोर्चा किसी पादरी की बजाय एक नन ने संभाला है। सिस्टर इरीन के रोल में टेसा फार्मिगा ने अच्छी ऐक्टिंग की है। खासकर शैतान से लड़ाई के सीन में वह जोरदार लगती हैं। वहीं डेमियन ने भी ठीकठाक ऐक्टिंग की है। उधर मोरिस के रोल में जोनस भी दर्शकों का मनोरंजन करते हैं। फिल्म की शूटिंग भी कहानी की डिमांड के मुताबिक डरावनी लोकेशन पर की गई है। हॉरर फिल्मों में बैकग्राउंड स्कोर बहुत महत्वपूर्ण होता है। इस फिल्म में शैतान से जंग के सीन आपको खासे डरावने लगते हैं। वहीं खौफनाक ऐबी के भीतर के सीन भी खतरनाक हैं। अगर आपको हॉरर फिल्में देखना पसंद है, तो आपको नन से जरूर मुलाकात करनी चाहिए। | 1 |
कहानी: मुंबई सबअर्बन एरिया में रहने वाली खुशमिजाज हाउस वाइफ सुलोचना जिसे सुलु नाम से भी बुलाया जाता है, को रेडियो पर नाइट आरजे का काम दिया जाता है। इस काम के चलते उसकी लाइफ में बड़ा चेंज आता है। रिव्यू: हाल में बॉलिवुड में ऐसी फिल्मों की बाढ़ आ गई है जिनमें भारतीय मध्यवर्ग की महिलाओं को ग्लैमरस तरीके से दिखाया जाता है। विज्ञापनों के डायरेक्टर से फिल्म डायरेक्टर बने सुरेश त्रिवेणी ने सुलोचना उर्फ 'सुलु' के रूप में विद्या बालन को ध्यान में रखते हुए ऐसी ही मध्यवर्ग की एक सामान्य महिला की कहानी लिखी है। सुलु ने अभी तक कुछ बड़ा तो नहीं किया है लेकिन वह सपने बहुत देखती है। जब उसे एक खास मौका मिलता है तो उसकी पर्सनल और फैमिली लाइफ पर काफी असर पड़ता है। सुलु सफलता से रेडियो जॉकी के तौर पर कॉर्पोरेट मीडिया में अपना जीवन जीने लगती है। जल्द ही सुलु रातोंरात मशहूर हो जाती है साथ ही वह अपने घर को भी सफलता से संभालती है। सुलु के रूप में विद्या बालन ने बिना किसी आक्रामता के इस किरदार को सहजता से जिया है। उन्होंने सुलु के किरदार में एक औरत की जिंदगी के विभिन्न पहलुओं को रखते हुए दिखाया है कि कैसे एक घरेलू महिला अपने परिवार की जरूरतों के लिए अपनी निजी महत्वाकांक्षाओं को छोड़ देती है। सुलु के पति अशोक के रूप में मानव कौल का चयन फिल्म के लिए एकदम पर्फेक्ट है। अशोक अपनी पत्नी सुलु को खुश रखने का हर संभव प्रयास करता है लेकिन इसके साथ-साथ वह अपने काम के प्रेशर को भी झेल रहा है जो कभी-कभी झुंझला जाता है। रेडियो जॉकी के तौर पर सुलु की नाइट लाइफ फिल्म को काफी मजेदार बना देती है। हल्की-फुल्की फिल्म से फिल्म एकदम से सीरियस ड्रामा बनते समय थोड़ी लड़खड़ा जाती है। उससे पहले फिल्म आपको गुदगुदाती है। फिल्म पूरी कहानी को सुलु की नजरों से दिखाती है जिसमें आपको काफी मजा आएगा। विद्या ने सुलु के किरदार के उस पक्ष को खूबसूरती से निभाया है जब उसकी आवाज को दुनिया सुनती है और वह रातोंरात मशहूर हो जाती है। जिस तरह से सुलु और उसका परिवार परेशानियों से जूझता है उस तरह से इस फिल्म से शहरी जनता अपने आपको रीलेट कर पाएगी क्योंकि शहरी जनता भी अपनी जिंदगी में परेशानियों से जूझते हुए बेहतर जिंदगी के लिए अपने सपने नहीं छोड़ती। फिल्म की स्टोरी में सुलु का किरदार दमदार है, वह इतनी मजबूत है कि हर मुश्किल में 'मैं कर सकती है' वाला ऐटिट्यूड रखती है।क्यों देखें: 'तुम्हारी सुलु' एक ऐसी फिल्म है जिसका आप पूरे परिवार के साथ आनंद ले सकते हैं। अगर विद्या के फैन हैं और उनकी दमदार ऐक्टिंग देखना चाहते हैं तो फिल्म को जरूर देखें। | 0 |
दहेज के नाम पर विभिन्न धर्म के लोग एक से नजर आते हैं। भारतीय समाज का यह रोग वर्षों पुराना है। समय-समय पर कई फिल्मकारों ने अपनी फिल्मों के जरिये इसके बुराई के खिलाफ इतनी बार आवाज उठाई है कि अब यह फिल्मों के लिए घिसा-पिटा विषय हो गया है।
हबीब फैसल द्वारा निर्देशित फिल्म 'दावत-ए-इश्क' भी दहेज जैसी कुरीति के खिलाफ है, लेकिन किरदारों और पृष्ठभूमि में ऐसा बदलाव किया गया है कि फिल्म में नवीनता का आभास होता है। हैदराबाद और लखनऊ जैसे शहरों में इसे फिल्माया गया है जो स्थानीय लज़ीज व्यंजनों के कारण देश भर में प्रसिद्ध है। इन शहरों के अलावा बिरयानी, हलीम, कबाब के स्वाद को भी फिल्म देखते समय दर्शक महूसस करते हैं। कहानी के सारे पात्र मुस्लिम समुदाय से हैं जिससे फिल्म में एक अलग ही रंग देखने को मिलता है।
जहेज़ के नाम पर मां-बाप अपने आईएस ऑफिसर, डॉक्टर और इंजीनियर बेटों के भाव तय करते हैं और निकाह के लिए लड़की वालों से रकम मांगी जाती है। लड़कों ने पढ़-लिख कर डिग्री तो हासिल कर ली है, लेकिन 'ज्ञान' अर्जित नहीं कर पाए। कपड़ों के मामले में वे भले ही आधुनिक लगते हो, लेकिन वैचारिक रूप से वे वर्षों पुरानी दकियानूसी परंपराओं के हिमायती हैं। यही वजह है कि फिल्म की नायिका गुलरेज़ (परिणीति चोपड़ा) की शादी नहीं हो पा रही है। वह तेज-तर्रार है। जहेज़ मांगने वाले लड़के और मां-बाप को बाहर करने में देर नहीं लगाती।
गुलरेज़ अमेरिका जाकर शू डिजाइनिंग का कोर्स करना चाहती है। उसके पिता (अनुपम खेर) अदालत में क्लर्क है और ये खर्चा उठाना उनके बूते की बात नहीं है। गुलरेज़ को लगता है कि सभी लड़के दहेज मांगने वाले होते हैं। वह इन दहेज लोभियों को सबक सीखाने के लिए एक योजना बनाती है। पूरी दुनिया बेईमानी कर रही है तो हम क्यों ईमानदारी में फांके खाए कहते हुए उसके पिता भी गुलरेज के साथ हो लेते हैं।
अपने पिता के साथ नाम और पहचान बदलकर वह हैदराबाद से लखनऊ जाती है। एक अमीर लड़के को फांसती है ताकि शादी करने के बाद धारा 498-ए का दुरुपयोग कर उन पर दहेज मांगने का आरोप लगाए और अदालत के बाहर मोटी रकम लेकर समझौता कर ले। इससे उसका अमेरिका जाने का सपना भी पूरा हो जाएगा।
तारिक (आदित्य राय कपूर) को वह अपने जाल में फंसाती है, लेकिन खुद ही फंस जाती है। तारिक न केवल दहेज विरोधी है बल्कि वह इतना अच्छा इंसान है कि गुलरेज उसे चाहने लगती है। अपने ही बुने मकड़जाल से गुलरेज कैसे निकलती है, यह फिल्म का सार है।
हबीब फैसल और ज्योति कपूर ने फिल्म की कहानी मिल कर लिखी है जबकि स्क्रिप्ट और संवाद हबीब के हैं। दहेज जैसे गंभीर विषय पर आधारित होने के बावजूद यह फिल्म हल्की-फुल्की और रोमांटिक है। इतनी सरलता के साथ यह फिल्म संदेश देती है कि कही भी फिल्म भारी या उपेदशात्मक नहीं लगती।
जिसको धोखा देने जा रहे हो उसी से प्यार कर बैठने वाला फॉर्मूला भी बहुत पुराना है, लेकिन हबीब का प्रस्तुतिकरण फिल्म को अलग रंग देता है। हैदराबाद और लखनऊ को उन्होंने खूब फिल्माया और बीच-बीच में व्यंजनों का उल्लेख फिल्म को अलग कलेवर देता है।
फिल्म के किरदारों पर मेहनत की गई है। परिणीति, आदित्य और अनुपम के इर्दगिर्द ही फिल्म घूमती है और ये तीनों किरदार भरपूर मनोरंजन करते हैं। पिता-पुत्री का रिश्ता फिल्म में खूब हंसाता है। वही परिणीति और आदित्य का रोमांटिक ट्रेक भी उम्दा है। संवाद भी कई जगह गुदगुदाते हैं। निर्देशक के रूप में हबीब ने फिल्म में माहौल बहुत ही हल्का-फुल्का रखा है।
स्क्रिप्ट परफेक्ट भी नहीं है। कई जगह फिल्म गड़बड़ा जाती है, लेकिन तुरंत एक अच्छा दृश्य फिल्म को संभाल लेता है। फिल्म के अंत में गुलरेज का कन्फ्यूजन दर्शकों को समझ नहीं आता। तारिक को चाहने के बावजूद गुलरेज का उसे धोखा देना और फिर पछतावा करना को ठीक से दिखाया नहीं गया है। दूसरे हाफ में निर्देशक हड़बड़ी में दिखे। गुलरेज और उसके पिता का नकली पासपोर्ट बनवाना, तारिक के प्रतिष्ठित परिवार को धोखा देना इतनी आसानी से बताया गया है कि यकीन करना थोड़ा मुश्किल होता है, लेकिन फिल्म के मूड और उद्देश्य को देखते हुए इसे इग्नोर किया जा सकता है।
फिल्म के प्रमुख कलाकार टॉप फॉर्म में नजर आएं। परिणीति चोपड़ा ने तेजतर्रार गुलरेज के किरदार को बखूबी निभाया। उनके पिता की भूमिका के रूप में अनुपम खेर ने अपने बेहतरीन अभिनय से दर्शकों को हंसाया। आदित्य राय कपूर पहली बार बतौर अभिनेता के रूप में प्रभावित करने में सफल रहे। साजिद-वाजिद द्वारा संगीतबद्ध दो-तीन गीत गुनगुाने लायक हैं।
कुल मिलाकर 'दावत-ए-इश्क' का मजा लिया जा सकता है।
बैनर : यशराज फिल्म्स
निर्माता : आदित्य चोपड़ा
निर्देशक : हबीब फैसल
संगीत : साजिद-वाजिद
कलाकार : आदित्य रॉय कपूर, परिणीति चोपड़ा, अनुपम खेर
सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 2 घंटे 3 मिनट 6 सेकंड
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भ्रष्ट पुलिस ऑफिसर, रिश्वतखोर सरकारी बाबुओं और वोट पाकर नोट कमाने वाले नेताओं ने पूरा सिस्टम गंदा कर रखा है। बच्चा गंदगी करता है तो डायपर बदल दिया जाता है, लेकिन सिस्टम की गंदगी साफ करना इतना आसान नहीं है। साथ ही इतना साहस कम ही लोगों में होता है। अन्याय और शोषण के खिलाफ कुछ युवा 'उंगली गैंग' बना लेते हैं जो कानून को हाथ में लेते हुए इन बिगड़ैल लोगों को सबक सिखाता है। इस गैंग का मानना है कि यदि घी सीधी उंगली से नहीं निकलता है तो टेढ़ी करना होती है, लेकिन वे बीच का रास्ता अपनाते हैं। यह विषय बॉलीवुड का पसंदीदा रहा है। अस्सी और नब्बे के दशक में सिस्टम के खिलाफ जूझ रहे हीरो की कई फिल्में आई हैं। थोड़े बहुत बदलाव के साथ रेंसिल डिसिल्वा ने इसे लिखा और निर्देशित किया है।
रेंसिल ने 'रंग दे बसंती' जैसी फिल्म और '24' जैसे धारावाहिक लिखा है, लेकिन 'उंगली' में उन्होंने बेहद निराश किया है। उनकी लिखी स्क्रिप्ट में कई कमजोर दृश्य हैं और निर्देशक के रूप में वे ड्रामे में विश्वसनीयता का पुट नहीं डाल पाए हैं।
अभय (रणदीप हुडा), माया (कंगना), गोटी (नील भूपलम) और कलीम (अंगद बेदी) मिलकर अन्याय के खिलाफ लड़ने का फैसला तब करते हैं जब माया के भाई (अरुणोदय सिंह) को न्याय नहीं मिलता। वे उंगली गैंग बना कर रिक्शा चालकों, आरटीओ में काम करने वाले बाबुओं और पुलिस वालों को अपने तरीके से सबक सिखाते हैं।
इस गैंग को पकड़ने का काम पुलिस ऑफिसर काले (संजय दत्त) को सौंपा जाता है जो यह काम निखिल (इमरान हाशमी) के जिम्मे करता है। निखिल उंगली गैंग जैसे काम कर अभय और उसकी टीम का ध्यान आकर्षित करता है। उसे पकड़ने का मौका मिलता है तो वह उनकी गैंग में शामिल हो जाता है। क्या उंगली गैंग पकड़ी जाती है? क्या निखिल अपने फर्ज से गद्दारी करता है? इनके जवाब फिल्म में मिलते हैं।
लेखन फिल्म की बहुत बड़ी कमजोरी है। उंगली गैंग जिस आसानी से काम करती है उस पर यकीन करना मुश्किल है। उंगली गैंग को पकड़ने के लिए पुलिस की कोशिश कमजोर नजर आती है। उंगल गैंग बेहद आसानी से निखिल से मिलने पहुंच जाती है और यह बात हजम नहीं होती। निखिल को जब इस गैंग को पकड़ने का सुनहरा अवसर मिलता है तो बजाय उन्हें गिरफ्तार करने के वह उनकी गैंग में क्यों शामिल होता है ये समझ से परे है।
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पुलिस ऑफिसर काले अपना ट्रांसफर करवाने के लिए फिक्सर (महेश मांजरेकर) के घर जाता है। वो अपने घर में पुलिस वालों को रुपये से भरे कमरे में आसानी से जाने देता है। यहां तक कि उंगली गैंग रुपये से भरे कमरे में पहुंच जाती है और नोटों को केमिकल लगाती है। इस दौरान फिक्सर के सुरक्षाकर्मी बाहर खड़े रहते हैं। रणदीप-नेहा और इमरान-कंगना के बीच बेवजह रोमांस दिखाने की कोशिश की गई है। कहने का मलतब ये कि लेखक ने तमाम अपनी सहूलियत से स्क्रिप्ट लिखी है और दर्शकों को जोड़ने में वे विफल रहे हैं।
निर्देशक के रूप में भी रेंसिल निराश करते हैं। ड्रामे को विश्वसनीय बनाने में तो वे असफल रहे ही हैं, लेकिन मनोरंजन की तलाश में आए दर्शकों को भी घोर निराशा हाथ लगती है। पूरी फिल्म बोरियत से भरी है और नींद न आने वालों की शिकायत इस फिल्म से दूर हो सकती है। फिल्म में ढेर सारे स्टार कलाकार हैं, जिनका सही उपयोग कर पाने में भी रेंसिल असफल रहे हैं।
मिलाप ज़वेरी के संवाद कुछ जगह अच्छे लगते हैं, लेकिन 'आप काले हैं तो वे दिलवाले हैं' जैसे घटिया संवाद भी सुनने को मिलते हैं। फिल्म में गाने ठूंसे गए हैं जो अखरते हैं।
फिल्म के कलाकारों ने अनमने तरीके से काम किया है। इमरान हाशमी के स्टारडम का ठीक से उपयोग नहीं किया गया है और न ही उन्हें ज्यादा फुटेज मिला है। इमरान ने अपनी ओर से पूरी कोशिश की है, लेकिन स्क्रिप्ट का साथ उन्हें नहीं मिला। संजय दत्त का भी यही हाल रहा है। कंगना रनौट, नेहा धूपिया और रणदीप हुडा को फिल्म देखने के बाद महसूस होगा कि उन्होंने क्यों ये फिल्म की। फिल्म में छोटी-छोटी भूमिकाओं में कई दमदार कलाकार हैं, लेकिन सबकी प्रतिभा का उपयोग नहीं हो सका है। श्रद्धा कपूर को एक गाने में फिट किया गया है ताकि फिल्म में ताजगी महसूस हो, लेकिन ऐसा नहीं हो सकता है।
उंगली की एक ही बात अच्छी है कि इसकी अवधि दो घंटे से कम है।
बैनर : धर्मा प्रोडक्शन्स
निर्माता : करण जौहर, हीरू यश जौहर
निर्देशक : रेंसिल डिसिल्वा
संगीत : सलीम-सुलेमान, सचिन-जिगर, गुलराज सिंह, असलम केई
कलाकार : इमरान हाशमी, कंगना रनौट, संजय दत्त, नेहा धूपिया, रणदीप हुडा, अंगद बेदी, नील भूपलम, अरुणोदय सिंह, श्रद्धा कपूर (आइटम नंबर), रजा मुराद, रीमा लागू, महेश मांजरेकर
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 1 घंटा 54 मिनट 18 सेकंड
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रिव्यू: सूरमा की कहानी शुरू होती है सन् 1994 के शाहाबाद से, जिसे देश की हॉकी की राजधानी माना जाता था। यह एक छोटा सा कस्बा है, जहां ज्यादातर लोगों का बस यही सपना है कि वह भारतीय हॉकी टीम का हिस्सा बनें। लगभग सभी बच्चे, चाहे वह लड़की हो या लड़का इसी सपने को पाने की दौड़ में शामिल हैं।युवा संदीप सिंह (दिलजीत दोसांझ) भी इन्हीं लोगों में से एक है, लेकिन स्ट्रिक्ट कोच के कारण उनकी हिम्मत जवाब दे जाती है और वह हॉकी से पल्ला झाड़ लेते हैं। टीनेज तक उनकी जिंदगी से हॉकी गायब रहता है, लेकिन फिर उनके जीवन में हरप्रीत (तापसी पन्नू) की एंट्री होती है, जिससे संदीप को प्यार हो जाता है। हरप्रीत फिर से संदीप में हॉकी के लिए जज्बा पैदा करती है और उसे आगे बढ़ते रहने और खुद को बेहतर बनाने के लिए प्रेरित करती है। इससे एक बार फिर हॉकी प्लेयर बनना संदीप के लिए जीवन का मकसद बन जाता है। लेखक-निर्देशक शाद अली ने फिल्म के फर्स्ट हाफ में संदीप सिंह के हॉकी प्लेयर बनने की कहानी को दिखाया है, हालांकि, उन्होंने इसमें कस्बे के छोटे-छोटे लम्हों और लीड पेयर के रोमांस को जोड़कर कहानी को बोझिल नहीं होने दिया। इंटरवल से पहले कहानी सीरिअस मोड़ ले लेती है, जो आपको भावुक कर देती है। 'उड़ता पंजाब' में दिलजीत की ऐक्टिंग को सराहा गया था, लेकिन ''सूरमा'' में उन्होंने जैसा अभिनय किया है वह बेहतरीन है। वह अपने किरदार के हर भाव और लम्हे को जीते और जीवंत करते दिखाई देते हैं। फिल्म में उनकी हॉकी की स्किल्स तारीफ के काबिल दिखती हैं, लेकिन उन्होंने जिस तरह से अपने किरदार को समझा और पर्दे पर जिया, वह सबसे ज्यादा प्रभावित करता है। तापसी पन्नू हमेशा की तरह ऐक्टिंग के मामले में अपना बेस्ट देती दिखीं, लेकिन उनका किरदार फिल्म के ट्रैक को स्लो करता है। सपोर्टिंग कास्ट के रूप में अंगद बेदी जिन्होंने दिलजीत के बड़े भाई का किरदार निभाया है, शानदार अभिनय करते नजर आए हैं। उन्होंने अपने किरदार को बखूबी पर्दे पर दिखाया है। कुलभूषण खरबंदा और सतिश कौशिक की ऐक्टिंग भी अच्छी है। फिल्म में कई गानें हैं, लेकिन कोई भी गाना इंप्रेस नहीं कर पाता।देखिए, 'सूरमा' देखने के बाद क्या बोले लोग नैशनल हॉकी टीम के कैप्टन, अर्जुन अवॉर्ड विनर और एक शख्स जिसे गलती से गोली मार दी गई और फिर भी उसने वापसी की, उसकी कहानी बायॉपिक के रूप में पर्दे पर उतारने के कई फायदे हैं। हालांकि, शाद अली ने जिस तरह से कहानी को दिखाया है, उसमें सिनेमा के लिए जरूरी ड्रामा और सॉलिड सब्जेक्ट मिसिंग दिखता है। फिल्म में हॉकी गेम से जुड़े कई सीन है पर इनमें से कोई भी आपको थ्रिल महसूस नहीं करवाता। SOORMA in Cinemas 🤩🍿 A post shared by Diljit Dosanjh (@diljitdosanjh) on Jul 19, 2018 at 9:15pm PDT क्यों देखें: दिलजीत दोसांझ की ऐक्टिंग के शौकीन हैं तो फिल्म जरूर देखें तापसी पन्नू और दिलजीत की कैमिस्ट्री देखने लायक खेल पर बनी बायॉपिक के चाहने वालों के लिए अच्छी फिल्मतो अगर आप यह जानना चाहते हैं कि संदीप सिंह की जिंदगी में कब, क्यों, कैसे और क्या हुआ तो ''सूरमा'' फिल्म आपके लिए है। यह दिल से जुड़ी एक कहानी है, जो आपके दिल को जीत सकती है। यह फिल्म आपको सच्चाई दिखाती है, लेकिन कहानी में रोमांच की कमी इसे कमजोर बनाती है। Day 1 Rs 3.25 करोड़ Day 2 Rs 4.75 करोड़ Day 3 Rs 5.25 करोड़ Day 4 Rs 2 करोड़ Day 5 Rs 1.85 करोड़ कुल Rs 17.10 करोड़ | 1 |
कई किस्म के 'फोबिया' होते हैं और प्रत्येक व्यक्ति को कुछ न कुछ फोबिया रहता है। पवन कृपलानी की फिल्म 'फोबिया' की नायिका महक (राधिका आप्टे) को एगोराफोबिया है। इस फोबिया से ग्रस्त इंसान को अनजान एवं खुली या सार्वजनिक जगहों पर जाने से डर का एहसास होता है।
महक के साथ एक टैक्सी ड्राइवर ने लूटपाट की थी और उसके बाद वह घर से बाहर निकलने में ही डरने लगी। उसका दोस्त/ बॉयफ्रेंड शान (सत्यदीप मिश्रा) उसका इलाज करवाता है पर कोई फायदा नहीं होता। शान अपने दोस्त के फ्लैट में महक को ले जाता है ताकि जगह बदलने से महक का डर कम हो, लेकिन यह दांव उल्टा पड़ जाता है। घर में सुरक्षित महसूस करने वाली महक को घर में ही डर लगने लगता है। उसे तरह-तरह की चीजें नजर आती हैं और स्थिति बद से बदतर हो जाती है।
पवन कृपलानी द्वारा लिखी कहानी बहुत ही संक्षिप्त है और यहां पर सारा दारोमदार स्क्रिप्ट और निर्देशक पर टिका हुआ है। ऐसे सीन रचने होते हैं जो भले ही कहानी को आगे नहीं बढ़ाए, लेकिन दर्शकों को बांध कर रखे। यहां पात्र भी बहुत कम हैं, लेकिन पवन ने अपना काम बखूबी किया है।
पहले हाफ में वे दर्शकों को बांध कर रखते हैं। कुछ दृश्यों में रोमांच पैदा होता है तो कुछ में डर लगता है। बिना तेज आवाजों, अंधेरे और खतरनाक चेहरों के दर्शकों को चौंकाया और रोमांचित किया गया है। साथ ही दर्शकों की इस उत्सुकता को बरकरार रखा है कि आगे क्या होने वाला है।
दूसरे हाफ में जरूर फिल्म थोड़ी लंबी खींची गई है, लेकिन फिल्म के अंतिम 15 मिनट जबरदस्त हैं। कहानी यू टर्न लेती है और आप सीट से चिपक जाते हैं।
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पवन कृपलानी का निर्देशन उम्दा है और फिल्म पर उनकी पकड़ है। एगोराफोबिया थीम का उन्होंने अच्छा इस्तेमाल किया है। एक रोमांच से भरी कहानी को उन्होंने उम्दा तरीके से परदे पर पेश किया है। उन्होंने दर्शकों को चौंकाने के लिए कुछ अतिरिक्त करने की कोशिश नहीं की है। सीमित पात्रों में बोरियत का खतरा भी पैदा होता है, लेकिन पवन इससे अपनी फिल्म को बचा कर ले गए। उनकी सबसे बड़ी सफलता यह रही कि पूरी फिल्म में वे दर्शकों को जोड़े रखने में सफल रहे हैं।
स्क्रिप्ट में सबसे बड़ी खामी यह है कि जब महक को डर लगता है तो उसे अकेला रखा ही क्यों जाता है? जब उसका इलाज चल रहा होता है तो उसके पास में चाकू क्यों रखा जाता है?
तकनीक रूप से फिल्म बहुत मजबूत है। करण गौर के बैकग्राउंड म्युजिक का उम्दा इस्तेमाल किया गया है। जरूरी नहीं है कि तेज आवाज से ही डर पैदा होता है, पानी टपकने या चीजों के गिरने की आवाज भी भय पैदा करती है। वातावरण में पैदा होने वाली ध्वनियों, जैसे दूर कहीं बजता गाना या दूर के फ्लैट से आती आवाजों से अच्छा माहौल बनाया गया है।
जयकृष्णा गुम्माडी की सिनेमेटोग्राफी उम्दा है और फिल्म को गहराई देती है। पूजा लड्ढा सुरती का संपादन तारीफ के योग्य हैं।
इस फिल्म का सबसे बड़ा प्लस पाइंट है इसके कलाकारों का अभिनय। राधिका आप्टे ने कमाल का अभिनय किया है। एगोराफोबिया से ग्रस्त लड़की का भय उन्होंने बखूबी दिखाया है। उनकी बड़ी-बड़ी आंखें खूब बोलती हैं। हर दृश्य में उनका दबदबा नजर आता है। सत्यदीप मिश्रा अपने अभिनय से प्रभावित करते हैं। महक की पड़ोसी के रूप में यशस्विनी का अभिनय भी उम्दा है।
साइकोलॉजिकल थ्रिलर 'फोबिया' देखने के बाद आप महसूस कर सकते हैं कि आपने एक अधपकी कहानी पर आधारित फिल्म देखी है, लेकिन इस बात की तसल्ली होती है कि फिल्म ने आपको रोमांचित किया है।
बैनर : इरोस इंटरनेशनल, नेक्स्ट जेन फिल्म्स प्रोडक्शन
निर्देशक : पवन कृपलानी
कलाकार : राधिका आप्टे, सत्यदीप मिश्रा, यशस्विनी, अंकुर विकल
सेंसर सर्टिफिकेट : ए
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बैनर :
प्रकाश झा प्रोडक्शन्स
निर्माता-निर्देशक :
प्रकाश झा
कलाकार :
अजय देवगन, रणबीर कपूर, कैटरीना कैफ, अर्जुन रामपाल, मनोज वाजपेयी, नसीरुद्दीन शाह, नाना पाटेक
र,
साराह थॉम्पस
न
यू/ए * 2 घंटे 49 मिनट
समाज की तमाम बुराइयों को प्रकाश झा ने तीखे तेवरों के साथ अपनी फिल्मों में प्रस्तुत किया है और अपनी आवाज उठाई है। पिछली कुछ फिल्मों के जरिये उन्होंने अपने काम का स्तर लगातार ऊपर उठाया है, लेकिन ‘राजनीति’ में वे उस स्तर तक पहुँच नहीं पाए हैं।
झा को राजनीति में गहरी रुचि है, इसलिए अपेक्षाएँ बहुत ज्यादा होना स्वाभाविक है। उम्मीद थी वे राजनीति के नाम पर होने वाले काले कारनामों को अपने नजरिए से पेश करेंगे, लेकिन यह कुर्सी को लेकर दो परिवारों के बीच हुए विवाद की बनकर कहानी रह गई। कहने का यह मतलब नहीं है कि ‘राजनीति’ बुरी फिल्म है, लेकिन यह झा
की पिछली फिल्मों क
े स्तर
तक नहीं पहुँच पाई है
।
महाभारत के किरदारों को आधुनिक राजनीति से जोड़कर प्रकाश झा ने ‘राजनीति’ बनाई है। महाभारत में धर्म बनाम अधर्म की लड़ाई थी, लेकिन अब ‘पॉवर’ के लिए लड़ने वाले लोग किसी कानून-कायदे को नहीं मानते हैं। वे इसे हासिल करने के लिए कुछ भी कर-गुजरने को तैयार हैं और जीत से कम उन्हें स्वीकार्य नहीं है। इस बात को झा ने दिखाने की कोशिश की है। लेकिन मूल कहानी पर दो परिवारों का विवाद इतना भारी हो गया है कि मध्यांतर के बाद कहानी गैंगवार की तरह हो गई।
क्षेत्रीय पार्टी का अध्यक्ष बीमार होकर पार्टी की बागडोर जब अपने भाई (चेतन पंडित) और उसके बेटे पृथ्वी (अर्जुन रामपाल) को सौंपता है तो यह बात उसके बेटे वीरेन्द्र (मनोज बाजपेयी) को पसंद नहीं आती। वह अपने चचेरे भाई पृथ्वी के खिलाफ आवाज भी उठाता है, लेकिन अकेला पड़ जाता है।
दलित और राजनीति में कुछ कर गुजरने की चाह लिए हुए सूरज (अजय देवगन) से वीरेन्द्र की मुलाकात होती है। कुछ मुद्दों को लेकर सूरज की पृथ्वी से अनबन है, इस बात का फायदा वीरेन्द्र उठाता है और उसे अपने साथ जोड़ लेता है।
कुछ दिनों में चुनाव होने वाले हैं। पृथ्वी के पिता को भावी मुख्यमंत्री के तौर पर पेश किया जाता है, लेकिन उनकी हत्या हो जाती है। विदेश में रहने वाला समर (रणबीर कपूर) अपने भाई की मदद के लिए भारत में ही
रूक
जाता है। इन दोनों भाइयों को अपने मामा ब्रजगोपाल (नाना पाटेकर) पर बेहद भरोसा है, जो राजनीति के अनुभवी खिलाड़ी हैं।
पृथ्वी को वीरेन्द्र षड्यंत्र के जरिये पार्टी से निष्काषित करवा देता है, लेकिन पृथ्वी हार नहीं मानता। वह अपने भाई के साथ नई पार्टी बनाकर वीरेन्द्र और सूरज की पार्टी के खिलाफ चुनाव लड़ता है। यह लड़ाई धीरे-धीरे इतनी हिंसक हो जाती है कि दोनों परिवारों को इसका नुकसान उठाना पड़ता है। इस कहानी के साथ-साथ इंदु (कैटरीना कैफ) और समर की प्रेम कहानी भी है, जिसमें समर को इंदु चाहती है, लेकिन समर किसी और की चाहत में गिरफ्त है।
कजिन ब्रदर्स के विवाद के जरिये प्रकाश झा ने दिखाने की कोशिश की है कि सत्ता के मद में लोग अंधे हो गए हैं, उनका इतना नैतिक पतन हो गया है कि भाई, भाई की हत्या कर देता है, एक पिता अपनी बेटी के प्यार को अनदेखा कर उस इंसान से उसकी शादी करवा देता है जो मुख्यमंत्री बनने वाला है, एक प्रेमी अपनी प्रेमिका को ठुकराकर उस लड़की से शादी के लिए तैयार हो जाता है जिसका पिता पार्टी के लिए भारी-भरकम राशि बतौर चंदे के देता है और टिकट पाने के लिए एक महिला किसी के साथ भी हमबिस्तर होने के लिए तैयार है।
प्रकाश झा ने महाभारत से प्रेरित कहानी को बेहतरीन तरीके से पेश किया है और फिल्म फिल्म के लंबी होने के बावजूद रुचि बनी रहती है। हर कैरेक्टर पर उन्होंने मेहनत की है। श
ुर
ुआत में इतने सारे कैरेक्टर्स देख समझने में तकलीफ होती है कि कौन क्या है, लेकिन धीरे-धीरे स्थिति स्पष्ट होती जाती है और उन किरदारों में हमें अर्जुन, कर्ण, युधिष्ठिर, कृष्ण, दुर्योधन, धृतराष्ट्र नजर आने लगते हैं।
रियलिस्टिक फिल्म बनाने वाले फिल्मकार प्रकाश झा ने इस बार कमर्शियल पहलूओं पर भी ध्यान दिया है और कुछ सीन इस तरह गढ़े हैं जो मसाला फिल्म देखने वाले दर्शकों को अच्छे लगते हैं। भले ही इसके लिए उन्हें वास्तविकता से दूर होना पड़े। यह बात उनकी फिल्म पसंद करने वालों को अखर सकती है।
अधिकांश कलाकार मँजे हुए हैं और हमें बेहतरीन अभिनय देखने को मिलता है। अजय देवगन की आँखें सुलगती हुई लगती हैं, जो उनके आक्रोश को अभिव्यक्त करती हैं। रणबीर कपूर ने एक कूल और शातिर किरदार को बेहतरीन तरीके से अभिनीत कर अपने अभिनय की रेंज दिखाई है। मनोज बाजपेयी दहाड़ते हुए शेर की तरह लगे हैं जिसे किसी भी कीमत पर वो सब चाहिए जो वह चाहता है।
नाना पाटेकर ने उस इंसान को उम्दा तरीके से जिया है जो हँसते हुए खतरनाक चाल चल जाता है। अर्जुन रामपाल की सीमित अभिनय प्रतिभा कुछ दृश्यों में उजागर हो जाती है। कैटरीना भी कई जगह असहज नजर आती हैं। नसीरुद्दीन शाह छोटे-से रोल में प्रभाव छोड़ते हैं।
भीगी सी और मोरा पिया गीत सुनने लायक हैं, लेकिन फिल्म में इन्हें ज्यादा जगह नहीं मिल पाई है। ‘राजनीति में मुर्दों को जिंदा रखा जाता है ताकि वक्त आने पर वो बोल सके’ और ‘राजनीति में कोई भी फैसला सही या गलत नहीं होता बल्कि अपने उद्देश्य को सफल बनाने के लिए लिया जाता है’ जैसे कुछ उम्दा संवाद भी सुनने को मिलते हैं।
भले ही यह प्रकाश झा की पिछली फिल्मों के मुकाबले कमतर हो, लेकिन देखी जा सकती है।
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डार्क और गालियों से भरपूर फिल्म बनाने वाले निर्देशक अनुराग कश्यप ने इस बार थोड़ा मिजाज बदला है। 'मुक्काबाज' में गालियां सुनने को नहीं मिली और एक प्रेम कहानी भी उनकी फिल्म में दिखाई देती है। मुक्केबाज की बजाय मुक्काबाज नाम क्यों है, यह फिल्म में एक दृश्य के माध्यम से दिखाया गया है।
फिल्म की कहानी परिचित सी लगती है। एक खिलाड़ी को किस तरह से राजनीतिक ताकतें रोकती हैं और उत्तर प्रदेश में गुंडागर्दी किस स्तर तक पहुंच गई है ये फिल्मों में कई बार दर्शाया जा चुका है। इस चिर-परिचित कहानी को अलग बनाता है अनुराग कश्यप का प्रस्तुतिकरण। उन्होंने खेल और राजनीति को आपस में गूंथ कर अपनी नजर से कहानी को दिखाया है।
यह कहना मुश्किल है कि प्रेम कथा की पृष्ठभूमि में बॉक्सिंग और राजनीति है या राजनीति और बॉक्सिंग की पृष्ठभूमि में प्रेम कहानी। इसे अनुराग का कमाल भी मान सकते हैं कि उन्होंने बढ़िया संतुलन बनाए रखा।
श्रवण सिंह (विनीत कुमार सिंह) बॉक्सर के रूप में नाम कमाना चाहता है और इसके लिए वह भ्रष्ट नेता भगवान दास मिश्रा (जिमी शेरगिल) की सेवा में जुटा रहता है क्योंकि बॉक्सिंग फेडरेशन में भगवान की तूती बोलती है। भगवान की भतीजी सुनयना (ज़ोया हुसैन) को श्रवण चाहने लगता है। सुनयना भी उसे पसंद करती है।
भगवान दास के व्यवहार के कारण श्रवण उससे पंगा ले लेता है तो भगवान दास भी कसम खा लेता है कि खिलाड़ी के रूप में वह श्रवण का करियर बरबाद कर देगा। जब भगवान दास को सुनयना और श्रवण की मोहब्बत के बारे में पता चलता है तो उसका गुस्सा और बढ़ जाता है। इसके बाद श्रवण और सुनयना का जीना भगवान दास मुश्किल कर देता है।
इस कहानी में कई मुद्दों को समेटा गया है। जातिवाद, खेलों में राजनीति, गुंडागर्दी, गौ-रक्षा के नाम पर हत्याएं, गौ-मांस को लेकर राजनीति, खेल में बाहुबलियों का प्रवेश, नौकरी में खिलाड़ियों की स्थिति जैसी बातों को फिल्म में जोरदार तरीके से दिखाया गया है।
श्रवण जितना बॉक्सिंग के रिंग में लड़ता है उससे ज्यादा लड़ाई उसे रिंग से बाहर लड़ना पड़ती है। एक साथ दो मोर्चों पर लड़ते हुए उसके दर्द और झल्लाहट को निर्देशक ने इस तरह से पेश किया है कि दर्शक इसको महसूस कर सकते हैं।
इसके साथ ही यह भी दिखाया गया है कि लाख कोशिशों के बावजूद भी जातिवाद की ज़हरीली लहर अभी भी चल रही है। दलित को अभी भी अलग जग या गिलास में पानी पिलाया जाता है। नाम से ज्यादा सरनेम को महत्व मिलता है। गाय के नाम पर खूब राजनीति चल रही है।
फिल्म की नायिका को गूंगा दिखाया गया है जो उस इलाके की महिलाओं की स्थिति को बयां करती है। महिलाओं को कुछ भी बोलने का अधिकार नहीं है। ये सारी बातें कई छोटे-छोटे दृश्यों के जरिये दिखाई गई है।
इंटरवल तक तो फिल्म फर्राटे से चलती है और परदे पर चल रहा घटनाक्रम आपको बैचेन करता है। कुछ बेहतरीन सीन भी देखने को मिलते हैं, जैसे श्रवण और उसके पिता की नोकझोंक। एक आम पिता की तरह वे परेशान रहते हैं कि बेटे की नौकरी लगे और श्रवण की झटपटाहट कि वह कोशिश तो कर रहा है। अपने पिता को वह खूब सुनाता है।
इंटरवल के बाद कई जगह महसूस होता है कि फिल्म को लंबा खींचा जा रहा है। 'मुक्काबाज' एक रूटीन फिल्म की तरह कई जगह हो जाती है। आसानी से फिल्म को 20 मिनट छोटा किया जा सकता था।
अनुराग कश्यप अपने निर्देशन से प्रभावित करते हैं। एक साधारण सी कहानी को उन्होंने अपने निर्देशन के जरिये शानदार तरीके से पेश किया है। कई मुद्दों पर उन्होंने पंच लगाए हैं, कुछ हवा में गए हैं तो कुछ चेहरे पर जोरदार तरीके से लगे हैं। रियल लोकेशन पर उन्होंने फिल्म को शूट किया है जो फिल्म को ताकत देता है।
अनुराग ने कलाकारों से बेहतरीन अभिनय लिया और कई दृश्यों को आक्रामकता के साथ पेश किया है। 'आइटम बॉय' के प्रति उनका आकर्षण कायम है और नवाजुद्दीन सिद्दीकी से एक गाना उन्होंने कराया है। गानों का फिल्म में अच्छा उपयोग किया गया है। श्रवण और सुनयना की प्रेम कहानी को भी उन्होंने बखूबी दर्शाया है। सेकंड हाफ में जरूर उनके हाथों से फिल्म कई बार फिसली है और इसकी वजह से ठहरी हुई सी महसूस होती है।
विनीत सिंह ने तो ऐसे अभिनय किया मानो इसी रोल के लिए वे पैदा हुए हों। बॉक्सर जैसी फिजिक उन्होंने बनाई है और उनके बॉक्सिंग वाले सारे दृश्य असली लगते हैं। उनके अभिनय की त्रीवता देखने लायक है। उनके अंदर धधकती आग की आंच महसूस होती है।
ज़ोया हुसैन का किरदार गूंगा है, लेकिन वे अपनी आंखों और चेहरे के एक्सप्रेशंस के जरिये कई बातें बोल जाती हैं। जिमी शेरगिल अब इस तरह के रोल में टाइप्ड हो गए हैं। हालांकि उनका अभिनय देखने लायक है। रवि किशन छोटे-से रोल में अपनी प्रभावी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। उनका रोल लंबा होता, ऐसा महसूस होता है। अन्य सारे सपोर्टिंग एक्टर्स का योगदान भी तारीफ के काबिल है।
रचिता अरोरा का संगीत फिल्म के मूड के अनुरूप है। उनके गानों से फिल्म आगे बढ़ती है और सारे गाने सिचुएशनल हैं।
बैनर : इरोस इंटरनेशनल, फैंटम फिल्म्स, कलर येलो प्रोडक्शन्स
निर्माता : आनंद एल. राय, अनुराग कश्यप, मधु मंटेना, विक्रमादित्य मोटवाने
निर्देशक : अनुराग कश्यप
संगीत : रचिता अरोरा
कलाकार : विनीत कुमार सिंह, ज़ोया हुसैन, जिमी शेरगिल, रवि किशन, साधना सिंह, नवाजुद्दीन सिद्दीकी (कैमियो)
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 35 मिनट 28 सेकंड
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इन दो सीक्वेंसेस को देखने के बाद आप महूसस कर लेते हैं कि अगले कुछ घंटे टार्चर होने वाला है और आपकी इस 'उम्मीद' को निर्देशक उमंग कुमार बिलकुल भी नहीं तोड़ते। उमंग कुमार ने 'मैरी कॉम' जैसी बेहतरीन फिल्म बनाई थी, लेकिन 'भूमि' जैसी सी-ग्रेड फिल्म देखने के बाद लगता है कि कहीं 'मैरीकॉम' पर उनका नाम तो चस्पा नहीं कर दिया था।
भूमि एक रिवेंज ड्रामा है। बेटी से बलात्कार होता है। बाप कानून की शरण में जाता है, लेकिन अपराधी सबूतों के अभाव में छूट जाते हैं। फिर बाप-बेटी कानून अपने हाथ में लेकर बलात्कारियों को सबक सिखाते हैं। कुछ महीने पहले इसी तरह की कहानी 'काबिल' में देखने को मिली थी, जो लचर फिल्म थी, लेकिन 'भूमि' तो इस मामले में और आगे (या पीछे?) निकल गई।
जूते-चप्पल बेचने की दुकान वाला अरुण सचदेवा (संजय दत्त) अपनी बेटी भूमि (अदिति राव हैदरी) के साथ रहता है। भूमि को एक लड़का चाहता है, लेकिन वह उसे पसंद नहीं करती। भूमि की शादी एक डॉक्टर से तय हो जाती है। शादी के ठीक एक दिन पहले वह लड़का अपने दो अन्य साथियों के साथ भूमि का बलात्कार करता है। इस कारण भूमि की शादी टूट जाती है। भूमि को वे जान से मारने की कोशिश भी करते हैं, लेकिन भूमि बच जाती है। अदालत में भूमि हार जाती है और इसके बाद बदले की अपनी कहानी शुरू होती है।
इस तरह की कहानी पर तीस-चालीस साल पहले फिल्म बना करती थी और इस घटिया कहानी पर आज के दौर में फिल्म बनाना 'साहस' का काम है। फिल्म में आगे क्या होने वाला है, गेम खेला जाए तो हर बार आप जीतेंगे।
स्क्रीनप्ले में भी खामियां हैं। भूमि शादी के ठीक एक दिन पहले कुछ घंटों के लिए गायब हो जाती है, लेकिन उसकी कोई खोज खबर नहीं ली जाती। पहली बार उसके साथ नशे की हालत में बलात्कार किया जाता है और ये दरिंदे कौन है उसे याद नहीं रहते, लेकिन विलेन इतने मूर्ख कि उसके सामने दोबारा आ जाते हैं कि ले हमको पहचान ले।
जिन्होंने ये सोच कर संजय दत्त के नाम पर टिकट खरीद ली कि 'बाबा' खूब मारामारी करेगा, वे भी निराश होते हैं। फिल्म के 80 प्रतिशत हिस्से में संजय हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते हैं। फिर आखिरी में अपराधियों को सबक सिखाते हैं और वे यह सब आसानी से कर लेते हैं। अचानक दादागिरी दिखाने वाले दरिंदे संजू बाबा को देख थर-थर कांपने लगते हैं। कहने की बात यह है कि सब कुछ लेखक की मर्जी से चलता है।
निर्देशक के रूप में उमंग कुमार बिलकुल प्रभावित नहीं करते। उनका सारा ध्यान सिर्फ इस बात पर रहा कि सीन कैसे खूबसूरत लगे, भले ही लॉजिक हो या न हो। मसलन भूमि को झाड़ियों में टार्च लेकर लोग खोजते हैं। परदे पर सीन अच्छा लगता है, लेकिन एक जैसी टॉर्च लेकर सब आसपास ढूंढते रहते हैं कि उनकी समझ पर तरस आता है। भूमि को याद करते हुए उसके पिता घर में जमीन पर रोते हैं। उनके आसपास सूखी पत्तियां दिखती हैं। निर्देशक ने यह सूखी पत्तियों को पिता की हालत से जोड़ने की कोशिश की है, लेकिन सूखी पत्तियां आई कहां से? इसका कोई जवाब नहीं है।
फिल्म कई बार पिछड़ी मानसिकता को दिखाती है, खासतौर महिलाओं के बारे में। इस तरह के संवाद और दृश्यों से बचना चाहिए था। 'लड़कियों के पिता तो गूंगे होते हैं' जैसे संवादों से आखिर क्या साबित करने की कोशिश की गई है।
संजय दत्त ने अपनी वापसी के लिए इस फिल्म को चुना है, जो दर्शाता है कि उन्होंने कभी सोच समझ कर फैसले नहीं किए हैं। वे थके हुए लगे। फिल्म में एक जगह उन्हें कसरत करते दिखाया गया है, ताकि अंत में उनकी फाइटिंग को जस्टिफाई किया जा सके, लेकिन बात नहीं बन पाई। इमोशनल और कॉमेडी संजय कभी नहीं कर पाए और यहां भी उनकी यही कमी बरकरार रही।
अदिति राव हैदरी का काम ठीक-ठाक रहा, लेकिन उनके किरदार को ठीक से उभरने नहीं दिया। शरद केलकर सब पर भारी रहे और खलनायक के रूप में अपनी छाप छोड़ने में सफल रहे। शेखर सुमन निराश करते हैं। संगीत के मामले में भी फिल्म कमजोर है।
कुल मिलाकर 'भूमि' देखना समय और पैसे की बरबादी है।
बैनर : टी-सीरिज सुपर कैसेट्स इंडस्ट्री लि., लीजैण्ड स्टुडियोज़
निर्माता : भूषण कुमार, संदीप सिंह, कृष्ण कुमार
निर्देशक : उमंग कुमार
संगीत : सचिन जिगर
कलाकार : संजय दत्त, अदिति राव हैदरी, शेखर सुमन, शरद केलकर, सनी लियोन (आइटम नंबर)
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 14 मिनट 39 सेकंड
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बैनर :
सारेगामा-एचएमवी
निर्माता :
मधु मंटेना
निर्देशक :
अब्बास टायरवाला
संगीत :
ए.आर. रहमान
कलाकार :
जॉन अब्राहम, पाख
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यू/ए सर्टिफिकेट * 17 रील * 2 घंटे 29 मिनट
‘झूठा ही सही’ का सबसे बड़ा माइनस पाइंट इसकी हीरोइन पाखी है। जब आप कमर्शियल फार्मेट को ध्यान में रखकर लव स्टोरी बना रहे हैं तो हीरोइन का सुंदर होना जरूरी होता है। नि:संदेह पाखी ने अच्छी एक्टिंग की है, लेकिन उनमें हीरोइन मटेरियल नहीं है। वे हीरोइन की परिभाषा पर खरी नहीं उतरती और उम्र भी उनकी कहीं ज्यादा है।
पाखी के पति अब्बास टायरवाला भी कम दोषी नहीं हैं। एक तो उन्होंने पाखी को हीरोइन बनाया और दूसरा ये कि कहानी को इतना ज्यादा खींचा गया कि फिल्म देखते-देखते ऊब होने लगती है और थकान चढ़ने लगती है। इस फिल्म को कम से कम एक घंटा कम किया जा सकता है क्योंकि कई दृश्य लगातार दोहराए गए हैं।
सिद्धार्थ (जॉन अब्राहम) की ‘कागज के फूल’ नाम से लंदन में एक बुक शॉप है। स्मार्ट सी लड़की से बात करते हुए वह हकलाने लगता है (बड़ी अजीब प्राब्लम है)। एक रात सुसाइड हेल्पलाइन के फोन गलती से सिड के फोन पर आने लगते हैं, जिसमें मिष्का (पाखी) का फोन भी रहता है।
मिष्का को उसके प्रेमी कबीर (माधवन) ने धोखा दे दिया है और वह आत्महत्या करने की सोच रही है। सिड उसे समझाता है और बातों ही बातों में अपने बारे में कई झूठ बोल देता है। मिष्का को उससे बात करना अच्छा लगता है और वह उसे फिदातो कहकर बुलाती है।
इसी बीच सिड की मुलाकात मिष्का से होती है और वह उसे चाहने लगता है। मिष्का भी उसे पसंद करती है और उसके बारे में हेल्पलाइन पर फिदातो से बातें भी करती है। उसे नहीं पता रहता कि फिदातो और सिड वास्तव में एक ही इंसान है। किस तरह सिड का राज खुलता है और मिष्का पर क्या गुजरती है, यह फिल्म का सार है।
इस कहानी के साइड में दूसरे ट्रेक्स भी हैं, कुछ मजेदार हैं तो कुछ बोर। सिड के दोस्तों वाला ट्रेक मनोरंजक है। ऐसा लगता है कि अब्बास टायरवाला ने अपनी पिछली फिल्म ‘जाने तू...या जाने ना’ के किरदारों को यहाँ भी फिट कर दिया है। मस्तमौला किस्म के इंसान। खाना-पीना और मौज करना। धर्म, जात-पात जैसी बातों से दूर। लिबास के साथ-साथ विचारों में भी आधुनिक।
सिड का एक दोस्त पाकिस्तानी है और हिंदुस्तान-पाकिस्तान को लेकर कुछ मनोरंजक संवाद हैं। इसी तरह उनके दोस्तों में ‘गे’ भी शामिल हैं, जिसे वे बिलकुल भी हिकारत की नजर से नहीं देखते हैं। दोस्तों के बीच के कुछ दृश्य और संवाद बेहतरीन बन पड़े हैं।
निर्देशक अब्बास टायरवाला का प्रस्तुतिकरण बहुत ज्यादा बनावटी और नकली है। इससे किरदार और दर्शकों में कोई तारतम्य स्थापित नहीं होता। दर्शकों को हँसाने की कोशिश साफ नजर आती है।
फिल्म का पहला हाफ बेहद धीमा है। इंटरवल के बाद फिल्म में थोड़ी पकड़ आती है, लेकिन क्लाइमैक्स में फिर कमजोर हो जाती है। सिड को मिष्का ब्रिज तक पहुँचने के लिए सिर्फ दस मिनट ही क्यों देती है? शायद जबरदस्ती की भागमभाग दिखाने के लिए यह ड्रामा किया गया।
अभिनय के लिहाज से ये जॉन अब्राहम का सबसे बेहतरीन परफॉर्मेंस है। पहली बार बजाय अपने डील-डौल के उन्होंने अभिनय से प्रभावित किया है, हालाँकि हकलाते हुए उन्होंने कई बार ओवरएक्टिंग भी की है।
सिड के दोस्तों के रूप में मानसी स्कॉट और रघु राम का अभिनय बेहतरीन है। माधवन का किरदार बहुत ही घटिया तरीके से लिखा गया है और वे बिलकुल भी नहीं जमे। नंदना सेन भी छोटे-से रोल में नजर आईं।
संगीतकार के रूप में एआर रहमान निराश करते हैं। गीत के बोल अच्छे हैं, लेकिन ‘क्राय क्राय’ को छोड़ दिया जाए तो अन्य गीतों की धुनें औसत दर्जे की है। बैकग्राउंड म्यूजिक जरूर उम्दा है। लंदन में इस फिल्म को खूबसूरती से फिल्माया गया है।
कुल मिलाकर ‘झूठा ही सही’ लंबी और उबाऊ फिल्म है।
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Chandermohan.sharma@timesgroup.com बॉलिवुड में रेमो डिसूजा की पहचान बतौर कोरियॉग्राफ़र लंबे अर्से से बनी हुई है। रेमो इंडस्ट्री के बेहतरीन चंद उन कोरियॉग्राफ़र्स की लिस्ट में शामिल हैं, जिन्होंने ग्लैमर इंडस्ट्री के नामी स्टार्स को अपने इशारों पर नचाया है, वहीं अगर रेमो के निर्देशन में बनी उनकी पहली फिल्म 'फालतू' की बात की जाए तो अरशद वारसी, जैकी भगनानी स्टारर इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर बेशक कुछ खास कमाल नहीं किया। वहीं, रेमो की पिछली दोनों फिल्में 'एबीसीडी' और इस फिल्म के सीक्वल जरूर टिकट खिड़की पर हिट रहे। इस फिल्म में रेमो ने एक सुपरहीरो को सिल्वर स्क्रीन पर पेश किया। फिल्म की रिलीज से पहले रेमो ने माना था कि बॉलिवुड में सुपरहीरो पर फिल्म बनाने से हर कोई कतराता है, क्योंकि ऐसी फिल्म की तुलना दर्शक, क्रिटिक्स और ट्रेड वाले हॉलिवुड फिल्मों के साथ करते हैं, लेकिन यह भूल जाते हैं कि हॉलिवुड में बनी सुपरहीरो वाली फिल्मों के मुकाबले हमारी फिल्मों का बजट 10-20 फीसदी से भी कम होता है, लेकिन मैंने इसके बावजूद सुपरहीरो के इर्द-गिर्द घूमती इस फिल्म को बनाने का फैसला किया। फिल्म में ऐसे कई सीन हैं जो बच्चों की पसंद को ध्यान में रखकर फिल्म में रखे गए। शायद यही चंद सीन ही बॉक्स ऑफिस पर फिल्म का सबसे बडा प्लस पॉइंट साबित हो सकते हैं। NBT को और बेहतर बनाने के लिए सर्वे में हिस्सा लें, यहां क्लिक करें। कहानी: पंजाब के किसी शहर के बीचोबीच बसी करतार सिंह कॉलोनी ऐसी कॉलोनी है जो शहरों में तेजी से फैल रहे वायु प्रदूषण से कोसो दूर हरियाली और प्राकृतिक सौंदर्य के बीच बसी है। इसी कॉलोनी में अमन (टाइगर श्रॉफ) अपनी मां बेबो (अमृता सिंह) के साथ रहता है। इस कॉलोनी को अमन के पिता ने अपनी पुश्तैनी जमीन पर बसाया था। अमन की मां बेहद बिंदास और ऐसी महिला हैं जो अपनी दुनिया में मस्त रहती है। अमन को उसकी मां अक्सर उसके पिता की बहादुरी और उसके शौर्य के किस्से सुनाती रहती है, लेकिन अमन अपने पिता जैसा बहादुर नहीं, अमन तो कॉलोनी से कुछ दूर बसे एक स्कूल में मार्शल आर्ट टीचर है जो इस स्कूल के बच्चों को जूडो-कराटे सिखाता है। अमन की मां अपने पति के नाम पर बसी कॉलोनी की जमीन की मालकिन है। कीर्ति (जैकलीन) से मिलने के बाद अमन उसे चाहने लगता है। कहानी में टिवस्ट् उस वक्त आता है जब शहर का नामी बिज़नसमैन मल्होत्रा (के.के. मेनन) अपने एक प्रॉजेक्ट को पूरा करने के लिए कॉलोनी की जमीन को किसी भी प्राइस में खरीदने के लिए अमन की मां से अपनी पूरी टीम को लेकर मिलने करतार सिंह कॉलोनी आता है। इसी कॉलोनी में एक पुराना पेड़ है, जिसकी धार्मिक मान्यता भी है। कॉलोनी निवासी इस पेड़ की पूजा करते है, अमन की मां किसी भी सूरत में इस जमीन को बेचने को राजी नहीं होती। मल्होत्रा किसी भी तरह से इस जमीन को हासिल करना चाहता है। मल्होत्रा को जब लगता है वह अपने मकसद में कामयाब नहीं हो पाएगा तो वह राका (नेथन जोन्स) को अपने इस मकसद को पूरा करने के लिए बुलाकर इस कॉलोनी को तबाह करने के लिए कुछ भी करने को कहता है। अब एंट्री होती है फ्लाइंग जट्ट की जो अपनी बेपनाह शक्तियों के दम पर राका से टकराता है। फिल्मी खबरें पढ़ें फेसबुक पर, लाइक करें NBT Movies ऐक्टिंग : हीरोपंती, बागी के बाद एकबार फिर टाइगर श्रॉफ ने साबित किया कि बॉक्स आफिस पर दर्शकों की भीड़ बटोरने की कला उनमें है। अगर ऐक्शन सीन की बात की जाए तो इस फिल्म में टाइगर सुपरहीरो बने हैं सो इस बार उन्होंने कुछ अलग ही किस्म के ऐक्शन, स्टंट सीन्स किए हैं। सुपरहीरो के लुक में टाइगर खूब जमे हैं। तारीफ करनी होगी नेथन जोन्स की, जिन्होंने गजब ऐक्शन सीन के अलावा अच्छी ऐक्टिंग भी की। फिल्म में नेथन का पहला सीन जैसलेमर के रेगिस्तान में करीब दस दिनों में शूट किया गया। इस सीन में नेथन रेत से बाहर आते नजर आते हैं, यकीनन इस सीन के लिए नेथन ने शूट से पहले जमकर होमवर्क किया। इतना ही नहीं अपने किरदार को असरदार बनाने के लिए नेथन ने हिंदी के कुछ शब्द खास तौर से सीखें। के. के. मेनन एकबार अपने पुराने लुक में नजर आए। इस फिल्म में मेनन का लुक और उनका किरदार 'सिंह इज़ ब्लिंग' में उनके किरदार से मिलता नजर आता है। अन्य कलाकारों में जैकलीन ने अपने किरदार को अच्छे ढंग से निभाया तो लंबे अर्से बाद बिग स्क्रीन पर अमृता सिंह बिंदास सरदारनी बेबो के किरदार में खूब जमी हैं। डायरेक्शन : डायरेक्टर रेमो डिसूजा ने एक सिंपल सी ऐसी कहानी पर जिस पर इससे पहले कई फिल्में बन चुकी है, उसी कहानी में सुपरहीरो का तड़का लगाकर ऐसे ढंग से पेश किया है जो आपको पसंद आएगा। अगर रेमो स्क्रिप्ट पर ज्यादा काम करते तो फिल्म की स्पीड लास्ट तक दर्शकों को बांध पाती, लेकिन करीब ढाई घंटे की यह फिल्म कई बार आपके सब्र की परीक्षा लेती है। स्क्रीनप्ले और भी बेहतर किया जा सकता था। कहानी ऐसी है जिसे आप पहले से ही समझ जाते हैं तो कोई सरप्राइज एलिमेंट नहीं रह जाता है। हां, रेमो ने इस कहानी के साथ कुछ अच्छे सोशल मेसेज भी देने की पहल की है जो बच्चों के साथ आपको भी पंसद आएंगे। रेमो की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने कई ऐक्शन सीन को हॉलिवुड जैसा लुक देने की अच्छी कोशिश की है। अगर रेमो फिल्म के कुछ बेफिजूल सीन पर कैंची चलाते तो और मजा आता। संगीत : 'चल चलिए' गाने का फिल्मांकन अच्छा बन पड़ा है, लेकिन फिल्म के कई गाने कहानी का हिस्सा न होकर ठूंसे हुए लगते हैं। यही वजह है गानों की वजह से फिल्म की स्पीड कमजोर हो जाती है। क्यों देखें : ऑस्ट्रेलियन ऐक्टर नेथन जोन्स के बेहतरीन स्टंट ऐक्शन सीन्स, टाइगर श्रॉफ का बदला लुक और ऐसे सुपरहीरो की एंट्री जो बच्चों को यकीनन पसंद आएगी। अगर इस वीकेंड को बच्चों के नाम करना चाहते है तो उन्हें इस सुपरहीरो से मिला सकते है। | 1 |
डेडपूल वयस्कों का सुपरहीरो है क्योंकि ये अन्य सुपरहीरो से काफी अलग है जो कि बच्चों का मनोरंजन करते हैं। डेडपूल दूसरे सुपरहीरोज़ का मजाक उड़ाता है। वह बदसूरत है। गालियां बकता है। फ्लर्टिंग करता है। उसे चोट भी लगती है। यहीं बातें उसे दूसरे सुपरहीरोज़ से जुदा बनाती है।
सुपरहीरोज़ बोर भी करने लगे थे। उनकी कहानियां एक-सी होने लगी थी और इनके बीच डेडपूल ने थोड़ी ताजगी प्रदान की। डेडपूल को दर्शकों ने हाथों हाथ लिया और इसका दूसरा भाग 'डेडपूल 2' नाम से आया है। हालांकि इसे एक्समैन सीरिज़ की 11वीं फिल्म भी कहा जाता है क्योंकि डेडपूल भी एक ट्रेनी एक्समैन है।
फिल्म की कहानी बहुत दमदार नही हैं, लेकिन इसे देखने लायक बनाते हैं इसके किरदार। कहानी पर किरदार भारी पड़ते हैं क्योंकि हर किरदार मजेदार है जो लगातार मनोरंजन करता है।
डेडपूल 2 खुद को गंभीरता से नहीं लेता, हर बात मजाक में उड़ाता है, खुद पर भी हंसता है, इसलिए दर्शक भी हर बात को गंभीरता से नहीं लेते हैं और परदे पर दिखाए जा रहे हर घटनाक्रम को मजा लेते हैं। यही फिल्म की सबसे बड़ी खासियत है।
निर्देशक डेविड लीच इस बात की आड़ में कई ऐसे प्रसंग डाल देते हैं जिन पर विश्वास करना कठिन है। हमारी दक्षिण भारतीय फिल्मों को भी वे पीछे छोड़ देते हैं। मसलन पांच फीट की दूरी से डेडपूल पर दनादन गोलियां दागी जाती हैं, लेकिन वह तलवार से हर गोली को नाकाम कर देता है। पर इसे पेश करने का तरीका इतना जोरदार है कि आप सब बातें भूल कर मजा लेने लगते हैं।
एक्शन फिल्म का प्लस पाइंट है। लगातार एक्शन सीन बीच-बीच में आकर फिल्म का स्तर ऊंचा उठाते रहते हैं। एक बड़े से ट्रक से बच्चे को छुड़ाने वाला सीक्वेंस जबरदस्त है। डेडपूल का अपनी टीम बनाने वाला सीन, पैराशूट से कूद कर आधी टीम के खत्म होने वाले सीन भी बेहद मनोरंजक हैं। डेविड लीच ने सिर्फ इस बात का ध्यान रखा है कि दर्शकों का लगातार मनोरंजन होता रहे और इसमें वे सफल रहे हैं।
डेडपूल 2 का सबसे मजबूत पक्ष इसके डायलॉग्स हैं। जिसने भी इसके हिंदी संवाद लिखे हैं उसने फिल्म को भारतीय रंग में रंग दिया है। फिल्म का टोन बदलकर इसे मजेदार बना दिया है। डायलॉग खूब हंसाते हैं। कुछ डायलॉग तो कादर खान की याद दिला देते हैं। कुछ सीमा के पार निकल जाते हैं। हिंदी वर्जन में रणवीर सिंह ने डेडपूल को अपनी आवाज दी है और उनका काम किसी हीरो से कम नहीं है।
फिल्म के सारे कलाकारों का अभिनय जोरदार है। रयान रेनॉल्ड्स ने डेडपूल के किरदार को शानदार तरीके से जिया है। जोश ब्रोलिन ने केबल का किरदार निभाकर फिल्म को शक्तिशाली किया है। मोरेना बैक्करीन ने वनेसा के रोल के जरिये फिल्म को नजाकत दी है। करण सोनी, जूलियन डेनिसन सहित अन्य कलाकार भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं।
कई बार 'बी-ग्रेड' मूवीज़ स्तरहीन होकर भी मनोरंजन कर जाती हैं और यही मजा डेडपूल 2 देती है।
निर्माता : साइमन किनबर्ग, रयान रेनॉल्ड्स, लॉरेन श्लेर डोनर
निर्देशक : डेविड लीच
संगीत : टाइलर बेट्स
कलाकार : रयान रेनॉल्ड्स, जोश ब्रोलिन, मोरेना बैक्करीन, जूलियन डेनिसन, करण सोनी
सेंसर सर्टिफिकेट : केवल वयस्कों के लिए * 2 घंटे 37 सेकंड
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निर्देशक :
मार्क वेब
कलाकार :
एंड्रयू गारफील्ड, एमा स्टोन, रे इफांस, सैली फील्ड, इरफान खान
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 12 मिनट
स्पाइडरमैन सीरिज की अगली फिल्म ‘द अमेजिंग स्पाइडरमैन’ में इस बार न तो स्पाइडरमैन के रूप में टॉबी मैग्वायर हैं और न ही निर्देशन सैम रैमी ने किया है। नई टीम ने इस बार स्पाइडरमैन सीरिज को आगे बढ़ाया है और यह फर्क फिल्म देखने पर पता चलता है। मार्क वेब ने स्पाइडरमैन को अपने विज़न से दिखाया है और इस सुपर हीरो को निभाने की जवाबदारी एंड्रयू गारफील्ड के युवा कंधों पर है।
फिल्म के रिलीज होने के पहले सवाल खड़े किए गए थे कि क्या एंड्रयू स्पाइडरमैन के रूप में जंचेंगे? क्या दर्शक उन्हें स्पाइडरमैन के रूप में पसंद करेंगे? दोनों प्रश्नों के जवाब सकारात्मक है। टीनएज स्पाइडरमैन को एंड्रयू ने बखूबी स्क्रीन पर पेश किया है और मार्क वेब का यह स्पाइडरमैन सुपरहीरो की बजाय आम आदमी के ज्यादा निकट है। वह लड़खड़ाता है, गिरता है, दु:खी होता है, लेकिन अंत में उसी की जीत होती है क्योंकि सुपरहीरो कभी हार ही नहीं सकता।
द अमेजिंग स्पाइडरमैन की कहानी तीन ट्रेक पर चलती है, जिसमें एक्शन, रोमांस और रोमांच है। पीटर पार्कर (एंड्रयू गारफील्ड) जब छोटा था तब उसके माता-पिता रहस्यमय परिस्थितियों में उसे अंकल के पास छोड़ गए थे। उसके बाद वे कभी नहीं लौटे।
टीनएजर पीटर के हाथ अपने पिता का पुराना ब्रीफकेस लगता है, जिसमें कुछ फॉर्मूले लिखे हुए हैं। वह अपने पिता और उनकी खोज के बारे में जानने के लिए उत्सुक होता है और डॉ. कर्ट कॉनर्स (रे इफांस) से मुलाकात करता है जो उसके पिता के साथ काम करते थे। कॉनर्स दो प्रजातियों के जीन को आपस में मिलाने का प्रयोग कर रहे हैं और इसमें पीटर उनकी मदद करता है। यह ट्रेक काफी रोमांचकारी है।
पीटर और ग्वेन (एम्मा स्टोन) की प्रेम कहानी को निर्देशक मार्क वेब ने शानदार तरीके से फिल्माया है और रियल लाइफ लवर्स की कैमिस्ट्री भी खूब जमी है। ग्वेन के पिता को न्यूयॉर्क सिटी पुलिस डिपार्टमेंट का कैप्टन बताया जो स्पाइडरमैन को पकड़ना चाहता है, जिससे इस ट्रेक में थोडा कॉमेडी का भी टच आ गया है। इस लव-स्टोरी का अंत सुखद करने से सिनेमाहॉल छोड़ते समय दर्शकों के चेहरे खिल जाते हैं।
स्पाइडरमैन के कारनामे भी देखने को मिले हैं जब पीटर पार्कर असहाय लोगों की जान बचाता है और ताकतवर छिपकली बन गए कॉनर्स से भी लोगों और शहर को बचाता है जो सभी को तबाह करने पर तुला हुआ है।
इस ट्रेक में जबरदस्त स्पेशल इफेक्टस हैं जो थ्री-डी फॉर्मेट में फिल्म देखने वालों को ज्यादा रोमांचित करेंगे। कॉनर्स और पीटर की फाइटिंग सीन उन लोगों की तमन्ना पूरी करते हैं जो सुपरहीरो को हीरोगिरी करते देखना चाहते हैं।
फिल्म का कुछ हिस्सा इस सीरिज की पुरानी फिल्मों की याद ताजा करता है। हालांकि पिछले भागों से इसका कोई खास लेना-देना नहीं है। एक बार फिर दिखाया गया है कि मकड़ी के काटने से पीटर स्पाइडरमैन बनता है।
मार्क वेब द्वारा निर्देशित ‘द अमेजिंग स्पाडडरमैन’ की शुरुआत काफी धीमी है और शुरुआती हिस्से को टाइट एडिटिंग के जरिये छोटा किया जा सकता है क्योंकि फिल्म की लंबाई कुछ ज्यादा है। अंकल-आंटी और पीटर के रिश्ते पर मार्क ने कुछ ज्यादा ही फुटेज खर्च किए हैं।
ग्वेन और पीटर की लव स्टोरी वाला ट्रेक आने के बाद फिल्म में उठाव आता है और जब पीटर स्पाइडरमैन की ड्रेस में आता है तो फिल्म का स्तर और उठ जाता है। हालांकि इरफान खान वाला और अपने अंकल के हत्यारे को पीटर द्वारा ढूंढने वाली बात अधूरी ही रह जाती है। डॉक्टर कॉनर्स के अचानक विलेन बन जाने का भी कोई ठोस कारण नहीं दिया गया है।
पीटर पार्कर की झुंझलाहट, शर्मीलेपन और ईमानदारी को एंड्रयू गारफील्ड ने बेहतरीन तरीके से अभिनीत किया है। स्पाडडरमैन को टीनएजर बताया गया है जिससे युवाओं के बीच वे औ
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लोकप्रिय हो सकते हैं और उन्हें आगे भी इस सीरिज को करने का अवसर मिलेगा।
एमा स्टोन, रे इफांस, डेनिस लेरी, सेली फील्ड सहित सारे कलाकारों का अभिनय उम्दा है। इरफान खान का रोल बहुत छोटा है और वे पहले ही ये बता चुके हैं कि अपने बेटों के लिए उन्होंने स्पाइडरमैन सीरिज से जुड़ना पसंद किया। तकनीकी रूप से फिल्म बेहद सशक्त है। सिनेमाटोग्राफी खासतौर पर उल्लेखनीय है।
सुपरहीरो को पसंद करने वालों की अपेक्षाओं पर ‘द अमेजिंग स्पाडडरमैन’ खरी उतरती है।
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बैनर :
यूटीवी स्पॉट बॉय
निर्माता :
रॉनी स्क्रूवाला
निर्देशक :
राजकुमार गुप्ता
संगीत :
अमित त्रिवेदी
कलाकार :
रानी मुखर्जी, विद्या बालन
सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 2 घंटे 17 मिनट * 16 रील
आम इंसान को इंसाफ नहीं मिलने की कहानी पर बॉलीवुड में कई फिल्में बन चुकी हैं, लेकिन ‘नो वन किल्ड जेसिका’ इसलिए प्रभावित करती है कि यह एक सत्य घटना पर आधारित है।
‘नो वन किल्ड जेसिका’ उन फिल्मों से इसलिए भी अलग है क्योंकि इसमें कोई ऐसा हीरो नहीं है जो कानून हाथ में लेकर अपराधियों को सबक सीखा सके। यहाँ जेसिका के लिए एक टीवी चैनल की पत्रकार देशवासियों को अपने साथ करती है और अपराधी को सजा दिलवाती है।
जेसिका को सिर्फ इसलिए गोली मार दी गई थी क्योंकि उसने समय खत्म होने के बाद ड्रिंक सर्व करने से मना कर दिया था। हत्यारे पर शराब के नशे से ज्यादा नशा इस बात का था कि वह मंत्री का बेटा है। उसके लिए जान की कीमत एक ड्रिंक से कम थी।
से ज्यादा हाई प्रोफाइल लोग उस समय मौजूद थे जब जेसिका को गोली मारी गई, लेकिन किसी ने जेसिका के पक्ष में गवाही नहीं दी। दूसरी ओर मंत्री होने का फायदा उठाया गया। गवाहों को खरीद लिया गया या धमका दिया। रिपोर्ट्स बदल दी गई। जेसिका की बहन सबरीना करोड़ों भारतीयों की तरह एक आम इनसान होने के कारण लाख कोशिशों के बावजूद अपनी बहन को न्याय नहीं दिला पाई।
टीवी चैनल पर काम करने वाली मीरा को धक्का पहुँचता है कि जेसिका का हत्यारा बेगुनाह साबित हो गया। वह मामले को अपने हाथ में लेती है। गवाहों के स्टिंग ऑपरेशन करती है और जनता के बीच इस मामले को ले जाती है। चारों तरफ से दबाव बनता है और आखिरकार हत्यारे को उम्रकैद की सजा मिलती है।
फिल्म यह दर्शाती है कि यदि मीडिया अपनी भूमिका सही तरह से निभाए तो कई लोगों के लिए यह मददगार साबित हो सकता है। साथ ही लोग कोर्ट, पुलिस, प्रशासन से इतने भयभीत हैं कि वे चाहकर पचड़े में नहीं पड़ना चाहते हैं। इसके लिए बहुत सारा समय देना पड़ता है जो हर किसी के बस की बात नहीं है। फिल्म सिस्टम पर भी सवाल उठाती जिसमें ताकतवर आदमी सब कुछ अपने पक्ष में कर लेता है।
राजकुमार गुप्ता ने फिल्म का निर्देशन किया है और आधी हकीकत आधा फसाना के आधार पर स्क्रीनप्ले भी लिखा है। उन्होंने कई नाम बदल दिए हैं। एक वास्तविक घटना पर आधारित फिल्म को उन्होंने डॉक्यूमेंट्री नहीं बनने दिया है, बल्कि एक थ्रिलर की तरह इस घटना को पेश किया है। लेकिन कहीं-कहीं फिल्म वास्तविकता से दूर होने लगती है।
इंटरवल के पहले फिल्म तेजी से भागती है, लेकिन दूसरे हिस्स में संपादन की सख्त जरूरत है। ‘रंग दे बसंती’ से प्रेरित इंडिया गेट पर मोमबत्ती वाले दृश्य बहुत लंबे हो गए हैं। कुछ गानों को भी कम किया जा सकता है जो फिल्म की स्पीड में ब्रेकर का काम करते हैं।
सारे कलाकारों के बेहतरीन अभिनय के कारण भी फिल्म अच्छी लगती है। रानी मुखर्जी के किरदार को हीरो बनाने के चक्कर में यह थोड़ा लाउड हो गया है। फिर भी होंठों पर सिगरेट और गालियाँ बकती हुई एक बिंदास लड़की का चरित्र रानी ने बेहतरीन तरीके से निभाया है।
रानी का कैरेक्टर मुखर है तो विद्या बालन का खामोश। विद्या ने सबरीना के किरदार को विश्वसनीय तरीके से निभाया है। उन्होंने कम संवाद बोले हैं और अपने चेहरे के भावों से असहायता, दर्द, और आक्रोश को व्यक्त किया है। इंसपेक्टर बने राजेश शर्मा और जेसिका बनीं मायरा भी प्रभावित करती हैं।
अमित त्रिवेदी ने फिल्म के मूड के अनुरुप अच्छा संगीत दिया है। ‘दिल्ली’ तो पहली बार सुनते ही अच्छा लगने लगता है। फिल्म के संवाद उम्दा हैं।
जेसिका को किस तरह न्याय मिला, यह जानने के लिए फिल्म देखी जा सकती है। साथ ही उन जेसिकाओं को भी खयाल आता है, जिन्हें अब तक न्याय नहीं मिल पाया है।
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आमिर खान ने पिछले एक दशक में ऐसी प्रतिष्ठा हासिल कर ली है कि यदि उनका नाम किसी फिल्म से जुड़ा हो तो वो अच्छी फिल्म गारंटी होता है। उनके बैनर की ताजा फिल्म 'सीक्रेट सुपरस्टार' इस बात को और आगे ले जाती है और दर्शाती है कि आमिर खान बहुत ही सूझबूझ के साथ अपनी फिल्मों को चुनते हैं।
सीक्रेट सुपरस्टार एक ऐसी लड़की की कहानी है जिसका एक सपना है। अपने सपनों में वह रंग भरना चाहती है, लेकिन उसकी राह में ढेर सारी अड़चने हैं। अपने सपने को पूरा करने की उसकी जो यात्रा फिल्म में दिखाई गई है वो आपको भावुक कर देती है। मंजिल सभी को पता है, लेकिन उस तक जाने का जो सफर है वो फिल्म को यादगार बनाता है।
वडोदरा में रहने वाली इंसिया की उम्र है 15 वर्ष। वह टीवी पर आने वाला सिंगिंग रियलिटी शो देखती है और उसकी तमन्ना भी जाग जाती है कि वह गायकी के क्षेत्र में अपना नाम कमाए। उसके पिता बेहद क्रूर हैं। इंसिया की मां के साथ वे खराब व्यवहार तो करते ही हैं, साथ ही इंसिया का गाने के प्रति लगाव भी उन्हें सख्त नापसंद है।
सोशल मीडिया उन लोगों को प्लेटफॉर्म उपलब्ध कराता है जो कुछ करना चाहते हैं। चूंकि इंसिया के पिता दकियानुसी हैं, इसलिए उसकी राह और भी मुश्किल है। उसकी मदद करती है उसकी मां। मां उसको जितनी आजादी दे सकती थी, देती है, लेकिन पिता तो इंसिया को सपना देखने की आजादी भी नहीं देते।
इंसिया बुरका पहने यू-ट्यूब पर अपने गाने लोड करती है जो बेहद प्रसिद्ध होते हैं। उसकी फैन फॉलोइंग बढ़ती जाती है। शक्ति कुमार नामक बददिमाग संगीतकार इंसिया के लिए फरिश्ता बन कर आता है और इंसिया का सपना पूरा करने में मदद करता है।
इस फिल्म को अद्वैत चंदन ने लिखा और निर्देशित किया है। रूढ़िवादी परंपराएं और आधुनिक तकनीक को उन्होंने बारीकी से जोड़ा है। एक लेखक के रूप में उनका काम शानदार है। इंसिया की पृष्ठभूमि, उसके सपने, मां, भाई और दोस्त के साथ उसके रिश्ते को बड़ी सफाई के साथ लिखा गया है।
स्क्रिप्ट में इतनी कसावट है कि शुरू से आखिरी तक यह आपको बांध कर रखती है। फिल्म में ऐसे कई इमोशनल सीन आते हैं जब कई लोगों को आंसू रोक पाना मुश्किल होगा। इंसिया का अपनी मां को बुद्धू समझना और बाद में यह जानना कि उसकी मां ने उसके लिए कितना कुछ किया है, फिल्म का मास्टर स्ट्रोक है।
फिल्म दो ट्रैक पर चलाती है। एक फैमिली ड्रामा है और दूसरा इंसिया का सपना। इस कारण दो धमाकेदार क्लाइमैक्स देखने को मिलते हैं। जिस तरह से इंसिया की मां अपने पति से रिश्ता तोड़ती है, उसके लिए जो सिचुएशन बनाई गई है वो जबरदस्त है। इसके तुरंत बात इंसिया अपनी पहचान को छिपाने वाला बुरका निकाल कर फेंक देती है वो सीन भी शानदार है।
जहां तक कमियों का सवाल है तो इंसिया जिस तेजी से सफलता हासिल करती है, उसको लेकर कुछ लोगों को आपत्ति हो सकती है। इसी तरह कहीं-कहीं फिल्म में मेलोड्रामा कुछ ज्यादा ही हावी हो गया है, फिल्म की लंबाई भी थोड़ी अखरती है, लेकिन फिल्म का कंटेंट शानदार होने के कारण छोटी-मोटी कमियों को इग्नोर किया जा सकता है।
अच्छी बात यह है कि फिल्म आपको कई जगह हंसाती भी है। इंसिया और उसके दोस्त चिंतन के कई ऐसे दृश्य हैं। आमिर खान का हर सीन लाजवाब है। उन्होंने अपनी बॉडी लैंग्वेज और चेहरे के भावों से दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया है।
ज़ायरा वसीम ने कमाल का अभिनय किया है। इस 'दंगल गर्ल' ने दिखा दिया कि उसमें बहुत दम है। ज़ायरा के चेहरे पर पल-पल बदलते जो भाव हैं वो देखने लायक हैं। पूरी फिल्म को उन्होंने अपने कंधे पर उठा कर रखा है और हर सीन में वे अपनी छाप छोड़ती हैं।
मां के रोल में मेहेर विज का अभिनय लाजवाब है। पति से डरने वाली, लेकिन बच्चों के लिए किसी भी हद तक गुजरने वाली स्त्री के किरदार में उन्होंने जान डाल दी है।
आमिर खान पर फिल्म को सफल बनाने का किसी तरह का दबाव नहीं था, इसलिए उन्होंने उन्मुक्त अभिनय किया है। अपने किरदार को उन्होंने लाउड रखा है, लेकिन कैरीकेचर नहीं बनने दिया। वे जब-जब स्क्रीन पर आते हैं चेहरे पर मुस्कान आ जाती है।
इंसिया के पिता के रूप में राज अरुण, भाई के रूप में कबीर साजिद, और चिंतन का रोल निभाने वाले तीर्थ शर्मा का का काम भी उल्लेखनीय है।
कौसर मुनीर ने बेहतरीन गीत लिखे हैं और अमित त्रिवेदी का संगीत भी अच्छा है। 'मैं कौन हूं' के साथ-साथ 'मेरी प्यारी अम्मी', 'गुदगुदी' और 'आई मिस यू' भी सुनने लायक हैं।
'सीक्रेट सुपरस्टार' को जरूर देखा जाना चाहिए।
बैनर : आमिर खान प्रोडक्शन्स, ज़ी स्टुडियो
निर्माता : आमिर खान, किरण राव, आकाश चावला
निर्देशक : अद्वैत चंदन
संगीत : अमित त्रिवेदी
कलाकार : ज़ायरा वसीम, आमिर खान, राज अरुण, मेहर विज़, राज अरुण, तीर्थ शर्मा, कबीर साजिद 2 घंटे 30 मिनट
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बॉलिवुड की इस कॉमिडी मूवी के साथ कुछ नया हुआ है। हमारे यहां ऐक्शन या हॉरर सब्जेक्ट पर ही बनने वाली फिल्मों को 3 डी तकनीक में बनाया जाता है, लेकिन इस बार प्रडयूसर वासु भगनानी और उनके साहबजादे जैकी भगनानी ने 3 डी का यह प्रयोग कॉमिडी में लगाया है। वैसे इससे पहले डांस पर बनी फिल्म भी 3 डी में बन चुकी है, लेकिन कॉमिडी में ऐसा प्रयोग करने से अक्सर हमारे मेकर बचते आए हैं। 3 डी में बनी इस फिल्म में पहली बार लीड किरदारों में पंजाब के सुपरस्टार और सिंगर दिलजीत दोसांझ के साथ सोनाक्षी सिन्हा है। इस फिल्म की कहानी भी बॉलिवुड से जुड़ी है। वैसे, इससे पहले 'ओम शांति ओम' सहित कई फिल्में बन चुकी हैं, लेकिन इस बार डायरेक्टर चाकरी ने इस फिल्म में कुछ नया करने की अच्छी कोशिश की है। ग्लैमर इंडस्ट्री वालों के आपसी रिश्तों से लेकर एक-दूसरे का पछाड़कर आगे निकलने और एक-दूसरे पर अजीबोगरीब कॉमेंट करने का ट्रेंड भी इस कहानी का हिस्सा है। अब यह बात अलग है कि बिहार बेस की सोनाक्षी इस फिल्म में एक गुजराती लड़की का किरदार निभाती नजर आएंगी। वैसे हम इस फिल्म के प्रडयूसर वासु की बात करें तो कभी उनका नाम बॉलिवुड में कामयाबी की गारंटी माना जाता था। डायरेक्टर डेविड धवन और हीरो गोविंदा के साथ वासु ने एक के बाद एक सुपरहिट फिल्में दीं, लेकिन इसके बाद अपने साहबजादे को हीरो बनाने के मोह में वासु कुछ ऐसे फंसे कि डेविड और उनके बीच दूरियां बढ़ गईं। वहीं वासु भी बॉक्स ऑफिस पर एक अदद हिट को तरस गए। इस बार वासु ने एक नए डायरेक्टर के साथ अपने पसंदीदा सब्जेक्ट कॉमिडी पर फिल्म बनाई। फिल्म में वासु ने बॉलिवुड के नंबर वन डायरेक्टर करण जौहर से लेकर साउथ के सुपरस्टार राणा दग्गुबाती के साथ सुशांत और आदित्य रॉय कपूर को पेश किया है, तो वहीं अपनी फिल्म 'बीवी नंबर वन' के हीरो सलमान खान को भी वासु ने इस फिल्म में पेश किया। फिल्म की कहानी में नयापन तो है लेकिन कहानी को पर्दे पर मजेदार ढंग से पेश करने में डायरेक्टर कामयाब नहीं हो पाए। ऐसे में यही लगता है कि वासु को अपनी पुरानी सुपरहिट फिल्मों के प्रडयूसर नंबर वन वाली इमेज को बनाने में अभी कुछ और इंतजार करना पड़ सकता है।स्टोरी प्लॉट: फिल्म की कहानी न्यू यॉर्क में आयोजित हो रहे आइफा फेस्टिवल से जुड़ी है। इस फेस्टिवल का आयोजन कराने वाली कंपनी के मालिक गैरी (बोमन ईरानी) अपनी सहायक सोफी (लारा दत्ता) के साथ इस फेस्टिवल की तैयारियों में लगे हैं। गैरी लंबे अर्से से अपनी असिस्टेंट सोफी को कम्पनी में पार्टनर बनाने का झांसा देते आ रहे हैं, लेकिन पार्टनर बना नहीं रहे हैं। लंबे अर्से से अपने बॉस की बातों का ऐतबार कर रही सोफी को लगने लगा है कि बॉस उसके साथ धोखा कर रहे हैं सो वह न्यू यॉर्क में होनेवाले अवॉर्ड फंक्शन को फ्लॉप और कंपनी के नाम को खराब करने की प्लानिंग करती है। अपनी इस प्लानिंग के मुताबिक, लारा फंक्शन में परफार्मेंस के लिए ऐसे टैलंट का सिलेक्शन करती है जो सबसे बुरे यानी फिसड्डी होते हैं। यानी इन्हें स्टेज पर परफॉर्मेंस करने की एबीसी तक नहीं आती। तेजी (दिलजीत दोसांझ) एक रिकवरी एजेंट है, वहीं जीनत पटेल यानी सोनाक्षी सिन्हा एक फैशन डिजाइनर। वैसे, जीनत का सपना बॉलिवुड में अपनी पहचान बनाने का है, लेकिन ऐक्टिंग में जीनत जीरो ही है। वहीं इस फंक्शन की एंकरिंग करने वाले करण जौहर को उनका कट्टर विरोधी अर्जुन (जुड़वां रोल में करण) किडनैप करने की प्लानिंग बनाए बैठा है। अब देखना यह है ऐसे हालात में यह फंक्शन कैसे हो पाता है।फिल्म में स्टार्स का मेला लगा हुआ है। दिलजीत ने अपने किरदार में अच्छी ऐक्टिंग की है। आम तौर पर खामोश नजर आनेवाले दिलजीत अपने किरदार में खूब जमे हैं। वहीं जीनत पटेल के रोल में सोनाक्षी सिन्हा बस ठीक-ठाक रहीं तो करण जौहर और रितेश देशमुख जब भी स्क्रीन पर नजर आए हॉल में हंसी के ठहाके गूंजे। यंग डायरेक्टर चाकरी तोलेटी ने कहानी को ट्रैक पर रखने की अच्छी कोशिश की है। फिल्म में ज्यादातर वही स्टार्स है जो कभी न कभी आइफा फंक्शन में परफॉर्म कर चुके हैं। क्यों देखें : अगर आप दिलजीत दोसांझ के फैन हैं तो अपने चहेते स्टार, सिंगर को अलग अंदाज में देखने के लिए यह फिल्म देखें। स्क्रीन पर बॉलिवुड के कई नामचीन स्टार्स को एकसाथ देखने का मौका भी आपको इस फिल्म में मिलेगा। फिल्म का जॉनर कॉमिडी है, लेकिन हंसने का मौका कम ही मिल पाता है। फिल्म के संगीत में इतना दमखम नहीं जो म्यूजिक लवर्स को अपनी धुनों पर थिरकाने का काम कर सके। | 0 |
बैनर :
बालाजी टेलीफिल्म्स, एएलटी एंटरटेनमेंट, बालाजी मोशन पिक्चर्स
निर्माता :
एकता कपूर, शोभा कपूर, प्रिया श्रीधरन
निर्देशक :
दिबाकर बैनर्जी
संगीत :
स्नेहा खानविलकर
कलाकार :
अंशुमन झा, श्रुति, राजकुमार यादव, नेहा चौहान, आर्या देवदत्ता, अमित सियाल
ए सर्टिफिकेट * एक घंटा 43 मिनट
‘लव सेक्स और धोखा’ एक एक्सपरिमेंटल फिल्म है, जो कैमरे और टेक्नालॉजी की पर्सनल लाइफ में दखल को दिखाती है। हर आदमी के पास इन दिनों कैमरा है और जब चाहे वो इसका उपयोग/दुरुपयोग कर रहा है।
कैमरे की आँख हम पर लगातार नजर रखे हुए है। मीडिया इसके जरिये स्टिंग ऑपरेशन कर रहा है। लेकिन उसका उद्देश्य सच्चाई को समाने लाने की बजाय सनसनी फैलाना और प्राइम टाइम में मनोरंजन देना है।
अश्लील एमएमएस की इन दिनों डिमांड है क्योंकि दूसरों के निजी क्षणों को देखना बड़ा अच्छा लगता है। हर कोई रियलिटी देखना चाहता है। कई बार लोगों को पता ही नहीं चलता और ये वेबसाइट पर अपलोड कर दिए जाते हैं।
निर्देशक दिबाकर बैनर्जी ने अपनी फिल्म को तीन कहानियों में बाँटा है। पहली स्टोरी में लव दिखाया गया है। फिल्म इंस्टीट्यूट का स्टुडेंट डिप्लोमा फिल्म बनाते हुए हीरोइन से प्यार कर बैठता है।
टीनएज में प्यार को लेकर तरह-तरह की कल्पनाएँ होती हैं। ‘डीडीएलजे’ जैसी फिल्मों का नशा दिमाग पर छाया रहता है। इस कहानी के किरदार भी राज और सिमरन की तरह व्यवहार करते हैं, लेकिन उनकी लव स्टोरी का ‘द एंड’ राज और सिमरन की तरह नहीं होता है क्योंकि रियलिटी और कल्पना में बहुत डिफरेंस है। तीनों कहानी में ये वीक है क्योंकि इसमें नाटकीयता कुछ ज्यादा हो गई है। इस स्टोरी को हाथ में कैमरा लेकर फिल्माया गया है।
दूसरी कहानी डिपार्टमेंटल स्टोर में लगे सिक्यूरिटी कैमरे की नजर से दिखाई गई है। इस कैमरे की मदद से वहाँ काम करने वाला आदर्श एक पोर्न क्लिप बनाना चाहता है। रश्मि नामक सेल्सगर्ल का वह पहले दिल जीतता है और फिर स्टोर में उसके साथ सेक्स कर वह क्लिप को महँगे दामों में बेच देता है। यहाँ बताने की कोशिश की गई है कि हर ऊँची दुकान या मॉल्स में आप पर कड़ी नजर सिक्यूरिटी के बहाने रखी जा रही है, लेकिन इसका दुरुपयोग भी हो सकता है।
तीसरी कहानी को स्पाय कैमरे के जरिये दिखाया गया है। एक डांसर को म्यूजिक वीडियो में मौका देने के बहाने एक प्रसिद्ध पॉप सिंगर उसका शारीरिक शोषण करता है। डांसर की मुलाकात एक जर्नलिस्ट से होती है, जिसकी मदद से वे सिंगर का स्टिंग ऑपरेशन करते हैं।
यहाँ मीडिया को आड़े हाथों लिया गया है, जो इस फुटेज के जरिये सच्चाई को सामने लाने के बजाय अपनी टीआरपी को ध्यान रखता है। वे इस कहानी को सीरियल की तरह खींचकर पैसा बनाना चाहते हैं।
तीनों कहानियों को बेहतरीन तरीके से जोड़ा गया है और आपको अलर्ट रहना पड़ता है कि कौन-सा कैरेक्टर किस स्टोरी का है और इस स्टोरी में कैसे आ गया है।
फिल्म के सारे कलाकार अपरिचित हैं, लेकिन उनकी एक्टिंग सराहनीय है। कभी नहीं लगता कि वे एक्टिंग कर रहे हैं। ऐसा लगता है कि वे हमारे आसपास मौजूद हैं और हम कैमरे के माध्यम से उन पर नजर रखे हुए हैं।
डायरेक्टर दिबाकर बैनर्जी की पकड़ पूरी फिल्म पर है। एक्सपरिमेंटल और रियलिटी के करीब होने के बावजूद फिल्म इंट्रस्टिंग लगती है। अपने एक्टर्स से उन्होंने बखूबी काम लिया। सिनेमाटोग्राफर निकोस ने कैमरे को एक कैरेक्टर की तरह यूज़ किया है। नम्रता राव की एडिटिंग तारीफ के काबिल है।
‘लव सेक्स और धोखा’ उन लोगों के लिए नहीं है जो टिपिकल मसाला फिल्म देखना पसंद करते हैं। आप कुछ डिफरेंट की तलाश में हैं तो इसे देखा जा सकता है।
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'मकबूल' और 'ओमकारा' जैसी बेहतरीन फिल्में बनाकर ग्लैमर इंडस्ट्री में अपनी एक अलग और खास पहचान बना चुके डायरेक्टर विशाल भारद्वाज ने इस बार कुछ नया करने की बजाय वैसा ही कुछ किया जो ग्लैमर इंडस्ट्री में मसाला फिल्में बनाने वाले मेकर बरसों से करते आए हैं। अगर हम 80-90 के दशक की बात करें तो उस वक्त भी हमशक्ल, जुड़वा भाइयों को लेकर दर्जनों फिल्में बनीं और इनमें से कुछ फिल्में टिकट खिड़की पर सुपरहिट साबित भी रही। विशाल के निर्देशन में बनी इस मसाला ऐक्शन फिल्म की कहानी भी हमशक्ल भाइयों और क्राइम की दुनिया में सक्रिय गैंगस्टर के इर्दगिर्द घूमती है।स्टोरी: गुड्डू (शाहिद कपूर) एक सीधा-सादा युवक है, बेचारा हकला कर बोलता है और एक एनजीओ के लिए काम करता है, वहीं चार्ली (शाहिद कपूर) कुछ तुतला कर बोलता वह 'स' को हमेशा 'फ' बोलता है। चार्ली फटाफट रईस बनना चाहता है और इसके लिए कुछ भी करने को तैंयार है। स्वीटी (प्रियंका चोपड़ा) गुड्डू को प्यार करती है। स्वीटी का पिता भाई भोपे (अमोल गुप्ते) एक ऐसा गैंगस्टर है, जो मुंबई में आकर बसे दूसरे प्रदेश के लोगों को वहां से भगाना चाहता है। एक दिन स्वीटी और गुड्डू शादी कर लेते हैं इससे भोपे बहुत नाराज होकर इनके पीछे पड़ जाता है। उधर एक दिन चार्ली दो करप्ट पुलिस वालों से उनके ड्रग्स लूट लेता है उसे नहीं मालूम कि उसने पुलिस वालों को लूटा है। इन ड्रग्स की कीमत करोड़ों रुपये है लेकिन पुलिस की गिरफ्त में चार्ली नहीं गुड्डू आ जाता है। अब इसके बाद इन दोनों भाइयों पर एक के बाद एक ऐसी मुश्किलें आती हैं जिससे छुटकारा पाना आसान नहीं है।रिव्यू: अगर ऐक्टिंग की बात करें तो शाहिद कपूर ने इस फिल्म में अपने अबतक के करियर का सबसे बेहतरीन किरदार निभाए हैं, डबल रोल में शाहिद ने मेहनत की है लेकिन शाहिद वैसा करिश्मा नहीं कर पाए जो 'ओमकारा' में सैफ अली ने कर दिखाया। एक महाराष्ट्रियन लड़की के किरदार में प्रियंका चोपड़ा खूब जमी हैं। अमोल गुप्ते और चंदन सान्याल ने अपने किरदारों को कुछ इस अंदाज में जिया है कि कई सीन्स में वह शाहिद पर हावी रहे हैं।ना जाने क्यों विशाल ने इस बार ऐसी कहानी चुनी जिसमें नयापन बिल्कुल भी नहीं है। हां, विशाल का कहानी को कहने का नजरिया जरूर अलग है। यही वजह है अगर आप शुरुआत की फिल्म मिस कर दें तो आगे की कहानी को समझना आसान नहीं। फिल्म का स्क्रीनप्ले जानदार है और विशाल ने इस फिल्म को कुछ इस तरह से बनाकर पेश किया कि हॉल में बैठे दर्शक को फिल्म देखते वक्त भी माइंड से काम लेना जरूरी है, वर्ना कहानी ठीक तरह से पल्ले नहीं पड़ेगी। खासतौर से चार्ली और गुड्डू द्वारा बोले गए संवाद आपको ध्यान से सुनने पड़ते है। विशाल ने इस मसाला फिल्म को भी अपने ऐंगल से बनाया है, कैमरे पर उनकी अच्छी पकड़ रही है तो फिल्म को डार्क शूट किया गया है। फिल्म की लोकेशन बेहतरीन हैं। म्यूजिक की बात करें तो फिल्म का एक गाना 'ढेन टेने' पहले से कई म्यूजिक चार्ट में टॉप फाइव में शामिल है।क्यों देखें: एक मसाला फिल्म को कैसे विशाल ने आम मुंबइयां मसाला फिल्मों की भीड़ से हटकर बनाया है। शाहिद कपूर की जानदार ऐक्टिंग फिल्म देखने की एक वजह है। | 1 |