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राजकुमार हीरानी जैसे ऊंचे कद के निर्देशक के लिए संजय दत्त जैसा विषय स्तर से नीचे है। आखिर संजय दत्त के जीवन में ऐसा क्या है कि हीरानी को उस पर फिल्म बनाने की जरूरत महसूस हो। नि:संदेह संजय के जीवन में कई ऐसे उतार-चढ़ाव हैं जिस पर कमर्शियल फिल्म बनाई जा सकती है, लेकिन हीरानी कभी भी अपनी फिल्म को सफल बनाने के लिए इस तरह समझौते नहीं करते। संजय दत्त के साथ हीरानी ने तीन फिल्में की हैं और उस दौरान संजय ने ऐसे कई किस्से सुनाए जिन्हें सुन हीरानी को लगा हो कि संजय के ये रोचक किस्से दर्शकों तक पहुंचने चाहिए। साथ ही यह बात भी बताना जरूरी है कि अदालत फैसला दे चुकी है कि संजय दत्त आतंकवादी नहीं हैं और उन्होंने सिर्फ गैरकानूनी तरीके से हथियार रखे थे जिसकी सजा वे काट चुके हैं। यह बात ज्यादा लोगों तक नहीं पहुंच पाई। संजू फिल्म आपका भरपूर मनोरंजन करती है, लेकिन यदि गहराई से सोचा जाए तो यह संजय दत्त का महिमा मंडन भी करती है। संजय दत्त को एक 'हीरो' की तरह पेश किया गया है मानो उन्होंने अपनी जिंदगी में बहुत बड़े कारनामे किए हो। यही बात फिल्म देखते समय खटकती है क्योंकि कई जगह निर्देशक और लेखक लाइन क्रॉस कर गए हैं। सभी जानते हैं कि संजय दत्त उस समय ड्रग्स की चपेट में आ गए थे जब उनकी पहली फिल्म 'रॉकी' रिलीज भी नहीं हुई थी। उसी दौरान उनकी मां और फिल्म अभिनेत्री नरगिस दत्त की मृत्यु हो गई थी और संजय दत्त नशे में चूर थे। इंटरवल तक, ड्रग्स लेने वाले संजय से लेकर तो ड्रग्स से छुटकारा पाने वाले संजय की कहानी फिल्म में दिखाई गई है। इंटरवल के बाद फिल्म उस किस्से को दिखाती है जब संजय हथियार रखने के मामले में फंस जाते हैं और किस तरह से संजय और उनके पिता सुनील दत्त परिवार पर लगे दाग को मिटाने के लिए संघर्ष करते हैं। फिल्म की शुरुआत से संजय दत्त के प्रति इमोशन्स जगा दिए गए हैं। सीन ऐसे बनाए गए हैं कि दर्शक तुरंत संजय दत्त को पसंद करने लगते हैं। इसके बाद उन्हें सभी बातों में मजा आने लगता है और पूरी सहानुभूति संजय दत्त के साथ हो जाती है। यदि किसी फिल्म का ऐसा सीन होता तो जिसमें अस्पताल में मां कोमा में है और सामने बैठा उसका बेटा ड्रग्स ले रहा है तो दर्शक उसे व्यक्ति को धिक्कारते, लेकिन 'संजू' में इस दृश्य को इस तरह से पेश किया गया है कि संजय के लिए आपको दया आती है। गलती संजय की नहीं बल्कि उस दोस्त की लगती है जो संजू को ड्रग्स के दलदल की ओर धकेलता है। एक लेखिका (अनुष्का शर्मा) का किरदार बनाया गया है जो संजय दत्त के जीवन पर इसलिए किताब नहीं लिखती क्योंकि संजय ड्रग्स लेते हैं। आतंकवादी होने का उस पर ठप्पा लगा है, लेकिन बाद में वह किताब लिखने के लिए मान जाती है। इस सीक्वेंस के जरिये दर्शकों के मन में बात डाली गई है कि संजय दत्त फंस गए थे। संजय दत्त के जीवन के कई किस्से हैं। एक सुपरस्टार को उन्होंने धमकाया था। एक हीरोइन के घर के सामने उन्होंने फायर किए थे। उन्होंने कई शादियां की। उनकी बड़ी बेटी त्रिशाला से उनके संबंध तनावपूर्ण रहे। वे गलत संगतों में फंस गए थे। 90 के दशक की एक टॉप हीरोइन से उनकी नजदीकियां थीं। इन बातों का कोई जिक्र फिल्म में नहीं मिलता। यह भी कहा जा सकता है कि अब इन लोगों की अपनी जिंदगियां हैं जिनके साथ खिलवाड़ करना उचित नहीं है, लेकिन एक राजनेता को दिखाने में समझौता नहीं किया गया जो संजय दत्त से मुलाकात के वक्त सो जाता है। इशारों-इशारों में वह नेता कौन है ये बता दिया गया है। जब यह दिखाया जा सकता है तो इशारों में और भी कई बातें दिखाई जा सकती थीं। यहां पर लेखक और निर्देशक ने सूझबूझ से काम लिया और साफ कह दिया कि यह बायोपिक नहीं है। इसलिए उन्हें अधिकार मिल जाता है कि वे क्या दिखाएं और क्या नहीं? उन्होंने वहीं पहलू चुने जिससे यह लगे कि संजय दत्त मासूम थे और न चाहते हुए भी उलझते चले गए। इन बातों को ज्यादा तवज्जो नहीं दिया जाए तो आप फिल्म का भरपूर मजा ले सकते हैं। फिल्म लगातार मनोरंजन करती है। एक पल के लिए भी बोझिल नहीं होती। कई दृश्य आपको हंसाते हैं। आपको इमोशनल करते हैं। खास तौर पर संजय दत्त और सुनील दत्त वाले किस्से शानदार बने हैं। संजय दत्त और सुनील दत्त के रिश्ते के बारे में कई बातें पता चलती हैं। संजय दत्त जब जेल में थे तब सुनील दत्त भी जमीन पर सोते थे और पंखा भी चालू नहीं करते थे क्योंकि संजय के पास भी कोई पंखा नहीं था। संजय दत्त अपने पिता से इसलिए नाराज थे क्योंकि वह कभी भी संजू की तारीफ नहीं करते थे। सुनील दत्त की छवि एक ईमानदार और साफ-सुथरे शख्स की थी और संजय दत्त इसलिए कुंठित थे कि वे पिता जैसे नहीं बन पाए। उनकी महानता को नहीं छू पाए। फिल्म का वो सीक्वेंस बेहद इमोशनल है जहां पर संजय दत्त ने अपनी पिता की तारीफ में एक भाषण तैयार किया है और परिस्थितिवश वे अपने पिता को यह सुना नहीं पाते और अगले ही दिन सुनील दत्त की मृत्यु हो जाती है। पिता-पुत्र के रिश्ते में उपजे तनाव और प्यार को बेहद खूबसूरती के साथ दिखाया गया है और यह दिल को छू जाता है। इसी तरह संजय दत्त और उनके खास दोस्त कमलेश कापसी (विक्की कोशल) के बीच दृश्य खूब हंसाते हैं। जो हर मुसीबत में संजय दत्त का साथ निभाता है और एक बार रूठ भी जाता है। कमलेश के अनुसार संजय की जिंदगी सिर्फ 'ख', 'प' और 'च' शब्दों के इर्दगिर्द घूमती है। इनकी पहली मुलाकात, साथ में नाइट क्लब जाना, चाय में वोदका पिलाना, संजय की पहली गर्लफ्रेंड रूबी से मिलने वाले सीन खूब मनोरंजन करते हैं। निर्देशक के रूप में राजकुमार हीरानी ने फिल्म को संजय दत्त के 'सफाईनामा' के रूप में पेश किया है। वे संजय का यह रूप दिखाने में सफल रहे कि वे 'सिचुएशन्स' का शिकार रहे हैं और उनकी ज्यादा गलतियां नहीं थी। संजय की छवि खराब करने वाली बातों को उन्होंने चुना ही नहीं। संजय और अंडरवर्ल्ड कनेक्शन को भी उन्होंने उतना ही दिखाया जितना जरूरी था। फिल्म को मनोरंजक बनाने में वे सफल रहे और पूरी फिल्म में उन्होंने दर्शकों को बांध कर रखा है। घटनाओं को उन्होंने इस तरह से पेश किया है कि फिल्म रोचक लगती है। कुछ दृश्यों में वे हास्य के नाम पर 'स्तर' से नीचे भी गए हैं। इस फिल्म को आप चाहें तो सिर्फ रणबीर कपूर के लिए भी देख सकते हैं। फिल्म की पहली फ्रेम से ही वे संजय दत्त लगते हैं। ऐसा लगता है मानो हम संजय दत्त को देख रहे हैं। उनका अभिनय फिल्म को अविश्वसनीय ऊंचाइयों पर ले जाता है और दर्शकों को वे अपने अभिनय से सम्मोहित कर लेते हैं। केवल रणबीर का अभिनय देखते हुए ही हमें फिल्म अच्छी लगने लगती है। संजय दत्त के मैनेरिज्म और बॉडी लैंग्वेज को उन्होंने बहुत ही सूक्ष्मता से पकड़ा है और कहीं भी पकड़ को ढीली नहीं होने दिया। इस फिल्म में उनका अभिनय वर्षों तक याद किया जाएगा। सुनील दत्त के किरदार में परेश रावल का अभिनय बेहतरीन है। सुनील दत्त की जो छवि है उसे परेश ने अपने अभिनय से दर्शाया है। दत्त साहब की विशाल शख्सियत को परेश के अभिनय से आप महसूस कर सकते हैं। विक्की कौशल ने संजय दत्त के जिगरी दोस्त के रूप में खूब मनोरंजन किया है। वे बेहद तेजी से आगे बढ़ रहे हैं और हर फिल्म में उनका अभिनय देखने लायक होता है। संजय दत्त को ड्रग्स देने वाले व्यक्ति का किरदार जिम सरभ ने इतना शानदार तरीके से अभिनीत किया है उनसे आप नफरत करने लगते हैं। छोटे-छोटे रोल में अनुष्का शर्मा, दीया मिर्जा, सोनम कपूर, बोमन ईरानी, करिश्मा तन्ना, मनीषा कोइराला, अंजन श्रीवास्तव, सयाजी शिंदे ने अपना काम शानदार तरीके से किया है। फिल्म के गाने देखते समय अच्छे लगते हैं। अंत में संजय दत्त पर भी एक गाना फिल्माया गया है जिसमें वे 'मीडिया' और उसके 'सूत्रों' को कोसते नजर आते हैं जिन्होंने उनकी जिंदगी में भूचाल ला दिया था। एक्टिंग और एंटरटेनमेंट इस फिल्म को देखने दो बड़े कारण हैं, लेकिन फिल्म हीरानी के स्तर की नहीं है। निर्माता : विनोद चोपड़ा फिल्म्स, राजकुमार हिरानी फिल्म्स, फॉक्स स्टार स्टूडियोज़ निर्देशक : राजकुमार हिरानी संगीत : रोहन रोहन, विक्रम मंट्रोज़ कलाकार : रणबीर कपूर, अनुष्का शर्मा, सोनम कपूर, परेश रावल, मनीषा कोइराला, दीया मिर्जा, विक्की कौशल, जिम सरभ, बोमन ईरानी सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 41 मिनट 45 सेकंड
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चार दोस्त अपनी-अपनी जिंदगी से जूझते हैं और उनके दिल टूटते हैं। बॉलिवुड के लिए यह कोई नया कॉन्सेप्ट नहीं है, लेकिन 'वीरे दी वेडिंग' अलग इसलिए है कि इस फिल्म में ये चार दोस्त लड़कियां हैं। ये चारों लड़कियां अपनी शर्तों पर जीती हैं और निडर और बेबाक होकर बात करती हैं। चारों आपस में सेक्स और ऑर्गज्म की भी बातें करती हैं। वे अपने हालातों पर हंसती हैं। इस तरह की फिल्म को देखना अच्छा लगता है जिसमें महिला किरदारों की प्रगतिशीलता और उनकी जिंदगी की कमियों और समस्याओं को दिखाया गया हो। इन किरदारों को गलतियां करने की छूट है और यही इस फिल्म की खूबसूरती है। फिल्म की कहानी इनकी जिंदगी की उलझनों से वाकिफ कराती है। कालिंदी (करीना कपूर) शादी के झंझटों में फंसी हुई है। शादी करना और रिश्तेदारों की उम्मीदों पर खरा उतरने की कोशिश करना उसे अखरता है। लेकिन वह वक्त के साथ बहती जाती है क्योंकि वह प्यार में है। अवनी (सोनम कपूर) को सोलमेट नहीं मिल रहा है। उसकी मां दिन-रात उसके लिए जीवनसाथी ढूंढने में लगी है। साक्षी (स्वरा भास्कर) रिलेशनशिप में बंधने के लिए बनी ही नहीं है और मीरा (शिखा तल्सानिया) एक विदेशी से शादी कर चुकी है। उसका एक बच्चा भी है लेकिन उसकी शादीशुदा जिंदगी में कोई खुशी नहीं है। इन चारों सहेलियों की केमिस्ट्री काफी तगड़ी है। कुछ बेहतरीन डायलॉग्स हैं जिन्हें इन ऐक्ट्रेसस ने शानदार तरीके से बोला है। फिल्म के कई सीन आपको खूब हंसाते भी हैं, लेकिन फिल्म का एक हिस्सा है जो बेहतर हो सकता था। फिल्म में किरदारों के जीवन को थोड़ा और विस्तार से दिखाना चाहिए था जिससे दर्शक उन्हें महसूस कर पाएं। दर्शक इन किरदारों की समस्याएं तो समझते हैं लेकिन उनसे खुद को जोड़ नहीं पाते हैं। स्क्रिप्ट पर थोड़ा सा और काम होता तो फिल्म जानदार बन सकती थी। लड़कियों के डायलॉग दिलचस्प जरूर हैं लेकिन कहीं-कहीं लड़कियों की गप्पेबाजी में काफी समय बर्बाद किया गया है और फिल्म रुकी हुई सी लगती है। हर फ्रेम में चारों लड़कियां बेहतरीन आउटफिट्स पहने हुए नजर आती हैं। चाहे वे पार्टी कर रही हों, सफाई कर रही हों, ख्यालों में खोई हों या फिर बस साथ बैठी हों। चारों ऐक्ट्रेसस ने अपने डायलॉग्स काफी आत्मविश्वास के साथ बोले हैं लेकिन बैकग्राउंड म्यूजिक कहीं-कहीं उनपर भारी पड़ता है। इसके अलावा 'तारीफां' और 'भांगड़ा ता सजदा' जैसे गाने आपको खूब एंटरटेन करेंगे। पर्दे पर महिलाओं के ऐसे किरदार कम ही देखने को मिलते हैं जो बेबाक होकर अपनी इच्छाओं और सेक्स के बारे में बात करें। 'वीरे दी वेडिंग' इस ओर एक अच्छा प्रयास है। खासकर, इसके डायलॉग्स और प्रॉब्लम्स से युवा खुद को जोड़ सकेंगे।
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फिल्मों के चयन के मामले में अभय देओल की बड़ी तारीफ की जाती है, लेकिन बतौर निर्माता उनका चयन तारीफ के योग्य नहीं है। 'वन बाय टू' में अभय देओल हीरो होने के साथ-साथ सह-निर्माता भी है और यह फिल्म अपने किरदारों के मुताबिक बेहद ऊबाऊ और भटकी हुई फिल्म है। फिल्म के जरिये क्या कहने की कोशिश की जा रही है यह पूरी तरह स्पष्ट नहीं हो पाता है। एक छोटी-सी बात को इतना ज्यादा खींचा गया है कि सिनेमाहॉल में दर्शक को नींद आने लगती है और पर्दे पर चल रहे घटनाक्रम में उसकी कोई रूचि नहीं रहती। अमित शर्मा (अभय देओल) और समायरा पटेल (प्रीति देसाई) की कहानी है, जिनकी फिल्म में एक-दो बार ही मुलाकात होती है। दोनों की कहानी समानांतर चलती है और उनके साथ एक जैसा घटित हो रहा है। अमित का राधिका नामक लड़की से ब्रेक अप हो गया है और वह उसे भूला नहीं पा रहा है। उसकी अच्‍छी-खासी नौकरी है और मां-बाप चाहते हैं कि वह सेटल हो जाए, लेकिन वह बहुत कुंठित है। आधी रात को अमित अपनी एक्स गर्लफ्रेंड के घर के आगे गिटार बजा कर गाना गाता है और उसकी एक्स गर्लफ्रेंड कहती है कि वह रेस्तरां जाकर सूप ले, वन बाय टू करे, आधा पिए और बचे हुए में डूब कर मर जाए। ऐसी ही उबाऊ और पकाऊ हरकतें वो करता रहता है जो उसके मां-बाप के साथ-साथ दर्शकों को भी झेलना पड़ती हैं। दूसरी ओर समायरा अपनी शराबी मां के साथ रहती है। उसके पिता उसे चाहते हैं तो लेकिन यह स्वीकारने में हिचकते हैं कि वह उनकी बेटी है। समायरा डांस शो के जरिये अपनी पहचान बनाना चाहती है और सफलता नहीं मिलने के कारण वह भी कुंठित है। इन दोनों पकाऊ किरदारों को लेकर पकाऊ फिल्म को लिखा और निर्देशित किया है देविका भगत ने। देविका को ही शायद नहीं पता कि वे क्या दिखाना चाहती है या फिर अपने ही लिखे को वे ठीक से परदे पर उतार नहीं सकी। जिस तरह फिल्म के मुख्य किरदार कन्फ्यूज नजर आते हैं वही हाल देविका का भी है। देविका ने बताने की कोशिश की है कि आज की युवा पीढ़ी के पास सब कुछ है, फिर भी वह खुश नहीं है। वह ब्रेकअप को लेकर, अपने बॉयफ्रेंड को लेकर, अपने जॉब को लेकर परेशान है। इन बातों को बहुत खींचा गया गया है। कई दृश्यों का कोई अर्थ नहीं निकलता है और न ही इनमें आपसी संबंध नजर आता है। फिल्म का संपादन भी बहुत गड़बड़ है और कई बार सीक्वेंस आगे-पीछे लगते है, लेकिन इसमें संपादक की गलती कम और निर्देशक की ज्यादा नजर आती है क्योंकि उसके पास कोई विकल्प ही नहीं होगा। अभय देओल का अभिनय निराशाजनक है। शायद वे भी कन्फ्यूज हो गए होंगे कि निर्देशक उनसे क्या चाहता है। प्रीति देसाई एक्ट्रेस से बेहतर डांसर हैं। रति अग्निहोत्री, लिलेट दुबे, जयंत कृपलानी के किरदारों ने भी जमकर बोर किया है। दर्शन जरीवाला जरूर अपनी शायरी से थोड़ा मनोरंजन करते हैं। फिल्म का एकमात्र उजला पक्ष है इसका संगीत। शंकर-अहसान-लॉय द्वारा संगीतबद्ध 'कबूम', 'खुशफहमियां', 'खुदा ना खास्ता' सुनने लायक हैं। बेहतर यही है कि 'वन बाय टू' देखने की बजाय इसके गीत सुने जाएं। बैनर : वायकॉम 18 मोशन पिक्चर्स निर्माता : अमित कपूर, अभय देओल निर्देशक : देविका भगत संगीत : शंकर-अहसान-लॉय कलाकार : अभय देओल, प्रीति देसाई, रति अग्निहोत्री, जयंत कृपलानी, दर्शन जरीवाला, लिलेट दुबे सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 19 मिनट
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भारत और पाकिस्तान में रहने वाले आम लोग युद्ध या तनावपूर्ण संबंध नहीं चाहते हैं। अमन और शांति से दोनों देशवासी रहे यही उनकी कामना रहती है, लेकिन कुछ लोग अपने हित साधने के लिए ऐसी हरकतें किया करते हैं ताकि युद्ध जैसी परिस्थितियां निर्मित हों। ये राजनेता हो सकते हैं या फिर कोई तीसरा देश जो अपने हथियारों की बिक्री कर लाभ कमाना चाहता है। ‘वॉर... छोड़ ना यार’ इन्हीं बातों को उठाती हैं। बातें बहुत गंभीर हैं, लेकिन इन्हें हास्य की चाशनी में लपेट कर पेश किया गया है ताकि संदेश को ग्रहण नहीं भी करना हो तो कम से कम मनोरंजन से ही पेट भर लिया जाए। फिल्म में दिखाया गया है कि सीमा पर एक-दूसरे के खिलाफ बंदूक ताने खड़े सैनिकों में इतने अच्छे संबंध बन जाते हैं कि वे एक-दूसरे को अपने-अपने देश के स्वादिष्ट व्यंजन खिलाते हैं। अंताक्षरी खेलते हैं। लता मंगेशकर और सचिन तेंडुलकर के प्रति दीवानगी जैसी भारत में है वैसी पाकिस्तान में भी है। लेकिन जब ‘ऊपर’ से आदेश मिलता है तो उन्हें न चाहते हुए भी गोलियों की बरसात करना पड़ती है। निर्देशक ने पाकिस्तान के मजे लेते हुए दिखाया है कि वहां के सैनिकों को भरपेट भोजन ही नहीं मिलता तो बेचारे हमसे क्या लड़ेंगे। साथ ही भारत-पाक के बिगड़े हुए संबंधों का जिम्मेदार चीन और अमेरिका को ठहराया गया है। कहा गया है कि चीन में बनी हुई वस्तुओं का हमारे देशवासियों को बहिष्कार करना चाहिए। इन सभी बातों को लेखक और निर्देशक फराज हैदर ने स्क्रीन पर बहुत ही अपरिपक्व तरीके से पेश किया है। हास्य और सिनेमा के नाम पर उन्होंने छूट तो ली है, लेकिन वे ऐसा हास्य नहीं रच पाए कि दर्शक पूरे समय फिल्म का आनंद ले सके। हैदर ने किरदारों को अच्छे से लिखा और पेश किया है। शरमन जोशी, जावेद जाफरी, संजय मिश्रा, दलीप ताहिल (चार रोल में) के किरदार मजेदार हैं, लेकिन फिल्म को आगे बढ़ाने वाले प्रसंग उतने दमदार नहीं हैं। फिल्म में कई उबाऊ दृश्य हैं। कुछ ऐसे घटनाक्रम हैं जिन पर हंसी आती हैं, लेकिन इनकी संख्या बहुत कम है। सोहा अली फिल्म में एक रिपोर्टर बनी है जिसको पहले ही पता चल जाता है कि दोनों देशों के बीच वॉर होने वाला है और वह सीमा पर पहले ही पहुंच जाती है, लेकिन उनका किरदार विश्वसनीय नहीं बन पाया है। जिस तरीके से वे दोनों देशों के बीच के युद्ध को रोकती हैं वो भी हजम करने लायक नहीं है। ऐसी फिल्मों में गाने झपकी लेने के काम आते हैं। कलाकारों में जावेद जाफरी, संजय मिश्रा, मनोज पाहवा का अभिनय उम्दा है। दलीप ताहिल ने अपने चारों किरदारों को कैरीकेचर की तरह प्रस्तुत किया है, लेकिन वे अच्छे लगते हैं। भारत की पहली वॉर कॉमेडी‍ फिल्म कही जा रही ‘वॉर छोड़ ना यार’ को बनाने के पीछे उद्देश्य भले ही अच्छा हो, लेकिन जिस तरीके से इसे पेश किया गया है उसको देख यही कहा जा सकता है ‘यह फिल्म... छोड़ ना यार’। बैनर : एओपीएल एंटरटेनमेंट प्रा.लि. निर्देशक : फराज हैदर संगीत : असलम केई कलाकार : शरमन जोशी, सोहा अली खान, जावेद जाफरी, संजय मिश्रा, मुकुल देव, मनोज पाहवा, दलीप ताहिल सेंसर सर्टिफिकेट : यूए
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मोहल्ले की हर लड़की बहन ही क्यों होनी चाहिए? राजकुमार राव और श्रुति हसन अभिनीत 'बहन होगी तेरी' में इसी सवाल, उलझन और मुसीबत को कॉमिक अंदाज में दर्शाया गया है। फिल्म के निर्देशक अजय पन्नालाल ने इस फिल्म से अपने निर्देशन का आगाज किया है। पिछले कुछ अरसे से बॉलिवुड उत्तर प्रदेश पर कुछ ज्यादा ही मेहरबान है। इस फिल्म का बैकड्रॉप भी लखनऊ है। फिल्म का मूल आइडिया बहुत ही रोचक है। निर्देशक अजय पन्नालाल अगर इस आइडिया को उसी दिलचस्प तरीके से फिल्मा पाते तो यकीनन यह एक टोटल धमाल फिल्म हो सकती थी। कहानी लखनऊ के दो परिवारों की है, जहां पर फिल्म के मुख्य किरदार गट्टू (राजकुमार राव) और श्रुति हसन (बिन्नी) पड़ोसी हैं। गट्टू बिन्नी को बचपन से प्यार करता है, मगर पड़ोसी परिवारों के बच्चों के बीच प्यार पनपने पर एक तरह की अनकही पाबंदी है और इन्हीं वजहों से उस मोहल्ले के लड़के रक्षाबंधन के दिन अपने घरों से कोसों दूर जाकर छुप कर अपना दिन बिताते हैं। जो भी अपने प्रेम का इजहार मोहल्ले की लड़कियों से करने की कोशिश करता है उसकी कलाई पर राखी बांध दी जाती है। गट्टू पर भी यही सामाजिक प्रेशर है और इसी वजह से वह दुनिया के सामने अपने प्यार का इजहार नहीं कर पाता। हालांकि बिन्नी को वह अपने दिल की बात बता चुका है। लिहाजा दोनों परिवार और समाज उसे बिन्नी का भाई मानने लगती है। हद तो तब होती है, जब गट्टू के माता और पिता (दर्शन जरीवाला) बिन्नी को दूधवाले भूरा (हेरी टैंगरी) के साथ स्कूटर पर साथ देखकर उनके अफेयर की अफवाह फैला देते हैं और बिन्नी का भाई जयदेव (निनाद कामत) बिन्नी की शादी राहुल (गौतम गुलाटी) के साथ तय कर देता है। और तो और बिन्नी पर नजर रखने के लिए गट्टू को ही नियुक्त किया जाता है। कन्फ्यूजन तब बढ़ता है, जब भूरा का अपराधी और खूनी पिता (गुलशन ग्रोवर) और ताऊ (रंजीत ) को बहू के रूप में बिन्नी भा जाती है और वे उसे अगवा करने की धमकी दे डालते हैं। अब बिन्नी से शादी करने की होड़ में दो-दो परिवार लगे हैं, मगर बिन्नी का सच्चा आशिक उसका भाई बनकर उसकी रखवाली करता फिर रहा है। क्या गट्टू हिम्मत करके समाज और घरवालों के सामने बिन्नी के प्रति अपने प्यार की स्वीकारोक्ति कर पाता है या फिर बिन्नी उसकी बहन बनकर ही रह जाती है, इसका फैसला तो अंत में हो पाता है। तस्वीरें: बुजुर्ग महिला के साथ इस सीन के लिए राजकुमार राव ने किए 18 रीटेक कहानी का आइडिया फ्रेश है, मगर कहानी बहुत ही सपाट है। हां, कई सीक्वेंसेज बहुत ही बढ़िया बन पड़े हैं, जो हंसाने में कामयाब रहते हैं। क्रिकेट मैच, नाटक में शिवजी की एंट्री, वन लाइनर्स, जैसे कई पल याद रह जाते हैं। फिल्म का फर्स्ट हाफ कहीं-कहीं बोर करता है। मध्यांतर के बाद कहानी गति पकड़ती है, मगर क्लाइमैक्स फिर कमजोर पड़ जाता है। कहानी के कुछ पंच बचकाने लगते हैं, किंतु उन्हें छोटे शहर के परिवेश का दर्शाकर खपा दिया गया है। अभिनय के मामले में राजकुमार राव बाजी मार ले जाते हैं। किरदार की बारीकियों को वे बखूबी पकड़ लेते हैं और फिर अपने अभिनय में पिरोकर गटटू की बहन कहने की बेबसी, उससे निकलने की चालाकी और शराब पीकर ऊधम मचाने के तमाम एक्सप्रेशन को वे पूरी सहजता से निभा ले जाते हैं। श्रुति हसन खूबसूरत लगी हैं। बिन्नी के रूप में उन्हें अपने अभिनय का जलवा दिखाने का पूरा मौका था, मगर वे संवाद अदायगी में मार खा गईं। पिता के रूप में दर्शन जरीवाला हंसाते हैं। क्रिमिनल पिता और ताऊ के रूप में गुलशन ग्रोवर और रंजीत को पर्दे पर देखना रोचक लगता है। भूरा के रूप में हैरी टैंगरी ठीक-ठाक लगे हैं। जयदेव के रूप में निनाद कामत ने अपने किरदार को सलीके से निभाया है। संगीत: फिल्म में कई संगीतकारों का जमावड़ा है, इसके बावजूद 'जय माता दी', 'जानू मेरी जान' गाने के अलावा और कोई गाने यादगार नहीं बन पड़े हैं। क्यों देखें : फ्रेश आइडिया के शौकीन और राजकुमार राव के फैन्स यह फिल्म देख सकते हैं।इस रिव्यू को गुजराती में पढ़ें: મૂવી રિવ્યુઃ બહેન હોગી તેરી
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भारत-पाकिस्तान के खट्टे-मीठे रिश्तों ने हमेशा ही फिल्मकारों को आकर्षित किया है। गदर जैसी फिल्मों में खट्टा ज्यादा था तो 'बजरंगी भाईजान' में इन पड़ोसी देशों के बारे में मिठास ज्यादा मिलती है। गदर में अपनी पत्नी को लेने के लिए सनी देओल पाकिस्तान में जा खड़े हुए और पूरी फौज को उन्होंने पछाड़ दिया था। बजरंगी भाईजान में पाकिस्तानी से आई बालिका को छोड़ने सलमान खान भारत से वहां जा पहुंचते हैं जहां उन्हें कई मददगार लोग मिलते हैं। उनके व्यवहार से महसूस होता है कि दोनों देश के आम इंसान अमन, चैन और शांति चाहते हैं, लेकिन राजनीतिक स्तर पर दीवारें खड़ी कर दी गई हैं और कुछ लोग इस दीवार को ऊंची करने में लगे रहते हैं। बजरंगी भाईजान को कमर्शियल फॉर्मेट में बनाया गया है और हर दर्शक वर्ग को खुश किया गया है। हिंदू-मुस्लिम, भारत-पाक, इमोशन, रोमांस, कॉमेडी बिलकुल सही मात्रा में हैं और यह फिल्म इस बात की मिसाल है कि कमर्शियल और मनोरंजक सिनेमा कैसा बनाया जाना चाहिए। दर्शक सिनेमा हॉल से बाहर आता है तो उसे महसूस होता है कि उसका पैसा वसूल हो गया है। कहानी है पवन चतुर्वेदी (सलमान खान) की जो पढ़ाई से लेकर तो हर मामले में जीरो है। लगातार फेल होने वाला पवन जब पास हो जाता है तो उसके पिता सदमे से ही मर जाते हैं। बजरंगबली का वह भक्त है। बजरंग बली का मुखौटा लगाए कोई जा रहा हो तो उसमें भी पवन को भगवान नजर आते हैं। पवन की एक खासियत है कि वह झूठ नहीं बोलता है। पिता के दोस्त (शरत सक्सेना) के पास वह नौकरी की तलाश में दिल्ली जा पहुंचता है। यहां उसकी रसिका (करीना कपूर खान) से दोस्ती होती है। एक दिन पवन की मुलाकात एक छोटी बच्ची (हर्षाली मल्होत्रा) से होती है जो बोल नहीं सकती। मां-बाप से बिछुड़ गई है। उस लड़की को वह अपने घर ले आता है ताकि वह उसे मां-बाप से मिला सके। उसे वह मुन्नी कह कर पुकारता है। मुन्नी अनपढ़ भी है। पवन उससे कई शहरों के नाम पूछता है और अंत में उसे पता चलता है कि मुन्नी तो पाकिस्तान की रहने वाली है। वह पाकिस्तानी एम्बेसी ले जाता है। वीजा पाने की कोशिश करता है, लेकिन नाकाम रहता है। हारकर वह खुद मुन्नी को बॉर्डर पार कर पाकिस्तान ले जाने का फैसला करता है। राह इतनी आसान नहीं है, लेकिन पवन को बजरंग बली पर पूरा भरोसा है। बजरंगी भाईजान के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें वी. विजयेन्द्र प्रसाद ने बेहतरीन कहानी लिखी है जिसमें सभी दर्शक वर्ग को खुश करने वाले सारे तत्व मौजूद हैं। फिल्म का स्क्रीनप्ले भी उम्दा लिखा गया है और पहले दृश्य से ही फिल्म दर्शकों की नब्ज पकड़ लेती है। शुरुआती दृश्यों में ही मुन्नी अपनी मां से बिछड़ जाती है और दर्शकों की हमदर्दी मुन्नी के साथ हो जाती है। इसके बाद सलमान की धांसू एंट्री 'सेल्फी' गाने से होती है। जब मुन्नी को पवन का साथ मिल जाता है तो दर्शक निश्चिंत हो जाते हैं कि अब मुन्नी को कोई खतरा नहीं है। पवन के रूप में सलमान का किरदार बहुत अच्छी तरह गढ़ा गया है। 'घातक' के सनी देओल की या‍द दिलाता है। ‍ फिल्म का पहला हाफ हल्का-फुल्का और मनोरंजन से भरपूर है। इसमें रोमांस और इमोशन है। कुछ दृश्य मनोरंजक और दिल को छू लेने वाले हैं। मुन्नी का राज खुलने वाले दृश्य जिसमें पता चलता है कि वह पाकिस्तान से है, बेहतरीन बन पड़ा है। वह पाकिस्तान की क्रिकेट में जीत पर खुशी मनाती है और बाकी लोग उसे देखते रह जाते हैं। इसी तरह मुन्नी का चुपचाप से पड़ोसी के घर जाकर चिकन खाना, मस्जिद जाना, उसको एक एजेंट द्वारा कोठे पर बेचने वाले सीन तालियों और सीटियों के हकदार हैं। इंटरवल के बाद फिल्म धीमी और कमजोर पड़ती है, लेकिन जल्दी ही ट्रेक पर आ जाती है। पाकिस्तान में पवन को पुलिस, फौज और सरकारी अधिकारी परेशान करते हैं, लेकिन आम लोग जैसे चांद (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) और मौलाना (ओम पुरी) उसके लिए मददगार साबित होते हैं। एक बार फिर कुछ बेहतरीन दृश्य देखने को मिलते हैं। फिल्म के क्लाइमैक्स में भले ही सिेनेमा के नाम पर छूट ले ली गई हो, लेकिन यह इमोशन से भरपूर है। भारत-पाक दोनों ओर की जनता का पवन को पूरा समर्थन मिलता है और उसे एक सही मायने में हीरो की तरह पेश किया गया है। एक ऐसा हीरो जिसे आम दर्शक बार-बार रुपहले परदे पर देखना चाहता है। गूंगी मुन्नी की फिल्म के अंत में बोलने लगने लगती है, भले ही यह बात तार्किक रूप से सही नहीं लगे, लेकिन यह सिनेमा का जादू है कि देखते समय यह दृश्य बहुत अच्छा लगता है। निर्देशक कबीर खान ने फिल्म को बेहद संतुलित रखा है। उन्हें पता है कि कई लोग इसे हिंदू या मुस्लिम के चश्मे से देखेंगे, लिहाजा उन्होंने कहानी को इस तरह से प्रस्तुत किया है कि किसी को भी आवाज उठाने का मौका नहीं मिले। उन्होंने फिल्म को उपदेशात्मक होने से बचाए रखा और अपनी बात भी कह दी। पवन और मुन्नी की जुगलबंदी को उन्होंने बेहतरीन तरीके से पेश किया है। मुन्नी की मासूमियत और पवन की सच्चाई तथा ताकत का मिश्रण बेहतरीन है। तर्क की बात की जाए तो कई प्रश्न ऐसे हैं जो दिमाग में उठते हैं। जैसे क्या बिना वीजा के लिए गैर-कानूनी तरीके से किसी देश में घुसना ठीक है? सीमा पार करते ही पवन को पाकिस्तानी फौजी पकड़ लेते हैं और फिर छोड़ देते हैं, क्यों? मुन्नी की मां अपनी बेटी को ढूंढने की कोशिश क्यों नहीं करती? अव्वल तो ये कि फिल्म में इमोशन और मनोरंजन का बहाव इतना ज्यादा है कि आप इस तरह के सवालों को इग्नोर कर देते हैं। वहीं इशारों-इशारों में इनके जवाब भी मिलते हैं। पाकिस्तानी फौजी सोचते हैं कि इस आदमी की स्थिति ‍इतनी विकट है कि कानूनी रूप से वे चाहे तो कभी भी मदद नहीं कर सकते, लेकिन इंसानियत के नाते तो कर ही सकते हैं। धर्म और कानून से भी बढ़कर इंसानियत होती है। शायद इसीलिए अंत में पाकिस्तानी सैनिक, पवन को रोकते नहीं हैं और बॉर्डर पार कर भारत जाने देते हैं। सलमान खान की मासूमियत जो पिछले कुछ वर्षों से खो गई थी वो इस फिल्म से लौट आई है। उन्होंने अपने किरदार को बिलकुल ठीक पकड़ा है और उसे ठीक से पेश किया है। वे एक ऐसे हीरो लगे हैं जिसके पास हर समस्या का हल है। बजरंगी भाईजान निश्चित रूप से ऐसी फिल्म है जिस पर वे गर्व कर सकेंगे। हर्षाली मल्होत्रा इस फिल्म की जान है। उसकी भोली मुस्कुराहट, मासूमियत, खूबसूरती कमाल की है। हर्षाली ने इतना अच्छा अभिनय किया है कि वह सभी पर भारी पड़ी है। उसके भोलेपन से एक पाकिस्तान का घोर विरोधी किरदार (जो कहता है कि यह उस देश की है जो हमारे लोगों को मारते हैं) भी प्रभावित हो जाता है। करीना कपूर खान का रोल छोटा है, लेकिन वे प्रभावित करती हैं। नवाजुद्दीन सिद्दीकी भी अब स्टार हो गए हैं और दर्शक उनकी एंट्री पर भी तालियां-सीटियां मारते हैं। पाकिस्तानी पत्रकार का रोल उन्होंने अच्छे से निभाया है जो सलमान खान की हर कदम पर मदद करता है। ओम पुरी छोटे रोल में असरकारी रहे हैं। संगीत और संवाद के मामले में फिल्म कमजोर है। 'सेल्फी ले ले रे' खास नहीं है। चिकन सांग की फिल्म में जरूरत ही नहीं थी और यह गाना नहीं भी होता तो कोई फर्क नहीं पड़ता। 'भर दो झोली' जरूर अच्छा है और 'तू जो मिला' का फिल्म में अच्छा उपयोग किया गया है। 'बजरंगी भाईजान' की सच्चाई और मुन्नी की मासूमियत दिल को छूती है। बैनर : इरोज इंटरनेशनल, सलमान खान फिल्म्स, कबीर खान फिल्म्स निर्माता : सलमा खान, सलमान खान, रॉकलाइन वेंकटेश निर्देशक : कबीर खान संगीत : प्रीतम चक्रवर्ती कलाकार : सलमान खान, करीना कपूर खान, नवाजुद्दीन सिद्दीकी, हर्षाली मल्होत्रा, ओम पुरी, शरत सक्सेना
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कुल मिलाकर ‘दे ताली’ निराश करती है। निर्माता : रवि वालिया निर्देशक : ईश्वर निवास संगीत : विशाल-शेखर कलाकार : आफताब शिवदासानी, आयशा टाकिया, रितेश देशमुख, रिमी सेन, सौरभ शुक्ला, अनुपम खेर फिल्म में एक दृश्य है, जिसमें रितेश देशमुख ने रिमी सेन का अपहरण कर लिया है। वे उन पर एक पत्र लिखने का दबाव डालते हैं। रिमी पत्र लिखने से इंकार करती हैं। रितेश धमकी देते हुए कहते हैं कि यदि उन्होंने कहा नहीं माना तो वे उसे ‘रामगोपाल वर्मा की आग’ दिखाएँगे। रिमी मान जाती हैं। हो सकता है कि अगली किसी फिल्म में नायिका को यातना देने के लिए ‘दे ताली’ दिखाई जाने की धमकी दी जाए। ‘दे ताली’ को अब्बास टायरवाला ने लिखा है, जिन्होंने आमिर खान के लिए ‘जाने तू...या जाने ना’ बनाई है। ‘दे ताली’ फिल्म के खराब होने का सारा दोष अब्बास का ही है। वे यह निर्णय ही नहीं ले पाए कि फिल्म को क्या दिशा दें। कभी फिल्म गंभीर हो जाती है, तो कभी तर्क-वितर्क से परे हास्य की दिशा में मुड़ जाती है। अमू (आयशा टाकिया), अभि (आफताब शिवदासानी) और पगलू (रितेश देशमुख) बेहद पक्के दोस्त हैं। अभि बहुत अमीर है और उसके पैसे पर उसके दोनों दोस्त मजे करते हैं। अमू तो अभि के पापा (अनुपम खेर) के ऑफिस में काम करती है, लेकिन पगलू कोई काम-धंधा नहीं करता। उसके पास घर का किराया देने के पैसे नहीं है, लेकिन कपड़े बड़े शानदार पहनता है। इन दिनों हर दूसरी फिल्म में किराएदार और मकान मालिक के बीच फिजूल के हास्य दृश्य दिखाए जाते हैं, जो इस फिल्म में भी हैं। दोस्ती में ‍प्यार की मिलावट की गई है। अमू मन ही मन अभि को चाहने लगती है और उसे लगता है कि अभि भी उसे चाहता है। अमू के मन की बात पगलू जानता है। दोनों उस समय चौंक जाते हैं जब अभि अपनी नई गर्लफ्रेंड कार्तिका (रिमी सेन) से उन्हें मिलवाता है। कार्तिका एक चालू किस्म की लड़की है (यह भेद बहुत जल्दी खोल दिया गया है), जो सिर्फ पैसों की खातिर अभि को चाहती है। पगलू चाहता है कि अभि और अमू की शादी हो। अमू के साथ मिलकर वह हास्यास्पद योजनाएँ बनाता है और कार्तिका की असलियत उसके सामने लाता है। फिल्म की कहानी में ऐसे तत्व हैं, जिनके आधार पर ‍अच्छी फिल्म बनाई जा सकती थी। लेकिन पटकथा इतनी सतही लिखी गई है कि दर्शक फिल्म से जुड़ नहीं पाता। फिल्म के चरित्र भी दोषपूर्ण हैं। अभि खुद यह नहीं जानता कि वह किसे चाहता है? जब कार्तिका की बुराई सुनता है तो अमू को चाहने लगता है और कार्तिका को सामने पाकर उससे शादी करने के सपने देखने लगता है। पूरी फिल्म में पगलू, कार्तिका की असलियत सामने लाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाता है, अंत में कार्तिका के साथ हो जाता है। फिल्म के शुरुआती 45 मिनट बेहद बोर हैं। रिमी सेन जब फिल्म में प्रवेश करती है तब फिल्म में थोड़ी देर के लिए रुचि पैदा होती है। इसके बाद फिल्म में बची-खुची रुचि भी खत्म हो जाती है और जो दिखाया जा रहा है उसे झेलना पड़ता है। फिल्म के निर्देशक ईश्वर निवास (पहले ई. निवास थे, अब ईश्वर हो गए हैं, शायद किस्मत जाग जाए इसलिए) का सारा ध्यान फिल्म को मॉडर्न लुक देने में रहा। आधुनिक कपड़े, ट्री हाउस, डिस्कोथेक, शानदार घर और ऑफिस, बड़ी-बड़ी बातों की भूलभुलैया में वे फिल्म की पटकथा पर ध्यान देना भूल गए। गानों का फिल्मांकन भव्य है, लेकिन बिना सिचुएशन के ये कहीं से भी टपक पड़ते हैं। विशाल-शेखर का संगीत बेदम है। फिल्म की कहानी टीनएज कलाकारों की माँग करती है, लेकिन आफताब और रितेश जैसे कलाकारों से काम चलाया गया है। रितेश तो फिर भी ठीक हैं, लेकिन आफताब मिसफिट हैं। उन्होंने खूब बोर किया है। हास्य भूमिकाएँ निभाने में रितेश को महारत हासिल है, यह एक बार फिर उन्होंने साबित किया है। आयशा टाकिया को ज्यादा मौका नहीं मिला है। रिमी सेन के चरित्र में कई रंग हैं जिन्हें उन्होंने बखूबी जिया है। अनुपम खेर पूरी फिल्म में एक कुत्ते को प्रशिक्षण देते रहते हैं, पता नहीं इस भूमिका में उन्होंने क्या खूबी देखी? कुल मिलाकर ‘दे ताली’ निराश करती है।
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रंग रसिया के पहले शॉट में दिखाया गया है कि राजा रवि वर्मा द्वारा बनाए गए एक चित्र की नीलामी हो रही है। चित्र को अश्लील मानकर विरोध हो रहा है। लगभग 130 वर्ष पूर्व भी यही स्थिति थी जब चित्र बनाने वाले राजा रवि वर्मा के चित्रों को अश्लील मानकर मुकदमा चला गया था। धर्म के रक्षक तब भी उनके खिलाफ थे। यानी कि इतने वर्षों के बावजूद तकनीकी रूप से कई परिवर्तन हुए हैं, लेकिन सोच के स्तर पर कोई खास तरक्की नहीं हुई है। स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति वाले मुद्दे पर वर्षों से बहस जारी है और लगता नहीं है कि निकट भविष्य में भी यह बहस खत्म होगी। सेंसर बोर्ड जैसे संस्थान भी हैं जो तय करते है कि कितनी स्वतंत्रता दी जानी चाहिए। राजा रवि वर्मा अपने द्वारा बनाए गए न्यूड फोटो पर बवाल मचाने वालों से कहते हैं कि हमारी संस्कृति इतनी कमजोर नहीं है कि एक नंगे बदन पर टूट जाए। ये आश्चर्य की बात है कि रवि वर्मा, जिन्हें केरल के एक राजा ने उनकी प्रतिभा को देख राजा की उपाधि दी, ने हिंदुओं के देवी-देवताओं को चेहरा और स्वरूप दिया, उन पर फिल्म इतने वर्षों बाद बनाई गई। इन चित्रों को बनाने के पहले उन्होंने वेद-पुराण का गहरा अध्ययन किया। देश भर में घूमे और उसके बाद देवी-देवताओं के चित्र बनाए। लीथोग्राफी प्रिंटिंग के माध्यम से उनके यह बहुरंगी चित्र कागज पर उपलब्ध होकर घर-घर में पहुंचे। दीवारों पर चिपका कर लोगों ने उनकी पूजा की। अछूत मानकर जिन्हें मंदिरों में प्रवेश नहीं दिया जाता था उनके लिए वे भगवान को मंदिर से बाहर उनके घर ले आए। आज भी हम कागज पर छपे भगवान के फोटो के आगे नतमस्तक होते हैं उनमें से ज्यादातर राजा रवि वर्मा के हैं। रवि वर्मा का यह सफर आसान नहीं था। धर्म के ठेकेदार उनसे पूछते हैं कि किसने उसे हक दिया है कि वह देवी देवताओं के चित्र बनाए। बात तब और बढ़ जाती है जब जिस स्त्री का चेहरा उसने देवी के लिए उपयोग किया था वही चेहरा वह न्यूड फोटो में भी इस्तेमाल करता है, लेकिन फिल्म में ‍दिखाया गया है कि इसमें रवि वर्मा की गलती नहीं थी। भारतीय सिनेमा भी राजा रवि वर्मा का कर्जदार है क्योंकि भारतीय सिनेमा के पितामह धुंडीराज गोविंद फालके (दादा साहेब फालके) ने न केवल राजा रवि वर्मा के साथ काम किया बल्कि राजा रवि वर्मा ने उन्हें आर्थिक मदद भी की जिसकी मदद से दादा फालके भारत में सिनेमा को ला सके। फिल्म रंजीत देसाई के बायोग्राफिकल नॉवेल 'राजा रवि वर्मा' पर आधारित है। केतन मेहता धन्यवाद के पात्र हैं कि वर्तमान पीढ़ी को उन्होंने राजा रवि वर्मा से परिचित कराया। राजा रवि वर्मा की पूरी जिंदगी को कुछ घंटे की फिल्म में समेटा है जो इतना आसान नहीं था। फिल्म से ज्यादा हमें राजा रवि वर्मा का काम और जीवन संघर्ष प्रभावित करता है। फिल्म में ऐसे कुछ दृश्य हैं जिन्हें हटाया जा सकता था। साथ ही कुछ प्रसंग, जैसे राजा रवि वर्मा के भाई वाला किस्सा, उनके द्वारा छोड़ी गई पत्नी का क्या हुआ, अधूरे लगते हैं। इनका ठीक से विस्तार नहीं हुआ है। बावजूद इन कमियों फिल्म बांधकर रखती है। रवि वर्मा और उनकी प्रेरणा सुगंधा के रिश्ते को बारीकी से रेखांकित किया गया है। इस रिश्ते को देख रवि वर्मा का स्वार्थी रूप भी सामने आता है। केतन मेहता ने रवि वर्मा की जिंदगी के साथ कला की अभिव्यक्ति वाले विचार को भी अच्छी तरह गूंथा है। फिल्म दर्शाती है कि काबू कुछ ही चीजों पर किया जा सकता है। खयालात पर काबू पाना बूते की बात नहीं है। फिल्म को एक पेंटिंग की तरह शूट किया गया है। संवादों में गहराई है। गीत-संगीत फिल्म के मूड के अनुरूप हैं। रणदीप हुडा ने लीड रोल निभाया है। इसे उनके करियर का बेहतरीन काम कहा जा सकता है। हालांकि कई बार उनकी पकड़ से किरदार छूटा भी है। खासतौर पर जब उन्हें बूढ़ा दिखाया गया है तब उनका अभिनय कमजोर रहा है। नंदना सेन की अदाकारी बेहतरीन है। बोल्ड किरदार को उन्होंने बखूबी निभाया है। विक्रम गोखले, दर्शन जरीवाला, परेश रावल, आशीष विद्यार्थी, सचिन खेड़ेकर, टॉम अल्टर जैसे बेहतरीन अभिनेता यदि सपोर्टिंग कास्ट में हो तो फिल्म का स्तर बढ़ जाता है। रंग रसिया एक उम्दा फिल्म है। एक बेहतरीन चित्रकार से रूबरू कराने के साथ-साथ यह फिल्म कुछ प्रश्न भी उठाती है जिनके बारे में सोचते हुए दर्शक सिनेमाघर से बाहर निकलता है। बैनर : माया ‍मूवीज, इनफिनिटी फिल्म्स निर्माता : आनंद महेंद्रू, दीपा साही निर्देशक : केतन मेहता संगीत : संदेश शांडिल्य कलाकार : रणदीप हुडा, नंदना सेन, परेश रावल, आशीष विद्यार्थी, सचिन खेडेकर, प्रशांत नारायण सेंसर सर्टिफिकेट : केवल वयस्कों के लिए * 16 रील
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यह कहानी है कैद में फंसे एक साहेब, राजनीति में ऊंचा कद रखती उसकी पत्नी और लंदन बेस्ड गैंगस्टर की जो रूसी तरीके के एक खतरनाक खेल के जरिए सबका कत्ल करता है। इस फिल्म के डायरेक्टर और को राइटर तिग्मांशू धूलिया ने इस ड्रामा फिल्म को दमदार तरीके से पेश किया है। फिल्म में दिखाया गया है कि कैसे सत्ता के भूखे मर्द और औरत बिना उस तक पहुंचे रुकने का नाम नहीं लेते हैं। इस बार कहानी की एक नई शुरुआत होती है, जो अनदेखे-अनजाने मोड़ से होते हुए जैसे-जैसे आगे बढ़ती है हर किरदार के कई नए चेहरों की पहचान कराती है। फिल्म की कहानी रानी माधवी देवी (माही गिल) के इर्द-गिर्द घूमती है। जिन्होंने अपने किरदार को इस बखूबी से निभाया है कि आप बार-बार उन्हें ही देखना चाहते हैं, जबकि स्क्रिप्ट में उनके किरदार को काफी लंबा लिखा भी गया है। इसके बाद आदित्य प्रताप सिंह (जिम्मी शेरगिल) आते हैं, जिन्होंने अपने राजसी रुतबे और खोए प्यार को पाने का बखूबी रोल निभाया है। इसके साथ ही कबीर के रोल में संजय दत्त ने एक गैंगस्टर से ज्यादा समझदार अपराधी का रोल निभाया है। जो अपने गुस्से और दिल के हाथों मजबूर होकर अक्सर मुश्किलों में पड़ जाता है। इस रोल को संजय ने बखूबी निभाया है, हालांकि कई जगह वह थोड़ा निराश भी करते नजर आए हैं। इसके साथ ही जहां ये तीनों अपने रोल के साथ न्याय करते नजर आए हैं, वहीं फिल्म की अन्य दो ऐक्ट्रेसेस के लिए ऐसा नहीं कहा जा सकता है। मोना के किरदार में चित्रागंदा सिंह बेशक बहुत ही खूबसूरत नजर आई हैं, लेकिन अपने इंट्रो सीने को छोड़कर वह फिल्म में अपनी कोई खास छाप नहीं छोड़ पाई हैं। दूसरी ओर सोहा अली खान के टैलंट को साहेब की दूसरी बीवी रंजना के रोल में एकदम बर्बाद किया गया है। इसके अलावा कबीर बेदी, नफीसा अली और दीपक तिजौरी बूंदीगढ़ के राजपरिवार के तौर पर सपोर्टिंग रोल में फिट नजर आए हैं। हालांकि, एकसाथ इतने किरदारों को फिल्म में पेश करना थोड़ा मुश्किल भरा जरूर लगा, मगर तिग्मांशू धूलिया और संजय चौहान ने फिल्म की कहानी इस रोचक ढंग से लिखी है कि दर्शक आगे क्या होनेवाला है इसका अंदाजा नहीं लगा पाते हैं। ऐसे डायरेक्टर तिग्मांशू की इस फिल्म के आइटम नंबर और रोमांटिक गानों को छोड़ दें तो जबरदस्त तरीके से पंच के साथ लिखे गए डायलॉग्स दर्शकों को बांधे रखने में कामयाब रहे हैं। जिनका असर फिल्म खत्म होने के बाद भी दर्शकों पर कायम रहता है। बहरहाल, अगर कुछेक बातों को छोड़ दें तो रोमांचक पटकथा और दमदार ऐक्टिंग के दम पर यह फिल्म अपनी पिछली फिल्मों को मिली सफलता को आगे ले जाती हुई नजर आती है।
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पर्दे पर कलाकार की इमेज आमतौर पर इतनी प्रबल होती है कि दर्शक उसे उसी दायरे में देखने के आदी हो जाते हैं। कई बार पर्दे पर जब यह छवि खंडित होती है तो उसे अपनाना आसान नहीं होता। एक छोटे-से अंतराल के बाद 'डियर माया' से मनीषा कोइराला की वापसी हुई है और पर्दे पर पहली बार उन्हें माया के रूप में बूढ़ी, कुरूप, तन्हा और कॉम्प्लेक्स्ड किरदार में देखना उनके प्रसंशकों को आघात दे सकता है। जाहिर है कि एक जमाने में मनीषा बेहद दिलकश और ग्लैमरस अभिनेत्री रही हैं, मगर पहले फ्रेम के बाद कहानी जैसे-जैसे आगे बढ़ती जाती है, हम माया की जटिलताओं, रूप-रंग और बॉडी लैंग्वेज के साथ समरस होते जाते हैं। सेकंड हाफ के बाद माया चौंकाने में कामयाब रहती हैं। यह मनीषा जैसी समर्थ अभिनेत्री के अभिनय का जलवा और जुर्रत है कि उन्होंने अपनी वापसी के लिए इस तरह के अनकन्वेंशनल किरदार को चुना। शिमला में रहनेवाली ऐना (मदीहा इमाम) और ईरा (श्रेया सिंह चौधरी) हाई स्कूल में पढ़नेवाली शरारती लड़कियां हैं। ईरा की मां सिंगल पैरंट है, जबकि ऐना अपने माता-पिता के साथ रहती है। ऐना अपने पड़ोस में रहनेवाली माया देवी (मनीषा कोइराला) के प्रति गहरी दिलचस्पी रखती है। माया देवी ने पिछले 20-25 सालों से खुद को घर में बंद करके रखा है। माया के घर के सदस्यों के नाम पर एक नौकरानी, दो कुत्ते और पक्षियों से भरे कुछ पिंजरे हैं। ऐना को अपनी मां से पता चलता है कि माया की यह हालत उसके पीड़ित और दुखी बचपन के कारण है, जहां माया की मां की मौत के बाद उसके चाचा ने माया पर कुरूप होने का धब्बा लगाकर न केवल उसे प्रताड़ित किया बल्कि उसकी शादी नहीं होने दी। यही वजह है कि माया कभी किसी पर विश्वास नहीं कर पाई और अपने साथ हमेशा एक खंजर रखने लगी। कुल मिलाकर माया की जिंदगी बेरंग और उदास थी। ईरा के दिमाग में एक शैतानी भरा आइडिया आता है और दोनों सहेलियां मिलकर माया की बेरंग जिंदगी में रंग भरने का प्लान बनाती हैं या ईरा के शब्दों में कहें तो माया की जिंदगी में शाहरुख खान लाना चाहती हैं। इरा के उकसाने पर माया एक काल्पनिक शख्स वेद के नाम से माया को चिट्ठियां लिखने लगती है। उन रूमानी खतों से माया की जिंदगी में पॉजिटिव बदलाव आते हैं, मगर कहानी में भयानक मोड़ तब आता है, जब माया भी वेद से प्यार करने लगती है। एक काल्पनिक शख्स के लिए वह अपना घर बार बेचकर उसकी तलाश में दिल्ली आने का फैसला करती है। ऐना घबरा जाती है। वह चाह कर भी उसे सच्चाई नहीं बता पातीं। माया के चले जाने के बाद ऐना गहरे अपराधबोध से ग्रसित हो जाती है। उसे लगता है कि एक काल्पनिक शख्स की खोज में निकली गुमशुदा माया के लिए वह जिम्मेदार है। उसके बाद दिल्ली पढ़ाई करने आई ऐना की जिंदगी का एक ही मकसद है, माया को ढूंढना, मगर क्या वह माया को तलाश कर पाती है। इसका पता लगाने के लिए आपको फिल्म देखनी होगी। निर्देशक सुनैना भटनागर इम्तियाज अली को असिस्ट कर चुकी हैं और कुछ दृश्यों में इम्तियाज की हलकी-सी झलक देखने को मिलती है। कहानी का बेसिक प्लॉट दिलचस्प है, मगर पेस धीमा है। फिल्म को 20 मिनट कम करके और ज्यादा कसा जा सकता था। कहानी में माया के किरदार और परिवेश पर मेहनत की गई है, मगर इंटरवल के बाद उनके गुमशुदगीवाले एंगल को जस्टिफाई नहीं किया गया है। कुछ दृश्यों का कच्चापन खटकता है, इसके बावजूद फिल्म सकारात्मक पहलू दिखाने में सफल रहती है। सायक भट्टाचार्य की सिनेमटॉग्रफी दमदार है। 'डियर माया' खुद को और अपनी जिंदगी को फिर से तलाशने की कहानी है और इसमें कोई शक नहीं कि मनीषा की दमदार वापसी हुई है। उनके डार्क सर्कल, लोगों के प्रति अविश्वास और सख्त रवैये से लेकर जिंदगी में आशा की किरण तक जैसे किरदार के विभिन्न पड़ावों को वे शिद्दत से जी जाती हैं। उन्होंने अपनी परफॉर्मेंस को रियलिस्टिक अप्रोच के साथ निभाया है। डेब्यू करने वालीं ऐक्ट्रेस श्रेया सिंह चौधरी और मदीहा इमाम ने भी अच्छी ऐक्टिंग की है, लेकिन इमाम ध्यान खींचने में कामयाब रहती हैं। इरावती हर्षे ने मां के रोल को संतुलित ढंग से निभाया है। फिल्म का संगीत पक्ष यदि मजबूत होता तो फिल्म को और अधिक मजबूती मिल सकती थी। गानों की कोई रिकॉल वैल्यू नहीं है।डियर माया के रिव्यू को गुजराती में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें
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निर्माता : करण अरोरा निर्देशक : अंकुश भट्ट कलाकार : केके मेनन, प्रशांत नारायण, पियूष मिश्रा, पवन मल्होत्रा, शिल्पा शुक्ला, दीप्ति नवल, कैटेरीना लोपेज, वेदिता प्रताप सिंह सेंसर सर्टिफिकेट : ए अपराध की दुनिया में अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए इस दुनिया के लोग प्यार, दोस्ती, रिश्ते सब कुछ भूल जाते हैं। रास्ते में पड़ने वाली बाधा को हटाने के लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं। इस विषय को लेकर कई फिल्में पहले भी बनी हैं और यही कहानी है ‘भिंडी बाजार’ की। फिल्म का प्रस्तुतिकरण में निर्देशक और स्क्रीनप्ले लेखकों ने कुछ नया करने की कोशिश की है और इसमें उन्हें असफल मिली है। कई उतार-चढ़ाव देकर दर्शकों को चौंकाने की कोशिश की गई है, लेकिन ये प्रयास साफ नजर आते हैं। फिल्म एक रूटीन ड्रामा लगता है जो किसी तरह का असर नहीं छोड़ पाता है। मुंबई के भिंडी बाजार में जेबकतरों का एक गैंग है जिसका प्रमुख है मामू (पवन मल्होत्रा)। पांडे (पियूष मिश्रा) कभी मामू के लिए काम करता था, लेकिन विवादों के चलते उसने अपना गैंग बना लिया। दोनों गैंग के सदस्य एक-दूसरे को मारने का कोई असवर नहीं छोड़ते। इधर मामू के गैंग के कुछ युवा सदस्य जैसे तेज (गौतम शर्मा) और फतेह (प्रशांत नारायणन) मामू बनना चाहते हैं ताकि उनका राज चले। लगातार वे षड्यंत्र रचते रहते हैं। कहानी में कुछ महिला पात्र भी हैं, जिनकी वफादारी किसके प्रति है, ये पता लगाना बहुत मुश्किल है। यह कहानी बार-बार अतीत और वर्तमान में झूलती रहती है। श्रॉफ (केके मेनन) और तेज शतरंज खेल रहे हैं और तेज उसे अपनी कहानी सुनाता रहता है। शतरंज के खेल और तेज की जिंदगी को आपस जोड़ने की कोशिश निर्देशक ने की है, लेकिन बात नहीं बन पाई। थोड़ी-थोड़ी देर में श्रॉफ, तेज और शतरंज के दृश्य बीच-बीच में आते रहते हैं जो न केवल खीझ पैदा करते हैं बल्कि कहानी में भी रूकावट डालते हैं। तेज का प्रेम प्रसंग ठूँसा हुआ लगता है। निर्देशक अंकुश भट्ट पर रामगोपाल वर्मा का बहुत ज्यादा प्रभाव है। उन्होंने रूटीन कहानी को अलग तरह से प्रस्तुत करने की कोशिश की, लेकिन काम में सफाई ना होने के कारण बात नहीं बन पाई। संवादों में गालियों का उपयोग अखरता है क्योंकि वे घटनाक्रम से मेल नहीं खाती। फिल्म का बैकग्राउंड म्यूजिक शोरगुल से भरा है जो फिल्म देखते समय व्यवधान उत्पन्न करता है। अभिनय की बात की जाए तो पवन मल्होत्रा, प्रशांत नारायण, गौतम शर्मा, पियूष मिश्रा प्रभावित करते हैं। मामू की साली के रूप में वेदिता प्रताप सिंह असर छोड़ती हैं। दीप्ति नवल ने पता नहीं क्यों दोयम दर्जे की भूमिका स्वीकार की। छोटे-से रोल में जैकी श्रॉफ निराश करते हैं। केके मेनन के पास सिवाय शतरंज खेलने के कुछ करने को नहीं था। कैटेरीना लोपेज के आइटम नंबर का ठीक से उपयोग नहीं किया गया। कुल मिलाकर ‘भिंडी बाजार’ में सब कुछ बासी-सा लगता है।
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फिल्म की प्रचार लाइन में लिखा गया है ‘मिशन...मोहब्बत...मैडनेस’, लेकिन फिल्म देखने के बाद सिर्फ अंतिम शब्द ध्यान रहता है। निर्माता : चंपक जैन, गणेश जैन, रतन जैन निर्देशक : संजय छैल संगीत : अनु मलिक कलाकार : राहुल बोस, मल्लिका शेरावत, परेश रावल, के.के. मेनन, पवन मल्होत्रा, ज़ाकिर हुसैन फिल्म शुरू होती है और दस मिनट में ही समझ में आ जाता है कि आगे कितना बोर होना पड़ेगा। एक थर्ड क्लास नाटक कंपनी के थर्ड क्लास कलाकार ‘मुगल-ए-आजम’ नाटक का मंचन करते हैं। वे जो मन में आता है वो बोलते हैं। हिंदी, उर्दू, अँग्रेजी के अलावा वे आपसी बातचीत भी कर लेते हैं और सामने बैठे दर्शक खूब हँसते हैं। समय 1993 का है, कुछ पुराने इंडिया टुडे और फिल्मफेअर के मार्फत यह दिखाया गया है। सेंट लुईस नामक एक छोटे शहर में यह नाटक खेला जाता है। फिल्म के एक संवाद में बताया जाता है कि इस छोटे-से शहर में गिनती के लोग हैं और गिनती के मकान। लेकिन यहाँ इस नाटक के लगभग 125 शो होते हैं। गिनती के लोग होने के बावजूद इस घटिया नाटक के इतने शो? निर्देशक ने दर्शक बदलने की जहमत भी नहीं उठाई। अधिकांश दृश्यों में वही चेहरे मौजूद रहते हैं। एक बोलता है मैं यहाँ रोज आता हूँ क्योंकि यह नाटक देखने में बड़ा मजा आता है। धन्य है सेंट लुईस के लोग। राहुल बोस रॉ के एजेंट दिखाए गए हैं। लगता है कि उन्हें बहुत फुर्सत थी। रोजाना नाटक देखने आते और अनारकली बनी मल्लिका शेरावत को निहारते। मल्लिका की शादी उम्र में उनसे कहीं बड़े परेश रावल से हुई है। मल्लिका राहुल को भी चाहती है और परेश को भी। राहुल जब चाहते उसके मेकअप रूम, बेडरूम और बाथरूम में घुस जाते। का समय इसलिए दिखाया गया है कि उस समय देश में दंगे भड़काने की साजिश रची जा रही थी। राहुल बोस को इस बारे में पता चलता है और वे नाटक कंपनी के साथियों की मदद से देश को बचाते हैं, लेकिन बेचारे दर्शक नहीं बच पाते। हर तरह के किरदार इस फिल्म में हैं। के.के. मेनन रॉ एजेंट हैं, साथ में गजल गायक भी हैं। उनके तार आईएसआई और अंडरवर्ल्ड से भी जोड़ दिए गए। बाद में उनसे लाश के रूप में भी अभिनय करवा दिया। थिएटर का एक कलाकार दाउद इब्राहीम जैसा है ताकि वक्त आने पर वह नकली दाउद बन सके। निर्देशक संजय छैल ने इस फिल्म को बनाने की प्रेरणा ‘जाने भी दो यारो’ के क्लायमैक्स में खेले गए नाटक से ली है। उन्होंने फिल्म को जमकर रबर की तरह खींचा। अंडरवर्ल्ड, विवाहेतर संबंध, देशभक्ति, कॉमेडी जैसी सारी चीजें उन्होंने फिल्म में डाल दीं, लेकिन यह सब मिलकर ट्रेजेडी बन गई। ढाई घंटे तक परदे पर नौटंकी चलती रहती है। निरंतरता का फिल्म में अभाव है और कोई भी सीन कहीं से भी टपक पड़ता है। ‘मुगल-ए-आजम’ नाटक में तो उन्होंने जानबूझकर कलाकारों को घटिया अभिनेता दिखाने के लिए ‍घटिया अभिनय कराया, लेकिन नाटक के बाहर भी उनसे घटिया अभिनय क्यों करवाया यह समझ के परे है। परेश रावल, के.के. मेनन, पवन मल्होत्रा, राहुल बोस जैसे सारे कलाकार फिल्म में ओवर एक्टिंग करते रहे। क्या ओवरएक्टिंग को ही निर्देशक ने हास्य मान लिया। इतने अच्छे कलाकारों का ठीक से उपयोग नहीं कर पाना निर्देशक की क्षमता पर प्रश्नचिन्ह लगाता है। राहुल बोस और परेश रावल ने तरह-तरह के गेटअप बदलकर अपनी-अपनी भूमिका निभाई, लेकिन प्रभावित नहीं कर पाए। राहुल बोस का अभिनय देखकर ऐसा लग रहा था जैसे कोई उनके सिर पर बंदूक तानकर जबर्दस्ती उनसे अभिनय करवा रहा हो। के.के. मेनन ने खूब बोर किया। मल्लिका शेरावत का ध्यान अभिनय पर कम और अंग प्रदर्शन पर ज्यादा था। अनु मलिक ने अपनी सारी बेसुरी और पुरानी धुनें निर्माता को टिका दीं। आश्चर्य होता है कि ये धुनें उस संगीत कंपनी (वीनस) ने खरीदी, जो संगीत की समझ होने का दावा करती है। गानों के फिल्मांकन पर खूब पैसा खर्च किया गया है, लेकिन एक भी देखने लायक नहीं है। कहानी से भी इनका कोई लेना-देना नहीं है। फिल्म की प्रचार लाइन में लिखा गया है ‘मिशन...मोहब्बत...मैडनेस’, लेकिन फिल्म देखने के बाद सिर्फ अंतिम शब्द ध्यान रहता है।
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यकीन नहीं होता कि 'ओह माय गॉड' जैसी उम्दा फिल्म बनाने वाले फिल्म निर्देशक उमेश शुक्ला 'ऑल इज़ वेल' जैसी खराब फिल्म बना सकते हैं। रोड ट्रिप के जरिये एक बेटे और माता-पिता के बीच दूरियां खत्म होने की कहानी उन्होंने पेश की है, लेकिन इस फिल्म में ऐसा कुछ भी नहीं है जो उल्लेखनीय कहा जा सके। इन्दर (अभिषेक बच्चन) के पिता भल्ला (ऋषि कपूर) और मां पम्मी (सुप्रिया पाठक) आपस में लड़ते रहते हैं। इन्दर के पिता की एक बेकरी है जिससे खास आमदनी नहीं होती है। माता-पिता के विवादों से परेशान इन्दर बैंकॉक चला जाता है ताकि अपना म्युजिक अलबम निकाल सके। दस साल बाद इन्दर को फोन आता है कि उसके पिता बेकरी बेचना चाहते हैं और इसके लिए इन्दर की साइन की जरूरत है। भारत लौटने पर इन्दर को पता चलता है कि उसकी मां को अल्जाइमर (भूलने की बीमारी) है। पिता पर बीस लाख रुपये का कर्ज है, चीमा नामक गुंडा यह वसूलना चाहता है। इन्दर के पिता बेकरी बेचने के लिए तैयार नहीं है। बैंकॉक से इन्दर के साथ निम्मी (असिन) भी भारत आती है। इन्दर को निम्मी बेहद चाहती है, लेकिन अपने माता-पिता के अनुभव के आधार पर इन्दर शादी नहीं करना चाहता। निम्मी की दूसरे लड़के से शादी तय हो जाती है। चीमा को इन्दर, उसके माता-पिता और निम्मी किसी तरह चकमा देकर भाग निकलते हैं। इन्दर के पीछे चीमा और चीमा के पीछे पुलिस। इस भागदौड़ में कई गड़बड़ियां होती है। कुछ दिन बाप-बेटे साथ गुजारते हैं और उनके बीच की गलतफहमियां दूर हो जाती हैं। फिल्म की स्क्रिप्ट बकवास है। ऐसे कई सवाल हैं जो फिल्म देखते समय लगातार उठते रहते हैं। भल्ला आखिर क्यों अपनी पत्नी पर चिल्लाता रहता है? इन्दर अपने पिता से इसलिए नाराज है क्योंकि वे जिंदगी में 'लूजर' है, लेकिन दस वर्षों में उसने भी न पैसा कमाया न नाम। पिता से पंगा था इसलिए दस साल से बात नहीं की, लेकिन मां को किस बात की सजा दी? निम्मी आखिर क्यों इन्दर के पीछे पड़ी रहती है जबकि इन्दर उसमें कभी रूचि नहीं लेता और शादी से साफ इनकार भी कर देता है। इन्दर की मां को अल्जाइमर रहता है, लेकिन फिल्म के आखिर में वह अचानक कैसे ठीक हो जाती है? ऐसी कई सवाल और हैं जो उठाए जा सकते हैं। पौराणिक किरदार श्रवण कुमार से भी इन्दर के कैरेक्टर को जोड़ने की तरकीब फिजूल है। कोई भी किरदार ऐसा नही है जिससे दर्शक अपने आपको कनेक्ट कर सके। ऑल इ ज़ वेल के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें निर्देशक उमेश शुक्ला का प्रस्तुतिकरण बहुत ही कमजोर है। हास्य के नाम पर उन्होंने ऐसे दृश्य परोसे हैं मानो सब टीवी का कोई फूहड़ धारावाहिक देख रहे हो। बासी चुटकलों से हंसाने की कोशिश की है। स्क्रिप्ट की खामियों को कैसे वे नजरअंदाज कर गए ये खोज का विषय है। किरदारों को भी वे ठीक से पेश नहीं कर पाए। मनोरंजन का फिल्म में नामो-निशान नहीं है। बुरी स्क्रिप्ट और निर्देशन का असर कलाकारों की एक्टिंग पर भी पड़ा। ऋषि कपूर चीखते-चिल्लाते रहे। अभिषेक बच्चन का अभिनय देख ऐसा लगा कि मानो उन्हें फिल्म करने में कोई रूचि ही नहीं है। यही हाल असिन का भी रहा। सुप्रिया पाठक जैसी अभिनेत्री को तो अवसर ही नहीं मिला। चीमा के रूप में ज़ीशान अय्यूब ने अपने अभिनय से किरदार में जान डालने की कोशिश की है। सोनाक्षी सिन्हा ने सिर्फ संबंधों की खातिर एक आइटम सांग किया जो देखने लायक ही नहीं है। फिल्म का टाइटल जरूर बताता है कि 'ऑल इज़ वेल', लेकिन सच्चाई से यह बात कोसों दूर है। निर्माता : भूषण कुमार, कृष्ण कुमार, वरुण बजाज निर्देशक : उमेश शुक्ला संगीत : हिमेश रेशमिया, अमाल मलिक, मिथुन, मीत ब्रदर्स अंजान कलाकार : अभिषेक बच्चन, असिन, ऋषि कपूर, सुप्रिया पाठक, ज़ीशान अय्यूब, सोनाक्षी सिन्हा सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 2 घंटे 5 मिनट 49 सेकंड
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गोविंदा और कॉमिडी को एक ही सिक्के के दो पहलू कहा जाए तो गलत न होगा। इस जाने-माने स्टार-ऐक्टर ने जितनी कॉमिडी फिल्में की होंगी, शायद ही किसी और अदाकार ने की होंगी। अभिषेक डोगरा के निर्देशन में 'फ्राइडे' से गोविंदा की वापसी हुई है और इसमें कोई शक नहीं है कि गोविंदा अपने पुराने अंदाज में नजर आए हैं। अभिषेक ने अगर एक दमदार कहानी का चयन किया होता, तो यह फिल्म गोविंदा की बेहतरीन कमबैक हो सकती थी, मगर फिर भी यह बेसिरपैरवाली कहानी के साथ एक टाइम पास मूवी है, जो अडल्टरी लॉ के खारिज किए जाने के बाद विवाहेतर संबंधों पर एक हलका-फुलका मेसेज भी देती है।कहानी: कहानी की शुरुआत होती है, सैल्समैन राजीव छाबड़ा (वरुण शर्मा) से। यह बेचारा अपने काम में नाकामी का मारा है। इससे एक लंबे अरसे से प्यूरीफायर नहीं बिका है और अब इसकी नौकरी खतरे में है। नौकरी के हाथ से जाने के साथ-साथ गर्लफ्रेंड भी ऑफिस में काम करने वाले सफल सेल्समैन के साथ हो ली है। हर तरह से निराश होने के बाद राजीव किसी तरह से जुगाड़ करके स्टेज के जाने-माने आर्टिस्ट गगन (गोविंदा) की समाजसेवी पत्नी बेला (प्रभलीन संधू) को दीदी बनाकर उसके घर प्यूरीफायर लगाने पहुंचता है। गगन के घर पहुंचने के बाद वह देखता है कि बिंदु (दिगांगना सूर्यवंशी) जो कि पुलिस अफसर राजेश खेड़ा की बीवी है, गगन की बाहों में लिपटी हुई है। राजीव से पहले उस घर में एक चोर (बृजेंद्र काला) घुसपैठ कर चुका है और गगन और बेला के विवाहेतर संबंधों का राज जानकर उन्हें ब्लैकमेल करके घर में बड़े मजे से चोरी कर रहा है। राजीव के घर में दाखिल होने के बाद बहुत सारा कन्फ्यूजन पैदा हो जाता है। गगन राजीव के सामने बेला को अपनी बीवी बताता है। घर में राजीव के साथी प्लंबर( इश्तियाक खान) की एंट्री होती है। फिर गगन की असली बीवी बेला भी आ धमकती है और अंत में बिंदु का पुलिसिया पति भी आ पहुंचता है। कई उतार-चढ़ाव और झूट-सच के साथ कहानी अपनी मंजिल तक पहुंचती है। रिव्यू: निर्देशक अभिषेक डोगरा का सारा जोर फिल्म को टाइम पास बनाने में रहा। यही वजह है कि उन्होंने कहानी का दामन पूरी तरह से छोड़ दिया। हां, फिल्म में कॉमिडी ऑफ एरर्स का उन्होंने अच्छा-खासा इस्तेमाल किया है। लगता है उन्होंने यह फिल्म गोविंदा जैसे सीनियर ऐक्टर को ट्रिब्यूट देने के लिए भी बनाई है, क्योंकि एक सीन में वरुण शर्मा गोविंदा से कहते हैं, आप अपने आप में किसी संस्थान से कम नहीं, वहीं एक अन्य दृश्य में जब वरुण गोविंदा से पूछते हैं कि उन्हें ऑस्कर अवॉर्ड कब मिलेगा, तो वह कहते हैं, पहले नैशनल तो मिल जाए। पूरी फिल्म तकरीबन एक ही घर में शूट की गई है, तो इससे आपको फिल्मों जैसे भव्य विजुअल्स भी नहीं मिल पाता। मनु ऋषि चड्ढा के डायलॉग्ज मनोरंजक हैं। अभिनय के मामले में यह टिपिकल गोविंदा वाली फिल्म है, जिसमें गोविंदा ने जमकर मनोरंजन किया है। वरुण शर्मा ने कॉमिडी में उनके साथ को कायम रखा है। वरुण ने अपने अभिनय से लोगों को खूब हंसाया है। ये दोनों ही कलाकार अपने किरदारों में फिट नजर आते हैं। गोविंदा की कॉमिक टाइमिंग लाजवाब है। बृजेंद्र काला और राजेश शर्मा अपने अंदाज में आपका मनोरंजन करते हैं तो वहीं फिल्म से डेब्यू करनेवाली दिगांगना सूर्यवंशी का काम भी अच्छा है। प्रभलीन संधू औसत रही हैं। संगीत के मामले में फिल्म कुछ खास असर नहीं छोड़ पाती। क्यों देखें: कॉमिडी के शौकीन और गोविंदा के फैन्स यह फिल्म देख सकते हैं।
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इस साल की दूसरी छमाही में आने वाली अक्षय कुमार की फिल्म 'पैडमैन' उसी वक्त चर्चा में आ गई जब अक्षय ने पहली बार इसके सब्जेक्ट के बारे में बताया। उस वक्त लगा कि ऐसे सब्जेक्ट पर फिल्म बनाना हर किसी के बूते की बात नहीं। ठीक कुछ वैसे ही जैसे कुछ साल पहले आयुष्मान खुराना स्टारर 'विकी डोनर' के सब्जेक्ट को लेकर था। फिलहाल, अक्षय की फिल्म को रिलीज होने में वक्त लगेगा लेकिन इसी बीच यंग डायरेक्टर अभिषेक सक्सेना ने लगभग उसी सब्जेक्ट पर 'फुल्लू' बनाकर रिलीज भी कर डाली। वैसे, अक्षय की फिल्म को इस फिल्म के पहले रिलीज होने से फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि अक्षय की फिल्म में नामी स्टार्स के साथ-साथ बॉक्स आफिस पर बिकाऊ मसाला भी भरपूर होगा। बॉलिवुड में कुछ अर्से से लीक से हटकर या कुछ अलग फिल्में बन रही हैं। अब जब इन फिल्मों को मेजर सेंटरों पर दर्शकों की एक खास क्लास मिलने लगी है और बॉक्स आफिस कलेक्शन भी बढ़ने लगा है, तो मेकर 'फुल्लू' जैसी फिल्म बनाने से परहेज नहीं करते। फिल्म के डायरेक्टर अगर चाहते तो अपनी कहानी को किसी बड़े शहर पर फोकस करके भी फिल्म बना सकते थे, लेकिन यहां अभिषेक की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने कहानी के साथ पूरी ईमानदारी बरतते हुए शहर से दूर एक छोटे से गांव की महिलाओं पर फोकस करके यह फिल्म बनाई। आज भी हमारे शहरों से कहीं ज्यादा आबादी इन्हीं गांवों में रहती है। अब गांव के किसान भी अपनी खेती छोड़कर दूर-दराज के गांव जाकर काम करना ज्यादा पसंद करते हैं। ऐसे में गांवों में रहने वाली महिलाओं की समस्याओं और उनकी निजी जिंदगी से इन मर्दों को कोई लेना-देना नहीं होता। इस फिल्म के लीड हीरो शारिब अली हाशमी ने कुछ साल पहले रिलीज हुई फिल्म 'फिल्मिस्तान' में लीड किरदार निभाकर क्रिटिक्स और दर्शकों की जमकर वहवाही बटोरी, अब लंबे अर्से बाद शारिब जब इस फिल्म में लीड किरदार में नजर आए तो उन्होंने जता दिया कि वह कोई भी किरदार खूबसूरती से निभाने में सक्षम हैं। कहानी: फुल्लू (शारिब अली हाशमी) एक छोटे से गांव में अपनी मां और बहन के साथ रहता है। फुल्लू कोई कामकाज नहीं करता। लेकिन जब कभी गांव से दूर शहर जाता है, तो गांव में रहने वाली महिलाएं उससे अपनी जरूरत का सामान मंगवाती हैं। वह कभी किसी को ना नहीं कहता। फुल्लू की मां उसकी शादी बिगनी (ज्योति सेठी) के साथ कर देती है। एक दिन फुल्लू जब शहर सामान लेने आता है तो उसे पहली बार माहवारी के दौरान उपयोग में आने वाले सेफ्टी पैड के बारे में पता चलता है। एक मेडिकल हाउस में वह लेडी डॉक्टर को महिलाओं को इसके बारे में बताते हुए सुनता है। फुल्लू को लगता है गांव में रहने वाली सभी महिलाओं को इस पैड के बारे में जागरूक करना चाहिए और उन्हें बहुत कम कीमत पर पैड उपलब्ध भी कराए जाने चाहिएं। फुल्लू शहर में आकर पैड बनाना सीखता है। जब वह सीखकर गांव लौटता है, तो उसकी मां और बहन ही उसके इस काम से खुश नहीं होते। लेकिन बिगनी को भरोसा है एक दिन उसका पति अपने इस नेक मकसद में कामयाब ज़रूर होगा। ऐक्टिंग: फुल्लू के किरदार में शारिब हाशमी छा गए। इमानुल हक कम फुटेज होने के बावजूद अपनी पहचान छोड़ने में कामयाब रहे। ज्योति सेठ और नूतन सूर्या ने अपने किरदारों को पूरी ईमानदारी के साथ निभाया। निर्देशन: कई बॉलीवुड फिल्मों के सीन्स में महिलाओं की माहवारी का ज़िक्र हुआ है लेकिन इस सब्जेक्ट पर किसी ने फिल्म नहीं बनाई। तारीफ करनी होगी इस फिल्म के निर्माताओं की, जिन्होंने ऐसे अहम सब्जेक्ट पर पूरी ईमानदारी के साथ फिल्म बनाई। यह फिल्म महिलाओं को फोकस करके बनाई गई है, लेकिन ऐसा भी नहीं कि जेंट्स फिल्म के साथ कनेक्ट नहीं कर पाएंगे। इस फिल्म का लीड किरदार फुल्लू ऐसा है जो हर किसी की कसौटी पर खरा उतरने का दम रखता है। यंग डायरेक्टर अभिषेक सक्सेना ने फिल्म को सच के और नजदीक रखने के लिए फिल्म की शूटिंग किसी स्टूडियो में ना करके गांव में जाकर की जो फिल्म को और भी खूबसूरत बनाता है। फिल्म में मैसेज देने की चाहत में स्क्रीनप्ले पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया। एडिटिंग काफी सुस्त है जिससे दो घंटे से भी कम अवधि की फिल्म भी दर्शकों को अंत तक बांधकर नहीं रख पाती संगीत: फिल्म का संगीत कहानी का अहम हिस्सा लगता है। बैकग्राउंड में चल रहा गाना 'भुल्लर भुल्लर' अच्छा बन पड़ा है। क्यों देखें: अगर आप अच्छी और ज़मीनी हकीकत से जुड़ी फिल्मों के शौकीन हैं तो फुल्लू आपको पसंद आएगी। और हां, यह समझ से परे है कि सेंसर ने ऐसी फिल्म, जो समाज को एक मैसेज दे रही है, को अडल्ट सर्टिफिकेट किस आधार पर दिया ।
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तीन कलाकारों के ट्रिपल रोल कॉमेडी और कन्फ्यूजन के लिए विशाल कैनवास देता है, लेकिन इसके लिए फिल्मकार और स्क्रिप्ट में बहुत दम होना चाहिए। साजिद खान ने ट्रिपल रोल वाली बात तो सोच ली, लेकिन उसके लिए जो स्क्रिप्ट लिखी है वो निहायत ही घटिया है। ऊपर से साजिद का घटिया निर्देशन करेला और नीम चढ़ा वाली कहावत को चरितार्थ करता है। 'तीन तिगाड़ा काम बिगाड़ा' भी याद आ रहा है। हमशकल्स' फिल्म मजा के बजाय सजा देती है। ऐसी सजा जिसके लिए पैसे भी आपने ही खर्च किए हैं। 'हिम्मतवाला' के पिटने के बाद साजिद को समझ में आ गया कि वे वही काम करें जो उन्हें आता है। यानी की कॉमेडी फिल्म बनाना। 'हाउसफुल' सीरिज में उन्होंने दर्शकों को हंसाया था, लेकिन इस बार साजिद अपने चिर-परिचित विकेट पर ही रन आउट हो गए। कई बार ऐसा लगता है कि 'हिम्मतावाला' की असफलता का वे दर्शकों से बदला ले रहे हो। माइंडलेस कॉमेडी फिल्मों का भी अपना मजा होता है, लेकिन 'हमशकल्स' तो इस कैटेगरी में भी नहीं आती। हमशकल्स' में कहानी जैसी कोई चीज है ही नहीं। अशोक (सैफ अली खान) और कुमार दोस्त हैं। अरबपति-खरबपति अशोक संघर्षरत स्टैंडअप कॉमेडियन है। रेस्तरां में वह ऐसे चुटकले सुनाता है कि लोग भाग खड़े होते हैं। अंग्रेजों को वह हिंदी में जोक्स सुनाता है। एक लड़की उसे बोलती है कि आप बड़े 'विटी' हैं तो वह जवाब देता है कि आप 'चर्चगेट' हैं। अशोक का मामा (राम कपूर) उसे पागल घोषित कर सारी जायदाद अपने नाम कराना चाहता है। अशोक, कुमार और मामाजी के उसी शहर में हमशकल्स हैं। तीनों ही पागल हैं और पागलखाने में भर्ती है। वे कब पागल बन जाते हैं और कब एकदम सयाने ये लेखक और निर्देशक ने अपनी सहूलियत से तय किया है। अदला-बदली होती है और कन्फूजन पैदा करने की नाहक कोशिश पैदा की गई है। सयाने अशोक और कुमार बाहर भी आ जाते हैं, लेकिन पुलिस की मदद लेने का खयाल उनके दिमाग में दूर-दूर तक नहीं आता। खतरनाक पागलों को वहां काम करने वाला एक कर्मचारी बड़ी आसानी से भगा देता है। ऐसी ढेर सारी खामियां स्क्रिप्ट्स में हैं। डबल रोल का वजन तो साजिद से संभल नहीं रहा था और उन्होंने तीनों के तीसरे हमशकल्स को भी स्क्रिप्ट में बिना वजह के घुसेड़ दिया। इतना वजन लादने के बाद स्क्रिप्ट का तो दम ही निकल गया। डर लगने लगा कि कहीं इनके चौथे हमशकल्स न आ जाए। तीसरे हमशकल्स के लिए प्लास्टिक सर्जरी का सहारा ले लिया गया। वैसे तो साजिद अपने दर्शकों को निहायत ही बुद्धू समझते हैं, लेकिन फिर भी एक किरदार पूछता है कि प्लास्टिक सर्जरी से चेहरे तो बदल दिए गए हैं, लेकिन आवाज वैसी कैसे है? जवाब मिलता है कि गले में वोकल घुसेड़ दिया गया है। क्लाइमेक्स में भीड़ इकट्ठी करना साजिद की खासियत है जो फिजूल की भागमभाग करते हैं। हाउसफुल में इंग्लैंड की महारानी नजर आई थी कि यहां प्रिंस चार्ल्स का डुप्लिकेट दिखाई देता है। दर्शकों को हंसाने के लिए तमाम कोशिशें की गई हैं, लेकिन एकाध दृश्यों को छोड़ दिया जाए तो इन्हें देख मुस्कान भी चेहरे से मीलों दूर रह जाती है। कंपनी की बोर्ड मीटिंग वाला सीन ही उम्दा है जिसमें तीनों हमशकल्स के कारण कन्फ्यूजन पैदा होता है। हंसाने के लिए क्या-क्या किया गया है, इसकी बानगी देखिए, पानी एक दवाई में मिला दो तो आदमी कुत्ते की तरह व्यवहार करने लगता है। यह दवाई पीने के बाद सैफ और रितेश कुत्ते की तरह व्यवहार करते हैं। लोगों को काटते हैं। एक परफ्यूम ऐसा है जिसे लगा तो महिलाओं से पुरुष चिपकने लगता है। राम कपूर अपनी ही हमशक्ल महिला के पीछे बावरा हो जाता है। कोकीन और वोदका के परांठे खिलाए गए हैं। साजिद खान ने दर्शकों को बुद्धू समझते हुए चीजों को इतना ज्यादा समझाया है कि कोफ्त होने लगती है। जब हमशक्ल किरदारों की अदला-बदली होती है तो बैकग्राउंड से आवाज आती है 'अदला बदली हो गई, कन्फ्यूजन शुरू हो गई'। और जिस कन्फ्यूजन के पीछे दर्शक मनोरंजन की तलाश करता है वो कही भी नजर नहीं आता। कलाकारों ने एक्टिंग के नाम पर मुंह बनाया है, आंखें टेढ़ी की हैं और जीभ बाहर निकाली है। सैफ अली खान थके हुए, असहज और मिसफिट लगे हैं। रितेश देशमुख की टाइमिंग भी साजिद के घटिया निर्देशन के कारण गड़बड़ा गई है। राम कपूर ने इन दोनों हीरो के मुकाबले अच्‍छा काम किया है। सतीश शाह भी थोड़ा हंसा देते हैं। बिपाशा बसु ने फिल्म का प्रमोशन क्यों नहीं किया, उनका रोल देख समझ आ जाता है। ऊपर से उन्होंने एक्टिंग भी घटिया की है। तमन्ना भाटिया और ईशा गुप्ता को तुरंत एक्टिंग की क्लास में प्रवेश लेना चाहिए। तीनों हीरोइनें हर जगह शॉर्ट पहन कर आंखें मटकाती रहती हैं। फिल्म में पागल खाने का सिक्युरिटी ऑफिसर (सतीश शाह) मरीजों को टार्चर के लिए साजिद खान की 'हिम्मतवाला' और फराह खान की 'तीस मार खां' दिखाता है। हो सकता है कि साजिद अपनी अगली फिल्म में टार्चर लिए 'हमशकल्स' का भी इस्तेमाल करें। फिल्म के किरदार बार-बार बोलते हैं 'हम पागल नहीं हैं हमारा दिमाग खराब है', उनका इशारा किस ओर है यह अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। बैनर : फॉक्स स्टार स्टुडियो, पूजा एंटरटेनमेंट इंडिया लि. निर्माता : वासु भगनानी निर्देशक : साजिद खान संगीत : हिमेश रेशमिया कलाकार : सैफ अली खान, बिपाशा बसु, रितेश देशमुख, तमन्ना भाटिया, ईशा गुप्ता, राम कपूर, सतीश शाह, चंकी पांडे सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 39 मिनट 33 सेकंड
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चंपक (रितेश देशमुख), गुलाब (भुवन अरोरा) और गेंदा (विक्रम थापा) जेबकतरे हैं। एक ही दांव में ज्यादा से ज्यादा पैसा पाने के चक्कर में बैंक में डाका डालने पहुंच जाते हैं। बैंक डकैती वाले दिन उनके सारे दांव उल्टे पड़ जाते हैं। पुलिस भी पहुंच जाती है और मीडिया भी। फिर एंट्री होती है सीबीआई ऑफिसर अमजद खान (विवेक ओबेरॉय) की क्योंकि बैंक में कुछ 'खास' है। अपनी हरकतों से बेवकूफ नजर आने वाले चंपक, गुलाब और गेंदा किस तरह से परिस्थितियों से निपटते हैं, यह फिल्म में कॉमेडी और थ्रिल के सहारे दिखाया गया है। कागज पर कहानी भले ही अच्छी लगती हो, लेकिन प्रस्तुतिकरण में मात खा गई है। इस कहानी में हास्य और रोमांच की भरपूर संभावनाएं थीं, जिनका दोहन नहीं हुआ। फिल्म का पहला हाफ बेहद धीमा और उबाऊ है। कहानी ठहरी हुई लगती है। चंपक, गुलाब और गेंदा की बेवकूफों वाली हरकतें हंसाती नहीं बल्कि आपके धैर्य की परीक्षा लेती हैं। चंपक मुंबई का है और गुलाब-गेंदा दिल्ली के। मुंबई बनाम दिल्ली को लेकर जो कॉमेडी पैदा की गई है वो बिलकुल प्रभावित नहीं करती। फिल्म में एक्शन कम और बातें ज्यादा हैं। बैंक चोर बिलकुल भी हड़बड़ी या तनाव में नजर नहीं आते। वे बड़े आराम से अपना काम करते हैं मानो महीने भर का समय उनके पास है। जबकि बाहर पुलिस खड़ी हुई है। वे घिरे हुए हैं। फिल्म के अंत में इन सब बातों का स्पष्टीकरण दिया गया है, लेकिन ये काफी नहीं है। स्क्रिप्ट में इतनी कमियां हैं कि उन्हें यहां गिनाने का कोई मतलब नहीं है। इतना बड़ा बैंक, मात्र तीन चोर, अंदर 28 लोग, बाहर पुलिस, सीबीआई, बड़ी आसानी से इन पर काबू किया जा सकता था, लेकिन कुछ नहीं होता। चोर पकड़ने वाले तो मानो हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते हैं। इंटरवल के बाद जरूर दर्शकों को चौंकाने में फिल्मकार को सफलता हाथ लगती है, लेकिन यह उफान बहुत जल्दी उतर जाता है। निर्देशक के रूप में बम्पी फिल्म को विश्वसनीय नहीं बना पाए। कहानी जो हास्य और रोमांच की मांग करती थी, वे पूरी नहीं कर पाए। रितेश देशमुख का अभिनय अच्छा है, हालांकि उनसे बहुत कुछ कराया जा सकता था। गुलाब और गेंदा बने भुवन अरोरा और विक्रम थापा की जोड़ी अच्छी लगती है और उन्होंने थोड़े राहत के पल दिए हैं। विवेक ओबेरॉय को संवादों के जरिये बहुत काबिल ऑफिसर बताया गया है, लेकिन वे कभी कुछ करते नहीं दिखाई दिए। रिया चक्रवर्ती का अभिनय औसत है। बाबा सहगल बोर करते हैं। 'बैंक चोर' देखने के बाद लगता है कि जेब भी कट गई और महत्वपूर्ण समय भी गंवा बैठे। बैनर : वाय फिल्म्स निर्माता : आशीष पाटिल निर्देशक : बम्पी संगीत : श्री श्रीराम, कैलाश खेर, रोचक कोहली, बाबा सहगल, समीर टंडन कलाकार : रितेश देशमुख, रिया चक्रवर्ती, विवेक ओबेरॉय, भुवन अरोरा, विक्रम थापा सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 9 सेकंड
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बार बार देखो में दो संदेश दिए गए हैं। कल की चिंता में दुबले होने की बजाय वर्तमान को भरपूर तरीके से जियो तथा परिवार और काम के बीच में संतुलन रखो। इन दोनों बातों को कहानी में गूंथ कर दर्शाया गया है। अतीत में की गई गलतियों को सुधारने की कोशिश फिल्म 'एक्शन रिप्ले' में दिखाई गई थी, 'बार बार देखो' में भविष्य में होने वाली गलतियों को पहले ही देख लिया जाता है और उन्हें होने के पहले ही सुधार लिया जाता है। जय वर्मा (सिद्धार्थ मल्होत्रा) गणित का प्रोफेसर है। जिंदगी में भी हर समय वह केलकुलेशन करता रहता है। गणित की दुनिया में नाम कमाने का उसका सपना है और इसलिए वह अपनी बचपन की गर्लफ्रेंड दीया कपूर से शादी करने से बचता है। शादी के ऐन मौके पर वह अपने दिल की बात दीया को बता कर उसका दिल तोड़ देता है। इसके बाद जय सो जाता है। नींद खुलती है तो वह अपने आपको दस दिन आगे पाता है। उसे कुछ समझ नहीं आता। अगली बार सोने पर वह समय को दो साल आगे पाता है। इसके बाद टाइम सोलह वर्ष आगे हो जाता है। घटनाएं उसके साथ ऐसी घटती हैं कि अतीत में की गई गलतियों के परिणाम उसे भविष्य में भुगतना पड़ते हैं और उन्हें सुधारने के लिए वह वर्तमान में आने के लिए झटपटाने लगता है। फिल्म की कहानी दिलचस्प है, लेकिन नित्या मेहरा, अनुभव पाल और श्री राव द्वारा लिखा स्क्रीनप्ले थोड़ा कमजोर है। जय के किरदार को ठीक से पकाया नहीं गया है। दीया उसके साथ इतने वर्ष से है फिर भी उसके खयालात के बारे में नहीं जानती या दीया को अब तक अपने विचारों से जय ने क्यों नहीं अवगत कराया, आश्चर्य पैदा करता है। यह बात फिल्म देखते समय लगातार अखरती है। दूसरी बात जो अखरती है वो फिल्म की लंबाई। कुछ प्रसंग को अनावश्यक रूप से लम्बा खींचा गया है इसलिए फिल्म लगातार हिचकोले खाती रहती हैं। अच्छी बात यह है कि फिल्म में दिलचस्पी बनी रहती है। जय की जिंदगी में समय की छलांग उत्सुकता पैदा करती है। जय और दीया के साथ कुछ मजबूत चरित्र किरदार फिल्म को मजबूती देते हैं। साथ ही कहानी के लिए जो माहौल बनाया गया है, ड्रामे को हल्का-फुल्का रखा गया है वो दर्शकों को राहत देता है। इंटरवल के बाद फिल्म में जान आती है और क्लाइमैक्स फिल्म का मजबूत पक्ष है। यह निर्देशक नित्या मेहरा की बतौर निर्देशक पहली फिल्म है। वे 'लाइफ ऑफ पाई' और 'द रिलक्टंट फंडामेंटलिस्ट' में सहायक निर्देशक के तौर पर काम कर चुकी हैं। मीडियम पर नित्या की पकड़ नजर आती है। कहानी बार-बार वर्तमान से भविष्य और अतीत में आती-जाती है, लेकिन उन्होंने दर्शकों के मन में कन्फ्यूजन नहीं पैदा होने दिया। साथ ही फिल्म के संदेश को उन्होंने अच्छे से दर्शकों के दिमाग में उतारा है। बार बार दे खो के टिकट बुक कराने के लिए क्लिक करें लीड रोल में सिद्धार्थ मल्होत्रा और कैटरीना कैफ हैं। इन दोनों कलाकारों की पहचान कभी भी बेहतरीन कलाकार के रूप में नहीं रही है। यहां पर दोनों के अभिनय में गुंजाइश नजर आती है, हालांकि दोनों ने हरसंभव कोशिश की है। सिद्धार्थ मल्होत्रा के साथ दिक्कत यह रही है उनके किरदार को 30 से 60 वर्ष तक आयु में पेश किया गया है, लेकिन उनके चेहरे के भाव हरदम एक जैसे रहे हैं। बॉडी लैंग्वेज पर उन्हें मेहनत की जरूरत है। सिद्धार्थ और कैटरीना कैफ की जोड़ी अच्‍छी लगी है। कैटरीना को अंग्रेज महिला की बेटी बताकर निर्देशक ने उनकी संवाद अदायगी को मजबूत पक्ष बना दिया। अभिनय के मामले में कैटरीना ठीक रही हैं। राम कपूर का किरदार दिलचस्प है और उनका अभिनय भी अच्छा है। रवि के. चंद्रन भी सिनेमाटोग्राफी का उल्लेखनीय जरूरी है। उन्होंने कहानी को इस तरह से फिल्माया है कि निर्देशक का बहुत सारा काम आसान हो गया है। किरदारों के मूड और महत्व के अनुसार उन्होंने कैमरे की पोजीशन रखी है और लाइट्स का उपयोग किया है। कुल मिलाकर 'बार बार देखो' को एक बार देखा जा सकता है। बैनर : एक्सेल एंटरटेनमेंट, धर्मा प्रोडक्शन्स, इरोस इंटरनेशनल निर्माता : फरहान अख्तर, रितेश सिधवानी, करण जौहर, सुनील ए. लुल्ला निर्देशक : नित्या मेहरा संगीत : अमाल मलिक, आर्को, बादशाह, बिलाल सईद, जसलीन रॉयल, प्रेम हरदीप कलाकार : कैटरीना कैफ, सिद्धार्थ मल्होत्रा, सारिका, राम कपूर, रजित कपूर सेसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 21 मिनट 19 सेकंड
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IFM फिल्म का संपादन तो कमाल का है। दो-तीन दृश्यों में तो संवाद अधूरा ही रह गया और उन्होंने दूसरा दृश्य जोड़ डाला। कई जगह फिल्म धुँधली नजर आती है। संगीतकार डब्बू मलिक की गाड़ी भी ऐसे निर्माताओं के बल पर चल रही है। गीत-संगीत के नाम पर वे कुछ भी बनाकर टिका देते हैं। फिल्म में एक जगह संवाद है ‘ये हमारे म्यूजिक वीडियो का डब्बू मलिक है। पता नहीं आज किसे पका रहा होगा।‘ पकाने का काम डब्बू ने नहीं बल्कि फिल्म से जुड़े हर व्यक्ति ने किया है। इस मामले में टीमवर्क दिखाई देता है। IFM निर्माता : मनोज चतुर्वेदी, संजय चतुर्वेदी निर्देशक : अजय चंडोक संगीत : डब्बू मलिक कलाकार : सोहेल खान, अमृता अरोरा, आरती छाबडि़या, यश टोंक, व्रजेश हीरजी, सयाजी शिंदे, कुलभूषण खरबंदा यू सर्टिफिकेट * 14 रील ’टीम : द फोर्स’ के कास्ट और क्रू पर नजर दौड़ाई जाए, तो ज्यादातर नाम दोयम दर्जे के नजर आते हैं। अब दोयम दर्जे के निर्देशक और कलाकारों से एक घटिया फिल्म की ही उम्मीद की जा सकती है और इस उम्मीद को ‘टीम’ की टीम नहीं तोड़ती। इस फिल्म में एक भी पक्ष ऐसा नहीं है जो प्रशंसा के काबिल हो। अजय चंडोक ऐसे निर्देशक हैं, जिन्हें सस्ती फिल्म बनाने वाले निर्माता साइन करते हैं और घटिया फिल्म बनाने के बावजूद उनके हाथ में कुछ प्रोजेक्ट्‍स हैं। अभी हाल ही में उनकी ‘किससे प्यार करूँ’ प्रदर्शित हुई थी। ये बताना मुश्किल है कि ‘टीम’ ज्यादा घटिया है या ‘किससे प्यार करूँ’। फिल्म की कहानी ऐसी है, जिसे कोई भी लिख सकता है। लेखक होना जरूरी नहीं है। तीन दोस्त अपना वीडियो एलबम बनाना चाहते हैं। फिल्म में दिखाया गया है कि उनके पास खाने को कुछ नहीं रहता, लेकिन दो तो इतने हट्टे-कट्टे हैं कि लगता है वे दिन में 6 बार खाते हों। वीडियो एलबम बनाने के लिए दयालु मकान-मालिक इन प्रतिभाशाली (?) कलाकारों को सात लाख रुपए देता है। वे गोआ जाते हैं और इसी बीच मकान मालिक पर एक गुंडा मकान बेचने के लिए दबाव बनाता है। उस गुंडे को तीनों सबक सिखाते हैं। आप सोच रहे होंगे कि इससे बेहतर कहानी तो मैं लिख सकता हूँ, परंतु ये मौका मिला है युनूस सेजवाल को। इन्होंने एक जमाने में डेविड धवन के लिए कुछ सफल फिल्में लिखी थीं। यहाँ निर्माता ने कम पैसे दिए होंगे, इसलिए उन्होंने घटिया कहानी टिका दी। युनूस साहब अभी भी उस दौर में जी रहे हैं, जो कब का बीत चुका है। फिल्म के हीरो हैं सोहेल खान। सोहेल खान हँस रहे होंगे उन निर्माताओं पर जिन्होंने उन्हें फिल्म में हीरो बना डाला, परंतु उन्हें तो पैसे गिनने से मतलब है। उनकी सेहत पर हिट या फ्लॉप से कोई असर नहीं पड़ता, इसलिए उन्होंने तमाम ऊटपटांग हरकत इस फिल्म में कर डाली। सोहेल की तरह फिल्म के हर पात्र ने ओवर एक्टिंग की, चाहे व्रजेश हीरजी हों, यश टोंक हों या सयाजी शिंदे। सयाजी शिंदे की वजह से एक-दो जगह आप हँस सकते हैं, लेकिन बाकी के अभिनय को देखकर रोना आता है। अमृता अरोरा को गानों में याद किया जाता है, जो कभी भी फिल्म के बीच में कहीं से भी टपक पड़ते हैं। फिल्म का संपादन तो कमाल का है। दो-तीन दृश्यों में तो संवाद अधूरा ही रह गया और उन्होंने दूसरा दृश्य जोड़ डाला। कई जगह फिल्म धुँधली नजर आती है। संगीतकार डब्बू मलिक की गाड़ी भी ऐसे निर्माताओं के बल पर चल रही है। गीत-संगीत के नाम पर वे कुछ भी बनाकर टिका देते हैं। फिल्म में एक जगह संवाद है ‘ये हमारे म्यूजिक वीडियो का डब्बू मलिक है। पता नहीं आज किसे पका रहा होगा।‘ पकाने का काम डब्बू ने नहीं बल्कि फिल्म से जुड़े हर व्यक्ति ने किया है। इस मामले में टीमवर्क दिखाई देता है।
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कहानी: दो नेत्रहीन कपल रोहन भटनागर (रितिक रोशन) और सुप्रिया शर्मा (यामी गौतम) की शादी होती है और वे एक-दूसरे का सहारा बन जाते हैं। दुर्भाग्य से उनकी इस अंधेरी दुनिया में हलचल तब मच जाती है जब सुप्रिया का रेप होता है और रोहन को समझ आता है कि पुलिस वाले उनके लिए कुछ करने वाले नहीं हैं। ...और इसके बाद कानून को अपने हाथ में लेने के सिवा रोहन के पास कोई और रास्ता नहीं बचता। रिव्यू: बदला अंधा होता है, यह इस फिल्म का सबसे मजबूत संदेश है। यह फिल्म हॉलिवुड फिल्म 'ब्लाइंड फ्यूरी' (1989) के रटगर हॉउर के लीड किरदार के अलावा कोरियन सुपरहिट फिल्म ब्रोकन (2014) से प्रेरित नज़र आ रही है। कुल मिलाकर संजय गुप्ता ने इसे बड़े ही असरदार और मनोरंजक तरीके से पेश किया है। फिल्म की शुरुआत कुछ ऐसे होती है, जहां रोहन एक बेहतरीन डबिंग आर्टिस्ट है और सुप्रिया काफी अच्छा पियानो बजाती है। शारीरिक अक्षमता के बावजूद जिंदगी के प्रति दोनों का रवैया काफी पॉज़िटिव है। सिर्फ दो सीन में आप इनके प्यार को महसूस कर लेंगे। ...और जैसे ही आप उन्हें एक मॉल में एक-दूसरे से केवल दो मिनट के लिए अलग देखते हैं तो आप बेचैन हो जाते हैं। इनका मोन अमोर डांस देखकर बस सब जादू सा लगता है और बेहद खुशी होती है। लेकिन, जब बात आम जिंदगी और एक बॉलिवुड थ्रिलर की हो तो वास्तविक जिंदगी में ऐसे सॉन्ग और डांस यकीनन सच नहीं होते। जब एक गुंडा अमित शेलार (रोहित रॉय) और उसका साथी वसीम (सहीदुर रहमान) साथ मिलकर सुप्रिया का रेप करते हैं तो रोहन की दुनिया में और भी ज्यादा अंधेरा छा जाता है। दरअसल रेपिस्ट अमित वहां के लोकल कॉर्पोरेटर माधवराव शेलार (रॉनित रॉय) का भाई है और इसी वजह से भ्रष्ट पुलिस ऑफिसर (नरेन्द्र झा और गिरीश कुलकर्णी) इस मामले की जांच-पड़ताल को सही तरीके से होने नहीं देते। जब उनकी करतूतों को सहना मुश्किल हो जाता है, तब रोहन उनसे बदला लेने के बारे में सोचता है। यहीं से फिल्म अलग राह मुड़ती है और आप सोच ही सकते हैं कि आगे क्या हो सकता है। चूहे-बिल्ली का यह खेल आपको रोमांचित करता है। जब भी रितिक अपना बदला लेने के लिए किसी को सताते और उसपर जुल्म करते हैं, तो आप दर्शक के तौर पर खुशी से सीटियां बजाते हैं इस फिल्म का मुख्य आकर्षण रितिक का दमदार परफॉर्मेंस है। वह एक प्रेमी और एक फाइटर के रूप में शानदार दिख रहे हैं। मूवी रेटिंग में आधा स्टार पूरी फिल्म में रितिक के शानदार परफॉर्मेंस के लिए। यामी ने भी शानदार प्रदर्शन किया है। टेक्निकली भी फिल्म काफी बेहतरीन है, जिसके लिए सुदीप चटर्जी (कैमरा) और रेसुल पुकुट्टी (साउंड) को विशेष धन्यवाद।
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एआर मुरुगादास उन फिल्मकारों में से हैं जो कमर्शियल सिनेमा के फॉर्मेट में रह कर भी कुछ नया करने की कोशिश करते हैं। हिंदी में वे गजनी और हॉलिडे बना चुके हैं। इस बार उन्होंने हीरोइन को लीड रोल देकर एक्शन मूवी 'अकीरा' बनाई है। फिल्म में बताया गया है कि अकीरा संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है ऐसा शक्तिशाली जिसमें शालीनता भी हो। इस फिल्म में नायिका का नाम अकीरा है जो न चाहते हुए भी अपराधियों के चंगुल में ऐसी फंस जाती है कि अपनी बेगुनाही के लिए उसे काफी मशक्कत करना पड़ती है। अकीरा (सोनाक्षी सिन्हा) जोधपुर में रहती है। बचपन में उसकी दोस्त पर एसिड अटैक होता है। यह देख अकीरा के पिता उसे जूडो कराटे सीखाते हैं। इसके बाद वह एक लड़के को ऐसा सबक सिखाती है कि तीन वर्ष की उसे सजा होती है। बड़ी होने के बाद वह जोधपुर से पढ़ने के लिए मुंबई जाती है और होस्टल में रहने लगती है। दूसरी ओर भ्रष्ट पुलिस ऑफिसर राणे (अनुराग कश्यप) और उसके साथियों के सामने एक कार एक्सीडेंट होता है। जब वे डिक्की खोल कर करोड़ों रुपये देखते हैं तो उनकी नीयत डोल जाती है। वे रुपये लेकर चम्पत हो जाते हैं। उनका यह राज राणे की एक महिला दोस्त को पता चल जाता है। धीरे-धीरे कुछ और लोग यह बात जान जाते हैं। राणे और उसके साथी एक-एक कर सबको मारते जाते हैं, लेकिन मामला उलझता जाता है और अकीरा भी इसमें फंस जाती है। अकीरा के पीछे राणे के साथी लग जाते हैं। राबिया (कोंकणा सेन शर्मा) ईमानदार पुलिस ऑफिसर है। वह भी जांच शुरू कर देती है इससे राणे की मुश्किल और बढ़ जाती है। शांता कुमार द्वारा लिखी कहानी रोमांचक और उतार-चढ़ाव से भरपूर है। समानांतर चलती कहानियों को उन्होंने बहुत ही उम्दा तरीके से एक-दूसरे से जोड़ा है। इंटरवल तक फिल्म तेज रफ्तार से भागती है और सीट से आपको चिपकाए रखती है। अकीरा, राणे और राबिया के किरदार बेहद प्रभावशाली हैं और सभी की एंट्री जबरदस्त है। पहले सीन से ही उनकी छवि दर्शकों के दिमाग में अंकित हो जाती है जो फिल्म देखते समय बहुत काम आती है। कहानी में अगले पल क्या होगा इसका अंदाजा लगाना मुश्किल हो जाता है। सेकंड हाफ उस अपेक्षा पर खरा नहीं उतरता जिसकी उम्मीद पहले हाफ में जागती है। यहां पर निर्देशक सोनाक्षी सिन्हा को हीरो की तरह दिखाने की कोशिश करते हैं जिससे फिल्म बार-बार ट्रेक से उतरती है। सोनाक्षी सिन्हा को पागलखाने में भर्ती किए जाने वाला प्रसंग कुछ ज्यादा ही लंबा हो गया है। करोड़ों रुपये लूट लिए गए, लेकिन इसकी कोई हलचल नजर नहीं आती। सेकंड हाफ में सोनाक्षी को प्रमुखता दिए जाने की बजाय राबिया और राणा को ज्यादा फुटेज दिए जाते तो रोमांच और बढ़ सकता था। अकी रा के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें निर्देशक के रूप में मुरुगादास का काम अच्छा है। ज्यादातर समय वे दर्शकों को बांधने में सफल रहे। एक्शन दृश्यों में वे जरूर थोड़ा बहक गए जिसका असर फिल्म पर होता है। सोनाक्षी के किरदाय को लार्जर देन लाइफ पेश करने के चक्कर में नुकसान फिल्म का हुआ है। एक्शन के साथ उन्होंने इमोशन को भी अच्छे से जोड़ा है चाहे वो सोनाक्षी के भाई की पत्नी का दबदबा हो या मूक-बधिर बच्चों के प्रसंग हो। उन्होंने फिल्म को फालतू खींचने की कोशिश नहीं की है। रोमांस की जरूरत नहीं थी तो उन्होंने कोई समझौता नहीं किया। फिल्म के सारे कलाकारों ने बेहतरीन अभिनय किया। सोनाक्षी सिन्हा को एक्शन करते देखना सुखद लगा। एंग्री यंग वूमैन के रोल में वे फिट लगीं। उन्हें निर्देशक ने संवाद कम दिए और ज्यादातर समय उन्हें अपने एक्सप्रेशन से ही काम चलाना पड़ा। अनुराग कश्यप पहले सीन से ही अपनी छाप छोड़ते हैं। हालांकि उन पर नाना पाटेकर का असर दिखा। गर्भवती और ईमानदार पुलिस ऑफिसर के रूप में कोंकणा सेन ने प्रभावशाली अभिनय किया। काश उनको और ज्यादा दृश्य दिए जाते। अमित सध, अतुल कुलकर्णी सहित तमाम कलाकारों का अभिनय उम्दा है। परफेक्ट फिल्म न होने के बावजूद 'अकीरा' आपको बांधकर रखती है और एक्शन-थ्रिलर के शौकीनों को पसंद आ सकती है। बैनर : फॉक्स स्टार स्टुडियोज़ निर्देशक : एआर मुरुगादास संगीत : विशाल-शेखर कलाकार : सोनाक्षी सिन्हा, कोंकणा सेन शर्मा, अनुराग कश्यप, अमित सध सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 18 मिनट 52 सेकंड
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1- बेकार/ 2- औसत/ 3- अच्छी/ 4- शानदार/ 5- अद्‍भुत निर्माता : मधुर भंडारकर, देवेन खोटे, रॉनी स्क्रूवाला, ज़रीना मेहता निर्देशक : मधुर भंडारकर संगीतकार : सलीम-सुलेमान कलाकार : प्रियंका चोपड़ा, कंगना, मुग्‍धा गोडसे, अरबाज खान, समीर सोनी, अर्जन बाजवा, किट्टू गिडवानी, हर्ष छाया, राज बब्बर, किरण जुनेजा ’ए’ सर्टिफिकेट * 17 रील निर्देशक मधुर भंडारकर को पोल खोलने वाला निर्देशक माना जाता है क्योंकि वे प्रत्येक कार्य क्षे‍त्र के अँधेरे में छिपे हुए पक्ष पर रोशनी डालकर उसका कुरूप चेहरा सबके सामने प्रस्तुत करते हैं। इस बार मधुर के निशाने पर फ़ैशन जगत है। तेज रोशनी, छरहरे बदन, खूबसूरत चेहरे, स्टाइलिश ड्रेसेस और एटीट्यूड लिए मॉडल्स की जिंदगी और फैशन की दुनिया में परदे के पीछे क्या होता है, यह जानने के लिए मधुर मॉडल्स के ग्रीन रूम में कैमरा लिए घुस गए हैं। कहानी है चंडीगढ़ में रहने वाली मेघना माथुर (प्रियंक चोपड़ा) की, जिसकी आँखों में ढेर सारे सपने हैं। अपने सपनों को पूरा करने के लिए उसे अपना शहर छोटा लगता है और वह परिवार के खिलाफ मुंबई जाने का निर्णय लेती है। सपने पूरे करने के चक्कर में अक्सर उसके लिए चुकाया जाने वाला मूल्य नजर अंदाज कर दिया जाता है, जिसका परिणाम बेहद घातक सिद्ध होता है। यही गलती मेघना से होती है। जब उसे इस बात का अहसास होता है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। अपनी महत्वाकांक्षाओं को वह पूरा तो कर लेती है, लेकिन शिखर पर पहुँचकर उसे अकेलेपन का अहसास होता है। वह अपने आपको खो देती है और उसे लगता है कि उसने इसकी बहुत बड़ी कीमत अदा की है। फिल्म में जेनेट (मुग्धा गोडसे) और शोनाली गुजराल (कंगना) के रूप में दो और मुख्य किरदार हैं। जेनेट ने कड़ा संघर्ष किया, लेकिन वह सुपरमॉडल नहीं बन पाई। फ़ैशन जगत से जुड़े रहने के लिए वह राहुल (समीर सोनी) नामक शख्स से शादी कर लेती है, जो कि एक गे है। शोनाली के रूप में मॉडल्स की मानसिक स्थिति को दिखाया गया है। वह सुपर मॉडल है, लेकिन काम के दबाव को वह सहन नहीं कर पाती और ड्रग्स में खुशी की तलाश करती है। मेघना माथुर फिल्म का केन्द्रीय पात्र है और उसके जरिए मधुर भंडारकर ने फैशन जगत की पड़ताल की है। इस दुनिया के ग्लैमरस चेहरे के पीछे छिपे तिकड़म, राजनीति, ईर्ष्या, गलाकाट प्रतियोगिता और शोषण को उन्होंने परदे पर पेश किया है। मॉडल्स के पास प्रसिद्धी और शोहरत होती है, लेकिन वे कंपनियों के गुलाम रहते हैं। कांट्रेक्ट के मकड़जाल में उन्हें ऐसा फँसाया जाता है कि उनका हरकदम कंपनियों के इशारे पर संचालित होता है। महिला मॉडल्स पर चूँकि बहुत पैसा लगा रहता है इसलिए वे न गर्भवती हो सकती हैं और न ही शादी कर सकती हैं। मधुर का निर्देशन प्रशंसनीय है, लेकिन उनसे और ज्यादा की उम्मीद थी। फैशन जगत के बजाय उन्होंने मेघना माथुर की संघर्ष यात्रा पर ज्यादा ध्यान दिया। फिल्म देखने के बाद फैशन जगत की नकारात्मक छवि उभरती है। ऐसा लगता है कि सारी मॉडल्स कामयाबी पाने के लिए अपने नैतिक मूल्यों को ताक में रखती हैं। इस जगत के सकारात्मक पहलू को भी दिखाने की कोशिश की जानी थी, हालाँकि कुछ किरदारों के जरिए और अंत में मेघना की वापसी के रूप में उन्होंने यह प्रयास किया है, लेकिन यह काफी नहीं है। फिल्म की लंबाई भी अखरने वाली है और कम से कम इसे बीस मिनट छोटा किया जा सकता है। फिल्म की पटकथा मध्यांतर के पहले और अंतिम तीस मिनट्स में चुस्त है। निरंजन आयंगर के संवाद छोटे और सटीक हैं। फिल्म में गीत-संगीत की गुंजाइश नहीं थी, लेकिन बार-बार पार्श्व में बजते ‘मर जावां’ और ‘जलवा’ अच्छे लगते हैं। फिल्म में दिखाई गई कास्ट्‍यूम्स उल्लेखनीय है। प्रियंका चोपड़ा का अभिनय शानदार है। लगभग पूरे समय वे परदे पर दिखाई देती हैं। उनका किरदार थोड़ी कम उम्र की लड़की की माँग करता है, लेकिन अपने उम्दा अभिनय से वे इस कमी को वे पूरा करती हैं। कंगना का अभिनय सबसे बेहतरीन है। उनका रोल छोटा है, लेकिन वे असर छोड़ने में कामयाब रही हैं। उनका किरदार जो एटीट्यूड माँगता था उससे बढ़कर उन्होंने उसे दिया है। मुग्धा गोडसे को देख लगता ही नहीं कि यह उनकी पहली फिल्म है। पूरे आत्मविश्वास के साथ उन्होंने जेनेट के किरदार को परदे पर पेश किया है। अरबाज खान, अर्जन बाजवा, हर्ष छाया और समीर सोनी ने भी अपने-अपने किरदारों को बखूबी अंजाम दिया है, लेकिन थोड़े अधिक लोकप्रिय चेहरों को लिया जाता तो प्रभाव और बढ़ता। कुल मिलाकर ‘फैशन’ अपने विषय, उम्दा प्रस्तुतीकरण और सशक्त अभिनय की वजह से एक बार देखी जा सकती है। बेकार/ 2- औसत/ 3- अच्छी/ 4- शानदार/ 5- अद्‍भुत
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स्टुडियो : ी निर्माता : ी निर्देशक : संगीत : न, कलाकार : * 2 घंटे 23 मिन ट, बजट : 150 जेम्स बांड सिरीज की ताजा फिल्म स्कायफाल के जरिये सीक्रेट एजेंट 007 अपने हैरतअंगेज कारनामों से 23वीं बार दर्शकों को रोमांचित करने के लिए आया है। उम्मीद के अनुसार जेम्स बांड की यह फिल्म कमाल की है और हैरत नहीं कि ब्रिटेन के कई अखबार स्कायफाल की तारीफ से अटे पड़े हैं। वैसे तो बांड के हैरतअंगेज कारनामों का कोई जवाब नहीं है। लेकिन स्कायफाल को वेटिकन के आधिकारिक अखबार ने बांड सिरीज की सबसे अच्छी फिल्म करार दिया है। कहानी कुछ यूं है कि बांड को एक बार फिर से मुसीबत में फंसी अपनी एजेंसी एमआई 6 और अपनी क्रूर बॉस एम (जुडी डेंच) को बचाना है। बांड को अपने काम के प्रति अपनी वफादारी भी साबित करनी है, क्योंकि अपने अतीत की वजह से भी अपना काफी नुकसान कर बैठा है। एक ऑपरेशन में एम की वजह से जेम्स गलती से अपनी ही एक साथी की गोली का शिकार हो जाता है। बांड के खत्म होते ही एमआई 6 को साइबर टेरेरिस्ट सिल्वा (जेवियर बारडेम) तबाह करना शुरू कर देता है। तभी बांड फीनिक्स जैसा मौत की राख से उठ खड़ा होता है। लगभग 750 करोड़ की लागत से बनी इस फिल्म के निर्देशक सैम मेंडिस ने फिल्म की शुरुआत में ही जबरदस्त बाइक रैसिंग सीन फिल्माया है। इसके अलावा उन्होंने जेम्स बांड जैसे कैरेक्टर का फिर से परिचय देने का साहस भी दिखाया है। मेंडिस ने शायद ऐसा इसलिए किया हो, क्योंकि जेम्स बांड सिरीज की फिल्म लगभग चार साल बाद आई है, ऐसे में वे दर्शकों के दिमाग में बांड को फिर से ‍स्थापित करना चाहते हों। फिल्म के शुरूआती सीन में ही जेम्स बांड (डेनियल क्रेग) दुश्मनों से संवेदनशील जानकारी वापस लाने के लिए लगभग आधे इस्तांबुल को नष्ट कर देता है। इस सीन से पुराने जेम्स बांड की छवि दर्शकों के दिमाग में कौंधती है और उन्हें उम्मीद बंधती है कि इस फिल्म में उन्हें एक्शन और जेम्स बांड के हैरतअंगेज कारनामों का अच्छा खासा तड़का मिलेगा। बांड सिरीज की पिछली फिल्मों के पटकथा लेखक नील पुर्विस और रॉबर्ट वेड (केसिनो रॉयल और डाइ अनादर डे) ने ग्लेडिएटर जैसी फिल्म के लेखक जॉन लोगान के साथ मिलकर स्कायफाल की पटकथा को कहीं भी ढीला नहीं पड़ने दिया है। फिल्म की शुरुआत से क्लाइमैक्स तक फिल्म दर्शकों को बांधे रखती है। स्कॉटलैंड, मकाऊ, इस्तानबुल और लंदन के दृश्य बेहद उम्दा हैं और इनके जरिये कहानी को रोचक तरीके से आगे बढ़ाया गया है। हालांकि बांड के रूप दर्शक एक युवा और तेजतर्राट अभिनेता को देखना चाहते हैं। जेम्स बांड को देखने की चाहत के साथ दर्शकों के मन में यह आशंका थी कि डेनियल क्रेग इस उम्र में बांड की हैरतअंगेज भरी जिंदगी जी पाएंगे? लेकिन क्रेग ने अपने दमदार अभिनय से इस बात का अहसास नहीं होने दिया है। स्कायफाल में उनका किरदार इस तरीके से गढ़ा गया है कि बांड की उम्र कहीं भी बीच में नहीं आती। डेनियल क्रेग ने एक बार फिर बांड को अपने अंदाज में जिया है। बांड जिस दर्जे का एक्शन करता है, उसी स्तर का ह्यूमर और इमोशन भी उसमे है। सिल्वा ने अपनी खलनायकी अच्छी तरह निभाई है, लेकिन वे पर्दे पर डरावने नहीं लगे हैं, जो शायद उनके किरदार के लिए जरूरी था। जुडी डेंच का अभिनय लाजवाब है और वे भावुक दृश्यों में प्रभावित करती हैं। कुल मिलाकर स्कायफाल जेम्स बांड सिरीज की एक और जबरदस्त फिल्म है जो सिनेमाघर से निकलने के बाद भी दर्शकों के दिमाग में घूमती है। तो अगर आप बांड फैन हैं तो स्कायफाल देखना न भूलें और अगर आप बांड फैन नहीं हैं तो स्कायफाल यह जानने के लिए देखें कि बांड आखिर है क्या और क्या कर सकता है? बेकार, 2-औसत, 3-अच्छी, 4-बहुत अच्छी, 5-अद्भुत
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चंद्रमोहन शर्मा आजकल फ्रैंचाइजी फिल्में बनाने का ट्रेंड चल निकला है। हॉलिवुड में यह ट्रेंड काफी कामयाब रहा तो अब बॉलिवुड में इस पर हाथ आजमाया जा रहा है। हेट स्टोरी सीरीज की यह तीसरी फिल्म है। इसमें पिछली फिल्मों की तरह एक नहीं बल्कि दो-दो हॉट ब्यूटी हैं। डायरेक्टर विशाल पांड्या ने फिल्म को थ्रिलर बनाने की अच्छी कोशिश की है। इसमें हर ऐसा मसाला परोसने की कोशिश की है, जो दर्शकों की उस क्लास को सिनेमाघरों तक खींचने का दम रखता है जो A सर्टिफिकेट फिल्मों में देखने की चाह लिए थिएटर तक जाते हैं। जरीन खान और डेजी शाह के कुछ बोल्ड सीन्स पर सेंसर की कैंची चली है, लेकिन सेंसर की मौजूदा प्रिव्यू पॉलिसी के चलते ऐसे सीन्स की आस दर्शकों को पहले से नहीं थी। कहानी: आदित्य दीवान (शरमन जोशी) कामयाब बिजनेसमैन है। उसकी खूबसूरत पत्नी सिया दीवान (जरीन खान) बिजनेस में हसबैंड के साथ खड़ी नजर आती है। आदित्य ने अपने बड़े भाई विक्रम (प्रियांशु चटर्जी) की मौत के बाद फैमिली का बिजनस संभाला है। अचानक एक दिन आदित्य को आउडी कार कोई अनजान शख्स गिफ्ट में देता है। कार पर लगे विजिटंग कार्ड को देखकर आदित्य कार गिफ्ट करने वाले शख्स के बारे में पता लगाता है। यह आउडी कार सौरव सिंघानिया (करण सिंह ग्रोवर) ने उसे गिफ्ट में दी है। सौरव, आदित्य और सिया को अपने बंगले पर डिनर के लिए बुलाकर उन्हें बिना ब्याज करोड़ों रुपये का कर्ज ऑफर करता है। सौरव इस मेहरबानी के बदले आदित्य की वाइफ सिया के साथ एक रात बिताने की इच्छा जताता है। आदित्य गुस्से में सिया के साथ उसके घर से चला जाता है। यहीं से सौरव आदित्य के बिजनस को तबाह करने पर आमादा हो जाता है। सौरव एक साजिश रचता है, जिसके चलते आदित्य अपनी सेक्रटरी काव्या (डेज़ी शाह) को ऑफिस से निकाल देता है। कुछ दिन बाद काव्या की लाश शहर से दूर मिलती है। सौरव कौन है और कहां से आया है। आदित्य को बरबाद करने पर वह क्यों तुला है यही इस फिल्म का सस्पेंस है। ऐक्टिंग: फिल्म के चार लीड किरदारों सिया, सौरव, काव्या और आदित्य की बात करें तो सभी ने अपने किरदार को जैसे कैमरे के सामने बस निभा भर दिया है। जरीन खान ने अपनी बेचारी वाली इमेज को तो तोड़ा है। पूरी फिल्म में जरीन के चेहरे का एक्सप्रेशन एक जैसा नजर आता है। आदित्य दीवान के किरदार के लिए शरमन जोशी को लेने की मजबूरी समझ से परे है। इस फिल्म में अरबपति बिजनसमैन का किरदार निभा रहे शरमन किसी सीन में टॉप बिजनेसमैन नहीं लगे। करण सिंह ग्रोवर रोबीले चेहरे और बॉडी के दम पर पूरी फिल्म में शरमन पर हावी नजर आए। डायरेक्शन: विक्रम भट्ट की कहानी को विशाल ने हॉट सीन्स और सस्पेंस का तड़का लगाकर पेश करने की कोशिश की है। कहानी के बीच-बीच में, जरीन और डेजी के बोल्ड सीन्स के साथ-साथ आइटम नंबर टाइप गानों की मौजूदगी दर्शकों को कुछ हद तक फिल्म के साथ बांधने में कामयाब है, लेकिन विशाल पूरी फिल्म में किसी भी कलाकार से अच्छी एक्टिंग तो दूर औसत एक्टिंग भी नहीं करवा पाए। संगीत: फिल्म का संगीत यकीनन फिल्म का प्लस पॉइंट है। खासतौर पर 'तुम्हें अपना बनाने की' और 'वजह तुम हो' गाने म्यूजिक लवर्स में पहले से हिट हैं। क्यों देखें: अगर आप हॉट, सेक्सी के साथ-साथ रिवेंज-ड्रामा-थ्रिलर फिल्मों के शौकीन हैं तो एकबार देख सकते हैं। साफ-सुथरी, एंटरटेनर फिल्मों के शौकीन हैं तो आप हेट स्टोरी को पचा नहीं पाएंगे।
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साउथ में कई सुपरहिट फिल्म बना चुके ए आर मुरुगदॉस के नाम बॉलिवुड में भी दो सुपरहिट फिल्में हैं। आमिर खान स्टारर 'गजनी' और अक्षय कुमार की हिट फिल्म 'हॉलिडे'। मुरुगदॉस को ऐक्शन और थ्रिलर फिल्में बनाने वाले कामयाब डायरेक्टर के तौर पर जाना जाता है। भारतीय फिल्म इंडस्ट्री खासकर हिंदी फिल्मों की बात करे तो अक्सर ऐक्शन फिल्मों का ताना-बाना हीरो के इर्द-गिर्द ही रहा है। मुरुगदॉस भी इससे अछूते नहीं रहे। ऐसे में पिछले साल जब उन्होंने तमिल फिल्म 'मोनारगुरु' को हिंदी में बनाने का फैसला किया तो इस बार उन्होंने कुछ नया करने की चाह में अपनी इस फिल्म को हीरो की बजाए हिरोइन के इर्दगिर्द रखने का फैसला किया। 'हॉलिडे' की शूटिंग के दौरान मुरुगदॉस ने सोनाक्षी पर फिल्मांए कुछ ऐसे ऐक्शन सीन्स पर गौर किया तो उन्हें लगा सोनाक्षी ही उनकी 'अकीरा' है। मुरुगदॉस ने जब सोनाक्षी पर भरोसा जताया तो उन्होंने भी उनकी कसौटी पर सौ फीसदी खरा उतरने का फैसला किया। इस फिल्म में अपने लगभग सभी ऐक्शन सीन्स को सोनाक्षी ने ड्यूप्लिकेट की मदद के बिना किया और शूटिंग शुरू होने से पहले अपने बेहद बिजी शेड्यूल में लंबा वक्त जिम में गुजारा। कहानी : जोधपुर, राजस्थान में अपने परिवार के साथ रह रही अकीरा शर्मा (सोनाक्षी सिन्हा) को बचपन में ही उनके पिता (अतुल कुलकर्णी) ने उस वक्त सेल्फ डिफेंस की ट्रेनिंग देने का फैसला किया, जब उन्होंने देखा स्कूल के बाहर चौराहे पर 'अकीरा' की एक सहेली के चेहरे पर कुछ सिरफिरे लड़कों ने तेजाब डाल दिया। 'अकीरा' पुलिस स्टेशन में लड़की पर तेजाब डालने वाले लड़के की पहचान करती है, लड़के को पुलिस कस्टडी में ले लेती है। कुछ दिनों बाद 'अकीरा' को वही लड़का अपने दोस्तों के साथ उस वक्त घेर लेता है, जब वह स्कूल से लौट रही होती है। सेल्फ डिफेंस की ट्रेनिंग ले चुकी 'अकीरा' इन सभी की जमकर पिटाई करती है। इसी दौरान लड़का जब तेजाब की बोतल लाकर अकीरा के चेहरे पर डालने की कोशिश करता है तो वह पलटवार करती है और तेजाब से उसी लड़के का चेहरा जल जाता है। इस घटना के बाद अकीरा को रिमांड होम भेज दिया जाता है। वह अब रिमांड होम से बाहर आ चुकी है, लेकिन उसके पिता दुनिया में नहीं रहे। ऐसे में मुंबई में रह रहा 'अकीरा' का भाई उसे और अपनी मां को अपने घर ले आता है। कॉलेज में 'अकीरा' को सीनियर जब परेशान करते है तो वह उन्हें अच्छा सबक सीखाती है। सिंपल चल रही कहानी में ट्विस्ट उस वक्त आता है, जब क्राइम ब्रांच का हर वक्त नशे में धुत्त रहने वाले एसीपी राणे (अनुराग कश्यप) का एक ऐसा विडियो लीक होता है, जो उसे जेल की सलाखों के पीछे पहुंचा सकता है। जिस विडियो कैमरे से राणे का विडियो बनाया गया वह कैमरा अकीरा के पास मिलता है। राणे के साथी अकीरा को पुलिस कस्टडी में लेकर ऐसा कुछ करते है कि उसे सरकारी पागलखाने में भिजवा दिया जाता है। ऐक्टिंग: ऐक्शन सीन्स की बात करे तो यकीनन सोनाक्षी ने ड्यूप्लिकेट की मदद लिए बिना कुछ बेहद खतरनाक सीन्स को भी बड़ी बखूबी के साथ किया है। ऐक्शन सीन्स के अलावा सोनाक्षी पर फिल्माए पुलिस हिरासत और पागलखाने में टॉचर्र करने के सीन्स देखने लायक हैं। इन सीन्स को असरदार बनाने के लिए सोनाक्षी ने अच्छी मेहनत की है। नशे में धुत्त रहने वाले मुंबई पुलिस के करप्ट एसीपी राणे के किरदार में अनुराग कश्यप खूब जमे है। अनुराग के फेस एक्सप्रेशन और उनकी डायलॉग डिलिवरी का जवाब नहीं। ईमानदार पुलिस इंस्पेक्टर के रोल में कोंकणा सेन शर्मा की ऐक्टिंग दमदार है। अमित साद और अतुल कुलकर्णी को कहानी में बेहद कम फुटेज मिली, लेकिन दोनों ने अपनी पहचान छोड़ने में कामयाब रहे। निर्देशन : डायरेक्टर ए आर मुरुगदॉस ने इस फिल्म में यह दिखाने की अच्छी कोशिश अच्छी की है कि एक अकेली लड़की को अपनी बेगुनाही साबित करने के लिए किन-किन हालात से गुजरना होता है। बेशक इस फिल्म को ऐक्शन फिल्म कहकर प्रमोट किया गया, लेकिन इंटरवल के बाद ऐक्शन कम और इमोशन सीन्स कहीं ज्यादा हैं। पागलखाने में बेगुनाह को बिजली के झटके देने और बुरी तरह से प्रताड़ित करने के सीन्स पर कैंची चलानी चाहिए थी। इंटरवल के बाद ऐसा भी लगता है कहानी ट्रैक से उतर रही है। 'अकीरा' के संघर्ष को साइड करके फिल्म पुलिस और उसके बीच की लुकाछिपी पर ज्यादा फोकस करती है। फिल्म का क्लाइमेक्स ज्यादा असरदार नहीं बन पड़ा है। अगर डायरेक्टर क्लाइमेक्स पर थोड़ी और मेहनत करते तो 'अकीरा' दर्शकों की हर क्लास की कसौटी पर खरा उतर पाती। संगीत: विशाल-शेखर का संगीत कहानी के माहौली पर पूरी तरह से फिट है। रिलीज से पहले फिल्म के दो गाने कई म्यूजिक चार्ट में अपनी जगह बना चुके हैं। क्यों देखें: अगर आप सोनाक्षी सिन्हा के फैन्स है तो फिल्म मिस ना करे। फिल्म में महिला सशक्तीकरण को असरदार ढंग से पेश करते हुए एक अच्छा मेसेज भी दिया गया है।
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चंद्रमोहन शर्मा, नवभारत टाइम्स ऐसा शायद पहली बार हुआ है जब साउथ की कोई फिल्म हिंदी में डब होकर दिल्ली एनसीआर में सवा सौ स्क्रीन्स पर रिलीज हुई हो, इतना ही नहीं दिल्ली एनसीआर में रजनी सर की इस फिल्म को तमिल, तेलुगू, हिंदी के अलावा बांग्ला में भी रिलीज किया गया। जहां साउथ में इस फिल्म के शो सुबह साढ़े तीन बजे से शुरू हुए तो दिल्ली में भी सुबह 9 बजे से शो हुए। देशभर में चार हजार और दुनिया में करीब आठ हजार स्क्रीन्स में रिलीज हुई इस फिल्म के क्रेज को देखते हुए ट्रेड पंडितों ने इस फिल्म की पहले दिन की कलेक्शन का आंकड़ा चालीस करोड़ से ज्यादा होने की भविष्यवाणी कर रखी है। वैसे भी रजनी सर की इस फिल्म के डायरेक्टर पी. रंजीत के नाम इससे पहले ही अटकत्ती और मद्रास जैसी सुपर हिट फिल्में दर्ज हैं। ऐसे में रजनीकांत की इस नई फिल्म में रजनी फैंस के लिए बहुत कुछ है। कहानी: कबालीशरण (रजनीकांत) मलयेशिया में कबाली के नाम से जाना जाता है, मलयेशिया की एक जेल से गैंगस्टर कबालीशरण की पूरे पच्चीस साल के बाद अब रिहाई हो रही है। कबाली की रिहाई को लेकर पुलिस-प्रशासन काफी सकते में है, पुलिस के साथ प्रशासन को भी यकीन है कि कबाली के जेल के बाहर आने के बाद शहर में अफरातफरी का माहौल होने के अलावा अपराध भी कई गुना बढ़ सकता है। दरअसल, कबाली अब भी उन लोगों को नहीं भूला है कि जिनकी वजह से उसने अपनी लाइफ का बड़ा हिस्सा जेल में गुजारा, सो पुलिस को लगता है कबाली जेल से छूटने के बाद अपने इन दुश्मनों को किसी भी कीमत पर नहीं छोड़ेगा। इस बीच शहर में सक्रिय हुआ एक दूसरा गैंग जिसकी पहचान 43 से है, जेल से कबाली के बाहर आने का इंतजार कर रहा है। ऐसे में, कबाली जेल से जब छूटकर बाहर आता है तो हैरान रह जाता है, कबाली गैंग के लोग अब भी गैरकानूनी काम करने में लगे हैं, लेकिन इन लोगों ने भी अपने नियम बना रखे हैं। जेल जाने से पहले कबाली ड्रग्स और जिस्मफरोशी से नफरत करता था, कबाली पहले ही अपनी खूबसूरत बीवी रूपा (राधिका आप्टे) के साथ बेटी भी खो चुका है। अब जब कबाली जेल से बाहर आ चुका है तो गैंग के लोगों को डर है कि कबाली उनके गैंरकानूनी धंधे को हमेशा के लिए खत्म कर देगा। मलयेशिया और भारत के बीच पनपती इस कहानी में कई ऐसे टर्निंग पॉइंट्स भी आते हैं जब दर्शक कबाली के अलग-अलग लुक और स्टाइल देखते हैं। ऐक्टिंग: अपनी पिछली फिल्मों की तरह इस फिल्म में रजनीकांत ने शुरुआत से एंड तक अपने दर्शकों को सौ फीसदी एंटरटेन किया है। इस फिल्म में रजनीकांत ने गैंगस्टर से लेकर कई अलग-अलग किरदारों को जानदार ढंग से निभाया है। वैसे भी रजनी के फैंस अपने चहेते स्टार की स्क्रीन पर ज्यादा से ज्यादा मौजूदगी के लिए सिनेमाहॉल जाते हैं। ऐसे में रजनीकांत पर फिल्माएं स्टंट ऐक्शन या कहिए मारकाट के सीन्स खूब बन पड़े हैं। इस फिल्म में रजनीकांत ने अपने लुक और स्टाइल के साथ ऐक्शन सीन्स को दमदार निभाने के लिए अच्छीखासी मेहनत की है। मांझी सहित कई फिल्मों में अपनी पहचान बना चुकी राधिका आप्टे ने इस बार भी बेहतरीन ऐक्टिंग की है। रजनीकांत के साथ राधिका के कई सीन्स बेहद असरदार बन पड़े हैं। देखिए फिल्म का ट्रेलर: निर्देशन: साउथ फिल्म इंडस्ट्री में डायरेक्टर पा रंजीत की पिछली फिल्में अटकत्ती और मद्रास बॉक्स आफिस पर सुपर हिट रही, इन फिल्मों ने टॉप कलेक्शन के साथ-साथ क्रिटिक्स की तारीफें भी जमकर बटोरी। रंजीत की इस नई फिल्म की स्क्रिप्ट में बेशक कुछ नयापन ना हो लेकिन हर वो मसाला मौजूद है जो रजनी के फैंस को चाहिए। रंजीत ने फिल्म के रजनीकांत की मौजूदगी वाले ज्यादातर सीन्स को स्पेशल विजुअल इफेक्टस के साथ दिखाने की अच्छी पहल की है। वहीं रंजीत ने मलयेशिया की बेहतरीन लोकेशंस में फिल्म शूट करके करके फिल्म को और भी भव्य बना दिया है। फिल्म की लंबाई कुछ ज्यादा हो गई है, अगर इंटरवल से पहले के कुछ सीन्स पर अगर कैंची चलती तो यकीनन फिल्म में और जान पड़ती। क्यों देखें: अगर रजनीकांत के फॉलोअर हैं और उनकी फिल्में मिस नहीं करते तो इस बार भी अपने चहेते स्टार की इस फिल्म को देखने जाएं। वैसे भी रजनी सर की फिल्मों के साथ तर्क-वितर्क जैसे शब्दों का कुछ लेना देना नहीं होता। दुनिया भर में फैले रजनीकांत के फैंस अपने चहेते सुपर स्टार की फिल्म में जो कुछ देखने की चाह में आते हैं उन उम्मीदों पर फिल्म खरी उतरती है। इस बार भी कबाली में यही कुछ है। फिर भी, अगर आप इस फिल्म की तुलना पिछले साल बॉक्स ऑफिस पर तहलका मचा चुकी साउथ की बाहुबली के साथ करेंगे तो यकीनन कबाली उस फिल्म के सामने पीछे नजर आती है।
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हॉलिवुड फिल्म ऐंटमैन ऐंड द वास्प 2015 में आई फिल्म ऐंटमैन का सीक्वल है। फिल्म की शुरुआत में स्कॉट लैंग उर्फ ऐंटमैन (पॉल रूड) को एफबीआई ने दो साल के लिए नजरबंद किया हुआ है। बावजूद इसके वह अपनी बेटी का हर तरह से मनोरंजन करने की कोशिश करते हुए दोहरी जिम्मेदारी निभाता है। उसके ऊपर पाबंदी है कि वह डॉक्टर हैंक पेम (माइकल डगलस) और उनकी बेटी होप उर्फ वास्प (इवेंजलाइन लिली) से सम्पर्क नहीं कर सकता। एक दिन अचानक स्कॉट को वास्प की मां से कुछ मेसेज मिलते हैं, जो कि क्वॉन्टम फील्ड में बंद है। ऐसे में, वह अपने ऊपर लगी पाबंदी की परवाह न करते हुए हैंक को मेसेज करता है। दरअसल, एक मिसाइल को नाकाम करने के मिशन में अपनी वाइफ को क्वॉन्टम फील्ड में छोड़ने पर मजबूर हुए हैंक और उसकी बेटी वास्प ने उसे वापस लाने के लिए वहां तक एक सुरंग बनाई है। वे दोनों स्कॉट को अगवा कर लेते हैं, लेकिन उनके मिशन में एक लड़की रुकावट डाल देती है, जो कि हैंक के किसी पुराने सहयोगी की बेटी है और अब किसी अजीब बीमारी की शिकार है। वास्प किसी भी कीमत पर अपनी मां को वापस लाना चाहती है। वहीं हैंक और स्कॉट उसकी मदद करते हैं। वे अपने मिशन में कामयाब होते हैं या नहीं, यह जानने के लिए आपको सिनेमाघर जाना होगा। फिल्म के सभी मुख्य कलाकारों ने बेहतरीन ऐक्टिंग की है। पॉल रूड ने एक सुपरहीरो से लेकर घर पर बेटी की देखभाल करने वाले बाप के रोल को बढ़िया तरीके से निभाया है। शुरुआती सीन में पॉल और बेटी की परेशानियां देखकर हालिया हॉलिवुड फिल्म 'इनक्रेडिबल्स 2' की याद आ जाती है। इसके अलावा, पॉल ने ऐक्शन के अलावा बढ़िया कॉमिडी सीन भी किए हैं। बात अगर इवेंजलाइन लिली की करें, तो वास्प के रोल में वह शानदार लगी हैं। उन्होंने बढ़िया ऐक्शन सीन किए। वहीं माइकल डगलस के पास भले ही फर्स्ट हाफ में भले ही कुछ खास करने का नहीं था, लेकिन फिल्म के क्लाइमैक्स में उन्होंने अपना दम दिखाया है। हॉलिवुड फिल्मों की आजकल हिंदी में डबिंग इतनी बढ़िया होने लगी है कि आपका पूरा मनोरंजन हो जाता है। ऐंटमैन ऐंड द वास्प भी इस मामले में पीछे नहीं है। फिल्म की बेहतरीन हिंदी डबिंग भी आपको खूब गुदगुदाती है। इसके अलावा, थ्रीडी में बेहतरीन ऐक्शन और छोटी-बड़ी होती कारों के सीन भी आपको मजेदार लगते हैं। वहीं ऐंटमैन की सेना में शामिल खतरनाक चींटियां भी पर्दे पर दिलचस्प नजर आती हैं। इस वीकेंड अगर कुछ मजेदार देखना चाहते हैं, तो इस फिल्म को मिस न करें।
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कॉफी विद डी का सबसे रोचक हिस्सा होना था दाऊद का काल्पनिक इंटरव्यू। इसके लिए लंबा इंतजार कराया गया। इंटरवल होने के बाद 15 मिनट बीत जाते हैं तब जाकर वो इंटरव्यू शुरू होता है जिसके लिए इस फिल्म का निर्माण किया गया है। यह इंटरव्यू इतना कमजोर और घटिया है कि आश्चर्य होता है कि इस पर फिल्म बनाने का निर्णय कैसे ले लिया गया। इस इंटरव्यू में न हंसी-मजाक है और न कोई गंभीर बात। लेखक कुछ सोच ही नहीं पाए। केवल आइडिया सोच लिया गया कि दाऊद का काल्पनिक इंटरव्यू दिखाना है और फिल्म बना दी गई। कायदे से तो पूरी फिल्म दाऊद का इंटरव्यू होनी थी, लेकिन इतना मसाला लेखक के पास नहीं था। इसलिए इंटरव्यू के शुरू होने के पहले जिस तरह से फिल्म को खींचा गया है वो दर्शाता है कि फिल्म से जुड़े लोग कितने कच्चे हैं। ऐसा लगा है कि उनकी सोचने-समझने की शक्ति खत्म हो गई हो। इंटरवल तक फिल्म में बैठे रहना मुश्किल हो जाता है और राहत तो तभी मिलती है जब फिल्म खत्म होती है। अर्णब गोस्वामी से प्रेरित होकर अर्णब नामक किरदार गढ़ा गया है जो एक टीवी चैनल पर काम करता है। लोगों से बातचीत करते समय चीखता चिल्लाता रहता है। अर्णब का बॉस उसके काम से खुश नहीं है। टीआरपी लगातार गिर रही है। दो महीने का समय दिया जाता है। 'डी' का इंटरव्यू लेने का विचार अर्णब को आता है। वह सोशल मीडिया के जरिये डी को उकसाता है, उसके बारे में झूठी बातें प्रचारित करता है। आखिरकार डी उसे कराची इंटरव्यू के लिए बुलाता है। ये सारा प्रसंग या कहे कि पूरी फिल्म दोयम दर्जे की है। इस फिल्म का निर्माण ही क्यों किया गया है यह समझ से परे है। न इसमें मनोरंजन है और न ही डी के बारे में कुछ नई बात इसमें की गई हैं। बेहूदा प्रसंग डाल कर फिल्म को पूरा किया गया है। फिल्म का निर्देशन विशाल मिश्रा ने किया है। कहानी भी उनकी ही है। विशाल को आइडिया तो अच्छा सूझा था, लेकिन उस पर फिल्म बनाने लायक न उनके पास स्क्रिप्ट थी और न ही निर्देशकीय कौशल। ‍विशाल का निर्देशन स्तरहीन है।कई शॉट्स तो उन्होंने कैमरे के सामने कलाकार खड़े कर फिल्मा लिए। विशाल का काम ऐसा है मानो किसी शख्स ने निर्देशन सीखना शुरू किया हो और उसे फिल्म बनाने को मिल गई हो। कई दृश्यों में उनकी कमजोरी उभर कर सामने आती है। जैसे, अर्णब और उसकी पत्नी बात कर रहे हैं। टीवी भी चालू है। जब पंच लाइन की जरूरत हो तो टीवी की आवाज सुनाई देती थी बाकी समय टीवी गूंगा हो जाता था। लेखक के रूप में विशाल मिश्रा ने रोमांस और कॉमेडी डाल कर दर्शकों को बहलाने की कोशिश की है, लेकिन ये ट्रेजेडी बन गए हैं। फिल्म का नाम कॉफी विद डी है, लेकिन यह फिल्म में कही सुनाई या दिखाई नहीं देता। कम से कम इस इंटरव्यू को ही 'कॉफी विद डी' का नाम दिया जा सकता था। अभिनय के मामले में भी फिल्म निराशाजनक है। सुनील ग्रोवर प्रभावित नहीं कर पाए। कई बार उन्होंने ओवरएक्टिंग की तो कई बार उनके चेहरे पर सीन के अनुरुप भाव नहीं आ पाए। दीपान्निता शर्मा को फिल्म में ग्लैमर बढ़ाने के लिए रखा गया। अंजना सुखानी और राजेश शर्मा का अभिनय ठीक रहा। डी का रोल ज़ाकिर हुसैन ने निभाया और एक खास किस्म का मैनेरिज़्म उन्होंने अपने किरदार को दिया है। पंकज त्रिपाठी निराश करते हैं। इस डी के साथ कॉफी पीने से सिर दर्द की शिकायत हो सकती है। बैनर : एपेक्स एंटरटेनमेंट निर्माता : विनोद रमानी निर्देशक : विशाल मिश्रा संगीत : सुपरबिआ कलाकार : सुनील ग्रोवर, अंजना सुखानी, दी‍पान्निता शर्मा, ज़ाकिर हुसैन, पंकज त्रिपाठी सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 2 घंटे 3 मिनट
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'सामने आतंकवादियों की फौज खड़ी है' एक नर्स कहती है। 'लेकिन टाइगर जिंदा है'- एक आवाज आती है और सलमान खान एमजी 42 मशीनगन चलाते नजर आते हैं। 30 किलो वजनी, 1200 राउंड्स प्रति मिनिट की स्पीड, बेल्ट लोडेड मैगज़ीन वाली एमजी 42 जब सलमान के हाथों में नजर आती है तो यह फिल्म का बेहतरीन सीन बन जाता है। फौलादी शरीर, माथे से रिसता खून और हाथों में मशीनगन लिए गोलियां दागते सलमान खान एक सुपरस्टार नजर आते हैं और उनका यही अंदाज देखने के लिए तो उनके फैंस टिकट खरीदते हैं। 'टाइगर जिंदा है' में वो सारे मसाले घोंट कर निर्देशक अली अब्बास ज़फर ने डाल दिए हैं जो सलमान के फैंस को दीवाना कर देते हैं। टाइगर जिंदा है लार्जर देन लाइफ मूवी है जो सलमान के स्टारडम को मैच करती है। टाइगर जिंदा है फिल्म एक था टाइगर का सीक्वल है। एक था टाइगर अच्छी फिल्म नहीं थी और यह बात खुद निर्देशक कबीर खान ने कबूली थी। वो तो सलमान खान के स्टारडम के कारण बॉक्स ऑफिस पर एक था टाइगर की दहाड़ गूंजी थी। वो फिल्म कैसी भी हो, लेकिन उसके दो किरदार अविनाश उर्फ टाइगर और ज़ोया बहुत उम्दा हैं। टाइगर जिंदा है के ट्रेलर में ही कहानी उजागर हो जाती है। इराक में भारतीय नर्सों को अपहरणकर्ताओं ने बंधक बना लिया है। इन्हें छुड़ाने का जिम्मा टाइगर पर है। रोमांच इस बात में है कि कैसे मिशन को अंजाम दिया जाता है। फाइलों में मान लिया गया था कि क्यूबा में टाइगर की मौत हो गई है जबकि ज़ोया से शादी के बाद टाइगर सब कुछ छोड़ कर ऑस्ट्रिया में पारिवारिक जिंदगी जीने लगता है। जूनियर नामक एक उनका बेटा भी हो चुका है। नर्सों को छुड़ाने की जब बात याद आती है तो शिनॉय सर को टाइगर की याद आती है और वे 24 घंटों में टाइगर को ढूंढ निकालते हैं। 40 नर्सों में कुछ पाकिस्तानी भी हैं। यह बात पता चलते ही ज़ोया भी टाइगर के मिशन में शामिल हो जाती हैं। एक तीसरे ही देश में भारतीय और पाकिस्तानी एजेंट्स मिल कर मिशन को अंजाम देते हैं। निर्देशक अली जानते थे कि उनके पास प्रस्तुत करने के लिए सीधी और सरल कहानी है इसलिए उन्होंने एक्शन का जोरदार तड़का लगाकर फिल्म को बेहतर बनाने की कोशिश की है। फिल्म में एक्शन का स्तर इतना ऊंचा रखा है कि उसके रोमांच में खोकर दर्शक अन्य बातों को भूल जाता है। फिल्म में ऐसे कई दृश्य डाले गए हैं जो दर्शकों को सीटियां और तालियां बजाने पर मजबूर करते हैं, जैसे- कैटरीना कैफ का एंट्री सीन लाजवाब है जब वे कैमरे में बिना आए पल भर में गुंडों को ठिकाने लगा देती हैं। दो भारतीय एजेंट्स का बैग को ऊपर रखने के लिए विवाद करना और बैग खोलने पर तिरंगे का निकलना, भारतीय और पाकिस्तानी एजेंट्स का साथ में बैठकर बातें करना कि यदि दोनों देश एक होते तो क्या समां होता, सचिन और अकरम एक ही टीम में खेलते, फिल्म के अंत में पाकिस्तानी एजेंट का तिरंगा फहराना और फिर भारतीय एजेंट के कहने पर पाकिस्तानी झंडा भी साथ में लहराना। हालांकि कुछ दृश्यों में महसूस होता है कि देशभक्ति की लहर बेवजह पैदा की जा रही है। फिल्म के एक्शन सीन जबरदस्त हैं। एक लंबा हैवी-ड्यूटी एक्शन सीक्वेंस है जिसमें इराक में टाइगर का पीछा आतंकवादी करते हैं। घोड़े और कार के सहारे वे उनको खूब छकाते हैं। यह सीन लाजवाब है। जहां तक कमियों का सवाल है तो अली अब्बास ज़फर ने फिल्म के नाम पर खूब छूट ली है। खतरनाक आतंकवादियों द्वारा भारतीय नर्सों तथा टाइगर और उसकी गैंग को इस तरह खुला छोड़ देना, साथ ही टाइगर गैंग कई चीजें बड़ी आसानी से कर देती है, ये बातें थोड़ा अखरती हैं। खाने में बेहोशी की दवा मिलाने का फॉर्मूला तो मनमोहन देसाई के जमाने से चला आ रहा है। कुछ नया सोचा जाना चाहिए था। जितने खतरनाक आतंकवादी बताए गए हैं उतनी कठिन चुनौती वे पेश नहीं कर पाते। दुनिया में अशांति के माहौल के लिए वे व्यवसायी जिम्मेदार हैं जो हथियार बनाते हैं, जैसी बातों को हौले से छुआ गया है। यहां पर लेखक ने गहराई के साथ उतरना पसंद नहीं किया है। कहानी की इन कमियों को तेज रफ्तार और रोमांचक एक्शन के सहारे छिपाया गया है। इस कारण दर्शक भी इन बातों पर गौर नहीं करते हैं। टाइगर जिंदा है देखते समय बेबी, एअरलिफ्ट और एजेंट विनोद जैसी फिल्में भी याद आती हैं। इन फिल्मों में इसी तरह के मिशन थे, टीम वर्क था। 'टाइगर जिंदा है' में वही दोहराव देखने को मिलता है, लेकिन इस फिल्म को उन फिल्मों से जो बात जुदा करती है वो है सलमान खान का स्टारडम। निर्देशक के रूप में अली अब्बास ज़फर ने फिल्म को हॉलीवुड स्टाइल लुक दिया है। उन्होंने फिल्म में संतुलन बनाए रखा है और दर्शकों को हर तरह के मसाले परोसे हैं। एक्शन फिल्म होने के बावजूद उन्होंने हर दर्शक और वर्ग का ख्याल रखा है और एक्शन का ओवरडोज नहीं होने दिया। अच्छी बात यह है कि वे दर्शक की फिल्म में रूचि बनाए रखते हैं। इंटरवल के बाद फिल्म में जरूर डिप आता है, लेकिन कुछ मिनट बाद गाड़ी फिर पटरी पर लौट आती है। अली ने सलमान के स्टार पॉवर का बखूबी उपयोग किया है। सलमान को उसी स्टाइल और अदा के साथ पेश किया है जो दर्शकों अच्छी लगती है। हर सीन में सलमान का दबदबा नजर आता है। सलमान का एंट्री सीन भी शानदार है। थोड़ी देर चेहरा आधा ढंका नजर आता है। फिर पूरा चेहरा तब नजर आता है जब वे खतरनाक भेड़ियों से अपने बेटे को इस शर्त के साथ बचाते हैं कि कोई भी भेड़िया मारा न जाए। यह सीक्वेंस फिल्म का माहौल बना देता है। शर्टलेस सलमान को भी एक्शन करते दिखाया गया है ताकि 'भाई' के फैंस की हर इच्छा पूरी हो जाए। सलमान खान ने इस फिल्म के लिए अपना वजन कम किया है। वे फिट और हैंडसम लगे हैं। एक्शन दृश्यों में उन्होंने विशेष मेहनत की है। टाइगर के रूप में वे ऐसे शख्स लगे हैं जो इतनी भारी भरकम जिम्मेदारी को अपने मजबूत कंधों पर उठा सकता है। अभिनय के नाम पर उनका एक विशेष अंदाज है, वही उन्होंने दोहराया है और अपने फैंस को ताली और सीटी बजाने के कई मौके दिए हैं। कैटरीना कैफ के सीन कम हैं, लेकिन जो भी उन्हें मिले हैं उनमें उन्हें कुछ कर दिखाने का मौका मिला है। कुछ एक्शन सीनभी कैटरीना को करने को मिले हैं और वे इनको बखूबी निभाती दिखी हैं। गिरीश कर्नाड, अंगद बेदी, सज्जाद डेलफ्रूज़, कुमुद मिश्रा,परेश रावलकाबिल अभिनेता हैं और इनका सपोर्ट फिल्म को मिला है। जूलियस पैकियम इस फिल्म में महत्वपूर्ण रोल निभाते हैं। उनक बैकग्राउंड म्युजिक तारीफ के काबिल है। फिल्म देखते समय यह दर्शकों में रोमांच उत्पन्न करता है। विशाल-शेखर द्वारा संगीतबद्ध किए गीत 'स्वैग से करेंगे सबका स्वागत' और 'दिल दिया' सुनने लायक हैं। इनका फिल्मांकन आंखों को सुकून देता है। फिल्म की सिनेमाटोग्राफी जबरदस्त है। बर्फीले पहाड़ों से लेकर तो तपते रेगिस्तान तक कैमरे को खूब घुमाया गया है। विदेशी लोकेशन्स और एक्शन सीक्वेंस बढ़िया फिल्माए गए हैं। जोरदार एक्शन और सलमान खान के स्टारडम के कारण टाइगर की दहाड़ सुनी जा सकती है। बैनर : यश राज फिल्म्स निर्माता : आदित्य चोपड़ा निर्देशक : अली अब्बास ज़फर संगीत : विशाल शेखर कलाकार : सलमान खान, कैटरीना कैफ, सज्जाद डेलफ्रूज़, अंगद बेदी, कुमुद मिश्रा, गिरीश कर्नाड सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 41 मिनट
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फिल्म 1996 से शुरु होती है। एलेक्स नामक किशोर को रेत में दबा 'जुमानजी' नामक बोर्ड गेम मिलता है। अब बोर्ड गेम कौन खेलता है? कह कर वह कोई रूचि नहीं लेता। वह दौर वीडियो गेम का था जब कैसेट्स लगा कर गेम खेले जाते थे। जुमानजी नामक वो गेम वीडियो गेम में बदल जाता है। फिर कहानी शिफ्ट होती है आज के दौर में। चार टीनएजर्स को अलग-अलग कारणों से एक कमरे को साफ करने की सजा सुनाई जाती है। वहां पर उनके हाथ जुमानजी नामक वीडियो गेम हाथ लगता है। वे टीवी से कनेक्ट कर गेम खेलते हैं। अचानक वे इस दुनिया से जुमानजी के जंगल में अपने आपको पाते हैं। वे जो किरदार को चुनते हैं उसमें वे बदल जाते हैं। पढ़ाकू और डरपोक स्पेंसर एक शक्तिशाली इंसान (ड्वेन जॉनसन) में बदल जाता है। हट्टा-कट्टा फ्रिज एक दुबले और नाटे इंसान (केविन हार्ट) के रूप में अपने आपको पाता है। लड़कों से बात करने में घबराने वाली मार्था एक हॉट लड़की (करेन गिलान) में परिवर्तित हो जाती है। सबसे मजेदार कैरेक्टर तो बैथनी को मिलता है। वह एक मोटे पुरुष के रूप में बदल जाती है। कैरेक्टर के बदलाव को लेकर निर्देशक और लेखक ने कुछ मजेदार सीन बनाए हैं। कुछ जोक्स 'एडल्ट' किस्म के भी हैं, लेकिन इनका मजा लिया जा सकता है। जब ये टीनएजर्स वीडियो गेम के शक्तिशाली किरदारों में बदलते हैं और अपनी-अपनी शक्तियों और कमियों से परिचित होते हैं तब दर्शकों का अच्छा खासा मनोरंजन होता है। किरदारों की यहां से यात्रा शुरू होती है अपने आपको गेम की दुनिया से बाहर निकाल कर फिर से दुनिया में आने की। लेकिन यह इतना आसान नहीं है। गेम को जीतना होगा। कई लेवल पार करना होंगे। इस यात्रा को बेहद रोमांचक बनाया गया है। कुछ दर्शकों को यह बात अखर सकती है कि विलेन को बेहद शक्तिशाली नहीं बताया गया है, लेकिन ध्यान देने की बात यह है कि बजाय एक खास किस्म के विलेन पर फोकस करने के वीडियो गेम की तरह अलग-अलग विलेन बनाए गए हैं। कभी ये बाइकर्स के रूप में आते हैं, कभी गैंडा बन कर पीछा करते हैं, कभी मगरमच्छ के रूप में निगलने आते हैं तो कभी जगुआर बन मुश्किल पैदा करते हैं। स्क्रिप्ट की दूसरी खासियत फिल्म के प्रमुख किरदारों की केमिस्ट्री है। आपस में वे एक मजबूत टीम बन कर सामने आते हैं। इनके बीच कई दृश्य मजेदार हैं जो गुदगुदाते हैं। हां, लॉजिक को कई बार दरकिनार रखा गया है, लेकिन इसे इग्नोर इसलिए किया जा सकता है कि आप एक वीडियो गेम का हिस्सा हैं और वीडियो गेम में लॉजिक से ज्यादा एंटरटेनमेंट का ध्यान रखा जाता है। निर्देशक जेक कस्डन ने फिल्म को मनोरंजक बनाया है। उनके प्रस्तुतिकरण में ताजगी महसूस होती है। फिल्म का मूड उन्होंने हल्का-फुल्का रखा है और फिल्म देखने में वीडियो गेम खेलने जैसा मजा मिलता है। ड्वेन जॉनसन अपनी एक्टिंग से ज्यादा अपने लुक्स से प्रभावित करते हैं। वे बॉडी-बिल्डिंग के चैम्पियन की तरह लगते हैं। ब्रेवस्टोन के किरदार के रूप में जब वे धुनाई करते हैं तो मजा आता है। उनके बोले गए संवाद मनोरंजन करते हैं। केविन हर्ट, करेन गिलन, निक जोनास, जैक ब्लैक सहित अन्य कलाकारों का अभिनय भी बेहतरीन है। फिल्म को 3-डी में देखना विशेष अनुभव है। कई दृश्य 3-डी में मजा देते हैं। मनोरंजन के लिए यह एक्शन, एडवेंचर, कॉमेडी फिल्म को वक्त दिया जा सकता है। यदि आपने पहले वाली मूवी देख रखी है तो भी यह फिल्म मजा देती है।
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कहानी: शेर-ए-हिंद (गुरमीत राम रहीम सिंह इंसान) अपने साथी प्रीत इंसान के साथ पाकिस्तानी आर्मी के अंदर पहुंच जाता है और फिर उनके आतंकी गतिविधियों को मुंहतोड़ जवाब देता है। रिव्यू: गुरमीत राम रहीम सिंह उर्फ डॉ. एमएसजी की यह तीसरी फिल्म है। फिल्म में शेर-ए-हिंद एक भारतीय जासूस के किरदार में है, जो भारत में हो रही आतंकी गतिविधियों का पाकिस्तान को मुंहतोड़ जवाब देने की कसम खाता है। स्मार्टवॉच को शस्त्र बनाकर, अपनी सहयोगी हनी प्रीत की मदद से शेर-ए-हिंद अपने इस रोल को जेम्स बॉन्ड के रूप में ढालने की पूरी कोशिश की है, जो आपको हर वक्त बनावटी नज़र आएगा। एक जासूस के रूप में वह कभी बैंगनी रंग की बाइक, कभी लाल हेलिकॉप्टर पर सवार नज़र आता है तो कभी अपने मोडिफाइड ऑरेंज कार दुश्मनों के काफिले के आगे उनके इलाके में उड़ाते हुए नज़र आ जाएगा। शेर-ए-हिंद का गैजिट भी कम मजेदार नहीं। कुछ रिंग, जो अचानक तितलियां बन जाती हैं, उनकी घड़ी जो हर तरह का काम कर सकती है और कुछ ऐसे भी रिंग हैं जो चश्मे से लेकर मोडिफाइड गाड़ियों और बम तक में तब्दील हो जाते हैं। फिल्म में एमएसजी (शेर-ए-हिंद) का पाकिस्तानी लड़की सरगम (दीक्षा इंसान) से रोमांस वाले सीन भी काफी मजेदार बन पड़े हैं। जिस तरह से वह प्रेमी के रूप में सरगम के आसपास हिचकिचाते हुए से दिख रहे हैं और पूरी फिल्म में जैसे उन्हें कल्पना से परे एक बेहद अनोखे इंसान के रूप में दर्शाया गया है, यह देखना वाकई काफी मजेदार है। दोनों को एक-दूसरे के प्यार का एहसास टेलिप्रॉम्प्टर (एक ऐसी डिवाइस, जिसके जरिए लोग स्क्रिप्ट को इलेक्ट्रॉनिक विज़ुअल टेक्स्ट के सहारे पढ़ सकते हैं) के जरिए ही हो जाता है। यहां तक कि उनकी फिल्म की पूरी स्टार कास्ट टेलिप्रॉम्प्टर से पढ़ सकती है। फिल्म में म्यूज़िक की बात करें तो उनकी पिछली फिल्म के गाने 'लव चार्जर' की तरह इसमें भी कई ऐसे सीन हैं, जिसे देख उनके फैन्स को खुशियां मिल सकती हैं। कभी उनके गोल-गोल मसल्स दिखेंगे तो कभी उनके गिटार की आवाज सुनाई देगी। जहां तक देशभक्त वाले ऐंगल की बात है तो आखिर में उड़ी अटैक और भारत के सर्जिकल स्ट्राइक्स जैसी घटनाओं को शामिल किया गया है। आप चाहे ऐसी फिल्मों के फॉलोअर हों या फिर कदरदान, आपको यह पता होना चाहिए कि इसमें कॉमिडी से ज्यादा कुछ भी नहीं, जिसमें कि मुख्य किरदार आपकी संवेदनाओं के हर हिस्से की धज्जियां उड़ाता नज़र आता है।
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1- बेकार/ 2- औसत/ 3- अच्छी/ 4- शानदार/ 5- अद्‍भुत निर्माता : भूषण कुमार, किशन कुमार निर्देशक : सतीश कौशिक संगीत : हिमेश रेशमिया कलाकार : हिमेश रेशमिया, श्वेता कुमार, उर्मिला मातोंडकर, डैनी, डीनो मोरिया, गुलशन ग्रोवर, रोहिणी हट्टंगडी, बख्तियार ईरानी, राज बब्बर, असरानी सतीश कौशिक को रीमेक बनाने में महारत हासिल है। उन्होंने दक्षिण भारत की भाषाओं की फिल्मों के हिंदी रीमेक बनाए हैं। इस बार उन्होंने सुभाष घई की 1980 में प्रदर्शित फिल्म ‘कर्ज’ के आधार पर हिमेश रेशमिया के साथ ‘कर्ज’ बनाई है। मोंटी (हिमेश रेशमिया) एक दक्षिण अफ्रीका का लोकप्रिय रॉकस्टार है। एक बार अचानक वह एक धुन बजाने लगता है। उसे एक हवेली, मंदिर और एक लड़की दिखाई देती है और वह बेहोश हो जाता है। एक पार्टी में उसकी मुलाकात टीना (श्वेता कुमार) से होती है। टीना को मोंटी पसंद करने लगता है। छुट्टियाँ बिताने के लिए मोंटी केन्या जाता है, जहाँ उसे वो हवेली नजर आती है, जिसकी छवि उसे अकसर दिमाग में दिखाई देती है। धीरे-धीरे मोंटी को अपने पिछले जन्म की याद आने लगती है। पिछले जन्म में वह रवि वर्मा (डीनो मो‍रिया) था और कामिनी (उर्मिला मातोंडकर) को चाहता था। कामिनी ने उसकी जायदाद हड़पने के लिए उसकी हत्या कर दी थी। रवि की माँ और बहन भी थीं, जिनके बारे में अब कोई नहीं जानता। कामिनी से मोंटी नजदीकी बढ़ाता है। वह अपनी माँ और बहन का पता लगाने के साथ-साथ कामिनी से अपना बदला लेता है। फिल्म की कहानी बेहद सशक्त है। इसमें पुनर्जन्म, प्यार, बदला, माँ-बेटे और भाई-बहन का प्यार जैसे मसाला फिल्मों के सारे तत्व मौजूद हैं। ड्रामे की भरपूर गुंजाइश है। निर्देशक सतीश कौशिक ने इन सारे मसालों का भरपूर उपयोग किया है। उन्होंने फिल्म की गति तेज रखते हुए कई नाटकीय घटनाक्रम फिल्म में डाले हैं, जो मसाला फिल्म पसंद करने वालों को अच्छे लगेंगे। फिल्म का प्रस्तुतीकरण आज के दौर की फिल्मों जैसा नहीं है। सतीश कौशिक ने 70 और 80 के दशक वाला ट्रीटमेंट फिल्म को दिया है। सतीश कौशिक के दिमाग में यह स्पष्ट था कि वे किन दर्शकों (आम जनता) के लिए फिल्म बना रहे हैं और वे अपने उद्देश्य में सफल रहे हैं। फिल्म में कुछ कमियाँ भी हैं, जैसे उर्मिला की उम्र में 25 वर्ष बाद भी कोई बदलाव नहीं देखने को मिलता। उर्मिला ने रवि वर्मा की माँ और बहन को क्यों छोड़ दिया? तेज गति से भागती फिल्म मध्यांतर के बाद धीमी पड़ जाती है, लेकिन क्लाइमेक्स के समय फिर गति पकड़ लेती है। पटकथा लेखक शिराज अहमद ने घई वाली ‘कर्ज’ में थोड़े बदलाव किए हैं, लेकिन इससे कहानी पर कोई खास असर नहीं पड़ता। अभिनेता हिमेश रेशमिया इस फिल्म की सबसे कमजोर कड़ी हैं। उन्हें अभिनय बिलकुल नहीं आता। सतीश कौशिक ने बड़ी चतुराई से उनका उपयोग किया है, ताकि उनकी कमजोरियाँ छिप जाएँ। नई नायिका श्वेता कुमार कहीं से भी प्रभावित नहीं कर पातीं। उनकी और हिमेश की केमेस्ट्री एकदम ठंडी है। उर्मिला मातोंडकर ने खल‍नायिका की भूमिका शानदार तरीके से निभाई है। गुलशन ग्रोवर और राज बब्बर की भूमिका महत्वहीन है। डैनी और असरानी ने दर्शकों को हँसाने की कोशिश की है। डीनो मोरिया और रोहिणी हट्टंगडी भी सं‍क्षिप्त भूमिकाओं में नजर आए। संगीतकार हिमेश रेशमिया फिल्म की मजबूत कड़ी हैं। ‘तंदूरी नाइट्स’, ‘तेरे बिन चैन न आए’, ‘माशा अल्लाह’, ‘धूम तेरे प्यार की’ और ‘एक हसीना थी’ जैसे गाने पहले ही हिट हो चुके हैं। गानों का फिल्मांकन भव्य है, हालाँकि नृत्य में हिमेश कमजोर हैं। तकनीकी रूप से फिल्म औसत है। यह फिल्म कुछ अलग होने का दावा नहीं करती, लेकिन मसाला फिल्म पसंद करने वालों को अच्छी लगेगी। जिन लोगों ने सुभाष घई की ‘कर्ज’ को पसंद किया है, उन्हें भी यह फिल्म देखकर निराशा नहीं होती है और जो पहली बार ‘कर्ज’ देख रहे हैं उन्हें भी यह पसंद आ सकती है। बेकार/ 2- औसत/ 3- अच्छी/ 4- शानदार/ 5- अद्‍भुत
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सारा मसला ख्वाहिशों का है... फिल्म की शुरुआत में खिलजी का यह डायलॉग पूरी फिल्म का सार है। दुनिया की हर नायाब चीज पर अपना कब्जा करने की चाहत रखने वाला अलाउद्दीन खिलजी रानी पद्मावती की एक झलक देखने की ख्वाहिश कर तड़प कर रह जाता है। पूरी फिल्म खिलजी की सनक, उसके झक्कीपन, उसकी इच्छाओं, उसकी मर्जी, उसकी सेक्शुएलिटी, उसके जुनून को लेकर है। चित्तौड़ के राजपूत राजा उसे घुटने टेकने पर मजबूर कर देते हैं और खिलजी धोखे से राज्य हड़पने में कामयाब तो हो जाता है, लेकिन अपनी सूझबूझ, कूटनीति और प्रेजेंस ऑफ माइंड के जरिए किस तरह रानी पद्मावती सनकी खिलजी की उस एक ख्वाहिश को अधूरा रख छोड़ती हैं, यही संजय लीला भंसाली ने अपनी फिल्म 'पद्मावत' में बड़े शानदार ढंग से दिखाया है। आंखों को चकाचौंध कर देने वाली भंसाली की इस पीरियड फिल्म में एक से एक शानदार परफॉर्मेंसेज हैं। सिनेमा हॉल से बाहर आकर दो चीजें आपके दिमाग पर दस्तक देंगी, एक तो खिलजी के रूप में रणवीर सिंह का दमदार अंदाज अौर दूसरा यह कि आखिर इस फिल्म पर इतना विवाद हो क्यों रहा है, जबकि फिल्म में तो वैसा कुछ भी नहीं है। फिल्म की कहानी मलिक मोहम्मद जायसी की 1540 में लिखी पद्मावत पर आधारित है, जो राजपूत महारानी रानी पद्मावती के शौर्य और वीरता की गाथा कहती है। पद्मावती मेवाड़ के राजा रावल रतन सिंह की पत्नी हैं और बेहद खूबसूरत होने के अलावा बुद्धिमान, साहसी और बहुत अच्छी धनुर्धर भी हैं। 1303 में अलाउद्दीन खिलजी पद्मावती की इन्हीं खूबियों के चलते उनसे इस कदर प्रभावित होता है कि चित्तौड़ के किले पर हमला बोल देता है। फिल्म के अंत में महाराज रावल रतन सिंह और अलाउद्दीन खिलजी के बीच तलवारबाजी के सीन में रतन सिंह अपने उसूलों, आदर्शों और युद्ध के नियमों का पालन करते हुए खिलजी को निहत्था कर देते हैं, लेकिन पद्मावती को पाने की चाहत में खिलजी धोखे से रतन सिंह को यह कहकर मार डालता है कि जंग का एक ही उसूल होता है, जीत। अपनी आन-बान-शान की खातिर इसके बाद पद्मावती किस तरह जौहर के लिए निकलती हुए खिलजी की ख्वाहिशों को ध्वस्त कर देती हैं यही फिल्म की कहानी है। चित्तौड़ के मशहूर सूरमा गोरा और बादल की शहादत को भी फिल्म में पूरे सम्मान के साथ दर्शाया गया है।करीब 200 करोड़ की लागत से बनी 'पद्मावत' अब तक की सबसे महंगी फिल्म बताई जाती है। फिल्म के हर सीन में सिर से पांव तक ढकीं दीपिका पादुकोण ने अपने चेहरे के हाव भाव और खासतौर से आंखों के जरिए जो दमदार अभिनय किया है, वह सराहनीय है। चाहे प्यार हो या गुस्सा, हर तरह का इमोशन तुरंत दीपिका की बड़ी-बड़ी आंखों से साफ महसूस किया जा सकता है। 30-30 किलों के खूबसूरत लहंगों, भारी गहनों और खासतौर पर नाक की नथ में दीपिका खूब जमी हैं। सजी-धजी दीपिका की मौजूदगी को पूरे स्क्रीन पर इस कदर दिखाया गया है कि आसपास सब कुछ बौना नजर आता है। शाहिद कपूर ने महाराजा रावल रतन सिंह के किरदार के साथ न्याय किया है। वह शुरू से अंत तक शालीन नजर आए लेकिन एक किरदार जो पूरी फिल्म को अपने कब्जे में करता है वह हैं अलाउद्दीन खिलजी यानी रणवीर सिंह। रणवीर असल जिंदगी में भी जिस कदर एनर्जी से भरपूर हैं। शुरू से अंत तक एक सनकी, विलासी, व्यभिचारी और कुंठित मानसिकता जैसे लक्षणों को जीवंत करने में रणवीर ने जान लड़ा दी है। खली वली गाने में उनका हैपी डांस, उनकी एनर्जी को समेटने में कामयाब हुआ है। उनके कई डायलॉग्स आपको सिनेमा हॉल से बाहर निकलते हुए याद रह जाएंगे। मसलन खिलजी की क्रूरता दिखाता एक डायलॉग- सीन में उनकी पत्नी उनसे कहती हैं कुछ तो खौफ खाइए। इस पर वह पलटकर पूछते हैं आज खाने में क्या-क्या है? जब उन्हें बताया जाता है कि खाने में ढेर सारे पकवान हैं तो खिलजी का जवाब होता है, जब खाने में इतना कुछ है तो खौफ क्यों खाऊं? साथ ही फिल्म में उनके अंदर छिपे एक नाकाम प्रेमी की बेबसी को दर्शाता एक डायलॉग- वह अपने गुलाम मलिक काफूर से लगभग रोते हुए पूछते हैं, काफूर बता मेरे हाथ में कोई प्यार की लकीर है, नहीं है तो क्या तू ऐसी लकीर बना सकता है? काफूर अपने मालिक की ऐसी हालत देख रोता है। गुलाम मलिक काफूर के रोल में जिम सरभ के रूप में एक सरप्राइज दिया है भंसाली ने इंडस्ट्री को। अपने शानदार हावभाव के जरिए ही काफूर यह साबित करने में कामयाब होते हैं कि वह मन ही मन खिलजी से प्यार करते थे। जलालुद्दीन खिलजी के रोल में रजा मुराद ने बेहद दमदार रोल किया है तो अदिति राव हैदरी भी खिलजी की बीवी के रोल में बेहद सशक्त लगी हैं। भंसाली के कैमरे ने उनकी खूबसूरती को भी बेहद उम्दा ढंग से उभारा है। घूमर गाना तो पहले ही काफी हिट हो चुका है, इसके अलावा भी तुर्क-अफगानी संगीत का अच्छा संगम इस फिल्म में है। फिल्म की एडिटिंग इतनी उम्दा है, स्क्रिप्ट इतनी टाइट है कि दो घंटे 44 मिनट यूं निकल जाते हैं। 3डी फिल्म के पैमाने पर पद्मावत एकदम खरी उतरती है। शुरुआत में फैंटसी, रोमांस और राजस्थानी पारंपरिक लोक-संगीत से सराबोर कहानी कब अचानक आपको अपने ड्रामे में बांध लेती है आपको पता ही नहीं चलता। कुल मिलाकर फिल्म बहुत खूबसूरत लगेगी, आपकी आंखों को, आपके जेहन को और आपके दिल को। मुमकिन है कि इसे देखने के बाद इसका विरोध करने वाले लोग अपनी विचारधारा बदलकर इस फिल्म पर गर्व का अहसास करने लगें।
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बैनर : मारुति इंटरनेशन ल, बि ग पिक्चर् स निर्माता : अशोक ठाकरिया, इंद्र कुमार निर्देशक : के. मुरली मोहन राव संगीतः राघव सच्चर कलाकार : सुनील शेट्टी, आरती छाबड़िया, आशीष चौधरी, ट्यूलिप जोशी, आफताब शिवदासानी, जावेद जाफरी, किम शर्मा, सोफिया चौधरी, राजपाल यादव, चंकी पांडे, सुहासिनी मुळे, प्रेम चोपड़ा, वृजेश हीरजी, शरद सक्सेना * सेंसर सर्टिफिकेट : यू/ए * 110 मिनट निर्माता इंद्र कुमार और अशोक ठाकरिया ने लगभग सवा करोड़ रुपए खर्च कर हॉलीवुड फिल्म ‘डेथ एट ए फ्यूनरल’ के हिंदी में रीमेक बनाने के अधिकार खरीदे, लेकिन नकल करने में भी अक्ल की जरूरत होती है वरना ‍’दिल्ली में कुतुबमीनार है’ की जगह नकलची विद्यार्थी ‘दिल्ली में कुतिया बीमार है’ लिख देता है। कुछ ऐसा ही हाल इस फिल्म का भी है। नकल भी ठीक से नहीं की गई है। एक अच्छी कहानी (जिसमें हास्य की बहुत गुंजाइश थी) को बेहूदा स्क्रीनप्ले, ओवर एक्टिंग और खराब निर्देशन ने जाया कर दिया। कहानी तो विदेशी उठा ली, लेकिन उसका भारतीयकरण करने में घिसे-पिटे चुटकुले, फूहड़ संवाद और दृश्य डाल दिए गए और हँसाने की नाकाम कोशिश गई है। स्टीवन लैजारस (सुनील शेट्टी) के पिता का अंतिम संस्कार होने वाला है। रिश्तेदार और दोस्तों का जमावड़ा लगा हुआ है। हर किरदार की अपनी कहानी है। कोई बदला लेना चाहता है तो कोई इस मौके पर रोमांस में लगा हुआ है। सास-बहू और भाई-भाई की अनबन है। शक करने वाली पत्नी है। हॉट मॉडल भी है जो हर किसी के साथ सोने के लिए तैयार है। ड्रग्स और ब्लैकमेलिंग भी है। कहानी में हास्य पैदा करने का सारा सामान जमा है, लेकिन स्क्रिप्ट ने सारा मामला बिगाड़ दिया है। फिल्म में हर किरदार की कहानी है, लेकिन ज्यादातर कमजोर है। खासतौर पर आफताब शिवदासानी वाली, जिसमें वे ड्रग के नशे में बेहूदा हरकत करते रहते हैं। इसी तरह प्रेम चोपड़ा और जावेद जाफरी के टॉयलेट वाला सीन घृणा पैदा करता है। ट्यूलिप जोशी और वृजेश हीरजी के दृश्य भी दोहराव की वजह से बोर करते हैं। रही-सही कसर के. मुरली मोहनराव के कमजोर निर्देशन ने पूरी कर दी है। यह ड्रामा चंद घंटों का और सिर्फ एक सेट पर है इसलिए निर्देशक की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है कि वह फिल्म को एकरसता से बचाए, लेकिन मुरली इसमें असफल रहे हैं। बी-ग्रेड कलाकारों का फिल्म में जमावड़ा है। सुनील शेट्टी निराश करते हैं। आफताब ने जमकर ओवर एक्टिंग की है। जावेद जाफरी और चंकी पांडे ने हँसाने के लिए तरह-तरह के मुँह बनाए हैं। आशीष चौधरी ठीक रहे हैं। राजपाल यादव और वृजेश हीरजी को ज्यादा अवसर नहीं मिले। नायिकाओं में सोफी चौधरी, किम शर्मा, ट्यूलिप जोशी और आरती छाबडि़या औसत रहीं। कुल मिलाकर ‘डैडी कूल’ एकदम ठंडी है।
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बॉलीवुड की फिल्मों में इन दिनों प्रेम-कथाएँ कम नजर आ रही हैं और ऐसे समय में निर्देशक इम्तियाज अली ‘जब वी मेट’ लेकर हाजिर हुए हैं। ‘जब वी मेट’ की कहानी में नयापन नहीं है। इस तरह की कहानियों पर पहले फिल्में बन चुकी हैं, लेकिन इसका ताजगीभरा प्रस्तुतिकरण फिल्म को देखने लायक बनाता है। प्रेम में धोखा और व्यवसाय में पिटा हुआ इनसान आदित्य (शाहिद कपूर) हताशा में एक रेल में बैठ जाता है। उसकी मुलाकात होती है हद से ज्यादा बोलने वाली लड़की गीत (करीना कपूर) से। गीत मुंबई से अपने घर भटिंडा जा रही है। वहाँ से मनाली भागकर वह अपने प्रेमी अंशुमन (तरुण अरोरा) से शादी करने वाली है। एक स्टेशन पर दोनों की ट्रेन छूट जाती है। दोनों सड़कों पर, टैक्सी में, बस में नाचते-झूमते और गाते हुए भटिंडा पहुँचते हैं। इस यात्रा में आदित्य के दिल में गीत के प्रति प्यार जाग जाता है। गंभीर रहने वाला आदित्य गीत से जिंदगी को जिंदादिली से जीना सीख जाता है। इसके बाद आदित्य अपनी राह और गीत अपनी। महीने बाद जब आदित्य को पता चलता है कि गीत को उसके प्रेमी ने धोखा दिया है तो वह गीत की खोज करता है। गीत को उसके प्रेमी से भी मिलवाता है, लेकिन कुछ उतार-चढ़ाव के बाद गीत आदित्य को ही अपना बनाती है। इम्तियाज ने आदित्य और गीत के चरित्र पर खूब मेहनत की है और उनका विस्तार बहुत अच्छे तरीके से किया है। फिल्म के दोनों मुख्य पात्र असल जिंदगी से लिए गए लगते हैं। उनका रोमांस नकली नहीं लगता। आदित्य और गीत की आपसी नोकझोंक को बेहद अच्छे तरीके से पेश किया गया है। दर्शक बहुत जल्द उनमें खो जाता है और उन चरित्रों के सुख-दु:ख को महसूस करने लगता है। जब पात्र अच्छे लगने लगते हैं तो कई बार फिल्म की कमियों को नजरअंदाज कर दिया जाता है। फिल्म का पहला हाफ बेहद मनोरंजक है। दूसरे हाफ में जब गीत और आदित्य अलग होते है तो फिल्म गंभीर हो जाती है। यहाँ फिल्म की लंबाई भी ज्यादा लगने लगती है। इस हाफ को थोड़ा छोटा किए जाने की जरूरत है। फिल्मी के शुरूआती दृश्य को बेहतर तरीके से दिखाया जा सकता था, जब आदित्य हताश होकर रेलवे स्टेशन पहुँचता है। पटकथा में थोड़ी कसावट की जरूरत महसूस होती है, खासकर मध्यांतर के बाद। शाहिद और करीना की जोड़ी को परदे पर रोमांस करते देखना सुखद लगा। शाहिद ने अपना काम बखूबी निभाया। हालाँकि वे एक उद्योगपति लगते नहीं हैं, इसलिए उन्हें परिपक्व दिखाने के लिए चश्मा पहनाया गया। एक सिख लड़की के रूप में करीना का अभिनय सब पर भारी पड़ा। पहली फ्रेम से लेकर आख‍िरी तक करीना का अभिनय सधा हुआ है। उसके संवाद बढि़या लिखे गए हैं, इसलिए उनका ज्यादा बोलना भी प्यारा लगता है। दारासिंह को देखना भी सुखद लगा। दारासिंह के दृश्य एक खास कोण से शूट किए गए। उनके पीछे दीवारों पर लगे जानवरों के कटे सिर दारासिंह के व्यक्तित्व को बलशाली बनाते हैं। पवन मल्होत्रा तो एक मँजे हुए कलाकार हैं। प्रीतम का संगीत हिट तो नहीं है, लेकिन गाने मधुर हैं। पूछो ना पूछो, तुमसे ही, मौजा-मौजा सुनने और देखने लायक हैं। कोरियोग्राफी उम्दा है। नटराज सुब्रमण्यम ने कैमरे की आँख से आउटडोर दृश्यों को उम्दा फिल्माया है। निर्माता : धीलिन मेहता निर्देशक : इम्तियाज अली संगीत : प्रीतम चक्रवर्ती कलाकार : करीना कपूर, शाहिद कपूर, दारासिंह, पवन मल्होत्रा, किरण जुनेजा, तरूण अरोरा इम्तियाज ने युवाओं को ध्यान में रखकर यह फिल्म बनाई है, लेकिन यह हर वर्ग के दर्शकों का मनोरंजन करती है।
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स्मॉल स्क्रीन पर लंबे अरसे से धमाल मचा रहे कपिल शर्मा के शो में डॉक्टर मशहूर गुलाटी के किरदार में दर्शकों को खूब हंसा रहे सुनील ग्रोवर बतौर हीरो अपनी इस फिल्म में वैसा करिश्मा नहीं कर पाए जो कपिल के शो में कर रहे हैं। वैसे, सुनील इससे पहले भी ऐसा ही जलवा कपिल के इसी शो में गुत्थी का किरदार निभा कर कर चुके हैं। पिछले दिनों सुनील की यह फिल्म उस वक्त मीडिया की सुर्खियों में छाई जब अंडरवर्ल्ड डॉन से कथित तौर से मिली धमकी की वजह से ऐन वक्त पर फिल्म की रिलीज को आगे खिसका दिया गया। कहानी : मुम्बई बेस टीवी एंकर अर्नब घोष (सुनील ग्रोवर) एक टीवी चैनल में प्राइम टाइम शो होस्ट करता है। पिछले कुछ अरसे से अर्नब परेशान चल रहा है। इस वजह से उसके प्राइम टाइम शो की टीआरपी लगातार गिरने लगी है। टीवी चैनल में अर्नब का बॉस रॉय (राजेश शर्मा ) उसे दो महीने का वक्त देता है ताकि वह अपने शो की लगातार गिरती टीआरपी को टॉप पर लाए, वरना उसे प्राइम टाइम पर पेश होने वाले शो को होस्ट करने से हटकार किसी नॉन प्राइम टाइम का होस्ट बना दिया जाएगा। अर्नब की खूबसूरत वाइफ पारुल (अंजना सुखानी) उसे सलाह देती है अगर वह अंडरवर्ल्ड डॉन डी (जाकिर हुसैन) का एक एक्सक्लूसिव इंटरव्यू करके अपने प्राइम टाइम शो में पेश करे तो टीआरपी बहुत बढ़ जाएगी। अर्नब को अपनी वाइफ के इस आइडिया में काफी दम नजर आता है । अर्नब अपने बॉस रॉय से पारुल के इस आइडिया पर डिस्कस करता है। बॉस को भी इस आइडिया को सुनने के बाद ऐसा लगता है अगर चैनल पर अंडरवर्ल्ड डी का इंटरव्यू चलता है तो शो की टीआरपी शिखर पर आ सकती है। बस यहीं से शुरू होता है अर्नब का अपनी टीम के साथ डॉन का इंटरव्यू करने का मिशन, जो कई टर्निंग प्वाइंट के बाद कामयाब होता है। ऐक्टिंग : कपिल के शो में अपनी जबर्दस्त ऐक्टिंग के दम पर लाखों दर्शकों को अपना फैन बनाने वाले सुनील ग्रोवर इस फिल्म में अपनी ऐक्टिंग से कहीं प्रभावित नहीं कर पाए। दरअसल, इन दिनों दर्शक सुनील को जिस लुक और स्टाइल में देख रहे हैं, फिल्म में उनका किरदार ठीक इसके विपरीत है। वैसे डायरेक्टर ने सुनील के साथ फिल्म में कुछ हल्के फुल्के कॉमिडी सीन है, लेकिन इन सीन्स में सुनील ओवर ऐक्टिंग के शिकार लगे। फिल्म में सुनील के अलावा पंकज त्रिपाठी, जाकिर हुसैन और राजेश शर्मा जैसे कई मंझे हुए कलाकार हैं, लेकिन कमजोर स्क्रिप्ट और डायरेक्टर की किरदार पर अच्छी पकड़ ना होने की वजह से हर कलाकार ने बस अपना किरदार निभा भर दिया। हां, सुनील की वाइफ के रोल में अंजना के सीन बेशक कम हैं, लेकिन इसके बावजूद अ्ंजना ने अपने छोटे से किरदार को अच्छी तरह से निभाया है। निर्देशन : यकीनन इस फिल्म को बनाने का विशाल का आइडिया अच्छा था, टीवी चैनल वाले अपने किसी शो की टीआरपी को बढ़ाने के लिए क्या कुछ नहीं करते इसे फिल्म में दिखाने की कोशिश तो जरूर की गई लेकिन कमजोर स्क्रिप्ट और कंपलीट स्क्रीनप्ले ना होने की वजह से फिल्म दर्शकों की कसौटी पर खरा नहीं उतर पाती। विशाल ने सुनील ग्रोवर को जिस अंदाज में पेश किया वह दर्शकों की बहुत बड़ी क्लास के पल्ले नहीं पड़ता। वैसे, किसी चैनल द्वारा टीआरपी बढ़ाने के लिए किसी अंडरवर्ल्ड डॉन का इंटरव्यू लेने का आइडिया नया और मजेदार है, लेकिन विशाल इसे स्क्रीन पर उस अंदाज में पेश नहीं कर पाए जैसे करना चाहिए था। फिल्म में कई संवादों और सीन्स पर सेंसर की कैंची चली तो वहीं इन सीन्स में फिल्म की डबिंग भी बेहद कमजोर है। संगीत : वैसे इस कहानी में कहीं गानों की जरूरत नहीं थी, इसके बावजूद डायरेक्टर ने दो घंटे की फिल्म में गाने भी फिट कर दिए जो स्क्रीन पर तो ठीकठाक लगते हैं लेकिन इन गानों की वजह से पहले से स्लो चल रही इस फिल्म की रफ्तार और कम हो जाती है। क्यों देखें : अगर आप सुनील ग्रोवर के पक्के फैन हैं तो इस फिल्म को देखने की सबसे बड़ी वजह यही हो सकती है। अगर आप यह सोचकर फिल्म देखने जा रहे हैं कि कपिल के शो की तर्ज पर इस फिल्म में भी सुनील ने कॉमिडी का जमकर तड़का लगाया होगा तो यकीनन अपसेट होंगे।
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दशरथ मांझी अलग ही मिट्टी का बना होगा, वरना एक आदमी पहाड़ से पंगा लेकर अकेला ही विजय हासिल कर ले ये आम आदमी की बस की बात नहीं है। इससे साबित होता है कि व्यक्ति के अंदर असीमित क्षमताएं होती हैं, बस खुद पर उसे यकीन होना चाहिए। दशरथ मांझी का जीवन ऐसा है कि उस पर फिल्म बनाई जाए और केतन मेहता ने 'मांझी- द माउंटेन मैन' के जरिये यह काम कर दिखाया है। वैसे भी केतन को बायोपिक बनाना पसंद है और वे वल्लभ भाई पटेल, मंगल पांडे और राजा रवि वर्मा पर फिल्म बना चुके हैं। दशरथ मांझी बिहार के गेहलौर गांव में रहने वाला एक आम आदमी था। 1934 में उसका जन्म हुआ। गेहलौर गांव की तरक्की में सबसे बड़ी रूकावट पहाड़ था। लोगों को घूमकर वजीरजंग जाना पड़ता था, जहां अस्पताल, स्कूल, रेलवे स्टेशन थे। इसमें समय बरबाद होता था। पहाड़ के कारण सुविधाएं भी गेहलौर तक नहीं पहुंची थी। एक दिन दशरथ मांझी की पत्नी फाल्गुनी (फगुनिया) पहाड़ से गिर जाती है। घूम कर जाना पड़ता है और इस कारण उसकी मृत्यु हो जाती है। गुस्साया दशरथ विशाल पहाड़ के सामने खड़ा होकर बोलता है 'बहुत बड़ा है, अकड़ है, ये भरम है, भरम' और वह हथौड़ा लेकर अकेला ही सुबह से लेकर रात तक पहाड़ में से रास्ता बनाने में जुट जाता है। उसका यह जुनून कभी खत्म नहीं होता। वह कभी नहीं सोचता कि यह काम उसके बस की बात नहीं है। लोग उसे पागल समझते हैं, बच्चे पत्थर मारते हैं, उसके पिता नाराज होते हैं, लेकिन दशरथ इन बातों से बेखबर जुटा रहता है अपने मिशन में। 22 साल लग जाते हैं उसे पहाड़ में से रास्ता बनाने में और अंत में यह आदमी पहाड़ को बौना साबित कर उस पर विजय हासिल कर लेता है। दशरथ बेहद गरीब था। खाने के पैसे भी नहीं थे, उसके पास। जब पानी की कमी के चलते पूरा गांव खाली हो गया तब भी वह पहाड़ छोड़ कर जाने के लिए तैयार नहीं हुआ। पत्तियां खाकर उसने पेट भरा और पहाड़ को काट डाला। एक पत्रकार उससे पूछता है कि 'इतनी ताकत कहां से लाते हो?' वह जवाब देता है 'पहले जोरू से प्यार था, अब इस पहाड़ से है।' प्यार में कितनी ताकत होती है इसकी मिसाल है दशरथ। लोग ताजमहल बनवाते हैं, लेकिन अपनी पत्नी की याद में दशरथ ने उस पहाड़ को ही उखाड़ फेंका जिसने उसकी पत्नी को उससे छीन लिया था। दशरथ की कहानी उन लोगों के लिए प्रेरणा भी है जो हर काम को कठिन मानते हैं। फिल्म में एक दृश्य में एक पत्रकार दशरथ के आगे दुखड़ा रोता है कि वह अखबार मालिकों के हाथों की कठपुतली बन गया है। दशरथ कहता है कि नया अखबार शुरू कर लो। वह कहता है कि यह बहुत कठिन है। तब दशरथ पूछता है पहाड़ तोड़ने से भी कठिन है? मांझी- द माउं टेन मैन के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें फिल्म की स्क्रिप्ट केतन मेहता और महेंद्र झाकर ने मिल कर लिखी है और फिल्म में तीन ट्रेक समानांतर चलते हैं। एक तो दशरथ की पहाड़ तोड़ने की प्रेरणास्पद कहानी, जो बताती है कि भगवान भरोसे मत बैठो, क्या पता भगवान हमारे भरोसे बैठा हो। दूसरा ट्रेक दशरथ और उसकी पत्नी फाल्गुनी की प्रेम कहानी का है और इस तरह का प्रेम अब बहुत कम देखने को मिलता है। तीसरा ट्रेक उस दौर में राजनीतिक तौर पर चल रही उथल-पुथल को दर्शाता है। मसलन छुआछुत को सरकार खत्म करती है, जमींदारों के खिलाफ डाकू खड़े हो जाते हैं, आपातकाल लगता है। दशरथ को पैसा दिलाने के बहाने उसके नाम पर नेता और सरकारी अफसर लाखों रुपये डकार जाते हैं। दशरथ इसकी शिकायत 1300 किलोमीटर दूर पैदल चल कर दिल्ली में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से करने के लिए जाता है, लेकिन पुलिस उसे भगा देती है। वन विभाग वाले पहाड़ को अपनी संपदा बता कर दशरथ को जेल में डाल देते हैं। ये राजनीतिक हलचल बताती है कि तब भी आम आदमी की नहीं सुनी जाती थी और हालात अब भी सुधरे नहीं हैं। भ्रष्टाचार और गरीबी सिर्फ नारों तक ही सीमित है। दशरथ की कहानी में इतनी पकड़ है कि आप पूरी फिल्म आसानी से देख लेते हैं और दशरथ की हिम्मत, मेहनत और जुनून की दाद देते हैं। अखरता है कहानी को कहने का तरीका। निर्देशक केतन मेहता ने कहानी को आगे-पीछे ले जाकर प्रस्तुतिकरण को रोचक बनाना चाहा, लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। ये कट्स चुभते हैं। साथ ही दशरथ की प्रेम कहानी के कुछ दृश्य गैर-जरूरी लगते हैं। पहाड़ भी छोटा-बड़ा होता रहता है। केतन मेहता प्रतिभाशाली निर्देशक हैं, लेकिन 'मांझी द माउंटन मैन' में उनका काम उनके बनाए गए ऊंचे स्तर से थोड़ा नीचे रहा है, बावजूद इसके उन्होंने बेहतरीन फिल्म बनाई है। अभिनय के क्षेत्र में यह फिल्म बहुत आगे है। एक से बढ़कर एक कलाकार हैं। नवाजुद्दीन सिद्दीकी अब हर रोल को यादगार बनाने लगे हैं। चाहे वो बदलापुर का विलेन हो या बजरंगी भाईजान का पत्रकार। मांझी के किरदार में तो वे घुस ही गए हैं। चूंकि नवाजुद्दीन खुद एक छोटे गांव से हैं, इसलिए उन्होंने एक ग्रामीण किरदार की बारीकियां खूब पकड़ी हैं। एक सूखे कुएं वाले दृश्य में उन्होंने कमाल की एक्टिंग की है। मांझी के रूप में उनका अभिनय लंबे समय तक याद किया जाएगा। राधिका आप्टे का नाम अब ऐसी अभिनेत्रियों में लिया जाने लगा है और हर तरह के रोल आसानी से निभा लेती हैं। मांझी की पत्नी के किरदार में उन्होंने सशक्त अभिनय किया है। फिल्म की सपोर्टिंग कास्ट भी तगड़ी है और हर कलाकार ने अपना काम बखूबी किया है। खुश होने पर मांझी बोलता था- शानदार, जबरदस्त, जिंदाबाद। फिल्म देखने के बाद आप भी यही बोलना चाहेंगे। बैनर : वायकॉम 18 मोशन पिक्चर्स, एनएफडीसी इंडिया > निर्माता : नीना लथ गुप्ता, दीपा साही निर्देशक : केतन मेहता संगीत : संदेश शांडिल्य, हितेश सोनिक कलाकार : नवाजुद्दीन सिद्दीकी, राधिका आप्टे, तिग्मांशु धुलिया, पंकज त्रिपाठी, दीपा साही, गौरव द्विवेदी, अशरफ उल हक सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 2 घंटे 1 मिनट 51 सेकंड रेटिंग : 3.5/ 5
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अविनाश (दलकीर), एक हैरान-परेशान इंसान है और उसके पिता से उसका अजीब सा रिश्ता है। वह अपने सपने पूरे न होने का जिम्मेदार उन्हीं को ठहराता है। फिर अचानक उसके पिता की मौत हो जाती है और इसके बाद सब बदल जाता है।करवां का रिव्यू: पिता के अचानक मरने की खबर से अविनाश और उसका दोस्त शौकत (इरफान) बेंगलुरु से कोच्चि आ जाते हैं और इस यात्रा के दौरान उन्हें अपनी जिंदगी के बारे में सोचने का टाइम मिलता है। खो जाना कभी-कभी अपने आप को पाने का सबसे अच्छा तरीका होता है। कारवां की यही कहानी है। हर सफर उस तरह खत्म नहीं होता जैसा आपने सोचा होता है। फिल्म भी काफी हद तक इसी तर्ज पर है। इसमें ट्रैजिडी के बीच भटकता हुआ अविनाश धीरे-धीरे खुद को पा लेता है। दक्षिण भारत की खूबसूरत जगहों पर शूट की गई फिल्म कारवां इसके तीनों किरदारों अविनाश, शौकत और तान्या (मिथिला) को उनकी जिंदगी दुविधाओं से रूबरू करवाती है। फिल्म कारवां को डार्क कॉमिडी दिखाने के लिए कुछ ज्यादा मेहनत कर दी गई है। ऐसा लगता है कि फिल्म पर अलग और फनी दिखने का बोझ है। हालांकि यह काफी हद तक सफल भी होती है लेकिन इसमें दिखाई गई परिस्थितियां थोड़ी अकल्पनीय लगती हैं। फिल्म कारवां में अगर कुछ जबरदस्त है तो वह है दलकीर और इरफान की बेहतरीन ऐक्टिंग। मलयालम फिल्मों के चहेते दलकीर का हिंदी डेब्यू काबिलेतारीफ है। वह स्क्रीन पर बेहद स्वाभिवक दिखते हैं इसके अलावा मलयाली होने के बाद भी उनकी हिंदी पर बढ़िया कमांड है। इरफान का किरदार भले ही अधपका हो लेकिन वह हिंदी सिनेमा के इतने बढ़िया ऐक्टर हैं कि फिल्म में जान डाल देते हैं। आधी फिल्म के बाद एक सीन है जिसमें वह अपने पिता के बारे में बात करते हैं, जिसे देखकर लगता है कि वह कितने कमाल के ऐक्टर हैं। फिल्म के कुछ सीन बेहद जबरदस्त हैं। मिथिला पालकर ठीक-ठाक हैं पर कोई छाप नहीं छोड़तीं। कृति खरबंदा का स्पेशल रोल अच्छा है। कारवां कोई वैसी उतार-चढ़ाव वाली कहानी नहीं है जैसी आप उम्मीद कर रहे हैं लेकिन आप दिल में अहसास लेकर निकलेंगे कि अंत भला सो भला।
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यकीनन यह साल ऐक्टर राजकुमार राव के लिए बेहद खास है। फिल्म इंडस्ट्री में आने के बाद पहली बार इस साल राज कुमार की सबसे ज्यादा फिल्में रिलीज़ हो रही हैं। हाल ही में रिलीज़ हुई राजकुमार राव की 'बरेली की बर्फी' लोगों को खूब पसंद आई। कुछ समय पहले रिलीज़ हुई राजकुमार की फिल्म 'बहन होगी तेरी' बेशक बॉक्स ऑफिस पर कुछ खास नहीं कर पाई, लेकिन दर्शकों की एक क्लास ने इस फिल्म को सराहा और कम बजट में बनी उनकी यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर अपनी लागत बटोरने में भी कामयाब रही। राजकुमार के बारे में माना जाता है कि वह बॉलिवुड मसाला ऐक्शन फिल्मों के स्टार नहीं हैं और अगर ऐसा होता तो राज कभी 'ट्रैप्ड' जैसी फिल्मनहीं करते। इस फिल्म में राजकुमार की ऐक्टिंग की हर किसी ने जमकर तारीफ की। अब अगर उनकी इस नई फिल्म की बात करें तो एकबार फिर राजकुमार ने इस फिल्म में अपनी लाजवाब ऐक्टिंग और किरदार को अपने अंदाज में कुछ ऐसा जीवंत बना दिया है कि एकबार फिर राव इस फिल्म में अपनी बेहतरीन ऐक्टिंग के चलते इस अवॉर्ड के दावेदारों की लिस्ट में जरूर शामिल हो गए है। इस फिल्म को रिलीज़ से पहले जिस तरह क्रिटिक्स और दर्शकों की एक क्लास की जमकर तारीफें मिल रही हैं उसे देखकर लगता है कि फिल्म देश-विदेश के कई प्रतिष्ठित फेस्टिवल में अपने नाम कई अवॉर्ड करने वाली है। स्टोरी प्लॉट : न्यूटन कुमार (राजकुमार राव) की अपनी बसाई अलग ही दुनिया है और वह अपनी इसी दुनिया में ही रहना चाहता है। मिडल क्लास फैमिली का न्यूटन कुमार उर्फ नूतन कुमार सरकारी नौकरी में है, लेकिन रिश्वत से कोसों दूर है। टाइम का इतना पक्का है कि डयूटी से पहले आना और काम पूरा करके जाना उसका नियम है। ऐसे में आदर्शवादी न्यूटन को भी लगता है कि वह अपनी कुछ खासियतों के चलते दूसरों से टोटली अलग है। घर वाले उसकी शादी करना चाहते हैं, लेकिन न्यूटन को जब पता चलता है कि लड़की की उम्र अभी 18 साल से कम है तो वह शादी करने से साफ इन्कार कर देता है। दरअसल, स्कूल कॉलेज की दुनिया से निकलने के बाद भी न्यूटन आज भी किताबों में लिखी बातों पर पर चलना पसंद करता है। राज्य में चुनावी प्रक्रिया शुरू हो चुकी है सो न्यूटन को भी उसकी मर्जी से छत्तीसगढ़ के नक्सली हिंसा से बुरी तरह प्रभावित एरिया में पीठासीन अधिकारी बनाकर भेजा जाता है। दरअसल, छत्तीसगढ़ के इस बेहद पिछड़े इलाके में आज भी माओवादियों का चारों ओर खौफ है और माओवदियों ने इस बार यहां चुनाव का पूरी तरह से बॉयकाट किया हुआ है। वह नहीं चाहते कि यहां किसी भी सूरत में वोटिंग हो। न्यूटन यहां के एक छोटे से गांव के कुल 76 वोटरों से वोटिंग कराने के लिए अपनी टीम के हेलिकॉप्टर से साथ यहां आता है। यहां आने के बाद न्यूटन की टीम में यहीं से थोड़ी दूर एक स्कूल की टीचर माल्को (अंजली पाटिल) भी शामिल है। यहां आने के बाद इनकी टीम की सुरक्षा और वोटिंग कराने की जिम्मेदारी जिस सैनिक बटैलियन की लगती है उसका हेड आत्मा सिंह (पंकज त्रिपाठी) पर है, जिसका मानना है कि यहां वोटिंग कराने से कुछ होने वाला नहीं, सो न्यूटन के साथ बहस होती रहती है। न्यूटन के जोर देने पर आत्मा सिंह अपनी बटैलियन के साथ कैम्प से करीब आठ किमी दूर घने जंगल में एक वीरान पड़े सरकारी स्कूल के एक कमरे में मतदान केंद्र बनाता है और फिर शुरू होता है वोटरों के आने का इंतजार । फिल्म की कहानी शुरू से अंत तक आपको बांधने का दम रखती है। करीब पौने दो घंटे की फिल्म कई बार आपको देश की चुनाव प्रणाली, सरकारी अफसरों की सोच और सिक्यॉरिटी फोर्स के नजरिये के बारे में सोचने पर बाध्य करेगी। न्यूटन एक ऐसी फिल्म है जो दर्शकों की एक खास क्लास के लिए है, जिन्हें रिऐलिटी को स्क्रीन पर देखना पंसद है। वहीं तारीफ करनी होगी यंग डायरेक्टर अमित मसुरकर की जिन्होंने एक कड़वी सच्चाई को बॉलिवुड मसालों से दूर हटकर पेश किया है। यही वजह है कि फिल्म के कई सीन आपको सोचने पर मजबूर करेंगे। ऐसा भी नहीं कि फिल्म बेहद गंभीर सब्जेक्ट पर बनी है और इसमें आपको गुदगुदाने के लिए कुछ नहीं है। पकंज त्रिपाठी और राजकुमार राव के संवादों को सुनकर आप कई बार हंसेंगे। ऐक्टिंग: राजकुमार राव ने न्यूटन के किरदार को बखूबी निभाया है। सच कहा जाए तो राव ने न्यूटन के किरदार में अपनी मासूमियत और फेस एक्स्प्रेशन से जान डाल दी है। आत्मा सिंह के रोल में पकंज त्रिपाठी खूब जमे हैं। वहीं रघुवीर यादव भी अपने रोल में सौ फीसदी परफेक्ट हैं तो अंजली पाटिल ने अपने किरदार की डिमांड के मुताबिक किरदार को निभाया है। फिल्म का रियल लोकेशन पर शूट किया गया है सो लोकेशन का जवाब नहीं। 'चल तू अपना काम कर ले' गाना फिल्म के माहौल और स्ब्जेक्ट पर फिट है।
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ग्लैमर इंडस्ट्री में अपनी अलग पहचान बना चुके डायरेक्टर इम्तियाज अली के भाई साजिद अली के निर्देशन में बनी पहली ही फिल्म अब तक रिलीज नहीं हो सकी। जॉन अब्राहम की प्रॉडक्शन कंपनी के बैनर तले इस फिल्म के साथ ऐसे कुछ विवाद जुड़े कि यह फिल्म अब तक सिनेमा के पर्दे पर नहीं पहुंच सकी। ऐसे में इम्तियाज ने भाई को एकता कपूर के बैनर तले बनी इस फिल्म के निर्देशन की कमान सौंपी, बेशक इस बार भाई ने हर कदम पर उनका साथ दिया और फिल्म इस बार सिनेमा के परदे तक पहुंचने में कामयाब रही। अगर आप 'लैला मजनू' को लीड किरदार में रखकर फिल्म बना रहे हैं तो हॉल में बैठा दर्शक आपकी फिल्म को कहीं न कहीं लैला मजनू की अमर प्रेम कहानी के साथ जोड़कर देखेगा, लेकिन ऐसा करते हुए दर्शक खुद को ठगा हुआ महसूस करता है। वैसे भी नई स्टार कास्ट को लेकर फिल्म बनाना और बॉक्स ऑफिस पर फिल्म को हिट कराना आसान नहीं होता, ऐसा ही कुछ इस फिल्म के साथ भी नजर आता है। कश्मीर की बफीर्ली वादियों के बैकग्राउंड में बनी यह फिल्म एक अलग ही प्रेम कहानी को पेश करती है।स्टोरी प्लॉट: कश्मीरी युवक कैस भट्ट (अविनाश तिवारी) के पापा एक नामी अमीर बिज़नसमैन है, कैस के पापा और लैला (तृप्ति डिमरी) के पापा के बीच दुश्मनी है। इन दोनों के बीच छत्तीस का आंकड़ा बना हुआ है। 'लैला मजनू' की कहानी कश्मीर के रहने वाले कैस भट्ट (अविनाश तिवारी) और लैला (तृप्ति डिमरी) की है। कैस के पिता बहुत बड़े बिज़नसमैन हैं और लैला के पिता से उनका छत्तीस का आंकड़ा है। इस दुश्मनी के बीच जब कैस और लैला की लव स्टोरी शुरू होती है हॉल में बैठे दर्शक उसी वक्त आसानी से अंदाज लगा लेते हैं कि आगे चलकर यह लव स्टोरी किस ओर करवट लेने वाली है। जाहिर है इन दोनों की फैमिली को उनका यह रिश्ता कतई मंजूर नहीं, लेकिन कैस और लैला फैमिली की परवाह किए बिना एक-दूसरे से मिलते हैं और उनका प्यार परवान चढ़ता जाता है। एक दिन जब इनका सामना अपनी-अपनी फैमिली से होता है तो लैला-मजून की यह लव स्टोरी किस मोड़ पर पहुंच जाती है और इस लव स्टोरी की अंत क्या होता है इसे जानने के लिए फिल्म देखनी होगी। ऐक्टिंग और डायरेक्शन : कैस यानी मजनू का किरदार निभा रहे अविनाश तिवारी ने अपने किरदार को जीवंत करने के लिए खूब पसीना बहाया है। किरदार को निभाने के लिए अविनाश ने अच्छा-खासा होमवर्क भी किया जो आपको उनके रोल में नजर आता है। बेशक इस फिल्म की रिलीज़ के बाद अविनाश को ग्लैमर इंडस्ट्री में अलग पहचान मिलेगी। तारीफ करनी होगी कि कश्मीरी ऐक्टर मीर सरवर और सुमित कौल की जिन्होंने अपने-अपने किरदार की ऐसी अलग पहचान बनाई कि हॉल से बाहर आने के बाद आपको इन दोनों के किरदार जरूर याद रहते हैं। वहीं तृप्ति डिमरी ने लैला के किरदार को निभा भर दिया। तृप्ति को अगर इंडस्ट्री में लंबी पारी खेलनी है तो उन्हें अब लंबा सफर तय करना बाकी है। डायरेक्टर साजिद को एक बेहद कमजोर और बिखरी हुई ऐसी स्क्रिप्ट मिली जो बार-बार झोल खाती है। फिल्म का सबसे बड़ा माइनस पॉइंट यह है कि लैला-मजनू की इस लव स्टोरी में इकतरफा प्यार नजर आता है जो दर्शकों की किसी भी क्लास को हजम नहीं हो पाता। स्क्रीनप्ले कई जगह बेहद कमजोर नजर आता है, कई बार ऐसे लगता है जैसे एकता कपूर फीचर फिल्म नहीं कोई महाएपिसोड बना रही हैं। वहीं कश्मीर में चारों ओर बिखरी खूबसूरती को कैमरामैन ने बेहद कुशलता के साथ कैमरे में कैद किया है।क्यों देखें: अगर आज के लैला मजनू की लव स्टोरी के बीच उनके परिवारों के तकरार को देखना चाहते हैं तभी इस फिल्म को देखने जाए। हां कश्मीर की खूबसूरत लोकेशंस फिल्म की यूएसपी है।
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सम्राट एंड कंपनी का जासूस सम्राट तिलक धारी फिल्म में एक संवाद बोलता है कि मैं साधारण केस नहीं लेता हूं क्योंकि ये टूटी हुई पेंसिल की तरह होते हैं जिनमें कोई पाइंट या नोक नहीं होती। यह बात फिल्म पर भी लागू होती है। जासूसी फिल्मों में ऐसी धार होनी चाहिए कि दर्शक अपनी सीट से हिल ना सके, उस मामले में फिल्म दम से खाली है। मंथर गति से चलने वाली इस फिल्म को यदि आप बीच में पन्द्रह मिनट नहीं भी देखें तो भी फिल्म समझने में कोई दिक्कत नहीं होगी। एक छोटी सी कहानी जिस पर 25 मिनट का टीवी एपिसोड काफी होता उसे दो घंटे की फिल्म बनाकर खींचा गया है। सम्राट तिलक धारी (राजीव खंडेलवाल) पहली बार मिलने वाले शख्स के बारे में चुटकी में बता देता है कि वह कौन सा अखबार पढ़ता है, कहां से आ रहा है, उसके क्या शौक है? लेकिन एक मामूली से केस को सुलझाने में वह काफी वक्त लेता है। शिमला में रहने वाली युवा और अमीर लड़की डिम्पी सिंह (मदालसा शर्मा) मुंबई आकर सम्राट से मिलती है। डिम्पी का केस अजीब है। उसके बगीचे के वृक्ष दिन पर दिन सूखते जा रहे हैं। डिम्पी के पिता के घोड़े की भी रहस्मयी परिस्थिति में मौत हो गई। सीसीटीवी फुटेज देखने पर एक एक छाया नजर आती है। डिम्पी के पिता डरे हुए और बीमार हैं। मामले की विचित्रता सम्राट को इस केस को लेने के लिए मजूबर करती है। वह केस सुलझाने पहुंचता है, लेकिन मामला उलझता जाता है। हत्याएं होने लगती हैं। लेकिन सम्राट मामले की तह तक पहुंच ही जाता है। सम्राट एंड कंपनी की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि इसमें एक्शन कम और संवाद बहुत ज्यादा है। खासतौर जासूस बना सम्राट काम कम करता है और बहुत ज्यादा बोलता है। उसके कई संवाद तो समझ में ही नहीं आते क्योंकि बहुत ही तेज गति से बोले गए हैं। अफसोस इस बात का है कि फिल्म की गति ऐसी तेज नहीं है। कौशिक घटक ने फिल्म का निर्देशन किया है और मनीष श्रीवास्तव के साथ इसे लिखा भी है। फिल्म लिखते समय कागज पर भले ही अच्‍छी लगी हो, लेकिन स्क्रीन पर इसे उतारने में कौशिक बुरी तरह असफल रहे हैं। ढेर सारी चीजों को उन्होंने फिल्म से जोड़ा, लेकिन अंत में वे सब निरर्थक साबित होती हैं। दर्शकों को भ्रमित करने के लिए बार-बार उन्होंने उन चेहरों पर फोकस किया है जिन पर शक की सुई घूमती है, लेकिन ये सब तरकीबें अब पुरानी हो चुकी हैं। जिस पर शक की सुई निर्देशक एक बार भी नहीं घुमाता वही अंत में कातिल निकलता है और सिनेमाहॉल में बैठे दर्शकों के पास भले ही इस बात का लॉजिक न हो, लेकिन निर्देशक की शैली को देखते हुए वे कातिल का नाम पहले ही बता देते हैं। फिल्म में कई हास्यास्पद सीन है। जैसे दो लोग लड़ रहे हैं और उनके बीच सवाल-जवाब का दौर चल रहा है। स्क्रिप्ट में भी कई खामियां हैं। कॉमेडी के नाम पर कई बेतुके सीन रखे गए हैं। गानों का मोह भी नहीं छोड़ा गया है। क्लाइमेक्स में कातिल तक पहुंचने का तरीका बेहद घटिया है और बच्चों की कहानी जैसा लगता है। किरदारों की इतनी भीड़ है कि नाम और चेहरे तक याद नहीं रहते। इससे फिल्म में रूचि बहुत जल्दी ही खत्म हो जाती है। राजीव खंडेलवाल अच्छे अभिनेता हैं, लेकिन 'सम्राट एंड कंपनी' में वे कई बार असहज दिखे। मदालसा शर्मा के लिए करने के लिए ज्यादा कुछ नहीं था और वे किसी भी तरह का प्रभाव छोड़ने में असफल रहीं। गिरीश कर्नाड जैसे अभिनेता को निर्देशक ने बरबाद कर दिया। प्रोडक्शन क्वालिटी भी दमदार नहीं है। सम्राट एंड कंपनी के साथ सौदे में नुकसान दर्शकों का ही है। बैनर : राजश्री प्रोडक्शन्स प्रा.लि. निर्माता : कविता बड़जात्या निर्देशक : कौशिक घटक संगीत : अंकित तिवारी कलाकार : राजीव खंडेलवाल, मदालसा शर्मा, गोपाल दत्त, गिरीश कर्नाड, प्रियांशु चटर्जी * 2 घंटे 6 मिनट
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बैनर : यशराज फिल्म्स निर्माता : आदित्य चोपड़ा निर्देशक : यश चोपड़ा संगीत : ए.आर.रहमान कलाकार : शाहरुख खान, कैटरीना कैफ, अनुष्का शर्मा मेहमान कलाकार : ऋषि कपूर, नीतू सिंह, अनुपम खेर सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 59 मिनट 20 सेकंड ‘मेरी उम्र 21 वर्ष है। मैं आज की जनरेशन की हूं जहां सेक्स पहले करते हैं और फिर प्यार होता है।‘ 38 वर्षीय मेजर समर को डिस्वकरी चैनल के लिए काम करने वाली अकीरा कहती है। समर की डायरी पढ़कर उसे यकीन नहीं होता कि समर, उस मीरा को अभी भी दिल में बैठाए घूम रहा है, जिससे उसके मिलन की कोई संभावना नहीं है। बॉम्ब सूट पहने बिना समर बम डिफ्यूज करता है क्योंकि उसका मानना है कि बम से गहरे जख्म उसे जिंदगी ने दिए है। जब जिंदगी के जख्मों से बचने के लिए कोई सूट नहीं होता तो फिर बम से क्या डरना। उसके दिल पर मीरा से बिछड़ने का जख्म अभी भी हरा है। समर की दीवानगी देख अकीरा उससे प्यार कर बैठती है क्योंकि उसका मानना है कि उसकी जनरेशन में इस तरह से प्यार करने वाले लड़के बचे नहीं हैं। समर-मीरा और अकीरा इर्दगिर्द घूमती हुई प्रेम-त्रिकोण वाली कहानी आदित्य चोपड़ा ने लिखी है और इसमें थोड़ी झलक ‘वीरा जारा’ की नजर आती है, जो ‘जब तक है जान’ के पहले यश चोपड़ा ने निर्देशित की थी। यश चोपड़ा ने जितनी भी प्रेम कहानियों पर फिल्में बनाईं, उसमें प्रेमी डूबकर प्यार करने वाले होते हैं। उन्हें अपना पसंदीदा साथी नहीं मिलता तो वे उसकी यादों के सहारे पूरी जिंदगी काट देते थे, लेकिन अब प्यार की परिभाषा ‘तू नहीं तो और सही’ वाली हो गई है और देवदास को बेवकूफ समझा जाता है। जब तक है जान के जरिये उस प्यार को अंडरलाइन किया गया है, जिसे सच्चा प्यार कहा जाता है। साथ ही समर की जिंदगी में आई दो लड़कियों के सहारे दो जनरेशन के प्यार करने के अंदाज में आए परिवर्तन की झलक दिखलाने की कोशिश भी की गई है। ऐसा ही प्रयास इम्तियाज अली ने ‘लव आज कल’ में किया था। आदित्य चोपड़ा द्वारा लिखी गई कहानी और स्क्रीनप्ले न तो पूरी तरह से परफेक्ट है और न ही इनमें कुछ नई बात है। कुछ घटनाक्रम तो ऐसे हैं कि आपको एकता कपूर के वर्षों चलने वाले धारावाहिकों याद आ जाती है। शाहरुख-कैटरीना की प्रेम कहानी टिपिकल बॉलीवुड स्टाइल में है। लंदन में रहने वाली अमीरजादी मीरा को वेटर समर से प्यार हो जाता है। गिटार बजाते और गाना गाते शाहरुख को उसी अंदाज में पेश किया गया है जैसे बरसों पहले वे रोमांटिक मूवी में नजर आते थे। यहां पर फिल्म की शुरुआत बेहद धीमी और उबाऊ है, लेकिन धीरे-धीरे बात बनने लगती है। कुछ कारणों से समर और मीरा की प्रेम कहानी का सुखांत नहीं होता। यहां से कहानी दस वर्ष का जम्प लेती है और समर को कश्मीर और लद्दाख में सेना के लिए काम करते हुए दिखाया जाता है। अकीरा (अनुष्का शर्मा) की एंट्री होती है। अनुष्का अपनी एक्टिंग और लुक से फिल्म में ताजगी और गति दोनों ही लाती हैं। क्लाइमेक्स से थोड़ा पहले फिल्म फिर कमजोर हो जाती है। एक कुशल निर्देशक वो होता है जो कहानी की कमजोरी को अपने दमदार प्रस्तुतिकरण के बल पर छुपा देता है। अपने आखिरी समय तक फिल्म बनाते रहे यश चोपड़ा इस काम में ‍माहिर थे। जब तक है जान में उन्होंने किरदारों के प्रेम की भावना को इतनी गहराई से पेश किया है कि ज्यादातर समय फिल्म दर्शकों को बांध कर रखती है और यह जिज्ञासा कायम रहती है कि फिल्म के अंत में क्या होगा। जब तक है जान पर यश चोपड़ा के निर्देशन की छाप नजर आती है। उन्होंने किरदारों के अंदर चल रही भावनाओं को बेहतरीन तरीके से स्क्रीन पर पेश किया है। कई दृश्य दिल को छूते हैं और फिल्म पर उनकी पकड़ मजबूत नजर आती है। लगभग तीन घंटे की इस फिल्म को एडिट कर टाइट किया जाना बेहद जरूरी है। एक निर्देशक शूटिंग के दौरान कई सीन फिल्मा लेता है और एडिटिंग टेबल पर उसे जो गैर जरूरी लगते हैं उन्हें हटवा देता है। संभव है कि पोस्ट प्रोडक्शन का काम यश चोपड़ा नहीं देख पाए और इस वजह से फिल्म में उन दृश्यों को भी जगह मिल गई जो जरूरी नहीं थे। एआर रहमान का काम सराहनीय है। सांस, इश्क शावा और हीर की धुन मधुर है। साथ ही रहमान का बैकग्राउंड म्युजिक फिल्म को ऊंचाई प्रदान करता है। आदित्य चोपड़ा द्वारा लिखे गए कुछ संवाद जोरदार हैं हालांक ि सिंक साउंड होने की वजह से कई बार डॉयलाग सुनने में परेशानी होती है। जहां तक अभिनय का सवाल है तो शाहरुख खान अपने बेसिक्स की और लौटे हैं। उन्होंने अपने अभिनय में वही मैनेरिज्म अपनाए हैं जिसके लोग दीवाने हैं। वैसे भी रोमांटिक रोल में वे बेहद सहज और नैसर्गिक लगते हैं, लेकिन अब चेहरे पर उम्र के निशान गहराने लगे हैं। यश चोपड़ा अपनी हीरोइनों को बेहद खूबसूरत तरीके से स्क्रीन पर पेश करने के लिए जाने जाते हैं और यहां पर वे कैटरीना पर मेहरबान नजर आएं। कैटरीना की एक्टिंग औसत से बेहतर कही जा सकती है। अनुष्का शर्मा अपनी बिंदास एक्टिंग के बल पर कैटरीना से आगे नजर आती हैं। उनके चेहरे पर हर तरह के एक्सप्रेशन नजर आते हैं। कुल मिलाकर जब तक है जान उस रोमांस के लिए देखी जा सकती है, जो वर्तमान दौर की फिल्मों में नजर नहीं आता है। बेकार, 2-औसत, 3-अच्छी, 4-बहुत अच्छी, 5-अद्भुत
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दुनिया काफी बदल चुकी है और दुनिया के साथ-साथ आपका चहेता स्पाइडरमैन भी बदल चुका है। इस फिल्म स्पाइडरमैन होमकमिंग में वह अकेला नहीं है, बल्कि अब दुनिया की भलाई के लिए वह एवेंजर्स के साथ मिलकर काम करता है। फिल्म की कहानी की शुरुआत आज से कुछ साल पहले से होती है, जब टोनी स्टार्क (रॉबर्ट डॉनी जूनियर) यूएस डैमेज कंट्रोल डिपार्टमेंट के साथ मिलकर एलियंस के मलबे की साफ-सफाई का ठेका ले लेता है। वह एड्रियन टूमस (माइकल कीटन) को इस डील से बाहर कर देता है, जो कि पहले यह काम कर रहा था। इससे निराश न होकर टूमस कई साल की मेहनत के बाद अपने साथियों के साथ मिलकर एलियंस के मलबे से हासिल की गई बेशकीमती धातुओं से खतरनाक हथियार बनाने लगता है। साथ ही, वह अपने लिए एक खतरनाक वल्चर सूट तैयार करता है, जिसकी मदद से वह आसमान में उड़कर बड़े क्राइम को अंजाम देता है। वहीं दूसरी ओर स्पाइडरमैन की नई सीरीज़ का हीरो पीटर पार्कर (टॉम हॉलैंड) यानी कि स्पाइडरमैन एक 15 साल का बच्चा है, जो अभी हाईस्कूल में पढ़ता है। टोनी ने उसको बताया है कि अभी वह एवेंजर्स की टीम में शामिल होने के लिए रेडी नहीं है, इसलिए उसे अपनी पढ़ाई के साथ ट्रेनिंग पर ध्यान देना चाहिए। अपनी आंटी के साथ रहने वाला पीटर स्टार्क इंडस्ट्रीज की इंटर्नशिप के बहाने बतौर स्पाइडरमैन अपनी ट्रेनिंग पर ध्यान देता है। एक दिन बतौर स्पाइडरमैन पीटर की मुठभेड़ एटीएम लूटने की कोशिश कर रहे कुछ ऐसे लुटेरों से होती है, जो कि टूमस द्वारा सप्लाई किए गए खतरनाक हथियारों से लैस थे। इस रिव्यू को गुजराती में पढ़ें तब से पीटर इन हथियारों को बनाने वालों की तलाश में लग जाता है। इस दौरान वह कईं बार मुश्किल हालात में फंस जाता है, जहां टोनी स्टार्क यानी कि आयरनमैन खुद आकर उसे बचाता है। पीटर से हुई एक ऐसी ही गड़बड़ के बाद टोनी उससे उसका स्पाइडरमैन वाला अडवांस सूट वापस ले लेता है, जो कि एवेंजर्स की ओर से उसे दिया गया था। पीटर उससे विनती करता है कि इस सूट के बिना वह कुछ नहीं है, तो टोनी उसे जवाब देता है कि अगर वह इसके बिना कुछ नहीं है, तो वह इसके लायक भी नहीं है। उसके बाद एक दिन पीटर को पता लगता है कि टूमस एवेंजर्स के नई बिल्डिंग में शिफ्ट किए जा रहे हथियारों को चुराने की प्लानिंग कर रहा है। अब पीटर के सामने बड़ी चुनौती यह है कि उसे बिना एवेंजर्स की मदद के खतरनाक हथियारों से लैस टूमस से निपटना है। बतौर स्पाइडरमैन टॉम हॉलैंड ने बढ़िया रोल किया है। वहीं हिंदी में स्पाइडरमैन के लिए डबिंग करने वाले टाइगर श्रॉफ की आवाज आपको अपनी सी लगती है। हिंदी में डबिंग मजेदार है और साथ ही इसमें इंडियन ऑडियंस को ध्यान में रखते हुए कुछ मजेदार टि्वस्ट भी डाले गए हैं। पीटर पार्कर के रोल में टॉम की नौसिखिया हरकतों के बावजूद उनका भोलापन आपको आकर्षित करता है। खासकर बच्चों को इस बार स्पाइडरमैन और ज्यादा प्यारा लगेगा, क्योंकि वह उनका हमउम्र जो हो गया है। वहीं बच्चों के लिए डबल बोनांजा यह है कि फिल्म में स्पाइडरमैन के साथ उन्हें एवेंजर्स यानी कि आयरनमैन का ऐक्शन और अमेरिका मैन की झलक मिलती है, जिससे उनके चेहरे खिल उठते हैं। यह बात और है कि बाद में ऑफर मिलने पर भी स्पाइडरमैन एवेंजर्स की टीम में शामिल होने से इनकार कर देता है। फिल्म के मेन विलेन के रोल में माइकल किटोन खतरनाक लगते हैं। स्पाइडरमैन और वल्चर के बीच आसमान में लड़ाई के सीन बेहद रोमांचक हैं, जो कि आपको हिलाकर रख देते हैं। वहीं वॉशिंगटन डीसी में स्पाइडरमैन के अपने स्कूल फ्रेंड्स को बचाने के सीन भी जबर्दस्त हैं। फिल्म में टेक्नॉलजी का भी जबर्दस्त इस्तेमाल किया गया है, जो कि थ्री डी पर्दे पर दिलचस्प लगता है। सुपरहिट स्पाइडरमैन फिल्म फ्रेंचाइजी की 16वीं फिल्म स्पाइडर मैन: होमकमिंग को लेकर रिलीज़ से पहले दर्शकों में जबर्दस्त क्रेज था, जिसके चलते गुरुवार रात को हुए स्पेशल प्रिव्यू भी हाउसफुल रहे। बॉलिवुड में थ्री डी फिल्मों के अकाल के बीच भारतीय दर्शकों को थ्री डी के नाम पर सिर्फ हॉलिवुड फिल्मों का ही सहारा रह गया है। ऐसे में, बेहद खूबसूरत अंदाज में शूट की गई फिल्म स्पाइडरमैन को थ्री डी या आईमैक्स में देखना वाकई दिलचस्प एक्सपीरियंस होगा। इस फिल्म का सीक्वल पहले ही 2019 के लिए अनाउंस कर दिया गया है। हालांकि, इससे पहले स्पाइडरमैन आपको एवेंजर्स सीरीज़ की अगले साल आने वाली फिल्म में जरूर अपनी झलक दिखा सकता है।
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अपने किए गए वादे और कर्तव्य के कारण उसका गर्लफ्रेंड ग्वेन के साथ ब्रेक-अप भी हो जाता है। सुपरहीरो होने के बावजूद उसकी जिंदगी आसान नहीं है। रोजाना नई चुनौतियां उसके सामने आती हैं। उसके सामने इलेक्ट्रो नामक विलेन आ खड़ा होता है। साथ ही उसके बचपन के दोस्त हैरी की पीटर की जिंदगी में फिर एंट्री होती है जो ऑसकॉर्प का सीईओ है और वह स्पाइडरमैन के खून से अपनी बीमारी का इलाज करना चाहता है। कैसे स्पाइडरमैन इन चुनौतियों से निपटता है? यह फिल्म का सार है। सुपरहीरो के प्रशंसक फिल्म में हैरत-अंगेज दृश्य देखने के लिए जाते हैं और 'द अमेजिंग स्पाइडरमैन 2' में पेट भर कर इस तरह के सीन देखने को मिलते हैं, जिन्हें पैसा वसूल कहा जा सकता है। स्पाइडरमैन का लोगों से जीवन बचाने से लेकर तो न्यूयॉर्क की सड़कों पर इलेक्ट्रो से टक्कर वाले सीन कमाल के हैं और उनमें नवीनता भी देखने को मिलती है। इलेक्ट्रो का पुलिस की कारों और साइन बोर्ड्स को उड़ाना जबरदस्त है। क्लाइमेक्स में भी शानदार एक्शन देखने को मिलता है। निर्देशक मार्क वेब ने सुपरहीरो की कहानी में उसकी प्रेम कहानी को बेहतरीन तरीके से गूंथा है। जहां स्पाइडरमैन के रूप में पीटर पार्कर लार्जर देन लाइफ कारनामे करता है, वहीं उसकी प्रेम कहानी एक सामान्य इंसान जैसी है। उसकी जिंदगी के इन दो पहलुओं को खूबसूरती से दिखाया गया है। खासतौर पर पीटर और ग्वेन की लवस्टोरी दिल को छूती है और उनके दर्द को दर्शक महसूस करते हैं। खलनायक के चरित्र-चित्रण में 'द अमेजिंग स्पाइडरमैन 2' मार खाती है। विलेन जितना दमदार और ताकतवर होगा, उतना ही हीरो शक्तिशाली नजर आएगा। मैक्स डिल्लन को स्पाइडरमैन का प्रशंसक दिखाया गया है। उसका इलेक्ट्रो में परिवर्तित होकर अचानक स्पाइडरमैन के खिलाफ हो जाना अखरता है। उसके पास स्पाडरमैन के खिलाफ होने के ठोस कारण नहीं था, इसलिए विलेन के रूप में वह काफी हल्का लगता है। इसी तरह हैरी और पीटर की दोस्ती और दुश्मनी को भी बेहतर तरीके से दिखाया जा सकता था। हैरी के पास स्पाइडरमैन से लड़ने का ठोस कारण था, लेकिन निर्देशक और लेखक ने इसका पूरा फायदा नहीं उठाया। फिल्म में कई सब-प्लॉट और किरदारों की भीड़ भी हैं, जिनमें से कुछ गैर-जरूरी लगते हैं। स्क्रिप्ट की ये खामियां फिल्म पर समग्र रूप से प्रभाव नहीं डालती क्योंकि भव्य एक्शन सीन और शानदार स्पेशल इफेक्ट्स के डोज लगातार मिलते रहते हैं और सुपरहीरो की फिल्मों में यही बात सबसे अहम होती है। फिल्म के स्पेशल इफेक्ट्स, सिनेमाटोग्राफी और तकनीकी पहलू चकित करते हैं। थ्री-डी तकनीक में ये और भी प्रभावी हैं। एंड्रयू गारफील्ड ने फर्ज और प्रेम के बीच फंसे व्यक्ति की भूमिका प्रभावी तरीके से निभाई है। खासतौर पर रोमांटिक दृश्यों में वे अच्छे लगे हैं। एमा स्टोन और एंड्रयू की केमिस्ट्री बेहद जमी है। एमा ने ऐसी लड़की का रोल अदा किया है जिसके पास दिमाग है और वह स्पाइडरमैन की ताकत का बखूबी उपयोग करती है। जैमी फॉक्स का किरदार ठीक से नहीं लिखा गया है। हैरी के रूप में डैन डेहान प्रभावित करते हैं। कुल मिलाकर 'द अमेजिंग स्पाइडरमैन 2' में वो सारे मसाले हैं जो एक सुपरहीरो की फिल्म में जरूरी होते हैं। निर्माता : एवी एरड, मैट टॉलमच निर्देशक : मार्क वेब कलाकार : एंड्रयू गारफील्ड, एमा स्टोन, जैमी फॉक्स डी * 2 घंटे 22 मिनट सुपरहीरो की फिल्मों की शुरुआत एक धमाकेदार एक्शन सीन से होती है और 'द अमेजिंग स्पाइडरमैन 2' के आरंभ में भी ऐसा ही सीन देखने को मिलता है। एक प्लेन में पीटर पार्कर के मॉम-डैड किस तरह मारे गए थे, को निर्देशक ने शुरुआत में ही रखा है, फिल्म के प्रति मूड सेट कर देता है। पीटर के पिता रिचर्ड पार्कर का जीवन खतरे में रहता है इसलिए पीटर को वे उसकी आंटी के पास छोड़ जाते हैं। साथ ही वे अपने काम के बारे में जानकारी भी छोड़ जाते हैं, जिसको पीटर समझने की कोशिश करता है। इसके बाद पीटर पार्कर उर्फ स्पाइडरमैन की शानदार एंट्री होती है। एक बिल्डिंग से दूसरी बिल्डिंग पर छलांग मारता हुआ वह जुटा हुआ है लोगों का जीवन बचाने में।
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निर्माता : हीरू यश जौहर, करण जौहर, रॉनी स्क्रूवाला लेखक-निर्देशक : पुनीत मल्होत्रा संगीत : विशाल-शेखर कलाकार : इमरान खान, सोनम कपूर, समीर दत्तानी, समीर सोनी, केतकी दवे, अंजू महेन्द्रू, ब्रूना अब्दुल्ला सेंसर सर्टिफिकेट : यू/ए * 16 रील लड़के को प्यार और प्यार से जुड़ी सारी चीजों से नफरत है। दूसरी ओर एक लड़की है जिसकी नजरों में प्यार से खूबसूरत कुछ नहीं है। दोनों की मुलाकात होती है और विचारों में बदलाव आने लगते है। पुनीत मल्होत्रा ने एक बेहतरीन थीम चुनी, लेकिन स्क्रिप्ट में थोड़ी कसावट आ जाती तो ‘आई हेट लव स्टोरीज़’ बेहतरीन फिल्म बन जाती। कुछ कमियों के बावजूद यह फिल्म बाँधकर रखने में सफल है। वीर (समीर सोनी) एक ऐसा निर्देशक है जो हमेशा लव स्टोरीज़ पर आधारित सफल फिल्म बनाता है। उसकी सारी फिल्में एक जैसी रहती हैं जिनमें भरपूर ड्रामा होता है। उसका ‍असिस्टेंट जे (इमरान खान) को इन प्रेम कहानियों से नफरत है। उसका मानना है कि प्यार जैसा कुछ नहीं होता और ये बेकार की बातें हैं। वीर अपनी नई फिल्म से सिमरन (सोनम कपूर) नाम की प्रोडक्शन डिजाइनर को जोड़ता है जो दिन-रात प्यार के खयालों में खोई रहती है। टेडी बियर, पिंक कलर, कैंडल लाइट डिनर, फ्लॉवर्स, केक, रोमांटिक फिल्में ही उसकी दुनिया है। वह राज (समीर दत्तानी) को बेहद चाहती है। दो अलग विचार धारा वाले लोग मिलते हैं तो उनमें टकराव होना स्वाभाविक है। यहाँ तक फिल्म बेहतरीन है। सिमरन के बॉयफ्रेंड का मजाक बनाना, फॉर्मूलों वाली ‍लव स्टोरीज पर बनी फिल्मी की हँसी उड़ाना, सिमरन और जे की नोक-झोक अच्छी लगती है। लेकिन इसके बाद फिल्म उसी फॉर्मूले पर चलने लगती है, जिसका पहले मजाक बनाया गया। सिमरन कन्फ्यूज हो जाती है। मिस्टर राइट (राज) की बजाय उसे मिस्टर राँग (जे) अच्छा लगने लगता है। वह राज को छोड़ जे को चाहने लगती है। उसे दिल की बात बताती है, लेकिन जे प्यार में नहीं पड़ना चाहता। जे जब उसका प्यार ठुकरा देता है तो वह वापस राज की बाँहों में लौट जाती है। सिमरन की कमी जे को महसूस होती है और उसे समझ में आता है कि यही प्यार है। वह सिमरन को ‘आई लव यू’ कहता है’ और अब उसे सिमरन ठुकराती है। अंत में अड़चनें दूर होती हैं। प्रेमियों का मिलन होता है और जे मान लेता है कि प्यार नाम का जादू होता है। फिल्म का दूसरा हिस्सा इसलिए कमजोर लगता है क्योंकि उसमें नयापन बिलकुल नहीं है। वे तमाम किस्से, घटनाएँ इसमें दोहराए गए हैं जो हम ढेर सारी फिल्मों में देख चुके हैं। साथ ही इसे लंबा खींचा गया है। इस हिस्से में वो मस्ती और ताजगी नजर नहीं आती, जो फिल्म के पहले हाफ में है। हालाँकि कि कुछ बेहतर सीन इस हिस्से में देखने को मिलते हैं। लेखक के रूप में पुनीत कुछ नया सोचते तो यह एक उम्दा फिल्म होती, जहाँ ‍तक निर्देशन का सवाल है तो लगता ही नहीं कि यह पुनीत की पहली फिल्म है। उन्होंने ‍कहानी को ऐसा फिल्माया है कि दर्शक की रूचि बनी रहती है। फिल्म में रूचि बने रहने का एक और सशक्त कारण इमरान खान और सोनम कपूर की कैमिस्ट्री और एक्टिंग है। दोनों एक-दूसरे के पूरक लगते हैं और भविष्य में यह कामयाब जोड़ी बन सकती है। ‘लक’ और ‘किडनैप’ में अपने अभिनय से निराश करने वाले इमरान आशा जगाते हैं कि अच्छा निर्देशक उन्हें मिले तो वे अभिनय कर सकते हैं। इस फिल्म के बाद सोनम कपूर की माँग बढ़ने वाली है। खूबसूरत लगने के साथ-साथ उन्होंने एक्टिंग भी अच्छी की है। फिल्म में कई फिल्मकारों और उनकी फिल्मों का मजाक बनाया गया है, जिसमें इस फिल्म के निर्माता करण जौहर भी शामिल हैं। करण को उनके साहस के लिए बधाई दी जानी चाहिए क्योंकि न केवल उनकी फिल्मों, करवा चौथ और नाटकीय दृश्यों का बल्कि एक कैरेक्टर वीर (समीर सोनी) के रूप में उनका भी मजाक बनाया गया है। समीर सोनी ने इसे बेहतरीन तरीके से निभाया है।। समीर दत्तानी ने एक बोरिंग लवर का काम अच्छे से किया। विशाल शेखर का संगीत फिल्म के मूड के अनुरूप है। ‘आई हेट लव स्टोरीज़’ और ‘बिन तेरे’ तो पहली बार सुनकर ही अच्छा लगने लगता है। अयानांका बोस की सिनेमाटोग्राफी आँखों को अच्छी लगती है। ‘आई हेट लव स्टोरीज़’ का शानदार पहला हाफ है। इमरान-सोनम की उम्दा कैमेस्ट्री है। अच्छा संगीत है। इस कारण यह एक अच्छा ‘टाइम पास’ है।
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रिलीज से पहले ही इस फिल्म के टाइटल और मेन किरदारों को लेकर विवाद शुरू हो गया था। हालांकि, सेंसर ने इस फिल्म को ग्रीन सिग्नल दे दिया। इस फिल्म के डायरेक्टर 'मिस 420' और 'घात' जैसी फिल्में बना चुके हैं, लेकिन दोनों बहुत नहीं चलीं। फिल्मी खबरें पढ़ें सीधे फेबसूक पर, लाइक करें NBT Movies कहानी : फिजी में रह रहे भारतीय हाई कमिश्नर शंकर राय (अयूब खान) को किडनैप कर लिया जाता है। हाई कमिश्नर को किडनैपर से छुड़वाने के मकसद से सीक्रेट एजेंट संतेश्वर सिंह उर्फ संता (बोमन ईरानी) और बटेश्वर सिंह उर्फ बंता (वीर दास) को इंडियन सिक्यॉरिटी एजेंसी की ओर से फिजी भेजा जाता है। फिजी पहुंचकर इन दोनों का सामना करीना राय (नेहा धूपिया) और सोनू सुल्तान के साथ होता है। सीक्रेट मिशन में एक के बाद एक रुकावटें आने लगती हैं। ऐक्टिंग : संता और बंता के लीड किरदारों को बोमन ईरानी और वीर दास ने अच्छे से निभाया है। बोमन ईरानी ने कुछ नया करने की कोशिश की है। संजय मिश्रा, जॉनी लीवर हंसाने में कामयाब रहे हैं। राम कपूर ठीक-ठाक रहे। नेहा धूपिया और लीज़ा हेडन बस शोपीस बनकर रह गई हैं। निर्देशन : आकाशदीप का निर्देशन बेहद कमजोर है। बेशक उनकी सोच अच्छी रही है, लेकिन कहानी में नयापन नहीं है। स्क्रिप्ट में जान नहीं है। डायरेक्टर ने इस कमजोर स्क्रिप्ट को और लचर बना दिया है। हालांकि, कॉमिडी के कई सीन्स दमदार हैं। संगीत : फिल्म का म्यूजिक लाउड है, लेकिन कोई भी गाना ऐसा नहीं जो आपको हॉल से निकलने के बाद याद रह सके।
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आज से तकरीबन 31 साल पहले दक्षिण के निर्देशक संगीतम श्रीनिवास राव कमल हासन-अमला अभिनीत साइलेंट फिल्म 'पुष्पक' लाए थे, जो उस दौर में न केवल आलोचकों द्वारा सराही गई थी बल्कि बॉक्स ऑफिस पर भी अपना जलवा दिखाने में कामयाब रही थी। तकरीबन 3 दशक बाद दक्षिण के निर्देशक कार्तिक सुब्बाराज भी कोरियॉग्रफर-डांसर-ऐक्टर-डायरेक्टर प्रभुदेवा को लेकर 'मरक्यूरी' जैसी साइलेंट थ्रिलर ले आए, जिसमें न कोई संवाद है और न ही कोई नाच-गाना मगर यह फिल्म अपने कमजोर प्लॉट और असंगत क्लाइमेक्स की वजह से मार खा गई।कहानी: फिल्म की कहानी एक ऐसे इलाके की है, जहां के लोगों की मौत 'मरक्यूरी' के कारण हुई है। उसी इलाके में 5 गूंगे युवाओं की टोली (सनथ रेड्डी, दीपक परमेश, अनीश पद्मन, शशांक और इंदुजा) इंदुजा का जन्मदिन मनाने और नाइट आउट के इरादे से एक बंगले में आते है। मस्ती-मजाक और प्यार-मोहब्बत के माहौल में उस वक्त खलल पड़ जाता है, जब रात ड्राइव के दौरान उनका वास्ता प्रभुदेवा की लाश से पड़ता है। वह लाश उनकी गाड़ी से एक जंजीर के जरिए कुछ इस तरह से बंधी हुई मिलती है कि उनके लिए उस लाश को ठिकाने लगाने के अलावा और कोई चारा नहीं रह जाता। लाश को ठिकाने लगाने के बाद इन युवाओं को कई खौफनाक हादसों से गुजरना पड़ता है। अब वे खौफनाक हादसे क्या हैं, इसे अगर हमने बता दिया तो कहानी का मजा खतम हो जाएगा। बेहतर है, आप इसे फिल्म में देखें।रिव्यू: इसमें कोई दो राय नहीं कि 'पिज्जा' जैसी हॉरर-थ्रिलर फिल्म में लेखन की जिम्मेदारी निभाने वाले कार्तिक सुब्बाराज ने 'मरक्यूरी' जैसी साइलेंट फिल्म के जरिए लेखक-निर्देशक के रूप में सिनेमा में प्रयोगधर्मिता की पहल की है। फिल्म की शुरुआत थ्रिलर अंदाज में होती है। फिल्म का फर्स्ट हाफ कसा हुआ है, जहां हॉरर और थ्रिल बरकरार रहता है मगर सेकंड हाफ तक जाते-जाते कहानी का टायर पंचर होने लगता है और क्लाइमेक्स कन्फ्यूजन पैदा कर देता है। फिल्म के आखिर में निर्देशक ने कहानी को मरक्यूरी के विस्फोट से मरनेवालों के आंकड़ों से जोड़ने की कोशिश की है, जिसमें भोपाल गैस कांड को भी शामिल किया गया है। ये आंकड़े इस थ्रिलर-हॉरर कहानी में कहीं भी तर्कसंगत मालूम नहीं होते। हां, कार्तिक गूंगे और अंधे किरदारों के बीच होने वाले चूहे-बिल्ली के खेल के जरिए थ्रिल तो पैदा करते हैं, मगर प्रभुदेवा का भुतहा गेटअप और बॉडी लैंग्वेज से डराने में असफल रहते हैं। फिल्म का तकनीकी पक्ष मजबूत है। संतोष नारायण का संगीत बिना संवादों वाली इस फिल्म में अपने साउंड इफेक्ट से रोमांच पैदा करता है। कांच की किरचों की टूटने की आवाज हो या स्पीकर का शोर, तमाम साउंड इफेक्ट्स कमाल के हैं। उत्कृष्ट कैमरा वर्क के लिए एस तिर्रु तालियों के हकदार साबित हुए हैं। ऐक्टिंग: अभिनय पक्ष की बात करें, तो प्रभुदेवा ने अंधे और हॉरर किरदार के साथ न्याय किया है मगर जिस तरह फिल्म प्रमोशन में उन्हें खूंखार विलेन के रूप में प्रचारित किया गया था उस हिसाब से उनसे उम्मीदें ज्यादा थीं। अन्य किरदार साइन लैंग्वेज में बात करते नजर आते हैं और वे अपने चरित्रों को बखूबी निभा ले जाते हैं, मगर इन कलाकारों में सनथ रेड्डी और इंदुजा की परफॉर्मेंस याद रह जाती है। क्यों देखें: अगर आप एक्सपेरिमेंटल सिनेमा के शौकीन हैं तो यह फिल्म देख सकते हैं।
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निर्माता : सुनील बोहरा, शैलेश आर सिंह निर्देशक : रामगोपाल वर्मा संगीत : संदीप चौटा कलाकार : माही गिल, दीपक डोब्रियाल, अजय गेही, जाकिर हुसैन सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 1 घंटा 49 मिनट * 8 रील प्यार और परिस्थितियों की वजह से कई बार इंसान ऐसी हरकत कर देता है जो उसने कभी सोची भी नहीं होती। चींटी नहीं मारने वाला इंसान परिस्थितिवश किसी व्यक्ति की न केवल हत्या कर सकता है बल्कि उसके बाद लाश के छोटे-छोटे भी टुकड़े कर देता है। ‘नॉट ए लव स्टोरी’ में अपनी गर्लफ्रेंड अनुषा (माही गिल) को फिल्म मिलने की खुशी में रॉबिन (दीपक डोब्रियाल) उसे सरप्राइज देने मुंबई चला आया। आशीष (अजय गेही) के साथ रात गुजारने वाली अनुषा दरवाजे पर रॉबिन को देख घबरा जाती है क्योंकि उसके बेडरुम में आशीष नग्न अवस्था में सोया है। उसके पास दस सेकंड से भी कम समय का वक्त है क्योंकि आशीष जाग कर बेडरूम से बाहर निकल आया है। ऐसी परिस्थिति में दरवाजा खोल कर रॉबिन को वह झूठ बोल देती है कि आशीष ने उसके साथ जोर-जबरदस्ती की है। अनुषा के प्यार में दीवाना रॉबिन गुस्से से पागल हो जाता है और बिना सोचे-समझे वह आशीष की हत्या कर देता है। लाश के सामने वे सेक्स करते हैं। चंद मिनट का यह दृश्य हिला कर रख देता है और सोचने पर मजबूर करता है कि परिस्थितिवश इंसान को हैवान में बदलते देर नहीं लगती। नीरज ग्रोवर हत्याकांड से प्रेरित होकर रामगोपाल वर्मा ने यह फिल्म बनाई है। हकीकत में चूंकि यह घटना हुई है, इसलिए यह फिल्म विश्वसनीय लगती है। पूरी फिल्म चार भागों में बंटी हुई है। हत्या के पहले वाला भाग जिसमें अनुषा हीरोइन बनने के लिए संघर्ष कर रही है, थोड़ा कमजोर है। हत्या वाला दृश्य, जबरदस्त है। हत्या के बाद लाश को ठिकाने लगाना और फिर पुलिस के गिरफ्त में आना, रोचक है। इसके बाद कोर्ट वाले दृश्य, थोड़ा ड्रामेटिक है, लेकिन हर भाग पर निर्देशक का दबदबा नजर आता है। प्यार में आदमी कैसे रूप बदलता है इसकी मिसाल कोर्ट वाले दृश्यों में देखने ‍को मिलती है। रॉबिन और अनुषा दोनों फंस चुके हैं। अपने आपको बचाने के लिए वे प्यार-व्यार भूल जाते हैं और अपने-अपने वकीलों के मार्फत एक-दूसरे को दोषी ठहराते हैं। अनुषा यह सब नहीं देख पाती क्योंकि उसके अंदर रॉबिन के प्रति प्यार फिर जाग जाता है। वह रॉबिन के सामने अपनी गलती स्वीकारती है और रॉबिन उसे चुंबन देकर एक-तरह से माफ कर देता है। पात्रों की मनोदशा को परदे पर उतारना आसान काम नहीं है। रॉबिन और अनुषा के प्यार की त्रीवता और हत्या के बाद का भय रामू ने इस कदर फिल्माया है कि पात्रों के दर्द, प्यार और डर को दर्शक महसूस करता है। बहुत दिनों बाद रामू ने अपने निर्देशन का कमाल दिखाया है। हाल ही के वर्षों में यह उनका श्रेष्ठ काम है। इस फिल्म ने उस रामू की याद दिला दी जो कभी रंगीला, सत्या, भूत जैसी फिल्में बनाया करता था। निर्देशक ने घटना को जस का तस पेश करने की कोशिश की है और अपनी तरफ से किसी का पक्ष नहीं लिया है। फिल्म में आगे क्या होने वाला है, ये सबको पता है, लेकिन उम्दा प्रस्तुतिकरण के कारण फिल्म थ्रिलर जैसी लगती है। फिल्म का ओपन एंड कुछ लोगों को अखर सकता है। फिल्म को दो-तीन लोकेशन्स पर फिल्माया गया है और ज्यादा किरदार भी नहीं हैं, इसके बावजूद भी नीरसता हावी नहीं होती है। दीपक डोब्रियाल ने जुनूनी प्रेमी का किरदार अच्छे से निभाया है, हांलाकि ज्यादातर वक्त उनके एक्सप्रेशन एक जैसे रहे हैं। माही गिल सब पर भारी पड़ती हैं। लाश के टुकड़े किए जा रहे हैं और कैमरा माही के चेहरे पर है। इस सीन में भय, घृणा, ग्लानि जैसे कई एक्सप्रेशन माही ने अपने चेहरे के जरिये दिए हैं। पुलिस इंसपेक्टर के रूप में जाकिर हुसैन अपनी छाप छोड़ते हैं। फिल्म की लागत कम करने के लिए रामगोपाल वर्मा ने डॉयरेक्टर ऑफ फोटोग्राफी को नहीं रखा और केनन 5 डी से फिल्म को शूट किया है। कैमरे एंगल्स फिल्म को अलग ही लुक देते हैं। रियल लोकेशन्स और कम से कम क्रू मेंबर रखने की वजह से फिल्म बहुत कम लागत में बनी है। फिल्म का बैकग्राउंड म्यूजिक उम्दा है। फिल्म का नाम भले ही नॉट ए लव स्टोरी हो, लेकिन इसमें एक लव स्टोरी छिपी हुई है और इसी प्यार के कारण दोनों प्रेमी क्रूरतापूर्वक अपने अपराध को अंजाम देते हैं।
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Chandermohan.sharma@timesgroup.com हमेशा से सुनते आए हैं कि किक्रेटर और ग्लैमर नगरी के स्टार्स की सबसे ज्यादा वैल्यू रही है, बेशक यह बात किसी हद तक सही भी हो, यकीनन ब्रैंड और मॉडलिंग की दुनिया में इन्हें आज आसमां छूती प्राइस भी मिलती हो, लेकिन अगर रिऐलिटी पर नजर डाली जाए तो यहां ऐसा कतई नहीं लगता। 70 के दशक से इंडियन फिल्म स्क्रीन पर ऐसा कई बार नजर आया जब किसी नामी क्रिकेटर ने हिंदी फिल्म में लीड किरदार निभाया और फिल्म हिट रही है। सलीम दुर्रानी के साथ प्रवीन बॉबी को लेकर बनी 'चरित्र' बॉक्स ऑफिस पर फ्लॉप साबित रही तो ऐसे ही कुछ नजारा दूसरी फिल्मों के साथ भी नजर आया। इस बार मामला कुछ बदला हुआ है। किक्रेट की फील्ड में अपना दबदबा बना चुके तूफानी गेंदबाज ब्रेट ली को लेकर बनी इस फिल्म को पहले दिन बॉक्स ऑफिस पर मिली बेहद मामूली ओपनिंग यही साबित करती है कि दर्शक इन्हें क्रिकेट के मैदान में शायद देखना पंसद करते हैं, वहीं दूसरी बात ब्रेट ली की इस फिल्म मे ऐसा कुछ खास नजर भी नहीं आाता कि दर्शक इस फिल्म को देखने की चाह में थिऐटर का रुख करें। वैसे इससे पहले भी ब्रेट ली का नाम म्यूजिक के साथ जुड़ चुका है, अब देखना बाकी है कि सिल्वर स्क्रीन पर भी क्या अपनी पहचान बना पाते हैं। वैसे बता दें, ऑस्टेलिया में बनी इस फिल्म का प्रीमियर सिडनी में पिछले साल हो चुका है। कहानी : मीरा (तनिष्ठा चटर्जी) ऑस्ट्रेलिया के एक शहर में रहती है। मीरा सिंगल मदर है, लेकिन मीरा की मां (सुप्रिया पाठक) अक्सर अपनी बेटी को सेकंड मैरिज करने की सलाह देती रहती है। कुछ यही हाल विल (ब्रेट ली) को उसका अकेलापन जरा भी पसंद नहीं है। विल को किसी साथी की तलाश है जो उसे समझ सके। ऐसे में एक दिन मीरा और विल की मुलाकात एक पार्टी में होती है, पहली ही मुलाकात के बाद विल को लगने लगता है कि मीरा में ऐसी सभी खूबियां हैं जो उसके साथी में होनी चाहिए। इसके बाद विल हमेशा मीरा से मिलने का कोई न कोई बहाना तलाशता है और अक्सर मीरा से मिलने पहुंच जाता है। दूसरी ओर अब मीरा की मां को इन दोनों का मिलना जरा भी पसंद नहीं। इसकी वजह विल का दूसरे देश से होने के साथ-साथ विदेशी कल्चर से होना भी है। दरअसल, मीरा की मां अपनी बेटी की शादी किसी और के साथ करना चाहती है। ऐसे में विल को लगता है उसका खास दोस्त (अर्को घोष) ही उसे इंडियन कल्चर से लेकर इंडिया के बारे में ऐसी सभी जानकारी दे सकता है जो उसे मीरा तक पहुचंने में मदद कर सकती है। फिल्मी खबरें पढ़ें अपने फेसबुक पर, लाइक करें हमारा पेज NBT Movies ऐक्टिंग: अगर आप ब्रेट ली की तूफानी गेंदबाजी के फैन हैं तो इस फिल्म को देखकर उनकी ऐक्टिंग के फैन हो सकते हैं। यकीनन ब्रेट ली ने अपने किरदार को बखूबी ऐसे असरदार ढंग से निभाया है जो उनके फैन्स को सरप्राइज कर सकता है। तनिष्ठा चटर्जी मीरा के रोल में जमी हैं। सु्प्रिया पाठक और अर्को घोष अपने रोल में फिट रहे है। निर्देशन : अनुपमा शर्मा की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने इस सिंपल सी कुछ अलग लव स्टोरी को ऐसे अंदाज में पेश करने की अच्छी पहल की है जो कहीं बोझिल नहीं करती । वहीं, फिल्म का क्लाइमैक्स बेहद कमजोर है जो इससे पहले भी दर्जनों हिंदी फिल्मों में नजर आ चुका है। क्यों देखें : अगर ब्रेट ली के पक्के फैन हैं तो अपने चहेते खिलाड़ी को एक नए लुक में देखें। कहानी में नयापन नहीं है, लेकिन ऐसा भी नहीं कि आप बोर हों।
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Chandermohan.sharma@timesgroup.com आमिर खान के साथ सुपरहिट फिल्म लगान के अलावा रितिक के साथ 'जोधा अकबर' बना चुके डायरेक्टर आशुतोष गोवारिकर की कुछ फिल्में बॉक्स ऑफिस पर कहीं टिक नहीं पाई। प्रियंका चोपड़ा के साथ उन्होंने 'वॉट्स यॉर राशि' में एक नया प्रयोग किया, लेकिन फिल्म नाकाम रही। आठ साल बाद आशुतोष ने रितिक के साथ एक ऐसे प्रॉजेक्ट पर काम किया है, जिस पर इंडस्ट्री के बड़े फिल्ममेकर भी शायद ही फिल्म बनाने की हिम्मत जुटा पाएं। हजारों साल पुरानी मोहनजो दारो संस्कृति को उन्होंने बिग स्क्रीन पर पेश करने की कोशिश तो जरूर की, लेकिन मोटे बजट में बनी यह फिल्म भव्य सेट्स और गजब कॉस्ट्यूम के चक्रव्यूह में फंसकर रह गई। फिल्मी खबरें पढ़ें फेसबुक पर, लाइक करें NBT Movies कहानी : आमरी में सरमन (रितिक रोशन) अपने काका (नितिश भारद्वाज) और काकी के साथ नीले पत्थर यानी नील का काम करता है। आमरी से दूर बसे शहर मोहनजो दारो में व्यापारी नीले पत्थर बेचने जाते हैं। सरमन अक्सर अपने काका से मोहनजो दारो जाने की जिद करता रहता है। सरमन के काका जानते हैं कि मोहनजो दारो का क्रूर शासक महाम (कबीर बेदी) छल कपट और लालच के दम पर वहां के लोगों पर जबरन राज कर रहा है। यही वजह है कि वह सरमन को वहां नहीं जाने देते। हालांकि, सरमन के जिद करने पर काका उसे व्यापार के लिए मोहनजो दारो भेजने को राजी हो जाते हैं। यहां आकर सरमन की मुलाकात चानी (पूजा हेगड़े) से होती है, सरमन पहली ही मुलाकात में चानी पर मर मिटता है। मोहनजो दारो के निवासी यहां के प्रधान महाम के अत्याचारों से और उसके द्वारा लगाए जाने वाले कर की वजह से पीड़ित हैं। महाम अपने बेटे मूंजा ( अरुणोदय सिंह ) के साथ चानी की शादी करना चाहता है। दूसरी ओर मूंजा भी चानी पर फिदा है। ऐसे में, सरमन अपने प्यार को हासिल करने और मोहनजो दारो के निवासियों को महाम और मूंजा के अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के मकसद से वहीं रहने का फैसला करता है। ऐक्टिंग : सरमन के रोल में रितिक ने बेहतरीन ऐक्टिंग की है। ऐक्शन सीन्स में रितिक का जवाब नहीं। नई ऐक्ट्रेस पूजा हेगड़े के करने के लिए कुछ खास था ही नहीं। चानी के रोल में पूजा की ऐक्टिंग देखकर लगता है उन्हें अभी ऐक्टिंग की एबीसी सीखने की जरूरत है। अन्य कलाकारों में कबीर बेदी और मनीष चौधरी प्रभावित करते हैं, अरुणोदय सिंह मूंजा के रोल में नहीं जमे हैं। डायरेक्शन : आशुतोष ने इस सब्जेक्ट पर रिसर्च के बाद ही काम शुरू किया होगा, इसका एहसास आपको फिल्म के शुरुआती सीन्स देखकर लगेगा। हालांकि, उन्होंने कहानी को बेवजह कुछ ज्यादा ही लंबा खींच डाला है। इंटरवल से पहले फिल्म आपको किसी धारावाहिक जैसी लगने लगती है। चानी और सरमन की लव स्टोरी को मोहनजो दारो की पृष्ठभूमि के साथ दिखाने के चक्कर में आशुतोष कुछ ऐसे उलझे कि इंटरवल के बाद स्क्रिप्ट उनके हाथों से फिसलती गई। ऐक्शन सीक्वेंस को उन्होंने बेहतरीन ढंग से फिल्माया है। संगीत : ए.आर. रहमान ने फिल्म के मिजाज के मुताबिक संगीत दिया है, टाइटिल सॉन्ग के अलावा 'तू है' गाने का फिल्मांकन अच्छा बन पड़ा है। क्यों देखें : अगर आप रितिक के फैन हैं तो उनके टोटली चेंज लुक के लिए यह फिल्म देखें और आशुतोष गोवारिकर स्टाइल की फिल्में पसंद करते हैं तो थिएटर जाएं। वहीं अगर आप फिल्म में हजारों साल पुरानी संस्कृति मोहनजो दारो की तलाश करेंगे तो यकीनन अपसेट हो सकते हैं।
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Neil Soansकहानी: सुश्रुत (आयुष शर्मा) वडोदरा में बच्चों को गरबा सिखाते हैं। इस बार का 9 दिन का नवरात्रि का त्योहार उनकी जिंदगी पूरी तरह बदल देता है। उन्हें मिशेल (वरीना हुसैन) से प्यार हो जाता है और उनका प्यार जीतने के लिए वह हर काम करते हैं। रिव्यू: सुश्रुत उर्फ 'सुसु' को एक ऐसा लड़का दिखाया गया है जिसकी कोई ख्वाहिशें नहीं हैं और वह केवल अपनी जिंदगी में डान्स करना चाहता है। उसके परिवार की तरफ से उस पर नौकरी ढूंढने का दबाव है जबकि वह वडोदरा में अपनी एक गरबा अकैडमी खोलना चाहता है। वहीं इंग्लैंड की मिशेल अपनी मातृभूमि भारत लौटना चाहती है और इस बात के लिए उसके पिता (रोनित रॉय) तैयार हो जाते हैं। अपनी फैमिली के कहने पर वह वडोदरा में नवरात्रि मनाने के लिए रुक जाते हैं। इसी त्योहार के दौरान सुसु को मिशेल से प्यार हो जाता है। 'लवयात्रि' केवल एक साधारण सी लव स्टोरी है। इससे ज्यादा फिल्म में कुछ भी नहीं है। डायरेक्टर अभिराज मीनावाला की यह पहली फिल्म है और उन्होंने बॉलिवुड के पुराने मसालों पर सेफ गेम खेलने की कोशिश की है। हालांकि फिल्म का स्क्रीनप्ले बहुत ज्यादा अच्छा नहीं लिखा गया है। फिल्म के कैरक्टर्स आपको पसंद आएंगे लेकिन कहानी आपको इतनी आकर्षक नहीं लगेगी। फिल्म के गाने खूबसूरती से फिल्माए गए है और वैभवी मर्चेंट की कोरियॉग्रफी भी अच्छी है। यह कहना सही होगा कि अपनी पहली फिल्म कर रहे आयुष और वरीना अभी ऐक्टिंग में कच्चे हैं। हालांकि स्क्रीन पर उनकी केमिस्ट्री अच्छी लगती है। आयुष बिल्कुल युवा लड़के के रूप में ठीक लगते हैं। सुसु के अंकल के रूप में राम कपूर ने और मिशेल के पिता के रूप में रोनित रॉय ने बेहतरीन काम किया है और उन्होंने इमोशनल और भारी-भरकम डायलॉग बोले हैं। 'लवरात्रि' उन लोगों के लिए अच्छी फिल्म है जो 90 के दशक की रोमांटिक फिल्मों के शौकीन हैं।
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बैनर : वाइड फ्रेम्स फिल्म्स, वायकॉम 18 मोशन पिक्चर्स, ए फ्राइडे फिल्मवर्क्स निर्माता : शीतल भाटिया, कुमार मंगत पाठक निर्देशक : नीरज पांडे संगीत : एमएम क्रीम, हिमेश रेशमिय ा कलाकार : अक्षय कुमार, काजल अग्रवाल, मनोज बाजपेयी, अनुपम खेर, जिम्मी शेरगिल, राजेश शर्मा, दिव्या दत्ता सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 22 मिनट 32 सेकंड ए वेडनेसडे जैसी जबरदस्त फिल्म से चौंकाने वाले निर्देशक नीरज पांडे की अगली फिल्म ‘स्पेशल 26’ अस्सी के दशक में घटी कुछ ठगी की घटनाओं पर आधारित है। उस दौर में संचार के साधन इतने सशक्त नहीं थे, लिहाजा इस तरह की घटनाओं को अंजाम देना आसान बात थी। काला धन जमा करने वाले नेताओं और व्यापारियों के यहां कुछ लोगों का एक गैंग नकली सीबीआई ऑफिसर या इनकम टैक्स ऑफिसर बन छापा मारता है और नकद-गहने जब्त कर लेता है। बात इसलिए बाहर नहीं आती थी क्योंकि शिकार खुद अपराधी हैं। वे मन मसोसकर रह जाते हैं। इन चालाक अपराधियों को ‘स्पेशल 26’ में हीरो बनाकर पेश किया है क्योंकि वे एक तरह से रॉबिनहुड की तरह हैं जो अमीरों को लूटते थे, ये बात और है कि वे गरीबों में ये पैसा बांटते नहीं थे। स्पेशल 26 एक ऐसी थ्रिलर मूवी है, जिसमें हिंसा का कोई स्थान नहीं है। यहां चोर और पुलिस दिमागी चालों से एक-दूसरे का सामना करते हैं। फिल्म के पहले हिस्से में नकली ऑफिसरों के दो किस्से दिखाए गए हैं कि किस तरह से ये अपना काम करते हैं। उनकी बॉडी लैंग्वेंज, चेहरे के भाव, कागजी कार्रवाई और अकड़ बिलकुल असली पुलिस ऑफिसरों की तरह होती है। फिल्म में रोचकता तब बढ़ जाती है जब वसीम नामक असली और ईमानदार सीबीआई ऑफिसर इन्हें पकड़ने के लिए पीछे लग जाता है। चूंकि नकली सीबीआई के खिलाफ कोई मामला दर्ज नहीं है इसलिए वह इन्हें रंगे हाथ पकड़ने की फिराक है। वसीम को इनके अगले कदम का पता चल जाता है जब ये मुंबई की एक प्रसिद्ध ज्वैलरी शॉप पर छापा मारने वाले होते हैं। वसीम कामयाब होता है या अजय (अक्षय कुमार) की गैंग, इसका पता एक लंबे क्लाइमैक्स के बाद पता चलता है। नीरज पांडे का प्रस्तुतिकरण बताता है कि उन्होंने इस दिशा में काफी काम किया है। उन्होंने न केवल सरकारी ऑफिसर्स के कामकाज करने के तरीके को सूक्ष्मता के साथ पेश किया है बल्कि 1987 का दौर भी लाजवाब तरीके से पेश किया है। इसका श्रेय आर्ट डायरेक्टर को भी जाता है। नंबर घुमाने वाले और कॉर्डलेस फोन, बड़े ब्रीफकेस, फिएट-एम्बेसेडर और एम्पाला कार, लेम्ब्रेटा स्कूटर, करंसी नोट, समाचार पत्र और पत्रिकाएं, फिल्मों के पोस्टर्स, विमल सूटिंग शर्टिंग और थ्रिल कोल्ड ड्रिंक के विज्ञापन विश्वसनीयता को बढ़ाते हैं। नीरज ने कहानी को ज्यादा उलझाने के बजाय सीधे तरीके से कहा है। चोर-पुलिस के इस खेल को रोचकता के साथ पेश किया है और इंटरवल के बाद तो फिल्म सीट पर बैठे रहने के लिए मजबूर कर देती है। क्लाइमेक्स में एक ट्विस्ट दिया है, जो अच्छा तो लगता है, लेकिन कहानी को थोड़ा कमजोर करता है। फिल्म में हीरोइन नहीं भी होती तो कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन अक्षय कुमार जैसे स्टार के कारण हीरोइन रखना शायद मजबूरी हो। यह काम अधूरे मन से किया गया है। अक्षय और काजल की लव स्टोरी में भी थ्रिल पैदा करने की कोशिश की गई है, लेकिन यह ट्रेक उतना प्रभावी नहीं बन पाया है। इसी तरह गानों की भी कोई जरूरत नहीं थी। अक्षय कुमार का किरदार ठगी क्यों करता है, इसका कारण नहीं भी बताया जाता तो खास फर्क नहीं पड़ता क्योंकि उसके साथियों का भी इतिहास नहीं बताया गया है। फिल्म के संवाद और कुछ सीन उल्लेखनीय हैं। एक ईमानदार ऑफिसर अपने बॉस से पैसे बढ़ाने की बात करते हुए कहता है कि अब उसे घर का खर्च उठाने में परेशानी आ रही है, यदि पैसा नहीं बढ़ा तो वह रिश्वत लेना शुरू कर देगा। इस सीन को हास्य के पुट के साथ पेश किया गया है, लेकिन इसका असर गहरा है। इसी तरह अक्षय और अनुपम खेर का इंटरव्यू लेने वाले सीन मनोरंजक है। अनुपम खेर के ढेर सारे बच्चें रहते हैं और इसके पीछे वे ये तर्क देते हैं कि उनकी जवानी के समय टीवी नहीं था। संभव है भारत की जनसंख्या ज्यादा होने का यह कारण भी हो। एक्टिंग के मामले में यह फिल्म सशक्त है। अक्षय कुमार ने अपना काम पूरी संजीदगी के साथ किया है। एक रौबदार और आत्मविश्वास से भरे ऑफिसर के रूप में वे बेहद जमे हैं। ओह माय गॉड के बाद स्पेशल 26 में अभिनय कर अक्षय ने बता दिया है कि वे मसाला फिल्मों के साथ-साथ लीक से हटकर बनने वाली फिल्मों के लिए भी तैयार हैं। अनुपम खेर ने लंबे समय बाद यादगार अभिनय किया है। नकली ऑफिसर के रूप में वे बेहद रौबदार नजर आते हैं, लेकिन दूसरे पल ही वे डरपोक बन जाते हैं। पूरी फिल्म में उन्हें यह खौफ सताता रहता है कि कहीं वे पकड़े न जाए। इस भय को उन्होंने बेहतरीन तरीके से पेश किया है। मनोज बायपेयी की फिल्म में एंट्री होते ही फिल्म का स्तर बढ़ जाता है। एक कड़क और ईमानदार पुलिस ऑफिसर के रूप में मनोज का अभिनय देखने लायक है। काजल अग्रवाल का काम ठीक है। राजेश शर्मा, किशोर कदम और दिव्या दत्ता को कम मौका मिला है, लेकिन ये सब अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। स्पेशल 26 कई कारणों से देखने लायक है।
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कुल मिलाकर ‘किडनैप’ को देख ऐसा लगता है कि दर्शकों का कुछ घंटों के लिए किडनैप हो गया हो। निर्माता : श्री अष्टविनायक सिने विज़न लिमिटेड निर्देशक : संजय गढ़वी गीत : मयूर पुरी संगीत : प्रीतम चक्रवर्ती कलाकार : संजय दत्त, इमरान खान, मिनिषा लांबा, विद्या मालवदे, राहुल देव, रीमा लागू, सोफी चौधरी (विशेष भूमिका) निर्देशक संजय गढ़वी के पास ‘किडनैप’ फिल्म की पटकथा पाँच वर्षों से थी। इस पटकथा पर उन्हें आदित्य चोपड़ा ने फिल्म नहीं बनाने दी और बदले में उनसे ‘धूम’ और ‘धूम 2’ का निर्देशन करवाया। जब संजय ने यशराज फिल्म्स को छोड़ा तो आदित्य ने बड़ी आसानी से उन्हें ‘किडनैप’ की पटकथा भी दे दी। आदित्य चतुर व्यवसायी हैं, यदि उन्हें ‍’किडनैप’ की कहानी और पटकथा में दम नजर आता तो वे खुद इस पर पैसा लगाते। ‘किडनैप’ को थ्रिलर कहकर प्रचारित किया जा रहा है, लेकिन इसमें एक भी लम्हा ऐसा नहीं है जो किसी तरह से रोमांचित करे। कहानी का मूल विचार अच्छा है कि अपहरणकर्ता ने अरबपति की बेटी का अपहरण कर लिया है और बदले में वह उससे वह कुछ काम करवाता है। हर काम में एक संकेत छिपा हुआ है, जो उसे अपनी बेटी के नजदीक पहुँचने में मदद करता है। इस कहानी को परदे पर पेश करने के लिए एक उम्दा स्क्रीनप्ले की जरूरत थी और यही पर फिल्म बुरी तरह मार खा जाती है। लगता है कि निर्देशक और लेखक को इस कहानी से कुछ ज्यादा ही प्यार था, इसलिए उन्होंने इस पर किसी भी तरह फिल्म बना डाली। विक्रांत रैना (संजय दत्त) एक रईस आदमी है। उसका अपनी पत्नी से तलाक हो चुका है। उसकी बेटी सोनिया (मिनिषा लांबा) का कबीर (इमरान खान) अपहरण कर लेता है। कबीर सिर्फ विक्रांत से ही बात करता है और उससे कुछ काम करवाता है। किस तरह विक्रांत, कबीर के पास पहुँचता है, यह फिल्म में बड़े ही हास्यास्पद तरीके से दिखाया गया है। शिबानी बाठीजा और संजय गढ़वी ने दर्शकों को मूर्ख समझने की भूल की है और कुछ ऐसे घटनाक्रम फिल्म में डाले हैं कि हैरानी होती है। विक्रांत से कबीर हजार का नोट चोरी करवाता है। सारी सुरक्षा को तोड़कर जिस तरह विक्रांत चोरी करता है, वह किसी भी दृष्टि से संभव नहीं है। सबसे बड़ा सवाल यह है कि कबीर ने कब उस हजार के नोट पर संदेश लिखकर वहाँ छिपा दिया था। विक्रांत के जरिए कबीर जेल से अपने दोस्त को छुड़वाता है। विक्रांत की पत्नी मानवाधिकार की कार्यकर्ता बन बड़ी आसानी से जेल में घुस जाती है। कबीर बड़ी आसानी से कैदी तक पहुँच जाता है। जेल में आग लगा देता है और पता नहीं कहाँ से उसे फायर ब्रिगेड के कर्मचारी की ड्रेस भी मिल जाती है और वो आग बुझाता है। अगर इतनी आसानी से कैदियों को छुड़वाना मु‍मकिन होता तो आज सारे कैदी जेल से बाहर होते। कबीर क्यों बदला लेता है, उसको लेकर जो घटनाक्रम रचा गया है वो बेहद लचर है और फिल्म ‘जिंदा’ की याद दिलाता है। कबीर सात साल जेल में काटता है। पता नहीं उसे इतना वक्त कैसे मिल जाता है कि वह पढ़-लिखकर कम्प्यूर का मास्टर बन जाता है। किडनैप के बाद सोनिया हर दृश्य में ड्रेस बदलती है। शायद उसके लिए यह ड्रेसेस कबीर ही लाया होगा। उसकी हर ड्रेस इतनी छोटी रहती है कि वह अपना पूरा शरीर भी ढँक नहीं पाती। फिल्म के आखिर में सोनिया को भागने का अवसर मिलता है, लेकिन वह घायल कबीर के होश में आने का इंतजार करती है। वह बंदूक उसके इतने नजदीक से चलाने की कोशिश करती है ताकि कबीर उसे पकड़ सके। फिल्म की शुरुआत एक गाने से होती है, जिसका फिल्म से कोई लेना-देना नहीं है। फिल्म के क्लायमैक्स में संजय दत्त, इमरान खान पर गोली चलाते हैं और वो गिर पड़ता है। वह कैसे बचता है, इस बारे में कुछ नहीं बताया गया। संजय दत्त और उनकी पत्नी के बीच क्यों तलाक होता है, इसकी कोई ठोस वजह नहीं बताई गई। फिल्म का अंत भी बेहद खराब है। संजय गढ़वी की ‘धूम’ और ‘धूम 2’ भी सशक्त फिल्में नहीं थीं, लेकिन कुछ भाग्य का सहारा और कुछ स्टार्स के आकर्षण की वजह से वे फिल्में चल निकली। ‘किडनैप’ में उनकी पोल खुल गई। पूरी फिल्म बेहद लंबी और उबाऊ है। संजय दत्त पूरे समय असहज दिखाई दिए। इमरान खान कुछ ज्यादा ही तने हुए नजर आए। उन्हें संवाद अदायगी पर ध्यान देना होगा। मिनिषा लांबा ने पूरी फिल्म में अंग प्रदर्शन किया है। राहुल देव का चरित्र ठूँसा हुआ है। विद्या मालवदे, मिनिषा की मम्मी कम बहन ज्यादा लगती है। कुल मिलाकर ‘किडनैप’ को देख ऐसा लगता है कि दर्शकों का कुछ घंटों के लिए किडनैप हो गया हो।
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ये फगली-फगली क्या है, ये फगली-फगली? इस बात का खुलासा फिल्मकार ने पहली फ्रेम में ही कर दिया, फगली यानी कि फाइटिंग द अगली'। अब इस तरह का नाम रखने की जरूरत क्यों पड़ी, ये तो वे ही जाने। अपने नाम की तरह फिल्म भी कुछ ऐसी ही है। तर्कहीन और अर्थहीन। पहली फ्रेम से बोरियत हावी होती है जो अंत तक दूर नहीं होती। बिना कहानी के दर्शकों को बांध पाना आसान काम नहीं है। निर्देशक कबीर सदानंद और लेखक राहुल हांडा ने शुरुआती पौन घंटे बिना कहानी के फिल्म को ऐसे खींचा है कि फिल्म हांफने लगती है। कॉमेडी, दोस्तों की चुहलबाजी, दारूबाजी, बोल्ड संवाद, तीन गाने और लेह के सीन ‍भी फिल्म को संभाल नहीं पाए। दोस्तों की मौज-मस्ती के बाद कहानी में ट्वीस्ट तब आता है जब जिमी शेरगिल की एंट्री होती है। देव (मोहित मारवाह), गौरव (विजेंदर सिंह), आदित्य (आरिफ लांबा) और देवी (किआरा अडवाणी) का ऐसे शख्स से विवाद होता है जो देवी को छेड़ देता है। सबक सिखाने के लिए उसे कार की डिक्की में बंद कर वे शहर से बाहर की ओर जाते हैं, वहां उनकी झड़प भ्रष्ट पुलिस ऑफिसर चौटाला (जिमी शेरगिल) से हो जाती है। चौटाला डिक्की में बंद शख्स की हत्या कर देता है और इसका इलजाम चारों दोस्तों पर लगा देता है। मामले को दबाने के लिए वह 61 लाख रुपये मांगता है और उसके बाद उसकी ब्लेकमेकिंग बढ़ती जाती है। जिमी के किरदार की एंट्री से लग रहा था कि फिल्म संभल जाएगी, लेकिन स्थिति और बिगड़ती चली जाती है। 'फुकरे' और 'शैतान' की राह पर चल रही यह फिल्म 'रंग दे बसंती' के ट्रैक पर चलने लगती है। ढेर सारी फालतू की बातें, बेहूदा संवाद, घटिया एक्टिंग और निर्देशन भला कैसे फिल्म को संभाल सकते थे। दर्शक कहीं कनेक्ट नहीं हो पाता और 'द एंड' टाइटल का इंतजार उसे बेसब्री से रहता है। नई दिल्ली इन दिनों फिल्मकारों का पसंदीदा शहर हो गया है। दिल्ली के जरिये यूपी और हरियाणा का टच फिल्म को दिया जाता है। 'तेरे पिछवाड़े में डंडा घुसेड़ दूंगा' जैसे संवाद दिल्ली के नाम पर छूट लेकर दिखाए जाते हैं। कबीर ने भी दिल्ली का ऐसा ही माहौल दिखाया है, लेकिन माहौल बनाने से ही फिल्म अच्छी नहीं बन जाती। फुकरे' की तर्ज पर चार लंगोटिया यार ले लिए, जिनमें से एक लड़की है। एक दोस्त हमेशा 'फट्टू' होता है और यहां भी है। लड़की के जरिये रोमांस और 'फट्टू' दोस्त के जरिये कॉमेडी दिखाने की चेष्टा की गई है जो कही से भी प्रभावित नहीं करती। बिजॉय नाम्बियार की 'शैतान' की तरह ये दोस्त मौज-मस्ती करते हैं और फिर फंस जाते हैं। रंग दे बसंती' की नकल के चक्कर में फिल्म की बुरी गत बन गई है। मीडिया, नेता, पुलिस को कोसा गया है, लेकिन इसके लिए जिस तरह की स्क्रिप्ट लिखी गई है वो बेहद घटिया है। 80-90 प्रतिशत जल चुका शख्स अस्पताल में मीडिया को लाइव इंटरव्यू देता है और उसे ऐसा करने की अनुमति डॉक्टर ही देता है। इस तरह के कई बचकाने प्रसंग फिल्म में है। एक पॉवरफुल नेता का बेटा होने के बाद भी गौरव एक अदने से पुलिस ऑफिसर से इतना क्यों डरता है ये भी समझ से परे है। कई बार घटिया स्क्रिप्ट को अभिनेता अपने दम पर बचा लेते हैं, लेकिन यहां ये एक्टर्स, निर्देशक-लेखक के साथ मिले हुए हैं। मोहित मारवाह ने थोड़ी गंभीरता दिखाई है, लेकिन उनकी भी सीमाएं हैं। एक्टिंग रिंग में विजेंदर सिंह बेहद कच्चे खिलाड़ी नजर आए। अरफी लांबा ने जमकर बोर किया। किआरा आडवाणी को टिकना है तो खूब मेहनत करना होगी। जिमी शेरगिल का अभिनय अच्छा है, लेकिन वो भी कहां तक दम मारते। फिल्म में चारों दोस्तों को पानी की तरह शराब गटकते और इतना सुट्टा मारते दिखाया है कि लगभग आधी फिल्म में स्क्रीन के कोने पर वैधानिक चेतावनी ही नजर आती है। सेंसर बोर्ड के डंडे के कारण फिल्मकार को बार-बार लिखना पड़ता है कि ये दोनों चीजें सेहत के लिए बुरी है। ऐसी चेतावनी फिल्म के लिए भी होना चाहिए कि फलां फिल्म आपके समय और धन के लिए खतरनाक है। चलिए, ये काम हम ही कर देते हैं। बैनर : ग्रेजिंग गोट प्रोडक्शन्स निर्माता : अश्विनी यार्डी, अलका भाटिया निर्देशक : कबीर सदानंद संगीत : यो यो हनी सिंह, प्रशांत वैद्यहर, रफ्तार कलाकार : जिमी शेरगिल, मोहित मारवाह, किआरा अडवाणी, विजेंदर सिंह, आरफी लांबा सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 15 मिनट 18 सेकंड्स
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बॉलीवुड में लड़कियों की दोस्ती और उनकी मौज-मस्ती पर बहुत कम फिल्में बनी हैं और 'वीरे दी वेडिंग' इस कमी को पूरा करती है। इस फिल्म की चार लड़कियां बिंदास लाइफ जीती हैं और रूढ़िवादी विचारों के खिलाफ उनके बगावती तेवर हैं। कालिंदी पुरी (करीना कपूर), अवनि शर्मा (सोनम कपूर), साक्षी सोनी (स्वरा भास्कर) और मीरा सूद (शिखा तलसानिया) की दोस्ती बचपन से है। जवां होने के बाद सबकी अलग-अलग कहानियां है। अवनि एक वकील है और उसकी मां उसके लिए लड़का ढूंढ रही है। लड़कों को लेकर उसकी अपनी पसंद है। साक्षी के पिता ने करोड़ों रुपये खर्च कर उसकी शादी की, लेकिन शादी के कुछ महीनों बाद अब वह अपने पति से अलगाव चाहती है। मीरा ने भाग कर एक गोरे से शादी की है और उसके घर वाले उसके इस फैसले से नाराज है। सिडनी में रहने वाली कालिंदी की जिंदगी में ऋषभ मल्होत्रा (सुमित व्यास) नामक बेहतरीन लड़का है, लेकिन वह शादी करने से घबराती है क्योंकि उसका बचपन अपने माता-पिता के झगड़ों में बीता है। उसका मानना है कि पति बनते ही प्रेमी बदल जाता है। काफी सोच समझ कर वह शादी के लिए हां कहती है। सभी सहेलियां उसकी शादी के लिए दिल्ली में जमा होती हैं और भव्य शादी की तैयारियां शुरू होती हैं। रस्मो-रिवाज और ढेर सारे रिश्तेदार देख कालिंदी घबरा जाती है और शादी करने से इंकार कर देती है। इन चारों लड़कियों के माध्यम से दिखाया गया है कि शादी और बच्चों का लड़कियों पर कितना ज्यादा प्रेशर है। वे अपनी मर्जी के लड़के से शादी नहीं कर सकती। शादी नहीं करना चाहती हैं तो उन पर शादी का दबाव डाला जाता है। फिर पहले बच्चे का दबाव, फिर दूसरे का दबाव। कोई लड़की यदि अपनी मर्जी से पति से अलग होना चाहे तो उसके चरित्र पर अंगुली उठाई जाती है। कालिंदी के कैरेक्टर के जरिये लड़कियों के शादी के प्रति कन्फ्यूज नजरिये को दिखाया गया है। वे तय नहीं कर पातीं कि वे शादी करें या नहीं। फिल्म के लेखक निधि मेहरा और मेहुल सूरी ने बहुत सारी बातों को अपनी कहानी में समेटा है। इसमें गॉसिप करने वाली आंटियां हैं, जो सारी बातें करने के बाद बोलती हैं, छोड़ो हमें क्या करना है, एक गे कपल है जिसे देख कोई चौंकता नहीं है, मम्माज़ बॉय है, सेक्स को लेकर बातें करने वाली लड़कियां हैं। हर किरदार की अपनी समस्या है और इसे पूरे डिटेल्स के साथ लिखा गया है। इन सभी बातों को मसालेदार तरीके से कहा गया है। फिल्म आपको लगातार हंसाती रहती है और कहानी भी आगे बढ़ती रहती है। अंत में कहानी समेटने में लेखक कुछ नया नहीं सोच पाए और सुखद अंत के साथ फिल्म को समाप्त करने में ही उन्होंने भलाई समझी। अचानक सारी उलझनें सुलझ जाती हैं। लेखक थोड़ी और गहराई में जा सकते थे। निर्देशक के रूप में शशांक की मेहनत नजर आती है। उन्होंने कई छोटे-छोटे सीन रचे हैं और फिल्म को बोझिल नहीं होने दिया। जहां फिल्म ठहरती हुई महसूस होती है वहीं पर वे मनोरंजक दृश्यों के जरिये फिल्म को पटरी पर ले आते हैं। फिल्म की मुख्य किरदार महिलाएं हैं, लेकिन उन्होंने फिल्म को फेमिनिस्ट नहीं होने दिया। खोखली नारीवाद की बातें या पुरुषों को कमतर करने की कोशिश नहीं की है। इसके बजाय उन्होंने अपने महिला कैरेक्टर्स पर भरपूर काम किया है। उन्हें स्टीरियोटाइप नहीं बनने दिया है। ऐसे बोल्ड और बिंदास फीमेल कैरेक्टर्स संभवत: पहली बार हिंदी फिल्मों में दिखाई दिए हैं। साथ ही एक साधारण कहानी को उन्होंने अपने आधुनिक किरदारों और प्रस्तुतिकरण के जरिये एक अलग लुक दिया है। फिल्म में कई प्रोडक्ट्स को प्रमोशन के लिए दिखाया गया है जो आंखों को चुभते हैं। फिल्म के संवाद ऐसे हैं जैसे कि दोस्त आपस में बात करते हैं- 'ले ली', 'दे दी', 'चढ़ जा', 'अपना हाथ जगन्नाथ' आदि-आदि। फिल्म की स्टारकास्ट बढ़िया है। शादी को लेकर कन्फ्यूज लड़की के रोल में करीना कपूर का काम अच्छा है। सोनम कपूर, स्वरा भास्कर और शिखा तलसानिया अपनी-अपनी जगह अच्छी हैं। नीना गुप्ता, मनोज पाहवा सहित सपोर्टिंग कास्ट ने भी अपना काम ठीक से किया है। वीरे दी वेडिंग 'महिला सशक्तिरकण' जैसे नारे की बजाय इस बात के इर्दगिर्द ज्यादा है कि 'व्हाय शुड बॉयज़ हेव ऑल द फन?' बैनर: अनिल कपूर फिल्म्स कंपनी, बालाजी टेलीफिल्म्स लि. निर्माता : रिया कपूर, एकता कपूर, शोभा कपूर, अनिल कपूर, निखिल द्विवेदी निर्देशक : शशांक घोष संगीत : शाश्वत सचदेव, विशाल मिश्रा कलाकार : करीना कपूर खान, सोनम कपूर आहूजा, स्वरा भास्कर, शिखा तलसानिया, सुमित व्यास, नीना गुप्ता, विवेक मुश्रान, मनोज पाहवा सेंसर सर्टिफिकेट : केवल वयस्कों के लिए * 2 घंटे 5 मिनट
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बैनर : एसएलबी फिल्म्स, हरि ॐ एंटरटेनमेंट कंपनी, यूटीवी मोशन पिक्चर्स निर्माता : संजय लीला भंसाली, शबीना खान, रॉनी स्क्रूवाला निर्देशक : प्रभुदेवा संगीत : साजिद-वाजिद कलाकार : अक्षय कुमार, सोनाक्षी सिन्हा सांवरिया और गुजारिश जैसी फिल्मों को दर्शकों द्वारा नकारने के बाद संजय लीला भंसाली ने ऐसी फिल्म बनाने का नि‍श्चय किया जो दर्शकों की पसंद पर खरी उतरे। मसाला फिल्म बनाना उनके मिजाज में नहीं है इसलिए निर्देशक के रूप में प्रभुदेवा को चुना। प्रभुदेवा ‘वांटेड’ के रूप में दक्षिण भारतीय फिल्म का सफल हिंदी संस्करण बना चुके हैं। कहानी ऐसी चुनी गई जिस पर तेलुगु, तमिल और कन्नड़ में फिल्में बनीं और सुपरहिट भी रहीं। इस तरह ‘राउडी राठौर’ का जन्म हुआ। वैसे भी इस समय हिंदी भाषी दर्शकों को साउथ की फिल्मों के रीमेक बड़े पसंद आ रहे हैं। दक्षिण की फिल्मों का ड्रामेटिक अंदाज और लाउडनेस खासकर आम दर्शकों को अच्छे लगने लगे हैं। इसलिए राउडी राठौर में भले ही मुंबई और बिहार के गांव की कहानी बताई गई है, लेकिन ऐसा लगता है कि हम दक्षिण भारत का ही कोई शहर या गांव देख रहे हैं। कलाकारों की एक्टिंग, ड्रेस से लेकर तो गानों, बैकग्राउंड म्यूजिक, एक्शन और डांस तक लाउड हैं। परपल और पिंक कलर की पेंट में अक्षय कुमार को आपने शायद ही पहले कभी देखा हो। लेकिन ये सब बातें इसलिए नहीं अखरती क्योंकि फिल्म में मनोरंजन के सारे मसाले मौजूद हैं। कुछ जगह जरूर फिल्म खींची हुई लगती है, झोल खाती है, लेकिन ऐसे पल कम आते हैं। दरअसल फिल्म के निर्देशक प्रभुदेवा ने फिल्म की गति इतनी तेज रखी है और हर फ्रेम में एंटरटेनमेंट को इतना ज्यादा महत्व दिया है कि दर्शकों को सोचने के लिए ज्यादा समय नहीं मिलता है। राउडी राठौर की कहानी में कोई नयापन नहीं है, लेकिन वे सारे मसाले हैं जो दर्शकों को पसंद हैं। शिव (अक्षय कुमार) एक चोर है। रेलवे की घड़ी, एसटीडी बूथ और यहां तक कि एटीएम भी वह चुराकर घर ले आया है। प्रिया (सोनाक्षी सिन्हा) का दिल वह जीत लेता है, लेकिन सच-सच बता देता है कि चोरी मेरा काम। छ: वर्ष की एक लड़की उसे पापा बोलने लगती है तो वह आश्चर्य में पड़ जाता है। बाद में उसे मालूम पड़ता है कि इंसपेक्टर विक्रम राठौर (अक्षय कुमार) उसका हमशक्ल है जो देवगढ़ गांव में बापजी नामक गुंडे के आतंक को खत्म करने में जुटा है।
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कहानी: मनुष्य काफी अर्से से पृथ्वी के अलावा अंतरिक्ष के किसी दूसरे ग्रह पर रहने का ठिकाना तलाश रहा है, जहां वह पृथ्वी के रहने लायक नहीं रह जाने के बाद रह सके। वेनम भी एक ऐसे ही मिशन की कहानी है। फिल्म की शुरुआत में अंतरिक्ष में दूसरे ग्रह पर जीवन तलाशने गया एक स्पेसशिप पूर्वी मलयेशिया में दुर्घटनाग्रस्त हो जाता है। दरअसल उस स्पेसशिप में 4 एलियन थे, जिन्हें पृथ्वी से मिलते-जुलते एक ग्रह से पकड़ कर लाया गया है। स्पेसशिप दुर्घटना के बाद उनमें से 3 मिल जाते हैं, लेकिन एक गायब हो जाता है। उधर ऐडी ब्रोक (टॉम हार्डी) एक उत्साही न्यूज रिपोर्टर है जो हमेशा कुछ नया तलाशता रहता है। एक दिन उसे एक बड़े बिजनसमैन कार्लटन ड्रेक (रिज अहमद) का साक्षात्कार करने का मौका मिलता है, जो उस स्पेसशिप कंपनी का मालिक है। ऐडी उससे कुछ तीखे सवाल पूछता है, जिस वजह से उसकी और ड्रेक की कंपनी से जुड़ी उसकी गर्लफ्रेंड ऐनी वेइंग (मिशेल विलियम्स) की नौकरी चली जाती है। दरअसल ड्रेक दूसरे ग्रहों पर मनुष्यों के रहने की संभावना तलाश रहा है। इसलिए वह पृथ्वी से मिलते-जुलते एक ग्रह से एलियन लाकर उनको मनुष्यों की बॉडी में अजस्ट करने का प्रयोग कर रहा है, ताकि इस तरह मनुष्य की बॉडी भी एलियन के ग्रह पर रहने लायक हो जाए। ऐडी खोजबीन के लिए उस लैब में जाता है, तो वहां एक एलियन वेनम उसकी बॉडी में घुस जाता है। आगे क्या होता है, यह जानने के लिए आपको सिनेमाघर जाना होगा। रिव्यू: सुबह के हॉउसफुल शो में टॉम हार्डी के जबर्दस्त ऐक्शन और ह्यूमर सीन्स पर सीटियां और तालियां बजाते दर्शकों को देख कर यह कहना गलत नहीं होगा कि इस हफ्ते 'वेनम' का क्रेज दूसरी बॉलिवुड फिल्मों से ज्यादा ही है। बेशक फिल्म के बेहतरीन ऐक्शन सीन्स आपको हैरान कर देते हैं। 2 घंटे से भी कम अवधि की फिल्म न सिर्फ आपको इस बात का एहसास कराती है कि साइंस की कोई गलती कितनी बड़ी मुसीबत बन सकती है, बल्कि एक नई तरह के एलियंस से भी रूबरू कराती है। वेनम और उसके साथी एलियंस की आपसी लड़ाई के सीन्स खतरनाक लगते हैं, तो इंसानों को वे कैसे निगलते हैं, वह भी बेहद डरावना लगता है। फिल्म में टॉम हार्डी की ऐक्टिंग जबर्दस्त है, तो हिंदी की डबिंग भी लाजवाब है, जो आपको इस हिला देने वाली फिल्म में हंसाती भी है। फिल्म के डायरेक्टर रुबेन फ्लैशर कहीं भी अपनी पकड़ ढीली नहीं पड़ने देते हैं। इस वीकेंड अगर आप कोई बेहतरीन ऐक्शन फिल्म इंजॉय करना चाहते हैं, जिसमें हल्की-फुल्की कॉमिडी का तड़का भी हो, तो यह फिल्म आपको मिस नहीं करनी चाहिए।
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बॉलिवुड में बरसों से सीक्वल बनाने का ट्रेंड चल रहा है। वहीं अगर अक्षय कुमार के बैनर तले बनी फिल्म 'नाम शबाना' की बात करें तो यह फिल्म उनकी बॉक्स ऑफिस पर हिट रही फिल्म 'बेबी' का प्रीक्वल है, यानी इस फिल्म की कहानी 'बेबी' से आगे की नहीं बल्कि 'बेबी' से पहले की है। खबर है प्रॉडक्शन कंपनी इस फिल्म को पहले 'बेबी 2' टाइटल के साथ बनाना चाहती थी, लेकिन अक्षय इस फिल्म के साथ 'बेबी' शब्द नहीं जोड़ना चाहते थे, इसलिए फिल्म का टाइटल 'नाम शबाना' रखा गया। वैसे, फिल्म की प्रॉडक्शन कंपनी का दावा है कि फिल्म एक सत्य घटना पर आधारित है, जिसे कुछ सिनेमाई लिबर्टी लेकर बनाया गया। संयोग है कि अक्षय स्टारर 'बेबी' के क्लाइमैक्स में नजर आईं तापसी का किरदार करीब 20 मिनट का था तो अब इस फिल्म में अक्षय कुमार का किरदार करीब 20 मिनट में सिमट कर रह गया। बेशक फिल्म का टाइटल 'बेबी' न हो, लेकिन फिल्म में अनुपम खेर, डैनी और मुरली शर्मा का किरदार 'बेबी' से कतई अलग नहीं है। हां, यह बात अलग है कि मुरली शर्मा का किरदार बेशक पिछली फिल्म से अलग नहीं है, लेकिन उनका मिनिस्टर के पीए वाला किरदार इस फिल्म के साथ कहीं कनेक्ट नहीं कर पाता। जहां पिछली फिल्म की यूएसपी पिछली फिल्म की स्पीड, दमदार स्क्रिप्ट और अक्षय कुमार की बेहतरीन ऐक्टिंग थी तो वहीं इस फिल्म की इकलौती यूएसपी तापसी पन्नू ही हैं। वैसे इस फिल्म के डायरेक्टर शिवम नायर की कुछ पिछली फिल्मों पर नजर डाली जाए तो उनकी पिछली फिल्में बॉक्स ऑफिस पर कुछ खास नहीं कर पाईं। ऐसे में नामी स्टार के साथ अच्छे बैनर की 'नाम शबाना' का बॉक्स ऑफिस पर हिट होना अहम है। कहानी : शबाना खान (तापसी पन्नू) का बचपन अपने घर में घरेलू कलह को देखते हुए बीत रहा है। शबाना की मां ने बेशक लव मैरिज की, लेकिन शादी के बाद हालात कुछ ऐसे बदले कि उसकी शादीशुदा जिंदगी तबाह होकर रह गई। शबाना का पिता अक्सर घर में शबाना की मौजूदगी में ही उसकी मां को जमकर पीटता और उसकी मां हमेशा मदद के लिए शबाना को बुलाया करती थी। आखिर, एक दिन शबाना के सब्र का पैमाना टूटा और उसने अपने पिता के सिर पर ऐसा जमकर वार किया कि उसके पिता ने वहीं दम तोड़ दिया। शबाना को जूवेनाइल कोर्ट ने दो साल की सजा दी। स्पेशल टाक्स फोर्स के चीफ रणवीर सिंह (मनोज बाजपेयी) की नजरें उसी वक्त से शबाना पर टिकी हुई थीं जब उसने अपने पिता को मारा था। कॉलेज स्टडी के दौरान शबाना ने जूडो सीखा और कई जूडो कॉम्पिटिशन में हिस्सा लिया। एक दिन शबाना की आंखों के सामने उसके प्रेमी जय की हत्या कर दी जाती है, लेकिन पुलिस सबूत न होने की बात कहकर कुछ नहीं कर रही। ऐसे हालात में, टास्क फोर्स चीफ रणबीर शबाना की मदद करता है। रणबीर की मदद से शबाना जय के कातिल को उसके अंजाम तक पहुंचाती है। अब शबाना टास्क फोर्स का हिस्सा बन चुकी है, शबाना को एक खास मिशन के लिए ट्रेंड करने के बाद मलेशिया भेजा जाता है, जहां उसका सामना दुनिया के कई आतंकी संगठनों को खतरनाक हथियारों की सप्लाई करने वाले टोनी उर्फ मिखाइल ( पृथ्वीराज सुकुमारन) से है। यहां शबाना की मदद के लिए टास्क फोर्स का जांबाज ऑफिसर अजय (अक्षय कुमार) और शुक्ला जी (अनुपम खेर) भी हैं। ऐक्टिंग : अंत तक फिल्म तापसी पन्नू के कंधों पर टिकी है। 'पिंक' के बाद एकबार फिर तापसी ने खुद को इंडस्ट्री की ऐसी बेहतरीन ऐक्ट्रेस साबित किया जो अपने दम पर भी फिल्म हिट कराने का दम रखती है। तापसी पर फिल्माए ऐक्शन, स्टंट सीन इस फिल्म की सबसे बडी यूएसपी है। टास्क फोर्स के चीफ के किरदार में मनोज बाजपेयी खूब जमे हैं। साउथ के नामी ऐक्टर पृथ्वीराज सुकुमारन अपने किरदार में सौ फीसदी फिट रहे हैं, वहीं अक्षय कुमार ने अपने किरदार को ठीकठाक निभाया तो अनुपम खेर, डैनी और मुरली शर्मा ने वही किया जो पिछली फिल्म में किया। डायरेक्शन : शिवम नायर ने फिल्म के फाइट सीन और तापसी के किरदार पर सबसे ज्यादा मेहनत की है। वहीं स्क्रिप्ट पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया और यही वजह है कि इंटरवल से पहले की फिल्म शबाना की पहचान कराने में बीत जाती है तो इंटरवल के बाद कहानी में एक के बाद एक कई टर्न हैं, जो दर्शकों को कहानी से बांधने में कामयाब रहे। नायर ने फिल्म में गाने भी रखे जो फिल्म की स्पीड कमजोर करते हैं और फिल्म की अवधि बेवजह बढ़ाते हैं। संगीत : फिल्म के साथ टी सीरीज का नाम जुड़ा है, सो कहानी में बेवजह दो-तीन गानें फिट किए, लेकिन यही गाने फिल्म का माइनस पॉइंट बनकर रह गए। क्यों देखें : अगर आपने 'बेबी' देखी है तो इस फिल्म को देखिए। इस बार फिल्म देखने की वजह अक्षय नहीं, बल्कि तापसी पन्नू की बेहतरीन ऐक्टिंग के साथ-साथ बिना किसी बॉडी डबल की मदद के उनके खतरनाक ऐक्शन सीन हैं।
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चंद्रमोहन शर्मा आप अपने पसंदीदा फिल्म स्टार्स, क्रिकेटर या दूसरी सेलिब्रेटिज को तो उनके बर्थडे पर बधाई का मेसेज करना नहीं भूलते, लेकिन क्या आपको अपने किसी टीचर का बर्थडे भी याद है? ऐसे ही सवालों का जवाब इस फिल्म में निर्देशक ने बेहद सादगी के साथ दिया है। बॉलिवुड में इससे पहले भी एजुकेशन सिस्टम पर फिल्में बनी हैं, लेकिन पब्लिक स्कूलों के बीच एक-दूसरे को पछाड़ने की दौड में सबसे ज्यादा कौन पिसता है, इसका बेहद सटीक जवाब डायरेक्टर जयंत ने दिया है। इस फिल्म को किसी सिंगल स्क्रीन थिएटर मालिक को चारों शो में लगाने के काबिल नहीं लगा। वहीं सरकारों ने भी इस फिल्म को एंटरटेनमेंट टैक्स में छूट के काबिल नहीं माना। भले ही इस फिल्म में बॉलिवुड के करीब आधा दर्जन दिग्गज और मंझे हुए स्टार्स हैं, लेकिन बॉक्स आफिस के पैमाने पर ट्रेड एनालिस्ट इन्हें आउटडेटेड मानते हैं। तभी तो ट्रेड में 'चॉक एंड डस्टर' का कहीं क्रेज नजर नहीं आया। कहानी फिल्म में मुंबई के कांता बेन हाई स्कूल की कहानी दिखाई गई है। इस स्कूल को चलाने वाली ट्रस्टी कमिटी का हेड अनमोल पारिक (आर्य बब्बर) इसे शहर का नंबर वन और ऐसा स्कूल बनाना चाहता है, जहां सिलेब्रिटीज तक के बच्चे भी पढ़ने के लिए आएं। इसीलिए अनमोल काबिल औैर अनुभवी प्रिसिंपल भारती शर्मा (जरीना वहाब) को बर्खास्त कर यंग वाइस प्रिसिंपल कामिनी गुप्ता (दिव्या दत्ता) को नई प्रिसिंपल बनाता है। कामिनी अनुभवी टीचरों को प्रताड़ित करने में लग जाती है। स्कूल की सीनियर मैथ्स टीचर विधा सावंत (शबाना आजमी) और साइंस टीचर ज्योति (जूही चावला) प्रिसिंपल की इस तानाशाही और काबिल टीचर्स का हैरसमेंट करने की नीतियों का विरोध करती हैं, तो कामिनी सबसे पहले विधा को नाकाबिल करार देकर नौकरी से बर्खास्त कर देती है।विधा को स्कूल में हार्ट अटैक पड़ जाता है और उसे अस्पताल में ऑपरेशन के लिए भर्ती कराना पड़ता है। ऐसे में ज्योति एक टीवी चैनल की रिपोर्टर भैरवी ठक्कर (रिचा चड्ढा) के साथ मिलकर टीचर्स के सम्मान और विधा को उसका हक वापस दिलाने की लड़ाई लड़ती है। डायरेक्शन जयंत की तारीफ करनी होगी कि करीब सवा दो घंटे की इस फिल्म में उन्होंने कहानी को सही ट्रैक पर तो रखा ही, फिल्म की स्पीड भी कहीं कम नहीं होने दी। ऐक्टिंग विधा सावंत के किरदार में शबाना आजमी ने जान डाल दी है। वह इस फिल्म की सबसे बड़ी यूएसपी है। जूही चावला और दिव्या दत्ता का भी जवाब नहीं। दिव्या ने एक बार फिर अपनी काबिलियत साबित की। ऋषि कपूर ने अंत में आकर भी दर्शकों की खूब वाहवाही बटोरी है। क्यों देखें ऐसी बेहतरीन कहानी जो यकीनन आपको आपके स्कूल के किसी ना किसी टीचर की याद एक बार जरूर दिलाने का दम रखती है। ऐसी फिल्म आपको फैमिली के साथ देखनी चाहिए। साफ फिल्में कम ही बनती हैं। संगीत हम शिक्षा के और गुरु ब्रह्मा गानों का फिल्मांकन बेहतरीन किया गया है।
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कहानी में सखी और म्याऊँ नामक दीपिका पादुकोण की दोहरी भूमिकाएँ भी हैं। सखी और म्याऊँ जुड़वाँ बहनें हैं और बचपन में होजो की वजह से बिछड़ गई थीं। होजो की वजह से ही उनकी माँ की मृत्यु हुई थी और उनके पिता की याददाश्त चली गई थी। सखी और म्याऊँ को होजो के बारे में पता चलता है तो वे भी उससे बदला लेना चाहती हैं। सिद्धू को कुंगफू उनके पिता ही सिखाते हैं। सिद्धू कामयाब होता है और आखिर में पूरे परिवार का मिलन हो जाता है। पुरानी फिल्मों को देखकर भी नई कहानी ढंग से नहीं लिखी जा सकी। इस कहानी में ढेर सारे अगर-मगर हैं। माना कि सिनेमा के नाम पर थोड़ी छूट ली जा सकती हैं, लेकिन इसकी भी सीमा होती है। फार्मूला या मनोरंजक फिल्म बनाने के नाम पर दर्शकों को बेवकूफ तो नहीं समझा जा सकता। मसाला इतना भी मत डालो कि हाजमा खराब हो जाए। निर्देशक निखिल आडवाणी का प्रस्तुतिकरण भी बेहद घटिया है। ऐसा लगा कि वे सत्तर और अस्सी के दशक में बनी फिल्मों का 'चाँदनी चौक टू चाइना' के जरिये मजाक उड़ा रहे हों। फिल्म की कहानी गंभीरता की माँग करती है, लेकिन उन्होंने इसे कॉमेडी के अंदाज में पेश किया है, जिससे मामला चौपट हो गया है। कॉमेडी का भूत उन पर ऐसा सवार था कि हर दृश्य में उन्होंने कॉमेडी घुसेड़ दी चाहे वो रोमांटिक दृश्य हो, भावुक दृश्य हो या एक्शन सीन हो। कॉमेडी के नाम पर हास्यास्पद दृश्य रचे गए हैं। मिथुन चक्रवर्ती जब अक्षय कुमार को लात जमाते हैं तो अक्षय रॉकेट की तरह आसमान में जाते हैं और धड़ाम से नीचे गिरते हैं। होजो के एक आदमी को अक्षय उठाकर जोर-जोर से घुमाने लगते है तो आँधी चलने लगती है और आसपास के लोग उड़ने लगते हैं। अक्षय और दीपिका जब एक बिल्डिंग से गिरते हैं तो दीपिका छाता खोल लेती है, जो पेराशूट का काम करता है। ऐसे एक-दो दृश्य तो बर्दाश्त किए जा सकते हैं, लेकिन जब पूरी फिल्म ही ऐसी हो तो दर्शक ‘चाँदनी चौक टू चाइना’ बनाने वालों की अक्ल पर सिर्फ तरस खा सकते हैं। इन दृश्यों को देखकर भला कोई कैसे हँस सकता है। पैसा खर्च करने में भी अक्ल का इस्तेमाल होता है, लेकिन निखिल आडवाणी ने निर्माताओं का पैसा बर्बाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। 'सलाम-ए-इश्क' जैसी डब्बा फिल्म बनाने के बाद एक और डब्बा फिल्म उन्होंने अपने नाम कर ली है। टशन हो या सिंह इज किंग या चाँदनी चौक टू चाइना, अक्षय का किरदार हर जगह एक जैसा नजर आता है। वही जड़ बुद्धि वाले व्यक्ति का। उन्हें टाइप्ड होने से बचना चाहिए। चाँदनी चौक टू चाइना में उन्होंने दर्शकों को हँसाया, लेकिन अब दोहराव महसूस होने लगा है। उनकी क्षमताओं का पूरा दोहन निर्देशक नहीं कर पाए। खासकर स्टंट दृश्यों में अक्षय का और बेहतर उपयोग किया जा सकता था। फिल्मों के चयन के मामले में उन्हें सावधानी बरतना चाहिए। दीपिका पादुकोण खूबसूरत लगीं और उन्होंने स्टंट दृश्य अच्छे से अभिनीत किए। गॉर्डन लियू ने खलनायकी के तेवर दिखाए। रिचर्ड यूआन, मिथुन चक्रवर्ती और रणवीर शौरी ठीक-ठाक रहे। संवादों के जरिये कुछ जगह हँसने का अवसर मिलता है। चीनी भाषा में भी ढेर सारे संवाद हैं, हालाँकि उन्हें अँग्रेजी सबटाइटल के साथ दिखाया गया है, लेकिन हिंदी में उन्हें दिया जाता तो ज्यादा दर्शकों को इसका लाभ मिलता। फिल्म का तकनीकी पक्ष सशक्त है। स्टंट दृश्य, फोटोग्राफी पर बहुत मेहनत की गई है। संगीत निराशाजनक है। हिट गानों का अभाव अखरता रहता है। निर्माता : रोहन सिप्पी निर्देशक : निखिल आडवाणी संगीत : शंकर-अहसान-लॉय कलाकार : अक्षय कुमार, दीपिका पादुकोण, रणवीर शौर ी, गॉर्डन लिय ू, रिचर्ड यूआन, मिथुन चक्रवर्ती हॉलीवुड की फिल्म कंपनी वॉर्नर ब्रदर्स को रमेश सिप्पी, मुकेश तलरेजा, रोहन सिप्पी और निखिल आडवाणी ने मिलकर किस तरह चूना लगाया, इसकी मिसाल है ‘चाँदनी चौक टू चाइना’। हॉलीवुड कंपनियों के दिमाग में ये बात घुसी हुई है कि बॉलीवुड की नाच-गाने और उटपटांग हरकतों वाली फिल्में बेहद पसंद की जाती हैं। इसी बात को आधार बनाकर सिप्पियों ने ‘चाँदनी चौक टू चाइना’ नामक फिल्म उन्हें टिका दी और अपनी जेबें भर लीं। फिल्म के लेखक श्रीराम राघवन ने इसकी कहानी लिखने के लिए हॉलीवुड की फिल्में देखने की भी तकलीफ नहीं उठाई। उन्होंने अपने निर्माता रमेश सिप्पी की ‘सीता और गीता’, ‘शोले’ जैसी फिल्मों से ही कहानी निकाल ली ताकि कॉपीराइट का मामला भी न हो। ‘चाँदनी चौक टू चाइना’ इतनी बेसिर-पैर फिल्म है कि आश्चर्य होता है कि इस पर इतना पैसा क्यों खर्च किया गया। वॉर्नर ब्रदर्स ने इस कहानी में ऐसा क्या देखा कि वे इसमें भागीदार बन गए। शायद उन्होंने रमेश सिप्पी के पिछले रिकॉर्ड को देख पैसा लगाया होगा। सत्तर और अस्सी के दशक की ज्यादातर फिल्में मिलना-बिछुड़ना, खोया-पाया, डबल रोल, याददाश्त का चले जाना और फिर लौट आना, पुनर्जन्म, बदला, खलनायक का गाँव में आतंक फैलाना जैसे फार्मूलों पर आधारित रहती थीं। इन सब का घालमेल कर चाँदनी चौक टू चाइना में परोसा गया है। ‘ओम शांति ओम’ और ‘टशन’ के बाद चाँदनी चौक टू चाइना तीसरी ऐसी बड़ी फिल्म है जो उस दौर में बनने वाली फिल्मों पर आधारित है। चाँदनी चौक में पराठे बेचने की दुकान में काम करने वाले सिद्धू (अक्षय कुमार) के सपने बड़े-बड़े हैं। वह अमीर बनना चाहता है, लेकिन मेहनत पर उसका यकीन नहीं है। एक दिन दो चीनी उसके पास आते हैं और वे सिद्धू को एक मशहूर चीनी योद्धा का पुनर्जन्म मानते हैं। चॉपस्टिक (रणवीर शौरी) नामक दुभाषिया सिद्धू को बेवकूफ बनाकर चीन पहुँचा देता है। चीन पहुँचकर सिद्धू को पता चलता है कि उसे होजो नामक आदमी से एक गाँव को छुड़ाना है, जो बेहद खतरनाक है। गाँव के लोग सिद्धू को महान योद्धा मानते हैं, लेकिन होजो के सामने सिद्धू की पोल खुल जाती है। जब होजो सिद्धू की खूब पिटाई करता है तो वह उसे मारने की कसम खाता है। एक कुंगफू मास्टर से वह कुंगफू सीखता है और अपना बदला लेता है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि ‘चाँदनी चौक टू चाइना’ में न चाँदनी चौक के पराठों की महक है और न चाइना के नूडल्स का स्वाद। इस फिल्म को देखने में पैसा खर्च करने के बजाय तो नूडल्स खरीदकर खाना बेहतर है।
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बैनर : होप प्रोडक्शन्स, इरोज इंटरनेशनल निर्माता : सुनील ए. लुल्ला, राकेश झुनझुनवाला, आर. बाल्की निर्देशक : गौरी शिन्दे संगीत : अमित त्रिवेदी कलाकार : श्रीदेवी, मेहदी नेबू, आदिल हुसैन, प्रिया आनंद, अमिताभ बच्चन ( मेहमान कलाकार) सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 2 घंटे 15 मिनट 33 सेकंड आजाद होने के बावजूद गुलामी के कुछ अंश अभी भी हमारे खून में मौजूद है। फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाले को या किसी गोरी चमड़ी वाले को देखते ही हम हीन भावना से ग्रस्त होकर अपने आपको कम समझने लगते हैं। भारत में तो इस समय यह आलम है कि विद्वान उसे ही माना जाता है जिसे अंग्रेजी आती है। करोड़ों भारतीय ऐसे हैं जिन्हें यह भाषा बिलकुल पल्ले नहीं पड़ती हैं और बेचारे रोजाना इस हीन भावना से ग्रस्त रहते हैं। इंग्लिश विंग्लिश ऐसी ही शशि नामक महिला की कहानी है जो इस भाषा में अपने आपको व्यक्त नहीं कर पाती है। उसकी दस-बारह वर्ष की लड़की पैरेंट्स-टीचर मीटिंग में अपनी मां को ले जाने में शर्मिंदगी महसूस करती है क्यों उसकी मां टीचर्स से हिंदी में बात करेगी। घर पर बच्चे और पति अक्सर उसका मजाक बनाते है क्योंकि अंग्रेजी शब्दों का वह गलत उच्चारण करती है। शशि नामक किरदार के जरिये सूक्ष्मता के साथ दिखाया गया है कि किस तरह अंग्रेजी नहीं जानने वाला शख्स बैंक, एअरपोर्ट या बड़े होटल में जाने में घबराता है। न्यूयॉर्क में शशि एक रेस्तरां में अपने लिए कॉफी खरीदने जाती है तो उससे अंग्रेजी में ऐसे बात की जाती है कि बेचारी घबरा जाती है। अंग्रेजी में जब उसके आसपास के लोग बात करते हैं तो उसे नींद आने का बहाना बनाकर वहां से उठना पड़ता है ताकि उनके बीच वह बेवकूफ न लगे। शशि अपनी बहन की बेटी की शादी के लिए न्यूयॉर्क जाती है और वहां अंग्रेजी सीखने का फैसला करती है। क्लास में उसका परिचय ऐसे कई लोगों से होता है जो अंग्रेजी नहीं जानते हैं। लेकिन इसको लेकर न उनमें शर्मिंदगी है और न ही उनका मजाक बनाया जाता है। भारत, स्पेन, चीन, फ्रांस से ये लोग आए हैं और अमेरिका में रहने के लिए अंग्रेजी सीखते हैं। यहां यह बताने की कोशिश की गई है कि भारत में अंग्रेजी का हौव्वा बनाया गया है और माहौल ऐसा बनाया गया है कि अंग्रेजी में बात करना विद्वता की निशानी है। टूटी-फूटी हिंदी या क्षेत्रीय भाषा यदि कोई बोलता है तो उसका कोई मजाक नहीं बनाया जाता। फिल्म दो ट्रेक पर चलती है। एक शशि की अंग्रेजी में कमजोरी और दूसरा, इस हाउसवाइफ को घर में सम्मान नहीं मिलता। वैसे वह बूंदी के लड्डू बनाकर बेचती है, लेकिन इसे बहुत छोटा काम समझा जाता है। शशि के लड्डू को यदि कोई बेहद स्वादिष्ट बताता है तो उसका पति यह कहकर शशि का मजाक उड़ाता है कि ये तो पैदा ही लड्डू बनाने के लिए हुई है। न्यूयॉर्क में जब शशि अकेली इंग्लिश क्लास में जाती है और थोड़ी-बहुत इस भाषा से परिचित होती है तो उसकी चाल में आत्मविश्वास नजर आने लगता है। क्लास में एक फ्रेंच पुरुष शशि की ओर आकर्षित होता है और पूरी क्लास के सामने उसकी सुंदरता की तारीफ करता है। शशि को बुरा जरूर लगता है, लेकिन यहां से वह खुद से प्यार करने लगती है और उसकी एक नई यात्रा शुरू होती है। न चाहते हुए भी फिल्म यह बात रेखांकित करती है कि अंग्रेजी महत्वपूर्ण भाषा है क्योंकि अंग्रेजी सीखने के बाद शशि का आत्मविश्वास और सम्मान दोनों बढ़ जाता है। हालांकि न्यूयॉर्क से भारत लौटते समय वह हवाई जहाज में हिंदी अखबार पढ़ने को मांगती है और इसके जरिये यह दिखाने की कोशिश की गई है कि उसके लिए हिंदी भी महत्वपूर्ण है, लेकिन केवल सिर्फ एक सीन से बात नहीं बनती। फिल्म जिस थीम से शुरू होती है उसका निर्वाह अंत में नहीं करती है। विज्ञापन फिल्म बनाने में गौरी शिंदे का बड़ा नाम है और फीचर फिल्म बनाकर उन्होंने साबित किया कि वे इस माध्यम की गहरी समझ रखती है। इंग्लिश विंग्लिश न केवल हंसाती है या रुलाती है बल्कि सोचने पर भी मजबूर करती है। फिल्म का मूड उन्होंने बेहद हल्का-फुल्का रखा है। बीच में कहानी इंच भर भी नहीं खिसकती है, लेकिन गौरी शिंदे ने फिल्म को बिखरने नहीं दिया। फ्रेंच पुरुष के शशि के प्रति आकर्षण को उन्होंने बखूबी दिखाया है। दोनों के बीच कुछ दृश्य में वह फ्रेंच बोलता है और शशि हिंदी, लेकिन दोनों एक-दूसरे की बात समझ जाते हैं। कही-कही भाषा की जरूरत नहीं होती है और केवल भाव से हम सामने वाले के मन की अंदर की बात जान लेते हैं। लगभग 15 वर्ष बाद श्रीदेवी की वापसी हुई है, लेकिन कैमरे के सामने अभिनय करना वे नहीं भूली हैं। इन पन्द्रह वर्षों में उन्हें सैकड़ों फिल्मों के प्रस्ताव मिले, लेकिन सही स्क्रिप्ट की उनकी तलाश ‘इंग्लिश विंग्लिश’ पर आकर खत्म हुई और उनका चुनाव एकदम सही है। शशि की झुंझलाहट, उपेक्षा और आत्मविश्वास को उन्होंने बेहद शानदार तरीके से स्क्रीन पर पेश किया। आदिल हुसैन, सुलभा देशपांडे सहित तमाम कलाकारों का अभिनय शानदार है जो परिचित चेहरे नहीं हैं। अमिताभ बच्चन दो-तीन सीन में नजर आते हैं और ये सीन हटा भी दिए जाए तो कोई फर्क नहीं पड़ता है। इंग्लिश विंग्लिश एक अनोखे विषय, शानदार निर्देशन और श्रीदेवी के बेहतरीन अदाकारी की वजह से देखी जा सकती है।
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Chandermohan.Sharma@timesgroup.com 'कपूर ऐंड सन्स' 80-90 के दशक वाली एक फैमिली ड्रामा फिल्म है। डायरेक्टर ने मल्टिप्लेक्स कल्चर और यूथ को दिमाग में रखते हुए इसमें लव एंगल फिट किया है। कहानी रियल कपूर परिवार से जुड़ी हुई नहीं है। बतौर प्रड्यूसर करण जौहर की हाल में आईं कई फिल्में बॉक्स ऑफिस पर अच्छा नहीं कर पाई हैं। ऐसे में 35 करोड़ के बजट में 'कपूर ऐंड सन्स' को उन्हें काफी उम्मीदें हैं। इसके लिए उन्होंने यंग डायरेक्टर और एक्टर शकुन बत्रा को इसकी कमान सौंपी है। फिल्मी खबरें पढ़ें फेसबुक पर, लाइक करें Nbt Movies कहानी : फिल्म की कहानी करीब 90 साल के हो चुके रंगीन मिजाज दादाजी अमरजीत कपूर (ऋषि कपूर) उनके बेटे हर्ष कपूर (रजत कपूर) के साथ-साथ उनके दोनों पोते राहुल कपूर (फवाद खान) और अर्जुन कपूर (सिद्धार्थ मल्होत्रा) की है। राहुल लंदन में पिछले करीब आठ साल से रह रहे हैं तो वहीं छोटा बेटा अर्जुन न्यू जर्सी में रहता है। दोनों राइटर हैं। फ्लॉप किताब लिखने के बाद राहुल की दूसरी किताब कामयाब रही। दूसरी ओर अपनी पहचान बनाने के लिए अर्जुन का स्ट्रगल जारी है। साउथ इंडिया के कुन्नूर शहर में अपने बेटे हर्ष के साथ रह रहे दादाजी को एकदिन अचानक दिल का दौरा पड़ता है। दोनों भाई घर वापस आते हैं। घर आने के बाद इन दोनों के रिश्तों में टेंशन साफ नजर आती है। छोटे भाई अर्जुन को लगता है राहुल ने जिस उपन्यास से रातोंरात कामयाबी पाई उसका आइडिया उसका था और राहुल ने उसे चुराकर उपन्यास लिखा। वहीं राहुल और अर्जुन की मां सुनीता कपूर (रत्नाशाह पाठक) और पिता हर्ष कपूर (रजत कपूर) के रिश्ते में भी कड़वाहट है। हर्ष की पर्सनल लाइफ में एक दूसरी महिला भी है, जिस वजह से सुनीता और हर्ष के बीच हर वक्त टेंशन रहती है। बैंक की नौकरी छोड़ने के बाद हर्ष ने जो बिज़नस किया वही ठीक नहीं चला। अर्जुन को घर आने के बाद भी यही लगता है कि मां-बाप राहुल को ज्यादा चाहते हैं। दोनों भाइयों को घर आने के बाद माता-पिता के बीच टूटते रिश्ते के बारे में पता चलता है। ऐसे में उनकी लाइफ में टिया (आलिया भट्ट) की एंट्री होती है। टिया मुंबई से यहां अपना बरसों पुराना बंगला बेचने आई हुई हैं। दूसरी ओर, दादाजी की बस एक ही ख्वाहिश है कि मरने से पहले अपनी पूरी फैमिली के साथ एक फैमिली फोटोग्राफ हो जाए। डायरेक्शन : शकुन की तारीफ करनी होगी कि स्टार्ट टु लास्ट तक उन्होंने कहानी को सही ट्रैक पर रखा और पूरी फिल्म को पारिवारिक माहौल के आसपास रखा। फिल्म की स्क्रिप्ट जानदार है, लेकिन इंटरवल के बाद शकुन ने फिल्म की रफ्तार काफी स्लो कर दी। क्लाइमैक्स को कुछ ज्यादा ही लंबा किया गया है। ऐक्टिंग : ऋषि कपूर ने रंगीन मिजाज जिंदादिल दादा जी के किरदार में बेहतरीन ऐक्टिंग की है। दादा जी का यह किरदार आपको पूरा एंटरटेन करेगा। सिद्धार्थ,फवाद ने अपने-अपने किरदार के साथ पूरा न्याय किया है। छोटे भाई के रोल में सिद्धार्थ खूब जमे हैं तो वहीं फवाद ने बड़े भाई के रोल में जान डाल दी है। आलिया भट्ट कई सीन्स में ओवरऐक्टिंग की शिकार रहीं तो उनका किरदार उनकी कई पिछली फिल्मों की कॉपी जैसा लगता है। रजत कपूर और रत्ना शाह ने अपने किरदारों को बेस्ट प्ले किया है। बॉलिवुड में दो भाइयों के बीच अनबन, फैमिली के बीच टूटते रिश्तों को लेकर अब तक दर्जनों फिल्में बन चुकी हैं, दरअसल, ऐसे सब्जेक्ट में डायरेक्टर को हर तरह का मसाला परोसने की काफी हद तक छूट मिल जाती है, और इन्हीं में से कोई एक मसाला फिल्म को बॉक्स ऑफिस पर सुपरहिट बना देता है। यह फिल्म भी कुछ इसी तरह की थीम पर बनी है। संगीत : इस फिल्म की रिलीज से पहले ही फिल्म का गाना 'लड़की ब्यूटिफुल कर गई चुल' पहले ही म्यूजिक चार्ट में टॉप पर है। क्यों देखें : बेहतरीन ऐक्टिंग, गजब लोकेशन के बीच ऐसी फैमिली कहानी जो कहीं न कहीं आपके दिल को छूती है। टूटते परिवारों और रिश्तों में कड़वाहट के बीच ऋषि कपूर का यादगार अभिनय है फिल्म की सबसे बडी यूएसपी है।
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PR PR निर्माता : बालागिरी निर्देशक : अजय चंडोक संगीत : डब्बू मलिक कलाकार : अरशद वारसी, उदिता गोस्वामी, आशीष चौधरी, आरती छाबरिया, श्वेता मेनन, यश टोंक, शक्ति कपूर, आशीष विद्यार्थी सुनते हैं कि ’किससे प्यार करूँ’ के नायक अरशद वारसी ने इस फिल्म का प्रमोशन करने से इनकार कर दिया। क्यों? क्योंकि फिल्म अच्छी नहीं बनी है। अरशद ने ऐसा करके सही किया या गलत, ये अलग बात है, लेकिन जब अभिनय करने वाले का ही फिल्म में मन नहीं लग रहा था, तो दर्शकों का मन कैसे बहल सकता है। इस फिल्म में हर चीज सस्ती है। सस्ता निर्देशक, सस्ते हीरो, सस्ती हीरोइन, सस्ते तकनीशियन। सस्ते लोगों का काम भी सस्ता है। कहने को तो ये कॉमेडी फिल्म है, लेकिन फिल्म देखते समय दो-चार जगह हँसी आ जाए तो इसे फिल्म की कामयाबी माना जाना चाहिए। हास्य के नाम पर ओवर एक्टिंग की गई है, अटक-अटककर संवाद बोले गए हैं और तरह-तरह के चेहरे बनाए गए हैं। अभिनय में हँसाना बेहद कठिन काम माना जाता है और यह हर किसी के बस की बात नहीं है। आशीष चौधरी, यश टोंक और आरती छाबरिया जैसे कलाकार कैसे किसी को हँसा सकते हैं, जो अभिनय के नाम पर ठीक तरह से रो भी नहीं सकते। सिद (अरशद वारसी), जॉन (आशीष चौधरी) और अमित (यश टोंक) बेहद अच्छे दोस्त हैं। नताशा (आरती छाबरिया) को जॉन बेहद चाहता है, लेकिन प्यार का इजहार नहीं कर पाता। नताशा एक दिन कहीं चली जाती है और जॉन उदास हो जाता है। उसके दोस्त ये उदासी नहीं देख पाते। वे शीतल (उदिता गोस्वामी) को जॉन के नजदीक लाते हैं, लेकिन उनका पाँसा उन पर ही उल्टा पड़ जाता है, जब शीतल जॉन और उसके दोस्तों के बीच दरार डाल देती है। उसकी निगाह जॉन की सम्पत्ति पर है। किस तरह से वे जॉन को उसके चंगुल से छुड़ाते हैं, ये फिल्म का सार है। कहानी के नाम पर कुछ भी नहीं है। हँसाने के नाम पर कुछ दृश्यों को जोड़ दिया गया है और हो गई फिल्म तैयार। दर्शकों को हँसाने के लिए लॉजिक को भी किनारे रख दिया गया है, लेकिन फिर भी वे कामयाब नहीं हो पाए। बीच में कुछ गाने और एक्शन दृश्य को भी ठूँसा गया है। यूनुस सेजवाल ने लेखन का काम इस तरह किया है मानो वे पच्चीस वर्ष पुराने दर्शकों के लिए फिल्म लिख रहे हों। निर्देशक अजय चंडोक ने कलाकारों को पूरी छूट दे दी और जिसने जैसा भी अभिनय किया, उसे उन्होंने वन टेक में ओके कर दिया। अभिनय में अरशद वारसी और श्वेता मेनन ही ठीक-ठाक रहे। कुल मिलाकर ‘किस से प्यार करूँ’ प्यार के लायक नहीं है।
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डर्टी पॉलिटिक्स में पहले ही बता दिया गया है कि कहानी काल्पनिक है, जबकि सभी जानते हैं कि प्रेरणा कहां से ली गई है। फिल्म की कहानी में इतना दम तो है कि इस पर एक अच्छी मसाला फिल्म बनाई जा सके, लेकिन उबाऊ फिल्म बना दी गई है। निर्देशक हैं केसी बोकाड़िया जिन्होंने अस्सी और नब्बे के दशक में अनेक सफल मसाला फिल्में बनाई हैं, अफसोस की बात है कि उनका प्रस्तुतिकरण अभी भी उसी दौर का है जबकि दर्शकों की रूचि अब बहुत बदल गई है। यह फिल्म गंदी राजनीति की बात करती है जिसमें नेता अपना हित साधने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। बूढ़े नेता दीनानाथ (ओमपुरी) का दिल नाचने वाली खूबसूरत अनोखी देवी (मल्लिका शेरावत) पर आ जाता है। दीनानाथ अपने साथी दयाल (आशुतोष राणा) के जरिये अनोखी देवी को ऊंचे सपने दिखाता है। पैसे और पॉवर का जादू अनोखी पर चल जाता है। लालच में वह दीनानाथ की हर मुराद पूरी करती है। चुनाव में अनोखी को दीनानाथ उसके पसंदीदा शहर से टिकट नहीं दिलवा कर अपने पठ्ठे मुख्तार (जैकी श्रॉफ) को टिकट दिला देता है। अनोखी को यह बात चुभ जाती है। वह दीनानाथ के काले कारनामों की सीडी उजागर करने की धमकी देती है। दीनानाथ अपनी इज्जत बचाने के लिए अनोखी का कत्ल करा देता है और किसी को कानों कान खबर नहीं होती। अनोखी देवी के अचानक गायब होने के मामले को एक ईमानदार व्यक्ति मनोहर सिंह (नसीरुद्दीन शाह) उठाता है। सीबीआई जांच बैठाई जाती है। क्या शक्तिशाली नेता दीनानाथ तक पुलिस पहुंच पाती है? यह फिल्म का सार है। कहानी में कुछ प्रश्न ऐसे हैं जिनके जवाब नहीं मिलते। मुख्तार क्यों अनोखी देवी को मारने के लिए तैयार हो जाता है, यह स्पष्ट नहीं है। दयाल मन ही मन दीनानाथ से जलता है, इसके बावजूद वह उसकी हमेशा मदद क्यों करता है, ये समझ से परे है। इसके अलावा खराब स्क्रिप्ट और निर्देशन इस फिल्म को ले डूबा। केसी बोकाड़िया ने आधी से ज्यादा फिल्म एक ही बंगले में शूट कर डाली और ताबड़तोड़ काम खत्म किया। फिल्म में पात्र इतनी बक-बक करते हैं कि दर्शक पक जाते हैं। फिल्म में एक्शन कम और बातचीत बहुत ज्यादा है। बोकाड़िया शायद भूल गए कि वे फिल्म बना रहे हैं कोई रेडियो कार्यक्रम नहीं। फिल्म में बेमतलब के ढेर सारे दृश्य हैं जिनके कारण फिल्म उबाऊ और थका देने की हद तक लंबी हो गई है। अनोखी देवी फिल्म का मुख्य पात्र है, लेकिन उस पर ज्यादा मेहनत नहीं की गई। उसकी लालच को निर्देशक ठीक से दिखा नहीं पाए। उसकी तुलना में विलेन दीनानाथ पर ज्यादा फुटेज खर्च किए गए हैं। अनोखीदेवी की हत्या वाले महत्वपूर्ण प्रसंग को भी सतही तरीके से फिल्माया गया है। फिल्म का कमजोर अंत लेखक की कमजोरी को उजागर करता है। ढेर सारे प्रतिभाशाली कलाकारों के जरिये केसी बोकाड़िया ने अपनी सीमित प्रतिभा को ढंकने की कोशिश की है, लेकिन कामयाब नहीं रहे। अच्छी स्क्रिप्ट के अभाव में ये कलाकार आखिर कब तक किला लड़ा सकते थे। मल्लिका शेरावत ने थोड़ी-बहुत एक्टिंग के साथ एक्सपोज भी किया। ओम पुरी ने भ्रष्ट नेता का रोल अच्छी तरह से निभाया, लेकिन वे उस स्तर तक नहीं पहुंच पाए जिस एक्टर ओम पुरी को हम जानते हैं। नसीरुद्दीन शाह, आशुतोष राणा, अनुपम खेर, गोविंद नामदेव, जैकी श्रॉफ, सुशांत सिंह, अतुल कुलकर्णी के हिस्से जितना आया उन्होंने अच्छी तरह से निभाया। कुल मिलाकर 'डर्टी पॉलिटिक्स' ऐसी फिल्म नहीं है जिस पर पैसा और समय खर्च किया जाए। बैनर : बीएमबी म्युजिक एंड मेग्नेटिक्स लि. निर्देशक : केसी बोकाड़िया संगीत : आदेश श्रीवास्तव, संजीव दर्शन, रॉबी बादल कलाकार : मल्लिका शेरावत, ओम पुरी, जैकी श्रॉफ, अनुपम खेर, नसीरुद्दीन शाह, आशुतोष राणा, राजपाल यादव, गोविंद नामदेव सेंसर सर्टिफिकेट : केवल वयस्कों के लिए * 2 घंटे 13 मिनट
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शराबबंदी का मुद्दा इस समय भारत के कुछ प्रदेशों में गरमाया है। कुछ राजनीतिक दल चुनाव जीतने के लिए इसे अहम मानते हैं। गुजरात में वर्षों से मदिरा पर रोक है, बावजूद इसके वहां पर चोरी-छिपे पच्चीस हजार करोड़ रुपये की शराब साल भर में पी जाती है। बिना भ्रष्ट पुलिस ऑफिसर्स और नेताओं के ये संभव नहीं है। माफियाओं और भ्रष्टों को इसके जरिये एक व्यवसाय हाथ लग गया है और रईस (शाहरुख खान) जैसे लोग इस शराबबंदी की ही देन है जो अवैध रूप से शराब पियक्कड़ों तक पहुंचाते हैं। रईस की कहानी गुजरात के एक तस्कर से प्रेरित है, हालांकि फिल्म से जुड़े लोग इसे नकारते हैं। शायद उन्होंने किरदार और कुछ वास्तविक घटनाओं को लेकर कुछ कल्पना के रेशे अपने तरफ से डाल दिए हो। फिल्म की कहानी अस्सी के दशक में सेट है। जब टीवी ब्लैक एंड व्हाइट से रंगीन हो रहा था। रईस बेहद गरीब परिवार से है और चश्मा खरीदने के पैसे भी उसके पास नहीं है। उसकी मां की बात 'कोई धंधा छोटा या बुरा नहीं होता' उसके दिमाग में बैठ जाती है। बचपन से ही वह शराब की बोतल एक जगह से दूसरी जगह ले जाना शुरू कर देता है। जवान होते ही वह खुद का धंधा करने की सोचता है ताकि ज्यादा माल कमा सके। वह अवैध शराब के व्यवसाय को बुरा नहीं मानता क्योंकि इससे किसी का बुरा नहीं होता। देखते ही देखते नेताओं और पुलिस के संरक्षण में रईस खूब पैसा कमा लेता है। पुलिस ऑफिसर मजमूदार (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) बेहद ईमानदार और अवैध शराब का व्यापार करने वालों का काल है, लेकिन रईस उसके हाथ नहीं लगता। हर बार वह मजमूदार को आंखों में धूल झोंक देता है। जब मजमूदार उस पर भारी पड़ता है तो रईस उसका ट्रांसफर तक करा देता है। का बिल की फिल्म स मीक्षा पढ़ने के लिए क्लिक करें रईस से हारना मजमूदार को पसंद नहीं आता। वह दूसरे शहर से भी रईस पर निगाह रखता है। पैसा कमा कर रईस रॉबिनहुड जैसा व्यवहार करने लगता है। इससे उसकी लोकप्रियता बढ़ जाती है और वह नेताओं की आंखों की किरकिरी बन जाता है। धीरे-धीरे रईस को समझ आता है कि वह नेताओं के हाथ की कठपुतली बन गया है। मुसीबत में घिरे रईस से ऐसी गलती हो जाती है कि मजमूदार उसकी जान के पीछे पड़ जाता है। फिल्म को आशीष वाशी, नीरज शुक्ला और हरित मेहता ने लिखा है। स्क्रिप्ट में दर्शाया गया है कि किस तरह नेता और पुलिस अपने हित साधने के लिए रईस जैसे अपराधियों का भी इस्तेमाल करते हैं। इसे शराबबंदी, दंगों और बम ब्लॉस्ट से जोड़ा गया है। बॉलीवुड में इस तरह कई फिल्में आ चुकी हैं, लेकिन 'रईस' की स्क्रिप्ट इस तरह लिखी गई है कि दोहराई गई चीजों को एक बार फिर स्क्रीन पर देखना अच्छा लगता है। कई उतार-चढ़ाव स्क्रिप्ट में दिए गए हैं, जो दर्शकों की फिल्म में रूचि बनाए रखते हैं। बॉलीवुड कमर्शियल फिल्मों के मसाले यहां संतुलित नजर आते हैं। जोरदार संवाद, एक्शन, हीरो की अकड़, चोर-पुलिस का खेल फिल्म को रोचक बनाते हैं। फिल्म में कई ऐसे सीन हैं जिन पर तालियां और सीटियां बजती हैं। मसलन रईस की एंट्री, मजमूदार की एंट्री, मजमूदार और रईस के बीच डायलॉगबाजी, लैला गाने के बीच दिखाए गए एक्शन दृश्य, रईस के बचपन के दृश्य, मजमूदार द्वारा रईस का ट्रक पकड़ना और उसमें से चाय का गिलास निकलना, जयराज की घड़ी रईस द्वारा लौटाना, जैसे कई दृश्य फिल्म को लगातार धार देते रहते हैं। फिल्म के एक्शन सीन भी जबरदस्त हैं। हालांकि खून-खराबा ज्यादा है जिसे कुछ दर्शक नापसंद भी करे, लेकिन एक्शन दृश्यों के लिए सिचुएशन अच्छी बनाई गई है। फिल्म का पहला हाफ शानदार है। तेज गति से भागती फिल्म और रईस का किरदार छाप छोड़ता है। चोर-पुलिस का खेल रोचक लगता है, लेकिन सेकंड हाफ में फिल्म खींची हुई लगने लगती है जब रईस अपने आपको मसीहा बनाने की कोशिश करता है। यहां पर फिल्म ट्रेक से छूटने लगती है। रईस का रोमांटिक ट्रेक कमजोर है। यह फिल्म में नहीं भी होता तो खास फर्क नहीं पड़ता। शायद शाहरुख खान रोमांस के बादशाह कहलाए जाते हैं इसलिए रोमांस को महत्व दिया गया है, लेकिन यह अधूरे मन से रखा गया है। गाने चूंकि लोकप्रिय नहीं हैं इसलिए फिल्म देखते समय व्यवधान उत्पन्न करते हैं। अच्छी बात यह है कि इन स्पीड ब्रेकर्स के बीच अच्छे दृश्य आ जाते हैं और फिल्म को संभाल लेते हैं। कुछ लोगों को यह भी शिकायत हो सकती है कि एक अपराधी को फिल्म महामंडित करती है, हालांकि मनोरंजन की आड़ में यह बात दब जाती है। फिल्म का निर्देशन राहुल ढोलकिया ने किया है। राहुल ने इसके पहले 'लम्हा' जैसी बुरी फिल्म बनाई थी। यहां पर उन्हें बड़ा कैनवास और सुपरस्टार का साथ मिला है। फिल्म की कहानी साधारण है, लेकिन राहुल का जोरदार प्रस्तुतिकरण फिल्म को देखने लायक बनाता है। कहानी अस्सी के दशक की है इसलिए राहुल ने कही-कही अपना प्रस्तुतिकरण उस दौर की फिल्मों जैसा भी रखा है, जैसे हीरो का बचपन दिखाया गया है। पहले, जैसे भागते हुए बच्चे, वयस्क बन जाते थे, वैसे ही यहां पर मोहर्रम में मातम बनाता हुआ हीरो जवान हो जाता है। सुपरस्टार की छवि को देखते हुए और उनके प्रशंसकों को खुश करने के लिए राहुल ने रईस के किरदार पर काफी मेहनत की है। उनकी यह कोशिश कामयाब भी रही है कि फिल्म देखने के बाद दर्शकों को रईस याद रहता है। शाहरुख की खासियत को निर्देशक ने बखूबी उभारा है। फिल्म के अंत में वे रईस के किरदार को एक हीरो का रूप देने में भी सफल रहे हैं। फिल्म के संवाद शानदार हैं। 'दिन और रात तो लोगों के होते हैं, शेरों का तो जमाना होता है' जैसे कई संवाद सुनने को मिलते हैं। राम संपत का बैकग्राउंड म्युजिक उल्लेखनीय है। गाने जरूर कमजोर हैं। पुराने गाने 'लैला' में अभी भी दम है और यही ऐसा गीत है जो देखने और सुनने में अच्छा लगता है। फिल्म की सिनेमाटोग्राफी बहुत बढ़िया नहीं कही जा सकती है। शाहरुख खान ने जिस तरीके से पिछली कुछ फिल्में की थीं उनके चयन पर उंगलियां उठने लगी थीं। इस बार शाहरुख खान ने कुछ हद तक शिकायत को दूर किया है। बहुत दिनों बाद वे देशी फिल्म में नजर आए हैं। वे अक्सर उन किरदारों में अच्छे लगते हैं जिसमें ग्रे शेड्स होते हैं। यहां पर शाहरुख अपने अभिनय और स्टारडम के बल पर पूरी फिल्म का भार उठाते हैं। पठानी सूट, चश्मा, आंखों में काजल और दाढ़ी उनके किरदार पर सूट होती है। बनिये का दिमाग और मियां भाई की डेअरिंग उनके अभिनय में झलकती है। माहिरा खान दिखने में औसत हैं, लेकिन उनका अभिनय अच्छा है। पुलिस ऑफिसर के रोल में नवाजुद्दीन सिद्दीकी का अभिनय जबरदस्त है। खासतौर पर उनके संवाद बोलने की शैली दाद देने लायक है। वे स्क्रीन पर जब भी आते हैं छा जाते हैं। शाहरुख के दोस्त के रूप में जीशान अली अय्यूब, अतुल कुलकर्णी, नरेंद्र झा सहित तमाम कलाकारों का काम बढ़िया है। 'लैला' गाने में आकर सनी लियोन माहौल को गरमा देती हैं। रईस की कहानी रूटीन जरूर है, लेकिन इसमें दर्शकों को खुश करने का भरपूर मसाला है। बैनर : एक्सेल एंटरटेनमेंट, रेड चिलीज़ एंटरटेनमेंट निर्माता : फरहान अख्तर, रितेश सिधवानी, गौरी खान निर्देशक : राहुल ढोलकिया संगीत : राम संपथ कलाकार : शाहरुख खान, माहिरा खान, नवाजुद्दीन सिद्दीकी, शीबा चड्डा, मोहम्मद ज़ीशान अय्यूब, अतुल कुलकर्णी, सनी लियोन (आइटम नंबर) सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 2 घंटे 24 मिनट
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बैनर : स्पलिट इमेज पिक्चर्स, वीनस रेकॉर्डस एंड टेप्स निर्माता : गोविंद मेनन, विक्रम सिंह निर्देशक : जेनिफर लिंच कलाकार : मल्लिका शेरावत, जेफ डॉसिट, इरफान खान, दिव्या दत्ता * केवल वयस्कों के लिए * 1 घंटा 44 मिनट * 12 रील मल्लिका शेरावत ‘हिस्स’ फिल्म के प्रचार के लिए कह रही हैं कि वे देखने वालों की नींदे उड़ा देंगी, सही कह रही हैं। बोर फिल्म देखने के बाद तो नींद आ जाती है, लेकिन ‘हिस्स’ जैसी बुरी फिल्म देखने के बाद नींद आ ही नहीं सकती। मल्लिका ने इस फिल्म के लिए बॉलीवुड फिल्मों के ऑफर ठुकरा दिए। लंबा समय हॉलीवुड में बिताया। पोस्ट प्रोडक्शन पर महीनों काम चला, लेकिन मामला टाँय-टाँय फिस्स हो गया। एक अंग्रेज को कैंसर है। छ: महीने उसके पास बचे हैं। वह भारत आकर नागमणि हासिल करना चाहता है ताकि अमर हो जाए। एक नाग को वह पकड़ लेता है, ताकि नागिन उसके पास आए और बदले में वह उससे मणि हासिल कर सके। इस दो लाइन की कहानी को भी ठीक से पेश नहीं किया गया है। स्क्रीनप्ले में न तो मनोरंजन है और लॉजिक को भी दरकिनार रख दिया गया है। नागिन के अलावा इरफान खान, उनकी पत्नी और सास वाला ट्रेक भी है, जो बेहद कमजोर और बोरिंग है। पूरी फिल्म में नागिन बनी मल्लिका शेरावत एक भी शब्द नहीं बोलती है। ठीक है, नागिन इंसानों की भाषा नहीं जानती, लेकिन जब वे मनुष्य का रूप धारण कर सकती है तो बोल भी सकती थी। इससे अच्छी तो हमारी बॉलीवुड फिल्में हैं, जिसमें इच्छाधारी नागिन न केवल बोलती थी, बल्कि गाती और डांस भी करती थी। कम से कम मनोरंजन तो होता था। निर्देशक जेनिफर लिंच ने एक विदेशी नजरिये से भारत को देखा है। तंग गलियाँ, पुराने मकान, गंदगी, गटर, जाहिल किस्म के लोगों का बैकड्रॉप उन्होंने रखा है। उनके प्रजेंटेशन में से एंटरटेनमेंट गायब है। न ही ड्रामे में कोई उतार-चढ़ाव है। फिल्म के स्पेशल इफेक्ट्‍स की बड़ी चर्चा थी, लेकिन इनमें कोई खास बात नजर नहीं आती है। मल्लिका शेरावत का अभिनय निराशाजनक है। सिवाय इधर-उधर घूमने के उन्होंने कुछ नहीं किया है। इरफान खान जैसे अभिनेता को इस तरह की भूमिका में देख आश्चर्य होता है। उनके द्वारा अभिनीत घटिया फिल्मों में की सूची में ‘हिस्स’ का नाम जरूर शामिल रहेगा। जैफ डॉसिटी और दिव्या दत्ता भी कोई असर नहीं छोड़ते हैं। ‘हिस्स’ के बजाय तो इच्छाधारी नागिन पर आधारित पुरानी फिल्में देखना लाख गुना बेहतर है।
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chandermohan.sharma@timesgroup.com यंग डायरेक्टर नित्या मेहरा इस फिल्म से पहले ही ‘लाइफ ऑफ ए पाई’ जैसी कामयाब फिल्म से शोहरत बटोर चुकी हैं। बेशक, नित्या हॉलिवुड फिल्म की सहायक डायरेक्टर रहीं, लेकिन हॉलिवुड फिल्म के साथ जुड़ने का फायदा उन्हें बॉलिवुड में बतौर डायरेक्टर डेब्यू करते वक्त मिला। नित्या ने अपनी पहली फिल्म के लिए अलग विषय चुना, लेकिन नया सब्जेक्ट चुनने के बावजूद उन्होंने सब्जेक्ट और किरदारों पर ज्यादा होमवर्क करने के बजाए इस प्रॉजेक्ट को शुरू करने में कुछ ज्यादा ही जल्दी दिखाई। इंटरवल से पहले तक ट्रैक पर अपनी रफ्तार से चल रही यह फिल्म इंटरवल के बाद भटक जाती है। फिल्म का सब्जेक्ट नया और मजेदार है, लेकिन प्रस्तुतीकरण की बात करे तो यहां फिल्म कमजोर नजर आती है। कटरीना का बदला नया बोल्ड लुक, कॉस्टयूम बेहतरीन लोकेशन और काला चश्मा जैसा हिट गाना इस फिल्म को कुछ दिलचस्प बनाता है। कहानी: जय वर्मा (सिद्धार्थ मल्होत्रा) दिल्ली के एक कॉलेज में प्रफेसर है। जय अपनी पुरानी दोस्त दीया कपूर (कटरीना कैफ) के साथ लंबे अर्से से रिलेशनशिप में है। अब इन दोनों की जल्दी ही शादी होने वाली है। इसी दौरान अचानक एक दिन जय वर्मा को कैंब्रिज यूनिवर्सिटी से जॉब की ऑफर मिलती हैं। जय अपने करियर को सबसे ज्यादा महत्व देता है और इस नई जॉब को लेकर काफी उत्साहित है। जय विदेश में सेटल होना चाहता है, लेकिन मुश्किल यह है कि दीया के पापा (राम कपूर) नहीं चाहते कि उनका होने वाला दामाद विदेश में इस नई जॉब के लिए जाए। हालात ऐसे बनते है कि अब जय शादी करने से कतराने लगता है। यहीं से कहानी एक अलग टर्न लेती है। अब जय अपने आने वाले कल यानी भविष्य में आ चुका है, यहां आकर उसे महसूस होने लगता है कि दीया के साथ उसकी दोस्ती और लंबी रिलेशनशिप का उसकी अपनी पर्सनल लाइफ में कितना महत्व है। जय भविष्य के बारे में बहुत कुछ जानने लगता है, इसी दौरान एकबार फिर जय और दीया की लाइफ में कुछ अलग होने लगता है। ऐक्टिंग: जय वर्मा के किरदार में सिद्धार्थ मल्होत्रा ने मेहनत की है। इस किरदार में सिद्धार्थ कई अलग-अलग शेड्स में नजर आए। यंग प्रोफेसर से लेकर भविष्य में नजर आने वाले जय वर्मा को इस किरदार में वह अलग-अलग आयु में दिखाया गया। फितूर के लंबे अर्से बाद अब इस फिल्म में नजर आई कटरीना कैफ ने भी अपने किरदार को पूरी एनर्जी और दिल लगाकर निभाया है। इस बार कटरीना का स्क्रीन पर आपको कुछ बोल्ड रूप नजर आएगा ,लेकिन यह किरदार की डिमांड थी और इस बार कैट खरी उतरीं। कटरीना के पापा के रोल में राम कपूर फिट रहे, लेकिन कई सीन्स में उनके बोलने का अंदाज कुछ ज्यादा ही लाउड हो जाता है। स्यानी गुप्ता और रंजीत कपूर अपने रोल में बस ठीकठाक रहे। निर्देशन: यकीनन यंग डायरेक्टर नित्या मेहरा ने बॉलिवुड में करियर की शुरुआत के लिए एक ऐसा सब्जेक्ट चुना, जिस पर फिल्म बनाने से डायरेक्टर कतराते हैं। वर्तमान से भविष्य तक घूमती ऐसी कहानी जो सिर्फ दो-तीन किरदारों के इर्दगिर्द ही घूमती हो ऐसे सब्जेक्ट पर ढाई घंटे तक दर्शकों को बांधकर रखना आसान नहीं है। लेकिन स्क्रिप्ट में नयापन होने के साथ साथ थाइलैंड की बेहतरीन, दिलकश लोकेशन, कैटरीना-सिद्धार्थ की जोड़ी को डिफरेंट अंदाज में पेश करने की वजह से दर्शक इंटरवल तक तो फिल्म के साथ बंध पाता है। नित्या ने फिल्म की शुरुआत गुजरा हुआ कल, आज और आने वाले कल के सब्जेक्ट को लेकर की लेकिन इंटरवल तक कहानी में कुछ नया नहीं होने की वजह से फिल्म की रफ्तार सुस्त हो जाती है। अगर नित्या फिल्म के स्क्रीनप्ले पर फिल्म की शुरुआत से पहले कुछ और ज्यादा काम करती तो यकीनन दर्शक इस फिल्म को एकबार फिर देखने आ जाते। संगीत: इस फिल्म की रिलीज से पहले प्रॉडक्शन कंपनी ने काला चश्मा को जमकर प्रमोट किया। गाने में कैट और सिद्धार्थ का अंदाज और लुक देखने लायक है। गाने के फिल्माकंन पर अच्छी-खासी मेहनत की गई है। यही गाना फिल्म की सबसे बड़ी यूएसपी है, बाकी गाने बस कामचलाऊ हैं। क्यों देखें: अगर आप कैटरीना के जबर्दस्त फैन है और धूम 3 के बाद अपनी चहेती ऐक्ट्रेस को बिंदास, सेक्सी और हॉट अंदाज में देखने को बेताब है तो इस फिल्म को बार-बार तो नहीं एकबार देखा जा सकता है।
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फंस गए रे ओबामा (2010) और जॉली एलएलबी (2013) जैसी बेहतरीन फिल्म बनाने वाले लेखक और निर्देशक सुभाष कपूर 'गुड्डू रंगीला' में अपने बनाए गए स्तर से फिसल कर नीचे आ गए हैं। कमर्शियल फॉर्मेट में सुभाष ने फिल्म बनाई है, लेकिन न वे दर्शकों का मनोरंजन कर पाएं और न ही खाप पंचायत वाले मुद्दे को ठीक से उभार पाए। बीइंग हनुमान और ऑफ्टर व्हिस्की आई एम रिस्की लिखे जैकेट और टी-शर्ट पहनने वाले गुड्डू (अमित सध) और रंगीला (अरशद वारसी) ममेरे भाई हैं। हरियाणा के गांवों में 'कल रात माता का ईमेल आया है' जैसे गाने गाकर वे लोगों का दिल बहलाते हैं। इसी बहाने वे यह भी पता लगा लेते हैं कि लोगों के घरों में कितना माल है। इसकी जानकारी वे डकैतों को देते हैं और यह भी उनके पैसे कमाने का एक जरिया है। गुड्डू और रंगीला की ये हरकत पुलिस को पता चल जाती है। थानेदार दस लाख रुपये मांगता है। इसी बीच उन्हें एक लड़की बेबी (अदिति राव हैदरी) को चंडीगढ़ से उठाकर दिल्ली ले जाने का काम मिलता है। दस लाख रुपये में सौदा होता है। बेबी का वे अपहरण कर दिल्ली ले जाने वाले रहते हैं कि उन्हें फोन आता है कि उसे शिमला लेकर जाओ क्योंकि प्लान में तब्दीली हो गई है। बेबी एक शक्तिशाली नेता और गुंडे बिल्लू (रोनित रॉय) की साली है। बिल्लू से रंगीला का भी कनेक्शन है। कुछ वर्ष पूर्व रंगीला की पत्नी की हत्या बिल्लू ने कर दी थी क्योंकि उसने गैर समाज के लड़के से विवाह किया था। बेबी के बहाने रंगीला को बिल्लू से बदला लेने का मौका मिल जाता है। गुड्डू और रंगीला यह जानकर हैरान हो जाते हैं कि बेबी ने जानबूझ कर अपना अपहरण करवाया है क्योंकि वह अपने जीजा बिल्लू से अपनी बहन की मौत का बदला लेना चाहती है। वह दस करोड़ रुपये बिल्लू से ऐंठना चाहती है साथ ही उसके पास बिल्लू के गंदे कारनामों की एक सीडी भी है जिसके सहारे वह बिल्लू का राजनीतिक करियर भी बरबाद करना चाहती है। इसके बाद कई उतार-चढ़ाव कहानी में देखने को मिलते हैं। गुड्डू रंगीला का टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें फिल्म की कथा, पटकथा, संवाद और निर्देशन सुभाष कपूर का है। फिल्म की कहानी में कोई नई बात नहीं है बावजूद इसके यह ठीक-ठाक है, लेकिन इस कहानी पर आधारित स्क्रीनप्ले ठीक से नहीं लिखा गया है। न इसमें मनोरंजन है और न ही लॉजिक। सबसे अहम बात यह है कि बेबी अपना अपहरण क्यों करवाती है जबकि उसके पास बिल्लू के गलत कारनामों की सीडी है। वह इस सीडी के बदले में ही दस करोड़ रुपये बिल्लू से ले सकती थी और सीडी को सार्वजनिक कर सकती थी। इस वजह से अपहरण वाला पूरा ट्रेक कमजोर पड़ जाता है। रंगीला की पत्नी जीवित रहती है और यह बात रंगीला को पता नहीं चलती तथा रंगीला को बिल्लू के न पहचान पाने वाली बात हजम नहीं होती। ये लेखन की बड़ी कमजोरियां हैं। स्क्रिप्ट में मनोरंजन का अभाव है। हंसाने के लिए कुछ चुटकुले हैं जिन पर हंसी कम खीज ज्यादा आती है। रोमांस की फिल्म में कोई गुंजाइश नहीं थी, लेकिन बेबी और गुड्डू का रोमांस फिट करने की असफल कोशिश की गई है। बिना सिचुएशन के गाने रखे गए हैं। लड़कियों और प्रेम के खिलाफ खाप पंचायत वाले मुद्दे को भी दिखाया गया है, लेकिन ये ट्रेक प्रभावी नहीं है। ये सिर्फ खलनायक को शक्तिशाली और महामंडित करने के लिए रखा गया है। फिल्म का पहला आधा घंटा बोरियत से भरा है। अपहरण के बाद जब बेबी के असली इरादे जाहिर होते हैं तो फिल्म चौंकाती है और उत्सुकता पैदा होती है, लेकिन ये उम्मीद जल्दी ही धराशायी हो जाती हैं। इंटरवल के बाद तो फिल्म में रूचि ही खत्म हो जाती है। फिल्म का क्लाइमैक्स किसी बी-ग्रेड की एक्शन मूवी की तरह है। सुभाष कपूर निर्देशक के रूप में प्रभावित नहीं करते। फिल्म के कैरेक्टर रियल लगते हैं और हरकतें लार्जर देन लाइफ वाली करते हैं। यह तालमेल गड़बड़ा गया है। जिस अभिनेता अरशद वारसी को हम जानते हैं वो इस फिल्म में नजर नहीं आया। अमित सध निराश करते हैं। अदिति राव हैदरी को जो रोल मिला है उसमें वे फिट नहीं बैठती। रोनित रॉय को सबसे ज्यादा फुटेज मिले हैं और उनका अभिनय अच्छा है। छोटी-मोटी भूमिकाओं में ज्यादातर कलाकारों का काम अच्छा है। कुल मिलाकर गुड्डू रंगीला रंग नहीं जमा पाई। गुड्डू रंगीला बैनर : फॉक्स स्टार स्टुडियोज़, मंगलमूर्ति फिल्म्स प्रा.लि. निर्माता : संगीता अहिर निर्देशक : सुभाष कपूर संगीत : अमित त्रिवेदी कलाकार : अरशद वारसी, अमित सध, अदिति राव हैदरी, रॉनित रॉय सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 4 मिनट 46 सेकंड्स
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कहानी: जब-जब जिसके लगने हैं, तब-तब उसके लगते हैं। फिल्म 'अ जेंटलमैन' में गौरव (सिद्धार्थ मल्होत्रा) के साथ भी कुछ ऐसा ही होता है। गौरव एक सुंदर और सुशील लड़का है, जो मियामी में एक कॉर्पोरेट कंपनी में जॉब करता है। उसके दोस्तों के मुताबिक उसकी लाइफ रिवर्स चल रही है। उसने अपना घर खरीद लिया है और बच्चों के लिहाज से बड़ी गाड़ी भी लेकिन उसकी लाइफ में अभी एक गर्लफ्रेंड की कमी है, जिसके लिए वह अपनी ऑफिस कलीग काव्या (जैकलीन फर्नांडिस) को पटाने की कोशिश करता है लेकिन जैकलीन चाहती है कि उसका लाइफ पार्टनर सुंदर और सुशील होने के साथ थोड़ा रिस्की भी हो। मसलन जब काव्या की फ्रेंड उससे पूछती है कि आखिर गौरव में क्या कमी है? तो वह कहती है कि कोई कमी नहीं है, यही उसकी कमी है। वह कुछ ज्यादा ही सेफ है। हालांकि काव्या के पैरंट्स को जरूर सर्वगुण संपन्न गौरव बेहद पसंद आ जाता है। उधर मुंबई में कर्नल (सुनील शेट्टी) की यूनिट एक्स में काम करने वाला ऋषि (सिद्धार्थ मल्होत्रा) बेहद खतरनाक फाइटर है। कर्नल की खातिर वह अपनी टीम के साथी याकूब (दर्शन कुमार) के साथ खतरनाक मिशनों को अंजाम देता है। बचपन से यही काम कर रहा ऋषि एक दिन इस निर्दोष लोगों की जान लेने वाली मारकाट भरी लाइफ से बोर हो जाता है और सेटल होने की खातिर कर्नल से अलग होने की इजाजत मांगता है। इसकी एवज में कर्नल ऋषि को एक लास्ट टास्क देता है, जिसमें उसे एक एजेंट से खुफिया जानकारी वाली ड्राइव हासिल करनी है। हालांकि मिशन पूरा होने के बाद कर्नल के आदेश के मुताबिक ऋषि के साथी उसे मारने की कोशिश करते हैं लेकिन वह खुफिया ड्राइव लेकर निकल जाता है। वहीं, मियामी में एक दिन अचानक काव्या यह देखकर हैरान रह जाती है कि उसके सीधे-साधे बॉयफ्रेंड गौरव का मुकाबला गुंडों से होता है, तो वह न सिर्फ उनकी जबर्दस्त पिटाई करता है बल्कि गन से जमकर फायर भी करता है। आखिर गौरव और ऋषि का आपसी रिलेशन क्या है? यह जानने के लिए आपको थिअटर जाना होगा। रिव्यू: फिल्म के डायरेक्टर राज ऐंड डीके अपनी थोड़ा हटकर फिल्मों के लिए जाने जाते हैं लेकिन इस बार वे कहानी के साथ पूरा न्याय नहीं कर पाए। खासकर फिल्म का स्क्रीनप्ले और प्लॉट कमजोर है। फर्स्ट हाफ में फिल्म की स्पीड ठीकठाक है लेकिन सेकंड हाफ में यह भटक जाती है। फिल्म देखते वक्त कई बार दर्शक कुछ चीजों को लेकर कंन्फ्यूज नजर आते हैं। फिल्म में ऐक्शन के अलावा गोलीबारी के सीन्स की भरमार है। सिद्धार्थ मल्होत्रा ने सीधे-सादे गौरव के रोल को बखूबी निभाया है लेकिन रिस्की ऋषि के रोल में वह उतना नहीं जमे हैं। फिल्म में दो अलग-अलग लोगों का किरदार प्ले करने की वजह से वह करीब-करीब हर शॉट में पर्दे पर नजर आते हैं। फिल्म में जैकलीन के पास करने के लिए बहुत कुछ नहीं था लेकिन फिर भी फिल्म के कुछ गानों में वह जमी हैं, तो ऐक्शन सीन में भी उन्होंने बेहतर करने की कोशिश की है। दर्शन कुमार ने जरूर फिल्म में अपना दम दिखाया है। कई सीन में वह सिद्धार्थ को पूरी टक्कर देते हैं। वहीं सिद्धार्थ के फ्रेंड के रोल में हुसैन दलाल दर्शकों के चेहरे पर हंसी लाने में कामयाब रहे। सुनील शेट्टी ने गेस्ट रोल में अपना किरदार बखूबी निभाया है। डायरेक्टर राज ऐंड डीके ने भारतीय दर्शकों के लिए मियामी की खूबसूरत लोकेशंस को जरूर बड़े पर्दे पर बेहतरीन अंदाज में दिखाया है हालांकि फिल्म के गाने उतने दमदार नहीं हैं और बस रस्म अदायगी करते हैं। ।
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बैनर : इरोज इंटरनेशनल, अनिल कपूर फिल्म्स कंपनी, स्पाइस इंफोटेनमेंट निर्माता : रजत रवैल, अनिल कपूर, डॉ. बी.के. मोदी निर्देशक : अनीस बज्मी संगीत : प्रीतम कलाकार : संजय दत्त, अनिल कपूर, सुष्मिता सेन, कंगना, अक्षय खन्ना, सुनील शेट्टी, परेश रावल, नीतू चन्द्रा, शक्ति कपूर, रंजीत सेंसर सर्टिफिकेट : यू/ए * 16 रील * 2 घंटे 22 मिनट पता नहीं किन दर्शकों को ध्यान में रखकर अनीस बज्मी ने ‘नो प्रॉब्लम’ बनाई है। हर बात में लॉजिक ढूँढने वाले दर्शक तो इसे बिलकुल भी पसंद नहीं करेंगे। जो दर्शक दिमाग नहीं लगाना चाहते हैं,‍ फिल्म सिर्फ मनोरंजन के लिए देखते हैं, उन्हें भी इस कॉमेडी फिल्म में ठहाका लगाना तो छोड़िए मुस्कुराने के भी बहुत कम अवसर मिलेंगे। इस फिल्म में सिर्फ प्रॉब्लम ही प्रॉब्लम नजर आती हैं। दो चोर और एक बैंक मैनेजर एक मंत्री की हत्या के अपराध में फँस जाते हैं, जो उन्होंने की ही नहीं है। उनके हाथ करोड़ों के हीरे लगते हैं, जिसके पीछे बहुत बड़ा डॉन पड़ा हुआ है। इन सभी के पीछे एक मूर्ख पुलिस ऑफिसर लगा हुआ है। चोर-पु‍लिस के इस खेल में ढेर सारे किरदार आते-जाते रहते हैं और इस लुकाछिपी के जरिये दर्शकों को हँसाने की कोशिश की गई है। प्रॉब्लम नं.1 : इस सीधी-सादी कहानी कहने के लिए लेखक ने ढेर सारे हास्य दृश्यों का सहारा लिया है। गोरिल्ला बंदूक चलाते हैं, थैंक्यू कहने पर नो प्रॉब्लम कहते हैं। एक इंसपेक्टर के पेट से दो गोलियाँ निकाली नहीं जा सकी, जो उसे गुदगुदी करती रहती है। इस तरह की छूट लेने के बावजूद यदि लेखक दर्शकों को हँसा नहीं पाता है तो उसे सोच लेना चाहिए कि कितना घटिया काम उन्होंने किया है। प्रॉब्लम नं. 2 : फिल्म के ज्यादातर कैरेक्टर्स फनी बताए गए हैं और हर सीन में हास्य डालने की कोशिश की गई है। सब्जी में यदि नमक या मिर्च या तेल ज्यादा हो जाए तो स्वाद बिगड़ जाता है। यहाँ हास्य के अतिरेक ने फिल्म का मजा खराब कर दिया है। प्रॉब्लम नं. 3 : निर्देशक अनीस बज्मी ने अपना काम चलताऊ तरीके से किया है। कई शॉट्स जल्दबाजी में शूट किए गए हैं। फिल्म की गति को उन्होंने तेज रखा है ताकि खामियों पर परदा डाला जा सके, लेकिन वे कामयाब नहीं हुए हैं। सिंह इज किंग की खुमारी अभी भी उन पर चढ़ी नजर आती है क्योंकि क्लाइमैक्स में उन्होंने सभी को सरदार बना डाला है। फिल्म का क्लाइमेक्स प्रियदर्शन की फिल्मों जैसा लगता है। अनीस ‍ने फिल्म को जरूरत से ज्यादा लंबा बनाया है, जिस वजह से यह उबाऊ हो गई है। प्रॉब्लम नं. 4 : संजय दत्त, अनिल कपूर, अक्षय खन्ना, सुष्मिता सेन, सुनील शेट्टी जैसे फ्लॉप स्टार इस फिल्म में हैं। भले ही इनकी स्टार वैल्यू नहीं रही है, लेकिन ये कलाकार तो अच्छे हैं। खराब स्क्रिप्ट और निर्देशन का असर इनके अभिनय पर भी पड़ा है। अनिल कपूर ने तो स्क्रिप्ट से उठकर कोशिश की है, लेकिन अधिकांश कलाकार असहज नजर आए। शायद उन्हें भी समझ में नहीं आ रहा होगा कि वे क्या कर रहे हैं। कंगना का मैकअप ऐसा किया गया है कि वे खूबसूरत नजर आने के बजाय बदसूरत दिखाई देती हैं। परेश रावल भी टाइप्ड हो गए हैं। सुनील शेट्टी से एक्टिंग की उम्मीद करना बेकार है। 70 और 80 के दशक में खलनायकी के तेवर दिखाने वाले रंजीत ने सुनील शेट्टी के गुर्गे का रोल क्यों मंजूर किया, समझ से परे है। प्रॉब्लम नं. 5 : संवाद के जरिये हास्य फिल्मों को धार मिलती है। हालाँकि निर्देशक ने हँसाने के लिए डॉयलॉग्स के बजाय दृश्यों का सहारा लिया है, फिर भी संवाद बेहद सपाट हैं। प्रॉब्लम नं. 6 : संगीतकार प्रीतम से सौदा सस्ता हुआ होगा, इसलिए उन्होंने अपनी सारी रिजेक्ट हुई धुनों को थमा दिया है। सभी गानों में सिवाय शोर के कुछ सुनाई नहीं देता है। इसके अलावा भी कई प्रॉब्लम्स इस फिल्म में हैं, जिनकी चर्चा करना बेकार है।
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एडल्ट कॉमेडी बनाना भारतीय फिल्मकारों के बस की बात नहीं है। फूहड़ता को ही वे एडल्ट कॉमेडी समझ बैठते हैं और बदले में 'क्या कूल हैं हम 3' जैसी कचरा फिल्में देखने को मिलती हैं। इस फिल्म से जुड़े लोगों से बेहतर तो वे लोग हैं जो व्हाट्स एप के लिए 'नॉटी जोक्स' बनाते हैं जिसमें कुछ क्रिएटिविटी तो होती है। एक तरफ प्रतिभाशाली लेखकों को मौके नहीं मिलते तो दूसरी ओर मुश्ताक शेख और मिलाप मिलन ज़वेरी जैसे लोगों की लिखी घटिया कहानी पर लोग पैसा लगाने को राजी हो जाते हैं। केवल क्या कूल हैं हम सीरिज की सफलता को भुनाने के लिए तीसरा भाग तैयार कर दिया गया है जिसमें कहानी, निर्देशन, संवाद, अभिनय, गाने सहित सारी चीजें अपने निम्नतम स्तर पर है। कहानी के नाम पर कुछ भी नहीं है। जो मन में आया लिख दिया। चुटकलों को जोड़-जोड़ कर फिल्म बना दी गई। कोई लॉजिक नहीं क्योंकि हर सीन में डबल मीनिंग संवाद को घुसेड़ने की बात लेखकों ने शायद तय कर ली थी। भले ही वे सीन में फिट बैठते हो या नहीं। शायद वे यह मान कर बैठे थे कि दर्शक यही सब देखने आए हैं। फिल्म मेकिंग के तमाम नियम-कायदों को ताक में रख कर एक घटिया फिल्म परोस दी गई। जानवरों को भी नहीं छोड़ा गया। एक बूढ़ा हाथ में एक पक्षी लेकर घूमता रहता है जिसे बार-बार 'पोपट' क्यों कहा गया, समझाने की जरूरत नहीं है। एक चूहा फिल्म के हीरो की पेंट में घुस जाता है। एक कुत्ता बूढ़े आदमी को 'ओरल सुख' पहुंचाता है। एक घोड़ा भी है। क्या कू ल हैं हम 3 के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें तमाम हिट फिल्मों का मजाक बनाया गया है। 'शोले' की पैरोडी 'खोले' बनाकर की गई है। हर किरदार पर 'सेक्स' की धुन सवार रहती है। एक किरदार लाल रंग को देख 'काणा' हो जाता है। इतने सारे तामझाम के बावजूद मजाल है कि आपको हंसी आ जाए। खीज पैदा होती है। समय ठहरा हुआ लगता है। फिल्म खत्म होने का इंतजार बहुत लंबा हो जाता है। बहुत हिम्मत का काम है इस फिल्म को झेलना। तुषार कपूर और आफताब शिवदासानी अब इस तरह की फूहड़ फिल्मों के खास चेहरे हो गए हैं क्योंकि दूसरी फिल्मों में उनके लिए जगह नहीं बची है। 'क्या कूल हैं हम 3' देखने आए दर्शक शायद यही सोच रहे थे कि 'क्या FOOL हैं हम' जो इस फिल्म को देखने सिनेमाघर चले आए। बैनर : बालाजी मोशन पिक्चर्स, एएलटी एंटरटेनमेंट निर्माता : शोभा कपूर, एकता कपूर निर्देशक : उमेश घाडगे संगीत : साजिद-वाजिद कलाकार : तुषार कपूर, आफताब शिवदासानी, कृष्णा अभिषेक, मंदना करीमी, गिज़ेल ठकराल, क्लॉडिया सिस्ला, मेघना नायडू, गौहर खान, रितेश देशमुख (कैमियो) सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 2 घंटे 5 मिनट 30 सेकंड
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निर्माता के रूप में दिनेश विजन के पास लंबा अनुभव है। कई सफल फिल्म उन्होंने सैफ अली खान के साथ मिलकर बनाई है। निर्माता रहते हुए उन्हें निर्देशन का कीड़ा काट खाया और 'राब्ता' देखने के बाद यही लगता है कि वे निर्माता ही रहते तो बेहतर होता। निर्देशक के रूप में उन्हें अभी और तैयारी करना चाहिए। अमृतसर से शिव (सुशांत सिंह राजपूत) नौकरी के लिए बुडापेस्ट जा पहुंचता है। लड़कियां उसकी कमजोरी है। शिव में पता नहीं ऐसी क्या खास बात है कि लड़कियां उसकी ओर खींची चली आती है। खैर, चॉकलेट शॉप पर उसकी मुलाकात सायरा (कृति सेनन) से होती है। सायरा और शिव दोनों एक-दूसरे की ओर आकर्षित हो जाते हैं। सायरा का एक बॉयफ्रेंड भी रहता है जिससे शिव ब्रेकअप भी करा देता है। चट बिस्तर के बाद पट ब्याह वे करना चाहते हैं। लगभग सवा घंटे तक यह सारा ड्रामा चलता रहता है जो नितांत ही उबाऊ है। इसको 'फनी' बनाने की कोशिश की गई है, लेकिन मजाल है जो मुस्कान भी आ जाए। शिव और सायरा का पूरा रोमांस नकली लगता है। इसके बाद एंट्री होती है जैक (जिम सरभ) की, जो अरबपति है। काम के सिलसिले में शिव दूसरे शहर जाता है और सायरा से जैक दोस्ती बढ़ाता है। एक दिन सायरा अपने आपको जैक की कैद में पाती है। जैक को पिछले जन्म वाली सारी बात पता है और इस जन्म में वह सायरा को पाना चाहता है। सायरा कुछ समझ नहीं पाती, लेकिन एक दिन समुंदर में गिर जाती है और उसे सब याद आ जाता है। यहां से फिल्म चली जाती है सैकड़ों वर्ष पूर्व। शिव, सायरा और जैक का पिछला जन्म दिखाया जाता है। पहले से ही बेपटरी होकर लुढ़क रही फिल्म और निम्नतम स्तर पर चली जाती है। पुनर्जन्म वाला यह हिस्सा इतना कन्फ्यूजिंग है कि निर्देशक और लेखक क्या बताना चाह रहे हैं कुछ समझ नहीं आता। संवाद भी बड़े अजीब हो जाते हैं। राजकुमार राव जैसे कलाकार की यहां पर दुर्गति कर दी गई है। एक बार फिर फिल्म वर्तमान दौर में आती है। हीरोइन और विलेन को सब याद आ गया, लेकिन हीरो को कुछ याद नहीं आता। बहरहाल क्लाइमैक्स में थोड़ी फाइटिंग होती है और सब सही हो जाता है। चांद, तारे, बारिश, पूर्णिमा से दोनों जन्मों की कहानी को जोड़ने के जो प्रयास किए गए हैं वो अर्थहीन हैं। सीन इतने लंबे रखे गए हैं कि झल्लाहट होती है। निर्देशक के रूप में दिनेश विजन असफल रहे हैं। न तो वे फिल्म को मनोरंजक बना पाए हैं और न उन्होंने लॉजिक का ध्यान रखा है। फिल्म के लेखक कुछ भी नया पेश नहीं कर पाए और कहानी अत्यंत ही कमजोर है। सुशांत सिंह राजपूत कोई रोमांस के बादशाह शाहरुख खान तो है नहीं जो रोमांटिक फिल्म में जान फूंक सके। 'कूल' लगने के उनके अतिरिक्त प्रयास साफ नजर आते हैं। कई दृश्यों में वे असहज नजर आएं। कृति सेनन पर दीपिका पादुकोण का हैंगओवर नजर आया। शायद दिनेश विजन ने उनसे दीपिका की तरह अभिनय करने का बोला हो क्योंकि दिनेश ने कुछ फिल्में दीपिका के साथ बनाई हैं। जिम सरभ का लुक उनके कैरेक्टर पर फिट बैठता है, लेकिन उनका कैरेक्टर ठीक से नहीं लिखा गया है। 'सिगरेट खत्म होने के पहले जान बचा सकता है तो बचा ले' जैसे संवाद उन पर बिलकुल सूट नहीं जमते। वरूण शर्मा टाइप्ड हो गए हैं और हर फिल्म में एक जैसे नजर आते हैं। दीपिका पादुकोण पर फिल्माया गया गाना ही फिल्म का एकमात्र सुखद पहलू है, लेकिन एक गाने के लिए ढाई घंटे की फिल्म झेलना समझदारी की बात नहीं है। बैनर : मैडॉक फिल्म्स, टी-सीरिज़ निर्माता : दिनेश विजन, भूषण कुमार, होमी अडजानिया, कृष्ण कुमार निर्देशक : दिनेश विजन संगीत : प्रीतम चक्रवर्ती कलाकार : सुशांत सिंह राजपूत, कृति सेनन, जिमी सरभ, दीपिका पादुकोण (एक गाने के लिए)
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'सिर्फ अहसास है ये रूह से महसूस करो, प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो।' इस गाने को 1970 में जाने-माने गीतकार गुलजार ने भले वहीदा रहमान-राजेश खन्ना की फिल्म 'खामोशी' के लिए लिखा हो, मगर इस गीत के बोल शूजित सरकार की 'अक्टूबर' पर फिट बैठते हैं। वाकई प्यार कोई बोल नहीं, कोई आवाज नहीं, एक खामोशी है, सुनती है कहा करती है...शूजित की 'अक्टूबर' एक अनकहे प्यार की दास्तान को बयान करती है। फिल्म के शुरुआती दौर में इस प्यार को समझने में आपको वक्त लगता है, मगर जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ती जाती है, आप इसकी गहराई में उतरते चले जाते हैं। क्लाइमेक्स जहां अनकंडीशनल लव की व्याख्या करता है, वहीं आपको बुरी तरह से उदास कर देता है और आप सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि ऐसी प्रेम कहानी में जीना कैसा होता होगा?होटल मैनेजमेंट की पढ़ाई करनेवाला डैन (वरुण धवन) एक फाइव स्टार होटल में इंटर्नशिप कर रहा है। वह अपनी जिंदगी में किसी भी काम को गंभीरता से नहीं लेता। हालांकि, उसका सपना एक रेस्तरां खोलने का है, मगर इंटर्नशिप के दौरान उसकी ऊल-जुलूल हरकतों और अनुशासनहीनता के कारण उसे बार-बार निकाल दिए जाने की वार्निंग दी जाती है। दूसरी ओर उसकी बैचमेट शिवली डैन के मिजाज के विपरीत बहुत ही मेहनती और अनुशासनप्रिय स्टूडेंट है। शिवली और डैन के बीच कहानी में कुछेक दृश्य ऐसे जरूर आते हैं, जहां उनके बीच एक अनकहा रिश्ता महसूस होता है, मगर लेखक-निर्देशक ने उसे कहीं भी अंडरलाइन नहीं किया। फिर एक दिन अचानक शिवली एक हादसे की शिकार होकर कोमा में चली जाती है। जिस वक्त उसके साथ यह हादसा होता है, डैन वहां मौजूद नहीं था, मगर हादसे का शिकार होने के ऐन पहले शिवली ने डैन के बारे में पूछा जरूर था। क्षत-विक्षत अवस्था में कोमा में जा चुकी शिवली की हालत का डैन पर गहरा असर पड़ता है। शिवली के अस्पताल के चक्कर काटते हुए वह एक ऐसे सफर पर निकल पड़ता है, जिसके बारे में उस जैसा 21 साल का लड़का कभी सोच ही नहीं सकता था। 'विकी डोनर', 'पीकू' और 'पिंक' जैसे अलहदा विषयों पर फिल्म बनाने वाले शूजित सरकार यहां प्यार को नया आयाम देते नजर आते हैं, जो हिंदी फिल्मों से बिलकुल भी मेल नहीं खाता। फिल्म के पहले 45 मिनट बहुत ही सुस्त रफ्तार से आगे बढ़ते हैं। इसे समझने के लिए आपको सब्र से काम लेना होगा, मगर जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती जाती है, किरदारों की डिटेलिंग हमें उनकी जिंदगी में उतरने पर मजबूर कर देती है। आप निष्छल जज्बातों से जुड़ते चले जाते हैं। यहां लेखिका जूही चतुर्वेदी का जिक्र करना जरूरी हो जाता है, जिन्होंने अपने लेखन के जरिए शूजित की सहजता और संवेदनशीलता का साथ दिया है। अविक मुखोपाध्याय की सिनेमटोग्राफी कई दृश्यों में पेंटिंग की मानिंद लगती हैं। 'मैं तेरा हीरो', 'जुड़वा 2', 'हम्पटी की दुल्हनिया' जैसी तमाम फिल्मों में हिंदी सिनेमा के प्रचलित फिल्मी हीरो को साकार करने वाले वरुण धवन को देखकर आपको बिलकुल याद नहीं आता कि वे अपनी फिल्मों में नाच-गाना, रोमांस और फाइट के लिए जाने जाते हैं। यहां वे अपनी बॉडी लैंग्वेज, डायलॉग डिलीवरी और नम आंखों से डैन के किरदार को जिंदा कर देते हैं। शिवली की भूमिका को बनिता संधू ने अपनी आंखों के हाव-भावों से असरदार बना दिया है। शिवली की मां का रोल करने वाली गीतांजलि राव के रूप में हिंदी सिनेमा को एक सहज और सशक्त अभिनेत्री मिली है। सहयोगी कलाकार भी बनावट से परे रियल नजर आते हैं। शांतनु मोइत्रा का बैकग्राउंड स्कोर विषय की मासूमियत को बरकरार रखता है। क्यों देखें-प्रेम कहानियों पर यकीन करने वाले प्यार की नई परिभाषा को गढ़नेवाली इस फिल्म को जरूर देखें।
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कई बार चीजें इतनी परफेक्ट हो जाती हैं कि यकीन करना पड़ता है कि किसी अदृश्य शक्ति का साथ था। 1975 में रिलीज हुई ‘शोले’ को बनाते समय किसी ने उम्मीद नहीं की थी कि वे सब इतिहास लिखने जा रहे हैं। एक ऐसी फिल्म बनाने जा रहे हैं जिसे क्ला‍सिक माना जाएगा या मिलिनेयम की श्रेष्ठ फिल्म कहा जाएगा। रिलीज के 38 वर्ष बाद भी यह फिल्म चर्चा में बनी हुई है। कई लोग इस बात की गिनती भूल चुके हैं कि उन्होंने कितनी बार इसे देखा है। कुछ ने अपने पिता और दादा से इस फिल्म के बारे में कहानी सुनी होगी। इस फिल्म के किरदारों, संवादों और कहानी ने भारतीय सिनेमा पर गहरा असर किया। भारत में व्यावसायिक सिनेमा को नए सिरे से परिभाषित किया। ‘शोले’ में मनोरंजन के वो सारे तत्व सही मात्रा में हैं जिनकी तलाश में एक आम आदमी मनोरंजन के लिए सिनेमाघर में जाता है। ऐसा लगता है कि इस फिल्म से जुड़े सारे लोगों ने अपना सर्वश्रेष्ठ इसी फिल्म को दिया तभी यह बॉलीवुड के इतिहास का मील का पत्थर बन गई है। इस फिल्म में जितना लिखा जाए कम है। ढेर सारी खूबियां हैं। जय-वीरू की दोस्ती वाला ट्रेक ही ले लीजिए। धर्मेन्द्र और अमिताभ बच्चन की केमिस्ट्री गजब ढाती है। एक वाचाल है तो दूसरा अंतर्मुखी। एक अपने दिल की सारी बात बता देता है तो दूसरा अपने दोस्त से भी कुछ बातें छिपा जाता है। वो इसलिए छिपाता है कि उससे उसके दोस्त को कोई नुकसान न पहुंचे। सिक्के के जरिये फैसले लेने वाली बात के तो कई बेहतरीन प्रसंग है। अंत में जब वीरू को सिक्के की असलियत पता चलती है तो उसके साथ सारे दर्शक भी स्तब्ध रह जाते हैं क्योंकि जय ने इस सिक्के के जरिये अपनी जिंदगी दांव पर लगा दी। एक एक्शन फिल्म की पथरीली जमीन पर रोमांस की कोपलें भी हैं। दिल को हथेली पर लिए घूमने वाले गबरू वीरू और बक-बक करने वाली बसंती के बीच कई बेहतरीन रोमांटिक सीन हैं। इन दोनों का रोमांस जहां लाउड है तो जय और राधा का रोमांस खामोशी ओढ़े हुए है और दर्शाता है कि प्रेम के लिए भाषा की जरूरत नहीं पड़ती है। ठाकुर और गब्बर का रिवेंज ड्रामा सीधे दर्शकों पर असर करता है। गब्बर का आतंक पूरी फिल्म में नजर आता है और जब वह ठाकुर के परिवार के सदस्यों को मौत के घाट उतार देता है तो सिनेमाहॉल में बैठा दर्शक सिहर जाता है। ठाकुर के हाथ काट दिए जाते हैं तो वह जय और वीरू को अपने मजबूत हाथ बनाकर गब्बर से लड़ता है। ऐसे तो पूरी फिल्म की एक-एक फ्रेम उल्लेखनीय है, लेकिन कई ऐसे दृश्य हैं जो रोमांचित करते हैं। फिल्म की शुरुआत में जय-वीरू-ठाकुर और डाकुओं के बीच ट्रेन पर फिल्माया गया सीक्वेंस भारत में फिल्माए बेहतरीन एक्शन सीक्वेंसेस में से एक है। वीरू का रिश्ता लेकर जय का बसंती की मौसी के पास जाना, वीरू का शराब पीकर टंकी पर चढ़ जाना, बसंती का गब्बर के अड्डे पर नाचना, इमाम साहब के बेटे की हत्या कर उसका शव घोड़े के जरिये गांव भिजवाना, गब्बर का ठाकुर के हाथ काट देना, अंग्रेजों के जमाने वाले जेलर जैसे कई बेहतरीन दृश्यों से फिल्म लबालब है जिन्हें देख दर्शक हंसता है, रोता है, डरता है। कहानी को परदे पर उतारना निर्देशक रमेश सिप्पी बेहतरीन तरीके से जानते हैं। बदले की तीखी कहानी को रोमांस-कॉमेडी की चाशनी में लपेट कर उन्होंने इस तरीके से पेश किया है कि दर्शक को हर स्वाद का मजा आता है। इतने सारे किरदारों और प्रसंगों को समेटना और उन्हें प्रभावी बनाना आसान काम नहीं था। पूरी फिल्म पर वे अपनी पकड़ कभी नहीं खोते। छोटे से छोटे कलाकार से उन्होंने श्रेष्ठ अभिनय कराया है। ‘शोले’ को बेहतरीन बनाने में सिनेमाटोग्राफर द्वारका दिवेचा का भी अहम योगदान है। अमिताभ बच्चन माउथ आर्गन बजा रहे हैं और जया रोशनी कम कर रही है। संध्या और रा‍त्रि के मिलन का समय है। इस सीन को द्वारका ने कमाल का शूट किया है। संध्या और रात्रि के मिलन में प्रकाश तेजी से बदलता है और इस चंद सेकंड्स के दृश्य को फिल्माने में 20 दिन का वक्त लगा था। ऐसी मेहनत छोटे-छोटे सीन के लिए की गई है। फिल्म-समीक्षा का दूसरा हिस्सा.... अगले पेज पर फिल्म के लेखक सलीम-जावेद ने कई फिल्मों और निजी जीवन से प्रेरणा लेकर किरदारों तथा प्रसंगों को गढ़ा। किरदार इतनी सूक्ष्मता के साथ लिखे गए कि सिनेमाहॉल से निकलने के बाद सभी याद रह जाते हैं। सांभा, कालिया, इमाम साहब, जेलर, सूरमा भोपाली, मौसी जैसे संक्षिप्त किरदार भी अपना असर छोड़ते हैं। सलीम-जावेद के लिखे संवाद भी बेहतरीन किरदारों की सोच को बयां करते हैं। ‘तेरा क्या होगा कालिया?’ बेहद सरल संवाद है, लेकिन ऐसी सिचुएशन बनाई गई, अमजद खान ने इस तरह संवाद बोला और रमेश सिप्पी ने इस तरह फिल्माया कि यह सामान्य-सा संवाद भी याद रहता है। ‘तुम्हारा नाम क्या है बसंती’ जैसे संवाद देर तक गुदगुदाते रहते हैं। खिलंदड़ और गबरू जवान की भूमिका धर्मेन्द्र पर खूब फबी है। उनकी वजह से फिल्म में एक सकारात्मक ऊर्जा बहती रहती है। उस समय वे हेमा मालिनी के दीवाने थे, इसलिए हेमा के साथ रोमांटिक सीन कुछ ज्यादा ही प्यार नजर आता है। एक्शन, कॉमेडी और इमोशन जैसे कई रंग धर्मेन्द्र के किरदार में हैं और उन्होंने बखूबी इन्हें जिया है। अमिताभ बच्चन को कम संवाद मिले हैं, लेकिन चेहरे के भावों और आंखों के जरिये उन्होंने त्रीवता के साथ अपने किरदार को जिया है। कई दृश्यों में बिना कुछ कहे उन्होंने बहुत कुछ कहा है। एक्शन सीन में उनका गुस्सा देखते ही बनता है। ठाकुर बलदेव सिंह की भूमिका को संजीव कुमार ने अपने अभिनय से अविस्मरणीय बनाया है। बदले की आग की तपिश उनके चेहरे से महसूस की जा सकती है। अमजद खान ने गब्बर के रूप में दर्शकों को खूब डराया है। उनका किरदार ऐसा लिखा गया है कि अंदाजा लगाना आसान नहीं है कि यह कब क्या कर बैठे और अमजद ने चरित्र के अनुरूप अपने चेहरे के भावों को बदला है। हेमा मालिनी, जया बच्चन, एके हंगल, असरानी, सचिन, जगदीप, लीला मिश्रा, विजू खोटे, मैक मोहन सहित सभी कलाकार अपने श्रेष्ठ फॉर्म में नजर आए हैं। आरडी बर्मन ने फिल्म के मूड के अनुरूप संगीत रचा है और उनका बैकग्राउंड म्युजिक फिल्म को और प्रभावी बनाता है। थ्री-डी में परिवर्तित कर इस फिल्म को बड़े परदे पर फिर से देखने का अवसर पेन इंडिया के जयंतीलाल गढ़ा ने उपलब्ध कराया है। थ्री-डी में ढालने वाले तकनीशियनों की मेहनत सफल रही है और ‘शोले’ को थ्रीडी में देखना एक शानदार अनुभव है। प्रिंट क्वालिटी और साउंड को भी सुधारा गया है। ‘शोले’ दिमाग के बजाय दिल से देखी जाने वाली फिल्म है। इस फिल्म को देखने के लिए सिनेमाहॉल में कई कम उम्र के बच्चे भी थे, जिन्होंने इस फिल्म सफलता के कई किस्से सुन रखे हैं। कई दर्शक ऐसे भी थे, जिन्हें एक-एक संवाद रटा हुआ है और वे किरदारों के साथ उन्हें दोहरा रहे थे। 38 वर्ष बाद भी जय, वीरू, गब्बर की एंट्री और कई दृश्यों पर तालियां और सीटियां बज रही थी। इस फिल्म को एक बार फिर बड़े परदे पर देखने का बिरला अवसर मिला है जिसे किसी भी हाल में चूकना नहीं चाहिए। निर्माता : जी.पी. सिप्पी निर्देशक : रमेश सिप्पी संगीत : आर.डी. बर्मन कलाकार : धर्मेन्द्र, संजीव कुमार, हेमा मालिनी, अमिताभ बच्चन, जया भादुड़ी, अमजद खान, असरानी, ए.के. हंगल, सचिन, विजू खोटे, लीला मिश्रा, मैकमोहन, केश्टो मुखर्जी, जगदीप, सत्येन कप्पू सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 3 घंटे 37 मिनट
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Chandermohan.sharma@timesgroup.com भाग मिल्खा भाग के बाद मेरी कॉम को बॉक्स ऑफिस पर मिली कामयाबी के बाद बॉक्स ऑफिस पर मसाला ऐक्शन फिल्में ब्लू और बॉस बना चुके डायरेक्टर टोनी डिसूजा ने इंडियन क्रिकेट टीम के एक्स कैप्टन रहे अजहरुद्दीन पर फिल्म बनाई तो लगा इस बार दर्शकों को एकबार फिर पूरी ईमानदारी के साथ बनाई गई एक और अच्छी बायोपिक फिल्म देखने को मिलेगी, लेकिन पूरी फिल्म देखने के बाद ऐसा लगता है जैसे डायरेक्ट डिसूजा ने अपनी इस बायोपिक फिल्म में मोहम्मद अजहरुद्दीन के उसी पक्ष को ही अपनी फिल्म का हिस्सा बनाया जो अजहर शायद अपने फैन के साथ शेयर करना चाहते थे। बेशक ऐसा करना गलत भी नहीं है, लेकिन दर्शक अजहर पर बनी इस फिल्म में उनकी बतौर क्रिकेटर से कहीं ज्यादा उनकी पर्सनल लाइफ के साथ जुडे बेहद गंभीर मुद्दों को भी देखना चाहते थे जो कई सालों तक अजहर के नाम के साथ जुडे रहे। ऐसा लगता है कि इस बायोपिक फिल्म में अजहर की बात तो की गई है लेकिन उन्हीं के नजरिए से। यही इस फिल्म का सबसे कमजोर पक्ष बनकर रह गया है। डायरेक्टर अजहर की पर्सनल लाइफ को भी फिल्म का मजबूत हिस्सा बनाते तो शायद यह फिल्म भी बॉक्स ऑफिस पर हिट रही पिछली फिल्मों की लिस्ट में शामिल हो पाती। कहानी: मोहम्मद अजहरुद्दीन ( इमरान हाशमी) को बचपन में उनके नाना ( कुलभूषण खरबंदा) से क्रिकेट का शौक जैसे विरासत में मिला। नन्हें अजहर के नाना का बस एक ही सपना था कि उनका नाती इंडियन क्रिकेट टीम में सौ टेस्ट मैच खेले। नाना जब बिस्तर में आखिरी घड़ियां गिन रहे थे, ठीक उसी वक्त अजहर को क्रिकेट टीम में सिलेक्ट होने के लिए जाना पड़ा। लगातार कामयाबी की और बढ़ते अजहर के करियर में टर्न उस वक्त आया जब उनकी खुशहाल जिंदगी में मैच फिक्सिंग और ऐक्ट्रेस संगीता की एंट्री होती है। खूबसूरत बेगम नौरीन ( प्राची देसाई ) को तलाक देने के बाद अजहर ऐक्ट्रेस संगीता के साथ दूसरा निकाह करता है। इसी दौरान अजहर का नाम मैच फिक्सिंग के साथ जुड़ता है। इंडियन क्रिकेट टीम से अजहर को बाहर कर दिया जाता है। कल तक अजहर की एक झलक पाने को बेताब उनके फैंस अब उसके पुतले जला रहे हैं। हर कोई अब अजहर को शक की नजर से देखने लगता है। मैच फिक्सिंग में नाम आने के बाद अजहर की लोकप्रियता खत्म हो चुकी है। ऐसे में खुद को बेगुनाह साबित करने और अपनी इमेज को बेदाग साबित करने के लिए अहजर फिक्सिंग मामले को कोर्ट में अपनी और से चैलेंज करते है। कोर्ट में अजहर के खिलाफ केस लड़ रही मीरा (लारा दत्ता) कभी उनकी सबसे बड़ी फैन हुआ करती थी। ऐक्टिंग: फिल्म शुरू से आखिर तक अजहर के किरदार में नज़र आ रहे इमरान हाशमी पर टिकी है। सिल्वर स्क्रीन पर इमरान की इमेज बतौर सीरियल किसर के तौर पर कुछ ज्यादा ही जानी जाती है। शायद यहीं वजह है कि डायरेक्टर ने इस किरदार की डिमांड को इग्नोर करते हुए इमरान को पहले प्राची और बाद में नरगिस के साथ किस सीन के साथ भी पेश किया है। यकीनन इमरान ने रील लाइफ में क्रिकेटर अजहरुद्दीन बनाने के लिए अच्छी खासी मेहनत की है। इमरान ने इस किरदार के लिए करीब पांच महीने तक क्रिकेट की बारीकियां सीखीं, तो ग्राउंड में भी जमकर पसीना बहाया। यहीं वजह है फिल्म में इमरान ने अजहर के किरदार को जीने की ईमानदारी के साथ कोशिश की है और इसमें काफी हद तक कामयाब भी रहे हैं। ऐंक्ट्रेस संगीता के किरदार में नरगिस फाखरी को फुटेज कम मिली। फिल्म में अजहर की पहली बीवी के किरदार में प्राची देसाई ऐक्टिंग के मामले में नरगिस पर भारी नजर आती हैं। अजहर के नाना बने कुलभूषण खरबंदा चंद सीन्स के बावजूद अपनी पहचान छोड़ने में कामयाब रहे तो वकील बनी लारा दत्ता की ऐक्टिंग बस ठीकठाक है। वहीं, अजहर का केस लड़ रहे वकील के किरदार कुणाल रॉय कपूर की ऐक्टिंग काबिलेतारीफ है। निर्देशन: इंडियन क्रिकेट टीम के एक्स कैप्टन अजहरुद्दीन की इस बायोपिक फिल्म के लिए डायरेक्टर डिसूजा ने सिनेमा की काफी हद तक लिबर्टी लेते कुछ सीन्स को अलग नजरिए से पेश किया है। वहीं ऐसा लगता है डायरेक्टर इस कहानी को कैमरे के सामने बयां करने में काफी हद तक कन्फ्यूज भी रहे तभी तो स्टार्ट टु लॉस्ट पूरी फिल्म सिर्फ अजहर की बात उन्हीं के नजरिए से पेश करने की एक पहल लगती है। कुछ सीन्स को देखकर ऐसा भी लगता है अजहर अपने दिल की जो बात मीडिया और अपने फैंस से खुलकर नहीं कर पाए अब उसी बात को उन्होंने रील लाइफ में इस फिल्म में कह दिया है। डिसूजा ने फिल्म के लीड किरदार को पावरफुल बनाने के लिए तो अच्छी खासी मेहनत की, लेकिन कहानी के बाकी किसी किरदार को असरदार ढंग से पेश नहीं किया। यहीं वजह है दर्शकों को फिल्म के कुछ सीन्स बनावटी नज़र आते है तो वहीं संगीता और अजहर की लव स्टोरी को भी डिसूजा सही ढंग से पेश नहीं कर पाए। संगीत: रिलीज से पहले ही फिल्म के कई गाने म्यूजिक लवर्स की जुबां पर हैं। क्यों देखें: अगर आप कभी इंडियन क्रिकेट टीम के कामयाब कैप्टन रहे अजहरुदीन के जबर्दस्त फैन रहे है तो अपने चहेते क्रिकेटर की इस फिल्म को देख सकते है। और हां इमरान हाशमी के फैंस को यह फिल्म इसलिए देखनी चाहिए कि इमरान इसमें एक अलग और डिफरेंट लुक में नजर आ रहे हैं।
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हंसी तो फंसी नाम इस फिल्म को सूट नहीं करता। थोड़ा वल्गर या नकारात्मक सा लगता है, लेकिन फिल्म का मिजाज ऐसा नहीं है। दरअसल 'हंसी तो फंसी' एक बेहद हल्की-फुल्की रोमांटिक-कॉमेडी मूवी है जो ज्यादातर समय दर्शकों का मनोरंजन करने में कामयाब रहती है। फिल्म की कॉमेडी दर्शकों को गुदगुदाती है, लीड पेयर के रोमांस को आप महसूस करते हैं और इमोशन्स दिल को छूते है। फिल्म के किरदार इतने बढ़िया तरीके से लिखे गए हैं कि सिनेमाघर से निकलने के बाद भी याद रहते हैं। खासतौर पर परिणीति चोपड़ा का किरदार लंबे समय तक याद रहेगा। वैसे भी बॉलीवुड में महिला किरदारों को इतने प्रमुखता से नहीं लिखा जाता है, जैसा कि इस फिल्म में लिखा गया है। फिल्म का हीरो निखिल (सिद्धार्थ मल्होत्रा) एक शादी में शामिल होने जाता है, तभी उसी घर से एक लड़की मीता (परिणीति चोपड़ा) उसे भागते हुए दिखाई देती है। निखिल भागने में उसकी मदद करता है। शादी में निखिल करिश्मा (अदा शर्मा) को दिल दे बैठता है। इसके बाद कहानी सात साल आगे बढ़ जाती है। निखिल और करिश्मा की शादी होने वाली है। सारे मेहमान आ जाते हैं। ऐसे में करिश्मा एक बिन बुलाए मेहमान मीता को रुकवाने का जिम्मा निखिल को देती है। दरअसल मीता और करिश्मा बहनें हैं, लेकिन मीता की हरकतों से उसे कोई पसंद नहीं करता है और वह सात वर्ष पूर्व घर छोड़ कर भाग जाती है। मीता को निखिल अपने घर ले आता है। मीता के साथ सात दिनों में निखिल के प्यार के प्रति विचार बदल जाते हैं और वह करिश्मा के साथ सात वर्षों के रिश्ते के बारे में पु‍नर्विचार करता है। दरअसल करिश्मा के प्रति उसका आकर्षण था जो वह दिल दे बैठा, लेकिन इन सात वर्षों में वह सिर्फ करिश्मा को खुश करने की कोशिश करता रहा। जबकि मीता के साथ उसका दिमागी तालमेल बैठता है और उसे समझ आता है कि प्यार में बाहरी आकर्षण से ज्यादा महत्वूपर्ण है मेंटल लेवल का समान होना। हंसी तो फंसी' को हर्षवर्धन कुलकर्णी ने लिखा है और विज्ञापन फिल्म बनाने वाले विनिल मैथ्यू ने पहली बार कोई फिल्म निर्देशित की है। 'हंसी तो फंसी' में कई ऐसी चीजें हैं जो पहले भी आप कई हिंदी फिल्मों में देख चुके हैं, जैसे शादी की पृष्ठभूमि में कहानी का सेट होना, दोनों तरफ के बड़े परिवार, लड़का-लड़की का बहुत देर बाद यह अनुभव करना कि उन्हें प्यार हो गया है, लेकिन इसके बावजूद आप किरदारों के कारण फिल्म में ताजगी को महसूस करते हैं। कहानी न तो बहुत लंबी है और न ही इसमें बहुत ज्यादा उतार-चढ़ाव है। ऐसे में स्क्रीनप्ले इतना दमदार होना चाहिए कि दर्शकों को बांध कर रख सके। बिना कहानी के परदे पर हो रहे घटनाक्रमों में दर्शकों की रूचि बनी रहे। इसके लिए स्क्रीनप्ले के साथ-साथ निर्देशक को भी बहुत मेहनत करना होती है और 'हंसी तो फंसी' इस मामले में कामयाब है। फिल्म की शुरुआत में ही मीता और निखिल का बाल रूप दिखाकर निर्देशक ने दर्शकों के मन में यह बात स्थापित कर दी कि दोनों कितने खुराफाती हैं। निखिल हर चीज को बेहद हल्के से लेता है, लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि वह गंभीर नहीं है। लेकिन यह बात करिश्मा नहीं समझती और उस पर हमेशा दबाव डालती रहती है। मीता का किरदार बहुत ही दिलचस्प है। वह बहुत ब्रिलियंट है। केमिकल इंजीनियर है। उसकी होशियारी को उसका व्यावसायिक सोच रखने वाला परिवार समझ नहीं पाता है, इसलिए वह चीन भाग जाती है और सात वर्ष बाद भारत लौटी है क्योंकि उसे पैसों की जरूरत है। यह पैसे वह अपने घर से चुराना चाहती है। फिल्म के पहले हाफ में परिणीति का यह किरदार खूब मनोरंजन करता है। एंटी डिप्रेशन टेबलेट लेने के बाद मीता का एक अलग ही वर्जन बाहर आता है और वह अजीब हरकतें करती हैं। उसकी इन हरकतों की कमी फिल्म के सेकंड हाफ में महसूस होती हैं। मीता के प्रति सब कठोर रहते हैं, लेकिन उसके अंदर छिपी एक प्यारी-सी मासूम लड़की को निखिल खोज लेता है और यही बात दोनों को करीब ले आती है। निखिल और मीता का एक-दूसरे जानना बहुत ही खूबी से दिखाया गया है। दोनों के बीच कई ऐसे सीन हैं जिससे वे एक-दूसरे के करीब आते हैं। जैसे- मीता को निखिल का कमरे में बंद कर देना और बहुत देर बाद रूम का दरवाजा खोलकर यह जानना कि मीता प्रेशर बर्दाश्त नहीं कर पाई और उसने साड़ी गीली कर दी। मीता का सीधे-सीधे निखिल को यह बोलना कि वह उसकी बहन (करिश्मा) को छोड़ उससे शादी कर ले क्योंकि वह उसके लायक है। फिल्म में कई सिचुएशनल कॉमेडी के दृश्य भी हैं, जो खूब हंसाते हैं। रिटायर्ड पुलिस ऑफिसर शरत सक्सेना का मीता पर शक करना कि उसने हार चुराया है और बाद में मीता का उनका ही बेग खुलवाना। मीता को अपने पिता से मिलवाने के लिए निखिल का आधी रात को उसके घर जाना और मीता के पिता को जगा कर बाहर लाना, इस दृश्य में हास्य और इमोशन एक साथ आप महसूस कर सकते हैं। जहां तक कमियों का सवाल है तो मीता का चीन वाला हिस्सा कमजोर है। उसे ठीक से प्रस्तुत नहीं किया गया है। चीन और चोरी वाले प्रसंगों में फिल्म कमजोर भी पड़ती है। क्लाइमेक्स वैसा ही है जैसा हम कई फिल्मों में देख चुके हैं, जबकि उम्मीद थी कि कुछ अलग तरीके से बात क्लाइमैक्स तक पहुंचेगी। करिश्मा के किरदार को ठीक से पेश नहीं किया है, लेकिन इन कमियों का फिल्म पर उतना असर नहीं पड़ता। फिल्म के संवादों में जबरदस्त हास्य है और कई संवादों को समझने में दिमाग की जरूरत लगती है। फिल्म का अभिनय पक्ष बहुत मजबूत है। पूरी फिल्म परिणीति के इर्दगिर्द घूमती है और उन्होंने अपने शानदार अभिनय से दिखा दिया है कि क्यों उन्हें वर्तमान पीढ़ी की सबसे प्रतिभाशाली अभिनेत्रियों में से एक माना जाता है। मीता का किरदार उन्होंने इस कदर जिया है कि कही लगता नहीं है कि वे अभिनय कर रही हैं। कई दृश्यों में उनका अभिनय देखने लायक है। एक फिल्म पुराने सिद्धार्थ मल्होत्रा ने अभिनय के मामले में काफी तरक्की की है। परिणीति चोपड़ा जैसी दमदार अभिनेत्री के सामने न केवल टिके रहे बल्कि बराबरी से मुकाबला भी किया। एक कन्फ्यूज और सबको खुश रखने वाले किरदार को उन्होंने अच्छे से निभाया। करिश्मा के रूप में अदा शर्मा का अभिनय भी बेहतरीन है। आमतौर पर मनोज जोशी लाउड हो जाते हैं, लेकिन यहां मीता के रोल में उन्होंने अपने आप पर काबू रखा। उस सीन में उनका अभिनय देखने लायक है जिसमें मीता को उसके घर वाले डांट रहे हैं और वे आकर मीता को गले लगा लेते हैं। निखिल के पिता और रिटायर्ड पुलिस ऑफिसर के रूप में शरत सक्सेना ने दर्शकों को खूब हंसाया है। कुल मिलाकर हंसी तो फंसी ताजगी से भरी एक रोमांटिक फिल्म है, जिसमें ढेर सारी हंसी और इमोशन्स भी हैं। वेलेंटाइन डे निकट है और इस प्यार से भरे माहौल में यह फिल्म देखी जा सकती है। बैनर : धर्मा प्रोडक्शन्स, फैंटम प्रोडक्शन्स निर्माता : करण जौहर, विकास बहल, विक्रमादित्य मोटवाने, अनुराग कश्यप निर्देशक : विनिल मैथ्यु संगीत : विशाल-शेखर कलाकार : सिद्धार्थ मल्होत्रा, परिणीति चोपड़ा, अदा शर्मा, शरत सक्सेना, मनोज जोशी, नीता कुलकर्णी, समीर खख्खर सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 21 मिनट 19 सेकंड
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फाइंडिंग फैनी में कहानी पर भारी किरदार हैं। उनका व्यवहार थोड़ा अजीब है। कैरीकेचर जैसे हैं, लेकिन इतने मजेदार हैं कि उनका यह स्वभाव पसंद आता है। मुख्यत : पांच किरदार हैं। जो एक-दूसरे से जुदा हैं, लेकिन साथ में पुरानी खटारा इम्पाला कार में शान से बैठकर फैनी को ढूंढने निकलते हैं। फैनी मिलती है या नहीं ये तो क्लाइमैक्स में पता चलता है, लेकिन फैनी को ढूंढने का इनका सफर बढ़िया है। इस सफर में वर्षों से दफन कई राज खुलते हैं। कुछ गिला-शिकवा दूर होते हैं और जिंदगी में पांचों को कुछ मकसद मिल जाता है। बीइंग सायरस और कॉकटेल जैसी फिल्म बना चुके निर्देशक होमी अजदानिया एक अलग ही दुनिया में ले जाते हैं। गोआ में पोकोलिम नामक एक गांव है। वहां की जिंदगी ठहरी हुई महसूस होती है। सबके पास फुर्सत है। कोई हड़बड़ी नहीं। खूब समय है। इस वातावरण को बहुत ही उम्दा तरीके से निर्देशक ने दर्शाया है। इसमें बैकग्राउंड म्युजिक का भी अहम रोल है। चहचहाती चिड़िया और घड़ी की टिक-टिक से उस जगह की शांति को महसूस किया जा सकता है। बीइंग सायरस और कॉकटेल जैसी फिल्म बना चुके निर्देशक होमी अजदानिया एक अलग ही दुनिया में ले जाते हैं। गोआ में पोकोलिम नामक एक गांव है। वहां की जिंदगी ठहरी हुई महसूस होती है। सबके पास फुर्सत है। कोई हड़बड़ी नहीं। खूब समय है। इस वातावरण को बहुत ही उम्दा तरीके से निर्देशक ने दर्शाया है। इसमें बैकग्राउंड म्युजिक का भी अहम रोल है। चहचहाती चिड़िया और घड़ी की टिक-टिक से उस जगह की शांति को महसूस किया जा सकता है। होमी अजदानिया ने एक खबर पढ़ी थी जिसमें लिखा था कि एक पत्र उसी इंसान के पास लौट आता है जिसने लिखा था। यह पत्र उसे 46 वर्ष बाद मिलता है। इससे उन्हें 'फाइंडिंग फैनी' का आइडिया मिला। फ्रैडी (नसीरुद्दीन शाह), स्टेफैनी फर्नांडिस उर्फ फैनी को एक खत लिखता है जिसमें वह प्रेम का इजहार करता है। जब फैनी की तरफ से कोई जवाब नहीं मिलता तो वह यह मान लेता है कि फैनी ने उसे रिजेक्ट कर दिया है। 46 वर्ष बाद उसे यह खत सीलबंद अवस्था में वापस मिलता है। उसे महसूस होता है कि वह जिंदगी भर इस झूठ के सहारे जिया कि फैनी ने उसके प्रेम निवेदन को ठुकरा दिया जबकि फैनी को तो पता भी नहीं चला कि वह उसे चाहता था। वह फैनी को ढूंढना चाहता है जिसमें उसकी मदद करती है एंजी (दीपिका पादुकोण)। युवा एंजी विधवा है क्योंकि उसका पति (रणवीर सिंह) वेडिंग वाले दिन ही केक खाकर मर गया। अपनी सासु रोज़ी (डिम्पल कपाड़िया) के साथ वह रहती है। सेवियो (अर्जुन कपूर) एंजी को चाहता था, लेकिन जब एंजी ने दूसरे से शादी कर ली तो वह गांव छोड़ कर चला गया और अब छ: बरस बाद लौटा है। वह कार मैकेनिक है और उसने ही अपने डैड की खटारा कार डॉन पैड्रो (पंकज कपूर) को बेची है। पैड्रो एक पेंटर है और उसे भारी-भरकम औरतें बेहद पसंद है। वह रोज़ी की पेंटिंग बनाना चाहता है। फैनी को ढूंढने के लिए ऐंजी और फ्रैडी निकलते हैं और किसी न किसी वजह से इनके साथ रोज़ी, सेवियो और पैड्रो भी जुड़ जाते हैं। फिल्म की स्क्रिप्ट भले ही परफेक्ट न हो, लेकिन दिलचस्प जरूर है। कॉमेडी के नाम पर कहीं भी हंसाने की कोशिश नहीं की गई है, लेकिन पूरी फिल्म में चेहरे पर एक मुस्कान तैरती रहती है। किरदार कब क्या कर बैठे, यह अंदाजा लगाना आसान नहीं है और इसी वजह से पूरी फिल्म में रूचि बनी रहती है। फिल्म में कई दृश्य अच्छे बन पड़े हैं, जैसे- पैड्रो का रोजी की पेंटिंग बनाना, रोजी-पैड्रो और फ्रैडी का पेड़ के नीचे शराब पीना, एंजी और सेवियो का साथ में रात बिताना, फैनी को ढूंढते हुए एक ऐसे घर में पहुंचना जहां एक रशियन रहता है। संवाद बहुत चुटीले हैं और कई बार समझने के लिए दिमाग भी लगाना पड़ता है। शुरुआत में लंबी कंमेट्री भी है जिसमें किरदारों का परिचय दिया गया है, लेकिन इससे बचा भी जा सकता था। होमी अदजानिया का प्रस्तुतिकरण फिल्म को खास बनाता है। उन्होंने दर्शकों को अपने तरीके से मतलब निकालने की जिम्मेदारी दी है। हालांकि उनका कहानी कहने का तरीका 'हटके' है और टिपिकल बॉलीवुड स्टाइल से दूर है, इसलिए जरूरी नहीं है कि सभी को यह पसंद आए। गोआ और वहां का वातारवण उन्होंने बेहद खूबी के साथ पेश किया है और दर्शक इन पांचों किरदारों में खो जाता है। फिल्म के हर डिपार्टमेंट पर उनकी पकड़ नजर आती है। फिल्म में दीपिका पादुकोण, अर्जुन कपूर जैसे स्टार कलाकार और पंकज कपूर, नसीरुद्दीन शाह, डिम्पल कपाड़िया जैसे बेहतरीन कलाकार हैं, लेकिन सभी को उतने ही फुटेज दिए गए जितने की जरूरत थी। फिल्म के सभी कलाकारों ने बेहतरीन अभिनय किया है। सबसे बेहतर हैं नसीरुद्दीन शाह। क्यों उन्हें भारत के सर्वश्रेष्ठ अभिनेताओं में से एक माना जाता है यह 'फाइंडिंग फैनी' से एक बार फिर साबित हो जाता है। फ्रैडी की सादगी और अकेलेपन को उन्होंने बहुत अच्‍छे से पेश किया। पंकज कपूर का किरदार बड़ा टेढ़ा था और उन्हें ऐसे किरदारों को निभाने में मजा भी आता है। डिम्पल की पेंटिंग बनाते समय उनका अभिनय देखने लायक है और वे इस दृश्य में अपने अभिनय से बहुत कुछ कह जाते हैं। डिम्पल का किरदार बेहद लाउड है और उन्होंने वैसी ही लाउडनेस किरदार को दी जितनी डिमांड थी। एंजी के रोल में दीपिका एकदम सहज नजर आईं और पहली फ्रेम से आखिरी फ्रेम तक वे अपने किरदार में रही। उन्होंने अपनी ग्लैमरस इमेज को अलग रख अभिनय किया और कही भी इन हैवीवेट अभिनेताओं से आतंकित नजर नहीं आईं। सेवियो के रूप में अर्जुन कपूर का चयन भी सही है। उन्होंने अपने किरदार को सही एटीट्यूड दिया। रणवीर सिंह चंद सेकंड के लिए नजर आते हैं, लेकिन फिल्म के अंत तक याद रहते हैं। अनिल मेहता ने की सिनेमाटोग्राफी कमाल की है और उन्होंने माहौल को खूब पकड़ा है। तकनीकी रूप से फिल्म मजबूत है। फाइंडिंग फैनी उन लोगों के लिए है जो कुछ फिल्मों में कुछ नया देखना चाहते हैं। बैनर : फॉक्स स्टार स्टुडियोज़, मैडॉक फिल्म्स निर्माता : दिनेश विजान निर्देशक : होमी अडजानिया संगीत : मथिअस डुप्लेसी कलाकार : अर्जुन कपूर, दीपिका पादुकोण, नसीरुद्दीन शाह, डिम्पल कपाड़िया, पंकज कपूर, अंजलि पाटिल, रणवीर सिंह (विशेष भूमिका) सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * एक घंटा 33 मिनट
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बॉलिवुड में नारी प्रधान फिल्मों के बनने का ट्रेंड नया नहीं है, साठ के दशक से लेकर आज के दौर तक हमेशा नायिका प्रधान फिल्में बनती रही है। आज की नंबर वन टॉप ऐक्ट्रेस भी हमेशा अपनी अलग पहचान बनाने और बॉक्स ऑफिस पर अपने दम पर हिट करने की चाह में अपनी प्राइस से कम प्राइस लेकर नायिका प्रधान फिल्में करती रहती हैं। करीना कपूर ने 'चमेली' जैसी कम बजट फिल्म की तो कंगना ने 'क्वीन' सहित कुछ और ऐसी ही फिल्में की। अकीरा में भी सोनाक्षी लीड किरदार में नजर आईं, अब नूर भी सोनाक्षी के इर्दगिर्द घूमती कहानी पर बनी फिल्म है। पाकिस्तानी राइटर सबा इम्तियाज़ के बेस्ट सेलर नॉवल 'कराची यू आर किलिंग मी' से प्रेरित नूर की कहानी एक ऐसी महिला जर्नलिस्ट की है जो पत्रकारिता की दुनिया में अपने दम पर कुछ हटकर और डिफरेंट करना चाहती है, लेकिन ऐसा हो नहीं पाता, कुछ अलग करने की चाह में नूर और उसके पापा की जान जरूर ख़तरे में पड़ जाती है। कहानी: नूर (सोनाक्षी सिन्हा) एक टीवी चैनल की रिर्पोटर हैं, नूर अपने बॉस शेखर दास (मनीष चौधरी) से हमेशा अपसेट रहती हैं दरअसल, नूर का बॉस उसे कुछ नया या हटकर करने की बजाए वहीं पुरानी रूटीन टाइप की रिर्पोटिंग करवा रहा है। जहां नूर चैनल के लिए रिसर्च बेस्ड स्टोरी करना चाहती है, तो शेखर उसे फिल्म सिटी में जाकर सनी लियोनी का इंटरव्यू करने जैसे नॉन सीरियस काम पर लगा रहा है। इसी बीच नूर के हाथ एक ऐसी सनसनीखेज स्टोरी आती है जो समाज की कई नामचीन हस्तियों के चेहरे से ईमानदारी और समाजसेवा का नकाब हटा सकती है, नूर के घर की नौकरानी मालती का भाई वासु एक ऐसे किडनी ट्रांसप्लांट गिरोह के चगुल में फंसकर अपनी एक किडनी गंवा बैठा, जिसमें शहर के कई रसूखदार लोग और नामी डॉक्टर शामिल हैं। नूर इस स्टोरी को कवर तो करती है, लेकिन शेखर इस स्टोरी पर एक दो दिन बाद डिस्कस करने की बात कहकर स्टोरी रोक देता है। इसी बीच नूर की यह स्टोरी चोरी हो जाती है, एक दूसरे टीवी चैनल पर स्टोरी चलने के बाद मालती और उसका भाई गायब हो जाते हैं। ऐक्टिंग: स्टार्ट टू लॉस्ट पूरी फिल्म नूर के आसपास ही घूमती है, अकीरा में ऐक्शन स्टंट करने के बाद सोनाक्षी ने नूर के किरदार को बेहतरीन ढंग से निभाया है। बेशक, नूर का किरदार कुछ कन्फ्यूज सा है जो प्यार और करियर के चक्रव्यूह में फंसा सा है, ऐसे किरदार को असरदार ढंग से निभाने के लिए सोनाक्षी ने अच्छी मेहनत की, सोनाक्षी के किरदार को हम बरसों पहले आई मधुर की फिल्म पेज 3 की महिला जर्नलिस्ट कोंकणा सेन शर्मा के किरदार का एक्सटेंशन भी कह सकते हैं, वहीं कनन गिल, पूरब कोहली, शिबानी, एम के रैना ने अपने अपने किरदार को पूरी ईमानदारी के साथ निभाया है। डायरेक्शन: ऐसा लगता है डायरेक्टर सुन्हील सिप्पी को काफ़ी बिखरा हुई स्क्रिप्ट मिली, समझ नहीं आता सुन्हील ने अपनी कहानी की शुरुआत का बडा पार्ट मोनोलॉग के ज़रिए क्यों पेश किया। अगर दो घंटे की फिल्म में करीब दस _ पंद्रह मिनट तक फिल्म की लीड किरदार नूर ही अपने बारे में बताती रहे तो यकीनन दर्शकों को यह उबाऊ और बोर लगेगा। फिल्म की शुरूआत धीमी है और इंटरवल से ठीक पहले कहानी अपने ट्रैक पर आती है, तब तक काफी देर हो चुकी होती है। सुन्हील की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने मीडिया में एंट्री कर रही वाले युवा पीढी को ब्रेकिंग न्यूज और अपने नाम चमकाने की चाह में किसी की जान से कभी ना खेलने का मेसेज भी दिया है। संगीत: फिल्म का एक गाना गुलाबी आंखें जो तेरी देखी पहले से कई म्यूजिक चार्ट में टॉप फाइव में शामिल है। क्यों देखें: एक बेहतरीन नॉवल पर बनी ऐसी फिल्म जिसमें मीडिया का एक अलग चेहरा पूरी ईमानदारी के साथ पेश किया गया, सोनाक्षी की बेहतरीन ऐक्टिंग इस फिल्म को देखने की एक वजह हो सकती है।
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मोहेंजो दारो के शुरुआती सीक्वेंस में रितिक रोशन एक भीमकाय मगरमच्छ को मारते हैं। यह सीन और मगरमच्छ निहायत ही नकली लगता है। यह नकलीपन फिर पूरी फिल्म पर हावी हो जाता है और आश्चर्य होता है‍ कि इस फिल्म से आशुतोष गोवारीकर और रितिक रोशन जैसे लोग जुड़े हुए हैं। एक ऐसी फिल्म पर करोड़ों रुपये लगाए गए हैं जिसका कोई ओर-छोर ही नहीं है। जरा कहानी पर गौर फरमाएं। एक हीरो है जो गांव से शहर आता है। खूबसूरत हीरोइन को दिल दे बैठता है। हीरोइन की शादी फिल्म के मुख्य विलेन के लड़के से तय है जिसका इस शहर पर राज है। विलेन अपने रास्ते से उस हीरो को हटाना चाहता है। हीरो के पिता की वर्षों पहले इस विलेन ने ही हत्या की थी। हीरो को एक और मकसद मिल जाता है। वह न केवल प्यार हासिल करता है बल्कि शहर के लोगों को भी बचाता है। इस घिसी-पिटी और हजारों बार आजमाई को कहानी आशुतोष गोवारीकर ने लिखा है। कहानी को अलग लुक और फील देने के लिए वे चार हजार वर्ष पुराने दौर में चले गए। मोहेंजो दारो की पृष्ठभूमि में उन्होंने अपनी इस घटिया कहानी को चिपका दिया और सोचा कि दर्शकों को वे मोहेंजो दारो के सेट, कास्ट्यूम और भव्यता में ऐसा उलझाएंगे कि कहानी वाली बात दर्शक भूल जाएंगे, लेकिन घटिया कहानी के साथ स्क्रीनप्ले भी इतना उबाऊ है कि फिल्म से आप जुड़ नहीं पाते। फिल्म की शुरुआत में मोहेंजो दारो को थोड़ी प्रमुखता दी है। कैसे व्यापार होता था? कैसे लोग रहते थे? कैसे समय की गणना की जाती थी? लेकिन धीरे-धीरे मोहेंजो दारो और वर्षों पुरानी सभ्यता पीछे छूट जाती है और रूटीन कहानी हावी हो जाती है। फिर कहानी में मोहेंजो दारो है या नहीं, कोई फर्क नहीं पड़ता। हीरो का नाम है सरमन और हीरोइन का चानी। दोनों की प्रेम कहानी पर भी काफी फुटेज खर्च किए गए हैं, लेकिन यह रोमांस बहुत ही फीका है। चानी का सरमन पर फिदा होने वाला जो सीन बनाया गया है वो कोई भी सोच सकता है। इसी तरह सरमन और विलेन माहम तथा मूंजा के दृश्य भी सपाट हैं। न खलनायक के लिए नफरत पैदा होती है और न हीरो के लिए सहानुभूति। फिल्म का लंबा क्लाइमैक्स है जो सीजीआई के कारण कमजोर बन गया है। क्लाइमैक्स में फिल्म का हीरो खूब जी जान लगाकर हजारों गांव वालों को बचाता है, लेकिन उसकी इस महान कोशिश आपको बिलकुल भी उत्साहित नहीं करती है क्योंकि तब तक फिल्म में रूचि खत्म हो जाती है और इंतजार इस बात का रहता है कि फिल्म कब खत्म हो। क्लाइमैक्स की एडिटिंग भी बेहद खराब है। मोहें जो दारो के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें आशुतोष के निर्देशन में कुछ भी उल्लेखनीय नहीं है। वे अपने प्रस्तुतिकरण से फिल्म को दिलचस्प नहीं बना पाए। जिस तरह से उन्होंने कहानी के बीच गानों को डाला है उससे फिल्म का बनावटीपन और बढ़ा है। बकर और जोकार से सरमन का फाइटिंग सीन छोड़ दिया जाए तो फिल्म में कुछ भी देखने लायक नहीं है। रितिक रोशन ने पूरी ईमानदारी से कोशिश की है, लेकिन उनके कद और मेहनत के साथ फिल्म की स्क्रिप्ट न्याय नहीं कर पाती। वे भी बेदम स्क्रिप्ट के तले असहाय नजर आए। उनका लुक भी बेहद आधुनिक है जो आंखों में खटकता है। पूजा हेगड़े का अभिनय औसत दर्जे का है और वे बिलकुल प्रभावित नहीं करतीं। ‍रितिक के साथ उनकी केमिस्ट्री बिलकुल नहीं जमी। कबीर बेदी और अरुणोदय सिंह ने खलनायकी के रंग दिखाए हैं। हालांकि सींगो वाले मुकुट में कबीर बेदी बहुत बुरे दिखे हैं। म्युजिक और बैकग्राउंड म्युजिक दोनों ही विभागों में एआर रहमान का काम उनकी प्रतिभा के अनुरूप नहीं है। बैनर : आशुतोष गोवारीकर प्रोडक्शन्स, यूटीवी मोशन पिक्चर्स निर्माता : सुनीता गोवारीकर, सिद्धार्थ रॉय कपूर निर्देशक: आशुतोष गोवारीकर संगीत : एआर रहमान कलाकार : रितिक रोशन, पूजा हेगड़े, कबीर बेदी, अरुणोदय सिंह, शरद केलकर
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ऐसा लगता है कि पंजाब में लोकप्रियता के शिखर तक पहुंचने वाले हर सिंगर में ऐक्टिंग की फील्ड में भी अपनी पहचान बनाने को लेकर क्रेज है। कुछ वक्त पहले जब हनी सिंह की आवाज का जादू हर किसी पर सिर चढ़कर बोल रहा था तभी हनी भी सिनेमा की स्क्रीन पर नजर आए तो इन दिनों दिलजीत दोसांझ को पंजाबी मेकर के साथ बॉलिवुड के नामी मेकर भी अपनी फिल्म के लिए साइन करने को बेकरार हैं। गुरुदास मान तो बरसों से गायकी और ऐक्टिंग की फील्ड में ऐक्टिव हैं। पंजाबी सिंगर सतिंदर सरताज ने भी इस फिल्म के साथ साथ अब गायकी के साथ ऐक्टिंग में भी हाथ आजमाया है। वैसे, सरताज की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने एक ऐसी फिल्म में खुद को लॉन्च किया है जो एक खास क्लास के लिए ही बनाई गई है। इस फिल्म में पंजाब के अंतिम महाराजा दुलीप सिंह और महारानी विक्टोरिया के साथ उनके रिश्तों को पूरी ईमानदारी के साथ भारतीय मूल के ब्रिटिश डायरेक्टर कवि राज ने पेश किया है। हिंदी, अंग्रेजी और पंजाबी में बनी इस फिल्म को इस शुक्रवार को चुनिंदा मल्टिप्लेक्सों में रिलीज़ किया गया है। स्टोरी प्लॉट : महाराजा रणजीत सिंह के सबसे छोटे बेटे दुलीप सिंह (सतिंदर सरताज) को पांच साल की उम्र में ही महाराज घोषित करके महारानी जींद (शबाना आजमी) को उनका संरक्षक घोषित किया गया। ब्रिटिश सिख युद्ध के बाद रानी जींद को गिरफ्तार किया गया और फिर निर्वासित जिंदगी जीने पर मजबूर कर दिया गया। कुछ अर्से बाद ब्रिटिश अधिकारी लॉगिन (जेसन फ्लेमिंग) को महारानी का राज-प्रतिनिधि बना दिया गया। इसी दौरान दुलीप सिंह को लंदन भेज दिया गया। लंदन के राजमहल में महारानी विक्टोरिया से दुलीप सिंह की नजदीकी बढ़ी, इसी दौरान दुलीप सिंह ईसाई बन गए और अंग्रेजी सरकार उस वक्त मोटी पेंशन बांधकर उनसे कोहिनूर हीरा ले लिया गया। लंदन के राजमहल से दुलीप सिंह ने अपनी मां महारानी जींद को कई खत लिखे, जो उनकी मां तक नहीं पहुंचे। ऐसे में दुलीप सिंह आए और अपनी मां जींद से मिले और मां को लंदन अपने साथ ले गए। लंदन में अपने बेटे के साथ रहते हुए महारानी जींद ने दुलीप सिंह को अपनी सिख विरासत और परम्पराओं के बारे में समझाया। इसी दौरान महरानी जींद ने दुलीप सिंह को सिख गुरुओं की अपनी आन-बान और शान के लिए पूरी जिंदगी कौम के लिए कुर्बान करने के बारे में बताया। इसी दौरान जींद को मां से पता चला कि पंजाब के लाखों सिखों को इंतजार है कि महाराज रणजीत सिंह का सबसे छोटा बेटा परदेश से लौटकर वतन आए और उनका नेतृत्व करे। मां की इन्हीं शिक्षाओं का ही असर था कि दुलीप सिंह वापस सिख धर्म में लौट आए। इसी दौरान दुलीप सिंह ने एक विदेशी लड़की से शादी की तो क्वीन विक्टोरिया ने उन्हें ब्लैक प्रिंस ऑफ पर्थशायर की उपाधि दी। लंदन में अपनी मां की मौत के बाद दुलीप सिंह एक बार फिर अपनी कौम की खातिर कुछ करने की चाहत लेकर वतन लौटे। महाराज दुलीप सिंह के किरदार में पंजाब के नामी सिंगर सतिंदर सरताज ने अपने किरदार को अच्छी तरह से जीया है। महारानी जींद के रोल में शबाना आजमी का अभिनय दिल को छूता है, शबाना ने इस किरदार को दिल से निभाया है। पंजाबी डायलॉग में पकड़ अच्छी रही, वहीं जॉन लॉगिन के किरदार में जेसन फ्लेमिंग जमे हैं। भारतीय मूल के ब्रिटिश डायरेक्टर कवि राज ने सब्जेक्ट की डिमांड के मुताबिक फिल्म बनाई है, बॉक्स आफिस को उन्होंने पूरी तरह से दरकिनार किया है। बेशक, टिकट खिड़की पर उनकी यह फिल्म कुछ खास न कर पाए लेकिन दर्शकों की उस क्लास को यह फिल्म यकीनन पसंद आएगी जो कुछ नया जानने और अपने और अपनी कौम के अतीत को जानना चाहते हैं। सतिंदर सरताज ने ही इस फिल्म के पंजाबी गानों को कम्पोज किया है। कई इंटरनैशनल फिल्म फेस्टिवल में फिल्म अवॉर्ड्स जीत चुकी है। अगर आप चालू मसाला फिल्मों से दूर हटकर कुछ अलग और अपने गौरवमयी इतिहास को जानने के शौकीन हैं तभी इस 'ब्लैक प्रिंस' से मिलने जाएं। बॉलीवुड मसाला फिल्मों के शौकीनों के लिए इस फिल्म में कुछ नहीं है।
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फटा पोस्टर निकला हीरो का सबसे बड़ा आकर्षण राजकुमार संतोषी हैं। उन्होंने संदेश प्रधान फिल्मों के साथ-साथ ऐसी फिल्में भी बनाई हैं जो मनोरंजन से भरपूर रही हैं। लिहाजा ‘फटा पोस्टर निकला हीरो’ से मनोरंजन की आशा लिए दर्शक जाता है, लेकिन संतोषी की यह फिल्म पूरी तरह निराश करती है। सारा दोष संतोषी का ही है क्योंकि उन्होंने कहानी, स्क्रीनप्ले, डायलॉग और निर्देशन जैसी सारी महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां निभाई हैं, लेकिन एक भी डिपार्टमेंट में मन लगाकर काम नहीं किया। यह फिल्म पूरी तरह बनावटी है, कलाकारों ने ओवरएक्टिंग की है और संतोषी का निर्देशन आउटडेटेट है। ऐसा लगता है कि बरसों पुरानी फिल्म देख रहे हो। फिल्म के सेट भी पुरानी फिल्मों जैसे नजर आते हैं। कही से भी यह फिल्म मनोरंजन नहीं करती है। गांव में रहने वाले विश्वास राव (शाहिद कपूर) की मां सावित्री (पद्मिनी कोल्हापुरे) चाहती है कि उसका बेटा ईमानदार पुलिस इंसपेक्टर बने, लेकिन वह हीरो बनना चाहता है। पुलिस में भर्ती के इंटरव्यू के लिए विश्वास को मुंबई बुलाया जाता है तो खुश होता है कि इस आड़ में हीरो बनने का सपना पूरा कर लेगा। मुंबई में पुलिस वर्दी पहन कर वह फोटो खिंचवाता है। गलती से यह फोटो अखबार में छप जाती है और गांव में मां समझती है कि बेटा पुलिस वाला बन गया है। वह मुंबई आती है तो मां के विश्वास को कायम रखने के लिए विश्वास नकली पुलिस वाला बनकर घूमता है। गुंडों की पिटाई भी करता है, लेकिन उसका यह भांडा कुछ देर बाद फूट जाता है। यह पूरा ट्रेक हंसाने के लिए रखा गया है, लेकिन काम नहीं करता। हास्य दृश्यों को बोर करने की हद तक लंबा खींचा गया है। यही हाल एक्शन दृश्यों का है। संतोषी जो छोटे-छोटे दृश्यों से हास्य पैदा करते हैं, वो जादू इस फिल्म से नदारद है। इंटरवल के बाद फिल्म में इमोशन और खलनायक वाले ट्रेक को महत्व दिया गया है। खलनायक वाला ट्रेक बहुत बुरा है। विलेन बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, लेकिन उनके अड्डे पर कोई भी कभी भी मुंह उठाए घुस जाता है। फिल्म न तो पूरी तरह गंभीर है, न हास्य में इतना दम है कि दर्शकों को बांधकर रख सके इसलिए पूरी तरह मामला गड़बड़ा गया है। राजकुमार संतोषी से मौलिकता की उम्मीद की जाती है, लेकिन इस फिल्म में वे अपने आपको दोहराते नजर आए। कई प्रसंग अजब प्रेम की गजब कहानी और अंदाज अपना अपना की याद दिलाते हैं। संतोषी का प्रस्तुतिकरण कुछ इस तरह का है कि अगले पल क्या होने वाला है, इसका अंदाजा लगाना जरा भी मुश्किल नहीं है। हद तो ये है कि कलाकार क्या संवाद बोलेंगे यह भी आप बता सकते हैं। आइटम सांग, फाइट सीन, गाने, मां की ममता, खोया-पाया फॉर्मूला जैसे तमाम मसाले इस फिल्म में डाले गए हैं, लेकिन इनका संतुलन अनुपात में नहीं है। पद्मिनी कोल्हापुरे को छोड़ हर कलाकार से ओवर एक्टिंग करवाई गई है इसीलिए पद्मिनी का अभिनय ही सबसे बेहतर नजर आता है। शाहिद कपूर का किरदार कैरीकेचर बन गया है। उनके अभिनय में असहजता साफ झलकती है कि खुद उन्हें अपने किरदार और निर्देशक पर यकीन नहीं है तो वे दर्शकों को कैसे यकीन दिला पाएंगे। एक्शन दृश्यों में वे बिलकुल फिट नहीं बैठते। ‘बर्फी’ में अपने अभिनय से प्रभावित करने वाली इलियाना डीक्रूज निराश करती हैं। फिल्म में हीरोइन होना जरूरी है इसलिए उन्हें रखा गया है। न उनका रोल ठीक से लिखा गया है और न ही उनकी एक्टिंग में दम नजर आता है। दर्शन जरीवाला, जाकिर हुसैन, सौरभ शुक्ला, मुकेश तिवारी, संजय मिश्रा जैसे दमदार चरित्र अभिनेताओं की फौज फिल्म में हैं, लेकिन सभी से ओवर एक्टिंग करवाई गई है। नरगिस फाखरी का आइटम सांग फीका है। सलमान खान भी छोटे से रोल में नजर आते हैं और अंदाज अपना अपना पार्ट टू की बात करते हुए कहते हैं फिर से आमिर खान के साथ काम करना पड़ेगा, आइला...। फिल्म के एक-दो गाने ठीक हैं, लेकिन बिना सिचुएशन के ये कभी भी टपक पड़ते हैं। तकनीकी रूप से भी फिल्म कमजोर है। कई सीन छोटे किए जा सकते हैं जो बेवजह फिल्म की लंबाई बढ़ाते हैं। कुल मिलाकर पोस्टर फटने पर हीरो नहीं बल्कि जीरो निकलता है। बैनर : टिप्स म्युजिक फिल्म्स निर्माता : रमेश एस. तौरानी निर्देशक : राजकुमार संतोषी कलाकार : शाहिद कपूर, इलियाना डिक्रूज, पद्मिनी कोल्हापुरे, दर्शन जरीवाला, जाकिर हुसैन, सौरभ शुक्ला, मुकेश तिवारी, संजय मिश्रा, नरगिस फाखरी (आइटम नंबर), सलमान खान (मेहमान कलाकार) सेंसर सर्टिफिकेट : यू * दो घंटे 26 मिनट 20 सेकंड
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अपराधी को फिल्म में बेहद चालाक बताया गया है। वह अपनी किसी से भी सीधे तौर पर संवाद नहीं करता, लेकिन रानी को हमेशा फोन लगाता है। उसे धमकाता और चैलेंज देता है। ये बात उसके किरदार से मेल नहीं खाती। चाइल्ड सेक्स के अवैध व्यापार वाला मुद्दा भी फिल्म के बीच में पीछे रह जाता है और चोर-पुलिस का खेल उस पर हावी हो जाता है। प्यारी' जब उसे तीन-चार दिन दिखाई नहीं देती तो वह खोजबीन शुरू करती है। उसे पता चलता है कि प्यारी का सिर्फ अपहरण ही नहीं हुआ है बल्कि वह संगठित तरीके से लड़कियों और व्यापार करने वाले गिरोह के जाल में फंस गई है। इसे एक ऐसा इंसान चलाता है जिसके बारे में कोई जानकारी किसी के पास नहीं है। शिवानी उसके खिलाफ लड़ती है और अंत में सफल होती है। फिल्म की शुरुआत बेहद धीमी है और शुरुआती प्रसंग बेहद बनावटी लगते हैं। धीरे-धीरे फिल्म अपनी पकड़ मजबूत करती है और परदे पर चल रहा थ्रिल अच्छा लगने लगता है। फिल्म की स्क्रिप्ट ऐसी नहीं है जिसे परफेक्ट कहा जाए। फिल्म को वास्तविकता के नजदीक रखने की कोशिश भी की गई है तो कई जगह सिनेमा के नाम पर छूट भी ले ली गई है। खासतौर पर क्लाइमैक्स में रानी को 'हीरो' बनाने का मोह निर्देशक नहीं छोड़ पाए हैं। रानी के हाथ में बंदूक है। सामने विलेन खड़ा है। इसके बावजूद वह बंदूक से गोलियां निकाल फेंकती है और उसकी धुलाई करती है। देह व्यापार सदियों पुराना है और इसमें बच्चियों को भी धकेल दिया गया है। भारत जैसे देश से प्रत्येक आठ मिनट में एक बालिका लापता होती है और चाइल्ड सेक्स के अवैध व्यापार का भारत बड़ा केन्द्र माना जाता है। ज्यादातर गरीब और अशिक्षित लोगों की बालिकाओं को उठा लिया जाता है और तथाकथित सभ्रांत और शक्तिशाली लोग इनका शोषण करते हैं। इन बातों को लेकर फिल्म निर्देशक प्रदीप सरकार ने 'मर्दानी' बनाई है। सरकार कमर्शियल फॉर्मेट में फिल्म बनाते हैं, लेकिन सामाजिक मुद्दे से उसे जोड़ देते हैं। पिछली कुछ फिल्मों में वे दिशा भटक गए थे, इसके बावजूद निर्माता आदित्य चोपड़ा ने उन पर विश्वास जताया और अपने बैनर तले तीसरा अवसर दिया। मर्दानी दरअसल चोर-पुलिस का खेल है, जिसके बैकड्रॉप में गर्ल चाइल्ड ट्रैफिकिंग को दिखाया गया है। गोपी पुथरन द्वारा लिखी गई कहानी ऐसी नहीं है कि जिसमें आगे क्या होने वाला है इसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता, लेकिन जिस तरह से मंजिल तक पहुंचने से ज्यादा सफर का मजा आता है, वैसा ही कुछ मजा यह फिल्म देती है। अपराधी तक पुलिस किस तरह पहुंचती है, ये देखना दिलचस्प है। शिवानी रॉय (रानी मुखर्जी) क्राइम ब्रांच में सीनियर इंस्पेक्टर है। अपने पति और भतीजी के साथ वह रहती है। वह निडर है, गालियां बकती है और परिवार के मुकाबले काम को प्राथमिकता देती है। सड़क पर फूल बेचने वाली लड़की 'प्यारी' से उसे विशेष स्नेह है। उसे अपनी बेटी जैसी मानती है। अपराधी को फिल्म में बेहद चालाक बताया गया है। वह अपनी किसी से भी सीधे तौर पर संवाद नहीं करता, लेकिन रानी को हमेशा फोन लगाता है। उसे धमकाता और चैलेंज देता है। ये बात उसके किरदार से मेल नहीं खाती। चाइल्ड सेक्स के अवैध व्यापार वाला मुद्दा भी फिल्म के बीच में पीछे रह जाता है और चोर-पुलिस का खेल उस पर हावी हो जाता है। फिल्म समीक्षा का शेष भाग अगले पेज पर... स्क्रिप्ट की इन कमियों को प्रदीप सरकार का कुशल निर्देशन ढंक लेता है। उन्होंने ड्रामे को बेहद रोचक तरीके से पेश किया है जिससे पूरी फिल्म में दर्शक की रूचि बनी रहती है। गर्ल चाइल्ड ट्रैफिकिंग मुद्दे के गहराई में वे भले ही नहीं गए हो, लेकिन लगातार दर्शकों को वे इस दुनिया का अंधेरा पक्ष दिखाते रहे। उम्दा संवादों और बेहतरीन अभिनय ने उनके काम को आसान कर दिया। मामले की किस तरह पुलिस जांच करती है। क्लू मिलने के आधार पर कैसे आगे बढ़ती है। इसे दिलचस्प तरीके से पेश किया गया है। अच्छी बात यह भी रही कि बॉलीवुड के तमाम लटको-झटकों से उन्होंने अपनी फिल्म को दूर रखा। बेवजह के हास्य दृश्यों, नाच और गानों को उन्होंने फिल्म में स्थान नहीं दिया। इनकी कोई सिचुएशन भी फिल्म में नहीं बनती थी। फिल्म के एक्शन में अतिरेक नहीं है। एक्शन दृश्यों को लंबा नहीं खींचा गया है और फिल्म के मूड के अनुरूप वास्तविक रखा गया है। रानी मुखर्जी ने एक इंस्पेक्टर का किरदार पूरे आत्मविश्वास के साथ निभाया है। उनके अभिनय में ठहराव देखने को मिलता है और वे कही भी हड़बड़ी में नहीं दिखाई दी। एक्शन सीन में जरूर वे कमतर लगी क्योंकि जिस तरह की फिटनेस उनका यह रोल डिमांड करता है वैसी फिटनेस उनमें नजर नहीं आई। विलेन के रूप में ताहिर राज भसीन ने रानी को जबरदस्त टक्कर दी है। फिल्म में वे खून-खराबा करते या चीखते हुए नजर नहीं आते, बावजूद इसके वे अपने अभिनय से खौफ कायम करने में कामयाब रहे। जीशु सेनगुप्ता का रोल बहुत संक्षिप्त है। फिल्म में कई अपरिचित चेहरे हैं, लेकिन सभी का अभिनय अच्छा है। कमियों के बावजूद 'मर्दानी' प्रभावित करती है। बैनर : यश राज फिल्म्स निर्माता : आदित्य चोपड़ा निर्देशक : प्रदीप सरकार कलाकार : रानी मुखर्जी, जीशु सेनगुप्ता, ताहिर राज भसीन सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 1 घंटा 53 मिनट 38 सेकंड
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चंद्रमोहन शर्मा करीब पांच दशक पहले 1962 में शुरू हुआ बॉन्ड सीरीज की फिल्मों का सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी है। वक्त के साथ-साथ इस सीरीज की फिल्मों की लोकप्रियता और कमाई बढ़ती गई। बॉन्ड सीरीज की यह 24वीं फिल्म भारत में कुछ देर से रिलीज की गई। इसने चीनी बॉक्स ऑफिस पर पहले 345 करोड़ रुपये से ज्यादा की कमाई का रेकॉर्ड बनाया। वर्ल्ड वाइड कलेक्शन में भी फिल्म ने शुरुआती बीस दिनों हैरी पॉटर सीरीज की पिछली फिल्म को पीछे छोड़ दिया। डेनियल क्रेग चौथी बार बॉन्ड बने हैं। अगर बॉन्ड सीरीज की पिछली फिल्म स्काईफॉल की बात करें तो करीब तीन साल पहले रिलीज हुई इस फिल्म ने करीब एक हजार करोड़ डॉलर का बिजनेस किया था। प्रॉडक्शन हाउस ने इस फिल्म के निर्देशन की कमान भी स्काइफॉल के निर्देशक सैम मेंडेस को सौंपी और उन्होंने करीब आठ महीनों में इस फिल्म को पूरा कर दिखाया। इस फिल्म का बजट 31 करोड़ डॉलर रहा जबकि पिछली फिल्म का बजट 21 करोड़ डॉलर के करीब था। इस फिल्म को दिल्ली एनसीआर के लगभग सभी मल्टिप्लेक्सों पर औसतन पांच से आठ शोज में रिलीज किया गया और रिलीज से पहले फिल्म के क्रेज का ही असर था कि गुरूवार को फिल्म के प्रिव्यू शोज में कई मल्टिप्लेक्सों पर शो हाउसफुल रहे। वहीं इंडिया में बॉन्ड सीरीज की इस फिल्म पर शायद पहली बार कुछ ज्यादा ही सेंसर ने कैंची चलाई। किस सीन्स की लंबाई को पचास फीसदी कम करने औैर कुछ डायलॉग की साउंड डिलीट करने के बाद सोशल साइट्स पर सेंसर बोर्ड के सुप्रीमो पहलाज निहलानी की जमकर आलोचना भी हुई इसके बावजूद फिल्म को रिलीज के पहले दिन पचास से अस्सी फीसदी की जबर्दस्त ओपनिंग मिली। ​कहानी जेम्स बॉन्ड (डेनियल क्रेग) एक खास मैसेज मिलने के बाद मैक्सिको और रोम में अपने एक सीक्रिट मिशन पर निकल पड़ता है। यहां उसकी मुलाकात होती है लूसिया (मोनिका बलुची) से होती है जो एक क्रिमिनल की विधवा है। लूसिया बॉन्ड को एक संस्था 'स्पेक्टर' के बारे में बताती है, जिसमें उसका पति भी काम करता था। इस आतंकी संस्था का मकसद दुनियाभर में आतंकवादी घटनाओं को बढ़ाना है। बॉन्ड किसी तरह इस संस्था की एक मीटिंग में पहुंचने में कामयाब होता है लेकिन इस मीटिंग स्पेक्टर का लीडर फ्रांज ओबेरहोजर बॉन्ड को पहचान लेता है। दूसरी ओर, लंदन में नैशनल सिक्युरिटी सेंटर के नए हेड मैक्स डेनबिंग (एंड्रू स्कॉप) बॉन्ड के मिशन पर कई सवाल खड़े कर देता है। मैक्स डेनबिग को बॉन्ड के मिशन और उसके काम करने के तरीकों पर जबर्दस्त ऐतराज है। ऐसे में बॉन्ड को मैक्स की और अपने कुछ पुराने साथियों के ऐतराज करने और सहयेाग ना करने के बावजूद अपने आतंक के खिलाफ मिशन को कामयाब करना है। अब बॉन्ड अपने इसी मकसद को पूरा करने में लग जाता है। इस बार बेशक डायरेक्टर ने बॉन्ड के मिशन को तो कंप्लीट कर दिखाया लेकिन फिल्म को ऐसी जगह पर खत्म किया है जहां से अगली फिल्म की शुरूआत का रास्ता साफ नजर आता है। ऐक्टिंग अगर ऐक्टिंग की बात की जाए तो लगतार बढ़ती उम्र के बावजूद एकबार फिर बॉन्ड के किरदार में डेनियल क्रेग ने साबित किया कि उन्हें इस किरदार में साइन करके कोई गलती नहीं की है। फिल्म के ऐक्शन सीन्स में क्रेग ने खूब मेहतन की है। इस बार फिर बिना ड्यूप्लिकेट का सहारा लिए कई बेहद खतरनाक सीन्स खुद ही किए हैं। फिल्म के लगभग हर फ्रेम में डेनियल बेहतरीन नजर आए, लेकिन अगर स्काईफॉल की बात करें तो यकीनन उस फिल्म के ऐक्शन सीन्स को सैम ने गजब ढंग से फिल्माया था लेकिन इस बार उनकी वैसी महारत दिखाई नहीं देती। अन्य कलाकारों में मोनिका बलुची, रॉल्फ फ्लेंस, बेन विशा, एंड्रयू स्कॉट ने अपने किरदारों में अच्छा काम किया है। डायरेक्शन सैम मेंडेस ने बॉन्ड सीरीज की फिल्मों में बरसों से नजर आती विशेषताओं को इस बार भी असरदार ढंग से पेश किया है। बेशक फिल्म के कुछ ऐक्शन सीक्वेंस ज्यादा ही लंबे हो गए हैं। अगर इन सीन्स पर सैम खुद ही कैंची चलाते तो फिल्म की स्पीड और ज्यादा तेज होती। विलेन का किरदार जाने-माने फ्री स्टाइल रेसलर बतिस्ता ने निभाया है लेकिन उनका किरदार भी बॉन्ड की इमेज के सामने बौना नजर आता है। अगर बॉन्ड के सामने विलन ज्यादा पावरफुल नहीं है तो यकीनन इससे बॉन्ड का कद भी कम ही होता है। फिल्म की शुरुआत में मैक्सिको में फिल्माए गए करीब सात मिनट के ऐक्शन सीक्वेंस का जवाब नहीं। रोम, ऑस्ट्रिया, मैक्सिको की खूबसूरत लोकेशन्स को डायरेक्टर ने खूबसूरती से कैमरे में कैद करवाया है तो बॉन्ड सीरीज की अलग स्पेशिलटी जैसे बॉन्ड की अलग स्टाइल की गाड़ियां, वॉच, महंगी कारों की लंबी रेस, माइक्रो चिप्स और अलग-अलग स्टाइल की गन्स और बॉन्ड के आशिकाना लुक और स्टाइल को सैम ने अच्छे ढंग से पर्दे पर उतारा है। क्यों देंखें अगर बॉन्ड सीरीज फिल्मों और ऐक्शन सीन्स और अपने चहेते जेम्स बॉन्ड किरदार को एक नए लेटेस्ट और मजेदार लुक में देखना चाहते हैं तो स्पेक्टर देखने जाएं। फिल्म की गजब आंखों को लुभाने का दम रखती लोकेशन्स और ऐक्शन सीन्स फिल्म का प्लस प्वाइंट है।
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कुल मिलाकर ‘ओम शांति ओम’ देखकर उतना मजा नहीं आता, जितनी अपेक्षाएँ लेकर दर्शक जाता है। *यू/ए *18 रील निर्माता : गौरी खान निर्देशक : फरहा खान संगीत : विशाल शेखर कलाकार : शाहरुख खान, दीपिका पादुकोण, श्रेयस तलपदे, अर्जुन रामपाल, किरण खेर फरहा के दिमाग में 1975 के आसपास बनी फिल्मों की कुछ यादें हैं। जब नायिकाएँ नखरे दिखाती थीं। हीरो शूटिंग पर घंटों देरी से पहुँचते थे। कलाकारों में एक प्रकार का घमंड था। उन फिल्मों में माँ का अहम किरदार हुआ करता था। एक अदद दोस्त होता था जो अपनी दोस्ती के लिए जान दे देता था। स्टूडियो में लचर तकनीक के जरिये शॉट फिल्माए जाते थे। उस दौर में भी अच्छी फिल्में बनती थीं, लेकिन फरहा को नाटकीयता से भरी फिल्में ज्यादा याद हैं। उसी दौर की जुगाली करते हुए उन्होंने अपनी ताजा फिल्म ‘ओम शांति ओम’ का तानाबाना बुना है। यह फिल्म उस दौर की एक कमजोर फिल्म जैसी लगती है। फिल्म शुरू होती है 1977 से। ओमप्रकाश माखीजा (शाहरुख खान) एक जूनियर कलाकार है और मा‍खीजा जैसे सरनेम की वजह से हीरो नहीं बन पाता। उसकी माँ को विश्वास है कि वह एक न एक दिन जरूर फिल्मों में हीरो बनेगा। वह उस दौर की टॉप नायिका शांतिप्रिया (दीपिका पादुकोण) को मन ही मन चाहता है। एक बार शूटिंग के दौरान वह आग से घिरी शांति को अपनी जान पर खेलकर बचाता है और वे दोस्त बन जाते हैं। एक दिन ओम चुपचाप शांति और एक फिल्म निर्माता मेहरा (अर्जुन रामपाल) की बात सुनता है। उसे पता चलता है कि शांति और मेहरा की शादी हो चुकी है और वह माँ बनने वाली है। शादी की बात उन दिनों छिपाकर रखी जाती थी, ताकि नायिका को काम मिलता रहे। मेहरा बहुत महत्वाकांक्षी रहता है। वह एक धनवान स्टूडियो मालिक की बेटी से शादी करना चाहता है, ताकि वह स्टूडियो का मालिक बन सके। शांति को रास्ते से हटाने के लिए वह एक फिल्मी सेट पर शांति को बंद कर आग लगा देता है। ओम शांति को बचाने की कोशिश में खुद भी मारा जाता है। ओम अगला जन्म एक सुपर स्टार के घर में लेता है। फिल्म उद्योग में परिवारवाद बहुत चलता है और इसलिए ओम भी हीरो बन जाता है। नए जन्म में वह ओम कपूर (शाहरुख) के रूप में 2007 का एक बहुत बड़ा स्टार है। एक बार शूटिंग के दौरान वह उसी फिल्म स्टूडियो में जाता है, जहाँ शांति को जलाकर मारा गया था। उसे पुराना घटनाक्रम याद आ जाता है। वह मेहरा से अपना बदला लेता है। शांतिप्रिया भी नया जन्म लेकर उसे मिल जाती है। फिल्म की कहानी मनमोहन देसाई की फिल्मों जैसी लगती है और सुभाष घई की ‘कर्ज’ से भी बेहद प्रभावित है। इसे फरहा खान ने मजाकिया अंदाज में फिल्माया है। फरहा ने उस दौर की फिल्मों का और कलाकारों का मजाक उड़ाया है और अपनी फिल्म को भी उन्होंने उसी तरह फिल्माया है। फिल्म में मध्यांतर तक 1977 का दौर चलता है तब तक फिल्म अच्छी भी लगती है। मध्यांतर के बाद कहानी 2007 में आ जाती है, लेकिन उसका ट्रीटमेंट 1977 वाला ही लगता है। फिल्म के नाम पर फरहा ने खूब छूट ली है और कई बातें पचती नहीं हैं। बेशक‍ फिल्म लार्जर देन लाइफ है, लेकिन लॉजिक को बहुत ज्यादा दरकिनार कर दिया गया है। मध्यांतर के बाद फिल्म का मूड गंभीर होना था, लेकिन इसे सतही तौर पर निपटा दिया गया है। कहानी के साथ-साथ फिल्म का क्लाइमैक्स भी कमजोर है। शाहरुख जैसे सशक्त नायक को अपनी हीरोगीरी दिखाने का ज्यादा मौका नहीं दिया गया। फरहा ने जिस ‘टॉरगेट ऑडियंस’ के लिए यह फिल्म बनाई है, उन्हें यह बात जरूर अखरेगी। फिल्म की कहानी के पहले हिस्से में शाहरुख का एकतरफा प्यार दिखाया गया है। शाहरुख और दीपिका के बीच प्यार की तीव्रता दिखाकर दोनों को मारा जाता तो फिल्म का प्रभाव और बढ़ता तथा दर्शकों की सहानुभूति भी दोनों के प्रति पैदा होती। साथ ही उनका दूसरा जन्म लेना भी सार्थक लगता। फिल्म की कहानी की पृष्ठभूमि बॉलीवुड है, इसलिए इसके ज्यादातर मजाक भी उन लोगों को ज्यादा समझ में आएँगे जो बॉलीवुड को नजदीकी से जानते हैं। आम आदमी अधिकांश मजाकों को समझ नहीं पाएगा। लगता है कि‍ फिल्म बनाते समय फरहा ने अपने बॉलीवुड के दोस्तों का खयाल ज्यादा रखा है। फरहा ने कुछ शॉट उम्दा फिल्माए हैं। दीपिका का ‘एंट्री सीन’। शाहरुख का दक्षिण भारतीय कलाकार बनकर फाइटिंग करना। अर्जुन रामपाल द्वारा स्टूडियो में आग लगाए जाने वाला दृश्य। फिल्म फेअर पुरस्कार समारोह में ‘नॉमिनेशन’ के लिए अभिषेक, शाहरुख और अक्षय वाले दृश्य सिनेमाघर में बैठे दर्शकों को रोमांचित कर देते हैं। अभिनय में शाहरुख ने पूरी फिल्म का भार अपने ऊपर उठाया है। 2007 के ओम की तुलना में वे 1977 वाले ओम के रूप में ज्यादा अच्छे लगे हैं। दीपिका में फूलों-सी ताजगी है। वे सुंदर होने के साथ प्रतिभाशाली भी हैं। अपनी पहली फिल्म में उन्होंने बड़े आत्मविश्वास के साथ अभिनय किया है। हालाँकि उन्हें ज्यादा दृश्य नहीं मिले हैं। खलनायक के रूप में अर्जुन रामपाल अपना प्रभाव छोड़ने में सफल रहे हैं। श्रेयस तलपदे, किरण खेर और जावेद खान ने भी अपने किरदार अच्छी तरह निभाए हैं। एक ही गाने में बॉलीवुड के तमाम बड़े कलाकारों को लेकर शाहरुख और फरहा ने बॉलीवुड में अपने प्रभाव को दर्शाया है। विशाल-शेखर का संगीत बेहद उम्दा है और ‘दर्दे‍ डिस्को’ ‘ओम शांति ओम’ और ‘आँखों में तेरी’ लोकप्रिय हो चुके हैं। वी. मनिकानंद ने कैमरे के जरिये फिल्म को भव्यता प्रदान की है। संदीप चौटा का बैकग्राउंड संगीत बेहद सशक्त है और 70 के दशक को ध्यान में रखकर बनाया गया है। शिरीष कुंदर का संपादन अच्छा है, लेकिन शायद फरहा ने उन्हें फिल्म छोटी नहीं करने दी होगी। फिल्म पर जबरदस्त पैसा खर्च किया गया है और यह हर फ्रेम में नजर आता है। कुल मिलाकर ‘ओम शांति ओम’ देखकर उतना मजा नहीं आता, जितनी अपेक्षाएँ लेकर दर्शक जाता है।
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बेशक, अक्षय कुमार के साथ 'बेबी' में एक छोटा सा किरदार करने का तापसी पन्नू को खास फायदा न मिला हो, लेकिन बिग बी के साथ बनी तापसी की फिल्म 'पिंक' की कामयाबी के बाद बॉलिवुड में तापसी की वैल्यू कहीं ज्यादा बढ़ी है। पिंक बॉक्स ऑफिस पर जबर्दस्त हिट रही, क्रिटिक्स और दर्शकों ने इस फिल्म की कामयाबी का क्रेडिट बिग बी के साथ तापसी की बेहतरीन ऐक्टिंग को दिया। फिलहाल, इस शुक्रवार तापसी की दो फिल्में रिलीज हुईं। दो फिल्मों की इन दिनों शूटिंग जारी है, एक फिल्म बनकर तैयार है। तापसी स्टारर यह फिल्म भी करीब तीन साल पहले बनी, उस वक्त फिल्म का टाइटल 'रनिंग शादी डॉट कॉम' रखा गया, लेकिन अब जब फिल्म रिलीज़ हुई तो टाइटल में से डॉट काम गायब हो गया। तापसी की इस फिल्म में मेकर ने एक डिफरेंट सोच के साथ एक मजेदार सब्जेक्ट तो चुना, लेकिन कमजोर स्क्रिप्ट और कहानी में झोलझाल के चलते यह रनिंग शादी बॉक्स ऑफिस पर टिक पाएगी इसके आसार कम ही नजर आ रहे हैं। कहानी : अमृतसर के मेन बाजार में 'सिंह ऐंड सिंह' नाम से एक गारमेंटस शॉप है, इस शॉप के प्रॉपराइटर सिंह साहब की इकलौती बेटी निम्रत कौर उर्फ निम्मी (तापसी पन्नू) अपने पापा की शॉप में काम करने वाले सेल्समैन राम भरोसे (अमित साध) के साथ कुछ ज्यादा ही घुली-मिली हुई है। निम्मी और राम अक्सर एकसाथ घूमने जाते हैं, इतना हीं नहीं निम्मी अपनी सभी बातें राम के साथ शेयर करती है। बिहार के पटना शहर का रहने वाला राम कभी अमृतसर की सड़कों पर रिक्शा चलाया करता था, लेकिन निम्मी के पापा ने उसे अपनी शॉप में काम पर रख लिया। राम दिल ही दिल में निम्मी को पसंद करता है, लेकिन अपनी बात कभी जुबां पर नहीं लाता। किसी बात को लेकर राम और निम्मी के पापा के बीच टकराव हो जाता है और वह राम को नौकरी से निकाल देते हैं। अब राम अपने खास दोस्त सरबजीत सिंह उर्फ साइबर जीत सिंह (अर्श बाजवा) के साथ मिलकर ऐसे प्रेमी जोडों की शादी कराने के लिए वेबसाइट बनाता है। राम और साइबर अपनी रनिंग शादी डॉट कॉम के माध्यम से अब तक 49 मैरिज करा चुके हैं। कहानी में टर्न उस वक्त आता है जब निम्मी इनके पास अपनी शादी कराने के लिए आती है। निम्मी अपने बॉयफ्रेंड शंटी के साथ शादी करना चाहती है जो इनकी फैमिली को मंजूर नहीं। यहीं से शुरू होता है निम्मी, राम और साइबर के भागने का सिलसिला। अमृतसर से डलहौजी होते हुए के बाद पटना के बाद फिर अमृतसर आकर खत्म होता है। ऐक्टिंग : अमित साध और तापसी के बीच अच्छी केमेस्ट्री है, तापसी के बोलने का अंदाज स्टार्ट टू लॉस्ट टिपिकल पंजाबी है तो वहीं अमित साध अपने किरदार को बिहारी युवक जैसा रंग नहीं दे पाए। राम के खास दोस्त सायबर सिंह के किरदार में अर्श बाजवा ने अच्छा काम किया है। निर्देशन : समझ नहीं आता डायरेक्टर ने टाइटल में से डॉट कॉम को क्यों निकाला, जबकि पूरी फिल्म इसी के आसपास घूमती है। टाइटल के चक्कर में कई सीन में से आवाज गायब हो गई है। पंजाबी का प्रयोग तो डायरेक्टर ने जमकर किया, लेकिन फिल्म का पटना से आया हीरो अपनी भाषा में कम ही बोलता नजर आया। हां, पंजाब, डलहौजी और पटना की रियल लोकेशन पर की गई शूटिंग फिल्म का प्लस पॉइंट है। इंटरवल के बाद कहानी ट्रैक पर लौटती है, लेकिन उस वक्त तक बहुत देर हो चुकी होती है। संगीत : प्यार का टेस्ट गाने का फिल्मांकन अच्छा है। क्यों देखें : तापसी के पक्के फैन हैं तो इस बार उनका ठेठ पंजाबी लुक देखने के लिए इस शादी में शरीक हो सकते हैं, वर्ना फिल्म में ऐसा कुछ नहीं जो हम आपको फिल्म देखने की सलाह दें।
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'रमन राघव 2.0' सीरियल किलर रमन राघव पर आधारित न होकर उससे प्रेरित है जिसने 60 के दशक में मुंबई में 41 लोगों की हत्याएं की थी। अनुराग कश्यप ने रमन राघव के किरदार को 60 के दशक से उठाकर आज के दौर में फिट किया है। अनुराग की फिल्मों में जीवन का अंधेरा पक्ष देखने को मिलता है। उनकी फिल्मों के किरदार वहशी किस्म के होते हैं। शायद इसीलिए उन्हें रमन राघव ने आकर्षित किया। फिल्म में रमन राघव की मानसिकता देखने को मिलती है। रमन कभी रमन्ना बन जाता तो कभी सिंधी दलवाई। हिसाब में कमजोर है। उसका दुनिया देखने का नजरिया आम लोग से अलग है। आम लोगों की निगाह में वह मानसिक रूप से बीमार है। वह भगवान से बातें करता है। जब वह चलता है तब उसे शतरंज के सफेद और काले खाने सड़क पर दिखाई देते। वह सिर्फ काले पर चलता है। सफेद पर पैर रख दिया तो आउट। यदि काले पर कोई आदमी बैठा या लेटा हो तो वह उसकी हत्या करने में जरा भी संकोच नहीं करता। अजीब सी उलझन उसके मन में चलती रहती है। जानवरों जैसी प्रवृत्ति है कि बहन का भी बलात्कार करता है और उसके परिवार को भी मौत के घाट उतार देता है। पुलिस ऑफिसर राघव उसके पीछे पड़ा है। यह भी एक तरह से रमन ही है जो पुलिस यूनिफॉर्म पहने हुए है। रमन और राघव एक ही थैली के चट्टे-बट्टे लगते हैं। राघव ड्रग्स लेता है। जिंदगी में इमोशन का कोई स्थान नहीं है। उसके लिए महिलाओं से संबंध सिर्फ जिस्मानी भूख मिटाने के लिए है। रास्ते में आने वाले शख्स की हत्या करने में उसे भी संकोच नहीं है। फिल्म की शुरुआत में इन दो किरदारों में बहुत अंतर दिखाई देता है, लेकिन समय के साथ-साथ दोनों के बीच अंतर करने वाली रेखा पतली होती जाती है, फिर धुंधला जाती है और अंत में रमन और राघव एक हो जाते हैं। इस फिल्म को वासन बाला और अनुराग कश्यप ने लिखा है। वास्त‍विक रमन के साथ काल्पनिक राघव का किरदार गढ़ा गया है। दोनों को तुलनात्मक तरीके से पेश किया गया है। रमन ज्यादा क्रूर है या राघव कहना कठिन है। रमन हत्या करते समय न धर्म की आड़ लेता है न दंगों की। उसे हत्या करने में एक मजा मिलता है। दूसरी ओर राघव का मिजाज भी पाशविक किस्म का है, लेकिन वह जिन लोगों को मारता है उसमें उसका स्वार्थ है। इस छोटी-सी बात को विस्तार देना आसान बात नहीं है और लेखन के मामले में फिल्म कई जगह कमजोर पड़ती है। कुछ ऐसी गलतियां भी हैं जो खलल पैदा करती है। चोर-पुलिस के खेल में थ्रिल पैदा करने के बजाय दोनों किरदारों पर जरूरत से ज्यादा समय खर्च किया गया है। सिनेमैटिक लिबर्टिज़ थोड़ी ज्यादा हो गई हैं, लेकिन लेखन की कमी की पूर्ति अनुराग कश्यप अपने निर्देशन के जरिये पूरा करने की कोशिश करते हैं। हालांकि अभी भी वे क्वेंटिन टेरेंटिनो की छाया से निकल नहीं पाए हैं। अनुराग ने ऐसे कई शॉट्स दिखाए हैं जो दर्शकों को रमन की मानसिकता से परिचित करा देता है। इसमें लोकेशन्स का विशेष महत्व है। तंग बस्तियों की गलियां, खस्ताहाल बिल्डिंग्स, कीचड़ और सड़क पर पसरी गंदगी के बीच घूमते रमन की यह दिमाग की भी गंदगी है। फिल्म का फर्स्ट हाफ तेजी से चलता है, लेकिन दूसरे हाफ में फिल्म खींची हुई लगती है। खासतौर पर जब फिल्म रमन से राघव पर शिफ्ट हो जाती है क्योंकि विकी कौशल अच्छे अभिनेता होने के बावजूद नवाजुद्दीन सिद्दीकी के स्तर तक नहीं पहुंच पाते। यहां पर 15 से 20 मिनट फिल्म को छोटी किया जा सकता था, जिससे फिल्म में कसाव आ जाता। मास्टर स्ट्रोक फिल्म के अंत में खेला गया है जब राघव की गिरफ्त में रमन आ जाता है और रमन-राघव के एक होने के बारे में बताता है। फिल्म में हिंसा का अतिरेक है और निर्देशक ने यह काम दर्शकों की कल्पना पर छोड़ा है। दरवाजे की आड़ से तो कभी परछाई के सहारे रमन को हत्या करते हुए दिखाया है। फर्श पर पसरा खून और पांच दिन पुरानी लाश देख आप दहल सकते हैं। रमन और राघव की क्रूर और निष्ठुर सोच फिल्म में दिखाई हिंसा से ज्यादा हिंसक है। रमन रा घव 2.0 के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें फिल्म में कहानी के नाम पर दिखाने को ज्यादा नहीं था और ऐसे वक्त में कलाकारों की जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है। यही पर नवाजुद्दीन सिद्दीकी जैसे कलाकार अपना कमाल दिखाते हैं। हत्यारे की भूमिका में न तो वे चीखे-चिल्लाए और न ही ड्रामेटिक तरीके से उन्होंने संवाद बोले। होशो-हवास कायम रख उन्होंने हत्याएं की। अपने किरदार के बेतरतीब स्वभाव को उन्होंने अपना हथियार बनाया। वे कब क्या कर बैठे इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है और इसके जरिये ही उन्होंने खौफ पैदा किया है। उनकी संवाद अदायगी गौर करने के काबिल है। कभी वे बुदबुदाते हैं तो कभी स्वर ऊंचा-नीचा होता रहता है। विकी कौशल अपने बाहरी आवरण से अपने आपको क्रूर दिखाने की कोशिश करते नजर आए और उनका अभिनय औसत रहा। सेकंड हाफ में जब फिल्म का बोझ उनके कंधों पर आता है तो फिल्म डगमगाने लगती है। । राम सम्पत ने बैकग्राउंड म्युजिक का इस्तेमाल होशियारी के साथ किया गया है। कुछ दृश्यों में खामोशी ही आपको डराती है। आरती बजाज का सम्पादन प्रभावी है, हालांकि उन्हें फिल्म को छोटा करने की इजाजत शायद निर्देशक ने नहीं दी होगी। साइकोलॉजिकल थ्रिलर 'रमन राघव 2.0' परफेक्ट फिल्म न होने के बावजूद ज्यादातर समय आपको यह बांधकर रखती है। बैनर : फैंटम प्रोडक्शन, रिलायंस एंटरटेनमेंट निर्माता : मधु मंटेना, अनुराग कश्यप, विक्रमादित्य मोटवाने निर्देशक : अनुराग कश्यप संगीत : राम सम्पत कलाकार : नवाजुद्दीन सिद्दीकी, विकी कौशल, शोभिता धुलिपाला सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 2 घंटे 20 मिनट 23 सेकंड
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धूम फ्रेंचाइजी में खलनायक को इस तरह पेश किया जाता है कि दर्शकों की सारी सहानुभूति खलनायक के साथ होती है। हीरो की भूमिका चरित्र कलाकार जैसी होती है। धूम 3 के खलनायक को नायक जैसा पेश किया गया है क्योंकि उसके पास कारण है कि वह गलत काम क्यों कर रहा है। यह कारण दरअसल एक इमोशनल कहानी है और यही बात धूम 3 को इस श्रृंखला की पिछली फिल्मों से अलग करती है। पिछली फिल्मों में इमोशन्स की कमी महसूस की गई थी, जिसे इस कड़ी में पूरा किया गया है। यह निर्देशक की कामयाबी है कि दर्शकों को भावनात्मक रूप से यह फिल्म पहले दस मिनट में ही जोड़ लेती है जब इकबाल (जैकी श्रॉफ) शिकागो स्थित अपने ग्रेट इंडियन सर्कस को बैंक के कर्जे से बचाने की कोशिश करता है। यहीं पर दर्शक इस बात को स्वीकार कर लेते हैं कि साहिर (आमिर खान) के पिता के साथ गलत हुआ है और साहिर बड़ा होकर गलत राह पर क्यों चल रहा है इस बात को अच्छी तरह स्थापित कर दिया गया है। बैंक कर्ज वसूली में सख्ती दिखाता है तो मासूम साहिर के सामने उसके पिता आत्महत्या कर लेते हैं। यही से साहिर और बैंक के बीच दुश्मनी हो जाती है और वह बड़ा होकर बैंक को बरबाद करने के मिशन में जुट जाता है। यह बात पता चल जाती है कि बैंक को बरबाद करने वाला एक भारतीय है तो भारत से दो पुलिस ऑफिसर जय (अभिषेक बच्चन) और अली (उदय चोपड़ा) भेजे जाते हैं। फिर शुरू होता है चोर और पुलिस के बीच चूहे-बिल्ली का खेल। फिल्म की कहानी सामान्य है, लेकिन इसे असाधारण बनाता है महंगे लोकेशन्स, शानदार सेट्स, जबरदस्त सिनेमाटोग्राफी। वैसे भी धूम सीरिज की फिल्मों में कहानी से ज्यादा महत्वपूर्ण स्टाइल और स्टंट्स है। पहला हाफ फिल्म को इतनी ऊंचाइयों पर ले जाता है कि यह स्टंट्स और तकनीकी रूप से हॉलीवुड फिल्मों को टक्कर देती है। एक के बाद एक आइटम्स पेश किए जाते हैं। आमिर खान जबरदस्त तरीके से एंट्री लेते हैं। ऊंची बिल्डिंग की दीवार से वे उतरते हैं और सड़क पर डॉलर्स की बारिश होती है। फिर आता है एक चेजि़ंग सीन जो 'धूम' सीरिज की फिल्मों की खासियत है। अत्याधुनिक बीएमडब्ल्यू बाइक पर बैठ साहिर जब पुलिस को नचाता है तो दर्शकों की सांसें थम जाती हैं। जय और अली की एंट्री के लिए भी एक्शन सीन गढ़ा गया है, जो सिर्फ फिल्म की लंबाई बढ़ाता है। ‍फिल्म की हीरोइन कैटरीना कैफ भी फिल्म में धमाकेदार एंट्री करती हैं। 'कमली' गाने पर उनका डांस काबिल-ए-तारीफ है। जय, अली और साहिर के बीच वाला चेजिंग सीन फिल्म का प्रमुख आकर्षण है। इस सीन को अद्‍भुत तरीके से शूट किया गया है। इसी सीन में जय गोली चलाता है जो साहिर की पीठ पर लगती है। कुछ देर बाद साहिर को गिरफ्तार करने जय उसके सर्कस में पहुंचता है तो यह जान कर दंग रह जाता है कि साहिर की पीठ पर किसी भी किस्म की चोट का निशान नहीं है। जय के साथ दर्शक भी चौंकते हैं कि यह रहस्य क्या है और यही पर इंटरवल होता है। इंटरवल के बाद हांफना ज्यादातर हिंदी फिल्मों की कमजोरी है और धूम 3 भी इसका शिकार है। एक्शन और स्टंट्स से फोकस हट कर ड्रामे पर आ जाता है और स्क्रिप्ट की कमजोरियां उभरने लगती हैं। रहस्य पर से परदा हटाया जाता है जो कई तरह के सवालों को जन्म देता है, जिनके संतोषजनक उत्तर नहीं मिलते हैं। कहानी में रोमांटिक ट्रेक को जबरन घुसेड़ा गया है जिसकी जगह नहीं बनती है। साहिर का कड़ी सुरक्षा के बीच हर बार आसानी से बैंक में घुसना हैरत में डालता है। फिल्म के दूसरे हाफ में एक्शन की कमी महसूस होती है। इन सब कमियों के बीच एक अच्छी बात यह है कि बोरियत नहीं होती है। ड्रामे में दिलचस्पी बनी रहती है। उम्मीद रहती है कि क्लाइमेक्स में जबरदस्त एक्शन देखने को मिलेगा, लेकिन अपेक्षा से कम देखने को मिलता है। फिल्म का निर्देशन किया है विजय कृष्ण आचार्य ने, जिन्होंने धूम सीरिज के सारे भाग लिखे हैं। 'टशन' जैसी भूला देने लायक फिल्म वे निर्देशित कर चुके हैं इसके बावजूद फिल्म के निर्माता आदित्य चोपड़ा ने उनको यशराज फिल्म्स की सबसे महंगी फिल्म निर्देशित करने का जिम्मा दिया। विजय का काम एक्शन डायरेक्टर और कोरियोग्राफर ने काफी आसान कर दिया। ड्रामे वाले हिस्से को संभालने में विजय थोड़ा लड़खड़ाए हैं। आमिर खान के फिल्म से जुड़ने दर्शकों की अपेक्षाएं बहुत ज्यादा बढ़ जाती हैं। आमिर खान के किरदार के बारे में ज्यादा बात इसलिए नहीं की जा सकती है क्योंकि इससे फिल्म के रहस्य से परदा हट जाएगा। जहां तक अभिनय का सवाल है तो आमिर ने अपना काम गंभीरता से किया है, लेकिन उनसे और बेहतर की अपेक्षा थी। धूम जैसी फिल्मों के किरदार को जो ग्लैमर चाहिए था, उसमें आमिर थोड़ा कमजोर पड़ गए। कैटरीना कैफ टोंड बॉडी में बेहद खूबसूरत नजर आईं, लेकिन उनका रोल बेहद छोटा है। निर्देशक उनके ग्लैमर का पूरा उपयोग ही नहीं कर पाए। अभिषेक बच्चन और उदय चोपड़ा अपने किरदारों को उसी अंदाज में बढ़ाते नजर आए। जैकी श्रॉफ छोटे रोल में छाप छोड़ते हैं। प्रीतम का संगीत औसत किस्म का है, लेकिन गानों का फिल्मांकन आंखों को राहत देता है। 'मलंग' और 'कमली' की कोरियोग्राफी बहुत बढ़िया है। जूलियस पैकिअम का बैकग्राउंड स्कोर उम्दा है। सुदीप चटर्जी की सिनेमाटोग्राफी अंतरराष्ट्रीय स्तर की है जो फिल्म को भव्य लुक देती है। एक्शन और स्टंट्स हॉलीवुड फिल्मों की टक्कर के हैं। धूम 3 पांच में तीन अंक के लायक है, लेकिन सिनेमाटोग्रफी, लोकेशन्स, और बाइक थ्रिल्स के कारण आधा अंक अतिरिक्त दिया गया है। बैनर : यशराज फिल्म्स निर्माता : आदित्य चोपड़ा निर्देशक : विजय कृष्ण आचार्य संगीत : प्रीतम चक्रवर्ती कलाकार : आमिर खान, कैटरीना कैफ, अभिषेक बच्चन, उदय चोपड़ा, जैकी श्रॉफ सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 52 मिनट 21 सेकंड्स
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बॉक्स आफिस पर 'आई एम कलाम' और 'जलपरी' जैसी फिल्में बेशक कुछ खास न कर पाई हो लेकिन इन फिल्मों में डायरेक्टर ने अलग-अलग सब्जेक्ट को पूरी ईमानदारी के साथ पेश करने का जज्बा पेश किया है। उसी जज्बे का नतीजा है कि टिकट खिड़की पर अपनी प्रॉडक्शन कॉस्ट तक भी ना बटोरने वाली इन फिल्मों के डायरेक्टर नीला माधव पांडा को क्रिटिक्स के साथ-साथ दर्शकों के उस क्लास की भी जमकर तारीफें मिली जो फिल्म एंटरटेनमेंट के लिए नहीं बल्कि मुंबइयां फिल्मों की भीड़ से दूर कुछ अलग देखना चाहते है। लंबे अर्से के बाद पांडा अब जब 'कड़वी हवा' के साथ लौटे तो उनसे दर्शकों की इसी क्लास ने कुछ अलग टाइप की फिल्म की आस पहले से लगा रखी थी। इस बार भी वह अपने मकसद में पूरी तरह से कामयाब रहे। इस फिल्म में भी बॉलिवुड फिल्मों में नजर आने वाले मसाले देखने को नहीं मिलते तो वहीं फिल्म के कई सीन और करीब पौने दो घंटे की फिल्म का क्लाइमेक्स हॉल में बैठे दर्शकों को झकझोर कर रख देता है। क्लाइमेट चेंज पर बनी इस फिल्म को अगर आप देखना भी चाहे तो आपको कहीं दूर जाना पड़ सकता है वजह वहीं है बॉक्स ऑफिस के मसाले न होने और बिना प्रमोशन के रिलीज हुई इस फिल्म को अपने यहां लगाने से ज्यादातर मल्टिप्लेक्स समूहों ने खुद को दूर ही रखा। स्टोरी प्लॉट: दूरदराज के एक छोटे से गांव में अंधा किसान (संजय मिश्रा) ऐसे सूखाग्रस्त गांव रहता है, जहां कभी कभार ही बारिश होती है, इस किसान के बेटे मुकुंद ने भी खेती के लिए बैंक से कर्ज लिया हुआ है जो अब फसल बर्बाद होने की वजह से लौटा नहीं पा रहा है। दरअसल, इस गांव में खेती करने से किसान हिचकिचाते हैं, वजह बैंक से कर्ज लेकर अगर खेती कर भी ली जाए तो बारिश न होने की वजह से पूरी खेती बर्बाद हो जाती है। पिछले कई सालों से इस गांव के किसानों की खेती बारिश ना होने की वजह से चौपट हो चुकी है, इस वजह से यहां के किसान बैंक लोन नहीं चुका पा रहे और इसी दबाव में एक के बाद एक किसान आत्महत्या कर रहा हैं। इस सिंपल सी कहानी में उस वक्त अनोखा टिवस्ट आता है जब मुकुंद का अंधा पिता बैंक का लोन वसूलने गांव में आने वाले गुनू बाबू (रणवीर शौरी) के साथ एक ऐसी अनोखी डील करता है जिससे उसका बेटा कर्ज के बोझ से बाहर आ सके। पूरे गांव के किसान गुनू बाबू को यमराज की तरह मानते है इसकी वजह गुनू बाबू जब भी कर्ज वसूली के लिए गांव आते ही उन्हीं दिनों कई किसान आत्महत्या करते है। संजय मिश्रा इससे पहले भी कई ऐसी बेहतरीन भूमिकाएं कर चुके है जो दर्शकों और क्रिटिक्स को आज भी याद है, इस फिल्म में अंधे किसान का किरदार संजय ने जिस ईमानदारी के साथ निभाया है उसकी जितनी भी तारीफ की जाए कम है संजय ने अपनी शानदार ऐक्टिंग से इस किरदार को जीवंत कर दिया है। वहीं गुनू बाबू के रोल में रणवीर शौरी की ऐक्टिंग का भी जवाब नहीं, इतना ही नहीं फिल्म के हर कलाकार ने अपने किरदार को पूरी ईमानदारी के साथ निभाया है। नीला माधव पांडा की तारीफ करनी चाहिए कि उन्होंने क्लाइमेट चेंज के गंभीर मुद्दे पर बॉक्स आफिस की एक बार फिर परवाह किए बिना फिल्म बनाई। नीला पंडा ने तब जबकि पर्यावरण के गंभीर मुद्दे पर जमकर बयानबाजी चल रही है, ऐसे में लोगों को पर्यावरण के बारे में सोचने और जागृत करने के लिए फिल्म बनाई जो बेशक टिकट खिड़की पर कुछ खास न कर पाए लेकिन फिल्म देखने वाले जरूर नीला की जमकर तारीफें करेंगे। पौने दो घंटे की इस फिल्म में गुलजार साहब की एक नज्म के साथ सााथ 'मैं बंजर' गाना भी है जो सब्जेक्ट पर पूरी तरह से फिट बैठता है। अगर आप रिऐलिटी को और करीब से देखना चाहते है तो क्लाइमेट चेंज पर पूरी ईमानदारी के साथ बनी इस फिल्म को एंटरटेनमेंट की परवाह दरकिनार करके देख सकते है।
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हैप्पी भाग जाएगी के कई निर्माताओं में से एक आनंद एल. राय भी हैं और उनकी 'तनु वेड्स मनु' की छाप 'हैप्पी भाग जाएगी पर नजर आती है। हालांकि इस फिल्म का निर्देशन मुदस्सर अजीज ने किया है जिन्होंने 'दूल्हा मिल गया' जैसी खरा‍ब फिल्म इसके पहले बनाई थी। पाकिस्तान के एक्स गर्वनर का बेटा बिलाल अहमद (अभय देओल) कांफ्रेंस में हिस्सा लेने अमृतसर आता है। लौटते समय उसे उपहार मिलते हैं जो एक ट्रक द्वारा लाहौर ले जाए जाते हैं। इस ट्रक में हैप्पी ‍(डायना पेंटी) गलती से छिप जाती है। हैप्पी की शादी उसके पिता बग्गा (जिमी शेरगिल) से तय कर देते हैं। हैप्पी को यह रिश्ता पसंद नहीं है। वह गुड्डू (अली फज़ल) से प्यार करती है। शादी वाले दिन घर से भागकर हैप्पी गलती से बिलाल वाले ट्रक में घुस कर लाहौर पहुंच जाती है। हैप्पी को वहां देख बिलाल चकित रह जाता है। वह हैप्पी को वापस भारत भेजना चाहता है, लेकिन हैप्पी तैयार नहीं है। उसे भय है कि भारत लौटते ही उसकी शादी बग्गा से करा दी जाएगी। वह बिलाल को धमकी देती है कि यदि उसने ऐसी कोशिश की तो इससे उसका राजनीतिक करियर खतरे में पड़ सकता है। बिलाल इसका हल ढूंढता है और गुड्डू को पाकिस्तान लाता है ताकि दोनों की शादी करा कर उन्हें भारत लौटा सके। इधर बग्गा को पता चल जाता है कि हैप्पी और गुड्डू पाकिस्तान में हैं। वह और हैप्पी के पिता भी पाकिस्तान पहुंच जाते हैं। इसके बाद भागमभाग होती है और हैप्पी एंडिंग के साथ फिल्म खत्म होती है। फिल्म की कहानी, पटकथा और संवाद मुदस्सर अज़ीज़ ने ही लिखे हैं। फिल्म की कहानी पढ़ने में विश्वसनीय नहीं लगती है क्योंकि बहुत सारे झोल इसमें नजर आते हैं, लेकिन मुदस्सर का स्क्रीनप्ले और प्रस्तुतिकरण उम्दा है। मनोरंजन का डोज़ लगातार दर्शकों को मिलता रहता है जिस कारण हम कहानी की खामियों को नजरअंदाज करते चले जाते हैं। फिल्म के मुख्य किरदार हैप्पी को अच्छे तरीके से गढ़ा गया है। हैप्पी कोई भी फैसला लेने में एक सेकंड की देरी नहीं लगाती। कैसी भी परिस्थिति हो वह नहीं घबराती। जो हैप्पी के संपर्क में आता है हैप्पी जैसा बन जाता है। हैप्पी के आने से बिलाल की लव लाइफ और सोच में किस तरह परिवर्तन आता है यह बखूबी दिखाया गया है। हैप्पी भाग जाएगी के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें भारत-पाकिस्तान को लेकर अच्छे-खासे मजाक किए गए हैं। एक पाकिस्तान पुलिस ऑफिसर को यही अफसोस होता रहता है कि गांधीजी, गालिब, कपिल देव हमारे पाकिस्तान में क्यों नहीं हुए। वह भारत आकर नमक खाने से परहेज करता है, लेकिन यह जानकर हैरान रह जाता है कि पाकिस्तान में नमक भारत से ही आता है। फिल्म में कुछ मजेदार दृश्य हैं, जैसे बिलाल का अपने पिता को समझाना कि उसकी दिवंगत मां घर में दिखती रहती है, अफरीदी और गुड्डू की उर्दू पर चर्चा, पाकिस्तानी और भारतीय का दूसरे देश में जाकर यह महसूस करना कि हम एक जैसे ही हैं, हंसाते हैं। फिल्म का पहला हाफ उम्दा है। दूसरे हाफ में फिल्म थोड़ी लड़खड़ाती है क्योंकि कुछ सब-प्लॉट उतने मजेदार नहीं हैं, हैप्पी और गुडडू की लव स्टोरी थोड़ी कच्ची लगती है, लेकिन अंत में फिल्म फिर ट्रैक पर आ जाती है। मुदस्सर अज़ीज़ के लिखे संवाद हंसाते हैं, जैसे एक किरदार का पाकिस्तान में कहना कि 'यहां बंदूक के बिना बात करो तो कोई सुनता ही नहीं।' निर्देशक के रूप में मुदस्सर प्रभावित करते हैं। अपनी कहानी की कमियों को उन्होंने निर्देशन के जरिये छिपा लिया। सिचुएशनल कॉमेडी के जरिये उन्होंने दर्शकों को हंसाया है। हैप्पी के किरदार को उन्होंने दूसरे किरदारों के जरिये विकसित किया है जो थोड़ा अखरता है, इस वजह से हैप्पी को फिल्म में कम जगह मिलती है जबकि दर्शक हैप्पी को ज्यादा परदे पर देखना चाहते थे। शायद अभय देओल के कारण उन्होंने यह समझौता किया है। अभिनेताओं का पूरा सहयोग निर्देशक को मिला है। पिछली बार 'कॉकटेल' में नजर आईं डायना पेंटी ने हैप्पी की भूमिका बढ़िया तरीके से अदा की है। हालांकि उनके अभिनय में थोड़ी गुंजाइश थी, लेकिन तेज-तर्रार किरदार को उन्होंने वो सब कुछ दिया जो जरूरी था। अभय देओल हमेशा की तरह उम्दा रहे। उन्हें कॉमेडी करते देख अच्छा लगता है। जिमी शेरगिल तनु वेड्स मनु वाले अवतार में ही नजर आएं और एक बार फिर उनके हाथ से लड़की निकल गई। अली फज़ल का उपयोग कम ही हुआ। पाकिस्तानी अभिनेत्री मोमल शेख का अभिनय औसत रहा है। पुलिस ऑफिसर अफरीदी के रूप में पियूष मिश्रा ने दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया है। फिल्म का संगीत ठीक है। हिट गाने की कमी अखरती है। तकनीकी रूप से फिल्म ठीक है। कुल मिलाकर 'हैप्पी भाग जाएगी' दर्शकों को हैप्पी करती है। बैनर : इरोस इंटरनेशनल, ए कलर येलो प्रोडक्शन निर्माता : कृषिका लुल्ला, आनंद एल. राय निर्देशक : मुदस्सर अज़ीज़ संगीत : सोहेल सेन कलाकार : अभय देओल, डायना पेंटी, जिमी शेरगिल, मोमल शेख, अली फज़ल, पियूष मिश्रा सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 2 घंटे 6 मिनट
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छोटे से छोटा धंधा अब बड़ी से बड़ी कंपनियां कर रही हैं और इसका असर छोटे व्यापारियों पर पड़ रहा है। ये कॉरपोरेट कंपनियां व्यवसाय में मोनोपॉली चाहती हैं। इस थीम को लेकर 'सोनाली केबल' का निर्माण किया गया है। यूथ अपील को ध्यान में रखते हुए फिल्म की नायिका को 'ब्रॉण्डबैण्ड कनेक्शन' प्रदान करने वाली बताया गया है, लेकिन उसका यह व्यवसाय कई लोगों के पल्ले नहीं पड़ेगा। सोनाली (रिया चक्रवर्ती) एक नेता ताई (स्मिता जयकर) के साथ मिलकर 'सोनाली केबल' नामक कंपनी चलाती है। कंपनी में 40 प्रतिशत सोनाली की 60 प्रतिशत नेता की भागीदारी है। सोनाली मुश्किल में तब आती है जब एक बड़ा कॉरपोरेशन 'शाइनिंग' राह में आड़े आता है। वाघेला (अनुपम खेर) ब्रॉडबैण्ड इंटरनेट बिजनेस में पूरी मुंबई में अपनी मोनोपॉली चाहता है। वह सोनाली को लालच देता है, लेकिन सोनाली ठुकरा देती है। सोनाली को राह से हटाने के लिए वह साम-दाम-दंड-भेद की नीति अपनाता है। सोनाली की पार्टनर ताई को राजी कर लेता है, लेकिन ताई का बेटा रघु (अली फजल) सोनाली का साथ देता है। रघु और सोनाली एक-दूसरे को चाहते हैं, लेकिन रघु की मां इस रिश्ते के खिलाफ है। वाघेला की कंपनी से किस तरह सोनाली-रघु लड़ते हैं, ये फिल्म का सार है। अच्छी शुरुआत के बाद सोनाली केबल रास्ता भटकने में ज्यादा देर नहीं लगाती। असली मुद्दे को छोड़ जब फिल्म के लेखक और निर्देशक चारूदत्ता आचार्य ने लव स्टोरी, राजनीति, दोस्त की मौत, बाप-बेटी का प्यार वाले ट्रेक दिखाना शुरू किए तो फिल्म का सारा असर जाता रहा। हटकर शुरुआत करने के बाद फिल्म चिर-परिचित ट्रेक पर चलने लगती है। रूचि सोनाली बनाम वाघेला युद्ध में रहती है परंतु बेवजह में इन दृश्यों को झेलना पड़ता है। ये सारे सब-प्लॉट्स कहानी में ठीक से फिट नहीं होते या इनकी जगह नहीं बन पाई है, लिहाजा फिल्म कई जगह बहुत ही उबाऊ हो गई है। दरअसल चारुदत्ता एक स्तर तक जाने के बाद खुद कन्फ्यूज नजर आए कि कहानी को किस तरह आगे बढ़ाया जाए। वे इस सोनाली और वाघेला के युद्ध को भी ठीक तरह से पेश नहीं कर पाए। वाघेला कही भी ऐसा खलनायक नहीं लगता कि दर्शक उससे नफरत करे और उसकी सहानुभूति सोनाली के साथ हो। सोनाली अपनी कंपनी को बचाने की इतनी कोशिश क्यों करती है, ये भी समझ के परे है। एक सीन में वह बताती है कि उसे घरों में जाना अच्छा लगता है, लेकिन ये कारण बहुत ठोस नजर नहीं आता। फिर कंपनी में सोनाली की सिर्फ 40 प्रतिशत की हिस्सेदारी है और ऐसी कंपनी को बचाने के लिए उसके प्रयास तर्कहीन लगते हैं। फिल्म को जिस तरह से खत्म किया गया है वो एक लेखक की लाचारी को दर्शाता है। सोनाली को एक तेज-तर्रार लड़की बताया गया है जो लड़कों के बीच अपने काम को अंजाम देती है, लेकिन एक दृश्य में वह एक गुंडे को उसकी कायरता के कारण चूड़ी देती है। इस सीन के जरिये वह महिला होकर अपने आपको कमजोर साबित करती है। क्या चुड़ियां पहनने से महिलाएं कमजोर हो जाती हैं? यह सीन सोनाली को मजबूत दिखाने के प्रयास पर पानी फेर देता है। चारुदत्ता के निर्देशन में इस बात के संकेत मिलते हैं कि उनमें संभावनाएं हैं। यदि अच्छी स्क्रिप्ट मिलती है तो वे कुछ कर दिखा सकते हैं, लेकिन लेखक के रूप में वे निराश करते हैं। रिया चक्रवर्ती की कोशिश अच्छी है। कई दृश्य उन्होंने अच्छे से निभाए हैं, लेकिन महाराष्ट्रीय लड़की के रूप में उन्हें दिखाने का प्रयास थोपा हुआ लगता है। अली फजल अब स्टीरियोटाइप होते जा रहे हैं। एक्टर अच्‍छे हैं, लेकिन रोल चुनने में उन्हें सावधानी की जरूरत है। अनुपम खेर को कॉमिक विलेन दिखाया गया है और उन्होंने अपना काम अच्छे से किया गया है। सोनाली के पिता के रूप में स्वानंद किरकिरे प्रभावित करते हैं। सोनाली के दोस्तों में राघव जुयाल का अभिनय अच्छा है। कुल मिलाकर सोनाली केबल में 'कनेक्टिविटी' की समस्या है। बैनर : रमेश सिप्पी एंटरटेनमेंट निर्माता : रमेश सिप्पी, रोहन सिप्पी, रूपा डे चौधरी निर्देशक : चारू दत्ता आचार्य संगीत : अंकित तिवारी, माइक मैकलिअरी कलाकार : रिया चक्रवर्ती, अली फजल, अनुपम खेर, स्मिता जयकर सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 7 मिनट 47 सेकंड
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खेल में अपने देश के झंडे को एक अंतरराष्ट्रीय मंच पर लहराते हुए देखने से ज्यादा गर्व की बात और क्या हो सकती है। यह भावना और ज्यादा मजबूत हो जाती है क्योंकि घटना 1948 के लंदन ओलिंपिक्स की है जहां भारत को साबित करना है कि 1936 से 1948 तक खेलों में उसका वर्चस्व सिर्फ चांस की बात नहीं थी। यह घटना ऐतिहासिक भी है क्योंकि भारतीय हॉकी टीम यहां आजादी के सिर्फ एक साल बाद ही खेल रही है।'गोल्ड' जोश से भरे इस टीम के सफर को दिखाती है जिसने ब्रिटेन के 200 सालों की गुलामी के आगे अपना झंडा बुलंद किया। फिल्म की कहानी 1936 से शुरू होती है जब भारतीय हॉकी टीम ने बर्लिन ओलिंपिक्स में लगातार तीसरी बार गोल्ड जीता था। तब यह टीम ब्रिटिश इंडिया टीम कहलाती थी और इसे ब्रिटिश राज चलाता था। टीम के एक बंगाली जूनियर मैनेजर ने आजाद भारत की टीम को गोल्ड दिलाने का संकल्प लिया। उसका सपना 1948 में ब्रिटेन की धरती पर भारतीय ध्वज लहराने का था। रीमा कागती ने गहरे मायनों वाली इस कहानी को मनोरंजक तरीके से पेश किया है। यह फिल्म हमें इतिहास के उस दौर में ले जाती है जिसके बारे में कम ही बात होती है। सभी कलाकारों का प्रदर्शन शानदार है। धोती पहने हुए टीम मैनेजर के रूप में अक्षय कुमार ने अपने किरदार से खूब हंसाया है, वहीं वह तुरंत नाटकीय और इमोशनल सीन पर भी आसानी से स्विच कर जाते हैं। कुणाल कपूर ने पहले हॉकी प्लेयर और फिर हॉकी टीम के कोच के रूप में शानदार प्रदर्शन किया है। विनीत कुमार का काम भी दमदार है। अमित साध का किरदार भी काफी अच्छा है जो टीम के उपकप्तान रहते हुए जिंदगी के पाठ सीखते हैं। एक गुस्सैल प्लेयर के रूप में सनी कौशल ने भी अपना किरदार बखूबी निभाया है। मॉनी राय ने बंगाली पत्नी का अपना छोटा सा किरदार असरदार तरीके से निभाया है। 'गोल्ड' सिर्फ हॉकी पर बनी एक फिल्म नहीं है बल्कि एक पीरियड फिल्म है जो उस दौर को जीवंत करती है जिसे काफी पहले भुलाया जा चुका है। यह विभाजन की दर्दनाक घटना को भी दर्शाती है जिसने बड़ी क्रूरता के साथ देश को दो भागों में बांट दिया। प्रॉडक्शन डिजाइन और कॉस्ट्यूम ने उस दौर को रीक्रिएट करने में अहम भूमिका निभाई है। सिनेमटॉग्रफी और बैकग्राउंड स्कोर तकनीक और गुणवत्ता के मामले में काफी कमाल के हैं। फिल्म में होने वाले हॉकी मैच थ्रिल बनाए रहते हैं। मैच का अंत जानते हुए भी आप पूरे मैच के दौरान रोमांच महसूस करेंगे और भारतीय टीम के लिए चीयर करेंगे। फिल्म की एडिटिंग कुछ बेहतर हो सकती थी और कहानी में 'चढ़ गई' और 'नैनो ने बांधी' गाने की जरूरत नहीं थी। इमोशनल एंड पर फिल्म काफी दमदार है क्योंकि कुछ लोग अपने निजी विरोधों को दूर रखकर भारत की जीत के लिए मिलकर प्रयास करते हैं। आजादी के बाद .यह पहला गेम था इसलिए ग्राउंड पर खेल रही भारतीय टीम के लिए पाकिस्तानी टीम भी चीयर करती है।
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ईरानी फिल्ममेकर माजिद मजीदी का नाम फिल्म प्रेमियों के लिए कोई नया नाम नहीं है। इस फिल्म को माजिद ने जब पिछले साल लंदन फिल्म फेस्टिवल में पहली बार इस फिल्म को पेश किया तो यहां मौजूद मेहमानों, क्रिटिक्स ने फिल्म की स्क्रीनिंग खत्म होने के बाद फिल्म की तारीफों के पुल बांध दिए। वैसे माजिद ने इस फिल्म को बनाने का प्लान उस वक्त किया जब वह मुंबई फिल्म फेस्टिवल में आए थे। तभी उन्होंने इस फिल्म को बनाने की प्लानिंग करने के बाद सबसे पहले एआर रहमान को अप्रोच किया। वैसे माजिद इससे पहले डॉक्युमेंट्री सहित करीब 20 से ज्यादा फिल्में बनाकर हमेशा मीडिया और क्रिटिक्स में चर्चा का केंद्र बने रहे। लंदन में 'बियॉन्ड द क्लाउड्स' की स्कीनिंग के बाद इंटरनैशनल मीडिया में फिल्म को मिले पॉजिटिव रिस्पॉन्स देख भारतीय फिल्म दर्शकों को भी इस फिल्म का बड़ी बेसब्री से इंतजार था। ताज्जुब होता है कि अब जब रिलीज हुई है तो फिल्म की डिस्ट्रिब्यूशन कंपनी को अपने पसंदीदा स्क्रीन्स हासिल करने के लिए लंबी भागदौड़ करने के बाद भी ज्यादा स्क्रीन नहीं मिल पाए तो दिल्ली के किसी एक भी सिंगल स्क्रीन सिनेमा ने इस फिल्म को अपने यहां एक शो में भी लगाने से परहेज किया। स्टोरी: फिल्म की कहानी आमिर (ईशान खट्टर) और उसकी बड़ी बहन तारा (मालविका मोहनन) के इर्द-गिर्द घूमती है। मां-बाप की मौत के बाद आमिर बहन के घर रहने लगा लेकिन तारा का शराबी पति हर रोज तारा के साथ-साथ अक्सर आमिर को भी पीटता। आखिरकार 13 साल की उम्र में आमिर अपनी बहन का घर छोड़कर भाग जाता है। लेकिन किस्मत को कुछ और मंजूर था, कई साल बाद एक दिन दोनों भाई-बहन एकबार फिर मिले लेकिन अब तक तारा और आमिर की जिंदगी कई ऐसे मुश्किल भरी राहों से गुजर चुकी थी जहां कुछ भी ठीक नहीं था। भाई अब गलत संगत में कुछ भी करके बस पैसा कमाना ही चाहता था, चाहे इसके लिए उसे कुछ भी करना पड़े। धोबी घाट पर 50 साल के करीब का अर्शी (गौतम घोष) हमेशा तारा पर बुरी नजर रखता था। एक दिन अर्शी जब तारा के साथ जबर्दस्ती करता है तो तारा बचाव में अर्शी को बड़े पत्थर से बुरी तरह से मारती है। अर्शी पर जानलेवा हमला करने के जुर्म में तारा को जेल भेज दिया जाता है। यहीं से कहानी में एक नया मोड़ आता है। ऐक्टिंग: अगर ऐक्टिंग की बात करें तो भाई के रोल में ईशान खट्टर के रूप में एक ऐसा उभरता यंग ऐक्टर नजर आता है जो किरदार में समा जाते हैं। शुरू से अंत तक ईशान की ऐक्टिंग का जवाब नहीं है। ईशान की बहन के रोल में साउथ फिल्मों की ऐक्ट्रेस मालविका मोहनन ने भी अपने किरदार को जीवंत कर दिखाया है। वैसे यह फिल्म दर्शकों को 90 के दशक में रिलीज हुई माजिद मजीदी फिल्म 'चिल्ड्रन ऑफ हेवन' से मिलती जुलती लग सकती है। फिल्म की शूटिंग मुंबई की कई स्लम कॉलोनियों में की गई है। ईशान ने पहली ही फिल्म से दिखा दिया है कि वह आने वाले कल के स्टार होंगे। मलयालम ऐक्ट्रेस मालविका मोहनन अपने किरदार में दमदार नजर आईं। फिल्म तनिष्ठा चटर्जी के लिए ज्यादा स्कोप नहीं था।यहां कैमरामैन अनिल मेहता की यहां खास तारीफ करनी होगी कि उन्होंने स्लम कॉलोनियों में भी फिल्म को ऐसे शानदार ढंग से शूट किया है कि आप देखते ही रह जाते हैं। एआर रहमान का संगीत उनकी इमेज के मुताबिक नहीं है। हमारी नजर में 'बियॉन्ड द क्लाउड्स' एक मस्ट वॉच फिल्म है। ऐसी फिल्म को देखने के लिए अगर आपको घर से कुछ दूर भी जाना पड़े तो जाएं लेकिन अगर आप ऐक्शन, कॉमिडी, रोमांस और हॉट सीन्स के शौकीन हैं तो यह फिल्म आपके लिए नहीं है।
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कुछ कमियों के बावजूद इस शुद्ध देशी फिल्म को एक बार देखा जा सकता है। निर्माता : राकेश ओमप्रकाश मेहरा, रॉनी स्क्रूवाला निर्देशक : राकेश ओमप्रकाश मेहरा संगीत . एआर रहमान कलाकार : अभिषेक बच्चन, सोनम कपूर, ओम पुरी, दिव्या दत्ता, ऋषि कपूर, वहीदा रहमान, पवन मल्होत्रा, सुप्रिया पाठक, तनवी आजमी, केके रैना, अतुल कुलकर्णी सबसे पहली बात ‍तो ये कि ‘देहली 6’ एक प्रेम कहानी नहीं है। यह दिल्ली 6 में रहने वाले लोगों की फिल्म है, जहाँ अलग-अलग धर्म के लोग सँकरी गलियों और पुराने घरों में साथ रहते हैं। ऐसा लगता है कि समय वहाँ अटक गया है या वे लोग समय के हिसाब से नहीं बदले और न ही उनकी सोच बदली। वैसे भारत के लगभग हर बड़े शहर में एक क्षेत्र ऐसा होता है, जिसे हम पुराना कहते हैं। दिल्ली 6 के हर किरदार की अपनी कहानी और सोच है, जिनके जरिये निर्देशक राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने भारतीय समाज का चित्रण करने की कोशिश की है। इस फिल्म को देखकर पिछले वर्ष प्रदर्शित श्याम बेनेगल की ‘वेलकम टू सज्जनपुर’ की याद आना स्वाभाविक है। उस फिल्म में भी बेनेगल ने किरदारों के जरिये देश की नब्ज टटोली थी। वैसे हम शॉपिंग कॉम्प्लेक्स के नाम पर भले ही तरक्की की बात करें, लेकिन अभी भी हमारे देश के ज्यादातर लोगों की सोच दिल्ली 6 में रहने वालों की तरह ही है। वे घर की महिलाओं को दोयम दर्जा देते हैं। बिट्टू (सोनम कपूर) कुछ बनना चाहती है, लेकिन उसके पिता (ओम पुरी) उसकी शादी कर देना चाहते हैं। बिट्टू अपनी ख्वाहिश पूरी करना चाहती है और उसे लगता है कि इंडियन आयडल उसके लिए आयडल है। जलेबी (दिव्या दत्ता) को अछूत माना जाता है। भ्रष्ट पुलिस ऑफिसर (विजय राज) को उसके मंदिर जाने पर आपत्ति है, लेकिन वह उसके साथ रात बिताने के लिए तैयार है। दो भाइयों (ओम पुरी और पवन मल्होत्रा) के बीच नहीं पटती। वे घर के बीच दीवार बना लेते हैं, लेकिन उनकी पत्नियाँ ईंट खिसकाकर बातें करती हैं। कुछ समाज के ठेकेदार हैं, जो मंदिर-मस्जिद के नाम पर लोगों को भड़काते हैं और उनमें झगड़ा करवाते हैं। इसके अलावा एक ‘काला बंदर’ भी है, जो लोगों को मारता है, चीजें चुराता है। उसे किसी ने नहीं देखा, लेकिन उसके बारे में तरह-तरह की अफवाहें हैं। इन सब बातों का गवाह बनता है फिल्म का नायक रोशन (अभिषेक बच्चन), जो न्यूयॉर्क से दिल्ली अपनी बीमार दादी (वहीदा रहमान) को छोड़ने के लिए आया है। उसकी दादी अपने अंतिम दिन अपने पुश्तैनी घर में गुजारना चाहती है। उसे दिल्ली 6 के लोग किसी अजूबे से कम नहीं लगते। वह मोबाइल से उनके फोटो खींचता रहता है। परिस्थितियाँ कुछ ऐसी घटती हैं कि फिल्म के अंत में नायक वापस न्यूयॉर्क नहीं जाना चाहता और उसकी दादी अपने ही लोगों से खफा होकर लौटना चाहती है। राकेश मेहरा ने काला बंदर, संगीत और दिल्ली में चल रही रामलीला के जरिये अपने चरित्रों को जोड़कर फिल्म को आगे बढ़ाया है। संगीत का भी इसमें अच्छा इस्तेमाल किया गया है। कुछ दृश्य बेहतरीन हैं। जैसे ओम पुरी अपनी बेटी के होने वाले पति के पिता से दहेज के लिए बातें करते हैं और पीछे बैठे प्रेम चोपड़ा शेयर के मोलभाव करते हैं। अछूत जलेबी को रामलीला पंडाल के बाहर बैठकर सुनना पड़ती है। काले बंदर के नाम पर सब लोग अपना उल्लू सीधा करते हैं। राकेश का निर्देशन अच्छा है, लेकिन लेखन में कुछ कमियाँ रह गईं। फिल्म का पहला हिस्सा सिर्फ चरित्रों को उभारने में ही चला गया। किरदार बातें करते रहते हैं, लेकिन फिल्म की कहानी बिलकुल भी आगे नहीं बढ़ती। फिल्म का अंत भी ज्यादातर लोगों को पसंद नहीं आएगा। अभिषेक बच्चन का किरदार भी कमजोर है, जबकि वे फिल्म के नायक हैं। ऊपर से उनके ज्यादातर संवाद अँग्रेजी में हैं और उनका उच्चारण भी उन्होंने विदेशी लहजे में किया है, जिसे समझने में कई लोगों को मुश्किल आ सकती है। सोनम कपूर का अभिनय अच्छा है, लेकिन उनके चरित्र को उभरने का अवसर नहीं मिला। अभिषेक का अभिनय कहीं अच्छा है तो कहीं बुरा। ज्यादातर दृश्यों में उनके चेहरे पर एक जैसे ही भाव रहे हैं। पवन मल्होत्रा, विजय राज और दिव्या दत्ता ने अपने किरदारों को बेहतरीन तरीके से पेश किया है। ओम पुरी, ऋषि कपूर और वहीदा रहमान को सिर्फ स्टार वैल्यू बढ़ाने के लिए लिया गया है। ये भूमिकाएँ उनके जैसे कलाकारों के साथ न्याय नहीं करतीं। दिल्ली का सेट देखकर विश्वास करना मुश्किल होता है कि यह नकली है। एआर रहमान का संगीत ‘देहली 6’ की सबसे बड़ी खासियत है। मसकली, रहना तू, ये दिल्ली है मेरे यार गीत सुनने लायक हैं। गीतकार प्रसून जोशी का काम भी उल्लेखनीय है। तकनीकी रूप से फिल्म सशक्त है, लेकिन फिल्म के अधिकांश दृश्यों में अँधेरा नजर आता है। कुछ कमियों के बावजूद इस शुद्ध देशी फिल्म को एक बार देखा जा सकता है।
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‘फिराक’ उन फिल्मों में से है, जो सोचने पर मजबूर करती है। बैनर : परसेप्ट पिक्चर कंपनी निर्देशक : नंदिता दास संगीत : रजत ढोलकिया और पीयूष कनौजिया कलाकार : नसीरुद्दीन शाह, परेश रावल, रघुवीर यादव, दीप्ति नवल, संजय सूरी, शहाना गोस्वामी, टिस्का चोपड़ा मनोरंजन के साथ-साथ फिल्म अपनी बात कहने या विचार प्रकट करने का भी सशक्त माध्यम है। 2002 में गुजरात में दंगों की आड़ में जो कुछ हुआ उससे अभिनेत्री नंदिता दास भी आहत हुईं और उन्होंने अपनी भावनाओं को ‘फिराक’ के जरिये पेश किया है। युद्ध या हिंसा कभी भी किसी समस्या का हल नहीं हो सकते। इनके खत्म होने के बाद लंबे समय तक इनका दुष्प्रभाव रहता है। फिराक में भी दंगों के समाप्त होने के बाद इसके ‘आफ्टर इफेक्ट्स’ दिखाए गए हैं। हिंसा में कई लोग मर जाते हैं, लेकिन जो जीवित रहते हैं उनका जीवन भी किसी यातना से कम नहीं होता। इस सांप्रदायिक हिंसा की चपेट में वे लोग भी आते हैं, जिनका घर जला नहीं या कोई करीबी मारा नहीं गया है। फिल्म में 6 कहानियाँ हैं जो आपस में गुँथी हुई हैं। इसके पात्र हर उम्र और वर्ग के हैं, जिनकी जिंदगी के 24 घंटों को दिखाया गया है। पति (परेश रावल) का अत्याचार सहने वाली मध्यमवर्गीय पत्नी (दीप्ति नवल) को इस बात का पश्चाताप है कि वह दंगों के समय अपने घर के बाहर जान की भीख माँगने वाली महिला की कोई मदद नहीं कर सकी। संजय सूरी एक उच्चवर्गीय और पढ़ा-लिखा मुस्लिम है, जिसने हिंदू महिला से शादी की है। उसका स्टोर दंगों के दौरान लूट लिया गया है और वह डर के मारे गुजरात छोड़कर दिल्ली जाना चाहता है। उसे अपना नाम बताने में डर लगता है क्योंकि धर्म उजागर होने का भय है। शहाना का घर दंगों में जला दिया गया है और उसे अपनी खास हिंदू सहेली के पति पर शक है। उनकी दोस्ती की परीक्षा इस कठिन समय पर होती है। सड़कों पर घूमता एक बच्चा है, जिसके परिवार को मार डाला गया है और वह अपने पिता की तलाश कर रहा है। एक वृद्ध मुस्लिम संगीतकार (नसीरुद्दीन शाह) है, जो इस सांप्रदायिक हिंसा से बेहद दु:खी है। उसका नौकर उससे पूछता है कि क्या आपको इस बात का दु:ख नहीं है कि मुस्लिम मारे जा रहे हैं। वह कहता है कि उसे मनुष्यों के मरने का दु:ख है। कुछ जवान युवक हैं जो हिंदुओं से बदला लेना चाहते हैं। निर्देशक के रूप में ‍नंदिता प्रभावित करती हैं। फिल्म की शुरुआत वाला दृश्य झकझोर देता है। लाशों को अंतिम संस्कार के लिए ट्रक के जरिये लाया जाता है। मुस्लिम व्यक्तियों के बीच एक हिंदू स्त्री की लाश देखकर कब्र खोदने वाला उस लाश को मारना चाहता है। यह दृश्य दिखाता है कि इनसान इतना भी ‍नीचे गिर सकता है। नंदिता ने पुरुषों के मुकाबले महिला किरदारों को सशक्त दिखाया है। बिना दंगों को स्क्रीन पर दिखाए चरित्रों के जरिये दहशत का माहौल पैदा किया है। फिल्म देखते समय इस भय को महसूस किया जा सकता है। फिल्म के जरिये उन्होंने दुष्प्रभाव तो दिखा दिया, लेकिन इसका कोई हल नहीं सुझाया । अंत दर्शकों को सोचना है। फिल्म के अंत में उन्होंने उस बच्चे का क्लोजअप के जरिये चेहरा दिखाया है, जो अपने पिता को ढूँढ रहा है। उसकी आँखों में ढेर सारे प्रश्न तैर रहे हैं। उसका क्या भविष्य होगा इसकी कल्पना की जा सकती है। आँखों में बच्चे का चेहरा लिए दर्शक जब सिनेमाघर छोड़ता है तो उसके दिमाग में भी कई सवाल कौंधते हैं। फिल्म में कुछ कमियाँ भी हैं। नसीर का किरदार अचानक सकारात्मक हो जाता है। परेश रावल के किरदार को भी ठीक से विकसित नहीं किया गया है। कुछ युवकों द्वारा बंदूक हासिल करने वाले दृश्य विशेष प्रभाव नहीं छोड़ पाते हैं। बच्चे को हर कहानी से भी जोड़ा जा सकता था। फिल्म में गुजराती, हिंदी और अँग्रेजी संवादों का घालमेल है, जिसे समझने में कुछ दर्शकों को तकलीफ हो सकती है। सभी कलाकारों ने अपने पात्रों को बखूबी जिया है। ऐसा लगता ही नहीं कि कोई अभिनय कर रहा है। रवि के. चन्द्रन की सिनेमाटोग्राफी उल्लेखनीय है। ‘फिराक’ उन फिल्मों में से है, जो सोचने पर मजबूर करती है।
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बेटा जवान हो गया। उसे काम से लगाना है। पापा फिल्म निर्माता-निर्देशक हैं। फौरन एक फिल्म प्लान कर ली गई। वक्त के साथ-साथ सिनेमा बहुत बदल चुका है, ये पापा को पता ही नहीं है। वे अभी भी सोचते हैं कि पांच गाने, पांच फाइट सीन, चार कॉमेडी सीन, तीन इमोशनल सीन डाल दो फिल्म तैयार हो जाती है। ये सारे सीन फिल्मा लिए गए। अरे याद आया, कहानी भी तो चाहिए। कुछ भी लिख डालो, चल जाता है। जो मन में आया लिख दिया गया। निश्चित अंतराल पर गाने, फाइट सीन वगैरह-वगैरह डाल दिए गए। जो फिल्म तैयार हुई उसका नाम रख दिया गया 'कर ले प्यार कर ले'। बेटे की ख्वाहिश की इच्छा बेचारे उन दर्शकों को भुगतना पड़ती है जो ऐसी फिल्म देखने चले जाते हैं। पूरी फिल्म बेसिर-पैर है। यह बात फिल्म की पहली फ्रेम देखने पर ही पता चल जाती है और इसके बाद दो घंटे तक तमाम ऊटपटांग हरकतें जारी रहती हैं जो सिर दर्द पैदा करती हैं। कबीर और प्रीत की यह प्रेम कहानी है। कबीर की मां का मानना है कि जब भी प्रीत उसके बेटे की लाइफ में आती है तो कुछ न कुछ उसके बेटे के साथ गलत होता है। वह ऐसा क्यों मानती है इसके पीछे कोई कारण नहीं है और न ही ऐसे ठोस प्रसंग दिखाए गए हैं। कबीर की मां अपने बेटे को कई शहरों में लेकर घूमती रहती हैं, ऐसा क्यों करती है इसका भी कोई जवाब नहीं है। 12 साल बाद वे फिर उसी शहर में लौटते हैं और कबीर-प्रीत फिर एक बार मिल जाते हैं। दोनों एक ही कॉलेज में पढ़ते हैं जहां पढ़ाई का तो पता नहीं, लेकिन फाइट जरूर होती है। यही पर एक विलेन की एंट्री होती है जिसका पिता लोगों के हाथ-पैर काटता रहता है। थोड़ी बहुत मारा-मारी होती है और हैप्पी एंड के साथ फिल्म खत्म। ये कहानी यहां तो फिर भी सलीके से लिखी गई है, लेकिन फिल्म में इस तरह प्रस्तुत की गई है कि कुछ भी समझ में नहीं आता। कभी भी गाना टपक पड़ता है या फाइट सीन आ जाते हैं। किरदार अचानक चीखने-चिल्लाने लगते हैं। फिल्म के टाइटल में लिखा गया है कि राजेश पांडे नामक शख्स ने इसका निर्देशन किया है, लेकिन फिल्म देख कही ऐसा नहीं लगता कि इसका कोई निर्देशक है। लगता है कि ऐसी कार में बैठे हैं जिसके ब्रेक फेल हो गए हैं और वो कही भी चले जा रही है। फिल्म के हर विभाग की हालत ऐसी ही है। संगीत के नाम पर शोर पैदा किया गया है। कोरियोग्राफी देख गुस्सा आने लगता है। न एडिटिंग ढंग की है और न ही सिनेमाटोग्राफी। शिव दर्शन ने इस फिल्म से बॉलीवुड में शुरुआत की है। उनमें एनर्जी तो भरपूर है, लेकिन अभिनय के मामले में बेहद कच्चे हैं। फाइट और डांस के मामले में भी वे कमजोर रहे। उन्होंने संवाद इतने चीख-चीख कर बोले हैं, जैसे बिना माइक के भीड़ को संबोधित कर रहे हों। इस मामले में उनका दोष कम और निर्देशक का ज्यादा है। हीरोइन हरलीन कौर भी प्रभावित नहीं करती हैं। फिल्म के अन्य कलाकारों का अभिनय भी बेहद घटिया है। कुल मिलाकर 'कर ले प्यार कर ले' से दूरी बनाए रखने में ही भलाई है। बैनर : श्रीकृष्णा इंटरनेशनल निर्माता : सुनील दर्शन निर्देशक : राजेश पांडे संगीत : रशीद खान, प्रशांत सिंह, मीत ब्रदर्स, रेयान अमीन कलाकार : शिव दर्शन, हसलीन कौर सेंसर सर्टिफिकेट : ए * एक घंटा 56 मिनट
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यह कहानी भारत में आजादी से पहले की है, जिसमें युद्ध के साथ-साथ आपको रोमांस भी देखने को मिलेगा। जैसा कि आपको पता ही है, इस आजादी की लड़ाई में देश के अलग-अलग सपूतों का अपना-अपना अलग तरीका था। महात्मा गांधी ने आजादी के लिए अहिंसा को अपनाया, सुभाष चंद्र बोस ने अंग्रेजों को देश से बाहर करने के लिए आजाद हिंद फौज का गठन किया। ...और ऐसे ही संघर्ष के बीच दिलेर जूलिया (कंगना) 40 के दशक में कई दिलों पर राज कर रही होती हैं। जहां एक तरफ उनका शादीशुदा प्रड्यूसर रूसी बिलमोरिया (सैफ) उनपर फिदा रहता है, वहीं बॉर्डर पर तैनात जमादार नवाब मलिक (शाहिद) भी उससे बेइंतहां प्यार करता है। रंगून रिव्यू: 'रंगून' एक महत्वकांक्षी कोशिश है, एक ऐसी फिल्म बनाने की जो प्रेम त्रिकोण पर बेस्ड है लेकिन युद्ध की पृष्ठभूमि पर आधारित है। 1942 में आई 'कैसाब्लांका; और 2002 में आई 'शिकागो' से इस फिल्म का इतिहास काफी मेल खाता है, लेकिन अगर इस फिल्म का संगीत कुछ और मजेदार होता तो बेहतर होता जो फिल्म के बीच-बीच में आता है। कई भयंकर वॉर सीन के बीच कुछ नाच-गाने के साथ-साथ आपको एक अच्छा रोमांस भी देखने को मिलेगा। इन सब मसालों के बीच फिल्म में एक घुसपैठिए का ऐंगल भी है जो फिल्म में किसी साजिश की ओर इशारा करता है। निर्देशक विशाल भारद्वाज जिनकी फिल्मों के खजाने में 'मकबूल', 'ओमकारा' और 'हैदर' जैसी बेहतरीन फिल्में हैं...उन्होंने इस फिल्म को भी अच्छा बनाया है लेकिन पूरी तरह से नहीं। फिल्म के कुछ सीन जहां बेवजह डाले हुए लगते हैं वहीं कुछ सीन बेहद ऊबाऊ हैं। काफी ज्यादा वॉर सीन, प्यार और धोखे को दिखाने के चक्कर में इसका अंत कुछ बेतरतीब नज़र आ रहा है और दर्शकों के मन में कश्मकश वाली स्थिति रह जाती है। इस फिल्म में सैफ ने जहां अपने व्यापारी के किरदार को बेहद सटीक तरीके से निभाया है वहीं, शाहिद का अभिनय दमदार है। कंगना यकीनन फिल्म में सबसे अहम हैं। उनके लिए दो लोग किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। जहां रूसी के लिए जूलिया बेशकीमती हैं, वहीं देशभक्त नवाब के दिलों की धड़कन जो कि उसकी बहादुरी से प्यार करता है। भले ही लव सीन काभी अच्छी तरह से लिखे और काफी खूबसूरती से शूट किए गए हैं, लेकिन उनमें जुनून का अभाव नज़र आ रहा है। शाहिद और कंगना के बीच हुए इतने सारे लिप-लॉक सीन में भी वह जुनून नज़र नहीं आता। फिल्म में एक डायलॉग है, जिसमें सैफ ब्रिटिश ऑफिसर को कहता है, 'हम ऐक्टर्स हैं, हम जानते हैं लोगों को कैसे राजी किया जाता है।' यह यहां पूरी तरह से फिट नहीं। जूलिया फिल्म में बार-बार कहती हैं, 'ब्लडी हेल'...काश इन तीनों अभिनेताओं ने सचमुच इस बात को अपनाकर खुद को इस किरदार में पूरी तरह से डूबो लिया होता तो यह फिल्म हर लिहाज से एक दूसरे ही लेवल पर पहुंच जाती।
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कपूर एंड सन्स इस बात दर्शाती है कि गलतियां सभी से होती हैं। परिवार के सदस्यों के बीच भी तनाव होता है, लेकिन यही ऐसी जगह है जहां सबको आसानी से माफ भी कर दिया जाता है। फिल्म की कहानी दादा (ऋषि कपूर), पापा (रजत कपूर) और उनके दो बेटों राहुल (फवाद खान) और अर्जुन (सिद्धार्थ मल्होत्रा) के इर्दगिर्द घूमती है। राहुल लंदन में तो अर्जुन न्यूजर्सी में हैं। दोनों लेखक हैं। राहुल सफल हो चुका है, लेकिन अर्जुन का संघर्ष जारी है। दादा को दिल का दौरा पड़ता है और दोनों भाई भारत लौटते हैं। रिश्ते के इस मकड़जाल में कुछ रिश्ते तनावपूर्ण है। मसलन अर्जुन को शिकायत है कि राहुल ने जो सफल उपन्यास लिखा है वो उसका आइडिया था जिसे बड़े भाई ने चुराया है। इन दोनों के मां-बाप के रिश्ते में भी कड़वाहट है। पिता की जिंदगी में कोई और महिला है। बिजनेस भी ठीक से नहीं चल रहा है। अर्जुन को शिकायत है कि माता-पिता राहुल को ज्यादा प्यार करते हैं। नर्स के साथ फ्लर्टिंग करने वाले और मंदाकिनी के दीवाने दादा की बीमारी के बहाने सभी इकट्ठा होते हैं। दादा की इच्‍छा है कि एक फैमिली फोटोग्राफ खींचा जाए। उस फोटोग्राफ को खींचने के पूर्व रिश्तों में काफी उथल-पुथल मचती है। कुछ राज खुलते हैं। कुछ गलतफहमियां दूर होती हैं और मन के अंदर जमा बहुत सारा मैल बह जाता है। फिल्म को शकुन बत्रा ने लिखा और निर्देशित किया है। शकुन ने 2012 में एक बेहतरीन रोमांटिक फिल्म 'एक मैं और एक तू' बनाई थी। पारिवारिक फिल्मों की कहानी लगभग एक जैसी होती है, लेकिन शकुन की इस बात के लिए तारीफ करना होगी कि उन्होंने फिल्म को गैर जरूरी भावुकता और गंभीरता से बचाए रखा है। साथ ही उनका प्रस्तुतिकरण इस पुरानी कहानी में भी ताजगी भर देता है। संभव है कि कुछ दर्शकों को 'दिल धड़कने दो' की याद भी आए जो पिछले वर्ष ही रिलीज हुई थी। कपूर परिवार का हर किरदार मजेदार है। किरदार इस तरह से प्रस्तुत किए हैं कि दर्शकों को कपूर परिवार अपना ही परिवार लगने लगता है। ऐसा लगता है मानो हम अदृश्य रूप से उनके घर में मौजूद हैं और सारी बातें सुन और देख रहे हैं। इस परिवार में झगड़े इस तरह के होते हैं कि उनमें प्यार झलकता है। वैसे कहा भी जाता है कि जिस परिवार के सदस्य छोटी-छोटी बातों पर झगड़े होते हैं उनमें आपसी प्यार ज्यादा ही होता है। फिल्म का पहला हाफ मौज-मस्ती से भरा हुआ है, इसमें ऋषि कपूर के कुछ सीन तथा आलिया-सिद्धार्थ-फवाद के बीच के दृश्य बेहतरीन बन पड़े हैं जो आपको हंसाते हैं। अच्छी बात यह है कि कहानी में लगातार ट्विस्ट आते रहते हैं जो आपकी रूचि और उत्सुकता को बनाए रखते हैं। दूसरे हाफ में कहानी गंभीर मोड़ लेती है और यह हिस्सा थोड़ा लंबा लगता है। हालांकि कुछ सीन ऐसे हैं जो आपको भावुक कर देते हैं। कपूर एं ड सन्स के टिकट बुक करने के लिए क्लिक करें निर्देशक के रूप में शकुन बत्रा का काम अच्छा है। उन्होंने फिल्म को युथफुल लुक देते हुए हास्य, इमोशन और ड्रामे का संतुलन बनाए रखा है। फिल्म में उन्होंने कई खुशनुमा पल रचे हैं। दूसरे हाफ में जरूर वे कुछ सीन कम कर सकते थे। कलाकारों से उन्होंने बेहतरीन अभिनय लिया है। ऋषि कपूर का मेकअप जरूर अटपटा लग सकता है, लेकिन एक जिंदादिल बूढ़े के रूप में उन्होंने बेहतरीन अभिनय किया है। कपूर फैमिली का आलिया भट्ट हिस्सा नहीं है, लेकिन उनका ट्रेक कहानी में अच्छी तरह से पिरोया गया है। आलिया ने पूरे आत्मविश्वास के साथ अभिनय किया है। अपने पैरेंट्स की मौत के बारे में जब वे सिद्धार्थ को बताती हैं तो उस सीन में उनका अभिनय देखने लायक हैं। एंग्री यंग नुमा किरदार सिद्धार्थ पर जमते हैं। उन्हें इसी तरह का किरदार यहां भी मिला है लेकिन उनका अभिनय औसत रहा है। सिद्धार्थ पर फवाद खान भारी पड़े हैं। एक 'परफेक्ट सन' के किरदार को जरूरी स्टाइल और एटीट्यूड उन्होंने दिया है। रत्ना पाठक शाह और रतज कपूर का शुमार तो बेहतरीन कलाकारों में होता है और यहां भी उन्होंने अपना काम खूब किया है। फिल्म के संवाद उल्लेखनीय हैं। संगीत अच्छा है और बैकग्राउंड में बजते गाने कहानी को धार देते हैं। कुल मिलाकर 'कपूर एंड सन्स' में इमोशन, कॉमेडी और ड्रामे का मिश्रण बढ़िया तरीके से किया गया है। फिल्म आपका मनोरंजन करती है। कपूर परिवार की हरकतें देखी जा सकती हैं। बैनर : धर्मा प्रोडक्शन्स, फॉक्स स्टार स्टुडियोज़ निर्माता : हीरू यश जौहर, करण जौहर, अपूर्वा मेहता निर्देशक : शकुन बत्रा संगीत : अमाल मलिक, बादशाह, फा‍जि़लपुरिया, आर्को, बेनी दयाल, तनिष्क बागची कलाकार : सिद्धार्थ मल्होत्रा, आलिया भट्ट, फवाद खान, ऋषि कपूर, रजत कपूर, रत्ना पाठक शाह सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 20 मिनट
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कहानी: मुंबई पुलिस का एक पुलिसवाला आदी (विजय वर्मा) क्राइम ब्रांच जॉइन करता है और अपने पहले ही केस में वह इस कशमकश में फंस जाता है कि उसे बचकर भागते एक कत्ल के आरोपी को शूट करना चाहिए या नहीं।रिव्यू: क्राइम-ड्रामा फिल्म 'मॉनसून शूटआउट' से डायरेक्शन की शुरुआत करने वाले अमित कुमार ने इस फिल्म की कहानी से ज्यादा स्टाइल पर ध्यान दिया है। फिल्म की पूरी कहानी इस बात पर टिकी है कि आदी का सामना जब कत्ल के आरोपी शिवा (नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी) से होता है तो उसका एक फैसला कैसे उसकी और शिवा की पूरी जिंदगी बदल सकता है। आदी इस दुविधा में फंसा हुआ है कि उसे सही रास्ता चुनना चाहिए या गलत या फिर जिंदगी में बीच के रास्ते पर चलना चाहिए। हालांकि जब उसका सच से सामना होता है तो उसे महसूस होता है कि जिंदगी आदमी के किसी भी फैसले के ऊपर निर्भर रहने का मौका नहीं देती है। फिल्म की कहानी में दिखाया गया है कि किस तरह एक पुलिसवाले के निर्णय और काम में समझौता, निष्पक्षता और नैतिकता शामिल रहती है। जहां फिल्म की कहानी दर्शकों को बांधे रखती है वहीं इसके साथ किया गया ट्रीटमेंट कमजोर साबित होता है। फिल्म के हीरो के किसी निर्णय के तीन वर्जन से शुरू होने वाली फिल्म का अंत दर्शकों को निराश करता है। फिल्म का स्क्रीनप्ले अच्छा है लेकिन जब यह पर्दे पर उतारा गया तो इसमें इतनी सटीकता नहीं दिखती है। फिल्म की सिनेमैटॉग्रफी में मुंबई शहर के मिजाज को बेहतरीन तरीके से दर्शाया गया है। अपनी पहली फिल्म में विजय वर्मा ने अच्छा काम किया है और कातिल के रूप में नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी ने नेगेटिव रोल बेहतरीन तरीके से निभाया है। फिल्म के ऐक्टर्स ऐसे रोल पहले भी निभा चुके हैं जिसके कारण उन्हें अपने कैरक्टर को स्क्रीन पर पूरी तरह जीवंत करने का मौका नहीं मिला है। हालांकि अगर क्राइम-ड्रामा टाइप की फिल्में आपको पसंद हैं तो आप इसे एक बार जरूर देख सकते हैं।
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Chandermohan.sharma@timesgroup.com बॉलिवुड में अक्सर समाज में घटित हो रही घटनाओं पर फिल्में बनाने का ट्रेंड रहा है, लेकिन अगर कंप्लीट होमवर्क और पूरी तैयारी के बाद ऐसी फिल्म बनाई जाती है तो यह यकीनन दर्शकों के साथ अन्याय है। साथ ही खुद मेकर्स के लिए बॉक्स आफिस की दृष्टि से भी यह जोखिम भरा काम ही है। बेशक इस फिल्म के मेकर्स ने अपनी फिल्म के लिए एक ऐसा करंट टॉपिक चुना, जो पिछले कई सालों से मीडिया की सुर्खियों में छाया हुआ है। देश के नंबर वन कॉर्पोरेट घरानों द्वारा सरकारी एंजेंसियों के साथ मिलीभगत करके गरीब किसानों की उपजाऊ भूमि को सस्ती कीमतों पर अधिग्रहित करके उस पर कंकरीट के जंगल खडे़ करना, जबरन जमीन छिनने के बाद गरीब किसानों द्वारा की रही खुदकुशी की घटनाओं जैस गंभीर संवदेनशील सब्जेक्ट इस फिल्म को दूसरी चालू मसाला फिल्मों से अलग करते हों, लेकिन कमजोर निर्देशन, लचर स्क्रिप्ट के साथ सीमित बजट के चलते 'वाह ताज' एक बेहद कमजोर फिल्म है। इस फिल्म को देखने के बाद आप 'वाह ताज' नहीं बल्कि 'आह ताज' करते नजर आएंगे। कहानी: महाराष्ट्र के एक छोटे से गांव से युवा किसान तुकाराम (श्रेयस तलपड़े) अपनी खुबसूरत पत्नी सुनंदा (मंजरी फडनीस) और करीब आठ-दस साल की बेटी के साथ आगरा के ताजमहल के मेन गेट पर धरना देकर बैठ जाता है। तुकाराम का दावा है कि ताजमहल उसके पुरखों की जमीन पर कब्जा करके मुगल बादशाह शाहजहां ने बनवाया। अब तुकाराम अपनी इसी पुरखों की जमीन को सरकार से वापस लेने के लिए परिवार के साथ आगरा में पहुंचा हुआ है। तुकाराम अपनी जमीन का कब्जा हासिल करने के लिए परिवार के साथ ताज महल के गेट के बाहर भूखहड़ताल शुरू कर देता है। तुकाराम को कई सामाजिक संगठनों और नेताओं का साथ भी मिलता है। स्टेट का होम मिनिस्टर हेमंत पांडे तुकाराम के इस धरने को समाप्त करवाने की कवायद में लगा है, लेकिन मामला अदालत में पहुंच चुका है। कोर्ट में तुकाराम कुछ पुराने दस्तावेज पेश करता है और अदालत से उसे स्टे ऑर्डर मिल जाता है। इस स्टे के बाद ताजमहल को टूरिस्टों के लिए बंद कर दिया जाता है। देश विदेश में यह खबर आग की तरह फैलती है। ऐसी हालत में सरकार तुकाराम के सामने ताजमहल की जमीन के बदले देश के किसी भी हिस्से में जमीन देने का प्रस्ताव रखती है। ऐक्टिंग: ठेठ मराठी किसान के रोल में श्रेयस तलपड़े ने अच्छी ऐक्टिंग की है। सुनंदा के रोल में मंजरी फडनीस श्रेयस के ऑपोजिट अच्छी लगी हैं। स्टेट के होम मिनिस्टर के रोल में हेमंत पांडे ने ओवर ऐक्टिंग की है तो वहीं विश्वजीत प्रधान छोटे से किरदार में भी अपनी पहचान छोड़ने में कामयाब रहे। निर्देशन: यंग डायरेक्टर अजित सिन्हा की यह पहली फिल्म है। कमजोर स्क्रिप्ट के चलते अजित की फिल्म पर कहीं पकड़ नजर नहीं आती। फिल्म की शुरुआत बेहद कमजोर है तो इंटरवल के बाद भी फिल्म कहीं बांध नहीं पाती। श्रेयस खुद मराठी हैं सो उन्होंने तुकाराम के किरदार को अपने दम पर कुछ प्रभावशाली बनाने की कोशिश की है। बेशक फिल्म का सब्जेक्ट अच्छा था, लेकिन अगर स्क्रिप्ट पर होम वर्के करने के बाद इस पर फिल्म बनती तो शायद कुछ असरदार बन पाती। संगीत: फिल्म का संगीत बस ठीक-ठाक है। फिल्म में ऐसा कोई ऐसा गाना नहीं, जो आपको थिएटर से बाहर आने के बाद याद रह पाए। क्यों देखें: ऐसी कोई वजह नहीं कि हम आपसे 'वाह ताज' देखने के लिए कह सकें। अगर सिर्फ दो घंटे का टाइम पास ही करना है तो देख आइए, लेकिन यह फैसला भी आपका ही होगा।
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इस फिल्म का टाइटल देखकर आप इस फिल्म को एक फैमिली एंटरटेनर मूवी समझ रहे हैं तो आप सौ फीसदी गलत हैं। पूरी फिल्म देखने के बाद मैं खुद हैरान हूं कि डायरेक्टर या प्रड्यूसर ने अपनी इस फिल्म का टाइटल सब्जेक्ट के मिजाज के मुताबिक गैंगस्टर या डॉन टाइप क्यों नहीं रखा। हां, टाइटल को अपनी ओर से सही ठहराने के लिए फिल्म में इतना जरूर दिखाया गया है कि गवली को लोग डैडी कहते हैं। वैसे, अंत तक फिल्म में जहां आपको हॉट सेक्सी सीन की भरमार देखने को मिलेगी वहीं अगर फिल्म की मार्केटिग टीम फिल्म को प्रमोट करने के लिए कुछ ऐसा कॉन्टेस्ट रखती है कि बताएं फिल्म में कुल कितनी गोलियां चलीं तो शायद इस सवाल का सही जवाब जानने और कॉन्टेस्ट जीतने के लिए दर्शक इस फिल्म को शायद कई बार देखने थिअटर का रुख करते। वैसे, यह फिल्म मुंबई में 70-80 के दौर में अंडरवर्ल्ड और बाद में पॉलिटिक्स में भी अपनी कुछ अलग पहचान बनाने वाले अरुण गवली की ज़िंदगी पर बनी है। यकीनन, फिल्म में गवली की लाइफ के कुछ ऐसे अनछुए पहलुओं को भी डायरेक्टर ने अच्छे ढंग से दिखाया है तो वहीं फिल्म में गवली का लीड किरदार निभा रहे ऐक्टर अर्जुन रामपाल भी अपने किरदार को जीवंत बनाने के मकसद से फिल्म की शूटिंग शुरू होने से पहले और शूटिंग के दौरान कई बार गवली से मिलकर भी आए। शायद यही वजह है कि लंबे अर्से बाद स्क्रीन पर नजर आए अर्जुन अपने किरदार में फिट नजर आते हैं। इतना ही नहीं फिल्म में गैंगस्टर अरुण गवली और अंडरवर्ल्ड डॉन डी कंपनी के हेड दाउद इब्राहिम के साथ के रिश्तों की परत तक भी जाती है। अंत तक यह फिल्म एक ऐक्शन पैक्ड गैंगस्टर फिल्म है जिसमें गवली की 1976 से 2012 तक की जर्नी को डायरेक्टर ने अपने ढंग से दिखाने की कोशिश तो जरूर की, लेकिन बॉक्स आफिस मसालों और टिकट खिड़की पर बिकाऊ मसालों को कुछ ज्यादा ही परोसने के फेर में ऐसे फंस कर रह गए कि फिल्म एक एवरेज फिल्म से ज्यादा ही बन पाई। स्टोरी प्लॉट : इस फिल्म की शुरुआत 1976 के दौर में शुरू होती है। अरुण एक गरीब मिल मज़दूर का बेटा है जो अपनी दोस्त मंडली के साथ मिलकर सड़कछाप दादागीरी करता है। कुछ अर्से बाद गवली और उसकी टीम की यही दादागीरी गुंडागर्दी में बदल जाती है। अब गवली और उसके दोस्तों ने अपना गैंग बना लिया है। अंडरवर्ल्ड डॉन भाई तक जब गवली ऐंड कंपनी के ऐसे कारनामों की खबर पहुंचती है तो वह अपने आदमी भेजकर गवली और उसके दोस्तों के साथ मीटिंग करता है। इसके बाद गवली और उसके दोस्त भाई के इशारों पर सुपारी किलर का काम शुरू करने लगते हैं। गवली के पीछे पुलिस ऑफिसर विजयकर नितिन (निशिकांत कामत ) लगा हुआ है जो किसी भी कीमत पर गवली को अपनी गिरफ्त में लेना चाहता है। बेशक, इस फिल्म में डायरेक्टर ने न जाने किसी वजह से भाई का कहीं नाम तो नहीं लिया, लेकिन आंखों में रंगीन चश्मा पहले स्क्रीन पर टीवी के सामने बैठकर क्रिकेट के मैच देख रहे शख्स को देखकर साफ हो जाता है कि यह डी कंपनी का हेड ही है। डी कंपनी के लिए काम कर रहा अरुण गवली अब अपने इन्हीं दोस्तों के साथ अलग से काम करना चाहता है यानी अपना गैंग बनाना चाहता है। गवली की शादी एक मुस्लिम लड़की जुबैदा (ऐश्वर्या राजेश) से हो जाती है। अब गवली ऐंड टीम खुद के लिए काम करना शुरू करती है तो इनकी भाई से दुश्मनी हो जाती है। इसी के साथ साथ फिल्म में गवली की पर्सनल लाइफ और अंडरवर्ल्ड से पॉलिटिक्स तक के सफर को पेश किया गया है। अगर फिल्म में ऐक्टिंग की बात की जाए तो अर्जुन रामपाल ने अरुण गवली के रोल में अच्छी मेहनत की है, लेकिन ऐसा भी नहीं कि अर्जुन ने अपनी ऐक्टिंग के दम पर अपने किरदार को यादगार बना दिया हो। अगर दो शब्दों में कहा जाए तो पूरी फिल्म में ही उनका फेस एक्सप्रेशन जैसा नजर आता है। डायरेक्टर से ऐक्टर बने निशिकांत कामत ने पुलिस ऑफिसर के किरदार में अच्छी मेहनत की है। अपनी ऐक्टिंग के दम पर कामत ने इस किरदार को जानदार बना दिया है। समझ में नहीं आता कि फरहान जैसे मंझे हुए ऐक्टर ने भाई का ऐसा किरदार फिल्म में क्यों निभाया जिसमें करने के लिए कुछ खास था हीं नहीं। यह समझ से परे है कि हमारे बॉलिवुड मेकर हर फिल्म में चाहे कहानी या माहौल की डिमांड हो या न हो फिल्म में दो तीन गाने क्यों ठूंस देते हैं। कुछ यही हाल 'डैडी' का भी है, गाने इस फिल्म को और स्लो और दर्शकों को हॉल से बाहर भेजने का काम करते हैं। वहीं डायरेक्टर आशीम आहलूवालिया पूरी फिल्म में गवली के किरदार और मारामारी को लेकर कुछ ऐसे उलझे कि फिल्म एक बी सी क्लास रूटीन गैंगस्टर फिल्म बनकर रह गई। अगर आप गैंगस्टर मूवीज़ के पक्के शौकीन हैं और कभी अंडरवर्ल्ड की दुनिया में अपनी अलग पहचान बना चुके डॉन गवली के बारे में कुछ ज्यादा ही जानना चाहते हैं और अर्जुन के पक्के फैन हैं तो इस फिल्म को देखने जा सकते हैं।
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