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देओल्स के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि वे समय के हिसाब से बदलने को तैयार ही नहीं हैं। वे अपनी परछाई से ही बाहर नहीं निकलना चाहते हैं जबकि पिछले कुछ वर्षों में हिंदी सिनेमा और उसके दर्शक बहुत बदल गए हैं। कमर्शियल फॉर्मेट में भी उनको लेकर सही फिल्में नहीं बन पा रही है।
सात वर्ष पहले धर्मेन्द्र, सनी देओल और बॉबी देओल को लेकर 'यमला पगला दीवाना' नामक हास्य फिल्म बनी थी जो पसंद की गई थी। बस, देओल्स को लगा कि उनके हाथ सफलता का फॉर्मूला लग गया है और उसे उन्होंने दोबारा और तिबारा आजमाया।
आश्चर्य की बात तो यह है कि इस सीरिज की दूसरी फिल्म असफल रही थी इसके बावजूद उन्होंने तीसरी कड़ी बनाई। यहां तक भी ठीक है, लेकिन गलतियों से उन्होंने कोई सबक नहीं सीखा और 'यमला पगला दीवाना फिर से' को देख घोर निराशा होती है। पैसा, समय, मेहनत सब व्यर्थ हो गया।
पूरन (सनी देओल) एक वैद्य है जो अपने निकम्मे भाई काला (बॉबी देओल) के साथ अमृतसर में रहता है। परमार (धर्मेन्द्र) एक वकील है और पूरन का किराएदार है। पूरन द्वारा बनाई गई 'वज्रकवच' एक ऐसी आयुर्वेदिक दवाई है जिससे सभी स्वस्थ रहते हैं। मारफतिया (मोहन कपूर) सूरत में एक दवाई कंपनी चलाता है और वह वज्रकवच का फॉर्मूला हासिल कर करोड़ों रुपये कमाना चाहता है।
वह पूरन को फॉर्मूला बेचने के करोड़ों रुपये ऑफर करता है, लेकिन पूरन नहीं मानता। चीकू (कृति खरबंदा) नामक लड़की को मारफतिया, पूरन के पास आयुर्वेद सीखने को भेजता है। इस दौरान चीकू उस फॉर्मूले को चुरा लेती है। मारफतिया वज्रकवच को रजिस्टर्ड करवा लेता है और पूरन को नोटिस भेजता है कि वह उसकी दवाई का गलत उपयोग कर रहा है। पूरन, काला और परमार गुजरात जाकर उसके खिलाफ मुकदमा लड़ते हैं।
धीरज रतन नामक शख्स ने यह बचकानी कहानी लिखी है जिसे बच्चे भी पसंद नहीं करे। खास बात तो धीरज के इस टैलेंट में है कि उनकी कहानी पर करोड़ों रुपये लगाने वाले तैयार हो गए। 'चूज़ी' कलाकार इस पर काम करने को तैयार हो गए और 'यमला पगला दीवाना फिर से' नामक फिल्म बनकर रिलीज भी हो गई। किसी ने भी इस घटिया कहानी पर सवाल नहीं उठाए?
कॉमेडी के नाम पर इस घटिया कहानी को बर्दाश्त किया जा सकता है यदि स्क्रीनप्ले ढंग का हो। हंसने लगाने की गुंजाइश हो। लेकिन स्क्रीनप्ले भी कमजोर है। काला का रोजाना रात को दस बजे दारू पीकर बहक जाना, परमारको अप्सरा नजर आना, परमारका पुराने हिट गाने सुनना, जैसे सीन पहली बार हंसाते हैं, लेकिन यही सीन फिल्म में बार-बार दोहराए जाते हैं तो खीज पैदा होती है। ऐसा महसूस होता है कि राइटर्स का खजाना बहुत जल्दी खाली हो गया और उसके पास अब देने को कुछ नहीं है।
पंजाब से फिल्म गुजरात शिफ्ट होती है तो दर्शकों का धैर्य जवाब देने लगता है। अदालत में जो हास्य पैदा करने की कोशिश की है उसे देख फिल्म से जुड़े लोगों की अक्ल पर तरस आता है। आखिर वे क्या दिखाना चाहते हैं? आखिर वे कैसे मान सकते हैं कि इस तरह के सीन/संवाद से दर्शक हंसेंगे?
नवनीत सिंह निर्देशक के रूप में बुरी तरह असफल रहे। उनके द्वारा फिल्माए गए दृश्य बेहद लंबे और उबाऊ हैं। एक घटिया से टीवी सीरियल जैसा उन्होंने फिल्म को बनाया है। दर्शकों को वे फिल्म से बिलकुल भी नहीं जोड़ पाए। सलमान खान जैसे सुपरस्टार तक का वे ठीक से उपयोग नहीं कर पाए।
सनी देओल इस फिल्म के सबसे बड़े सितारे हैं, लेकिन उन्हें फिल्म में कुछ करने का मौका ही नहीं मिला। लोग सनी को देखने के लिए आए थे और उनसे ज्यादा फुटेज बॉबी पर खर्च किया गया। फाइट सीन सनी की यूएसपी है और सनी की इस खासियत को भी उभारा नहीं गया है। धर्मेन्द्र को इस तरह के बचकाने रोल से बचना चाहिए। बॉबी देओल ने रोमांस किया, गाने गाए और कॉमेडी के नाम पर तरह-तरह के चेहरे बनाए। कृति खरबंदा ठीक-ठाक रहीं। सतीश कौशिक, शत्रुघ्न सिन्हा के रोल नहीं भी होते तो कोई फर्क नहीं पड़ता।
तकनीकी रूप से फिल्म कमजोर है। सिनेमाटोग्राफी में कोई खास बात नहीं है। गाने 'ब्रेक' का काम करते हैं। संपादन बेहद ढीला है। कम से कम आधा घंटा फिल्म को कम किया जा सकता था।
उम्मीद की जानी चाहिए कि 'यमला पगला दीवाना' सीरिज का यहीं 'द एंड' हो जाएगा और देओल्स कुछ नया सोचेंगे।
बैनर : पेन इंडिया लि., सनी साउंड्स प्रा.लि., इंटरकट एंटरटेनमेंट
निर्माता : कामायनी पुनिया शर्मा, गिन्नी खनूजा, आरूषी मल्होत्रा, धवल जयंतीलाल गढ़ा, अक्षय जयंतीलाल गढ़ा
निर्देशक : नवनीत सिंह
संगीत : संजीव-दर्शन, सचेत-परम्परा, विशाल मिश्रा, डी सोल्जर
कलाकार : धर्मेन्द्र, सनी देओल, बॉबी देओल, कृति खरबंदा, असरानी, सतीश कौशिक, राजेश शर्मा, मेहमान कलाकार- सलमान खान, सोनाक्षी सिन्हा, शत्रुघ्न सिन्हा, रेखा
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए
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अगर रणबीर कपूर की बॉक्स ऑफिस पर पिछली सुपरहिट फिल्म का नाम याद करें तो करण जौहर के बैनर तले बनी ये जवानी है दीवानी ही उनकी पिछली सुपरहिट फिल्म थी। लंबे अर्से से एक अदद हिट को तरस रहे रणबीर कपूर की हिट की तलाश शायद इसबार फिर करण जौहर के बैनर से ही पूरी हो जाए। बतौर डायरेक्टर स्टूडेंट ऑफ द ईयर के बाद करण ने दोबारा डायरेक्शन की कमान संभाली तो एक बार फिर उन्होंने इमोशन और म्यूजिक का सहारा लेकर फिल्म बनाई। बेशक फिल्म को रिलीज से पहले सेंसर और पाक कलाकारों को लेकर उठे विवादों का सामना करना पड़ा लेकिन इसका सीधा फायदा आज फिल्म की रिलीज के दिन बॉक्स ऑफिस पर नजर आया। फिल्म को कई सिंगल स्क्रीन थिएटरों में 80 से 90 फीसदी की ओपनिंग मिली तो नॉर्थ इंडिया के मल्टिप्लेक्सों में पचास से सत्तर फीसदी तक ऑक्यूपेंसी मिली। करण ने इस फिल्म पर करीब 85 करोड़ से ज्यादा का बजट लगाया। ऐसे में ढाई हजार से ज्यादा स्क्रीन पर रिलीज हुई यह फिल्म अगर अगले 5 दिन करीब 60 से 70 फीसदी की ऑक्यूपेंसी करती है तो फिल्म प्रॉफिट में आ जाएगी। रिलीज से पहले मीडिया में रणबीर कपूर और ऐश्वर्या रॉय बच्चन के अंतरंग सीन्स को लेकर बहुत अटकले लगाई जा रही थीं, लेकिन अब फिल्म देखने के बाद लगता है सेंसर ने इनमें से ज्यादातर सीन्स पर अपनी कैंची चला दी है। पाक ऐक्टर फवाद खान की वजह से विवादों में रहने की वजह से फिल्म का यंगस्टर्स में क्रेज इस कद्र बढ़ा कि बॉक्स ऑफिस पर यंगस्टर्स का जमघट नजर आया। कहानी: अयान (रणबीर कपूर) बेशक अच्छा नहीं गाता लेकिन उसका सपना मोहम्मद रफी जैसा नामी सिंगर बनना है। अपने पापा के डर से अयान ने सिंगर बनने का सपना दिल में दबाकर लंदन में एमबीए की स्टडी कर रहा है। बिंदास टाइप की अपनी अलग दुनिया में रहने वाली अलीजा के बॉयफ्रेंड डॉक्टर अब्बास (इमरान अब्बास) का मिजाज अलीजा के ठीक उलट है। उसे डांस, पार्टीबाजी पसंद नहीं है। इसी बीच एक दिन अयान और अलीजा मिलते हैं और उन्हें लगता है जिनके साथ वह दोनों डेटिंग कर रहे हैं वह उन जैसे बिल्कुल हैं। सो अलीजा अपने बॉयफ्रेंड और अयान अपनी लवर को छोड़कर मौजमस्ती करने पैरिस निकलते हैं। पैरिस में अयान को अहसास होता है कि वह अलीजा से बेइंतहा प्यार करता है, लेकिन अलीजा अयान को अपने दोस्त से ज्यादा कुछ नहीं समझती। देखिए, आपको दीवाना बना देंगी ऐश्वर्या और रणबीर की ये हॉट तस्वीरेंअलीजा का कुछ अर्सा पहले डीजे अली (फवाद खान) के साथ ब्रेकअप हो चुका है। ऐसे में ब्रेकअप के सदमे से उभरने के लिए अलीजा अपना ज्यादा वक्त अयान के साथ गुजारती है। अचानक एक दिन अली फिर अलीजा की जिंदगी में लौट आता है। अलीजा अब अयान को छोड़ अली के साथ उसके शहर लखनऊ जाकर उससे निकाह कर लेती है। यहीं कहानी में सबा खान (ऐश्वर्या राय बच्चन) की एंट्री होती हैं जो शेरोशायरी करती है। सबा बेइंतहा खूबसूरत है। अयान भी अब अच्छा सिंगर बन चुका है। सबा की एंट्री के बाद कहानी में ऐसा टर्निंग पॉइंट आता है जो दर्शकों को झकझोर देता है।रणबीर-अनुष्का के किसिंग सीन पर चली सेंसर की कैंचीऐक्टिंग: पूरी फिल्म रणबीर कपूर और अनुष्का शर्मा के इर्दगिर्द घूमती है। रॉक स्टार के बाद रणबीर इस फिल्म में एकबार फिर सिंगर और लवर के रोल में हैं। अयान के किरदार में यकीनन रणबीर ने अच्छी ऐक्टिंग की है। वहीं बिंदास अलीजा के किरदार को अनुष्का शर्मा ने अपनी दमदार ऐक्टिंग से जीवंत कर दिखाया है। इंटरवल से पहले और बाद अनुष्का टोटली डिफरेंट शेड में नजर आई और अपनी बेहतरीन ऐक्टिंग के दम पर छा गई। फवाद खान और ऐश्वर्या को बेशक ज्यादा फुटेज नहीं मिली, लेकिन इन दोनों ने अपने किरदार को अच्छे ढंग से निभाया है। शाहरूख खान और आलिया भट्ट की फिल्म में सरप्राइज एंट्री है जो दर्शकों के बीच एनर्जी लाती है। निर्देशन: अगर बतौर डायरेक्टर करण जौहर की बात की जाए तो स्टूडेंट ऑफ द ईयर के करीब चार साल बाद एकबार फिर उन्होंने निर्देशन की कमान संभाली है। म्यूजिकल और इमोशनल सीन्स को फिल्माने में करण की गजब मास्टरी है। इंटरवल से पहले जहां उन्होंने फिल्म में मौज मस्ती का ऐसा पुट रखा जो यंगस्टर्स की कसौटी पर सौ फीसदी खरा उतरता है तो वहीं इंटरवल के बाद करण ने इमोनश का तड़का लगाया है, स्क्रिप्ट की डिमांड के मुताबिक करण ने फिल्म की शूटिंग लंदन, पैरिस, ऑस्ट्रिया में भी की। इंटरवल से बाद फिल्म की रफ्तार कुछ थम जाती है, लेकिन करण ने सुरीले म्यूजिक और खूबसूरत लोकेशन का सहारा फिल्म को कहीं कमजोर नहीं होने दिया।पढ़ें: ऐश्वर्या-रणबीर के इंटीमेट सीन पर पड़ ही गई सेंसर बोर्ड की नज़र पढ़ें: अनुष्का ने 'ऐ दिल है मुश्किल' के लिए पहना 17 किलो का लहंगासंगीत: रिलीज से पहले ही इस फिल्म के कई गाने म्यूजिक चार्ट में टॉप फाइव में शामिल हो चुके है, करण ने इन गानों को पूरी भव्यता के साथ ऐसे ढंग से फिल्माया हैं जो यंगस्टर्स की कसौटी पर पूरी तरह से खरे उतरते है। बुलया, ब्रेकअप और टाइटिल सॉन्ग ए दिल है मुश्किल पहले से यंगस्टर्स की जुबां पर है। वहीं करण ने फिल्म में सत्तर-अस्सी के दशक के कई सुपरहिट गानों को फिल्म में अलग ढंग से फिल्माया है। क्यों देखें : अगर आप रणबीर कपूर और अनुष्का के फैन हैं तो अपने पसंदीदा इन दोनों स्टार्स की बेहतरीन परफार्मेंस को देखने और सुरीले संगीत का आनंद लेने के लिए फिल्म देखी जा सकती है। बेहद खूबसूरत विदेशी लोकेशन और सुरीला संगीत फिल्म की एक और यूएसपी है। मुंबई पुलिस से करण जौहर की फिल्म को सुरक्षा मिलना 'मुश्किल' वर्जिन करण जौहर पर रणबीर ने किया यह खुलासा! 'ऐ दिल है मुश्किल' का विरोध जारी रखेगी MNS | 0 |
उड़नतश्तरी और एलियन हमेशा से मनुष्य की जिज्ञासा का केंद्र रहे हैं। यही वजह है कि हॉलिवुडवाले इस विषय पर ढेरों फिल्में बनाते रहते हैं। फिल्म 'प्रेडेटर' सीरीज की चौथी फिल्म 'द प्रेडेटर' भी उड़नतश्तरी और एलियन की ही कहानी है। हालांकि इस बार इन खतरनाक एलियंस का मिशन कुछ और है। फिल्म की कहानी की शुरुआत में एक मिलिट्री स्नाइपर अपने साथियों के साथ एक ऑपरेशन पर है। तभी वहां पर एक उड़नतश्तरी उतरती है और वह उसमें से उतरने वाला जीव (प्रेडेटर) उसके साथियों को मार देता है। अपनी जान बचाने के लिए स्नाइपर उसे मार गिराता है। अपनी सुरक्षा के लिए वह स्नाइपर उस खतरनाक जीव के मुंह और हाथ का कवच अपने घर भेज देता है। वहां गलती से उसका बेटा उस कवच को एक्टिव कर देता है। उसके बाद उसकी खोज में दूसरा बेहद खतरनाक प्रेडेटर आ पहुंचता है। इसके बाद शुरू होती है मनुष्यों और प्रेडेटर के बीच की खौफनाक जंग। इस जंग में कौन जीतता है? और क्या है प्रेडेटर्स का खतरनाक मंसूबा? यह जानने के लिए आपको सिनेमाघर जाना होगा। इस फिल्म को 'ए' सर्टिफिकेट दिया गया है, क्योंकि इसमें जबर्दस्त हिंसक सीन दिखाए गए हैं। खासकर प्रेडेटर लोगों को बेहद बेरहमी से मारता है। हालांकि बेहद खतरनाक प्रेडेटर की सबसे बड़ी खूबी यह थी कि वह तभी हमला करता है, जबकि आप उस पर हमला करते हो। अगर आप निहत्थे हो, तो वह आप पर हमला नहीं करता। दो घंटे से भी कम टाइम में फिल्म प्रेडेटर आपको कहीं भी स्क्रीन से नजर हटाने का मौका नहीं देती। इंटरवल से पहले फिल्म आपको चीजों से रूबरू कराती है और दूसरे हाफ में प्रेडेटर के और नजदीक ले जाती है। डायरेक्टर शेन ब्लैक ने बेहतरीन स्क्रिप्ट पर अच्छी फिल्म बनाई है, जोकि ऐक्शन और अडवेंचर के शौकीनों को बेहद पसंद आएगी। फिल्म में खतरनाक उड़न तश्तरियां और खतरनाक एलियंस यानी कि प्रेडेटर दिखाए गए हैं जो कि दर्शकों को रोमांच से भर देते हैं। खासकर क्लाइमैक्स में इंसानों और प्रेडेटर के बीच जोरदार जंग दिखाई गई है। वहीं फिल्म मंदबुद्धि माने जाने वाले लोगों के प्रति भी एक अलग नजरिया देती है कि मंदबुद्धि लोगों में कई बार ऐसी क्वॉलिटी हो सकती हैं जो कि अपने आपको होशियार समझने वालों की जान बचाने में भी काम आ सकती है। हिंदी में डब फिल्म में हिंदीभाषी दर्शकों के लिए बढ़िया कॉमिडी से भरपूर डबिंग भी की गई है। अगर आपको एलियंस और उड़नतश्तरियों से जुड़ी साइंस फिल्में देखना पसंद है, तो आपको यह फिल्म मिस नहीं करनी चाहिए। वहीं प्रेडेटर सीरीज की फिल्मों के फैंस तो इस फिल्म को कतई मिस नहीं करना चाहेंगे। | 0 |
करीब बारह साल पहले पूरब कोहली के साथ होमोसेक्शुअलिटी पर 'माय ब्रदर निखिल' बना चुके डायरेक्टर ओनिर बॉक्स ऑफिस पर कमाई करने वाली फिल्में बनाने वाले मेकर्स की लिस्ट में शामिल नहीं सके और इसकी खास वजह फिल्में बनाने को लेकर उनका अपना नजरिया है। ओनिर को दूसरों से अलग किस्म की ऐसी फिल्में बनाने का हमेशा जुनून रहता है जो रिऐलिटी के करीब होती है। 'शब' भी रियल इंसिडेंट से इंस्पायर ऐसी फिल्म है जिसकी स्क्रिप्ट पर करीब सत्रह साल पहले काम शुरू किया और अपनी इस स्क्रिप्ट को सबसे पहले रवीना टंडन को सुनाया। रवीना को स्क्रिप्ट पसंद आई और रवीना ने तभी इस फिल्म में काम करने की ख्वाहिश जता दी। हालात ऐसे बने कि रवीना इस बीच दूसरे प्रॉजेक्ट में बिज़ी हुईं और फिर उनकी शादी भी हो गई। इसी बीच ओनिर ने कई और फिल्में बनाई, लेकिन 'शब' पर काम करने की प्लानिंग में लगे रहे। सत्रह साल पहले कहानी का बैकग्राउंड मुंबई था, लेकिन अब फिल्म की कहानी और किरदार मुंबई की बजाए दिल्ली से दिखाए गए। ओनिर को सेंसर से फिल्म क्लियर कराने के लिए जद्दोहद करनी पड़ी, सेंसर की कैंची चलने के बाद फिल्म को अडल्ट सर्टिफिकेट मिला। ओनिर ने अपनी इस फिल्म को सच के और नजदीक लाने के मकसद से साउथ दिल्ली में कई दिन गुजारे तो फिल्म की सत्तर फीसदी से ज्यादा शूटिंग भी दिल्ली में की इतना ही नहीं फिल्म की कहानी को भी दिल्ली के बदलते मौसम की तरह पेश किया। प्लॉट : फिल्म की कहानी मोहन और अफजर (आशीष बिष्ट) के आसपास घूमती है, मोहन हैंडसम है, खुद की नजरों में खूबसूरत और स्मार्ट भी है। कुमाऊं के एक छोटे से कस्बे में रहने वाले मोहन पर मॉडल बनने का जुनून है। मोहन को लगता है कि वह ग्लैमर वर्ल्ड के लिए पूरी तरह से फिट है और उसे मॉडिलंग की फील्ड में अपनी पहचान बनानी होगी। ग्लैमर वर्ल्ड में एंट्री का यहीं चकाचौंध सपना उसे दिल्ली ले आता है। यहां एक मॉडल टैलंट हंट में वह ग्लैमर सोशल, मॉडलिंग और फैशन से जुडी कई नामचीन हस्तियों दवारा लिए गए इंटरव्यू के दौरान फेल हो जाता है, लेकिन कॉन्टेस्ट की एक जज और शहर के एक नामी रईस की खूबसूरत वाइफ और सोशल फील्ड में ऐक्टिव सोनल ( रवीना टंडन) का दिल मोहन पर आ जाता है। सोनल अब मोहन को यूज करना चाहती है, मोहन को मॉर्डन सोसायटी का हिस्सा बनाने के लिए सोनल उसे अपना ट्रेनर बना लेती है, लेकिन मोहन का असली काम सोनल की सभी जरूरतों को पूरा करने के अलावा और कुछ नहीं है। सोनल के रूम में मोहन का जैसा भी रिश्ता हो लेकिन पब्लिक लाइफ में उसे सोनल को मैडम ही बुलाना होता है। इस कहानी के साथ फिल्म में कुछ और किरदारों की कहानियां भी है। रैना (अर्पिता चटर्जी) मसूरी से अपनी छोटी बहन अनुपमा के साथ दिल्ली शिफ्ट हुई है। अनुपमा मसूरी के एक बोर्डिंग स्कूल में पढ़ती है। स्कूल की छुट्टियां है सो अनु भी अपनी बहन के साथ दिल्ली आई हुई है। अर्पिता एक नामी रेस्ट्रॉन्ट में काम करती है और अपने फ्लैट के सामने रहने वाले एक पड़ोसी को चाहती है और उसके साथ अपनी नई दुनिया बनाना चाहती है। एक रेस्ट्रॉन्ट का मालिक भी इस फिल्म का अहम किरदार है जो गे है और उसे अपनी अलग इसी दुनिया में रहना पंसद है। डायरेक्टर ओनिर ने अंत तक अपनी स्क्रिप्ट को ईमानदारी के साथ काम किया है, सभी अहम किरदारों को उन्होनें कहानी के मुताबिक ठीक-ठाक फुटेज दी है। फिल्म दो किरदारों सोनल और मोहन के इर्द-गिर्द घूमती है। इन किरदारों में रवीना टंडन और मोहन आशीष बिष्ट ने बेहतरीन ऐक्टिंग की है। रैना के किरदार में अर्पिता चटर्जी की ऐक्टिंग बेहतरीन है। करीब दो घंटे से भी कम की इस फिल्म में कई गाने हैं जो कहानी की रफ्तार को कम करने का काम ही करते हैं। बॉक्स ऑफिस पर ऐसी लीक से हटकर बनी फिल्मों के लिए दर्शकों की एक बेहद सीमित क्लास रहती है, यही वजह है दिल्ली में चुनिंदा मल्टिप्लेक्सों पर ही इस फिल्म को एक से शो में रिलीज किया गया है। अगर आप रीऐलिटी के नाम पर कुछ अलग देखने के शौकीन हैं और ओनिर की स्टाइल और उनकी फिल्में आपको पसंद हैं तभी 'शब' देखने जाएं। मुंबइंया मसाला फिल्मों के शौकीन और एंटरटनमेंट के लिए साफ-सुथरी फिल्में देखने के शौकीन इस फिल्म से यकीनन अपसेट ही होंगे। | 1 |
कुल मिलाकर ‘सी कंपनी’ भी उन हास्य फिल्मों की तरह है, जिन्हें देखकर हँसने के बजाय रोना आता है।
निर्माता :
एकता कपूर, शोभा कपूर
निर्देशक :
सचिन यार्डी
संगीत :
आनंद राज आनंद, बप्पा लाहिरी
कलाकार :
तुषार कपूर, अनुपम खेर, राजपाल यादव, रायमा सेन, मिथुन चक्रवर्ती, (विशेष भूमिकाओं में - महेश भट्ट, एकता कपूर, करण जौहर, संजय दत्त, सेलिना जेटली)
निर्देशक सचिन यार्डी ने बॉलीवुड की कुछ पुरानी फिल्म देखी और ‘सी कंपनी’ तैयार कर दी। दो-चार हास्य फिल्में क्या चल गई, सभी हास्य फिल्म बनाने लगे। सचिन ने भी बाजार की हवा को देख हास्य फिल्म बना डाली।
एकता कपूर को भी भ्रम है कि उनके ‘असफल’ भाई तुषार कपूर को दर्शक हास्य भूमिकाओं में पसंद करते हैं, इसलिए वे पैसा लगाने के लिए तैयार हो गईं। वे इस फिल्म में चंद मिनटों के लिए हैं, लेकिन पूरी फिल्म में उनके बारे में बातें होती रहीं। उनके धारावाहिक और उनके कलाकारों के कई किस्से दिखाए गए हैं। मसलन उनके धारावाहिकों में सारे किरदार एक जैसे दिखाई देते हैं और दादा, पिता और बेटे में फर्क करना मुश्किल हो जाता है। उन कलाकारों की उम्र जोड़ी जाए तो वे तीन सौ वर्ष के हो जाते हैं। आए दिन उनके धारावाहिकों में प्लास्टिक सर्जरी होती है। एकता अपने कलाकारों को कम पैसा देती हैं और खूब काम करवाती हैं। शायद निगेटिव पब्लिसिटी के जरिए एकता लोकप्रिय होना चाहती हैं।
एकता के इस गैर जरूरी हिस्से (क्योंकि अधिकांश दर्शकों को इससे कोई मतलब नहीं है) के बाद फिल्म का एक बहुत बड़ा भाग चरित्रों का परिचय देने में बर्बाद हुआ है। बिल्डिंग की छत पर बैठ शराब पीकर फूहड़ संवादों के जरिए दर्शकों को हँसाने के चक्कर में निर्देशक ने बहुत सारे फुटेज बर्बाद किए हैं। इसके बाद जो हिस्सा बचता है वो फिल्म की मुख्य कहानी है।
अक्षय (तुषार कपूर) एक क्राइम रिपोर्टर है। टीवी चैनल पर काम करता है, फिर भी वो असफल (?) है। उसके पास इतने पैसे नहीं है कि वो अपनी प्रेमिका जो कि डॉन (मिथुन चक्रवर्ती) की बहन (राइमा सेन) है को लेकर दुबई भाग सके। पैसे तो उसकी प्रेमिका भी ला सकती थीं, लेकिन इस बारे में उन्होंने सोचा ही नहीं। मिस्टर जोशी (अनुपम खेर) अपने बेटे से परेशान हैं। इसके पीछे भी कोई ठोस कारण नहीं है। लंबोदर (राजपाल यादव) को आर्थिक तंगी है।
तीनों एक दिन ‘सी कंपनी’ का नाम लेकर जोशी के बेटे को धमकाते हैं और उनकी धमकी असर दिखाती है। इस सफलता से खुश होकर वे बड़े-बड़े लोगों को धमकाते हैं और अंडरवर्ल्ड की दुनिया के रॉबिनहुड बन जाते हैं।
चैनल वाले इस पर रियलिटी शो आरंभ कर देते हैं। जिसमें लोग अपनी समस्याएँ बताते हैं और ‘सी कंपनी’ उनकी समस्या सुलझाती है। ‘सी कंपनी’ के पीछे कौन लोग हैं, ये किसी को भी पता नहीं है।
निर्देशक सचिन यार्डी सिर्फ इसी हिस्से पर फिल्म बनाते तो बेहतर होता, लेकिन उन्होंने बेवजह कहानी को लंबा खींचा। एक भी दृश्य ऐसा नहीं है, जिस पर दिल खोलकर हँसा जाए।
एक गाना सेलिना पर एक संजय दत्त पर फिल्माकर डाल दिए गए। करण जौहर और महेश भट्ट भी बीच में फिल्म की वैल्यू बढ़ाने के लिए नजर आए, लेकिन इनका ठीक से उपयोग नहीं किया गया।
अभिनय की बात की जाए तो तुषार के अंदर सीमित प्रतिभा है और वे एक स्तर से ऊपर नहीं उठ सकते। राइमा सेन के चंद दृश्य हैं। अनुपम खेर भी एक जैसा अभिनय करने लगे हैं। राजपाल यादव की हँसाने की कोशिशें नाकाम रहीं। मिथुन चक्रवर्ती ने एकता कपूर के धारावाहिकों की तरह बोर किया। सेलिना पर फिल्माया गया गाना ठीक है।
कुल मिलाकर ‘सी कंपनी’ भी उन हास्य फिल्मों की तरह है, जिन्हें देखकर हँसने के बजाय रोना आता है।
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अगर हम साउथ में बनी फिल्मों की तुलना बॉलिवुड फिल्मों के साथ करें तो पाएंगे कि साउथ में बनी फिल्मों में बॉक्स ऑफिस पर बिकने वाले सभी चालू मसालों को कुछ ज्यादा ही परोसा जाता है। साउथ के एवरग्रीन सुपर स्टार रजनीकांत की बेटी सौंदर्या रजनीकांत के निर्देशन में बनी 'वीआईपी 2: ललकार' भी इसी कैटिगरी की फिल्म है। अफसोस बस इतना है कि न जानें क्यों अंत तक सौंदर्या ने इस फिल्म को फ्रंट लाइनर दर्शकों की पसंद को जेहन में रखकर बनाया और अपने इसी मकसद में कुछ हद तक कामयाब भी रहीं, लेकिन यही इस फिल्म का सबसे बड़ा माइनस पॉइंट है जो मसाला मूवीज के शौकीनों को भी फिल्म की कहानी और किरदारों के साथ कतई नहीं बांध पाता है। स्टोरी प्लॉट : वसुंधरा (काजोल) शहर की सबसे बड़ी आर्टिटेक्ट कंपनी की बेहद गुस्सैल और खुद की बनी दुनिया में रहने वाली मालकिन है। वसुंधरा अपने फैसले और अपनी पसंद को हमेशा सौ फीसदी मानती है और उसे न सुनना बिल्कुल भी पसंद नहीं। वहीं, शहर की एक दूसरी आर्टिटेक्ट कंपनी में इंजिनियर रघुवरन (धनुष) को अपनी फील्ड में महारत हासिल है। एक अवॉर्ड फंक्शन में जहां सबसे ज्यादा अवॉर्ड वसुंधरा की कंपनी को मिलते हैं, वहीं बेस्ट इंजिनियर ऑफ द इयर का अवॉर्ड रघुवरन को मिलता है। इस फंक्शन के बाद वसुंधरा किसी भी कीमत पर रघुवरन को अपनी कंपनी जॉइन करने की ऑफर देती है, लेकिन रघुवरन के अपने उसूल हैं और वह अपनी कंपनी और मालिक को छोड़ना नहीं चाहता और इसकी एक वजह यह है कि मालिक के रघुवरन पर बहुत अहसान हैं। अब जब रघुवरन किसी भी कीमत पर वसुंधरा की कंपनी जॉइन करने को राजी नहीं तो वसुंधरा इसे अपनी पर्सनली हार मानकर रघुवरन को अब हर हाल में नीचा दिखाने पर आमादा है। वसुंधरा इसके बाद ऐसे हालात बना देती है जिसके चलते रघुवरन को कंपनी से इस्तीफा देकर अपने कुछ इंजिनियर दोस्तों के साथ मिलकर 'वीआईपी कंस्ट्रक्शन्स' कंपनी शुरू करता है, लेकिन वसुंधरा अब भी हार मानने को तैयार नहीं है। ऐक्टिंग और डायरेक्शन : अगर ऐक्टिंग की बात की जाए वसुंधरा के किरदार में काजोल के फेस पर आपको अंत तक एक जैसा ही एक्सप्रेशन नजर आता है, इसकी वजह तो डायरेक्टर ही बता सकती हैं। धनुष ने अपनी किरदार को बस ठीकठाक ढंग से निभाया तो फिल्म में धनुष की झगड़ालू वाइफ के रोल में साउथ की नामी ऐक्ट्रेस अमृता पॉल अपने रोल में कुछ खास नहीं कर पाईं। मजे की बात यह है कि धनुष ने ही इस फिल्म की कहानी को लिखा है, लेकिन कहानी में कुछ भी नया नहीं है। साउथ की इस डब फिल्म में गाने ठूंसे हुए लगते हैं। अगर आप सिर्फ चालू मसाला और बेसिर-पैर की कहानी वाली फिल्में भी देखने के शौकीन हैं तो इस फिल्म को एकबार देख सकते हैं। | 0 |
निर्देशक विशाल पंड्या ने एक फॉर्मूला बना लिया है जिस पर चलते हुए उन्हें 'हेट स्टोरी 2' और 'हेट स्टोरी 3' में सफलता भी मिली। वे फ्रंट बेंचर्स के मनोरंजन के लिए सिनेमा बनाते हैं। उनके किरदार करोड़ों की बातें करते हैं, फाइव स्टार लाइफस्टाइल जीते हैं। कहानी में अपराध के बीज होते हैं। थोड़ा सस्पेंस होता है। पुराने हिट गीतों और हॉट सीन का तड़का लगाकर फिल्म तैयार की जाती है। यही बातें उन्होंने अपनी ताजा फिल्म 'वजह तुम हो' में भी दोहराई है। इसका नाम हेट स्टोरी 4 भी रख देते, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि इस फिल्म की कहानी भी 'बदले' पर आधारित है।
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राहुल ओबेरॉय (रजनीश दुग्गल) के ग्लोबल टाइम चैनल को किसी ने हैक कर एसीपी सरनाइक की हत्या का सीधा प्रसारण कर दिया। एसीपी कबीर देशमुख (शरमन जोशी) राहुल को ही अपराधी मानता है क्योंकि वह गिरती टीआरपी के लिए ऐसा कदम उठा सकता है। मामला अदालत पहुंचता है जहां राहुल की ओर से वकील सिया (सना खान) है तो पुलिस की ओर से रणवीर (गुरमीत चौधरी)। संयोग से सिया का रणवीर बॉयफ्रेंड भी है। इसी बीच इस केस से जुड़े करण की भी हत्या कर दी जाती है और उसका भी सीधा प्रसारण किया जाता है। कबीर के सामने नई चुनौती खड़ी हो जाती है। सरनाइक, करण और राहुल की कड़ियों को जोड़ते हुए वह उस शख्स को बेनकाब करता है जो यह सब कर रहा है और इसके पीछे उसकी 'वजह' क्या है।
फिल्म की कहानी ठीक है, लेकिन खराब स्क्रीनप्ले, दिशाहीन निर्देशन और घटिया अभिनय ने पूरी फिल्म का कबाड़ा कर दिया। स्क्रीनप्ले इस तरह लिखा गया है कि जरा सा दिमाग पर जोर डाला जाए तो फिल्म बताए उसके पहले ही आप 'राज' जान सकते हैं। कई गलतियां स्क्रीनप्ले में छोड़ी गई है और सहूलियत के हिसाब से यह लिखा गया है। दर्शकों को चौंकाने की खूब कोशिश की गई है, लेकिन फिल्म में नकलीपन इतना हावी है कि दर्शक इससे जुड़ नहीं पाते।
विशाल पंड्या का निर्देशन कमजोर है। वे स्टाइलिंग और फिल्म के लुक पर ही ध्यान देते नजर आए। उन्होंने हर सीन को भव्य बनाने और किरदारों को महंगी ड्रेसेस में पेश करने में ही सारा जोर लगा दिया है। कहानी के प्रस्तुतिकरण पर ध्यान न देने की वजह से कही भी फिल्म पर उनकी पकड़ नजर नहीं आती। बीच-बीच में पुराने हिट गीत और हॉट सीन डालकर उन्होंने दर्शकों का ध्यान बंटाने की कोशिश की है।
कुछ दृश्य ऐसे हैं जहां पर उनसे बड़ी चूक हुई है। मसलन राहुल को बीच सड़क से उठा लेने का सीन है, लेकिन आसपास परिंदा भी नजर नहीं आता। दिन-दहाड़े बीच शहर में ये कैसे संभव है? क्लाइमैक्स की फाइटिंग तो दयनीय है। एक तरफ फिल्म में चैनल हैकिंग जैसी आधुनिक तकनीक की बातें की गई हैं तो दूसरी ओर राहुल के घर सिया इस्तीफा देने जाती है मानो ईमेल करना ही नहीं जानती हो।
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फिल्म के संवाद इतने भारी भरकम है कि उन्हें बोलने के लिए अमिताभ बच्चन, राजकुमार या सलमान खान जैसे दमदार स्टार चाहिए, जिसका रुतबा या स्टार पॉवर हो। रजनीश दुग्गल, गुरमीत चौधरी या शरमन जोशी जैसे पिद्दी स्टार जब इस तरह के संवाद बोलते हैं तो हंसी छूटती है।
अभिनय डिपार्टमेंट में भी फिल्म कंगाल है। दिखने में सब मॉडल हैं, लेकिन एक्टिंग के नाम पर ज़ीरो। रजनीश दुग्गल और गुरमीत चौधरी ने ऐसी एक्टिंग की है मानो किसी ने सिर पर भारी पत्थर रख दिया हो। सना खान को तो पता ही नहीं अभिनय किस चिड़िया का नाम है। इन खरबूजों को देख शरमन जोशी ने भी अपना रंग बदल दिया और वे भी एक्टिंग करना भूल गए। ज़रीन खान एक गाने में नजर आईं। उनके डांस पर कम और बढ़े हुए वजन पर ज्यादा ध्यान जा रहा था।
कुल मिलाकर 'वजह तुम हो' को देखने की कोई वजह नजर नहीं आती है। नोटबंदी का माहौल है, इसलिए नोट ही बचाइए। >
निर्माता : भूषण कुमार, कृष्ण कुमार
निर्देशक : विशाल पंड्या
संगीत : मिथुन, अभिजीत वाघानी, मीत ब्रदर्स
कलाकार : शरमन जोशी, सना खान, रजनीश दुग्गल, गुरमीत चौधरी, ज़रीन खान (आइटम सांग)
सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 2 घंटे 16 मिनट 21 सेकंड्स
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इस फिल्म की रिलीज से बहुत पहले ही फिल्म का ट्रेलर उस वक्त सोशल मीडिया में वायरल हो गया, जब फिल्म में लेडी मांउटबेटन और देश के पहले पीएम जवाहर लाल नेहरू के बीच संबंधों को लेकर अटकलों का बाजार गरम हो गया। शायद यही वजह रही कि भारत में इस फिल्म को रिलीज करने से पहले फिल्म की डायरेक्टर गुरिंदर चड्ढा कई मेजर सेंटरों पर मीडिया से रूबरू हुईं और उन्होंने इन अटकलों को पूरी तरह से खारिज कर दिया। एक सवाल के जवाब में गुरिंदर ने कहा, 'मेरी फिल्म भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और लेडी माउंटबेटन के संबंधों पर आधारित नहीं है।' दरअसल, इस फिल्म की कहानी ब्रिटेन से भारत आए आखिरी वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन के दौर को दर्शाती है। इस फिल्म को बनाने के लिए गुरिंदर को काफी वक्त लगा। उन्होंने फिल्म के एक-एक सीन पर पूरा होमवर्क करने के बाद भारत आकर कई इतिहासविदों के साथ लंबी बातचीत करने के बाद ही इस प्रॉजेक्ट पर काम शुरू किया। जब आप करीब दो घंटे की इस फिल्म को देखने के लिए बैठते हैं तो फिल्म के आखिरी सीन तक कहानी और किरदारों के साथ बंधकर रह जाते हैं। यहां खास तौर से चड्डा ने माउंटबेटन के किरदार को सशक्त बनाने के लिए काफी मेहनत की है। दरअसल आज की युवा पीढ़ी लॉर्ड मांउटबेटन के बारे में बहुत कम जानती है। इसके अलावा देश किन हालातों में आजाद हुआ, इस बारे में भी युवा पीढ़ी को ज्यादा जानकारी नहीं है। ऐसे में चड्ढा ने अपनी इस फिल्म की कहानी को हल्के अंदाज में बयां करने और दर्शकों की हर क्लास को किरदारों के साथ बांधने के लिए लव स्टोरी को भी फिल्म का हिस्सा बनाया है। स्टोरी प्लॉट: फिल्म की शुरुआत अंग्रेजी शासन के आखिरी कुछ दिनों से होती है, जब ब्रिटिश सरकार लॉर्ड माउंटबेटन को भारत भेजती है। दरअसल, यह सरकार चाहती थी कि भारत को दो हिस्सों में बांटने के बाद ही आजाद किया जाए। जहां माउंटबेटन को बंटवारे से पहले हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच टकराव रोकने का था, वहीं उन्हें उस वक्त मुस्लिम लीग नेता के जिन्ना और कांग्रेस के नेता जवाहर लाल नेहरू के बीच की अनबन सामना भी करना था। आखिरी वायसराय व्यक्तिगत तौर पर नहीं चाहते थे कि भारत को दो भागों में बांटा जाए। इसके साथ ही फिल्म में आलिया (हुमा कुरैशी) और जीत (मनीष दयाल) की प्रेम कहानी भी चलती है। ये दोनों अलग-अलग धर्म से हैं और एक दूसरे को काफी प्यार करते हैं, दोनों ही वायसराय के ऑफिस में काम करते हैं। हालात ऐसे बनते हैं कि दोनों को देश के विभाजन के बाद अलग होना पड़ता है। फिल्म में विभाजन से पहले के दिनों में वायरराय हाउस में होने वाली गतिविधियों और वहां के हालात को डायरेक्टर ने दमदार तरीके से पेश किया है। गुरिंदर चड्ढा की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने फिल्म में गानों को भी ऐसे ढंग से फिट किया है कि वो कहानी का अहम हिस्सा बन गए हैं। फिल्म में ओम पुरी ने भी एक अहम किरदार निभाया है। हुमा कुरैशी की यह पहली अंतरराष्ट्रीय फिल्म है। आलिया के किरदार में हुमा ने शानदार ऐक्टिंग की है। भारत में रिलीज होने से पहले यह फिल्म 67वें बर्लिन अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में 'वायसराय हाउस' टाइटल से पेश की गई। फिल्म का संगीत ए.आर. रहमान ने दिया है, फिल्म के माहौल पर रहमान का संगीत पूरी तरह से फिट है। अगर आप भारत-पाकिस्तान विभाजन के पीछे के हालातों के साथ-साथ माउंटबेटन के बारे में अच्छे से जानना चाहते हैं तो इस फिल्म को एक बार जरूर देखें। | 0 |
इस फिल्म के बारे में पाठक भी अपनी समीक्षा भेज सकते हैं। सर्वश्रेष्ठ समीक्षा को नाम सहित वेबदुनिया हिन्दी पर प्रकाशित किया जाएगा। समीक्षा भेजने के लिए आप editor.webdunia@webdunia.com पर मेल कर सकते हैं।
यू/ए * 14 रील
बैनर :
मुक्ता सर्चलाइट फिल्म्स
निर्देशक :
नागेश कुकुनूर
कलाकार :
श्रेयस तलपदे, लेना, विजय मौर्या, मनमीत सिंह, विक्रम इनामदार, नसीरुद्दीन शाह (मेहमान कलाकार)
फिल्म में भले ही नामी कलाकार नहीं हैं, परंतु निर्देशक के रूप में नागेश कुकुनूर का नाम देख फिल्म के अच्छे होने की उम्मीद की जा सकती है, लेकिन ‘बॉम्बे टू बैंकॉक’ में नागेश पूरी तरह निराश करते हैं।
पिछले दिनों ‘बॉम्बे टू गोवा’, ‘धमाल’ और ‘गो’ जैसी फिल्में आई थीं, जिसमें पात्र एक शहर से दूसरे शहर की यात्रा करते हैं और उनके साथ घटनाएँ घटती हैं। ‘बॉम्बे टू बैंकॉक’ भी उसी तरह की फिल्म है, जिसमें हास्य पैदा करने की नाकाम कोशिश की गई है।
शंकर (श्रेयस तलपदे) मुंबई में बावर्ची का काम करता है। पैसों के लालच में वह एक डॉन के पैसे चुरा लेता है। जब डॉन के साथी उसके पीछे भागते हैं तो वह उन डॉक्टरों के दल में शामिल हो जाता है जो थाईलैंड जाने वाला रहता है।
शंकर अपना पैसों से भरा बैग दवाइयों से भरे बॉक्स में डाल देता है। थाईलैंड पहुँचने पर वह मसाज गर्ल जस्मिन (लेना) को पसंद करने लगता है, लेकिन दोनों को बात करने में परेशानी महसूस होती है क्योंकि शंकर हिंदी और जस्मिन थाई भाषा बोलती है। इस काम में वह अपने दुभाषिए दोस्त रचविंदर (मनमीत सिंह) की मदद लेता है।
शंकर को पता चलता है कि उसका बैग बैंकॉक में है, वह जस्मिन की सहायता से वहाँ पहुँचता है। इसी बीच शंकर के पीछे वो डॉन भी आ पहुँचता है जिसके शंकर ने पैसे चुराए थे। थोड़े बहुत उतार-चढ़ाव के साथ फिल्म समाप्त होती है।
फिल्म की कहानी बेहद कमजोर है। ढेर सारी खामियों से भरी पटकथा अपनी सहूलियत के हिसाब से लिखी गई है। लेखक ने कहानी के बजाय चरित्रों पर ज्यादा मेहनत की है।
शंकर पैसे चुराने के बाद सभी को आसानी से चकमा देता रहता है। डॉक्टरों के दल में शामिल होकर वह मरीजों का इलाज करता है और उसे कोई पकड़ नहीं पाता। जिस बॉक्स में वह पैसे छिपाता है उसके ऊपर वह कोई निशान या पहचान भी नहीं बनाता, जबकि सारे बॉक्स एक जैसे रहते हैं।
निर्देशक और लेखक के रूप में नागेश कहीं से भी प्रभावित नहीं करते। फिल्म में बहुत ही सीमित पात्र है और बार-बार वहीं चेहरों को देख ऊब होने लगती है। फिल्म का अंत जरूरत से ज्यादा लंबा है। कहने को तो फिल्म हास्य है, लेकिन हँसने के अवसर बेहद कम आते हैं। शंकर और जस्मिन की प्रेम कहानी में से प्रेम गायब है। पूरी फिल्म बोरियत से भरी हुई है।
श्रेयस तलपदे का अभिनय अच्छा है, लेकिन पूरी फिल्म का भार वे नहीं ढो सकते। जस्मिन की भूमिका के लिए थाई अभिनेत्री लेना उपयुक्त लगी। रचिंदर बने मनमीत सिंह और जैम के की भूमिका निभाने वाले विजय मौर्या राहत पहुँचाते हैं। नसीरुद्दीन शाह मात्र एक दृश्य के लिए परदे पर नजर आते हैं।
फिल्म बहुत ही सीमित बजट में बनाई गई है और इसका असर परदे पर दिखाई देता है। फिल्म के नाम में बैंकॉक जरूर है, लेकिन बैंकॉक लगभग नदारद है। सुदीप चटर्जी ने कहानी को फिल्माते हुए इतना कम प्रकाश रखा है कि ज्यादातर परदे पर अँधेरा नजर आता है। गानों में ‘सेम-सेम बट डिफरेंट’ ही याद रहता है। कुल मिलाकर ‘बॉम्बे टू बैंकॉक’ का यह सफर बेहद उबाऊ और थकाऊ है।
इस फिल्म के बारे में पाठक भी अपनी समीक्षा भेज सकते हैं। सर्वश्रेष्ठ समीक्षा को नाम सहित वेबदुनिया हिन्दी पर प्रकाशित किया जाएगा। समीक्षा भेजने के लिए आप
editor.webdunia@webdunia.com
पर मेल कर सकते हैं।
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निर्माता :
मुकुल देओरा
निर्देशक :
सागर बेल्लारी
संगीत :
इश्क बेक्टर, स्नेहा खानवलकर, सागर देसाई
कलाकार :
विनय पाठक, मिनिषा लांबा, अमोल गुप्ते, केके मेनन, सुरेश मेनन
सेंसर सर्टिफिकेट : यू/ए * 14 रील * 2 घंटे 9 मिनट
‘भेजा फ्राय 2’ के किरदार भारत भूषण जैसे संगीत प्रेमी आपको अपने आसपास मिल जाएँगे। हिंदी सिनेमा के संगीत पर लिखने वालों से ज्यादा ज्ञान इनके पास रहता है। यह गाना कौन सी फिल्म का है, किसने लिखा है, किसने संगीत दिया है, मुँहजबानी इन्हें याद रहता है।
भारत भूषण तो हेमंत कुमार, बर्मन दा और मन्ना डे जैसे महान संगीतकारों का इतना दीवाना है कि अपने ब्रीफकेस का कोड, बैंक अकाउंट का नंबर और एटीएम कार्ड का पिन नंबर इनके जन्मदिन या पुण्यतिथि की तारीखों के आधार पर रखता है।
एक निर्जन टापू पर जब वह अपने साथी के साथ अकेला फँस जाता है तो रेत पर ‘हेल्प’ लिखने के बजाय एक पुराना हिट गाना ‘अकेले हैं चले आओ जहाँ हो’ लिखता है। कैसी भी परिस्थिति हो बजाय घबराने के सिचुएशन के मुताबिक उसे गाने सूझते रहते हैं।
उच्च वर्ग के लोग उसकी शुद्ध हिंदी, जिंदगी के प्रति उसके सकारात्मक दृष्टिकोण और मध्यमवर्गीय मूल्यों का मजाक उड़ाता है, लेकिन इससे उसे कोई फर्क नहीं पड़ता वह कभी बुरा नहीं मानता। उसे अपने बचपन के किस्से और पिताजी की सीखें याद हैं। इसी बचपन को उसने अब तक सहेज रखा है और उसकी यही मासूमियत को निर्देशक ने बार-बार उभारा है।
भेजा फ्राय में एक और दिलचस्प किरदार है रघु बर्मन का। उसे रेडियो से, आरडी बर्मन से प्यार है। टीवी चैनलों की भरमार और अनचाही खबरों के हमलों से घबरा कर वह एक टापू में जा बसता है ताकि अकेला रहकर अपने साथ वक्त बिता सके। रेडियो पर गाने सुन सके। कुछ ऐसे ही किरदारों के कारण ‘भेजा फ्राय 2’ देखते समय अच्छी लगती है।
निश्चित रूप से भेजा फ्राय का यह सीक्वल पिछली फिल्म की तुलना में उन्नीस है, लेकिन मनोरंजक है। फिल्म थोड़ा धैर्य माँगती है। जैसे ही कैरेक्टर स्थापित होते हैं और उनकी हरकतों को आप पकड़ लेते हैं, फिल्म मजा देने लगती है।
भेजा फ्राय के संवाद बेहद उम्दा थे और ठहाका लगाने के लगातार मौके अवसर आते रहते थे। सीक्वल का स्क्रीनप्ले इस लिहाज से कमजोर है। कई जगह फिल्म खींची हुई लगती है। मुस्कराने के दो अवसरों में दूरी है और संवादों में भी वैसी बात नहीं है। लेकिन दिलचस्प कैरेक्टर्स होने की वजह से फिल्म में रूचि बनी रहती है।
निर्देशक सागर बेल्लारी ने उच्चवर्गीय और मध्यमवर्गीय मूल्यों के द्वंद्व को अच्छी तरह पेश किया है। फिल्म में एक दृश्य है जिसमें बिज़नेस टायकून एक लड़की को बिस्तर पर ले जाने की कोशिश करता है। जब लड़की मना कर देती है तो वह उसे ‘बहनजी टाइप’ नाम देता है। मानो बहनजी टाइप होना गुनाह हो गया है।
एक और दृश्य है जिसमें भारत भूषण स्विमिंग पूल में डूबता रहता है और सारे सूट-बूटधारी उसकी बचने की कोशिश का मजा लेते हैं बजाय उसे बचाने के।
भारत भूषण के किरदार को विनय पाठक से बेहतर शायद ही कोई निभा सकता था। ऐसा लगता है कि जैसे वे इस रोल के लिए ही बने हो। थोड़ी-सी ओवर एक्टिंग खेल बिगाड़ सकती थी, लेकिन विनय ने वो सीमा पार नहीं की।
के के मेनन पिछली फिल्म के रजत कपूर जैसा प्रभाव नहीं जगा पाए। सुरेश मेनन और मिनिषा लांबा ने अपना काम अच्छे से किया है। अमोल गुप्ते एक बार फिर बतौर अभिनेता अपनी छाप छोड़ने में सफल रहे हैं।
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सुलोचना को प्यार से सुलु कहा जाता है। 12वीं भी पास नहीं कर पाई। उसका एक बेटा और पति है। मध्यम उम्र और मध्यमवर्गीय परिवार में रहने वाली सुलु की दो बहनें नौकरी करती हैं और घर बैठ कर रेडियो सुनने वाली सुलु को नीचा दिखाने का कोई अवसर नहीं छोड़ती। लेकिन सुलु को इस बात को लेकर कोई कड़वाहट नहीं है। वह हंसमुख हैं और अपनी जिंदगी से खुश है। उसका पति तो एकदम 'गाय' है।
सुलु की जिंदगी में तब बदलाव आता है जब वह अपना इनाम लेने रेडियो स्टेशन जाती है और कुछ दिनों में आरजे बन जाती है। उसका शो रात में प्रसारित होता है और लोगों को वह अपनी बातों से खुश करने की कोशिश करती है। आरजे बन कर सुलु की खुशियां ज्यादा दिनों कायम नहीं रह पाती क्योंकि इसका असर उसकी निजी जिंदगी पर पड़ने लगता है।
सुरेश त्रिवेणी द्वारा लिखी कहानी बेहद सरल है, इसमें आगे क्या होने वाला है यह पता करना मुश्किल नहीं है, इसके बावजूद यह फिल्म आपको बांध कर रखती है तो इसका श्रेय सुलु के किरदार और ऐसे कई दृश्यों को जाता है जो आपको हंसाते और इमोशनल करते हैं।
फिल्म की शुरुआत दमदार नहीं है, लेकिन जैसे-जैसे समय बीतने लगता है फिल्म की पकड़ मजबूत होती जाती है। एक मध्यमवर्गीय परिवार की मुश्किलों को बेहद बारीकी से दिखाया गया है। सुलु और उसकी बहनों वाले और सुलु तथा उसके पति के बीच के दृश्य बढ़िया बने हैं।
रेडियो स्टेशन जाकर सुलु का आरजे के लिए ऑडिशन देना, सेक्सी स्टाइल में 'हैलो' बोलना, श्रोताओं से बातें करने वाले दृश्य बहुत अच्छे लिखे गए हैं। साड़ी पहने सुलु कहती हैं कि वह आरजे बनना चाहती है तो सबसे पहले उसके हुलिए को देखा जाता है, मानो आरजे के लिए अच्छी आवाज जरूरी नहीं है बल्कि लुक है। इस तरह के सीन लेखक और निर्देशक के कौशल को दर्शाते हैं।
फिल्म में सबसे अच्छी बात यह है कि सुलु किसी के लिए अपने अंदर कोई परिवर्तन नहीं करती। उसका वजन ज्यादा है, वह साड़ी पहनती है, उसका लुक आम भारतीय महिला की तरह है, लेकिन इसमें कोई बदलाव किए बिना जैसी है वैसी ही बनी रहती है, जबकि उसके साथ काम करने वाले लोग 'हाई-फाई' नजर आते हैं।
इंटरवल तक तो फिल्म बेहतरीन है। हल्के-फुल्के दृश्यों के कारण बहती हुई लगती है। इंटरवल के बाद फिल्म में थोड़ी दरारें पैदा होती हैं। जैसे सुलु के कारण उसके पति का असुरक्षित महसूस करना। यहां पर थोड़ी जल्दबाजी की गई है। साथ ही सुलु के बेटे को लेकर जो ड्रामा गढ़ा गया है वो सतही है। यहां पर लेखकों के हाथ से फिल्म फिसल जाती है। ऐसा लगता है कि एक हल्की-फुल्की फिल्म में फैमिली ड्रामा घुसेड़ने की कोशिश की जा रही है, लेकिन ये रुकावटें फिल्म पर बहुत ज्यादा असर नहीं डालती।
निर्देशक के रूप में सुरेश त्रिवेणी को अपनी लिखी कहानी को ज्यादा करीब से जानते थे, इसलिए उनका काम आसान रहा। उन्होंने अपने प्रस्तुतिकरण को सिम्पल रखा है। सुलु के पति का एक डांस है जिसमें वह बॉलीवुड हीरो की तरह शर्ट निकाल कर घूमाता है और जेब में रखी चिल्लर गिर जाती है, एक महिला ड्राइवर का पाकिस्तानी गायकों के गीतों को इसलिए नहीं सुनना कि कोई बखेड़ा न खड़ा हो जाए, ऐसे दृश्य निर्देशक की पकड़ को दिखाते हैं।
विद्या बालन ने लगे रहो मुन्नाभाई में भी आरजे की भूमिका निभाई थी, लेकिन यहां पर उनका रोल रियलिटी के ज्यादा करीब है। उनका अभिनय लाजवाब है। ऐसा लगता है कि सुलु के किरदार को वही निभा सकती थी। उनके चेहरे के भाव देखने लायक है। एक गृहिणी से आरजे बनने का उनका सफर शानदार है। नौकरी छोड़ते समय नेहा धूपिया के साथ उनका जो दृश्य है उसमें उनका अभिनय देखने लायक है। एक साथ घुमड़ते कई भावों को उन्होंने चेहरे के जरिये दर्शाया है।
मानव कौल भी अपनी दमदार उपस्थिति दर्शाते हैं। एक सीधे-सादे पति के रूप में उन्होंने बढ़िया अभिनय किया है। उनके ऑफिस वाले कुछ दृश्य बढ़िया हैं जहां मानव को छोड़ सारे लोग सत्तर पार हैं। रेडियो स्टेशन की हेड के रूप में नेहा धूपिया परफेक्ट लगीं। क्रिएटिव प्रोड्यूसर और कवि के रूप में विजय मौर्या हंसाते हैं।
विद्या बालन का शानदार अभिनय और सुरेश त्रिवेणी का कुशल निर्देशन 'तुम्हारी सुलु' को देखने लायक बनाता है।
बैनर : एलिप्सिस एंटरटेनमेंट, टी-सीरिज़ सुपर कैसेट्स इंडस्ट्री लि.
निर्माता : भूषण कुमार, कृष्ण कुमार, तनुज गर्ग, अतुल कस्बेकर, शांति शिवराम मणिनी
निर्देशक : सुरेश त्रिवेणी
संगीत : गुरु रंधावा, रजत नागपाल, तनिष्का बागची, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल
कलाकार : विद्या बालन, मानव कौल, नेहा धूपिया, विजय मौर्या, आरजे मलिष्का, अभिषेक शर्मा
सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 2 घंटे 20 मिनट
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फास्ट एंड फ्यूरियस सीरिज का सातवां भाग 'फ्यूरियस 7' नाम से रिलीज हुआ है। हिंदी में इसे 'रफ्तार का जुनून' नाम से रिलीज किया गया है। इस सीरिज की भारत में लोकप्रियता को देखते हुए 'फ्यूरियस 7' को पहले ही दिन 'बी' और 'सी' सेंटर्स में भी रिलीज किया गया है। भले ही भारतीय इनमें से ज्यादा कलाकारों को नहीं पहचानते हो, लेकिन इस सीरिज की बेहताशा रफ्तार के रोमांच का मजा वे भी लेते हैं।
इस सीरिज में कहानी को कभी महत्व नहीं दिया गया। सारा फोकस स्टंट्स पर किया जाता है। फिल्म में दिखाई जाने वाली कारें अद्भुत होती है और ये फिल्म की हीरोइनों से ज्यादा सेक्सी नजर आती हैं। एक्सीलेटर को पैरों तले पूरी तरह दबा दिया जाता है तो कार मानो हवा में उड़ने लगती है। इसका फिल्मांकन इतने उम्दा तरीके से किया जाता है कि दर्शक कार चलाने का मजा ले लेते हैं। यही वजह है कि यह मोटर-मूवी सीरिज टीनएजर्स में बेहद लोकप्रिय है।
ऑवेन शॉ और उसकी टीम को हराने के बाद, डोमिनिक टोरेटो (विन डीजल), ब्रायन ओ'कॉनर (पॉल वाकर) और बाकी के साथी अब सामान्य जीवन व्यतीत करते हैं, जैसा कि वे हमेशा से चाहते थे, लेकिन कुछ घटनाएं ऐसी घटती हैं कि वे चकित रह जाते हैं। ल्यूक हॉब्स (ड्वायने जॉनसन) पर हमला होता है और वह अस्पताल पहुंच जाता है। हेन की मृत्यु हो जाती है। डोमिनिक का घर विस्फोट से उड़ा दिया जाता है।
ऑवेन का बड़ा भाई डेकार्ड शॉ (जैसन स्टेथम) अपने भाई की मौत का बदला लेने के इरादे से डोमिनिक और उसकी टीम के पीछे पड़ा है।
हेन की मौत के विषय में जानने के बाद डोमिनिक की टीम अब उस आदमी की खोज में जुट जाती है जिसने उनके साथी को मारा है। वे डेकार्ड को ढूंढ निकालना चाहते हैं, लेकिन इसके बदले उन्हें एक काम करना होता है। उन्हें मेगन रेमसे नामक हैकर को छुड़ाना होता है जिसे कुछ लोगों ने पकड़ रखा है।
फिल्म की कहानी साधारण है और सारा ध्यान इस बात पर रखा गया है कि हर पल एक्शन का रोमांच बरकरार रहे। हालांकि एक बात लगातार अखरती है कि जिस डेकार्ड की डोमिनिक और उसके साथियों को तलाश है वो बार-बार उनके सामने आता है और उनके काम में परेशानियां पैदा करता है, लेकिन वे उसे पकड़ने की कोशिश नहीं करते।
निर्देशक जेम्स वान ने अपनी टारगेट ऑडियंस को ध्यान में रख कर फिल्म बनाई है और वे इस काम में कामयाब रहे हैं। दस-पंद्रह मिनट बाद फिल्म रफ्तार पकड़ती है और फिर अंत तक दौड़ती रहती है। इस दौरान हैरतअंगेज स्टंट्स देखने को मिलते हैं।
रेमसे को छुड़ाने वाला सीक्वेंस आधे घंटे से भी ज्यादा लंबा होगा, लेकिन उस दौरान रोमांच अपने चरम पर होता है। पहाड़ियों के बीच एक बड़ी बस में रेमसे को ले जाया जा रहा है। चूंकि वहां तक पहुंचना आसान नहीं है इसलिए हवाई जहाज से पैराशूट के सहारे कारों को नीचे उतारा जाता है और फिर गोलियों की बौछारों के बीच रेमसे को बचाया जाता है। हालांकि फिल्म के नाम पर खूब छूट ली गई है, लेकिन इस सीक्वेंस का रोमांच दर्शकों को सीट से हिलने नहीं देता।
मिडिल ईस्ट में स्कायस्क्रेपर्स के बीच कार का छलांग लगाना अतिश्योक्ति पूर्ण है, लेकिन रोमांच के दीवानों को यह सीन पसंद आएगा। क्लाइमैक्स में एक बार फिर रोमांचक एक्शन देखने को मिलता है जब रेमसे को मारने के लिए मिसाइल्स का प्रयोग किया जाता है, लेकिन डोमिनिक और उसके साथी सूझबूझ के साथ हर बार इस वार को विफल करते हैं।
फिल्म एक्शन के बीच इमोशन्स और हास्य सीन भी डाले गए हैं। हालांकि परिवार की बातें कर भावुक होना इन रफ-टफ कलाकारों पर जमता नहीं है। वैसे भी पॉल वाकर के कारण दर्शक भावुक होते हैं। फिल्म के अंत में पॉल और विन डीजल के बीच कुछ ऐसे संवाद सुनने को मिलते हैं जिसके कारण भावुकता की लहर दौड़ती है।
स्टंट्स सीन बच्चों की कल्पना लगते हैं, लेकिन इन्हें इतनी सफाई के साथ पेश किया गया है कि ये विश्वसनीय लगते हैं। ये सीन एक्शन पसंद करने वालों को जरूर अच्छे लगेंगे।
रफ-टफ विन डीजल थोड़े धीमे लगते हैं, लेकिन उनकी टफनेस उन्हें भीड़ में अलग ही खड़ा करती है। वे ऐसे हीरो लगते हैं जो अपनी ताकत से किसी को भी चकनाचूर कर दे। ड्वायने जॉनसन का रोल छोटा है, लेकिन क्लाइमैक्स में वे अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं।
पॉल वाकर की इस फिल्म की शूटिंग के दौरान दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी। बाद में उनके जैसे दिखने वाले और उनके भाइयों को लेकर तकनीक की मदद से उनका रोल फिल्म के अंत तक बढ़ाया गया। दर्शक उन्हें जरूर मिस करेंगे। जेसन स्टेथम ने विन डीजल को कड़ी टक्कर दी है। भारतीय कलाकार अली फजल भी एक छोटे-से रोल में नजर आएं।
निर्माता: नील एच मोरिट्ज़, विन डीजल
निर्देशक : जेम्स वान
कलाकार : विन डीजल, पॉल वाकर, ड्वायने जॉनसन, मिशेल रोडरीगुएज़, जॉरडाना ब्रुस्टर, टायरिज़ गिब्सन, क्रिस ब्रिजेस, लुकास ब्लैक, जैसन स्टेथम
सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 2 घंटे 14 मिनट
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कुछ फिल्में ऐसी होती हैं जो शुद्ध मनोरंजन की कसौटी पर खरी उतरती हैं। इन्हें पॉपकॉर्न और कोला के साथ देखने का मजा ही कुछ और होता है। अवेंजर्स सीरिज की फिल्में इसी तरह हैं जिनमें कई सुपरहीरो को एक साथ देखने का सुकून मिलता है। कॉमिक्स से निकल कर बिग स्क्रीन पर जब ये अपने कारनामे दिखाते हैं तो रोमांच का मजा कई गुना बढ़ जाता है।
अवेंजर्स इन्फिनिटी वॉर में तो इस बार सुपरहीरोज़ की भरमार है। निर्देशक रूसो ब्रदर्स ने तमाम सुपरहीरो को जमा कर अपेक्षाओं को बेहद ऊंचा कर दिया। इतनी अपेक्षाएं कई बार फिल्म पर भारी पड़ जाती हैं, लेकिन एंथनी रूसो और जो रूसो इन अपेक्षाओं पर खरा उतरते हैं और दर्शकों को भरपूर मनोरंजन देते हैं।
जब इतने सारे सुपरहीरो जमा हों तो फिल्म के विलेन का दमदार होना जरूरी है। लगना चाहिए कि इससे टक्कर लेने के लिए कई सुपरहीरो की जरूरत है। थेनोस के इरादे नेक नहीं है। उसे उन स्टोन्स की तलाश है जिसे पाकर वह पूरे ब्रह्मांड पर राज करना चाहता है और पृथ्वी भी सुरक्षित नहीं है, लेकिन स्टोन्स और थेनोस के बीच आयरनमैन, स्पाइडरमैन, हल्क, थोर, कैप्टन अमेरिका, स्टीव रोजर्स, ब्लैक विडो जैसे तमाम योद्धा हैं जो पृथ्वी को सर्वनाश से बचाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं।
एक लाइन की कहानी पर ढाई घंटे तक दर्शकों को थिएटर में बैठाए रखना निर्देशक एंथनी रूसो और जो रूसो की कामयाबी मानी जाएगी। इतने सारे सुपरहीरोज़ के बीच उन्होंने संतुलन बनाए रखा और कहीं भी दर्शकों को कन्फ्यूज नहीं होने दिया। उनका कहानी कहने का तरीका इतना सटीक है कि दर्शक को हर बात समझ में आती है और इतने सारे किरदारों के होने के बावजूद वह भ्रमित नहीं होता।
एक्शन और स्पेशल इफेक्ट्स के धमाकों के बीच इन दिग्गज हीरो के आपसी संवाद मजेदार हैं। इनमें से कई को एक-दूसरे की मौजूदगी का अहसास भी नहीं है। वे आपस में ही टकरा जाते हैं, लेकिन जब पता चलता है कि सभी की लड़ाई थेनोस के विरुद्ध है तो वे एक हो जाते हैं।
फिल्म बहुत तेज गति से चलती है और ज्यादा सोचने के लिए समय नहीं देती। कुछ जगह इधर-उधर भटकती है, कुछ दृश्य अनावश्यक रूप से लंबे भी हो गए हैं, जैसे थेनोस और उसकी बेटी गमोरा के बीच के दृश्य। फिल्म की शुरुआत थोड़ी गड़बड़ है, ऐसा लगता है मानो हम किसी फिल्म को बीच से देख रहे हैं, लेकिन 149 मिनट की अवधि वाली फिल्म में ज्यादातर समय इसकी चमक बरकरार रहती है।
फिल्म का संपादन कमाल का है। इतने सारे कलाकारों और एक्शन सीक्वेंस को बेहद सफाई के साथ जोड़ा गया है कि पूरी फिल्म बहती हुई लगती है। फिल्म की हर बात भव्य है। बजट, स्टार्स, सेट और इफेक्ट्स पर खूब पैसा बहाया गया है। सीजीआई कही भी बनावटी या नकली नहीं लगते।
फिल्म का क्लाइमैक्स जरूर चौंकाता है। इस तरह के अंत की उम्मीद नहीं थी। फिल्म खत्म होने के पहले जो एक्शन सीक्वेंस है वो कमाल का है।
फिल्म में रॉबर्ट डाउनी जू., क्रिस हेम्सवर्थ, मार्क रफेलो, क्रिस इवांस, स्कॉरलेट जोहानसन, जोश ब्रुलिन, टॉम हॉलैंड जैसे दमदार कलाकार हैं जो अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराते हैं। सभी को ठीक-ठाक स्क्रीन टाइम देने की कोशिश निर्देशक ने की है, हालांकि सुपरहीरो के कुछ फैंस को शिकायत हो सकती है कि उनके प्रिय कैरेक्टर को कम समय दिया गया है, लेकिन इसमें निर्देशक की कोई गलती नहीं है। वैसे विलेन जोश ब्रुलिन ज्यादा समय तक स्क्रीन पर नजर आते हैं।
अवेंजर्स : इन्फिनिटी वॉर की की सबसे बड़ी खासियत यह है कि ढाई घंटे बाद भी मन नहीं भरता तथा थोड़ा और पाने की ख्वाहिश रहती है।
निर्माता : केविन फीज
निर्देशक : एंथनी रूसो, जो रूसो
संगीत : एलन सिल्वेस्ट्री
कलाकार : रॉबर्ट डाउनी जू., क्रिस हेम्सवर्थ, मार्क रफेलो, क्रिस इवांस, स्कॉरलेट जोहानसन, जोश ब्रुलिन, टॉम हॉलैंड
2 घंटे 29 मिनट
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नितिन भावे रईस आलम (शाहरुख) गुजरात में गैर-कानूनी तरीके से शराब का धंधा करता है, जो कि वहां बैन है। अब एसीपी मजमुदार को इसे खत्म करने की जिम्मेदारी दी जाती है। क्या रईस की नेकी उसे बचा पाती है? रिव्यू: तैयार हो जाइए 70 के दशक की सलीम-जावेद की किसी ब्लॉकबस्टर फिल्म के अंदाज़ को दोबारा देखने के लिए, जिसमें फिल्म का हीरो ऐक्शन के बीच पला-बढ़ा होता है और उसके डायलॉग की हर दूसरी लाइन उसके दमदार किरदार की अकड़ को दर्शाती है और जिसमें हेलेन के गाने टेंशन और ऐक्शन सीक्वेंस में ठहराव लाती हैं, जो इस फिल्म में सनी लियोनी करती नज़र आती हैं। इसी लेगसी को आगे बढ़ाया गया है 'रईस' में। शाहरुख खान एक ऐसे गुंडे का किरदार निभा रहे हैं जिसे बैटरी कहलाने से सख्त नफरत है।शराब के धंधे में एक छोटी से शुरुआत धीरे-धीरे एक बड़ा रैकेट का रूप ले लेता है और फिर वह शहर का सबसे बड़ा शराब तस्कर बन जाता है। ...और फिर एसीपी मजमुदार (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) की पोस्टिंग उसके इलाके में हो जाती है। रईस की सांठ-गांठ नेताओं से होती है, जिससे उसका काम काफी फलता-फूलता है, लेकिन बहुत जल्द ही उसके इस काम में बड़ी बाधा आ खड़ी होती है। फिल्म के फर्स्ट हाफ की बात करें तो यह बिल्कुल कसी हुई दिख रही है। नवाज के वन लाइनर और म्यूज़िक आपका जबरदस्त मनोरंजन करते हैं और 'लैला मैं लैला' गाना शानदार बन पड़ा है। ...लेकिन फिल्म का सेकंड हाफ हिस्सा आपको अजीब से रॉबिल हुड ज़ोन में पहुंचा देता है, जहां अचानक ऐंटी हीरो का विचार बदलता है वह बिल्कुल मसीहा की तरह बर्ताव करने लग जाता है। तेजी से बढ़ती फिल्म यहां आपको हिचकोले लेती लगेगी। शाहरुख फिल्म में काफी शानदार नज़र आ रहे हैं। रोष और फुर्ती से भरे शाहरुख इस बार अपनी बाहें फैलाते नहीं, बल्कि दूसरों के तोड़ते नज़र आते हैं। पूरी फिल्म उनके कंधों पर टिकी नज़र आ रही है और कई बार पूरी फिल्म का बोझ लिए दिख भी रहे हैं।...और जहां पर वह पीछे रहे वहां नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने अपने शानदार परफॉर्मेंस से जान डाल दी है। शाहरुख के साथ टॉम ऐंड जेरी की रेस में नवाज ने अपने ट्रेड मार्क कॉमिक स्टाइल का भी परिचय दिया है। माहिरा कुछ गाने और इमोशनल सीन तक ही बंध कर रह गई हैं। फिल्म थोड़ी लंबी भले नज़र आ रही हो, लेकिन यदि आप अपने चहेते शाहरुख का परफॉर्मेंस और पॉपकॉर्न एंटरटेनमेंट के लिए फिल्म देखने जा रहे हैं तो 'रईस' शानदार है। | 0 |
विलियम शेक्सपीअर की रचनाएं निर्देशक विशाल भारद्वाज को काफी पसंद हैं। मैकबेथ पर आधारित 'मकबूल' और ओथेलो पर आधारित 'ओंकारा' वे बना चुके हैं। उनकी ताजा फिल्म 'हैदर' हेमलेट से प्रेरित है। शेक्सपीअर की रचनाओं को वे भारतीय पृष्ठभूमि से बखूबी जोड़ते हैं और 'हैदर' को 1995 के कश्मीर के हालात की पृष्ठभूमि पर बनाया गया है।
अलीगढ़ में पढ़ रहे हैदर मीर (शाहिद कपूर) को तब कश्मीर अपने घर लौटना पड़ता है जब उसके पिता डॉक्टर हिलाल मीर (नरेंद्र झा) को आर्मी पकड़ लेती है। हिलाल ने एक आतंकवादी का अपने घर में ऑपरेशन किया था। अचानक हैदर के पिता लापता हो जाते हैं। पूरे कश्मीर को कैदखाना मानने वाला हैदर उनकी तलाश शुरू करता है। हैदर की तकलीफ तब और बढ़ जाती है जब उसे पता चलता है कि उसकी मां ग़ज़ला मीर (तब्बू) उसके चाचा खुर्रम मीर (केके मेनन) के बीच संबंध है। अपने पिता के बारे में हैदर को रूहदार (इरफान खान) के जरिये ऐसा सुराग मिलता है कि वह हिल जाता है। क्या हैदर अपने पिता को ढूंढ पाता है? उसके पिता को गायब करने में किसका हाथ है? क्या हैदर की मां और चाचा के संबंध टूटते है? इनके जवाब हैदर में मिलते हैं।
फिल्म का स्क्रीनप्ले विशाल भारद्वाज और बशरत पीर ने मिलकर लिखा है। कश्मीर के राजनीतिक हालात को उन्होंने कुशलता के साथ कहानी में गूंथा है। जहां एक ओर हैदर पारिवारिक स्तर पर अपनी समस्याओं से जूझता रहता है वहीं दूसरी ओर कश्मीर की समस्याएं भी उसके आड़े आती हैं।
फिल्म में एक संवाद है कि जब दो हाथी लड़ते हैं तो कुचली घास ही जाती है। दो बड़े मु्ल्कों की लडाई का नतीजा जनता को भुगतना पड़ रहा है। कई लोग लापता हैं जिनके बारे में कोई नहीं जानता। ऐसी महिलाएं जिनके पति लापता हैं उन्हें आधी बेवा कहा जाता है और हैदर की मां भी आधी बेवा है। ऐसी कई बातों को इशारों में दर्शाया गया है और बहुत कुछ दर्शक की समझदारी पर लेखक और निर्देशक ने छोड़ा है।
निर्देशक विशाल भारद्वाज ने पूरी फिल्म पर ऐसा कश्मीरी रंग चढ़ाया है कि लगता ही नहीं कि हेमलेट और कश्मीरी पृष्ठभूमि दो अलग चीज हैं। बदला, राजनीति, रोमांस, आतंकवाद जैसे वो सारे तत्व कहानी में मौजूद हैं जो कमर्शियल फिल्मों के भी आवश्यक अंग माने जाते हैं, लेकिन विशाल का प्रस्तुतिकरण फिल्म को अलग स्तर पर ले जाता है। हालांकि फिल्म की गति को उन्होंने बेहद धीमा रखा है और कई बार तो धैर्य आपकी परीक्षा लेने लगता है। विशाल की पिछली फिल्मों को देखा जाए तो वे बात को आक्रामक तरीके से पेश करते हैं, लेकिन 'हैदर' में उनका प्रस्तुतिकरण अलग मिजाज लिए हुए हैं।
सेकंड हाफ में हैदर की मनोदशा का चित्रण विशाल ने बखूबी किया है। एक सीन तो कमाल का है जिसमें हैदर भीड़ के सामने तमाशा पेश करता है। 'हैदर' की अनोखी बात यह भी है कि कहानी में आगे क्या होने वाला है, कौन सा किरदार किस करवट बैठेगा, इसका अंदाजा लगाना आसान नहीं है।
विशाल खुद संगीतकार भी हैं इसलिए वे गानों के माध्यम से कहानी को कहना खूब जानते हैं। एक गाने में कुछ बूढ़े लोग कब्र खोदते हैं और गाते हुए लोगों का इंतजार करते हैं ताकि उन्हें दफना सके। कश्मीर की बेबसी इस गाने में झलकती है। 'बिस्मिल' गाना भी पूरी कहानी का निचोड़ है। फिल्म का बैकग्राउंड म्युजिक भी उम्दा है।
शाहिद कपूर को कठिन रोल मिला है, जिसका निर्वाह उन्होंने बेहतरीन तरीके से किया है। हैदर एक ऐसा किरदार है जिसको अपने ही छलते हैं, इससे उसका मानसिक संतुलन तक बिगड़ने लगता है, उसके इस दर्द को शाहिद ने अच्छे से पेश किया है। तब्बू का किरदार सबसे सशक्त है और पूरी कहानी उनके इर्दगिर्द घूमती है। तमाम दृश्यों में वे अपने साथी कलाकारों पर भारी पड़ती हैं। एक अच्छा कलाकार किस तरह से फिल्म में जान डाल देता है, इसका उदाहरण इरफान खान है। इरफान की एंट्री के पहले फिल्म बहुत ही स्लो लगती है, लेकिन उनके आते ही फिल्म का स्तर ऊंचा उठ जाता है। ऐसा लगता है कि काश इरफान का रोल और लंबा होता। केके मेनन और श्रद्धा कपूर का अभिनय भी प्रभावित करने वाला है।
'हैदर' कई रंग लिए हुए हैं और इसे देखा जाना चाहिए।
बैनर : यूटीवी मोशन पिक्चर्स, विशाल भारद्वाज पिक्चर्स प्रा.लि.
निर्माता : सिद्धार्थ रॉय कपूर, विशाल भारद्वाज
निर्देशक-संगीत : विशाल भारद्वाज
कलाकार : शाहिद कपूर, श्रद्धा कपूर, तब्बू, के.के. मेनन, इरफान खान
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 41 मिनट 50 सेकंड
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बैनर :
स्टुडियो 18, बर्मनवाला पार्टनर्स
निर्देशक :
अब्बास-मस्तान
संगीत :
प्रीतम चक्रवर्ती
कलाकार :
अभिषेक बच्चन, बिपाशा बसु, सोनम कपूर, बॉबी देओल, नील नितिन मुकेश, ओमी वैद्य, सिकंदर खेर, विनोद खन्ना
सेंसर सर्टिफिकेट : यू/ए * 20 रील * 2 घंटे 48 मिनट
दो सप्ताह पूर्व डॉन 2 और इस सप्ताह रिलीज हुई ‘प्लेयर्स’ में काफी कुछ समानता है। डॉन नोट छापने की प्लेट्स चुराने के लिए टीम बनाता है। कामयाब होता है, लेकिन ऐन वक्त पर उसके साथी गद्दारी करते हैं।
इस सप्ताह रिलीज हुई ‘प्लेयर्स’ में दस हजार करोड़ रुपये का सोना चुराना है, जो ट्रेन द्वारा रशिया से रोमानिया ले जाया जा रहा है। एक टीम बनाई जाती है, जिसमें जादूगर है, कम्प्यूटर का जानकार है, एक विस्फोट विशेषज्ञ है। यह टीम भी कामयाब होती है और उसके तुरंत बाद ही एक साथी गद्दारी करता है।
निर्देशक का काम होता है कि अविश्वसनीय कहानी को विश्वसनीय बनाना। डॉन 2 के निर्देशक फरहान अख्तर कुछ हद तक इसमें कामयाब रहे, लेकिन ‘प्लेयर्स’ के निर्देशक अब्बास-मुस्तान इस मामले में बुरी तरह फ्लॉप रहे।
पहली से आखिरी फ्रेम तक स्क्रीन पर जो चलता रहता है वो कही से भी विश्वसनीय नहीं लगता। थ्रिलर फिल्म बनाने में माहिर अब्बास-मस्तान की यह सबसे बुरी फिल्मों में से एक है। चोरी-छिपे हॉलीवुड फिल्मों से प्रेरणा लेकर जब तक उन्होंने फिल्में बनाईं, उनका काम बेहतर रहा। पहली बार ‘द इटालियन जॉब’ के अधिकार खरीदकर इसका हिंदी संस्करण बनाया तो मामला बुरी तरह गड़बड़ा गया।
भारतीय दर्शकों का ध्यान रखते हुए इमोशन्स डाले गए, विलेन के अड़डे पर हीरोइन का सेक्सी गाना रखा गया, अनाथों के लिए स्कूल खोलने का सपना देखा गया, लेकिन इनके लिए पर्याप्त सिचुएशन नहीं बन पाने से ये सब बड़े ही नाटकीय लगते हैं।
चार्ली (अभिषेक बच्चन) को उसका एक दोस्त एक सीडी भेजता है, जिसमें रशिया से रोमानिया ले जाने वाले सोने, जिसकी कीमत दस हजार करोड़ रुपये है, का प्लान है। चार्ली के बस का यह काम नहीं है। अपने गुरु विक्टर (विनोद खन्ना) की मदद से वह एक टीम बनाता है जो इस चोरी को अंजाम देती है। सोना चुराने के बाद टीम के एक मेंबर का लालच जाग जाता है और वह गद्दारी करते हुए खुद सोना ले भागता है। अब चार्ली और उसकी टीम के बचे हुए सदस्य उससे अपना सोना वापस लाते हैं।
कहानी बेहतरीन हैं और इस पर मसालेदार फिल्म बनने की अपार संभावनाएं हैं, लेकिन रोहित जुगराज और सुदीप शर्मा ने इतना खराब स्क्रीनप्ले लिखा है कि हैरत होती है फिल्म के निर्माता और निर्देशकों पर कि वे कैसे इस पर करोड़ों रुपये लगाने के लिए राजी हो गए।
स्क्रीनप्ले अपनी सहूलियत के हिसाब से लिखा गया है। चार्ली और उसकी टीम जो चाहती है, जब चाहती है, बिना किसी मुश्किल के उन्हें वो चीज हासिल हो जाती है। दस हजार करोड़ रुपये का सोना वे इतनी आसानी से चुरा लेते हैं जैसे ये बच्चों का काम हो। ट्रेन से चोरी वाला सीक्वेंस बहुत ही खूबसूरती से फिल्माया गया है, लेकिन अविश्वसनीय होने के कारण यह प्रभावी नहीं लगता।
इसके बाद कई ट्विस्ट और टर्न्स डाले गए हैं जो बहुत बनावटी हैं। दर्शकों को चौंकाने की कई असफल कोशिशें की गई हैं, लेकिन इस लंबे और उबाऊ ड्रामे में इंटरवल तक आते-आते दर्शक अपनी रूचि खो बैठता है। फिल्म का क्लाइमेक्स भी निराश करता है।
नया कुछ करने की कोशिश में निर्देशक अब्बास-मस्तान अपने काम में बुरी तरह असफल रहे हैं। स्क्रिप्ट की खामियों की ओर उन्होंने ध्यान नहीं दिया और न ही अपने कलाकारों से वे ठीक से काम ले पाएं। उनका कहना है कि इस फिल्म को एडिट करने में छ: महीने का वक्त लगा तो ये सच माना जाना चाहिए।
असल में उनके शूट किए गए हिस्से को एडिट करने के चक्कर में एडिटर भी चकरा गया होगा। एडिट करने के बाद भी फाइनल प्रिंट 20 रील के साथ तैयार हुआ है। फिल्म के कुछ कैरेक्टर्स को ठीक से डेवलप नहीं किया गया है। अभिषेक, बिपाशा को चाहते हैं या सोनम को ठीक से स्पष्ट नहीं है। बॉबी देओल का किरदार भी ठीक से नहीं लिखा गया है। रशिया से लूटा गया टनों वजनी सोना न्यूजीलैंड कैसे ले जाया गया इसका जवाब भी नहीं मिलता।
फिल्म में फ्लॉप कलाकारों का जमावड़ा है। ऐसे कलाकार हैं जिनके पास न स्टार वैल्यू है और न ही प्रतिभा, जिससे फिल्म देखने में और बुरी लगती है। अभिषेक बच्चन पूरी फिल्म में एक ही एक्सप्रेशन लिए घूमते रहे। बतौर टीम लीडर उनमें कोई उत्साह नहीं दिखा तो टीम में जोश कैसे नजर आता।
बॉबी देओल का भी यही हाल रहा और उनका रोल आधा-अधूरा-सा है। उनकी बेटी और उनका ट्रेक ठूंसा हुआ है। सिकंदर खेर और सोनम कपूर निराश करते हैं। ओमी वैद्य जरूर कुछ जगह अपने संवादों से हंसाते हैं। बिपाशा बसु की सेक्स अपील का अच्छा उपयोग किया गया और उनका अभिनय औसत है। विनोद खन्ना थक चुके हैं। उनका और सोनम वाला ट्रेक बेहद उबाऊ है। इन सबके बीच नील नितिन मुकेश का काम अच्छा है।
कुल मिलाकर प्लेयर्स का हाल भारतीय क्रिकेट टीम के प्लेयर्स की तरह है, जो खेल के दौरान शुरू से ही हथियार डाल देते हैं।
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खतों के आदान-प्रदान से उपजी प्रेम कथा पर आधारित कुछ फिल्में बॉलीवुड में पहले भी बनी है। ‘सिर्फ तुम’ और ‘माय जापानीज वाइफ’ जैसे कुछ ताजे उदाहरण हैं। ईमेल और एसएमएस के युग में चिट्ठियों के जरिये प्रेम करने की बात फिल्म ‘द लंचबॉक्स’ में इसलिए विश्वसनीय लगती है क्योंकि अभी भी उन लोगों की संख्या ज्यादा है जो इंटरनेट की दुनिया से भलीभांति परिचित नहीं हैं।
‘द लंचबॉक्स’ के मुख्य किरदारों में एक मिडिल एज की गृहिणी इला और रिटायरमेंट की दहलीज पर खड़ा साजन फर्नांडिस हैं और इसी इसी उम्र और वर्ग के ज्यादातर लोग ईमेल और एसएमएस जैसी सुविधाओं का उपयोग बहुत कम करते हैं।
मुंबई में डब्बावाले (लंचबॉक्स बांटने वाले) डिलीवरी में कभी गलती नहीं करते हैं, लेकिन एक गलत डिलीवरी से इला और साजन में एक मधुर में एक मधुर रिश्ता पनपता है। फिल्म में एक डब्बा वाला कहता है कि इंग्लैंड का राजा भी हमारी तारीफ करके गया है और हमारे से कभी चूक नहीं होती। खैर, कहानी का मूल आधार ही यह छोटी-सी गलती है।
इला की एक सात-आठ वर्ष की बेटी है। पति को इला में कोई रूचि नहीं है। इला अपने तरीके से उसका ध्यान आकर्षित करने की कोशिश करती है, लेकिन असफल रहती है। इला पेट के जरिये पति का दिल जीतने की कोशिश करती है और स्वादिष्ट व्यंजन बनाती है। पति को पहुंचाया गया लंचबॉक्स साजन को मिल जाता है और उससे रिश्ता बन जाता है।
साजन और इला एक-दूसरे को लंच बॉक्स के जरिये चिठ्ठी लिखते हैं और अपने सुख-दु:ख को बांटते हैं। निर्देशक ने कई छोटे-छोटे दृश्यों से उनके रिश्तो को विकसित होते दिखाया है।
साजन की पत्नी वर्षों पहले गुजर चुकी है और वह नितांत अकेला है। लोकल ट्रेन और बस में धक्के खाते हुए ऑफिस जाना, बोरिंग -सा रूटीन काम करना और घर लौटकर पत्नी को याद करना उसकी दिनचर्या है। अपने दिल की बात कहने के लिए उसे इला मिल जाती है। अपनी खुशी और नाराजगी का इजहार वे लंच बॉक्स के जरिये करते हैं। जैसे इला कभी खाने में मिर्च ज्यादा कर देती है तो कभी खाली टिफिन पहुंचा देती है।
खतों के जरिये इला को साजन बताता है कि वह उम्र में उससे काफी बड़ा है, लेकिन इला को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। दरअसल उनका खूबसूरत रिश्ता देह और उम्र की सीमाओं से परे है। इस रिश्ते को निर्देशक रितेश बत्रा ने बहुत ही खूबसूरती से परदे पर उतारा है। फिल्म में संवाद बेहद कम है और बिना संवाद वाले दृश्यों के सहारे कहानी को आगे बढ़ाया गया है। रितेश के प्रस्तुतिकरण में एकव किस्म का ठहराव है जो मन को सुकून तो देता ही है साथ ही कलाकारों के मन में क्या चल रहा है उसे दर्शक महसूस करता है।
फिल्म में मुंबई भी एक किरदार की तरह है। ठहरा हुआ ट्रेफिक, लोकल और बसों में भीड़, लंबा इंतजार एक किस्म का तनाव और थकान पैदा करता जिसे किरदारों के साथ-साथ आप भी महसूस कर सकते हैं।
इस फिल्म में कुछ मजेदार किरदार भी हैं, जो आपके चेहरे पर मुस्कान लाते हैं। नवाजुद्दीन सिद्दकी का कैरेक्टर उन लोगों जैसा है जो न चाहते हुए भी और हमारे उनके प्रति रुखे व्यवहार के बावजूद हमारी जिंदगी में घुसे चले आते हैं। रिटायर होने वाले साजन की जगह वह लेने वाला है और उससे काम सीखता है।
एक आंटी का किरदार है जिसकी सिर्फ आवाज सुनाई देती है। यह आवाज भारती आचरेकर की है और वह इला के ऊपर वाले फ्लैट में रहती है। इला अपने किचन की खिड़की से उससे बातें करती हैं। इला, उसकी मां और आंटी की अपनी उलझनें हैं। इला का पति उसकी ओर ध्यान नहीं देता, आंटी का पति पिछले पन्द्रह वर्ष से कोमा में है और वह उसी प्यार से उसकी सेवा कर रही है जितना प्यार पहले था। इला की मां के पति को कैंसर है और वह मन मारकर उनकी सेवा कर रही है। इन महिलाओं की रिश्तों में बंधे होने की अपनी-अपनी मजबूरी है।
इला जब पहली बार मुलाकात के लिए साजन को बुलाती है तो वह तैयार होकर रेस्तरां में मिलने के लिए निकलता है। रेस्तरां पहुंच कर भी वह इला से मिलने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। अपने से उम्र में कई वर्ष छोटी इला के सामने वह अपने आपको बूढ़ा पाता है। उसकी इस सोच को निर्देशक ने दो दृश्यों के जरिये दिखाया है।
निर्देशक ने फिल्म का ओपन एंड रखा है ताकि दर्शक अपने-अपने मतलब निकाले। फिल्म खत्म होने के बाद लंच बॉक्स के किरदार आपका पीछा नहीं छोड़ते हैं और यही इसकी कामयाबी भी है।
फिल्म में सभी का अभिनय ऊंचे दर्जे का है। इरफान खान ने कई बार अवॉर्ड विनिंग परफॉर्मेंस दिए हैं इस लिस्ट में ‘द लंचबॉक्स’ भी जुड़ गई है। अकेला, उम्रदराज और थक चुका साजन का किरदार उन्होंने अद्भुचत तरीके से निभाया है। निम्रत कौर और नवाजुद्दीन शेख ने अपने-अपने किरदारों को जिया है।
यह लंचबॉक्स स्वादिष्ट व्यंजनों से भरपूर है।
बैनर :
यूटीवी मोशन पिक्चर्स, धर्मा प्रोडक्शन्स, डार मोशन पिक्चर्स, सिख्या एंटरटेनमेंट
निर्माता :
गुनीत मोंगा, करण जौहर, अनुराग कश्यप, अरुण रंगाचारी
निर्देशक :
रितेश बत्रा
कलाकार :
इरफान खान, नवाजुद्दीन सिद्दकी, निम्रत कौर, संजीव कपूर
सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 1 घंटा 50 मिनट
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निर्माता :
फरहान अख्तर, रितेश सिधवानी
निर्देशक :
अभिनय देव
संगीत :
शंकर-अहसान-लॉय
कलाकार :
अभिषेक बच्चन, कंगना, सेरा जेन डिएस, जिमी शेरगिल, गौहर खान, शहाना गोस्वामी, बोमन ईरानी, अनुपम खेर
सेंसर सर्टिफिकेट : यू/ए * 2 घंटे 10 मिनट
थ्रिलर और मर्डर मिस्ट्री फिल्म बनाना हर किसी के बस की बात नहीं है। राज खुलने तक दर्शक को बाँधकर रखना और कातिल के चेहरे से परदा हटने के बाद दर्शक को संतुष्ट करना कठिन काम है क्योंकि सभी को अपने प्रश्नों का ठोस उत्तर चाहिए। इसके लिए कसी हुई स्क्रिप्ट और चुस्त निर्देशन की आवश्यकता होती है।
‘गेम’ इन कसौटियों पर खरी नहीं उतरती और एक उबाऊ फिल्म के रूप में सामने आती है। हैरत इस बात की होती है कि इस फिल्म से फरहान अख्तर का नाम जुड़ा है जिनका बैनर अच्छी फिल्मों के लिए जाना जाता है।
फिल्म से जुड़े सारे लोगों का ध्यान केवल स्टाइलिश फिल्म बनाने की ओर रहा। सारे कलाकार स्टाइलिश नजर आते हैं, हत्या के बाद हत्यारे की खोज आधुनिक तरीकों से की जाती है, पाँच देशों की शानदार लोकेशन पर भागम-भाग होती है, लेकिन ठोस कहानी और स्क्रीनप्ले के अभाव में ये सभी चीजें खोखली नजर आती हैं।
कबीर मल्होत्रा (अनुपम खेर) अपने प्राइवेट आयलैंड पर ओपी रामसे (बोमन ईरानी), नील मेनन (अभिषेक बच्चन), तिशा खन्ना (शहाना गोस्वामी) और विक्रम कपूर (जिम्मी शेरगिल) को बुलाता है। इनमें से एक नेता है, दूसरा कैसिनो मालिक है, तीसरा पत्रकार है और चौथा फिल्म स्टार।
कबीर की एक नाजायज बेटी थी जिसकी जिंदगी को बरबाद करने में इन चारों का हाथ है। वह इनसे अपना बदला लेना चाहता है। लेकिन इसके पहले ही एक ऐसी घटना घटती है और एक ऐसा राज खुलता है जिसका असर सभी की जिंदगियों पर होता है। सिया (कंगना) नामक ऑफिसर इस मामले की जाँच करती है।
लगता है कि फिल्म की स्क्रिप्ट एक बार लिखकर ही फाइनल कर दी गई है। इतने सारे अगर-मगर हैं, प्रश्न हैं, जिनका जवाब देने की कोई जरूरत नहीं समझी गई है। कबीर गहरी छानबीन कर इन चारों को अपने आयलैंड पर बुलाता है, लेकिन एक व्यक्ति के बारे में वह यह नहीं जान पाता कि वह पुलिस इंसपेक्टर है और उसकी बेटी को चाहता था।
पुलिस इंसपेक्टर अपनी पहचान क्यों छिपाकर रखता है यह भी समझ से परे है। साथ ही मामले की पड़ताल के दौरान वह अपने अधिकारों का दुरुपयोग करते हुए अपना बदला भी लेता है। कई सवाल ऐसे हैं, जिनके बारे में यहाँ बात की गई तो कहानी के राज खुल सकते हैं। फिल्म का अंत बेहद खराब है और एकदम फिल्मी है।
निर्देशक अभिनय देव ने कहानी के बजाय शॉट्स कैसे फिल्माए जाए, फिल्म को रिच लुक कैसे दिया जाए, इन्हीं बातों पर गौर किया है। कहानी का उन्होंने इस तरह फिल्मांकन किया है उससे दर्शक कभी जुड़ नहीं पाता है।
मनोरंजक दृश्यों की फिल्म में कमी है और एक भी ऐसा सीन नहीं है कि दर्शकों में रोमांच पैदा हो। फिल्म में दो-तीन गाने भी हैं, जिनकी न धुन अच्छी है और न ही फिल्मांकन।
लगता है कि सारे कलाकारों को भी स्क्रिप्ट समझ में नहीं आई, जिसका असर उनके अभिनय पर दिखता है। अभिषेक बच्चन भावहीन (एक्सप्रेशन लेस) रहे, हालाँकि ये उनके किरदार पर सूट करता है।
बोमन ईरानी ने ओवर एक्टिंग की है। जिमी शेरगिल और शहाना गोस्वामी जैसे कलाकार भी रंग में नजर नहीं आए। पहली फिल्म में सेरा जेन डिएस प्रभावित नहीं कर पाईं। कंगना को तुरंत हिंदी और अँग्रेजी के उच्चारण सीखने की की जरूरत है। उनका अभिनय भी बनावटी है। इनकी तुलना में अनुपम खेर का अभिनय ठीक है।
कुल मिलाकर इस गेम को ना खेलना ही बेहतर है।
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दोस्ती और लड़की में हमेशा जीत लड़की की होती है, यह कहावत प्यार और दोस्ती के टकराव के लिए आम है और इसी पंचलाइन पर लेखक-निर्देशक लव रंजन ने अपनी नई फिल्म सोनू के टीटू की स्वीटी की कहानी बुनी है। प्यार का पंचनामा सीरीज के लिए मशहूर रहे लेखक-निर्देशक लव रंजन ने इस बार रोमांस और ब्रोमांस के बीच टक्कर को तरजीह दी है। टीटू (सनी सिंह) एक ऐसा लड़का है, जो बार-बार प्यार में पड़ता है, लेकिन हर बार गलत लड़की के चक्कर में पड़कर उसका दिल टूट जाता है। दिल टूटने पर उसका बचपन का भाई सरीखा दोस्त सोनू (कार्तिक आर्यन) न केवल उसे रोने के लिए कंधा देता है, बल्कि उसे गलत लड़की के चंगुल से बचाता भी है। 13 साल की उम्र में मां के गुजर जाने के बाद सोनू को टीटू के परिवार ने ही पाला है और वह उसी परिवार को अपना परिवार समझता है। इस परिवार में दादा घसीटे (आलोक नाथ), दादी, मम्मी, पापा और मामा ( वीरेंद्र सक्सेना) हैं। ये सभी सदस्य सोनू को अपने बेटे और वारिस की तरह ही प्यार करते हैं। लव और ब्रेकअप की झंझट से तंग आकर आखिरकार टीटू शादी करने का फैसला करता है। अरेंज मैरिज के तहत उसे स्वीटी (नुसरत भरूचा) का रिश्ता आता है। टीटू और पूरे परिवार को स्वीटी शादी के लिए आदर्श और परफेक्ट लड़की लगती है, मगर बचपन से ही टीटू के संरक्षक का रोल निभानेवाले सोनू को लगता है कि कुछ तो गड़बड़ है। स्वीटी एक परफेक्ट लड़की है। वह एक अच्छी बहू है, अच्छी बेटी है और परफेक्ट गर्लफ्रेंड है। ट्रेलर देखें वह इतनी अच्छी और परफेक्ट कैसे हो सकती है? अब वह नहीं चाहता कि टीटू स्वीटी से शादी करे। वह स्वीटी को गलत और झूठी साबित करने की तमाम तिकड़में लड़ाता है। स्वीटी भी सोनू को ईंट का जवाब पत्थर से देती है, मगर क्या स्वीटी वाकई झूठी और बुरी लड़की है? क्या वाकई दोस्ती और लड़की में स्वीटी की जीत होगी? यह देखने के लिए आपको फिल्म देखनी पड़ेगी। अपनी पिछली फिल्मों की तरह लव रंजन ने यहां भी कॉमिडी के फ्लेवर को बनाए रखा है। उनके संवादों का चुलबुलापन कई दृश्यों में हंसाता है और वह मनोरंजक बन पड़े हैं। कहानी में जोड़े गए किरदार बड़े मजेदार हैं। वे दर्शकों को जोड़े रखते हैं। आम तौर पर उनकी फिल्में पुरुष के नजरिए से होती है। उनकी फिल्मों में नायक, नायिकाओं द्वारा सताए हुए होते हैं और नायक बेचारा होता है। इस बार भी लव रंजन ने उसी परंपरा का निर्वाह करते हुए हीरोइन को परंपरावादी नायिका से हटकर अपनी चिरपरिचित शैली में दर्शाया है, जहां वह एक से बढ़कर एक दांव आजमाती है, मगर उसके चरित्र चित्रण में उसका जस्टिफिकेशन नहीं मिलता कि वह वैसी क्यों है? और यह बात आपको सिनेमा हॉल से बाहर निकलने के बाद भी खटकती है, मगर निर्देशक ने इस बात की कत्तई परवाह नहीं की है। सोनू के रूप में कार्तिक आर्यन और टीटू की भूमिका में सनी सिंह का ब्रोमांस और केमिस्ट्री फिल्म का मजबूत पहलू है। कार्तिक आर्यन ने अपने किरदार को हर तरह से दमदार बनाया है। नुसरत ने स्वीटी के रूप में कार्तिक को अच्छी टक्कर दी है। उन दोनों की टशनबाजी के दृश्य अच्छे बन पड़े हैं। नुसरत खूबसूरत लगने के साथ-साथ अभिनय के मामले में भी आगे रही हैं। भोले-भाले टीटू के रोल में सनी सिंह ने अपनी भूमिका सहजता से निभाई है। एक अरसे बाद दादा के रूप में आलोकनाथ अपने पुराने कॉमिक अंदाज में नजर आए हैं। वीरेंद्र सक्सेना, दीपिका अमीन और सोनू कौर जैसे कलाकरों को अच्छा-खासा स्क्रीन स्पेस मिला है, जिसका उन्होंने जमकर फायदा उठाया है। कई संगीतकारों की मौजूदगी में 'दिल चोरी', 'स्वीटी स्लोली', 'लक मेरा हिट', 'तेरा यार हूं मैं' जैसे गाने अच्छे बन पड़े हैं। उनकी कोरियॉग्रफी भी देखने लायक है। क्यों देखें-कॉमिडी के शौकीन यह फिल्म देख सकते हैं। | 0 |
बैनर :
यशराज फिल्म्स
निर्माता :
आदित्य चोपड़ा
निर्देशक :
अली अब्बास जफर
संगीत :
सोहेल सेन
कलाकार :
इमरान खान, कैटरीना कैफ, अली जफर, तारा डिसूजा, कंवलजीत सिंह, परीक्षित साहनी
सेंसर सर्टिफिकेट : यू/ए * 2 घंटे 20 मिनट
शादी की पृष्ठभूमि पर आधारित फिल्में लगातार देखने को मिल रही हैं और दर्शकों द्वारा पसंद भी की जा रही हैं। बैंड बाजा बारात ने सफलता के झंडे गाड़े और तनु वेड्स मनु को भी सराहा गया। यशराज फिल्म्स की ‘मेरे ब्रदर की दुल्हन’ पर भी शादी का रंग चढ़ा हुआ है। शादी की तैयारियां चल रही हैं, मेहमान आ रहे हैं, रस्म अदायगी हो रही है और इसी बीच कुश (इमरान खान) को अपने भाई लव (अली जाफर) की मंगेतर डिम्पल (कैटरीना कैफ) से प्यार हो जाता है।
वैसे इस तरह की कहानी पर आधारित फिल्म ‘सॉरी भाई’ कुछ वर्ष पहले आई थी। ‘तनु वेड्स मनु’ से भी ट्रीटमेंट के मामले में यह फिल्म काफी मिलती-जुलती है। फर्क इतना है कि यहां भाई की होने वाली पत्नी से इश्क हो जाता है। किरदार भी तनु वेड्स मनु जैसे हैं। कंगना जैसी बोल्ड और बिंदास यहां कैटरीना भी हैं। वह भी शराब गटकती है और बीड़ी फूंकती है। माधवन को उस फिल्म में सीधा-सादा नौजवान दिखाया गया था और ऐसा ही किरदार इमरान खान का है।
दरअसल निर्देशक अली अब्बास जाफर पुरानी कई फिल्मों से प्रभावित हैं और उन्हीं को आधार बनाकर उन्होंने ‘मेरे ब्रदर की दुल्हन’ की स्क्रिप्ट लिखी है। कई जगह उन्होंने पुराने गानों का उपयोग किया है और कई फिल्मों के दृश्यों का उल्लेख भी किया है।
शाहरुख खान ने ‘माई नेम इज खान’ में जो किरदार निभाया था वैसा ही किरदार कैटरीना के भाई के रूप में देखने को मिलता है। वह अभिनय भी शाहरुख की तरह करता है। कुल मिलाकर अली अब्बास जाफर एक मनोरंजक फिल्म बनाना चाहते थे और उसमें पूरी तरह वे कामयाब रहे हैं।
कुश की डिम्पल से एक छोटी-सी मुलाकात पांच वर्ष पहले हुई थी। जब उसे वह फैशनेबल जानवर नजर आई थी। अपने लंदन में रहने वाले भाई लव के लिए वह दुल्हन तलाशने निकलता है और संयोग से डिम्पल से भी उसकी मुलाकात हो जाती है। डिम्पल अब काफी बदल चुकी है और कुश को वह अपने भाई के लिए परफेक्ट लगती है।
शादी की तैयारियां चल रही हैं। लव लंदन से आने वाला है। उसके आने के पहले डिम्पल का ज्यादातर वक्त कुश के साथ गुजरता है। शादी के पहले वह दो दिन मौज-मस्ती के साथ जीना चाहती है। कुश उसका साथ देता है। फिर लव आता है। डिम्पल, लव के साथ समय व्यतीत करती है, लेकिन कुश को मिस करती है। ऐसा ही हाल कुश का भी है। दोनों को समझ में आता है कि वे एक-दूसरे को चाहने लगे हैं।
डिम्पल चाहती है कि वह और कुश भाग कर शादी कर ले, लेकिन कुश तैयार नहीं है। वह मध्यमवर्गीय परिवार से है। पिता की इज्जत, होने वाली भाभी के साथ भागने का लांछन, बदनामी के कारण वह तैयार नहीं है।
वह और डिम्पल मिलकर एक प्लान बनाते हैं ताकि लव अपने आप रास्ते से हट जाए। परिस्थितियां ऐसी पैदा हो कि सभी की मर्जी से उनकी शादी हो। किस तरह उनकी योजना कामयाब होती है, ये फिल्म में कॉमेडी के सहारे दिखाया गया है।
कुछ लोगों को इस बात पर ऐतराज हो सकता है कि कैसे आप अपने होने वाली भाभी के साथ इश्क लड़ा सकते हैं। अपने ही सगे भाई को धोखा दे सकते हैं, लेकिन फिल्म देखते समय इन बातों पर ज्यादा ध्यान नहीं जाता क्योंकि स्क्रीनप्ले कसा हुआ और मनोरंजन से भरपूर है। ज्यादा सोचने का वक्त नहीं मिलता।
इंटरवल तक तो फिल्म में इतनी तेजी से सब कुछ घटित होता है कि उत्सुकता बढ़ती है कि इसके बाद अब क्या देखने को मिलेगा। इंटरवल के बाद थोड़े ‘डल सीन’ आते हैं, लेकिन फिल्म फिर रफ्तार पकड़ लेती है।
फिल्म में कई सीन बेहतरीन बन पड़े हैं, जैसे- कैटरीना का इमरान को भगा कर ले जाना, एअरपोर्ट पर इमरान और कैटरीना का अली को लेने जाना, अली का इमरान के सामने स्वीकारना कि वह कैटरीना से शादी नहीं कर सकता, कैटरीना और इमरान का भेष बदल कर घूमना।
चुटीले संवाद और सिचुएशनल कॉमेडी होने से फिल्म में बेहद मनोरंजक है। बतौर निर्देशक अली अब्बास जफर की यह पहली फिल्म है, लेकिन उनका काम किसी अनुभवी निर्देशक की तरह लगता है। चूंकि स्क्रीनप्ले भी उनका लिखा हुआ है इसलिए फिल्म पर उनकी पकड़ और मजबूत है।
फिल्म के मूड को ध्यान में रखते हुए अली ने सभी कलाकारों से थोड़ी-सी ओवर एक्टिंग करवाई है, जो अच्छी लगती है। कैटरीना कैफ को अपने करियर की बेहतरीन भूमिकाओं में से एक मिली है, जिसका उन्होंने अच्छा फायदा उठाया है। पूरी फिल्म उनके किरदार के इर्दगिर्द घूमती है। उनकी एक्टिंग प्रभावी है, लेकिन वे और अच्छा कर सकती थीं।
इमरान खान इस तरह के रोल पहले भी कर चुके हैं। उनके लिए कुश का किरदार नई बात नहीं है। अली जाफर ने अपने किरदार को स्टाइलिश लुक दिया है।
फिल्म का संगीत भी इसका प्लस पाइंट है। सोहेल सेन ने ‘मधुबाला’, धुनकी’, ‘छूमंतर’ और ‘इश्क रिस्क’ की अच्छी धुनें बनाई हैं। इरशाद कामिल के बोल भी उम्दा है। तकनीकी रूप से फिल्म सशक्त है।
‘मेरे ब्रदर की दुल्हन’ एक हल्की-फुल्की और मनोरंजक फिल्म है, जिसे देखा जा सकता है।
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‘अगर’ देखने के बाद कई फिल्मों के नाम याद आते हैं, जो इससे मिलती-जुलती है। निर्देशक अनंत महादेवन ने उन फिल्मों को मिलाकर ‘अगर’ बनाई है। इस फिल्म में मानसिक बीमारी से ग्रस्त प्रेमी, जायदाद हड़पने का षड्यंत्र, अनैतिक संबंध, बेवफा प्रेमिका जैसे थ्रिलर फिल्म के सभी आवश्यक तत्व मौजूद हैं, लेकिन इसके बावजूद फिल्म वैसा असर नहीं छोड़ पाती, जिसकी तलाश एक थ्रिलर फिल्म में होती है।
आर्यन (तुषार कपूर) अपनी प्रेमिका की बेवफाई सहन नहीं कर पाता और मानसिक संतुलन खो बैठता है। उसकी प्रेमिका की मौत हो जाती है। डॉक्टर अदि मर्चेण्ट (श्रेयस तलपदे) उसका इलाज करता है और उसे फिर से जीना सिखाता है।
अदि की पत्नी जाह्नवी (उदिता गोस्वामी) एक सफल महिला है। करोड़ों रुपयों की उसकी कंपनी है। जाह्नवी को शक है कि अदि की जिंदगी में कोई महिला है। आर्यन ठीक होकर जाह्नवी की कंपनी में नौकरी करता है। इस बात से अदि बेखबर है।
अदि से परेशान होकर जाह्नवी आर्यन की तरफ आकर्षित हो जाती है। दोनों सारी हदों को पार कर देते हैं। जल्द ही जाह्नवी को अपनी गलती का अहसास होता है और वह आर्यन से संबंध नहीं रखना चाहती।
एक लड़की की बेवफाई झेल चुका आर्यन जाह्नवी की बेरूखी से परेशान हो जाता है। एक बार फिर उसका दिमागी संतुलन बिगड़ने लगता है। वह जाह्नवी को मार डालना चाहता है। आखिर में कुछ राज खुलते हैं और फिल्म समाप्त होती है।
फिल्म तब तक अच्छी लगती है, जब तक असली मुजरिम सामने नहीं आता। उसके सामने आने के बाद कई प्रश्न खड़े होते हैं, जिनका कोई जवाब नहीं दिया गया। इस कारण दर्शक अपने आपको ठगा-सा महसूस करता है।
जो साजिश अपराधी ने रची है, वो बेहद लचर और बचकानी लगती है। रहस्य और रोमांच से भरी फिल्म का अंत बेहद ठोस होना चाहिए। दर्शकों को अपने सारे प्रश्नों का जवाब मिलना चाहिए, लेकिन निर्देशक ने अंत में सारे तर्कों को एक तरफ रख दिया है। लेखक और निर्देशक अपनी कहानी को अंत में ठीक तरह से समेट नहीं पाए।
फिल्म अदि, आर्यन और जाह्नवी के इर्दगिर्द घूमती है। आर्यन और जाह्नवी के चरित्र रंग बदलते रहते हैं। आर्यन कभी समझदारी भरी बातें करता है तो कभी नासमझी भरी। जाह्नवी को एक आधुनिक और समझदार महिला बताया गया है। वह अपने पति पर शक करती है और आर्यन से संबंध बना लेती है। अपने पति को वह जिस गलती से रोकना चाहती है, वहीं गलती वह खुद करती है, ये समझ से परे है।
निर्देशक अनंत महादेवन ने एक कमजोर कहानी पर फिल्म बनाई है और सिनेमा के नाम पर कहानी में खूब छूट ली है। उन्होंने फिल्म को मॉडर्न लुक देने की कोशिश की है। निर्माता ने फिल्म पर कम पैसे खर्च किए हैं और बजट की तंगी का असर फिल्म पर दिखाई देता है।
तुषार कपूर के अभिनय की पोल उन दृश्यों में खुल जाती है, जिसमें अभिनय करना पड़ता है। पूरी फिल्म में वे बीमार से लगते हैं। श्रेयस का अभिनय तो अच्छा है, लेकिन उनका चरित्र उनकी उम्र को सूट नहीं करता। चश्मे और दाढ़ी के जरिये निर्देशक ने उन्हें मैच्योर दिखाने की कोशिश की है, लेकिन बात नहीं बनती। उदिता गोस्वामी का अभिनय अच्छा है और उन्हें काफी फुटेज भी मिला है।
निर्माता :
नरेन्द्र बजाज-श्याम बजाज
निर्देशक :
अनंत महादेवन
संगीत :
मिथुन
कलाकार :
तुषार कपूर, उदिता गोस्वामी, श्रेयस तलपदे, सोफी
सईद कादरी ने अच्छे बोल लिखे हैं, लेकिन मिथुन द्वारा बनाई गई धुनें निराश करती है। फिल्म में अच्छे गानों की कमी अखरती है।
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बैनर :
सहारा वन मोशन पिक्चर्स, बीएसके फिल्म्स
निर्माता :
बोनी कपूर
निर्देशक :
प्रभुदेवा
संगीत :
साजिद-वाजिद
कलाकार :
सलमान खान, आयशा टाकिया, महेश मांजरेकर, प्रकाश राज, विनोद खन्ना, गोविंद नामदेव, मनोज पाहवा, इन्दर कुमार, महक चहल, मेहमान कलाकार - गोविन्दा, अनिल कपूर, प्रभुदेवा
* केवल वयस्कों के लिए * 155 मिनट * 18 रील
वन...टू...थ्री...सिनेमाघर में अंधेरा होते ही सलमान खान का शो शुरू हो जाता है। सलमान की एंट्री होती है एक्शन सीन से। एकदम ‘दीवार’ के अमिताभ की स्टाइल में सलमान शटर गिराते हैं और उस पर ताला गुंडे लगाते हैं। इसके बाद उन बीस-पच्चीस आदमियों की सल्लू जोरदार तरीके से धुलाई करते हैं।
धाँसू एक्शन सीन के तुरंत बाद धाँसू गाना। गणेश जी की मूर्ति के सामने सलमान ‘जलवा’ गाने पर ठुमके लगाते हैं। एक्शन और गाने से निर्देशक ने दिखा दिया कि राधे किस तरह का आदमी है। वह लोगों को गाजर-मूली की तरह काटता है और भगवान के आगे सिर झुकाता है।
राधे (सलमान खान) एक शूटर है। उसके चमचे उसे ब्रूसली का नाना और रैम्बो का चाचा कहते हैं। ‘तुम जिस स्कूल में पढ़े हो उसका हेडमास्टर मेरे से ट्यूशन लेता है’ जैसे घिस-पिटे डॉयलॉग भी वह बोलता है।
पैसे के लिए वह कुछ भी कर सकता है। लेकिन ठहरिए... उसके भी कुछ उसूल हैं। औरतों और बच्चों पर वह हाथ नहीं उठाता। जो काम पसंद आता है वही करता है। शराब और खून जब इच्छा हो तब पीता है और वो भी दबा के। गुटखे को वह मौत का सामान मानता है। एक बार कमिटमेंट कर दिया तो फिर वह अपनी भी नहीं सुनता।
एक्शन के बीच रोमांस भी जरूरी है। इस गुंडेनुमा शख्स की स्टाइल पर लड़कियाँ मरती है क्योंकि ‘हथियार’ से वह बहुत अच्छी तरह खेलता है। ‘तुम गुंडे हो, लेकिन दिल के अच्छे हो’ कहकर इस हत्यारे पर जाह्नवी (आयशा टाकिया) फिदा हो जाती है, लेकिन राधे के क्रूर रूप को देख वह भी सिहर उठती है।
मोटी-ताजी जाह्नवी पर दो लोग और फिदा है। अधेड़ उम्र का मकान मालिक (मनोज पाहवा), जो बीच-बीच में दर्शकों को हँसता है और इंसपेक्टर तलपदे (महेश मांजरेकर), जिसकी हरकतों पर दर्शकों को गुस्सा आता है।
गनी भाई (प्रकाश राज) के लिए राधे काम करता है और उनके दुश्मनों को ठिकाने लगता है। गनी भाई के खास आदमी का मर्डर हो जाता है और लड़कियों की कुश्ती देखने के शौकीन गनी भाई विदेश से भारत चले आते हैं। यहाँ आकर उन्हें एक खास राज मालूम पड़ता है, जिससे उनकी और राधे की दुश्मनी हो जाती है। कहानी में ट्विस्ट आता है और खून-खराबे के पीछे राधे का मकसद क्या है, ये सभी को पता चलता है।
तमिल फिल्म ‘पोकिरी’ पर आधारित ‘वॉन्टेड’ की कहानी धागे जैसी पतली है। उसमें नयापन भी नहीं है। आगे क्या होने वाला है ये सभी को पता रहता है। क्लाइमेक्स के थोड़ा पहले तक कहानी आगे खिसकती भी नहीं है। फिर भी फिल्म में रूचि बनी रहती है क्योंकि निर्देशक प्रभुदेवा ने दृश्यों की असेंबलिंग बहुत ही उम्दा तरीके से की है। एक्शन, हास्य और रोमांस का मिश्रण बिलकुल बराबर मात्रा में किया है।
साथ ही उन्होंने सलमान खान को बेहतरीन तरीके से पेश किया है। सलमान के ढेर सारे प्रशंसक उन्हें इसी रूप में देखना पसंद करते हैं। सलमान की जो इमेज है वह राधे के किरदार से बिलकुल मेल खाती है। अक्खड़, थोड़ा बिगड़ैल लेकिन दिल का हीरा, बेखौफ, लार्जर देन लाइफ सी शख्सियत, अपनी मर्जी से जीने वाला, स्टाइलिश, औरतों की इज्जत करने वाला। लगता ही नहीं कि सलमान एक्टिंग कर रहे हैं।
पूरी फिल्म में सलमान का प्रभुत्व है। सल्लू की हीरोगिरी दिखाने के लिए स्क्रिप्ट की खामियों को भी नजरअंदाज कर दिया गया है। सलमान के कारण दर्शक उन गलतियों को पचा लेते हैं। सलमान पर सैकड़ों गोलियाँ चलती हैं और उन्हें खरोंच तक नहीं आती। ‘वॉन्टेड’ देखते समय दर्शक इन बातों की परवाह नहीं करते क्योंकि उनके हीरो को गोली छू भी नहीं सकती।
एक्शन इस फिल्म का प्रमुख आकर्षण है। कई एक्शन/स्टंट बेहतरीन बन पड़े हैं, जिनमें सलमान की एंट्री वाला सीन, आयशा को ट्रेन में छेड़ने वाले गुंडों की पिटाई वाले सीन और फिल्म का क्लायमैक्स उल्लेखनीय हैं।
संगीत की बात की जाए तो ‘जलवा’ और ‘लव मी’ उम्दा है। हर गाने का फिल्मांकन खूबसूरत लोकेशन्स पर भव्य तरीके से किया गया है। तकनीकी रूप से फिल्म सशक्त है।
आयशा टाकिया ने सलमान का साथ उम्दा तरीके से निभाया है। गनी भाई के रूप में प्रकाश राज ने अपनी छाप छोड़ी है। पुलिस की गिरफ्त रहकर उन्होंने खूब हँसाया है। महेश मांजरेकर को देख नफरत पैदा होती है और यही उनकी कामयाबी है। विनोद खन्ना प्रभाव नहीं छोड़ पाते हैं।
यदि आप एक्शन फिल्म पसंद करते हैं और सलमान खान के प्रशंसक हैं तो ‘वॉन्टेड’ आपके लिए है तीखे मसालों के साथ।
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निल बटे सन्नाटा के निर्माता-निर्देशक ने ये साहस का काम किया है कि एक बाई के किरदार को लीड में लेकर फिल्म बनाई है। ये फिल्म उस वर्ग का प्रतिनिधित्व रखती है जिसे समाज में खास महत्व नहीं दिया जाता है। भारत के श्रेष्ठि वर्ग में 'बाई' के बिना कोई काम नहीं होता। ये महिलाएं अपने घर का काम करने के बाद अन्य घरों का काम भी करती हैं और सपने देखने का हक इन्हें भी है।
फिल्म की नायिका चंदा सहाय चाहती है कि उसकी किशोर बेटी अपेक्षा पढ़ लिख कर कुछ बन जाए, लेकिन अपेक्षा का मन पढ़ाई में नहीं लगता। चंदा उसे डांटती है तो वह कहती है कि जब डॉक्टर की संतान डॉक्टर बनती है तो बाई की बेटी भी बाई बनेगी। यह सुन चंदा के पैरों के नीचे की जमीन खिसक जाती है, लेकिन वह हिम्मत नहीं हारती।
अपेक्षा को गणित से डर लगता है। यह जान कर चंदा भी उसकी कक्षा में दाखिला ले लेती है। अपेक्षा को छोड़ कोई भी नहीं जानता कि चंदा ही अपेक्षा की मां है। चंदा गणित सीखती है ताकि वह अपेक्षा को सीखा सके, लेकिन चंदा के इस कदम से अपेक्षा बेहद नाराज हो जाती है। आखिर में उसे अपनी गलती का अहसास होता है और वह पढ़ाई में मन लगाती है।
नितेश तिवारी ने उम्दा कहानी लिखी है। कहानी उपदेशात्मक या नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाली है, लेकिन स्क्रीनप्ले कुछ इस तरह लिखा गया है कि लगातार दर्शकों का मनोरंजन होता रहता है। मनोरंजन के आड़ में कई बातें दर्शकों के अवचेतन में उतारी गई है। जैसे- सपने देखने पर हर किसी का हक है, गणित को लेकर विद्यार्थी बेवजह का हौव्वा बना लेते हैं, बेटी पढ़ाओ, सपने को पूरा करने के लिए कठोर परिश्रम करना पड़ता है।
फिल्म में मां-बेटी के रिश्ते को भी बहुत ही उम्दा तरीके से दिखाया गया है। आमतौर पर किशोर उम्र के बच्चे मां-बाप के खिलाफ विद्रोही तेवर अपना लेते हैं। अपेक्षा को भी शिकायत रहती है कि उसकी मां बाई है और उसे ज्यादा पढ़ा नहीं सकती है, लेकिन चंदा इसे गलत साबित करती है।
निर्देशक अश्विनी अय्यर तिवारी ने फिल्म को सरल तरीके से पेश किया है। सरकारी स्कूल का माहौल और समाज के कमजोर तबके का फिल्मांकन प्रशंसा के योग्य है। फिल्म के लगभग सारे किरदार बहुत ही भले हैं, चाहे वो स्कूल प्रिंसिपल (पंकज त्रिपाठी) हो, कलेक्टर (संजय सूरी) हो या लेडी डॉक्टर (रत्ना पाठक शाह) हो। हमेशा मदद के लिए तत्पर ये दिखाई देते हैं। फिल्मों के साथ-साथ असल जिंदगी में से भी ऐसे लोग गायब हो गए हैं।
फिल्म में बहुत सारा घटनाक्रम नहीं है, इसलिए निर्देशक की जवाबदारी बढ़ जाती है। कई छोटे-छोटे दृश्य गढ़ कर कहानी को आगे बढ़ाना पड़ता है और इसमें निर्देशक सफल रहे हैं। स्कूल के कई दृश्य बहुत अच्छे हैं और मनोरंजन करते हैं। इन्हें देख वयस्कों को अपने स्कूली दिनों की याद आ जाएगी।
स्क्रीनप्ले में कुछ कमियां रह गई है, जैसे चंदा इसलिए स्कूल में दाखिला लेती है ताकि वह अपनी बेटी की गणित संबंधी समस्या को दूर कर सके, लेकिन उसे ऐसा करते दिखाया नहीं गया। कुछ इस तरह के दृश्य फिल्म में होने थे। स्क्रीनप्ले कुछ इस तरह लिखा गया है कि आगे क्या होने वाला है इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है।
इसमें कोई शक नहीं है कि स्वरा भास्कर कितनी उम्दा एक्ट्रेस हैं। 'निल बटे सन्नाटा' में एक बार फिर वे ये बात साबित करती हैं। चंदा के रोल को उन्होंने जिया है। अपेक्षा के रोल में रिया शुक्ला एकदम फिट नजर आती हैं। कभी भी लगता नहीं कि वह अभिनय कर रही है। स्कूल प्रिंसीपल के रूप में पंकज त्रिपाठी ने खूब हंसाया है। उन्होंने एक खास तरह की बॉडी लैंग्वेज अपनाई और ओवर एक्टिंग भी की, लेकिन किरदार को एक अलग ही लुक दिया। रत्ना पाठक शाह का ज्यादा उपयोग नहीं हो पाया। छोटे से रोल में संजय सूरी प्रभावित करते हैं।
'निल बटे सन्नाटा' एक फील गुड सिनेमा है जिसे देखने के बाद आप थोड़ी खुशी महसूस करते हैं।
बैनर : इरोस इंटरनेशनल, कलर येलो प्रोडक्शन्स, जर पिक्चर्स
निर्माता : सुनील ए. लुल्ला, आनंद एल. राय, अजय जी. राय, संजय शेट्टी, नितेश तिवारी, एलन मैक्लेक्स
निर्देशक : अश्विनी अय्यर तिवारी
कलाकार : स्वरा भास्कर, रिया शुक्ला, रत्ना पाठक शाह, पंकज त्रिपाठी, संजय सूरी
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चाहे कोई इंसान अपनी जिंदगी में कहीं भी पहुंच जाए, लेकिन उसके जेहन में बचपन की कुछ ऐसी यादें जरूर होती हैं, जो उसे हमेशा याद रहती हैं। कुछ बुरी यादें इंसान को हमेशा परेशान करती हैं, तो कुछ अच्छी यादें उसे हमेशा खुशनुमा एहसास कराती हैं। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की विश्व प्रसिद्ध कहानी 'काबुलीवाला' पर बेस्ड 'बायोस्कोपवाला' इसका मॉडर्न अडॉप्टेशन है। फिल्म के डायरेक्टर देब मधेकर का कहना है कि उन्होंने आज के दौर का काबुलीवाला बनाने की कोशिश की है। फिल्म में फैशन स्टाइलिस्ट मिनी बासु (गीतांजलि थापा) अपने पापा रोबी बासु (आदिल हुसैन) के साथ कोलकाता में रहती है, जो कि जाने-माने फैशन फटॉग्रफर हैं। बाप-बेटी के बीच संबंध कोई बहुत अच्छे नहीं हैं। एक दिन रोबी की कोलकाता से काबुल जाने वाले एक हवाई जहाज की दुर्घटना में मौत हो जाती है। मिनी पिता की मृत्यु से संबंधित औपचारिकताएं पूरी कर ही रही थी कि घरेलू नौकर भोला (ब्रिजेंद्र काला) उसे घर आए नए मेहमान रहमत खान (डैनी डेन्जोंगपा) से मिलवाता है। मिनी को पता लगता है कि उसके स्वर्गीय पापा ने हत्या के मुकदमे में जेल में बंद रहमत को कोशिश करके जल्दी छुड़वाया है। शुरुआत में मिनी भोला को तुरंत घर से बाहर कर देने के लिए कहती है, लेकिन अपने पापा के रूम को खंगालते वक्त मिनी को पता लगता है कि यह रहमत और कोई नहीं, बल्कि वह उसके बचपन में उनके घर आने वाला बायोस्कोपवाला ही है, जिसकी सुनहरी यादें अभी भी उसके जेहन में ताजा हैं। और तो और एक बार तो रहमत ने अपनी जान पर खेलकर मिनी की जान भी बचाई थी। दरअसल, वह मिनी में अपनी पांच साल की बेटी की झलक देखता था, जिसे कि वह मुश्किल दिनों में अफगानिस्तान छोड़ आया था। रहमत के रूप में अचानक अपने बचपन की यादों का पिटारा खुल जाने से उत्साहित मिनी कोलकाता में तमाम लोगों से मिलकर उसके जेल जाने से की सच्चाई का पता लगाती है और उसके खोए परिवार को तलाशने अफगानिस्तान भी जाती है। आखिरकार क्या है रहमत की सच्चाई? क्या वह निर्दोष है? और क्या मिनी रहमत को उसके परिवार को मिलवा पाने में कामयाब हो पाती है? बहरहाल, इन सवालों का जवाब तो आपको थिएटर में जाकर ही मिल जाएगा। अर्से बाद बड़े पर्दे पर नजर आए डैनी डेन्जोंगपा ने बेहतरीन ऐक्टिंग से दिखा दिया है कि उनमें अभी काफी दम बाकी है। बड़े पर्दे पर डैनी का खूबसूरत अवतार देखकर एक बार को आपको रश्क हो सकता है कि बॉलिवुडवालों ने अभी तक डैनी को सिर्फ नेगेटिव रोल ही क्यों दिए। वहीं नैशनल अवॉर्ड विनर गीतांजलि थापा ने मिनी के रोल को खूबसूरती से जिया है। आदिल हुसैन हमेशा की तरह पर्दे पर लाजवाब लगे हैं। वहीं ब्रिजेंद्र काला ने भी बढ़िया ऐक्टिंग की है। विज्ञापन की दुनिया से फिल्मों की दुनिया में आए देब मधेकर की यह बतौर डायरेक्टर पहली फिल्म है। फिल्म की कहानी और स्क्रीनप्ले भी उन्होंने खुद लिखा है। वहीं फिल्म की सिनेमटॉग्रफी भी कमाल है। बड़े पर्दे पर बीते दौर का कोलकाता और अफगानिस्तान दोनों ही खूबसूरत लगते हैं। बढ़िया एडिटिंग के दम पर फिल्म महज डेढ़ घंटे में सिमट गई है। वहीं फिल्म का संगीत भी आपको लुभाता है। आजकल फिल्मों की भागदौड़ में राहत देने वाला लीक से हटकर सिनेमा देखना चाहते हैं, तो बायोस्कोपवाला आपके लिए ही है। | 0 |
जरूरी नहीं है कि थ्रिलर फिल्म के लिए तेज भागती कारें हो, पीछा करने के दृश्य हों, सनसनाती गोलियां चले या युवा हीरो-हीरोइन हों। इनके बिना भी एक थ्रिलर फिल्म बनाई जा सकती है। 'तीन' इसका उदाहरण है। इसमें कैमरा ज्यादा मूवमेंट नहीं करता, फिल्म का केन्द्रीय पात्र एक झुके कंधों वाला उम्रदराज आदमी है, जो खटारा स्कूटर पर धीमी रफ्तार से चलता है। कलकत्ता की आंकी-बांकी गलियां के साथ फीके पड़ चुके घर हैं, जिनमें सुस्ती पसरी है। ये परिस्थितियां किसी थ्रिलर फिल्म की नहीं लगती, लेकिन निर्देशक रिभु दासगुप्ता ने अपनी फिल्म के लिए ऐसे ही पात्र और माहौल को चुना है और ज्यादातर समय दर्शकों को सीट पर जकड़ने में वे कामयाब रहे हैं। 'तीन' कोरियन फिल्म 'मोंताज' का ऑफिशियल रिमेक है, जिसे भारतीय परिवेश में बखूबी ढाला गया है। ऐसा लगता है कि कोलकाता की ही कहानी हो।
कोलकाता में रहने वाले जॉन बिस्वास (अमिताभ बच्चन) की नातिन एंजेला का आठ वर्ष पहले अपहरण हुआ था। अपहरणकर्ता के पास जॉन पैसे लेकर पहुंचा, लेकिन पैसों के बदले उसे एंजेला की लाश मिलती है। अपहरणकर्ता को अब तक पुलिस नहीं पकड़ पाई है। यह केस पुलिस ऑफिसर मार्टिन (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) के जिम्मे था। मार्टिन, जो अब पुलिस की नौकरी छोड़ चर्च में फादर बन गया है, को भी इस बात की टीस है कि वह न एंजेला को बचा सका और न कातिल का पता लगा सका। जॉन ने उम्मीद नहीं छोड़ी है और पुलिस स्टेशन इस उम्मीद के साथ रोजाना जाता है कि शायद उसे कुछ अच्छी खबर सुनने को मिले।
जॉन अपनी तरफ से भी कातिल का सुराग पता लगाने की कोशिश करता है। इसी बीच एक बच्चे का अपहरण उसी तरीके से होता है जैसे जॉन की नातिन का हुआ था। अपहरणकर्ता वही दांवपेंच अपनाता है जो उसने एंजेला के समय आजमाए थे। इस बार मामले की तहकीकात सविता सरकार (विद्या बालन) कर रही है वह मार्टिन को मदद के लिए बुलाती है।
दो अपहरण की घटनाओं की दो समानांतर जांच चलती है, एक तरफ जॉन आठ वर्ष पुराने मामले को सुलझाने में लगा हुआ है तो दूसरी ओर सविता-मार्टिन नए केस की गुत्थी सुलझा रहे हैं। क्या इन दोनों केसेस में कोई समानता है?
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फिल्म की कहानी रोचक है और अगले पल क्या होने वाला है इस बात की उत्सुकता लगातार बनाए रखती है। फिल्म देखते समय दिमाग में कई तरह की बातें उठती रहती हैं और दर्शक लगातार फिल्म से जुड़ा रहता है। सुदेश नायर और ब्रिजेश जयराज ने स्क्रीनप्ले लिखा है और दक्षिण कोरियाई कहानी को पूरी तरह भारतीय बना दिया है। ऐसा लगता है कि कोलकाता से बेहतर जगह फिल्म की कोई हो ही नहीं सकती थी। छोटे से छोटे डिटेल्स पर ध्यान दिया गया है और आप एक संवाद या दृश्य मिस करने का जोखिम नहीं उठा सकते हैं। पूरा ध्यान लगाकर फिल्म देखना पड़ती है क्योंकि कुछ भी मिस हुआ तो फिल्म समझने में कठिनाई हो सकती है।
फिल्म का मुख्य पात्र जॉन अवसाद से भरा हुआ है। उसकी कुंठा को फिल्म निर्देशक रिभु दासगुप्ता ने फिल्म की गति और कलर स्कीम से जोड़ा है। फिल्म का पहला हाफ बहुत स्लो है। कही-कही झपकी भी लग सकती है, लेकिन चौकन्ना इसलिए रहना पड़ता है कि कही कुछ ऐसा न घट जाए कि आगे फिल्म समझने में दिक्कत हो। ऐसे कुछ पल निकाल लिए तो फिर पलक झपकना मुश्किल हो जाता है। इंटरवल ऐसे मोड़ पर किया है कि फिर से फिल्म शुरू होने का आप ज्यादा इंतजार नहीं कर सकते हैं। दूसरे हाफ में फिल्म तेज गति से चलती है। क्लाइमैक्स में थोड़ी निराशा इसलिए हाथ लगती है कि फिल्म रहस्य से परदा उठाए उसके पहले आप रहस्य जान जाते हैं।
फिल्म में कुछ कमियां भी हैं। इसकी धीमी गति आपको कही-कही उबाती है। फिल्म अवधि थोड़ी ज्यादा है। स्क्रीनप्ले की कुछ बातें भी अखरती हैं। सड़कों पर ब्लैक हुडी पहने एक आदमी घूमता है और कोई उसे देख नहीं पाता। उम्रदराज और थके हुए जॉन से कुछ ऐसी बातें करा दी गई जिसके लिए बहुत ताकतवर होना जरूरी है। जॉन के लिए कुछ बातें बहुत ही आसान दिखा दी गई हैं, पर इनसे फिल्म देखने का मजा किरकिरा नहीं होता।
निर्देशक रिभु दासगुप्ता ने इस परतदार कहानी को अच्छी तरह से पेश किया है। उन्होंने बातों को थोड़ा कठिन रखा है ताकि दर्शक हर समय अलर्ट रहे। तीन चौथाई फिल्म में वे रहस्य को बरकरार रखने में सफल रहे हैं, अंत में थोड़ा गड़बड़ा गए।
अमिताभ बच्चन, विद्या बालन और नवाजुद्दीन सिद्दीकी नामक तीन एक्टिंग के पॉवरहाउस फिल्म से जुड़े हैं, इस वजह से एक्टिंग डिपार्टमेंट में फिल्म बहुत अमीर है। अमिताभ बच्चन लगातार चौंका रहे हैं। अभी भी उनके अंदर कितना कुछ बाकी है। जॉन बिस्वास के किरदार वे इस तरह घुल-मिल गए कि लगता ही नहीं कि यह अमिताभ है। जॉन के अंदर घुमड़ रही सारी भावनाओं को वे पूरी तरह बाहर ले आए हैं।
विद्या बालन को ज्यादा अवसर नहीं थे, लेकिन वे अपनी उपस्थिति दर्ज कराती हैं। उस शख्स की मनोदशा दिखाने में नवाजुद्दीन सिद्दीकी सफल रहे हैं जो कभी पुलिस वाला था और अब फादर है। पुलिस वाला रौब उसका गया नहीं है और फादर जैसी नम्रता उसमें अभी आई नहीं है। उनके कुछ दृश्य मनोरंजक है। सब्यासाची चक्रवर्ती का अभिनय देखना हमेशा अच्छा लगता है।
तुषार कांति रे की सिनेमाटोग्राफी का विशेष उल्लेख जरूरी है। कलर शेड का उन्होंने बेहतरीन इस्तेमाल किया है। ग्रे कलर का इस्तेमाल अधिक है जो जॉन बिस्वास के मिजाज को दिखाता है।
'तीन' की कामयाबी इसी में है कि फिल्म देखने के बाद भी आप इसके किरदारों और कहानी को लेकर खुद से सवाल जवाब करते रहते हैं। इसे धैर्य और ध्यान से देखना जरूरी है, तभी आप इसका मजा ले सकेंगे।
बैनर : एंडेमॉल इंडिया, रिलायंस एंटरटनमेंट, सिनेमा पिक्चर्स, क्रॉस पिक्चर्स, ब्लू वॉटर मोशन पिक्चर्स
निर्माता : सुजॉय घोष
निर्देशक : रिभु दासगुप्ता
संगीत : चिंतन सरेजो
कलाकार : अमिताभ बच्चन, विद्या बालन, नवाजुद्दीन सिद्दीकी, सब्यासाची चक्रवर्ती
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 16 मिनट 54 सेकंड
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चंद्रमोहन शर्मा करीब आठ साल पहले रॉक ऑन से डेब्यू करने वाले यंग डायरेक्टर अभिषेक कपूर की फितूर चार्ल्स डिकेन्स की किताब द ग्रेट एक्सपेक्टेशन्स से प्रेरित है। हॉलिवुड मेंचार्ल्स की इस बुक पर बेस्ड कई फिल्में बनी, लेकिन पहली बार इस कहानी को कुछ बदलाव के साथ बॉलिवुड में पेश किया गया है। काई पो चे जैसी बड़ी हिट देने के बाद अभिषेक फितूर लेकर आए हैं। अभिषेक बेगम हजरत के किरदार में रेखा को साइन करना चाहते थे, लेकिन डेट्स प्रॉब्लम की वजह से जब रेखा से बात नहीं बन पाई तो उन्होंने तब्बू को अप्रोच किया, आज इस फिल्म की सबसे बड़ी यूएसपी तब्बू की काबिलेतारीफ ऐक्टिंग है। वहीं घाटी में बर्फ के बीच फिल्माए गए फिल्म के कई सीन्स फितूर की दूसरी यूएसपी है। कहानी करीब पंद्रह साल पहले घाटी में आतंकवाद चरम पर है, ऐसे माहौल में कश्मीर की बफीर्ली वादियों के बीच बेगम हजरत (तब्बू) अपने आलीशान बंगले में बेटी फिरदौस(कटरीना कैफ) के साथ रहती है। करीब दस साल की फिरदौस बेहद खूबसूरत है। बेगम हजरत को बरसों पहले प्यार में ऐसा धोखा हुआ कि उन्हें प्यार शब्द से ही नफरत हो गई। यहीं वजह है बेगम नहीं चाहती कि फिरदौस के साथ भी ऐसा कुछ हो। बेगम हजरत के बंगले में रिपेयर के अलावा आर्ट का काम करने के लिए नूर (आदित्य रॉय कपूर) अपने जीजा के साथ आता है। नूर डल लेक के पास एक शकीरे में अपनी बहन रुखसार और जीजा के साथ रहता है। नूर बचपन से अच्छा कारीगर और कमाल का आर्टिस्ट है। बंगले में आर्ट का काम करने के दौरान नूर और फिरदौस अच्छे दोस्त बन जाते है। नूर दिल ही दिल में फिरदौस को बेइंतहा चाहने लगता है। दूसरी ओर, बेगम हजरत को पसंद नहीं एक मामूली कारीगर की जुबां पर फिरदौस का नाम तक भी आ पाए। फिल्म में बेहद खूबसूरत लगी हैं कटरीना बेगम को लगने लगता है कि नन्हीं फिरदौस के दिल में भी अब धीरे-धीरे नूर को लेकर कुछ होने लगा है। ऐसे में बेगम नूर को अपनी पहचान बनाने के लिए कहती है। वहीं, बेटी फिरदौस को पढ़ने के लिए लंदन भेज देती है। बड़ा होने पर नूर आर्ट की दुनिया में किसी स्टार से कम नहीं है, इसी बीच फिरदौस भी लंदन से दिल्ली पहुंचती है, यहां एक बार फिर दोनों मिलते हैं। आपको फिल्म फितूर कैसी लगी? — Navbharat Times (@NavbharatTimes) February 13, 2016 फिरदौस नूर को बताती है कि बचपन की बात अलग थी लेकिन अब उन दोनों के रास्ते अलग-अलग हैं। थोड़े ही दिनों में बेगम हजरत की पसंद के लड़के पाकिस्तान के एक मिनिस्टर के बेटे से फिरदौस की सगाई होने वाली है, जो कुछ दिन बाद पाकिस्तान में मिनिस्टर बनने वाला है। वहीं, नूर हार मानने वालों में नहीं है, नूर पर तो बस एक ही फितूर सवार है कि किसी भी सूरत में उसे अपना प्यार हासिल करना है। ऐक्टिंग हजरत बेगम के किरदार में तब्बू ने गजब की ऐक्टिंग की है। कटरीना कैफ एक बार फिर बेहद खूबसूरत गुड़िया जैसी नजर आईंं (फिल्म के कई सीन्स में तब्बू कैट को गुड़िया की कहती है)। कई सीन्स में आदित्य आशिकी 2 में अपने किरदार की कॉपी करते नजर आए। यंग हजरत बेगम के किरदार में अदिति राव हैदरी ने अपनी दमदार मौजूदगी दर्ज कराई । चंद मिनट स्क्रीन पर नजर आए अजय देवगन प्रभावित करते हैं। फिल्म में तब्बू की ऐक्टिंग है दमदार निर्देशन ऐसा लगता है अभिषेक ने बिखरी स्क्रिप्ट के साथ इस फिल्म को स्टार्ट कर दिया। शायद, इंडस्ट्री की दो टॉप एक्ट्रेस कटरीना और तब्बू की ओर से मिली डेट्स और कश्मीर घाटी में सर्दी के दौरान फिल्म की शूटिंग निबटाने का अभिषेक पर कुछ ऐसा फितूर सवार हुआ कि करीब दो घंटे की फिल्म दर्शकों को बांध नहीं पाती। कमजोर स्क्रिप्ट के चलते अभिषेक फिल्म के अहम लीड किरदारों की मौजूदगी को कैश नहीं कर पाए। अभिषेक ने घाटी की खूबसूरती को गजब अंदाज में पेश किया है। संगीत अमित त्रिवेदी ने कहानी और माहौल के मुताबिक स्वानंद किरकिरे के लिखे गीतों को कश्मीरी टच देते हुए पेश किया है। होने दो बतियां, पश्मीना, और ये फितूर मेरा जैसे सॉन्ग कई म्यूजिक चार्ट में टॉप फाइव में है। क्यों देखें अगर आप कश्मीर की खूबसूरती के साथ तब्बू की बेहतरीन ऐक्टिंग के साथ कटरीना की ब्यूटी को देखना चाहते हैं तो यह फिल्म जरूर देखें। कटरीना और आदित्य की फिल्म फितूर का ट्रेलर देखने के लिए क्लिक करें | 1 |
आप थोड़ा डरना चाहते हैं, चौंकना चाहते हैं तो ’13 बी’ आपके लिए है।
बैनर :
बिग पिक्चर्स
निर्देशक :
विक्रम के. कुमार
संगीत :
शंकर-अहसान-लॉय
कलाकार :
आर माधवन, नीतू चन्द्रा, सचिन खेड़ेकर, मुरली शर्मा, पूनम ढिल्लो, दीपक डोब्रियाल, धृतमान चटर्जी
* ए-सर्टिफिकेट
जिन चीजों से इनसान को डर लगता है, उनसे वह दूर भागता है, लेकिन हॉरर फिल्मों की बात होती है तो वही इनसान पैसे खर्च कर सिनेमाघर में डरने के लिए जाता है। वह उम्मीद करता है कि उसे खूब डराया जाए, ताकि उसके पैसे वसूल हों। ’13 बी- फियर हेज़ ए न्यू एड्रेस’ इस मामले में कामयाब मानी जा सकती है। यह फिल्म न केवल कई जगह चौंकाती है, बल्कि डराती भी है।
भारत में हमेशा हॉरर फिल्मों के नाम पर डरावने चेहरे, भूतहा महल, सफेद चादर या साड़ी में लिपटा हुआ भूत, अमावस की रातें दिखाई जाती हैं, लेकिन ये सब ’13 बी’ में नदारद है। यहाँ आम वस्तुएँ जैसे टीवी, बल्ब, लिफ्ट, मोबाइल फोन से डराया गया है। परिस्थितियों के जरिये डर पैदा किया गया है।
मनोहर (आर. माधवन) अपने परिवार के साथ नए फ्लैट 13-बी में रहने के लिए आता है। उसका परिवार राजश्री प्रोडक्शन की फिल्मों में दिखाए जाने वाले परिवार की तरह खुशहाल है।
घर की महिलाएँ टीवी धारावाहिकों की शौकीन हैं। वे नया धारावाहिक ‘सब खैरियत है’ देखना शुरू करती हैं। उस धारावाहिक में जो दिखाया जाता है, वो सब मनोहर के परिवार के साथ घटने लगता है। मनोहर का परिवार बिलकुल उस धारावाहिक के परिवार जैसा है।
पहले-पहले तो सब शुभ घटनाएँ होती हैं, लेकिन अचानक धारावाहिक के परिवार के साथ बुरा होने लगता है। ये देख मनोहर सहम जाता है। वो इस बात का पता लगाना चाहता है कि आखिरकार उसके साथ ऐसा क्यों हो रहा है? इस समानता के पीछे आखिर क्या राज है?
विक्रम के. कुमार ने निर्देशन के साथ-साथ कहानी भी लिखी है। फिल्म के मध्यांतर तक उन्होंने अजीबोगरीब घटनाओं के जरिये सस्पेंस बनाकर रखा है। मनोहर लिफ्ट में बैठता है, तो लिफ्ट नहीं चलती। पड़ोसी का कुत्ता उसके घर में घुसने से डरता है। घर में उसका जब मोबाइल से फोटो खींचा जाता है तो फोटो डरावना आता है। इन तमाम दृश्यों से उन्होंने दर्शकों को डराया गया है।
फिल्म के दूसरे भाग में उन्होंने सस्पेंस परत-दर-परत खोला है कि आखिर वजह क्या है। फिल्म के इस हिस्से में जबरदस्त उतार-चढ़ाव, तनाव और भय है। कई दृश्य रोंगटे खड़े कर देते हैं।
आमतौर पर हॉरर या सस्पेंस फिल्म का अंत कमजोर रहता है, लेकिन ’13 बी’ में यह कमी नहीं है। ऐसा क्यों हुआ है, इस बात का पूरा स्पष्टीकरण दिया गया है जो दर्शक को संतुष्ट करता है। विक्रम कुमार का प्रस्तुतिकरण उम्दा है और बाँधकर रखता है।
कुछ कमियाँ भी हैं। दो गाने निर्देशक ने अधूरे मन से रखे हैं, जो कहानी में फिट नहीं बैठते। फिल्म की लंबाई भी ज्यादा है। आधा घंटा फिल्म छोटी होती तो एकदम कसी हुई लगती।
टीवी धारावाहिक और जिंदगी में समानता वाली बात सिर्फ मनोहर ही महसूस करता है, परिवार का कोई और सदस्य यह महसूस क्यों नहीं करता, यह समझ के परे है। फिल्म में दिखाया गया है कि बच्चे घर के आँगन में एक फोटो एलबम गाड़ देते हैं। ऐसा क्यों करते हैं, इसका जवाब नहीं है। उसी जगह एक ऊँची बिल्डिंग बनती है, फिर भी एलबम जहाँ का तहाँ रहता है। लेकिन इन कमियों पर फिल्म की खूबियाँ भारी पड़ती हैं।
माधवन, नीतू चन्द्रा, सचिन खेड़ेकर, धृतमान चटर्जी, मुरली शर्मा, दीपक डोब्रियाल और पूनम ढिल्लो ने अपना-अपना किरदार बखूबी निभाया है। पी.सी. श्रीराम ने कैमरे से कमाल दिखाया है। आमतौर पर हॉरर फिल्मों का बैकग्राउंड म्यूजिक बहुत ज्यादा लाउड होता है, लेकिन तब्बी-पारिक ने संतुलन बनाए रखा है।
आप थोड़ा डरना चाहते हैं, चौंकना चाहते हैं तो ’13 बी’ आपके लिए है।
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बिट्टी मिश्रा (कृति सेनन) वर्किंग गर्ल है, जिसे ब्रेक डांस और इंग्लिश फिल्में देखना पसंद है और स्मोकिंग भी करती है। इस कारण उसकी शादी नहीं हो पा रही है। मां परेशान है जबकि पिता को उम्मीद है कि कुछ न कुछ हो जाएगा। एक बार 'बरेली की बर्फी' नामक कहानी की किताब बिट्टी के हाथ लगती है। इस कहानी में जिस लड़की का वर्णन है वो हूबहू बिट्टी जैसी है। यह पढ़ कर बिट्टी इसके लेखक प्रीतम विद्रोही (राजकुमार राव) से मिलना चाहती है और इस सिलसिले में इस किताब को छापने वाले प्रिंटिंग प्रेस के मालिक चिराग दुबे (आयुष्मान खुराना) से मिलती है।
बिट्टी को यह पता नहीं रहता है कि यह किताब चिराग ने ही लिखी है, लेकिन नाम प्रीतम का दे दिया है। बिट्टी को वह प्रीतम का पता नहीं बताता। चिराग को बिट्टी चिठ्ठी लिख कर प्रीतम तक पहुंचाने का कहती है। चिराग वह अपने पास रख लेता है और प्रीतम बन कर जवाब देता है। बिट्टी को मन ही मन चिरागचाहने लगता है। जब बात बहुत आगे बढ़ती है तो बिट्टी से मिलाने के लिए वह प्रीतम को बुलाता है। उसके पहले चिराग, प्रीतम को अकड़ू और रंगबाज बनाने की ट्रेनिंग देता है ताकि बिट्टी उसे नापसंद करे।
चिराग की यह चाल उलटी पड़ जाती है। बिट्टी को प्रीतम पसंद आने लगता है। परेशान होकर चिराग इस रिश्ते की तोड़ने की सारी कोशिश करता है।
इस कहानी में कई उतार-चढ़ाव देने की कोशिश की गई है, लेकिन जरूरी नहीं है कि हर ट्विस्ट और टर्न अच्छे ही हों। कहानी में कुछ बातें अजीब लगती है, जैसे बिट्टी को चिराग क्यों नहीं बताता कि उसी ने 'बरेली की बर्फी' लिखी है? अपने प्रेम का इजहार करने में वह क्यों घबराता है? प्रीतम से मिलने के बाद बिट्टी क्यों नहीं पूछती कि उसके जैसा किरदार आखिर कैसे लिखा गया है, जबकि इसी बात को पूछने के लिए वह उसे ढूंढ रही थी? फिल्म के आखिर में कुछ प्रश्नों के जवाब मिलते भी हैं, लेकिन दूसरे हाफ में फिल्म देखते समय ये परेशान करते हैं, जिस कारण दर्शक फिल्म का पूरा मजा नहीं ले पाता।
कहानी की कमजोरियों को कुछ हद तक स्क्रीनप्ले ढंक लेता है। ये बहुत ही मजेदार तरीके से लिखा गया है। प्रीतम और बिट्टी की पहली मुलाकात, प्रीतम को रंगबाज बनाने की ट्रेनिंग देना, बिट्टी के पिता का पंखे से बात करना जैसे कई दृश्य हैं जो थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद आते रहते हैं और मनोरंजन करते रहते हैं। दो दृश्यों को अच्छे से कनेक्ट भी किया गया है। संवाद इस मामले में अहम रोल निभाते हैं। 'दाल तुम्हारी गल गई, सीटी किसी और की बज गई' जैसे गुदगुदाने वाले संवाद लगातार सुनने को मिलते हैं, जिससे दर्शकों का फिल्म में मन लगा रहता है। साथ ही इस बात की उत्सुकता भी बनी रहती है कि अंत में होगा क्या?
निर्देशक अश्विनी अय्यर तिवारी ने अपने प्रस्तुतिकरण में इस बात का ध्यान रखा कि फिल्म हल्की-फुल्की और मनोरंजक लगे। कॉमेडी के नाम पर फिल्म को 'चीप' होने से उन्होंने बचाया है। हालांकि कहानी और भी बेहतर तरीके से पेश की जा सकती थी। ये भी संभव था कि दर्शकों के लिए राज पहले ही खोल दिया जाता। अश्विनी ने अच्छी लोकेशन ढूंढी और दृश्यों को अच्छी तरह से गढ़ा। कुछ जगह जरूर उनके साथ से फिल्म फिसलती है, लेकिन जल्दी ही पटरी पर आ जाती है।
संगीत फिल्म का माइनस पाइंट है। एक-दो हिट गीत इस तरह की फिल्मों में जरूरी होते हैं। फिल्म का संपादन ढीला है और कसावट लाई जा सकती थी।
एक्टिंग डिपार्टमेंट में यह फिल्म अमीर है। कृति सेनन का यह अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन है। यूपी के लहजे को उन्होंने अच्छे से पकड़ा और बिंदास बिट्टी की भूमिका अच्छे से निभाई। आयुष्मान खुराना ने अपना सौ प्रतिशत दिया, हालांकि उनका सामना राजकुमार राव जैसे अभिनेता से हुआ और कुछ सीन में वे राजकुमार के आगे फीके भी पड़े। एक घोंचू किस्म के इंसान से तेजतर्रार इंसान में बदलने की प्रक्रिया को राजकुमार राव ने बेहतरीन तरीके से अभिनीत किया। बिट्टी के पिता के किरदार में पंकज त्रिपाठी और मां के किरदार में सीमा पाहवा का चयन एकदम सटीक रहा।
यदि आप हल्की-फुल्की, रोमांटिक और कॉमेडी फिल्म देखने के मूड में है तो यह 'बरेली की बर्फी' खाई जा सकती हैं।
बैनर : जंगली पिक्चर्स, बीआर स्टुडियोज़
निर्माता : विनीत जैन, रेणु रवि चोपड़ा
निर्देशक : अश्विनी अय्यर तिवारी
संगीत : तनिष्क बागची, वायु, आर्को, समीरा कोप्पिकर
कलाकार : आयुष्मान खुराना, कृति सेनन, राजकुमार राव, पंकज त्रिपाठी, सीमा पाहवा
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 2 मिनट 49 सेकंड
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यह मिशन इम्पॉसिबल सीरिज की लोकप्रियता का ही कमाल है कि छठी फिल्म आ गई और अभी भी रोमांच और ताजगी बरकरार है। टॉम क्रूज का स्टारडम इस सीरिज की फिल्मों को एक अलग ही लेवल पर ले जाता है और उनको खतरनाक स्टंट्स करते देखने का एक अलग ही मजा है। हर बार डर लगता है कि सीरिज की अगली फिल्म स्तर को ऊंचा उठाएंगी या नहीं, लेकिन 'मिशन इम्पॉसिबल : फॉलआउट' (हिंदी में इसे मिशन इम्पॉसिबल तबाही नाम से रिलीज किया गया है) तो इस सीरिज की बेहतरीन फिल्मों में से एक है।
'फॉलआउट' को 'रोग नेशन' का सीक्वल कह सकते हैं क्योंकि इसकी कहानी उस फिल्म की कहानी खत्म होने के बाद शुरू होती है। हालांकि जिन्होंने 'रोग नेशन' नहीं देखी है वे भी इसका मजा ले सकते हैं, लेकिन जिन्होंने पांचवां भाग देखा है उन्हें छठे भाग में ज्यादा मजा आएगा।
सोलोमॉन लेन की करतूत अभी भी जारी है। उसके एजेंट्स अभी भी काम कर रहे हैं। ईथन हंट को खबर मिलती है कि आतंकियों के एक ग्रुप ने तीन प्लूटोनियम कोर्स चुरा लिए हैं जिनका इस्तेमाल न्यूक्लियर हथियारों में होना है। हंट को बेंजी और लुथर के साथ इन प्लूटोनियम को वापस लाने का मिशन मिलता है। यह मिशन इतना आसान नहीं है जितना लगता है। दोस्त को बचाने के चक्कर में हंट प्लूटोनियम गंवा बैठता है और यह उसके लिए अब बड़ा चैलेंज हो जाता है। मिशन में ऐसी चुनौती मिलती हैं जिनके बारे में हंट ने कभी सोचा भी नहीं था। कदम-कदम पर खतरा, षड्यंत्र और विश्वासघात से उसका सामना होता है। कड़ी दर कड़ी जोड़ते हुए वह आगे बढ़ता है।
क्रिस्टोफर मैकक्वेरी का स्क्रीनप्ले कमाल का है। यह फिल्म आपको दिमाग लगाने पर मजबूर करती है और यदि आपने ऐसा नहीं किया तो कुछ पल्ले नहीं पड़ेगा। हर कड़ी इतनी बारीकी से जोड़ी गई है कि दर्शकों को हर पल चौकन्ना रहना पड़ता है। हर संवाद सुनना पड़ता है। पलक झपकाने में भी डर लगता है कि कहीं कुछ छूट न जाए। हर सीन आपको चौंकाता है और आप जो सोचते हैं उससे कुछ अलग देखने को मिलता है। कहानी में जबरदस्त टर्न और ट्विस्ट दिए गए हैं।
शुरुआती डेढ़ घंटा कहानी में आए उतार-चढ़ाव मजा देते हैं। जैसे-जैसे हंट आगे बढ़ता है मिशन उसके लिए कठिन होताा जाता है। वह प्लान कुछ बनाता है और होता कुछ है। इस वजह से उसे सिचुएशन के अनुसार फैसले लेने पड़ते हैं। कहानी बर्लिन, पेरिस होते हुए लंदन जा पहुंचती है। कहानी के बीच में एक्शन सीन के लिए भी गुंजाइश भी रखी गई है जो मजा और बढ़ा देती है।
फिल्म का आखिरी का एक घंटा एक्शन को दिया गया है। इस दौरान कहानी बैकफुट पर आ जाती है और फिल्म थोड़ा नीचे आती है क्योंकि दर्शकों के सामने सारे पत्ते खुल जाते हैं। दिलचस्पी इस बात में रहती है कि हंट अब अपने मिशन को कैसे अंजाम देता है। क्लाइमैक्स में बर्फीली पहाड़ियों पर हेलिकॉप्टर द्वारा पीछे किया जाने वाला सीक्वेंस फिल्म को ऊंचाइयों पर ले जाता है।
नि:संदेह फॉलआउट लार्जर देन लाइफ एक्शन मूवी है। इस तरह की फिल्में तब मजा देती हैं जब इसमें ऐसा सुपरस्टार हो जो दर्शकों को यकीन दिला सके कि जो वह कर रहा है वह विश्वसनीय है, एक्शन को जस्टिफाई करने वाला कारण हो और स्टोरी में लॉजिक हो। और, इन सारी अपेक्षाओं पर फिल्म खरी उतरती है।
निर्देशक के रूप में क्रिस्टोफर मैकक्वेरी का काम बेहतरीन है। उनका प्रस्तुतिकरण इस तरह का है कि स्क्रीन पर से आंख नहीं हटा सकते हैं। आगे क्या होने वाला है इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है। उन्होंने हर सीन को भव्य बनाया है जिसका मजा बिग स्क्रीन पर देखने में मिलता है। एक्शन और कहानी में उन्होंने अच्छा संतुलन बनाया है। मनोरंजन का भी ध्यान रखा है और हर किरदार को उसकी जरूरत के मुताबिक स्क्रीन टाइम दिया है। टॉम क्रूज को उसी इमेज में पेश किया है जिसके लिए वे जाने जाते हैं। फिल्म को यदि वे 15 मिनट छोटा रखते तो बेहतर होता। आखिरी आधे घंटे में टाइट एडिटिंग की जा सकती थी।
रॉब हार्डी की सिनेमाटोग्राफी फिल्म को भव्य लुक देती है। उन्होंने पूरी फिल्म को शानदार तरीके से फिल्माया है चाहे एरियल शॉट हो, एक्शन सीन हो या संकरी गलियां हो। फिल्म का बैकग्राउंड म्युजिक एक सुपरस्टार की एक्शन फिल्म देखने का फील देता है।
56 साल की उम्र में भी टॉम क्रूज फिट लगते हैं। उन्होंने खतरनाक स्टंट्स को अंजाम देकर बताया है कि उम्र महज एक नंबर है। उनका अभिनय बेहतरीन है और स्टारडम बरकरार है। एक्शन दृश्यों में वे बेहद स्टाइलिश नजर आए। हेनरी केविल ने वॉकर के किरदार में टॉम का भरपूर साथ दिया है। हेनरी को हम सुपरमैन के रूप में देख चुके हैं। साइमन पेग, रेबेका फर्ग्युसन, विंग रेम्स सहित अन्य कलाकारों का भी अभिनय उम्दा है।
फास्ट, स्लीक और फन के लिए यह सीरिज जानी जाती है और 'फॉलआउट' में ये सारी बातें भरपूर हैं। थ्रिलिंग स्टंट्स और शानदार लेखन इस फिल्म को देखने लायक बनाते हैं।
निर्माता : टॉम क्रूज, जेजे अबराम्स, डेविड एलिसन, डैन गोल्डबर्ग, डॉन ग्रेंजर, क्रिस्टोफर मैकक्वेरी, जैक मेयर्स
निर्देशक : क्रिस्टोफर मैकक्वेरी
कलाकार : टॉम क्रूज, साइमन पेग, रेबेका फरगस, हेनरी केविल
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 27 मिनट 55 सेकंड
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बैनर :
एक्सेल एंटरटेनमेंट, रिलायंस एंटरटेनमेंट
निर्माता :
फरहान अख्तर, रितेश सिधवानी, शाहरुख खान
निर्देशक :
फरहान अख्तर
संगीत :
शंकर-अहसान-लॉय
कलाकार :
शाहरुख खान, प्रियंका चोपड़ा, लारा दत्ता, बोमन ईरानी, ओम पुरी, कुणाल कपूर, रितिक रोशन (मेहमान कलाकार)
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 25 मिनट * 17 रील
में फरहान अख्तर द्वारा निर्देशित ‘डॉन’ अमिताभ बच्चन वाली डॉन का रीमेक थी। उसमें ज्यादा करने को कुछ नहीं था क्योंकि सामने एक फिल्म मौजूद थी। पांच वर्ष बाद ‘डॉन 2’ में कहानी को आगे बढ़ाना उनके लिए चुनौती थी क्योंकि अब सब कुछ उनकी कल्पना पर निर्भर था। सामने कोई फिल्म नहीं थी।
बॉलीवुड न सही तो हॉलीवुड ही सही। इस बार फरहान और उनके साथी लेखकों (अमित मेहता - अंबरीष शाह) ने कुछ हॉलीवुड फिल्मों जैसे डाई हार्ड या मिशन इम्पॉसिबल से मसाला उधार लेकर डॉन का सीक्वल लिखा।
कहानी में जरूरी उतार-चढ़ाव, सस्पेंस और थ्रिल है, लेकिन बहुत सारी तकनीकी बातें (जैसे कम्प्यूटर हैकिंग) भी हैं, जो युवाओं को तो अच्छी लगेगी, पर सिंगल स्क्रीन सिनेमाघर के दर्शकों के सिर पर से गुजरेगी। साथ ही कई जगह मुश्किल कामों को डॉन के लिए बहुत ही आसान बना दिया गया है। लेकिन फिल्म का स्टाइलिश लुक, शाहरुख खान का अभिनय, जबरदस्त एक्शन और सस्पेंस भरा क्लाइमेक्स इन कमियों को पर भारी पड़ता है और फिल्म को एक बार देखने लायक बनाता है।
एशिया पर कब्जा जमाने के बाद डॉन (शाहरुख खान) की निगाह अब यूरोप पर है। इसके लिए उसे वर्धान (बोमन ईरानी) की सहायता चाहिए जो मलेशिया की जेल में बंद है। इंटरपोल के डिटेक्टिव मलिक (ओम पुरी) और रोमा (प्रियंका चोपड़ा) के सामने डॉन आत्मसर्पण कर उसी जेल में जाता है जहां वर्धान है।
वर्धान और डॉन के पास एक-एक चाबी है जिसके जरिये एक लॉकर खुलता है। उस लॉकर में एक टेप है जिसकी सहायता से डॉन, जेके दीवान और बर्लिन स्थित बैंक के प्रेसिडेंट को ब्लैकमेल करना चाहता है। डॉन और वर्धान जेल से भाग निकलते हैं।
दोनों जेके दीवान को टेप दिखाकर बैंक में रखी यूरो करंसी छापने की प्लेट्स का एक्सेस कोड चाहते हैं। डॉन उन प्लेट्स की सहायता से यूरो छापकर अमीर बनना चाहता है। दीवान, जब्बार (नवाब शाह) नामक गुंडे को डॉन को खत्म करने की जिम्मेदारी सौंपता है, लेकिन डॉन उसे अपने साथ मिला लेता है।
एक्सेस कोड पाने के बाद डॉन को ऐसे तकनिशियन की जरूरत पड़ती है जो कम्प्यूटर हैकर हो। जो भारी सुरक्षा में रखी गई प्लेट्सस को चुराने में उसकी मदद कर सके। समीर अली (कुणाल कपूर) को वह अपने साथ मिलाता है और प्लेट्स चुराने में कामयाब होता है।
प्लेट्स पाते ही जब्बार और वर्धान मिल जाते हैं और डॉन से वे प्लेट्स ले लेते हैं। समीर भी पुलिस को बुलाकर डॉन को पकड़वा देता है, लेकिन शातिर दिमाग डॉन के इरादे कुछ और ही हैं। इसके बाद शुरू होता है डॉन का जबरदस्त खेल।
फिल्म के पहले हॉफ में बहुत ज्यादा प्लानिंग है, इसलिए कही-कहीं फिल्म खींची हुई और बोर लगती है। इस हॉफ में डॉन और वर्धान का जेल से भागना, जब्बार द्वारा पीछा करने पर डॉन का बिल्डिंग से कूद जाना तथा डॉन और रोमा का कार चेजिंग सीन उम्दा बन पड़े हैं।
फिल्म स्पीड पकड़ती है सेकंड हाफ में जब बनाए गए प्लान पर एक्शन लिया जाता है। इंटरवल के थोड़ी देर बाद ही क्लाइमेक्स शुरू हो जाता है जो फिल्म के खत्म होने तक चलता है। इसमें डॉन और उसके साथी प्लेट्स चुराने के लिए बैंक में जाते हैं। यहां पर वर्धान और जब्बार का डॉन के खिलाफ हो जाना चौंकाता है। कई रहस्य उजागर होते हैं जो फिल्म को दिलचस्प बनाते हैं।
फरहान अख्तर ने स्टाइलिश तरीके से कहानी को परदे पर पेश किया है। मलेशिया, स्विट्जरलैंड और जर्मनी की लोकेशन का उन्होंने बखूबी उपयोग किया है। डॉन का किरदार उन्होंने कुछ इस तरह प्रस्तुत किया है कि नकारात्मक होने के बावजूद दर्शकों का समर्थन मिलता है। डॉन जब पुलिस की पकड़ से निकलता है तो उन्हें खुशी मिलती है। फिल्म सिंगल ट्रेक पर चलती है और रोमांस या कॉमेडी की ज्यादा गुंजाइश भी नहीं थी। अंतिम रीलों में रोमा और डॉन की नोक-झोक अच्छी लगती है। फिल्म की लंबाई पर फरहान नियंत्रण रखते और फर्स्ट हाफ बेहतर बनाते तो बात ही कुछ और होती।
शाहरुख खान फिल्म की जान है। डॉन के एटीट्यूड को उन्होंने बेहतरीन तरीके से पेश किया है। उनके चलने और बोलने का स्टाइल उनके फैंस को बहुत अच्छा लगेगा। ‘मलिक साहब, आप मेरी मां को नहीं जानते’ यह संवाद बोलते समय उनके चेहरे के एक्सप्रेशन देखने लायक है।
फिल्म में उन्हें कई अच्छी लाइनें मिली हैं, जैसे - ‘दुश्मन अपनी चाल चले उसके पहले डॉन अपनी चाल चल देता है’, ‘दोस्तों का हाल भले ही डॉन ना पूछे लेकिन दुश्मनों की हर खबर वह जरूर रखता है’ और बार-बार सुनने लायक लाइन ‘डॉन को पकड़ना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है।‘
प्रियंका चोपड़ा के कैरेक्टर को ठीक से पेश नहीं किया गया है। डॉन को पकड़ने के लिए दिन-रात एक करने वाली रोमा, डॉन को मारने का मौका आसानी से छोड़ देती है। हालांकि इसकी वजह डॉन के करिश्मे को बताया गया है, लेकिन यह बात हजम नहीं होती है। रोमा खुद कन्फ्यूज है और नहीं जानती कि वह डॉन से प्यार करती है नफरत। लेकिन प्रियंका ने अभिनय अच्छा किया है।
लारा दत्ता के ग्लैमर का ठीक से उपयोग नहीं हुआ है। बोमन ईरानी, अली खान, नवाब शाह और कुणाल कपूर का अभिनय उल्लेखनीय है। रितिक रोशन वाला प्रसंग जबरदस्ती ठूंसा गया है। फिल्म का संगीत सबसे बड़ा माइनस पाइंट है। एक भी ढंग का गाना नहीं है। जेसन वेस्ट की सिनेमाटोग्राफी शानदार है। फिल्म के अंतिम दृश्य में डॉन एक मोटरबाइक चलाता है जिसका नंबर
DON 3
दिखाया गया है। यह नंबर बताता है कि इसका तीसरा भाग भी बनाया जा सकता है।
कुल मिलाकर डॉन 2 शाहरुख के फैंस के साथ स्टाइलिश और एक्शन मूवी पसंद करने वालों को अच्छी लगेगी, लेकिन फिल्म देखते समय जो सिर खपाना नहीं चाहते, उनके लिए इसमें कुछ नहीं है।
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अपने पिता, मां और सौतेली मां के जीवन के कुछ प्रसंग लेकर फिल्मकार महेश भट्ट ने 'हमारी अधूरी कहानी' लिखी है। इसमें उन्होंने 'अस्थि कलश' और 'मंगलसूत्र' वाले चिर-परिचित फॉर्मूलों को भी जगह न होने के बावजूद घुसाया है। जब कहानीकार को अपनी कहानी पर भरोसा नहीं रहता तब वह इस तरह की कोशिश करता है और परिणामस्वरूप 'हमारी अधूरी कहानी' जैसी सुस्त और उबाऊ फिल्म देखने को मिलती है।
वसुधा (विद्या बालन) अपने पिता के कहने पर हरी (राजकुमार राव) से विवाह करती है। वसुधा को हरी अपनी मिल्कियत समझता है। दोनों को एक बेटा होता है और शादी के एक साल बाद ही हरी गायब हो जाता है। पुलिस से वसुधा को पता चलता है कि हरी आतंकवादियों के समूह से जुड़ गया है और उसने कुछ लोगों की हत्या कर दी है। पांच वर्ष बीत जाते हैं और वसुधा किसी तरह अपने बेटे की देखभाल करती है।
वसुधा की मुलाकात आरव रुपरेल (इमरान हाशमी) से होती है जो 108 होटलों का मालिक है। आरव का बचपन भी कुछ उसी तरह बीता जैसा वसुधा के बेटे का बीत रहा है। इस वजह से वसुधा के प्रति आरव आकर्षित होता है और शादी करना चाहता है। वसुधा मान जाती है, लेकिन ऐन मौके पर हरी आ धमकता है।
हरी को वसुधा और अराव के रिश्ते के बारे में पता चल जाता है। वह वसुधा से नाराज होता है कि वसुधा के मन में शादी का खयाल आया ही कैसे? साथ ही वह अपने आपको बेकसूर बताता है। कुछ नाटकीय घटनाक्रम होते हैं और फिल्म समाप्ति की ओर पहुंचती है।
फिल्म की कहानी में ऐसे तत्व हैं जिसके आधार पर अच्छी फिल्म बनाई जा सकती थी, लेकिन स्क्रिप्ट ठीक से नहीं लिखी गई। उदाहरण के लिए, वसुधा का किरदार अजीब व्यवहार करता है। एक ओर उसे परंपरावादी दिखाया गया है जो मंगलसूत्र को अपने से अलग नहीं करते हुए पति का इंतजार करती है तो दूसरी ओर इतनी आधुनिक हो जाती है कि आरव के साथ सोने पर उसे ऐतराज नहीं रहता।
हरी को फिल्म में विलेन के तौर पर दिखाया गया है, लेकिन इसके पीछे कोई ठोस वजह नहीं मिलती। उसके किरदार को स्थापित करने के लिए पर्याप्त सीन नहीं गढ़े गए हैं। वह अपनी पत्नी की बांह पर अपना नाम गुदवा देता है, लेकिन यह कोई बहुत बड़ी वजह नहीं है कि उससे संबंध खत्म कर लिए जाए। इस वजह से वसुधा के प्रति दर्शकों को सहानुभूति नहीं होती।
आरव के पास पैसा है, शोहरत है, गरीबी से उठकर मेहनत के बलबूते पर उसने अपना मकाम बनाया है, लेकिन न जाने उसके चेहरे पर हमेशा उदासी क्यों छाई रहती है? ऐसा लगता है जैसे वह मरघट से चला आ रहा हो। वैसे फिल्म का हर किरदार ऐसा ही नजर आता है मानो सारे जहां का दु:ख उनके सिर पर हो। कोई हंसता ही नहीं। फिल्म का पूरा माहौल ही उदास है।
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स्क्रिप्ट में वसुधा और आरव की प्रेम कहानी पर बहुत ज्यादा फुटेज खर्च किए गए हैं। यह ट्रेक इतना ठंडा और सुस्त है कि इंटरवल तक कहानी बमुश्किल आगे बढ़ती है। यही हाल इंटरवल के बाद का है। संभव है कि आपको झपकी भी लग जाए। फिल्म के किरदारों के मुंह से जो संवाद बुलवाए गए हैं वो उन पर सूट नहीं होते हैं। हालांकि संवाद कई जगह अच्छे लिखे गए हैं, लेकिन उनके लिए स्क्रिप्ट में ठीक से सिचुएशन नहीं बनाई गई है। मंगलसूत्र को लेकर फिल्म में इतना बनावटी हौव्वा खड़ा किया गया मानो मंगलसूत्र नहीं पहना हो तो महिला ने बहुत बड़ा गुनाह कर दिया हो।
निर्देशक मोहित सूरी का ध्यान इसी बात रहा कि हर दृश्य में फिल्म के पात्र दु:खी नजर आए, लेकिन किरदारों के दु:ख को वे दर्शकों को महसूस नहीं करा पाए और यह उनकी सबसे बड़ी असफलता है। कुछ दृश्य तो इसलिए रखे गए जिससे फिल्म खूबसूरत लगे भले ही वे अतार्किक हो। मसलन, दुबई में वसुधा होटल छोड़कर सुनसान रेगिस्तान में सूटकेस लिए पैदल जा रही है। मोहित का प्रस्तुतिकरण भी बीते दौर की फिल्मों जैसा है।
विद्या बालन एक अच्छी अभिनेत्री हैं और उन्होंने अपने किरदार को गहराई से पकड़ने की पूरी कोशिश की है। इमरान हाशमी में इतनी काबिलियत नहीं है कि वे गहराई में उतरे। उन्होंने सीधे-सीधे अपने संवाद बोले हैं और कई दृश्यों में ऐसा लगा कि वे खुद बोर हो रहे हैं। राजकुमार राव को फुटेज कम मिला है, लेकिन जितना मिला है उन्होंने अच्छे से किया है।
फिल्म का संगीत उल्लेखनीय है। कुछ गाने बेहतरीन लिखे और संगीतबद्ध किए गए हैं।
महेश भट्ट, मोहित सूरी, विद्या बालन, राजकुमार राव, शगुफ्ता रफीक जैसे दिग्गज के जुड़े होने के बावजूद 'हमारी अधूरी कहानी' निराश करती है।
बैनर : विशेष फिल्म्स, फॉक्स स्टार स्टुडियोज़
निर्माता : मुकेश भट्ट
निर्देशक : मोहित सूरी
संगीतकार : जीत गांगुली, मिथुन, अमि मिश्रा
कलाकार : इमरान हाशमी, विद्या बालन, राजकुमार राव, मधुरिमा तुली
सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 2 घंटे 11 मिनट 40 सेकंड
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इस सीरीज की यह पहली ऐसी फिल्म है जिसमें पॉल वॉकर न तो नजर आए और न ही पूरी फिल्म में उनकी मौत का कहीं जिक्र किया गया। 'फास्ट ऐंड फ्यूरियस' सीरीज की इस 8वीं फिल्म के शुरू होने से पहले ही यह तय हो गया था कि पॉल वॉकर के भाई को फिल्म में कास्ट नहीं किया जाएगा। इस सीरीज की पिछली लगभग सभी फिल्मों ने दुनिया भर में कामयाबी के साथ कलेक्शन का भी बेहतरीन रेकॉर्ड बनाया। लेकिन 'फास्ट ऐंड फ्यूरियस 7', दुनिया की पहली ऐसी फिल्म थी जिसने सबसे कम वक्त में 100 करोड़ डॉलर कमाने का नाम अपने काम किया था। कहानी: डॉम (विन डीजल) और लेटी (मिशेल रोडरिग्रेज) के साथ हवाना में हनीमून पर हैं। यहीं पर डॉम की मुलाकात एक बेहद खूबसूरत लड़की साइफर (शार्लीज थेरन) से होती है। डॉम, साइफर की खूबसूरती पर फिदा होकर लेटी और अपने परिवार से अलग हो जाता है। दरअसल, साइफर एक बेहद चालाक साइबर टेररिस्ट है जो एक प्लानिंग के तहत डॉम को अपनी खूबसूरती के जाल में फंसाती है। डॉम उसके जाल में कुछ ऐसा फंसता है कि उसकी खातिर अपनी टीम के साथियों से भी न सिर्फ अलग हो जाता है बल्कि टीम को धोखा देने लगता है। दूसरी ओर साइफर की प्लानिंग बेहद खतरनाक है। साइफर कुछ वक्त बाद अपनी पहचान बदलती रहती है। ऐक्टिंग: पिछली फिल्में जहां पॉल के आसपास घूमती रहीं, वहीं यह फिल्म शुरुआत से अंत तक विन डीजल के किरदार पर टिकी रही। विन, फिल्म में एक सुपरहीरो के तौर पर नजर आते हैं। इस फिल्म में उन्होंने अपनी दमदार एंट्री दर्ज कराई है। ऐक्शन सीन्स और कारों की रेस के सीन्स इस फिल्म की सबसे बड़ी यूएसपी है। फास्ट ऐंड फ्यूरियस की पहली महिला विलन के तौर पर शार्लीज थेरन की परफॉर्मेंस क्लासी है। अन्य कलाकारों में ड्वेन जॉनसन, टाइरिस गिब्सन, नैथली इमैनुअल और मिशेल रोडरिग्रेज सभी ने अपने किरदार में जान डाली है। क्यों देखें: आखिर के करीब 50 मिनट की फिल्म बेहद रोमांचक है। फिल्म में शहर की हजारों कारों को हैक करने वाले सीन के अलावा क्यूबा की अलग-अलग खूबसूरत लोकेशन से लेकर न्यू यॉर्क और आर्कटिक ओशन के बर्फ से ढके मैदानों में फिल्म का क्लाइमैक्स फिल्माया गया है जो हॉल में बैठे दर्शकों के दिल की धड़कने बढ़ाने का काम करता है। | 0 |
बॉलीवुड में खेलों पर आधारित 'लगान', 'चक दे इंडिया','पान सिंग तोमर', 'भाग मिल्खा भाग' और 'मैरीकॉम' जैसी सफल फिल्में बन चुकी हैं। 'बदलापुर बॉयज' भी इसी श्रृंखला में एक कड़ी मानी जा सकती है। 'बदलापुर बॉयज' एक सफल तमिल फिल्म की रिमेक है। दूसरी फिल्मों से अलग 'बदलापुर बॉयज' घरेलू खेल कबड्डी पर केंद्रित है।
एक पिता अपनी जान दे देता है और मां पूरे समय आंसू बहाती रहती है। रोचकता कबड्डी खेल के शुरू होने पर पैदा होती है और यह खेल फिल्म में रोमांच भर देता है। फिल्म में कबड्डी पर ही पूरा ध्यान केंद्रित होता तो फिल्म और मनोरंजक बन सकती थी।
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'बदलापुर बॉयज' में 'लगान' के समान भोलेभाले ग्रामीण, धोखेबाज खलनायक हैं। गांव के लोगों को एक जीत की दरकार है जिस पर इनकी खुशियां और इज्जत दांव पर लगी हुई है। फिल्म में कबड्डी सिर्फ एक खेल न होकर एक छुपा हुआ गंभीर सामाजिक और आर्थिक मुद्दा है।
फिल्म का निर्देशन शैलेश वर्मा ने किया है। फिल्म में कुछ कमियां भी हैं। फिल्म की कहानी प्रभावी है, लेकिन निर्देशन और पटकथा में फिल्म कमजोर साबित होती है। फिल्म में ड्रामेबाजी है। फिल्म में बिना मतलब के गाने भी विषय से भटकाते हैं।
अन्नू कपूर ने इसमें कबड्डी कोच की भूमिका निभाई है। उन्होंने अपनी भूमिका के साथ न्याय किया है। निशान सरन्या मोहन, शंशाक उदापुरकर, पूजा गुप्ता, अनुपम मानव, किशोरी शहाने, मजहर खान, अंकित शर्मा, विनित और अमन वर्मा जैसे नए चेहरे फिल्म में हैं, जिन्होंने अपने अभिनय से फिल्म में प्रभावित किया है। बैनर : कर्म मूवीज
निर्माता : सतीश पिल्लंगवाड
निर्देशक : शैलेश वर्मा
लेखक: शैलेश वर्मा
संगीत : समीर अंजान, समीर टंडन, सचिन गुप्ता, राजू सरदार।
कलाकार : अन्नू कपूर, अनुपम मानव, सारान्या मोहन, पूजा गुप्ता।
टाइम : 2 घंटे, 3 मिनट
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'दंगल' कहानी है हरियाणा के एक छोटे से गांव के भूतपूर्व नैशनल रेसलिंग चैंपियन महावीर सिंह फोगाट (आमिर खान) की। घर की कमजोर आर्थिक स्थिति की वजह से अपने रेसलिंग के करियर पर विराम लगा नौकरी चुनने वाले महावीर के सीने में देश के लिए गोल्ड मेडल जीतने की चाहत उसे हमेशा कचोटती है। अपनी गोल्ड मेडल जीतने की चाहत को वह अपनी बेटियों से पूरा करवाता है। पुरुष प्रधान समाज में बेटियों से पहलवानी करवाना और अंतरराष्ट्रीय मंच पर बेटियों के गोल्ड मेडल जीतने की इस दिलचस्प कहानी में प्रेरणादायक मनोरंजन हैं। कहानी: महावीर फोगाट की शादी शोभा कौर (साक्षी तंवर) से होती है। महावीर की चाहत है कि उसे एक बेटा हो, जो उनके लिए किसी इंटरनैशनल इवेंट से गोल्ड मेडल जीतकर ला सके। इसी चाहत में उन्हें चौथी बार भी बेटी ही होती है, जिसके बाद वह काफी दुखी हो जाता है। अचानक एक दिन उनकी दोनों बेटियां गीता (बचपन का किरदार में ज़ायरा वसीम और बड़ी होकर फातिमा सना शेख) और बबीता ( बचपन के किरदार में सुहानी भटनागर और बड़ी होकर सान्या मल्होत्रा) पड़ोस के बच्चों को बुरी तरह पीटकर आती हैं और यहीं से महावीर के मन में जगती है अपनी बेटियों को बेटा बनाने की चाहत। वह कहते नज़र आते हैं, 'म्हारी छोरियां छोरों से कम है के?' यहीं से शुरुआत होती है उस लगन और मेहनत की जो महावीर को उसके मंजिल तक पहुंचाती है। हालांकि, यह सब कर पाना इतना आसान नहीं होता, काफी मुश्किलें सामने हैं, लेकिन महावीर हर परिस्थितियों पर बिल्कुल पहाड़ की तरह भारी नज़र आते हैं। उन्हें अपने चारों तरफ अपनी बेटियां और गोल्ड मेडल के आलावा कुछ और नहीं सूझता। निर्देशन: नितेश तिवारी ने महावीर फोगाट की बेटियों गीता और बबीता की ऐतिहासिक जीत की जगजाहिर कहानी के बावजूद फिल्म का बेहतरीन निर्देशन किया है। इसका स्क्रीनप्ले, डायलॉग और ट्रीटमेंट आपको पूरे समय बांधे रखता है। फिल्म के कई सीन जहां आपकी आंखों को नम कर देते हैं, वहीं बीच-बीच में इमोशन से भरपूर हरियाणवी डायलॉग हंसी और खुशी का सामंजस्य बना कर रखते हैं। ऐक्टिंग: दंगल में आमिर खान ने महावीर फोगाट के रूप में जवान बेटियों के पिता बनने का किरदार बेहतरीन ढंग से निभाया है, उनकी बेटियों के किरदार में फातिमा सना शेख, सान्या मल्होत्रा, ज़ायरा वसीम और सुहानी भटनागर ने भी कमाल का अभिनय किया है। साक्षी तंवर और अपारशक्ति खुराना ने अपनी सहज अदाकारी से हर सीन में जान फूंक दी है। लोकेशन: जहां फिल्म के पहले भाग में ज्यादातर शूटिंग आउटडोर की है, वहीं दूसरे भाग में अधिकतर सीन स्टेडियम के हैं। स्टेडियम में रेसलिंग के लंबे-लंबे सीन आपको किसी भी समय बोझिल नहीं लगते। पहलवानी के खेल से वाकिफ न रहने वाले दर्शक भी फिल्म में बड़ी ही आसानी से रेसलिंग के दांव-पेंच को समझ लेते हैं, इसलिए फिल्म रोचक लगती है। कई बार तो रेसलिंग के सीन पर हर जीत के बाद सिनेमा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। संगीत: फिल्म के गीत-संगीत को प्रीतम ने इस तरह पिरोया है कि हर गाना फिल्म की कहानी को आगे बढ़ाता है। गीतकार अमिताभ भट्टाचार्य के गीत कहानी में डूबकर साथ चलते हैं। फिल्म का बैकग्राउंड स्कोर विषय से भटकता नहीं है, कई बार जब रेसलिंग के दांव-पेंच शुरू होते हैं तब बैकग्राउंड स्कोर पर कोई संगीत नहीं है, बैकग्राउंड स्कोर की यही बात फिल्म को और मजबूत बनाती है। क्यों देखें: भारत में जहां पहलवानी पुरुष प्रधान खेल रहा है, वहीं रेसलिंग के इस खेल पर महिलाओं को ध्यान में रखकर बनाई गई यह बायॉपिक एक सराहनीय प्रयास है। इस फिल्म को बेहिचक पूरे परिवार के साथ देखा जा सकता है। शुरू में आमिर खान की 'दंगल' की तुलना सलमान खान की फिल्म सुल्तान के साथ की जा रही थी, जबकि सच यह है कि दोनों ही फिल्मों के बीच कोई तुलना नहीं है। | 0 |
बैनर :
प्रकाश झा प्रोडक्शन्स, इरोज इंटरनेशनल मीडिया लिमिटे
ड
निर्माता-निर्देशक :
प्रकाश झा
संगीत :
सलीम-सुलेमान, विजय वर्मा, संदेश शांडिल्य, शांतनु मोइत्रा, आदेश श्रीवास्तव
कलाकार :
अभय देओल, अर्जुन रामपाल, ईशा गुप्ता, ओम पुरी, मनोज बाजपेयी, अंजलि पाटिल, चेतन पंडित, समीरा रेड्डी
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * सेंसर सर्टिफिकेट नंबर : डीआईएल/2/62/2012
* 2 घंटे 32 मिनट
भारत के दो सौ से अधिक जिलों में नक्सलवाद फैल चुका है और कोई दिन भी ऐसा नहीं जाता जब इस आपसी संघर्ष में भारत की धरती खून से लाल नहीं होती है। नक्सलवाद दिन पर दिन फैलता जा रहा है। कई प्रदेश इसके चपेट में हैं, लेकिन अब तक इसका कोई हल नहीं निकल पाया है। एक ऐसा चक्रव्यूह बन गया है जिसे भेदना मुश्किल होता जा रहा है। इस मुद्दे को लेकर प्रकाश झा ने ‘चक्रव्यूह’ फिल्म बनाई है।
ठोस कहानी, शानदार अभिनय और सुलगता मुद्दा प्रकाश झा के सिनेमा की खासियत हैं और यही बातें ‘चक्रव्यूह’ में भी देखने को मिलती है। दामुल से लेकर मृत्युदण्ड तक के सिनेमा में बतौर निर्देशक प्रकाश झा का अलग अंदाज देखने को मिलता है। इन फिल्मों में आम आदमी के लिए कुछ नहीं था।
गंगाजल से प्रकाश झा ने कहानी कहने का अपना अंदाज बदला। बड़े स्टार लिए, फिल्म में मनोरंजन की गुंजाइश रखी ताकि उनकी बात ज्यादा से ज्यादा दर्शकों तक पहुंचे। इसका सुखद परिणाम ये रहा कि प्रकाश झा की फिल्मों को लेकर आम दर्शकों में भी उत्सुकता पैदा हो गई। अब तो आइटम नंबर भी झा की फिल्म में देखने को मिलते हैं।
चक्रव्यूह में पुलिस, राजनेता, पूंजीवादी और माओवादी सभी के पक्ष को रखने की कोशिश प्रकाश झा ने की है। फिल्म किसी निर्णय तक नहीं पहुंचती है, लेकिन दर्शकों तक वे ये बात पहुंचाने में सफल रहे हैं कि किस तरह ये लोग अपने हित साधने में लगे हुए हैं और इनकी लड़ाई में गरीब आदिवासी पिस रहे हैं।
एसपी आदिल खान (अर्जुन रामपाल) के जरिये पुलिस का एक अलग चेहरा नजर आता है। उसे इस बात के लिए शर्म आती है कि अब तक सरकार भारत के भीतरी इलाकों में सड़क, पानी और बिजली जैसी सुविधाएं नहीं पहुंचा पाई है। उन लोगों को बहका कर उनके आक्रोश का माओवादी गलत इस्तेमाल कर रहा है।
वह आदिवासियों के मन से माओवादियों का डर निकालना चाहता है। उसका मानना है कि बंदूक के जरिये कभी सही निर्णय नहीं किया जा सकता है। उसे अपने उन पुलिस वाले साथियों की चिंता है जो माओवादी की तलाश में जंगलों की खाक छान रहे हैं। अपने परिवार से दूर अपनी जान की बाजी लगा रहे हैं।
कुछ पुलिस वालों का मानना है कि ये मिली-जुली कुश्ती है और सिर्फ मुर्गे लड़ाकर अपनी-अपनी रोटियां सेंकी जा रही हैं। नेता, उद्योगपतियों को बढ़ावा देकर इंडस्ट्री लगाना चाहते हैं और इसके लिए वे नक्सलियों के साथ-साथ आदिवासियों का भी अहित करने के लिए तैयार हैं।
दूसरी ओर माओवादी के अपने तर्क हैं। उनकी अपनी समानांतर सरकार और अदालत है। वे वर्षों से शोषित और उपेक्षित हैं। उनका मानना है कि ये लुटेरी सरकार है जो सिर्फ पूंजीवादियों के हित में सोचती है। जब बात से बात नहीं बनी तो उन्होंने हथियार उठा लिए। अलग-अलग किरदारों के जरिये सभी का पक्ष रखा गया है।
गंभीर मसले होने के बावजूद भी प्रकाश झा ने ‘चक्रव्यूह’ को डॉक्यूमेंट्री नहीं बनने दिया है। भले ही तकनीकी रूप से फिल्म स्तरीय नहीं हो, लेकिन ड्रामा बेहद मजबूत है। फिल्म बांधकर रखती है। अपनी बात कहने के लिए ऋषिकेश मुखर्जी की ‘नमक हराम’ से प्रकाश झा ने प्रेरणा ली है।
कबीर (अभय देओल) अपने दोस्त आदिल खान की मदद के लिए माओवादियों के साथ जा मिलता है और उनकी हर खबर अपने एसपी दोस्त तक पहुंचाता है, लेकिन धीरे-धीरे उसकी सोच बदल जाती है और वह भी माओवादी बन जाता है। ये बात उसके लिए दोस्ती से भी परे हो जाती है और वह आदिल पर बंदूक तानने से भी हिचकिचाता नहीं है। कबीर और आदिल के जरिये पुलिस और माओवादियों की कार्यशैली नजदीक से देखने को मिलती है।
कमियों की बात की जाए तो कबीर का तुरंत माओवादियों में शामिल होने का निर्णय लेना, उनका विश्वास जीत लेना और आदिल से जब चाहे मिल लेना या बात कर लेना थोड़ा फिल्मी है। आइटम सांग भी जरूरी नहीं था। फिल्म की लंबाई को भी नियंत्रित किया जा सकता था।
अर्जुन रामपाल का चेहरा भावहीन है, जिससे वे एक सख्त पुलिस ऑफिसर के रूप में जमते हैं। यह उनका अब तक सबसे बेहतरीन अभिनय है। यदि उम्दा अभिनेता इस रोल को निभाता तो बात ही कुछ और होती।
कबीर के रूप में अभय देओल का अभिनय प्रशंसनीय है। अर्जुन रामपाल को गोली मारने जा रहे मनोज बाजपेयी की पीठ में गोली मारते वक्त उनके चेहरे के भाव देखने लायक हैं। जूही के रूप में अंजलि पाटिल ने आक्रोश को बेहतरीन तरीके से अभिव्यक्त किया है। ईशा गुप्ता से तो प्रकाश झा भी एक्टिंग नहीं करवा पाए। मनोज बाजपेयी, ओम पुरी, कबीर बेदी, चेतन पंडित, मुरली शर्मा, किरण करमरकर ने अपने-अपने रोल में प्रभाव छोड़ा है।
चक्रव्यूह हमें सोचने पर मजबूर करती है, बताती है कि हमारे देश में एक गृहयुद्ध चल रहा है। हमारे ही लोग आमने-सामने हैं। यदि समय रहते इसका समाधान नहीं हुआ तो स्थिति विकराल हो जाएगी।
बेकार, 2-औसत, 3-अच्छी, 4-बहुत अच्छी, 5-अद्भुत
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नितिन भावेबेशक बॉलिवुड में अब लीक से हटकर कम बजट की बेहतरीन फिल्में बनने लगी हैं और ऐसी फिल्मों को अब दर्शक हाथोंहाथ ले भी रहे हैं। 'राब्ता' से निर्देशन की फील्ड में एंट्री कर रहे दिनेश विजान की बतौर प्रड्यूसर उनकी पिछली फिल्म 'हिंदी मीडियम' भी कुछ इसी स्टाइल की फिल्म थी। लेकिन, अब जब दिनेश ने बतौर डायरेक्टर 'राब्ता' बनाई तो इसको देखने के बाद हॉल में बैठे दर्शक भी हैरान रह जाते हैं कि वह इस फिल्म में क्या कहना चाहते हैं। वैसे, बॉलिवुड में बरसों से पुर्नजन्म का फॉर्म्युला बॉक्स आफिस पर हमेशा हिट रहा है। बात अगर सत्तर के दशक की करें तो सुनील दत्त, नूतन स्टारर ‘मिलन' ने उस दौर में टिकट खिड़की पर कामयाबी और कमाई का इतिहास रचा तो इस दौर में किंग खान ने 'ओम शांति ओम' बनाई और यह फिल्म भी टिकट खिड़की पर रेकॉर्ड कामयाबी हासिल करने में सफल रही। लगता है यही वजह रही होगी कि दिनेश ने भी जब डायरेक्टर बनने का फैसला किया तो पुर्नजन्म के सब्जेक्ट पर फिल्म बनाने का फैसला किया। हालांकि, जब मल्टिप्लेक्स कल्चर पूरे देश में अपनी जड़ें जमा चुका है और बॉक्स ऑफिस पर जेन एक्स छा रहा है ऐसे दौर में अब पुनर्जन्म की कहानी दर्शकों की इस क्लास को अपनी और खींच पाएगी ऐसा आसान नहीं लगता। शायद खुद दिनेश भी इस सच को जानते थे तभी तो उन्होंने इस फिल्म के हीरो सुशांत सिंह राजपूत और कृति सेनन की बेहतरीन केमिस्ट्री के साथ विजुअल इफेक्टस पर ज्यादा ध्यान दिया है। अगर हम पुनर्जन्म पर बनीं चंद सुपरहिट फिल्मों की बात करें तो इनकी सबसे बड़ी यूएसपी हॉल में बैठे दर्शकों की आंखों को नम करने के फॉर्म्युला फिट करना रहा करता था। लेकिन, इस फिल्म की सबसे बड़ी खामी यही है ढाई घंटे से ज्यादा देर की इस फिल्म में एक भी ऐसा सीन नहीं है, जो हॉल में बैठे दर्शकों की आंखें नम करने का दम रखता हो। कहानी: राब्ता की कहानी है दो ऐसे प्रेमियों- शिव और सायरा की जो पिछले जन्म में भी प्रेमी थे, लेकिन हालात दोनों को एक-दूसरे से अलग कर देते हैं। इस जन्म में भी दोनों एक-दूसरे से मिलते हैं, प्यार करते हैं लेकिन फिर वही हालात बनते हैं कि दोनों बिछड़ जाते हैं। पिछले जन्म की अधूरी प्रेम कहानी नए जन्म में पूरी होती है या नहीं, यही है फिल्म राब्ता।शिव कक्कड़ (सुशांत सिंह राजपूत) बूडापेस्ट में बैंकर है। शिव कुछ ज्यादा ही बतियाने वाला रोमांटिक मिजाज का है। यहीं पर एक दिन उसकी मुलाकात चॉकलेट स्टोर चलाने वाली सायरा (कृति सेनन) से होती है। जैसा कि बॉलिवुड फिल्मों में होता है पहले नोकझोंक और फिर चंद मुलाकातों के बाद शिव और सायरा एक-दूसरे से प्यार करने लगते है। इंटरवल से ठीक पहले इस सिंपल कहानी में एक बिजनेस टायकून जाकिर मर्चेंट (जिम सरभ) की बड़े शानदार स्टाइल से एंट्री होती है।अचानक शिव को कुछ दिनों के लिए वियना में बैंकर्स की कॉन्फ्रेंस में हिस्सा लेने के लिए जाना पड़ता है। इसी बीच सायरा की जिंदगी में बदलाव शुरू होने लगता है और कुछ पुरानी यादें उसका पीछा छोड़ने का नाम नहीं ले रही हैं। वह धीरे-धीरे जाकिर की ओर आकर्षित होने लगती है। कहानी में नया टर्न आता है सायरा, शिव को छोड़कर चली जाती है। पुनर्जन्म के प्यार की इस कहानी में हालात इस बार भी वही बनते हैं, जिनके चलते पिछले जन्म में दोनों बिछड़ जाते हैं। ऐक्टिंग: इस फिल्म की सबसे बड़ी यूएसपी सुशांत और कृति की बेहतरीन केमिस्ट्री है। इन दोनों ने अपने किरदार को ऐसे जोशीले और अलग अंदाज के साथ निभाया है कि जिस-जिस सीन में भी यह जोड़ी दिखाई देती है दर्शक वहीं फुल एन्जॉय करते हैं। बेशक, सुशांत के अपोजिट कृति कुछ सीन्स में उनसे कमजोर नजर आईं, लेकिन ऐसा भी नहीं कि कृति ने कहीं दर्शकों को निराश किया हो। इंटरवल से चंद मिनट पहले कहानी में जिम सरभ की एंट्री जबर्दस्त और शानदार ढंग से होती है, लेकिन कुछ देर बाद लगने लगता है जिम कुछ नया नहीं कर रहे हैं। फिल्म में राजकुमार राव का किरदार कुछ ऐसा है कि आप उन्हें जबर्दस्त मेकअप के चलते शायद पहचान भी ना पाएं। हालांकि, उन्हें कुछ अलग करने का मौका भी नहीं मिल पाया। निर्देशन: दिनेश ने पुर्नजन्म कहानी पेश की, लेकिन यह भावनात्मक तौर पर कमजोर है। यही इस फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी है। पूरी फिल्म में दमदार विजुअल्स, शानदार लोकेशन्स और बेहतरीन कॉस्टयूम जरूर देखने को मिलते है। दिनेश ने सुशांत और कृति के किरदारों को बेहतरीन बनाने के लिए अच्छी मेहनत की है, वहीं जहां इंटरवल से पहले तक की फिल्म जेन एक्स का एंटरटेनमेंट करती है तो इंटरवल के बाद जब पुर्नजन्म की कहानी शुरू होती है तो दर्शकों की यही क्लास खुद को असहाय महसूस करती है। फिल्म में ना जाने कौन सा युग दिखाया है जहां कबीलों में रहने वालों की ड्रेसिंग समझ से परे है। ऐसा लगता है दिनेश ने इस और ध्यान नहीं दिया। संगीत: फिल्म में कई गाने है और हर गाने को बेहतरीन लोकेशन पर शूट किया गया है। रिलीज से पहले ही फिल्म के दो गाने- इक वारी आ, मैं तेरा बॉयफ्रेंड कई म्यूजिक चार्ट्स में शामिल हो चुके है। बरसों पुराने गाने इक लड़की भोली-भाली-सी का फिल्मांकन गजब का बन पड़ा है। क्यों देखें: बुडापेस्ट की शानदार लोकेशन्स और सुशांत सिंह राजपूत और कृति की एनर्जीटिक बेहतरीन केमिस्ट्री, इस फिल्म को देखने की यही दो वजहें हो सकती हैं। | 0 |
इस शुक्रवार को बॉलिवुड की चार फिल्में रिलीज़ हुईं। एकसाथ दो से ज्यादा फिल्मों का आना यकीनन उन फिल्मों के लिए बॉक्स ऑफिस पर घाटे का सबब बन जाता है जो कम बजट में बनी हो या फिर ऐसे स्टार्स को लेकर बनी हो जिनकी कुछ खास पहचान नहीं इंडस्ट्री में। कुछ ऐसी ही बात इस हफ्ते दो फिल्मों के साथ नजर आ रही है, ओम पुरी की 'कबाड़ी' और 'रांझना' सहित कई फिल्मों में इंडस्ट्री के दिग्गज स्टार्स के छक्के छुड़वा चुके जीशान अयूब स्टारर 'समीर' के साथ नजर आ रही है। इन दोनों ही फिल्मों का खास प्रमोशन नहीं हो पाया। अगर टोटल शो और कुल स्क्रीन्स की बात की जाए तो बेशक समीर को कुछ ज्यादा स्क्रीन मिल पाए हों, लेकिन 'कबाड़ी' इस मामले में भी बहुत पीछे रह गई। 'समीर' एक ऐसी फिल्म है जो लीक से हटकर कुछ अलग और नया देखने के शौकीन दर्शकों की क्लास की पंसद को ध्यान में रखकर बनाई गई है। बेशक इस फिल्म में एक बार फिर गुजरात के दंगों की कड़वी यादें ताजा होती हैं, लेकिन यंग डायरेक्टर ने फिल्म में अभिव्यक्ति की आजादी से लेकर समाज में इन दिनों अपने अधिकारों की जंग को लेकर हो रही बहस के इस दौर में एक ऐसी फिल्म बनाई है जो हमें जहां सत्ता में बैठे राजनेताओं का असली चेहरा दिखाती है। फिल्म में लंबे अर्से बाद गांधी जी और मंटो की कुछ अच्छी बातों और कविताओं को भी डायरेक्टर ने अपनी फिल्म की कहानी का हिस्सा बनाकर पेश तो कर दिया, लेकिन यही इस फिल्म का सबसे माइनस पॉइंट भी बनकर रह जाता है। ऐसा लग रहा कि डायरेक्टर बेफिजूल की भाषणबाजी सुनवाने पर आमादा हैं। स्टोरी प्लॉट: हैदराबाद के एक छोटे से इलाके में हुए भीषण बम विस्फोट में करीब चौदह बेगुनाह मारे जाते हैं। सरकारी एजेंसियां जब इसकी जांच को शुरू करती है तो उस वक्त इस धमाके में में यासीन दर्जी का नाम सामने आता है। एटीएस की स्पेशल टीम यासीन के साथ कॉलेज में पढ़ने वाले उसके रूममेट समीर मेमन (जीशान अयूब) को अपनी कस्टडी में लेती है। समीर इंजिनियरिंग का स्टूडेंट है। एटीएस के ऑफिसर किसी भी सूरत में यह मानने को तैयार नहीं कि समीर अपने रूममेट यासीन के बारे में कुछ नहीं जानता, सो एटीएस की टीम समीर को कहीं से भी यासीन का पता लगाने के काम पर लगा देती है। एटीएस टीम के लोग समीर को धमकी देते हैं कि अगर उसने यासीन का पता नहीं लगाया तो बहुत बुरा होगा। दूसरी ओर किसी भी शहर में बम धमाके करने से पहले यासीन जर्नलिस्ट आलिया (अंजलि पाटील) को एक मेसेज भेजता है, क्योंकि यासीन आलिया की लेखनी का का फैन है। इसी बीच बेंगलुरु और अहमदाबाद में भी बम धमाके होते हैं तो समीर की मुश्किलें और बढ़ जाती हैं। 'तनु वेड्स मनु रिटर्न्स', 'रईस' और 'सलमान खान' के साथ टयूबलाइट में नजर आए जीशान अयूब पहली बार इस फिल्म में लीड किरदार में नजर आए और अपने किरदार को अपनी जबर्दस्त ऐक्टिंग के दम पर जीवंत कर दिखाया। फिल्म में कहीं नहीं लगता कि जीशान ऐक्टिंग कर रहे हैं बल्कि उन्होंने खुद को अपने किरदार में पूरी तरह से ढाल लिया। फिल्म में नजर आई नाटक मंडली में रॉकेट का किरदार निभा रहे चाइल्ड आर्टिस्ट ने भी अपने रोल को बहुत खूबसूरती के साथ निभाया है। यंग डायरेक्टर की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने बॉक्स ऑफिस का मोह त्याग कर 'समीर' को एक ऐसी फिल्म बनाकर पेश किया जो अंत तक अपने ट्रैक पर चलती है। फिल्म की कहानी इंटरवल से पहले सौ फीसदी ट्रैक पर तेज रफ्तार से चलती है तो क्लाइमैक्स कुछ ज्यादा ही जल्दी में निपटा दिया गया। फिल्म में गाने तो हैं, लेकिन यह फिल्म की गति को धीमा करने के अलावा और कुछ नहीं करते। 'समीर' दर्शकों की उस क्लास के लिए मस्ट वॉच मूवी है जो चालू मसालों से दूर कुछ अलग और ऐसी फिल्म देखने के लिए थिअटर जाते हैं जिसमें समाज का आईना नजर आता हो। एंटरटेनमेंट और टाइम पास के लिए फिल्म देखने जा रहे हैं तो 'समीर' आपकी कसौटी पर खरी नहीं उतर पाएगी। | 1 |
बाबू बिहारी (नवाजुद्दीन) और बांके बिहारी (जतिन), दोनों यूपी के कॉन्ट्रैक्ट किलर्स हैं। फिल्म में दिलचस्प मोड़ तब आता है जब दोनों के टारगेट एक हो जाते हैं। यानी दोनों को किसी खास शख्स की हत्या की सुपारी मिल जाती है। दोनों यह तय करते हैं कि जो ज्यादा लोगों को मारेगा वही नंबर वन किलर कहा जाएगा। हालांकि दोनों इस बात से अनजान रहते हैं कि उनकी प्रतिस्पर्धा के बीच एक खेल और खेला जा रहा है। फिल्म में जहां गोलियों की आवाज का शोर है वहीं सेक्स सीन्स भी जमकर परोसे गए हैं। रिव्यू: यह गैंग्स ऑफ वासेपुर टाइप की फिल्म है। यह बात मन में बैठाकर थियेटर जाइए। बाबू 10 साल की उम्र से ही हत्याएं करने का काम कर रहा है। पहली हत्या उसने खाने के लिए की थी। बांके बाबू का फैन है और वह सुपारी किलर बनने का सपना देखता है। बांके की गर्लफ्रेंड यास्मीन (श्रद्धा) बॉलिवुड रीमिक्स पर डांस करती है और उसके लिए कॉन्ट्रैक्ट लाती है। बाबू की गर्लफ्रेंड फुलवा (बिदिता) उसे खत्म कर देने के लिए कहती है। पूरी फिल्म में आपको गोलियों की आवाज सुनाई देगी। फिल्म में दो और किरदार हैं, सुमित्रा ( दिव्या) और दुबे (अनिल)। दोनों नेता की भूमिका में हैं और अपने फायदे के लिए इन दोनों बंदूकबाजों का इस्तेमाल करते हैं। इस खेल में स्थानीय पुलिस भी शामिल हो जाती है। बाबू अपनी गर्लफ्रेंड फुलवा के साथ मजे में रह रहा होता है लेकिन बांके की उस पर नजर पड़ती है और वह भी फुलवा की तरफ आकर्षित हो जाता है। स्क्रीनप्ले थोड़ी और टाइट करने की गुंजाइश थी। इसके बावजूद कुशन नंदी ने अच्छी फिल्म बनाई है। नवाजुद्दीन का एक खतरनाक किलर से प्रेमी में ट्रांसफॉर्म होना भी देखते ही बनता है। जतिन ने भी प्रभावित किया है और उनकी आवाज स्क्रीन अपील को बढ़ाती है। यह कहा जाए कि बॉलिवुड ने इस फिल्म के जरिए बिदिता की खोज की है तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। वह कामोत्तेजक सीन्स में तो दमदार नजर आईं ही हैं, कुछ इमोशनल फ्रेम में भी बेजोड़ दिख रही हैं। हाय रे हाय मेरा घुंघटा में घुंघराले बालों वाली श्रद्धा ने पूरा बवाल काटा है। लोकल बहनजी के रोल में दिव्या दत्ता ने भी ठीक ठाक काम किया है।इस खबर को गुजराती में पढ़ें। | 1 |
समाज जैसा दिखता है वैसा होता नहीं है। बंद दरवाजे के पीछे शराफत के नकाब उतर जाते हैं और तमाम नैतिकता और मूल्य धराशायी हो जाते हैं। निर्देशक अजय बहल ने फिल्म ‘बी.ए. पास’ के जरिये इसी समाज की पड़ताल की है। सेक्स और अपराध के तड़के के साथ उन्होंने अपनी बात एक थ्रिलर मूवी की तरह पेश की है।
फिल्म का नायक मुकेश (शादाब कमल) बीए फर्स्ट ईयर का स्टूडेंट है। बीए करना उसकी मजबूरी है क्योंकि वह इतने नंबर नहीं ला सका है कि बढ़िया कोर्स कर सके। अपने माता-पिता को खो चुका है। बुआ के घर ताने सुनते हुए रहता है। इतना पैसा भी नहीं है कि मनचाहा कोर्स कर सके। दो छोटी बहनों की जिम्मेदारी भी उस पर है।
मुकेश उन करोड़ों भारतीय युवाओं का प्रतिनिधित्व करता है जो हर बात में औसत से भी नीचे हैं और दर-दर की ठोकरें खाना उनकी नियति है। उनकी मजबूरी का फायदा उठाते हुए रसूखदार लोग उनका शोषण करते हैं।
मुकेश के फुफा के बॉस की पत्नी सारिका (शिल्पा) की नजर मुकेश पर है। बॉस की पत्नी घर का काम करवाने के लिए मुकेश को बुलवाती है। बॉस को खुश करने के लिए भेजा जाता है। सारिका उन गृहिणियों का प्रतिनिधित्व करती है जिनके पतियों को पैसा कमाने से फुर्सत नहीं है। रोमांस और सेक्स तो दूर की बात है।
डरा और सहमा हुआ मुकेश अपनी आंटी की उम्र की सारिका के जाल में उलझ जाता है। सेक्स के साथ उसे पैसा मिलता है, लेकिन वह इस बात से अनजान है कि वह दलदल में फंसता जा रहा है। कब वह जिगेलो (पुरुष वेश्या) बन जाता है उसे पता ही नहीं चलता। फिल्म के अंत में दर्शाया गया है कि गलत राह पर चलने का अंजाम कभी अच्छा नहीं होता।
वास्तविकता की जमीन इतनी सख्त होती है कि विश्वास और प्यार की बातें इससे टकराकर चकनाचूर हो जाती है। इसको दो प्रसंगों से रेखांकित किया गया है। जानी भाई मुकेश का दोस्त है, जो शतरंज के खेल में माहिर है। मुकेश को भी शतरंज का शौक है। कारपोव और कास्पारोव के दीवाने आपस में खेलते हैं, लेकिन जिंदगी की शतरंज में जानी भाई ऐसा दांव चलता है कि मुकेश चारो खाने चित्त हो जाता है। पैसा आने पर व्यक्ति की सोच और समझ किस तरह यू टर्न लेती है, ये जानी भाई के किरदार से समझा जा सकता है।
दीप्ति नवल का पति सालों से कोमा में है। तनहाई का दर्द उससे बर्दाश्त नहीं होता है और वह चाहती है कि उसका पति मर जाए। रोजाना के संघर्ष से उसका प्यार हार जाता है। इन किरदारों के जरिये ‘बीए पास’ में हमें जिंदगी के रंग देखने को मिलते हैं।
ऐसा नहीं है कि ये सारी बातें अब तक परदे पर दिखाई नहीं गई है, लेकिन निर्देशक अजय ने मोहन सिक्का द्वारा लिखी गई गई कहानी ‘रेलवे आंटी’ को परदे पर अच्छे से उभारा है। नई दिल्ली में उन्होंने कहानी को सेट किया और उनके द्वारा चुने गए लोकेशंस सराहनीय है।
अजय ने अपने निर्देशन में उतनी आक्रामकता नहीं दिखाई जितनी कहानी की डिमांड थी। सेक्सी दृश्यों को उन्होंने बखूबी शूट किया, लेकिन उनमें दोहराव नजर आया। फिल्म के शुरुआती हिस्से में भी यदि घटनाक्रमों में तेजी दिखाई जाती तो यह फिल्म और बेहतर होती।
मासूम और संकोची मुकेश को शादाब कमल ने बेहतरीन तरीके से अभिनीत किया। राजेश शर्मा, दीप्ति नवल और दिव्येन्दु भट्टाचार्य ने अच्छा सहयोग दिया। लेकिन शिल्पा शुक्ला पूरी फिल्म में छाई रही। कामुक, कुटील और कुंठित महिला को उन्होंने बखूबी जिया।
डार्क सिनेमा के शौकीनों को ‘बीए पास’ पसंद आएगी।
बैनर :
टोंगा टॉकीज
निर्माता :
अजय बहल
निर्देशक :
अजय बहल
कलाकार :
शिल्पा शुक्ला, राजेश शर्मा, दिव्येंदु भट्टाचार्य, दीप्ति नवल
सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 1 घंटा 41 मिनट 40 सेकंड
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गांव से शहरों की ओर पलायन को लेकर कुछ फिल्में पहले भी बनी हैं। मुजफ्फर अली की 'गमन' इस विषय पर बनी बेहतरीन फिल्म है जिसका एक गाना 'सीने में जलन' आज भी सुना जाता है। 'शाहिद' फिल्म के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने वाले हंसल मेहता ने अपनी अगली फिल्म 'सिटीलाइट्स' में इसी विषय को चुना है, जिसमें उनके प्रिय कलाकार राजकुमार राव ने लीड रोल निभाया है।
सिटीलाइट्स 2013 में रिलीज हुई फिल्म 'मेट्रो मनीला' पर आधारित है, जिसका भारतीयकरण हंसल मेहता ने बखूबी किया है। दरअसल गांव से शहरों की ओर काम की तलाश में जाने वाली बात आम है, इसलिए यह भारतीय फिल्म लगती है। गांव से लोग इस आशा के साथ महानगरों में जाते हैं कि कुछ न कुछ काम तो मिल ही जाएगा और उनकी दाल-रोटी निकल जाएगी। बड़े शहरों में काम तो मिलता है, लेकिन इसके साथ कई विषम परिस्थितियों और चुनौतियों से भी दो-दो हाथ करना होते हैं।
सिटीलाइट्स का मुख्य पात्र दीपक (राजकुमार राव) की राजस्थान में कपड़ों की दुकान है। परिवार में बीवी और चार-पांच साल की एक बेटी है। दीपक का व्यवसाय नहीं चलता और कर्ज ना चुका पाने के कारण उसे दुकान बंद करना पड़ती है। बिना ज्यादा सोच-विचार किए दीपक अपने परिवार के साथ मुंबई चला आता है।
सीधे-सादे दीपक को मकान के नाम पर ठग लिया जाता है और उसके सारे पैसे चले जाते हैं। किसी तरह वह मजदूरी करता है ताकि उसकी बेटी को भूखा न सोना पड़े। दीपक की पत्नी राखी (पत्रलेखा) पैसों के अभाव में बार गर्ल बन जाती है। यहां पर निर्देशक और लेखक थोड़ी जल्दबाजी कर गए। राखी का अचानक बार गर्ल बनने का फैसला अजीब लगता है, साथ ही यह ट्रेक फिल्म की कहानी में ठीक से जुड़ नहीं पाता। दीपक को पता ही नहीं चलता कि उसकी पत्नी बार गर्ल बन गई है, यह भी हैरत की बात लगती है।
एक दिन दीपक अपने दोस्तों के साथ बार जाता है और वहां उसे राखी नजर आती है। यह भी बहुत बड़ा संयोग है और इसके बजाय कुछ और सोचा जाना था जिससे राखी के इस काम के बारे में दीपक को पता चले। फिल्म में यहां तक दीपक और उसके परिवार को चुनौती के आगे संघर्ष करते दिखाया गया है, जिसमें कुछ बेहतरीन दृश्य भी देखने को मिलते हैं। दीपक को एक अंडर कंस्ट्रक्शन मकान में सौ रुपये रोज पर सिर छिपाने की जगह मिलती है। जगह देने वाला कहता है कि तुम तीन करोड़ रुपये के मकान में रह रहे हो यह घर पूरा होते ही तीन करोड़ रुपये का हो जाएगा।
यहां तक निर्देशक हंसल मेहता ने फिल्म को आर्ट फिल्म के सांचे में ढाल कर बनाया है। धीमी गति, कम रोशनी में शूटिंग और बैकग्राउंड में धीमी गति में बजते हुए गीत, लेकिन इसके बाद फिल्म की गति बढ़ती है एक नए कैरेक्टर के जरिये। नौकरी की तलाश में दीपक एक सिक्यूरिटी एजेंसी में जाता है और वहां उसकी मुलाकात विष्णु नामक एक शख्स से होती है जो उसे नौकरी दिलाने में मदद करता है। दीपक के सुपरवाइजर विष्णु का यह रोल मानव कौल ने निभाया है और उनके आते ही फिल्म में एक ऊर्जा का प्रवाह होने लगता है। दीपक को इस कंपनी में ड्राइवर की नौकरी मिलती है। वेतन है पन्द्रह हजार रुपये। उसे अमीर और अपराधी किस्म के लोगों के काले धन के बॉक्स को इधर से उधर करना होता है। ईमानदार दीपक खुश है, लेकिन जिंदगी ने उसके लिए कुछ और ही सोच रखा था।
विष्णु से दीपक की अच्छी दोस्ती हो जाती है। दोनों के बीच कुछ बेहतरीन दृश्य देखने को मिलते हैं। मसलन नौकरी के लिए इंटरव्यू देने गए दीपक एक चुटकुला सुनाकर नौकरी हासिल करता है। सुपरवाइजर के घर जाकर दीपक का खाना खाने वाला दृश्य। सुपरवा भी अच्छा है। विष्णु नौकरी से खुश नहीं है। उसके दिमाग में कुछ और ही चल रहा है। वह दीपक से कहता है गरीबी एक बीमारी है जो जोक की तरह चिपक जाती है। वह चोरी करना चाहता है, लेकिन दीपक तैयार नहीं है। विष्णु उसे अपने जाल में फंसा लेता है और यही से फिल्म एक थ्रिलर बन जाती है। फिल्म का आखिरी पौन घंटा बांध कर रखता है। फिल्म का क्लाइमेक्स आपको चौंकाने के साथ-साथ इस बात पर सोचने के लिए मजबूर करता है किस तरह से कुछ लोगों के लिए जीवन-यापन करना कितना मुश्किल हो जाता है।
निर्देशक हंसल मेहता बिना संवाद के दृश्यों के सहारे अपनी बात कहने में यकीन रखते हैं। पहले हाफ में यदि वे ज्यादा गानों का इस्तेमाल नहीं करते तो फिल्म की गति बढ़ जाती। हंसल ने अपने कलाकारों से बेहतरीन काम भी लिया है और अपने लीड कलाकार की परेशानियों को छटपटाहट को दिखाने में कामयाब रहे हैं। दीपक के दर्द को दर्शक महसूस करते हैं।
फिल्म के सिनेमाटोग्राफर देव अग्रवाल ने बहुत ही कम लाइट्स का उपयोग किया है ताकि फिल्म वास्तविक लगे, लेकिन इस चक्कर में कई बार स्क्रीन पर अंधेरा नजर आता है।
राजकुमार राव ने दीपक के किरदार को बारीकी से पकड़ा है। पहली ही फ्रेम में उन्होंने दीपक को जो मैनेरिज्म और बॉडी लैंग्वेज दी है वह पूरी फिल्म में नजर आती है। पत्रलेखा ने उनका साथ अच्छी तरह निभाया है। मानव कौल फिल्म का सरप्राइज है। विष्णु के किरदार में वे अपना प्रभाव छोड़ते हैं। जीत गांगुली ने फिल्म के मूड के अनुरूप गीतों की धुनें बनाई हैं।
फिल्म का निर्माण मुकेश और महेश भट्ट ने किया है। अच्छी बात यह है कि सेक्स और अपराध की बी और सी ग्रेड फिल्म बनाने वाले भट्ट ब्रदर्स ने 'सिटी लाइट्स' जैसी फिल्म में भी अपना पैसा लगाया है।
शाहिद' के बाद हंसल मेहता का फॉर्म जारी है और 'सिटीलाइट्स' को भी उन्होंने देखने लायक बनाया है।
बैनर :
विशेष फिल्म्स, फॉक्स स्टार स्टुडियो
निर्माता :
मुकेश भट्ट
निर्देशक :
हंसल मेहता
संगीत :
जीत गांगुली
कलाकार :
राजकुमार राव, पत्रलेखा, मानव कौल
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 6 मिनट 55 सेकंड
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कहानी: बिट्टी मिश्रा (कृति सेनन) बरेली की एक बिंदास लड़की है, जो प्रीतम विद्रोही (राजकुमार राव) के प्यार में पागल हो जाती है। प्रीतम एक लेखक है, जिसके खुले विचार की कायल हो जाती है बिट्टी। अब इतने लोगों की भीड़ में उसे ढूंढने के लिए खून-पसीना एक करना पड़ता है। बिट्टी अपने इस प्यार की तलाश के लिए वहीं के एक लोकल प्रिंटिंग प्रेस मालिक, चिराग दूबे (आयुष्मान खुराना) की मदद लेती हैं। रिव्यू: 'बरेली की बर्फी' हिन्दी सिनेमा में एक शानदार पड़ाव है। यह रोमांटिक कॉमिडी फिल्म उत्तर भारत के एक छोटे से शहर बरेली पर बेस्ड है, जिसके किरदार आपको बिल्कुल रियल लगेंगे और आपका दिल जीत लेंगे। लेखक नितेश तिवारी ( ब्लॉकबस्टर 'दंगल' के डायरेक्टर और राइटर) ने श्रेयष जैन के साथ मिलकर एक ऐसी कहानी गढ़ी है जो लेखन, निर्देशन, ऐक्टिंग और म्यूजिक हर मामले में लोगों का दिल जीत लेगी। वजहें, जो कहती हैं कि 'बरेली की बर्फी' को मिस न करें जहां तक परफॉर्मेंस की बात है तो राजकुमार राव ने दर्शकों का दिल जीत लिया है। चाहे वह सेल्समैन के रूप में अपने ऊपर साड़ी लपेट रहे हों या फिर गली का गुंडा नज़र आ रहे हों, हर किरदार में वह फिट आकर्षक दिख रहे। कृति सेनन इस फिल्म में प्यारी बिट्टी ही नहीं, बल्कि बेहद प्यारी-सी एक बेटी भी हैं, वहीं आयुष्मान की नीयत इतनी सहजता से बदलती है कि आपको एहसास ही नहीं होता कि उनका किरदार कब अच्छे से बुरा हो गया। पंकज त्रिपाठी और सीमा पाहवा ने भी शानदार अभिनय किया है, जिसके बाद आप इन्हें दोबारा देखना चाहेंगे। 'बरेली की बर्फी' देख क्या बोले बॉलिवुड सिलेब्रिटीज़ अपनी डायरेक्टोरियल डेब्यू 'नील बटे सन्नाटा' से दर्शकों का दिल जीत चुकीं अश्विनी अय्यर तिवारी ने एक बार फिर शानदार परफॉर्म किया है। उन्होंने इस कॉमिडी में अपना दिल और जान पूरी तरह से लगा दिया और फिल्म की शानदार कहानी ने इसे और भी जानदार बना दिया। फिल्म में लीड और सपॉर्टिंग कलाकारों की हरकतें हर बार आपको ठहाका लगाकर हंसने पर मजबूर कर देंगी। इसे देखकर एहसास होगा कि हमारी रोज की जिंदगी में भी बहुत सी मजेदार चीजें हैं जिसका आनंद लेना हम भूल चुके हैं। फिल्म की हिरोइन बिट्टी पर वापस आते हैं, वह एक मिठाई की दुकान के मालिक (पंकज) और उसकी रूढ़िवादी पत्नी (सीमा) की इकलौती बेटी है। उसके पिता ने उसे एक बेटे की तरह बड़ा किया है, यहां तक की उसे सिगरेट और शराब पीने की भी अनुमति दे रखी है। वहीं, इसके विपरीत उसकी छोटे शहर की मां सिर्फ उसे शादी करते देखना चाहती है। ट्रेन में यात्रा के दौरान, बिट्टी 'बरेली की बर्फी' नाम के एक नॉवल को पढ़कर खत्म करती है और इसके बाद ही कहानी में नया मोड़ आता है। वह न सिर्फ किताब के लीड कैरक्टर को पहचान जाती है बल्कि उसके लेखक की तलाश में भी पूरी तरह से जुट जाती है। वह चिराग के साथ ज्यादा समय बिताने लगती है और वे दोनों अच्छे दोस्त भी बन जाते हैं। चिराग बिट्टी से वादा करता है कि वह प्रीतम-प्यारे को ढूढ़ने में उसकी मदद करेगा। जावेद अख्तर के वॉइस ओवर के साथ फिल्म के कलाकारों और परिस्थितियों से परिचित कराया जाता है जो काफी दमदार है, इसके लिए एक फिर मजाकिया पंचों का धन्यवाद। 'तनु वेड्स मनु' और इसके सीक्वल फिल्म की तरह इस फिल्म में भी आप इसके बारिश और खुले पलों में खो जाएंगे। साथ ही बोनस में आापको पेपी 'स्वीटी तेरा ड्रामा' और 'ट्विस्ट कमरिया' गाने सुनने को मिलेंगे। एक बार इस बर्फी को जरूर खाएं क्योंकि यह आपके उत्साह को बढ़ा देगी। | 1 |
बैनर :
यशराज फिल्म्स
निर्माता :
आदित्य चोपड़ा
कहानी, स्क्रीनप्ले, संवाद, निर्देशन :
परमीत सेठी
संगीत :
प्रीतम
कलाकार :
शाहिद कपूर, अनुष्का शर्मा, वीर दास, मियांग चैंग, अनुपम खेर, किरण जुनेजा, पवन मल्होत्रा, जमील खान
* यू/ए * 2 घंटे 24 मिनट
कम समय में अधिक पैसा कमाना हो तो बेईमानी का सहारा लेना पड़ता है। तेज दिमाग का दुरुपयोग कर लोगों को बेवकूफ बनाना पड़ता है। इस तरह की बातों पर ‘बदमाश कंपनी’ के अलावा भी कई फिल्मों का निर्माण हुआ है क्योंकि मनोरंजन की इसमें भरपूर गुंजाइश रहती है।
‘बदमाश कंपनी’ की सबसे बड़ी प्रॉब्लम इसकी स्क्रिप्ट है। परमीत सेठी ने इसे अपनी सहूलियत के हिसाब से लिखा है। मन मुताबिक कहानी को ट्विस्ट दिए हैं, भले ही वो विश्वसनीय और सही नहीं हो। इससे दर्शक स्क्रीन पर दिखाए जा रहे घटनाक्रमों से जुड़ नहीं पाते। मनोरंजन की दृष्टि से भी देखा जाए तो फिल्म में बोरियत भरे क्षण ज्यादा हैं।
कहानी 1990 के आसपास की है जब इम्पोर्टेड वस्तुओं का बड़ा क्रेज था क्योंकि ये आसानी से उपलब्ध नहीं थी। बॉम्बे के चार युवा करण (शाहिद कपूर), बुलबुल (अनुष्का शर्मा), चंदू (वीर दास) और जिंग (मियांग चैंग) मिलकर एक बिजनेस शुरू करते हैं। वे इम्पोर्टेड वस्तुएँ बैंकॉक से लाकर भारत में बेचते हैं।
करण अपना दिमाग इस तरह लड़ाता है कि कम समय में वे अमीर हो जाते हैं। सरकारी नीतियों के कारण उन्हें अपना व्यवसाय बंद करना पड़ता है। करण अपने साथियों के साथ अपने मामा के यहाँ यूएस जा पहुँचता है और वहाँ वे ठगी करने लगते हैं।
आखिरकार एक दिन वे पुलिस की गिरफ्तर में आ ही जाते हैं और उनकी दोस्ती में दरार भी आ जाती है। इधर करण के मामा को व्यवसाय में जबरदस्त नुकसान होता है। करण इस बार सही रास्ते पर चलते हुए अपने तेज दिमाग और साथियों की मदद से उनकी कंपनी को हुए नुकसान को फायदे में बदल देता है और वे सही रास्ते पर चलने में ही अपनी भलाई समझते हैं।
फिल्म शुरुआत में तो ठीक है, जब फिल्म का हीरो करण कानून की खामियों के जरिये खूब पैसा कमाता है। लेकिन उसके अमेरिका पहुँचते ही फिल्म में बोरियत हावी हो जाती है। कई दृश्य बेहद लंबे हैं और उनमें दोहराव भी है। यहाँ से ऐसी घटनाएँ घटती हैं जो विश्वसनीय नहीं है।
करण के लिए सारी चीजें बड़ी आसान हैं। यूएस के लोगों को वह ऐसे बेवकूफ बनाता है, जैसे वे कुछ जानते ही नहीं हो। ऐसा लगता है कि पुलिस नाम की चीज वहाँ पर है ही नहीं। जब लेखक को लगता है कि करण को पुलिस के हवाले किया जाना चाहिए तब वह पुलिस के हत्थे चढ़ता है।
चारों दोस्तों में विवाद को ठीक से जस्टिफाई नहीं किया गया है। बस उन्हें लड़ते हुए दिखाना था, इसलिए वे लड़ पड़ते हैं। क्लाइमैक्स में उन्हें एक होना था, इसलिए वे साथ हो जाते हैं। उनके अलग होने या साथ होने पर किसी किस्म का दु:ख या खुशी नहीं होती। दोस्तों की कहानी में जो मौज-मस्ती होना चाहिए वो फिल्म से नदारद है।
निर्देशक के रूप में परमीत सेठी ने कुछ अच्छे दृश्य फिल्माए हैं, लेकिन अपनी ही लिखी स्क्रिप्ट की खामियों को वे छिपा नहीं पाए। शाहिद और अनुष्का जैसी जोड़ी उनके पास होने के बावजूद उन्होंने रोमांस को पूरी तरह इग्नोर कर दिया। उन्होंने कहानी को इस तरह स्क्रीन पर पेश किया है कि दर्शक इन्वाल्व नहीं हो पाता है।
शाहिद कपूर का अभिनय ठीक है, लेकिन वे इतने बड़े स्टार नहीं बने हैं कि इस तरह की कमर्शियल फिल्मों का भार अकेले खींच सके। अनुष्का शर्मा को भले ही कम अवसर मिले, लेकिन वे अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में कामयाब रहीं। वीर दास और मियांग चैंग ने शाहिद का साथ बखूबी निभाया है।
प्रीतम द्वारा संगीतबद्ध ‘चस्का-चस्का’ और ‘जिंगल-जिंगल’ सुने जा सकते हैं। फिल्म का बैकग्राउंड म्यूजिक उम्दा है और 90 के दशक की याद दिलाता है।
कुल मिलाकर इस ‘बदमाश कंपनी’ के प्रॉफिट एंड लॉस अकाउंट में लॉस ज्यादा है।
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कई बार सिर्फ सफर में ही मजा आता है। जहां से हम चले थे वहां वापस जाना नहीं चाहते हैं और न ही मंजिल तक पहुंचना, ऐसा लगता है कि सफर कभी खत्म नहीं हो। कुछ ऐसे ही हालात हैं इम्तियाज अली की फिल्म 'हाईवे' के। इस फिल्म की शुरुआत और अंत थोड़ा गड़बड़ है, लेकिन बीच का सफर मजेदार है।
इम्तियाज भारत के मशहूर पर्यटन स्थलों पर नहीं गए हैं। उन्होंने अपने नजरिये से खेत, रोड, नदियां और पहाड़ इतनी खूबसूरती से दिखाए हैं कि उन लोगों की आंखें खुल जाएगी जो सुंदर लोकेशन के लिए विदेश भागते हैं। फिल्म की कहानी ऐसी नहीं है कि आपने पहली बार देखी हो। अपहरणकर्ता और अपहृत के बीच बनते रिश्ते पर आधारित फिल्में पहले भी आई हैं, लेकिन इम्तियाज का प्रस्तुतिकरण 'हाईवे' को देखने लायक बनाता है।
वीरा (आलिया भट्ट) एक अमीर और शक्तिशाली इंसान की बेटी है। उसे तथाकथित तमीज और तहजीब से नफरत है। वह अपने घर में कैद महसूस करती है। खुली हवा में वह सांस लेना चाहती है। शादी के ऐन पहले रात में वह अपने मंगेतर के साथ हाईवे पर घूमने जाती है। अशिष्ट गंवई किस्म का इंसान महाबीर भाटी (रणदीप हुडा) वीरा का अपहरण कर लेता है। जब उसके साथियों को पता चलता है कि वह वीरा को उठा लाया है जिसका पिता बहुत पॉवरफुल है तो वे महाबीर को उसे छोड़ने का कहते हैं, लेकिन अड़ियल महाबीर नहीं मानता और वीरा को ट्रक में लेकर राजस्थान, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, कश्मीर घूमता रहता है।
अपहरण होने के बावजूद बीरा एक किस्म की आजादी महसूस करती है। उसे रोकने-टोकने वाला कोई नहीं है। दो अलग पृष्ठभूमि से आए और अलग मिजाज के वीरा और महाबीर इस सफर में एक-दूसरे के निकट आते हैं। दोनों पर एक-दूसरे की सोहबत का असर भी होता है।
फिल्म के दोनों किरदारों का भयावह बचपन रहा है। वीरा का उसके पिता का दोस्त बचपन में यौन-शोषण करता था तो महाबीर का पिता उसकी मां से बुरा व्यवहार करता था। साथ में घूमते हुए उनके भीतर की ये कड़वाहट निकलती है। एक-दूसरे के साथ रहते हुए दोनों किरदारों में हुए बदलाव को इम्तियाज ने बेहद सूक्ष्मता के साथ दिखाया है।
अक्खड़ महाबीर को चापलूसी या किसी के लिए कार का दरवाजा खोलना पसंद नहीं है, लेकिन जब उसके मन में वीरा के प्रति कोमल भाव जागते हैं तो वह ट्रक का दरवाजा वीरा के लिए खोलता है। इसी तरह महाबीर के साथ रहते-रहते वीरा अपने गुस्से और नाराजगी का इजहार करना सीख जाती है और घर वापस लौटने पर उस अंकल को जलील करती है जो बचपन में उसके साथ यौन-शोषण करता था।
इंटरवल तक फिल्म जबरदस्त है। इम्तियाज अली ने बिना संवाद, बैकग्राउंड म्युजिक, गाने या एक्शन के जरिये कई बेहतरीन दृश्य पेश किए हैं। वैसे तो फिल्म शोर-शराबे से दूर है और पूरी फिल्म में प्रकृति का स्वर बैकग्राउंड में नदियों की कल-कल और चिड़ियों की चहचहाट के जरिये सुनने को मिलता है। कई दृश्यों में पिन ड्रॉप साइलेंस भी है।
इंटरवल के बाद फिल्म हाईवे छोड़कर कभी-कभी उबड़-खाबड़ रास्ते पर चलती है, लेकिन इसका कोई खास असर समग्र फिल्म पर नहीं होता है। इंटरवल के बाद एक सीन बेहद कमजोर है जिसमें महाबीर के लिए वीरा खाना बनाती है और रोते हुए महाबीर को संभालती है। वीरा और महाबीर के बीच कई बेहतरीन और हल्के-फुल्के सीन हैं। अंग्रेजी गाने पर डांस वाला सीन बहुत ही अच्छी तरह रचा गया है।
जहां तक शुरुआत का सवाल है तो वीरा का अचानक अपहरण होना और उसके बाद के सीन में जल्दबाजी नजर आती है। ऐसा लगा कि ये प्रसंग निर्देशक जल्दी से निपटाना चाहता है। साथ ही कई दृश्य इतने अंधेरे में फिल्माए कि स्क्रीन पर कुछ भी नजर नहीं आता। फिल्म का अंत ठीक है, लेकिन इससे बेहतर भी सोचा जा सकता था। कुछ दृश्य ऐसे भी हैं जिन्हें महज खूबसूरती के कारण रखा गया है। यदि इनका मोह नहीं होता तो फिल्म की लंबाई कम होती और यह फिल्म के लिए बेहतर भी होता।
जब वी मेट, लव आज कल और रॉकस्टार जैसी फिल्म बनाने वाले इम्तियाज का अलग ही अंदाज 'हाईवे' में नजर आता है और अच्छी बात यह है कि उन्हें एक ही तरह की फिल्म बनाने से परहेज भी है। इम्तियाज की फिल्म में सफर और लोकेशंस महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और हाईवे में यह बात और भी निखर कर आती है। कहानी की बजाय उन्होंने किरदारों पर जोर दिया है और किरदारों के सहारे ही कहानी को उम्दा तरीके से आगे बढ़ाया है। अपने किरदारों को स्टीरियोटाइप होने से उन्होंने बचाया है।
एक फिल्म पुरानी आलिया भट्ट ने शानदार अभिनय किया है, लेकिन ये किरदार उनसे और ज्यादा की मांग करता था। अपहरण होने के बाद उनके चेहरे पर डर या खौफ के जो भाव नजर आने थे, वो नदारद थे। मासूमियत वाले भाव वे अच्छी तरह से ले आती हैं। क्लाइमेक्स सीन में आलिया का अभिनय देखने लायक है। इस लंबे सीन को आलिया ने अच्छी तरह से निभाया है। 'हाईवे' के बाद निश्चित रूप से आलिया के करियर में उछाल आएगा।
रणदीप हुडा का चयन फिल्म में उनके लुक के कारण हुआ है। उनका देशी लुक किरदार की डिमांड था और रणदीप इस मामले में खरे उतरे। अक्खड़ और भाव हीन महाबीर का किरदार उन्होंने खूब निभाया।
सिनेमाटोग्राफर अनिल मेहता ने 'हाईवे' को बेहद खूबसूरती के साथ निभाया है। भारत की खूबसूरती और मिट्टी की गंध उनके कैमरे के जरिये दर्शक महसूस कर सकते हैं। एआर रहमान ने फिल्म के मूड के अनुरूप संगीत रचा है और इम्तियाज ने गानों का फिल्म में अच्छा उपयोग किया है।
रोड मूवी को पसंद करने वाले और फिल्मों में कुछ अलग देखने की चाह वालों को 'हाईवे' जरूर पसंद आएगी।
बैनर :
नाडियाडवाला ग्रेंडसन एंटरटेनमेंट, यूटीवी मोशन पिक्चर्स, विंडो सीट फिल्म्स
निर्माता :
इम्तियाज अली, साजिद नाडियाडवाला
निर्देशक :
इम्तियाज अली
संगीत :
ए.आर. रहमान
कलाकार :
रणदीप हुडा, आलिया भट्ट
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 13 मिनट 12 सेकंड
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इयान फ्लेमिंग ने 1952 में जेम्स बांड के किरदार को केन्द्र में रखकर उपन्यास लिखना शुरू किए। इस किरदार की लोकप्रियता के बाद डॉक्टर नो (1962) से जेम्स बांड के किरदार को लेकर फिल्म बनना शुरू हुई। सिलसिला 53 वर्षों से जारी है जो इस सीरिज की विश्वव्यापी लोकप्रियता का सबूत है। 'स्पेक्टर' इस श्रृंखला की 24वीं फिल्म है और डेनियल क्रेग चौथी बार जेम्स बांड बन खतरों से खेल दुश्मनों का मुकाबला कर रहे हैं।
हॉट हसीनाएं, हैरत अंगेज एक्शन, खूबसूरत लोकेशन्स, आधुनिक कार और अपनी बहादुरी के चिरपरिचित गुणों के साथ सूटेड-बूटेड जेम्स बांड इस सीरिज की फिल्मों की खासियत है और निर्देशक सेम मेंडेस ने अपनी फिल्म को इन्हीं खासियत के इर्दगिर्द रखा है।
फिल्म शुरू होती है मेक्सिको सिटी से जहां 'द डे ऑफ द डेड' मनाया जा रहा है। एक लंबा सिंगल शॉट लिया गया है जो सिनेमाटोग्राफी का उत्कृष्ट नमूना है। आमतौर पर जेम्स बांड की फिल्मों का पहला सीक्वेंस ऐसा होता है कि दांतों तले अंगुली दबाने वाली कहावत चरितार्थ हो जाती है और 'स्पेक्टर' का यह प्री क्रेडिट सीक्वेंस भी कमाल का है। इस सीक्वेंस के खत्म होते ही लगता है कि इसे दोबारा देखा जाना चाहिए। जेम्स बांड की फिल्म से बहुत उम्मीद लिए बैठे दर्शकों की उम्मीद इस सीक्वेंस को देखने के बाद आसमान छूने लगती है, लेकिन वैसी गति फिल्म में बाद में कायम नहीं रह पाती।
एक अनऑफिशियल मिशन का ऑर्डर जेम्स को अपनी मौत के पहले एम ने दिया था। मेक्सिको में जेम्स दो आदमियों को मार देता है जो एक स्टेडियम को उड़ाने की तैयारी में थे। लंदन वापसी के बाद जेम्स को सस्पेंड कर दिया जाता है और वहां घमासान मच जाता है। नए 'एम' के 'सी' के साथ अधिकारों को लेकर तनावपूर्ण रिश्ते हैं और 'सी' डबल ओ सेक्शन को बंद करना चाहता है क्योंकि यह सेक्शन पुराना और निष्प्रभावी हो गया है।
जेम्स बांड दो मोर्चों पर जूझता है। उसकी हर हरकत पर उसके प्रमुख नजर रखे हुए हैं जिनसे छिपकर उसे स्पेक्टर (स्पेशल एक्ज़ीक्यूटिव फॉर काउंटर इंटेलीजेंस, टेरररिज्म, रिवेंज एंड एर्क्सोशन) के प्रमुख फ्रांज ओबरहाउजर को ढूंढ निकालना है जिसे दुनिया मृत मान चुकी है। इस मिशन को उसे अकेले ही अंजाम देना है। कदम-कदम पर उसे सुराग मिलते जाते हैं जिनके सहारे वह मैक्सिको, लंदन, रोम, मोरक्को, ऑस्ट्रिया की खाक छानता है। मनीपेनी, लुसिया और मैडेलाइन स्वान जैसी महिलाओं का उसे साथ मिलता है।
'स्पेक्टर' में नया कुछ नहीं पेश करते हुए यह फिल्म जेम्स बांड के चिर-परिचित अंदाज या कहें कि इस सीरिज के फैंस को ध्यान में रखकर बनाई गई है जो जेम्स बांड की हर फिल्म में उसका वही अंदाज देखना पसंद करते हैं। कार, चेज़िंग, स्टंट्स, वूमैन और वाइन इस फिल्म की भी खासियत है, लेकिन कहानी के मामले में यह फिल्म थोड़ी कमजोर साबित होती है। कुछ सवाल अनुत्तरित रह जाते हैं।
कहानी का फैलाव बहुत किया और इसे समेटने में खासा समय लिया गया। इसे जेम्स बांड सीरिज की सबसे लंबी फिल्म बताया जा रहा है। लंबाई तब अखरती है जब फिल्म में कुछ सुस्त दृश्यों से पाला पड़ता है और 'स्पेक्टर' में बीच-बीच में ऐसे क्षण आते हैं जब फिल्म ठहरी हुई लगती है। इन सुस्त क्षणों की याद आप तब भूला देते हैं जब बीच-बीच में रोमांचक क्षणों से सामना होता है।
शुरुआती सीक्वेंस के बाद ऑस्ट्रिया में बर्फ के बीच दिखाया गया स्टंट भी गजब का है। कही कोई कंजूसी नजर नहीं आती है और बांड फिल्मों की भव्यता को ध्यान में रख पानी की तरह पैसा बहाया गया है। ढेर सारी कारें उड़ाई गई हैं। क्लाइमैक्स जरूर कमजोर लगता है क्योंकि यहां उम्मीद थी कि जबरदस्त स्टंट देखने को मिलेगा।
जेम्स बांड के रूप में डेनियल क्रेग का आत्मविश्वास देखने लायक है। वे सभी पर भारी पड़ते हैं और फिल्म को अपने कंधों पर खींचकर देखने लायक बनाते हैं। सारे ऑर्डर को ताक पर रखकर अपने मिशन में जुट जाने वाले शख्स के रूप में वे बेहद जमे हैं।
क्रिस्टोफर वाल्ट्ज़ अपने पहले सीन में ही खौफ पैदा कर देते हैं और डेनियल क्रेग से जम कर टक्कर लेते हैं। 50 वर्ष की मोनिका बेलूची को सबसे ज्यादा उम्र में बांड गर्ल बनने का मौका मिला है, लेकिन वे अपना जबरदस्त प्रभाव छोड़ती हैं। लिया सेडक्स को बेहतरीन अवसर मिला है जिसका उन्होंने पूरा फायदा उठाया है।
फिल्म की सिनेमाटोग्राफी की जितनी तारीफ की जाए कम है। एरियल शॉट्स का जवाब नहीं है। सिनेमाटोग्राफी फिल्म को विराट लुक देती है। लोकेशन्स आंखों को सुकून देती है। फिल्म के हर किरदार को स्टाइलिश लुक में पेश किया गया है जो जेम्स बांड की फिल्मों का खास गुण है।
'स्पेक्टर' की आप 'स्कायफॉल' से तुलना करेंगे तो कमतर पाएंगे, लेकिन 'स्पेक्टर' में वो तत्व मौजूद हैं जिनके लिए जेम्स बांड की फिल्में जानी जाती हैं और इसके लिए थिएटर जाया जा सकता है।
निर्देशक : सेम मेंडेस
निर्माता : माइकल जी विल्सन, बारबरा ब्रोकोली
कलाकार : डेनियल क्रेग, क्रिस्टोफर वाल्टज़, ली सेडक्स, नाओमी हैरिस, मोनिका बेलुची
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * अवधि : 2 घंटे 28 मिनट
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निर्माता :
रॉनी स्क्रूवाला, आमिर खान, किरण राव, जिम फरगेले
निर्देशक :
अभिनय देव
संगीत :
राम सम्पत
कलाकार :
इमरान खान, पूर्णा जगन्नाथ, शेनाज़ ट्रेजरीवाला, राहुल पेंडकालकर, वीर दास, कुणाल रॉय कपूर, विजय राज
सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 96 मिनट * 10 रील
अनुराग कश्यप की फिल्म ‘देव डी’ के बाद हिंदी सिनेमा में बोल्डनेस बढ़ गई है। अब तक डरते-डरते बोल्ड सीन और संवाद रखने वाले फिल्मकारों में भी हिम्मत आ गई। सेंसर की सोच भी वयस्क हो गई और उसने भी एडल्ट फिल्म की थीम को समझते हुए इस तरह के संवादों और दृश्यों को पास किया। इसका ही नतीजा है कि देल्ही बैली जैसी फिल्म सामने आई।
इस फिल्म में जिस तरह के दृश्य और संवाद हैं शायद ही पहले हिंदी फिल्मों में नजर आए हों या सुनाई दिए हों। हर दूसरे संवादों में अपशब्दों का प्रयोग है। गालियाँ हैं। दरअसल फिल्म के किरदार ही ऐसे हैं कि यकीन किया जा सकता है कि वे इस तरह के संवाद बोलते होंगे। यूँ भी आजकल फिल्मों को ऐसा लुक दिया जाता है कि वो सच्चाई के नजदीक लगे।
फिल्म की कहानी एकदम साधारण है। ये डेविड धवन की फिल्म की कहानी भी हो सकती है और प्रियदर्शन की भी। सवाल प्रस्तुतिकरण का है। डेविड धवन इसे अपने अंदाज में बनाते। उनके हास्य दृश्यों में द्विअर्थी संवाद हो सकते थे। प्रियदर्शन यदि इस कहानी पर फिल्म बनाते तो उसमें गलतफहमियों की भरमार होती।
अभिनय देव का प्रस्तुतिकरण और अक्षत वर्मा की लिखी स्क्रिप्ट इस मायने में अलग है क्योंकि इसमें पॉटी ह्यूमर है, दोस्तों के बीच होने वाली बातचीत है जिसमें की आमतौर पर गालियों का आदान-प्रदान होता है और टॉयलेट जोक्स हैं। हर घटना को और किरदार को इनसे ऐसे जोड़ा गया है कि ये चीज ठूँसी हुई नहीं लगती हैं।
कुछ दृश्यों या गानों को आपत्तिजनक माना जा सकता है, लेकिन इन्हें छोड़ दिया जाए तो बाकी का आप आनंद उठा सकते हैं। कुछ दृश्य तो इतने मजेदार हैं कि उनके खत्म होने के मिनटों बाद तक भी हँसा जा सकता है। जैसे ऑरेंज ज्यूस वाले दृश्य, सीलिंग फैन और छत का गिरना, ताशी और मेनका का होटल रूम वाला दृश्य, बुर्का पहन कर दोनों का किस करने वाला दृश्य और नितिन के पेट से तरह-तरह की आवाज निकलने वाले दृश्य।
स्क्रिप्ट बेहद कसी हुई है जिससे साधारण कहानी भी अच्छी लगती है और फिल्म तेजी से भागती है। ये आमिर खान का ही कमाल है कि 96 मिनट की इस फिल्म में वे इंटरवल के लिए राजी नहीं हुए वरना मल्टीप्लेक्सेस वालों की कमाई टिकट बेचने से ज्यादा समोसे बेचने में ही होती है।
कहानी है ताशी, अरुप और नितिन नामक दोस्तों की, जो बहुत ही गंदे मकान में जानवरों की तरह रहते हैं। पता नही ताशी जैसे इंसान को कोई गर्लफ्रेंड कैसे मिल सकती है। तीनों के रास्ते अपराधियों के रास्ते से टकरा जाते हैं और उसके बाद शुरू होता है भागादौड़ी का खेल।
भले ही ये तीनों गालियाँ बकते रहते हैं, लेकिन दिल से बड़े अच्छे इंसान हैं। अरुण तो अपनी गर्लफ्रेंड, जिससे वह शादी नहीं करना चाहता है, को बचाने के लिए अपनी जिंदगी तक दाँव पर लगा देता है और उसका साथ दोनों दोस्त भी देते हैं।
फिल्म में विजय राज भी हैं और एक खतरनाक अपराधी की भूमिका उन्होंने क्या खूब निभाई है। कब बोलना और कब पॉज़ लेना है ये उनसे सीखा जा सकता है। इमरान खान इस फिल्म के एकमात्र सितारा कलाकार हैं, लेकिन न्याय सभी किरदारों के साथ हुआ है।
इमरान का अभिनय भी अच्छा है और उन्होंने दिखाया है कि चॉकलेटी भूमिका के अलावा भी वे कुछ और कर सकते हैं, लेकिन उनके दोस्त के रूप में कुणाल रॉय कपूर और वीर दास भारी पड़े हैं। कुणाल रॉय की टाइमिंग और संवाद अदायगी बेहतरीन है। मेनका के रूप में पूर्णा जगन्नाथ प्रभावित करती है।
राम सम्पत ने बेहतरीन धुनें बनाई हैं, लेकिन जो गीत लिखे गए हैं वो डबल मिनिंग वाले हैं। फिल्म को ‘ए’ सर्टिफिकेट देकर कम उम्र वाले दर्शकों को रोका जा सकता है, लेकिन गानों को सुनने से रोकना संभव नहीं है। इसलिए इस तरह के गानों से बचा जा सकता था।
निर्देशक के रूप में अभिनय देव प्रभावित करते हैं। लगता ही नहीं है कि इसी शख्स ने ‘गेम’ नामक महाफ्लॉप फिल्म भी बनाई थी। शायद आमिर की संगति का असर है। उनका साथ मिलते ही साधारण भी असाधारण हो जाता है।
‘देल्ही बैली’ को वयस्क सोच के साथ देखा जाए तो इसका मजा आप उठा सकते हैं। फिल्म के अंत में आमिर खान कहते हैं कि चौका जब उड़ता हुआ जाए तो उसे छक्का कहते हैं। वे छक्का लगाने में कामयाब हुए या कैच आउट इसका फैसला दर्शक करेंगे।
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वर्किंग कपल की रोजमर्रा की लाइफ ऑफिस से शुरू हुई टेंशन इनकी पर्सनल लाइफ में अनजाने में ही सही अक्सर एंटर कर ही जाती है और यहीं से शुरू होता है इनमें एक ऐसा तकरार जो इन्हें यह सोचने पर मजबूर कर देता है कि क्या करियर और पर्सनल लाइफ को लेकर लिया उनका हर फैसला सही है! इस हफ्ते रिलीज़ हुई रिबन में डायरेक्टर राखी ने इस टॉपिक को ईमानदारी के साथ सिल्वर स्क्रीन पर पेश करने की अच्छी कोशिश की है। हालांकि चालू-मसाला और टाइम पास करने के मकसद से थिअटर का रुख करने वाले दर्शक निराश हो सकते हैं। मुंबई की एक मिडल क्लास कपल के इर्दगिर्द घूमती इस कहानी में डायरेक्टर ने जहां वर्किंग कपल के मुद्दे को पेश करने के साथ बच्चों के यौन उत्पीड़न के मुद्दे को भी कहानी का अहम हिस्सा बनाकर पेश किया है। स्टोरी प्लॉट: करण मेहरा (समित व्यास), साहना मेहरा (कल्कि कोचलिन) अब पूरी तरह से मुंबई में सेट हो चुके हैं। करण एक बिल्डिंग कंस्ट्रक्शन कंपनी में साइट इंजिनियर है तो वहीं साहना भी एक कॉर्पोरेट कंपनी में स्ट्रैटिजी मैनेजर है। मुंबई की एक सोसाइटी के एक फ्लैट में अपनी लाइफ जी रहे इस हैप्पी कपल की लाइफ उस वक्त डिस्टर्ब हो जाती है जब सहाना को पता चलता है कि वह मां बनने वाली है। सहाना से यह खबर सुनकर जहां करण बेहद खुश होता है वहीं सहाना अपनी प्रेग्ननेंसी की खबर से अपसेट है। दरअसल, सहाना को लगता है कि लाइफ के जिस मोड़ पर अब वह और करण हैं उन्हें बच्चे के लिए अभी कम से दो से तीन साल का इंतजार करना चाहिए। ऐसे में सहाना सबसे पहले अबॉर्शन के बारे में सोचती है। करण सहाना को समझाता है कि आने वाले बच्चे की जिम्मेदारियां वह दोनों एकसाथ आपस में हैंडल कर लेंगे, तब जाकर साहना मां बनने का फैसला करती हैं। सहाना अपने ऑफिस से तीन महीने की छुट्टी लेती है, लेकिन सहाना को अंदर ही अंदर यह डर भी सता रहा है कि प्राइवेट क्या इन तीन महीनों में कंपनी में उसकी जॉब और पोजिशन बरकरार रह पाएगी! इसी बीच सहाना एक प्यारी सी बच्ची की मां बन जाती है। तीन महीने की मैटरनिटी लीव के बाद जब सहाना ऑफिस लौटती है तो ऑफिस में अब सब कुछ पहले जैसा नहीं है। इन तीन महीनों में सहाना की पोजिशन बॉस ने किसी दूसरे को दे दी है, इन हालात में काम कर पाना सहाना को मंजूर नहीं, सो वह अपनी नई जॉब की तलाश में लग जाती है। सहाना को अब एक दूसरे ऑफिस में अच्छी नौकरी मिली जाती है, लेकिन तभी करण को अपनी जॉब के सिलसिले में मुंबई से दूर शिफ्ट होना पड़ता है। खैर किसी तरह सहाना इन हालात का सामना करती है। सहाना की बेटी अब स्कूल जाने लगी है। एक दिन स्कूल बस का कंडक्टर जब बेबी को लेने नहीं आता तो करण बेटी को स्कूल बस में छोड़ने लिफ्ट में आता है, लिफ्ट में नन्हीं अर्शी एक चॉकलेट की चाह में कुछ ऐसा करके दिखाती है कि सुमित भौंचक्का रह जाता है। जल्दी ही उसकी समझ में आ जाता है कि उनकी करीब चार साल की बेटी के साथ कोई बहुत गलत कर रहा है। ऐक्टिंग: कल्कि कोचलिन ने एकबार फिर कमाल की ऐक्टिंग की है, सहाना के किरदार को कल्कि ने अपने लाजवाब अभिनय से जीवंत कर दिखाया है। वहीं एक फैमिली के लिए समर्पित हज्बंड और पिता के किरदार में सुमित व्यास खूब जमे हैं। पूरी फिल्म में सुमित और कल्कि की गजब की ऐक्टिंग है। 'चरखा घूम रहा है' कई म्यूजिक चार्ट में टॉप टेन में शामिल हो चुका है। डायरेक्टर राखी ने बेशक कहानी और स्क्रिप्ट से कहीं समझौता नहीं किया, लेकिन इंटरवल से पहले फिल्म की बेहद स्लो दर्शकों के सब्र का इम्तिहान लेती है, वहीं फिल्म का क्लाइमैक्स सवालिया है जो दर्शकों की बड़ी क्लास को पसंद नहीं आएगा। क्यों देखें: मुंबई जैसे महानगर में वर्किंग कपल की जिंदगी को डायरेक्टर ने असरदार ढंग से पेश किया है, वहीं अंत तक पूरी फिल्म एक ट्रैक पर है। अगर आपको चालू-मसाला फिल्मों की भीड़ से दूर हटकर बनी अलग जॉनर की फिल्में पसंद आती हैं तो इस फिल्म को मिस न करें। | 1 |
निर्माता :
विजय गलानी
निर्देशक :
अनिल शर्मा
गीत :
गुलजार
संगीत :
साजिद-वाजिद
कलाकार :
सलमान खान, ज़रीन खान, सोहेल खान, मिथुन चक्रवर्ती, जैकी श्रॉफ, लिसा, पुरु राजकुमार
यू/ए * 10 रील * दो घंटे 39 मिनट
बॉलीवुड में बनने वाली वर्तमान फिल्मों में से वह हीरो गायब हो गया जो लार्जर देन लाइफ हुआ करता था। जिसका शरीर फौलाद का और दिल सोने का हुआ करता था। जो अपनी बात का पक्का हुआ करता था। अपना हर वादा निभाता था। कमजोर पर अपनी ताकत का जोर नहीं दिखाता था। उसके कुछ सिद्धांत हुआ करते थे। लोग जिसे पूजते थे। उस हीरो को निर्देशक अनिल शर्मा ‘वीर’ में वापस लाए हैं।
अनिल शर्मा को लार्जर देन लाइफ फिल्म बनाना पसंद है। धर्मेन्द्र (हुकूमत) और सनी देओल (गदर) के साथ सफल फिल्म वे दे चुके हैं। इस बार वे सलमान खान के साथ हैं। इस तरह की फिल्में सुपरस्टार के साथ ही बनाई जा सकती है तभी विश्वसनीयता पैदा होती है और दर्शक आँख मूँदकर विश्वास कर लेते हैं कि उनका हीरो कुछ भी कर सकता है।
इस फिल्म की कहानी सलमान खान ने लिखी है और वो भी लगभग 20 बरस पहले। फिल्मों में आने के पहले ‘धरमवीर’, ‘राजतिलक’, ‘मर्द’ जैसी मसाला फिल्में उन्होंने देखी होगी, जिनमें नायक सर्वेसर्वा होता था। शायद सलमान खान पर भी इस तरह की फिल्मों का असर हुआ और उनकी लिखी ‘वीर’ में इन फिल्मों की झलक मिलती है।
कहानी पिंडारी नामक समूह की है, जिनके साथ माधवगढ़ का राजा (जैकी श्रॉफ) अँग्रेजों के साथ मिलकर धोखा करता है। अपने पिता के अपमान का बदला वीर (सलमान खान) लेना चाहता है। अँग्रेजों के छल, कपट सीखने के लिए वह लंदन पढ़ने भी जाता है। लेकिन इसी बीच उसे माधवगढ की राजकुमारी यशोधरा (ज़रीन खान) से प्यार हो जाता है। एक तरफ प्यार और दूसरी ओर कर्तव्य। वीर और यशोधरा दोनों इस दुविधा में फँस जाते हैं। कैसे वे इस परिस्थिति से बाहर निकलते हैं ये फिल्म का सार है।
अनिल शर्मा ने इस फिल्म का निर्माण पूरी तरह सलमान खान के प्रशंसकों को ध्यान में रखकर किया है। सल्लू के प्रशंसक के बीच जो उनकी इमेज है, उसी को ध्यान में रखकर सीन गढ़े गए हैं।
हर दृश्य इस तरह लिखे और फिल्माए गए हैं ताकि सलमान बहादुर, नेक दिल, बलवान, निडर, देशभक्त और स्वाभिमानी लगे। सलमान के मुँह से ‘जहाँ पकड़ूँगा पाँच सेर माँस निकाल लूँगा’ और ‘जब राजपूतों का खून उबलता है तो उसकी आँच से गोरी चमड़ी झुलस जाती है’ जैसे संवाद बुलवाए गए हैं ताकि उन्हें पसंद करने वाले तालियाँ पीटे। रेल से खजाना लूटने वाला दृश्य, लंदन के स्कूल में टीचर और सलमान वाला दृश्य, सलमान और मिथुन के बीच तलवारबाजी वाले दृश्य अच्छे बन पड़े हैं।
निर्देशक अनिल शर्मा ने मनोरंजक तत्व और सलमान पर अपना सारा ध्यान दिया है ताकि दर्शक स्क्रिप्ट की कमियों पर ध्यान नहीं दें या उसकी उपेक्षा कर दें और इसमें उन्होंने काफी हद तक कामयाबी भी पाई है। वीर और यशोधरा के रोमांस को भी अच्छा फिल्माया गया है। इंटरवल तक फिल्म मनोरंजक है, लेकिन दूसरे भाग में यह कमजोर पड़ गई है क्योंकि इसे जरूरत से ज्यादा खींचा गया है।
स्क्रिप्ट में कई खामियाँ भी हैं। लंदन में यशोधरा के भाई की हत्या कर वीर का बड़ी आसानी से भारत आ जाना। यशोधरा से भारत में मुलाकात के बाद संयोग से वीर का उसी कॉलेज में एडमिशन लेना, जहाँ यशोधरा पढ़ती है और वीर का माधवगढ़ में जाकर यशोधरा से संबंध बनाना जैसे प्रसंग अपनी सहूलियत के हिसाब से लिखे गए हैं।
सलमान ने अपना काम बखूबी किया है और एक प्रकार से यह उनका ही शो है। पूरी फिल्म में उनका दबदबा है। गुस्से को उन्होंने काफी अच्छी तरह व्यक्त किया है। ज़रीन खान राजकुमारी की तरह दिखाई दीं, लेकिन उनका अभिनय औसत रहा। चेहरे के जरिये भावों को व्यक्त करना उन्हें सीखना होगा। मिथुन चक्रवर्ती को लंबे समय बाद अच्छा रोल मिला और उन्होंने अपना काम बखूबी किया। सोहेल खान ने हँसाने की नाकाम कोशिश की। पुरु राजकुमार भी फिल्म में नजर आएँ।
साजिद-वाजिद ने कुछ अच्छी धुनें बनाई हैं। ‘सुरील अँखियों वाली’, ‘मेहरबानियाँ’ और ‘सलाम आया’ अच्छे बन पड़े हैं। गुलजार ने उम्दा बोल लिखे हैं। बैकग्राउंड म्यूजिक उम्दा है। गोपाल शाह का फिल्मांकन फिल्म को भव्यता प्रदान करता है। टीनू वर्मा के एक्शन सीन ठीक हैं।
‘वीर’ पुराने दौर की मसाला फिल्मों की तरह है और यदि आप सलमान के प्रशंसक हैं तो इसे पसंद करेंगे।
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एनएच-10 बतौर प्रड्यूसर ऐक्ट्रेस अनुष्का शर्मा की प्रॉडक्शन कंपनी के बैनर तले बनी पहली फिल्म थी, कुछ साल पहले तक इंडस्ट्री के कलाकर उस वक्त प्रॉडक्शन से जुड़ते थे, जब बतौर कलाकर उनके करियर को लेकर सवालिया निशान लगने शुरू हो जाते थे। देव आनंद, राज कपूर, मनोज कुमार सहित ऐसे कई नाम भी हैं जिन्होंने फिल्म प्रॉडक्शन की फील्ड में उस वक्त एंट्री ली जब बतौर ऐक्टर उनका करियर कामयाबी के शिखर पर था। अब वक्त बदल रहा है, इंडस्ट्री के नामचीन स्टार्स ने अब अपनी अपनी फिल्म प्रॉडक्शन कंपनियां बना रखी है। अक्सर इंडस्ट्री के नामी स्टार अपने बैनर की फिल्मों में खुद ही ऐक्टिंग करते है। अनुष्का भी ऐक्ट्रेस से प्रड्यूसर बनी तो अपने बैनर की पहली एनएच-10 में लीड किरदार निभाया। बॉक्स ऑफिस पर फिल्म जबर्दस्त हिट रही। 10 करोड़ से भी कम बजट में बनी इस फिल्म ने 32 करोड़ की कलेक्शन की। पहली फिल्म को मिली कामयाबी के बाद अनुष्का ने दूसरी फिल्म बनाने में अच्छा खासा वक्त लिया। फिल्लौरी की स्क्रिप्ट पर काम शुरू करने से पहले ही अनुष्का ने लीड रोल में पंजाब के सुपरस्टार और सिंगर दिलजीत दोसांझ के साथ इस प्रोजेक्ट पर बात फाइनल की। इस फिल्म को लेकर इंडस्ट्री में ऐसी अटकलें भी रहीं कि अगर दिलजीत इस फिल्म को नहीं करते तो शायद यह प्रोजेक्ट ठंडे बस्ते में चला जाता। बतौर डायरेक्टर अंशाई लाल की यह पहली फिल्म है जिसमें एक ऐसी आधी-अधूरी लव स्टोरी है जिसे परवान चढ़ने में करीब 100 साल का वक्त लग गया। पंजाब की अलग-अलग लोकेशन पर शूट हुई इस फिल्म का स्पेशल इफेक्ट्स और वीएफएक्स वर्क कमाल का है। कहानी: करीब तीन साल पहले पंजाब के अमृतसर शहर से कनन गिल (सूरज शर्मा) अपनी बचपन की फ्रेंड अनु ( मेहरीन पीरज़ादा) के सहयोग से सिंगर बनने के सपने को साकार करने कनाडा गया। दरअसल, कनन की फैमिली उसे कनाडा भेजने के लिए राजी नहीं थी लेकिन अनु ने फैमिली वालों को राजी किया। अब 3 साल बाद कनन कनाडा से शादी के लिए अमृतसर लौटा है। कनन के घर में शादी का माहौल है। जल्दी ही अनु और कनन की शादी होने वाली है लेकिन पंडित जी जब इन दोनों की कुंडलियां को मिलाया, तो पता चलता है कनन मांगलिक है। मांगलिक दोष समाप्त करने के लिए पंडित जी एक उपाय बताते हैं कि कनन की शादी पहले एक पेड़ के साथ कर दी जाए। रीति-रिवाज़ के मुताबिक कनन से शादी के बाद उस पेड़ को काट दिया जाता है। पेड़ से शादी के बाद कनन की जिंदगी में शशि (अनुष्का शर्मा) नाम की एक खूबसूरत भूतनी की एंट्री होती है। कनन को अपने घर में हर जगह यह खूबसरत भूतनी अपने पीछे खड़ी दिखाई देती है। एक दिन शशि सूरज को बताती है जिस पेड़ को उसकी शादी के बाद काट दिया गया वह बरसों से वहीं रह रही थी। अब जब पेड़ की शादी कनन से हो गई है तो शशि यही मानती है कि उसे अब कनन के साथ ही जिंदगी गुजारनी है। एक दिन शशि सूरज को बताती है बरसों पहले वह फिल्लौर गांव के गायक रूप लाल (दिलजीत दोसांझ) से प्यार करती थी। दोनों की शादी भी तय हो चुकी थी। शादी का मंडप सज चुका था लेकिन तभी ऐसा कुछ हुआ कि रूप लाल फिल्लौरी के साथ उसकी शादी नहीं हो सकी। ऐक्टिंग: अनुष्का शर्मा ने खूबसूरत भूतनी शशि के किरदार के लिए अच्छी खासी मेहनत की है। दिलजीत दोसांझ का किरदार बेशक उनकी सिंगर वाली इमेज से जुड़ा हो, लेकिन दिलजीत अपने किरदार में पूरी तरह से फिट हैं। हॉलिवुड मूवी लाइफ ऑफ पाइ के लंबे अर्से बाद इस फिल्म में नजर आए सूरज शर्मा ने अपने किरदार को अच्छे ढंग से निभाया है। कनन की मंगेतर अनु के रोल में मेहरीन पीरज़ादा जंची है। मेहरीन के चेहरे की मासूमियत और उनकी डॉयलॉग डिलीवरी जानदार है। निर्देशन: निर्देशक अशंई लाल ने बेशक एक ऐसी अच्छी कहानी को लेकर फिल्म बनाई है जो समाज में फैली एक कुरीति पर व्यंग्य करती है। करीब सवां 2 घंटे की फिल्म में बार-बार फ्लैश बैक का आना कहानी को अलग ट्रैक पर ले जाने काम करता है। आज और करीब 100 साल पहले की 2 प्रेम कहानियों पर बनी इस फिल्म के स्क्रीनप्ले पर काम करना चाहिए था। वहीं, अंशई लाल ने शशि की अधूरी लव स्टोरी का क्लाइमेक्स दमदार ढंग से पेश किया। वीएफएक्स वर्क कमाल का है और बेहतरीन लोकेशन पर फिल्म शूट की गई है। संगीत: फिल्म का संगीत सब्जेक्ट और माहौल पर सौ फीसदी फिट है, सभी गानों का फिल्मांकन बेहतरीन बन पड़ा है। खासकर दो गाने दम-दम और साहिबा के फिल्मांकन की जितनी भी तारीफ की जाए कम होगी। क्यों देखें: अगर आप दिलजीत दोसांझ के फैन हैं तो फिल्म बिल्कुल मिस ना करें। खूबसूरत भूतनी के वीएफएक्स इफेक्ट्स गजब के हैं। कहानी में नयापन जरूर है लेकिन अगर डायरेक्टर कुछ होमवर्क करने के बाद इस प्रोजेक्ट पर काम शुरू करते तो फिल्म शुरू से आखिर तक आपको सीट से बांधे रख पाती। | 1 |
‘शौर्य’ उन लोगों को पसंद आएगी जो आम फार्मूला फिल्मों से हटकर कुछ अलग देखना चाहते हैं।
निर्देशक :
समर खान
संगीत :
अदनान सामी
कलाकार :
राहुल बोस, मिनिषा लांबा, के.के. मेनन, दीपक डोब्रियाल, जावेद जाफरी, सीमा बिस्वास, रोजा केटेलानो, अमृता राव
सेना की पृष्ठभूमि वाली फिल्म ‘शौर्य’ एक गंभीर और विचारोत्तेजक फिल्म है। इस फिल्म के जरिये गंभीर मुद्दों को निर्देशक ने दर्शकों के सम्मुख रखा है और फैसला उनके विवेक पर छोड़ दिया है।
उन्होंने सेना और मनुष्य स्वभाव के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलुओं को दिखाया है। सेना की पृष्ठभूमि होने के बावजूद इस फिल्म में युद्ध या खून-खराबा नहीं है।
कैप्टन जावेद खान पर अपने साथी की हत्या का आरोप है और वह अपने बचाव में कुछ भी नहीं कहना चाहता है। उसका केस लड़ने का जिम्मा आकाश और सिद्धांत नामक दो दोस्तों को मिलता है। आकाश हर काम को पूरी गंभीरता से करता है, जबकि सिद्धांत और गंभीरता में छत्तीस का आँकड़ा है।
दोनों दोस्त कोर्टरूम में आमने-सामने हैं, लेकिन इससे उनकी दोस्ती पर कोई असर नहीं होता। सिद्धांत जावेद खान की तरफ से केस लड़ता है, किंतु उसे इस मामले में कोई रुचि नहीं है।
सिद्धांत की सोच बदलने का काम पत्रकार काव्या करती है, जो इस मामले की गंभीरता से उसे परिचित करवाती है। जावेद मामले का जब सिद्धांत अध्ययन करता है तो उसे उसकी चुप्पी के पीछे कई छिपे हुए राज पता चलते हैं। उसे जिंदगी में कुछ करने का मकसद मिल जाता है। जावेद की चुप्पी का राज भयावह सच के रूप में सामने आता है।
/11 के बाद प्रत्येक मुसलमान को शक की निगाह से देखा जाता है और यह फिल्म इस बात को गलत ठहराती है कि सभी मुसलमान आतंकवादी हैं। एक मुस्लिम नौकर ब्रिगेडियर प्रताप की पत्नी पर 35 बार चाकू से वार करता है, आठ वर्षीय बच्ची से बलात्कार करता है और 70 वर्षीय माँ को जिंदा जला डालता है।
इस हादसे के बाद प्रताप को हर मुसलमान अपना दुश्मन नजर आता है। सरहद पर देश की रक्षा करते हुए प्रताप अपने साथियों के साथ पद का दुरुपयोग करता है। वहीं दूसरी ओर कैप्टन जावेद जैसा मुस्लिम भी है जो इंसानियत का पक्षधर होने के साथ-साथ देशभक्त भी है।
सेना के भी अच्छे-बुरे दोनों पहलू दिखाए गए हैं। एक तरफ ब्रिगेडियर प्रताप और राठौर जैसे बुरे पात्र हैं, जो इस वर्दी की बेइज्जती कर रहे हैं, तो दूसरी जावेद, सिद्धांत और आकाश जैसे लोग हैं। लेकिन बुरा पहलू कुछ ज्यादा उभरकर सामने आता है।
फिल्म के आखिर में निर्देशक ने अखबारों में सैनिकों के बारे में छपे अच्छे-बुरे शीर्षकों को भी दिखाया है। जिसमें जहाँ एक ओर उन्हें देश की रक्षा करने के लिए सलाम किया गया है वहीं दूसरी ओर उन्होंने बलात्कार जैसे घिनौने काम भी किए हैं।
निर्देशक समर खान ने कहानी को उम्दा तरीके से पेश किया है। हल्के-फुल्के अंदाज में शुरू हुई फिल्म में धीरे-धीरे तनाव बढ़ने लगता है और जबरदस्त क्लाइमैक्स के साथ फिल्म समाप्त होती है। फिल्म का क्लाइमैक्स हिलाकर रख देता है और दर्शक इस उधेड़बुन में खो जाता है कि क्या सही है और क्या गलत?
जयदीप सरकार, अपर्णा मल्होत्रा और समर खान द्वारा मिलकर लिखी गई कथा और पटकथा बेहद प्रभावशाली है। अपर्णा मल्होत्रा के संवाद इस फिल्म की जान हैं। सिर्फ संवादों के जरिये ही चरित्र की मानसिकता पता चल जाती है और चरित्र की स्थापना के लिए निर्देशक को विशेष मेहनत नहीं करनी पड़ती। संवादों में कई गहरे अर्थ छिपे हुए हैं।
अभिनेताओं ने भी निर्देशक का काम आसान कर दिया है। राहुल बोस का अभिनय देखना हमेशा आनंददायक रहता है। हल्के-फुल्के दृश्यों में तो वे कमाल कर देते हैं। फिल्म के अंतिम मिनटों में केके मेनन का अभिनय दर्शकों को स्तब्ध कर देता है। शुक्र है कि जावेद जाफरी ने ओवर एक्टिंग नहीं की। दीपक डोब्रियाल, मिनिषा लांबा, सीमा बिस्वास और छोटे रोल में अमृता राव ने भी अपना काम बखूबी निभाया है।
अदनान सामी का संगीत फिल्म के मूड के अनुरूप है। रोजा केटेलानो पर फिल्माया गया गाना चंद मिनट का है और उसमें अभिनेता पवन मल्होत्रा भी दो सेकंड के लिए नजर आए। कार्लोस केटेलान की सिनेमाटोग्राफी बेहतरीन है। लाइट, शेड और रंगों का उन्होंने अच्छा उपयोग किया है।
‘शौर्य’ उन लोगों को पसंद आएगी जो आम फार्मूला फिल्मों से हटकर कुछ अलग देखना चाहते हैं।
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टॉयलेट- एक प्रेम कथा में निर्देशक श्री नारायण सिंह ने गांव में शौचालय की शोचनीय स्थिति पर फिल्म बनाई थी। अब उन्होंने बिजली समस्या और बिजली के बढ़े हुए बिलों का मुद्दा 'बत्ती गुल मीटर चालू' में उठाया है। इस मुद्दे के साथ उन्होंने प्रेम-त्रिकोण और दोस्ती/दुश्मनी का चिर-परिचित फॉर्मूला भी डाला है। मनोरंजन और सोशल इश्यु का यह मेल इस बार काम नहीं कर पाया है।
टिहरी (उत्तराखंड) में रहने वाले सुशील कुमार उर्फ एसके (शाहिद कपूर), ललिता नौटियाल (श्रद्धा कपूर) और सुंदर मोहन त्रिपाठी (द्वियेंदु शर्मा) बहुत अच्छे दोस्त हैं। एसके एक छोटा-मोटा वकील है। ललिता फैशन डिजाइनर है। सुंदर लोन लेकर प्रिंटिंग प्रेस खोलता है। ललिता को दोनों चाहते हैं। ललिता को दोनों में से एक को चुनना है। दोनों ललिता के साथ एक सप्ताह बारी-बारी से डेटिंग करते हैं और आखिरकार सुंदर को ललिता चुन लेती है। इस बात का एसके को बहुत बुरा लगता है।
सुंदर की प्रिटिंग प्रेस का बिजली का बिल 54 लाख रुपये आ जाता है। वह बिजली विभाग के चक्कर लगाता है, लेकिन कोई हल नहीं निकलता। बिजली काट दी जाती है और इससे उसका नुकसान होने लगता है। वह एसके से मदद मांगता है, लेकिन जला-भुना एसके मदद नहीं करता। इस प्रेम- त्रिकोण का क्या होता है? सुंदर 54 लाख रुपये के बिल से कैसे छुटकारा पाता है? यह फिल्म का सार है।
सिद्धार्थ-गरिमा ने मिलकर यह फिल्म लिखी है। इन लोगों ने पहले मुद्दा सोचा और फिर उस पर कहानी बनाई। कहने को इनके पास ज्यादा कुछ नहीं था, इसलिए प्रेम-त्रिकोण और दोस्ती-दुश्मनी वाला एंगल फिल्म में डाला, जो केवल फिल्म की लंबाई बढ़ाने के काम आता है। फिल्म में ऐसे कई दृश्य हैं जो निहायत ही फालतू हैं और इनका फिल्म से कोई लेना-देना नहीं है।
जैसे फिल्म की शुरुआत में जलते टायर के बीच से निशाने पर तीर लगाने की प्रतियोगिता, जो सिर्फ शाहिद को हीरो के रूप में स्थापित करने के लिए है, लेकिन फिल्म से कोई खास ताल्लुक नहीं रखता। श्रद्धा को देखने आने वाला लड़के का दृश्य, श्रद्धा-शाहिद के बीच विवाद होने के बाद शाहिद से श्रद्धा के मिलने जाने वाला सीन जैसे कई दृश्य हैं जो बेमतलब के हैं।
सुंदर-ललिता-एसके की कहानी बस में एक मुसाफिर दूसरे को सुनाता है। ये भी बीच-बीच में आते रहते हैं। ये ट्रैक निहायत ही उबाऊ है और सिर्फ फिल्म की लंबाई बढ़ाता है।
फिल्म का असल मुद्दा है 'बिजली प्रदान करने वाली कंपनी का भ्रष्टाचार', लेकिन यह मुद्दा भी बेहद ही हौले से छुआ गया है। बिजली की मांग और उत्पादन में होने वाले अंतर, बिजली की चोरी, बिजली विभाग के कर्मचारी और उद्योगपति में सांठ-गांठ जैसी कई मुद्दों के बारे में बात ही नहीं की गई।
54 लाख के बिल का मुद्दा जब अदालत में जाता है तब भी फिल्म में गंभीरता नहीं आती। मनोरंजन के नाम पर अदालत वाले सीन हल्के हैं। साथ ही यह मुद्दा इतनी आसानी से सुलट जाता है कि आप हक्के-बक्के रह जाते हैं। लेखकों ने सारी सहूलियत लेते हुए कोर्ट रूम ड्रामा लिखा है।
फिल्म में कई बातों को अधूरा छोड़ दिया गया है। जैसे- शाहिद के पिता फिर से शादी करना चाहते हैं, इस बात को बाद में भूला ही दिया गया।
कहने का मतलब यह है कि फिल्म का लेखन बेहद कमजोर है। न तो मुद्दा ठीक से उठाया गया है और न ही फिल्म को मनोरंजक बनाया गया है। फिल्म के सारे किरदार इतना ज्यादा बोलते हैं और इतने लाउड हैं कि कान पक जाते हैं। ऐसा लगता है कि फिल्म की बजाय रेडियो पर नाटक सुन रहे हैं।
फिल्म में लोकल फ्लेवर डालने के लिए कुमाऊं भाषा का खूब प्रयोग किया गया है जिससे इस भाषा को न समझने वालों को संवाद समझने में तकलीफ होती है। खासतौर पर फिल्म के पहले घंटे में इनका इस्तेमाल बहुत ज्यादा है। 'ठहरा' और 'बल' शब्दों का हद से ज्यादा प्रयोग किया गया है।
निर्देशक के रूप में श्री नारायण सिंह प्रभावित नहीं कर पाए। वे समझ ही नहीं आए कि फिल्म को कहां गंभीर रखना है। साथ ही वे फिल्म के एडिटर भी हैं इसलिए फिल्म को छोटा करने का साहस भी नहीं जुटा पाए। 2 घंटे 55 मिनट की यह फिल्म बेहद लंबी है जबकि कहने के लिए निर्देशक और लेखक के पास पर्याप्त मसाला ही नहीं था।
शाहिद कपूर का अभिनय ठीक-ठाक है। खुद के किरदार को 'चलता-पुर्जा' दिखाने में वे कई बार कुछ ज्यादा ही बहक गए। श्रद्धा कपूर और द्वियेन्दु शर्मा का अभिनय ठीक है, लेकिन आधी फिल्म के बाद इन्हें भूला ही दिया गया है। यामी गौतम को कमजोर संवाद मिले ताकि उनके सामने शाहिद कपूर भारी वकील लगे। फरीदा जलाल और सुप्रिया पिलगांवकर ने यह फिल्म क्यों की, समझ के परे है। सुधीर पांडे, समीर सोनी के पास करने के लिए ज्यादा कुछ नहीं था।
फिल्म का संगीत अच्छा है। 'गोल्ड तांबा' और 'हर हर गंगे' अच्छे बन पड़े हैं। गीतों को अच्छा लिखा गया है, लेकिन इनका फिल्मांकन खास नहीं है। फिल्म की सिनेमाटोग्राफी और अन्य तकनीकी पक्ष औसत दर्जे के हैं।
बैनर : टी-सीरिज़ सुपर कैसेट्स इंडस्ट्री लि.
निर्माता : नितिन चंद्रचूड़, श्री नारायण सिंह, कुसुम अरोरा, निशांत पिट्टी, कृष्ण कुमार, भूषण कुमार
निर्देशक : श्री नारायण सिंह
संगीत : अनु मलिक, संचेत टंडन, परम्परा बैंड, नुसरत फतेह अली खान, रोचक कोहली
कलाकार : शाहिद कपूर, श्रद्धा कपूर, यामी गौतम, दिव्येंदु शर्मा, फरीदा जलाल, सुधीर पांडे, सुप्रिया पिलगांवकर
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 55 मिनट 35 सेकंड
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Chandermohan.sharma@timesgroup.com इस हफ्ते रिलीज हुई 'द लेजेंड ऑफ टारजन' ने भारतीय बाजार में रिलीज़ डेट से पहले ही अपना क्रेज बना चुकी है। फिल्म की प्रॉडक्शन कंपनी वॉर्नर ब्रदर्स को इस फिल्म के लिए इंडियन मार्केट से ही जब अच्छी-खासी प्राइस ऑफर हुई तो उन्होंने दिल्ली, यूपी में अपना डिस्ट्रिब्यूशन ऑफिस होने के बावजूद अपने ऑफिस से फिल्म को रिलीज करने की बजाय दूसरी कंपनी को डिस्ट्रिब्यूशन का जिम्मा दे दिया। फिल्म को यूएसए सहित दूसरे देशों के साथ ही देश में इस शुक्रवार को रिलीज किया। थ्रीडी और आइमैक्स तकनीक पर बनी इस फिल्म के प्रति दर्शकों के जबर्दस्त क्रेज़ को देखते हुए कंपनी ने फिल्म को अंग्रेजी, हिंदी के अलावा साउथ में तमिल तेलुगू में भी एक साथ रिलीज किया। कहानी : कभी कोंगो के घने जंगलों में रहने वाला टारजन (अलेग्जेंडर स्कार्सगार्ड) अब इन जंगलों को छोड़कर शहर में जॉन क्लेटन लॉर्ड ग्रेस्टोक के नाम से अपनी खूबसूरत वाइफ जेन (रॉबी) के साथ शराफत की जिंदगी जी रहा है। अचानक क्लेटन उर्फ टारजन को एक दिन संसद के बिज़नस राजदूत की हैसियत से एकबार फिर कोंगो जाने का न्योता मिलता है। क्लेटन इस बार अकेले ही कॉन्गो जाना चाहता है, लेकिन जब जेन भी उसके साथ चलने की जिद करती है, तो वह इनकार नहीं कर पाता। टारजन और जेन को खुशी है कि वह एकबार फिर कॉन्गो में अपने बिछड़ों के साथ कुछ दिन गुजार सकेंगे। इन दोनों को नहीं मालूम कि वह एक ऐसी साजिश और बर्बादी की साजिश का मोहरा बन रहे हैं, जिसे बेल्जियन और लोओन रोम (वॉल्ट्ज) ने रचा है। दूसरी ओर इन लोगों को भी नहीं मालूम कि आने वाले वक्त में उनका सामना किस से होगा। फिल्म के साथ एक नहीं, कई ऑस्कर विनर के नाम जुड़े हैं। 'आइरिस' के लिए ऑस्कर हासिल कर चुके जिम ब्रॉडबैंट और 'इनग्लोरिअस बास्टर्ड' और 'जैंगो अन्चेंज्ड' के लिए ऑस्कर हासिल कर चुके क्रिस्टफ वॉल्ट्ज इस फिल्म के साथ जुड़े हैं। 'हैरी पॉटर' सीरीज की आखिरी चार फिल्में डायरेक्ट कर चुके डेविड येट्स ने इस फिल्म को लेटेस्ट तकनीक और कम्प्यूटर ग्राफिक्स के दम पर अपनी पिछली फिल्मों से आगे ले जाने की अच्छी कोशिश की है। थ्री डी तकनीक में जंगल में वॉर के सीन्स के अलावा समुद्री बोट पर जंगल के सैकड़ों जानवरों के साथ टारजन के अटैक सीन का जवाब नहीं। फिल्म की शुरुआत कुछ धीमी रफ्तार से होती है। खासकर बंद कमरों में टारजन के साथ बैठकों के सीन कुछ ज्यादा ही लंबे हो गए हैं, लेकिन आखिरी पंद्रह मिनट की फिल्म का जवाब नहीं। घने जंगलों में आसमां को छूते पहाड़ों, झरनों और पेड़ों के ऊपर से रस्सी के बल पर टारजन का अपनी मदद के लिए जंगल में अपने दोस्त जानवरों को एकत्र करने वाला सीन इस फिल्म की यूएसपी है। जंगल में खूंखार शेरों के साथ टारजन लाड़-प्यार का सीन गजब बन पड़ा है। बेशक फिल्म की कहानी और क्लाइमैक्स कुछ कमजोर है, लेकिन अडवेंचर और कुछ नया देखने वाले दर्शकों की क्लास पर 'टारजन' खरा उतरने का दम रखती है। इस वीकेंड पर जब नई फिल्मों की भीड़ में ऐेसी कोई फिल्म नहीं, जिसे फैमिली के साथ देखा जा सके तो आप टारजन से मिलने की प्लानिंग कर सकते हैं। | 0 |
कुल मिलाकर ‘मि.व्हाइट और मि. ब्लैक’ मि.जीरो साबित होते हैं।
निर्देशक :
दीपक शिवदासानी
संगीत :
जतिन-ललित, शमीर टंडन, तौसिफ अख्तर
कलाकार :
सुनील शेट्टी, अरशद वारसी, संध्या मृदुल, महिमा मेहता, रश्मि निगम, अनिष्का खोसला, आशीष विद्यार्थी
* यू/ए * 16 रील
’मि.व्हाइट मि. ब्लैक’ चूके हुए लोगों की फिल्म है। दीपक शिवदासानी ने वर्षों पहले कुछ सफल फिल्में बनाई थीं। बदलते दौर के साथ वे अपने आपको नहीं बदल पाए और उनकी यह फिल्म भी उसी दौर की लगती है।
फिल्म के नायक सुनील शेट्टी और अरशद वारसी का सफर नायक के रूप में कब का समाप्त हो गया है। इन दिनों वे चरित्र भूमिकाएँ निभाते हैं। इन चूके हुए अभिनेताओं को फिल्म का नायक बनाया गया है। इनकी नायिका कौन बनना चाहेगी? इसलिए कुछ फ्लॉप अभिनेत्रियों को इनके साथ पेश किया गया है।
फिल्म के लेखक ने सारे चूके हुए फार्मूलों को फिर से आजमाया है। हँसाने के लिए दो नायक, एक बेवकूफ डॉन, मूर्ख पुलिस ऑफिसर, हीरों की चोरी और कुछ जोकरनुमा चरित्र। इन सभी को लेकर सारे तत्व हँसाने के लिए डाले गए हैं। अफसोस की बात यह है कि उनकी इतनी मेहनत के बावजूद एक बार भी हँसी नहीं आती।
किशन (अरशद वारसी) की तलाश में होशियारपुर से गोपी (सुनील शेट्टी) गोवा आता है। वह किशन को होशियारपुर ले जाना चाहता है ताकि उसे जमीन देकर वह अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाए।
किशन एक चलता-पुर्जा इंसान है। लोगों को बेवकूफ बनाकर और चोरी कर वह अपना खर्चा चलाता है। वह गोपी के साथ जाने से इंकार कर देता है। केजी रिसोर्ट के मालकिन की बेटी गोपी की अच्छी दोस्त बन जाती है।
तीन लड़कियाँ पच्चीस करोड़ रुपए के हीरे चुराकर केजी रिसोर्ट में छिप जाती है। जब यह बात किशन को पता चलती है तो वह उन हीरों को चुराने के लिए केजी रिसोर्ट जाता है और उसके पीछे-पीछे गोपी।
कई उपकथाएँ शुरू हो जाती हैं और ढेर सारे चरित्र कहानी में शामिल हो जाते हैं। सभी हीरों के पीछे लग जाते हैं। इस तरह की कहानी हाल ही में परदे पर कई बार दिखाई जा चुकी है।
दीपक शिवदासानी की कहानी मध्यांतर के बाद अपना सारा असर खो देती है। दीपक और पटकथा लेखक संजय पंवार और निशिकांत कामत ने ढेर सारे चरित्र कहानी में डाल तो दिए हैं, किंतु बाद में उन्हें समझ में नहीं आया कि इन सबको समेटा कैसे जाए। फिल्म के क्लाइमैक्स में भी नयापन नहीं है।
हीरे चुराने वाली लड़कियों की क्या पृष्ठभूमि है? किशन को गोपी होशियारपुर क्यों ले जाना चाहता है, ये स्पष्ट नहीं किया गया। जबकि यह कहानी का अहम हिस्सा है। कहानी और पटकथा ऐसी है कि ढेर सारे प्रश्न दिमाग में आते हैं, जिनका उत्तर देने की जवाबदारी निर्देशक और लेखक महाशय ने नहीं समझी।
निर्देशक दीपक शिवदासानी ने फिल्म को स्टाइलिश लुक देने की असफल कोशिश की। कमजोर पटकथा की वजह से भी वे ज्यादा कुछ नहीं कर पाए। फिल्म चार वर्ष में बनी है और इसका असर नजर आता है।
सुनील शेट्टी और अरशद वारसी को भी समझ में आ गया था कि फिल्म में दम नहीं है, इसलिए उन्होंने बेमन से अपना काम किया है। सुनील शेट्टी को ज्यादा अवसर नहीं मिले हैं। शरत सक्सेना, मनोज जोशी, आशीष विद्यार्थी, अतुल काले, उपासना सिंह, सदाशिव अमरापुरकर ने हँसाने की असफल कोशिश की है।
फिल्म की नायिकाएँ (रश्मि निगम, अनिष्का खोसला, महिमा मेहता) न दिखने में सुंदर हैं और न ही उन्हें अभिनय करना आता है। संध्या मृदुल ने पता नहीं क्या सोचकर यह फिल्म में काम करना मंजूर किया। गीत-संगीत औसत है और तकनीकी रूप से फिल्म कमजोर।
निर्माता :
बिपिन शाह
कुल मिलाकर ‘मि.व्हाइट और मि. ब्लैक’ मि.जीरो साबित होते हैं।
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सरकार 2005 में प्रदर्शित हुई थी और सरकार राज 2008 में। नौ वर्ष बाद उन्होंने तीसरा भाग बनाया है, लेकिन ढंग की कहानी भी नहीं चुन पाए। केवल सरकार सीरिज की लोकप्रियता को भुनाने की कोशिश उन्होंने की है कि इसी बहाने कुछ दर्शक उनकी फिल्म को मिल जाए।
सरकार सीरिज की पिछली दो फिल्मों में जो तनाव, तिकड़मबाजी, राजनीति और गुंडागर्दी दिखाई गई थी वो तीसरे भाग में नदारद है। पूरा ड्रामा अत्यंत ही उबाऊ है और परदे पर चल रहे घटनाक्रम में जरा भी रूचि पैदा नहीं होती। उम्मीद की जानी चाहिए कि यह इस सीरिज की आखिरी फिल्म होगी।
सुभाष नागरे (अमिताभ बच्चन) उर्फ सरकार की कहानी को आगे बढ़ाया गया है। सरकार के बढ़ते प्रभाव से उनके कई दुश्मन भी पैदा हो जाते हैं। वे अपने दम पर सरकार का बाल भी बांका नहीं कर पाते तो एकजुट हो जाते हैं। इनके साथ सरकार का पोता चीकू (अमित सध) भी मिल जाता है जो अपने पिता की मौत का दोषी सरकार को पाता है।
इस थकी-मांदी कहानी में कुछ भी नया नहीं है। लचर कहानी का स्क्रीनप्ले भी लचर है। किस तरह कहानी को आगे बढ़ाया जाए यह स्क्रिप्ट राइटर्स को सूझा ही नहीं। सरकार के विरोधी ज्यादातर समय सिर्फ प्लान बनाते रहते हैं और कुछ करते ही नहीं। उनकी बातें ऊब पैदा करती है। ऐसा लगता है कि यह सब क्यों हो रहा है? कहने को तो यह थ्रिलर फिल्म है, लेकिन इसमें जरा भी थ्रिल नहीं है। हो सकता है कि आप ऊंघने भी लगे।
रामगोपाल वर्मा निर्देशक के रूप में बुरी तरह निराश करते हैं। उनका प्रस्तुतिकरण बेहद सतही है। लगता ही नहीं कि किसी अनुभवी निर्देशक ने इस फिल्म को निर्देशित किया है। साधारण दृश्यों को बेहद ड्रामेटिक तरीके से पेश किया गया है मानो उस सीन में बहुत बड़ी बात हो गई हो। फिल्म की लंबाई बढ़ाने के लिए कुछ सीनों को च्युइंगम की तरह खींचा गया है।
इस फिल्म को देख कर अमिताभ बच्चन से पूछा जा सकता है कि उन्होंने यह फिल्म क्यों की? उनके अभिनय में दोष नहीं है, दोष फिल्म के चयन में है। उनकी सारी मेहनत व्यर्थ गई है। अमित सध को बड़ा अवसर मिला है। उनका अभिनय ठीक है, लेकिन उनकी स्टार वैल्यू नहीं होने के कारण वे मिसफिट लगते हैं। यामी गौतम, रोहिणी हट्टंगडी और मनोज बाजपेयी से भी सवाल पूछा जा सकता है कि इतने महत्वहीन रोल करने के पीछे उनकी क्या मजबूरी थी? जैकी श्रॉफ ने बोर करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी है। दाढ़ी, गॉगल और दुपट्टे में वे चेहरा छिपाकर अपने अभिनय की कमजोरी को ढंकते रहते हैं।
फिल्म की सिनेमाटोग्राफी कमजोर है। बेवजह अजीब से कोणों से फिल्म को शूट किया गया है। बैकग्राउंड म्युजिक बेहद लाउड है।
सरकार 3 देखने की बजाय रामगोपाल वर्मा के ट्वीट्स पढ़ लीजिए। वो ज्यादा मजेदार होते हैं।
बैनर : एलम्बरा एंटरटेनमेंट, इरोस एंटरटेनमेंट, वेव सिनेमा, एबी कॉर्प
निर्माता : सुनील ए. लुल्ला, राहुल मित्रा, आनंद पंडित, गोपाल शिवराम दलवी, कृष्ण चौधरी
निर्देशक : रामगोपाल वर्मा
संगीत : रवि शंकर, निलाद्री कुमार
कलाकार : अमिताभ बच्चन, मनोज बाजपेयी, यामी गौतम, जैकी श्रॉफ, अमित सध, रोनित रॉय, रोहिणी हट्टंगड़ी सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 12 मिनट 2 सेकंड
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दम लगा के हईशा ऋषिकेश मुखर्जी और बासु चटर्जी का सिनेमा याद दिलाती है। इन महान निर्देशकों की फिल्में बहुत ही सरल और हल्की-फुल्की हुआ करती थीं। 'दम लगा के हईशा' के किरदार अत्यंत सहज है जो जिंदगी को छोटी-मोटी परेशानियों से अपने स्तर पर जूझ रहे हैं।
हरिद्वार में प्रेम (आयुष्मान खुराना) अपने पिता के साथ प्रेम ऑडियो एंड वीडियो सेंटर चलाता है जहां कैसेट्स बेची जाती हैं और गाने रिकॉर्ड किए जाते हैं। प्रेम अपने पिता से बेहद डरता है और अंग्रेजी में कमजोर होने के कारण दसवीं कई प्रयास के बावजूद पास नहीं कर पाया। शादी की उसकी उम्र हो गई है। संध्या (भूमि पेडनेकर) नामक लड़की प्रेम के पिता को पसंद आ जाती है और वे पर दबाव डालकर प्रेम की शादी संध्या से करवा देते हैं।
संध्या को प्रेम पसंद नहीं करता क्योंकि वह बहुत मोटी है। प्रेम से संध्या होशियार है। बीएड कर चुकी है। संध्या का प्रेम एक बार दोस्तों के आगे अपमान कर देता है तो वह घर छोड़ कर चली जाती है। तलाक के लिए आवेदन कर देती है। अदालत दोनों को साथ में 6 महीने रहने को कहती है। इसी बीच वे एक प्रतियोगिता में हिस्सा लेते हैं जिसमें पत्नी को पीठ पर लाद कर पति रेस में हिस्सा लेता है। यह रेस दोनों की दूरियां मिटा देती है।
कहानी 1995 की है। जब कुमार सानू के गाने गली-गली गूंजते थे। ऑडियो कैसेट्स का प्रचलन था। लोग कैसेट्स खरीदने के बजाय अपने पसंदीदा गाने रिकॉर्ड करवाते थे। वीसीआर पर फिल्में देखी जाती थीं। इस माहौल को निर्देशक और लेखक शरत कटारिया ने बेहतरीन तरीके से पेश किया है। छोटे-छोटे डिटेल्स का ध्यान रखा है। संवादों में भी उस दौर के झलक मिलती है। बैकग्राउंड म्युजिक में 'मिले सुर मेरा तुम्हारा' सुनने को मिलता है जो उस दौर में दूरदर्शन पर बहुत दिखाया जाता था।
एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार की जीवनशैली का भी बारीकी से चित्रण किया गया है। घर के कमरे कुछ इस तरह के होते थे कि दूसरे कमरे में क्या हुआ है ये बाहर वाले जान लेते हैं। इसकी मिसाल एक सीन में मिलती है जब प्रेम और संध्या के कमरे से आती आवाज सुन कर प्रेम की मां कहती है कि उनका बेटा सयाना हो गया है।
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फिल्म में इस तरह के कई बेहतरीन दृश्य हैं। लाइब्रेरी में जाकर दबी आवाज में संध्या और प्रेम का विवाद करना तथा ऑडियो कैसेट्स बदल-बदल कर गानों के जरिये लड़ने वाले सीन मनोरंजक हैं।
प्रेम की मनोस्थिति को भी अच्छे तरीके से दिखाया गया है। वह दिल का अच्छा है। संध्या का दिल नहीं दुखाना चाहता है, लेकिन उसके मोटापे पर वह शर्मिन्दा होता है। उसे दोस्तों और लोगों की फिक्र रहती है कि वे उसकी मोटी बीवी के बारे में क्या सोचते हैं। एक सीन उसकी मनोदशा को अच्छी तरह दिखाता है। स्कूटर पर संध्या और प्रेम जाते हैं। संध्या का सैंडल गिर जाता है। प्रेम के चेहरे पर नाराजगी झलकती है, लेकिन वह जाकर सैंडल लेकर आता है, जिससे साबित होता है कि वह संध्या को पसंद भी करता है। संध्या और प्रेम के माता-पिता वाले दृश्य भी उम्दा हैं।
फिल्म के क्लाइमेक्स में प्रेम-संध्या की जीत न भी दिखाई जाती तो भी बात बन सकती थी। यह जीत स्वाभाविक नहीं लगती। अच्छी बात यह है कि इस प्रतियोगिता पर ज्यादा फुटेज खर्च नहीं किए गए। इसी तरह संध्या के तलाक लेने वाला निर्णय चौंकाता है। यह बात ठीक है कि प्रेम उसका अपमान करता है, लेकिन बात इतनी बड़ी भी नहीं थी कि तलाक ले लिया जाए। चूंकि स्क्रीनप्ले मनोरंजक है कि इसलिए ये कमियां नहीं अखरती हैं।
निर्देशक के रूप में शरत कटारिया प्रभावित करते हैं। उनके काम की ईमानदारी परदे पर झलकती है। फिल्म को उन्होंने बैलेंस रखा और कही भी जरूरत से ज्यादा इमोशन थोपने की कोशिश नहीं की। फिल्म की प्रोडक्शन डिजाइन टीम प्रशंसा की हकदार है जिन्होंने फिल्म को विश्वसनीय बनाया।
आयुष्मान खुराना और भूमि पेडनेकर की जोड़ी बेमेल है, लेकिन उनकी केमिस्ट्री बेहतरीन रही। निखट्टू, निरुरद्देश्य तथा पिता से डरने वाले किरदार को आयुष्मान ने विश्वसनीय बनाया। भूमि पेडनेकर का आत्मविश्वास देखने लायक है और वे अपने किरदार में पूरी तरह डूबी नजर आई। संजय मिश्रा सहित फिल्म के तमाम कलाकारों का काम प्रशंसा के योग्य है।
'दम लगा के हईशा' को देखने के लिए टिकट खरीदा जा सकता है।
बैनर : यशराज फिल्म्स
निर्माता : मनीष शर्मा
निर्देशक : शरत कटारिया
संगीत : अनु मलिक
कलाकार : आयुष्मान खुराना, भूमि पेडनेकर, संजय मिश्रा
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 1 घंटा 51 मिनट
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हेट स्टोरी सीरिज का तीखापन और बोल्डनेस अब कम होती जा रही है। इस सीरिज की फिल्में अब महिला अत्याचार पर बातें करे तो हंसी आना स्वाभाविक है क्योंकि इन फिल्मों की कहानी का आधार ही महिला के जिस्म के इर्दगिर्द घूमता है।
हेट स्टोरी 4 के अंत में कुछ आंकड़े दिखाए गए हैं कि हमारे देश में इतना महिलाओं पर अत्याचार होता है। इसके पहले फिल्म की दो हीरोइनों कम कपड़ों में इस तरह दिखाया गया है कि दर्शकों को रिझाया जा सके। यानी कुछ भी चिपकाया जा रहा है।
हेट स्टोरी की कहानी दो लम्पट भाइयों राजवीर (करण वाही) और आर्यन (विवान भटेना) की है। ताशा (उर्वशी रौटेला) मॉडलिंग की दुनिया में बड़ा नाम कमाना चाहती है और उसकी खूबसूरती से प्रभावित होकर राजवीर उसकी मदद करता है। आर्यन की निगाह भी ताशा पर है जिसकी पहले से ही गर्लफ्रेंड है। ताशा को राजवीर मोहब्बत करता है जबकि आर्यन का इरादा सिर्फ रात बिताने का है। कहानी में ट्विस्ट तब आता है जब आर्यन की गर्लफ्रेंड की मौत हो जाती है। इसके बाद कुछ राज खुलते हैं जो बेहद बचकाने हैं।
लड़कियों को देख लार टपकाने वाला राजवीर का जब मोहब्बत में देवदास जैसा हाल हो जाता है तो हंसी ही छूटती है। ताशा का किरदार तो और भी कन्फ्यूजिंग है। वो दोनों भाइयों को बड़ी आसानी से मूर्ख बनाती रहती है। ये भाई न केवल भारत में बल्कि इंग्लैंड में भी मर्डर कर बड़ी आसानी से घूमते रहते हैं।
सीधी-सादी मध्यमवर्ग की लड़की ताशा के पास इतना पैसा कहां से आ गया कि वह इंग्लैंड पहुंच कर बड़ी आसानी से अपने मिशन को कामयाब करती है। और भी स्क्रिप्ट में कई छेद हैं जो फिल्म की हवा निकाल देते हैं।
फिल्म के तीनों नॉन एक्टर्स को इतने भारी-भरकम डॉयलॉग्स दिए हैं कि उनका बोझ उनसे उठाए नहीं बनता। कई बार उच्चारण गलत किए हैं। फिल्म को मॉडर्न लुक देने के लिए कई संवाद अंग्रेजी में रखे गए हैं और उनके सबटाइटल हिंदी में दिए गए हैं ताकि अंग्रेजी न समझने वाले हिंदी पढ़ कर समझ सके। यहां हिंदी लिखने में कई गलतियां की गई हैं। इतनी जद्दोजहद से तो बेहतर है कि सरल हिंदी में ही संवाद रखे जाते।
विशाल पंड्या का निर्देशन भी कमजोर है। लोकेशन, सेट और कलाकारों को तो स्टाइलिस्ट तरीके से पेश किया है, लेकिन उनका प्रस्तुतिकरण कमजोर है। बात को उन्होंने बहुत लंबा खींचा है। इंटरवल के बाद तो 'द एंड' का ही इंतजार रहता है। बदले वाली बात को वे ठीक से दर्शा नहीं पाए। दर्शकों को उन्होंने खूब चौंकाने की कोशिश की है, लेकिन पकड़ने वाले तो बहुत पहले ही जान जाते हैं कि आगे क्या होने वाला है। वे फिल्म में थ्रिल पैदा नहीं कर पाए और लॉजिक को किनारे पर रख दिया।
अभिनय के मामले में भी यह फिल्म कंगाल है। उर्वशी रौटेला को सेंट्रल कैरेक्टर मिला है। वे खूबसूरत लगी हैं, लेकिन अभिनय के मामले में उन्हें बहुत कुछ सीखना पड़ेगा। ड्रामेटिक सीन में तो उनसे कुछ करते ही नहीं बनता। विवान भटेना के चेहरे पर हमेशा गुस्से वाला भाव ही रहता है। रोमांस करते समय में भी वे गुस्से से भरे लगते हैं। फिल्म की वे सबसे कमजोर कड़ी साबित हुए हैं। करण वाही भी प्रभावित नहीं करते। इन दोनों कमजोर कलाकारों से अच्छा काम कर वे जरूर खुश हो सकते हैं।
गुलशन ग्रोवर की तो ऐसे एंट्री की गई कि फिल्म में उनका रोल बहुत महत्वपूर्ण होगा, लेकिन वे सिर्फ गरजते ही रहे। इहाना ढिल्लो को ग्लैमर बढ़ाने के लिए रखा गया।
सनी-इंदर का बैकग्राउंड म्युजिक बेहद लाउड है। गानों के नाम पर पुराना गीत 'आशिक बनाया आपने' ही ठीक-ठाक है बाकी गाने तो फिल्म देखते समय अखरते हैं।
कुल मिलाकर 'हेट स्टोरी 4' से हेट करने के कई कारण हैं।
बैनर : टी-सीरिज़ सुपर कैसेट्स इंडस्ट्री लि.
निर्माता : भूषण कुमार, कृष्ण कुमार
निर्देशक : विशाल पंड्या
संगीत : मिथुन, आर्को प्रावो मुखर्जी, तनिष्का बागची, टोनी कक्कड़
कलाकार : उर्वशी रौटेला, करण वाही, विवान भटेना, गुलशन ग्रोवर, इहाना ढिल्लो
सेंसर सर्टिफिकेट : केवल वयस्कों के लिए * 2 घंटे 10 मिनट 41 सेकंड
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पिछले कुछ अर्से से इंडियन मार्केट में हॉलिवुड स्टूडियो की मेगा बजट मल्टिस्टारर फिल्मों का बिज़नस लगातार बढ़ रहा है। शायद यही वजह है कि कुछ साल पहले तक यूरोप सहित दूसरे देशों में रिलीज होने के बाद ही हॉलिवुड के नंबर वन स्टूडियो की फिल्में यहां आती थीं, लेकिन अब यह नजारा पूरी तरह बदल चुका है। अक्सर अब हॉलिवुड स्टूडियो की चर्चित फिल्में यूएसए में रिलीज़ होने से पहले भारत में रिलीज होने लगी हैं। वार्नर ब्रदर्स ने अपनी इस फिल्म को देश-विदेश में एकसाथ रिलीज किया है। अगर इंडियन बॉक्स ऑफिस की बात करें तो यहां बरसों से डरावने भयावह राक्षसों और धरती पर कभी दिखाई न देने वाले अकल्पनीय जीवों के ऐक्शन सीन वाली फिल्में सिंगल स्क्रीन्स के साथ-साथ मल्टिप्लेक्सों में भी अच्छा बिज़नस करती हैं। इस फिल्म के क्रेज का अंदाज आप इसी से लगा सकते हैं कि फिल्म का ट्रेलर जब यूट्यूब पर आया तो पहले ही दिन करीब 19 लाख लोगों ने इसे देखा। करीब 17 हजार लोगों ने इसे लाइक भी किया। कहानी : इस फिल्म की कहानी का प्लॉट 70 के दशक का है। टॉम हिडलस्टन एक ऐसे टापू का सौदा करते हैं, जिसके बारे में उसे ज्यादा कुछ मालूम नहीं है। टॉम के द्वारा किए गए इस सौदे में इस बात का कहीं जिक्र तक नहीं है कि एक भयावह राक्षस बरसों से इस टापू पर राज कर रहा है। यहीं से शुरू होता है एक ऐसी जांबाज टीम का ऐक्शन, जिसमें सैनिक हैं, साइंटिस्ट हैं। वे इस बेहद खतरनाक टापू पर जाते हैं, जहां इन सभी का सामना ऐसे दैत्यकारी, खूंखार जीवों के साथ होता है, जिसकी उन्होंने कल्पना तक नहीं की थी। दिल्ली-एनसीआर में यह फिल्म हिंदी आइमैक्स तकनीक के अलावा 3-D और 2-D तकनीक में भी रिलीज हुई है। सुनसान वीरान टापू पर इस टीम की दैत्यकारी जीव के साथ भिड़ंत के सीन इस फिल्म की सबसे बड़ी यूएसपी है। डायरेक्टर ने करीब 1.27 अरब के मोटे बजट में फिल्म के आइमैक्स और 3-D सीन को बेहतरीन बनाने पर बजट का करीब 70 फीसदी हिस्सा खर्च किया है। क्यों देखें : अगर आपको गॉडजिला और किंग कॉन्ग जैसी ऐक्शन थ्रिलर फिल्में पसंद हैं, तो कॉन्ग आपको यकीनन पसंद आएगी। फिल्म को इंजॉय करना चाहते हैं, तो इसे आइमैक्स या 3-D तकनीक में ही देखें। | 0 |
बैनर :
आमिर खान प्रोडक्शन्स
निर्माता :
आमिर खान, किरण राव
निर्देशक :
किरण राव
कलाकार :
प्रतीक, मोनिका डोगरा, कृति मल्होत्रा, आमिर खान
सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 1 घंटा 35 मिनट * 10 रील
आमिर खान नहीं चाहते कि प्रशंसक उनकी कोई फिल्म देखने आए और निराश हो। इसलिए वे दूसरे फिल्मकारों की तरह झूठ नहीं बोलते हुए अपनी फिल्म के बारे में सच बोलना पसंद करते हैं।
‘धोबी घाट’ के रिलीज होने के पहले ही उन्होंने कह दिया था कि यह मेनस्ट्रीम सिनेमा नहीं है। इसमें वो लटके-झटके नहीं हैं जो आम मसाला फिल्मों में होते हैं। यह एक प्रयोगत्मक और वास्तविकता के निकट की फिल्म है, जिसका ट्रीटमेंट एक आर्ट फिल्म की तरह है।
‘धोबी घाट’ की कहानी चार किरदारों के इर्दगिर्द घूमती है, जो अलग-अलग पृष्ठभूमि से मुंबई आए हुए हैं। चारों की अलग-अलग कहानी है जो एक-दूसरे से कहीं ना कहीं जुड़ी हुई है।
अरुण (आमिर खान) एक पेंटर है, जो कम बोलना और अकेले रहना पसंद करता है। उसे किसी भी किस्म की रिलेशनशिप पसंद नहीं है। उत्तर प्रदेश से ब्याह कर मुंबई आई यास्मिन (कृति मल्होत्रा) पति की बेरुखी से परेशान है। वह एक वीडियो कैमरे के जरिये मुंबई को शूट कर मन बहलाती है और अपने दिल की बातें कैमरे को बताती है।
शाई (मोनिका डोगरा) शौकिया रूप से कैमरे की आँख से मुंबई दर्शन करती है। इसमें उसका साथ देता है बिहार से आया मुन्ना (प्रतीक) जो धोबी है, लेकिन फिल्मों में हीरो बनना उसका सपना है।
इनके अलावा अनोखी भूमिका में मुंबई है, जो चुपचाप इन किरदारों की गतिविधियों को देखता रहता है। उनकी उत्कंठा, अकेलापन, अनुभव और प्यार के जरिये इस शहर का फ्लेवर दिखाया गया है।
किरण राव ने एक निर्देशक के रूप में अच्छी शुरुआत की है। उनकी फिल्म और किरदार रियल लाइफ के बेहद करीब हैं। उनका दु:ख, दर्द, हँसी, खुशी आम लोगों जैसी लगती है। फिल्म में उत्सुकता इसलिए बनी रहती है कि कहानी अगले मोड़ पर क्या करवट लेगी यह पता लगाना मुश्किल है।
कहानी कहने के लिए उन्होंने जटिल तरीका अपनाया है जिसकी वजह से एक आम दर्शक को फिल्म समझने में कठिनाई हो सकती है। किरण ने दर्शक की समझदारी पर भी काफी कुछ छोड़ा है और प्रस्तुतिकरण ऐसा रखा है कि दर्शक भी सक्रिय होकर फिल्म देखें।
उदाहरण के लिए फिल्म की शुरुआत में मुन्ना हाथ में टॉर्च और लाठी लिए निकलता है और उसका दोस्त कहता है अपने गंदे काम के लिए जा। उस वक्त यह सीन निरर्थक जान पड़ता है। फिल्म के आखिर में दिखाया गया है कि मुन्ना रात को चूहे मारता है तब पता चलता है कि वह गंदा काम क्या था।
फिल्म में अधिकांश अपरिचित या नए चेहरे हैं, जो कि इस कहानी को परफेक्ट सूट करते हैं। मोनिका डोगरा ने शाई के किरदार को बखूबी निभाया है। अरुण और मुन्ना के बीच में फँसी शाई की उलझन को चेहरे के जरिये उन्होंने बयाँ किया है।
प्रतीक ने एक कम पढ़े-लिखे लड़के की भूमिका को बखूबी निभाया है। उनकी डॉयलॉग डिलेवरी और हावभाव देखने लायक हैं। कुछ दृश्यों में उनका अभिनय कमाल का है। यास्मिन बनी कृति मल्होत्रा भी प्रभावित करती हैं।
आमिर खान के अभिनय में कोई खोट नहीं है, लेकिन उनकी जगह नया चेहरा होना चाहिए था, क्योंकि उनकी सुपरस्टार की छवि लगातार परेशान करती रहती है।
तुषार कांति रे की सिनेमॉटोग्राफी उल्लेखनीय है। मुंबई की वास्तविक लोकेशन्स को उम्दा कोणों से उन्होंने गजब का शूट किया। मुंबई की सँकरी गलियाँ, समुद्र, धोबी घाट, पुराने मकान और बाजार, ब्लैक एंड व्हाइट फोटोग्राफ्स, वीडियो डायरी और पेंटिंग के जरिये देखने को मिलती है। यास्मिन की वीडियोग्राफी की अपरिपक्वता को भी उन्होंने बेहतरीन तरीके से पेश किया है। फिल्म का बैकग्राउंड म्यूजिक कहानी के मूड के अनुरूप है।
कुल मिलाकर ‘धोबी घाट’ उन लोगों के लिए है जो धैर्य के साथ कला फिल्म का आनंद उठाना पसंद करते हैं।
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बैनर :
ट्वेंटीथ सेंचुरी फॉक्स फिल्म कॉर्पोरेशन
निर्देशक :
जो कार्नाहन
कलाकार :
लियाम नीसन, ब्रेडले कूपर, जेसिका बिएल, शार्लटो कॉपले, पेट्रिक विल्सन
ए सर्टिफिकेट * 118 मिनट
‘द ए-टीम’ का निर्माण एक्शन प्रेमियों के लिए किया गया है। कहानी और स्क्रीनप्ले कुछ इस अंदाज में लिखा गया है कि ज्यादा से ज्यादा एक्शन दृश्यों की गुंजाइश हो और इसके लिए कई बातों को भी नजरअंदाज किया गया है। जो दर्शक एक्शन फिल्म के शौकीन हैं, उन्हें यह फिल्म जरूर पसंद आएगी।
टीवी शो ‘ए टीम’ पर आधारित यह फिल्म चार किरदारों के इर्दगिर्द घूमती है, जो सही मायनो में खतरों के खिलाड़ी हैं। जितना ज्यादा जोखिम हो, कठिन काम हो उतना ही उन्हें मजा आता है। सेना में ये उन कामों को भी कर दिखाते हैं जिनका इन्हें ऑर्डर नहीं है और इस वजह से अन्य लोग इनसे ईर्ष्या करते हैं।
इराक से वापसी के दौरान ‘द ए टीम’ षड्यंत्र का शिकार हो जाती है। कर्नल जॉन स्मिथ (लियाम नीसन), फेसमैन पैक (ब्रेडले कूपर), बीए बारकस (क्विंटन जैकसन) और मडरॉक (शार्लटो कॉपले) को अलग-अलग जेल में बंद कर दिया जाता है। चारिसा सोसा (जेसिका बिएल) जो कि एक सैनिक है को इन पर निगाह रखने का जिम्मा सौंपा जाता है। फेसमैन और सोसा कभी एक-दूसरे को पसंद करते थे।
इस टीम को जेल में ज्यादा दिन नहीं रखा जा सका और चारों जेल से भाग निकलते हैं ताकि उस आदमी का पता लगा सके, जिसके कारण उन्हें सजा हुई। उनका प्लान सफल रहता है और अंत में वे कामयाब हो जाते हैं।
फिल्म की कहानी बेहद साधारण है और एक्शन दृश्यों को ध्यान में रखकर लिखी गई है। निश्चित रूप से ये एक्शन दृश्य फिल्म का प्रमुख आकर्षण हैं और बेहतरीन तरीके से शूट किए गए हैं।
निर्देशक जो कार्नाहन फिल्म की गति बेहद तेज रखी गई है ताकि दर्शकों को ज्यादा सोचने का अवसर नहीं मिले। हालाँकि स्क्रीनप्ले में खामियाँ हैं। कई दृश्य अविश्वसनीय हैं, लेकिन मनोरंजन पक्ष भारी होने के कारण इन्हें अनदेखा किया जा सकता है। एक्शन की भरमार होने के बावजूद फिल्म को हल्के-फुल्के अंदाज में पेश किया गया है और राहत प्रदान करने वाले दृश्य लगातार बीच में आते रहते हैं।
चारों किरदारों पर मेहनत की गई है। हर किसी का मिजाज एक-दूसरे से जुदा है। जॉन स्मिथ इस टीम के कैप्टन हैं जो धीर-गंभीर हैं और हर योजना को ठीक से लागू करते हैं। फेसमैन रंगीन मिजाज हैं और लड़कियाँ उसकी कमजोरी।
दिमाग के बजाय हाथ-पैर ज्यादा चलाने वाला बीए फिल्म के मध्य में गाँधीजी से प्रभावित होकर अहिंसा पर विश्वास करने लगता है। मडरॉक एक पॉयलट है और दर्शकों को हँसाने के लिए वे कई हरकतें करता है। उसकी और बीए की नोंकझोक बेहतरीन है। सभी कलाकारों ने अपना काम बेहतरीन तरीके से किया है।
कम्प्यूटर ग्राफिक्स के मामले में फिल्म कमजोर नजर आती है और कई दृश्यों में बनावटीपन झलकता है, खासतौर पर क्लाइमैक्स में, जो कुछ ज्यादा ही लंबा हो गया है।
कुल मिलाकर ‘द ए टीम’ में इतना दम है कि दर्शकों को बाँधकर उनका मनोरंजन करे।
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बैनर :
नाडियाडवाला ग्रेंडसन एंटरटेनमेंट, इरोज़ इंटरनेशनल, साजिद नाडियाडवाला प्रोडक्शन्स-यूके
निर्माता :
साजिद नाडियाडवाला
निर्देशक :
साजिद खान
संगीत :
साजिद-वाजिद
कलाकार :
अक्षय कुमार, असिन, जॉन अब्राहम, जैकलीन फर्नांडिस, रितेश देशमुख, जरीन खान, श्रेयस तलपदे, शाज़ान पद्मसी, ऋषि कपूर, रणधीर कपूर, मिथुन चक्रवर्ती, बोमन ईरानी, जॉनी लीवर, चंकी पांडे, मलाइका अरोरा खान
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 16 रील
साजिद खान पर सत्तर और अस्सी के दशक की मसाला फिल्मों का प्रभाव है। उस दौर की उन्होंने तमाम अच्छी-बुरी फिल्में देखी हैं और उन्हें उन फिल्मों के ढेर सारे संवाद और सीन याद हैं। साजिद की फिल्म मेकिंग पर भी उन फिल्मों का प्रभाव नजर आता है।
उस दौर की कमर्शियल फिल्में मल्टीस्टारर होती थी। उनमें चार-पांच गाने, तीन-चार धांसू फाइट सीन, एक कैबरेनुमा आइटम सांग, थोड़ी बहुत मस्ती, गलतफहमियां और हैप्पी एंडिंग होती थीं। यह बात साजिद की हाउसफुल में भी नजर आई और हाउसफुल 2 में भी।
हाउसफुल 2 में हाउसफुल की कहानी को थोड़ा-बहुत उलट-पुलट कर, और मसाले (कलाकार) डालकर जायकेदार बना दिया गया है। साजिद कहते हैं कि वे फिल्म आम दर्शकों के लिए बनाते हैं न कि फिल्म समीक्षकों के लिए। महंगे टिकट खरीदकर सिनेमाघर आए दर्शक का मनोरंजन करना उनका उद्देश्य है और इस बार वे अपने उद्देश्य में सफल रहे हैं। हाउसफुल 2 में ढेर सारे ऐसे पल है जो गुदगुदाते हैं और भरपूर मनोरंजन करते हैं।
फिल्म की कहानी बेहद सामान्य है। थोड़ी-सी गलतफहमियां पैदा कर दी गई हैं और उसके सहारे पूरी कहानी को खींचा गया है। कहानी जब सामान्य हो तो स्क्रिप्ट, अभिनय, संवाद और निर्देशन दमदार होना चाहिए वरना फिल्म को बिखरते देर नहीं लगती।
हाउसफुल 2 की स्क्रिप्ट कुछ ऐसी लिखी गई है कि एक के बाद एक मजेदार सीन आते रहते हैं। लॉजिक पर या इस बात पर ध्यान नहीं जाता कि कहानी आगे बढ़ रही है या नहीं। खासतौर पर पहले घंटे में तो फिल्म बहुत ही मनोरंजक है। ऋषि-रणधीर के बीच के सारे दृश्य, अक्षय कुमार का पहला सीन, मगरमच्छ वाला दृश्य हास्य से भरपूर हैं।
कहानी को आगे बढ़ाने के लिए कुछ सब-प्लाट भी रखे गए हैं जो अच्छे हैं, जैसे सनी (अक्षय कुमार) और मैक्स (जॉन अब्राहम) कॉलेज में अच्छे दोस्त थे। फिर उनके बीच कैसे दुश्मनी हुई? कैसे फिर एक हुए? जेडी (मिथुन चक्रवर्ती) का अतीत और जेडी नाम रखने की कहानी भी दिलचस्प है।
इंटरवल के बाद कुछ देर के लिए फिल्म में मनोरंजन का ग्राफ नीचे की ओर आता है। विंदू दारा सिंह के गुंडों के साथ अक्षय-जॉन-रितेश और श्रेयस की फाइटिंग वाला सीन केवल फिल्म की लंबाई बढ़ाता है। वहीं बोमन ईरानी वाला प्रसंग भी बोर करता है, लेकिन अंत में फिल्म फिर ट्रेक पर आ जाती है।
निर्देशक साजिद खान ने अपनी टारगेट ऑडियंस को खुश करने के लिए तमाम मसाले जुटाए हैं। आइटम सांग रखा है, हीरोइनों की ड्रेस छोटी रखी है, फाइट सीन रखा है, साथ ही कलाकारों से बेहतरीन अभिनय करवाया है और हंसाने वाली कई पंच लाइनें रखी हैं।
रंजीत, जो कि सत्तर और अस्सी के दौर की फिल्मों में ‘रेपिस्ट’ के नाम से मशहूर थे, को अक्षय कुमार का पिता बनाया है, जिससे अक्षय का कैरेक्टर एक अलग ही टच लिए हुए हैं। रंजीत की जो अदा अक्षय ने अपनाई है वो देखते ही बनती है। यह साजिद के दिमाग की ही उपज हो सकती है।
कुछ ऐसे सीन हैं जो फिल्मों के बारे में ज्यादा जानकारी रखते हैं उन्हें ज्यादा मजेदार लगेंगे। मसलन एक सीन में रणधीर कपूर को अक्षय कुमार पोंगा पंडित कहते हैं। रणधीर ने पोंगा पंडित नामक एक फिल्म में काम किया है।
साजिद ने बौने, काले और बहरे लोगों का कुछ जगह मजाक बनाया है जो अखरता है। फिल्म की लंबाई पर भी साजिद का नियंत्रण नहीं है और कुछ फाल्तू के दृश्य हटाए जा सकते हैं।
फिल्म का संगीत फिल्म की थीम के अनुरूप है। कुछ गाने अच्छे हैं तो कुछ ब्रेक लेने के काम आते हैं। ‘पप्पा तो बैंड बजाए’, ‘राइट नाऊ’ और ‘अनारकली’ की कोरियोग्राफी और फिल्मांकन उम्दा है। अनारकली के लिए अच्छी सिचुएशन बनाई गई है। साजिद-फरहद के लिखे संवाद उम्दा हैं।
अक्षय कुमार बेहतरीन फॉर्म में नजर आए। उनकी टाइमिंग, डायलॉग डिलेवरी और एक्सप्रेशन बढ़िया हैं। जॉन अब्राहम की एक्टिंग खराब है, लेकिन इस कॉमेडी फिल्म में उनकी इस कमी को खूबी बनाया गया है। रितेश देशमुख अच्छे हास्य कलाकार हैं, लेकिन उनका पूरा उपयोग नहीं किया गया है। श्रेयस तलपदे सिर्फ गिनती बढ़ाने के लिए हैं।
हीरोइनों में असिन और जैकलीन को ज्यादा फुटेज मिला है और जैकलीन की तुलना में असिन बेहतर रही हैं। जरीन और शाजान को सिर्फ ग्लैमर बढ़ाने के लिए रखा गया है।
मिथुन चक्रवर्ती भी रंग में नजर आए। उनके तथा अक्षय के बीच के सीन अच्छे लिखे गए हैं। डब्बू (रणधीर कपूर) और चिंटू (ऋषि कपूर) हंसाने में सफल रहे हैं। बोमन ईरानी ने जमकर ओवर एक्टिंग की है। आखिरी पास्ता के रूप में चंकी पांडे और जॉनी लीवर ने भी अपना काम बखूबी किया है।
‘हाउसफुल 2’ माइंडलेस कॉमेडी होने के बावजूद मनोरंजन करती है। इसे दिमाग के साथ नहीं बल्कि कोला और पॉपकॉर्न के साथ देखा जाना चाहिए।
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अक्सर सीक्वल अपने पहले भाग की तुलना में कमजोर रहते हैं, लेकिन 'जॉली एलएलबी 2' इस मामले में अपवाद है। अक्षय कुमार अभिनीत यह फिल्म अपने पहले भाग (जो अच्छा था) से आगे है। 'जॉली एलएलबी' में भारत की न्याय व्यवस्था की कार्यप्रणाली पर व्यंग्य किया गया था। साथ ही दिखाया गया था कि किस तरह वकील मुकदमों की आड़ में अपना उल्लू सीधा करते हैं। 'जॉली एलएलबी 2' में भी यही सब बाते हैं, लेकिन फर्जी एनकाउंटर वाला प्रकरण और अक्षय कुमार इस फिल्म को अलग लुक देते हैं।
कानपुर का रहने वाला वकील जगदीश्वर मिश्रा उर्फ जॉली (अक्षय कुमार) लखनऊ में एक वकील का सहायक है। वह अपना चेम्बर चाहता है, लेकिन उसकी काबिलियत देखते हुए उसका बॉस उससे घरेलू काम करवाता है। अपना चेम्बर खरीदने के चक्कर में वह एक विधवा हिना सिद्दीकी को धोखा देता है। हिना आत्महत्या कर लेती है और जॉली अपने आपको कसूरवार मान कर हिना का मुकदमा खुद लड़ने का फैसला करता है, जहां उसका मुकाबला शहर के नामी वकील माथुर (अन्नू कपूर) से होता है। हिना के मामले का जब जॉली अध्ययन करता है तो उसे पता चलता है कि यह मुकदमा आसान नहीं है। उसे कई शक्तिशाली लोगों से लड़ाई मोल लेना होगी। किस तरह से जॉली जूझता है, यह फिल्म का सार है।
फिल्म की कहानी, स्क्रीनप्ले, संवाद और निर्देशन सुभाष कपूर का है। उनकी लिखी कहानी ठीक है, लेकिन जिस तरह से उन्होंने स्क्रीनप्ले और संवाद का कलेवर कहानी पर चढ़ाया है वो फिल्म को खास बना देता है। सुभाष के स्क्रीनप्ले में तमाम तरह के उतार-चढ़ाव हैं जो फिल्म के शुरू होने से लेकर तो अंत तक दर्शकों को बांध कर रखते हैं।
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आधी फिल्म कोर्ट रूम ड्रामा है और एक कमरे से कैमरा बाहर नहीं निकलता है, यहां पर दर्शक बोर हो सकते थे, लेकिन फिल्म में कोर्ट रूम ड्रामा इतने मनोरंजक तरीके से पेश किया गया है कि दर्शकों का ध्यान कही नहीं भटकता। दर्शकों को अक्षय कुमार की 'रुस्तम' भी याद होगी जिसमें भी कोर्ट रूम ड्रामा था, लेकिन जॉली एलएलबी 2 का कोर्ट रूम ड्रामा ज्यादा रियल लगता है।
फर्जी एनकाउंटर कर प्रमोशन हासिल करने वाले पुलिस ऑफिसर्स की पोल भी फिल्म खोलती है और इस तरह के कई किस्से हम पढ़ और सुन चुके हैं। इस बात को कहानी में अच्छे से गूंथा गया है। फिल्म यह भी बताती है कि किस तरह व्यवस्थाएं ईमानदार को बेईमान और बेईमान को ईमानदार के रूप में पेश करती है।
स्क्रिप्ट में कमियां भी हैं, जैसे, कुछ बातें जॉली के लिए बेहद आसान कर दी गई है। उसे आसानी से सबूत हाथ लग जाते हैं और वह मुख्य अपराधी तक भी पहुंच जाता है। कहीं बात को कुछ ज्यादा ही बढ़ा-चढ़ा कर बता दिया गया है, लेकिन मनोरंजन के बहाव में ये बातें छिप जाती हैं। दर्शक इनकी उपेक्षा कर देता है।
निर्देशक के रूप में भी सुभाष कपूर प्रभावित करते हैं। जॉली सीरिज की टोन को उन्होंने बरकरार रखा है। उत्तर भारत के मिजाज को प्रस्तुत करने में आनंद एल राय और सुभाष कपूर का जवाब नहीं है। पूरी फिल्म में उत्तर प्रदेश का मिजाज उभर कर सामने आता है। फिल्म का पहला सीन ही यहां की चरमराई व्यवस्था पर करारा तंजा है। अदालत के भीतर और अंदर की बातों को भी बारीकी से पेश किया गया है। अंधेरे बदबूदार कमरों में किस तरह न्याय किया जाता है फिल्म यह बात दर्शाने में सफल रही है। सुभाष कपूर ने फिल्म में मनोरंजन का ग्राफ कभी की गिरने नहीं दिया है और इसके लिए उनकी तारीफ की जा सकती है। फिल्म में कुछ इमोशनल सीन भी है जो दिल को छूते हैं।
फिल्म से कुछ वकील नाराज बताए जा रहे हैं, लेकिन फिल्म देखने के बाद उनकी नाराजगी दूर हो जाएगी। आखिर किस पेशे में बुरे लोग नहीं होते? यदि यहां माथुर जैसा खुर्राट वकील है जो पैकेज बताकर काम करता है तो दूसरी ओर जॉली जैसा अच्छे वकील भी है जो सच्चाई के लिए किसी से भी भिड़ जाता है।
फिल्म जजों के दर्द को भी बयां करती है। तीन करोड़ मुकदमे पेडिंग पड़े हैं और इक्कीस हजार जज हैं, तो देर तो होनी ही है। अच्छे वकील, बुरे वकील और एक जज की जुगलबंदी बहुत कुछ फिल्म में बयां करती है।
अक्षय कुमार के करियर की बेहतरीन फिल्मों में जॉली एलएलबी 2 का नाम शामिल रहेगा। अपने किरदार को उन्होंने बारीकी से पकड़ा है। एक मस्तमौला इंसान से एक संजीदा इंसान में तब्दील होने वाली बात को उन्होंने अपने अभिनय से दर्शाया है। उनकी कॉमिक टाइमिंग भी बढ़िया रही है।
अन्नू कपूर ने एक नामी वकील के रूप में वह सब किया है कि दर्शक उनसे नफरत करें और यही उनकी कामयाबी है। सौरभ शुक्ला ने जज के रूप में दर्शकों को खूब हंसाया है। उनका नजदीक से पढ़ना, पौधे को पानी डालना, बिटिया की शादी का टेंशन और कोर्ट के माहौल को हल्का करने की कोशिश करना दर्शकों को खूब हंसाता है।
हुमा कुरैशी का रोल बड़ा तो नहीं है, लेकिन वे अपनी उपस्थिति दर्ज कराती हैं। हिना के रूप में सयानी गुप्ता ने बहुत उम्दा एक्टिंग की है। उनका वो सीन कमाल का है जब उन्हें पता चलता है कि जॉली ने उसके साथ धोखा किया है। फिल्म के अन्य कलाकार भी मंजे हुए हैं।
फिल्म के संवाद चुटीले हैं। 'गो पागल' और 'बावरा मन' गाने सुनने में अच्छे लगते हैं।
बैनर : फॉक्स स्टार स्टुडियो
निर्देशक : सुभाष कपूर
संगीत : मीत ब्रदर्स, विशाल खुराना, मंज मौसिक, चिरंतन भट्ट
कलाकार : अक्षय कुमार, हुमा कुरैशी, अन्न कपूर, सौरभ शुक्ला, कुमुद मिश्रा, सयानी गुप्ता
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 18 मिनट 31 सेकंड
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बैनर :
हरी ओम एंटरटेनमेंट कं., थ्रीज़ कंपनी, यूटीवी मोशन पिक्चर्स
निर्माता :
फराह खान, अक्षय कुमार, शिरीष कुंदर
निर्देशक :
शिरीष कुंदर
संगीत :
गौरव डगाँवकर
कलाकार :
अक्षय कुमार, सोनाक्षी सिन्हा, श्रेयस तलपदे, मिनिषा लांबा, असरानी, चित्रांगदा सिंह
सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 1 घंटा 45 मिनट
जोकर फिल्म से अक्षय कुमार इतने नाराज हुए कि फिल्म में अपना पैसा लगा होने के बावजूद उन्होंने फिल्म का प्रमोशन ही नहीं किया जिससे फिल्म के रिलीज होने के पहले ही फिल्म के प्रति नकारात्मक माहौल बन गया। इस पर फिल्म के निर्देशक शिरीष कुंदर ने एक इंटरव्यू में कहा कि उनका काम बोलेगा। ‘जोकर’ देख कर उनका काम ये बोलता है कि फिल्म ऐसी नहीं बनाया जाना चाहिए।
‘जोकर’ के नाम पर उन्होंने जो तमाशा दिखाया है वो बेहद बचकाना है। शायद शाहरुख खान ने इसीलिए जोकर करने से मना कर दिया था, लेकिन शिरीष को अपनी स्क्रिप्ट पर विश्वास था और उन्होंने जिद पर आकर अक्षय को लेकर फिल्म बना डाली।
शिरीष ये तय ही नहीं कर पाए कि ये फिल्म वे बच्चों को ध्यान में रखकर बना रहे हैं या बड़ों के लिए। दोनों उम्र के वर्गों को फिल्म पसंद आए इसकें लिए सही तालमेल जरूरी होता है, लेकिन शिरीष इसमें बुरी तरह असफल रहे।
जब फिल्म का निर्देशक कमजोर हो तो इसका असर फिल्म के हर डिपार्टमेंट पर पड़ता है। जोकर के साथ भी यही हुआ। अभिनय, स्क्रिप्ट, संगीत सहित हर मामले में फिल्म बुरी है।
भारत के मैप में पगलापुर नामक गांव को स्थान नहीं मिलने के लिए जो तर्क दिया है वो बेहद लचर है। भारत के आजाद होने के कुछ महीने पहले एक अंग्रेज ने भारत का नक्शा बनाया। वह पगलापुर जाकर अपने नक्शे को पूरा करना चाहता था, लेकिन उस गांव पर पागलखाने से भागे पागलों ने कब्जा कर लिया।
वह अंग्रेज पगलापुर नहीं जा पाया और उस गांव को भारत के नक्शे में दिखाए बिना उसने भारत का नक्शा पास कर दिया। बिना गांव में जाए भी वह मैप में पगलापुर को दर्शा सकता था, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। सवाल ये भी उठता है कि नक्श बनाने के लिए क्या वह अंग्रेज भारत के हर गांव में गया था?
पगलापुर गांव में न बिजली है और न पानी। आजादी के वर्षों बाद भी उस गांव के बारे में कोई नहीं जानता। वहां के लोग पागल जैसी हरकतें करते हैं। कोई अपने आपको लालटेन समझ कर उलटा लटका रहता है तो कोई हवाई जहाज को देख यह समझ बैठता है कि हिटलर ने हमला कर दिया है। पगलापुर में सिर्फ मर्द ही नजर आते हैं, औरतें ढूंढे नहीं मिलतीं।
इन पागलों के बीच एक नौजवान अगस्त्य (अक्षय कुमार) अमेरिका जाकर वैज्ञानिक (?) बन जाता है। गांव में आकर वहां की हालत देख बड़ा निराश होता है। पगलापुर को इंटरनेशनल मेप पर लाने के लिए वह ऐसी फिजूल हरकत करता है कि दुनिया भर का मीडिया, पुलिस, सेना, एफबीआई और नासा के वैज्ञानिक तक वहां पहुंच जाते हैं, लेकिन कोई भी पगलापुर के पागलों की चालाकी समझ नहीं पाते।
कद्दू, तरबूज, पपीते, करेले और मिर्च से बनाए गए एलियंस के झूठ को वे पकड़ नहीं पाते। टैंक और हाथ में बंदूक लिए खड़े सैनिक बस एलियंस को निहारते रहते हैं। वे आगे बढ़कर उन्हें पकड़ते भी नहीं। स्क्रिप्ट में इस तरह की इतनी खामियां हैं कि एक किताब लिखी जा सकती है।
फिल्म के निर्देशक और लेखक ने दर्शकों को भी पगलापुर के निवासियों की तरह मान लिया और यह समझ कर माल परोसा कि दर्शक सब कबूल कर लेंगे। शिरीष कुंदर ने कई फिल्मों से प्रेरणा ली, फिर भी अच्छा काम नहीं कर सके। उनका आइडिया अच्छाष है, लेकिन उसको फिल्म में उतारने में वे नाकाम रहे। फिल्म का नाम जोकर क्यों रखा, इसके पक्ष में उन्होंने कुछ संवाद और सीन डाल दिए, जो कि स्क्रिप्ट में फिट नहीं बैठते।
आधी से ज्यादा फिल्म में अक्षय कुमार ने अनमने ढंग से काम किया है। उन्हें अपनी गलती शायद समझ में आ गई थी, इसलिए किसी तरह उन्होंने फिल्म पूरी की। हर हीरो रिलीज के पहले अपनी फिल्म के बारे में कई झूठी बातें बोलता है, लेकिन अक्षय इस फिल्म को लेकर इतने शर्मिंदा हैं कि झूठ बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाए।
सोनाक्षी सिन्हा के हिस्से में एक दमदार डायलॉग तक नहीं आया और पूरी फिल्म में वे अपने मोटापे को छिपाते हुए नजर आईं। श्रेयस तलपदे एक अजीब सी भाषा पूरी फिल्म में बोलते रहे। क्यों? इसका जवाब नहीं मिलता। उनकी भाषा सिर्फ एलियंस ही समझते हैं। मिनिषा लांबा, संजय मिश्रा, असरानी, आर्य बब्बर जैसे कई कलाकार फिल्म में हैं, लेकिन उनका पूरी तरह उपयोग नहीं किया गया।
फिल्म के गाने ऐसे हैं कि सिनेमाघर छोड़ने के बाद एक भी गाना याद नहीं रहता। चित्रांगदा सिंह पर फिल्माया गया आइटम सांग एकदम ठंडा है।
कुल मिलाकर ‘जोकर’ समय और धन की बर्बादी है।
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कहानी: बद्रीनाथ को अपने लिए एक टिपिकल दुल्हन की तलाश है, वैदेही को इंडिपेंडेंट लाइफ पसंद है। उन्हें मिलकर परम्परा को तोड़ना है और अपने किरदार को दोबारा परिभाषित करना है। रिव्यू: 'बद्रीनाथ की दुल्हनियां' एक ऐसी फिल्म है, जिसमें सामाजिक मुद्दों की भरमार है और जिसे धर्मा प्रॉडक्शन ने पूरी सावधानी के साथ हैंडल किया है। लेकिन यहां हैंडल यानी संभालने का काम काफी चालाकी से किया गया है। झांसी और कोटा जैसे छोटे से शहर की पृष्ठभूमि पर है इस फिल्म की कहानी, जहां पितृसत्तात्मक समाज का ही बोलबाला है। यह फिल्म बद्रीनाथ (वरुण धवन) नामक एक एक लड़के की कहानी है, जो किसी साहूकार का बेटा और अपने लिए दुल्हन की तलाश में लगा हुआ है। उसकी मुलाकात किसी शादी में वैदेही नाम की एक लड़की से होती है और फिर बद्री शादी के लिए उसके पीछे ही पड़ जाता है। लेकिन, वैदेही शादी को लेकर समाज के प्रेशर के आगे झुकने से इनकार कर देती है। वह छोटे शहर की लड़की जरूर है, लेकिन उसके अपने विचार हैं, महत्वकांक्षाएं हैं और सबसे अहम किसी मुद्दे पर स्टैंड लेने की उसमें एक अलग हिम्मत है। वैदेही का किरदार कहानी का मुख्य आधार है। वह बेहद गुस्से वाली लेकिन सच्ची लड़की है। उसे पीछे धकेल दिया जाता है, लेकिन वह फिर उठकर आगे आ जाती है। वह अपने सपनों को सुरक्षित रखती है और कोई उसे बेवकूफ नहीं बना सकता। उसके पिता को दिल की बीमारी भी है। वैदेही के जरिए, फिल्म ने कई अहम मुद्दों को उठाया है, जिसमें लिंगभेद से जुड़े मुद्दे, महिलावाद, सहमति जैसे मुद्दे शामिल हैं। लेकिन कहानी को जिस तरह से दिखाया गया है (विस्तार से भरे सॉन्ग सीक्वंस, फ्लैशबैक और सिनेमैटिक मोमेंट्स), ये फिल्म की रफ्तार को कम करते हैं। एक वक्त तो ऐसा लगता है कि सभी किरदार पब्लिक सर्विस अनाउंसमेंट कर रहे हों, जो कि काफी काल्पनिक सा लगता है। यह एक ऐसी कहानी है, जिसके क्लाइमैक्स का अंदाज़ा आप बड़ी आसानी से लगा लेते हैं। तो लगभद दो घंटे सीट पर बैठकर उस चीज का इंतज़ार करना, जिसके बारे में आपको पहले से ही पता हो यह काफी असहज करता है। लेकिन, फिल्म की चकाचौंध और इसके मजेदार व फनी डायलॉग आपको बांधे रखते हैं। वरुण और आलिया स्क्रीन पर दमदार लगे हैं। इनकी खूबसूरत जोड़ी आपके चेहरे पर मुस्कान बिखेर देती है। बद्री के रूप में धवन काफी प्यारे लगे हैं। उन्होंने कुछ हाई ड्रामा सीन को भी काफी प्रभावशाली तरीके से निभाया है। आलिया ने भी बेहतरीन प्रदर्शन किया है, लेकिन कभी-कभी ऐसा लगता है कि फिल्म में उनकी बोली और भाषा जुहू और झांसी के बीच फंस कर रह गई हो। | 0 |
फिल्म में हरक्यूलिस के अपने गम हैं। अपने परिवार को खोने का दु:ख है और उसकी कोई आरजू नहीं है। ताकतवर होने के बावजूद वह खुश नहीं है। 'हरक्यूलिस' नामक फिल्म देखने के लिए दर्शक इस उम्मीद के साथ जाते हैं कि उन्हें हरक्यूलिस की दमदार बाजुओं के कमाल देखने को मिलेंगे, लेकिन फिल्म में इस तरह के दृश्यों की कमी है। बावजूद इसके टाइम अच्छी तरह से कट जाता है।
एम्फीरस, आटोलाइकस, टाइडियस, एटलांटा नामक योद्धाओं का हरक्यूलिस लीडर है। ईसा से 358 वर्ष पूर्व के ये लोग सोने के सिक्कों के लिए काम करते हैं। लॉर्ड कोटिस की ओर से अर्गेनिया नामक महिला हरक्यूलिस से संपर्क कर कहती है कि वह (हरक्यूलिस) जालिम सिपाहसालार से उनके साम्राज्य को बचाने में उनकी मदद करे। हरक्यूलिस को उसके वजन बराबर सोना देने पर बात पक्की हो जाती है।
व्यापारी और किसानों को युद्ध लड़ने का हरक्यूलिस प्रशिक्षण देता है। इस लड़ाई को लेकर फिल्म में बहुत माहौल बनाया गया है, लेकिन जब लड़ाई होती है तो बड़ी आसानी से हरक्यूलिस अपने से तीन गुना बड़ी सेना पर विजय हासिल कर लेता है। यहां दर्शकों को अपेक्षा से कम एक्शन देखने को मिलता है।
इस विजय के बाद हरक्यूलिस को महसूस होता है कि उनका गलत उपयोग किया गया है और यही से फिल्म में नया टर्न देखने को मिलता है जिसका अंत एक जबरदस्त क्लाइमैक्स के साथ होता है। इमोशन और एक्शन का संतुलन बनाने की कोशिश की गई है, लेकिन जरूरी नहीं है कि हर दर्शक इस संतुलन को पसंद करे।
फिल्म की कहानी सीधी है और इसमें खास उतार-चढ़ाव नहीं है, लेकिन फिल्म की गति को इतना तेज रखा गया है कि दर्शक को ज्यादा सोचने का समय नहीं मिलता। उस दौर दौर के माहौल को बेहतरीन तरीके से परदे पर उतारा गया है। फिल्म के सेट और एक्शन देखने लायक है, लेकिन थ्री-डी इफेक्ट्स उतने प्रभावी नहीं है।
दृश्यों को ज्यादा लंबा खींचा नहीं गया है और फिल्म की एडिटिंग प्लस पाइंट है। दूसरा प्लस पाइंट है ड्वेन जॉनसन जिन्होंने हरक्यूलिस का किरदार निभाया है। इस रोल को निभाने के लिए जो उन्होंने बॉडी बनाई है वो देखने लायक है। उनकी फिजिक देख विश्वास होता है कि इस बंदे में हाथियों से ज्यादा ताकत है। ड्वेन जॉनसन ने एक्शन के साथ-साथ इमोशनल सीन भी अच्छे से निभाए हैं। जॉनसन के होते हुए दूसरे कलाकारों को ज्यादा स्क्रीन टाइम नहीं मिले हैं, लेकिन कोटिस के रूप में जॉन हर्ट अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं।
कुल मिलाकर यह एडवेंचर मूवी कुछ कमियों के बावजूद दर्शकों का मनोरंजन करने में कामयाब रहती है।
निर्माता :
ब्रेट रेटनर, बैरी लेविन, ब्यू फ्लि
न
निर्देशक :
ब्रेट रेटनर
कलाकार :
ड्वेन जॉनसन, इयॉन मैकशेन, जॉन हर्ट, जोसेफ फिंनेस, पीटर मूलन
अवधि : 1
घंटा 38 मिनट
राजा कोटिस अपने सैनिकों को कहता है कि हरक्यूलिस कोई देवता नहीं आम इंसान है, आगे बढ़ो और उसे पकड़ लो। हजारों सैनिकों के खिलाफ मुट्ठी भर साथियों के साथ लड़ रहा हरक्यूलिस तब कई मीटर ऊंची और सैकड़ों टन वजनी पत्थर से बनी मूर्ति को उखाड़ कर गिरा देता है। यह नजारा देख सारे सैनिकों के हौंसले पस्त हो जाते हैं। वे मान लेते हैं कि भले ही यह इंसान हो, लेकिन आम नहीं है।
क्लाइमेक्स में इस सीन के जरिये हरक्यूलिस की ताकत का प्रदर्शन किया गया है। दर्शक सोचते हैं कि काश ऐसे और सीन देखने को मिलते जिसमें यह ग्रीक हीरो अपनी ताकत का इजहार करता।
ब्रेट रेटनर द्वारा निर्देशित 'हरक्यूलिस' में दिखाया गया है कि हरक्यूलिस के कारनामों के किस्से बढ़ा-चढ़ाकर सुनाए गए हैं। नि:संदेह उसने नेमिन नामक शेर को मार डाला था, नौ सिर वाले नाग की हत्या कर दी थी, इनके सहित बारह ऐसे कारनामे किए थे जो आम इंसान के बस में नहीं थे, लेकिन आखिरकार वह भी एक इंसान है। उसके कारनामों को इसलिए बढ़ा कर बताया गया ताकि दुश्मनों के मन में खौफ पैदा हो।
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बस, इस सीरिज को आगे बढ़ाना था इसलिए यह फिल्म बना दी गई। इस सीरिज की खासियत रहस्य, षड्यंत्र, डबल क्रॉस, धोखा है, लेकिन तीसरे पार्ट में सिर्फ बोरियत है। उन्हीं किरदारों को लेकर एक कमजोर सी कहानी लिख दी गई जो बिलकुल भी अपील नहीं करती। हैरत तो इस बात पर है कि इस तरह की कहानी पर फिल्म बनाने की हिम्मत ही कैसे की गई?
साहेब और बीवी के किरदार तो तय हैं, गैंगस्टर बदलता रहता है और यही किरदार अलग रंग लिए रहता है। पहले पार्ट में यह किरदार रणदीप हुड्डा ने निभाया था और दूसरे भाग में इरफान खान ने। तीसरे पार्ट में संजय दत्त 'गैंगस्टर' के रूप में नजर आए हैं। इस किरदार को ठीक से नहीं लिखा गया है और संजय दत्त ने भी बहुत ही बुरी एक्टिंग कर मामले को और बिगाड़ दिया है।
दो घंटे बीस मिनट की इस फिल्म में दो घंटे बोरियत से भरे हुए हैं। स्क्रीन पर चल रहे ड्रामे में बिलकुल भी रूचि पैदा नहीं होती। न यह मनोरंजक है और न ही इसमें कोई उतार-चढ़ाव। क्या हो रहा है? क्यों हो रहा है? इस बात में दर्शकों की कोई रूचि नहीं रहती। निर्देशक और लेखक क्या बताना चाहते हैं, समझ ही नहीं आता। आखिरी के बीस मिनट में जरूर थोड़ा रोमांच पैदा होता है, लेकिन तब तक फिल्म देखने की इच्छा ही खत्म हो जाती है। बीस मिनट के रोमांच के लिए दो घंटे तक बोर होना महंगा सौदा लगता है।
फिल्म की कहानी में भी कई झोल हैं। संजय दत्त और उनके पिता के संबंध क्यों खराब हैं, यह बताया ही नहीं गया है। संजय दत्त की अपने भाई से भी क्यों नहीं बनती, इसका जवाब भी नहीं मिलता। क्लाइमैक्स में 'रशियन रौलेट' नामक खेल के आधार पर जीत-हार का फैसला करना भी समझ से परे है। इतनी बड़ी समस्या न तो जिमी शेरगिल के सामने रहती है और न ही संजय दत्त के सामने की वे जिंदगी को दांव पर लगा दें। वो भी उस शख्स के कहने पर जो धोखा देने के लिए बदनाम है। इस तरह की कमियां फिल्म को और कमजोर बनाती है।
संजय चौहान के साथ मिलकर तिग्मांशु न तो ढंग की स्क्रिप्ट लिख पाए और निर्देशक के रूप में भी उन्होंने निराश किया है। तीसरे पार्ट में वे अपनी ओर से कुछ भी नया नहीं दे पाए। फिल्म का पहला घंटा उन्होंने बरबाद किया और अपनी बात कहने में बहुत ज्यादा समय लगाया। उन्हें बड़ा बजट और बड़ा सितारा मिला, लेकिन यह फिल्म की बेहतरी के कुछ काम नहीं आया। कबीर बेदी, नफीसा अली, दीपक तिजोरी, सोहा अली खान के किरदारों पर उन्होंने कोई मेहनत नहीं की और ये सब अधूरे से लगते हैं।
अभिनय में जिमी शेरगिल और माही गिल ने अपनी चमक दिखाई। साहेब के रोल में जो एटीट्यूड चाहिए उसे जिमी ने हर फिल्म में सही पकड़ा है। बीवी के रूप में माही गिल ने एक बार फिर दमदार अभिनय किया है। संजय दत्त के अभिनय को देख ऐसा लगा कि उनकी यह फिल्म करने में कोई रूचि नहीं थी। चित्रांगदा सिंह का रोल महत्वहीन है। दीपक तिजोरी, कबीर बेदी और नफीसा अली निराश करते हैं। सोहा अली खान सिर्फ नाम के लिए फिल्म में थीं।
फिल्म का संगीत बेदम है। एडिटिंग बेहद लूज़ है। सिनेमाटोग्राफी और अन्य तकनीकी पक्ष औसत दर्जे के हैं।
साहेब बीवी और गैंगस्टर 3 देखने से बेहतर है इसका पहला पार्ट फिर एक बार देख लिया जाए।
निर्माता : राहुल मित्रा, तिग्मांशु धुलिया
निर्देशक : तिग्मांशु धुलिया
संगीत : राणा मजूमदार, अंजन भट्टाचार्य, सिद्धार्ध पंडित
कलाकार : संजय दत्त, माही गिल, जिमी शेरगिल, चित्रांगदा सिंह, सोहा अली खान, कबीर बेदी, नफीसा अली, दीपक तिजोरी, ज़ाकिर हुसैन
सेंसर सर्टिफिकेट : केवल वयस्कों के लिए * 2 घंटे 20 मिनट 12 सेकंड
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कुछ वक्त पहले काजोल और शाहरुख की सुपरहिट जोड़ी 'दिलवाले' में नजर आई, लेकिन फिल्म बॉक्स आफिस पर कुछ खास नहीं कर पाई। इस फिल्म के बाद काजोल ने एकबार फिर लंबा ब्रेक लिया और अब अपनी होम प्रॉडक्शन कंपनी के बैनर तले बनी बनी इस फिल्म में यकीनन साबित कर दिखाया कि ऐक्टिंग के मामले में काजोल का जवाब नहीं। हम आपसे इस फिल्म को देखने की सिफारिश सिर्फ इसलिए कर रहे है कि इस फिल्म में काजोल अपनी शानदार दमदार ऐक्टिंग के दम पर आपका दिल जीत सकती है। काश, इस प्रोजेक्ट पर फिल्म के डायरेक्टर और राइटिंग टीम भी थोड़ी ज्यादा मेहनत करती तो फिल्म की सुस्त रफ्तार और कमजोर कहानी में कुछ रफ्तार आ पाती। हेलिकॉप्टर ईला को एक ऐसी फिल्म की कैटेगिरी में रखा जा सकता है जो मां-बेटे के बीच इमोशनल रिश्ते के साथ साथ सिंगल मदर की मुश्किलें और उसका दर्द भी शेयर करती है। अपने बेटे की की बेहतरीन परवरिश और उसे अपना पूरा वक्त देने की चाह में मां ने अपने कामयाब करियर को अलविदा कर दिया, लेकिन डायरेक्टर सरकार एक सिंगल मदर के इस स्ट्रगल और उसके ख्वाबों को पूरी ईमानदारी के साथ पर्दे पर पेश करने में पूरी तरह कामयाब नहीं हो पाए। करीब दो घंटे की फिल्म के साथ अगर दर्शक पूरी तरह से बंध नहीं पाता तो इसकी वजह कमजोर स्क्रीनप्ले और सुस्त निर्देशन। बता दें, प्रदीप सरकार के निर्देशन में बनी यह फिल्म आनंद गांधी के गुजराती नाटक बेटा कागदो पर आधारित है, काजोल अपने पहले सीन से लेकर आखिर तक फिल्म में ऐक्टिंग से जान भरने का काम लिया, लेकिन कमजोर स्क्रिप्ट ने पूरा खेल बिगाड़ दिया. वहीं फिल्म मे काजोल के बेटे का रोल निभा रहे ऋद्धि सेन ने अपने किरदार को भरपूर तरीके से जिया। कहानी: सिंगल मदर ईला रायतुरकर (काजोल) अपने बेटे विवान (ऋद्धि सेन) की बेहतर परवरिश के लिए अपने कामयाब सिंगर बनने के सपने का उस वक्त छोड़ देती है जब उसका सपना साकार होने वाला है। उस वक्त ईला कामयाबी के बेहद पास है, लेकिन वह चाहती है कि करियर शुरू करने से पहले शादी करके घर बसा लिया जाए, अपने ब्वॉय फ्रेंड अरुण (तोता राम चौधरी) के साथ मैरेज करके ईला सिंगर बनने के सपने को साकार करने में लग जाती है, इसी बीच ईला मां बन जाती है, हालात कुछ ऐसे बनते है कि अरुण एक दिन अचानक गायब हो जाता है, ईला अब सिंगर बनने का सपना त्याग कर अपने बेटे विवान की बेहतरीन परवरिश और उसके साथ पूरा वक्त गुजारने के लिए खुद को विवान और घर के बीच समेट लेती है। विवान को पसंद नहीं कि हर वक्त उसकी मां उसका साया बनकर रहे, कहानी में टर्निंग प्वाइंट उस वक्त आता है जब विवान के साथ और ज्यादा वक्त गुजारने की चाह में ईला अपनी अधूरी स्टडी पूरी करने का फैसला करके उसी के कॉलेज में ऐडमिशन लेती है और यहां भी दोनों एक ही क्लास रूम में आमने सामने हैं।ऐक्टिंग: यकीनन, काजोल ने फिल्म के पहले सीन से लेकर आखिर सीन तक अपनी बेहतरीन ऐक्टिंग से जान डाली है। काजोल के बेटे विवान के रोल में ऋद्धि सेन ने परफेक्ट ऐक्टिंग की है। अन्य कलाकारों में तोता राय चौधरी अपने रोल में जमे है। डायरेक्शन/स्क्रिप्ट: डायरेक्टर प्रदीप सरकार ने फिल्म की शुरुआत तो काफी अच्छी की लेकिन 15-20 मिनट के बाद ही फिल्म बोझिल लगने लगती है। इंटरवल से पहले की फिल्म ईला के आसपास घूमती है.वहीं इंटरवल के बाद कहानी को जबरन ऐसे खींचा गया कि दर्शक बोरियत महसूस करने लगते है। हां, इस दौरान भी काजोल ने अपनी लाजवाब ऐक्टिंग से कई बार हंसाया और कई बार आंखें नम भी कीं। डायरेक्टर प्रदीप सरकार ने एक कमजोर स्क्रिप्ट पर एक कमजोर फिल्म बनाई जो टिकट खिड़की पर शायद ही टिक पाए। फिल्म का एक गाना यादों की अलमारी हॉल से बाहर आने के बाद भी याद रहता है।क्यों देखें: अगर आप काजोल के पक्के फैन हैं तो आप इस फिल्म को सिर्फ अपनी चहेती ऐक्ट्रेस की शानदार ऐक्टिंग के लिए ही देखने जाएं। | 0 |
बैनर :
जेएमजे एंटरटेनमेंट प्रा.लि., एलकेमिआ फिल्म्स
निर्देशक :
प्रशांत चड्ढा
संगीत :
सलीम मर्चेण्ट- सुलेमान मर्चेण्ट
कलाकार :
सचिन जोशी, केंडिस बाउचर, आर्य बब्बर, रवि किशन, दलीप ताहिल, सचिन खेड़ेकर
सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 2 घंटे 5 मिनट * 13 रील
‘अजान’ पर अंग्रेजी फिल्मों का प्रभाव है। शॉट टेकिंग और स्टाइल में ये इंग्लिश फिल्मों का मुकाबला करती है, लेकिन बारी जब स्क्रीनप्ले की आती है तो मामला बिगड़ जाता है। स्क्रीनप्ले ऐसा लिखा गया है कि क्या हो रहा है, कैसे हो रहा है, क्यों हो रहा है, कुछ समझ में नहीं आता। सारे किरदार एक दौड़ते रहते हैं, देश बदलते रहते हैं, तकनीक को लेकर बातें होती रहती है, लेकिन पहली फ्रेम से आखिरी फ्रेम तक फिल्म दर्शकों पर अपनी पकड़ नहीं बना पाती।
एक डॉक्टर जो कि पूर्व सीआईए एजेंट है, एबोला नामक वायरस के जरिये तबाही मचाना चाहता है। उसके निशाने पर भारत है। इस वायरस को वह भारतीयों के बीच फैलाकर उन्हें मौत की नींद सुलाना चाहता है। रॉ में काम करने वाला आर्मी ऑफिसर अजान खान (सचिन जोशी) उसके खिलाफ लड़ता है और उसके मंसूबों को नाकामयाब करता है।
इस छोटी-सी कहानी को स्क्रीनप्ले के जरिये कई देशों में फैलाया गया है, कई किरदार और तकनीक घुसाई गई है, लेकिन यह सब इतना कन्फ्यूजिंग है कि स्क्रीन पर जो तमाशा चलता है उसमें कोई दिलचस्पी नहीं जागती।
फिल्म की गति कुछ ज्यादा ही तेज हो गई है जिससे कन्टीन्यूटी भी प्रभावित हुई है। ऐसा लगता है मानो एक सीन से दूसरे सीन पर कूदा जा रहा हो। किरदारों के बीच के संबंधों को भी ठीक से जोड़ा नहीं गया है। अजान की प्रेम कहानी भी बिलकुल प्रभावित नहीं करती है और जो सपना वह बार-बार देखता है उसके बारे में भी विस्तृत रूप से कुछ बताया नहीं गया है।
फिल्म का क्लाइमेक्स सीन अजान की बुद्धि पर प्रश्नचिन्ह लगाता है। वह एक ऊँची पहाड़ी पर दुश्मनों से घिर गया है। उसके साथ एक छोटी लड़की है, जिसके खून के जरिये इबोला नामक वायरस से लड़ा जा सकता है। अजान उस लड़की को पैराशूट के सहारे नीचे फेंक देता है और खुद दुश्मनों से लड़कर जान दे देता है, जबकि वह खुद लड़की को गोद में लेकर पैराशूट के जरिये नीचे छलांग लगा सकता था।
फिल्म की कहानी विश्वसनीय इसलिए भी नहीं लगती है क्योंकि फिल्म के हीरो सचिन जोशी में स्टारों वाली बात नहीं है। इस कहानी के लिए बड़ा स्टार चाहिए था। सचिन न दिखने में स्टार जैसे हैं और न ही उन्हें एक्टिंग आती है। शायद इसीलिए निर्देशक ने उन्हें बहुत कम संवाद बोलने के लिए दिए हैं। रविकिशन और आर्य बब्बर ने जमकर ओवर एक्टिंग की है। केंडिस बाउचर का रोल छोटा है, लेकिन वे प्रभावित करती हैं।
निर्देशक के रूप में प्रशांत चड्ढा ने फिल्म को स्टाइलिश लुक दिया है। शॉट बेहतरीन तरीके से फिल्माए हैं, लेकिन फिल्म के हीरो के चयन और कहानी कहने के तरीके में वे बुरी तरह मार खा गए। तकनीकी रूप से फिल्म सशक्त है। विदेशी लोकेशन को बेहतरीन तरीके से फिल्माया गया है। फिल्म के स्टंट्स विशेष रूप से उल्लेखनीय है, लेकिन कमजोर स्क्रीनप्ले इन सभी विशेषताओं को बौना बना देता है।
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'हम आपके हैं कौन' के बाद शादी की पृष्ठभूमि पर आधारित कई फिल्में बनी हैं और 'क्वीन' जैसी उम्दा फिल्म बनाने वाले विकास बहल ने भी 'डेस्टिनेशन वेडिंग' की पृष्ठभूमि पर 'शानदार' बनाई है जो किसी परी कथा की तरह लगती है। यह विकास बहल की 'हम आपके हैं कौन' है जो अपने बेहतरीन प्रस्तुतिकरण के कारण दर्शकों को बांध कर रखती है।
अरोरा और फंडवानी परिवार दिवालिया हो गए हैं, लेकिन यह बात वे एक-दूसरे के बारे में नहीं जानते। अपने कारोबार को चमकाने के लिए वे एक शादी की डील करते है जिसके तहत बिपिन अरोरा (पंकज कपूर) की बेटी ईशा (सना कपूर) की शादी हैरी फंडवानी (संजय कपूर) के भाई से तय हो जाती है।
यह एक डेस्टिनेशन वेडिंग है जिस पर जम कर पैसा बहाया जा रहा है। शादी को ऑर्गेनाइज करने का जिम्मा जगजिंदर जोगिंदर (शाहिद कपूर) के हाथों में है। जगजिंदर जोगिंदर का दिल बिपिन की नाजायज बेटी आलिया (आलिया भट्ट) पर आ जाता है। जगजिंदर जोगिंदर को बिपिन बिलकुल पसंद नही करता, लेकिन नींद नहीं आने की बीमारी से पीड़ित आलिया को जगजिंदर अच्छा लगने लगता है।
इस प्रेम कहानी के साथ शादी के नाम पर पैसे का भौंडा प्रदर्शन और अमीरों की हर बात को व्यवसाय के चश्मे से देखने की आदत को भी दिखाया गया है जिसके तहत एट पैक एब्स वाला लड़का 90 किलो ग्राम वाली एक लड़की से शादी के इसलिए तैयार हो जाता है क्योंकि उतने वजन का उसे सोना मिलेगा। मोटापे और फिटनेस को लेकर भी फिल्म में अच्छा खासा व्यंग्य किया गया है।
फिल्म की कहानी बहुत ही साधारण है और इस तरह की कहानी कई बार हिंदी सिनेमा में दिखाई जा चुकी है, लेकिन निर्देशक का प्रस्तुतिकरण और कलाकारों का अभिनय फिल्म में आपकी रूचि जगाए रखता है। नसीरुद्दीन शाह के वाइस ओवर और शानदार एनिमेशन के साथ फिल्म शुरू होती है। फिल्म का पहला दृश्य जो कि शाहिद कपूर और पंकज कपूर के बीच फिल्माया गया है, फिल्म के मूड को सेट कर देता है। शाहिद, पंकज और आलिया के किरदारों को आप तुरंत ही पसंद करने लगते हैं।
फिल्म परी कथा जैसा आभास देती है जिसमें हर चीज़ खूबसूरत नजर आती है। पंकज-शाहिद-आलिया के बीच के मजेदार दृश्यों से फिल्म लगातार मनोरंजन करती है और इंटरवल तक बहती हुई चलती है। इंटरवल के बाद फिल्म फिल्म खींची हुई लगती है और थोड़ी बोरियत महसूस होती है क्योंकि कहने के लिए निर्देशक के पास कुछ बाकी नहीं रहता। 'सिंड्रेला' की कहानी अचानक 'दम लगा के हईशा' बन जाती है। यदि दूसरे भाग में जगजिंदर-आलिया की प्रेम कहानी को ज्यादा फुटेज दिया जाता तो बेहतर रहता, लेकिन इस हिस्से में रोमांस को लगभग भूला ही दिया गया है। बावजूद इन कमियों के फिल्म में ऐसे दृश्यों की भरमार है जो मनोरंजन करते रहते हैं, जैसे मशरूम-ब्राउनी वाला सीक्वेंस, करण जौहर का मेहंदी विद करण और ईशा का शादी में अपने कपड़े उतारना वाले दृश्य।
निर्देशक विकास बहल ने 'डिज़्नी' की तरह खूबसूरत, रंगीन और सॉफ्ट फिल्म बनाने की कोशिश की है। उनका प्रस्तुतिकरण लाजवाब है, लेकिन दमदार कहानी न होने के कारण फिल्म उतनी प्रभावी नहीं बन पाई। हालांकि कहानी की कमी को उन्होंने अपनी कल्पनाशीलता से काफी हद तक ढंक कर खुशनुमा फिल्म बनाई है। उन्होंने रोमांस और पिता-पुत्री के रिश्ते को ताजगी के साथ पेश किया है।
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फिल्म का संगीत और बैकग्राउंड म्युजिक इसके प्लस पाइंट्स हैं और इसका सारा श्रेय संगीतकार अमित त्रिवेदी को जाता है। 'गुलाबो', 'शाम शानदार' और 'सेंटी वाली मेंटल' सुनने लायक हैं। इसके अलावा दो पुराने गानों 'नींद न मुझको आए' और 'ईना मीना डिका' को नए स्वरूप में पेश करने वाला प्रयोग भी अच्छा है। गीतों का फिल्मांकन आंखों को सुकून देता है। बैकग्राउंड म्युजिक पर खासी मेहनत की गई है।
कलाकारों का चयन एकदम सटीक है। फिल्म के मूड के अनुरूप सभी ने थोड़ी ओवरएक्टिंग की है, लेकिन लाइन क्रास नहीं की है। वेडिंग प्लानर के रूप में शाहिद कपूर जमे हैं और अपने किरदार की स्मार्टनेस को उन्होंने बेहतरीन तरीके से जिया है। आलिया भट्ट राजकुमारी की तरह लगी हैं और उनकी एक्टिंग इतनी नेचुरल है कि लगता ही नहीं कि वे अभिनय कर रही हैं।
पंकज कपूर के लिए इस तरह के रोल करना बाएं हाथ का खेल है। पंकज-शाहिद, पंकज-आलिया, शाहिद-आलिया की केमिस्ट्री बेहतरीन रही है। सना कपूर की शुरुआत अच्छी है। सुषमा सेठ ने मुंहफट दादी के रूप में कमाल किया है। संजय कपूर ने सिंधी बिजनेसमैन के रूप में लाउड एक्टिंग की है जो किरदार की डिमांड थी।
कुल मिलाकर त्योहारों के मौसम में इस खुशमिजाज फिल्म को देखा जा सकता है।
बैनर : धर्मा प्रोडक्शन्स, फैंटम प्रोडक्शन्स
निर्माता : अनुराग कश्यप, मधु मंटेना, विक्रमादित्य मोटवाने, करण जौहर
निर्देशक : विकास बहल
संगीत : अमित त्रिवेदी
कलाकार : शाहिद कपूर, आलिया भट्ट, पंकज कपूर, सना कपूर, संजय कपूर
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 25 मिनट 32 सेकंड
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चंद्रमोहन शर्मा दो-तीन सप्ताह से 'उड़ता पंजाब' लगातार विवादों में था। हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट से गुजरने के बाद अब जब यह फिल्म दर्शकों की अदालत में आ चुकी है। इस फिल्म के केंद्र में पंजाब और नशे की लत है और इस बुराई को काफी हद तक ईमानदारी के साथ पेश किया गया है। फिल्म में गालियों की भरमार और आलिया भट्ट पर फिल्माए गए कई सीन्स पर यकीनन बहस हो सकती है। औसतन तीन-चार सीन्स के बाद आपको फिल्म में एक गाली सुनाई देगी। कोर्ट ने भी फिल्म को तीन डिस्क्लेमर और ए सर्टिफिकेट के साथ रिलीज करने का निर्देश दिया था। अगर आप डार्क अंदाज में रिऐलिटी से जुड़ी फिल्मों के शौकीन है तो दोस्तों के साथ एकबार देख सकते हैं। कहानी : पंजाब पुलिस में एएसआई सरताज सिंह (दिलजीत दोसांझ) अपने अफसरों के साथ मिलकर सीमापार से पंजाब में आने वाले ड्रग्स के ट्रक को अपने एरिया में बने बॉर्डर नाके से पार कराता है। पुलिस के आला अफसर जानते हैं कि सीमापार से आने वाले ये ट्रक लोकल एमएलए पहलवान के हैं। ऐसे में किसी में इन ट्रकों को रोकने का दम नहीं है। पहलवान अपने इन ट्रकों को नाके से पार कराने के एवज में पुलिस को मोटी रकम भी देता है। अचानक एक दिन सरताज को पता लगता है उसका छोटा भाई बल्ली भी ड्रग्स का आदी हो चुका है। ज्यादा नशा करने की वजह से उसकी हालत लगाातर बिगड़ रही है। सरताज अपने भाई को डॉक्टर प्रीति साहनी (करीना कपूर खान) के सेंटर में इलाज के लिए लाता है। अपने भाई की हालत देखकर सरताज भी डॉक्टर प्रीति के एनजीओ द्वारा नशे के खिलाफ छेड़ी गई मुहिम का हिस्सा बन जाता है। हमेशा नशे में धुत रहने वाला टॉमी सिंह (शाहिद कपूर) विदेश से पंजाब आकर बसा मशूहर पॉप सिंगर और यंग जेनरेशन का हीरो है। हर वक्त नशे में चूर रहने वाले टॉमी सिंह को पुलिस अरेस्ट कर लेती है, सात दिनों बाद टॉमी सिंह को जमानत मिलती है। हालांकि, इन सात दिनों में टॉमी बदल चुका है। बिहार से पंजाब में मजदूरी के लिए आई पिंकी (आलिया भट्ट) को खेतों में काम करते हुए एक दिन ड्रग्स का एक पैकेट मिलता है, जो बार्डर पार से खेतों में आकर गिरा है। यही पैकेट इस पिंकी को एक के बाद एक बड़ी मुसीबत में डाल देता है। ऐक्टिंग : गबरू टॉमी सिंह के किरदार में शाहिद कपूर ने कमाल की ऐक्टिंग की है। 'हैदर' के बाद शाहिद ने एक बार फिर खुद को बेहतरीन ऐक्टर साबित किया है। पंजाब पुलिस में एएसआई सरताज के रोल में दिलजीत ने निराश नहीं किया। करीना कपूर भी अपने रोल में फिट रहीं। तारीफ करनी होगी आलिया भटट की, जिन्होंने अपनी जीवंत और बेहतरीन ऐंक्टिंग से खुद को मौजूदा दौर की बेहतरीन ऐक्ट्रेस साबित किया। बिहार की मजूदर के किरदार में आलिया की गजब ऐक्टिंग इस फिल्म की नंबर वन यूएसपी है। 'हाईवे' के बाद आलिया ने एक बार फिर अपने फैन्स का दिल जीता। निर्देशन : डायरेक्टर अभिषेक चौबे ने शुरू से अंत तक इस फिल्म को एक खास मुद्दे पर केंद्रित करके रखा है। अभिषेक ने पूरी ईमानदारी के साथ बॉक्स ऑफिस की परवाह किए बना इस प्रॉजेक्ट पर काम किया और कहानी के सभी किरदारों को पूरी ईमानदारी के साथ पेश किया। स्क्रिप्ट की डिमांड के मुताबिक फिल्म कुछ ज्यादा डार्क शेड में है, वहीं अभिषेक ने पंजाब की कई रीयल लोकेशन्स पर फिल्म शूट की है जो कहानी का प्लस पॉइंट है। बेशक फिल्म में गालियों की जमकर भरमार है, लेकिन कहानी और किरदारों को माहौल के साथ जोड़ने के लिए यह शायद डायरेक्टर की मजबूरी रही होगी। डायरेक्टर अगर इन बेहद भद्दी गालियों से बचते तो ड्रग्स की बुराई को दर्शाती फिल्म एक खास टारगेट ऑडियंस के लिए ना होकर सिंगल स्क्रीन से मल्टिप्लेक्स कल्चर पर फिट बैठती। फिल्म का सेकंड हॉफ में दर्शकों के सब्र की परीक्षा लेता है। संगीत : इस फिल्म की रिलीज से पहले ही फिल्म का गाना 'चिट्टा वे' और इक कुड़ी मशहूर हो चुका है। बैकग्राउंड म्यूजिक कहानी के माहौल पर फिट बैठता है। क्यों देखें : अगर आप आलिया भट्ट के फैन है तो इस फिल्म को जरूर देखें। शाहिद और करीना कपूर को एक साथ किसी सीन में देखने जाएंगे तो अपसेट होंगे। पूरी फिल्म में दोनों किसी फ्रेम में नजर नहीं आते। 'हैदर' के बाद एकबार फिर शाहिद कपूर ने खुद को बेहतरीन ऐक्टर साबित किया। अगर आप हकीकत को बोल्ड अंदाज में पेश करतीं फिल्मों के शौकीन है तो फिल्म देखी जा सकती है। | 1 |
चंद्रमोहन शर्मा अगर सूरज बड़जात्या और सलमान खान की पहली फिल्म 'मैंने प्यार किया' की बात की जाए तो बॉक्स ऑफिस पर कामयाबी के नए रेकॉर्ड बनाने वाली इस फिल्म से पहले बॉलिवुड में इन दोनों की कोई पहचान नहीं थी। आलम यह था राजश्री जैसे टॉप बैनर के तले बनी यह फिल्म बनने के कई महीने बाद तक रिलीज के इंतजार में डिब्बे में पड़ी रही थी। फिल्म जब रिलीज हुई तो पहले दिन पहले शो में बीस से तीस फीसदी की बेहद कमजोर ऑक्यूपेंसी रही, लेकिन पहले शो के बाद फिल्म ने राजश्री बैनर के तले बनी पिछली सभी फिल्मों की कलेक्शन और कामयाबी के रेकॉर्ड ब्रेक कर दिए। बस यहीं से सूरज और सलमान की जोड़ी को कामयाबी की गारंटी माना जाने लगा, लेकिन तीन घंटे लंबी इस फिल्म की कहानी इतनी ही छोटी है और सीन दर सीन देखकर ऐसा लगता है जैसे सूरज बेवजह फिल्म के हर सीन को लंबा करने पर तुले हैं। अगर सिनेमा हॉल के हाउसफुल शो में दर्शक इन लंबे सीन्स को पसंद करके ताली बजा रहे थे तो यकीनन यह सलमान के स्टारडम का कमाल ही कहा जाएगा। इस बार सूरज ने अपनी फिल्म पर दिल खोलकर पैसा लगाया। शीशमहल का सेट भव्य और गजब का नजर आता है। फिल्म और टीवी की खबरें सीधें पढ़ें अपने फेसबुक पर, लाइक करें NBT Movies कहानी : प्रेम एक बड़े दिलवाला लेकिन सीधा-साधा राम भक्त है, जो संजय मिश्रा की राम-लीला कंपनी से जुड़ा है। रामलीला का मालिक बेशक कंजूस है, लेकिन उसका अपनी रामलीला को करने का स्टाइल बेहद फैशनेबल और भव्य है। रामलीला में प्रेम जो भी कमाता है उसका बड़ा हिस्सा रानी मैथिली (सोनम कपूर) के एनजीओ में दान करता है। राजकुमारी मैथिली के सोशल कामों का प्रेम इस तरह दीवाना है कि किसी भी सूरत में एक बार राजकुमारी से मिलना चाहता है। प्रेम की इस कहानी के साथ फिल्म में प्रीतमपुर के युवराज विजय सिंह (सलमान खान) की कहानी भी चलती है। विजय का कुछ दिन बाद राजतिलक होने वाला है, विजय सिंह की सगाई राजकुमारी मैथिली से उसके परिवार वालों ने बहुत पहले ही तय कर दी थी। युवराज विजय का छोटा भाई अजय सिंह (नील नितिन मुकेश) अपने मैनेजर चिराज ( अरमान कोहली) और युवराज की सेक्रेटरी के साथ मिलकर एक साजिश रचकर युवराज पर जानलेवा हमला करवाता है। इस हमले में विजय सिंह किसी तरह से बच जाता है ,राजघराने के वफादार दीवान साहब (अनुपम खेर) एक खूफिया किले में युवराज का इलाज करवाते हैं। विजय पर अटैक उसकी अपनी फैमिली के लोगों ने किया, इस साजिश को बेनकाब करने के लिए दीवान साहब प्रेम को युवराज बनाकर पेश करते हैं। ऐक्टिंग : फिल्म में सलमान फुल फॉर्म में नजर आते हैं। प्रेम और विजय के किरदार में सलमान खूब जमे हैं। सलमान की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने कई ऐसे सीन्स को भी अपनी मौजूदगी से दमदार बना दिया जो बेवजह डाले गए लगते हैं। सलमान के फैंस के लिए फिल्म परफेक्ट दिवाली गिफ्ट है। राजकुमारी मैथिली के किरदार में सोनम कपूर इस फिल्म की कमजोर कड़ी लगती हैं, सोनम को सूरज ने शायद इसीलिए कम डायलॉग दिए हैं। अनुपम खेर दीवान साहब के रोल में खूब जमे हैं। दीपक डोबरियाल को जो करने के लिए दिया उसे उन्होंने निभा भर दिया। नील नीतिन मुकेश का किरदार कमजोर लिखा गया तो अरमान कोहली सत्तर अस्सी के दशक की फिल्मों में नजर आने वाले विलन लगे। स्वरा भास्कर बस ठीकठाक रहीं, लेकिन संजय मिश्रा ने कम सीन्स के बावजूद अपनी मौजूदगी दर्ज कराई। डायरेक्शन : फिल्म की शुरुआत में स्क्रीन पवित्र श्लोक और रामलीला देखकर समझ आ जाता है सूरज क्या दिखाने वाले हैं। हां, इस बार उन्होंने आज बॉक्स आफिस के बादशाह सलमान खान के माध्यम से पूर्ण नैतिकता और प्रेम की परिभाषा को दिखाया है। फिल्म में पारिवारिक मूल्यों, रिश्ते वाले सीन बेवजह लंबे किए गए हैं। ऐसा लगता है कि कमज़ोर स्क्रिप्ट की वजह से सूरज ने फिल्म के लगभग हर सीन में सलमान को फिट कर डैमेज कंट्रोल किया। सोनम कपूर के सीन्स उसी वक्त अच्छे लगते हैं जब सलमान स्क्रीन पर उनके साथ नजर आते हैं। सूरज इस फिल्म में हिरोइन का किरदार पावरफुल नहीं बना पाए। संगीत : सलमान के साथ कई हिट फिल्म कर चुके हिमेश रेशमिया ने इस फिल्म के लिए पूरे दस गाने बनाए, लेकिन अगर टाइटिल ट्रैक को छोड़ दिया जाए तो फिल्म का हर गाना ज़बरदस्ती ठूंसा हुआ लगता है। क्यों देखें : अगर आप सलमान खान के दीवाने हैं तो उनका डबल किरदार ही आपके लिए काफी होगा। फैमिली ड्रामा है, लेकिन इस बार 'हम आपके हैं कौन' या 'हम साथ साथ हैं' वाली फैमिली नहीं है। वहीं फिल्म की कमजोर स्क्रिप्ट और जरूरत से ज्यादा लंबाई कई सीन्स में आपके सब्र की परीक्षा ले सकती है। | 0 |
'हीरो वर्दी से नहीं इरादे से बनते हैं' निर्देशक अभिषेक शर्मा और जॉन अब्राहम की 'परमाणु : द स्टोरी ऑफ पोखरण' बिना वर्दी वाले उसी हीरो की दास्तान बयान करती है, जिसने अमेरिका की नाक के नीचे 1998 में पोखरण में न केवल 5 सफल परमाणु परीक्षण करवाए बल्कि देश को दुनिया भर में न्यूक्लियर एस्टेट का दर्जा देकर भारत को दुनिया के शक्तिशाली देशों में शामिल करवाया। कहानी की शुरुआत 1995 के दौर से होती है, जहां इरादों का पक्का और देशभक्त अश्वत रैना (जॉन अब्राहम) अनुसंधान और विश्लेषण विभाग का एक ईमानदार सिविल सेवक है। वह प्रधानमंत्री के कार्यालय में भारत को न्यूक्लियर पावर बनाने की पेशकश करता है। मीटिंग में पहले उसका मजाक उड़ाया जाता है फिर उसका आइडिया चुरा लिया जाता है। अश्वत की गैरजानकारी में किया गया वह परीक्षण नाकाम जो जाता है और भ्रष्ट व्यवस्था की बलि चढ़ाकर उसे नौकरी से बर्खास्त कर दिया है। हताश और निराश अश्वत अपने परिवार के साथ मसूरी चला जाता है, जहां उसके साथ उसकी पत्नी सुषमा(अनुजा साठे) और उसका बेटा भी है। 3 साल बाद, सत्ता में बदलाव के बाद अश्वत को नए प्रधान मंत्री के प्रधान सचिव हिमांशु शुक्ला (बमन ईरानी) द्वारा वापस बुलाकर एक सीक्रेट टीम गठित करने के लिए कहा जाता है, जिसके बलबूते पर वह दोबारा परमाणु परीक्षण कर सके। अश्वत खुद को कृष्णा नाम देकर पांडव नाम की एक गुप्त टीम बनाता है। उसकी इस टीम में कैप्टन अंबालिका उर्फ नकुल (डायना पेंटी) के अलावा विकास कुमार, योगेंद्र टिंकू, दर्शन पांडेय, अभीराय सिंह,अजय शंकर जैसे सदस्यों को छद्म नाम देकर परमाणु परीक्षण की अलग-अलग अहम जिम्मेदारी दी जाती है। काबिल वैज्ञानिकों और आर्मी जवानों की इस टीम के साथ अश्वत निकल पड़ता है भारत का गर्व बढ़ाने के लिए, लेकिन उसके रास्त में रोड़ा बनते हैं अमेरिकी सेटेलाइट्स, पाकिस्तानी और अमेरिकी जासूस और मौसम की मार। तमाम चुनौतियों का सामना करते हुए यह टीम परमाणु परीक्षण को कैसे गजब ढंग से अंजाम देती है, इसे देखने के लिए आपको सिनेमा हॉल जाना होगा। फिल्म सत्य घटना पर आधारित है और अभिषेक शर्मा ने परमाणु परीक्षण जैसी गौरवशाली घटना को दर्शाते हुए निर्देशक के रूप में अपनी जिम्मेदारी का वहन किया है। जहां तक संभव हो सके उन्होंने किरदारों से लेकर लोकेशन तक हर चीज को रियल रखने की कोशिश की है। फिल्म का थ्रिल एलिमेंट आपको बांधे रखता है और उसी के साथ फिल्म के बीच-बीच में 90 के दशक की रियल फुटेज कहानी को और ज्यादा विश्वसनीय बनाते हैं। मध्यांतर तक फिल्म धीमी है, मगर सेकंड हाफ में यह गति पकड़ती है और क्लाइमैक्स में गर्व की अनुभूति करवाती है। बता दें कि 90 के दशक में जहां एक तरफ दुनिया के कई देश भारत के खिलाफ थे, वहीं परमाणु परीक्षण के बाद एक-एक करके भारत एक और शक्तिशाली देशों की संख्या में गिना जाने लगा। देशभक्ति से ओतप्रोत चुटीले संवादों के लिए लेखक सेवन क्वाद्रस, संयुक्ता चावला शेख और अभिषेक शर्मा को श्रेय दिया जाना चाहिए। परमाणु परीक्षण के दौरान सुरक्षा प्रक्रिया की बारीकियों को नजरअंदाज किया गया है। अभिनय के मामले में जॉन अब्राहम इस बार बाजी मार ले गए हैं। अश्वत के रोल में कहीं भी ऐक्शन हीरो और माचो मैन जॉन नजर नहीं आए। फिल्म में उन्होंने कदाचित पहली बार मार भी खाई है। डायना पेंटी अपनी भूमिका में दमदार लगी हैं। अनुजा साठे जॉन की पत्नी की भूमिका में खूब जमी हैं। विकास कुमार, योगेंद्र टिंकू, दर्शन पांडेय, अभीराय सिंह,अजय शंकर जैसे कलाकारों ने उम्दा अभिनय किया है। एक लंबे अरसे बाद हिमांशु शुक्ला की भूमिका में बोमन ईरानी अपने पुराने रंग में नजर आए हैं। फिल्म में उनकी मौजूदगी मजेदार साबित हुई है। सचिन-जिगर और जीत गांगुली जैसे संगीतकारों की अगुवाई में फिल्म का संगीत पक्ष और मजबूत हो सकता था।क्यों देखें: देश को गौरवान्वित करनेवाली इस सत्य घटनात्मक फिल्म को बिलकुल भी मिस न करें। | 0 |
पिंक मूवी उस पुरुषवादी मानसिकता के खिलाफ एक कड़ा संदेश देती है, जिसमें महिला और पुरुष को अलग-अलग पैमानों पर रखा जाता है। इस फिल्म की कहानी बताती है कि यदि कोई पुरुष ताकतवर परिवार से होता है तो किस तरह से पीड़ित महिला के लिए न्याय की लड़ाई लड़ना कठिन हो जाता है। मूवी समाज की उस सोच पर सवाल खड़े करती है, जो लड़कियों की छोटी स्कर्ट और पुरुषों के साथ ड्रिंक करने पर उनके चरित्र को खराब बताती है। फिल्म यह भी बताती है कि भले ही कोई महिला सेक्स वर्कर हो या फिर पत्नी हो, लेकिन यदि वह 'न' कहती हो तो किसी भी पुरुष को उसे छूने और उसके साथ जबरदस्ती करने का अधिकार नहीं है। कहानी: दिल्ली के पॉश इलाके में किराए पर रहने वाली तीन कामकाजी लड़कियों मीनल (तापसी), फलक (कीर्ति) और आंद्रिया (आंद्रिया) की कहानी है। मिडिल क्लास फैमिली की ये तीनों लड़कियां एक रात में फन के लिए निकलती हैं। रॉक कन्सर्ट के बाद वे राजवीर और दो अन्य युवकों की ओर से सूरजकुंड के एक रिजॉर्ट में डिनर का इन्विटेशन स्वीकार कर लेती हैं। लेकिन, कुछ ड्रिंक्स लेने के बाद यह रात उनके लिए मुसीबत का सबब साबित होती है। आंद्रिया महसूस करती है कि डंपी (राशुल टंडन) उसे गलत तरीके से छूने की कोशिश करता है और ताकत के नशे में चूर राजवीर (अंगद बेदी) मीनल के ऐतराज के बावजूद उससे छेड़खानी की कोशिश करता है। इसी बीच आत्मरक्षा करते हुए मीनल एक बोतल से राजवीर पर हमला कर देती है, जो उसकी आंख में लगती है और खून बहने लगता है। तीनों लड़कियां इस उम्मीद के साथ घर लौट आती हैं कि बात आई-गई हो जाएगी। लेकिन, उनके लिए जिंदगी कठिन हो जाती है, जब तीनों युवक उन लड़कियों को बदनाम करने और डराने की कोशिश करते हैं। तीनों लड़कियों पर उस वक्त गाज ही गिर जाती है, जब छेड़खानी की कोशिश करने वाला राजवीर अपने ताकतवर लिंक्स का इस्तेमाल कर इनके खिलाफ प्रॉस्टिट्यूशन का आरोप लगाते हुए एफआईआर दर्ज करा देता है। इसके बाद तीनों को फरार होना पड़ता है और मुश्किलों की शुरुआत होती है। मामला कोर्ट में पहुंचता है, जहां वकील दीपक सहगल (अमिताभ), जो खुद मेन्टल डिसऑर्डर का शिकार है, लड़कियों का केस लड़ता है। फिल्म में ड्रामे की शुरुआत यहीं से होती है। कोर्ट रूम में सुनवाई के दौरान मीनल से उसकी वर्जिनिटी और ड्रिंकिंग हैबिट्स पर सवाल पूछे जाते हैं। इन सवालों के जरिए यह दिखाने की कोशिश की गई है, समाज किस तरह से दोहरे मानकों पर लड़के और लड़कियों को रखता है। कोर्ट रूम के सवाल-जवाब जोनाथन काप्लन की ड्रामा फिल्म 'द एक्यूज्ड' से प्रभावित हैं। क्यों देखें: अमिताभ बच्चन समेत सभी कलाकारों ने अपनी भूमिका से न्याय किया है। क्रिएटिव प्रड्यूसर कहे जाने वाले शुजित सरकार के खाते में विक्की डोनर, मद्रास कैफे और पीके के बाद एक और शानदार फिल्म जुड़ गई है। | 0 |
chandermohan.sharma@timesgroup.com कुछ अर्से पहले तक हमारे बॉलिवुड मेकर्स को अगर किसी खेल पर फिल्म बनाना पसंद था तो वह खेल क्रिकेट ही था। आने वाले दिनों में भी अजहरुद्दीन और एमएस धोनी को लेकर भी फिल्में बन रही हैं। हालांकि, 'चक दे', 'मैरी कॉम' और 'भाग मिल्खा भाग' की सफलता के बाद अब मेकर्स दूसरे खेलों पर भी फिल्में बनाना पंसद कर रहे हैं। बॉक्स ऑफिस पर बतौर निर्देशक हर बार कामयाबी का नया इतिहास रच चुके डायरेक्टर राज कुमार हिरानी ने बेशक इस फिल्म में अपने चहेते स्टार आर. माधवन की इमेज को चेंज करने की कुछ ज्यादा ही कोशिश की है। यह फिल्म खेल फेडरेशन और खेलों के दिग्गजों के बीच चलती गुटबाजी और एक-दूसरे को नीचा दिखाने की प्रवृति और युवा प्रतिभाशाली खिलाड़ियों को प्रताड़ित करने जैसी समस्याओं पर ध्यान खिंचती है। बॉलिवुड की तमाम खबरें पढ़ें सीधे अपने फेसबुक पर, लाइक करें NBT Movies कहानी : आदि तोकर ( आर माधवन) अच्छा बॉक्सर और कोच है, लेकिन बॉक्सिंग चीफ कोच देव खतरी (जाकिर हुसैन) की वजह से उसे कई बार बेवजह प्रताड़ित होना पड़ता है। देव खतरी हर बार खुद को बेहतर साबित करने की कोशिश करता है। लंबे अर्से से आदि को एक ऐसे युवा खिलाड़ी की तलाश है जो बॉक्सिंग की फील्ड में अपना और अपने कोच का नाम देश-विदेश में रोशन करे। तभी उसका ट्रांसफर हरियाणा के हिसार शहर से चेन्नै भेज दिया जाता है।चेन्नै में बॉक्सिंग का खेल ज्यादा पॉप्युलर नहीं है, ऐसे में आदि वहां रहकर ऐसे युवा प्रतिभाशाली खिलाड़ी को कैसे खोज कर सकेगा। हालांकि, चेन्नै जाकर अपनी इस तलाश में लग जाता है, यहीं उसकी मुलाकात बेहद गुस्सैल मछली बेचने वाली एक लड़की मादी (रीतिका सिंह) से होती है। मादी को बचपन से बॉक्सिंग का जुनून है, मादी की बहन मुमताज सरकार अच्छी बॉक्सर है। मादी से मिलने के बाद आदि को लगता है जैसे उसकी तलाश पूरी हो गई है। आदि अब मादी को बेहतरीन बॉक्सर बनाने के मिशन में लग जाता है, जो उसका बरसों पुराना सपना साकार कर सके। ऐक्टिंग : आपको बता दें रीयल लाइफ में रीतिका सिंह अच्छी बॉक्सर हैं और बॉक्सिंग की कई प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेती रही हैं। ऐसे में रीतिका ने अपने किरदार को पर्दे पर जीवंत कर दिखाया है। इस फिल्म में रीतिका की बेहतरीन ऐक्टिंग देखकर नहीं लगता कि जैसे यह उसकी पहली फिल्म हो। वहीं आर. माधवन ने अपने किरदार को गजब ढंग से निभाया है। इस फिल्म में माधवन का किरदार उनकी पिछली फिल्मों से टोटली डिफरेंट है। कुछ सीन्स में माधवन के चेहरे के हाव-भाव देखकर 'चक दे इंडिया' में कोच बने शाहरुख की याद आती है। जाकिर हुसैन और मुमताज दोनों ने अपने रोल को अच्छा निभाया। डायरेक्शन : बतौर डायरेक्टर सुधा कोंगरा ने स्क्रिप्ट के साथ पूरा न्याय किया है, लेकिन उनका माइनस पॉइंट बस एक है कि फिल्म शुरू होने के बाद हॉल में बैठा दर्शक अगले सीन से लेकर कहानी के क्लाइमेक्स तक का अंदाज लगा लेता है। वहीं फिल्म बार-बार 'चक दे इंडिया' और 'मैरीकॉम' की याद दिलाती है, लेकिन सुधा ने हर किरदार से अच्छा काम लिया। खेल की पृष्ठभूमि पर बनी इस फिल्म में कोच के साथ खिलाड़ी और फेडरेशन में चलती गुटबाजी तक को दिखाने की कोशिश की, लेकिन माधवन और रीतिका के लव एंगल को फिल्म में अगर नहीं रखा जाता तो यकीनन फिल्म और जानदार बन पाती। संगीत : स्वानंद किरकरे के गाने कहानी और माहौल के मुताबिक है, इन गानों को माहौल के मुताबिक बनाने में म्यूजिक डायरेक्टर संतोष नारायण ने काफी मेहनत की है, लेकिन हॉल से बाहर आने के बाद आपको शायद ही फिल्म को कोई गाना याद रह पाए। क्यों देखें : अगर खेल पर बनी फिल्में पसंद हैं तो जरूर देखिए। रीतिका सिंह की बेहतरीन ऐक्टिंग, आर माधवन का नया बदला लुक, बॉक्सिंग को लेकर ईमानदारी के साथ बनी इस फिल्म में माइनस पॉइंट बस यही है कि कहानी में नयापन नहीं है । | 0 |
बैनर :
यूटीवी मोशन पिक्चर्स
निर्माता :
रामगोपाल वर्मा, रॉनी स्क्रूवाला
निर्देशक :
रामगोपाल वर्मा
संगीत :
इमरान, बपी, टुटुल
कलाकार :
नितिन रेड्डी, प्रियंका कोठारी, गौतम रोडे, इशरत अली
* यू/ए * 12 रील
मान लीजिए आप आइसक्रीम खाने जाते हैं। आपसे पहले पैसे लेकर खाली कोन पकड़ा दिया जाता है। आइसक्रीम के बारे में आप पूछते हैं तो जवाब मिलता है कि इसके लिए आपको अगले सीजन में आना पड़ेगा। यह सुनकर आप जैसा महसूस करेंगे कुछ वैसी ही ठगे जाने की भावना ‘अज्ञात’ देखने के बाद भी महसूस होती है।
आधी-अधूरी फिल्म को प्रदर्शित कर दिया गया और कहा गया कि रहस्य ‘अज्ञात 2’ में खोला जाएगा। इस बात की भी कोई गारंटी नहीं है कि इस फिल्म का दूसरा भाग बनेगा या नहीं। अगर आधी फिल्म ही बनाई गई है तो यह बात दर्शकों को पहले बताई जानी चाहिए कि फिल्म को दो हिस्सों में बनाया जाएगा और ‘अज्ञात’ दूसरे भाग में ज्ञात होगा। एक तरह से ये सरासर धोखाधड़ी है।
कहानी है एक जंगल की, जिसमें फिल्म की यूनिट शूटिंग कर रही है। कैमरे में खराबी आ जाती है। नए कैमरे को पहुँचने में दो-तीन दिन का समय लगेगा। समय बिताने के लिए यूनिट के लोग घने जंगल में जाते हैं। सिर्फ सेतु ही जंगल का रास्ता जानता है। एक अजीब-सी आवाज सब सुनते हैं। सेतु यह जानने जाता है कि यह किसकी आवाज है, लेकिन वह मारा जाता है।
घबराए हुए सभी लोग जंगल में फँस जाते हैं और निकलने की कोशिश करते हैं। दो-तीन और लोग रहस्यमय परिस्थितियों में मारे जाते हैं। कुछ घबराकर आत्महत्या कर लेते हैं ताकि सिर्फ नायक और नायिका ही बचें।
अंत में चमत्कारिक तरीके से वे जंगल से बाहर निकलते हैं। सभी जानने के लिए बेचैन रहते हैं कि वो ‘अज्ञात’ कौन है, लेकिन तभी स्क्रीन पर लिखा आता है कि इसके बारे में आपको ‘अज्ञात 2’ में बताया जाएगा।
शायद निर्देशक रामगोपाल वर्मा और उनके लेखकों ने सोचा होगा कि फिल्म की शूटिंग शुरू करो, थोड़े समय बाद वे अंत लिख लेंगे। लेकिन वे क्लाइमैक्स सोच नहीं पाए और उन्होंने अधूरी फिल्म को ही प्रदर्शित कर दिया। माना कि वे सीक्वल बनाना चाहते हैं, लेकिन कम से कम उस अज्ञात शक्ति के बारे में तो बताना उनका फर्ज है। प्रयोग के नाम पर कुछ भी कर लेने की छूट नहीं होती है।
कहने को तो फिल्म थ्रिलर है, लेकिन थ्रिल इसमें से नदारद है। सैकड़ों बार इस तरह की परिस्थितियाँ फिल्म या टीवी में दोहराई जा चुकी हैं। थ्रिलर फिल्म में निर्देशक की कल्पनाशीलता का बहुत महत्व होता है, लेकिन रामू इसमें मार खा गए। एक-दो दृश्यों को छोड़ वे कहीं भी प्रभावी नहीं दिखे। उनके पास कहने को ज्यादा कुछ नहीं था, इसलिए कैमरे की आँख से वे जंगल और प्रियंका कोठारी की देह दिखाते रहे।
प्रियंका कोठारी को छोड़ ज्यादातर उन कलाकारों को लिया गया है, जिनसे हिंदी फिल्म देखने वाले परिचित नहीं हैं। तेलुगू फिल्म के स्टार नितिन रेड्डी ने हिंदी फिल्मों में अपनी शुरुआत की है और उनका अभिनय प्रभावी है।
प्रियंका कोठारी और अभिनय में छत्तीस का आँकड़ा है। गौतम रोडे और इशरत अली थोड़े लाउड हो गए हैं। रवि काले और अन्य कलाकारों ने अपना काम ठीक से किया है। सुरजोदीप घोष ने जंगल को खूब फिल्माया है। अमर-मोहिले का बैकग्राउंड म्यूजिक उम्दा है। गीत-संगीत के नाम पर कुछ घटिया गाने फिल्म में जबरन ठूँसे गए हैं।
रामगोपाल वर्मा कुछ फिल्में पूरी लगन से बनाते हैं और कुछ को बनाते समय उनके अंदर बैठा निर्देशक मक्कार हो जाता है। ‘अज्ञात’ में तो उन्होंने पैसा लेकर दर्शकों को मूर्ख बनाया है। अब उन्हें क्या कहा जाए, ये आप बताइए।
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चंद्रमोहन शर्मा अगर क्रिकेट पर बनी फिल्मों की बात की जाए, तो सिल्वर स्क्रीन पर ऐसी फिल्म वैसा जादू नहीं बिखेर पाई, जो असली मैदान में नजर आता है। इमरान हाशमी स्टारर 'अजहर' फ्लॉप रही, भले ही वह एक बायोपिक फिल्म रही हो। वहीं क्रिकेट थीम पर बनी दूसरे नामी स्टार्स की भी आधा दर्जन के करीब फिल्में भी कुछ खास नहीं कर पाईं। शायद यही वजह है कि भारी बजट में बनी इस फिल्म में डायरेक्टर ने क्रिकेट में मैच फिक्सिंग से लेकर करप्शन सहित ऐसे तमाम मसालों को फिट किया है, जो बॉक्स ऑफिस पर इसे हिट कराने का दम रखते हैं। यह फिल्म जॉन अब्राहम के करियर के लिए भी खास है। 'वेलकम बैक' के बाद जॉन लंबे अर्से से एक अदद हिट को तरस रहे हैं। वहीं, करीब चार साल पहले आई 'गली गली में चोर है' की नाकामी के बाद अब सिल्वर स्क्रीन पर नजर आए अक्षय खन्ना भी 'ढिशूम' से अपनी सेकंड इनिंग शुरू कर रहे हैं। अक्षय खन्ना एकबार फिर खलनायक के किरदार में होंगे। इससे पहले वह 'हमराज' में नेगेटिव किरदार निभा चुके हैं। जहां तक 'ढिशूम' की बात है तो यूएई के शानदार लोकेशन्स, हेलिकॉप्टर पर जॉन अब्राहम और वरुण धवन के साथ फिल्माए गए कई हैरतअंगेज ऐक्शन सीन्स इस फिल्म की यूएसपी हैं। परिणीति चोपड़ा अपना वजन घटाने के बाद इस फिल्म में वरुण के साथ डांस करती नजर आती तो हैं, लेकिन उनकी एंट्री बेहद हल्की और कमजोर रही है। कहानी: यूएई में भारतीय क्रिकेट टीम के नंबर वन बैट्समैन विराज शर्मा (साकिब सलीम) की किडनैपिंग हो जाती है। दिल्ली से स्पेशल टास्क फोर्स के जांबाज अफसर कबीर शेरगिल (जॉन अब्राहम) को वहां विराज को किडनैपर से सुरक्षित रिहा कराने के सीक्रिट मिशन पर भेजा जाता है। यूएई में कबीर वहां की पुलिस में ड्यूटी कर रहे जुनैद अंसारी (वरुण धवन) को अपने साथ इस मिशन में शामिल करता है। यूएई पुलिस के आला अफसरों की नजर में जुनैद किसी काम का नहीं, लेकिन कबीर को पहली ही मुलाकात में लगता है कि जुनैद उसके लिए काम का आदमी हो सकता है, इसलिए वह उसे अपने इस सीक्रिट मिशन में शामिल कर लेता है। दरअसल, कबीर विराज का पता लगाने के साथ-साथ वहां 36 घंटे बाद होने वाले एक क्रिकेट मैच में शामिल फिक्सिंग गिरोह को भी अपनी गिरफ्त में लेना चाहता है। अबुधाबी में कबीर और जुनैद की मुलाकात इशिका (जैक्लीन फर्नांडिज) से होती है, जो मोबाइल उड़ाने वाले गिरोह से जुड़ी है। इशिका को पूछताछ के लिए कबीर और जुनैद पुलिस कस्टडी में लेते हैं। कहानी में टर्निंग पॉइंट तब आता है, जब इस केस में लगे कबीर पहले अल्ताफ (राहुल देव) और उसके बाद केस की कड़ियों को जोड़ते-जोड़ते राहुल (अक्षय खन्ना) तक पहुंचते हैं। ऐक्टिंग: अक्षय खन्ना कई साल बाद इस फिल्म में नजर आए और अपने जीवंत अभिनय से छा गए। वहीं जॉन अब्राहम और वरुण धवन के इर्द-गिर्द घूमती कहानी में जॉन ऐक्शन सीन्स में वरुण पर भारी नजर आए। वरुण धवन पहले भी ऐसे कई किरदार निभा चुके हैं। फर्क बस इतना है इस बार वह पुलिसवाले बनकर सामने आए हैं, वर्ना उनकी ऐक्टिंग में नया कुछ नहीं है। कहानी में जैकलीन के किरदार के लिए कुछ खास नहीं है। वहीं अक्षय कुमार ने अपने दोस्त जॉन अब्राहम की खातिर इस फिल्म में चंद मिनट का कैमियो किया है। डायरेक्शन: रोहित धवन को इस फिल्म के लिए कमजोर स्क्रिप्ट मिली। ऐसा लगता है कि 'ढिशूम' के स्क्रिप्ट राइटर यशराज बैनर की 'धूम' के जादू में उलझे रहे और किरदारों व स्क्रिप्ट को दमदार बनाने पर ध्यान ही नहीं दे पाए। क्यों देखें: जॉन अब्राहम पर फिल्माए गए ऐक्शन और स्टंट सीन्स, वरुण धवन की मस्ती, जैकलीन और नरगिस फाखरी की खूबसूरत अदाओं के साथ-साथ अक्षय खन्ना का दमदार कमबैक फिल्म की यूएसपी है। कहानी में नयापन नहीं है। | 1 |
दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे को प्रदर्शित हुए 19 वर्ष बीत गए हैं। इन वर्षों में डीडीएलजे से प्रेरित सैकड़ों फिल्में बनी हैं और 'हम्प्टी शर्मा की दुल्हनिया' जैसी फिल्में अभी भी बन रही हैं। इन दिनों ज्यादातर फिल्मकार पुरानी फिल्मों से प्रेरणा ले रहे हैं और नए माहौल में ढाल कर फिल्मों को पेश कर रहे हैं।
हम्प्टी शर्मा की दुल्हनिया' के निर्माता करण जौहर खुद डीडीएलजे का हिस्सा रह चुके हैं इसलिए उन पर भी इस फिल्म का नशा अब तक चढ़ा हुआ है। 'हम्प्टी शर्मा की दुल्हनिया' शाहरुख-काजोल अभिनीत 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' का रीमेक तो नहीं है, लेकिन उस फिल्म से खास घटनाओं को लेकर वर्तमान दौर के रंग में इसे पेश किया गया है। फिल्म के दूसरे हिस्से में डीडीएलजे का असर ज्यादा नजर आता है। डीडीएलजे एक बेहतरीन फिल्म है और उसकी बराबरी करना हम्प्टी के लिए मुमकिन नहीं है, लेकिन हम्प्टी मनोरंजन करने में जरूर सफल रहती है।
राज की जगह राकेश शर्मा उर्फ हम्प्टी शर्मा (वरूण धवन) ने ले ली है, जो एक स्टेशनरी की दुकान चलाने वाले का बेटा है। सिमरन की जगह अंबाला की लड़की काव्या प्रताप सिंह (आलिया भट्ट) नजर आती है, जिसने अपनी गर्दन पर 'पटाका' लिखा टैटू बना रखा है और बीअर पीने के मामले में लड़कों को भी मात दे देती है।
सिमरन यूरोप भ्रमण के लिए निकली थी तो काव्या अंबाला से नई दिल्ली आती है। काव्या का ब्याह एनआरआई लड़के अंगद (सिद्धार्थ शुक्ला) से तय हो चुका है, लेकिन नई दिल्ली की यात्रा के दौरान उसे हम्प्टी शर्मा से इश्क हो जाता है। कुछ दिनों बाद काव्या अंबाला लौट जाती है और उसके पीछे-पीछे हम्प्टी भी उसके घर पहुंच जाता है।
चौधरी बलदेव सिंह की जगह आशुतोष राणा नजर आते हैं जो हम्प्टी के आगे एक शर्त रखते हैं। पांच दिन में वे अंगद की एक भी बुराई बता दे तो वे अपनी बेटी का हाथ हम्प्टी को सौंप देंगे। अंगद गुड लुकिंग है, फिट है, बढ़िया खाना बना लेता है, डॉक्टर है, शराब-सिगरेट से दूर रहता है। अंगद यदि पेड़ है तो उसके सामने हम्प्टी एक छोटा-सा पौधा। क्या काव्या को हम्प्टी अपनी दुल्हनिया बना पाएगा?
फिल्म का लेखन और निर्देशन शशांक खेतान ने किया है। कहानी के रूप में शशांक दर्शकों के सामने कुछ नया तो नहीं पेश कर पाए, लेकिन जिस तरीके से इस कहानी पर स्क्रिप्ट लिखी गई है और निर्देशन किया गया है उससे फिल्म दर्शकों का लगातार मनोरंजन होता रहता है। यह फिल्म कहानी से नहीं बल्कि किरदारों के कारण अच्छी लगती है।
हम्प्टी और काव्या के किरदारों से दर्शक पहली फ्रेम से ही जुड़ जाते हैं और उनकी हर हरकत अच्छी लगती है। फिल्म का पहला हाफ भरपूर मनोरंजन करता है। फिल्म के इस हिस्से में हम्प्टी-काव्या, हम्प्टी और उसके दोस्त, हम्प्टी द्वारा काव्या की सहेली को ब्लैकमेलर से बचाना, अपनी दुकान में हम्प्टी और काव्या का दोस्तों के साथ पार्टी करने वाले जैसे कुछ शानदार सीन देखने को मिलते हैं। इंटरवल के बाद फिल्म बिखरती है, लेकिन बोर नहीं करती क्योंकि फिल्म की गति को काफी तेज रखा गया है।
फिल्म की स्क्रिप्ट परफेक्ट नहीं है और इसमें गलतियां हैं, कई जगह लॉजिक की अनदेखी की गई है, क्लाइमेक्स बहुत ही साधारण है और लेखक ने इसे अपनी सुविधानुसार लिखा है। चूंकि फिल्म दर्शकों को एंटरटेन करती है इसलिए इन कमियों को भुलाया जा सकता है। इस मामले में शशांक लेखक के बजाय निर्देशक ज्यादा अच्छे साबित होते हैं। उन्होंने माहौल को हल्का रखा है और इमोशनल दृश्यों को भी हास्य की चाशनी में डूबो कर पेश किया है। कहानी चिर-परिचित होने के बावजूद फिल्म में ताजगी का एहसास होता है। फिल्म के संवाद मनोरंजन करने में अहम भूमिका निभाते हैं और कई जगह हंसाते हैं।
कलाकारों का उम्दा अभिनय भी फिल्म पसंद आने का एक महत्वपूर्ण कारण है। वरूण धवन पूरी तरह से अपने किरदार में घुसे नजर आए। एक दिलफेंक और लापरवाह लड़के का रोल उन्होंने बखूबी निभाया। इमोशनल सीन भी वे अच्छे से कर गए। उनकी ऊर्जा पूरी फिल्म में एक जैसी नजर आई। आलिया ने बिंदास काव्या के रोल को ताजगी के साथ पेश किया। आशुतोष राणा तो अनुभवी एक्टर है। पोपलू और शोंटी के रूप में साहिल वैद और गौरव पांडे ने दर्शकों को खूब हंसाया। सिद्धार्थ शुक्ला का रोल छोटा है और वे खास प्रभावित नहीं करते। फिल्म का संगीत अच्छा है और दो-तीन गाने उम्दा
हैं
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हम्प्टी शर्मा की दुल्हनिया' कुछ नया तो पेश नहीं करती, लेकिन शानदार संवाद, दमदार अभिनय और भरपूर मनोरंजन के कारण इस हल्की-फुल्की रोमांटिक मूवी को देखा जा सकता है।
बैनर :
धर्मा प्रोडक्शन्स
निर्माता :
करण जौहर, हीरू यश जौहर
निर्देशक :
शशांक खेतान
संगीत :
सचिन-जिगर, शरीब-तोषी
कलाकार :
वरूण धवन, आलिया भट्ट, आशुतोष राणा, सिद्धार्थ शुक्ला, साहिल वैद, गौरव पांडे
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 14 मिनट 16 सेकंड
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‘टशन’ की टैग लाइन है, द स्टाइल, द गुडलक, द फार्मूला, लेकिन फिल्म में सिर्फ बेअसर हो चुका फार्मूला ही नजर आता है।
निर्माता :
आदित्य चोपड़ा
निर्देशक :
विजय कृष्ण आचार्य
संगीत :
विशाल शेखर
कलाकार :
अक्षय कुमार, करीना कपूर, सैफ अली खान, अनिल कपूर
यू/ए* 17 रील
और 80 के दशक में बॉलीवुड की मसाला फिल्मों में फार्मूला का जोर था। एक फार्मूला था बदले का। बचपन में मासूम बच्चे के पिता की हत्या कर दी जाती है। हत्यारे को सिर्फ बच्चा पहचानता है और वह बड़ा होकर बदला लेता है।
एक फार्मूला होता था प्रेम का। बचपन में लड़का-लड़की में प्रेम हो जाता है और उसके बाद दोनों जुदा हो जाते हैं। वे जवान हो जाते हैं पर बचपन का प्यार भूला नहीं पाते। बड़े होने के बाद जिंदगी उन्हें फिर साथ कर देती है, लेकिन वे एक-दूसरे को पहचानते नहीं। फिल्म समाप्त होने के पूर्व घटनाक्रम ऐसा घटता है कि उन्हें सब कुछ याद आ जाता है।
उन दिनों फिल्म का क्लायमैक्स अक्सर विलेन के अड्डे पर फिल्माया जाता था। जहाँ बड़े-बड़े खाली डब्बे और पीपे पड़े रहते थे। नायक और खलनायक वहाँ मारामारी करते थे और वे खाली डब्बे धड़ाधड़ गिरते थे।
लड़ते-लड़ते अचानक आग भी लग जाती थी। खलनायक हजारों गोलियाँ चलाता था, लेकिन उसका निशाना हमेशा कमजोर रहता था। हीरो को एक भी गोली नहीं लगती थी। हीरो को बेवकूफ पुलिस ऑफिसर ढूँढते हुए आता था, तो वह भेष बदलकर गाना गाने लगता था।
यहाँ इन फार्मूलों को याद करने का मकसद फिल्म ‘टशन’ है। इन चुके हुए फार्मूलों का उपयोग निर्देशक विजय कृष्ण आचार्य ने ‘टशन’ में किया है, जिनका उपयोग अब फार्मूला फिल्मकार भी नहीं करते हैं।
विजय, जिन्होंने कि फिल्म की कहानी और पटकथा भी लिखी है, का सारा ध्यान चरित्रों को स्टाइलिश लुक देने में रहा है। उन्होंने दोयम दर्जे की कहानी लिखी है, जिसमें ढेर सारे अगर-मगर हैं। फिल्म इतनी स्टाइलिश भी नहीं है कि दर्शक सारी कमियाँ भूल जाए।
कहानी है पूजा सिंह (करीना कपूर) की जो अपने पिता की हत्या का बदला भैयाजी (अनिल कपूर) से लेना चाहती है। भैय्याजी के पच्चीस करोड़ रुपए चुराने के लिए वह जिमी (सैफ अली खान) का सहारा लेती है। जिमी से प्यार का नाटक रचाकर वह पच्चीस करोड़ रुपए लेकर फुर्र हो जाती है।
भैयाजी रुपए वसूलने का जिम्मा कानपुर में रहने वाले बच्चन पांडे (अक्षय कुमार) को सौंपते हैं। बच्चन को पूजा अपने प्यार के जाल फंसाकर बेवकूफ बनाना चाहती है, लेकिन वो उसके बचपन का प्यार है। अंत में जिमी, पूजा और बच्चन मिलकर भैयाजी और उनकी गैंग का सफाया कर देते हैं।
पूजा पच्चीस करोड़ रुपए चुराने के बाद उन्हें पूरे भारत में अलग-अलग जगहों पर रख देती है। झोपडि़यों में ग्रामीण उसके करोड़ों रुपए संभालते हैं। इस बहाने ढेर सारी जगहों पर घूमाया गया है।
फिल्म की शूटिंग लद्दाख, केरल, हरिद्वार और ग्रीस में की गई है। लोकेशन अद्भुत हैं, लेकिन हरिद्वार और राजस्थान जाते समय बीच में ग्रीस के लोकेशन आ जाते हैं।
फिल्म के क्लायमैक्स में कई दृश्य हास्यास्पद हैं। जमीन पर चीनी लोगों से अक्षय की लड़ाई होती रहती है। अगले दृश्य में वे बिजली के खंबे पर लड़ने लगते हैं। सैफ अली खान बोट पर आकर अनिल की पिटाई करता है तो अगले दृश्य में अनिल साइकिल रिक्शा पर आ जाता है।
फिल्म में भैयाजी की पेंट बार-बार खिसकती रहती है और भैया जी उसे ऊपर खींचते रहते हैं। यही हाल कहानी का भी है। बार-बार यह पटरी से उतर जाती है और इसे बार-बार पटरी पर खींचकर लाया जाता है। मध्यांतर के बाद फिल्म की गति बेहद धीमी हो जाती है।
फिल्म का सकारात्मक पहलू है अक्षय कुमार और करीना कपूर का अभिनय। करीना इस फिल्म की हीरो हैं और पटकथा उनको केन्द्र में रखकर ही लिखी गई है। करीना ने इस फिल्म के लिए विशेष रूप से ज़ीरो फिगर बनाया और उसे खूब दिखाया। उनका चरित्र कई शेड्स लिए हुए हैं जिन्हें करीना ने बखूबी जिया।
अक्षय कुमार खिलंदड़ व्यक्ति की भूमिका हमेशा शानदार तरीके से निभाते हैं। इस फिल्म में भी उनका अभिनय प्रशंसनीय है। करीना से प्यार होने के बाद उनके शरमाने वाला दृश्य देखने लायक है। उन्होंने अपने चरित्र की बॉडी लैग्वेंज को बारीकी से पकड़ा है।
सैफ का चरित्र थोड़ा दबा हुआ है, लेकिन उनका अभिनय और संवाद अदायगी उम्दा है। अनिल कपूर ने हिंग्लिश में ऐसे संवाद बोले कि आधे से ज्यादा समझ में ही नहीं आते। अनिल का अभिनय अच्छा है, लेकिन उनका चरित्र बोर करता है।
विशाल शेखर का संगीत फिल्म देखते समय ज्यादा अच्छा लगता है। ‘छलिया’, दिल डांस मारे’ और ‘फलक तक’ का फिल्मांकन भव्य है।
‘टशन’ की टैग लाइन है, द स्टाइल, द गुडलक, द फार्मूला, लेकिन फिल्म में सिर्फ बेअसर हो चुका फार्मूला ही नजर आता है।
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पिछले साल टोरंटो फिल्म फेस्टिवल के बाद मुंबई के मामी फिल्म फेस्टिवल में दर्शकों और क्रिटिक्स की जमकर वाहवाही बटोरने के बाद इस 'मुक्काबाज' को सिनेमाघरों तक पहुंचने में कुछ ज्यादा ही वक्त लग गया। बेशक, पिछले कुछ अर्से में बॉलिवुड में क्रिकेट को छोड़कर दूसरे खेलों पर भी फिल्में बनने लगी हैं तो दर्शकों की एक बड़ी क्लास इन फिल्मों को पसंद भी कर रही है, तभी तो हॉकी पर बनी 'चक दे इंडिया' से लेकर रेसलर मिल्खा सिंह पर बनी 'भाग मिल्खा भाग' और प्रियंका चोपड़ा स्टारर 'मैरीकॉम' के बाद कुश्ती पर बनी दोनों फिल्मों 'सुल्तान' और 'दंगल' बॉक्स ऑफिस पर रेकॉर्ड कलेक्शन करने में कामयाब रही। इसी कड़ी में अनुराग कश्यप के निर्देशन में बनी 'मुक्काबाज' को आप खेल पर बनी एक ऐसी फिल्म है कह सकते हैं, जो आपको कुछ सोचने पर मजबूर करती है। इस फिल्म की कहानी खुद फिल्म के लीड हीरो विनीत कुमार सिंह ने करीब चार साल पहले लिखी और कई प्रडयूसर से इस कहानी पर फिल्म बनाने के लिए अप्रोच किया, लेकिन विनीत खुद इस फिल्म में लीड किरदार निभाने की शर्त पर अपनी कहानी पर फिल्म बनाने की बात कर रहे थे सो उन्हें इसके लिए कुछ ज्यादा ही लंबा इंतजार करना पड़ा। अनुराग ने जब विनीत और मुक्ति सिंह की लिखी कहानी पर फिल्म बनाने के लिए हामी भरी तभी विनीत को साफ कह दिया पहले आप रिंग में जाकर मुक्केबाजी में परफेक्ट हो जाओ, प्रोफेशनल मुक्केबाजों के साथ रिंग में उतरकर मुक्केबाजी करो... उसके बाद ही फिल्म में लीड किरदार कर पाओगे। पहली बार अनुराग ने इस फिल्म में कई बॉक्सिंग टूर्नामेंट खेल चुके मुक्केबाजों को लिया। फिल्म में विनीत जहां इनके साथ रिंग में भिड़ते नज़र आ रहे हैं वहीं इन सबसे विनीत ने शूटिंग से पहले ट्रेनिंग ली। फिल्म के क्लाइमैक्स में विनीत भारत के पूर्व बॉक्सिंग चैंपियन रह चुके दीपक राजपूत से भिड़ते हैं तो वहीं टेक्निकल राउंड में वह, नीरज गोयत से जैसे नामी मुक्केबाजों के साथ भिड़ते नज़र आते हैं। इतना हीं नहीं अनुराग ने फिल्म को रिऐलिटी के और नजदीक रखने के मकसद से बॉक्सिंग के सीन की शूटिंग के लिए किसी कोरियॉग्रफर या ऐक्शन एक्सपर्ट की मदद नहीं ली और बॉक्सिंग मुकाबलों के सीन में विनीत रिंग के नामचीन मुक्केबाजों के साथ भिड़े जिसका खामियाजा भी उन्हें भुगतना पड़ा। शूटिंग के दौरान विनीत कई बार चोटग्रस्त हुए जिसके चलते फिल्म की शूटिंग रोकनी पड़ी।स्टोरी प्लॉट : बरेली की छोटी गलियों में अपने बड़े भाई के साथ रह रहे श्रवण सिंह (विनीत कुमार सिंह) का बस एक ही सपना है कि उसने मुक्केबाजी में अपना नाम कमाना है। गरीब तंग हाल फैमिली का श्रवण मुक्केबाजी की ट्रेनिंग लेने के मकसद से फेडरेशन में प्रभावशाली और दबंग भगवानदास मिश्रा (जिम्मी शेरगिल) के यहां जाता है, जहां भगवान दास बॉक्सर उसे बॉक्सिग की ट्रेनिंग देने की बजाए अपने घर के कामकाज में लगा देता है। श्रवण को यह मंजूर नहीं और एक दिन वह जब भगवान दास के चेहरे पर मुक्का जड़ देता है तो इसके बाद भगवान दास उसका करियर तबाह करने का मन बनाकर उसके रास्ते में रोड़े अटकाने में लग जाता है। वहीं भगवान दास की भतीजी सुनैना (जोया हुसैन) है, जो सुन तो सकती है लेकिन बोल नहीं सकती। पहली नजर में देखते ही श्रवण उस पर मर मिटता है। भगवान दास के होते जब श्रवण बरेली की ओर से टूर्नामेंट में हर बार खेलने से रोक दिया जाता है तो वह बनारस का रुख करता है, जहां कोच (रवि किशन) उसके टैलंट को पहचानता है। कोच को लगता है कि अगर मेहनत की जाए तो श्रवण नैशनल चैंपियन बन सकता है। जिला टूर्नामेंट जीतने के बाद श्रवण को रेलवे में नौकरी मिल जाती है। भगवान दास की मर्जी के खिलाफ श्रवण और सुनैना की शादी हो जाती है, लेकिन भगवान दास को यह मंजूर नहीं, इसलिए नैशनल चैंपियनशिप के मुकाबले से श्रवण को बाहर करने के लिए भगवान दास एक साजिश रचता है।मुक्केबाज श्रवण के किरदार में विनीत कुमार सिंह का जवाब नहीं। बॉक्सिंग रिंग में नामी मुक्केबाजों के साथ विनीत के फाइट्स सीन फिल्मी न होकर रिऐलिटी के बेहद करीब लगते हैं। विनीत की डायलॉग डिलीवरी किरदार के अनुरूप है तो वहीं अपनी हर बात को इशारों में रखने वाली सुनैना के रोल में जोया हुसैन ने मेहनत की है। जिम्मी शेरगिल की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने भगवान दास मिश्रा के किरदार को ऐसे घिनौने और खतरनाक अंदाज के साथ पेश किया कि दर्शकों को इस किरदार से नफरत हो जाती है और इसका क्रेडिट यकीनन जिम्मी की बेहतरीन ऐक्टिंग को जाता है। वहीं कोच के रोल में रवि किशन अपने किरदार में खूब जमे हैं। अपने मिजाज के मुताबिक, अनुराग कश्यप फिल्म में गुंडाराज व जातिवाद पर उभरते खिलाड़ियों के संघर्ष को भी पेश करने में कामयाब रहे हैं। बेशक अनुराग की इस फिल्म की कहानी उत्तर प्रदेश के एक छोटे से शहर की है, लेकिन कहानी पेश करने का अंदाज उत्तर प्रदेश ही नहीं बल्कि हर उस राज्य का है जहां अभी भी बॉक्सिंग की पहचान है। फिल्म के संवाद बेहतरीन हैं। फिल्म के संवादों में उत्तर प्रदेश की बोली की महक आती है। फिल्म के लीड किरदार श्रवण सिंह का यह डायलॉग 'माइक टायसन हैं हम उत्तर प्रदेस के', 'एक ठो धर दिए न तो प्राण पखेरू हो जाएगा आपका' दर्शकों को तालिया बजाने को मजबूर करता है। रचिता सिंह का संगीत टोटली फिल्म के मिजाज के मुताबिक है, वहीं फिल्म का माइनस पॉइंट फिल्म की सुस्त रफ्तार के साथ बेवजह कहानी को खींचना है। इंटरवल से पहले कई सीन लंबे किए गए। अगर अनुराग 15-20 मिनट की फिल्म पर कैंची चलाते तो फिल्म की रफ्तार दर्शकों को कहानी के साथ पूरी तरह बांधकर रखती। | 1 |
पाकिस्तान फिल्मकारों का प्रिय विषय रहा है। हिना से लेकर तो गदर, फिल्मिस्तान, तेरे बिन लादेन, वार छोड़ो ना यार, डी-डे और वेलकम टू कराची की कहानी इस देश के इर्दगिर्द घूमती है। इनमें से कुछ फिल्म गंभीर किस्म की हैं तो कुछ फिल्मों में दोनों देशों के संबंधों को लेकर कॉमेडी की गई है। सुनते हैं सलमान खान की आगामी फिल्म 'बजरंगी भाईजान' की कहानी में भी पाकिस्तान है।
बात की जाए वेलकम टू कराची की। इस फिल्म में किसी भी बात को गंभीरता से नहीं लिया गया है। हर दृश्य में दर्शकों को हंसाने की कोशिश की गई है, लेकिन मजाल है कि आप मुस्कुरा भी दें। पूरी फिल्म बेवकूफाना हरकतों से भरी हुई हैं और फिल्म खत्म होने के बाद दर्शकों के दिमाग में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्यों यह फिल्म बनाई गई है? अगर निर्माता वासु भगनानी अपने बेटे को बॉलीवुड में स्थापित करने के लिए यह कोशिश कर रहे हैं तो इस तरह की फिल्मों से जैकी भगनानी का नफा नहीं बल्कि नुकसान ही होगा। दर्शकों को सजा भुगतना पड़ती है, सो अलग।
कहानी है शम्मी (अरशद वारसी) और केदार पटेल (जैकी भगनानी) की। केदार, मिथेश पटेल (दलीप ताहिल) का बेटा है जो गुजरात में इवेंट मैनेजर है। शम्मी एक्स नेवी ऑफिसर है जिसने पनडुब्बी का संधि विच्छेद कर यह समझा कि पन (पानी) में इसे डूबो दो इसलिए उसे नौकरी से हटा दिया गया। केदार के साथ मिलकर शम्मी, मिथेश के लिए काम करता है।
चार्टर्ड बोट पर शादी कराने का जिम्मा मिथेश, केदार तथा शम्मी को सौंपता है। ये दोनों बिना बारातियों के बोट लेकर निकल पड़ते हैं। तूफान आता है और ये पहुंच जाते हैं कराची। पाकिस्तान पहुंचते ही मुसीबतों का पहाड़ उन पर टूट पड़ता है। वहां से भागने का रास्ता नहीं सूझता। इसी दौरान आईएसआई, तालिबान, इंटेलीजेंस ब्यूरो, आतंकवादियों, लोकल गुंडों से उनका पाला पड़ता है। इन सब घटनाक्रमों से हंसाने की कोशिश की गई है, लेकिन सारे चुटकुले और संवाद इतने सपाट हैं कि हंसी आने के बजाय कोफ्त होती है।
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फिल्म की शुरुआत में ही यह अंदाजा लगाना आसान है कि आपके अगले कुछ घंटे मुश्किल से भरे हैं। पहले सीन से यह डर पैदा होता है और फिल्म खत्म होने पर आशंका सही साबित होती है। लेखक ने जो मन में आया वो लिख दिया। किसी भी बात का कोई ओर है न कोई छोर। लॉजिक की तो बात ही छोड़ दीजिए। कमियां बताने लग जाएं तो सुबह से शाम हो जाए। मनोरंजन का फिल्म में नामो-निशान नहीं है। एक-दो जगह हंसी आ जाए तो बड़ी बात है।
फिल्म कही से भी दर्शक को अपने से जोड़ नहीं पाती है। थोड़ी ही देर में परदे पर चल रही फिल्म से आपकी रूचि खत्म हो जाती है। इस दौरान आप झपकी ले सकते हैं या ब्रेक के लिए बाहर जा सकते हैं। फिल्म के ज्यादातर किरदार स्टीरियोटाइप हैं। गुजराती है तो हमेशा पैसे के बारे में ही सोचेगा। गरबे की ही बात करेगा। पाकिस्तान ऐसा दिखाया गया है मानो वहां हर कोई बंदूक लिए घूम रहा है और जान का प्यासा है।
निर्देशक आशीष आर. मोहन ने इसके पहले 'खिलाड़ी 786' फिल्म बनाई थी, जिसमें दर्शकों के हंसने के लिए काफी मसाला था, लेकिन 'वेलकम टू कराची' में वे निराश करते हैं। उनका निर्देशन इस तरह का है मानो बिना ड्राइवर के कार चल रही हो। फिल्म पर उनका कोई नियंत्रण नहीं दिखा।
जैकी भगनानी एक्टिंग कर रहे हैं ये साफ दिखाई देता है। अरशद वारसी अपनी कॉमिक टाइमिंग से थोड़ी राहत प्रदान करते हैं, लेकिन ज्यादातर दृश्यों में उन्हें भी समझ नहीं आ रहा था कि वे क्या कर रहे हैं। लॉरेन गॉटलिएब का अभिनय बुरा और डांस अच्छा है। फिल्म में कुछ गाने भी हैं, जिनका होना कोई मायने नहीं रखता। वीएफएक्स ऐसे हुआ है कि कई दृश्य नकली लगते हैं।
वेलकम टू कराची फिल्म से बेहतर इसका ट्रेलर है, जिसे देख काम चलाया जा सकता है।
बैनर : पूजा एंटरटेनमेंट इंडिया लि.
निर्माता : वासु भगनानी
निर्देशक : आशीष आर. मोहन
संगीत : जीत गांगुली, रोचक कोहली, अमजद नदीम
कलाकार : जैकी भगनानी, अरशद वारसी, लॉरेन गॉटलिएब
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 11 मिनट 45 सेकण्ड
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अगर हम बीते वक्त में भारत-पाकिस्तान के बीच हुई वॉर की बात करें तो हमें चार जंग याद आएगी। इन चार जंगों के अलावा इन दोनों देशों के बीच एक और जंग भी हुई, लेकिन इस जंग के बारे में बहुत कम लोग ही जानते हैं। 1971 में भारत पाक के बीच हुई जंग से पहले गहरे समुद्र में ढाई सौ से तीन सौ मीटर पानी के नीचे एक ऐसी जंग लड़ी गई, जिसके बारे में बहुत कम लोगों को ही पता है। जहां यूरोपीय देशों में अक्सर वॉर सब्जेक्ट पर फिल्में बनती रहती हैं, वहीं हमारे यहां बरसों में कभी-कभार ही कोई वॉर फिल्म बनती है और अगर बन भी जाए तो अक्सर बॉक्स ऑफिस पर ऐसी फिल्में अपनी लागत तक नहीं बटोर पाती। जे.पी. दत्ता ने वॉर पर बॉर्डर सहित कई बेहतरीन फिल्में बनाई, लेकिन करगिल में लड़ी जंग पर बनी मेगा बजट मल्टिस्टारर फिल्म 'एलओसी कारगिल' बॉक्स ऑफिस पर कमाई करना तो दूर जब अपनी लागत तक भी नहीं बटोर पाई तो वॉर फिल्में बनाने से मेकर्स कतराने लगे। करन जौहर की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने एक ऐसी वॉर को लेकर पूरी ईमानदारी के साथ फिल्म बनाने का जोखिम उठाया जिस जंग के बारे में हर कोई नहीं जानता। बांग्ला देश बनने से पहले भारत पाक के बीच 1971 में हुई जंग के बारे में हम जानते हैं, लेकिन इस जंग से पहले समुद्र के नीचे गहरे पानी के बीच एक ऐसी जंग भी हुई जिस जीत ने 71 की जंग को हमारी सेना के लिए आसान बना दिया। पानी के अंदर लड़ी गई इसी जंग पर बनी यह फिल्म एक ऐसी बेहतरीन फिल्म है जिसे देखते वक्त आप भारतीय होने पर गर्व महसूस कर सकेंगे। कहानी : नवंबर 1971 में दुनिया के नक्शे में आज के बांग्ला देश की पहचान ईस्ट पाकिस्तान के नाम से हुआ करती थी। उस दौर में पूर्वी पाकिस्तान में दमन और नरसंहार का दौर चल रहा था। पूर्वी पाकिस्तान में रहने वाला हर शख्स पाकिस्तानी सेना के जुल्म का शिकार था। पूर्वी पाकिस्तान में आजादी की मांग करने वाले बेगुनाह नागरिकों पर पाकिस्तानी सेना ने ऐसा दमन चक्र चला रखा था, जिसकी हर देश में जमकर आलोचना हो रही थी। इसी दौर में17 नवंबर 1971 को इंडियन नेवी के हेडक्वॉर्टर में एक सीक्रेट जानकारी आती है कि पाकिस्तानी नेवी बीच समुद्र में देश की रक्षा में तैनात भारत के सबसे बड़े समुद्री बेड़े आईएनएस विक्रांत पर हमला कर सकती है। नेवी हेडक्वॉर्टर के आला अफसर नंदा (ओम पुरी) इस सूचना की पूरी जांच कर लेना चाहते हैं। इसी मकसद से नंदा एक ऑपरेशन सर्च लैंड टीम बनाते हैं। इस सर्च टीम की कमान पनडुब्बी एस 21 के कैप्टन रणविजय सिंह (के.के. मेनन) के साथ साथ लेफ्टिनेंट कमांडर अर्जुन (राणा दग्गुबाती) को सयुंक्त रूप से दी जाती है। दरअसल, नंदा जानते हैं कि कैप्टन रणविजय सिंह कुछ ज्यादा ही अग्रेसिव और गुस्सैल हैं, दुश्मन को सामने पाते ही सिंह दुश्मन को वहीं खत्म करना ठीक समझते हैं। एस 21 पनडुब्बी की इस सर्च टीम में इनके साथ एक और ऑफिसर देवराज (अतुल कुलकर्णी) भी हैं। समुद्र के करीब तीन सौ मीटर नीचे जाकर इस टीम का मुकाबला पाकिस्तानी नेवी के अति आधुनिक और जंग की सभी सुविधाओं और तकनीक से सुसज्जित पाकिस्तानी पनडुब्बी पीएनएस गाजी के साथ होता है। समुद्र में कैप्टन रणविजय दुश्मन की पनडुब्बी को सामने पाकर उसे खत्म करना चाहते हैं, वहीं लेफ्टिनेंट कमांडर अर्जुन का मानना है जब तक हेडक्वॉर्टर से आदेश न आ जाए उस वक्त तक कुछ नहीं करना चाहिए। ऐक्टिंग : डायरेक्टर संकल्प और प्रडयूसर की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने बॉक्स ऑफिस पर कमाई करने वाले स्टार्स का मोह छोड़कर इस फिल्म के लिए उन्हीं कलाकारों का चयन किया जो किरदारों की डिमांड पर सौ फीसदी फिट हो। कैप्टन रणविजय सिंह के किरदार में के.के. मेनन, देवराज के रोल में अतुल कुलकर्णी के साथ-साथ लेफ्टिनेंट कमांडर अर्जुन के किरदार में राणा दग्गुबाती सभी ने अपने जीवंत अभिनय से अपने किरदार में जान डाली है। ओम पुरी अपने किरदार में सौ फीसदी फिट रहे। काश पुरी साहब, अपनी इस फिल्म बेहतरीन फिल्म को देख पाते। रिफ्यूजी डॉक्टर बनी अनन्या (तापसी पन्नू) का किरदार बेशक छोटा है, लेकिन तापसी अपनी पहचान छोड़ने में कामयाब रहीं। निर्देशन : बतौर डायरेक्टर संकल्प रेड्डी की यह पहली फिल्म है, इसके बावजूद उनकी स्क्रिप्ट पर पूरी पकड़ है। कसी स्क्रिप्ट और जानदार निर्देशन का असर है कि अंत तक आप पूरी फिल्म के साथ बंध जाते हैं। संकल्प ने वीएफएक्स और बैकग्राउंड स्कोर को बेहतरीन बनाने के लिए मेहनत की है। के.के. मेनन और दग्गुबाती के बीच संवाद सटीक हैं। संकल्प की यह फिल्म एक ऐसी जंग के बारे को बताने की ईमानदार कोशिश है जिसके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। संकल्प की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने पूरी रिसर्च और कम्प्लीट होम वर्क के बाद इस प्रॉजेक्ट पर काम शुरु किया। यह यकीनन रेड्डी के बेहतरीन निर्देशन का ही कमाल है कि करीब सवा दो घंटे की यह फिल्म देखते वक्त आप इमोशनल भी हैं तो खुद को भारतीय कहलाने पर गर्व भी महसूस करते हैं। वहीं संकल्प ने समुद्र के बीच पनडुब्बी के अंदर और बाहर की घटनाओं को अच्छे ढंग से पेश किया है। क्यों देखें : बॉक्स ऑफिस पर एक के बाद एक आ रही चालू मसाला फिल्मों को देखकर आप यह सोचने लगे हैं कि अब अच्छी और नए सब्जेक्ट पर फिल्में बननी बंद हो चुकी है तो 'द गाजी अटैक' एकबार जरूर देखें। एक ऐसी जंग जिसके बारे में शायद आप नहीं जानते उस जंग को देखने का अच्छा मौका है। | 0 |
राजकुमार राव की पिछली कई फिल्में बॉक्स ऑफिस पर अपनी लागत बटोरने के साथ अच्छी-खासी कमाई करने में भी कामयाब रही हैं। रॉव की पिछली फिल्म 'न्यूटन' ऑस्कर में एंट्री पाने में कामयाब रही तो 'बहन होगी तेरी', 'बरेली की बर्फी' को क्रिटिक्स और दर्शकों ने सराहार। अगर 'शादी में जरूर आना' की बात करें तो इस फिल्म में बेशक रत्ना सिन्हा ने अपनी ओर से एक बेहतरीन कॉन्सेप्ट उठाया तो लेकिन डायरेक्टर ने इस सिंपल कहानी को बेवजह इस तरह खींचा कि इंटरवल के बाद फिल्म दर्शकों का इम्तिहान लेने लगती है। फिल्म की रिलीज़ से पहले डायरेक्टर ने अपनी इस फिल्म को मीडिया और दर्शकों में हॉट करने के मकसद से कुछ विवादों का सहारा भी लिया तो फिल्मी मैगज़ीन्स में रॉव और कृति को लेकर जमकर गॉशिप भी आई, लेकिन बॉक्स ऑफिस पर फिल्म को इनका कुछ खास फायदा मिलने वाला नहीं है। अलबत्ता राव की पिछली तीन फिल्मों में दमदार ऐक्टिंग का फायदा फिल्म को कहीं न कहीं मिल सकता है। वैसे भी इस फिल्म को देखने की यही दो खास वजहें हैं, एक कहानी का रिऐलिटी के नजदीक होना और दूसरा लीड किरदार सत्तु में रॉव की बेहतरीन ऐक्टिंग। स्टोरी प्लॉट: कहानी कानपुर शहर से शुरू होती है। एक दफ्तर में कर्ल्क सत्येंद्र मिश्रा उर्फ सत्तु (राजकुमार राव) को उसके मामा शादी के लिए एक लड़की की फोटो दिखाते हैं। लड़की की फोटो को देखते ही सत्तु की फैमिली पसंद कर लेती है, लेकिन आरती शुक्ला (कृति खरबंदा) की मां चाहती है कि उसकी बेटी शादी से पहले अपने होने वाले पति से एक बार मिल ले। शुरुआत में आरती शादी के लिए हां नहीं करती और इसकी वजह उसे अपना करियर बनाकर अपने सपनों को साकार करना है, लेकिन अपने पापा की जिद के चलते आरती शादी करने के लिए राजी हो जाती है। सत्येंद्र और आरती को इस अरेंज मैरिज के लिए मिलवाया जाता है और पहली ही मुलाकात में आरती और सत्तु एक-दूसरे को दिल दे बैठते हैं। इसके बाद दोनों की फैमिली इनकी शादी की तैयारियों में लग जाती है, लेकिन ठीक शादी वाले दिन दुल्हन आरती मंडप से गायब हो जाती है। सत्तु को लगता है कि आरती ने उसके साथ धोखा किया है और वह अब उसका मकसद आरती से बदला लेना है। सीधा-सादा सत्तु अब एंग्रीमैन बन जाता है।'शादी में जरूर आना' के लीड किरदारों से खास बातचीतअगर ऐक्टिंग की बात करें तो मानना होगा कि राव अब हर तरह के किरदार करने में एक्सपर्ट हो चुके हैं, यहां भी सत्तु के किरदार में रॉव का जवाब नहीं है। कृति खरबंदा अपने रोल में बस ठीक-ठाक रही हैं। वैसे भी यह रॉव के इर्दगिर्द घूमती कहानी है सो बाकी कलाकारों को वैसे भी कुछ ज्यादा करने का मौका ही नहीं मिला। डायरेक्टर ने इस सीधी कहानी को इंटरवल से पहले तो सही ट्रैक पर रखा, लेकिन इंटरवल के बाद क्लाइमैक्स को न जाने क्यों मुंबइया फिल्मों की तर्ज पर करने के लिए फिल्म को बेवजह खींचा है। फिल्म में गाने हैं, शादी के इस सीजन में फिल्म का 'पल्लू लटके' गाना इस बार खूब बज सकता है। इस गाने को नए स्टाइल में पेश किया गया है, बेशक यह गाना माहौल और फिल्म में पूरी तरह से फिट है लेकिन बाकी गाने फिल्म की स्पीड को कम करने का काम करते हैं, वहीं किसी गाने में इतना दम नहीं कि हॉल से बाहर आकर आपको याद रहे। क्यों देखें : अगर आप राजकुमार राव के फैन है और अपने चहेते ऐक्टर की सभी फिल्में देखते हैं तो इस शादी में भी जाएं, लेकिन इस शादी में इतना भी दमखम नहीं है कि शादी में जरूर ही जाना है। | 1 |
निर्माता :
विशाल भारद्वाज, रमन मारू
निर्देशक :
अभिषेक चौबे
संगीत :
विशाल भारद्वाज
कलाकार :
नसीरुद्दीन शाह, अरशद वारसी, विद्या बालन, सलमान शाहिद
केवल वयस्कों के लिए * एक घंटा 57 मिनट
‘इश्किया’ देखते समय ‘ओंकारा’ की याद आना स्वाभाविक है। ‘ओंकारा’ की ही तरह इस फिल्म के किरदार के मन में क्या चल रहा है जानना कठिन होता है। लालच, प्यार और स्वार्थ के मायने उनके लिए हर पल बदलते रहते हैं। निर्देशक अभिषेक चौबे लंबे समय से विशाल भारद्वाज के साथ जुड़े हुए हैं इसलिए उन पर विशाल का असर होना स्वाभाविक है। हालाँकि ‘इश्किया’ में ‘ओंकारा’ जैसी धार नहीं है, लेकिन अभिषेक का प्रयास सराहनीय है।
फिल्म शुरू होती है कृष्णा (विद्या बालन) और उसके पति के अंतरंग दृश्यों से। कुछ ही पलों में एक विस्फोट होता है और कृष्णा का पति मारा जाता है। इधर खालूजान (नसीरुद्दीन शाह) का मुँहबोला जीजा मुश्ताक उसे और बब्बन (अरशद वारसी) को उनकी एक गलती के लिए जिंदा दफनाना चाहता है। मौका मिलते ही दोनों बदमाश भाग निकलते हैं और मुश्ताक के लाखों रुपए भी ले उड़ते हैं।
मुश्ताक से छिपते हुए वे अपने दोस्त (कृष्णा के पति) के घर रूकने का फैसला करते हैं जहाँ उनकी मुलाकात उसकी विधवा से होता है। उनके पैरों के तले की जमीन तब खिसक जाती है जब कृष्णा के घर छिपाए पैसे चोरी हो जाते हैं। मुश्ताक पीछा करते हुए उन्हें पकड़ लेता है और रुपए लौटाने के लिए कुछ दिनों की मोहलत देता है।
कृष्णा के यहाँ रहते हुए दोनों को उससे इश्क हो जाता है। कृष्णा रोमांस खालूजान से करती है और संबंध बब्बन से बनाती है। कृष्णा को भी पैसों की जरूरत है और उसका नया रूप सामने आता है। तीनों मिलकर एक अमीर व्यापारी का अपहरण करते हैं।
कृष्णा को लेकर खालूजान और बब्बन की टकराहट, पैसों को लेकर सभी का लालच और कृष्णा के अतीत के सामने आने से कई विषम परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं, जिससे हर किरदार की सोच और भावनाओं में परिवर्तन देखने को मिलता है।
फिल्म आरंभ होने के दस मिनट बाद आप पूर्वी उत्तर प्रदेश की ग्रामीण पृष्ठभूमि का हिस्सा बन जाते हैं। शहर की चकाचौंध और आधुनिकता से यह फिल्म दूर ले जाती है। देहाती किरदार, उनकी भाषा और रहन-सहन को निर्देशक अभिषेक चौबे ने बखूबी फिल्माया और ड्रामे को जटिलता के साथ पेश किया।
साथ ही सीमा के नजदीक चलने वाली हलचल को भी उन्होंने दिखाया है कि हथियार कितनी आसानी से उपलब्ध हैं। जातिवाद किस तरह चरम पर पहुँच गया है उसे एक संवाद से दर्शाया गया है। खालूजान को बब्बन कहता है ‘यह जगह बहुत खतरनाक है। अपने यहाँ तो सिर्फ शिया और सुन्नी हैं यहाँ तो यादव, पांडे, जाट हर किसी ने अपनी फौज बना ली है।‘ हालाँकि उन्होंने इन विषयों को हल्के से छूआ है।
फिल्म का स्क्रीनप्ले इस तरह लिखा गया है कि किरदारों के मन में क्या चल रहा है या आगे क्या होने वाला है, इसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। इस वजह से फिल्म दर्शकों को बाँधकर रखती है। क्लाइमैक्स के थोड़ा पहले कसावट कमजोर पड़ जाती है। ऐसा लगता है कि जल्दबाजी में काम किया गया है। इस हिस्से में फिल्म का संपादन भी ठीक नहीं है और कनफ्यूजन पैदा होता है।
फिल्म का संगीत बेहतरीन है और यह भी फिल्म देखने का एक कारण है। गुलजार और विशाल की जोड़ी ने ‘इब्ने बतूता’ और ‘दिल बच्चा है’ जैसे बेहतरीन गीत दिए हैं। मोहन कृष्णा की सिनेमेटोग्राफी शानदार है।
अभिनय में फिल्म के तीनों मुख्य कलाकारों ने बेजोड़ अभिनय किया है। नसीरुद्दीन शाह कभी खराब अभिनय कर ही नहीं सकते हैं। उनकी संगति का असर अरशद वारसी पर भी हुआ और नसीर के साथ उनकी जुगलबंदी खूब जमी। निर्देशक ने उन पर नियंत्रण रखा और उन्होंने ओवरएक्टिंग नहीं की। ‘पा’ के बाद विद्या बालन ने एक बार फिर अपना रंग जमाया। उनके चरित्र में कई शेड्स हैं जिन्हें उन्होंने बखूबी जिया है।
अगर रूटीन मसाला फिल्मों से हटकर आप कुछ देखना चाहते हैं तो ‘इश्किया’ देखी जा सकती है।
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कहानी: विंस्टन चर्चिल (गैरी ओल्डमैन) को यह निर्णय लेना है कि युनाइटेड किंगडम को अडोल्फ हिटलर से समझौता करना है या दूसरे विश्व युद्ध में लड़ते रहना है। रिव्यू: 'डार्केस्ट आवर' की शुरुआत में किंग जॉर्ज VI (बेन मेंडलसन) झिझकते हुए चर्चिल को प्रधानमंत्री बनाते हैं क्योंकि डनकर्क के बीच पर 3,00,000 ब्रिटिश सैनिकों को नाजी सैनिकों ने बंधक बना रखा है जबकि नाजियों ने लगभग पूरे यूरोप पर कब्जा कर रखा है। जहां क्रिस्टफर नोलन की 'डनकर्क' केवल बीच से इन सैनिकों को बचाए जाने पर आधारित है वहीं 'डार्के्सट आवर' इन दिनों के डॉक्युमेंट्स पर आधारित है जिसमें खासतौर से चर्चिल ने अपने देश के भविष्य के लिए किस तरह फैसले लिए थे, यह दर्ज है।चर्चिल की भूमिका निभाना काफी कठिन था लेकिन गैरी ओल्डमैन ने इसे बखूबी निभाया है और शायद अपनी सबसे अच्छी परफॉर्मेंस दी है। ओल्डमैन ने उस दौरान की स्थितियों के हिसाब से चर्चिल पर पड़े भारी बोझ को बखूबी दिखाया है। संभव है कि इस भूमिका के लिए ओल्डमैन को ऑस्कर नॉमिनेशन भी मिल जाए। ओल्डमैन के साथ ही इस फिल्म लिली जेम्स जैसी स्ट्रॉन्ग कास्ट है जिन्होंने उसकी सेक्रटरी एलिजाबेथ का किरदार निभाया है। बेन मेंडलसन ने हकलाते हुए किंग जॉर्ज की भूमिका को बखूबी निभाया है। स्टीफन डिलेन ने एडवर्ड वुड का किरदार निभाया है जो चर्चिल के सबसे बड़े विरोधी थे। इसके अलावा क्रिस्टन स्कॉट थॉमस ने क्लेमेंटाइन चर्चिल की भूमिका निभाई है जो अपने पति का साथ देती हैं।डायरेक्टर जो राइट ने फिल्म के मोमेंटम को पैशन के साथ बनाए रखा है साथ ही इसमें भारी बैकग्राउंड म्यूजिक और टॉप ऐंगल शॉट्स का बेहतरीन इस्तेमाल किया गया है। स्क्रीनप्ले सधा हुआ है जिसके कारण उस दौर की ऐतिहासिक घटनाओं को एक बार फिर देखने का मौका मिलता है। फिल्म के कई सीन दर्शकों को रिस्पॉन्स देने के लिए उकसाते हैं। अगर आप ऐतिहासिक घटनाओं पर बनी और बेहतरीन परफॉर्मेंस से सजी फिल्म देखना पसंद करते हैं तो 'डार्केस्ट आवर' को मिस न करें। | 1 |
फिल्म का संगीत एक और निराशाजनक पहलू है। साजिद-वाजिद ने एक से एक घटिया धुनें बनाई हैं। कुल मिलाकर ‘पेइंग गेस्ट्स’ में मनोरंजन के लायक कुछ भी नहीं है।
निर्माता :
राजू फारुकी
निर्देशक :
पारितोष पेंटर
संगीत :
साजिद-वाजिद
कलाकार :
श्रेयस तलपदे, सेलिना जेटली, आशीष चौधरी, रिया सेन, जावेद जाफरी, नेहा धूपिया, चंकी पांडे, सयाली भगत, वत्सल सेठ, जॉनी लीवर, पेंटल, असरान
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’पेइंग गेस्ट्स’ प्रदर्शित होने के कुछ घंटों पहले ही इस फिल्म से जुड़े सुभाष घई ने कह दिया कि यह फिल्म देखने लिए दिमाग घर रखकर आइए। चलिए घई साहब की बात मान ली, लेकिन इसके बावजूद ‘पेइंग गेस्ट्स’ देख निराशा होती है।
दिमाग घर पर रखकर आने की बात कहकर आप जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकते। माना कि इस तरह की फिल्मों में लॉजिक ढूँढने की कोशिश नहीं करना चाहिए, लेकिन कम से कम फिल्म तो ढंग की होनी चाहिए जबकि लॉजिक को साइड में रखने से लेखक और निर्देशक को ज्यादा स्वतंत्रता मिल जाती है। फिल्म में कुछ भी नया नहीं है। सैकड़ों बार दोहराए गए दृश्य इस फिल्म में भी नजर आते हैं।
चार युवा (श्रेयस तलपदे, जावेद जाफरी, आशीष चौधरी और वत्सल सेठ) मौज-मस्ती के साथ जिंदगी जीना पसंद करते हैं। इनकी नौकरी चली जाती है और मकान मालिक घर से निकाल देता है।
नए घर की तलाश करते हुए इनकी मुलाकात मकान मालिक बल्लू (जॉनी लीवर) से होती है। बल्लू उनके आगे भारी-भरकम शर्त रख देता है। वो उन्हें ही पेइंग गेस्ट रखेगा, जिसकी शादी हो चुकी हो। शर्त सुनकर चारों का दिमाग घूमने लगता है। वे ठहरे कुआँरे, पत्नी कहाँ से लाएँगे? आखिरकार दो दोस्त (श्रेयस और जावेद) महिला का भेष धारण करते हैं और बल्लू को बेवकूफ बनाते हैं।
इस हास्य फिल्म में अपराध की कहानी भी जोड़ी गई है। रोनी (चंकी पांडे) बल्लू का भाई है और वह उसे परेशान करता है। बल्लू की तरफ से चारों दोस्त उससे निपटते हैं।
कहानी के नाम पर फिल्म में कुछ भी नहीं है। फिल्मकार का सिर्फ एक ही उद्देश्य है दर्शकों को हँसाना। छोटे-छोटे हास्य दृश्य रचे गए हैं। ज्यादातर का कहानी से कोई लेना-देना नहीं है। इन दृश्यों को देख हँसी नहीं आती है।
स्क्रीनप्ले में इतना दम नहीं है कि बिना कहानी के वो दर्शकों को बाँधकर रखे। फिल्म में हास्य की बहुत गुंजाइश थी, लेकिन नया सोच पाने में निर्देशक और लेखक पारितोष पेंटर बुरी तरह नाकाम रहे।
फिल्म का अंत तो सीधे-सीधे ‘जाने भी दो यारों’ से उठा लिया गया है, जिसमें एक नाटक का मंचन होता रहता है और सारे पात्र उस नाटक का हिस्सा बन जाते हैं। लेकिन फिल्म के इस हिस्से में भी हँसी तो दूर चेहरे पर मुस्कान तक नहीं आती।
अभिनय में श्रेयस तलपदे और जावेद जाफरी प्रभावित करते हैं। आशीष चौधरी और वत्सल सेठ के अभिनय में सुधार दिखाई देता है। हीरो की तुलना में सेलिना जेटली, नेहा धूपिया, रिया सेन जैसे भारी नाम हैं, लेकिन इन्हें दृश्य भी कम मिले और इनके ग्लैमर का भी उपयोग नहीं किया गया। सयाली भगत सिर्फ भीड़ बढ़ाने के लिए हैं। जॉनी लीवर, पेंटल, असरानी और चंकी पांडे के हँसाने के सारे प्रयास व्यर्थ हो गए।
फिल्म का संगीत एक और निराशाजनक पहलू है। साजिद-वाजिद ने एक से एक घटिया धुनें बनाई हैं। कुल मिलाकर ‘पेइंग गेस्ट्स’ में मनोरंजन के लायक कुछ भी नहीं है।
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निर्माता :
हीरू यश जौहर, गौरी खान
निर्देशक :
करण जौहर
कहानी-स्क्रीनप्ले :
शिबानी बाठिजा
गीत :
निरंजन आयंगार
संगीत :
शंकर-अहसान-लॉय
कलाकार :
शाहरुख खान, काजोल, जिमी शेरगिल, ज़रीना वहाब
यू/ए * दो घंटे 40 मिनट
ज्यादातर लोग धर्म के आधार पर राय बनाते हैं कि वह इंसान अच्छा है या बुरा है। 9/11 के बाद इस तरह के लोगों की संख्या में जबर्दस्त इजाफा हुआ है। अमेरिका और यूरोप में एशियाई लोगों के प्रति अन्य देशों के लोगों में नफरत बढ़ी है। ‘ट्विन टॉवर्स’ पर हमला करने वाले मुस्लिम थे, इसलिए सारे मुसलमानों को संदेह की दृष्टि से देखा जाने लगा। जबकि व्यक्ति का अच्छा या बुरा होना किसी धर्म से संबंध नहीं रखता है।
‘माई नेम इज खान’ में बरसों पुरानी सीधी और सादी बात कही गई है। ‘दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं अच्छे या बुरे।‘ इस लाइन के इर्दगिर्द निर्देशक करण जौहर और लेखिका शिबानी बाठिजा ने कहानी का तानाबाना बुना है। उपरोक्त बातें यदि सीधी-सीधी कही जाती तो संभव है कि ‘माई नेम इज खान’ डॉक्यूमेंट्री बन जाती और ज्यादा लोगों तक बात नहीं पहुँच पाती। इसलिए मनोरंजन को प्राथमिकता देते हुए लवस्टोरी को रखा गया और बैकड्रॉप में 9/11 की घटना से लोगों के जीवन और नजरिये पर क्या प्रभाव हुआ यह दिखाया गया।
कहानी है रिज़वान खान (शाहरुख खान) की। वह एस्पर्गर नामक बीमारी से पीड़ित है। ऐसा इंसान रहता तो बहुत होशियार है, लेकिन कुछ चीजों से वह डरता है। घबराता है। इसलिए आम लोगों से थोड़ा अलग दिखता है। रिज़वान पीला रंग देखकर बैचेन हो जाता है। अनजाने लोगों का साथ और भीड़ से उसे घबराहट होती है। शोर या तेज आवाज वह बर्दाश्त नहीं कर पाता। लेकिन वह खूब किताबें पढ़ता है। उसकी याददाश्त बेहद तेज है। टाइम-टेबल से वह काम करता है।
रिजवान पर अपनी माँ (जरीना वहाब) की बातों का गहरा असर है, जिसने उसे बचपन में इंसानियत के पाठ पढ़ाए थे। माँ के निधन के बाद रिज़वान अपने छोटे भाई जाकिर (जिमी शेरगिल) के पास अमेरिका चला जाता है। अपने भाई की कंपनी के प्रोडक्ट्स वह बाजार में जाकर बेचता है और उसकी मुलाकात मंदिरा (काजोल) से होती है।
मंदिरा अपने पति से अलग हो चुकी है और उसका एक बेटा है। रिजवान और मंदिरा एक-दूसरे को चाहने लगते हैं। जाकिर नहीं चाहता कि रिजवान हिंदू लड़की से शादी करे, लेकिन रिजवान उसकी बात नहीं मानता। शादी के बाद रिजवान और मंदिरा खुशहाल जिंदगी जीते हैं, लेकिन 9/11 की घटना के बाद उनकी जिंदगी में भूचाल आ जाता है।
एक ऐसी घटना घटती है कि रिजवान को मंदिरा अपनी जिंदगी से बाहर फेंक देती है। मंदिरा को फिर पाने के लिए रिजवान अमेरिका यात्रा पर निकलता है और किस तरह वह उसे वापस पाता है यह फिल्म का सार है।
कहानी में रोमांस और इमोशन का अच्छा स्कोप है और करण जौहर ने इसका पूरा फायदा उठाया है। उन्होंने कई छोटे-छोटे ऐसे दृश्य रचे हैं जो सीधे दिल को छू जाते हैं। काजोल और शाहरुख के रोमांस वाला भाग बेहतरीन है। इसमें करण को ज्यादा मेहनत नहीं करना पड़ी होगी क्योंकि शाहरुख-काजोल में गजब की कैमेस्ट्री है। ‘बाजीगर’ को रिलीज हुए बरसों हो गए लेकिन इस गोल्डन कपल में अभी भी ताजगी नजर आती है।
समुद्र किनारे खड़े होकर शहर की ओर देखते हुए रिजवान कामयाब होने की बात कहता है। यह दृश्य शाहरुख की जिंदगी से लिया गया है। फिल्मों में आने के पहले मुंबई में समुद्र किनारे खड़े होकर उन्होंने इस शहर पर छा जाने का ख्वाब देखा था।
मध्यांतर के पहले वाला हिस्सा शानदार है। फिल्म की पहली फ्रेम से ही दर्शक रिजवान और मंदिरा के परिवार का हिस्सा बन जाता है और उनके दर्द और खुशी को वह महसूस करता है। फिल्म के दूसरे हिस्से में कुछ गैर-जरूरी दृश्य हैं और कहीं-कहीं फिल्म अति नाटकीयता का शिकार हुई है, लेकिन ये कमियाँ फिल्म की खूबियों के मुकाबले बहुत कम है।
फिल्म के मुख्य किरदार को एस्पर्जर सिंड्रोम से ग्रस्त क्यों दिखाया गया? इसके दो कारण है। पहला, फिल्म कुछ अलग दिखे, शाहरुख को कुछ कर दिखाने का अवसर मिले। और दूसरा कारण ये कि इंसानियत, धर्म, अच्छाई और बुराई को वो इंसान उन भले-चंगे लोगों से ज्यादा अच्छी तरह समझता है, जिसे लोगों को समझने में कठिनाई होती है।
शाहरुख खान के आलोचक अक्सर कहते हैं कि वे हर किरदार को शाहरुख बना देते हैं, लेकिन यहाँ वे रिजवान वे ऐसे घुल गए कि शाहरुख याद ही नहीं रहते। रिजवान की बॉडी लैंग्वेज, चलने और बोलने का अंदाज, उसकी कमियाँ, उसकी खूबियाँ को उन्होंने इतनी सूक्ष्मता से पकड़ा है कि लगने लगता है कि उनसे बेहतरीन इस किरदार को कोई और नहीं निभा सकता था। खासतौर पर रिजवान जब शरमाकर हँसता है तो उन दृश्यों में शाहरुख का अभिनय देखने लायक है। उन्होंने स्क्रिप्ट से उठकर अभिनय किया है। जो लोग कहानी से सहमत नहीं भी हो, उन लोगों को भी शाहरुख का अभिनय बाँधकर रखता है।
काजोल में चंचलता बरकरार है। मंदिरा के रूप में उनकी एक्टिंग देखने लायक है। कई दृश्यों में उनकी आँखें संवाद से ज्यादा बेहतर तरीके से अपनी बात कहती है। छोटी-छोटी भूमिकाओं में कई कलाकार हैं और सभी ने अपना काम बखूबी किया है।
रवि के चन्द्रन की सिनेमेटोग्राफी अंतरराष्ट्रीय स्तर की है। फिल्म का संपादन उम्दा है। शंकर-अहसान-लॉय ने फिल्म के मूड के अनुरूप संगीत दिया है।
‘माई नेम इज खान’ में कई मैसेजेस हैं, जिसमें अहम ये कि धर्म का चश्मा पहनकर व्यक्ति का आँकलन न किया जाए। शाहरुख-काजोल का अभिनय, करण का उम्दा निर्देशन और मनोरंजन के साथ संदेश य
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कुल मिलाकर ‘भूतनाथ’ एक साफ-सुथरी और मनोरंजक फिल्म है। वयस्क भी अगर बच्चा बनकर इस फिल्म को देखें तो उन्हें भी यह फिल्म पसंद आ सकती है।
निर्माता :
बी.आर.चोपड़ा-रवि चोपड़ा
निर्देशक :
विवेक शर्मा
संगीत :
विशाल शेखर
कलाकार :
अमिताभ बच्चन, अमन सिद्दकी, जूही चावला, शाहरुख खान, सतीश शाह, राजपाल यादव, प्रियांशु चटर्जी
भूत-प्रेत की फिल्मों के लिए आवश्यक होती है सुनसान जगह पर एक विशालकाय पुरानी हवेली। ‘भूतनाथ’ में भी इसी तरह की हवेली है, जिसमें एक माँ अपने सात वर्षीय बेटे के साथ रहती है। हवेली में एक भूत भी रहता है।
यहाँ तक तो ‘भूतनाथ’ आम भूत-प्रेत पर बनने वाली फिल्मों की तरह है, लेकिन जो बात इस फिल्म को अन्य फिल्मों से जुदा करती है वो ये कि इस फिल्म का भूत डरावना नहीं है। उसमें मानवीय संवेदनाएँ हैं। उसका भी दिल है, जिसके जरिये वह खुशी और गम को महसूस करता है।
‘भूतनाथ’ की कहानी काल्पनिक, सरल और सीधी है। ज्यादा उतार-चढ़ाव नहीं हैं लेकिन इस कहानी को निर्देशक विवेक शर्मा ने परदे पर खूबसूरती के साथ पेश किया है, जिससे एक साधारण कहानी का स्तर ऊँचा उठ गया है।
बंकू (अमन सिद्दकी) के परिवार में पापा (शाहरुख खान) और मम्मी (जूही चावला) हैं। गोवा में उन्हें कंपनी की तरफ से कैलाशनाथ की हवेली रहने को मिलती है। इस हवेली के बारे में कहा जाता है कि इसमें भूत रहता है।
कैलाशनाथ भूत बन चुका है और उसे अपने घर में किसी का रहना पसंद नहीं है। वह बंकू को डराने की कोशिश करता है, लेकिन बंकू पर इसका कोई असर नहीं होता। बंकू उसे भूतनाथ नाम से पुकारने लगता है और दोनों के बीच दोस्ती हो जाती है।
वे साथ में मिलकर खूब मौज-मस्ती करते हैं। भूतनाथ सिर्फ बंकू को दिखाई देता है। एक दिन कैलाशनाथ का बेटा अमेरिका से आकर हवेली को बेचने का प्रयास करता है। यहाँ से कहानी में घुमाव आता है।
निर्देशक ने छोटी-छोटी घटनाओं के जरिये कई संदेश दिए हैं। स्पोर्ट्स-डे के दिन बंकू खेल के मैदान पर लगातार हारता रहता है। वह चाहता है कि भूतनाथ चमत्कार दिखा दे और वह जीत जाए।
चींटी का उदाहरण देते हुए भूतनाथ उससे कहता है कि चमत्कार जैसी कोई चीज नहीं होती, सिर्फ कड़ी मेहनत के जरिये ही सफलता पाई जा सकती है। दूसरों के लिए कुआँ खोदने वाला खुद कुएँ में गिरता है और क्षमा के महत्व को भी फिल्म में दर्शाया गया है।
नई पीढ़ी अपने करियर को हद से ज्यादा महत्व देती है और करियर के कारण अपने माता-पिता को भी उपेक्षित करती है। इस तथ्य को भी ‘भूतनाथ’ में रेखांकित किया गया है।
जब कैलाशनाथ का बेटा करियर की खातिर अपने पिता की इच्छा के विरूद्ध अमेरिका जाने का निर्णय लेता है तो कैलाशनाश इसे अपनी गलती मानते हैं कि उनकी परवरिश में कोई गलती रह गई है। इस दृश्य के जरिये दो पीढि़यों की सोच के अंतर को दिखाया गया है।
निर्देशक विवेक शर्मा की फिल्म माध्यम पर पकड़ है। फिल्म देखकर महसूस नहीं होता कि यह उनकी पहली फिल्म है। उन्होंने फिल्म इस तरह बनाई है कि दर्शक फिल्म में खो जाता है। फिल्म में पात्र बेहद कम हैं, लेकिन इसके बावजूद एकरसता नहीं आती है।
कुछ कमियाँ भी हैं। मध्यांतर के पहले वाला भाग बेहद मनोरंजक है लेकिन बाद में गंभीरता आ जाती है और इस हिस्से में बच्चों के बजाय वयस्कों का ध्यान रखा गया है। इस भाग में भी हल्के-फुल्के दृश्यों का समावेश किया जाना था।
फिल्म का अंत भी ऐसा नहीं है जो सभी दर्शकों को संतुष्ट कर सके। फिल्म का आखिरी घंटा थोड़ा लंबा है। कुछ गीत और दृश्य कम कर इसे छोटा किया जा सकता है। फिल्म का संगीत औसत किस्म का है। जावेद अख्तर ने अर्थपूर्ण गीत लिखे हैं, लेकिन विशाल शेखर स्तरीय धुन नहीं बना सके। ‘छोड़ो भी जाने दो’ फिल्म का श्रेष्ठ गाना है।
अमिताभ बच्चन ने फिल्म का केन्द्रीय पात्र निभाया है और एक बार फिर उन्होंने दिखाया है कि उनकी अभिनय प्रतिभा को सीमाओं में नहीं बाँधा जा सकता। अमन सिद्दकी ने अमिताभ को कड़ी टक्कर दी है। उनका अभिनय आत्मविश्वास से भरा और नैसर्गिक है।
शाहरुख खान की भूमिका प्रभावशाली तो नहीं है, लेकिन पूरी फिल्म में वे बीच-बीच में आते रहते हैं। जूही चावला ने बड़ी आसानी से अपने किरदार को निभाया। प्रिंसिपल बने सतीश शाह बच्चों को खूब हँसाते हैं। राजपाल यादव को ज्यादा अवसर नहीं मिला।
कुल मिलाकर ‘भूतनाथ’ एक साफ-सुथरी और मनोरंजक फिल्म है। वयस्क भी अगर बच्चा बनकर इस फिल्म को देखें तो उन्हें भी यह फिल्म पसंद आ सकती है।
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Chandermohan.sharma@timesgroup.com इस फिल्म के डायरेक्टर अश्विनी अय्यर तिवारी ने अपने अब के करियर में कई ऐड फिल्में बनाने के बाद इस फिल्म को कम बजट और बॉक्स ऑफिस पर बिकाऊ न माने जाने वाली स्टार कास्ट के साथ बनाया। यह फिल्म देखने वालों को एक अच्छा मेसेज देती है। ताज्जुब होता है कि बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का नारा देकर सत्ता में आने वाले हमारे लीडर कुर्सी मिलने के बाद इस बात को भूल जाते हैं, तभी तो ऐसी बेहतरीन मेसेज देने वाली लीक से हटकर बनी फिल्मों को अक्सर देश भर में बॉक्स ऑफिस पर पहले से चल रही मेगा बजट, मल्टिस्टारर फिल्मों के चलते सिनेमाघर अपने यहां प्रदर्शित करने से हिचकिचाते हैं। अगर रिस्क लेकर सिनेमा मालिक ऐसी फिल्म लगा भी ले तो महंगी टिकट दरों के चलते बॉक्स आफिस पर ऐसी बेहतरीन फिल्में पहले ही दिन दम तोड़ देती हैं। हालांकि, दिल्ली सरकार ने इस फिल्म को एंटरटेनमेंट टैक्स में सौ फीसदी छूट देने का फैसला किया है। फिल्मी खबरें पढ़ें सीधे फेसबुक पर, लाइक करें NBT Movies कहानी : आगरा शहर की एक छोटी सी कॉलोनी के कुछ घरों में सफाई वगैरह का काम करने वाली कामवाली बाई चंदा सहाय (स्वरा भास्कर) बेशक खुद दसवीं पास नहीं कर पाईं, लेकिन चंदा चाहती है कि उसकी बेटी अपेक्षा सहाय (रिया शुक्ला) दिल लगाकर पढ़े और एक दिन डॉक्टर, इंजिनियर बनकर अपना नाम रोशन करे। दूसरी ओर अपेक्षा की सोच मां की सोच से अलग है। अपेक्षा का मानना है दसवीं पास करने के बाद भी उसे मां की तरह घरों में कामवाली बाई का काम ही तो करना है, सो अपेक्षा भी पढ़ाई से ज्यादा वक्त घर में टीवी पर सीरियल या फिल्में देखने या फिर घर के बाहर बच्चों के साथ खेलने में गुजारती है। अब अपेक्षा दसवीं क्लास में पहुंच चुकी है। चंदा अच्छी तरह से जानती है कि उसकी बेटी मैथ में निल बट्टे सन्नाटा यानी जीरो है। अपेक्षा मैथ सीखने की बजाए उससे दूर ही भागती है। चंदा को चिंता है कि अपेक्षा इस बार मैथ में बेहद कमजोर होने की वजह से परीक्षा में फेल हो सकती है। चंदा कॉलोनी में डॉक्टर मैडम (रत्ना शाह पाठक) के घर में सफाई का काम करती है और उनके साथ अपनी हर बात शेयर करती है। डॉक्टर मैडम जानती है कि अपेक्षा मैथ मे जीरो है, ऐसे में एक दिन डॉक्टर मैडम एक अनोखी सलाह देती है। इस सलाह को मानकर चंदा उसी स्कूल की उसी क्लास में ऐडमिशन लेती है। स्कूल में जाकर चंदा देखती है कि क्लास में मैथ टीचर (पकंज त्रिपाठी) अक्सर अपेक्षा का मैथ में कम नंबर लाने की वजह से दूसरे स्टूडेंट के सामने मजाक उड़ाता रहता है। एक ही क्लास में होने के बावजूद मां- बेटी एक दूसरे से अनजान बनी रहती हैं। अपेक्षा को जरा भी पसंद नहीं कि उसकी मां भी स्कूल में आए, लेकिन चंदा अपनी बेटी को सही राह पर लाने के लिए अपना फैसला नहीं बदलती। अब स्कूल में एग्ज़ाम शुरू होने वाले हैं, घर में मां-बेटी के बीच एक डील होती है कि अगर अपेक्षा मैथ के एग्ज़ाम में चंदा से ज्यादा नंबर लाएगी तो चंदा स्कूल जाना बंद कर देगी। ऐक्टिंग : चंदा सहाय के लीड किरदार में स्वरा भास्कर ने बेहतरीन ऐक्टिंग करके साबित किया है कि ऐक्टिंग के मामले में वह ग्लैमर इंडस्ट्री की किसी भी टॉप ऐक्ट्रेस से पीछे नहीं। घर में काम करने वाली ऐसी बाई जो अपनी बेटी के लिए आसमां को छूते सपने देखती है, इस किरदार को स्वरा ने कैमरे के सामने बखूबी जिया है। चंदा की बेटी अपेक्षा बनी रिया शुक्ला ने किरदार के मुताबिक दमदार ऐक्टिंग की है, चंदा को अपनी दीदी की तरह समझाने वाली डॉक्टर के रोल में रत्ना पाठक शाह परफेक्ट हैं। स्कूल प्रिंसिपल और मैथ टीचर के रोल में पकंज त्रिपाठी का जवाब नहीं, पकंज जब भी स्क्रीन पर आते हैं तभी आपके चेहरे पर हंसी मुस्कान भी आ जाती है। निर्देशन : तारीफ करनी होगी डायरेक्टर अश्विनी अय्यर तिवारी की, जिन्होंने स्क्रिप्ट पर कहीं समझौता नहीं किया और एक गरीब मां के सपनों को पूरी ईमानदारी के साथ पर्दे पर पेश किया। मां-बेटी के बीच तनाव और उनके बीच विचारों के टकराव को डायरेक्टर ने कहानी का अहम हिस्सा बनाया तो फिल्म के चार प्रमुख किरदारों मां-बेटी, मैथ टीचर और डॉक्टर मैडम को पूरी फुटेज देते हुए हर कलाकार से बेहतरीन काम लिया। स्कूल में मां-बेटी के बीच की टसन और एक कामवाली बाई के घर और आस-पास के माहौल को पूरी ईमानदारी के साथ पेश किया। बेशक फिल्म की शुरुआत सुस्त है, लेकिन क्लाइमैक्स आपकी आंखें नम करने का दम रखता है। संगीत : डब्बा गुल गाने का फिल्मांकन बेहतरीन है, बैकग्राउंड म्यूजिक जानदार है। क्यों देखें : अगर लीक से हटकर बनी फिल्मों के शौकीन हैं और चाहते है बॉलिवुड मेकर ऐसी फिल्में बनाए तो इस फिल्म को फैमिली के साथ देखने जाएं, दिल्ली में फिल्म टैक्स फ्री है तो मिस न करें। | 0 |
अतीत हमेशा दफन नहीं रहता और यह पहला मौका मिलते ही आपके सामने आ खड़ा होता है। टॉम क्रूज, रसेल क्रो, सोफिया बुटेला और अनाबेल वेलिस जैसे नामी हॉलिवुड सितारों सजी फिल्म द ममी आपको कुछ यही सबक देती है। सबसे पहले आपको बता दें कि इस फिल्म द ममी का इससे पहले आईं ममी फ्रैंचाइजी की तीनों फिल्मों से कोई लेना-देना नहीं है। इस फिल्म से द ममी फ्रेंचाइजी को एक नई कहानी के साथ फिर से शुरू किया गया है। कहानी: फिल्म की शुरुआत में लंदन में मेट्रो की खुदाई के दौरान एक मकबरा मिलता है। उसमें निकली ममी देखकर वहां के लोग हैरान रह जाते हैं कि आखिर मिस्र की विरासत यहां कैसे आ पहुंची? दूसरी ओर इराक में अमेरिकी सेना के लिए काम कर रहे निक मॉर्टन (टॉम क्रूज) और पुरानी चीजों पर रिसर्च करने वाली जेनी (अनाबेल वेलिस) को प्राचीन मिस्र की राजकुमारी आहमानेट (सोफिया बुटेला) का मकबरा मिलता है। करीब पांच हजार साल पहले जन्मी आहमानेट मिस्र के राजा फैरो की बेटी थी, जिसे उसके पिता के बाद वहां की रानी बनना था। लेकिन अपने पिता के बेटा यानी उसके भाई का जन्म होने के बाद उसकी रानी बनने की सारी उम्मीदें टूट गईं। अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए उसने अपने मां-बाप और भाई को मार दिया और बुराई के देवता सेट से समझौता कर लिया। लेकिन उसकी इच्छा पूरी होने से पहले ही वहां के लोगों ने उसे जिंदा ही इस मकबरे में कैद कर दिया था। निक अनजाने में उसे आजाद कर देता है। उसके बाद शैतान रानी जिंदा हो जाती है और अपनी बुरी ताकतों के साथ एक बार फिर अपने बुराई के मिशन को पूरा करने में जुट जाती है। आहमानेट को मकबरे से आजाद करने की वजह से निक भी उसके मिशन को पूरा करने के लिए शापित हो जाता है। हालांकि मिस्र की शैतान रानी अपने मिशन में कामयाब हो पाती है या नहीं यह जानने के लिए आपको फिल्म देखनी होगी। मौजूदा द ममी में भी पुरानी ममी फ्रैंचाइजी की फिल्मों की तरह कीड़ों, मकड़ियों और चूहों की फौज के फिल्म के किरदारों पर हमला बोलते हुए दिलचस्प सीन दिखाए गए हैं, लेकिन फिर भी ये पहली फिल्मों जैसा डर पैदा नहीं कर पाते। फिल्म की कहानी भी दर्शकों में वह रोमांच नहीं पैदा कर पाती है। आहमानेट फिल्म में कभी बेहद शक्तिशाली नजर आती है, तो कभी निरीह कैदी की तरह जंजीरों में जकड़ी हुई, जोकि आसानी से हजम नहीं होता। उसकी सेना में शामिल ममी भी उतना इफेक्ट नहीं छोड़ पातीं और कमजोर नजर आती हैं। हालांकि उसकी कौवों की सेना के हमला वाला सीन जरूर जोरदार नजर आता है। क्लाइमैक्स में भी आहमानेट फुल फॉर्म में नजर आई हैं। खासकर बीते जमाने के मिस्र और रेगिस्तान के सीन भी रोमांचक बन पड़े हैं। इंटरवल से पहले फिल्म आपको कहानी से रूबरू कराती है, तो सेकंड हाफ में चीजें तेजी से घटती हैं। ऐक्टिंग: फिल्म में टॉम क्रूज औसत ऐक्टिंग करते नजर आए हैं। अगर आप टॉम क्रूज के फैन के तौर पर फिल्म देखने जा रहे हैं, तो वह एक शैतान राजकुमारी से बचते इंसान के रोल में उतने दमदार नहीं लगते, जिसके लिए उन्हें जाना जाता है। जेनी के रोल में अनाबेल वेलिस के पास ज्यादा कुछ करने को नहीं था। हालांकि रानी आहमानेट के रोल में सोफिया बुटेला जरूर दिलचस्प लगी हैं। खासकर उनकी आंखें दर्शकों पर डरावना प्रभाव छोड़ती हैं। वहीं डॉक्टर हेनरी का रोल कर रहे रसेल क्रो को फिल्म का सरप्राइज कहा जा सकता है, जो कि आपको हैरान करते हैं। फिल्म का असली मजा लेना है, तो इसे थ्रीडी में देखें। ज्यादातर हॉलिवुड फिल्मों की तरह डायरेक्टर ने क्लाईमैक्स में फिल्म के सीक्वल की गुंजाइश छोड़ दी है। | 0 |
कोच्चडयान 3डी मोशन कैप्चर्स तकनीक से बनी हुई फिल्म है। इस तकनीक में फिल्म के मुख्य कलाकार विशेष ड्रेस और तकनीक से लैस एक कमरे में सारे शॉट्स देते हैं। उन्हें वहीं रोमांस करना होता है और स्टंट्स भी। अकेले लड़ते हुए उन्हें महसूस करना होता है कि उनके इर्दगिर्द ढेर सारे सैनिक युद्ध कर रहे हैं। उनके एक्सप्रेशन और बॉडी लैंग्वेज को कैद कर एनिमेशन का रूप दिया जाता है, जिससे एनिमेशन एकदम जीवंत लगते हैं।
कोच्चडयान' हॉलीवुड फिल्म 'अवतार' की तर्ज पर बनी है, लेकिन 'अवतार' से इसकी तुलना नहीं की जा सकती है। निश्चित रूप से अवतार ज्यादा बेहतर फिल्म है क्योंकि हजार करोड़ से भी ज्यादा बजट में वह बनी है, जबकि 'कोच्चडयान' लगभग सवा सौ करोड़ रुपये की फिल्म है। 'अवतार' जितने बजट में भारतीय भी उम्दा फिल्म बना सकते हैं, लेकिन भारतीय फिल्मों का बाजार हॉलीवुड फिल्मों की तुलना में बेहद सीमित होता है।
कोच्चडयान जैसी फिल्मों के लिए आप बजट की ज्यादा चिंता किए बगैर अपनी कल्पना को ऊंची उड़ान दे सकते हैं। इसीलिए इसकी कहानी अतीत की है जब भारत में राजाओं का राज था। विशाल सेना, ऊंचे महल, गहने और शानदार ड्रेसेस को एनिमेशन के जरिये आसानी से दिखाया जा सकता है।
कोच्चडयान' की सबसे बड़ी कमजोरी इसकी कहानी है क्योंकि यह बेहद सपाट है। जो उतार-चढ़ाव होने चाहिए वो इसमें मिसिंग है। राजा-रानी की बरसों पुरानी कहानी को दोहराया गया है। कोट्टइपटनम का सेनापति कोच्चडयान की लोकप्रियता से वहां का राजा ईर्ष्या से जल उठता है। अवसर पाते ही एक मामले में वह कोच्चडयान (रजनीकांत) को दोषी ठहरा कर मौत की सजा सुना देता है। कोच्चडयान का बेटा राणा (रजनीकांत) किस तरह से अपनी पिता की मौत बदला लेता है और उनका गौरव लौटाता है, यह फिल्म का सार है। इस दरमियान वह एक खूबसूरत राजकुमारी से इश्क भी लड़ाता है।
फिल्म में राणा (रजनीकांत) का बखान करने में लंबा वक्त लिया गया है। कोच्चडयान (रजनीकांत) के आने से फिल्म में थोड़ी दिलचस्पी जागती है और आखिरी के आधे घंटे में घटनाक्रम तेजी से घटते हैं। बीच में युद्ध और कोच्डयान के तांडव के अच्छे सीन भी हैं, लेकिन इतना काफी नहीं है। फिल्म का शुरुआती घंटा बोरियत से भरा है और ढेर सारे गाने इस बोरियत को और बढ़ाते हैं। एआर रहमान का संगीत पहले जैसा मधुर नहीं रह गया है कि दर्शकों को गाने ही सीट पर बैठा रखे। फिल्म की कहानी राणा के इर्दगिर्द घूमती है और इसलिए फिल्म का नाम 'कोच्चडयान' क्यों रखा गया है, यह समझ से परे है।
फिल्म का निर्देशन रजनीकांत की बेटी सौन्दर्या ने किया है। निश्चित रूप से सौन्दर्या के प्रयास की प्रशंसा की जानी चाहिए कि उन्होंने भारत में इस तकनीक के जरिये फिल्म बनाई है। अपनी कल्पना को स्क्रीन पर तकनीक के जरिये साकार करना उनके लिए आसान नहीं होगा। एनिमेशन की गुणवत्ता कई जगह स्तरीय नहीं है, लेकिन प्रयास प्रशंसनीय है। रजनीकांत की इमेज को ध्यान में रखते हुए उन्होंने राणा और कोच्चडयान के किरदार उसी तरह गढ़े हैं। फिल्म में कई जगह अच्छे संवाद सुनने को मिलते हैं। कहानी पर अगर थोड़ी और मेहनत की जाती तो बात कुछ और होती।
सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या रजनीकांत के फैन उन्हें एनिमेटेड रूप में देखना चाहते हैं। जब हमारे पास वास्तविक रजनीकांत मौजूद है तो काल्पनिक दुनिया में जाने की क्या जरूरत है। वास्तविक दुनिया में सुपरहीरो जैसी हरकत करने वाला रजनीकांत देखना ज्यादा रोचक है। हमें वो रजनीकांत चाहिए जो स्टाइल से सिगरेट पिए। जो ऐसी गति से दौड़े कि प्रकाश पीछे छूट जाए। जो अपनी ओर आती गोली को चाकू की मदद से दो हिस्से में बांट दे। बदलाव के रूप में तकनीक से बना रजनीकांत भी बुरा नहीं है।
निर्माता :
सुनील लुल्ला, सुनंदा मुली मनोहर, प्रशिता चौधरी
निर्देशक :
सौन्दर्या रजनीकांत अश्विन
संगीत :
एआर रहमान
कलाकार :
रजनीकांत, दीपिका पादुकोण, जैकी श्रॉफ, नासेर
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गरीबों की बस्ती पर बिल्डर की नजर। ये एक लाइन की कहानी है जिस पर 166 मिनट की फिल्म बना डाली है। फिल्म में ऐसा कुछ भी नहीं है जो पहले कभी नहीं देखा गया हो। हजारों बार दोहराई गई बातों को बिना किसी नवीनता के फिर दोहराया गया है, लिहाजा फिल्म देखते समय आप थक और पक जाते हैं।
काला करिकालन (रजनीकांत) धारावी का राजा है। धारावी की कीमती जमीन पर भ्रष्ट नेता हरी दादा (नाना पाटेकर) की नजर है। वह मुंबई को स्वच्छ बनाना चाहता है और धारावी उसे गंदा दाग नजर आती है। वह इस जमीन को लेकर झोपड़ियों की जगह बिल्डिंग खड़ी करना चाहता है। काला उसकी राह में सबसे बड़ी बाधा है।
काला और हरी की खींचतान को फिल्म में दिखाया गया है। यह बात इतनी लंबी खींची गई है कि बेमजा हो जाती है। काला के अतीत की प्रेम कहानी को भी फिल्म में जगह दी गई है। ज़रीन (हुमा कुरैशी) से काला शादी करना चाहता था, लेकिन नहीं हो पाई। जो कारण दिए गए हैं वो बचकाने हैं। काला और ज़रीन ने बाद में दूसरों से शादी क्यों की, यह भी बताया नहीं गया है। बिना मतलब के इस बात को ढेर सारे फुटेज दे डाले हैं।
फिल्म में कई ऐसे सीन हैं जिनकी लम्बाई बहुत ज्यादा है, जो देखते समय बेहद अखरते हैं। इससे फिल्म ठहरी हुई लगती है। वैसे भी फिल्म को आगे बढ़ाने के मजबूत घटनाक्रम नहीं है। इससे फिल्म आगे बढ़ती हुई महसूस नहीं होती और बोरियत हावी हो जाती है। बीच-बीच में बेसिर-पैर गाने आकर इस बोरियत को और बढ़ा देते हैं।
घिसी-पिटी कहानी में मनोरंजन का भी अभाव है। रोमांस, कॉमेडी, एक्शन सभी की कमी महसूस होती है। मसाला फिल्मों के शौकीनों के लिए भी लुभाने वाले मसाले नहीं हैं।
रजनीकांत की स्टाइल भी फिल्म से गायब है। छाते के जरिये दुश्मनों को मारने वाला सीन, नाना पाटेकर को बस्ती में घेरने वाला सीन और क्लाइमैक्स को छोड़ दिया जाए तो फिल्म में सीटी और ताली बजाने वाले दृश्यों की कमी खलती है जो रजनीकांत की फिल्मों की जान होते हैं।
निर्देशक पा रंजीत का सारा ध्यान रजनीकांत पर ही रहा। उन्होंने मसीहा के रूप में रजनीकांत को पेश किया, लेकिन ढंग की कहानी नहीं चुनी। रजनीकांत को भी वे उस अंदाज में पेश नहीं कर पाए जिसके लिए रजनी जाने जाते हैं।
पा रंजीत ने फिल्म को बेहद लाउड बनाया है। हर कलाकार चीखता रहता है। गाने भी चीख-चीख के गाए गए हैं। बैकग्राउंड म्युजिक आपके कान के परदे फाड़ देता है। फिल्म को वे रस्टिक लुक देने में सफल रहे हैं और उनके इस काम को सिनेमाटोग्राफर ने आसान बना दिया है।
मुरली जी का कैमरा धारावी की संकरी गलियों में खूब घूमा है और उन्होंने क्लाइमैक्स बेहतरीन तरीके से शूट किया है जिसमें रंगों का खूब इस्तेमाल होता है।
फिल्म में देखने लायक एकमात्र रजनीकांत हैं। 67 वर्ष की उम्र में भी उनमें सुपरस्टार वाला करिश्मा बाकी है। कई बोरिंग दृश्यों को भी वे अपने करिश्मे से बढ़िया बना देते हैं। उनके एक्शन दृश्यों की संख्या फिल्म में ज्यादा होनी चाहिए थी। अफसोस इस बात का भी है कि उनके स्टारडम के साथ फिल्म न्याय नहीं कर पाती।
रजनीकांत की पत्नी के रूप में ईश्वरी राव का काम बेहतरीन है और वे हल्के-फुल्के क्षण फिल्म में देती हैं। नाना पाटेकर का वह अंदाज नहीं दिखा जिसके लिए वे जाने जाते हैं। शायद रजनी का कद बढ़ा करने के चक्कर में उनका कद छोटा कर दिया गया। हुमा कुरैशी मुरझाई हुई दिखीं। पंकज त्रिपाठी फिल्म देखने के बाद सोचेंगे कि वह इस फिल्म में कर क्या रहे थे। यही हाल अंजली पाटिल का है।
काला देख कर लगता है कि रजनी ने इसे अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को हवा देने के लिए बनाई है जो उन्हें जनता के बीच गरीबों के मसीहा के रूप में प्रतिष्ठित कर सके।
निर्माता : धनुष
निर्देशक : पा रंजीत
संगीत : संतोष नारायणन
कलाकार : रजनीकांत, नाना पाटेकर, ईश्वरी राव, हुमा कुरैशी, पंकज त्रिपाठी, अंजलि पाटिल
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 46 मिनट 53 सेकंड
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बैनर :
रमेश सिप्पी एंटरटेनमेंट, टी-सीरिज सुपर कैसेट्स इंडस्ट्री लि.
निर्माता :
रमेश सिप्पी, भूषण कुमार, किशन कुमार
निर्देशक :
रोहन सिप्पी
कलाकार :
आयुष्मान खुराना, कुणाल रॉय कपूर, पूजा साल्वी, अभिषेक बच्चन (मेहमान कलाकार)
फ्रेंच फिल्म एप्रेस वूस का का नौटंकी साला हिंदी रिमेक है। निर्देशक रोहन सिप्पी ने रेस्तरां का बैकड्रॉप बदल कर थिएटर कर दिया है और भारतीय दर्शकों की रूचि के मुताबिक कुछ बदलाव किए हैं। थिएटर का बैकड्रॉप फिल्म में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है क्योंकि फिल्म के लीड कलाकार रामायण को स्टेज पर प्ले करते हैं और इसे कहानी के साथ बहुत ही बढ़िया तरीके से जोड़ा गया है।
राम परमार उर्फ आरपी (आयुष्मान खुराना) थिएटर में रावण का रोल निभाता है, लेकिन रियल लाइफ में वह राम जैसा है। अपनी गर्लफ्रेंड के साथ वह लिव इन रिलेशनशिप में हैं और जरूरतमंदों की मदद में वह बहुत आगे रहता है।
मंदार लेले (कुणाल रॉय कपूर) को वह आत्महत्या करते देखता है तो उसे बचा लेता है और अपने घर लाता है। उसकी नानी के पुणे वाले घर ले जाता है। अस्पताल के बिल चुकाता है। अपने थिएटर में राम की भूमिका दिलवाता है।
मंदार का नंदिनी से ब्रेक अप हो गया है और वह उदास है। नंदिनी से आरपी मिलता है और कोशिश में लग जाता है कि नंदिनी और मंदार फिर एक हो जाएं। इस कोशिश में वह खुद नंदिनी को चाहने लगता है और उसे महसूस होता है कि रावण का किरदार निभाते-निभाते वह निजी जीवन में भी रावण बन गया है।
रोहन सिप्पी ने इस कहानी को हास्य की चाशनी में लपेट कर पेश किया है। निर्देशक के रूप में वे प्रभावित करते हैं। उन्होंने न केवल कलाकारों से अच्छा काम लिया है बल्कि हर दृश्य पर मेहनत भी की है। हालांकि ड्रामा स्टाइल में पेश करने का उनका यह तरीका जरूरी नहीं है कि सभी को अच्छाह लगे। साथ ही फिल्म की रफ्तार बेहद धीमी है, जिससे शुरुआती रीलों में थोड़ी बोरियत पैदा होती है, लेकिन जैसे ही इस धीमी रफ्तार से एक बार दर्शक तालमेल बैठा लेते हैं तो फिल्म धीरे-धीरे आनंद देने लगती है। थिएटर बैकड्रॉप का रोहन ने बेहतरीन उपयोग किया है और रियल लाइफ कैरेक्टर्स को रामायण के साथ बेहतरीन तरीके से जोड़ा है। फिल्म का क्लाइमेक्स थोड़ा फिल्मी, लेकिन अच्छा है।
1-बेकार, 2-औसत, 2.5-टाइमपास, 3-अच्छी, 4-बहुत अच्छी, 5-अद्भुत
जहां तक स्क्रीनप्ले का सवाल है तो उसमें कुछ किरदारों को ठीक से नहीं लिखा गया है। खासतौर पर नंदिनी का किरदार। उसका एक बॉयफ्रेंड अतीत बन चुका है, दूसरा वर्तमान है और तीसरे के प्रति वह आकर्षित होती है जिसमें उसे अपना फ्यूचर नजर आता है। सभी उसका दिल जीतने की कोशिश करते हैं और वह इधर से उधर होती रहती है। आरपी और उसकी गर्लफ्रेंड के रिश्ते को भी ठीक से पेश नहीं किया गया है। राम का स्क्रीन टेस्ट, आरपी और चित्रा की रेस्तरां में मुलाकात, नंदिनी की बालकनी में आरपी का जाना और वहां मंदार का पहुंच जाना, आरपी-नंदिनी का किसिंग सीन, जैसे कुछ बेहतरीन दृश्य लिखे गए हैं जो दर्शकों को गुदगुदाते हैं।
फिल्म के सभी कलाकारों का अभिनय शानदार है। विकी डोनर से आयुष्मान खुराना ने उम्मीदें जगाईं और ‘नौटंकी साला’ में वे उन उम्मीदों पर खरे उतरें। उनका अभिनय एकदम नैसर्गिक है।
कुणाल राय कपूर ने एक आलसी और उनींदे इंसान का रोल बेहतरीन तरीके से किया। नंदिनी के रूप में पूजा साल्वी प्रभावित करती हैं, लेकिन उनका रोल ठीक से नहीं लिखा गया है। थिएटर के प्रोड्यूसर चंद्रा के रूप में संजीव भट्ट का अभिनय भी उल्लेखनीय है। अभिषेक बच्चन सिर्फ दोस्ती की खातिर चंद मिनटों के लिए फिल्म में दिखते हैं और उनका काम फिल्म से निकाल भी दिया जाए तो कोई भी फर्क नहीं पड़ेगा।
फिल्म का संगीत थीम के अनुरुप है। साडी गली और मेरा मन कहने लगा सुनने लायक हैं। मनोज लोबो का कैमरावर्क, फिल्म का आर्ट डायरेक्शन और बैकग्राउंड म्युजिक उल्लेखनीय हैं।
नौटंकी साला के स्क्रीनप्ले में एक शानदार फिल्म बनने की पूरी संभावना थी, जिसका पूरी तरह दोहन नहीं हो पाया, इसके बावजूद यह शानदार अभिनय, कॉमेडी और निर्देशन के कारण देखी जा सकती है।
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 10 मिनट 16 सेकंड
बेकार, 2-औसत, 2.5-टाइमपास, 3-अच्छी, 4-बहुत अच्छी, 5-अद्भुत
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बैनर :
फिल्मक्रॉफ्ट प्रोडक्शंस प्रा.लि.
निर्माता :
राकेश रोशन
निर्देशक :
अनुराग बसु
संगीत :
राजेश रोशन
कलाकार :
रितिक रोशन, बारबरा मोरी, कंगना, निक ब्राउन, कबीर बेदी, यूरी सूरी
यू/ए * 14 रील * 2 घंटे 8 मिनट
काइट्स' की कहानी पर यदि आप गौर करें तो यह बहुत ही साधारण है। इसमें कोई नयापन नहीं है। हजारों फिल्में इस तरह की कहानी पर हम देख चुके हैं। इसके बावजूद यदि फिल्म देखने लायक है तो इसकी असाधारण प्रस्तुतिकरण के कारण।
निर्देशक अनुराग बसु इस मामूली कहानी को एक अलग ही स्तर पर ले गए हैं और फिल्म को उन्होंने इंटरनेशनल लुक दिया है। आधुनिक तकनीक, शार्प एडिटिंग और भव्यता का इतना उम्दा पैकिंग किया गया है कि पुराना माल (कहानी) भी खप जाता है।
लास वेगास में रहने वाला जे (रितिक रोशन) पैसा कमाने के लिए उन लड़कियों से भी शादी कर लेता है जो ग्रीन कार्ड चाहती हैं। ऐसी ही 11 वीं शादी वह नताशा/लिंडा (बार्बरा मोरी) से करता है जो मैक्सिको से लास वेगास पैसा कमाने के लिए आई है।
अरबपति और कैसिनो मालिक (कबीर बेदी) की बेटी जिना (कंगना) को जे डांस सिखाता है। जिना उस पर मर मिटती है। जे की नजर उसके पैसों पर है, इसलिए वह भी उससे प्यार का नाटक करने लगता है।
उधर नताशा भी जिना के भाई टोनी (निक ब्राउन) से शादी करने के लिए तैयार हो जाती है ताकि उसकी गरीबी दूर हो सके। नताशा और जे की एक बार फिर मुलाकात होती है और उन्हें महसूस होता है कि वे एक-दूसरे को चाहने लगे हैं।
शादी के एक दिन पहले जे के साथ नताशा भाग जाती है। टोनी और उसके पिता अपमानित महसूस करते हैं और वे जे-नताशा को तलाश करते हैं ताकि उनकी हत्या कर वे अपना बदला ले सके। टोनी कामयाब होता है या जे? यह फिल्म में लंबी चेजिंग के जरिये दिखाया गया है।
इसमें कोई शक नहीं है कि फिल्म की कहानी बहुत ही सिंपल है। बहुत ज्यादा उतार-चढ़ाव भी नहीं हैं। कुछ खामियाँ भी हैं कि कैसे अमीर, शक्तिशाली और बिगड़ैल परिवार के दो सदस्य सड़कछाप लोगों से शादी करने के लिए तैयार हो जाते हैं या पैसे के पीछे भागने वाले जे और नताशा अचानक प्यार की खातिर सब कुछ ठुकरा देते हैं। लेकिन निर्देशक अनुराग बसु ने इस कहानी को इतने उम्दा तरीके से फिल्माया है कि इन बातों को इग्नोर किया जा सकता है।
कहानी को सीधे तरीके से कहने के बजाय उन्होंने इसे जटिलता के साथ कहा है, जिससे फिल्म में रोचकता पैदा हो गई। फ्लेशबैक का उन्होंने बेहतरीन प्रयोग किया है। एक फ्लेशबैक शुरू होता है और इसके पहले कि वो पूरा हो दूसरे घटनाक्रम आरंभ हो जाते हैं। फिर आगे चलते हुए पुराने फ्लेशबैक को पूरा किया जाता है। अलर्ट रहते हुए दर्शक को सब याद रखना पड़ता है।
फिल्म में इमोशन डालने के लिए संवादों का सहारा नहीं लिया गया है क्योंकि फिल्म के दोनों कैरेक्टर एक-दूसरे की भाषा नहीं जानते हैं, इसके बावजूद जे और नताशा के प्यार को आप महसूस कर सकते हैं। टोनी से बचते हुए उन्हें ये पता नहीं रहता कि कल वे जीवित रह पाएँगे या नहीं, इसलिए वे हर लम्हें में पूरी जिंदगी जी लेना चाहते है। इस बात को अनुराग ने खूबसूरती से पेश किया है।
फिल्म की एडिटिंग चुस्त है जिससे फिल्म की गति में इतनी तेजी है कि ज्यादा सोचने का मौका दर्शकों को नहीं मिलता। 'काइट्स' को इंटरनेशनल लुक देने में इसकी एडिटिंग ने महत्वपूर्ण रोल अदा किया है।
रितिक रोशन हैंडसम लगे हैं। जहाँ तक अभिनय का सवाल है तो फिल्म की शुरुआत में कैरेक्टर के मुताबिक लंपटता वे नहीं दिखा पाए, लेकिन इसके बाद प्यार में डूबे प्रेमी का रोल उन्होंने बेहतरीन तरीके से अभिनीत किया है। रितिक की तुलना में खूबसूरत बारबरा बड़ी लगती हैं, लेकिन उनकी कैमेस्ट्री खूब जमी है। बारबर
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एक्टिंग इतनी नेचुरल है कि लगता ही नहीं कि वे अभिनय कर रही हैं। कंगना और कबीर बेदी के पास करने को ज्यादा कुछ नहीं था। निक ब्राउन ने खलनायकी के तीखे तेवर दिखाए हैं।
राजेश रोशन ने दो गीत 'जिंदगी दो पल की' और 'दिल क्यूँ ये मेरा' सुनने लायक बनाए हैं। फिल्म के संवाद अँग्रेजी, स्पैनिश और हिंदी में हैं। मल्टीप्लेक्स में अँग्रेजी और सिंगल स्क्रीन में हिंदी सब टाइटल दिए गए हैं। भारतीय दर्शक इस तरह के सब-टाइटल पढ़ने के आदी नहीं है। अँगरेजी में भी ढेर सारे संवाद हैं। ये बातें फिल्म के खिलाफ जा सकती हैं और व्यवसाय पर इसका असर पड़ सकता है।
तकनीकी रूप से फिल्म हॉलीवुड के स्तर की है। अयनंका बोस की सिनेमाटोग्राफी कमाल की है। सलीम-सुलैमान का बैकग्राउंड म्यूजिक उम्दा है।
‘काइट्स’ की कहानी पर यदि मेहनत की जाती तो इस फिल्म की बात ही कुछ होती। फिर भी आर्डिनरी कहानी को एक्स्ट्रा आर्डिनरी तरीके से पेश किया गया है और इस वजह से 'काइट्स' देखी जा सकती है।
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अपने आपको जाहिर करने का साहस बहुत कम में होता है और संसार में लगभग हर व्यक्ति तरह-तरह के मुखौटे लगाए घूमता है। मुखौटे की आड़ में उसके अंदर का मूल इंसान गुम हो जाता है और इस नकलीपन को ही वह असली मान लेता है। कुछ मुखौटे हमें सामाजिक दबाव के तहत लगाना पड़ते हैं। मसलन ज्यादातर सवाल पूछा जाता है कि आप कैसे हैं? भले ही आप बुरे दौर से गुजर रहे हों, लेकिन शिष्टाचार के मुखौटे के कारण यह जानते हुए भी सामने वाला केवल औपचारिकता निभा रहा है कहना पड़ता है कि मैं अच्छा हूं। इसी विचार को निर्देशक इम्तियाज अली ने 'तमाशा' में प्रस्तुत किया है।
दिल और दुनिया के बीच की जगह कोर्सिका में दो अजनबी मिलते हैं। वे अपना असली परिचय नहीं देते हैं। लड़का अपने आपको डॉन बताता है और लड़की मोना डार्लिंग। तय करते हैं कि वे अपने बारे में झूठ बोलेंगे और यहां के बाद जिंदगी में फिर कभी नहीं मिलेंगे।
इस झूठ के चक्कर में लड़के का असली रूप उजागर होता है और लड़की उसे चाहने लगती है। कुछ दिन साथ गुजारने के बाद वे भारत अपने-अपने घर लौट जाते हैं। चार वर्ष बाद उनकी फिर मुलाकात होती है। इस बार असली परिचय होता है। लड़का अपना नाम वेद (रणबीर कपूर) औल लड़की तारा (दीपिका पादुकोण) बताती है।
वेद को तारा कोर्सिका वाले डॉन से बिलकुल अलग पाती है। वह कुछ ज्यादा ही शिष्ट है और बोर किस्म का है। घड़ी के मुताबिक जीता है और उसमें से वो मस्ती-रोमांच गायब है। तारा को वेद प्रपोज करता है, लेकिन उसे यह बात बताकर वह रिजेक्ट कर देती है। इससे वेद को चोट पहुंचती है। उसे समझ नहीं आता कि असल में वह है क्या? वह डॉन उसकी असलियत है जिसका वह किरदार निभा रहा था या वह वेद का किरदार निभा रहा है जिसे वह असलियत समझता है। उसकी भीतरी यात्रा शुरू होती है। वह अपने को खोजता है।
इम्तियाज अली द्वारा चुना गया विषय दुरुह है और इस पर मनोरंजक फिल्म गढ़ना बहुत बड़ी चुनौती है, लेकिन इस पर एक अच्छी फिल्म गढ़ने में इम्तियाज सफल हो गए हैं। इंटरवल तक फिल्म बहती हुई लगती है। रणबीर और दीपिका के रोमांस में ताजगी महसूस होती है। एक-दूसरे से झूठ बोलकर मनचाहा करने वाला आइडिया लुभाता है।
इंटरवल के बाद फिल्म थोड़ी लड़खड़ाती है जब वेद की अंदर की यात्रा शुरू होती है। इसमें थ्री इडियट्स वाला ट्रेक भी शामिल हो जाता है जब वेद को उसके पिता इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए दबाव डालते हैं जबकि वह कुछ और करना चाहता है। यह ट्रेक इतना असरदायक नहीं है।
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फिल्म कहती है औसत किस्म के लोग अपने सपनों को तिलांजलि देकर एक ऐसी दौड़ में शामिल हो जाते हैं जिन्हें पता ही नहीं होता कि वे कहां जा रहे हैं। वे एक मशीन बन जाते हैं और मन मारते हुए रूटीन लाइफ जीते हैं।
खैर, फिल्म के नायक में तो एक टैलेंट छिपा हुआ था, लेकिन ज्यादातर लोगों में तो किसी किस्म का हुनर नहीं होता और पैसे कमाने के लिए उन्हें रूटीन लाइफ की मार झेलना पड़ती है। बहुत कम लोग होते हैं जो अपनी मर्जी का काम कर पाते हैं।
इम्यिाज अली का निर्देशन बेहतरीन है। वेद की कहानी को उन्होंने पौराणिक कथाओं से लेकर तो आधुनिकता से जोड़ा। उनके प्रस्तुतिकरण में स्टेज पर चलने वाले तमाशे का मजा भी मिलता है। उन्होंने सिनेमा के स्क्रीन को विभिन्न रंगों से संवारा है और गीतों के जरिये कहानी को आगे बढ़ाया है। एक अलग तरह के विचार और प्रेम कहानी को स्क्रीन पर दिखाना सराहनीय है। उन्होंने न कहते हुए भी बहुत कुछ कहा है।
रवि वर्मन, इरशाद कामिल और एआर रहमान का काम उल्लेखनीय है। इरशाद कामिल ने बेहतरीन बोल लिखे हैं जो कहानी को आगे बढ़ाते हुए पात्रों की मनोदशा को व्यक्त करते हैं। रहमान की धुनें भी तारीफ के काबिल हैं। मटरगश्ती, अगर तुम साथ हो, चली कहानी, सफरनामा सुनने लायक हैं। रवि वर्मन का कैमरावर्क जोरदार है और उन्होंने फिल्म को दर्शनीय बनाया है।
रणबीर कपूर की अदाकारी बेहतरीन है। आजाद पंछी और लकीर के फकीर वाले दोहरे व्यक्तित्व को उन्होंने बिलकुल अलग तरीके से दर्शाया है। दर्शकों को लगता है कि दीपिका पादुकोण का रोल और लंबा होना चाहिए था और यह दीपिका की तारीफ ही है। रणबीर से एक रेस्तरां में दोबारा मिलने वाले शॉट में उनके खुशी के भाव देखने लायक हैं।
रंगों से सराबोर, संगीतमय और उम्दा प्रस्तुतिकरण के कारण यह तमाशा देखने लायक है।
बैनर : यूटीवी मोशन पिक्चर्स, नाडियाडवाला ग्रैंडसन एंटरटेनमेंट
निर्माता : साजिद नाडियाडवाला
निर्देशक : इम्तियाज अली
संगीत : एआर रहमान
कलाकार : रणबीर कपूर, दीपिका पादुकोण
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 31 मिनिट 28 सेकंड
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अभिषेक चौबे की 'डेढ़ इश्किया' देख तिग्मांशु धुलिया की 'साहेब बीवी और गैंगस्टर' की सीरिज की याद आ जाती है क्योंकि छोटा शहर, खस्ताहाल नवाब, बेरंग हवेलियां और उनमें होने वाले षड्यंत्रों के इर्दगिर्द 'डेढ़ इश्किया' की कहानी भी घूमती है। 'इश्किया' के किरदार बब्बन (अरशद वारसी) और खालूजान (नसीरुद्दीन शाह) को लेकर इसका सीक्वल 'डेढ़ इश्किया' नई कहानी के साथ बनाया गया है। ये दोनों चोर-उचक्के 'मेहमूदाबाद' पहुंच जाते हैं जहां की बेगम पारा (माधुरी दीक्षित) सालाना जलसा करवा रही हैं। उन्हें शादी के लिए ऐसा शौहर चाहिए जो कवि हो, शेरो-शायरी की समझ रखता हो क्योंकि उनके पहले पति मरने के पहले कह गए थे कि दूसरा निकाह करो तो तुम्हारे पति में ये गुण होना जरूरी है। ढेर सारे लोग इकट्ठा हैं और तमाशा शुरू होता है। खालूजान भी अपनी शायरी से पारा को प्रभावित करते हैं, लेकिन पारा के इरादे कुछ और ही हैं।
डेढ़ इश्किया पहली फ्रेम से ही दिखा देती है कि ये किस मिजाज की फिल्म है। फिल्मों से गायब हो चुका उर्दू लहजा इसमें नजर आता है। कई संवादों में गाढ़ी उर्दू उपयोग में लाई गई है और जिन्हें समझ में नहीं आए उनके लिए अंग्रेजी में सब-टाइटल्स भी दिए गए हैं। हालांकि संवाद इतने भी कठिन नहीं हैं कि समझ में ही नहीं आए। नजाकत, तमीज और तहजीब का लबादा ओढ़े इन किरदारों के नकाब को धीरे-धीरे परत-दर-परत उघाड़ा गया है। जब सबके नकाब उतरते हैं तो सभी एक ही थैली के चट्टे-बट्टे नजर आते हैं।
अभिषेक चौबे ने छोटे शहर के माहौल और वहां रहने वालों की जो बारीकी पकड़ी है वो तारीफ के काबिल है। भारत के अंदरुनी इलाकों को उन्होंने अच्छी तरह से दिखाया है। इसके लिए आर्ट डायरेक्टर की तारीफ भी करना पड़ेगी। अभिषेक का प्रस्तुतिकरण उस पान की तरह है जिसे आप मुंह में दबाए रखते हैं और धीरे-धीरे उसके रस का आनंद लेते रहते हैं। जरूरत है कि आप धैर्य रखें। शास्त्रीय संगीत और नृत्य के जरिये उन्होंने कहानी को आगे बढ़ाया।
फिल्म में कई मजेदार सीन हैं। बब्बन-मुनिया का सेक्स वाला प्यार, खालू-बेगम पारा का सेक्स रहित प्यार, इतावली शायर तथा बब्बन-खालू और जान मोहम्मद के बीच चूहे-बिल्ली वाले ट्रेक बेहतरीन बन पड़े हैं।
पुरुष किरदारों पर खूब मेहनत की गई है। बब्बन और खालू के साथ-साथ जान मोहम्मद (विजय राज) का किरदार फिल्म में बखूबी जोड़ा गया है, लेकिन महिला किरदारों में उतनी मेहनत नहीं की गई है। 'इश्किया' में विद्या बालन का किरदार तेज-तर्रार होने के साथ-साथ चौंकाता था। 'डेढ़ इश्किया' में भी पारा और मुनिया के किरदारों के जरिये चौंकाने की कोशिश निर्देशक ने की है, लेकिन यह आधा-अधूरा प्रयास नजर आता है। दोनों को खूबसूरत पेश करने में ही निर्देशक का ध्यान ज्यादा रहा है।
फिल्म के सिनेमाटोग्राफी जबरदस्त हैं। रंगों का संयोजन और लाइट्स का बेहतरीन उपयोग फिल्म में देखने को मिलता है। विशाल भारद्वाज का संगीत और गुलजार के लिखे गीत उच्च स्तर के हैं। 'दिल का मिजाज इश्किया', 'जगावे सारी रैना', 'हमारी अटरिया' जैसे गीत उनको पसंद आएंगे जो गंभीर किस्म का संगीत पसंद करते हैं। विशाल भारद्वाज के संवाद कैरेक्टर्स के मिजाज के अनुरूप हैं। गालियों के साथ-साथ दिल को सुकून देने वाले शब्द भी सुनने को मिलते हैं।
नसीरुद्दीन शाह को क्यों भारत के बेहतरीन एक्टर्स में से एक माना जाता है, ये 'डेढ़ इश्किया' में उनके अभिनय को देख समझा जा सकता है। जैकपॉट जैसी फिल्मों में अपनी प्रतिभा को बरबाद करने वाले नसीर को इसी तरह की फिल्मों का हिस्सा बनना चाहिए। अरशद वारसी के लिए कम स्कोप था, लेकिन वे पूरी तरह से अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। माधुरी दीक्षित ने अपना काम बखूबी निभाया है, हालांकि उनका रोल और भी बेहतर लिखा जा सकता था। हुमा कुरैशी, विजय राज, मनोज पाहवा सहित सारे कलाकारों का काम उम्दा है।
फिल्म में इश्क के सात चरण बताए गए हैं और इन्हीं सात चरणों के बीच इस फिल्म की कहानी घूमती है।
बैनर :
विशाल भारद्वाज पिक्चर्स प्रा.लि., शेमारू एंटरटेनमेंट
निर्माता :
विशाल भारद्वाज, रमन मारू
निर्देशक :
अभिषेक चौबे
संगीत :
विशाल भारद्वाज
कलाकार :
नसीरुद्दीन शान, अरशद वारसी, माधुरी दीक्षित, हुमा कुरैशी, विजय राज, मनोज पाहवा
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 32 मिनट 26 सेकंड
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बैनर :
रेड चिलीज़ एंटरटेनमेंट, इरोज एंटरटेनमेंट
निर्माता :
गौरी खान
निर्देशक :
अनुभव सिन्हा
संगीत :
विशाल-शेखर
कलाकार :
शाहरुख खान, करीना कपूर, अर्जुन रामपाल, मास्टर अरमान वर्मा, शहाना गोस्वामी, टॉम वू, दलीप ताहिल, सुरेश मेनन, सतीश शाह, संजय दत्त और प्रियंका चोपड़ा (
मेहमान कलाकार)
सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 2 घंटे 35 मिनट * 16 रील
बॉलीवुड इतिहास की सबसे महंगी फिल्म। सुपरस्टार शाहरूख खान और करीना कपूर। हॉलीवुड के स्तर की फिल्म बनाने का दावा। पिछले 6 माह से आधे से ज्यादा भारत और दुनिया के कई देशों में शाहरुख का अपनी फिल्म के बारे में बढ़ा-चढा कर बात करना। इन सब बातों से ‘रा.वन’ के प्रति लोगों की अपेक्षाएं ऊंचाई छूने लगी कि पता नहीं किंग खान क्या कमाल करने जा रहे हैं? सबसे अहम सवाल यही उठता है कि क्या रा.वन इन अपेक्षाओं पर खरी उतरती है? इसका जवाब है कुछ हद तक।
विजुअल और स्पेशल इफेक्ट्स की बात की जाए, तकनीक की बात की जाए तो फिल्म का स्तर बहुत ऊंचा है। लेकिन खेलने के लिए बनाया गया गेम आपसे ही खेलने लगे वाला जो विचार है उसे समझने में कई लोगों को दिक्कत आ सकती है। जो वीडियो गेम के दीवाने हैं। गेमिंग के बारे में जानते हैं उन्हें यह फिल्म शानदार लगेगी। हालांकि फिल्म की अपील को यूनिवर्सल बनाने के लिए इसमें इमोशन, रोमांस और गाने डाले गए हैं, लेकिन कहानी का जो आधार है वो तकनीक आधारित है जिसे समझना आम आदमी के लिए मुश्किल है।
अच्छाई बनाम बुराई की कहानियां सदियों से चली आ रही है और रा.वन में भी यही देखने को मिलती है। शेखर सुब्रमण्यम (शाहरुख खान) एक वीडियो गेम डिजाइनर है। अपने आठ वर्ष के बेटे प्रतीक (मास्टर अमन वर्मा) की नजर में वह जीरो है, डरपोक है। प्रतीक को हीरो बोरिंग लगते हैं। विलेन उसे पसंद है क्योंकि विलेन के लिए कोई कायदा-कानून नहीं होता है।
अपने बेटे की फरमाइश पर शेखर एक ऐसा वीडियो गेम बनाता है जिसमें रा.वन नामक सुपरविलेन जी.वन नामक सुपरहीरो से ज्यादा शक्तिशाली होता है। शेखर, उसकी पत्नी और बेटे की जिंदगी में तब भूचाल आ जाता है जब रा.वन गेम से बाहर निकलकर उनकी जिंदगी में चला आता है। कैसे वे इस स्थिति से निपटते हैं यह फिल्म में जबरदस्त उतार-चढ़ाव के साथ दिखाया गया है।
फिल्म का फर्स्ट हाफ बेहतरीन है। शेखर का जिंदगी के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण, अपने बेटे के प्रति प्यार, पत्नी सोनिया से रोमांस, गेम डिजाइन करने का रोमांच, रा.वन का वीडियो गेम से निकल जिंदगी में चले आना जैसी कई घटनाएं एक के बाद एक घटती हैं जो फिल्म की गति बनाए रखती है।
इस दौरान कई उम्दा सीन, जैसे रा.वन का असल जिंदगी में आना, रा.वन का सड़क पर प्रतीक और सोनिया का पीछा करना, जी.वन का अचानक पहुंच कर दोनों की रक्षा करना, रा.वन और जी.वन की पहली भिड़ंत, रा.वन का टुकड़ों-टुकड़ों में बिखर जाना जबरदस्त रोमांच पैदा करते हैं। आमतौर पर सुपरहीरो की कहानी रूखी रहती है, लेकिन रा.वन में इमोशन और रोमांस को भी महत्व दिया गया है।
फिल्म बिखरती है दूसरे हाफ में जब सोनिया अपने बेटे प्रतीक के साथ भारत आती है। यहां मुंबई एअरपोर्ट पर टेक्सी वालों से जी.वन का फाइटिंग सीन बेमतलब का है। सतीश शाह वाले दृश्य ठूंसे हुए लगते हैं।
इस हिस्से में रा.वन की कमी महसूस होती है क्योंकि दर्शक रा.वन और जी.वन की ज्यादा से ज्यादा भिड़ंत देखना चाहते हैं। साथ ही थ्रिलिंग सीन इस पार्ट में बेहद कम है। जब आप एक सुपरहीरो की फिल्म देख रहे होते हैं तो कुछ-कुछ देर में एक्शन दृश्यों का स्क्रीन पर नजर आना जरूरी होता है।
बेलगाम भागती ट्रेन का पटरी से सड़क पर आने वाला सीन इस हिस्से का खास आकर्षण है। क्लाइमेक्स में एक बार फिल्म कमजोर पड़ जाती है। रा.वन और जी.वन की लड़ाई में अपेक्षा होती है कि हैरत-अंगेत स्टंट्स, इफेक्ट्सी देखने को मिलेंगे, लेकिन निराशा हाथ लगती है क्योंकि यहां पर तकनीक ज्यादा हावी हो गई है।
निर्देशक अनुभव सिन्हा का यह अब तक का सबसे बेहतरीन काम है। कहानी भी उन्होंने लिखी है। लेकिन सुपरहीरो के कारनामे दिखाने वाले दृश्यों व एक्शन दृश्यों की संख्या ज्यादा होनी चाहिए थे। कहीं ना कहीं वे शाहरुख की रोमांटिक इमेज से ज्यादा प्रभावित हो गए। नि:संदेह फिल्म में कई मनोरंजक और रोमांच से भरे क्षण हैं, लेकिन बोरियत वाले क्षण भी हैं।
शाहरुख खान ने बेहतरीन अभिनय किया है। शेखर के रूप में उन्होंने मसखरी की है तो जी.वन के रूप में एक्शन। जी.वन वाला उनका लुक बेहतरीन है। करीना कपूर के हिस्से में कम काम था। उन्हें फिल्म का ग्लैमर बढ़ाने के लिए रखा गया है और वे बेहद खूबसूरत नजर आईं।
रा.वन के रूप में अर्जुन रामपाल को ज्यादा फुटेज दिए जाने थे। उन्हें अपनी खलनायकी दिखाने के ज्यादा अवसर नहीं मिले और यह बात अखरती है। मास्टर अरमान वर्मा ने पहली ही फिल्म में अनुभवी कलाकार की तरह काम किया है। सतीश शाह, सुरेश मेनन, दलीप ताहिल और शहाना गोस्वामी को ज्यादा कुछ करने के लिए नहीं था। रजनीकांत एक सीन में आते हैं और अपनी सिग्नेचर स्टाइल में प्रभाव छोड़ जाते हैं। संजय दत्त और प्रियंका चोपड़ा को भी लेकर एक प्रसंग रचा गया है जो सभी को अच्छा लगे यह जरूरी नहीं है क्योंकि यह काफी लाउड है।
विशाल शेखर ने ‘छम्मक छल्लो’ और ‘दिलदारा’ जैसे दो सुपरहिट गाने दिए हैं, लेकिन बाकी गाने सामान्य हैं। उनका पार्श्व संगीत फिल्म को रिच लुक देता है। तकनीकी रूप से फिल्म बेहद सशक्त है और हर फ्रेम पर जमकर पैसा बहाया गया है।
कुल मिलाकर रा.वन में कई खूबियां हैं तो कुछ कमजोरियां भी हैं। एक्शन सीन कम हैं, लेकिन जबरदस्त हैं। काश कुछ ऐसे दृश्य और रखे जाते। क्लाइमेक्स को और बेहतर बनाया जाता तो बात कुछ और ही होती। बावजूद इसके एक बार फिल्म देखी जा सकती है।
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करीब डेढ़ सौ करोड़ के भारी भरकम बजट में बनी निर्माता, निर्देशक, अभिनेता की बहुचर्चित फिल्म 'शिवाय' अजय देवगन के दिल के बेहद करीब है। पिछले साल अजय ने इस प्रॉजेक्ट पर काम शुरू किया, इस दौरान उन्होंने दो नई फिल्मों की शूटिंग इसलिए शुरू नहीं की ताकि वह इस फिल्म को अपना सौ फीसदी दे सकें। अजय के मुताबिक, बचपन से वह भगवान शिव से ज्यादा कनेक्ट महसूस करते है और यही वजह है कि उन्होंने इस फिल्म को बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इस फिल्म को बुल्गारिया की ऐसी उस दुर्गम बफीर्ली लोकेशन में फिल्माया गया है, जहां अक्सर वहां के मेकर भी जाने से कतराते हैं। फिल्म में एक सीन के लिए अजय ने देश-विदेश के करीब दो हजार से ज्यादा अलग-अलग खिलौनों का इस्तेमाल किया तो फिल्म में उनके ऑपोजिट नजर आईं पोलिश ऐक्ट्रेस एरिका कार, जिनके साथ फिल्म शुरू होने से करीब दो महीने पहले हिंदी सीखने के लिए हर रोज दो घंटे तक हिंदी में डायलॉग डिलीवरी को लेकर वर्कशाप की। कॉन्ट्रोवर्सी: अजय देवगन की 'शिवाय' के खिलाफ KRK का ऑडियो टेप वायरलअजय इस फिल्म को कनाडा में शूट करना चाहते थे, लेकिन अजय कनाडा में फिल्म के पहले शूटिंग के लिए पहुंचे तो अगले कई दिन तक वहां जमकर बर्फबारी हुई, जिसका असर फिल्म के बजट पर पड़ा। आखिरकार, अजय ने फिल्म को बुल्गारिया में शूट किया। यकीनन अजय ने बतौर निर्माता, अभिनेता अपनी ओर से इस प्रॉजेक्ट पर जमकर मेहनत की है, लेकिन वहीं अगर बतौर डायरेक्टर फिल्म पर उनकी पकड़ की बात की जाए तो करीब पौने तीन घंटे की इस फिल्म पर उनकी कसी हुई पकड़ नजर नहीं आती। यही वजह है कि उत्तराखंड में बर्फीले पहाडों के बीच बसे एक छोटे से गांव से शुरू हुई 'शिवाय' की शुरुआती रफ्तार बेहद धीमी है तो वहीं अजय और एरिका कार की लव केमिस्टि्री का एंगल भी बेहद कमजोर है। इंटरवल के बाद पिता-पुत्री के रिश्ते पर फोकस करती 'शिवाय' टोटली ऐक्शन, थ्रिलर फिल्म में बदल जाती है जहां हर दूसरे सीन में जमकर मारकाट और लाशों का ढेर नजर आता है। इमोशन और ऐक्शन का ऐसा संगम भी कुछ अजीब लगता है।'ऐ दिल है मुश्किल' और 'शिवाय' में मुकाबला, उम्मीद से ज्यादा करेगी कमाई? कहानी : पहले सीन में चारों ओर बर्फ से ढके पहाड़ों के बीच तीन लाशों के साथ बुरी तरह से घायल शिवाय (अजय देवगन) नजर आते हैं। शिवाय के पास ही एक गुड़िया का खिलौना नजर आता है, यहीं से फिल्म की कहानी करीब नौ साल पीछे फ्लैशबैक में पहुंचती है। शिवाय उत्तराखंड में बर्फ से ढके पहाड़ों के बीच बसे एक गांव में रहता है और यहीं अपना होश संभाला है। शिवाय यहां इंडियन आर्मी के लिए भी अक्सर मुश्किल वक्त में मदद करने का काम करने के साथ यहां आने वाले पर्यटकों को हिमालय की ट्रैकिंग पर ले जाने का काम करता है। ओल्गा (एरिका कार) यहां अपने कुछ दोस्तों के साथ ट्रैकिंग के लिए आती हैं, ट्रैकिंग के दौरान एक भीषण बर्फीले तूफान में शिवाय ओल्गा और उसके दोस्तों को बचाता है, इसी तूफान में फंसे होने के दौरान इनके बीच शारीरिक रिश्ता बन जाता है। हालात कुछ ऐसे बनते हैं कि ओल्गा को अगले कुछ वक्त के लिए शिवाय के गांव में रुकना पड़ता है, यहीं उसे पता चलता है कि वह मां बनने वाली है। ओल्गा अपनी फैमिली के पास बुल्गारिया जाना चाहती है, सो उसे बच्चा नहीं चाहिए। दूसरी ओर, शिवाय चाहता है कि ओल्गा उसके बच्चे को जरूर जन्म दे, ताकि वह ओल्गा के चले जाने के बाद अपनी बाकी जिंगदी उसी बच्चे के साथ गुजार सके। कुछ अर्से बाद ओल्गा को एक बेटी को जन्म देकर अपने देश लौट जाती है। ओल्गा और शिवाय की बेटी बोल नहीं पाती, लेकिन सुन सकती है। शिवाय अब अपनी बेटी गौरा (एबीगेल एम्स) के साथ गांव में खुशहाल जिंदगी गुजार रहा है, अचानक एक दिन गौरा को अपनी मां के बारे में पता लगता है जो बुल्गारिया में रह रही है। ओल्गा अपनी मां से मिलने की जिद करती है, लेकिन शिवाय नहीं चाहता कि गौरा अपनी मां से मिलने जाए जिसने जन्म देने बाद उसका मुंहू तक नहीं देखा, लेकिन गौरा की जिद के सामने शिवाय को झुकना पड़ता है। शिवाय बेटी गौरा को उसकी मां से मिलाने बुलगारिया पहुंचता है, लेकिन यहां आने के दूसरे ही दिन गौरा का किडनैप हो जाता है। ऐक्टिंग : 'शिवाय' के लीड किरदार में अजय देवगन ने एक बार फिर गजब ऐक्टिंग की है, बर्फीले पहाड़ों और बुल्गारिया की सड़कों पर अजय पर फिल्माए ज्यादातर ऐक्शन सीन हॉलिवुड फिल्मों के ऐक्शन सीन को टक्कर देते हैं, बेशक एरिका के साथ रोमांटिक सीन में अजय नहीं जमे, लेकिन इमोशन सीन में उनका गजब अभिनय हैं। ओल्गा के किरदार में एरिका कार सिल्वर स्क्रीन पर बेहद खूबसूरत तो लगती हैं, लेकिन अपनी ऐक्टिंग से कहीं इम्प्रेस नहीं कर पाती। शिवाय की बेटी गौरा के रोल में एबीगेल एम्स ने मेहनत की है, लेकिन सायशा सहगल ने बस अपने किरदार को निभा भर दिया। सायशा ने अगर इंडस्ट्री में लंबी पारी खेलनी है तो उन्हें अभी बहुत कुछ सीखना बाकी है, वहीं वीर दास, सौरभ शुक्ला और गिरीश कर्नाड निराश करते हैं और कुछ ख़ास प्रभाव नहीं छोड़ते। निर्देशन : अगर बतौर डायरेक्टर अजय की बात करें तो इस फील्ड में अजय ने निराश किया है। अजय ने एक ऐसी कमजोर कहानी पर फिल्म बनाई, जिस पर इससे पहले भी कई फिल्में बन चुकी हैं। वहीं, उन्होंने फिल्म को दो हिस्सों में बांटकर रख दिया है, अगर इंटरवल से पहले की बात करें तो फिल्म बाप-बेटी के बीच की कहानी है तो इंटरवल के बाद फिल्म टोटली सौ फीसदी ऐक्शन फिल्म बनकर रह जाती है, जिससे कहानी की रफ्तार थम जाती है तो वहीं ऐक्शन सीन के सामने इमोशनल सीन बौने पड़ जाते हैं। अजय अगर चाहते तो आसानी से ऐक्शन सीन को कम कर सकते थे, वहीं करीब पौने तीन घंटे से ज्यादा अवधि की फिल्म में 10-15 मिनट की फिल्म पर कैंची चलाते तो फिल्म ज्यादा जानदार बन पाती। हां, अजय ने हर ऐक्शन सीन में जबर्दस्त मेहनत की तो वहीं उन्होंने बाप-बेटी के सीन जानदार ढंग से फिल्माए हैं। संगीत : फिल्म का संगीत कहानी और माहौल के मुताबिक है। टाइटिल सॉन्ग 'वही शून्य है वही इकाई, जिसके भीतर छिपा शिवाय' रिलीज से पहले ही कई म्यूजिक चार्ट में टॉप फाइव में शामिल हो चुका है, लेकिन फिल्म के बाकी सभी गाने बस औसत ही हैं। क्यों देंखें : अगर आप अजय देवगन के पक्के फैन हैं तो शिवाय को देखें, क्योंकि आपके चहेते स्टार की इस फिल्म में कई ऐक्शन सीन दिल दहलाने वाले हैं तो वहीं बर्फीले पहाड़ों पर फिल्म की सिनेमटॉग्रफी कमाल की हैं। अगर कहानी की खामियों को नजर अंदाज कर दिया जाए तो अजय की यह ऐसी मेगा बजट फिल्म है, जिसमें आप ऐक्शन और इमोशन को इंजॉय कर सकते हैं। | 1 |
बैनर :
एएलटी एंटरटेनमेंट, बालाजी मोशन पिक्चर्स
निर्माता :
एकता कपूर, शोभा कपूर
निर्देशक :
राज निदिमोरू, कृष्णा डीके
संगीत :
सचिन-जिगर
कलाकार :
तुषार कपूर, प्रीति देसाई, राधिका आप्टे, सेंधिल राममूर्ति, संदीप किशन
सेंसर सर्टिफिकेट : यू/ए * 12 रील
मुंबई शहर बड़ा अनोखा है। कई फिल्मकारों को इसने लुभाया है और ढेर सारी फिल्में इस पर बनी हैं। लेकिन अभी भी बहुत कुछ दिखाया जाना बाकी है। ‘शोर इन द सिटी’ फिल्म की कहानी की पृष्ठभूमि में मुंबई है और तुषार कांति रे ने क्या खूब फिल्माया है इस शहर को। इस शहर के लोगों को। मुंबई को आप इस फिल्म के जरिये महसूस कर सकते हैं।
फिल्म के प्रचार में कहा गया है कि इस शहर में अच्छे या बुरे बनने के लिए किसी बहाने की जरूरत नहीं होती है, खासतौर पर बुरा बनने के लिए और इस लाइन के साथ फिल्म पूरा न्याय करती है।
एक मास अपीलिंग कहानी को क्लास अपीलिंग तरीके से पेश करने चलन इन दिनों बॉलीवुड में बढ़ता जा रहा है। कमीने, दम मारो दम के बाद शोर इन द सिटी इसका उदाहरण है। समानांतर तीन कहानियाँ चलती रहती हैं, जिसके तार कहीं ना कहीं आपस में जुड़े हुए हैं, इन्हें बेहतरीन तरीके से परदे पर पेश किया गया है।
कहानी में नई बात नहीं है, लेकिन इनका प्रस्तुतिकरण इसे देखने लायक बनाता है। अभय (सेंदिल राममूर्ति) एक एनआरआई है जो भारत आकर बिजनैस शुरू करना चाहता है, लेकिन स्थानीय गुंडे उसे परेशान करते हैं और वह मुंबई जैसे शहर में अपने आपको अकेला पाता है।
तिलक (तुषार कपूर), रमेश (निखिल द्विवेदी) और मंडूक (पितोबाश त्रिपाठी) तीन दोस्त हैं जो पाइरेटेड किताब छापते हैं, लेकिन लालच के चलते अपराध की दुनिया में घुस जाते हैं।
सावन (संदीप किशन) एक उभरता हुआ क्रिकेटर है, लेकिन जूनियर टीम में चयन के लिए उसे चयनकर्ता को दस लाख रुपये की रिश्वत देना होगी। साथ ही उसकी गर्लफ्रेंड सेजल (गिरिजा ओक) की शादी उसके घर वाले किसी और से कर रहे हैं क्योंकि सावन कुछ कमाता नहीं है।
तीनों कहानियों में तिलक-रमेश-मंडूक वाला ट्रेक बेहद मजबूत है। इसमें थ्रिल है, मनोरंजन है और कुछ बेहतरीन दृश्य हैं। खासतौर पर वह दृश्य जब वे देखना चाहते हैं कि बम कैसे फूटता है। बैंक लूटने वाला दृश्य। हालाँकि तुषार और राधिका वाले ट्रेक में कुछ कमी-सी लगती है। क्यों तुषार अपनी बीवी के बारे में कुछ नहीं जानता, ये ठीक से स्पष्ट नहीं है।
अभय वाली कहानी ठीक-ठाक है, हालाँकि यह पूरी तरह से अँग्रेजी में है और अँग्रेजी ना जानने वाले दर्शकों को इसे समझने में कठिनाई महसूस होगी। इसमें अभय के कानून को हाथ में लेने वाली बात जँचती नहीं है। सावन वाली कहानी कमजोर है।
तारीफ करना होगी निर्देशक राज निदिमोरू और कृष्णा डीके की जिन्होंने इन आम कहानियों को परदे पर दिलचस्प तरीके से उतारा है। फिल्म देखते समय रोमांच को महसूस किया जा सकता है। फिल्म पर उनकी पकड़ बेहद मजूबत है और उन्होंने स्क्रिप्ट के साथ पूरा न्याय किया है। उनकी शॉट टेकिंग जबरदस्त है। अश्मित कुंदर का संपादन भी उल्लेखनीय है और उन्होंने तीनों कहानियों को बखूबी जोड़ा है।
फिल्म के कलाकारों का चयन एकदम परफेक्ट है और सभी ने बेहतरीन अभिनय किया है। मंडूक के किरदार में पितोबाश त्रिपाठी सब पर भारी पड़े हैं। उन्होंने कई दृश्यों को मजेदार बनाया है।
तुषार और निखिल द्विवेदी अपने किरदारों में डूबे नजर आते हैं। सेंधिल राममूर्ति, जाकिर हुसैन, अमित मिस्त्री, संदीप किशन अपना प्रभाव छोड़ते हैं। छोटे-से रोल में राधिका आप्टे, प्रीति देसाई और गिरिजा ओक उपस्थिति दर्ज कराती हैं।
तकनीकी रूप से फिल्म बेहद सशक्त है। सचिन-जिगर का संगीत फिल्म के मूड के अनुरूप है। शोर इन द सिटी उन लोगों के लिए नहीं है जो गाने, रोमांस या बेसिर-पैर वाली कॉमेडी फिल्में देखना पसंद करते हैं। ये उन लोगों के लिए है जो दिमाग लगाने के साथ-साथ बेहतरीन अभिनय और दमदार निर्देशन देखना चाहते हैं।
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बैनर :
श्री अष्टविनायक सिने विज़न लिमिटेड
निर्माता :
ढिलिन मेहता
निर्देशक :
एंथनी डिसूजा
संगीत :
ए.आर. रहमान
कलाकार :
अक्षय कुमार, संजय दत्त, लारा दत्ता, ज़ायद खान, राहुल देव, काइली मिनॉग, कैटरीना कैफ (विशेष भूमिका)
यह बात हजार बार दोहराई जा चुकी है कि फिल्म बनाते समय सबसे ज्यादा ध्यान कहानी और स्क्रीनप्ले पर दिया जाना चाहिए क्योंकि ये किसी भी फिल्म की सफलता का मुख्य आधार होते हैं।
बड़े फिल्म स्टार्स साइन करने से, स्टंट और गानों से, पानी के अंदर या आसमान में करोड़ों रुपए खर्च कर फिल्माए दृश्यों से कुछ नहीं होता है। लेकिन ये बुनियादी बात अभी तक कई लोगों के समझ में नहीं आई है।
करोड़ों रुपए खर्च कर बनाई गई ‘ब्लू’ इसका ताजा उदाहरण है। पैसा उस जगह खर्च किया गया जहाँ बचाया जा सकता था और उस जगह बचाया गया जहाँ खर्च किया जाना था। एक ढंग की कहानी इससे जुड़े निर्माता-निर्देशक नहीं खोज पाए।
वर्षों पहले खजाने से लदा एक जहाज डूब गया था। आरव (अक्षय कुमार) उसे ढूँढकर अमीर होना चाहता है। इस काम में उसे सागर (संजय दत्त) की मदद चाहिए, जो उसके लिए काम करता है। सागर इसके लिए तैयार नहीं है। बचपन में सागर और उसके पिता ने उस डूबे जहाज को ढूँढ लिया था, लेकिन सागर की गलती से उसके पिता की मौत हो गई थी। सागर उस सदमे से उबर नहीं पाया।
सागर का एक भाई सैम (ज़ायद खान) है, जिसे रिस्क उठाने का नशा है। गैर कानूनी काम के दौरान वह फँस जाता है और कुछ लोग उसकी जान के पीछे है। वे उससे पैसा चाहते हैं। अपने भाई को मुसीबत में देख आरव की बात सागर मान लेता है और वे उस छिपे खजाने को ढूँढ निकालते हैं। अंत में राज खुलता है कि सैम को फँसाने के पीछे आरव का ही हाथ था ताकि सागर खजाने को ढूँढ निकालने में उसकी मदद करे।
यह कहानी ऐसी है, जिसे कोई भी लिख सकता है। इसे भी निर्देशक एंथनी डिसूजा स्क्रीन पर मनोरंजक तरीके से पेश नहीं कर पाएँ। अक्षय कुमार सुपर स्टार हैं, लेकिन अंत तक उनका रोल दमदार नहीं लगता। जब उनके चेहरे से नकाब हटता है तो दर्शक हैरान नहीं होता क्योंकि बीच फिल्म में ही उसे समझ में आ जाता है कि संजय दत्त को जाल में फँसाने वाला अक्षय ही है।
अक्षय के किरदार को रहस्य के पर्दे में छिपाने का कोई मतलब नहीं है। अक्षय को यदि शुरुआत से ही खलनायक दिखाया जाता तो ज्यादा बेहतर होता, इससे दर्शकों की सहानुभूति संजय दत्त के साथ होती और अक्षय को भी कुछ कर दिखाने का अवसर मिलता।
फिल्म का अंत भी अपनी सहूलियत के हिसाब से किया गया। अंत में जो बातें बताईं गई है उन्हें सुनकर दर्शक हँसते हैं। फिल्म का लेखन इतना कमजोर है कि लेखक ऐसे दृश्य नहीं गढ़ पाएँ, जिससे पता चले कि खलनायक कौन है। अक्षय को सारा किस्सा अपने मुँह से सुनाना पड़ता है।
एंथोनी डिसूजा ने सारा ध्यान स्टाइल पर दिया है। एक दृश्य में संजय दत्त के घर पर गुंडे हमला करते हैं। संजू बाबा पहले रंगीन चश्मा पहनते हैं, फिर लड़ने जाते हैं। बाइक चेजिंग सीन भी जबरन ठूँसे गए हैं। खजाने की खोज में जो रोमांच होना चाहिए वो फिल्म से नदारद है।
फिल्म के प्रचार में अंडर वॉटर एक्शन की काफी बात की गई हैं, लेकिन ये खासियत फिल्म में कहीं नजर नहीं आती। समुद्र के भीतर जो दृश्य दिखाए गए हैं, वैसे दृश्य दर्शक टीवी पर कई बार देख चुके हैं।
फिल्म का संगीत अच्छा है और ‘आज दिल’, ‘चिगी विगी’ तथा ‘फिकराना’ प्रसिद्ध हो चुके हैं। इनका फिल्मांकन भव्य तरीके से किया गया है।
संजय दत्त को इस फिल्म में चुनना एक और बड़ी गलती है। हर जगह से गोल-मटोल हो चुके संजय की अब तोंद भी निकल आई है। बॉक्सिंग भी उन्हें जैकेट पहन कर करना पड़ी। लारा के साथ उनके प्रेम-प्रसंग के दृश्य अटपटे लगे। अभिनय भी उन्होंने अनमने ढंग से किया है।
अक्षय कुमार का अभिनय अच्छा है, लेकिन उनकी जो स्टार वैल्यू है, उससे उनका किरदार न्याय नहीं कर पाता। लारा दत्ता ने समुद्र के अंदर गोते लगाकर अपनी काया का प्रदर्शन किया। अभिनय के नाम पर करने को उनके पास कुछ नहीं था। कैटरीना कैफ और कबीर बेदी संक्षिप्त रोल में नजर आए। राहुल देव प्रभावित करते हैं।
फिल्म में एक संवाद है ‘लड़की के दिल पर, समुंदर की मछली पर और करंसी के नोट पर किसी का नाम नहीं लिखा होता है, जिसके हाथ लग जाता है उसी का हो जाता है।‘ कहा जा सकता है कि घटिया फिल्म का टिकट भी जिसके हाथ लगता है उसे भुगतना पड़ता है।
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बैनर :
ईशाना मूवीज़, यूटीवी मोशन पिक्चर्स
निर्माता :
सिद्धार्थ राय कपूर, रॉनी स्क्रूवाला
निर्देशक :
अनुराग बसु
संगीत :
प्रीतम चक्रवर्ती
कलाकार :
रणबीर कपूर, प्रियंका चोपड़ा, इलियाना डीक्रूज, सौरभ शुक्ला, आशीष विद्यार्थी
सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 2 घंटे 30 मिनट
हास्य में करुणा और करुणा में हास्य, यह महान चार्ली चैपलिन के सिनेमा का मूलमंत्र है। इससे प्रेरणा लेकर पूरे विश्व में कई फिल्में बनी हैं। खुद राज कपूर पर चार्ली का गहरा प्रभाव रहा है और उनके सिनेमा में यह झलकता है। ‘बर्फी’ भी चैपलिन सिनेमा से प्रभावित है, खासतौर पर बर्फी/मर्फी का किरदार जो राज कपूर के पोते रणबीर ने निभाया है।
चार्ली चैपलिन की फिल्मों में संवाद नहीं हुआ करते थे। बिना संवाद के गहरी बात चैपलिन बयां कर देते और सभी अपने मतलब निकाल लेते, शायद इसीलिए निर्देशक अनुराग बसु ने भी अपने हीरो को बोलने और सुनने में असमर्थ तथा हीरोइन को मंदबुद्धि बताया है। हीरो-हीरोइन ने पूरी फिल्म में अंगुली पर गिनने लायक शब्द बोलेंगे, लेकिन उनके अंदर क्या चल रहा है इसे अनुराग बसु ने इतने बेहतरीन तरीके से पेश किया है कि सारी बातें बिना कहे समझ आ जाती हैं।
इन दिनों सिल्वर स्क्रीन पर ग्रे और ब्लैक किरदार का बोलबाला है और नि:स्वार्थ भावनाएं और निश्चल प्रेम नजर नहीं आता। बर्फी में ये सब बातें अरसे बाद देखने को मिली हैं और इन्हें देख ऋषिकेश मुखर्जी का सिनेमा याद आ जाता है जिसमें भले लोग नजर आते थे।
बर्फी (रणबीर कपूर) और झिलमिल (प्रियंका चोपड़ा) साधारण इंसान भी नहीं हैं क्योंकि उनमें शारीरिक और मानसिक विकलांगता है। श्रुति (इलियाना डीसूजा) में कोई कमी नहीं है। इन तीनों के इर्दगिर्द जो कहानी गढ़ी गई है वो भी साधारण है। दरअसल किरदार पहले सोच लिए गए और फिर कहानी लिखी गई, लेकिन बर्फी को देखने लायक बनाता है अनुराग बसु् का निर्देशन, सभी कलाकारों की एक्टिंग और सशक्त किरदार।
कहानी कहने की अनुराग की अपनी शैली है। उनकी फिल्मों में कहानी अलग-अलग स्तर पर साथ चलती रहती है जिसे वे आपस में लाजवाब तरीके से गूंथ देते हैं। काइट्स और मेट्रो में हम यह देख चुके हैं और बर्फी में भी उन्होंने इसी शैली को अपनाया है। लेकिन जरूरी नहीं है कि यह शैली सभी को पसंद आए।
फिल्म में 1972, 1978 और वर्तमान का समय दिखाया गया है। सभी दौर की कहानी साथ चलती रहती है, जिसे कई लोग सुनाते रहते हैं। इस वजह से यह फिल्म देखते समय दिमाग सिनेमाघर में साथ लाना पड़ता है।
दार्जिलिंग में रहने वाला बर्फी एक ड्राइवर का बेटा है और उसे सम्पन्न परिवार की श्रुति (इलियाना) चाहती है, जिसकी सगाई किसी और से हो चुकी है। श्रुति यह बात अपनी मां (रूपा गांगुली) को बताती है। मां द्वारा अपनी बेटी को समझाने वाला जो दृश्य बेहतरीन है।
श्रुति को उसकी मां ऐसी जगह ले जाती है जहां कुछ लोग लकड़ी काटते रहते हैं। उसमें से एक की ओर इशारा कर मां कहती है कि जवानी में वे उसे चाहती थी, लेकिन यदि उसके साथ शादी करती तो ऐशो-आराम और सुविधा भरी जिंदगी नहीं जी पाती।
इस तरह के कई शानदार दृश्य फिल्म में हैं, जिसमें क्लाइमेक्स वाले दृश्य का उल्लेख जरूरी है। अनाथालय में झिलमिल को ढूंढते हुए बर्फी आता है, लेकिन वो उसे नहीं मिलती। जब वह श्रुति के साथ वापस जा रहा होता है तब पीछे से झिलमिल उसे आवाज लगाती है, लेकिन सुनने में असमर्थ बर्फी को पता ही नहीं चलता कि उसकी पीठ पीछे क्या हो रहा है।
श्रुति यह बात अच्छे से जानती है कि यदि बर्फी को झिलमिल का पता लग गया तो वह बर्फी को खो देगी। यहां पर श्रुति की प्रेम की परीक्षा है कि वह स्वार्थी बन चुप रहेगी या उसके लिए अपने प्रेमी की खुशी ही असली प्यार है और वह बर्फी को यह बात बता देगी। फिल्म की कहानी से थोड़ी छूट लेकर यह सीन लिखा गया है, लेकिन ये फिल्म का सबसे उम्दा सीन है।
फिल्म के पात्र आधे-अधूरे हैं, लेकिन इससे फिल्म बोझिल नहीं होती। साथ ही उनके प्रति किसी तरह की हमदर्दी या दया उपजाने की कोशिश नहीं की गई है। फिल्म में कई-कई छोटे-छोटे दृश्य हैं, जिनमें हास्य होने के साथ-साथ यह बताने की कोशिश की गई है कि बर्फी को अपनी कमियों के बावजूद किसी किस्म की शिकायत नहीं है और वह जीने का पूरा आनंद लेता है।
झिलमिल का कैरेक्टर स्टोरी में जगह बनाने में काफी समय लेता है और यहां पर फिल्म थोड़ी कमजोर हो जाती है, लेकिन धीरे-धीरे फिल्म में फिर पकड़ आ जाती है। उसके अपहरण वाले किस्सा थोड़ा लंबा हो गया, यदि यहां फिल्म को थोड़ा एडिट कर दिया जाए तो इससे फिल्म में चुस्ती आ जाएगी। इसके अलावा भी कहानी में कुछ कमियां हैं, लेकिन इन्हें इग्नोर किया जा सकता है।
रणबीर कपूर ने बहुत जल्दी एक ऐसे एक्टर के रूप में पहचान बना ली है जिसके लिए रोल सोचे जाने लगे हैं। वे हर तरह के जोखिम उठाने और प्रयोग करने के लिए तैयार हैं। संवाद के बिना अभिनय करना आसान नहीं है, लेकिन रणबीर ने न केवल इस चैलेंज को स्वीकारा बल्कि सफल भी रहे। बर्फी की मासूमियत, मस्ती और बेफिक्री को उन्होंने लाजवाब तरीके से परदे पर पेश किया है। श्रुति के घर अपना रिश्ता ले जाने वाले सीन में उनकी एक्टिंग देखने लायक है।
कमर्शियल और मीनिंगफुल सिनेमा में संतुलन बनाए रखना प्रियंका चोपड़ा अच्छे से जानती हैं। जहां एक ओर वे ‘अग्निपथ’ करती हैं तो दूसरी ओर उनके पास ‘बर्फी’ के लिए भी समय है। ग्लैमर से दूर एक मंदबुद्धि लड़की का रोल निभाकर उन्होंने साहस का परिचय दिया है। कुछ दृश्यों में तो पहचानना मुश्किल हो जाता है कि ये प्रियंका है। प्रियंका की एक्टिंग भी सराहनीय है, लेकिन उनके किरदार को कहानी में ज्यादा महत्व नहीं मिल पाया है।
रणबीर और प्रियंका जैसे कलाकारों की उपस्थिति के बावजूद इलियाना डिक्रूज अपना ध्यान खींचने में सफल हैं। उनका रोल कठिन होने के साथ-साथ कई रंग लिए हुए है, और इलियाना ने कोई भी रंग फीका नहीं होने दिया है। बॉलीवुड में उनका कदम स्वागत योग्य है। एक पुलिस ऑफिसर के रूप में सौरभ शुक्ला टिपिकल बंगाली लगे हैं। उनके साथ सभी कलाकारों ने अपने-अपने रोल बखूबी निभाए हैं।
रवि वर्मन ने दार्जिलिंग और कोलकाता को खूब फिल्माया है और सभी कलाकारों के चेहरे के भावों को कैमरे की नजर से पकड़ा है। फिल्म के गीत अर्थपूर्ण हैं, लेकिन उनकी धुनें ऐसी नहीं है कि तुरंत पसंद आ जाएं। हो सकता है कि ये धीरे-धीरे लोकप्रिय हों।
यह बर्फी बेहद स्वादिष्ट है और इससे कोई नुकसान भी नहीं है। ‘बर्फी’ देखना यानी अच्छी फिल्मों को बढ़ावा देना है।
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ग्लैमर इंडस्ट्री में यकीनन बायॉपिक फिल्मों का ट्रेंड नया नहीं है। बरसों से बायॉपिक फिल्में बन रही हैं और ऐसा नहीं कि बॉक्स ऑफिस पर हर बायॉपिक फिल्म ने अच्छा बिज़नस किया हो। अगर हम क्रिकेटर पर बनी दो लेटेस्ट फिल्मों की बात करें तो अजहरुद्दीन पर फिल्म 'अजहर' जहां बॉक्स ऑफिस पर सुपर फ्लॉप रही, वहीं कैप्टन कूल धोनी पर बनी फिल्म जबर्दस्त हिट रही। दरअसल, ग्लैमर नगरी में नामी हस्तियों या ऐसे चंद चेहरों को लेकर बायॉपिक फिल्म बनाने का ट्रेंड है, जिनकी अपनी अलग पहचान हो। यही वजह है कि बॉलिवुड में बनी ज्यादातर बायॉपिक फिल्में क्रिकेटर, स्टार या राइटर पर बनी है। वहीं अगर हम 'पूर्णा' की बात करें तो इसके लिए हमें राहुल बोस की तारीफ करनी होगी जिन्होंने बतौर प्रडयूसर, डायरेक्टर और ऐक्टर एक ऐसी शख्सियत पर फिल्म बनाई जिसकी अचीवमेंट किसी से कम नहीं, लेकिन इनकी पहचान नहीं बन पाई। वहीं, दिल्ली बेस्ड फिल्म के युवा कास्टिंग डायरेक्टर मयंक दीक्षित ने दिल्ली से हैदराबाद तक कई शहरों में अपनी इस फिल्म की पूर्णा की तलाश की और करीब पांच सौ लड़कियों में से पूर्णा को चुना और उन्हें करीब दो महीने की खास ट्रेनिंग दी। बतौर प्रडयूसर राहुल बोस ने करीब तीन साल पहले 25 मई 2014 को दुनिया की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट पर चढ़ाई करने वाली सबसे कम आयु की लड़की पूर्णा मालावत की महान उपलब्धि पर अपने दमखम पर यह फिल्म बनाई, जिसे शायद ही ग्लैमर इंडस्ट्री का कोई जाना-पहचाना बैनर कभी नहीं उठाता। कहानी : करीब तेरह साल की पूर्णा मालावत (अदिति इनामदार) हैदराबाद (अब तेलंगाना) के एक दूर-दराज बेहद पिछड़े हुए छोटे से गांव की लड़की है। बेहद पिछड़् हुए इस गांव में रहने वालीं पूर्णा और उसकी चचेरी बहन प्रिया के घर की माली हालत बेहद खराब है। हालात ऐसे हैं कि दोनों को स्कूल की फीस न देने की वजह से स्कूल की क्लास में नहीं बैठने दिया जाता और दोनों को स्कूल की सफाई करनी पड़ती है। एक दिन प्रिया पूर्णा के साथ घर से भागने का प्लान बनाती है। प्रिया और पूर्णा घर से भागने की वजह गांव से थोड़ी दूर बने सरकारी स्कूल में पढ़ाई के साथ-साथ खाना-पीना भी फ्री मिलता है, लेकिन दोनों घर से भागने में कामयाब नहीं हो पाती हैं और एक दिन प्रिया की शादी कर दी जाती है। प्रिया की शादी के बाद पूर्णा के पिता बेटी की जिद के चलते उसे सरकारी स्कूल में दाखिल कराते हैं जहां उसे पढ़ने के साथ वहीं रहना भी है। आईपीएस ऑफिसर प्रवीण कुमार (राहुल बोस) पुलिस की ड्यूटी लेने की बजाए एजुकेशन फील्ड में जाना पसंद करता है। एक दिन प्रवीण को पता चलता है कि सरकारी स्कूलों में ठीक खाना नहीं मिलता और एक सरकारी स्कूल की पूर्णा इसी वजह से स्कूल छोड़कर भाग गई है। प्रवीण किसी तरह पूर्णा को समझाकर वापस स्कूल लाते हैं। पूर्णा स्कूल के बच्चों के साथ पहाड़ चढ़ने के एक स्पेशल टूर पर जाती है तो कोच को लगता है कि पूर्णा एक दिन बेहतरीन पर्वतारोही बन सकती है। अब पूर्णा पर्वतारोहण की ट्रेनिंग शुरू करती है। ऐक्टिंग : छोटी लड़की पूर्णा के रोल में अदिति इनामदार ने अपनी बेहतरीन परफॉर्मेंस दी है। अदिति ने इस किरदार को निभाने के लिए न सिर्फ लंबी ट्रेनिंग ही ली, बल्कि टीम के साथ कई दिन की वर्कशॉप भी की। अगर दो शब्दों में कहा जाए तो पूर्णा यकीनन अदिति के नन्हें कंधों पर टिकी एक अच्छी फिल्म है। राहुल बोस ने अपने किरदार को पूरी ईमानदारी के साथ निभाया है। निर्देशन : तारीफ करनी होगी राहुल बोस की जिन्होंने सीमित बजट और सीमित साधनों के साथ एक ऐसी मेसेज देने वाली बेहतरीन फिल्म बनाई है जिसे ग्लैमर इंडस्ट्री के नंबर वन मेकर भी बनाने की हिम्मत नहीं जुटा पाएं। इंटरवल के बाद की फिल्म दर्शकों को सीटों से बांधने में कामयाब है तो राहुल ने फिल्म की लोकेशन ऐसी चुनी है जहां ग्लैमर नगरी के नंबर वन मेकर भी जाने से इसलिए कतराएंगे कि वहां शून्य से कम तापमान के बीच शूटिंग करना आसान नहीं होता। स्क्रीनप्ले दमदार है और सिनेमटॉग्रफी का जवाब नहीं है। फिल्म का क्लाइमैक्स लाजवाब है जो आपकी आंखों को नम करने का दम रखता है। पिछले दिनों जब राष्ट्रपति भवन में इस फिल्म की स्पेशल स्क्रीनिंग की गई तो फिल्म देखकर महामहिम की आंखें भी नम हो गईं। संगीत : फिल्म के गाने कहानी का हिस्सा हैं। बैकग्राउंड स्कोर बेहतरीन है। क्यों देखें : एक बेहतरीन फिल्म है, एक अच्छे मेसेज, गजब की फटॉग्रफी के साथ एक ऐसी फिल्म जिसे आप अपनी फैमिली के साथ देख सकते हैं, लेकिन अगर टाइम पास करने या फिर सिर्फ एंटरटेनमेंट ही पंसद करते हैं तो 'पूर्णा' आपके लिए शायद नहीं है। | 0 |
आज से 19 साल पहले प्रदर्शित हुई सायकॉलजिकल थ्रिलर 'कौन' दर्शकों के रोंगटे खड़े कर देनेवाली फिल्म साबित हुई थी। राम गोपाल वर्मा की इस फिल्म में उर्मिला मातोंडकर के साथ मनोज बाजपेयी के अभिनय की शानदार बानगी देखने को मिली थी। मनोज बाजपेयी की हालिया रिलीज 'मिसिंग' भी उसी परंपरा का निर्वाह करती नजर आती है, मगर यह फिल्म 'कौन' की तुलना में कहीं से भी बीस साबित नहीं होती। कहानी: फिल्म बड़े दिलचस्प अंदाज से शुरू होती है, जहां सुशांत दुबे (मनोज बाजपेयी) अपनी पत्नी अपर्णा (तब्बू) और 3 साल की बीमार बच्ची तितली के साथ रात के एक बजे मॉरीशस के एक रिजॉर्ट में चेक इन करता है। सुबह जब पति-पत्नी की आंख खुलती है, तो पता चलता है कि रिजॉर्ट के उनके कमरे से तितली गायब है। काफी खोजबीन के बाद वहां के पुलिस अफसर (अन्नू कपूर) को बुलाया जाता है। पुलिस की पड़ताल में इस दंपति के बारे में अजीबो-गरीब बातें सामने आती हैं। सुशांत पुलिस को बताता है कि तितली का कोई अस्तित्व नहीं है और उसकी पत्नी अपर्णा मानसिक बीमारी की शिकार है। उसी मनोदशा के कारण उसने एक काल्पनिक तितली की कहानी गढ़ ली है। इतना ही नहीं जैसे-जैसे पुलिस की तफ्शीश आगे बढ़ती जाती है, कहानी उलझती जाती है और एक पॉइंट ऐसा आता है जब पुलिस को इस पति-पत्नी के आपसी संबंधों पर भी शक होने लगता है। क्या वाकई तितली नाम की कोई बच्ची है ही नहीं? अगर है, तो वह कहां गायब हो गई? इस दंपति के संबंधों और बातों में ऐसा क्या झमेला है, जो पुलिस इन्हें भी शक की निगाह से देखने लगती है? ये तमाम बातें देखने के लिए आपको फिल्म देखनी पड़ेगी। रिव्यू: टेलिविजन की दुनिया से ताल्लुक रखनेवाले निर्देशक मुकुल अभ्यंकर की फिल्म निर्देशक के रूप में पहली फिल्म है। थ्रिलर फिल्म के लिहाज से उन्होंने अच्छी कोशिश की है, मगर दिक्कत यह है कि फिल्म के शुरू होने के कुछ देर बाद ही दर्शक आगे होनेवाले घटनाक्रम के बारे में जान जाता है। प्रेडिक्टिबल होने के बावजूद निर्देशक ने इसे ग्रिपिंग बनाया है, मगर टुकड़ों में। ज्यादातर जगहों पर यह फिल्म अपनी पकड़ खो देती है। मुकुल के लेखन-निर्देशन में उथलापन है। सस्पेंस-थ्रिलर में कई जगहों पर हंसी आती है, जो फिल्म के हित में नहीं है। स्क्रीनप्ले बहुत कमजोर है। क्लाइमैक्स तक आते-आते आप फिल्म की परिणति जान जाते हैं और रोमांच खो देते हैं। फिल्म में सुदीप चटर्जी का कैमरावर्क कमाल का है। एडिटिंग और शार्प हो सकती थी। मनोज बाजपेयी ने एक औरतखोर किरदार के चालाकी, डरे, सहमे वाले तमाम भावों को बेहतरीन ढंग से पेश किया है। परिस्थितियों के बीच फंस जाने के बाद कई जगहों पर उनकी बेचारगी पर हंसी भी खूब आती है। खोई हुई बच्ची की मां की भूमिका को तब्बू ने दिल से निभाया है। पुलिस अफसर के रोल में अन्नू कपूर कुछ पल राहत के जरूर देते हैं। सहयोगी कास्ट ठीक-ठाक है। संगीतकार एम एम करीम का संगीत थ्रिलर फिल्म के अनुसार सामान्य ही है। 'लोरी' गीत जरूर प्रभावशाली लगा है। क्यों देखें: सस्पेंस-थ्रिलर फिल्मों के शौकीन और मनोज बाजपेयी-तब्बू के फैंस यह फिल्म देख सकते हैं। | 0 |