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लागत मूल्य 7 रु. प्रति किग्रा. आता है और 25-30 रु. प्रति किग्रा. की दर से बेचा जा सकता है।
NRC सोलन द्वारा ग्रीष्म स्वेट बटन मशरूम के दो नए उच्च उपज के प्रभेदों (Strains)-NCB-6 व NCB-12 को जारी किया गया, जिनसे 6 सप्ताह की फसल में 100 kg कम्पोस्ट से 15 kg ताजे खुम्ब का उत्पादन हुआ।
फसलों के साथ-साथ पेड़-पौधों को भी उगाना, ताकि अन्न उत्पादन के साथ-साथ ईंधन के लिए लकड़ी, हरा चारा, जीवांश खाद की भूमि में वृद्धि आदि का लाभ भी मिल सके, कृषि वानिकी में आता है, जैसे- गेहूँ+पोपलर पद्धति।
कृषि वानिकी ऐसी भूमि-उपयोग प्रणाली एवं प्रौद्योगिकी जिसमें लाभदायक वृक्षों के साथ-साथ विभिन्न ऋतुओं की फसलें (धान्य, तिलहन, दलहन, रेशे-चारे आदि) भी उगाई जाएं।
अन्न के साथ-साथ पशुओं के लिए हरा चारा, दाना, ईंधन, रेशा, फल, उर्वरक आदि सभी आवश्यकता की वस्तुएँ आसानी से मिल जाती हैं।
गेहूँ/आलू/ सरसों/पोपलर कृषि वानिकी- उल्लेखनीय है कि पोपलर के पेड़ जाड़ों में रबी की फसलों की अवधि (नवम्बर-अप्रैल) तक पतझड़ हो जाते हैं जिनकी छाया गेहूँ/ आलू/सरसों पर नहीं पड़ती, यही सबसे बड़ा लाभ है।
मृदा क्षरण चाहे अधिक वर्षा जल से हो अथवा मरुमूमि में वायु द्वारा वह इस पद्धति से कम हो जाता है।
फार्म मजदूर के लिए वर्ष भर रोजगार मिलता रहता है।
पर्यावरण सुधारा जा सकता है।
पेड़ो से गिरी पत्तियाँ भूमि में जीवांश पदार्थ बढ़ाकर खाद का कार्य करती हैं तथा कार्बन/नत्रजन अनुपात संतुलित रहता है।
वर्षा का प्रभावी उपयोग करके अधिक से अधिक उत्पादन लेना।
बेकार/बंजर भूमि का वैकल्पि उपयोग कर पोषक तत्वों के जमाव से भूमि सुधार करना।
बेरोजगारों एवं कृषि श्रमिकों को रोजगार के अवसर प्रदान करना।
पर्यावरण, पारिस्थितिकी, जलवायु को सुव्यवस्थ्ति कर सुधार करना।
खेती को टिकाऊ (Sustainable) बनाने में कृषि-वानिकी अहम भूमिका निभा सकती है जैसा कि अभी हाल के कुछ वर्षों में हुए अनुसंधानों से विदित हुआ है।
सघन पद्धतियों के अपनाने से, उचित फसल चक्र न अपनाने से, अन्धाधुन्ध रसायनों के छ्डिकाव से, उर्वरकों के अकेले उपयोग से, भूक्षरण आदि से भूमि की उर्वरता घटी है, पोषक तत्वों का फसल उत्पादन के प्रति प्रभाव घटा है, उपज में स्थिरता आई है, आदि अनेक उदाहरण हैं।
अत: ऐसी परिस्त्थितियों में कृषि-वानिकी ही एक अच्छा विकल्प है, विशेषकर उत्पादन बढ़ाने एवं पर्यावरण सन्तुलन में।
इसलिए निश्चित तौर से कहा जा सकता है कि कृषि-वानिकी अपनाने की अत्यन्त आवश्यकता तो है ही अपितु भविष्य में इसकी अच्छी सम्भावनाएँ हैं।
कृषि खेती और वानिकी के माध्यम से खाद्य और अन्य सामान के उत्पादन से सम्बंधित है।
कृषि एक मुख्य विकास था, जो सभ्यताओं के उदय का कारण बना, इसमें पालतू जानवरों का पालन किया गया और पौधों (फसलों) को उगाया गया, जिससे अतिरिक्त खाद्य का उत्पादन हुआ।
इसने अधिक घनी आबादी और स्तरीकृत समाज के विकास को सक्षम बनाया।
कषि का अध्ययन कृषि विज्ञान के रूप में जाना जाता है (इससे संबंधित अभ्यास बागवानी का अध्ययन होर्टीकल्चर में किया जाता है)।
तकनीकों और विशेषताओं की बहुत सी किस्में कृषि के अर्न्तगत आती है।
इसमें वे तरीके शामिल हैं जिनसे पौधे उगाने के लिए उपयुक्त भूमि का विस्तार किया जाता है, इसके लिए पानी के चैनल खोदे जाते हैं और सिंचाई के अन्य रूपों का उपयोग किया जाता है
कृषि योग्य भूमि पर फसलों को उगाना और चरागाहों और रेंजलैंड पर पशुधन को गड़रियों के द्वारा चराया जाना, मुख्यतः कृषि से सम्बंधित रहा है।
कृषि के भिन्न रूपों की पहचान करना व उनकी मात्रात्मक वृद्धि, पिछली शताब्दी में विचार के मुख्य मुद्दे बन गए।
विकसित दुनिया में यह रेंज जैविक कृषि (उदाहरण पर्माकल्चर या कार्बनिक कृषि) से लेकर गहन कृषि (उदाहरण औद्योगिक कृषि) तक फैली है।
ज्वार सुधार के कार्यक्रम के लिए देश में जन- धन की पर्याप्त मात्रा का अभाव रहा।
शुरू में केवल एक आर्थिक वनस्पतिशास्त्री होता था जिसका काम कई फसलों की देखभाल तथा सुधार कार्य चलाना अथवा स्वयं करना था।
इन कठिनाइयों के बावजूद भी पादप आनुवंशिकी के क्षेत्र में काफी काम किया गया।
प्रजनन तथा प्रजाति सुधार पर भी बहुत काम हुआ।
इसी की बदौलत कई अच्छी प्रजातियां भी निकाली गयीं।
इनमें से मुख्य हैं- कोयम्बटूर सीरीज, जे 75, एम. एन.सीरीज, एम- 35-1, एम 47-3, टी-1, टी-6 तथा टी-12।
महाराष्ट्र के अकोला से भी कई उन्नत किस्में निकाली गयीं।
इन किस्मों को बनाने में चयन का ही खास योगदान रहा।
चयन स्थानीय देशी पादप सामग्री को लेकर ही किया गया तथा बाहर की उन्नत किस्मों का प्रयोग 1958 से पहले लगभग न के समान ही रहा।
इन प्रयत्नों के फलस्वरूप तैयार की गई किस्मों में स्थानीय स्थितियों के अनुसार स्वयं को ढालने की अद्‍भुत क्षमता भी थी तथा इनका अनुकूलन स्थान विशेष के लिए अधिक हुआ।
इन किस्मों में स्थानीय बीमारियों तथा कीड़ों तथा शाकपातों के प्रति सहिष्णुता थी, मगर इनकी पैदावार का स्तर प्रायः नीचा ही रहा यानी उत्पादन क्षमता में कोई विशेष सुधार नहीं हुआ।
इसका मुख्य कारण था भूमि की कम उर्वराशक्ति के साथ विकसित प्रजाति की निहित उत्पादन शक्ति तथा क्षमता।
स्थानीय प्रजातियों का परीक्षण अब पूरी तरह से परिवर्तित स्थिति तथा परिस्थिति में किया जा रहा है।
देशी प्रजातियां वर्तमान हालात को ध्यान में रखकर विकसित नहीं की गयीं अर्थात् इन किस्मों की उत्पादन क्षमता पैतृक आधार से भी कम है, अतः इनका सुधार अच्छी और उपजाऊ भूमि के लिए नये सिरे से करना होगा ताकि संकरण के प्रयत्नों में अच्छी सफलता मिल सके।
कृषि के क्षेत्र में हुए महान परिवर्तन से ज्वार तथा अन्य मोटे अनाज भी अछूते नहीं रहे हैं।
इस दिशा में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद का कार्य अत्यंत सराहनीय है।
परिषद ने बड़ी दूरदर्शिता से काम लिया तथा अखिल भारतीय अनुसंधान परियोजनाऒं के कार्यक्रमों का श्री गणेश किया तथा ज्वार सुधार के लिए भी 1958 में क्षेत्रीय प्रयोगों की नींव रखी गई।
तीन साल के अल्प समय में ही ज्वार की पहली संकर किस्म तैयार कर ली गयी।
यह किस्म थी सी.एस.एच.-1।
यह भी देखा गया है कि सी. एस.एच-1 सूखाग्रस्त क्षेत्रों के लिए उत्तम है।
वास्तविकता यह है कि ज्वार की यह संकर किस्म बहुत ही अच्छी है तथा सूखे और सिंचाई वाले सभी इलाकों में लगायी जा सकती है।
ज्वार पौष्टिक गुणों के आधार पर एक आदर्श खाद्यान्न नहीं है।
इसमें ल्यूसिन नामक अमीनो एसिड की ज्यादा मात्रा होती है जो जन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।
इसी वजह से ज्वार खाने वाले क्षेत्रों में पैलाग्रा नामक बीमारी का प्रकोप काफी पाया जाता है।
नाइजीरिया में भी भ्रूणपोष (एन्डोस्पर्म) धारी ज्वार पर शोध कार्य जारी हैं इसमें कैरोटिन की मात्रा अन्य किस्मों से कहीं अधिक होती है।
अतः यह आशा की जाती है कि ज्वार के दाने में विटामिन- ए की मात्रा को बढ़ाया जाना असंभव नहीं है।
ज्वार की पैदावार बढ़ाने और इसके पौष्टिक गुणों को सुधारने के साथ कीड़ों और बीमारियों के प्रति अवरोधक शक्ति वाली संकर किस्मों का विकास करने का प्रयत्न भी किया गया है।
कीड़ों के प्रति अवरोधक आधुनिक प्रजनन विधियां विकसित करने का कार्य अत्यन्त उत्साहवर्धक रहा है।
प्रायः प्रजनन में काम आने वाली विदेशी पादप सामग्री, संकर प्रजातियों और सुधरी प्रजातियों के प्रति विशेषकर ग्रहणशील पायी गयी है।
इसलिए जोतवानी तथा सात्इयों (1970) ने विश्व की इकट्ठी की गई प्रजातियों से ऐसी प्रजातियों का चुनाव किया है जिन पर प्ररोह मक्खी (शूट फ्लाई) अर्थात एथेरीगोना सोक्कटा प्ररोह मक्खी का आक्रमण या तो बिल्कुल ही नहीं होता अथवा न के बराबर होता है।
सर्वाधिक प्रजातियां, खासकर रबी के मौसम में उगायी जाने वाली भारतीय प्रजातियों से चुनी गयी हैं परन्तु इन प्रजातियों की पैदावार कम है, अतः यह कोशिश की जा रही है कि इनकी उत्पादन क्षमता में वांछनीय वृद्धि की जा सके।
आरम्भकाल में बाजरा सुधार का काम खासकर उत्पादन शक्ति को ध्यान में रखकर चयन विधि पर आधारित रहा।
इस विधि में एक पौधे के आधार पर या अधिक पौधों के आधार पर चयन का काम किया गया।
कृष्णास्वामी ने 1962 में अपना मत इस प्रकार व्यक्त किया कि इस शोध कार्य अर्थात् समूह वरण (मास सलैक्शन) में देशी और अफ्रीका से लायी गयी विदेशी किस्मों का प्रयोग किया गया परन्तु इन विधियों की सफलता अत्यन्त सीमित रही, अतः इसका चमत्कारपूर्ण प्रभाव नहीं हुआ।
साथ- साथ यह भी देखा गया कि परिणामों में भारी विषमता थी क्योंकि बाजरा प्राकृतिक रूप से ही पर- निषेचित है।
संकरण की अनेक विधियों का परीक्षण किया गया क्योंकि बाजरा में यह काम अत्यन्त सामान्य होता है।
कई विधियों का प्रयोग संकरण (हाइब्रिडाइजेशन) के लिए किया गया परन्तु कोई वर्णनीय सफलता प्राप्त करना संभव नहीं हो सका।
इन संकर किस्मों का बीज केवल थोड़ी मात्रा में ही बनाना संभव था, अतः इन्हें लोकप्रिय नहीं बनाया जा सका।
कदम (1937 तथा 1938) और पान्डिया तथा साथियों (1955) ने बाजरा की उत्पादन क्षमता पर सीधा प्रभाव डालने वाले गुणों का अध्ययन किया।
इस कार्य का प्रमुख उद्देश्य सूखा वाले क्षेत्रों के लिए किस्मों का चुनाव था।
परन्तु यह देखा गया कि पैदावार और पादप मृदुलोमशता (प्लान्ट प्यूबीसैन्स) का कोई सीधा संबंध नहीं है।
रंगास्वामी, अरूयन्गर तथा साथियों (1936) ने प्रयोगों के आधार पर बताया गया कि प्रति पौधा भुट्टों की संख्या तथा उपज आपस में सीधे-सीधे संबंधित हैं।
साथ ही प्रमुख भुट्टे की उपज का सीधा संबंध इसकी लम्बाई, व्यास तथा कुल क्षेत्रफल, पुष्पावलि- वृन्त की मोटाई और प्रमुख धुरी की ऊंचाई से है।
कृष्णास्वामी (1961) ने बताया कि एक पौधे का चयन करके अधिक उपज देने वाली कई किस्मों का विकास किया गया है।
महाराष्ट्र में नम्बर 54, 37 तथा 59 खास थी।
नम्बर 54 जल्दी पकने वाली किस्म थी।
संकरण के अतिरिक्त चयन विधि द्वारा बाजरा सुधार का कार्य अखिल भारतीय बाजरा सुधार परियोजना के अन्तर्गत निरन्तर चलाया जा रहा है।
भारतीय वैज्ञानिक लगभग पिछले चालीस सालों से बाजरा में संकर ओज (हाब्रिडविगर या हैटेरोसिस) के विषय में जानते थे।
इन अनुसंधानों से यह तो साबित हो गया कि प्रजनन का चमत्कार पूर्ण कार्य संकरण विधि से ही किया जा सकता था, परन्तु प्रमुख समस्या बड़े पैमाने पर शुरू संकर बीज तैयार करने की थी।
अमरीका में बर्टन (1958) ने कोशिका द्रव्यीय नर नपुंसकता (साइटोप्लाज्मिक मेल स्टेरिलिटी) का अन्वेषण किया तथा दो ऐसी किस्मों की सिफारिश भी की।
इनके नाम हैं, 23 ए और 18 ए।
इन स्त्री जातियों (मेल स्ट्र्राइल्स) के अन्वेष्ण से संकरण के काम ने काफी जोर पकड़ा।
इनमें सर्वोत्तम 5 प्रतिशत संकर किस्मों की उपज स्थानीय किस्मों की उपज से 103 से 131 प्रतिशत अधिक पायी गयी।
परन्तु इस काम में एक खास समस्या सामने आयी कि किसी भी परागणकर्ता की निषेचन शक्ति को प्रथम चरण (एफ-1) में पूर्ण रूप से संग्रहित नहीं किया जा सका।
इस समस्या का समाधान निकालने के लिए अनेक परीक्षण और संकरण किये गये और उनकी जांच का काम शरद ऋतु 1963-64 और बसंत ऋतु 1964 में किया गया।
अगली यानी खरीफ 1964 में उत्तम पायी गयी संकर किस्मों की जांच प्रमुख बाजरा क्षेत्रों में लगभग 27 स्थानों पर की गयी तथा इनकी उपज अन्य गुणों की तुलना की गयी।
इन प्रयोगों से पता चला कि संकर किस्मों की उपज स्थानीय किस्मों से 75-88 प्रतिशत अधिक रही।
साथ ही साथ सूखे चारे की उपज भी लगभग 9 प्रतिशत अधिक मिली।
इनमें से सर्वोत्तम संकर किस्म टिफट् 23 ए x बिल 3.बी पायी गयी।
इसे संकर बाजरा नं. 1 का नाम दिया गया।
इस प्रकार देश में सबसे पहली बाजरा की संकर किस्म सन् 1965 में पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, लुधियाना के सौजन्य से विकसित की गयी।
राजस्थान और गुजरात, जो बाजरा के गढ़ माने जाते हैं, के लिए 1966 और 1968 के दौरान अन्य दो संकर किस्में गुजरात में जामनगर के अनुसंधान केन्द्र से निकाली गयी।
इन किस्मों के नाम निम्नलिखित हैं- 1. संकर बाजरा नं. 2, 2. संकर बाजरा नं.3।
इस संकर किस्मों की खासियत यह है कि संकर बाजरा नं.1 के मुकाबले जल्दी पककर तैयार हो जाती हैं तथा सूखे का सामना भी भली भांति कर सकती हैं।
इसके अतिरिक्त बाजरा नं.3 का दाना नं.1 से मोटा और स्लेटी रंग का होने के कारण किसानों में ज्यादा लोकप्रिय माना गया।
इसका अनुमोदन करते समय पाया गया कि इस पर हरी पत्ती (डाउनी- मिल्ड्यू) तथा चेंपा (अरगट) बीमारियों का प्रभाव नहीं पड़ता।
परन्तु यह प्रमाणित नहीं हो सका क्योंकि 1972 और 1973 में यह देखा गया कि इस जाति में भी हरी पत्ती की बीमारी लगती है।
संकर नं.-3 के अतिरिक्त 1968 में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के कानपुर केन्द्र पर संकर बाजरा नं. 4 विकसित की गईं।
यह खासकर सिंचित क्षेत्रों के लिए उत्तम मानी गई और वास्तव में इसका विकास भी उन्हीं क्षेत्रों के लिए किया गया था।
परन्तु खरीफ 1970 के बाद देखा गया कि संकर बाजरा नं. 4 हरी पत्ती और चेंपा के रोग से बहुत प्रभावित होता है।
संकर बाजरा नं. 4 का स्थान भरने के लिए अथक प्रयत्न किये गये, इसके फलस्वरूप संकर बाजरा नं-5 (टिफ्ट 23 ए x के.559) तैयार किया गया।
इस पर भिन्न- भिन्न भू एवं जलवायु क्षेत्रों में उत्पादन तथा रोगों के प्रति अवरोध शक्ति आदि के बारे में जानने के लिए शोध कार्य किया गया, परन्तु उपलब्ध परिणामों के आधार पर इसका अनुमोदन सीमित क्षेत्रों के लिए किया गया।
बाजरा तथा अन्य मोटे अनाजों की उपज बढ़ाने के विचार से भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, नयी दिल्ली ने अखिल भारतीय मोटे अनाज सुधार परियोजना सन 1969 यानी चौथी पंचवर्षीय योजना के समय आरम्भ की।