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भद्रक, ओड़िशा | https://hi.wikipedia.org/wiki/भद्रक,_ओड़िशा | भद्रक (Bhadrak) भारत के ओड़िशा राज्य के भद्रक ज़िले में स्थित एक नगर है। यह उस ज़िले का मुख्यालय भी है।"Orissa reference: glimpses of Orissa," Sambit Prakash Dash, TechnoCAD Systems, 2001"The Orissa Gazette," Orissa (India), 1964"Lonely Planet India," Abigail Blasi et al, Lonely Planet, 2017, ISBN 9781787011991
इन्हें भी देखें
भद्रक ज़िला
सन्दर्भ
श्रेणी:भद्रक ज़िला
श्रेणी:ओड़िशा के शहर
श्रेणी:भद्रक ज़िले के नगर |
बोलांगीर | https://hi.wikipedia.org/wiki/बोलांगीर | REDIRECT बलांगिर जिला |
सम्बलपुर | https://hi.wikipedia.org/wiki/सम्बलपुर | सम्बलपुर (Sambalpur) भारत के ओड़िशा राज्य का पाँचवा सबसे बड़ा नगर है। यह महानदी के किनारे बसा हुआ है और सम्बलपुर ज़िले का मुख्यालय है।"Orissa reference: glimpses of Orissa," Sambit Prakash Dash, TechnoCAD Systems, 2001"The Orissa Gazette," Orissa (India), 1964"Lonely Planet India," Abigail Blasi et al, Lonely Planet, 2017, ISBN 9781787011991
विवरण
सम्बलपुर का नाम 'समलेश्वरी देवी' के नाम पर पड़ा है जो शक्तिरूपा हैं और इस क्षेत्र में पूज्य देवी हैं। संबलपुर, भुवनेश्वर से ३२१ किमी की दूरी पर है। इतिहास में इसे 'संबलक', 'हीराखण्ड', 'ओडियान' (उड्डियान), 'ओद्र देश', 'दक्षिण कोशल' और 'कोशल' आदि नामों से संबोधित किया गया है। महानदी इस जिले को विभक्त करती है। यह जिला तरंगित समतल है, जिसमें कई पहाड़ियाँ हैं। इनमें से सबसे बड़ी पहाड़ी ३०० वर्ग मील में फैली हुई है। जिले में महानदी के पश्चिमी भाग में सघन खेती होती है और पूर्वी भाग के अधिकांश में जंगल हैं। जिले में हीराकुद पर बाँध बनाकर सिंचाई के लिए जल एवं उद्योगों के लिए विद्युत् प्राप्त की जा रही है। महानदी और इब नदी के संगमस्थल के समीप हीराकुड में स्वर्णबालू एवं हीरा पाया गया है।
संबलपुर, छत्तीसगढ़ और ओड़िशा राज्यों के बीच स्थित है और दोनों प्रान्तों को जोड़ता है। महानदी के बायें किनारे पर स्थित यह नगर कभी हीरों के व्यवसाय का केन्द्र था। यह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त सूती और रेशमी बुनावट (टशर रेशम) की वस्त्र-कारीगरी (इकत), आदिवासी समृद्ध विरासत और प्रचुर जंगल भूमि के लिए प्रसिद्ध है। नगर की पृष्ठभूमि में वनाच्छादित पहाड़ियाँ स्थित हैं, जिनके कारण नगर सुंदर लगता है। संबलपुर ओड़िशा के जादूई पश्चिमी भाग का प्रवेश द्वार के रूप में सेवारत है। यह राज्य के उत्तरी प्रशासकीय मंडल का मंडल मुख्यालय है - जो एक महत्वपूर्ण और व्यावसायिक और शिक्षा केन्द्र हैं।
इतिहास
प्रागैतिहासिक युग में दर्ज बस्तियों के साथ संबलपुर भारत के प्राचीन स्थानों में से एक है। वहाँ प्रागैतिहासिक कलाकृतियों की खोज की है जो इस ओर इशारा करते हैं। कुछ इतिहासकार इसे टॉलेमी द्वारा दूसरी शताब्दी के रोमन पाठ "जियोग्राफिया, एक प्राचीन एटलस और एक ग्रंथ कार्टोग्राफी" में वर्णित "संबालाका" शहर की पहचान करते हैं। यह उल्लेख किया गया है कि शहर हीरे का उत्पादन करता है। 4 वीं शताब्दी सीई में, गुप्त सम्राट ने "दक्षिण कोशल" के क्षेत्र पर विजय प्राप्त की, जिसमें वर्तमान समय में संबलपुर, विलासपुर और रायपुर शामिल थे। बाद में 6 वीं शताब्दी की शुरुआत में, चालुक्य राजा पुलकेशिन II ने कहा कि तत्कालीन पांडुवामसी राजा बलार्जुन शिवगुप्त को हराकर दक्षिण कोसल पर विजय प्राप्त की थी। दक्षिण कोसल पर शासन करने वाला अगला राजवंश सोमबम्सी वंश था। सोमवंशी राजा जनमेजय- I महाभागगुप्त (लगभग 882–922 ई।) ने कोसाला के पूर्वी भाग को समेकित किया जिसमें आधुनिक अविभाजित संबलपुर और बोलनगीर जिले शामिल थे और तटीय आधुनिक ओडिशा पर भूमा-कार राजवंश के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किए। उदयोतकेसरी (सी। १०४०-१०६५ ई.पू.) के बाद, सोमवंशी साम्राज्य में धीरे-धीरे गिरावट आई। राजवंश ने उत्तर-पश्चिम में नागाओं और दक्षिण में गंगा से अपने प्रदेश खो दिए। सोमवंशी के पतन के बाद यह क्षेत्र थोड़े समय के लिए तेलुगु चोदास के अधीन आ गया। दक्षिण कोसल के अंतिम तेलुगु चोदा राजा सोमेश्वर तृतीय थे, जिन्हें कलचुरी राजा जजलदेव-प्रथम ने लगभग 1119 ईस्वी में हराया था। कलचुरी का उत्कल (वर्तमान में तटीय ओडिशा) के गंगा राजवंश के साथ एक आंतरायिक संघर्ष था। अंतत: कलचुरियों ने अनंगभूमि देव- III (1211–1238 C.E.) के शासनकाल के दौरान संबलपुर सोनपुर क्षेत्र को गंगा में खो दिया। गंगा साम्राज्य ने संबलपुर क्षेत्र पर 2 और सदियों तक शासन किया। हालाँकि उन्हें उत्तर से बंगाल की सल्तनत और दक्षिण के विजयनगर और बहमनी साम्राज्यों के आक्रमण का सामना करना पड़ा। इस लगातार संघर्ष ने संबलपुर पर गंगा की पकड़ को कमजोर कर दिया। अंतत: उत्तर भारत के एक चौहान राजपूत रमई देव ने पश्चिमी उड़ीसा में चौहान शासन की स्थापना की।
संबलपुर नागपुर के भोंसले के अंतर्गत आया जब मराठा ने 1800 में संबलपुर को जीत लिया। 1817 में तीसरे एंग्लो-मराठा युद्ध के बाद, ब्रिटिश सरकार ने संबलपुर को चौहान राजा जयंत सिंह को लौटा दिया, लेकिन अन्य रियासतों पर उनका अधिकार हटा लिया गया। जनवरी 1896 में, ओडिया भाषा को समाप्त करके, हिंदी को संबलपुर की आधिकारिक भाषा बना दिया गया था, जिसके बाद लोगों द्वारा हिंसक विरोध प्रदर्शन को फिर से बहाल कर दिया गया था। 1905 में बंगाल के विभाजन के दौरान संबलपुर और आस-पास के ओडिया भाषी इलाकों को बंगाल प्रेसीडेंसी के तहत ओडिशा डिवीजन के साथ समामेलित किया गया था। बंगाल का ओडिशा विभाजन 1912 में बिहार और ओडिशा के नए प्रांत का हिस्सा बन गया और अप्रैल 1936 में मद्रास प्रेसीडेंसी से अविभाजित गंजाम और कोरापुट जिलों को मिलाकर ओडिशा का अलग प्रांत बन गया। 15 अगस्त 1947 को भारतीय स्वतंत्रता के बाद, ओडिशा एक भारतीय राज्य बन गया। पश्चिमी ओडिशा की रियासतों के शासकों ने जनवरी 1948 में भारत सरकार को मान्यता दी और ओडिशा राज्य का हिस्सा बन गए।
1825 से 1827 तक, लेफ्टिनेंट कर्नल गिल्बर्ट (1785-1853), बाद में लेफ्टिनेंट जनरल सर वाल्टर गिल्बर्ट, फर्स्ट बैरोनेट, जीसीबी, संबलपुर मुख्यालय में दक्षिण पश्चिम फ्रंटियर के लिए राजनीतिक एजेंट थे। उन्होंने संबलपुर में एक अज्ञात कलाकार द्वारा अपने प्रवास के दौरान कुछ चित्र बनाए जो वर्तमान में ब्रिटिश लाइब्रेरी और विक्टोरिया और अल्बर्ट संग्रहालय के साथ हैं।
वज्रयान बौद्ध धर्म
यद्यपि यह आमतौर पर स्वीकार किया जाता है कि तांत्रिक बौद्ध धर्म पहली बार राजा इन्द्रभूति के अधीन उडिय़ाना या ओड्रा देश में विकसित हुआ था, वहाँ एक पुराना और प्रसिद्ध विद्वानों का विवाद है कि क्या उडिय़ाना या ओड्रा स्वात घाटी, ओडिशा या किसी अन्य स्थान पर था। संबलपुर के सबसे पुराने राजा इंद्रभूति ने वज्रयान की स्थापना की, जबकि उनकी बहन, जिनका विवाह लंकापुरी (सुवर्णपुर) के युवराज जलेंद्र से हुआ था, ने सहजयाना की स्थापना की। बौद्ध धर्म के इन नए तांत्रिक पंथों में छह तांत्रिक अभिचार (प्रथाओं) जैसे कि मारना, स्तम्भन, सम्मोहन, विदवेशन, उचेतन और वाजीकरण के साथ मंत्र, मुद्रा और मंडल का परिचय दिया गया। तांत्रिक बौद्ध संप्रदायों ने समाज के सबसे निचले पायदान की गरिमा को ऊंचे तल तक ले जाने के प्रयास किए। इसने आदिम मान्यताओं को पुनर्जीवित किया और व्यक्तिगत भगवान के लिए एक सरल और कम औपचारिक दृष्टिकोण, महिलाओं के प्रति एक उदार और सम्मानजनक रवैया और जाति व्यवस्था को नकारने का अभ्यास किया।
सातवीं शताब्दी के ए डी के बाद से, विषम प्रकृति के कई लोकप्रिय धार्मिक तत्वों को महायान बौद्ध धर्म में शामिल किया गया था, जिसके परिणामस्वरूप अंततः वज्रायण, कालचक्रयान और सहजयाना तांत्रिक बौद्ध धर्म की उत्पत्ति हुई। तांत्रिक बौद्ध धर्म पहली बार उदियाने में विकसित हुआ, एक देश जो दो राज्यों, सम्भला और लंकापुरी में विभाजित था। सम्भल की पहचान संबलपुर और लंकापुरी के साथ सुबरनपुरा (सोनेपुर) से की गई है।
इन्हें भी देखें
हीराकुद
सम्बलपुर ज़िला
सन्दर्भ
श्रेणी:सम्बलपुर ज़िला
श्रेणी:ओड़िशा के शहर
श्रेणी:सम्बलपुर ज़िले के नगर
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बैरगढ | https://hi.wikipedia.org/wiki/बैरगढ | बैरगढ भारत के उड़ीसा प्रान्त का एक जिला है।
श्रेणी:शहर |
रायगढा | https://hi.wikipedia.org/wiki/रायगढा | रायगढा भारत के उड़ीसा प्रान्त का एक जिला है।
श्रेणी:शहर |
जाजपुर | https://hi.wikipedia.org/wiki/जाजपुर | जाजपुर (Jajpur) भारत के ओड़िशा राज्य के जाजपुर ज़िले में स्थित एक नगर है। यह उस ज़िले का मुख्यालय भी है।"Orissa reference: glimpses of Orissa," Sambit Prakash Dash, TechnoCAD Systems, 2001"The Orissa Gazette," Orissa (India), 1964"Lonely Planet India," Abigail Blasi et al, Lonely Planet, 2017, ISBN 9781787011991
इन्हें भी देखें
जाजपुर ज़िला
सन्दर्भ
श्रेणी:जाजपुर ज़िला
श्रेणी:ओड़िशा के शहर
श्रेणी:जाजपुर ज़िले के नगर |
गजपति | https://hi.wikipedia.org/wiki/गजपति | गजपति भारत के उड़ीसा प्रान्त का एक जिला है।
श्रेणी:शहर |
आंगुल | https://hi.wikipedia.org/wiki/आंगुल | पुनर्प्रेषित अनुगुल |
फूलबनी | https://hi.wikipedia.org/wiki/फूलबनी | फूलबनी भारत के उड़ीसा प्रान्त का एक जिला है।
श्रेणी:शहर |
खोर्धा जिला | https://hi.wikipedia.org/wiki/खोर्धा_जिला | खोर्धा या खोर्द्धा भारत के ओड़िशा प्रान्त का एक जिला है। इसका मुख्यालय खुर्दा शहर है। प्रारम्भ में खुरदा के नाम से मशहूर उड़ीसा का खोरधा जिला 2889 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला हुआ है। दया और कूआंखाइ ईहां से बहने वाली प्रमुख नदियां हैं। इस जिले का निर्माण 1 अप्रैल 1993 को पुरी और नयागढ़ जिले को काटकर किया गया था। उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्वर इस जिले के अन्तर्गत ही आती है। खोरधा आरम्भ में उड़ीसा शासकों की राजधानी थी। यह जिला कुटीर उद्योगों, चरखा मिल, केबल फैक्ट्री, रेलवे कोच रिपेयरिंग फैक्ट्री और तेल उद्योग के लिए लोकप्रिय है। अत्री, बानपुर, बरूनई हिल, चिलिका, हीरापुर और नंदनकानन अभयारण्य जिले के प्रमुख दर्शनीय स्थल हैं।"Orissa reference: glimpses of Orissa," Sambit Prakash Dash, TechnoCAD Systems, 2001"The Orissa Gazette," Orissa (India), 1964"Lonely Planet India," Abigail Blasi et al, Lonely Planet, 2017, ISBN 9781787011991
भूगोल
यह भी खुर्दा जिले का जिला मुख्यालय है। दया और कुआखाई नदियों खुर्दा के माध्यम से प्रवाह होती है। वन क्षेत्र : ६१८.६७ वर्ग किमी की है।
जलवायु
तापमान: 41.4 (अधिकतम ), 9.5 (न्यूनतम) [2]
वर्षा: 1443 मिमी (औसत)
अर्थव्यवस्था
यह अपने पीतल के बर्तन कुटीर उद्योगों , केबल फैक्टरी , कताई मिलों , घड़ी की मरम्मत कारखाना , रेलवे कोच मरम्मत कारखाना , ऑयल इंडस्ट्रीज , कोका कोला बॉटलिंग संयंत्र और छोटे धातु उद्योगों के लिए प्रसिद्ध है।
प्रभाग
संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों : २
विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों : ६
उप प्रभागों : २
गांव : १५६१
ब्लाक : १०
ग्राम पंचायत : १६८
तहसील : ८
कस्बा: ५
नगर पालिका : २
नगर निगम : १
N.A.C : २
पर्यटक आकर्षण और निकटवर्ती स्थान
आरीकमा : बोलगड ब्लॉक के तहत गांव आरीकमा जंगल में मां कोशालशूणी मंदिर के लिए प्रसिद्ध है।
अट्रि: यह अपने सल्फर - पानी के झरने और प्रभु हटकेश्वर (भगवान शिव) को समर्पित एक मंदिर के लिए प्रसिद्ध है।
बाणपुर : मां भागबती के लिए (हिंदू देवी मां दुर्गा के अवतार में से एक) मंदिर प्रसिद्ध है।
बरूणेइ : यह मंदिर प्रसिद्ध बरूणेइ पहाड़ियों पर स्थित है। यह भुवनेश्वर से २८ किलोमीटर की दूरी पर है। thumb|बरूणेइ मंदिर
खंडगिरि और उदयगिरी : ये जुड़वां पहाड़ियो भुवनेश्वर में स्थित हैं। इन जुड़वां पहाड़ियों में ११७ गुफा रहे हैं।
लिंगराज मंदिर: लिंगराज मंदिर ओडिशा में सबसे बड़ा और सबसे प्रसिद्ध शिव मंदिर है।
शिखर चंडी : यह नंदनकानन की ओर भुवनेश्वर से १५ किमी की दूरी पर स्थित है। पहाड़ी के ऊपर देवी चंडी को समर्पित एक मंदिर है, जो इस जगह का मुख्य आकर्षण है।
मां उगरा तारा thumb|डेरास बांध
नंदनकानन चिड़ियाघर : यह भुवनेश्वर से २० किमी की दूरी पर स्थित ओडिशा के एक प्रसिद्ध चिड़ियाघर है।
डेरास और झुमका : ये भुवनेश्वर से १५ किमी की दूरी पर स्थित दो सुंदर पिकनिक स्पॉट हैं। वे एक घने जंगल से घिरा दो बांध हैं।
विधान सभा निर्वाचन क्षेत्र
खोर्धा जिला निम्नलिखित ८ विधान सभा निर्वाचन क्षेत्रों में विभाजीत है।
जयदेव
भुवनेश्वर सेंट्रल
भुवनेश्वर उत्तर
एकाम्र
जटणि
खुर्दा
चिलिका
इन्हें भी देखें
खोर्धा
ओड़िशा
ओड़िशा के जिले
सन्दर्भ
श्रेणी:ओड़िशा के जिले
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नबरंगपुर | https://hi.wikipedia.org/wiki/नबरंगपुर | नबरंगपुर (Nabarangpur) भारत के ओड़िशा राज्य के नबरंगपुर ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है।"Orissa reference: glimpses of Orissa," Sambit Prakash Dash, TechnoCAD Systems, 2001"The Orissa Gazette," Orissa (India), 1964"Lonely Planet India," Abigail Blasi et al, Lonely Planet, 2017, ISBN 9781787011991
विवरण
समुद्र तल से 2000 फीट की ऊंचाई पर स्थित नवरंगपुर पूर्व में कालाहांडी, दक्षिण में कोरापुट और पश्चिम व उत्तर दिशा में छत्तीसगढ़ से घिरा हुआ है। 5135 वर्ग किलोमीटर में फैला यह जिला 1992 में गठित हुआ था। यहां से बहने वाली इन्द्रवती नदी नवरंगपुर और कोरापुट जिले को अलग करती है। यह जिला भरपूर खनिजों के साथ-साथ वन्यजीवों के लिए भी प्रसिद्ध है। पेंथर, तेंदुए, टाईगर, हेना, भैंस, काला भालू, बिसन, सांभर और बार्किंग डीयर जैसे पशुओं को यहां देखा जा सकता है। यहां के प्रमुख दर्शनीय स्थलों में मां पेन्द्रानी मंदिर, शहिद मीनार, खटिगुडा बांध, मां भंडाराघरानी मंदिर और भगवान जगन्नाथ मंदिर शामिल हैं। साथ ही यहां का रथयात्रा पर्व सैलानियों को खूब लुभाता है।
प्रमुख स्थल
पोडागढ़
इस ऐतिहासिक स्थल की खुदाई से पत्थरों पर खुदे अभिलेख प्राप्त हुए हैं। इन अभिलेखों में नल साम्राज्य की राजधानी पुष्करी के अभिलेख भी शामिल हैं। केलिया, पापडाहांडी और उमरकोट पोडागढ़ के निकटवर्ती दर्शनीय स्थल हैं।
खटिगुडा बांध
इन्द्रवती नदी पर बना यह बांध नवरंगपुर के खटिगुडा में स्थित है। इन्द्रवती नदी की उत्पत्ति थुआमल रामपुर के निकट से होती है। पहाड़ियों से घिरा दूर-दूर फैला बांध का नीला जल एक अनोखा दृश्य उपस्थित करता है। यह बांध नबरंगपुर से 20 किलोमीटर दूर है।
शहीद मीनार
यह मीनार नवरंगपुर के पपडाहांडी ब्लॉक में स्थित है। यह मीनार उन देशभक्तों को समर्पित है, जिन्होंने देश के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी थी। 24 अगस्त के दिन बड़ी संख्या में लोग यहां उन शहीदों को श्रद्धांजलि देने के लिए एकत्रित होते हैं।
केलिया महादेव मंदिर
यह मंदिर केलिया में एक पहाड़ी के शिखर पर स्थित है। देबगांव ताल्लुक में बना यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। इस मंदिर को उड़ीसा के सबसे लोकप्रिय मंदिरों में शामिल किया जाता है।
मां पेन्द्रानी मंदिर
मां पेन्द्रानी को समर्पित यह मंदिर राजा चैतन्य देव द्वारा बनवाया गया था। उमरकोट में स्थित यह लोकप्रिय मंदिर बड़ी संख्या में लोगों को आकर्षित करता है। मां पेन्द्रानी कोरापुट, कालाहांडी और बालंगीर में सर्वाधिक पूजी जाती हैं।
श्री नीलकंठेश्वर मंदिर
चंपक के पेड़ों से घिरा यह लोकप्रिय मंदिर पपडाहांडी में स्थित है। मंदिर अत्यंत कलात्मक शैली में बना है और इसकी तुलना भुवनेश्वर के लिंगराज मंदिर से की जाती है। बौद्ध धर्म से संबंधित अनेक चिन्हों को भी यहां देखा जा सकता है।
आवागमन
वायु मार्ग
विशाखापट्टनम विमानक्षेत्र यहां का नजदीकी एयरपोर्ट है जो देश के अनेक बड़े शहरों से नियमित फ्लाइटों के माध्यम से जुड़ा है। यह एयरपोर्ट नवरंगपुर से करीब 300 किलोमीटर की दूरी पर है।
रेल मार्ग
कोरापुट रेलवे स्टेशन यहां का नजदीकी रेलवे स्टेशन है। यह रेलवे स्टेशन दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई आदि शहरों से जुड़ा हुआ है। कोरापुट यहां से 66 किलोमीटर दूर है।
सड़क मार्ग
राष्ट्रीय राजमार्ग 26 नबरंगपुर को देश के अन्य हिस्सों से जोड़ता है। उड़ीसा और पड़ोसी राज्यों के अनेक शहरों से यहां के लिए नियमित बसें चलती रहती हैं।
इन्हें भी देखें
नबरंगपुर ज़िला
सन्दर्भ
श्रेणी:नबरंगपुर ज़िला
श्रेणी:ओड़िशा के शहर
श्रेणी:नबरंगपुर ज़िले के नगर |
नयागढ़ | https://hi.wikipedia.org/wiki/नयागढ़ | नयागढ़ (Nayagarh) भारत के ओड़िशा राज्य के नयागढ़ ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है।"Orissa reference: glimpses of Orissa," Sambit Prakash Dash, TechnoCAD Systems, 2001"The Orissa Gazette," Orissa (India), 1964"Lonely Planet India," Abigail Blasi et al, Lonely Planet, 2017, ISBN 9781787011991
विवरण
पूर्वी उड़ीसा में 3954 वर्ग किलोमीटर में फैले नयागढ़ जिले का 40 प्रतिशत हिस्सा जंगलों से घिरा है। बुधबुधियानी का सिंचाई पावर प्रोजेक्ट और गर्म पानी का झरना यहां का मुख्य आकर्षण है। इसके साथ ही यह स्थान चमड़े की कारीगरी, पीतल आदि धातुओं के उपकरणों और चीनी मिल के लिए प्रसिद्ध है। बरतुंगा नदी यहां बहने वाली प्रमुख नदी हे। बारामुल, कंतिलो, ओदागांव, जामुपटना, सारनकुल, रानापुर और कुअनरिया आदि यहां के प्रमुख पर्यटन स्थल हैं। यहां से गुजरने वाला राष्ट्रीय राजमार्ग 5 इसे देश के अन्य हिस्सों से जोड़ता है।
भूगोल
नयागढ़ की स्थिति पर है। यहाँ की औसत ऊंचाई 178 मीटर (583 फीट) है।
प्रमुख आकषण
शरणकुल
यह स्थान नयागढ़ से 20 किलोमीटर दूर नयागढ़- ओडगांव रोड पर स्थित है। भगवान लाडुकेश्वर मंदिर यहां का मुख्य आकर्षण है, जिन्हें लाडुबाबा नाम से जाना जाता है। शरणकुल शैव भक्तों के बीच काफी लोकप्रिय है। शिवरात्रि पर्व मनाने के लिए उड़ीसा के अनेक हिस्सों से लोगों का यहां आगमन होता है। अन्य धार्मिक स्थल ओडगांव यहां से 5 किलोमीटर दूर है।
ओडगांव
ओडगांव भगवान रघुनाथ जी के मंदिर के लिए काफी प्रसिद्ध है। भगवान राम को समर्पित इस मंदिर में रामनवमी पर्व काफी धूमधाम से मनाई जाती है। माना जाता है कि इस मंदिर का निर्माण 1903 के आसपास हुआ था। मान्यता है कि उड़ीसा के लोकप्रिय कवि उपेन्द्र भांजा ने यहां ध्यान लगाया था और राम तरक मंत्र में निपुणता हासिल की थी। यहां होने वाली रामलीला बहुत लोकप्रिय है। सारनकुल से यह स्थान मात्र 5 किलोमीटर दूर है।
कण्टिलो
महानदी के किनारे स्थित कण्टिलो नीलमाधब मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। मंदिर दो पहाड़ियों के शिखर पर बना है और इसके चारों तरफ की हरियाली पर्यटकों पर्यटकों को बहुत भाती है। भगवान नारायणी का मंदिर भी यहां देखा जा सकता है। कण्टिलो नयागढ़ से 33 किलोमीटर की दूर है। अनेक धातुओं से बने यहां के बर्तन भी बड़े प्रसिद्ध हैं।
कुआंरिया बांध
यह बांध नयागढ़ के दसपल्ला के निकट स्थित है। महानदी की सहायक कुआंरिया नदी पर बने इस बांध को बनवाने का मुख्य उद्देश्य इस पिछडे क्षेत्र में सिंचाई की व्यवस्था करना था। बांध के आसपास की प्राकृतिक सुंदरता के कारण यह पिकनिक स्थल बन गया है। बांध के निकट कुआंरिया हिरण उद्यान भी देखा जा सकता है।
श्री गोपाल जी मठ
यह मठ निम्बार्क समुदाय के लिए एक पवित्र स्थल माना जाता है। कांतिलो के निकट स्थित यह मठ नयागढ़ से 25 किलोमीटर की दूरी पर है। मठ में श्रीगोपाल की प्रतिमा भगवान राम, सीता, लक्ष्मण, राधा-कृष्ण और हनुमान के साथ देखी जा सकती है। यह प्रतिमाएं अष्ठ धातुओं से बनी हैं। यहां का मुख्य प्रवेश नक्कासियों से सुसज्जित है और लोगों के आकर्षण का केन्द्र है।
ताराबालो
भुवनेश्वर से 75 किलोमीटर दूर नयागढ़ जिले में स्थित ताराबालो गर्म पानी के झरनों का समूह है। 8 एकड़ में फैले इन झरनों के जल को औषधीय गुणों से भरपूर माना जाता है। प्रकृति के शांत वातावरण में सुकून से समय बिताने के लिए यह एक आदर्श जगह है।
बारमुल
महानदी के किनारे स्थित बारमुल एक शांत गांव है। महानदी की एक खूबसूरत तंगघाटी गांव की प्रमुख विशेषता है। यहां से सूर्यास्त और सूर्योदय के मनोरम नजारे देखना पर्यटकों को बहुत पसंद आता है। बंगाल टाईगर, तेंदुए, भालू, हाथी, सांभर, हिरन आदि जानवरों को यहां के प्राकृतिक वातावरण में विचरण करते देखा जा सकता है। अनेक दुर्लभ और लुप्तप्राय पक्षियों की प्रजातियों भी यहां दिखाई देती हैं। नवंबर से अप्रैल का यहां आने के लिए उत्तम माना जाता है।
आवागमन
वायु मार्ग
भुवनेश्वर का बीजू पटनायक एयरपोर्ट यहां का निकटतम एयरपोर्ट। यह एयरपोर्ट देश के अनेक बड़े शहरों से जुड़ा है।
रेल मार्ग
खुरदा रोड जंक्शन यहां का करीबी रेलवे स्टेशन है, जो इसे देश के अनेक हिस्सों से जोड़ता है।
सड़क मार्ग
राष्ट्रीय राजमार्ग 57 नयागढ़ को उड़ीसा और अन्य पड़ोसी राज्यों के अनेक शहरों को सड़क मार्ग से जोड़ता है। यहां के लिए अनेक शहरों से राज्य परिवहन निगम की बसें चलती रहती हैं।
इन्हें भी देखें
कण्टिलो
नयागढ़ ज़िला
सन्दर्भ
श्रेणी:नयागढ़ ज़िला
श्रेणी:ओड़िशा के शहर
श्रेणी:नयागढ़ ज़िले के नगर |
नुआपड़ा | https://hi.wikipedia.org/wiki/नुआपड़ा | नुआपड़ा भारत के ओड़ीसा प्रान्त का एक शहर है। यह नुआपड़ा जिला मुख्यालय है।"Orissa reference: glimpses of Orissa," Sambit Prakash Dash, TechnoCAD Systems, 2001"The Orissa Gazette," Orissa (India), 1964"Lonely Planet India," Abigail Blasi et al, Lonely Planet, 2017, ISBN 9781787011991
विवरण
पश्चिमी ओड़ीशा का नुआपड़ा जिला मध्य प्रदेश के रायपुर और ओड़ीशा के बरगढ़, बलांगिर व कालाहांडी जिलों से घिरा हुआ है। 3407.05 वर्ग किलोमीटर में फैला यह जिला 1993 तक कालाहांडी का हिस्सा था, लेकिन प्रशासनिक सुविधा के लिहाज से इसे कालाहांडी से अलग एक नए जिले के रूप में गठित कर दिया गया। पतोरा जोगेश्वर मंदिर, राजीव उद्यान, पातालगंगा, योगीमठ, बूढ़ीकोमना, खरीयार, गौधस जलप्रताप आदि यहां के प्रमुख पर्यटन स्थल हैं।
प्रमुख आकर्षण
पतोरा जोगेश्वर मंदिर
यह पश्चिमी ओड़ीसा और छत्तीसगढ़ के लोकप्रिय शिव पीठों में एक है। मारागुडा घाटी के मारागुडा गांव में स्थित इस मंदिर में 6 फीट ऊंचा शिवलिंग स्थापित है। इसके निकट ही राम मंदिर भी बना हुआ है। 40 फीट ऊंची हनुमान की मूर्ति यहां का मुख्य आकर्षण है।
पातालगंगा
हिन्दुओं का यह पवित्र तीर्थस्थान खरियार से 41 किलोमीटर और बोडेन से 6 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। माना जाता है कि जो व्यक्ति इसके गर्म जल में स्नान करता है, उसे मुक्ति मिलती है। पातालगंगा में स्नान करने को पवित्र गंगा नदी में स्नान करने के बराबर माना जाता है। कहा जाता है कि जब भगवान राम अपने वनवास के दौरान इस क्षेत्र से गुजर रहे तो सीता को प्यास लगी है। सीता की प्यास बुझाने के लिए राम ने धरती पर बाण चलाया और पातालगंगा की उत्पत्ति हुई।
योगीमठ
योगीमठ लोकप्रिय प्रागैतिहासिक कालीन गुफा है। इस गुफा में पुरापाषाण काल के अनेक चित्र पत्थरों पर बने हुए हैं। यहां बनी सांड की आकृति काफी आकर्षक है। कृषि और पशुओं के चित्र आज भी उस काल के जीवन आंखों के सामने उपस्थित कर देते हैं।
बूढ़ीकोमना
बूढ़ीकोमना खरियार से 73 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस स्थान की लोकप्रियता यहां बने भगवान पातालेश्वर शिव के मंदिर के कारण है। त्रिरथ शैली में बने इस मंदिर के निर्माण में ईंटों का प्रयोग किया गया है। वर्तमान में यह मंदिर क्षतिग्रस्त अवस्था में है।
खरियार
खरियार नगर के बीचों बीच बना प्राचीन दधीबामन मंदिर बना हुआ है। इस मंदिर को स्थानीय लोग बडागुडी नाम से भी पुकारते हैं। इसके अलावा भगवान जगन्नाथ मंदिर, हनुमान मंदिर, देवी लक्ष्मी मंदिर और रक्तांबरी मंदिर यहां के अन्य लोकप्रिय आकर्षण हैं। खरियार में अमेरिकन इवेन्जलिकल मिशन की गतिविधियों होती रहती हैं।
गौधस जलप्रपात
नुआपड़ा से 30 किलोमीटर दूर स्थित इस जलप्रपात की कुल ऊंचाई 30 मीटर है। यह झरना गर्मियों के दिनों में सूख जाता है। इसके निकट ही भगवान शिव का मंदिर देखा जा सकता है। बैसाखी पर्व के मौके पर यहां दूर-दूर से भक्तों का आगमन होता है।
सुनादेब वन्यजीव अभयारण्य
600 वर्ग किलोमीटर में फैला यह अभयारण्य नुआपड़ा जिले में छत्तीसगढ़ की सीमा के निकट स्थित है। इसे बारहसिंहा का आदर्श स्थान माना जाता है। साथ ही टाईगर, तेंदुए, हेना, बार्किंग डीयर, चीतल, गौर, स्लोथ बीयर और पक्षियों की विविध प्रजातियां देखी जा सकती हैं।
आवागमन
वायु मार्ग
नूआपाडा का नजदीकी एयरपोर्ट रायपुर विमानक्षेत्र में है। यह एयरपोर्ट 120 किलोमीटर की दूरी पर है और देश के अनेक बड़े शहरों से वायुमार्ग द्वारा जुड़ा है।
रेल मार्ग
नुआपड़ा रोड रेलवे स्टेशन यहां का करीबी रेलवे स्टेशन है, जो नुआपड़ा नगर से 3 किलोमीटर दूर है। यह रेलवे स्टेशन दक्षिण पूर्व रेलवे के विसाखा पटनम-रायपुर रेल लाइन पर स्थित है।
सड़क मार्ग
राष्ट्रीय राजमार्ग 353 और राज्य राजमार्ग 3 नुआपड़ा को अन्य शहरों से जोड़ता है। राज्य परिवहन की अनेक बसें नुआपड़ा के लिए चलती रहती हैं।
इन्हें भी देखें
नुआपड़ा ज़िला
सन्दर्भ
श्रेणी:नुआपड़ा ज़िला
श्रेणी:ओड़िशा के शहर
श्रेणी:नुआपड़ा ज़िले के नगर |
सोनापुर | https://hi.wikipedia.org/wiki/सोनापुर | REDIRECT सोनपुर (बहुविकल्पी) |
केंदुझाड़गढ़ | https://hi.wikipedia.org/wiki/केंदुझाड़गढ़ | केंदुझाड़गढ भारत के उड़ीसा प्रान्त का एक जिला है।
केंदुझाड़गढ़ |
केन्दरपाड़ा | https://hi.wikipedia.org/wiki/केन्दरपाड़ा | केन्दरपाड़ा भारत के उड़ीसा प्रान्त का एक जिला है।
केन्दरपाड़ा |
देवगढ़, राजस्थान | https://hi.wikipedia.org/wiki/देवगढ़,_राजस्थान | देवगढ़ (Deogarh) भारत के राजस्थान राज्य के राजसमन्द ज़िले में स्थित एक शहर है।"Lonely Planet Rajasthan, Delhi & Agra," Michael Benanav, Abigail Blasi, Lindsay Brown, Lonely Planet, 2017, ISBN 9781787012332"Berlitz Pocket Guide Rajasthan," Insight Guides, Apa Publications (UK) Limited, 2019, ISBN 9781785731990
इन्हें भी देखें
राजसमन्द ज़िला
सन्दर्भ
श्रेणी:राजस्थान के शहर
श्रेणी:राजसमन्द ज़िला
श्रेणी:राजसमन्द ज़िले के नगर |
बौदा | https://hi.wikipedia.org/wiki/बौदा | बौद भारत के उड़ीसा प्रान्त का एक जिला है।
श्रेणी:शहर |
सुल्तानगंज | https://hi.wikipedia.org/wiki/सुल्तानगंज | सुल्तानगंज (अंग्रेजी: Sultanganj) भारत के बिहार राज्य के भागलपुर जिला में स्थित एक ऐतिहासिक स्थल है। यह गंगानदी के तट पर बसा हुआ है। यहाँ बाबा अजगबीनाथ का विश्वप्रसिद्ध प्राचीन मन्दिर है। उत्तरवाहिनी गंगा होने के कारण सावन के महीने में लाखों काँवरिये देश के विभिन्न भागों से गंगाजल लेने के लिए यहाँ आते हैं। यह गंगाजल झारखंड राज्य के देवघर स्थित बाबा बैद्यनाथ को चढाते हैं। बाबा बैद्यनाथ धाम भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में एक माना जाता है।
सुल्तानगन्ज हिन्दू तीर्थ के अलावा बौद्ध पुरावशेषों के लिये भी विख्यात है। सन १८५३ ई० में रेलवे स्टेशन के अतिथि कक्ष के निर्माण के दौरान यहाँ से मिली बुद्ध की लगभग ३ टन वजनी ताम्र प्रतिमा आज बर्मिन्घम म्यूजियम में रखी है।
धार्मिक महत्व
सुल्तानगंज एक प्राचीन बौद्ध धर्म का केन्द्र है जहाँ कई बौद्ध विहारों के अलावा एक स्तूप के अवशेष भी प्राप्त हुए हैं। सुल्तानगंज में बाबा अजगबीनाथ का विश्वप्रसिद्ध और प्राचीन मन्दिर है। सुल्तानगंज से एक विशाल गुप्तकालीन कला की बौद्ध प्रतिमा मिली है, जो वर्तमान में बर्मिघम (इंग्लैण्ड) के संग्रहालय में सुरक्षित है। यह बुद्ध प्रतिमा दो टन से भी अधिक भारी तथा दो मीटर ऊँची है। इस प्रतिमा में महात्मा बुद्ध के शीश पर कुंचित केश तो हैं परन्तु उसके चारों ओर प्रभामण्डल नहीं है।
यह ताम्र प्रतिमा नालंदा शैली की प्रतीत होती है जबकि सुप्रसिद्ध इतिहासकार राखाल दास बनर्जी ने इसे पाटलिपुत्र शैली में निर्मित्त माना है।
सांख्यकीय आँकड़े
2001 की जनगणना के अनुसार सुल्तानगंज की कुल जनसंख्या 41,812 थी। इसमें 54% पुरुष तथा 46% स्त्रियाँ थीं। यहाँ की औसत सक्षरता दर 52% थी जो कि राष्ट्रीय औसत (59.5%) से कम थी। उस समय पुरुषों का साक्षरता अनुपात 60% तथा महिलाओं का 43% आँका गया था। कुल जनसंख्या में 17% बच्चे 6 वर्ष से कम आयु के थे।.
प्रमुख दर्शनीय स्थल
thumb|सुल्तानगंज का प्रसिद्ध अजगवीनाथ शिवमन्दिर
सुल्तानगंज में उत्तर वाहिनी गंगा (उत्तर दिशा में बहने वाली गंगा) के साथ एक बहुश्रुत किंवदन्ती भी प्रसिद्ध है। कहते हैं जब भगीरथ के प्रयास से गंगा का स्वर्ग से पृथ्वी पर अवतरण हुआ तो उनके वेग को रोकने के लिये साक्षात भगवान शिव अपनी जटायें खोलकर उनके प्रवाह-मार्ग में आकर उपस्थित हो गये। शिवजी के इस चमत्कार से गंगा गायब हो गयीं। बाद में देवताओं की प्रार्थना पर शिव ने उन्हें अपनी जाँघ के नीचे बहने का मार्ग दे दिया। इस कारण से पूरे भारत में केवल यहाँ ही गंगा उत्तर दिशा में बहती है। कहीं और ऐसा नहीं है। चूंकि शिव स्वयं आपरूप से यहाँ पर प्रकट हुए थे अत: श्रद्धालु लोगों ने यहाँ पर स्वायम्भुव शिव का मन्दिर स्थापित किया और उसे नाम दिया अजगवीनाथ मन्दिर। अर्थात एक ऐसे देवता का मन्दिर जिसने साक्षात उपस्थित होकर यहाँ वह चमत्कार कर दिखाया जो किसी सामान्य व्यक्ति से सम्भव न था। जो भी लोग यहाँ सावन के महीने में काँवर के लिये गंगाजल लेने आते हैं वे इस मन्दिर में आकर भगवान शिव की पूजा अर्चना और जलाभिषेक करना कदापि नहीं भूलते। इस दृष्टि से यह मन्दिर यहाँ का अति महत्वपूर्ण दर्शनीय स्थल है।
यातायात के साधन
सुल्तानगंज पूरे वर्ष भर भागलपुर, पटना और मुँगेर जिले से सड़क मार्ग द्वारा जुड़ा रहता है। पूर्व रेलवे की लूप लाइन से होकर यात्री किओल और कोलकाता भी सुगमता पूर्वक आ-जा सकते हैं। अब तो एक नई रेलवे लाइन देवघर के लिये भी प्रारम्भ हो गयी है।
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
भारतीय हिन्दू मन्दिर अजगबीनाथ सुल्तानगंज
इन्हें भी देखें
सुल्तानग की बुद्ध प्रतिमा
वैद्यनाथ मन्दिर, देवघर |
पेरू | https://hi.wikipedia.org/wiki/पेरू | पेरू दक्षिणी अमरीका महाद्वीप में स्थित एक देश है। इसकी राजधानी लीमा है।
प्रमुख नदी अमेज़ॉन और मुद्रा न्यूवो सोल है। यहाँ तीन तरह की जलवायु पाई जाती है- एँडीज़ में सर्द, तटवर्ती मैदानों में खुश्क-सुहानी और वर्षा वाले जंगलों में गर्म और उमस वाली। यह देश इंका नाम की प्राचीन सभ्यता के लिए भी जाना जाता है। पेरू की भाषा स्पेनिश और क्वेशुका हैं तथा ९० प्रतिशत लोग ईसाई धर्म का पालन करते हैं। प्रमुख उद्योग मछली और खनन हैं। यहाँ सभी प्रकार की धातुओं का प्रचुर खनिज भंडार है तथा अनाज, फल और कोको की खेती होती है। पर्यटन उद्योग भी यहाँ की आय का एक प्रमुख साधन है।
इतिहास
कोलंबियन पूर्व पेरू
पेरू में मानव उपस्थिति के साक्ष्य 9,000 ईसा पूर्व तक के देखे गये है।Dillehay, Tom, Duccio Bonavia and Peter Kaulicke (2004). "The first settlers". In Helaine Silverman (ed.), Andean archaeology. Malden: Blackwell, , p. 20. लौरिकोचा, पचैकैम, जुइनिन और तेलमाचाय की गुफाओं में शिकार उपकरण खोजे गए हैं। ये पैराकास और चिल्का के तटीय क्षेत्रों और कैलेज़ोन डी हुयलास के पहाड़ी क्षेत्र में भी स्थित थे। बाद के वर्षों में, बसने वालों ने कपास और मकई जैसे पौधों की खेती की शुरुआत कर अपनी जीवन शैली को बदल दिया और उन्होंने अल्पाका, गिनी पिग और लामा जैसे घरेलू जानवरों को भी पालना शुरू कर किया। उन्होंने बर्तन, टोकरी, बुनाई और ऊन और सूती कताई में भी महारत हासिल कर ली। इन अभ्यासों ने उन्हें एंडियन पहाड़ों और तट के किनारे घरों और नए समुदायों का निर्माण करने में मदद की। इस प्रकार, लीमा से 200 किमी उत्तर में कैरल के नाम का पहला अमेरिकी शहर का निर्माण हुआ। इस अवधि को उत्तरी चिको सभ्यता के रूप में जाना जाता था। और इस अवधी के लगभग 30 पिरामिड संरचनाएं आज भी उपस्थित है।
इन घटनाओं के बाद पुरातत्व सभ्यताओं ने इनका अनुशरण करते हुए पूरे पेरू में एंडियन और तटीय इलाकों में विकसित हुए। इन संस्कृतियों में से एक क्युप्स्निक संस्कृति थी, जो लगभग 1000 से 200 ईसा पूर्व तक रही। यह संस्कृति वर्तमान में पेरू के प्रशांत तट पर समृद्ध थी और प्रारंभिक पूर्व-इंका सभ्यता के लिये एक आदर्श थी।
क्युप्स्निक संस्कृति के बाद चाविन सभ्यता का जन्म हुआ जो 1500 से 300 ईसा पूर्व तक रहा। यह एक राजनीतिक व्यक्ति की बजाय कम या ज्यादा धार्मिक विचारधारा थी। उनका आध्यात्मिक केंद्र चाविन दे हुंतार में था।UNESCO Chavin (Archaeological Site) . Retrieved 27 July 2014 यह सभ्यता ईसाई सहस्राब्दी की शुरुआत में खत्म हो गई। हजारों सालों तक पहाड़ी क्षेत्रों और तट दोनों में अन्य कई संस्कृतियां बनती और नष्ट होती रही। इनमें से कुछ संस्कृतियों में वारी, पराकास, नाज़का और प्रसिद्ध मोच और चिमु शामिल थे। मोचे अपने चतुर धातुकर्म, सुंदर इमारतों, शुष्क क्षेत्र को उर्वरक बनाने के लिए सिंचाई प्रणाली का प्रयोग और बर्तनों की कलाकृति के लिए जाने जाते थे। दूसरी तरफ चिमू, इंका सभ्यता से पहले सबसे अच्छे शहर के निर्माणकर्ता थे और वे 1150 से 1450 तक समृद्ध थे। उनकी राजधानी चान चान में वर्तमान के त्रुहियो के बाहर थी। पहाड़ी क्षेत्रों में, तियाआआआनाको समाज, बोलिविया और पेरू दोनों में टिटिकाका झील के नजदीक, और वर्तमान दिन अयाकुचो शहर के पास वारी संस्कृति ने 500 से 1000 ईस्वी के बीच विशाल शहरी गांवों और व्यापक राष्ट्र स्थापित किया।Pre-Inca Cultures . countrystudies.us.
उस समय तक, इंका धीरे-धीरे अपने साम्राज्य का विस्तार कर रहे थे। अधिकांश संस्कृतियां इंक के प्रति अपने निष्ठा जताने को तैयार नहीं थीं, लेकिन अंत में उनको साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया गया।
इंका साम्राज्य (1438-1532)
इंका 15वीं शताब्दी में एक शक्तिशाली राष्ट्र बन कर उभरा और उसने पूर्व-कोलंबियाई अमेरिका में सबसे बड़ा साम्राज्य स्थापित किया और उसकी राजधानी कुज़्को में थी।D'Altroy, Terence (2002). The Incas. Malden: Blackwell, , pp. 2–3. उन्होंने अपने साम्राज्य का विस्तार और एकीकृत करते हुए अपने पड़ोसी राज्यों को अपने में सम्मलित कर लिया। 15वीं शताब्दी के मध्य में महान सम्राट पाचकुति के शासन में साम्राज्य विस्तार की गति में वृद्धि हुई। अपने और उसके बेटे टोपा इंका युपान्की के शासन काल में इंका ने एंडियन क्षेत्र पर नियंत्रण प्राप्त कर लिया था। पाचकुति ने अपने दूरदराज के साम्राज्य को नियंत्रित करने के लिए कानूनों का एक व्यापक संहिता भी प्रस्तुत किया, जबकि सूर्य के देवता के रूप में अपने पूर्ण अस्थायी और आध्यात्मिक अधिकार को मजबूत करते हुए, जिन्होंने एक शानदार पुनर्निर्मित कुस्को से शासन किया।Peru The Incas इस युग के दौरान, इंका द्वारा पश्चिमी दक्षिण अमेरिका के पूर्व में अमेज़ॅन वर्षावन से लेकर पश्चिम में प्रशांत महासागर और दक्षिण कोलंबिया से लेकर चिली तक जैसे बड़े हिस्से को एकीकृत करने के लिए विभिन्न विधियों का प्रयोग किया गया। इन प्रयोगो में शांतिपूर्ण समझौतों से लेकर उनपर सशस्त्र विजय शामिल थे। क्वेशुआ, साम्राज्य की औपचारिक भाषा थी और साम्राज्य को तवांतिनुयू के रूप में जाना जाता था, जिसका अर्थ "चार एकीकृत प्रांत" या "चार क्षेत्र" होता है। हारे हुए समुदायों को भव्य राजधानी में श्रमदान और सम्मान प्रदान करना होता था। १६वीं शताब्दि में उत्तराधिकार को लेकर दो भाइयों अताहुल्पा और हूस्कर के बीच गृहयुद्ध छिड़ गया और उसी समय 1530 के दशक में पेरू के तट पर स्पेनिश विजयविदो को आगमन हुआ।
स्पेनिश विजय और औपनिवेशिक शासन (1532-1824)
1532 में, स्पेनिश विजयविद फ्रांसिस्को पिज़्ज़ारो के नेतृत्व में पेरू के चांदी और सोने में समृद्ध साम्राज्य को जीतने के उद्देश्य से पहुंचे। उस समय अताहुल्पा ने अपने भाई को हराकर सत्ता हासिल कर चुका था। पिज्जारो ने कजामार्का में इंका राजा, अताहुल्प को हरा दिया उसे पकड़ कर मौत की सजा दे दी गई। आखिरकार स्पेनिश सैनिकों ने नवंबर 1533 में कुज़्को पर भी कब्ज़ा कर लिया। उन्होंने ह्यूना कैपेक के बेटे मैनको इंका युपांक्की को नए कठपुतली राजा के रूप में नियुक्त कर दिया।
पिज्जारो ने वर्ष 1535 में अपने नए अधिग्रहीत क्षेत्रों की राजधानी के रूप में लीमा शहर को विकसित किया। मैनको इंका कुज़्को से भाग निकला और उसकी घेराबंदी की योजना बनाई जो कुछ महीनों तक चली, लेकिन सफल नहीं हुई। मैनको ने 1537 में ओलंटैटाम्बो में एक महत्वपूर्ण रक्षात्मक युद्ध जीता, लेकिन उसे पीछे हटना पड़ा। उसने जंगलो में विल्काबम्बा नाम की बस्ती से नव-इंका राष्ट्र की स्थापन की जोकि 1572 तक चला। 1541 में लीमा में डिएगो अल्माग्रो द्वारा पिज़्ज़ारो की हत्या कर दी गई, जोकि उसका पूर्व सहयोगी था। स्पेन ने 1542 में पेरू की गवर्नरशाही का गठन किया। इसमें ब्राजील अलावा दक्षिण अमेरिका के अधिकांश क्षेत्रों शामिल थे।
इस अवधि के दौरान, पेरू की स्थानीय आबादी यूरोपीय बीमारियों की वजह से बहुत तेजी से कम होने लगी। स्थानीय लोगों को ईसाई धर्म में धर्मान्तरित कराया गया और यूरोप के जंमीदार वर्ग के जमीनों में जबरन श्रम कराया जाता था।Bakewell, Peter (1984). Miners of the Red Mountain: Indian labor in Potosi 1545–1650. Albuquerque: University of New Mexico, , p. 181.
गवर्नर फ्रांसिस्को टोलेडो 1569 में जीते हुए क्षेत्रों को नियंत्रित करने के लिए पेरू आए। उन्होंने वहां व्यापक सुधार किया, जिससे स्थानीय लोगों जिनके पास जमीन नहीं थी के शोषण को सुव्यवस्थित किया। यह दो सौ साल तक चला।Conquest and Colony of Peru.. Retrieved 28 July 2014
1700 के दशक की शुरुआत में, स्पैनिश साम्राज्य को और मजबूती प्रदान करने के लिए कुछ और सुधार लागु किए गए।Burkholder, Mark (1977). From impotence to authority: the Spanish Crown and the American audiencias, 1687–1808. Columbia: University of Missouri Press, , pp. 83–87. यह सब स्थानीय अभिजात वर्ग के क्रेओल के खर्च से किया गये थे। हालांकि, इसका अनुमानित प्रभाव नहीं हुआ, क्योंकि उस समय तक सभी स्पेनिश उपनिवेशों में आजादी के लिए क्रांति पनपने लगी थी।
स्वतंत्रता और आधुनिक पेरू
पेरू की आजादी की क्रांति स्पेनिश-अमेरिकी भूमि मालिकों और उनकी सेना, वेनेजुएला के सिमोन बोलिवार और अर्जेंटीना के जोसे डी सैन मार्टिन के नेतृत्व से शुरू हुआ। सैन मार्टिन ने लगभग 4,200 सैनिकों की एक सेना का नेतृत्व किया। इस अभियान में युद्धपोतों भी शामिल थे जिसके लिये चिली द्वारा वित्त दिया गया था और अगस्त 1820 में वालपाराइसो से इसकी शुरुआत की गई। 28 जुलाई, 1821 को सैन मार्टिन ने निम्नलिखित शब्दों के साथ पेरू की आजादी की घोषणा की थी,Discover Peru (Peru cultural society). War of Independence . Retrieved 28 July 2014
20वीं शताब्दी की शुरुआत में, पेरू के राजधानी शहर लीमा ने समृद्धि का एक युग का आनंद लिया है। इस युग के दौरान लीमा में सबसे प्रतिष्ठित इमारतें बनाई गई, अधिकांशतः भव्य नवनिर्मित डिजाइन में जिसमें प्रारंभिक औपनिवेशिक युग की प्रतिलिपि थी। बैरनको और मिराफ्लोरेस जैसे तटीय आवासों को जोड़ने के लिए बड़े बुल्ववर्ड भी बनाए गए।
20वीं शताब्दी के मध्य तक, पेरू लोकतांत्रिक प्रशासन और सैन्य अत्याचारों के अंतःस्थापित कड़ी के साथ आर्थिक और राजनीतिक अशांति में उलझा रहा। जनरल जुआन वेलास्को ने सैन्य शासन लागू किया था, जिन्होंने मीडिया और तेल का राष्ट्रीयकृत किया और कृषि में कई सुधार किए। 1980 के दशक में गणतंत्र शासन वापस आ गया। हालांकि, देश मुद्रास्फीति के बहुत उच्च स्तर के साथ एक गंभीर आर्थिक आपदा में डूब चुका था। साथ ही, दो आतंकवादी समूह पनप चुके थे जिससे पेरू में काफी हिंसा फैल गई।
1990 के दशक में, तत्कालीन राष्ट्रपति अल्बर्टो फुजीमोरी ने कई कानूनों लागू किये जिससे वहां की आतंकवादी गतिविधियां समाप्त होने लगी। उन्होंने पेरू को अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संरचना में फिर से एकीकृत किया।
इसी दौर में ग्रामीण से शहरी क्षेत्रों, खासकर लीमा में प्रवासन का दौर चालू हो गया था। इसके परिणामस्वरूप राजधानी में एक जनसांख्यिकीय विस्फोट हुआ। इस अवधि के दौरान कुज़्को और अरेक्विपा जैसे अन्य बड़े शहर भी तेजी से बढ़ने लगे।
भूगोल
पेरू, पश्चिमी दक्षिण अमेरिका के 1,285,216 किमी2 (496,225 वर्ग मील) क्षेत्र में फैला हुआ है। यह उत्तर में इक्वाडोर और कोलंबिया, पूर्व में ब्राजील, दक्षिण-पूर्व में बोलीविया, दक्षिण में चिली, और पश्चिम में प्रशांत महासागर से घिरा हुआ है। एंडीज़ पर्वत प्रशांत महासागर के समानांतर स्थित हैं; ये भौगोलिक दृष्टि से देश का वर्णन करने के लिए परंपरागत रूप से उपयोग किए जाने वाले तीन क्षेत्रों को परिभाषित करते हैं।
पश्चिम में कोस्टा (तट), एक संकीर्ण मैदान है, जो मौसमी नदियों द्वारा बनाए गए घाटियों को छोड़कर काफी हद तक शुष्क है। सिएरा (पहाड़ी क्षेत्र) एंडीज का क्षेत्र है; इसमें अल्टीप्लानो पठार के साथ-साथ देश की सबसे ऊंची चोटी, हुआस्करन 6,768 मीटर (22,205 फीट) शामिल है।Andes Handbook, Huascarán . 2 June 2002. तीसरा क्षेत्र सेल्वा (जंगल) है, जो अमेज़न वर्षावन द्वारा कवर सपाट इलाके का एक विस्तृत विस्तार है जो पूर्व में फैला हुआ है। देश का लगभग 60 प्रतिशत क्षेत्र, इस क्षेत्र के भीतर स्थित है।Instituto de Estudios Histórico–Marítimos del Perú, El Perú y sus recursos: Atlas geográfico y económico, p. 16.
left|thumb|380x380px|हुआसकैरेन राष्ट्रीय उद्यान
अधिकांश पेरूवियन नदियाँ एंडीज़ के शिखर में निकलती हैं और तीन में से एक बेसिन में समाती हैं। प्रशांत महासागर की तरफ जाने वाली नदी तीव्र ढलानवाली और छोटी होती हैं, जो केवल अंतःस्थापित होती हैं। अमेज़न नदी की सहायक नदियों में बहुत अधिक प्रवाह होता है, और सिएरा से बाहर निकलने के बाद लंबे और कम ढलानवाली होती हैं। टिटिकाका झील में समाने वाली नदियां आम तौर पर छोटी होती हैं और इनका बड़ा प्रवाह होता है।Instituto de Estudios Histórico–Marítimos del Perú, El Perú y sus recursos: Atlas geográfico y económico, p. 31. पेरू की सबसे लंबी नदियों में उकायाली, मारनॉन, पुतुमायो, यवारि, हुलागा, उरुबांबा, मंतरो और अमेज़न आदि हैं।Instituto Nacional de Estadística e Informática, Perú: Compendio Estadístico 2005, p. 21.
टिटिकाका झील, पेरू की सबसे बड़ी झील है, यह एंडीज़ में पेरू और बोलीविया के बीच स्थित है, और दक्षिण अमेरिका की भी सबसे बड़ी झील है।Instituto Nacional de Estadística e Informática, Perú: Compendio Estadístico 2005, p. 21. पेरू के तटीय क्षेत्र में सबसे बड़े जलाशयों में पोचोस, टिनजोन, सैन लोरेन्ज़ो और एल फ्रैइल जलाशय आदि हैं।
प्रशासन और राजनीति
1933 के संविधान के आधार पर पेरू, राष्ट्रपति द्वारा शासित किया जाता है। देश 3 मुख्य शाखाओं द्वारा प्रशासित किया जाता है: कार्यकारी, विधान, और न्यायिक। 18 से 70 वर्ष के बीच नागरिक मत देने के पात्र होते हैं। राष्ट्रपति राज्य और सरकार का मुखिया है और आधिकारिक वैश्विक मामलों में देश का प्रतिनिधित्व करता है। राष्ट्रपति 5 साल की अवधि के लिए चुने जाते हैं और पुन: चयन के लिए अयोग्य होते हैं।Constitución Política del Perú, Article No. 112. राष्ट्रपति प्रधानमंत्री और बाकी मंत्रिपरिषद को गठन करते हैं।Constitución Política del Perú, Article No. 122. सदनीय कांग्रेस पांच साल के लिये, चुने गए 120 प्रतिनिधियों से बना होता है।Constitución Política del Perú, Article No. 90. न्यायिक शाखा को गणराज्य के सुप्रीम कोर्ट द्वारा प्रशासनित किया जाता है। दूसरे स्तर पर सुपीरियर कोर्ट आते है, इनके नीचे प्रथम दृष्टांत और शांति के न्यायालय आते हैं। न्यायपालिका तकनीकी रूप से स्वतंत्र हैConstitución Política del Perú, Article No. 146., हालांकि राजनीतिक हस्तक्षेप अभी भी आम बात हैं।Clark, Jeffrey. Building on quicksand. Retrieved 24 July 2007. समग्र 28 न्यायिक जिलें हैं। पेरूवियन सेना में थलसेना, नौसेना और वायु सेना शामिल है।
पेरू के अधिकांश वैदेशिक संबंध, पड़ोसी देशों के साथ हुए क्षेत्रीय संघर्षों के कारण प्रभावित है। 20वीं शताब्दी के दौरान, इसके कई सीमा मुद्दों का समाधान हो चुका है।St John, Ronald Bruce (1992). The foreign policy of Peru. Boulder: Lynne Rienner, , pp. 223–224. पेरू संयुक्त राष्ट्र, अमेरिकी राज्य संगठन, और राष्ट्रों के एंडियन समुदाय जैसे कई मान्यता प्राप्त संगठनों का एक सक्रिय सदस्य है।
प्रशासनिक विभाग (प्रांत)
Peru - Regions and departments (labeled)|left|300px
पेरू 25 क्षेत्रों (प्रांत) और लीमा प्रांत (राजधानी क्षेत्र) में बांटा गया है। प्रत्येक क्षेत्र की अपनी एक निर्वाचित सरकार होती है जो राष्ट्रपति और परिषद से बना होता है और चार साल की अवधी का होता है।Ley N° 27867, Ley Orgánica de Gobiernos Regionales, Article No. 11. ये सरकारें क्षेत्रीय विकास की योजना बनाती हैं, सार्वजनिक निवेश परियोजनाओं को कार्यान्वित करती हैं, आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा देती हैं और सार्वजनिक संपत्ति का प्रबंधन करती हैं।Ley N° 27867, Ley Orgánica de Gobiernos Regionales, Article No. 10. लीमा प्रांत को नगर परिषद द्वारा प्रशासित किया जाता है।Ley N° 27867, Ley Orgánica de Gobiernos Regionales, Article No. 66. लोकप्रिय भागीदारी में सुधार के लिए क्षेत्रीय और नगर पालिकाओं को सत्ता में लाने का कारण था। एनजीओ ने विकेंद्रीकरण प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और अभी भी स्थानीय राजनीति को प्रभावित करती है।
क्षेत्र (प्रदेश)
अमेज़ॅनस
एंकैश
अपुरिमक
एरेकिपा
अयाकुचो
कजमार्का
कैलाओ
कुज़्को
हुआकावेलिका
हुआनुको
आईसीए
जूनिन
ला लिबर्टाड
लैम्बेक
लीमा क्षेत्र
लोरेटो
माद्रे डी डियोस
मोकेगुआ
पासको
पियुरा
पुनो
सैन मार्टिन
टैक्ना
टम्ब्स
उकायाली
राजधानी क्षेत्र
लीमा प्रांत
अर्थव्यवस्था
पेरू दक्षिण अमेरिकी क्षेत्र में सबसे व्यवसायिक अर्थव्यवस्थाओं में से एक है। 2007 में इसका जीडीपी $198 बिलियन थी जोकी इसे अनुमानित क्रय शक्ति (पीपीपी) के आधार पर दुनिया की 49वां सबसे बड़ा देश बनाती है। उस वर्ष के दौरान, यहां लगभग 9% की सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर दर्ज की गई थी।BBC (31 July 2012), Peru country profile . वर्तमान में पेरू की अर्थव्यवस्था दुनिया में 48वी सबसे बड़ी है।Peru . CIA, The World Factbook प्रमुख उद्योगों में खनन और परिष्करण खनिजों, इस्पात और धातु निर्माण, मछली पकड़ने और मछली प्रसंस्करण, कपड़ा, और खाद्य प्रसंस्करण शामिल हैं। सेवा क्षेत्र देश के सकल घरेलू उत्पाद का 65% हिस्सा का प्रतिनिधित्व करता है; इसके बाद विनिर्माण 26.4% और 8.5% के साथ कृषि आते है।2006 figures. Banco Central de Reserva, Memoria 2006 , p. 204. Retrieved 27 December 2010.
1990 के दशक के मध्य में पेरूवियन अर्थव्यवस्था ने एक मजबूत विकास का अनुभव किया। जिसमें से विभिन्न निजीकरण क्षेत्रों में 46% प्रत्यक्ष विदेशी निवेश ने इसमें एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।Reforms have permitted sustained economic growth since 1993, except for a slump after the 1997 Asian financial crisisThorp, pp. 318–319. अर्थव्यवस्था में गत 1990 के दशक से 2000 के उत्तरार्ध के बीच स्थिरता देखी गई, जिसके लिये ज्यादातर एल निनो घटना, वैश्विक वित्तीय संकट और बढ़ती व्यापार स्थितियों को जिम्मेदार ठहराया गया। 2002 के मध्य तक, लगभग सभी क्षेत्रों में महत्वपूर्ण सुधार किये गये। मत्स्य पालन-निर्यात उद्योग में काफी सुधार हुआ और एंटामिना तांबा-जिंक खदान में एक पंजीकृत विस्तार किया गया जिसके बाद खनिजों और धातुओं के निर्यात क्षेत्र के व्यापार में सुधार किया गया। 2006 के अंत में नेट अंतरराष्ट्रीय रिजर्व $17 बिलियन और 2007 में $20 बिलियन से अधिक पहुंच गया, जोकि 2001 से करीब 11 बिलियन डॉलर अधिक था।
१२ अप्रैल २००६ में, पेरू ने संयुक्त राज्य के साथ एक मुक्त व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर किए जो संयुक्त राज्य अमेरिका-पेरू व्यापार संवर्धन के रूप में जाना जाता है।Office of the U.S. Trade Representative, United States and Peru Sign Trade Promotion Agreement, 12 April 2006. Retrieved 27 December 2010. नवंबर 2008 में, यह चीन-पेरू मुक्त व्यापार समझौते को अंतिम रूप दिया गया। पेरूवियन सरकार ने अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के साथ एक समझौते पर भी हस्ताक्षर किए हैं जिसमें अगले 5 वर्षों में बहुत ही उत्कृष्ट आर्थिक विकास दृष्टिकोण शामिल हैं।
संस्कृति
पेरू की संस्कृति, अमेरिकी आदिवासी और हिस्पैनिक संस्कृतियों के बीच के संबंधों से प्रभावित रही है।Belaunde, Víctor Andrés (1983). Peruanidad. Lima: BCR, p. 472. पेरू की सांस्कृतिक विविधता ने विभिन्न परंपराओं और रीति-रिवाजों को अस्तित्व में रखने की अनुमति दी है। आजादी के बाद पेरू संस्कृति कई बौद्धिक स्तरों के माध्यम से औपनिवेशिक हिस्पैनिक से यूरोपीय स्वछंदतावाद की ओर गई हैं।
आम तौर पर, पेरू तीन सामाजिक वर्गों में बना है। ऊपरी वर्ग अल्पसंख्यक है और आमतौर पर लीमा में स्थित है। वे पूरी आबादी का लगभग 3% बनाते हैं। पेशेवर और कर्मचारी मध्यम वर्ग के हैं। वे आबादी का लगभग 60% हिस्सा हैं। निचला वर्ग देश के किसानों/ग्रामीण लोगों (कैंपेसिनो) का बना हुआ है।
पेरूवियन का वास्तुकला स्वदेशी कल्पना से प्रभावित यूरोपीय शैलियों के लिए संयोजक है। शुरुआती औपनिवेशिक काल के दौरान कुज़्को के सांता क्लारा और कैथेड्रल इसके दो परिचित उदाहरण हैं। औपनिवेशिक के बाद सफल अवधि बारोक है। बारोक अवधि का उदाहरण कुज्को विश्वविद्यालय, सैन फ्रांसिस्को डी लीमा का कॉन्वेंट, और अरेक्विपा, कॉम्पेनिया और सैन अगुस्टिन के सांता रोजा के चर्चों का केंद्र है।
पेरूवियन संगीत में लोक संगीत पूरी तरह से लिप्त है। ऐसे नृत्य हैं जो शिकार (एलली-पुली, choq'elas और गुडी-दादा), कृषि कार्य और युद्ध (जैसे chiriguano, chatripuli और केनेकेनास) के समय किये जाते थे।Turino, Thomas (1993). "Charango". In: Stanley Sadie (ed.), The New Grove Dictionary of Musical Instruments. New York: MacMillan Press Limited, vol. I, , p. 340. पेरू में सबसे अधिक किये जाने वाला नृत्य मारिनरा नॉर्टिना है। ऐसे कई नृत्यरूप भी हैं जो ईसाई प्रभाव को व्यक्त करते हैं। पेरू में एंडियन नृत्य के दो लोकप्रिय उदाहरण वेननो या हुयनो और कशुआ हैं। हुयनो बंद जगहों में जोड़ों द्वारा किया जाता है। कशुआ आमतौर पर खुली जगहों में समूहों में किया जाता है।
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
पेरू में मिला ममी का ख़ज़ाना
गुजरात और पेरू का संबंध?
श्रेणी:पेरू
श्रेणी:दक्षिण अमेरिका के देश
श्रेणी:स्पेनी-भाषी देश व क्षेत्र |
थिम्फू | https://hi.wikipedia.org/wiki/थिम्फू | थिम्फू या थिम्पू (ज़ोंगखा भाषा:ཐིམ་ཕུ), पर्वतीय राष्ट्र भूटान की राजधानी और सबसे बड़ा शहर है। यह भूटान के पश्चिमी मध्य भाग में स्थित है, और आसपास की घाटी भूटान के ज़ोंगखाओं मे से एक थिम्फू जिला है। 1955 में थिम्पू को भूटान की प्राचीन राजधानी पुनाखा के स्थान पर राजधानी बनाया गया था, और 1961 में भूटान के तीसरे ड्रुक ग्याल्पो जिग्मे दोरजी वांगचुक ने थिम्पू को भूटान साम्राज्य की राजधानी घोषित किया था।
शहर रैडक नदी द्वारा बनाई गई घाटी के पश्चिमी तट पर उत्तर-दक्षिण दिशा में फैला हुआ है, जिसे भूटान में वांग चू या थिम्फू चू के नाम से जाना जाता है। थिम्फू दुनिया की पाँचवीं सबसे ऊँची राजधानी है और जिसकी ऊँचाई 2,248 मीटर (7,375 फुट) से लेकर 2,648 मीटर (8,688 फुट) तक है। थिम्फू का अपना कोई हवाई अड्डा नहीं है और निकततम और भूटान का एकमात्र हवाई अड्डा यहाँ से लगभग 54 किलोमीटर (34 मील) की दूरी पर पारो में स्थित है।
भूटान के राजनीतिक और आर्थिक केंद्र के रूप में थिम्फू, एक प्रमुख कृषि और पशुधन आधार है, जिसका देश के जीएनपी में 45% योगदान है। पर्यटन हालाँकि अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण घटक है, लेकिन उसे कड़ाई से विनियमित किया जाता है ताकि परंपरा, विकास और आधुनिकीकरण के बीच संतुलन बना रहे। थिम्फू में भूटान के अधिकांश महत्वपूर्ण राजनीतिक भवन स्थित हैं, जिसमें राष्ट्रीय सभा जो कि भूटान के नवगठित लोकतन्त्र प्रणाली का सदन है, और शहर के उत्तर में स्थित भूटान नरेश का आधिकारिक निवास डेचनचोलिंग महल शामिल है। थिम्पू "थिम्पू संरचना योजना", एक शहरी विकास योजना द्वारा समन्वित है जो 1998 में घाटी के नाजुक पारिस्थितिकी की रक्षा के उद्देश्य से विकसित हुई थी। यह विकास विश्व बैंक और एशियाई विकास बैंक से वित्तीय सहायता के साथ चल रहा है।
भूटान की संस्कृति पूरी तरह से इसके साहित्य, धर्म, रीति-रिवाजों, राष्ट्रीय परिधान संहिता, मठों, संगीत, और नृत्य, और मीडिया में परिलक्षित होती है। षेचू एक महत्वपूर्ण त्योहार है जब मुखौटा नृत्य, जिसे लोकप्रिय रूप से चाम नृत्य के नाम से जाना जाता है, थिम्फू में ताशिचो ज़ोंग के आंगन में किया जाता है। यह हर साल सितंबर या अक्टूबर में आयोजित होने वाला एक चार दिवसीय त्योहार है, जो भूटानी कैलेंडर के अनुसार चलता है।
इतिहास
1960 से पहले, थिम्फू छोटे छोटे पुरवाओं में बंटा हुआ था जिनमें मोतिथांग, चांगान्ग्खा, चांग्लीमिथांग, लांगछुपाखा, और तबा शामिल हैं और आधुनिक थिम्फू के जिलों की रचना करते हैं। आज जहाँ चांग्लीमिथांग खेल का मैदान स्थित है वहाँ पर 1885 में एक लड़ाई लड़ी गई थी जिसमें उगयेन वांगचुक की निर्णायक जीत ने उन्हें भूटान के पहले राजा के रूप में स्थापित कर दिया। उस समय के बाद से शहर में इस खेल के मैदान का बड़ा महत्व है; यहाँ फुटबॉल, क्रिकेट और तीरंदाजी प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती हैं। आधुनिक चांग्लीमिथांग स्टेडियम का निर्माण 1974 में किया गया था। वांगचू राजवंश के सुधारवादी राजाओं के शासनकाल में, देश ने लगातार शांति बनी रही और देश प्रगति को ओर अग्रसर रहा। तीसरे भूटान नरेश जिग्मे दोरजी वांगचुक ने पुरानी छद्म सामंती व्यवस्थाओं में सुधार करते हुए कृषिदासता को समाप्त कर भूमि का किसानों में पुनर्वितरण किया और कराधान में सुधार किया। उन्होंने कई कार्यकारी, विधायी और न्यायपालिका सुधारों की शुरुआत की। सुधार जारी रहे और 1952 में राजधानी को पुनाखा से थिम्पू में स्थानांतरित करने का निर्णय लिया गया। चौथे नरेश, जिग्मे सिंग्ये वांगचुक ने देश को विकास के लिए खोला और भारत ने इस प्रक्रिया में भूटान को वित्तीय और अन्य प्रकार की सहायता प्रदान करने के साथ आवश्यक प्रोत्साहन भी दिया । 1961 में, थिम्पू आधिकारिक रूप से भूटान की राजधानी बन गई।
भूटान 1962 में कोलम्बो योजना, 1969 में सार्वभौम डाक संघ में शामिल हो गया और 1971 में संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य बन गया। थिम्पू में राजनयिक मिशनों और अंतरराष्ट्रीय फंडिंग संगठनों की उपस्थिति के परिणामस्वरूप महानगर के रूप में थिम्पू का तेजी से विस्तार हुआ।
चौथे राजा, जिन्होंने 1953 में राष्ट्रीय सभा (नेशनल असेंबली) का गठन किया, ने 1998 में जनता द्वारा चुने गए मंत्रियों की एक परिषद को सभी कार्यकारी शक्तियों को सौंप दिया। उन्होंने राजा पर अविश्वास मत देने की एक प्रणाली शुरू की, जिसने संसद को सम्राट को हटाने का अधिकार दिया। थिम्पू में राष्ट्रीय संविधान समिति ने 2001 में भूटान साम्राज्य के संविधान का मसौदा तैयार करना शुरू किया। 2005 में, भूटान के चौथे राजा ने अपने राज्य की बागडोर अपने बेटे युवराज जिग्मे खेसर भाग्यल वांगचुक को सौंपने के अपने फैसले की घोषणा की। राजा का राज्याभिषेक नवीकृत चांग्लीमिथांग स्टेडियम थिम्पू में हुआ और वांगचुक राजवंश की स्थापना के शताब्दी वर्ष के साथ हुआ। 2008 में, इसने पूर्ण सकल राजतंत्र से संसदीय लोकतांत्रिक संवैधानिक राजतंत्र में परिवर्तन के लिए मार्ग प्रशस्त किया, और थिम्फू नई सरकार का मुख्यालय बन गया। "सकल राष्ट्रीय खुशी" (GNH) के राष्ट्रीय परिभाषित उद्देश्य के साथ सकल राष्ट्रीय उत्पाद (GNP) में वृद्धि प्राप्त करने का संकल्प लिया गया।
thumb|right|upright|भूटान के वांग्चुक राजवंश के 5वें नरेश जिग्मे खेसर नामग्याल वांगचुक
भूगोल
जलवायु
जनसाँख्यिकी
शहरी संरचनाएं
नगर आयोजना
शहरी विस्तार
वास्तुकला
अर्थव्यवस्था
सरकार एवं लोक प्रशासन
कानून-व्यवस्था
स्वास्थ्य सेवा
संस्कृति
धर्म
शिक्षा
परिवहन
जुडवा शहर
मनोकवारी, इंडोनेशिया
होक्काइडो, जापान
खेल
मीडिया
थिम्फू (; ), पहले थिम्बु के नाम से जाना जाता था। यह भूटान का सबसे बड़ा शहर तथा भूटान देश की राजधानी भी है।। थिम्फू भूटान के पश्चिमी केन्द्रीय भाग में स्थित हैं।
thumb|500px|center|थिम्फू
थिम्पू, भूटान के पश्चिमी मध्य भाग में स्थित है। भूटान की प्राचीन राजधानी पुनाखा थी जिसे १९६१ में बदलकर थिंपू को राजधानी बनाया गया। यह नगर, रैडक नदी द्वारा बनाई गई घाटी के पश्चिमी तट पर उत्तर-दक्षिण दिशा में फैला हुआ है जिसे भूटान में 'वांग चू' या 'थिम्पू चू' के रूप में जाना जाता है। थिम्फु दुनिया में चौथी सबसे ऊँची राजधानी है (2,248 मीटर से 2,648 मीटर तक)। थिम्पू का अपना हवाई अड्डा नहीं है, लेकिन लगभग 54 किलोमीटर दूर पारो हवाई अड्डा है जो थिम्पू से सड़क से जुड़ा है। थिम्फू वास्तव में एक कस्बे के रूप में तब तक मौजूद नहीं था जब तक कि यह 1961 में भूटान की राजधानी नहीं बन गया। थिम्पू में 1962 में पहला वाहन दिखाई दिया और शहर 1970 के दशक के अन्त तक बहुत कुछ गाँव जैसा था। 1990 के बाद से जनसंख्या नाटकीय रूप से बढ़ी है, और अब अनुमानतः 90,000 होने का अनुमान है। यहाँ का ताशी छो डोज़ोंग (पहाड़ी दुर्ग) पारम्परिक दुर्ग और मठ है जिसे जिसे शाही सरकार के कार्यालयों के रूप में उपयोग किया जा रहा है। यह पारम्परिक भूटानी वास्तुकला के श्रेष्ठ नमूना है। शाही महल के आस-पास के खेत कृषि को दी जाने वाली उच्च प्राथमिकता को दर्शाते हैं। क्षेत्र में प्रमुख फसलें चावल, मक्का और गेहूं हैं। 1966 में एक जलविद्युत संयंत्र का संचालन शुरू हुआ। शहर में हवाई जहाज उतारने की एक पट्टी है। भारत-भूटान राष्ट्रीय राजमार्ग (1968 को खोला गया) थिम्फू को भारत के भूटान के मुख्य प्रवेश द्वार, फंटशोलिंग से जोड़ता है।
इतिहास
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
श्रेणी:भूटान
श्रेणी:एशिया में राजधानियाँ |
चंदन दास | https://hi.wikipedia.org/wiki/चंदन_दास | चंदन दास मशहूर गज़ल गायक हैं।ुन्के प्रमुख गाने इस प्रकार है--आ भी जाओ के जिन्दगी कम है, कल खाब मे देखा सखी मैने पिया का गाओ रे, जब मेरी हकीकत जा जा कर, जब कोइ फैसला कीजिये, साथ छूटेगा कैसे मेरा आपका।
सन्दर्भ
श्रेणी:गायक |
गजल | https://hi.wikipedia.org/wiki/गजल | REDIRECTग़ज़ल |
बद्रीनाथ | https://hi.wikipedia.org/wiki/बद्रीनाथ | REDIRECT बद्रीनाथ मन्दिर |
केदारनाथ नगर | https://hi.wikipedia.org/wiki/केदारनाथ_नगर | केदारनाथ (Kedarnath) भारत के उत्तराखण्ड राज्य के गढ़वाल मण्डल के रुद्रप्रयाग ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले के मुख्यालय, रुद्रप्रयाग से 86 किमी दूर है। यह केदारनाथ धाम के कारण प्रसिद्ध है, जो हिन्दू धर्म के अनुयाइयों के लिए पवित्र स्थान है। यहाँ स्थित केदारनाथ मंदिर का शिवलिंग बारह ज्योतिर्लिंग में से एक है, और हिन्दू धर्म के चारधाम और पंच केदार में गिना जाता है।।"Uttarakhand: Land and People," Sharad Singh Negi, MD Publications, 1995"Development of Uttarakhand: Issues and Perspectives," GS Mehta, APH Publishing, 1999, ISBN 9788176480994
विवरण
thumb|280px|केदारनाथ
श्रीकेदारनाथ का मंदिर ३,५९३ मीटर की ऊँचाई पर बना हुआ एक भव्य एवं विशाल मंदिर है। इतनी ऊँचाई पर इस मंदिर को कैसे बनाया गया, इस बारे में आज भी पूर्ण सत्य ज्ञात नहीं हैं। सतयुग में शासन करने वाले राजा केदार के नाम पर इस स्थान का नाम केदार पड़ा। राजा केदार ने सात महाद्वीपों पर शासन और वे एक बहुत पुण्यात्मा राजा थे। उनकी एक पुत्री दो पुत्र थे । पुत्रका नाम कार्तिकेय (मोहन्याल) व गणेश था । गणेश बुद्दि व कार्तिकेय (मोहन्याल) शक्ति के राजा देवता के रुपमे संसार प्रसिद्द है ।उनकी एक पुत्री थी वृंदा जो देवी लक्ष्मी की एक आंशिक अवतार थी। वृंदा ने ६०,००० वर्षों तक तपस्या की थी। वृंदा के नाम पर ही इस स्थान को वृंदावन भी कहा जाता है।
यहाँ तक पहुँचने के दो मार्ग हैं। पहला १४ किमी लंबा पक्का पैदल मार्ग है जो गौरीकुण्ड से आरंभ होता है। गौरीकुण्ड उत्तराखंड के प्रमुख स्थानों जैसे ऋषिकेश, हरिद्वार, देहरादून इत्यादि से जुड़ा हुआ है। दूसरा मार्ग है हवाई मार्ग। अभी हाल ही में राज्य सरकार द्वारा अगस्त्यमुनि और फ़ाटा से केदारनाथ के लिये पवन हंस नाम से हेलीकाप्टर सेवा आरंभ की है और इनका किराया उचित है। सर्दियों में भारी बर्फबारी के कारण मंदिर बंद कर दिया जाता है और केदारनाथ में कोई नहीं रुकता। नवंबर से अप्रैल तक के छह महीनों के दौरान भगवान केदारनाथ की पालकी गुप्तकाशी के निकट उखिमठ नामक स्थान पर स्थानांतरित कर दी जाती है। यहाँ के लोग भी केदारनाथ से आस-पास के ग्रामों में रहने के लिये चले जाते हैं। वर्ष २००१ की भारत की जनगणना के अनुसार केदारनाथ की जनसंख्या ४७९ है, जिसमें ९८% पुरुष और २% महिलाएँ है। साक्षरता दर ६३% है जो राष्ट्रीय औसत ५९.५% से अधिक है (पुरुष ६३%, महिला ३६%)। ०% लोग ६ वर्ष से नीचे के हैं।
भ्रमण
यहां स्थापित प्रसिद्ध हिन्दू तीर्थ केदारनाथ मंदिर अति प्राचीन है। कहते हैं कि भारत की चार दिशाओं में चार धाम स्थापित करने के बाद जगतगुरु शंकराचार्य ने ३२ वर्ष की आयु में यहीं श्री केदारनाथ धाम में समाधि ली थी। उन्हीं ने वर्तमान मंदिर बनवाया था। यहां एक झील है जिसमें बर्फ तैरती रहती है इस झील के बारे में प्रचलित है इसी झील से युधिष्ठिर स्वर्ग गये थे। श्री केदारनाथ धाम से छह किलोमीटर की दूरी चौखम्बा पर्वत पर वासुकी ताल है यहां ब्रह्म कमल काफी होते हैं तथा इस ताल का पानी काफी ठंडा होता है। यहां गौरी कुण्ड, सोन प्रयाग, त्रिजुगीनारायण, गुप्तकाशी, उखीमठ, अगस्तयमुनि, पंच केदार आदि दर्शनीय स्थल हैं।
केदारनाथ आने के लिए कोटद्वार जो कि केदारनाथ से २६० किलोमीटर तथा ऋर्षिकेश जो कि केदारनाथ से २२९ किलोमीटर दूर है तक रेल द्वारा आया जा सकता है। सड़क मार्ग द्वारा गौरीकुण्ड तक जाया जा सकता है जो कि केदारनाथ मंदिर से १४ किलोमीटर पहले है। यहां से पैदल मार्ग या खच्चर तथा पालकी से भी केदारनाथ जाया जा सकता है। नजदीक हवाई अड्डा जौली ग्रांट २४६ किलोमीटर दूरी पर स्थित है, यहां से केदारनाथ के लिए हवाई सेवा हाल ही में शुरू हुई है जो सुलभ है।श्री केदारनाथ । घुघुती। २२ फ़रवरी २००९
आवागमन
हिमालय के पवित्र तीर्थों के दर्शन करने हेतु तीर्थयात्रियों को रेल, बस, टैक्सी आदि के द्वारा हरिद्वार आना चाहिए। हरिद्वार से उत्तराखंड की यात्राओं के लिए साधन उपलब्ध होते हैं। हरिद्वार से केदारनाथ की दूरी 247 किलोमीटर है। हरिद्वार से गौरीकुण्ड 233 किलोमीटर की यात्रा मोटरमार्ग से की जाती है, जबकि गौरी कुण्ड से केदारनाथ तक 14 किलोमीटर की दूरी पैदल मार्ग से जाना पड़ता है। पैदल चलने में असमर्थ व्यक्ति के लिए गौरी कुण्ड से घोड़ा, पालकी, पिट्ठू आदि के साधन मिलते हैं। यह यात्रा हरिद्वार से ऋषिकेश, देवप्रयाग, श्रीनगर, रुद्रप्रयाग, तिलवाड़ा, अगस्त्यमुनि कुण्ड, गुप्तकाशी, नाला, फाटा, रामपुर, सोनप्रयाग, गौरीकुण्ड, रामबाढ़ा और गरुड़चट्टी होते हुए श्रीकेदारनाथ तक पहुँचती है।
इतिहास
केदारनाथ भारत के उत्तराखंड राज्य में एक महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल है। यह हिंदुओं का अत्यधिक धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व रखता है। "केदारनाथ का इतिहास" हिंदू पौराणिक कथाओं और किंवदंतियों से निकटता से जुड़ा हुआ है।
हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, केदारनाथ बारह ज्योतिर्लिंगों में एक है, जिन्हें भगवान शिव का सबसे पवित्र निवास माना जाता है। कहानी यह है कि कुरुक्षेत्र युद्ध (जैसा कि भारतीय महाकाव्य महाभारत में वर्णित है) के बाद, पांडवों ने युद्ध के दौरान किए गए अपने पापों, विशेषकर अपने रिश्तेदारों की हत्या के लिए भगवान शिव से क्षमा मांगी। हालाँकि, शिव उनसे मिलना नहीं चाहते थे और उन्होंने एक बैल (नंदी) का रूप धारण किया और हिमालय के गढ़वाल क्षेत्र में छिप गए।
माफी मांगने के लिए दृढ़ संकल्पित पांडवों ने शिव का पीछा किया और अंततः उन्हें मंदाकिनी और गंगा नदियों के संगम पर पाया। उन्हें पहचानकर, शिव ने जमीन में गोता लगाया, लेकिन भीम (पांडवों में से एक) ने बैल की पूंछ पकड़ ली। शिव ने उनकी दृढ़ता और भक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें क्षमा कर दी और पांच अलग–अलग स्थानों पर अपने दिव्य रूप में प्रकट हुए, जिन्हें अब पंच केदार के रूप में जाना जाता है। कहा जाता है कि बैल का कूबड़ केदारनाथ में प्रकट हुआ था, जहां भगवान शिव के सम्मान में एक मंदिर बनाया गया था।
माना जाता है कि वर्तमान मंदिर का निर्माण 8वीं शताब्दी ईस्वी में महान भारतीय दार्शनिक और धर्मशास्त्री आदि शंकराचार्य द्वारा किया गया था। उन्हें कई हिंदू मठ संस्थानों की स्थापना करने और पूरे भारत में हिंदू धर्म को पुनर्जीवित करने का श्रेय दिया जाता है। मंदिर की वास्तुकला हिंदू और तिब्बती शैलियों का मिश्रण दर्शाती है।
चित्रदीर्घा
इन्हें भी देखें
केदारनाथ
रुद्रप्रयाग ज़िला
बाहरी कड़ियाँ
केदारनाथ का आधिकारिक जालस्थल
श्री केदारनाथ जी की आरती
केदारनाथ यात्रा मार्गदर्शिका
History of Kedarnath
सन्दर्भ
श्रेणी:उत्तराखण्ड के नगर
श्रेणी:रुद्रप्रयाग जिला
श्रेणी:रुद्रप्रयाग ज़िले के नगर
श्रेणी:भारत के तीर्थ |
बेतवा नदी | https://hi.wikipedia.org/wiki/बेतवा_नदी | बेतवा नदी (Betwa River), जिसका प्राचीन नाम वेत्रवती (Vetravati) था, भारत के मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश राज्यों में बहने वाली एक नदी है। यह यमुना नदी की उपनदी है। यह मध्य प्रदेश में रायसेन ज़िले के कुम्हारागाँव से निकलकर उत्तर-पूर्वी दिशा में बहती हुई भोपाल, विदिशा, झाँसी, ललितपुर आदि ज़िलों से होकर बहती है। इसके ऊपरी भाग में कई झरने मिलते हैं, किन्तु झाँसी के निकट यह काँप के मैदान में धीमे-धीमें बहती है। इसकी सम्पूर्ण लंबाई 590 किलोमीटर है। यह बुंदेलखण्ड पठार की सबसे लम्बी नदी है। यह हमीरपुर के निकट यमुना में मिल जाती है। इसके किनारे सांची और विदिशा के प्रसिद्ध व सांस्कृतिक नगर स्थित हैं। लोगों का मानना है कि,आल्हा की लडाई में इतना खून बहाया गया की पूरी नदी लाल हो गयी थी उस समय से अब तक यहां लाल रंग का मौरंग पाया जाता है।बीना नदी इसकी एक प्रमुख उपनदी है।Shukla, D.C. 1994 Habitat characteristics of wetlands of the Betwa Basin, India, and wintering populations of endangered waterfowl species. Global wetlands.
लोक संस्कृति में
भारतीय नौसेना ने बैटवा नदी के सम्मान में एक फ्रिगेट्सको आईएनएस बेतवा नाम दिया है।
इन्हें भी देखें
बीना नदी
यमुना नदी
बाहरी कड़ियाँ
बेतवा नदी (इंडिया वाटर पोर्टल (हिन्दी))
सन्दर्भ
श्रेणी:मध्य प्रदेश की नदियाँ
श्रेणी:उत्तर प्रदेश की नदियाँ
श्रेणी:यमुना नदी की उपनदियाँ |
ओक्लाहोमा | https://hi.wikipedia.org/wiki/ओक्लाहोमा | thumbnail|अमेरिका के मानचित्र में
ओक्लाहोमा () संयुक्त राज्य के दक्षिण मध्य क्षेत्र में एक राज्य है। इसे 1907 में 46वें राज्य के रूप में संघ में भर्ती किया गया था। इसकी सीमा पूर्व में अर्कांसस और मिसौरी से, उत्तर में केन्सास से, कॉलोराडो से उत्तर-पश्चिम में, न्यू मेक्सिको से दूर पश्चिम में और टेक्सास से दक्षिण में लगती है। ओक्लाहोमा सिटी राज्य की राजधानी है।
राज्य का ज्यादातर हिस्सा 1803 में अमेरिका ने फ्रांस से खरीदा था। 1889 तक यह इलाका मूल अमेरिकी लोगों के लिये आरक्षित था। उसके बाद केंद्रीय सरकार ने यहाँ बसने के लिये लोगों को अनुमति दी। राज्य का ज्यादातर हिस्सा ग्रेट प्लेन और प्रेरी में आता है। अलास्का और कैलिफ़ोर्निया के बाद ओक्लाहोमा में सर्वाधिक मूल अमरीकी बसते हैं। हालांकि अंग्रेज़ी को सरकारी भाषा का दर्जा प्राप्त है पर कुछ मूल अमरीकी भाषाओं को कुछ काउंटी में अधिकारिक भाषा का दर्जा प्राप्त है।
2016 के अनुमान मुताबिक राज्य की जनसंख्या 39,23,561 है। इस हिसाब से इसका सारे अमेरिकी राज्यों में 28वां स्थान हुआ। क्षेत्र के हिसाब से इसका 20वां स्थान है।
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
श्रेणी:संयुक्त राज्य अमेरिका के राज्य |
वेद | https://hi.wikipedia.org/wiki/वेद | वेद भारतीय दर्शन के जनक, प्रेरक, मानक भूमिकाओं में केंद्रीय स्थान प्राप्त शब्दप्रमाण हैं। वेद, प्राचीन भारत वर्ष का पवित्र साहित्य हैं जो धरती के प्राचीनतम सनातन हिन्दुओं के प्राचीनतम और आधारभूत धर्मग्रन्थ भी हैं । वेद, विश्व के सबसे प्राचीन साहित्य भी हैं। भारतीय संस्कृति में वेद सनातन एवं वर्णाश्रम धर्म के मूल और सबसे प्राचीन ग्रन्थ है।
'वेद' शब्द संस्कृत भाषा के विद् धातु से बना है, जिसका अर्थ होता है जानना,अतः वेद का शाब्दिक अर्थ है 'ज्ञान' । इसी धातु से 'विदित' (जाना हुआ), 'विद्या' (ज्ञान), 'विद्वान' (ज्ञानी) जैसे शब्द आए हैं। इन्हें देववाणी के रूप में माना गया है| इसीलिए ये ' श्रुति' कहलाते हैं| वेदों को परम सत्य माना गया है| उनमें लौकिक अलौकिक सभी विषयों का ज्ञान भरा पड़ा है| प्रत्येक वेद के चार अंग हैं| वे हैं वेदसंहिता, ब्राह्मण-ग्रन्थ, आरण्यक तथा उपनिषद्|
आज 'चतुर्वेद' के रूप में ज्ञात इन ग्रंथों का विवरण इस प्रकार हैं :-
ऋग्वेद - सबसे प्राचीन तथा प्रथम वेद जिसमें मन्त्रों की संख्या १०४६२,मंडल की संख्या १० तथा सूक्त की संख्या १०२८ है। ऐसा भी माना जाता है कि इस वेद में सभी मंत्रों के अक्षरों की कुल संख्या ४३२००० है। इसका मूल विषय ज्ञान है। विभिन्न देवताओं का वर्णन है तथा ईश्वर की स्तुति आदि।
यजुर्वेद - इसमें कार्य (क्रिया) व यज्ञ (समर्पण) की प्रक्रिया के लिये १९७५ गद्यात्मक मन्त्र हैं।
सामवेद - इस वेद का प्रमुख विषय उपासना है। संगीत में लगे सुर को गाने के लिये १८७५ संगीतमय मंत्र।
अथर्ववेद - इसमें गुण, धर्म, आरोग्य, एवं यज्ञ के लिये ५९७७ कवितामयी मन्त्र हैं।
चारों वेदों का सम्बन्ध यज्ञ से है| यज्ञ करने में चार प्रकार के ऋत्विजों की आवश्यकता होती है| यथा- • होता • उद्गाता •अध्वर्यु • ब्रह्मा | को अपौरुषेय (जिसे किसी पुरुष के द्वारा न किया जा सकता हो, (अर्थात् ईश्वर कृत) माना जाता है। यह ज्ञान विराटपुरुष से वा कारणब्रह्म से श्रुति परम्परा के माध्यम से सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी ने प्राप्त किया माना जाता है। यह भी मान्यता है कि परमात्मा ने सबसे पहले चार महर्षियों जिनके अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा नाम थे; के आत्माओं में क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का ज्ञान दिया, उन महर्षियों ने फिर यह ज्ञान ब्रह्मा को दिया। इन्हें श्रुति भी कहते हैं जिसका अर्थ है 'सुना हुआ ज्ञान'। क्योंकि इन्हें सुनकर के लिखा गया था। अन्य आर्य ग्रंथों को स्मृति कहते हैं, अर्थात वेदज्ञ मनुष्यों की वेदानुगत बुद्धि या स्मृति पर आधारित ग्रन्थ। वेद मंत्रों की व्याख्या करने के लिए अनेक ग्रंथों जैसे ब्राह्मण-ग्रन्थ, आरण्यक और उपनिषद की रचना की गई। इनमे प्रयुक्त भाषा वैदिक संस्कृत कहलाती है जो लौकिक संस्कृत से कुछ अलग है। ऐतिहासिक रूप से प्राचीन भारत और हिन्द-आर्य जाति के बारे में वेदों को एक अच्छा सन्दर्भ स्रोत माना जाता है। संस्कृत भाषा के प्राचीन रूप को लेकर भी इनका साहित्यिक महत्त्व बना हुआ है।
वेदों को समझना प्राचीन काल से ही पहले भारतीय और बाद में संपूर्ण विश्व भर में एक वार्ता का विषय रहा है। इसको पढ़ाने के लिए छः अंगों - शिक्षा, कल्प, निरुक्त, व्याकरण, छन्द और ज्योतिष के अध्ययन और उपांगों जिनमें छः शास्त्र - पूर्वमीमांसा, वैशेषिक, न्याय, योग, सांख्य और वेदांत व दस उपनिषद् - इशावास्य, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, मांडुक्य, ऐतरेय, तैतिरेय, छान्दोग्य और बृहदारण्यक आते हैं। प्राचीन समय में इनको पढ़ने के बाद वेदों को पढ़ा जाता था। प्राचीन काल के वशिष्ठ, शक्ति, पराशर, वेदव्यास, जैमिनी, याज्ञवल्क्य, कात्यायन इत्यादि ऋषियों को वेदों के अच्छे ज्ञाता माना जाता है। मध्यकाल में रचित व्याख्याओं में सायण का रचा चतुर्वेदभाष्य माधवीय वेदार्थदीपिका बहुत मान्य हैं। यूरोप के विद्वानों का वेदों के बारे में मत हिन्द-आर्य जाति के इतिहास की जिज्ञासा से प्रेरित रही है। अतः वे इसमें लोगों, जगहों, पहाड़ों, नदियों के नाम ढूँढते रहते हैं - लेकिन ये भारतीय परंपरा और गुरुओं की शिक्षाओं से मेल नहीं खाता। अठारहवीं सदी उपरांत यूरोपियनों के वेदों और उपनिषदों में रूचि आने के बाद भी इनके अर्थों पर कई विद्वानों में असहमति बनी रही है।
वेदों में अनेक वैज्ञानिक विश्लेषण प्राप्त होते हैं।
thumb|300px|right|वेद का हिंदी भाष्य
कालक्रम
मुख्य लेख वैदिक सभ्यता
वेद सबसे प्राचीन पवित्र ग्रंथों में से हैं। संहिता की तारीख लगभग 1700-1100 ईसा पूर्व, और "वेदांग" ग्रंथों के साथ-साथ संहिताओं की प्रतिदेयता कुछ विद्वान वैदिक काल की अवधि 1500-600 ईसा पूर्व मानते हैं तो कुछ इससे भी अधिक प्राचीन मानते हैं। जिसके परिणामस्वरूप एक वैदिक अवधि होती है, जो 1000 ईसा पूर्व से लेकर 200 ई.पूर्व तक है। कुछ विद्वान इन्हे ताम्र पाषाण काल (4000 ईसा पूर्व) का मानते हैं। वेदों के बारे में यह मान्यता भी प्रचलित है कि वेद सृष्टि के आरंभ से हैं और परमात्मा द्वारा मानव मात्र के कल्याण के लिए दिए गए हैं। वेदों में किसी भी मत, पंथ या सम्प्रदाय का उल्लेख न होना यह दर्शाता है कि वेद विश्व में सर्वाधिक प्राचीनतम साहित्य है। वेदों की प्रकृति विज्ञानवादी होने के कारण पश्चिमी जगत में इनका डंका बज रहा है। वैदिक काल, वेद ग्रंथों की रचना के बाद ही अपने चरम पर पहुंचता है, संपूर्ण उत्तर भारत में विभिन्न शाखाओं की स्थापना के साथ, जो कि ब्राह्मण ग्रंथों के अर्थों के साथ मंत्र संहिताओं को उनके अर्थ की चर्चा करता है, बुद्ध और पाणिनी के काल में भी वेदों का बहुत अध्ययन-अध्यापन का प्रचार था यह भी प्रमाणित है। माइकल विटजेल भी एक समय अवधि देता है 1500 से 500-400 ईसा पूर्व, माइकल विटजेल ने 1400 ईसा पूर्व माना है, उन्होंने विशेष संदर्भ में ऋग्वेद की अवधि के लिए इंडो-आर्यन समकालीन का एकमात्र शिलालेख दिया था। उन्होंने 150 ईसा पूर्व (पतंजलि) को सभी वैदिक संस्कृत साहित्य के लिए एक टर्मिनस एंटी क्वीन के रूप में, और 1200 ईसा पूर्व (प्रारंभिक आयरन आयु) अथर्ववेद के लिए टर्मिनस पोस्ट क्वीन के रूप में दिया। मैक्समूलर ऋग्वेद का रचनाकाल 1200 ईसा पूर्व से 200 ईसा पूर्व के काल के मध्य मानता है। दयानन्द सरस्वती चारों वेदों का काल 1960852976 वर्ष हो चुके हैं यह (1876 ईसवी में) मानते है।
वैदिक काल में ग्रंथों का संचरण मौखिक परंपरा द्वारा किया गया था, विस्तृत नैमनिक तकनीकों की सहायता से परिशुद्धता से संरक्षित किया गया था। मौर्य काल (322-185 ई० पू०) में बौद्ध धर्म (600 ई० पू०) के उदय के बाद वैदिक समय के बाद साहित्यिक परंपरा का पता लगाया जा सकता है। इसी काल में गृहसूत्र, धर्मसूत्र और वेदांगों की रचना हुई, ऐसा विद्वानों का मत है। इसी काल में संस्कृत व्याकरण पर पाणिनी ने 'अष्टाध्यायी' नामक ग्रंथ लिखा। अन्य दो व्याकरणाचार्य कात्यायन और पतञ्जलि उत्तर मौर्य काल में हुए। चंद्रगुप्त मौर्य के प्रधानमन्त्री चाणक्य ने अर्थशास्त्र नामक ग्रंथ लिखा। शायद 1 शताब्दी ईसा पूर्व के यजुर्वेद के कन्वा पाठ में सबसे पहले; हालांकि संचरण की मौखिक परंपरा सक्रिय रही। माइकल विटजेल ने 1 सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व में लिखित वैदिक ग्रंथों की संभावना का सुझाव दिया। कुछ विद्वान जैसे जैक गूडी कहते हैं कि "वेद एक मौखिक समाज के उत्पाद नहीं हैं", इस दृष्टिकोण को ग्रीक, सर्बिया और अन्य संस्कृतियों जैसे विभिन्न मौखिक समाजों से साहित्य के संचरित संस्करणों में विसंगतियों की तुलना करके इस दृष्टिकोण का आधार रखते हुए, उस पर ध्यान देते हुए वैदिक साहित्य बहुत सुसंगत और विशाल है जिसे लिखे बिना, पीढ़ियों में मौखिक रूप से बना दिया गया था। हालांकि जैक गूडी कहते हैं, वैदिक ग्रंथों कि एक लिखित और मौखिक परंपरा दोनों में शामिल होने की संभावना है, इसे "साक्षरता समाज के समानांतर उत्पाद" कहते हैं।
वैदिक काल में पुस्तकों को ताड़ के पेड़ के पत्तों पर लिखा जाता था। पांडुलिपि सामग्री (बर्च की छाल या ताड़ के पत्तों) की तात्कालिक प्रकृति के कारण, जीवित पांडुलिपियां शायद ही कुछ सौ वर्षों की उम्र को पार करती हैं। सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय का 14 वीं शताब्दी से ऋग्वेद पांडुलिपि है; हालांकि, नेपाल में कई पुरानी वेद पांडुलिपियां हैं जो 11 वीं शताब्दी के बाद से हैं।
प्राचीन विश्वविद्यालय
वेद, वैदिक अनुष्ठान और उसके सहायक विज्ञान वेदांग कहलाते थे, ये वेदांग प्राचीन विश्वविद्यालयों जैसे तक्षशिला, नालंदा और विक्रमशिला में पाठ्यक्रम का हिस्सा थे।
वेद-भाष्यकार
प्राचीन काल में माना जाता है कि ब्रह्मा , विष्णु , महेश (शिव), ने ही सारे संसार का संचालन किया है और सारे देवता उसमें सहायक होते हैं। भगवान शिव ने सात ऋषियों को वेद ज्ञान दिया। इसका उल्लेख गीता में हुआ है। ऐतिहासिक रूप से ब्रह्मा, उनके मरीचि, अत्रि आदि सात और पौत्र कश्यप और अन्य यथा जैमिनी, पतंजलि, मनु, वात्स्यायन, कपिल, कणाद आदि मुनियों को वेदों का अच्छा ज्ञान था। व्यास ऋषि ने गीता में कई बार वेदों (श्रुति ग्रंथों) का ज़िक्र किया है। अध्याय 2 में कृष्ण, अर्जुन से ये कहते हैं कि वेदों की अलंकारमयी भाषा के बदले उनके वचन आसान लगेंगे। गीता २.५३ - श्रुति विप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला। समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्यसि॥ - अर्थात् (हे अर्जुन) यदि तुम्हारा मन श्रुति में घुसकर भी शांत रहे, समाधि में बुद्धि अविचल रहे तभी तुम्हें सच्चा दिव्य योग मिला है।
मध्यकाल में सायण आचार्य को वेदों का प्रसिद्ध भाष्यकार मानते हैं - लेकिन साथ ही यह भी मानते हैं कि उन्होंने ही प्रथम बार वेदों के भाष्य या अनुवाद में देवी-देवता, इतिहास और कथाओं का उल्लेख किया जिसको आधार मानकार महीधर और अन्य भाष्यकारों ने ऐसी व्याख्या की। महीधर और उव्वट इसी श्रेणी के भाष्यकार थे।
आधुनिक काल में राजा राममोहन राय का ब्रह्म समाज और दयानन्द सरस्वती का आर्य समाज लगभग एक ही समय (1800-1900 ईसवी) में वेदों के सबसे बड़े प्रचारक बने। दयानन्द सरस्वती ने यजुर्वेद और ऋग्वेद का लगभग सातवें मंडल के कुछ भाग तक भाष्य किया। सामवेद और अथर्ववेद का भाष्य पं० हरिशरण सिद्धान्तलंकार ने किया है। वैदिक संहिताओं के अनुवाद में रमेशचंद्र दत्त बंगाल से, रामगोविन्द त्रिवेदी एवं जयदेव वेदालंकार के हिन्दी में एवं श्रीधर पाठक का मराठी में कार्य भी लोगों को वेदों के बारे में जानकारी प्रदान करता रहा है। इसके बाद गायत्री तपोभूमि के श्रीराम शर्मा आचार्य ने भी वेदों के भाष्य प्रकाशित किये हैं - इनके भाष्य सायणाधारित हैं। अन्य भी वेदों के अनेक भाष्यकार हैं।
वेदों का प्रकाशन
वेदों का प्रकाशन शंकर पाण्डुरंग ने सायण भाष्य के अलावा अथर्ववेद का चार खण्ड में प्रकाशन किया। लोकमान्य तिलक ने ओरायन और द आर्कटिक होम इन वेदाज़ नामक दो ग्रंथ वैदिक साहित्य की समीक्षा के रूप में लिखे। बालकृष्ण दीक्षित ने सन् 1877 ई० में कोलकाता से सामवेद पर अपने ज्ञान का प्रकाशन कराया। श्रीपाद दामोदर सातवलेकर ने सातारा में चारों वेदों की संहिता का श्रमपूर्वक प्रकाशन कराया। तिलक विद्यापीठ, पुणे से पाँच जिल्दों में प्रकाशित ऋग्वेद के सायण भाष्य के प्रकाशन को भी प्रामाणिक माना जाता है।
विदेशी प्रयास
सत्रहवीं सदी में मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब के भाई दारा शूकोह ने कुछ उपनिषदों का फ़ारसी में अनुवाद किया (सिर्र ए अकबर,سرّ اکبر महान रहस्य) जो पहले फ्रांसिसी और बाद में अन्य भाषाओं में अनूदित हुईं। यूरोप में इसके बाद वैदिक और संस्कृत साहित्य की ओर ध्यान गया। मैक्स मूलर जैसे यूरोपीय विद्वान ने भी संस्कृत और वैदिक साहित्य पर बहुत अध्ययन किया है। लेकिन यूरोप के विद्वानों का ध्यान हिन्द आर्य भाषा परिवार के सिद्धांत को बनाने और उसको सिद्ध करने में ही लगा हुआ है। शब्दों की समानता को लेकर बने इस सिद्धांत में ऐतिहासिक तथ्यों और काल निर्धारण को तोड़-मरोड़ करना ही पड़ता है। इस कारण से वेदों की रचना का समय १८००-१००० ईसा पूर्व माना जाता है जो संस्कृत साहित्य और हिन्दू सिद्धांतों पर खरा नहीं उतरता। लेकिन आर्य जातियों के प्रयाण के सिद्धांत के तहत और भाषागत दृष्टि से यही काल इन ग्रंथों की रचना का मान लिया जाता है।
वेदों का काल
वेदों का अवतरण काल वर्तमान सृष्टि के आरंभ के समय का माना जाता है। इसके हिसाब से वेद को अवतरित हुए 2017 (चैत्र शुक्ल प्रतिपदा विक्रमी संवत 2074) को 1,96,08,53,117 वर्ष होंगे। वेद अवतरण के पश्चात् श्रुति के रूप में रहे और काफी बाद में वेदों को लिपिबद्ध किया गया और वेदों को संरक्षित करने अथवा अच्छी तरह से समझने के लिये वेदों से ही वेदांगों का आविष्कार किया गया।
इसमें उपस्थित खगोलीय विवरणानुसार कई इतिहासकार इसे ५००० से ७००० साल पुराना मानते हैं परंतु आत्मचिंतन से ज्ञात होता है कि जैसे सात दिन बीत जाने पर पुनः रविवार आता है वैसे ही ये खगोलीय घटनाएं बार बार होतीं हैं अतः इनके आधार पर गणना श्रेयसकर नहीं।आर्यों का आदिदेश
वेद हमें ब्रह्मांड के अनोखे, अलौकिक व ब्रह्मांड के अनंत राज बताते हैं जो साधारण समझ से परे हैं।
वेद की पुरातन नीतियां व ज्ञान इस दुनिया को न केवल समझाते हैं अपितु इसके अलावा वे इस दुनियां को पुनः सुचारू तरीके से चलाने में मददगार साबित हो सकते हैं।
वेदों का महत्व
प्राचीन काल से भारत में वेदों के अध्ययन और व्याख्या की परम्परा रही है। वैदिक सनातन वर्णाश्रम (हिन्दू) धर्म के अनुसार वैदिक काल में ब्रह्मा से लेकर वेदव्यास तथा जैमिनि तक के ऋषि-मुनियों और दार्शनिकों ने शब्द, प्रमाण के रूप में इन्हीं को माना है और इनके आधार पर अपने ग्रन्थों का निर्माण भी किया है। पराशर, कात्यायन, याज्ञवल्क्य, व्यास, पाणिनी आदि को प्राचीन काल के वेदवेत्ता कहते हैं। वेदों के विदित होने यानि चार ऋषियों के ध्यान में आने के बाद इनकी व्याख्या करने की परम्परा रही है <ref>शतपथ ब्राह्मण के अनुसार - अग्नेर्वाऋग्वेदो जायते वायोर्यजुर्वेदः सूर्यात् सामवेदः, यानि अग्नि ऋषि से ऋक्, वायु ऋषि से यजुस् और सूर्य ऋषि से सामवेद का ज्ञान मिला। अंगिरस ऋषि को अथर्ववेद का ज्ञान मिला। इससे ब्रह्मा जैसे ऋषियोंने चारो वेदौंकी शिक्षाको स्वयं साक्षात्कार कर अन्य विद्वानों में फैलाया। श्रुतिपरंपरा में वेदग्रहणकालमें ब्रह्मा के चतुर्मुख होने का वर्णन आया है </ref>। अतः फलस्वरूप एक ही वेद का स्वरुप भी मन्त्र, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद् के रुप में चार ही माना गया है। इतिहास (महाभारत), पुराण आदि महान् ग्रन्थ वेदों का व्याख्यान के स्वरूप में रचे गए। प्राचीन काल और मध्ययुग में शास्त्रार्थ इसी व्याख्या और अर्थांतर के कारण हुए हैं। मुख्य विषय - देव, अग्नि, रूद्र, विष्णु, मरुत, सरस्वती इत्यादि जैसे शब्दों को लेकर हुए। वेदवेत्ता महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती के विचार में ज्ञान, कर्म, उपासना और विज्ञान वेदों के विषय हैं। जीव, ईश्वर, प्रकृति इन तीन अनादि नित्य सत्ताओं का निज स्वरूप का ज्ञान केवल वेद से ही उपलब्ध होता है। वेद में मूर्ति पूजा को अमान्य कहा गया है
कणाद ने "तद्वचनादाम्नायस्य प्राणाण्यम्" वैशेषिक दर्शन, प्रथम अध्याय, प्रथम माह्नक, तृतीयश्लोक और "बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिर्वेदे" कहकर वेद को दर्शन और विज्ञान का भी स्रोत माना है। हिन्दू धर्म अनुसार सबसे प्राचीन नियम विधाता महर्षि मनु ने कहा वेदोऽखिलो धर्ममूलम् - खिलरहित वेद अर्थात् समग्र संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद के रूप में वेद ही धर्म व धर्मशास्त्र का मूल आधार है।
न केवल धार्मिक किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से भी वेदों का असाधारण महत्त्व है। वैदिक युग के आर्यों की संस्कृति और सभ्यता को जानने का वेद ही तो एकमात्र साधन है। मानव-जाति और विशेषतः वैदिकों ने अपने शैशव में धर्म और समाज का किस प्रकार विकास किया इसका ज्ञान केवल वेदों से मिलता है। विश्व के वाङ्मय में इनको प्राचीनतम ग्रन्थ (पुस्तक) माना जाता है। ऋंगवेद संहिता प्रथम भाग में ख्याति प्राप्त प्रोफेसर मैक्स मूलर लिखते हैं (प्राक्कथन, पृष्ठ १०) कि वे इस बात से आश्वस्त हैं कि ये दुनिया की प्राचीनतम ग्रन्थ (पुस्तक) हैं। भारतीय भाषाओं का मूलस्वरूप निर्धारित करने में वैदिक भाषा अत्यधिक सहायक सिद्ध हुई है।
यूनेस्को ने ७ नवम्बर २००३ को वेदपाठ को मानवता के मौखिक एवं अमूर्त विरासत की श्रेष्ठ कृतियाँ और मानवता के मौखिक एवं अमूर्त विरासत की श्रेष्ठ कृति घोषित किया।
विवेचना
प्राचीन काल में, भारत में ही, इसकी विवेचना के अंतर के कारण कई मत बन गए थे। मध्ययुग में भी इसके भाष्य (व्याख्या) को लेकर कई शास्त्रार्थ हुए। वैदिक सनातन वर्णाश्रमी इसमें वर्णित चरित्रों देव को पूज्य और मूर्ति रूपक आराध्य समझते हैं जबकि दयानन्द सरस्वती सहित अन्य कईयों का मत है कि इनमें वर्णित चरित्र (जैसे अग्नि, इंद्र आदि) एकमात्र ईश्वर के ही रूप और नाम हैं। इनके अनुसार देवता शब्द का अर्थ है - (उपकार) देने वाली वस्तुएँ, विद्वान लोग और सूक्त मंत्र (और नाम) न कि मूर्ति-पूजनीय आराध्य रूप।
वैदिक विवाद
आर्यन आक्रमण थ्योरी पुरी तरह अब खंडित हो जाने से कोई वैदिक विवाद नही है। सरल बात है कि आर्य आर्यावर्त या भारतवर्ष के मूल वासी हैं। तथा निराधार आर्यन आगमन कि थ्योरी अंग्रेज़ों ने गढी थी।
कुछ देशभक्त जैसे बाल गंगाधर तिलक भी इन सच्चाई ढंग से लिखने लगे। उनसे जब पूछा गया तो उन्होंने बताया कि वे तो जो कुछ लिखे, अंग्रेजों के वैदिक अनुवाद का अध्ययन करके ही लिखेपुस्तक मानवेर आदि जन्मभूमि लेखक श्रीविद्यारत्न जी, पृष्ठ १२४
वैदिक वांगमय का वर्गीकरण
वैदिकौं का यह सर्वस्वग्रन्थ 'वेदत्रयी' के नाम से भी विदित है। पहले यह वेद ग्रन्थ एक ही था जिसका नाम यजुर्वेद था- एकैवासीद् यजुर्वेद चतुर्धाः व्यभजत् पुनः वही यजुर्वेद पुनः ऋक्-यजुस्-सामः के रूप मे प्रसिद्ध हुआ जिससे वह 'त्रयी' कहलाया। बाद में वेद को पढ़ना बहुत कठिन प्रतीत होने लगा, इसलिए उसी एक वेद के तीन या चार विभाग किए गए। तब उनको ऋग्यजुसामके रुप में वेदत्रयी अथवा बहुत समय बाद ऋग्यजुसामाथर्व के रूप में चतुर्वेद कहलाने लगे। मंत्रों का प्रकार और आशय यानि अर्थ के आधार पर वर्गीकरण किया गया। इसका आधार इस प्रकार है -
वेदत्रयी
वैदिक परम्परा दो प्रकार की है - ब्रह्म परम्परा और आदित्य परम्परा। दोनों परम्पराओं में वेदत्रयी परम्परा प्राचीन काल में प्रसिद्ध थी।
विश्व में शब्द-प्रयोग की तीन शैलियाँ होती हैं: पद्य (कविता), गद्य और गान। वेदों के मंत्रों के 'पद्य, गद्य और गान' ऐसे तीन विभाग होते हैं -
वेद का पद्य भाग - ऋग्वेद
वेद का गद्य भाग - यजुर्वेद
वेद का गायन भाग - सामवेद
पद्य में अक्षर-संख्या तथा पाद एवं विराम का निश्चित नियम होता है। अतः निश्चित अक्षर-संख्या तथा पाद एवं विराम वाले वेद-मन्त्रों की संज्ञा 'ऋक्' है। जिन मन्त्रों में छन्द के नियमानुसार अक्षर-संख्या तथा पाद एवं विराम ऋषिदृष्ट नहीं है, वे गद्यात्मक मन्त्र 'यजुः' कहलाते हैं और जितने मन्त्र गानात्मक हैं, वे मन्त्र ‘'साम'’ कहलाते हैं। इन तीन प्रकार की शब्द-प्रकाशन-शैलियों के आधार पर ही शास्त्र एवं लोक में वेद के लिये ‘त्रयी’ शब्द का भी प्रयोग किया जाता है। यजुर्वेद गद्यसंग्रह है, अत: इस यजुर्वेद में जो ऋग्वेद के छंदोबद्ध मंत्र हैं, उनको भी यजुर्वेद पढ़ने के समय गद्य जैसा ही पढ़ा जाता है।
चतुर्वेद
द्वापर युग की समाप्ति के पूर्व वेदों के उक्त चार विभाग अलग-अलग नहीं थे। उस समय तो ऋक्, यजुः और साम - इन तीन शब्द-शैलियों मे संग्रहात्मक एक विशिष्ट अध्ययनीय शब्द-राशि ही वेद कहलाती थी। बाद में जब अथर्व भी वेद के समकक्ष हो गया, तब ये 'त्रयी' के स्थान पर 'चतुर्वेद' कहलाने लगे । गुरु के रुष्ट होने पर जिन्होने सभी वेदों को आदित्य से प्राप्त किया है उन याज्ञवल्क्य ने अपनी स्मृति मे वेदत्रयी के बाद और पुराणों के आगे अथर्व को सम्मिलित कर बोला वेदाsथर्वपुराणानि इति।
वर्तमान काल में वेद चार हैं- लेकिन पहले ये एक ही थे। वर्तमान काल में वेद चार माने जाते हैं। परंतु इन चारों को मिलाकर एक ही 'वेद ग्रंथ' समझा जाता था।एकैवासीत्यजुर्वेदस्तंचतुर्धाःव्यवर्तयत् - गरुड पुराण
लक्षणतः त्रयी होते हुये भी वेद एक ही था, फिर उसको चार भागों में बाँटा गया।
एक एव पुरा वेद: प्रणव: सर्ववाङ्मय - महाभारत
अन्य नाम
वेदों को सुनने से फैलने और पीढ़ी-दर-पीढ़ी याद रखने के कारण व सृष्टिकर्ता ब्रहमाजी द्वारा भी अपौरुषेय वाणी के रुप में प्राप्त करने के कारण श्रुति, स्वतः प्रमाण के कारण आम्नाय, पुरुष (जीव) भिन्न ईश्वरकृत होने से अपौरुषेय इत्यादि नाम भी दिये जाते हैं।
वेद के पठन-पाठन के क्रम में गुरुमुख से श्रवण एवं याद करने का वेद के संरक्षण एवं सफलता की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्व है। इसी कारण वेद को ‘'श्रुति'’ भी कहते हैं। वेद परिश्रमपूर्वक अभ्यास द्वारा संरक्षणीय है, इस कारण इसका नाम ‘'आम्नाय’' भी है। वेदों की रक्षार्थ महर्षियों ने अष्ट विकृतियों की रचना की है -जटा माला शिखा रेखा ध्वजो दण्डो रथो घनः | अष्टौ विकृतयः प्रोक्तो क्रमपूर्वा महर्षयः || जिसके फलस्वरुप प्राचीन काल की तरह आज भी ह्रस्व, दीर्घ, प्लूत और उदात्त, अनुदात्त स्वरित आदि के अनुरुप मन्त्रोच्चारण होता है।
साहित्यिक दृष्टि से
इसके अनुसार प्रत्येक शाखा की वैदिक शब्द-राशि का वर्गीकरण- उपर वर्णित प्रत्येक वेद के चार भाग होते हैं। पहले भाग मन्त्रभाग (संहिता) के अलावा अन्य तीन भाग को वेद न मानने वाले भी हैं लेकिन ऐसा विचार तर्कपूर्ण सिद्ध होते नहीं देखा गया हैं। अनादि वैदिक परम्परा में मन्त्र, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद एक ही वेद के चार अवयव है। कुल मिलाकर वेद के भाग ये हैं :-
संहिता मन्त्रभाग- यज्ञानुष्ठान मे प्रयुक्त व विनियुक्त भाग।
ब्राह्मण-ग्रन्थ - यज्ञानुष्ठान में प्रयोगपरक मन्त्र का व्याख्यायुक्त गद्यभाग में कर्मकाण्ड की विवेचना।
आरण्यक - यज्ञानुष्ठान के आध्यात्मपरक विवेचनायुक्त भाग अर्थ के पीछे के उद्देश्य की विवेचना।
उपनिषद - ब्रह्म माया व परमेश्वर, अविद्या जीवात्मा और जगत के स्वभाव और सम्बन्ध का बहुत ही दार्शनिक और ज्ञानपूर्वक वर्णन वाला भाग। जैसा की कृष्णयजुर्वेद में मन्त्रखण्ड में ही ब्राह्मण है। शुक्लयजुर्वेद मन्त्रभाग में ही ईशावास्योपनिषद है।
उपर के चारों खंड वेद होने पर भी कुछ लोग केवल 'संहिता' को ही वेद मानते हैं।
वर्गीकरण का इतिहास
द्वापरयुग की समाप्ति के समय श्रीकृष्णद्वैपायन वेदव्यास जी ने यज्ञानुष्ठान के उपयोग को दृष्टिगत रखकर उस एक वेद के चार विभाग कर दिये और इन चारों विभागों की शिक्षा चार शिष्यों को दी। ये ही चार विभाग ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद के नाम से प्रसिद्ध है। पिप्लाद, वैशम्पायन, जैमिनि और सुमन्तु नामक -चार शिष्यों को क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद की शिक्षा दी। इन चार शिष्यों ने शाकल आदि अपने भिन्न-भिन्न शिष्यों को पढ़ाया। इन शिष्यों के द्वारा अपने-अपने अधीन वेदों के प्रचार व संरक्षण के कारण वे वैदिक ग्रन्थ, चरण, शाखा, प्रतिशाखा और अनुशाखा के माध्यम से अनेक रूपों में विस्तारित हो गये व उन्हीं प्रचारक ऋषियों के नाम से प्रसिद्ध हैं। लेकिन अनेक विद्वानों का मानना है कि वेद आरंभ से ही चार हैं।
शाखा
पूर्वोक्त चार शिष्यों ने शुरु में जितने शिष्यों को अनुश्रवण कराया वे चरण समूह कहलाये। प्रत्येक चरण समूह में बहुत सी शाखाएं होती हैं और इसी तरह प्रतिशाखा, अनुशाखा आदि बन गए। वेद की अनेक शाखाएं यानि व्याख्यान का तरीका बतायी गयी हैं। ऋषि पतंजलि के महाभाष्य के अनुसार ऋग्वेद की 21, यजुर्वेद की 101, सामवेद की 1001, अर्थववेद की 9 अतः इस प्रकार 1131 शाखाएं हैं परन्तु आज 12 शाखाओं के ही मूल ग्रन्थ उपलब्ध हैं। वेद की प्रत्येक शाखा की वैदिक शब्दराशि चार भागों में उपलब्ध है: 1. संहिता 2. ब्राह्मण 3. आरण्यक 4. उपनिषद्। कुछ लोग इनमें संहिता को ही वेद मानते हैं। शेष तीन भाग को वेदों के व्याख्या ग्रन्थ मानते हैं।
अलग अलग शाखाओं में मूल संहिता तो वही रहती है लेकिन आरण्यक और ब्राह्मण ग्रंथों में अन्तर आ जाता है। कई मंत्र भागों में भी उपनिषद मिलता है जैसा कि शुक्लयजुर्वेद मन्त्रभाग में इशावास्योपनिषद। पुराने समय में जितनी शाखाएं थी उतने ही मन्त्र, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद होते थे। इतनी शाखायें होने के बाबजूद भी आजकल कुल ९ शाखाओं के ही ग्रंथ मिलते हैं। अन्य शाखाओं में किसी के मन्त्र, किसी के ब्राह्मण, किसी के आरण्यक तो किसी के उपनिषद ही पाया जाता है। इतना ही नही, कई शाखाओं के तो केवल उपनिषद ही पाए जाते हैं, तभी तो उपनिषद अधिक मिलते हैं।
वेदों के विषय
वैदिक ऋषियौ ने वेदों को जनकल्याणमे प्रवृत्त पाया। निस्संदेह जैसा कि -:यथेमां वाचं कल्याणिमावदानि जनेभ्यः वैसा ही वेदा हि यज्ञार्थमभिप्रवृत्ता कालानुपूर्व्याभिहिताश्च यज्ञाः तस्मादिदं कालविधानशास्त्रं यो ज्योतिषं वेद स वेद यज्ञम् वेदौं की प्रवृत्तिः जनकल्यण के कार्य मे है। वेद शब्द विद् धातु में घं प्रत्यय लगने से बना है। संस्कृत ग्रथों में विद् ज्ञाने और विद् लाभे जैसे विशेषणों से विद् धातु से ज्ञान और लाभ के अर्थ का बोध होता है।
वेदों के विषय उनकी व्याख्या पर निर्भर करते हैं - अग्नि, यज्ञ, सूर्य, इंद्र (आत्मा तथा बिजली के अर्थ में), सोम, ब्रह्म, मन-आत्मा, जगत्-उत्पत्ति, पदार्थों के गुण, धर्म (उचित-अनुचित), दाम्पत्य, ध्यान-योग, प्राण (श्वास की शक्ति) जैसे विषय इसमें बारंबार आते हैं। यज्ञ में देवता, द्रव्य, उद्देश्य,और विधि आदि विनियुक्त होते हैं। ग्रंथों के हिसाब से इनका विवरण इस प्रकार है -
ऋग्वेद
ऋग्वेद को चारों वेदों में सबसे प्राचीन माना जाता है। इसको दो प्रकार से बाँटा गया है। प्रथम प्रकार में इसे 10 मण्डलों में विभाजित किया गया है। मण्डलों को सूक्तों में, सूक्त में कुछ ऋचाएं होती हैं। कुल ऋचाएं 10647 हैं। दूसरे प्रकार से ऋग्वेद में 64 अध्याय हैं। आठ-आठ अध्यायों को मिलाकर एक अष्टक बनाया गया है। ऐसे कुल आठ अष्टक हैं। फिर प्रत्येक अध्याय को वर्गों में विभाजित किया गया है। वर्गों की संख्या भिन्न-भिन्न अध्यायों में भिन्न भिन्न ही है। कुल वर्ग संख्या 2024 है। प्रत्येक वर्ग में कुछ मंत्र होते हैं। सृष्टि के अनेक रहस्यों का इनमें उद्घाटन किया गया है। पहले इसकी 21 शाखाएं थीं परन्तु वर्तमान में इसकी निकल शाखा का ही प्रचार है।
यजुर्वेद
इसमें गद्य और पद्य दोनों ही हैं। इसमें यज्ञ कर्म की प्रधानता है। प्राचीन काल में इसकी 101 शाखाएं थीं परन्तु वर्तमान में केवल पांच शाखाएं हैं - काठक, कपिष्ठल, मैत्रायणी, तैत्तिरीय, वाजसनेयी। इस वेद के दो भेद हैं - कृष्ण यजुर्वेद और शुक्ल यजुर्वेद। कृष्ण यजुर्वेद का संकलन महर्षि वेद व्यास ने किया है। इसका दूसरा नाम तैत्तिरीय संहिता भी है। इसमें मंत्र और ब्राह्मण भाग मिश्रित हैं। शुक्ल यजुर्वेद - इसे सूर्य ने याज्ञवल्क्य को उपदेश के रूप में दिया था। इसमें 15 शाखाएं थीं परन्तु वर्तमान में माध्यन्दिन को जिसे वाजसनेयी भी कहते हैं प्राप्त हैं। इसमें 40 अध्याय, 303 अनुवाक एवं 1975 मंत्र हैं। अन्तिम चालीसवां अध्याय ईशावास्योपनिषद है।
सामवेद
यह गेय ग्रन्थ है। इसमें गान विद्या का भण्डार है, यह भारतीय संगीत का मूल है। ऋचाओं के गायन को ही साम कहते हैं। इसकी 1001 शाखाएं थीं। परन्तु आजकल तीन ही प्रचलित हैं - कोथुमीय, जैमिनीय और राणायनीय। इसको पूर्वार्चिक और उत्तरार्चिक में बांटा गया है। पूर्वार्चिक में चार काण्ड हैं - आग्नेय काण्ड, ऐन्द्र काण्ड, पवमान काण्ड और आरण्य काण्ड। चारों काण्डों में कुल 640 मंत्र हैं। फिर महानाम्न्यार्चिक के 10 मंत्र हैं। इस प्रकार पूर्वार्चिक में कुल 650 मंत्र हैं। छः प्रपाठक हैं। उत्तरार्चिक को 21 अध्यायों में बांटा गया। नौ प्रपाठक हैं। इसमें कुल 1225 मंत्र हैं। इस प्रकार सामवेद में कुल 1875 मंत्र हैं। इसमें अधिकतर मंत्र ऋग्वेद से लिए गए हैं। इसे उपासना का प्रवर्तक भी कहा जा सकता है।
अथर्ववेद
इसमें गणित, विज्ञान, आयुर्वेद, समाज शास्त्र, कृषि विज्ञान, आदि अनेक विषय वर्णित हैं। कुछ लोग इसमें मंत्र-तंत्र भी खोजते हैं। यह वेद जहां ब्रह्म ज्ञान का उपदेश करता है, वहीं मोक्ष का उपाय भी बताता है। इसे ब्रह्म वेद भी कहते हैं। इसमें मुख्य रूप में अथर्वण और आंगिरस ऋषियों के मंत्र होने के कारण अथर्व आंगिरस भी कहते हैं। यह 20 काण्डों में विभक्त है। प्रत्येक काण्ड में कई-कई सूत्र हैं और सूत्रों में मंत्र हैं। इस वेद में कुल 5977 मंत्र हैं। इसकी आजकल दो शाखाएं शौणिक एवं पिप्पलाद ही उपलब्ध हैं। अथर्ववेद का विद्वान् चारों वेदों का ज्ञाता होता है। यज्ञ में ऋग्वेद का होता देवों का आह्नान करता है, सामवेद का उद्गाता सामगान करता है, यजुर्वेद का अध्वर्यु देव:कोटीकर्म का वितान करता है तथा अथर्ववेद का ब्रह्म पूरे यज्ञ कर्म पर नियंत्रण रखता है।
उपवेद, उपांग
प्रतिपदसूत्र, अनुपद, छन्दोभाषा (प्रातिशाख्य), धर्मशास्त्र, न्याय तथा वैशेषिक- ये ६ दर्शऩ उपांग ग्रन्थ भी उपलब्ध है।
आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद तथा स्थापत्यवेद- ये क्रमशः चारों वेदों के उपवेद कात्यायन ने बतलाये हैं।
स्थापत्यवेद - स्थापत्यकला के विषय, जिसे वास्तु शास्त्र या वास्तुकला भी कहा जाता है, इसके अन्तर्गत आता है।
धनुर्वेद - युद्ध कला का विवरण। इसके ग्रंथ विलुप्त प्राय हैं।
गन्धर्वेद - गायन कला।
आयुर्वेद - वैदिक ज्ञान पर आधारित स्वास्थ्य विज्ञान।
वेद के अंग
वेदों के सर्वांगीण अनुशीलन के लिये शिक्षा (वेदांग), निरुक्त, व्याकरण, छन्द, और कल्प (वेदांग), ज्योतिष के ग्रन्थ हैं जिन्हें ६ अंग कहते हैं।
अंग के विषय इस प्रकार हैं -
शिक्षा - ध्वनियों का उच्चारण।
निरुक्त - शब्दों का मूल भाव। इनसे वस्तुओं का ऐसा नाम किस लिये आया इसका विवरण है। शब्द-मूल, शब्दावली, और शब्द निरुक्त के विषय हैं।
व्याकरण - संधि, समास, उपमा, विभक्ति आदि का विवरण। वाक्य निर्माण को समझने के लिए आवश्यक।
छन्द - गायन या मंत्रोच्चारण के लिए आघात और लय के लिए निर्देश।
कल्प - यज्ञ के लिए विधिसूत्र। इसके अन्तर्गत श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र, धर्मसूत्र और शुल्बसूत्र |वेदोक्त कार्य सम्पन्न करना और समर्पण करनेमे इनका महत्व है।
ज्योतिष - समय का ज्ञान और उपयोगिता| आकाशीय पिंडों (सूर्य, पृथ्वी, नक्षत्रों) की गति और स्थिति से । इसमें वेदांगज्योतिष नामक ग्रन्थ प्रत्येक वेदके अलग अलग थे | अब लगधमुनि प्रोक्त चारों वेदों के वेदांगज्योतिषों में दो ग्रन्थ ही पाए जा रहे हैं -एक आर्च पाठ और दुसरा याजुस् पाठ | इस ग्रन्थ में सोमाकर नामक विद्वानके प्राचीन भाष्य मिलता है साथ ही कौण्डिन्न्यायन संस्कृत व्याख्या भी मिलता है।
वैदिक स्वर प्रक्रिया
thumb|right|400px|वैदिक स्वर लिखने की कला - देवनागरी लिपि में
वेद की संहिताओं में मंत्राक्षरों में खड़ी तथा आड़ी रेखायें लगाकर उनके उच्च, मध्यम, या मन्द संगीतमय स्वर उच्चारण करने के संकेत किये गये हैं। इनको उदात्त, अनुदात्त ऒर स्वारित के नाम से अभिहित किया गया है। ये स्वर बहुत प्राचीन समय से प्रचलित हैं और महामुनि पतंजलि ने अपने महाभाष्य में इनके मुख्य मुख्य नियमों का समावेश किया है।
स्वरों को अधिक या न्यून रूप से बोले जाने के कारण इनके भी दो-दो भेद हो जाते हैं। जैसे उदात्त-उदात्ततर, अनुदात्त-अनुदात्ततर, स्वरित-स्वरितोदात्त। इनके अलावा एक और स्वर माना गया है - श्रुति - इसमें तीनों स्वरों का मिलन हो जाता है। इस प्रकार कुल स्वरों की संख्या ७ हो जाती है। इन सात स्वरों में भी आपस में मिलने से स्वरों में भेद हो जाता है जिसके लिए स्वर चिह्नों में कुछ परिवर्तन हो जाता है। यद्यपि इन स्वरों के अंकण और टंकण में कई विधियाँ प्रयोग की जाती हैं और प्रकाशक-भाष्यकारों में कोई एक विधा सामान्य नहीं है, अधिकांश स्थानों पर अनुदात्त के लिए अक्षर के नीचे एक आड़ी लकीर तथा स्वरित के लिए अक्षर के ऊपर एक खड़ी रेखा बनाने का नियम है। उदात्त का अपना कोई चिह्न नहीं है। इससे अंकण में समस्या आने से कई लेखक-प्रकाशक स्वर चिह्नों का प्रयोग ही नहीं करते।
ये स्वर इतने क्षमतावान होते है कि सही प्रयोग न होने पर मन्त्रों के अर्थों को भी बदल देते हैं।
वैदिक छंद
वैदिक मंत्रों में प्रयुक्त छंद कई प्रकार के हैं जिनमें मुख्य हैं -
गायत्री - सबसे प्रसिद्ध छंद।आठ वर्णों (मात्राओं) के तीन पाद। गीता में भी इसको सर्वोत्तम बताया गया है (ग्यारहवें अध्याय में)। इसी में प्रसिद्ध गायत्री मंत्र ढला है।
त्रिष्टुप - ११ वर्णों के चार पाद - कुल ४४ वर्ण।
अनुष्टुप - ८ वर्णों के चार पाद, कुल ३२ वर्ण। वाल्मीकि रामायण तथा गीता जैसे ग्रंथों में भई इस्तेमाल हुआ है। इसी को श्लोक भी कहते हैं।
जगती - ८ वर्णों के ६ पाद, कुल ४८ वर्ण।
बृहती- ८ वर्णों के ४ पाद कुल ३२ वर्ण
पंक्ति- ४ या ५ पाद कुल ४० अक्षर २ पाद के बाद विराम होता है पादों में अक्षरों की संख्याभेद से इसके कई भेद हैं
उष्णिक- इसमें कुल २८ वर्ण होते हैं तथा कुल ३ पाद होते हैं २ में आठ आठ वर्ण तथा तीसरे में १२ वर्ण होते हैं दो पद के बाद विराम होता है बढे हुए अक्षरों के कारण इसके कई भेद होते हैं
वेद की शाखाएँ
इसके अनुसार वेदोक्त यज्ञों का अनुष्ठान ही वेद के शब्दों का मुख्य उपयोग माना गया है। सृष्टि के आरम्भ से ही यज्ञ करने में साधारणतया मन्त्रोच्चारण की शैली, मन्त्राक्षर एवं कर्म-विधि में विविधता रही है। इस विविधता के कारण ही वेदों की शाखाओं का विस्तार हुआ है। यथा-ऋग्वेद की २१ शाखा, यजुर्वेद की १०१ शाखा, सामवेद की १००० शाखा और अथर्ववेद की ९ शाखा- इस प्रकार कुल १,१३१ शाखाएँ हैं। इस संख्या का उल्लेख महर्षि पतंजलि ने अपने महाभाष्य में भी किया है।
उपर्युक्त १,१३१ शाखाओं में से वर्तमान में केवल १२ शाखाएँ ही मूल ग्रन्थों में उपलब्ध हैः-
ऋग्वेद की २१ शाखाओं में से केवल २ शाखाओं के ही ग्रन्थ प्राप्त हैं- शाकल-शाखा और शांखायन शाखा।
यजुर्वेद में कृष्णयजुर्वेद की ८६ शाखाओं में से केवल ४ शाखाओं के ग्रन्थ ही प्राप्त है- तैत्तिरीय-शाखा, मैत्रायणीय शाखा, कठ-शाखा और कपिष्ठल-शाखा
शुक्लयजुर्वेद की १५ शाखाओं में से केवल २ शाखाओं के ग्रन्थ ही प्राप्त है- माध्यन्दिनीय-शाखा और काण्व-शाखा।
सामवेद की १,००० शाखाओं में से केवल २ शाखाओं के ही ग्रन्थ प्राप्त है- कौथुम-शाखा और जैमिनीय-शाखा।
अथर्ववेद की ९ शाखाओं में से केवल २ शाखाओं के ही ग्रन्थ प्राप्त हैं- शौनक-शाखा और पैप्पलाद-शाखा।
उपर्युक्त १२ शाखाओं में से केवल ६ शाखाओं की अध्ययन-शैली प्राप्त है-शाकल, तैत्तरीय, माध्यन्दिनी, काण्व, कौथुम तथा शौनक शाखा। यह कहना भी अनुपयुक्त नहीं होगा कि अन्य शाखाओं के कुछ और भी ग्रन्थ उपलब्ध हैं, किन्तु उनसे शाखा का पूरा परिचय नहीं मिल सकता एवं बहुत-सी शाखाओं के तो नाम भी उपलब्ध नहीं हैं।
अन्य मतों की दृष्टि में वेद
जैसा कि उपर लिखा है, वेदों के कई शब्दों का समझना उतना सरल नहीं रहा है। वेदों का वास्तविक अर्थ समझने के लिए इनके भितर से ही वेदांङ्गो का निर्माण किया गया | इसकी वजह इनमें वर्णित अर्थों को जाना नही जा सकता | सबसे अधिक विवाद-वार्ता ईश्वर के स्वरूप, यानि एकमात्र या अनेक देवों के सदृश्य को लेकर हुआ है। वेदों के वास्तविक अर्थ वही कर सकता है जो वेदांग- शिक्षा,कल्प, व्याकरण, निरुक्त,छन्द और ज्योतिष का ज्ञाता है। यूरोप के संस्कृत विद्वानों की व्याख्या भी हिन्द-आर्य जाति के सिद्धांत से प्रेरित रही है। प्राचीन काल में ही इनकी सत्ता को चुनौती देकर कई ऐसे मत प्रकट हुए जो आज भी धार्मिक मत कहलाते हैं लेकिन कई रूपों में भिन्न हैं। इनका मुख्य अन्तर नीचे स्पष्ट किया गया है। उनमे से जिसका अपना अविच्छिन्न परम्परा से वेद,शाखा,और कल्पसूत्रों से निर्देशित होकर एक अद्वितीय ब्रह्मतत्वको ईश्वर मानकर किसी एक देववाद मे न उलझकर वेदवाद में रमण करते हैं वे वैदिक सनातन वर्णाश्रम धर्म मननेवाले है वे ही वेदों को सर्वोपरि मानते है। इसके अलावा अलग अलग विचार रखनेवाले और पृथक् पृथक् देवता मानने वाले कुछ सम्प्रदाय ये हैं-:
जैन - इनको मूर्ति पूजा के प्रवर्तक माना जाता है। ये वेदों को श्रेष्ठ नहीं मानते पर अहिंसा के मार्ग पर ज़ोर देते हैं।
बौद्ध - इस मत में महात्मा बुद्ध के प्रवर्तित ध्यान और तृष्णा को दुःखों का कारण बताया है। वेदों में लिखे ध्यान के महत्व को ये तो मानते हैं पर ईश्वर की सत्ता से नास्तिक हैं। ये भी वेद नही मानते |
शैव - वेदों में वर्णित रूद्र के रूप शिव को सर्वोपरि समझने वाले। अपनेको वैदिक धर्म के मानने वाले शिव को एकमात्र ईश्वर का कल्याणकारी रूप मानते हैं, लेकिन शैव लोग शंकर देव के रूप (जिसमें नंदी बैल, जटा, बाघंबर इत्यादि हैं) को विश्व का कर्ता मानते हैं।
वैष्णव - विष्णु और उनके अवतारों को ईश्वर मानने वाले। वैदिक ग्रन्थौं से अधिक अपना आगम मत को सर्वोपरी मानते है। विष्णु को ही एक ईश्वर बताते हैं और जिसके अनुसार सर्वत्र व्याप्त हुआ ईश्वर विष्णु कहलाता है।
शाक्त अपनेको वेदोक्त मानते तो है लेकिन् पूर्वोक्त शैव,वैष्णवसे श्रेष्ठ समझते है, महाकाली,महालक्ष्मी और महासरस्वतीके रुपमे नवकोटी दुर्गाको इष्टदेवता मानते है वे ही सृष्टिकारिणी है ऐसा मानते है।
सौर जगतसाक्षी सूर्य को और उनके विभिन्न अवतारों को ईश्वर मानते हैं। वे स्थावर और जंगमके आत्मा सूर्य ही है ऐसा मानते है।
गाणपत्य गणेश को ईश्वर समझते है। साक्षात् शिवादि देवों ने भी उनकी उपासना करके सिद्धि प्राप्त किया है, ऐसा मानते हैं।
सिख - इनका विश्वास एकमात्र ईश्वर में तो है, लेकिन वेदों को ईश्वर की वाणी नहीं समझते हैं।
आर्य समाज - ये निराकार ईश्वर के उपासक हैं। ये वेद को ईश्वरीय ज्ञान मानते हैं। ये मानते हैं कि वेद आदि सृष्टि में अग्नि, वायु, आदित्य तथा अङ्गिरा आदि ऋषियों के अन्तस् में उत्पन्न हुआ। वेदों को अंतिम प्रमाण स्वीकार करते हैं। और वेदों के अनन्तर जिन पुराण आदि की रचना हुई इनको वेद विरुद्ध मानते हुए अस्वीकार करते हैं। रामायण तथा महाभारत के इतिहास को स्वीकार करते हैं। इस समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द हैं जिन्होंने वेदों की ओर लौटने का संदेश दिया। ये अर्वाचीन वैदिक है।
यज्ञ:
यज्ञ के वर्तमान रूप के महत्व को लेकर कई विद्वानों, मतों और भाष्कारों में विरोधाभाष है। यज्ञ में आग के प्रयोग को प्राचीन पारसी पूजन विधि के इतना समान होना और हवन की अत्यधिक महत्ता के प्रति विद्वानों में रूचि रही है।
देवता:देव शब्द का लेकर ही कई विद्वानों में असहमति रही है। वेदोक्त निर्गुण- निराकार और सगुण- साकार मे से अन्तिम पक्षको मानने वाले कई मतों में (जैसे- शैव, वैष्णव और शाक्त सौर गाणपत,कौमार) इसे महामनुष्य के रूप में विशिष्ट शक्ति प्राप्त साकार चरित्र समझते हैं और उनका मूर्ति रूप में पूजन करते हैं तो अन्य कई इन्हें ईश्वर (ब्रह्म, सत्य) के ही नाम बताते हैं। परोपकार (भला) करने वाली वस्तुएँ (यथा नदी, सूर्य), विद्वान लोग और मार्गदर्शन करने वाले मंत्रों को देव कहा गया है।
उदाहरणार्थ अग्नि शब्द का अर्थ आग न समझकर सबसे आगे यानि प्रथम यानि परमेश्वर समझते हैं। देवता शव्द का अर्थ दिव्य, यानि परमेश्वर (निराकार, ब्रह्म) की शक्ति से पूर्ण माना जाता है - जैसे पृथ्वी आदि। इसी मत में महादेव, देवों के अधिपति होने के कारण ईश्वर को कहते हैं। इसी तरह सर्वत्र व्यापक ईश्वर विष्णु और सत्य होने के कारण ब्रह्मा कहलाता है। इस प्रकार ब्रह्मा, विष्णु और महादेव किसी चरित्र के नाम नहीं बल्कि ईश्वर के ही नाम है। व्याकरण और निरुक्तके वलपर ही वैदिक और लौकिक शब्दौंके अर्थ निर्धारण कीया जाता है। इसके अभावमे अर्थके अनर्थ कर बैठते है। इसी प्राकर गणेश (गणपति), प्रजापति, देवी, बुद्ध, लक्ष्मी इत्यादि परमेश्वर के ही नाम हैं। वेदादि शास्त्रौंमे आए विभन्न एक ही परमेश्वरके है। जैसा की उपनिषदौंमे कहा गया है- एको देव सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा | कुछ लोग ईश्वरके सगुण- निर्गुण स्वरुपमे झगडते रहते है। इनमेसे कोई मूर्तिपूजा करते है और कोई ऐसे लोग है जो मूर्तिपूजा के विरूद्ध हैं और ईश्वर को एकमात्र सत्य, सर्वोपरि समझते हैं।
अश्वमेध:
राजा द्वारा न्यायपूर्वक अपनी प्रजा का पालन करना अश्वमेध यज्ञ कहलाता है। अनेक विद्वानों का मानना है कि मेध शब्द में अध्वरं का भी प्रयोग हुआ है जिसका अर्थ है अहिंसा। अतः मेध का भी अर्थ कुछ और रहा होगा। इसी प्रकार अश्व शब्द का अर्थ घोड़ा न रहकर शक्ति रहा होगा। श्रीराम शर्मा आचार्य कृत भाषयों के अनुसार अश्व शब्द का अर्थ शक्ति, गौ'' शब्द का अर्थ पोषण है। इससे अश्वमेध का अर्थ घोड़े का बलि से इतर होती प्रतीत होती है।सोम:'''
कुछ लोग इसे शराब (मद्य) मानते हैं लेकिन कई अनुवादों के अनुसार इसे कूट-पीसकर बनाया जाता था। अतः ये शराब जैसा कोई पेय नहीं लगता। पर इसके असली रूप का निर्धारण नहीं हो पाया है।
इन्हें भी देखें
वैदिक साहित्य
सर्वानुक्रमणी
वैदिक काल
वैदिक धर्म
वैदिक संस्कृति
वैदिक सभ्यता
वैदिक कला
वैदिक संस्कृत
वैदिक शाखाएँ
ऋषि
सन्दर्भ
बाहरी कडियाँ
चारों वेद, हिन्दी अर्थ सहित (आर्यसमाज, जामनगर)
चार वेद, हिन्दी अर्थ सहित
महर्षि प्रबंधन विश्वविद्यालय - यहाँ सम्पूर्ण वैदिक साहित्य संस्कृत में उपलब्ध है।
ऋग्वेद, हिन्दी अर्थ सहित (रामगोविन्द त्रिवेदी, १९५४)
ज्ञानामृतम् - वेद, अरण्यक, उपनिषद् आदि पर सम्यक जानकारी
वेद एवं वेदांग - आर्य समाज, जामनगर के जालघर पर सभी वेद एवं उनके भाष्य दिये हुए हैं।
वेद-विद्या_डॉट_कॉम
पुराण विषय अनुक्रमणिका - यहाँ वेदों आदि में आये हुए शब्दों के अर्थ एवं सन्दर्भ दिये हुए हैं।
वेद - हिन्दू धर्म के महान पक्षों पर सुविचारित सामग्री
वेद-पुराण - यहाँ चारों वेद एवं दस से अधिक पुराण हिन्दी अर्थ सहित उपलब्ध हैं। पुराणों को यहाँ सुना भी जा सकता है।
श्रेणी:हिन्दू धर्म
श्रेणी:संस्कृत साहित्य
श्रेणी:वेद
श्रेणी:वैदिक धर्म |
वैदिक काल | https://hi.wikipedia.org/wiki/वैदिक_काल | पुनर्प्रेषित वैदिक सभ्यता |
सिंहली भाषा | https://hi.wikipedia.org/wiki/सिंहली_भाषा | सिंहली भाषा श्रीलंका में बोली जाने वाली सबसे बड़ी भाषा है।"Census of Population and Housing 2011" . www.statistics.gov.lk. Retrieved 2017-04-06.
"Sinhala" . Ethnologue. Retrieved 2017-04-06 सिंहली के बाद श्रीलंका में सबसे ज्यादा बोली जानेवाली भाषा तमिल है। प्राय: ऐसा नहीं होता कि किसी देश का जो नाम हो, वही उस देश में बसने वाली जाति का भी हो और वही नाम उस जाति द्वारा व्यवहृत होने वाली भाषा का भी हो। सिंहल द्वीप की यह विशेषता है कि उसमें बसने वाली जाति भी "सिंहल" कहलाती चली आई है और उस जाति द्वारा व्यवहृत होने वाली भाषा भी "सिंहल" है।
लिपि
अनेक भारतीय भाषाओं की लिपियों की तरह सिंहल भाषा की लिपि भी ब्राह्मी लिपि का ही परिवर्तित विकसित रूप हैं।
सिंहल भाषा को दो रूप मान्य हैं - (1) शुद्ध सिंहल तथा (2) मिश्रित सिंहल
शुद्ध सिंहल को केवल बत्तीस अक्षर मान्य रहे हैं-
अ, आ, ऍ, ऐ, इ, ई, उ, ऊ, ऒ, ओ, ऎ, ए क, ग ज ट ड ण त द न प ब म य र ल व स ह क्ष अं।
सिंहल के प्राचीनतम व्याकरण ग्रन्थ सिदत्संगरा (Sidatsan̆garā (1300 AD)) का मत है कि ऍ तथा ऐ -- अ, तथा आ की ही मात्रा वृद्धि वाली मात्राएँ हैं।
वर्तमान मिश्रित सिंहल ने अपनी वर्णमाला को न केवल पाली वर्णमाला के अक्षरों से समृद्ध कर लिया है, बल्कि संस्कृत वर्णमाला में भी जो और जितने अक्षर अधिक थे, उन सब को भी अपना लिया है। इस प्रकार वर्तमान मिश्रित सिंहल में अक्षरों की संख्या चौवन (54) है। अट्ठारह अक्षर "स्वर" तथा शेष छत्तीस अक्षर व्यंजन माने जाते हैं।
व्याकरण
दो अक्षर (पूर्व अक्षर तथा पर अक्षर) जब मिलकर एकरूप होते हैं, तो यह प्रक्रिया "संधि" कहलाती है। शुद्ध सिंहल में संधियों के केवल दस प्रकार माने गए हैं। किंतु आधुनिक सिंहल में संस्कृत शब्दों की संधि अथवा संधिच्छेद संस्कृत व्याकरणों के नियमों के ही अनुसार किया जाता है।
"एकाक्षर" अथवा "अनेकाक्षरों" के समूह पदों को भी संस्कृत की ही तरह चार भागों में विभक्त किया जाता है - नामय, आख्यात, उपसर्ग तथा निपात।
सिंहल में हिंदी की ही तरह दो वचन होते हैं - "एकवचन" तथा "बहुवचन"। संस्कृत की तरह एक अतिरिक्त "द्विवचन" नहीं होता। इस "एकवचन" तथा "बहुवचन" के भेद को संख्या भेद कहते हैं।
जिस प्रकार "वचन" को लेकर "हिंदी" और "सिंहल" का साम्य है उसी प्रकार हम कह सकते हैं कि "लिंग" के विषय में भी हिंदी और शुद्ध सिंहल समानधर्मा है। पुरुष तीन ही हैं - प्रथम पुरुष, मध्यम पुरुष तथा उत्तम पुरुष। तीनों पुरुषों में व्यवहृत होने वाले सर्वनामों के आठ कारक हैं, जिनकी अपनी-अपनी विभक्तियाँ हैं। "कर्म" के बाद प्राय: "करण" कारक की गिनती होती है, किंतु सिंहल के आठ कारकों में "कर्म" तथा "करण" के बीच में "कर्तृ" कारक की गिनती की जाती है। "संबोधन" कारक नहीं होने से "कर्तृ" कारक के बावजूद कारकों की गिनती आठ ही रहती है।
वाक्य का मुख्यांश "क्रिया" को ही मानते हैं, क्योंकि क्रिया के अभाव में कोई भी कथन बनता ही नहीं है। यों सिंहल व्याकरण अधिकांश बातों में संस्कृत की अनुकृति मात्र है। तो भी उसमें न तो संस्कृत की तरह "परस्मैपद" तथा "आत्मनेपद" होते हैं और न लट् लोट् आदि दस लकार। सिंहल में क्रियाओं के ये आठ प्रकार माने गए हैं-
(1) कर्ता कारक क्रिया (2) कर्म कारक क्रिया, (3) प्रयोज्य क्रिया, (4) विधि क्रिया,
(5) आशीर्वाद क्रिया, (6) असंभाव्य, (7) पूर्व क्रिया, तथा (8) मिश्र क्रिया।
सिंहल भाषा बोलने-चालने के समय हमारी भोजपुरी आदि बोलियों की तरह प्रत्ययों की दृष्टि से बहुत ही आसान है, किंतु लिखने-पढ़ने में उतनी ही दुरूह। बोलने-चालने में यनवा (या गमने) क्रियापद से ही जाता हूँ, जाते हैं, जाता है, जाते हो, (वह) जाता है, जाते हैं इत्यादि ही नहीं, जाएगा, जाएंगे आदि सभी क्रियास्वरूपों का काम बन जाता है।
लिंगभेद हिंदी के विद्यार्थियों के लिए टेढ़ी खीर माना जाता है। सिंहल भाषा इस दृष्टि से बड़ी सरल है। वहाँ "अच्छा" शब्द के समानार्थी "होंद" शब्द का प्रयोग आप "लड़का" तथा "लड़की" दोनों के लिए कर सकते हैं।
प्रत्येक भाषा के मुहावरे उसके अपने होते हैं। दूसरी भाषाओं में उनके ठीक-ठीक पर्याय खोजना बेकार है। तो भी अनुभव साम्य के कारण दो भिन्न जातियों द्वारा बोली जाने वाली दो भिन्न भाषाओं में एक जैसी मिलती-जुलती कहावतें उपलब्ध हो जाती हैं। सिंहल तथा हिंदी के कुछ मुहावरों तथा कहावतों में पर्याप्त एकरूपता है।
सिंहल-भाषा एवं साहित्य का इतिहस
उत्तर भारत की एक से अधिक भाषाओं से मिलती-जुलती सिंहल भाषा का विकास उन शिलालेखों की भाषा से हुआ है जो ई. पू. दूसरी तीसरी शताब्दी के बाद से लगातार उपलब्ध है।
भगवान बुद्ध के परिनिर्वाण के दो सौ वर्ष बाद अशोकपुत्र महेंद्र सिंहल द्वीप पहुँचे, तो "महावंश" के अनुसार उन्होंने सिंहल द्वीप के लोगों को द्वीप भाषा में ही उपदेश दिया था। महामति महेंद्र अपने साथ "बुद्धवचन" की जो परंपरा लाए थे, वह मौखिक ही थी। वह परंपरा या तो बुद्ध के समय की "मागधी" रही होगी, या उनके दो सौ वर्ष बाद की कोई ऐसी "प्राकृत" जिसे महेंद्र स्थविर स्वयं बोलते रहे होंगे। सिंहल इतिहास की मान्यता है कि महेंद्र स्थविर अपने साथ न केवल त्रिपिटक की परंपरा लाए थे, बल्कि उनके साथ उसके भाष्यों अथवा उसकी अट्ठकथाओं की परंपरा भी। उन अट्ठकथाओं का बाद में सिंहल अनुवाद हुआ। वर्तमान पालि अट्ठकथाएँ मूल पालि अट्ठकथाओं के सिंहल अनुवादों के पुन: पालि में किए गए अनुवाद हैं।
कुछ प्रमुख सिंहल शब्द और उनके अर्थ
गिया -- गया
यायी -- जायेगा
अवे -- आया
मम -- मैं
ओहु -- वह
अय -- वह
ओय -- तुम
ऊ -- यह
ओयाघे -- तुम्हारा
स्तुति -- धन्यवाद
सुदु -- सफेद
सीनि -- चीनी
हिना वेनवा -- हंसना
हितनवा -- सोचना
सीय -- सौ
सिंहय -- शेर
सेप -- स्वास्थ्य
सेकय -- संदेह
सम -- समान
सपत्तुव -- जूता
सत्यय -- सत्य
सतिय -- सप्ताह
मून्न -- चेहरा
मिहिरि -- मीठा
मिनिसा -- मनुष्य
मिट्टि -- छोटा
मामा -- मामा
माल्लुवा -- मछली
मासय -- मास
मन -- मन
हिम -- बर्फ
सिहिनय -- सपना
सुलंग -- हवा
मल -- गन्दगी
मरनवा -- मारना
मरन्नय -- मृत्यु
अवुरुद्द -- वर्ष
सामय -- शान्ति
रूपय -- सुन्दरता
रोगय -- रोग
रोहल -- अस्पताल
रुवन -- रत्न
रिदी -- चाँदी
रेय -- रात
रहस -- रहस्य
रस्ने -- गरम
रस्नय -- गर्मी
रतु -- लाल
रजय -- सरकार
रज -- राजा
रिदेनवा -- चोट पहुँचाना
रॅय -- रात
रहस -- रहस्य
रसने -- गरम
रसनय -- गरमी
रतु -- लाल
रजय -- सरकार
रज -- राजा
रट -- विदेश
रट -- देश
ओबनवा -- प्रेस
ओककोम -- सब
एळिय -- प्रकाश
एया -- वह
एनवा -- आना
ऋतुव -- ऋतु
ऋण -- ऋण
उयनवा -- खाना बनाना
ईये -- कल
ईलन्गट -- बाद में
ईय -- तीर
ॲनुम अरिनवा -- जम्हाई लेना
ॲत -- दूर
इरनवा -- देखा
ऍस कण्णडिय -- चश्माऍन्गिलल -- अंगुलू
सेनसुरादा -- शनिवार
सिकुरादा -- शुक्रवार
ब्रहसपतिनदा -- गुरुवार
ब्रदादा -- बुधवार
अन्गहरुवादा -- मंगलवार
सन्दुदा -- सोमवार
इरिदा -- रविवार
देसॅमबरय -- दिसम्बर
नोवॅमबरय -- नवम्बर
ओकतोबरय -- अक्टूबर
सॅपतॅमबरय -- सितम्बर
अगोसतुव -- अगस्त
जूलि -- जुलाई
जूनि -- जून
मॅयि -- मई
अप्रियेल -- अप्रैल
मारतुव -- मार्च
पेबरवारिय -- फरवरी
जनवारिय -- जनवरी
चूटि -- छोटा
गहनवा -- पीटना
गल -- पत्थर
गननवा -- लेना
गन्ग -- नदी
क्रीडव -- खेल
कोपि -- कॉफी
केटि -- छोटा
कुससिय -- रसोईघर
कुलिय -- वेतन
कुरुलला -- पक्षी
किकिळी -- मुर्गी
कट -- मुँह
कतुर -- कैंची
आता -- दादा
आच्ची -- दादी
सिंहल -- सिंहली
गम -- गाँव
मिनिहा -- आदमी
मिनिससु -- मनुष्य
हरिय -- क्षेत्र
कोयि -- कौन सा
पलात -- प्रान्त
दकुण्उ -- दक्षिण
उपन गम -- जन्मस्थान
नमुत -- लेकिन
पदिंcइय -- निवासी
कोहे -- कहाँ
ने -- ऐसा है या नहीं?
आयुबोवन -- Hello
नम -- नाम
सुब उपनदिनयक -- शुभ जन्मदिन
दननवा -- जानना
मतकय -- स्मृति
मतक वेनवा -- याद करना
कोलल -- बालक
केलल -- स्त्री
लोकु -- लम्बा
लससण -- सुन्दर
दत -- दाँत
दत -- दाँत
दिव -- जीभ
गसनवा -- beat
गॅयुव -- गाया
गयनवा -- गाना
हदवत -- हृदय
कपनवा -- काटना
कॅपुव -- काटा
कोन्द -- बाल
पोड्इ -- तुच्छ
रिदेनव -- hurt
ककुल -- पाँव
ऍस -- आँख
कन -- कानऍन्ग -- शरीर
कोनन्द -- पीठ
बलला -- कुत्ता
गिया -- जाना (perfect)
इससर -- पहले
नपुरु -- निर्दयी
पोहोसती -- धनी स्त्री
पोहोसता -- धनी पुरुष
पोहोसत -- धनी
तर -- मजबूत
तद -- कठिन
नव -- आधुनिक
ऍयि -- क्यों
कवद -- कौन
अद -- आज
मगे -- खान
ऊरो -- सूअर
ऊरु मस -- सूअर का मांस
ऊरा -- सूअर
उण -- ज्वर
गेवल -- घर
गेय -- घर
वॅड करनवा -- काम करनाकार्य
वॅड -- कार्य
देवल -- वस्तुएँ
देय -- वस्तु
देननु -- गायें
देन -- गाय
अशवयो -- घोड़े
अशवय -- घोड़ा
कपुटो -- कौवे
कपुट -- कौवा
दिविया -- चीता
बोहोम सतुतियि -- बहुत-बहुत धन्यवाद
करुणाकर -- कृपया
ओवु -- हाँ
एकदाह -- हजार
एकसीय -- सौ
दहय -- दस
नवय -- नौ
अट -- आठ
हत -- सात
हय -- छ:
पह -- पाँच
हतर -- चार
तुन -- तीन
देक -- दो
इर -- सूर्य
वन्दुरा -- बन्दर
नॅवत हमुवेमु -- अलविदा
सललि -- धन
वॅसस -- वर्षा
वहिनवा -- बरसना (वर्षा होना)
पिहिय -- चाकू
हॅनद -- चम्मच
लियुम -- पत्र
कनतोरुव -- कार्यालय
तॅPआआEल -- डाकघर
यवननवा -- भेजना
पनसल -- मन्दिर
आदरय -- प्यार
गोविपळअ -- खेत
मेसय (न.) -- मेज
मेहे -- यहाँ
काल -- चौथाई
कालय -- समय
कल -- समय
कोच्चर -- कितना देर
ओया -- तुम
इननवा -- होना
होन्द -- अच्छा
इसतुति -- धन्यवाद
सनीप -- स्वास्थ्य
सॅप -- स्वास्थ्यनगरय -- शहर
अपिरिसिदु -- गन्दा
पिरिसिदु वेनवा -- साफ होना
पिरिसिदु करनवा -- साफ
पिरिसिदु -- साफ करना
यट -- नीचे
कलिन -- पहले
नरक -- बुरा
ळदरुवा -- बच्चा
नॅनद -- चाची
सतुन -- जानवर
सह -- और
पिळितुर -- उत्तर
अतर -- के बीच में
तनिव -- अकेले
अवसर दिम -- अनुमति देना
सियलल -- सब
वातय -- हवा
एकन्गयि -- सहमत हुआ
कलहख़कर -- आक्रामक
वयस -- आयु
विरुदडव -- विरुद्ध
नॅवत -- पुन:
पसुव -- बाद में
अहसयानय -- वायुयान
वॅड्इहिति -- वयस्क
लिपिनय -- पता
हरहा -- आर-पार
अनतुर -- दुर्घटना
पिळिगननवा -- स्वीकार करना
पिटरट -- बाहर
उड -- उपर
करनवा -- काम करना
ओळूव -- सिर
मललि -- छोटा भाई
नंगि -- छोटी बहन
अकका -- बड़ी बहन
अयया -- बड़ा भाई
मेसय -- मेज
बत -- उबला चावल
हरि -- ठीक है
हरि -- बहुत
नॅहॅ -- नहीं
मोककद -- क्या
अममा -- माँ
दुवनव -- दौड़ना
गेदर -- घर
लोकु मीया -- चूहा
मीया -- चूहा
उड -- के उपर
इरिदा -- रविवार
एक -- यह
एक -- एक
एपा -- नहीं
दोर -- दरवाजा
वहनवा -- बन्द करना
पोत -- पुस्तक
इकमन -- तेज
कनवा -- खाना
अत -- भुजा
मल -- फूल
वतुर -- पानी
ले -- रक्त
किरि -- दूध
अपि -- हम लोग
मम -- मै
यनवा -- जाना
मोकक्द -- क्या
कीयद -- कितना
कोहेन्द -- कहाँ
सन्दर्भ
इन्हें भी देखें
सिंहल लिपि
सिंहल साहित्य
हेलु भाषा (सिंहल प्राकृत)
बाहरी कड़ियाँ
हिंदी-सिंहल वार्तालाप पुस्तिका
Technical Glossary of Sinhala (from dept of Official languages)
Technical Terms in Sinhala -mainly for Computer science, nanotechnology and quantum physics
Language Technology Research LaboratoryUniversity of Colombo School of Computing
सिंहल ब्लॉग संकलक
हिन्दी-सिंहल-हिन्दी आनलाइन शब्दकोश
Similarities between "Aryan" Sinhala and "Dravidian" Tamilstarted by Ponniyin Selvan
श्रेणी:हिन्द-आर्य भाषाएँ
श्रेणी:विश्व की प्रमुख भाषाएं
श्रेणी:श्रीलंका की भाषाएँ |
चन्द्रिका कुमारतुंगा | https://hi.wikipedia.org/wiki/चन्द्रिका_कुमारतुंगा | thumb|Chandrika Bandaranaike Kumaratunga As The President of Sri Lanka|alt=Chandrika Bandaranaike Kumaratunga As The President of Sri Lanka.jpg
चंद्रिका कुमारतुंगे श्रीलंका की राष्ट्रपति थी, 1994 से 2005 तक।
चंद्रिका कुमार तुंगे की माता का नाम सिरीमावो भंडारनायके था जो कि विश्व की प्रथम महिला प्रधानमंत्री हुई।
श्रेणी:राजनीतिज्ञ
श्रेणी:श्रीलंका के राष्ट्रपति |
महिन्द राजपक्ष | https://hi.wikipedia.org/wiki/महिन्द_राजपक्ष | thumb|right|200px|महिन्दा राजपक्षे
पर्सी महेंद्र "महिन्द्रा राजपक्षे", (सिंहल මහින්ද රාජපක්ෂ, तमिल: மகிந்த ராசபக்ச, जन्म:18 नवम्बर 1945), श्रीलंका के पूर्व और छठे राष्ट्रपति और श्रीलंकाई सशस्त्र बलों के सर्वोच्च सेनापति (कमांडर इन चीफ) हैं। पेशे से वकील, राजपक्षे श्रीलंका की संसद के लिए सबसे पहले सन 1970 में चुने गए थे। 6 अप्रैल 2004 से अपने 2005 में राष्ट्रपति चुने जाने तक वो श्रीलंका के प्रधानमंत्री रहे। उन्होंने 19 नवंबर, 2005 को श्रीलंका के राष्ट्रपति के रूप में छह वर्ष के कार्यकाल के लिए शपथ ली। 27 जनवरी, 2010 को राजपक्षे पुनः एक बार अपने दूसरे कार्यकाल के लिए राष्ट्रपति चुने गए।
सन्दर्भ
इन्हें भी देखें
बाहरी कड़ियाँ
श्रेणी:राजनीतिज्ञ
श्रेणी:राष्ट्रमण्डल पदासीन |
गैरी कास्परोव | https://hi.wikipedia.org/wiki/गैरी_कास्परोव | गैरी कास्परोव (रूसी: Га́рри Ки́мович Каспа́ров, जन्म: १३ अप्रैल १९६३) एक रूसी ग्रांडमास्टर, पूर्व विश्व शतरंज चैंपियन, लेखक और राजनीतिक कार्यकर्ता है।
जन्म और बचपन
कास्पारोव का जन्म बाकू, आज़रबाइजान, सोवियत संघ में १३ अप्रैल १९६३ को हुआ था। वह ६ वर्ष की उम्र में शतरंज खेलने लगा। १३ वर्ष की उम्र होने से पहले वे सोवियत युव चैंपियन बन गए और अपना पहला अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट १६ वर्ष की उम्र में जीत गए। १९८० में कास्पारोव ग्रेंडमास्टर बन गए। १९७३ से १९७८ तक वे पूर्व विश्व शतरंज चैंपियन मिखेल बौट्विन्निक के मार्गदर्शन में पढा।
विश्व शतरंज चैंपियन
१९८५ विश्व शतरंज चैंपियनशिप में उन्होंने ऐनैटोली कार्पोव को पराजित करके इतिहास में सबसे कम उम्र का विश्व शतरंज चैंपियन बन गए। वर्ष 2000 में उन्होंने व्लादिमीर क्रैमनिक के खिलाफ शास्त्रीय विश्व शतरंज चैंपियनशिप हार गए।
डीप ब्लू के खिलाफ मैच
१९९७ और १९९८ में गैरी कास्पारोव ने आईबीएम ( इंटरनेशनल बिजनेस मशीन) के डीप ब्लू नामक कंप्यूटर के खिलाफ दो शतरंज मैच खेले। उन्होंने पहला मैच जीता: ६ खेलों में से उन्होंने ३ जीते, २ ड्रॉ किए और १ हार गए। हालाँकि वे दूसरा मैच हार गए: ६ खेलों में से उन्होंने १ जीता, ३ ड्रॉ किए और २ हार गए।
डीप जूनियर के खिलाफ मैच
२००३ में कास्पारोव ने डीप जूनियर नामक कम्प्यूटर के खिलाफ एक शतरंज मैच खेला जिसका परिणाम ३-३ ड्रॉ था।
सन्दर्भ
श्रेणी:शतरंज खिलाड़ी
श्रेणी:रूस के लोग
श्रेणी:विश्व चैम्पियन
श्रेणी:रूस के शतरंज खिलाड़ी |
टीपू सुल्तान | https://hi.wikipedia.org/wiki/टीपू_सुल्तान | thumb|टीपू सुल्तान
टीपू सुल्तान (सुल्तान फतेह अली साहब टीपू; 1 दिसंबर 1751 - 4 मई 1799), जिन्हें आमतौर पर शेर-ए-मैसूर या "मैसूर का शेर" कहा जाता है। दक्षिण में स्थित मैसूर साम्राज्य का भारतीय मुस्लिम शासक था। वह रॉकेट तोपखाने के अग्रणी थे। उन्होंने अपने शासन के दौरान कई प्रशासनिक नवाचारों की शुरुआत की, जिसमें एक नई सिक्का प्रणाली और कैलेंडर, और एक नई भूमि राजस्व प्रणाली शामिल थी, जिसने मैसूर रेशम उद्योग के विकास की शुरुआत की। टीपू चन्नापटना खिलौने पेश करने में भी अग्रणी थे। उन्होंने लौह-आवरण वाले मैसूरियन रॉकेटों का विस्तार किया और सैन्य मैनुअल फतुल मुजाहिदीन को चालू किया, उन्होंने एंग्लो-मैसूर युद्धों के दौरान ब्रिटिश सेनाओं और उनके सहयोगियों की प्रगति के खिलाफ रॉकेट तैनात किए, जिसमें पोलिलुर की लड़ाई और श्रीरंगपट्टनम की घेराबंदी भी शामिल थी।
उनके पिता का नाम हैदर अली और माँ का फकरुन्निसाँ था। उनके पिता मैसूर साम्राज्य के एक सैनिक थे लेकिन अपनी ताकत के बल पर वो 1761 में मैसूर के शासक बने।
उनकी वीरता से प्रभवित होकर उनके पिता हैदर अली ने ही उन्हें शेर-ए-मैसूर के खिताब से नवाजा था। अंग्रेजों से मुकाबला करते हुए श्रीरंगपट्टनम की रक्षा करते हुए 4 मई 1799 को टीपू सुल्तान वीरगति को प्राप्त हो गए।
जीवनी
18वीं शताब्दी के अन्तिम चरण में हैदर अली का देहावसान एवं टीपू सुल्तान का राज्याभिषेक मैसूर की एक प्रमुख घटना है। अपने पिता हैदर अली के पश्चात 1782 में टीपू सुल्तान मैसूर की गद्दी पर बैठे।
अपने पिता की तरह ही वह भी अत्याधिक महत्वाकाँक्षी कुशल सेनापति और चतुर कूटनीतिज्ञ थे यही कारण था कि वह हमेशा अपने पिता की पराजय का बदला अंग्रेजों से लेना चाहते थे, अंग्रेज उनसे काफी भयभीत रहते थे। टीपू सुल्तान की आकृति में अंग्रेजों को नेपोलियन की तस्वीर दिखाई पड़ती थी। वह अनेक भाषाओं के ज्ञाता थे अपने पिता के समय में ही उन्होंने प्रशासनिक सैनिक तथा युद्ध विधा लेनी प्रारम्भ कर दी थी परन्तु उनका सबसे बड़ा अवगुण जो उनकी पराजय का कारण बना वह फ्रांसिसियों पर बहुत अधिक निर्भरता और भरोसा ।
वह अपने पिता के समान ही निरंकुश थे । वह कट्टर व धर्मान्त मुस्लमान थे।
उनके चरित्र के सम्बन्ध में विद्वानों ने काफी मतभेद है।
मैसूर में एक कहावत है कि हैदर साम्राज्य स्थापित करने के लिए पैदा हुए थे और टीपू रक्षा के लिए। कुछ ऐसे भी विद्वान है जिन्होंने टीपू सुल्तान के चरित्र की काफी प्रशंसा की है।
वस्तुत: टीपू एक परिश्रमी शासक मौलिक सुधारक और अच्छे योद्धा थे। इन सारी बातों के बावजूद वह अपने पिता के समान कूटनीतिज्ञ एवं दूरदर्शी थे, यह उनका सबसे बड़ागुण था।
टीपू का नाम उर्दू पत्रकारिता के अग्रणी के रूप में भी याद किया जाएगा, क्योंकि उनकी सेना का साप्ताहिक बुलेटिन उर्दू में था, यह सामान्य धारणा है कि जाम-ए-जहाँ नुमा, 1823 में स्थापित पहला उर्दू अखबार था।
वह गुलामी को खत्म करने वाले पहले शासक थे। कुछ मौलवियों ने इस उपाय को थोड़ा बहुत बोल्ड और अनावश्यक माना। टीपू अपनी बन्दूकों से चिपक गए। उन्होंने पूरे जोश के साथ उस लाइन को लागू करने के फैसले को लागू कर दिया जिसमें उनके देश में प्राप्त स्थिति को इस उपाय की आवश्यकता थी।
टीपू सुल्तान का सामन्तवाद के प्रति दृष्टिकोण अलग था। उन्होंने इसे एक बार में समाप्त कर दिया और नतीजा यह है कि आज भी कर्नाटक के किसान - विशेष रूप से पूर्व मैसूर क्षेत्र में - उत्तरी भारत के किसानों से अलग हैं। जमीन के टिलर टीपू के दिनों से ही अपनी पकड़ के मालिक थे। इस उपाय के परिणामस्वरूप, यह क्षेत्र में एक विकसित प्रान्त है। कर्नाटक के किसान भूमि मालिक हैं और उनके बेटों और बेटियों ने शिक्षा में अच्छा किया है।
टीपू सुल्तान भी अपने राज्य के ब्राह्मण पुरोहितों के प्रति निष्ठावान थे और उनके सहयोग की माँग करते थे - यहाँ तक कि उनके द्वारा देवताओं के आशीर्वाद के लिए विशेष प्रार्थना करने का भी अनुरोध किया जाता था। 1791 में श्रीगंगातट के जगतगुरु स्वामी को लिखे उनके पत्र हिन्दू विषयों के साथ उनके उत्कृष्ट सम्बन्धों के प्रमाण हैं। इस दावे के लिए टीपू के कुछ 30 पत्रों को भारतीय पुरातत्व विभाग में संरक्षित किया गया है। दक्षिण भारत के विल्क्स हिस्टोरिकल स्केच।
गांधीजी ने उन सभी इतिहास की पुस्तकों का विमोचन किया, जो टीपू सुल्तान को हिंदुओं धर्मांतरण के लिए मजबूर करती थी। वह सोचते थे कि कन्नड़ भाषा में टीपू के पत्र हिंदुओं के प्रति उनकी उदारता का जीवंत प्रमाण हैं। गांधीजी ने टीपू द्वारा वक्फों (ट्रस्टों) को हिंदू मंदिरों के समानांतर स्थापित किया। उनके महल वेंकटरमन श्रीनिवास और श्री रंगनाथ मन्दिरों के करीब खड़े थे। वह विशेष रूप से मैसूर के शासक की प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि शेर के जीवन का एक दिन सियार के 100 साल के जीवन से बेहतर होता है।
टीपू का सुसंस्कृत मन था। मोहिबुल हसन के अनुसार, वह बहुमुखी थे और हर तरह के विषयों पर बात कर सकते थे। वह कन्नड़ और हिंदुस्तानी (उर्दू) बोल सकते थे, लेकिन उन्होंने ज्यादातर फ़ारसी में बात की जो उन्होंने आसानी से लिखी थी। उन्हें विज्ञान, चिकित्सा, संगीत, ज्योतिष और इंजीनियरिंग में दिलचस्पी थी, लेकिन धर्मशास्त्र और सूफीवाद उनके पसन्दीदा विषय थे। कवियों और विद्वानों ने उसके दरबार को सुशोभित किया, और वह उनके साथ विभिन्न विषयों पर चर्चा करने के शौकीन थे। वह सुलेख में बहुत रुचि रखते थे, और उनके द्वारा आविष्कृत सुलेख के नियमों पर ""रिसाला डार खत-ए-तर्ज़-ए-मुहम्मदी"" नामक फारसी में एक ग्रन्थ मौजूद है। उन्होंने ज़बरजद नामक ज्योतिष पर एक किताब भी लिखी। उनकी लाइब्रेरी की अनेक पुस्तकें पैगम्बर मोहम्मद, उनकी बेटी फातिमा और उनके बेटों, हसन और हुसैन के नाम को कवर के मध्य में और चार कोनों पर चार खलीफाओं के नाम के साथ ले जाती हैं। उनकी निजी लाइब्रेरी में अरबी, फ़ारसी, तुर्की, उर्दू और हिन्दी पाण्डुलिपियों के 2,000 से अधिक संगीत, हदीस, कानून, सूफीवाद, हिन्दू धर्म, इतिहास, दर्शन, कविता और गणित से सम्बन्धित हैं।
तृतीय मैसूर युद्ध
thumb|left|1799 में श्रीरंगपट्टन की लड़ाई में टीपू सुल्तान की सेनाओं द्वारा उपयोग की जाने वाली तोप
मंगलोर की संन्धि से भी अंग्रेजों और मैसूर युद्ध समाप्त नहीं हो पाया दोनों पक्ष इस सन्धि को चिरस्थाई नहीं मानते थे। 1786 ई. में लार्ड कार्नवालिस भारत का गवर्नर जनरल बना । वह भारतीय राज्यों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने के मामले में सामर्थ नहीं था लेकिन उस समय की परिस्थिति को देखते हुए उसे हस्तक्षेप करना पड़ा क्योंकि उस समय टीपू सुल्तान उनका प्रमुख शत्रु था इसलिए अंग्रेजों ने अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए निजाम के साथ सन्धि कर ली इस पर टीपू ने भी फ्रांसीसियो से मित्रता के लिए हाथ बढ़ाया ताकि दक्षिण में अपना वर्चस्व स्थापित करें।
कार्नवालिस जानता था कि टिपु के साथ उसका युद्ध अनिवार्य है इसलिए वह महान शक्तियों के साथ मित्रता स्थापित करना चाहता था। उसने निजाम और मराठों के साथ सन्धि कर एक संयुक्त मोर्चा कायम किया और इसके बाद उसने टीपू के खिलाफ युद्ध कि घोषणा कर दी इस तरह तृतीय मैसुर युद्ध प्रारम्भ हुआ यह युद्ध दो वर्षों तक चलता रहा प्रारमँभ में अंग्रेज असफल रहे लेकिन अन्त में उनकी विजय हुई। मार्च 1792 ई. में श्री रंगापटय कि सन्धि के साथ युद्ध समाप्त हुआ टीपू ने अपने राज्य का आधा हिस्सा और 30 लाख पौंड संयुक्त मोर्चे को दण्ड स्वरूप दिया इसका सबसे बड़ा हिस्सा कृष्ण ता पन्द नदी के बीच का प्रदेश निजाम को मिला।
कुछ हिस्सा मराठों को भी प्राप्त हुआ जिससे उसकी राज्य की सीमा तंगभद्रा तक बढ़ गई, शेष हिस्सों पर अंग्रेजों का अधिकार रहा टीपू सुल्तान ने जायतन के रूप में अपने दो पुगों को भी कार्नवालिस को सुपुर्द किया। इस पराजय से टीपु सुल्तान को भारी क्षति उठानी पड़ी उनका राज्य कम्पनी राज्य से घिर गया तथा समुद्र से उनका सम्पर्क टुट गया।
आलोचकों का कहना है कि कार्नवालिस ने इस सन्धि को करने में जल्दबाजी की और टीपू का पूर्ण विनाश नहीं कर के भारी भूल की अगर वह टीपु की शक्ति को कुचल देता तो भविष्य में चतुर्थ मैसुर युद्ध नहीं होता लेकिन वास्तव में कार्नवालिस ने ऐसा नहीं करके अपनी दूरदर्शता का परिचय दिया था उस समय अंग्रेजी सेना में बिमारी फैली हुई थी और युरोप में इंग्लैण्ड और फ्रांस के बीच युद्ध की सम्भावना थी। ऐसी स्थिति में टीपू फ्रांसिसीयों की सहायता ले सकते थे अगर सम्पूर्ण राज्य को अंग्रेज ब्रिटिश राज्य में मिला लेते तो मराठे और निजाम भी उससे जलने लगते इसलिए कार्नवालिस का उद्देश्य यह था कि टीपू की शक्ति समाप्त हो जाए और साथ ही साथ कम्पनी के मित्र भी शक्तिशाली ना बन सके इसलिए उन्होंने बिना अपने मित्रों को शक्तिशाली बनाये टीपू की शक्ति को कुचलने का प्रयास किया।
चतुर्थ अंग्रेज मैसूर युद्ध
टीपु सुल्तान रंगापट्टी की अपमानजनक सन्धि से काफी दुखी थे और अपनी बदनामी के कारण वह अंग्रेजो को पराजित कर दूर करना चाहते थे, प्रकृति ने उन्हें ऐसा मौका भी दिया लेकिन भाग्य ने टीपु का साथ नहीं दिया। जिस समय इंग्लैण्ड और फ्रांस में युद्ध चल रहा था ,इस अंतरराष्ट्रीय विकट परिस्थिति से लाभ उठाने के लिए टीपू ने विभिन्न देशों में अपना राजदुत भेजे। फ्रांसीसियों को उसने अपने राज्य में विभिन्न तरह की सुविधाएं प्रदान कर अपने सैनिक संगठन में उन्होने फ्रांसीसी अफसर नियुक्त किये और कुछ फ्रांसीसियों ने अप्रैल 1798 ई. में अंग्रेजों के विरुद्ध टीपू की सहायता की। फलत: अंग्रेज और टीपु के बीच संघर्ष आवश्यक हो गया। इसी समय लार्ड वेलेजली बंगाल का गवर्नर जनरल नियुक्त किया गया था। उन्होनें टीपू कि शक्ति को कुचलने का निश्चय किया टीपु के विरुद्ध उसने निजाम और मराठों के साथ गठबंधन करने कि चेष्टा की निजाम को मिलाने में वह सफल हुए लेकिन मराठों ने कोई स्पष्ट उत्तर नहीं दिया 1798 में निजाम के साथ वेलेजली ने सहायक सन्धि की और यह घोषणा कर दी जीते हुए प्रदेशों में कुछ हिस्सा मराठों को भी दिया जाएगा। पुर्ण तैयारी के साथ वेलेजली ने मैसूर पर आक्रमण कर दिया इस तरह मैसुर का चौथा युद्ध प्रारंभ हुआ। और टीपू सुल्तान वीरता के साथ आखिर तक युद्ध करते करते मृत्यु को प्राप्त हुए। मैसूर पर अंग्रेजो का अधिकार हो गया इस् प्रकार 33 वर्ष पुर्व मैसुर में जिस मुस्लिम शक्ति का उदय हुआ था सिर्फ उसका अन्त ही नहीं हुआ बल्कि अंग्रेज मैसुर युद्ध का नाटक ही समाप्त हो गया। मैसुर जो 33 वर्षों से लगातार अंग्रेजों कि प्रगति का शत्रु बना था अब वह अंग्रेजों के अधिकार में आ गया था। अंग्रेज और निजाम ने मिल कर मैसुर का बंटवारा कर लिया। मराठों को भी उत्तर पश्चिम में कुछ प्रदेश दिये गये लेकिन उन्होंने लेने से इनकार कर दिया,शेष मैसुर पुराने हिन्दु राजवंश के एक नाबालिग लड़के को सन्धि के साथ दिया जिसके अनुसार मैसुर की सुरक्षा का भार अंग्रेजों पर आ गया वहाँ ब्रिटिश सेना तैनात किया गया सेना का खर्च मैसुर के राजा ने देना स्वीकार किया। इस नीति से अंग्रेजों को काफी लाभ पहुँचा मैसुर राज्य बिल्कुल छोटा पड़ गया और दुश्मन का अन्त हो गया ब्रिटिश कम्पनी की शक्ति में काफी वृद्धि हुई । फलत: मैसुर चारों ओर से ब्रिटिश राज्य से घिर गया इसका फायदा उन्होनें भविष्य में उठाया जिससे ब्रिटिश शक्ति के विकास में काफी सहायता मिली और एक दिन उसने सम्पूर्ण हिन्दुस्तान पर अपना अधिपत्य कायम कर लिया ।
टीपू सुल्तान की धार्मिक नीति
हिन्दू संस्थाओं के लिए उपहार
1791 में रघुनाथ राव पटवर्धन के कुछ मराठा सवारों ने शृंगेरी शंकराचार्य के मंदिर और मठ पर छापा मारा। उन्होंने मठ की सभी मूल्यवान सम्पत्ति लूट ली। इस हमले में कई लोग मारे गए और कई घायल हो गए।
शंकराचार्य ने मदद के लिए टीपू सुल्तान को अर्जी दी। शंकराचार्य को लिखी एक चिट्ठी में टीपू सुल्तान ने आक्रोश और दु:ख व्यक्त किया। इसके बाद टीपू ने बेदनुर के आसफ़ को आदेश दिया कि शंकराचार्य को 200 राहत (फ़नम) नक़द धन और अन्य उपहार दिये जायें। शृंगेरी मन्दिर में टीपू सुल्तान की दिलचस्पी काफ़ी सालों तक जारी रही, और 1790 के दशक में भी वे शंकराचार्य को खत लिखते रहे। टीपू के यह पत्र तीसरे मैसूर युद्ध के बाद लिखे गए थे, जब टीपू को बंधकों के रूप में अपने दो बेटों देने सहित कई झटकों का सामना करना पड़ा था। यह सम्भव है कि टीपू ने ये खत अपनी हिन्दू प्रजा का समर्थन हासिल करने के लिए लिखे थे।Habib, Irfan (2002), p118, Confronting Colonialism: Resistance and Modernization Under Haidar Ali & Tipu Sultan, Anthem Press, London, ISBN 1-84331-024-4
टीपू सुल्तान ने अन्य हिन्दू मन्दिरों को भी तोहफ़े पेश किए। मेलकोट के मन्दिर में सोने और चाँदी के बर्तन है, जिनके शिलालेख बताते हैं कि ये टीपू ने भेंट किए थे। ने कलाले के लक्ष्मीकान्त मन्दिर को चार रजत कप भेंटस्वरूप दिए थे। 1782 और 1799 के बीच, टीपू सुल्तान ने अपनी जागीर के मन्दिरों को 34 दान के सनद जारी किए। इनमें से कई को चाँदी और सोने की थाली के तोहफे पेश किए। ननजनगुड के श्रीकान्तेश्वर मन्दिर में टीपू का दिया हुआ एक रत्न-जड़ित कप है। ननजनगुड के ही ननजुनदेश्वर मन्दिर को टीपू ने एक हरा-सा शिवलिंग भेंट किया। श्रीरंगपटना के रंगनाथ मन्दिर को टीपू ने सात चाँदी के कप और एक रजत कपूर-ज्वालिक पेश किया।A. Subbaraya Chetty, 2002, "Tipu's endowments to Hindus" in Habib. 111–115. मान्यता है कि ये दान हिंदू शासकों के साथ गठबंधन बनाने का एक तरीका थे।Hasan, Mohibbul (1951), p360, History of Tipu Sultan, Aakar Books, Delhi, ISBN 81-87879-57-2
मृत्यु
4 मई 1799 को 48 वर्ष की आयु में कर्नाटक के श्रीरंगपट्टना में टीपू सुल्तान की बहुत धूर्तता से अंग्रेजों द्वारा हत्या कर दी गयी। हत्या के बाद उनकी तलवार अंग्रेज अपने साथ ब्रिटेन ले गए। टीपू की मृत्यू के बाद सारा राज्य अंग्रेजों के हाथ आ गया।
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
Tipu Sultan Killed Seringapatam (अंग्रेजी में)
Tipu Sultan remembered on his 212th martyrdom anniversary – TCN News
The Tiger of Mysore – Dramatised account of the British campaign against Tipu Sultan by G. A. Henty, from Project Gutenberg
Biography by Dr. K. L. Kamat
Coins of Tipu Sultan
Illuminated Qurʾān from the library of Tippoo Ṣāḥib, Cambridge University Digital Library
UK Family Finds Tipu Sultan's Gun, Sword In Attic
Tipu's Legacy.
Freedom Fighter, Tipu Sultan's Belongings
श्रेणी:राजा
श्रेणी:मैसूर के लोग
श्रेणी:भारतीय स्वतंत्रता सेनानी |
अशोक वाजपेयी | https://hi.wikipedia.org/wiki/अशोक_वाजपेयी | अशोक वाजपेयी समकालीन हिंदी साहित्य के एक प्रमुख साहित्यकार हैं।हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास, डॉ॰ बच्चन सिंह, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, २00२, पृष्ठ- ४५९, ISBN: 81-7119-785-X वाजपेयी जी भारतीय प्रशासनिक सेवा के एक पूर्वाधिकारी हैं, परंतु एक कवि के रूप में आपकी प्रसिद्धि अधिक है। आपका जन्म 16 जनवरी 1941 को दुर्ग (छ०ग०) में हुआ। 'कहीं नहीं वहीं' काव्य संग्रह के लिए सन् 1994 में आपको भारत सरकार द्वारा साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाज़ा गया। वाजपेयी महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति भी रह चुके हैं। वर्तमान में आप ललित कला अकादमी के अध्यक्ष हैं। भोपाल में भारत भवन की स्थापना में भी आपने काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
अशोक वाजपेयी के अबतक (जनवरी 2020 तक) प्रकाशित काव्य संग्रह हैं:-
शहर अब भी संभावना है
एक पतंग अनंत में
अगर इतने से
तत्पुरुष
कहीं नहीं वहीं
बहुरि अकेला
थोड़ी-सी जगह
घास में दुबका आकाश
आविन्यो
जो नहीं है
अभी कुछ और
समय के पास समय
कहीं कोई दरवाजा
दुःख चिट्ठीरसा है
पुनर्वसु
विवक्षा
कुछ रफू कुछ थिगड़े
इस नक्षत्रहीन समय में
कम से कम
हार-जीत
काव्य संकलन
प्रतिनिधि कविताएँ
कवि ने कहा
खुल गया है द्वार एक
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
अशोक वाजपेयी।
Board of Trustees: Ashok Vajpeyi-Eminent Poet
INDIA’S GREAT MASTERS : A PHOTOGRAPHIC JOURNEY INTO THE HEART OF CLASSICAL MUSIC
शब्दांकन पर अशोक वाजपेयी।
अशोक वाजपेयी की रचनाएँ कविताकोश में।
श्रेणी:साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत हिन्दी भाषा के साहित्यकार
श्रेणी:हिन्दी साहित्यकार
श्रेणी:जीवित लोग
श्रेणी:1941 में जन्मे लोग |
जयपाल सिंह मुंडा | https://hi.wikipedia.org/wiki/जयपाल_सिंह_मुंडा | जयपाल सिंह मुंडा (3 जनवरी 1903 – 20 मार्च 1970) भारतीय आदिवासियों और झारखंड आंदोलन के एक सर्वोच्च नेता थे। वे एक जाने माने राजनीतिज्ञ, पत्रकार, लेखक, संपादक, शिक्षाविद् और 1925 में ‘ऑक्सफोर्ड ब्लू’ का खिताब पाने वाले हॉकी के एकमात्र अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी थे। उनकी कप्तानी में 1928 के ओलिंपिक में भारत ने पहला स्वर्ण पदक प्राप्त किया।। ओपनिवेशिक भारत में जयपाल सिंह मुंडा सर्वोच्च सरकारी पद पर थे ।
जीवन यात्रा
जयपाल सिंह छोटा नागपुर (अब झारखंड) राज्य की मुंडा जनजाति के थे। मिशनरीज की मदद से वह ऑक्सफोर्ड के सेंट जॉन्स कॉलेज में पढ़ने के लिए गए। वह असाधारण रूप से प्रतिभाशाली थे। उन्होंने पढ़ाई के अलावा खेलकूद, जिनमें हॉकी प्रमुख था, के अलावा वाद-विवाद में खूब नाम कमाया।
उनका चयन भारतीय सिविल सेवा (आईसीएस) में हो गया था। आईसीएस का उनका प्रशिक्षण प्रभावित हुआ क्योंकि वह 1928 में एम्सटरडम में ओलंपिक हॉकी में पहला स्वर्णपदक जीतने वाली भारतीय टीम के कप्तान के रूप में नीदरलैंड चले गए थे। वापसी पर उनसे आईसीएस का एक वर्ष का प्रशिक्षण दोबारा पूरा करने को कहा गया, उन्होंने ऐसा करने से इनकार कर दिया।
उन्होंने बिहार के शिक्षा जगत में योगदान देने के लिए तत्कालीन बिहार कांग्रेस अध्यक्ष डा. राजेन्द्र प्रसाद को इस संबंध में पत्र लिखा. परंतु उन्हें कोई सकारात्मक जवाब नहीं मिला. 1938 की आखिरी महीने में जयपाल ने पटना और रांची का दौरा किया. इसी दौरे के दौरान आदिवासियों की खराब हालत देखकर उन्होंने राजनीति में आने का फैसला किया.
1938 जनवरी में उन्होंने आदिवासी महासभा की अध्यक्षता ग्रहण की जिसने बिहार से इतर एक अलग झारखंड राज्य की स्थापना की मांग की। इसके बाद जयपाल सिंह देश में आदिवासियों के अधिकारों की आवाज बन गए। उनके जीवन का सबसे बेहतरीन समय तब आया जब उन्होंने संविधान सभा में बेहद वाकपटुता से देश की आदिवासियों के बारे में सकारात्मक ढंग से अपनी बात रखी। संविधान सभा में 'अनुसूचित जनजाति' की जगह आदिवासियों को 'मूलवासी आदिवासी' करने की बात कही।
इन्हें भी देखें
झारखंड
झारखंड आंदोलन
छोटानागपुर
मरङ गोमके जयपाल सिंह मुंडा
बाहरी कड़ियां
जयपाल सिंह मुंडा : संविधान सभा में आदिवासियों की बुलंद आवाज
सन्दर्भ
श्रेणी:भारतीय (आदिवासी)
श्रेणी:भारतीय राजनीतिज्ञ
श्रेणी:झारखंड के लोग
श्रेणी:आदिवासी साहित्यकार
श्रेणी:भारत के हॉकी खिलाड़ी
श्रेणी:भारत के ओलंपिक स्वर्ण पदक विजेता
श्रेणी:1903 में जन्मे लोग
श्रेणी:१९७० में निधन |
ताँबा | https://hi.wikipedia.org/wiki/ताँबा | REDIRECT ताम्र |
गंडक | https://hi.wikipedia.org/wiki/गंडक | पुनर्प्रेषित गण्डकी नदी |
पश्तो | https://hi.wikipedia.org/wiki/पश्तो | REDIRECTपश्तो भाषा |
आइज़क न्यूटन | https://hi.wikipedia.org/wiki/आइज़क_न्यूटन | सर आइज़ैक न्यूटन इंग्लैंड के एक वैज्ञानिक थे। जिन्होंने गुरुत्वाकर्षण का नियम और गति के सिद्धान्त की खोज की। वे एक महान गणितज्ञ, भौतिक वैज्ञानिक, ज्योतिष एवं दार्शनिक थे। इनका शोध प्रपत्र ‘प्राकृतिक दर्शन के गणितीय सिद्धांतों ’ सन् 1687 में प्रकाशित हुआ, जिसमें सार्वत्रिक गुरुत्वाकर्षण एवं गति के नियमों की व्याख्या की गई थी और इस प्रकार चिरसम्मत भौतिकी (क्लासिकल भौतिकी) की नींव रखी।
उनकी फिलोसोफी नेचुरेलिस प्रिन्सिपिया मेथेमेटिका, 1687 में प्रकाशित हुई, यह विज्ञान के इतिहास में अपने आप में सबसे प्रभावशाली पुस्तक है, जो अधिकांश साहित्यिक यांत्रिकी के लिए आधारभूत कार्य की भूमिका निभाती है।
इस कार्य में, न्यूटन ने सार्वत्रिक गुरुत्व और गति के तीन नियमों का वर्णन किया जिसने अगली तीन शताब्दियों के लिए भौतिक ब्रह्मांड के वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया। न्यूटन ने दर्शाया कि पृथ्वी पर वस्तुओं की गति और आकाशीय पिंडों की गति का नियंत्रण प्राकृतिक नियमों के समान समुच्चय के द्वारा होता है, इसे दर्शाने के लिए उन्होंने ग्रहीय गति के केपलर के नियमों तथा अपने गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत के बीच निरंतरता स्थापित की, इस प्रकार से सूर्य केन्द्रीयता और वैज्ञानिक क्रांति के आधुनिकीकरण के बारे में पिछले संदेह को दूर किया।
यांत्रिकी में, न्यूटन ने संवेग तथा कोणीय संवेग दोनों के संरक्षण के सिद्धांतों को स्थापित किया। प्रकाशिकी में, उन्होंने पहला व्यावहारिक परावर्ती दूरदर्शी बनाया और इस आधार पर रंग का सिद्धांत विकसित किया कि एक प्रिज्म श्वेत प्रकाश को कई रंगों में अपघटित कर देता है जो दृश्य स्पेक्ट्रम बनाते हैं। उन्होंने शीतलन का नियम दिया और ध्वनि की गति का अध्ययन किया। गणित में, अवकलन और समाकलन कलन के विकास का श्रेय गोटफ्राइड लीबनीज के साथ न्यूटन को जाता है। उन्होंने सामान्यीकृत द्विपद प्रमेय का भी प्रदर्शन किया और एक फलन के शून्यों के सन्निकटन के लिए तथाकथित "न्यूटन की विधि" का विकास किया और घात श्रेणी के अध्ययन में योगदान दिया।
वैज्ञानिकों के बीच न्यूटन की स्थिति बहुत शीर्ष पद पर है, ऐसा ब्रिटेन की रोयल सोसाइटी में 2005 में हुए वैज्ञानिकों के एक सर्वेक्षण के द्वारा प्रदर्शित होता है, जिसमें पूछा गया कि विज्ञान के इतिहास पर किसका प्रभाव अधिक गहरा है, न्यूटन का या एल्बर्ट आइंस्टीन का। इस सर्वेक्षण में न्यूटन को अधिक प्रभावी पाया गया।. न्यूटन अत्यधिक धार्मिक भी थे, हालाँकि वे एक अपरंपरागत ईसाई थे, उन्होंने प्राकृतिक विज्ञान, जिसके लिए उन्हें आज याद किया जाता है, की तुलना में बाइबिल हेर्मेनेयुटिक्स पर अधिक लिखा।
जीवन
प्रारंभिक वर्ष
आइजैक न्यूटन का जन्म 4 जनवरी 1643 को नई शैली और पुरानी शैली की तिथि 25 दिसंबर 1642</small>लिनकोलनशायर के काउंटी में एक हेमलेट, वूल्स्थोर्पे-बाय-कोल्स्तेर्वोर्थ में वूलस्थ्रोप मेनर में हुआ। न्यूटन के जन्म के समय, इंग्लैंड ने ग्रिगोरियन केलेंडर को नहीं अपनाया था और इसलिए उनके जन्म की तिथि को क्रिसमस दिवस 25 दिसंबर 1642 के रूप में दर्ज किया गया।
न्यूटन का जन्म उनके पिता की मृत्यु के तीन माह बाद हुआ, वे एक समृद्ध किसान थे उनका नाम भी आइजैक न्यूटन था। पूर्व परिपक्व अवस्था में पैदा होने वाला वह एक छोटा बालक था; उनकी माता हन्ना ऐस्क्फ़ का कहना था कि वह एक चौथाई गेलन जैसे छोटे से मग में समा सकता था।
जब न्यूटन तीन वर्ष के थे, उनकी माँ ने दुबारा शादी कर ली और अपने नए पति रेवरंड बर्नाबुस स्मिथ के साथ रहने चली गई और अपने पुत्र को उसकी नानी मर्गेरी ऐस्क्फ़ की देखभाल में छोड़ दिया। छोटा आइजैक अपने सौतेले पिता को पसंद नहीं करता था और उसके साथ शादी करने के कारण अपनी माँ के साथ दुश्मनी का भाव रखता था। जैसा कि 19 वर्ष तक की आयु में उनके द्वारा किये गए अपराधों की सूची में प्रदर्शित होता है: "मैंने माता और पिता स्मिथ के घर को जलाने की धमकी दी."[11] ^ कोहेन, आईबी (1970).वैज्ञानिक जीवनी का शब्द कोष, खण्ड 11, p.43. न्यूयॉर्क: चार्ल्स स्क्रिब्नेर के पुत्र
thumbnail|1702 में न्यूटन का एक चित्र गोडफ्रे क्नेलर के द्वारा
thumbnail|आइजैक न्यूटन (बोलटन, सारा के.फेमस मेन ऑफ़ साइंस NY: थॉमस वाई क्रोवेल एंड कं, 1889)
बारह वर्ष से सत्रह वर्ष की आयु तक उन्होंने द किंग्स स्कूल, ग्रान्थम में शिक्षा प्राप्त की (जहाँ पुस्तकालय की एक खिड़की पर उनके हस्ताक्षर आज भी देखे जा सकते हैं) उन्हें स्कूल से निकाल दिया गया और अक्टूबर 1659 वे वूल्स्थोर्पे-बाय-कोल्स्तेर्वोर्थ आ गए. जहाँ उनकी माँ, जो दूसरी बार विधवा हो चुकी थी, ने उन्हें किसान बनाने पर जोर दिया। वह खेती से नफरत करते थे।[12] ^ वेस्टफॉल (1993) पीपी 16-19 किंग्स स्कूल के मास्टर हेनरी स्टोक्स ने उनकी माँ से कहा कि वे उन्हें फिर से स्कूल भेज दें ताकि वे अपनी शिक्षा को पूरा कर सकें। स्कूल के एक लड़के के खिलाफ बदला लेने की इच्छा से प्रेरित होने की वजह से वे एक शीर्ष क्रम के छात्र बन गए।व्हाइट 1997, पी. 22.
जून 1661 में, उन्हें ट्रिनिटी कॉलेज, कैम्ब्रिज में एक सिजर-एक प्रकार की कार्य-अध्ययन भूमिका, के रूप में भर्ती किया गया।[14] ^ माइकल व्हाइट, आइजैक न्यूटन (1999) पृष्ठ 46 उस समय कॉलेज की शिक्षाएँ अरस्तु पर आधारित थीं। लेकिन न्यूटन अधिक आधुनिक दार्शनिकों जैसे डेसकार्टेस और खगोलविदों जैसे कोपरनिकस, गैलीलियो और केपलर के विचारों को पढना चाहता था।
1665 में उन्होंने सामान्यीकृत द्विपद प्रमेय की खोज की और एक गणितीय सिद्धांत विकसित करना शुरू किया जो बाद में अत्यल्प कलन के नाम से जाना गया। अगस्त 1665 में जैसे ही न्यूटन ने अपनी डिग्री प्राप्त की, उसके ठीक बाद प्लेग की भीषण महामारी से बचने के लिए एहतियात के रूप में विश्वविद्यालय को बंद कर दिया। यद्यपि वे एक कैम्ब्रिज विद्यार्थी ke रूप में प्रतिष्ठित नहीं थे,[15] ^ संस्करण. माइकल हास्किंस (1997).कैम्ब्रिज ने खगोल विज्ञान के इतिहास को चित्रित किया, पी. 159.159. कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय प्रेस। इसके बाद के दो वर्षों तक उन्होंने वूल्स्थोर्पे में अपने घर पर निजी अध्ययन किया और कलन, प्रकाशिकी और गुरुत्वाकर्षण के नियमों पर अपने सिद्धांतों का विकास किया।
1667 में वह ट्रिनिटी के एक फेलो के रूप में कैम्ब्रिज लौट आए।
बीच के वर्ष
अधिकांश आधुनिक इतिहासकारों का मानना है कि न्यूटन और लीबनीज ने अत्यल्प कलन का विकास अपने अपने अद्वितीय संकेतनों का उपयोग करते हुए स्वतंत्र रूप से किया।
न्यूटन के आंतरिक चक्र के अनुसार, न्यूटन ने अपनी इस विधि को लीबनीज से कई साल पहले ही विकसित कर दिया था, लेकिन उन्होंने लगभग 1693 तक अपने किसी भी कार्य को प्रकाशित नहीं किया और 1704 तक अपने कार्य का पूरा लेखा जोखा नहीं दिया. इस बीच, लीबनीज ने 1684 में अपनी विधियों का पूरा लेखा जोखा प्रकाशित करना शुरू कर दिया. इसके अलावा, लीबनीज के संकेतनों तथा "अवकलन की विधियों" को महाद्वीप पर सार्वत्रिक रूप से अपनाया गया और 1820 के बाद में , ब्रिटिश साम्राज्य में भी इसे अपनाया गया। जबकि लीबनीज की पुस्तिकाएं प्रारंभिक अवस्थाओं से परिपक्वता तक विचारों के आधुनिकीकरण को दर्शाती हैं, न्यूटन के ज्ञात नोट्स में केवल अंतिम परिणाम ही है।
न्यूटन ने कहा कि वे अपने कलन को प्रकाशित नहीं करना चाहते थे क्योंकि उन्हें डर था वे उपहास का पात्र बन जायेंगे.
न्यूटन का स्विस गणितज्ञ निकोलस फतियो डे दुइलिअर के साथ बहुत करीबी रिश्ता था, जो प्रारम्भ से ही न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत से बहुत प्रभावित थे। 1691 में दुइलिअर ने न्यूटन के फिलोसोफी नेचुरेलिस प्रिन्सिपिया मेथेमेटिका के एक नए संस्करण को तैयार करने की योजना बनायी, लेकिन इसे कभी पूरा नहीं कर पाए.बहरहाल, इन दोनों पुरुषों के बीच सम्बन्ध 1693 में बदल गया। इस समय, दुइलिअर ने भी लीबनीज के साथ कई पत्रों का आदान प्रदान किया था।[18] ^ ^ वेस्टफॉल 1980, पीपी 538-539
1699 की शुरुआत में, रोयल सोसाइटी (जिसके न्यूटन भी एक सदस्य थे) के अन्य सदस्यों ने लीबनीज पर साहित्यिक चोरी के आरोप लगाये और यह विवाद 1711 में पूर्ण रूप से सामने आया।
न्यूटन की रॉयल सोसाइटी ने एक अध्ययन द्वारा घोषणा की कि न्यूटन ही सच्चे आविष्कारक थे और लीबनीज ने धोखाधड़ी की थी। यह अध्ययन संदेह के घेरे में आ गया, जब बाद पाया गया कि न्यूटन ने खुद लीबनीज पर अध्ययन के निष्कर्ष की टिप्पणी लिखी।
इस प्रकार कड़वा न्यूटन बनाम लीबनीज विवाद शुरू हो गया, जो बाद में न्यूटन और लीबनीज दोनों के जीवन में 1716 में लीबनीज की मृत्यु तक जारी रहा।[19] ^ बॉल 1908, पी. 356ff
न्यूटन को आम तौर पर सामान्यीकृत द्विपद प्रमेय का श्रेय दिया जाता है, जो किसी भी घात के लिए मान्य है। उन्होंने न्यूटन की सर्वसमिकाओं, न्यूटन की विधि, वर्गीकृत घन समतल वक्र (दो चरों में तीन के बहुआयामी पद) की खोज की, परिमित अंतरों के सिद्धांत में महत्वपूर्ण योगदान दिया, वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने भिन्नात्मक सूचकांक का प्रयोग किया और डायोफेनताइन समीकरणों के हल को व्युत्पन्न करने के लिए निर्देशांक ज्यामिति का उपयोग किया।
उन्होंने लघुगणक के द्वारा हरात्मक श्रेढि के आंशिक योग का सन्निकटन किया, (यूलर के समेशन सूत्र का एक पूर्वगामी) और वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने आत्मविश्वास के साथ घात शृंखला का प्रयोग किया और घात शृंखला का विलोम किया।
उन्हें 1669 में गणित का ल्युकेसियन प्रोफेसर चुना गया। उन दिनों, कैंब्रिज या ऑक्सफ़ोर्ड के किसी भी सदस्य को एक निर्दिष्ट अंग्रेजी पुजारी होना आवश्यक था। हालाँकि, ल्युकेसियन प्रोफेसर के लिए जरुरी था कि वह चर्च में सक्रिय न हो। (ताकि वह विज्ञान के लिए और अधिक समय दे सके)
न्यूटन ने तर्क दिया कि समन्वय की आवश्यकता से उन्हें मुक्त रखना चाहिए और चार्ल्स द्वितीय, जिसकी अनुमति अनिवार्य थी, ने इस तर्क को स्वीकार किया। इस प्रकार से न्यूटन के धार्मिक विचारों और अंग्रेजी रूढ़ीवादियों के बीच संघर्ष टल गया।[20] ^ व्हाइट 1997, पी. 151
प्रकाशिकी
thumbnail|न्यूटन के दूसरे परावर्ती दूरदर्शी की एक प्रतिकृति जो उन्होंने 1672 में रॉयल सोसाइटी को भेंट किया।
1670 से 1672 तक, न्यूटन का प्रकाशिकी पर व्याख्यान दिया. इस अवधि के दौरान उन्होंने प्रकाश के अपवर्तन की खोज की, उन्होंने प्रदर्शित किया कि एक प्रिज्म श्वेत प्रकाश को रंगों के एक स्पेक्ट्रम में वियोजित कर देता है और एक लेंस और एक दूसरा प्रिज्म बहुवर्णी स्पेक्ट्रम को संयोजित कर के श्वेत प्रकाश का निर्माण करता है।[22] ^ बॉल 1908, पी. 324
उन्होंने यह भी दिखाया कि रंगीन प्रकाश को अलग करने और भिन्न वस्तुओं पर चमकाने से रगीन प्रकाश के गुणों में कोई परिवर्तन नहीं आता है। न्यूटन ने वर्णित किया कि चाहे यह परावर्तित हो, या विकिरित हो या संचरित हो, यह समान रंग का बना रहता है।
इस प्रकार से, उन्होंने देखा कि, रंग पहले से रंगीन प्रकाश के साथ वस्तु की अंतर्क्रिया का परिणाम होता है नाकि वस्तुएं खुद रंगों को उत्पन्न करती हैं।
यह न्यूटन के रंग सिद्धांत के रूप में जाना जाता है।[23] ^ बॉल 1908, पी. 325
इस कार्य से उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि, किसी भी अपवर्ती दूरदर्शी का लेंस प्रकाश के रंगों में विसरण (रंगीन विपथन) का अनुभव करेगा और इस अवधारणा को सिद्ध करने के लिए उन्होंने अभिदृश्यक के रूप में एक दर्पण का उपयोग करते हुए, एक दूरदर्शी का निर्माण किया, ताकि इस समस्या को हल किया जा सके.[24] ^ व्हाइट 1997, पी 170 दरअसल डिजाइन के निर्माण के अनुसार, पहला ज्ञात क्रियात्मक परावर्ती दूरदर्शी, आज एक न्यूटोनियन दूरबीन के रूप में जाना जाता है[25] ^ व्हाइट 1997, पी 170, इसमें तकनीक को आकार देना तथा एक उपयुक्त दर्पण पदार्थ की समस्या को हल करना शामिल है। न्यूटन ने अत्यधिक परावर्तक वीक्षक धातु के एक कस्टम संगठन से, अपने दर्पण को आधार दिया, इसके लिए उनके दूरदर्शी हेतु प्रकाशिकी कि गुणवत्ता की जाँच के लिए न्यूटन के छल्लों का प्रयोग किया गया।
फरवरी 1669 तक वे रंगीन विपथन के बिना एक उपकरण का उत्पादन करने में सक्षम हो गए। 1671 में रॉयल सोसाइटी ने उन्हें उनके परावर्ती दूरदर्शी को प्रर्दशित करने के लिए कहा।[26] ^ व्हाइट 1997, पी 168 उन लोगों की रूचि ने उन्हें अपनी टिप्पणियों ओन कलर के प्रकाशन हेतु प्रोत्साहित किया, जिसे बाद में उन्होंने अपनी ऑप्टिक्स के रूप में विस्तृत कर दिया।
जब रॉबर्ट हुक ने न्युटन के कुछ विचारों की आलोचना की, न्यूटन इतना नाराज हुए कि वे सार्वजनिक बहस से बाहर हो गए। हुक की मृत्यु तक दोनों दुश्मन बने रहे। [27]
न्यूटन ने तर्क दिया कि प्रकाश कणों या अतिसूक्षम कणों से बना है, जो सघन माध्यम की और जाते समय अपवर्तित हो जाते हैं, लेकिन प्रकाश के विवर्तन को स्पष्ट करने के लिए इसे तरंगों के साथ सम्बंधित करना जरुरी था। (ऑप्टिक्स बीके।II, प्रोप्स. XII-L). बाद में भौतिकविदों ने प्रकाश के विवर्तन के लिए शुद्ध तरंग जैसे स्पष्टीकरण का समर्थन किया। आज की क्वाण्टम यांत्रिकी, फोटोन और तरंग-कण युग्मता के विचार, न्यूटन की प्रकाश के बारे में समझ के साथ बहुत कम समानता रखते हैं।
1675 की उनकी प्रकाश की परिकल्पना में न्यूटन ने कणों के बीच बल के स्थानान्तरण हेतु, ईथर की उपस्थिति को मंजूर किया।
ब्रह्म विद्यावादी हेनरी मोर के संपर्क में आने से रसायन विद्या में उनकी रुचि पुनर्जीवित हो गयी। उन्होंने ईथर को कणों के बीच आकर्षण और प्रतिकर्षण के वायुरुद्ध विचारों पर आधारित गुप्त बलों से प्रतिस्थापित कर दिया. जॉन मेनार्ड केनेज, जिन्होंने रसायन विद्या पर न्यूटन के कई लेखों को स्वीकार किया, कहते हैं कि "न्युटन कारण के युग के पहले व्यक्ति नहीं थे: वे जादूगरों में आखिरी नंबर पर थे।" रसायन विद्या में न्यूटन की रूचि उनके विज्ञान में योगदान से अलग नहीं की जा सकती है।[31] ^ न्यूटन ने जाहिर तौर पर अपने रसायन विज्ञान के अनुसंधान को परित्यक्त कर दिया। देखो (यह उस समय हुआ जब रसायन विद्या और विज्ञान के बीच कोई स्पष्ट भेद नहीं था।)
यदि उन्होंने एक निर्वात में से होकर एक दूरी पर क्रिया के गुप्त विचार पर भरोसा नहीं किया होता तो वे गुरुत्व का अपना सिद्धांत विकसित नहीं कर पाते।
(आइजैक न्यूटन के गुप्त अध्ययन भी देखें)
1704 में न्यूटन ने आप्टिक्स को प्रकाशित किया, जिसमें उन्होंने अपने प्रकाश के अतिसूक्ष्म कणों के सिद्धांत की विस्तार से व्याख्या की.उन्होंने प्रकाश को बहुत ही सूक्ष्म कणों से बना हुआ माना, जबकि साधारण द्रव्य बड़े कणों से बना होता है और उन्होंने कहा कि एक प्रकार के रासायनिक रूपांतरण के माध्यम से "सकल निकाय और प्रकाश एक दूसरे में रूपांतरित नहीं हो सकते हैं,....... और निकाय, प्रकाश के कणों से अपनी गतिविधि के अधिकांश भाग को प्राप्त नहीं कर सकते, जो उनके संगठन में प्रवेश करती है?"[33] ^ ऑप्टिक्स उद्धृत न्यूटन ने एक कांच के ग्लोब का प्रयोग करते हुए, (ऑप्टिक्स, 8 वां प्रश्न) एक घर्षण विद्युत स्थैतिक जनरेटर के एक आद्य रूप का निर्माण किया।
यांत्रिकी और गुरुत्वाकर्षण
thumbnail|दूसरे संस्करण के लिए हाथ से लिख कर किये गए सुधारों के साथ न्यूटन की अपनी प्रिन्सिपिया की प्रतिलिपि
1677 में, न्यूटन ने फिर से यांत्रिकी पर अपना कार्य शुरू किया, अर्थात्, गुरुत्वाकर्षण और ग्रहीय गति के केपलर के नियमों के सन्दर्भ के साथ, ग्रहों की कक्षा पर गुरुत्वाकर्षण का प्रभाव और इस विषय पर हुक और फ्लेमस्टीड का परामर्श।
उन्होंने जिरम में डी मोटू कोर्पोरम में अपने परिणामों का प्रकाशन किया। (१६८४) इसमें गति के नियमों की शुरुआत थी जिसने प्रिन्सिपिया को सूचित किया।
फिलोसोफी नेचुरेलिस प्रिन्सिपिया मेथेमेटिका (जिसे अब प्रिन्सिपिया के रूप में जाना जाता है) का प्रकाशन एडमंड हेली की वित्तीय मदद और प्रोत्साहन से 5 जुलाई 1687 को हुआ। इस कार्य में न्यूटन ने गति के तीन सार्वभौमिक नियम दिए जिनमें 200 से भी अधिक वर्षों तक कोई सुधार नहीं किया गया है। उन्होंने उस प्रभाव के लिए लैटिन शब्द ग्रेविटास (भार) का इस्तेमाल किया जिसे गुरुत्व के नाम से जाना जाता है और सार्वत्रिक गुरुत्वाकर्षण के नियम को परिभाषित किया। इसी कार्य में उन्होंने वायु में ध्वनि की गति के, बॉयल के नियम पर आधारित पहले विश्लेषात्मक प्रमाण को प्रस्तुत किया। बहुत अधिक दूरी पर क्रिया कर सकने वाले एक अदृश्य बल की न्यूटन की अवधारणा की वजह से उनकी आलोचना हुई, क्योंकि उन्होंने विज्ञान में "गुप्त एजेंसियों" को मिला दिया था।[35] ^ एडेलग्लास एट अल., मेटर एंड माइंड, आई एस बी एन 0940262452. पी. 54
प्रिन्सिपिया के साथ, न्यूटन को अंतरराष्ट्रीय ख्याति मिली.[36] ^ वेस्टफॉल 1980. अध्याय 11. उन्हें काफी प्रशंसाएं मिलीं, उनके एक प्रशंसक थे, स्विटजरलैण्ड में जन्मे निकोलस फतियो दे दयुलीयर, जिनके साथ उनका एक गहरा रिश्ता बन गया, जो 1693 में तब समाप्त हुआ जब न्यूटन तंत्रिका अवरोध से पीड़ित हो गए।[37] ^ वेस्टफॉल 1980. पीपी 493-497 फतियो के साथ दोस्ती पर, पीपी 531-540 न्यूटन के ब्रेकडाउन पर।
बाद का जीवन
thumbnail|आइजैक न्यूटन बुढ़ापे में 1712 में, सर जेम्स थोर्न हिल के द्वारा चित्र
1690 के दशक में, न्यूटन ने कई धार्मिक शोध लिखे जो बाइबल की साहित्यिक व्याख्या से सम्बंधित थे। हेनरी मोर के ब्रह्मांड में विश्वास और कार्तीय द्वैतवाद के लिए अस्वीकृति ने शायद न्यूटन के धार्मिक विचारों को प्रभावित किया। उन्होंने एक पांडुलिपि जॉन लोके को भेजी जिसमें उन्होंने ट्रिनिटी के अस्तित्व को विवादित माना था, जिसे कभी प्रकाशित नहीं किया गया। बाद के कार्य [39]दी क्रोनोलोजी ऑफ़ एनशियेंट किंगडेम्स अमेनडेड (1728) और ओब्सरवेशन्स अपोन दी प्रोफिसिज ऑफ़ डेनियल एंड दी एपोकेलिप्स ऑफ़ सेंट जॉन (1733)[40] का प्रकाशन उनकी मृत्यु के बाद हुआ। उन्होंने रसायन विद्या के लिए भी अपना बहुत अधिक समय दिया (ऊपर देखें)।
न्यूटन 1689 से 1690 तक और 1701 में इंग्लैंड की संसद के सदस्य भी रहे. लेकिन कुछ विवरणों के अनुसार उनकी टिप्पणियाँ हमेशा कोष्ठ में एक ठंडे सूखे को लेकर ही होती थीं और वे खिड़की को बंद करने का अनुरोध करते थे।[41] ^ व्हाइट 1997, पी. 232
1696 में न्यूटन शाही टकसाल के वार्डन का पद संभालने के लिए लन्दन चले गए, यह पद उन्हें राजकोष के तत्कालीन कुलाधिपति, हैलिफ़ैक्स के पहले अर्ल, चार्ल्स मोंतागु के संरक्षण के माध्यम से प्राप्त हुआ।
उन्होंने इंग्लैंड का प्रमुख मुद्रा ढल्लाई का कार्य संभाल लिया, किसी तरह मास्टर लुकास के इशारों पर नाचने लगे (और एडमंड हेली के लिए अस्थाई टकसाल शाखा के उप नियंता का पद हासिल किया)
1699 में लुकास की मृत्यु न्यूटन शायद टकसाल के सबसे प्रसिद्ध मास्टर बने, इस पद पर न्यूटन अपनी मृत्यु तक बने रहे.ये नियुक्तियां दायित्वहीन पद के रूप में ली गयीं थीं, लेकिन न्यूटन ने उन्हें गंभीरता से लिया, 1701 में अपने कैम्ब्रिज के कर्तव्यों से सेवानिवृत हो गए और मुद्रा में सुधार लाने का प्रयास किया तथा कतरनों तथा नकली मुद्रा बनाने वालों को अपनी शक्ति का प्रयोग करके सजा दी.
1717 में टकसाल के मास्टर के रूप में "ला ऑफ़ क्वीन एने" में न्यूटन ने अनजाने में सोने के पक्ष में चांदी के पैसे और सोने के सिक्के के बीच द्वि धात्विक सम्बन्ध स्थापित करते हुए, पौंड स्टर्लिंग को चांदी के मानक से सोने के मानक में बदल दिया।
इस कारण से चांदी स्टर्लिंग सिक्के को पिघला कर ब्रिटेन से बाहर भेज दिया गया। न्यूटन को 1703 में रोयल सोसाइटी का अध्यक्ष और फ्रेंच एकेडमिक डेस साइंसेज का एक सहयोगी बना दिया गया। रॉयल सोसायटी में अपने पद पर रहते हुए, न्यूटन ने रोयल खगोलविद जॉन फ्लेमस्टीड को शत्रु बना लिया, उन्होंने फ्लेमस्टीड की हिस्टोरिका कोलेस्तिस ब्रिटेनिका को समय से पहले ही प्रकाशित करवा दिया, जिसे न्यूटन ने अपने अध्ययन में काम में लिया था।[42] ^ व्हाइट 1997, पी. 317
अप्रैल 1705 में क्वीन ऐनी ने न्यूटन को ट्रिनिटी कॉलेज, कैम्ब्रिज में एक शाही यात्रा के दौरान नाइट की उपाधि दी।
यह नाइट की पदवी न्यूटन को टकसाल के मास्टर के रूप में अपनी सेवाओ के लिए नहीं दी गयी थी और न ही उनके वैज्ञानिक कार्य के लिए दी गयी थी बल्कि उन्हें यह उपाधि मई 1705 में संसदीय चुनाव के दौरान उनके राजनितिक योगदान के लिए दी गयी थी।[43] ^ "न्यूटन के चुनाव के लिए रानी की 'बहुत बड़ी सहायता' थी उसे नाईट की उपाधि देना, यह सम्मान उन्हें न तो विज्ञान में योगदान के लिए दिया गया और न ही टकसाल के लिए उनके द्वारा दी गयी सेवओं के लिए दिया गया। बल्कि 1705 में चुनाव में दलीय राजनीती में योगदान के लिए दिया गया।"
वेस्टफॉल 1994 पी 245
न्यूटन की मृत्यु लंदन में 31 मार्च 1727 को हुई, [पुरानी शैली 20 मार्च 1726] और उन्हें वेस्टमिंस्टर एब्बे में दफनाया गया था। उनकी आधी-भतीजी, कैथरीन बार्टन कोनदुइत,[45] ^ वेस्टफॉल 1980, पी. [44][44] ने लन्दन में जर्मीन स्ट्रीट में उनके घर पर सामाजिक मामलों में उनकी परिचारिका का काम किया; वे उसके "बहुत प्यारे अंकल" थे,[46] ^ वेस्टफॉल 1980, पी. 595 ऐसा जिक्र उनके उस पत्र में किया गया है जो न्यूटन के द्वारा उसे तब लिखा गया जब वह चेचक की बीमारी से उबर रही थी।
न्यूटन, जिनके कोई बच्चे नहीं थे, उनके अंतिम वर्षों में उनके रिश्तदारों ने उनकी अधिकांश संपत्ति पर अधिकार कर लिया और निर्वसीयत ही उनकी मृत्यु हो गई।
उनकी मृत्यु के बाद, न्यूटन के शरीर में भारी मात्रा में पारा पाया गया, जो शायद उनके रासायनिक व्यवसाय का परिणाम था। पारे की विषाक्तता न्यूटन के अंतिम जीवन में सनकीपन को स्पष्ट कर सकती है।
मृत्यु के बाद
प्रसिद्धि
फ्रेंच गणितज्ञ जोसेफ लुईस लाग्रेंज अक्सर कहते थे कि न्यूटन महानतम प्रतिभाशाली था और एक बार उन्होंने कहा कि वह "सबसे ज्यादा भाग्यशाली भी था क्योंकि हम दुनिया की प्रणाली को एक से ज्यादा बार स्थापित नहीं कर सकते."फ्रेड एल विल्सन, विज्ञान का इतिहास: न्यूटन साइटिंग:देलम्ब्रे, एम."Notice sur la vie et les ouvrages de M. le comte जे एल लग्रंग। " Oeuvres de Lagrange आई पेरिस, 1867, पी. एक्स एक्स. अंग्रेजी कवि अलेक्जेंडर पोप ने न्यूटन की उपलब्धियों के द्वारा प्रभावित होकर प्रसिद्ध स्मृति-लेख लिखा:
Nature and nature's laws lay hid in night;
God said "Let Newton be" and all was light.
न्यूटन अपनी उपलब्धियों का बताने में खुद संकोच करते थे, फरवरी 1676 में उन्होंने रॉबर्ट हुक को एक पत्र में लिखा:
If I have seen further it is by standing on ye shoulders of Giants[50]
हालांकि आमतौर पर इतिहासकारों का मानना है कि उपर्युक्त पंक्तियां, नम्रता के साथ कहे गए एक कथन के अलावा [51] या बजाय [52], हुक पर एक हमला थीं (जो कम ऊंचाई का और कुबडा था).[53] ^ "संदेश जिसे न्यूटन देना चाहते थे, हालांकि उन्होंने प्राचीन लोगों से उधार लिया था, उन्हें कोई जरूरत नहीं थी कि वे छोटे व्यक्ति जैसे हुक के विचारों को चुराएँ, हुक शारीरिक रूप से तो बौना था ही साथ ही मानसिक तौर भीबौना ही था," जॉन ग्रिब्बन (2002) साइंस: ऐ हिस्ट्री 1543-2001, पी 164[54] ^ "आखिरी वाक्य में न्यूटन ने हुक के चरित्र के तेज, द्वेषी, विकृत स्वभाव के लिए कहा.........वह शारीरिक रूप से तो विकृत है ही साथ ही चरित्र से भी इतना गिर गया है कि वह बौने जैसा ही दीखता है" व्हाइट 1997, पी 187 उस समय प्रकाशिकीय खोजों को लेकर दोनों के बीच एक विवाद चल रहा था।
बाद की व्याख्या उसकी खोजों पर कई अन्य विवादों के साथ भी उपयुक्त है, जैसा कि यह प्रश्न कि कलन की खोज किसने की, जैसा कि ऊपर बताया गया है।
बाद में एक इतिहास में, न्यूटन ने लिखा:
मैं नहीं जानता कि मैं दुनिया को किस रूप में दिखाई दूंगा लेकिन अपने आप के लिए मैं एक ऐसा लड़का हूँ जो समुद्र के किनारे पर खेल रहा है और अपने ध्यान को अब और तब में लगा रहा है, एक अधिक चिकना पत्थर या एक अधिक सुन्दर खोल ढूँढने की कोशिश कर रहा है, सच्चाई का यह इतना बड़ा समुद्र मेरे सामने अब तक खोजा नहीं गया है।[55] ^ सर आजैक न्यूटन के जीवन, लेखन और खोजों की यादें (1855) सर डेविड ब्रूस्टर के द्वारा (खंड II. अध्याय 27)
स्मारक
thumbnail|ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के प्राकृतिक इतिहास के संग्रहालय में न्यूटन की मूर्ति का प्रदर्शन
न्यूटन का स्मारक (1731) वेस्टमिंस्टर एब्बे में देखा जा सकता है, यह गायक मंडल स्क्रीन के विपरीत गायक मंडल के प्रवेश स्थान के उत्तर में है।
इसे मूर्तिकार माइकल रिज्ब्रेक ने (1694-1770) सफ़ेद और धूसर संगमरमर में बनाया है, जिसका डिजाइन वास्तुकार विलियम कैंट (1685-1748) द्वारा बनाया गया है। इस स्मारक में न्यूटन की आकृति पत्थर की बनी हुई कब्र के ऊपर टिकी हुई है, उनकी दाहिनी कोहनी उनकी कई महान पुस्तकों पर रखी है और उनका बायां हाथ एक गणीतिय डिजाइन से युक्त एक सूची की और इशारा कर रहा है।
उनके ऊपर एक पिरामिड है और एक खगोलीय ग्लोब राशि चक्र के संकेतों तथा 1680 के धूमकेतु का रास्ता दिखा रहा है।
एक राहत पैनल दूरदर्शी और प्रिज्म जैसे उपकरणों का प्रयोग करते हुए, पुट्टी का वर्णन कर रहा है। आधार पर दिए गए लेटिन शिलालेख का अनुवाद है:
यहाँ नाइट, आइजैक न्यूटन, को दफनाया गया, जो दिमागी ताकत से लगभग दिव्य थे, उनके अपने विचित्र गणितीय सिद्धांत हैं, उन्होंने ग्रहों की आकृतियों और पथ का वर्णन किया, धूमकेतु के मार्ग बताये, समुद्र में आने वाले ज्वार का वर्णन किया, प्रकाश की किरणों में असमानताओं को बताया और वो सब कुछ बताया जो किसी अन्य विद्वान ने पहले कल्पना भी नहीं की थी, रंगों के गुणों का वर्णन किया।
वे मेहनती, मेधावी और विश्वासयोग्य थे, पुरातनता, पवित्र ग्रंथों और प्रकृति में विश्वास रखते थे, वे अपने दर्शन में अच्छाई और भगवान के पराक्रम की पुष्टि करते हैं और अपने व्यवहार में सुसमाचार की सादगी व्यक्त करते हैं।
मानव जाति में ऐसे महान आभूषण उपस्थित रह चुके हैं!
वह 25 दिसम्बर 1642 को जन्मे और 20 मार्च 1726/ 7 को उनकी मृत्यु हो गई।--जी एल स्मिथ के द्वारा अनुवाद, दी मोंयुमेंट्स एंड जेनिल ऑफ़ सेंट पॉल्स केथेड्रल, एंड ऑफ़ वेस्टमिंस्टर एब्बे (1826), ii, 703–4.
1978 से 1988 तक, हेरी एकलेस्तन के द्वारा डिजाइन की गयी न्यूटन की एक छवि इंग्लेंड के बैंक के द्वारा जारी किये गए D £1 शृंखला के बैंक नोटों पर प्रदर्शित की गयी, (अंतिम £1 नोट जो इंग्लेंड के बैंक के द्वारा जारी किये गए).
न्यूटन को नोट के पिछली ओर हाथ में एक पुस्तक पकडे हुए दर्शाया गया है, साथ ही एक दूरदर्शी, एक प्रिज्म और सौर तंत्र का एक मानचित्र भी है।
एक सेब पर खड़ी हुई आइजैक न्यूटन की एक मूर्ति, ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के प्राकृतिक इतिहास संग्रहालय में देखी जा सकती है।
ref>[43] ^ "न्यूटन के चुनाव के लिए रानी की 'बहुत बड़ी सहायता' थी उसे नाईट की उपाधि देना, यह सम्मान उन्हें न तो विज्ञान में योगदान के लिए दिया गया और न ही टकसाल के लिए उनके द्वारा दी गयी सेवओं के लिए दिया गया। बल्कि 1705 में चुनाव में दलीय राजनीती में योगदान के लिए दिया गया।"
वेस्टफॉल 1994 पी 245
धार्मिक विचार
nyutn mhanthumbnail|200px|वेस्टमिंस्टर एब्बे में न्यूटन की कब्र
इतिहासकार स्टीफन डी. स्नोबेलेन का न्यूटन के बारे में कहना है कि "आइजैक न्यूटन एक विधर्मी थे। लेकिन ... उन्होंने अपने निजी विश्वास की सार्वजनिक घोषणा कभी नहीं की- जिससे इस रूढ़िवादी को बेहद कट्टरपंथी जो समझा गया। उन्होंने अपने विश्वास को इतनी अच्छी तरह से छुपाया कि आज भी विद्वान उनकी निजी मान्यताओं को जान नहीं पायें हैं।" स्नोबेलेन ने निष्कर्ष निकाला कि न्यूटन कम से कम एक सोशिनियन सहानुभूति रखते थे, (उनके पास कम से कम आठ सोशिनियन किताबें थीं ओर उन्होंने इन्हें पढ़ा), संभवतया एरियन ओर लगभग निश्चित रूप से एक ट्रिनिटी विरोधी थे। —तीन पुर्वजी रूप जो आज यूनीटेरीयनवाद कहलाते हैं।
उनकी धार्मिक असहिष्णुता के लिए विख्यात एक युग में, न्यूटन के कट्टरपंथी विचारों के बारे में कुछ सार्वजनिक अभिव्यक्तियां हैं, सबसे खास है, पवित्र आदेशों का पालन करने के लिए उनके द्वारा इनकार किया जाना, ओर जब वे मरने वाले थे तब उन्हें पवित्र संस्कार लेने के लिए कहा गया ओर उन्होंने इनकार कर दिया।
स्नोबेलेन के द्वारा विवादित एक दृष्टिकोण में, टीसी फ़ाइजनमेयर ने तर्क दिया कि न्यूटन ट्रिनिटी के पूर्वी रुढिवादी दृष्टिकोण को रखते थे, रोमन कैथोलिक, अंग्रेजवाद और अधिकांश प्रोटेसटेंटों का पश्चिमी दृष्टिकोण नहीं रखते थे। उनके अपने दिन में उन पर एक रोसीक्रुसियन होने का आरोप लगाया गया। (जैसा कि रॉयल सोसाइटी और चार्ल्स द्वितीय की अदालत में बहुत से लोगों पर लगाया गया था।)
यद्यपि गति और गुरुत्वाकर्षण के सार्वत्रिक नियम न्यूटन के सबसे प्रसिद्ध अविष्कार बन गए, उन्हें ब्रह्माण्ड को देखने के लिए एक मशीन के तौर पर इनका उपयोग करने के खिलाफ चेतावनी दी गयी, जैसे महान घडी के समान।
उन्होंने कहा, "गुरुत्व ग्रहों की गति का वर्णन करता है लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि किसने ग्रहों को इस गति में स्थापित किया।
भगवान सब चीजों का नियंत्रण करते हैं और जानते हैं कि क्या है और क्या किया जा सकता है।"
उनकी वैज्ञानिक प्रसिद्धि उल्लेखनीय है, साथ ही उनका प्रारंभिक चर्च के पादरियों व बाइबल का अध्ययन भी उल्लेखनीय है।
न्यूटन ने शाब्दिक आलोचना पर लिखा, सबसे विशेष है। एन हिस्टोरिकल अकाउंट ऑफ़ टू नोटेबल करप्शन ऑफ़ स्क्रिप्चर
उन्होंने 3 अप्रैल ई. 33 को यीशु मसीह का क्रूसारोपण भी किया, जो एक पारंपरिक रूप से स्वीकृत तारीख़ के साथ सहमत है।[75] ^ जॉन पी. मिएर, अ मार्जिनल ज्यू, वी. 1, पीपी. 382-402 30 या 33 साल कम करने के बाद, ३० सबसे अधिक समान जजों के लिए. उन्होंने बाइबल के अन्दर छुपे हुए संदेशों को खोजने का असफल प्रयास किया।
उनके अपने जीवनकाल में, न्यूटन ने प्राकृतिक विज्ञान से अधिक धर्म के बारे में लिखा.वह तर्कयुक्त विश्वव्यापी दुनिया में विश्वास करते थे, लेकिन उन्होंने लीबनीज और बरुच स्पिनोजा में निहित हाइलोजोइज्म को अस्वीकार कर दिया.इस प्रकार, आदेशित और गतिशील रूप से सूचित ब्रह्माण्ड को समझा जा सकता था और इसे एक सक्रिय कारण के द्वारा समझा जाना चाहिए.उनके पत्राचार में, न्यूटन ने दावा किया कि प्रिन्सिपिया में लिखते समय "मैंने एक नज़र ऐसे सिद्धांतों पर रखी, ताकि देवता में विश्वास रखते हुए मनुष्य पर विचार किया जा सके."७६न्यूटन से रिचर्ड बेंटले 10 दिसम्बर 1692, टार्न बुल एट अल में। (1959-77), खंड 3, पी. 233. उन्होंने दुनिया की प्रणाली में डिजाइन का प्रमाण देखा: ग्रहीय प्रणाली में ऐसी अद्भुत एकरूपता को पसंद के प्रभाव की अनुमति दी जानी चाहिए।"
लेकिन न्यूटन ने जोर दिया कि अस्थायित्व की धीमी वृद्धि के कारण दैवी हस्तक्षेप अंत में प्रणाली के सुधार के लिए आवश्यक होगा.[77] ^ ऑप्टिक्स, दूसरा संस्करण 1706. प्रश्न 31. इसके लिए लीबनीज
ने उन पर निंदा लेख किया: "सर्वशक्तिमान ईश्वर समय समय पर अपनी घड़ी को समाप्त करना चाहता है: अन्यथा यह स्थानांतरित करने के लिए बंद कर दिया जायेगा. ऐसा लगता है कि उसके पास इसे एक सतत गति बनाने के लिए पर्याप्त दूरदर्शिता नहीं थी।"
[78] ^ एच जी अलेक्जेंडर (संस्करण) लाइबनिट्स-क्लार्क पत्राचार, मानचेस्टर यूनिवर्सिटी प्रेस, 1998, पी. संस्करण 11 न्यूटन की स्थिति को उनके अनुयायी शमूएल क्लार्क द्वारा एक प्रसिद्ध पत्राचार के द्वारा सख्ती से बचाने का प्रयास किया गया।
धार्मिक विचार पर प्रभाव
न्यूटन और रॉबर्ट बोयल के यांत्रिक दर्शन को बुद्धिजीवी क़लमघसीट द्वारा रूढ़ीवादियों और उत्साहियों के लिए एक व्यवहार्य विकल्प के रूप में पदोन्नत किया गया और इसे रूढ़िवादी प्रचारकों तथा असंतुष्ट प्रचारकों जैसे लेटीट्युडीनेरियन के द्वारा हिचकिचाकर स्वीकार किया गया। इस प्रकार, विज्ञान की स्पष्टता और सरलता को नास्तिकता के खतरे तथा अंधविश्वासी उत्साह दोनों की भावनात्मक और आध्यात्मिक अतिशयोक्ति का मुकाबला करने के लिए एक रास्ते के रूप में देखा गया, और उसी समय पर, अंग्रेजी देवत्व की एक दूसरी लहर ने न्यूटन की खोजों का उपयोग एक "प्राकृतिक धर्म" की संभावना को प्रर्दशित करने के लिए किया।
thumbnail|left|"न्यूटन," विलियम ब्लेक के द्वारा; यहाँ, न्यूटन को एक दिव्य ज्यामितिशास्त्रीय के रूप में दर्शाया गया है
पूर्व-आत्मज्ञान के खिलाफ किये गए हमले "जादुई सोच," और ईसाईयत के रहस्यमयी तत्व, को ब्रह्माण्ड के बारे में बोयल की यांत्रिक अवधारणा से नींव मिली.
न्यूटन ने गणितीय प्रमाणों के माध्यम से बोयल के विचारों को पूर्ण बनाया और शायद अधिक महत्वपूर्ण रूप से वे उन्हें लोकप्रिय बनाने में बहुत अधिक सफल हुए. न्यूटन ने एक हस्तक्षेप भगवान द्वारा नियंत्रित दुनिया को एक ऐसी दुनिया में बदल डाला जो तर्कसंगत और सार्वभौमिक सिद्धांतों के साथ भगवान के द्वारा कलात्मक रूप से बनायीं गयी है। ये सिद्धांत सभी लोगों के लिए खोजने हेतु उपलब्ध हैं, ये लोगों को इसी जीवन में अपने उद्देश्यों को फलदायी रूप से पूरा करने की अनुमति देते हैं, अगले जीवन का इन्तजार नहीं करते हैं और उन्हें उनकी अपनी तर्कसंगत शक्तियों से पूर्ण बनाते हैं।
न्यूटन ने भगवान को मुख्य निर्माता के रूप में देखा, जिसके अस्तित्व को सभी निर्माणों की भव्यता के चेहरे में नकारा नहीं जा सकता है।प्रिन्सिपिया, बुक III; में उद्धृत; न्यूटन की फिलोसोफी ऑफ़ नेचर: उनके लेखन से चयन, पी. ४२, संस्करण. एच एस थायर, हाफ्नर पुस्तकालय श्रेष्ठ ग्रंथों के लिए, न्यूयार्क, १९५३.सर आइजैक न्यूटन की खोजों लेखन, जीवन की यादों में उद्धृत वास्तविक धर्म की पांडुलिपी, सर डेविड ब्रूस्टर, एडिनबर्ग के द्वारा, 1850, में उद्धृत; ibid, पी.
65[91] ^ वेब्ब, आर के एड. नुड हाकोनसेन. "दी एमार जेंस ऑफ़ रेशनल दिस्सेंत." प्रबोधन और धर्म:अठारहवें सदी में ब्रिटेन में वाजिब असंतोष. कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस, कैम्ब्रिज: 1996. पी19. उनके प्रवक्ता, क्लार्क, ने लीबनीज के धर्म विज्ञान को अस्वीकृत कर दिया, जिसने भगवान को "l'origine du mal " के उत्तरदायित्व से मुक्त कर दिया, इसके लिए भगवान को उसके निर्माण में योगदान से हटा दिया, चूँकि जैसा कि क्लार्क ने कहा था ऐसा देवता केवल नाम से ही राजा होगा, लेकिन नास्तिकता से एक कदम दूर होगा.[92] ^ एच जी अलेक्जेंडर (संस्करण) लाइबनिट्स-क्लार्क पत्राचार, मानचेस्टर यूनिवर्सिटी प्रेस, 1998, पी.संस्करण १४. लेकिन अगली सदी में न्यूटन की प्रणाली की सफलता का अनदेखा धर्म विज्ञानी परिणाम, लीबनीज के द्वारा बताई गयी आस्तिकता की स्थिति को मजबूत बनाएगा.वेस्टफॉल, रिचर्ड एस विज्ञान और धर्म, सत्रहवीं सदी में, इंग्लैंड. पी 201.
दुनिया के बारे में समझ अब साधारण मानव के कारण के स्तर तक आ गयी और मानव, जैसा कि ओडो मर्कवार्ड ने तर्क दिया, बुराई के सुधार और उन्मूलन के लिए उत्तरदायी बन गया।[94] ^ मारक्वार्ड, ओडो . बोझिल और अबोझिल मनुष्य एवं उद्दान में अभियोजनीय; सिद्धांत के मामलों के विदाई समारोह में राबर्ट एम. वालेस ट्रांस.लंदन: ऑक्सफोर्ड यू पी 1989.
दूसरी ओर, लेटीट्युडीनेरियन और न्यूटोनियन के विचारों के परिणाम बहुत दूरगामी थे, एक धार्मिक गुट यांत्रिक ब्रह्मांड की अवधारणा को समर्पित हो गया, लेकिन इसमें उतना ही उत्साह और रहस्य था कि प्रबुद्धता को नष्ट करने के लिए कठिन संघर्ष किया गया।याकूब, मार्गरेट सी. न्युटोनियन और अंग्रेजी क्रांति: 1689-1720. पी 100-101.
दुनिया के अंत के बारे में दृष्टिकोण
एक पांडुलिपि जो उन्होंने 1704 में लिखी, जिसमें उन्होंने बाइबल से वैज्ञानिक जानकारी निकालने के अपने प्रयास का वर्णन किया है, उनका अनुमान था कि दुनिया 2060 से पहले समाप्त नहीं होगी।
इस भविष्यवाणी में उहोने कहा कि, "इसमें में यह नहीं कह रहा कि अंतिम समय कौन सा होगा, लेकिन मैं इससे उन काल्पनिक व्यक्तियों के अटकलों को बंद करना चाहता हूँ जो अक्सर अंत समय के बारे में भविष्यवाणी करते हैं और इस भविष्यवाणी के असफल हो जाने पर पवित्र भविष्यद्वाणी बदनाम होती है।"
आत्मज्ञानी दार्शनिक
आत्मज्ञानी दार्शनिकों ने पूर्ववर्ती वैज्ञानिकों के एक छोटे इतिहास को चुना-गैलिलियो, बोयल और मुख्य रूप से न्यूटन- यह चुनाव दिन के प्रत्येक भौतिक और सामाजिक क्षेत्र के लिए प्राकृतिक नियम और प्रकृति की एकल अवधारणा के उनके अनुप्रयोग के मार्गदर्शन और जमानत के रूप मैं किया गया।
इस संबंध में, इस पर निर्मित सामाजिक संरंचनाओं और इतिहास के अध्याय त्यागे जा सकते थे।[99] ^ कास्सेल्स, एलन. आधुनिक विश्व में विचारधारा और अंतरराष्ट्रीय संबंध. पी 2.
प्राकृतिक और आत्मज्ञानी रूप से समझने योग्य नियमों पर आधारित ब्रह्माण्ड के बारे में यह न्यूटन की ही संकल्पना थी जिसने आत्मज्ञान विचारधारा के लिए एक बीज का काम किया।[100] ^ "हालांकि यह प्रबोधन के कारकों में से एक था, एक आदेशित गणितीय वर्णन उपलब्ध करने में न्युटोनियन भौतिकी की सफलता, जिसने अठारवीं शताब्दी में इस आन्दोलन के फलने फूलने में स्पष्ट भूमिका निभायी." जॉन गिब्बन (2002) विज्ञान: एक इतिहास 1543-2001, पी 241 लोके और वॉलटैर ने आंतरिक अधिकारों की वकालत करते हुए प्राकृतिक नियमों की अवधारणा को राजनितिक प्रणाली पर लागू किया; फिजियोक्रेट और एडम स्मिथ ने आत्म-रूचि और मनोविज्ञान की प्राकृतिक अवधारणा को आर्थिक प्रणाली पर लागू किया तथा समाजशास्त्रियों ने प्रगति के प्राकृतिक नमूनों में इतिहास को फिट करने की कोशिश के लिए तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था की आलोचना की.
मोनबोडो और सेमयूल क्लार्क ने न्यूटन के कार्य के तत्वों का विरोध किया, लेकिन अंततः प्रकृति के बारे में उनके प्रबल धार्मिक विचारों को सुनिश्चित करने के लिए इसे युक्तिसंगत बनाया।
न्यूटन और जालसाजी
शाही टकसाल के प्रबंधक के रूप में, न्यूटन ने अनुमान लगाया कि दुबारा ढलाई किये जाने वाले सिक्कों में 20% जाली थे। जालसाजी एक बहुत बड़ा राजद्रोह था, जिसके लिए फांसी की सजा थी। इस के बावजूद, सबसे ज्वलंत अपराधियों को पकड़ना बहुत मुश्किल था; यद्यपि, न्यूटन इस कार्य के लिए सही साबित हुए.[101] ^ व्हाइट 1997, पी. 259 भेष बदल कर शराबखाने और जेल में जाकर उन्होंने खुद बहुत से सबूत इकट्ठे किये।[102] ^ व्हाइट 1997, पी. 267 सरकार की शाखाओं को अलग करने और अभियोजन पक्ष के लिए स्थापित सभी बाधाओं हेतु, अंग्रेजी कानून में अभी भी सत्ता के प्राचीन और दुर्जेय रिवाज थे।
न्यूटन को शांति का न्यायाधीश बनाया गया और जून 1698 और क्रिसमस 1699 के बीच उन्होंने गवाह, मुखबिरों और संदिग्धों के 200 परिक्षण करवाए।
न्यूटन ने अपनी प्रतिबद्धता को जीता और फरवरी 1699 में उनके पास दस कैदी रिहाई का इन्तजार कर रहे थे।[103]
राजा के वकील के रूप में न्यूटन का एक मामला विलियम चलोनेर के खिलाफ था।[104] ^ व्हाइट 1997, पी 269 चलोनेर की योजना थी कैथोलिक के जाली षड्यंत्र को तय करना और फिर अभागे षड़यंत्रकारी में बदल देना जिसको वह बंधक बना लेता था।
चलोनेर ने अपने आप को पर्याप्त समृद्ध सज्जन बना लिया। संसद में अर्जी देते हुए चलोनर ने टकसाल में नकली सिक्के बनाने के लिए उपकरण भी उपलब्ध कराये. (ऐसा आरोप दूसरो ने उस पर लगाया) उसने प्रस्ताव दिया कि उसे टकसाल की प्रक्रियाओं का निरीक्षण करने की अनुमति दी जाए ताकि वह इसमें सुधार के लिए कुछ कर सके।
उसने संसद में अर्जी दी कि सिक्कों की ढलाई के लिए उसकी योजना को स्वीकार कर लिया जाये ताकि जालसाजी न की जा सके, जबकि उसी समय जाली सिक्के सामने आये।[105] ^ वेस्टफॉल 1994, पी 229 न्यूटन ने चलोनर पर जालसाजी का परीक्षण किया और सितम्बर 1697 में उसे न्यू गेट जेल में भेज दिया। लेकिन चलोनर के उच्च स्थानों पर मित्र थे, जिन्होंने उसे उसकी रिहाई के लिए मदद की।[106] ^ व्हाइट 1997, पी 269 न्यूटन ने दूसरी बार निर्णायक सबूत के साथ उस पर परिक्षण किया।
चलोनेर को उच्च राजद्रोह का दोषी पाया गया था और उसे 23 मार्च 1699 को तिबुर्न गेलोज में फांसी दे कर दफना दिया गया।[107] ^ वेस्टफॉल 1980, पीपी. 571-5
न्यूटन के गति के नियम
गति के प्रसिद्द तीन नियम
न्यूटन के पहला नियम (जिसे जड़त्व के नियम भी कहा जाता है) के अनुसार एक वस्तु जो स्थिरवस्था में है वह स्थिर ही बनी रहेगी और एक वस्तु जो समान गति की अवस्था में है वह समान गति के साथ उसी दिशा में गति करती रहेगी जब तक उस पर कोई बाहरी बल कार्य नहीं करता है।
न्यूटन के दूसरे नियम के अनुसार एक वस्तु पर लगाया गया बल \vec{, समय के साथ इसके संवेग \vec{ में परिवर्तन की दर के बराबर होता है।
गणितीय रूप में इसे निम्नानुसार व्यक्त किया जा सकता है
चूंकि दूसरा नियम एक स्थिर द्रव्यमान की वस्तु पर लागू होता है, (dm /dt = 0), पहला पद लुप्त हो जाता है और त्वरण की परिभाषा का उपयोग करते हुए प्रतिस्थापन के द्वारा समीकरण को संकेतों के रूप में निम्नानुसार लिखा जा सकता है
पहला और दूसरा नियम अरस्तु की भौतिकी को तोड़ने का प्रतिनिधित्व करता है, जिसमें ऐसा माना जाता था कि गति को बनाये रखने के लिए एक बल जरुरी है।
वे राज्य में व्यवस्था की गति का एक उद्देश्य है राज्य बदलने के लिए हैं कि एक ही शक्ति की जरूरत है। न्यूटन के सम्मान में बल की SI इकाई का नाम न्यूटन रखा गया है।
न्यूटन के तीसरे नियम के अनुसार प्रत्येक क्रिया की बराबर और विपरीत प्रतिक्रिया होती है। इसका अर्थ यह है कि जब भी एक वस्तु किसी दूसरी वस्तु पर एक बल लगाती है तब दूसरी वस्तु विपरीत दिशा में पहली वस्तु पर उतना ही बल लगती है।
इसका एक सामान्य उदाहरण है दो आइस स्केट्स एक दूसरे के विपरीत खिसकते हैं तो विपरीत दिशाओं में खिसकने लगते हैं।
एक अन्य उदाहरण है बंदूक का पीछे की और धक्का महसूस करना, जिसमें बन्दूक के द्वारा गोली को दागने के लिए उस पर लगाया गया बल, एक बराबर और विपरीत बल बंदूक पर लगाता है जिसे गोली चलाने वाला महसूस करता है।
चूंकि प्रश्न में जो वस्तुएं हैं, ऐसा जरुरी नहीं कि उनका द्रव्यमान बराबर हो, इसलिए दोनों वस्तुओं का परिणामी त्वरण अलग हो सकता है (जैसे बन्दूक से गोली दागने के मामले में)।
अरस्तू के विपरीत, न्यूटन की भौतिकी सार्वत्रिक हो गयी है। उदाहरण के लिए, दूसरा नियम ग्रहों तथा एक गिरते हुए पत्थर पर भी लागू होता है। दूसरे नियम की सदिश प्रकृति बल की दिशा और वस्तु के संवेग में परिवर्तन के प्रकार के बीच एक ज्यामितीय सम्बन्ध स्थापित करती है। न्यूटन से पहले, आम तौर पर यह माना जाता था कि सूर्य के चारों और घूर्णन कर रहे एक ग्रह के लिए एक अग्रगामी बल आवश्यक होता है जिसकी वजह से यह गति करता रहता है। न्यूटन ने दर्शाया कि इस के बजाय सूर्य का अन्दर की और एक आकर्षण बल आवश्यक होता है। (अभिकेन्द्री आकर्षण) यहाँ तक कि प्रिन्सिपिया के प्रकाशन के कई दशकों के बाद भी, यह विचार सार्वत्रिक रूप से स्वीकृत नहीं किया गया। और कई वैज्ञानिकों ने डेसकार्टेस के वोर्टिकेस के सिद्धांत को वरीयता दी.[110] ^ बॉल 1908, पी. 337
न्यूटन का सेब
न्यूटन अक्सर खुद एक कहानी कहते थे कि एक पेड़ से एक गिरते हुए सेब को देख कर वे गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत बनाने के लिए प्रेरित हो पाए।[113] ^ व्हाइट 1997, पी. 86.
बाद में व्यंग्य करने के लिए ऐसे कार्टून बनाये गए जिनमें सेब को न्यूटन के सर पर गिरते हुए बताया गया और यह दर्शाया गया कि इसी के प्रभाव ने किसी तरह से न्यूटन को गुरुत्व के बल से परिचित कराया. उनकी पुस्तिकाओं से ज्ञात हुआ कि 1660 के अंतिम समय में न्यूटन का यह विचार था कि स्थलीय गुरुत्व का विस्तार होता है, यह चंद्रमा के वर्ग व्युत्क्रमानुपाती होता है; हालाँकि पूर्ण सिद्धांत को विकसित करने में उन्हें दो दशक का समय लगा।[114] ^ आई। बर्नार्ड कोहेन और जॉर्ज ई. स्मिथ, संस्करण. कैम्ब्रिज कम्पेनियन टू न्यूटन (2002) पी.6. जॉन कनदयुइत, जो रॉयल टकसाल में न्यूटन के सहयोगी थे और न्यूटन की भतीजी के पति भी थे, ने इस घटना का वर्णन किया जब उन्होंने न्यूटन के जीवन के बारे में लिखा:
1666 में वे कैम्ब्रिज से फिर से सेवानिवृत्त हो गए और अपनी मां के पास लिंकनशायर चले गए। जब वे एक बाग़ में घूम रहे थे तब उन्हें एक विचार आया कि गुरुत्व की शक्ति धरती से एक निश्चित दूरी तक सीमित नहीं है, (यह विचार उनके दिमाग में पेड़ से नीचे की और गिरते हुए एक सेब को देख कर आया) लेकिन यह शक्ति उससे कहीं ज्यादा आगे विस्तृत हो सकती है जितना कि पहले आम तौर पर सोचा जाता था।
उन्होंने अपने आप से कहा कि क्या ऐसा उतना ऊपर भी होगा जितना ऊपर चाँद है और यदि ऐसा है तो, यह उसकी गति को प्रभावित करेगा और संभवतया उसे उसकी कक्षा में बनाये रखेगा, वे जो गणना कर रहे थे, इस तर्क का क्या प्रभाव हुआ।
सवाल गुरुत्व के अस्तित्व का नहीं था बल्कि यह था कि क्या यह बल इतना विस्तृत है कि यह चाँद को अपनी कक्षा में बनाये रखने के लिए उत्तरदायी है। न्यूटन ने दर्शाया कि यदि बल दूरी के वर्ग व्युत्क्रम में कम होता है तो, चंद्रमा की कक्षीय अवधि की गणना की जा सकती है और अच्छा परिणाम प्राप्त हो सकता है। उन्होंने अनुमान लगाया कि यही बल अन्य कक्षीय गति के लिए जिम्मेदार है और इसीलिए इसे सार्वत्रिक गुरुत्वाकर्षण का नाम दे दिया।
एक समकालीन लेखक, विलियम स्तुकेले, सर आइजैक न्यूटन की ज़िंदगी को अपने स्मरण में रिकोर्ड करते हैं, वे 15 अप्रैल 1726 को केनसिंगटन में न्यूटन के साथ हुई बातचीत को याद करते हैं, जब न्यूटन ने जिक्र किया कि "उनके दिमाग में गुरुत्व का विचार पहले कब आया।
जब वह ध्यान की मुद्रा में बैठे थे उसी समय एक सेब के गिरने के कारण ऐसा हुआ। क्यों यह सेब हमेशा भूमि के सापेक्ष लम्बवत में ही क्यों गिरता है? ऐसा उन्होंने अपने आप में सोचा। यह बगल में या ऊपर की ओर क्यों नहीं जाता है, बल्कि हमेशा पृथ्वी के केंद्र की ओर ही गिरता है।"
इसी प्रकार के शब्दों में, वोल्टेर महाकाव्य कविता पर निबंध (1727) में लिखा, "सर आइजैक न्यूटन का अपने बागानों में घूम रहे थे, पेड़ से गिरते हुए एक सेब को देख कर, उन्होंने गुरुत्वाकर्षण की प्रणाली के बारे में पहली बार सोचा।
विभिन्न पेड़ों को "वह" सेब के पेड़ होने का दावा किया जाता है जिसका न्यूटन ने वर्णन किया है। दी किंग्स स्कूल, ग्रान्थम दावा करता है कि यह पेड़ स्कूल के द्वारा खरीद लिया गया था, कुछ सालों बाद इसे जड़ सहित लाकर प्रधानाध्यापक के बगीचे में लगा दिया गया। नेशनल ट्रस्ट जो वूलस्थ्रोप मेनर का मालिक है, का वर्तमान स्टाफ इस पर विवाद करता है, ओर दावा करता है कि वह पेड़ उनके बगीचे में उपस्थित है जिस के बारे में न्यूटन ने बात की।
मूल वृक्ष का वंशज ट्रिनिटी कॉलेज, कैम्ब्रिज के मुख्य द्वार के बाहर उगा हुआ देखा जा सकता है, यह उस कमरे के नीचे है जिसमें न्यूटन पढाई के समय रहता था।
ब्रोग्डेल में राष्ट्रीय फलों का संग्रह उन पेड़ों से ग्राफ्ट की आपूर्ति कर सकता है, जो फ्लॉवर ऑफ़ केंट के समान दिखाई देता है, जो एक मोटे गूदे की पकाने की किस्म है।
न्यूटन के लेखन
मेथड ऑफ़ फ़्लक्सियन्स (1671)
ऑफ़ नेचर ओब्वियस लॉस एंड प्रोसेसेज इन वेजिटेशन (अप्रकाशित सी.1671-75)[121] ^ न्यूटन की रासायनिक कार्य जो वर्णित किया गया और इंडियाना विश्वविद्यालय में 11 जनवरी 2007 को ऑनलाइन संशोधित किया गया।
डे मोटू कोर्पोरम इन जिरम (1684)
फिलोसोफी नेचुरेलिस प्रिन्सिपिया मेथेमेटिका (1687)
ऑप्टिक्स (1704)
टकसाल में मास्टर के रूप में रिपोर्टें (1701-25)
एरिथमेटिका युनीवरसेलिस (1707)
दी सिस्टम ऑफ़ दी वर्ल्ड, ऑप्टिकल लेक्चर्स, ''दी क्रोनोलोजी ऑफ़ एनशियेंट किंगडेम्स , (संशोधित) और डी मुंडी सिस्टमेट (1728 में मरणोपरांत प्रकाशित की गयी),
"डेनियल पर प्रेक्षण और डी एपोकलिप्स ऑफ़ सेंट जॉन" (1733)
धर्म-ग्रन्थ के दो उल्लेखनीय भ्रष्टाचारों का ऐतिहासिक लेखा जोखा (1754)
इन्हें भी देखें
अल्बर्ट आइंस्टीन
गैलीलियो गैलिली
न्यूटन की डिस्क
न्यूटन फ्राक्टाल
न्यूटन का झूला
न्यूटन की असमानताएं
न्यूटन के गति के नियम.
न्यूटन के संकेतन
न्यूटन बहुभुज
न्यूटन बहुपद
न्यूटन का प्रतिक्षेपक
न्यूटन के धार्मिक विचार
न्यूटन श्रृंखला
न्यूटन की परिक्रामी कक्षाओं की प्रमेय
न्यूटन (इकाई)
न्यूटन-कोट्स सूत्र
न्यूटन- यूलर समीकरण
न्युटोनियन वाद
श्रोडिंगर-न्यूटन समीकरण
वैज्ञानिक क्रांति
स्पालडिंग जेंटलमेन्स सोसाइटी
पादटिप्पणी और सन्दर्भ
सन्दर्भ
[124]यह अच्छी तरह से प्रलेखित काम, विशेष रूप से, पुर्वाचार्य सम्बन्धी न्यूटन के ज्ञान के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध कराता है।
अतिरिक्त अध्ययन
बर्डी, जेसन सुकरात. दी कैल्कुलस वार्स: न्यूटन, लीबनीज और ग्रेटेस्ट मेथेमेटिकल क्लेश ऑफ आल टाइम (2006). 277 पीपी. अंश और पाठ्य की खोज
बेर्लिन्सकी, डेविड. न्यूटन'स गिफ्ट: हाओ सर आइजैक न्यूटन अनलोक्ड दी सिस्टम ऑफ दी वर्ल्ड (2000). 256 पीपी. अंश और पाठ्य की खोज आई एस बी एन 0-684-84392-7
बक्वाल्ड, जेड़ जेड़. और कोहेन, आई। बर्नार्ड, संस्करण.आइजैक न्यूटन की नेचुरल फिलोसोफी. एमआईटी प्रेस, 2001. 354 पीपी. अंश और पाठ्य की खोज
अंश और पाठ्य की खोज के लिए यह साइट देखें.
कोहेन, आई। बर्नार्ड और स्मिथ, जॉर्ज ई., संस्करण. दी कैम्ब्रिज कम्पेनियन टू न्यूटन (2002). 500 पीपी.केवल दार्शनिक मुद्दों पर केंद्रित; अंश और पाठ्य की खोज; पूर्ण संस्करण ऑनलाइन
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हाकिंग, स्टीफन, संस्करण ओन दी शोल्डर्स ऑफ जाएंट्स आई एस बी एन 0-7624-1348-४ कोपरनिकस, केपलर, गेलिलियो और आइन्स्टीन के चयनित लेखनों के सन्दर्भ में न्यूटन की प्रिन्सिपिया से स्थानों का चयन.
[148]केयेन्स ने न्यूटन में काफी रूचि ली और न्यूटन के कई निजी कागजात पर कब्जा कर लिया।
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न्यूटन, आई। (1975).आइजैक न्यूटन का 'चंद्रमा की गति का सिद्धांत' (1702) .लंदन: डावसन.
बाहरी कड़ियाँ
विज्ञान विश्व की जीवनी
वैज्ञानिक शब्दकोश की जीवनी
न्यूटन परियोजना
न्यूटन की प्रिन्सिपिया- पढो और खोजो
न्यूटन के ज्योतिष का खंडन
न्यूटन के धार्मिक विचारों पर पुनर् विचार
न्यूटन के शाही टकसाल की रिपोर्टें
न्यूटन के छुपे हुए रहस्य नोवा टी वी कार्यक्रम.
दर्शन के स्टैनफोर्ड विश्वकोश से
आइजैक न्यूटन, जॉर्ज स्मिथ द्वारा
न्यूटन की फिलोसोफी नेचुरेलिस प्रिन्सिपिया मेथेमेटिका, जॉर्ज स्मिथ द्वारा
न्यूटन के दर्शन, एंड्रयू जनिअक द्वारा
न्यूटन के अन्तरिक्ष, समय और गति के विचार रॉबर्ट राइनसिवीज के द्वारा
न्यूटन के कास्टल की शैक्षिक सामग्री
आइजैक न्यूटन के रासायनिक विज्ञान के लेखन पर शोध
FMA लाइव!बच्चों को न्यूटन के नियम सिखाने के लिए कार्यक्रम
न्यूटन की धार्मिक स्थिति
न्यूटन की प्रिन्सिपिया की दी "जनरल स्कोलियम"
कंडास्वामी, आनंद एम.न्यूटन / लाइबनिट्स के संघर्ष के सन्दर्भ में.
न्यूटन का पहला ODE- इस बात का अध्ययन कि अनंत श्रृंख्ला का उपयोग करते हुए न्यूटन ने कैसे पहले क्रम के ODE के समाधान का अंदाजा लगाया.
डेसकार्टेस, अंतरिक्ष और निकाय De Gravitatione et Aequipondio Fluidorum, से एक अंश जोनाथन बेनेट के द्वारा टिपण्णी के साथ.
आइजैक न्यूटन की छवियाँ, ऑडियो, एनिमेशन और इंटरैक्टिव घटकों पर नियंत्रण
श्रेणी:1643 में जन्मे लोग
श्रेणी:१७२७ में निधन
श्रेणी:17 वीं शताब्दी के लेटिन लेखक
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श्रेणी:18 वीं सदी के अंग्रेजी लोग
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श्रेणी:आइजैक न्यूटन
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श्रेणी:1707 की प्रारंभ में अंग्रेजी संसद के सदस्य
श्रेणी:लिंकनशायर के लोग
श्रेणी:स्टर्लिंग बैंक नोटों पर दिए गए लोगों के चित्र.
श्रेणी:विज्ञान के दार्शनिकों
श्रेणी:रॉयल सोसायटी के अध्यक्ष
श्रेणी:धर्म और विज्ञान
श्रेणी:रोजीक्रूसियन
श्रेणी:वैज्ञानिक उपकरण के निर्माता
श्रेणी:सैद्धांतिक भौतिक विज्ञानी
श्रेणी:अंग्रेज़ लोग |
दफ़ला | https://hi.wikipedia.org/wiki/दफ़ला | दफ़ला नागलैंड प्रान्त में बोली जाने वाली एक भाषा है।
श्रेणी:विश्व की भाषाएँ |
कंगारू | https://hi.wikipedia.org/wiki/कंगारू | कंगारू आस्ट्रेलिया में पाया जानेवाला एक स्तनधारी पशु है। यह आस्ट्रेलिया का राष्ट्रीय पशु भी है। कंगारू शाकाहारी, धानीप्राणी (मारसूपियल, marsupial) जीव हैं जो स्तनधारियों में अपने ढंग के निराले प्राणी हैं। इन्हें सन् 1773 ई. में कैप्टन कुक ने देखा और तभी से ये सभ्य जगत् के सामने आए। इनकी पिछली टाँगें लंबी और अगली छोटी होती हैं, जिससे ये उछल उछलकर चलते हैं। पूँछ लंबी और मोटी होती है जो सिरे की ओर पतली होती जाती है।
कंगारू स्तनधारियों के शिशुधनिन भाग (मार्सूपियल, marsupialia) के जीव हैं जिनकी विशेषता उनके शरीर की थैली है। जन्म के पश्चात् उनके बच्चे बहुत दिनों तक इस थैली में रह सकते हैं। इनमें सबसे बड़े, भीम कंगारू (जायंट कंगारू) छोटे घोड़े के बराबर और सबसे छोटे, गंध कंगारू (मस्क कंगारू) खरहे से भी छोटे होते हैं।
प्रजातियाँ
कंगारू केवल आस्ट्रलिया में ही पाए जाते हैं। वहाँ इनकी 21 प्रजातियों (जीनस, genus) का अब तक पता चल सका है जिनमें 158 जातियाँ तथा उपजातियाँ सम्मिलित हैं। इनमें कुछ प्रसिद्ध कंगारू इस प्रकार हैं :
न्यू गिनी में डोरकोपसिस (Dorcopsis) जाति के कंगारू मिलते हैं जो कुत्ते के बराबर होते हैं। इनकी पूँछ और टाँगें छोटी होती हैं। इन्हीं के निकट संबंधी तरुकुरंग (डेंड्रोलेगस कंगारू, Dendrolagus kangaroos) हैं जो पेड़ों पर भी चढ़ जाते हैं। इनके कान छोटे और पूँछ पतली तथा लंबी होती है।
पैडीमिलस (pademelous) नामक कंगारू डोलकोपसिस के बराबर होने पर भी छोटे सिरवाले होते हैं। ये न्यु गिनी से टैक्मेनिया तक फैले हुए हैं।
प्रोटेमनोडन (Protemnodon) जाति के कई कंगारू बहुत प्रसिद्ध हैं जो घास के मैदानों में रहते हैं। ये रात में चराई करके दिन का समय किसी झाड़ी में बिताते हैं। इनकी पूँछ, कान और टाँगें लंबी होती हैं।
मैकरोपस (Macropus) जाति का महान् धूम्रवर्ण कंगारू (ग्रेट ग्रे कंगारू) भी बहुत प्रसिद्ध है। यह घास के मैदान का निवासी है। इसी का निकट संबंधी लाल कंगारू भी किसी से कम प्रसिद्ध नहीं है, यह आस्ट्रेलिया के मध्य भाग के निचले पठारों पर रहता है।
शैलधाकुरंग (पेट्रोग्रोल, Petrogole) और ओनीकोगोल (Onychogole) प्रजाति के शैल वैलेबी (रॉक वैलेबी, Rock Wallaby) और नखपुच्छ (नेल टेल) वैलेबी नाम के कंगारू बहुत सुंदर और छोटे कद के होते हैं। इनमें से पूर्वोंक्त प्रजातिवाले कंगारू पहाड़ की खोहों में और दूसरे घास के मैदानों में रहते हैं।
पैलार्किस्टिस (Palorchistes) जाति के प्रातिनूतन भीम कंगारू (प्लाइस्टोसीन जायंट कंगारू, pliestocene giant kangaroo) काफी बड़े (लगभग छोटे घोड़े के भार के) होते हैं। इनका मुख्य भोजन घास पात और फल फल है। इनका सिर छोटा, जबड़ा भारी और टाँगें छोटी होती हैं।
शारीरिक विशेषताएँ
कंगारू के पैरों में अँगूठे नहीं होते। इनकी दूसरी और तीसरी अँगुलियाँ पतली और आपस में एक झिल्ली से जुड़ी रहती हैं, चौथी और पाँचवीं अँगुली बड़ी होती हैं। चौथी में पुष्ट नख रहता है।
कंगारू की पूँछ लंबी और भारी होती है। उछलते समय वे इसी से अपना संतुलन बनाए रहते हैं और बैठते समय इसी को टेककर इस प्रकार बैठे रहते हैं मानों कुर्सी पर बैठे हों। वे अपनी अगली टाँगों और पूँछ को टेककर पिछली टाँगों को आगे बढ़ाते हैं और उछलकर पर्याप्त दूरी तक पहुँच जाते हैं।
कंगारू का मुखछिद्र छोटा होता है जिसका पर्याप्त भाग ओठों से छिपा रहता है। मुख में निचले कर्तनकदंत (इनसाइज़र्स, incisors) आगे की ओर पर्याप्त बढ़े रहते हैं, जिनसे ये अपना मुख्य भोजन, घास पात, सुगमता से कुतर लेते हैं। इनकी आँखें भूरी और औसत कद की, कान गोलाई लिए बड़े और घूमनेवाले होते हैं, जिन्हें हिरन आदि की भाँति इधर-उधर घुमाकर ये दूर आहट पा लेते हैं। इनके शरीर के रोएँ पर्याप्त कोमल होते हैं और कुछ के निचले भाग में घने रोओं की एक और तह भी रहती है।
कंगारू की थैली उसके पेट के निचले भाग में रहती है। यह थैली आगे की ओर खुलती है और उसमें चार थन रहते हैं। जाड़े के आरंभ में इनकी मादा एक बार में एक बच्चा जनती है, जो दो चार इंच से बड़ा नहीं होता। प्रारंभ में बच्चा माँ की थैली में ही रहता है। वह उसको लादे हुए इधर-उधर फिरा करती है। कुछ बड़े हो जाने पर भी बच्चे का सबंध माँ की थेली से नहीं छूटता और वह तनिक सी आहट पाते ही भागकर उसमें घुसजाता है। किंतु और बड़ा हो जाने पर यह थेली उसके लिए छोटी पड़ जाती है और वह माँ के साथ छोड़कर अपना स्वतंत्र जीवन बिताने लगता है। आस्ट्रेलिया के लोग कंगारू का मांस खाते हैं और उसकी पूँछ का रसा बड़े स्वाद से पीते हैं। वैसे तो यह शांतिप्रिय शाकाहारी जीव है, परंतु आत्मरक्षा के समय यह अपनी पिछली टाँगों से भयंकर प्रहार करता है।McCullough, Dale R.; McCullough, Yvette (2000). Kangaroos in Outback Australia. Columbia University Press. ISBN 0-231-11916-X.Flannery, Timothy Fridtjof; Martin, Roger (1996). Tree Kangaroos: A Curious Natural History. Melbourne: Reed Books. ISBN 0-7301-0492-3.
इन्हें भी देखें
धानीप्राणी
लाल कंगारू
मैक्रोपोडीडाए
सन्दर्भ
श्रेणी:धानीप्राणी
श्रेणी:ऑस्ट्रेलिया के स्तनधारी
श्रेणी:मैक्रोपोडीडाए |
रंगोली | https://hi.wikipedia.org/wiki/रंगोली | thumb|upright=1.3|दीवाली हेतु बनाई गई रंगोली, दिल्ली, भारत
thumb|ओणम पर फूलों से बनाई गई रंगोली
रंगोली भारत की प्राचीन सांस्कृतिक परंपरा और लोक-कला है। अलग अलग प्रदेशों में रंगोली के नाम और उसकी शैली में भिन्नता हो सकती है लेकिन इसके पीछे निहित भावना और संस्कृति में पर्याप्त समानता है। इसकी यही विशेषता इसे विविधता देती है और इसके विभिन्न आयामों को भी प्रदर्शित करती है। इसे सामान्यतः त्योहार, व्रत, पूजा, उत्सव विवाह आदि शुभ अवसरों पर सूखे और प्राकृतिक रंगों से बनाया जाता है। इसमें साधारण ज्यामितिक आकार हो सकते हैं या फिर देवी देवताओं की आकृतियाँ। इनका प्रयोजन सजावट और सुमंगल है। इन्हें प्रायः घर की महिलाएँ बनाती हैं। विभिन्न अवसरों पर बनाई जाने वाली इन पारंपरिक कलाकृतियों के विषय अवसर के अनुकूल अलग-अलग होते हैं। इसके लिए प्रयोग में लाए जाने वाले पारंपरिक रंगों में पिसा हुआ सूखा या गीला चावल, सिंदूर, रोली,हल्दी, सूखा आटा और अन्य प्राकृतिक रंगो का प्रयोग किया जाता है परन्तु अब रंगोली में रासायनिक रंगों का प्रयोग भी होने लगा है। रंगोली को द्वार की देहरी, आँगन के केन्द्र और उत्सव के लिए निश्चित स्थान के बीच में या चारों ओर बनाया जाता है। कभी-कभी इसे फूलों, लकड़ी या किसी अन्य वस्तु के बुरादे या चावल आदि अन्न से भी बनाया जाता है।
रंगोली का इतिहास
thumb|right|200px|सिंधुघाटी के इन चित्रों में भारतीय रंगोली की मूल आकृतियों को देखा जा सकता है।रंगोली का एक नाम अल्पना भी है। मोहन जोदड़ो और हड़प्पा में भी मांडी हुई अल्पना के चिह्न मिलते हैं। अल्पना वात्स्यायन के काम-सूत्र में वर्णित चौसठ कलाओं में से एक है। यह अति प्राचीन लोक कला है। इसकी उत्पत्ति के संबंध में साधारणतः यह जाना जाता है कि 'अल्पना' शब्द संस्कृत के - 'ओलंपेन' शब्द से निकला है, ओलंपेन का मतलब है - लेप करना। प्राचीन काल में लोगों का विश्वास था कि ये कलात्मक चित्र शहर व गाँवों को धन-धान्य से परिपूर्ण रखने में समर्थ होते है और अपने जादुई प्रभाव से संपत्ति को सुरक्षित रखते हैं। इसी दृष्टिकोण से अल्पना कला का धार्मिक और सामाजिक अवसरों पर प्रचलन हुआ। बहुत से व्रत या पूजा, जिनमें कि अल्पना दी जाती है, आर्यों के युग से पूर्व की है। आनंद कुमार स्वामी, जो कि भारतीय कला के पंडित कहलाते हैं, का मत है कि बंगाल की आधुनिक लोक कला का सीधा संबंध ५००० वर्ष पूर्व की मोहन जोदड़ो की कला से है। व्रतचारी आंदोलन के जन्मदाता तथा बंगला लोक कला व संस्कृति के विद्वान गुरुसहाय दत्त के अनुसार कमल का फूल जिसे बंगाली स्त्रियाँ अपनी अल्पनाओं के मध्य बनाती हैं, वह मोहन जोदड़ो के समय के कमल के फूल का प्रतिरूप ही है। कुछ अन्य विद्वानों का मत है कि अल्पना हमारी संस्कृति में आस्ट्रिक लोगों, जैसे मुंडा प्रजातियों से आई हैं, जो इस देश में आर्यों के आने से अनेक वर्ष पूर्व रह रहे थे। उन के अनुसार प्राचीन व परंपरागत बंगला की लोक कला कृषि युग से चली आ रही है। उस समय के लोगों ने कुछ देवी देवताओं व कुछ जादुई प्रभावों पर विश्वास कर रखा था, जिसके अभ्यास से अच्छी फसल होती थी तथा प्रेतात्माएँ भाग जाती थीं। अल्पना के इन्हीं परंपरागत आलेखनों से प्रेरणा लेकर आचार्य अवनींद्रनाथ टैगोर ने शांति निकेतन में कला भवन में अन्य चित्रकला के विषयों के साथ-साथ इस कला को भी एक अनिवार्य विषय बनाया। आज यह कला शांति निकेतन की अल्पना के नाम से जानी जाती हैं। इस कला में गोरी देवी मजा का नाम चिरस्मरणीय रहेगा जो शांति निकेतन अल्पना की जननी मानी जाती हैं।
रंगोली का उद्देश्य
thumb|right|200px|दीपावली के अवसर पर घर में चित्रित रंगोली
thumb|right|200px|पुकोलम यानी फूलों की रंगोली
रंगोली धार्मिक, सांस्कृतिक आस्थाओं की प्रतीक रही है। इसको आध्यात्मिक प्रक्रिया का एक महत्त्वपूर्ण अंग माना गया है। तभी तो विभिन्न हवनों एवं यज्ञों में 'वेदी' का निर्माण करते समय भी माँडने बनाए जाते हैं। ग्रामीण अंचलों में घर-आँगन बुहारकर लीपने के बाद रंगोली बनाने का रिवाज आज भी विद्यमान है। भूमि-शुद्धिकरण की भावना एवं समृद्धि का आह्वान भी इसके पीछे निहित है। अल्पना जीवन दर्शन की प्रतीक है जिसमें नश्वरता को जानते हुए भी पूरे जोश के साथ वर्तमान को सुमंगल के साथ जीने की कामना और श्रद्धा निरंतर रहती है। यह जानते हुए भी कि यह कल धुल जाएगी, जिस प्रयोजन से की जाती है, वह हो जाने की कामना ही सबसे बड़ी है। त्योहारों के अतिरिक्त घर-परिवार में अन्य कोई मांगलिक अवसरों पर या यूँ कहें कि रंगोली सजाने की कला अब सिर्फ पूजागृह तक सीमित नहीं रह गई है। स्त्रियाँ बड़े शौक एवं उत्साह से घर के हर कमरे में तथा प्रवेश द्वार पर रंगोली बनाती हैं। यह शौक स्वयं उनकी कल्पना का आधार तो है ही, नित-नवीन सृजन करने की भावना का प्रतीक भी है। रंगोली में बनाए जाने वाले चिह्न जैसे स्वस्तिक, कमल का फूल, लक्ष्मीजी के पग (पगलिए) इत्यादि समृद्धि और मंगलकामना के सूचक समझे जाते हैं। आज कई घरों, देवालयों के आगे नित्य रंगोली बनाई जाती है। रीति-रिवाजों को सहेजती-सँवारती यह कला आधुनिक परिवारों का भी अंग बन गई है। शिल्प कौशल और विविधतायुक्त कलात्मक अभिरुचि के परिचय से गृह-सज्जा के लिए बनाए जाने वाले कुछ माँडणों को छोड़कर प्रायः सभी माँडणे किसी मानवीय भावना के प्रतीक होते हैं। और इस प्रकार ये हमारी सांस्कृतिक भावनाओं को साकार करने में महत्त्वपूर्ण साधन माने जाते हैं। हर्ष और प्रसन्नता का प्रतीक रंगोली रंगमयी अभिव्यक्ति है।
विभिन्न प्रांतों की रंगोली
रंगोली एक अलंकरण कला है जिसका भारत के अलग अलग प्रांतों में अलग अलग नाम है। उत्तर प्रदेश में चौक पूरना, राजस्थान में मांडना, बिहार में अरिपन, बंगाल में अल्पना, महाराष्ट्र में रंगोली, कर्नाटक में रंगवल्ली, तमिलनाडु में कोल्लम, उत्तरांचल में ऐपण, आंध्र प्रदेश में मुग्गु या मुग्गुलु, हिमाचल प्रदेश में 'अदूपना', कुमाऊँ में लिखथाप या थापा, तो केरल में कोलम। इन सभी रंगोलियों में अनेक विभिन्नताएँ भी हैं। महाराष्ट्र में लोग अपने घरों के दरवाजे पर सुबह के समय रंगोली इसलिए बनाते हैं, ताकि घर में कोई बुरी ताकत प्रवेश न कर सके। भारत के दक्षिण किनारे पर बसे केरल में ओणम के अवसर पर रंगोली सजाने के लिए फूलों का इस्तेमाल किया जाता है। दक्षिण भारतीय प्रांत- तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश और कर्नाटक के 'कोलम' में कुछ अंतर तो होता है परंतु इनकी मूल बातें यथावत होती हैं। मूल्यतः ये ज्यामितीय और सममितीय आकारों में सजाई जाती हैं। इसके लिए चावल के आटे या घोल का इस्तेमाल किया जाता है। चावल के आटे के इस्तेमाल के पीछे इसका सफेद रंग होना व आसानी से उपलब्धता है। सूखे चावल के आटे को अँगूठे व तर्जनी के बीच रखकर एक निश्चित साँचे में गिराया जाता है। राजस्थान का मांडना जो मंडन शब्द से लिया गया है का अर्थ सज्जा है। मांडने को विभिन्न पर्वों, मुख्य उत्सवों तथा ॠतुओं के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है। इसे आकृतियों के विभिन्न आकार के आधार पर भी बाँटा जा सकता है। कुमाऊँ के'लिख थाप' या थापा में अनेक प्रकार के आलेखन प्रतीकों, कलात्मक डिजाइनों, बेलबूटों का प्रयोग किया जाता है। लिखथाप में समाज के अलग-अलग वर्गों द्वारा अलग-अलग चिह्नों और कला माध्यमों का प्रयोग किया जाता है। आमतौर पर दक्षिण भारतीय रंगोली ज्यामितीय आकारों पर आधारित होती है जबकि उत्तर भारत की शुभ चिह्नों पर।
रंगोली के प्रमुख तत्त्व
रंगोली भारत के किसी भी प्रांत की हो, वह लोक कला है, अतः इसके तत्व भी लोक से लिए गए हैं और सामान्य हैं। रंगोली का सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व उत्सवधर्मिता है। इसके लिए शुभ प्रतीकों का चयन किया जाता है। इस प्रकार के प्रतीक पीढ़ियों से उसी रूप में बनाए जाते रहे हैं - और इन प्रतीकों का बनाना आवश्यक होता है। नई पीढी पारंपरिक रूप से इस कला को सीखती है और इस प्रकार अपने-अपने परिवार की परंपरा को कायम रखती है। रंगोली के प्रमुख प्रतीकों में कमल का फूल, इसकी पत्तियाँ, आम, मंगल कलश, मछलियाँ, अलग अलग तरह की चिड़ियाँ, तोते, हंस, मोर, मानव आकृतियाँ और बेलबूटे लगभग संपूर्ण भारत की रंगोलियों में पाए जाते हैं। विशेष अवसरों पर बनाई जाने वाली रंगोलियों में कुछ विशेष आकृतियाँ भी जुड़ जाती हैं जैसे दीपावली की रंगोली में दीप, गणेश या लक्ष्मी। रंगोली का दूसरा प्रमुख तत्त्व प्रयोग आने वाली सामग्री है। इसमें वही सामग्री प्रयुक्त होती है जो आसानी से हर स्थान पर मिल जाती है। इसलिए यह कला अमीर-गरीब सभी के घरों में प्रचलित है। सामान्य रूप से रंगोली बनाने की प्रमुख सामग्री है- पिसे हुए चावल का घोल, सुखाए हुए पत्तों के पाउडर से बनाया रंग, चारकोल, जलाई हुई मिट्टी, लकड़ी का बुरादा आदि। रंगोली का तीसरा महत्त्वपूर्ण तत्त्व पृष्ठभूमि है। रंगोली की पृष्ठभूमि के लिए साफ़ या लीपी हुई ज़मीन या दीवार का प्रयोग किया जाता है। रंगोली आँगन के मध्य में, कोनों पर, या बेल के रूप में चारों ओर बनाई जाती है। मुख्यद्वार की देहरी पर भी रंगोली बनाने की परंपरा है। भगवान के आसन, दीप के आधार, पूजा की चौकी और यज्ञ की वेदी पर भी रंगोली सजाने की परंपरा है। समय के साथ रंगोली कला में नवीन कल्पनाओं एवं नए विचारों का भी समावेश हुआ है। अतिथि सत्कार और पर्यटन पर भी इसका प्रभाव पड़ा है और इसका व्यावसायिक रूप भी विकसित हुआ है। इसके कारण इसे होटलों जैसे स्थानों पर सुविधाजनक रंगों से भी बनाया जाने लगा है पर इसका पारंपरिक आकर्षण, कलात्मकता और महत्त्व अभी भी बने हुए हैं।
रंगोली की रचना
thumb|right|220px|रंगोली के रंग
रंगोली दो प्रकार से बनाई जाती है। सूखी और गीली। दोनों में एक मुक्तहस्त से और दूसरी बिंदुओं को जोड़कर बनाई जाती है। बिंदुओं को जोड़कर बनाई जाने वाली रंगोली के लिए पहले सफेद रंग से जमीन पर किसी विशेष आकार में निश्चित बिंदु बनाए जाते हैं फिर उन बिंदुओं को मिलाते हुए एक सुंदर आकृति आकार ले लेती है। आकृति बनाने के बाद उसमें मनचाहे रंग भरे जाते हैं। मुक्तहस्त रंगोली में सीधे जमीन पर ही आकृति बनाई जाती है। पारंपरिक मांडना बनाने में गेरू और सफ़ेद खड़ी का प्रयोग किया जाता है। बाज़ार में मिलने वाले रंगोली के रंगों से रंगोली को रंग बिरंगा बनाया जा सकता है। रंगोली बनाने के झंझट से मुक्ति चाहने वालों के लिए अपनी घर की देहरी को सजाने के लिए 'रेडिमेड रंगोली' स्टिकर भी बाज़ार में मिलते हैं, जिन्हें मनचाहे स्थान पर चिपकाकर रंगोली के नमूने बनाए जा सकते हैं। इसके अतिरिक्त बाजार में प्लास्टिक पर बिंदुओं के रूप में उभरी हुई आकृतियाँ भी मिलती हैं, जिसे जमीन पर रखकर उसके ऊपर रंग डालने से जमीन पर सुंदर आकृति उभरकर सामने आती है। अगर रंगोली बनाने का अभ्यास नहीं है तो इन वस्तुओं का प्रयोग किया जा सकता है। कुछ साँचे ऐसे भी मिलते हैं जिनमें आटा या रंग का पाउडर भरा जा सकता है। इसमें नमूने के अनुसार छोटे छेद होते हैं। इन्हें ज़मीन से हल्का सा टकराते ही निश्चित स्थानों पर रंग झरता है और सुंदर नमूना प्रकट हो जाता है। रंगोली बनाने के लिए प्लास्टिक के स्टेंसिल्स का प्रयोग भी किया जाता है। गीली रंगोली चावल को पीसकर उसमें पानी मिलाकर तैयार की जाती है। इस घोल को ऐपण, ऐपन या पिठार कहा जाता है। इसे रंगीन बनाने के लिए हल्दी का प्रयोग भी किया जाता है। इसके अतिरिक्त रंगीन रंगोली बाज़ार में मिलने वाले पोस्टर, क्रेयॉन, फ़ेब्रिक और एक्रिलिक रंगों से भी बनाई जाती हैं।
पानी और रंगोली
thumb|right|200px|पानी पर फूलों द्वारा निर्मित रंगोली
आजकल रंगोली के लिए कलाकारों ने पानी को भी माध्यम बना लिया है। इसके लिए एक टब या टैंक में पानी को लेकर स्थिर व समतल क्षेत्र में पानी को डाल दिया जाता है। कोशिश यह की जाती है कि पानी को हवा या किसी अन्य तरह के संवेग से वास्ता न पड़े। इसके बाद चारकोल के पावडर को छिड़क दिया जाता है। इस पर कलाकार अन्य सामग्रियों के साथ रंगोली सजाते हैं। इस तरह की रंगोली भव्य नजर आती है। भरे हुए पानी पर फूलों की पंखुडियों और दियों की सहायता से भी रंगोली बनाई जाती है। पानी सतह पर रंगों को रोकने के लिए चारकोल की जगह, डिस्टेंपर या पिघले हुए मोम का भी प्रयोग किया जाता है। कुछ रंगोलियाँ पानी के भीतर भी बनाई जाती हैं। इसके लिए एक कम गहरे बर्तन में पानी भरा जाता है फिर एक तश्तरी या ट्रे पर अच्छी तरह से तेल लगाकर रंगोली बनाई जाती है। बाद में इसपर हल्का सा तेल स्प्रे कर के धीरे से पानी के बर्तन की तली में रख दिया जाता है। तेल लगा होने के कारण रंगोली पानी में फैलती नहीं। महाराष्ट्र के नागपुर की रहने वाली वंदना जोशी को रंगोली बनाने में महारत हासिल है। वह पानी के ऊपर रंगोली बनाने वाली विश्व की पहली महिला हैं और वह ७ फरवरी २००४ को दुनिया की सबसे बड़ी रंगोली बनाकर गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में भी अपना नाम दर्ज करा चुकी हैं। पानी पर रंगोली बनाने वाले दूसरे प्रमुख कलाकार राजकुमार चन्दन हैं। वे देवास में मीता ताल के १७ एकड़ जल पर विशालकाय रंगोली बनाने का अद्भुत काम कर चुके हैं।
विश्वास और मान्यताएँ
thumb|right|200px|तमिलनाडु में कोलम।
तमिल नाडु में यह मिथक प्रचलित है कि मारकाड़ी के महीने में देवी आंडाल ने भगवान तिरुमाल से विवाह की विनती की। लम्बी साधना के बाद वो भगवान तिरुमाल में विलीन हो गईं। इसलिए इस महीने में अविवाहित लड़कियाँ सूर्योदय से पहले उठकर भगवान तिरुमाल के स्वागत के लिए रंगोली सजाती हैं। रंगोली के संबंध में पुराणों में कई कथाएँ प्रचलित हैं। चित्रकला पर पहले भारतीय ग्रंथ 'चित्र लक्षण' में एक कथा का उल्लेख आता है, वह इस प्रकार है- एक राजा के पुरोहित का बेटा मर गया। ब्रह्मा ने राजा से कहा कि वह लड़के का रेखाचित्र ज़मीन पर बना दे ताकि उस में जान डाली जा सके। राजा ने ज़मीन पर कुछ रेखाएँ खींचीं, यहीं से अल्पना या रंगोली की शुरुआत हुई। इसी सन्दर्भ में एक और कथा है कि ब्रह्मा ने सृजन के उन्माद में आम के पेड़ का रस निकाल कर उसी से ज़मीन पर एक स्त्री की आकृति बनाई। उस स्त्री का सौंदर्य अप्सराओं को मात देने वाला था, बाद में वह स्त्री उर्वशी कहलाई। ब्रह्मा द्वारा खींचीं गई यह आकृति रंगोली का प्रथम रूप है। रंगोली के संबंध में और भी पौराणिक सन्दर्भ मिलते हैं, जैसे - रामायण में सीता के विवाह मंडप की चर्चा जहाँ की गई हैं वहाँ भी रंगोली का उल्लेख है। दक्षिण में रंगोली का सांस्कृतिक विकास चोल शासकों के युग में हुआ। चावल के आटे के इस्तेमाल के पीछे यह मान्यता है कि चींटी को खाना खिलाना चाहिए। यहाँ यह माना जाता है कि कोलम के बहाने अन्य जीव जन्तु को भोजन मिलता है जिससे प्राकृतिक चक्र की रक्षा होती है। रंगोली को झाडू या पैरों से नहीं हटाया जाता है बल्कि इन्हें पानी के फव्वारों या कीचड़ सने हाथों से हटाया जाता है। मिथिलांचल में ऐसा कोई पर्व-त्योहार या (उपनयन-विवाह जैसा कोई) समारोह नहीं जब घर की दीवारों और आंगन में चित्रकारी नहीं की जाती हो। प्रत्येक अवसर के लिए अलग ढँग से "अरिपन" बनाया जाता है जिसके अलग-अलग आध्यात्मिक अर्थ होते हैं। विवाह के अवसर पर वर-वधू के कक्ष में दीवारों पर बनाए जाने वाले "कोहबर" और "नैना जोगिन" जैसे चित्र, जो वास्तव में तंत्र पर आधारित होते हैं, चित्रकला की बारीकियों के प्रतिमान हैं।
रंगोली में निहित परंपरा और आधुनिकता
thumb|right|200px|विजयलक्ष्मी मोहन द्वारा सिंगापुर में बनाई गई विशालकाय रंगोलीरंगोली भारत की सांस्कृतिक परंपराओं में सबसे प्राचीन लोक चित्रकला है। इस चित्रकला के तीन प्रमुख रूप मिलते हैं- भूमि रेखांकन, भित्ति चित्र और कागज़ तथा वस्त्रों पर चित्रांकन। इसमें सबसे अधिक लोकप्रिय भूमि रेखांकन हैं, जिन्हें अल्पना या रंगोली के रूप में जाना जाता है। भित्ति चित्रों के लिए बिहार का मधुबनी और महाराष्ट्र के ठाणे जिले में वरली नामक स्थान प्रसिद्ध है। इनकी रचना शैली और रचनात्मक सामग्री रंगोली के समान ही होती है। इसमें विभिन्न अवसरों पर शुभ चिह्नों के साथ अनेक प्रकार के चित्रों से दीवारों की सजावट की जाती है। तीसरे प्रकार के चित्रांकन कागज़ों अथवा कपड़ों पर होते हैं। कुमाऊँ में इसे ज्यूँति, राजस्थान में फड़ या पड़क्यें कहा जाता है। ज्यूँति में जहाँ जीवमातृकाओं और देवताओं के चित्र बने होते हैं वहीं फड़ में राजाओं और लोकदेवताओं की वंशावली चित्रित होती है। आंध्र-प्रदेश की कलमकारी और उड़ीसा के पट्टचित्र भी इसी लोक कला के उदाहरण हैं इससे पता चलता है कि लोक संस्कृति हाथ से चित्रित करने की यह परंपरा अत्यंत व्यापक और प्राचीन है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि भारतीय संस्कृति के मूल में कितनी कलात्मकता और लालित्य निहित है।
thumb|left|100px|left|रंगोली कलाकृति के रूप में
यह कलात्मकता और लालित्य आज भी रूप बदलकर शुभ अवसरों पर दिखाई पड़ता है। सम्पन्नता के विकास के साथ आजकल इसे सजाने के लिए शुभ अवसरों के आने की प्रतीक्षा नहीं की जाती बल्कि किसी भी महत्वपूर्ण अवसर को रंगोली सजाकर शुभ बना लिया जाता है। चाहे किसी चीज का लोकार्पण हो या होटलों के प्रचार-प्रसार की बात हो, रंगोली की सजावट आवश्यक समझी जाती है। इसके अतिरिक्त आजकल कलाकारों ने रंगोली प्रर्दशनी और रंगोली प्रतियोगिताएँ भी शुरू कर दी है। कुछ रंगोलियाँ ऐसी भी होती हैं जो देखने में एक कलाकृति की भाँति दिखाई देती हैं। इनमें आधुनिकता और परंपरा का समावेश आसानी से लक्षित किया जा सकता है। रंगोली बनाने की प्रतियोगिताएँ और रेकार्डों का भी अद्भुत क्रम शुरू हुआ है। गिनीज़ बुक ऑफ़ वर्ल्ड रेकार्ड तक रंगोली पहुँचाने वाली पहली महिला विजय लक्ष्मी मोहन थीं, जिन्होंने सिंगापुर में ३ अगस्त २००३ को यह रेकार्ड बनाया। २००९ तक यह रेकार्ड हर साल टूटता रहा है। इसके अतिरिक्त पानी पर रंगोली बनाने के रेकार्ड भी गिनीज़ बुक ऑफ़ वर्ल्ड रेकार्ड में शामिल हो चुके हैं।
चित्र दीर्घा
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
रंगोली के नमूने
रंगोली की परंपरा
श्रेणी:हिन्दू धर्म
श्रेणी:लोक कला
श्रेणी:रंगोली |
मास्को | https://hi.wikipedia.org/wiki/मास्को | 350px|thumb
thumb|240px|right|मास्को स्थित रेड स्केव्यर का एक दृश्य
मास्को या मॉस्को ( / मोस्कवा), रूस की राजधानी एवं यूरोप का सबसे बडा शहर है। मॉस्को का शहरी क्षेत्र विश्व के सबसे बडे शहरी क्षेत्रों में गिना जाता है। मास्को रूस की राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक, वित्तीय एवं शैक्षणिक गतिविधियों का केन्द्र माना जाता है। यह मोस्कवा नदी के तट पर बसा हुआ है। ऐतिहासिक रूप से यह पुराने सोवियत संघ एवं प्राचीन रूसी साम्राज्य की राजधानी भी रही है। मास्को को संसार के अरबपतियों का नगर भी कहा जाता है जहाँ विश्व के सबसे अधिक अरबपति बसते हैं। २००७ में मास्को को लगातार दूसरी बार विश्व का सबसे महँगा नगर भी घोषित किया गया था।Sahadi, Jeanne, Moscow remains the world’s most expensive city while London moves up from fifth to second place . CNNMoney.com
इतिहास
मास्को नगरी का नाम मोस्कवा नदी पर रखा गया है। १२३७-३८ के आक्रमण के बाद, मंगोलों ने सारा नगर जला दिया और लोगों को मार दिया। मास्को ने दुबारा विकास किया और १३२७ में व्लादिमीर - सुज्दाल रियासत की राजधानी बनाई गई। वोल्गा नदी के शुरूवात पर स्थित होने के कारण यह नगर अनुकूल था और इस कारण धीरे धीरे शहर बड़ा होने लगा। मास्को एक शांत और संपन्न रियासत बन गया और सारे रूस से लोग आकर यहाँ बसने लगे।
१६५४-५६ के प्लेग ने मास्को की आधी जनसंख्या को समाप्त कर दिया। १७०३ में बाल्टिक तट पर पीटर महान द्वारा सैंट पीटर्सबर्ग के निर्माण के बाद, १७१२ से मास्को रूस की राजधानी नहीं रही। १७७१ का प्लेग मध्य रूस का अन्तिम बड़ा प्लेग था, जिसमे केवल मास्को के ही १००००० व्यक्तियों के प्राण गए।
१९०५ में, अलेक्जेंडर अद्रिनोव मास्को के पहले महापौर बने। १९१७ के रुसी क्रांति के पश्चात, मास्को को सोवियत संघ की राजधानी बनाया गया।
मई ८,१९६५ को, नाजी जर्मनी पर विजय की २०वीं वर्षगांठ के अवसर पर मास्को को हीरो सिटी की उपाधि प्रदान की गयी।
अर्थव्यवस्था
मास्को यूरोप की सबसे बड़ी शहरी अर्थव्यवस्थाओं में से एक है। यह रूस के सकल घरेलू उत्पाद का करीब २४% योगदान करता है। २००८ में मास्को की अर्थव्यवस्था ८.४४ ट्रिलियन रूबल थी | मास्को में औसत मासिक वेतन ४१६०० रूबल है। २०१० में, मास्को में बेरोजगारी दर सिर्फ १% थी, जो रूस के सभी प्रशासनिक क्षेत्रों में सबसे कम है।
मास्को रूस का निर्विवादित रूप से मुख्य आर्थिक केंद्र है। यहाँ रूस के सबसे बड़े बैंक और कंपनियाँ स्थित हैं जिनमे रूस की सबसे बड़ी कंपनी गेज्प्रोम भी शामिल है। मास्को की रूस की खुदरा बिक्री में १७% एवं सभी निर्माण गतिविधियों में १३% हिस्सेदारी है। चेर्किजोव्सकी बाजार, ३ करोड़ डॉलर की दैनिक बिक्री एवं दस हजार विक्रेताओं के साथ यूरोप का सबसे बड़ा बाजार है। यह बाजार प्रशासनिक रूप से १२ भागों में बँटा है और शहर के एक बड़े भूभाग पर स्थित है।२००८ में, मास्को में ७४ अरबपति थे और यह न्यूयोर्क, ७१ अरबपति, से ऊँचे पायदान पर है।
शिक्षा
देखें, मास्को राज्य विश्वविद्यालय
मास्को में १६९६ उच्चतर विद्यालय एवं ९१ महाविद्यालय हैं। इनके अलावा, २२२ अन्य संस्थान भी उच्च शिक्षा उपलब्ध करातें हैं, जिनमे ६० प्रदेश विश्वविद्यालय एवं १७५५ में स्थापित लोमोनोसोव मास्को स्टेट विश्वविद्यालय भी शामिल हैं। विश्वविद्यालय में २९ संकाय एवं ४५० विभाग हैं जिनमे ३०००० पूर्वस्नातक एवं ७००० स्नातकोत्तर छात्र पढते हैं। साथ ही विश्वविद्यालय में, उच्चतर विद्यालय के करीब १०००० विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करते हैं एवं करीब २००० शोधार्थी कार्य करते हैं। मास्को स्टेट विश्वविद्यालय पुस्तकालय, रूस के सबसे बड़े पुस्तकालयों में से एक है, यहाँ लगभग ९० लाख पुस्तकें हैं।
शहर में ४५२ पुस्तकालय हैं, जिनमे से १६८ बच्चों के लिए हैं। १८६२ में स्थापित रुसी स्टेट पुस्तकालय, रूस का राष्ट्रीय पुस्तकालय है।
स्थापत्य
मास्को का स्थापत्य विश्व प्रसिद्ध है। मास्को सेंट बेसिल केथेड्रल, क्राइस्ट द सेवियर केथेड्रल और सेवेन सिस्टर्स के लिए प्रसिद्ध है।
लंबे समय तक मास्को पर रूढ़िवादी चर्चों का प्रभाव रहा | हालाँकि, शहर के समग्र रूप में सोवियत काल से भारी परिवर्तन हुआ है, खासकर जोसेफ स्टालिन के शहर के आधुनिकीकरण के बड़े पैमाने पर किये प्रयास के कारण यह परिवर्तन हुआ | स्टालिन की शहर के लिए योजना में चौड़े रास्तों और सडकों का जाल शामिल था जिनमे कई सड़कें १० लेन तक चौड़ी थीं | इससे शहर का यातायात सुगम हो गया, पर इसके लिए बहुत सारी एतिहासिक इमारतों को हटाना पड़ा |
स्टालिनवादी अवधि का सबसे प्रसिद्ध योगदान सेवेन सिस्टर्स (सात बहनें) माना जा सकता है। सेवेन सिस्टर्स सात गगनचुम्बी इमारतें हैं, जो क्रेमलिन से समान दूरी पर शहर भर में फैली हुईं हैं। सात टावरों को शहर के सभी ऊँचे स्थानों से देखा जा सकता है। ओस्तान्कियो टॉवर के अलावा ये सात टॉवर मध्य मास्को की सबसे ऊँची इमारतों में से हैं। ओस्तान्कियो टॉवर का निर्माण १९६७ में पूरा हुआ था, उस समय यह दुनिया की सबसे ऊँची मुक्त खड़ी भूमि संरचना थी | आज बुर्ज खलीफा दुबई, केंतून टॉवर ग्वांगझू और सी.एन. टॉवर टोरोंटो के बाद चौथे स्थान पर है।
हर नागरिक और उसके परिवार को अनिवार्य आवास उपलब्ध कराने की सोवियत नीति एवं मास्को की आबादी के तेजी से विकास के कारण, विशाल एवं नीरस आवासीय परिसरों का निर्माण किया गया | इन परिसरों को इनकी शैली, आयु, मजबूती एवं निर्माण सामग्री के आधार पर विभेदित किया जा सकता है। इनमे से अधिकतर का निर्माण स्टालिन युग के पश्चात हुआ और इनकी निर्माण शैलियाँ नेताओं (ब्रेज्हेनेव, ख्रुश्चेव इत्यादि) के नाम से जानी जाती हैं। आमतौर पर इन परिसरों का रखरखाव खराब है।
जनसांख्यिकी
बाहरी कड़ियाँ
विकी ट्रैवल पर मॉस्को के बारे में
मॉस्को-डॉट कॉम
आधिकारिक जालस्थल
रूसी सरकार के पर्यटन मंत्रालय के जालस्थल पर मॉस्को
आधिकारिक मॉस्को प्रशासन
मीडिया
द मॉस्को टाईम्स - मॉस्को का एक बडा अंग्रेजी अखबार
द मॉस्को न्यूज - मॉस्को के सबसे पुराने अंग्रेजी अखबारों में से एक
मौसम सूचना
अगले छह दिनों के मास्को का मौसम— moscow.the.by
मानचित्र
चित्र एवँ वीडियो
सन्दर्भ
श्रेणी:यूरोप के नगर
श्रेणी:रूस के नगर
श्रेणी:यूरोप में राजधानियाँ |
ओस्लो | https://hi.wikipedia.org/wiki/ओस्लो | ओस्लो युरोप महादेश में स्थित नार्वे देश की राजधानी एवं वहां का सबसे बडा़ शहर है। इसे सन १६२४ से १८७९ तक क्रिस्टैनिया के नाम से जाना जाता था। आधुनिक ओस्लो की स्थापना ३ जनवरी १८३८ को एक नगर निगम के रूप में की गयी थी।
परिचय
नामाकरण
इतिहास
भौगोलिक स्थिती एवं जलवायु
260px|right
thumb|260px|left|ओस्लो शहर का एक दृश्य
महीना जनवरी फरवरी मार्च अप्रैल मई जून जुलाई अगस्त सितंबर अक्टूबर नवंबर दिसम्बर औसत उच्च तापमान °C (°F) -1.8 (29) -0.9 (30) 3.5 (38) 9.1 (49) 15.8 (60) 20.4 (69) 21.5 (71) 20.1 (68) 15.1 (59) 9.3 (49) 3.2 (38) -0.5 (31) औसत न्यूनतम तापमान °C (°F) -6.8 (20) -6.8 (20) -3.3 (26) 0.8 (33) 6.5 (44) 10.6 (51) 12.2 (54) 11.3 (52) 7.5 (46) 3.8 (39) -1.5 (29) -5.6 (22)''Source: World Weather Information Service All data is for Oslo - Blindern (94 m.s.l.)
मुख्य आकर्षण
|right|thumb|अकेरसुस किला.
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|right|thumb|ओस्लो राष्ट्रीय रंगमंच केन्द्र
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|right|thumb| ओस्लो का राजमहल.
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|thumb|ओस्लो सिटी हॉल
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|right|thumb|वायकिंगशिप संग्रहालय.
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राजनीति एवं शासन
प्रशासनिक विभाजन
अर्थव्यवस्था
जनसांख्यिकी
उच्च शिक्षण संस्थान
ओस्लो विश्वविद्यालय (Universitetet i Oslo)
परिवहन व्यवस्था
|thumb|250px|ओस्लो विमानतल
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|thumb|250px|ओस्लोत्रिकेन ओस्लो की ट्रेन सेवा
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|thumb|ओस्लो सिटी बस.|250px
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वायु परिवहन
समुद्री परिवहन
ट्रेन
लोक परिवहन
सडक
मीडीया
खेलकूद
महत्वपूर्ण शहरी
श्रेणी:यूरोप में राजधानियाँ
श्रेणी:नॉर्वे |
जकार्ता | https://hi.wikipedia.org/wiki/जकार्ता | जकार्ता इंडोनेशिया की राजधानी एवं सबसे बड़ा नगर है। इसका पुुुरा नाम बटाबिया है ।जकार्ता जावा के उत्तर-पश्चिमी तट पर स्थित है। इसका कुल क्षेत्रफल ६६१कि.मी. है एवं २०१० की जनगणना के अनुसार यहाँ की जनसंख्या लगभग ९५,८०,००० है। जकार्ता देश का आर्थिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक केंद्र है। जकार्ता जनसँख्या के मामले में इंडोनेशिया एवं दक्षिण-पूर्वी एशिया में प्रथम एवं विश्व में दसवें स्थान पर है। जकार्ता की स्थापना चौथी शताब्दी में हुई और यह एक महत्वपूर्ण व्यापारिक बंदरगाह गया। जकार्ता डच ईस्ट इंडीज़ की राजधानी था और १९४५ में स्वतंत्रता मिलने के बाद भी यह इंडोनेशिया की राजधानी बना रहा।
प्रशासन
अधिकारिक रूप से, जकार्ता एक नगर नहीं, एक प्रान्त है, जिसे इंडोनेशिया की राजधानी होने का विशेष दर्जा प्राप्त है। यहाँ महापौर के स्थान पर राज्यपाल होते हैं। जकार्ता को कई उपक्षेत्रों में विभाजित किया गया है, जिनके अपने प्रशासनिक तंत्र हैं।
जकार्ता को पांच कोटा अथवा कोटामाद्य (नगरपालिका) में विभाजित किया गया है, जिनके अध्यक्ष महापौर होते हैं।
जकार्ता की पांच नगरपालिकाएं:
मध्य जकार्ता
पश्चिमी जकार्ता
दक्षिणी जकार्ता
पूर्वी जकार्ता
उत्तरी जकार्ता
अर्थव्यवस्था
जकार्ता की अर्थव्यवस्था वित्तीय सेवाओं, व्यापार और विनिर्माण पर आश्रित है। यहाँ के उद्योगों में इलेक्ट्रानिक, ऑटोमोटिव, रसायन, यांत्रिक अभियांत्रिकी और जैव चिकित्सा मुख्य है। २००९ में, करीब १३% आबादी की आय १०००० डॉलर से अधिक है। २००७ में, जकार्ता की आर्थिक वृद्धि दर ६.४४% थी, जो २००६ में ५.९५% थी। २००७ में, सकल घरेलू उत्पाद ५६६ ट्रिलियन रूपिया (५६ बिलियन डॉलर) था। सकल घरेलू उत्पाद में सर्वाधिक योगदान वित्तीय एवं व्यापारिक सेवाओं (२९%) का है, इसके बाद होटल एवं रेस्त्रां (२०%) और विनिर्माण उद्योग (१६%) का है।
२००७ में लागू कानून ने भीख देना, नदियों एवं हाईवे के किनारों पर झुग्गी बस्तियों का निर्माण करना एवं सार्वजनिक यातायात के साधनों में थूकना और धूम्रपान करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया। अनाधिकृत लोगों द्वारा कार की सफाई करने पर और चौराहों पर यातायात निर्देशन के लिए धन लेने वालों पर जुर्माना लगाया जायेगा|
पर्यटन
जकार्ता मुख्य रूप से प्रशासनिक एवं व्यापारिक नगर है। इसे, पुराने शहर को छोड़कर, पर्यटन केंद्र के रूप में कम ही देखा जाता है। पुराना शहर एक प्रसिद्ध पर्यटन स्थान है। हालाँकि, जकार्ता प्रशासन की इसे सेवा एवं पर्यटन केंद्र के रूप में स्थापित करने की कोशिश है। नगर में कई नए पर्यटन बुनियादी सुविधाएँ, मनोरंजन केंद्र और अंतर्राष्ट्रीय स्तर के होटल एवं रेस्त्रां का निर्माण किया जा रहा है। जकार्ता में कई ऐतिहासिक स्थल एवं सांस्कृतिक विरासतें हैं।
राष्ट्रीय स्मारक, नगर के मध्य में स्थित सेंट्रल पार्क, मर्डेका स्क्वायर, के मध्य में स्थित है। राष्ट्रीय स्मारक के पास महाभारत पर आधारित अर्जुन विजय रथ मूर्ति एवं फुव्वारा स्थित है। मध्य जकार्ता में स्थित विस्मा ४६ इमारत, जकार्ता एवं इंडोनेशिया की सबसे ऊँची इमारत है। ज्यादातर विदेशी पर्यटक पड़ोसी आसियान देशों, जैसे मलेशिया और सिंगापुर, के होते हैं, जो जकार्ता ख़रीददारी करने के उद्देश्य से आते हैं। जकार्ता सस्ते परन्तु उचित गुणवत्ता के सामान जैसे कपड़े, शिल्प एवं फैशन उत्पादों के लिए प्रसिद्ध है।
शिक्षा
जकार्ता में कई विश्वविद्यालय हैं, जिनमे इंडोनेशिया विश्वविद्यालय सबसे बड़ा है। इंडोनेशिया विश्वविद्यालय सरकारी स्वामित्व वाला विश्वविद्यालय है। इसकी स्थापना २ फ़रवरी १९५० को हुई थी। यह बारह संकायों में विभाजित है: चिकित्सा संकाय, दन्त चिकित्सा संकाय, गणित एवं प्राकृतिक विज्ञान संकाय, विधि संकाय, मनोविज्ञान संकाय, अभियांत्रिकी संकाय, अर्थशास्त्र संकाय, जन स्वास्थ्य संकाय, समाज एवं राजनीति शास्त्र संकाय, मानविकी संकाय, अभिकलित्र विज्ञान संकाय और उपचर्या संकाय|
सबसे बड़ा नगर एवं राजधानी होने के कारण, जकार्ता में इंडोनेशिया के सभी हिस्सों से विद्यार्थी आते हैं। आधारभूत शिक्षा के लिए कई प्राथमिक एवं माध्यमिक शालायें हैं, जो सार्वजनिक, निजी एवं अंतर्राष्ट्रीय विद्यालय में वर्गीकृत की गई हैं।
श्रेणी:एशिया में राजधानियाँ
श्रेणी:इण्डोनेशिया के आबाद स्थान
श्रेणी:राजधानी ज़िले और क्षेत्र |
बेतिया | https://hi.wikipedia.org/wiki/बेतिया | बेतिया (Bettiah) भारत के बिहार राज्य के पश्चिमी चम्पारण ज़िले में स्थित एक नगर है। यह इसी नाम के सामुदायिक विकास खंड का मुख्यालय भी है।"Bihar Tourism: Retrospect and Prospect ," Udai Prakash Sinha and Swargesh Kumar, Concept Publishing Company, 2012, ISBN 9788180697999"Revenue Administration in India: A Case Study of Bihar," G. P. Singh, Mittal Publications, 1993, ISBN 9788170993810
विवरण
बेतिया का प्रशासन महापौर-परिषद व्यवस्था से करा जाता है। साथ ही यह बेतिया राज की राजधानी है । पश्चिमी चंपारण जिला का मुख्यालय भी है। भारत-नेपाल सीमा पर स्थित है। इसके पश्चिम में उत्तर प्रदेश का कुशीनगर जिला पड़ता है। 'बेतिया' शब्द 'बेंत' (cane) से व्युत्पन्न है जो कभी यहाँ बड़े पैमाने पर उत्पन्न होता था (अब नहीं)। अंग्रेजी काल में बेतिया राज दूसरी सबसे बड़ी ज़मींदारी थी जिसका क्षेत्रफल १८०० वर्ग मील थी। इससे उस समय २० लाख रूपये लगान मिलता था। इसका उत्तरी भाग ऊबड़-खाबड़ तथा दक्षिणी भाग समतल तथा उर्वर है। यह हरहा नदी की प्राचीन तलहटी में स्थित प्रमुख नगर है। यह मुजफ्फरपुर से १२४ किमी दूर है तथा पहले बेतिया जमींदारी की राजधानी था। यहाँ के दर्शनीय स्थल:-[१] बेतिया राज का महल [२] उदयपुर पक्षी उद्यान [३] सागर पोखरा [४]काली मंदिर [५] दुर्गा मंदिर [६] सरया मन दर्शनीय है। महात्मा गांधी ने बेतिया के हजारी मल धर्मशाला में रहकर सत्याग्रह आंदोलन की शुरुआत की थी। १९७४ के संपूर्ण क्रांति में भी बेतिया की अहम भुमिका थी। यहां के अमवा मझार गांव के रहने वाले श्यामाकांत तिवारी ने जयप्रकाश नारायण के कहने पर पूरे जिले में आंदोलन को फैलाया। यह एक कृषि प्रधान क्षेत्र है जहाँ गन्ना, धान और गेहूँ सभी उगते हैं। यह गाँधी की कर्मभूमि और ध्रुपद गायिकी के लिए प्रसिध है। बेतिया से मुंबई फ़िल्म उद्योग का सफ़र तय कर चुके मशहूर फ़िल्म निर्देशक प्रकाश झा ने इस क्षेत्र के लोगों की सरकारी नौकरी की तलाश पर 'कथा माधोपुर' की रचना की।
यातायात
वायु मार्ग- यहाँ का सबसे नज़दीकी हवाई अड्डा महारानी जानकी कुँअर राजकीय हवाई अड्डा है जो 3 किलोमीटर दूरी पर है | दुसरी तरफ 204 किलोमीटर की दूरी पटना में है। तीसरी तरफ हवाई अड्डा गोरखपुर में है।
रेल मार्ग- बेतिया यहाँ का सबसे नज़दीकी रेलवे स्टेशन है जहां से भारत के अधिकांश शहरों के लिए ट्रेन उपलब्ध है। यह बडी लाईन के द्वारा भारतिय रेल तंत्र से जुडा हुआ है।इसके दोहरीकरण की योजना है! मुजफ्फरपुर से मोतिहारी होते हुए नरकटियागंज तक मार्ग का
विद्युतीकरण हो चुका है। दोहरीकरण होना बाकी है जिसके लिए सरकार ने सहमति दे दी है...
सड़क मार्ग- यहाँ के सरकारी बस अड्डे से राजधानी पटना के अलावा देश के और भी जगहों के लिए बसें खुलती है।
इन्हें भी देखें
बगहा
वाल्मीकि राष्ट्रीय अभयारण्य
बेतिया राज
पश्चिमी चम्पारण ज़िला
बाहरी कड़ियाँ
बेतिया की ब्रेकिंग न्यूज़
बिहार का समाचार
सन्दर्भ
श्रेणी:बिहार के शहर
श्रेणी:पश्चिमी चम्पारण जिला
श्रेणी:पश्चिमी चम्पारण ज़िले के नगर |
बाबूलाल मरांडी | https://hi.wikipedia.org/wiki/बाबूलाल_मरांडी | बाबूलाल मरांडी (जन्म 11 जनवरी 1958) एक भारतीय राजनीतिज्ञ और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के सदस्य हैं। वह झारखंड के पहले मुख्यमंत्री और वर्तमान में झारखंड विधानसभा में विपक्ष के नेता हैं। वह झारखंड विकास मोर्चा (प्रजातांत्रिक) के संस्थापक और राष्ट्रीय अध्यक्ष थे। वह 12वीं, 13वीं, 14वीं और 15वीं लोकसभा में मरांडी से सांसद भी रहे। वह 1998 से 2000 में भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार में केंद्रीय राज्य मंत्री थे।
प्रारम्भिक जीवन
इनका जन्म 11 जनवरी 1958 को वर्तमान झारखण्ड के गिरिडीह जिले के कोदाईबांक नामक गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम छोटे लाल मराण्डी तथा माता का नाम श्रीमती मीना मुर्मू है।
उन्होंने रांची विश्वविद्यालय से भूगोल में स्नातकोत्तर किया।कॉलेज में पढ़ाई के दौरान मराण्डी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ गए। संघ से पूरी तरह जुड़ने से पहले मरांडी ने गाँव के स्कूल में कुछ सालों तक कार्य किया। इसके बाद वे संघ परिवार से जुड़ गए। उन्हें झारखण्ड क्षेत्र के विश्व हिन्दू परिषद का संगठन सचिव बनाया गया।
1983 में वह दुमका जाकर सन्थाल परगना डिवीजन में कार्य करने लगे। 1989 में इनकी शादी शान्ति देवी से हुई। एक बेटा भी हुआ अनूप मराण्डी, जिसकी 27 अक्टूबर 2007 को झारखण्ड के गिरिडीह क्षेत्र में हुए नक्सली हमले में मौत हो गई।
1991 में मराण्डी भाजपा के टिकट पर दुमका लोकसभा सीट से चुनाव लड़े, लेकिन हार गए। 1996 में वह फिर शिबू शोरेन से हारे। इसके बाद भाजपा ने 1998 में उन्हें विधानसभा चुनाव के दौरान झारखण्ड भाजपा का अध्यक्ष बनाया। पार्टी ने उनके नेतृत्व में झारखण्ड क्षेत्र की 14 लोकसभा सीटों में से 12 पर कब्जा किया।
1998 के चुनाव में उन्होंने शिबू शोरेन को सन्थाल से हराकर चुनाव जीता था, जिसके बाद एनडीए की सरकार में बिहार के 4 सांसदों को कैबिनेट में जगह दी गई। इनमें से एक बाबूलाल मराण्डी थे।
2000 में बिहार से अलग होकर झारखण्ड राज्य बनने के बाद एनडीए के नेतृत्व में बाबूलाल मराण्डी ने राज्य की पहली सरकार बनाई।
उस समय के राजनीति विशेषज्ञों के अनुसार मराण्डी राज्य को बेहतर तरीके से विकसित कर सकते थे। राज्य की सड़कें, औद्योगिक क्षेत्र तथा राँची को ग्रेटर राँची बना सकते थे। शिक्षा के क्षेत्र में उन्होंने कई सराहनीय कदम उठाये। छात्राओं के लिए साइकिल की व्यवस्था, ग्राम शिक्षा समिति बनाकर स्थानीय विद्यालयों में पारा शिक्षकों की बहाली, आदिवासी छात्र छात्राओं के लिए प्लेन पायलट की प्रशिक्षण, सभी गाँवों, पंचायतों और प्रखण्डों में आवश्यकतानुसार विद्यालयों का निर्माण, राज्य में सड़कें, बिजली और पानी की उचित व्यवस्था के लिए अन्य योजनाओं की शुरुआत की। जनता को विश्वास होने लगा था झारखण्ड राज्य विकास की ओर अग्रेसित हो रहा है। हालाँकि मराण्डी उनके इस विश्वास को कम समय में पूरा नहीं कर सके और उन्हें जदयू के हस्तक्षेप के बाद सत्ता छोड़ अर्जुन मुण्डा को सत्ता सौंपनी पड़ी।
इसके बाद उन्होंने राज्य में एनडीए को विस्तार (विशेषकर राँची में) देने का कार्य किया। 2004 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने कोडरमा सीट से चुनाव जीता, जबकि अन्य उम्मीदवार हार गए। मराण्डी ने 2006 में कोडरमा सीट सहित भाजपा की सदस्यता से भी इस्तीफा देकर 'झारखण्ड विकास मोर्चा' नाम से नई राजनीतिक दल बनाया।
भाजपा के 5 विधायक भी भाजपा छोड़कर इसमें शामिल हो गए। इसके बाद कोडरमा उपचुनाव में वे निर्विरोध चुन लिए गए। 2009 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने अपनी पार्टी की ओर से कोडरमा सीट से चुनाव लड़कर बड़ी जीत हासिल की।
राजनीतिक जीवन
-1991 में भाजपा के महामंत्री गोविन्दाचार्य ने भाजपा में शामिल किया
-1991 में पहली बार झामुमो के शिबू सोरेन के विरुद्ध दुमका लोकसभा से खड़े हुए, हार मिली।
-1996 में महज 5000 वोट से शिबू सोरेन से हारे
-1996 में पार्टी ने उन्हें वनांचल भाजपा का अध्यक्ष नियुक्त किया
-1998 के लोकसभा चुनाव में उन्हें शिबू सोरेन को हराने में सफलता पाई
-1999 के चुनाव में उन्होंने शिबू सोरेन की पत्नी रूपी सोरेन को दुमका से हराया
-1999 में अटल सरकार में उन्हें वन पर्यावरण राज्य मन्त्री बनाया गया
-2000 में झारखण्ड के पहले मुख्यमन्त्री चुने गए
-2003 में दल के आन्तरिक विरोध के कारण उन्हें मुख्यमन्त्री पद त्यागना पड़ा।
-2006 में झारखण्ड विकास मोर्चा नामक दल का गठन किया।
-2019 में धनवार विधानसभा जेवीएम पार्टी से इलेक्शन लड़े और बड़ी जीत हासिल किए इसके बाद श्री मरांडी ने अपनी जेवीएम पार्टी को भारतीय जनता पार्टी में विलय कर बीजेपी में ज्वॉइन हो गए
सन्दर्भ
श्रेणी:1958 में जन्मे लोग
श्रेणी:जीवित लोग
श्रेणी:झारखण्ड के मुख्यमंत्री
श्रेणी:१४वीं लोक सभा के सदस्य
श्रेणी:१५वीं लोकसभा के सदस्य
श्रेणी:भारतीय जनता पार्टी के मुख्यमंत्री |
विदर्भ | https://hi.wikipedia.org/wiki/विदर्भ | thumb|भारतीय मानचित्र पर विदर्भ
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विदर्भ महाराष्ट्र प्रांत का एक उपक्षेत्र है।
इस उपक्षेत्र में कुल 11 जिले है। महाराष्ट्र में कोयला खदान और मूल्यवान मँगणिज कि खदाने विदर्भ में हि बहुतायत में पाये जाते हैं। कोयला खदानो कि वजह से हि विदर्भ में चंद्रपूर, कोराडी, खापरखेडा, मौदा और तिरोडा में औष्णिक विद्युत निर्माण संयंत्र पाये जाते हैं। जिससे संपुर्ण महाराष्ट्र विद्युत आपूर्ती में लाभान्वित होता है।
इसके अलावा महाराष्ट्र कि ज्यादातर वनसंपदा विदर्भ क्षेत्र में हि मौजूद है।
इसके व्यतिरिक्त चावल उत्पादन में तुमसर मंडी विदर्भ में हि है जो महाराष्ट्र में सबसे बड़ी कृषी उत्पाद कि मंडी का सम्मान पाती है। प्रसिद्ध बासमती चावल का उत्पादन भी इसी क्षेत्र में होता है। विदर्भ के हि चंद्रपूर जिले में महाराष्ट्र के कुल सिमेंट कारखानो में सर्वाधिक कारखाने अकेले चंद्रपूर जिले में है। विदर्भ में मराठी और हिन्दी बोली जाती हैं। विदर्भ सन 1956 तक मध्यप्रदेश प्रांत का उपक्षेत्र हुआ करता था। विदर्भ अब महाराष्ट्र प्रदेश में आता है, महाराष्ट्र में हरितक्रांती और श्वेत क्रांती गोरराजवंशी वसंतराव नाईक रणसोत ने लायी, वे विदर्भ के ही थे , जलक्रांती के नायक सुधाकरराव नाइक भी विदर्भ से आते है। विदर्भ से मारोतराव कन्नमवार , वसंंतराव नायक, सुधाकरराव नायक और देवेंद्र फडणवीस के रूप में मुख्यमंत्री मिले। और प्रतिभा देविसींग शेखावत के रुपमे देश को महिला राष्ट्रपती मिलने का सौभाग्य भी मिला।
श्रेणी:महाराष्ट्र का भूगोल
विदर्भ, महाराष्ट्र राज्य का उत्तर पूर्वी प्रादेशिक क्षेत्र है, वर्तमान में इस क्षेत्र के अंतर्गत नागपुर और अमरावती दो डिवीजन है जिनके अंतर्गत महाराष्ट्र के नागपुर, अमरावती, चंद्रपुर, अकोला, वर्धा, बुलढाना, यवतमाल, भंडारा, गोंदिया, वाशिम, गढ़चिरौली जिले आते हैं।
नागपुर साल 1853 से 1861 तक 'नागपुर प्रॉविंस' की राजधानी रहा. इसके बाद मध्य प्रांत और बरार का साल 1950 तक. इसके बाद मध्य प्रदेश राज्य का जन्म हुआ और नागपुर एक बार फिर इसकी राजधानी बना. लेकिन 1960 में महाराष्ट्र राज्य के निर्माण के बाद इस शहर ने यह रुतबा खो दिया और तब से इसके रुतबे को वापस लाने के लिए एक आंदोलन जारी है.
वर्मा इसीलिए कहते हैं, "हम एक नए राज्य की मांग नहीं कर रहे हैं बल्कि नागपुर के खोए हुए दर्जे को वापस बहाल करने की मांग कर रहे हैं."
इतिहास
ग्यारहवीं शताब्दी में विदर्भ , धार के सम्राट परमार भोज के अधिन मालवा साम्राज्य का अंग था। इसलिये पँवार नरेश भोज को विदर्भराज कहाँ जाता था। भोज परमार के बाद भी विदर्भ पर भोज वंशीयो का राज्य रहा।
pt. II. Descriptive articles on the principal castes and tribes of the Central Provinces. Robert Vane Russell. Macmillan and Company, limited, 1916. The Maharashtra Government Gazette. Maharashtra (India)1964.https://books.google.co.in/books?id=DzreyCWKpygC&q=powar+of+Maharashtra&dq=powar+of+Maharashtra
संदर्भ |
तीस हजारी | https://hi.wikipedia.org/wiki/तीस_हजारी | तीस हजारी दिल्ली का एक "थाना क्षेत्र" है यहाँ दिल्ली जिला न्यायालय होने की वजह से तीस हजारी मशहूर है।
तीस हजारी, दिल्ली, दिल्ली मेट्रो रेल की रेड लाइन (दिल्ली मेट्रो) रेड लाइन शाखा का एक स्टेशन भी है।
श्रेणी:दिल्ली के क्षेत्र |
पेनसिल्वेनिया | https://hi.wikipedia.org/wiki/पेनसिल्वेनिया | पुनर्प्रेषित पेन्सिलवेनिया |
अम्बाला | https://hi.wikipedia.org/wiki/अम्बाला | अम्बाला (Ambala) भारत के हरियाणा राज्य के अम्बाला ज़िले में स्थित एक नगर व नगरनिगम है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है और राष्ट्रीय राजधानी, दिल्ली, से लगभग 200 किमी उत्तर में है। यहाँ सिन्धु नदी का जलसम्भर क्षेत्र और गंगा नदी का जलसम्भर मिलता है, और अम्बाला पंजाब राज्य की सीमा से सटा हुआ है। राज्य सीमा के पार समीप ही पटियाला नगर है। अम्बाला लम्बे काल से भारतीय सेना की एक प्रमुख छावनी रही है iऔर दो भागों में विभाजित है - अम्बाला छावनी और अम्बाला नगर, जो एक-दूसरे से लगभग 8 किमी दूर हैं। अम्बाला दो नदियों से घिरा है, उत्तर में घग्गर नदी और दक्षिण में टांगरी नदी। श्रीनगर से कन्याकुमारी जाने वाला राष्ट्रीय राजमार्ग 44 यहाँ से गुज़रता है। भौगोलिक स्थिति के कारण पर्यटन कें क्षेत्र में भी अम्बाला का महत्वपूर्ण स्थान है।"General Knowledge Haryana: Geography, History, Culture, Polity and Economy of Haryana," Team ARSu, 2018"Haryana: Past and Present ," Suresh K Sharma, Mittal Publications, 2006, ISBN 9788183240468"Haryana (India, the land and the people), Suchbir Singh and D.C. Verma, National Book Trust, 2001, ISBN 9788123734859
नामोत्पत्ति
अम्बाला नाम की उत्पत्ति शायद महाभारत की अम्बालिका के नाम से हुई होगी। आज के जमाने में अम्बाला अपने विज्ञान सामग्री उत्पादन व मिक्सी उद्योग के लिए प्रसिद्ध है। अम्बाला को विज्ञान नगरी कह कर भी पुकारा जाता है कयोंकि यहां वैज्ञानिक उपकरण उद्योग केंद्रित है। भारत के वैज्ञानिक उपकरणों का लगभग चालीस प्रतिशत उत्पादन अम्बाला में ही होता है। एक अन्य मत यह भी है कि यहां पर आमों के बाग बगीचे बहुत थे, जिससे इस का नाम अम्बा वाला अर्थात् अम्बाला पड़ गया।
इतिहास
अम्बाला की स्थापना अम्बा नामक राजपूत शाशक ने की कुछ लोगों का मानना है। अम्बाला अंबिका माता का मंदिर होने के कारण इसका नाम अंबाला पड़ा कुछ लोगों का मानना है कि यहाँ आम की पैदावार अधिक होती थी इस लिए इसे अम्बवाला कहा जाता था, जो अब अंबाला बन गया।
भूगोल
अंबाला नगर, सिंधु तथा गंगा नदी तंत्रो के बीच जल विभाजक पर स्थित है। अंबाला से सुंदरवन तक मैदान की लम्बाई 1,800 कि०मी० है। यहाँ से चण्डीगढ़ 47 किमी उत्तर, कुरुक्षेत्र 50 किमी दक्षिण, शिमला 148 किमी पूर्वोत्तर, अमृतसर 260 किमी पश्चिमोत्तर और दिल्ली198 किमी दक्षिण में स्थित हैं।
शिक्षा
अम्बाला छावनी में सनातन धर्म कालेज, आर्य कन्या महाविद्यालय, गांधी स्मारक कॉलेज तथा राजकीय महाविद्यालय स्थित हैं। एस डी कॉलेज में कार्यालय प्रबंधन के अध्यापन की व्यवस्था बी ए, बी कॉम तथा डिप्लोमा स्तर पर उपलब्ध है। इस विषय के अध्यापन की सुविधा मात्र सनातन धर्म कॉलेज, अम्बाला छावनी में ही है। संस्कृत के गहन अध्ययन के लिये अम्बाला छावनी में श्री दीवान कृष्ण किशोर सनातन धर्म आदर्श संस्कृत महाविद्यालय भी विद्यमान है। अम्बाला शहर में एम डी एस डी गर्ल्ज कॉलेज, डी ए वी कॉलेज तथा आत्मा नन्द जैन कॉलेज स्थित हैं। अम्बाला शहर में श्री आत्मानन्द जैन सीनियर सेकेन्डरी स्कूल, श्री आत्मानन्द जैन सीनियर मॉडल स्कूल, श्री आत्मानन्द जैन विजय वल्लभ स्कूल, गंगा राम सनातन धर्म स्कूल, एन एन एम डी स्कूल, डी ए वी पब्लिक स्कूल, पी के आर जैन स्कूल, चमन वाटिका, आर्य समाज सीनियर सेकेन्डरी स्कूल, स्प्रिन्ग्फ़ील्ड स्कूल और भी कई स्कूल हैं। अम्बाला शहर में दो राजकीय बहुतकनीकी संस्थान हैं। अम्बाला से २० मील दूर मुलाना में एम एम विश्वविधालय है।
कृषि और खनिज
अंबाला के पास आमों की खेती की जाती है।
यातायात और परिवहन
यह शहर अमृतसर और दिल्ली से सड़क और रेलमार्ग से जुड़ा हुआ है। शहर से संलग्न अंबाला छावनी में रेलों के एक बड़े जंक्शन के साथ एक हवाई अड्डा भी है। साथ ही यह भारत की सबसे बड़ी छावनियों में से एक है।
उद्योग और व्यापार
अंबाला एक महत्त्वपूर्ण औद्योगिक शहर है। वैज्ञानिक उपकरणों, सिलाई मशीनों, मिश्रण यंत्रों (मिक्सर) और मशीनी औज़रों के निर्माण तथा कपास की ओटाई, आटा मिलों व हथकरघा उद्योग की दृष्टि से अंबाला छावनी व शहर, दोनों उल्लेखनीय हैं। एक महत्त्वपूर्ण कृषि मंडी होने के साथ अंबाला में एक सरकारी धातु कार्यशाला भी है।
पर्यटन
अम्बाला में भारत की पश्चिमोत्तर सीमा पर भारत का प्रमुख वायु सेना मुख्यालय भी स्थित है। यहां पर पटेल पार्क, नेता जी सुभाष चंद्र पार्क, इन्दिरा पार्क तथा महावीर उद्यान स्थित हैं। इस पार्कों में स्थानीय नागरिक सुबह और शाम घूमने जाते हैं। मनोरंजन हेतु यहां पर निगार, कैपिटल, निशात तथा नावल्टी सिनेमाघर विद्यमान हैं। सेंट पॉल कैथेड्रल भी दर्शनीय है। अम्बाला से वैसे तो अनेक लघु पत्रपत्रिकाएं प्रकाशित होती हैं। पश्चिमोत्तर भारत का एक प्रमुख हिन्दी दैनिक पंजाब केसरी भी अम्बाला से प्रकाशित होता है।
अम्बाला छावनी, अम्बाला सदर तथा अम्बाला शहर तीन पृथक व स्तंत्रत स्थानीय निकाय यहां पर लोक प्रशासन हेतु स्थापित हैं। अंबाला शहर में प्रसिद्ध अम्बिका देवी मंदिर स्थित है। जोकि अंबाला शहर बैस स्टैंड से मात्र दो किलोमीटर की दूरी पर है । नवरात्रि में यहां बड़े मेले लगते है और मां अंबिका के दर्शनार्थ पंजाब,उत्तरप्रदेश और स्थानीय लोग आते है। अंबिका देवी का सम्बन्ध महाभारत काल से है। अंबिका देवी मन्दिर के समीप ही नोरंगराय तालाब स्थित है जिसके बीचोबीच विष्णु जी के अवतार वामन भगवान की प्रतिमा स्थापित है । जहा वामन द्वादशी तिथि को बड़े मेले का आयोजन किया जाता है।
इन्हें भी देखें
अम्बाला ज़िला
अम्बाला छावनी
अम्बाला कैंट जंक्शन रेलवे स्टेशन
अम्बाला लोक सभा निर्वाचन क्षेत्र
अम्बाला एयर फ़ोर्स स्टेशन
सन्दर्भ
*
श्रेणी:हरियाणा के शहर
श्रेणी:अम्बाला ज़िला
श्रेणी:अम्बाला ज़िले के नगर
श्रेणी:भारतीय सेना की छावनियाँ |
पानीपत | https://hi.wikipedia.org/wiki/पानीपत | पानीपत (अँग्रेज़ी: Panipat) भारत के हरियाणा राज्य के पानीपत ज़िले में स्थित एक ऐतिहासिक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है। यहाँ सन् 1526, 1556 और 1761 में तीन महत्वपूर्ण युद्ध लड़े गए थे। पानीपत की भाषा हरियाणवी हैं। पानीपत राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र का एक हिस्सा हैं। "General Knowledge Haryana: Geography, History, Culture, Polity and Economy of Haryana," Team ARSu, 2018"Haryana: Past and Present ," Suresh K Sharma, Mittal Publications, 2006, ISBN 9788183240468"Haryana (India, the land and the people), Suchbir Singh and D.C. Verma, National Book Trust, 2001, ISBN 9788123734859
विवरण
पानीपत एक प्राचीन और ऐतिहासिक शहर है। पानीपत का प्राचीन नाम 'पाण्डवप्रस्थ' था। यह दिल्ली-चंडीगढ राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या-१ पर स्थित है। यह राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र, दिल्ली के अन्तर्गत आता है और दिल्ली से ९० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। भारत के मध्य-युगीन इतिहास को एक नया मोड़ देने वाली तीन प्रमुख लड़ाईयां यहां लड़ी गयी थी। प्राचीन काल में पांडवों एवं कौरवों के बीच महाभारत का युद्ध इसी के पास कुरुक्षेत्र में हुआ था, अत: इसका धार्मिक महत्व भी बढ़ गया है। महाभारत युद्ध के समय में युधिष्ठिर ने दुर्योधन से जो पाँच स्थान माँगे थे उनमें से यह भी एक था। आधुनिक युग में यहाँ पर तीन इतिहासप्रसिद्ध युद्ध भी हुए हैं। प्रथम युद्ध में, सन् 1526 में बाबर ने भारत की तत्कालीन शाही सेना को हराया था। द्वितीय युद्ध में, सन् 1556 में अकबर ने उसी स्थल पर अफगान आदिलशाह के जनरल हेमू को परास्त किया था। तीसरे युद्ध में, सन् 1761 में, अहमदशाह दुर्रानी ने मराठों को हराया था। यहाँ अलाउद्दीन द्वारा बनवाया एक मकबरा भी है। इसे बुनकरों की नगरी भी कहा जाता है। नगर में पीतल के बरतन, छुरी, काँटे, चाकू बनाने तथा कपास ओटने का काम होता है। यहाँ शिक्षा एवं अस्पताल का भी उत्तम प्रबंध है।
शिक्षा
श्री सोम सन्तोश एजुकेशनल सोसाइटी, पानीपत - गरीब बच्चो के लिये नि:शुल्क सिलाई केम्प की वय्व्स्था।
एलीमेंट्री एंड टेक्निकल स्किल कौंसिल ऑफ़ इंडिया - गरीब बच्चो के लिये नि:शुल्क कंप्यूटर शिक्षा, नि:शुल्क ब्यूटी एंड वैलनेस एवं नि:शुल्क सिलाई केम्प की वय्व्स्था।
गर्ग सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान, पानीपत
दीक्षा एजुकेशनल एंड वेलफेयर सोसाइटी, पानीपत
गरीब बच्चो के लिये नि:शुल्क कंप्यूटर शिक्षा एवं नि:शुल्क सिलाई केम्प की वय्व्स्था।
युवा एकता पानीपत संस्था जो शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में दिन प्रतिदिन सामाजिक कार्य कर रही हैं ।
सामान्य महाविद्यालय
एस डी कालेज, पानीपत
आई बी कालेज, पानीपत
आर्य कालेज, पानीपत
अभियांत्रिकी संस्थान
पानीपत इंस्टीट्यूट आफ़ टेक्सटाईल एंड इंजिनयरिंग, समालखा
एशिया पैसिफ़िक इंस्टीट्यूट आफ़ इन्फ़ार्मेशन टेक्नालजी, पानीपत
एन सी कालेज आफ़ इंजिनयरिंग, इसराना
स्कूल
राजकीय आदर्श संस्कृति विद्यालय जी टी रोड
एमएएसडी पब्लिक स्कूल
बाल विकास विद्यालय, माडल टाऊन
केन्द्रीय विद्यालय, एनएफ़एल - अब बंद
डाक्टर एम के के आर्ये माडल स्कूल
एस डी विद्या मंदिर, हूड्डा
डी ए वी स्कूल, थर्मल
सेंट मेरी स्कूल
एस डी सीनीयर सेकेंडरी स्कूल
आर्य सीनियर सेकेंडरी स्कूल
आर्य बाल भारती पब्लिक स्कूल
एस डी माडर्न सीनियर सेकेंडरी स्कूल
एस डी बालिका विद्यालय
राणा पब्लिक स्कूल (शिव नगर)
प्रयाग इंटरनेशनल स्कूल
देवी मंदिर
देवी मंदिर पानीपत शहर, हरियाणा में स्थित है। देवी मंदिर देवी दुर्गा को समर्पित है। यह मंदिर पानीपत शहर का मुख्य मंदिर है तथा पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है। यह मंदिर एक तालाब के किनारे स्थित है जोकि अब सुख गया है और इस सुखे हुए तालाब में एक उपवन का निर्माण किया गया है जहां बच्चे व बुर्जग सुबह-शाम टहलने आते है। इस पार्क में नवरात्रों के दौरान रामलीला का आयोजन भी किया जाता है जोकि लगभग 100 वर्षों से किया जाता रहा है।
देवी के मंदिर में सभी देवी-देवताओं कि मूर्तियां है तथा मंदिर में एक यज्ञशाला भी है। मंदिर का पुनः निर्माण किया गया है जो कि बहुत ही सुन्दर तरीके से किया गया है, जो भारतीय वास्तुकला की एक सुन्दर छवि को दर्शाता है। इस मंदिर में भक्त दर्शन के लिए लगभग पुरे भारत से आते है। ऐसा माना जाता है कि इस मंदिर का इतिहास लगभग 250 वर्ष पुराना है इस मंदिर का निर्माण 18वीं शाताब्दी में किया गया था। 18वीं शताब्दी के दौरान, मराठा इस क्षेत्र में सत्तारूढ़ थे, मराठा योद्धा सदाशिवराव भाऊ अपनी सेना के साथ युद्ध के लिए यहां आये थे। सदाशिवराव भाऊ अफगान से आया अहमदशाह अब्दाली जोकि आक्रमणकारी था, उसके खिलाफ युद्ध के लिए यहां लगभग दो महीने रूके थे। ऐसा माना जाता है कि सदाशिवराव को देवी की मूर्ति तालाब के किनारे मिली थी, तब सदाशिवराय ने यहां मंदिर बनाने का फैसला किया। ऐसा माना जाता है कि जब मंदिर का निर्माण किया जा रहा था तो देवी की मूर्ति को रात को एक स्थान से दूसरे स्थान पर रखा गया था परन्तु सुबह मूर्ति उसी स्थान मिली थी जहां से उसे पाया गया था, तब यह निर्णय लिया गया कि मंदिर उसी स्थान पर बनाया जाये जहां देवी की मूर्ति मिली है। देवी मंदिर में सभी त्यौहार मनाये जाते है विशेष कर दुर्गा पूजा व नवरात्र के त्यौहार पर विशेष पूजा का आयोजन किया जाता है। इस दिन मंदिर को फूलो व रोशनी से सजाया जाता है। मंदिर का आध्यात्मिक वातावरण श्रद्धालुओं के दिल और दिमाग को शांति प्रदान करता है। पानीपत के ही गाँव सींक पाथरी मे एक और मंदिर है जिसको पाथरी वाली माता के नाम से जाना जाता है।
इन्हें भी देखें
पानीपत ज़िला
बाहरी कड़ियाँ
पानीपत का आधिकारिक जाल स्थल -अंग्रेजी में
सन्दर्भ
श्रेणी:हरियाणा के शहर
श्रेणी:पानीपत ज़िला
श्रेणी:पानीपत ज़िले के नगर
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सोनीपत | https://hi.wikipedia.org/wiki/सोनीपत | सोनीपत (Sonipat) भारत के हरियाणा राज्य के सोनीपत ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है।"General Knowledge Haryana: Geography, History, Culture, Polity and Economy of Haryana," Team ARSu, 2018"Haryana: Past and Present ," Suresh K Sharma, Mittal Publications, 2006, ISBN 9788183240468"Haryana (India, the land and the people), Suchbir Singh and D.C. Verma, National Book Trust, 2001, ISBN 9788123734859"Banking and Educational Statics of Sonipat"
स्थापना व इतिहास
नई दिल्ली से उत्तर में 43 किमी दूर स्थित इस नगर की स्थापना संभवतः लगभग 1500 ई.पू. में आरंभिक आर्यों ने की थी। यमुना नदी के तट पर यह शहर फला-फूला, जो अब 15 किमी पूर्व की ओर स्थानांतरित हो गई है। हिन्दू महाकाव्य महाभारत में इसका 'स्वर्णप्रस्थ' के रूप में उल्लेख है। श' (1272 में निर्मित), 'ख़्वाजा ख़िज़्र का मक़बरा (1522 या 1525 ईसवी में निर्मित)' और पुराने क़िले के अवशेष है।यहाँ पर हिन्दुओं का बाबा धाम मंदिर प्रसिद्ध है। सोनीपत दिल्ली से अमृतसर को जोड़ने वाले रेलमार्ग पर स्थित है। लोग काम के लिए रोज़ाना सोनीपत से दिल्ली आते-जाते हैं।
जिला सोनीपत 22 दिसम्बर 1972 को अस्तित्व में आया उस समय गोहाना और सोनीपत दो तहसीले थी। सोनीपत एक प्राचीन ऐतिहासिक नगर है। इतिहासकारों के अनुसार 1500 ईसवी पूर्व इस नगर की स्थापना आर्यों द्वारा की गई थी और इसका नाम राजा सैन के नाम से सोनपत और बाद में सोनीपत बना। महाभारत काल में इस नगर का नाम स्वर्णप्रस्त था। कहा जाता है कि पांडवों ने महाभारत युद्ध को रोकने के लिए जिन पांच पतों की मांग की थी उनमें स्वर्णप्रस्त भी एक था। शेष चार पत थे पानीपत, इन्द्रपत या इन्द्रप्रस्त, बागपत, तिलपत। कहा जाता है कि पांडवों का खजाना भी इसी नगर में था।
वर्ष 1871 में यहां स्थित टीले पर की गई खुदाई से प्राप्त 1200 ग्रीकों बैक्टेरियन्ज अवशेषों से प्रमाणित होता है की यह नगर सांतवीं शताब्दी तक ग्रीकों बैक्टेरियन्ज शासित रहा है। खुदाई के दौरान यहां से यौधेय काल के सिक्के तथा महाराजा हर्षवर्धन की तांबे से बनी एक मोहर प्राप्त हुई थी। वर्ष 1866 में यहां से शोरा की मिट्टी से बनी पक्की प्रतिमा प्राप्त हुई थी।
11वीं शताब्दी में इस नगर पर जागीरदार दिपालहर का शासन था। 1037 ईसवीं में गजनी के सुल्तान मसूद ने दिल्ली विजय पर जाते हुए रास्ते में जागीरदार दिपालहर को हराया था।
सोनीपत नगर एक ऊचें टीले पर बसा हुआ है जो पूर्व नगरों के ध्वस्त होने से बना है। पहले यमुना नदी इस नगर के साथ लगती हुई बहती थी परन्तु अब रास्ता बदलकर 17 किलोमीटर दूर बहने लगी है। नगर के उत्तर में शेरशाह सूरी के वंशज पठान का खिजर खां का मकबरा है। जिस पर कलात्मक कार्य दर्शनीय है। नगर के मध्य में एक विशाल दुर्ग के अवशेष देखने का मिलते है। इस दुर्ग के निकट ही एक ऐतिहासिक दरगाह सैयद नसिरूदीन (मामा भांजा) है। जिस का इस क्षेत्र में विशेष महत्व है। इसे हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रतीक माना जाता है। कहते है कि इस दरगाह की स्थापना एक गौड ब्राह्मण हिन्दू राजा द्वारा शिव मन्दिर में की गई थी।
शिक्षा
राजीव गांधी एजुकेशन सिटी
सोनीपत के कुंडली में "राजीव गांधी एजुकेशन सिटी (RGEC)", उच्च शिक्षा संस्थानों की एक हब विकसित करने के लिए हरियाणा सरकार द्वारा एक महत्वाकांक्षी परियोजना है। दिल्ली के भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT) ने पहले से ही अपने दिल्ली परिसर के विस्तार के लिए 50 एकड़ जमीन का कब्जा ले लिया है। कई अन्य विश्वविद्यालयों ने भी अपने परिसर स्थापित करने के लिए अपनी परियोजनाओं को शुरू कर दिया है।
विश्वविद्यालय
दीनबंधु छोटू राम यूनिवर्सिटी ऑफ़ फ़ूड एंड टेक्नोलॉजी
ओ.प. जिंदल ग्लोबल कॉलेज
भगत फूल सिंह महिला विश्वविद्यालय
नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ फ़ूड टेक्नोलॉजी इंटरप्रेनियरशिप एंड मैनेजमेंट
अशोका विश्वविद्यालय
औद्योगिक विकास
दिल्ली से निकटता होने के कारण सोनीपत के औद्योगिक विकास का सहयोग मिला है।
कृषि
सोनीपत ज़िला एक मैदानी इलाक़ा है। जिनके 83 प्रतिशत हिस्से में खेती होती है। गेहूँ और चावल प्रमुख फ़सलें है, अन्य फ़सलों में ज्वार, दलहन, गन्ना, बाजरा, तिलहन और सब्ज़ियां शामिल हैं।
सिंचाई
कुल कृषि योग्य क्षेत्र का लगभग 95 प्रतिशत हिस्सा नहरों और नलकूपों द्वारा सिंचित है।
उद्योग
सोनीपत देश के अग्रणी साइकिल निर्माताओं में से एक है। इसके अतिरिक्त अन्य उद्योगों के मशीनी उपकरण, सूती वस्त्र, होज़री, शक्कर, इस्पात पुनर्ढ़लाई, सिलाई मशीन के पुर्जे, परिवहन उपकरण तथा पुर्ज़े, क़ालीन, हथकरघा वस्त्र और हस्तशिल्प में पीतल व तांबे की वस्तुएं शामिल हैं।
जनसांख्यिकी
2001 की जनगणना के अनुसार जनसंख्या नगरपालिका क्षेत्र की 2,16,213 थी। सोनीपत ज़िले की कुल जनसंख्या 12,78,830 थी।
2011 की जनगणना के अनुसार सोनीपत की कुल जनसंख्या 278,149 थी, जिनमे 148,364 पुरुष तथा 129,785 महिलाए है।sonipat.nic.in Sonipat District
इन्हें भी देखें
सोनीपत ज़िला
सोनीपत लोक सभा निर्वाचन क्षेत्र
सोनीपत विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र, हरियाणा
अहीर माजरा
सन्दर्भ
श्रेणी:हरियाणा के शहर
श्रेणी:सोनीपत ज़िला
श्रेणी:सोनीपत ज़िले के नगर
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ज़िंद | https://hi.wikipedia.org/wiki/ज़िंद | ज़िंदर भारत के हरियाणा प्रान्त का एक जिला है।
श्रेणी:शहर |
तरन तारन साहिब | https://hi.wikipedia.org/wiki/तरन_तारन_साहिब | तरन तारन साहिब (Tarn Taran Sahib) भारत के पंजाब राज्य के तरन तारन ज़िले में स्थित एक नगर है। इस शहर का सिख धर्म में विशेष महत्व है। शहर की स्थापना पाँचवे गुरु, गुरु अर्जन देव जी, ने की थी।"Economic Transformation of a Developing Economy: The Experience of Punjab, India," Edited by Lakhwinder Singh and Nirvikar Singh, Springer, 2016, ISBN 9789811001970"Regional Development and Planning in India," Vishwambhar Nath, Concept Publishing Company, 2009, ISBN 9788180693779"Agricultural Growth and Structural Changes in the Punjab Economy: An Input-output Analysis," G. S. Bhalla, Centre for the Study of Regional Development, Jawaharlal Nehru University, 1990, ISBN 9780896290853"Punjab Travel Guide," Swati Mitra (Editor), Eicher Goodearth Pvt Ltd, 2011, ISBN 9789380262178
इन्हें भी देखें
तरन तारन ज़िला
गुरु अर्जन देव जी
सन्दर्भ
श्रेणी:पंजाब के शहर
श्रेणी:तरन तारन ज़िला
श्रेणी:तरन तारन ज़िले के नगर
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हंस (पक्षी) | https://hi.wikipedia.org/wiki/हंस_(पक्षी) | हंस (Swan) अनैटिडाए कुल के जलपक्षियों के सिग्नस (Cygnus) वंश के पक्षी होते हैं। वर्तमान विश्व में इसकी 6 जीवित जातियाँ हैं, हालांकि इसकी कई अन्य जातियाँ भी थीं जो विलुप्त हो चुकी हैं। हंस का बत्तख और कलहंस से जीववैज्ञानिक सम्बन्ध है, लेकिन हंस इन दोनों से आकार में बड़े और लम्बी गर्दन वाले होते हैं। नर और मादा हंस आमतौर पर जीवन-भर के लिए जोड़ा बनाते हैं।Andors, A. (1992). "Reappraisal of the Eocene groundbird Diatryma (Aves: Anserimorphae)". Science Series Natural History Museum of Los Angeles County. 36: 109–125.Murrary, P.F; Vickers-Rich, P. (2004). Magnificent Mihirungs: The Colossal Flightless Birds of the Australian Dreamtime. Indiana University Press.Bourdon, E. (2005). "Osteological evidence for sister group relationship between pseudo-toothed birds (Aves: Odontopterygiformes) and waterfowls (Anseriformes)". Naturwissenschaften. 92 (12): 586–91. Bibcode:2005NW.....92..586B. doi:10.1007/s00114-005-0047-0. PMID 16240103. S2CID 9453177.Todd, Frank S. (1991). Forshaw, Joseph (ed.). Encyclopaedia of Animals: Birds. London: Merehurst Press. p. 87. ISBN 1-85391-186-0.
सांस्कृतिक महत्व
अपनी सुंदरता और लम्बी यात्राओं के लिए हंसों को कई संस्कृतियों में महत्व मिला है। भारतीय साहित्य में इसे बहुत विवेकी पक्षी माना जाता है। और ऐसा विश्वास है कि यह नीर-क्षीर विवेक (पानी और दूध को अलग करने वाला विवेक) से युक्त है। यह विद्या की देवी सरस्वती का वाहन है। ऐसी मान्यता है कि यह मानसरोवर में रहते हैं। हंसों को आजीवन जोड़ा बनाने के लिए भी प्रेम-सम्बन्ध और विवाह का प्रतीक माना गया है।
जातियाँ
उपवंश छवि वैज्ञानिक नाम साधारण नाम विवरण वितरण ओलोरOlor120pxCygnus olorमूक हंसMute swanयूरेशिया में हूपर हंस से दक्षिणी क्षेत्रों में मिलने वालीयूरोप से दक्षिणी रूस, चीन और सागर-तटस्थ रूस चेनोपिसChenopis120pxCygnus atratusकाला हंसBlack swanमौसम के अनुसार जगह-जगह प्रवास करने वाला, काला शरीर और लाल चोंचआस्टेलिया (मानवों द्वारा न्यू ज़ीलैण्ड, जापान, संयुक्त राज्य अमेरिका और ब्रिटेन में भी स्थापित) स्टेनेलाइडीसSthenelides120pxCygnus melancoryphusकाला-गला हंसBlack-necked swanदक्षिण अमेरिका सिग्नसCygnus120pxCygnus cygnus हूपर हंसWhooper swanउत्तरी यूरेशिया में प्रजनन और सर्दियों में दक्षिणी यूरोप व पूर्वी एशिया में निवास120pxCygnus buccinatorट्रम्पेटर हंसTrumpeter swanउत्तरी अमेरिका का सबसे बड़ा हंस, देखने में हूपर हंस से मिलता-जुलता, शिकार के कारण विलुप्ति की कागार पर था लेकिन अब संख्या बढ़ गई हैउत्तर अमेरिका120pxCygnus columbianus टुण्ड्रा हंसTundra swanआर्कटिक टुण्ड्रा में प्रजनन और सर्दियों में यूरेशिया और उत्तर अमेरिका के कम-ठंडे क्षेत्रों में निवास, इसकी दो उपजातियाँ मानी जाती हैं:
बेस्विक हंस (Bewick's swan), जो यूरेशिया में पाया जाता है
विस्लिंग हंस (Whistling swan), जो उत्तर अमेरिका में पाया जाता हैउत्तर अमेरिका, यूरेशिया
इन्हें भी देखें
अनैटिडाए
ऐन्सरीफोर्मीस
जलपक्षी
सन्दर्भ
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श्रेणी:साधारण पक्षी नाम |
इँदिरा गाँधी | https://hi.wikipedia.org/wiki/इँदिरा_गाँधी | REDIRECT इन्दिरा गांधी |
कोबे | https://hi.wikipedia.org/wiki/कोबे | कोबे जापानी खिलौना नागरी के नाम से विख्यात हैं
चित्र दीर्घा
श्रेणी:जापान के नगर |
शेर बहादुर देउवा | https://hi.wikipedia.org/wiki/शेर_बहादुर_देउवा | शेरबहादुर देउवा (जन्म: 13 जून, 1946) नेपाली कांग्रेस सभापति एवम् नेपालके पूर्व प्रधानमंत्री प्रधानमन्त्री हैं। उन्होने नेपाल के 40वें प्रधानमंत्री के रूप में सन २०१७ में शपथ ली है।। वे 1995 से 1997 तक, फिर 2001 से 2002 तक, और 2004 से 2005 तक नेपाल के प्रधानमंत्री रह चुके हैं। वे नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष हैं। देउवा का जन्म एक क्षत्रिय(राजपूत) जाति में हुआ है। बीबीसी पर प्रसारित कॉमन क्वेश्चन प्रोग्राम में पांच साल पहले प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउवा से सवाल पूछने के लिए मशहूर हुए सागर ढकाल संसदीय चुनाव लड़ने की तैयारी के साथ डडेल्धुरा पहुंच गए हैं.
उन्होंने कुछ समय पहले कहा था कि वह प्रधानमंत्री के खिलाफ डडेल्धुरा से संसदीय चुनाव लड़ेंगे। सागर, जिन्होंने घोषणा की है कि वह अपने निर्वाचन क्षेत्र से प्रधान मंत्री के खिलाफ चुनाव लड़ेंगे, उसी की तैयारी के लिए दडेलधुरा पहुंच गए हैं, उन्होंने सोशल मीडिया के माध्यम से जानकारी दी।
उन्होंने सोशल नेटवर्क पर देउवा की ओर इशारा करते हुए लिखा, 'मैं इस पोस्ट के माध्यम से अपने दादाजी से अनुरोध करना चाहूंगा कि मेरे पोते के साथ डडेल्धुरा लोकल नाइट बस में मेरे प्रतिद्वंद्वी माननीय प्रधान मंत्री शेर बहादुर दादाजी के साथ हाथ पकड़ें। मैंने सुना है कि डडेल्धुरा के एक गरीब गांव से राजनीति में आए मेरे दादाजी ने मेरे जन्म से ही जमीन पर पैर नहीं रखा है।चुरलुम पारिवारिक जीवन में अकल्पनीय रूप से डूब गया है। डडेल्धुरा भी पांच साल में एक बार जाना पड़ता है। इस बार मैं उसे नीचे गिराने की कोशिश करूंगा। जमीन पर पोते के नेतृत्व में दादाजी का नेतृत्व किया जाएगा।
प्रारंभिक राजनीतिक कैरियर
देउवा ने अपने छात्र राजनीतिक जीवन की शुरुआत १९६५ में १९ वर्ष की आयु में की। उन्होंने १९६५ से १९६८ तक सुदूर-पश्चिमी छात्र समिति, काठमांडू के अध्यक्ष के रूप में कार्य किया। देउवा नेपाल छात्र संघ के संस्थापक सदस्य थे, जो नेपाली कांग्रेस का एक सहयोगी संगठन था। १९६० और १९७० के दशक में पंचायत व्यवस्था के खिलाफ काम करने के लिए उन्हें रुक-रुक कर नौ साल की जेल हुई। उन्होंने 1980 के दशक में नेपाली कांग्रेस की राजनीतिक सलाहकार समिति के समन्वयक के रूप में भी कार्य किया।
व्यक्तिगत जीवन
देउवा का जन्म दूर-पश्चिमी नेपाल (वर्तमान गण्यपधुरा ग्रामीण नगरपालिका) के डडेल्धुरा जिले के एक दूरदराज के गांव आशिग्राम में हुआ था। उन्होंने डॉ आरजू राणा देउवा से शादी की है। देउवा के पास कला और कानून में स्नातक की डिग्री है और उनके पास राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर की डिग्री है। नवंबर 2016 में, देउवा को भारत में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय द्वारा डॉक्टरेट की मानद उपाधि से सम्मानित किया गया था।
1990 के बाद का जन आंदोलन
1990 के जन आंदोलन के बाद, देउवा 1991 में डडेल्धुरा से प्रतिनिधि सभा के लिए चुने गए; एक सीट जिसके बाद से उन्होंने हर चुनाव में कब्जा किया है। उन्होंने गिरिजा प्रसाद कोइराला के नेतृत्व वाले कैबिनेट में गृह मंत्री के रूप में कार्य किया। कोइराला द्वारा संसद भंग करने और 1994 के मध्यावधि चुनावों में उनकी सरकार के हारने के बाद, देउवा नेपाली कांग्रेस के संसदीय दल के नेता चुने गए। मनमोहन अधिकारी ने 1995 में संसद को फिर से भंग करने की कोशिश की, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक घोषित कर दिया, देउवा को 1995 में प्रधान मंत्री नियुक्त किया गया और राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी के साथ गठबंधन सरकार का नेतृत्व किया। उनका प्रशासन, जो माओवादी विद्रोह की शुरुआत का गवाह था, मार्च 1997 में गिर गया और लोकेंद्र बहादुर चंद ने उनका उत्तराधिकारी बना लिया, जिन्होंने अल्पसंख्यक गठबंधन सरकार का नेतृत्व किया।
गिरिजा प्रसाद कोइराला के प्रधान मंत्री के रूप में इस्तीफे के बाद, देउवा ने सुशील कोइराला को हराकर नेपाली कांग्रेस के संसदीय दल के नेता बने और जुलाई 2001 में दूसरी बार प्रधान मंत्री नियुक्त किए गए। प्रधान मंत्री के रूप में उनका दूसरा कार्यकाल शाही नरसंहार के तुरंत बाद शुरू हुआ। और माओवादी विद्रोह के चरम के दौरान, और देउवा का प्राथमिक कार्य विद्रोहियों के साथ बातचीत करना था। नवंबर 2001 में माओवादियों द्वारा बातचीत से हटने और सेना पर हमला करने के बाद, देउवा के संकट से निपटने के तरीके पर सवाल खड़ा हो गया। 2002 की शुरुआत में, नेपाली कांग्रेस की केंद्रीय समिति ने देउवा को आपातकाल की स्थिति को नवीनीकृत नहीं करने का निर्देश दिया। देउवा ने मई 2002 में संसद को भंग करने का अनुरोध करते हुए नए चुनाव कराने और अपनी अलग पार्टी, नेपाली कांग्रेस (डेमोक्रेटिक) पार्टी की स्थापना करने का अनुरोध किया। अक्टूबर 2002 में, जब देउवा ने चुनाव स्थगित करने की मांग की, तो राजा ज्ञानेंद्र ने उन्हें अक्षम होने के कारण बर्खास्त कर दिया। दो वर्षों में दो अन्य सरकारों के बाद, ज्ञानेंद्र ने 2004 में देउवा को प्रधान मंत्री के रूप में फिर से नियुक्त किया। लेकिन इसके तुरंत बाद, उन्हें 1 फरवरी 2005 को राजा द्वारा फिर से पद से हटा दिया गया, जिन्होंने संविधान को निलंबित कर दिया और प्रत्यक्ष अधिकार ग्रहण किया। देउवा को जुलाई 2005 में भ्रष्टाचार के आरोपों के तहत दो साल जेल की सजा सुनाई गई थी, लेकिन बाद में 13 फरवरी 2006 को भ्रष्टाचार विरोधी संस्था द्वारा उन्हें सजा देने के बाद उन्हें रिहा कर दिया गया था। सितंबर 2007 में, देउवा ने अपनी अलग पार्टी को भंग कर दिया और नेपाली कांग्रेस में फिर से शामिल हो गए।
'2008 संविधान सभा चुनाव
10 अप्रैल 2008 को हुए संविधान सभा के चुनाव में, देउवा को नेपाली कांग्रेस द्वारा दादेलधुरा -1 और कंचनपुर -4 दोनों निर्वाचन क्षेत्रों के लिए अपने उम्मीदवार के रूप में नामित किया गया था। उन्होंने दोनों निर्वाचन क्षेत्रों से जीत हासिल की, और अपनी कंचनपुर -4 सीट छोड़ दी, जहां उनकी जगह यूनिफाइड कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओवादी) के हरीश ठकुल्ला ने ले ली, जिसे उन्होंने उप-चुनाव के बाद आम चुनाव में हराया था। 15 अगस्त 2008 को संविधान सभा में आयोजित प्रधान मंत्री के लिए बाद के वोट में, देउवा को नेपाली कांग्रेस के उम्मीदवार के रूप में नामित किया गया था, लेकिन यूसीपीएन (माओवादी) के पुष्प कमल दहल ने उन्हें हराया था। देउवा को 113 वोट मिले, जबकि दहल को 464 वोट मिले। 2008 में एथेंस, ग्रीस में आयोजित सोशलिस्ट इंटरनेशनल की 23 वीं कांग्रेस में, देउबा को संगठन का उपाध्यक्ष चुना गया, जो 2012 तक सेवा कर रहा था। 2009 में, दहल के नेतृत्व वाली सरकार के पतन और पार्टी अध्यक्ष गिरिजा प्रसाद कोइराला के बीमार स्वास्थ्य के बाद, देउवा ने फिर से प्रधान मंत्री बनने के लिए नेपाली कांग्रेस के संसदीय दल के नेता बनने के लिए अपनी उम्मीदवारी रखी, लेकिन था रामचंद्र पौडेल ने पराजित किया।
२०१६–वर्तमान
सुशील कोइराला की मृत्यु के बाद, देउवा पार्टी के तेरहवें आम सम्मेलन में नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए, उन्होंने अपने अंतर-पार्टी प्रतिद्वंद्वी राम चंद्र पौडेल को हराकर लगभग 60% वोट प्राप्त किए। अगस्त 2016 में, देउवा ने पुष्प कमल दहल के साथ नेपाली कांग्रेस और सीपीएन (माओवादी केंद्र) की गठबंधन सरकार का नेतृत्व करने के लिए 2017 के अंत में आम चुनावों की अगुवाई में नौ महीने के लिए एक समझौता किया। समझौते के अनुसार, वह था 7 जून 2017 को चौथे कार्यकाल के लिए प्रधान मंत्री के रूप में शपथ ली। देउवा उस सरकार के प्रभारी थे जिसने 2017 में विभिन्न चरणों में सभी तीन स्तरों (संसदीय, प्रांतीय और स्थानीय) के चुनाव सफलतापूर्वक आयोजित किए। उन्होंने 15 फरवरी 2018 को इस्तीफा दे दिया। 2017 के चुनावों में सबसे बड़ी पार्टी नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी (यूएमएल) के नेता केपी शर्मा ओली के प्रधानमंत्री बनने का रास्ता साफ हो गया है।
चुनावी इतिहास
वह 1991, 1994, 1999 और 2017 में डडेलधुरा 1 से नेपाली कांग्रेस के टिकट पर प्रतिनिधि सभा के लिए चुने गए। उन्होंने 2008 और 2013 के संविधान सभा चुनावों में डडेलधुरा 1 से जीत हासिल की। उन्होंने 2008 के सीए चुनाव में दो निर्वाचन क्षेत्रों से चुनाव लड़ा और जीता और अपनी कंचनपुर 4 सीट छोड़ दी।
सन्दर्भ
श्रेणी:नेपाली राजनेता
श्रेणी:नेपाल के प्रधानमन्त्री
श्रेणी:1946 में जन्मे लोग
श्रेणी:जीवित लोग |
सिन्ध | https://hi.wikipedia.org/wiki/सिन्ध | REDIRECTसिंध |
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन | https://hi.wikipedia.org/wiki/भारतीय_अंतरिक्ष_अनुसंधान_संगठन | भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (, इसरो) भारत का राष्ट्रीय अंतरिक्ष संस्थान है जिसका मुख्यालय कर्नाटक राज्य के बंगलौर में है। संस्थान का मुख्य कार्यों में भारत के लिये अंतरिक्ष सम्बधी तकनीक उपलब्ध करवाना व उपग्रहों, प्रमोचक यानों, साउन्डिंग राकेटों और भू-प्रणालियों का विकास करना शामिल है।
1962 में एक समिति जिसका नाम 'अंतरिक्ष अनुसंधान के लिए भारतीय राष्ट्रीय समिति' (इनकोस्पार) के रूप में इसकी स्थापना की गई थी। परंतु 15 अगस्त 1969 को एक संगठन के रूप में इसका पुनर्गठन किया गया और इसे वर्तमान नाम भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) कहकर बुलाया जाने लगा।
भारत का पहला उपग्रह, आर्यभट्ट, 19 अप्रैल 1975 को सोवियत संघ के रॉकेट की सहायता अंतरिक्ष में छोड़ा गया था। इसका नाम महान गणितज्ञ आर्यभट्ट के नाम पर रखा गया था । इसने 5 दिन बाद काम करना बन्द कर दिया था। लेकिन यह अपने आप में भारत के लिए एक बड़ी उपलब्धि थी।
7 जून 1979 को भारत का दूसरा उपग्रह भास्कर जो 442 किलो का था, पृथ्वी की कक्षा में स्थापित किया गया।
1980 में रोहिणी उपग्रह पहले भारत-निर्मित प्रक्षेपण यान एसएलवी-3 द्वारा कक्षा में स्थापित किया गया।
इसरो ने बाद में दो अन्य रॉकेट विकसित किए। ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान (पीएसएलवी) और भूस्थिर उपग्रह प्रक्षेपण यान (जीएसएलवी) ।
जनवरी 2014 में इसरो सफलतापूर्वक जीसैट -14 का एक जीएसएलवी-डी 5 प्रक्षेपण में एक स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन का प्रयोग किया गया।
इसरो के वर्तमान निदेशक डॉ एस सोमनाथ हैं। आज भारत न सिर्फ अपने अंतरिक्ष संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति करने में सक्षम है बल्कि दुनिया के बहुत से देशों को अपनी अंतरिक्ष क्षमता से व्यापारिक और अन्य स्तरों पर सहयोग कर रहा है।
इसरो ने 22 अक्टूबर 2008 को चंद्रयान-1 भेजा जिसने चन्द्रमा की परिक्रमा की। इसके बाद 24 सितम्बर 2014 को मंगल ग्रह की परिक्रमा करने वाला मंगलयान (मंगल आर्बिटर मिशन) भेजा। सफलतापूर्वक मंगल ग्रह की कक्षा में प्रवेश किया और इस प्रकार भारत अपने पहले ही प्रयास में सफल होने वाला पहला राष्ट्र बना।
दुनिया के साथ ही एशिया में पहली बार अंतरिक्ष एजेंसी में एजेंसी को सफलतापूर्वक मंगल ग्रह की कक्षा तक पहुंचने के लिए इसरो चौथे स्थान पर रहा।
भविष्य की योजनाओं मे शामिल जीएसएलवी एमके III के विकास (भारी उपग्रहों के प्रक्षेपण के लिए) ULV, एक पुन: प्रयोज्य प्रक्षेपण यान, मानव अंतरिक्ष, आगे चंद्र अन्वेषण, ग्रहों के बीच जांच, एक सौर मिशन अंतरिक्ष यान के विकास आदि।
इसरो को शांति, निरस्त्रीकरण और विकास के लिए साल 2014 के इंदिरा गांधी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। मंगलयान के सफल प्रक्षेपण के लगभग एक वर्ष बाद इसने 29 सितंबर 2015 को एस्ट्रोसैट के रूप में भारत की पहली अंतरिक्ष वेधशाला स्थापित किया।
जून 2016 तक इसरो लगभग 20 अलग-अलग देशों के 57 उपग्रहों को लॉन्च कर चुका है, और इसके द्वारा उसने अब तक 10 करोड़ अमेरिकी डॉलर कमाए हैं।
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान का इतिहास
thumb|एक आर्कस रॉकेट को थुंबा लॉन्चिंग स्टेशन पर लॉन्च ट्यूब में लोड किया जा रहा है। इसरो के शुरुआती दिनों में, रॉकेट के हिस्सों को अक्सर साइकिल और बैलगाड़ी पर ले जाया जाता था।
भारत का अंतरिक्ष सम्बन्धी अनुभव बहुत पुराना है। भारत और चीन के बीच रेशम मार्ग से विचारों एवं वस्तुओं का आदान प्रदान हुआ करता था। जब टीपू सुल्तान द्वारा मैसूर युद्ध में अंग्रेजों को खदेड़ने में रॉकेट के प्रयोग को देखकर विलियम कंग्रीव प्रभावित हुआ, तो उसने 1804 में कंग्रीव रॉकेट का आविष्कार किया, रॉकेट पड़ोसी देश चीन का आविष्कार था और आतिशबाजी के रूप में पहली बार प्रयोग में लाया गया। आज के आधुनिक तोपखानों कीमंगल भाटी ने इसरो की खोज 1945 में की थी।1947 में अंग्रेजों की बेड़ियों से मुक्त होने के बाद, भारतीय वैज्ञानिक और राजनीतिज्ञ भारत की रॉकेट तकनीक के सुरक्षा क्षेत्र में उपयोग, एवं अनुसंधान एवं विकास की संभाव्यता की वजह से विख्यात हुए। भारत जनसांख्यिकीय दृष्टि से विशाल होने की वजह से, दूरसंचार के क्षेत्र में कृत्रिम उपग्रहों की प्रार्थमिक संभाव्यता को देखते हुए, भारत में अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन की स्थापना की गई।
1960-1970
भारतीय अन्तरिक्ष कार्यक्रम डॉ विक्रम साराभाई की संकल्पना है, जिन्हें भारतीय अन्तरिक्ष कार्यक्रम का जनक कहा गया है। वे वैज्ञानिक कल्पना एवं राष्ट्र-नायक के रूप में जाने गए। 1957 में स्पूतनिक के प्रक्षेपण के बाद, उन्होंने कृत्रिम उपग्रहों की उपयोगिता को भांपा। भारत के प्रथम प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू, जिन्होंने भारत के भविष्य में वैज्ञानिक विकास को अहम् भाग माना, 1961 में अंतरिक्ष अनुसंधान को परमाणु ऊर्जा विभाग की देखरेख में रखा। परमाणु उर्जा विभाग के निदेशक होमी भाभा, जो कि भारतीय परमाणु कार्यक्रम के जनक माने जाते हैं, 1962 में 'अंतरिक्ष अनुसंधान के लिए भारतीय राष्ट्रीय समिति' (इनकोस्पार) का गठन किया, जिसमें डॉ॰ साराभाई को सभापति के रूप में नियुक्त किया
जापान और यूरोप को छोड़कर, हर मुख्य अंतरिक्ष कार्यक्रम कि तरह, भारत ने अपने विदित सैनिक प्रक्षेपास्त्र कार्यक्रम को सक्षम कराने में लगाने के बजाय, कृत्रिम उपग्रहों को प्रक्षेपण में समर्थ बनाने के उद्धेश्य हेतु किया। 1962 में भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम की स्थापना के साथ ही, इसने अनुसंधित रॉकेट का प्रक्षेपण शुरू कर दिया, जिसमें भूमध्य रेखा की समीपता वरदान साबित हुई। ये सभी नव-स्थापित थुंबा भू-मध्यीय रॉकेट अनुसंधान केन्द्र से प्रक्षेपित किए गए, जो कि दक्षिण केरल में तिरुवंतपुरम के समीप स्थित है। शुरुआत में, अमेरिका एवं फ्रांस के अनुसंधित रॉकेट क्रमश: नाइक अपाचे एवं केंटोर की तरह, उपरी दबाव का अध्ययन करने के लिए प्रक्षेपित किए गए, जब तक कि प्रशांत महासागर में पोत-आधारित अनुसंधित रॉकेट से अध्ययन शुरू न हुआ। ये इंग्लैंड और रूस की तर्ज पर बनाये गये। फिर भी पहले दिन से ही, अंतरिक्ष कार्यक्रम की विकासशील देशी तकनीक की उच्च महत्वाकांक्षा थी और इसके चलते भारत ने ठोस इंधन का प्रयोग करके अपने अनुसंधित रॉकेट का निर्माण शुरू कर दिया, जिसे रोहिणी की संज्ञा दी गई।
भारत अंतरिक्ष कार्यक्रम ने देशी तकनीक की आवश्यकता, एवं कच्चे माल एवं तकनीक आपूर्ति में भावी अस्थिरता की संभावना को भांपते हुए, प्रत्येक माल आपूर्ति मार्ग, प्रक्रिया एवं तकनीक को अपने अधिकार में लाने का प्रयत्न किया। जैसे जैसे भारतीय रोहिणी कार्यक्रम ने और अधिक संकुल एवं वृहताकार रोकेट का प्रक्षेपण जारी रखा, अंतरिक्ष कार्यक्रम बढ़ता चला गया और इसे परमाणु उर्जा विभाग से विभाजित कर, अपना अलग ही सरकारी विभाग दे दिया गया। परमाणु उर्जा विभाग के अंतर्गत इन्कोस्पार कार्यक्रम से 1969 में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन का गठन किया गया, जो कि प्रारम्भ में अंतरिक्ष मिशन के अंतर्गत कार्यरत था और परिणामस्वरूप जून, 1972 में, अंतरिक्ष विभाग की स्थापना की गई।
1970-2000
2003 के दशक में डॉ॰ साराभाई ने टेलीविजन के सीधे प्रसारण के जैसे बहुल अनुप्रयोगों के लिए प्रयोग में लाये जाने वाले कृत्रिम उपग्रहों की सम्भव्यता के सन्दर्भ में नासा के साथ प्रारंभिक अध्ययन में हिस्सा लिया और अध्ययन से यह ज्ञान प्राप्त हुआ कि, प्रसारण के लिए यही सबसे सस्ता और सरल साधन है। शुरुआत से ही, उपग्रहों को भारत में लाने के फायदों को ध्यान में रखकर, साराभाई और इसरो ने मिलकर एक स्वतंत्र प्रक्षेपण वाहन का निर्माण किया, जो कि कृत्रिम उपग्रहों को कक्ष में स्थापित करने, एवं भविष्य में वृहत प्रक्षेपण वाहनों में निर्माण के लिए आवश्यक अभ्यास उपलब्ध कराने में सक्षम था। रोहिणी श्रेणी के साथ ठोस मोटर बनाने में भारत की क्षमता को परखते हुए, अन्य देशो ने भी समांतर कार्यक्रमों के लिए ठोस रॉकेट का उपयोग बेहतर समझा और इसरो ने कृत्रिम उपग्रह प्रक्षेपण वाहन (एस.एल.वी.) की आधारभूत संरचना एवं तकनीक का निर्माण प्रारम्भ कर दिया। अमेरिका के स्काउट रॉकेट से प्रभावित होकर, वाहन को चतुर्स्तरीय ठोस वाहन का रूप दिया गया।
इस दौरान, भारत ने भविष्य में संचार की आवश्यकता एवं दूरसंचार का पूर्वानुमान लगते हुए, उपग्रह के लिए तकनीक का विकास प्रारम्भ कर दिया। भारत की अंतरिक्ष में प्रथम यात्रा 1975 में रूस के सहयोग से इसके कृत्रिम उपग्रह आर्यभट्ट के प्रक्षेपण से शुरू हुयी। 1979 तक, नव-स्थापित द्वितीय प्रक्षेपण स्थल सतीश धवन अंतरिक्ष केन्द्र से एस.एल.वी. प्रक्षेपण के लिए तैयार हो चुका था। द्वितीय स्तरीय असफलता की वजह से इसका 1979 में प्रथम प्रक्षेपण सफल नहीं हो पाया था। 1980 तक इस समस्या का निवारण कर लिया गया। भारत का देश में प्रथम निर्मित कृत्रिम उपग्रह रोहिणी-प्रथम प्रक्षेपित किया गया।
अमेरीकी प्रतिबंध
सोवियत संघ के साथ भारत के बूस्टर तकनीक के क्षेत्र में सहयोग का अमरीका द्वारा परमाणु अप्रसार नीति की आड़ में काफी प्रतिरोध किया गया। 1992 में भारतीय संस्था इसरो और सोवियत संस्था ग्लावकास्मोस पर प्रतिबंध की धमकी दी गयी। इन धमकियों की वजह से सोवियत संघ ने इस सहयोग से अपना हाथ पीछे खींच लिया । सोवियत संघ क्रायोजेनिक लिक्वीड राकेट इंजन तो भारत को देने के लिये तैयार था लेकिन इसके निर्माण से जुड़ी तकनीक देने को तैयार नही हुआ जो भारत सोवियत संघ से खरीदना चाहता था।
इस असहयोग का परिणाम यह हुआ कि भारत अमरीकी प्रतिबंधों का सामना करते हुये भी सोवियत संघ से बेहतर स्वदेशी तकनीक दो सालो के अथक शोध के बाद विकसित कर ली। 5 जनवरी 2014 को, भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन ने स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन का सफल परीक्षण भूस्थिर उपग्रह प्रक्षेपण यान की डी5 उड़ान में किया
प्रक्षेपण यान
right|thumb|300px|भारत के वाहक-राकेट : बायें से दायें - एसएलवी, एएसएलवी, पीएसएलवी, जीएसएलवी, जीएसएलवी मार्क III
1960 और 1970 के दशक के दौरान, भारत ने अपने राजनीतिक और आर्थिक आधार के कारण से स्वयं के प्रक्षेपण यान कार्यक्रम की शुरूआत की। 1960-1970 के दशक में, देश में सफलतापूर्वक साउंडिंग रॉकेट कार्यक्रम विकसित किया गया। और 1980 के दशक से उपग्रह प्रक्षेपण यान-3 पर अनुसंधान का कार्य किया गया। इसके बाद ने पीएसएलवी जीएसएलवी आदि रॉकेट को विकसित किया। हिंदुस्तान से जुड़ी कुछ अनसुनी और रोचक बातें एक भारतीय होने के नाते आपको भारत से जुड़ी यह बातें जरूर जान लेनी चाहिए वैसे तो भारत कि हर बात खास और रोमांचक होती है। चाहे वह बात भारत के इतिहास के बारे में हो या फिर संस्कृति के बारे में
उपग्रह प्रक्षेपण यान
अंगूठाकार|उपग्रह प्रक्षेपण यान |पाठ=|200x200पिक्सेल
स्थिति: <span style="color:red;">सेवा समाप्त</font color="red">
उपग्रह प्रक्षेपण यान या एसएलवी (SLV) परियोजना भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन द्वारा 1970 के दशक में शुरू हुई परियोजना है जो उपग्रहों को प्रक्षेपित करने के लिए आवश्यक प्रौद्योगिकी विकसित करने के लिए की गयी थी। उपग्रह प्रक्षेपण यान परियोजना एपीजे अब्दुल कलाम की अध्यक्षता में की गयी थी। उपग्रह प्रक्षेपण यान का उद्देश्य 400 किलोमीटर की ऊंचाई तक पहुंचना और 40 किलो के पेलोड को कक्षा में स्थापित करना था। अगस्त 1979 में एसएलवी-3 की पहली प्रायोगिक उड़ान हुई, परन्तु यह विफल रही।
संवर्धित उपग्रह प्रक्षेपण यान
अंगूठाकार|196x196px|संवर्धित उपग्रह प्रक्षेपण यान|पाठ=
स्थिति: <span style="color:red;">सेवा समाप्त</font color="red">
संवर्धित उपग्रह प्रक्षेपण यान (Augmented Satellite Launch Vehicle) भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) द्वारा विकसित एक पांच चरण ठोस ईंधन रॉकेट था। यह पृथ्वी की निचली कक्ष में 150 किलो के उपग्रहों स्थापित करने में सक्षम था। इस परियोजना को भू-स्थिर कक्षा में पेलोड के लिए आवश्यक प्रौद्योगिकियों के विकास के लिए 1980 के दशक के दौरान भारत द्वारा शुरू किया गया था। इसका डिजाइन उपग्रह प्रक्षेपण यान पर आधारित था
ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान
अंगूठाकार|ध्रुवीय उपग्रह प्रमोचन वाहन|पाठ=|425x425पिक्सेल
स्थिति: <span style="color:Green;">सक्रिय</font color="Green">
ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान या पी.एस.एल.वी भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन द्वारा संचालित एक उपभोजित प्रक्षेपण प्रणाली है। भारत ने इसे अपने सुदूर संवेदी उपग्रह को सूर्य समकालिक कक्षा में प्रक्षेपित करने के लिये विकसित किया है। पीएसएलवी के विकास से पूर्व यह सुविधा केवल रूस के पास थी। पीएसएलवी छोटे आकार के उपग्रहों को भू-स्थिर कक्षा में भी भेजने में सक्षम है। अब तक पीएसएलवी की सहायता से 70 अन्तरिक्षयान (30 भारतीय + 40 अन्तरराष्ट्रीय) विभिन्न कक्षाओं में प्रक्षेपित किये जा चुके हैं। इससे इस की विश्वसनीयता एवं विविध कार्य करने की क्षमता सिद्ध हो चुकी है।
भूस्थिर उपग्रह प्रक्षेपण यान
पाठ=|अंगूठाकार|184x184पिक्सेल|भूस्थिर उपग्रह प्रक्षेपण यान
स्थिति: <span style="color:Green;">सक्रिय</font color="Green">
भूस्थिर उपग्रह प्रक्षेपण यान (अंग्रेज़ी:जियोस्टेशनरी सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल, लघु: जी.एस.एल.वी) अंतरिक्ष में उपग्रह के प्रक्षेपण में सहायक यान है। जीएसएलवी का इस्तेमाल अब तक बारह लॉन्च में किया गया है, 2001 में पहली बार लॉन्च होने के बाद से 29 मार्च 2018 को जीएसएटी -6 ए संचार उपग्रह ले जाया गया था। ये यान उपग्रह को पृथ्वी की भूस्थिर कक्षा में स्थापित करने में मदद करता है। जीएसएलवी ऐसा बहुचरण रॉकेट होता है जो दो टन से अधिक भार के उपग्रह को पृथ्वी से 36000 कि॰मी॰ की ऊंचाई पर भू-स्थिर कक्षा में स्थापित कर देता है जो विषुवत वृत्त या भूमध्य रेखा की सीध में होता है। ये रॉकेट अपना कार्य तीन चरण में पूरा करते हैं। इनके तीसरे यानी अंतिम चरण में सबसे अधिक बल की आवश्यकता होती है। रॉकेट की यह आवश्यकता केवल क्रायोजेनिक इंजन ही पूरा कर सकते हैं।इसलिए बिना क्रायोजेनिक इंजन के जीएसएलवी रॉकेट का निर्माण मुश्किल होता है। अधिकतर काम के उपग्रह दो टन से अधिक के ही होते हैं। इसलिए विश्व भर में छोड़े जाने वाले 50 प्रतिशत उपग्रह इसी वर्ग में आते हैं। जीएसएलवी रॉकेट इस भार वर्ग के दो तीन उपग्रहों को एक साथ अंतरिक्ष में ले जाकर निश्चित कि॰मी॰ की ऊंचाई पर भू-स्थिर कक्षा में स्थापित कर देता है। यही इसकी की प्रमुख विशेषता है। हालांकि भूस्थिर उपग्रह प्रक्षेपण यान संस्करण 3 (जीएसएलवी मार्क 3) नाम साझा करता है, यह एक पूरी तरह से अलग लॉन्चर है।
भूस्थिर उपग्रह प्रक्षेपण यान मार्क 3
अंगूठाकार|पाठ=|156x156पिक्सेल|भूस्थिर उपग्रह प्रक्षेपण यान संस्करण 3
स्थिति: <span style="color:Green;">सेवा मे
भूस्थिर उपग्रह प्रक्षेपण यान संस्करण 3 : Geosynchronous Satellite Launch Vehicle mark 3, or GSLV Mk3, जियोसिंक्रोनस सैटेलाइट लाँच वहीकल मार्क 3, या जीएसएलवी मार्क 3), जिसे लॉन्च वाहन मार्क 3 (LVM 3) भी कहा जाता है, भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) द्वारा विकसित एक प्रक्षेपण वाहन (लॉन्च व्हीकल) है।
उपग्रह कार्यक्रम
पाठ=|अंगूठाकार|आर्यभट्ट (उपग्रह) पहला भारतीय उपग्रह
भारत का पहला उपग्रह आर्यभट्ट सोवियत संघ द्वारा कॉसमॉस-3एम प्रक्षेपण यान से 19 अप्रैल 1975 को कपूस्टिन यार से लांच किया गया था। इसके बाद स्वदेश में बने प्रयोगात्मक रोहिणी उपग्रहों की श्रृंखला को भारत ने स्वदेशी प्रक्षेपण यान उपग्रह प्रक्षेपण यान से लांच किया। वर्तमान में, इसरो पृथ्वी अवलोकन उपग्रह की एक बड़ी संख्या चल रहा है।
इन्सैट शृंखला
अंगूठाकार|इनसेट -1 बी
अंगूठाकार|इनसेट -1 बी
इन्सैट (भारतीय राष्ट्रीय उपग्रह प्रणाली) इसरो द्वारा लांच एक बहुउद्देशीय भूस्थिर उपग्रहों की श्रृंखला है। जो भारत के दूरसंचार, प्रसारण, मौसम विज्ञान और खोज और बचाव की जरूरत को पूरा करने के लिए है। इसे 1983 में शुरू किया गया था। इन्सैट एशिया-प्रशांत क्षेत्र में सबसे बड़ी घरेलू संचार प्रणाली है। यह अंतरिक्ष विभाग, दूरसंचार विभाग, भारत मौसम विज्ञान विभाग, ऑल इंडिया रेडियो और दूरदर्शन का एक संयुक्त उद्यम है। संपूर्ण समन्वय और इनसैट प्रणाली का प्रबंधन, इनसैट समन्वय समिति के सचिव स्तर के अधिकारी पर टिकी हुई है।
भारतीय सुदूर संवेदन उपग्रह शृंखला
भारतीय सुदूर संवेदन उपग्रह (आईआरएस) पृथ्वी अवलोकन उपग्रह की एक श्रृंखला है। इसे इसरो द्वारा बनाया, लांच और रखरखाव किया जाता है। आईआरएस श्रृंखला देश के लिए रिमोट सेंसिंग सेवाएं उपलब्ध कराता है। भारतीय सुदूर संवेदन उपग्रह प्रणाली आज दुनिया में चल रही नागरिक उपयोग के लिए दूरसंवेदी उपग्रहों का सबसे बड़ा समूह है। सभी उपग्रहों को ध्रुवीय सूर्य समकालिक कक्षा में रखा जाता है। प्रारंभिक संस्करणों 1(ए, बी, सी, डी) नामकरण से बना रहे थे। लेकिन बाद के संस्करण अपने क्षेत्र के आधार पर ओशनसैट, कार्टोसैट, रिसोर्ससैट नाम से नामित किये गए।
राडार इमेजिंग सैटेलाइट
इसरो वर्तमान में दो राडार इमेजिंग सैटेलाइट संचालित कर रहा है। रीसैट-1 को 26 अप्रैल 2012 को ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान(PSLV) से सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र,श्रीहरिकोटा से लांच किया गया था। रीसैट-1 एक सी-बैंड सिंथेटिक एपर्चर रडार (एसएआर) पेलोड ले के गया। जिसकी सहायता से दिन और रात दोनों में किसी भी तरह के ऑब्जेक्ट पर राडार किरणों से उसकी आकृति और प्रवत्ति का पता लगाया जा सकता था। तथा भारत ने रीसैट-2 जो 2009 में लांच हुआ था। इसराइल से 11 करोड़ अमेरिकी डॉलर में खरीद लिया था।
11 दिसंबर 2019 को इसरो ने पीएसएलवी सी-48 रॉकेट के साथ रीसैट-2बीआर1 लॉन्च किया।
अन्य उपग्रह
इसरो ने भूस्थिर प्रायोगिक उपग्रह की श्रृंखला जिसे जीसैट श्रृंखला के रूप में जाना जाता को भी लांच किया। इसरो का पहला मौसम समर्पित उपग्रह कल्पना-1 को 12 सितंबर 2002 को ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान द्वारा लांच किया गया था। इस उपग्रह को मेटसैट-1 के रूप में भी जाना जाता था। लेकिन फरवरी 2003 में भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने स्पेस शटल कोलंबिया में मारी गयी भारतीय मूल की नासा अंतरिक्ष यात्री कल्पना चावला की याद में इस उपग्रह का नाम कल्पना-1 रखा।
इसरो ने 25 फरवरी, 2013 12:31 यूटीसी पर सफलतापूर्वक भारत-फ्रांसीसी उपग्रह सरल लांच किया। सरल एक सहकारी प्रौद्योगिकी मिशन है। यह समुद्र की सतह और समुद्र के स्तर की निगरानी के लिए इस्तेमाल की जाती है।
जून 2014 में, इसरो ने पीएसएलवी-सी23 प्रक्षेपण यान के माध्यम से फ्रेंच पृथ्वी अवलोकन उपग्रह स्पॉट-7 (714 किलो) के साथ सिंगापुर का पहला नैनो उपग्रह VELOX-I, कनाडा का उपग्रह CAN-X5, जर्मनी का उपग्रह AISAT लांच किये। यह इसरो का चौथा वाणिज्यिक प्रक्षेपण था।
1 जनवरी 2024 को नए साल के पहले ही दिन isro ने साल की शुरुआत में ही खगोल विज्ञान के सबसे बड़े रहस्यों में से एक ब्लैक होल के बारे में जानकारी जुटाने के लिए उपग्रह भेज कर की है। सुबह 9.10 बजे भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के इस पहले एक्स-रे पोलरीमीटर उपग्रह यानी ‘एक्सपोसैट’ को रॉकेट पोलर सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल (पीएसएलवी) सी 58 के जरिए लॉन्च किया। यह महज 21 मिनट में अंतरिक्ष में 650 किमी ऊंचाई पर जाएगा। इस रॉकेट का यह 60वां मिशन होगा। इस मिशन में एक्सपोसैट के साथ साथ 10 अन्य उपग्रह भी पृथ्वी की निचली कक्षा में स्थापित होंगे।
अन्य उपग्रह: एक समृद्ध खगोल अनुसंधान के महत्वपूर्ण क्षेत्र में भारतीय अंतरिक्ष मिशन
इस XpoSAT(विस्तृत पढ़े) मिशन के अंतर्गत, एक साधारित उपग्रह के साथ साथ कई अन्य उपग्रह भी भेजे गए हैं, जो खगोल अनुसंधान में नए मील के पथिकों की भूमिका निभा सकते हैं।
गगन उपग्रह नेविगेशन प्रणाली
गगन अर्थात् जीपीएस ऐडेड जियो ऑगमेंटिड नैविगेशन को एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया और इसरो ने 750 करोड़ रुपये की लागत से मिलकर तैयार किया है। गगन के नाम से जाना जाने वाला यह भारत का उपग्रह आधारित हवाई यातायात संचालन तंत्र है। अमेरिका, रूस और यूरोप के बाद 10 अगस्त 2010 को इस सुविधा को प्राप्त करने वाला भारत विश्व का चौथा देश बन गया।
पहला गगन नेविगेशन पेलोड अप्रैल 2010 में जीसैट-4 के साथ भेजा गया था। हालाँकि जीसैट-4 कक्षा में स्थापित नहीं किया जा सका। क्योंकि भूस्थिर उपग्रह प्रक्षेपण यान डी3 मिशन पूरा नहीं हो सका। दो और गगन पेलोड बाद में जीसैट-8 और जीसैट-10 भेजे गए।
आईआरएनएसएस उपग्रह नेविगेशन प्रणाली
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आईआरएनएसएस भारत द्वारा विकसित एक स्वतंत्र क्षेत्रीय नौवहन उपग्रह प्रणाली है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसका नाम भारत के मछुवारों को समर्पित करते हुए नाविक रखा है। इसका उद्देश्य देश तथा देश की सीमा से 1500 किलोमीटर की दूरी तक के हिस्से में इसके उपयोगकर्ता को सटीक स्थिति की सूचना देना है। आईआरएनएसएस दो प्रकार की सेवाओं प्रदान करेगा। (1)मानक पोजिशनिंग सेवा और (2)प्रतिबंधित या सीमित सेवा। प्रतिबंधित या सीमित सेवा मुख्यत: भारतीय सेना, भारतीय सरकार के उच्चाधिकारियों व अतिविशिष्ट लोगों व सुरक्षा संस्थानों के लिये होगी। आईआरएनएसएस के संचालन व रख रखाव के लिये भारत में लगभग 16 केन्द्र बनाये गये हैं।
सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से आईआरएनएसएस-1ए उपग्रह ने 1 जुलाई 2013 रात 11:41 बजे उड़ान भरी। प्रक्षेपण के करीब 20 मिनट बाद रॉकेट ने आईआरएनएसएस-1ए को उसकी कक्षा में स्थापित कर दिया। वर्तमान में सभी 7 उपग्रह को उनकी कक्षा में स्थापित किया जा चुका है। और 4 उपग्रह बैकअप के तौर पर भेजे जाने की योजना है।
दक्षिण एशिया उपग्रह
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5 मई 2017 को दक्षिण एशिया उपग्रह को श्रीहरिकोटा उपग्रह प्रक्षेपण केंद्र से प्रक्षेपित कर दिया गया। यह उपग्रह पाकिस्तान को छोड़कर अन्य सभी सार्क (SAARC) देशों के लिए एक उपहार के समान था। इस उपग्रह के द्वारा पडोसी देशों के हॉटलाइन से जल्दी संपर्क बनाने, टी.वी. प्रसारण,भारतीय सीमा पर हलचल को रोकना आदि कार्य किए जा सकते हैं।
अंतरिक्ष में भारत का 104 उपग्रहों का प्रक्षेपण रिकॉर्ड
अंतरिक्ष में भारत की सबसे बड़ी कामयाबी, ISRO ने एक साथ रिकॉर्ड 104 सैटेलाइट का प्रक्षेपण कर रचा इतिहास। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के प्रक्षेपण यान पीएसएलवी ने 15/02/2017 श्रीहरिकोटा स्थित अंतरिक्ष केन्द्र से एक एकल मिशन में रिकार्ड 104 उपग्रहों का सफलतापूर्वक प्रक्षेपण किया। यहां से करीब 125 किलोमीटर दूर श्रीहरिकोटा से एक ही प्रक्षेपास्त्र के जरिये रिकॉर्ड 104 उपग्रहों का प्रक्षेपण सफलतापूर्वक किया गया। जानकारी के अनुसार, इन 104 उपग्रहों में भारत के तीन और विदेशों के 101 सैटेलाइट शामिल है। भारत ने एक रॉकेट से 104 उपग्रहों को अंतरिक्ष में भेजकर इस तरह का इतिहास रचने वाला पहला देश बन गया है।
प्रक्षेपण के कुछ देर बाद पीएसएलवी-सी37 ने भारत के काटरेसैट-2 श्रृंखला के पृथ्वी पर्यवेक्षण उपग्रह और दो अन्य उपग्रहों तथा 103 नैनो उपग्रहों को सफलतापूर्वक कक्षा में स्थापित कर दिया। वहीं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस सफल अभियान को लेकर इसरो को बधाई दी है। इसरो के अनुसार, पीएसएलवी-सी37-काटरेसेट 2 श्रृंखला के सेटेलाइट मिशन के प्रक्षेपण के लिए उलटी गिनती बुधवार सुबह 5.28 बजे शुरू हुई। मिशन रेडीनेस रिव्यू कमेटी एंड लांच ऑथोराइजेशन बोर्ड ने प्रक्षेपण की मंजूरी दी थी। अंतरिक्ष एजेंसी का विश्वस्त ‘ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान’ (पीएसएलवी-सी 37) अपने 39वें मिशन पर अंतरराष्ट्रीय उपभोक्ताओं से जुड़े रिकॉर्ड 104 उपग्रहों को प्रक्षेपित किया। प्रक्षेपण के बारे में महत्वपूर्ण बात यह है कि इतनी बड़ी संख्या में रॉकेट से उपग्रहों का प्रक्षेपण किया गया। भारत ने इससे पहले जून 2015 में एक बार में 57 उपग्रहों को प्रक्षेपण किया था। यह उसका दूसरा सफल प्रयास है। इसरो के वैज्ञानिकों ने एक्सएल वैरियंट का इस्तेमाल किया है जो सबसे शक्तिशाली रॉकेट है और इसका इस्तेमाल महत्वाकांक्षी चंद्रयान में और मंगल मिशन में किया जा चुका है।दोनों भारतीय नैनो-सेटेलाइट आईएनएस-1ए और आईएनएस-1बी को पीएसएलवी पर बड़े उपग्रहों का साथ देने के लिए विकसित किया गया था। अंतरराष्ट्रीय ग्राहकों की नैनो-सेटेलाइटों का प्रक्षेपण इसरो की व्यावसायिक शाखा एंट्रिक्स कॉपरेरेशन लिमिटेड की व्यवस्था के तहत किया जा रहा है।
मानव अंतरिक्ष उड़ान कार्यक्रम
मुख्य लेख- भारतीय मानव अंतरिक्ष उड़ान कार्यक्रम
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन अपने मानव अंतरिक्ष कार्यक्रम के लिए 124 अरब के बजट का प्रस्ताव किया। अंतरिक्ष आयोग के अनुसार जो बजट की सिफारिश की है। उसकी अंतिम मंजूरी के 7 साल के बाद ही एक मानव रहित उड़ान लांच की जाएगी। अगर घोषित समय-सीमा में बजट जारी किया गया। तो भारत सोवियत संघ, संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन के बाद चौथा देश बन जाएगा। जो स्वदेश में ही सफलतापूर्वक मानव मिशन कर चुके है। भारत सरकार ने अक्टूबर 2016 तक मिशन को मंजूरी नहीं दी है।
इसरो ने मानव अंतरिक्ष उड़ान कार्यक्रम के लिए क्रांतिक प्रौद्योगिकियों पर विकास क्रियाकलाप शुरू किए हैं। मार्च 2012 के आँकड़ों के अनुसार इस दिशा में आवंटित निधि 145 करोड़ हैं। विभिन्न तकनीकी क्रियाकलापों लिए आवंटित निधि मुख्य शीर्षों के तहत है- क्रू माड्यूल प्रणाली (61 करोड़), मानव अनुकूल और प्रमोचक राकेट (27 करोड़), राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों के साथ अध्ययन (36 करोड़) और वायु गतिकी विशिष्टीकरण एवं मिशन अध्ययन जैसे अन्य क्रियाकलाप के लिये (21 करोड़)।
प्रौद्योगिकी प्रदर्शन
मुख्य लेख- स्पेस कैप्सूल रिकवरी एक्सपेरीमेंट
स्पेस कैप्सूल रिकवरी एक्सपेरीमेंट (एसआरई या सामान्यतः एसआरई-1) एक प्रयोगात्मक भारतीय अंतरिक्ष यान है। जो पीएसएलवी सी7 रॉकेट का उपयोग कर तीन अन्य उपग्रहों के साथ लांच किया गया था। यह पृथ्वी के वायुमंडल में फिर से प्रवेश करने से पहले 12 दिनों के लिए कक्षा में रहा और 22 जनवरी को 4:16 जी.एम.टी. पर बंगाल की खाड़ी में नीचे उतरा। स्पेस कैप्सूल रिकवरी एक्सपेरीमेंट-1 का मुख्य उद्देश्य पृथ्वी की परिक्रमा कर रहे उपग्रह को पृथ्वी पर बापस उतरने की क्षमता का प्रदर्शन करना था। इसका यह भी उद्देश्य था। कि थर्मल सुरक्षा, नेविगेशन, मार्गदर्शन, नियंत्रण, गिरावट और तैरने की क्रिया प्रणाली, हाइपरसोनिक एयरो-ऊष्मा का अच्छी तरह से अध्ययन, संचार ब्लैकआउट का प्रबंधन और बापसी के संचालन का परीक्षण करना था। इसरो निकट भविष्य में एसआरई-2 और एसआरई-3 लांच करने की योजना बना रहा है। जो भविष्य के मानव मिशन के लिए उन्नत पुनः प्रवेश प्रौद्योगिकी के परीक्षण करेंगे।
अंतरिक्ष यात्री प्रशिक्षण और अन्य सुविधाएं
इसरो मानवयुक्त वाहन पर उड़ान के लिए दल को तैयार करने के लिए बंगलौर में एक अंतरिक्ष यात्री प्रशिक्षण केंद्र की स्थापना करेगी। केंद्र में चयनित अंतरिक्ष यात्रियों को शून्य गुरुत्वाकर्षण में अस्तित्व, बचाव और वापिस के संचालन में प्रशिक्षित करने के लिए सिमुलेशन सुविधाओं का उपयोग किया जायेगा।
चालक दल के वाहन के विकास
भविष्य में आने वाली परियोजनाएं
thumb|भूस्थिर उपग्रह प्रक्षेपण यान संस्करण 3 का मॉडल
thumb|आरएलवी-टीडी का एक मॉडल
इसरो ने निकट भविष्य में कई नई पीढ़ी के पृथ्वी अवलोकन उपग्रहों को लॉन्च करने की योजना बनाई है। इसरो नए लॉन्च वाहनों और अंतरिक्ष यान के विकास भी करेगा। इसरो ने कहा है कि वह मंगल और निकट के पृथ्वी ऑब्जेक्ट्स पर मानव रहित मिशन भेजेगा। इसरो ने 2012-17 के दौरान 58 मिशनों की योजना बनाई है।
आगामी लॉन्च
रॉकेट का नाम समय विवरण जीएसएलवी 3 मई 2017 यह जीसैट-19ई लॉन्च करेगा।, सफल प्रक्षेपण भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन को भू-स्थिर कक्षाओं तक 3200 किलोग्राम की सीमा के उपग्रहों को लॉन्च करने के लिए विश्वसनीय बना देगा। जिससे 3200 किलोग्राम की सीमा के उपग्रहों के लॉन्च स्वदेश में हो सकेगे।पीएसएलवी सी-38 जून 2017 यह कार्टोसैट-2ई लॉन्च करेगा, अन्य विदेशी उपग्रहों के साथजीएसएलवी 2 सितंबर 2017 यह जीसैट-6ए लॉन्च करेगा। पीएसएलवी 28 दिसंबर 2017 यह लांच टीम सिंधु द्वारा अनुबंधित है, गूगल चंद्र एक्स पुरस्कार के लिए, यह पहली बार होगा कि एक ही प्रक्षेपण पर कई रॉवर्स चाँद तक ले जाएंगे, साथ ही तीन रॉवर्स की योजना बनाई जा रही है।
आगामी उपग्रह
उपग्रह का नाम विवरण जीसैट-11 जीसैट-11 आई-4के बस पर आधारित उपग्रह है जो विकास के उन्नत चरण में है। अंतरिक्ष यान 10-12 किलोवाट बिजली पैदा कर सकता है और 8 किलोवाट की शक्ति वाले उपकरण (पेलोड) को चला सकता है। पेलोड कॉन्फ़िगरेशन अभी जारी है। इसमें अंडमान निकोबार द्वीपों सहित पूरे देश को कवर करने वाले 16 स्पॉट बीम होगे। उपयोगकर्ता-उन्नत टर्मिनलों के लिए संचार लिंक केयू-बैंड में संचालित होगा, जबकि हब के लिए संचार लिंक का बैंड केए-बैंड होगा। पेलोड को उच्च डेटा संचार उपग्रह के रूप में संचालित करने के लिए कॉन्फ़िगर किया गया है, इसे 2017 में कक्षा में लॉन्च किया जायेगा। जीसैट-17 28 जून, 2017 को एरियान-5 द्वारा लॉन्च किया जाएगा। जीसैट-17 भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के लिए भारत में राष्ट्रीय संचार सेवाओं प्रदान करेगा। जीसैट-19 भारत का भूस्थिर उपग्रह प्रक्षेपण यान संस्करण 3 (जीएसएलवी 3) जीसैट-19ई प्रायोगिक संचार उपग्रह को अपनी पहली कक्षा परीक्षण उड़ान पर लॉन्च करेगा। इसरो द्वारा लॉन्च किया गया यह कभी भी सबसे बड़ा उपग्रह होगा। यह 5 जून को लॉन्च होगा। भू इमेजिंग उपग्रह 1 आपदाओं के समय भू-स्थानिक इमेजरी प्रदान करेगा। कार्टोसैट-2ई भारत के ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण वाहन की उडान पीएसएलवी-सी38 पर कार्टोसैट-2ई उच्च रिज़ॉल्यूशन पृथ्वी अवलोकन उपग्रह और अंतरराष्ट्रीय ग्राहकों से छोटे माध्यमिक पेलोड के संग्रह को लॉन्च किया जायेगा। यह जून के अंत में लॉन्च होगा। निसार नासा-इसरो सिंथेटिक एपर्चर रडार (निसार) नासा और इसरो के बीच रिमोट सेंसिंग के लिए इस्तेमाल होने वाली दोहरी आवृत्ति सिंथेटिक एपर्चर रडार उपग्रह को विकसित करने और लॉन्च करने की एक संयुक्त परियोजना है। यह पहला दोहरी बैंड रडार इमेजिंग सैटेलाइट होने के लिए उल्लेखनीय है।
अन्य ग्रहों पर अन्वेषण
गंतव्य यान का नाम प्रक्षेपण यान विवरण चांद चंद्रयान-3ही 3 सूर्य आदित्य-१ पीएसएलवी-एक्सएल शुक्र भारतीय शुक्र आर्बिटर मिशन पीएसएलवी-एक्सएल मंगल मंगलयान-2 जीएसएलवी ३बृहस्पति जीएसएलवी ३
भविष्य के प्रक्षेपण यान
पुन: प्रयोज्य लॉन्च वाहन-प्रौद्योगिकी प्रदर्शनकार (आरएलवी-टीडी)
टू स्टेज टू ऑर्बिट (टीएसटीओ) पूरी तरह से पुन: उपयोग योग्य लॉन्च वाहन को साकार करने की ओर यह पहला कदम है। इसमें प्रौद्योगिकी प्रदर्शन मिशन की एक श्रृंखला की कल्पना की गई है। इस प्रयोजन के लिए एक विंग रीज्युलेबल लॉन्च वाहन टेक्नोलॉजी डेमॉन्स्ट्रेटर (आरएलवी-टीडी) कॉन्फ़िगर किया गया है। आरएलवी-टीडी विभिन्न तकनीकों जैसे, हाइपरसोनिक फ्लाईट, स्वायत्त लैंडिंग, पॉवर क्रूज फ्लाईट और एयर-श्वास प्रणोदन का उपयोग करते हुए हाइपरसॉनिक उड़ान के लिए उड़ान परीक्षण के रूप में कार्य करेगा। सबसे पहले प्रदर्शन परीक्षणों की श्रृंखला हाइपरसोनिक फ्लाइट प्रयोग (हेक्स) है।
भारत के भविष्य की अंतरिक्ष शटल का एक मानव रहित संस्करण, 20 मई 2015 को थुम्बा में विक्रम साराभाई अंतरिक्ष केंद्र (वीएसएससी) पर अंतिम रूप दिया गया। "आरएलवी-टीडी का 'अंतरिक्ष विमान' हिस्सा लगभग तैयार है। अब हम उसकी बाहरी सतह पर विशेष टाइलें लगाने की प्रक्रिया में हैं जो पृथ्वी के वायुमंडल में पुनः प्रवेश के दौरान तीव्र गर्मी को बर्दाश्त करने के लिए आवश्यक है," वीएसएससी के निदेशक एम चंद्रनाथन ने कहा। इसरो ने फरवरी 2016 के लिए श्रीहरिकोटा स्पेसपोर्ट के पहले लॉन्चपैड से प्रोटोटाइप टेस्ट फ्लाइट करने की योजना बनाई। लेकिन निर्माण की समाप्ति के आधार पर तारीख को अंतिम रूप दिया गया। प्रस्तावित आरएलवी दो भागों में बनाया गया है; एक मानवयुक्त अंतरिक्ष विमान का एक एकल चरण , दूसरा बूस्टर रॉकेट ठोस ईंधन का उपयोग करने के लिए। बूस्टर रॉकेट एक्सपेंडेबल है, इसका उडान के बद्द उपयोग नहीं किया जायेगा। जबकि आरएलवी पृथ्वी पर वापस आ जाएगा और मिशन के बाद एक सामान्य हवाई जहाज की तरह जमीन उतरेगा।
प्रोटोटाइप- 'आरएलवी-टीडी' का वजन लगभग 1.5 टन है और यह 70 किलोमीटर की ऊंचाई तक उड़ सकता है। हेक्स (हाइपरसोनिक फ्लाईट एक्सपेरिमेंट) को सफलतापूर्वक 1:30 GMT, 23 मई 2016 को पूरा किया गया।
एकीकृत प्रक्षेपण यान
एकीकृत प्रक्षेपण यान (यूएलवी या यूनिफाइड लॉन्च वाहन), भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) द्वारा विकासित किया जा रहा एक प्रक्षेपण वाहन है। परियोजना के मुख्य उद्देश्य मॉड्यूलर आर्किटेक्चर को डिज़ाइन करना है जो कि पीएसएलवी, जीएसएलवी एमके 1/2 और जीएसएलवी 3 आदि राकेट को लांचरों के एक परिवार के साथ प्रतिस्थापन करेगा।
अन्य ग्रहों पर अन्वेषण
पृथ्वी की कक्षा से बाहर के इसरो के मिशन में चंद्रयान-1 (चंद्रमा) और मंगल ऑर्बिटर मिशन मिशन (मंगल ग्रह) शामिल हैं। इसरो चंद्रयान-२ के साथ, वीनस और निकट-पृथ्वी वस्तुओं जैसे क्षुद्रग्रहों और धूमकेतु जैसे मिशनों का अनुसरण करने की योजना बना रहा है।
चंद्रयान-२
मंगलयान-2
बजट
2012-17
१२वीं पंचवर्षीय योजना, 2012-17 के दौरान इसरो ने ५८ अंतरिक्ष मिशनों के संचालन की योजना बनाई हैं, जिसके लिए अनंतिम रूप से ३९,७५० करोड़ रुपये के योजना परिव्यय की व्यवस्था की गई है। २०१२-१३ के दौरान ५,६१५ करोड़ रुपये की राशि आबंटित की गई।
महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ
1962: परमाणु ऊर्जा विभाग द्वारा अंतरिक्ष अनुसंधान के लिये एक राष्ट्रीय समिति का गठन और त्रिवेन्द्रम के समीप थुम्बा में राकेट प्रक्षेपण स्थल के विकास की दिशा में पहला प्रयास प्रारंभ।
1963: थुंबा से (21 नवंबर, 1963) को पहले राकेट का प्रक्षेपण
1965: थुंबा में अंतरिक्ष विज्ञान एवं तकनीकी केन्द्र की स्थापना।
1967: अहमदाबाद में उपग्रह संचार प्रणाली केन्द्र की स्थापना।
1972: अंतरिक्ष आयोग एवं अंतरिक्ष विभाग की स्थापना।
1975: पहले भारतीय उपग्रह आर्यभट्ट का (April 19, 1975) को प्रक्षेपण।
1976: उपग्रह के माध्यम से पहली बार शिक्षा देने के लिये प्रायोगिक कदम।
1979: एक प्रायोगिक उपग्रह भास्कर - १ का प्रक्षेपण। रोहिणी उपग्रह का पहले प्रायोगिक परीक्षण यान एस एल वी-3 की सहायता से प्रक्षेपण असफल।
1980: एस एल वी-3 की सहायता से रोहिणी उपग्रह का सफलतापूर्वक कक्षा में स्थापन।
1981: 'एप्पल' नामक भूवैज्ञानिक संचार उपग्रह का सफलतापूर्वक प्रक्षेपण। नवंबर में भास्कर - २ का प्रक्षेपण।
1982: इन्सैट-1A का अप्रैल में प्रक्षेपण और सितंबर अक्रियकरण।
1983: एस एल वी-3 का दूसरा प्रक्षेपण। आर एस - डी2 की कक्षा में स्थापना। इन्सैट-1B का प्रक्षेपण।
1984: भारत और सोवियत संघ द्वारा संयुक्त अंतरिक्ष अभियान में राकेश शर्मा का पहला भारतीय अंतरिक्ष यात्री बनना।
1987: ए एस एल वी का SROSS-1 उपग्रह के साथ प्रक्षेपण।
1988: भारत का पहला दूर संवेदी उपग्रह आई आर एस-1A का प्रक्षेपण. इन्सैट-1C का जुलाई में प्रक्षेपण। नवंबर में परित्याग।
1990: इन्सैट-1D का सफल प्रक्षेपण।
1991: अगस्त में दूसरा दूर संवेदी उपग्रह आई आर एस एस-1B का प्रक्षेपण।
1992: SROCC-C के साथ ए एस एल वी द्वारा तीसरा प्रक्षेपण मई महीने में। पूरी तरह स्वेदेशी तकनीक से बने उपग्रह इन्सैट-2A का सफल प्रक्षेपण।
1993: इन्सैट-2B का जुलाईमहीने में सफल प्रक्षेपण। पी एस एल वी द्वारा दूर संवेदी उपग्रह आई आर एस एस-1E का दुर्घटनाग्रस्त होना।
1994: मईमहीने में एस एस एल वी का चौथा सफल प्रक्षेपण।
1995: दिसंबर महीने में इन्सैट-2C का प्रक्षेपण। तीसरे दूर संवेदी उपग्रह का सफल प्रक्षेपण।
1996: तीसरे भारतीय दूर संवेदी उपग्रह आई आर एस एस-P3 का पी एस एल वी की सहायता से मार्च महीने में सफल प्रक्षेपण।
1997: जून महीने में प्रक्षेपित इन्सैट-2D का अक्टूबर महीने में खराब होना। सितंबर महीने में पी एस एल वी की सहायता से भारतीय दूर संवेदी उपग्रह आई आर एस एस-1D का सफल प्रक्षेपण।
1999: इन्सैट-2E इन्सैट-2 क्रम के आखिरी उपग्रह का फ्रांस से सफल प्रक्षेपण। भारतीय दूर संवेदी उपग्रह आई आर एस एस-P4 श्रीहरिकोटा परिक्षण केन्द्र से सफल प्रक्षेपण। पहली बार भारत से विदेशी उपग्रहों का प्रक्षेपण : दक्षिण कोरिया के किटसैट-3 और जर्मनी के डी सी आर-टूबसैट का सफल परीक्षण।
2000: इन्सैट-3B का २२ मार्च, २००० को सफल प्रक्षेपण।
2001: जी एस एल वी-D1, का प्रक्षेपण आंशिक सफल।
2002: जनवरी महीने में इन्सैट-3C का सफल प्रक्षेपण। पी एस एल वी-C4 द्वारा कल्पना-1 का सितंबर में सफल प्रक्षेपण।
२००४: जी एस एल वी एड्यूसैट का सफलतापूर्वक प्रक्षेपण।
२००८: २२ अक्टूबर को चन्द्रयान का सफलतापूर्वक प्रक्षेपण
२०१३: ५ नवम्बर को मंगलयान का सफलतापूर्वक प्रक्षेपण
2014 : २४ सितम्बर को मंगलयान (प्रक्षेपण के २९८ दिन बाद) मंगल की कक्षा में स्थापित, भूस्थिर उपग्रह प्रक्षेपण यान (जीएसएलवी-डी5) का सफल प्रक्षेपण (5 जनवरी 2014), आईआरएनएसएस-1बी (04 अप्रैल 2014) व 1 सी(16 अक्टूबर 2014) का सफल प्रक्षेपण, जीएसएलवी एमके-3 की सफल पहली प्रायोगिक उड़ान(18 दिसंबर 2014)
2015 - २९ सितंबर को खगोलीय शोध को समर्पित भारत की पहली वेधशाला एस्ट्रोसैट का सफल प्रक्षेपण किया।
२०१६ - २३ मई को पूरी तरह भारत में बना अपना पहला पुनर्प्रयोज्य अंतरिक्ष शटल (रियूजेबल स्पेस शटल) प्रमोचित किया।
२०१६ - २२ जून : पीएसएलवी सी-34 के माध्यम से रिकॉर्ड २० उपग्रह एक साथ छोड़े गए।
२०१६ - २८ अगस्त: वायुमंडल प्रणोदन प्रणाली वाला स्क्रेमजेट इंजन का पहला प्रायोगिक परीक्षण सफल।
२०१६ - ०८ सितंबर: स्वदेश में विकसित क्रायोजेनिक अपर स्टेज(सीयूएस) का पहली बार प्रयोग करते हुए जीएसएलवी-एफ05 की सफल उड़ान के साथ इनसैट-3डीआर अंतरिक्ष में स्थापित।इनसैट 3डीआर सैटेलाइट के बारे में आइए जानें 10 खास बातें - एनडीटीवी - 8 सितम्बर 2016
१५ फरवरी २०१७ - एक साथ १०४ उपग्रह प्रक्षेपित करके विश्व कीर्तिमान बनाया। PSLV-C37/Cartosat2 शृंखला उपग्रह मिशन में कार्टोसैट-२ के अलावा १०१ अन्तरराष्ट्रीय लघु-उपग्रह (नैनो-सैटेलाइट) और दो भारतीय लघु-उपग्रह INS-1A तथा INS-1B थे।
22 जुलाई, 2023 - चन्द्रयान-२ का सफल प्रक्षेपण
23 अगस्त 2023''' - चंद्रयान-3 का सफल अवतरण
इन्हें भी देखें
भूस्थिर उपग्रह प्रक्षेपण यान संस्करण 3 (जीएसएलवी मार्क 3)
चंद्रयान
मंगलयान
भूस्थिर उपग्रह प्रक्षेपण यान (जीएसएलवी)
ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान ( पीएसएलवी)
भारतीय मानव अंतरिक्ष उड़ान कार्यक्रम
भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम
नासा
भारतीय क्षेत्रीय नौवहन उपग्रह प्रणाली
दक्षिण एशिया उपग्रह
स्काईरूट एयरोस्पेस
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सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
इसरो का आधिकारिक वेबसाइट हिन्दी में* (अँग्रेजी में)
भारत के प्रमुख शोध संस्थान Research Institutes In India
इसरो की उपलब्धियाँ और चुनौतियाँ
The Coolest Missions from India's Space Program
भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम : हाल के सफल अभियान
बड़ी कामयाबी, इसरो ने रॉकेट तकनीक से बनाया कृत्रिम 'दिल' (अप्रैल २०१६)
इसरो की सस्ती लांचिंग से घबराए अमेरिकी उद्यमी (नई दुनिया ; अप्रैल २०१६)
श्रेणी:विश्व के प्रमुख अंतरिक्ष संगठन |
इसरो | https://hi.wikipedia.org/wiki/इसरो | REDIRECTभारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन |
दोराबजी टाटा | https://hi.wikipedia.org/wiki/दोराबजी_टाटा | right|thumb|250px|दोराबजी टाटा
सर दोराबजी टाटा (१८५९-१९३३ ई०) जमशेदजी टाटा के सबसे बड़े पुत्र थे।
परिचय
सर दोराबजी जमशेदजी टाटा (१८५९ - १९३३ ई०) जमशेदजी नौसरवान जी के ज्येष्ठ पुत्र थे जो २९ अगस्त १८५९ ई. को बंबई में जन्मे। माँ का नाम हीराबाई था। १८७५ ई. में बंबई प्रिपेटरी स्कूल में पढ़ने के उपरांत इन्हें [इंग्लैंड]] भेजा गया जहाँ दो वर्ष वाद ये कैंब्रिज के गोनविल और कायस कालेज में भरती हुए। १८७९ ई. में बंबई लौटे और तीन वर्ष बाद बंबई विश्वविद्यालय से बी. ए. की उपाधि प्राप्त की।
अपने योग्य और अनुभवी पिता के निर्देशन में आपने भारतीय उद्योग और व्यापार का व्यापक अनुभव प्राप्त किया। पिता की मृत्यु के बाद आप उनके अधूरे स्वप्नों को पूरा करने में जुट गए। 1904 में अपने पिता जमशेदजी टाटा की मृत्यु के बाद अपने पिता के सपनों को साकार करने का बीड़ा उठाया। लोहे की खानों का ज्यादातर सर्वेक्षण उन्हीं के निर्देशन में पूरा हुआ। वे टाटा समूह के पहले चैयरमैन बने और 1908 से 1932 तक चैयरमैन बने रहे। साकची को एक आदर्श शहर के रूप में विकसित करने में उनकी मुख्य भूमिका रही है जो बाद में जमशेदपुर के नाम से जाना गया। 1910 में उन्हें ब्रिटिश सरकार द्वारा नाईटहुड से सम्मानित किया गया था।
पिता की योजनाओं के अनुसार झारखण्ड में इस्पात का भारी कारखाना स्थापित किया और उसका बड़े पैमाने पर विस्तार भी किया। १९४५ ई. तक वह भारत में अपने ढंग का सबसे बड़ा इस्पात का कारखाना बन गया जिसमें १,२०,००० स्त्री और पुरुष काम करते थे और जिसकी पूँजी ५४,०००,००० पौंड थी।
सर दोराब जी ने एक ओर जहाँ भारत में औद्योगिक विकास के निमित्त पिता द्वारा सोची अनेक योजनाओं को कार्यान्वित किया, वहीं दूसरी ओर समाजसेवा के भी कार्य किए। पत्नी की मृत्य के बाद 'लेडी टाटा मेमोरियल ट्रस्ट' की स्थापना की जिसका उद्देश्य रक्त संबंधी रोगों के अनुसंधान ओर अध्ययन में सहायता करना था। शिक्षा के प्रति भी इनका दृष्टिकोण बड़ा उदार था। जीवन के अंतिम वर्ष में इन्होंने अपनी सारी संपत्ति अपने नाम से स्थाति ट्रस्ट को सार्वजनिक कार्यों के लिये सौंप दी। यह निधि १९४५ में अनुमानत: २,०००,००० पौंड थी जिसमें से आठ लाख पौंड की धनराशि विभिन्न दान कार्यो में तथा कैंसर के इलाज के लिए स्थापित टाटा मेमोरियल हास्पिटल, टाटा इंस्टिट्यटू ऑव सोशल साइंसेज और टाटा मूलभूत अनुसंधान संस्थान के कार्यों में खर्च की जा चुकी है।
अपनी सेवाओं के लिए इन्हें १९१० ई. में 'नाइट' की उपाधि भी मिली। १९१५ में ये इंडियन इंडस्ट्रियल कान्फरेंस के अध्यक्ष हुए, तथा १९१८ ई. तक इंडियन इंडस्ट्रियल कमीशन के सदस्य रहे।
इनका विवाह 1897 में मेहरबाई से हुआ था जिनसे कोई संतान न हुई। उपर्युक्त ट्रस्ट की स्थापना के बाद ये अप्रैल, १९३२ में यूरोप गए। ३ जून १९३२ को किसिंग्रन में इनकी मत्यु हुई। इनका अवशेष इंगलैंड ले जाया गया जहाँ व्रकवुड के पारसी कब्रगाह में पत्नी की बगल में वह दफना दिया गया।
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भूटान के १० बड़े नगरों की सूची | https://hi.wikipedia.org/wiki/भूटान_के_१०_बड़े_नगरों_की_सूची | thumb|320px|भूटान का मानचित्र
thumb|right|320px|थिम्फू
यह भूटान के नगरों की सूची है।
1-नगर :थिम्फू
नगर की जनसंख्या :98,676
जिले का नाम:थिम्फू
2-नगर :पुनाखा
नगर की जनसंख्या :21,500
जिले का नाम :पुनाखा
3-नगर :तसिरंग (Tsirang)
नगर की जनसंख्या :18,667
जिले का नाम:चिरांग
4-नगर :फुंतशोलिंग
नगर की जनसंख्या :17,043
जिले का नाम: चूखा
5-नगर :पेमागटशेल
नगर की जनसंख्या :13,864
जिले का नाम: पेमागटशेल
6-नगर :सर्पांग
नगर की जनसंख्या :10,416
जिले का नाम : गेलेजफुग
7-नगर : वांग्दी फोडरंग ( Wangdi Phodrang)
नगर की जनसंख्या :7,507
जिले का नाम : वांग्दी फोडरंग
8-नगर : सामद्रूप जोंगखार
नगर की जनसंख्या :7,507
जिले का नाम: सामद्रूप जोंगखार
9-नगर :समतसे (Samtse )
नगर की जनसंख्या:5,479
जिले का नाम: सांची ( , Samchi)
10-नगर :जकर (Jakar)
नगर की जनसंख्या:4,829
जिले का नाम: बुमथांग
सन्दर्भ
श्रेणी:भूटान
श्रेणी :भूटान के नगर |
रूस के नगरों की सूची | https://hi.wikipedia.org/wiki/रूस_के_नगरों_की_सूची | यह सूची रूस के नगरों की है। 2002 रूसी जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, रूस में शहरों और कस्बों की कुल संख्या 1,108 हैं।
मास्को
लेनिनग्राद
सेंट पीट्सबर्ग
वोल्गाग्राद
श्रेणी:रूस के नगर |
जर्मनी में शहरों की सूची | https://hi.wikipedia.org/wiki/जर्मनी_में_शहरों_की_सूची | thumb|300px|right|जर्मनी का व्यापक मानचित्र
जर्मनी में कुल नगर और कस्बों की संख्या 2,064 (1 अप्रैल 2013 के अनुसार) है।
बर्लिन
कोलोन
स्टुटगार्ड
म्यूनिख
श्रेणी:जर्मनी |
आस्ट्रेलिया में शहरों की सूची | https://hi.wikipedia.org/wiki/आस्ट्रेलिया_में_शहरों_की_सूची | right|ऑस्ट्रेलिया का मानचित्र
यह पृष्ठ ऑस्ट्रेलिया के नगरों और कस्बों की सूची के लिए है।
कैनबरा
सिडनी
श्रेणी:ऑस्ट्रेलिया |
इटली में शहरों की सूची | https://hi.wikipedia.org/wiki/इटली_में_शहरों_की_सूची | इटली की कुल जनसंख्या 50,000 है।
thumb|150px|रोम
रोम
मिलान
सन्दर्भ
श्रेणी:इटली के नगर |
इराक में शहरों की सूची | https://hi.wikipedia.org/wiki/इराक_में_शहरों_की_सूची | thumb|250px|इराक का मानचित्र
thumb|250px|इराक की राजधानी बगदाद
thumb|250px|मोसुल
thumb|250px|बसरा
बग़दाद
फलूजा
समारा
श्रेणी:इराक़ के शहर
श्रेणी:इराक़ |
गोपालगंज | https://hi.wikipedia.org/wiki/गोपालगंज | गोपालगंज (Gopalganj) भारत के बिहार राज्य के गोपालगंज ज़िले में स्थित एक नगर है।"Bihar Tourism: Retrospect and Prospect," Udai Prakash Sinha and Swargesh Kumar, Concept Publishing Company, 2012, ISBN 9788180697999"Revenue Administration in India: A Case Study of Bihar," G. P. Singh, Mittal Publications, 1993, ISBN 9788170993810
विवरण
गोपालगंज सारन प्रमंडल अंतर्गत एक शहर एवं जिला है। गंडक नदी के पश्चिमी तट पर बसा यह भोजपुरी भाषी जिला ईंख उत्पादन के लिए जाना जाता है। मध्यकाल में चेरों राजाओं तथा अंग्रेजों के समय यह हथुवा राज का केंद्र रहा है। राष्ट्रीय जनता दल के प्रमुख, बिहार के पूर्व मुख्य मंत्री एवं भूतपूर्व रेल मंत्री लालू प्रसाद का गृह जिला है। थावे दुर्गा मंदिर , नेचुआ जलालपुर दुर्गा मंदिर, रामबृक्ष धाम,बुद्ध मंदिर, बेलवनवा हनुमान मंदिर,दिधवादुबौली सिंहासनी मंदिर,बहुरहवा शिव धाम(हथुआ),पुरानी किला(हथुआ),गोपाल मंदिर(हथुआ) प्रमुख दर्शनीय स्थल है। गोपालगंज उत्तर बिहार का अंतिम जिला है जो उत्तर प्रदेश के सीमा के समीप है। गोपालगंज मेंं 14 प्रखण्ड एव 234 पंचायत है ।
इतिहास
वैदिक स्रोतों के मुताबिक आर्यों की विदेह शाखा ने अग्नि के संरक्षण में सरस्वती तट से पूरब में सदानीरा (गंडक) की ओर प्रस्थान किया। अग्नि ने उन्हे गंडक के पास अपने राज्य की स्थापना के लिए कहा जो विदेह कहलाया। आर्यों की एक शाखा सारन में बस गया। महाजनपद काल में यह प्रदेश कोशल गणराज्य का अंग बना। इसके पश्चात यह शक्तिशाली मगध के मौर्य, कण्व और गुप्त शासकों के महान साम्राज्य का हिस्सा रहा। सारन में मिले साक्ष्य यह साबित करते हैं कि लगभग ३००० ईसा पूर्व में भी इस हिस्से में आबादी कायम थी। संभव है कि आर्यों के यहाँ आनेपर सत्ता संघर्ष हुआ हो। इस्वी के शुरूआत से इ क्षेत्र के राजा बघोचिया भूमिहार रहलन, जिनकर साम्राज्य (बघोच साम्राज्य) पूर्वांचल समेत आज के छपरा, सिवान आउर गोपालगंज जिले पर कायम रहे। बघोच साम्राज्य का बाद कल्याण पुर राज भइल, ओकरा बाद हुस्सेपुर राज्य कायम भइल। ऐजा के लोग आपन लगान इहे राजा के देहत रहे। ओकरा बाद अंगरेजन के अइला का बाद एजा के 99 वीं पीढी के राजा फतेह बहादुर शाही सन 1767 इस्वी में अंग्रेजन से लड़ गऐलन आउर तत्कालीन हुस्सेपुर राज्य के पतन हो गइल। बाद में ऊहे राजपरिवार के लोग हथुआ आउर तमकुही नाम के दू गो अलग-अलग राज बनवले जवन अभी तक कायम बा। शोरे के व्यापार के चलते सबसे पहले डचों का यहाँ आगमन हुआ लेकिन बक्सर युद्ध के बाद १७६५ में अंग्रेजों ने यहाँ अपना आधिपत्य कायम कर लिया। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान गोपालगंज की भूमि आजादी की माँग के नारों के बीच उथल-पुथल भरा रहा। २ अक्टुबर १९७२ को यह सारन से अलग स्वतंत्र जिला बना।
भूगोल
गोपालगंज जिले का विस्तार २५० १२ से २६०३९ उत्तरी अक्षांश तथा ८३०५४ से ८४०५५ पूर्वी देशांतर के बीच है। गोपालगंज जिला के उत्तर में पूर्वी एवं पश्चिमी चंपारन, दक्षिण में सिवान एवं छपरा, पूर्व में मुजफ्फरपुर एवं पूर्वी चंपारन तथा पश्चिम में उत्तर प्रदेश का कुशीनगर जिला है। कुल क्षेत्रफल २०३३ वर्ग किलोमीटर है जहाँ लगभग २२ लाख लोग रहते हैं। गोपालगंज, बरौली, सिधवलिया, मीरगंज, भोरे , कटेया, सासामुसा एवं विजयीपुर यहाँ का मुख्य शहरी अधिवास है।
नदियाँ - गंडक, झरही, दाहा, खनुआ, तथा सारन
जनसांख्यिकी
२०११ जनगणना के अनुसार -
कुल जनसंख्या- 2,562,012
स्त्री-पुरुष अनुपात- 1021 / 1000
ग्रामीण जनसंख्या- 93.65%
शहरी जनसंख्या- 6.35%
प्रशासनिक विभाजन
अनुमंडल - गोपालगंज एवं हथुआ
प्रखंड - गोपालगंज, भोरे, माझा, उचकागाँव, कुचायकोट, कटेया, विजयपुर, बरौली, हथुआ, बैकुंठपुर, फुलवरिया, थावे, पंचदेवरी, एवं सिधवलिया
कृषि एवं उद्योग
गोपालगंज जिला एक समतल एवं उपजाऊ भूक्षेत्र है। गंडक नहर एवं इससे निकलने वाली वितरिकाएँ सिंचाई का मुख्य स्रोत है। चावल, गेहूँ, ईंख तथा मूंगफली जिले की प्रमुख फसलें हैं। चावल एवं रोटी ही लोगों का मुख्य भोजन है। गोपालगंज में कृषि आधरित उद्योग विकसित हुए हैं जिसमे चीनी मिल तथा दाल मिल के अलावे कुटीर उद्योग प्रमुख है। वर्तमान में ५ बड़े तथा ३० लघु उद्योग इकाईयाँ कार्यरत हैं। गोपालगंज जिला एक नजर में गोपालगंज, सिधवलिया, सासामुसा एवं हथुवा प्रमुख औद्योगिक केंद्र है।
शिक्षा
प्राथमिक विद्यालय- 290
माध्यमिक विद्यालय- 100
उच्चतर माध्यमिक विद्यालय- 8
डिग्री महाविद्यालय:- सभी 5 अंगीभूत महाविद्यालय जय प्रकाश नारायण विश्वविद्यालय के अंतर्गत आते हैं।
व्यवसायिक शिक्षा:- पॉलिटेक्निक कॉलेज, औद्योगिक प्रशिक्षण केंद्र, एक्युप्रेशर काउंसिल, सैनिक स्कूल
पर्यटन स्थल
थावे: गोपालगंज में थावे स्थित हथुवा राजा द्वारा बनवाया गया दुर्गा मन्दिर सबसे महत्वपूर्ण स्थल है। जिला मुख्यालय से इसकी दूरी मात्र ५ किमी है। चैत्र महीने में यहाँ विशाल मेला लगता है। मंदिर के पास ही देखने योग्य एक विशाल पेड़ है जिसका वानस्पतिक वर्गीकरण नहीं किया जा सका है। मन्दिर की मूर्ति एवं विशाल पेड़ के बारे में कई कहानियाँ प्रचलित है।
दिघवा दुबौली: गोपालगंज से ४० किलोमीटर दक्षिण-पूरब तथा छपरा मशरख रेल लाईन पर ५६ किलोमीटर उत्तर में दिघवा-दुबौली एक गाँव है जहाँ पिरामिड के आकार के दो टीले हैं ऐसा विश्वास किया जाता है कि ये टीले यहाँ शासन कर रहे चेरों राजा द्वारा बनवाए गए थे
हुसेपुर: गोपालगंज से २४ किलोमीटर उत्तर-पचिम में झरनी नदी के किनारे हथवा महाराजा का बनवाया किला अब खंडहर की अवस्था में है। यह गाँव पहले हथुवा नरेश की गतिविधियों का केंद्र था। किले के चारों तरफ बने खड्ड अब भर चुके हैं। किले के सामने बने टीला हथुवा राजा की पत्नी द्वारा सती होने का गवाह है।
लकड़ी दरगाह: पटना के मुस्लिम संत शाह अर्जन के दरगाह पर लकड़ी की बहुत अच्छी कासीगरी की गयी है। रब्बी-उस-सानी के ११ वें दिन होनेवाले उर्स पर यहाँ भाड़ी मेला लगता है। कहा जाता है कि इस स्थान की शांति के चलते शाह अर्जन बस गए थे और उन्होंने ४० दिनों तक यहाँ चिल्ला किया था। * कुचायकोट गोपालगंज जिला का सबसे बडा प्रखण्ड है। कुचायकोट प्रखण्ड में बेलवनवा हनुमान मन्दिर, नेचुआ जलालपुर रामबृक्ष धाम ,बुद्ध मंदिर,दुर्गा मंंदिर, कुचायकोट बंगलामुखी माँ मन्दिर,सूर्य मंदिर, बंगरा शिवं मंंदिर प्रसिद्ध पर्यटन स्थल है।
भोरे गोपाल गंज जिला का एक प्रखण्ड है। भोरे से 2 किलोमीटर दक्षिण में शिवाला और रामगढ़वा डीह स्थित है। शिवाला में शिव का मंदिर व पोखरा है। रामगढ़वा डीह के बारे में यह मान्य़ता है कि यहाँ महाभारत काल के राजा भुरिश्वा की राजधानी थी। इस स्थान पर आज भी महलों के खण्डहरों के भग्नावशेष मिलते हैं तथा प्राचीन वस्तुएँ खुदाई के दौरान निकलती हैं। महाराज भुरिश्वा महाभारत के युद्ध में कौरवों के चौदहवें सेनापति थे। महाराज भुरिश्वा के नाम पर ही इस जगह का नाम भोरे पड़ गया।
हथुआ: यह गोपालगंज जिले का एक अनुमंडल हैं. बीच हथुआ में स्थित गोपालमंदिर हैं जहा पर एक पोखरा और संगीत महाविद्यालय हैं और एक मैरिज हॉल भी हैं। यह गोपालमंडिर शाम 4 बजे खुलता हैं। यहां पर कई सारे महाविद्यालय तथा प्राथमिक विद्यालय एवं माध्यमिक विद्यालय भी है। यहां पर गोपेश्वर महाविद्यालय सैनिक स्कूल तथा डॉ राजेंद्र प्रसाद हाई स्कूल+2 तथा इंपीरियल स्कूल भी है जो कि हथुआ के राजा का है है जोकि अत्यंत ही पर्यटन स्थान है। यहां पर गली मंडी के आगे एक पुराने किला भी है जोकि अत्यंत खूबसूरत जगह है। यहां पर एक बोरावा शिव धाम जो की बड़ा कोईरोली में स्थित है। यहां पर एक और धाम है जिसका नाम है बेलवती धाम है जोकि महाइचा में स्थित है यह अत्यंत ही खूबसूरत पर्यटन स्थान है यहां पर अनेक देवी देवताओं के मंदिर तथा उनकी खूबसूरत मूर्तियां हैं। तथा यहां पर एक हथवा पैलेस भी है जिसमें 300 के आसपास रूम है जोकि अत्यंत खूबसूरत एवं पर्यटन का स्थान है।
यातायात एवं संचार व्यवस्था
सड़क मार्ग
गोपालगंज जिले से वर्तमान में तीन राष्ट्रीय राजमार्ग तथा दो राजकीय राजमार्ग गुजरती हैं। राष्ट्रीय राजमार्ग 85 छपरा से सिवान होते हुए गोपालगंज जाती है। लखनऊ से शुरू होनेवाली राष्ट्रीय राजमार्ग 27 जिले से गुजरते हुए मुजफ्फरपुर और बरौनी जाती है। राजकीय राजमार्ग संख्या ४५, ४७, ५३ तथा ९० की कुल लंबाई ५२ किलोमीटर है। गोपालगंज जिले में राजकीय तथा जिला सड़कें सार्वजनिक यातायात मुख्यतः निजी बसों, ऑटोरिक्शा और निजी वाहनों पर आश्रित है।
रेल मार्ग
दिल्ली-गुवाहाटी रेलमार्ग से हटकर छपरा से कप्तानगंज के लिए जानेवाली रेललाईन पर गोपालगंज एक महत्वपूर्ण जंक्शन है। यह पूर्व मध्य रेलवे के सोनपुर मंडल में पड़ता है। जिले में थावे एक महत्वपूर्ण रेल जंक्शन है। थावे से सिवान के बीच बड़ी लाईन मौजूद है जो गोरखपुर जाती है। हथुआ से फुलवरिया एक नई रेल लाइन की शुरुआत हुई है। यहाँ से सिवान, छपरा, भटनी, वाराणसी (बनारस), गोरखपुर तक की रेलवे सेवा है।;वायु मार्ग:
गोपालगंज का नजदीकी हवाई अड्डा सबेया (हथुआ) में है, लेकिन यहाँ से विमान सेवाएँ उपलब्ध नहीं है। राज्य की राजधानी पटना में जयप्रकाश नारायण अंतर्राष्ट्रीय हवाई क्षेत्र नागरिक हवाई अड्डा है जहाँ से दिल्ली, कोलकाता, राँची आदि शहरों के लिए इंडियन, स्पाइस जेट, किंगफिसर, जेटलाइट, इंडिगो आदि विमान सेवाएँ उपलब्ध हैं। गोपालगंज से छपरा पहुँचकर राष्ट्रीय राजमार्ग 19 द्वारा २१५ किलोमीटर दूर पटना हवाई अड्डा जाया जाता है। एक और नजदीकी हवाई अड्डा उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में है, जो जिला मुख्यालय से लगभग १२० कि॰मी॰ है।
डाक सेवा
गोपालगंज में 41 डाकघर तथा 11 टेलिग्राफ केंद्र है जहाँ से सभी प्रकार की डाक सेवाएँ उपलब्ध हैं।
बैंकिंग सेवा
गोपालगंज में 8 राष्ट्रीयकृत तथा २ सहकारी बैक है। भारतीय स्टेट बैंक तथा केनरा बैंक, पंजाब नैशनल बैंक एटीएम,द गोपालगंज सेन्ट्रल कोऑपरेटिव बैंक,एचडीएफसी बैंक,तथा युको बैंक के एटीएम है।
इन्हें भी देखें
गोपालगंज ज़िला
बाहरी कड़ियाँ
गोपालगंज जिले का आधिकारिक बेवजाल
बिहार पर्यटन के बेवजाल पर गोपालगंज जिला
गोपालगंज में सड़क व्यवस्था
सन्दर्भ
श्रेणी:गोपालगंज जिला
श्रेणी:बिहार के शहर
श्रेणी:गोपालगंज ज़िले के नगर |
मधेपुरा जिला | https://hi.wikipedia.org/wiki/मधेपुरा_जिला | मधेपुरा भारत के बिहार राज्य का जिला है। इसका मुख्यालय मधेपुरा शहर है। सहरसा जिले के एक अनुमंडल के रूप में रहने के उपरांत ९ मई १९८१ को उदाकिशुनगंज अनुमंडल को मिलाकर इसे जिला का दर्जा दे दिया गया। यह जिला उत्तर में अररिया और सुपौल, दक्षिण में खगड़िया और भागलपुर जिला, पूर्व में पूर्णिया तथा पश्चिम में सहरसा जिले से घिरा हुआ है। वर्तमान में इसके दो अनुमंडल तथा ११ प्रखंड हैं। मधेपुरा धार्मिक एवं ऐतिहासिक दृष्टि से समृद्ध जिला है। चंडी स्थान, सिंहेश्वर स्थान, बाबा बिशु राउत मंदिर आदि यहां के प्रमुख दर्शनीय स्थलों में से हैं। यहाँ का रेल कारखाना पूरे भारत में प्रसिद्ध है।
इतिहास
नामकरण
मधेपुरा के नामकरण के संबंध में कई कहानियाँ हैं, हालाँकि इतिहासकारों द्वारा इसके नामकरण के संबंध में आम तौर पर दो स्वीकृत सिद्धांत हैं; एक मत यह है कि चूंकि मधेपुरा कोसी घाटी के मध्य में स्थित है, इसलिए इसे मध्यपुरा कहा जाता था, जो बाद में बदलकर मधेपुरा हो गया। दूसरा मत यह है कि कहा जाता है कि इस क्षेत्र में माधववंशियों (यादवों का शाखा) की बहुलता के कारण इसे माधवपुरा कहा जाता था जो कालान्तर में माधवपुरा से मधेपुरा बन गया।
इतिहास
प्राचीन काल में मधेपुरा मिथिला राज्य का हिस्सा था।https://books.google.co.in/books?id=0hbA4A--9HcC&pg=PA74&dq=madhepura+Mithila&hl=en&newbks=1&newbks_redir=0&source=gb_mobile_search&sa=X&ved=2ahUKEwjQj5DXwvCAAxWVfGwGHdt5DWoQ6AF6BAgIEAM#v=onepage&q=madhepura%20Mithila&f=false
ऐसा माना जाता है कि पौराणिक काल में कोशी नदी के तट पर ऋषया श्रृंग का आश्रम था। ऋषया श्रृंग भगवान शिव के भक्त थे और वह आश्रम में भगवान शिव की प्रतिदिन उपासना किया करता था। श्रृंग ऋषि के आश्रम स्थल को श्रृंगेश्वर के नाम से जाना जाता था। कुछ समय बाद इस उस जगह का नाम बदलकर सिंघेश्वर हो गया। महाजनपद काल में मधेपुरा अंग महाजनपद का हिस्सा था। मौर्य वंश का भी यहां शासन रहा। इसका प्रमाण उदा-किशनगंज स्थित मौर्य स्तम्भ से मिलता है। गुप्त वंश के शासन काल में यह मिथिला प्रांत का हिस्सा रहा। मधेपुरा का इतिहास कुषाण वंश के शासनकाल से भी सम्बन्धित है। शंकरपुर प्रखंड के बसंतपुर तथा रायभीर गांवों में रहने वाले भांट समुदाय के लोग कुशान वंश के परवर्ती हैं।
मुगल काल में मधेपुरा सरकार तिरहुत के अधीन रहा। उदा-किशुनगंज अंतर्गत सरसंडी गांव में अकबर के समय की एक मस्जिद आज मौजूद है। इसके अतिरिक्त, सिकंदर साह ने भी जिले का दौरा किया था, जो साहुगढ़ गांव से मिले सिक्कों से स्पष्ट होता है।
ऐतिहासिक स्थल
श्रीनगर
मधेपुरा शहर से लगभग २२ किलोमीटर की दूरी पर उत्तर-पश्चिम में स्थित श्रीनगर एक गांव है। इस गांव में दो किले हैं। माना जाता है कि इनसे से एक किले का इस्तेमाल राजा श्री देव रहने के लिए किया गया था। किले के पश्चिम और दक्षिण-पश्चिम दिशा की ओर दो विशाल कुंड स्थित है; पहले कुंड को हरसैइर और दूसर कुंड को घोपा पोखर् के नाम से जाना जाता है। इसके अतिरिक्त यहां एक मंदिर भी है। यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। मंदिर में स्थित पत्थरों से बने स्तंभ इसकी खूबसूरती को और अधिक बढ़ाते हैं।
बसन्तपुर
मधेपुरा के दक्षिण से लगभग 24 किलोमीटर की दूरी पर बसंतपुर गांव स्थित है। यहां पर एक किला है जो कि पूरी तरह से विध्वंस हो चुका है। माना जाता है कि यह किला राजा विराट के रहने का स्थान था।
बिराटपुर
सोनबरसा रेलवे स्टेशन से लगभग 9 किलोमीटर की दूरी पर बिराटपुर गांव है। यह गांव देवी चंडिका के मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। माना जाता है कि इस मंदिर का सम्बन्ध महाभारत काल से है। 11वीं शताब्दी में राजा कुमुन्दानंद के सुझाव से इस मंदिर के बाहर पत्थर के स्तम्भ बनवाए गए थे। इन स्तम्भों पर अभिलेख देखे जा सकते हैं। इसके साथ ही यहां पर दो स्तूप भी है। मंदिर के पश्चिम से लगभग आधा किलोमीटर की दूरी पर एक छोटा टीला है।
भौगोलिक स्थिति
कोशी नदी के मैदानों में स्थित इस जिले की स्थिति 25°. 34 - 26°.07’ उत्तरी अक्षांश तथा 86° .19’ से 87°.07’ पूर्वी देशान्तर के बीच है। इसके उत्तर में अररिया जिला तथा सुपौल जिला है तथा इसका उत्तरी छोर नेपाल से सिर्फ ६० कि॰मी॰ की दूरी पर है। पूर्व की दिशा में पूर्णियां जिला, पश्चिम में सहरसा तथा दक्षिण में खगड़िया तथा भागलपुर हैं।
आवागमन
वायु मार्ग
यहां का सबसे निकटतम हवाई अड्डा पटना स्थित जयप्रकाश नारायण अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा है। पटना से मधेपुरा 234 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
रेल मार्ग
मधेपुरा रेलमार्ग द्वारा भारत के कई प्रमुख शहरों से जुड़ा हुआ है। सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन दौरम मधेपुरा है।
सड़क मार्ग
भारत के कई प्रमुख शहरों शहरों से मधेपुरा सड़कमार्ग द्वारा आसानी से पहुंचा सकते हैं। राष्ट्रीय राजमार्ग नम्बर 31 से होते हुए मधेपुरा पहुंचा जा सकता है।
दर्शनीय स्थल
सिंहेश्वर स्थान
यहाँ स्थित प्राचीन शिव मंदिर इस जिले का प्रमुख आकर्षण केन्द्र है। एक पौराणिक कथा के अनुसार, ऋषया श्रृंग के आश्रम में एक प्राकृतिक शिवलिंग उत्पन्न हुई थी। उस स्थान पर बाद में एक खूबसूरत मंदिर बना। एक व्यापारी जिसका नाम हरि चरण चौधरी था, ने वर्तमान मंदिर का निर्माण लगभग 200 वर्ष पूर्व करवाया था। यह शिवलिंग एक विशाल चट्टान पर स्थित है, जो कि करीबन 15-16 फीट ऊंचा है। प्रतिवर्ष महाशिवरात्रि के दिन भक्तों तथा श्रद्धालुओं की यहाँ अपार भीड़ रहती है।
बाबा बिशु राउत मंदिर
मधेपुरा के चौसा प्रखंड सबसे अंतिम छोर पर अवस्थित बाबा बिशु राउत पचरासी धाम लोगो की आस्था का केंद्र है। यह मंदिर मधेपुरा से ६५ किलोमीटर व चौसा प्रखंड मुख्यालय से 7 किलोमीटर की दुरी पर है।
लोकदेव के रूप में चर्चित बाबा बिशु राउत का मंदिर पशु पलकों के लिए पूजन का महत्पूर्ण केंद्र माना जाता है। पचरासी धाम में भव्य मेला का आयोजन लगभग २०० (अनुमानित ) वर्षों से किया जा रहा है। वर्ष 2015 में सूबे के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार मेला का उद्घाटन कर लोक देवता बाबा विशु की प्रतिमा पर दुधाभिषेक किया था। तत्कालीन पर्यटन मंत्री अशोक कुमार सिंह ने भी इसे पर्यटन का दर्जा देने की घोषणा की थी। इसके पूर्व लालू प्रसाद ने भी अपने मुख्यमंत्रीत्व काल में कई बार इस मेला में पहुंच कर बाबा विशु राउत की प्रतिमा पर दुधाभिषेक करने के बाद आयोजित आम सभा में पचरासी स्थल को पर्यटन दर्जा देने की घोषणा किया था।
दुर्गा मंदिर, उदाकिशुनगंज
मनोकामना शक्ति पीठ के रुप में ख्याति प्राप्त उदाकिशुनगंज सार्वजनिक दुर्गा मंदिर न केवल धार्मिक और अध्यात्मिक बल्कि ऐतिहासिक महत्व को भी दर्शाता है। यहां सदियों से पारंपरिक तरीके से दुर्गा पूजा धूमधाम से मनाया जाता है। पूजा के दौरान कई देवी-देवताओं की भव्य प्रतिमा स्थापित की जाती है। मंदिर कमिटी और प्रशासन के सहयोग से विशाल मेले का भी आयोजन किया जाता है। अध्यात्म की स्वर्णिम छटा बिखेर रही सार्वजनिक दुर्गा मंदिर के बारे में कहा जाता है कि करीब 250 वर्षों से भी अधिक समय से यहां मां दुर्गा की पूजा की जा रही है। बड़े-बुजूर्गो का कहना है कि करीब 250 वर्ष पूर्व 18 वीं शताब्दी में चंदेल राजपूत सरदार उदय सिंह और किशुन सिंह के प्रयास से इस स्थान पर मां दुर्गा की पूजा शुरू की गयी थी। तब से यह परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ी चलते आ रहा है। उन्होंने कहा कि कोशी की धारा बदलने के बाद आनंदपुरा गांव के हजारमनी मिश्र ने दुर्गा मंदिर की स्थापना के लिए जमीन दान दी थी। उन्हीं के प्रयास से श्रद्धालुओं के लिए एक कुएं का निर्माण कराया गया था, जो आज भी मौजूद है। उदाकिशुनगंज निवासी प्रसादी मिश्र मंदिर के पुजारी के रुप में 1768 ई में पहली बार कलश स्थापित किया था। उन्हीं के पांचवीं पीढ़ी के वंशज परमेश्वर मिश्र उर्फ पारो मिश्र वर्तमान में दुर्गा मंदिर के पुजारी हैं ।प्रतिवर्ष दुर्गा पूजा के दिन भक्तों तथा श्रद्धालुओं की यहाँ अपार भीड़ रहती है।
महर्षि मेंही अवतरण भूमि, मझुआ
यहाँ स्थित भव्य सत्संग आश्रम इस जिले का प्रमुख आकर्षण केन्द्र है। यहाँ एक भव्य सत्संग आश्रम बना है, जो कि अत्यंत सुन्दर है. यहाँ संत शिशु सूरज जी बड़ी लगन से आश्रम का निर्माण करवाया।
२०वी सदी के महान संत महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज का जन्म मझुआ नामक गांव में हुआ था। इनका जन्म २८-०४-१८८५ ईस्वी को नानाजी के यहाँ हुआ. इनकी माता जी का नाम जनकवती देवी था. स्व श्री चुमन लाल जी व् स्व श्री जय कुमार लाल दास जी इनके मामा जी थे. श्री कामेश्वर लाल दास जी इनके ममेरे भाई हैं, जो की जयकुमार लाल दास जी के सुपुत्र है।
प्रतिवर्ष वैशाख मास के शुक्ल पक्ष के चतुर्दसी के दिन भक्तों तथा श्रद्धालुओं की यहाँ अपार भीड़ रहती है।
प्रमुख व्यक्ति
बी.पी. मंडल, बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री एवं द्वितीय पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष भी रहे जिसे मंडल आयोग के नाम से जाना जाता है।
बाहरी कड़ियाँ
मधेपुरा जिले का ब्रेकिंग न्यूज़
बिहार का समाचार
इन्हें भी देखें
मधेपुरा
श्रेणी:बिहार के जिले
* |
बागमती | https://hi.wikipedia.org/wiki/बागमती | पुनर्प्रेषितबागमती नदी |
यूरोपीय संघ | https://hi.wikipedia.org/wiki/यूरोपीय_संघ | यूरोपीय संघ (अंग्रेज़ी: European Union)(EU) मुख्यत: यूरोप में स्थित 27 देशों का एक राजनैतिक एवं आर्थिक मंच है जिनमें आपस में प्रशासकीय साझेदारी होती है जो संघ के कई या सभी राष्ट्रो पर लागू होती है। इसका अभ्युदय 1 जनवरी 1993 में रोम की संधि द्वारा यूरोपिय आर्थिक परिषद के माध्यम से छह यूरोपिय देशों की आर्थिक भागीदारी से हुआ था। तब से इसमें सदस्य देशों की संख्या में लगातार बढोत्तरी होती रही और इसकी नीतियों में बहुत से परिवर्तन भी शामिल किये गये। 1992 में मास्त्रिख संधि द्वारा इसके आधुनिक वैधानिक स्वरूप की नींव रखी गयी। दिसम्बर 2009 में लिस्बन समझौता जिसके द्वारा इसमें और व्यापक सुधारों की प्रक्रिया 1 जनवरी 2008 से शुरु की गयी है।
thumb|यूरोपियन कमीशन
यूरोपिय संघ सदस्य राष्ट्रों को एकल बाजार के रूप में मान्यता देता है एवं इसके कानून सभी सदस्य राष्ट्रों पर लागू होता है जो सदस्य राष्ट्र के नागरिकों की चार तरह की स्वतंत्रताएँ सुनिश्चित करता है:- लोगों, सामान, सेवाएँ एवं पूँजी का स्वतंत्र आदान-प्रदान.;
संघ सभी सदस्य राष्ट्रों के लिए एक तरह की व्यापार, मतस्य, क्षेत्रीय विकास की नीति पर अमल करता है 1999 में यूरोपिय संघ ने साझी मुद्रा यूरो की शुरुआत की जिसे पंद्रह सदस्य देशों ने अपनाया। संघ ने साझी विदेश, सुरक्षा, न्याय नीति की भी घोषणा की। सदस्य राष्ट्रों के बीच श्लेगन संधि के तहत पासपोर्ट नियंत्रण भी समाप्त कर दिया गया।
यूरोपिय संघ में लगभग ५० करोड़ नागरिक हैं, एवं यह विश्व के सकल घरेलू उत्पाद का 31% योगदानकर्ता है जो 2007 में लगभग (यूएस$1.66 नील) था।
यूरोपीय संघ समूह आठ संयुक्त राष्ट्रसंघ एवं विश्व व्यापार संगठन में अपने सदस्य देशों का प्रतिनिधित्व करता है। यूरोपीय संघ के 21 देश नाटो के भी सदस्य हैं। यूरोपीय संघ के महत्वपूर्ण संस्थानों में यूरोपियन कमीशन, यूरोपीय संसद, यूरोपीय संघ परिषद, यूरोपीय न्यायलय एवं यूरोपियन सेंट्रल बैंक इत्यादि शामिल हैं। यूरोपीय संघ के नागरिक हर पाँच वर्ष में अपनी संसदीय व्यवस्था के सदस्यों को चुनती है।
यूरोपीय संघ को वर्ष 2012 में यूरोप में शांति और सुलह, लोकतंत्र और मानव अधिकारों की उन्नति में अपने योगदान के लिए नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
इतिहास
द्वीतिय विश्व युद्ध के समाप्ति के बाद पश्चिमी यूरोप के देशों में एकता के पक्ष में माहौल बनना शुरु हुआ जिसे लोग अति राष्ट्रवाद, (जिसने कई राष्ट्रों को नेस्तनाबूद कर दिया था) के फलस्वरूप उपजे परिस्थितियों से पलायन के रूप में भी देखते हैं। यूरोप के एकीकरण का सबसे पहला सफल प्रस्ताव 1951 में आया जब यूरोप के कोयला एवं स्टील उद्योग लाबी ने लामबंदी शुरु की। यह मुख्यतया सदस्य राष्ट्रों, खासकर फ्रांस और पश्चिमी जर्मनी में कोयला और इस्पात उद्योगों को एकीकृत नियंत्रण में लाने का प्रयास था। ऐसा खासकर इसलिए सोचा गया ताकि इन दो राष्ट्रों में संघर्ष की स्थिति भविष्य में उत्पन्न न हो। इस लाबी के कर्ता धर्ता ने तभी इसे संयुक्त राज्य यूरोप की परिकल्पना के रूप में प्रचारित किया था। यूरोपीय संघ के अन्य संस्थापक राष्ट्रों में बेल्जियम, इटली, लक्जमबर्ग, एवं नीदरलैंड प्रमुख थे।
इस सांगठनिक प्रयास के बाद बाद 1957 में दो संस्थायें गठित की गयी जिसमें यूरोपियन इकानामिक कम्यूनिटी एवं यूरोपीय परमाणु उर्जा कम्यूनिटी प्रमुख थे। इन संस्थाओं का उद्देश्य नाभीकिय उर्जा एवं आर्थिक क्षेत्र में सहयोग करना था। 1967 में उपरोक्त तीनों संस्थाओं का विलय होकर एक संस्था का निर्माण हुआ जिसे यूरोपियन कम्यूनिटी के नाम से जाना गया। (EC).
1973 में इस समुदाय में डेनमार्क, आयरलैंड एवं ब्रिटेन का पदार्पण हुआ। नार्वे भी इसी समय इसमें शामिल होना चाहता था लेकिन जनमत संग्रह के विपरित परिणामों के कारण उसे सदस्यता से वंचित रहना पड़ा। 1979 में पहली बार यूरोपीय संसद का गठन हुआ और इसमें लोकतांत्रिक पद्धति से सदस्य चुने गये।
यूनान, स्पेन एवं पुर्तगाल 1980 में यूरोपीय संघ के सदस्य बने। 1985 में श्लेगेन संधि संपन्न हुई जिसके बाद सदस्य राष्ट्रों के नागरिकों का एक-दूसरे के राष्ट्र में बगैर पासपोर्ट के आना जाना शुरु हुआ। 1986 में यूरोपीय संघ के सदस्यों ने सिंगल यूरोपियन एक्ट पर हस्ताक्षर किये और संघ का झंडा वजूद में आया। 1990 में पूर्वी जर्मनीका पश्चिमी जर्मनी में एकीकरण हुआ।
मस्त्रिख की संधि 1 नवंबर 1993 से प्रभावी हुई।; मस्त्रिख की संधि के बाद यूरोपियन कम्यूनिटिज अब आधिकारिक रूप से यूरोपियन कम्यूनिटी बन गया। जिसमें एकीकृत रूप से विदेश निती, पुलिस एवं न्याय व्यवस्था के मसलो पर एक जैजी नीतियाँ बनने लगीं।
thumbnail| 2007 में लिस्बन समझौते पर हस्ताक्षर के बाद यूरोपियन संघ के नेतागण
1995 में इस संघ में आस्ट्रिया, स्वीडन एवं फिनलैंड भी आ जुड़े। 1997 में मस्त्रिख संधि का स्थान एम्स्टर्डम संधि ने ले लिया जिसके बाद विदेश नीति एवं लोकतंत्र संबंधी नीतियों में व्यापक परिवर्तन हुए। एम्स्टर्डम के पश्चात 2001 में नीस की संधि आई जिससे रोम एवं मिस्त्रिख में हुई संधियों में सुधार किया गया जिससे पूर्व में संध के विस्तार का मार्ग प्रशस्त हुआ। 2002 में यूरो को 12 सदस्य राष्ट्रों ने अपनी राष्ट्रीय मुद्रा के रूप में स्वीकार किया। 2004 में दस नये राष्ट्रों का इसमें और जुड़ाव हुआ जो ज्यादातर पूर्वी यूरोप के देश थे। 2007 के प्रारंभ में रोमानिया एवं बुल्गारिया ने यूरोपीय संघ की सदस्यता ग्रहण की और स्लोवानिया ने यूरो को अपनाया। पहली जनवरी 2008 को माल्टा एवं साईप्रस ने भी यूरोपीय संघ में प्रवेश लिया।
यूरोपीय संघ के गठन के लिए 2004 में रोम में एक संधि पर हस्ताक्षर किए गये जिसका उद्देश्य पिछले सभी संधियों को नकार कर एकीकृत कर एकल दस्तावेज तैयार करना था। लेकिन ऐसा कभी संभव न हो सका क्योंकि इस उद्देश्य के लिए कराए गये जनमत सर्वेक्षण में फ्रांसिसी एवं डच मतदाताओं ने इसे नकार दिया। 2007 में एक बार फिर लिस्बन समझौता हुआ जिसमें पिछली संधियों को बगैर नकारे हुए उनमें सुधार किए गये। जनवरी २००९ से इस संधि के प्रावधानों को पूरी तरह लागू कर दिया गया।
२० फरवरी २०१६ को ब्रितानी प्रधानमंत्री डैविड कैमरन ने ब्रिटेन की यूरोपीय संघ में सदस्यता पर जनमत संग्रह कराने की घोषणा की। २३ जून को हुए इस जनमत संग्रह का परिणाम ब्रिटेन के युरोपीय संघ से अलग होने के पक्ष में आया।
इसे यूरोपीय संघ की एकता के लिए गहरे आघात के रूप में देखा गया। लिस्बन संधी के अनुसार ब्रिटेन के पास अलगाव की प्रक्रिया पूरी करने के लिए दो वर्ष का समय है।
सदस्य राष्ट्र
यूरोपीय संघ में 28 संप्रभु राष्ट्र हैं जो सदस्य राष्ट्रों के तौर पर जाने जाते हैं:- आस्ट्रिया, बेल्जियम, बुल्गारिया, साइप्रस, चेक गणराज्य, डेनमार्क, एस्तोनिया, फिनलैंड, फ्रांस, जर्मनी, ग्रीस, हंगरी, आयरलैंड, ईटली, लातीविया, लिथुआनिया, लक्जमबर्ग, माल्टा, नीदरलैंड, पोलैंड, पुर्तगाल, रोमानिया, स्लोवाकिया, स्लोवानिया, स्पेन, स्वीडन,.कोएशिया इस समय तीन राष्ट्र आधिकारिक तौर पर इसकी सदस्यता की प्रतीक्षा में हैं, मकदूनिया एवं तुर्की; पश्चिमी बाल्कन राष्ट्र अल्बानिया, बोस्निया हर्जोगोविना, मांटीनीग्रो एवं सर्बिया आधिकारिक तौर पर संभावित सदस्य देशों के रूप में चिन्हित किये गये हैं।
यूरोपीय परिषद द्वारा यूरोपीय संघ की सदस्यता के लिए कोपेनहेगन पात्रता की शर्ते निर्धारित की गयी हैं, जिसके अनुसार: स्थायी लोकतंत्र जिसमें मानवाधिकारों एवं न्याय पर आधारित शासन व्यव्स्था हो; एक कार्यकारी बाजार व्यवस्था हो जो संघ के अंतर्गत प्रतियोगिता को बढावा देता हो; एवं संघ की नीतियों का पालन करने की वचनबद्धता शामिल है।
पश्चिम यूरोप के चार राष्ट्रों ने संघ की सदस्यता न लेकर आंशिक रूप से संघ की आर्थिक व्यवस्था में शामिल हैं जिनमें आइसलैंड, लीकटेन्स्टीन एवं नार्वे प्रमुख हैं, एवं स्वीटजरलैंड ने भी द्वीपक्षीय समझौते के तहत ऐसा स्वीकार किया है।यूरोपियन माइक्रो-स्टेट्स: एंडोरा, मोनाको, सैन मरीनो, लीकटेन्स्टीन एवं वेटिकन सिटी यूरो का प्रयोग एवं अन्य सहयोग कर सकते हैं।
भौगोलिक स्थिति
thumbnail| आल्पस पर्वत पर स्थित माउंट ब्लांक यूरोपिय संघ मे स्थित सबसे ऊँची चोटी है
यूरोपीय संघ का भौगोलिक क्षेत्र 27 सदस्य देशों की भूमि है जिनमें कुछ अपवादीय स्थितियाँ शामिल हैं। यूरोपीय संघ का क्षेत्र पूरा यूरोप नहीं है चूँकि कुछ यूरोपीय देश जैसे स्वीटजरलैंड, नार्वे, एवं सोवियत रूस इसका हिस्सा नहीं हैं। कुछ सदस्य राष्ट्रों के भूमि क्षेत्र भी यूरोप का हिस्सा होते हुए भी संघ के भौगोलिक नक्शे में शामिल नहीं है, उदहारण के तौर पर चैनल एवं फरोर द्वीप के हिस्से। सदस्य देशों के वे हिस्से जो यूरोप का हिस्सा नहीं हैं वे भी यूरोपीय संघ की भौगोलिक सीमा से परे माने गये हैं:- जैसे ग्रीनलैंड, अरूबा, नीदरलैंड के कुछ हिस्से और ब्रिटेन के वे सारे क्षेत्र जो यूरोप का हिस्सा नहीं हैं। कुछ खास सदस्य देशों का भौगोलिक क्षेत्र जो यूरोप का अंग नहीं है, फिर भी उन्हें यूरोपीय संघ की भौगोलिक सीमा में शामिल माना गया है, उदहारण के तौर पर अजोरा, कैनरी द्वीप, फ्रेंच गुयाना, गुडालोप, मदेरिया, मार्तीनीक एवं रेयूनियोन.
thumbnail|left| यूरोपिय संघ की जलवायु को उसकी 66,000 किमी लंबी तटरेखा काफी प्रभावित करती है
यूरोपीय संघ की संयुक्त भौगोलिक सीमा 4422773 वर्ग किमी है। इसमें फ्रांस के चार बाहरी क्षेत्र (फ्रेंच गयाना, गुडालोप, मार्तीनिक, रेयूनियोन) भी शामिल हैं जो यूरोपीय संघ के हिस्से हैं, परंतु इसमें फ्रांस के कुछ विशेष हिस्से शामिल नहीं हैं। यूरोपीय संघ विश्व की भौगोलिक क्षेत्रीय सीमा के अनुसार सांतवी सबसे बड़ी है और इस सीमा के अंदर सबसे ऊँचा क्षेत्र आल्प्स पर्वत स्थित माउंट ब्लांक है जो समुद्रतल से 4807 मीटर ऊँचा है। यहाँ का भूक्षेत्र, यहाँ की जलवायु एवं यहाँ की अर्थव्यवस्था में इसकी 65993 किमी लंबी तटरेखा महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है जो कनाडा के बाद सबसे लंबी तटरेखा है।
यूरोपीय संघ की भौगोलिक सीमा में (यूरोप से बाहर के देशों को मिलाकर) जलवायु के लिहाज से यहाँ का मौसम ध्रुवीय जलवायु से लेकरशीतोष्ण कटिबंधिय का अनुभव किया जा सकता है, इसलिए पूरे संघ के औसत मौसम की बात करना बेमानी होती है। व्यवहारिक तौर पर यूरोपीय संघ के ज्यादातर क्षेत्र में मेडिटेरेनियन (दक्षिणी यूरोप), विषुवतीय (पश्चिमी यूरोप) एवं ग्रीष्म (पूर्वी यूरोप) जलवायु पाया जाता है।
प्रशासन
यूरोपीय संघ अपने कई प्रशासनिक एवं अन्य इकाइयों द्वारा संचालित होता है, जिनमें मुख्य रूप से काउंसिल ऑफ यूरोपियन यूनियन, यूरोपियन कमीशन, एवं यूरोपियन पार्लियामेंटसबसे प्रमुख हैं।
यूरोपीय आयोग संघ के प्रमुख कार्यकारी अंग के तौर पर काम करता है और इसके दैनंदिन कामों की जिम्मेवारी इसी पर होती है जिसे इसके 27 कमीश्नर संचालित करते हैं जो 27 सदस्य राष्ट्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इस आयोग के अध्यक्ष एवं सभी 27 प्रतिनिधि यूरोपीय परिषद द्वारा नामित किये जाते हैं। अध्यक्ष एवं सभी 27 प्रतिनिधियों की नियुक्ति पर यूरोपीय संसद की मंजूरी आवश्यक होती है।
यूरोपीय परिषद (यूरोपियन काउंसिल) जिसे काउंसिल ऑफ मिनिस्टर्स के नाम से भी जाना जाता है, के आधे सदस्य संघ की न्यायिक व्यवस्था का हिस्सा होते है। न्यायिक कामों के अलावा परिषद विदेश एवं सुरक्षा नीतियों के कार्यान्वण एवं निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
यूरोपीय संघ में उच्च स्तर के राजनैतिक निर्णय के लिए नेतृत्व यूरोपीय काउंसिल अर्थात यूरोपीय परिषद द्वारा किया जाता है। यूरोपीय परिषद की बैठक साल में चार बार होती है एवं इसकी अध्यक्षता उस साल यूरोपीय संघ का अध्यक्ष राष्ट्रप्रमुख करता है जिसका मुख्य कार्य यूरोपीय संघ की नीतियों के अनुरूप काम करना एवं भविष्य के लिए दिशा निर्देश जारी करना होता है।
यूरोपीय संघ की अध्यक्षता का कार्य हर सदस्य देश के जिम्मे रोटेटिंग आधार पर छह महीने के लिए आता है, इस दौरान यूरोपियन काउंसिल एवं काउंसिल ऑफ मिनिस्टर्स के हर बैठक की जिम्मेवारी उस सदस्य राष्ट्र पर होती है। अध्यक्षता के दौरान अध्यक्ष राष्ट्र अपने खास एजेंडों पर ध्यान देता है जिसमे आम तौर पर आर्थिक एजेंडा, यूरोपीय संघ में सुधार एवं संघ के विस्तार एवं एकीकरण के मुद्दे खास होते हैं।
यूरोपीय संघ के न्यायिक प्रक्रिया का दूसरा महत्वपूर्ण हिस्सा यूरोपीय संसद होती है। यूरोपीय संसद के सदस्य के ७८५ सदस्य हर पांच वर्ष में यूरोपीय संघ की जनता द्वारा सीधे चुने जाते हैं। हलांकि इन सदस्यों का चुनाव राष्ट्रीय स्तर पर होता है परंतु यूरोपीय संसद में वे अपनी राष्ट्रीयता के अनुसार न बैठकर दलानुसार बैठते हैं। हर सदस्य राष्ट्र के लिए सीटों की एक निश्चित संख्या आवंटित होती है। यूरोपीय संसद को संघ के विधायी शक्तियों के मामलों में यूरोपीय परिषद की तरह ही शक्तियां हासिल होती हैं और संसद वे संघ की खास विधायिकाओं को स्वीकृत या अस्वीकृत करने की शक्ति से लैस होते हैं। यूरोपीय संसद का अध्यक्ष न सिर्फ बाहरी मंचों पर संघ का प्रतिनिधित्व करता है बल्कि यूरोपीय संसद के स्पीकर का भी दायित्व निभाता है। अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष का चुनाव यूरोपीय संसद के सदस्य हर ढा़ई साल के अंतराल पर करते हैं।
कुछेक मामलों को छोडकर ज्यादातर मामलों में न्यायिक प्रक्रिया की शुरुआत करने का अधिकार युरोपियन कमीशन को होता है, ऐसा ज्यादातर रेग्यूलेशन, एवं संसद के अधिनियमों द्वारा किया जाता है जिसे सदस्य राष्ट्रों को अपने अपने देशों में लागू करने की बाध्यता होती है।
राजनीति
thumbnail|यूरोपियन काउंसिल के अध्यक्ष श्री एवं स्लोवानिया के प्रधानमंत्री श्री जाँ जसाँ
अक्सर यूरोपीय संघ की राजनीति को तीन तत्वों से सबसे ज्यादा संचालित माना जाता है जिसे "पिलर्स" या स्तंभ कहा जाता है। यूरोपीय कम्यूनिटी की पुरानी नीतियों को इसका पहला स्तंभ कहा जाता है, दूसरे स्तंभ के तौर पर संयुक्त विदेश एवं सुरक्षा नीति का नाम लिया जाता है जबकि तीसरा स्तंभ पहले तो न्यायिक एवं घरेलू मामलात हुआ करते थे लेकिन एम्सटर्डम एवं नीस के समझौतों के बाद पुलिस एवं आपराधिक मामलों में सहयोग पर ज्यादा केंद्रित हो गया है। मोटे तौर पर कहा जाए तो अंतर्षाट्रीय मामलों को देखते हुए दूसरा एवं तीसरा स्तंभ महत्वपूर्ण हो जाता है।
इस समय यूरोपीय संघ के समक्ष दो सबसे बडे़ मुद्दे हैं, वे हैं यूरोपीय एकीकरण एवं विस्तार। खासकर विस्तार, नये राष्ट्रों का यूरोपीय संघ में समावेश बडा़ राजनैतिक मुद्दा है। नये राष्ट्रों के समावेश का समर्थन करने वालों का मानना है कि इससे लोकतंत्र का विस्तार होता है एवं यूरोपीय अर्थव्यवस्था को भी संबल मिलता है। जबकि विरोध करनेवालों का मानना है कि यूरोपीय संघ अपनी वर्तमान राजनैतिक क्षमताओं एवं सीमाओं से परे एवं अपनी भौगोलिक सीमाओं से बाहर जा रहा है जो इसके हित में नहीं है। जहां तक जनमत और राजनैतिक दलों का सवाल है, इस बारे में वे खासे सशंकित हैं खासकर २००४ में एक साथ दस नये सदस्य देश बनने के पश्चात और यह आशंका तुर्की की उम्मीद्वारी के बाद और भी बलवती हो गयी है।
thumbnail|150px|left| यूरोपिय संघ के अध्यक्ष श्री जोसे मैनुअल बरासो
एकीकरण एक दूसरा महत्वपूर्ण मसला है जहां अक्सर माना जाता है कि राष्ट्रीय भावनायें अक्सर यूरोपीय संघ के बृहत उद्देश्यों से टकराहट मोल लेती रहती है। विभिन्न राष्ट्रों के बीच समन्वय का लक्ष्य अक्सर राष्ट्रीय शक्तियों को यूरोपीय संघ में विलयित करने को बाध्य करता है जिसकी आलोचना अक्सर यूरोस्केपिस्ट लोगों द्वारा संप्रभुता खोने का डर दिखाकर की जाती रहती है। सन २००४ में राष्ट्रीय नेताओं एवं यूरोपीय संघ के अधिकारियों द्वारा एक साझा यूरोपीय संविधान पर सहमति बनायी गयी थी लेकिन इसे दो सदस्य राष्ट्रों के जनमत सर्वेक्षण में खारिज कर दिये जाने के कारण लागू नहीं किया गया क्योंकि उन्हें डर था कि अन्य देशों में भी इसे खारिज कर दिया जाएगा। बाद में अक्टूबर २००७ में लिस्बन समझौते के बाद एक नया संविधान बनाया गया जिसमें ज्यादातर पुराने नियमों एवं प्रावधानों को ही रखा गया।
प्रस्तावित समझौते का २००९ में प्रभावी होना तय किया गया है। यदि यह सर्वस्वीकृत रहा तो इससे यूरोपीय संसद की शक्तियां काफी बढ जायेगी। इस समझौते के लागू होने से उपर उल्लेख किये गये पिलर्स भी निष्प्रभावी हो जायेंगे। विदेश नीति के बहुत से मुद्दे इससे विभिन्न राष्ट्रों के बीच सुलझाये जाने की बजाय सीधे सीधे यूरोपीय संघ की संस्थाओं द्वारा निर्देशित एवं संचालित होंगे।
विधि व्यवस्था
+ शहरशहर सीमा(2006)घनत्व/वकिमी²(शहरी परिसीमा) मुख्य क्षेत्र (2005)LUZ(2001) बर्लिन 3,405,000 3,815 3,761,000 4,935,524 लंदन 7,512,400 4,761 9,332,000 11,624,807 मैड्रिड 3,228,359 5,198 4,858,000 5,372,433 पेरिस 2,153,60024,672 9,928,000 10,952,011 रोम 2,705,603 2,105 2,867,000 3,700,424
यूरोपीय संघ का आधार विभिन्न ऐतिहासिक समझौते हैं, जिनसे पहले तो यूरोपीय संघ की स्थापना हुई और फिर उन समझौतों में तरह तरह के सुधार किये जाते रहे। ये समकझौते यूरोपीय संघ की बृहत नीतियों का आधार एवं उद्देश्य निर्धारित करती हैं तथा उन्हें आवश्यक विधायी शक्तियां प्रदान करती है। इन विधायी शक्तियों में किसी कानून को लागू करवाने की शक्ति{{cite web |title=यूरोपियन यूनियन कंसॉलिडेशन ट्रीटी, (आर्टिकिल २४९, प्रोविजन्स फॉर मेकिंग रेग्यूलेशन्स) |url=http://eur-lex.europa.eu/LexUriServ/site/en/oj/2006/ce321/ce32120061229en00010331.pdf |publisher=यूरोपियन कमीशन|accessdate=८ सितंबर २००७} जो सीधे-सीधे सभी सदस्य राष्ट्रों एवं उसके नागरिकों को प्रभावित करती है।According to the principle of Direct Effect first invoked in the Court of Justice's decision in . See: Craig and de Búrca, ch. 5.
भाषाएँ
भाषाएँ (2006) भाषा एल१ कुलअंग्रेजी१३%५१%जर्मन१८%३२%फ्रेंच१२%२६%इतालवी१३%१६%स्पैनिश९%१५%पोलिश९%१०%रूमानियाई७%७%डच५%६%यूनानी३%३%स्वीडिश२%३%चेक२%३%पुर्तगाली२%२%हंगेरियाई२%२% ~६%अल्पसंख्यक भाषाएँ ~१६%
यूरोपीय संघ के २३ आधिकारिक एवं कार्यकारी भाषायें: बुल्गारियाई, चेक, डैनिश, डच, अंग्रेजी, एस्तोनियाई, फिनिश, फ्रेंच, जर्मन, यूनानी, हंगेरियाई, इतालवी, आयरिश, लातीवियाई, लिथुयानियाई, माल्टी, पोलिश, पुर्तगाली, रुमानियाई, स्लोवाक, स्लोवानियाई, स्पैनिश एवं स्वीडिश हैं।
thumbnail|left|250px|यूरोप में ईश्वर में आस्था रखने वालों का प्रतिशत (चित्र में गैर सदस्य राष्ट्र भी शामिल हैं)
यूरोपीय आयोग के अध्यक्ष
संदर्भ सूची
बाहरी कड़ियाँ
EUROPA — यूरोपिय संघ का आधिकारिक जालस्थल
श्रेणी:यूरोप
श्रेणी:यूरोपीय संघ
श्रेणी:संगठन
श्रेणी:नोबेल पुरस्कार सम्मानित संगठन
श्रेणी:अंतर्राष्ट्रीय संगठन
श्रेणी:नोबल शांति पुरस्कार के प्राप्तकर्ता |
विनय पत्रिका | https://hi.wikipedia.org/wiki/विनय_पत्रिका | विनयपत्रिका तुलसीदास रचित एक ग्रंथ है। यह ब्रज भाषा में रचित है। विनय पत्रिका में विनय के पद है। विनयपत्रिका का एक नाम राम विनयावली भी है। विनय पत्रिका में 21 रागों का प्रयोग हुआ है। विनय पत्रिका का प्रमुख रस शांतरस है तथा इस रस का स्थाई भाव निर्वेद होता है। विनय पत्रिका अध्यात्मिक जीवन को परिलक्षित करती है। इस में सम्मलित पदों की संख्या 279 है।
विनय पत्रिका तुलसीदास के 279 स्तोत्र गीतों का संग्रह है। प्रारम्भ के 63 स्तोत्र और गीतों में गणेश, शिव, पार्वती, गंगा, यमुना, काशी, चित्रकूट, हनुमान, सीता और विष्णु के एक विग्रह विन्दु माधव के गुणगान के साथ राम की स्तुतियाँ हैं। इस अंश में जितने भी देवी-देवताओं के सम्बन्ध के स्तोत्र और पद आते हैं, सभी में उनका गुणगान करके उनसे राम की भक्ति की याचना की गयी है। इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि तुलसीदास भले ही इन देवी-देवताओं में विश्वास रखते रहे हों, किंतु इनकी उपयोगिता केवल तभी तक मानते थे, जब तक इनसे राम भक्ति की प्राप्ति में सहयोग मिल सके।
रामभक्ति के बारे में ‘विनयपत्रिका’ के ही एक प्रसिद्ध पद में उन्होंने कहा है –तुलसीदास जी एक बहुत ही महान कवि थे।।
‘तुलसी सो सब भाँति परम हित पूज्य प्रान ते प्यारो।
जासों होय सनेह राम पद एतो मतो हमारो॥’
परंपरागत कथा
तुलसीदासजी अब असीघाट पर रहने लगे, तब एक रात कलियुग मूर्तरूप धारणकर उनके पास आऐ और उन्हें त्रास देने लगे। गोस्वामीजी ने हनुमान्जी का ध्यान किया। तब हनुमान्जी ने उन्हें विनय के पद रचने के लिए कहा; इस पर गोस्वामीजी ने विनय-पत्रिका लिखी और भगवान् के चरणों में उसे समर्पित कर दिया। श्रीराम ने उस पर अपने हस्ताक्षर कर दिये और तुलसीदास जी को निर्भय कर दिया।
श्रेणी:ग्रंथ
श्रेणी:तुलसीदास द्वारा रचित ग्रंथ |
राम | https://hi.wikipedia.org/wiki/राम | श्रीराम की वंशावली
ब्रह्मा जी के पुत्र मरीचि, मरीचि के पुत्र महर्षि कश्यप हुए। कश्यप और अदिति के वंश से जो (सूर्यवंश) हुआ उसी के इक्ष्वाकु कुल में चक्रवर्ती सम्राट महाराज दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र के रूप में श्री राम का जन्म हुआ। इन्हें रामचंद्र भी कहते हैं।
रामायण के अनुसार,महाराज दशरथ और रानी कौशल्या के सबसे बड़े पुत्र, सीता के पति व लक्ष्मण, भरत तथा शत्रुघ्न के भ्राता थे। हनुमान उनके परम भक्त है। लंका के राजा रावण का वध उन्होंने ही किया था। उनकी प्रतिष्ठा मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में है क्योंकि उन्होंने मर्यादा के पालन के लिए राज्य, मित्र, माता-पिता तक का त्याग किया।
५००(500) वर्षो बाद अयोध्या जी में श्री राम जन्मभूमि पर पुनः नवनिर्मित भव्य मंदिर में मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचंद्र जी का राम लला स्वरूप में निज गृह आगमन 22(२२) जनवरी (२०२४) 2024 को हुआ।।
वे भगवान विष्णु के अवतार माने जाते हैं। श्रीराम का जन्म वैवस्वत मन्वंतर में 23 वें चतुर्युग के त्रेता में हुआ था । उन्होंने करीब 11000 वर्ष अयोध्या का शासन किया था , श्री राम विश्वामित्र के साथ यज्ञ की रक्षा के लिए छोटे भाई लक्ष्मण के साथ गए और ताड़का आदि राक्षस मारे उसके बाद गुरु के साथ राजा जनक के यहां उनकी पुत्री सीता के स्वयंवर में पहुंच कर शिव के धनुष को तोड़ सीता से विवाह किया,जब उन्होंने अगला राजा बनाया जा रहा था तब उनके पिता के वचन के लिए 14 वर्ष वनवास जाना हुआ जहां पर लक्ष्मण ने राक्षसों के राजा रावण की बहन शूर्पणखा के नाक कान काट दिए और उसके भाई खर दूषण का राम ने वध कर दिया।
सूपनखा रावन कै बहिनी। दुष्ट हृदय दारुन जस अहिनी॥
खर दूषन त्रिसिरा अरु बाली। बधे सकल अतुलित बलसाली।।
माता सीता का अपहरण रावण द्वारा किया गया, जिसकी खोज में जटायु पक्षी जो बात करता था, जिसने रावण का प्रतिकार किया था , उनका पिता के समान अन्त्येष्टि संस्कार किया। आगे वानर द्वय हनुमान और सुग्रीव से मिले। सुग्रीव के साथ मैत्री की और उसके भाई बालि का वध कर सुग्रीव को वानरों और रीछों का राजा बनाया। हनुमान जी ने 100 योजन समुद्र लांघ कर लंका में माता सीता की खोज की। श्री राम ने रावण के भाई विभीषण को शरण दी। रावण और इसके पुत्र मेघनाद, भाई कुंभकर्ण सहित मार गिराए । रामेश्वरम् में शिवलिंग स्थापित किया जो की ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रसिद्ध हैं। नवरात्रि में शक्ति की पूजा के उपरांत समुद्र पर पुल बनाया और रावण को विभीषण के द्वारा बताए रहस्य से जान कर मार गिराया। पुष्पक विमान के द्वारा माता सीता को लेकर शीघ्र भरत भैया के पास अयोध्या पहुंचे। महर्षि वाल्मीकि ने संस्कृत भाषा का प्रथम महाकाव्य रामायण की रचना की थी। महाकवि गोस्वामी तुलसीदास ने भी उनके जीवन पर केन्द्रित भक्तिभाव पूर्ण सुप्रसिद्ध महाकाव्य रामचरितमानस की रचना की थी, जो कि अवधी भाषा की श्रेष्ठ एवं वृहत्तम रचना भी है। संप्रति, यह अत्यंत प्रसिद्ध है। इसे एक ग्रन्थ की संज्ञा दी गई है। दोनों के अतिरिक्त अन्य भारतीय भाषाओं में भी रामायण की रचनाएँ हुई हैं, जो बहुत प्रसिद्ध भी हैं। स्वामी करपात्री ने रामायण मीमांसा में विश्व की समस्त रामायण का लेखा हैं , दक्षिण के क्रांतिकारी पेरियार रामास्वामी व ललई सिंह की रामायण भी मान्यताप्राप्त है। भारत में श्री राम अत्यन्त पूजनीय हैं और आदर्श पुरुष हैं तथा विश्व के कई देशों में भी श्रीराम आदर्श के रूप में पूजे जाते हैं जैसे नेपाल, थाईलैण्ड, इण्डोनेशिया आदि । श्री राम रघुकुल क्षत्रिय वंश में जन्मे थे, जिसकी परम्परा रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्रान जाहुँ बरु बचनु न जाई।। रामचरितमानस (सटीक)-2-28-2; गीताप्रेस गोरखपुर, संस्करण-1999ई०। की थी जोकि वर्तमान में भी सूर्यवंशी क्षत्रिय (राजपूतों) द्वारा व्यवस्थित की जा रही| ब्राह्मणों के अनुसार राम न्यायप्रिय थे। उन्होंने बहुत अच्छा शासन किया, इसलिए लोग आज भी अच्छे शासन को रामराज्य की उपमा देते हैं।
दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि ब्यापा॥
thumb|1820 के दशक की शुरुआत में, श्री हरिमंदर साहिब, अमृतसर के मुख्य ग्रंथी ने 17वीं शताब्दी में तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस पर एक टिप्पणी लिखी थी।
वैदिक धर्म के कई त्योहार, जैसे दशहरा, राम नवमी और दीपावली, श्रीराम की वन-कथा से जुड़े हुए हैं। रामायण भारतीयों के मन में बसता आया है, और आज भी उनके हृदयों में इसका भाव निहित है। भारत में किसी व्यक्ति को नमस्कार करने के लिए राम राम, जय सियाराम जैसे शब्दों को प्रयोग में लिया जाता है।
ये भारतीय संस्कृति के आधार हैं।
नाम-व्युत्पत्ति एवं अर्थ
'रम्' धातु में 'घञ्' प्रत्यय के योग से 'राम' शब्द निष्पन्न होता है।संस्कृत-हिन्दी कोश, वामन शिवराम आप्टे। 'रम्' धातु का अर्थ रमण (निवास, विहार) करने से सम्बद्ध है। वे प्राणीमात्र के हृदय में 'रमण' (निवास) करते हैं, इसलिए 'राम' हैं तथा भक्तजन उनमें 'रमण' करते (ध्याननिष्ठ होते) हैं, इसलिए भी वे 'राम' हैं - "रमते कणे कणे इति रामः"। 'विष्णुसहस्रनाम' पर लिखित अपने भाष्य में आद्य शंकराचार्य ने पद्मपुराण का उदाहरण देते हुए कहा है कि नित्यानन्दस्वरूप भगवान् में योगीजन रमण करते हैं, इसलिए वे 'राम' हैं।श्रीविष्णुसहस्रनाम, सानुवाद शांकर भाष्य सहित, गीताप्रेस गोरखपुर, संस्करण-1999, पृष्ठ-143.
आदि राम
कबीर दास आदि राम की परिभाषा बताते है परंतु यह परिभाषा गलत है अयोध्या में जन्मे श्री राम ही वह अविनाशी परमात्मा है जो सब का सृजनहार व पालनहार है। जिसके एक इशारे पर धरती और आकाश काम करते हैं जिसकी स्तुति में तैंतीस कोटि(प्रकार) देवी-देवता नतमस्तक रहते हैं। जो पूर्ण मोक्षदायक व स्वयंभू है।"रामपाल नामक संत नकली है और अपराधी है जो अपने अपराधों की वजह से जेल में है।।
अवतार रूप में प्राचीनता
वैदिक साहित्य में 'राम' का उल्लेख प्रचलित रूप में नहीं मिलता है। ऋग्वेद में केवल दो स्थलों पर ही 'राम' शब्द का प्रयोग हुआ हैऋग्वेद पदानां अकारादि वर्णक्रमानुक्रमणिका, संपादक- स्वामी विश्वेश्वरानंद एवं नित्यानंद, निर्णय सागर प्रेस, मुंबई, संस्करण-1908, पृ०-348. (१०-३-३ तथा १०-९३-१४)। उनमें से भी एक जगह काले रंग (रात के अंधकार) के अर्थ मेंऋग्वेदसंहिता (श्रीसायणाचार्य कृत भाष्य एवं भाष्यानुवाद सहित) भाग-5, चौखम्बा कृष्णदास अकादमी, वाराणसी, संस्करण-2013, पृष्ठ-3892. तथा शेष एक जगह ही व्यक्ति के अर्थ में प्रयोग हुआ हैऋग्वेदसंहिता (श्रीसायणाचार्यजी कृत भाष्य एवं भाष्यानुवाद सहित) भाग-5, चौखम्बा कृष्णदास अकादमी, वाराणसी, संस्करण-2013, पृष्ठ-4406.; लेकिन वहां भी उनके अवतारी पुरुष या दशरथ के पुत्र होने का कोई संकेत नहीं है। यद्यपि नीलकण्ठ चतुर्धर ने ऋग्वेद के अनेक मन्त्रों को स्वविवेक से चुनकर उनके रामकथापरक अर्थ किये हैं, परन्तु यह उनकी निजी मान्यता है। स्वयं ऋग्वेद के उन प्रकरणों में प्राप्त किसी संकेत या किसी अन्य भाष्यकार के द्वारा उन मंत्रों का रामकथापरक अर्थ सिद्ध नहीं हो पाया है। ऋग्वेद में एक स्थल पर 'इक्ष्वाकुः' (१०-६०-४) काऋग्वेद पदानां अकारादि वर्णक्रमानुक्रमणिका, संपादक- स्वामी विश्वेश्वरानंद एवं नित्यानंद, निर्णय सागर प्रेस, मुंबई, संस्करण-1908, पृ०-79. तथा एक स्थल परवैदिक-पदानुक्रम-कोषः, संहिता विभाग, तृतीय खण्ड, संपादक- विश्वबन्धुजी शास्त्री, विश्वेश्वरानन्द वैदिक शोध संस्थान, होशिआरपुर, संस्करण-1956, पृष्ठ-1550; एवं ऋग्वेद पदानां अकारादि वर्णक्रमानुक्रमणिका, संपादक- स्वामी विश्वेश्वरानंद एवं नित्यानंद, निर्णय सागर प्रेस, मुंबई, संस्करण-1908, पृ०-195. 'दशरथ' (१-१२६-४) शब्द का भी प्रयोग हुआ है। परन्तु उनके राम से सम्बद्ध होने का कोई संकेत नहीं मिल पाता है।हिन्दी साहित्य कोश, भाग-2, संपादक- डॉ० धीरेंद्र वर्मा एवं अन्य, ज्ञानमंडल लिमिटेड, वाराणसी, संस्करण-2011, पृष्ठ-497.
ब्राह्मण साहित्य में 'राम' शब्द का प्रयोग ऐतरेय में दो स्थलों परवैदिक-पदानुक्रमकोषः, -आरण्यक विभाग, द्वितीय खण्ड, विश्वेश्वरानन्द वैदिक शोध संस्थान, लवपुर, संस्करण-1936, पृष्ठ-852. (७-५-१{=७-२७} तथा ७-५-८{=७-३४})हुआ है; परन्तु वहाँ उन्हें 'रामो मार्गवेयः' कहा गया है, जिसका अर्थ आचार्य सायण के अनुसार 'मृगवु' नामक स्त्री का पुत्र है।ऐतरेयब्राह्मणम् (सायण भाष्य एवं हिन्दी अनुवाद सहित) भाग-2, संपादक एवं अनुवादक- डॉ० सुधाकर मालवीय, तारा प्रिंटिंग वर्क्स, वाराणसी, संस्करण-1983, पृष्ठ-1201. [] में एक स्थल पर 'राम' शब्द का प्रयोग हुआ है (४-६-१-७)। यहां 'राम' यज्ञ के आचार्य के रूप में है तथा उन्हें 'राम औपतपस्विनि' कहा गया है। (सटीक), भाग-1, विजयकुमार गोविंदराम हासानंद, दिल्ली, संस्करण-2010, पृष्ठ-657. तात्पर्य यह कि प्रचलित राम का अवतारी रूप वाल्मीकीय रामायण एवं पुराणों की ही देन है।
जन्म
thumb| जन्म,रामायण से
रामायण में वर्णन के अनुसार अयोध्या के सूर्यवंशी राजा दशरथ को चौथेपन तक संतान प्राप्ति नहीं हुई, "एक बार दशरथ मन माही, भई गलानि मोरे सुत नाही" तदोपरांत सम्राट दशरथ ने पुत्रेश्टी यज्ञ (पुत्र प्राप्ती यज्ञ) कराया जिसके फलस्वरूप उनके पुत्रों का जन्म हुआ। श्रीराम जी चारों भाइयों में सबसे बड़े थे। किंतु अपनी बहन से छोटे थे। भगवान राम की सगी बहन शांता थीं जो श्रीराम और उनके तीनों भाइयों की बड़ी बहन थीं। हर वर्ष चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को श्रीराम जयंती या राम नवमी का पर्व मनाया संस्कृत महाकाव्य रामायण के रूप में वर्णित हुआ है।
कुछ हिंदू ग्रंथों में, राम के बारे में कहा गया है कि वे त्रेता युग या द्वापर युग में रहते थे कि उनके लेखकों का अनुमान लगभग 5,000 ईसा पूर्व था। कुछ अन्य शोधकर्ता राम को कुरु और वृष्णि नेताओं की पुन: सूचियों के आधार पर 1250 ईसा पूर्व, के आसपास रहने के लिए अधिक उपयुक्त स्थान देते थे, जो अगर अधिक यथार्थवादी शासनकाल में दिए जाते हैं, तो उस अवधि के आसपास, राम के समकालीन, भरत और सत्त्व को स्थान देंगे। एक भारतीय पुरातत्वविद् हंसमुख धीरजलाल सांकलिया के अनुसार, जो प्रोटो- और प्राचीन भारतीय इतिहास में विशिष्ट है, यह सब "शुद्ध अटकलें" हैं।
राम की महाकाव्य कहानी की रचना, रामायण अपने वर्तमान रूप में, आमतौर पर 7 वीं और चौथी शताब्दी ईसा पूर्व के बीच की है। ऑक्सफोर्ड के संस्कृत के एक प्रोफेसर जॉन ब्रॉकिंगटन के अनुसार, रामायण पर उनके प्रकाशनों के लिए जाना जाता है, मूल पाठ संभवतः अधिक प्राचीन काल में मौखिक रूप से रचित और प्रसारित किया गया था, और आधुनिक विद्वानों ने 1 सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व में विभिन्न शताब्दियों का सुझाव दिया है। ब्रॉकिंगटन के विचार में, "भाषा, शैली और काम की सामग्री के आधार पर, लगभग पांचवीं शताब्दी ईसा पूर्व की तारीख सबसे अनुमानित अनुमान है"।
भगवान राम के जन्म-समय पर पौराणिक शोध
राम के कथा से सम्बद्ध सर्वाधिक प्रमाणभूत ग्रन्थ आदिकाव्य वाल्मीकीय रामायण में रामजी के-जन्म के सम्बन्ध में निम्नलिखित वर्णन उपलब्ध है: चैत्रे नावमिके तिथौ।।नक्षत्रेऽदितिदैवत्ये स्वोच्चसंस्थेषु पञ्चसु।ग्रहेषु कर्कटे लग्ने वाक्पताविन्दुना सह।।श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण (सटीक), प्रथम भाग, बालकाण्ड-18-8,9; गीताप्रेस गोरखपुर, संस्करण-1996 ई०, पृष्ठ-69.
अर्थात् चैत्र मास की नवमी तिथि में पुनर्वसु नक्षत्र में, पांच ग्रहों के अपने उच्च स्थान में रहने पर तथा कर्क लग्न में चन्द्रमा के साथ बृहस्पति के स्थित होने पर (रामजी का जन्म हुआ)।
चौपाई
नौमी तिथि मधु मास पुनीता। सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता॥
मध्यदिवस अति सीत न घामा। पावन काल लोक बिश्रामा॥
यहां केवल बृहस्पति तथा चन्द्रमा की स्थिति स्पष्ट होती है। बृहस्पति उच्चस्थ है तथा चन्द्रमा स्वगृही। आगे पन्द्रहवें श्लोक में सूर्य के उच्च होने का उल्लेख है। इस प्रकार बृहस्पति तथा सूर्य के उच्च होने का पता चल जाता है। बुध हमेशा सूर्य के पास ही रहता है। अतः सूर्य के उच्च (मेष में) होने पर बुद्ध का उच्च (कन्या में) होना असंभव है। इस प्रकार उच्च होने के लिए बचते हैं शेष तीन ग्रह मंगल, शुक्र तथा शनि। इसी कारण से प्रायः सभी विद्वानों ने रामजी के जन्म के समय में सूर्य, मंगल, बृहस्पति, शुक्र तथा शनि को उच्च में स्थित माना है।
परम्परागत रूप से राम का जन्म त्रेता युग में माना जाता है। ब्राह्मण / हिन्दू धर्मशास्त्रों में, विशेषतः पौराणिक साहित्य में उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार एक चतुर्युगी में 43,20,000 वर्ष होते हैं, जिनमें कलियुग के 4,32,000 वर्ष तथा द्वापर के 8,64,000 वर्ष होते हैं। राम का जन्म त्रेता युग में अर्थात द्वापर युग से पहले हुआ था। चूंकि कलियुग का अभी प्रारंभ ही हुआ है (लगभग 5,500 वर्ष ही बीते हैं) और राम का जन्म त्रेता के अंत में हुआ तथा अवतार लेकर धरती पर उनके वर्तमान रहने का समय परंपरागत रूप से 11,000 वर्ष माना गया है।श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण, पूर्ववत्,1.15.29; पृ०-64. अतः द्वापर युग के 8,64,000 वर्ष + राम की वर्तमानता के 11,000 वर्ष + द्वापर युग के अंत से अबतक बीते 5,100 वर्ष = कुल 8,80,100 वर्ष। अतएव परंपरागत रूप से राम का जन्म आज से लगभग 8,80,100 वर्ष पहले माना जाता है।
प्रख्यात मराठी शोधकर्ता विद्वान डॉ॰ पद्माकर विष्णु वर्तक ने एक दृष्टि से इस समय को संभाव्य माना है। उनका कहना है कि वाल्मीकीय रामायण में एक स्थल पर विन्ध्याचल तथा हिमालय की ऊंचाई को समान बताया गया है। विन्ध्याचल की ऊंचाई 5,000 फीट है तथा यह प्रायः स्थिर है, जबकि हिमालय की ऊंचाई वर्तमान में 29,029 फीट है तथा यह निरंतर वर्धनशील है। दोनों की ऊंचाई का अंतर 24,029 फीट है। विशेषज्ञों की मान्यता के अनुसार हिमालय 100 वर्षों में 3 फीट बढ़ता है। अतः 24,029 फीट बढ़ने में हिमालय को करीब 8,01,000 वर्ष लगे होंगे। अतः अभी से करीब 8,01,000 वर्ष पहले हिमालय की ऊंचाई विन्ध्याचल के समान रही होगी, जिसका उल्लेख वाल्मीकीय रामायण में वर्तमानकालिक रूप में हुआ है। इस तरह डाॅ॰ वर्तक को एक दृष्टि से यह समय संभव लगता है, परंतु उनका स्वयं मानना है कि वे किसी अन्य स्रोत से इस समय की पुष्टि नहीं कर सकते हैं।A REALISTIC APPROACH TO THE VALMIKI RAMAYANA (Translation of the Original Book ‘VASTAVA RAMAYANA’ in Marathi), Dr. Padmakar Vishnu Vartak, English Translation by Vidyakar Vasudev Bhide, Blue Bird (India) Limited, Pune, First Edition-2008, p.282. अपने सुविख्यात ग्रंथ 'वास्तव रामायण' में डॉ॰ वर्तक ने मुख्यतः ग्रहगतियों के आधार पर गणित करकेA REALISTIC APPROACH TO THE VALMIKI RAMAYANA, ibid, p.290-300. वाल्मीकीय रामायण में उल्लिखित ग्रहस्थिति के अनुसार राम की वास्तविक जन्म-तिथि 4 दिसंबर 7323 ईसापूर्व को सुनिश्चित किया है। उनके अनुसार इसी तिथि को दिन में 1:30 से 3:00 बजे के बीच श्री राम का जन्म हुआ होगा।A REALISTIC APPROACH TO THE VALMIKI RAMAYANA, ibid, p.300.
डॉ॰ पी॰ वी॰ वर्तक के शोध के अनेक वर्षों के बादडॉ॰ पी॰ वी॰ वर्तक की पुस्तक 'वास्तविक रामायण' (मराठी) का चतुर्थ संस्करण 1993 में निकल चुका था (2004 ईस्वी से) 'आई-सर्व' के एक शोध दल ने 'प्लेनेटेरियम गोल्ड' सॉफ्टवेयर का प्रयोग करके रामजी का जन्म 10 जनवरी 5114 ईसापूर्व में सिद्ध किया। उनका मानना था कि इस तिथि को ग्रहों की वही स्थिति थी जिसका वर्णन वाल्मीकीय रामायण में है। परंतु यह समय काफी संदेहास्पद हो गया है। 'आई-सर्व' के शोध दल ने जिस 'प्लेनेटेरियम गोल्ड' सॉफ्टवेयर का प्रयोग किया वह वास्तव में ईसा पूर्व 3000 से पहले का सही ग्रह-गणित करने में सक्षम नहीं है।इतिहास का उपहास (राम की जन्मतिथि एवं जन्मकुण्डली की भ्रामक व्याख्या का निराकरण), विनय झा, अखिल भारतीय विद्वत् परिषद्, वाराणसी, संस्करण-2015, पृष्ठ-10-11. वस्तुतः 2013 ईस्वी से पहले इतने पहले का ग्रह-गणित करने हेतु सक्षम सॉफ्टवेयर उपलब्ध ही नहीं था।इतिहास का उपहास, पूर्ववत्, पृ०-10 तथा 30. इस गणना द्वारा प्राप्त ग्रह-स्थिति में शनि वृश्चिक में था अर्थात उच्च (तुला) में नहीं था। चन्द्रमा पुनर्वसु नक्षत्र में न होकर पुष्य के द्वितीय चरण में ही था तथा तिथि भी अष्टमी ही थी।इतिहास का उपहास, पूर्ववत्, पृ०-29. बाद में अन्य विशेषज्ञ द्वारा "ejplde431" सॉफ्टवेयर द्वारा की गयी सही गणना में तिथि तो नवमी हो जाती है परन्तु शनि वृश्चिक में ही आता है तथा चन्द्रमा पुष्य के चतुर्थ चरण में।इतिहास का उपहास, पूर्ववत्, पृ०-37. अतः 10 जनवरी 5114 ईसापूर्व की तिथि वस्तुतः राम की जन्म-तिथि सिद्ध नहीं हो पाती है। ऐसी स्थिति में अब यदि डॉ० पी० वी० वर्तक और डॉ० यज्ञदत्त शर्मा द्वारा पहले ही परिशोधित तिथि सॉफ्टवेयर द्वारा प्रमाणित हो जाए तभी रामजी का वास्तविक समय प्रायः सर्वमान्य हो पाएगा अथवा प्रमाणित न हो पाने की स्थिति में नवीन तिथि के शोध का रास्ता खुलेगा अथवा ब्राह्मण धर्म यानी हिन्दू धर्म ग्रंथों या शास्त्रों में वर्णित तिथि ही सर्वमान्य प्रमाण है।
भगवान श्री राम के जीवन की प्रमुख घटनाएं
बालपन और सीता-स्वयंवर
thumb|भगवान श्री राम के बाल रूप (रामलला) का विग्रह
पुराणों में श्री राम के जन्म के बारे में स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं कि श्री राम का जन्म वर्तमान भारत के अयोध्या नामक नगर में एक क्षत्रिय(रघुकुल राजपुत्) में हुआ था। अयोध्या, जो कि भगवान राम के पूर्वजों की ही राजधानी थी। रामचन्द्र के पूर्वज रघु थे।
भगवान राम बचपन से ही शान्त स्वभाव के वीर पुरूष थे। उन्होंने मर्यादाओं को हमेशा सर्वोच्च स्थान दिया था। इसी कारण उन्हें मर्यादा पुरूषोत्तम राम' के नाम से जाना जाता है। उनका राज्य न्यायप्रिय और खुशहाल माना जाता था। इसलिए भारत में जब भी सुराज (अच्छे राज) की बात होती है तो रामराज या रामराज्य का उदाहरण दिया जाता है। धर्म के मार्ग पर चलने वाले राम ने अपने तीनों भाइयों के साथ गुरू वशिष्ठ से शिक्षा प्राप्त की। किशोरावस्था में गुरु विश्वामित्र उन्हें वन में राक्षसों द्वारा मचाए जा रहे उत्पात को समाप्त करने के लिए साथ ले गये। राम के साथ उनके छोटे भाई लक्ष्मण भी इस कार्य में उनके साथ थे। ब्रह्म ऋषि विश्वामित्र, जो ब्रह्म ऋषि बनने से पहले राजा विश्वरथ थे, उनकी तपोभूमि बिहार का बक्सर जिला है। ब्रह्म ऋषि विश्वामित्र वेदमाता गायत्री के प्रथम उपासक हैं, वेदों का महान गायत्री मंत्र सबसे पहले ब्रह्म ऋषि विश्वामित्र के ही श्रीमुख से निकला था। कालांतर में विश्वामित्रजी की तपोभूमि राक्षसों से आक्रांत हो गई। ताड़का नामक राक्षसी विश्वामित्रजी की तपोभूमि में निवास करने लगी थी तथा अपनी राक्षसी सेना के साथ बक्सर के लोगों को कष्ट दिया करती थी। समय आने पर विश्वामित्रजी के निर्देशन प्रभु श्री राम के द्वारा वहीं पर उसका वध हुआ। राम ने उस समय ताड़का नामक राक्षसी को मारा तथा मारीच को पलायन के लिए मजबूर किया। इस दौरान ही गुरु विश्वामित्र उन्हें ले गये। वहां के विदेह राजा जनक ने अपनी पुत्री सीता के विवाह के लिए एक स्वयंवर समारोह आयोजित किया था। जहां भगवान शिव का एक धनुष था जिसकी प्रत्यंचा चढ़ाने वाले शूरवीर से सीता जी का विवाह किया जाना था। बहुत सारे राजा महाराजा उस समारोह में पधारे थे। जब बहुत से राजा प्रयत्न करने के बाद भी धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाना तो दूर उसे उठा तक नहीं सके, तब विश्वामित्र जी की आज्ञा पाकर श्री राम ने धनुष उठा कर प्रत्यंचा चढ़ाने का प्रयत्न किया। उनकी प्रत्यंचा चढ़ाने के प्रयत्न में वह महान धनुष घोर ध्वनि करते हुए टूट गया। महर्षि परशुराम ने जब इस घोर ध्वनि को सुना तो वे वहां आ गये और अपने गुरू (शिव) का धनुष टूटने पर रोष व्यक्त करने लगे। लक्ष्मण जी उग्र स्वभाव राजपुत्र थे। उनका विवाद परशुराम जी से हुआ। (वाल्मिकी रामायण में ऐसा प्रसंग नहीं मिलता है।) तब श्री राम ने बीच-बचाव किया। इस प्रकार सीता का विवाह राम से हुआ और परशुराम सहित समस्त लोगों ने आशीर्वाद दिया। अयोध्या में राम सीता सुखपूर्वक रहने लगे। लोग राम को बहुत चाहते थे। उनकी मृदुल, जनसेवायुक्त भावना और न्यायप्रियता के कारण उनकी विशेष लोकप्रियता थी। राजा दशरथ वानप्रस्थ की ओर अग्रसर हो रहे थे। अत: उन्होंने राज्यभार राम को सौंपने का सोचा। जनता में भी सुखद लहर दौड़ गई की उनके प्रिय राजा, उनके प्रिय राजकुमार को राजा नियुक्त करने वाले हैं। उस समय राम के अन्य दो भाई भरत और शत्रुघ्न अपने ननिहाल कैकेेय गए हुए थे। कैकेयी की दासी मन्थरा ने कैकेयी को भरमाया कि राजा तुम्हारे साथ गलत कर रहें है। तुम राजा की प्रिय रानी हो तो तुम्हारी संतान को राजा बनना चाहिए पर राजा दशरथ राम को राजा बनाना चाहते हैं।
भगवान राम के बचपन की विस्तार-पूर्वक विवरण स्वामी तुलसीदास की रामचरितमानस के बालकाण्ड से मिलती है।
वाल्मीकि रामायण बालकाल और रामचरितमानस जैसे ग्रन्थ में श्री राम को कई जगह रघुवंशी , कुंवर , राजपुत् , ठाकुर ,राजा का छोकरा लिखा गया है | इस बात का प्रमाण रामायण के कई श्लोक और परशुराम लक्समन संवाद में भी दीखता है | श्री राम जाती कुल व्यवस्था को न के बराबर मानते थे वो सबको एक सामान रूप में देखते थे इसलिए श्री राम मर्यादा पुरषोत्तम के नाम से भी विख्यात है जिसका अर्थ संसार के पुरुषो में सबसे उत्तम|
वनवास
श्री राम के पिता दशरथ ने उनकी सौतेली माता कैकेयी को उनकी किन्हीं दो इच्छाओं को पूरा करने का वचन (वर) दिया था। कैकेयी ने दासी मन्थरा के बहकावे में आकर इन वरों के रूप में राजा दशरथ से अपने पुत्र भरत के लिए अयोध्या का राजसिंहासन और राम के लिए चौदह वर्ष का वनवास मांगा। पिता के वचन की रक्षा के लिए राम ने खुशी से चौदह वर्ष का वनवास स्वीकार किया। पत्नी सीता ने आदर्श पत्नी का उदाहरण देते हुए पति के साथ वन (वनवास) जाना उचित समझा। भाई लक्ष्मण ने भी राम के साथ चौदह वर्ष वन में बिताए। भरत ने न्याय के लिए माता का आदेश ठुकराया और बड़े भाई राम के पास वन जाकर उनकी चरणपादुका (खड़ाऊँ) ले आए। फिर इसे ही राज गद्दी पर रख कर राजकाज किया। जब राम वनवासी थे तभी उनकी पत्नी सीता को रावण हरण (चुरा) कर ले गया। जंगल में राम को हनुमान जैसा मित्र और भक्त मिला जिसने राम के सारे कार्य पूरे कराये। राम ने हनुमान, सुग्रीव आदि वानर जाति के महापुरुषों की सहायता से सीता को ढूंंढा। समुद्र में पुल बना कर लंका पहुँचे तथा रावण के साथ युद्ध किया। उसे मार कर सीता जी को वापस ले कर आये। राम के अयोध्या लौटने पर भरत ने राज्य उनको ही सौंप दिया।
राजा दशरथ के तीन रानियां थीं: कौशल्या, सुमित्रा और कैकेयी। भगवान राम कौशल्या के पुत्र थे, सुमित्रा के दो पुत्र, लक्ष्मण और शत्रुघ्न थे और कैकेयी के पुत्र भरत थे। राज्य नियमों के अनुसार राजा का ज्येष्ठ पुत्र ही राजा बनने का पात्र होता है अत: श्री राम का अयोध्या का राजा बनना निश्चित था। कैकेयी जिन्होंने दो बार राजा दशरथ की जान बचाई थी और दशरथ ने उन्हें यह वर दिया था कि वो जीवन के किसी भी पल उनसे दो वर मांग सकती हैं। राम को राजा बनते हुए और भविष्य को देखते हुए कैकेयी चाहती थी कि उनका पुत्र भरत ही अयोध्या का राजा बने, इसलिए उन्होंने राजा दशरथ द्वारा राम को १४ वर्ष का वनवास दिलाया और अपने पुत्र भरत के लिए अयोध्या का राज्य मांग लिया। वचनों में बंधे राजा दशरथ को विवश होकर यह स्वीकार करना पड़ा। श्री राम ने अपने पिता की आज्ञा का पालन किया। श्री राम की पत्नी देवी सीता और उनके भाई लक्ष्मण जी भी वनवास गये थे।
सीता जी का अपहरण
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श्री राम एवं सुग्रीव का मिलन।
वनवास के समय, रावण ने सीता जी का हरण किया था। रावण एक राक्षस तथा लंका का राजा था। रामायण के अनुसार, जब राम, सीता और लक्ष्मण कुटिया में थे तब एक स्वर्णिम हिरण की वाणी सुनकर, पर्णकुटी के निकट उस स्वर्ण मृग को देखकर देवी सीता व्याकुल हो गयीं। देवी सीता ने जैसे ही उस सुन्दर हिरण को पकड़ना चाहा वह हिरण या मृग घनघोर वन की ओर भाग गया।
वास्तविकता में यह असुरों द्वारा किया जा रहा एक षडयंत्र था ताकि देवी सीता का अपहरण हो सके। वह स्वर्णमृग या सुनहरा हिरण राक्षसराज रावण का मामा मारीच था। उसने रावण के कहने पर ही सुनहरे हिरण का रूप धारण किया था ताकि वो योजना अनुसार राम - लक्ष्मण को सीता जी से दूर कर सकें और सीता जी का अपहरण हो सके। उधर षडयन्त्र से अनजान सीता जी उसे देख कर मोहित हो गईं और रामचंद्र जी से उस स्वर्ण हिरण को जीवित एवं सुरक्षित पकड़ने करने का अनुरोध किया ताकि उस अद्भुत सुन्दर हिरण को अयोध्या लौटने पर वहां ले जा कर पाल सकें ।
रामचन्द्र जी अपनी भार्या की इच्छा पूरी करने चल पड़े और लक्ष्मण जी से सीता की रक्षा करने को कहा। कपटी मारीच राम जी को बहुत दूर ले गया। श्री राम को दूर ले जाकर मारीच ने ज़ोर से "हे सीता ! हे लक्ष्मण !" की आवाज़ लगानी प्रारंभ कर दी ताकि उस आवाज़ को सुन कर सीता जी चिन्तित हो जाएं और लक्ष्मण को राम के पास जाने को कहें, जिससे रावण सीता जी का हरण सरलता पूर्वक कर सके । इस प्रकार छल या धोखे का अनुमान लगते ही अवसर पाकर श्री राम ने तीर चलाया और उस स्वर्णिम हिरण का रूप धरे राक्षस मारीच का वध कर दिया ।
दूसरी ओर सीता जी मारीच द्वारा लगाए अपने तथा लक्ष्मण के नाम के ध्वनियों को सुन कर अत्यंत चिन्तित हो गईं तथा किसी प्रकार के अनहोनी को समीप जानकर लक्ष्मण जी को श्री राम के पास जाने को कहने लगीं। लक्ष्मण जी राक्षसों के छल - कपट को समझते थे इसलिए लक्ष्मण जी देवी सीता को असुरक्षित अकेला छोड़कर जाना नहीं चाहते थे, पर देवी सीता द्वारा बलपूर्वक अनुरोध करने पर लक्ष्मण जी अपनी भाभी की बातों को अस्वीकार नहीं कर सके।
वन में जाने से पहले सीता जी की रक्षा के लिए लक्ष्मण जी ने अपने बाण से एक रेखा खींची तथा सीता जी से निवेदन किया कि वे किसी भी परिस्थिति में इस रेखा का उल्लंघन नहीं करें, यह रेखा मंत्र के उच्चारण पूर्वक खिंची गई है इसलिए इस रेखा को लांघ कर कोई भी इसके अन्दर नहीं आ पाएगा। लक्ष्मण जी ने देवी सीता की रक्षा के लिए जो अभिमंत्रित रेखा अपने बाण के द्वारा खिंची थी वह लक्ष्मण रेखा के नाम से प्रसिद्ध है।
लक्ष्मण जी के घोर वन में प्रवेश करते ही तथा देवी सीता को अकेला पाकर पहले से षडयंत्र पूर्वक घात लगाकर बैठे रावण को सीता जी के अपहरण का सुनहरा अवसर प्राप्त हो गया। रावण शीघ्र ही राम - लक्ष्मण - सीता के निवास स्थान उस पर्णकुटी या कुटिया में जहां परिस्थिति वश देवी सीता इस समय अकेली थीं, आ गया। उसने साधु का वेष धारण कर रखा था । पहले तो उसने उस सुरक्षित कुटिया में सीधे घुसने का प्रयास किया लेकिन लक्ष्मण रेखा खींचे होने के कारण वह कुटिया के अंदर जहां देवी सीता विद्यमान थीं, नहीं घुस सका।
तब उसने दूसरा उपाय अपनाया, साधु का वेष तो उसने धारण किया हुआ ही था, सो वह कुटिया बाहरी द्वार पर खड़े होकर "भिक्षाम् देही - भिक्षाम् देही" का उद्घोष करने लगा। इस वाणी को सुन कर देवी सीता कुटिया के बाहर निकलीं (लक्ष्मण रेखा के उल्लंघन किए बिना)। द्वार पर साधु को आया देख कर वो कुटिया के चौखट से ही (लक्ष्मण रेखा के भीतर से ही) उसे अन्न - फल आदि का दान देने लगीं। तब धूर्त रावण ने सीता जी को लक्ष्मण रेखा से बाहर लाने के लिए स्वयं के भूखे - प्यासे होने की बात बोल कर भोजन की मांग की।
आर्यावर्त की परंपरा के अनुसार द्वार पर आये भिक्षुक एवं भूखे को खाली हाथ नहीं लौटाने की बात सोच कर वो भोजन - जल आदि लेकर भूल वश लक्ष्मण रेखा के बाहर निकल गई। जैसे ही सीता जी लक्ष्मण रेखा के बाहर हुई, घात लगाए रावण ने झटपट उनका अपहरण कर लिया। रावण सीता जी को पुष्पक विमान में बल पूर्वक बैठाकर ले जाने लगा।
पुष्पक विमान में अपहृत होकर जाते समय सीता जी ने अत्यन्त उच्च स्वर में श्री राम और लक्ष्मण जी को पुकारा तथा अपनी सुरक्षा की गुहार लगायी। इस ऊंचे ध्वनि को सुनकर जटायु नामक एक विशाल गिद्ध पक्षी जो मनुष्यों के समान स्पष्ट वाणी में बोल सकता था तथा पूर्व काल में राजा दशरथ का परम मित्र था, वन प्रदेश को छोड़कर आकाश मार्ग में उड़ कर पहुंचा। जटायु देखता है कि अधर्मी रावण एक सुन्दर युवती को अपहरण कर लेकर जा रहा है तथा वह युवती अपनी सुरक्षा की गुहार लगा रही है।
यह अन्याय देख कर जटायु रावण को चुनौती देता है तथा उस युवती को छोड़ देने की चेतावनी देता है लेकिन अहंकारी रावण भला कहां मानने वाला था सो रावण और जटायु में आकाश मार्ग में ही युद्ध छिड़ जाता है। बलशाली रावण अपने अमोघ खड्ग से जटायु के दोनों पंख काट देता है जिससे जटायु नि:सहाय हो कर पृथ्वी पर गिर जाता है। रावण पुष्पक विमान में सीता जी को लेकर आगे बढ़ने लगता है।
सीता जी ने जब देखा कि उनकी रक्षा करने के लिए आए विशाल गिद्ध पक्षी जो मनुष्यों की भांति बोल सकता था, रावण के खड्ग प्रहार करने से धराशायी हो गया है तब पुष्पक विमान में आकाशमार्ग अथवा वायुमार्ग से जाते समय सीता जी अपने आभूषण / गहने को उतार कर नीचे धरती पर फेंकने लगीं।
भगवान राम, अपने भाई लक्ष्मण के साथ सीता की खोज में दर-दर भटक रहे थे। तब वे हनुमान और सुग्रीव नामक दो वानरों से मिले। हनुमान, राम के सबसे बड़े भक्त बने।
रावण का वध
thumb|left|भवानराव बाळासाहेब पंतप्रतिनिधी कृत रावण-वध।
रामायण में सीता के खोज में सीलोन या लंका या श्रीलंका जाने के लिए 48 किलोमीटर लम्बे 3 किलोमीटर चोड़े पत्थर के सेतु का निर्माण करने का उल्लेख प्राप्त होता है, जिसको रामसेतु कहते हैं।
सीता को को पुनः प्राप्त करने के लिए राम ने हनुमान, विभीषण और वानर सेना की सहायता से रावण के सभी बंधु-बांधवों और उसके वंशजों को पराजित किया तथा लौटते समय विभीषण को लंका का राजा बनाकर अच्छे शासक बनने के लिए मार्गदर्शन किया।
अयोध्या वापसी
thumb|अयोध्या-वापसी।
thumb|300px|left|श्री राम का राज्याभिषेक
राम ने रावण को युद्ध में परास्त किया और उसके छोटे भाई विभीषण को लंका का राजा बना दिया। राम, सीता, लक्षमण और कुछ वानर जन पुष्पक विमान से अयोध्या की ओर प्रस्थान किये । वहां सबसे मिलने के बाद राम और सीता का अयोध्या में राज्याभिषेक हुआ। पूरा राज्य कुशल समय व्यतीत करने लगा।
thumb|राम दरबार|श्रीराम सभा
दैहिक त्याग
thumb| ब्रह्मा द्वारा राम का स्वर्ग मे स्वागत
जब रामचन्द्र जी का जीवन पूर्ण हो गया, तब वे यमराज की सहमति से सरयू नदी के तट पर गुप्तार घाट में देह त्याग कर पुनः बैकुंठ धाम में विष्णु रूप में विराजमान हो गये।
इन्हें भी देखें
रामायण
भगवान महावीर का साधना काल
रामचरितमानस
रामकथा : उत्पत्ति और विकास
जैन धर्म में राम
कृष्ण
राम की प्रतिमा
सन्दर्भ
दक्षिणे लक्ष्मणो यस्य वामे च जनकात्मजा।
पुरतो मारुतिर्यस्य तं वन्दे रघुनन्दनम् ।।
स्रोत...श्रीरामरक्षास्तोत्र
बाहरी कड़ियां
श्री राम जी पर आधारित वेबसाइट
श्रेणी:हिन्दू धर्म
श्रेणी:राम
श्रेणी:अयोध्याकुल
श्रेणी:विष्णु अवतार
श्रेणी:रामायण के पात्र
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अवतार रूप में प्राचीनता
वैदिक साहित्य में 'राम' का उल्लेख प्रचलित रूप में नहीं मिलता है। ऋग्वेद में केवल दो स्थलों पर ही 'राम' शब्द का प्रयोग हुआ है |
संयुक्तराष्ट्र | https://hi.wikipedia.org/wiki/संयुक्तराष्ट्र | REDIRECT संयुक्त राष्ट्र |
संयुक्त राष्ट्रसंघ | https://hi.wikipedia.org/wiki/संयुक्त_राष्ट्रसंघ | REDIRECT संयुक्त राष्ट्र |
मुहम्मद | https://hi.wikipedia.org/wiki/मुहम्मद | मुहम्मद Full name: Abū al-Qāsim Muḥammad ibn ʿAbd Allāh ibn ʿAbd al-Muṭṭalib ibn Hāšim (, lit: Father of Qasim Muhammad son of Abd Allah son of Abd al-Muttalib son of Hashim) Classical Arabic pronunciation 570 ई - 8 जून 632 ई) Elizabeth Goldman (1995), p. 63, gives 8 June 632 CE, the dominant Islamic tradition. Many earlier (primarily non-Islamic) traditions refer to him as still alive at the time of the invasion of Palestine. See Stephen J. Shoemaker,The Death of a Prophet: The End of Muhammad's Life and the Beginnings of Islam, page 248, University of Pennsylvania Press, 2011. इस्लाम के संस्थापक थें। इस्लामिक मान्यता के अनुसार, वह एक पैगम्बर और ईश्वर के संदेशवाहक थे, जिन्हें इस्लाम के पैग़म्बर भी कहते हैं, जो पहले आदम , इब्राहीम , मूसा ईसा (येशू) और अन्य पैगम्बर द्वारा प्रचारित एकेश्वरवादी शिक्षाओं को प्रस्तुत करने और पुष्टि करने के लिए भेजे गए थे। Esposito (2002b), pp. 4–5. इस्लाम की सभी मुख्य शाखाओं में उन्हें अल्लाह के अंतिम पैगम्बर के रूप में देखा जाता है, हालांकि कुछ आधुनिक संप्रदाय इस विश्वास से अलग भी नज़र आते हैं। The Ahmadiyya considers Muhammad to be the "Seal of the Prophets" (Khātam an-Nabiyyīn) and the last law-bearing Prophet but not the last Prophet. See:
There are also smaller sects which believe Muhammad to be not the last Prophet:
The Nation of Islam considers Elijah Muhammad to be a prophet (source: African American Religious Leaders – p. 76, Jim Haskins, Kathleen Benson – 2008).
United Submitters International consider Rashad Khalifa to be a prophet. (Source: Daniel Pipes, Miniatures: Views of Islamic and Middle Eastern Politics, p. 98 (2004)) मुसलमान यह विश्वास रखते हैं कि कुरान जिब्राईल (ईसाईयत में गैब्रियल) नामक एक फरिश्ते के द्वारा, मुहम्मद को ७वीं सदी के अरब में, लगभग ४० साल में याद-कंठस्थ कराया गया था। मुहम्मद , विश्वासियों को एकजुट करने में एक मुस्लिम धर्म स्थापित करने में, एक साथ इस्लामिक धार्मिक विश्वास के आधार पर कुरान के साथ-साथ उनकी शिक्षाओं और प्रथाओं के साथ नज़र आते हैं।
लगभग 570 ई (आम-अल-फ़ील (हाथी का वर्ष)) में अरब के शहर मक्का में पैदा हुए, मुहम्मद की छह साल की उम्र तक उनके माता-पिता का देहांत हो चुका था। ; वह अपने पैतृक चाचा अबू तालिब और अबू तालिब की पत्नी फातिमा बिन्त असद की देखभाल में थे। समय-समय पर, वह प्रार्थना के लिए कई रातों के लिए हिरा नाम की पर्वत गुफा में अल्लाह की याद में बैठते। बाद में 40 साल की उम्र में उन्होंने गुफा में जिब्रील अलै. को देखा, *
Encyclopedia of World History (1998), p. 452 जहां उन्होंने कहा कि उन्हें अल्लाह से अपना पहला इल्हाम प्राप्त हुआ। तीन साल बाद, 610 में, Howarth, Stephen. Knights Templar. 1985. p. 199
मुहम्मद ने सार्वजनिक रूप से इन रहस्योद्घाटनों का प्रचार करना शुरू किया, Muhammad Mustafa Al-A'zami (2003), The History of The Qur'anic Text: From Revelation to Compilation: A Comparative Study with the Old and New Testaments, pp. 26–27. UK Islamic Academy. . यह घोषणा करते हुए कि " ईश्वर एक है ", अल्लाह को पूर्ण "समर्पण" (इस्लाम) कार्यवाही का सही तरीका है (दीन), और वह इस्लाम के अन्य पैगम्बर के समान, ख़ुदा के पैगंबर और दूत हैं। F.E. Peters (2003), p. 9.Esposito (1998), p. 12; (1999) p. 25; (2002) pp. 4–5
मुहम्मद ने शुरुआत में कुछ अनुयायियों को प्राप्त किया,और मक्का में अविश्वासियों से शत्रुता का अनुभव किया। चल रहे उत्पीड़न से बचने के लिए,उन्होंने कुछ अनुयायियों को 615 ई में अबीसीनिया भेजा, इससे पहले कि वह और उनके अनुयायियों ने मक्का से मदीना (जिसे यस्रीब के नाम से जाना जाता था)से पहले 622 ई में हिजरत (प्रवास या स्थानांतरित)किया। यह घटना हिजरा या इस्लामी कैलेंडर की शुरुआत को चिह्नित करता है,जिसे हिजरी कैलेंडर के रूप में भी जाना जाता है। मदीना में,मुहम्मद साहब ने मदीना के संविधान के तहत जनजातियों को एकजुट किया। दिसंबर 622 में,मक्का जनजातियों के साथ आठ वर्षों के अंतराल युद्धों के बाद,मुहम्मद साहब ने 10,000 मुसलमानों की एक सेना इकट्ठी की और मक्का शहर पर चढ़ाई की। विजय बहुत हद तक अनचाहे हो गई, 632 में विदाई तीर्थयात्रा से लौटने के कुछ महीने बाद, वह बीमार पड़ गए और वह इस दुनिया से विदा हो गए। "Muhammad", Encyclopedia of Islam and the Muslim worldSee:
Holt (1977a), p. 57
Lapidus (2002), pp. 31–32
रहस्योद्घाटन (प्रत्येक को आयह के नाम से जाना जाता है, (अल्लाह के इशारे), जो मुहम्मद सल्लल्लाहु तआला अलैही वसल्लम ने दुनिया से जाने तक प्राप्त करने की सूचना दी, कुरान के छंदों का निर्माण किया, मुसलमानों द्वारा शब्द" अल्लाह का वचन "के रूप में माना जाता है और जिसके आस-पास धर्म आधारित है। कुरान के अलावा, हदीस और सीरा (जीवनी) साहित्य में पाए गए मुहम्मद साहब की शिक्षाओं और प्रथाओं (सुन्नत) को भी इस्लामी कानून के स्रोतों के रूप में उपयोग किया जाता है, मुहम्मद 2 वक्त का खाना। खाते खाने में एक ही सब्जी लेते।
परिचय
मुहम्मद का जन्म मुस्लिम इतिहासकारों के अनुसार अरब के रेगिस्तान के शहर मक्का में 8 जून, 570 ई. मेंं हुआ। ‘मुहम्मद’ का अर्थ होता है ‘जिस की अत्यन्त प्रशंसा की गई हो'। इनके पिता का नाम अब्दुल्लाह और माता का नाम आमिना है। मुहम्मद की सशक्त आत्मा ने इस सूने रेगिस्तान से एक नए संसार का निर्माण किया, एक नए जीवन का, एक नई संस्कृति और नई सभ्यता का। आपके द्वारा एक ऐसे नये राज्य की स्थापना हुई, जो मराकश से ले कर इंडीज़ तक फैला और जिसने तीन महाद्वीपों-एशिया, अफ्रीका, और यूरोप के विचार और जीवन पर अपना अभूतपूर्व प्रभाव डाला।
नाम और कुरान में प्रश्ंसा
thumb|right|मुहम्मद नाम इस्लामिक सुलेख की लिपि विविधता, सुलुस में लिखा गया है
मोहम्मद (/mʊhæməd,-hɑːməd/) "Muhammad" . Random House Webster's Unabridged Dictionary. का अर्थ है "प्रशंसनीय" और कुरान में चार बार प्रकट होता है। Jean-Louis Déclais, Names of the Prophet, Encyclopedia of the Quran कुरान दूसरे अपील में मुहम्मद को विभिन्न अपीलों से संबोधित करता है; भविष्यवक्ता, दूत, अल्लाह का अब्द (दास), उद्घोषक ( बशीर ), गवाह (शाहिद), अच्छी ख़बरें (मुबारशीर), चेतावनीकर्ता (नाथिर), अनुस्मारक (मुधाकीर), जो [अल्लाह की तरफ बुलाता है] (दायी) कहते हैं, तेजस्व व्यक्तित्व (नूर), और प्रकाश देने वाला दीपक (सिराज मुनीर)। मुहम्मद को कभी-कभी पते के समय अपने राज्य से प्राप्त पदनामों द्वारा संबोधित किया जाता है: इस प्रकार उन्हें में ढका हुआ (अल-मुज़ममिल) के रूप में जाना जाता है और झुका हुआ अल-मुदाथथिर) सुरा अल-अहज़ाब में 33:40 ईश्वर ने मुहम्मद को " भविष्यद्वक्ताओं की मुहर " या भविष्यवक्ताओं के अंतिम रूप में एकल किया। Ernst (2004), p. 80 कुरान मुहम्मद को अहमद के रूप में भी संदर्भित करता है "अधिक प्रशंसनीय" (अरबी : أحمد, सूरा (, सूरा अस-सफ़ ).
अबू अल-कासिम मुहम्मद इब्न 'अब्द अल्लाह इब्न' अब्द अल-मुत्तलिब इब्न हाशिम नाम, Muhammad Encyclopedia Britannica Retrieved 15 February 2017 कुन्या Goitein, S.D. (1967) – A Mediterranean Society: The Jewish Communities of the Arab World as Portrayed in the Documents of the Cairo Geniza, Volume 1 p. 357. University of California Press Retrieved 17 February 2017 अबू से शुरू होता है, जो अंग्रेजी के पिता के अनुरूप है। Ward, K. (2008) – Islam: Religious Life and Politics in Indonesia p. 221, Institute of Southeast Asian Studies Retrieved 17 February 2017
मुहम्मद साहब की पत्नियां
मुसलमानों का मानना है कि मुहम्मद साहब की पत्नियां विश्वासियों के माता (अरबी: أمهات المؤمنين उम्महत अल-मुमीनिन) है। मुसलमानों ने सम्मान की निशानी के रूप में उन्हें संदर्भित करने से पहले या बाद में प्रमुख शब्द का प्रयोग किया। यह शब्द कुरान 33: 6 से लिया गया है: "पैगंबर अपने विश्वासियों की तुलना में विश्वासियों के करीब है, और उनकी पत्नियां उनकी माताओं (जैसे) हैं।"
मुहम्मद साहब 25 वर्ष के लिए मोनोग्राम थे। अपनी पहली पत्नी खदीजा बिन्त खुवायलद की मृत्यु के बाद, उन्होंने नीचे दी गई पत्नियों से शादी करने के लिए आगे बढ़ दिया, और उनमें से ज्यादातर विधवा थे मुहम्मद के जीवन को पारम्परिक रूप से दो युगों के रूप में चित्रित किया गया है: पूर्व हिजरत (पश्चिमी उत्प्रवासन) में मक्का में 570 से 622 तक, और मदीना में, 622 से 632 तक अपनी मृत्यु तक। हिजरत (मदीना के प्रवास) के बाद उनके विवाह का अनुबंध किया गया था। मुहम्मद की तेरह "पत्नियों" से एक मारिया अल किबतिया, वास्तव में केवल उपपत्नी थीं; हालांकि, मुसलमानों में बहस होती है कि इन एक पत्नियां बन गईं हैं। उनकी 13 पत्नियों और में से केवल दो बच्चों ने उसे बोर दिया था, जो कि एक तथ्य है जिसे कॉर्नेल यूनिवर्सिटी के करीब ईस्टर्न स्टडीज डेविड एस पॉवर्स के प्रोफेसर द्वारा "जिज्ञासु" कहा गया है।
सूत्र
thumb|200px|पेट्रा; इस्लामिक इतिहास और पुरातत्व शोधकर्ता डैन गिब्सन के अनुसार, यह वह स्थान था जहाँ मोहम्मद ने अपनी युवावस्था जीती थी और अपना पहला रहस्योद्घाटन प्राप्त किया था। जैसा कि पहली मुस्लिम मस्जिद और कब्रिस्तान दिखाते हैं, यह मुसलमानों की पहली क़िबला दिशा भी थीDan Gibson: Qur'ānic geography: a survey and evaluation of the geographical references in the qurãn with suggested solutions for various problems and issues. Independent Scholars Press, Surrey (BC) 2011, ISBN 978-0-9733642-8-6
वैज्ञानिक अध्ययन: इस्लामी इतिहास के शोधकर्ताओं ने समय के साथ इस्लाम के जन्मस्थान और किबला के परिवर्तन की जांच की है। पेट्रीसिया क्रोन, माइकल कुक और कई अन्य शोधकर्ताओं ने पाठ और पुरातात्विक अनुसंधान के आधार पर यह मान लिया है कि "मस्जिद अल-हरम" मक्का में नहीं बल्कि उत्तर-पश्चिमी अरब प्रायद्वीप में स्थित था। https://bora.uib.no/bora-xmlui/bitstream/handle/1956/12367/144806851.pdf?sequence=4&isAllowed=yMeccan Trade And The Rise Of Islam, (Princeton, U.S.A: Princeton University Press, 1987https://repository.upenn.edu/cgi/viewcontent.cgi?article=5006&context=edissertations https://dergipark.org.tr/tr/download/article-file/592002
कुरान
thumb|कूफिक लिपि में लिखा एक प्रारंभिक कुरान से एक फोलियो (अब्बासिड अवधि, 8 वीं-9वीं शताब्दी)
कुरान इस्लाम का केंद्रीय धार्मिक पाठ है। मुसलमानों का मानना है कि यह मलक जिब्रील द्वारा मुहम्मद को अल्लाह की जानिब से भेज गया कलाम है। Living Religions: An Encyclopaedia of the World's Faiths, Mary Pat Fisher, 1997, p. 338, I.B. Tauris Publishers. कुरान, हालांकि, मुहम्मद की कालानुक्रमिक जीवनी के लिए न्यूनतम सहायता प्रदान करता है; कुरान एक पवित्र किताब है जो इंसान को भलाई के मार्ग पर ले जाने का काम करती है, दुनिया के कई ऐसे रेह्स्यो के बारे में बताया गया है जिसके बारे में लोग अभी तक नहीं जान पाए हैं जैसे एक चीन्टी दूसरी चीन्टी से कैसे संपर्क करती है इसके बारे में क़ुरआन में बताया गया है कि चीटी अपने दोनों बालों जो उनके सर उगे होते है उनको रगडकर संपर्क करती। ऐसी ही कई रोचक और दिल का सुकून देने वाली बहुत सी बाते हैं।
प्रारंभिक जीवनी
मुख्य लेख: भविष्यवाणी जीवनी
मुहम्मद के जीवन के बारे में महत्वपूर्ण स्रोत मुस्लिम युग (हिजरी - 8 वीं और 9वीं शताब्दी ई) की दूसरी और तीसरी शताब्दियों के लेखकों द्वारा ऐतिहासिक कार्यों में पाया जा सकता है। Watt (1953), p. xi इनमें मुहम्मद की पारंपरिक मुस्लिम जीवनी शामिल हैं, जो मुहम्मद के जीवन के बारे में अतिरिक्त जानकारी प्रदान करती हैं। Reeves (2003), pp. 6–7
सबसे पुरानी जीवित सिरा (मुहम्मद की जीवनी और उद्धरण उनके लिए जिम्मेदार) इब्न इशाक का जीवन भगवान का मैसेंजर लिखित सी है। 767 सीई (150 एएच)। यद्यपि काम खो गया था, इस सीरा का इस्तेमाल इब्न हिशाम और अल-ताबररी द्वारा थोड़ी सी सीमा तक किया गया था। S.A. Nigosian (2004), p. 6Donner (1998), p. 132 हालांकि, इब्न हिशम मुहम्मद की अपनी जीवनी के प्रस्ताव में स्वीकार करते हैं कि उन्होंने इब्न इशाक की जीवनी से मामलों को छोड़ दिया जो "कुछ लोगों को परेशान करेगा"। एक और प्रारंभिक इतिहास स्रोत मुहम्मद के अभियानों का इतिहास अल-वकिदी (मुस्लिम युग की मृत्यु 207), और उनके सचिव इब्न साद अल-बगदादी (मुस्लिम युग की मौत 230) का काम है।
कई विद्वान इन शुरुआती जीवनी को प्रामाणिक मानते हैं, हालांकि उनकी सटीकता अनिश्चित है। हाल के अध्ययनों ने विद्वानों को कानूनी मामलों और पूरी तरह से ऐतिहासिक घटनाओं को छूने वाली परंपराओं के बीच अंतर करने का नेतृत्व किया है। कानूनी समूह में, परंपराएं आविष्कार के अधीन हो सकती थीं, जबकि ऐतिहासिक घटनाएं, असाधारण मामलों से अलग हो सकती हैं, केवल "प्रवृत्त आकार" के अधीन हो सकती हैं। Watt (1953), p. xv
हदीस
अन्य महत्वपूर्ण स्रोतों में हदीस संग्रह, मौखिक और शारीरिक शिक्षाओं और मुहम्मद की परंपराओं के विवरण शामिल हैं। हदीस के ग्रन्थ सहीह अल-बुख़ारी, मुस्लिम इब्न अल-हजज, मुहम्मद इब्न ईसा -तिर्मिधि, अब्द अर-रहमान अल-नसाई, अबू दाऊद, इब्न माजह, मालिक इब्न अनस, अल-दराकुत्नी सहित अनुयायियों द्वारा मुहम्मद की मृत्यु के बाद संकलित किया गया था। Lewis (1993), pp. 33–34
कुछ पश्चिमी शिक्षाविदों ने सावधानीपूर्वक हदीस संग्रह को सटीक ऐतिहासिक स्रोतों के रूप में देखा है। मैडलंग जैसे विद्वान बाद की अवधि में संकलित किए गए कथाओं को अस्वीकार नहीं करते हैं, लेकिन इतिहास के संदर्भ में और घटनाओं और आंकड़ों के साथ उनकी संगतता के आधार पर उनका न्याय करते हैं। Madelung (1997), pp. xi, 19–20 दूसरी तरफ मुस्लिम विद्वान आमतौर पर जीवनी साहित्य की बजाय हदीस साहित्य पर अधिक जोर देते हैं, क्योंकि हदीस ट्रांसमिशन (इस्नद) की एक सत्यापित श्रृंखला बनाए रखते हैं; जीवनी साहित्य के लिए ऐसी श्रृंखला की कमी से उनकी आंखों में कम सत्यापन योग्य हो जाता है।
पूर्व इस्लामी अरब
thumb|मुहम्मद के जीवनकाल में मुख्य जनजातियों और अरब के बस्तियों।
अरब प्रायद्वीप काफी हद तक शुष्क और ज्वालामुखीय था, जो निकट ओएस या स्प्रिंग्स को छोड़कर कृषि को मुश्किल बना देता था। परिदृश्य कस्बों और शहरों के साथ बिखरा हुआ था; मक्का और मदीना के सबसे प्रमुख दो हैं। मदीना एक बड़ा समृद्ध कृषि समझौता था, जबकि मक्का कई आसपास के जनजातियों के लिए एक महत्वपूर्ण वित्तीय केंद्र था। Watt (1953), pp. 1–2 रेगिस्तानी स्थितियों में अस्तित्व के लिए सांप्रदायिक जीवन जरूरी था, कठोर पर्यावरण और जीवनशैली के खिलाफ स्वदेशी जनजातियों का समर्थन करना। जनजातीय संबद्धता, चाहे संबंध या गठजोड़ पर आधारित, सामाजिक एकजुटता का एक महत्वपूर्ण स्रोत था। Watt (1953), pp. 16–18 स्वदेशी अरब या तो भयावह या आसन्न थे, पूर्व लगातार एक स्थान से दूसरे स्थान पर यात्रा करते थे और अपने झुंडों के लिए पानी और चरागाह मांगते थे, जबकि बाद में व्यापार और कृषि पर ध्यान केंद्रित करते थे। नोमाडिक अस्तित्व भी हमलावर कारवां या oases पर निर्भर करता है; मनोदशा इसे अपराध के रूप में नहीं देखते थे। Loyal Rue, Religion Is Not about God: How Spiritual Traditions Nurture Our Biological,2005, p. 224John Esposito, Islam, Expanded edition, Oxford University Press, pp. 4–5
पूर्व इस्लामी अरब में, देवताओं या देवियों को व्यक्तिगत जनजातियों के संरक्षक के रूप में देखा जाता था, उनकी आत्मा पवित्र पेड़ों, पत्थरों, झरनों और कुओं से जुड़ी थी। साथ ही साथ वार्षिक तीर्थयात्रा की साइट होने के कारण, मक्का में काबा मंदिर में जनजातीय संरक्षक देवताओं की 360 मूर्तियां थीं। तीन देवी अल्लाह के साथ उनकी बेटियों के रूप में जुड़े थे: अल्लात, मनात और अल-उज्जा। ईसाई और यहूदी समेत अरब में एकेश्वरवादी समुदाय मौजूद थे। See:
Esposito, Islam, Extended Edition, Oxford University Press, pp. 5–7
Quran 3:95 हनीफ - मूल पूर्व-इस्लामी अरब जिन्होंने "कठोर एकेश्वरवाद का दावा किया" - कभी-कभी पूर्व इस्लामी अरब में यहूदियों और ईसाइयों के साथ भी सूचीबद्ध होते हैं, हालांकि उनकी ऐतिहासिकता विद्वानों के बीच विवादित होती है। Kochler (1982), p. 29cf. Uri Rubin, Hanif, Encyclopedia of the Qur'an मुस्लिम परंपरा के मुताबिक, मुहम्मद खुद हनीफ और इब्राहीम अलै. के पुत्र ईस्माइल अलै. के वंशज थे। See:
Louis Jacobs (1995), p. 272
Turner (2005), p. 16
छठी शताब्दी का दूसरा भाग अरब में राजनीतिक विकार की अवधि थी और संचार मार्ग अब सुरक्षित नहीं थे। धार्मिक विभाजन संकट का एक महत्वपूर्ण कारण थे। यहूदी धर्म यमन में प्रमुख धर्म बन गया, जबकि ईसाई धर्म ने फारस खाड़ी क्षेत्र में जड़ ली। प्राचीन दुनिया के व्यापक रुझानों के साथ, इस क्षेत्र में बहुसंख्यक संप्रदायों के अभ्यास और धर्म के एक और आध्यात्मिक रूप में बढ़ती दिलचस्पी में गिरावट देखी गई। जबकि कई लोग विदेशी विश्वास में परिवर्तित होने के लिए अनिच्छुक थे, वहीं उन धर्मों ने बौद्धिक और आध्यात्मिक संदर्भ बिंदु प्रदान किए।
मुहम्मद के जीवन के प्रारंभिक वर्षों के दौरान, कुरैशी जनजाति वह पश्चिमी अरब में एक प्रमुख शक्ति बन गई थी। उन्होंने hums के पंथ संघ का गठन किया, जो पश्चिमी अरब में कई जनजातियों के सदस्यों को काबा में बंधे और मक्का अभयारण्य की प्रतिष्ठा को मजबूत किया। अराजकता के प्रभावों का मुकाबला करने के लिए, कुरैश ने पवित्र महीनों की संस्था को बरकरार रखा, जिसके दौरान सभी हिंसा को मना कर दिया गया था, और बिना किसी खतरे के तीर्थयात्रा और मेलों में भाग लेना संभव था। इस प्रकार, हालांकि, hums का संघ मुख्य रूप से धार्मिक था, लेकिन इसके लिए शहर के लिए भी महत्वपूर्ण आर्थिक परिणाम थे।
जिंदगी
मुहम्मद की जीवनी की समयरेखा मुहम्मद के जीवन में महत्वपूर्ण तिथियां और स्थान 569अपने पिता अब्दुल्लह इब्न अब्दुल मुत्तलिब की मृत्यु c. 570जन्म की संभावित तिथि: 12 रबी अल अव्वल: अरब में मक्काc. 576माता, आमिना की मृत्यु c. 583उनके दादा ने उन्हें सीरिया भेजा c. 595खदीजा रजी. से मुलाक़ात और विवाह 597ज्येष्ठ पुत्री ज़ैनब रजी. का जन्म, बाद में उम्मे कुलसूम बिन्त मुहम्मद, फ़ातिमा ज़हरा रजी.610मक्का के पास जबल एक नूर "प्रकाश का पर्वत" पर हिरा की गुफा में कुरानिक प्रकाशन शुरू होता है610 40 वर्ष की आयु में, देवदूत जिब्रील अलै. प्रत्यक्ष होकर, मुहम्मद को "अल्लाह का प्रेषित" घोषित करना 610मक्का में अनुयाइयों का छुप कर मिलना और इस्लाम को जानना c. 613मक्का वासियों को खुले तौर पर इस्लाम का मेसेज देना c. 614मुसलमानों पर कडे ज़ुल्म की शुरूआत c. 615 मुसलमानों का इथियोपिया को प्रवास 616बनू हाशिम वंश को बायकॉट करने की शुरूआत 619दुखद वर्ष: खदीजा रजी. (पत्नी) और अबू तालिब (चाचा) की मृत्यु 619बनू हाशिम वंश को बायकॉट करना बंद c. 620इस्रा और मेराज (आसमानी सफ़र का वाक़या)622हिजरी, मदीने (यसरब) का प्रवास 623बद्र की लड़ाई625उहुद की लड़ाई627खाई की लड़ाई 628 सुलह हुदैबिया क़ुरैश और मुसलमानों के बीच मदीना में 10 वर्ष की संधी 629मक्का पर विजय 632विदाई तीर्थयात्रा, ग़दीर ए खुम्म का वाकिया, मृत्यु, और अब का सऊदी अरब
बचपन और प्रारंभिक जीवन
अबू अल-क़ासिम मुहम्मद इब्न 'अब्द अल्लाह इब्न' अब्द अल-मुआलिब इब्न हाशिम, वर्ष 570 के बारे में पैदा हुआ था और उनका जन्मदिन रबी अल-औवाल के महीने में माना जाता है। वह कुरैशी जनजाति का हिस्सा बनू हाशिम कबीले का था, और मक्का के प्रमुख परिवारों में से एक था, हालांकि यह मुहम्मद के शुरुआती जीवनकाल में कम समृद्ध प्रतीत होता है। See also cited in EoI; Muhammad परंपरा हाथी के वर्ष के साथ मुहम्मद के जन्म के वर्ष को रखती है, जिसका नाम उस वर्ष मक्का के असफल विनाश के नाम पर रखा गया है, यमन के राजा, जिन्होंने हाथियों के साथ अपनी सेना को पूरक बनाया था। Marr J.S., Hubbard E., Cathey J.T. (2014): The Year of the Elephant. figshare.
Retrieved 21 October 2014 (GMT)The Oxford Handbook of Late Antiquity; edited by Scott Fitzgerald Johnson; p. 287Muhammad and the Origins of Islam; by Francis E. Peters; p. 88 वैकल्पिक रूप से कुछ 20 वीं शताब्दी के विद्वानों ने 568 या 56 9 जैसे विभिन्न वर्षों का सुझाव दिया है।
मुहम्मद के पिता अब्दुल्लाह का जन्म होने से लगभग छह महीने पहले उनकी मृत्यु हो गई थी। इस्लामी परंपरा के अनुसार, जन्म के तुरंत बाद उन्हें रेगिस्तान में एक बेडौइन परिवार के साथ रहने के लिए भेजा गया था, क्योंकि शिशु जीवन शिशुओं के लिए स्वस्थ माना जाता था; कुछ पश्चिमी विद्वान इस परंपरा की ऐतिहासिकता को अस्वीकार करते हैं। Watt, "Halimah bint Abi Dhuayb ", Encyclopaedia of Islam. मुहम्मद अपनी पालक-मां, हलीमा बंट अबी धुआब और उसके पति के साथ दो वर्ष की उम्र तक रहे। छः वर्ष की आयु में, मुहम्मद ने अपनी जैविक मां अमिना को बीमारी से खो दिया और अनाथ बन गये। Watt, Amina, Encyclopaedia of Islam अगले दो सालों तक, जब तक वह आठ वर्ष का नहीं था, तब तक मुहम्मद बनू हाशिम वंश के अपने दादा अब्दुल-मुतालिब की अभिभावक के अधीन थे। तब वह बनू हाशिम के नए नेता, अपने चाचा अबू तालिब की देखभाल में आए। इस्लामी इतिहासकार विलियम मोंटगोमेरी वाट के अनुसार 6 वीं शताब्दी के दौरान मक्का में जनजातियों के कमजोर सदस्यों की देखभाल करने में अभिभावकों ने एक सामान्य उपेक्षा की थी, "मुहम्मद के अभिभावकों ने देखा कि वह मौत के लिए भूखे नहीं थे, लेकिन यह मुश्किल था उन्हें उनके लिए और अधिक करने के लिए, खासकर जब हाशिम के कबीले की किस्मत उस समय घट रही है। Watt (1974), p. 8.
अपने किशोर व्यवस्था में, मुहम्मद वाणिज्यिक व्यापार में अनुभव हासिल करने के लिए सीरिया के व्यापारिक यात्रा पर अपने चाचा के साथ थे। इस्लामी परंपरा में कहा गया है कि जब मुहम्मद या तो बारह या तो बारह के मक्का के कारवां के साथ थे, तो उन्होंने एक ईसाई भिक्षु या बहरी नाम से भक्त से मुलाकात की, जिसे भगवान के भविष्यवक्ता के रूप में मुहम्मद के करियर के बारे में बताया गया था। Armand Abel, Bahira, Encyclopaedia of Islam
बाद के युवाओं के दौरान मुहम्मद के बारे में बहुत कुछ पता नहीं है, उपलब्ध जानकारी खंडित है, जिससे इतिहास को किंवदंती से अलग करना मुश्किल हो गया है। यह ज्ञात है कि वह एक व्यापारी बन गया और " हिंद महासागर और भूमध्य सागर के बीच व्यापार में शामिल था।" Berkshire Encyclopedia of World History (2005), v. 3, p. 1025 अपने ईमानदार चरित्र के कारण उन्होंने उपनाम " अल-अमीन " (अरबी: الامين) का अधिग्रहण किया, जिसका अर्थ है "विश्वासयोग्य, भरोसेमंद" और "अल-सादिक" जिसका अर्थ है "सत्य" और निष्पक्ष मध्यस्थ के रूप में बाहर निकला गया। Esposito (1998), p. 6 उनकी प्रतिष्ठा ने 40 वर्षीय विधवा ख़दीजा से 595 में एक प्रस्ताव को आकर्षित किया। मुहम्मद ने विवाह को सहमति दी, जो सभी खातों से एक खुश था।
कई सालों बाद, इतिहासकार इब्न इशाक द्वारा एकत्रित एक वर्णन के अनुसार, मुहम्मद 605 सीई में काबा की दीवार में काले पत्थर की स्थापना के बारे में एक प्रसिद्ध कहानी के साथ शामिल थे। काले पत्थर, एक पवित्र वस्तु, काबा के नवीनीकरण के दौरान हटा दी गई थी। मक्का नेता इस बात से सहमत नहीं हो सकते कि कौन से कबीले को ब्लैक स्टोन को अपनी जगह पर वापस कर देना चाहिए। वे अगले आदमी है जो कि निर्णय करने के लिए गेट के माध्यम से आता है पूछने का फैसला किया; वह आदमी 35 वर्षीय मुहम्मद थे। यह घटना गैब्रियल द्वारा उनके पहले प्रकाशन के पांच साल पहले हुई थी। उसने एक कपड़े के लिए कहा और ब्लैक स्टोन को अपने केंद्र में रख दिया। कबीले नेताओं ने कपड़े के कोनों को पकड़ लिया और साथ में ब्लैक स्टोन को सही जगह पर ले जाया, फिर मुहम्मद ने पत्थर रख दिया, सभी के सम्मान को संतुष्ट किया। Muhammad Mustafa Al-A'zami (2003), The History of The Qur'anic Text: From Revelation to Compilation: A Comparative Study with the Old and New Testaments, p. 24. UK Islamic Academy. .
कुरान की शुरुआत
right|upright|thumb|पर्वत जबल अल-नूर में हिरा गुफ़ा, जहां मुस्लिम विश्वास के अनुसार, मुहम्मद ने अपना पहला प्रकाशन (वही) प्राप्त किया।
मुहम्मद ने हर साल कई हफ्तों तक मक्का के पास जबल अल-नूर पर्वत पर ग़ार ए हिरा नाम की एक गुफा में अकेले प्रार्थना करना शुरू किया। Emory C. Bogle (1998), p. 6John Henry Haaren, Addison B. Poland (1904), p. 83 इस्लामिक परंपरा का मानना है कि उस गुफा में उनकी एक यात्रा के दौरान, वर्ष 610 में परी जिब्रिल अलै. ने उनके सामने प्रकट किया और मुहम्मद को उन छंदों को पढ़ने का आदेश दिया जो कुरान में शामिल किए जाएंगे। Brown (2003), pp. 72–73 आम सहमति मौजूद है कि पहले कुरानिक शब्द प्रकट हुए थे सुराह 96:1 की शुरुआत। मुहम्मद अपने पहले रहस्योद्घाटन प्राप्त करने पर बहुत परेशान थे। घर लौटने के बाद, मुहम्मद को खदिजा रजी. और उसके ईसाई चचेरे भाई वारका इब्न नवाफल ने सांत्वना दी और आश्वस्त किया। Esposito (2010), p. 8 उन्हें यह भी डर था कि अन्य लोग अपने दावों को बर्खास्त कर देंगे। शिया परंपरा कहती है कि मुहम्मद जिब्रिल अलै. की उपस्थिति में हैरान नहीं था या भयभीत नहीं थे; बल्कि उन्होंने परी का स्वागत किया, जैसे कि उसकी उम्मीद थी। See:
Emory C. Bogle (1998), p. 7
Razwy (1996), ch. 9
Rodinson (2002), p. 71 प्रारंभिक प्रकाशन के बाद तीन साल की रोकथाम (एक अवधि जिसे वत्रा कहा जाता है) जिसके दौरान मुहम्मद उदास महसूस करते थे और आगे प्रार्थनाओं और आध्यात्मिक प्रथाओं को देते थे। जब रहस्योद्घाटन फिर से शुरू हुआ, तो उसे आश्वस्त किया गया और प्रचार करने का आदेश दिया गया: "तेरा अभिभावक-यहोवा ने तुम्हें त्याग दिया नहीं है, न ही वह नाराज है।"
सहहि बुखारी ने मुहम्मद को अपने रहस्योद्घाटन का वर्णन करते हुए बताया कि "कभी-कभी यह घंटी बजने की तरह (प्रकट होता है)" होता है। आयेशा रजी. ने बताया, "मैंने पैगंबर को बहुत ही ठंडे दिन ईश्वरीय रूप से प्रेरित किया और देखा कि पसीना उसके माथे से गिर रहा है (जैसे प्रेरणा खत्म हो गई थी)"। वेल्च के अनुसार इन विवरणों को वास्तविक माना जा सकता है, क्योंकि बाद में मुसलमानों द्वारा जाली की संभावना नहीं है। मुहम्मद को भरोसा था कि वह इन संदेशों से अपने विचारों को अलग कर सकता है। Watt, The Cambridge History of Islam (1977), p. 31. कुरान के मुताबिक, मुहम्मद की मुख्य भूमिकाओं में से एक अपने eschatological सजा के अविश्वासियों को चेतावनी देना है ((Quran , Quran )। कभी-कभी कुरान ने स्पष्ट रूप से जजमेंट डे को संदर्भित नहीं किया लेकिन विलुप्त समुदायों के इतिहास से उदाहरण प्रदान किए और मुहम्मद के समान आपदाओं के समकालीन लोगों को चेतावनी दी ). मुहम्मद ने न केवल उन लोगों को चेतावनी दी जिन्होंने परमेश्वर के प्रकाशन को खारिज कर दिया, बल्कि उन लोगों के लिए अच्छी खबर भी दी जिन्होंने बुराई छोड़ दी, दिव्य शब्दों को सुनकर और परमेश्वर की सेवा की। Daniel C. Peterson, Good News, Encyclopedia of the Quran मुहम्मद के मिशन में एकेश्वरवाद का प्रचार भी शामिल है: कुरान मुहम्मद को अपने भगवान के नाम की घोषणा और प्रशंसा करने का आदेश देता है और उसे मूर्तियों की पूजा करने या भगवान के साथ अन्य देवताओं को जोड़ने के लिए निर्देश नहीं देता है।
प्रारंभिक कुरानिक छंदों के प्रमुख विषयों में मनुष्य के प्रति अपने निर्माता की ज़िम्मेदारी शामिल थी; मृतकों के पुनरुत्थान, भगवान के अंतिम निर्णय के बाद नरक में उत्पीड़न और स्वर्ग में सुख, और जीवन के सभी पहलुओं में ईश्वर (अल्लाह) के संकेतों के स्पष्ट वर्णन के बाद। इस समय विश्वासियों के लिए आवश्यक धार्मिक कर्तव्यों कम थे: भगवान में विश्वास, पापों की क्षमा मांगना, लगातार प्रार्थनाओं की पेशकश करना, विशेष रूप से उन लोगों की सहायता करना, धोखाधड़ी को अस्वीकार करना और धन के प्यार (वाणिज्यिक जीवन में महत्वपूर्ण माना जाता है) मक्का), शुद्ध होने और महिला बालहत्या नहीं कर रहा है।
विरोध
thumb|right|सूरा अन-नज्म की आखिरी आयत: "तो अल्लाह के लिए सजग और पूजा करते हैं।" मुहम्मद के एकेश्वरवाद के संदेश ने पारंपरिक आदेश को चुनौती दी।
मुस्लिम परंपरा के अनुसार, मुहम्मद की पत्नी खदीजा रजी. पहली बार मानते थे कि वह एक भविष्यवक्ता थे। Watt (1953), p. 86 उसके बाद मुहम्मद के दस वर्षीय चचेरे भाई अली इब्न अबी तालिब रजी., करीबी दोस्त अबू बकर रजी., और बेटे जैद रजी. को अपनाया गया। लगभग 613, मुहम्मद जनता के लिए प्रचार करना शुरू कर दिया (Quran ).Ramadan (2007), pp. 37–39 अधिकांश मक्का ने उन्हें नजरअंदाज कर दिया और उनका मज़ाक उड़ाया, हालांकि कुछ उसके अनुयायी बन गए। इस्लाम के शुरुआती परिवर्तनों के तीन मुख्य समूह थे: छोटे भाइयों और महान व्यापारियों के पुत्र; वे लोग जो अपने जनजाति में पहले स्थान से बाहर हो गए थे या इसे प्राप्त करने में नाकाम रहे; और कमजोर, ज्यादातर असुरक्षित विदेशियों। Watt, The Cambridge History of Islam (1977), p. 36
इब्न साद रजी. के मुताबिक, मक्का में विपक्ष तब शुरू हुआ जब मुहम्मद ने उन छंदों को बचाया जो मूर्ति पूजा और मक्का के पूर्वजों द्वारा किए गए बहुविश्वास की निंदा करते थे। F.E. Peters (1994), p. 169 हालांकि, कुरान के exegesis का कहना है कि यह शुरू हुआ क्योंकि मुहम्मद सार्वजनिक प्रचार शुरू किया। Uri Rubin, Quraysh, Encyclopaedia of the Qur'an जैसे ही उनके अनुयायियों में वृद्धि हुई, मुहम्मद शहर के स्थानीय जनजातियों और शासकों के लिए खतरा बन गया, जिनकी संपत्ति काबा पर विश्राम करती थी, मक्का धार्मिक जीवन का केंद्र बिंदु मुहम्मद ने उखाड़ फेंकने की धमकी दी थी। मक्का पारंपरिक धर्म के मुहम्मद की निंदा विशेष रूप से अपने जनजाति, कुरैशी के लिए आक्रामक थी, क्योंकि वे काबा के अभिभावक थे। शक्तिशाली व्यापारियों ने मुहम्मद को अपने प्रचार को त्यागने के लिए मनाने का प्रयास किया; उन्हें व्यापारियों के आंतरिक मंडल के साथ-साथ एक फायदेमंद विवाह में प्रवेश की पेशकश की गई थी। उन्होंने इन दोनों प्रस्तावों से इंकार कर दिया।
मुहम्मद और उसके अनुयायियों की ओर छेड़छाड़ और बीमारियों के दौरान लंबे समय तक पारंपरिक अभिलेख। सुमायाह बिन खयायत, एक प्रमुख मक्का नेता अबू जहल का गुलाम, इस्लाम के पहले शहीद के रूप में प्रसिद्ध है; जब उसने अपनी आस्था छोड़ने से इनकार कर दिया तो उसके मालिक द्वारा भाले के साथ मारा गया। बिलाल रजी., एक और मुस्लिम दास, उमायाह बिन खल्फ ने यातना दी थी, जिन्होंने अपनी छाती पर भारी चट्टान लगाया था ताकि वह अपना रूपांतरण लागू कर सके। Jonathan E. Brockopp, Slaves and Slavery, Encyclopedia of the Qur'anW. Arafat, Bilal b. Rabah, Encyclopedia of Islam
615 में, मुहम्मद के कुछ अनुयायी अकुम के इथियोपियाई साम्राज्य में चले गए और ईसाई इथियोपियाई सम्राट अमामा इब्न अबजर की सुरक्षा के तहत एक छोटी कॉलोनी की स्थापना की। इब्न साद ने दो अलग-अलग प्रवासन का उल्लेख किया। उनके अनुसार, अधिकांश मुसलमान हिजरा से पहले मक्का लौट आए, जबकि दूसरा समूह उन्हें मदीना में फिर से शामिल कर दिया। इब्न हिशम और तबारी, हालांकि, केवल इथियोपिया के प्रवासन के बारे में बात करते हैं। ये खाते इस बात से सहमत हैं कि मक्का के उत्पीड़न ने मुहम्मद के फैसले में एक प्रमुख भूमिका निभाई है ताकि यह सुझाव दिया जा सके कि उनके कई अनुयायी अबिसिनिया में ईसाइयों के बीच शरण लेते हैं। अल- ताबारी में संरक्षित' उआरवा के प्रसिद्ध पत्र के मुताबिक, मुसलमानों का बहुमत अपने मूल शहर लौट आया क्योंकि इस्लाम ने उमर और हमजाह जैसे कनवर्ट किए गए मक्काओं की ताकत और उच्च रैंकिंग हासिल की।
हालांकि, मुसलमान इथियोपिया से मक्का तक लौटने के कारण पर एक पूरी तरह से अलग कहानी है। इस खाते के मुताबिक- अल-वकिदी द्वारा शुरू में उल्लेख किया गया था, फिर इब्न साद और तबारी द्वारा, लेकिन इब्न हिशाम द्वारा नहीं, इब्न इशाक द्वारा नहीं "Muḥammad", Encyclopaedia of Islam, Second Edition. Edited by P. J. Bearman, Th. Bianquis, C. E. Bosworth, E. van Donzel, W. P. Heinrichs et al. Brill Online, 2014 -मुहम्मद, जो अपने जनजाति के साथ आवास की उम्मीद कर रहे थे,एक कविता स्वीकार की तीन मक्का देवी के अस्तित्व को अल्लाह की बेटियां माना जाता है। मुहम्मद ने अगले दिन छंदों को जिब्रिल अलै. के आदेश पर वापस ले लिया, दावा किया कि छंद स्वयं शैतान द्वारा फुसफुसाए गए थे। इसके बजाय, इन देवताओं का एक उपहास पेश किया गया था। The Cambridge Companion to Muhammad (2010), p. 35The aforementioned Islamic histories recount that as Muhammad was reciting Sūra Al-Najm (Q.53), as revealed to him by the Archangel Gabriel, Satan tempted him to utter the following lines after verses 19 and 20: "Have you thought of Allāt and al-'Uzzā and Manāt the third, the other; These are the exalted Gharaniq, whose intercession is hoped for." (Allāt, al-'Uzzā and Manāt were three goddesses worshiped by the Meccans). cf Ibn Ishaq, A. Guillaume p. 166"Apart from this one-day lapse, which was excised from the text, the Quran is simply unrelenting, unaccommodating and outright despising of paganism." (The Cambridge Companion to Muhammad, Jonathan E. Brockopp, p. 35) इस प्रकरण को "द स्टोरी ऑफ द क्रेन" के नाम से जाना जाता है, जिसे " शैतानिक वर्सेज " भी कहा जाता है। कहानी के अनुसार, इसने मुहम्मद और मक्का के बीच एक सामान्य सुलह का नेतृत्व किया, और एबीसिनिया मुसलमानों ने घर लौटना शुरू कर दिया। जब वे पहुंचे तो जिब्रिल अलै. ने मुहम्मद को सूचित किया था कि दो छंद रहस्योद्घाटन का हिस्सा नहीं थे, लेकिन शैतान ने उन्हें डाला था। उस समय के विद्वानों ने इन छंदों की ऐतिहासिक प्रामाणिकता और कहानी को विभिन्न आधारों पर तर्क दिया। "Kuran" in the Encyclopaedia of Islam, 2nd Edition, Vol. 5 (1986), p. 404"Muḥammad", Encyclopaedia of Islam, Second Edition. Edited by P. J. Bearman, Th. Bianquis, C. E. Bosworth, E. van Donzel, W. P. Heinrichs et al. Brill Online, 2014"Although, there could be some historical basis for the story, in its present form, it is certainly a later, exegetical fabrication. Sura LIII, 1–20 and the end of the sura are not a unity, as is claimed by the story, XXII, 52 is later than LIII, 2107 and is almost certainly Medinan; and several details of the story—the mosque, the sadjda, and others not mentioned in the short summary above do not belong to Meccan setting. Caetani and J. Burton have argued against the historicity of the story on other grounds, Caetani on the basis of week isnads, Burton concluded that the story was invented by jurists so that XXII 52 could serve as a Kuranic proof-text for their abrogation theories."("Kuran" in the Encyclopaedia of Islam, 2nd Edition, Vol. 5 (1986), p. 404) इस्लिक विद्वानों जैसे मलिक इब्न अनास, अल-शफीई, अहमद इब्न हनबल, अल-नासाई, अल बुखारी, अबू दाऊद, अल-इस्की द्वारा अल-वकिदी की गंभीर आलोचना की गई थी। नवावी और दूसरों को झूठा और फोर्जर के रूप में। बाद में, इस घटना को कुछ समूहों के बीच कुछ स्वीकृति मिली, हालांकि दसवीं शताब्दी के दौरान इसके लिए मजबूत आपत्तियां जारी रहीं। इन छंदों को अस्वीकार करने तक आपत्तियां जारी रहीं और कहानी अंततः एकमात्र स्वीकार्य रूढ़िवादी मुस्लिम स्थिति बन गई। Shahab Ahmed, "Satanic Verses" in the Encyclopedia of the Qur'an.
617 में, मखज़म के नेता और बानू अब्द-शम्स, दो महत्वपूर्ण कुरैश कुलों ने मुहम्मद की सुरक्षा को वापस लेने में दबाव डालने के लिए अपने व्यावसायिक प्रतिद्वंद्वी बनू हाशिम के खिलाफ सार्वजनिक बहिष्कार घोषित कर दिया। बहिष्कार तीन साल तक चला, लेकिन आखिर में गिर गया क्योंकि यह अपने उद्देश्य में विफल रहा। F.E. Peters (2003b), p. 96Moojan Momen (1985), p. 4 इस समय के दौरान, मुहम्मद केवल पवित्र तीर्थ महीनों के दौरान प्रचार करने में सक्षम थे, जिसमें अरबों के बीच सभी शत्रुताएं निलंबित कर दी गई थीं।
इस्रा और मिराज
thumb|यरूशलेम में अल-हरम राख-शरीफ परिसर का हिस्सा अल-अक्सा मस्जिद और 705 में बनाया गया था, जिसे मुहम्मद ने अपनी रात की यात्रा में यात्रा के संभावित स्थान का सम्मान करने के लिए "सबसे दूर की मस्जिद" नामित किया था।
इस्लामी परंपरा में कहा गया है कि 620 में, मुहम्मद ने इस्रा और मिराज का अनुभव किया, एक चमत्कारिक रात्रि लंबी यात्रा देवदुत जिब्रिल के साथ हुई थी। यात्रा की शुरुआत में, कहा जाता है कि इस्रा, मक्का से "सबसे दूर की मस्जिद" के लिए एक बुर्राक़ जानवर पर यात्रा कर रहे थे। बाद में, मिराज के दौरान, मुहम्मद ने स्वर्ग और नरक का दौरा किया, और पहले के नबी, जैसे इब्राहीम , मूसा और यीशु के साथ बात की थी। मुहम्मद की पहली जीवनी के लेखक इब्न इशाक ने इस घटना को आध्यात्मिक अनुभव के रूप में प्रस्तुत किया; बाद में इतिहासकार, जैसे अल-ताबारी और इब्न कथिर , इसे एक शारीरिक यात्रा के रूप में प्रस्तुत करते हैं। Encyclopedia of Islam and the Muslim World (2003), p. 482
कुछ पश्चिमी विद्वान का कहना है कि इस्रा और मिराज यात्रा ने मक्का में पवित्र घेरे से स्वर्ग के माध्यम से दिव्य अल-बेत अल-मामूर (काबा का स्वर्गीय प्रोटोटाइप) तक यात्रा की; बाद की परंपराओं ने मुक्का से यरूशलेम जाने के रूप में मुहम्मद की यात्रा को इंगित किया। Sells, Michael. Ascension, Encyclopedia of the Quran.
हिजरत से पिछले साल पहले
thumb|रॉक के गुंबद पर कुरानिक शिलालेख। माना जाता है कि मुहम्मद स्वर्ग का आरोहण किया था।
मुहम्मद की पत्नी खदिजा रजी. और चाचा अबू तालिब दोनों की मृत्यु 619 में हुई, इस साल इस वर्ष " दुःख का वर्ष " कहा जाता है। अबू तालिब की मृत्यु के साथ, बानू हाशिम वंश के नेतृत्व ने मुहम्मद के एक दृढ़ दुश्मन अबू लहब को पारित किया। इसके तुरंत बाद, अबू लाहब ने मुहम्मद पर कबीले की सुरक्षा वापस ले ली। इसने मोहम्मद को खतरे में डाल दिया; कबीले संरक्षण की वापसी से संकेत मिलता है कि उसकी हत्या के लिए रक्त बदला ठीक नहीं किया जाएगा। मुहम्मद ने फिर अरब में एक और महत्वपूर्ण शहर ताइफ़ का दौरा किया, और एक संरक्षक को खोजने की कोशिश की, लेकिन उनका प्रयास विफल रहा और आगे उनहें शारीरिक खतरे में लाया। मुहम्मद को मक्का लौटने के लिए मजबूर होना पड़ा। मुक्ति इब्न आदि (और बनू नफाइल के जनजाति की सुरक्षा) नामक एक मक्का आदमी ने उसे अपने मूल शहर में सुरक्षित रूप से प्रवेश करने के लिए संभव बनाया।
कई लोग व्यापार पर मक्का गए या काबा के तीर्थयात्रियों के रूप में गए। मुहम्मद ने अपने और अपने अनुयायियों के लिए एक नया घर तलाशने का अवसर लिया। कई असफल वार्ता के बाद, उन्हें यसरब (बाद में मदीना शहर) के कुछ लोगों के साथ आशा मिली। यसरब की अरब आबादी एकेश्वरवाद से परिचित थी और एक भविष्यवक्ता की उपस्थिति के लिए तैयार थी क्योंकि वहां एक यहूदी समुदाय मौजूद था। उन्होंने मक्का पर सर्वोच्चता हासिल करने के लिए, मुहम्मद और नए विश्वास के माध्यम से आशा की थी; तीर्थयात्रा की जगह के रूप में यसरब अपने महत्व के प्रति ईर्ष्यावान थे। इस्लाम में कनवर्ट मदीना के लगभग सभी अरब जनजातियों से आया; अगले वर्ष जून तक, पचास मुस्लिम तीर्थयात्रा के लिए मक्का आए और मुहम्मद से मिलते थे। रात को गुप्त रूप से उससे मिलकर, समूह ने " अल-अबाबा का दूसरा वचन " या ओरिएंटलिस्ट के विचार में, " युद्ध की शपथ " के रूप में जाना जाता है। Watt (1974), p. 83 अकबाह के प्रतिज्ञाओं के बाद, मुहम्मद ने अपने अनुयायियों को यसरब में जाने के लिए प्रोत्साहित किया। एबिसिनिया के प्रवासन के साथ, कुरैशी ने प्रवासन को रोकने का प्रयास किया। हालांकि, लगभग सभी मुस्लिम छोड़ने में कामयाब रहे। Peterson (2006), pp. 86–89
हिजरत
मदीना में मुहम्मद की समयरेखा 622मदीने को प्रवास (हिजरी)623कारवां छापों की शुरूआत 623अल कुद्र आक्रमण623बद्र की लड़ाई : मुसलमानोंका मक्का को हराना 624साविक की लड़ाई, अबू सूफान का पकड़ा जाना624बनू क़ायनुका का निष्कासन624सी अम्र का छापा, मुहम्मद का गटफान जनजातियों पर आक्रमण624खालिद बिन सुफियान की ह्त्या, और अबू रफी के हमले 624उहूद की लड़ाई: मक्का वाले मुस्लिमों को हराते हैं625बिर मौना की ट्रेजेडी और अल-रजी का हमला 625हमरा अल-असद पर आक्रमण, सफलतापूर्वक दुश्मन को पीछे हटने का कारण बनता है625आक्रमण के बाद बानू नादिर निष्कासित625नेजद, बद्र और दुमातुल जंदल पर आक्रमण 627खाई की लड़ाई627बनू कुरैजा पर आक्रमण, सफल घेराबंदी628हुदैबिया संधी, काबे तक पहुंच का रास्ता मिला 628खयबर ओएसिस पर विजय629पहली हज तीर्थयात्रा629बीजान्टिन साम्राज्य पर विफल हमला: मुताह की लड़ाई629मक्का पर रक्तहीन विजय629हुनैन की लड़ाई630ताइफ़ की घेराबंदी631अधिकांश अरब प्रायद्वीप नियम632गस्सानिद पर हमला: तबूक632विदाई हज तीर्थयात्रा6328 जून को मदीना में मौत
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अंत में सन् 622 में उन्हें अपने अनुयायियों के साथ मक्का से मदीना के लिए कूच करना पड़ा। इस यात्रा को हिजरत कहा जाता है और यहीं से इस्लामी कैलेंडर हिजरी की शुरुआत होती है। मदीना में उनका स्वागत हुआ और कई संभ्रांत लोगों द्वारा स्वीकार किया गया। मदीना के लोगों की ज़िंदगी आपसी लड़ाईयों से परेशान-सी थी और मुहम्मद के संदेशों ने उन्हें वहाँ बहुत लोकप्रिय बना दिया। उस समय मदीना में तीन महत्वपूर्ण यहूदी कबीले थे। आरंभ में मुहम्मद ने जेरुसलम को प्रार्थना की दिशा बनाने को कहा था।
सन् 630 में मुहम्मद ने अपने अनुयायियों के साथ मक्का पर चढ़ाई कर दी। मक्के वालों ने हथियार डाल दिये। मक्का मुसलमानों के आधीन में आगया। मक्का में स्थित काबा को इस्लाम का पवित्र स्थल घोषित कर दिया गया। सन् 632 में मुहम्मद का देहांत हो गया। पर उनकी मृत्यु तक लगभग सम्पूर्ण अरब इस्लाम कबूल कर चुका था।
हिजरा 622 ई में मक्का से उनके अनुयायियों और मक्का से मदीना का प्रवास है। जून 622 में, उन्हें मारने के लिए एक साजिश की चेतावनी दी गई, मुहम्मद गुप्त रूप से मक्का से बाहर निकल गये और मक्का के उत्तर में Muhammad Mustafa Al-A'zami (2003), The History of The Qur'anic Text: From Revelation to Compilation: A Comparative Study with the Old and New Testaments, pp. 30–31. UK Islamic Academy. . 450 किलोमीटर (280 मील) उत्तर में अपने अनुयायियों को मदीना ले गये। Muhammad Mustafa Al-A'zami (2003), The History of The Qur'anic Text: From Revelation to Compilation: A Comparative Study with the Old and New Testaments, p. 29. UK Islamic Academy. .
मदीना में प्रवासन
मदीना के बारह महत्वपूर्ण कुलों के प्रतिनिधियों से मिलकर एक प्रतिनिधिमंडल ने मुहम्मद को पूरे समुदाय के लिए मुख्य मध्यस्थ के रूप में सेवा करने के लिए आमंत्रित किया; एक तटस्थ बाहरी व्यक्ति के रूप में उनकी स्थिति के कारण। Esposito (1998), p. 17 यसरब में लड़ रहा था: मुख्य रूप से इस विवाद में अरब और यहूदी निवासियों को शामिल किया गया था, और अनुमान लगाया गया था कि 620 से पहले सौ साल तक चल रहा था। परिणामी दावों पर आवर्ती हत्याएं और असहमति, विशेष रूप से बुआथ की लड़ाई के बाद जिसमें सभी कुलों शामिल थे, ने उन्हें स्पष्ट किया कि रक्त-विवाद की आबादी की अवधारणा और आंखों की आंख अब तक काम करने योग्य नहीं थी जब तक कि विवादित मामलों में निर्णय लेने के लिए एक व्यक्ति नहीं था। Watt, The Cambridge History of Islam, p. 39 मदीना के प्रतिनिधिमंडल ने खुद को और उनके साथी नागरिकों को मुहम्मद को अपने समुदाय में स्वीकार करने और शारीरिक रूप से उन्हें अपने आप में से एक के रूप में संरक्षित करने का वचन दिया।
मुहम्मद ने अपने अनुयायियों को मदीना में जाने के लिए निर्देश दिया, जब तक कि उनके लगभग सभी अनुयायियों ने मक्का छोड़ दिया। परंपरा के अनुसार, प्रस्थान पर चिंतित होने के कारण, मक्का ने मुहम्मद की हत्या करने की योजना बनाई। अली रजी. की मदद से, मुहम्मद ने उन्हें देखकर मक्का को मूर्ख बना दिया, और गुप्त रूप से अबू बकर रजी. के साथ शहर से फिसल गये। 622 तक, मुहम्मद एक बड़ी कृषि ओएसिस मदीना चले गए। मुहम्मद के साथ मक्का से प्रवास करने वाले लोग मुहाजिरीन (प्रवासियों) के रूप में जाने जाते थे।
एक नई राजनीति की स्थापना
पहली बातों में मुहम्मद ने मदीना के जनजातियों में लंबी शिकायतों को कम करने के लिए किया था, मदीना के आठ मेदिनी जनजातियों और मुस्लिम प्रवासियों के बीच मदीना के संविधान के रूप में जाना जाने वाला एक दस्तावेज तैयार करना था, "गठबंधन या संघ का एक प्रकार स्थापित करना"; सभी नागरिकों के इस निर्दिष्ट अधिकार और कर्तव्यों, और मदीना के विभिन्न समुदायों के संबंध (मुस्लिम समुदाय सहित अन्य समुदायों, विशेष रूप से यहूदी और अन्य " पुस्तक के लोग ")। मदीना, उम्मा के संविधान में परिभाषित समुदाय का धार्मिक दृष्टिकोण था, जो व्यावहारिक विचारों से भी आकार था और पुराने अरब जनजातियों के कानूनी रूपों को काफी हद तक संरक्षित करता था।
मदीना में इस्लाम में परिवर्तित होने वाला पहला समूह महान नेताओं के बिना कुलों थे; इन कुलों को बाहर से शत्रुतापूर्ण नेताओं द्वारा अधीन कर दिया गया था। Watt (1956), p. 175. इसके बाद कुछ अपवादों के साथ मदीना की मूर्तिपूजा आबादी द्वारा इस्लाम की सामान्य स्वीकृति मिली। इब्न इशाक के मुताबिक, यह इस्लाम के लिए साद इब्न मुआद (एक प्रमुख मेदीन नेता) के रूपांतरण से प्रभावित था। Watt (1956), p. 177 मदीन जो इस्लाम में परिवर्तित हो गए और मुस्लिम प्रवासियों को आश्रय खोजने में मदद मिली, उन्हें अंसार (समर्थक) के रूप में जाना जाने लगा। तब मुहम्मद ने प्रवासियों और समर्थकों के बीच भाईचारे की स्थापना की और उन्होंने अली रजी. को अपने भाई के रूप में चुना।
सशस्त्र संघर्ष की शुरुआत
प्रवासन के बाद, मक्का के लोगों ने मुस्लिम प्रवासियों की संपत्ति मदीना को जब्त कर ली। Fazlur Rahman (1979), p. 21 युद्ध बाद में मक्का और मुसलमानों के बीच टूट जाएगा। मुहम्मद ने कुरान के छंदों को मुसलमानों को मक्का से लड़ने की अनुमति दी (सूरा अल-हज , कुरान )। John Kelsay (1993), p. 21 परंपरागत खाते के अनुसार, 11 फरवरी 624 को, मदीना में मस्जिद अल-क़िबलायत में प्रार्थना करते हुए, मुहम्मद को भगवान से खुलासा हुआ कि उन्हें प्रार्थना के दौरान यरूशलेम की बजाय मक्का का सामना करना चाहिए। मुहम्मद ने नई दिशा में समायोजित किया, और उनके साथ प्रार्थना करने वाले उनके साथी प्रार्थना के दौरान मक्का का सामना करने की परंपरा शुरू करते हुए उनके नेतृत्व का पीछा करते थे।
मार्च 624 में, मुहम्मद ने मक्का व्यापारी कारवां पर छापे में लगभग तीन सौ योद्धाओं का नेतृत्व किया। मुसलमानों ने बद्र में कारवां के लिए हमला किया। Rodinson (2002), p. 164 योजना से अवगत, मक्का कारवां ने मुस्लिमों को छोड़ दिया। एक मक्का बल को कारवां की रक्षा के लिए भेजा गया था और मुसलमानों को यह शब्द प्राप्त करने के लिए मुकाबला करने के लिए चला गया था कि कारवां सुरक्षित था। बद्र की लड़ाई शुरू हुई। Watt, The Cambridge History of Islam, p. 45 हालांकि तीन से एक से अधिक की संख्या में, मुसलमानों ने युद्ध जीता, जिसमें चौदह मुसलमानों के साथ कम से कम पचास मक्का मारे गए। वे अबू जहल समेत कई मक्का नेताओं की हत्या में भी सफल रहे। Glubb (2002), pp. 179–86 सत्तर कैदियों का अधिग्रहण किया गया था, जिनमें से कई को छुड़ौती मिली थी। Lewis (2002), p. 41.Watt (1961), p. 123Rodinson (2002), pp. 168–69 मुहम्मद और उनके अनुयायियों ने जीत को उनके विश्वास की पुष्टि के रूप में देखा और मुहम्मद ने एक अदृश्य मेजबानों की सहायता से जीत के रूप में जीत दर्ज की। इस अवधि के कुरानिक छंद, मक्का छंदों के विपरीत, सरकार की व्यावहारिक समस्याओं और लूट के वितरण जैसे मुद्दों से निपटा। Lewis(2002), p. 44
जीत ने मदीना में मुहम्मद की स्थिति को मजबूत किया और अपने अनुयायियों के बीच पहले के संदेहों को दूर कर दिया। Russ Rodgers, The Generalship of Muhammad: Battles and Campaigns of the Prophet of Allah (University Press of Florida; 2012) ch 1 नतीजतन, उनका विरोध कम मुखर हो गया। जिन लोगों ने अभी तक परिवर्तित नहीं किया था, वे इस्लाम के अग्रिम के बारे में बहुत कड़वा थे। दो पगान, अवेस मणत जनजाति के असमा बंट मारवान और अमृत बी के अबू 'अफक । 'ऑफ जनजाति, मुसलमानों को taunting और अपमानित छंद बना दिया था। Watt (1956), p. 178 वे अपने या संबंधित कुलों से संबंधित लोगों द्वारा मारे गए थे, और मुहम्मद ने हत्याओं को अस्वीकार नहीं किया था। हालांकि, इस रिपोर्ट को कुछ लोगों द्वारा एक निर्माण के रूप में माना जाता है। Maulana Muhammad Ali, Muhammad The Prophet, pp. 199–200 उन जनजातियों के अधिकांश सदस्य इस्लाम में परिवर्तित हो गए, और थोड़ा मूर्तिपूजा विपक्ष बना रहा। Watt (1956), p. 179
मोहम्मद ने मदीना से तीन मुख्य यहूदी जनजातियों में से एक बनू क़ैनुक़ा से निष्कासित किया, लेकिन कुछ इतिहासकारों का तर्क है कि मुहम्मद की मृत्यु के बाद निष्कासन हुआ। अल- वकिदी के अनुसार, अब्द-अल्लाह इब्न उबाई ने उनके लिए बात करने के बाद, मुहम्मद ने उन्हें निष्पादित करने से रोका और आदेश दिया कि उन्हें मदीना से निर्वासित किया जाए। बद्र की लड़ाई के बाद, मुहम्मद ने अपने समुदाय को हेजाज़ के उत्तरी हिस्से से हमलों से बचाने के लिए कई बेदुईन जनजातियों के साथ पारस्परिक सहायता गठजोड़ भी किया।
मक्का के साथ संघर्ष
मक्का उनकी हार का बदला लेने के लिए उत्सुक थे। आर्थिक समृद्धि को बनाए रखने के लिए, मक्का को अपनी प्रतिष्ठा बहाल करने की आवश्यकता थी, जिसे बदर में कम कर दिया गया था। Watt (1961), p. 132. आने वाले महीनों में, मक्का ने मदीना को हमला करने वाले दलों को भेजा जबकि मुहम्मद ने मक्का के साथ संबद्ध जनजातियों के खिलाफ अभियान चलाया और हमलावरों को मक्का कारवां पर भेज दिया। Watt (1961), p. 134 अबू सूफान ने 3000 पुरुषों की एक सेना इकट्ठी की और मदीना पर हमले के लिए तैयार किया। Lewis (1960), p. 45
एक स्काउट ने एक दिन बाद मक्का सेना की उपस्थिति और संख्याओं के मुहम्मद को चेतावनी दी। अगली सुबह, युद्ध के मुस्लिम सम्मेलन में, एक विवाद सामने आया कि मक्का को कैसे पीछे हटाना है। मुहम्मद और कई वरिष्ठ आंकड़ों ने सुझाव दिया कि मदीना के भीतर लड़ना और भारी मजबूत गढ़ों का लाभ उठाना सुरक्षित होगा। युवा मुसलमानों ने तर्क दिया कि मक्का फसलों को नष्ट कर रहे थे, और गढ़ों में उलझन से मुस्लिम प्रतिष्ठा नष्ट हो जाएगी। मुहम्मद अंततः युवा मुस्लिमों को स्वीकार कर लिया और युद्ध के लिए मुस्लिम बल तैयार किया। मुहम्मद ने उहूद (मक्का शिविर का स्थान) के पहाड़ पर अपनी सेना का नेतृत्व किया और 23 मार्च 625 को उहूद की लड़ाई लड़ी। C.F. Robinson, Uhud, Encyclopedia of IslamWatt (1964), p. 137 हालांकि मुस्लिम सेना के शुरुआती मुठभेड़ों में लाभ था, अनुशासन की कमी रणनीतिक रूप से रखे तीरंदाजों का हिस्सा मुस्लिम हार का कारण बन गया; मुहम्मद के चाचा हमजा समेत 75 मुस्लिम मारे गए, जो मुस्लिम परंपरा में सबसे प्रसिद्ध शहीदों में से एक बन गए। मक्का ने मुसलमानों का पीछा नहीं किया, बल्कि, वे मक्का को जीत घोषित कर दिया। घोषणा शायद इसलिए है क्योंकि मुहम्मद घायल हो गए थे और मरे हुए थे। जब उन्होंने पाया कि मुहम्मद रहते थे, तो उनकी सहायता के लिए आने वाली नई ताकतों के बारे में झूठी जानकारी के कारण मक्का वापस नहीं लौटे। हमले मुस्लिमों को पूरी तरह से नष्ट करने के अपने लक्ष्य को हासिल करने में नाकाम रहे थे। Watt (1974), p. 137David Cook (2007), p. 24 मुसलमानों ने मरे हुओं को दफनाया और उस शाम मदीना लौट आए। नुकसान के कारणों के बारे में जमा प्रश्न; मुहम्मद ने कुरान के छंदों को 3: 152 दिया जो दर्शाता है कि हार दो गुना थी: आंशिक रूप से अवज्ञा के लिए सजा, आंशिक रूप से दृढ़ता के लिए एक परीक्षण। See:
Watt (1981), p. 432
Watt (1964), p. 144
अबू सुफ़ियान ने मदीना पर एक और हमले की दिशा में अपना प्रयास निर्देशित किया। उन्होंने मदीना के उत्तर और पूर्व में भिक्षु जनजातियों से समर्थन प्राप्त किया; मुहम्मद की कमजोरी, लूट के वादे, कुरैश प्रतिष्ठा की यादें और रिश्वत के माध्यम से प्रचार का उपयोग करना। Watt (1956), p. 30. मुहम्मद की नई नीति उनके खिलाफ गठजोड़ को रोकने के लिए थी। जब भी मदीना के खिलाफ गठबंधन गठित किए गए, तो उन्होंने उन्हें तोड़ने के लिए अभियानों को भेजा। मुहम्मद ने मदीना के खिलाफ शत्रुतापूर्ण इरादे से पुरुषों के बारे में सुना, और गंभीर तरीके से प्रतिक्रिया व्यक्त की। Watt (1956), p. 34 एक उदाहरण बनू नादिर के यहूदी जनजाति के प्रधान काब इब्न अल-अशरफ की हत्या है। अल-अशरफ मक्का गए और कविताओं को लिखा जो मकर के दुःख, क्रोध और बद्री की लड़ाई के बाद बदला लेने की इच्छा रखते थे। Watt (1956), p. 18 लगभग एक साल बाद, मुहम्मद ने मदीना Watt (1956), pp. 220–21 से बनू नादिर को सीरिया में प्रवासन करने के लिए मजबूर कर दिया; उन्होंने उन्हें कुछ संपत्ति लेने की इजाजत दी, क्योंकि वह अपने गढ़ों में बनू नादिर को कम करने में असमर्थ थे। मुहम्मद ने भगवान के नाम पर उनकी बाकी संपत्ति पर दावा किया था क्योंकि यह रक्तपात से प्राप्त नहीं हुआ था। मुहम्मद ने विभिन्न अरब जनजातियों को व्यक्तिगत रूप से आश्चर्यचकित कर दिया, जिससे भारी दुश्मनों ने उन्हें दुश्मनों को खत्म करने के लिए एकजुट हो गया। मुहम्मद के खिलाफ एक कन्फेडरेशन रोकने की कोशिशें असफल रहीं, हालांकि वह अपनी ताकतों को बढ़ाने में सक्षम था और कई संभावित जनजातियों को अपने दुश्मनों से जुड़ने से रोक दिया था। Watt (1956), p. 35
मदीना की घेराबंदी
thumb|मस्जिद अल-क़िबलायत, जहां मुहम्मद ने नई क्यूबाला, या प्रार्थना की दिशा स्थापित की।
निर्वासित बानू नादिर की मदद से, कुरैश के सैन्य नेता अबू सूफान ने 10,000 लोगों की एक शक्ति जताई। मुहम्मद ने लगभग 3,000 पुरुषों की एक सेना तैयार की और उस समय अरब में अज्ञात रक्षा का एक रूप अपनाया; मुसलमानों ने एक खाई खोद दी जहां मदीना घुड़सवार हमले के लिए खुली थी। इस विचार को फ़ारसी में इस्लाम, सलमान फारसी में परिवर्तित करने के लिए श्रेय दिया जाता है। मदीना की घेराबंदी 31 मार्च 627 को शुरू हुई और दो सप्ताह तक चली। Watt (1956), pp. 36, 37 अबू सुफ़ियान की सेना किलेबंदी के लिए तैयार नहीं थी, और एक अप्रभावी घेराबंदी के बाद, गठबंधन ने घर लौटने का फैसला किया। See:
Rodinson (2002), pp. 209–11
Watt (1964), p. 169 कुरान 33: 9-27. छंद में सुर अल-अहज़ाब में इस लड़ाई पर चर्चा करता है। [88] युद्ध के दौरान, मदीना के दक्षिण में स्थित बनू कुरैजा के यहूदी जनजाति ने मुहम्मद के खिलाफ विद्रोह करने के लिए मक्का सेनाओं के साथ वार्ता में प्रवेश किया। यद्यपि मक्का सेनाओं को सुझावों से प्रभावित किया गया था कि मुहम्मद को अभिभूत होना निश्चित था, लेकिन अगर संघ उन्हें नष्ट करने में असमर्थ था तो वे आश्वासन चाहते थे। लंबे समय तक वार्ता के बाद कोई समझौता नहीं हुआ, आंशिक रूप से मुहम्मद के स्काउट्स द्वारा तबाही के प्रयासों के कारण। Watt (1964) pp. 170–72 गठबंधन की वापसी के बाद, मुसलमानों ने विश्वासघात के बनू कुरैजा पर आरोप लगाया और उन्हें 25 दिनों तक अपने किलों में घेर लिया। अंततः बानू कुरैजा ने आत्मसमर्पण कर दिया; इब्न इशाक के मुताबिक, इस्लाम में कुछ धर्मों के अलावा सभी पुरुष मारे गए थे, जबकि महिलाएं और बच्चे दास थे। [Peterson (2007), p. 126Ramadan (2007), p. 141 वलीद एन अराफात और बराकत अहमद ने इब्न इशाक की कथा की सटीकता पर विवाद किया है। Meri, Medieval Islamic Civilization: An Encyclopedia, p. 754. अराफात का मानना है कि इस घटना के 100 वर्षों बाद बोलते हुए इब्न इशाक के यहूदी स्रोतों ने यहूदी इतिहास में पहले नरसंहार की यादों के साथ इस खाते को स्वीकार किया; उन्होंने नोट किया कि इब्न इशाक को उनके समकालीन मलिक इब्न अनास द्वारा अविश्वसनीय इतिहासकार माना गया था, और बाद में इब्न हजर द्वारा "विषम कहानियों" का एक ट्रांसमीटर माना गया था। अहमद का तर्क है कि केवल कुछ जनजाति मारे गए थे, जबकि कुछ सेनानियों को केवल गुलाम बना दिया गया था। Ahmad, pp. 85–94.Nemoy, "Barakat Ahmad's "Muhammad and the Jews", p. 325. Nemoy is sourcing Ahmad's Muhammad and the Jews. वाट को अराफात के तर्क "पूरी तरह से भरोसेमंद नहीं" मिलते हैं, जबकि मीर जे किस्टर ने अराफात और अहमद के तर्कों की व्याख्या का खंडन किया है। Kister, "The Massacre of the Banu Quraiza"
मदीना की घेराबंदी में, मक्का ने मुस्लिम समुदाय को नष्ट करने के लिए उपलब्ध ताकत प्रदान की। विफलता के परिणामस्वरूप प्रतिष्ठा का एक महत्वपूर्ण नुकसान हुआ; सीरिया के साथ उनका व्यापार गायब हो गया। Watt (1956), p. 39 खाई की लड़ाई के बाद, मुहम्मद ने उत्तर में दो अभियान किए, दोनों बिना किसी लड़ाई के समाप्त हो गए। इन यात्राओं में से एक (या कुछ शुरुआती खातों के अनुसार कुछ साल पहले) लौटने के दौरान, मुहम्मद की पत्नी आइशा रजी. के खिलाफ व्यभिचार का आरोप लगाया गया था। आइशा रजी. को आरोपों से दूर कर दिया गया जब मुहम्मद ने घोषणा की कि उन्हें आइशा रजी. की निर्दोषता की पुष्टि करने और निर्देशन के आरोपों को चार प्रत्यक्षदर्शी (सूरा 24, अन-नूर) द्वारा समर्थित किया गया है।
हुदैबिया की संधि
यद्यपि मुहम्मद ने हज को आदेश देने वाले कुरान के छंद दिए थे, मुसलमानों ने कुरैश शत्रुता के कारण इसे नहीं किया था। शाववाल 628 के महीने में, मुहम्मद ने अपने अनुयायियों को बलिदान जानवरों को प्राप्त करने और मक्का को एक तीर्थयात्रा (उम्रह) तैयार करने का आदेश दिया और कहा कि भगवान ने उन्हें इस दृष्टिकोण की पूर्ति का वादा किया था जब वह पूरा होने के बाद अपने सिर को हिला रहे थे हज Lings (1987), p. 2491,400 मुसलमानों की सुनवाई पर, कुरैशी ने उन्हें रोकने के लिए 200 घुड़सवार भेज दिए। मुहम्मद ने उन्हें एक और कठिन मार्ग लेकर उन्हें उखाड़ फेंक दिया, जिससे उनके अनुयायियों को मक्का के बाहर अल-हुदायबिया पहुंचने में मदद मिली। वाट के अनुसार, हालांकि तीर्थयात्रा बनाने का मुहम्मद का निर्णय उनके सपने पर आधारित था, लेकिन वह मूर्तिपूजक मक्काओं का भी प्रदर्शन कर रहा था कि इस्लाम ने अभयारण्यों की प्रतिष्ठा को खतरा नहीं दिया था, कि इस्लाम एक अरब धर्म था। Watt, al- Hudaybiya or al-Hudaybiyya Encyclopedia of Islam
thumb|मक्का में काबा लंबे समय से इस क्षेत्र के लिए एक प्रमुख आर्थिक और धार्मिक भूमिका निभाता है। मदीना में मुहम्मद के आगमन के सत्रह महीने बाद, यह मुस्लिम क्यूबाला, या प्रार्थना (सलात) की दिशा बन गई। काबा कई बार पुनर्निर्मित किया गया है; 1629 में निर्मित वर्तमान संरचना 683 के पहले की इमारत की एक पुनर्निर्माण है।
मक्का से यात्रा करने वाले उत्सवों के साथ बातचीत शुरू हुई। हालांकि, ये जारी रहे, अफवाहें फैल गईं कि मुस्लिम वार्ताकारों में से एक उथमान बिन अल-एफ़ान कुरैशी द्वारा मारा गया था। मुहम्मद ने तीर्थयात्रियों को मक्का के साथ युद्ध में उतरने पर प्रतिज्ञा करने के लिए कहा था (या मुहम्मद के साथ रहना, जो भी निर्णय लिया)। इस प्रतिज्ञा को "स्वीकृति का वचन" या " पेड़ के नीचे प्रतिज्ञा " के रूप में जाना जाने लगा। उथमान की सुरक्षा के समाचारों को जारी रखने के लिए वार्ता की अनुमति दी गई, और दस साल तक चलने वाली संधि पर अंततः मुसलमानों और कुरैशी के बीच हस्ताक्षर किए गए। Lewis (2002), p. 42 संधि के मुख्य बिंदुओं में शामिल थे: शत्रुता का समापन, मुहम्मद की तीर्थयात्रा का स्थगित अगले वर्ष, और किसी भी मक्का को वापस भेजने के लिए समझौता जो उनके संरक्षक से अनुमति के बिना मदीना में आ गया।
कई मुसलमान संधि से संतुष्ट नहीं थे। हालांकि, कुरानिक सुर " अल-फाथ " (विजय) (कुरान 48: 1-29) ने उन्हें आश्वासन दिया कि अभियान को विजयी माना जाना चाहिए। Lings (1987), p. 255 बाद में यह हुआ कि मुहम्मद के अनुयायियों ने संधि के पीछे लाभ को महसूस किया। इन लाभों में मुसलमानों को मुहम्मद की पहचान करने के लिए मिलिना को सैन्य गतिविधि की समाप्ति के रूप में पहचानने की आवश्यकता शामिल थी, जिसमें मदीना को ताकत हासिल करने की अनुमति मिली, और तीर्थयात्रा अनुष्ठानों से प्रभावित मक्का की प्रशंसा।
संघर्ष पर हस्ताक्षर करने के बाद, मुहम्मद खैबर के यहूदी ओएसिस के खिलाफ अभियान चलाए, जिसे खैबर की लड़ाई के रूप में जाना जाता है। यह संभवतः बानू नादिर के आवास के कारण था जो मुहम्मद के खिलाफ शत्रुता को उत्तेजित कर रहे थे, या हुदैबिया के संघर्ष के असंगत परिणाम के रूप में दिखाई देने वाली प्रतिष्ठा हासिल करने के लिए। Vaglieri, Khaybar, Encyclopedia of Islam मुस्लिम परंपरा के अनुसार, मुहम्मद ने कई शासकों को पत्र भी भेजे, उन्हें इस्लाम में परिवर्तित करने के लिए कहा (सटीक तारीख स्रोतों में अलग-अलग दी गई है)। Lings (1987), p. 260Khan (1998), pp. 250–251 उन्होंने बीजान्टिन साम्राज्य (पूर्वी रोमन साम्राज्य), फारस के खोसरू, यमन के मुखिया और कुछ अन्य लोगों के हेराकेलियस को दूत भेजे। हुदैबिया के संघर्ष के बाद के वर्षों में, मुहम्मद ने मुहता की लड़ाई में ट्रांसजॉर्डियन बीजान्टिन मिट्टी पर अरबों के खिलाफ अपनी सेनाओं को निर्देशित किया। F. Buhl, Muta, Encyclopedia of Islam
अंतिम वर्ष
मक्का पर विजय
हुदैबिय्याह का संघर्ष दो साल तक लागू किया गया था। Khan (1998), p. 274Lings (1987), p. 291 बानू खुजा के जनजाति के साथ मुहम्मद के साथ अच्छे संबंध थे, जबकि उनके दुश्मन बानू बकर ने मक्का के साथ सहयोग किया था। बकर के एक समूह ने खुजा के खिलाफ रात की छाप छोड़ी, उनमें से कुछ को मार डाला। मक्का ने बानू बकर को हथियार से मदद की और कुछ सूत्रों के मुताबिक, कुछ मक्का ने भी लड़ाई में हिस्सा लिया। इस घटना के बाद, मुहम्मद ने मक्का को तीन शर्तों के साथ एक संदेश भेजा, उनसे उनमें से एक को स्वीकार करने के लिए कहा। ये थे: या तो मक्का खूजाह जनजाति के बीच मारे गए लोगों के लिए रक्त धन का भुगतान करेंगे, वे स्वयं बानू बकर से वंचित हो जाएंगे, या उन्हें हुदाय्याह के नल की घोषणा करनी चाहिए। Khan (1998), pp. 274–75
मक्का ने जवाब दिया कि उन्होंने अंतिम स्थिति स्वीकार कर ली है। जल्द ही उन्होंने अपनी गलती को महसूस किया और मुहम्मद द्वारा अस्वीकार किया गया अनुरोध, हुदैबिय्याह संधि को नवीनीकृत करने के लिए अबू सूफान को भेजा।
मुहम्मद ने अभियान की तैयारी की शुरुआत की। Lings (1987), p. 292 630 में, मुहम्मद ने 10,000 मुस्लिम धर्मों के साथ मक्का पर चढ़ाई की। कम से कम हताहतों के साथ, मुहम्मद ने मक्का का नियंत्रण जब्त कर लिया। Watt (1956), p. 66. उन्होंने पिछले पुरुषों के लिए माफी घोषित की, दस लोगों और महिलाओं को छोड़कर जो "हत्या या अन्य अपराधों के दोषी थे या युद्ध से उछल गए थे और शांति को बाधित कर दिया था"। Watt (1956), p. 66. इनमें से कुछ बाद में क्षमा कर दिए गए थे। The Message by Ayatullah Ja'far Subhani, chapter 48 referencing Sirah by Ibn Hisham, vol. II, page 409. अधिकांश मक्का इस्लाम में परिवर्तित हो गए और मुहम्मद काबा के आसपास और आसपास अरब देवताओं की सभी मूर्तियों को नष्ट कर दिया। Harold Wayne Ballard, Donald N. Penny, W. Glenn Jonas (2002), p. 163F.E. Peters (2003), p. 240 इब्न इशाक और अल-अज़राकी द्वारा एकत्रित रिपोर्टों के मुताबिक, मुहम्मद ने व्यक्तिगत रूप से मैरी और जीसस के चित्रों या भित्तिचित्रों को बचाया, लेकिन अन्य परंपराओं से पता चलता है कि सभी चित्र मिटा दिए गए थे। कुरान मक्का की विजय पर चर्चा करता है।
अरब पर विजय
thumb|मुहम्मद (हरी रेखाएं) और रशीदुन खलिफा (काला रेखाएं) की विजय। दिखाया गया: बीजान्टिन साम्राज्य (उत्तर और पश्चिम) और सस्सिद-फारसी साम्राज्य (पूर्वोत्तर)।
मक्का की विजय के बाद, मुहम्मद हौजिन की संघीय जनजातियों से सैन्य खतरे से डर गए थे, जो मुहम्मद के आकार को एक सेना को बढ़ा रहे थे। बनू हवाज़िन मक्का के पुराने दुश्मन थे। वे बनू याकिफ़ (ताइफ़ शहर में रहने वाले) से जुड़े थे जिन्होंने मक्का की प्रतिष्ठा के पतन के कारण मक्का विरोधी नीति को अपनाया था। Watt (1974), p. 207 मुहम्मद हुनैन की लड़ाई में हवाजिन और थाकिफ जनजातियों को हराया।
उसी वर्ष, मुहम्मद ने मुहता की लड़ाई में अपनी पिछली हार और मुस्लिमों के खिलाफ शत्रुता की रिपोर्ट के कारण उत्तरी अरब के खिलाफ हमला किया। बड़ी कठिनाई के साथ उन्होंने 30,000 पुरुषों को इकट्ठा किया; जिनमें से आधे दूसरे दिन अब्द-अल्लाह इब्न उबाय के साथ लौट आये, जो मुहम्मद उन पर डूबने वाले हानिकारक छंदों से परेशान थे। यद्यपि मोहम्मद तबुक में शत्रुतापूर्ण ताकतों से जुड़ा नहीं था, फिर भी उन्होंने इस क्षेत्र के कुछ स्थानीय प्रमुखों को जमा कर लिया। M.A. al-Bakhit, Tabuk, Encyclopedia of Islam
उन्होंने पूर्वी अरब में किसी भी शेष मूर्तिपूजक मूर्तियों के विनाश का भी आदेश दिया। पश्चिमी अरब में मुस्लिमों के खिलाफ होने वाला अंतिम शहर ताइफ था। मुहम्मद ने शहर के आत्मसमर्पण को स्वीकार करने से इनकार कर दिया जब तक वे इस्लाम में परिवर्तित होने के लिए सहमत नहीं हुए और पुरुषों को उनकी देवी अल-लात की मूर्ति को नष्ट करने की अनुमति दी। </ref>Husayn, M.J. Biography of Imam 'Ali Ibn Abi-Talib, Translation of Sirat Amir Al-Mu'minin, Translated by: Sayyid Tahir Bilgrami, Ansariyan Publications, Qum, Islamic Republic of Iran
तबूक की लड़ाई के एक साल बाद, बनू थाकिफ ने मंत्रियों को मुहम्मद को आत्मसमर्पण करने और इस्लाम को अपनाने के लिए भेजा। मुहम्मद को अपने हमलों के खिलाफ सुरक्षा और युद्ध की लूट से लाभ उठाने के लिए कई बेदूइन प्रस्तुत किए गए। हालांकि, बेडरूम इस्लाम की प्रणाली के लिए विदेशी थे और स्वतंत्रता बनाए रखना चाहते थे: अर्थात् उनके गुण और पितृ परंपराओं का कोड। मुहम्मद को एक सैन्य और राजनीतिक समझौते की आवश्यकता होती है जिसके अनुसार वे "मुसलमानों और उनके सहयोगियों पर हमले से बचने के लिए, और मुस्लिम धार्मिक टैक्स जकात का भुगतान करने के लिए मदीना की सर्वोच्चता को स्वीकार करते हैं।" Lewis (1993), pp. 43–44
विदाई तीर्थयात्रा
यह भी देखें: ग़दीर ए ख़ुम की घटना
632 में, मदीना के प्रवास के दसवें वर्ष के अंत में, मुहम्मद ने अपनी पहली सच्ची इस्लामी तीर्थयात्रा पूरी की, वार्षिक महान तीर्थयात्रा के लिए प्राथमिकता स्थापित की, जिसे हज के नाम से जाना जाता है। धू अल-हिजजाह मुहम्मद के 9 वें स्थान पर मक्का के पूर्व में अराफात पर्वत पर अपने विदाई उपदेश दिया गया। इस उपदेश में, मुहम्मद ने अपने अनुयायियों को कुछ पूर्व इस्लामी रीति-रिवाजों का पालन न करने की सलाह दी। मिसाल के तौर पर, उन्होंने कहा कि एक सफेद पर काले रंग की कोई श्रेष्ठता नहीं है, न ही एक काले रंग की शुद्धता और अच्छी क्रिया के अलावा एक सफेद पर कोई श्रेष्ठता है। उन्होंने पूर्व जनजातीय व्यवस्था के आधार पर पुराने रक्त विवादों और विवादों को समाप्त कर दिया और नए इस्लामी समुदाय के निर्माण के प्रभाव के रूप में पुरानी प्रतिज्ञाओं को वापस करने के लिए कहा। अपने समाज में महिलाओं की भेद्यता पर टिप्पणी करते हुए, मुहम्मद ने अपने पुरुष अनुयायियों से "महिलाओं के लिए अच्छा होने का उपदेश दिया, क्योंकि वे आपके घरों में शक्तिहीन बंधुआ (अवान) हैं। आप उन्हें अल्लाह के विश्वास में लाये, और अल्लाह ने आप को अपने यौन संबंधों को वचन के साथ वैध बना दिया, तो अपनी इंद्रियों को काबू में रखो, और मेरे शब्दों को सुनें ... "उन्होंने उनसे कहा कि वे अपनी पत्नियों को अनुशासन देने के हकदार थे लेकिन दयालुता से ऐसा करना चाहिए। उन्होंने पितृत्व के झूठे दावों या मृतक के साथ ग्राहक संबंधों को मना कर विरासत के मुद्दे को संबोधित किया और अपने अनुयायियों को अपनी संपत्ति को विवादास्पद उत्तराधिकारी को देने से मना कर दिया। उन्होंने प्रत्येक वर्ष चार चंद्र महीने की पवित्रता को भी बरकरार रखा। Devin J. Stewart, Farewell Pilgrimage, Encyclopedia of the Qur'anAl-Hibri (2003), p. 17 सुन्नी तफ़सीर के अनुसार, इस घटना के दौरान निम्नलिखित कुरानिक आयात वितरित की गई: "आज मैंने आपके धर्म को पूरा किया है, और आपके लिए मेरे पक्षों को पूरा किया है और इस्लाम को आपके लिए धर्म के रूप में चुना है" (कुरान 5: 3)। शिया तफ़सीर के अनुसार, यह मुहम्मद के उत्तराधिकारी के रूप में खुम के तालाब में अली इब्न अबी तालिब की नियुक्ति को संदर्भित करता है, यह कुछ दिनों बाद हुआ जब मुसलमान मक्का से मदीना लौट रहे थे। See:
Tabatabae, Tafsir Al-Mizan, vol. 9, pp. 227–47
मौत और मक़बरा
विदाई तीर्थयात्रा के कुछ महीने बाद, मुहम्मद बीमार पड़ गए और बुखार, सिर दर्द और कमजोरी के साथ कई दिनों तक पीड़ित हो गए। सोमवार, 8 जून 632, मदीना में 62 वर्ष या 63 वर्ष की उम्र में उनकी पत्नी आइशा रजी. के घर में उनकी मृत्यु हो गई। The Last Prophet , p. 3. Lewis Lord of U.S. News & World Report. 7 April 2008. अपने सिर के साथ आइशा रजी. की गोद में आराम करने के बाद, उसने उससे अपने आखिरी सांसारिक सामान (सात सिक्कों) का निपटान करने के लिए कहा, फिर अपने अंतिम शब्द बोलते हुए कहा:
इस्लाम के विश्वकोष के मुताबिक, मुहम्मद की मौत को मेडिनन बुखार शारीरिक और मानसिक थकान से उत्तेजित होने के कारण माना जा सकता है।
अकादमिक रीसाइट हैलामाज और फतेह हरपी का कहना है कि अर-रफीक अल-आला भगवान का जिक्र कर रहे हैं। उन्हें दफनाया गया जहां वह आइशा रजी. के घर में मर गए। Leila Ahmed (1986), 665–91 (686)F.E. Peters (2003), p. 90 उमायद खलीफ अल-वालिद प्रथम के शासनकाल के दौरान, मुहम्मद की मकबरे की साइट को शामिल करने के लिए अल-मस्जिद-ए-नबवी (पैगंबर की मस्जिद) का विस्तार किया गया था। मकबरे के ऊपर ग्रीन डोम 13 वीं शताब्दी में मामलुक सुल्तान अल मंसूर कलकवुन द्वारा बनाया गया था, हालांकि 16 वीं शताब्दी में ग्रीन रंग जोड़ा गया था, जो ओटोमन सुल्तान सुलेमान द मैग्नीफिशेंट के शासनकाल में था। मुहम्मद के समीप कब्रिस्तानों में से उनके साथी (सहाबा), पहले दो मुस्लिम खलीफा अबू बकर रजी. और उमर रजी. हैं, और एक खाली व्यक्ति जो मुसलमानों का मानना है कि यीशु का इंतजार है। "Isa", Encyclopedia of Islam जब बिन सौद ने 1805 में मदीना लिया, मुहम्मद की मकबरा अपने सोने और गहने के गहने से छीन ली गई थी। वहाबीवाद के अनुयायियों, बिन सऊद के अनुयायियों ने अपनी पूजा को रोकने के लिए मदीना में लगभग हर मकबरे गुंबद को नष्ट कर दिया, और मुहम्मद में से एक को बच निकला है। इसी तरह की घटनाएं 1925 में हुईं जब सऊदी मिलिशिया ने पीछे हटना शुरू किया- और इस बार शहर को रखने में कामयाब रहे। इस्लाम की वहाबी व्याख्या में, अनियमित कब्रों में दफनाया जाना है। हालांकि सौदी द्वारा फंसे हुए, कई तीर्थयात्रियों ने मयूरत-एक अनुष्ठान का दौरा किया-मकबरे के लिए।
मुहम्मद के बाद
thumb|right|ख़िलाफ़त का विस्तार, 622–750 CE.
मुहम्मद का उत्तराधिकार केंद्रीय मुद्दा है जिसने मुस्लिम समुदाय को मुस्लिम इतिहास की पहली शताब्दी में कई डिवीजनों में विभाजित किया। उनकी मृत्यु से कुछ महीने पहले, मुहम्मद ने गदिर खुम में एक उपदेश दिया जहां उन्होंने घोषणा की कि अली इब्न अबी तालिब उनके उत्तराधिकारी होंगे। उपदेश के बाद, मुहम्मद ने मुसलमानों को अली रजी. के प्रति निष्ठा देने का आदेश दिया। शिया और सुन्नी दोनों स्रोत इस बात से सहमत हैं कि अबू बकर रजी., उमर इब्न अल-खत्ताब रजी. और उस्मान इब्न अफ़ान रजी. इस घटना में अली रजी. के प्रति निष्ठा देने वाले कई लोगों में से थे। हालांकि, मुहम्मद की मृत्यु के बाद, मुस्लिमों का एक समूह साकिफा में मिला, जहां उमर रजी. ने अबू बकर रजी. के प्रति निष्ठा का वचन दिया था। अबू बकर रजी. ने राजनीतिक शक्ति ग्रहण की, और उनके समर्थकों को सुन्नी के रूप में जाना जाने लगा। इसके बावजूद, मुसलमानों के एक समूह ने अली रजी. को अपना निष्ठा रखा। इन लोगों, जो शिया के नाम से जाना जाने लगा, ने कहा कि अली रजी. के राजनीतिक नेता होने का अधिकार लिया जा सकता है, फिर भी वह मुहम्मद के बाद धार्मिक और आध्यात्मिक नेता थे।
आखिरकार, अबू बकर रजी. और दो अन्य सुन्नी नेताओं, उमर रजी. और उस्मान रजी. की मौत के बाद, सुन्नी मुस्लिम राजनीतिक नेतृत्व के लिए अली रजी. गए। अली रजी. की मृत्यु के बाद, उनके पुत्र हसन इब्न अली रजी. ने शासकीय रूप से शिया के अनुसार राजनीतिक रूप से और दोनों सफल हुए। हालांकि, छह महीने बाद, उन्होंने मुवाइया इब्न अबू सूफान के साथ एक शांति संधि की, जिसमें यह निर्धारित किया गया कि, अन्य स्थितियों में, मुवाया के पास राजनीतिक शक्ति होगी जब तक कि वह यह नहीं चुनता कि वह कौन सफल होगा। मुआविया ने संधि तोड़ दी और अपने बेटे यजीद को उनके उत्तराधिकारी बना दिया, इस प्रकार उमायाद वंश बना दिया। हालांकि यह चल रहा था, हसन रजी. और, उनकी मृत्यु के बाद, उनके भाई हुसैन इब्न अली रजी., कम से कम शिया के अनुसार, धार्मिक नेताओं बने रहे। इस प्रकार, सुन्नी के मुताबिक, जो भी राजनीतिक सत्ता धारण करता था उसे मुहम्मद के उत्तराधिकारी माना जाता था, जबकि शिया ने बारह इमाम (अली रजी., हसन रजी., हुसैन रजी. और हुसैन रजी. के वंशज) मुहम्मद के उत्तराधिकारी थे, भले ही वे राजनीतिक शक्ति नहीं रखते।
इन दो मुख्य शाखाओं के अतिरिक्त, मुहम्मद के उत्तराधिकार के संबंध में कई अन्य राय भी बनाई गईं।
इस्लामी सामाजिक सुधार
विलियम मोंटगोमेरी वाट के मुताबिक, मुहम्मद के लिए धर्म एक निजी और व्यक्तिगत मामला नहीं था, बल्कि "अपनी व्यक्तित्व की कुल प्रतिक्रिया जिसकी कुल स्थिति में वह खुद को मिली थी। वह [न केवल] ... धार्मिक और बौद्धिक पहलुओं पर प्रतिक्रिया दे रहा था स्थिति के साथ-साथ आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक दबावों के लिए भी समकालीन मक्का विषय थे। " Cambridge History of Islam (1970), p. 30. बर्नार्ड लुईस का कहना है कि इस्लाम में दो महत्वपूर्ण राजनीतिक परंपराएं हैं - मोहम्मद में एक राजनेता के रूप में और मुहम्मद मक्का में एक विद्रोही के रूप में। उनके विचार में, इस्लाम नए समाजों के साथ पेश होने पर, एक क्रांति के समान, एक महान परिवर्तन है। Lewis (1998)
इतिहासकार आम तौर पर सहमत हैं कि सामाजिक सुरक्षा , पारिवारिक संरचना, दासता और महिलाओं और बच्चों के अधिकारों जैसे अरब समाज की स्थिति में इस्लामी सामाजिक परिवर्तन। Watt (1974), p. 234
Robinson (2004), p. 21
Esposito (1998), p. 98
R. Walzer, Ak̲h̲lāḳ, Encyclopaedia of Islam Online उदाहरण के लिए, लुईस के अनुसार, इस्लाम "पहली बार अभिजात वर्ग के विशेषाधिकार से वंचित, पदानुक्रम को खारिज कर दिया, और प्रतिभा के लिए खुले करियर का एक सूत्र अपनाया"। मुहम्मद के संदेश ने अरब प्रायद्वीप में समाज और समाज के नैतिक आदेशों को बदल दिया; समाज ने अनुमानित पहचान, विश्व दृश्य और मूल्यों के पदानुक्रम में परिवर्तनों पर ध्यान केंद्रित किया। आर्थिक सुधारों ने गरीबों की दुर्दशा को संबोधित किया, जो पूर्व इस्लामी मक्का में एक मुद्दा बन रहा था। Watt, The Cambridge History of Islam, p. 34 कुरान को गरीबों के लाभ के लिए एक भत्ता कर (ज़कात) का भुगतान करने की आवश्यकता है; चूंकि मुहम्मद की शक्ति में वृद्धि हुई, उन्होंने मांग की कि जनजातियां जो उनके साथ सहयोग करने की कामना करती हैं, विशेष रूप से जकात को लागू करें। Esposito (1998), p. 30Watt, The Cambridge History of Islam, p. 52
दिखावट
thumb|हफीज उस्मान (1642-1698) द्वारा मुहम्मद का वर्णन वाला एक हिला।
मुहम्मद के वर्णन के बारे में अल बुखारी की किताब साहिह अल बुखारी में अध्याय 61 में दिए गए विवरण, हदीस 57 और हदीस 60, उनके दो साथी द्वारा चित्रित किया गया है:
मोहम्मद इब्न ईसा में- तिर्मिधि की पुस्तक शामाइल अल-मुस्तफा में दिए गए विवरण, अली इब्न अबी तालिब और हिंद इब्न अबी हला को जिम्मेदार ठहराया गया है: Al-Tirmidhi, Shama'il Muhammadiyah Book 1, Hadith 5 & Book 1, Hadith 7/8
मुहम्मद के कंधों के बीच "पैग़म्बर की मुहर" (मुहर ए नबुव्वत) को आमतौर पर एक कबूतर के अंडा के आकार के उठाए गए तिल के रूप में वर्णित किया जाता है। मुहम्मद का एक अन्य विवरण उम्म माबाद द्वारा प्रदान किया गया था, वह एक महिला जो मदीना की यात्रा पर मिली थी:
इन तरह के विवरण अक्सर सुलेख पैनलों (हिला या तुर्की, हिली में) में पुन: उत्पन्न किए जाते थे, जो 17 वीं शताब्दी में तुर्क साम्राज्य में अपने स्वयं के एक कला रूप में विकसित हुआ था।
गृहस्थी
thumb| मुहम्मद का मकबरा अपनी तीसरी पत्नी आइशा (रजी०) के हुजरा (कमरे) में स्थित है। परंपरानुसा उनका निधन आईशा के कमरे में ही हुआ था। (अल-मस्जिद एन-नाबावी, मदीना)।
मुहम्मद का जीवन पारंपरिक रूप से दो अवधियों में परिभाषित किया जाता है: मक्का में पूर्व-हिजरा (प्रवासन) (570 से 622 तक), और मदीना में पोस्ट-हिजरा (622 से 632 तक)। कहा जाता है कि मुहम्मद की कुल में तेरह पत्नियां थीं (हालांकि दो में संदिग्ध खाते हैं, रेहाना बिंत जयद और मारिया अल-क़िबतिया, पत्नी या उपनिवेश के रूप में। See for example Marco Schöller, Banu Qurayza, Encyclopedia of the Quran mentioning the differing accounts of the status of RayhanaBarbara Freyer Stowasser, Wives of the Prophet, Encyclopedia of the Quran)) मदीना के प्रवास के बाद तेरह विवाह का ग्यारह हुआ।
25 साल की उम्र में, मुहम्मद ने अमीर खदीजा बिंत खुवेलीड से विवाह किया जो 40 साल का था। शादी 25 साल तक चली और वह खुश था। Esposito (1998), p. 18 मुहम्मद इस विवाह के दौरान किसी और महिला के साथ शादी में नहीं गए थे। Bullough (1998), p. 119Reeves (2003), p. 46खदीजा (रजी.) की मौत के बाद, खवला बिंत हाकिम ने मुहम्मद को सुझाव दिया कि उन्हें उस्मान विधवा सावा बिंत जमा, उम्म रुमान और मक्का के अबू बकर की बेटी आइशा (रजी.) से शादी करनी चाहिए। कहा जाता है कि मुहम्मद दोनों से शादी करने की व्यवस्था के लिए कहा गया है। Watt, Aisha, Encyclopedia of Islam खदीजा (रजी.) की मृत्यु के बाद मुहम्मद के विवाहों को ज्यादातर राजनीतिक या मानवीय कारणों से अनुबंधित किया गया था। महिलाएं या तो युद्ध में मारे गए मुस्लिमों की विधवा थीं और उन्हें संरक्षक के बिना छोड़ दिया गया था, या महत्वपूर्ण परिवारों या कुलों से संबंधित थे जिन्हें गठबंधन के सम्मान और मजबूत करने के लिए जरूरी था। Momen (1985), p. 9
परंपरागत स्रोतों के मुताबिक, आइशा (रजी.) मुहम्मद से प्रार्थना करते समय छः या सात वर्ष का था, D. A. Spellberg, Politics, Gender, and the Islamic Past: the Legacy of A'isha bint Abi Bakr, Columbia University Press, 1994, p. 40Karen Armstrong, Muhammad: A Biography of the Prophet, Harper San Francisco, 1992, p. 145 विवाह के साथ नौ या दस वर्ष की आयु में युवावस्था तक पहुंचने तक शादी नहीं हो रही थी। Karen Armstrong, Muhammad: Prophet For Our Time, HarperPress, 2006, p. 105Muhammad Husayn Haykal, The Life of Muhammad, North American Trust Publications (1976), p. 139Barlas (2002), pp. 125–26, , , , , , , , , Tabari, Volume 9, Page 131; Tabari, Volume 7, Page 7 इसलिए वह शादी में एक कुंवारी थीं। आधुनिक मुस्लिम लेखक जो आइशा की उम्र की गणना के अन्य स्रोतों के आधार पर गणना करते हैं, जैसे कि ऐशा और उनकी बहन असमा के बीच उम्र अंतर के बारे में हदीस, का अनुमान है कि वह तेरह से अधिक थीं और शायद अपने विवाह के समय किशोरों के उत्तरार्ध में।
मदीना के प्रवास के बाद, मुहम्मद , जो उसके अर्धशतक में थे, ने कई और महिलाओं से विवाह किया।
मुहम्मद ने घर के कामों का प्रदर्शन किया जैसे भोजन, सिलाई कपड़े और जूते की मरम्मत करना। ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने अपनी पत्नियों को बातचीत करने का आदी माना था; उन्होंने उनकी सलाह सुनी, और पत्नियों ने बहस की और यहां तक कि उनके साथ तर्क भी दिया। Tariq Ramadan (2007), pp. 168–69Asma Barlas (2002), p. 125Armstrong (1992), p. 157
कहा जाता है कि खदीजा (रजी.) मुहम्मद (रुक्यायाह बिन मुहम्मद, उम्म कुलथम बिंत मुहम्मद, जैनब बिंत मुहम्मद, फातिमाह जहर) और दो बेटे (अब्द-अल्लाह इब्न मुहम्मद और कासिम इब्न मुहम्मद, जो बचपन में दोनों की मृत्यु हो गई) के साथ चार बेटियां थीं। उसकी बेटियों में से एक, फातिमा, उसके सामने मृत्यु हो गई। कुछ शिया विद्वानों का तर्क है कि फातिमा (रजी.) मुहम्मद की एकमात्र बेटी थीं। Ordoni (1990), pp. 32, 42–44. मारिया अल-क़िबतिया ने उन्हें इब्राहिम इब्न मुहम्मद नाम का एक पुत्र बनाया, लेकिन जब वह दो साल का था तब बच्चा मर गया। Nicholas Awde (2000), p. 10
मुहम्मद की पत्नियों में से नौ ने उसे बचा लिया। सुन्नी परंपरा में मुहम्मद की पसंदीदा पत्नी के रूप में जाने जाने वाले आइशा (रजी.) दशकों तक जीवित रहे और इस्लाम की सुन्नी शाखा के लिए हदीस साहित्य बनाने वाले मुहम्मद की बिखरी हुई कहानियों को इकट्ठा करने में मदद करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
फातिमा (रजी.) के माध्यम से मुहम्मद के वंशज शरीफ , सिड्स या सय्यियस के रूप में जाने जाते हैं। ये अरबी में आदरणीय खिताब हैं, शरीफ का अर्थ 'महान' है और कहा जाता है या कहा जाता है या 'भगवान' या 'सर' कहता है। मुहम्मद के एकमात्र वंश के रूप में, उन्हें सुन्नी और शिया दोनों का सम्मान किया जाता है, हालांकि शिआ उनके भेद पर अधिक जोर और मूल्य डालते हैं।
जयद इब्न हरिथा एक दास था जिसे मुहम्मद ने खरीदा, मुक्त किया, और फिर अपने बेटे के रूप में अपनाया। उसके पास एक गीली नर्स भी थी। Ibn Qayyim al-Jawziyya recorded the list of some names of Muhammad's female-slaves in Zad al-Ma'ad, Part I, p. 116 बीबीसी सारांश के मुताबिक, "मुहम्मद ने दासता को खत्म करने की कोशिश नहीं की, और खुद को दास, बेचा, कब्जा कर लिया, और मालिकों का स्वामित्व किया। लेकिन उन्होंने जोर देकर कहा कि दास मालिक अपने दासों को अच्छी तरह से मानते हैं और गुलामों को मुक्त करने के गुण पर बल देते हैं। मुहम्मद ने मनुष्यों के रूप में दासों का इलाज किया और स्पष्ट रूप से सर्वोच्च सम्मान में कुछ लोगों को रखा।
विरासत
मुस्लिम परंपरा
अल्लाह की एकता के प्रमाणन के बाद, मुहम्मद की भविष्यवाणी में विश्वास इस्लामी विश्वास का मुख्य पहलू है। हर मुस्लिम शहादा में घोषित करता है: "मैं गवाही देता हूं कि अल्लाह के अलावा कोई अल्लाह नहीं है, और मैं प्रमाणित करता हूं कि मुहम्मद अल्लाह के संदेशवाहक हैं।" शहादा इस्लाम का मूल धर्म या सिद्धांत है। इस्लामी विश्वास यह है कि आदर्श रूप से शहादा पहला शब्द है जो नवजात शिशु सुनेंगे; बच्चों को तुरंत इसे पढ़ाया जाता है और इसे मृत्यु पर सुनाया जाएगा। मुसलमान प्रार्थना (सलात) और प्रार्थना के लिए कॉल (अज़ान में शाहदाह दोहराते हैं। इस्लाम में परिवर्तित करने की इच्छा रखने वाले गैर-मुसलमानों को इन पंक्तियों को पढ़ना आवश्यक है। Farah (1994), p. 135
इस्लामी विश्वास में, मुहम्मद को अल्लाह द्वारा भेजे गए अंतिम भविष्यवक्ता के रूप में जाना जाता है। Esposito (1998), p. 12. कुरान 10:37 कहता है कि "... यह (कुरान) इसकी पुष्टि (रहस्योद्घाटन) है जो इससे पहले चला गया, और पुस्तक की पूर्ण व्याख्या - जिसमें दुनिया के अल्लाह से कोई संदेह नहीं है। " इसी प्रकार कुरान 46:12 कहता है "... और इससे पहले मूसा अलैहिस्सलाम की पुस्तक एक गाइड और दया के रूप में थी। और यह पुस्तक पुष्टि करता है (यह) ...", जबकि 2: 136 इस्लाम के विश्वासियों को आज्ञा देता है " : हम अल्लाह में विश्वास करते हैं और जो हमें बताया गया है, और जो इब्राहीम अलै. और इस्माईल अलै., इसहाक अलै. और याकूब अलै. और जनजातियों के लिए प्रकट हुआ था, और जो मूसा अलै. और ईसा (यीशु) अलै. ने प्राप्त किया था, और जो भविष्यवक्ताओं ने उनके भगवान से प्राप्त किया था। हम नहीं करते उनमें से किसी के बीच भेद, और उसके लिए हमने आत्मसमर्पण कर दिया है। "
thumb|left|विश्वास के मुस्लिम पेशे, शाहदाह, मुहम्मद की भूमिका के मुस्लिम अवधारणा को दर्शाते हैं: "अल्लाह को छोड़कर कोई अल्लाह हीं है और मुहम्मद अल्लाह के संदेशवाहक है।" (टॉपकापी पैलेस)
मुस्लिम परंपरा मुहम्मद को कई चमत्कारों या अलौकिक घटनाओं के साथ श्रेय देती है। A.J. Wensinck, Muʿd̲j̲iza, Encyclopedia of Islam उदाहरण के लिए, कई मुस्लिम टिप्पणीकारों और कुछ पश्चिमी विद्वानों ने सूरह 54: 1-2 का अर्थ दिया है, मुहम्मद को कुरैशी के मद्देन में चंद्रमा को विभाजित करते हुए, जब उन्होंने अनुयायियों को सताया था। Denis Gril, Miracles, Encyclopedia of the Qur'anDaniel Martin Varisco, Moon, Encyclopedia of the Qur'an इस्लाम के पश्चिमी इतिहासकार डेनिस ग्रिल का मानना है कि कुरान मुहम्मद प्रदर्शन चमत्कारों का अत्यधिक वर्णन नहीं करता है, और मुहम्मद का सर्वोच्च चमत्कार "कुरान" के साथ ही पहचाना जाता है।
इस्लामी परंपरा के अनुसार, मुहम्मद पर ताइफ के लोगों ने हमला किया था और बुरी तरह घायल हो गये। परंपरा में एक देवदूत प्रकट होता है और हमलावरों के खिलाफ प्रतिशोध की पेशकश करता है, मुहम्मद ने प्रस्ताव को खारिज कर दिया और ताइफ के लोगों के मार्गदर्शन के लिए प्रार्थना की। A Restatement of the History of Islam and Muslims chapter "Muhammad's Visit to Ta’if " on al-islam.org
सुन्नह या सुन्नत मुहम्मद के कार्यों और कहानियों का प्रतिनिधित्व करता है (हदीस के नाम से जाना जाने वाली रिपोर्टों में संरक्षित), और धार्मिक अनुष्ठानों, व्यक्तिगत स्वच्छता, मृतकों के दफन से लेकर मनुष्यों और ईश्वर के बीच प्रेम को शामिल करने वाले रहस्यमय प्रश्नों से लेकर गतिविधियों और मान्यताओं की विस्तृत श्रृंखला को शामिल करता है। सुन्नतों को पवित्र मुसलमानों के लिए अनुकरण का एक आदर्श माना जाता है और मुस्लिम संस्कृति को प्रभावित करने के लिए एक बड़ी डिग्री है। अभिवादन कि मुहम्मद ने मुसलमानों को एक-दूसरे की पेशकश करने के लिए सिखाया था, "आप पर शांति हो" (अरबी: अस्सलामु अलैकुम) दुनिया भर में मुस्लिमों द्वारा उपयोग की जाती है। दैनिक इस्लामिक अनुष्ठानों जैसे कि दैनिक प्रार्थनाओं, उपवास और वार्षिक तीर्थयात्रा के कई विवरण केवल सुन्नत में पाए जाते हैं, कुरान में नहीं। Muhammad, Encyclopædia Britannica, p. 9
मुहम्मद के नाम लिखने के बाद पारंपरिक रूप से जोड़ा गया, "ईश्वर उन्हें सम्मान दे और उन्हें शांति प्रदान करे" का सुलेख प्रस्तुत करता है। ﷺ।
सुन्नतो ने इस्लामिक कानून के विकास में विशेष रूप से पहली इस्लामी शताब्दी के अंत तक योगदान दिया। J. Schacht, Fiḳh, Encyclopedia of Islam मुस्लिम रहस्यवादी, जो सूफ़ी के नाम से जाना जाता है, जो कुरान के आंतरिक अर्थ और मुहम्मद की आंतरिक प्रकृति की तलाश में थे, उन्होंने इस्लाम के पैगंबर को न केवल एक भविष्यद्वक्ता के रूप में बल्कि एक परिपूर्ण इंसान के रूप में भी देखा। सभी सूफी आदेश मुहम्मद को आध्यात्मिक वंश की अपनी श्रृंखला का पता लगाते हैं। Muhammad, Encyclopædia Britannica, pp. 11–12
मुसलमानों ने परंपरागत रूप से मुहम्मद के लिए प्यार और पूजा व्यक्त की है। मुहम्मद के जीवन की कहानियां, उनके मध्यस्थता और उनके चमत्कार (विशेष रूप से " चंद्रमा का विभाजन ") ने लोकप्रिय मुस्लिम विचार और कविता में प्रवेश किया है। मिस्र के सूफी अल-बुसीरी (1211-1294) द्वारा मुहम्मद, क़सीदा अल-बुर्दा जो अरबी में अरबी शैली में लिखा गया और मशहूर भी है। और व्यापक रूप से मानसिक शांति और आध्यात्मिक शक्ति रखने के लिए आयोजित किया जाता है। कुरान मुहम्मद को "दुनिया के लिए दया (रमत)" के रूप में संदर्भित करता है (कुरान 21: 107 )। ओरिएंटल देशों में दया के साथ बारिश के सहयोग ने मुहम्मद को बारिश बादल के रूप में आशीर्वाद देने और भूमि पर फैलाने, मृत दिल को पुनर्जीवित करने के लिए प्रेरित किया है, जैसे वर्षा बारिश पृथ्वी को पुनर्जीवित करती है (उदाहरण के लिए, सिंधी कविता शाह 'अब्द अल-लतीफ)। मुहम्मद इनका जन्मदिन इस्लामी दुनिया भर में एक प्रमुख दावत के रूप में मनाया जाता है, वहाबी- सशस्त्र सऊदी अरब को छोड़कर जहां इन सार्वजनिक समारोहों को हतोत्साहित किया जाता है। Seyyed Hossein Nasr, Encyclopædia Britannica, Muhammad, p. 13 जब मुस्लिम मुहम्मद का नाम कहते हैं या लिखते हैं, तो वे आम तौर पर इसका पालन करते हैं और भगवान उन्हें सम्मान दे सकते हैं (अरबी: लाहु अलैही व म)। Ann Goldman, Richard Hain, Stephen Liben (2006), p. 212 अनौपचारिक लेखन में, इसे कभी-कभी पीबीयूएच या एसएडब्ल्यू के रूप में संक्षिप्त किया जाता है; मुद्रित पदार्थ में, एक छोटा सा सुलेख चित्र आमतौर पर उपयोग किया जाता है (ﷺ)।
आलोचना
7 वीं शताब्दी के बाद से मुहम्मद की आलोचना अस्तित्व में रही है, जब मुहम्मद को उनके गैर-मुस्लिम अरब समकालीनों ने एकेश्वरवाद प्रचार करने के लिए और अरब के यहूदी जनजातियों द्वारा बाइबिल के वर्णनों और आंकड़ों के अनचाहे विनियमन के लिए अपमानित किया था, यहूदी विश्वास का विघटन, और खुद को किसी भी चमत्कार किए बिना " आखिरी भविष्यद्वक्ता " के रूप में घोषित करना और न ही हिब्रू बाइबिल में किसी भी व्यक्तिगत आवश्यकता को दिखाने के लिए एक झूठे दावेदार से इज़राइल के भगवान द्वारा चुने गए एक सच्चे भविष्यद्वक्ता को अलग करना ; इन कारणों से, उन्होंने उन्हें अपमानजनक उपनाम हे- मेशगाह ( हिब्रू : מְשֻׁגָּע , "मैडमैन" या "कब्जा") दिया। Ibn Warraq, Defending the West: A Critique of Edward Said's Orientalism , p. 255.Andrew G. Bostom, The Legacy of Islamic Antisemitism: From Sacred Texts to Solemn History , p. 21. मध्य युग के दौरान विभिन्न पश्चिमी और बीजान्टिन ईसाई विचारकों ने मुहम्मद को विकृत माना, अपमानजनक व्यक्ति, एक झूठा भविष्यद्वक्ता, और यहां तक कि एंटीक्राइस्ट माना, क्योंकि वह अक्सर ईसाईजगत में एक विद्रोही के रूप में देखे गए थे।
मुहम्मद की आलोचना में मुहम्मद की ईमानदारी के संदर्भ में एक भविष्यद्वक्ता, उनकी नैतिकता और उनके विवाह होने का दावा शामिल था। 7 वीं शताब्दी के बाद से आलोचना का अस्तित्व है, जब मुहम्मद को उनके गैर-मुस्लिम अरब समकालीन लोगों ने उपेक्षित एकेश्वरवाद के लिए निंदा की थी। मध्य युग के दौरान वह अक्सर ईसाई धर्म में एक विद्रोही के रूप में देखा जाता था, और / या राक्षसों के पास था।
मुहम्मद के विवाह
आइशा
20 वीं शताब्दी के बाद से, विवाद का एक आम मुद्दा मुहम्मद और आइशा के विवाह के बारे में उठाया गया है, जिसे पारंपरिक इस्लामिक स्रोतों में हज़रात आइशा की उम्र नौ वर्ष की, या इब्न हिशम के अनुसार दस वर्ष की, या फिर जब शादी तक पहुंचने के अपने युवावस्था पर शादी हुई थी। अमेरिकी इतिहासकार डेनिस स्पेलबर्ग का कहना है कि "दुल्हन की उम्र के इन विशिष्ट संदर्भों में आइशा के पूर्व-मेनारच्चिल दर्जा को और मजबूत किया जाता है।" मुस्लिम लेखकों ने अपनी बहन अस्मा के बारे में उपलब्ध अधिक विस्तृत जानकारी के आधार पर आयशा की आयु की गणना की है। वह तेरह से अधिक थी और शायद उनकी शादी के दौरान सत्रह और उन्नीस के बीच थी।
इस्लामिक अध्ययन के यूके के प्रोफेसर कॉलिन टर्नर, में कहा गया है कि जब एक बूढ़े आदमी और एक जवान लड़की के बीच विवाह हो जाती है, तो एक बार जब तक प्रौढ़ व्यक्ति उम्र के होने के बारे में सोचता है, तब तक वह बीमारियों में रूढ़िवादी थे, और इसलिए मुहम्मद विवाह को उनके समकालीनों द्वारा अनुचित नहीं माना जाता।
तुलनात्मक धर्म पर ब्रिटिश लेखक करेन आर्मस्ट्रांग ने पुष्टि की है कि "मुहम्मद की आइशा से शादी में कोई अनौचित्य नहीं था। एक गठबंधन को मुहैया कराने के लिए अनुपस्थिति में किए गए विवाह अक्सर वयस्कों और नाबालिगों के बीच अनुबंधित होते थे जो अब भी आयशा से भी छोटे थे। अभ्यास यूरोप में अच्छी तरह से शुरुआती आधुनिक काल में जारी रहा। "
गैलरी
मुहम्मद पर बनी फिल्में
द मेसेज (1976 फ़िल्म)
उमर (टीवी सीरियल)
मुहम्मद द मेसेंजर ऑफ़ गॉड (फ़िल्म)
यह भी देखें
मुहम्मद के अभियानों की सूची
मुहम्मद की पत्नियाँ
इस्लाम का उदय
इब्राहिम
सज़ाह
सफिय्या बिन्ते हुयेय
रेहाना बिन्त ज़ैद
हाशिम इब्न अब्द मुनाफ
अब्द अल-मुत्तलिब
अब्दुल्लाह इब्न अब्दुल मुत्तलिब
अबू ताहिर अल-जनाबी
अल-फ़ील
मूहाम्मद: द फाइनाल लिगेसी
द सेटेनिक वर्सेज़
अहल अल-बैत
इस्लामी पौराणिक कथाएँ
अल-लात
मुहम्मद का वंश वृक्ष
अबू सुफ़ियान
हिंद बिंत उतबाह
इस्लामी शब्दावली
शब-ए-क़द्र
शार्ली एब्डो
द मेसेज
इस्लाम से पहले का अरब
टिप्पणियाँ
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
Muhammad, article on Encyclopædia Britannica Online
Muhammad: Legacy of a Prophet — PBS Site
इस्लाम के पैग़म्बर मुहम्मद
Muḥammad, in The Oxford Encyclopedia of the Islamic World
श्रेणी:मुहम्मद
श्रेणी:570 में जन्मे लोग
श्रेणी:632 में निधन
श्रेणी:अहल अल-बैत
श्रेणी:इस्लाम
श्रेणी:मदीना के लोग
श्रेणी:मक्का के लोग
श्रेणी:इस्लाम का इतिहास
श्रेणी:इस्लाम के पैग़म्बर
श्रेणी:धर्म प्रवर्तक |
युरोपिय संघ | https://hi.wikipedia.org/wiki/युरोपिय_संघ | REDIRECTयूरोपीय संघ |
युरोपीय संघ | https://hi.wikipedia.org/wiki/युरोपीय_संघ | REDIRECTयूरोपीय संघ |
द्ज़ोंगखा | https://hi.wikipedia.org/wiki/द्ज़ोंगखा | पुनर्प्रेषित जोङखा |
बेंजामिन उम्कापा | https://hi.wikipedia.org/wiki/बेंजामिन_उम्कापा | thumb|बेंजामिन उम्कापा
बेंजामिन उम्कापा अफ्रीका के देश तंजानिया के राष्ट्रपति थे, 1995 से 2005 तक।
श्रेणी:राजनीतिज्ञ |
चिकित्सा पद्धति | https://hi.wikipedia.org/wiki/चिकित्सा_पद्धति | पुनर्प्रेषित चिकित्सा सूची |
भारत के महानगरों की सूची | https://hi.wikipedia.org/wiki/भारत_के_महानगरों_की_सूची | भारत के महानगरों की सूची
दिल्ली
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मोकामा
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अहमदनगर
अमृतसर
लखनऊ
पुर
चंडीगढ़
श्रेणी:महानगर
श्रेणी: सासाराम |
अण्डमान | https://hi.wikipedia.org/wiki/अण्डमान | right|thumb|240px|मानचित्र अंदमान एवं निकोबार द्वीपसमूह (अंग्रेज़ी)
अंडमान बंगाल की खाड़ी में स्थित भारत के अंडमान व निकोबार द्वीपसमूह का उत्तरी भाग है। अंडमान अपने आंचल में मूंगे (कोरल) की दीवारों, साफ-स्वच्छ सागर तट, पुरानी यादों से जुड़े खंडहर और अनेक प्रकार की दुर्लभ वनस्पतियां संजोए हैं। इस द्वीपसमूह में कुल 572 द्वीप हैं। अंडमान का लगभग 86 प्रतिशत क्षेत्रफल जंगलों से ढका हुआ है। समुद्री जीवन, इतिहास और जलक्रीड़ाओं में रूचि रखने वाले सैलानियों को यह द्वीप बहुत रास आता है।
मुख्य आकर्षण
सेलुलर जेल
अंग्रेजी सरकार द्वारा भारत के स्वतंत्रता सैनानियों पर किए गए अत्याचारों की मूक गवाह इस जेल की नींव 1897 में रखी गई थी। इस जेल के अंदर 694 कोठरियां हैं। इन कोठरियों को बनाने का उद्देश्य बंदियों के आपसी मेल-जोल को रोकना था। आक्टोपस की तरह सात शाखाओं में फैली इस विशाल कारागार के अब केवल तीन अंश बचे हैं। कारागार की दीवारों पर वीर शहीदों के नाम लिखे हैं। यहाँ एक संग्रहालय भी है जहाँ उन अस्त्रों को देखा जा सकता है जिनसे स्वतंत्रता सैनानियों पर अत्याचार किए जाते थे।
कार्बिन कोव्स समुद्रतट
हरे-भरे वृक्षों से घिरा यह बीच एक मनोरम स्थान है। यहां समुद्र में डुबकी लगाकर पानी के नीचे की दुनिया का अवलोकन किया जा सकता है। यहां से सूर्यास्त का अद्भुत नजारा काफी आकर्षक प्रतीत होता है। यह बीच अपनी प्राकृतिक खूबसूरती के लिए लोकप्रिय है।
रॉस द्वीप
right|thumb|300px|रॉस द्वीप
यह द्वीप ब्रिटिश वास्तुशिल्प के खंडहरों के लिए प्रसिद्ध है। रॉस द्वीप 200 एकड़ में फैला हुआ है। फीनिक्स उपसागर से नाव के माध्यम से चंद मिनटों में रॉस द्वीप पहुंचा जा सकता है। सुबह के समय यह द्वीप पक्षी प्रेमियों के लिए स्वर्ग के समान है।
पिपोघाट फार्म
80 एकड़ में फैला पिपोघाट फार्म दुर्लभ प्रजातियों के पेड़-पौधों और जीव-जन्तुओं के लिए जाना जाता है। यहां एशिया का सबसे प्राचीन लकड़ी चिराई की मशीन छातास सा मिल है।
बेरन द्वीप
यहां भारत का एकमात्र सक्रिय है ज्वालामुखी है। यह द्वीप लगभग 3 किलोमीटर में फैला है। यहां का ज्वालामुखी 28 मई 2005 में फटा था। तब से अब तक इससे लावा निकल रहा है।
डिगलीपुर
उत्तरी अंडमान द्वीप में स्थित प्रकृति प्रेमियों को बहुत पसंद आता है। यह स्थान अपने संतरों, चावलों और समुद्री जीवन के लिए प्रसिद्ध है। यहां की सेडल पीक आसपास के द्वीपों से सबसे ऊंचा प्वाइंट है जो 732 मीटर ऊंचा है। अंडमान की एकमात्र नदी कलपोंग यहां से बहती है।
वाइपर द्वीप
right|thumb|300px|प्रवाल भित्ति (कोरल रीफ)
यहां किसी जमाने में गुलाम भारत से लाए गए बंदियों को पोर्ट ब्लेयर के पास वाइपर द्वीप पर उतारा जाता था। अब यह द्वीप एक पिकनिक स्थल के रूप में विकसित हो चुका है। यहां के टूटे-फूटे फांसी के फंदे निर्मम अतीत के साक्षी बनकर खड़े हैं।
सिंक व रडिस्किन द्वीप
यहां के स्वच्छ निर्मल पानी का सौंदर्य सैलानियों का मन मोह लेता है। इन द्वीपों में कई बार तेरती हुई डाल्फिन मछलियों के झुंड देखे जा सकते हैं। सीसे की तरह साफ पानी के नीचे जलीय पेड़-पौधे व रंगीन मछलियों को तेरते देखकर पर्यटक अपनी बाहरी दुनिया को अक्सर भूल जाते हैं।
आवागमन
वायु मार्ग-
पोर्ट ब्लेयर से चैन्नई, कोलकाता, दिल्ली, मुम्बई, बंगलूरू और भुवनेश्वर की दिन भर में 18 उड़ाने हैं। सभी प्रमुख एयर लाईन्स अपनी सेवाएं दे रही हैं।
जल मार्ग-
कोलकाता, चैन्नई और विशाखापट्टनम से पानी के जहाज पोर्ट ब्लेयर जाते हैं। जाने में दो-तीन दिन का समय लगता है। पोर्ट ब्लेयर से जहाज छूटने का कोई निश्चित समय नहीं है।
नाम की उत्पत्ति
विद्वानों का मानना है के "अण्डमान" शब्द "हनुमान" का एक और रूप है और संस्कृत मूल से मलय भाषा से होते हुए प्रचलित हो गया है। मलय में रामायण के "हनुमान" पात्र को "हन्डुमान" कहते हैं।
इन्हें भी देखें
right|thumb|300px|अण्डमान की एक आदिवासी युवा माँ अपने बच्चे को दूध पिलाती हुई
अंडमान के निवासी
सेल्यूलर जेल
द्वीपसमूह
बाहरी कड़ियाँ
अंडमान निकोबार: जिसे जापान ने अंग्रेजों से छीनकर 'नेताजी' को दे दिया
अंग्रेजों के विरुद्ध अंडमानी आदिवासी संघर्ष
Andaman District (official site)
Andaman
Andaman Association, Lonely Islands
सेल्युलर कारागार
सन्दर्भ
श्रेणी:अण्डमान और निकोबार द्वीपसमूह |
पोर्ट ब्लेयर | https://hi.wikipedia.org/wiki/पोर्ट_ब्लेयर | पोर्ट ब्लेयर (Port Blair) भारत के अण्डमान व निकोबार द्वीपसमूह केन्द्रशासित प्रदेश की राजधानी है। यह ऐतिहासिक नगर दक्षिण अण्डमान द्वीप पर स्थित है और प्रशासनिक दृष्टि से दक्षिण अण्डमान ज़िले में आता है।Government of India (2011), Andaman and Nicobar Islands Statistical Hand-Book - North and Middle Andaman, 2007-08 To 2009-10 "Andaman and Nicobar Islands: Past and Present," S. Ram (Editor), Akansha Publishing House, 2001, ISBN 9788187606093
दर्शनीय स्थल
यह क्षेत्र पहाड़ी भूरचना है। टिम्बर जैसी लकड़ियाँ यहाँ प्रचुरता से पायी जाती हैं, हरियाली भी भरपूर है। यहाँ समुद्र का पानी देखने में नीला है। बंगाल की खाड़ी के इस जल क्षेत्र में अनंत लैगून मिल जाएंगे, जिनमें रंगबिरंगी मछलियाँ अठखेलियाँ करती मिलेंगी। सेल्यूलर जेल, मानव विकास के इतिहास को चित्रित करता संग्रहालय (एंथ्राॉपोलॉजिकल म्यूजियम), समुद्र संग्रहालय, लघु उघोग संग्रहालय, मिनी ज़ू, चैथम सा मिल, कोरबाइन कोव बीच, मैरीन पार्क, वाइपर आइलैंड, सिपीघाट वाटर स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स।
अन्य स्थल
सिपीघाट फार्म (पोर्ट ब्लेयर से 14 किलोमीटर)
चिरिया टापू (30 किलोमीटर)
वांडूर बीच (30 किलोमीटर)
जॉली ब्वॉय
क्लक एंड रेड स्किन आइलैंड
आवागमन
हवाई जहाज से जाने वाले पर्यटकों के लिए इंडियन की सेवाएं उपलब्ध हैं। चोई, कोलकाता से ये पकड़ी जा सकती हैं। समुद्री जहाज से भी यहाँ आया जाता है। चोई से तीन जहाज यहाँ आते हैं, दूरी करीब 1190 किलोमीटर है। कोलकाता से पोर्ट ब्लेयर की दूरी 1255 किलोमीटर और विजयवाड़ा से 1200 किलोमीटर है। विशाखापटनम से भी राजधानी पोर्ट ब्लेयर के लिए जहाज जाता है। कोलकाता, चेन्नई और दिल्ली से राजधानी पोर्ट ब्लेयर आने के लिए सीधी विमान सेवाएं हैं। यहाँ आने के लिए समुद्री जहाज सौगात जैसी लगती है! हालांकि यहाँ यात्रा की कुछ बंदिशें हैं यानी कुछ चुने हुए द्वीपों में पर्यटन की अनुमति है। यही बात खूबसूरत तटों और मूंगों वाली विस्तृत जल क्षेत्र के लिए हैं।
इन्हें भी देखें
अण्डमान और निकोबार द्वीपसमूह
दक्षिण अण्डमान द्वीप
सन्दर्भ
*
श्रेणी:अण्डमान और निकोबार द्वीपसमूह के नगर
श्रेणी:दक्षिण अण्डमान ज़िले के नगर
श्रेणी:भारत की बंदरगाहें
श्रेणी:अण्डमान और निकोबार द्वीपसमूह |
पिपली | https://hi.wikipedia.org/wiki/पिपली | पिपली भारत के हरियाणा प्रान्त का शहर है।
राष्ट्रीय राजमार्ग 1 पर बसा यह कस्बा कुरुक्षेत्र का द्वार है तथा यहाँ का बस अड्डा कुरुक्षेत्र हाईवे बस अड्डा के नाम से भी जाना जाता है।
श्रेणी:हरियाणा के शहर
श्रेणी:कुरुक्षेत्र |
हाफलांग | https://hi.wikipedia.org/wiki/हाफलांग | हाफलांग (Haflong) भारत के असम राज्य के डिमा हासाओ ज़िले में स्थित एक शहर है। यह उस ज़िले का मुख्यालय भी है। यह शहर अपने सुहाने मौसम और प्राकृतिक दृश्यों के लिए माना जाता है।
इन्हें भी देखें
डिमा हासाओ ज़िला
सन्दर्भ
श्रेणी:डिमा हासाओ ज़िला
श्रेणी:असम के नगर
श्रेणी:डिमा हासाओ ज़िले के नगर |
डिब्रूगढ़ | https://hi.wikipedia.org/wiki/डिब्रूगढ़ | thumb|280px|डिब्रूगढ़ का दृश्य
thumb|280px|डिब्रूगढ़ में एक चाय बागान
डिब्रूगढ़ (Dibrugarh) भारत के असम राज्य के डिब्रूगढ़ ज़िले में स्थित एक शहर है। यह उस ज़िले का मुख्यालय भी है। अहोम भाषा की बुरंजी ऐतिहासिक कृतियों में शहर का नाम ती-फाओ (Ti-Phao) दिया गया है, जिसका अर्थ "स्वर्ग-स्थल" है।
विवरण
डिब्रूगढ़ ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे बसा हुआ है और हिमालय की शृंखलाओं के समीप है। यह पर्यटन के लिए महत्वपूर्ण है और एक ऐतिहासिक शहर है। डिब्रूगढ़ शहर असम के दो मुख्य शहर मैं से एक हैं जिसे एशियाई विकास बैंक से आर्थिक सहायता मिली है।
पर्यटन स्थल
डिब्रूगढ़ चाय बागानों की एक यात्रा असम की चाय दुनिया भर में जानी जाती है। शहर भर में कई चाय के बागान हैं, जो ब्रिटिश के समय से हैं। यहाँ भारी संख्या में पर्यटक आते हैं।
ब्रह्मपुत्र नदी
भारत में ब्रह्मपुत्र नदी विशाल नदियों में से एक मानी जाती है। हर साल यह हिमालय से वृहद रूप में नीचे आती है, शहरों और जंगलों को बाढ़ से ढक लेती है। डिब्रूगढ़ भी ब्रह्मपुत्र के बेहिसाब प्रवाह का एक बड़ा हिस्सा देखता है। फिर भी यह शहर की सुंदरता को बढ़ाती है।
डिब्रूगढ़ सतराओं की धार्मिक यात्रा
डिब्रूगढ़ के सतरा डिब्रूगढ़ पर्यटन के अभिन्न रूप हैं। अहोम राजाओं द्वारा पीछे छोड़ दी गई सांस्कृतिक धरोहरों सामाजिक, सांस्कृतिक और साथ ही धार्मिक संस्थाओं को सतरा कहा जाता है। यही सतरा ही डिब्रूगढ़ पर्यटन के प्रमुख आकर्षण हैं। दिन्जोय सतरा, कोली आई थान और दिहिंग सतरा घूमे बगैर अधूरी मानी जाती है। कोली आई थान असम में सबसे पुराना 'थान' माना जाता है, वहीं दिन्जोय सतरा और दीहिंग सतरा दोनों इतिहास और विरासत के साथ प्रभावकारी रूप से स्थापित हैं। आज ये सतरा असम की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के मूर्त रूप बन गए हैं।
यातायात
डिब्रूगढ़ ट्रेनों, विमानों और सड़क परिवहन के माध्यम से देश के बाकी हिस्सों से अच्छी तरह जुड़ा है। दिलचस्प बात है कि, देश के पूरबी शहर में डिब्रूगढ़ एक ऐसा शहर है जहां रेलवे स्टेशन है। यहां पर एक हवाई अड्डा भी है।
मौसम
डिब्रूगढ़ में साल भर एक सुखद मौसम रहता है। यहां का जलवायु पर्यटकों को वर्ष के किसी भी समय इस जगह की यात्रा करने के लिए संभव बनाता है।
इन्हें भी देखें
डिब्रूगढ़ ज़िला
सन्दर्भ
*
श्रेणी:असम के नगर
श्रेणी:डिब्रूगढ़ ज़िला
श्रेणी:डिब्रूगढ़ ज़िले के नगर |
धर्मशाला | https://hi.wikipedia.org/wiki/धर्मशाला | right|thumb|300px|स्वर्णकारों की धर्मधाला (रेलवे मार्ग, हरिद्वार)
उन घरों या स्थानों को धर्मशाला कहते हैं जहाँ तीर्थयात्रियों को निःशुल्क या अत्यन्त कम शुल्क पर ठहरने की व्यवस्था होती है। प्राचीन काल से ये भारत में प्रचलित हैं।
श्रेणी:हिन्दू धर्म
श्रेणी:भारतीय संस्कृति |
बक्सर | https://hi.wikipedia.org/wiki/बक्सर | बक्सर (Buxar) भारत के बिहार राज्य के बक्सर ज़िले में स्थित एक नगर है। यह उस ज़िले का मुख्यालय भी है।"Bihar Tourism: Retrospect and Prospect ," Udai Prakash Sinha and Swargesh Kumar, Concept Publishing Company, 2012, ISBN 9788180697999"Revenue Administration in India: A Case Study of Bihar," G. P. Singh, Mittal Publications, 1993, ISBN 9788170993810
भारत के पूर्वी प्रदेश बिहार के पश्चिम भाग में गंगा नदी के तट पर स्थित एक ऐतिहासिक शहर है। यहाँ की अर्थ-व्यवस्था मुख्य रूप से खेतीबारी पर आधारित है। यह शहर मुख्यतः धर्मिक स्थल के नाम से जाना जाता है। प्राचीन काल में इसका नाम 'व्याघ्रसर' था। क्योंकि उस समय यहाँ पर बाघों का निवास हुआ करता था तथा एक बहुत बड़ा सरोवर भी था जिसके परिणामस्वरुप इस जगह का नाम व्याघ्रसर पड़ा।
बक्सर पटना से लगभग ७५ मील पश्चिम और मुगलसराय से ६० मील पूर्व में पूर्वी रेलवे लाइन के किनारे स्थित है। यह एक व्यापारिक नगर भी है। यहाँ बिहार का एक प्रमुख कारागृह हैं जिसमें अपराधी लोग कपड़ा आदि बुनते और अन्य उद्योगों में लगे रहते हैं। सुप्रसिद्ध बक्सर की लड़ाई शुजाउद्दौला और कासिम अली खाँ की तथा अंग्रेज मेजर मुनरो की सेनाओं के बीच यहाँ ही १७६४ ई॰ में लड़ी गई थी जिसमें अंग्रेजों की विजय हुई। इस युद्ध में शुजाउद्दौला और कासिम अली खाँ के लगभग २,००० सैनिक डूब गए या मारे थे। कार्तिक पूर्णिमा को यहाँ बड़ा मेला लगता है, जिसमें लाखों व्यक्ति इकट्ठे होते हैं।
इतिहास
इसका इतिहास गौरवपूर्ण रहा है। बक्सर में गुरु विश्वामित्र का आश्रम था। यहीं पर राम और लक्ष्मण का प्रारम्भिक शिक्षण-प्रशिक्षण हुआ। प्रसिद्ध ताड़का राक्षसी का वध राम द्वारा यहीं पर किया गया था। 1764 ई॰ का 'बक्सर का युद्ध' भी इतिहास प्रसिद्ध है। इसी नाम का एक ज़िला शाहबाद (बिहार में) का अनुमंडल है। बक्सर के युद्ध (1764) के परिणामस्वरूप निचले बंगाल का अंतिम रूप से ब्रिटिश अधिग्रहण हो गया। मान्यता है कि एक महान पवित्र स्थल के रूप में पहले इसका मूल नाम 'वेदगर्भ' था। कहा जाता है कि वैदिक मंत्रों के बहुत से रचयिता इस नगर में रहते थे। इसका संबंध भगवान राम के प्रारंभिक जीवन से भी जोड़ा जाता है।
उत्खनन
मौर्यकाल की अनेक सुंदर लघु मूर्तियाँ बक्सर उत्खनन में प्राप्त हुई थीं जो अब पटना संग्रहालय में सुरक्षित हैं।
जनसँख्या
2011 की जनगणना के अनुसार बक्सर ज़िले की कुल जनसंख्या लगभग 1,707,643 है।
इन्हें भी देखें
बक्सर की लड़ाई
मीर कासिम ने अवध के नवाब से सहायता की याचना की, नवाब शुजाउदौला इस समय सबसे शक्ति शाली था। मराठे पानीपत की तीसरी लड़ाई से उबर नहीं पाए थे, मुग़ल सम्राट तक उसके यहाँ शरणार्थी था, उसे अहमद शाह अब्दाली की मित्रता प्राप्त थी
जनवरी 1764 में मीर कासिम उस से मिला उसने धन तथा बिहार के प्रदेश के बदले उसकी सहायता खरीद ली। शाह आलम भी उनके साथ हो लिया। किंतु तीनो एक दूसरे पर शक करते थे।
इन्हें भी देखें
बक्सर का युद्ध
बक्सर ज़िला
सन्दर्भ
श्रेणी:बक्सर जिला
श्रेणी:बिहार के शहर
श्रेणी:बक्सर ज़िले के नगर |
इटानगर | https://hi.wikipedia.org/wiki/इटानगर | REDIRECTईटानगर |
अरूणाचल प्रदेश | https://hi.wikipedia.org/wiki/अरूणाचल_प्रदेश | REDIRECT अरुणाचल प्रदेश |
आर के लक्ष्मण | https://hi.wikipedia.org/wiki/आर_के_लक्ष्मण | रासीपुरम कृष्णस्वामी लक्ष्मण (संक्षेप में आर॰के॰ लक्ष्मण; २४ अक्टूबर १९२१ – २६ जनवरी २०१५) भारत के प्रमुख हास्यरस लेखक और व्यंग-चित्रकार थे। उन्हें द कॉमन मैन नामक उनकी रचना और द टाइम्स ऑफ़ इंडिया के लिए उनके प्रतिदिन लिखी जाने वाली कार्टून शृंखला "यू सैड इट" के लिए जाना जाता है जो वर्ष १९५१ में आरम्भ हुई थी।
लक्ष्मण ने अपना कार्य स्थानीय समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में अंशकालिक कार्टूनकार के रूप में अपना कैरियर आरम्भ किया था। जबकि कॉलेज छात्र के रूप में उन्होंने अपने बड़े भाई आर॰के॰ नारायण की कहानियों को द हिन्दू में चित्रित किया। उनका पहला पूर्णकालिक कार्य मुम्बई में द फ्री प्रेस जर्नल में राजनीतिक कार्टूनकार के रूप में आरम्भ किया था। उसके बाद उन्होंने द टाइम्स ऑफ़ इंडिया में कार्य करना आरम्भ कर दिया और कॉमन मैन के चरित्र ने उन्हें प्रसिद्धि दी।
जन्म और बाल्यावस्था
आर॰के॰ लक्ष्मण का जन्म मैसूर में सन् १९२१ में हुआ। उनके पिता प्रधानाचार्य थे और लक्ष्मण उनकी छः सन्तानों में सबसे छोटे थे। उनके एक बड़े भाई आर॰के॰ लक्ष्मण उपन्यासकार के रूप में प्रसिद्ध हुए। लक्ष्मण पाइड पाइपर ऑफ़ डेल्ही (दिल्ली का चितकबरा मुरलीवाला) से प्रसिद्ध हुए।
उन्हें प्रसिद्धि मिलने से पूर्व ही द स्ट्रैंड, पंच, बायस्टैंडर, वाइड वर्ल्ड और टिट-बिट्स जैसी पत्रिकाओं में चित्रकारी का कार्य कर चुके थे। शीघ्र ही उन्होंने अपने ऊपर, फूलों पर, अपने घर की दिवारों पर और विद्यालय में अपने अध्यापकों का विरूप-चित्रण आरम्भ कर दिया; उनकी पीपल का पत्ता चित्रित करने की एक अध्यापक ने प्रशंसा की और उन्हें एक कलाकार नज़र आने लगा। इसके अलावा उनपर एक शुरुआती प्रभाव विश्व-प्रसिद्ध ब्रितानी कार्टूनकार डेविड लो का पड़ा।
व्यवसाय
आरम्भ में
लक्ष्मण का प्रारम्भिक कार्य स्वराज्य और ब्लिट्ज़ नामक पत्रिकाओं सहित समाचार पत्रों में रहा। उन्होंने मैसूर महाराजा महाविद्यालय में पढ़ाई के दौरान अपने बड़े भाई आर॰के॰ नारायण कि कहानियों को द हिन्दू में चित्रित करना आरम्भ कर दिया तथा स्थानीय तथा स्वतंत्र के लिए राजनीतिक कार्टून लिखना आरम्भ कर दिया। लक्ष्मण ने कन्नड़ हास्य पत्रिका कोरवंजी में भी कार्टून लिखने का कार्य किया। यह पत्रिका १९४२ में डॉ॰ एम॰ शिवरम ने स्थापित की थी, इस पत्रिका के संस्थापक एलोपैथिक चिकित्सक थे तथा बैंगलोर के राजसी क्षेत्र में रहते थे। उन्होंने यह मासिक पत्रिका विनोदी, व्यंग्य लेख और कार्टून के लिए यह समर्पित की। शिवरम अपने आप में प्रख्यात कन्नड हास्य रस लेखक थे। उन्होंने लक्ष्मण को भी प्रोत्साहित किया।
लक्ष्मण ने मद्रास के जैमिनी स्टूडियोज में ग्रीष्मकालीन रोजगार आरम्भ कर दिया। उन्होंने अपना प्रथम पूर्णकालिक व्यवसाय मुम्बई के द फ्री प्रेस जर्नल के राजनीतिक कार्टूनकार के रूप में किया। इस पत्रिका में बाल ठाकरे उनके साथी कार्टूनकार थे। लक्ष्मण इसके बाद द टाइम्स ऑफ़ इंडिया, बॉम्बे से जुड़ गये तथा उसमें लगभग पचास वर्षों तक कार्य किया। उनका "कॉमन मैन" चरित्र प्रजातंत्र के साक्षी के रूप में चित्रित हुआ।ऋतु गौरोला खंडूरी, २०१४, Caricaturing Culture in India: Cartoons and History of the Modern World (अंग्रेज़ी में), कैम्ब्रिज यूविवर्सिटी प्रेसRitu Gairola Khanduri. 2012. "Picturing India: Nation, Development and the Common Man." Visual Anthropology 25(4): 303-323.
व्यक्तिगत जीवन
thumb|left|कार्टूनकार शेखर गुरेरा द्वारा आर॰के॰ लक्ष्मण को एक श्रद्धांजली
लक्ष्मन का पहला विवाह भरतनाट्यम् नर्तकी और फ़िल्म अभिनेत्री कुमारी कमला लक्ष्मण के साथ हुआ। कुमारी कमला ने अपना फ़िल्मी कैरियर बाल-कलाकार के रूप में आरम्भ किया था। उनके तलाक के समय तक उनकी कोई सन्तान नहीं थी तथा लक्ष्मण ने दूसरा विवाह कर लिया। उनकी दूसरी पत्नी का नाम भी कमला लक्ष्मण ही था। वो एक लेखिका तथा बाल-पुस्तक लेखिका थीं। लक्ष्मण ने "द स्टार आई नेवर मेट" नामक कार्टून शृंखला और फ़िल्म पत्रिका फिल्मफेयर में अपनी दूसरी पत्नी कमला लक्ष्मण का "द स्टार आई ऑनली मेट" शीर्षक से कार्टून चित्रित किया। दम्पती के एक पुत्र हुआ।
सितम्बर २००३ में, उनके बायें भाग को लकवा मार गया। उन्होंने आंशिक रूप से इसके प्रभावों से मुक्ति प्राप्त कर लिया। २० जून २०१० की शाम को लक्ष्मण को मुम्बई के ब्रीच कैंडी अस्पताल में भर्ती करवाया गया और बाद में पुणे स्थानान्तरित किया गया।
अक्टूबर २०१२ में लक्ष्मण ने पुणे में अपना ९१वाँ जन्मदिन मनाया। शिव सेना प्रमुख बाल ठाकरे, वैज्ञानिक जयन्त नार्लीकर तथा सिम्बायोसिस विश्वविद्यालय के कुलपति एस॰बी॰ मजुमदार ने भी इसमें भाग लिया।
सम्मान एवं पुरस्कार
बी डी गोयनका पुरस्कार - दि इन्डियन एक्सप्रेस द्वारा।
दुर्गा रतन स्वर्ण पदक - हिन्दुस्तान टाइम्स द्वारा।
पद्म विभूषण - भारत सरकार
पद्म भूषण - भारत सरकार
रमन मैग्सेसे पुरस्कार (१९८४)
कृतियाँ
दि एलोक्वोयेन्ट ब्रश
द बेस्ट ऑफ लक्षमण सीरीज
होटल रिवीयेरा
द मेसेंजर
सर्वेन्ट्स ऑफ इंडिया
द टनल ऑफ टाईम (आत्मकथा)
मल्टी-मीडिया
इंडिया थ्रू थे आईज ऑफ़ आर. के. लक्ष्मण-देन टू नाउ (सीडी रोम)
लक्ष्मण रेखास-टाइम्स ऑफ़ इंडिया प्रकाशन
आर. के. लक्ष्मण की दुनिया- सब टीवी पर एक शो
सन्दर्भ
टिप्पणी
सन्दर्भ पुस्तकें
श्रेणी:1921 में जन्मे लोग
श्रेणी:२०१५ में निधन
श्रेणी:भारतीय कार्टूनिस्ट
श्रेणी:मैसूर के लोग
श्रेणी:मैगसेसे पुरस्कार विजेता
श्रेणी:पद्म भूषण सम्मान प्राप्तकर्ता
श्रेणी:पद्म विभूषण धारक |
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