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गयी थी, बताइए तो? घर न आकर अचानक गायब क्यों हो गये थे?"
गायब होने का कारण विस्तार के साथ सुना दिया। सुनकर आनन्द ने कहा, "भविष्य में अब कभी इस तरह न भागियेगा। किस तरह इनके दिन कटे हैं, सो ऑंख से देखे बगैर विश्वास नहीं किया जा सकता।"
यह मैं जानता था। लिहाजा, ऑंखों से बिना देखे ही मैंने विश्वास कर लिया। रतन चाय और हुक्का दे गया। आनन्द ने कहा, "मैं भी बाहर जाता हूँ भाई साहब। इस वक्त आपके पास बैठे रहने से कोई एक जनी शायद इस जनम में मेरा मुँह न देखेंगी।" यह कहकर हँसते हुए उन्होंने प्रस्थान किया।
कुछ देर बाद राजलक्ष्मी ने प्रवेश करके अत्यन्त स्वाभाविक भाव से कहा, "उस कमरे में गरम पानी, अंगौछा, धोती, सब रख आई हूँ- सिर्फ सिर और देह अंगौछकर कपड़े बदल डालो जाकर। बुखार में, खबरदार, सिर पर पानी न डाल लेना, कहे देती हूँ।"
मैंने कहा, "मगर स्वामीजी से तुमने गलत बात सुनी है; बुखार मुझे नहीं है।"
राजलक्ष्मी ने कहा, "नहीं है तो न सही, पर होने में देर कितनी लगती है?"
मैंने कहा, "इसकी खबर तो तुम्हें ठीक दे नहीं सकता, पर मारे गर्मी के मेरा तो सारा शरीर जला जा रहा है, नहाना जरूरी है मेरे लिए।"
राजलक्ष्मी ने कहा, "जरूरी है क्या? तो फिर अकेले तुमसे न बन पड़ेगा। चलो, मैं भी तुम्हारे साथ चलती हूँ।" इतना कहकर वह खुद ही हँस पड़ी और बोली, "क्यों झगड़ा करके मुझे तकलीफ दे रहे हो और खुद भी परेशानी उठा रहे हो। इतनी अबेर में मत नहाओ, मान जाओ, तुम्हें मेरी कसम है।"
इस ढंग की बात करने में राजलक्ष्मी बेजोड़ है। अपनी इच्छा को ही जबर्दस्ती दूसरे के कन्धों पर लाद देने के कड़घएपन को वह स्नेह के मधुर रस से इस तरह भर दे सकती है कि उस जिद के विरुद्ध किसी का भी कोई संकल्प सिर नहीं उठा सकता। बात बिल्कुाल तुच्छ है, स्नान |
न करने से भी मेरा चल जायेगा; किन्तु जिन्हें किये बिना नहीं चल सकता ऐसे कामों में भी, बहुत बार देखा है कि, उसकी इच्छा-शक्ति को अतिक्रम करके चलने की शक्ति मुझमें नहीं। मुझमें ही क्यों, किसी में भी वह शक्ति मैंने नहीं देखी। मुझे उठाकर वह भोजन लाने चली गयी। मैंने कहा, "पहले तुम्हारे ब्राह्मण-भोजन का काम निबट जाने दो न?"
राजलक्ष्मी ने आश्चर्य के साथ कहा, "माफ करो तुम, वह काम निबटते-निबटते तो साँझ हो जायेगी।"
सो हो जाने दो।"
राजलक्ष्मी ने हँसते हुए कहा, "ठीक है। ब्राह्मण-भोजन को मेरे ही सिर रहने दो, उसके लिए तुम्हें भूखा रखने से मेरी स्वर्ग की सीढ़ी ऊपर के बदले बिल्कुकल पाताल की ओर चली जायेगी।" यह कहकर वह भोजन लेने चल दी।
कुछ ही समय बाद जब वह मेरे पास भोजन कराने बैठी, तब देखा कि सामने रोगी का पथ्य है। ब्रह्मभोज की सारी गुरुपाक वस्तुओं के साथ उसका कोई सम्बन्ध न था। मालूम हुआ कि मेरे आने के बाद ही उसने उसे अपने हाथ से तैयार किया है। फिर भी, जबसे आया हूँ, उसके आचरण में- उसकी बातचीत के ढंग से, कुछ ऐसा अनुभव कर रहा था जो केवल अपरिचित ही नहीं था, अतिशय नूतन भी था। वही खिलाने के समय बिल्कुरल स्पष्ट हो गया, परन्तु वह कैसे और किस तरह सुस्पष्ट हो गया, कोई पूछता तो मैं उसे अस्पष्टता से भी न समझा सकता। शायद यही बात प्रत्युत्तर में कह देता कि जान पड़ता है मनुष्य की अत्यन्त व्यथा की अनुभूति को प्रकाश करने की भाषा अब भी आविष्कृत नहीं हुई। राजलक्ष्मी खिलाने बैठी, किन्तु खाने-न खाने के सम्बन्ध में उसकी पहले जैसी अभ्यस्त जबर्दसती नहीं थी, था सिर्फ व्याकुल अनुनय। जोर नहीं, भिक्षा। बाहर के नेत्रों से वह चीज नहीं पकड़ी जाती, केवल मनुष्य की निभृत हृदय की अपलक ऑंखें ही देख सकती हैं।
भोजन समाप्त हो गया। राजलक्ष्मी बोली, "तो अब मैं जाऊँ?"
अतिथि सज्जन बाहर इकट्ठे हो रहे थे। मैंने कहा, "जाओ।"
मेरे जूठे बर्तन हाथ में लेकर जब वह धीरे-धीरे कमरे से बाहर हो गयी; तब बहुत देर तक मैं अन्यमनस्क होकर उस ओर चुपचाप देखता रहा। खयाल आने लगा कि राजलक्ष्मी को जैसा छोड़ गया था, इन थोड़े से दिनों में ठीक वैसा तो उसे नहीं पाया। आनन्द कहता था कि दीदी कल से ही एक तरह से उपवास कर रही हैं, आज भी जलस्पर्श नहीं किया है; और कल कब उनका उपवास टूटेगा इसका भी कोई निश्चय नहीं। यह असम्भव नहीं। हमेशा से ही देखता आ रहा हूँ कि उसका धर्मपिपासु चित्त कभी किसी भी कृच्छ साधना से पराङ्मुख नहीं रहा। यहाँ आने के बाद से तो सुनन्दा के साहचर्य से उसकी वह अविचलित निष्ठा बढ़ती ही जा रही थी। आज उसे थोड़ी ही देर देखने का अवकाश पाया है, किन्तु जिस दुर्जेय रहस्मय मार्ग पर वह अविश्रान्त द्रुतगति से पैर उठाती हुई चल रही है; उसे देखते हुए खयाल आया कि उसके निन्दित जीवन की संचित कालिमा चाहे जितनी अधिक हो वह उसके समीप तक नहीं पहुँच सकती। किन्तु मैं? उसके मार्ग के बीच उत्तुंग गिरिश्रेणी के समान सब कुछ रोककर खड़ा हूँ।
काम-काज समाप्त करके राजलक्ष् |
मी ने जब निःशब्द पैर रखते हुए घर में प्रवेश किया तब शायद दस बज चुके थे। रोशनी कम करके, बहुत ही सावधानी से मेरी मशहरी खींचकर वह अपनी शय्या पर सोने जा रही थी कि मैंने कहा, "तुम्हारा ब्रह्मभोज तो संध्याा के पहले ही समाप्त हो गया था; फिर इतनी रात कैसे हो गयी?"
राजलक्ष्मी पहले चौंकी, फिर हँसकर बोली, "मेरी तकदीर! मैं तो डरती-डरती आ रही हूँ कि तुम्हारी नींद न टूट जाय, परन्तु तुम तो अब तक जाग रहे हो, नींद नहीं आई?"
तुम्हारी आशा से ही जाग रहा हूँ।"
मेरी आशा से? तो बुलवा क्यों न लिया?" यह कहकर वह पास आई और मसहरी का एक किनारा उठाकर मेरी शय्या के सिरहाने बैठ गयी। फिर हमेशा के अभ्यास के अनुसार मेरे बालों में उसने अपने दोनों हाथों की दसों अंगुलियाँ डालते हुए कहा, "मुझे बुलवा क्यों न लिया?"
बुलाने से क्या तुम आतीं? तुम्हें कितना काम रहता है!"
रहे काम! तुम्हारे बुलाने पर 'ना' कह सकूँ यह मेरे वश की बात है?"
इसका कोई उत्तर न था। जानता हूँ, सचमुच ही मेरे आह्नान की परवा न करने की शक्ति उसमें नहीं है। किन्तु, आज इस सत्य को भी सत्य समझने की शक्ति मुझमें कहाँ है?
राजलक्ष्मी ने कहा, "चुप क्यों हो रहे?"
सोच रहा हूँ।"
सोच रहे हो? क्या सोच रहे हो?" यह कहकर उसने धीरे से मेरे कपाल पर अपना मस्तक झुकाकर आहिस्ते से कहा, "मुझ पर गुस्सा होकर घर से चले गये थे?"
तुमने यह कैसे जाना कि गुस्सा होकर चला गया था?"
राजलक्ष्मी ने मस्तक नहीं उठाया, आहिस्ते से कहा, "यदि मैं गुस्सा होकर चली जाऊँ तो क्या तुम नहीं जान पाओगे?"
बोला, "शायद जान लूँगा।"
राजलक्ष्मी ने कहा, "तुम 'शायद' जान पाओ, परन्तु मैं तो निश्चयपूर्वक जान सकती हूँ और तुम्हारे जानने की अपेक्षा बहुत ज्यादा जान सकती हूँ।"
मैंने हँसकर कहा, "ऐसा ही होगा। इस विवाद म |
ें तुम्हें हराकर मैं विजयी नहीं होना चाहता लक्ष्मी, स्वयं हार जाने की अपेक्षा तुम्हारे हारने से मेरी बहुत अधिक हानि है।"
राजलक्ष्मी ने कहा, "यदि जानते हो तो फिर कहते क्यों हो?"
मैं बोला, "कहाँ कहता हूँ! कहना तो बहुत दिनों से बन्द कर दिया है, यह बात शायद तुम्हें मालूम नहीं।"
राजलक्ष्मी चुप हो रही। पहले होता तो राजलक्ष्मी मुझे सहज में न छोड़ती- हजारों प्रश्न करके इसकी कैफियत तलब करके ही मानती, किन्तु इस समय वह मौन-मुख से स्तब्ध ही रही। कुछ समय बाद मुँह उठाकर उसने दूसरी बात छेड़ दी। पूछा, "तुम्हें क्या इस बीच ज्वर आ गया था? घर पर मुझे खबर क्यों न भेजी?"
खबर न भेजने के कारण बतलाए। एक तो खबर लाने वाला आदमी नहीं था, दूसरे, जिनके पास खबर भेजनी थी वे कहाँ हैं यह भी मालूम न था। किन्तु मैं कहाँ और किस हालत में था, यह सविस्तार बतलाया। चक्रवर्ती-गृहिणी के पास से आज सवेरे ही विदा लेकर आया हूँ। उस दीन-हीन गृहस्थ परिवार में जिस हाल में मैं आश्रय लिया था और जिस प्रकार बेहद गरीबी में गृहिणी ने अज्ञात कुलशील रोगग्रस्त अतिथि की पुत्र से भी अधिक स्नेह-शुश्रूषा की थी वह कहने लगा तो कृतज्ञता और वेदना से मेरी ऑंखें ऑंसुओं से भर गयीं।
राजलक्ष्मी ने हाथ बढ़ाकर मेरे ऑंसू पोंछ दिये और कहा, "तो वे ऋणमुक्त हो जाँय, इसके लिए उन्हें कुछ रुपये क्यों नहीं भेज देते?"
मैंने कहा, "रुपये होते तो भेजता, पर मेरे पास रुपये तो हैं नहीं।"
मेरी इन बातों से राजलक्ष्मी को मर्मान्तक पीड़ा होती थी। आज भी वह मन ही मन उतनी ही दुःखित हुई, लेकिन, उसका सब पैसा-रुपया मेरा ही है, यह बात आज उसने उतने जोर से प्रकट नहीं की। पहले तो इस बात पर वह कलह करने के लिए तैयार हो जाया करती थी। वह चुप रही।
उसमें आज यह नयी बात देखी। मेरी इस बात पर उसका इस प्रकार शान्त चुपचाप बैठे रहना मुझे भी अखरा। थोड़ी देर बाद वह एक दीर्घ निःश्वास छोड़कर सीधे बैठ गयी। मानो इस दीर्घ निःश्वास से उसने अपने चारों ओर छाये हुए वाष्पाच्छन्न आवरण को फाड़ देना चाहा। घर की धीमी रोशनी में उसका चेहरा अच्छी तरह नहीं देख सका; लेकिन, जिस समय उससे बात की उससे कण्ठ-स्वर में मैंने एक आश्चर्यजनक परिवर्तन पाया। राजलक्ष्मी बोली, बर्मा से तुम्हारी चिट्ठी का जवाब आया है। दफ्तर का बड़ा लिफाफा है, जरूरी समझकर आनन्द से पढ़वा लिया है।"
उसके बाद?"
बड़े साहब ने तुम्हारी दरखास्त मंजूर कर ली है और जतलाया है कि वापस जाने पर पहली नौकरी फिर मिल जायेगी।"
हाँ। लाऊँ वह चिट्ठी?"
नहीं, ठहरो। कल सुबह देखूँगा।"
फिर हम दोनों चुप हो रहे। क्या कहूँ, किस तरह यह चुप्पी भंग करूँ, यह न सोच सकने के कारण मन ही मन उद्विग्न होने लगा। अकस्मात् मेरे सिर पर ऑंसू की एक बूँद टपक पड़ी। मैंने धीरे से पूछा, "मेरी दरखास्त मंजूर हुई है, यह तो बुरी खबर नहीं है। लेकिन तुम रो क्यों पड़ीं?"
राजलक्ष्मी ऑंचल से ऑंसू पोंछकर बोली, "तुम फिर अपनी नौकरी के लिए विदेश चले जाने की चेष्टा कर रहे हो, यह बात तुमने मु |
झे बतलाई क्यों नहीं? क्या तुमने समझा था कि मैं रोकूँगी?"
मैंने कहा, "नहीं, बल्कि बतलाने पर तो तुम और उत्साहित करतीं। लेकिन, इसलिए नहीं- मालूम होता है कि मैंने सोचा था कि इन सब छोटी बातों के सुनने के लिए तुम्हारे पास समय न होगा।"
राजलक्ष्मी चुप हो रही। लेकिन उसने अपना उच्छ्वसित निःश्वास रोकने के लिए प्राण-पण से जो कोशिश की, वह मुझसे छिपी न रही। पर यह हालत क्षण भर ही रही। उसके बाद उसने मीठे स्वर में कहा, "इस बात का जवाब देकर अपने अपराध का बोझ और न बढ़ाऊँगी। तुम जाओ, मैं बिल्कुथल न रोकूँगी।"
यह कहकर वह थोड़ी ही देर चुप रहकर फिर बोली, "तुम यहाँ न आते तो ऐसा मालूम होता है कि मैं कभी यह जान ही न पाती कि मैं तुम्हें कैसी दुर्गति मैं खींच लाई हूँ। यह गंगामाटी का अन्धकूप स्त्रियों के लिए गुजारे लायक हो सकता है, लेकिन पुरुषों के लिए नहीं। यहाँ का बेकार और उद्देश्यहीन जीवन तो तुम्हारे लिए आत्महत्या के समान है। यह मैंने तुम्हारी ऑंखों से स्पष्ट देखा है।"
मैंने पूछा, "या तुम्हें किसी ने दिखा दिया है?"
राजलक्ष्मी बोली, "नहीं। मैंने खुद ही देखा है। तीर्थयात्रा की थी, पर भगवान को नहीं देख पाई। उसके बदले केवल तुम्हारा लक्ष्य-भ्रष्ट नीरस चेहरा ही दिन-रात दिखाई देता रहा। मेरे लिए तुम्हें बहुत त्याग करना पड़ा है; किन्तु अब और नहीं।"
इतनी देर तक मेरे मन में एक जलन ही थी; किन्तु उसके कण्ठ-स्वर की अनिर्वचनीय करुणा से मैं विह्वल हो गया। बोला, "तुम्हें क्या कम त्याग करना पड़ा है लक्ष्मी? गंगामाटी तुम्हारे लायक भी तो नहीं है?"
लेकिन, यह बात कहकर मैं संकोच से भर गया, क्योंकि, मेरे मुख से लापरवाही से भी जो गर्हित बात निकल गयी, वह इस तीक्ष्ण बुद्धिशालिनी रमणी से छिप न सकी। पर आज उसने मुझे माफ कर दिया। मा |
लूम होता है, बात की अच्छाई बुराई पर मान अभिमान का जाल बुनकर नष्ट करने के लिए उसके पास समय ही नहीं था, बोली, "बल्कि मैं ही गंगामाटी के योग्य नहीं हूँ- सभी यह बात नहीं समझ सकेंगे; पर तुम्हें यह समझना चाहिए कि मुझे सचमुच ही कुछ त्याग नहीं करना पड़ा। लोगों ने एक दिन पत्थर की तरह मेरी छाती पर जो भार रख दिया था क्या सिर्फ वही दूर हो गया है? नहीं। आजीवन तुम्हीं को चाहा था, इसलिए, तुम्हें पाकर जो मुझे त्याग से असंख्य गुना बदला मिल गया है, सो क्या तुम नहीं जानते?"
जवाब न दे सका। जैसे कोई अन्तरतम का वासी मुझसे यह बात कहने लगा, "भूल हुई है, तुमसे भारी भूल हुई है। उसे न समझकर तुमने बड़ा अविचार किया है।"
राजलक्ष्मी ने ठीक इसी तार पर चोट की। कहा, "सोचा था कि तुम्हारे ही लिए कभी यह बात तुम्हें न बतलाऊँगी; लेकिन, आज मैं अपने को और नहीं रोक सकी। मुझे सबसे अधिक दुःख इसी बात का हो रहा है कि तुम अनायास ही यह कैसे सोच सके कि पुण्य के लोभ का मुझे ऐसा उन्माद हो गया है कि मैंने तुम्हारी उपेक्षा करनी शुरू कर दी है? क्रुद्ध होकर चले जाने के पहले यह बात तुम्हें एक बार भी याद न आई कि इस काल और पर काल में राजलक्ष्मी के लिए तुम्हारी अपेक्षा लाभ की चीज और कौन-सी है!"
यह कहते-कहते उसकी ऑंखों के ऑंसू झर-झर के मेरे मुँह पर आ पड़े।
बातों से तसल्ली देने की भाषा उस समय मन में न आ सकी, सिर्फ माथे के ऊपर रक्खा हुआ उसका दाहिना हाथ अपने हाथ में ले लिया। राजलक्ष्मी बायें हाथ से ऑंसू पोंछकर कुछ देर चुपचाप बैठी रही।
उसके बाद बोली, "मैं देख आऊँ, लोगों का खाना-पीना हो चुका या नहीं। तुम सो जाओ।"
यह कहकर वह आहिस्ते से हाथ छुड़ाकर बाहर चली गयी। उसे पकड़ रखना चाहता तो रख सकता था; लेकिन चेष्टा नहीं की। वह भी फिर लौटकर नहीं आई। जब तक नींद नहीं आई तब तक यही बात सोचता रहा कि जबर्दस्ती रोक रखता तो लाभ क्या होता? मेरी ओर से तो कभी कोई जोर था ही नहीं; सारा जोर उसकी तरफ से था। आज अगर वही बन्धन खोलकर मुझे मुक्त करते हुए अपने आपको भी मुक्त करना चाहती है, तो मैं उसे किस तरह रोकूँ?
सुबह जागने पर पहले उसकी खाट की ओर नजर डाली तो मालूम हुआ कि राजलक्ष्मी कमरे में नहीं है। रात को वह आई ही नहीं, या बड़े तड़के ही उठकर बाहर चली गयी, यह भी मैं न समझ सका। बाहरी कमरे में जाकर देखा तो वहाँ कुछ कोलाहल-सा हो रहा है। रतन केटली से गरम चाय पात्र में डाल रहा है और उसके पास ही बैठी राजलक्ष्मी स्टोव पर सिंघाड़े और कचौरियाँ तल रही है। वज्रानन्द खाद्य-सामग्री की ओर अपनी निस्पृह निरासक्त दृष्टि से देख रहे हैं। मुझे आते देख राजलक्ष्मी ने अपने भीगे बालों पर ऑंचल खींच लिया और वज्रानन्द कलरव कर उठे, "आ गये भाई, आपको देरी होते देख समझा था कि कहीं सब कुछ ठण्डा न हो जाय।"
राजलक्ष्मी ने हँसकर कहा, "हाँ, तुम्हारे पेट में जाकर सब ठण्डा हो जाता।"
आनन्द ने कहा, "बहन, साधु-सन्यासी का आदर करना सीखिए। ऐसी कड़ी बात न कहिए।"
फिर मुझसे कहा, "कहो, तबीयत तो ठ |
ीक नहीं दिखती, जरा हाथ तो देखूँ।"
राजलक्ष्मी ने घबराकर कहा, "रहने दो आनन्द, तुम्हारी डॉक्टरी की जरूरत नहीं है; उनकी तबीयत ठीक है।"
यही निश्चय करने के लिए तो एक बार हाथ..."
राजलक्ष्मी बोली, "नहीं, तुम्हें हाथ देखने की जरूरत नहीं। तुम्हें क्या लगता है, अभी साबूदाने की व्यवस्था दे दोगे।"
मैंने कहा, "साबूदाना मैंने बहुत खाया है, इसलिए, मैं उसकी व्यवस्था देने पर भी नहीं सुनूँगा।"
तुम्हें सुनने की जरूरत भी नहीं है।" कहकर राजलक्ष्मी ने थोड़े से गरम सिंघाड़ों और कचौरियों की प्लेट मेरी ओर बढ़ा दी और फिर रतन से कहा, "अपने बाबू को चाय दे।"
वज्रानन्द ने सन्यासी होने के पहले डॉक्टरी पास की थी, अतः वे सहज ही हार मानने वाले नहीं थे; गर्दन हिलाते हुए बोलने लगे, "लेकिन बहन, आप पर एक उत्तरदायित्व..."
राजलक्ष्मी ने बीच ही में उनकी बात काट दी, "लो सुनो, इनका उत्तरदायित्व मुझ पर नहीं तो क्या तुम पर है? आज तक जितना उत्तरदायित्व कन्धों पर लेकर इन्हें खड़ा रखा गया है, उसे यदि सुनते तो बहिन के पास डॉक्टरी करने न आते।"
यह कहकर राजलक्ष्मी ने बाकी की सारी की सारी खाद्य-सामग्री एक थाल में रखकर उनकी ओर सरकाते हुए हँसकर कहा, "अब खाओ यह सब, बातें बन्द करो।"
आनन्द 'हें हें' करते हुए बोला, "अरे, क्या इतना खाया जा सकता है?"
राजलक्ष्मी ने कहा, "न खाया जायेगा तो सन्यासी बनने क्यों गये थे? और पाँच भले-मानसों की तरह गृहस्थ बने रहते!"
आनन्द की दोनों ऑंखें सहसा भर आयीं। बोला, "आप जैसी बहिनों का दल इस बंगाल में है तभी तो सन्यासी बना हूँ, नहीं तो, कसम खाकर कहता हूँ कि यह गेरुआ-एरुआ अजया के जल में बहाकर घर चला जाता। लेकिन, मेरा एक अनुरोध है बहिन। परसों से ही तुमने एक तरह से उपास कर रक्खा है, इसलिए आज पूजा-पाठ आदि से जर |
ा जल्दी ही निबट लेना। इन चीजों में अब भी कोई स्पर्श-दोष नहीं लगा है। यदि आप कहें- न हो तो" कहकर उन्होंने सामने की भोज्य सामग्री पर नजर डाली।
राजलक्ष्मी डरकर ऑंखें फाड़ती हुई बोली, "यह कहते क्या हो आनन्द, कल तो हमारे सारे ब्राह्मण आ नहीं सके थे!"
मैंने कहा, "तो वे पहले भोजन कर जावें, उसके बाद सही।"
आनन्द बोला, "ऐसा है तो लो, मुझे ही उठना पड़ा। उनके नाम और पते दो-पाखण्डियों को गले में अंगोछा डालकर खींच लाऊँगा और भोजन कराकर छोड़ूँगा।"
यह कहकर वह उठने के बदले थाल खींचकर भोजन करने लगा!
राजलक्ष्मी हँसकर बोली, "सन्यासी हैं न, देव-ब्राह्मणों में बड़ी भक्ति है!"
इस तरह हमारा सबेरे का चाय-नाश्ते का काम जब पूरा हुआ तो आठ बज चुके थे। आकर बाहर बैठ गया। शरीर में भी ग्लानि नहीं थी और हँसी-ठट्ठे से मन भी मानों स्वच्छ प्रसन्न हो गया था। राजलक्ष्मी की विगत रात्रि की बातों और आज की बातों तथा आचरण में कोई एकता नहीं थी। उसने अभिमान और वेदना से दुःखित होकर ही वैसी बातें की थीं, इसमें सन्देह नहीं रहा। वास्तव में रात के स्तब्ध अन्धकार के आवरण में तुच्छ और मामूली घटना को बड़ी और कठोर कल्पना करके जिस दुःख और दुश्चिन्ता को भोगा था, आज दिन के प्रकाश में, उसे याद करके मैं मन ही मन लज्जित हुआ और कौतुक भी अनुभव किया।
कल की तरह आज उत्सव-समारोह नहीं था, तो भी, दिन-भर बीच-बीच में न्यौते और बिना न्यौते लोगों के भोजन का सिलसिला बराबर जारी रहा। फिर एक बार हम लोग चाय का सरो-सामान लेकर कमरे के फर्श पर आसन लगाकर बैठ गये। शाम का काम-काज समाप्त करके राजलक्ष्मी भी थोड़ी देर के लिए हम लोगों के कमरे में आयी।
वज्रानन्द बोले, "स्वागत है, बहिन।"
राजलक्ष्मी ने उनकी ओर हँसते हुए देखकर कहा, "मैं समझती हूँ कि अब सन्यासी की देव-सेवा आरम्भ हो गयी है, इसीलिए न इतना आनन्द है!"
आनन्द ने कहा, "तुमने झूठा नहीं कहा बहिन, संसार में जितने आनन्द हैं उनमें भजनानन्द और भोजनानन्द ही श्रेष्ठ हैं, और शास्त्र का कथन है कि त्यागी के लिए तो दूसरा ही सर्वश्रेष्ठ है।"
राजलक्ष्मी बोली, "हाँ, तुम जैसे सन्यासियों के लिए!"
आनन्द ने जवाब दिया, "यह भी झूठ नहीं है, बहिन। आप गृहिणी हैं, इसीलिए इसका मर्म नहीं ग्रहण कर सकीं। तभी तो हम त्यागियों का दल इधर मौज कर रहा है और आप तीन दिन से सिर्फ दूसरों को खिलाने में लगी हैं और खुद उपवास करके मर रही हैं!"
राजलक्ष्मी बोली, "मर कहाँ रही हूँ, भाई? दिन पर दिन तो देख रही हूँ, इस शरीर की श्रीवृद्धि ही हो रही है।"
आनन्द बोले, "इसका कारण यही है कि वह होने के लिए बाध्यो है। उस बार भी आपको देख गया था, इस बार भी आकर देख रहा हूँ। आपकी ओर देखकर ऐसा नहीं मालूम होता कि कोई संसार की चीज देख रहा हूँ, यह जैसे दुनिया से अलग और ही कुछ है।"
राजलक्ष्मी का मुँह लज्जा से लाल हो उठा।
मैंने उससे हँसकर कहा, "देखी तुमने अपने आनन्द की युक्ति-प्रणाली?"
यह सुनकर आनन्द भी हँसकर बोला, "यह तो युक्ति नहीं,- स्तुति है। भैया, यदि |
यह दृष्टि होती तो क्यों नौकरी की दरखास्त देने बर्मा जाते? अच्छा बहिन, किस दुष्ट-बुद्धि देवता ने भला इस अन्धे आदमी को तुम्हारे मत्थे मढ़ दिया था? उसे क्या और कोई काम नहीं था?"
राजलक्ष्मी हँस पड़ी। फिर अपने माथे पर हाथ ठोककर बोली, "देवता का दोष नहीं है भाई, दोष इस ललाट का है और इनको तो इनका बड़ा भारी दुश्मन भी दोष दे नहीं सकता।" यह कहकर उसने मुझे दिखाते हुए कहा- "पाठशाला में ये थे सबके सरदार। जितना पढ़ाते न थे उससे बहुत ज्यादा मारते थे। उस समय पढ़ती तो थी सिर्फ 'बोधोदय'। पर, पुस्तक का बोध तो क्या होना था, बोध हुआ और एक तरह का। बच्ची थी, फूल कहाँ पाती, जंगली करौंदों की माला गूँथकर इन्हें एक दिन वरमाला पहिना दी। सोचती हूँ उस समय अगर उन फलों के साथ काँटे भी गूँथ देती!"
बोलते-बोलते उसका कुपित कण्ठ-स्वर दबी हँसी की आभा से सुन्दर हो उठा।
आनन्द बोला, "ओह! कैसा भयानक गुस्सा है!"
राजलक्ष्मी बोली, "गुस्सा नहीं तो क्या है? काँटे लाकर देनेवाला कोई और होता तो जरूर गूँथ देती। अब भी पाऊँ तो गूँथ दूँ।"
यह कहकर वह तेजी से बाहर जा रही थी कि आनन्द ने पुकारकर कहा, "भागती हो?"
क्यों, क्या और कोई काम नहीं है? चाय की प्याली हाथ में लिये उन्हें कलह करने का समय है, मुझे नहीं है।"
आनन्द ने कहा, "बहन, मैं तुम्हारा अनुगत हूँ। पर इस अभियोग में शह देने में तो मुझे भी लज्जा का अनुभव होता है। ये मुँह से एक भी बात निकालते, तो इन्हें इसमें घसीटने की चेष्टा भी की जाती; पर एकदम गूँगे आदमी को कैसे फन्दे में डाला जाए? और डाला भी जाए तो धर्म कैसे सहन करेगा?"
राजलक्ष्मी बोली, "इसी की तो मुझे सबसे बड़ी जलन है। अच्छा, अब जो धर्म को सहन हो वही करो। चाय बिल्कुतल ठण्डी हो गयी। मैं तब तक एक बार रसोईघर का चक्कर लगा आऊँ।"
य |
ह कहकर राजलक्ष्मी कमरे के बाहर हो गयी।
वज्रानन्द ने पूछा, "बर्मा जाने का विचार क्या अब भी है भाई साहब? लेकिन बहिन साथ हर्गिज नहीं जाँयगी, यह मुझसे कह चुकी हैं।"
यह मैं जानता हूँ।"
तो फिर?"
तब अकेले ही जाना होगा।"
वज्रानन्द ने कहा, "देखिए, यह आपका अन्याय है। आप लोगों को पैसा कमाने की जरूरत तो है नहीं, फिर क्यों जाँयगे दूसरे की गुलामी करने?"
कम से कम उसका अभ्यास बनाये रखने के लिए!"
यह तो गुस्से की बात हुई भाई।"
पर गुस्से के सिवाय क्या मनुष्य के लिए और कोई कारण नहीं होता आनन्द?"
आनन्द बोला, "हो भी, तो वह दूसरे के लिए समझना कठिन है।"
इच्छा तो हुई कि कहूँ, "यह कठिन काम दूसरे करें ही क्यों", पर वाद-विवाद से चीज पीछे कड़वी हो जाती है, इस आशंका से चुप हो गया।
इसी समय बाहर का काम निबटाकर राजलक्ष्मी ने कमरे में प्रवेश किया। इस बार वह खड़ी न रहकर भलमनसी के साथ आनन्द के पास स्थिरतापूर्वक बैठ गयी। आनन्द ने मुझे लक्ष्य करके कहा, "बहिन, इन्होंने कहा है कि कम से कम गुलामी का अभ्यास बनाये रखने के लिए इन्हें विदेश जाना चाहिए। मैंने कहा कि यदि यही चाहिए तो आइए मेरे काम में योग दीजिए, विदेश न जाकर देश की गुलामी में ही दोनों भाई जिन्दगी बिता दें।"
राजलक्ष्मी बोली, "लेकिन, यह तो डॉक्टरी नहीं जानते आनन्द।"
आनन्द बोला, "क्या मैं सिर्फ डॉक्टरी ही करता हूँ? स्कूल पाठशालाएँ भी तो चलाता हूँ और उन लोगों की दुर्दशा आज कितनी ओर से और कितनी अधिक हो रही है, इसे बराबर समझाने की चेष्टा करता हूँ।"
पर वे समझते हैं क्या?"
आनन्द ने कहा, "आसानी से नहीं समझते। किन्तु, मनुष्य की शुभ इच्छा यदि हृदय से सत्य होकर बाहर निकलती है, तो चेष्टा व्यर्थ नहीं जाती, बहिन।"
आनन्द ने पूछा, "सर क्यों हिला दिया?"
राजलक्ष्मी ने पहले कुछ हँसने की चेष्टा की, फिर स्निग्ध मधुर कण्ठ से कहा, "देश की दुर्दशा कितनी बड़ी है, यह मैं भी जानती हूँ आनन्द। पर तुम्हारे अकेले की चेष्टा से क्या होगा भाई?" फिर मेरी ओर इशारा करके कहा, "और ये सहायता करने जाँयगे? तब तो हो गया, फिर तो मेरी तरह तुम्हारे दिन भी इन्हीं की सेवा में कटेंगे; और कोई काम न करना होगा।"
यह कहकर वह हँस पड़ी।
उसको हँसते देख आनन्द भी हँसकर बोला, "तो इनको ले जाने की जरूरत नहीं है बहिन, ये चिरकाल तक तुम्हारी ऑंखों के मणि होकर रहें। पर यह अकेले-दुकेले की बात नहीं है। अकेले मनुष्य की भी आन्तरिक इच्छा-शक्ति इतनी बड़ी होती है कि उसका परिमाण नहीं होता- बिल्कुलल वामनावतार के पाँव की तरह। बाहर से देखने पर छोटा है, पर वही छोटा-सा पाँव जब फैलता है सब सारे संसार को ढँक देता है।"
मैंने देखा कि वामनावतार की उपमा से राजलक्ष्मी का चित्त कोमल हो गया है; किन्तु जवाब में उसने कुछ नहीं कहा।
आनन्द कहने लगा, "शायद आपकी ही बात ठीक है, मैं विशेष कुछ नहीं कर सकता। लेकिन, एक काम करता हूँ। जहाँ तक हो सकता है, दुखियों के दुःखों का अंश मैं बँटाता हूँ बहिन।"
राजलक्ष्मी और भी आर्द्र होकर बोली, "य |
ह मैं जानती हूँ आनन्द। यह तो मैंने उसी दिन समझ लिया था जिस दिन तुम्हें पहले-पहल देखा था।"
मालूम होता है कि आनन्द ने इस बात पर ध्याथन नहीं दिया और वह अपनी ही बात के सिलसिले में कहने लगा, "आप लोगों की तरह मुझे भी किसी चीज का अभाव नहीं है। बाप का जो कुछ है वह आनन्द से जीवन बिताने के लिए जरूरत से ज्यादा है, पर मेरा उससे कुछ सरोकार नहीं है। इस दुखी देश में सुखभोग की लालसा भी यदि इस जीवन में रोककर रख सकूँ तो मेरे लिए यही बहुत है।"
रतन ने आकर बतलाया कि रसोइए ने भोजन तैयार कर लिया है।
राजलक्ष्मी ने उसे आसन तैयार करने का आदेश देकर कहा, "आज तुम लोग भोजन से जल्दी ही निबट लो आनन्द, मैं बहुत थक गयी हूँ।"
वह थक गयी थी, इसमें सन्देह नहीं, लेकिन थकने की दुहाई देते उसे कभी नहीं देखा था। हम दोनों चुपचाप उठ बैठे। आज का प्रभात हम लोगों की एक बड़ी भारी प्रसन्नता में से होकर हँसी-दिल्लगी के साथ आरम्भ हुआ था और संध्याझ की मजलिस भी जमी थी। हास-परिहास से उज्ज्वल होकर, किन्तु समाप्त हुई मानो निरानन्द के मलिन अवसाद के साथ। जिस समय हम लोग भोजन करने के लिए रसाईघर की ओर चले उस समय किसी के मुँह से कोई बात नहीं निकली।
दूसरे दिन सबेरे वज्रानन्द ने प्रस्थान की तैयारी कर दी। और कभी यदि किसी के कहीं जाने की चर्चा उठती तो राजलक्ष्मी हमेशा आपत्ति किया करती। अच्छा दिन नहीं है, अच्छी घड़ी नहीं है, आदि कारण बतलाकर, आज नहीं कल, कल नहीं परसों, करके बहुत बाधा डालती थी। लेकिन, आज उसने मुँह से एक बात भी नहीं निकाली। विदा लेकर आनन्द जिस समय तैयार हुआ उस समय पास जाकर उससे मीठे स्वर से पूछा, "आनन्द, अब क्या न आओगे भाई?"
मैं पास ही था, इसलिए, स्पष्ट देख सका, सन्यासी की ऑंखों की दीप्ति अस्पष्ट सी हो गयी है, किन्तु तत्काल ही आ |
त्म-संवरण करके वह मुँह पर हँसी लाते हुए बोला, "आऊँगा क्यों नहीं बहिन, अगर जीवित रहा तो बीच-बीच में उत्पात करने के लिए हाजिर होता रहूँगा।"
लेकिन, हम लोग तो जल्द ही चले जाँयगे। जहाँ हम रहेंगे वहाँ आओगे क्या?"
हुक्म देने पर आऊँगा क्यों नहीं।"
राजलक्ष्मी ने कहा, "आना। अपना पता मुझे लिख दो, मैं तुम्हें चिट्ठी लिखूँगी।"
आनन्द ने जेब से कागज-पेन्सिल निकालकर पता लिखा और उसके हाथ में दे दिया। सन्यासी होकर भी दोनों हाथ जोड़कर मस्तक से लगाते हुए उसने हम दोनों को नमस्कार किया और रतन ने आकर उसकी पद-धूलि ग्रहण की। उसे आशीर्वाद दे वह धीरे-धीरे मकान के बाहर हो गया।
सन्यासी वज्रानन्द अपना औषधियों का बॉक्स और केनवास का बैग लेकर जिस दिन बाहर गया उस दिन से जैसे वह इस घर का आनन्द ही छीन-छानकर ले गया। यही नहीं, मुझे ऐसा लगा मानो वह उस शून्य स्थान को छिद्रहीन निरानन्द से भर गया। घने सिवार से भरे हुए जलाशय का जल, जो अपने अविश्रान्त चांचल्य के अभिघातों से निर्मल हो रहा था, मानो उसके अर्न्तध्याजन होने के साथ ही साथ लिपटकर एकाकार होने लगा। तो भी, छह-सात दिन कट गये।
राजलक्ष्मी प्रायः सारे दिन घर से बाहर रहती है। कहाँ जाती है, क्या करती है, नहीं जानता, उससे पूछता भी नहीं। शाम को जब एक बार उससे भेंट होती है तो उस वक्त वह या तो अन्यमनस्क दिखाई देती है या गुमाश्ताजी साथ होते हैं और काम-काज की बातें होती रहती हैं। अकेले घर में उस 'आनन्द' की बार-बार याद आती है जो मेरा कोई नहीं है। खयाल आता, यदि वह अकस्मात् आ जाय, तो सिर्फ मैं ही खुश होता यह बात नहीं है, बरामदे की दूसरी ओर चिराग की रोशनी में बैठी हुई राजलक्ष्मी भी, जो न जाने क्या करने की चेष्टा कर रही है, मैं समझता हूँ, उतनी ही खुश होती। ऐसा ही लगने लगा। एक दिन जिनके उन्मुख युग्म-हृदय जिस बाहर का सब प्रकार का संस्रव परिहार करके एकान्त सम्मिलन की आकांक्षा से व्याकुल रहते थे, आज टूटने-विच्छिन्न होने के दिन उसी बाहर की उन्हें कितनी बड़ी जरूरत है? ऐसा लगता है कि चाहे कोई भी हो यदि वह एक बार बीच में आकर खड़ा हो जाय, तो मानो जान बच जाय।
इस तरह जब दिन कटना मुश्किल हो गया, तब रतन एकाएक आकर उपस्थित हो गया। वह अपनी हँसी दबाने में असमर्थ था। राजलक्ष्मी घर पर थी नहीं, इसलिए उसे डरने की ज़रूरत नहीं थी, तो भी वह एक बार सावधानी से चारों ओर नज़र दौड़ाकर आहिस्ते से बोला, "मालूम होता है आपने सुना नहीं।"
मैं बोला, "नहीं, क्या बात है?"
रतन बोला, "दुर्गा माता कृपा करें कि माँ की यही बुद्धि अन्त तक बनी रहे। हम सब दो-चार दिन में ही यहाँ से चल रहे हैं।"
कहाँ चल रहे हैं?"
रतन ने एक बार और दरवाजे के बाहर देख लिया और कहा, "यह तो ठीक-ठीक अब भी नहीं मालूम कर सका हूँ। या तो पटना या काशी और या- लेकिन, इनके अतिरिक्त तो और कहीं माँ का अपना मकान है नहीं।"
मैं चुप रहा। इतनी बड़ी बात पर भी मुझे चुप और उत्सुकता रहित देखकर उसे ऐसा मालूम हुआ कि मैं उसकी बात पर विश्वास नहीं कर रह |
ा हूँ, इसीलिए, वह अपने दबे गले की सारी ताकत लगाकर बोल उठा, "मैं सच कह रहा हूँ। हमारा चलना निश्चित है। आः, जान बचे तब तो, है न ठीक?"
मैंने कहा, "हाँ।"
रतन बहुत खुश होकर बोला, "दो-चार दिन और सबके साथ तकलीफ झेल लीजिए, बस। अधिक से अधिक एक हफ्ते की बात और है, इससे ज्यादा नहीं। माँ गंगामाटी की सारी व्यवस्था कुशारी महाशय के साथ ठीक कर चुकी है। अब सामान बाँध-बूँधकर एक बार 'दुर्गा दुर्गा' कहकर चल देना ही बाकी रहा है। हम सब ठहरे शहर के निवासी, क्या यहाँ हमारा मन कभी लग सकता है?" यह कहकर वह प्रसन्नता के आवेग में उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना ही बाहर चला गया।
रतन को कोई बात अज्ञात नहीं थी। उसकी समझ में मैं भी राजलक्ष्मी के अनुचरों में से एक था, इससे अधिक और कुछ नहीं। वह जानता था कि किसी के भी मतामत का कोई मूल्य नहीं है, सबकी पसन्द और नापसन्द मालकिन की इच्छा और अभिरुचि पर ही निर्भर है।
जो आभास रतन दे गया उसका मर्म वह खुद नहीं समझता था, लेकिन, उसके वाक्य का वह गूढ़ अर्थ, देखते ही देखते, मेरे चित्त-पट में चारों ओर से परिस्फुट हो उठा। राजलक्ष्मी की शक्ति की सीमा नहीं है। उस विपुल शक्ति को लगाकर वह संसार में जैसे अपने आपको लेकर ही खेल खेल रही है। एक दिन इस खेल में मेरी ज़रूरत हुई थी, उसकी उस एकाग्र-वासना के प्रचण्ड आकर्षण को रोकने की क्षमता मुझमें नहीं थी। मैं झुककर आया था, मुझे वह बड़ा बनाकर नहीं लाई थी। सोचता था, मेरे लिए उसने अनेक स्वार्थ-त्याग किये हैं; पर आज दिखाई पड़ा कि ठीक यही बात नहीं है। राजलक्ष्मी के स्वार्थ का केन्द्र इतने समय तक देखा नहीं था, इसीलिए ऐसा सोचता आया हूँ। धन, अर्थ, ऐश्वर्य-बहुत कुछ उसने छोड़ा है, लेकिन क्या मेरे ही लिए? इन सबने कूड़े के ढेर की तरह क्या उसका निजी प्रयो |
जन का ही रास्ता नहीं रोका है? राजलक्ष्मी के निकट मेरे और मुझे प्राप्त करने के बीच कितना प्रभेद है यह सत्य मुझ पर आज प्रकट हुआ। आज उसका चित्त इस लोक के सब-कुछ पाये हुए को तुच्छ करके अग्रसर होने को तैयार हुआ है। उसके उस पथ के बीच खड़े होने के लिए मुझे स्थान नहीं है। इसलिए, अन्यान्य कूड़े-कचरे की तरह अब मुझे भी रास्ते के एक तरफ अनादर से पड़ा रहना पड़ेगा, चाहे वह कितना ही दुःख दे। पर अस्वीकार करने के लिए मार्ग नहीं है। अस्वीकार किया भी नहीं कभी।
दूसरे दिन सबेरे ही जान पाया कि चालाक रतन ने जो तथ्य संग्रह किया था वह गलत नहीं है। गंगामाटी-सम्बन्धी सारी व्यवस्था स्थिर हो गयी है। राजलक्ष्मी के ही मुँह से मुझे इस बात का पता लगा है। प्रातःकाल नियमित पूजा-पाठ करके वह और दिनों की तरह बाहर नहीं गयी। धीरे-धीरे आकर मेरे पास बैठ गयी और बोली, "परसों इसी वक्त अगर खा-पीकर हम सब यहाँ से निकल सकें तो साँईथिया में पच्छिम की गाड़ी आसानी से मिल सकती है, न?"
मैं बोला, "मिल सकती है।"
राजलक्ष्मी ने कहा, "यहाँ का सब बन्दोबस्त मैं एक तरह से पूरा कर चुकी हूँ। कुशारी महाशय जिस तरह देख-रेख रखते थे, उसी तरह रखेंगे।"
मैंने कहा, "अच्छा ही हुआ।"
राजलक्ष्मी कुछ देर चुप रही। मालूम होता था कि प्रश्न को ठीक तौर से आरम्भ नहीं कर सकती थी, इसीलिए अन्त में बोली, "बंकू को चिट्ठी लिख दी है कि वह गाड़ी रिजर्व करके स्टेशन पर हाजिर रहेगा। लेकिन रहे तब तो?"
मैंने कहा, "जरूर रहेगा। वह तुम्हारा हुक्म नहीं टालेगा।"
राजलक्ष्मी बोली, "नहीं, जहाँ तक हो सकेगा टालेगा नहीं, तो भी- अच्छा तुम क्या हमारे साथ नहीं चल सकोगे?"
कहाँ जाना होगा, यह प्रश्न नहीं कर सका। सिर्फ इतना ही मुँह से निकला, "अगर मेरे चलने की जरूरत समझो तो चल सकता हूँ।"
इसके प्रत्युत्तर में राजलक्ष्मी कुछ न बोल सकी। कुछ देर चुप रहने के बाद सहसा घबराकर बोल उठी, "अरे, तुम्हारे लिए चाय तो अब तक लाया ही नहीं।"
मैं बोला, "मालूम होता है वह काम में व्यस्त है।"
वास्तव में चाय लाने का समय काफी गुजर चुका था। और दिन होता तो वह नौकरों का ऐसा अपराध कभी क्षमा न कर सकती, बक-झककर तूफान-वर्षा कर देती, लेकिन उस समय जैसे वह एक प्रकार की लज्जा से मर गयी और एक भी बात न कहकर तेजी से कमरे के बाहर हो गयी।
निश्चित दिन को प्रस्थान के पहले समस्त प्रजाजन आये और घेरकर खड़े हो गये। डोम की लड़की मालती को फिर एक बार देखने की इच्छा थी, लेकिन, उसने इस गाँव को छोड़कर किसी और ही गाँव में अपनी गृहस्थी जमा ली है, इसलिए नहीं देख सका। पता लगा कि उस जगह वह अपने पति के साथ सुखी है। दोनों कुशारी-बन्धु अपने परिवार सहित रात रहते ही आ गये। जुलाहे का सम्पत्ति-सम्बन्धी झगड़े का निबटारा हो जाने से वे फिर एक हो गये हैं। राजलक्ष्मी ने कैसे यह सब किया इसे विस्तारपूर्वक जानने का कौतूहल भी नहीं था, और न जाना ही। उनके मुँह की ओर देखकर केवल इतना ही जान सका कि झगड़े का अन्त हो गया है और पूर्व-संचित अनबन की ग |
्लानि अब किसी भी पक्ष के मन में मौजूद नहीं है।
सुनन्दा आई और उसने अपने बच्चे को लेकर मुझे प्रणाम किया। कहा, "हम सबको आप जल्दी न भूल जाँयगे, यह मैं जानती हूँ। इसके लिए तो प्रार्थना करना व्यर्थ है।"
मैंने हँसकर कहा, "तो मुझसे और किस बात के लिए प्रार्थना करोगी बहिन?"
मेरे बच्चे को आप आशीर्वाद दें।"
मैं बोला, "यही तो व्यर्थ प्रार्थना है, सुनन्दा। तुम जैसी माँ के बच्चे को क्या आशीर्वाद दिया जाय, यह तो मैं भी नहीं जानता, बहिन।"
राजलक्ष्मी किसी काम से पास ही से जा रही थी। यह बात ज्यों ही उसके कानों पड़ी, वह कमरे के अन्दर आ खड़ी हुई और सुनन्दा की ओर से बोली, "इस बच्चे को यह आशीर्वाद दे चलो कि यह बड़ा होकर तुम्हारे ही जैसा मन पाये।"
मैंने हँसकर कहा, "बड़ा अच्छा आशीर्वाद है! शायद तुम्हारे बच्चे से लक्ष्मी मजाक करना चाहती है, सुनन्दा।"
बात समाप्त होने के पहले ही राजलक्ष्मी बोल उठी, "मजाक करना चाहूँगी अपने ही बच्चे के साथ, और वह भी चलने के समय?"
यह कहकर वह क्षण-भर स्तब्ध रहकर बोली, "मैं भी इसकी माँ के समान हूँ। मैं भी भगवान से प्रार्थना करती हूँ कि वे इसे यही दें। इससे बड़ा तो मैं कोई और वर जानती नहीं।"
सहसा मैंने देखा, उसकी दोनों ऑंखों में ऑंसू भर आये हैं। और कुछ भी न कहकर वह कमरे से बाहर चली गयी।
इसके बाद सबसे मिलकर, ऑंखों में ऑंसू भरे हुए, गंगामाटी से विदा ली। यहाँ तक कि रतन भी फिर-फिरकर ऑंखें पोंछने लगा। जो यहाँ रहने वाले थे उन्होंने हम सबसे फिर आने के लिए अत्यधिक अनुरोध किया और सबने उन्हें फिर आने का वचन भी दिया, केवल मैं ही न दे सका। मैंने ही निश्चित रूप से समझा था कि इस जीवन में अब मेरा यहाँ लौटना सम्भव नहीं है। इसलिए जाते समय इस छोटे-से गाँव को बार-बार फिर-फिरकर देखते समय मन में |
केवल यही विचार उत्पन्न होने लगा कि अपरिमेय माधुर्य और वेदना से परिपूर्ण एक वियोगान्त नाटक की यवनिका अभी ही गिरी है; नाट्यशाला के दीप बुझ गये हैं और अब मनुष्यों से परिपूर्ण संसार की सहस्र-विधा भीड़ में से मुझे रास्ते पर बाहर निकलना पड़ेगा। किन्तु, जिस मन को जनता के बीच बड़ी होशियारी से कदम रखने की जरूरत है, मेरा वही मन जैसे नशे की खुमारी से एकदम आच्छन्न हो रहा।
शाम के बाद हम सब साँईथिया आ पहुँचे। राजलक्ष्मी के किसी भी आदेश और उपदेश की बंकू ने अवहेलना नहीं की। सब इन्तजाम करके वह स्टेशन के प्लेटफार्म पर खुद उपस्थित था। यथासमय गाड़ी आई और वह सरो-सामान लादकर, रतन को नौकरों के डिब्बे में चढ़ा, विमाता को लेकर गाड़ी में बैठ गया। लेकिन, उसने मेरे साथ कोई घनिष्ठता दिखाने की चेष्टा नहीं की, क्योंकि, अब उसका मूल्य बढ़ गया है; घर-बार रुपये-पैसे लेकर अब संसार में वह विशेष आदमियों में गिना जाने लगा है। बंकू विलक्षण व्यक्ति है। सभी अवस्थाओं को मानकर चलना जानता है। यह विद्या जिसे आती है, संसार में उसे दुःख-भोग नहीं करना पड़ता।
गाड़ी छूटने में अब भी पाँच मिनट की देरी है; लेकिन, मेरी कलकत्ते जानेवाली गाड़ी तो आयेगी प्रायः रात के पिछले पहर। एक ओर स्थिर होकर खड़ा था। राजलक्ष्मी ने गाड़ी की खिड़की से मुँह निकालकर हाथ के इशारे से मुझे बुलाया। पास पहुँचते ही कहा, "जरा अन्दर आओ।" अन्दर जाने पर उसने हाथ पकड़कर मुझे पास बिठा लिया और कहा, "तुम क्या बहुत जल्दी ही बर्मा चले जाओगे? जाने के पहले क्या एक बार और नहीं मिल सकोगे?"
मैं बोला, "अगर जरूरत हो तो मिल सकता हूँ।"
राजलक्ष्मी धीरे से बोली, "संसार जिसे जरूरत कहता है वह नहीं। केवल एक बार और देखना चाहती हूँ। आओगे?"
कलकत्ते पहुँचकर चिट्ठी भेजोगे?"
बाहर गाड़ी छूटने का अन्तिम घण्टा बज उठा और गार्ड ने अपनी हरी रोशनी बार-बार हिलाकर गाड़ी छोड़ने का संकेत किया। राजलक्ष्मी ने झुककर मेरे पाँवों की धूल ली और मेरा हाथ छोड़ दिया। मैंने ज्यों ही नीचे उतरकर गाड़ी का दरवाजा बन्द किया, गाड़ी रवाना हो गयी। रात अंधेरी थी, अच्छी तरह कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता था, सिर्फ प्लेटफार्म के मिट्टी के तेल के लैम्पों ने धीरे-धीरे सरकती हुई गाड़ी की उस खुली खिड़की की एक अस्पष्ट नारी-मूर्ति पर कुछ रोशनी डाली।
कलकत्ता आकर मैंने चिट्ठी भेजी और उसका जवाब भी पाया। यहाँ कोई अधिक काम तो था नहीं, जो कुछ था वह पन्द्रह दिन में समाप्त हो गया। अब विदेश जाने का आयोजन करना होगा। लेकिन, उसके पहले वादे के अनुसार एक बार फिर राजलक्ष्मी से मिल आना होगा। दो सप्ताह और भी यों ही बीत गये। मन में एक आशंका थी कि न जाने उसका क्या मतलब हो, शायद आसानी से छोड़ना नहीं चाहे, या इतनी दूर जाने के विरुद्ध तरह-तरह के उज्र और आपत्तियाँ खड़ी करके जिद करे- कुछ भी असम्भव नहीं है। इस समय वह काशी में है। उसके रहने का पता भी जानता हूँ; इधर उसके दो-तीन पत्र भी आ चुके हैं, और यह भी विशेष रूप से लक्ष्य कर चुका हूँ |
कि मेरे वादे को याद दिलाने के सम्बन्ध में कहीं भी उसने इशारा करने का प्रयत्न नहीं किया है। न करने की तो बात ही है। मन ही मन कहा, अपने को इतना छोटा बनाकर मैं भी शायद मुँह खोलकर यह नहीं लिख सकता कि तुम आकर एक बार मुझसे मिल जाओ। देखते-देखते अकस्मात् मैं जैसे अधीर हो उठा। और इस जीवन के साथ वह इतनी जकड़ी हुई है, यह बात इतने दिन कैसे भूला हुआ था, यह सोचकर अवाक् हो गया। घड़ी निकालकर देखी, अब भी समय है, गाड़ी पकड़ी जा सकती है। तब समान डेरे पर पड़ा रहा और मैं बाहर निकल पड़ा।
इधर-उधर फैली हुई चीजों को देखकर मन में आया, रहें ये सब पड़ी हुईं। मेरी जरूरतों को जो मुझसे भी अधिक अच्छी तरह जानती है, उसी के उद्देश्य से-उसी से मिलने के लिए, जब यात्रा करना है, तब यह जरूरतों का बोझा नहीं ढोऊँगा। रात को गाड़ी में किसी तरह नींद नहीं आई, अलस तन्द्रा के झोंकों से मुँदी हुई दोनों ऑंखों की पलकों पर कितने विचार और कितनी कल्पनाएँ खेलती हूई घूमने लगीं उनका आदि-अन्त नहीं। शायद, अधिकांश ही विशृंखल थीं, परन्तु, सभी जैसे मधु से भरी हुईं। धीरे-धीरे सुबह हुई, दिन चढ़ने लगा, लोगों के चढ़ने-उतरने, बोलने-पुकारने और दौड़-धूप करने की हद नहीं, तेज धूप के कारण चारों ओर कहीं भी कुहरे का चिह्न नहीं रहा; पर, मेरी ऑंखें बिल्कुईल वाष्पाछन्न हो रहीं।
रास्ते में गाड़ी लेट हो जाने के कारण राजलक्ष्मी के काशी के मकान पर जब मैं पहुँचा तो बहुत देरी हो गयी थी। बैठक के सामने एक बूढ़े से ब्राह्मण हुक्का पी रहे थे। उन्होंने मुँह उठाकर पूछा, "क्या चाहते हैं?"
यह सहसा नहीं बतला सका कि क्या चाहता हूँ। उन्होंने फिर पूछा, "किसे खोज रहे हैं?"
किसे खोज रहा हूँ, सहसा यह बतलाना भी कठिन हो गया। जरा रुककर बोला, "रतन है क्या?"
नहीं, वह बाजार गय |
ा है।"
ब्राह्मण सज्जन व्यक्ति थे। मेरे धूलि-भरे मलिन मुख की ओर देखकर शायद उन्होंने अनुमान कर लिया कि मैं दूर से आ रहा हूँ, इसलिए दयापूर्ण स्वर में बोले- "आप बैठिए, वह जल्द आएगा। आपको क्या सिर्फ उसी की जरूरत है?"
पास ही एक चौकी पर बैठ गया। उनके प्रश्न का ठीक उत्तर न देकर पूछ बैठा, "यहाँ बंकू बाबू हैं?"
हैं क्यों नहीं।"
यह कहकर उन्होंने एक नये नौकर को कहा कि बंकू बाबू को बुला दे।
बंकू ने आकर देखा तो पहले वह बहुत विस्मित हुआ। बाद में मुझे अपनी बैठक में ले जाकर और बिठाकर बोला, "हम लोग तो समझते थे कि आप बर्मा चले गये।"
इस 'हम लोग' का क्या मतलब है, यह मैं पूछ नहीं सका। बंकू ने कहा, "आपका सामान अभी गाड़ी पर ही है क्या?"
नहीं, मैं साथ में कोई सामान नहीं लाया।"
नहीं लाये? तो क्या रात की ही गाड़ी से लौट जाना है?"
मैंने कहा, "सम्भव हुआ तो ऐसा ही विचार करके आया हूँ।"
बंकू बोला, "तब ठीक है, इतने थोड़े वक्त के लिए सामान की क्या जरूरत!"
नौकर आकर धोती, गमछा और हाथ-मुँह धोने को पानी आदि जरूरी चीजें दे गया; पर, और कोई मेरे पास नहीं आया।
भोजन के लिए बुलाहट हुई, जाकर देखा, चौके में मेरे और बंकू के बैठने की जगह पास पास ही की गयी है। दक्षिण का दरवाजा ठेलकर राजलक्ष्मी ने अन्दर प्रवेश करके मुझे प्रणाम किया। शुरू में तो शायद उसे पहिचान ही न सका। जब पहिचाना तो ऑंखों के सामने मानो अन्धकार छा गया। यहाँ कौन है और कौन नहीं, नहीं सूझ पड़ा। दूसरे ही क्षण खयाल आया कि मैं अपनी मर्यादा बनाये रखकर, कुछ ऐसा न करके जिसमें कि हँसी हो, इस घर से फिर सहज ही भले मानस की तरह किस तरह बाहर हो सकूँगा।
राजलक्ष्मी ने पूछा, "गाड़ी में कुछ तकलीफ तो नहीं हुई?"
इसके सिवा वह और क्या पूछ सकती थी? मैं धीरे से आसन पर बैठकर कुछ क्षण स्तब्ध रहा, शायद एक घड़ी से अधिक नहीं और फिर मुँह उठाकर बोला, "नहीं, तकलीफ नहीं हुई।"
इस बार उसके मुँह की ओर अच्छी तरह देखा तो मालूम हुआ कि उसने न केवल सारे आभूषण ही उतार कर शरीर पर एक सादी किनारी की धोती धारण कर रक्खी है, बल्कि, उसकी पीठ पर लटकने वाली मेघवत् सुदीर्घ केशराशि भी गायब है। माथे के ऊपर, ललाट के नीचे तक, ऑंचल खिंचा हुआ है, तो भी उसमें से कटे बालों की दो-चार लटें गले के दोनों ओर निकलकर बिखर गयी हैं। उपवास और कठोर आत्म-निग्रह की एक ऐसी रूखी दुर्बलता चेहरे से टपक रही है कि अकस्मात् जान पड़ा कि इस एक ही महीने में वह उम्र में भी मानो मुझसे दस साल आगे बढ़ गयी है।
भात के ग्रास मेरे गले में पत्थर की तरह अटकते थे, तो भी, जबर्दस्ती निगलने लगा। बार-बार यही खयाल करने लगा कि इस नारी के जीवन से हमेशा के लिए पुँछकर विलुप्त हो जाऊँ और आज, सिर्फ एक दिन के लिए भी, यह मेरे कम खाने की आलोचना करने का अवसर न पावे।
भोजन समाप्त होने के बाद राजलक्ष्मी ने कहा, "बंकू कहता था कि तुम आज रात की ही गाड़ी से वापस चले जाना चाहते हो?"
मैंने कहा, "हाँ।"
ऐसा भी कहीं होता है! लेकिन, तुम्हारा जहाज तो उस रविवार |
को छूटेगा।"
इस व्यक्त और अव्यक्त उच्छ्वास से विस्मित होकर उसके मुँह की ओर देखा। देखते ही वह हठात् जैसे लज्जा से मर गयी और दूसरे ही क्षण अपने को सँभालकर धीरे से बोली, "उसमें तो अब भी तीन दिन की देरी है?"
मैंने कहा, "हाँ पर और भी तो काम हैं।"
राजलक्ष्मी फिर कुछ कहना चाहती थी; पर चुप रही। शायद मेरी थकावट, और अस्वस्थ होने की सम्भावना के खयाल से उस बात को मुँह पर न ला सकी। कुछ देर और चुप रहकर बोली, "मेरे गुरुदेव आये हैं।"
समझ गया कि बाहर जिस व्यक्ति से पहले-पहल मुलाकात हुई थी वही गुरुदेव हैं। उन्हीं को दिखाने के लिए ही वह एक बार मुझे इस काशी में खींच लाई थी। शाम को उनके साथ बातचीत हुई। मेरी गाड़ी रात को बारह बजे के बाद छूटेगी। अब भी बहुत समय है। आदमी सचमुच अच्छे हैं। स्वधर्म में अविचल निष्ठा है और उदारता का भी अभाव नहीं है। हमारी सभी बातें जानते हैं, क्योंकि, अपने गुरु से राजलक्ष्मी ने कोई बात छिपाई नहीं है। उन्होंने बहुत-सी बातें कहीं। कहानी के बहाने उपदेश भी कम न दिये; पर वे न उग्र थे और न चोट करने वाले। सब बातें याद नहीं हैं, शायद मन लगाकर सुनी भी नहीं थीं; तो भी, इतना याद है कि कभी न कभी राजलक्ष्मी का इस रूप में परिवर्तन होगा, यह वे जानते थे। दीक्षा के सम्बन्ध में भी वे प्रचलित रीति नहीं मानते हैं। उनका विश्वास है कि जिसका पाँव फिसला है, सद्गुरु की, औरों की अपेक्षा, उसी को अधिक आवश्यकता है।
इसके विरुद्ध मैं कहता ही क्या? उन्होंने फिर एक बार अपनी शिष्या की भक्ति, निष्ठा और धर्मभीरुता की भूरि-भूरि प्रशंसा करके कहा, "ऐसी स्त्री दूसरी नहीं देखी।"
बात वास्तव में सच थी, पर मैं इसे खुद भी उनके कहने की अपेक्षा कम नहीं जानता था। किन्तु, चुप हो रहा।
समय होने लगा, घोड़ागाड़ी दरवाजे के स |
ामने आकर खड़ी हो गयी। गुरुदेव से विदा लेकर मैं गाड़ी पर जा बैठा। राजलक्ष्मी ने सड़क पर आकर और गाड़ी के अन्दर हाथ बढ़ाकर बार-बार मेरे पाँवों की धूलि अपने माथे पर लगाई, पर मुँह से कुछ भी न कहा। शायद उसमें यह शक्ति ही नहीं थी। अच्छा ही हुआ जो अंधेरे में वह मेरा मुँह नहीं देख सकी। मैं भी स्तब्ध हो रहा, क्या कहूँ, नहीं खोज सका। अन्तिम विदा निःशब्द ही पूरी हुई। गाड़ी चल पड़ी। मेरी दोनों ऑंखों से ऑंसू गिरने लगे। मैंने अपने सर्वान्तःकरण से कहा, "तुम सुखी होओ, शान्त होओ, तुम्हारा लक्ष्य ध्रुव हो, तुम्हारी ईष्या न करूँगा; लेकिन, जिस अभागे ने सब कुछ त्यागकर एक साथ एक दिन अपनी नौका छोड़ दी थी, इस जीवन में उसे अब किनारा नहीं मिलेगा।"
गाड़ी गड़गड़ाती हुई रवाना हो गयी। उस दिन की विदा के समय जो सब बातें मन में आई थीं, वही फिर जाग उठीं। मन में आया कि यह जो एक जीवन-नाटक का अत्यन्त स्थूल और साधु उपसंहार हुआ है इसकी ख्याति का अन्त नहीं है। इतिहास में लिखने पर इसकी अम्लान दीप्ति कभी धूमिल नहीं होगी। श्रद्धा और विस्मय के साथ मस्तक झुकाने वाले पाठकों का भी किसी दिन संसार में अभाव न होगा- लेकिन, मेरी आत्म-कहानी किसी को भी सुनाने की नहीं है। मैं चला अन्यत्र। मेरे ही समान जो पाप-पंक में डूबी है, जिसे अच्छे होने का कोई मार्ग नहीं रहा है, उसी अभया के आश्रय में। मन ही मन राजलक्ष्मी को लक्ष्य करके बोला, "तुम्हारा पुण्य-जीवन उन्नत से भी उन्नततर हो, धर्म की महिमा तुम्हारे द्वारा उज्ज्वल से उज्ज्वलतर हो, मैं अब क्षोभ नहीं करूँगा।" अभया की चिट्ठी मिली है। स्नेह, प्रेम और करुणा से अटल अभया ने, बहन से भी अधिक स्नेहमयी विद्रोहिणी अभया ने, मुझे सादर आमन्त्रित किया है। आने के समय छोटे से दरवाजे पर उसके जो सजल नेत्र दिखे थे, वे याद आ गये और याद आ गया उसका समस्त अतीत और वर्तमान इतिहास। चित्त की शुद्धता, बुद्धि की निर्भरता और आत्मा की स्वाधीनता से वह जैसे मेरे सारे दुःखों को एक क्षण में ढँककर उद्भासित हो उठी।
सहसा गाड़ी के रुकने पर चकित होकर देखा तो स्टेशन आ गया है। उतरकर खड़े होते ही एक और व्यक्ति कोच-बॉक्स से शीघ्रतापूर्वक उतरा और उसने मेरे पैरों पर पड़कर प्रणाम किया। "
कौन है रे, रतन?"
बाबू, विदेश में चाकर की जरूरत हो तो मुझे खबर दीजिएगा। जब तक जीवित रहूँगा। आपकी सेवा में त्रुटि न होगी।"
गाड़ी की बत्ती की रोशनी उसके मुँह पर पड़ रही थी। मैं विस्मित होकर बोला, "तू रोता क्यों है?"
रतन ने जवाब नहीं दिया, हाथ से ऑंखें पोंछकर पाँव के पास फिर झुककर प्रणाम किया और वह जल्दी से अन्धकार में अदृश्य हो गया।
आश्चर्य, यह वही रतन है!
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मालती बाहर से तितली है, भीतर से मधुमक्खी। उसके जीवन में हँसी ही हँसी नहीं है, केवल गुड़ खा कर कौन जी सकता है! और जिए भी तो वह कोई सुखी जीवन न होगा। वह हँसती है, इसलिए कि उसे इसके भी दाम मिलते हैं। उसका चहकना और चमकना, इसलिए नहीं है कि वह चहकने को ही जीवन समझती है, या उसने निजत्व को अपने आँखों में इतना बढ़ा लिया है कि जो कुछ करे, अपने ही लिए करे। नहीं, वह इसलिए चहकती है और विनोद करती है कि इससे उसके कर्तव्य का भार कुछ हल्का हो जाता है। उसके बाप उन विचित्र जीवों में थे, जो केवल जबान की मदद से लाखों के वारे-न्यारे करते थे। बड़े-बड़े जमींदारों और रईसों की जायदादें बिकवाना, उन्हें कर्ज दिलाना या उनके मुआमलों का अफसरों से मिल कर तय करा देना, यही उनका व्यवसाय था। दूसरे शब्दों में दलाल थे। इस वर्ग के लोग बड़े प्रतिभावान होते हैं। जिस काम से कुछ मिलने की आशा हो, वह उठा लेंगे, और किसी न किसी तरह उसे निभा भी देंगे। किसी राजा की शादी किसी राजकुमारी से ठीक करवा दी और दस-बीस हजार उसी में मार लिए। यही दलाल जब छोटे-छोटे सौदे करते हैं, तो टाउट कहे जाते हैं, और हम उनसे घृणा करते हैं। बड़े-बड़े काम करके वही टाउट राजाओं के साथ शिकार खेलता है और गर्वनरों की मेज पर चाय पीता है। मिस्टर कौल उन्हीं भाग्यवानों में से थे। उनके तीन लड़कियाँ ही लड़कियाँ थीं! उनका विचार था कि तीनों को इंग्लैंड भेज कर शिक्षा के शिखर पर पहुँचा दें। अन्य बहुत से बड़े आदमियों की तरह उनका भी खयाल था कि इंग्लैंड में शिक्षा पा कर आदमी कुछ और हो जाता है। शायद वहाँ की जलवायु में बुद्धि को तेज कर देने की कोई शक्ति है, मगर उनकी यह कामना एक-तिहाई से ज्यादा पूरी न हुई। मालती इंग्लैंड में ही थी कि उन पर फालिज गिरा और बेकाम कर गया। अब बड़ी मुश्किल से दो आदमियों के सहारे उठते-बैठते थे। जबान तो बिलकुल बंद ही हो गई। और जब जबान ही बंद हो गई, तो आमदनी भी बंद हो गई। जो कुछ थी, जबान ही की कमाई थी। कुछ बचा कर रखने की उनकी आदत न थी। अनियमित आय थी, और अनियमित खर्च था, इसलिए इधर कई साल से बहुत तंगहाल हो रहे थे। सारा दायित्व मालती पर आ पड़ा। मालती के चार-पाँच सौ रुपए में वह भोग-विलास और ठाठ-बाट तो क्या निभता! हाँ, इतना था कि दोनों लड़कियों की शिक्षा होती जाती थी और भलेमानसों की तरह जिंदगी बसर होती थी। मालती सुबह से पहर रात तक दौड़ती रहती थी। चाहती थी कि पिता सात्विकता के साथ रहें, लेकिन पिताजी को शराब-कबाब का ऐसा चस्का पड़ा था कि किसी तरह गला न छोड़ता था। कहीं से कुछ न मिलता, तो एक महाजन से अपने बँगले पर प्रोनोट लिख कर हजार दो हजार ले लेते थे। महाजन उनका पुराना मित्र था, जिसने उनकी बदौलत लेन-देन में लाखों कमाए थे, और मुरौवत के मारे कुछ बोलता न था, उसके पचीस हजार चढ़ चुके थे, और जब चाहता, कुर्की करा सकता था, मगर मित्रता की लाज निभाता जाता था। आत्मसेवियों में जो निर्लज्जता आ जाती है, वह कौल में भी थी। तकाजे हुआ करें, उन्हें परवा न |
थी। मालती उनके अपव्यय पर झुँझलाती रहती थी, लेकिन उसकी माता जो साक्षात देवी थीं और इस युग में भी पति की सेवा को नारी-जीवन का मुख्य हेतु समझती थीं, उसे समझाती रहती थीं, इसलिए गृह-युद्ध न होने पाता था।
संध्या हो गई थी। हवा में अभी तक गरमी थी। आकाश में धुंध छाया हुआ था। मालती और उसकी दोनों बहनें बँगले के सामने घास पर बैठी हुई थीं। पानी न पाने के कारण वहाँ की दूब जल गई थी और भीतर की मिट्टी निकल आई थी।
मालती ने पूछा - माली क्या बिलकुल पानी नहीं देता?
मँझली बहन सरोज ने कहा - पड़ा-पड़ा सोया करता है सूअर। जब कहो, तो बीस बहाने निकालने लगता है।
सरोज बी.ए में पढ़ती थी, दुबली-सी, लंबी, पीली, रूखी, कटु। उसे किसी की कोई बात पसंद न आती थी। हमेशा ऐब निकालती रहती थी। डाक्टरों की सलाह थी कि वह कोई परिश्रम न करे और पहाड़ पर रहे, लेकिन घर की स्थिति ऐसी न थी कि उसे पहाड़ पर भेजा जा सकता।
सबसे छोटी वरदा को सरोज से इसलिए द्वेष था कि सारा घर सरोज को हाथों हाथ लिए रहता था, वह चाहती थी जिस बीमारी में इतना स्वाद है, वह उसे ही क्यों नहीं हो जाती। गोरी-सी, गर्वशील, स्वस्थ, चंचल आँखों वाली बालिका थी, जिसके मुख पर प्रतिभा की झलक थी। सरोज के सिवा उसे सारे संसार से सहानुभूति थी। सरोज के कथन का विरोध करना उसका स्वभाव था। बोली - दिन-भर दादाजी बाजार भेजते रहते हैं, फुरसत ही कहाँ पाता है। मरने की छुट्टी तो मिलती नहीं, पड़ा-पड़ा सोएगा।
सरोज ने डाँटा - दादाजी उसे कब बाजार भेजते हैं री, झूठी कहीं की!
'रोज भेजते हैं, रोज। अभी तो आज ही भेजा था। कहो तो बुला कर पुछवा दूँ?'
'पुछवाएगी, बुलाऊँ?'
मालती डरी। दोनों गुथ जायँगी, तो बैठना मुश्किल कर देंगी। बात बदल कर बोली - अच्छा खैर, होगा। आज डाक्टर मेहता का तुम्हारे यहाँ भाषण |
हुआ था, सरोज?
सरोज ने नाक सिकोड़ कर कहा - हाँ, हुआ तो था, लेकिन किसी ने पसंद नहीं किया। आप फरमाने लगे? संसार में स्त्रियों का क्षेत्र पुरुषों से बिलकुल अलग है। स्त्रियों का पुरुषों के क्षेत्र में आना इस युग का कलंक है। सब लड़कियों ने तालियाँ और सीटियाँ बजानी शुरू कीं। बेचारे लज्जित हो कर बैठ गए। कुछ अजीब-से आदमी मालूम होते हैं। आपने यहाँ तक कह डाला कि प्रेम केवल कवियों की कल्पना है। वास्तविक जीवन में इसका कहीं निशान नहीं। लेडी हुकू ने उनका खूब मजाक उड़ाया।
मालती ने कटाक्ष किया - लेडी हुकू ने? इस विषय में वह भी कुछ बोलने का साहस रखती हैं! तुम्हें डाक्टर साहब का भाषण आदि से अंत तक सुनना चाहिए था। उन्होंने दिल में लड़कियों को क्या समझा होगा?
'पूरा भाषण सुनने का सब्र किसे था? वह तो जैसे घाव पर नमक छिड़कते थे।'
'फिर उन्हें बुलाया ही क्यों? आखिर उन्हें औरतों से कोई बैर तो है नहीं। जिस बात को हम सत्य समझते हैं, उसी का तो प्रचार करते हैं। औरतों को खुश करने के लिए वह उनकी-सी कहने वालों में नहीं हैं और फिर अभी यह कौन जानता है कि स्त्रियाँ जिस रास्ते पर चलना चाहती हैं, वही सत्य है। बहुत संभव है, आगे चल कर हमें अपनी धारणा बदलनी पड़े।'
उसने फ्रांस, जर्मनी और इटली की महिलाओं के जीवन आदर्श बतलाए और कहा - शीघ्र ही वीमेन्स लीग की ओर से मेहता का भाषण होने वाला है।
सरोज को कौतूहल हुआ।
'मगर आप भी तो कहती हैं कि स्त्रियों और पुरुषों के अधिकार समान होने चाहिए।'
'अब भी कहती हूँ, लेकिन दूसरे पक्ष वाले क्या कहते हैं, यह भी तो सुनना चाहिए। संभव है, हमीं गलती पर हों।'
यह लीग इस नगर की नई संस्था है और मालती के उद्योग से खुली है। नगर की सभी शिक्षित महिलाएँ उसमें शरीक हैं। मेहता के पहले भाषण ने महिलाओं में बड़ी हलचल मचा दी थी और लीग ने निश्चय किया था, कि उनका खूब दंदाशिकन जवाब दिया जाए। मालती ही पर यह भार डाला गया था। मालती कई दिन तक अपने पक्ष के समर्थन में युक्तियाँ और प्रमाण खोजती रही। और भी कई देवियाँ अपने भाषण लिख रही थीं। उस दिन जब मेहता शाम को लीग के हाल में पहुँचे, तो जान पड़ता था, हाल फट जायगा। उन्हें गर्व हुआ। उनका भाषण सुनने के लिए इतना उत्साह! और वह उत्साह केवल मुख पर और आँखों में न था। आज सभी देवियाँ सोने और रेशम से लदी हुई थीं, मानो किसी बारात में आई हों। मेहता को परास्त करने के लिए पूरी शक्ति से काम लिया गया था और यह कौन कह सकता है कि जगमगाहट शक्ति का अंग नहीं है। मालती ने तो आज के लिए नए फैशन की साड़ी निकाली थी, नए काट के जंपर बनवाए थे। और रंग-रोगन और फूलों से खूब सजी हुई थी, मानो उसका विवाह हो रहा हो। वीमेंस लीग में इतना समारोह और कभी न हुआ था। डाक्टर मेहता अकेले थे, फिर भी देवियों के दिल काँप रहे थे। सत्य की एक चिनगारी असत्य के एक पहाड़ को भस्म कर सकती है।
सबसे पीछे की सफ में मिर्जा और खन्ना और संपादक जी भी विराज रहे थे। रायसाहब भाषण शुरू होने के बाद आए और पीछे खड़े ह |
ो गए।
मिर्जा ने कहा - आ जाइए आप भी, खड़े कब तक रहिएगा?
रायसाहब बोले - नहीं भाई, यहाँ मेरा दम घुटने लगेगा।
'तो मैं खड़ा होता हूँ। आप बैठिए।'
रायसाहब ने उनके कंधे दबाए - तकल्लुफ नहीं, बैठे रहिए। मैं थक जाऊँगा, तो आपको उठा दूँगा और बैठ जाऊँगा, अच्छा मिस मालती सभानेत्री हुईं। खन्ना साहब कुछ इनाम दिलवाइए।
खन्ना ने रोनी सूरत बना कर कहा - अब मिस्टर मेहता पर निगाह है। मैं तो गिर गया।
'देवियो, जब मैं इस तरह आपको संबोधित करता हूँ, तो आपको कोई बात खटकती नहीं। आप इस सम्मान को अपना अधिकार समझती हैं, लेकिन आपने किसी महिला को पुरुषों के प्रति 'देवता' का व्यवहार करते सुना है? उसे आप देवता कहें, तो वह समझेगा, आप उसे बना रही हैं। आपके पास दान देने के लिए दया है, श्रद्धा है, त्याग है। पुरुष के पास दान के लिए क्या है? वह देवता नहीं, लेवता है। वह अधिकार के लिए हिंसा करता है, संग्राम करता है, कलह करता है...'
तालियाँ बजीं। रायसाहब ने कहा - औरतों को खुश करने का इसने कितना अच्छा ढंग निकाला।
'बिजली' संपादक को बुरा लगा - कोई नई बात नहीं। मैं कितनी ही बार यह भाव व्यक्त कर चुका हूँ।
मेहता आगे बढ़े - इसलिए जब मैं देखता हूँ, हमारी उन्नत विचारों वाली देवियाँ उस दया और श्रद्धा और त्याग के जीवन से असंतुष्ट हो कर संग्राम और कलह और हिंसा के जीवन की ओर दौड़ रही हैं और समझ रही हैं कि यही सुख का स्वर्ग है, तो मैं उन्हें बधाई नहीं दे सकता।
मिसेज खन्ना ने मालती की ओर सगर्व नेत्रों से देखा। मालती ने गर्दन झुका ली।
खुर्शेद बोले - अब कहिए। मेहता दिलेर आदमी है। सच्ची बात कहता है और मुँह पर।
'बिजली' संपादक ने नाक सिकोड़ी - अब वह दिन लद गए, जब देवियाँ इन चकमों में आ जाती थीं। उनके अधिकार हड़पते जाओ और कहते जाओ, आप तो देवी |
हैं, लक्ष्मी हैं, माता हैं।
मेहता आगे बढ़े - स्त्री को पुरुष के रूप में, पुरुष के कर्म में रत देख कर मुझे उसी तरह वेदना होती है, जैसे पुरुष को स्त्री के रूप में, स्त्री के कर्म करते देख कर। मुझे विश्वास है, ऐसे पुरुषों को आप अपने विश्वास और प्रेम का पात्र नहीं समझतीं और मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ, ऐसी स्त्री भी पुरुष के प्रेम और श्रद्धा का पात्र नहीं बन सकती।
खन्ना के चेहरे पर दिल की खुशी चमक उठी।
रायसाहब ने चुटकी ली - आप बहुत खुश हैं खन्ना जी!
खन्ना बोले - मालती मिलें, तो पूछूँ। अब कहिए।
मेहता आगे बढ़े - मैं प्राणियों के विकास में स्त्री के पद को पुरुष के पद से श्रेष्ठ समझता हूँ, उसी तरह जैसे प्रेम और त्याग और श्रद्धा को हिंसा और संग्राम और कलह से श्रेष्ठ समझता हूँ। अगर हमारी देवियाँ सृष्टि और पालन के देव-मंदिर से हिंसा और कलह के दानव-क्षेत्र में आना चाहती हैं, तो उससे समाज का कल्याण न होगा। मैं इस विषय में दृढ़ हूँ। पुरुष ने अपने अभिमान में अपनी दानवी कीर्ति को अधिक महत्व दिया है। वह अपने भाई का स्वत्व छीन कर और उसका रक्त बहा कर समझने लगा, उसने बहुत बड़ी विजय पाई। जिन शिशुओं को देवियों ने अपने रक्त से सिरजा और पाला, उन्हें बम और मशीनगन और सहस्रों टैंकों का शिकार बना कर वह अपने को विजेता समझता है। और जब हमारी ही माताएँ उसके माथे पर केसर का तिलक लगा कर और उसे अपने असीसों का कवच पहना कर हिंसा-क्षेत्र में भेजती हैं, तो आश्चर्य है कि पुरुष ने विनाश को ही संसार के कल्याण की वस्तु समझा और उसकी हिंसा-प्रवृत्ति दिन-दिन बढ़ती गई और आज हम देख रहे हैं कि यह दानवता प्रचंड हो कर समस्त संसार को रौंदती, प्राणियों को कुचलती, हरी-भरी खेतियों को जलाती और गुलजार बस्तियों को वीरान करती चली जाती है। देवियो, मैं आपसे पूछता हूँ, क्या आप इस दानवलीला में सहयोग दे कर, इस संग्राम-क्षेत्र में उतर कर संसार का कल्याण करेंगी? मैं आपसे विनती करता हूँ, नाश करने वालों को अपना काम करने दीजिए, आप अपने धर्म का पालन किए जाइए।
खन्ना बोले - मालती की तो गर्दन ही नहीं उठती।
रायसाहब ने इन विचारों का समर्थन किया - मेहता कहते तो यथार्थ ही हैं।
'बिजली' संपादक बिगड़े - मगर कोई बात तो नहीं कही। नारी-आंदोलन के विरोधी इन्हीं ऊटपटाँग बातों की शरण लिया करते हैं। मैं इसे मानता ही नहीं कि त्याग और प्रेम से संसार ने उन्नति की। संसार ने उन्नति की है पौरूष से, पराक्रम से, बुद्धि-बल से, तेज से।
खुर्शेद ने कहा - अच्छा, सुनने दीजिएगा या अपनी ही गाए जाइएगा?
मेहता का भाषण जारी था - देवियो, मैं उन लोगों में नहीं हूँ, जो कहते हैं, स्त्री और पुरुष में समान शक्तियाँ हैं, समान प्रवृत्तियाँ हैं, और उनमें कोई विभिन्नता नहीं है। इससे भयंकर असत्य की मैं कल्पना नहीं कर सकता। यह वह असत्य है, जो युग-युगांतरों से संचित अनुभव को उसी तरह ढँक लेना चाहता है, जैसे बादल का एक टुकड़ा सूर्य को ढँक लेता है। मैं आपको सचेत किए देता हूँ क |
ि आप इस जाल में न फँसें। स्त्री पुरुष से उतनी ही श्रेष्ठ है, जितना प्रकाश अँधेरे से। मनुष्य के लिए क्षमा और त्याग और अहिंसा जीवन के उच्चतम आदर्श हैं। नारी इस आदर्श को प्राप्त कर चुकी है। पुरुष धर्म और अध्यात्म और ॠषियों का आश्रय ले कर उस लक्ष्य पर पहुँचने के लिए सदियों से जोर मार रहा है, पर सफल नहीं हो सका। मैं कहता हूँ, उसका सारा अध्यात्म और योग एक तरफ और नारियों का त्याग एक तरफ।
तालियाँ बजीं। हाल हिल उठा। रायसाहब ने गदगद हो कर कहा - मेहता वही कहते हैं, जो इनके दिल में है।
ओंकारनाथ ने टीका की - लेकिन बातें सभी पुरानी हैं, सड़ी हुई।
'पुरानी बात भी आत्मबल के साथ कही जाती है, तो नई हो जाती है।'
'जो एक हजार रुपए हर महीने फटकार कर विलास में उड़ाता हो, उसमें आत्मबल जैसी वस्तु नहीं रह सकती। यह केवल पुराने विचार की नारियों और पुरुषों को प्रसन्न करने के ढंग हैं।'
खन्ना ने मालती की ओर देखा - यह क्यों फूली जा रही है? इन्हें तो शरमाना चाहिए।
खुर्शेद ने खन्ना को उकसाया - अब तुम भी एक तकरीर कर डालो खन्ना, नहीं मेहता तुम्हें उखाड़ फेंकेगा। आधा मैदान तो उसने अभी मार लिया है।
खन्ना खिसिया कर बोले - मेरी न कहिए। मैंने ऐसी कितनी चिड़िया फँसा कर छोड़ दी हैं।
रायसाहब ने खुर्शेद की तरफ आँख मार कर कहा - आजकल आप महिला-समाज की तरफ आते-जाते हैं। सच कहना, कितना चंदा दिया?
खन्ना पर झेंप छा गई - मैं ऐसे समाजों को चंदे नहीं दिया करता, जो कला का ढोंग रच कर दुराचार फैलाते हैं।
'पुरुष कहता है, जितने दार्शनिक और वैज्ञानिक आविष्कारक हुए हैं, वह सब पुरुष थे। जितने बड़े-बड़े महात्मा हुए हैं, वह सब पुरुष थे। सभी योद्धा, सभी राजनीति के आचार्य, बड़े-बड़े नाविक सब कुछ पुरुष थे, लेकिन इन बड़ों-बड़ों के समूहों ने मिल |
कर किया क्या? महात्माओं और धर्म-प्रवर्तकों ने संसार में रक्त की नदियाँ बहाने और वैमनस्य की आग भड़काने के सिवा और क्या किया, योद्धाओं ने भाइयों की गर्दनें काटने के सिवा और क्या यादगार छोड़ी, राजनीतिज्ञों की निशानी अब केवल लुप्त साम्राज्यों के खंडहर रह गए हैं, और आविष्कारकों ने मनुष्य को मशीन का गुलाम बना देने के सिवा और क्या समस्या हल कर दी? पुरुषों की इस रची हुई संस्कृति में शांति कहाँ है? सहयोग कहाँ है?'
ओंकारनाथ उठ कर जाने को हुए - विलासियों के मुँह से बड़ी-बड़ी बातें सुन कर मेरी देह भस्म हो जाती है।
खुर्शेद ने उनका हाथ पकड़ कर बैठाया - आप भी संपादक जी निरे पोंगा ही रहे। अजी यह दुनिया है, जिसके जी में जो आता है, बकता है। कुछ लोग सुनते हैं और तालियाँ बजाते है चलिए, किस्सा खत्म। ऐसे-ऐसे बेशुमार मेहते आएँगे और चले जाएँगे और दुनिया अपनी रफ्तार से चलती रहेगी। बिगड़ने की कौन-सी बात है?
'असत्य सुन कर मुझसे सहा नहीं जाता।'
रायसाहब ने उन्हें और चढ़ाया - कुलटा के मुँह से सतियों की-सी बात सुन कर किसका जी न जलेगा!
ओंकारनाथ फिर बैठ गए। मेहता का भाषण जारी था..
'मैं आपसे पूछता हूँ, क्या बाज को चिड़ियों का शिकार करते देख कर हंस को यह शोभा देगा कि वह मानसरोवर की आनंदमयी शांति को छोड़ कर चिड़ियों का शिकार करने लगे? और अगर वह शिकारी बन जाए, तो आप उसे बधाई देंगी? हंस के पास उतनी तेज चोंच नहीं है, उतने तेज चंगुल नहीं हैं, उतनी तेज आँखें नहीं हैं, उतने तेज पंख नहीं हैं और उतनी तेज रक्त की प्यास नहीं है। उन अस्त्रों का संचय करने में उसे सदियाँ लग जायँगी, फिर भी वह बाज बन सकेगा या नहीं, इसमें संदेह है, मगर बाज बने या न बने, वह हंस न रहेगा - वह हंस जो मोती चुगता है।'
खुर्शेद ने टीका की - यह तो शायरों की-सी दलीलें हैं। मादा बाज भी उसी तरह शिकार करती है, जैसे, नर बाज।
ओंकारनाथ प्रसन्न हो गए - उस पर आप फिलॉसफर बनते हैं, इसी तर्क के बल पर।
ओंकारनाथ ने बात पूरी की - जो सत्य से जौ भर भी न टले।
खन्ना को यह समस्या-पूर्ति नहीं रूची - मैं सत्य-वत्य नहीं जानता। मैं तो फिलॉसफर उसे कहता हूँ, जो फिलॉसफर हो सच्चा!
खुर्शेद ने दाद दी - फिलॉसफर की आपने कितनी सच्ची तारीफ की है। वाह, सुभानल्ला! फिलॉसफर वह है, जो फिलॉसफर हो। क्यों न हो!
मेहता आगे चले - मैं नहीं कहता, देवियों को विद्या की जरूरत नहीं है। है और पुरुषों से अधिक। मैं नहीं हता, देवियों को शक्ति की जरूरत नहीं है। है और पुरुषों से अधिक, लेकिन वह विद्या और वह शक्ति नहीं, जिससे पुरुष ने संसार को हिंसाक्षेत्र बना डाला है। अगर वही विद्याऔर वही शक्ति आप भी ले लेंगी, तो संसार मरुस्थल हो जायगा। आपकी विद्या और आपका अधिकार हिंसा और विध्वंस में नहीं, सृष्टि और पालन में है। क्या आप समझती हैं, वोटों से मानव-जाति का 'उद्धार होगा, या दफ्तरों में और अदालतों में जबान और कलम चलाने से? इन नकली, अप्राकृतिक, विनाशकारी अधिकारों के लिए आप वह अधिकार छोड़ देना चा |
हती हैं, जो आपको प्रकृति ने दिए हैं?
सरोज अब तक बड़ी बहन के अदब से जब्त किए बैठी थी। अब न रहा गया। फुफकार उठी - हमें वोट चाहिए, पुरुषों के बराबर।
और कई युवतियों ने हाँक लगाई - वोट! वोट!
ओंकारनाथ ने खड़े हो कर ऊँचे स्वर से कहा - नारी-जाति के विरोधियों की पगड़ी नीची हो।
मालती ने मेज पर हाथ पटक कर कहा - शांत रहो, जो लोग पक्ष या विपक्ष में कुछ कहना चाहेंगे, उन्हें पूरा अवसर दिया जायगा।
मेहता बोले - वोट नए युग का मायाजाल है, मरीचिका है, कलंक है, धोखा है, उसके चक्कर में पड़ कर आप न इधर की होंगी, न उधर की। कौन कहता है कि आपका क्षेत्र संकुचित है और उसमें आपको अभिव्यक्ति का अवकाश नहीं मिलता। हम सभी पहले मनुष्य हैं, पीछे और कुछ। हमारा जीवन हमारा घर है। वहीं हमारी सृष्टि होती है, वहीं हमारा पालन होता है, वहीं जीवन के सारे व्यापार होते हैं। अगर वह क्षेत्र परिमित है, तो अपरिमित कौन-सा क्षेत्र है? क्या वह संघर्ष, जहाँ संगठित अपहरण है? जिस कारखाने में मनुष्य और उसका भाग्य बनता है, उसे छोड़ कर आप उन कारखानों में जाना चाहती हैं, जहाँ मनुष्य पीसा जाता है, जहाँ उसका रक्त निकाला जाता है?
मिर्जा ने टोका - पुरुषों के जुल्म ने ही उनमें बगावत की यह स्पिरिट पैदा की है।
मेहता बोले - बेशक, पुरुषों ने अन्याय किया है, लेकिन उसका यह जवाब नहीं है। अन्याय को मिटाइए, लेकिन अपने को मिटा कर नहीं।
मालती बोली - नारियाँ इसलिए अधिकार चाहती हैं कि उनका सदुपयोग करें और पुरुषों को उनका दुरुपयोग करने से रोकें।
मेहता ने उत्तर दिया - संसार में सबसे बड़े अधिकार सेवा और त्याग से मिलते हैं और वह आपको मिले हुए हैं। उन अधिकारों के सामने वोट कोई चीज नहीं। मुझे खेद है, हमारी बहनें पश्चिम का आदर्श ले रही हैं, जहाँ नारी ने अपना |
पद खो दिया है और स्वामिनी से गिर कर विलास की वस्तु बन गई है। पश्चिम की स्त्री स्वछंद होना चाहती हैं, इसीलिए कि वह अधिक से अधिक विलास कर सकें। हमारी माताओं का आदर्श कभी विलास नहीं रहा। उन्होंने केवल सेवा के अधिकार से सदैव गृहस्थी का संचालन किया है। पश्चिम में जो चीजें अच्छी हैं, वह उनसे लीजिए। संस्कृति में सदैव आदान-प्रदान होता आया है, लेकिन अंधी नकल तो मानसिक दुर्बलता का ही लक्षण है! पश्चिम की स्त्री आज गृह-स्वामिनी नहीं रहना चाहती। भोग की विदग्ध लालसा ने उसे उच्छृंखल बना दिया है। वह अपने लज्जा और गरिमा को, जो उसकी सबसे बड़ी विभूति थी, चंचलता और आमोद-प्रमोद पर होम कर रही है। जब मैं वहाँ की शिक्षित बालिकाओं को अपने रूप का, या भरी हुई गोल बाँहों या अपने नग्नता का प्रदर्शन करते देखता हूँ, तो मुझे उन पर दया आती है। उनकी लालसाओं ने उन्हें इतना पराभूत कर दिया है कि वे अपने लज्जा की भी रक्षा नहीं कर सकती। नारी की इससे अधिक और क्या अधोगति हो सकती है?
रायसाहब ने तालियाँ बजाईं। हाल तालियों से गूँज उठा, जैसे पटाखों की लड़ियाँ छूट रही हों।
मिर्जा साहब ने संपादक जी से कहा - इसका जवाब तो आपके पास भी न होगा?
संपादक जी ने विरक्त मन से कहा - सारे व्याख्यान में इन्होंने यही एक बात सत्य कही है।
'तब तो आप भी मेहता के मुरीद हुए!'
'जी नहीं, अपने लोग किसी के मुरीद नहीं होते। मैं इसका जवाब ढूँढ निकालूँगा, 'बिजली' में देखिएगा।'
'इसके माने यह हैं कि आप हक की तलाश नहीं करते, सिर्फ अपने पक्ष के लिए लड़ना चाहते हैं।'
रायसाहब ने आड़े हाथों लिया - इसी पर आपको अपने सत्य-प्रेम का अभिमान है?
संपादक जी अविचल रहे - वकील का काम अपने मुअक्किल का हित देखना है, सत्य या असत्य का निराकरण नहीं।
'तो यों कहिए कि आप औरतों के वकील हैं?'
'मैं उन सभी लोगों का वकील हूँ, जो निर्बल हैं, निस्सहाय हैं, पीड़ित हैं।'
'बड़े बेहया हो यार!'
मेहता जी कह रहे थे - और यह पुरुषों का षड्यंत्र है। देवियों को ऊँचे शिखर से खींच कर अपने बराबर बनाने के लिए, उन पुरुषों का, जो कायर हैं, जिनमें वैवाहिक जीवन का दायित्व सँभालने की क्षमता नहीं है, जो स्वच्छंद काम-क्रीड़ा की तरंगों में साँड़ों की भाँति दूसरों की हरी-भरी खेती में मुँह डाल कर अपने कुत्सित लालसाओं को तृप्त करना चाहते हैं। पश्चिम में इनका षड्यंत्र सफल हो गया और देवियाँ तितलियाँ बन गईं। मुझे यह कहते हुए शर्म आती है कि इस त्याग और तपस्या की भूमि भारत में भी कुछ वही हवा चलने लगी है। विशेष कर हमारी शिक्षित बहनों पर वह जादू बड़ी तेजी से चढ़ रहा है। वह गृहिणी का आदर्श त्याग कर तितलियों का रंग पकड़ रही हैं।
सरोज उत्तेजित हो कर बोली - हम पुरुषों से सलाह नहीं माँगतीं। अगर वह अपने बारे में स्वतंत्र हैं, तो स्त्रियाँ भी अपने विषय में स्वतंत्र हैं। युवतियाँ अब विवाह को पेशा नहीं बनाना चाहतीं। वह केवल प्रेम के आधार पर विवाह करेंगी।
जोर से तालियाँ बजीं, विशेष कर अगली पंक्तियों में, |
जहाँ महिलाएँ थीं।
मेहता ने जवाब दिया - जिसे तुम प्रेम कहती हो, वह धोखा है, उद्दीप्त लालसा का रूप, उसी तरह जैसे संन्यास केवल भीख माँगने का संस्कृत रूप है। वह प्रेम अगर वैवाहिक जीवन में कम है, तो मुक्त विलास में बिलकुल नहीं है। सच्चा आनंद, सच्ची शांति केवल सेवा-व्रत में है। वही अधिकार का स्रोत है, वही शक्ति का उद्गम है। सेवा ही वह सीमेंट है, जो दंपति को जीवनपर्यंत स्नेह और साहचर्य में जोड़े रख सकता है, जिस पर बड़े-बड़े आघातों का भी कोई असर नहीं होता। जहाँ सेवा का अभाव है, वहीं विवाह-विच्छेद है, परित्याग है, अविश्वास है। और आपके ऊपर, पुरुष-जीवन की नौका का कर्णधार होने के कारण जिम्मेदारी ज्यादा है। आप चाहें तो नौका को आँधी और तूफानों में पार लगा सकती हैं। और आपने असावधानी की, तो नौका डूब जायगी और उसके साथ आप भी डूब जाएँगी।
भाषण समाप्त हो गया। विषय विवाद-ग्रस्त था और कई महिलाओं ने जवाब देने की अनुमति माँगी, मगर देर बहुत हो गई थी। इसलिए मालती ने मेहता को धन्यवाद दे कर सभा भंग कर दी। हाँ, यह सूचना दे दी गई कि अगले रविवार को इसी विषय पर कई देवियाँ अपने विचार प्रकट करेंगी।
रायसाहब ने मेहता को बधाई दी - आपने मेरे मन की बातें कहीं मिस्टर मेहता। मैं आपके एक-एक शब्द से सहमत हूँ।
मालती हँसी - आप क्यों न बधाई देंगे, चोर-चोर मौसेरे भाई जो होते हैं, मगर यहाँ सारा उपदेश गरीब नारियों ही के सिर क्यों थोपा जाता है? उन्हीं के सिर क्यों आदर्श और मर्यादा और त्याग सब कुछ पालन करने का भार पटका जाता है?
मेहता बोले - इसलिए कि वह बात समझती हैं।
खन्ना ने मालती की ओर अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से देख कर मानो उसके मन की बात समझने की चेष्टा करते हुए कहा - डाक्टर साहब के यह विचार मुझे तो कोई सौ साल पिछड़े हुए मालूम |
होते हैं।
मालती ने कटु हो कर पूछा - कौन से विचार?
'यही सेवा और कर्तव्य आदि।'
'तो आपको ये विचार सौ साल पिछड़े हुए मालूम होते हैं। तो कृपा करके अपने ताजे विचार बतलाइए। दंपति कैसे सुखी रह सकते हैं, इसका कोई ताजा नुस्खा आपके पास है?'
खन्ना खिसिया गए। बात कही मालती को खुश करने के लिए, और वह तिनक उठी। बोले - यह नुस्खा तो मेहता साहब को मालूम होगा।
'डाक्टर साहब ने तो बतला दिया और आपके खयाल में वह सौ साल पुराना है, तो नया नुस्खा आपको बतलाना चाहिए। आपको ज्ञात नहीं कि दुनिया में ऐसी बहुत-सी बातें हैं, जो कभी पुरानी हो ही नहीं सकती। समाज में इस तरह की समस्याएँ हमेशा उठती रहती हैं और हमेशा उठती रहेंगी।
मिसेज खन्ना बरामदे में चली गई थीं। मेहता ने उनके पास जा कर प्रणाम करते हुए पूछा - मेरे भाषण के विषय में आपकी क्या राय है?
मिसेज खन्ना ने आँखें झुका कर कहा - अच्छा था, बहुत अच्छा, मगर अभी आप अविवाहित हैं, तभी नारियाँ देवियाँ हैं, श्रेष्ठ हैं, कर्णधार हैं। विवाह कर लीजिए तो पूछूँगी, अब नारियाँ क्या हैं? और विवाह आपको करना पड़ेगा, क्योंकि आप विवाह से मुँह चुराने वाले मर्दों को कायर कह चुके हैं।
मेहता हँसे - उसी के लिए तो जमीन तैयार कर रहा हूँ।
'मिस मालती से जोड़ा भी अच्छा है।'
'शर्त यही है कि वह कुछ दिन आपके चरणों में बैठ कर आपसे नारी-धर्म सीखें।'
'वही स्वार्थी पुरुषों की बात! आपने पुरुष-कर्तव्य सीख लिया है?'
'यही सोच रहा हूँ किससे सीखूँ।'
'मिस्टर खन्ना आपको बहुत अच्छी तरह सिखा सकते हैं। '
मेहता ने कहकहा मारा - नहीं, मैं पुरुष-कर्तव्य भी आप ही से सीखूँगा।
'अच्छी बात है, मुझी से सीखिए। पहली बात यही है कि भूल जाइए कि नारी श्रेष्ठ है और सारी जिम्मेदारी उसी पर है, श्रेष्ठ पुरुष है और उसी पर गृहस्थी का सारा भार है। नारी में सेवा और संयम और कर्तव्य सब कुछ वही पैदा कर सकता है, अगर उसमें इन बातों का अभाव है तो नारी में भी अभाव रहेगा। नारियों में आज जो यह विद्रोह है, इसका कारण पुरुष का इन गुणों से शून्य हो जाना है।'
मिर्जा साहब ने आ कर मेहता को गोद में उठा लिया और बोले - मुबारक!
मेहता ने प्रश्न की आँखों से देखा - आपको मेरी तकरीर पसंद आई?
'तकरीर तो खैर जैसी थी वैसी थी, मगर कामयाब खूब रही। आपने परी को शीशे में उतार लिया। अपनी तकदीर सराहिए कि जिसने आज तक किसी को मुँह नहीं लगाया, वह आपका कलमा पढ़ रही है।'
मिसेज खन्ना दबी जबान से बोलीं - जब नशा ठहर जाय, तो कहिए।
मेहता ने विरक्त भाव से कहा - मेरे जैसे किताब के कीड़ों को कौन औरत पसंद करेगी देवी जी! मैं तो पक्का आदर्शवादी हूँ।
मिसेज खन्ना ने अपने पति को कार की तरफ जाते देखा, तो उधर चली गईं। मिर्जा भी बाहर निकल गए। मेहता ने मंच पर से अपने छड़ी उठाई और बाहर जाना चाहते थे कि मालती ने आ कर उनका हाथ पकड़ लिया और आग्रह-भरी आँखों से बोली - आप अभी नहीं जा सकते। चलिए, पापा से आपकी मुलाकात कराऊँ और आज वहीं खाना खाइए।
मेहता ने कान पर हाथ रख कर कहा - |
नहीं, मुझे क्षमा कीजिए। वहाँ सरोज मेरी जान खा जायगी। मैं इन लड़कियों से बहुत घबराता हूँ।
'नहीं-नहीं, मैं जिम्मा लेती हूँ, जो वह मुँह भी खोले।'
'अच्छा, आप चलिए, मैं थोड़ी देर में आऊँगा।'
'जी नहीं, यह न होगा। मेरी कार सरोज ले कर चल दी। आप मुझे पहुँचाने तो चलेंगे ही।'
दोनों मेहता की कार में बैठे। कार चली।
एक क्षण बाद मेहता ने पूछा - मैंने सुना है, खन्ना साहब अपनी बीबी को मारा करते हैं। तब से मुझे इनकी सूरत से नफरत हो गई। जो आदमी इतना निर्दयी हो, उसे मैं आदमी नहीं समझता। उस पर आप नारी जाति के बड़े हितैषी बनते हैं। तुमने उन्हें कभी समझाया नहीं?
मालती उद्विग्न हो कर बोली - ताली हमेशा दो हथेलियों से बजती है, यह आप भूले जाते हैं।
'मैं तो ऐसे किसी कारण की कल्पना ही नहीं कर सकता कि कोई पुरुष अपने स्त्री को मारे।'
'चाहे स्त्री कितनी ही बदजबान हो?'
'हाँ, कितनी ही।'
'तो आप एक नए किस्म के आदमी हैं।'
'अगर मर्द बदमिजाज है, तो तुम्हारी राय में उस मर्द पर हंटरों की बौछार करनी चाहिए, क्यों?'
'स्त्री जितनी क्षमाशील हो सकती है, पुरुष नहीं हो सकता। आपने खुद आज यह बात स्वीकार की है।'
'तो औरत की क्षमाशीलता का यही पुरस्कार है! मैं समझता हूँ, तुम खन्ना को मुँह लगा कर उसे और भी शह देती हो। तुम्हारा वह जितना आदर करता है, तुमसे उसे जितनी भक्ति है, उसके बल पर तुम बड़ी आसानी से उसे सीधा कर सकती हो, मगर तुम उसकी सफाई दे कर स्वयं उस अपराध में शरीक हो जाती हो।'
मालती उत्तेजित हो कर बोली - तुमने इस समय यह प्रसंग व्यर्थ ही छेड़ दिया। मैं किसी की बुराई नहीं करना चाहती, मगर अभी आपने गोविंदी देवी को पहचाना नहीं? आपने उनकी भोली-भाली शांत मुद्रा देख कर समझ लिया, वह देवी हैं। मैं उन्हें इतना ऊँचा स्थान नहीं देना चाहत |
ी। उन्होंने मुझे बदनाम करने का जितना प्रयत्न किया है, मुझ पर जैसे-जैसे आघात किए हैं वह बयान करूँ, तो आप दंग रह जाएँगे और तब आपको मानना पड़ेगा कि ऐसी औरत के साथ यही व्यवहार होना चाहिए।
'आखिर उन्हें आपसे जो इतना द्वेष है, इसका कोई कारण तो होगा?'
'कारण उनसे पूछिए। मुझे किसी के दिल का हाल क्या मालूम?'
'उनसे बिना पूछे भी अनुमान किया जा सकता है और वह यह है - अगर कोई पुरुष मेरे और मेरी स्त्री के बीच में आने का साहस करे, तो मैं उसे गोली मार दूँगा, और उसे न मार सकूँगा, तो अपनी छाती में मार लूँगा। इसी तरह अगर मैं किसी स्त्री को अपनी और अपनी स्त्री के बीच में लाना चाहूँ, तो मेरी पत्नी को भी अधिकार है कि वह जो चाहे, करे। इस विषय में मैं कोई समझौता नहीं कर सकता। यह अवैज्ञानिक मनोवृत्ति है, जो हमने अपने बनैले पूर्वजों से पाई है और आजकल कुछ लोग इसे असभ्य और असामाजिक व्यवहार कहेंगे, लेकिन मैं अभी तक उस मनोवृत्ति पर विजय नहीं पा सका और न पाना चाहता हूँ। इस विषय में मैं कानून की परवाह नहीं करता। मेरे घर में मेरा कानून है।'
मालती ने तीव्र स्वर में पूछा - लेकिन आपने यह अनुमान कैसे कर लिया कि मैं आपके शब्दों में खन्ना और गोविंदी के बीच आना चाहती हूँ? आप ऐसा अनुमान करके मेरा अपमान कर रहे हैं। मैं खन्ना को अपने जूतियों की नोक के बराबर भी नहीं समझती।
मेहता ने अविश्वास-भरे स्वर में कहा - यह आप दिल से नहीं कह रही हैं मिस मालती! क्या आप सारी दुनिया को बेवकूफ समझती हैं? जो बात सभी समझ रहे हैं, अगर वही बात मिसेज खन्ना भी समझें, तो मैं उन्हें दोष नहीं दे सकता।
मालती का गला भर्रा गया और उसने मुँह फेर कर रूमाल से आँसू पोंछे। फिर एक मिनट बाद बोली - औरों के साथ तुम भी मुझे...मुझे...इसका दुख है.....मुझे तुमसे ऐसी आशा न थी।
फिर कदाचित् उसे अपनी दुर्बलता पर खेद हुआ। वह प्रचंड हो कर बोली - आपको मुझ पर आक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है, अगर आप भी उन्हीं मर्दों में हैं, जो किसी स्त्री-पुरुष को साथ देख कर उँगली उठाए बिना नहीं रह सकते, तो शौक से उठाइए। मुझे रत्ती-भर परवा नहीं। अगर कोई स्त्री आपके पास बार-बार किसी-न-किसी बहाने से आए, आपको अपना देवता समझे, हर एक बात में आपसे सलाह ले, आपके चरणों के नीचे आँखें बिछाए, आपको इशारा पाते ही आग में कूदने को तैयार हो, तो मैं दावे से कह सकती हूँ, आप उसकी उपेक्षा न करेंगे। अगर आप उसे ठुकरा सकते हैं, तो आप मनुष्य नहीं हैं। उसके विरुद्ध आप कितने ही तर्क और प्रमाण ला कर रख दें, लेकिन मैं मानूँगी नहीं। मैं तो कहती हूँ, उपेक्षा तो दूर रही, ठुकराने की बात ही क्या, आप उस नारी के चरण धो-धो कर पिएँगे, और बहुत दिन गुजरने के पहले वह आपकी हृदयेश्वरी होगी। मैं आपसे हाथ जोड़ कर कहती हूँ, मेरे सामने खन्ना का कभी नाम न लीजिएगा।
मेहता ने इस ज्वाला में मानो हाथ सेंकते हुए कहा - शर्त यही है कि मैं खन्ना को आपके साथ न देखूँ।
मैं मानवता की हत्या नहीं कर सकती। वह आएँगे तो मैं उन्हे |
ं दुरदुराऊँगी नहीं।'
'उनसे कहिए, अपनी स्त्री के साथ सज्जनता से पेश आएँ।'
'मैं किसी के निजी मुआमले में दखल देना उचित नहीं समझती। न मुझे इसका अधिकार है!'
'तो आप किसी की जबान नहीं बंद कर सकती॥'
मालती का बँगला आ गया। कार रूक गई। मालती उतर पड़ी और बिना हाथ मिलाए चली गई। वह यह भी भूल गई कि उसने मेहता को भोजन की दावत दी है। वह एकांत में जा कर खूब रोना चाहती है। गोविंदी ने पहले भी आघात किए हैं, पर आज उसने जो आघात किया है, वह बहुत गहरा, बड़ा चौड़ा और बड़ा मर्मभेदी है।
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उसके गुरु ने कहा, मैं पागल नहीं हुआ हूं, केवल तुम्हें बताने आया हूं कि मन को कितने ही घिसते रहो, उससे भी आत्मा नहीं मिलेगी। मन से जागो ! मन को घिसते रहो, उससे भी आत्मा नहीं मिलेगी, वह पत्थर घिसना है। मन से जागो!
तो अगर आप ध्यान को ऐसा पकड़ लें, तो वह मन के घिसने जैसा हो जाएगा। फिर उसको घिसे जा रहे हैं, उससे कुछ भी नहीं होगा। जागना है! इसलिए मैंने उसे कृत्रिम कहा। हर सीढ़ी कृत्रिम है। इसलिए कृत्रिम है कि अगर सच में ऊपर पहुंच जाना है, तो एक समय तो सीढ़ी पर पैर रखना होता है, फिर दूसरे समय उसे छोड़ देना होता है।
अभी मैं परसों यहां से गया, तो किन्हीं मित्र ने कहा कि आपने पहले तो इतना ध्यान को समझाया और फिर आपने यह कह दिया कि इसको भी छोड़ देना पड़ेगा। तो फिर पकड़ें ही क्यों? जैसे मैं आपको एक छत के किनारे कहूं कि अगर आपको छत पर जाना है तो सीढ़ी पर चढ़िए। जब आप सीढ़ी पर चढ़ कर खड़े हो जाएं, तो मैं आपसे कहूं, अब इसको छोड़िए ताकि आप ऊपर जा सकें। तो आप कहेंगे, अगर ऐसे ही इसको छोड़ना ही था तो मुझे चढ़ने को क्यों कहा? मैं नीचे ही खड़ा रहता।
सीढ़ी पहुंचा सकती है, दो काम करने पड़ेंगे। सीढ़ी पहुंचाती है, उस पर चढ़िए और उसको छोड़िए। अगर सीढ़ी पर नहीं चढ़े तो भी नहीं पहुंचेंगे, अगर सीढ़ी पर चढ़े और सीढ़ी पर ही पकड़ कर रुक गए तो भी नहीं पहुंचेंगे।
मेरी आप बात समझ रहे हैं न? सीढ़ी पहुंचाती है, तो पहुंचाने में उससे दो काम करने होंगे आपको, पहले चढ़ना और फिर उसे छोड़ देना। अन्यथा सीढ़ी दो तरह से रोक लेगी। न चढ़िए तो रोक लेगी और चढ़ कर रुक जाइए उस पर तो रोक लेगी। छत पर पहुंचने के लिए सीढ़ी पर चढ़ना जरूरी है और छत पर पहुंचने के लिए सीढ़ी को छोड़ देना जरूरी है। जो सीढ़ी पर है वह छत पर नहीं है ।
तो ध्यान को मैंने कृत्रिम कहा इस वजह से कि कहीं उसे सत्य समझ कर मत पकड़ लेना। कोई माध्यम सत्य नहीं होता। उसे कृत्रिम कहा ताकि यह स्मरण रहे कि उसे शुरुआत में पकड़ लेना है और उसे फिर छोड़ देना है। उसकी सार्थकता तब है जब आप पकड़ें और छोड़ दें।
अब अनेक लोग हैं, जो इन चीजों को इस भांति पकड़ लेते हैं कि वे उनके प्राण हो जाती हैं। वे उनको पकड़ कर जिंदगी भर बिता देते हैं। उन्होंने खराब कर लिया। वे सीढ़ियां पकड़े बैठे हैं, छत पर पहुंचे नहीं। यानी मेरा कहना यह है, किसी चीज को भी जिसको आप कृत्रिम रूप से आयोजित कर रहे हैं, वह आपका स्वभाव नहीं हो सकता। न ध्यान आपका स्वभाव है। ध्यान भी एक माध्यम मात्र है, आपके ऊपर जो विभाव है उसको अलग करने का। उसे पकड़ लेंगे तो बड़ी गलती हो जाएगी।
समझ लीजिए एक आदमी कुआं खोदता है और कुदाली से कुआं खोदता है। तो वह कुदाली से कुआं खोदता है, मिट्टी की पर्तें फेंकता है कुदाली से खोद कर । तो क्या आप सोचते हैं यह कुदाली जो है यही कुआं है? कि जब कुएं को खोद लेगा तो कुदाली को सिर पर रख कर घूमेगा?
कुदाली को फेंक देगा। वह तो केवल मिट्टी अलग करने का उपाय था, कुआं खोदने का नहीं, अगर बह |
ुत ठीक से समझिए। कुदाली की वजह से पानी नहीं आया है, कुदाली की वजह से केवल मिट्टी अलग हुई है, पानी तो था। कुदाली की वजह से मिट्टी अलग हुई है, कुदाली की वजह से पानी नहीं आया है, पानी तो था। मिट्टी अलग हो गई, उसके साथ कुदाली भी फेंक देनी पड़ेगी। अगर अब आप कुदाली को पकड़ कर बैठ जाइए, तो फिर आपको पानी नहीं मिलेगा। पहले आप मिट्टी पकड़े बैठे रहे, अब कुदाली पकड़े बैठे हुए हैं।
बुद्ध ने कहा, कुछ ऐसे नासमझ हैं, नदी पर बैठ कर नाव में नदी पार करते हैं, फिर नाव को लेकर बाजार में घूमते हैं। वे कहते हैं कि इसने हमको नदी पार करवा दी। तो उन्होंने कहा, अनेक धार्मिक लोग ऐसे हैं जो धर्म को नाव न समझ कर उसको सिर का बोझ समझे हुए हैं। जिस दिन धर्म आपका छूट जाए, उस दिन समझना आप नदी पार हुए और नाव को भी वहीं छोड़ आए। नाव को कहां लिए फिरिएगा? जिसको हम साधना कहते हैं-- साधना सीढ़ी की तरह है, नाव की तरह है, कुदाली की तरह है-वह व्यर्थ हो जाएगी। इसलिए मैं कह रहा हूं वह कृत्रिम है। क्योंकि वह अगर मैं वास्तविक आपसे कहूं, तो फिर उसको छोड़ा आपसे नहीं जा सकेगा।
इसे स्मरण रखिए कि जो भी आप साध रहे हैं सब कृत्रिम है। और उसकी उपयोगिता इतनी है कि आपके ऊपर जो कृत्रिम छा गया है उसे वह काट देगा। इससे ज्यादा उसकी उपयोगिता नहीं है। जिस दिन कृत्रिम छंट जाएगा उस दिन वह उतना ही फिजूल है जितना जिसको उसने काटा वह फिजूल है। उसी वक्त उसे भी छोड़ देना है। अगर वह वास्तविक मालूम हुआ और लगा कि वह पकड़े रहना है तो वह बाधा हो जाएगी। रास्ते पर चलते हैं मंजिल पर पहुंचने को; मंजिल पर पहुंच कर रास्ता फिजूल हो जाना चाहिए। अगर रास्ता उस वक्त फिजूल न हो तो आप मंजिल पर नहीं पहुंच पाएंगे। इसलिए मैंने कहा सब रास्ते कृत्रिम हैं। सब रास्ते कृत् |
रिम हैं। और आंतरिक जीवन के तो सारे रास्ते कृत्रिम हैं। कृत्रिम हैं कृत्रिम को काटने के लिए, ताकि कृत्रिम जब विलीन हो जाए तो जो वास्तविक है वह उपलब्ध हो जाए।
और यह तो आप समझ ही लीजिए, अज्ञान में आप जो भी करेंगे वह कृत्रिम होगा। अज्ञान में आप जो भी करेंगे, जो भी करेंगे वह कृत्रिम होगा। बस उस कृत्रिमता में दो तरह की कृत्रिमताएं हो सकती हैं। एक ऐसी जो अज्ञान को और घनी करती चली जाएं और एक ऐसी जो अज्ञान को कम कर दें।
अभी सुबह कोई मुझसे पूछता था कि आप ध्यान को कहते हैं विचार-शून्यता, तो इसमें तो विचार तो हम करते ही रहते हैं कि विचार शून्य हो रहा है या श्वास देख रहे हैं, तो यह सब विचार है।
तो मैंने उनसे कहा कि अगर यह भवन है, यह कमरा है, और इस कमरे के बाहर जाना हो, तो मैं आपको कहूंगा, कमरे के बाहर जाने के लिए कमरे के बाहर, जहां कमरा समाप्त हो जाता है, वहां पहुंच जाइए। आप कहेंगे, लेकिन अभी तो आप कहते हैं कमरे के बाहर पहुंच जाइए, लेकिन आप कहते तो हैं कमरे में चलिए।
तो कमरे में चलना दो तरह का हो सकता है। एक तो आदमी जो गोल चक्कर इसी कमरे में काटे। वह काटता रहे, काटता रहे। वह भी कमरे में चल रहा है। और एक वह आदमी जो यहां से चले और दरवाजे से बाहर निकल जाए। वह भी कमरे में चल रहा है। एक कमरे में चलना कमरे में ही बनाए रखेगा और दूसरा कमरे में चलना कमरे के बाहर ले जाएगा। कमरे के भीतर दो तरह से चला जा सकता हैः चक्कर में और सीधा।
इस कृत्रिम अज्ञान के जीवन में मनुष्य दो तरह के काम कर सकता है। एक ऐसे जिनसे कृत्रिमताएं चक्कर की तरह बनी रहें और एक ऐसे जिनसे कृत्रिमताएं टूट जाएं। जब कृत्रिमता टूट जाए तो आपको पता चलेगाः ध्यान भी कृत्रिमता थी, साधना भी कृत्रिमता थी, तपश्चर्या भी कृत्रिमता थी। छोड़ा, पकड़ा, सब कृत्रिम था। जब आपको वास्तविक उपलब्ध होगा तो आपको पता चलेगा सब कृत्रिम था। लेकिन कुछ कृत्रिमताएं ऐसी थीं जो सहयोगी थीं बाहर लाने को, कुछ कृत्रिमताएं ऐसी थीं जो विरोधी थीं बाहर लाने में और अंदर ले जाती थीं।
इसलिए उसको मैंने कृत्रिम कहा है। कृत्रिम का अर्थ यह मत समझ लेना कि वह बेकार है, उसे कुछ करना नहीं है। कृत्रिम का मेरा मतलब यह है कि किसी दिन वह जब बेकार हो जाए तो उसे वास्तविक समझ कर पकड़े मत रह जाना। मगर अगर कृत्रिम से आप यह मतलब लो कि वह बेकार है, जब कृत्रिम है तो अभी से उसको क्या पकड़ना! तो फिर सब बात फिजूल हो जाएगी।
जैसा मैंने परसों कहा, हम बच्चे को सिखाते हैंः ग--गणेश का। यह बिल्कुल झूठी बात है, यह बिल्कुल कृत्रिम है। गणेश का ग से क्या वास्ता? और अगर कोई वास्ता है गणेश का ग से, तो गधा का भी उतना ही है । वास्ता क्या है? लेकिन हम उसे एक कृत्रिम बात सिखाते हैंः ग--गणेश का। एक कृत्रिम बात सिखाते हैं ताकि ग उसे पकड़ जाए। अगर वह उसको पकड़ ले और जब भी पढ़े कहीं, तो पहले कहेः ग--गणेश का और तब ग को पढ़े। तो आप पाएंगे इसका दिमाग खराब है। एक कृत्रिमता थी जो सहयोगी थी, वह अब इसके लिए दि |
क्कत हो गई है, अब यह उसको पकड़े हुए है। वह कृत्रिमता सिखाने के लिए उपयोगी थी, लेकिन सिखाते से ही छूट जानी चाहिए। इशारे छोड़ देने चाहिए जब चीज मिल जाए। इस अर्थ में उसे मैंने कृत्रिम कहा है।
इस अर्थ में नहीं कि उसे पकड़ना नहीं है, इस अर्थ में कि पकड़ लेने के बाद स्मरण रखना है कि उसे छोड़ देना है। नहीं तो ध्यान पकड़ जाएगा, वही आपकी पकड़ हो जाएगी, वही आपकी जकड़ हो जाएगी, वह धीरेधीरे आपकी मेंटल हैबिट हो जाएगी और उसमें कोई मतलब नहीं रह जाएगा।
सब छोड़ते जाना है जो पकड़ा है हमने, उस घड़ी तक पहुंचने के लिए जब वह मिल जाए जिसको हमने पकड़ा नहीं है, जो हमें पकड़े हुए है। उसको ही, जो हमें धारण किए हुए है, हमने धर्म कहा है। जिसको हम धारण कर रहे हैं, वह धर्म नहीं हो सकता। चाहे आप ध्यान कर रहे हों, चाहे मंदिर जा रहे हों, चाहे कुछ भजन कर रहे हों, चाहे कीर्तन कर रहे हों। ये तो आपने धारण किए हैं, ये धर्म नहीं हो सकते। जो आपको धारे हुए है वह धर्म है। तो जब आप अपने धारण किए हुए सारे वस्त्र छोड़ कर खड़े हो जाएंगे, उस दिन आपको उसका पता चलेगा जिसको आपने धारण नहीं किया, जो आपको निरंतर उपलब्ध रहा है, जो आपका है, जो आपका स्वरूप
ध्यान भी आप धारण कर रहे हैं, शांति भी आप धारण कर रहे हैं, साधना भी आप धारण कर रहे हैं, तपश्चर्या भी आप धारण कर रहे हैं। जो आप धारण कर रहे हैं वह सत्य नहीं है, वह केवल जो आपने धारण किया है उस असत्य का विरोध है। वे दोनों असत्य एक-दूसरे को खंडित कर देंगे और तब शेष जो रह जाएगा वह सार्थक होगा, वह वास्तविक होगा।
उस वास्तविक की तरफ स्मरण आपको बना रहे, इसलिए मैंने ध्यान को कृत्रिम कहा है।
प्रश्नः आपने कहा कि शास्त्रों व धार्मिक ग्रंथों का उपयोग नहीं है; और है तो ज्ञान होने के पश्चात । उस |
को स्पष्ट समझाइए। ज्ञान होने के पश्चात तो किसी शास्त्र की जरूरत नहीं है, ऐसी मान्यता है।
मैंने कहा परसों आपको कि ज्ञान के पूर्व शास्त्र अर्थहीन हैं। क्योंकि आप उनमें जो भी पढ़ेंगे वह आपका अपना अर्थ होगा, उनका नहीं जिनकी वाणी उन शास्त्रों में संगृहीत है। आप जो भी पढ़ेंगे, अपने को पढ़ेंगे, उन ग्रंथों को नहीं पढ़ेंगे। वह पढ़ ही नहीं सकते। उसे पढ़ने के लिए वही चैतन्य की स्थिति चाहिए, जो उस व्यक्ति की रही होगी जिससे वह वाणी निकली है।
कभी भी हम, चेतना की समान स्थिति न हो, तो एक-दूसरे को नहीं समझ पाते। इस जगत में आप इस भ्रम में होंगे कि एक-दूसरे को हम समझते हैं, तो आप गलती में हैं। हममें से कोई एक-दूसरे को नहीं समझता। सबके चैतन्य के तल इतने भिन्न हैं, अंडरस्टैंडिंग संभव ही नहीं हो पाती। हम सबके चैतन्य के स्तर इतने भिन्न हैं, हम एक-दूसरे को समझाने की कोशिश करते हैं, लेकिन आपको ख्याल कभी आया कि कोई किसी से समझता
है? कोई किसी से नहीं समझता । समझ ही नहीं सकता कोई किसी से। और समझेगा भी, तो इस भ्रम में न रहे कि उसने दूसरे को समझा, वह अपने तल पर कोई बात समझेगा।
इसलिए मैंने कहा कि अगर आप गीता पढ़ें, कुरान पढ़ें, बाइबिल पढ़ें, समयसार पढ़ें, तो आप इस भ्रम में न हों कि समयसार कुंदकुंद ने लिखा, इसलिए आप जो समझ रहे हैं वह कुंदकुंद ने कहा होगा। कुंदकुंद ने क्या लिखा, वह आप नहीं समझ सकते, जब तक कुंदकुंद की चेतना स्थिति आपके भीतर न हो। आप वही समझेंगे जो आप समझ सकते हैं। वह आपका ही समझना होगा, आपका अपना पढ़ना होगा कुंदकुंद में, कुंदकुंद का समझना नहीं या कृष्ण का समझना नहीं।
तो मैंने कहा कि आप शास्त्र समझ नहीं सकते जब तक ज्ञान न हो और जब ज्ञान आपको होगा तो आप शास्त्र समझ सकेंगे। तब यह बात भी बिल्कुल सच है कि तब शास्त्र के समझने की जरूरत नहीं रहेगी कोई। जब आपको स्वयं ज्ञान उत्पन्न हुआ तो आपको शास्त्र को समझने की जरूरत क्या रह जाएगी? कोई जरूरत नहीं रह जाएगी। शास्त्र को समझने की जरूरत आपके लिए बिल्कुल नहीं रह जाएगी। जरूरत का कोई प्रश्न नहीं है न, आपको खुद बोध हो रहा है। लेकिन मैंने कहा, तब शास्त्र पढ़े जा सकते हैं। तब शास्त्र किसलिए पढ़े जाएंगे? तब शास्त्र केवल एक वजह से पढ़े जा सकते हैं। जो आपको उपलब्ध हुआ है वह अनेक लोगों को उपलब्ध हुआ है, आप अकेले नहीं हैं उस सीमा में, उस जगत में, उस प्रदेश में। आप अकेले नहीं हैं, आपकी अनुभूति अपनी अकेली नहीं है। अनेक लोग उस मार्ग पर गए हैं, अनेक लोगों को वह अनुभव हुआ है। उनकी जो वाणी और उनके शब्द जो उपलब्ध हैं, वे उसका इंगित देंगे। उस प्रदेश में आपका पहुंचना अकेला नहीं हुआ है, उस पर अनेक लोग पहुंचे हैं। और वे लोग जो पहुंचे हैं, उनकी गवाही में और उनकी साक्षी में आपके वचन अब होंगे।
परंपरा धर्म की ऐसे बनती है! ऐसे नहीं बनती कि आपने शास्त्र पढ़ा और बन गई। परंपरा धर्म की ऐसे बनती है कि आप गवाही देते हैं उनकी । आपका अपना ज्ञान - महावीर की, बुद्ध की और |
कनफ्यूशियस की गवाही हो जाता है कि ठीक है! मैंने जाना, और मैं जो जान रहा हूं, उन्होंने भी जाना। उनकी आप गवाही देते हैं। और वह गवाही मूल्यवान है। वह मूल्यवान इसलिए है कि उस गवाही के परिणाम में लाखों लोगों को एक सत्य का आभास, एक सत्य का इशारा, एक सत्य की तरफ अंगुली होनी शुरू हो जाती है।
इस तरह के गवाह हमारी सदी में कम हो गए हैं। इसलिए महावीर आपको झूठे मालूम पड़ने लगे हैं, इसलिए बुद्ध झूठे मालूम पड़ने लगे हैं। आप श्रद्धा किए चले जाते हैं, लेकिन आपको शक होने लगा है--कि पता नहीं हैं भी या नहीं!
एक ईसाई साधु ने गांधीजी के पास कुछ दिनों रहने के बाद लिखा कि पहली दफा गांधी के करीब रह कर मैंने अनुभव किया क्राइस्ट हुए होंगे। उसने लिखाः गांधी के पास रह कर मैंने पहली दफा अनुभव किया क्राइस्ट हुए होंगे, अन्यथा मुझे शक था। अन्यथा मुझे शक था। हमने सुना कि क्राइस्ट को जब सूली दी, तो उन्होंने सूली पर, जब हाथ ठोंक दिए गए उनके कीलों से तब उन्होंने परमात्मा से प्रार्थना की कि हे प्रभु, इन सारे लोगों को माफ कर देना, क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं। हमको शक होता है कि किसी आदमी को कोई सूली देगा और वह यह बात कहेगा।
लेकिन अगर हम गांधी को जानते हैं तो गवाही मिल जाएगी कि यह बात ठीक है, इस तरह का आदमी हुआ है। और इस तरह का आदमी हुआ है, तो वे लोग जो कि अभी उस स्थिति में नहीं हैं, उनको यह संभावना फलवती होती है कि हमारे भीतर भी उस तरह की घटना घट सकती है। एक सत्य की संभावना, एक बीज की संभावना फलवती होती है, और कुछ नहीं होता।
तो जो ज्ञान को उपलब्ध होता है वह शास्त्रों को केवल इस अर्थ में देख सकता है कि वह गवाही दे सके अपने पीछे की परंपरा की, कि जो हम कहते रहे हैं परंपरा से वह असत्य नहीं है, जो हम जा |
नते रहे हैं परंपरा से वह असत्य नहीं है। वह गवाही दे सके, वह साक्षी हो सके अनंत पीछे की परंपरा का। वह वापस उस परंपरा को पुनरुज्जीवन दे सके। वह पुनरुज्जीवित परंपरा उसमें हो जाएगी। जब वह ज्ञान को उपलब्ध होगा, अगर वह महावीर की वाणी से परिचित हुआ, तो उस ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति के माध्यम से वहां महावीर की वाणी फिर से जीवित हो जाएगी। और वह जीवन अर्थपूर्ण होगा। और वह जीवन शास्त्र और आगम को जानने का अर्थ होगा।
तो मैंने कहा, आगम को तो नहीं जाना जा सकता, शास्त्र को तो नहीं जाना जा सकता अज्ञान में । ज्ञान में जाना जा सकता है। लेकिन ज्ञान में उसके अपने लिए तो कोई शास्त्र जानने का उपयोग न होगा, लेकिन दूसरों के लिए, जो निकट हैं, चारों तरफ घिरे हैं, उनके लिए वह गवाही और साक्षी हो जाएगा। उपयोगिता शास्त्र की साक्षी की तरह है। उपयोगिता शास्त्र की अध्ययन की तरह नहीं है।
मेरी बात आप समझेंगे तो समझ में आएगा कि हम जितने साक्षी कम होते चले जाते हैं, उतना हमारी परंपरा खंडित, धूमिल और धुंधली होती चली जाती है।
आपको पक्का विश्वास सच में आता है कि महावीर हुए हैं? आपको सच में विश्वास आता है कि महावीर हुए हैं? आप अपने भीतर बहुत तलाश करेंगे तो आपको शक मिलेगा। शक मिलेगा यह कि ऐसा आदमी कैसे हो सकता है? कि लोग उसको मारते हों, पीटते हों, कि लोग उसके कानों में कीलें ठोंकते हों और उसको कुछ भी न होता हो! आप जरा अपने पर विचार करें तो आपको पता लगेगा या तो महावीर असत्य हैं या आप असत्य हैं। यानी आपके कानों में कोई कीलें ठोंकता है और मारता है और आपको कुछ भी नहीं होता? आपको लगेगा--यह कैसे होगा?
तो अब दो ही रास्ते हैं महावीर को असत्य करने के। एक रास्ता तो यह कि कह दें कि वे भगवान थे। यह भी असत्य करने का रास्ता है उनको । कि वे सामान्य आदमी नहीं थे, इसलिए नहीं होता होगा। या कह दें कि उनकी काया बहुत विशिष्ट तरह की थी, तीर्थंकरों की काया बहुत दूसरे ढंग की होती है, उस पर चोट ही नहीं लगती। वह लोह-काया थी या कुछ और थी काया । यूं ये तरकीबें हैं असत्य करने की। आप उनको सामान्य आदमी नहीं मान पाते। और सामान्य नहीं मान पाते...
एक तो रास्ता यह है कि कह दें कि भगवान हैं, कह दें कि तीर्थंकर हैं, कह दें कि अवतार हैं, कह दें कि उनकी विशेष काया है, ये एक तरकीबें हैं असत्य करने की। दूसरी तरकीबें ये हैं कि कह दें कि वे ऐतिहासिक पुरुष ही नहीं हैं, ये सब कल्पनाएं हैं, ये सब कहानियां हैं। ये दो तरह की बातें हैं। एक तरह से धार्मिक आदमी असत्य करता है, दूसरी तरह से अधार्मिक आदमी उनको असत्य करता है। ये दोनों असत्य कर रहे हैं। लेकिन आपको बिल्कुल अगर ऐसा लगता हो कि बिल्कुल हमारे जैसे हड्डी-मांस के आदमी थे, तो आपको शक होगा। यह शक आपका तभी मिट सकता है जब कि कुछ लोग जो आपकी सदी में जीवित हैं, जिंदा हैं, हड्डी-मांस के हैं और गवाही दे दें, साक्षी दे दें अपने जीवन से। तो आपको यह शक मिट सकता है। यानी धर्म कभी एक दफा पैदा होकर समाप्त हो ग |
या, ऐसा नहीं है, उसे बार-बार पुनरुज्जीवित होना पड़ता है अलग-अलग लोगों में। तब वह स्पष्ट होता है, तब वह ज्ञात होता है, तब वह जीवित होता है।
तो ज्ञान के बाद शास्त्र का उपयोग केवल एक है कि वह आदमी यह कह सके कि जो मैं कह रहा हूं, जो मैं जान रहा हूं, जो शब्द मैं दे रहा हूं, वे शब्द पहले भी दिए गए हैं, वे शब्द पहले भी कहे गए हैं। और अगर आप
पढ़ेंगे वाणी, तो महावीर यह नहीं कहते कि मैं जान रहा हूं; महावीर कहते हैं, जो पहले भी जाना गया है वह मैं जान रहा हूं। कृष्ण कहते हैं, जो पहले भी कहा गया है वह मैं कह रहा हूं। बुद्ध कहते हैं, अनंत बुद्धों ने जो कहा है वह मैं कह रहा हूं। वे सारे लोग यह कहते हैं कि जो पहले कहा गया है... । अगर उपनिषद पढ़ते हैं तो आप उसमें बार-बार पाएंगे कि वे कहते हैं, जो पहले जाना गया, जो सनातन से जाना गया वह हम कह रहे हैं।
वह उसके कहने में अर्थ है। वे पूरी परंपरा को अपने माध्यम से पुनरुज्जीवित कर रहे हैं। और अपने माध्यम से आपको वे उन अनंत जाग्रत पुरुषों से संयुक्त कर रहे हैं जो पीछे हुए और जो अब आपके लिए धूमिल हो गए हैं।
यह तो उपयोग है, वैसे उसके अपने लिए कोई उपयोग नहीं है। वह उपयोग आपके लिए है। शास्त्र मुर्दा है, उसके माध्यम से वह जीवित हो जाएगा। और जो शास्त्र आपको नहीं कह पाया, नहीं समझा पाया, वह उस जीवित व्यक्ति के माध्यम से आपको प्रतीत होगा।
यह आप समझते हैं न? महावीर की वाणी समझना एक बात है और महावीर के सान्निध्य में होना बिल्कुल दूसरी बात है। जो वाणी नहीं कह पाती वह सान्निध्य कह पाता है, क्योंकि सान्निध्य कुछ और दिखा देता है जो वाणी कभी नहीं दिखा सकती।
बुद्ध जब पहली दफा ज्ञान को उपलब्ध हुए तो वे काशी आए। वे काशी के बाहर एक दरख्त के नीचे ठहरे हुए थे। तब उन्हें क |
ोई भी नहीं जानता था, कोई पहचानता नहीं था। वे एक अदना, अनजान, अपरिचित भिखमंगे थे, भिक्षु थे। काशी का नरेश सांझ को बहुत परेशान, चिंतित था, वह अपने रथ पर हवाखोरी को निकला था। वह जब गांव के बाहर गया, सूरज की रश्मियां ढलती थीं, बुद्ध एक दरख्त से टिके हुए बैठे थे, उनके चेहरे पर सूरज का प्रकाश पड़ता था। उसने अपने सारथी को कहा, रोको-रोको! यह आदमी तो कुछ अदभुत है। इतना प्रकाशोज्वल, इतना शांत! इतने संगीत से, इतने आनंद से भरी आंख तो मैंने कभी देखी नहीं! उसने कहा, रोको, थोड़ा इसके पास हो लें।
जैसे आप किसी फूल से भरे हुए गंध के बगीचे के करीब से निकलें और आपका मन हो कि थोड़ा इसमें ठहर जाएं। और जैसे आप धूप से तपे हुए निकलें और किसी बड़े बरगद की छाया के नीचे आपका मन हो जाए कि थोड़ी देर इसके पास ठहर जाएं। वैसा उस राजा को हुआ कि इस आदमी के पास थोड़ा रुक लें, वह एक चिंता से विदग्ध था।
वह बुद्ध के पास गया और उसने कहा कि मैं इतनी चिंता से भरा हूं और मेरे पास सब कुछ है, और तुम्हारे पास कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता, तुम इतनी शांति से, इतने आनंद से बैठे हो! क्या मैं पूछूं यह कैसे संभव हुआ ? मेरे पास सब कुछ है और मैं तीन दिन से चिंता करता हूं कि आत्मघात कर लूं। तुम्हारे पास कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता और तुम इतने निश्चिंत बैठे हो कि अनंत जन्मों तक भी अगर तुम्हें जीना पड़े, तुम ऐसे ही बैठे जीते रहोगे। और मुझे तो भार हो गया है जीना और खत्म करना चाहता हूं अपने को।
बुद्ध ने कहा, एक दिन मेरे पास भी सब कुछ था, लेकिन मेरे भीतर कुछ नहीं था। आज मेरे भीतर कुछ है, बाहर मेरे पास कुछ भी नहीं है। जो मैंने भीतर पा लिया है उससे मैंने जो खोया, वह बिल्कुल नहीं खोया, मैंने सभी पा लिया है। एक दिन मैं तुम्हारी हालत में था, आज मैं इस हालत में हूं। अभी तुम इस हालत में हो, कल चाहो तो इस हालत में हो सकते हो।
उसने एक क्षण बुद्ध को देखा। वे जो कह रहे थे उसकी गवाही थी, वे जो कह रहे थे उसके वे स्वयं साक्षी थे। उसने सारथी को पास बुलाया, अपना मुकुट उसको वापस दिया, अपने कपड़े उतार कर दे दिए, उससे कहा, घर सूचना करना कि मैं कुछ और बड़ी संपत्ति की खोज में निकल गया हूं।
बुद्ध ने कहा था क्या कुछ? वह तो अपने रास्ते जाता था। बुद्ध ने बुलाया था क्या कुछ ? वह तो अपने रास्ते जाता था। बुद्ध ने कोई आवाज दी थी कि सुनो, कि मैं कुछ समझाऊं? उसने बुद्ध को देखा और वह कुछ
शास्त्र जो नहीं कह पाते वह सान्निध्य कह देता है। इसलिए जीवित सत्य जब किसी व्यक्ति को उपलब्ध होता है, उसके आसपास जो लोग उसके जीवन की प्रेरणा से खड़े होते हैं, उनमें तो वास्तविक धर्म होता है। उसके मरने के बाद उसकी वाणी के कारण जो खड़े होते हैं, वे मुर्दा धर्म होते हैं। फिर धर्म मर जाता है, फिर उसमें प्राण नहीं रह जाते। फिर वह शब्द - आधारित होता है, फिर वह सत्य-आधारित नहीं होता। सत्य का अनुभव उसके जीवन के सान्निध्य में संभव हो पाता है।
तो मैं शास्त्र का कोई उपयोग साधारण के ल |
िए तो नहीं मानता, बल्कि घातक मानता हूं, उसको नुकसान पहुंच सकता है, लाभ तो नहीं हो सकता। शास्त्र तो बड़ी वसीयत है, इस अर्थ में वसीयत है कि जब आप जानेंगे तब आप पहचानेंगे कि उस सीमा में, उस प्रदेश में आप अकेले नहीं हैं। और तब आप पहचानेंगे कि आप किसी निर्जन वन में नहीं प्रविष्ट कर गए हैं। आपके पहले बहुत जीवित और जागते हुए लोगों की परंपरा है और उनके चरणचिह्न आपको पहचान में आ जाएंगे। शास्त्र उनके चरणचिह्नों को पहचानने के उपाय से ज्यादा नहीं है । पर यह आप शास्त्र पढ़ कर नहीं समझ सकते, यह आप स्वयं को पढ़ कर समझ सकते हैं, स्वयं में उतर कर समझ सकते हैं।
किसी को लग सकता है कि मेरी शास्त्रों के प्रति बड़ी श्रद्धा नहीं है। किसी को लग सकता है कि मैं आपको शास्त्रों के विरोध में ले जाने की बात कर रहा हूं।
मैं आपको शास्त्रों के विरोध में इसलिए ले जाना चाहता हूं कि आप किसी दिन उस जगह पहुंच जाएं जहां से शास्त्र पैदा होते हैं, जहां शास्त्र बनते हैं। उस चेतना में पहुंच जाएं जहां शास्त्रों का जन्म होता है। और तब आप शास्त्रों को समझ पाएंगे, उसके पहले नहीं समझ पाएंगे। मेरी श्रद्धा बहुत प्रगाढ़ है। वह आप जैसी श्रद्धा नहीं है, मेरी श्रद्धा बहुत प्रगाढ़ है। और उस श्रद्धा के कारण ही आपसे कहता हूं कि शास्त्रों पर बिल्कुल श्रद्धा न करें, स्वयं पर श्रद्धा करें। उसके माध्यम से किसी दिन आप उस जगह पहुंचेंगे जहां शास्त्रों का जन्म हो जाता है। आप शास्त्रों के पढ़ने वाले ही न बने रहें, उनके जन्मदाता बनें। यह संभव है।
प्रश्नः आत्मा का दर्शन कौन करता है? स्व का दर्शन स्व कैसे करेगा?
यह मूल्यवान है। यह बात ख्याल में आनी बड़ी जरूरी है कि जब हम कहते हैं, आत्मा का दर्शन होता है, तो दर्शन कौन करेगा?
दर्शन में तो दो की |
जरूरत है। दर्शन में दो की जरूरत है-- जो देखे उसकी और जो दिखाई पड़े उसकी। तो जब हम कहते हैं आत्मा का दर्शन, तो वहां कौन देखेगा और किसको देखेगा? वहां तो एक ही होगा न। जो देख रहा है, वही होगा। तो दिखाई कौन पड़ेगा? तो फिर दर्शन कैसे होगा?
यह बात बड़ी अर्थ की है। सच में ही दर्शन शब्द झूठा है। असल में हमारे सब शब्द झूठे हैं, क्योंकि वे दो के लिए बने हैं। ज्ञान कहें तो भी झूठा है, क्योंकि ज्ञान में भी दो चाहिए -- जिसका ज्ञान हो और जिसको ज्ञान हो। दर्शन कहें तो भी दो चाहिए -- जिसका दर्शन हो और जिसको दर्शन हो । अनुभव कहें तो भी दो चाहिए जिसको अनुभव हो और जिसका अनुभव हो। हमारे सारे शब्द दो के लिए बने हैं, क्योंकि हमारा पूरा संसार दो से बना हुआ है। और वहां अकेला रह जाएगा। तो इस दो के लिए बनी हुई जो भी भाषा है वह वहां बिल्कुल ही अपर्याप्त है। बिल्कुल अपर्याप्त है। इसलिए अगर बिल्कुल ठीक उसके संबंध में कुछ कहना हो, तो कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। उस आत्म-अनुभव के लिए अगर बिल्कुल ठीक से कुछ कहना हो, तो कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि हमारे सब शब्द अधूरे पड़ जाएंगे और झूठे पड़ जाएंगे। कोई भी शब्द उसे पूरी तरह प्रकट नहीं करेगा। इसलिए जिन्होंने जाना है उन्होंने कहा कि उस संबंध में हम कुछ भी नहीं कह सकते हैं । फिर, कह तो नहीं सकते, उस तरफ इशारा कैसे करें? तो इन्हीं शब्दों से काम चलाने की कोशिश करते हैं और इन्हीं शब्दों में उस बात को रखने की कोशिश करते हैं जो कि नहीं कही जा सकती।
तो उसको हम दर्शन कहते हैं, इस शर्त के साथ कि वहां कोई दृश्य नहीं है। इस शर्त के साथ हम उसको दर्शन कहते हैं, वहां कोई दृश्य नहीं है, वहां केवल द्रष्टा मात्र रह गया है। और वह द्रष्टा मात्र किसी को देख नहीं रहा, क्योंकि देखेगा वहां कौन? वह द्रष्टा मात्र किसी को भी नहीं देख रहा है। तो उसे कुछ भी नहीं दिखाई पड़ रहा है। वहां वह अकेला जो शेष रह गया है। तो वह जो उसकी दर्शन की क्षमता थी, वह जो देखने की क्षमता थी, वह जो जानने की क्षमता थी, वह जो बोध की क्षमता थी, वह जो अनुभव की क्षमता थी, वह क्षमता तो मौजूद है, वह कहीं गई नहीं। वह क्षमता अब किसी को भी नहीं जान रही है। इस घड़ी में उसके भीतर क्या होगा?
समझ लें यहां एक दीया जले। दीया जले तो दीये का प्रकाश पड़ेगा दीवालों पर, दीवालें दिखाई पड़ेंगी। दरख्तों पर, तो दरख्त दिखाई पड़ेंगे। लेकिन क्या आप सोचते हैं-- दरख्त और दीवालें न रह जाएं तो दीया बुझ जाएगा? एक दीया यहां जले, उसका प्रकाश पड़े दीवालों पर, तो दीवालें दिखाई पड़ेंगी। दरख्तों पर पड़े, तो दरख्त दिखाई पड़ेंगे। लेकिन आप कल्पना करें कि दरख्त और दीवालें नहीं रह गईं, तो क्या दीया बुझ जाएगा? क्या दीया इसलिए जलता था कि दरख्त हैं और दीवालें हैं। दरख्तों के, दीवालों के होने से दीये के जलने का क्या वास्ता? दरख्त और दीवालें थीं तो दीये के प्रकाश में दिखाई पड़ती थीं, अगर वे न होंगी तो क्या होगा? दीया अकेला जलेगा। वह |
किसी को प्रकाशित नहीं करेगा, बस केवल प्रकाशित रह जाएगा। कोई उसमें दिखाई नहीं पड़ेगा, लेकिन अंधेरा थोड़े ही हो जाएगा। यह आप फर्क समझ रहे हैं न? कोई दिखाई नहीं पड़ेगा, लेकिन अंधेरा थोड़े ही हो जाएगा, दीया जलेगा। अब इस दीये के जलने में जब कोई प्रकाशित नहीं हो रहा, तो क्या होगा? दीया अकेला प्रकाशित होता रहेगा। यानी जब कोई प्रकाशित नहीं हो रहा तब भी दीया तो प्रकाशित होता ही रहेगा।
उस दीये का जो प्रकाशन है, वैसे ही, आत्मा जब किसी को नहीं जानती, तब वह केवल अपने को ही जानती रह जाती है। यह जानना शब्द बहुत ठीक नहीं है। कोई शब्द ठीक नहीं है। लेकिन बस वह अकेली अपने को ही प्रकाशित करती रह जाती है। इसलिए हम उसे स्व-पर-प्रकाशक कहते हैं। उससे दूसरे पर प्रकाश पड़ता है, दूसरी चीजें देखी जाती हैं, जब कोई चीज मौजूद नहीं रह जाती तो वह स्वयं को जानती है। स्वयं को जानने का मतलब आप समझ लेना । जानना उस अर्थ में नहीं जैसे हम दूसरी चीजों को जानते हैं। जानना इस अर्थ में
कि जब कुछ भी जानने को नहीं रह जाता, तो भी ज्ञान तो जलता रह ही जाता है। वह ज्ञान का दीया तो बना ही रह जाता है।
उस अनुभव को, उस प्रतीति को, उस साक्षात को जो भी शब्द आप देना चाहें दे सकते हैं। सब शब्द झूठे हैं, एक सुविधा यह है। इसलिए कोई भी शब्द दे दें, कोई दिक्कत नहीं है। उसे कोई साक्षात कहता है, कोई उसे अनुभव कहता है, कोई उसे दर्शन कहता है, कोई प्रतीति कहता है, कोई प्रत्यक्ष कहता है। कोई भी शब्द दे दें, उन सब शब्दों में एक समानता है कम से कम कि वे सब झूठे हैं, वे कामचलाऊ हैं, वे इशारा करते हैं। और इसलिए उनमें कोई झंझट नहीं, कोई शब्द आप दे सकते हैं। एक ही सुविधा है कि वे सब झूठे हैं, यह उनमें समानता है। सारे धर्मों ने जो इशारे किए हैं वे स |
ब इशारे इस अर्थ में झूठे हैं, क्योंकि वे शब्दों में किए गए हैं। और कोई शब्द उसे ठीक से प्रकट करने में समर्थ नहीं है। लेकिन आप समझ सकते हैं, इशारा समझ सकते हैं। शब्द को पकड़ लें तो नहीं समझ पाएंगे, अगर शब्द के इशारे को समझ लें तो शब्द पीछे छूट जाएगा और इशारा समझ जाएंगे।
इसलिए सारा धर्म जो है वह सिंबालिक है, प्रतीकात्मक है। और उसकी बात सब पैरेबेल्स में, कथाओं में और कहानियों में कही गई है। उसको सीधे-सीधे कहने का कोई भी उपाय नहीं है।
अब जैसे मैंने यही कहा, यह एक प्रतीक हुआः एक दीया जलता है, चीजें दिखाई पड़ती हैं। फिर चीजें मौजूद नहीं हैं तो दीये का क्या होगा? दीया जलेगा। तब सिर्फ दीया ही दिखाई पड़ेगा वहां। और कुछ नहीं होगा। उसी भांति आत्मा दूसरों को जानती है। जब वह किसी को भी नहीं जानेगी, तब उसके जानने का क्या होगा? वह जानने का दीया जलता रहेगा। वह जानने के दीये का जो अनुभव होगा उसके लिए कोई शब्द रास्ता नहीं है कहने का। लेकिन कुछ होगा जो बहुत अभूतपूर्व है। क्योंकि जो दूसरे को जान सकता था, यह असंभव है कि वह अपने को न जान सकता हो । जो दूसरे को जान सकता था, यह असंभव है कि वह अपने को न जान सकता हो। जो दूसरे को देखता था, यह असंभव है कि वह स्वयं को न देख सकता हो। क्योंकि जो स्वयं को न जान सकता हो वह दूसरे को जान ही कैसे सकता है ?
इसलिए उस क्षण घटना घटेगी एक ऐसे ज्ञान की जिसमें ज्ञाता और ज्ञेय एक होगा, दो नहीं होंगे। एक ऐसे दर्शन की जहां देखने वाला और दिखाई पड़ने वाला एक होगा और दो नहीं होंगे। उस घड़ी में, उस घड़ी में कोई शब्द नहीं है--साक्षात है। उस घड़ी में कोई शब्द नहीं है -- अनुभूति है।
इसलिए, अभी मुझसे एक और प्रश्न पूछा-आत्मा क्या है?
तो मैं समझता हूं इसमें उसका उत्तर भी होगा। उसे कहने का कोई उपाय नहीं है। जो भी कहा जा सके वह आत्मा नहीं होगा। वह केवल इशारा होगा। उसे जाना जा सकता है, कहा नहीं जा सकता है। और आप जान लेंगे, तो जिन्होंने कहा है उनके इशारे आपकी समझ में आ जाएंगे। और आप नहीं जानेंगे, तो उनके शब्द आपकी पकड़ में होंगे, उनसे कुछ जानना नहीं होगा।
एक प्रश्न और हैः क्या यह सच है कि ब्रह्म को जानना ब्रह्म हो जाना है?
मैं समझता हूं आपको समझ में आया होगा। उसे बिना हुए नहीं जाना जा सकता । वही एक तत्व है जिसे बिना हुए नहीं जाना जा सकता । ज्ञान और हो जाना वहां एक ही बात है। वहां होने में और ज्ञान में फासला नहीं हो सकता है।
एक प्रश्न हैः आत्मज्ञान पाना मुश्किल नहीं है तो वह ज्ञान बहुत कम लोगों ने क्यों पाया? सामान्य व्यक्ति उसे क्यों नहीं पा सकता है?
आत्मा को पाना तो सरल है, इसका अर्थ यह नहीं है कि उसे सभी लोग पा लेंगे। आत्मा को पाना सरल है, इसका केवल इतना ही अर्थ है कि जो भी पाना चाहते हैं वे अवश्य पा लेंगे। जब तक हम पाना नहीं चाहते तब तक हमारे ऊपर उस ज्ञान को कोई थोपेगा नहीं। हम सामान्यतया कुछ और पाना चाहते हैं। हम सारी चीजें पाना चाहते हैं और इसलिए उनको पाने में |
लगे रहते हैं और आत्मा को नहीं पा सकते हैं। लेकिन जो उस दिशा में चलेगा वह अवश्य पा लेता है। सरल का मतलब इतना है कि जो उस दिशा में चलेगा, जो उन्मुख होगा, कठिन नहीं है, असंभव नहीं है। और जिन थोड़े से लोगों ने पाया, वे इस बात की गवाही हैं कि कोई दूसरा आदमी पा सकता है। इस जमीन पर अगर एक भी आदमी ने कभी आत्मा पाई है तो कोई भी दूसरा आदमी पा सकता है। क्योंकि दो आदमियों की शक्ति में, सामर्थ्य में, कितना ही भेद हो, बहुत भेद नहीं है। और उस सत्य को पाने के लिए कोई भी भेद नहीं है, क्योंकि वह समान रूप से सबको उपलब्ध है।
सरलता का मतलब यह है, वह पाई जा सकती है, वह संभावना है, वह सरल संभावना है। नहीं पाते अधिक लोग, यह बिल्कुल दूसरी बात है। रात को चांद निकलता है, मैं नहीं समझता कितने लोग देखते हैं? रात को रोज चांद निकलता है, कितने लोग देखते हैं, यह मैं नहीं समझता। लेकिन चांद को देखना कठिन नहीं है । अब अगर आप यह कहें कि चांद को देखना जरूर कठिन होगा, क्योंकि पांच लाख लोग रहते हैं एक गांव में तो पांच भी तो नहीं देखते, तो मैं आपको क्या कहूंगा? मैं कहूंगा, चांद को देखना तो सरल है, अब यह बिल्कुल दूसरी बात है कि आप कुछ और देख रहे हैं और नहीं देखना चाहते, न देखें।
कल हम झील पर गए, वहां झील पर बैठे थे। अब जरूरी नहीं है कि झील पर हम बैठे थे तो हमने झील देखी हो। हममें बहुत थे जिन्होंने झील नहीं देखी। जो झील पर थे, लेकिन झील को नहीं देखा। जो बिल्कुल झील पर खड़े थे, लेकिन झील को नहीं देखा। मैंने देखा वे वहां भी बात कर रहे हैं, वे वहां भी चिंतन में लगे हैं, वे वहां भी कुछ चर्चा में लगे हुए हैं, वे वहां हैं ही नहीं, वे बंबई में हैं या कहीं और हैं।
तो अब झील को देखना कठिन तो बिल्कुल नहीं था, उस झील के बिल्कुल |
किनारे खड़े थे, लेकिन वे वहां मौजूद ही नहीं थे, वे कहीं और थे। उन्होंने झील को नहीं देखा।
एक मेरे मित्र थे, उनको लेकर एक जगह दिखाने गया। नाव में यात्रा की। वे स्विटजरलैंड की बातें करते रहे। वे स्विटजरलैंड रहे कुछ दिन, वहां की झीलों की बात करते रहे, मैं सुनता रहा। फिर कश्मीर की झीलों की बात करते रहे, वह भी मैं सुनता रहा। उस झील पर जिस पर हम थे, उन्होंने उसको बिल्कुल नहीं देखा। फिर लौटने लगे, रास्ते में मुझसे बोले, बड़ी सुंदर झील थी ।
मैंने कहा, अभी तक मैं आपसे कुछ नहीं बोला, लेकिन अब इस झूठ को आप न बोलें तो अच्छा। वह झील सुंदर थी या नहीं थी, इससे आपको क्या मतलब ? आपने उसे देखा भी नहीं। आप वहां थे ही नहीं! आप स्विटजरलैंड में रहे होंगे उस वक्त, कश्मीर में रहे होंगे, यह हो सकता है। उस झील पर नहीं थे जहां मैं आपके साथ था, आप मेरे पास नहीं थे। जिस नाव पर हम बैठे थे उस पर आप बिल्कुल नहीं थे। वहां आप अनुपस्थित थे। और तब मैं अब यह भी जानता हूं कि जब आप स्विटजरलैंड की झीलों में रहे होंगे तो वहां भी आप उपस्थित नहीं रहे होंगे। और मैं यह भी जानता हूं कि जब आप कश्मीर की झीलों में रहे होंगे, वहां भी उपस्थित नहीं रहे
होंगे। आप ही तो थे मेरे साथ अभी। तो आप कृपा करके, इस झील में आपका साथ देख कर मैं जान गया हूं कि उन झीलों के बाबत भी आपकी जो राय है वह झूठी होगी। आपने उनको देखा नहीं।
देखना तो बड़ी सरल बात थी, लेकिन देख कम ही लोग पाएंगे। और उसका कारण यह नहीं है कि बात कठिन है इसलिए कम लोग देख पाएंगे; उन्होंने देखना ही नहीं चाहा, वे कहीं और ही देखते रहे।
सच में आप अगर देखना चाहते हैं तो कठिनाई बिल्कुल नहीं है। अगर पूरी तरह देखना चाहते हैं तो इसी क्षण देखना हो जाएगा। क्योंकि रोकने को कौन है वहां सिवाय आपके ? वहां कोई है ही नहीं। यानी कोई चीजें ऐसी होती हैं जिनको पाने में कोई फासला तय करना होता है। अब अगर मुझे बंबई जाना है तो इसी क्षण नहीं जा सकता, बीच में टाइम गिरेगा। लेकिन मुझे अपने को जानना है तो इसमें तो टाइम के गिरने की कोई वजह नहीं है, क्योंकि मैं वहां मौजूद हूं। अगर मैं परिपूर्ण प्रगाढ़ता में जानना चाहता हूं तो इसी क्षण जान सकता हूं।
लेकिन हम जानना कब चाहते हैं! आप इस भ्रम में पड़ जाते होंगे अक्सर कि हम आत्मा को जानना चाहते हैं। आप जानना आत्मा को बिल्कुल नहीं चाहते।
मैं एक जगह था। एक साधु वहां लोगों को समझाते थे कि तुम्हारे पास यह जो संपत्ति है, यह सब एक दिन मौत आएगी, तुमसे छिन जाएगी। इसमें कोई सार नहीं है, यह तो मरने के पहले सब छिन जाएगी, नश्वर है। तो तुम आत्मा को जरूर जान लो, वह तुम्हारे साथ रहेगी। तब उनके भक्त जो सुने होंगे, अगर वे आत्मा को जानना चाहें तो आप सोचते हैं वे आत्मा को जानना चाहते हैं? बिल्कुल भी नहीं। वे एक ऐसी संपत्ति चाहते हैं जो मरने के बाद भी साथ रहे। वे उसी संपत्ति को जिसे वे जिंदगी भर इकट्ठा करते रहे हैं, उसी तरह की कोई स्थायी संपत्ति चाहते हैं जो मरने |
के बाद भी साथ चली जाए। वे आत्मा को नहीं जानना चाहते हैं। आप साधुओं को समझाते हुए सुनेंगेः आत्मा अमर है। आपके मन में होता है आत्मा को जानें। इसलिए नहीं कि आप आत्मा को जानना चाहते हैं; केवल इसलिए कि आप मौत से डरते हैं। आप मृत्यु से डरे हुए हैं और चाहते हैं कि कोई ऐसी तरकीब हो कि मरें न। शरीर का बहुत उपाय करेंगे, लेकिन आखिर में जानते हैं कि वह मर जाएगा, रोज उसको मरते देखते हैं, फिर भी उपाय जारी रखेंगे। लेकिन एक यह भी आखिर-आखिर में लगेगा कि यह आत्मा भी जान ही लो, कम से कम इससे मरना बच जाएगा।
आप आत्मा को नहीं जानना चाहते हैं, आप मृत्यु से डरते हैं केवल। और उस डर से आपमें आत्मा की चाह पैदा होती है, वह वास्तविक नहीं है, झूठी है। वास्तविक चाह मौत से बचने की है। और आत्मा को वह जानेगा जो मरने को राजी हो । अब यह दिक्कत है। आपकी जो आत्मा को जानने की चाह है, मौत के भय से उठी है। और आत्मा को वह जानेगा जो मरने को राजी हो । और आपमें इसलिए चाह उठी है कि यह संपत्ति यहीं चूक जाएगी।
मैं उनके साधु के बाद ही बोलता था, तो मैंने कहा, अगर समझ लीजिए यह संपत्ति आपके साथ जा सके, तो फिर आपको आत्मा की कोई जरूरत है? तो आप कहेंगे, फिर क्या जरूरत है! और अगर मैं आपको कहूं कि आपका शरीर अमर हो सके, आप में से कोई आत्मा को चाहता है? आप कहेंगे, फिर फिजूल, कौन बकवास करे।
यानी आप असली में चाहते क्या हैं? आप संपत्ति... यह संपत्ति आपको काफी नहीं लगती। जो कम लोभी
हैं वे बेचारे इसी संपत्ति में तृप्त हो जाते हैं। जो ज्यादा लोभी हैं वे ऐसी संपत्ति चाहते हैं कि साथ चली जाए। जो बेचारे कम मौत से डरे हैं वे इसी शरीर पर तृप्त हो जाते हैं। जो मौत से ज्यादा डरे हैं वे आत्मा को भी पाना चाहते हैं। आत्मा से आपका कोई मतलब नहीं है । |
तो जितनी आकांक्षा दिखती है लोगों में आत्मा को जानने की, यह आत्मा को जानने की नहीं है। इसे समझ लें ठीक से। यह किन्हीं और चीजों से एस्केप है, पलायन है। आप सत्य के जिज्ञासु नहीं हैं, आप केवल सुरक्षा के खोजी हैं। एक सिक्योरिटी खोज रहे हैं। आत्मा हमें मिल जाएगी तो अच्छा होगा। वही आदमी जो बैंक बैलेंस में सिक्योरिटी खोजता था, वही आदमी पुण्य में खोज रहा है। कोई भेद नहीं है। जो सोचता था बहुत धन वहां जमा होगा तो ठीक रहेगा। वह इससे भी डरा हुआ है कि कुछ पुण्य भी जमा हो, वहां कुछ दिक्कत न हो। वह वही आदमी जो बैंक में पैसा जमा करता था, वही आदमी पुण्य के खाते में भी पुण्य जमा करना चाहता है। यह वही आदमी है, इसमें कोई फर्क नहीं है, यह बिल्कुल वही आदमी है। और यह वही वृत्ति है, इसमें कोई भेद नहीं है। आत्मा को जानने से इसका कोई मतलब नहीं है।
आत्मा को जानना आपके इन कारणों से नहीं होता; आत्मा को जानने की प्यास किसी और ही दूसरी से पैदा होती है। वह आपकी सुरक्षा और बचाव नहीं है। वह आपका इस बात का बोध कि जो कुछ भी मेरे चारों तरफ है, जिस दिन आपको यह बोध होता है कि मेरे चारों तरफ जो कुछ है और जो कुछ मैं कर रहा हूं वह बिल्कुल ही अर्थहीन है। उसमें आपको कहीं कोई सार्थकता नहीं दिखाई पड़ती। चौबीस घंटे का, जन्म से लेकर मृत्यु तक का जीवन जब आपको बिल्कुल व्यर्थ दिखाई पड़ता है, जब आपको उसमें कोई सार्थकता नहीं दिखाई पड़ती। तो उस व्यर्थता के बीच, जब यह सब दुख दिखाई पड़ता है और इस दुख के बीच, और जब यह सब संताप दिखाई पड़ता है, इस संताप के बीच आपके भीतर ऐसा होता है कि या तो मैं इस जीवन को समाप्त कर दूं जो कि बिल्कुल व्यर्थ है और या फिर उसको जान लूं जिसमें कोई सार्थकता हो । जो आदमी जीवन में घबड़ा कर उस सीमा पर पहुंच गया हो जहां आत्मघात कर सकता हो, वह आदमी केवल आत्मसाधना में लग सकता है। यानी उस बिंदु पर जहां स्युसाइड होता है, उसी बिंदु पर साधना भी शुरू होती है। उसी बिंदु पर, जहां आदमी इतनी ज्यादा अर्थहीनता अनुभव करता है कि सब व्यर्थ है और उसे ऐसा लगता है कि इस जीवन में कोई भी अर्थ नहीं, उस क्षण वह आत्मसाधना में संलग्न हो सकता है। उस वक्त उसमें एक प्यास पैदा होती है कि वह जान ले कि अगर भीतर कुछ और है जिसमें कोई अर्थ है तो ठीक है, अन्यथा समाप्त कर दे। उसके पहले नहीं।
आप तो इसी जीवन को प्रोलांग करना चाहते हैं, तो आत्मा को खोजते हैं। वह इस जीवन को बिल्कुल व्यर्थ जान लेता है, तो आत्मा को जान पाता है। आप इसी जीवन को प्रोलांग करना चाहते हैं।
अभी मैं एक गांव से निकला। एक जगह रुका था तो एक महिला ने मुझे लाकर एक किताब भेंट की। उसके ऊपर लिखा थाः अगर आपके पास मकान नहीं है तो मकान की व्यवस्था है। अगर आपके पास बगीचे नहीं हैं तो बगीचे की व्यवस्था है।
तो मैं हैरान हुआ कि वह क्या है? ऊपर उसके शीर्षक था, मैंने अंदर देखा, तो उसमें लिखा हैः प्रभु के राज्य में... वह किसी ईसाई का प्रचार था... उसमें लिखा थाः प्रभु के राज् |
य में सुंदर बगीचे हैं, सुंदर मकान हैं, बड़ा स्वस्थ जीवन है, वहां कोई बीमारी नहीं होती, वहां कोई परेशानी नहीं होती। अगर आप ऐसा जीवन चाहते हैं तो प्रभु ईसा को स्वीकार करिए।
अब यह जिन लोगों के पास मकान नहीं हैं; या हैं, बहुत अच्छे नहीं हैं; या बहुत अच्छे हैं, तो किसी के पास कितना ही अच्छा हो उसको और अच्छा चाहिए; उसे वहां एक जिंदगी मरने के बाद भी कायम रखनी है। इसी जिंदगी को आगे कायम रखना है। इस आकांक्षा से जो धर्म के पीछे जाता है वह धार्मिक कभी नहीं हो
जिसे यह जिंदगी अर्थहीन हो गई, जिसे यह जिंदगी दुख हो गई, इस जिंदगी में जिसे कोई अर्थ नहीं खोजे मिलता, यहां से लेकर वहां तक यह बिल्कुल व्यर्थ कथा मालूम होती है, उसको एक बोध पकड़ेगा--कि या तो मैं जान लूं कि कुछ सार्थकता भीतर हो तो उसको जान लूं और अन्यथा तोड़ दूं इस सूत्र का...
दोस्तोवस्की के एक उपन्यास में उसका एक पात्र परमात्मा से कहता है कि हे परमात्मा, मैं नहीं जानता कि तू कहीं है। लेकिन अगर तू कहीं है, तो मैंने सुना है तू सर्वशक्तिमान है, तो इतनी कृपा कर कि मुझे जीवन से वापस ले ले। अगर तू है और सर्वशक्तिमान है, तो मैं एक ही बात में तेरी सर्वसत्ता का प्रत्यक्ष पाना चाहता हूं, मुझे जीवन से वापस ले ले।
यह जीवन बिल्कुल मूढ़तापूर्ण है, इसमें कहीं भी कोई सार और अर्थ नहीं है। जिस दिन आपको ऐसा साक्षात होगा, इसी जीवन को आगे चलाने का नहीं, मृत्यु के बाद बच जाने का नहीं, बल्कि इसका कि यह जीवन इतना व्यर्थ है कि मृत्यु कल हो तो आज ही क्यों नहीं हो जाती ! इसमें अर्थ कहां है? जिस दिन मृत्यु आपको इसी क्षण हो और कोई बाधा न मालूम हो और लगे कि सब व्यर्थ है, उस क्षण आपके भीतर एक बिंदु पर आप खड़े होंगे, जहां आप पहली दफा उस प्यास को अनुभव करेंगे जो सार |
्थकता की खोज की है, जो मीनिंग की खोज की है। मीनिंग ही आत्मा है, वह अर्थ ही आत्मा है। और तब आप भीतर प्रविष्ट होंगे।
जब तक आप बाहर जीवन को समझते हैं, इसमें आशा है किसी तरह के सुख के मिलने की, तब तक आत्मा की आपमें जानने की प्यास पैदा नहीं होती। जब तक आपको लगता है कि बाहर की दौड़ में कहीं सुख मिल सकता है--यहां या कि स्वर्ग में या कि मोक्ष में-- जब तक आपको लगता है कि कहीं बाहर सुख मिल सकता है, तब तक आप आत्मा को नहीं खोजेंगे। जिस दिन आपको लगेगा बाहर सुख है ही नहीं, यह इतना स्पष्ट होगा कि इसमें कोई शक न रह जाएगा कि बाहर सुख है ही नहीं - - न इस जमीन पर, न स्वर्ग में, न मोक्ष में-- बाहर नहीं, बाहर की धारणा आपकी खंडित हो जाएगी, उस दिन आप इतने प्यास से भरेंगे और आप पाएंगे कि वह मिल गया, वह भीतर है।
आत्मा को जानना तो सरल है, आत्मा को चाहना थोड़ा कठिन है। अंत में आपसे इतना कहूं, आत्मा को जानना तो बहुत सरल है, आत्मा को चाहना कठिन है। आत्मा का जानना तो एक क्षण में हो जाता है, आत्मा की चाह जन्म-जन्मांतर के बाद आती है। तो जिनको मिल जाता है इसलिए नहीं कि उन्होंने बड़ी मेहनत की जानने के लिए। न, वह पाने के लिए लंबी यात्रा किए- - वह आकांक्षा, वह अभीप्सा, वह प्यास । प्यासे हम नहीं हैं, तो फिर कोई मायने नहीं है। हम चलेंगे, बातें करेंगे, वह नहीं मिलेगा। प्यासे अगर हम हैं तो इसी क्षण मिल जाएगा।
पाना सरल है, जानना सरल है, आकांक्षा आपमें है या नहीं, यह आप निर्णय कर लें। यह निर्णय कोई दूसरा नहीं कर सकता। महावीर यह कह सकते हैं--पाना सरल है, स्वभाव है। बुद्ध यह कह सकते हैं--पाना सरल है, स्वभाव है। क्राइस्ट कह सकते हैं कि प्रभु का राज्य बिल्कुल हाथ के करीब है, बढ़ाओ और पा लो। लेकिन वे इतना ही कह सकते हैं। वे, आप चाहें, ऐसा कुछ भी नहीं कर सकते। यानी मेरा मतलब यह है कि आपको यह बताया जा सकता है कि यह पानी है, कृपा करके चाहें तो पी लें, बड़ा सरल है। पानी तक आपको पहुंचाया जा सकता है, लेकिन प्यास कोई दूसरा आपमें पैदा नहीं कर सकता। आपको पानी में डुबकियां दिलाई जा सकती हैं, लेकिन प्यास आपमें कोई पैदा नहीं कर सकता। प्यास आप पैदा करेंगे, पानी निकट है। प्यास न हो तो आप पानी के किनारे खड़े रहें, वह बहुत दूर है, अनंत दूरी पर है। प्यास जितनी है, पानी उतना निकट है; और प्यास
जितनी कम है, पानी उतना दूर है। प्यास अगर परिपूर्ण है तो तृप्ति उसी क्षण हो जाएगी। इसलिए फासला हो सकता है। लेकिन कठिन नहीं है, इसे स्मरण रखें।
( प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं । )
समाधि का अर्थ ही यह होता है जिससे चित्त की समस्त अशांति का समाधान हो गया। जिसे वे लगाते होंगे वह समाधि नहीं है, वह केवल जड़मूर्च्छा है। जो चीज लगाई जा सकती है वह समाधि नहीं है, वह केवल जड़मूर्च्छा है। वह अपने को बेहोश करने की तरकीब है। ट्रिक सीख गए होंगे, और तो कुछ नहीं। तो वह ट्रिक अगर सीख ली जाए तो कोई भी आदमी उतनी देर तक बेहोश रह सकता है, उतनी देर उ |
से कुछ पता नहीं होगा। अगर आप उसको मिट्टी में दबा दें तो भी कुछ पता नहीं होगा। उस वक्त श्वास भी बंद हो जाएगी और सब चेतन कार्य बंद हो जाएंगे।
उसको लोग समाधि समझ लेते हैं। वे उसको समझ लेते हैं वह तो ठीक है, लेकिन दूसरे भी समझ लेते हैं कि वह समाधि है। समाधि के नाम पर एक मिथ्या, जड़अवस्था प्रचलित हुई है। जिसका समाधि से, धर्म से कोई संबंध नहीं है। जो बिल्कुल मदारीगिरी है। समाधि कोई ऐसी चीज नहीं जिसको आप लगाते हैं और जिसमें से निकल आते हैं। समाधि उत्पन्न हो जाए तो वह आपका स्वभाव होती है। इसलिए न आप उसको लगा सकते हैं, न उसके बाहर निकल सकते हैं, न उसके भीतर जा सकते हैं।
समाधि जो है वह लगाने और निकलने की चीज नहीं है। जैसे स्वास्थ्य है। अब आप स्वस्थ हैं तो कोई बताइएगा कि हम एक घंटे भर के लिए स्वस्थ हुए जाते हैं और फिर हम अस्वस्थ हो जाएंगे। हम स्वास्थ्य लगाए लेते हैं और फिर हम न लगाएंगे। जैसा स्वास्थ्य है न, स्वास्थ्य तो देह का है, वह आंतरिक चित्त का स्वास्थ्य है, वहां एक दफा स्वास्थ्य प्राप्त हो जाए, तो वह सतत आपके साथ होता है, उसके बाहर आप नहीं हो सकते। तो समाधि में भीतर तो जा सकते हैं, समाधि के बाहर कभी नहीं आ सकते । आज तक कोई आदमी तो समाधि के बाहर नहीं आया।
लेकिन जिसको हम समाधि जानते हैं उसमें भीतर-बाहर दोनों हो जाता है आना-जाना। वह आना-जाना कुछ भी नहीं है, वह मूर्च्छा है। आप मूर्च्छित कर लेते हैं, फिर होश में आ जाते हैं। उस आदमी में आप कुछ भी न पाएंगे, जो बहत्तर घंटे नहीं, कितने ही घंटे लगाता हो। उसके जीवन में कुछ भी नहीं होगा। समाधि से हम धीरेधीरे चमत्कार में पतित हो गए हैं और उसको मदारीगिरी बना लिया है। समाधि का वह लक्षण नहीं है।
एक ईसाई फकीर हुआ, साधु था, वह अपने एक शिष्य के साथ |
एक यात्रा पर था। उसने... रास्ते में पानी पड़ा, अंधेरी रात, वे रास्ता भटक गए... उसने अपने शिष्य से पूछा, शिष्य का नाम लियो था, उसने लियो, तुम परम धर्म क्या समझते हो? क्या बीमारों को छूकर ठीक कर देना, या कि अंधों की आंख पर हाथ रख कर आंखें ठीक कर देना, या कि मुर्दों को छूकर जिला देना, क्या तुम इसे सिद्धि समझते हो? उस लियो ने कहा, सिद्धि तो मालूम होती है। उसके गुरु ने कहा, लेकिन मैं इसे सिद्धि नहीं समझता।
हम तो इसे ही सिद्धि समझते हैं। हम तो ईसा का इसीलिए मूल्य समझते हैं कि उन्होंने किसी की आंख छू दी और वह उसकी आंख ठीक हो गई, और किसी मुर्दे को छू दिया और वह जिंदा हो गया। अगर ये सिद्धियां नहीं हैं, तो फिर ईसा में क्या मूल्यवान रह जाएगा?
उसने कहा, समय आया तो मैं बताऊंगा कि सिद्धि क्या है।
वे रात दो बजे एक गांव में पहुंचे, उन्होंने एक सराय का दरवाजा खटखटाया। वे दोनों फकीर, नंगे आदमी, फटे कपड़े, कीचड़ में भिड़ गए, पानी से भीगे हुए, दो बजे अंधेरी रात दरवाजा खटखटाया। खिड़की से झांक कर पहरेदार ने देखा और उसने कहा, भिखमंगो, भाग जाओ! यहां अब इस रात, इतनी देर, स्थान नहीं मिलेगा। लियो गुस्से में आ गया और उसने कहा, तुमने कहा भिखमंगे! हम भिखमंगे नहीं हैं, हम साधु हैं। उसका गुरु चुपचाप खड़ा रहा। उसने दरवाजा बंद कर दिया पहरेदार ने। उन्होंने फिर दस्तक दी। अब की बार वह और गुस्से में आया। उन्होंने कहा कि क्षमा करें, रात ठहर जाने दें। अब हम इतनी रात किसको जगाएं? लेकिन उसने कहा, भाग जाओ, अन्यथा मैं डंडा लेकर आता हूं! अब रात दुबारा परेशान मत करना।
पर मजबूर थे, फिर उन्होंने तीसरी बार दस्तक दी, पानी जोर से गिर रहा था। अब की बार वह डंडा लेकर आया और उसने इन दोनों पर चोट की। उसने लियो पर भी चोट की, उसके गुरु पर भी चोट की। लियो गुस्से में आ गया, उसने डंडा उठा लिया। उसके गुरु पर चोट की, उसके सिर से खून बहता था और उसने कहा, लियो देखो, मैं समाधि में हूं, मैं सिद्धि में हूं। उसने कहा, देखो, अगर तुम्हारे मन में इस आदमी के अपमान करने पर अपमान न हुआ हो, अगर तुम्हारे मन में इसके मारने पर चोट न लगी हो, अगर इसके दुतकारने पर तुम्हारे मन में कोई तरंग न उठी हो, तो सिद्धि है। तुम अंधों की आंखें जिला दो, मुर्दों को जिला दो, बीमारों को ठीक कर दो, उससे कोई वास्ता नहीं। उससे धर्म का कोई वास्ता नहीं है।
उससे साइंस का वास्ता हो सकता है। जिस समाधि की आप बात कह रहे हैं, उससे साइंस का वास्ता हो सकता है। आज नहीं कल साइकोलाजी उसके बाबत सब जान लेगी, समझ लेगी। लेकिन उसका अध्यात्म से कोई वास्ता नहीं है। वह ट्रिक है दिमाग की, उसे कल साइकोलाजी समझ लेगी, जान लेगी कि ये-ये करने से ऐसा हो जाता है। लेकिन उससे कोई वास्ता नहीं है। धर्म का और समाधि का वास्ता तो वहां है जब आपके भीतर इतना चित्त समाधान को उपलब्ध हुआ है कि बाहर की कोई तरंगें उसे विक्षुब्ध नहीं कर पातीं।
सबसे बड़ा चमत्कार वह आदमी है कि जिसे तुम जब बाहर से चोट क |
रो तो जिसके भीतर कोई चोट न पहुंचे। और सबसे चमत्कार वह आदमी है जिसको बाहर से तुम मार भी डालो तो जिसके भीतर मृत्यु का भाव भी पैदा न हो। वह समाधि के परिणाम में वह घटना घटती है।
यानी समाधि एक अवस्था है। एक क्रिया नहीं है जिसके भीतर गए और लौट आए। एक अवस्था है चित्त के समाधान की। और उस पर अगर ध्यान रहा तो ठीक, अन्यथा ये जो इस तरह की बातें सारे मुल्क में चलती हैं, इस मदारीगिरी ने भारत के धर्मों को, भारत के योग को सारी दुनिया में अपमानित किया है। सारी दुनिया में अपमानित किया है। और पश्चिम से जो लोग आते हैं, वे इसी तरह की बातें देख कर लौट जाते हैं और समझते हैं यह अध्यात्म है। और वे महावीर और बुद्ध और इन सबके बाबत भी यही ख्याल बनाते हैं, ये भी इसी तरह के मदारी रहे होंगे।
अगर भारत को अपने धर्मों की वापस सुरक्षा करनी है और उन्हें पुनर्जन्म देना है, तो इस तरह की तथाकथित झूठी बातें-- जिनका समाधि से, योग से, धर्म से कोई संबंध नहीं है -- हमें बंद करनी चाहिए। ये सब मदारीगिरियां हैं। इससे कोई वास्ता नहीं है ।
कुछ और आपके रहे प्रश्न, उनको कल हम विचार करेंगे। |
प्रथम नक्सल मानता हूँ । पर निराला ब्राह्मण थे, यह बात हमें नहीं भूलनी चाहिए, मनुवादी संस्कारों की जकड़न के कारण उन्होंने कुछ प्रतिक्रियावादी कविताएँ अवश्य लिखीं । जैसे- वर दे वीणा वादिनी वर दे या फिर राम की शक्तिपूजा । ऐसी कविताएँ निराला की लाल नक्सली चादर पर पुरातनपंथी बदनुमा धब्बे हैं । पर मैं उदारमना हूँ । मनुवाद की जलती भट्टी से खुद बाहर निकला हूँ और इसलिए निराला का कन्फ्यूजन समझ सकता हूँ । मुझे लगता है हमें निराला की इन छोटी मोटी ग़लतियों को माफ करना चाहिए और उनकी मूल नक्सली पहचान पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए ।
हमारी मुहब्बत वैसे ही परवान चढ़ती जा रही थी जैसा मुहब्बतों के परवान चढ़ने का दस्तूर है । आप शीरीं फ़रहाद को ही देख लीजिए । या फिर लैला मजनूँ, सोहनी महीवाल या अंग्रेज़ी का शौक हो तो रोमियो जूलियट । जमाने बदले पर मुहब्बतों के परवान चढ़ने का मंज़र न बदला । ऊपरी तौर तरीके भले ही बदले हों, कोई अंदरूनी बदलाव न आया । उस जमाने में नायिका बुर्के में होती थी अब बिकिनी में है पर है तो नायिका ही । और नायक पहले दर बदर गली गली, जंगल पहाड़ भटकता था अब क्लब दर क्लब भटकता है । ग़ौर से देखिए तो कुछ खास फ़र्क़ नहीं है। । हाँ, हमारे मामले में खतरे कम थे । गर्दन कटने के आसार न थे । हाल में भी आपने देखा ऋषि कपूर के जालिम बाप ने कैसे ऋषि कपूर को पुश्तैनी जायदाद से बेदख़ल किया और बेटे और उसकी गर्ल फ्रेंड के पीछे गुंडे छोड़ दिए ।
पर हमारी मुहब्बत में गुंडों का खतरा नहीं था । क्योंकि हमारी मुहब्बत कायदे से नायिका के माँ बाप की सहमति बल्कि उनके मूक इशारे पर ही पैदा ली थी, पनप रही थी । मेरे मां बाप का कोई ठिकाना न था
। वे गवई गँवार थे, उन्हें पता न था, पता होता तो भी उन्हें पता होने न होने का कोई मतलब न था । वे पीछे छूट गए थे, मैं बहुत आगे चला आया था ।
हमारी मुलाक़ातों के दौरों का कोई हिसाब न था । कभी लाइब्रेरी में, कभी किसी नाटक में, कभी छात्रसंघ की बैठक में, कभी नाटक कम्पनी में, एक दो बार तो एक नए नए उभरे फ़िल्मी सितारे के संग एक
फ़ाइव स्टार रेस्टराँ में । आपको तो पता ही है कि रक्तिमा की प्रगतिशील सिनेमा में बहुत रुचि थी । कई दफ़ा हम संग संग पितृसत्ता उखाड़ फेंकने की नीयत से की गई नारीवादी गोष्ठियाँ में भी गए । नारीवादी सभा में रक्तिमा की भागीदारी का जलवा देखते ही बनता था । अक्सर वह फर्रीटेदार अंग्रेज़ी में जोशीले तरीके से फ़्रांसीसी क्रांति, ज्याँ पॉल सार्त्र और सिमोन द बेवुआर की बातें उद्धृत करती और मैं ताकता रहता । लाल कुरती और नीली जीन्स में माथे पर बड़ी लाल बिंदी लगाए जब वह मंच पर चढ़ती तो लोग अवाक होकर उसे देखते । उसका सुंदर गोरा चेहरा क्रांतिकारी आवेश से लाल हुआ दमकता, माथे पर कभी पसीने की नन्हीं नन्हीं बूंदें तेज रोशनी में चमकतीं और लोग मंत्रमुग्ध हुए तालियाँ बजाने लगते । मुझमें कभी हीनता और कभी गर्व का भाव जगता । धीरे धीरे मैं भी नारीवादी होता जा रहा था और मुझे |
लग रहा था कि पितृसत्ता भी बुर्जुवा सामंतवाद के शोषणतंत्र का ही एक अंग है और यदि सर्वहारा का अधिनायकत्व स्थापित करना है तो हमें पितृसत्ता को उखाड़ने पर भी जोर देना होगा ।
मुझे अपने पिता के बारे में कभी खीज होती तो कभी गुस्सा चढ़ता । मुझे लगता पिता लोग सब सड़ गए
मुझे अब विश्वास हो चला था कि हमें पुराने सड़े गले समाज के सारे चिन्ह जला कर राख करने होंगे, परम्पराओं को गहरे कुएं में डुबा देना होगा । इस तरह कि उनकी कोई स्मृति तक न बचे । हमें झाड़ झंखाड़ साफ करने में पूरी ताकत लगानी होगी । मुरव्वत से काम न चलेगा । सारी वर्जनाएं निर्ममता से काट फेंकनी होंगी । फिर जमीन समतल कर उस पर हमें नए सर्वहारावादी समतावादी समाज की चमकती अट्टालिका की बुनियाद रखनी होगी । वैसे ही जैसे हमारे लोग रूस, चीन और क्यूबा में पहले ही करीब करीब रख चुके थे ।
स्टूडेंट्स फेडरेशन की राजनीति में मेरी लोकप्रियता बढ़ती चली जा रही थी । अब पीछे मुड़ कर देखता हूँ तो लगता है कि मेरी लोकप्रियता के इस तरह लगातार बढ़ते चले जाने में जाने अनजाने रक्तिमा की भूमिका भी रही होगी । रक्तिमा सुंदर थी, स्मार्ट थी, फ़र्राटे से अंग्रेज़ी बोलती थी, प्रगतिशील लोगों में उसका उठना बैठना था और वह नारीवाद के नए युवा आंदोलन की महत्वपूर्ण अगुआ और करीब करीब बुद्धिजीवी भी मानी जाने लगी थी ।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र समाज में मेरी लोकप्रियता बढ़ती चली जा रही थी, रुकने का नाम न लेती थी । थोड़े दिनों में ही छात्रसंघ के चुनाव होने वाले थे । लोग मेरे और रक्तिमा दोनों के नाम संभावित प्रत्याशियों के तौर पर लेने लग गए थे । मेरा नाम अध्यक्ष के लिए और रक्तिमा का नाम उपाध्यक्ष के लिए । रक्तरंजित सर और रुधिरवर्णा मैडम - दोनों मेरे और रक्तिमा क |
े सम्बंधों को लेकर उत्साहित दिखते थे । वे जुबान से कुछ कहते तो नहीं थे पर उनकी आँखें बोलती थीं । एक अनीश्वरवादी वैज्ञानिक सोच वाले प्रगतिशील व्यक्ति के लिए यह कहना उचित तो नहीं पर यदि आप अन्यथा न लें तो मैं कहूँ कि मेरी और रक्तिमा की जोड़ी शायद ऊपरवाले ने सेट की थी । परफेक्ट सेटिंग रही । हमारी ख़ुशियाँ अंतहीन थीं । हमारे पाँव जमीन पर न थे, हमारे केश हवाओं के संग अठखेलियाँ खेलते थे । रक्तिमा के ही नहीं, मेरे चेहरे पर भी एक अद्भुत कांति छा गई थी । इसीलिए मैं कहता हूँ कि संसार में सिर्फ शोषण ही नहीं है, सौंदर्य भी है । पर ऐसा कहते हुए मैं डरता हूँ कि प्रगतिशील समाज में मैं में कहीं बुर्जुआ रूपवादी न ठहरा दिया जाऊँ और मेरे कैरियर का भट्ठा बैठ जाय । मैं वैसे सावधान टाइप का आदमी हूँ, हर जगह ऐसी बातें नहीं कहता । पर आपसे खुल गया हूँ, इसलिए हल्का सा खतरा ले रहा हूँ ।
वे भारतीय राजनीति में भारी उथल पुथल के दिन थे । जयप्रकाश नारायण का आंदोलन चरम सीमा पर था । रक्तरंजित सर का मानना था कि जयप्रकाश सीआइए के एजेंट थे और साम्राज्यवादी ताक़तों के इशारे पर काम कर रहे थे । वैसे तो इंदिरा गांधी भी बुर्जुवा थीं पर समाजवादी रूस से उनका दोस्ताना था, उनकी कुछ नीतियाँ प्रगतिशील थीं । हमारे जैसे बहुत सारे प्रगतिशीलों का मानना था कि समतावादी
प्रगतिशील समाज की स्थापना में इंदिरा गांधी हमारे लिए मददगार सीढ़ी बन सकती थीं । हमारे लिए पूँजीवादी शक्तियों से जूझना सबसे बड़ी प्राथमिकता थी । इसलिए इंदिरा के हाथ मज़बूत करना हमारा समाजवादी दायित्व था । हमने इस दायित्व का लगनपूर्वक पालन किया । कुछ यूँ कि अक्सर तो कांग्रेस के छात्र संगठन में और हमारे स्टूडेंट्स फेडरेशन में कुछ खास फ़र्क़ न दिखता । बल्कि कुछ लोग तो मजाक में कहते कि स्टूडेंट्स फेडरेशन और सीपीआई वाले तो कांग्रेसियों से भी बढ़ कर कांग्रेसी हो गए हैं । भले ही यह बात मजाक में कही जाती रही हो पर पर इसमें कुछ सच्चाई थी । हमारा दोस्ताना जो इतना अटूट हो गया था । हम पवित्र प्रगतिशील प्रेम के बंधन में बंध गए थे ।
इधर हमारी मुहब्बत कुलाँचे मारती जा रही थी और भविष्य में विवाह की संभावनाएँ हौले हौले दस्तक देने लगी थीं, उधर भारत के राजनीतिक पटल पर भूचाल सा आ गया था । बूढ़े जयप्रकाश ने इंदिरा गांधी की लम्बी नाक में दम कर दिया था । इंदिरा जी को लगा कि कहीं सीआइए वाले जयप्रकाश के माध्यम से देश की जनवादी प्रगतिशील राजनीति की गाड़ी पटरी से न उतार दें और फिर देश प्रतिक्रियावादी पूँजीवादी शक्तियों के चंगुल में न फँस जाय । पर इंदिरा तो इंदिरा थीं । उन्होंने तत्काल सीआइए और उसके षडयंत्र से निपटने की योजना बनाई । रातोंरात आपातकाल लगाया और लाखों प्रतिक्रियावादियों को जेल में ठूंस दिया । देश एक बहुत बड़े षडयंत्र से बच गया ।
कई नासमझ भोले भाले लोग कहते हैं कि बिना मुक़दमे के लाखों राजनीतिक कार्यकर्ताओं को अनिश्चित काल के लिए कारागार में बंद करना, लिखने पढ़न |
े पर रोक लगाना ये अलोकतांत्रिक हरकतें हैं । इंदिरा जी का संजय को देश के नए उदीयमान सूरज की तरह आगे करना भी कइयों को नागवार गुज़रा । इस विषय पर मुझमें, रक्तिमा, रक्तरंजित सर और रुधिरवर्णा मैडम में कभी चाय पर और कभी लंच पर अक्सर गर्मागर्म बहस होती थी । हम इस नतीजे पर पहुँचे थे कि इंदिराजी पर अलोकतांत्रिक और वंशवादी होने का आरोप लगाने वालों की राजनीतिक समझ, खास तौर पर जनवादी राजनीति की समझ, कच्ची है । इन्होंने कॉमरेड लेनिन और स्टालिन के जीवन से कुछ नहीं सीखा । यदि कॉमरेड लेनिन ज़ार के बच्चों को देखकर पिघल जाते, भावुकता में बह जाते तो आदर्श समतामूलक समाज की स्थापना कैसे होती ? आदमी की नजर लक्ष्य पर स्थिर होनी चाहिए, खर पतवार पर नहीं । खर पतवार हटेगा तभी तो नया सुंदर समाजवादी महल बन सकेगा ।
जब जनवाद का बिरवा नाजुक हो और उसे पूँजीवादी और साम्राज्यवादी आँधियाँ घेर लें तो बाग के माली का कर्तव्य क्या है ? पौधे को कँटीले तार के ऊँचे घेरे से घेर कर सुरक्षित करना और अपने बेटे बेटी के हाथों उसकी सुरक्षा की जिम्मेवारी सौंपना । वे डंडा लेकर पहरा देते रहें ताकि आँधियाँ उसे उखाड़ न सकें, बकरियाँ उसे चर न सकें । इंदिरा जी यही तो कर रही थीं। इसमें उनका कोई व्यक्तिगत स्वार्थ न था । वंशवाद में तो खैर उनकी कोई रुचि थी ही नहीं । संजय का इस्तेमाल वे लोकतंत्र के बिरवे की रक्षा करने के लिए कर रही थीं । सजग माताएँ सदा से यही करती आई हैं ।
इसी दौरान एक खबर आई जिसने मुझे थोड़ा विचलित कर दिया । मेरा पुराना दोस्त चंदन जेल चला गया था । हालाँकि चंदन संघी था और उसका जेल जाना उचित ही था पर चंदन मेरा मित्र भी था, इसलिए जनवाद के प्रति मेरी सम्पूर्ण प्रतिबद्धता और पूँजीवादी शक्तियों से सम्पूर्ण घृणा के बावजूद दिल |
में हल्का सा दर्द उठा । मुझे लगता है मेरे अंदर पुराने सामंतवादी संस्कारों के कुछ अंश शेष रह गए थे जिसके कारण मुझे ऐसा महसूस हुआ होगा । मैंने बहुत विचार किया तो मुझे लगा कि मेरी वैचारिक प्रतिबद्धता में कुछ कमजोरी रह गई थी जिसे मेहनत करके मुझे दुरुस्त करना चाहिए ।
पर चंदन था तो बचपन का साथी । मैंने उसे लम्बा पत्र लिख कर समझाने की कोशिश की । मैंने लिखा कि पूँजीवाद के दिन जाने को हैं और नूतन जनवादी प्रगतिशील समाज का सूर्य पूर्व दिशा में कभी भी उगने वाला है जिसकी उजास भरी ऊष्मा में हम सब सुख और चैन का समतावादी जीवन जीने वाले हैं । ऐसे में हम सबका उत्तरदायित्व है कि हम आँखें खोलें और इस नए उगते सूर्य का स्वागत करें । यही हमारे और हमारे पुरखों के प्रतिक्रियावादियों पापों का सम्यक प्रायश्चित होगा । मैंने उसे कहा कि वह सुधर जाए, अपने किए के लिए सरकार से माफी माँगे और स्टूडेंट्स फेडरेशन की सहायता ले और मेरी तरह अपने कैरियर को तेज रफ्तार से सरपट दौड़ा दे । इसी में भलाई है और यही उचित मार्ग है ।
जनवादी आंदोलन में इंदिराजी की भूमिका के महत्व को हमारे कुछ सरल वामपंथी समझ न पाए । वे शुद्धतावादी थे, भारतीय समाज और राजनीति की जटिलताओं की उनकी समझ कच्ची थी । इस बात में तो कोई मतभेद न था कि इंदिरा बुर्जुवा थीं पर उनकी समझ में यह बात न आई कि यही बुर्जुवा ताक़त समाजवादी समाज के निर्माण में आवश्यक औज़ार की तरह इस्तेमाल की जा सकती थी । साधन और साध्य का आवश्यक भेद न समझने के कारण यह कन्फ्यूजन फैला था । इंदिरा हमारे लिए साधन थीं । उनके ज़रिए हम पूँजीवादी ताक़तों को पछाड़ सकते थे और प्रगतिशील ताक़तों को मज़बूत करने का रास्ता खोल सकते थे । इस काम में इंदिरा हमारी मददगार हो सकती थीं । एक बार हमारा लक्ष्य प्राप्त हो जाता तो हम इंदिरा को किनारे कर सच्चे समाजवाद के प्रशस्त पथ पर प्रयाण कर सकते थे । पर वामपंथियों में में कुछ भोले भाले लोग यह बात समझ न सके । हद तो तब हुई जब अपनी मूर्खता में उन्होंने इंदिरा के विरुद्ध साम्राज्यवादी शक्तियों के बने गठबंधन का सहयोग किया । यह आत्मघाती मूर्खता थी । पर इतिहास बताता है कि क्रांति के पथ पर ऐसी मूर्खताएं होती रहती हैं । रूस में भी हुई थीं । सच्चे क्रांतिकारी को ठंढे दिमाग से वैज्ञानिक तरीके से इन ऐतिहासिक प्रवृत्तियों का अध्ययन वैसे ही करना चाहिए जैसे कोई रसायनशास्त्री परख नली में किसी रसायन का अध्ययन करता है । समाजशास्त्र और रसायनशास्त्र में कोई मूल भेद नहीं, दोनों प्राकृतिक नियमों के तहत चलते हैं । एक अच्छा वैज्ञानिक गणित के फ़ार्मूलों की तरह पहले से बता सकता है कि कि इस प्रक्रिया में कौन कौन से चरण कब और कैसे आएंगे । बस आपके पास वैज्ञानिक आंख होनी चाहिए । वैसी जैसी कार्ल मार्क्स के पास थी । उनकी
आँखों में संसार के भविष्य का नक़्शा वैसे ही स्पष्ट रहा जैसे आज के जमाने में गूगल मैप में आपके गंतव्य का नक़्शा स्पष्ट रहता है ।
जैसा कि मैंने पहले कहा |
विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति में मेरा, और रक्तिमा का भी, रुतबा बढ़ता चला गया था । छात्र संघ के चुनावों में अभी देर थी पर कॉमरेडों ने मुझे स्टूडेंट्स फेडरेशन का सचिव बना दिया था । इस बात से रक्तिमा और उसके माता पिता बहुत खुश थे । उन्हें लगता था कि मेरे उन्नत भविष्य की खिड़कियाँ खुलती चली जा रही हैं । मुझे तमाम धरनों और बैठकों में शामिल होने के लिए बुलावा आता जहां मैं जोशीले भाषण देता । इधर मैंने कुछ कविताएँ भी लिखी थीं जिनकी बहुत तारीफ हुई थी । रक्तरंजित सर ने कहा था कि मेरे तेवर जनवादी कवि के हैं और यदि मैं ऐसी ही कविताएँ लिखता रहा और मैंने इस दिशा में मेहनत की तो मैं इस क्षेत्र में काफी आगे जा सकता था । वे मुझे अपने संग प्रगतिशील लेखक संघ की गोष्ठी में भी ले गए और प्रतिष्ठित साहित्यकारों से मेरा उदीयमान जनवादी कवि के रूप में परिचय कराया । कई लोगों ने तो यहाँ तक कहा कि जनवादी कविता का भविष्य मेरे जैसे संभावना से भरे कवियों के हाथों में सुरक्षित है । जब मैंने पहली बार यह प्रशंसा सुनी तो मुझ पर नशा सा छा गया । मुझे लगा कि जब मुक्तिबोध मेरी उम्र के रहे होंगे तब शायद उनको भी ऐसी प्रशंसा सुनने को न मिली हो । मेरा सिर अपने भविष्य के बारे में सोच सोच कर नशे में डूबता सा जाता था । मैं कहाँ से कहाँ आ गया था ।
उन दिनों प्रोफेसर नूरुल हसन देश के शिक्षामंत्री थे । एक महान शिक्षाविद के तौर पर देश में उनकी ख्याति थी । हालांकि कहने को तो वे कांग्रेसी थे पर उनका एक पैर कभी कभी कम्युनिस्ट पार्टी में भी रहता था । वैसे भी कांग्रेस और सीपीआई में बहुत प्यार मुहब्बत, भाईचारे का रिश्ता था । कभी कभी तो यह बताना मुश्किल होता था कि कौन कांग्रेसी है और कौन कम्युनिस्ट या फिर कि कौन कितनी मात्रा में क |
म्युनिस्ट है और कितनी मात्रा में कांग्रेसी ।
उन्हीं दिनों एक दिन अचानक शिक्षा मंत्रालय से मेरे छात्रावास के पते पर वह पत्र आया । मेरी खुशी और आश्चर्य का अंत न था । अपने सुनहरे भविष्य के बारे में मेरा विचार और पुख्ता हुआ । शाम को इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में बोलीविया की अंदरूनी राजनीति के बारे में डिनर पर गोष्ठी थी । मैं वहाँ यह पत्र लेकर पहुँचा । रक्तिमा और उसके माता पिता वहां मौजूद थे ।
मॉस्को में अंतर्राष्ट्रीय प्रगतिशील युवा सम्मेलन हो रहा था । भव्य आयोजन की तैयारी थी । उसी के तहत सोवियत संघ की सरकार ने संसार की तमाम सरकारों से प्रतिनिधिमंडल भेजने का आग्रह किया था । और फिर भारत तो मित्र देश था, प्रगतिशील तो खैर था ही । भारत से बीस युवाओं का प्रतिनिधिमंडल जाना था । उसके लिए अनुदान शिक्षा मंत्रालय के सांस्कृतिक आदान प्रदान बजट के मद से आना तय
हुआ था । सांस्कृतिक आदान प्रदान वैश्विक मैत्री के निर्माण की सीढ़ी रही है । जब तक लोग, विशेष कर युवा, एक दूसरे से मिलेंगे नहीं, विचारों का आदान प्रदान नहीं करेंगे, सांस्कृतिक समझ नहीं विकसित करेंगे, विश्व शांति और मैत्री का बिरवा धरती से कैसे फूटेगा ?
इसी अभियान के तहत युवाओं के नाम चुने गए थे । जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय तो था ही, वहाँ के कुलपति ने मुझे मेधावी नवजात प्रगतिशील बुद्धिजीवी की संज्ञा देते हुए मेरे नाम की सिफारिश की थी जो मंज़ूर हो गई थी । सच कहूँ तो मैं आश्चर्यचकित था क्योंकि कुलपति से मेरी कभी मुलाक़ात हुई नहीं थी, वे पता नहीं कैसे मुझे जानते थे । रक्तरंजित सर का उनके यहाँ आना जाना था पर उस बात का इससे क्या वास्ता ?
मुझे भारतीय प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व करने का उत्तरदायित्व सौंपा गया था । हमारी यात्रा में सिर्फ दो हफ्ते बाकी थे । मुझे "दक्षिण एशिया में सर्वहारा संघर्ष की दिशा और आधुनिक हिंदी साहित्य" विषय पर पर्चा पढ़ने के लिए कहा गया था ।
यदि मैं कहता हूँ कि मेरे पाँव धरती पर न थे तो यह कोई अतिशयोक्ति नहीं है । आप एक क्षण के लिए कल्पना करिए कि जिस शख्स ने भभुआ, मुज़फ़्फ़रपुर और दिल्ली के बाहर कभी कदम न रखा हो, जिसने हवाई जहाज की शक्ल न देखी हो, उसे यदि सरकारी ख़र्चे पर मॉस्को यात्रा का निमंत्रण आए तो उसे कैसा लगेगा ? दिल पर हाथ रखकर आप खुद ही बताइए आप मेरी अवस्था में होते तो आपको कैसा
लगता ?
अब आप यह समझ लीजिए कि मैं होशो हवास में न था । मैं जब इंडिया इंटरनैशनल सेंटर की तरफ बढ़ा तो मुझे रास्ते में चलते हुए लड़के, लड़कियाँ, बसें और ऑटो न दिखे । उस समय मेरी स्थिति ऐसी थी कि मैं सड़क हादसे का शिकार हो सकता था । मेरे बाल हवा में उड़ते थे और मस्तिष्क धरती छोड़ कर किसी और दुनिया में सैर करने चला गया था । बस यह समझिए कि मैं बदहवास था, एक अजीबोगरीब नशे में था ।
किसी तरह हाँफता हुआ मैं इंडिया इंटरनैशनल सेंटर पहुँचा । मुझे देर हो गई थी । मैं पसीना पोंछते हुए धीरे से बिना आवाज किए पीछे की |
सीट पर बैठा । मैंने नजर घुमाई तो आगे की पंक्ति में रक्तिमा और उसके माता पिता को बैठे हुए देखा । रक्तिमा ने एक बार पीछे मुड़कर देखा, उसकी आंखों से मेरी आँखें मिलीं । वह हल्के से मुस्कुराई और एक क्षण बाद ही मेरे चेहरे का भाव देख कर हैरान सी दिखी। एयरकंडीशन्ड हॉल में मेरे माथे का पसीना चूता ही जा रहा था, रुकने का नाम न ले रहा था । मैं बार बार रूमाल से पसीना पोंछता गया । फिर मैंने हलक में अंटका थूक घोंटा और हल्की सी संभ्रांत खंखार निकाल कर गला साफ किया । मेरे बगल में बैठे एक अधेड़ सज्जन और उनके संग बैठी महिला ने मुड़ कर अजीब सी नजर से मुझे देखा । मंच पर खड़े एक दुबले पतले सज्जन जो सफेद कुर्ते और नीली जीन्स में थे और जिनकी आँखों के नीचे चश्मा लटक गया था, बोलीविया के बारे में कुछ बोल रहे थे ।
पर मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था । अंत में मुझसे रहा नहीं गया । मैं उठ कर गुसलखाने चला गया । वैसे मुझे तलब नहीं लगी थी । वहाँ जा कर मैंने ढेर सारी गहरी सांसें लीं, झूठमूठ में पेशाब किया, ठंढे पानी से चेहरा धोया और वहाँ रखे पेपर टॉवेल से पोंछ लिया । तब जा कर मेरी जान में जान आई, मैं स्थिर हुआ और धीमें क़दमों से वापस हॉल में लौट कर अपनी सीट पर बैठ गया । तब तक कुर्ते और जीन्स वाले सज्जन का व्याख्यान समाप्त हो चुका था और गहरे लाल रंग की साड़ी में थुलथुल सी दिखती एक साँवली प्रौढ़ा ने जिनके माथे पर बड़ी लाल बिंदी चमक रही थी, मंच संभाल लिया था ।
अब आपसे क्या छुपाना कि चे ग्वेवारा का अनुयायी होते हुए भी उस समय मुझे बोलीविया और लैटिन अमेरिका के सर्वहारा संघर्ष की बातें समझ में नहीं आ रही थीं । मैं तो बस गोष्ठी के समाप्त होने की प्रतीक्षा कर रहा था । कब विदुषी महिला का भाषण समाप्त हो और मैं रक्तिमा तक |
यह समाचार पहुँचाऊँ । पर दिल में एक हल्की सी कचोट भी थी । काश, रक्तिमा भी मेरे साथ इस यात्रा पर चलती । पर मुझे इस बात का अहसास था कि आदमी जो चाहे वह सब नहीं हो सकता और यह भी कि लालच बुरी बला है और संतोष परम धन है ।
बहरहाल भाषण समाप्त हुआ और लोग बगल के हॉल में डिनर के लिए बढ़े । काफी लोग थे । मैं उन्हें तीर की तरह चीरता हुआ आगे बढ़ा । मैंने झुक कर सर और मैडम का अभिवादन किया और शिक्षा
मंत्रालय से मिला पत्र कांपते हाथों से रक्तिमा के हाथों में दिया । रक्तिमा को समझ में नहीं आया कि मैं किस बात के लिए हड़बड़ाया हूँ, मेरा चेहरा अजीब सा क्यों हुआ है । उसकी शक्ल पर हैरानगी का भाव था । वैसे भी मेरी अजीबोगरीब हरकतों के कारण रक्तिमा मुझे बुद्धू समझती थी और मुझपर हँसती थी । पर उसकी हँसी में दुलार और चोन्हां का भाव रहता था । जब वह वैसे हँसती और अजीब सी नज़रों से मुझे देखती तो मैं शर्मा जाता ।
वे जहां खड़े थे, वहाँ रोशनी कुछ कम थी । रक्तिमा पत्र ले कर किनारे रोशनी के नीचे चली गई । वह लिफ़ाफ़ा खोल रही थी और मैं उसका चेहरा देख रहा था । अचानक उसके चेहरे पर हर्ष और आश्चर्य का मिला जुला भाव उतरा और वह चहकती हुई वहाँ आ गई जहां हम खड़े थे । उसने मुझे बधाई देते हुए अपना हाथ बढ़ाया जिसे मैंने सकुचाते हुए अपने हाथ से मिलाया । फिर रक्तिमा ने वह पत्र अपने पिता की ओर बढ़ा दिया । रक्तरंजित सर ने पत्र सरसरी नजर से पढ़ा । उनके चेहरे के भाव में कोई परिवर्तन नहीं आया । उन्होंने डिनर की टेबुल की तरफ बढ़ने का इशारा किया जहां भाँति भाँति के व्यंजन और पेय हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे ।
रक्तरंजित सर ने पत्र पढ़ने के बाद मैडम की ओर बढ़ाया । मैडम पढ़ कर खुश हुईं और उन्होंने मुझे बधाई दी । खाना बड़ा लज़ीज़ था । पुलाव, नान, कोफ़्ता, मुर्ग़ मुसल्लम, फ्रूट क्रीम और दो तीन तरह की
वाइनें । भोजन के बाद हम लौट गए । रक्तरंजित सर ने अपनी कार में मुझे छात्रावास तक छोड़ दिया । रात मैं ठीक से सोया । सुबह तक खुमार काफी हद तक उतर चुका था और मेरा दिमाग हल्का लग रहा था । नहा धो कर मैं निकला तो हिन्दी विभाग में उधर दूर से आती रक्तिमा दिख गई । नीली जीन्स और सफेद कमीज में काला धूप का चश्मा लगाए किसी फिल्म की हीरोइन से कम नहीं लग रही थी । मैंने हाथ से इशारा कर बुलाया और हम कैंटीन में बैठ गए । मैंने कॉफी ऑर्डर की ।
मैंने उसके भी मेरे संग मॉस्को जाने की बात उठाई । रक्तिमा ने कहा कि कितना अच्छा होता यदि ऐसा हो पाता पर मुश्किल यह आ गई कि मेरी रूस यात्रा के हफ्ते भर बाद ही रक्तिमा को नारीवाद पर हो रहे एक युवा सेमिनार में भाग लेने के लिए क्यूबा जाना था । इसलिए दोनों को एडजस्ट करना मुश्किल होता । फिर उसने बताया कि पिछले साल ही एक युवा सम्मेलन में वह मॉस्को और पीटर्सबर्ग हो आई थी ।
इधर उधर से पता लगा कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से मॉस्को की इस कॉन्फ्रेंस के लिए एक और छात्र का चुनाव हुआ था - मेघनाद तिवारी । रूसी भाषा में क |
ोई साल से एम फ़िल का छात्र था
। बिहार का रहने वाला था। मेरी उससे कभी मुलाकात नहीं हुई थी ।
मैं यात्रा की तैयारियों में लग गया । जल्दी जल्दी तीन सूट सिलवाए । पैसे नहीं थे और इतनी जल्दी घर से आ नहीं सकते थे । दोस्तों से उधार ले कर काम चलाया । पिताजी को तार कर दिया ।
वे दो सप्ताह कैसे बीते हैं मैं बताऊँ तो किस तरह बताऊँ । दोस्तों की बधाइयों का सिलसिला, पर्चा लिखने की तैयारियाँ, मॉस्को शहर के बारे में जानकारियाँ एकत्र करना, कायदे के कपड़े सिलवाना । सबसे बड़ी दिक्कत गर्म कोट की थी । मैंने मॉस्को की हाड़कंपाऊ बर्फ़ीली सर्दियों के बारे में सुन रखा था । लोग भाँति भाँति की सलाह देते । किसी ने कहा यहाँ मॉस्को की सर्दियों के लायक कोट नहीं मिलेगा, वहीं मॉस्को में ख़रीदना । पर उसके लिए पैसे कहाँ से आते ? मेरे पास उधार लेकर कुछ पैसे हो गए थे, पर रुपए तो मॉस्को में चलते नहीं । और विदेशी मुद्रा के नियम बहुत कड़क थे । रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया को दरख्वास्त दो तो दस डॉलर मिलते थे । अब आप बताइए दस डॉलर में कहां और कैसा कोट मिलता
कहते हैं न कि संसार में कोई ऐसी समस्या नहीं जिसका समाधान न हो । बस आँख खोलने की देर है । जैसे अब इसी गरीबी, शोषण और असमानता को देखिए । कितना आसान समाधान निकल आया कि नहीं मार्क्सवाद के रूप में ।
हुआ यह कि जाने के दो दिन पहले ही शिक्षा मंत्रालय से एक रजिस्टर्ड पत्र आया । संयोग से मैं कमरे में ही था वरना बहुत गड़बड़ हो जाती । पत्र के साथ पांच सौ अमरीकी डॉलर का ड्राफ्ट था जो कि शिक्षा मंत्रालय ने रास्ते के जेब खर्च के लिए अनुदान के तौर पर भेजा था । मेरी खुशी का ठिकाना न रहा । मैं अब मालामाल था । कोट वाली समस्या भी हल हो गई । स्टूडेंट्स फेडरेशन की बैठक में बात उठी तो
एक सज्जन |
ने जो पहले रूस जा चुके थे और जिनके पास कायदे का गरम कोट था, अपना कोट मुझे उधार देने का ऑफ़र किया । बस, अब तो सब बात बन गई । पर्चा भी जाने के एक दिन पहले लिख कर तैयार हो गया । मेरी अंग्रेज़ी थोड़ी ढीली थी । आपको तो पता ही है मैं पास विदाउट इंगलिश होते होते बचा था । पर रक्तिमा तो कॉन्वेंट में पढ़ी थी, फर्राटेदार अंग्रेजी बोलती थी, मैंने उसे दिखाया । बेचारी ने काट कूट कर ठीक किया और पर्चे की दो कायदे से टाइप की हुई प्रतियाँ मुझे ला कर दीं । मेरा हृदय रक्तिमा के प्रति न सिर्फ प्रेम बल्कि आभार से भर उठा । मैं आँखें मल मल कर समाजवाद और नारीवाद के प्रति उसकी लगन, उसकी प्रतिबद्धता को देखता और अचरज से भर उठता । ऊपर से मेरे लिए उसका प्रेम बढ़ता ही चला जा रहा था, कहीं किसी कमी का कोई चिन्ह कम से कम मुझे तो नहीं दिखा । मुझे अक्सर लगा कि अमर प्रेम शायद इसी को कहते होंगे ।
फिर वह दिन आया जब हमें मॉस्को के लिए निकलना था । मेघनाद तिवारी से मेरी मुलाक़ात पहले ही हो चुकी थी । मेघनाद मुझसे उम्र में काफी बड़े थे । उनकी हल्की सी तोंद थी । औसत लम्बाई, आबनूस की तरह गहरा सांवला रंग, गोल चेहरा, घुंघराले बाल, चमकती हुई, सामने वाले को घूरती हुई सी आँखें । मेघनाद भी बिहार के रहने वाले थे । पटना विश्वविद्यालय से पढ़ कर आए थे । रूसी भाषा में शोध कर रहे थे । मेघनाद अक्सर चुस्त पतलून और आधी बाँहों की कमीज पहनते जिनके बटन बहुत टाइट थे और अक्सर जब बटन खिंच जाते तो छाती के काले बाल झलकते । मेघनाद को पसीना बहुत निकलता था और उनके पसीने की गंध आम आदमी के पसीने की गंध जैसी न थी, उसकी तासीर दूसरी थी । शिष्टाचारवश लोग उनके पास खड़े तो होते पर बहुत देर तक टिक न पाते, किसी न किसी बहाने दूर खिसक जाते ।
प्रतिनिधिमंडल में अठारह और लोग थे । उनसे वहीं हवाई अड्डे पर ही मुलाक़ात हुई । इनमें से आठ लड़कियाँ थीं । अधिकांश बंगाल और केरल के थे । हमने एक दूसरे से परिचय कर लिया ।
मेरे पास सामान काफी था । लोगों ने खाने पीने के बारे में डरा दिया था । इसलिए एहतियातन मैंने अचार, मठरी, लिट्टी और चोखा पैकेट्स में भर कर सूटकेस में रख लिया था । परदेस है - पता नहीं वहाँ क्या खाने को मिले न मिले । थोड़ा बहुत देसी सामान रहेगा तो राहत रहेगी । पर लिहाज और संकोच के मारे मैंने यह बात किसी को बताई नहीं थी ।
हमें अफ़ग़ान एयरलाइंस से काबुल होते हुए मॉस्को जाना था । उन दिनों अफगानिस्तान सोवियत खेमे में था और वहाँ समाजवादी शासन था ।
हमारा चेक इन हो गया, सेक्योरिटी वग़ैरह से निकल कर कर हम बीस लोग विमान के गेट बाहर प्रतीक्षा में बैठ गए । थोड़ी देर में ही घोषणा हुई :
"अफ़ग़ान एयरलाइंस से काबुल होते हुए मॉस्को जाने वाले यात्री कृपया विमान की ओर प्रस्थान करें"
मेरा दिल धड़का, मैंने आखिरी बार दिल्ली के शौचालय का इस्तेमाल किया और हल्की सी घबराहट और उत्तेजना के मिले जुले भाव से विमान की ओर प्रस्थान किया ।
मुझे बार बार यह बताना अच्छा नहीं ल |
गता कि इसके पहले हवाई जहाज में बैठने की तो दूर, मैंने नज़दीक से कभी हवाई जहाज देखा तक न था । मैं हक्का बक्का था, आँखें फाड़ फाड़ कर देख रहा था । मैं कन्धे पर अपना झोला लिए जहाज के दरवाजे में जैसे ही घुसा, उस अफ़ग़ान परिचारिका ने मुगले आज़म फिल्म में मधुबाला या अनारकली के अंदाज में झुक कर मुझे सलाम किया । मेरी तो जान ही निकल गई । मैंने भी उसी अंदाज में झुक कर उसके सलाम का जवाब दिया । पता नहीं वह विमान परिचारिका थी या फ़िरदौस से उतरी कोई हूर ! मैंने कभी स्वप्न तक न देखा था कि एक दिन ऐसा आएगा जब मैं हूरों से मिलूँगा । और यहाँ एक तो क्या एक दर्जन हूरें थीं । हूरों का मेला सा सजा था । अब आप यह समझ लीजिए कि मेरी साँस रुक गई, दिल की धड़कन बंद हो गई, जान निकल गई, होश गुम हो गया ।
फिर एक ब एक होश आया तो मैंने खुद को आगे से पाँचवीं पंक्ति में खिड़की के पास वाली सीट पर बैठा हुआ पाया । मेरा झोला शायद परिचारिका ने ऊपर के खाते में रख दिया था । अच्छा हुआ उसने ऐसा किया वरना मेरी पोल ही खुल जाती । उसका हृदय अवश्य कोमल और प्रेमपूर्ण रहा होगा । मुझसे तो वह खाता खुलता नहीं, बेइज्जती अलग से होती । मेरे बगल में ही मेघनाद तिवारी की सीट थी । अचानक मेघनाद सर ने दायीं तरफ मुँह मोड़ा और उनकी बाईं काँख से बदबुओं का रेला मेरी नाक की तरफ आया । मैं हूरों के देस से जमीन पर आ गया था ।
ऊपर सामने विमान की छत के पास स्क्रीन पर रोशनी में इबारत चमक रही थी : कृपया अपनी सीट बेल्ट बाँध लें । अब मैं चक्कर में पड़ा । मैंने अग़ल बगल आगे पीछे झाँक कर देखने की कोशिश की कि लोग सीट बेल्ट कैसे बाँधते हैं । करते करते मैंने सीट बेल्ट बाँधना सीख लिया । कहते हैं न कि आदमी मेहनत करे तो क्या न सीख ले । अब मैं आराम से बैठ गया । मै |
ंने इधर उधर देख कर बहुत कुछ सीखा । जैसे कि सीट की दाईं तरफ का बटन जोर से दबाओ तो सीट पीछे झुक जाती है, दूसरा बटन दबाओ तो रोशनी होती है और हूर आपकी खबर लेने आती है । पर अभी विमान खड़ा था और लोगबाग अपनी अपनी सीटों पर बैठने का काम कर रहे थे ।
मित्रों, मैं कोई भी बात सच्चाई से बताने में झिझकता हूँ । क्या पता लोगबाग अर्थ का अनर्थ करें, बात का बतंगड़ बनाएं, राई का पहाड़ करें । कोई ठिकाना नहीं है । ठीक है कि मैं गवई गँवार हूँ, पर इतना सीधा भी नहीं हूँ । मैंने भी शहर देखा है । जैसे अब यही बात देखिए, कुछ पाठकों को ग़लतफ़हमी हो है सकती है कि पहले मेरा रूपमती स्त्रियों से पाला नहीं पड़ा होगा । ठीक है मैं भभुआ से मुजफ्फरपुर होता
हुआ यहाँ आया हूँ पर अब तो दिल्ली में भी मैंने काफी अरसा बिताया है । आप जिसे लुटियन्स दिल्ली बोलते हैं, उसकी झाँकी भी देखी है । और जहां तक रूपमती स्त्रियों का प्रश्न है, मैंने भी पर्दे पर ही सही डिम्पल, ज़ीनत और परवीन को देखा था । और फिर दूर क्यों जाऊँ, रक्तिमा और रक्तिमा की मम्मी क्या रूपमती नहीं थीं ?
पर झूठ कैसे बोलूँ । इन अफ़ग़ान हूरों के आगे भारतीय रूपमतियां फीकी पड़ गईं । गेहुआं रंग, चेहरे पर चमकता फ़िरदौसी नूर । भारतीय स्त्रियों की तरह कुपोषण की शिकार नहीं लगती थीं, हृष्ट पुष्ट सलोनी देह । बड़ी बड़ी स्वप्निल आँखें, रेशम की तरह चमकते बाल । ऊपर से उनके परिधान ! कौन न मोहित हो जाय । हल्के क्रीम रंग के स्कर्ट पर गहरे लाल रंग का ब्लाउज और सिर को क़रीने से ढंकता हुआ चाँदी की तरह चमकता सफेद हिजाब । जब वे बोलतीं तो कानों में शहद घुलने लगता । मैं तो जैसे किसी दूसरे लोक में आ गया ।
कठिनाई बस यह आ गई कि मेरे पास सौंदर्य के वर्णन का सलीक़ा नहीं है । यह तो बस किसी कवि या सौंदर्यशास्त्री के वश की बात है । वैसे यह सच है कि मैंने भी कुछ कविताएँ लिखी थीं और मैं कवि बनने की ओर बढ़ता जा रहा था, पर मेरी कविताएँ प्रगतिशील थीं, जनवादी थीं । आपको तो पता ही है जनवादी साहित्य में रूपवाद का निषेध है ।
लब्बोलुबाब यह कि मैं सौंदर्य के सागर में हिलोरें ले रहा था । बस यही मेघनाद तिवारी की दिक्कत बीच में आ गई थी ।
अब सब यात्री अपनी अपनी सीटों पर कायदे से बैठ गए थे । लाउडस्पीकर पर सुरक्षा के बारे में सूचना दी गई - बारी बारी से पहले पश्तो, फिर हिंदी और अंत में अंग्रेज़ी में । फिर एक परिचारिका ने विमान के बीच में खड़े होकर दुर्घटना की स्थिति में हमें किस दरवाजे से कूदना चाहिए, ऊपर से गिरते ऑक्सीजन मास्क का प्रयोग कैसे करना चाहिए - आदि पर डिमांस्ट्रेशन दिया । मैं पहली बार हवाई जहाज में बैठा था डर गया ।
फिर हवाई जहाज के सब दरवाजे बंद कर दिए गए, परिचारिकाओं को सीटों आदि को ठीक से जाँचने का निर्देश हुआ और विमान का इंजिन घुड़घुड़ाया । थोड़ी देर तक इंजिन घुड़घुड़ाता रहा । फिर बहुत धीमी
गति से, साइकिल से भी धीमी गति से, रनवे पर चलने लगा । धीरे धीरे उसने रफ्तार पकड़ी, पहियों के |
टार्मैक पर रगड़ने से विमान में थोड़ा हड़हड़ हुआ और मैं अपनी कुर्सी के हत्थों को दोनों हाथों से कस के पकड़ कर बैठा रहा । रफ्तार बढ़ती गई । अब हमारा जहाज करीब करीब रनवे के अंत तक पहुँच ही रहा था कि अचानक जमीन से उठ गया । यह मेरे लिए रोमांचकारी अनुभव था । मेरे मुँह से चीख निकलने ही वाली थी । नहीं निकली वरना कितनी भद्द मचती ।
विमान धीरे धीरे आसमान में उठने लगा । और मेरा भाग्य तो देखिए, मुझे खिड़की के किनारे वाली सीट मिली थी । सुबह के कोई दस बजे थे । आसमान साफ था, सूरज की गर्म रोशनी हर तरफ भरी थी ।
विमान की खिड़की से रोशनी मेरे चेहरे पर गिरती और चमकती । मैंने खिड़की से झाँक कर नीचे देखा । मैंने ऐसा नजारा न देखा था । नीचे हमारा दिल्ली शहर सूरज की रोशनी में नहाया चमचम चमकता मुस्कुरा रहा था । मुझे दिल्ली शहर पहले कभी इतना सुंदर न दिखा था । एक भी गंदी नाली का पता न था । सड़कों पर छोटी छोटी बच्चों के खिलौनों जैसी गाड़ियाँ रेंगती थीं । मकानों और सड़कों के बीच में पेड़ थे । इतने पेड़ हमारी दिल्ली में हैं- मुझे न पता था । कैसा सुहावना मंज़र था । धूप और हवा का खेल चलता तो सारा शहर वैसे झिलमिल करता जैसे बचपन में हाथ से बनाए कैलिडोस्कोप में चूड़ियों के टुकड़े झिलमिलाते थे ।
मैंने दोनों हाथ जोड़कर खिड़की के बाहर दिख रहे अपने शहर को प्रणाम किया । मेघनाद तिवारी ने मुझे गुस्से और अचरज के मिले जुले भावों से भरी आँखों से घूरा ।
देखते देखते हमारा हवाई जहाज ऊँचे, और ऊंचे आसमानों में उड़ता चला गया । ऐसा अद्भुत दृश्य था कि मेरी नजर खिड़की से हटती न थी । मेरा प्यारा शहर दिल्ली लगातार छोटा होते हुए अंत में आँखों से ओझल हुआ । धुनी रुई के फाहों से सफेद मुलायम बादलों ने अचानक जहाज को छोपा । जहाज कभी उन बाद |
लों के ऊपर चला जाता और बादलों पर धूप बरसती, कभी हम बादलों के बीच से गुज़रते और फिर कभी बादलों के नीचे आ जाते । कुछ यूँ कि जैसे गली के छोटे बच्चे आइस पाइस का खेल खेल रहे हों । धूप खिड़की के रास्ते मेरी देह पर कभी तेज झरती और मैं गर्माहट के रोमांच से कांप उठता तो कभी मंद पड़ जाती और मुझे हल्की सी सिहरन होती ।
मैंने खिड़की से नजर हटा कर सामने देखा तो सीट बेल्ट बाँधने का साइन जा चुका था । पर दुबारा बाँधने में दिक्कत हो और भद्द मचे इस भय से मैं सीट बेल्ट बाँधे रहा । तभी हमारे बगल से गुज़री एक परिचारिका मेरी तरफ देख कर हल्के से मुस्कुराई और मेरा दिल धक से रह गया ।
अब सोचता हूँ तो लगता है दिल्ली शहर से विदा होते हुए खिड़की से भावपूर्ण नज़रों से छूटते हुए दिल्ली शहर को देखना और हाथ जोड़ कर प्रणाम करना एक मूर्खतापूर्ण हरकत थी जिस पर कायदे से मुझे लज्जित होना चाहिए । कामरेड मेघनाद की आँखों में मेरी इस हरकत के लिए जो हिकारत का भाव था - गलत न था । सर्वहारा समाज के प्रगतिशील क्रांतिकारी कार्यकर्ता से इस तरह के दक़ियानूसी पुरातनपंथी व्यवहार की अपेक्षा नहीं की जाती । प्रगतिशील समाज यथार्थ की नींव पर खड़ा है, उसमें इस तरह की लिजलिजी भावुकता के लिए कोई जगह नहीं । जो लोग ऐसी छोटी बातों पर भावुकता के शिकार होंगे वे बुर्जुआ ताक़तों से क्या ख़ाक लड़ेंगे ?
पर आप सुधी पाठक हैं । मुझे पता है आपका व्यवहार मेरे प्रति संवेदना से भरा होगा, मैत्रीपूर्ण होगा । आप मुझे अवश्य सफाई का मौका देंगे । बात यह थी कि मेरे पुरातनपंथी मनुवादी संस्कार कमजोर तो हो गए थे, पर पूरी तरह गए नहीं थे । प्रगतिशीलता के बाड़ में मैं अभी नन्हा चूज़ा था, फुदकना सीख |
उसने कहा कि मुझे रोना आ रहा है इसलिए रो रहा हूं। क्या रोने के लिए भी कारण चाहिए? कि मुझे पक्का कारण मिल जाए तब मैं रोऊं? न, मुझे रोना आ रहा है तो मैं रो रहा हूं। और मुझे पीड़ा हो रही है तो मैं पीड़ा झेल रहा हूं। और फिर जिसको प्रेम किया था, उसकी विदा में मैं नहीं रोऊंगा तो कौन रोएगा? और मैं उसकी आत्मा के लिए नहीं रो रहा--आत्मा की आत्मा जाने। वह शरीर भी बहुत प्यारा था और वैसा शरीर अब दुबारा नहीं होगा। और अभी थोड़ी देर में हम इसे जला आएंगे। लेकिन मैंने उनसे प्रेम का आनंद लिया था, अब प्रेम विदा हो गया है, तो अब उसकी काली छाया कौन भोगेगा? तुम? मुझे भोगनी पड़ेगी। लेकिन तुम यह मत सोचना कि मैं दुखी हूं। असल में अगर हम बहुत ख्याल से देखें तो खुद दुख में दुख नहीं है। दुख के अस्वीकार में ही दुख है। स्वयं दुख में क्या दुख हो सकता है। मैं रो रहा हूं, यह उतना ही रिलैक्सिंग हो सकता है जितना हंसना भी न हुआ हो। स्वयं दुख में कोई दुख नहीं है । और दुख का अपना सुख है, सुख का अपना दुख है। लेकिन हम स्वीकार नहीं करते। सुख को हम स्वीकार कर लेते हैं इसलिए दुख नहीं मालूम पड़ता। और दुख को हम अस्वीकार करते हैं इसलिए दुख मालूम पड़ रहा है। वह जो अस्वीकृति है, वह दंश ले आती है। लेकिन अगर जीवन स्वीकृत है...
स्वीकार करे लें तो सुख मिल सकता है। लेकिन जब तक हम चुनाव कर रहे हैं; हम कहते हैं, यह हां और यह नहीं, तब तक हम पूरी जिंदगी को जीने के लिए राजी नहीं है। हम कहते हैं, हम जिंदगी में चुनाव करेंगे। इतनी जिंदगी को जीएंगे, इतनी जिंदगी को इंकार करेंगे। इसलिए मेरा कहना है कि टोटल की स्वीकृति नहीं है। और जहां समग्र की स्वीकृति नहीं है, वहां हम कभी समग्र को उपलब्ध भी नहीं हो सकते, और समग्र के साथ भी पूरे नहीं हो सकते। वहां हम खंड-खंड ... और जब समग्र की स्वीकृति बाहर न होगी तो हमारे भीतर भी खंड हो जाएंगे। इसको ध्यान में रखना जरूरी है। अगर मैंने कहा कि मुझे प्रकाश स्वीकार है अंधेरा स्वीकार नहीं है, तो ऐसा नहीं है कि बाहर की पृथ्वी पर जहां प्रकाश होगा वह मुझे स्वीकृत होगी और अंधकार होगा उस... । मेरे घर में भी दो हिस्से हो जाएंगे, तो मेरे घर में भी जो हिस्सा अंधेरे में पड़ जाता होगा वह अस्वीकार हो जाएगा और जो प्रकाश में पड़ता होगा वह स्वीकृत हो जाएगा। मेरे शरीर में भी दो हिस्से हो जाएंगे, जहां अंधकार पड़ता होगा अस्वीकार हो जाएगा। मेरी आत्मा में भी दो हिस्से हो जाएंगे, जहां अंधकार पड़ता होगा अस्वीकृत हो जाएगा जहां प्रकाश पड़ता होगा... तो मैं सारे जगत को आरी से लेकर दो में काट दूंगा। उसमें मैं भी करूंगा, उसमें मैं नहीं बच सकता। क्योंकि सारे जगत का बहुत छोटा सा रूप मैं भी हूं। उसमें मैं भी दो हिस्सों में कट जाऊंगा। वह जो मेरा कटा हुआ हिस्सा है वह तड़फेगा, वह चिल्लाएगा, उसे दबा कर रखना पड़ेगा, उसे मिटा कर रखना पड़े, मिट सकता नहीं, क्योंकि वह मैं ही हूं। उसकी छाती पर बैठे रहना पड़ेगा कि कहीं वह निकल कर बा |
हर न आ जाए तो मैं एक उपद्रव में पड़ जाऊंगा। जीवन एक उपद्रव बन जाएगा। बन गया है क्योंकि हम उसे पूरा स्वीकार करने को राजी नहीं हैं।
हम स्वीकार हमेशा करते हैं। हम झूठ बोलते हैं जब हम कहते हैं कि हम स्वीकार नहीं कर रहे, मतलब...
नहीं, नहीं, एक्सेप्ट करना पड़ता है। इसमें ही फर्क हम... हमारे शब्दों में सारी कठिनाई जो है वह यह है, आप जो कहते हैं कि सी ड.ज एक्सेप्ट, तो एक्सेप्टेंस नहीं है। हमें स्वीकार करना पड़ता है। क्योंकि जो है वह है हमारे अस्वीकार से वह मिटता नहीं। लेकिन हमें स्वीकार करना पड़ता है, जब करना पड़ता है तो दंश आ जाता है, तो पीड़ा आ जाती है। पीड़ा जो है वह हमारे स्वीकार करने की चेष्टा में है। जैसे कि आज मां मर गई है, तो कोई कह रहा है कि शरीर कितने वक्त निकलेगा? मां शरीर थी, इसे हमने जिंदगी भर स्वीकार न किया। मां को तो हम बिल्कुल आत्मा ही मान कर चल रहे हैं। उसे शरीर मान कर चलना तो बहुत मुश्किल है।
तो जिंदगी भर अस्वीकार किया कि मां शरीर थी। पत्नी शरीर हो सकती है, मां तो शरीर होती नहीं। लेकिन मां शरीर है, मां भी शरीर है। और भी कुछ होगी, शरीर भी है ही। पर उसका शरीर होना हमने कभी स्वीकार नहीं किया था, वह मरने पर ही इन्हें प्रकट होगा। क्योंकि तब कुछ उपाय न रह जाएगा और। हम स्वीकार करते हैं, करना पड़ता है, लेकिन यह मैं नहीं कह रहा हूं कि करना पड़े। मैं यह कह रहा हूं कि ऐसा करना पड़े, मैं यह कह रहा हूं कि मौका ही क्यों आए कि करना पड़े, हम सदा स्वीकार में ही जीएं तो करना पड़ने का कोई सवाल ही नहीं आता, तब ऐसा न होगा कि मां आज मर गई है। न, तब मुझे बहुत दिन पहले से लगना शुरू होता है कि मां मर रही है। और तब मां मर रही है ऐसा मैंने बहुत दिनों से जाना होता और तब मैं इस ढंग से जीया होता |
कि मां मर रही है लेकिन मैं बिल्कुल नहीं जीया । अभी एक घंटे पहले तक मां नहीं मरी थी, तक तक मैं मान कर चल रहा था कि मां जिंदा है। और जो जिंदा के साथ व्यवहार करना चाहिए, वह कर रहा था। अब मां मर गई है, तो वह सब व्यवहार मैंने बदल दिया है। हो सकता है घंटे भर पहले धन के लिए उससे लड़ रहा था और घंटे भर पहले पत्नी के लिए उससे लड़ रहा था और घंटे भर पहले उसको घर से निकाल देने के लिए तैयार था, और घंटे भर बाद छाती पीट कर रो रहा हूं। नहीं, लेकिन अगर स्वीकृति पूरी होती तो मैं रोज ही जानता कि मां मर रही है।
मैंने, ये, ये दो हिस्से न होते, तब ऐसे कि एक दिन मां जिंदा थी और एक दिन मर गई, ऐसा हिस्सा करना मुश्किल है। ऐसा मैं रोज जानता। और जब मां रोज मर रही हो, तब शायद मां से लड़ना बहुत मुश्किल हो जाए। लड़ने की सुविधा बन गई, क्योंकि मैंने मां कभी मरेगी, अभी जिंदा है।
अभी एक मेरे परिचित थे एक मित्र । उनकी कोई पांच-छह साल पहले शादी हुई। प्रोफेसर थे यूनिवर्सिटी में। और लड़की भी प्रोफेसर थी। कोई चार-पांच साल ही साथ थे। तो शादी जब हुई तब भी वे मेरे पास आए थे कि मैं परेशानी में पड़ गया हूं, क्योंकि वे हिंदू और ब्राह्मण और वह पारसी थी लड़की। तो पिता राजी नहीं थे। बहुत पुराना ऑर्थाडाक्स परिवार था। तो मैंने उनसे यह कहा कि तुम यह ठीक से समझ लेना कि तुम लड़की से शादी कर रहे हो, कहीं पिता के विरोध से तो शादी नहीं कर रहो हो, इतना भर सोच लेना। नहीं तो तुम पीछे बहुत मुश्किल में पड़ जाओगे। नहीं, उन्होंने कहा, आप क्या बात करते हैं। पिता के विरोध से क्या लेना-देना है? मुझे तो, उस लड़की के बिना मैं जी नहीं सकता। लड़की के मां-बाप का भी विरोध था। मैंने उस लड़की को भी कहा, वे दोनों ही मुझसे परिचित हैं, उससे भी मैंने कहा कि तू लड़के से शादी कर रही है न, अपने मां-बाप के विरोध से तो नहीं? उसने कहाः आप कैसी बात करते हैं, मां-बाप से विरोध का इससे क्या लेना-देना?
और शादी के दो महीने बाद ही बात साफ हो गई। क्योंकि वह शादी के बाद तो विरोध खतम हो गया, कोई मतलब न रहा विरोध का। जैसे ही विरोध समाप्त हुआ वैसे ही उन दोनों को पता चला कि वे तो बहुत दूर हैं, कहीं पास नहीं हैं। वे तो उन दोनों के खिंचाव में, धक्के में, रेस्सिटेंस में, रिबेलियन में वे पास थे। वह सब खतम हो गया, तो वे दूर होने शुरू हो गए। और एक साल भर बाद एकदम फासले पर हो गए। और वह इतना
कठिन हो गया जीना कि उस लड़के ने शराब पीना शुरू कर दिया और कुछ भी करना शुरू कर किया, और पांच साल बाद मर ही गया, हार्ट अटेक से मरा, पूरा स्वस्थ आदमी था। जब वह मरा उसके पहले उसकी पत्नी ने उसने मुझसे न मालूम कितनी दफा कहा कि हम तलाक करें कि क्या करें कि क्या न करें? उसकी पत्नी एकदफा मुझसे कह गई कि हम दो में से कोई एक मर जाए तो अच्छा है। फिर वह मर गया। जब वह मर गया तो वह पत्नी इतनी आई रोई, इतना शोरगुल मचाया।
मैंने कहाः तू किसलिए रोती है? तू जो चाहती थी वह हो गया। तू रोती किसलिए |
है, तूझे खुश होना चाहिए। तो एकदम चौंकी... आप क्या कहते हैं? मैंने कहा कि मैं वही कहता हूं कि तूने मुझसे खुद कहा था कि ये मर जाए तो अच्छा है। उसने कहाः वह मैंने क्रोध में कह दिया होगा। मैंने कहाः अभी तू जो रही है, यह दुख में रो रही होगी, कल यह दुख चला जाएगा, फिर ?
वह क्रोध में था, वह क्रोध में चला गया। यह कल दुख में चला जाएगा। उसने कहाः यह कभी नहीं जा सकता दुख मेरा। कि हम सदा ही ऐसा सोचते हैं, हम सोचते हैं, प्रेम कभी नहीं जा सकता, वह भी चला जाता है। हम सोचते हैं, दुख नहीं जा सकता, वह भी चला जाता है। हम सोचते हैं, सुख नहीं जा सकता, वह भी चला जाता है। उसने कहाः कभी नहीं जा सकता, अब जिंदगी भर इस दुख में दुखी रहूंगा। तो ठीक है, लेकिन कभी में याद रखना इस बात को ।
यदि तू कह ले, कहने लगे कि वह मैंने दुख में कह दिया, तब फिर बड़ा मुश्किल है कि तू कभी बोली है कि नहीं, कभी तू क्रोध में बोलती है, कभी तू प्रेम में बोलती है। जब प्रेम में हम बोलते हैं, तो हम कहते हैं, हम जिंदगी भर साथ रहेंगे, सच में हम प्रेम में बोल रहे हैं? दो दिन बाद जब प्रेम नहीं रहेगा, तो हम कहेंगे, वह प्रेम में बोल दिया था, उसमें कोई मतलब न रहा। और हम भी कभी बोले हैं। उसने कहा कि नहीं, यही मैं खुद बोल रही हूं। आप कैसी बातें कर रहे हैं? मेरे पति मर गए हैं और आप इस तरह की बातें कर रहे हैं, मैं इतनी दुखी हूं।
तो शाश्वत क्या होगा?
शाश्वत कुछ भी नहीं है। परिवर्तन ही शाश्वत है। शाश्वत की आकांक्षा ही हमारा भ्रम है। पता नहीं कि छुटकारा हो। मैं कहता नहीं कि छुटकारा हो, क्योंकि यह छुटकारे की बात भी हमारे किसी दुख के क्षण में हो जाती है। जब हम आनंद के क्षण में होते हैं तब हम जोर से पकड़ लेना चाहते हैं। छुटकारा - वुटकारा बिल्कुल न |
हीं चाहते। विषाद के क्षण में छुटकारा बोलने लगते हैं। जब विषाद का क्षण होता है, हम कहते हैं, छुटकारा कैसे हो? असफलता का क्षण होता है, कहते हैं, छुटकारा हो कैसे हो? सफलता के क्षण में, आनंद के क्षण में हम कहते हैं, कैसे सदा बंधे रहे, छुटकारा कभी न हो। नहीं, मैं यह कह रहा हूं कि यह समझना पड़ेगा कि आपकी ये सब आवाजें सब आपकी हैं। ये सब आवाजें इकट्ठी आपकी हैं। ये छुटकारे की आवाज भी आपकी है और ये सदा बंधे रहने की आवाज भी आपकी है। ये सब आवाजें आपकी हैं। ये जिंदा रहने की आवाज भी आपकी है और कल मरने की इच्छा भी हो सकती है, वह भी आपकी है। ये सब विरोधी सब आपकी हैं। और इसमें कोई भी एक आपकी नहीं है, ये सब आपकी हैं।
हम क्या करते हैं, जब एक आवाज होती है तब हम उसके साथ आइडेंटिफाइड करते हैं कि यह मैं हूं। जब मैं दुख में होता हूं तो मैं कहता हूं ऐसा मैं जिंदगी भर दुखी रहूंगा, अब मैं कभी सुखी नहीं हो सकता। यह दुख बोल रहा है, यह मैं नहीं बोल रहा हूं। यह मुझ पर छाया हुआ दुख का क्षण बोल रहा है। जब मैं सुख में होता हूं,
तब मैं दूसरी बात बोलूंगा । प्रेम में कुछ और बोलूंगा, क्रोध में कुछ और बोलूंगा। ये सब मेरी आवाजें हैं। लेकिन इनमें से कोई आवाज मैं नहीं हूं। हमारी गलती है कि हम हरेक आवाज को जब वह हमारे ऊपर होती है हम कहते हैं मेरी आवाज। उसे हम कहते हैं, यह मेरी आत्मा है इस वक्त, मेरा सेल्फ है। इसमें कोई हमारा सेल्फ नहीं
जैसे नदी बह रही है, वह एक वृक्ष के नीचे से गुजरती है, तो उसकी वृक्ष की पराछाई बनती है उसमें, नदी उस वक्त सोच सकती है कि मैं वृक्ष हूं, और वह सोच भी नहीं पाई है कि बह गई और एक चट्टान के पास से गुजर गई, और चट्टान की छाया बन रही और नदी सोचती है कि मैं चट्टान हूं, और वह सोच भी नहीं पाई कि वह बह गई, और अब वह बादलों के नीचे से गुजर रही है और बादलों की छाया बन रही है और नदी सोचती है कि मैं बादल हूं, और एक पक्षियों की कतार निकल गई उसकी छाती पर से और चमक गई और उसने सोचा कि मैं पक्षी हूं। न, इनमें से कोई भी नदी एक नहीं है ।
तो नदी क्या है?
हां, नदी सारे बहाव का जो भी प्रतिफलन है, उस सबका जोड़ है। इस सबका एक अर्थ में वह उस चट्टान से भी एक है जो उसमे झलक गई है, उस वृक्ष से भी जिसने उसमें फूल गिरा दिए और पक्षियों की उस कतार से भी जो उसके ऊपर से पार हुई है। उस सूरज से भी, उस पृथ्वी से भी, उस रेत से भी, और उस आदमी से भी जो उसमें स्नान कर गया और उस बांसुरी बजाने वाले से भी जिसने गीत गाया, वह नदी उन सबसे एक है। और जिस दिन नदी समग्र की एकता को जान पाएगी, उस दिन नदी की फिर कोई आकांक्षा नहीं है कि ऐसा ही हो । क्योंकि तब वह जानती है कि ऐसा ही होने का मतलब मरना होगा। अगर वह ऐसा सोचेगी कि वृक्ष ही मैं हो जाऊं तो फिर चट्टान न हो सकेगी। और फिर पक्षियों की कतार न हो सकेगी। और फिर गिरता हुआ फूल न हो सकेगी, बांसुरी की आवाज न हो सकेगी, फिर रेत और सागर, यह सब कुछ भी न होगा, फिर बादल और सूरज यह कु |
छ भी न होगा, फिर वह चट्टान ही हो जाएगी, फिर वह नदी न रह जाएगी। जिस दिन नदी ऐसा समझ ले कि वह यह अनंत प्रवाह के बीच आए सभी प्रतिबिंब है वह, सभी प्रतिबिंबों से, तब बहाव सहज हो जाएगा, तब कहीं ठहरने का सवाल नहीं। इसका मतलब यह नहीं है कि तब वह झाड़ की तरफ देखेगी नहीं। न, जब गुजरती होगी तो पूरी तरह देख लेगी और बहुत प्रेम से देख लेगी, क्योंकि हो सकता है दुबारा गुजरना न हो। मतलब यह नहीं है कि वह आंख बंद कर लेगी कि अब झाड़ से क्या मतलब हमें जब हम झाड़ नहीं हैं। जब हम चट्टान नहीं हैं हमें चट्टान से क्या मतलब । वह जो मैं फर्क कर रहा हूं, वैराग्य की भाषा हमें सिखाती है कि जब तुम चट्टान से गुजर ही जाना है, तो चट्टान से क्या मतलब । मोह मत बांधो।
यह सब होने पर भी नदी भी है, वृक्ष होने पर, बादल होने पर, पक्षी होने पर वह नदी भी है।
यह जो हम कहते हैं कि नदी भी है, इसका मतलब कुछ ऐसा हो जाता है कि अगर इस सबको हम निकाल लें तो भी नदी होगी। नहीं, ऐसी कोई नदी नहीं होगी। हां, मैं नहीं हूं।
( प्रश्न का ध्वनिमुद्रण स्पस्ट नहीं । )
अगर हम सब निकाल लें तो कुछ भी न होगा वहां। वह सबके ही प्रवाह के जोड़ में ही घटी घटना है। वह एक संहार है जैसा बुद्ध कहते हैं कि वह एक संहार है। वह बहुत चीजों का जोड़ है। ऐसी बहुत चीजों का जो हमें पता भी न हो वे भी उसमें जुड़ी हो सकती हैं। उसमें परमात्मा और मोक्ष और निर्वाण और जो हमें पता भी न हो, उनके भी प्रतिबिंब उसमें बन रहे होंगे, वे भी जुड़े हो सकते हैं। लेकिन नदी है... सबसे अलग करके आइसोलेटिड कहीं भी नहीं है। आइसोलेशन में कोई एंटीटी नहीं है। और वह हमारा पक्का भ्रम है। वह भी हमारा शाश्वत का भ्रम है, क्योंकि हम कहते हैं चट्टान तो बीत जाएगी, रेत तो बीत जाएगी। आज तट है कल तट न |
हीं होगा, आज वृक्ष हैं कल वृक्ष नहीं होगा। आज एक बांसुरी बजाने वाला है, कल नहीं होगा। मुझे तो होना चाहिए, जब कुछ भी नहीं होगा तब भी मुझे तो होना चाहिए। जब बिल्कुल कुछ नहीं होगा मोक्ष होगा, तब भी मुझे तो होना चाहिए। सब शून्य होगा फिर भी मैं तो रहूंगा।
वह भी हमारी... जीवन में हम पराजित हो गए हैं शाश्वत को पाने से, तो हमने जीवन में शाश्वत की तो खोज छोड़ दी, अब अपने में ही शाश्वत को पकड़ लिया। तो मैं तो शाश्वत हूं। न होगा प्रेम शाश्वत, जाने दो; न होंगे फूल शाश्वत, जाने दो, लेकिन मैं, मैं तो शाश्वत हूं। लेकिन शाश्वत की आकांक्षा क्या? शाश्वत का प्रयोजन क्या? शाश्वत होने का मतलब क्या? असल में होना ही, होना मात्र ही परिवर्तन है। होने का अर्थ भी परिवर्तन में है। सच तो यह है कि है, इस जैसी कोई चीज नहीं है होना । होने जैसा है कुछ।
पहली दफा बर्मी भाषा में बाइबिल का अनुवाद किया, तो शब्द उनको बड़े कठिनाई के पड़ गए। गॉड इ.ज, यह कैसे अनुवाद करें। ईश्वर है, क्योंकि बुद्ध के प्रभाव में जहां-जहां भाषाएं विकसित हुई हैं वहां... नहीं है। वहां टेबल है ऐसा कहना भी ठीक नहीं, वहां टेबल हो रही है। उस भाषा का जो रूप होगा वह ऐसा ही होगा, क्योंकि टेबल है यह भी ठीक नहीं है। बच्चू भाई हैं यह ठीक नहीं है, बच्चू भाई हो रहे हैं। नदी है बहाव, और है का मतलब है ठहराव । ये कंट्राडिक्ट्री ट्रम्स हैं। नदी है, यह शब्द उपयोग करना ही गलत है। नदी का मतलब ही है कि जो है कभी नहीं, सदा हो रही है। किसी क्षण भी जिसको हम नहीं पकड़ पाएंगे। हां, सदा प्रवाह में है, सदा होने में ही है। और है कि स्थिति में कभी भी नहीं आती। यह जो ख्याल में हमारे आ जाए, तो फिर भीतर भी शाश्वत की आकांक्षा नहीं है, बाहर भी नहीं है । तब ही हम जिसको एक्सेप्टेंस कह रहे हैं, वह फलित होगा, फिर हमें करना नहीं पड़ेगा, फिर कोई उपाय नहीं है। फिर ठीक है फिर नदी जानती है कि चट्टान झलकेगी और फिर नहीं भी झलकेगी। बांसुरी सुनाई पड़ेगी फिर नहीं भी सुनाई पड़ेगी। तट मिलेगा और छूटेगा भी। ये दोनों तो स्वीकृत हैं और यह नदी का होना ही हो गया। इसलिए अब इस होने में उसे कोई विरोध भी नहीं है। तट आता है तो प्रेम है, तट विदा हो जाता है तो दो आंसू भी गिरते होंगे और वह बह जाती होगी।
इतनी सरलता से अगर हमें सब दिखाई पड़ने लगे, तो वह जो आप पूछते हैं कि हम कैसे जीएं, वह सवाल गलत है। कैसे जीने में सदा हम जीवन पर अपने को थोपने की आकांक्षा लिए हैं। नदी नहीं पूछती कि कैसे हम बहें? बहती है क्योंकि बहना नदी का होना है। यह नहीं पूछने का सवाल है कि हम कैसे? आदमी पूछता है कि हम कैसे जीएं? यानी वह यह कहता है कि जीवन पर्याप्त नहीं है। हमें उसे ढंग देना होगा, व्यवस्था देनी होगी, मार्ग देना होगा, लक्ष्य देना होगा, उद्देश्य देना होगा, और हम बड़े खुश होते हैं। अगर कोई आदमी हमको ऐसा मिलता है जो लक्ष्य दे सकता है, उद्देश्य दे सकता है, कह सकता है वहां पहुंचो, यह पाओ, यह करो, हम बड़े |
प्रसन्न होते हैं। हम कहते हैं यह आदमी है इसके पीछे चलने जैसा है। सब गुरु इसी भांति पैदा हुए ।
उन्होंने कहा कि ऐसे जीयो। उन्होंने बताया कि यह ढंग है जीने का। जिंदगी के ऊपर भी कुछ थोपो और ढांचा बनाओ और वह सब ढांचे हमें दुख में डाल देंगे।
इससे निष्क्रियता नहीं आ जाएगी?
हां, हमेशा हमें लगता है ऐसा, पर मेरा ख्याल यह है कि इससे सक्रियता सहज होगी सिर्फ, निष्क्रियता नहीं आ जाएगी। क्योंकि निष्क्रियता भी गलत सक्रियता का परिणाम है, रिएक्शन है।
यानी एक आदमी बहुत दौड़ा, इतना दौड़ा कि थक कर गिर पड़ा, लेकिन एक आदमी धीरे-धीरे चला, इतना चला कि कभी थका नहीं, कभी गिरा नहीं। और मेरा मानना है कि वह जो बहुत दौड़ा है पीछे पड़ जाएगा, और वह जो बहुत धीमे चला है और कभी नहीं दौड़ा और कभी सक्रिय नहीं मालूम पड़ा, बहुत सीघ्र आगे निकल जाएगा। क्योंकि कभी भी दौड़ इतनी नहीं कि निष्क्रियता में ले जाए, असल में दौड़ की अति निष्क्रियता में ले जाती है।
तो जो मैं कह रहा हूं, उससे गति धीमी होगी, निष्क्रिय नहीं। लेकिन सहज सक्रियता होगी, सहज और सरल हो जाएगी। और कोई भाग नहीं रह जाएगी। लेकिन अंततः अगर हिसाब-किताब कभी कोई करने बैठेगा, तो दौड़ने वाले पीछे पड़ जाएंगे और यह जो सहज धीरे चले थे बहुत आगे निकल जाएंगे।
मैं एक कहानी कहता रहा हूं । कोरिया में एक वृद्ध भिक्षु एक नदी पार कर रहा है एक नाव से। वह उसके साथ एक युवा भिक्षु है। और नदी के पार पहुंच कर जैसे ही नाव बांधी है मांझी ने, तो उन्होंने उस बूढ़े से पूछा है कि गांव कितना दूर है, क्योंकि हमने सुना है कि सूरज ढ़लते ही गांव का द्वार बंद हो जाएगा और सूरज ढल रहा है। कितनी दूर है? हम पहुंच पाएंगे कि नहीं? उसने नाव बांधते हुए कहा, कि धीरे गए तो पहुंच भी सकते हो।
धीरे का मतलब |
संतोष तो नहीं?
न, बिल्कुल नहीं। मेरा मतलब जल्दी मत निकलाना। संतोष से बिल्कुल नहीं। न, संतोष से बिल्कुल नहीं। उस बूढ़े मांझी ने कहा कि धीरे गए तो पहुंच भी जाओगे! अब ऐसे पागल की बात कौन सुने। उन्होंने सोचा कि पागल, इसकी बात में पड़े तो गए, क्योंकि जब यह कहता है धीरे गए तो पहुंच भी जाओगे! तो भागे, फिर उन्होंने उससे पूछा भी नहीं। सांझ हो रही है, सूरज ढला जा रहा है। वे तेजी से भाग रहे हैं, क्योंकि द्वार बंद हो गया तो जंगल में रह जाना पड़ेगा। पहाड़ी रास्ता है, फिर सूरज एकदम ढलने के करीब हो गया है। तब वे और तेजी से भागे। फिर वह बूढ़ा गिर गया और उसके घुटने टूट गए और लहू बह रहा है, उसकी सब किताबों के पन्ने बिखर गए हैं जो वह सिर पर लिए था।
फिर वह मांझी पीछे से गीत गाता हुआ आ रहा है, वह पास खड़े होकर खड़ा हो जाता है। और उसने कहाः मैंने कहा था, क्योंकि मेरा बहुत दिन का अनुभव है। रोज ही सांझ यहां कोई उतरता है और रोजी ही कोई मुझसे पूछता है कि कितनी दूर है, पहुंच जाएंगे न सूरज ढलते? तो मेरा निरंतर का अनुभव यह है कि जो धीरे जाते हैं वे पहुंच भी जाते हैं। रास्ता बहुत बीहड़ है, जो तेजी से जाते हैं अक्सर गिर जाते हैं। लेकिन मेरी बात उस वक्त ठीक नहीं लगती, क्योंकि उन्हें यह लगता है कि धीरे गए तो कैसे पहुंचेंगे?
क्योंकि हमारा पहुंचने का ख्याल ही तेज जाने वाले से जुड़ा हुआ है। लेकिन कुछ मुकाम ऐसे भी हैं जहां धीरे जाने से पहुंचते हैं। और कुछ मुकाम ऐसे हैं जहां जाने से कभी पहुंचते ही नहीं, जहां न जाने से ही पहुंच जाते हैं। पर उन मुकामों का हमें कोई पता नहीं। सक्रियता जो है वह आपकी चेष्ठा नहीं है, सक्रियता आपके भीतर शक्ति का सहज प्रकटन है। आपकी चेष्टा नहीं है, आप अपनी चेष्टा से सक्रिय नहीं हैं। और अगर आप बिल्कुल सहज हो जाते हैं तो आपके भीतर की जो शक्ति है वह आपको सक्रिय रखेगी। लेकिन वह सक्रिय होना उतना ही होगा जितनी शक्ति होगी, उससे ज्यादा कभी नहीं होगा। इसलिए रिएक्शन की निष्क्रियता कभी भी नहीं आएगी। इसलिए कभी थकेंगे नहीं। क्योंकि थकने के पहले शक्ति वापस लौट जाएगी। चेष्टा तो उसमें है नहीं, जितना है उतना है, उतना आप करते हैं श्रम, थक जाते हैं, विश्राम पर चले जाते हैं, फिर सुबह उठ आते हैं, फिर काम करते हैं, फिर विश्राम पर चले जाते हैं। और चूंकि कहीं पहुंचना नहीं है इसलिए जल्दी का कोई सवाल नहीं है। जहां हम हैं वहां जितनी देर रहें, फिर जितनी देर जहां होंगे वहां होंगे।
जो मैं कह रहा हूं वह यह कह रहा हूं कि जिंदगी की अपनी सक्रियता है, आपको उसे देने की जरूरत नहीं। और आदमी ने जितनी सक्रियता दी, उसमें सिर्फ बीमारी है। सिर्फ बीमारी लाई है, उससे चित्त रुग्ण हुआ है, विक्षिप्त हुआ है, परेशान हुआ है और कुछ भी नहीं हुआ।
आदमी के द्वारा लाई गई सक्रियता के दो परिणाम हैंः या तो सक्रियता इतनी बढ़ जाती है कि रुग्ण और विक्षिप्तता हो जाती है, या सक्रियता का अंतिम फल एकदम सब निष्क्रियता में परिवर्तित हो |
जाता है कि आदमी निढाल होकर पड़ जाता है कि अब कुछ भी नहीं करने को है, कुछ नहीं करना है। ये दो ही फल हो सकते हैं। लेकिन सहज सक्रियता बिल्कुल और बात है। उसका मतलब यह है कि जितना होता है होता है, जितना चलते हैं चलते हैं और थक जाते हैं तो विश्राम करते हैं, फिर चलते हैं फिर विश्राम करते हैं। न कहीं पहुंचने की जल्दी है, न कहीं से भागने की जल्दी है। भोगी को कहीं पहुंचने की जल्दी है, त्यागी को कहीं से भागने की जल्दी है। और इसलिए दोनों बड़ी तेजी में सक्रिय हैं।
भोगी कहता है, वहां पहुंचना है-- वह बड़ा मकान बना लेना है, वह बड़ी कार ले लेनी है, वह बड़ा पद ले लेना है। और त्यागी कहता है-- इस मकान से जितनी दूर भाग जाएं भाग जाएं, इस कार से जितनी दूर निकल जाएं, निकल जाना है, कहीं ऐसा न हो कि मन लोलुपता से भर जाए और गाड़ी में बैठ जाएं, तो भाग जाना है। वे दोनों भाग रहे हैं।
तो धार्मिक आदमी मैं उसको कहता हूं जो भाग ही नहीं रहा, जो चल रहा है। चल रहा मतलब यह है कि जितना जिंदगी चला रही है चल रहा है, नहीं चला रही नहीं चलता है। विश्राम करा रही है तो विश्राम कर रहा है। अपनी तरफ से कोई सक्रियता थोपने की जरूरत नहीं है । न कोई मेथड, क्योंकि जिंदगी का क्या मेथड हो सकता है, सिर्फ मरने के मेथड हो सकते हैं। अगर कोई आदमी पूछे कि हम मरने के लिए क्या करें, तो मेथड बताए जा सकते हैं कि पहाड़ से कूदो कि जहर खाओ कि छुरी मार लो। मरने के मेथड हो सकते हैं, जिंदा रहने का क्या मेथड हो सकता है। जिंदगी इतनी अनंत है कि मेथड हो ही नहीं सकता।
और अगर किसी ने अगर जिंदगी में मेथड का उपयोग किया, तो किसी न किसी अर्थ में मरने की तरकीब हो गई। क्योंकि बहुत सी जिंदगी छूट जाएगी। मेथड तो थोड़ा सा ही पकड़ पाता है। इसलिए मरने का मेथड हो |
सकता है कि छुरा मार लिया, लेकिन जीने का कैसे होगा? जीना बहुत बड़ी घटना है, उसका कोई मेथड नहीं हो सकता। अनंत रूपों में, अनंत और असीम है, और रोज नई है, प्रतिपल नई है, उसका पक्का भी नहीं है कुछ कि कल क्या होगा? सुबह क्या होगा? इसलिए जिंदगी जीयी जा सकती है, विधि नहीं पूछनी चाहिए।
और सारी विधि छोड़ देंगे तो भी जीएंगे, करेंगे क्या? भागेंगे कहां? जाएंगे कहां? अगर समझ लें सारी विधि छोड़ दूं, सारा लक्ष्य छोड़ दिया, कहीं पहुंचने का ख्याल न रखा, कुछ करने की बात न रखी, तो क्या समझते हैं मर जाएंगे? तो जीएंगे लेकिन तब जीना अत्यंत सरल और सहज हो जाएगा, तब अभी और यहीं हो जाएगा, फिर कोई उपाय नहीं रहेगा कल का और परसों का, अभी और यहीं हो जाएगा, फिर जीएंगे, फिर भी जीना होगा। लेकिन वह जीना तब फिर भीतर से होने लगेगा, जितना हो सकेगा होगा, नहीं हो सकेगा नहीं होगा। बात दौड़ न रह जाएगी
एक गाय चली जा रही है रास्ते पर, यह भी एक जाना है, और एक गाय को लगाम बांध कर एक आदमी लिए जा रहा है, यह भी एक जाना है, और एक गाय को पीछे से कोई डंडे मार रहा है, यह भी एक जाना है। लेकिन जब गाय को कोई रस्सी से बांध कर लिए जा रहा है तो यह लक्ष्य से बंधा हुआ आदमी का प्रतीक है। आगे से कोई खींच रहा है, वहां पहुंचना है, दिल्ली पहुंचना है, कहीं और पहुंचना है। वह लगाम से जुती हुई गाय का प्रतीक है। अगर कोई पीछे से कोई धक्का मार रहा है कि यहां से भागना है, यहां नहीं रहना है चाहे और कहीं भी चले जाएं।
जिसको हम त्यागी कहते हैं वह पीछे है। डंडे जिसको मारे जा रहे हैं कि यहां नहीं रहना, यह पत्नी, ये बच्चे, यह घर, यह गृहस्थी, यह दुकान, यहां नहीं रहना है, और कहीं। यानी उसे कहीं जाने का उतना सवाल नहीं है जितना यहां से जाने का सवाल है, जितना छोड़ने का सवाल है। लेकिन एक गाय है जो अपनी मौज से चली जा रही है। कभी लौट भी आती है, कभी इस कोने पर चली जाती है, कभी उस कोने पर चली जाती है। कभी नहीं भी जाती है, वृक्ष के नीचे विश्राम भी करती है, कभी आंख बंद करके सो भी जाती है, न कोई खींचने वाला है, न कोई भगाने वाला है।
इसे मैं सहज जिंदगी का प्रतीक कहता हूं। और इतनी ही सहज जिंदगी हो, तो ही हम जीवन के पूर्ण अर्थ को, पूर्ण आनंद को जिसमें दुख समाविष्ट है, जिसमें अर्थहीनता समाविष्ट है। जीवन के पूरे सत्य को जिसमें जीवन के सपने समाविष्ट हैं उपलब्ध होते हैं। खंड करके नहीं उपलब्ध होते कि सत्य को उपलब्ध हो जाते हैं और असत्य विदा हो जाता है। नहीं, ऐसा नहीं हो जाता है कि दुख विदा हो जाते हैं और सुख को उपलब्ध हो जाते हैं। नहीं, दुख और सुख दोनों एक ही चीज के पहलू हो जाते हैं। और हम दोनों में जी पाते हैं और दोनों किनारों के बीच से बह पाते हैं। उतना बहाव लक्ष्य नहीं है जिंदगी का, जिंदगी एक बहाव है, बहाव में बहुत लक्ष्य आते हैं, वह बिल्कुल दूसरी बात है, उससे कुछ बहुत पड़ाव आते हैं, वह बिल्कुल दूसरी बात है, लेकिन लक्ष्य नहीं और इसलिए जिंदगी बहुत टेढ़ी-मे |
ढ़ी है, जिग जैग, सीधा सीमेंट रोड़ की तरह नहीं है। क्योंकि सीमेंट रोड़ को कहीं जाना है तो वह सीधा जाता है। तो भी जितना... उतना लंबा इसका फासला हो जाएगा तो सीमेंट रोड़ शार्टकट होता है। लेकिन नदी जिगजैग जाती है, उसी कहीं पहुंचना नहीं है, सागर पहुंच जाती है यह बिल्कुल दूसरी बात है, बिल्कुल दूसरी बात है। उसे कहीं पहुंचना नहीं, बहने का आनंद है, वह बहती है, बहती है, और जहां रास्ता मिलता है वहीं बह जाती है। कभी इस वृक्ष के किनारे से गुजरती है, कभी वापस भी लौट आती है, कभी चक्कर भी लेती है। कोई जल्दी नहीं है कहीं पहुंच जाने की कोई जल्दी नहीं है।
जिंदगी है तो नदी की धार की तरह जिग जैग, और हम जो जिंदगी बना रहे हैं वह जिंदगी एक सीमेंट रोड़ की तरह है, रेल की पटरियों की तरह है साफ-सुथरी, सीधी बिल्कुल, पटरियों से नीचे उतरना नहीं और चले जाना है तो कोई... कहीं न कहीं रेल के डिब्बे जैसे पहुंचते हैं वैसे ही पहुंचेंगे। इसलिए लक्ष्य भी नहीं, उद्देश्य भी नहीं, जीना काफी है, पर्याप्त ।
डिटरमिनिज्म है कि नहीं?
असल में वह पूछना ही अर्थहीन है। अर्थहीन इसलिए है कि हमें यह नहीं दिखाई पड़ता न ख्याल में, हमें लगता है कि भाग्य डिटरमिनिज्म दि फ्रीडम की स्वतंत्रता। ये हमने दोनों तोड़े हुए हैं, और ये एक ही चीज के हिस्से हैं। अगर आदमी जिंदगी से अलग है तो ही फ्री हो सकता है, और तो ही डिटरमिंड हो सकता है। और अगर जिंदगी के साथ एक हैं तो फ्रीडम का क्या मतलब है और डिटरमिनिज्म का भी क्या मतलब है? कोई मतलब नहीं है। कि अगर मैं अलग हूं जिंदगी से, तो दोनों बातें संभव हैं-या तो मैं स्वतंत्र हूं और या मैं परतंत्र हूं। स्वतंत्रता और परतंत्रता दोनों में मेरा अलग अस्तित्व स्वीकृत है।
लेकिन मैं यह कह रहा हूं कि मेरा कोई अलग अस |
्तित्व कहां है, तो स्वतंत्र किससे हो जाऊं और परतंत्र किसका हो जाऊं। मेरा मतलब आप समझे न? यह मेरा हाथ मुझसे स्वतंत्र है या परतंत्र है? यह मेरा हाथ मुझसे स्वतंत्र है कि परतंत्र है? अगर मैं इसे स्वतंत्र कहूं तो यह मुझसे अलग होगा, और परतंत्र कहूं तो भी मुझसे अलग होगा, लेकिन यह हाथ मैं ही हूं। इसकी स्वतंत्रता - परतंत्रता का कोई मतलब नहीं है क्योंकि ये मुझसे अलग नहीं है कि मेरे परतंत्र हो जाए या मुझसे स्वतंत्र हो जाए। मैं इससे अलग नहीं हूं कि इससे स्वतंत्र हो जाऊं कि इससे परतंत्र हो जाऊं, ये हम एक हैं। तो मेरी दृष्टि में दोनों ही गलत हैं। वे जो फ्रीडम वाले लोग हैं, वे कहते हैं, सब स्वतंत्र हैं और जो कहते हैं कि डिटरमिनिज्म है, सब बंधा हुआ है, सब प्रारब्ध है। वे दोनों ही गलत हैं। क्योंकि दोनों ही एक ही बिंदु पर खड़े हैं कि आदमी अलग है कि आत्मा अलग है। उस पर दोनों का भाव खड़ा हुआ है। परंतु दो व्याख्याएं हैं उसकी। लेकिन मैं उस भाव को ही नहीं मानता कि आदमी अलग है।
मैं कहता हूं, सब एक है। इसलिए यहां जो सत्य है वह इंटरडिपेंड्स है। सत्य जो है न इनडिपेंड्स और न डिपेंड्स। गहरे से गहरा सत्य जो है वह है इंटरडिपेंड्स, परस्परतंत्रता। न तो स्वतंत्रता, न परतंत्रता, हो ही नहीं सकती दोनों चीजें। ये दोनों चीजें परस्परतंत्रता को दो हिस्से में तोड़ना जैसे जन्म-मृत्यु को तोड़ना है दो हिस्सों में।
हम सब परस्परतंत्र में, एक परस्परतंत्रता है... ऐसा कहना चाहिए। एक इंटरडिपेंड्स है सारे अस्तित्व की, जिसमें हम हैं। अब एक लहर उठी है पानी पर, कहना मुश्किल है, कि हवाओं ने लहर को उठा दिया कि चांद ने लहर को उठा दिया, कि किसी बच्चे ने किसी किनारे पर पत्थर फेंका है और लहर उठीं। इससे उलटा भी संभव है कि लहर उठी इसलिए हवा को हिल जाना था। इससे उलटा भी संभव है कि लहर ने बच्चे को पुकारा और उसे पत्थर फेंकना पड़ा। यह सब संभव है, मेरा मतलब समझे न आप। बच्चे ने पत्थर फेंका और लहर उठ गई है ऐसा नहीं है। लहर ने बच्चे को पुकारा और पत्थर फेंकना पड़ा यह भी संभव है। कई दफा लहर आपसे पत्थर फिंकवा लेती है। लहर भी, आप ही पत्थर फेंक कर लहर उठाते हैं ऐसा नहीं, बहुत बार लहर भी आपसे पत्थर फिंकवा लेती है। किनारे पर बैठे हैं और पत्थर फिंकने लगता है। कोई काम नहीं है, कोई आसार नहीं है । सारा जगत इतना अंतरनिर्भर है कि कह सकते हैं कि इस बगिया में जो फूल खिला है अगर वह आज न खिलता तो हम यहां न होते और कठिन नहीं है यह मामला । कोई कठिन इतना अंतरनिर्भर है कि बगिया में जो फूल खिला है, जिसको हमने देखा भी नहीं है, पास हम गए भी नहीं। वह अगर आज यहां न खिलता तो शायद आज हम यहां न होते। क्योंकि उस फूल के खिलने में जगत की सारी स्थितियां उतनी ही समाविष्ट हैं जितने हमारे यहां होने में। और वह जाल इतना बड़ा है अंतरनिर्भरता का जाल, परस्परनिर्भरता का जाल इतना बड़ा है कि |
पहला प्रवचन
मैं ही इक बौराना
जब मैं भूला रे भाई, मेरे सत गुरु जुगत लखाई। किरिया करम अचार मैं छाड़ा, छाड़ा तीरथ नहाना । सगरी दुनिया भई सुनायी, मैं ही इक बौराना।। ना मैं जानूं सेवा बंदगी ना मैं घंट बजाई । ना मैं मूरत धरि सिंहासन ना मैं पुहुप चढ़ाई। ना हरि रीझै जब तप कीन्हे ना काया के जारे। ना हरि रीझै धोति छाड़े ना पांचों के मारे । दाया रखि धरम को पाले जगसूं रहै उदासी।
अपना सा जिव सबको जाने ताहि मिले अनिवासी।। सहे कसबद बदा को त्यागे छाड़े गरब गुमाना। सत्य नाम ताहि को मिलि है कहै कबीर दिवाना ।।
एक अंधेरी रात की भांति है तुम्हारा जीवन, जहां सूरज की किरण तो आना असंभव है, मिट्टी के दिए की छोटी सी लौ भी नहीं है। इतना ही होता तब भी ठीक था, निरंतर अंधेरे में रहने के कारण तुमने अंधेरे को ही प्रकाश भी समझ लिया है। और जब कोई प्रकाश से दूर हो और अंधेरे को ही प्रकाश समझ ले तो सारी यात्रा अवरुद्ध हो जाती है। इतना भी होश बना रहे कि मैं अंधकार में हूं, तो आदमी खोजता है, तड़फता है प्रकाश के लिए, प्यास लेती है, टटोलता है, गिरता है, उठता है, मार्ग खोजता है, गुरु खोजता है, लेकिन जब कोई अंधकार को ही प्रकाश समझ ले तब सारी यात्रा समाप्त हो जाती है। मृत्यु को ही कोई समझ ले जीवन, तो फिर जीवन का द्वार बंद हो गया।
एक बहुत पुरानी यूनानी कथा है। एक सम्राट को ज्योतिषियों ने कहा कि इस वर्ष पैदा होने वाले बच्चों में से कोई एक तेरे जीवन का घाती होगा।
ऐसी बहुत कहानियां हैं संसार के सभी देशों में । कृष्ण के साथ भी ऐसी कहानी जोड़ी है और जीसस के साथ भी है कहानी जोड़ी है। लेकिन यूनानी कहानी का कोई मुकाबला नहीं।
सम्राट ने जितने बच्चे उस वर्ष पैदा हुए, सभी को कारागृह मग डाल दिया, मारा नहीं। क्योंकि सम्राट को लगा कि कोई एक इनमें से हत्या करेगा और सभी हत्या मैं करूं, यह महा-पातक हो जाएगा। छोटे-छोटे बच्चे बड़ी मजबूत जंजीरों में जीवन भर के लिए कोठरियों में डाल दिए गए। जंजीरों में जीवन भर के लिए कोठरियों में डाल दिए गए। जंजीरों में बंधे-बंधे हुए ही वे बड़े हुए। उन्हें याद भी न रही कि कभी ऐसा भी कोई क्षण था जब जंजीरें उनके हाथ में न रही हों ।
जंजीरों को उन्होंने जीवन के अंग की तरह ही पाया और जाना । उन्हें याद भी तो नहीं हो सकती थी, कि कभी वे मुक्त थे। गुलामी ही जीवन थी, और इसीलिए उन्हें कभी गुलामी अखरी नहीं। क्योंकि तुलना हो तो
तकलीफ होती है। तुलना का कोई उपाय ही न था। गुलाम ही वे पैदा हुए थे, गुलाम ही वे बड़े हुए थे। गुलामी ही उनका सार-सर्वस्थ थी । तुलना न थी स्वतंत्रता की। और दीवारों से बंध थे वे, भयंकर मजबूत जंजीरों से।
और उनकी आंखें अंधकार की इतनी आधीन हो गई थी कि वे पीछे लौटकर भी नहीं देख सकते थे, जहां प्रकाश का जगत था। प्रकाश कष्ट देने लगा था। अंधेरे से इतनी राजी हो गए थे, कि अब प्रकाश से राजी नहीं हो पाती थी आंखें। सिर्फ अंधेरे में ही आंख खुलती थीं, प्रकाश में तो बंद हो जाती थीं।
तुमने भी देखा ह |
ोगा, कभी घर के शांत स्थान से भरी दुपहरी में बाहर आ जाओ, आंख तिलमिला जाती है। छोटे बच्चे पैदा होते हैं, नौ महीने अंधकार में रहते हैं मां के पेट में । प्रकाश की एक किरण भी वहां नहीं पहुंचती।
और जब बच्चा पैदा होता है, तब नासमझ डाक्टरों का कोई अंत नहीं है। बच्चा पैदा होता है अस्पताल में, वहां से इतना प्रकाश रखते हैं, कि बच्चे की आंखें तिलमिला जाती हैं। और सदा के लिए आंखों को भयंकर चोट पहुंच जाती है। बच्चे को पैदा होना चाहिए मोमबत्ती के प्रकाश में। वहां हजार-हजार कैंडल के बल्ब लगाने की जरूरत नहीं है। दुनिया में जो इतनी कमजोर आंखें हैं, उनमें से पचास प्रतिशत के लिए अस्पताल का डाक्टर जिम्मेवार है।
उसको सुविधा होती है ज्यादा प्रकाश में। वह देख पाता है, क्या हो रहा है, क्या नहीं हो रहा है। क्या करना है, क्या नहीं करना । लेकिन उसकी सुविधा का सवाल नहीं है, सुविधा तो बच्चों की है।
जो जीवन भर रहे हैं अंधकार में, नौ महीने नहीं, पूरे जीवन, वे पीछे लौट कर भी नहीं देख सकते थे। वे दीवाल की तरफ ही देखते थे। राह पर चलते लोगों, खिड़की-द्वार के पास से गुजरते लोगों की छायाएं बनती थीं सामने दीवाल पर। वे समझते थे, वे छायाएं सत्य है। यही असली लोग हैं। उस छाया को ही वे जगत समझते थे।
छाया के इस जगत को ही हिंदुओं ने माया कहा है। असली तो दिखाई नहीं पड़ता, असली का प्रतिबिंब दिखाई पड़ता है। असली को देखने के लिए आंख चाहिए-समर्थ आंख, जो प्रकाश में खुल सके। जो सूरज के सामने-सामने हो सके। अंधेरे की आदी आंख सत्य को नहीं देख सकती । सत्य ढंका हुआ नहीं है। सत्य तो प्रकट है, उघड़ा हुआ है। तुम्हारी आंख कमजोर है और सत्य को न देख पाएगी।
धीरे-धीरे उन्होंने पीछे लौट कर देखना ही बंद कर दिया। पीछे लौट कर देखने का मतलब यह थ |
ा, आंख में आंसू आ जाएं। वह पीड़ा का जगत था।
तुमने भी सत्य को देखना बंद कर दिया है। और जब भी कोई तुम्हें सत्य दिखा देता है तो पीड़ा होती है। आनंद जन्मता नहीं, कष्ट होता है। जब भी कहीं कोई सत्य कह देता है तो कष्ट ही होता है।
लेकिन एक आदमी ने हिम्मत की। क्योंकि उसे शक होने लगा। ये छायाएं छायाएं नहीं हैं। क्योंकि इनसे बोलो तो ये उत्तर नहीं देती। इन्हें छुओ, तो कुछ भी हाथ नहीं आता। इन्हीं पकड़ो तो कुछ पकड़ में नहीं आता। एक आदमी को शक होने लगा। कोई मनीषी, कोई बुद्ध !
उस आदमी ने धीरे-धीरे पीछे देखने का अयास शुरू किया। वर्षों लग गए। बड़ा कष्ट हुआ। जब भी पीछे देखता, आंखें तिलमिला जातीं। आंसू गिरते। लेकिन उसने अयास जारी रखा। वह बड़ी तपश्चर्या थी। फिर धीरेधीरे आंखें राजी होने लगीं।
और तब वह चकित हुआ, कि हम किसी कारागुह में पड़े हैं, और हमने छायाओं को सत्य समझ लिया है। वह पीछे देखने में समर्थ हो गया। उसकी गर्दन मुड़ने लगी और उसकी आंखें देखने लगीं बाहर के रंग, वृक्ष और वृक्षों में खिले फूल, राह से गुजरते लोग। रंगीन थी दुनिया काफी । छायाएं बिल्कुल रंगहीन थीं, उदास थीं। बाहर
उत्सव था। छायाओं में कोई उत्सव पकड़ में नहीं आता था। बच्चे नाचते गाते निकलते थे। छायाएं तो बिल्कुल चुप थीं। वह वाणी न थी, वहां मुखरता न थी -- बाहर । पीछे छिपा हुआ असली जगत था।
उस आदमी ने धीरे-धीरे इसकी चर्चा दूसरे कैदियों से शुरू की। बाकी कैदी हंसने लगे, कि तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है। हम तो सदा से यही सुनते आए हैं कि यही सत्य है, जो सामने है। और हम तो पीछे मुड़ कर देखते हैं तो कुछ दिखाई नहीं पड़ता, सिवाय अंधकार के। जब आंख बंद हो जाए तो सिवाय अंधकार के कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता।
जरूरी नहीं है कि अंधकार हो । हो सकता है, सिर्फ आंख बंद हो जाती हो। लेकिन दोष कोई अपने ऊपर कभी लेता नहीं। तो कोई यह तो मानता नहीं कि मेरी आंख बंद हो सकती है, इसलिए अंधकार है। लोग मानते हैं, अंधकार है, इसलिए अंधकार है। मेरी आंख और बंद हो सकती है? यह कभी संभव है? हम अपनी आंख तो सदा खुली मानते हैं। अपना हृदय तो सदा प्रेम से भरपूर मानते हैं। अपनी प्रज्ञा तो सदा प्रज्वलित मानते हैं। अपनी आत्मा तो सदा जाग्रत मानते हैं। और वही हमारी भ्रांतियों की जड़ है।
फिर कैदियों की संख्या बहुत थी, वह अकेला था। लोकतंत्र कैदियों के पक्ष में था। बहुमत उनका था। और उन्होंने कहा कि अगर ऐसा ही है तो सबकी सलाह ले ली जाए। एक भी मत मिला नहीं उस आदमी को। और लोग हंसे, खूब मजाक की उन्होंने। धीरे-धीरे उस आदमी को पागल मानने लगे।
वही कबीर कह रहे हैं,
"सगरी दुनिया भई सयानी, मैं ही इक बौराना।"
उस आदमी को अगर कबीर का पद याद होता तो उसने भी कहा होता सब लोग सयाने, सिर्फ मैं एक पागल। और सिर्फ वह एक ही सयाना था। लेकिन जहां अंधों की भीड़ हो वहां आंखवाला पागल हो जाता है। जहां मूढ़ों की भीड़ हो वहां बुद्धिमान पागल हो जाता है। जहां बीमारी स्वास्थ्य समझी जाती हो, वहां स्वस् |
थ आदमी का लोग इलाज कर देंगे पकड़ कर ।
स्वाभाविक है। क्योंकि लोग अपने को मापदंड समझते हैं। और फिर जब बहुमत उनके साथ हो, बहुमत ही नहीं, सर्वमत उनके साथ हो... उस एक आदमी को छोड़ कर सभी उनके साथ थे। तो संदेह ही कैसे पैदा हो ? लोग हंसे, मजाक की, उसे पागल समझा, उसका तिरस्कार किया, उसकी अपेक्षा की।
धीरे-धीरे लोगों ने उससे बातचीत बंद कर दी। क्योंकि वह बेचैनी पैदा करता था। बेचैनी पैदा करता था क्योंकि कभी-कभी संदेह उनके मन में भी उठ आता था कि हो न हो, कहीं यह आदमी सच न हो। क्योंकि अगर यह आदमी सच है तो उनकी पूरी जिंदगी बेकार गई। बड़ा दांव है। यह आदमी गलत होना ही चाहिए। नहीं तो उनकी पूरी जिंदगी गलत होगी।
और कोई भी आदमी नहीं चाहता कि उसकी पूरी जिंदगी गलत सिद्ध हो। क्योंकि इसका अर्थ हुआ तुमने यूं ही गंवाया। तुमने अवसर खो दिया। तुम मूढ़ हो, अज्ञानी हो, मूर्च्छित हो। अहंकार यह मानने को तैयार हनीं होता। अहंकार कहता है मुझसे ज्ञानी और कौन? मुझसे समझदार और कौन? ऐसे अहंकार रक्षा करता अज्ञान की। अहंकार रक्षक है, अज्ञान के ऊपर। उसके रहते अज्ञान का किला पराजित न होगा, तोड़ा न जा सकेगा।
धीरे-धीरे उन्होंने इसकी उपेक्षा कर दी, क्योंकि उससे बात करनी भी बेचैनी थी। क्योंकि वह हमेशा रंगों की बात करता, रंग उनमें से किसी ने भी देखे न थे। वह हमेशा पीछे चलनेवाले संगीत की बात करता। संगीत उनमें से किसी ने भी सुना था। उनकी सब इंद्रियां पंगु हो गई थीं। और धीरे-धीरे वह आदमी कहने लगा, कि ये जंजीरें हैं जिनको तुम आभूषण समझे हुए हो । आखिर कैदी को भी सांत्वना तो चाहिए। तो वह जंजीर को
आभूषण समझ लेता है। आखिर कैदी को भी जीना तो है । तो कारागृह को घर समझ लेता है। न केवल समझ लेता है बल्कि भीतर से सजा भी लेता है, ताकि पूरा |
भरोसा आ जाए, अपना घर है।
जंजीरों पर कैदियों ने फूल पत्तियां बना ली थीं। जंजीरों को घिस घिस कर वे साफ किया करते थे। क्योंकि जिसकी जंजीर जितन चमकदार होती, वह उतना संपत्तिशाली समझा जाता था। जिसकी जंजीर जितनी मजबूत होती, वह उतना धनी समझ जाता था। जिसकी जंजीर जितनी वजनी होती, उसकी उतनी ही संपदा थी स्वभावतः। अगर जंजीर कमजोर होने लगे तो वे उसे सुधार लेते थे। क्योंकि जंजीर ही उनका जीवन थी। और जंजीर को उन्होंने जंजीर कभी माना न था, वह आभूषण था। वही तो एकमात्र थी उनके शरीर पर। और तो कोई सजावट न थी।
धीरे-धीरे इन आदमी को समझ में आने लगा कि ये आभूषण नहीं, जंजीरें हैं। क्योंकि उसे स्वतंत्रता के जगत की थोड़ी झलक मिलनी शुरू हो गई। एक किरण उतर आई अंधेरे में। सूरज का संदेश आ गया। अब इस अंधेरे घर में, इस अंधेरे कारागृह में रहना मुश्किल हो गया। धीरे-धीरे उसने जंजीर को तोड़ने की व्यवस्था कर ली।
असली सवाल तो भीतर की जंजीर का टूट जाना है। बाहर की जंजीर बहुत कमजोर है। अगर तुम बंध हो, तो भीतर की जंजीर से बंध हो । भीतर की जंजीर है, जंजीर को आभूषण समझना। एक बार उसे समझ में आ गया कि आभूषण नहीं है, आधी तो मुक्ति हो ही गई। उसी दिन से उसने जंजीरों को घिसना बंद कर दिया, साफ करना बंद कर दिया, सजाना बंद कर दिया। लोग समझने लगे कि जीवन से उदास हो गया है।
जैसा कि आम तौर से संन्यासी के लिए संसारी समझते हैं। उदास हो गया बेचारा। उनके भाव में एक बेचारेपन की प्रतीति होती है। जिंदगी में हार गया। शायद पाया कि अंगूर खट्टे हैं। छलांग पूरी न हो सकी। कमजोर था। हम पहले से ही जानते थे कि कमजोर है। आज नहीं कल थक जाएगा और संघर्ष से अलग हो जाएगा। कायर है। जंजीरें, जो कि आभूषण हैं, इनको सजाना बंद कर दिया। ऐसा ही बे सजाया रह रहा है। आसपास की दीवाल को साफ-सुथरा करना भी बंद कर दिया। अब पागलपन बिल्कुल पूरा हो गया है।
लेकिन उस आदमी ने धीरे-धीरे जंजीरें तोड़ने के उपाय खोज लिए। भीतर की जंजीरें टूट जाए तो बाहर का कारागृह टूटा ही हुआ है। आधा तो गिर ही गया। बुनियादी तो हिल ही गई। और पीछे के जगत का, छिपे हुए जगत का संदेश आ जाए... तब एक अनंत पुकार उसे पुकारने लगी। एक प्यास उसके रोएं-रोएं में समा गई-असली जगत में प्रवेश करना है।
उसने जंजीरें तोड़ी। जब प्यास प्रगाढ़ हो, तो कमजोर से कमजोर आदमी शक्तिशाली हो जाता है। जब प्यास प्रगाढ़ न हो, तो कमजोर से कमजोर जंजीरें भी बड़ी मजबूत मालूम पड़ती हैं।
प्यास बढ़ती चली गई। पीछे का जगत ज्यादा साफ होने लगा। आंख जितनी सिर्फ होने लगी, उतना ही सत्य का जगत साफ होने लगा। एक दिन उसने जंजीरें तोड़ दीं और वह उस कारागृह से निकल भागा। उसके आह्लाद का अंत नहीं था। वह नाच रहा था। सूरज, पक्षी, वृक्षों में खिले फूल! बस वास्तविक लोग छायाएं नहीं। संगीत! रंग! सुगंध! वह आह्लादित था। वह नाच रहा था।
लेकिन कारागृह में अफवाहें उड़ गई, कि हम जानते थे आज नहीं कल, जीवन के संघर्ष से भाग जाएगा-एस्केपिस्ट, पलायनवाद |
ी, भगोड़ा ! संसारी हमेशा संन्यासी को यही कहता रहा है। उसने साधारण संन्यासी को कहा हो, ऐसा नहीं है। महावीर और बुद्ध को भी भगोड़ा ही कहा है। भाग गए!
यह अपने को बचाने की तरकीब है। यह अपने का सांत्वना देने की तरकीब है कि हम कायर नहीं। और तुम कायर हो, इसलिए तुम वहां हो, जहां तुम हो। यह अपने को समझाने की तरकीब है। हम कोई पलायनवादी नहीं हैं। हम तो जीवन के संघर्ष में जूझेंगे।
और तुम्हें जीवन का अभी पता ही नहीं। और जिससे तुम जूझ रहे हो वह केवल छाया का जगत है। असली जूझने वाले जीवन से जूझते हैं। तुम जिससे जूझ रहे हो, और जिससे लड़ रहे हो, वह सपनों से ज्यादा मूल्यवान नहीं है। और उसका अस्तित्व तुम्हारी नींद में है। उसका अस्तित्व और कहीं भी नहीं है। वह तुम्हारा सपना है। वह तुम्हारा अंधकार है। वह तुम्हारी गहन निद्रा और मूर्च्छा है।
लेकिन अगर सब लोग सोए हों और एक जग जाए--भले वे सोए लोग भयंकर दुखद स्वप्न देखते हों। देखते हों, कि नर्क में सड़ाए जा रहे हैं, गलाए जा रहे हैं, तो भी वे सोए हुए लोग कहेंगे, भगोड़ा! भाग गया! जीवन के संघर्ष को छोड़ गया। करवट ले लेंगे, फिर अपने सपने में खो जाएंगे।
थोड़े दिन चर्चा रही फिर लोग भूल गए। लेकिन उस आदमी जीवन में एक नई बेचैनी का प्रारंभ हुआ। जितना उसने बाहर की मुक्ति व आनंद को जाना, जितना उसने सत्य को अनुभव किया, उतनी ही नई महाकरुणा, एक दुर्दम्य करुणा पैदा होने लगी, लौट जाए कारागृह में और खबर दे दे उन सब लोगों को थोड़े दिन तो ऐसे उसने समझाया अपने को, कि वे सुनेंगे नहीं। और बहुमत उनका है। वे फिर हंसेंगे, वे भरोसा नहीं करेंगे। क्योंकि अंधकार में रहते-रहते लोग श्रद्धा भूल ही जाते हैं। श्रद्धा तो प्रकाशवान चित्त का लक्षण है। अंधेरे में रहने वाले लोग संदेह में निष्ण |
ात हो जाते हैं। संदेह अंधकार का हिस्सा है; श्रद्धा प्रकाश का । इसलिए तो समस्त ज्ञानियों ने श्रद्धा को सेतु माना है, कि अगर अंधकार से प्रकाश की ओर आना हो, तो श्रद्धा के सेतु से गुजरना पड़ेगा।
एक भरोसा चाहिए। भरोसे का मतलब इतना ही है, कि जो मैंने नहीं जाना है वह भी हो सकता है। अगर तुम यह सोचते हो कि तुमने जो जाना है बस उतना ही है, तब तो यात्रा का कोई सवाल ही नहीं है। बा समाप्त हो गई। बुद्ध आकर सिर पीटें और कहें कि मैंने थोड़ा सा ज्यादा जाना है तुमसे, तो भी तुम मानोगे नहीं।
संदेह का इतना ही अर्थ है, कि मुझ पर सत्य समाप्त हो गया। मैंने जो जान लिया, वही सत्य की भी सीमा है। मेरा अनुभव और सत्य समान है। यह संदेह है। श्रद्धा का अर्थ है, मेरा अनुभव छोटा है, सत्य बहुत बड़ा हो सकता है। मेरा छोटा आंगन है। आंगन पूरा आकाश नहीं। बड़ा आकाश है। मेरी छोटी खिड़की है। लेकिन खिड़की की ढांचा आकाश का ढांचा नहीं। माना कि मैं खिड़की से ही झांक कर देखता हूं, तो भी खिड़की आकाश नहीं है।
इतना जिसे ख्याल आ जाए, जिसे संदेह पर संदेह आ जाए, वह श्रद्धावान हो जाता है। वह बड़े से बड़ा संदेह है, ध्यान रखना । जिसे संदेह पर संदेह आ जाए, जो अपने संदेह की प्रवृत्ति के प्रति संदिग्ध हो जाए, उसके जीवन में श्रद्धा का आविर्भाव हो जाता है।
श्रद्धा का अर्थ है, जानने को बहुत कुछ शेष है। मैंने कंकड़-पत्थर बीन लिए हैं समुद्र के तट पर, लेकिन इससे समुद्र का तट समाप्त नहीं हो गया। मैंने मुट्ठी भर रेत इकट्ठी कर ली है, लेकिन सागर के किनारों पर अनंत रेत शेष है। मेरी मुट्ठी की सीमा है, सागर की सीमा नहीं है। मेरी बुद्धि की सीमा है, सत्य की सीमा नहीं। मैं कितना ही पाता चला जाऊं तो भी पाने को सदा शेष रह जाएगा।
यही तो अर्थ है परमात्मा को अनंत कहने का । तुम कितना ही पाओ, वह फिर भी पाने को शेष रहेगा। तुम पा-पा कर थक जाओगे, वह नहीं चूकेगा । तुम्हारा पात्र भर जाएगा, ऊपर से बहने लगेगा, लेकिन उसके मेघों से वर्षा जारी रहेगी।
हम कण मात्र है। जब कण का ख्याल हो जाता है कि मैं सब, वहीं श्रद्धा समाप्त हो जाती है। श्रद्धा अज्ञात की तरफ पैर उठाने के साहस का नाम है। अनजान में प्रवेश, अज्ञात में प्रवेश; जहां मैं कभी नहीं गया, जो मैं कभी नहीं हुआ, वह भी हो सकता है।
उस आदमी के मन में बहुत बार करुणा उठने लगी, आनंद का अनिवार्य लक्षण है करुणा।
जब बुद्ध से किसी ने पूछा कि समाधि की पूर्ण परिभाषा क्या है। तो उन्होंने कहा, कि परिभाषा तो मुझे पता नहीं। लेकिन दो बातें निश्चित हैं--महाज्ञान, महाकरुणा।
पूछने वाले ने कहा, महाराज कह देने से क्या काफी न होगा? बुद्ध ने कहा, नहीं। वह अधूरा होगा। वह सिक्के का एक पहलू है। दूसरा पहलू है, महाकरुणा । जब भी ज्ञान का जन्म होता है, तभी करुणा का जन्म हो जाता है। क्यों? क्योंकि अब तक जो जीवन-ऊर्जा वासना बन रही थी वह कहां जाएगी? ऊर्जा नष्ट नहीं होती। अभी धन के पीछे दौड़ती थी, पद के पीछे दौड़ती थी, महत्वाकांक्षा |
थीं अनेक। अनेक-अनेक तरह के भोगों की कामना थी, सारी ऊर्जा वहां संलग्न थी । प्रकाश के जलते, ज्ञान के उदय होते वह सार अंधकार, वह भोग, लिप्सा, महत्वाकांक्षा ऐसे ही विलीन हो जाते हैं, जैसे दीए के जलते अंधकार ।
ऊर्जा का क्या होगा? जो ऊर्जा काम-वासना बनी थी, जो ऊर्जा क्रोध बनती थी, जो ऊर्जा ईर्ष्या बनती थी, मत्सर बनती थी, उस ऊर्जा का, उस शुद्ध शक्ति का क्या होगा? वह सारी शक्ति करुणा बन जाती है। महाकरुणा का जन्म होता है। और वह करुणा तुम्हारी काम-वासना से ज्यादा अदम्य होती है। क्योंकि तुम्हारी काम-वासना और बहुत सी वासनाओं के साथ है। महत्वाकांक्षा है, धन भी पाना है। तुम काम-वासना को स्थगित भी कर देते हो कि ठहर जाओ दस वर्ष; धन कमा लें ठीक से, फिर शादी करेंगे।
धन की वासना अकेली नहीं है। पद की वासना भी है। तुम पद पाने के लिए धन का भी त्याग कर देते हो। चुनाव में लगा देते हो सब धन, कि किसी तरह मंत्री हो जाओ। लेकिन मंत्री की कामना भी पूरी कामना नहीं है। मंत्री होकर फिर तुम स्त्रियों के पीछे भागने लगते हो। मंत्री-पद भी दांव पर लग जाता है।
तुम्हारी सभी कामनाएं अधूरी-अधूरी हैं। हजार कामनाएं हैं और अभी में ऊर्जा बंटी है। लेकिन जब सभी कामनाएं शून्य हो जाती हैं, सारी ऊर्जा मुक्त होती है। तुम एक अदम्य ऊर्जा के स्रोत हो जाते हो। एक प्रगाढ़ शक्ति! उस शक्ति का क्या होगा?
जब भी आनंद का जन्म होता है, समाधि का जन्म होता है, सत्य का आकाश मिलता है, तब तुम तत्क्षण पाते हो कि वे जो पीछे रह गए, उन्हें अभी इसी खुले आकाश में ले आना है। तब तुम्हारा सारा जीवन जो बंध हैं उन्हें मुक्त करने में लग जाता है। जो कारागृह में हैं, उन्हें खुला आकाश देने में लग जाता है। जिनके पंख जंग खा गए हैं, उनके पंखों को सुधारने में ल |
ग जाता है कि वे फिर से उड़ सकें। जिनके पैर जाम हो गए हैं, उनके पैरों को फिर जीवन देने में लग जाता है। ताकि लंगड़े चलें और अंधे देखें और बहरे सुन सकें।
और तुम लंगड़े हो। तुम चले नहीं। यात्रा तुमने बहुत की है लेकिन जब तक तीर्थयात्रा न हो, तब तक कोई यात्रा यात्रा हनीं है। तुम बहरे हो। तुमने सुना बहुत है, लेकिन वासना के सिवाय कोई स्वर तुमने नहीं सुना। और वासना भी कोई संगीत है! वासना तो एक शोरगुल है जिसमें संगीत बिल्कुल ही नहीं है। वासना तो एक विसंगीत है, जिससे तुम तनते हो, चिंतित होते हो, बेचैन-परेशान होते हो । संगीत तो वह है जो तुम्हें भर दे उस अनंत आनंद में से, जहां सब बेचैनी खो जाती है, जहां चैन की बांसुरी बजती है। और ऐसी बांसुरी, कि उसका फिर कभी अंत नहीं आता।
तुम अंधे हो। तुमने बहुत कुछ देखा है लेकिन जो देखा है वह सब ऊपर की रूपरेखा है। भीतर का सत्य तुम नहीं देख पाते। शरीर दिखता है, आत्मा नहीं दिखती। पदार्थ दिखता है, परमात्मा नहीं दिखता। दृश्य दिखाई पड़ता है, अदृश्य नहीं दिखाई पड़ता। और अदृश्य ही आधार है दृश्य का। परमात्मा ही आधार है पदार्थ का। और आत्मा के बिना क्षणभर भी तो शरीर जीता नहीं। इधर उड़ गया पंछी, उधर शरीर जलाने को लोग ले चलें। फिर भी तुमने सिर्फ शरीर देखा है और आत्मा नहीं देखी। अंधे हो तुम, पंगु हो तुम।
जिसके जीवन में समाधि खिलती है वह भागता है उनको जगाने, जो सोए हैं। लेकिन उसे भी कठिनाई खड़ी होती है।
कुछ दिन तो उसने आपको रोका। क्योंकि वह जानता है कि वे लोग हंसेंगे। क्योंकि वह जानता है कि वे सुनेंगे नहीं। क्योंकि वह जानता है, कि जो सदा से हुआ है, वही फिर होगा। पत्थर और कांटों से स्वागत होगा, फूलमालाएं मिलने को नहीं। लेकिन अदम्य है करुणा। उसे रोका नहीं जा सकता।
कथा है, कि बुद्ध को जब ज्ञान हुआ, तो सात दिन तक वे चुप बैठे रहे। बड़ी मीठी कथा है। क्या करते रहे चुप बैठ कर? बहुत बार अदम्य वेग से उठी करुणा, कि जाए। बहुत लोग भटकते हैं। सारे लोग भटकते हैं। जो मुझे मिल गया है वह बांट दूं। लेकिन कोई चीज रोकती रही... कोई चीज रोकती रही।
बुद्ध जैसा व्यक्ति भी हिम्मत न जुटा सका । तुम्हारे सामने बुद्ध भी हारे हुए हैं। बुद्ध को भी डर लगा। जिसको अब कोई डर नहीं बचा है, जिसको मृत्यु का भय नहीं। वह भी तुमसे डरता है। जो यम से नहीं डरता, वह तुमसे डरता है।
सात दिन तक बुद्ध ने प्रतिरोध किया अपना ही। सब तरह से रोका, कि नहीं। अपने को समझाया, कि जो जागनेवाले हैं वे मेरे बिना भी जाग जाएंगे। और जो नहीं जागने वाले हैं, मैं लाख सिर पटकूं, वे सुनेंगे नहीं। फिर क्यों व्यर्थ मेहनत करूं ?
कथा है, कि आकाश के देवता चिंतत हो गए। बड़ी बेचैनी फैल गई आकाश के देवताओं में! बेचैनी यह, कि कभी करोड़-करोड़ वर्षों में कभी कोई एक व्यक्ति बुद्धत्व को उपलब्ध होता है। और वह भी अगर चुप रह गया, तो जो भटकते हैं मार्ग पर उनका क्या होगा? जतो अंधेरे में प्रतीक्षा करते हैं, अनजानी प्रतीक्षा, उन्हें पता भी |
नहीं है। किसी का, जो मार्ग बताएगा। बताने वाले का पत्थर से ही वे स्वागत करेंगे। लेकिन फिर अनंत-अनंत काल से खोजते तो हैं ही। भीतर कहीं कोई गहरे में छिपा हुआ बीज तो पड़ा ही है। न फूट जाता हो, ठीक भूमि न मिली हो, सूरज का प्रकाश न मिला हो, कोई पानी देनेवाला न मिला हो, कोई साज-सम्हाल करने वाला न मिला हो। लेकिन बीज तो पड़ा ही है; उनका क्या होगा?
कथा है कि आकाश के देवता उतरे। बुद्ध के चरणों में उन्होंने सिर रखा और कहा, कि नहीं अब चुप न बैठें, उठें। बहुत देर अब वैसे ही हो गई।
देवता का अर्थ है, ऐसी चेतनाएं जो अत्यंत शुभ परिणाम हैं। ऐसी चेतनाएं जिनके जीवन से अशुभ खो गया है, सिर्फ शुभ बचा है। अभी वे पूर्ण मुक्त नहीं हैं। क्योंकि जब शुभ भी खो जाएगा तभी पूर्ण मुक्ति होगी। देवता का अर्थ है शुद्धतम चेतनाएं, मुक्ततम नहीं। पहले अशुद्धि से दबी हुई चेतनाएं हैं, जिनको हम राक्षस कहें, असुर कहें। नारकीय योनि में पड़े हुए लोग कहें। और फिर शुद्ध चेतनाएं हैं जो स्वर्ग में हैं, शांत हैं, शुभ-परिणाम हैं। किसी का बुरा नहीं चाहतीं, भला चाहती हैं; लेकिन चाह बाकी है। नरक में जो पड़े हैं उनके हाथ में जो जंजीरें हैं वह लोहे की हैं। स्वर्ग में जो पड़े हैं उनके हाथ में जो जंजीरें हैं वह सोने की हैं। हीरे माणिक से जड़ी हैं, पर जंजीरें हैं।
मुक्त वह है जिसमें न शुभ रहा, न अशुभ रहा। जिसकी लोहे की जंजीरें सोने की जंजीरें सब टूट गई। मुक्त वह है, जिसका द्वंद्व समाप्त हो गया। जिसे भीतर दो न रहे। शुभ-अशुभ, अच्छा-बुरा, रात-दिन, स्वर्ग-नरक, सुख-दुख सब खो गए।
देवता का अर्थ है, शुद्ध, सुखी चेतनाएं। निश्चित ही स्वभावतः उनके ही हृदय में कंपन पैदा होगा क्योंकि वे निकटतम हैं मुक्त पुरुषों के। नर्क में पड़े लोगों को पता भी न चल |
ा, कि कोई बुद्ध हो गया है।
पृथ्वी पर जो लोग हैं वे दोनों के बीच में हैं। न तो नर्क में हैं और न स्वर्ग में। वे त्रिशंकु की भांति हैं। शुभअशुभ दोनों में डोलते रहते हैं। सुबह देवता, घंटे भर बाद शैतान । घंटे भर बाद फिर देखो मुस्कुरा रहे हैं, अच्छे भले आदमी मालूम पड़ते हैं। और थोड़ी देर बाद किसी की गर्दन काट सकते हैं। पृथ्वी पर जो हैं, मध्य लोक जिसको ज्ञानियों ने कहा है, वे स्वर्ग और नर्क के बीच डोलते रहते हैं। एक पैर नर्क में और एक पैर स्वर्ग में कहीं भी नहीं हैं वे। उनका होना नहीं है। इसलिए तो तुम्हें पता नहीं चलता कि तुम कौन हो? नर्क में ठीक पता चलता है लोगों को, कि कौन हैं। स्वर्ग में भी ठीक पता चलता है। कि कौन हैं। क्योंकि एक ही नाव पर सवार हैं।
जो शुभ की नाव पर सवार हैं उनको लगा, उनके प्राण कंप गए, कि बुद्ध चुप हैं। कहीं ऐसा न हो कि वे चुप ही रह जाएं।
देवताओं ने पैर में सिर रखा। स्वयं ब्रह्मा ने कहा कि नहीं, आप बोलें । और देर हो जाएगी तो वाणी खो जाएगी। आप भीतर मत डूबते चले जाएं। आपने पा लिया लेकिन जिन्होंने नहीं पाया है, उन पर करुणा करें।
कहते हैं, बुद्ध ने कहा, कि जो पाने को हैं, जो पाने की चेष्टा में रत हैं वे पा ही लेंगे। मैंने पा लिया, वे भी पा लेंगे। वे भी मेरे जैसे हैं। थोड़ी देर-अबेर होगी पर इस अनंत काल में क्या देर क्या अबेर ! घड़ी भर पहले, कि घड़ी भर बाद। एक जन्म पहले, कि एक जन्म बाद। क्या फर्क पड़ता है? मुझे क्यों परेशानी में डालते हो?
और जो नहीं पाने को हैं-- मेरे पहले बहुत बुद्ध पुरुष हो चुके हैं, उन सब ने उनके द्वार पर दस्तक दी है। उन्होंने द्वार भी खोला। नहीं कि उन्होंने द्वार नहीं खोला, वे नाराज भी हो गए, कि क्यों हमारी नींद तोड़ते हो? क्यों हमारी शांति में दखल देते हो? हम जैसे, ठीक हैं। क्यों हमें बेचैन करते हो? ये किस लोक की खबरें लोटे हो। यही लोक सब कुछ है। कोई और लोक नहीं है। उन्होंने श्रद्धा नहीं की। वे नहीं सुनेंगे। हजारों बुद्ध हार चुके हैं। मैं भी हार जाऊंगा। तुम मुझे क्यों परेशान करते हो?
देवताओं ने चिंतन किया, विचार किया कि कुछ तर्क निकालना ही पड़ेगा, कि बुद्ध को उनके बाहर ले आया। जाए। फिर वे सब विचार करके आए और उन्होंने कहा कि आप ठीक कहते हैं। कुछ हैं, जो आपके बिना भी पा लेंगे और कुछ हैं, जो आपके सहयोग से भी नहीं पाएंगे। लेकिन दोनों में मध्यम में भी कुछ हैं, जो आपके बिना न पा सकेंगे और आपके साथ पा लेंगे। उनकी संख्या बहुत न्यून होगी। समझ लो, कि एक ही आदमी पा सकेगा, तो भी... तो भी उपाय करने योग्य है। क्योंकि एक व्यक्ति का भी बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाना इतनी महान घटना है कि आप बैठे मत रहे।
बुद्ध के झुकना पड़ा। देवताओं के तर्क से नहीं; देवताओं के तर्क ने तो जो प्रतिरोध था, उसको भर तोड़ा। भीतर तो करुणा बहने को तैयार थी।
उस आदमी को भी तकलीफ हुई। बेचैनी होने लगी। कारागृह में जिनको छोड़ आया था उनकी याद आने लगी। वे ऐसे ही बंधे-बंधे समाप्त |
हो जाएंगे? उनका जीवन ऐसे ही अंधकार में पैदा हुआ, अंधकार में ही खो जाएगा? कभी उनकी आंखें प्रकाश न देख सकेंगी? वे छायाएं ही देखते रहेंगे दीवाल पर? वे जंजीरों को ही आभूषण मानते रहेंगे? उन्हें मुक्ति के पंख कभी भी न मिलेंगे? |
माता पिता ने उनका नाम रामचंद्र रखा था। किंतु मेट्रिक की परीक्षा देने से ठीक पहले, वे एक शपथपत्र देकर वैधानिक रूप से रामचंद्र से बदलकर 'लामचंद' हो गए। ये उस समय की बात है जब टेन प्लस टू का जमाना नहीं था। वो एट प्लस थ्री का दौर था। यानि आपको अपनी उम्र से लेकर नाम तक जो भी छेड़छाड़ करनी है आप ग्यारहवीं तक ही कर सकते थे। उसके बाद किए जाने वाला परिवर्तन बेहद पेंचीदा था, तब आपको तमाम सरकारी कर्मकांड से गुजरना पड़ता था। इस सरकारी कर्मकांड की पेंचीदगी उस धार्मिक कर्मकांड से भी अधिक भीषण थी जिसमें जबरदस्ती किसी पापात्मा को पुण्यात्मा बना कर स्वर्ग में सीट दिलाई जाती थी। उनके रामचंद्र से लामचंद होने के पीछे किसी न्यूमरोलोजिस्ट का हाथ नहीं था और ना ही यह क्रांतिकारी परिवर्तन माता-पिता के प्रति विद्रोह के चलते हुआ था। चूँकि वे बचपन से ही प्रखर बुद्घि के स्वामी थे इसलिए भविष्य में आने वाले संकटों को किशोरावस्था में ही ताड़ गए। वे मेट्रिक तक आते-आते जान गए थे कि 'र' शब्द जो भगवान शिव के लिए अमृत था, उनके लिए कालकूट विष साबित होगा।
भगवान राम में अगाध श्रद्घा होने के बाद भी उनकी जीभ 'र' को 'ल' बोलती थी। बचपन में उनके द्वारा अपने नाम रामचंद्र की जगह लामचंद बोलना बड़ों के लिए आनंद का कारण था, वे उसे छोटे बच्चे का मासूम प्रयास समझ कर बहुत प्यार से उनकी पप्पियाँ लेते, किंतु पांचवी तक आते-आते पप्पी डाँट में बदलने लगी, आठवीं तक चिंता का विषय हो गई और आठवीं के बाद पप्पी ने प्रतारणा का रूप धारण कर लिया और इसी प्रतारणा ने रामचंद्र की सोई हुई प्रतिभा को झंझोड़ कर जगा दिया, वे समझ गए कि वे कभी भी 'र' को 'र' नहीं कह पाएँगे, सो बेहतर है कि अपने नाम को रामचंद्र से लामचंद कर दिया जाए। चूँकि लामचंद स्कूल के समय से ही राजनीति के प्रति आकर्षित थे, इसलिए स्कूल में होने वाले चुनाव में वे प्रतिवर्ष खड़े हो जाते (जी उस समय स्कूलों में चुनावों की परम्परा थी)।
वे क्लास मनिटर, सहसचिव, सचिव, उपाध्यक्ष से लेकर अध्यक्ष पद तक का चुनाव मात्र इसलिए हार गए, क्योंकि उनका विरोधी पैनल हर चुनाव में इस बात का प्रचार जोरशोर से करता किजो लड़का अपना नाम भी सही नहीं बोल सकता, अपने देश का नाम सही नहीं बोलता,जो भारत को 'भालत' कहता है, राष्ट्रपति को लाष्टपति कहता है, राष्ट्रपिता को राष्ट्रपिता बोलता है, पंडित नेहरू को पंडित नेहलू, राजघाट को लाजघाट, पार्लियामेंट को पालियामेंट, यहाँ तक कि अपने देश की मुद्रा रुपया को लुपया, राजनीति को लाजनीति, रेलगाड़ी को लेलगाड़ी बोलता है, वो स्कूल का सही नेतृत्व कैसे करेगा? अब पहाड़े में से 'र' को हटाना, अपने देश, अपने महापुरुषों, राष्ट्र के संवैधानिक पदों, अपनी जन्मभूमि गाडरवारा में से एक नहीं दो-दो 'र' को हटाना, उनके सामर्थ्य के बाहर था। किंतु अपने नाम रामचंद्र पर तो उनका पूरा अधिकार था, इसलिए उन्होंने सोचा कि अपना नाम भी वर्णमाला के उसी अक्षर से शुरू करना चाहिए जिसके उच्चारण मे |
ं जीभ की सहज रुचि व सिद्घता है, कम से कम मैं अपना नाम तो सही बोल पाऊँगा। तभी से उनका इस धारणा पर विश्वास और पक्का हो गया, कि जो व्यक्ति अपना नाम सही बोलता है, वो अपना काम भी सही करता है। और उसी दिन, वे रामचंद्र से लामचंद हो गए।
स्कूल में ही उन्हें राजनीति का चिटका लग गया था। सौभाग्यवश वे डेढ़ सौ एकड़ सिंचित भूमि के इकलौते वारिस थे, सो कॉलेज तक आते-आते उनकी राजनीतिक अंगीठी धुंधाने लगी, और कॉलेज छोड़ते ही भभक कर जल उठी। इलाके के बड़े किसान होने के नाते वे उस क्षेत्र के किसानों के सर्वमान्य नेता हो गए थे, इसके चलते शहरी क्षेत्र में भी उनकी अच्छी खासी धाक थी। किसी की वरयात्रा हो तो, लोग दूल्हा और घोड़ी के बाद लामचंद का जिक्र करते, शवयात्रा हो तो शव और ठठरी के बाद लामचंद का उल्लेख होता। कव्वाली का आयोजन हो तो तबला, सारंगी, लामचंद फिर कव्वाल। कुल मिलाकर लामचंद अपने उत्साह, ऊर्जा, सक्रियता के चलते उस पूरे क्षेत्र का ना चाहते हुए भी एक आवश्यक अंग हो गए थे। एक बार हमारे शहर के सबसे प्रसिद्घ मंदिर में चोरी हो गई चोर भगवान जी की मूर्तियाँ चुरा कर ले गए। पूरा शहर सकते में था, लोगों को समझ नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए ? सांसद, विधायक सब सन्न थे।
शहर अहिल्या के जैसा पाषाणवत हो गया था, तब लामचंद ने भगवान श्रीरामचंद्र का रोल अदा किया और करीब पाँच हजार किसानों का एक जंगी मोर्चा निकाला, जिससे सारा शहर हरहराकर जाग गया। अपने तूफानी भाषण से वे जन-जन के हृदय में पहुँच गए, उस समय मेरी उम्र करीब पंद्रह बरस की रही होगी किंतु आज भी उनका भाषण मुझे ऐसे याद है जैसे कल की ही बात हो, हाथठेले को मंच बनाकर लामचंद गरजे की गाड़लवाला (गाडरवारा) मंदिल (मंदिर) से गाडलवाला पुलिस स्टेशन कित्ते किलोमीटल (किलोमीट |
र)? बोले तो तीन किलोमीटल। औल (और) गाडलवाला से नलसिंगपुल (नरसिंहपुर) कित्ते किलोमीटल? बोले तो पचपन किलोमीटल। तो नलसिंगपुल की पुलिस डेढ़ घंटे में गाडलवाला आ सकती है, लेकिन गाडलवाला की पुलिस डेढ़ घंटे में तीन किलोमीटल नई आ सकती? जलूल (जरूर) इसमें पुलिस का हाथ है, टीआई को क्या जलूलत (जरूरत) थी लात को (रात को) नौ बजे की दुकान बंद कलो-दुकान बंद कलो।
पुलिस को आड़े हाथों लेकर उसे कटघरे में खड़ा करने के कारण, और जनता का भीषण दबाव देख उच्चाधिकारियों ने एक टीआई, दो सब इन्स्पेक्टर, और आठ सिपाहियों को तत्काल प्रभाव से सस्पेंड कर दिया और सात दिन में भगवान की मूर्तियाँ चोरों सहित बरामद कर ली गईं। उस समय पुलिस के खिलाफ मोर्चा खोलना एक किस्म का भीमकार्य हुआ करता था। सो लामचंद क्षेत्र के अघोषित युवा तुर्क-मान लिए गए। राजनीति में विकट सक्रियता के बाद भी मैंने पाया कि उनकी रुचि विधायकी या सांसदी में बिलकुल नहीं थी। यहाँ तक कि वे पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष या पार्टी-संगठन के बड़े पदों को भी वे हेय दृष्टि से देखते थे। किंतु लालबत्ती लगी हुई गाड़ी को देख के चहक जाते। लालबत्ती के प्रति उनका आकर्षण बीमारी की हद तक था, वे गाड़ी के टायरों की आवाज सुनके बता देते की गाड़ी लालबत्ती वाली है या नहीं। उनके लिए लालबत्ती में बैठे हुए व्यक्ति से अधिक महत्वपूर्ण लालबत्ती की गाड़ी थी। उनका मानना था कि पद आते जाते रहते हैं, वे अस्थाई होते हैं लेकिन लालबत्ती स्थाई होती है। एक बार को भगवान का प्रभाव घट सकता है लेकिन लालबत्ती का नहीं।
पैसा, प्रसिद्घि तो सब कमा लेते हैं लेकिन लालबत्ती तक पहुँचना हर किसी के बस की बात नहीं है। जिसने लालबत्ती को हासिल कर लिया वही माई का 'लाल' कहलाने लायक है, अन्यथा उसे लाल कहलाने का कोई अधिकार नहीं है। यदि कोई मंत्री लालबत्ती में उनके गाँव आता तो वे गाड़ी की तरफ ऐसे लपकते जैसे सांप छटून्दर को देखके लपकता है। उस मंत्री को रिसीव कर वे मंत्री के साथ जलसे या सभा में नहीं जाते, गाड़ी के पास ही खड़े रहते। उनके साथ के लोगों पर इसका अद्भुत प्रभाव पड़ता वे कहते कि लामचंद भैया को मंत्रियों के साथ घुसने की आदत नहीं है, वे स्वयं ना ठस के अपने लोगों को ठसने का मौका देते हैं। जबकि इसका असली कारण लामचंद का लालबत्ती के प्रति प्रेम था, उनकी हसरत का पता सिर्फ मजनू को ही चल सकता था क्योंकि लामचंद के लिए लालबत्ती लैला के जैसी थी, वे फरहाद थे और लालबत्ती उनकी शीरी, वे रांझा थे और लालबत्ती उनकी हीर, वे चकोर थे और लालबत्ती उनका चंद्रमा।
'ल' की लपक के बाद भी उनकी सम्पन्नता, सक्रियता, लोकप्रियता को देख दो बार उन्हें विधायकी का टिकट आफर हुआ, किंतु उन्होंने उसे बहुत चतुराई से उसे टरका दिया। इसका लोगों पर बहुत सकारात्मक प्रभाव पड़ा, उनकी छवि एक ऐसे जननेता की बनी जो सत्ता का भूखा नहीं है। किंतु लामचंद चुपचाप राज्य परिवहन निगम की चेयरमेनी या देश के डिसास्टर मेंनेजमेंट डिपार्टमेंट की पाँच सदस्यीय |
कमेटी में घुसने की जुगाड़ में लगे रहते। क्योंकि सिर्फ इन दोनों विभागों के बाईलज में ही लिखा था कि चेयरमेन को या कमेटी के सदस्यों को राज्यमंत्री का दर्जा और लालबत्ती मिलेगी। बाकी निगमों की लालबत्ती बड़े नेताओं की दया पर डिपेंड थी। इसलिए वे अपना अधिकतम समय भोपाल, दिल्ली में गुजारते। एक दिन दिल्ली में मुझे मिल गए सफेद कड़क-कलफ किया हुआ कुर्ता पैजामा पहने हुए, रामायण के मेघनाथ के जैसी करीने से सजी हुई तलवार कट पतली मूँटें, लालसुर्ख-होंठ जिन पर वो हर दस मिनिट में लिपग्लास लगा लेते, वे मुझसे दस बारह बरस बड़े थे करीब साठ-बासठ के साल के, किंतु उनकी फिट्नेस का आलम ये था कि कोई भी उन्हें बयालीस, पैंतालीस के ऊपर का नहीं मानता। यदि वे मुँह ना खोलें तो कोई भी उनके सुदर्शन व्यक्तित्व के चपेट में आए हुए बिना नहीं रह सकता।
मैंने कहा- भाईसाहब मुझे आपकी राजनीति समझ नहीं आती, आपकी पार्टी आपको चुनाव लड़वाना चाहती है और आप हैं कि निगम की चेयरमेनी के लिए लार टपकाते घूम रहे हैं।
अपने तीस साल बर्बाद कर दिए आपने, आज पता नहीं आप कहाँ होते। वे बेहद दोस्ताना स्वभाव के थे, बोले छोटे तुम नहीं समझोगे, ये ऐसी आग है जो लगाए ना लगे, बुझाए ना बुझे। वे अक्सर ऐसे शब्दों में वाक्य विन्यास करते जिसमें जब तक बहुत जरूरी ना हो 'र' ना आए। मेली (मेरी) कुंडली में लालबत्ती लिखी है। कामाख्या पीठ के सबसे बड़े ताँतलिक (तांत्रिक) से लेकर केलल (केरल) के प्रसिद्घ ज्योतिषी तक, दिल्ली से लेके देवली (देवरी) तक, भोपाल से लेकर भागलपुल (भागलपुर) तक, जो भी पंडित मेली (मेरी) कुंडली देखता है उसमें सबसे पहले उसको लालबत्ती घूमती हुई दिखाई देती है। बोले- मेले (मेरे) लिए लाजनीति (राजनीति) पैसा कमाने का साधन नहीं है, वो भगवान का दिया हुआ |