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सकता है, न भोगी कहा जा सकता है, या दोनों कहा जा सकता है। पर ऐसा व्यक्ति दोनों एक साथ होगा। उसके भोग में त्याग होगा, उसके त्याग में भोग होगा। इस संयम के अर्थ से त्यागवादी कोई परंपरा राजी न होगी। त्यागवादी परंपरा के लिए संयम का अर्थ विराग होगा, असंयम का अर्थ राग होगा। जो राग को छोड़ता है और विराग की तरफ जाता है, वह संयमी है। कृष्ण त्यागवादी नहीं हैं और कृष्ण भोगवादी भी नहीं हैं। अगर उन्हें हम कहीं भी रखें तो वे ठीक चार्वाक और महावीर के बीच में खड़े हो जाएंगे। वे भोग में चार्वाक से पीछे न होंगे और त्याग में महावीर से पीछे न होंगे। इसलिए अगर चार्वाक और महावीर का कोई मिक्सचर बन सकता हो, अगर इन दोनों का कोई सम्मिलन बन सकता हो, तो वह कृष्ण हैं। इसलिए कृष्ण के ओंठों पर सारे शब्दों के अर्थ भिन्न होंगे। शब्द वे ही हैं, अर्थ भिन्न हो जाएंगे। उनके व्यक्तित्व से अर्थ निकलेगा। दूसरा सवाल पूछा है, कृष्ण की उपासना, साधना क्या है ? कृष्ण के व्यक्तित्व में साधना जैसा कुछ भी नहीं है। हो नहीं सकता। साधना में जो मौलिक तत्व है, वह प्रयास है, इफर्ट है। बिना प्रयास के साधना नहीं हो सकती। दूसरा जो अनिवार्य तत्व है, वह अस्मिता है, अहंकार है। बिना "मैं" के साधना नहीं हो सकती। करेगा कौन? कर्ता के बिना साधना कैसे होगी? कोई करेगा, तभी होगी। साधना शब्द, ठीक से अगर बहुत गहरे में समझें, तो अनीश्वरवादियों का है। साधना शब्द, जिनके लिए कोई परमात्मा नहीं है, आत्मा ही है, साधना शब्द उनका है। आत्मा साधेगी और पाएगी। उपासना शब्द बिल्कुल उलटे लोगों का है। आमतौर से हम दोनों को एक साथ चलाए जाते हैं। उपासना शब्द उनका है, जो कहते हैं कि आत्मा नहीं, परमात्मा है। सिर्फ उसके पास जाना है, साधना कुछ भी नहीं है। उपासना का मतलब
है, पास जाना, पास बैठना-उप-आसन, निकट होते जाना, निकट होते जाना। और निकट होने का अर्थ है, खुद मिटते जाना, और कोई अर्थ नहीं है। हम उससे उतने ही दूर हैं, जितने हम हैं। जीवन के परम सत्य से हमारी दूरी, हमारा डिस्टेंस उतना ही है, जितने हम हैं। जितना हमारा होना है, जितना हमारा मैं है, जितना हमारा ईगो है, जितनी हमारी आत्मा है, उतने ही हम दूर हैं। जितने हम खोते हैं और विगलित होते हैं, पिघलते हैं और बहते हैं, उतने ही हम पास होते हैं। जिस दिन हम बिल्कुल नहीं रह जाते, उस दिन उपासना पूरी हो जाती है और हम परमात्मा हो जाते हैं। जैसे बर्फ पानी बन रहा हो, बस उपासना ऐसी है कि बर्फ पिघल रहा है, पिघल रहा है... साधना क्या कर रहा है बर्फ ? साधना करेगा तो और सख्त होता चला जाएगा। क्योंकि साधना का मतलब होगा कि बर्फ अपने को बचाए । साधना का मतलब होगा कि बर्फ अपने को सख्त करे। साधना का मतलब होगा कि बर्फ और क्रिस्टलाइज्ड हो जाए। साधना का मतलब होगा कि बर्फ और आत्मवान बने। साधना का मतलब होगा कि बर्फ अपने को बचाए और खोए न। साधना का अर्थ अंततः आत्मा हो सकता है। उपासना का अर्थ अंततः परमात्मा है। इसलिए जो लोग साधना से जाएंगे, उनकी आखिरी मंजिल आत्मा पर रुक जाएगी। उसके आगे की बात वे न कर सकेंगे। वे कहेंगे, अंततः हमने अपने को पा लिया। उपासक कहेगा, अंततः हमने अपने को खो दिया। ये दोनों बातें बड़ी उलटी हैं। बर्फ की तरह पिघलेगा उपासक और पानी की तरह खो जाएगा। साधक तो मजबूत होता चला जाएगा। इसलिए कृष्ण के जीवन में साधना का कोई तत्व नहीं है। साधना का कोई अर्थ ही नहीं है। अर्थ है तो उपासना का है। उपासना की यात्रा ही उलटी है। उपासना का मतलब ही यह है कि हमने अपने को पा लिया, यही भूल है। हम हैं, यही गलती है । टु बी इज दि ओनली बांडेज । होना ही एकमात्र बंधन है। न होना ही एकमात्र मुक्ति है। साधक जब कहेगा तो वह कहेगा, मैं मुक्त होना चाहता हूं। उपासक जब कहेगा तो वह कहेगा, मैं "मैं" से मुक्त होना चाहता हूं। साधक कहेगा, मैं मुक्त होना चाहता हूं। मैं मोक्ष पाना चाहता हूं। लेकिन "मैं" मौजूद रहेगा। उपासक कहेगा, "मैं" से मुक्त होना है। "मैं" से मुक्ति पानी है। उपासक के मोक्ष का अर्थ है, "ना-मैं" की स्थिति। साधक के मोक्ष का मतलब है, "मैं" की परम स्थिति। इसलिए कृष्ण की भाषा में साधना के लिए कोई जगह नहीं है; उपासना के लिए जगह है। अब यह उपासना क्या है, इसे हम थोड़ा समझें। पहली तो बात समझ लें कि उपासना साधना नहीं है, इससे समझने में आसानी बनेगी। अन्यथा भ्रांति निरंतर होती रहती है। और उपासक हममें से बहुत कम लोग होना चाहेंगे, यह भी ख्याल में ले लें। साधक हममें से सब होना चाहेंगे। क्योंकि साधक में कुछ खोना नहीं है, पाना है। और उपासक में सिवाय खोने के कुछ भी नहीं है, पाना कुछ भी नहीं है। खोना ही पाना है, बस। उपासक कौन होना चाहेगा? इसलिए कृष्ण को मानने वाले भी साधक हो जाते हैं। कृष्ण के मानने वाले भी साधना की भाषा बोलने लगते
हैं। क्योंकि वह भीतर जो अहंकार है, वह साधना की भाषा बुलवाता है। वह कहता है, साधो! पाओ! पहुंचो ! उपासना बड़ी कठिन बात है, आरडुअस। इससे ज्यादा आरडुअस, इससे ज्यादा कठिन कोई बात ही नहीं है--पिघलो, मिटो, खो जाओ। निश्चित ही हम पूछना चाहेंगे कि क्यों मिटें? मिट कर क्या फायदा है? साधक कितनी ही ऊंची बात बोले, फायदे की बात में ही सोचेगा। उसका मोक्ष भी उसका ही सुख है । उसकी मुक्ति भी उसकी ही मुक्ति है। इसलिए साधक बहुत गहरे अर्थों में स्वार्थी हो तो आश्चर्य नहीं। स्व अर्थ से वह ऊपर कभी उठ भी नहीं पाएगा। उपासक स्व अर्थ के ऊपर उठेगा, इसलिए उपासक परमार्थ की बात बोलेगा। वह परम अर्थ की बात बोलेगा, जहां स्व खो जाता है। इस उपासना का क्या अर्थ होगा, और यह उपासना की क्या गति होगी और क्या यात्रा होगी? बड़ी कठिन होगी समझनी यह बात । इसलिए पहले ही आपको कह देता हूं कि साधना शब्द को बिल्कुल ही हटा दें, उसकी जगह ही नहीं है, फिर हम उपासना को समझने चलें। जैसा मैंने कहा, उपासना का अर्थ है, निकट आना, टु बी नियरर । तो दूरी क्या है? डिस्टेंस क्या है? एक तो दूरी है जो हमें दिखाई पड़ती है, फिजिकल स्पेस है। आप वहां बैठे हैं, मैं यहां हूं, हम दोनों के बीच एक फासला है, एक डिस्टेंस है। मैं आपके पास आ जाऊं, आप मेरे पास आ जाएं, भौतिक दूरी समाप्त हो जाएगी। हम बिल्कुल पास-पास, हाथ में हाथ लेकर, गले में गला डाल कर बैठ जाएं, दूरी खत्म हुई। लेकिन दो आदमी गले में हाथ डाले हुए भी कोसों दूरी पर हो सकते हैं। एक इनर स्पेस है, एक भीतरी दूरी है, जिसका फिजिकल दूरी से कुछ भी संबंध नहीं है। और दो आदमी कोसों दूर होकर भी बड़े निकट हो सकते हैं। और दो आदमी गले में हाथ डाल कर दूर हो सकते हैं। तो एक तो दूरी है जो हमसे बाहर है। और एक दूरी
है जो मन की है और हमारे भीतर है। उपासना भीतर की दूरी को मिटाने की विधि है। लेकिन भक्त भी बाहर की दूरी मिटाने को आतुर रहता है। वह भी कहता है, सेज बिछा दी है, आ जाओ ! वह भी कहता है, कब तक तड़फाओगे, आओ ! वह भी बाहर की दूरी मिटाने को आतुर रहता है। लेकिन एक बड़े मजे की बात है कि बाहर की दूरी कितनी ही मिट जाए, दूरी बनी ही रहती है। हम कितने ही पास आ जाएं, बाहर से हम पास आते ही नहीं। पास आना बिल्कुल ही आंतरिक घटना है। इसलिए उपासक उस परमात्मा के पास भी हो सकता है जो दिखाई ही नहीं पड़ता। जिससे फिजिकल दूरी मिटाने का कोई उपाय ही नहीं है, उसके भी पास हो सकता है। यह जो इनर स्पेस है हमारी, यह कैसे पैदा होती है? यह जो भीतर की दूरी है, यह कैसे पैदा होती है? बाहर की दूरी हम समझते हैं कि कैसे पैदा होती है। अगर मैं आपसे दूर चलने लगूं, आपसे हटने लगूं, आपकी तरफ पीठ कर लूं और भागने लगूं, तो बाहर की दूरी पैदा हो जाती है। आपकी तरफ मुंह करने लगूं और आपकी तरफ चलने लगूं, आपकी दिशा में, तो बाहर की दूरी कम हो जाती है। भीतर की दूरी कैसे पैदा होती है? भीतर की दूरी चलने से पैदा नहीं होती, क्योंकि भीतर तो चलने की कोई जगह नहीं है। भीतर की दूरी होने से पैदा होती है; कितना सख्त मैं हूं, उतनी ही भीतर की दूरी होती है। और कितना तरल मैं हूं, उतनी ही भीतर की दूरी टूट जाती है। और अगर मैं बिल्कुल तरल हो जाऊं कि मैं भीतर कह सकूं कि मैं हूं ही नहीं, शून्य हो गया, तो भीतर की दूरी समाप्त हो जाती है। उपासना का अर्थ शून्य होना है। उपासना का अर्थ ना-कुछ होना है--नथिंगनेस, नॉन-बीइंग। मैं नहीं हूं, इस सत्य को जान लेना उपासक हो जाना है। मैं हूं, इस तथ्य को जोर से पकड़े रहना परमात्मा से दूर होते जाना है। मैं हूं, यह घोषणा ही हमारी दूरी है। रूमी ने एक गीत लिखा है। एक प्रेमी अपनी प्रेयसी के द्वार को खटखटाता है। सूफियों का गीत है, जो कि उपासना को जानते हैं। शायद पृथ्वी पर उपासना को जानने वाले थोड़े ही लोग हैं, वे सूफी हैं। कृष्ण को अगर कोई ठीक से समझ सकता है तो वह सूफी ही समझ सकते हैं। ऐसे वे मुसलमान फकीर हैं, लेकिन इससे क्या बनता-बिगड़ता है! सूफी गीत है जलालुद्दीन रूमी का कि प्रेमी ने द्वार खटखटाया है प्रेयसी का। भीतर से आवाज आई, कौन हो? तो प्रेमी ने कहा, मैं हूं, पहचानी नहीं? फिर भीतर से कोई आवाज नहीं आती। फिर प्रेमी द्वार खटखटाए चला जाता है और कहता है, मेरी आवाज नहीं पहचानती, मैं हूं! तब भीतर से बड़ी मुश्किल से इतनी भर आवाज आती है कि जब तक तुम हो, तब तक प्रेम के द्वार नहीं खुल सकते। कब खुले हैं मैं के लिए प्रेम के द्वार! तो जाओ, उस दिन आना जिस दिन मैं न रह जाओ। वह प्रेमी वापस लौट जाता है। वर्ष आते हैं, जाते हैं। वर्षा और धूप और चांद और सूरज, वर्षों के बाद वह वापस लौटता है। वह द्वार पर दस्तक देता है। भीतर से फिर वही सवाल कि कौन है? लेकिन अब वह प्रेमी कहता है, अब तो तू ही है । तो रूमी की कविता यहां पूरी हो जाती
है। वह कहता है कि द्वार खुल जाते हैं। लेकिन मैं मानता हूं कि रूमी उपासना को पूरा नहीं समझ पाया। कृष्ण तक नहीं पहुंच पाई रूमी की समझ। गया थोड़ी दूर, रुक गया। अगर मैं इस कविता को लिखूं तो मैं कहूंगा कि फिर वह प्रेयसी भीतर से कहती है कि जब तक तू भी है, तब तक मैं होगा ही। छिपा होगा कहीं। क्योंकि तू का बोध मैं के बिना नहीं होता। चाहे कोई मैं कहता हो या न कहता हो, जब तक तू है, तब तक मैं मौजूद होगा ही। छिपा होगा, अप्रकट होगा, अंधेरे में दब गया होगा, मन के किसी कोने-कांतर में बैठ गया होगा, लेकिन होगा ही। क्योंकि कौन कहेगा तू? तू को कहने के लिए मैं होना ही चाहिए। यह सिर्फ तराजू बदल लिया, पहलू बदल लिए। बात कुछ हुई नहीं, बात कुछ बनी नहीं। तो मैं अगर इस कविता को लिखूं तो कहूंगा कि फिर वह कह देती है कि जब तक तू है, तब तक मैं कैसे मिट सकता है? अभी तू मैं को खोकर आया, अब तू को भी खोकर आ। लेकिन जब मैं भी खो जाएगा और तू भी खो जाएगा, तो क्या प्रेमी आएगा? तब मेरी कविता बड़ी मुश्किल में पड़ जाएगी, क्योंकि फिर वह आएगा कैसे? आएगा किसके पास? आएगा कहां से? आएगा कहां? नहीं, फिर वह आएगा ही नहीं। फिर आने की कोई बात न रही, फिर जाने की कोई बात न रही, क्योंकि फासला, वह इनर डिस्टेंस ही टूट गया जिसमें आया-जाया जा सकता है। वह जो भीतर का फासला था वह टूट गया, वह तो मैं और तू का फासला था। इसलिए मेरी कविता आखिर में जाकर बड़ी मुश्किल में पड़ जाएगी। हो सकता है रूमी ने इसीलिए कविता वहीं खत्म की। क्योंकि आगे फिर कविता को खत्म कैसे करेंगे? वहां जाकर कविता एकदम टकरा जाएगी जिंदगी की चट्टान से और टूट जाएगी। क्योंकि फिर आएगा कौन? आएगा किसके पास? आएगा क्यों? जब तक आता है, तब तक फासला है। और जब मैं और तू न रहे तो कोई फासल
ा नहीं, जो जहां है उसे वहीं मिल जाता है। उपासना के लिए कहीं पहुंचना नहीं होता। जहां हम हैं, वहीं घटित हो जाती है। किसी के पास नहीं पहुंचना होता, बस अपने से मिटना होता है और पास पहुंचना हो जाता है। कृपया मार्टिन बूबर के संदर्भ में कुछ कहें। 'के' पूछा है कि मार्टिन बूबर के संदर्भ में भी कुछ कहें। मार्टिन बूबर की सारी की सारी चिंतना मैं और तू की इंटीमेसी, मैं और तू की रिलेशनशिप, मैं और तू के संबंधों पर है। मार्टिन बूबर गहरे से गहरे लोगों में से एक है। लेकिन गहराई कितनी ही हो, वह उथलेपन का ही दूसरा छोर है। सच्ची गहराई तो उस दिन शुरू होती है जिस दिन आदमी न उथला रह जाता है और न गहरा रह जाता है। जिस दिन उथला और गहरापन दोनों मिट जाते हैं। मार्टिन बूबर ने बड़ी गहरी बातें कही हैं। गहरी से गहरी जो बात है वह यह है, कि यह सारे जीवन का सत्य मैं और तू के अंतर्संबंधों में समाया हुआ है। एक नास्तिक है, एक अनीश्वरवादी है, एक है जो मानता है कि सिर्फ पदार्थ है। उसका जगत मैं और तू का 'तू' जगत नहीं है। उसका जगत मैं और वह का जगत है। आई एंड इट। तू है ही नहीं। क्योंकि तू होने के लिए दूसरे में आत्मा को स्वीकार करना जरूरी है। नास्तिक का जगत, आई एंड इट, मैं और वह का जगत है। इसलिए नास्तिक का जगत बड़ा जटिल है, क्योंकि खुद को तो वह मैं कहता है और आत्मवान होने की घोषणा करता है, और शेष सबको मैं से हीन कर देता है और वह बना देता है, पदार्थ बना देता है, वस्तुएं बना देता है। अगर मैं जानता हूं कि आत्मा नहीं है, तो आप मेरे लिए पदार्थ से ज्यादा नहीं हैं, फिर मैं तू किसको कहूं? तू तो जीवंत 'तू व्यक्ति को कहा जा सकता है। इसलिए मार्टिन बूबर कहता है कि आस्तिक का जगत मैं और वह का जगत नहीं है, आई एंड दाउ, मैं और तू का जगत है। जब मेरा मैं तू कह पाता है जगत को, तो आस्तिक का जगत है। मैं नहीं कहूंगा। मैं कहूंगा, यह आस्तिक भी बहुत गहरे में अभी नास्तिक है। क्योंकि अभी भी मैं और तू में 'तू' जगत को बांट पाता है। या ऐसा कहें कि यह द्वैतवादी आस्तिक का जगत है। लेकिन द्वैतवाद चूंकि झूठा है, इसलिए द्वैतवादी आस्तिकता का भी कोई अर्थ नहीं होता। एक अर्थ में नास्तिक अद्वैतवादी होता है। क्योंकि वह कहता है, एक ही है, पदार्थ । एक अर्थ में नास्तिक अद्वैतवादी होता है, क्योंकि वह कहता है, एक ही है, पदार्थ; और एक अर्थ में आत्मवादी अद्वैतवादी होता है, क्योंकि वह भी कहता है, एक ही है, आत्मा है। अब मेरा मानना है कि एक ही से एक पर जाना बहुत आसान है, दो से एक पर जाना बहुत कठिन है। इसलिए द्वैतवादी नास्तिक से भी ज्यादा उलझन में होता है। क्योंकि किसी दिन अगर नास्तिक अद्वैतवादी को यह दिखाई पड़ जाए कि पदार्थ नहीं है, आत्मा है, तो यात्रा तत्काल बदल जाती है। एक तो वह मानता ही था। वह एक क्या है, इसकी व्याख्या पर झगड़ा था। वह पदार्थ है कि परमात्मा है? लेकिन द्वैतवादी की झंझट और गहरी है। द्वैतवादी मानता है, दो हैं। पदार्थ भी है, परमात्मा भी
है। इसे एक पर पहुंचना बहुत मुश्किल है। बूबर द्वैतवादी है। वह कहता है, मैं और तू। लेकिन उसका द्वैतवाद बहुत मानवीय है। क्योंकि वह को मिटा देता है, तू का दर्जा देता है दूसरे को भी, आत्मा का दर्जा देता है। लेकिन मैं और तू के बीच संबंध ही हो सकते हैं, एकता नहीं हो सकती, ऐक्य नहीं हो सकता। संबंध कितने ही गहरे हों, तब भी फासला बना रहता है। अगर मैं आपसे संबंधित हूं, कितना ही गहरा संबंधित हूं, तब भी मेरा और आपका संबंध, मुझे और आपको दो में तोड़ता है। संबंध जोड़ता भी है, तोड़ता भी है। वह दोहरे काम करता है। जिससे हम जुड़ते हैं, उससे हम टूटे हुए भी होते हैं। जिस जगह हमारा जोड़ होता है, वही हमारी टूट भी होती है। जो हमारा सेतु है, वही हमें दो तटों में भी तोड़ देता है। जो सेतु जोड़ता है, वह तोड़ता भी है। असल में जोड़ने वाली कोई भी चीज तोड़ने वाली भी होती है। होगी ही। अनिवार्य है वह। इसलिए दो कभी एक नहीं हो पाते, कितने ही गहरे संबंध हों, संबंध कभी भी एक नहीं हो पाते। इसलिए गहरे से गहरा संबंध भी दो बनाए रखता है। प्रेम का कितना ही गहरा संबंध हो, उसमें दो नहीं मिटते । और जब तक दो नहीं मिटते, तब तक प्रेम तृप्त नहीं हो सकता। इसलिए सब प्रेम अतृप्त होते हैं। दो तरह की अतृप्तियां हैं प्रेम की--प्रेमी न मिले तो, और मिल जाए तो। प्रेमी न मिले तो यह अतृप्ति होती है कि जिससे मिलना चाहा था वह नहीं मिला, और प्रेमी मिल जाए तो यह अतृप्ति होती है कि जिससे मिलना चाहा था वह मिल तो गया, लेकिन मिलना कहां हो पा रहा है! फासला खड़ा ही है। दूरी बनी ही है। पास आ गए हैं बहुत, लेकिन कहां दूरी मिटती है! इसलिए कई बार, जिसको अपना प्रेमी नहीं मिलता वह भी उतना दुखी नहीं होता, जितना दुखी वह हो जाता है जिसे उसका प्रेमी मिल जाता
है। क्योंकि जिसको नहीं मिलता उसे एक आशा तो रहती है कि कभी मिल सकता है। इसकी वह आशा भी टूट जाती है, कि अब क्या होगा? मिल तो गया है, लेकिन मिलना नहीं हो पा रहा है। असल में कोई मिलन मिलन नहीं बन सकता, क्योंकि मिलन में संबंध ही है और संबंध दो बनाए रखता है। इसलिए मार्टिन बूबर मैं और तू के गहरे संबंधों की बात करता है, जो बड़ी मानवीय है। और इस जगत में, के जो कि निरंतर पदार्थवादी होता चला गया है, मार्टिन बूबर की बात भी बड़ी धार्मिक मालूम होती है। लेकिन मुझे मालूम नहीं होती। मैं तो कहूंगा, यह बात धार्मिक नहीं है, सिर्फ समझौता है, यह मैं और तू के बीच अगर एकता न हो सके, तो कम से कम संबंध ही हो । प्रेम और उपासना में यही फर्क है। प्रेम संबंध है, उपासना असंबंध है। असंबंध का मतलब यह नहीं कि दो असंबंधित हो गए। असंबंध का मतलब यह कि दो के बीच से संबंध गिर गया, रिलेशनशिप भी गिर गई। वह जो संबंध था, वह भी गिर गया; अब दो दो ही न रहे, वे एक ही हो गए। यह जो एक हो जाना है, यह उपासना है। इसलिए प्रेम का अगला कदम उपासना है। और जिसे हम प्रेम करते हैं उससे हम तब तक पूरी तरह नहीं मिल सकते जब तक वह दिव्य न हो जाए, भागवत न हो जाए, भगवान न हो जाए। दो मनुष्यों का मिलन असंभव है। उनका मनुष्य होना ही बाधा देता रहेगा। दो मनुष्य ज्यादा से ज्यादा संबंधित हो सकते हैं। दो परमात्म-तत्व ही मिल सकते हैं, क्योंकि फिर तोड़ने वाला कोई भी नहीं रह जाता। जोड़ने वाला भी कोई नहीं रह जाता। इसलिए मार्टिन बूबर ज्यादा से ज्यादा प्रेम पर पहुंच सकता है। कृष्ण उपासना पर पहुंचते हैं। उपासना बहुत और बात है, उपासना बहुत ही और बात है। वहां दूसरा भी मिट गया है, मैं भी मिट गया हूं। और हम दोनों के मिटने पर जो शेष रह जाता है, दैट व्हिच रिमेंस, वह विस्तार जो बाकी रह गया, उसे हम क्या नाम दें? उसे हम पदार्थ कहें? उसे हम आत्मा कहें? उसे मैं मैं कहूं? उसे मैं तू कहूं? उसे हम कोई भी नाम दें वे गलत होंगे। इसलिए जो परम उपासक हैं वे चुप रह गए हैं, उन्होंने उसके लिए कोई नाम नहीं दिया। उन्होंने कहा, वह अनाम है, नेमलेस है। उन्होंने कहा, उसका कोई छोर नहीं है, उसका कोई प्रारंभ नहीं है, उसका कोई अंत नहीं है। उन्होंने कहा, उसका कोई नाम नहीं, उसका कोई रूप नहीं। उन्होंने कहा, उसका कोई आकार नहीं। उन्होंने कहा, उसे कोई शब्द नहीं दिया जा सकता। वे चुप रह गए हैं। वे मौन रह गए हैं। परम उपासक मौन रह गया है, उस सत्य के संबंध में उसने कोई घोषणा नहीं की, क्योंकि सभी घोषणाएं द्वैत में गिर जाती हैं। मनुष्य के पास ऐसा कोई शब्द नहीं है, जो द्वैत में न ले जाता हो। हम शब्द का उपयोग किए नहीं कि हमने जगत को दो में तोड़ा नहीं। इधर हमने शब्द का उपयोग किया, वहां चीजें दो में टूटीं। ऐसे ही जैसे हम किसी प्रिज्म में से सूर्य की किरण को निकालें तो वह सात हिस्सों में टूट जाती है। ऐसे ही हमने भाषा से किसी सत्य को निकाला कि वह तत्काल दो में टूट जाता है। भाषा का प्रिज्
म हर सत्य को दो में तोड़ देता है। और दो में टूटते ही सत्य असत्य हो जाता है। इसलिए परम उपासक चुप रह गया है, मौन रह गया है। नाचा है, बांसुरी बजाई है, गीत गाया है, इशारे किए हैं, लेकिन घोषणा नहीं की। घोषणा शब्दों में होती है। गेस्चर्स से जाहिर किया है। नाच कर कहा है कि क्या है वह। हंस कर कहा है कि क्या है वह। चुप रह कर कहा है कि क्या है वह। हाथ के इशारे उठा दिए हैं आकाश की तरफ और कहा है कि क्या है वह! लेकिन चुप रह गया है। पूरे व्यक्तित्व से कहा है कि क्या है वह। गदर के वक्त में एक संन्यासी को एक अंग्रेज सैनिक ने छाती में संगीन मार दी। निकलता था संन्यासी। मौन था वर्षों से, तीस वर्ष से बोला नहीं था। और जिस दिन मौन लिया था उस दिन किसी ने पूछा था कि क्यों मौन लेते हो? तो उसने कहा था, जो बोला जा सकता है वह बोलने योग्य नहीं है और जो बोलने योग्य है वह बोला नहीं जा सकता । तो सिवाय मौन के और मैं क्या करूं? तो तीस वर्ष से वह मौन था। गदर चल रही थी, बगावत चल रही थी, अंग्रेज शंकित थे, नग्न वह संन्यासी रात के अंधेरे में उनके कैंप के पास से गुजरता था। उन्होंने उसे पकड़ लिया। समझा कि कोई जासूस होगा, कोई डिटेक्टिव होगा। पूछा उससे, कौन हो? अगर वह कुछ उत्तर भी दे देता, तो भी शायद वे समझ जाते, लेकिन वह चुप रहा, हंसता रहा। जब वे पूछते, कौन हो? तो वह हंसता। तब तो पक्का हो गया कि वह जासूस है और बोलने की भी तैयारी नहीं दिखाता। तब उन्होंने उसकी छाती में संगीन भोंक दी। तीस वर्ष से जो मौन था, वह मरते वक्त हंसा और उसने एक शब्द कहा, मरते वक्त उसने उपनिषद का एक महावाक्य कहा, कहाः तत्त्वमसि, श्वेतकेतु! उस संगीन भोंकने वाले सैनिक से उसने कहा कि तू भी वही है, जो मैं हूं। और तू पूछता है कि तू कौन है! इशारे हैं।
या फिर असंगत भाषा... कबीर की भाषा को लोगों ने संध्या-भाषा कहा है। संध्या-भाषा का मतलब यह है कि न पक्का पता चले कि दिन है कि रात है। बात ऐसी हो कि पक्का पता न चले कि हां है कि न। पक्का पता न चले कि तुम स्वीकार करते हो कि अस्वीकार; तुम आस्तिक हो कि नास्तिक; तुम मानते हो कि नहीं मानते हो; जिस भाषा में कुछ पक्का पता न चले, उस भाषा को संध्या-भाषा कहा है। इसलिए कबीर की भाषा का अभी भी अर्थ तय नहीं हो पाता। कृष्ण की भाषा का भी नहीं हो सकता । जिन्होंने भी सत्य को कहा है, उनकी भाषा संध्या-भाषा हो गई। क्योंकि वे दोनों को साथ-साथ कहेंगे, हां और न को, या दोनों को साथ-साथ इनकार कर देंगे और हमारी भाषा में कोई तर्क-व्यवस्था में वे नहीं बैठ पाएंगे। इसलिए मौन रह गए वे लोग, जिन्होंने जाना उसे, जहां मैं और तू दोनों खो जाते हैं। सार्त्र कहता है, एक्झिस्टेंस प्रिसीड्स इसेंस। आप इसेंस को एक्झिस्टेंस के पहले मानते हैं? या कि दोनों का कैसा संबंध आप करते हैं? और इधर साधना शिविर में आए हुए लोग भी गड़बड़ में पड़ गए हैं कि वे उपासना शिविर में आए हैं या साधना शिविर में? गड़बड़ में डालना मेरा काम है। साधना और उपासना के बीच का फासला गिर जाए, तो शिविर का मतलब समझ में आ गया। सार्त्र या और अस्तित्ववादी ऐसा मानते हैं, एक्झिस्टेंस प्रिसीड्स इसेंस। बड़ी अजीब बात है। क्योंकि दुनिया में ऐसा मुश्किल से कभी माना गया है। इससे उलटी बात सदा मानी जाती रही है। दुनिया के जितने तत्व-चिंतन हैं, उन सबका मानना है, इसेंस प्रिसीड्स एक्झिस्टेंस। इसे समझ लें। सार्त्र के पहले या अस्तित्ववादियों के पहले जितने भी तत्व - चिंतन हैं, वे यह मानते हैं कि बीज वृक्ष के पहले है। स्वभावतः। सार्त्र कहता है, वृक्ष बीज के पहले है। सारा चिंतन साधारणतः कहेगा कि अस्तित्व के पहले आत्मा है, तभी तो अस्तित्व हो सकेगा। सार्त्र कहता है, अस्तित्व पहले है, फिर आत्मा है। क्योंकि अस्तित्व ही न होगा तो आत्मा कैसे गठित होगी? कृष्ण के संदर्भ में क्या मतलब होगा? असल में आदमी के तत्व-चिंतन की सारी लड़ाइयां बड़ी बचकानी हैं, बहुत चाइल्डिश हैं। वे सारी लड़ाइयां तत्व - चिंतन की जो मनुष्य-जाति ने अब तक बड़े से बड़े दार्शनिकों के द्वारा की हैं, वे बच्चों के छोटे से सवाल में समाहित हो जाती हैं कि मुर्गी पहले होती है कि अंडा? बड़े से बड़ा तत्व-चिंतन, बड़े से बड़ी फिलासफी इस छोटे से मुद्दे पर लड़ती रही है। जो जानते हैं, वे कहेंगे कि मुर्गी और अंडा दो नहीं हैं; इसलिए कौन पहले है यह सिर्फ नासमझ पूछ सकता है और बड़ा नासमझ उत्तर दे सकता है। अगर हम ठीक से समझें तो अंडे का मतलब क्या होता है? अंडे का मतलब क्या होता है? अंडे का कुल मतलब छिपी हुई मुर्गी होता है। मुर्गी का क्या मतलब होता है? छिपा हुआ अंडा होता है। अंडा और मुर्गी दो चीजें अगर होतीं, तो कौन प्रिसीड करता है, यह सवाल सार्थक था। कौन पहले है, यह सार्थक था सवाल, अंडा और मुर्गी दो चीजें होतीं। अंडा और मु
र्गी एक ही चीज है। या एक ही चीज को हमारे देखने के दो ढंग हैं। या एक ही चीज की दो क्षणों में दिखाई पड़ने की स्थितियां हैं! लेकिन दो चीजें नहीं हैं। अंडा और मुर्गी एक ही चीज की दो फेज हैं, एक ही चीज के प्रकट होने के दो ढंग हैं। बीज और वृक्ष दो चीजें नहीं हैं। जन्म और मृत्यु दो चीजें नहीं हैं। एक ही चीज के होने के दो ढंग हैं, या हो सकता है कि हम पूरी तरह देख नहीं पाते इसलिए हम दो में तोड़ कर देखते हैं। दृष्टि हमारे पास छोटी है। जैसे समझ लें कि एक बड़ा कमरा हो, एक बड़ा भवन हो, एक छोटा सा छेद हो, और उस छेद में मैं आंख गड़ाए देखता हूं। पूरा कमरा दिखाई नहीं पड़ता। छेद से पहले मुझे एक कुर्सी दिखाई पड़ती है। फिर मैं आंख को घुमाता हूं, फिर मुझे दूसरी कुर्सी दिखाई पड़ती है। फिर मैं आंख को और घुमाता हूं, मुझे तीसरी कुर्सी दिखाई पड़ती है। मैं पूछ सकता हूं कि इन तीन कुर्सियों में पहले कौन है? लेकिन कमरे में, कमरे के भीतर जाकर मैं क्या कहूंगा? कौन पहले है, सब साइमलटेनियस हैं। वे तीनों कुर्सियां एक साथ हैं। लेकिन जिस छेद से मैंने देखा था वहां पहले एक कुर्सी दिखाई पड़ी, फिर दूसरी कुर्सी दिखाई पड़ी, फिर तीसरी कुर्सी दिखाई पड़ी। पहले कौन था? कमरे के भीतर जाकर मैं पूछूंगा कि पहले कौन है? मैं कहूंगा, तीनों कुर्सियां साथ हैं। एक लेबोरेट्री है आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में, जिसने अभी इस सदी की श्रेष्ठतम खोजें की हैं। मैं मानता हूं कि भविष्य के लिए सबसे बड़ा काम उस प्रयोगशाला में हो रहा है। उस प्रयोगशाला का नाम है, डिलाबार लेबोरेट्री। एक बड़ी चमत्कारपूर्ण घटना जो घटी है, वह यह है कि एक कली का फोटोग्राफ लेते वक्त कली का फोटो नहीं आया, फूल का फोटो आ गया। बहुत सेंसिटिव फिल्म से, अब तक जो सबसे ज्यादा संवेदन
शील फिल्म बन सकी है, उस फिल्म के सामने कली रखने से गुलाब की - - थी तो कली, फोटो आ गया गुलाब के फूल का। बड़ी कठिनाई हो गई। क्योंकि अभी कली फूल हुई नहीं है, होगी। तो अब बड़ी मुश्किल की बात हो गई। जो कली अभी फूल हुई नहीं है, उसका फोटो कैसे आ गया? या तो किसी बहुत रहस्यपूर्ण जगत में वह फूल अभी भी हो, चूंकि यह सिर्फ हमें दिखाई नहीं पड़ रहा है और कैमरा उसे देख पाया जो हम नहीं देख पाए। शायद कैमरा कमरे के भीतर जाकर देख पाया, जहां कली और फूल साइमलटेनियस हैं। हमारी आंख कमरे के बाहर से देखती थी जहां पहले कली है, फिर फूल है। लेकिन शायद कोई भूल हो गई हो । शायद इस कैमरे की फिल्म पहले ही एक्सपोज हो गई हो। हजार बातें हैं, किसी फूल का फोटो पहले आ गया हो, कुछ भूल-चूक हो गई हो। कुछ केमिकल गड़बड़ हो गई हो। तो प्रतीक्षा करनी पड़ी कि जब तक वह कली फूल न बन जाए। फिर वह कली फूल बन गई। और तब बहुत मुश्किल हो गई! क्योंकि जो वह फूल बनी, उसका फोटो ही पहले पकड़ा गया था। वह फोटो कोई केमिकल भूल न थी, वह इसी फूल का फोटो है। डिलाबार लेबोरेट्री के छोटे से कमरे में घटी यह घटना बड़ी मुश्किल में डाल देती है। इसका मतलब यह हुआ कि हमारे देखने के ढंग की वजह से एक दफा हमें अंडा दिखाई पड़ता है, फिर एक दफे मुर्गी दिखाई पड़ती है। लेकिन अगर कृष्ण जैसी आंख हो देखने की हमारे पास, तो मुर्गी और अंडा क्या एक साथ नहीं दिखाई पड़ सकते? हमें बड़ी मुश्किल पड़ेगी। क्योंकि यह तर्क के बाहर का मामला हो गया। लेकिन विज्ञान बहुत से तर्क के बाहर के मामलों को पिछले पच्चीस सालों में स्वीकार कर रहा है। एक और आपको उदाहरण दूं, उससे ख्याल आ सके। ताकि ऐसा न लगे कि मैं कोई अवैज्ञानिक बात कह रहा हूं। आज से पचास साल पहले तक कभी कोई सोच भी नहीं सकता था, लेकिन इधर पचास वर्षों में बड़ी मुश्किल पड़ी। जैसे ही हम अणु का विस्फोट किए और इलेक्ट्रांस की खोज किए, वैसे ही एक बड़ी कठिनाई आई जो मनुष्य-जाति के सामने पहली दफे आई। और वह यह थी कि इलेक्ट्रान को हम क्या कहें? क्योंकि कभी इलेक्ट्रान का फोटो ऐसा आता है जैसे इलेक्ट्रान वेव है, लहर है; और कभी ऐसा आता है जैसे पार्टिकल है, कण है। और कभी एक ही साथ दो कैमरे फोटो लेते हैं, तो एक कैमरे में फोटो आता है वेव का और दूसरे कैमरे में फोटो आता है कण का। अब कण और लहर में बड़ा फर्क है। इसको क्या कहें? इसको लहर कहें? अगर लहर कहते हैं तो यह कण नहीं हो सकता। अगर कण कहते हैं तो यह लहर नहीं हो सकता। इसलिए अंग्रेजी में एक नया शब्द ईजाद हुआ जो अभी दुनिया की दूसरी भाषा में नहीं हुआ, क्योंकि दुनिया की दूसरी भाषाएं उस गहराई पर नहीं पहुंची हैं, वह है-- क्वांटा। एक नया शब्द बनाना पड़ा। क्वांटा का मतलब है, बोथ साइमलटेनियसली--वेव एंड पार्टिकल । मगर क्वांटा बड़ा मिस्टीरियस मामला है। क्वांटा का मतलब होता है, दोनों एक साथ--लहर भी और कण भी। हां, मुर्गी भी और अंडा भी --क्वांटा। तो सार्त्र से मैं राजी नहीं हूं, न सार्त्र के
विरोधियों से राजी हूं। जो कहते हैं कि अस्तित्व पहले, फिर आत्मा; जो कहते हैं कि आत्मा पहले, फिर अस्तित्व; उनमें से किसी से मैं राजी नहीं हूं। मेरा मानना है, अस्तित्व और आत्मा एक ही सत्य को देखने के दो ढंग हैं। हमारी कमजोर नजर की वजह से हम दो में तोड़ कर देखते हैं। अस्तित्व ही आत्मा है। इसेंस इ.ज एक्झिस्टेंस, एक्झिस्टेंस इ.ज इसेंस। अस्तित्व आत्मा है, आत्मा अस्तित्व है। ये दो चीजें नहीं हैं। इसलिए जब हम कहते हैं कि आत्मा का अस्तित्व है, तो हम गलत भाषा का उपयोग करते हैं । जब हम कहते हैं, परमात्मा का अस्तित्व है, तब भी हम गलत भाषा का उपयोग करते हैं। क्योंकि परमात्मा का अस्तित्व है, इसका मतलब यह हुआ कि परमात्मा कुछ है और उसका अस्तित्व है। नहीं, अगर हम ठीक से समझें तो हम कहेंगे, परमात्मा अस्तित्व है। परमात्मा का अस्तित्व है, गलत है। फूल का अस्तित्व है, क्योंकि कल फूल का अस्तित्व नहीं भी हो जाएगा। लेकिन परमात्मा का अस्तित्व कब नहीं होगा? जो कभी अनस्तित्व में नहीं जा सकता, उसका अस्तित्व नहीं कहा जा सकता। हम कह सकते हैं कि मेरा अस्तित्व है। क्योंकि कल मेरा अस्तित्व नहीं होगा। लेकिन परमात्मा का अस्तित्व है, ऐसा नहीं कह सकते। क्योंकि ऐसा कभी भी नहीं होगा जब उसका अस्तित्व न हो। इसलिए परमात्मा का अस्तित्व है, यह भाषा की भूल है। गॉड एक्झिस्ट्स, यह गलत बात है। परमात्मा अस्तित्व है, गॉड इ. ज एक्झिस्टेंस, यही ठीक है। लेकिन भाषा हमेशा दिक्कत में डालती है। क्योंकि जब हम कहते हैं, गॉड इ.ज एक्झिस्टेंस, परमात्मा का अस्तित्व है, तो वह " है" शब्द भी बहुत झंझट का है। क्योंकि परमात्मा इस तरफ, अस्तित्व उस तरफ, और इससे, "है" से रिलेटेड। इधर परमात्मा, उधर अस्तित्व, और "है" से जुड़ा हुआ । इसलिए फिर इसमें
एक शब्द और गिराना पड़ेगा। गॉड इ.ज एक्झिस्टेंस, ऐसा न कह कर, कहना पड़ेगा, गॉड मीन्स इ.जनेस। जुड़ा नहीं, अर्थ करना पड़ेगा। परमात्मा का अर्थ है, होना। परमात्मा का अर्थ है, अस्तित्व । है शब्द भी पुनरुक्ति है। इतना भी हम कहें कि ईश्वर है, तो पुनरुक्ति है। क्योंकि "है" का मतलब भी ईश्वर होता है, और ईश्वर का अर्थ भी " है " होता है। जो है, उसका नाम ईश्वर है। इसलिए कठिनाई है बड़ी भाषा की। और जैसे ही उसमें भीतर प्रवेश करते हैं... इसलिए जो जानता है वह कहता है, छोड़ो झंझट, चुप रह जाओ। कौन कहे कि ईश्वर है? जो कहे वह अलग हो जाए! किसको कहो कि ईश्वर है? जिसको कहो, वह ऑब्जेक्ट बन जाए ! तो चुप ही रह जाओ। एक झेन फकीर के पास कोई गया और उससे पूछता है, ईश्वर के संबंध में कुछ कहो। तो वह हंसता है, डोलता है। फिर वह पूछता है, कुछ कहो भी, हंसने- डोलने से क्या होगा? तो वह और जोर से नाचता है। वह कहता है, क्या पागल तो नहीं हो? हम कहते हैं कि कुछ कहो! तो वह फकीर कहता है, मैं कहता हूं, लेकिन तुम सुनते नहीं। तो उस आदमी ने कहा कि गजब की बातें कर रहे हैं! खुद पागल हो, मुझको भी पागल बनाते हो! एक शब्द तुम बोले नहीं। तो उस फकीर ने कहा, अगर मैं बोलूंगा तो गलती हो जाएगी। अगर नहीं बोलने से नहीं समझ सकते हो तो जाओ, वहां समझो जहां बोल कर समझाया जा रहा है। लेकिन बोल कर समझाने से परम तत्व में गलती हो ही जाएगी। इसलिए हम बोल सकते हैं आखिरी क्षण तक, लेकिन बिल्कुल आखिरी क्षण पर बोलना रुक जाएगा। उसके बाद चुप रह जाना पड़ेगा। विट्गिंस्टीन ने अपने सारे जीवन के बाद एक छोटा सा वाक्य लिखा है। और वह वाक्य बहुत अदभुत है। उसने लिखा है, दैट व्हिच कैन नॉट बी सेड, मस्ट नॉट बी सेड। जो नहीं कहा जा सकता, उसे कहना ही नहीं चाहिए। लेकिन, इतना तो कहना ही पड़ता है। अब विट्गिंस्टीन मर गया, नहीं तो उससे मैं कहता, इतना तो कहना ही पड़ता है कि जो नहीं कहा जा सकता उसे नहीं कहना चाहिए। और इससे क्या फर्क पड़ता है कि कितना कहते हैं! कुछ तो कहना ही पड़ता है। ट्रैक्टेटस में उसने कहा है कि लैंग्वेज में ही सब कुछ कहा जाएगा जो कुछ कहा जाएगा। हां, उसने पहली किताब में कहा है। पहली किताब में, ट्रैक्टेटस में उसने यह बात कही है कि जो भी कहा जाएगा वह भाषा में ही कहा जाएगा। यह थोड़ी दूर तक ठीक है। क्योंकि अगर गेस्चर को भी हम कहना समझें, तो वह भी एक भाषा है। एक गूंगा हाथ उठा कर कह देता है-- पानी पीना है। वह भी भाषा है, गूंगे की भाषा है। इसलिए हम तो कहते ही रहे हैं कि परमात्मा जो है वह गूंगे का गुड़ है। लेकिन उसका मतलब यही है कि गूंगे की भाषा में कहना पड़ेगा। लेकिन कहेंगे जो भी हम किसी भी ढंग से --नाच कर कहें, मौन रह कर कहें, तो भी हम कह रहे हैं--और इसलिए जो है, वह हमारे सब कहने के पार छूट जाएगा। इसलिए लाओत्से ने विट्गिंस्टीन से बहुत गहरी बात कही है। लाओत्से ने कहा, सत्य कहा कि असत्य हो जाता है, बस इतना ही कहा जा सकता है। इसलिए जो जानते हैं वे चुप
रह जाते हैं। आप बहुधा कहते हैं कि "मैं" जब पूर्ण होता है तब वह सर्व अर्थात "ना-मैं" हो जाता है। उपर्युक्त कथन का अभी आप खंडन कर रहे हैं। इसमें लगता है कि केवल शब्दों की इम्फेसिस भर बदल रहे हैं आप। पूर्ण "मैं" और "ना-मैं" क्या एक नहीं हैं ? कोई अंतर नहीं है। क्योंकि पूर्ण मैं का मतलब ही इतना होता है कि तू नहीं बचा अब बाहर, सब तू मैं में समा गए। और जब सब तू मैं में समा जाएंगे तो इसको मैं कहने का कोई अर्थ नहीं रह जाता। इससे उलटा भी कह सकते हैं कि हमारा मैं तू में समा गया। लेकिन जब मेरा मैं तू में समा गया, तो तू को तू कहने का कोई अर्थ नहीं रह जाता। इसलिए चाहे मैं पूर्ण कहें हम, चाहे मैं शून्य कहें हम, ये दोनों एक ही बात को कहने के दो ढंग हैं। मैं पूर्ण हो जाए तो शून्य हो जाता है, मैं शून्य हो जाए तो पूर्ण हो जाता है। कहां से हम कहते हैं, इससे बहुत मैं फर्क नहीं पड़ता। परम सत्य को अगर हम हां कहें तो भी ठीक है, न कहें तो भी ठीक है। क्योंकि परम सत्य के संबंध में हां के भीतर न सम्मिलित होगी और न के भीतर हां सम्मिलित होगा। इसलिए परम सत्य के संबंध में हम कुछ न भी कहें तो भी ठीक है, और बहुत कुछ कहें, कहते रहें अनंत काल तक, तो भी पूरा नहीं होता। और चुप रह जाएं और कुछ न कहें, तो भी पूरा हो जाता है। सत्य को, जो है, उसे जब भी हम किसी दृष्टि से देखते हैं तब कठिनाई में पड़ते हैं। और हम सब दृष्टि से देखते हैं। हम कहीं खड़े होकर देखते हैं। कोई जगह से देखते हैं। कोई धारणा से देखते हैं। कोई भाव से देखते हैं। कोई विचार से देखते हैं। कहीं न कहीं कोई कंसेप्शन है हमारा, उससे खड़े होकर हम देखते हैं। जब तक हमारी कोई धारणा है, कोई दृष्टि है, तब तक जिस सत्य को हम देखेंगे वह अपूर्ण होगा, अधूरा होगा, खंड ह
ोगा, अंश होगा। इतना भी हम जानें कि वह अंश है, खंड है, तो भी ठीक है। लेकिन हर दृष्टि घोषणा करती है कि मैं पूर्ण हूं। और जब दृष्टि घोषणा करती है कि मैं पूर्ण हूं, और जब दृष्टि कहती है कि मैं दर्शन हूं, तब बड़ी भ्रांति खड़ी हो जाती है। दृष्टि इतना ही कहे कि मैं दृष्टि हूं, तब कोई खतरा नहीं है। दर्शन तो उसी दिन उपलब्ध होगा जिस दिन कोई दृष्टि न होगी। आप किसी दृष्टि से न देख रहे होंगे, आप किसी जगह से न देख रहे होंगे, आप सब जगह से देख रहे होंगे, एक साथ सब जगह हो गए होंगे, उस दिन दर्शन उपलब्ध होगा। उस दर्शन को कहने के दो ढंग हो सकते हैं। दो ही ढंग हमारे पास हैं-- निषेध के या विधेय के। या तो हम निषेध का उपयोग करें, जैसा बुद्ध ने उपयोग किया और कहा कि निर्वाण है, शून्य है; या जैसा शंकर ने उपयोग किया और कहा कि ब्रह्म है, पूर्ण है। और मजा यह है कि शंकर और बुद्ध दोनों विपरीत मालूम पड़ते हैं और दोनों बिल्कुल एक बात कहे चले जाते हैं। दोनों एक ही बात कहते हैं, सिर्फ उनकी भाषा का मोह भिन्न है। शंकर विधायक शब्द को पसंद करते हैं, वह कहते हैं, ब्रह्म है। बुद्ध नकारात्मक शब्द को पसंद करते हैं, वह कहते हैं, शून्य है। अगर मुझसे पूछें कि मैं क्या कहूं, तो मैं कहूंगा कि शून्य का एक नाम ब्रह्म है और ब्रह्म का एक नाम शून्य है। और जहां बुद्ध और शंकर दोनों मिल जाते हैं, वहां भाषा खत्म हो जाती है। वहां से असली बात शुरू होती है। आपने यह तो स्वीकारा कि पूर्ण "मैं" और "ना- मैं" में कोई फर्क नहीं है, लेकिन इसके पहले आप अपनी चर्चा में यह कह चुके हैं कि साधना पूर्ण मैं की दिशा में ले जाती है और उपासना "ना-मैं" की दिशा में ले जाती है। और आपने साधना और उपासना में बहुत फर्क किया। लेकिन बाद में आप दोनों को एक मान रहे हैं। नहीं, मैंने यह नहीं कहा कि साधना पूर्ण मैं की दिशा में ले जाती है। मैंने कहा, साधना मैं की दिशा में ले जाती है। अगर साधना पूर्ण मैं की दिशा में ले जाए, तो फिर उपासना में कोई फर्क नहीं है। लेकिन साधना नहीं ले जा पाती। और इसलिए साधक को एक दिन मैं को भी खोना पड़ता है। वह मैं की ही दिशा में ले जाती है। क्योंकि पूर्ण मैं तभी हो सकता है जब मैं खो जाए । इसलिए साधक को एक छलांग और लगानी पड़ेगी अंत में । एक साधना करके वह मैं को पाएगा, आत्मा को पाएगा; उसे अंत में आत्मा को भी खोने की छलांग लगानी पड़ेगी। और अगर वह नहीं लगाता, तो वह एक कदम पहले रुका रह जाएगा। उपासक जो छलांग पहले ही दिन लगा लेता है, वह साधक को अंतिम दिन लगानी पड़ेगी--वह मैंने पीछे बात की है। साधक, साधना, प्रयास एक जगह ले जाएंगे जहां मैं बच जाऊंगा और सब खो जाएगा। अब इस मैं को भी खोना पड़ेगा। उपासक पहले ही क्षण से मैं को खोने की बात करता है। इसलिए अंत में उसके पास खोने को कुछ नहीं बचता। खोने को ही नहीं तो जो काम साधक को अंत में करना पड़ता है वह उपासक को प्रथम करना पड़ता है। और मेरी अपनी समझ यह है कि जो काम अंत में करना ही हो, उस
े प्रथम ही कर लेना उचित है। इतनी देर तक इस झंझट को ढोना उचित नहीं है। जिस बोझ को फेंक ही देना हो, और पहाड़ के अंतिम शिखर पर जहां जाकर सब बोझ छोड़ देना हो, इसको इतनी पहाड़ी तक कंधे पर ढोने का भी कोई प्रयोजन नहीं है। उपासक यह कहता है कि तुम पहाड़ के नीचे ही कंधे का बोझ रख दो, क्योंकि आखिरी शिखर पर पहुंचने के पहले यह बोझ छोड़ना पड़ेगा। उस ऊंचाई पर यह बोझ नहीं ले जाया जा सकता। लेकिन हम कहते हैं कि नहीं, जब तक ले जाया जा सकता है तब तक हम ले चलें, जब आएगा मौका तब देख लेंगे। तो हम पूरा पहाड़ बोझ ढोते हैं। आखिरी शिखर के पहले तो छोड़ना पड़ता है। उपासक नीचे ही छोड़ आता है, वह इतने ढोने से बच जाता है। इतना फर्क है। आखिरी शिखर पर फर्क नहीं रह जाएगा। लेकिन, जब आखिरी शिखर पर इतनी दूर तक खींचा गया बोझ छोड़ने का क्षण आएगा, तब उपासक मजे से बढ़ता रहेगा और साधक अड़चन में पड़ेगा। क्योंकि जिसे इतनी दूर तक खींचा, उसके साथ राग और मोह तो बन ही जाता है। और मन करेगा कि इतना पहाड़ चढ़ कर आए, इतनी दूर तक खींचा, अब अंत में छोड़ें! हां, रोएगा कि इसको अगर ले जा सकें तो अच्छा है। या सोचेगा कि यहीं टिक जाएं, थोड़ी दूर न भी गए तो क्या हर्ज है! अपने बोझ के साथ ही रुक जाएं। यह समस्या उसके सामने खड़ी होगी। यह उपासक के सामने पहले दिन ही खड़ी होगी, नीचे ही पहाड़ के। उसकी भी कठिनाई तो है। कठिनाई यह है कि साधक बोझ को ले जाता दिखाई पड़ेगा, और उसको लगेगा कि कुछ लोग तो लिए चले जा रहे हैं और मुझे यहीं छोड़ना पड़ रहा है। कहीं ऐसा न हो कि ये शिखर पर साथ लिए पहुंच जाएं और मैं गरीब यहीं छोड़ जाऊं! और आखिर में पता चले कि ये तो पहुंच गए बोझ के साथ और मैं खाली हाथ पहुंच गया। इसलिए साधक की कठिनाई अंत में है, उपासक की कठिनाई प्र
थम है। अब नहीं कहा जा सकता, टाइप हैं दुनिया में। किसी को अच्छा लग सकता है एक, किसी को अच्छा लग सकता है दूसरा । लेकिन कृष्ण को समझते वक्त मैं आपसे कहना चाहता हूं कि कृष्ण का जगत उपासक का है। आप जो सात-आठ साल से धर्मचक्र प्रवर्तन कर रहे हैं, उसका केंद्रीय तत्व ध्यान और साधना ही है। तो कृपया बताएं कि ध्यान और उपासना में क्या फर्क है और आपके धर्मचक्र प्रवर्तन का केंद्रीय सूत्र ध्यान और साधना है कि उपासना है? मेरे लिए कोई फर्क नहीं है। मेरे लिए कोई भी फर्क नहीं है। मेरे लिए शब्दों से कोई भी फर्क नहीं पड़ता। सत्य का सवाल है। मैं ध्यान में भी उसी सत्य को कहता हूं, उसी सत्य को प्रार्थना में भी कह देता हूं; उसी सत्य को साधना में भी कहता हूं, उसी सत्य को उपासना में भी कह देता हूं। मेरे लिए फर्क नहीं पड़ता। लेकिन कृष्ण के संदर्भ में आप पूछते हैं, तब फर्क है। महावीर के संदर्भ में पूछेंगे, तो फर्क है। महावीर के लिए योग्य शब्द उपासना नहीं है। महावीर उपासना शब्द के लिए राजी नहीं होंगे। महावीर साधना के लिए राजी होंगे, बुद्ध साधना के लिए राजी होंगे। एम्फेटिकली उनका जोर साधना पर होगा। क्राइस्ट उपासना के लिए राजी होंगे, कृष्ण उपासना के लिए राजी होंगे, मोहम्मद उपासना के लिए राजी होंगे। उनका एम्फेटिक शब्द उपासना होगा। मेरे लिए कोई झंझट नहीं है। मेरे लिए कोई कठिनाई नहीं है। इसलिए बहुत बार ऐसा लगेगा कि कल मैंने जो कहा, आज उससे उलटा कह रहा हूं। मैं बिल्कुल मजे से कह सकता हूं। मुझे कोई अंतर नहीं पड़ता। अभी कृष्ण पर बोल रहा हूं, इसलिए उपासना की बात कर रहा हूं; पिछले वर्ष महावीर पर बोल रहा था, इसलिए साधना की बात कर रहा था। अगले वर्ष क्राइस्ट पर बोलूंगा तो कुछ और बात करूंगा। मेरे लिए चूंकि जैसा सत्य दिखाई पड़ता है, उस सत्य के दिखाई पड़ने में अब मेरे लिए कोई फर्क नहीं रह गया है कि कौन के लिए क्या फर्क है। लेकिन जब आप कृष्ण को समझने जाते हैं, तब मैं कृष्ण पर साधना शब्द रखूं, तो कृष्ण के साथ अन्याय होगा। वह कृष्ण का शब्द नहीं है। जैसे महावीर के ऊपर मैं नाचने को थोप दूं... मेरे लिए कोई फर्क नहीं है; महावीर शांत खड़े हैं एक पहाड़ की कंदरा में, वे जिस आनंद में हैं उस आनंद में, और कृष्ण एक वृक्ष के नीचे बांसुरी बजा रहे हैं, उस आनंद में, मेरे लिए कोई फर्क नहीं है। लेकिन अगर कोई कहे कि महावीर और कृष्ण के लिए फर्क नहीं है, तो मैं राजी नहीं होऊंगा। महावीर नाचने को राजी न होंगे। कृष्ण महावीर की तरह आंख बंद करके वृक्ष के नीचे नग्न खड़े होने को राजी न होंगे। मेरे लिए दिक्कत नहीं है, मेरे लिए कठिनाई नहीं है। इसलिए जब आप महावीर को समझने की मुझसे बात करेंगे, तो मैं न कह सकूंगा कि महावीर नाचते हैं। यह मैं कैसे कह सकूंगा? यह महावीर के साथ अन्याय हो जाएगा। आप कृष्ण को समझ रहे हैं तो मैं न कह सकूंगा कि कृष्ण आंख बंद करके और वृक्ष के नीचे ध्यान करते हैं। यह मैं न कह सकूंगा। वृक्ष के नीचे कृष्ण ने सदा नाच
किया है, ध्यान कभी नहीं किया। कृष्ण ने कभी ध्यान ही किया है, इसकी भी कोई खबर नहीं है। महावीर कभी नाचे हैं, साधना के पहले भी, वह भी नहीं है संभव। तो जब मैं कृष्ण की बात कर रहा हूं, इसलिए उपासना शब्द पर जोर दे रहा हूं। मेरे लिए अंतर नहीं है । मेरे लिए कोई अंतर नहीं है, मेरे लिए तो साधना भी एक टाइप के लोगों के लिए जरूरी है, उपासना भी एक टाइप के लोगों के लिए जरूरी है। और मैं दोनों में सत्य को देखता हूं और दोनों का सत्य मैंने आपसे कहा कि दोनों की अड़चन है, दोनों की सुविधा है। लेकिन फिर भी दोनों को ठीक से साफ-साफ समझ लेना आपके लिए उपयोगी है। मेरे लिए जरा भी उपयोगी नहीं है दोनों में फासला करना। आपके लिए तो निर्णय करना पड़ेगा कि आप साधक की यात्रा पर जाते हैं कि उपासक की यात्रा पर जाते हैं। मेरे लिए कोई यात्रा नहीं है, मुझे किसी यात्रा पर जाना नहीं है। मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि मुझे कोई उपासक समझे कि साधक समझे, कि दोनों न समझे, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता है। आपके लिए मैं दोनों चीजों को साफ-साफ अलग-अलग कर देना चाहता हूं, क्योंकि आपके लिए तो निर्णय लेना होगा। आपको तो तय करना होगा कि आप किस ढंग के आदमी हैं। आपके लिए क्या निकट होगा। आप उपासना के निकट से पहुंच पाएंगे कि साधना के निकट से पहुंच पाएंगे। जिन्हें पहुंचना है उन्हें तय करना पड़ेगा, जिन्हें जाना है उन्हें तय करना पड़ेगा। जो जहां खड़े हैं वहीं पहुंचे हुए समझ रहे हैं, उनके लिए कोई सवाल नहीं है। अगर किसी दिन आपको यह समझ में आ जाए कि न कहीं जाना है, न कहीं पहुंचना है, तब न उपासना शब्द सार्थक है, न साधना शब्द सार्थक है। तब आप दोनों पर हंस सकते हैं और कहते हैं कि दोनों तरह की बातें पागलपन की होंगी, क्योंकि हम तो वहीं खड़े हैं जह
ां हैं। जहां पहुंचना है वहां तो हम हैं ही। एक झेन फकीर एक गुफा के बाहर सोया रहता है। और जिस गुफा के बाहर वह सोता है वह तीर्थयात्रियों का मार्ग है, जहां से पहाड़ पर तीर्थयात्री जाते हैं। जो भी वहां से गुजरता है, उस फकीर को सोया देख कर कहता है कि अरे, तुम यहां क्यों पड़े हो? तीर्थयात्रा पर नहीं चलना है? तो वह फकीर कहता है, तुम जहां जा रहे हो, हम वहां पहुंच गए हैं। फिर लौटता हुआ कोई उससे पूछता है कि अरे, तुम यहीं पड़े हुए हो! ऊपर तक नहीं गए? तो वह कहता है, तुम जहां से आ रहे हो, हम वहीं रहते हैं। और वह वहीं पड़ा रहता है। वह न कभी तीर्थ करने गया, न कभी जाएगा। और यात्री अपना सिर ठोंक कर आगे बढ़ जाते हैं कि पागल है! लेकिन वह कहता है कि तुम जहां जा रहे हो, हम वहां हैं ही। तुम जहां से आ रहे हो, हम वहां सदा से हैं। ऐसे आदमी को न साधना का अर्थ है, न उपासना का अर्थ है। तो मैं कभी साधना की बात करता हूं, कभी उपासना की, कभी दोनों के पागलपन की भी बात करूंगा। लेकिन अगर आप ठीक-ठीक समझेंगे, तो विरोधाभास दिखाई नहीं पड़ेगा, विरोधाभास है नहीं। एक जगह और विरोधाभास लग गया। आपने कहा है कि कृष्ण जन्म से ही सिद्ध हैं और महावीर साधक हैं। जब कि कश्मीर के शिविर में आपने महावीर के बारे में कहा है कि उन्होंने पिछले जन्मों में ही अपनी सारी साधना पूरी कर ली थी। इस जन्म में उन्हें कुछ भी साधना नहीं करनी थी, केवल अभिव्यक्ति करनी थी। तो महावीर भी जन्म से सिद्ध हुए और कृष्ण जैसे हुए। नहीं, ऐसा मैंने नहीं कहा। मैंने इतना ही कहा है कि महावीर जो भी हुए हैं, वह होकर हुए हैं। चाहे वह पिछले जन्म में साधना की हो, या उसके पिछले जन्म में साधना की हो, इससे कुछ लेना-देना नहीं है। वह जो भी हुए हैं, साधना से हुए हैं। उनकी सिद्धावस्था के पहले साधना की यात्रा है। कृष्ण किसी जन्म में कभी भी साधना नहीं किए। सीधे पूर्ण हो गए? हमें कठिनाई लगती है। हमें कठिनाई लगती है कि सीधे पूर्ण हो गए? हमें लगता है कि आड़े-तिरछे चल कर ही पूर्ण हो सकते हैं। हमें लगता है... वह वही फकीर का सवाल, वह फकीर यही तो कह रहा है। उससे आनेजाने वाले लोग कहें कि अच्छा, तुम यहीं पड़े-पड़े पहुंच गए? हम तीर्थ तक चढ़ कर पहुंचे, तुम यहीं पड़े पहुंच गए? ऐसा हो नहीं सकता! लेकिन वह फकीर यह कहता है कि अगर तुम यहीं पड़े-पड़े नहीं पहुंच सकते, तो ऊपर चढ़ कर भी कैसे पहुंच जाओगे? जहां पहुंचना है, वह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसके लिए यात्रा जरूरी हो। लेकिन टाइप हैं कुछ, जो बिना यात्रा किए नहीं पहुंच सकते। जिन्हें अपने घर भी आना हो तो दस-पांच दूसरों के घर के दरवाजे खटखटाए बिना नहीं आ सकते। अपने घर का भी जिन्हें पता लगाना हो, तो दूसरे से पूछ कर ही आ सकते हैं। यह टाइप का फर्क है। महावीर और कृष्ण के टाइप का फर्क है। महावीर बिना साधना किए पहुंचेंगे ही नहीं। असल में महावीर राजी भी न होंगे। यह भी समझ लेना चाहिए। अगर महावीर को कोई कहे कि बिना साधना के यह रखा-रखाया मिल
ता है, तो महावीर कहेंगे, क्षमा करें, ऐसा हम न लेंगे; क्योंकि जिसको अर्जित नहीं किया, उसको ले लेना चोरी है। महावीर कहेंगे कि जिसको अर्जित नहीं किया, जिसके लिए साधा नहीं, उपाय नहीं किया, उसे ले लेना चोरी है। हम न लेंगे। अगर महावीर को मोक्ष कोई दान में मिलता हो, ऐसा रास्ते के किनारे पड़ा हुआ मिलता हो, तो महावीर को जैसा मैं समझता हूं, वे उसे ठुकरा कर आगे चले जाएंगे, वे कहेंगे कि ऐसा हम न लेंगे। हम तो पाएंगे, अर्जित करेंगे, खोजेंगे। जिस दिन मिलेगा, उस दिन लेंगे। अधिकारी बनेंगे तो लेंगे। कृष्ण कहेंगे कि जिसको पाने-खोजने से मिलता हो, उसको पाकर भी क्या करेंगे! क्योंकि जो पाने से मिल सकता है, वह खो भी सकता है। हम तो उसी को पाएंगे जो पाने-वाने से नहीं मिलता, जो है ही। यह टाइप का फर्क है। ये व्यक्तित्व भेद हैं। इसमें ऊंचे-नीचे की बात नहीं कर रहा हूं। ये व्यक्तियों के भेद हैं। यह कृष्ण और महावीर दो तरह के बड़े गहरे व्यक्तित्वों का भेद है। महावीर के लिए वही सार्थक है जो मिलता है खोज से, उघाड़ा जाता है, श्रम से पाया जाता है। इसलिए महावीर का नाम ही श्रमण हो गया। और महावीर की पूरी परंपरा का नाम श्रमण-परंपरा हो गया। महावीर कहते हैं, जो भी मिलेगा वह श्रम से मिलेगा। श्रम के बिना पाया हुआ सब चोरी है। चाहे परमात्मा भी मिल जाए बिना श्रम के तो वह कुछ न कुछ जालसाजी है, कहीं न कहीं धोखाधड़ी है, कहीं न कहीं कोई छल-कपट है। लेकिन महावीर कहते हैं कि हमारा स्वाभिमान नहीं कहता कि बिना श्रम के हम कुछ पा लें। हम तो मेहनत करेंगे और जितना मिल जाएगा उतने के लिए राजी होंगे। इसलिए महावीर की भाषा में, महावीर के भाषाशास्त्र में प्रसाद और ग्रेस जैसा कोई शब्द नहीं है। प्रयास, श्रम, पुरुषार्थ, साधना, संघर्ष, ऐसे शब्द
हैं। होंगे ही। इसलिए महावीर की पूरी परंपरा श्रमण परंपरा है। हिंदुस्तान में दो परंपराएं हैं--श्रमण और ब्राह्मण ब्राह्मण-परंपरा का अर्थ है, जो मानते हैं कि ब्रह्म हम हैं ही, होना नहीं है। श्रमण-परंपरा का अर्थ है कि ब्रह्म हमें होना है, हम हैं नहीं। और दो तरह के ही लोग हैं। और मैं मानता हूं कि ब्राह्मण तरह के लोग बड़े न्यून हैं। ब्राह्मण भी नहीं हैं। जिनको हम ब्राह्मण समझते हैं, वे भी ब्राह्मण नहीं हैं। क्योंकि इस बात के लिए हिम्मत जुटाना कि हम बिना पाए पा लेंगे, हम बिना अधिकारी बने अधिकारी हैं, हम बिना गए पहुंचे हैं, बड़ा मुश्किल है! साधारण मन कहता है, पाना ही होगा, श्रम करना ही होगा, कुछ किए बिना कैसे मिलेगा ! हमारा सब गणित कहता है, साधन के बिना साध्य नहीं; श्रम के बिना उपलब्धि नहीं; प्रयास के बिना पहुंचना कैसा? इसलिए ब्राह्मण तो कभी-कभी दो-चार - दस सदियों में एकाध आदमी होता है। बाकी सब श्रमण हैं, चाहे वे अपने को जैन और श्रमण मानते हों कि न मानते हों। इसलिए बुद्ध और महावीर के बड़े भेद होते हुए भी दोनों की परंपरा को श्रमण नाम मिल गया--दोनों की परंपरा को। क्योंकि बुद्ध का भी आग्रह - बिना पाए नहीं मिलेगा, खोजना पड़ेगा। कृष्ण ब्राह्मण हैं। वे कहते हैं, ब्रह्म हम हैं ही। और मैं किसी एक को गलत और दूसरे को सही नहीं कह रहा हूं, यह ध्यान में रखना। क्योंकि मुझे दोनों ही ठीक दिखाई पड़ते हैं। उसमें कुछ बहुत कठिनाई नहीं है। ये दो तरह के सोचने के ढंग, दो तरह के व्यक्तित्व, दो तरह के चित्त, उनकी यात्राएं हैं। एक अंतिम बात पूछूं, कृष्ण अपने पिछले जन्मों में कभी न कभी तो अपूर्ण और अज्ञानी रहे ही होंगे! अपूर्ण और अज्ञानी तो महावीर भी किसी जन्म में नहीं रहे हैं। सिर्फ पता उनको इस जन्म में चला है। और कृष्ण को सदा से पता है। अपूर्ण और अज्ञानी तो आप भी नहीं हो। अपूर्ण और अज्ञानी तो कोई भी नहीं है। बस पता चलने की देर है। जो फर्क है, वह अपूर्ण होने का नहीं है, वह बोध का है। यहां सब आदमी सोए हुए हैं, सूरज निकला हुआ है, एक आदमी जागा हुआ है। यह जो आदमी जागा हुआ है और ये जो आदमी सोए हुए हैं, इन दोनों के लिए सूरज निकला हुआ है। सूरज के निकलने में कोई फर्क नहीं है। एक आदमी जागा हुआ है, उसे पता है कि सूरज निकला है; बाकी सोए हैं, उन्हें पता नहीं है कि सूरज निकला है। जब वे जागेंगे, वे कहेंगे कि अरे, अब सूरज निकला! नहीं, उचित यही होगा कि वे कहें कि सूरज तो निकला था, हम अब जागे हैं। अपूर्ण, अज्ञानी न महावीर हैं, न कृष्ण हैं, न आप हो । लेकिन कृष्ण अपने को किसी भी तल पर कभी भी ऐसा नहीं जानते, इसलिए कोई चेष्टा नहीं करते। किसी तल पर महावीर चेष्टा करके जानते हैं कि अपूर्ण और अज्ञानी नहीं हैं, पूर्ण हैं और ज्ञानी हैं। जिस दिन वे जानते हैं, उस दिन यह भी जान लिया जाता है कि यह होना उनका सदा से था। सिर्फ पता अब चला। और क्या फर्क पड़ता है कि किसी को दो जन्म पहले चला और किसी को दो जन्म बाद चला! हमको बहु
त दिक्कत मालूम होती है। किसी को दस जन्म पहले चला और किसी को दस जन्म बाद चला, क्योंकि हम टाइम में जीते हैं। हमारा सारा सवाल यह है कि कौन पहले, कौन पीछे? लेकिन जगत में समय का न कोई प्रारंभ है, न कोई अंत है। इसमें आगे और पीछे का क्या मतलब है? आगे और पीछे का तभी तक मतलब है जब तक अंत और आदि को हम मानते हों। अगर समय का कोई प्रारंभ ही नहीं है, तो मुझसे दो दिन पहले जिसे ज्ञान मिला, उसे मुझसे पहले मिला? और अगर समय का कोई अंत ही नहीं है, तो मुझे दो दिन बाद मिला, मुझे उससे बाद में मिला? नहीं, ये बाद और पहले तभी सार्थक हो सकते हैं जब आगे-पीछे खंभे लगे हों कि वहां समय खत्म हो जाता है, वहां समय शुरू होता है। अगर कभी समय शुरू होता हो, तो उसको मुझसे दो दिन पहले मिल गया, उस खंभे से नाप की जा सकती है कि यह आदमी दो दिन पहले मुझसे पहुंचा। आगे के खंभे से नाप की जा सकती है कि मैं दो दिन बाद पहुंचा। लेकिन अगर पीछे कोई प्रारंभ न हो और आगे कोई अंत न हो, तो कौन पहले पहुंचा और कौन पीछे पहुंचा? पहले और पीछे पहुंचने की धारणाएं हमारी समय की धारणाएं हैं। और जो भी पहुंचते हैं, वे समयातीत, कालातीत, बियांड टाइम पहुंच जाते हैं। इसलिए एक मैं अजीब सी बात आपसे कहूं कि जिस क्षण महावीर पहुंचते हैं, उसी क्षण कृष्ण पहुंचते हैं। मगर यह बड़ा मुश्किल होगा। इसे थोड़ा समय को समझ कर फिर समझना पड़ेगा। जिस क्षण कोई भी पहुंचा है इस जगत में, उसी क्षण सब पहुंचते हैं। इसे ऐसा समझें थोड़ा सा। एक बड़ा वर्तुल हम बनाएं, एक सर्किल बनाएं। सर्किल के बीच में एक सेंटर हो। और सर्किल से, परिधि से हम कई रेखाएं सेंटर की तरफ खींचें। परिधि पर रेखाओं में फासला होगा, दो रेखाओं में दूरी होगी। फिर दोनों रेखाएं केंद्र की तरफ चलती हैं, तो दूरी कम हो
ती जाती है। फिर जब वे केंद्र पर पहुंचती हैं तो दूरी खत्म हो जाती है। परिधि पर दूरी होती है, केंद्र पर दूरी समाप्त हो जाती है। टाइम की जो सरकमफरेंस है, समय की जो परिधि है, उस पर महावीर एक दिन छलांग लगा कर केंद्र पर पहुंचते हैं। समय की परिधि पर कृष्ण और महावीर के बीच फासला है। मेरे और कृष्ण के बीच फासला है। आपके और मेरे बीच फासला है। लेकिन जिस दिन केंद्र पर पहुंचते हैं उस दिन कोई फासला नहीं रह जाता। समय के केंद्र पर सब फासले समाप्त हो जाते हैं। लेकिन यह जरा कठिन है। यह ख्याल में लेना कठिन है, क्योंकि हम परिधि पर जीते हैं और हमें सेंटर का कोई पता नहीं है । इसे ऐसा भी समझ लें । एक बैलगाड़ी का चाक चलता है। तो चाक चलता है, लेकिन कील खड़ी रहती है। और बड़े मजे की बात तो यह है कि खड़ी हुई कील पर ही चाक चलता है। चलता उसके आधार पर है जो नहीं चलती है। चाक कई मील चल जाएगा और चाक कहेगा कि दस मील की यात्रा की। और अगर कील से पूछेंगे कि कील, तूने कितनी यात्रा की? कील कहेगी, मैं वहीं हूं। लेकिन बड़े मजे की बात है, जिस कील पर चाक दस मील चल गया, वह कील जरा भी नहीं चली! तो चाक कैसे चला होगा, जब कील नहीं चली जरा भी? और कील तो यही कहेगी कि मैं वहीं हूं, मैं बिल्कुल चली ही नहीं। और चाक कहेगा, मैं दस मील चला। और कील और चाक एक ही साथ जुड़े हैं। तो चाक जो कील से जुड़ा है, दस मील चल गया, और कील जो चाक से जुड़ी है, बिल्कुल नहीं चली--ये दोनों बातें एक साथ कैसे हो सकती हैं? ये एक साथ हो जाती हैं। हम रोज गाड़ी में देखते हैं। ये इसलिए हो जाती हैं कि कील सेंटर पर है और चाक परिधि पर है। कील सेंटर पर है और चाक परिधि पर है। परिधि पर इतिहास है, समय है। और कील पर सत्य है, महावीर और कृष्ण एक ही क्षण वहां पहुंचते हैं। और जब वे वहां पहुंचते हैं तो ऐसा पता नहीं चलता कि कौन पहले पहुंचा और कौन पीछे पहुंचा। लेकिन जहां परिधि पर जीने वाले लोग हैं, चाक पर जीने वाले लोग हैं, वहां कोई कभी पहुंचता है, कोई कभी पहुंचता है, कोई कभी पहुंचता है, ये सब समय के फासले हैं। समय के फासले वहां नहीं हैं, क्योंकि समय के बाहर समय का कोई फासला नहीं है। इस पर कल और थोड़ी बात करेंगे, कुछ और पहलुओं से, तो ख्याल में आ सकता है। मेरी एक प्रार्थना है। वह यह है कि समय बहुत कम बचा है, इसलिए सायंकाल आप स्वतंत्र प्रवचन दें। गीता में जो कुछ भी आप हमारे लिए उपादेय और हितकर मानें, वह पांच भागों में बांटते हुए पांच प्रवचनों में हमें दें। और प्रातःकाल उन्हीं प्रवचनों पर प्रश्नोत्तर का अवसर रहे। नहीं, वह ठीक नहीं पड़ेगा। मुझे जो कहना है, वह मैं कह लूंगा। उसकी फिकर ही न करें। आप क्या पूछते हैं, इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता। मुझे क्या कहना है, मैं वही कहता हूं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तेरहवां प्रवचन अचिंत्य-धारा के प्रतीकबिंदु कृष्ण एक चर्चा में आपने कहा है कि श्रीकृष्ण की आत्मा का साक्षात्कार हो सकता है, क्योंकि कुछ मरता नहीं। तो कृष्ण-दर्शन
को संभावितता की हद में लाने के लिए कौन सी प्रोसेस से गुजरना पड़ेगा? और साथ ही यह भी बताएं कि कृष्ण-मूर्ति पर ध्यान, कृष्ण-नाम का जप और कृष्ण-नाम के संकीर्तन से क्या उपासना की पूर्णता की ओर जाया जा सकता है? विश्व अस्तित्व में कुछ भी एकदम मिट नहीं जाता है। और विश्व अस्तित्व में कुछ भी एकदम नया पैदा भी नहीं होता है। रूप बदलते हैं, आकृतियां बदलती हैं, आकार बदलते हैं, लेकिन अस्तित्व के गहनतम रहस्यों में जो है, वह सदा वैसा ही है। व्यक्ति आते हैं, खो जाते हैं, लहरें उठती हैं सागर पर, विलीन हो जाती हैं; लेकिन जो लहर में छिपा था, जो लहर में था, वह कभी विलीन नहीं होता। कृष्ण को हम दो तरह से देखेंगे तो समझ में आ जाएगा। और अपने को भी फिर हम दो तरह से देख पाएंगे। एक हमारा लहर-रूप है, एक हमारा सागर-रूप है। लहर की तरह हम व्यक्ति हैं, सागर की तरह हम ब्रह्म हैं। कृष्ण का जो चेहरा देखा गया, कृष्ण का जो शरीर देखा गया, कृष्ण की जो वाणी सुनी गई, कृष्ण के जो स्वर सुने गए, वे लहर-रूप हैं। लेकिन जो इन वाणियों, इन नृत्यों, इस व्यक्तित्व के पीछे जो खड़ा है, वह सागररूप है। वह सागर-रूप कभी भी नहीं खोता है। वह सदा अस्तित्व के प्राणों में निवास करता है, वह सदा है ही। वह कृष्ण नहीं हुए थे तब भी था और जब कृष्ण नहीं हैं तब भी है। जब आप नहीं थे तब भी था, आप जब नहीं होंगे तब भी होगा। ऐसा समझें कि जैसे कृष्ण एक लहर की तरह जागे हैं, नाचे हैं सागर की छाती पर, किरणों में, सूरज की हवाओं में, और फिर सागर में खो गए हैं। हम सब भी ऐसे ही हैं। थोड़ा सा फर्क है। कृष्ण जब लहर की भांति नाच रहे हैं, तब भी वे जानते हैं कि वे सागर हैं। हम जब लहर की भांति नाच रहे हैं, तब हम भूल जाते हैं कि हम सागर हैं। तब हम समझते हैं कि हम ल
हर ही हैं। चूंकि हम अपने को लहर समझते हैं, इसलिए कृष्ण को भी कैसे सागर समझ सकते हैं? फिर लहर जिस रूप में प्रकट हुई थी, जिस आकृति और आकार में प्रकट हुई थी, उस आकृति और आकार का उपयोग किया जा सकता है, उस लहर के पुनर्साक्षात्कार के लिए। लेकिन खेल सब छाया- जगत का है। इसमें दो-तीन बातें ख्याल में लेंगे तो पूरी बात स्पष्ट हो सकेगी। कृष्ण के सागर-रूप से आज भी, अभी भी साक्षात्कार किया जा सकता है। महावीर के सागर-रूप से भी साक्षात्कार किया जा सकता है, बुद्ध के सागर-रूप से भी साक्षात्कार किया जा सकता है। जिस रूप में वे प्रकट हुए थे कभी, जो आकृति उन्होंने ली थी, उसका उपयोग इस सागर-रूप साक्षात्कार के लिए किया जा सकता है। वह माध्यम बन सकता है। मूर्तियां सबसे पहले पूजा के लिए नहीं बनी थीं। मूर्तियां सबसे पहले एक इसोटेरिक साइंस की तरह बनी थीं। एक गुप्त - विज्ञान की तरह बनी थीं। उन मूर्तियों में, जो व्यक्ति उस रूप में जीया था वह वायदा किया था कि इस मूर्ति पर यदि ध्यान फोकस किया गया, इस मूर्ति पर पूरी तरह ध्यान किया गया, तो मेरे सागर-रूप अस्तित्व से संबंध हो सकेगा। कभी रास्ते पर आपने किसी मदारी को हिप्नोसिस का एक छोटा सा खेल करते-कराते देखा होगा। छोटा सा खेल है कि किसी लड़के को मदारी लिटा देता है, उसकी छाती पर एक ताबीज रख देता है, ताबीज रखने से वह बेहोश हो जाता है। बेहोश होने के बाद वह मदारी उस लड़के से बहुत सी बातें पूछता है जो वह बताना शुरू कर देता है। आपके पास वह मदारी आता है और कहता है, कान में अपना नाम बोल दें। आप नाम बोलते हैं। वह लड़का वहां से चिल्ला देता है कि यह नाम है इस आदमी का। आप इतने धीमे बोलते हैं कि उस लड़के के सुनने का कोई उपाय नहीं, क्योंकि आपके बगल का पड़ोसी भी नहीं सुन पाया है। वह मदारी कहता है कि आपके खीसे में नोट रखा हुआ है, इसका नंबर कितना है? और वह लड़का नोट का नंबर बोल देता है। वह मदारी आपसे कहेगा कि यह ताबीज बड़ा अदभुत है। इस ताबीज की बदौलत इस लड़के की इतनी सामर्थ्य हो गई। बस यहीं वह धोखा देता है। फिर वह चार-आठ आने में ताबीज बेच भी लेता है। आप घर आकर आठ आने का ताबीज छाती पर रख कर लेट जाते हैं, लेकिन कुछ नहीं होता। नहीं होगा। ताबीज से कोई लेना-देना नहीं था। लेकिन उस लड़के के संबंध में लेना-देना था। पोस्ट हिप्नोटिज्म की एक छोटी सी प्रक्रिया है। वह प्रक्रिया यह है कि यदि किसी व्यक्ति को गहरी बेहोशी में डाल दिया जाए, जो कि बहुत सरल है, उस गहरी बेहोशी की हालत में यदि उसे कहा जाए कि यह ताबीज ठीक से देख लो, और जब भी इस ताबीज को हम तुम्हारी छाती पर रखेंगे तब तुम पुनः बेहोश हो जाओगे, तो यह उसके अचेतन की गहराइयों में यह सुझाव बैठ जाता है। फिर कभी भी उस व्यक्ति के ऊपर वह ताबीज रखा जाए, वह तत्काल बेहोश हो जाएगा। और बेहोशी में हमारे मस्तिष्क की अचेतन शक्तियां काम करना शुरू कर देती हैं; जो हम होश में नहीं कर पाते, वह हम बेहोशी में कर लेते हैं। जितना हम होश में सु
नते हैं, उससे बहुत तीव्रता से बेहोशी में सुनने लगते हैं। जितना हम होश में देखते हैं, उससे बहुत गहरा बेहोशी में देखने लगते हैं। लेकिन वह ताबीज आपके ऊपर काम नहीं करेगा, क्योंकि आपको वैसा आपके अचेतन में कोई गहरा सुझाव नहीं दिया गया है। कृष्ण, महावीर, बुद्ध और क्राइस्ट जैसे लोग जब पृथ्वी से विदा होते हैं, तो जो उन्हें प्रेम करते हैं, जिन्होंने उन्हें चाहा है, जिन्होंने उनके निकट बहुत कुछ पाया है, वे अगर उनसे निवेदन करें कि फिर आपके इस देह-रूप के छूट जाने के बाद अगर हम आपको स्मरण करना चाहें और संबंधित होना चाहें, तो हम क्या करें? तो अत्यंत गहरी ध्यान की अवस्था में कृष्ण अगर उनसे कह दें कि मेरी यह रही प्रतिमा, मेरा यह रहा रूप, और जब भी तुम इस पर ध्यान करोगे तो तुम तत्काल मुझसे संयुक्त हो जाओगे, मेरे सागर-रूप से। ये ध्यान की अवस्था में दी गई प्रतिमाएं हैं। ये ध्यान की अवस्थाओं में दिए गए प्रतीक हैं। ये सबके काम के नहीं हैं। आप कृष्ण की मूर्ति के सामने जिंदगी भर चिल्लाते रहें, कुछ होगा नहीं। आप महावीर की मूर्ति के सामने कितने ही नाचें कूदें, कुछ होगा नहीं। ध्यान की अवस्था में पहले आपके पास यह अंतर्सुझाव चाहिए कि इस मूर्ति के द्वारा आपका संबंध उस व्यक्ति से हो सकेगा जिसकी यह मूर्ति है। तो पहली बार जब बुद्ध, महावीर और कृष्ण जैसे लोग पृथ्वी से विदा होते हैं, तो उनके निकटतम जो वर्ग है, उसे वे सूचनाएं दे जाते हैं। पहली पीढ़ी जो उस वर्ग की होती है, वह तो उसका पूरा लाभ उठाती है। दूसरी पीढ़ी में वे लोग लाभ उठा सकते हैं जिनको पहली पीढ़ी के द्वारा पुनः वह सुझाव ध्यान की गहराइयों में चित्त में डाल दिया गया हो। धीरे-धीरे सुझाव खो जाता है, मूर्ति हाथ में रह जाती है। जैसे बाजार से आप आते हैं, ताबी
ज हाथ में ले आते हैं और सुझाव का कोई पता नहीं होता। फिर उस मूर्ति को रखे आप बैठे रहें जिंदगी भर, उससे कुछ होने का नहीं है । जैसा मैंने मूर्ति के लिए कहा, मूर्ति एक इसोटेरिक ब्रिज है, जिसके माध्यम से लहर-रूप व्यक्ति ने वादा किया है कि उसके सागर-रूप से पुनः संबंध स्थापित किया जा सकेगा, ठीक उसी तरह नाम भी है। नाम का भी उपयोग किया जा सकता है। लेकिन वह भी ध्यान की गहराइयों में दिया गया हो। अब गुरु लोगों के कान फूंकते रहते हैं। उससे कुछ होता नहीं। क्योंकि सवाल कान फूंकने का नहीं है, सवाल तो बहुत गहरे ध्यान की अवस्था में कोई शब्द प्रतीक रूप देने से है, कि उस शब्द के स्मरण करते ही, उसका उच्चारण करते ही सारी चेतना रूपांतरित हो जाएगी। ऐसे शब्दों को "बीज-शब्द" कहा जाता है। वे "सीड वर्ड्स" हैं। उनमें बड़ा कुछ भर दिया गया है। तो कृष्ण का नाम अगर बीज-शब्द है, उसका अर्थ यह हुआ कि अगर ध्यान की बहुत गहरी अवस्था में आपके चित्त के अतल में उसे छिपाया गया है... और बीज सदा ही गहरे और नीचे जमीन के छिपाए जाते हैं; वृक्ष तो ऊपर आते हैं, बीज सदा भूमि के नीचे अंधेरे गर्भ में होते हैं... तो अगर आपके चित्त के गहरे गर्भ में कोई शब्द डाला गया है और उस शब्द के साथ सुझाव डाला गया है, तो उसके परिणाम होने शुरू हो जाएंगे। रामकृष्ण बड़ी दिक्कत में थे। रामकृष्ण सड़क से निकल नहीं पाते थे। वे सड़क से जा रहे हैं और किसी ने कह दिया, जयरामजी! और रामकृष्ण वहीं गिर जाएंगे और ध्यानस्थ हो जाएंगे। रामकृष्ण को सड़क से ले जाना बहुत मुश्किल था। रामकृष्ण सड़क से जा रहे हैं तांगे में बैठ कर, किसी मंदिर में कोई रामधुन चल रही है, वे वहीं गए! वे डूब गए वहीं! किसी के घर बैठ कर बात कर रहे हैं और किसी ने राम का नाम ले दिया, वे गए! वह शब्द उनके लिए बीज है । वह शब्द पर्याप्त है उनके लिए। लेकिन हमें कठिन होगा यह मानना। हमारे लिए भी कुछ बीज बातें हैं, वह हम समझ लें तो ख्याल में आ जाए। कोई आदमी चिंतित होता है तो फौरन माथे पर हाथ रख लेता है। आप उसका हाथ नीचे रोक लें, वह बहुत बेचैनी में पड़ जाएगा। कोई आदमी परेशान होता है तो एक विशेष आसन में बैठ जाता है। आप उसको उसमें न बैठने दें, वह बहुत मुश्किल में पड़ जाएगा। डा. हरिसिंह गौर प्रिवी कौंसिल में एक मुकदमा लड़ते थे। उनकी सदा की आदत थी कि वे अपने कोट का जो ऊपर का बटन होता था, जब कभी कोई उलझन का मामला होता और दलील करनी कठिन होती, तो वे कोट के ऊपर का बटन घुमाने लगते थे। जिन लोगों ने भी उनके साथ वकालत की थी उन सबको पता था कि उनका कोट के बटन पर हाथ गया कि उनकी वाणी एकदम प्रखर हो जाती थी। और वे इस तरह बोलने लगते थे जैसे कि इसके पहले बोल ही नहीं रहे थे। एक बड़ा मुकदमा था और विरोधी वकील बड़ी परेशानी में पड़ा था। उसने डा-- हरिसिंह गौर के शोफर को कहा कि जितना पैसा तुझे चाहिए हो, ले ले, लेकिन कल जब तू कोट कार से उतार कर लाए तो उसकी ऊपर की बटन तोड़ कर फेंक देना । बटन उसने तुड़वा कर फिं
कवा दी। उस दिन आखिरी पैरवी थी। हरिसिंह गौर ने अपना कोट अपने गले में डाल लिया, लटका लिया और वे विवाद करने को खड़े हो गए। ठीक उस क्षण पर, जब कि उनका हाथ खोजने लगा बटन को, पाया कि बटन वहां नहीं है। वे एकदम बेहोश होकर गिर गए कुर्सी पर। उन्होंने अपने संस्मरणों में लिखा है कि मेरी जिंदगी में पहली दफे मेरे मस्तिष्क ने काम करना एकदम बंद कर दिया। मुझे ऐसा लगा कि जैसे सब खो गया, अब मैं कुछ बोल सकूंगा नहीं, अब कुछ हो सकता नहीं। मजिस्ट्रेट से उन्हें प्रार्थना करनी पड़ी कि अब यह मुकदमा आगे के लिए टाल दिया जाए। आज मेरी कोई सामर्थ्य नहीं है। बड़ी अजीब सी बात मालूम पड़ती है। एक बटन इतना अर्थ रख सकता है? एसोसिएशन का अर्थ है। अगर सदा ही उस बटन पर हाथ रख कर मन सक्रिय हो गया है, तो आज उस बटन को न पाकर मन एकदम निष्क्रिय हो जाएगा। यह कंडीशंड रिफ्लेक्स की बात है। नाम का प्रयोग भी इस भांति किया गया है। वह जो बटन था, हरिसिंह गौर के लिए बीज हो गया। साधारण बटन नहीं रहा जिससे सिर्फ कोट लगाया और अटकाया जाता है, इस बटन से उनका मन भी अटकने और लगने लगा। नाम का उपयोग इस भांति किया जा सकता है। किया गया है। लेकिन खाली शब्द का उपयोग करने से कुछ भी नहीं होता है। खाली शब्द और बीज-शब्द में वही फर्क है। बीज-शब्द का अर्थ यह है कि आपकी अचेतन गहराइयों में उसे डाला जाए और इतने गहरे में बिठा दिया जाए कि उसके स्मरण मात्र से आप तत्काल रूपांतरित हो जाएं। तो वह बीज बन जाता है। कृष्ण, राम, या बुद्ध, या महावीर, या और तरह के शब्द और मंत्र बीज की तरह उपयोग किए गए हैं। लेकिन अब लोग उनको ऐसे ही दोहरा रहे हैं। बैठे हुए हजार दफे राम-राम कह रहे हैं, कुछ भी नहीं होता। बीज होता तो एक बार में भी होता, हजार बार कहने की बात न थी। और राम
से ही होगा, ऐसा नहीं, कोई भी अब स शब्द को बीज बनाया जा सकता है और आपके व्यक्तित्व में गहरे में डाला जा सकता है। शब्द और मंत्र बीज बन जाएं तो साधक की गहराइयों को रूपांतरित करने में उपयोगी होते हैं, हो सकते हैं। लेकिन हमारी कठिनाई यह है कि मूल सूत्र खो जाते हैं, ऊपरी बातें रह जाती हैं। कोई भी राम-राम जपता रहता है, कोई भी कृष्णकृष्ण चिल्लाता रहता है, उससे कुछ होता नहीं। उससे कुछ हो सकता नहीं। कभी नहीं होगा। जीवन भर चिल्लाने से भी नहीं होगा। कीर्तन के लिए पूछते हैं। ध्यान का जो प्रयोग हम कर रहे हैं, उसमें जो दूसरा चरण है, ठीक वही उपयोग कीर्तन का किया जा सकता है। किया जाता रहा है। जो जानते हैं उन्होंने वैसा ही उपयोग किया है। जो नहीं जानते हैं, वे सिर्फ चिल्लाते हैं, नाचते हैं। ध्यान का जो दूसरा चरण है, अगर ठीक वैसा ही उपयोग कीर्तन का, भजन का, नृत्य का किया जा सके, तो उसके बड़े व्यापक परिणाम हैं। पहला परिणाम तो यह है कि जब आप बहुत ही भाव से नाचने लगें, तो शरीर आपको अलग दिखाई पड़ने लगेगा। शरीर पृथक मालूम होने लगेगा, आप अलग मालूम होने लगेंगे। आप थोड़ी ही देर में देखने वाले हो जाएंगे, नाचने वाले नहीं । जब शरीर पूरी त्वरा में आएगा, पूरी गति में आएगा नृत्य की, तब आप अचानक एक क्षण ऐसा है जब आप पाएंगे कि आप अलग हो गए हैं। उस क्षण को अलग करने के भी उपाय किए गए थे कि वह क्षण अलग हो जाए और आप तत्काल टूट जाएं, नृत्य बाहर रह जाए और आप अलग खड़े हो जाएं। कील अलग हो जाए, चाक घूमता रहे। और कील पहचान ले कि मैं कील हूं, और घूमता हुआ जो है वह चाक है। नृत्य का उपयोग चाक की तरह किया गया है। जोर से घूमें, तो एक घड़ी आ जाती है जहां कील दिखाई पड़ने लगती है। यह बड़े मजे की बात है, अगर चाक और कील खड़े हों, तो कील और चाक का पता लगाना मुश्किल है कि कौन कील है और कौन चाक है, क्योंकि दोनों खड़े हैं। चाक चले, तो कील का फर्क फौरन पता चल जाता है। जो नहीं चलेगी वह पहचान में आ जाएगी। नाचें आप, आपके पीछे भीतर कुछ छूट जाएगा जो नहीं नाच रहा है। बस, वह आपकी कील है, वह आपका सेंटर है। जो नाच रहा है, वह आपकी परिधि है, वह आपका चाक है। इस क्षण में अगर साक्षी हो जाएं, तो कीर्तन का अदभुत उपयोग हो गया। लेकिन अगर साक्षी न हुए और कीर्तन ही करते रहे, तो बेकार चली गई मेहनत, उसका कोई अर्थ न रहा। प्रक्रियाएं पैदा होती हैं और खो जाती हैं। खो जाती हैं इसीलिए कि सब प्रक्रियाएं अनिवार्यरूपेण, मनुष्य का जैसा स्वभाव है, वह उसमें जो सार्थक है भूल जाता है और जो निरर्थक है उसको पकड़ लेता है। क्योंकि जो सार्थक है वह गहरे में होता है, जो निरर्थक है वह ऊपर होता है। जो निरर्थक है वह वस्त्र की तरह ऊपर होता है, जो सार्थक है वह आत्मा की तरह भीतर होता है। जो भीतर है वह दिखाई नहीं पड़ता, धीरे-धीरे ऊपर का ही रह जाता है, भीतर का भूल जाता है। और इसलिए ऐसे वक्त आ जाते हैं, जैसे मैं ही हूं, मुझसे कोई पूछने आए कि कीर्तन से कुछ होगा? तो म
ैं सख्ती से मना करता हूं कि कुछ भी नहीं होगा। क्योंकि मैं जानता हूं कि अब कीर्तन मृत परंपरा हो गई है। अब मरा हुआ ढांचा रह गया है। अब वह चाक ही है, कील का पता लगाना बहुत मुश्किल है उसमें। चैतन्य का नृत्य - कीर्तन भी क्या इनटॉक्सीकेशन था ? नहीं, चैतन्य ने जरूर कीर्तन और भजन से वही पा लिया, जिसके पाने की मैं बात कर रहा हूं। चैतन्य ने नाच कर उसे पा लिया, जिसे बुद्ध और महावीर खड़े होकर पाते हैं। ये दोनों बातें हो सकती हैं। कील को पकड़ने के दो रास्ते हो सकते हैं। एक रास्ता तो यह हो सकता है कि आप इतने खड़े हो जाएं कि आपमें कोई कंपन ही न रह जाए। कंपन ही न रह जाए कोई, इतने ठहरे हो जाएं, इतने थिर हो जाएं, जस्ट स्टैंडिंग की हालत रह जाए-- तो उस हालत में आप कील पर पहुंच जाएंगे। या दूसरा रास्ता यह है कि आप इतने मूवमेंट में हो जाएं, इतनी गति में हो जाएं कि चाक पूरा चल पड़े और कील पहचान में आ जाए। आसान दूसरा ही होगा। चाक जोर से चले तो कील को पहचानना आसान होगा। बहुत कम लोग हैं जो खड़े हुए चाक में और कील को पहचान पाएं। महावीर खड़े होकर पहचानते हैं, कृष्ण नाच कर। और चैतन्य तो कृष्ण भी जितना नहीं नाचे उतना नाचे हैं। चैतन्य का तो कोई मुकाबला नहीं। चैतन्य के नृत्य का तो कोई हिसाब ही नहीं है। शायद पृथ्वी पर ऐसा कोई नाचा ही नहीं। पर ध्यान में लेने की बात इतनी ही है कि हमारे भीतर दो... हमारी परिधि जो है, गतिमान है, परिवर्तन है वहां; और हमारी जो गहरी आत्मा है वहां शाश्वतता है, इटरनिटी है, वहां कोई परिवर्तन नहीं, वहां सब चुप और शांत और सदा खड़ा रहा है, वह कील की भांति है, वह थिर है। उस थिर को, उस परिवर्तन- अतीत को किस भांति पहचान लें! ध्यान का जो दूसरा चरण है, उस चरण में उस बात का ही गहरा प्रयोग किया ज
ा रहा है। लेकिन कीर्तन मैं उसे नहीं कह रहा, क्योंकि कीर्तन शब्द अब अपदस्थ हो गया। कीर्तन शब्द अब अर्थ खो दिया है। सभी शब्द, जैसे रुपये चल-चल कर घिस जाते हैं और घिस घिस कर नकली हो जाते हैं असली भी, वैसे ही शब्द भी चलचल कर घिस जाते हैं और खराब हो जाते हैं। और एक वक्त आता है कि टकसाल में नये रुपये ढालने पड़ते हैं। तो मुझे समझने में बहुत बार दिक्कत पड़ेगी, क्योंकि मैं नई टकसाल में जो रुपये ढाल रहा हूं वह इसीलिए ढाल रहा हूं जिस कारण से और जिस लिए पुराने सिक्के चलते थे। लेकिन पुराने सिक्के बहुत चल चुके और इतने हाथों में चल चुके कि बिल्कुल घिस गए हैं। उनमें न चेहरा पहचान में आता है, न क्या लिखा है वह पहचान में आता है। न यही पता चलता है कि वे सिक्के हैं कि ठीकरे हैं; क्या हैं, कुछ पता नहीं चलता। इसलिए सब फिर से शुरू करना पड़ता है हर बार। और यह जानते हुए शुरू करना पड़ता है कि ये नये सिक्के जो आज टकसाल से निकल रहे हैं, कल ये भी हाथ में चल कर घिस जाएंगे और खराब हो जाएंगे और फिर किसी को नये सिक्के ढालने पड़ेंगे। और नये सिक्के ढालने वाले के सामने एक बड़ी कठिनाई आ जाती है कि उसे उन्हीं सिक्कों से लड़ना पड़ता है जिनके लिए वह जी रहा है। उन्हीं सिक्कों से लड़ना पड़ता है जिनके लिए वह फिर से ढाल रहा है। लड़ना मजबूरी हो जाती है। जब नये सिक्के बाजार में लाने पड़ते हैं तो पुराने सिक्के वापस टकसाल में भेजने पड़ते हैं। तो मुझे वापस सिक्के आपसे छीनने पड़ते हैं कि इनको वापस टकसाल में भेजो, अब ये बेकार हो गए, अब तुम नये ले लो। लेकिन पुराने सिक्के का मोह होता है। बहुत दिन साथ रहा है। घिसा भी है तो अपने ही हाथों में घिसा है। नये सिक्के का एकदम भरोसा नहीं होता। धर्म के साथ ऐसा रोज होता है। कीर्तन का बड़ा उपयोग किया जा सकता है। समझ लिया जाए तो कीर्तन का बड़ा अदभुत उपयोग है। लेकिन अब समझना बहुत मुश्किल होगा। क्योंकि जब मैं कीर्तन कहूंगा, तब आप वही कीर्तन समझेंगे जो आप समझ रहे हैं। तब आप कहेंगे कि बिल्कुल ठीक कहते हैं आप, हम तो कर ही रहे हैं यह कीर्तन। हम तो राम-राम कर ही रहे हैं, बिल्कुल ठीक कह रहे हैं आप। जब आपका मन कहता है, बिल्कुल ठीक कह रहे हैं, तब मुझे ऐसा लगता है कि कहीं मैंने कुछ कह कर भूल तो नहीं की। क्योंकि आपको मैं ठीक नहीं कहना चाहूंगा। क्योंकि आप अगर ठीक होते तब तो कोई बात ही न थी । वह तो राम-राम आप कह ही रहे हैं। मैं आपके राम-राम का समर्थन नहीं कर रहा हूं। और आप तो कीर्तन करते ही रहे हैं। मैं आपके कीर्तन का समर्थन नहीं कर रहा हूं। क्योंकि अगर आप कीर्तन से पहुंच सकते होते तो पहुंच ही गए होते। वह आप नहीं पहुंचे हैं। मैं तो कीर्तन का जो मूल है, उसकी बात कर रहा हूं, आपके कीर्तन की बात नहीं कर रहा हूं। नाम का जो मूल है, उसकी बात कर रहा हूं, आपके नाम की बात नहीं कर रहा हूं। मूर्ति का जो मूल है, उसकी बात कर रहा हूं, आपके घरों में रखी हुई मूर्तियों की चर्चा नहीं कर रहा हूं। उनको तो
मैं निकालूंगा और फिंकवा दूंगा। उनको तो नहीं रखा जा सकता है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उन सब सूत्रों के पीछे कुछ भी नहीं था। उन सब सूत्रों के पीछे बहुत कुछ था। सच तो यह है कि हम सिर्फ उसी सूत्र के नाम पर हजारों साल तक गलत सूत्रों को खींच सकते हैं जिसमें कुछ रहा हो। नहीं तो खींच भी नहीं सकते। अगर हम किसी चीज को हजारों साल तक खींचते हैं बिना कुछ पाए, तो उसका मतलब इतना ही है कि मनुष्य की चेतना में कहीं वह अनुभव छिपा है कि उससे पाया गया था। नहीं तो हम उसे खींच नहीं सकते। कचरे को भी अगर कोई आदमी बहुत दिन तक खींचता है, तो इसीलिए खींचता है कि उस कचरे में भी कभी हीरे के दर्शन हुए हैं, किसी अतीत क्षण में। नहीं तो उस कचरे को कोई खींचेगा कैसे! अगर गलत चीजें भी चलती हैं, तो इसीलिए चल पाती हैं कि उन गलत के पीछे कभी कोई सत्य था जो खो गया है। अन्यथा गलत को खींचा नहीं जा सकता है। चैतन्य महाप्रभु का जीव-जगत जो जगदीश से भिन्न भी है और अभिन्न भी है, वह अचिंत्य भेदाभेदवाद है। वह आपके कील और पहिए के नजदीक आता है? बिल्कुल आ जाएगा, बिल्कुल आ जाएगा। "चैतन्य" कृष्ण को प्रेम करने वाले यात्रियों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। अचिंत्य भेदाभेद, इसमें कीमती शब्द अचिंत्य है, अनथिंकेबल। जो सोचते हैं, वे या तो कहेंगे कि जगत में जीव और जगत का भेद है, तो भेदवाद होगा। या वे कहेंगे कि जीव और जगत एक हैं, तो अभेदवाद होगा। चैतन्य कहते हैं, दोनों हैं, भेद-अभेद दोनों हैं। एक भी हैं, भिन्न भी हैं। जैसे लहर भिन्न भी है सागर से और एक भी है। निश्चित ही । लहर भिन्न है तब तो हमने उसे नाम दिया लहर का। और एक तो है ही। अगर सागर से एक न हो तो होगी कहां? तो लहर एक भी है और भिन्न है, भेद भी है और अभेद भी है। लेकिन इतना भी चिंतन
में आ जाता है, यह भी चिंतन की ही बात हुई । इतना भी चिंतन में आ जाता है-कि एक भी हो सकती है, भिन्न भी हो सकती है। उस पर एक शब्द और जड़ देते हैं वे। वे कहते हैं, अचिंत्य, अनथिंकेबल। वही शब्द बड़ा अदभुत है। वे यह कहते हैं कि अगर यह भी तुमने चिंतन से पाया, तो तुमने कुछ पाया नहीं। अगर यह भी तुमने सोच-सोच कर पाया है, तो यह सिर्फ सिद्धांत है, कुछ पाया नहीं। अगर सोचने के बाहर पाया है, तो फिर अनुभव में पाया है। इसे समझना अच्छा होगा। जब तक हम सोच कर पाते हैं तब तक हम शब्दों में ही पाते हैं। और जब हम जीकर पाते हैं तब हम शब्दों के बाहर पाते हैं, वह अचिंत्य हो जाता है। जीवन पूरा ही अचिंत्य है। उसका कोई चिंतन नहीं होता। एक आदमी प्रेम को समझे और शास्त्रों से समझ ले, तो बहुत लिखा है शास्त्रों में। शायद प्रेम के संबंध में जितना लिखा है, किसी और चीज के संबंध में नहीं लिखा है। विराट साहित्य है प्रेम का--काव्य हैं, महाकाव्य हैं, व्याख्याएं हैं, चर्चाएं हैं--कोई आदमी प्रेम को समझ ले। तो समझ लेगा, प्रेम की व्याख्या कर देगा। लेकिन फिर भी प्रेम को उसने जाना नहीं। और एक आदमी है जिसने कि प्रेम के संबंध में कुछ भी नहीं सुना, कुछ भी नहीं समझा, कुछ भी नहीं जाना, लेकिन प्रेम को जीया है। इन दोनों में क्या फर्क होगा? इनकी जानकारी का क्या भेद होगा? एक की जानकारी चिंत्य है, एक की जानकारी चिंतन से उपलब्ध हुई है। एक की जानकारी चिंत्य नहीं है, अनुभव है। अनुभव सदा अचिंत्य है । वह चिंतन से नहीं आता, चिंतन के पहले आ जाता है। और अनुभव के पीछे चिंतन चलता है। अनुभव पहले आ जाता है, चिंतन सिर्फ अभिव्यक्त करता है। इसलिए चैतन्य कहते हैं, अचिंत्य है। और चैतन्य के कहने का अर्थ जरा ज्यादा है। ऐसे तो मीरा भी कहेगी कि सोच-समझ के परे है, लेकिन मीरा कभी बहुत सोच-समझ की स्त्री थी ही नहीं। लेकिन चैतन्य तो महातार्किक थे। चैतन्य की जो खूबी है वह यह है कि यह आदमी तो महातार्किक था। इसके तर्क का तो कोई अंत न था। इसने तो चिंतन के ऊंचे से ऊंचे शिखर को हुआ था। इसके साथ विवाद करने की सामर्थ्य न थी किसी की। विवाद में जहां खड़ा होता, विजेता ही होता । तो जब यह चैतन्य इतना सब विवाद करके, इतना सब पांडित्य रच कर, इतना सब तर्क और ऊहापोह करके एक दिन कहने लगे कि अब मैं नाचूंगा और अचिंत्य को खोजूंगा, तब इसका अर्थ और हो जाता है। मीरा तो कभी कोई तार्किक थी नहीं। प्रेम उसका जीवन था। उसमें प्रेम के फूल लगे, तो सहज थे। यह आदमी उलटे थे चैतन्य। यह आदमी प्रेम के आदमी न थे। और अगर प्रेम की तरफ आए तो चिंतन की पराजय से आए। किसी और से पराजित होकर नहीं, अपने ही भीतर चिंतन को पराजित पाकर, कि वह जगह आ गई जहां चिंतन हार जाता है और बाहर जीवन आगे शेष रह जाता है। इसलिए मैंने कहा कि कृष्ण के मार्ग पर चले हुए लोगों में चैतन्य का मुकाबला नहीं है। ध्यान में है मेरे कि मीरा भी उस मार्ग पर है, लेकिन चैतन्य से मुकाबला नहीं है। क्योंकि चैतन्य जैसा आदमी ना
च नहीं सकता। चैतन्य जैसा आदमी मंजीरा ठोंक कर सड़कों पर भाग नहीं सकता। और जब चैतन्य जैसा आदमी मंजीरा ठोंकने लगे और हरे कृष्ण, हरे राम कह कर सड़कों पर नाचने लगे, तो सोचने जैसा है। तो जरा विचारने जैसा है। ऐसे ही जैसे बर्ट्रेड रसल नाचने लगे। बस, वैसा ही आदमी है वह। तो इसके वक्तव्य का मूल्य बहुत ज्यादा हो जाता है। इसके वक्तव्य का मूल्य ही यही है कि इस आदमी का नृत्य में उतर जाना और झांझ-मंजीरा पीटने लगना और यह कह देना कि अचिंत्य है वह और अब हम चिंतन छोड़ते हैं और अचिंतन से उसे पाएंगे, इस बात की खबर देता है कि चिंतन के पार भी केवल वे ही जा सकते हैं ठीक से जो गहन चिंतन में उतरते हैं। जो गहन चिंतन में उतरते हैं, वे एक दिन जरूर उस सीमा-रेखा पर पहुंच जाते हैं जहां वह लिमिट आ जाती है, सीमांत आ जाता है, जहां पत्थर लगा है और लिखा है कि बुद्धि अब यहीं तक चलती है, आगे नहीं चलती। जगह है ऐसी जहां बुद्धि का सीमांत आ जाता है। इसलिए चैतन्य के वक्तव्य का बड़ा मूल्य है। वह उस पत्थर के आगे गया मूल्य है। मीरा उस पत्थर तक कभी पहुंची नहीं, उसने उस पत्थर तक कभी कोई यात्रा नहीं की। अमेरिका, इंग्लैंड तथा अन्य देशों में आजकल "कृष्ण-चेतना-आंदोलन" बहुत तेजी से चल रहा है और वे संकीर्तन वगैरह का बहुत उपयोग करते हैं। तो यह ऐसा मालूम होता है कि कोई नया वेराइटी आइटम या कोई मनोविनोदक चीज है, या कोई नया फैड है। या क्या आप ऐसा कह सकते हैं कि वहां कृष्ण-जन्म की कोई पूर्वभूमिका बन रही है? बड़े गहरे इंप्लीकेशंस हैं। कृष्ण चेतना का आंदोलन, कृष्ण कांशसनेस का आंदोलन यूरोप-अमेरिका में रोज जोर पकड़ता जाता है। जैसे किसी दिन चैतन्य बंगाल के गांवों में नाचते हुए गूंजे व निकले थे, वैसा आज न्यूयार्क और लंदन की सड़कों पर भी हरिकी
र्तन सुनाई पड़ता है। यह आकस्मिक नहीं है। असल में जहां चैतन्य व्यक्तिगत रूप से थक गए थे वहां पश्चिम सामूहिक रूप से थक रहा है। चैतन्य सोच-सोच कर व्यक्तिगत रूप से थक गए थे और पाया था कि सोचने से पार नहीं है, और पश्चिम सामूहिक रूप से सोचने से थक गया है। सुकरात से लेकर बर्ट्रेड रसल तक पश्चिम ने सिर्फ सोचा ही है और सोच-सोच कर ही खोजने की कोशिश की है सत्य को। बड़ी विराट साधना थी यह भी, बड़ा अनूठा प्रयोग था यह भी कि पश्चिम ने अपने पूरे प्राण इस बात पर लगा दिए हैं, सुकरात से लेकर रसल तक, कि हम सोच कर ही सत्य को पा लेंगे और सत्य को किसी न किसी तरह लॉजिक और तर्क की सीमा में उपलब्ध करना है। और उस सत्य को पश्चिम निरंतर इनकार करता रहा है जो तर्क की सीमा में नहीं आता है, जो अतर्क्य है। उसको उसने कहा कि नहीं हम मानेंगे जब तक हमारी बुद्धि और मस्तिष्क स्वीकार नहीं कर लेते। इन पच्चीस सौ साल की यात्रा में पश्चिम ने गहन तर्क किया है। पश्चिम सामूहिक रूप से थक गया और सत्य की कोई झलक नहीं मिली। बार-बार लगा कि यह रहा, यह रहा, अब पास है, पास है--और पास पहुंच कर पाया कि नहीं, फिर कांसेप्ट ही हाथ में रह गए, सिद्धांत ही हाथ में रह गए, सत्य नहीं है। पश्चिम की सामूहिक चेतना, कलेक्टिव कांशसनेस उस जगह आ रही है जहां चैतन्य व्यक्तिगत रूप से आ गए हैं। इसलिए पश्चिम में एक एक्सप्लोजन संभावी है, जो हो रहा है। वसंत के पहले फूल आने शुरू हो गए हैं। जगह-जगह विस्फोट हो रहा है। पश्चिम की युवा पीढ़ी जगह-जगह टूट रही है और जगह-जगह उसने अचिंत्य की दिशा में कदम रखने शुरू कर दिए हैं। और अगर अचिंत्य की दिशा में कदम रखने हैं, तो कृष्ण से ज्यादा ठीक प्रतीक दूसरा नहीं है। महावीर के वक्तव्य बहुत तर्कयुक्त हैं। अगर महावीर रहस्य की बात भी करते हैं तो भाषा सदा तर्क की है। अगर महावीर कभी भी कोई बात करते हैं, तो विचार की संगति कभी भी टूटती नहीं। बुद्ध अगर पाते हैं कि कोई बात रहस्य की है, तो चर्चा करने से इनकार कर देते हैं। उसकी चर्चा नहीं करते। वे कह देते हैं, अव्याख्येय। इसकी बात नहीं होगी। बात वहीं तक करेंगे, जहां तक तर्क है। पश्चिम के चित्त में आज जो तनाव है, वह चिंतन से पैदा हुआ तनाव है। जो एंग्जाइटी है, जो मेंटल एंग्विश है, जो संताप है, वह चिंतन की परम, परम तक चिंतन को खींचने का परिणाम है। अल्टीमेट तक चिंतन को खींचा गया है, जहां उसकी दम टूटी जा रही है। वहां नई पीढ़ियां बगावत करेंगी। यह बगावत बहुत रूपों में प्रकट होगी। क्योंकि चैतन्य एक आदमी थे, एक रूप में होगी। एक पीढ़ी जब बगावत करती है, तो बहुत रूपों में प्रकट होगी। उस अचिंत्य में यात्रा करने के लिए कोई भजन-कीर्तन कह कर कृष्ण-नाम जपने लगेगा। कोई उस अचिंत्य में प्रवेश करने के लिए एल एस डी और मेस्कलीन का प्रयोग करने लगेगा। कोई उस अचिंत्य में प्रवेश करने के लिए भारत चला आएगा और हिमालय की यात्रा करने लगेगा। कोई उस अचिंत्य की खोज में झेन फकीरों के पास जापान चला जाए
गा। वह अचिंत्य की खोज चल रही है। लेकिन, मुझे लगता है कि कृष्ण इस अचिंत्य की खोज में धीरे-धीरे पश्चिम के रोज निकट आते चले जाएंगे। एल एस डी दूरगामी साथी नहीं हो सकता। और कब तक लोग भारत की यात्रा करते रहेंगे और कितने लोग यात्रा करते रहेंगे? और कब तक लोग जापान में जाकर झेन फकीरों के चरणों में बैठते रहेंगे? पश्चिम को अपनी ही चेतना खोजनी पड़ेगी। ये उधार बातें ज्यादा देर नहीं चल सकती हैं। तो पश्चिम के चित्त में वह घटना टूट रही है। और बड़े मजे की बात है, अगर हिंदुस्तान में आप किसी व्यक्ति को भजन-कीर्तन करते देखें, तो उसके चेहरे पर वह आनंद का भाव नहीं होता जो लंदन के लड़के और लड़कियां जब भजन-कीर्तन करते हैं तो उनके चेहरे पर है। हमारे लिए वह पिटा-पिटाया क्रम है, घिसा हुआ सिक्का है। हम सब भलीभांति जानते हैं कि क्या कर रहे हैं। उनके लिए बड़ा नया सिक्का है। उनके लिए छलांग है। हमारे लिए परंपरा है, हमारे लिए ट्रेडीशन है, उनके लिए बिल्कुल एंटी-ट्रेडीशनल है । जब सड़क से लंदन की कोई गुजरता है मंजीरे बजाते हुए और नाचते हुए, तो ट्रैफिक का पुलिसवाला भी खड़ा होकर सोचता है कि दिमाग खराब हो गया! हमारे मुल्क में कोई नहीं सोचेगा। नहीं कोई करता है, उसी का दिमाग खराब है। जो करता है, उसका दिमाग तो बिल्कुल ठीक है। लेकिन दुनिया के धर्म पगलों से चलते हैं, बुद्धिमानों से नहीं। दुनिया में सारे के सारे, जिनको ब्रेक थ्रो कहें हम, जहां चीजें टूटती हैं और बदलती हैं, वे पागलों से होती हैं, दीवानों से होती हैं। हमारे मुल्क में भजन-कीर्तन करना दीवानगी नहीं है। कभी रही होगी। चैतन्य जब बंगाल में नाचा तो दीवाना था। लोगों ने समझा कि पागल हो गया। अब नहीं है वह बात ! ट्रेडीशन सबको पचा जाती है, बड़े से बड़े पागलों को पचा ज
ाती है। उनको भी जगह बना देती है कि यह रहा तुम्हारा घर, तुम भी विश्राम करो। पश्चिम में एक विस्फोट की हालत है। इसलिए पश्चिम का युवा-चित्त जब नाचता है, तो उस नाच में बड़ी मोहकता है, बड़ी सरलता है। कृष्ण-जन्म की कोई तैयारी नहीं हो रही, लेकिन कृष्ण-चेतना के जन्म की तैयारी जरूर हो रही है। कृष्ण-चेतना का कोई संबंध कृष्ण से नहीं है । कृष्ण-चेतना प्रतीक शब्द है, जिसका मतलब है ऐसी चेतना की संभावना पश्चिम में हो रही है कि लोग काम को छोड़ेंगे और उत्सव को पकड़ेंगे। हां, सिंबालिक, प्रतीकात्मक रूप से। काम बेमानी हो गया। पश्चिम बहुत काम कर चुका, पश्चिम बहुत चिंतन कर चुका, पश्चिम बहुत-मनुष्य जो भी कर सकता था मनुष्य की सीमाओं में वह सब कर चुका; और थक गया, बुरी तरह थक गया। या तो पश्चिम मरेगा, या कृष्ण-चेतना में प्रवेश करेगा। और मरता तो कुछ नहीं। कृष्ण-चेतना में प्रवेश करना होगा। क्राइस्ट उतने प्रतीकात्मक आज पश्चिम को नहीं मालूम होते हैं। उसका भी वही कारण है, ट्रेडीशन। क्राइस्ट अब ट्रेडीशन हैं और कृष्ण अब एंटी-ट्रेडीशन हैं। कृष्ण जो हैं वह चुनाव है; और क्राइस्ट जो हैं वह कोई चुनाव नहीं है, आरोपण है। फिर क्राइस्ट गंभीर हैं। और पश्चिम गंभीरता से ऊब गया है। टू मच सीरियसनेस अंततः डिसीज्ड हो जाती है। बहुत ज्यादा गंभीरता गहरे में रुग्णता बन जाती है। तो पश्चिम गंभीरता से उठना चाहता है। क्रॉस बड़ा गंभीर प्रतीक है। क्रॉस पर लटका हुआ जीसस बड़ा गंभीर व्यक्तित्व है। पश्चिम घबड़ा गया। हटाओ क्रॉस को, लाओ बांसुरी को। और क्रॉस के खिलाफ अगर कोई भी प्रतीक दुनिया में खोजने जाएंगे तो बांसुरी के सिवाय मिलेगा भी क्या ! इसलिए कृष्ण की अपील और कृष्ण के निकट आने की संभावना पश्चिम के चित्त की रोज बढ़ती चली जाएगी। और भी कारण हैं। कृष्ण के करीब सिर्फ एफ्लुएंट सोसाइटी हो सकती है। कृष्ण के करीब सिर्फ वैभवसंपन्न समाज हो सकता है। क्योंकि बांसुरी बजाने की चैन गरीब, दीन-दरिद्र समाज में नहीं हो सकती। कृष्ण जिस दिन पैदा हुए, उन दिनों के मापदंड से, कृष्ण का समाज काफी संपन्न समाज था। खाने-पीने को बहुत था। दूध और दही तोड़ा-फोड़ा जा सकता था। दूध और दही की मटकियां सड़कों पर गिराई जा सकती थीं। उन दिनों के हिसाब से, उन दिनों के स्टैंडर्ड ऑफ लिविंग से संपन्न समाज था, संपन्नतम समाज था। सुखी थे लोग, खानेपीने को बहुत था। पहनने-ओढ़ने को बहुत था। एक आदमी काम कर लेता और पूरा परिवार बांसुरी बजा सकता था। उस संपन्न क्षण में कृष्ण की अपील पैदा हुई थी। पश्चिम अब फिर आज के मापदंडों के हिसाब से संपन्न हो रहा है। शायद भारत में कृष्ण के लिए अभी बहुत दिन तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। अभी भारत के मन में कृष्ण बहुत ज्यादा गहरे नहीं उतर सकते। क्योंकि दीन-दरिद्र समाज बांसुरी बजाने की बात नहीं सोचता, उसको तो लगता है, क्राइस्ट ही ठीक हैं। जो खुद ही सूली पर लटका है रोज, उसके लिए क्राइस्ट ही ठीक मालूम पड़ सकते हैं। इसलिए यह बड़ी अनहोनी घटना घट रह
ी है कि हिंदुस्तान में रोज क्राइस्ट का प्रभाव बढ़ रहा है और पश्चिम में रोज क्राइस्ट का प्रभाव कम हो रहा है। कोई यह सोचता हो कि यह मिशनरी लोगों को बरगला कर और ईसाई बना रहा है, इतना ही काफी नहीं है । ईसा का प्रतीक हिंदुस्तान के दीन-दुखी मन के बहुत करीब पड़ रहा है। सिर्फ मिशनरी बरगला नहीं सकता। अगर वह बरगला भी सकता है तो सिर्फ इसीलिए कि वह प्रतीक निकट आ रहा है। अब कृष्ण की स्वर्ण-मूर्ति और राम की वैभव में खड़ी हुई मूर्तियां हिंदुस्तान के गरीब मन के बहुत विपरीत पड़ती हैं। बहुत दूर न होगा वह दिन जिस दिन कि हिंदुस्तान का गरीब अमीर पर ही न टूटे, कृष्ण और राम पर भी टूट पड़े। इसमें बहुत कठिनाई नहीं होगी। क्योंकि ये स्वर्ण-मूर्तियां नहीं चल सकतीं। लेकिन क्राइस्ट का सूली पर लटका हुआ व्यक्तित्व गरीब के मन के बहुत करीब आ जाता है। हिंदुस्तान के ईसाई होने की बहुत संभावनाएं हैं, उसी तरह, जैसे पश्चिम के कृष्ण के निकट आने की संभावनाएं हैं। पश्चिम के मन में अब क्रॉस का कोई अर्थ नहीं रहा है। न पीड़ा है, न दुख है। वे दुख और पीड़ा के दिन गए। सचाई यह है कि अब एक ही दुख है कि संपन्नता बहुत है, इस संपन्नता के साथ क्या करें! सब कुछ है, अब इसके साथ क्या करें! निश्चित ही कोई नाचता हुआ प्रतीक, कोई गीत गाता प्रतीक, कोई नृत्य करता प्रतीक पश्चिम के करीब पड़ जाएगा। और इसलिए पश्चिम का मन अगर कृष्ण की धुन से भर जाए, तो आश्चर्य नहीं है। पश्चिम में कृष्ण कांशसनेस के आंदोलन का नेतृत्व इररेशनल कवि एलन गिंसबर्ग ने लिया है। चिंतक वर्ग पर अभी तक उसका कोई प्रभाव पड़ा नहीं लगता। दूसरा आप एफ्लुएंट सोसाइटी की बात कहते हैं। लेकिन हम कल ही बात करते थे कि चतुर्वर्ण थे। और भागवत में भी सुदामा का जो वर्णन आता है उसमें वह दारि
द्र्य का प्रतीक है। कृष्ण के जमाने में भी सुदामा पावर्टी का प्रतीक था। और गीता में कलौ केशव कीर्तनात और यज्ञानाम जपयज्ञस्मि का क्या अर्थ है? नहीं, मैं यह नहीं कह रहा हूं कि उस दिन कोई गरीब न था और न मैं यह कह रहा हूं कि आज पश्चिम में कोई गरीब नहीं है। यह मैं नहीं कह रहा हूं। खोजने से पश्चिम में गरीब मिलेंगे ही। गरीब तो हैं ही। समाज गरीब नहीं है। गरीब उस दिन भी थे, सुदामा उस दिन भी था। लेकिन समाज गरीब नहीं था। समाज की गरीबी और बात है, गरीब व्यक्ति खोज लेना और बात है। आज हम भारत के समाज को गरीब कह सकते हैं, हालांकि बिड़ला भी मिलेंगे। लेकिन बिड़ला के कारण भारत का समाज अमीर नहीं हो सकता। सुदामा के कारण उस दिन का समाज गरीब नहीं हो सकता। हिंदुस्तान के इतने गरीब समाज में अमीर तो मिलेगा ही। पश्चिम के, अमरीका के संपन्न समाज में भी गरीब तो मिलेगा ही। यह सवाल नहीं है। सवाल यह है कि बहुजन, समाज का पूरा का पूरा ढांचा संपन्न था। जो उस दिन जीवन की सुविधा थी, वह अधिकतम लोगों को उपलब्ध थी। आज अमरीका में जो जीवन की सुविधा है, वह अधिकतम लोगों को उपलब्ध है। संपन्न समाज में उत्सव प्रवेश कर सकता है, गरीब समाज में उत्सव प्रवेश नहीं कर सकता। गरीब समाज में उत्सव धीरे-धीरे विदा होता जाता है। या कि उत्सव भी फिर एक काम बन जाता है। गरीब समाज उत्सव भी मनाता है, दिवाली भी मनाता है, तो कर्ज लेकर मनाता है। होली भी खेलता है तो पिछले वर्ष के पुराने कपड़े बचा कर रखता है। होली के दिन फटे-पुराने कपड़ों को सिला कर निकल आता है। अब जब होली ही खेलनी है तो फटे-पुराने कपड़ों से खेली जा सकती है। तो मत ही खेलो। होली का मतलब ही यह है कि कपड़े इतने ज्यादा हैं कि रंग में भिगोए जा सकते हैं। तो गरीब आदमी भी होली तो खेलेगा, लेकिन वह पुराने ढांचे को ढो रहा है सिर्फ। नहीं तो होली के दिन, जो सबसे अच्छे कपड़े थे, वही पहन कर निकलते थे लोग। उसका मतलब ही यह था। उसका मतलब ही यह था कि इतने अच्छे कपड़े हैं, तुम रंग डालो ! लेकिन जिससे हम रंग डलवाने जा रहे हैं, उसको भी धोखा दे रहे हैं। कपड़ा पुराना, सी-सा कर आ गए हैं, धुलवा कर आ गए हैं। वह रंग डालने वाले को भी धोखा दे रहे हैं। रंग डालने का मतलब ही क्या था? जिन लोगों ने कपड़ों पर रंग डालने का खेल खेला होगा, उनके पास कपड़े जरूरत से ज्यादा रहे होंगे, अन्यथा नहीं खेल सकते हैं यह खेल। हम भी खेल रहे हैं, लेकिन हमारा खेल सिर्फ एक ढोना है एक रूढ़ि को। इसलिए दिल दुखता है। होली के दिन कोई कपड़े पर रंग डाल जाता है तो दिल दुखता है । दिल खुश होना चाहिए कि किसी ने रंग डालने योग्य माना, लेकिन दिल दुखता है। दुखेगा, क्योंकि कपड़े भारी महंगे पड़ गए हैं, अब कपड़े इतने आसान नहीं रह गए हैं। हां, पश्चिम में होली खेली जा सकती है। अभी कृष्ण का नृत्य चल रहा है, आज नहीं कल होली पश्चिम में प्रवेश करेगी, इसकी घोषणा की जा सकती है। पश्चिम होली खेलेगा। अब उनके पास कपड़े हैं, रंग भी है, समय भी है, फु
र्सत भी है, अब वे खेल सकेंगे। और उनकी होली में एक आनंद होगा, उत्सव होगा, जो हमारी होली में नहीं हो सकता है। संपन्नता से मेरा मतलब है, ऑन दि होल, पश्चिम का समाज संपन्न हुआ है। और जब पूरा समाज संपन्न होता है, तो जो उस समाज में दरिद्र होता है वह भी उस समाज के संपन्न से बेहतर होता है जो समाज दरिद्र होता है। यानी आज अमरीका का दरिद्रतम आदमी भी पैसे पर उतना पकड़ वाला नहीं है, जितना हिंदुस्तान का संपन्नतम आदमी है। हिंदुस्तान के अमीर से अमीर आदमी की पैसे पर पकड़ इतनी ज्यादा है, होगी ही, क्योंकि चारों तरफ दीन-दरिद्र समाज है। अगर वह जोर से न पकड़े तो कल वह भी दीन-दरिद्र हो जाएगा। मैंने सुनी है एक घटना कि एक भिखारी -- बहुत मस्त, स्वस्थ, तगड़ा भिखारी--एक घर के सामने भीख मांग रहा है। गृहिणी ने उसे दिया है कुछ, दिल खोल कर दिया है। फिर उसकी तरफ गौर से देखा है, तो स्वस्थ है, सुंदर है। उसने उससे पूछा कि तुम्हें देख कर तो ऐसा नहीं लगता कि गरीब के घर में पैदा हुए हो, लेकिन गरीब कैसे हो गए? तो उसने कहा, इसी भांति जिस भांति तुम हो जाओगी। जितने मजे से तुमने दिया है, इतने मजे से मैं देता रहा। ज्यादा देर न लगेगी कि तुम सड़क पर आ जाओगी। जब चारों तरफ गरीब समाज हो तो धन की पकड़ पैदा होती है। अमीर से अमीर आदमी धन को पकड़ लेता है। जब समाज संपन्न हो तो गरीब से गरीब आदमी धन को छोड़ पाता है। क्योंकि कोई डर नहीं है, कल फिर मिल सकता है। कोई असुरक्षा नहीं है। कोई भय नहीं है। इस अर्थ में मैंने कहा। और इस अर्थ में भी कहा, दूसरी बात जो पूछी है, वह भी सोच लेनी चाहिए। वह यह पूछी है कि पश्चिम में एलन गिंसबर्ग और इस तरह के लोगों से वह जो ब्रेक थ्रो है, वह जो छलांग है, आ रही है। ये सारे के सारे लोग, चाहे एक्झिस्टेंशिएल
िस्ट हों और चाहे बीटल हों और चाहे बीटनिक हों और चाहे हिप्पी हों और चाहे इप्पी हों, किसी भी तरह के लोग हों, ये सारे के सारे लोग इररेशनेलिस्ट हैं, ये सारे के सारे लोग अबुद्धिवादी हैं। पश्चिम का कोई बुद्धिवादी अभी इन बातों से प्रभावित नहीं है। इसके कारण हैं। यह जो अबुद्धिवादी पीढ़ी पश्चिम में पैदा हुई है, जो इररेशनेलिस्ट जेनरेशन पैदा हुई है, यह पिछली पीढ़ी के अति बुद्धिवाद से पैदा हुई है। यह उसकी प्रतिक्रिया है। असल में किसी समाज में अबुद्धिवादी तभी पैदा होते हैं जब बुद्धिवाद चरम पर पहुंच जाता है। नहीं तो पैदा नहीं होते। रहस्य की बात तभी शुरू होती है जब तर्क बिल्कुल प्राण लेने लगता है। परमात्मा की बात तभी शुरू होती है जब पदार्थ छाती पर पत्थर होकर बैठ जाता है। और ध्यान रहे, गिंसबर्ग, या सार्त्र, या कामू, या कोई और, ये सारे लोग जहां घूम-फिर कर एब्सर्ड में खो जाते हैं, अतर्क्स में खो जाते हैं, उससे आप यह मत समझ लेना कि ये हमारे ग्रामीण अबुद्धिवादी जैसे लोग हैं। ये अपने अबुद्धिवाद में बड़े बुद्धिवादी हैं। इनका वह जो अतर्क्य होना है, अचिंत्य होना है, वह ऐसा नहीं है जो श्रद्धालु का है। वह किसी श्रद्धालु का अचिंत्य होना नहीं है। वह चैतन्य जैसा ही है। वह उसका ही अचिंत्य होना है जिसने चिंतन कर-कर के, थक-थक कर पाया है कि बेकार है। तो गिंसबर्ग के वक्तव्य, या उसकी कविता अगर एब्सर्ड है, अगर अतर्क्य है, या बुद्धि के परे है, या अबुद्धिवादी है, या बुद्धिविरोधी है, तो ध्यान रखना, उसके इस अबुद्धिवादी होने में भी एक सिस्टम है, एक व्यवस्था है। नीत्शे ने कहीं कहा है कि मैं पागल हूं, बट माई मैडनेस हैज इट्स ओन लॉजिक। लेकिन मेरे पागल होने का अपना तर्क है। मैं कोई ऐसे ही पागल नहीं हूं। मैं कोई ऐसा ही पागल नहीं हूं जैसे पागल होते हैं। मेरे पागल होने का भी कारण है। मेरे पागल होने की भी सिस्टम है। यह अबुद्धिवाद जो है, जान कर है, होशपूर्वक है, चेष्टापूर्वक है। इस अबुद्धिवाद का अपना आग्रह है। इस अबुद्धिवाद में बुद्धिवाद का स्पष्ट विरोध है, खंडन है। निश्चित ही जब अबुद्धिवाद खंडन करता है, विरोध करता है, तो तर्कों से नहीं करता। क्योंकि अगर वह तर्कों से करे, तो वह खुद ही बुद्धिवादी हो जाता है। नहीं, वह अतर्क्य जीवन-व्यवस्था से करता है। गिंसबर्ग एक छोटी सी पोएट्स गैदरिंग में कविता पढ़ रहा था। और कविता उसकी बेमानी है, मीनिंगलेस है। एक कड़ी की दूसरी कड़ी से कोई संगति नहीं है। अगर है भी तो कोई एक ही संगति है कि एक ही आदमी से निकलती है। बाकी और कोई संगति नहीं है। पहली कड़ी और दूसरी कड़ी में कोई तालमेल नहीं है। प्रतीक सब बेहूदे हैं। प्रतीकों का परंपरा से कोई संबंध नहीं है । बड़ा दुस्साहस है। असंगत दिखने से बड़ा दुस्साहस जगत में दूसरा नहीं है। इसलिए असंगत होने का दुस्साहस केवल वही कर सकता है, जिसे प्राणों के बहुत गहरे में संगति का भाव हो। जो जानता है कि मैं संगत हूं ही। कितना ही असंगत वक्तव्य दूं, इ
ससे कोई बहुत फर्क नहीं पड़ता। मेरी संगति सुरक्षित है। जिनकी संगति बहुत आत्मिक नहीं है, वे एक-एक वक्तव्य को तौल-तौल कर चलेंगे, एक-एक वाक्य को तौल-तौल कर चलेंगे, क्योंकि डर है कि अगर दो वक्तव्य असंगत हो गए, तो भीतर की असंगति प्रकट न हो जाए। जो भीतर बिल्कुल ही कंसिस्टेंट है, ही कैन अफॅर्ड टू बी इनकंसिस्टेंट, वह इनकंसिस्टेंट हो सकता है। तो वह गिंसबर्ग बड़ी असंगत कविता कह रहा है। बड़ा दुस्साहस है। एक आदमी खड़े होकर कहता है कि बड़े दुस्साहसी आदमी मालूम पड़ते हो। लेकिन कविता करने से क्या होगा? कोई एक्ट, कोई डीड, कोई कृत्य करके दिखाओ साहस का! तो गिंसबर्ग सारे कपड़े छोड़ कर नंगा खड़ा हो जाता है। सारे कपड़े छोड़ देता है, नंगा खड़ा हो जाता है। वह कहता है, यह मेरी कविता की आखिरी कड़ी है। वह उस आदमी से कहता है, कृपा करो और तुम भी नंगे खड़े हो जाओ। वह आदमी कहता है, यह मैं कैसे हो सकता हूं! यह मैं कैसे हो सकता हूं! और वह हॉल सकते में आ जाता है। क्योंकि किसी को ख्याल न था कि कविता का अंत ऐसा हो सकता है, या कविता की ऐसी कड़ी आखिरी कड़ी हो सकती है। उससे लोग पूछते हैं, गिंसबर्ग, तुमने ऐसा क्यों किया? गिंसबर्ग कहता है कि हम सोच कर नहीं करते हैं। ऐसा हो गया। ऐसा हो गया! मुझे ऐसा लगा कि अब क्या करूं? यह आदमी पूछता है, कुछ करके दिखाओ! अब मैं क्या करूं? यहां कौन सा साहस करूं? यह कैसे करूं? अब मैं क्या करूं? यह आदमी कहता है कि साहस कुछ करके दिखाओ, तो अब कविता को कहां अंत करूं? मगर यह स्पांटेनियस है, यह कोई सोचा-विचारा नहीं है। लेकिन अतर्क्य है, कविता से इसका कोई संबंध नहीं है। कोई कालिदास, कोई भवभूति, कोई रवींद्रनाथ यह नहीं कर सकते। वे कवि हैं, परंपरा से बंधे हुए कवि हैं। यह हम सोच ही नहीं सकते कि का
लिदास ऐसा करेंगे। यह सोच ही नहीं सकते कि भवभूति ऐसा करेंगे। यह हम सोच ही नहीं सकते कि रवींद्रनाथ ऐसा करेंगे। यह नहीं हो सकता। यह ख्याल में नहीं हो सकता। यह आदमी कर पा रहा है। क्यों? यह यही कह रहा है कि तर्क से सोच-सोच कर कब तक जीओगे? कब तक सिलोजिज्म तुम्हारी जिंदगी होगी? कब तक दो और दो जोड़ कर जिंदा रहोगे? कब तक तुम हिसाब, खातेबही करोगे और जिंदा रहोगे ? छोड़ो खातेबही, छोड़ो हिसाब और जिंदा रहो । अब यह जिंदा रहना कैसा होगा? इसलिए गिंसबर्ग जैसे व्यक्ति मेरे लिए गांव के गंवार, ग्रामीण श्रद्धालु नहीं हैं। ये एक बहुत पक्की गहरी बुद्धिवादी परंपरा की आखिरी कड़ी हैं। और जब बुद्धिवादी परंपरा मरती है, जब वह सीमा पर पहुंच जाती है, जब उसे इनकार करने वाले लोग पैदा होते हैं... मैं मानता हूं, कृष्ण भी एक बहुत बड़ी बुद्धिवादी परंपरा की आखिरी कड़ी हैं। हिंदुस्तान बुद्धि के चरम शिखर हुआ है। हमने शब्दों की खाल उधेड़ डाली है। हमने बाल को काटने की, बीच से चीरने की कोशिश की है। हमारे पास बहुत ऐसा साहित्य है जो दुनिया की किसी भाषा में अनुवादित नहीं हो सकता, क्योंकि इतने बारीक शब्द दुनिया की किसी भाषा के पास नहीं हैं। हमारे पास ऐसे शब्द हैं, जो पूरे पृष्ठ पर एक ही शब्द होता है। क्योंकि हम इतने विशेषण लगाते हैं उसमें और इतनी शर्तें लगाते हैं और इतनी बारीकियां करते हैं कि पूरे पृष्ठ पर एक ही शब्द फैल जाता है। कृष्ण भी एक अत्यंत बुद्धिवादी परंपरा का आखिरी छोर हैं, जहां हम सब सोच चुके हैं, जहां हम वेद सोच चुके हैं और जहां हम उपनिषद सोच चुके हैं और जहां हम पतंजलि सोच चुके हैं और जहां हम कपिल और कणाद सोच चुके हैं, और जहां हमने समस्त, बृहस्पति से लेकर, सब सोच डाला है और सोच-सोच कर हम बुरी तरह थक गए हैं, उसकी आखिरी कड़ी में यह आदमी कृष्ण आता है। यह कहता है, अब बहुत सोचना हो गया, अब हम जीना शुरू करें। लेट अस नाउ लिव, इनफ ऑफ थिंकिंग! बहुत हो चुका सोचना, अब जीएंगे कब? और दूसरी बात भी इस संदर्भ में आपसे कहूं कि चैतन्य भी बंगाल में ऐसे ही समय में आते हैं। बंगाल में "नव्व न्याय" ने, मनुष्य-जाति ने चिंतन की जो आखिरी कड़ियां छुई हैं, वह छू लीं। जिस गांव में चैतन्य पैदा हुए, वह हिंदुस्तान के तार्किकों का अन्यतम गांव है। वह नवदीप, जहां वे जन्मे, हिंदुस्तान के श्रेष्ठतम तार्किक नवदीप में इकट्ठे थे। वह काशी थी तार्किकों की। हिंदुस्तान भर का तर्क नवदीप में जन्म रहा था और "नव्व न्याय" वहां पैदा हुआ। वहां हमने तर्क की नई ऊंचाइयां छुईं, जो अभी पश्चिम छूने को है। अभी पश्चिम के पास जो भी तर्क है, सब ओल्ड है, नव्व नहीं है। अभी अरस्तू पश्चिम के लिए तर्कशास्त्री है। नवदीप में हमने अरस्तू के आगे कदम बढ़ाए, नवदीप में हमने तर्क को उसकी आखिरी सीमा पर पहुंचा दिया। इतना ही कह देना काफी था कि कोई पंडित नवदीप से आता है, फिर उससे कोई विवाद नहीं करता था। उससे विवाद करना बेकार था। उससे झगड़े में पड़ना बेकार था। वह नवदीप
से आता है, इतनी गवाही काफी थी कि वह जीत का सर्टिफिकेट लेकर आता है। उससे तर्क में जीतने का कोई कारण नहीं, लड़ने की झंझट में पड़ना उचित नहीं। उस नवदीप में चैतन्य पैदा हुए । चैतन्य खुद भी वैसे ही तार्किक हैं। उन्होंने बड़े तार्किकों को उस नवदीप में हराया। उस नवदीप में जीतने के लिए हिंदुस्तान भर से तार्किक जाते थे। और जो आदमी नवदीप में जाकर जीत जाता था, उसकी दुदुंभी सारे देश में बज जाती थी कि इससे बड़ा बुद्धिशाली कोई आदमी नहीं है! नवदीप जीत लिया, तो समस्त संसार जीत लिया। नवदीप जीत कर लौटना मुश्किल था। अक्सर ऐसा ही होता था कि लोग जीतने आते थे और हार कर नवदीप के शिष्य हो जाते थे। वहां कोई एकाध तार्किक न था, वहां घर-घर तार्किक थे। वह पूरा गांव तार्किकों का था। वहां एक से जीतिए तो दूसरा खड़ा था, वहां दूसरे से जीतिए तो तीसरा खड़ा था। वहां सीढ़ियां दर सीढ़ियां थीं। वहां पूरे नवदीप को जीत कर लौटना असंभव था। उस नवदीप में चैतन्य सबसे जीत गया। उस नवदीप में चैतन्य ने झंडा गाड़ दिया और उससे तर्क में कोई जीतने को न रहा। और एक दिन यही चैतन्य जब झांझ-मंजीरा लेकर सड़क पर नाचने लगा और इसने कहा, अचिंत्य है सब, तब इसकी बात का बड़ा अर्थ है। यह उसी तर्क की आखिरी परंपरा का हिस्सा है। यह चैतन्य उस तर्क की गहनतम, गहनतम चिंतना, खोज, अन्वेषण, बारीक से बारीक समझ के बाद यह कहता है कि हम नासमझ होने को राजी हैं। अब हम समझदार नहीं होना चाहते । अब समझदारी हम छोड़ते हैं और नासमझ अब हम होते हैं। अब हम नाचेंगे नासमझी से। अब हम तर्क न करेंगे। अब हम तर्क से सत्य को खोजेंगे न, अब हम जीएंगे। तर्क की आखिरी कड़ी पर जीना शुरू होता है। चैतन्य महाप्रभु और उनके अचिंत्य भेदाभेद की बात हुई, गिंसबर्ग की भी बात हुई। इसके पहले,
शब्द के मंत्र बन जाने की विशिष्टता भी आपने बताई । और यही बात नाम-कीर्तन पर भी लागू होती है। साथ ही सुबह के प्रवचन में आपने कहा था कि शब्द का उपयोग किया नहीं कि द्वैत खड़ा हो जाता है। लेकिन कृष्ण ने बड़े विश्वास के साथ कहा है कि जो पुरुष ओम अक्षर जप ब्रह्म का उच्चारण करता हुआ उसके अर्थस्वरूप मेरा चिंतन करता हुआ शरीर त्याग करता है, वह पुरुष परमगति को प्राप्त हो जाता है। कृष्ण के शब्द ओम से अद्वैत का बोध कैसे होता है? ओम रेशनल है या इररेशनल है? आपके ध्यान-प्रयोग में ओम को प्रवेश देने में क्या-क्या बाधाएं थीं? शब्द सत्य नहीं हैं। सत्य तो निःशब्द में ही उपलब्ध होता है। और सत्य को प्रकट करना हो तो भी शब्द से किया नहीं जा सकता है। सत्य तो निःशब्द में ही अभिव्यक्त होता है, मौन में ही प्रकट होता है। मौन ही सत्य की मुखरता है। मौन ही सत्य के लिए वाणी है। ऐसा मैंने सुबह कहा। पूछा जाता है, अगर ऐसा है तो अभी आप कहते हैं कि शब्द बीज बन सकता है, और शब्द साधना के लिए आधार बन सकता है। दोनों में कोई विरोध नहीं है, दोनों बात ही अलग हैं। मैंने कहा सुबह कि शब्द सत्य नहीं हैं। लेकिन जो असत्य में घिरे हैं, सत्य तक पहुंचने के लिए असत्य के सहारे ही चलते हैं। या तो छलांग लगाएं, तब सीधे शब्द से मौन में कूद जाएं। अगर छलांग लगाने की हिम्मत न हो तो शब्द को धीरे-धीरे छोड़ते चलें। बीज-शब्द का मतलब है, सब शब्द छोड़ो, एक ही शब्द पकड़ो। इसमें सब शब्द छोड़ो और एक शब्द पकड़ो। नहीं हिम्मत है सब एक साथ छोड़ने की तो सब छोड़ो, एक पकड़ो। फिर अंततः उस एक को भी छोड़ना पड़ता है। वह जो बीज-शब्द है, वह सत्य तक नहीं ले जाता, सिर्फ मंदिर के द्वार तक ले जाता है। जैसे मंदिर के बाहर जूते छोड़ देने पड़ते हैं, ऐसे उस बीज - शब्द को भी बाहर ही छोड़ देना पड़ता है। मंदिर में प्रवेश करते वक्त वह साथ नहीं जाता। उतनी दुविधा भी साथ नहीं ले जाई जा सकती। उतना शोरगुल भी बाधा है। सब शब्द तो बाधा हैं, बीज-शब्द भी अंततः बाधा है। इसीलिए वे जो बीज - शब्द की बात किए हैं, वे भी कहे हैं कि वह क्षण आएगा जब बीज - शब्द भी खो जाएगा, तब तुम समझना कि ठीक हुआ। नाम जपना, लेकिन फिर अजपा नाम पर पहुंच जाना। जप से शुरू करना और अजपा पर पहुंच जाना। एक घड़ी आएगी, जप छूटे और अजप में कूद जाना। यह सारा मामला वही है, या पहले छोड़ो, या आखिरी छोड़ो। कहीं छोड़ देना पड़ेगा। जो पहले छोड़ने की हिम्मत रखते हैं, वे पहले छोड़ दें। जो नहीं छोड़ने की हिम्मत रखते हैं, बाकी शब्द छोड़ें, एक पकड़ लें। और उसको अंत में छोड़ दें। मैं छलांग का आग्रह करता हूं, इसलिए साधना में जहां तक बने बीज - शब्द से बचने की बात करता हूं। उसे पीछे छुड़वाना पड़ेगा। रामकृष्ण के साथ ऐसा हुआ, उससे समझ में आ जाएगा। रामकृष्ण ने मां का स्मरण करके ही, परमात्मा को मां स्वरूप मान कर ही साधना की। फिर ऐसा हो गया कि वह उस जगह पहुंच गए जहां मंदिर की आखिरी सीढ़ी आ गई। मां के साथ पहुंच गए। लेकिन उ
स सीढ़ी के बाद तो अकेले ही प्रवेश हो सकता है। मां को भी साथ नहीं लिया जा सकता। वह तो प्रतीक था, वह तो शब्द था, वह तो रूप था, वह तो लहर थी, अब सागर में प्रवेश करने के पहले उसे छोड़ देना जरूरी था। रामकृष्ण बड़ी मुश्किल में पड़ गए। रामकृष्ण की जिंदगी में सबसे बड़ी मुश्किल उस दिन आती है जिस दिन मां को छोड़ने का सवाल उठता है। अब जिसको इतने प्रेम से संवारा हो, और जिसको इतने आंसुओं से सींचा हो, और इतना नाच-नाच कर जिसको रमाया हो, और पुकार-पुकार कर जिसको बसाया हो, और श्वास-श्वास और हृदय की धड़कन-धड़कन में जिसको लेकर जीआ गया हो, अब आखिरी क्षण सवाल उठता है कि इसे छोड़ दो! तोतापुरी नाम के एक अद्वैतवादी साधक के पास वह सीखते हैं इसका छोड़ना। तोतापुरी उनसे कहता है कि इस मां को छोड़ो! तोतापुरी के लिए प्रतीक का कोई मतलब नहीं है। वह कहता है, छोड़ो इस मां को! इससे नहीं चलेगा। अकेले ही जा सकते हो । रामकृष्ण आंख बंद करते हैं, फिर आंख खोल देते हैं कि नहीं, यह नहीं हो सकता। मैं कैसे छोड़ सकता हूं? मैं अपने को छोड़ सकता हूं, मां को नहीं छोड़ सकता । तोतापुरी कहते हैं, फिर कोशिश करो, क्योंकि अगर तुम अपने को छोड़ दोगे तो मंदिर के बाहर रह जाओगे, मां मंदिर के भीतर चली जाएगी, उससे तुम्हें क्या होगा? उससे कोई मतलब नहीं है। तुम्हें जाना है सत्य के सागर में, तो छोड़ो! यह द्वैत नहीं चलेगा, यह दो नहीं चलेंगे, यह प्रेम की गली बहुत संकरी है, यह सत्य की गली बहुत संकरी है, यहां आखिर में एक ही बच जाना है। छोड़ो ! नहीं रामकृष्ण छोड़ पाते हैं, तीन दिन तक तोतापुरी मेहनत करते हैं। फिर तोतापुरी कहते हैं, तो मैं जाऊं? तो रामकृष्ण कहते हैं, एक बार और मेरे साथ मेहनत कर लो, क्योंकि तड़फता तो हूं उसके लिए जो अनजाना रह गया है
, लेकिन प्रतीक जिन्हें बहुत प्रेम किया, बड़े जोर से भीतर बंध गए हैं। तो तोतापुरी एक कांच का टुकड़ा लेकर आता है। रामकृष्ण आंख बंद करके बैठते हैं। तोतापुरी कहता है कि मैं तुम्हारे माथे पर आज्ञाचक्र जहां है, वहां कांच से काट दूंगा तुम्हारी चमड़ी को। जब खून बहने लगे और कटाई तुम्हें कांच की मालूम पड़ने लगे, तब तुम भीतर एक तलवार उठा कर मां को दो टुकड़े कर देना। रामकृष्ण कहते हैं, मां को, और दो टुकड़े? और तलवार! क्या कहते हैं आप! अपने को कर सकता हूं, मां पर कैसे तलवार उठाऊंगा? और फिर वहां तलवार लाऊंगा कहां से? तो वह तोतापुरी कहता है, पागल हो तुम ! जो मां नहीं थी उसको तुम ले आए, तो जो तलवार नहीं है उसको भी ले आओ। जब इतना बड़ा झूठ, जब इतना बड़ा झूठ तुमने सत्य कर लिया, जो नहीं है कहीं भी उसको भी तुमने साकार कर लिया, तो अब एक तलवार और साकार कर लो, इसमें क्या देर लगेगी! तुम कुशल हो, तलवार भी आ जाएगी। झूठी तलवार काम करेगी। रामकृष्ण आंख बंद करके बैठते हैं। चूंकि तोतापुरी ने कहा है कि आज वह चला जाएगा, वह इस तरह के बचकाने खेल में नहीं पड़ सकता । वह पहले ही छलांग लगा लेने वाले लोगों में से है। रामकृष्ण आखिरी सीढ़ी पर दिक्कत में पड़े हैं। वह कहता है, कहां की बचकानी बातें करते हो, छोड़ो! शर्म नहीं आती! फिर वह कांच उठा कर रामकृष्ण के माथे को काट देता है। इधर वह माथे को काटता है, उधर रामकृष्ण हिम्मत जुटा कर तलवार से दो टुकड़े मां के कर देते हैं। मूर्ति गिर जाती है, रामकृष्ण परम समाधि में खो जाते हैं। उठ कर, वापस लौट कर वे कहते हैं, आखिरी बाधा गिर गई, दि लास्ट बैरियर! तो वे जो शब्द हैं, वे जो मंत्र हैं, वे जो बीज हैं, वे सबके सब लास्ट बैरियर बनेंगे। उनसे जो चलेगा, एक दिन तलवार उठा कर उनको तोड़ना भी पड़ेगा। फिर बड़ा कष्ट पड़ता है। इसलिए मैं जहां तक कोशिश करता हूं, उनको जगह न बने, अन्यथा पीछे मुझे और एक झंझट होगी। वह बात पहले ही निबटा लेनी अच्छी। और दूसरा सवाल पूछा है कि कृष्ण कहते हैं कि ओम रूप में मुझे देख कर, जान कर, जीकर, पहचान कर अंत क्षण में तू मुझको उपलब्ध हो जाएगा। तो यह ओम शब्द है या नहीं? यह ओम बड़ा अदभुत शब्द है । यह असाधारण शब्द है । असाधारण इसलिए कि अर्थहीन शब्द है। सब शब्दों में अर्थ होते हैं, इस शब्द में कोई अर्थ नहीं है। इसलिए ओम का हम दुनिया की किसी भाषा में अनुवाद नहीं कर सकते हैं। कोई उपाय नहीं है। अर्थ हो तो अनुवाद हो सकता है, क्योंकि उसके अर्थ का दूसरा शब्द दुनिया की किसी भी भाषा में मिल जाएगा। लेकिन ओम का अनुवाद नहीं कर सकते, क्योंकि यह अर्थहीन है, यह मीनिंगलेस है। सब शब्दों में मीनिंग होते हैं, इसमें कोई मीनिंग नहीं है, इसमें कोई अर्थ नहीं है। यह शब्द जिन्होंने बनाया, यह उन्होंने शब्द और निःशब्द के बीच में एक कड़ी खोजी । शब्द है अर्थपूर्ण निःशब्द न अर्थ है, न अनर्थ है, पार है। इन दोनों के बीच में एक ब्रिज बनाया ओम का। यह भाषा की, शब्द की ध्वनियों की जो तीन
मूल ध्वनियां हैं, अ उ म, उन तीनों को जोड़ कर बना लिया। समस्त शब्द-ध्वनियां अ उ म का विस्तार हैं। ए यू एम का विस्तार हैं। उन तीनों को जोड़ कर इस ओम को बना लिया। इसलिए फिर इस ओम को शब्द की तरह लिखा भी नहीं, इसको पिक्चोरियल बना लिया, इसका चित्र बना दिया, जिसमें कि यह भी ख्याल में न रहे कि यह कोई शब्द है । यह एक चित्र है । और वहां खड़ा है जहां शब्द समाप्त होते हैं और निःशब्द शुरू होता है। यह सीमांत का पत्थर है। यह उस जगह खड़ा है ओम्, जहां से आगे फिर शब्द नहीं है । जिसके इस तरफ शब्द हैं। यह बीच की कड़ी है। इसलिए कृष्ण कहते हैं कि अगर तू मुझे ओम रूप, ओम रूप का मतलब है अर्थहीन, शब्दातीत, भाषाकोष में नहीं मिलता है जो, ऐसे शब्द में मुझे सोच सके अंत क्षण में, तो तू मुझे उपलब्ध हो जाएगा। क्योंकि यह सीमांत का शब्द है। अंत समय अगर इस सीमांत पर कोई पहुंच सके, तो छलांग हो जाएगी। इस ओम शब्द में भारत के मन ने बहुत कुछ भरा है। इसे बड़ा विस्तीर्ण अर्थ दिया है। इतना विस्तीर्ण अर्थ दिया है कि अब उसमें कोई अर्थ नहीं है। इतना फैलाया है, इतना फैलाया है कि उसमें कोई सीमा नहीं रही। लेकिन, ओम के पाठ का सवाल नहीं है, ओम के अनुभव का सवाल है। और अगर ध्यान में आप उतरेंगे, तो जब सब शब्द खो जाएंगे, तब आपके भीतर ओम की ध्वनि होने लगेगी। यह आपको करनी नहीं पड़ेगी। अगर करनी पड़ी तो धोखा हो सकता है, कि वह आप ही कर रहे हों। इसलिए भी मैंने ध्यान में ओम की जगह नहीं बनाई है। अगर हम अपनी तरफ से ओम की ध्वनि करें, तो हो सकता है कि वह शब्द - ध्वनि ही होगी। एक ओम की ध्वनि वह भी है, जब हमारे सब शब्द खो जाते हैं तो वह शेष रह जाती है। उसको कहना चाहिए वह कॉज्मिक साइलेंस की ध्वनि है। जब सब शेष हो जाता है, सब मिट जाता है--सब शब्
द, सब बुद्धि, सब विचार-- तब एक ध्वनि का स्पंदन रह जाता है, जिसको इस देश में ओम की तरह व्याख्या किया गया है। उसकी व्याख्या और भी हो सकती है। वह हमारी व्याख्या है। कभी आप रेलगाड़ी में बैठ कर अगर चाहें, तो चक्के की आवाज की बहुत तरह की व्याख्या कर सकते हैं। वह चक्का जब आवाज करता है, तो वह कुछ आपके लिए आवाज नहीं करता, न आपसे कुछ कहता है, लेकिन आप जो चाहें उसमें खोज सकते हैं। वह आपकी खोज होगी। जब विराट शून्य उत्पन्न होता है, तो विराट शून्य की अपनी ध्वनि है, अपना संगीत है--साउंड ऑफ कॉज्मिक साइलेंस। जब सब शून्य हो जाता है, तब उसकी अपनी ध्वनि है। उस ध्वनि का नाम अनाहत है। वह किसी कारण से पैदा नहीं होती। हम ताली बजाते हैं तो यह आहत नाद है, दो चीजों की टक्कर से पैदा होता है। आहत नाद का अर्थ है, दो चीजों की टक्कर से पैदा हो । ढोल पीटते हैं, आहत नाद है। बोलते हैं तो ओंठ और जीभ का आहत नाद है। जब सब बंद हो जाता है, जहां दो ही नहीं रह जाते, एक ही रह जाता है, तब अनाहत नाद होता है। बिना किसी चोट के, बिना दो के टकराए ध्वनि होती है; वह जो ध्वनि है अनाहत, उसे इस देश के मनीषियों ने ओम की तरह व्याख्या की है। दूसरे देश के मनीषियों ने भी उसकी व्याख्या की है, तो वह करीब-करीब ओम के है। जैसे क्रिश्चियन आमीन कहते हैं। वह ओमीन की व्याख्या है, वह ओम की व्याख्या है। मुसलमान भी अमीन कहते हैं। उपनिषद लिखा जाएगा तो सब लिखने के बाद आखिर में ऋषि लिखेगाः ओम शांतिः शांतिः शांतिः। मुसलमान आयत पढ़ेगा, शास्त्र लिखेगा, तो आखिर में सब लिखने के बाद लिखेगाः अमीन, अमीन, अमीन। उससे पूछो, अमीन का अर्थ क्या है? अमीन अर्थहीन है। वह उसी कॉज्मिक ध्वनि की व्याख्या है उसकी, ओम की ही व्याख्या है। क्रिश्चियन भी आमीन का उपयोग करता है। अंग्रेजी में कुछ शब्द हैंः ओमनीसिएंट, ओमनीप्रेजेंट, ओमनीपोटेंट । ये बड़े अजीब शब्द हैं। इनका अंग्रेजी भाषाशास्त्र के पास व्युत्पत्ति का सूत्र नहीं है। ये सब ओम से बने हैं। ओमनीसिएंट का मतलब है, जिसने ओम को देखा। यह बहुत मुश्किल मामला है। इसलिए अंग्रेजी भाषाशास्त्री बड़ी कठिनाई में पड़ता है कि इसका मतलब क्या है? इस ओमनीसिएंट का मतलब क्या है? वन हू हैज सीन दि ओम्। जिसने ओम को देखा, वह ओमनीसिएंट है। ओमनीप्रेजेंट का क्या मतलब है? जो ओम में उपस्थित हो गया। जो ओम के साथ एक हो गया। ओमनीपोटेंट का क्या मतलब है? कि जिसको उतनी ही ऊर्जा मिल गई जितनी ओम की है, जो उतना ही शक्तिशाली हो गया जितना ओम है। यह ओम की व्याख्या बहुत-बहुत रूपों में पकड़ी गई है। लेकिन दुनिया के दो बड़े धर्मस्रोतों ने... यह बड़े मजे की बात है ! जैन हिंदुओं का कुछ भी स्वीकार न करेंगे, लेकिन ओम को इनकार न करेंगे। बौद्ध हिंदुओं का कुछ भी स्वीकार न करेंगे, लेकिन ओम को इनकार न करेंगे। अगर जैन, बौद्ध और हिंदुओं के बीच कोई एक शब्द है जो समान है, तो वह ओम है। अगर हिंदू, जैन, बौद्ध, ईसाई, मुसलमान, सबके बीच कोई शब्द एक समान है, तो वह
ओम है। हां, उनकी व्याख्या ओमीन की है, अमीन की है, ये उसे ओम कहते हैं। वह हमारा गाड़ी के चाक में सुना गया फर्क है । पक्का नहीं कहा जा सकता कि वह अमीन है या ओम है। इसमें पक्का नहीं हुआ जा सकता, वह अमीन भी हो सकता है, वह ओम भी हो सकता है। लेकिन एक बात पक्की है कि अमीन में भी और ओम में भी एक ही ध्वनि की व्याख्या की गई है। वह ध्वनि अंतिम है। जब हम सब शब्दों के पार पहुंचते हैं तो एक ध्वनि शेष रह जाती है, जो कॉज्मिक साउंड है। झेन फकीर कहते हैं अपने साधक को कि तुम उस जगह जाओ और ऐसी बात खोज कर लाओ जहां एक हाथ की ताली बजती है। अब एक हाथ की ताली! यह झेन फकीरों का अपना ढंग है अनाहत को कहने का। उन्हें अनाहत का कोई पता नहीं है, इस शब्द का। वे कहते हैं कि वह जगह खोजो, वह स्थान खोजो, जहां एक हाथ की ताली बजती है। जहां एक हाथ की ताली बजेगी, वहां ओम रह जाएगा। जहां तक दो हाथ की ताली बजेगी, वहां तक शब्द होंगे, ध्वनियां होंगी। मैंने क्यों जान कर ध्यान में ओम को बिल्कुल जगह नहीं दी है? जान कर नहीं दी है। क्योंकि अगर आपने उच्चारण किया ओम का, तो वह आपके द्वारा पैदा की हुई ध्वनि होगी। वह आहत नाद होगा। मैं प्रतीक्षा करता हूं उस ओम की कि जब आप बिल्कुल खो जाएंगे और ओम प्रकट होगा, और आपके भीतर से आएगा । वह हुंकार होगी, वह अनाहत होगा, वह कॉज्मिक साउंड होगी। उस दिन, जैसा कृष्ण कहते हैं, ठीक कहते हैं कि अगर ओम को तुमने समझा और जाना और जीआ तो आखिरी क्षण में तुम मुझे उपलब्ध हो जाओगे । वह ठीक कहते हैं। लेकिन वह आपके द्वारा कहा गया ओम नहीं है। मरते वक्त अगर आप अपने ओंठ से ओम्-ओम कहते रहे, तो बेकार मेहनत करेंगे। शांति से मर सकते थे और अशांति से मरना हो जाएगा। ओम आना चाहिए, प्रकट होना चाहिए, विस्फोट होना चाहिए। वै
सा होता है। अब हम ध्यान के लिए बैठे। देखें, उस ओम की तरफ यात्रा करें। बातचीत न करें, दूर-दूर बैठ जाएं... बातचीत न करें, दूर-दूर बैठ जाएं। थोड़ा फासला करके बैठें। जो लोग देखने खड़े हैं, वे बाहर आ जाएं, सड़क पर खड़े हों, यहां कंपाउंड में खड़े न हों। आप लोग बाहर आ जाएं। थोड़े फासले पर बैठें, ताकि कोई गिर जाए, लेट जाए, तो आपके ऊपर न पड़ जाए... काफी पीछे जगह पड़ी है, कंजूसी न करें। थोड़े दूर-दूर हट जाएं। फिर कोई गिर जाएगा, उतने ही में बाधा हो जाती है, और कई लोग गिर जाएंगे, इसलिए हट जाएं। और ऐसा मत सोचें कि दूसरा हटेगा, दूसरा कभी हटता ही नहीं हटना हो तो आप ही हट जाएं। जो मित्र देखने खड़े हैं, उनसे प्रार्थना है कि वे बिल्कुल चुपचाप खड़े होकर देखेंगे, बात न करेंगे, ताकि हमें बाधा न हो। दो-तीन बात समझ लें । बैठ कर प्रयोग करना है, उसी तरह परिणाम होंगे। दस मिनट तो हम गहरी श्वास लेते रहेंगे। दस मिनट के बाद बैठे-बैठे ही शरीर डोलने लगेगा, उसे डुलाना है, डोलने देना है। आवाज निकलने लगेगी, रोना निकलने लगेगा, उसे निकलने देना है। फिर दस मिनट पीछे, मैं कौन हूं, प्रक्रिया वैसी ही रहेगी, सिर्फ आपको बैठ कर करना है, बस इतना फर्क होगा। इस बीच कोई गिर जाएगा तो उसे चिंता नहीं लेनी, गिर जाना है। कंपाउंड में कोई भी आंख खोले हुए नहीं होगा। दोनों हाथ जोड़ लें, संकल्प कर लें! प्रभु को साक्षी रख कर मैं संकल्प करता हूं कि ध्यान में अपनी पूरी शक्ति लगाऊंगा। प्रभु को साक्षी रख कर संकल्प करता हूं कि ध्यान में अपनी पूरी शक्ति लगाऊंगा। प्रभु को साक्षी रख कर संकल्प करता हूं कि ध्यान में अपनी पूरी शक्ति लगाऊंगा। आप अपने संकल्प का स्मरण रखना, प्रभु आपके संकल्प का स्मरण रखता ही है। अब दस मिनट के लिए बैठे-बैठे ही तीव्र श्वास लें। इसमें बहुत जोर से शक्ति उठेगी, खड़े होने से भी ज्यादा जोर से उठेगी। शक्ति उठेगी ही, श्वास की चोट करें। शरीर के भीतर विद्युत दौड़ने लगेगी... शरीर के भीतर इलेक्ट्रिसिटी पैदा होने लगेगी... जोर से सांस लें... शरीर कंपने लगे, कंपने दें; डोलने लगे, डोलने दें; हिलने लगे, हिलने दें। शक्ति जाग रही है, उसे जागने दें, जोर से श्वास लें, शक्ति को जागने दें। ... बहुत ठीक! बहुत ठीक! अपना-अपना ख्याल कर लें, कोई पीछे न रह जाए... शक्ति जाग रही है, उसे जागने दें... शरीर जो करता हो बैठे-बैठे करने दें... गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास... शक्ति जाग रही, सहयोग करें, गहरी श्वास लें, गहरी श्वास लें, गहरी श्वास लें... गहरी श्वास... बहुत ठीक, बहुत ठीक... अधिक मित्रों की शक्ति जाग रही है, उसे पूरा खुला छोड़ दें... गहरी श्वास लें, चोट करें, चोट करें, आनंद से भर जाएं, आनंद से भर जाएं, गहरी श्वास लें, गहरी श्वास लें, आनंद से भर जाएं, गहरी श्वास लें, गहरी श्वास लें। शरीर इलेक्ट्रिफाइड हो गया है, उसे होने दें, आप गहरी श्वास लें, आनंद से, आनंद से, परिपूर्ण आनंद से भर कर गहरी श्वास लें। ... ज
ोर से, जोर से, आनंद से, आनंद से, पूरे आनंद से गहरी श्वास लें; पीछे न रह जाएं, पूरी शक्ति लगाएं, फिर हम दूसरे चरण प्रवेश करेंगे, चार मिनट बचे हैं, पूरी ताकत लगाएं। बहुत ठीक! बहुत ठीक! ठीक गति आ रही है, आने दें, आने दें, आने दें। कभी-कभी जरा से में चूक जाते हैं... ताकत, ताकत पूरी लगा दें, आनंद भाव से पूरी ताकत लगा दें। तीन मिनट बचे हैं... बढ़ें, बढ़ें, बढ़ें, जोर से, भीतर यात्रा करें, गहरी श्वास। शक्ति जागने लगेगी, शरीर अपना नहीं मालूम पड़ेगा, डोलने लगेगा, बैठे-बैठे नाचने लगेगा, डोलने लगेगा, कांपने लगेगा। कांपने दें, बैठेबैठे नाचने दें, आप गहरी श्वास लें, गहरी श्वास लें... बहुत ठीक, डोलें, डोलें, कंपें... गहरी श्वास लें।
कुलधरा !कहीं वह गलती से कुलधरा गाँव में तो नहीं आ निकली ?जहां के सारे लोग रातों रात अपना सामान और मवेशी लेकर गायब हो गए थे क्योंकि गाँव की एक लड़की की इज़्ज़त का प्रश्न था, फिर कभी वापिस नहीं लौटे। सारा गाँव ऐसे ही उजड़ा पड़ा रहा। सूनी गलियां, बंद दरवाज़े, खिड़कियाँ, इधर उधर औचक देखती झूमती पेड़ों की पत्तियां और रुंधे गले से सरसराती हवा ----जैसे उसका गला दबाने की कोशिश की गई हो। नहीं, नहीं वह तो मोबाइल में नक़्शे को बहुत ध्यान से देखते हुए बहुत सावधानी से इस गाँव में पहुँची है, जो सारे देश केअखबारों की सुर्खियाँबना हुआ है. सुबह के ग्यारह बजे ही सांय सांय करते गाँव में वह अपनी जीप एक नीम के पेड़ के नीचे खड़ी करके ऊबड़ खाबड़ रास्ते पर घूम रही है। इसे किसी छोटी पहाड़ी को काटकर बसाया गया है। वो तोअच्छा है अखबार के संपादक मिस्टर सिंह ने जीप अरेंज कर दी थी वरना वह तो अनगढ़ स्टाफ़ कार से ही आती। तभी उसे घरों के पीछे से गाय या भैंस के रम्भाने की आवाज़ सुनाई देती है --इस समय मवेशी गाँव में ?इस समय तो इन्हेंआस पास के जंगलों में चराने के लिए ले जाया जाता है। इसका मतलब तो कोई जंग खाये कुंडी दरवाज़ों के पीछे है । थेंक गॉड !ये कुलधरा नहीं है। तीन चार गलियों को पार करके उसे सामने सफ़ेद पुताई किये एक छोटे से घर पर एक बोर्ड दिखाई -` पंचायत घर `-- उफ़ ! उसके सामने के समतल छोटे से मैदान मे भीड़ जुटी होगी, साज़िश रची गई होगी।वह अपना कैमरे से खटाखट फ़ोटो लेने लगती है लेकिन उसका दिल व हाथ क्यों थरथरा रहे हैं ?क्या किसी स्त्री वजूद के तार तार हुए टुकड़ों के स्थल को कैमरे में समेटना इतना आसान होता है ?कैमरे में दिल नहीं होता लेकिन-----. क्यों कोई काले बालों के उड़ते कतरे उसकीआँखों मे धंसे जा रहे हैं। ये हवा में उड़ते, उसके चेहरे से चिपकने का अहसास कराते काले बाल किसके हैं ---डायन के ---या चुड़ैल के? या ----. उसने तो सिंह साहब से बहाना बनाया था,"सर !मैं इस गांव जाकर क्या करूंगी ?सब कुछ तो खुली किताब है। कितने अखबार, कितने चेनल्स उस गाँव में पहुंच गए हैं।" "नो, नो, माई सिक्स्थ सेंथ इज़ टेलिंग मी देयर इज़ अ स्टोरी बिहाइंड दिस स्टोरी। यू मस्ट एक्सप्लोर दिस।" "बट हाउ केन कम्युनिकेट विद विलेज पीपल ?आई कान `ट स्पीक मारवाड़ी ?"उसकी कॉन्वेन्टी नाक इतराई थी। सिंह साहब आगबबूला हो गए थे,"तो क्यों यहां काम करने आईं ?डेल्ही में काम नहीं था ? मारवाड़ी कोई साउथ इंडियन लैंग्वेज है जो समझ नहीं आएगी ?" वह सिर झुकाकर उनके केबिन से निकल आयी थी। बेमन वह यात्रा की तैयारी करती रही थी। कुछ सम्पर्क खोजकर फ़ोन करती रही थी. उसने मोबाईल में जी पी इस सिस्टम से इस गाँव का नक्शा सेव कर लिया था क्योंकि वहां इंटरनेट होने की संभावना कम ही थी। वह भी सोचने पर मजबूर हो गई थी कि यदि कोई स्त्री अपने पति के भाई के बेटे की विधवा बहू से पुनर्विवाह करने के लिए कहे तो क्या सिर्फ़ इसी बात के लिए उसके साथ इतना बड़ा काण्ड, इतन
ी बड़ी साज़िश की जा सकती है ?वह भी सरपंच के सामने गाँव में भरी पंचायत में ? वह कैमरा संभाले आगे बढ़ती है, सेंडिल वाला पाँव एक गढ्ढे में कारण लचक जाता है। वह अपने को संभालती है कि तभी एक भूरे रंग का कुत्ता तेज़ी से उस पर भौकता हुआ पीछे की गली में भाग जाता है। हर जगह एक गंध समाई हुई है, बहुत देर में वह समझ पाती है कि ये गोबर से लिपे पुते घरों की महक है जिसमे नीम की पत्तियाँ की गमक भी घुली हुई है. वह दांयी तरफ की गली में मुड़ती है, ये देखकर खुश हो जाती है, दो औरतें कुँये पर पानी भर रहीं हैं। वे उसे देखकर भरी बाल्टी छोड़कर भागना चाहतीं हैं। वह जबरन उनका रास्ता रोककर खड़ी हो जाती है,"इस गाँव में जो कुछ हुआ है, बताएंगी।" "मूँ अठे थी ही नीं।" उसने दूसरी औरत से पूछा,"आपने किसी घटना के बारे में नहीं सुना ?" " म्हारे काईं बात हुणवा मेईज नई आई।" " गाँव में एक आदमी ने फांसी लगा ली. उसके बाद एक बड़ा कांड हुआ और आपने कुछ नहीं सुना ?" "पतो नी कुण जीवतो न, कुण मरयो।" उसे गुस्सा तो बहुत आ रहा था लेकिन उसने धीरज से काम लेते हुए पूछा,"ये तो बता दीजिये मुम्बई में काम करने वाले वरदीसिंह का घर कौन सा है ?" "पतो नी।" दोनों अपनी बाल्टियां उठाये वहां से खिसक लीं। वह हैरान परेशान कच्चे रास्ते पर बंद दरवाज़ों को देखती खड़ी रह गई। उसने बैग में रक्खी बोतल को मुंह से लगाकर पानी पीया. उसने आस पास के घरों में जाकर बार बार दरवाज़े खड़खड़ाये। एक आँख लकड़ी के दरवाज़े की झिरी के पार दिखाई देती और बस ---- उसे आगे बढ़ जाना पड़ जाता। निपट सुनसान पड़े गाँव में जाने वह कौन से गली में निकल आई थी, मायूस थी। वह खाली हाथ लौटना नहीं चाहती थी लेकिन कहीं कहानी का कोई सूत्र हाथ नहीं लग रहा था। लौटकर कैसे सामना करेगी वह सिंह
साहब का ? तभी सामने से एक सत्रह अठारह वर्ष का लड़का कंधे पर बैग लिए आता दिखाई दिया। जल्पा ने उसे इशारे से रुकने का संकेत किया व पूछा,"आपको वनदेवी का घर पता है, जो किस्सा अखबारों में उछला है ?" वह लड़का खुश होकर मुस्कराने लगा,"आप अखबार की पत्रकार हो?" उसने हामी में सिर हिलाया। वह कहने लगा,"मैं बात तो दूँगा लेकिन मेरा नाम नहीं आना चाहिये." वह हंस पड़ी,"मुझे तो आपका नाम ही नहीं पता।" वह लड़का भी खिसियाया सा हंस पड़ा,"मेरे साथ आओ ।" उसके पीछे चलते हुए वह पूछने लगी,"क्या शहर में पड़ते हो ?" " इतना पैसा कहाँ है ? मैं जयपुर मज़दूरी करता हूँ।" उसने दूर से एक घर दिखाया,"वो पांचवा मकान जिसके दरवाज़े पर गेरू से कुल देवता का चित्र बना हुआ है वही मनदेवी ताई का मकान है." "उनके रिश्तेदार हो ?" "हाँ, यहां हमारे खानदान के तीस लोगों का परिवार है।" जल्पा ने उस घर की कुंडी खटखटाई अंदर से तेज़ आवाज़ आई,"कौन है ?" "मैं हूँ जल्पा, मुझे इन्स्पेक्टर मीणा ने भेजा है।" उसके ये कहते ही दरवाज़ा धीरे से खुला और आवाज़ आई,"जल्दी अंदर आओ।" वह जल्दी से अंदर चली गई। उस मध्यवयस की स्त्री ने अपना परिचय दिया,"मैं आशा सहयोगिनी हूँ इन्स्पेक्टर ने फ़ोन पर बताया था कि आप आज आने वालीं हैं इसलिए मैं भी आ गई जिससे आपको भाषा की परेशानी ना हो।" "मैं आपके मोबाइल पर घर का रास्ता पूछने के लिए कॉल कर रही थी लेकिन उसका स्विच ऑफ़ आ रहा था। "सॉरी !मेरे यहाँ मेहमान आ गए थे मैं चार्ज करना भूल गई. अभी दो मिनट पहले ही यहां पहुंची हूँ।" एक घाघरा ओढ़नी पहने गर्भवती लड़की ने उसे पानी का गिलास पकड़ाया और कहा,"घणी खम्मा।" आशा ने परिचय करवाया,"ये मनदेवी की छोटी लड़की है। बड़ी के कल रात को बेटा हुआ है। दोनों बहिनें यहां सोहर के लिए आई हुईं थीं और ---."सहयोगिनी के भी आंसू छलछलाये। जल्पा जानती है केंद्रीय व राज्य सरकार ने आशा सहयोगिनियों की नियुक्ति की हुई है जिससे उनके व गांववालों के बीच सम्पर्क बना रहे। ये सरकार की योजनाओं की जानकारी गाँव वालों को दे सकें, उन्हें स्वास्थ्य, शिक्षा व अन्य मामलों में उचित मशविरा दे सकें। वह पानी पीकर सहयोगिनी से पूछती है,"आपका असली नाम क्या है ?" " मेरा नाम जानकी है।" "और वो -----."इस घर में आकर जैसे साँस लेना भी मुश्किल हो रहा है। लग रहा है किसी स्त्री की बेचैन रूह से निकलता कराहता, चीखता, रुदन उसकी श्वास नली से लिपटा जा रहा है। इस घर की रूह भय से थर्रायी हुई लग रही है । " इनकी बेटी बता रही थी कि कल रात वो सारी रात नहीं सोईं हैं। उन्हें मैंने धोखे से नींद की गोली देकर बहुत मुश्किल से सुलाया है। आप उन्हें बस देख आइये।" "लेकिन मैं तो उन्हीं से बातचीत करने आई थी।" "आप उनसे क्या बात करेंगी ?वे तो किसी अजनबी को देखकर इतना चीखने लगतीं हैं कि सम्भालना मुश्किल हो जाता है. आप उन्हें बस देख आइये।" मनदेवी की गर्भवती बेटी उसके आगे अपने उदर के भार के कारण धीरे धीरे चली और उसने पास के कमरे के द्वार ख
ोल दिये," `वठे रइ बाई ` ।" चारपाई पर एक दुबली पतली आकृति कथरी से ढकी सो रही थी, एक हाथ थोडा चारपाई से नीचे ढलक आया था । गेंहुए चेहरे पर सोते में भी जैसे भय व दुःख पुता हुआ था. उसके सिर पर नज़र जाते ही उसे अपनी चीख़ रोकनी मुश्किल होगी क्योंकि सिर के बाल सारे सफ़ाचट थे।जल्पा जल्दी से लड़खड़ाती लौट ली। "वनदेवी सो रहीं हैं इसलिए आपने उनकी शक्ल देख ली वरना अपनी ओढ़नी से पूरा चेहरा कसकर ढके रहतीं हैं। उनकी उंगली तक नहीं दिखाई देती, चाहे घर के लोग ही क्यों ना हों। ऐसा लगता है कोने में घुसा जाता कोई बोरा रक्खा है।" जल्पा बाहर के कमरे की कुर्सी पर बैठी थरथरा रही है ---यही साधारण कमरा है ---इसी कमरे में अचानक कुछ लोग आ गए होंगे जिनकीअगुआई सुन्दरसिंह कर रहा होगा।पैरों की आवाज़ें सुनकर मनदेवी बाहर आईं होंगीं। सुन्दर सिंह ने अपनी बलिष्ठ हथेली में उनकी कलाई जकड़ ली होगी इससे पहले वे कुछ समझें, कहें या बोलें -यहीं से मनदेवी को घसीटते हुए कुछ लोग पंचायत घर के सामने ले गये होंगे। वह भौंचक होगी, ये क्या हो रहा है --क्यों हो रहा है --रोते रोते गिड़गिड़ाई होगी --तो उसकी कलाइयों पर मरदों के हाथों की पकड़ और मज़बूत हो गई होगी। पंचायत घर यहाँ से पास तो नहीं, तब तक वनदेवी घसीटी गई होगी -- पहाड़ी स्थल की उंची नीचे ज़मीन पर हिचकोले खाता शरीर दर्द से टूट रहा होगा, धूल भरी ज़मीन पर उसके शरीर में चाहे कितने पत्थर या गिट्टियां चुभे हों। पंचायत में जुटी भीड़ में अपने पति व बेटे को देख और चीख उठी होगी, घायल हिरनी की पनीली आँखों ने तड़प कर सहायता माँगी होगी। उन बंधक हुए बाप बेटे ने बेबसी से नजऱें झुका ली होंगीं. बेटे ने पूरी ताकत लगाकर उठने की कोशिश की होगी और उसके चार पांच थप्पड़ पड़ गए होंगे। तीनों कैसे सम
झ पाते कि सरपंच ने पहले से ही तैयारी करके रक्खी हैं। सबके मोबाइल अपने पास जमा करवा लिये थे कहीं कोई वीडिओ बनाकर पुलिस को ना दे दे। कुछ लोग आगे बढ़ आये होंगे। एक के हाथ में होगी कैंची जिससे उसने मनदेवी के बाल काट ने शुरू कर दिए होंगे। दूसरे ने मुंह पर काला रंग पोतना शुरू कर दिया होगा। जब बाल क़तर गए होंगे तो उस्तरे से उनके सिर को सफ़ाचट करके उस पर भी काला रंग पोत दिया होगा। अब तक उसके शरीर के कपडे एक एक करके फाड़कर उन्हें अर्द्धनग्न कर दिया होगा । वनदेवी धरती में धंसी जा रही होगी। होश में भी रही होगी या नहीं ? भीड़ दरिंदगी से ताली बजाकर हंसती रही होगी। तब मंगीदेवी सरपंच दहाड़ी होगी," गधे ने अठी ने लायो ।" गधे के पांचों के सामने लाते ही दो तीन लोगों ने रोती कलपती मनदेवी के अश्लीलता से अंग मसलते हुए गोदी में उठाकर उन्हें गधे पर जबरन बिठाया होगा। उन्होंने गधे की गर्दन से चिपककर अपनेअंगों को ढकने का प्रयास किया होगा, एक आदमी ने उनकी गर्दन पकड़ कर सीधा बिठा दिया होगा," सिध्धी बेठी रै ----लोग लुगाई ने तमासा देखवा दे।" उनके सीधे बैठते ही निर्ल्लज भीड़ ताली बजाकर हंस पड़ी होगी,"अब मजा आयो नी." कैसा होगा वह हैवानगी का चरम जब मनदेवी गधे पर निर्वस्त्र बिठाकर काले रंग से पुती सारे गांव मे घुमाई गई होगी। पीछे हंसती, ताली बाजाती हुई दरिंदों की भीड़ चल रही होगी। इतनी सी बात के लिए कैसे इतनी बड़ी साज़िश रची जा सकती है ?मनदेवी ने अपने पति के भतीजे की विधवा से इतना भर तो कहा था, -दूजी सादी कर ले। `लेकिन किसी के पति की मृत्यु के दो दिन बाद ऐसे कैसे कोई कह सकता है ? लेकिन फिर भी बात इतनी बड़ी तो न थी. ये जुलूस ताली बजाता, किलकारियां भरता घंटों सारे गाँव मे घूमता रहा। चार -पांच कुत्ते भी साथ चल रहे थे। अचरज से कभी भौंकते लोगों के पास आ जाते तो लोग उन्हें हड़का देते तो किसी गली में भाग जाते, फिर भौंकते वापिस आ जाते। मनदेवी के बहते हुए आंसुओं पर किसी का ध्यान नहीं था। वह अर्द्ध बेहोशी में रोती जा रही थी, सोचते हुए वह कैसी पापिन है जो लाख प्रार्थना के बाद भी धरती मैया नहीं फट रहीं। पता नहीं ये दौर और कितनी देर चलता, अचानक भगदड़ मच गई," किसी ने पुलिस को खबर कर दी है पुलिस की जीप गाँव में आ रई है।" जिसे जहां समझ में आया वह वहीं भाग लिया। वनदेवी को जल्दी से गधे से उतारकर ज़मीन पर पटक कर गधे को हांकते ले गए। मनदेवी धूल मे पड़ी वहीं सिसकती रह गई क्योंकि रोने की ताकत ही कहाँ बची थी ?थोड़ी देर में धूल उड़ाती जीप आ गई। उसमें से किसी कॉन्सटेबल ने उतरकर सड़क के बीचों बीच धूल मे अर्द्धनग्न पड़ी वनदेवी के शरीर पर अपनी ख़ाकी कमीज़ उतारकर ढक दी थी । एक बूढ़े सिपाही की आँखें शर्म से छलछला आईं थीं । शुरुआती दौर में पुलिस की ढीली ढाली कार्यवाही रही --`इमा कांई नी ख़ास बात छ; ए तो लुगाईन ने साथ ऐय्यन चाले छे. ` `लेकिन जब प्रमुख समाचार पत्र ने इसे अपना मुहिम बना लिया तब जाकर मंगी सरपँच सहित पचास के
लगभग गिरफ़्तारियां हुईँ, वह भी गैरज़मानती वॉरन्ट। तब तक सुन्दरसिंह दो साथियों के साथ गायब हो गया था। कोई कहता दुबई भाग गया है, कोई कहता सिंगापुर। लोग जेल में सिपाहियों के डंडों से पिटते, गिड़गिड़ाते,"अबे अस्यो कदी नी करां।" जल्पा क्या क्या याद करे ----टणका गाँव की अपने झोंपड़े में अकेली रहती विधवा दलित भाग्यवती को तो पीट पीट कर डायन बताकर ज़िंदा जलाने का प्रयास किया था था क्योंकि पड़ौसी की भैंस मर गई थी। सिंह सर सही कहते हैं --`देयर इज़ अ स्टोरी बिहाइंड अ स्टोरी। उस विधवा की ज़मीन तभी हथियाई जा सकती थी जब वह मर जाए। मुख्यालय से पच्चीस किलोमीटर दूर ही एक गांव में एक दबंग औरत ने दो स्त्रियों को डाकिन बता दिया था ---बस उन्हें चिमटे से दागा गया व पिटाई गई। ---गंगा को मारपीट कर पेड़ से बाँध दिया गया क्योंकि पांच बच्चे पैदा करने के बाद उसमे दम नहीं रहा था कि घर का सारा काम सम्भाले। ----भूरीदेवी का पति तो चारपाई से लग गया था, एक साल से इलाज चल रहा था. गाँव में किसी ने अफ़वाह उड़ा दी कि उसकी लुगाई चुड़ैल है जो धीरे धीरे अपने आदमी को खा रही है. जब अपना आदमी नहीं छोड़ा तो गांववालों को छोड़ देगी ?इसका मरना तो ज़रूरी हैं। भूरीदेवी के चेहरे पर ओझा की पूजा के बाद दी हुई राख मली गई. लात घूंसे लगाए गए, बाल खींचे गए. भूरीदेवी तो मरी ही, उसका मर्द तो सदमे से मर गया। घर पर पड़ौसी का कब्ज़ा हो गया, दबंगों ने उसकी ज़मीन बेचकर आपस में बाँट ली. --- हर कोई औरत भेरूखेड़ा की जमूदेवी नहीं होती जो गांव से डाकिन बताकर, मारपीट कर बाहर निकाल दी गई। वह सात साल तक एक स्वयंसेवी संस्था की सहायता से लड़ाई लड़कर सीना ताने बसी गाँव में आ बसी। ----उसने यदि यहां आने से पहले इन` डाकिनों `के विषय में अपने शोध की सूची
और याद की तो कहीं वह बेहोश होकर ना गिर जाये --जल्पा ने सोचना बंद कर दिया। "चन्दनसिंह का घर कहाँ है ?" जानकी ने उत्तर दिया,"इस घर से सटा घर उसी का है। मुम्बई में चाचा भतीजा एक चौल में गाँव के दो और लोगों के साथ रहते थे। चन्दनसिंह दीवाली मनाने आ गया था। मनदेवी के पति वरदीसिंह को छुट्टी नहीं मिली थी।" "उस घर को देख सकतीं हूँ ?" "वहां के सारे मर्द जेल में हैं। औरतें इधर उधर अपने मायके भाग गईं हैं। घर पर ताला पड़ा है।" कुछ सोचते हुए बोली,"चलिए आपको सीढ़ी से दिखातीं हूँ।" जल्पा की तेज़ आँखें अंदर के कमरे में दीवार पर खूंटी के कुछ छेद थे जिनसे दूसरे घर में झाँका जा सकता था। आँगन में रक्खी सीढ़ी को जानकी ने दीवार पर टिकाया। जल्पा सम्भल कर उस पर चढ़ी और पूछने लगी," यहां छत नहीं है तो सीढ़ी किस काम आती है?" " खपरैल पर कुछ मसाले या कपड़े सुखाने हों तो ये काम लगती है।" अख़बार में तो यही पढ़ा था ----आत्महत्या वाले दिन मनदेवी दोनों गर्भवती बेटियों को अपने बेटे के साथ लेकर पास के तालुका के अस्पताल में ले गई थी। पर्ची बनवाकर वे अपने नंबर का इंतज़ार कर रहे थे कि वरदीसिंह के दूसरे भाई का बेटा अपनी सायकल पर खबर करने आ गया,"चंदनसिंह तो फांसी लगाकर मर गयो, उसकी लुगाई रोते हुए चिल्ला रही है कि वनदेवी चाची इसकी ह्त्या करके अपने लोगां के साथ गाँव बाहर भाग गई है।" "क्या"घबराकर सब बैंच से उठ गए थे। मनदेवी के बेटे के तो होश उड़ गए थे,"भाभी ऐसे कैसे कह सकती है ?"वे सब गाँव लौट लिए थे, अस्पताल में भरी हुई फ़ीस की भी परवाह नहीं की थी। दूसरे दिन वरदीसिंह, मनदेवी का पति, भतीजे की मौत की ख़बर सुनकर मुम्बई से भागता चला आया था।कोई समझ नहीं पा रहा था कि बहू इतना बड़ा इलज़ाम कैसे लगा रही है ? -----उसने मनदेवी के आँगन में सीढ़ी उतर कर पूछा,"दोपहर में तो इस घर की सारी औरतें खेतों में काम करने चलीं जातीं होंगी ?" "चन्दन सिंह की पत्नी मेंहदीदेवी दसवीं पास थी व सबसे छोटी बहू थी, घर का काम संभालती थी. इस घर में मनदेवी अपने गठिये के रोग के कारण घर पर ही रहती थी।" " मनदेवी जब जग जाएँ तो मेरी उनसे से बात करवा दीजिये।" जानकी ने निराशा से कहा,"कुछ फायदा नहीं होगा, पुलिस डी आई जी, मंत्री व महिला आयोग की चेयरमेन आकर पूछ गईं लेकिन वनदेवी यही कहती रह गई कि बस मैंने मेंहदी से यही कहा था कि तू दूसरी शादी कर ले और चीख चीखकर हिस्टीरिया के मरीज़ की तरह उसका शरीर बुरी तरह काँपने लगता है, ट्रौमा में चली जाती है. वह इतना ज़ोर से रोने लगती है, कोई आगे पूछ ही नहीं पाता ।" "मैं कोशिश करूं ?" "बेकार है. आप आश्चर्य करेंगी कि उस दिन के बाद किसी ने इसकी एक उंगली तक नहीं देखी। सारे बदन पर ओढ़नी कसकर लपेट कर गुड़ी मुड़ी बनी एक कोने में सिमटी रहती है जैसे कोने में घुस ही जाएगी।. मंत्री इससे कह कहकर हार गईं कि वह घूंघट हटाकर बात करे लेकिन यह` ना `में सिर हिलाती ज़ोर से रोकर चीखने लगी।" वे बाहर के कमरे में आ गईं। जब तक मनदेवी
की छोटी बेटी दो गिलास में चाय लेकर आ गई। जल्पा ने पूछा,"तुम्हारी चाय कहॉं है ?" जल्पा ने चाय पीकर मायूसी से कहा,"मैं अब चलतीं हूँ। मेरा यहां आना बेकार ही गया। सारी बातें तो अखबारों में आ चुकीं हैं कि इस घटना के बाद महिला सरपंच सहित पचास के लगभग लोगों की गिरफ़्तारी हुई। मनदेवी को राहत कोष से रूपये दिए गए वगैरहा।" जानकी सहयोगिनी संज़ीदगी से बोली,"किसी औरत के साथ जब बुरा होता है तो लोग सच कहाँ जान पाते हैं ?" "क्या मतलब ?"जल्पा बुरी तरह चौंक गई। जानकी ने अपना पर्स उठाकर कंधे पर टांग लिया,"चलिए आपको मैं छोड़ देतीं हूँ।" जल्पा मनदेवी की बेटी के जुड़े हाथ पर हाथ रखकर सजल आँखों से वहां से चल दी। रास्ते में उसने पूछा," जानकी जी! आप मुझसे कुछ कहना चाह रहीं थीं ?" उन्होंने जैसे उसकी बात सुनी नहीं थी,"ये गाँव देख रहीं है ---कैसा उजाड़ पड़ा है। जब सारे मर्द जेल में हों तो कौन खेतों की साज संभाल करे? कुछ निर्दोश लोग भी जेल मे फंसे हुए हैं. यहाँ की औरतें थाने में जा जाकर मिन्नत करतीं है कि उनकेआदमियों को छोड़ दिया जाए।" "अगर उस दिन उन्होंने एकजुट होकर वनदेवी को बचाने की कोशिश की होती तो ये सब ना होता।" "औरतें एक जुट कहाँ होतीं हैं?उनमें से कुछ तो मर्दों के घिनौने खेलों में साथ होतीं हैं, बाकी डरी रहतीं हैं।" वह अचरज से रास्ते में खड़ी हो गई," जानकी जी !आप पहेलियां बहुत बुझा रहीं हैं।" "आपको सच भी बता दूँ तो आप क्या कर लेंगी ?साबित कर पाएंगी कुछ?पुलिस भी क्या कर लेगी ?चन्दन सिंह को मरने के एक घंटे बाद ही जला दिया गया क्यों ?जब शरीर ही नहीं है तो क्या साबित होगा ?" " वॉट ?"जल्पा के पसीने छूट गए। उसने बैग में से पानी की बोतल निकाली और गट गट पानी पी गई। फिर झेंपते हुए बोली,"आप पानी पीयेंगी ?"
"हाँ, दे दीजिये।" जानकी ने पानी पीकर उससे कहा,"चलिए आपकी गाड़ी में बैठकर बात करते हैं।" वे दोनों जीप के पीछे की सीट्स पर बैठ गईं। जानकी ने कहा,"मनदेवी तो सदमे के कारण कुछ कहने की हालत में नहीं है। उसकी एक सहेली मंदादेवी ने बहुत डरते डरते मुझे ये बातें बताईं हैं. मैं भी क्या कर सकतीं हूँ ?इन बातों को कैसे प्रमाणित कर सकतीं हूँ ?यदि गाँव में मुँह खोला तो कुछ लोगों के जेल से छूट जाने के बाद मेरी लाश भी खेतों में पड़ी मिलेगी।" जल्पा ने जो उससे सुना, सिर्फ़ वह ही जानती है कि किस तरह जीप चलाती जयपुर की तरफ बढ़ चली है। `अ स्टोरी बिहाइन्ड अ स्टोरी `उसके सामने साकार होती जा रही है. उसे मारवाड़ी भाषा नहींआती तो क्या ?उनकी भाषा का अर्थ हिंदी में क्या होगा ये तो वह समझ ही सकती है----जवान मेंहदी का पति शादी के तीन महीने बाद ही चाचा के पास मुम्बई चला गया था। खेतों से गुज़र बसर मुश्किल हो रही थी। उसकी सारी दोपहरिया, रातें काटे नहीं कटतीं थीं. मायके थी तो खेतों में काम करने के बहाने या स्कूल जाने के बहाने बहुत कर गुज़रती थी लेकिन यहाँ तो चन्दनसिंह ---ख़ैर, गाँव में कौन से मर्दों की कमी थी ?एक दिन चन्दन सिंह का दोस्त सुन्दर सिंह कुछ सामान लेकर आ गया,"भाभी !ये सामान रख लो, तुम्हारे घरवालों ने खेतों से भेजा है। वो लोग एक गमी [ किसी की मृत्यु की शोकसभा में ]में जा रहें हैं।" वह नीचे रक्खे सामान को उठाने के लिए इस तरह झुकी कि उसका पल्लू नीचे ढलक गया, वह उसकी तरफ़ नशीली तिरिछी नज़रों से देखते हुए, मुस्कराते हुए धीरे धीरे पल्लू ठीक करने लगी। सुन्दरसिंह ने आँख मारी,"क्या सामान अंदर रखवा दूँ।" "मैंने कब मना की है ?" जो सिलसिला सुन्दरसिंह से शुरू हुआ, वह धीरे धीरे बढ़ता गया। उसके दोस्त, कुछ पंच यहां तक की सरपंच भी अपने जोड़ीदार को लेकर यहां आने लगी। मेंहदी ने कुछ गरीब औरतों को भी यहाँ धंधे में लगा लिया। सारे गाँव के दमदार मर्द तो जैसे उसके पुजारी बन गए थे। अलग अलग समय नियत किया जाता। उधर उसकी पड़ोसिन काकी सास मनदेवी हैरान थी कि रोज़ उसके यहां कैसे मेहमानों की हलचल रहती है ? एक दिन वह दीवार के छेद से वह झांकने लगी, तो उसने जो कुछ देखा, उसका जी मिचला गया । वरदीसिंह भी मुम्बई में था तो किससे कहकर अपना जी हल्का करती? एक दिन उस घर में बिल्कुल शांति थी। उसने निश्चिंत होकर सीढ़ी लगाकर खपरैल पर चादर बिछाई व सूपड़े से लेकर लालमिर्ची उस पर फैलाने लगी। तभी ` उई `की आवाज़ से उसने चौंक कर बगल वाले आँगन में देखा। आँगन में सुन्दरसिंह व मेंहदी एक दूसरे से लिपटे खड़े थे। वह सटपटा गई लेकिन उसकी जैसे ही मेंहदी से आँखें मिलीं वह बेशर्मी से मुस्करा कर बोली,"काकीसास !तू भी इधर सीढ़ी उतर आ, काका मुम्बई में रहता। तू इधर आकर इस ठण्ड में धूप सेक, सुन्दर तुझे सेक देगा।" ` `री बेसरम, खानदान की नाक कटाने पर तुली है ?"कहते हुए वह सीढ़ी उतरने लगी। सुन्दर ने ऑंखें तरेर कर कहा,"अगर तुमने किस्सी के आगे जुबान खोली
तो मुझसे बुरा कोई ना होगा।" मनदेवी थरथराते कलेजे से नीचे उतर आई थी। महीनों मुंह नहीं खोला था। बस जब रहा नहीं गया तो एक दिन अपनी सहेली मंदा से कुंए पर पानी भरते हुए सब बता दिया। मंदा ने उससे कसम ले ली थी कि ये बात किसी को ना बताये। वह तो और डर गई थी,"तू इन गुंडों को जाने ना है. तू ने किसी पर ऊंगली उठाई तो ये सब मिलकर तुझे झूठी साबित कर देंगे।" बस तबसे मनदेवी ने मुँह पर पट्टी रख ली थी। दीपावली की छुट्टी मे जब चन्दन सिंह आया तो उसके सामने मेंहदी घूंघट डाले शर्मीली बनी रही। तीसरे दिन जब वह पास के तालुका में दीपावली का सामान खरीदने जा रहा था तो उसने काकी सास के घर का कुण्डा खड़का दिया,"काकी !तुझे दिवाली के लिए कुछ मंगवाना है तो बोल।" "अच्छी बताई चन्दन !दिप्पावाली की तैयारी तो हो गई है। तेरी बहिनों की दवाइयां ख़तम हो गईं हैं, वे ले आइयो।"कहते हुए अंदर जाकर वह डॉक्टर का दिया कागज़ ले आई थी। पर वह उस दिन घर जल्दी से कैसे वापिस आ गया ?---शायद बुखार चढ़ गया हो या किसी दोस्त ने कुछ कान में कुछ फुसफुसा दिया हो। घर के दरवाज़े की कुंडी को खटखटाने के बाद जब मेंहदी ने दरवाज़ा खोला तो उसके पीछे सुन्दर सिंह भी कमीज़ के बटन लगाता बाहर आ गया. चंदनसिंह सकते की हालत में था,"ये क्या हो रहा है ?" मेहँदी अपनी चोटी हाथ में लहराते हुए ढीठ बनी हंसी होगी,"वही जो तुम मुम्बई की छोकरियों के साथ करते होगे ?" चन्दनसिंह का हाथ उठ गया होगा,"तू जानती भी है सहर में काम करने का मतलब ?कमरे पर लौटकर पानी पीने की हिम्मत ना बचे।" "झूठ काहे को बोल रहा है ?" क्रोध में वह मेंहदी पर टूट पड़ा होगा। ज़ाहिर है सुन्दरसिंह इसको बचाने बीच में आ गया होगा, उसने तेज़ी से दरवाज़े की अंदर से कुंडी लगा ली होगी। मौक़ा मिलते ही मेंहदी
व सुन्दरसिंह दोनों उसे बुरी तरह मारने लगे होंगे। जब उसका दम निकल गया होगा तो उसे छत के कुंदे रस्से से लटका दिया होगा। कुछ देर बाद मोहल्ले में हल्ला पिट गया कि चन्दनसिंह ने फ़ाँसी लगा ली। क्यों?----ये उत्तर किसी के पास नहीं था । मेंहदी सीने पर हाथ मारकर रो पीट रही थी,"मनदेवी काकी ने इन्हें मार कर रस्सी से लटका दिया है।" " लेकिन क्यों ?" "हाय! ---हाय ! ---- वो मुझसे बहुत जलास रखतीं हैं। वो मुझे भी मार डालेंगी जिससे मेरे गहने, ज़मींन हड़प लें।वो सारे घरवालों को लेकर भाग गईं हैं" जब मनदेवी व उनके घरवाले लौटे होंगे तब उसका चिंघाड़ना रुका होगा। मोहल्ले वाले भी उससे क्या बोलते क्योंकि अभी उसके पति की लाश को दाग़ भी नहीं लगा था। दूसरे दिन ग़मी में जाकर बैठने वाली मनदेवी को जैसे ही एकांत मिला होगा, वह फुसफुसाई होगी,"क्यों री !मेरा झूठा नाम क्यों लगा रही है कि मैंने भतीजे को मार डाला ?मुझे लागे है तू ने और सुन्दरसिंह ने इसे मिलकर मार डाला है। ठहर जा --शान्ति पाठ हो जाए तो तेरी पोल सबको बतातीं हूँ कि तू ने कैसे अपने घर में चकला खोल रक्खा है." "कल विनका तीजा है किसकी शान्ति होती है, देख लीजो।" तब मनदेवी कुछ समझ नहीं पाई थी। रास्ते में मंदा मिल गई तो रोते हुए उसने अपने ऊपर लगे आरोप की बात बता दी व कह भी दिया,"मैं इसकी पोल खोलकर रहूंगी।" पंचायत घर में ही चन्दनसिंह के तीजे की बैठक रक्खी गई थी। सरपंच इंतज़ार कर रही थी कि सभी आ जायें, आसपास के गाँवों के नातेदार, जानने वाले। "ओह---. `जल्पा के हाथ स्टीयरिंग पर थे। मन तो पीछे छूटे गाँव में ही भटक रहा था------ तो पहले से कुछ मुट्ठी भर लोगों ने पंचायत घर के कमरे में तैयारी करके रक्खी थी ---बड़ी कैंची, उस्तरा, बाल्टी भर काला रंग। पंचायत घर के पीछे के पेड़ से बंधा था धोबी का गधा जिसे दो सौ रूपये देकर यहां लाया गया था। धोबी को खुद नहीं पता था कि क्या होने जा रहा है। मंगीदेवी सरपंच की हुंकार गूँजी होगी,"सब अप्पने मोबाइल जमा करा दो." कुछ आवाज़ें गूंजीं होंगी,"काहे को ?" " जवान मौत हुई है सभा में ये` टुन टांग `अच्छी ना लगे।"उनके इतना कहते ही कुछ लोग सबके मोबाइल जमा करके कमरे में एक बोरे में डालते रहे होंगे। --- कुछ मिनट बाद सभा में बैठे मनदेवी के पति व बेटे को बंधक बना लिया होगा। वो भौंचक चिल्लाते रह गए होंगे,"ये क्या कर रहे हो ?" ---- जल्पा की जीप सामने आते ट्रक से टकराते टकराते हुए बचती है, काली मूंछों वाला ट्रक ड्राइवर आगे की खिड़की में से सिर निकालकर चिल्लाता है,"क्या शराब पी रक्खी है ?खुद तो मरती, तुम्हारे साथ मैं भी मरता." उधर जल्पा मायूस हो सोच रही है ऐसी हालत से कब ज़िंदा हो पाएगी मनदेवी ? क्या फ़ायदा हुआ मीडिया ने इस केस को उछाला, सामाजिक संगठन, महिला संगठन व छात्र संगठन ने मिलकर एक बड़ी रैली निकाली। शहर के हृदयस्थल में एक दूसरे का हाथ पकड़कर एक मानव श्रृंखला बनाई गई। कितने ही पुलिस वाले कर्मचारी, पंच निलम्बित किये गए। असली
अपराधी मेंहदी देवी कैसे पकड़ी जा सकती है ?कोई स्त्री वस्त्रहीन होकर घंटों ऐसे अत्याचार से गुज़रकर कैसे मेहंदी के विरुद्ध बयान देने की हिम्मत कर सकती है ? जयपुर की चौड़ी सड़कें आ गईं हैं, वाहनों की चहल पहल है। इसकी ट्यूब लाइट्स व नियोन लाइट्स की रोशनी में जल्पा की जीप बढ़ी चली जा रही । अभी सात ही बजे है सिंह सर अभी ऑफिस में होंगे। जल्पा जीप आगे बढ़ाती सोच ही नहीं पा रही कि घर जाए या ऑफ़िस --सर को `स्टोरी बिहाइन्डअ स्टोरी` बता पाएगी या नहीं। बस ये तय है इतने लोगों की कोशिश बेकार नहीं जायेगे, अब किसी मनदेवी के साथ इस इलाके में कोई ऐसा करने की हिम्मत नहीं करेगा.
हरद्वार की बस्ती से अलग गंगा के तट पर एक छोटा-सा उपवन है। दो-तीन कमरे और दालानों का उससे लगा हुआ छोटा-सा घर है। दालान में बैठी हुई तारा माँग सँवार रही है। अपनी दुबली-पतली लम्बी काया की छाया प्रभात के कोमल आतप से डालती हुई तारा एक कुलवधू के समान दिखाई पड़ती है। बालों से लपेटकर बँधा हुआ जूड़ा छलछलायी आँखें, नमित और ढीली अंगलता, पतली-पतली लम्बी उँगलियाँ, जैसे विचित्र सजीव होकर काम कर रहा है। पखवारों में तारा के कपोलों के ऊपर भौंहों के नीचे श्याम-मण्डल पड़ गया है। वह काम करते हुए भी, जैसे अन्यमनस्क-सी है। अन्यमनस्क रहना ही उसका स्वाभाविकता है। आज-कल उसकी झुकी हुई पलकें काली पुतलियों को छिपाये रखती हैं। आँखें संकेत से कहती हैं कि हमें कुछ न कहो, नहीं बरसने लगेंगी। पास ही तून की छाया में पत्थर पर बैठा हुआ मंगल एक पत्र लिख रहा है। पत्र समाप्त करके उसने तारा की ओर देखा और पूछा, 'मैं पत्र छोड़ने जा रहा हूँ। कोई काम बाजार का हो तो करता आऊँ।' तारा ने पूर्ण ग्रहिणी भाव से कहा, 'थोडा कड़वा तेल चाहिए और सब वस्तुएँ हैं।' मंगलदेव जाने के लिए उठ खड़ा हुआ। तारा ने फिर पूछा, 'और नौकरी का क्या हुआ?' 'नौकरी मिल गयी है। उसी की स्वीकृति-सूचना लिखकर पाठशाला के अधिकारी के पास भेज रहा हूँ। आर्य-समाज की पाठशाला में व्यायाम-शिक्षक का काम करूँगा।' 'वेतन तो थोड़ा ही मिलेगा। यदि मुझे भी कोई काम मिल जाये, तो देखना, मैं तुम्हारा हाथ बँटा लूँगी।' 'यहाँ से थोड़ी दूर पर मेरा पितृगृह है, पर मैं वहाँ नहीं जा सकती। पिता समाज और धर्म के भय से त्रस्त हैं। ओह, निष्ठुर पिता! अब उनकी भी पहली-सी आय नहीं, महन्तजी प्रायः बाहर, विशेषकर काशी रहा करते हैं। मठ की अवस्था बिगड़ गयी है। मंगलदेव-एक अपरिचित युवक-केवल सत्साहस के बल पर मेरा पालन कर रहा है। इस दासवृत्ति से जीवन बिताने से क्या वह बुरा था, जिसे छोड़कर मैं आयी। किस आकर्षण ने यह उत्साह दिलाया और अब वह क्या हुआ, जो मेरा मन ग्लानि का अनुभव करता है, परतन्त्रता से नहीं, मैं भी स्वावलम्बिनी बनूँगी; परन्तु मंगल! निरीह निष्पाप हृदय!' तारा और मंगल-दोनों के मन के संकल्प-विकल्प चल रहे थे। समय अपने मार्ग चल रहा था। दिन छूटते जाते थे। मंगल की नौकरी लग गयी। तारा गृहस्थी चलाने लगी। धीरे-धीरे मंगल के बहुत से आर्य मित्र बन गये। और कभी-कभी देवियाँ भी तारा से मिलने लगीं। आवश्यकता से विवश होकर मंगल और तारा ने आर्य समाज का साथ दिया था। मंगल स्वतंत्र विचार का युवक था, उसके धर्म सम्बन्धी विचार निराले थे, परन्तु बाहर से वह पूर्ण आर्य समाजी था। तारा की सामाजिकता बनाने के लिये उसे दूसरा मार्ग न था। एक दिन कई मित्रों के अनुरोध से उसने अपने यहाँ प्रीतिभोज दिया। श्रीमती प्रकाश देवी, सुभद्रा, अम्बालिका, पीलोमी आदि नामांकित कई देवियाँ, अभिमन्यु, वेदस्वरूप, ज्ञानदत्त और वरुणप्रिय, भीष्मव्रत आदि कई आर्यसभ्य एकत्रित हुए। वृक्ष के नीचे कुर्सियाँ पड़ी थीं। सब बैठे थे। बातचीत हो रही थी।
तारा अतिथियों के स्वागत में लगी थी। भोजन बनकर प्रस्तुत था। ज्ञानदत्त ने कहा, 'अभी ब्रह्मचारी जी नहीं आये!' अरुण, 'आते ही होंगे!' वेद-'तब तक हम लोग संध्या कर लें।' इन्द-'यह प्रस्ताव ठीक है; परन्तु लीजिये, वह ब्रह्मचारी जी आ रहे हैं।' एक घुटनों से नीचा लम्बा कुर्ता डाले, लम्बे बाल और छोटी दाढ़ी वाले गौरवपूर्ण युवक को देखते ही नमस्ते की धूम मच गई। ब्रह्मचारी जी बैठे। मंगलदेव का परिचय देते हुए वेदस्वरूप ने कहा, 'आपका शुभ नाम मंगलदेव है! उन्होंने ही इन देवी का यवनों के चंगुल से उद्धार किया है।' तारा ने नमस्ते किया, ब्रह्मचारी ने पहले हँस कर कहा, 'सो तो होना चाहिए, ऐसे ही नवयुवकों से भारतवर्ष को आशा है। इस सत्साह के लिए मैं धन्यवाद देता हूँ आप समाज में कब से प्रविष्ट हुए हैं?' 'अभी तो मैं सभ्यों में नहीं हूँ।' मंगल ने कहा। 'बहुत शीघ्र जाइये, बिना भित्ति के कोई घर नहीं टिकता और बिना नींव की कोई भित्ति नहीं। उसी प्रकार सद्विचार के बिना मनुष्य की स्थिति नहीं और धर्म-संस्कारों के बिना सद्विचार टिकाऊ नहीं होते। इसके सम्बन्ध में मैं विशेष रूप से फिर कहूँगा। आइये, हम लोग सन्ध्या-वन्दन कर लें।' सन्ध्या और प्रार्थना के समय मंगलदेव केवल चुपचाप बैठा रहा। थालियाँ परसी गईं। भोजन करने के लिए लोग आसन पर बैठे। वेदस्वरूप ने कहना आरम्भ किया, 'हमारी जाति में धर्म के प्रति इतनी उदासीनता का कारण है एक कल्पित ज्ञान; जो इस देश के प्रत्येक प्रणाली वाणी के लिए सुलभ हो गया है। वस्तुतः उन्हें ज्ञानभाव होता है और वे अपने साधारण नित्यकर्म से वंचित होकर अपनी आध्यात्मिक उन्नति करने में भी असमर्थ होते हैं।' ज्ञानदत्त-'इसलिए आर्यों का कर्मवाद संसार के लिए विलक्षण कल्याणदायक है-ईश्वर के प्रति विश्वास करते हुए भी स
्वावलम्बन का पाठ पढ़ाता है। यह ऋषियों का दिव्य अनुसंधान है।' ब्रह्मचारी ने कहा, 'तो अब क्या विलम्ब है, बातें भी चला करेंगी।' मंगलदेव ने कहा, 'हाँ, हाँ आरम्भ कीजिये।' ब्रह्मचारी ने गंभीर स्वर में प्रणवाद किया और दन्त-अन्न का युद्ध प्रारम्भ हुआ। मंगलदेव ने कहा, 'परन्तु संसार की अभाव-आवश्यकताओं को देखकर यह कहना पड़ता है कि कर्मवाद का सृजन करके हिन्दू-जाति ने अपने लिए असंतोष और दौड़-धूप, आशा और संकल्प का फन्दा बना लिया है।' 'कदापि नहीं, ऐसा समझना भ्रम है महाशयजी! मनुष्यों को पाप-पुण्य की सीमा में रखने के लिए इससे बढ़कर कोई उपाय जाग्रत नहीं मिला।' सुभद्रा ने कहा। 'श्रीमती! मैं पाप-पुण्य की परिभाषा नहीं समझता; परन्तु यह कहूँगा कि मुसलमान धर्म इस ओर बड़ा दृढ़ है। वह सम्पूर्ण निराशावादी होते हुए, भौतिक कुल शक्तियों पर अविश्वास करते हुए, केवल ईश्वर की अनुकम्पा पर अपने को निर्भर करता है। इसीलिए उनमें इतनी दृढ़ता होती है। उन्हें विश्वास होता है कि मनुष्य कुछ नहीं कर सकता, बिना परमात्मा की आज्ञा के। और केवल इसी एक विश्वास के कारण वे संसार में संतुष्ट हैं।' परसने वाले ने कहा, 'मूँग का हलवा ले आऊँ। खीर में तो अभी कुछ विलम्ब है।' ब्रह्मचारी ने कहा, 'भाई हम जीवन को सुख के अच्छे उपकरण ढूँढ़ने में नहीं बिताना चाहते। जो कुछ प्राप्त है, उसी में जीवन सुखी होकर बीते, इसी की चेष्टा करते हैं, इसलिए जो प्रस्तुत हो, ले आओ।' सब लोग हँस पड़े। फिर ब्रह्मचारी ने कहा, 'महाशय जी, आपने एक बड़े धर्म की बात कही है। मैं उसका कुछ निराकरण कर देना चाहता हूँ। मुसलमान-धर्म निराशावादी होते हुए भी क्यों इतना उन्नतिशील है, इसका कारण तो आपने स्वयं कहा कि 'ईश्वर में विश्वास' परन्तु इसके साथ उनकी सफलता का एक और भी रहस्य है। वह है उनकी नित्य-क्रिया की नियम-बद्धता; क्योंकि नियमित रूप से परमात्मा की कृपा का लाभ उठाने के लिए प्रार्थना करनी आवश्यक है। मानव-स्वभाव दुर्बलताओं का संकलन है, सत्यकर्म विशेष होने पाते नहीं, क्योंकि नित्य-क्रियाओं द्वारा उनका अभ्यास नहीं। दूसरी ओर ज्ञान की कमी से ईश्वर निष्ठा भी नहीं। इसी अवस्था को देखते हुए ऋषि ने यह सुगम आर्य-पथ बनाया है। प्रार्थना नियमित रूप से करना, ईश्वर में विश्वास करना, यही तो आर्य-समाज का संदेश है। यह स्वावलम्बपूर्ण है; यह दृढ़ विश्वास दिलाता है कि हम सत्यकर्म करेंगे, तो परमात्मा की असीम कृपा अवश्य होगी।' सब लोगों ने उन्हें धन्यवाद दिया। ब्रह्मचारी ने हँसकर सबका स्वागत किया। अब एक क्षणभर के लिए विवाद स्थगित हो गया और भोजन में सब लोग दत्तचित्त हुए। कुछ भी परसने के लिए जब पूछा जाता तो वे 'हूँ' कहते। कभी-कभी न लेने के लिए उसी का प्रयोग होता। परसने वाला घबरा जाता और भ्रम से उनकी थाली में कुछ-न-कुछ डाल देता; परन्तु वह सब यथास्थान पहुँच जाता। भोजन समाप्त करके सब लोग यथास्थान बैठे। तारा भी देवियों के साथ हिल-मिल गयी। चाँदनी निकल आयी थी। समय सुन्दर था। ब्रह्मचारी न
े प्रसंग छेड़ते हुए कहा, 'मंगलदेव जी! आपने एक आर्य-बालिका का यवनों से उद्धार करके बड़ा पुण्यकर्म किया है, इसके लिए आपको हम सब लोग बधाई देते हैं।' वेदस्वरूप-'और इस उत्तम प्रीतिभोज के लिए धन्यवाद।' विदुषी सुभद्रा ने कहा, 'परमात्मा की कृपा से तारादेवी के शुभ पाणिग्रहण के अवसर पर हम लोग फिर इसी प्रकार सम्मिलित हों।' मंगलदेव, ने जो अभी तक अपनी प्रशंसा का बोझ सिर नीचे किये उठा रहा था, कहा, 'जिस दिन इतनी हो जाये, उसी दिन मैं अपने कर्तव्य का पूरा कर सकूँगा।' तारा सिर झुकाए रही। उसके मन में इन सामाजिकों की सहानुभूति ने एक नई कल्पना उत्पन्न कर दी। वह एक क्षण भर के लिए अपने भविष्य से निश्चिन्त-सी हो गयी। उपवन के बाहर तक तारा और मंगलदेव ने अतिथियों को पहुँचाया। लोग विदा हो गये। मंगलदेव अपनी कोठरी में चला गया और तारा अपने कमरे में जाकर पलंग पर लेट गयी। उसने एक बार आकाश के सुकुमार शिशु को देखा। छोटे-से चन्द्र की हलकी चाँदनी में वृक्षों की परछाईं उसकी कल्पनाओं को रंजित करने लगी। वह अपने उपवन का मूक दृश्य खुली आँखों से देखने लगी। पलकों में नींद न थी, मन में चैन न था, न जाने क्यों उसके हृदय में धड़कन बढ़ रही थी। रजनी के नीरव संसार में वह उसे साफ सुन रही थी। जागते-जागते दोपहर से अधिक चली गयी। चन्द्रिका के अस्त हो जाने से उपवन में अँधेरा फैल गया। तारा उसी में आँख गड़ाकर न जाने क्या देखना चाहती थी। उसका भूत, वर्तमान और भविष्य-तीनों अन्धकार में कभी छिपते और कभी तारों के रूप में चमक उठते। वह एक बार अपनी उस वृत्ति को आह्वान करने की चेष्टा करने लगी, जिसकी शिक्षा उसे वेश्यालय से मिली थी। उसने मंगल को तब नहीं, परन्तु अब खींचना चाहा। रसीली कल्पनाओं से हृदय भर गया। रात बीत चली। उषा का आलोक प्राची में फै
ल रहा था। उसने खिड़की से झाँककर देखा तो उपवन में चहल-पहल थी। जूही की प्यालियों में मकरन्द-मदिरा पीकर मधुपों की टोलियाँ लड़खड़ा रही थीं और दक्षिणपवन मौलसिरी के फूलों की कौड़ियाँ फेंक रहा था। कमर से झुकी हुई अलबेली बेलियाँ नाच रही थीं। मन की हार-जीत हो रही थी। मंगलदेव ने पुकारा, 'नमस्कार!' तारा ने मुस्कुराते हुए पलंग पर बैठकर दोनों हाथ सिर से लगाते हुए कहा, 'नमस्कार!' मंगल ने देखा-कविता में वर्णित नायिका जैसे प्रभात की शैया पर बैठी है। समय के साथ-साथ अधिकाधिक गृहस्थी में चतुर और मंगल परिश्रमी होता जाता था। सवेरे जलपान बनाकर तारा मंगल को देती, समय पर भोजन और ब्यालू। मंगल के वेतन में सब प्रबन्ध हो जाता, कुछ बचता न था। दोनों को बचाने की चिंता भी न थी, परन्तु इन दोनों की एक बात नई हो चली। तारा मंगल के अध्ययन में बाधा डालने लगी। वह प्रायः उसके पास ही बैठ जाती। उसकी पुस्तकों को उलटती, यह प्रकट हो जाता कि तारा मंगल से अधिक बातचीत करना चाहती है और मंगल कभी-कभी उससे घबरा उठता। वसन्त का प्रारम्भ था, पत्ते देखते ही देखते ऐंठते जाते थे और पतझड़ के बीहड़ समीर से वे झड़कर गिरते थे। दोपहर था। कभी-कभी बीच में कोई पक्षी वृक्षों की शाखाओं में छिपा हुआ बोल उठता। फिर निस्तब्धता छा जाती। दिवस विरस हो चले थे। अँगड़ाई लेकर तारा ने वृक्ष के नीचे बैठे हुए मंगल से कहा, 'आज मन नहीं लगता है।' 'मेरा मन भी उचाट हो रहा है। इच्छा होती है कि कहीं घूम आऊँ; परन्तु तुम्हारा ब्याह हुए बिना मैं कहीं नहीं जा सकता।' 'मैं तो ब्याह न करूँगी।' 'दिन तो बिताना ही है, कहीं नौकरी कर लूँगी। ब्याह करने की क्या आवश्यकता है?' 'नहीं तारा, यह नहीं हो सकता। तुम्हारा निश्चित लक्ष्य बनाये बिना कर्तव्य मुझे धिक्कार देगा।' 'मेरा लक्ष्य क्या है, अभी मैं स्वयं स्थिर नहीं कर सकी।' 'मैं स्थिर करूँगा।' 'क्यों ये भार अपने ऊपर लेते हो मुझे अपनी धारा में बहने दो।' 'सो नहीं हो सकेगा।' 'मैं कभी-कभी विचारती हूँ कि छायाचित्र-सदृश जलस्रोत में नियति पवन के थपेड़े लगा रही है, वह तरंग-संकुल होकर घूम रहा है। और मैं एक तिनके के सदृश उसी में इधर-उधर बह रही हूँ। कभी भँवर में चक्कर खाती हूँ, कभी लहरों में नीचे-ऊपर होती हूँ। कहीं कूल-किनारा नहीं।' कहते-कहते तारा की आँखें छलछला उठीं। 'न घबड़ाओ तारा, भगवान् सबके सहायक हैं।' मंगल ने कहा। और जी बहलाने के लिए कहीं घूमने का प्रस्ताव किया। दोनों उतरकर गंगा के समीप के शिला-खण्डों से लगकर बैठ गये। जाह्नवी के स्पर्श से पवन अत्यन्त शीतल होकर शरीर में लगता है। यहाँ धूप कुछ भली लगती थी। दोनों विलम्ब तक बैठे चुपचाप निसर्ग के सुन्दर दृश्य देखते थे। संध्या हो चली। मंगल ने कहा, 'तारा चलो, घर चलें।' तारा चुपचाप उठी। मंगल ने देखा, उसकी आँखें लाल हैं। मंगल ने पूछा, 'क्या सिर दर्द है?' 'नहीं तो।' दोनों घर पहुँचे। मंगल ने कहा, 'आज ब्यालू बनाने की आवश्यकता नहीं, जो कहो बाजार से लेता आऊँ।' 'इस तरह कैसे चलेगा।
मुझे क्या हुआ है, थोड़ा दूध ले आओ, तो खीर बना दूँ, कुछ पूरियाँ बची हैं।' मंगलदेव दूध लेने चला गया। तारा सोचने लगी-मंगल मेरा कौन है, जो मैं इतनी आज्ञा देती हूँ। क्या वह मेरा कोई है। मन में सहसा बड़ी-बड़ी अभिलाषाएँ उदित हुईं और गंभीर आकाश के शून्य में ताराओं के समान डूब गई। वह चुप बैठी रही। मंगल दूध लेकर आया। दीपक जला। भोजन बना। मंगल ने कहा, 'तारा आज तुम मेरे साथ ही बैठकर भोजन करो।' तारा को कुछ आश्चर्य न हुआ, यद्यपि मंगल ने कभी ऐसा प्रस्ताव न किया था; परन्तु वह उत्साह के साथ सम्मिलित हुई। दोनों भोजन करके अपने-अपने पलंग पर चले गये। तारा की आँखों में नींद न थी, उसे कुछ शब्द सुनाई पड़ा। पहले तो उसे भय लगा, फिर साहस करके उठी। आहट लगी कि मंगल का-सा शब्द है। वह उसके कमरे में जाकर खड़ी हो गई। मंगल सपना देख रहा था, बर्राता था-'कौन कहता है कि तारा मेरी नहीं है मैं भी उसी का हूँ। तुम्हारे हत्यारे समाज की मैं चिंता नहीं करता... वह देवी है। मैं उसकी सेवा करूँगा...नहीं-नहीं, उसे मुझसे न छीनो।' तारा पलंग पर झुक गयी थी, वसन्त की लहरीली समीर उसे पीछे से ढकेल रही थी। रोमांच हो रहा था, जैसे कामना-तरंगिनी में छोटी-छोटी लहरियाँ उठ रही थीं। कभी वक्षस्थल में, कभी कपोलों पर स्वेद हो जाते थे। प्रकृति प्रलोभन में सजी थी। विश्व एक भ्रम बनकर तारा के यौवन की उमंग में डूबना चाहता था। सहसा मंगल ने उसी प्रकार सपने में बर्राते हुए कहा, 'मेरी तारा, प्यारी तारा आओ!' उसके दोनों हाथ उठ रहे थे कि आँख बन्द कर तारा ने अपने को मंगल के अंक में डाल दिया?' प्रभात हुआ, वृक्षों के अंक में पक्षियों का कलरव होने लगा। मंगल की आँखें खुलीं, जैसे उसने रातभर एक मनोहर सपना देखा हो। वह तारा को छोड़कर बाहर निकल आया, टहलने लगा। उत्स
ाह से उसके चरण नृत्य कर रहे थे। बड़ी उत्तेजित अवस्था में टहल रहा था। टहलते-टहलते एक बार अपनी कोठरी में गया। जंगले से पहली लाल किरणें तारा के कपोल पर पड़ रही थी। मंगल ने उसे चूम लिया। तारा जाग पड़ी। वह लजाती हुई मुस्कुराने लगी। दोनों का मन हलका था। उत्साह में दिन बीतने लगे। दोनों के व्यक्तित्व में परिवर्तन हो चला। अब तारा का वह निःसंकोच भाव न रहा। पति-पत्नी का सा व्यवहार होने लगा। मंगल बड़े स्नेह से पूछता, वह सहज संकोच से उत्तर देती। मंगल मन-ही-मन प्रसन्न होता। उसके लिए संसार पूर्ण हो गया था-कहीं रिक्तता नहीं, कहीं अभाव नहीं। तारा एक दिन बैठी कसीदा काढ़ रही थी। धम-धम का शब्द हुआ। दोपहर था, आँख उठाकर देखा... एक बालक दौड़ा हुआ आकर दालान में छिप गया। उपवन के किवाड़ तो खुले ही थे, और भी दो लड़के पीछे-पीछे आये। पहला बालक सिमटकर सबकी आँखों की ओट हो जाना चाहता था। तारा कुतूहल से देखने लगी। उसने संकेत से मना किया कि बतावे न। तारा हँसने लगी। दोनों के खोजने वाले लड़के ताड़ गये। एक ने पूछा, 'सच बताना रामू यहाँ आया है पड़ोस के लड़के थे, तारा ने हँस दिया, रामू पकड़ गया। तारा ने तीनों को एक-एक मिठाई दी। खूब हँसी होती रही। कभी-कभी कल्लू की माँ आ जाती। वह कसीदा सीखती। कभी बल्लो अपनी किताब लेकर आती, तारा उसे कुछ बताती। विदुषी सुभद्रा भी प्रायः आया करती। एक दिन सुभद्रा बैठी थी, तारा ने कुछ उससे जलपान का अनुरोध किया। सुभद्रा ने कहा, 'तुम्हारा ब्याह जिस दिन होगा, उसी दिन जलपान करूँगी।' 'और जब तक न होगा, तुम मेरे यहाँ जल न पीओगी?' 'जब तक क्यों तुम क्यों विलम्ब करती हो?' 'मैं ब्याह करने की आवश्यकता न समझूँ तो?' 'यह तो असम्भव है। बहन आवश्यकता होती ही है।' सुभद्रा रुक गयी। तारा के कपोल लाल हो गये। उसकी ओर कनखियों से देख रही थी। वह बोली, 'क्या मंगलदेव ब्याह करने पर प्रस्तुत नहीं होते?' 'मैंने तो कभी प्रस्ताव किया नहीं।' 'मैं करूँगी बहन! संसार बड़ा खराब है। तुम्हारा उद्धार इसलिए नहीं हुआ है कि तुम यों ही पड़ी रहो! मंगल में यदि साहस नहीं है, तो दूसरा पात्र ढूँढ़ा जायेगा; परन्तु सावधान! तुम दोनों को इस तरह रहना कोई भी समाज हो, अच्छी आँखों से नहीं देखेगा। चाहे तुम दोनों कितने ही पवित्र हो!' तारा को जैसे किसी ने चुटकी काट ली। उसने कहा, 'न देखे समाज भले ही, मैं किसी से कुछ चाहती तो नहीं; पर मैं अपने ब्याह का प्रस्ताव किसी से नहीं कर सकती।' 'भूल है प्यारी बहन! हमारी स्त्रियों की जाति इसी में मारी जाती है। वे मुँह खोलकर सीधा-सादा प्रस्ताव नहीं कर सकतीं; परन्तु संकेतों से अपनी कुटिल अंग-भंगियों के द्वारा प्रस्ताव से अधिक करके पुरुषों को उत्साहित किया करती हैं। और बुरा न मानना, तब वे अपना सर्वस्व अनायास ही नष्ट कर देती हैं। ऐसी कितनी घटनाएँ जानी गयी हैं।' तारा जैसे घबरा गयी। वह कुछ भारी मुँह किये बैठी रही। सुभद्रा भी कुछ समय बीतने पर चली गयी। मंगलदेव पाठशाला से लौटा। आज उसके हाथ में एक भारी
गठरी थी। तारा उठ खड़ी हुई। पूछा, 'आज यह क्या ले आये?' हँसते हुए मंगल ने कहा, 'देख लो।' गठरी खुली-साबुन, रूमाल, काँच की चूड़ियाँ, इतर और भी कुछ प्रसाधन के उपयोगी पदार्थ थे। तारा ने हँसते हुए उन्हें अपनाया। मंगल ने कहा, 'आज समाज में चलो, उत्सव है। कपड़े बदल लो।' तारा ने स्वीकार सूचक सिर हिला दिया। कपड़े का चुनाव होने लगा। साबुन लगा, कंघी फेरी गई। मंगल ने तारा की सहायता की, तारा ने मंगल की। दोनों नयी स्फूर्ति से प्रेरित होकर समाज-भवन की ओर चले। इतने दिनों बाद तारा आज ही हरद्वार के पथ पर बाहर निकलकर चली। उसे गलियों का, घाटों का, बाल्यकाल का दृश्य स्मरण हो रहा था-यहाँ वह खेलने आती, वहाँ दर्शन करती, वहाँ पर पिता के साथ घूमने आती। राह चलते-चलते उसे स्मृतियों ने अभिभूत कर दिया। अकस्मात् एक प्रौढ़ा स्त्री उसे देखकर रुकी और साभिप्राय देखने लगी। वह पास चली आयी। उसने फिर आँखें गड़ाकर देखा, 'तारा तो नहीं।' 'हाँ, चाची!' 'अरी तू कहाँ?' 'क्या तेरे बाबूजी नहीं जानते!' 'अच्छा तू कहाँ है? मैं आऊँगी।' 'लालाराम की बगीची में।' चाची चली गयी। ये लोग समाज-भवन की ओर चले। कपड़े सूख चले थे। तारा उन्हें इकट्ठा कर रही थी। मंगल बैठा हुआ उनकी तह लगा रहा था। बदली थी। मंगल ने कहा, 'आज खूब जल बरसेगा।' 'बादल भींग रहे हैं, पवन रुका है। प्रेम का भी पूर्व रूप ऐसा ही होता है। तारा! मैं नहीं जानता था कि प्रेम-कादम्बिनी हमारे हृदयाकाश में कब से अड़ी थी और तुम्हारे सौन्दर्य का पवन उस पर घेरा डाले हुए था।' 'मैं जानती थी। जिस दिन परिचय की पुनरावृत्ति हुई, मेरे खारे आँसुओं के प्रेमघन बन चुके थे। मन मतवाला हो गया था; परन्तु तुम्हारी सौम्य-संयत चेष्टा ने रोक रखा था; मैं मन-ही-मन महसूस कर जाती। और इसलिए मैंने तुम्हारी आज्ञा
मानकर तुम्हें अपने जीवन के साथ उलझाने लगी थी।' 'मैं नहीं जानता था, तुम इतनी चतुर हो। अजगर के श्वास में खिंचे हुए मृग के समान मैं तुम्हारी इच्छा के भीतर निगल लिया गया।' 'क्या तुम्हें इसका खेद है?' 'तनिक भी नहीं प्यारी तारा, हम दोनों इसलिए उत्पन्न हुए थे। अब मैं उचित समझता हूँ कि हम लोग समाज के प्रचलित नियमों में आबद्ध हो जायें, यद्यपि मेरी दृष्टि में सत्य-प्रेम के सामने उसका कुछ मूल्य नहीं।' 'जैसी तुम्हारी इच्छा।' अभी ये लोग बातें कर रहे थे कि उस दिन की चाची दिखलाई पड़ी। तारा ने प्रसन्नता से उसका स्वागत किया। उसका चादर उतारकर उसे बैठाया। मंगलदेव बाहर चला गया। 'तारा तुमने यहाँ आकर अच्छा नहीं किया।' चाची ने कहा। 'क्यों चाची! जहाँ अपने परिचित होते हैं, वहीं तो लोग जाते हैं। परन्तु दुर्नाम की अवस्था में उसे जगह से अलग जाना चाहिए।' 'नहीं-नहीं, भला ऐसा भी कोई कहेगा।' जीभ दबाते हुए चाची ने कहा। 'पिताजी ने मेरा तिरस्कार किया, मैं क्या करती चाची।' तारा रोने लगी। चाची ने सान्त्वना देते हुए कहा, 'न रो तारा!' समझाने के बाद फिर तारा चुप हुई; परन्तु वह फूल रही थी। फिर मंगल के प्रति संकेत करते हुए चाची ने पूछा, 'क्या यह प्रेम ठहरेगा तारा, मैं इसलिए चिन्तित हो रही हूँ, ऐसे बहुत से प्रेमी संसार में मिलते हैं; पर निभाने वाले बहुत कम होते हैं। मैंने तेरी माँ को ही देखा है।' चाची की आँखों में आँसू भर आये; पर तारा को अपनी माता का इस तरह का स्मरण किया जाना बहुत बुरा लगा। वह कुछ न बोली। चाची को जलपान कराना चाहा; पर वह जाने के लिए हठ करने लगी। तारा समझ गयी और बोला, 'अच्छा चाची! मेरे ब्याह में आना। भला और कोई नहीं, तो तुम तो अकेली अभागिन पर दया करना।' चाची को जैसे ठोकर सी लग गयी। वह सिर उठाकर कहने लगी, 'कब है अच्छा-अच्छा आऊँगी।' फिर इधर-उधर की बातें करके वह चली गयी। तारा से सशंक होकर एक बार फिर विलक्षण चाची को देखा, जिसे पीछे से देखकर कोई नहीं कह सकता था कि चालीस बरस की स्त्री है। वह अपनी इठलाती हुई चाल से चली जा रही थी। तारा ने मन में सोचा-ब्याह की बात करके मैंने अच्छा नहीं किया; परन्तु करती क्या, अपनी स्थिति साफ करने के लिए दूसरा उपाय ही न था। मंगल जब तक लौट न आया, वह चिन्तित बैठी रही। चाची अब प्रायः नित्य आती। तारा के विवाहोत्सव-सम्बन्ध की वस्तुओं की सूची बनाती। तारा उत्साह में भर गयी थी। मंगलदेव से जो कहा जाता, वही ले आता। बहुत शीघ्रता से काम आरम्भ हुआ। चाची को अपना सहायक पाकर तारा और मंगल दोनों की प्रसन्न थे। एक दिन तारा गंगा-स्नान करने गयी थी। मंगल चाची के कहने पर आवश्यक वस्तुओं की तालिका लिख रहा था। वह सिर नीचा किये हुए लेखनी चला ता था और आगे बढ़ने के लिए 'हूँ' कहता जाता था। सहसा चाची ने कहा, 'परन्तु यह ब्याह होगा किस रीत से मैं जो लिखा रही हूँ, वह तो पुरानी चाल के ब्याह के लिए है।' 'क्या ब्याह भी कई चाल के होते हैं?' मंगल ने कहा। 'क्यों नहीं।' गम्भीरता से चाची बोली। 'मैं क
्या जानूँ, आर्य-समाज के कुछ लोग उस दिन निमंत्रित होंगे और वही लोग उसे करवायेंगे। हाँ, उसमें पूजा का टंट-घंट वैसा न होगा, और सब तो वैसा ही होगा।' 'ठीक है।' मुस्कुराती हुए चाची ने कहा, 'ऐसे वर-वधू का ब्याह और किस रीति से होगा।' 'क्यों आश्चर्य से मंगल उसका मुँह देखने लगा। चाची के मुँह पर उस समय बड़ा विचित्र भाव था। विलास-भरी आँखें, मचलती हुई हँसी देखकर मंगल को स्वयं संकोच होने लगा। कुत्सित स्त्रियों के समान वह दिल्लगी के स्वर में बोली, 'मंगल बड़ा अच्छा है, ब्याह जल्द कर लो, नहीं तो बाप बन जाने के पीछे ब्याह करना ठीक नहीं होगा।' मंगल को क्रोध और लज्जा के साथ घृणा भी हुई। चाची ने अपना आँचल सँभालते हुए तीखे कटाक्षों से मंगल की ओर देखा। मंगल मर्माहत होकर रह गया। वह बोला, 'चाची!' और भी हँसती हुई चाची ने कहा, 'सच कहती हूँ, दो महीने से अधिक नहीं टले हैं।' मंगल सिर झुकाकर सोचने के बाद बोला, 'चाची, हम लोगों का सब रहस्य तुम जानती हो तो तुमसे बढ़कर हम लोगों का शुभचिन्तक और मित्र कौन हो सकता है, अब जैसा तुम कहो वैसा करें।' चाची अपनी विजय पर प्रसन्न होकर बोली, 'ऐसा प्रायः होता है। तारा की माँ ही कौन कहीं की भण्डारजी की ब्याही धर्मपत्नी थी! मंगल, तुम इसकी चिंता मत करो, ब्याह शीघ्र कर लो, फिर कोई न बोलेगा। खोजने में ऐसों की संख्या भी संसार में कम न होगी।' चाची अपनी वक्तृता झाड़ रही थी। उधर मंगल तारा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विचारने लगा। अभी-अभी उस दुष्टा चाची ने एक मार्मिक चोट उसे पहुँचायी। अपनी भूल और अपने अपराध मंगल को नहीं दिखाई पड़े; परन्तु तारा की माँ भी दुराचारिणी!-यह बात उसे खटकने लगी। वह उठकर उपवन की ओर चला गया। चाची ने बहुत चाहा कि उसे अपनी बातों में लगा ले; पर वह दुखी हो गया था। इत
ने में तारा लौट आयी। बड़ा आग्रह दिखाते हुए चाची ने कहा, 'तारा, ब्याह के लिए परसों का दिन अच्छा है। और देखो, तुम नहीं जानती हो कि तुमने अपने पेट में एक जीव को बुला लिया है; इसलिए ब्याह का हो जाना अत्यन्त आवश्यक है।' तारा चाची की गम्भीर मूर्ति देखकर डर गयी। वह अपने मन में सोचने लगी-जैसा चाची कहती है वही ठीक है। तारा सशंक हो चली! चाची के जाने पर मंगल लौट आया। तारा और मंगल दोनों का हृदय उछल रहा था। साहस करके तारा ने पूछा, 'कौन दिन ठीक हुआ?' सिर झुकाते हुए मंगल ने कहा, 'परसों। फिर वह अपना कोट पहनने हुए उपवन के बाहर हो गया।?' तारा सोचने लगी-क्या सचमुच मैं एक बच्चे की माँ हो चली हूँ। यदि ऐसा हुआ तो क्या होगा। मंगल का प्रेम ही रहेगा-वह सोचते-सोचते लेट गयी। सामान बिखरे रहे। परसों के आते विलम्ब न हुआ। घर में ब्याह का समारोह था। सुभद्रा और चाची काम में लगी हुई थीं। होम के लिए वेदी बन चुकी थी। तारा का प्रसाधन हो रहा था; परन्तु मंगलदेव स्नान करने हर की पैड़ी गया था। वह स्नान करके घाट पर आकर बैठ गया। घर लौटने की इच्छा न हुई। वह सोचने लगा-तारा दुराचारिणी की संतान है, वह वेश्या के यहाँ रही है, फिर मेरे साथ भाग आयी, मुझसे अनुचित सम्बन्ध हुआ और अब वह गर्भवती है। आज मैं ब्याह करके कई कुकर्मों की कलुषित सन्तान का पिता कहलाऊँगा! मैं क्या करने जा रहा हूँ!-घड़ी भर की चिंता में वह निमग्न था। अन्त में इसी समय उसके ध्यान में एक ऐसी बात आ गयी कि उसके सत्साहस ने उसका साथ छोड़ दिया। वह स्वयं समाज की लाँछना सह सकता था; परन्तु भावी संतान के प्रति समाज की कल्पित लांछना और अत्याचार ने उसे विचलित किया। वह जैसे एक भावी विप्लव के भय से त्रस्त हो गया। भगोड़े समान वह स्टेशन की ओर अग्रसर हुआ। उसने देखा, गाड़ी आना ही चाहती है। उसके कोट की जेब में कुछ रुपये थे। पूछा, 'इस गाड़ी से बनारस पहुँच सकता हूँ?' उत्तर मिला, 'हाँ, लसकर में बदलकर, वहाँ दूसरी ट्रेन तैयार मिलेगी।' टिकट लेकर वह दूर से हरियाली में निकलते हुए धुएँ को चुपचाप देख रहा था, जो उड़ने वाले अजगर के समान आकाश पर चढ़ रहा था। उसके मस्तक में काई बात जमती न थी। वह अपराधी के समान हरद्वार से भाग जाना चाहता था। गाड़ी आते ही उस पर चढ़ गया। गाड़ी छूट गयी। इधर उपवन में मंगलदेव के आने की प्रतीक्षा हो रही थी। ब्रह्मचारी जी और देवस्वरूप तथा और दो सज्जन आये। कोई पूछता था-मंगलदेव जी कहाँ हैं कोई कहता-समय हो गया। कोई कहता-विलम्ब हो रहा है। परन्तु मंगलदेव कहाँ?' तारा का कलेजा धक-धक करने लगा। वह न जाने किस अनागत भय से डरने लगी! रोने-रोने हो रही थी। परन्तु मंगल में रोना नहीं चाहिए, वह खुलकर न रो सकती थी। जो बुलाने गया, वही लौट आया। खोज हुई, पता न चला। सन्ध्या हो आयी; पर मंगल न लौटा। तारा अधीर होकर रोने लगी। ब्रह्मचारी जी मंगल को भला-बुरा कहने लगे। अन्त में उन्होने यहाँ तक कह डाला कि यदि मुझे यह विदित होता कि मंगल इतना नीच है, तो मैं किसी दूसरे से यह सम्बन्ध
करने का उद्योग करता। सुभद्रा तारा को एक ओर ले जाकर सान्त्वना दे रही थी। अवसर पाकर चाची ने धीरे से कहा, 'वह भाग न जाता तो क्या करता, तीन महीने का गर्भ वह अपने सिर पर ओढ़कर ब्याह करता?' 'ऐ परमात्मन्, यह भी है।' कहते हुए ब्रह्मचारीजी लम्बी डग बढ़ाते उपवन के बाहर चले गये। धीरे-धीरे सब चले गये। चाची ने यथा परवश होकर सामान बटोरना आरम्भ किया और उससे छुट्टी पाकर तारा के पास जाकर बैठ गयी। तारा सपना देख रही थी-झूले के पुल पर वह चल रही है। भीषण पर्वत-श्रेणी! ऊपर और नीचे भयानक खड्ड! वह पैर सम्हालकर चल रही है। मंगलदेव पुल के उस पार खड़ा बुला रहा है। नीचे वेग से नदी बह रही है। बरफ के बादल घिर रहे हैं। अचानक बिजली कड़की, पुल टूटा, तारा भयानक वेग ने नीचे गिर पड़ी। वह चिल्लाकर जाग गयी। देखा, तो चाची उसका सिर सहला रही है। वह चाची की गोद में सिर रखकर सिसकने लगी।
ऐसी उम्मीद तो मैं रखता भी नहीं कि यहाँ आनेवाले झाँसी की रानी या महाराणा प्रताप होंगे लेकिन एक सामान्य सी उम्मीद तो किसी से भी की जा सकती है। और फिर जब बिलाल बार-बार समझा रहे थे तब तो समझ में आना ही चाहिए था। अब अगर मेरे दायें-बायें झूलते रकाबों में पैरों को फँसाने और मेरी पीठ पर लदी काठी के अगले हिस्से को मजबूती से पकड़े रहने जैसी छोटी-छोटी बातें भी भेजे में न घुसें तो ऐसे आदमी को कोई क्या कहे? बलतल से अभी यात्रा शुरू भी नहीं हुई थी कि मेरे ऊपर सवार इस आदमी ने हिलना-डुलना शुरू कर दिया था। जिसे आदत न हो उसके लिए मेरे ऊपर सवारी गाँठना कोई हँसी-खेल नहीं है। बड़े-बड़े हवा में टँगे रह जाते हैं और मैं सर्र से नीचे से निकल जाता हूँ। मुझको भी काबू में रखने के लिए जाँघों में बड़ी ताकत चाहिए होती है। 'मुझको भी' का क्या मतलब है मैं नहीं जानता। यह तो एक दिन बिलाल किसी से कह रहे थे और मुझे सुनने में मजा आया तो मैंने भी कह दिया। माफ कीजिएगा, मैं तो कुछ ऐसे बोल रहा हूँ जैसे सीधे अरब से ला कर यहाँ खड़ा कर दिया गया हूँ। दरअसल मेरे भीतर गधेपन का जो अंश है वही मुझे बड़बोला बना देता है। सचमुच मुझे ऐसे बड़े बोल नहीं बोलने चाहिए। तो बिलाल ने ऊपर अँगुली से इशारा करके बताया कि आपको वहाँ तक जाना है तो सवार काँखने लगा। दरअसल, बिलाल की अँगुली जिस तरफ इशारा कर रही थी उधर आसमान ही आसमान था, अमरनाथ की गुफा कहीं दूर-दूर तक दीख नहीं पड़ती थी। आँखों के सामने दोनों तरफ सीना ताने पहाड़ खड़े थे जिनके किनारे बने संकरे रास्ते कहाँ जा कर खत्म होंगे कुछ अनुमान नहीं लगता था। मैंने सोचा कि सवार की यह यात्रा अगर पहलगाम से शुरू होती तब अड़तालीस किलोमीटर में इसका क्या हाल होता। इसे तो बलतल से करीब अट्ठारह किलोमीटर की यात्रा करनी है तब यह इस कदर घबरा रहा है। यह आदमी मेरे ऊपर सवार हुआ था तभी मैं जान गया था कि यह बातूनी बंदा है। अरे, तुम तो मेरी पीठ पर अस्सी मन का बोझ डाले लदे हो, बेचारे बिलाल तो मेरी रास पकड़े साथ-साथ चलते हैं। तुम्हारे फेफड़ों में तो भरपूर साँसें भरी हैं लेकिन बिलाल इतना दम कहाँ से लाएँ कि चलें भी और तुम्हारी बातों का जवाब भी दें। 'ऐ,क्या नाम है तुम्हारा?' सवार ने सफर शुरू होते ही पूछा। 'जी,मुझे बिलाल कहते हैं जनाब।' आदमी चुप रहता है तो बहुत सारे भरम बने रहते हैं जो मुँह खोलते ही टूट जाते हैं जैसा कि सवार और बिलाल के साथ हुआ। 'आपका' नाम भी पूछा जा सकता था जिससे सवार की हैसियत पर कोई असर नहीं पड़ जाता। लेकिन 'आप' तो वही हो सकता है जो पीठ पर लद सकता हो, जमीन पर चलनेवाले के लिए तो 'तुम' ही ठीक रहता है। 'बिलाल माने?' दो महीने के यात्रा सीजन की कमाई पर सारे साल गुजारा करनेवाले बिलाल से पूछा जा रहा है कि बिलाल का क्या मतलब होता है। 'बिलाल एक हब्शी थे जनाब जो मुहम्मद साहब सल्लाहु अलैहवसल्लम के जमाने में मक्का में अजान देने का काम करते थे। कहते हैं उनकी आवाज बहुत सुकून देनेवाली थी और उनकी आवा
ज सुन कर ऐसा महसूस होता था जैसे कोई सीने से दिल निकाले लेता हो। कुछ लोगों का ऐसा मानना है कि मक्का में पहली अजान हजरत बिलाल ने ही दी थी। ऐसा भी कहा जाता है कि हुजूर ने जब पर्दा कर लिया तो बिलाल ने उनके गम में अजान देने का काम ही बंद कर दिया।' बिलाल इतना अच्छा बोल लेते हैं, मैं नहीं जानता था। 'मर गए', 'मौत हो गई' या 'इंतकाल फरमा गए' की जगह कितने अच्छे शब्दों का इस्तेमाल किया उन्होंने - 'परदा कर लिया।' मैं तो दंग रह गया। चलना भूल, ठिठक कर सुनता ही रह गया। मैं चलने को ही था कि बिलाल को कहते सुना, 'वो किसी ने कहा है न...' तो मैं समझ गया कि बिलाल को अभी और भी कुछ कहना है जिसको सुनने के लिए मैंने अपना उठा हुआ पैर फिर जमीन पर टिका दिया। चलते हुए मुझे अपने पैरों की धमक इतनी तेज लगती है कि लगता है आँखों के आगे अँधेरा-सा छा रहा है। दम फूलने पर तेजी से साँस लेनी पड़ती है जिसमें कुछ भी सुनाई देना बंद हो जाता है। नमाज पढ़ गए दुनिया में कर्बला वाले' 'वाह' - कोई शेर सुन कर सभी 'वाह' बोल देते हैं, सवार ने भी कहा। अजान देने से कोई बिलाल होता है?' सवार की बोलती बंद हो गई। आदमी की बोलती बंद होती है तो अलग से पता लग जाता है, है न? लगा कि सवार जरूर कोई पंडित ही है। कठिन चढ़ाई शुरू हो रही थी। 'बॉडी आगे - पैर पीछे', बिलाल ने सवार को चलते समय बैठने का तरीका समझाया। 'क्या', सवार बिलाल के चार शब्दों के कूट निर्देश को नहीं समझ पाया। यों पहली बार बोले जाने पर कोई भी नहीं समझ पाता। 'चढ़ाई के समय बॉडी का सारा बोझ आगे रखने के लिए काठी पर झुक जाइए और पैर पीछे इसके पेट से सटा दीजिए', बिलाल ने विस्तार से बताया। 'और उतराई के समय?', सवार, ढलान को उतराई कह रहा था। 'ढलान के समय बॉडी का वेट पीछे कर लीजिए और दोनों
पैर आगे की ओर ताने रहिए', बिलाल ने समझाया। आपको मैं बताऊँ कि चढ़ाई के समय मुझे मयसवार अपना सारा बोझ उठाने में अपने पिछले पैरों की मदद लेनी होती है। मेरे पिछले पैर ही मेरे अपने शरीर और सवार के बोझ को ऊपर उठाने के काम आते हैं। ऐसे में अगर सवार अपना बोझ आगे की ओर कर देता है तो मेरे पिछले पैरों पर वजन कम हो जाता है और मैं आसानी से चढ़ाई चढ़ जाता हूँ। लेकिन जब ढलान होती है तो मुझे अपने शरीर को बहुत साधना होता है। ढलान के समय जरूरी होता है कि मेरे अगले पैरों पर वजन कम से कम हो ताकि मैं अपने शरीर को संतुलित रखते हुए इस तरह उतर सकूँ कि मेरे पैर न तो लड़खड़ाएँ और न बोझ की वजह से मुड़ें। 'अरे नहीं जनाब, बॉडी आगे - पैर पीछे', बिलाल झुँझला जाते हैं तो भी तहजीब का दामन नहीं छोड़ते। उनकी झुँझलाहट का हल्का सा साया 'अरे नहीं जनाब' से आगे कोई भाँप भी नहीं पाता। वह तो मैं हूँ जो बिलाल की साँस-साँस से बखूबी वाकिफ हूँ। मैं भी बड़ी देर से महसूस कर रहा था कि मुझे चलने में बड़ी कठिनाई हो रही है। अभी जो चढ़ाई मैंने पूरी की है उसमें सवार ने अपनी बॉडी का सारा वेट पीछे डाल दिया था और पैर आगे की ओर तान दिए थे। ठीक इसका उल्टा काम उसने ढलान के समय किया था और बिलाल को उसे तब भी टोकना पड़ा था। तभी मुझे लगा था कि यह कैसा आदमी है कि जिसके भेजे में एक छोटी सी बात नहीं घुस रही। चढ़ाई धीरे-धीरे कठिन होती जा रही थी। 'अरे, इसका पैर फिसल जाएगा, इसको इतना किनारे क्यों चला रहे हो?' सात-आठ हजार फुट की ऊँचाई पर पहुँच कर सवार ने डरी हुई आवाज में बिलाल से कहा। करीब छः फुट चौड़े रास्ते पर मुझे भी चलना था,सामने से आ रहे मेरे साथियों को भी और पैदल चल रहे भक्तों को भी। 'ये अपना रास्ता पहचानता है जनाब। इसी रास्ते पर इसी किनारे पर चलते हुए जा रहा है और इसी किनारे पर चलते हुए वापस भी लौटेगा। रास्ता बदल देने से इसके पैर रास्ते की पहचान खो देंगे', बिलाल ने मेरी गरदन पर अँगुलियाँ फिराते हुए कहा। 'अच्छा अभी तो यह तुम्हारा आज का पहला फेरा है न?' सवार ने एक बेतुका-सा सवाल किया। 'हाँ हुजूर अभी तो पाँच-छः चक्कर लगेंगे', बिलाल ने व्यंग्य से कहा जिसे सवार शायद पकड़ नहीं पाया। जब बलतल से गुफा तक की दूरी पाँच-साढ़े पाँच घंटे में पूरी होती है और इतना ही समय वापसी में लगता है तो एक फेरे से ज्यादा की गुंजायश ही कहाँ है? मैं जान गया कि सवार को उस सफर की रत्ती भर जानकारी नहीं है जिस पर वह निकला हुआ है। मुझे बिलाल का चुटकी लेना अच्छा लगा। 'इतने सारे लोग आने लगे... लगता है तफरीह करने निकले हों... बिना कोई तकलीफ उठाए सवाब कमाना चाहते हैं सब। ऊपर पंद्रह हजार फुट की ऊँचाई पर भी गैस के सिलिन्डर जलने लगे, कितनी गर्मी हो गई है यहाँ', बिलाल ने बगल से गुजर रहे एक सवार की जेब से झाँक रहे टेपरिकार्डर से निकलती गाने की आवाज सुन कर पता नहीं सवार से कहा या अपने आप से। 'अरे उतारो मुझे, मैं गिर जाऊँगा' सवार अचानक परेशान हो कर बिलाल से विनती
करने लगा कि वह उसे नीचे उतार दे। 'कुछ नहीं होगा हुजूर। आप मजबूती से काठी पकड़े रहिए बस', बिलाल ने सवार को हिम्मत बँधाई। सवार की हालत पर मुझे दया हो आई। आदमी मौत से सबसे ज्यादा डरता है। जब तक वह सामने नहीं आती तब तक उसे यही लगता रहता है कि वह सामने आ जाएगी तो वह बड़ी दिलेरी से उसका सामना करने की कुव्वत रखता है लेकिन जब वह सचमुच सामने खड़ी दीख पड़ने लगती है तो आदमी को रोने के सिवाय और कुछ नहीं सूझता। बिलाल के बार-बार समझाने पर भी सवार लगातार एक ही रट लगाए जा रहा था। उसे लग रहा था कि मेरा पैर कहीं न कहीं जरूर फिसलेगा और वह इतनी गहरी खाई में जा गिरेगा कि उसकी लाश तक खोजे नहीं मिलेगी। 'जय भोलेनाथ' - पैदल चल रहे किसी श्रद्धालु ने शायद सवार को देख कर ही कहा। सवार ने उसका कोई उत्तर नहीं दिया जबकि अभी तक वह भी जवाब में बराबर 'जय भोलेनाथ' का जयकारा लगाता आ रहा था। 'अपने भगवान पे भरोसा रखिए,जनाब', बिलाल ने सवार को फिर हिम्मत दिलाई। सवार की परेशानी कुछ कम हो गई लेकिन अब अपने डर पर काबू पाने के लिए वह 'जय भोलेनाथ', 'जय शिवशंकर' और 'जय बर्फानी बाबा' का जाप करने लगा। सवार के डर और उसकी परेशानी से माहौल कुछ अजीब चुप-सा हो गया था। अभी तक बिलाल और सवार के बीच जो बातचीत चल रही थी उसको सुनते हुए मुझे भी रास्ता काटना आसान लग रहा था लेकिन अब जब कि चढ़ाई और कठिन हो गई थी उस बातचीत की मुझे और भी ज्यादा जरूरत महसूस हो रही थी। अचानक मेरी निगाह सड़क के नीचे खाई पर पड़ी और मैं काँप उठा। मेरा एक साथी वहाँ मरा पड़ा था। उसकी देह पर मक्खियाँ भिनभिना रही थीं। उसकी आँखें खुली हुई थीं और दाँत बाहर निकल आए थे। उसके पैर अकड़े हुए थे और अपने को बचाने की नाकाम कोशिश के सबूत के तौर पर उसकी गरदन शरीर के बिलकुल उल्टी
तरफ को घूमी हुई थी। 'इन्ना लिल्लाहे व इन्ना इलैहे राजिउन', बिलाल जरा देर को रुके और उन्होंने कहा। एक क्षण वह मेरे मरे हुए साथी को देखते रहे फिर साँस छोड़ते हुए धीमे से बोले -'चलो।' 'क्या, क्या बोला तुमने बिलाल?' सवार ने पूछा। 'मैंने कुरान मजीद की जो आयत पढ़ी जनाब, उसका मतलब है कि हर वो चीज जो खुदा की तरफ से आई है उसे उसी तरफ जाना है', बिलाल ने अपने कहे का मतलब बताया। 'ये तुमने किसके लिए कहा?' सवार ने पूछा। बिलाल खामोश चलते रहे। सवार जान गया था कि बिलाल ने वह बात किसके लिए कही थी। अपनी हँसी रोकने के लिए सवार की कोशिश से उसका सारा शरीर हिलने लगा। उसकी उठती और जबरदस्ती रोकी जा रही हँसी की लहर को मैंने अपने ऊपर लदी काठी के नीचे अपनी पीठ पर महसूस किया। वैसे तो मैं गलती कम ही करता हूँ लेकिन बिलाल मेरी किसी गलती को यूँ ही गुजर नहीं जाने देते। किसी गलती पर या तो डाँट लगाते हैं या उल्टे हाथ से मुँह पर एक थप्पड़ मारते हैं। मुझे भी ध्यान रहता है कि गलती कहाँ हुई और आगे से वैसा न हो। इस समय मैंने कोई गलती नहीं की थी लेकिन बिलाल ने एक हल्की सी चपत मेरे मुँह पर मारी। मैं समझ गया कि मेरे मरे हुए साथी को देख कर बिलाल मेरे लिए परेशान हो उठे हैं। चपत मार कर मानो मेरे साथी की मौत के हादसे को मेरे लिए इबरतनाक बनाते हों। 'आप क्या काम करते जनाब?' ऐसा कम ही होता है कि बिलाल किसी सवार से खुद आगे बढ़ कर बातें करें। लेकिन, शायद मेरे मरे हुए साथी की तरफ से अपना ध्यान हटाने के लिए उन्होंने सवार से पूछा। 'टेलीविजन देखते हो? मैं उसमें खबरें सुनाता हूँ', सवार के जवाब में नुकीली सी नाक अलग से दीख पड़ने लगी जैसी कश्मीरियों के चेहरे पर होती है। 'अच्छा जनाब, बहुत खूब। लेकिन मेरे घर में तो टेलीविजन है नहीं', बिलाल ने कहा लेकिन उनकी आवाज में कोई उदासी जैसी चीज नहीं थी। 'अरे' सवार के इस 'अरे' में उदासी से अधिक आश्चर्य था। 'तो जनाब कैसे सुनाते हैं खबरें? जरा बोल कर बताएँ हुजूर', बिलाल ने सवार के 'अरे' से प्रभावित हुए बिना उत्सुकता से कहा। 'अरे मत पूछो। बड़ी कठिन ड्यूटी होती है। चेहरे पर क्रीम-पाउडर लगाना पड़ता है, बड़ी तेज रोशनी के सामने बैठ कर खबरें सुनानी पड़ती हैं, चेहरा झुलसने लगता है', सवार ने बताया। 'आपका तो सिर्फ चेहरा झुलसता जनाब, वो पहाड़ियों पर आप देखते? हर दो मीटर पर मिलटरी का एक जवान अपनी पूरी जिन्दगी झुलसाता खड़ा रहता है। अकेला। मशीनगन के घोड़े पर उँगली रखे। दो कदम इधर और दो कदम उधर टहल कर अपनी टाँगों को आराम देता हुआ... खड़ा हो कर या तो घोड़ा सोता जनाब या ड्यूटी पर तैनात ये सिपाही... पता नही कब किधर से एक गोली आए और खेल खत्म... आपकी ड्यूटी क्या उससे भी कठिन है, जनाब?' बिलाल शायद ड्यूटी शब्द को लेकर कुछ ज्यादा ही जज्बाती हो गए थे। मैं भी इन रास्तों से पाँच सालों से आ-जा रहा हूँ। मैं भी सेना के इन जवानों को रोज खड़े देखता रहा हूँ लेकिन इनके बारे में ऐसे भी सोचा जा सकता है, कभी सोचा
नहीं था। 'अब यहाँ से आपको पैदल चलना होगा। थोड़ी चढ़ाई के बाद नीचे उतरिएगा तो संगम पुल आएगा। आप वहीं पहुँचिए, हम आपको वहीं मिलेंगे', बिलाल इस जगह पर पहुँच कर सवार को उतार देते हैं और जब मुझे अपने साथ शामिल करते हुए 'हम' कहते हैं तो मुझे बहुत अच्छा लगता है। सवार मेरी पीठ से उतरा तो मैंने उसको देखा जो टेलीविजन पर खबरें सुनाता है और जिसकी ड्यूटी बड़ी कठिन होती है मिलटरी के जवान और मेरी अपनी ड्यूटी से भी ज्यादा कठिन। अब तक मैंने अपनी ड्यूटी के बारे में कभी नहीं सोचा था लेकिन बिलाल की बातें सुन कर मुझे भी लगा कि जवान की ड्यूटी से मेरी ड्यूटी जरूर ही कम है पर सवार की ड्यूटी से मेरी ड्यूटी पक्की तौर पर ज्यादा कठिन है। 'ये तो बड़ी सीधी चढ़ाई है, पैदल क्यों चलवा रहे हो?', सवार ने उस सीधी चढ़ाई को देखते हुए अपने दम-खम का अंदाजा लगाते हुए कहा। 'हुजूर, मेरे इस साथी की भी जान है। इतनी सीधी चढ़ाई नहीं चढ़ पाएगा ये', बिलाल ने कहा और प्यार से मेरी गरदन पर अपनी हथेली फिराई। बिलाल की हर छुअन में इतना प्यार और अपनापन होता है कि मेरी सारी थकान मिट जाती है। इस जगह पर आ कर जब बिलाल सवार को मेरी पीठ से उतार देते हैं तो मैं अपने आप को उनके हाथों में बहुत सुरक्षित महसूस करता हूँ। मैंने देखा सवार को चढ़ाई पार कराने के लिए मिलटरी के एक जवान ने अपनी एक बाँह थमा दी थी जिसको पकड़ कर सवार लिथर-लिथर कर किसी तरह चल रहा था। सवार दो-तीन कदम चलने के बाद सुस्ताने के लिए रुक जाता,मिलटरी का जवान भी उसके दम में दम आने तक उसके पास खड़ा रहता। लगभग तेरह हजार फुट की ऊँचाई पर आक्सीजन की कमी थी और सवार के हाँफने में उसका हल्का-हल्का कराहना भी सुनाई दे रहा था। करीब दस मिनट बाद संगम पुल पर जब सवार मिला तो वह बुरी तरह से पस
्त हो चुका था। उसके पैर थरथरा रहे थे और वह ठीक से खड़ा भी नहीं हो पा रहा था। उसमें इतनी भी ताकत नहीं बच रही थी कि वह अपना एक पैर उठा कर मुझ पर सवार हो सके। उसने एक रकाब पर एक पैर रखा और दूसरे पैर को हवा में लहरा कर मेरी पीठ के उस पार जाना चाहा लेकिन चढ़ाई पार करने और चलने के कारण उसके पैर इतने भर गए थे कि वह असंतुलित होकर मेरी काठी पकड़ कर झूल गया। 'तुम घोड़ेवाले अपनी हरामजदगी से बाज नहीं आओगे?', सवार को इस तरह झूलते देख पास खड़े मिलटरी के जवान ने बिलाल को गाली दी। आप तो शुरू से हमारे साथ हैं, आप ही इंसाफ कीजिए। इसमें बिलाल की क्या गलती थी जो उसके लिए इतनी गंदी जबान का इस्तेमाल किया गया? सवार के पैरों में अगर एक-सवा किलोमीटर पैदल चलने की भी ताकत नहीं है तो इसमें बेचारे बिलाल का क्या कुसूर? इतनी ही नाजुकमिजाजी है तो घर बैठते, यहाँ आने पर तो थोड़ी-बहुत जहमत तो उठानी ही पड़ती है। बिलाल ने पास में खड़े एक दूसरे घोड़ेवाले की मदद से सवार को मेरी पीठ पर लाद दिया और आगे की यात्रा शुरू हुई। ' बॉडी आगे - वेट पीछे' और 'बॉडी पीछे - वेट आगे' करते-करते किसी तरह एक का सफर पूरा हुआ। जहाँ से अमरनाथ की गुफा की सीढ़ियाँ शुरू होती हैं, सवार को वहाँ उतार कर बिलाल मुझे जरा नीचे उतार लाए। मेरे पैरों के नीचे बर्फ का विस्तार था। बिलाल ने मेरी पीठ पर बँधा झोला खोला और मेरा मुँह झोले में डाल कर झोले के दोनों कान मेरी गरदन पर बाँध दिए। बिलाल बलतल से गुफा तक की यात्रा की तैयारी करते हैं तो एक झोले में मेरे लिए चने बाँध लेते हैं। झोला काठी के पिछले हिस्से से बाँध दिया जाता है जो चलते समय मेरे पिछले एक पैर के ऊपर पूँछवाले हिस्से के किनारे टकराता रहता है और याद दिलाता रहता है कि यात्रा पूरी होने के बाद मुझे खाने को मिलेगा। मेहनत के बाद इनाम की उम्मीद हो तो जोश दोगुना हो जाता है। मैं चने खाने लगा और बिलाल बीड़ी सुलगा कर किनारे बैठ गए। नाल ठुँकी होने की वजह से बर्फ की सीधी ठंडक मैं महसूस नहीं कर सकता था लेकिन इतनी लम्बी यात्रा के बाद मेरा बदन गर्म हो गया था और बर्फ की हल्की ठंडक मैं महसूस कर रहा था जो बहुत भली लग रही थी। बर्फ के भगवान की पूजा करके सवार, माथे पर जो लाल रंग का तिलक लगा कर लौटा था वह उसके गोरे रंग पर बहुत सुन्दर लग रहा था, बिलाल की पेशानी पर सजदा करने के कारण पेशानी पर पड़े काले दाग की तरह। मैं आराम करके वापसी यात्रा के लिए फिर ताजादम हो चुका था। गुफा की ओर आते समय जो ढलानें मिली थीं वहाँ अब चढ़ाइयाँ मिलनेवाली थीं और जहाँ चढ़ाइयाँ थीं वहाँ ढलानें मेरा इन्तजार कर रही थीं। ढलानों की तुलना में चढ़ाई ज्यादा मुश्किल होती है। आप भी जानते होंगे कि नीचे उतरने के लिए आपको कुछ नहीं करना पड़ता लेकिन किसी ऊँचाई पर पहुँचने के लिए बड़ी मेहनत करनी पड़ती है। अभी एक-डेढ़ किलोमीटर ही चले होंगे कि मेरे आगे चल रहे एक सवार को शायद चक्कर आने लगा और वह चिल्लाने लगा। 'घोड़ा रोको-घोड़ा रोको' की उसकी
आवाजों ने एकदम से दहशत-सी फैला दी। घोड़ेवाले ने मयसवार घोड़ा किनारे लगा लिया। फिर वही डाँट-फटकार, गाली-गलौज। ये तो बड़ी अजीब बात है। जरा सा भी कुछ हो जाए, बस घोड़ेवाले की खबर लेना शुरू कर दो। क्या तमाशा है। अब तुमसे ऊँचाई बर्दाश्त नहीं होती तो इसमें घोड़ेवाला क्या करे? ऊपर पहुँच गए हो तो अल्लाह का नाम लो और सामने देखते हुए खामोशी से चलते रहो। मगर नहीं, तुम लगोगे नीचे देखने। दिमाग तो चकराएगा ही। ऊँचाई पर पहुँच कर दिमाग को गड़बड़ाने से बचाए रखना बड़ा मुश्किल होता है। मैं तो फिर रूका नहीं। सामनेवाले घोड़े के किनारे लगते ही फिर चल पड़ा। 'तुम भी 'बम भोले' बोला करो बिलाल, इससे थकान नहीं आती', सवार ने किसी बम भोले के जवाब में 'बम भोले' बोलने के बाद बिलाल से कहा तो मेरा ध्यान टूटा। बिलाल ने कोई जवाब नहीं दिया, चुपचाप चलते रहे। मुझे सवार की यह बात पसंद नहीं आई। बिलाल क्यों बम भोले बोलें? आदमी की परेशानी या थकान ही कह लो, उसको अपने अकीदे की ही तरफ खींचती है। जिस पर हमारा विश्वास ही नहीं उसे हम कैसे पुकारें? सवार ही क्यों नहीं 'बम भोले' की जगह 'या अल्लाह' पुकारता? आदमी बोलने से पहले सोचता नहीं है। 'ये हेलीकाप्टर तो दिमाग खराब कर देते हैं', बिलाल ने हर दस-पंद्रह मिनट पर आने-जाने वाले हेलीकाप्टरों को देख कर कहा। किराये के ये हेलीकाप्टर बलतल से गुफा तक तीर्थयात्रियों को ढोते रहते हैं। जिनके पास समय और कुव्वत कम लेकिन पैसा खूब होता है वे बलतल से हेलीकाप्टर पर सवार होते हैं और पाँच घंटों की कठिन यात्रा पाँच मिनट में पूरी कर लेते हैं। ' हर दस मिनट पर भड़भड़-भड़भड़... अल्लाह मेरी तौबा। इतना सुकून देनेवाली जगह पर कितना शोर भर गया है', बिलाल की आवाज में उकताहट थी। 'हेलीकाप्टर की वजह से तुम्हारी
रोजी पर भी तो असर पड़ता होगा', सवार ने सहानुभूति दिखाते हुए कहा। 'रोजी तो अल्लाह देता है जनाब, उसकी फिक्र हम क्यों करें? बात रोजी की नहीं है', बिलाल ने सवार की बात का जवाब झपटती-सी आवाज में दिया। लगा, जैसे 'बम भोले' वाली बात का जवाब देते हों। सवार चुप हो गया। बिलाल भी। 'बॉडी आगे - पैर पीछे', बिलाल ने सवार को याद दिलाया। बहुत सीधी चढ़ाइयाँ थी। मैं दस-पंद्रह कदम चलता और साँस लेने के लिए रुक जाता। ऐसी हालत में बिलाल भी मुझे कभी चलने के लिए मजबूर नहीं करते। वह साथ ही खड़े रह कर तब तक प्रतीक्षा करते हैं जब तक कि मैं खुद चलना शुरू न कर दूँ। 'बहुत थक गया है बेचारा', एक बार जब मैं रूका हुआ था, मैंने सवार को कहते हुए सुना। इसी के साथ मैंने अपनी गरदन पर अजनबी अँगुलियों की छुअन महसूस की। बिलाल को छोड़ यह अकेला आदमी था जो मुझे प्यार कर रहा था। 'जब ये रुक कर साँस लेता है तो इसके पेट से सटे मेरे पैर महसूस करते हैं कि इसकी साँस कितनी तेज चलती है', सवार ने बिलाल से कहा। मैं साँसे भर चुका था और चल सकता था। लेकिन सवार के मुँह से यह सब सुनना अच्छा लग रहा था। मैं कुछ और सुनने की प्रतीक्षा में खड़ा रहा। 'चलो', बिलाल ने हमेशा की तरह धीमे से कहा। 'जरा देर रुक जाओ भाई, बहुत थक गया होगा ये' सवार ने बिलाल से प्रार्थना-सी की। 'अच्छा अब चलो, बहुत दिमाग न खराब हो तुम्हारा', बिलाल ने लाड़ से कहा और हाथ में पकड़ी रास को हल्के से झटका दिया। मैं चल पड़ा। सवार की हथेली मेरी गरदन पर सीधाई से खड़े बालों को सहलाती रही। बिलाल कोई मेरे दुश्मन नहीं हैं, लेकिन रास्ते में जरूरत से ज्यादा रुक कर आराम करने की आदत न तो बिलाल की है और न ऐसी आदत उन्होंने मुझमें पड़ने दी। 'अभी और कितनी दूर है भइया', सामने से लाठी टेकती चली आ रही एक बूढ़ी माता ने उखड़ती साँसों के बीच पूछा। वह थकान के मारे रोने-रोने को हो रही थी। 'अभी तो बहुत दूर है माई', सवार ने कहा तो बूढ़ी माता हम लोगों की पेशाब और लीद से गंदी हो गई जमीन की कोई परवाह न करते हुए वहीं धम्म से बैठ गईं। 'कहीं ऐसे कहा जाता है जनाब? ये तो हिम्मत तोड़नेवाली बात हुई। माई से कहना चाहिए था कि, बस जरा दूर चलते ही गुफा की सीढ़ियाँ दिखाई देने लगेंगी', बिलाल ने सवार को किसी अभिभावक की तरह सीख दी। बिलाल हमेशा यही करते हैं। रास्ते में जब भी कोई उनसे पूछता है कि अभी कितनी दूर है, तो वह यही कहते हैं कि बस जरा दूर और... और उनके ऐसा कहते ही मैंने देखा है थकान से चकनाचूर हो चुके आदमी में उत्साह और ताकत का संचार हो जाता है और वह दोगुने जोश के साथ चलने लगता है। लेकिन बूढ़ी माता के मामले में इससे पहले कि बिलाल जवाब देते सवार ही बोल पड़ा। 'बॉडी पीछे - पैर आगे', बिलाल ने सवार को याद दिलाया क्योंकि अब मुझे सत्तर-अस्सी डिग्री की सीधी ढलान उतरनी थी। वहाँ रास्ता भी कुछ ज्यादा ही सँकरा हो गया था। लगभग चार फुट चौड़ा रास्ता, रास्ते पर पड़े हुए छोटे-बड़े आकार के पत्थर। उसी रास्ते पर मु
झे, बिलाल और सामने से आ रहे लोगों को गुजरना था - अपने लिए रास्ता बनाते हुए और दूसरों को रास्ता देते हुए। नीचे बारह हजार फुट की गहराई में हरीतिमा और नीली आभा लिए फेन उठाती नदी अपनी गति से बह रही थी। 'बॉडी पीछे - पैर आगे', बिलाल ने ढलान शुरू होने से पहले सवार को एक बार फिर याद दिलाया। सवार ने दोनों पैर आगे की ओर ताने। उसके पैर मेरे अगले पैरों से टकराए। मैं जरा सा लड़खड़ाया फिर तुरन्त ही अपने को सँभाल ले गया। बिलाल ने उल्टे हाथ से एक झन्नाटेदार झापड़ मेरे मुँह पर मारा और चलना जरा देर के लिए रोक दिया। मैंने आपको बताया न कि बिलाल मेरी गलतियों को कभी माफ नहीं करते। और इस समय की यह लड़खड़ाहट तो गजब ढा सकती थी। आगे अभी कई ऐसी ढलानें मिलनेवाली थीं जहाँ मुझे बहुत सँभल कर एक-एक पैर रखते हुए आगे बढ़ना था। मैं झापड़ को याद रखूँ और अपने आप को दिमागी तौर पर चौकस बना लूँ, इसीलिए बिलाल ने मेरा चलना जरा देर के लिए रोक दिया था। लेकिन बिलाल क्या जाने कि मैं इतनी देर से चलने में किस तरह की परेशानी उठा रहा हूँ। सवार जाने कैसे बैठता है। पैर पीछे रखता है तो उसके जूते का अगला हिस्सा मेरे पीछे के घुटनों से टकराता है और जब आगे तानता है तो उसके जूतों की एड़ियाँ अगले पैरों से टकराती हैं। इस सवार ने तो मेरा चलना दूभर कर दिया है। अपनी कोई गलती न होने पर भी बिलाल से मुझे मार खानी पड़ी। 'मार खानी पड़ी' इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि वह थप्पड़ आमतौर पर तम्बीह के लिए लगाई जाने वाली चपत नहीं था। वह अपनी पूरी ताकत के साथ मारा गया झापड़ था जिसमें बिलाल की चिंता, आशंका और झुँझलाहट शामिल थीं। मुझे सवार पर बेतरह गुस्सा आ रहा था। मैंने चलना शुरू किया और दो कदम बाद ही रुक गया। मेरा मन करने लगा कि सवार का पैर ही चबा जाऊँ। मै
ंने अपना मुँह खोला और सवार के पैर को अपने दाँतों के बीच में ले लिया। मगर फिर मुझे अपने खयाल पर गुस्सा आया और हैरानी हुई कि मैं भला ऐसा काम करने के बारे में सोच भी कैसे सका? सवार ने अपना पैर तेजी से पीछे खींचा और मैंने भी अपने जबड़े खोल कर पैर को बाहर जाने का रास्ता दे दिया। 'ये ऐसा क्यों कर रहा है?' सवार ने बेहद डरी हुई आवाज में बिलाल से पूछा। 'क्या कर रहा है?' 'ये अभी मेरा पैर काटने की कोशिश कर रहा था', सवार ने मेरी शिकायत की। 'आपका पैर क्या इसके पैर से टकरा रहा था?' 'हो सकता है।' 'तभी। इसे गुस्सा आ रहा होगा। पैर ऐसे रखिए जनाब, कि इसके पैरों से टकराएँ नहीं', बिलाल ने सवार को समझाया। मैंने चलना फिर शुरू कर दिया। 'अच्छा, एक बात बताओ।' 'जी हुजूर।' 'लोग बताते हैं कि ये अगर अपने मुँह में कोई चीज दबा ले तो उसे छुड़ाना मुश्किल होता है', सवार की आवाज से डर अभी गया नहीं था। मुझे उस पर दया आ रही थी। उसने अपने पैर सँभाले हुए थे। 'मुश्किल क्या जनाब नामुमकिन कहिए। इसके इतने बड़े-बड़े तो दाँत होते हैं', बिलाल ने अपनी अँगुली के डेढ़ पोर पर अँगूठा रखते हुए बताया। 'ओ', सवार के मुँह से निकला। अब उसका पूरा ध्यान इस बात पर था कि उसके पैर भूल से भी मेरे पैरों से न टकराएँ। आप ही जरा सोचिए कि मेरे ऊपर कितनी जिम्मेदारी होती है। बिलाल और उसके परिवार की जिम्मेदारी, सवार को सुरक्षित पहुँचाने की जिम्मेदारी और जाहिर है अपने को महफूज रखने की जिम्मेदारी क्योंकि मैं नहीं रहा तो बिलाल के परिवार का क्या होगा? मैं जब चलने के लिए पैर आगे बढ़ाता हूँ तो मुझे पता होता है कि मुझे पैर कहाँ रखना है। इतने पत्थर,कभी-कभी होनेवाली बारिश और हमारी पेशाब और लीद से पैदा होने वाली फिसलन, ऊपर से इतने ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर क्या मजाल कि चारों पैरों को उठाने-रखने में कभी कोई गलती होती हो। लेकिन ऐसा तभी मुमकिन हो सकता है जब मुझे अपने हिसाब से चलने दिया जाए। देखिए, मैं आपको समझाने की कोशिश करता हूँ। जैसे मैं अपना अगला पैर उठा रहा हूँ तो इस हिसाब से कि उसे एक फुट आगे रखना है और उसे अपना पैर टकरा कर कोई छः या सात इंच पर ही रखने पर मुझे मजबूर कर दे तो अपनी चाल के हिसाब से मैं जानता हूँ कि अगले पैर के एक फुट रखने पर मेरे पिछले पैरों को कितना आगे बढ़ना है लेकिन अचानक एक फुट के बजाय मेरा अगला पैर छः या सात इंच पर ही रुक जाए तो पिछले पैर तो एक फुट के हिसाब से आगे बढ़ चुके होते हैं उन्हें मैं पीछे कैसे करूँ? पता नहीं आप भी मेरी मजबूरी समझे या नहीं लेकिन ढलान पर मेरे लड़खड़ा जाने की, यही वजह थी जिसके कारण बिलाल ने मुझे मारा था। उस जगह पर अगर मैं अपनी लडखड़ाहट पर काबू न कर पाता तो आप सोच ही सकते हैं कि क्या हो जाता। मैं सवार सहित बारह-तेरह हजार फुट की गहरी खाई में गिर चुका होता और बिलाल बेचारे ऊपर रह जाते लोगों की गालियाँ और लात-जूते खाने के लिए। कोई यह थोड़ी ही जानता कि मैं गिरा क्यों? सब यही समझते कि घोड़ेवाले की लापरवा
ही रही होगी। जैसा कि होता है, हर बात में घोड़ेवाला ही पकड़ा जाता है। अब जाहिर है कि मैं गिरता तो बिलाल तो मेरे साथ नीचे कूद नहीं पड़ते। और उनको कूद पड़ना भी नहीं चाहिए। मरनेवाले के साथ कोई मर थोड़े ही जाता है। मेरे लिए तो मौत एक छुटकारे की ही तरह आती लेकिन बिलाल तो अपने घर के अकेले कमानेवाले हैं, उनको मरना भी नहीं चाहिए। मेरे जैसे खच्चर तो पचासों मिल जाएँगे, लेकिन घरवालों को दूसरा बिलाल कहाँ से मिलता? हाँ मरते-मरते मुझे भी सवार का जरूर दुःख रहता कि यह पता नहीं कहाँ से आया था, कौन है और इसके न रहने पर इसके घर-परिवार पर कैसी आफत टूट पड़ेगी। सवार कितना प्यारा इंसान है उसे अभी संसार में रहना चाहिए। अच्छे इंसान इस दुनिया में बहुत कम रह गए हैं। 'लीजिए जनाब, हम वापस बलतल पहुँच गए', बिलाल ने कहा तो मेरा ध्यान टूटा। सवार ने उतर कर अपने पैर सीधे किए और बटुआ निकाल कर रूपये बिलाल को दिए। 'हुजूर, इसके दाने के लिए दस-बीस और मिल जाते तो', बिलाल ने सवार से अनुरोध किया। 'क्यों? जितना तय हुआ था उतना दे तो दिया। अब एक पैसा नहीं दूंगा', सवार की आवाज में गुर्राहट आ गई। 'अरे कुछ दे दीजिए हुजूर, मेरा ये साथी आपको दुआएँ देगा', बिलाल ने अजीब रिरिया कर कहा जो मुझे जरा भी पसंद नहीं आया। 'कौन तुम्हारा साथी? ये खच्चर? ये जानवर? मुझे दुआएँ देगा? भक्तों की जेब से पैसा खींचने के लिए तुम लोगों की ये नई हरामजदगी है', सवार ने ठठा कर हँसते हुए कहा। सवार के मन को मिलटरी के जवान से सुनी गाली बहुत भा गई थी। सवार ने पाँच रूपये का एक सिक्का बिलाल की ओर उछाला जिसे बिलाल ने लपक लिया। सवार की गाली से भी खराब लगा मुझे बिलाल का इस तरह पैसे माँगना और उससे भी शर्मनाक लगा सवार के फेंके गए सिक्के के लिए बिलाल का हाथ बढ़ाना।
मन मसोस कर रह जाना पड़ा। यही सोच कर मन को समझा लिया कि बिलाल कुछ भी हों, हैं तो आखिर इंसान ही।
काजल के एक पोर्ट्रेट ने छोटी बेबी को बड़ी बेबी बना दिया और इसने टैरेस-गार्डेन पर जाना अचानक बंद कर दिया। सक्सेना चौंका, श्रीवास्तव चौंका, काजल भी चौंकी। किसी को पता न चला कि उनकी बेटी एकाएक बड़ी हो गई है। पहले तो उसके पिता और सक्सेना अंकल, अपनी व्हिस्की चुसकते रहते और कभी-कभी बेबी अपनी रीसेपी खाती रहती। तब श्रीवास्तव के टैरेस-गार्डेन की वी-आई-पी यहीं होती। बेबी की पसंद का चिकेन-रोस्ट और अंडों का वाटर-पोच उसे सर्व होता। जब उसके पिता और सक्सेना अंकल अपने-अपने ड्रिंक्स चियर्स करते, उस वक़्त बेबी अपना सूप उनके साथ चियर्स करती। उस समय बेबी बड़ी नहीं थी। सक्सेना अंकल बेबी को अपनी गोद में बैठाते, प्यार करते और बेबी ख़ुश हो जाती। किसी दिन सक्सेना अपने दोस्त से उलझ जाता तो बेबी ठुनक जाती और तब तक रूठी रहती जब तक सक्सेना अपने कान पकड़ कर सॉरी न कह देता और बेबी को प्यार न कर लेता। लेकिन अचानक सब कुछ बदल गया। काजल, बेबी की हर धड़कन से वाक़िफ़ थी। उसने बेबी को प्यार करते हुए जब उससे पूछा, -'बात क्या है डार्लिंग? आख़िर तुम्हें हुआ क्या है?' तो उसने जवाब में काजल से अजीब-सी फ़रमाइश कर दी, -'काजल-दी... में आई लव यू?' काजल जब अवाक् रह गई तो बेबी ने सिर्फ़ एक जुमला कहा, -'प्लीज़़!' और उलझन में उलझी काजल ने कह दिया था, -'येस बेबी यू में।' काजल के कहते ही झपट कर बेबी ने उसे जकड़ लिया था और उसके गालों, अधरों को बुरी तरह चूमने-चाटने लगी तो काजल और भी उलझ गई. यह तो साफ़-साफ़ मेंटल केस है, उसने सोचा और सोच कर टेंस हो गई थी। और काजल के बदन में... उसके गालों में... अधरों के रेशे-रेशे में... बेबी को कहीं भी भारती के शरीर की गंध नहीं आ रही थी। भारती की मानुष-गंध! जो उस वक़्त जनून में डूबी बेबी खोज रही थी। नतीजे में झटके से उसने काजल को ख़ुद से धकेल कर परे कर दिया और दोनों हथेलियों से अपनी आँखों बंद कर रोने लगी। काजल और भी उलझ कर रह गई. उसे लगा था बेबी मेंटल केस बन गई है लेकिन उसके बाद उसके मन में एक प्रश्न ने जन्म लिया। कहीं यह लेस्बीयन तो नहीं? लेकिन अब इस स्थिति ने तो उसे पूरी तरह उलझा कर रख दिया। बेबी अब सारे दिन खोई-खोई-सी रहती। उसकी चमकीली आँखों की चमक बुझ गई. अधरों पर थिरकने वाली मुस्कान, अधरों से गायब हो चुकी थी। सारे दिन 'जानकी कुटीर' में कुलांचें भरती रहने वाली हिरणी शांत हो गई और ऐसे में ही उसने अपने ख़्यालों में एक पुरूष की ख़्याली तस्वीर बनानी शुरू कर दी। बेबी के ख़्यालों के कैनवस पर एक सुन्दर सजीले नवयुवक की धूमिल आकृति उभरने लगी। सबसे पहले उसकी आँखों उगीं, फिर घुँघराले बाल उभरे... फिर लम्बी खड़ी नाक...अधर... और फिर उसका सम्पूर्ण मांसल शरीर उभर आया। लेकिन बेबी की परिकल्पना में स्पष्ट कुछ न था। कभी उसके सपनों के राजकुमार की मंूछें उग आतीं तो कभी बिल्क़ुल क्लीन शेब्ड हो जाता। दरअसल बेबी को ख़ुद पता न था उसे कैसी शक्ल चाहिये, इसीलिए उसकी कल्पना में कोई एक चेहरा थोड़ी देर के
लिए भी रुक कर ठहरता न था। वैसे एक बात वह जान चुकी थी, उन चेहरों में कम से कम भारती का चेहरा तो कहीं नहीं था। वैसा सांवला, पिलपिला और नाटा...नहीं...हर्गिज नहीं। जिस मानुष-गंध के लिए उसने काजल को लपेट कर चूमा था उस मानुष-गंध को तो उसने सिरे से ही नकार दिया और उसकी तस्वीर में चेहरे बदलते रहे, रंग बदलते रहे और अब सारे दिन वह अपने दिल के कोरे कैनवास पर अपने अहसास के रंग बिखेरने लगी। ऐसे वक़्त में उसकी उदासी समाप्त हो जाती। पुतलियों की चमक लौट आती और अधरों पर कभी शरारती, कभी शर्मीली मुस्कान थिरकने लगती। बेबी की कल्पना ने अब रोज़़ एक नई तस्वीर बनानी शुरू कर दी। घंटों की कल्पना-परिकल्पना के बाद वह एक सुन्दर चेहरा, अपने अंतरमन के कोंपल में उगाती। उसे संवारती। चेहरे की धुंधली आकृति को थोड़ी और स्पष्ट करती फिर थोड़ी और। वह आऊट ऑफ़ फोकस चेहरा धीरे-धीरे फोकस में आता फिर ... वह चेहरा सामने आ जाता। जागी-जागी आँखों से वह स्वप्न देखती और उसे हक़ीक़त मानने के लिए अपने वज़ूद को इस क़दर मज़बूर कर देती कि उसका सपना हक़ीक़त में तब्द़ील हो जाता। और जब बेबी उसकी अभिसारिका होना चाहती तब वह विलुप्त हो जाता। फिर भी यक़ीन की जड़ें इतनी गहरी हो चुकी होतीं कि वह अवसादित होने की जगह रूठ जाती। मनुहार कराती, मुस्काती फिर बैठ जाती और पूरे मनोयोग से लम्बा...बेहद लम्बा, प्रेम-पत्रा लिखना शुरू करती तो घंटों लिखती रहती...लिखती रहती। लिखने के बाद जब उस पर परफ़्यूम के स्प्रे करती तो उसकी बदक़िस्मती कि परफ़्यूम की ख़ुशब़ू, उसके स्व-निर्मित परिकल्पना को अचानक ध्वस्त कर देती। बेबी यथार्थ के धरातल पर ख़ुद को खड़ी पाती। उसका समस्त भ्रम-जाल धराशायी हो चुका होता और तब उसे अवसाद का घना कोहरा घेर लेता। बेबी की आँखों भर आती
ं। वह रोने लग जाती। पहले सिसकियां लेती, बाद में फूट-फूट कर रोने लगती और प्रेमपत्रा के पन्नों को हजार टुकड़ों में विभक्त करती रहती। कभी जिसका भोलापन और मासूमियत उसके पिता की परेशानी के सबब थे, वही बेबी रोज़़ की तरह अभी तक फ़ोन पर उलझी थी। यह उसके चरित्रा की नई उपलब्धि थी। वह कोई भी नंबर ऐटरेन्डम लगाती। इतनी रात गये फ़ोन उठाता कौन? कॉल अगर तुरंत रिसीव न किया जाता तो उसे डिसकनेक्ट कर, वह कोई भी अगला नंबर लगा देती। उसे तो मतलब था सिर्फ़ सात डिजीट्स से। सात बार बटन दबाना है बस। नम्बरों के कॉम्बीनेशन से उसे क्या लेना-देना? नम्बर कोई भी हो, उसे तो मतलब था केवल कॉल रिसीव होने से। 'हैलो' में अगर पुरूष स्वर आया तो ठीक, नहीं तो तुरंत फ़ोन काटकर वह नये कम्बीनेशन ट्राई करने लगती और यह सिलसिला चलता रहता। बेबी की हालत ठीक उस चिड़िया की तरह हो गई थी जिसकी आँखों खो गई हों और दाने के लिए अंदाज़़ से ही जहां-तहां चोंच मारने के लिये अभिशप्त हो। परेशान हो गई वह। रात के दो बज रहे थे और उसके लगाए नम्बरों पर केवल रिंग होता रहता था। आजिज़ आकर उसने निश्चय किया कि इस बार वह अपना अंतिम नंबर ट्राई करेगी। हालंाकि पिछले चार नम्बरों को भी उसने यही सोच कर ट्राई किया था कि यह आख़री ट्राई है। लेकिन इस बार उसने फ़ाइनल फ़ैसला किया और सात नम्बरों का एक अनजाना नम्बर लगाया। रिंग टोन आया। एक उनींदी औरत की अलसाई आवाज़ आई, -'हैलो! कौन है इस वक़्त?' -'सोईं हैं मेम साहब?' उसने दांत पीसते हुए कहा तो आवाज़ आई, -'कौन हो तुम?' -'पहले मेरी बात का जवाब दे। अकेली सोयी है कि है कोई साथ में?' बेबी की बात ख़तम हुई नहीं थी कि रिसीवर में किसी पुरूष के बड़बड़ाने की आवाज़ आई, -'कौन है डार्लिंग?' -'अच्छा! तो अकेली नहीं हो तुम, किसके साथ लेटी हो?' बेबी ने पूछा। -'क्या मतलब?' रिसीवर पर क्रोधित स्वर आया। मुझसे। ' इस बार बेबी के रिसीवर पर एक रौबिली आवाज़ आई, -'हैलो! हू ईज कालिंग?' बेबी ख़िलख़िला कर हँस पड़ी। हँसते हुए ही उसने कहा, -'रात के दो बजे एक अकेली जवान लड़की क्या चाहती है...नहीं समझते? जिसे लपेट कर लेटा है...उसकी जगह मैं लेटना चाहती हूँ ईडियट।' और अपनी बात तेज़ी से कह कर हांफती हुई बेबी ने तुरंत फ़ोन काट दिया। अंधी चिड़ियाँ की चोंच में इस बार जो दाना आया उसे अपनी चोंच से कुचल कर उसने फेंक दिया और उड़ गई. बेबी अपने बेड से उछली। नाईटी को नोंच कर अपने बदन से फेंका और दौड़कर बाथरूम पहुँची। शावर खोला और हाँफती हुई उसके नीचे खड़ी हो गई. अवसाद-विषाद और अलाप-प्रलाप की लहरों में डूबती-उबरती बेबी ने अपना मानसिक सन्तुलन खोना शुरू कर दिया। कभी मौन होती तो सारे-सारे दिन गुज़र जाता, उसके होठों से एक भी शब्द न निकलते। कभी मुस्कुराने का दौरा पड़ता तो कमरे में बैठी हँसती रहती। श्रीवास्तव तो ख़ुद में व्यस्त रहता लेकिन काजल से बेबी की हालत देखी नहीं जाती। अपने बॉस से सीधे कुछ भी कहने की स्थिति में वह थी नहीं और ख़ुद उसके बस में कु
छ था नहीं। इधर बेबी की दिनचर्या में एक ख़ास बदलाव आ गया। अब वह सपनों की ख़्याली दुनिया से बाहर आ गई. उसने ख़ामख़ा के काल्पनिक प्रेम-पत्रा लिखना बंद कर दिया और अब रात में टेलीफ़ोन करना भी छोड़ दिया। कभी तो उसे यथार्थ के धरातल पर आख़िर आना ही था। बेबी के अंदर हुए इस परिवर्त्तन ने उसे कुछ हद तक टूटने से बचा लिया था और काफ़ी हद तक वह सम्हाल चुकी थी। उसमें आये इस बदलाव के पीछे और चाहे जो भी कारण रहे हों, लेकिन सक्सेना के बदले व्यवहार ने भी इसमें बेबी की सहायता की। सक्सेना की ऊल-जलूल हरकतों ने उसे आक्रोश से भरना शुरू कर दिया और उसके आक्रोश ने अवसाद को इस तरह संक्रमित किया कि अवसाद के साथ-साथ बेबी के अंदर का विषाद भी उसे छोड़ कर बाहर आने लगा। काजल उसकी गतिविधियों पर बारीक नज़र रखती थी और यह देख कर उसे सुक़ून मिला कि बेबी अब सामान्य होती जा रही है। लेकिन काजल को क्या पता था कि सामान्य होते ही वह नये गुल खिलाएगी। सुबह और शाम, 'जानकी कुटीर' के टैरेस पर उसने टहलना शुरू कर दिया। यह तो अच्छी बात थी कि बेबी अब अपने टैरेस पर हवाख़ोरी करने लगी और हो सकता था कि इस बात का मैं ज़िक्र तक नहीं करता, क्योंकि ज़िक्र के काबि़ल यह बात थी भी नहीं। लेकिन बेबी की इस छोटी-सी हवाख़ोरी ने, राह चलते लड़कों की हवा ख़राब कर दी और मामला ज़िक्र के काबि़ल हो गया। बेबी को पता भी न चला और 'जानकी कुटीर' के सामने वाली सड़क के पार वाली फ़ुट-पाथ पर, सुबहो-शाम, मजनुओं का मेला लगना शुरू हो गया। सामने वाली रेलिंग पर आकर, जब कभी भी वह थोड़ी देर रूक कर सड़क की हलचल देखने लगती। फ़ुटपाथ पर हलचल मच जाती। फ़ुटपाथ से फ़्लाईंग-किस के गोले दग़ने शुरू हो जाते और बेबी को पता ही नहीं होता। तकरीबन दस से पंद्रह दिनों तक यह सिलसिला चलत
ा रहा और सड़क के पार वाली फ़ुटपाथ पर आबादी बढ़ती रही...बढ़ती रही कि तभी बेबी ने इस सिलसिले को ही बंद कर दिया। काजल ने टैरेस-गार्डेन पर सारी व्यवस्था कर दी थी। पूरे तीन हजार वर्ग-फ़ुट के टैरेस-गार्डेन का एक तिहाई हिस्सा, मेक्सीकन ग्रास-कारपेट से भरा था, जिस पर आने-जाने के लिए पत्थर के कलात्मक स्टेप्स बनाये गये थे। इसी के मध्य, पंद्रह फ़ुट के गोलार्ध में इटालियन संगमरमर का बना, बगुले की तरह सफे़द, गोल सतह पर श्रीवास्तव और सक्सेना की कुर्सियां पड़ी थीं। कुर्सियों के सामने काले ग्रेनाइट पत्थर के टॉप वाला गोल टेबुल। जिस पर झक्क् सफे़द कपड़े का टेबल क्लॉथ पड़ा था। पूर्णमासी की चांदनी के कारण काजल ने आज गार्डेन-अम्ब्रेला खुलवा दिया था। मार्च महीने की गर्मी तो यूं भी सूर्यास्त के साथ-साथ घटती जाती है, फिर भी काजल ने टैरेस के दोनों ग्रास-फ़ाऊंटेन चालू कराने के अतिरिक्त पैडस्टल फ़ैन चला दिए थे। पंखे की तेज ठंडी हवा में 'रात रानी' के फूलों की ख़ुशब़ू तैरने लगी थी। रॉक-गार्डेन में छिपे स्पीकरों को काजल-दी ने टेस्ट कर लिया था। व्हिस्की की सीटिंग में ख़ास तौर से श्रीवास्तव साहब, अपनी नौजवानी के दिनों का फ़िल्मी गीत सुनना पसंद करते थे। काजल-दी को श्रीवास्तव के तमाम फ़ेवरिट्स ज़ुबानी याद थे। तलत महमूद की गज़लों का तो दीवाना ही था उसका बॉस। काजल जानती थी उसका बॉस ड्रिंक-सेशन के समापन पर डिनर लेने के काबि़ल नहीं रह जाता, इसीलिए वह इस सेशन के दौरान टैरेस के किचनेट के पास जमी रहती और ड्रिंक्स के साथ-साथ श्रीवास्तव का पसंदीदा प्रिपेरेशन सर्व कराती रहती। श्रीवास्तव को अंडे में स्क्रैम्बल्ड, चिकन में ग्रील्ड और मछली में प्रौन फिश-फ्राय बेहद पसंद था। इन्हें देखने के बाद वह ख़ुद पर काबू न रख पाता और जम कर टूट पड़ता। जबकि सक्सेना का सारे ज़ोर सिर्फ़ पीने पर रहता और श्रीवास्तव के ख़ाने पर राशनिंग लगाने की भी वह पूरी कोशिश करता रहता। उसे श्रीवास्तव का बढ़ता वज़न और कोलेस्ट्रोल, वास्तव में परेशान करते और ड्रिंक-सेशन की शुरूआत भी इन दिनों इसी नोंक-झोंक से होती। आज श्रीवास्तव के साथ टैरेस गार्डेन में आते ही पहले तो वह ख़ुश हो गया। अपनी रोज़़ की आदत के अनुसार काजल को अपने से सटाते हुए उसने कहा, -'काजल यू आर ग्रेट! आज तो तुमने सेवेन स्टार डीलक्स...एरेन्जमेंट कर दिया।' कह कर उसने रोज़़ की तरह काजल के गाल थपथपाये फिर पूछा-'जैसमीन स्प्रे किया है क्या?' -'नहीं सर! यह तो रात रानी के फूलों की ख़ुशब़ू है।' -'लेकिन इस सुगंध को हवा में इस क़दर मिक्स कर देना तो तुम्हारी अपनी टेक्नीक है...डार्लिंग।' सक्सेना अब श्रीवास्तव की ओर मुख़ातिब हुआ-'देखा श्रीवास्तव? दोनों फाउँटेन के पीछे आज इसने पैडस्टल चला कर कैसा कमाल का इनवरानमेंट क्रियेट कर दिया है। हवा भी ठंडी हो गई और उस पर नशीले जैसमीन के परफ़्यूम का नशा। इट इज रियली इमेजिंग। यार ड्रिंक तभी जमता है जब कम्पनी भी अपनी हो और इन्वॉरमेन्ट भी नशीला। आओ चलो
अब।' उसने काजल को छोड़ श्रीवास्तव को पकड़ा और कारपेट के स्टेप्स पर चलता हुआ उसे हिदायत देनी शुरू कर दी-'आज अपनी जीभ पर कंट्रोल रखना। तुम्हारे किचनेट का फ़्लेवर, इंट्री के साथ ही मेरी नाक में घुस गया है।' -'तुम भी यार मेरे डॉक्टर की तरह ही मुझे धमकाते रहते हो। अब सेवेन्टी फोर क्रास कर रहा हूँ...आज तक कभी हॉस्पीटल गया... बोलो? ...और एक तुम हो कि मेरे ख़ाने पर ही नज़रें गड़ाये रहते हो।' श्रीवास्तव ने बड़ी बेरूख़ी से कहा और फिर बैठते हुए बाक़ी बातें कह दीं, -'फैक्ट यह है माई डियर यंग मैन ऑफ़ सेवेन्टीसिक्स कि तुम्हारा दोस्त भी आज तक पूरी तदुरूस्ती के साथ तुम्हारे सामने जिन्दा है। सिगरेट नहीं पीता, ऐय्याशी नहीं करता और खाना भी भला क्या खाता हूँ? लंच तो रोज़़ ही स्केप कर जाता हूूं। अब ब्रेक फ़ास्ट के बाद जब डायरेक्ट डिनर ही नसीब होता है, तो तुम मेरे सर पर तलवार उठाये खड़े हो जाते हो।' -'रबीश!' सक्सेना झुंझला गया-'बेकार की बात मत करो। तुमने देखा है और अच्छी तरह जानते हो तुम डॉ। जैन ने क्या कहा था तुमसे...तुम्हारे कोलेस्ट्रोल का लेवल कहाँ पहुंच चुका है। मेरी मानो तो अपनी आर्टरी चेक कराओ. मुझे तो लगता है, ब्लौकेड्स भी शुरू हो चुका होगा।' -'स्टौप इट यार! इस सुहाने एटमास्फेयर को ख़ामख़ा डिस्ट्रॉय मत करो। टेक दि थिंक्स ईज़ी एण्ड इंज्वाय नाउ।' सक्सेना जवाब देता कि तभी रामरतन के साथ काजल आ गई. रामरतन के हाथों में एक बड़ा केशरौल था। उसने टेबल पर उसे रखा ही था कि सक्सेना ने काजल से शिकायत की-'क्या बात है डार्लिंग? अभी तक अपना रंग-पानी नदारत है?' काजल मुस्कुराई-'आज का प्रिपेरेशन्स तो पहले टेस्ट कीजिये सर! आपकी व्हिस्की भी फ़ौरन हाज़िर होती है।' कह कर उसने टेबल पर रखे क्रोकरिज सजाना शुरू किया औ
र रामरतन ने अगले चक्कर में फ्रि़ज से निकाले मिनरल वाटर के बोतल और कपड़े से चमकाए शीशे के दो ग्लास टेबल पर लाकर रख दिए. सोडा-मेकर तो पहले से ही टेबल के कोने पर रखा ही था। -'क्या फ़्लेवर है!' श्रीवास्तव ने केशरौल का टौप खोलते ही कहा-'आज कल अपना रामरतन कान्टीनेन्टल रेसीपी का स्पेशलिस्ट हो गया है।' इसी समय व्हिस्की की नई बोतल लिए रामरतन भी आ गया तो श्रीवास्तव ने उससे कहा-'इस उम्र में तुम्हें अब ये रेसीपी सिखाता कौन है, रामरतन?' रामरतन शरमाया-'आरो के, सरकार... काजले दी अंगरेजी किताब सें पढ़ी केॅ हमरा जेना-जेना बतावै छै...हम्में ओन्हें पकाय छियै।' रामरतन की अंगिका बोली और उसके अंदाज़़ पर श्रीवास्तव तो केवल मुस्कुरा कर रह गया लेकिन सक्सेना बेतहाशा हँस पड़ा। रामरतन की समझ में कुछ न आया फिर भी वह झेंपता हुआ अपनी किचनेट की तरफ़़ भागा। रामरतन, श्रीवास्तव की 'जानकी कुटीर' का सबसे पुराना स्टाफ़ था, लेकिन आज तक उसे हिन्दी बोलना न आया, बल्कि अपनी मातृभाषा अंगिका तक वह शुद्ध न बोल पाता था। फिर भी 'जानकी कुटीर' का अन्नदाता तो वही था। काजल ने कितनी कोशिश की थी कि वह ढंग के कपड़े पहने लेकिन उसे तो घुटनों तक की धोती और मारकीन वाली गंजी ही पसंद थी। जाड़े में वह अपनी गंजी पर ऊनी स्वेटर और गले में मफलर बांध लेता। जूते तो उसने कभी पहने ही नहीं। कहता जुत्ता में बड़ी उकरू होय छै, हमरो चप्पले ठीक छै काजल दी और बेचारी काजल-दी, 'जानकी कुटीर' की चीफ हाऊसकीपर! उसकी बातों पर अपना सर ठोंक कर रह जाती। इधर श्रीवास्तव ने ग्रील्ड-चिकेन का पहला टुकड़ा उठाया ही था कि सक्सेना ने उसे डांटा-'क़ायदा भी भूल गए ड्रिंक्स का... पहले व्हिस्की चियर्स करो, पहला सिप लो... फिर दिखाते रहो अपना चटोरापन।' सोडा मेकर के साईफ़न से उसने दोनों के ड्रिंक्स में सोडा पंच करते हुए आगे कहा-'वैसे मेरे कहने से तो मानोगे नहीं। जम के लुत्फ़ उठाओ, रामरतन के कान्टीनेन्टल रेसीपी का।' दोनों हाथो में ड्रिंक्स उठाकर, उसने अपने बायें हाथ का ड्रिंक श्रीवास्तव को थमाते हुए 'चियर्स' कहा और एक बेहद छोटा सिप लेकर अपने होठों का चटकारा लेते हुए एक ही बार में पूरा पैग गटक गया। उसकी इस हरकत पर, श्रीवास्तव ने सक्सेना को तीखी नज़रों से घूरा। -'और यह था तुम्हारे ड्रिंक-सेशन का तुम्हारा क़ायदा? अरे ड्रिंक क्या भागा जा रहा है जो ऐसा बिहेव करते हो इसके साथ?' श्रीवास्तव ने इस वक़्त अपना वही जुमला दुहराया जो वह सक्सेना के पहले पैग पर रोज़़ कहता था और सक्सेना ने जवाब में वही कहा जो श्रीवास्तव से रोज़़ कहता था-'पहले पैग का यही क़ायदा है। पहला पैग हमेशा पटियाला बनाओ, फ़र्स्ट सिप लो, सोडा की प्रोपर मिक्सिंग चेक करो और गटक जाओ दुश्मन की तरह, ताकि तुम्हारे ड्रिंक्स से तुम्हारी दोस्ती हो जाये... फिर अगला और उससे अगला पैग पीते रहो चुस्कियां ले-लेकर... दोस्तों की तरह।' रोज़़ का अपना फ़ेमस डायलॉग देकर उसने फिर से अपना काला मसूढ़ा पूरी तरह खोल दिया, हँसने लग
ा वह खुलकर। तभी काजल हाथों में हॉट बॉक्स लिए हाज़िर हुई-'योर फ़ेवरिट प्रॉन फ्ऱाई सर।' 'थैंक्स काजल।' श्रीवास्तव ने प्रॉन फ्ऱाई के नाम पर ख़ुश होकर आगे कहा, -' आज तुमने म्यूज़िक क्यों बंद रखा है? -'सॉरी सर! आप प्रौन्स टेस्ट कीजिए, मैं ऑन करती हूँ।' तेज़ी से किचनेट में जाकर उसने प्लेयर ऑन कर दिया। साथ ही उसने दोनों पैडस्टल फ़ैन बंद कर दिये। पंखों का शोर, गीत सुनते वक़्त उसका बॉस पसंद न करता था। ' प्यार पर बस तो नहीं है मेरा लेकिन फिर भी, तू बता दे कि तुझे प्यार करूं या न करूं? प्यार पर...' श्रीवास्तव की पलकें मुंद गईं...खो गया था वह! -'चलो हो गई छुट्टी... अब यह रोना शुरू करेगा।' कहते हुए सक्सेना उठकर खड़ा हो गया। हाथों में अपना ड्रिंक लिए ग्रास-कारपेट में बने स्टेप्स पर पूरी नज़ाकत से चलता, किचनेट में खड़ी काजल के पास जा पहुँचा-'अब वह तभी जगेगा जब सौंग फ़िनिश होगा।' उसने काजल के कंधे पर अपना बांया हाथ रखते हुए कहा। काजल जानती थी सक्ेसना साहब तब तक उसका क्लास लेते रहेंगे जब तक यह गीत चलता रहेगा और यही हुआ भी। -'जान ले लोगी तुम मेरे दोस्त का। अरे किसने कहा है तुमसे इतना स्पाइसी प्रिपेरेशन उसे ठूंस-ठूंस कर खिलाने के लिए?' अब काजल कुछ कहती कि वह फिर कहने लगा-'प्रौन्स का वह इतना ही शौक़ीन है तो जैपनीज रेसीपी नहीं बनवा सकती? इतनी तो रेसीपी बुक्स चाटती रहती हो तुम, एक कान्टीनेन्टल डिस ही बचा है इसके लिए?' -'लेकिन सर!' -'व्हाट लेकिन सर?' उसने फिर काजल को डांटा। -'पहले ही ओवर वेट है वह, उपर से इसकी कोलेस्ट्रोल की रिपोर्ट देखो... लेवल कितना इन्क्रीज कर गया है।' काजल बेचारी रूआंसी हो आई. उसकी आँखों के कोर छलछला गये कि तभी श्रीवास्तव की तीखी आवाज़ आई, -' उधर किचनेट में क्या मीटिंग कर रहा
है? इधर आ। ' श्रीवास्तव अपनी कुर्सी से उठ कर खड़ा था। सक्सेना ने देखा श्रीवास्तव अपनी बाइफ़ोकल उतार कर, रूमाल से आँखों पोंछ रहा है। ऐसा ही करता था वह। तलत महमूद की विरहिणी स्वर लहरियां, विभोर होकर सुनता, उसकी पंक्तियों में खो जाता और पलकों के अंदर ढंकी उसकी आँखों डबडबा जातीं। लेकिन सक्सेना उसकी हालत से ख़ुद को हमेशा अनजान ही बनाए रखता। उसके दिल में अपने दोस्त के प्रति कसक-सी उठती लेकिन उसे अच्छी तरह पता था, श्रीवास्तव अपनी पीड़ा बांटना तो दूर-उसे हजार परदों में कैद रखने पर आमादा था। सक्सेना ने उसकी तरफ़ कदम बढ़ाते हुए अपना ड्रिंक लिया और फिर पूछा-'सांग फ़िनिश हुआ नहीं... तुमने आँखों खोल दीं? आँखों ही ख़ाली नहीं खोलीं, अपना एटेन्सन तक तलत से हटा लिया...भाई कमाल हो गया आज तो।' -'तो क्या करता मैं? बेचारी लड़की के क्लास लेने देता तुम्हें? अरे खाता मैं हूँ, ख़ाने की फ़रमाईश, करता मैं हूँ। वह तो इम्पलाई है मेरी। उसे तो बस ऑडर्स ओबे करना है और अगर उसने अपने इमप्लायर के ऑर्डर ओबे किये हैं तो क्या ग़लत किया है?' भावावेश में और भी न जाने श्रीवास्तव क्या-क्या कह जाता इसीलिए सक्सेना ने उसे रोका-'ठीक है दोस्त, नाउ स्टॉप दिस टॉपिक। सॉरी... ग़लती मेरी थी। मुझे तुम्हारे पर्सनल मैटर्स में इस तरह नहीं भिड़ जाना था। आई एम रियली सॉरी।' कहता-कहता सक्सेना अपनी कुर्सी पर जम गया। श्रीवास्तव को भी अपनी ग़लती का तुरंत अहसास हो गया। उसने सक्सेना को हर्ट कर दिया था। लेकिन वह यह भी जानता था कि इस समय अगर उसने उसे पुचकारा तो वह और भी बिदकेगा, इसीलिए उसने अपना ऐक्शन बदल लिया। -'चल ड्रिंक बना भाई, ज़्यादा ड्रामा मत कर और यह क्या बच्चों की तरह जब-तब रूठता रहता है। चल...कम ऑन एण्ड टेक इट ईज़ी। ड्रिंक बना जल्दी।' श्रीवास्तव की बात पर इस बार सक्सेना मुस्कुराया-'ठीक है बेटा ले पकड़।' उसने ड्रिंक बनाकर उसे थमाते हुए फिर कहा, -'यह तुम्हारा चौथा ड्रिंक है एण्ड रिमेम्बर, आई हैव नॉट ऑफ़र्ड इट टू यू. तुमने ख़ुद मांगा है मुझसे।' -'ओके माई डियर! अब पांचवा ड्रिंक... मेरे मांगे बगै़र, अगर तुमने मुझे ऑफ़र न किया, तो ज़रूर याद रखूंगा इसे।' श्रीवास्तव ने गंभीरता से जो बात कह दी उसपर सक्सेना फिर से खुल कर हँस पड़ा। श्रीवास्तव अपनी उंगलियों से फ्ऱेंच कट दाढ़ी ख़ुजाने लगा। सक्सेना समझ गया उसका दोस्त पूरी तरह तरंग में आ चुका है। श्रीवास्तव की आदत थी-व्हिस्की ज्यों-ज्यों उसे चढ़ती जाती, वह और भी गंभीर होता जाता और फिर, अपने दाढ़ी के बाल ख़ुजाना शुरू कर देता। -'तुम्हें चढ़ गई है।' सक्सेना ने कहा। -'और तुम्हें?' श्रीवास्तव ने तपाक से पूछा फिर कहा, -'चढ़ तो तुम्हें भी गई है।' -'कैसे जाना?' कंधा उंचा हो जाता है और दायां नीचा। ' -'इज़ इट दैट?' सक्सेना ने आश्चर्य से पूछा। -'येस माई डियर।' श्रीवास्तव मुस्कुराया। -'ओ. के. दैन...आई एक्सेप्ट, आई एम ड्रंक्ड और इसी नशे में मैं आज कुछ कहूँगा, लेकिन यह मत समझना कि मैं नशे
में कह रहा हूँ।' सक्सेना ने इस बार वास्तव में अपनी बात गंभीरता से कही। -'यह तो देव आनंद के' गाईड'फ़िल्म का डायलाग है यार।' श्रीवास्तव ने कहकर अपनी दाढ़ी ख़ुजाई, -'येस आई रिमेम्बर, वहीदा रहमान से देव आनंद ने यही कहा था कि कुछ कहूँगा तो कहोगी, नशे में कह रहा हूँ और जवाब में वहीदा ने क्या कहा जानते हो?' उसने साथ-साथ अपने हाथ को नचाते हुए सक्सेना से पूछा तो उसकी ज़ुबान से निकला-'क्या?' 'वहीदा ने कहा, जो कुछ कहना है... कह डालो नशे का बहाना लेकर।' श्रीवास्तव अपनी बात कह कर पहली बार हँसा। सक्सेना ने बुरा-सा मुंह बनाकर अपने चौथे ड्रिंक को बाटम-अप कर दिया। -'अब यार जो कहना चाहते हो, कह भी डालो।' श्रीवास्तव ने इस बार अपना हथियार डाल दिया। -'क्या कहूँगा अब।' सक्सेना ने कहा-'तुम तो टेम्पो ही ब्रेक कर देते हो।' कहकर उसने बेहद इत्मीनान से अपना पांचवा ड्रिंक बनाया और साईफ़न से सोडा पंच करते हुए कहा-'शादी कर ले यार...बस और कुछ नहीं कहँूगा।' कह कर सक्सेना ने श्रीवास्तव के रिएक्शंस देखने के लिए उसकी आँखों में झांका। -'नाऊ ऐट दिस ऐज?' श्रीवास्तव ने हाथ उठा कर पूछा, -'सोसाईटी क्या कहेगी?' -'तुमने अपनी लाईफ स्पॉयल कर दी तो रोका था इस सोसाईटी ने?' सक्सेना उबला, -'कहा किसी ने बैचलर रहो, एण्ड लीव एलोन। बोलो?' सक्सेना ने मुंह बिचकाते हुए कहा-'सोसायटी क्या कहेगी। एण्ड एक्सेप्ट माई प्वाइंट, दिस इज अननैचुरल लाईफ़, दैट यू आर लिविंग माई डियर। सेक्स इज नथिंग बट इन फैक्ट, इज़ आवर फ़ूड...एण्ड वन कैन नॉट अफ़ोर्ड टू स्केप इट। शादी नहीं करनी है तो मत कर, रख ले किसी को एण्ड इंज्वाय योर लाईफ़...टू इट्स फ़ुल स्ट्रेंथ।' श्रीवास्तव के टैरेस गार्डेन पर पूरा चांद उतर आया था और मैक्सीकन ग्रास-कारपेट उसकी शीतल चांदनी म