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ें और भी नशीली दीखने लगी थी। हवा के ठंढे झोंके में गार्डेन में लगे पौधों की पत्तियां झूम रही थीं। पानी के फ़व्वारे अपनी तीव्रता में चल रहे थे। रंगीन बल्ब अभी भी जल रहे थे। तलत महमूद की ग़ज़ल जैसे, टैरेस गार्डेन की ठंडी हवा, पानी के फ़व्वारे, रात-रानी की ख़ुशब़ू, हल्की रंगीन रोशनी, सक्सेना की उमंग और श्रीवास्तव के दिल की जलन के बीच, चांदनी में भींगती हुई गूंज रही थी।
पूछ कर अपनी निग़ाहों से बता दे मुझको,
प्यार पर बस तो नहीं है...'
श्रीवास्तव की पलकें, छलक रहे आंसुओं को बांध न पा रही थीं, वे ढलक रहे थे और ऐसे में उसके हाथ व्हिस्की का पांचवा पैग आ चुका था। सक्सेना ने उसे पांचवां ड्रिंक दिया या उसने ख़ुद अपने लिये बना लिया, इसका ज़िक्र ज़रूरी नहीं। ज़रूरी ज़िक्र के काबि़ल था सक्सेना का उखड़ा मिज़ाज़।
भला यह भी कोई बात है? क्या मतलब है इस इडियोसी का? श्रीवास्तव का बच्चा, कह कर अपना ग़म न हल्का करता है, न बांटता है। रोता है तो रोता ही रहता है-तौबा...ऐसे में यह ड्रिंक सेशन एरेंज ही क्यों करता है? उसके दिल में आया-काजल से कहे, बंद करो इस तलत महमूद को। लेकिन उसने ऐसा कुछ न किया।
-'ब्लडी कावर्ड!'
सक्सेना की तीखी आवाज़ पर चौंक कर श्रीवास्तव ने आँखों खोलीं तो सक्सेना ने उससे कहा-'कायर कहीं का, एक इकलौती औरत के लिए सारी ज़िन्दगी रो-रो कर गुज़ार रहा है। इतनी भी हिम्मत नहीं है कि अपने यार से बता कर दिल हलका करले अपना।'
श्रीवास्तव अपना बाईफ़ोकल उतार कर, रूमाल से अपनी आँखों पोंछने लगा और सक्सेना अपनी रौ में कहता रहा-'तुम्हें पता है? यह शराब ग़म को ग़लत नहीं करती। जिस किसी ने भी यह जुमला कहा है, मैं नहीं जानता, शराब से वह कितना वाबस्ता रहा था, लेकिन मेरा मानना है कि यह ग़म को कभी ग़लत नहीं करती। यह तो बस एलिवेटर है। ख़ुशी में पियो तो ख़ुशी दोबाला हो जाती है। ग़म में पियो तो डिप्रेशन में डूब जाओ और इसी चक्कर में तुम हमेशा अपने अतीत के जख़्मों को कुरेद-कुरेद कर ताज़ा करते रहते हो।'
-'बस...बस कर यार!' श्रीवास्तव मुस्कुराया-'मैं अपने घाव को कुरेदता नहीं हूँ, न अपनी पीड़ा और अपने दर्द को शराब पीकर दोबाला करता हूँ। मैं तो इस टीस को इंज्वाय करता हूँ यार...इंज्वाय करता हूँ...बस।' कह कर उसने सर लटका दिया।
-'मैं सब समझता हूँ, मुझे मत समझाओ. तुमसे सीनियर ही हूँ दो साल। तुम्हारी फ़िलासफ़ी से ज़िन्दगी नहीं चलती। ज़िन्दगी की फ़िलासफ़ी एक ही है-तू नहीं तो और सही और नहीं तो और सही। मुझे देख...तुमसे ज़्यादा तंदुरूस्त हूँ अभी और मेरे भी अपने बायोलाजिकल डिमाण्ड्स हैं। मुझे भी औरत चाहिए...और तू क्या समझता है...यूं ही रंडवा रहता हूँ मैं? मेरी बात मान, तो सिर्फ़ एक हफ्ते की छुट्टी कर अपनी इस कोठी से, चल मेरे साथ। देख मं् तुझे कैसे रीचार्ज कर देता हूँ। बोल डू यू एक्सेप्ट माई प्रपोज़ल?' रौ में अपनी बात कह कर उसने जब श्रीवास्तव को ग़ौर से देखा तो वह जवाब देने लायक रहा ही नहीं था। पूरी चढ़ चुकी थी उ |
से।
तभी अचानक बेबी की उपस्थिति के एहसास ने सक्सेना को चौंकाया। उसने अपनी गर्दन घुमा कर बेबी से कहा, -' कैसी हो बेटी।
-'आई एम फ़ाईन अंकल।' बेबी ने जवाब देते हुए बनावटी मासूमियत से पूछा, -'यह बॉडी के बायोलाजिकल डिमांड्स क्या हैं अंकल?'
सक्सेना को सहसा बिच्छू का डंक लग गया। उसकी समझ में न आया, बेबी को क्या जवाब दे। ज़ाहिर था, उसने उसकी बातें सुन ली हैं। सहसा यह टैरेस पर आई कैसे? कोई बच्ची तो है नहीं, सब समझती है; लेकिन मामले को सम्हालना तो था ही-साथ ही वह इस समय बेबी से बातें करने की स्थिति में भी नहीं था।
उसने बेबी की बात छोड़ कर काजल को आवाज़ दी। -'तुम्हारा बॉस अब रिटायर होना चाहता है।' उसके आते ही उसने कहा, -'इसे इसके बेडरूम में ले चलो।' फिर सक्सेना ने बेबी के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, -'सपोर्ट हर।'
-'आपने मेरी बात को एव्याइड कर दिया अंकल, बट आई हैव वन थिंग टू टेल यू. दि बॉडीज बायोलाजिकल डिमांड... इज नॉट कन्सर्न्ड ओनली... टू दि मेल जेन्डर।'
बेबी का चेहरा तमतमा रहा था। अपनी बात कहते हुए उसके होंठ थरथरा रहे थे। फिर भी पूरी दृढ़ता से अपनी बात कहकर उसने अपने पापा को सम्हाल लिया।
श्रीवास्तव चला गया। काजल चली गई. बेबी चली गई.
सक्सेना के दिल में। सक्सेना के दिमाग़ में।
सक्सेना की पूरी चेतना में गूंजते रहे, -'दि बॉडीज बायोलाजिकल डिमांड इज़ नॉट कन्सर्न्ड ओनली, टू दी मेल जेन्डर।'
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ज्ञानी पुरुष संपूज्य दादा भगवान के श्रीमुख से अध्यात्म तथा व्यवहारज्ञान से संबंधित जो वाणी निकली, उसको रिकॉर्ड करके, संकलन तथा संपादन करके पुस्तकों के रूप में प्रकाशित किया जाता है। विभिन्न विषयों पर निकली सरस्वती का अद्भुत संकलन इस पुस्तक में हुआ है, जो नए पाठकों के लिए वरदान रूप साबित होगा।
प्रस्तुत अनुवाद में यह विशेष ध्यान रखा गया है कि वाचक को दादाजी की ही वाणी सुनी जा रही है, ऐसा अनुभव हो, जिसके कारण शायद कुछ जगहों पर अनुवाद की वाक्य रचना हिन्दी व्याकरण के अनुसार त्रुटिपूर्ण लग सकती है, लेकिन यहाँ पर आशय को समझकर पढ़ा जाए तो अधिक लाभकारी होगा ।
प्रस्तुत पुस्तक में कई जगहों पर कोष्ठक में दर्शाए गए शब्द या वाक्य परम पूज्य दादाश्री द्वारा बोले गए वाक्यों को अधिक स्पष्टतापूर्वक समझाने के लिए लिखे गए हैं। जबकि कुछ जगहों पर अंग्रेजी शब्दों के हिन्दी अर्थ के रूप में रखे गए हैं। दादाश्री के श्रीमुख से निकले कुछ गुजराती शब्द ज्यों के त्यों इटालिक्स में रखे गए हैं, क्योंकि उन शब्दों के लिए हिन्दी में ऐसा कोई शब्द नहीं है, जो उसका पूर्ण अर्थ दे सके। हालांकि उन शब्दों के समानार्थी शब्द अर्थ के रूप में, कोष्ठक में और पुस्तक के अंत में भी दिए गए हैं ।
ज्ञानी की वाणी को हिन्दी भाषा में यथार्थ रूप से अनुवादित करने का प्रयत्न किया गया है किन्तु दादाश्री के आत्मज्ञान का सही आशय, ज्यों का त्यों तो, आपको गुजराती भाषा में ही अवगत होगा । जिन्हें ज्ञान की गहराई में जाना हो, ज्ञान का सही मर्म समझना हो, वह इस हेतु गुजराती भाषा सीखें, ऐसा हमारा अनुरोध है ।
अनुवाद से संबंधित कमियों के लिए आपसे क्षमाप्रार्थी हैं।
जीवन में हर एक अवसर पर हम खुद ही समझदारी से सामने वाले के साथ एडजस्ट नहीं होंगे तो भयानक टकराव होता ही रहेगा। जीवन विषमय हो जाएगा और आखिर में तो जगत् ज़बरदस्ती हमारे पास एडजस्टमेन्ट करवाएगा ही। इच्छा हो या अनिच्छा, हमें जहाँ-तहाँ एडजस्ट तो होना पड़ेगा। तो फिर समझ-बूझकर ही क्यों नहीं एडजस्ट हों ताकि टकराव टाल सकें और सुख-शांति स्थापित हो ।
लाइफ़ इज़ नथिंग बट एडजस्टमेन्ट (जीवन एडजस्टमेन्ट के सिवा और कुछ भी नहीं !) जन्म से मृत्यु तक एडजस्टमेन्ट्स लेने होंगे। फिर चाहे रोकर लें या हँसकर ! पढ़ाई पसंद हो या नहीं हो, लेकिन एडजस्ट होकर पढ़ना ही होगा ! शादी के समय शायद खुशी-खुशी ब्याहें, लेकिन शादी के बाद सारा जीवन पति-पत्नी को पारस्परिक एडजस्टमेन्ट्स लेने ही होंगे। दो भिन्न प्रकृतियों को सारा जीवन साथ रहकर, जो पाला पड़ा हो उसे निभाना पड़ता है। इसमें एक-दूसरें से सारा जीवन पूर्णतया एडजस्ट होकर रहें, ऐसे कितने पुण्यवंत लोग होंगे इस काल में ? अरे, रामचंद्रजी और सीताजी को भी कई बार डिसएडजस्टमेन्ट नहीं हुए थे ? स्वर्णमृग, अग्नि परीक्षा और सगर्भा होते हुए भी बनवास ? उन्होंने कैसे-कैसे एडजस्टमेन्ट लिए होंगे ?
माता-पिता और संतानों के साथ तो क़दम-क़दम पर एडजस्टमेन्ट्स नहीं लेने पड़ते क् |
या? यदि समझदारी से एडजस्ट हो जाएँ तो शांति रहेगी और कर्म नहीं बँधेंगे । परिवार में मित्रों के साथ, धंधे में बॉस के साथ, व्यापारी या दलालों के साथ, तेजी-मंदी की हवा के साथ, सभी जगह यदि हम एडजस्टमेन्ट नहीं लेंगे तो कितने सारे दुःखों का ढेर लग जाएगा !
इसलिए 'एडजस्ट एवरीव्हेर' की 'मास्टर की' लेकर जो मनुष्य जीवन व्यतीत करेगा, उसके जीवन का कोई ताला नहीं खुले, ऐसा नहीं होगा। ज्ञानीपुरुष परम पूजनीय दादाश्री का स्वर्णिम सूत्र 'एडजस्ट एवरीव्हेर' जीवन में आत्मसात कर लें तो संसार सुखमय हो जाए !
डॉ. नीरू बहन अमीन
एडजस्ट एवरीव्हेर पचाओ एक ही शब्द
प्रश्नकर्ता : अब तो जीवन में शांति का सरल मार्ग चाहते हैं दादाश्री : एक ही शब्द जीवन में उतारोगे, ठीक से, एक्ज़ेक्ट ? प्रश्नकर्ता : एक्ज़ेक्ट ! हाँ ।
दादाश्री : 'एडजस्ट एवरीव्हेर' इतना ही शब्द यदि आप जीवन में उतार लोगे तो बहुत हो गया । आपको अपने आप शांति प्राप्त होगी। शुरुआत में छः महीनों तक अड़चनें आएँगी, बाद में अपने आप ही शांति हो जाएगी। पहले छः महीनों तक पिछले रिएक्शन आएँगे, देर से शुरुआत करने की वजह से । इसलिए 'एडजस्ट एवरीव्हेर'! इस कलियुग के ऐसे भयंकर काल में यदि एडजस्ट नहीं हुए न, तो खत्म हो जाओगे !
संसार में और कुछ करना नहीं आए तो हर्ज नहीं लेकिन एडजस्ट होना तो आना ही चाहिए। सामने वाला 'डिसएडजस्ट' होता रहे, पर आप एडजस्ट होते रहोगे तो संसार - सागर तैरकर पार उतर जाओगे । जिसे दूसरों के साथ अनुकूल होना आ जाता है, उसे कोई दुःख ही नहीं रहता। 'एडजस्ट एवरीव्हेर'! प्रत्येक के साथ एडजस्टमेन्ट हो जाए, यही सब से बड़ा धर्म है । इस काल में तो भिन्न-भिन्न प्रकृतियाँ, तो फिर एडजस्ट हुए बिना कैसे चलेगा ?
बखेड़ा मत करना, एडजस्ट हो जाना
संसार का अर्थ ही है स |
मसरण मार्ग, इसलिए निरंतर परिवर्तन होता ही रहता है। जबकि ये बुजुर्ग पुराने ज़माने को ही पकड़े रहते हैं। अरे, ज़माने के साथ चल, वर्ना मार खाकर मर जाएगा ! ज़माने के अनुसार एडजस्टमेन्ट लेना होगा । मेरा तो चोर के साथ, जेबकतरे के साथ, सब के साथ एडजस्टमेन्ट हो जाता है । यदि हम चोर के साथ बात करें तो वह भी जान जाता है कि ये करुणा वाले हैं। हम उसे ऐसा नहीं कहते कि 'तू गलत है'। क्योंकि वह उसका 'व्यू पोइन्ट' (दृष्टिबिन्दु) है। जबकि लोग उसे 'नालायक' कहकर गालियाँ देते हैं। क्या ये वकील झूठे नहीं हैं ? 'बिल्कुल झूठा केस जितवा दूंगा' जो ऐसा कहते हैं, क्या वे ठग नहीं कहलाएँगे? जो चोर को 'लुच्चा' कहते हैं और बिल्कुल झूठे केस को 'सच्चा' कहते हैं, उनका संसार में विश्वास कैसे कर सकते हैं? फिर भी, उनका भी चलता है न ? किसी को भी हम झूठा नहीं कहते । वह अपने 'व्यू पोइन्ट' से करेक्ट ही है। लेकिन उसे सही बात समझाएँ कि 'तू यह जो चोरी करता है, उसका तुझे क्या फल मिलेगा!'
ये बुजुर्ग लोग घर में घुसते ही कहते हैं, 'यह लोहे की अलमारी ? यह रेडियो ? यह ऐसा क्यों? वैसा क्यों ?' ऐसे बखेड़ा करते हैं । अरे, किसी जवान से दोस्ती कर । यह युग तो बदलता ही रहेगा । इनके बगैर ये जीएँगे कैसे? कुछ नया देखा कि मोह हो जाता है । नवीन नहीं होगा तो जीएँगे किस तरह ? ऐसा नवीन तो अनंत बार आया और गया, उसमें आपको बखेड़ा नहीं करना चाहिए । काफी सोच लिया था कि यह संसार उल्टा हो रहा है या सीधा हो रहा है और यह भी समझ में आ गया कि, इस संसार को बदलने की सत्ता किसी के पास है ही नहीं । फिर भी हम क्या कहते हैं कि ज़माने के अनुसार एडजस्ट हो जाओ। बेटा नई टोपी पहनकर आए, तब ऐसा मत कहना कि,
' ऐसी कहाँ से ले आया ?' उसके बजाय एडजस्ट हो जाना कि, 'इतनी अच्छी टोपी कहाँ से लाया ? कितने में लाया ? बहुत सस्ती मिली ?' इस प्रकार एडजस्ट हो जाना ।
अपना धर्म क्या कहता है कि असुविधा में सुविधा देखो । रात को मुझे विचार आया कि, 'यह चद्दर मैली है ।' लेकिन फिर एडजस्टमेन्ट ले लिया तो फिर इतनी अच्छी हुई कि न पूछो। पंचेन्द्रिय ज्ञान असुविधा दिखाता है और आत्मज्ञान सुविधा दिखाता है । इसलिए आत्मा में रहो ।
दुर्गंध के साथ एडजस्टमेन्ट
अगर बांद्रा (मुंबई में एक जगह ) की खाड़ी में से दुर्गंध आए, तो उसके साथ क्या लड़ने जाएँगे? इसी प्रकार ये मनुष्य भी दुर्गंध फैलाते हैं, तो क्या उन्हें कुछ कहने जाएँगे? जो दुर्गंध फैलाते हैं वे सभी खाड़ियाँ कहलाती हैं और जिनमें से सुगंध आती है वे बाग़ कहलाते हैं। जो-जो दुर्गंध देते हैं, वे सभी कहते हैं कि 'आप हमारे प्रति वीतराग रहो!'
यह तो, अच्छा-बुरा कहने से वे हमें सताते हैं। हमें तो दोनों वे को समान कर देना है। इसे 'अच्छा' कहा, इसलिए वह 'बुरा' हुआ । तब फिर वह सताता है। लेकिन दोनों का 'मिक्स्चर' कर देंगे, तो फिर असर नहीं रहेगा । हमने 'एडजस्ट एवरीव्हेर' की खोजबीन की है। सच बोल रहा हो उसके साथ भी और कोई झूठ बोल रहा हो उसके सा |
थ भी 'एडजस्ट' हो जा । हमें कोई कहे कि 'आपमें अक़्ल नहीं है।' तब हम तुरंत उसके साथ एडजस्ट हो जाएँगे और उसे कहेंगे कि, 'वह तो पहले से ही नहीं थी । आज तू कहाँ से खोजने आया है ? तुझे तो आज मालूम हुआ, लेकिन मैं तो यह बचपन से ही जानता हूँ।' ऐसा कहेंगे तो झंझट ही मिट जाएगी न ? फिर वह
अपने पास अक़्ल खोजने आएगा ही नहीं । ऐसा नहीं करेंगे तो अपने घर' (मोक्ष) कब पहुँचेंगे ?
पत्नी के साथ एडजस्टमेन्ट
प्रश्नकर्ता : एडजस्ट कैसे होना चाहिए? यह ज़रा समझाइए ।
दादाश्री : मान लो आपको किसी कारणवश देर हो गई, और पत्नी कुछ उल्टा-सुल्टा बोलने लगे कि, 'इतनी देर से आए हो ? मुझे ऐसा नहीं चलेगा।' और जैसा - तैसा कहे... उसका दिमाग़ फिर जाए । तब आप कहना कि 'हाँ, तेरी बात सही है, तू कहे तो वापस चला जाऊँ और तू कहे तो अंदर आकर बैठूं ।' तब वह कहेगी, 'नहीं, वापस मत जाना। यहाँ सो जाओ चुपचाप ।' लेकिन फिर पूछो, 'तू कहे तो खाऊँ, वर्ना सो जाऊँ ।' तब यदि वह कहे, 'नहीं, खा लो ।' तब आपको उसका कहा मानकर खा लेना चाहिए । अर्थात् एडजस्ट हो गए। फिर सुबह फर्स्ट क्लास चाय देगी और अगर धमकाया तो फिर चाय का कप मुँह फुलाकर देगी और तीन दिन तक वही सिलसिला जारी रहेगा ।
खाओ खिचड़ी या होटल के पिज्ज़ा ?
एडजस्ट होना नहीं आए तो क्या करते हैं ? लोग वाइफ के साथ झगड़ा करते हैं न ?
प्रश्नकर्ता : हाँ ।
दादाश्री : ऐसा ?! क्या बँटवारे के लिए ? वाइफ के साथ क्या बाँटना है? जायदाद तो साझेदारी में है ।
प्रश्नकर्ता : पति को गुलाबजामुन खाने हों और बीवी खिचड़ी बनाए, तो फिर झगड़ा हो जाता है ।
दादाश्री : फिर झगड़ा करने के बाद क्या वह गुलाबजामुन बनाएगी? नहीं। बाद में भी खिचड़ी ही खानी पड़ती है !
प्रश्नकर्ता : फिर होटल से पिज्ज़ा मँगवाते हैं ।
दादाश्री : ऐस |
ा ? ! अर्थात् यह भी गया और वह भी गया । पिज्ज़ा आ जाते हैं, नहीं ?! लेकिन हमारे गुलाबजामुन तो गए न ? उसके बजाय अगर आपने वाइफ से कहा होता कि, 'तुम्हें जो ठीक लगे वह बनाओ।' उसे भी किसी दिन खिलाने की भावना तो होगी न! वह खाना नहीं खाएगी? तब आप कहना, 'तुम्हें ठीक लगे वह बनाना।' तब वह कहेगी, 'नहीं, आपको जो ठीक लगे, वह बनाना है।' तब आप कहना कि, 'गुलाबजामुन बनाओ ।' और अगर आप पहले से ही गुलाबजामुन बनाने को कहो तो वह कहेगी, 'नहीं, मैं तो खिचड़ी बनाऊँगी ।'
प्रश्नकर्ता : ऐसे मतभेद बंद करने के लिए आप कौन सा रास्ता बताते हैं ?
दादाश्री : मैं तो यही रास्ता बताता हूँ कि, 'एडजस्ट एवरीव्हेर'। वह कहे कि, 'खिचड़ी बनानी है', तो आप 'एडजस्ट' हो जाना । और आप कहो कि, 'नहीं, अभी हमें बाहर जाना है, सत्संग में जाना है', तो उसे 'एडजस्ट' हो जाना चाहिए। जो पहले बोले, उसके साथ एडजस्ट हो जाओ।
प्रश्नकर्ता : तब तो पहले बोलने के लिए झगड़े होंगे ।
दादाश्री : हाँ, ऐसा करना । ऐसा करना लेकिन उससे 'एडजस्ट' हो जाना। क्योंकि तेरे हाथ में सत्ता नहीं है । वह सत्ता किसके हाथ में है, वह मैं जानता हूँ । तो फिर इसमें 'एडजस्ट' हो जाने में कोई हर्ज है भाई ?
दादाश्री : बहन जी, आपको हर्ज है ?
प्रश्नकर्ता : नहीं।
दादाश्री : तब फिर उसका निकाल कर दो न! 'एडजस्ट एवरीव्हेर'! इसमें कोई हर्ज है ?
दादाश्री : अगर वह पहले कहे कि, 'आज प्याज के पकौड़े, लड्डू, सब्ज़ी सब बनाओ', तब आप एडजस्ट हो जाना और अगर आप कहो कि 'आज जल्दी सो जाना है तो उन्हें एडजस्ट हो जाना चाहिए (पति से)। आपको किसी दोस्त के वहाँ जाना हो, फिर भी मुल्तवी करके जल्दी सो जाना। क्योंकि दोस्त के साथ झमेला होगा तो देखा जाएगा, लेकिन यहाँ घर में मत होने देना । लोग दोस्त के साथ अच्छा रखने के लिए घर में झंझट करते हैं, ऐसा नहीं होना चाहिए। अर्थात् अगर वह पहले बोले तो आपको एडजस्ट हो जाना चाहिए।
प्रश्नकर्ता : लेकिन पति को आठ बजे कहीं मीटिंग में जाना हो और पत्नी कहे कि, 'अब सो जाइए', तब फिर वह क्या करे ?
दादाश्री : ऐसी कल्पनाएँ नहीं करनी हैं। कुदरत का नियम ऐसा है कि 'व्हेर देयर इज़ ए विल, देयर इज़ ए वे' (जहाँ चाह, वहाँ राह!) कल्पना करोगे तो बिगड़ेगा । उस दिन वे ही कहेंगी कि 'आप जल्दी जाओ', खुद गैरेज तक छोड़ने आएँगी, कल्पना करने से सब बिगड़ता है। इसीलिए एक पुस्तक में लिखा है, 'व्हेर देयर इज़ विल, देयर इज़ वे' इतना पालन करोगे तो बहुत हो गया । पालन करोगे न ?
प्रश्नकर्ता : हाँ, जी ।
दादाश्री : लो, प्रोमिस दो । अरे वाह ! इसे कहते हैं शूरवीर ! प्रोमिस दिया !
भोजन में एडजस्टमेन्ट
व्यवहार निभाना किसे कहेंगे कि जो 'एडजस्ट एवरीव्हेर' हो जाए! अब डेवेलपमेन्ट का ज़माना आया है। मतभेद नहीं होने देना । इसलिए अभी लोगों को मैंने सूत्र दिया है, 'एडजस्ट एवरीव्हेर'! एडजस्ट, एडजस्ट, एडजस्ट । अगर कढ़ी खारी बनी तो समझ लेना कि दादा जी ने एडजस्टमेन्ट लेने को कहा है। फिर थोड़ी सी कढ़ी खा लेना। ह |
ाँ, अचार याद आए तो फिर मँगवा लेना कि 'थोड़ा सा अचार ले आओ।' लेकिन झगड़ा नहीं, घर में झगड़ा नहीं होना चाहिए । खुद अगर किसी जगह मुसीबत में फँस जाए, तब वहाँ खुद ही एडजस्टमेन्ट कर ले, तो भी संसार सुंदर लगेगा ।
नहीं भाए तब भी निभाओ
तेरे साथ जो-जो डिसएडजस्ट होने आए, उसके साथ तू एडजस्ट हो जा। दैनिक जीवन में यदि सास- बहू के बीच या देवरानी- जेठानी के बीच डिसएडजस्टमेन्ट होता हो, तो जिसे इस संसार के घटनाचक्र से छूटना हो उसे एडजस्ट हो ही जाना चाहिए। पति-पत्नी में से यदि कोई एक दरार डाले, तो दूसरे को जोड़ लेना चाहिए, तभी संबंध निभेगा और शांति रहेगी । जिसे एडजस्टमेन्ट लेना नहीं आता, उसे लोग मेन्टल कहते हैं। इस रिलेटिव सत्य में आग्रह, ज़िद करने की ज़रा सी भी ज़रूरत नहीं है। 'मनुष्य' तो कौन है कि 'जो एवरीव्हेर एडजस्टेबल हो जाए।' चोर के साथ भी एडजस्ट हो जाना चाहिए ।
सुधारें या एडजस्ट हो जाएँ?
अगर हर बात में हम सामने वाले के साथ एडजस्ट हो जाएँ
एडजस्ट एवरीव्हेर तो कितना सरल हो जाएगा! हमें साथ में क्या ले जाना है? कोई कहेगा कि, 'भाई, बीवी को सीधा कर दो।' 'अरे, उसे सीधी करने जाएगा तो तू टेढ़ा हो जाएगा । इसलिए वाइफ को सीधी करने मत बैठना, जैसी भी हो उसे करेक्ट कहना । उसके साथ आपका सदा का लेन-देन हो तो अलग बात है, यह तो एक जन्म, फिर न जाने कहाँ खो जाएगी। दोनों के मृत्युकाल अलग, दोनों के कर्म अलग! कुछ लेना भी नहीं है और देना भी नहीं ! यहाँ से वह किसके पास जाएगी, उसका क्या ठिकाना? आप उसे सीधी करो और अगले जन्म में जाएगी किसी और के हिस्से में !
इसलिए न तो आप उसे सीधी करो और न ही वह आपको सीधा करे। जैसा भी मिला है, सोने जैसा है। प्रकृति किसी की कभी भी सीधी नहीं हो सकती । कुत्ते की दुम टेढ़ी की टेढ़ी ही रह |
ती है । इसलिए आप सावधान रहकर चलो । जैसी है वैसी ठीक है, 'एडजस्ट एवरीव्हेर' ।
पत्नी तो है 'काउन्टर वेट'
प्रश्नकर्ता : मैं वाइफ के साथ एडजस्ट होने की बहुत कोशिश करता हूँ, लेकिन एडजस्ट नहीं हो पाता ।
दादाश्री : यह सब हिसाब के अनुसार है ! टेढ़ा बोल्ट और टेढ़ी नट, वहाँ चाकी सीधी घुमाने से कैसे चलेगा? आपको ऐसा होता होगा कि 'यह स्त्री जाति ऐसी क्यों है ?' लेकिन स्त्री जाति तो आपका काउन्टर वेट' है। जितना आपका दोष, उतनी वह टेढ़ी, इसीलिए तो हमने ऐसा कहा है न कि सब 'व्यवस्थित ' है ।
प्रश्नकर्ता : सभी हमें सीधा करने आए हैं, ऐसा लगता है ।
दादाश्री : आपको सीधा तो करना ही चाहिए । सीधे हुए बगैर
दुनिया चलती नहीं न ? अगर सीधा नहीं होगा तो फिर बाप कैसे बनेगा? जब सीधा होगा तभी बाप बनेगा । स्त्री जाति कुछ ऐसी है कि 'वह नहीं बदलेगी, इसलिए हमें बदलना होगा । वह सहज जाति है, वह ऐसी नहीं है कि बदल जाए ।' 'वाइफ', वह क्या चीज़ है ?
प्रश्नकर्ता : आप बताइए ।
दादाश्री : वाइफ इज़ द काउन्टर वेट ऑफ मेन । यदि वह काउन्टर वेट नहीं होगा तो इंसान लुढ़क जाएगा ।
प्रश्नकर्ता : यह समझ में नहीं आया।
दादाश्री : इंजन में काउन्टर वेट रखा जाता है, वर्ना इंजन चलते चलते लुढ़क जाएगा। इसी तरह मनुष्य का काउन्टर वेट स्त्री है। यानी स्त्री होगी तो लुढ़केगा नहीं । वर्ना दौड़-धूप करके भी कोई ठिकाना नहीं रहता। आज यहाँ तो कल कहाँ से कहाँ निकल गया होता। यह स्त्री है इसलिए वह घर लौटता है, वर्ना वह घर आता क्या ?
प्रश्नकर्ता : नहीं आता ।
दादाश्री : 'स्त्री' उसका काउन्टर वेट है।
टकराव, आखिर में अंत वाले
प्रश्नकर्ता : सुबह वाला टकराव दोपहर को भूल जाते हैं और शाम को फिर नया होता है ।
दादाश्री : हम यह जानते हैं, कि टकराव किस शक्ति से होते हैं। वह उल्टा बोलती है, उसमें कौन सी शक्ति काम कर रही है ? बोलने के बाद फिर 'एडजस्ट' हो जाते हैं, वह सब ज्ञान से समझ में आ सकता है। फिर भी संसार में 'एडजस्ट' होना है। क्योंकि प्रत्येक चीज़ अंत वाली होती है । और मान लो वह चीज़ लंबे अरसे तक
चले फिर भी आप उसे 'हेल्प' नहीं करते, बल्कि ज्यादा नुकसान पहुँचाते हो। आप अपना खुद का और सामने वाले का भी नुकसान कर रहे हो ।
वर्ना प्रार्थना का 'एडजस्टमेन्ट'
प्रश्नकर्ता : सामने वाले को समझाने के लिए मैंने अपना पुरुषार्थ किया, फिर वह समझे ना समझे, वह उसका पुरुषार्थ ?
दादाश्री : अपनी ज़िम्मेदारी इतनी ही है कि हम उसे समझाएँ फिर अगर वह नहीं समझे तो उसका उपाय नहीं है। फिर आप इतना कहना कि, 'हे दादा भगवान ! इसे सद्बुद्धि दीजिए' इतना कहना चाहिए। उसे बीच में नहीं लटका सकते । यह कोई गप्प नहीं है। यह 'दादा जी' का 'एडजस्टमेन्ट' का विज्ञान है, ग़ज़ब का है यह 'एडजस्टमेन्ट'। और जहाँ 'एडजस्ट' नहीं होते हो, वहाँ उसका स्वाद तो आता ही होगा आपको? 'डिसएडजस्टमेन्ट' ही मूर्खता है । क्योंकि वह समझता है कि 'मैं अपना स्वामित्व नहीं छोडूंगा और मेरा ही वर्चस्व रहना चाहिए ।' ऐसा मा |
नने पर सारी जिंदगी भूखा मरेगा और एक दिन थाली में 'पोइज़न' आ गिरेगा ! सहजरूप से जो चलता है, उसे चलने दो ! यह तो कलियुग है । वातावरण ही कैसा है ? ! इसलिए जब बीवी कहे कि, 'आप नालायक हैं ।' तो कहना, 'बहुत अच्छे'।
टेढ़ों के साथ एडजस्ट हो जाओ
प्रश्नकर्ता : व्यवहार में रहना है, इसलिए 'एडजस्टमेन्ट' एक पक्षीय तो नहीं होना चाहिए न ?
दादाश्री : व्यवहार तो उसी को कहेंगे कि, एडजस्ट हो जाएँ ताकि पड़ोसी भी कहें कि 'सभी घरों में झगड़े होते हैं, लेकिन इस
घर में झगड़ा नहीं है।' उसका व्यवहार सर्वोत्तम कहलाएगा । जिसके साथ रास न आए, वहीं पर शक्तियाँ विकसित करनी हैं। अनुकूल है, वहाँ तो शक्ति है ही। प्रतिकूल लगना, वह तो कमज़ोरी है । मुझे सब के साथ क्यों अनुकूलता रहती है ? जितने एडजस्टमेन्ट लोगे, उतनी शक्तियाँ बढ़ेंगी और अशक्तियाँ टूट जाएँगी । सही समझ तो तभी आएगी, जब सभी प्रकार की उल्टी समझ को ताला लग जाएगा।
नरम स्वभाव वालों के साथ तो हर कोई एडजस्ट होगा लेकिन अगर टेढ़े, कठोर, गर्म मिज़ाज लोगों के साथ, सभी के साथ एडजस्ट होना आ जाएगा तो काम बन जाएगा। कितना ही नंगा - लुच्चा इंसान क्यों न हो, फिर भी उसके साथ एडजस्ट होना आ जाए, दिमाग़ फिरे नहीं, तो वह काम का है । भड़क जाओगे तो नहीं चलेगा । संसार की कोई चीज़ हमें 'फिट' नहीं होगी, हम ही उसे 'फिट' हो जाएँ तो दुनिया सुंदर है और यदि उसे 'फिट' करने गए तो दुनिया टेढ़ी है। इसलिए 'एडजस्ट एवरीव्हेर !' आप उसे 'फिट' हो जाओ तो कोई हर्ज नहीं है।
डोन्ट सी लॉ, सेटल !
सामने वाला टेढ़ा हो फिर भी 'ज्ञानी' तो उसके साथ एडजस्ट हो जाते हैं।'ज्ञानीपुरुष' को देखकर चलेगा तो सभी तरह के एडजस्टमेन्ट लेना सीख जाएगा। इसके पीछे का साइन्स क्या कहता है कि 'वीतराग बन जाओ, राग-द्वेष मत करो |
।' यह तो भीतर थोड़ी आसक्ति रह जाती है, इसलिए मार पड़ती है । व्यवहार में जो एकपक्षीय - निस्पृह हो चुके हों, वे टेढ़े कहलाते हैं । जब आपको ज़रूरत हो, तब सामने वाला यदि टेढ़ा हो, फिर भी उसे मना लेना चाहिए । स्टेशन पर मज़दूर की ज़रूरत हो और वह आनाकानी करे, फिर भी उसे चार आने ज़्यादा देकर मना लेना होगा और अगर नहीं मनाएँगे तो वह बैग हमें खुद ही उठाना पड़ेगा न!
डोन्ट सी लॉज़, प्लीज़ सेटल । सामने वाले को सेटलमेन्ट लेने को कहना कि 'आप ऐसा करो, वैसा करो', ऐसा कहने के लिए वक्त ही कहाँ है ? सामने वाले की सौ भूलें हों, फिर भी आपको तो यह कहकर आगे बढ़ जाना है कि 'मेरी ही भूल है'। इस काल में लॉ थोड़े ही देखा जाता है ? यह तो आखिरी हद तक पहुँच चुका है। जहाँ देखें वहाँ भागदौड़, भागम्भाग ! लोग उलझ गए हैं। घर जाए तो वाइफ की शिकायतें, बच्चों की शिकायतें, नौकरी पर जाए तो सेठ जी की शिकायतें, रेल में जाए तो भीड़ में धक्के खाता है । कहीं भी चैन नहीं। चैन तो होना चाहिए न? कोई लड़ पड़े तो उस पर दया आनी चाहिए कि 'अरे, इसे कितना तनाव होगा कि लड़ पड़ा !' जो चिढ़ जाएँ, वे सभी कमज़ोर हैं ।
शिकायत? नहीं, 'एडजस्ट'
ऐसा है न, घर में भी 'एडजस्ट' होना आना चाहिए। आप सत्संग से देर से घर जाओ तो घर वाले क्या कहेंगे ? 'थोड़ा-बहुत तो समय का ध्यान रखना चाहिए न ?' तब हम जल्दी घर जाएँ तो उसमें क्या गलत है ? जब बैल नहीं चलते हैं तब तेली उसे आर चुभोता है, इसके बजाय तो वह आगे चलता रहे तो तेली उसे आर नहीं चुभोएगा न ! वर्ना तेली आर चुभोएगा और इसे चलना पड़ेगा । चलना तो पड़ेगा न ? आपने देखा है ऐसा? आर जिसमें आगे कील होती है, वह चुभोते हैं, गूंगा प्राणी क्या करे ? वह किससे शिकायत करे ?
इन लोगों को यदि कोई आर चुभो दे तो उन्हें बचाने दूसरे लोग निकल आएँगे, लेकिन वह गूंगा प्राणी किसे शिकायत करे ? अब उसे ऐसा मार खाने का वक्त क्यों आया? क्योंकि पहले बहुत शिकायतें की थीं। उसका यह परिणाम आया है। उस समय जब सत्ता में आया था, तब शिकायतें ही शिकायतें की थीं । अब सत्ता में नहीं है, इसलिए शिकायत किए बगैर रहना है। इसलिए अब
'प्लस-माइनस' कर दो । इसके बजाय फरियादी ही मत बनना। उसमें क्या गलत है? फरियादी बनेंगे तभी मुजरिम बनने का वक्त आएगा न? हमें तो मुजरिम भी नहीं बनना है और फरियादी भी नहीं बनना है न ! सामने वाला गाली दे, तो उसे जमा कर लेना । फरियादी बनना ही नहीं है न ! आपको क्या लगता है ? फरियादी बनना ठीक है? लेकिन उसके बजाय पहले से ही 'एडजस्ट' हो जाएँ, तो क्या गलत है ?
उल्टा बोल लेने के बाद
व्यवहार में 'एडजस्टमेन्ट' लेना, उसे इस काल में 'ज्ञान' कहा है। हाँ, एडजस्टमेन्ट लेना, एडजस्टमेन्ट टूट रहा हो तब भी एडजस्ट कर लेना। आपने उसे भला-बुरा बोल दिया। अब बोलना, यह आपके बस की बात नहीं है। आपके मुँह से कभी निकल जाता है या नहीं ? बोल तो दिया, लेकिन बाद में तुरंत ही पता तो चल जाता है कि 'गलती हो गई ।' पता चले बगैर नहीं रहता, लेकिन उस स |
मय हम एडजस्ट करने नहीं जाते। बाद में तुरंत उसके पास जाकर कहना चाहिए कि, 'भाई, मेरे मुँह से उस वक्त भला-बुरा निकल गया था, मेरी भूल हो गई, इसलिए क्षमा करना!' तो एडजस्टमेन्ट हो गया । इसमें कोई हर्ज है ?
प्रश्नकर्ता : नहीं, कोई हर्ज नहीं है ।
हर जगह एडजस्टमेन्ट
प्रश्नकर्ता : कई बार ऐसा होता है कि एक ही समय में दो व्यक्तियों के साथ एक ही बात पर 'एडजस्टमेन्ट' लेना हो, तो उस समय दोनों के साथ कैसे एडजस्टमेन्ट ले पाएँ ?
दादाश्री : दोनों के साथ (एडजस्टमेन्ट) ले सकते हैं। अरे, सात लोगों के साथ लेना हो तो भी लिया जा सकता है। जब एक
एडजस्ट एवरीव्हेर पूछे कि, 'मेरा क्या किया?' तब कहो, 'हाँ, भाई, आपके कहे मुताबिक करूँगा।' दूसरे को भी ऐसा कहना कि, 'आप कहेंगे वैसा ही करेंगे।' 'व्यवस्थित' से बाहर होने वाला नहीं है। इसलिए कुछ भी करके झगड़ा मत होने देना । मुख्य चीज़ 'एडजस्टमेन्ट' है । 'हाँ' से मुक्ति है । हमने 'हाँ' कहा, फिर भी 'व्यवस्थित' से बाहर कुछ होने वाला है ? लेकिन 'नहीं' कहा तो महा-उपाधि!
घर में पति-पत्नी दोनों निश्चय करें कि मुझे 'एडजस्ट' होना है, तो दोनों का हल आ जाएगा । वह ज़्यादा खींचतान करे, तब हम 'एडजस्ट' हो जाएँगे तो हल निकल आएगा। एक आदमी का हाथ दुःख रहा था, लेकिन उसने किसी को नहीं बताया, और दूसरे हाथ से उस हाथ को दबाकर 'एडजस्ट' कर लिया ! इस प्रकार 'एडजस्ट' हो जाएँगे तो हल आएगा। यदि 'एडजस्ट एवरीव्हेर' नहीं हुए तो सभी पागल हो जाओगे । सामने वालों को छेड़ते रहे, इसी वजह से पागल हुए हैं । कुत्ते को एक बार छेड़ें, दो बार, तीन बार छेड़ें, तब तक वह हमारा लिहाज करेगा, लेकिन फिर बारबार छेड़ते रहेंगे तो वह भी हमें काट लेगा । वह भी समझ जाएगा कि 'यह रोज़ाना छेड़ता है, यह नालायक है, बेहया है।' |
यह समझने जैसा है। ज़रा सी भी झंझट ही नहीं करनी है, 'एडजस्ट एवरीव्हेर' ।
जिसे 'एडजस्ट' होने की कला आ गई, वह दुनिया से 'मोक्ष' की ओर मुड़ गया । 'एडजस्टमेन्ट' हो गया, वही ज्ञान है । जो 'एडजस्टमेन्ट' सीख गया, वह पार उतर गया । जो भुगतना है, वह तो भुगतना ही है । लेकिन जिसे 'एडजस्टमेन्ट' लेना आ जाएगा, उसे तकलीफ नहीं होगी, हिसाब साफ हो जाएगा। कभी लुटेरे मिल जाएँ, तब उनके साथ डिसएडजस्ट होंगे तो वे मारेंगे। उसके बजाय हम तय करें कि उनसे 'एडजस्ट' होकर काम लेना है। फिर उनसे पूछें कि, 'भाई, तुम्हारी
क्या इच्छा है? देख भाई, हम तो यात्रा पर निकले हैं ।' (इस प्रकार ) उनके साथ 'एडजस्ट' हो जाना है ।
पत्नी ने खाना बनाया हो और अगर उसमें गलती निकाले तो वह ब्लन्डर है। ऐसी गलती नहीं निकालनी चाहिए। ऐसे बात करता है मानो खुद कभी गलती ही नहीं करता है। हाउ टू एडजस्ट ? एडजस्टमेन्ट लेना चाहिए। जिसके साथ हमेशा रहना है, क्या उसके साथ एडजस्टमेन्ट नहीं लेना चाहिए? अगर खुद से किसी को दुःख पहुँचे, तो वह भगवान महावीर का धर्म कैसे कहलाएगा? और घर के लोगों को तो कभी भी दुःख होना ही नहीं चाहिए ।
घर एक बगीचा
एक व्यक्ति मुझसे कहने लगा कि, 'दादा जी, मेरी बीवी घर में ऐसा करती है, वैसा करती है ।' तब मैंने उसे कहा कि आपकी पत्नी से पूछेंगे तो वह क्या कहेगी कि 'मेरा पति ही कमअक़्ल है ।' अब इसमें आप सिर्फ अपने लिए ही न्याय क्यों खोजते हो ? तब उस व्यक्ति ने कहा कि, 'मेरा घर तो बिल्कुल बिगड़ गया है, बच्चे बिगड़ गए हैं, बीवी बिगड़ गई है।' मैंने कहा, 'कुछ भी नहीं बिगड़ा है।' आपको वह 'देखना' नहीं आता है। आपको अपना घर 'देखना' आना चाहिए । हर एक की प्रकृति को पहचानना आना चाहिए।
घर में एडजस्टमेन्ट नहीं हो पाता, उसकी वजह क्या है ? परिवार में ज़्यादा सदस्य हों, उन सब के साथ ताल-मेल नहीं रहता । फिर बात का बतंगड़ बन जाता है । वह किसलिए? लोगों का स्वभाव, एक जैसा नहीं होता। जैसा युग होता है, वैसा स्वभाव हो जाता है । सतयुग में आपसी मेल होता था । घर में सौ सदस्य हों, फिर भी सब दादा जी के कहे अनुसार चलते थे और इस कलियुग में तो अगर दादा जी
कुछ कहें तो उन्हें बड़ी-बड़ी गालियाँ सुनाते हैं । पिता कुछ कहे तो पिता को भी वैसा ही सुनाते हैं ।
अब इंसान तो इंसान ही है, लेकिन आपको पहचानना नहीं आता। घर में पचास लोग हों, लेकिन आपको पहचानना नहीं आया, इसलिए बखेड़ा होता रहता है। उन्हें पहचानना तो चाहिए न! अगर घर में एक व्यक्ति किच किच करता रहता है तो वह तो उसका स्वभाव ही है । इसलिए आपको एक बार में समझ लेना चाहिए कि 'यह ऐसा है ' । आप सचमुच पहचान जाते हो कि 'यह ऐसा ही है ?' फिर आगे उसमें कुछ जाँच करने की ज़रूरत है क्या? पहचान ने के बाद आपको जाँच करने की कोई ज़रूरत नहीं रहती। कुछ लोगों को रात को देर से सोने की आदत होती है और कुछ लोगों को जल्दी सोने की आदत होती है, तो उन दोनों का मेल कैसे बैठेगा? और अगर परिवार में सभी सदस्य साथ रहते हों तो क्य |
ा होगा? घर में एक व्यक्ति ऐसा कहने वाला निकले कि 'आप कमअक़्ल हैं', तब आपको ऐसा समझ लेना चाहिए कि यह ऐसा ही कहेगा । इसलिए आपको एडजस्ट हो जाना चाहिए । इसके बजाय अगर आप उसे जवाब दोगे तो थक जाओगे। क्योंकि वह तो आप से टकराया, लेकिन आप भी उससे टकराएँगे तो ऐसा प्रमाणित हो जाएगा न कि आपकी भी आँखे नहीं है ? मैं कहना चाहता हूँ कि 'प्रकृति का साइन्स जानो' । बाकी, आत्मा तो अलग वस्तु है ।
अलग-अलग हैं, बगीचे के फूलों के रंग व सुगंध
आपका घर तो बगीचा है । सतयुग, त्रेता और द्वापर युग में घर खेतों के समान होते थे। किसी खेत में सिर्फ गुलाब ही होते थे तो किसी खेत में सिर्फ चंपा । आजकल घर एक बगीचे जैसा हो गया है । इसलिए क्या हमें ऐसी जाँच नहीं करनी चाहिए कि यह मोगरा है या
गुलाब ? सतयुग में क्या था कि एक घर में अगर एक गुलाब है तो सभी गुलाब और दूसरे घर में एक मोगरा है तो घर के सभी मोगरे । ऐसा था। एक परिवार में सभी गुलाब के पौधे, एक खेत की तरह, इसलिए दिक्कत नहीं होती थी और आजकल तो बगीचे जैसा हो गया है। एक ही घर में एक गुलाब जैसा, दूसरा मोगरे जैसा । इसलिए गुलाब चिल्लाता है कि 'तू मेरे जैसा क्यों नहीं है ? तेरा रंग देख कैसा सफेद, मेरा रंग कितना सुंदर है !' तब मोगरा कहता है कि 'तुझमें तो सिर्फ काँटे हैं'। अब अगर गुलाब है तो काँटे होंगे और मोगरा होगा तो काँटे नहीं होंगे। मोगरे का फूल सफेद होगा, गुलाब का फूल गुलाबी होगा, लाल होगा। इस कलियुग में एक ही घर में अलग-अलग पौधे होते हैं। यानी कि घर बगीचे जैसा हो गया है। लेकिन अगर देखना ही नहीं आता तो उसका क्या हो सकता है ? उससे दुःख ही होगा न! जगत् के पास यह देखने की दृष्टि ही नहीं है। बाकी, कोई भी खराब नहीं है। ये मतभेद तो खुद के अहंकार की वजह से हैं । जिन्हें |
देखना नहीं आता है, उन्हें अहंकार है। मुझे अहंकार नहीं है, इसलिए मुझे सारे संसार में किसी से मतभेद ही नहीं होता है। मुझे देखना आता है कि यह 'गुलाब' है, यह 'मोगरा' है, यह 'धतूरा' है, यह कड़वी 'कुँदरू' का फूल है । ऐसा सब मैं पहचानता हूँ । यानी बगीचे जैसा हो गया है। यह तो तारीफ के लायक हुआ न? आपको क्या लगता है ?
प्रश्नकर्ता : ठीक है ।
दादाश्री : ऐसा है न कि प्रकृति नहीं बदलती । वह तो वही का वही माल है, वह नहीं बदलती है। हम प्रत्येक प्रकृति को जान चुके हैं, इसलिए तुरंत पहचान लेते हैं । इसलिए हम हर एक के साथ उसकी प्रकृति के अनुसार रहते हैं। अगर हम सूर्य के साथ दोपहर बारह बजे दोस्ती करेंगे तो क्या होगा? इस प्रकार यदि हम समझ लेंगे
कि यह ग्रीष्म का सूर्य है, यह जाड़े का सूर्य है, ऐसा सब समझ लेंगे तो क्या फिर कठिनाई होगी ?
हम प्रकृति को पहचानते हैं, इसलिए आप टकराना चाहो तो भी मैं टकराने नहीं दूंगा, मैं खिसक जाऊँगा । वर्ना दोनों का एक्सिडेन्ट हो जाएगा और दोनों के स्पेयरपार्ट्स टूट जाएँगे। किसी का बंपर टूट जाए तो भीतर बैठे हुए की क्या हालत होगी ? बैठने वाले की तो दुर्दशा हो जाएगी न! इसलिए प्रकृति को पहचानो । घर में सभी की प्रकृतियों को पहचान लेना है ।
इस कलियुग में प्रकृति खेत जैसी नहीं है, बगीचे जैसी है । एक चंपा, दूसरा गुलाब, मोगरा, चमेली वगैरह । इसलिए सभी फूल लड़ते हैं। एक कहेगा कि मेरा ऐसा है, तो दूसरा कहेगा कि मेरा ऐसा है। तब एक कहेगा कि 'तुझमें काँटे हैं, चला जा, तेरे साथ कौन खड़ा रहेगा ?' ऐसे झगड़े चलते रहते हैं ।
काउन्टरपुली की करामात
हमें पहले अपना मत नहीं रखना चाहिए। सामने वाले से पूछना चाहिए कि इसके बारे में आप क्या कहना चाहते हैं? अगर सामने वाला अपनी बात पर अड़ा रहे, तो मैं अपनी बात छोड़ देता हूँ । हमें तो यही देखना है कि कैसे भी करके सामने वाले को दुःख न हो । अपना अभिप्राय सामने वाले पर नहीं थोपना है। हमें सामने वाले का अभिप्राय लेना चाहिए। हम तो सभी के अभिप्राय लेकर 'ज्ञानी' बने हैं। यदि मैं अपना अभिप्राय किसी पर थोपने जाऊँगा तो मैं ही कच्चा पड़ जाऊँगा। अपने अभिप्राय से किसी को दुःख नहीं होना चाहिए ।
आपके 'रिवोल्यूशन' अठारह सौ हों और सामने वाले के छः सौ हों और अगर आप अपना अभिप्राय उस पर थोप दोगे, तो उसका 'इंजन' टूट जाएगा। उसके सारे 'गीयर' बदलने पड़ेंगे।
प्रश्नकर्ता : 'रिवोल्यूशन' का मतलब क्या है ?
दादाश्री : यह जो सोचने की स्पीड है, वह हर एक की अलग होती है। कुछ घटित हो जाए तो मन एक मिनट में तो कितना ही दिखा देता है, उसके सारे पर्याय 'एट ए टाइम' दिखा देता है । इन बड़े-बड़े प्रेसिडन्ट के एक मिनट के बारह सौ 'रिवोल्यूशन' घूमते हैं, हमारे पाँच हजार घूमते हैं और भगवान महावीर के लाख 'रिवोल्यूशन' घूमते थे !
मतभेद होने का कारण क्या है ? आपकी पत्नी के सौ 'रिवोल्यूशन' हों और आपके पाँच सौ ' रिवोल्यूशन' हों और आपको बीच में 'काउन्टर पुली' डालना नहीं आता है, इसलिए चिनग |
ारियाँ निकलती हैं और झगड़े होते हैं। अरे! कभी-कभी तो 'इंजन' भी टूट जाता है । 'रिवोल्यूशन' समझे आप? आप इस मज़दूर से बात करते हो तो आपकी बात उस तक नहीं पहुँचती क्योंकि उसके 'रिवोल्यूशन' पचास और आपके पाँच सौ हैं। किसी के हज़ार होते हैं, किसी के बारह सौ होते हैं, जैसा जिसका डेवेलपमेन्ट होता है, उसके अनुसार 'रिवोल्यूशन' होते हैं। जब आप बीच में 'काउन्टर पुली' डालोगे, तभी आपकी बात उस तक पहुँचेगी। 'काउन्टर पुली' यानी आपको बीच में पट्टा डालकर आपके रिवोल्यूशन घटाने पड़ेंगे। मैं हर एक व्यक्ति के साथ 'काउन्टर पुली' डाल देता हूँ। ऐसा नहीं है कि सिर्फ अहंकार निकाल देने से ही काम हो जाएगा। 'काउन्टर पुली' भी हर एक के साथ डालनी पड़ती है। इसी कारण मेरा किसी से मतभेद ही नहीं होता न! मैं जानता हूँ कि इस भाई के इतने ही 'रिवोल्यूशन' हैं। इसलिए उसके अनुसार मैं 'काउन्टर पुली' डाल देता हूँ । मेरा तो छोटे बच्चे के साथ भी बहुत जमता है। क्योंकि मैं उसके साथ चालीस रिवोल्यूशन लगाकर बात करता हूँ । इससे मेरी बात उस तक पहुँचती है, वर्ना वह 'मशीन' टूट जाएगी ।
प्रश्नकर्ता : कोई भी सामने वाले के लेवल पर आ जाए, तभी बात हो सकती है ?
दादाश्री : हाँ, जब उसके रिवोल्यूशन पर आ जाएगा तभी बात हो सकेगी। आपके साथ बातचीत करते हुए हमारे रिवोल्यूशन कहाँ से कहाँ तक घूम आए! सारी दुनिया घूम आते हैं! आपको 'काउन्टर पुली' डालना नहीं आता, उसमें कम 'रिवोल्यूशन' वाले इंजन का क्या दोष है ? वह तो आपका दोष है कि आपको 'काउन्टर पुली' डालना नहीं आया !
सीखो फ्यूज़ लगाना
इतना ही पहचान लेना है कि यह 'मशीनरी' कैसी है ! उसका 'फ्यूज़' उड़ जाए तो किस प्रकार फ्यूज़ लगाना है। सामने वाले की प्रकृति से 'एडजस्ट' होना आना चाहिए। अगर सामने वाले का 'फ्यू |
ज़' उड़ जाता है, तब भी हमारा तो एडजस्टमेन्ट रहता है। लेकिन अगर सामने वाले का 'एडजस्टमेन्ट' टूट जाएगा तो क्या होगा ? 'फ्यूज़' उड़ गया, फिर तो वह दीवार से टकराएगा, दरवाज़े से टकराएगा, लेकिन तार नहीं टूटा है, कनेक्शन नहीं टूटा है। इसलिए अगर कोई फ्यूज़ लगा दे तो फिर सब ठीक हो जाएगा, वर्ना तब तक वह उलझता रहेगा।
जीवन छोटा और धांधली ज़्यादा
सब से बड़ा दुःख क्या है ? 'डिसएडजस्टमेन्ट'। वहाँ 'एडजस्ट एवरीव्हेर' कर लें तो क्या हर्ज है ?
प्रश्नकर्ता : उसमें तो पुरुषार्थ चाहिए ।
दादाश्री : कोई पुरुषार्थ नहीं चाहिए। अगर मेरी आज्ञा का पालन करेगा कि दादा जी ने कहा है कि 'एडजस्ट एवरीव्हेर', तो 'एडजस्ट'
होता रहेगा। बीवी कहे कि, 'तुम चोर हो' । तो कहना कि 'यू आर करेक्ट ।' अगर बीवी डेढ़ सौ की साड़ी लाने को कहे, तो आप पच्चीस रुपए ज़्यादा देना तो फिर छः महीने तक तो चलेगा !
ऐसा है, ब्रह्माजी के एक दिन जितनी हमारी सारी जिंदगी है ! ब्रह्माजी के एक दिन के बराबर जीवन और यह क्या धांधली? यदि हमें ब्रह्माजी के सौ साल जीना होता तब तो समझे कि, 'ठीक है । एडजस्ट क्यों हों?' कहेंगे कि 'दावा कर' । लेकिन यह तो जल्दी निपटाना है, इसमें क्या करना चाहिए ? 'एडजस्ट' हो जाएँगे या फिर कहेंगे 'दावा कर'? लेकिन यह तो एक ही दिन है, यह तो जल्दी निपटाना है। जो कार्य जल्दी निपटाना हो, उसके लिए क्या करना पड़ेगा ? 'एडजस्ट' होकर छोटा कर देना, वर्ना बढ़ता जाएगा या नही ? बीवी के साथ लड़ने के बाद रात को नींद आएगी क्या ? और सुबह अच्छा नाश्ता भी नहीं मिलेगा ।
अपनाओ ज्ञानी की ज्ञानकला !
किसी दिन वाइफ कहे, 'मुझे वह साड़ी नहीं दिलवाओगे ? मुझे वह साड़ी दिलवानी पड़ेगी ।' तब पति पूछता है, 'तूने किस क़ीमत की साड़ी देखी थी ?' तब वाइफ कहती है, 'बाईस सौ की है, ज़्यादा नहीं है ।' तब वह कहता है, 'तुम बाईस सौ की कहती हो लेकिन मैं अभी रुपए लाऊँ कैसे? अभी पैसों का जुगाड़ नहीं है, दो सौ - तीन सौ की होती तो दिलवा देता, लेकिन तुम बाईस सौ कह रही हो ।' वह रूठकर बैठी रहेगी। अब क्या दशा होगी फिर ! मन में ऐसा भी होता है कि 'अरे, इससे तो शादी नहीं की होती तो अच्छा था ।' शादी के बाद पछताएँ, तो वह किस काम का ? अर्थात् ऐसे दुःख हैं ।
प्रश्नकर्ता : आप ऐसा कहना चाहते हैं कि बीवी को बाईस सौ की साड़ी दिलवा देनी चाहिए ?
दादाश्री : दिलवाना या नहीं दिलवाना, वह आप पर निर्भर करता है। रूठकर अगर रोज़ रात को कहे कि 'खाना नहीं बनाऊँगी', तब आप क्या करोगे ? बावर्ची कहाँ से लाओगे? तो फिर कर्ज़ लेकर भी साड़ी दिलवानी पड़ेगी न ?
आप कुछ ऐसा कर दो कि वह खुद ही साड़ी नहीं लाए । यदि आपको महीने के आठ हज़ार रुपए मिलते हैं, तो आप हज़ार रुपए अपने जेबखर्च के लिए रखकर सात हज़ार रुपए उन्हें दे देना । फिर क्या वह हमसे कहेगी कि साड़ी दिलवाइए ? बल्कि कभी आप मज़ाक करना कि 'वह साड़ी बहुत अच्छी है, क्यों नहीं लातीं ?' उसका प्रबंध उसे खुद ही करना होगा। यदि हमें प्रबंध करना हो, तब |
वह हम पर ज़ोर चलाएगी । यह सारी कला मैंने 'ज्ञान' होने से पहले सीख ली थी। बाद में 'ज्ञानी' बना । सभी कलाएँ मेरे पास आ गईं, तब मुझे 'ज्ञान' हुआ। अब बोलो, यह कला नहीं है, इसीलिए ये दुःख हैं न! आपको क्या लगता है ?
प्रश्नकर्ता : हाँ, ठीक है ।
दादाश्री : यह आपकी समझ में आया ? इसमें भूल तो हमारी ही है न ? कला आती, इसी वजह से न ! कला सीखने की ज़रूरत है ।
क्लेश का मूल कारण : अज्ञानता
प्रश्नकर्ता : लेकिन क्लेश होने का कारण क्या है ? स्वभाव नहीं मिलता, इसलिए ?
दादाश्री : अज्ञानता की वजह से । संसार का मतलब ही यह है कि 'किसी का स्वभाव किसी से मिलता ही नहीं ।' यह ज्ञान मिले, उसके लिए एक ही रास्ता है, 'एडजस्ट एवरीव्हेर'! अगर कोई आपको मारे तो भी आप उसे 'एडजस्ट' हो जाना।
हम यह सरल और सीधा रास्ता बता देते हैं । और यह टकराव
क्या रोज़-रोज़ होते हैं? वे तो जब अपने कर्मों का उदय होता है, तभी होते हैं, उस समय हमें 'एडजस्ट' हो जाना है। घर में पत्नी के साथ झगड़ा हो जाए तो उसके बाद उसे होटल ले जाकर, खाना खिलाकर खुश कर देना । अब तंत नहीं रहना चाहिए ।
दादा जी, पूर्णतः एडजस्टेबल
एक बार कढ़ी अच्छी बनी थी लेकिन नमक थोड़ा ज्यादा था। फिर मुझे लगा कि इसमें नमक थोड़ा ज्यादा है, लेकिन ज़रा सी खानी तो पड़ेगी ही न! इसलिए फिर जब हीराबा ( दादा जी की पत्नी) अंदर गए, तब मैंने थोड़ा पानी मिला दिया। उन्होंने वह देख लिया उन्होंने कहा, 'यह क्या किया ?' मैंने कहा, 'आप चूल्हे पर रखकर पानी डालती हैं, मैंने यहाँ नीचे रखकर डाल दिया ।' तब उन्होंने कहा, 'लेकिन मैं तो पानी डालकर उसे उबाल देती हूँ '। मैंने कहा, 'मेरे लिए दोनों समान हैं।' मुझे तो काम से काम है न!
अगर आप ग्यारह बजे मुझसे कहते हैं कि, 'आपको भोजन कर लेना होगा।' मैं |
कहूँ कि, 'थोड़ी देर के बाद खाऊँगा तो नहीं चलेगा ?' तब अगर आप कहो कि, 'नहीं, भोजन कर लोगे, तो काम पूरा हो जाएगा ।' तो मैं तुरंत ही भोजन करने बैठ जाऊँगा । मैं आपसे 'एडजस्ट' हो जाऊँगा ।
जो भी थाली में आए वह खा लेना । जो सामने आया, वह संयोग है और भगवान ने कहा है कि 'यदि संयोग को धक्का मारेगा तो वह धक्का तुझे लगेगा।' इसलिए यदि हमारी थाली में हमें नहीं भातीं, ऐसी चीज़ें रखी हों, तो भी उनमें से दो चीजें खा लेते हैं । नहीं खाएँगे, तो दो के साथ झगड़ा होगा । एक तो, जिसने पकाया हो उसके साथ झंझट होगी, तिरस्कार होगा और दूसरा, खाने की चीज़ के साथ । खाने की चीज़ कहेगी कि, 'मैंने क्या गुनाह किया है ? मैं तेरे पास आई हूँ, तू मेरा अपमान क्यों कर रहा है ? तुझे ठीक लगे उतना ले,
लेकिन मेरा अपमान मत करना ।' अब क्या हमें उसे मान नहीं देना चाहिए? हमें तो अगर कोई ऐसी चीज़ दे जाए जो नहीं भाती हो, तब भी हम उसे मान देते हैं। क्योंकि एक तो, यों ही कुछ नहीं मिलता, और यदि मिले तो उसे मान देना पड़ता है। आपको कोई खाने की चीज़ दी और आप उसमें दोष निकालो तो उससे सुख घटेगा या बढ़ेगा ? जिससे सुख घटता हो ऐसा व्यापार ही नहीं करना चाहिए न ! कई बार सब्ज़ी मेरी रुचि की नहीं होती, फिर भी मैं तो खा लेता हूँ और ऊपर से तारीफ करता हूँ कि आज की सब्ज़ी बहुत अच्छी है। अरे, कई बार तो चाय में शक्कर नहीं होती थी न, फिर भी हमने कुछ नहीं कहा। तब लोग कहते थे कि, 'ऐसा करेंगे न, तो घर में सबकुछ बिगड़ जाएगा ।' मैंने कहा कि, 'आप कल देखना न ! क्या होता है ? ' तब फिर दूसरे दिन उन्होंने (हीरा बा) कहा कि, 'कल चाय में शक्कर नहीं थी, फिर भी आपने हमें बताया नहीं ?' मैंने कहा कि, 'मुझे बताने की क्या ज़रूरत थी ? आपको पता चलेगा न ! आप नहीं पीतीं तो मुझे कहने की ज़रूरत पड़ती । आप पीती हो तो फिर मुझे कहने की क्या ज़रूरत ? ! '
प्रश्नकर्ता : लेकिन कितनी जागृति रखनी पड़ती है, प्रति क्षण !
दादाश्री : प्रति क्षण, चौबीसों घंटे जागृति, उसके बाद इस 'ज्ञान की शुरुआत हुई। यह 'ज्ञान' यों ही नहीं हो गया ! अर्थात् पहले से ही इस प्रकार से सब 'एडजस्टमेन्ट' लिए थे । हो सके, तब तक क्लेश नहीं होने दिया ।
एक बार जब हम नहाने गए, तब गिलास रखना भूल गए थे । अब यदि एडजस्टमेन्ट नहीं करें तो हम ज्ञानी कैसे ? हम एडजस्ट कर लेते हैं। हाथ डाला तो पानी बहुत गरम ! नल खोला तो टँकी खाली! फिर हम तो धीरे-धीरे हाथ से पानी चुपड़ चुपड़कर ठंडा करके नहाए । सभी महात्माओं ने कहा कि, 'आज दादा जी को नहाने में बड़ी देर
लगी।' तो क्या करते ? पानी ठंडा होता तब न ? हम किसी से भी ऐसा नहीं कहते हैं कि 'यह लाओ और वह लाओ'। एडजस्ट हो जाते हैं। एडजस्ट हो जाना, वही धर्म है । इस दुनिया में तो प्लस - माइनस का एडजस्टमेन्ट करना पड़ता है। माइनस हो वहाँ प्लस और प्लस हो वहाँ माइनस करना पड़ता है। यदि कोई हमारी समझदारी को भी पागलपन कहे तो हम कहेंगे, 'हाँ, ठीक है । ' तुरंत उसे माइनस कर देते है |
ं ।
जिसे एडजस्ट होना नहीं आया, उस इंसान को इंसान कैसे कहेंगे? जो संयोगों के वश होकर एडजस्ट हो जाएगा, उस घर में कुछ भी झंझट नहीं होगी। हम भी हीराबा से एडजस्ट होते आए थे न! उनसे लाभ उठाना हो तो एडजस्ट हो जाओ । यह तो फायदा भी किसी चीज़ का नहीं और बैर बाँधेगे, वह अलग। क्योंकि प्रत्येक जीव स्वतंत्र है और खुद सुख खोजने आया है। वह दूसरों को सुख देने नहीं आया है। अब, उसे सुख के बजाय दुःख मिले तो बैर बाँधता है। फिर चाहे वह बीवी हो या बेटा हो ।
प्रश्नकर्ता : सुख खोजने आए और दुःख मिले तो फिर बैर बाँधता है ?
दादाश्री : हाँ, वह तो फिर भाई हो या बाप हो, लेकिन अंदर ही अंदर उस बात का बैर बाँधता है । यह सारी दुनिया ऐसी है, बैर ही बाँधती है! स्वधर्म में किसी से बैर नहीं होता है ।
प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में कुछ प्रिन्सिपल (सिद्धांत) तो होने ही चाहिए। फिर भी संयोगानुसार वर्तन करना चाहिए । जो संयोगों के साथ एडजस्ट हो जाए, वही मनुष्य कहलाता है। यदि प्रत्येक संयोग में एडजस्टमेन्ट लेना आ जाए तो यह ऐसा ग़ज़ब का हथियार है कि ठेठ मोक्ष में पहुँचा जा सकता है।
ये दादा जी सूक्ष्म सूझ-बूझ वाले भी हैं, किफायती भी हैं और
एडजस्ट एवरीव्हेर उदार भी हैं। पूर्णतया उदार हैं । फिर भी 'कम्प्लीट एडजस्टेबल' हैं । दूसरों के लिए उदार, खुद के लिए किफायती और उपदेश के लिए सूक्ष्म सूझ-बूझ वाले । इसलिए सामने वाले को हमारा व्यवहार गहरी सूझ-बूझ वाला दिखाई देता है। हमारी इकॉनोमी एडजस्टेबल होती है, टॉपमोस्ट होती हैं। हम तो पानी का उपयोग भी किफायत से करते हैं। हमारे प्राकृत गुण सहज भाव वाले हैं ।
वर्ना व्यवहार की गुत्थी अटकाएगी
पहले व्यवहार सीखना है। व्यवहार की समझ के बिना तो लोग तरह-तरह की मार खाते हैं ।
प्रश्नकर्ता : आपकी अध् |
यात्म से संबंधित बातों के बारे में तो क्या कहना, लेकिन व्यवहार में भी आपकी बातें 'टॉप' की है ।
दादाश्री : ऐसा है न, कि व्यवहार में 'टॉप' का समझे बिना कोई मोक्ष में नहीं गया । कितना भी क़ीमती, बारह लाख का आत्मज्ञान हो, लेकिन व्यवहार छोड़ देगा क्या ? ! वह नहीं छोड़ेगा तो आप क्या करोगे? आप तो 'शुद्धात्मा' हो ही, लेकिन व्यवहार छोड़े तब न ? आप व्यवहार को उलझाते रहते हो । झटपट हल लाओ न ?
अगर इनसे कहा हो कि, 'जा, दुकान से आइस्क्रीम ले आ । ' लेकिन आधे रास्ते से वापस आता है । हम पूछें, 'क्यों ?' तो वह कहता है कि, 'रास्ते में गधा मिल गया, अपशकुन हो गए!' अब, उसे ऐसा उल्टा ज्ञान हो गया है, वह हमें निकाल देना चाहिए न ? उसे समझाना चाहिए कि 'भाई, गधे में भी भगवान विराजे हुए हैं, इसलिए कोई अपशकुन नहीं है। तू गधे का तिरस्कार करेगा तो वह उसके भीतर विराजे भगवान को पहुँचेगा । तुझे इसका भारी दोष लगेगा । फिर से ऐसा नहीं होना चाहिए । ' इस प्रकार उल्टा ज्ञान हुआ है, उसकी वजह से लोग एडजस्ट नहीं हो पाते हैं ।
उल्टे को सुल्टाए, वह समकिती
समकिती की निशानी क्या है ? वह यह है कि, घर के सभी लोग कुछ भी उल्टा कर दें, फिर भी वह सही कर देता है। प्रत्येक बात में सीधा ही करना, यह समकिती की निशानी है । हमने इस संसार की बहुत सूक्ष्म खोजबीन की है। अंतिम प्रकार की खोजबीन के पश्चात् हम ये सब बातें कर रहे हैं । व्यवहार में कैसे रहना चाहिए, वह भी देते हैं और मोक्ष में कैसे जा सकते हैं, यह भी देते हैं । आपकी अड़चनें किस प्रकार कम हों, यही हमारा हेतु है ।
अपनी बात सामने वाले को 'एडजस्ट' होनी ही चाहिए। अपनी बात सामने वाले को 'एडजस्ट' नहीं हो तो वह अपनी ही भूल है । भूल सुधरेगी तो अपनी बात 'एडजस्ट' होगी । वीतरागों की बात 'एवरीव्हेर एडजस्टमेन्ट' की है ।
प्रश्नकर्ता : दादा जी, यह जो आपने कहा है 'एडजस्ट एवरीव्हेर', उससे तो अच्छे अच्छों की उलझनों का हल आ जाएगा !
दादाश्री : सभी का हल आ जाएगा । हमारे ये जो एक-एक शब्द हैं, वे सभी का शीघ्र हल ले आएँगे । वे ठेठ मोक्ष तक ले जाएँगे । इसलिए 'एडजस्ट एवरीव्हेर'!
प्रश्नकर्ता : अभी तक जहाँ अच्छा लगता था, वहाँ सभी एडजस्ट होते थे और आपकी बातों से तो ऐसा लगता है कि 'जहाँ अच्छा न लगे, वहाँ तू पहले एडजस्ट हो जा । '
दादाश्री : 'एवरीव्हेर एडजस्ट' होना है।
दादा जी का ग़ज़ब का विज्ञान
प्रश्नकर्ता : 'एडजस्टमेन्ट' की जो बात है, उसके पीछे क्या भाव है ? कहाँ तक 'एडजस्टमेन्ट' लेना चाहिए ?
दादाश्री : भाव शांति का है, हेतु शांति का है । अशांति पैदा नहीं होने देने की तरकीब है। 'दादा जी' का विज्ञान 'एडजस्टमेन्ट' का है। ग़ज़ब का 'एडजस्टमेन्ट' है यह। और जहाँ 'एडजस्ट' नहीं होते, वहाँ आपको उसका स्वाद तो आता ही होगा न ?! 'डिसएडजस्टमेन्ट' ही मूर्खता है। 'एडजस्टमेन्ट' को हम न्याय कहते हैं । आग्रह - दुराग्रह न्याय नहीं कहलाता । किसी भी प्रकार का आग्रह, न्याय नहीं है । हम किसी भी बात पर अड़े नहीं |
रहते। जिस पानी से मूँग पकते हों, उसमें पका लेते हैं। अंत में गटर के पानी से भी पका लेते हैं !
अभी तक एक भी व्यक्ति हमसे डिसएडजस्ट नहीं हुआ है । जबकि इन लोगों के साथ तो घर के चार सदस्य भी एडजस्ट नहीं हो पाते। अब एडजस्ट होना आएगा या नहीं? ऐसा हो सकेगा या नहीं ? हम जैसा देखें ऐसा तो हमें आ जाता है न ? इस संसार का नियम क्या है कि जैसा आप देखोगे उतना तो आपको आ ही जाएगा। उसमें कुछ सीखने जैसा नहीं रहता । क्या नहीं आएगा? अगर मैं आपको केवल उपदेश देता रहूँ, तो वह नहीं आएगा । लेकिन आप मेरा आचरण देखोगे तो आसानी से आ जाएगा।
यहाँ घर पर 'एडजस्ट' होना नहीं आता और आत्मज्ञान के शास्त्र पढ़ने बैठते हैं ! छोड़ न ! पहले 'यह' सीख न ! घर में 'एडजस्ट' होना तो आता नहीं है। ऐसा है यह संसार ।
संसार में और कुछ भले ही न आए, तो कोई हर्ज नही है । व्यवसाय करना कम आए तो हर्ज नहीं है लेकिन एडजस्ट होना आना चाहिए। अर्थात्, वस्तुस्थिति में एडजस्ट होना सीख जाना चाहिए। इस काल में एडजस्ट होना नहीं आया तो मारा जाएगा । इसलिए 'एडजस्ट एवरीव्हेर' होकर काम निकाल लेने जैसा है।
जय सच्चिदानंद |
वास्तविक जिन्होंने धर्म को जाना है, वे तो चिल्ला-चिल्ला कर कहते हैं कि तुम ब्रह्म हो । स्वयं ब्रह्म हो । तत्वमसि। वे तो चिल्ला कर कहते हैं कि आत्मा ही परमात्मा है। वे तो कहते हैं कि तुम्हारी कोई सीमा नहीं, कोई परिभाषा नहीं। तुम अनंत अनादि हो ।
लेकिन पुरोहित है, मंदिर मस्जिद को चलाने वाला, शब्दों के संग्रह पर जीने वाला पंडित है, वह तुम्हें छोटा करता है। वह तुम्हें हीन बताता है । वह तुम्हारी निंदा करता है। और उसने इतने समय तक तुम्हारी निंदा की है कि जब तुम्हें कोई कहता है, जागो! तुम महान हो, विराट हो; तो तुम्हें भरोसा नहीं आता।
उसकी निंदा के पीछे कारण है। वह तुम समझ लो क्योंकि अगर तुम ब्रह्म हो, तो न तो मंदिर की कोई जरूरत है, न मस्जिद की कोई जरूरत है। क्योंकि तुम्हें मंदिर हो। अगर तुम विराट हो, तो न तो मूर्ति की जरूरत है, न पूजा अर्चना की जरूरत है। तुम स्वयं ही पूज्य हो। तुम ही पुजारी हो । तुम ही पूजा अर्चना हो ।
तुम अगर तुम्हारे वास्तविक रूप में ही प्रकट हो जाओ, तो धर्मगुरु कहां खड़ा रहेगा? उसके व्यवसाय का क्या होगा? तुम्हारी निंदा में ही उसके व्यवसाय का सारा राज छिपा है। तुम पापी हो तो पंडित की जरूरत है। तुम पापी हो तो पुरोहित की जरूरत है। तुम पापी हो तो तुम्हारे बीच और परमात्मा के बीच मध्यस्थों की जरूरत है। अगर तुम स्वयं ब्रह्म हो, तो कौन मध्यस्थ चाहिए? बीच के दलाल अर्थहीन हो जाते हैं।
इसलिए समस्त संप्रदाय तुम्हारी निंदा पर जीते हैं। पहले वह तुम्हें अपराधी घोषित करते हैं, महापापी घोषित करते हैं। पहले तुम्हारे भीतर के प्राणों को संकुचित करते हैं। और जब तुम इतने संकुचित हो जाते हो, कि तुम त्राहि-त्राहि कर उठते हो और मांगते हो कि मार्ग दो, राह दो, तब वे तुम्हें विधियां बताना शुरू करते हैं।
पहले वे तुम्हारी बीमारी पैदा करते हैं फिर तुम्हें औषधि देते हैं। बीमारी झूठी है इसलिए औषधि सच्ची नहीं हो सकती। बीमारी ही बुनियाद में नहीं है। इसलिए उपाय सब व्यर्थ हैं, यह बोध कैसे आए? तुम कैसे जागो? तुम क्या करो, कि जागरण हो जाए?
यह पहली बात ख्याल में ले लेनी जरूरी है। दीवाल न के बराबर है। बड़ी झीनी है। जैसे घूंघट पड़ा हो नववधू की आंखों की आंखों पर, और उसे कुछ दिखाई न पड़ता हो। जरा सरका ले, और सब दिखाई पड़ना शुरू हो जाए। लेकिन तुमने मान रखा है कि बहुत कठिन है। तुमने स्वीकार ही कर लिया है। और तुम्हारे स्वीकार के पीछे भी कारण है, पुजारी, पंडित, पुरोहित के पीछे कारण है, क्योंकि वह तुम्हें ब्रह्म घोषित करे, तो वह व्यर्थ हो जाता है। उसका कोई उपयोग नहीं रह जाता। वह तुम्हारी निंदा पर जीएगा ।
तुम्हारे पीछे भी मानने का कारण है। तुम्हारे मानने का कारण क्या होगा? तुम अपने चारों तरफ जो भी देखते हो, अपने ही जैसे लोग देखते हो। क्षुद्र! छोटे! उनको देख कर यह भरोसा गहरा होता है, कि आदमी और परमात्मा के बीच बड़ा फासला है। क्योंकि आदमी में तुम्हें परमात्मा तो दिखाई नहीं पड़ता। शैतान बहुत बार |
दिखाई पड़ता है। संत तो मुश्किल से दिखाई पड़ता है। और संत अगर हो तो भी दिखाई नहीं पड़ता। क्योंकि पड़ता है। संत तो मुश्किल से दिखाई पड़ता है। और संत अगर हो तो भी दिखाई नहीं पड़ता। क्योंकि शैतान पर भरोसा इतना है कि तुम मान नहीं सकते कि कोई संत हो सकता है।
फिर तुम्हें अपने भीतर भी सिवाय रोग, व्याधियों के, घृणा, ईर्ष्या, मत्सर, लोभ, काम, क्रोध इनके अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। तुम तो स्वयं को दिखाई ही नहीं पड़ते। बस यही चीजें दिखाई पड़ती हैं। और रोज-रोज इन्हें तुम देखते हो। रोज-रोज इनका अनुगमन करते हो। तो तुम्हारे भीतर का अनुभव भी तुमसे कहता है, कि पुजारी ठीक ही कहता होगा। फिर अगर तुम्हें कोई संत भी मिल जाए तो तुम भरोसा नहीं करते। क्योंकि तुम्हारी आंख वही देख सकती है, जो तुमने अपने भीतर देखा है। इस सूत्र को ठीक से ख्याल में
रख लो। तुम वही देख सकते हो, जो तुम्हारा अनुभव है। जो तुम्हारा अनुभव नहीं है, वह तुम्हें दिखाई नहीं पड़ेगा। अगर संत सरल होगा तो तुम्हें मूर्ख दिखाई पड़ेगा। सरलता नहीं दिखाई पड़ेगी। तुम समझोगे मूढ़ है। क्योंकि मूढ़ता तुम जानते हो, सरलता तुम जानते नहीं।
अगर संत तुम्हें मिलेगा और मौन बैठा होगा, शांत होगा, तो तुम समझोगे कि आलसी है, काहिल है, सुस्त है। क्योंकि तुमने उसी को जाना है, अपने भीतर । जब तुम खाली बैठे होते हो, तब तुम काहिल होते हो, आलसी होते हो, सुस्त होते हो, तामसी होते हो। तो संत अगर तुम्हें मिलेगा खाली बैठा, कुछ न करता, तो तुम समझोगे अकर्मण्य है। तुम्हारी भाषा तो तुम्हारी ही रहेगी। उसका मौन तो तुम्हें दिखाई न पड़ेगा। मौन तो तुमने जाना ही नहीं। तुम तो सदा ही शब्दों से भरे हो। तो तुम्हारा अनुभव ही तुम्हें बनाएगा। तुम अपने को ही फैला कर दूसरों में देखोग |
े। दूसरे दर्पण की भांति हैं।
बहुत वर्ष हुए मैं पहली बार ही बंबई आया था। और एक गुजराती के ख्यातिनाम लेखक, बड़े सुसंस्कृत, संभ्रांत परिवार से आते हैं। गहरे रूप से सुशिक्षित व्यक्ति हैं, संस्कारशील हैं। वे मेरे विचारों से प्रभावित थे; तो मुझे भोजन कराने एक होटल में ले गए। मुझे पता नहीं था, कि उनकी आंखें कमजोर हैं। और वे बिना चश्मे के नहीं देख सकते निकट की चीजें । पढ़ नहीं सकते। चश्मा वे घर भूल आए थे। टेबल पर पड़े मेनू को उठाकर थोड़ी देर देखते रहे। मुझे कुछ पता नहीं और मुझे शायद उन्होंने इसलिए नहीं कहा, कि न बताना चाहते होंगे कि उनकी आंखें इतने कमजोर हैं, कि बिना चश्मे के देख नहीं सकते। मैं समझा कि वे पढ़ रहे हैं। तभी बैरा आया पानी लेकर और उन्होंने उस बैरे से कहा कि जरा इस मेनू को पढ़ दो। उस बैरे ने उनकी तरफ देखा और कहा, भाई! हम भी तुम्हारी माफिक पढ़े नहीं है।
जो हमारी दशा है, वही हम दूसरे में देख सकते हैं। दूसरे की दशा तो दिखाई नहीं पड़त सकती। उसके देखने का उपाय ही नहीं है। इसलिए बुद्ध पुरुष तुम्हारे भीतर आते हैं, तुम्हारे इतिहास का भी अंग नहीं बन पाते। पुराण-कथाएं बन जाती हैं। शक होता है कि ये लोग कभी हुए?
चंगेजखां हुआ, इस पर कभी शक नहीं होता । नादिरशाह हुआ, इस पर कभी संदेह नहीं होता। हिटलर हुआ इस पर कभी संदेह नहीं होता। लेकिन आज से हजार साल बाद रमण महर्षि हुए या नहीं, यह संदिग्ध होगा। वे इतिहास के हिस्से नहीं बनते । इतिहास तो तुम बनाते हो । इतिहास तो तुम लिखते हो।
तो बुद्ध, महावीर, कृष्ण, क्राइस्ट हुए भी, या सिर्फ कपोल-कल्पनाएं है? अगर तुम ठीक से सोचो, तो तुम्हें कपोल कल्पनाएं ही लगेंगी। ऐसे आदमी हो ही कैसे सकते हैं? क्योंकि आदमी की परिभाषा तो तुम हो। ये भरोसे के नहीं हैं। ये किन्हीं लोगों ने सपने संजोए हैं, कथाएं लिखी है। लेकिन ऐसा यथार्थ में हो नहीं सकता बुद्ध जैसा आदमी। यह कैसे हो सकता है कि जीसस को लोग सूली दें और सूली पर लटका हुआ जीसस परमात्मा से प्रार्थना करे, कि इन सबको माफ कर देना क्योंकि ये जानते नहीं, ये क्या कर रहे हैं। यह कैसे हो सकता है? ऐसी बात तुम्हारे भीतर कभी उठी, कि जो तुम्हें पत्थर मार रहा हो, गाली दे रहा हो और तुमने प्रार्थना की हो, कि परमात्मा इसे क्षमा कर देना, क्योंकि यह जानता नहीं यह क्या कर रहा है? अगर ऐसा तुम्हारे भीतर थोड़ा सा भी हुआ हो तो तुम समझ पाओगे कि जीसस भी हो सकते हैं। लेकिन पत्थर मारने में यह नहीं होता, तो फांसी लगाने पर कैसे होगा?
जो तुम्हारी तरफ मिट्टी का ढेला फेंक, तुम्हारे प्राण उसकी तरफ चट्टान फेंकना चाहते हैं। जो तुम्हें एक गाली दे, तुम्हारी आत्मा हजार गालियों से उसके लिए भर जाती है। जो तुम्हें कांटा चुभाएं उसके लिए प्राणों से
में फूल पैदा नहीं होते। और तुम्हीं तो तुम्हारा बांध हो । तो जीसस संदिग्ध हैं। हो नहीं सकते। कहानी होगी। पुराण कथा है।
पुराण और इतिहास का यही फर्क है। जिन-जिन पर तुम भरोसा नहीं कर सकते, उनके लि |
ए तुमने पुराण लिखा है। जिन पर तुम भरोसा करते हो उनके लिए तुमने इतिहास लिखा है। इसलिए से यह सिद्ध नहीं होता कि ये लोग हुए। इतिहास से इतना ही सिद्ध होता है कि ये तुम्हारे जैसे लोग हैं। और पुराण से यह सिद्ध नहीं होता कि ये लोग नहीं हुए; पुराण से इतना ही सिद्ध होता है कि इनसे तुम्हारा कोई तालमेल नहीं बैठता। ये तुम्हारी भाषा में नहीं पाते। ये तुम्हारी सीमा के बाहर पड़ जाते हैं। तुम अगर मान लेते हो तो भी बहुत गहराई से नहीं। जानते तो तुम यही हो कि यह हो नहीं सकता।
इसलिए जब कोई ज्ञानी तुमसे कहता है तुम परमात्मा हो, तो तुम कैसे भरोसा करो? तुम्हें शैतान दिखाई पड़ता है, परमात्मा दिखाई नहीं पड़ता। और जब कोई ज्ञानी मंसूर जैसा घोषणा कर देता है, मैं स्वयं परमात्मा हूं, तब तो तुम क्रोध से भर जाते हो कि यह आदमी अब तो संस्कार की सीमा के भी बाहर जा रहा है। यहां तक भी तुम माफ कर सकते थे, कि तुमसे कहता कि तुम परमात्मा हो; लेकिन यह आदमी कहता है कि मैं परमात्मा हूं। अब तुम माफ नहीं कर सकते।
जब मंसूर या उपनिषद के ऋषि कहते हैं कि मैं परमात्मा हूं, तो तुम्हें लगता है और जानते हो तुम गहरे में कि यह आदमी अहंकारी है। क्योंकि तुम अहंकार को ही जानते हो। और यह तो हद दर्जे का अहंकार है। तुमने भी अहंकार की घोषणाएं की हैं कि मुझसे सुंदर कोई नहीं, कि मुझसे शक्तिशाली कोई भी नहीं, कि मुझसे ज्यादा समझदार कोई भी नहीं। लेकिन एक आदमी घोषणाएं कर रहा है कि मैं परमात्मा हूं, तुम्हारे सब अहंकार दो कौड़ी के मालूम पड़ते हैं। इसने तो आखिरी घोषणा कर दी। इतनी हिम्मत तो तुम भी न जुटा पाए। यह आदमी तो महाअहंकारी होना चाहिए। जब जीसस ने कहा कि मैं परमात्मा का पुत्र हूं, तो स्वभावतः कठिनाई हुई। मंसूर को। तो मार डाला मुसलमानों ने। क |
्योंकि इसने कुफ्र की बात कह दी कि मैं परमात्मा हूं-- अनलहक। वह वही कह रहा था, जो उपनिषद के ऋषियों ने कहा है--अहं ब्रह्मास्मि। जरा भी भेद न था।
ज्ञानी को तुम न समझ पाओगे।
तो तुम्हें दो काम करने जरूरी हैं। तुम्हें पुरोहित से मुक्त होना है और तुम्हें स्वयं से भी मुक्त होना है। पुरोहित से मुक्त होना इतना कठिन नहीं, स्वयं से मुक्त होना बहुत कठिन है। वे दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। तुम्हें संप्रदाय से मुक्त होना है। क्योंकि वह तुम्हारा शोषण कर रहा है। और तुम्हें स्वयं से मुक्त होना है, क्योंकि वह तुम्हें संप्रदाय के द्वार शोषित किये जाने योग्य बना रहा है। वह एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
कहां से शुरू करोगे? अगर तुम संप्रदाय से मुक्त होने की कोशिश करो और स्वयं से मुक्त न हो पाओ, तो तुम एक संप्रदाय से मुक्त नहीं हो पाओगे कि दूसरे में उलझ जाओगे। क्योंकि मूल बीज तो भीतर कायम रहेंगे। वे नहीं शाखाएं भेज देंगे। तो हिंदू ईसाई हो जाता है, ईसाई हिंदू हो जाता है। जैन बौद्ध हो जाते हैं, बौद्ध जैन हो जाते हैं। कोई फर्क नहीं पड़ता। बीमारियों के नाम बदल जाते हैं। इससे क्या फर्क पड़ता है? कि तुम बीमारी को क्षयरोग कहते हो, कि टुबर कोलोसिस इससे क्या फर्क पड़ता है? बीमारी के नाम से कहीं कुछ भेद होता है ?
तुम बीमारी का नाम मुसलमान कहो कि हिंदू कहो, कि जैन कहो कोई फर्क नहीं पड़ता। सारी बीमारियां बुनियादी रूप से तुम्हारे इस बोध पर निर्भर हैं, कि तुम शैतान हो। और यही सबसे बड़ी अधार्मिक अवस्था है चित्त की। और इसके लिए बल मिलता है क्योंकि दिखते हो क्रोध, घृणा, वैमनस्य, कठोरता, हिंसा रोग ही तो दिखाई पड़ते हैं भीतर। इन सबका जोड़ शैतान है।
लेकिन मैं, तुमसे कहता हूं, तुम इन सबको जोड़ नहीं हो । वस्तुतः इनमें से कोई भी तुम्हारा अंग नहीं है। क्रोध, लोभ, मोह, माया, मत्सर ये तुम्हारे चारों तरफ होंगे, लेकिन तुम नहीं हो।
तुम तो वह हो, जो जानता है। जो जानता है कि क्रोध आया। जो जानता है कि क्रोध गया। जो जानता है कि माया उठी, जो जानता है कि माया तिरोहित हुई। जो जानता है कि कामवासना जगी और जो जानता है कि अब कामवासना जा चुकी । भूख उठी, तृप्ति हुई । प्यास लगी, प्यास बुझी । वह जो जानता है, वह तुम हो। और तुमने अपने को वह समझ लिया है, जो तुम्हारे निकट भला हो लेकिन तुम्हारा स्वभाव या स्वरूप नहीं। बहुत निकट होने से भ्रांति होती है।
ऋषियों ने सदा इस दृष्टांत को लिया है कि अगर कांच के एक टुकड़े को नीलमणि के पास रख दिया जाए, तो कांच का टुकड़ा भी नीलिमा से भर जाता है। प्रतिफलित होने लगती है। मुश्किल होगा तय करना कि कौन नीलमणि है और कांच का टुकड़ा है। पास होने से झांई पड़ने लगती है।
ये सब तुम्हारे बहुत पास हैं। ये सबसे बिल्कुल सट कर खड़े हैं। क्रोध, लोभ, मोह, काम, इतने पास हैं, इसके कारण तुम पर भी सांई पड़ती है। और तुम नीलमणि हो। इनकी झांई तुम में पड़ती है। तुम्हारी झांई इनमें पड़ती है। निकटता से एक तादात्म् |
य पैदा होता है। एक आइडेंटिटी पैदा हो जाती है। और वही तुम्हें भटका रही है।
बस, उस छोटे से तादात्म्य को तोड़ने की जरूरत है। और वह तादात्म्य नींद जैसा है। एक झटके में टूट सकता है। अंधकार जैसा है। एक दिए की लपट में खो सकता है। तुम कभी भी परमात्मा से इंच भर नीचे नहीं रहे हो। यह हो ही नहीं सकता। इसका कोई उपाय नहीं। हालांकि तुमने बहुत उपाय किए। तुमने बहुत उपाय किए कि तुम पशु हो जाओ, लेकिन तुम नहीं हो सकते हो। तुमने बहुत उपाय किए कि तुम शैतान हो जाओ, लेकिन तुम नहीं हो सकते हो।
बुद्ध ने एक हत्यारे को संन्यास की दीक्षा दी थी। शिष्य राजी न थे क्योंकि हत्यारा भयंकर था। उसने हजारों लोग मार डाले थे। उसका एक ही रास था--लोगों को मारना । और बुद्ध ने जब उसे दीक्षा दी तो बुद्ध के निकटतम शिष्यों को भी लगा कि बुद्ध जरा गलती कर रहे हैं। यह आदमी ठीक नहीं है। इससे ज्यादा शैतान पाना मुश्किल है।
तो आनंद ने बुद्ध को कहा कि रुकें। इस आदमी को थोड़े दिन परिचित होने दें। जल्दी न करें। यह आदमी भयंकर हत्यारा है। इसका नाम सुन कर सम्राट भी कंप जाते हैं। बुद्ध ने कहा कि लेकिन मैं जानता हूं कि यह ब्राह्मण है। हत्यारे होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। वह भीतर का ब्रह्म थोड़े ही स्पर्शित होता है। वह तो सदा शुद्ध है। इसने क्या किया, वह तो सपना है। यह क्या है, वह सत्य है।
तुमसे भी मैं यही कहता हूं। तुमने क्या किया, वह सपना है। तुमने क्या सोचा वह तो सपने में भी सपना है। तुम्हारा ब्रह्मतत्व रत्ती भर कलुषित नहीं होता। उसके कलुषित होने का उपाय नहीं है। उसका कुंआरापन भ्रष्ट नहीं होता। क्योंकि कुंआरापन कोई बाह्य घटना नहीं है। कुंआरापन उसका स्वरूप है। कितने ही तुमने पाप किए हों-- अनगिनत।
बुद्ध ठीक कहते हैं कि यह ब्राह्मण है। और |
बुद्ध ने ब्राह्मण की क्या परिभाषा की है? तुम सभी ब्राह्मण हो । बुद्ध ने परिभाषा की है कि जिसके भीतर ब्राह्मण है वह ब्राह्मण है। पौधे, पशु, पक्षी सभी ब्राह्मण हैं।
परमात्मा में शूद्र पैदा ही कैसे हो सकता? और अगर परमात्मा में शूद्र पैदा होता हो, तो परमात्मा में शूद्र होना चाहिए। क्योंकि कारण के बिना कैसे फल लगेंगे? शैतान सपना है, ब्रह्म अस्तित्व है। एक भ्रांति की रेखा
बुद्ध ने उसे दीक्षा दे दी। सम्राट को खबर मिली। प्रसेनजित सम्राट था उस राज्य का, जहां बुद्ध ठहरे थे उन दिनों। वह भी थक गया था इस हत्यारे से। इस हत्यारे का नमा था अंगुलिमाल... अंगुलिमाल उसका नाम था, क्योंकि वह आदमियों को मारता और उनकी अंगुलियों की माला पहनता। एक आदमी मारता, तो उसकी उंगली अपनी माला में डाल देता। उसने एक हजार आदमियों को मारने का व्रत लिया था। जब बुद्ध ने उसे दीक्षा दी, तो केवल एक अंगुली की कमी थी। नौ सौ निन्यानबे अंगुलियां उसकी माला में थीं। प्रसेनजित भी थक गया था। कोई बस नहीं आता था इस आदमी पर । फौजें थक गई थीं। सैनिक जाने से डरते थे उस इलाके में, जहां खबर मिल जाती कि अंगुलिमाल आ गया।
प्रसेनजित को खबर मिली कि अंगुलिमाल दीक्षित हुआ। बुद्ध का भिक्षु हो गया। संन्यासी हो गया है। तो वह देखने आया इस खतरनाक आदमी को, कि यह आदमी किस तरह का है। उसकी मां तक डरती थी उसके पास जाने में। क्योंकि उसका कोई भरोसा नहीं था। वह उसको भी काट देता।
प्रसेनजित जब आया, तो उसने चारों तरफ नजर साली। वहां तो हजारों भिक्षु थे। वह पहचान भी न पाया। और वह पहचान भी न पाता। क्योंकि अंगुलिमाल ठीक बुद्ध के पास बैठा था। उसने कहा कि मैंने सुना है कि अंगुलिमाल ने दीक्षा ली और संन्यासी हुआ। भरोसा तो नहीं आता कि यह आदमी और संन्यासी होगा। मैं उसके दर्शन करना चाहता हूं। वह है कहां? बुद्ध ने कहा, तुम उसे अब पहचान न पाओगे। फिर भी प्रसेनजित ने कहा कि मैं उसे जानना चाहता हूं। उसे पता ही नहीं कि अंगुलिमाल बगल में बैठा सुन रहा है। बुद्ध ने कहा, अगर तुम जानना ही चाहते हो, तो यह जो मेरे निकट बैठा हुआ भिक्षु है, यह अंगुलिमाल है।
ऐसा नाम सुनते ही प्रसेनजित के हाथ पैर कंप गए। इतने पास! झपट पड़े, गर्दन काट दे, क्या पता। इस आदमी का कोई भरोसा नहीं। कथा है कि प्रसेनजित के हाथ पैर कंप गए। पसीना आ गया। और उसने कहा कि यही वह आदमी है? पर बुद्ध ने कहा कि घबड़ाओ मत। अब इसने अपने ब्राह्मणत्व को पुनः उपलब्ध कर लिया है। वह सपना टूट गया।
दूसरे दिन सारे नगर में खबर फैल गई। अंगुलिमाल भिक्षा के लिए गांव में गया तो लोगों ने द्वार दरवाजे बंद कर लिए। भयभीत लोग अपने छतों पर चढ़ गए। और लोगों ने पत्थर मारने शुरू किए छतों से अंगुलिमाल को। अंगुलिमाल ढेर होकर राह पर गिर पड़ा--सब तरफ से लहूलुहान ।
कथा है कि बुद्ध आए और उन्होंने अंगुलिमाल को कहा, अंगुलिमाल, तूने सिद्ध कर दिया की तू ब्राह्मण है। तेरे मन में क्या भाव उठा, जब लोग तुझे पत्थर मार रहे थे?
अंगुलिमाल ने |
कहा, जब से तुमने कहा कि जो तूने किया वह सब सपना है, तब से दूसरे भी जो करते हैं, वह भी सब सपना है।
जिसे तुमने जीवन समझा है, जब तुम सपना समझने लगोगे। तभी तुम्हें उसका पता चलेगा जो सत्य है और अभी सपना हो गया। दृष्टि के बदलने की बात है।
थोड़ा अपने कृत्यों और विचारों से पीछे हटो। नीलमणि बिल्कुल पास है। हटने की प्रक्रिया भी सीधी साफ है। कोई जटिलता नहीं है। साक्षी में रमो। देखनेवाले में रमो। जो दिखाई पड़ता है वह पराया है, विजातीय है, बाहर है। तुम द्रष्टा हो। दृश्य में मत उलझो। उसमें ही ठहरो जो देख रहा है, जो द्रष्टा है, साक्षी है।
एक क्षण को भी तुम ठहर जाओ द्रष्टा में, रूपांतरण घटित हो जाते हैं, क्रांति हो जाती है। और एक ही क्रांति है--दृश्य से द्रष्टा पर लौट जाना। बस, एक ही क्रांति है। और फासला न के बराबर है। एक कदम दृश्य से हटना है और द्रष्टा में ठहर जाना है।
मुझे तुम सुन रहे हो। मुझे तुम देख रहे हो। तुम्हारा ध्यान, मैं जो कह रहा हूं, उस पर लगा है। इस ध्यान को जरा सा लौटाना है और उस पर लगाना है, जो सुन रहा है। तुम मुझे देख रहे हो। तुम्हारा ध्यान मेरी आकृति पर लगा है। इस ध्यान को जरा सा हटाना है और उस पर ले जाना है, जो देख रहा है। रत्ती भर का फासला है। धुएं की पतली लकीर है। झीना सा घूंघट है ।
इसलिए तो कबीर कहते हैं--घूंघट के पट खोल, तो हे पिया मिलेंगे। जरा सा घूंघट हटाना है। बस घूंघट की ओट में छिपे हैं पिया।
ये कबीर के वचन बड़े महत्वपूर्ण है।
अवधू, गगन मंडल घर कीजै ।
इसे समझ लें।
यह आकाश है फैला हुआ। इस आकाश में सब कुछ है। इसी आकाश में पृथ्वियां बनती है और लीन होती हैं। सूरज निर्मित होते हैं और विसर्जित होते हैं। चांद तारे जन्मते हैं और खो जाते हैं। सारी सृष्टि आकाश में बनती है और |
मिटती है। लेकिन आकाश न कभी बनता और न कभी मिटता है।
सब दृश्य उठते हैं आकाश में, सब रंग देखता है आकाश लेकिन किसी दृश्य से रंगता नहीं। इंद्रधनुष भी बनते हैं, बादल भी उठते हैं, बिजलियां भी चमकती हैं, लेकिन आकाश अछूता रह जाता है। बिजली के चमक जाने के बाद कोई काली लकीर, कोई जली हुई रेखा नहीं छूट जाती आकाश पर। बादल आते हैं, चले जाते हैं। आकाश जैसा था वैसी ही निर्मल बना रहता है। बादल हों तो, न हों तो।
यह सारी सृष्टि खो जाए, ये सब वृक्ष, पौधे, पशु, पक्षी लीन हो जाएं... होता है, प्रलय में वैसा। सब बीज में समा जाता है। आकाश भर शेष रह जाता है। आकाश सदा शेष रह जाता है। आकाश में सब घटता है। फिर भी आकाश को कुछ भी नहीं घटता। इसलिए आकाश साक्षी का प्रतीक है। सब कुछ साक्षी के सामने घटता है। लेकिन साक्षी में कुछ नहीं घटता । दृश्य उठते हैं, मिटते हैं। नाटक बनता है, बिखरता है।
तुम जाते हो फिल्म देखने। घड़ी भर को भूल ही जाते हो अपने को। खाली पर्दे पर धूप-छाया का खेल चलता है। लीन हो जाते हो। याद इतनी रह जाती है कि क्या पर्दे पर चल रहा है। अपनी याद नहीं रह जाती। दृश्य सब कुछ हो जाते हैं। यहां तक कि लोग पर्दे को जानते हैं, जब आए थे तो खाली था। क्षण भर बाद भूल जाते हैं। यह भी भली भांति उन्हें पता है कि सब धूप छाया की माया है, कुछ है नहीं वहां।
लेकिन किसी की हत्या की जा रही है और तुम्हें रोमांच हो जाता है। कोई दीन-सुखी, पीड़ित मर रहा है, और तुम्हारी आंखें अश्रुओं से भर जाती हैं। भूल ही जाते हो । ना कुछ प्रभाव करने लगता है। नीलमणि बहुत करीब आ गई। दृश्य सच मालूम होने लगते हैं। अगर चित्र में एक खतरनाक पहाड़ी के कगार से कार तेजी से भाग रही हो, और पुलिस के लोग पीछा कर रहे हो, तो तुम भी सम्हल कर बैठ जाते हो, रीढ़ सीधी हो जाती है। खतरनाक स्थित है। सांस रुक जाती है। पलकें झपना बंद कर देती हैं।
फिर पर्दा, पर्दा हो जाता है। खेल बंद हो गया। इति आ गई। उठकर तुम खड़े हो जाते हो। घर लौट आते
हो ।
साक्षी पहले था, जब तुम प्रवेश किए थे। साक्षी ही वापस लौटेगा, जब तुम घर की तरफ आओगे। बीच में खेल चला धूप-छाया का। वह जो पर्दे पर हो रहा है फिल्म के, उससे ज्यादा नहीं है संसार। फिल्म बड़ी है, पर्दा बहुत विराट है। तुम ओर-छोर भी न पा सकोगे। दृश्य बहुत हैं, अनगिनत हैं। संख्या का उपाय नहीं है। लेकिन है सब धूप छाया का ही खेल। उससे भिन्न कुछ भी नहीं रहा है।
एक ही चीज सत्य है; वह तुम्हारा देखनेवाला तत्व है। वह आकाश है। अवधू गगन मंडल घर कीजै। उस आकाश को ही अपना घर बना लो।
उससे कम में तुम दुखी रहोगे। उससे कम में तुम पीड़ित रहोगे। उससे कम में नर्क में ही रहोगे। क्योंकि अपने स्वभाव से कम में कोई कभी आनंदित नहीं हो सकता । स्वभाव आनंद है। तब तुम अपने घर लौट आए
गगन-मंडल घर कीजै ।
और कहीं घर मत बनाना। और अब घर सराय सिद्ध होंगे। रात भर का पड़ाव हो सकता है। सुबह उठकर चल पड़ना पड़ेगा। और किसी संबंध को घर मत बनाना। पत्नी हो, पत |
ि हो, बेटे हों, बेटियां हों, मित्र हों - सब क्षण भर का मिलना है। राह पर चलते यात्रियों का अचानक हो गया संयोग है। नदी-नाव संयोग। फिर छूट जाएगा। अनंत की यात्रा में बहुत बार न मालूम कितने घर तुमने बनाए । उनका हिसाब लगाना मुश्किल है। न मालूम कितने प्रेम के संबंध स्थापित किए। उतनी संख्या नहीं है। कितने रोए, कितने हंसे, लेकिन सब पानी के बबूलों की तरह खो गए। सब खो जाता है। सिर्फ एक ही बचता है। उस एक को ही कबीर कहते हैं-- अवधू, उस एक को ही घर बना।
गगन मंडल घर कीजै ।
और गगन कैसा है? शून्य है। गगन का अर्थ है, परम-शून्यता। तभी तो सब मिट जाता है। गगन नहीं मिटता। शून्य कैसे मिटेगा? जो मिटा ही हुआ है, जो है ही नहीं, वह कैसे मिटेगा? शून्य को मिटाने का कोई उपाय नहीं है। इसलिए शून्य अस्तित्व का सार है। वह शाश्वत है। शून्य एकमात्र शाश्वतता है। सब बनेगा और सब मिटेगा। नाम रूप आते और जाते हैं। शून्य बना रहता है।
इसलिए ज्ञानियों ने ब्रह्म की परिभाषा शून्य से की है। शून्य है उसका रूप। इसलिए उपनिषद कहते हैं, नेति नेति। वे कहते हैं, न यह आकार है उसका, न वह आकार है उसका। ज्यादा से ज्यादा हम इतना ही कह सकते हैं कि कोई आकार नहीं है उसका । निराकार । निराकार यानी शून्य ।
बुद्ध ने तो परमात्मा शब्द का उपयोग ही नहीं किया। क्योंकि उससे तुम्हें भांति होती है। परमात्मा शब्द का उपयोग करते ही, तुम्हें धनुषबाण लिए राम याद आते हैं, या बांसुरी बजाते कृष्ण याद आते हैं। परमात्मा का नाम लेते ही कहीं तुम्हारे मन में रूप बनने लगता है। आकार घना होने लगता है। लाख कहो कि परमात्मा निराकार है, लेकिन परमात्मा शब्द ही व्यक्तिवादी होने से रूप देने लगता है। इसलिए बुद्ध ने परमात्मा का उपयोग नहीं किया। बुद्ध ने तो कहा, सिर्फ शून्य |
। निर्वाण ।
निर्वाण शब्द बड़ा मीठा है। निर्वाण शब्द का अर्थ होता है, दीये का बुझ जाना । जब दीया बुद्ध जाता है तो क्या शेष रह जाता है? कहां जाती है ज्योति? कहां खो जाती है ज्योति? खोज न पाओगे अब। ज्योति शून्य में लीन हो गई। तुम्हारा दीया जिस दिन बुझ जाएगा - तुम्हारे दीये का अर्थ है, भ्रांति का दीया । तुम्हारे दीये का अर्थ है अहंकार का दीया। तुम्हारे दीये का अर्थ है अंधकार का दीया । जिस दिन बुझ जाएगा, रह जाता है पीछे। इस शून्यता का ही नाम आकाश है।
अवधू गगन मंडल घर कीजै। |
इधर आओ।
हथकड़ी उतारो।
थैंक यू।
कैसे हो, डेल?
बैठो, बैठो। तुम्हें कोई नहीं छुएगा।
…कि तुम मर जाओगे लेकिन मुँह नहीं खोलोगे।
है न?
ख़ुद को ही जला लेते हैं।
और तुम्हारे जैसे स्मार्ट लौंडों की प्रॉब्लम यही है।
किताबें बहुत पढ़ते हो।
हाँ, मेरा तो यही मानना है।
मार से तुम मुँह नहीं खोलोगे।
ले आओ! शुक्रिया, दोस्त।
एक मेरे लिए और एक मेरे अच्छे दोस्त के लिए।
बहुत बढ़िया। ले लो।
पीयो, डेल।
तुम्हारी जीत के नाम।
थैंक यू।
तुम मुझे मरवाना चाहते हो।
ठरकी, रेपिस्ट, बच्चेबाज़, उन्हें कुत्तों से नफ़रत है।
यहाँ, झूठे, कहानी बनाने वाले गद्दार कुत्ते मारे जाते हैं।
मरना चाहते हो, दिल में राज़ छुपाकर?
क्या साबित करोगे, स्मार्ट बॉय?
वफ़ादारी?
बिल्कुल नहीं।
यह क़त्ल होगा।
जिसका भार तुम्हारी रूह पर होगा।
ख़ुद को शहीद कहलवाना चाहते हो?
मुझे ऐसी चीज़ों से कोई फ़र्क नहीं पड़ता, डेल।
यही करते मेरी उम्र बीत गई। मर्ज़ी तुम्हारी है।
मुझे बता दो ऑफिसर फ़्लोरिस को किसने मारा।
मैं तुम्हें किसी महफूज़ जगह भिजवा दूँगा।
नहीं तो, यहीं मौत का इंतज़ार करो।
दोनों सूरत में, तुम मेरे कुत्ते हो।
पी लो नहीं तो गर्म हो जाएगी।
कुत्ते! कुत्ते की मौत मरेगा तू।
प्लान तो याद है न?
कोई भी बेकार की बात बिल्कुल मत करना।
मैंने चाय मँगवाई है।
आने के लिए शुक्रिया। कविता, इससे मिलो।
यह मेरा दोस्त है, प्रभु।
तो यही मुझे सागर वाडा ले गया था।
और बिज़नेस पार्टनर भी हूँ।
मेडिकल बिज़नेस?
टूरिस्ट बिज़नेस।
दोनों का धंधा सॉलिड चल रहा है।
प्रभु, यह है कविता, जर्नलिस्ट जिसका ज़िक्र किया था।
मुझे तुमसे माफ़ी माँगनी चाहिए।
नहीं। मैंने कुछ ज़्यादा ही कर दिया।
भूल जाओ उस बात को।
तुम यह कहानी छपवाने के ख़िलाफ़ क्यों हो।
नहीं, ख़िलाफ़ नहीं। कुछ वक़्त पहले मेरा भी यही ख़याल था।
इसलिए मैं प्रभु को ले आया हूँ, ताकि यह तुम्हें समझा सके।
हमें बहुत परेशानी हो जाएगी।
हमें?
सागर वाडा के लोग।
"हम" लोगों की तो वैल्यू ही नहीं है।
हमें कोई परेशानी नहीं होगी।
या मैं यह कहानी छापूँ जिससे तुम्हें कोई छू भी न पाए।
आप बॉम्बे में कब से रह रही हैं?
जन्म से ही।
फिर तो आपको मेरी बात समझ में आ जानी चाहिए, है न?
और फिर भूल जाएँगे।
हाँ, ठीक है, समझ गई।
कि यह शहर गरीबी से नहीं, गरीबों से लड़ता है।
ताकि बदलाव आए।
वह बहुत मुश्किल से मिला है।
सागर वाडा को कोई बदलाव नहीं चाहिए।
प्लीज़, कविता मैम।
कोई कहानी नहीं लिनबाबा पर।
नहीं तो ये मुझे निकाल देंगे।
ठीक है।
नहीं छापूँगी आर्टिकल।
और भी कहानियाँ मिल जाएँगी मुझे।
बस तुम… वादा करो कि डॉक्टरी नहीं छोड़ोगे।
और अगर एम्बुलेंस के लिए मेरी मदद चाहिए, तो बता देना।
थैंक यू, कविता मैम। यह तो बहुत ही अच्छी बात है।
सब लोग बहुत ख़ुश होंगे।
इट्स ओके।
थैंक यू वैरी मच, कविता।
क्या लगता है, काम हो गया?
बिल्कुल नहीं, लिनबाबा।
वह अमीर है और शुरू से बॉम्बे में है।
उसे झोपड़पट्टी की कोई परवाह नहीं है।
तभी तो आसानी से मान गई।
हाँ, म |
ुझे भी यही लगता है।
फ़क।
मिल गई फ़ोटो।
रघु राय भी ऐसी नहीं ले पाता, यार।
तो? लिनसी फ़ोर्ड के बारे में उसने कुछ बताया कि नहीं?
मैंने उससे पूछा ही नहीं।
क्या? पर क्यों?
वह असल में कौन है, यह जानने में वक़्त लगेगा।
वह क्या छुपा रहा है।
और फिर कहानी भूल जाओ।
और इस तरह, वह कहीं भी नहीं जाएगा।
पोज़ दो।
वाओ। एक और।
और यह फ़ोटो कब तक मिल जाएगी?
बस दोचार दिन में।
सौ रुपए दूँ, तो कल मिल सकती है?
सौ रुपए में? कल चाहिए?
हो जाएगा।
इतने दिन तक तो आपको याद नहीं आया।
अचानक यह पासपोर्ट क्यों चाहिए?
क्योंकि मैं अख़बार में नहीं आना चाहता।
मुझे जाना होगा।
तुम्हें पता था।
लिनबाबा, आप जा नहीं सकते।
और स्कैंडल छपते रहते हैं।
फिर थोड़े दिनों में सब कुछ भूल जाते हैं।
हाँ, जानता हूँ, लेकिन रिस्क नहीं ले सकता।
तो अपने दोस्तों से कहो न?
या रिश्वत दे दो न ताकि ख़बर न छपे।
लेकिन अगर उसने उन्हें भी झूठ बोला जैसे हमें बोला तो?
तो फिर अब्दुल्ला को बोलकर उसे मरवा दो! अगर वे किसी को आपके लिए मार न सकें?
और आपको ज़रूरत है। यही तो दोस्ती है।
क्या सच में?
सिर्फ़ थोड़ा… नहीं, नहीं, नहीं… ऐसा नहीं है।
सॉरी। सॉरी।
ऐसा तो कहना भी नहीं चाहिए।
आपको बहुत मिस करूँगा, लिनबाबा।
आप ही रख लीजिए।
थैंक यू! कहाँ चली गई थी?
टहलने गई थी।
मुझे फ़िक्र हो रही थी।
तुम्हें हमेशा होती है। अब मैं आ गई हूँ न?
देखो कितनी अच्छी स्मेल है?
बैठो।
मुझे पता ही नहीं था सुबह कैसी दिखती है।
नशे में खड़ी तक नहीं हो पाती थी मैं।
अब सब अलग दिखता है, रोशनी भी।
अब तो सारी दुनिया ही अलग दिखती है।
जल्द ही यहाँ से निकलने के लिए काफ़ी पैसे होंगे।
सिर्फ़ मैं और तुम।
कहाँ लेकर जाओगे?
जहाँ भी तुम चाहो।
नहीं, तुम तय करो।
अभी।
क्यों न हम स्पेन चलें?
जहाँ से तुम |
हो।
तुम्हारे आठ भाईबहनों से मिलूँगी।
वहाँ का खाना खाऊँगी, मेड्रिड घूमूँगी।
हाँ, वहाँ तुम्हें बहुत अच्छा लगेगा, लीसा।
सच में?
और वो तुम्हें पसंद करेंगे।
और शायद वहाँ से निकलते वक़्त चुराया हुआ पैसा भी लौटा सकूँ।
फिर वो मुझे देखकर भी ख़ुश होंगे।
कहाँ से मिलने लगी है?
उसे मत बोलना मैंने बताया है।
मैडम ज़ू।
यह क्या बोल रहे हो?
वह ख़तरनाक है, सेबेस्टियन। बिल्कुल पागल।
तुम्हें नहीं पता मैंने वहाँ क्या देखा और क्या सुना।
यह सब बंद करो।
नहीं, नहीं।
नहीं, नहीं, नहीं। लीसा, सब ठीक है।
कोई नहीं जानता।
यह उसका और मौरीज़ियो का सिरदर्द है, उनका मामला है।
लीसा, मेरी तरफ़ देखो। लीसा।
कोई भी तुम्हें नहीं छुएगा, वादा करता हूँ।
फिर इतना पैसा होगा कि हम ग़ायब, तर्मिनादा।
प्रॉमिस करता हूँ।
मैं ले रहा हूँ। फर्नीचर यहीं छोड़ दो।
उसका भी किराया दे दूँगा।
हैलो, गौरव, मेरे साथ भी तीन पत्ती खेल लो।
क्या चाहिए तुम्हें? मेरे पैसे?
मुझे तो मिनिस्टर पांडे का शेड्यूल चाहिए।
क्या?
फैमिली अच्छी है, गौरव।
उन्हें कुछ हो, यह तो कभी नहीं चाहोगे न?
ए, प्रभु। बात सुन।
हाँ, काकी।
पूरा टाइम दवाखाने में बैठी रहती है।
लिनबाबा को मदद करने के लिए।
तू सुन।
बोल दे और पार्वती को वापस हमारे पास लेकर आ।
काकी?
तुझे उसका हाथ चाहिए कि नहीं?
बोल।
बस आप एक बार वहाँ जाकर देखिए न।
कितनी ख़ुशी मिलती है।
नहीं, काकी, मुझसे यह सब करने के लिए मत बोलिए।
नहीं।
हम यह उनके आशीर्वाद के बिना भी कर सकते हैं।
तुझे मेरा हाथ चाहिए न?
तेरा हाथ, पैर, तेरा पूरा बॉडी चाहिए।
मुझे पूरे दस किलो चाहिए।
दस किलो?
महीने में एक बार। कोई दिक्कत है क्या?
यह आदमी एक दिन नाइजीरिया पर राज करेगा।
मेरा सप्लायर ख़ुशीख़ुशी माल पहुँचा देगा, ओके?
दो लाख डॉलर।
…पूरे दो लाख डॉलर।
और दो लाख डॉलर बाद में, ओके?
मुझे मंज़ूर है।
ओके।
ओके। सालुत।
क्या मैं यहाँ से चली जाऊँ?
नहीं।
रात अभी जवान है।
हमेशा की तरह पटाखा लग रही हो।
तुम्हारे लिए कमाल कर देगा, जान।
सुनो, दोस्तों, सब यहाँ आ जाओ।
शैम्पेन पीते हैं।
सेलिब्रेट करते हैं। आ जाओ, आ जाओ।
चलो, यहाँ शैम्पेन भेजो, जल्दी! कुछ ज़्यादा ही नहीं उछल रहा?
मौरीज़ियो के पास इतने पैसे कहाँ से आ रहे हैं?
और धंधा काफ़ी फलफूल रहा है।
कैसे जानते हो?
एक्चुअली, उसने मुझे बताया था ताकि मैं उसे बिज़नेस दूँ।
कि अब वह एक बड़ा आदमी बन गया है।
मैं तो नहीं उठा सकता।
मैं अभी एक मिनट में आती हूँ।
तुम।
ओह, कार्ला, बैला, प्लीज़ हमारे साथ बैठो।
शैम्पेन पियोगी?
दरअसल, मैं लीसा से बात करना चाहती हूँ।
तुम ज़रा यहाँ आओगी?
बिल्कुल। वैसे भी मुझे गाना बदलना ही था।
सुनो। रोलिंग स्टोन्स लगा दो, हँ?
इसकी क्या कहानी है? अभी भी धंधा करती है क्या?
जो चाहोगे वह हो जाएगा, रहीम।
ओके।
तो मैं सौदे में एक शर्त डाल दूँ।
दस किलो हर महीने, चार लाख, मामला सेट।
कोई दिक्कत नहीं।
लेकिन मुझे एक रात के लिए वह चाहिए।
बैठ सकता हूँ न?
वह क्या है न, अभी चारा डाला जा रह |
ा है।
शिकारी कौन है?
ख़ैर, यह तो वक़्त ही बताएगा।
इस वक़्त तो, तनकर बैठो। कोई स्माइल नहीं।
अपने हाथों को बाँध लो।
लगना नहीं चाहिए मेरी किसी के साथ सेटिंग है।
काफ़ी सीरियस दिख रहे हो, मोन आमी?
मुझे पता है मौरीज़ियो क्या बेच रहा है।
खादर जानता है?
अगर जानता, तो यह सब नहीं हो रहा होता।
तुम बताओगी उसे?
मैं तो नहीं बताऊँगी।
लेकिन उसे पता चल जाएगा, लीसा।
मौरीज़ियो पर तो अमीर बनने का भूत सवार है।
वह तो इसे छुपाने की सोच भी नहीं रहा।
तुमसे उलट।
मेरे अलावा कोई जानता है तुम खादर के लिए काम करती हो?
धमकी दे रही हो?
सिर्फ़ सवाल है।
शायद डीडीयेर जानता है।
लेकिन वह मानेगा नहीं।
तब से सब कुछ बदलने लगा है।
उन्हें तो नहीं बताया?
नहीं।
तुम मेरा राज़ रखना, मैं तुम्हारा।
जिसे छुपाने में दर्द न हो।
यह राज़ हम दोनों को मरवा सकता है।
वादा करो तुम चौकन्नी रहोगी।
अगर कुछ भी चाहिए, तो सीधे मेरे पास आना।
कि मुझे तुमसे प्यार नहीं है।
फिर भी ध्यान रखने के लिए शुक्रिया।
लव यू।
पासपोर्ट दिला सकता हो या नहीं?
इस बारे में पहले भी हमारी बात शायद हो चुकी है, है न?
असली पासपोर्ट के हज़ार डॉलर लगते हैं।
और ढंग के फ़ोटोग्राफ्स।
पैसे में कुछ गुंजाईश हो सकती है?
मोलभाव नहीं होता।
अरे, यार।
यह बॉम्बे है। यहाँ हर चीज़ पर मोलभाव होता है।
यह फलसब्ज़ी नहीं है।
फिर भी कुछ तो कम करो, डीडीयेर।
सोच ही रही थी कि तुम कब आओगे।
पहले मेरे काउच पर सोए। अब मेरी सीट छीन ली।
तो माफ़ करने के बारे में सोच सकती हूँ।
लेकिन बाकी बातों में दमदार है यह।
देखो, यह सही वक़्त नहीं है।
हम कुछ बात कर रहे हैं।
तो फिर मुझे चलना चाहिए।
लड़की के साथ ऐसा रवैया।
कार्ला।
कार्ला, मेरी बात सुनो।
हद है, यार। एक मिनट रुको।
अरे, यार, मैं कुछ काम कर रहा था।
|
और वैसे भी, तुम्हें धंधे के रूल्स तो पता होने चाहिए।
बेइज़्ज़ती करने आए हो।
बहुत बढ़िया।
तुम मुझसे नाराज़ हो। समझ गई।
नाराज़ नहीं हूँ तुमसे।
देखो, कल मैं तुम्हारे घर के पास आ रहा हूँ।
क्या हम मिल सकते हैं? दो बजे के करीब?
मैं तुम्हें कुछ बताना चाहता हूँ।
प्लीज़?
चाहती हो मैं भीख माँगूँ?
ठीक है।
अरे, प्लीज़ बस करो।
प्लीज़? प्लीज़?
लिन, ठीक है। ओके। फ़ाइन।
ठीक है।
कल घर आ जाना।
मैं लंच बनाऊँगी।
ठीक है। तो डेट फ़िक्स।
पहले ही कह दूँ, यह डेट नहीं है।
तो कल दो बजे।
लग तो डेट ही रही है।
नहीं! मार दूँगा तुमको! रुक जाओ! नहीं।
बचाओ! प्लीज़! दूसरे आदमी के लवर के साथ पकड़े गए।
शर्मनाक है और ख़तरनाक भी।
चल जल्दी से अपना जुर्म कबूल कर।
कौन सा जुर्म?
होमोसेक्सुअलिटी।
नहीं।
बड़ा जुर्म है।
पर अब तो अच्छे से पता चल गया होगा।
कि दोबारा यह कर ही नहीं पाओगे, हँ?
नहीं, नहीं।
नहीं! तुझे तो बहुत पैसा देना पड़ेगा।
मैं प्रभु का शुक्रगुज़ार था।
इस जगह पर वही मेरा एक सच्चा दोस्त था।
कि मुझे उससे प्यार है।
मज़ा आ रहा है, लिनबाबा।
तो छोड़ दो। चलाने के लिए किसने बोला।
नहीं, ग़लत बोल दिया। इतना भी मज़ा नहीं आ रहा था।
लेकिन एक बढ़िया आइडिया आया है।
ओके।
झक्कास आइडिया।
अहहँ।
…इस बाइक की मुझे ज़रूरत है।
तुम्हें थोड़ी और प्रैक्टिस करनी चाहिए।
वैसे जानना तो चाहते होंगे न कि वह सीक्रेट काम क्या है?
चाहे कुछ भी हो जाए, लेकिन मैं नहीं बताऊँगा।
तो शायद मुझे बिना जाने ही जीना होगा।
चलो। हमें कहीं पहुँचना है।
बैठो न, मैं चलाता हूँ।
नहीं, मुझे ज़िंदा पहुँचना है।
आपको मेरी मदद चाहिए, है न?
और मुझे प्रैक्टिस चाहिए।
बैठो।
कि उसकी हर बात मान ली जाए।
अरे! लिन! क्या कर रहे हो, यार, आप?
अच्छी कमाई हो गई, बॉस?
पर इतना काफ़ी नहीं है।
हमें यह बाइक बेचनी होगी।
क्या बात कर रहे हो?
नहीं, यह बहुत ही रद्दी प्लान है, लिनबाबा।
ना, ना, ना, ना, ना। मैं नहीं करूँगा। बिल्कुल नहीं।
सात।
हैं?
सात।
ए, गधे।
पागल हो गया है क्या? चूतिया समझा है क्या?
और इन जैसे लोग मैयत पर सिर्फ़ खाना खाने के लिए जाते हैं।
नहीं होगा। समझे? फ़ाइनल ऑफ़र। वापस नहीं आऊँगा मैं।
कितना बड़ा चिंदी चोर है। समझे? साले, हट! नहीं बेचनी।
क्या कर रहे हो?
यह मामला उसूल का है, लिनबाबा।
मैं सौदा नहीं करूँगा।
अगर किया न, तो शर्म से ही मर जाऊँगा।
लेकिन मुझे पैसा चाहिए।
सात?
बहुत मज़ा आया न? हँस, हँस।
उसके सामने मुझे बेइज़्ज़त कर दिया?
ओके, थैंक यू। शुक्रिया।
थैंक यू। नमस्ते।
कैसे हो?
कैसे हो, विक्रम?
अरे, ग्रेट, यार।
तुमने अभी वह आदमी देखे?
मैनेजर थे।
शशि कपूर के। नया स्टंट डबल ढूँढ रहे थे।
किसी को बोलना मत, समझे?
बेफ़िक्र रहो।
वह भी जूडो साइड फॉल करते वक़्त।
अब सभी तो टैलेंटेड नहीं होते न?
लिन, डीडीयेर का कॉल है।
अभी आया।
तुम कहाँ हो, डीडीयेर?
मुझे गिरफ़्तार कर लिया गया है।
किसलिए?
मेरी ही ग़लती थी।
अगर तुम्हें अपने डाक्यूमेंट्स चाहिए, तो मुझे यहाँ से निकालो। |
मैं पुलिस से पंगा नहीं लेना चाहता, डीडीयेर।
प्लीज़, प्लीज़, मना मत करना, यार।
उन्होंने मारा तुम्हें?
हाँ।
और वो रुकेंगे नहीं, लगता है।
मैं मुसीबत में हूँ, लिन। बस मुझे तुम्हारी मदद चाहिए।
हरामखोर साले।
डीडीयेर हवालात में है।
पुलिसवाले छोड़ने का पैसा माँग रहे हैं।
साले हरामखोर।
लालची बहनचोद।
मन तो करता है उनका गला घोंट दूँ मैं।
सब के सब रिश्वतखोर हैं साले।
तो तुम उन्हें हैंडल करना जानते हो?
मतलब तुम्हारा उनसे पाला पड़ा है?
बहुत बार। इन हरामियों के साथ सख़्त होना पड़ता है।
मुझे दिखा सकते हो यह सब कैसे करते हैं?
नेकी और पूछपूछ, मेरे दोस्त।
कार्ला मार डालेगी मुझे।
डीडीयेर तो ऐसी जगह नहीं आता।
जगह से इंसान की परख मत करो।
बिल्कुल।
आह, आराम से।
ओके। सॉरी।
बोल रहा था पैसे यहाँ हैं।
माँ की आँख।
तो कितना ले चलें?
नहीं तो उसकी जगह मैं जेल चला जाऊँगा।
पाँच ले चलते हैं।
आओ चलें।
तुम लेट हो। अंदर आ जाओ।
तुम यहाँ कैसे?
ख़बर लाया हूँ।
ओह, बहुत बढ़िया। सच में कमाल है।
किसी और का इंतज़ार था?
लगता नहीं वह अब आएँगे।
तुम्हें धोखा दे दिया? बहादुर है। या बेवकूफ़।
क्या ख़बर लाए हो?
इतनी सारी किताबें?
इन्हें पढ़ने का वक़्त कैसे निकालती हो?
पांडे जी को प्यार हो गया है।
बड़ी मुस्कान, झील सी आँखें, सब कुछ बढ़िया ही बढ़िया।
सुनीता नाम है, पर वह उसकी बीवी नहीं है।
अंदर जाऊँ?
खंडाला के एक गेस्ट हाउस में नक़ली नाम से रुके हैं।
वाह, बढ़िया। अभी भी यहीं है।
मुझे यह पसंद थी। हमेशा लकी लगती थी।
मेरा सामान संभालकर रखा है?
तुम कभी लेने वापस आए ही नहीं।
और सब पहले जैसा हो जाएगा?
ज़िंदा हो कि भी नहीं, या पुलिस वाले कब मुझ तक पहुँचेंगे?
नहीं।
आशिक से ज़्यादा तुम मेरे लिए भाई ही ठीक हो।
तुम जैसी बहन होना फ़ख़्र की ब |
ात है।
और मेरा दूसरा भाई, लिन?
न वह मेरा भाई है, न मेरा आशिक।
ओह, वह तुम्हें बहुत चाहता है। मुझे बोला था।
वह बहुत बात करता है।
वैसे भी, मुझे नहीं लगता इसमें सच्चाई है।
मतलब लिन ने तुम्हें धोखा दिया?
क्या हमें लिन से दूर रहने का हुक़्म नहीं है?
हुक़्म के मुताबिक चलने में मज़ा कहाँ है?
लीसा को क्या हुआ?
मुझे तुम्हें कुछ बताना है, लेकिन खादर को मत बताना।
क्योंकि ऐसा मैंने लीसा से वादा किया है।
लेकिन मुझे उसकी फ़िक्र है।
मौरीज़ियो बेलकैने हेरोइन बेच रहा है।
ज़ोरशोर से।
लेकिन लीसा को कुछ नहीं होना चाहिए।
मौरीज़ियो एक नंबर का बेवकूफ़ है।
लीसा को दिख क्यों नहीं रहा?
मैं देख लूँगा।
खादर को जानने की ज़रूरत नहीं है।
थैंक यू।
हेरोइन, सरकारी करप्शन, ब्लैकमेल।
एक वक़्त था तुम्हें मेरे जैसे मुजरिम पसंद ही नहीं थे।
और अब देखो।
तुम तो इतना खाओगी नहीं न?
मज़ा आ गया।
बिल्कुल तन कर चलना।
एकदम शांत।
पर बातचीत मुझ पर छोड़ देना।
हाँ, ठीक है।
अच्छा, सुनो, क्या मेरा अंदर आना ज़रूरी है?
और एम्बेसी के चक्कर में गोरों से पंगा नहीं लेते।
तुम साथ रहोगे तो मेरी बात का वज़न बढ़ जाएगा।
लिन, तुम ठीक तो हो?
हाँ, हाँ। चलो।
हम डीडीयेर लीवी के लिए आए हैं।
पर वह यहाँ पर क्यों होगा?
अरे, यार। वक़्त बर्बाद मत करो।
तुम मेरी फ़ैमिली को जानते हो?
आई एम सॉरी। नहीं जानता।
जानते हो। लेकिन अभी पता नहीं है।
मेरे अंकल को तो जानते ही होगे, रोहित खन्ना को?
पूरे बॉम्बे में हर फ़ोन उन्होंने ही बेचा है।
उन्होंने ही लगवाए हैं।
यह वाला फ़ोन, उन्होंने ही बेचा है।
और हर पुलिस स्टेशन का, हर फ़ोन।
हाँ, बिल्कुल।
उन्हें कौन नहीं जानता?
खन्ना फ़ैमिली बहुत मशहूर है।
नए टेलीफ़ोन क्लब को खोलने के लिए।
वह भी यूरोप में, हँ?
आदमी चूहा बन सकता है, और एक चूहा आदमी, समझ गए न?
हाँ, हाँ, बिल्कुल, बिल्कुल।
उसका मुझे बहुत अफ़सोस है।
कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए।
चार हज़ार डॉलर, वरना यह होमो यहीं रहेगा।
वह आपका दोस्त है न, हम्म?
या दोस्त से भी ज़्यादा?
क्या आप भी इसी तरह के जुर्म में शामिल हैं?
यह क्या बात कर रहे हैं आप?
होमोसेक्सुअलिटी यहाँ बहुत बड़ा जुर्म है, सर।
और वह भी दूसरे आदमी के लवर के साथ।
तो क्या उन्हें भी गिरफ़्तार किया है?
लिन, मुझे बात करने दो।
चार हज़ार? दिमाग़ ख़राब है क्या?
चार हज़ार में मैं बीस लौंडे खड़े कर सकता हूँ।
बात करता है। दो दे सकता हूँ।
दो तो सिर्फ़ जुर्म के लिए है।
फिर वह फॉरेनर है। उसका एक।
और इस गोरे दोस्त की वजह से।
उसकी गोटियों से बांधकर टेलीफ़ोनटेलीफ़ोन खेलेंगे।
ओके, कहाँ है वह?
हमें उससे मिलना है।
बिल्कुल सही।
हमें नहीं पता वह किस हाल में है।
हो सकता है तुमने उसे पहले ही मार दिया हो।
हो सकता है उसकी लाश को अब कुत्ते नोच रहे हों।
महसूस हो रहा था। और जिसे निगलना मुश्किल था।
इनकी तो माँ का?
जो माँग रहा है, देके ख़त्म करते हैं।
सॉरी मैं लेट हो गया।
देखना, यह फ़िल्म ना तेरे को बहुत पसंद आएगी।
ख़ास करके ल |
ास्ट वाला फ़ाइट सीन।
तेरे लिए एक सरप्राइज़ है।
सच्ची?
हम ऊपर जा रहे हैं! यह तो बहुत महँगी है लेकिन।
तेरे लिए एकदम परफ़ेक्ट है।
देखा?
तो चार हज़ार डॉलर कुछ भी नहीं होते।
दोस्त को आर्थर रोड वाली जेल में सड़ना पड़े।
तुम एक असली हीरो हो।
अरे।
यहाँ आओ! सभी यहाँ आओ।
कुछ और भी बोलो।
मुझे बॉम्बे बेहद पसंद है।
शाबाश! गोरा मराठी बोलता है! बोलते रहो।
मेरा देश न्यूज़ीलैंड है।
मैं यहाँ कोलाबा में रहता हूँ।
तू! यह मादरचोद यहाँ क्या कर रहा है?
क्या हुआ?
इसी गोरे ने मेरी गोटियों में लात मारी थी।
आपको पैसा मिल गया है। अब हमें यहाँ से निकलना है।
यह कहीं नहीं जाएगा।
अगर इसे कुछ बोला तो सौदा ख़त्म।
सौदा हो चुका है।
अपने दोस्त को लेके दफ़ा हो जाओ। यह दूसरा मामला है।
इस साले को तो ऐसा तोड़ूँगा न! तू हिरासत में है, समझा?
मेरे ऑर्डर्स मानोगे के नहीं?
वरना पूरी ज़िंदगी नाइट पेट्रोलिंग करते रहोगे।
मारपीट से कुछ फायदा होने वाला है क्या, हँ?
मुँह बंद रख और थोड़ा पैसा कमा।
प्रॉब्लम ज़्यादा होती है।
और दो ताकि यह अंदर न जाए।
पूरे छह हज़ार।
सिर्फ़ पाँच देंगे।
विक्रम, रहने दो।
सुनिए। यहाँ आइए।
देखिए, मेरे पास इतना ही है।
और यह पूरे दो हज़ार ही हैं।
तुम वह ले सकते हो।
तुझसे तो जल्द ही मुलाकात होगी, चूतिए।
तब। तब तेरी गोटियाँ फोड़ूँगा।
और कुछ लाऊँ?
पानी?
एसी वगैरह ठीक है न?
सब बढ़िया।
हाँ, बच्चन साब! बोल देना उस हरामज़ादे को! थैंक यू। थैंक यू।
आराम से।
तुम दोनों का शुक्रिया।
इसलिए तुम्हारा ज़्यादा वक़्त नहीं लूँगा।
मैं तुम्हें ऐसे अकेले नहीं छोड़ सकता।
मुझे अपने पैर दिखाओ।
तुम जाओ। अब मैं संभाल लूँगा।
इतना क्या ज़रूरी काम था?
और क्या ज़रूरी हो सकता है?
हाँ, हाँ। ठीक है। अब बोलोगे भी?
निकलवाने के लिए बोला है।
|
मुझे बताए बिना? यह मेरी स्टोरी है।
अरे, बिना ठोस सबूत के मैं बताता भी तो क्या?
मैंने तो सोचा तुम ख़ुश होगी।
पर तुम तो उल्टा नाराज़ हो गई।
ठीक है, थैंक यू।
यह मत सोचना कि तुम्हारे साथ सोने वाली हूँ।
आह। परफ़ेक्ट। थैंक यू। ग्रात्ज़ी।
बोतल यहीं रख दो। थैंक यू।
कुछ सेलेब्रेट कर रहे हैं?
शायद। पर यह तुम पर डिपेंड करता है।
मुझे तुमसे एक काम है।
मतलब, हम दोनों को तुमसे काम है।
तो रहीम के साथ डील लंबी चलेगी।
सबको अपनाअपना काम करना है।
तो उसके साथ सोना होगा?
नहीं, वह ऐसा चाहता है।
उसकी नज़र तुम पर है, तुम यह बात जानती हो।
अगर तुम चाहो तो, मना कर दो।
ऐसा कर सकती हूँ?
इस काम के मुझे पैसे मिलते थे।
अगर मैं मान जाऊँ तो मुझे कितना मिलेगा?
तुम्हारी देखभाल करेंगे, हमेशा की तरह।
तुम बस कीमत बोलो।
एक हज़ार।
दस।
ठीक है। दस।
परसेंट।
जैसा तुम कहो।
ओके।
बच्चन साब! ए! ओय, बच्चन साब! अरे, बच्चन साब! आ, पार्वती, तू भी मेरे साथ नाच! पार्वती?
पार्वती! क्या हुआ, पार्वती?
अरे, कोई डॉक्टर को बुलाओ, यार! मैं इस सदमे को समझ रहा था।
जो वर्दी वाले क़ानून को लागू करने के नाम पर कर रहे थे।
बल्कि बेबसी और अकेलेपन के एहसास का था।
मैंने फ़ैसला कर लिया था कि मैं वापस नहीं जाऊँगा।
लेकिन मुझे अभी और इंतज़ार करना था।
मुझे नहीं पता मेरे पास कितना वक़्त बचा था।
बताने में भी शर्म आ रही है।
लेकिन हुआ क्या था?
तो उसका लवर वहाँ आ गया।
बस फ़ॉरेस्ट ग्रम्प की तरह भागा।
और मेरी सेवा भी कर रहे हो।
हाँ, कमीनों ने तुम्हारी हालत ख़राब कर दी।
उन्हें गेज़ पसंद नहीं हैं।
लेकिन, उन्होंने सिर्फ़ तुम्हें क्यों पकड़ा?
वह लोकल, मैं फॉरेनर।
उसने मुझे पिटवाने के पैसे दिए होंगे।
मगर तुमने मुझे छुड़वा लिया, उससे ज़्यादा पैसे देकर।
अब भूल जाओ।
अब तुम घर पर हो।
यह तुम्हारा बोर्सलीनो टेस्ट था।
और अब शायद तुम रिंग में से निकल गए हो।
तो शायद मैं मर चुका होता।
क्या बक रहे हो?
मैं फिर भी आता, डीडीयेर।
मुमकिन है कि तुम आते।
लेकिन तुम्हारी जगह मैं होता, तो बिल्कुल नहीं आता।
उतने ही अंदर से कमीने हो।
अपना मतलब निकाल सकता है।
तुम मेरे दोस्त हो।
भले ही तुम मानो या न मानो।
जो तुम्हारा कर्ज़दार है।
चलो तुम्हारे पासपोर्ट की बात करते हैं।
हाँ, लेकिन इसमें थोड़ी सी दिक्कत है।
लेकिन पुलिसवालों ने तुम्हारे पैसों के साथ मेरे भी ले लिए।
ठीक है, मैं संभाल लूँगा। इतना तो कर ही सकता हूँ।
तुम फ़ोटोग्राफ़्स लेकर आए हो?
इसलिए बना रहे हो क्योंकि तुम्हें बॉम्बे छोड़ना है?
क्या एक दोस्त के नाते पूछ सकता हूँ, अचानक क्या हुआ?
कविता मेरे बारे में जानकारी इकट्ठी कर रही है।
यह रेनाल्डोज़ में मेरे ही बकबक करने का नतीजा है।
कविता अच्छी लड़की है।
मगर हाँ, वह अपने आपको साबित करने के लिए बेताब है।
यह दो दिन में तैयार हो जाएगा।
वादा करता हूँ।
थैंक यू।
पर थैंक्स तो मुझे तुमसे कहना चाहिए।
दिल से।
तुम्हें मिस करूँगा, लिन।
मैं भी।
दोस्ती के नाम।
चिंता मत करो, पारो, हँ |
। देखो घर आ गया।
बस थोड़ी देर और, हँ?
काकी! मुझे माफ़ कर दीजिए! यह सब मेरी ग़लती है। पार्वती को कुछ मत कहना।
वह तेरा गोरा डॉक्टर किधर है?
जब उसकी ज़रूरत है, तब किधर है वह?
जा ढूँढ उसको! इतने लोग बीमार हैं, और उसका कोई अतापता नहीं है।
डॉ. लिन कहाँ हैं? मेरा पूरा परिवार बीमार है! मेरा भी! हमें लगा डॉ. लिन तुम्हारे साथ थे! कहाँ हैं डॉक्टर लिन? हमें उनकी अभी ज़रूरत है। प्रभु! इधर आओ।
हथकड़ी उतारो।
थैंक यू।
कैसे हो, डेल?
बैठो, बैठो। तुम्हें कोई नहीं छुएगा।
तो, मैं एक नतीजे पर पहुँचा हूँ…
…कि तुम मर जाओगे लेकिन मुँह नहीं खोलोगे।
है न?
जैसे कि वह कुछ मंक्स, अपनी बात साबित करने के लिए
ख़ुद को ही जला लेते हैं।
और तुम्हारे जैसे स्मार्ट लौंडों की प्रॉब्लम यही है।
किताबें बहुत पढ़ते हो।
हाँ, मेरा तो यही मानना है।
तो मुद्दे की बात यही है कि
मार से तुम मुँह नहीं खोलोगे।
ले आओ!
शुक्रिया, दोस्त।
एक मेरे लिए और एक मेरे अच्छे दोस्त के लिए।
बहुत बढ़िया। ले लो।
पीयो, डेल।
तुम्हारी जीत के नाम।
थैंक यू।
तुम मुझे मरवाना चाहते हो।
हाँ, क्योंकि इस जेल में जितने भी साले हरामखोर हैं,
ठरकी, रेपिस्ट, बच्चेबाज़, उन्हें कुत्तों से नफ़रत है।
यहाँ, झूठे, कहानी बनाने वाले गद्दार कुत्ते मारे जाते हैं।
मरना चाहते हो, दिल में राज़ छुपाकर?
क्या साबित करोगे, स्मार्ट बॉय?
वफ़ादारी?
बिल्कुल नहीं।
यह क़त्ल होगा।
जिसका भार तुम्हारी रूह पर होगा।
ख़ुद को शहीद कहलवाना चाहते हो?
मुझे ऐसी चीज़ों से कोई फ़र्क नहीं पड़ता, डेल।
यही करते मेरी उम्र बीत गई। मर्ज़ी तुम्हारी है।
मुझे बता दो ऑफिसर फ़्लोरिस को किसने मारा।
मैं तुम्हें किसी महफूज़ जगह भिजवा दूँगा।
नहीं तो, यहीं मौत का इंतज़ार करो।
दोनों सूरत में, तुम मेरे कुत्ते हो।
प |
ी लो नहीं तो गर्म हो जाएगी।
कुत्ते!
कुत्ते की मौत मरेगा तू।
शांताराम
प्लान तो याद है न?
कोई भी बेकार की बात बिल्कुल मत करना।
मैंने चाय मँगवाई है।
आने के लिए शुक्रिया। कविता, इससे मिलो।
यह मेरा दोस्त है, प्रभु।
जब मेरे पास कोई जगह नहीं थी,
तो यही मुझे सागर वाडा ले गया था।
और बिज़नेस पार्टनर भी हूँ।
मेडिकल बिज़नेस?
टूरिस्ट बिज़नेस।
दोनों का धंधा सॉलिड चल रहा है।
लिन गोरों में बहुत मशहूर है…
प्रभु, यह है कविता, जर्नलिस्ट जिसका ज़िक्र किया था।
मुझे तुमसे माफ़ी माँगनी चाहिए।
उस वक़्त मैं बहुत परेशान था और…
नहीं। मैंने कुछ ज़्यादा ही कर दिया।
भूल जाओ उस बात को।
मुझे बस समझ नहीं आ रहा
तुम यह कहानी छपवाने के ख़िलाफ़ क्यों हो।
नहीं, ख़िलाफ़ नहीं। कुछ वक़्त पहले मेरा भी यही ख़याल था।
इसलिए मैं प्रभु को ले आया हूँ, ताकि यह तुम्हें समझा सके।
कविता मैम, लिन पर आप जो स्टोरी बना रही हो,
हमें बहुत परेशानी हो जाएगी।
हमें?
सागर वाडा के लोग।
"हम" लोगों की तो वैल्यू ही नहीं है।
और जितनी देर तक हम लोगों पर कोई
ध्यान नहीं देगा,
तब तक तो हमारी ज़िंदगी अच्छे से चलती रहेगी,
हमें कोई परेशानी नहीं होगी।
या मैं यह कहानी छापूँ जिससे तुम्हें कोई छू भी न पाए।
कविता मैम, एक बात पूछूँ,
आप बॉम्बे में कब से रह रही हैं?
जन्म से ही।
फिर तो आपको मेरी बात समझ में आ जानी चाहिए, है न?
नहीं, क्योंकि लोग कुछ दिन शोर मचाएँगे,
और फिर भूल जाएँगे।
फिर वो बुलडोज़र लेकर आ जाएँगे या वो पुलिस को लाएँगे…
हाँ, ठीक है, समझ गई।
कि यह शहर गरीबी से नहीं, गरीबों से लड़ता है।
लेकिन इसीलिए तो मैं यह छापना चाहती हूँ,
ताकि बदलाव आए।
और मेरा कहना यह है, हमारे पास जो भी है,
वह बहुत मुश्किल से मिला है।
सागर वाडा को कोई बदलाव नहीं चाहिए।
प्लीज़, कविता मैम।
कोई कहानी नहीं लिनबाबा पर।
देखो, मुझे इनके हिसाब से चलना होगा,
नहीं तो ये मुझे निकाल देंगे।
ठीक है।
नहीं छापूँगी आर्टिकल।
और भी कहानियाँ मिल जाएँगी मुझे।
बस तुम… वादा करो कि डॉक्टरी नहीं छोड़ोगे।
और अगर एम्बुलेंस के लिए मेरी मदद चाहिए, तो बता देना।
थैंक यू, कविता मैम। यह तो बहुत ही अच्छी बात है।
सब लोग बहुत ख़ुश होंगे।
इट्स ओके।
थैंक यू वैरी मच, कविता।
क्या लगता है, काम हो गया?
बिल्कुल नहीं, लिनबाबा।
वह अमीर है और शुरू से बॉम्बे में है।
उसे झोपड़पट्टी की कोई परवाह नहीं है।
तभी तो आसानी से मान गई।
हाँ, मुझे भी यही लगता है।
फ़क।
मिल गई फ़ोटो।
रघु राय भी ऐसी नहीं ले पाता, यार।
तो? लिनसी फ़ोर्ड के बारे में उसने कुछ बताया कि नहीं?
मैंने उससे पूछा ही नहीं।
क्या? पर क्यों?
वह असल में कौन है, यह जानने में वक़्त लगेगा।
वह क्या छुपा रहा है।
उसे यह पता चल गया, तो वह भाग जाएगा,
और फिर कहानी भूल जाओ।
और इस तरह, वह कहीं भी नहीं जाएगा।
पोज़ दो।
वाओ। एक और।
और यह फ़ोटो कब तक मिल जाएगी?
बस दोचार दिन में।
सौ रुपए दूँ, तो कल मिल सकती है?
सौ रुपए में? कल चाहिए?
हो जाएगा।
इतने दिन तक तो आप |
को याद नहीं आया।
अचानक यह पासपोर्ट क्यों चाहिए?
क्योंकि मैं अख़बार में नहीं आना चाहता।
मुझे जाना होगा।
तुम्हें पता था।
लिनबाबा, आप जा नहीं सकते।
बॉम्बे में तो हर रोज़ ऐसी कहानियाँ
और स्कैंडल छपते रहते हैं।
लोग नाराज़ होते हैं और
फिर थोड़े दिनों में सब कुछ भूल जाते हैं।
हाँ, जानता हूँ, लेकिन रिस्क नहीं ले सकता।
तो अपने दोस्तों से कहो न?
डीडीयेर सर को या कार्ला मैडम को,
या रिश्वत दे दो न ताकि ख़बर न छपे।
लेकिन अगर उसने उन्हें भी झूठ बोला जैसे हमें बोला तो?
तो फिर अब्दुल्ला को बोलकर उसे मरवा दो!
ऐसे गुंडों से दोस्ती क्यों रखते हो,
अगर वे किसी को आपके लिए मार न सकें?
उन्हें मारना पसंद है
और आपको ज़रूरत है। यही तो दोस्ती है।
क्या सच में?
सिर्फ़ थोड़ा… नहीं, नहीं, नहीं… ऐसा नहीं है।
सॉरी। सॉरी।
ऐसा तो कहना भी नहीं चाहिए।
आपको बहुत मिस करूँगा, लिनबाबा।
आप ही रख लीजिए।
थैंक यू!
कहाँ चली गई थी?
टहलने गई थी।
मुझे फ़िक्र हो रही थी।
तुम्हें हमेशा होती है। अब मैं आ गई हूँ न?
देखो कितनी अच्छी स्मेल है?
बैठो।
चार बजे होटल रूम से निकलने के अलावा
मुझे पता ही नहीं था सुबह कैसी दिखती है।
नशे में खड़ी तक नहीं हो पाती थी मैं।
अब सब अलग दिखता है, रोशनी भी।
अब तो सारी दुनिया ही अलग दिखती है।
जल्द ही यहाँ से निकलने के लिए काफ़ी पैसे होंगे।
सिर्फ़ मैं और तुम।
कहाँ लेकर जाओगे?
जहाँ भी तुम चाहो।
नहीं, तुम तय करो।
अभी।
क्यों न हम स्पेन चलें?
जहाँ से तुम हो।
तुम्हारे आठ भाईबहनों से मिलूँगी।
वहाँ का खाना खाऊँगी, मेड्रिड घूमूँगी।
हाँ, वहाँ तुम्हें बहुत अच्छा लगेगा, लीसा।
सच में?
और वो तुम्हें पसंद करेंगे।
और शायद वहाँ से निकलते वक़्त चुराया हुआ पैसा भी लौटा सकूँ।
फिर वो मुझे देखकर भी ख़ुश होंगे।
मौरीज़ियो |
को अचानक इतनी हेरोइन
कहाँ से मिलने लगी है?
उसे मत बोलना मैंने बताया है।
मैडम ज़ू।
यह क्या बोल रहे हो?
वह ख़तरनाक है, सेबेस्टियन। बिल्कुल पागल।
तुम्हें नहीं पता मैंने वहाँ क्या देखा और क्या सुना।
यह सब बंद करो।
नहीं, नहीं।
नहीं, नहीं, नहीं। लीसा, सब ठीक है।
कोई नहीं जानता।
यह उसका और मौरीज़ियो का सिरदर्द है, उनका मामला है।
लीसा, मेरी तरफ़ देखो। लीसा।
कोई भी तुम्हें नहीं छुएगा, वादा करता हूँ।
बस कुछ और सौदे,
फिर इतना पैसा होगा कि हम ग़ायब, तर्मिनादा।
प्रॉमिस करता हूँ।
मैं ले रहा हूँ। फर्नीचर यहीं छोड़ दो।
उसका भी किराया दे दूँगा।
हैलो, गौरव, मेरे साथ भी तीन पत्ती खेल लो।
क्या चाहिए तुम्हें? मेरे पैसे?
मुझे तो मिनिस्टर पांडे का शेड्यूल चाहिए।
क्या?
फैमिली अच्छी है, गौरव।
उन्हें कुछ हो, यह तो कभी नहीं चाहोगे न?
ए, प्रभु। बात सुन।
हाँ, काकी।
क्या रे, तेरे वजह से वह पार्वती
पूरा टाइम दवाखाने में बैठी रहती है।
काकी, मैंने थोड़ी कहा उसको
लिनबाबा को मदद करने के लिए।
तू सुन।
अगर तुझे पार्वती का हाथ चाहिए…
और उसके लिए हमारा आशीर्वाद चाहिए, तो बस लिन को
बोल दे और पार्वती को वापस हमारे पास लेकर आ।
काकी?
तुझे उसका हाथ चाहिए कि नहीं?
बोल।
बस आप एक बार वहाँ जाकर देखिए न।
उसको बीमार लोगों की सेवा करने में
कितनी ख़ुशी मिलती है।
नहीं, काकी, मुझसे यह सब करने के लिए मत बोलिए।
नहीं।
हम यह उनके आशीर्वाद के बिना भी कर सकते हैं।
तुझे मेरा हाथ चाहिए न?
तेरा हाथ, पैर, तेरा पूरा बॉडी चाहिए।
मेरा मतलब वह नहीं है…
रेनाल्डोज़ कैफ़े
मुझे पूरे दस किलो चाहिए।
दस किलो?
महीने में एक बार। कोई दिक्कत है क्या?
पता है, जब मैं तुमसे मिला था, ओके,
मैंने मोडेना से कहा था कि
यह आदमी एक दिन नाइजीरिया पर राज करेगा।
मेरा सप्लायर ख़ुशीख़ुशी माल पहुँचा देगा, ओके?
हमेशा की तरह, आधा पहले, तो दस किलो का हुआ…
दो लाख डॉलर।
…पूरे दो लाख डॉलर।
और दो लाख डॉलर बाद में, ओके?
मुझे मंज़ूर है।
ओके।
ओके। सालुत।
क्या मैं यहाँ से चली जाऊँ?
नहीं।
रात अभी जवान है।
और तुम मेरी जान
हमेशा की तरह पटाखा लग रही हो।
शायद बिना कमिटमेंट के मज़ेदार और सिंपल सा सेक्स
तुम्हारे लिए कमाल कर देगा, जान।
सुनो, दोस्तों, सब यहाँ आ जाओ।
शैम्पेन पीते हैं।
सेलिब्रेट करते हैं। आ जाओ, आ जाओ।
चलो, यहाँ शैम्पेन भेजो, जल्दी!
कुछ ज़्यादा ही नहीं उछल रहा?
मौरीज़ियो के पास इतने पैसे कहाँ से आ रहे हैं?
हमारे दोस्त, मौरीज़ियो को
अफ़गानी हेरोइन का नया कनेक्शन मिला है
और धंधा काफ़ी फलफूल रहा है।
कैसे जानते हो?
एक्चुअली, उसने मुझे बताया था ताकि मैं उसे बिज़नेस दूँ।
शायद वह मुझे बताना चाहता था
कि अब वह एक बड़ा आदमी बन गया है।
मगर क्या है कि खादरभाई के इलाके में
हेरोइन बेचने का रिस्क
मैं तो नहीं उठा सकता।
मैं अभी एक मिनट में आती हूँ।
तुम।
ओह, कार्ला, बैला, प्लीज़ हमारे साथ बैठो।
शैम्पेन पियोगी?
दरअसल, मैं लीसा से बात करना चाहती हूँ।
तुम ज़रा यहाँ आओगी?
बिल्क |
ुल। वैसे भी मुझे गाना बदलना ही था।
सुनो। रोलिंग स्टोन्स लगा दो, हँ?
अच्छा, यह जो लीसा है,
इसकी क्या कहानी है? अभी भी धंधा करती है क्या?
नहीं, वह अब वो सब नहीं…
जो चाहोगे वह हो जाएगा, रहीम।
ओके।
तो मैं सौदे में एक शर्त डाल दूँ।
दस किलो हर महीने, चार लाख, मामला सेट।
कोई दिक्कत नहीं।
लेकिन मुझे एक रात के लिए वह चाहिए।
बैठ सकता हूँ न?
वह क्या है न, अभी चारा डाला जा रहा है।
शिकारी कौन है?
ख़ैर, यह तो वक़्त ही बताएगा।
इस वक़्त तो, तनकर बैठो। कोई स्माइल नहीं।
अपने हाथों को बाँध लो।
हाँ, थोड़ी जलन अच्छी है, लेकिन उसे
लगना नहीं चाहिए मेरी किसी के साथ सेटिंग है।
काफ़ी सीरियस दिख रहे हो, मोन आमी?
मुझे पता है मौरीज़ियो क्या बेच रहा है।
खादर जानता है?
अगर जानता, तो यह सब नहीं हो रहा होता।
तुम बताओगी उसे?
मैं तो नहीं बताऊँगी।
लेकिन उसे पता चल जाएगा, लीसा।
मौरीज़ियो पर तो अमीर बनने का भूत सवार है।
वह तो इसे छुपाने की सोच भी नहीं रहा।
तुमसे उलट।
मेरे अलावा कोई जानता है तुम खादर के लिए काम करती हो?
धमकी दे रही हो?
सिर्फ़ सवाल है।
शायद डीडीयेर जानता है।
लेकिन वह मानेगा नहीं।
जब से तुम खादर से मिली हो,
तब से सब कुछ बदलने लगा है।
उन्हें तो नहीं बताया?
नहीं।
तुम मेरा राज़ रखना, मैं तुम्हारा।
तुम ही ने तो कहा था कि वह राज़ ही क्या
जिसे छुपाने में दर्द न हो।
यह राज़ हम दोनों को मरवा सकता है।
वादा करो तुम चौकन्नी रहोगी।
अगर कुछ भी चाहिए, तो सीधे मेरे पास आना।
मैं चली गई, इसका मतलब यह नहीं
कि मुझे तुमसे प्यार नहीं है।
तुम तो यह कहोगी नहीं,
फिर भी ध्यान रखने के लिए शुक्रिया।
लव यू।
पासपोर्ट दिला सकता हो या नहीं?
इस बारे में पहले भी हमारी बात शायद हो चुकी है, है न?
असली पासपोर्ट के हज़ार डॉलर लगते हैं। |
कल दोपहर को एक बजे पैसे लेकर आ जाना
और ढंग के फ़ोटोग्राफ्स।
पैसे में कुछ गुंजाईश हो सकती है?
मोलभाव नहीं होता।
अरे, यार।
यह बॉम्बे है। यहाँ हर चीज़ पर मोलभाव होता है।
यह फलसब्ज़ी नहीं है।
फिर भी कुछ तो कम करो, डीडीयेर।
सोच ही रही थी कि तुम कब आओगे।
पहले मेरे काउच पर सोए। अब मेरी सीट छीन ली।
अगर मेरे लिए ड्रिंक ले आओ,
तो माफ़ करने के बारे में सोच सकती हूँ।
रिश्ता कैसे निभाएगा यह तो नहीं जानता,
लेकिन बाकी बातों में दमदार है यह।
देखो, यह सही वक़्त नहीं है।
हम कुछ बात कर रहे हैं।
तो फिर मुझे चलना चाहिए।
लड़की के साथ ऐसा रवैया।
कार्ला।
कार्ला, मेरी बात सुनो।
हद है, यार। एक मिनट रुको।
अरे, यार, मैं कुछ काम कर रहा था।
और वैसे भी, तुम्हें धंधे के रूल्स तो पता होने चाहिए।
मतलब अब माफ़ी माँगने की जगह,
बेइज़्ज़ती करने आए हो।
बहुत बढ़िया।
तुम मुझसे नाराज़ हो। समझ गई।
नाराज़ नहीं हूँ तुमसे।
देखो, कल मैं तुम्हारे घर के पास आ रहा हूँ।
क्या हम मिल सकते हैं? दो बजे के करीब?
मैं तुम्हें कुछ बताना चाहता हूँ।
प्लीज़?
चाहती हो मैं भीख माँगूँ?
ठीक है।
अरे, प्लीज़ बस करो।
प्लीज़? प्लीज़?
लिन, ठीक है। ओके। फ़ाइन।
ठीक है।
कल घर आ जाना।
मैं लंच बनाऊँगी।
ठीक है। तो डेट फ़िक्स।
पहले ही कह दूँ, यह डेट नहीं है।
तो कल दो बजे।
लग तो डेट ही रही है।
नहीं!
मार दूँगा तुमको! रुक जाओ!
नहीं।
बचाओ! प्लीज़!
दूसरे आदमी के लवर के साथ पकड़े गए।
शर्मनाक है और ख़तरनाक भी।
चल जल्दी से अपना जुर्म कबूल कर।
कौन सा जुर्म?
होमोसेक्सुअलिटी।
नहीं।
बड़ा जुर्म है।
शायद तुम्हें पता नहीं था,
पर अब तो अच्छे से पता चल गया होगा।
ऐसा इलाज कर देता हूँ
कि दोबारा यह कर ही नहीं पाओगे, हँ?
नहीं, नहीं।
नहीं!
तुझे तो बहुत पैसा देना पड़ेगा।
ज़िंदगी में दूसरा मौका देने के लिए
मैं प्रभु का शुक्रगुज़ार था।
इस जगह पर वही मेरा एक सच्चा दोस्त था।
उस दिन सागर वाडा से निकलने का प्लान बनाते हुए,
मैंने महसूस किया
कि मुझे उससे प्यार है।
कौन जाने मेरे साथ क्या बुरा होने वाला है
क्योंकि मुझे गैंगस्टर के दिए गिफ़्ट पर
मज़ा आ रहा है, लिनबाबा।
तो छोड़ दो। चलाने के लिए किसने बोला।
नहीं, ग़लत बोल दिया। इतना भी मज़ा नहीं आ रहा था।
लेकिन एक बढ़िया आइडिया आया है।
ओके।
झक्कास आइडिया।
आज रात, एक सीक्रेट काम के लिए…
अहहँ।
…इस बाइक की मुझे ज़रूरत है।
तुम्हें थोड़ी और प्रैक्टिस करनी चाहिए।
वैसे जानना तो चाहते होंगे न कि वह सीक्रेट काम क्या है?
चाहे कुछ भी हो जाए, लेकिन मैं नहीं बताऊँगा।
तो शायद मुझे बिना जाने ही जीना होगा।
चलो। हमें कहीं पहुँचना है।
बैठो न, मैं चलाता हूँ।
नहीं, मुझे ज़िंदा पहुँचना है।
आपको मेरी मदद चाहिए, है न?
और मुझे प्रैक्टिस चाहिए।
बैठो।
लेकिन प्यार करने का मतलब यह नहीं था
कि उसकी हर बात मान ली जाए।
अरे! लिन! क्या कर रहे हो, यार, आप?
ईरानी स्टार कैफ़े
मेनू
अच्छी कमाई हो गई, बॉस?
पर इतना काफ़ी नहीं है।
हमें यह बाइक बेचनी होगी।
क् |
या बात कर रहे हो?
नहीं, यह बहुत ही रद्दी प्लान है, लिनबाबा।
ना, ना, ना, ना, ना। मैं नहीं करूँगा। बिल्कुल नहीं।
सात।
हैं?
सात।
ए, गधे।
पागल हो गया है क्या? चूतिया समझा है क्या?
यह बेवकूफ़ कह रहा है सात से ज़्यादा नहीं
और इन जैसे लोग मैयत पर सिर्फ़ खाना खाने के लिए जाते हैं।
शर्म नहीं आती है क्या? नौ से एक पैसा नीचे
नहीं होगा। समझे? फ़ाइनल ऑफ़र। वापस नहीं आऊँगा मैं।
यहीं से चिल्लाकर सबको बता दूँगा
कितना बड़ा चिंदी चोर है। समझे? साले, हट!
नहीं बेचनी।
क्या कर रहे हो?
यह मामला उसूल का है, लिनबाबा।
मैं सौदा नहीं करूँगा।
अगर किया न, तो शर्म से ही मर जाऊँगा।
लेकिन मुझे पैसा चाहिए।
सात?
हाँ, हाँ, हँस ले। गोरे को लूटकर
बहुत मज़ा आया न? हँस, हँस।
उसके सामने मुझे बेइज़्ज़त कर दिया?
ओके, थैंक यू। शुक्रिया।
थैंक यू। नमस्ते।
कैसे हो?
कैसे हो, विक्रम?
अरे, ग्रेट, यार।
तुमने अभी वह आदमी देखे?
मैनेजर थे।
शशि कपूर के। नया स्टंट डबल ढूँढ रहे थे।
किसी को बोलना मत, समझे?
बेफ़िक्र रहो।
पहले वाला निकाल रहे हैं। उसका एक हाथ टूट गया,
वह भी जूडो साइड फॉल करते वक़्त।
अब सभी तो टैलेंटेड नहीं होते न?
लिन, डीडीयेर का कॉल है।
अभी आया।
तुम कहाँ हो, डीडीयेर?
मुझे गिरफ़्तार कर लिया गया है।
किसलिए?
मेरी ही ग़लती थी।
अगर तुम्हें अपने डाक्यूमेंट्स चाहिए, तो मुझे यहाँ से निकालो।
मैं पुलिस से पंगा नहीं लेना चाहता, डीडीयेर।
प्लीज़, प्लीज़, मना मत करना, यार।
उन्होंने मारा तुम्हें?
हाँ।
और वो रुकेंगे नहीं, लगता है।
मैं मुसीबत में हूँ, लिन। बस मुझे तुम्हारी मदद चाहिए।
हरामखोर साले।
डीडीयेर हवालात में है।
पुलिसवाले छोड़ने का पैसा माँग रहे हैं।
साले हरामखोर।
लालची बहनचोद।
मन तो करता है उनका गला घोंट दूँ मैं।
यहाँ के पुलि |
सवाले फ़िल्मों जैसे नहीं हैं,
सब के सब रिश्वतखोर हैं साले।
तो तुम उन्हें हैंडल करना जानते हो?
मतलब तुम्हारा उनसे पाला पड़ा है?
बहुत बार। इन हरामियों के साथ सख़्त होना पड़ता है।
मुझे दिखा सकते हो यह सब कैसे करते हैं?
नेकी और पूछपूछ, मेरे दोस्त।
कार्ला मार डालेगी मुझे।
डीडीयेर तो ऐसी जगह नहीं आता।
जगह से इंसान की परख मत करो।
बिल्कुल।
आह, आराम से।
ओके। सॉरी।
बोल रहा था पैसे यहाँ हैं।
माँ की आँख।
तो कितना ले चलें?
ज़्यादा से ज़्यादा तीन हज़ार, मैक्सिमम,
नहीं तो उसकी जगह मैं जेल चला जाऊँगा।
पाँच ले चलते हैं।
आओ चलें।
तुम लेट हो। अंदर आ जाओ।
तुम यहाँ कैसे?
ख़बर लाया हूँ।
ओह, बहुत बढ़िया। सच में कमाल है।
किसी और का इंतज़ार था?
लगता नहीं वह अब आएँगे।
तुम्हें धोखा दे दिया? बहादुर है। या बेवकूफ़।
क्या ख़बर लाए हो?
इतनी सारी किताबें?
इन्हें पढ़ने का वक़्त कैसे निकालती हो?
पांडे जी को प्यार हो गया है।
बड़ी मुस्कान, झील सी आँखें, सब कुछ बढ़िया ही बढ़िया।
सुनीता नाम है, पर वह उसकी बीवी नहीं है।
अंदर जाऊँ?
खंडाला के एक गेस्ट हाउस में नक़ली नाम से रुके हैं।
वाह, बढ़िया। अभी भी यहीं है।
मुझे यह पसंद थी। हमेशा लकी लगती थी।
मेरा सामान संभालकर रखा है?
तुम कभी लेने वापस आए ही नहीं।
कभी लगा था मैं वापस आ जाऊँगा
और सब पहले जैसा हो जाएगा?
मेरा सोचना कि तुम कहाँ हो,
ज़िंदा हो कि भी नहीं, या पुलिस वाले कब मुझ तक पहुँचेंगे?
नहीं।
आशिक से ज़्यादा तुम मेरे लिए भाई ही ठीक हो।
तुम जैसी बहन होना फ़ख़्र की बात है।
और मेरा दूसरा भाई, लिन?
न वह मेरा भाई है, न मेरा आशिक।
ओह, वह तुम्हें बहुत चाहता है। मुझे बोला था।
वह बहुत बात करता है।
वैसे भी, मुझे नहीं लगता इसमें सच्चाई है।
मतलब लिन ने तुम्हें धोखा दिया?
क्या हमें लिन से दूर रहने का हुक़्म नहीं है?
हुक़्म के मुताबिक चलने में मज़ा कहाँ है?
लीसा को क्या हुआ?
मुझे तुम्हें कुछ बताना है, लेकिन खादर को मत बताना।
क्योंकि ऐसा मैंने लीसा से वादा किया है।
लेकिन मुझे उसकी फ़िक्र है।
मौरीज़ियो बेलकैने हेरोइन बेच रहा है।
ज़ोरशोर से।
मुझे उसकी परवाह नहीं,
लेकिन लीसा को कुछ नहीं होना चाहिए।
मौरीज़ियो एक नंबर का बेवकूफ़ है।
लीसा को दिख क्यों नहीं रहा?
मैं देख लूँगा।
खादर को जानने की ज़रूरत नहीं है।
थैंक यू।
हेरोइन, सरकारी करप्शन, ब्लैकमेल।
एक वक़्त था तुम्हें मेरे जैसे मुजरिम पसंद ही नहीं थे।
और अब देखो।
तुम तो इतना खाओगी नहीं न?
मज़ा आ गया।
"हाई प्लेन ड्रिफ़्टर" वाले क्लिंट की तरह
बिल्कुल तन कर चलना।
एकदम शांत।
पर बातचीत मुझ पर छोड़ देना।
हाँ, ठीक है।
अच्छा, सुनो, क्या मेरा अंदर आना ज़रूरी है?
हाँ, बिल्कुल। यह लोग कांसुलेट
और एम्बेसी के चक्कर में गोरों से पंगा नहीं लेते।
तुम साथ रहोगे तो मेरी बात का वज़न बढ़ जाएगा।
लिन, तुम ठीक तो हो?
हाँ, हाँ। चलो।
हम डीडीयेर लीवी के लिए आए हैं।
पर वह यहाँ पर क्यों होगा?
अरे, यार। वक़्त बर्बाद मत करो।
तुम मेरी फ़ैमिली को |
जानते हो?
आई एम सॉरी। नहीं जानता।
जानते हो। लेकिन अभी पता नहीं है।
मेरे अंकल को तो जानते ही होगे, रोहित खन्ना को?
पूरे बॉम्बे में हर फ़ोन उन्होंने ही बेचा है।
उन्होंने ही लगवाए हैं।
यह वाला फ़ोन, उन्होंने ही बेचा है।
और हर पुलिस स्टेशन का, हर फ़ोन।
हाँ, बिल्कुल।
उन्हें कौन नहीं जानता?
खन्ना फ़ैमिली बहुत मशहूर है।
रोहित अंकल यूरोप गए हैं,
नए टेलीफ़ोन क्लब को खोलने के लिए।
वह भी यूरोप में, हँ?
मतलब यह कि, खन्ना की एक आवाज़ पर
आदमी चूहा बन सकता है, और एक चूहा आदमी, समझ गए न?
हाँ, हाँ, बिल्कुल, बिल्कुल।
और इतने छोटे से काम के लिए आपका वक़्त लिया,
उसका मुझे बहुत अफ़सोस है।
आप जैसे अमीर आदमी के लिए
कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए।
चार हज़ार डॉलर, वरना यह होमो यहीं रहेगा।
वह आपका दोस्त है न, हम्म?
या दोस्त से भी ज़्यादा?
क्या आप भी इसी तरह के जुर्म में शामिल हैं?
यह क्या बात कर रहे हैं आप?
होमोसेक्सुअलिटी यहाँ बहुत बड़ा जुर्म है, सर।
आपका दोस्त नंगा सड़क पर पकड़ा गया है,
और वह भी दूसरे आदमी के लवर के साथ।
तो क्या उन्हें भी गिरफ़्तार किया है?
लिन, मुझे बात करने दो।
चार हज़ार? दिमाग़ ख़राब है क्या?
चार हज़ार में मैं बीस लौंडे खड़े कर सकता हूँ।
बात करता है। दो दे सकता हूँ।
दो तो सिर्फ़ जुर्म के लिए है।
फिर वह फॉरेनर है। उसका एक।
और एक तुम्हारी इस काऊबॉय हैट
और इस गोरे दोस्त की वजह से।
और अगर पैसे नहीं मिले,
तो तुम्हारे अंकल के टेलीफ़ोन वाला यह तार लेकर
उसकी गोटियों से बांधकर टेलीफ़ोनटेलीफ़ोन खेलेंगे।
ओके, कहाँ है वह?
हमें उससे मिलना है।
बिल्कुल सही।
हमें नहीं पता वह किस हाल में है।
हो सकता है तुमने उसे पहले ही मार दिया हो।
हो सकता है उसकी लाश को अब कुत्ते नोच रहे हों।
यह जेल में पैदा होने |
वाले डर
और नफ़रत की कड़वाहट का
स्वाद था, जो मेरे गले में
महसूस हो रहा था। और जिसे निगलना मुश्किल था।
इनकी तो माँ का?
जो माँग रहा है, देके ख़त्म करते हैं।
सॉरी मैं लेट हो गया।
मैं ही जल्दी आ गई तो…
देखना, यह फ़िल्म ना तेरे को बहुत पसंद आएगी।
ख़ास करके लास्ट वाला फ़ाइट सीन।
तेरे लिए एक सरप्राइज़ है।
सच्ची?
हम ऊपर जा रहे हैं!
यह तो बहुत महँगी है लेकिन।
तेरे लिए एकदम परफ़ेक्ट है।
देखा?
जब अपना कोई इस हाल में दिखाई देता है,
तो चार हज़ार डॉलर कुछ भी नहीं होते।
वैसे, मैं चाहता नहीं था कि तुम्हारे
दोस्त को आर्थर रोड वाली जेल में सड़ना पड़े।
तुम एक असली हीरो हो।
अरे।
यहाँ आओ! सभी यहाँ आओ।
कुछ और भी बोलो।
मुझे बॉम्बे बेहद पसंद है।
शाबाश!
गोरा मराठी बोलता है!
बोलते रहो।
मेरा देश न्यूज़ीलैंड है।
मैं यहाँ कोलाबा में रहता हूँ।
तू!
यह मादरचोद यहाँ क्या कर रहा है?
क्या हुआ?
इसी गोरे ने मेरी गोटियों में लात मारी थी।
आपको पैसा मिल गया है। अब हमें यहाँ से निकलना है।
यह कहीं नहीं जाएगा।
अगर इसे कुछ बोला तो सौदा ख़त्म।
सौदा हो चुका है।
अपने दोस्त को लेके दफ़ा हो जाओ। यह दूसरा मामला है।
इस साले को तो ऐसा तोड़ूँगा न!
तू हिरासत में है, समझा?
तुझे तो मैं…
मेरे ऑर्डर्स मानोगे के नहीं?
वरना पूरी ज़िंदगी नाइट पेट्रोलिंग करते रहोगे।
मारपीट से कुछ फायदा होने वाला है क्या, हँ?
मुँह बंद रख और थोड़ा पैसा कमा।
वैसे भी गोरों को मारने में फ़ायदा कम,
प्रॉब्लम ज़्यादा होती है।
यह चार तुम्हारे होमो दोस्त के लिए
और दो ताकि यह अंदर न जाए।
पूरे छह हज़ार।
सिर्फ़ पाँच देंगे।
विक्रम, रहने दो।
सुनिए। यहाँ आइए।
देखिए, मेरे पास इतना ही है।
और यह पूरे दो हज़ार ही हैं।
तुम वह ले सकते हो।
तुझसे तो जल्द ही मुलाकात होगी, चूतिए।
तब। तब तेरी गोटियाँ फोड़ूँगा।
और कुछ लाऊँ?
पानी?
एसी वगैरह ठीक है न?
सब बढ़िया।
हाँ, बच्चन साब!
बोल देना उस हरामज़ादे को!
थैंक यू। थैंक यू।
आराम से।
तुम दोनों का शुक्रिया।
मैं जानता हूँ तुम्हें कहीं जाना है
इसलिए तुम्हारा ज़्यादा वक़्त नहीं लूँगा।
मैं तुम्हें ऐसे अकेले नहीं छोड़ सकता।
मुझे अपने पैर दिखाओ।
तुम जाओ। अब मैं संभाल लूँगा।
इतना क्या ज़रूरी काम था?
तुम्हारे साथ टाइम बिताने के अलावा
और क्या ज़रूरी हो सकता है?
हाँ, हाँ। ठीक है। अब बोलोगे भी?
मैंने अपने सीबीआई वाले अंकल को फ़ोन किया था,
और उनको विदेशी मुजरिमों की
इंटरपोल की रेड नोटिस वाली लिस्ट
निकलवाने के लिए बोला है।
मुझे बताए बिना? यह मेरी स्टोरी है।
अरे, बिना ठोस सबूत के मैं बताता भी तो क्या?
मैंने तो सोचा तुम ख़ुश होगी।
पर तुम तो उल्टा नाराज़ हो गई।
मैं नाराज़ नहीं हूँ। यह बढ़िया है, बस वह…
अब वादा किया है, तो पूरा तो करना था, कविता…
ठीक है, थैंक यू।
यह मत सोचना कि तुम्हारे साथ सोने वाली हूँ।
आह। परफ़ेक्ट। थैंक यू। ग्रात्ज़ी।
बोतल यहीं रख दो। थैंक यू।
कुछ सेलेब्रेट कर रहे हैं?
शायद। पर यह तुम पर डिपेंड करता है।
मुझे तुमसे |
एक काम है।
मतलब, हम दोनों को तुमसे काम है।
चाहो तो ना कर दो, लेकिन अगर हाँ कहोगी
तो रहीम के साथ डील लंबी चलेगी।
सबको अपनाअपना काम करना है।
तो उसके साथ सोना होगा?
नहीं, वह ऐसा चाहता है।
उसकी नज़र तुम पर है, तुम यह बात जानती हो।
अगर तुम चाहो तो, मना कर दो।
ऐसा कर सकती हूँ?
इस काम के मुझे पैसे मिलते थे।
अगर मैं मान जाऊँ तो मुझे कितना मिलेगा?
तुम्हारी देखभाल करेंगे, हमेशा की तरह।
तुम बस कीमत बोलो।
एक हज़ार।
दस।
ठीक है। दस।
परसेंट।
जैसा तुम कहो।
ओके।
बच्चन साब!
ए!
ओय, बच्चन साब!
अरे, बच्चन साब!
आ, पार्वती, तू भी मेरे साथ नाच!
पार्वती?
पार्वती!
क्या हुआ, पार्वती?
अरे, कोई डॉक्टर को बुलाओ, यार!
मैं इस सदमे को समझ रहा था।
मैं कभी ऐसे वहशीपन का शिकार नहीं हुआ था
जो वर्दी वाले क़ानून को लागू करने के नाम पर कर रहे थे।
मैं जानता था यह दर्द बेरहमी का नहीं,
बल्कि बेबसी और अकेलेपन के एहसास का था।
मैंने फ़ैसला कर लिया था कि मैं वापस नहीं जाऊँगा।
लेकिन मुझे अभी और इंतज़ार करना था।
मुझे नहीं पता मेरे पास कितना वक़्त बचा था।
बताने में भी शर्म आ रही है।
लेकिन हुआ क्या था?
वह कमीना मुझे बताना भूल गया
कि उसका एक इंडियन लवर है,
और जब मैं उसकी ले रहा था,
तो उसका लवर वहाँ आ गया।
बस फ़ॉरेस्ट ग्रम्प की तरह भागा।
एट वोआला, तुम मेरे क़दमों पे हो,
और मेरी सेवा भी कर रहे हो।
हाँ, कमीनों ने तुम्हारी हालत ख़राब कर दी।
उन्हें गेज़ पसंद नहीं हैं।
लेकिन, उन्होंने सिर्फ़ तुम्हें क्यों पकड़ा?
वह लोकल, मैं फॉरेनर।
वह रईस था, वसीदे वाला था और यक़ीनन
उसने मुझे पिटवाने के पैसे दिए होंगे।
मगर तुमने मुझे छुड़वा लिया, उससे ज़्यादा पैसे देकर।
अब भूल जाओ।
अब तुम घर पर हो।
यह तुम्हारा बोर्सलीनो टेस्ट था।
और अब शायद तुम रिं |
ग में से निकल गए हो।
नहीं। अगर तुम्हें मुझसे काम न होता,
तो शायद मैं मर चुका होता।
क्या बक रहे हो?
मैं फिर भी आता, डीडीयेर।
मुमकिन है कि तुम आते।
लेकिन तुम्हारी जगह मैं होता, तो बिल्कुल नहीं आता।
लगता है, जितने तुम बाहर से शरीफ़ लगते हो,
उतने ही अंदर से कमीने हो।
एक शैतान ही धर्म के काम से भी
अपना मतलब निकाल सकता है।
तुम मेरे दोस्त हो।
भले ही तुम मानो या न मानो।
जो तुम्हारा कर्ज़दार है।
चलो तुम्हारे पासपोर्ट की बात करते हैं।
हाँ, लेकिन इसमें थोड़ी सी दिक्कत है।
मैंने पैसे इकट्ठे किए थे,
लेकिन पुलिसवालों ने तुम्हारे पैसों के साथ मेरे भी ले लिए।
ठीक है, मैं संभाल लूँगा। इतना तो कर ही सकता हूँ।
तुम फ़ोटोग्राफ़्स लेकर आए हो?
जहाँ तक मेरा ख़याल है तुम पासपोर्ट
इसलिए बना रहे हो क्योंकि तुम्हें बॉम्बे छोड़ना है?
क्या एक दोस्त के नाते पूछ सकता हूँ, अचानक क्या हुआ?
कविता मेरे बारे में जानकारी इकट्ठी कर रही है।
यह रेनाल्डोज़ में मेरे ही बकबक करने का नतीजा है।
कविता अच्छी लड़की है।
मगर हाँ, वह अपने आपको साबित करने के लिए बेताब है।
यह दो दिन में तैयार हो जाएगा।
वादा करता हूँ।
थैंक यू।
पर थैंक्स तो मुझे तुमसे कहना चाहिए।
दिल से।
तुम्हें मिस करूँगा, लिन।
मैं भी।
दोस्ती के नाम।
चिंता मत करो, पारो, हँ। देखो घर आ गया।
बस थोड़ी देर और, हँ?
काकी!
मुझे माफ़ कर दीजिए!
यह सब मेरी ग़लती है। पार्वती को कुछ मत कहना।
वह तेरा गोरा डॉक्टर किधर है?
लिनबाबा? पता नहीं…
जब उसकी ज़रूरत है, तब किधर है वह?
जा ढूँढ उसको!
इतने लोग बीमार हैं, और उसका कोई अतापता नहीं है।
डॉ. लिन कहाँ हैं? मेरा पूरा परिवार बीमार है!
मेरा भी!
हमें लगा डॉ. लिन तुम्हारे साथ थे!
कहाँ हैं डॉक्टर लिन? हमें उनकी अभी ज़रूरत है। प्रभु!
ग्रेगरी डेविड रॉबर्ट्स के उपन्यास "शांताराम" पर आधारित
|
(बात तब की है जब उस सूबे के किसानों ने अचानक ही आत्म हत्या करना शुरू कर दी थी और सूबे के शासक ने किसानों की आत्म हत्या को रोकने के लिये कुछ करने की ठानी। इस कुछ करने के लिये सबसे बेहतर उपाय शासक को ये नज़र आया कि अपने गृह गाँव में एक भव्य राम कथा का आयोजन किया जाये। शासक का ये सोचना था कि भव्य राम कथा करवाने से अच्छी बरसात होगी, अच्छी बरसात होगी तो अच्छी फ़सल होगी और अच्छी फ़सल होगी तो किसानों की आत्म हत्याएँ अपने आप ही रुक जाएँगी।)
आलीशान तथा भव्य कथा पंडाल, जिसको बनवाने के लिये मुम्बई में फ़िल्मों का सेट बनाने वाले कलाकारों को विशेष रूप से बुलाया गया था। सेट की लागत को लेकर अलग-अलग मत थे। लोक निर्माण विभाग का कहना था कि सेट की लागत पांच करोड़ आई है, जबकि ग्रामीण यांत्रिकी विभाग का कहना था कि लागत किसी भी सूरत में सात करोड़ से कम नहीं है। दरअसल में ये पंडाल, अंदर से पंडाल से ज़्यादा कोई राजमहल नज़र आता था, जिसमें मंच पर नक़्क़ाशीदार खम्बे लगे थे और भव्य कलाकृतियाँ लगाईं गईं थीं। मंच के बारे में ये कहा जा सकता है कि ये एक प्रकार का फ़्यूज़न मंच था। जिसमें किसी ज़िल्ले इलाही टाइप के शहंशाह के भव्य दरबारे ख़ास में अयोध्या में बनने वाले राम मंदिर के माडल का फ़्यूज़न किया गया था। कुल मिलाकर बात ये कि आत्महत्या करने वाले किसानों को रोकने के लिये की जा रही इस पाँच सितारा राम कथा में सब कुछ पाँच सितारा था। पाँच सितारा कथा वाचक, पाँच सितारा पंडाल, पाँच सितारा श्रोता और पाँच सितारा आयोजक (जजमान) ।
शासक का ये गृह गाँव, ज़िला मुख्यालय से क़रीब सौ किलोमीटर की दूरी पर था। चूँकि दूरी ज़्यादा थी इसलिये ज़िला मुख्यालय के सारे अधिकारियों का अस्थाई पड़ाव कथा के तीन चार दिन पहले से ही गृह गाँव हो चुका था। इसलिये भी क्योंकि कथा पंडाल के ठीक बाहर एक भव्य विकास मेला तथा प्रदर्शनी का भी आयोजन किया गया था। इस प्रदर्शनी में वर्तमान शासक के कुशल नेतृत्व में हुए प्रदेश के विकास की झलक प्रस्तुत की गई थी। इस प्रदर्शनी का कुल मिलाकर अर्थ ये निकल रहा था कि पूरा सूबा विकास से लहलहा रहा है, गहगहा रहा है, महमहा रहा है। हर तरफ़ ख़ुशहाली, ज़मीन को फाड़-फाड़ के हीट (निकल) रही है। किसान 'मेरे प्रदेश की धरती सोना उगले-उगले हीरे मोती' गीत गाता हुआ ट्रेक्टरों में अपनी सजी धजी पत्नियों के साथ हर्षित होकर घुमड़ाता फिर रहा है। हस्पतालों में संतों टाइप के डॉक्टर परोपकार में जुटे हैं और स्कूलों में चाणक्य टाइप के मास्टर भविष्य के चंद्रगुप्तों को तराशने में लगे हैं। लगभग राममंदिर जैसे पंडाल में चल रही रामकथा के ठीक बाहर चल रही इस प्रदर्शनी का कहना था कि फिलहाल इस सूबे में लगभग रामराज्य वाले हालात हैं।
बात तब की है जब रामकथा में कथा वाचक अयोध्या में दशरथ के राज्य का प्रसंग सुना रहे थे कि दशरथ का राज किस प्रकार प्रजा मूलक है। कथा वाचक की विशेषता ये थी कि वे एक-एक शब्द के दस-दस पर्यायवाची सुनाते थे और श्र |
ोता रस विभोर हो जाते थे। इसी बीच वे दशरथ के राज्य का एक दो बार सूबे के वर्तमान राज के साथ साम्य भी स्थापित कर चुके थे। जिस पर मंत्री गणों, अधिकारियों तथा कर्मचारियों ने हर्षित होकर तुमुल करतल ध्वनि की थी। बात ठीक इसी दिन की है।
जिला मुख्यालय के सारे सरकारी कार्यालय केवल ताला लगाने की औपचरिकता को छोड़ दें, तो बंद ही पड़े थे। पुलिस थानों में एकाध सिपाही को एफआइआर लिखने की औपचारिकता पूरा करने के लिये छोड़ दिया गया था। बाक़ी, पुलिस कप्तान से लेकर सारा दल सौ किलोमीटर दूर गृह गाँव में था। होना भी था, इतने सारे ज़ेड प्लस जो आ रहे थे। इस प्रकार कहा जाये तो फिलहाल राम कथा के चलने तक ज़िला मुख्यालय को रामभरोसे छोड़ दिया गया था। ये बात ठीक उसी दूसरे दिन की है जब वहाँ से सौ किलोमीटर दूर कथा वाचक दशरथ के राम राज्य के बारे में विस्तार से चर्चा कर रहे थे।
कुछ लोगों का ऐसा कहना है कि प्रशांत तो पहले से ही बिगड़ा हुआ लड़का था। इतना कि कक्षा दस तक आने तक ही सर्व गुण संपन्न हो चुका था। लोगों का कहना था कि प्रथम श्रेणी अधिकारी पद से रिटायर हुए दादा के इकलौते बेटे का इकलौता बेटा था, सो बिगड़ने के सारे अधिकार तो उसके पास सुरक्षित थे ही। ख़ैर ये बातें बाद में, पहले तो ये कि उधर सौ किलोमीटर दूर राम कथा चल रही थी और इधर रामभरोसे छोड़े गये शहर में कुछ हो गया। हुआ ये कि प्रशांत का बाक़ायदा अपहरण कर लिया गया। वैसे तो प्रशांत दिन भर कहाँ रहता है, घर वालों को ज़रा भी पता नहीं रहता था। लेकिन उस रोज़ शाम ढलते ही प्रशांत की ढूँड़ मच गई। इस ढूँड़ मचने के पीछे कारण था, वह कॉल जो प्रशांत के ही मोबाइल से प्रशांत के पिता के पास आई थी। जिसमें कहा गया था कि प्रशांत का अपहरण कर लिया गया है और चालीस लाख फिरौती के बदल |
े उस छोड़ा जायेगा। जब ढूँड़ मची तो पता चला कि प्रशांत की साइकिल एक बगीचे में खड़ी है, जहाँ से लोगों ने उसे एक मोटरसाइकिल पर किसी आदमी के साथ जाते हुए देखा था। सूचना मिलते ही ये ढूँड़ एक प्रकार के हड़कम्प में बदल गई।
पुलिस थाना राम कथा के प्रताप से शांत पड़ा हुआ था। जब तीन चार उपलब्ध हेड साहबों ने भीड़ को आते देखा तो घबरा गये। एफआइआर लिखने के लिये वे छोड़े गये थे, सो उन्होंने लिख ली, उससे ज़्यादा करना उनके बूते के बाहर था। इसके बाद का काम अधिकारियों को करना था, जो फिलहाल थे नहीं। दो हेड साहबों को थाने में छोड़कर बाक़ी के दो में से एक साइकिल प्राप्ति स्थल और एक प्रशांत के घर रवाना हो गया। तीनों स्थानों पर काग़ज़ों का पेट भरना प्रारंभ कर दिया गया। प्रशांत के परिजन बेचैनी की हालत में थाने से सिटी कोतवाली और वहाँ से पुलिस कप्तान के घर तक दौड़ लगा रहे थे। हर जगह उनको ढाक के तीन पत्ते ही मिल रहे थे। रात धीरे-धीरे गहराती जा रही थी। प्रशांत का मोबाइल अब स्विच्ड ऑफ आ रहा था। लेकिन परिवार वालों ने अपने स्तर पर भागदौड़ करके ये पता लगा लिया था कि प्रशांत के मोबाइल से जो कॉल किया गया था वह राजधानी से किया गया था। अर्थात प्रशांत को अपहरण करके ज़िला मुख्यालय से घंटे भर की दूरी पर स्थित सूबे की राजधानी ले जाया गया था।
रात के नौ बज रहे थे। कथा वाचक अपन मधुर वाणी में बता रहे थे कि किस प्रकार अयोध्या में चारों तरफ़ सुख, शांति और समृद्धि फैली हुई है। एक बार बात को घुमा कर उन्होंने कहा कि 'बहुत सौभाग्यशाली होती है वह प्रजा, जिसका शासक, जिसका राजा, जिसका प्रजा पालक, जिसका प्रधान संवेदनशील होता है और यदि इसको सच मानें तो इस पंडाल में बैठे आप सब भी सौभाग्यशाली हैं।' सारा माहौल गदगदायमान हो गया। एक बार फिर से तुमुल हर्ष ध्वनि हुई। इतनी कि प्रवचन को आधा मिनिट तक रोकना पड़ा। 'और जहाँ का राजा संवेदनशील होता है वहाँ के मंत्री और अधिकारी भी उतने ही संवेदनशील होते हैं, यह बात मैंने यहाँ आपके ही प्रदेश में आकर जानी है।' पुनः तुमुल करतल ध्वनि।
'सर यहाँ लोग हंगामा कर रहे हैं।' यह सूचना एक हैड साहब ने अपने से ठीक ऊपर वाले सब इंस्पेक्टर के मोबाइल पर उपलब्ध करवा दी। सूचना स्टेप बाय स्टेप होती हुई पुलिस कप्तान तक पहुँच गई। पुलिस कप्तान स्वयं पंडाल के व्ही।आइ.पी गेट पर खड़े सारी व्यवस्थाएँ देख रहे थे। इसी गेट से होकर कुछ देर बाद दिल्ली से विशेष रूप से आ रहे व्ही।व्ही।आई.पी. को गुज़रना था। जो आज की कथा के पश्चात होने वाली आरती में शामिल होने के लिये विशेष रूप से आ रहे थे। उनके पास ज़ेड के साथ लगे हुए ढेर सारे प्लसों की सुरक्षा थी। जैसे ही हंगामे की सूचना पुलिस कप्तान तक पहुँची वे कुछ देर तक सोचते रहे, फिर सूचना लाने वाले से बोले 'कोतवाली को सूचना कर दो कि जैसे तैसे करके दो-तीन घंटे तक बात को सँभाल लें। साढ़े दस बजे तक आरती ख़त्म हो जायेगी और ग्यारह बजे तक व्ही।आइ.पी वापस रवाना हो जाएँगे। उसके बाद |
तुरंत यहाँ से एक टीम को वहाँ भेज दिया जायेगा। लेकिन अभी तुरंत कोई नहीं जा सकता।' कोतवाली में बैठे भीड़ को सँभाल रहे हेड कांस्टेबल रामभरोसे यादव को सूचना दे दी गई। सूचना पुलिस कप्तान की थी इसलिये रामभरोसे के पास 'जी श्रीमान जी' कहने के अलावा कोई चारा नहीं था।
राजधानी से रामकथा वाले गाँव को जाने वाली सड़क पर राजधानी से क़रीब बीस किलोमीटर पर स्थित ग्राम तिलखिरिया। सड़क से पाँच छः सौ मीटर अंदर, अंधेरे में डूबे हुए खेत की मेड़ पर तीन साये बैठे नज़र आ रहे हैं। दो बड़े साये और एक छोटा साया। पास ही एक मोटर साइकिल, साइड स्टैंड पर टिकी, आधी झुकी खड़ी है। सड़क पाँच छाः सौ मीटर दूर है इसलिये आती जाती गाड़ियों की बस हेड लाइटें ही यहाँ से दिख रहीं हैं। दो बड़े वाले साये रह-रह कर कुछ पी रहे हैं और बीच-बीच में मोबाइल पर बातें भी करते जा रहे हैं।
'अच्छा! पुलिस वहीं है? कितने पुलिस वाले हैं?'
'घर के लोग क्या कर रहे हैं? अच्छा? सारे वहीं हैं कि कुछ इधर उधर भी हैं?'
'ये कैसे पता लगा कि मोबाइल यहाँ आकर किया था?'
'यहाँ की पुलिस को भी ख़बर हुई है क्या?'
इसी प्रकार की फुसफुसाहट भरी बातें हो रहीं हैं।
मोबाइल पर कॉल डिस्कनेक्ट करके एक बड़े साये ने एक भद्दी-सी गाली बक कर बैठे-बैठे ही छोटे वाले साये में लात मारी। छोटा साया लात पड़ते ही ज़मीन पर आड़ा हो गया। कोई चीख नहीं निकली। मानो मुँह में कपड़ा ठूँसा गया हो। बस गूँ-गाँ की आवाज़ आकर रह गई। दोनों बड़े साये फिर चुपचाप कुछ पीने लगे। एक साये के हाथ के मोबाइल ने वाइब्रेट होकर फिर से घर्र-घर्र की।
'हाँ बता। कब ख़बर की?'
'यहाँ लेकर आये हैं ये पता कैसे चला?'
'हाँ फ़ोन तो इस लौंडे के मोबाइल से ही किया था।'
'कौन-सा टॉवर पकड़ाया है? हाँ फ़ोन तो उसी इलाक़े से किय |
ा था।'
'नहीं अभी तो वहाँ से बहुत दूर हैं।'
जैसी कुछ बातें हुईं और फिर से शांति छा गई। एक ने सिगरेट सुलगाने के लिये माचिस की तीली जलाई ही थी कि दूर से पुलिस की गाड़ी का सायरन गूँजा। दोनों सतर्क हो गये। सायरन धीरे-धीरे पास आ रहा था। दोनों उठकर मोटरसायकल को सीधी करने लगे। सायरन की आवाज़ के साथ दूर से लाल बत्ती लगी हुईं गाड़ियाँ भी उस सड़क पर दिखाई देने लगीं। क़रीब बीस पच्चीस लाल, पीली, नीली बत्ती लगी हुई गाड़ियाँ थीं। ये गाड़ियाँ वहाँ दूर सड़क से निकल रहीं थीं। ये दिल्ली से आये उन्हीं व्ही।व्ही।आईपी का क़ाफ़िला था, जो रामकथा सुनने जा रहे थे। इधर दोनों साये मोटरसाइकल को चालू करके उस पर बैठ चुके थे। उधर पूरा क़ाफ़िला बात की बात में धड़धड़ाता हुआ गुज़र गया। अब केवल सायरन की दूर से आती आवाज़ थी जो धीरे-धीरे मद्धम होती जा रही थी। मोटर साइकल पर पीछे बैठा बड़ा साया तेज़ी के साथ उतरा और गालियाँ बकता हुआ उस तरफ़ लपका जहाँ लात खाकर छोटा साया आड़ा पड़ा था।
पंडाल में बड़ा ही दिव्य वातावरण निर्मित था। कथा वाचक राम जन्म का प्रसंग कथा में शामिल कर चुके थे। देश के दिव्यतम साउंड सिस्टम से होकर उनकी आवाज़ भी दिव्य रूप धरकर पंडाल में गूँज रही थी। इसीलिये तो वे सिर्फ़ और सिर्फ़ इसी साउंड सिस्टम पर भरोसा करते थे। जब उन्होंने राम जनम का प्रसंग सुनाते हुए कहा कि 'वह प्रभु, भगवान, ईश्वर, परमात्मा, पालनहार, जगतपति, अन्याय और अत्याचार को समाप्त करने के लिये स्वयं अवतार लेता है। उसके आते ही हर तरफ़ आनंद की, प्रेम की, करुणा की, रस वर्षा होने लगती है। वैसी ही जैसी इस पंडाल में और आपके प्रदेश में हो रही है।' इसके साथ ही कथा वाचक के साथ संगत दे रहे संगीतकारों ने अपने इलेक्ट्रानिक वाद्य यंत्रों पर शंख, घड़ियाल और झाँझ की आवाज़ फुल वाल्यूम में निकाल कर उस प्रकार का वातावरण बना दिया जिसमें श्रद्धालुओं की रोमावलियाँ खड़ी हो गईं। आँखों से आँसू वग़ैरह हीट (निकल) पड़े। एक युवा टाइप के मंत्री तो वातावरण से इतने अभिभूत हो गये कि अपने स्थान पर खड़े होकर नृत्य करने लगे। कथा वाचक के साथ सुर में सुर मिला कर अब पूरा पंडाल गा रहा था 'भए प्रगट कृपाला, दीनदयाला, कौशल्या हितकारी' और इसी बीच व्ही।व्ही।आई.पी. ने उस दिव्य पंडाल में प्रवेश किया।
बड़ा साया ज़मीन पर पड़े छोटे साये पर टूट पड़ा था। अँधेरा बहुत गहरा था। बड़ा साया लगातार गालियाँ बक रहा था और छोटा साया मुँह से गूँ-गाँ की आवाज़ निकाल रहा था। दूसरा बड़ा साया उसी प्रकार मोटर सायकल पर बैठा सिगरेट फूँक रहा था। कुछ देर में छोटे साये के पास गया बड़ा साया आकर मोटर साइकिल के पास ज़मीन पर बैठ गया।
'मार दिया क्या?' मोटर साइकिल पर बैठे साये ने फुसफुसाहट के अंदाज़ में पूछा।
'नहीं...' नीचे बैठे साये ने उत्तर दिया।
नीचे बैठे साये ने कुछ उत्तर नहीं दिया। घुटने मोड़ कर, मोटर साइकिल के अगले टायर से पीठ टिका कर उसी प्रकार बैठा रहा। मोटर साइकिल पर बैठे साये का मोबाइल वाइ |
ब्रेट हुआ।
'हाँ बोल ...'
'नहीं हम लोग वहाँ नहीं हैं।'
'कितने पुलिस वाले हैं।'
'कौन कौन से चैनल पर चल रहा है?'
'अंदाज़ा क्या लगा रहे हैं?'
'नहीं अब तो कोई मतलब नहीं है, देखते हैं क्या करना है।' कहते हुए उस साये ने कॉल डिस्कनेक्ट कर दिया। कुछ देर तक ख़ामोशी रही।
'ख़ूब हंगामा हो रहा है वहाँ पर।' मोटर साइकिल पर बैठे साये ने सूचना देने वाले अंदाज़ में धीरे से कहा। नीचे बैठे वाले ने कोई उत्तर नहीं दिया। मोटर साइकिल पर बैठा साया नीचे उतरा और छोटे साये वाली दिशा में तेज़-तेज़ क़दमों से बढ़ गया। नीचे बैठा साया मोबाइल से कोई नंबर लगाने लगा।
'क्या करें अब इसका?'
'पहचानता तो है।'
'नहीं वहाँ ले जाने में तो रिस्क है।'
'देखते हैं।' कहते हुए उसने कॉल काट दिया।
थोड़ी देर बाद छोटे साये के पास गया दूसरा साया भी आकर वहीं नीचे ज़मीन पर बैठ गया। दोनों खुसफुसाहट के अंदाज़ में कुछ बातें करने लगे। कुछ देर तक बात करते रहे फिर पास ही पड़ा एक बड़ा-सा पत्थर उठा कर दोनों छोटे साये वाली दिशा में बढ़ गये।
दोनों अब छोटे साये के ठीक सिर पर खड़े थे। छोटा साया ज़मीन पर उल्टा पड़ा था। जिस साये ने हाथों में पत्थर उठा रखा था उसने पत्थर को दोनों हाथों से अपने सिर से ऊपर हवा में तान लिया ।
'पूँ ऽऽऽऽऽऽ' लगभग पच्चीस शंख वादक एक साथ अपने फेफड़ों में भरी हवा को शंख में पूरी ताक़त लगाकर फूँक रहे थे। शंख ध्वनि से पूरा पंडाल गूँज रहा था। शंखध्वनि के बीच एक अत्यंत सजी धजी महिला अपनी गोदी में एक छोटे से बच्चे को लिये नैपथ्य से मंच पर आई। उसके मंच पर आते ही पंडाल में बैठे श्रद्धालू अपने-अपने स्थान पर खड़े होकर तालियाँ पीटने लगे। पूरा पंडाल आध्यात्म से गजगजा रहा था। कथा वाचक ने दोनों हाथों को उठाकर सबको शांत रहने का इशारा किया |
। जब सब शांत हो गये तो कथा वाचक ने अपने उसी मधुर स्वर में जो कि विशेष कंपनी के साउंड सिस्टम के साथ मिलकर मधुरतम हो जाता था, स्तुति प्रारंभ की।
'श्री रामचंद्र कृपालु भज मन हरण भव भय दारुणम'
पहले पंक्ति को कथा वाचक गाते थे और फिर उसी पंक्ति को पूरा पंडाल दोहराता था।
'रघुनंद आनंदकंद कौशलचंद दशरथ नंदनं'
खेत की मेड़ अब पूरी तरह से शांत थी। अब वहाँ केवल छोटा साया था, उसी प्रकार से उल्टा लेटा हुआ। दोनों बड़े साये वहाँ से जा चुके थे।
रात गहरा रही थी और शहर धीरे-धीरे आक्रोशित हो रहा था। लोग पुलिस के उन तीन चार हेड साहबों पर निशाना साध रहे थे। हेड साहब पसीना पोंछते हुए रह-रह कर अपने मोबाइल से कोने में जाकर कुछ बात कर आते थे। फिर लौट कर कभी काग़ज़ों में कुछ दर्ज़ करके, कभी लड़के के परिवार से पूछताछ करके समय को काटने का प्रयास कर रहे थे। समय को काटना ज़रूरी था, क्योंकि उधर जब तक राम जन्म करवाने के लिये आये व्ही।व्ही।आई.पी. लौटते नहीं, तब तक वहाँ से पुलिस बल का चलना संभव नहीं था।
सुब्ह होते ही एक किसान ने सबसे पहले लाश को देखा। लाश जो खेत की मेड़ पर उल्टी पड़ी हुई थी। उसका सिर पत्थर से बुरी तरह से कुचल दिया गया था और दोनों हथेलियों को कलाई के पास से किसी धारदार हथियार से काट दिया गया था। किसान ने जब ये देखा तो चीखता हुआ उल्टे पैरों भागा। घंटे भर में पुलिस की गाड़ियाँ धड़धड़ाते हुए खेत की मेड़ पर आ लगीं। मरने वाले का चेहरा इतनी बुरी तरह से कुचला गया था कि किसी भी तरह से पहचानना संभव नहीं हो रहा था। पुलिस ने लाश को जब्ती में लिया और जिस प्रकार सायरन बजाती हुई आई थी उसी प्रकार लौट गई।
दोपहर तक सूचना आई कि राजधानी के पास के गाँव तिलखिरिया में एक लाश मिली है जो किसी सोलह सत्रह साल के लड़के की है। देर रात प्रशांत के घरवाले कपड़ों से पहचान करके उसका शव लेकर वापस लौट आये। एक बार तसल्ली करने के लिये कपड़ों में मिली साइकिल की चाबी को प्रशांत की साइकिल के ताले में लगाया गया। ताला क्लिक की आवाज़ के साथ खुल गया। ताले के खुलने के साथ ही शहर भर में आक्रोश की लहर दौड़ गई। प्रशांत के घर मातम छा गया।
आज राम कथा में एक बार फिर से विभोर कर देने वाला वातावरण बना हुआ था। दशरथ के आँगन में ठुमक कर चलते राम का अत्यंत भावुक चित्रण हो रहा था। 'ठुमक चलत रामचंद्र बाजत पैंजनिया' भजन कथावाचक पूरी तल्लीनता के साथ गा रहे थे और सुन-सुन कर रस विभोर हो रहे थे वहाँ उपस्थित श्रद्धालु। आज कथा में ज़िला मुख्यालय का पुलिस बल उतनी संख्या में नहीं था। प्रशांत की हत्या को लेकर ज़िला मुख्यालय पर तनाव है इस बात को देखते हुए आइजी ने पुलिस कप्तान को वहीं रुकने के निर्देश दिये थे।
'विद्रु मसे अरुण अधर, बोलत मुख मधुर मधुर' कथा वाचक की मधुर स्वर लहरी पूरे पंडाल में रस घोलती हुई बह रही थी। आज की कथा पूरी तरह से राम की बाल लीलाओं पर आधारित थी।
'राम का जन्म यूँ ही नहीं हो जाता। उसके लिये दशरथ और कौशल्या जैसे प्रजा पालकों |
को जन्म लेना होता है। ऐसे गुणी और जन-जन के कल्याण की भावना को मन में रखने वाले राजा के घर ही राम का जन्म होता है। अयोध्या एक प्रतीक है, प्रतीक इस बात का कि भयमुक्त समाज, अत्याचारमुक्त शासन और पक्षपात रहित व्यवस्था जहाँ होगी उसे अयोध्या कहा जायेगा और राम का आगमन वहीं होगा जहाँ अयोध्या होगी।' इतना कह कर कथा वाचक कुछ देर रुके, रहस्य से मुस्कुराये और अपनी उसी किंचित मुस्कुराहट वाली शैली में बोले 'और यदि इसे ही सच माना जाये तो अब यदि राम को जन्म लेना हो तो उसके लिये उन्हें आपके इसी राज्य में आना होगा।' इतना कह कर वे फिर रुक गये। श्रद्धालुओं को बात समझने में दस सेकेंड का वक़्फ़ा लगा और दस सेकेंड बाद पूरा पंडाल जयघोष से फटा पड़ रहा था। कोने-कोने से कथा वाचक महाराज की जय-जय कार के नाद घोष हो रहे थे।
'शासक का दायित्व होता है कि वह अपनी प्रजा को एक ऐसा भयमुक्त वातावरण दे जहाँ अपराध का कोई चिह्न तक नहीं हो। वह सबसे पहले अपनी प्रजा के बारे में सोचे तथा उसी के हित में निर्णय ले। जिनके विचारोें में, संस्कारों में, व्यवहार में धर्म होता है वे हर दुविधा को लेकर धर्म की शरण में जाते हैं। धर्म के पास हर प्रश्न के उत्तर हैं, लेकिन आवश्यकता है तो बस धर्म के पास जाने की। जैसे आपके राज्य में प्रकृति की मार से कुछ किसान बंधुओं ने आत्महत्या कि तो आपके मुख्यमंत्री को भी धर्म की ही राह सूझी। ये राम कथा उसी निमित्त की जा रही है। ऐसे प्रजापालक शासक की पुकार देवताओं को भी सुननी पड़ती है और प्रकृति को भी।' सात करोड़ के पंडाल के वातानुकूलित मंच से जब कथा वाचक प्रदेश के क़र्ज़े से डूबे किसानों के बारे में बता रहे थे तो कुछ आइ.ए.एस. अधिकारी भावुक होकर अपनी आँखें पोंछ रहे थे।
प्रशांत के अंतिम संस्कार के बाद स |
े ही शहर में तनाव फैल गया था। अगले दिन शहर बंद करने की घोषणा कि गई थी जिसे लगभग सारे व्यापारिक संगठनों ने अपना समर्थन दिया था। इस बंद के समर्थन में रात को एक मशाल जुलूस शहर के मुख्य बाज़ारों में निकाला गया था। सारे प्रादेशिक चैनलों पर प्रशांत का समाचार रह-रह कर रिपीट हो रहा था। जुलूस को पृष्ठभूमि में रखते हुए इलेक्ट्रानिक मीडिया के रिपोर्टर अपनी रपट बना रहे थे 'पूरा शहर उत्तेजित है, जिस प्रकार से शहर के एक होनहार बालक को दिन दहाड़े अगवा किया गया और जिस प्रकार उसकी नृशंस हत्या कि गई उससे लोग आक्रोशित हैं। पुलिस कोई उत्तर नहीं दे रही है। जिस प्रकार से प्रदेश की राजधानी से मात्र बीस किलोमीटर दूर सर कुचल कर और हाथ काट कर ये जघन्य हत्या कि गई है, उससे प्रदेश में पुलिस और प्रशासन की हालत का पता चल रहा है।' रिपोर्टर अपनी आवाज़ में भावुकता और आक्रोश दोनों घोलने का प्रयास कर रहे थे।
'सवाल ये उठता है कि यदि पुलिस चाहती तो ये हत्या रोक सकती थी। प्रशांत का अपहरण शाम पाँच बजे हुआ और लगभग दस बजे उसकी हत्या कि गई। इस बीच ये पता चल चुका था कि प्रशांत को अगवा करके राजधानी ले जाया गया है। यदि पुलिस एक्टिव हो जाती तो शायद प्रशांत बच जाता। लेकिन पुलिस तो तब एक्टिव होती जब वह यहाँ होती। पुलिस कप्तान से लेकर सारा पुलिस बल तो मुख्यमंत्री के गृह गाँव में चल रही राम कथा में व्ही।आइ.पी ड्यूटी दे रहा था।' एक दूसरा रिपोर्टर ओबी वैन के लाइव में चीख रहा था।
'पुलिस कप्तान से लेकर सारा पुलिस बल तो मुख्यमंत्री के गृह गाँव में चल रही राम कथा में व्ही।आइ.पी ड्यूटी दे रहा था।' इस एक वाक्य को सुनकर राजधानी में बैठे प्रदेश के डीजीपी अपनी कुर्सी पर पहलू बदल कर बैठ गये। इस बदले हुए पहलू की लहर वहाँ से आइजी, फिर डीआइजी और वहाँ से पुलिस कप्तान तक पहुँच गई।
अगले दिन सुबह से ही सारा शहर बंद था। बंद इस प्रकार मानो कर्फ़्यू लगा हो। देर रात राम कथा से राजधानी लौटे आइजी और डीआइजी भी सुबह से ज़िला मुख्यालय पहुँच गये थे। दस बजे शहर के नागरिकों का एक विरोध मार्च निकलना था और दोपहर दो बजे महिलाओं का एक जुलूस। पुलिस इन दोनों की तैयारियों में लगी हुई थी।
पहला जुलूस कोतवाली जाकर समाप्त हुआ। जहाँ आईजी ने ज्ञापन लेने के बाद लोगों को समझाने की एक असफल कोशिश की। जब जुलूस वापस लौट गया तो इलेक्ट्रानिक चैनलों के रिपोर्टरों ने आईजी को घेर लिया।
'ये फ़िज़ूल की बात है, भला राम कथा का इस घटना से क्या लेना देना?' एक रिपोर्टर के सवाल पर आईजी ने कुछ तीखे स्वर में उत्तर दिया और उतनी ही तीखी नज़र साथ खड़े पुलिस कप्तान पर डाली। पुलिस कप्तान की हवाइयाँ उड़ गईं।
दोहपर बाद महिलाओं का जुलूस सीधे कलेक्टर कार्यालय पहुँचा। जुलूस को देखते हुए मेन गेट बंद कर दिया गया था। गेट की सलाखों के उस तरफ़ कलेक्टर महिलाओं से ज्ञापन लेने के लिये खड़े थे। महिलाओं ने गेट के पास खड़े होकर देर तक नारेबाज़ी की। जब ज्ञापन दिया जा रहा था तो एक महिला ने ज |
्ञापन के साथ कुछ चूड़ियाँ भी रख दीं।
'ये किसलिये?' कलेक्टर ने कुछ मुस्कुराते हुए पूछा।
'पहनने के लिये और किसलिये? शहर से दिन दहाड़े एक बच्चे का अपहरण होता है हत्या होती है और आप सब वहाँ चैन से बैठ कर राम कथा सुनते हैं। हत्यारों को तो आप पकड़ नहीं सकते इसलिये चूड़ियाँ पहनिये और बैठे रहिये चुपचाप।' चूड़ी देने वाली महिला ने तीखे स्वर में उत्तर दिया। महिला के इतना कहते ही वहाँ आई सारी महिलाओं ने हाथों में रखी चूड़ियाँ गेट की सलाखों पर टाँगना शुरू कर दिया। कुछ ही देर में पूरा गेट चूड़ियों से भर गया। महिलाएँ नारेबाज़ी करती हुई लौट रहीं थीं। एक हाथ में ज्ञापन और दूसरे में चूड़ियाँ पकड़े कलेक्टर गहरी निगाहों से उन लौटती हुई महिलाओं को देख रहे थे।
'सर सब कंट्रोल में है।' माथे का पसीना पोंछते हुए आइजी ने अपने मोबाइल पर उत्तर दिया। कलेक्टर ने अपने निवास पर शहर में चल रहे तनाव को लेकर एक विशेष और गोपनीय बैठक बुलाई थी।
'नहीं सर राम कथा को लेकर कहीं कुछ आक्रोश नहीं है वह तो...' आइजी ने कुछ कहना चाहा लेकिन उधर से बात काटी गई। आइजी चुप होकर उधर की बात सुनते रहे।
'जी सर मैं यहीं हूँ, अभी कुछ लोगों को बुलाया है, शाम तक कुछ न कुछ हल निकल आयेगा'
हर तरफ़ एक प्रकार का हड़कंप मचा हुआ था। हड़कंप इसलिये नहीं कि दिन दहाड़े एक लड़के का अपहरण हुआ और फिर अत्यंत नृशंस तरीके से उसकी हत्या कर दी गई। हड़कंप इसलिये था कि इन सब के चक्कर में मुख्यमंत्री की रामकथा बदनाम हो रही थी। हड़कंप इसलिये था कि बात घूम फिर के बार-बार वहीं आ रही थी 'पुलिस कप्तान से लेकर सारा पुलिस बल तो मुख्यमंत्री के गृह गाँव में चल रही राम कथा में व्ही।आइ.पी ड्यूटी दे रहा था।' यही एक ऐसी बात थी जिसके चलते इस हत्या और अपहरण वाले मामले में |
पुलिस तेज़ी के साथ सक्रिय हो रही थी, इस प्रकार मानो पूरा मामला अब सुलझा कि तब सुलझाा।
आज की ये बैठक इसीलिये बुलाई गई थी। इसीलिये, मतलब इसलिये कि इस पूरे मामले से 'राम कथा' को किस प्रकार अलग किया जाये। ऐसा क्या किया जाये कि लोगों का ग़ुस्सा शांत हो सके। बैठक में पुलिस और प्रशासन के केवल कुछ ख़ास अधिकारियों के अलावा एक नेता टाइप के समाजसेवी पत्रकार विनय उपाध्याय भी मौजूद थे। विनय उपाध्याय को इस बैठक में विशेष रूप से बुलाया गया था। पुलिस प्रशासन जब भी इस प्रकार की किसी परेशानी में उलझता था तो उससे बाहर आने के लिये विनय उपाध्याय की ही सेवाएँ ली जाती थीं। वे शहर की नस-नस से वाक़िफ़ थे। उन्हें पता होता था कि ये जो शहर के किसी ख़ास हिस्से में दर्द उठ गया है उसको शांत करने के लिये कौन कौन-सी नसों को दबाना होगा। दर्द की तासीर देख कर ही वे ये सुझाव भी देते थे कि ये जो दर्द उठा है, ये एक्यूप्रेशर से ठीक हो जायेगा या इसके लिये पुलिसिया एक्यूपंचर ही करना होगा। सलाह देकर वे परिदृश्य से हट जाते थे और बाक़ी की काम पुलिस और प्रशासन करता था। टेबल पर रखा कलेक्टर का मोबाइल वाइब्रेट हुआ, डिस्प्ले पर आ रहे नंबर को देख कर कलेक्टर एलर्ट हो गये। कॉल को कनेक्ट करके कान से लगा लिया। बात कुछ देर बाद शुरू हुई।
'जी सर, प्रणाम सर। सर उसी के लिये बैठे हैं।'
'जी सर, पता कर लिया है सर, एक दो अपोज़िशन वाले हैं, वही लोग बार-बार पब्लिक को भड़का कर मामले को उस तरफ़ मोड़ रहे हैं।'
'जी सर बस उन्हीं लोगों का कुछ उपाय निकाल रहे हैं हम।'
'जी सर आज ही हो जायेगा, प्रणाम सर।'
मोबाइल को वापस टेबल पर रखने के बाद कलेक्टर ने पास बैठे आइजी की तरफ़ देखा। आइजी ने एसपी को देखकर भवें उचकाईं, एस पी ने विनय उपाध्याय की तरफ़ देखा और गला खँखारते हुए कहा 'क्या विनय जी आपके रहते शहर में इतनी सारी फ़िज़ूल की अफ़वाहें उड़ रहीं हैं। कहीं कोई रोकने टोकने वाला ही नहीं है।'
एसपी के इतना कहते ही विनय उपाध्याय कुछ सचेत होकर अपनी कुर्सी पर रीपोज़िशन हुए। वे कुछ कहते उससे पहले ही एसपी की बात का सिरा पकड़ कर आइजी ने कहा 'बार बार रामकथा का मामला उठाया जा रहा है। आपकी तो अपनी पार्टी का मामला है, आप ही कुछ नहीं करेंगे तो कैसे काम चलेगा?' आइजी का अंदाज़ मीठा था। वही अंदाज़ जिसे ठेठ प्रशासनिक अंदाज़ कहा जाता है। जिसके द्वारा चारों तरफ़ से घिर जाने पर प्रशासनिक व्यवस्था किसी जनता के आदमी को ढाल बनाकर खड़ा करती है। जिसे मुहावरे तथा कहावत की भाषा में गधे को बाप बनाना कहा जाता है।
'नहीं होगा सर, बस कल से कुछ नहीं होगा, सारा शहर शांत हो जायेगा। भूल जाएँगे लोग कि कहीं कोई प्रशांत मरा था।' विनय उपाध्याय ने कहा।
'कल से ...?' कलेक्टर ने पूछा।
'जी सर, कल तक का समय तो लगेगा ही।' विनय उपाध्याय ने विनम्रता पूर्वक उत्तर दिया।
'कैसे?' इस बार आइजी ने पूछा।
'देखिये सर इस पूरे मामले को कुछ ऐसा रंग देना पड़ेगा कि लोग इस मामले से ख़ुद ही अपने आप को दू |
र कर लें।' विनय उपाध्याय ने उत्तर दिया।
'मसलन?' आइजी ने फिर पूछा।
'कुछ ऐसा कि जिसके सामने आने पर प्रशांत का अपहरण, हत्या सब कुछ पीछे रह जाए, जैसे कोई सैक्स स्केंडल।' विनय उपाध्याय ने कहा।
'सैक्स स्केंडल?' कलेक्टर ने आश्चर्य से शब्दों पर थोड़ा ज़ोर देते हुए कहा।
'जी सर, बात तो बिल्कुल सही है। हमको ये बात सुगबुगाहट के रूप में शहर भर मैं फ़ैलाना है कि प्रशांत की हत्या के पीछे बड़ा सैक्स स्केंडल है, जिसे पुलिस ने लगभग ट्रेस कर लिया है। हमें कोई आफ़िशियल स्टेटमेंट नहीं देना है, बस सुगबुगाहट के रूप में बात को फ़ैलाना है और इस प्रकार की बातें तो ख़ुद ब ख़ुद ही फैल जाती हैं।' इस बार उत्तर दिया एसपी ने। शायद सारा प्लान बैठक में आने से पहले ही तैयार कर लिया गया था।
'मगर मामला क्या उछाला जायेगा?' कलेक्टर की भौंहें अभी भी तनी हुईं थीं।
'उसके लिये कुछ ख़ास नहीं करना होगा सर, हमें केवल लोगों को डराना है, ताकि ये लोग डर कर अपने घरों में बैठ जाएँ। कुछ ऐसा कि लड़के के परिवार वाले ख़ुद ही चाहने लगें कि मामला बंद हो जाए।' एसपी ने उत्तर दिया।
'कर लेंगे आप लोग?' आइजी ने पूछा।
'जी सर हो जाएगा।' एसपी ने जवाब दिया।
'लेकिन इस तरह के एकदम सिरे से झूठे मामले को लोग एक्सेप्ट कर लेंगे? कहीं ऐसा न हो कि इससे मामला और बिगड़ जाए।' कलेक्टर ने पूछा।
'नहीं सर, मामला एकदम सिरे से झूठा भी नहीं है। दस परसेंट तो कहीं न कहीं कुछ सचाई है। हमें उस दस परसेंट को ही बढ़ा कर पेश करना है।' बहुत देर बात विनय उपाध्याय ने उत्तर दिया।
'कल तक सब कुछ शांत हो जाएगा? मैं ऊपर कह चुका हूँ।' आइजी ने फिर पूछा।
'हो जाएगा सर, आज रात तक ही काफ़ी कुछ ठंडा हो जाएगा।' एसपी ने कुछ लापरवाही के अंदाज़ में कहा।
'तो ठीक है, अब ये आपकी जवाबदारी |
है, मुझे ये बात अलग से कहने की ज़रूरत नहीं है कि मामला गंभीर है।' आइजी ने दोनों हाथ टेबल पर रखते हुए कहा और उठ कर खड़े हो गये।
कुछ ही देर बाद विनय उपाध्याय शहर के बीचों बीच स्थित सबसे ज़्यादा चलने वाली पान की दुकान पर अपने तयशुदा स्टूल पर बैठे थे। भाव भंगिमा गंभीर थी। एक अगरबत्ती की काड़ी से दांत कुरेदते हुए शून्य में ताक रहे थे।
'क्या बात है विनय भैया? आज तबीयत कुछ ठीक नहीं है क्या।' पान वाले ने पान बढ़ाते हुए पूछा।
'हमारी तो ठीक है मोहन, लेकिन लगता है अपने इस शहर की तबीयत अब ठीक नहीं है।' पान हाथ में लेते हुए उत्तर दिया विनय उपाध्याय ने।
'हाँ विनय भैया सो तो है। दिन दहाड़े लौंडे को उठा ले गये और फिर इत्ती बुरी तरह से मार डाला, च-च च।' मोहन ने बात का समर्थन किया।
'वो बात तो अपनी जगह है मोहन, लेकिन अब जो मामले का सुराग लग रहा है, वह तो बहुत गंदा है।' विनय उपाध्याय ने पान को एक तरफ़ के गाल में दबाते हुए कहा।
'क्या सुराग़ लग रहा है?' मोहन ने पान पर कत्था लगाते हाथ को रोक कर पूछा। दुकान पर बैठे बाक़ी के लोग भी इस तरफ़ मुख़ातिब हो गये।
'अब क्या बोलें मोहन अपने ही शहर का मामला है। बोलते में भी बुरा लगता है। जब पुलिस ने लड़के के परिवार वालों के सारे मोबाइलों की कॉल डिटेल्स निकलवाई तो एक मोबाइल से एक ख़ास नंबर पर लम्बी-लम्बी कॉल्स मिली हैं। जब उस नंबर को ट्रेस किया गया तो वह घनश्याम का निकला।' विनय उपाध्याय पान को चुगलते हुए बोल रहे थे।
'घनश्याम?' इस बार गुमठी पर बैठे किसी तीसरे ने पूछा।
'अरे वही, जिसकी होजियरी और अंडर गारमेंट्स की दुकान है यहाँ पीछे वाली गली में। वही रंगीला रतन।' विनय उपाध्याय ने उत्तर दिया।
'फिर?' मोहन की उत्सुकता बढ़ चुकी थी।
'फिर क्या, जब घनश्याम के मोबाइल की कॉल डिटेल्स निकलवाई तो इस तरह की कई सारी कॉल्स मिली हैं। लम्बी लम्बी। सब अलग-अलग नंबरों पर की गईं हैं। सारे नंबर महिलाओं के हैं। शहर भर के अच्छे परिवारों के महिलाओं के और कॉल्स भी ऐसी वैसी नहीं हैं, कोई दो घंटे की है तो कोई ढाई की।' बात ख़तम करके विनय उपाध्याय ने इतमीनान से पान थूक दिया।
'अब...?' मोहन ने फिर पूछा।
'अब क्या? पुलिस घनश्याम को उठवाने वाली है पूछताछ के लिये। मैंने तो मना किया था एसपी साहब को कि मामले को रफा दफा कर दो। बिला वज़ह भले घर की महिलाओं पर बात आयेगी। मगर पुलिस किसी की सुनती है कभी? कहने लगे शहर में इतना तनाव है, लोग प्रदर्शन कर रहे हैं, अब हमें भी तो कुछ न कुछ करना ही होगा ना।' विनय उपाध्याय के स्वर में चिंता घुली हुई थी।
'मगर भैया जी घनश्याम में ऐसा क्या है कि ...?' मोहन ने अधूरी बात इस अंदाज़ में छोड़ दी कि आगे का तो समझने लायक है ही।
'क्यों ...? क्या नहीं है? गोरा चिट्टा है, ऊँचा पूरा है और उस पर होजियरी और लेडीज़ अंडर गारमेंट्स की दुकान चलाता है और क्या चाहिए?' विनय उपाध्याय ने तीखे स्वर में कहा।
'सो तो है।' मोहन को लगा कि प्रश्न ग़लत हो गया।
'मैंने तो अपनी तरफ़ |
से ख़ूब कोशिश की रोकने की, लेकिन क्या करो, अब शहर की क़िस्मत में बदनामी का ठीकरा फूटना लिखा है, तो उसे कौन रोक सकता है।' एक ठंडी सांस छोड़ कर कहा विनय उपाध्याय ने।
'प्रशांत के परिवार में भी?' मोहन की उत्सुकता बरकरार थी।
'वहीं से तो सुराग मिला है पुलिस को। दो-दो घंटे की कॉल्स मिली हैं।' विनय उपाध्याय ने उत्तर दिया।
'उनसे भी होगी पूछताछ?' मोहन पूरी कहानी जान लेना चाह रहा था।
'अब महिलाओं को थाने में बुलाकर तो होगी नहीं पूछताछ। फिर भी घर जाकर तो पुलिस पूछेगी ही। देखो अब क्या होता है। मेरा तो दिमाग़ ही काम नहीं कर रहा है। पुलिस ने नाम नहीं बताये हैं अभी, उससे और टैंशन हो रहा है। पता नहीं कौन-कौन से घरों का नाम उलझता है इस मामले में। जो हो रहा है अच्छा नहीं हो रहा है।' कहते हुए विनय उपाध्याय उठ गये।
'कलजुग है विनय भैया। ख़सम से पूरा नहीं पड़े तो बाहर मुँह मार लो। कौन है रोकने टोकने वाला और अब तो ये मोबाइल।' मोहन की बात अधूरी ही छोड़ कर विनय उपाध्याय दुकान से बढ़ गये।
शाम के बढ़ कर रात होने तक ये चर्चा पूरे शहर में फैल चुकी थी कि प्रशांत हत्याकांड वाले मामले में अपहरण-वपहरण का कोई मामला नहीं है। अपहरण और फिरौती का नाटक तो केवल मामले को उलझाने के लिये रचा गया है। हक़ीक़त में तो ये सीधा-सीधा हत्या का मामला है। प्रशांत को किसी बारे में कुछ ऐसा पता चल गया था कि उसे मार दिया गया। इस चर्चा के फैलने के साथ वह पुछल्ला भी फैल रहा था कि इस मामले की आँच में शहर के कई सारे संभ्रांत परिवार भी आ रहे हैं। ये जो पुछल्ला था ये जहाँ-जहाँ से गुज़र रहा था वहाँ-वहाँ 'प्रशांत अपहरण और हत्या' के कारण पुलिस और प्रशासन के ख़िलाफ़ उपजे आक्रोश को शांत करता जा रहा था। उस कोल्ड ड्रिंक के विज्ञापन की तरह जिसमें |
कहा जाता है 'डर सबको लगता है, ...ती सबकी है।'
और फिर रात को जब एक पुलिस कांस्टेबल घनश्याम को अपने साथ मोटर साइकिल पर बिठा कर शहर के प्रमुख मार्गों का फ़िज़ूल में ही चक्कर लगाता हुआ कोतवाली की तरफ़ गया तो मानो सुगबुगाती-सी चर्चा में बारूदी पंख लग गये। अभी तक जो चर्चा दबे छुपे अंदाज़ में हो रही थी, वह अब खुल कर चौराहे-चौराहे होने लगी। देर रात तक शहर के चौराहे जागते रहे और एक ही बात करते रहे 'होजियरी वाला घनश्याम'।
बात की बात में शहर की चर्चा का रुख़ पलट चुका था? सुब्ह तक जो शहर प्रशांत की हत्या, पुलिस का निकम्मापन, रामकथा और आंदोलन जैसे विषयों पर मुट्ठी भींच-भींच कर चर्चा कर रहा था, शाम होने तक वही शहर 'घनश्याम के जाल में कौन कौन?' पर रस ले लेकर बतिया रहा था। कुछ लोगों ने बाक़ायदा अपने तरफ़ से सूची बनाकर भी प्रस्तुत कर दी थी कि घनश्याम के चक्कर में कौन-कौन से परिवार आये हैं। सुब्ह का आक्रोश रात तक रस में परिवर्तित हो चुका था।
अगली सुब्ह पुलिस और प्रशासन के लिये एक ख़ुशनुमा सुब्ह थी। वे लोग जो कल तक प्रशांत हत्याकांड को लेकर चल रहे आंदोलनों की अगुवाई कर रहे थे, उनमें से अधिकाँश के परिवारों की तरफ़ घनश्याम कांड की सूई घूम रही थी। सो वे सारे अब बड़े इतमिनान से अपने-अपने काम धंधे में लगे हुए थे।
दोपहर होने तक दबी ज़ुबान, फुसफुसाहट और कानाफूसियों में पूरा शहर एक ही बात कर रहा था 'इसका भी नाम आया है, उसका भी नाम आया है।' बाक़ायदा दावे प्रस्तुत किये जा रहे थे। 'वो तो बिल्कुल तय ही है, देखते नहीं हो घंटे-घंटे भर घनश्याम की दुकान पर खड़ी रहती थी और उसके तो घर भी घनश्याम का खुल्ला आना जाना है।'
उधर जो परिवार घनश्याम कांड के घेरे में आ रहे थे वे अपने तौर पर मामले की अंदर ही अंदर पड़ताल भी कर रहे थे। अधिकांश गोपनीय तरीके से विनय उपाध्याय से संपर्क कर चुके थे। विनय उपाध्याय सबको एक ही आश्वासन दे रहे थे 'नहीं नहीं कुछ नहीं है ऐसा और अगर कुछ होगा तो मैं तो हूँ। आपका परिवार मेरा परिवार है। कोई नाम सामने नहीं आयेगा। बस आप ज़रा ये प्रशांत वाले मामले से दूर रहो। क्या है पुलिस बड़ी कुत्ती चीज़ होती है। फिर वह मेरी भी नहीं सुनेंगे और अगर ईश्वर न करे घर की महिलाओं से पूछताछ हो गयी तो इज़्ज़त का तो पंचनामा बन जायेगा, फिर बचेगा ही क्या। आप तो अपना काम संभालो, आपको क्या लेना देना, हत्या, अपहरण, पुलिस से? उसके लिये हम हैं ना।' एक लम्बी-सी बात जिसमें आश्वासन, दिलासा, धमकी, सलाह सब कुछ इतनी सफ़ाई के साथ मिलाया जा रहा था कि सुनने वाले को लग ही नहीं रहा था कि इसमें क्या-क्या है। आख़िर में एक फाइनल चोट के रूप में 'हम परिवार वाले हैं, हमें दस ऊँच नीच का ध्यान रखना चाहिये।' कह कर विनय उपाध्याय पूरे आंदोलन को ठंडा कर देते थे।
यूँ तो हत्याकांड के बाद से ही पुलिस प्रशांत के घर के दिन भर में कई-कई चक्कर काट रही थी, लेकिन आज जब एडीशनल एसपी के साथ पुलिस अमला प्रशांत के घर पहुँचा तो लोगों की उत्स |
ुकता अचानक बढ़ गई। क्यों आई है अचानक पुलिस? उसी मामले में पूछताछ करने आये हैं। लगता है घनश्याम ने सारा कच्चा चिट्ठा खोल दिया है। क्या कोई गिरफ़्तारी होने वाली है। राम-राम कैसा बुरा समय आया है परिवार पर, एक तो जवान जहान लड़का चला गया और उस पर ये कलंक। इस प्रकार की फुसफुसाहटें हवा मैं तैर रहीं थीं। क़रीब घंटे भर तक पुलिस का अमला प्रशांत के घर रहा। इसी बीच विनय उपाध्याय भी वहाँ पहुँचे। एडीशनल एसपी और विनय उपाध्याय ने प्रशांत के पिता और दादा के साथ काफ़ी देर तक बंद कमरे में चर्चा की। बाहर तमाशबीन 'कुछ होने' की प्रतीक्षा में समूहों में खड़े थे। घंटे भर बाद पुलिस का अमला बाहर निकला और गाड़ी में सवार होकर रवाना हो गया। क़रीब पन्द्रह मिनिट बाद विनय उपाध्याय भी एक काग़ज़ लिये निकले और रवाना हो गये। कुछ ही देर बाद एक प्रेस विज्ञप्ति प्रशांत के दादा कि ओर से शहर के सभी अख़बारों के ऑफिसों में बँट चुकी थी। विज्ञप्ति में लिखा था कि दुख की इस घड़ी में पूरे शहर ने जिस प्रकार परिवार का साथ दिया उसके लिये परिवार आभारी है। साथ ही ये अपील भी की थी कि शहर के लोग शांति बनाए रखें। पुलिस हत्यारों को खोजने के लिये हर संभव प्रयास कर रही है। लोगों के बार-बार विरोध प्रदर्शन करने से पुलिस का काम प्रभावित हो रहा है। पुलिस को अपना काम करने दें, हमें पुलिस पर पूरा विश्वास है कि वह जल्द ही हत्यारों को पकड़ लेगी। धैर्य बनाये रखें।
विज्ञप्ति के छपने और सुब्ह का अख़बार बँटने के बाद सारा मामला समाप्त हो चुका था। आक्रोश जो पिछले दो दिन से ही चौराहे हर गली में उफन कर दिख रहा था, वह झााग की तरह बैठ चुका था।
'प्राब्लम सॉल्व हो गई सर।' पप्पू पास हो गया वाले अंदाज़ में आइजी ने मोबाइल पर सूचना दी। ये वही सूचना थी जो था |
ना प्रभारी से एडीशनल एसपी, वहाँ से एसपी और वहाँ से डीआइजी के द्वारा आइजी तक पहुँची थी और अब आइजी से सीधे सीएम तक पहुँच रही थी, बीच के एडीजीपी, डीजीपी वग़ैरह को छोड़ते हुए।
'नहीं सर हत्यारे नहीं पकड़ाये हैं। लेकिन मामले को लेकर जो कुछ भी ऊलजुलूल बातें हो रहीं थीं वह ख़त्म हो गईं हैं। लोग अब आंदोलन या प्रदर्शन नहीं करने को लेकर राज़ी हो गये हैं। हत्यारों को लेकर भी टीम लगी है, लेकिन हमारी प्राथमिकता तो यही थी सर कि ये रामकथा को लेकर जो कुछ चल रहा है वह जल्द से जल्द बंद हो जाये।' आइजी को पूरे मार्क्स आज ही लेने थे।
'जी सर हत्यारे भी पकड़ में आ जाएँगे।'
'जी सर, जी सर, जी सर।'
'सर मैंने एस पी को कह दिया है कि आज राम कथा का समापन है सो ।'
राम कथा का समापन हो रहा था। कथा वाचक आज राम के राज्याभिषेक के साथ समापन कर रहे थे। हालाँकि राज्याभिषेक के बाद सीता का दूसरा वनवास और धरती में समाने की घटनाएँ भी होती हैं, लेकिन वह कहानी के हैप्पी एंडिंग में ख़लल डालती हैं। तो कथा वाचक इसीलिये राज्याभिषेक पर ही समापन कर रहे थे।
'यही है राम राज्य'
'यही है राम राज्य'
'यही है राम राज्य'।
तिलखिरिया में देर रात तेज़ बारिश हुई। बारिश जो धोती रही, घोलती रही उस ख़ून को, जो वहाँ घांस पर, पत्तों पर, ज़मीन पर बिखरा था। ख़ून जो सूख चुका था। बारिश उसको घोलकर बहाती रही उस नाले की तरफ़ जो खेत से सटकर बहता था। नाला, जो आगे जाकर उस नदी में मिलता था जो ज़िला मुख्यालय से होती हुई बहती थी और आगे जाकर चंबल में गिरती थी। वही चंबल जो गंगा में मिलती है और वही गंगा जो सागर में जाकर समाप्त होती है। रात भर बारिश ख़ून को बहाती रही नाले की तरफ। जब सुब्ह हुई तो बरसात थम चुकी थी। सूरज निकल चुका था। धुली-धुली धूप में चमक रहे थे कंकड़, पत्थर, तिनके, घांस और मिट्टी, ख़ून का कहीं कोई निशान नहीं था।
पूरी रात का सफ़र करता हुआ, नाले से नदी और नदी के साथ ज़िला मुख्यालय पहुँचा ख़ून अल सुबह ज़िला मुख्यालय से होकर बह रहा था। जब ये ख़ून वहाँ से होकर बहा तब शहर पूरी तरह शांत और ठंडा था, लाश की तरह ठंडा और मौत की तरह शांत।
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আহ! তোমরা হলে সেই সর্বশেষ অনন্যসাধারণ বসতি যারা ব্ল্যাক ড্রাগনের পতাকাতলে আসেনি।
নিরাপদ রাখতেই এসেছে।
আনুগত্য স্বীকার করতে হবে সাথে সামান্য কর দিতে হবে।
তোমাদের দ্বিধাটা দেখতে পাচ্ছি আমি।
তার সাথে পরিচয় করিয়ে দেই।
ব্ল্যাক ড্রাগনের দলপতি।
ওয়েস্টল্যান্ডের অধিপতি।
সবাই কুর্নিশ করো... কিং ক্যানো।
হুজুর ভালো কাজ দেখিয়েছো, শ্যাং সুং।
দু'জনকে নিয়ে যাচ্ছ না কেন?
ধন্যবাদ মহারাজ।
শুভদিন, ভাইসব।
একটা ছোট্ট গল্প শোনালে কেমন হয়?
স্থূল, বিরক্ত ও উদ্দেশ্যহীন হয়ে।
ছোট্ট এককোণে পালিয়ে এলে।
কিন্তু রেভেন্যান্টরা হানা দিতেই থাকলো।
এখন, তোমাদের সম্পদ অপ্রতুল।
মৃত্যুর ভয়ে দিশেহারা তোমরা।
কিন্তু আমার পতাকাতলে তোমরা আবারো উদ্দেশ্য খুঁজে পাবে।
তোমাদের নিরামিষ জীবন তার মানে খুঁজে পাবে।
চিরতরে ওয়েস্টল্যান্ড দখলে নেবার সময় হয়েছে।
তোমাদের কেবল বাকিটা আমি সামলে নেবো।
এইতো লক্ষ্মী জনগণ।
ব্ল্যাক ড্রাগনে স্বাগতম! কুদরতে জাহান জিনিয়া, তাহমিদ শাহরিয়ার সাদমান।
হাহ?
গুড রেটিং দিতে ভুলবেন না।
না! ভাই, না! হেই, বুড়ো।
কোথায় যাচ্ছ?
এখানে বহুমাইল জুড়ে তো কিছুই নেই।
হাহ? হেই।
কোবরা, কাবাল, দেখো।
সব তরতাজা।
এসব কোথায় পেয়েছ, হাহ?
তুই বয়রা নাকি?
তোর সাথে কথা বলছি।
তোকে খুন করবো আমি।
না, আমাকে বুঝিয়ে বলতে দাও।
আমরা তোমার ক্ষতি করতে চাই না, মুরুব্বি।
আর কোথায় নিয়ে যাচ্ছ।
তাহলেই তোমাকে ছেড়ে দেবো।
বেশ। তোমার যা মর্জি।
এখনো বেশি দেরি হয়নি।
কোথায় যাচ্ছিলে তুমি?
কোন ধরনের কাপুরুষ মারের জবাব দেয় না?
যা ইচ্ছে নিয়ে নাও।
সে কোথাও যাচ্ছিলো।
আর জায়গাটা খুঁজে বের করতে চাই আমি।
চলো, রাত হয়ে যাচ্ছে।
এখনই না।
ওই বুড়োটা কোথাও যাচ্ছিলো।
হয়তো লোকটা পাগল।
মরুভূমিতে থাকলে এরকম হয়।
তোমার তো জানার কথা।
কিং ক্যানো'র ধমক শোনার আগেই ফিরে চলো।
যখন মন চাইবে তখন ফিরে যাবো।
কিং ক্যানো মরুক গে! সাবধানে কথা বলো, কাবাল।
সে অন্যধাতুতে গড়া।
খুব খারাপ, খুব শক্তিশালী কিছুর।
কথাটা মনে রাখলেই ভালো করবে।
দেখো দেখি কারবার?
মার দিয়া কেল্লা।
অবস্থা দেখো সবার।
আমরা কারা কোনো ধারণাই নেই তাদের।
খাবার, বিদ্যুৎ, হ্যাঁ।
ক্যানো খুশিতে গদগদ করবে।
যদি তাকে বলি আরকি।
হেই, ওটার জন্য পয়সা জানো, এটা আমাদের সুযোগ হতে পারে।
এই ব্যাপারে তো আগেও কথা বলেছি।
তাছাড়া দেখো দারুণভাবে লুকানো, খাবারে পরিপূর্ণ।
শহরে যে আবর্জনা খাই তারচেয়ে বহুত ভালো।
আমাদের দখল নিতে দেবে।
এছাড়া আর কী করবে ওরা?
ভাবছ এখানকার কেউ রুখে দাঁড়াবে?
একজনকে চিনি যে দাঁড়াতেও পারে।
উহ, মনে হচ্ছে এক নায়ককে পেয়ে গেছি।
আমি ব্যস একজন প্রতিদ্বন্দী খুঁজছি।
তোমাদের দিয়েই কাজ চালাতে হবে।
আমাকে কেলাতে চাইছে।
আমি তোমাকে কেলাতে চাই না।
তোমাদের তিনজনকেই কেলাতে চাই আমি।
কোবরা, শালাকে সাইজ করো।
সানন্দে।
তোকে এর মূল্য দিতে হবে।
তোকে খুন করবো আমি! মস্তবড় ভুল করে ফেললি তুই।
এটাই শেষ ভুল হবে না।
আমি হলে বড়াই করতাম না।
কী করেছ তা বুঝতে পারছ?
শুনুন, আপনাদের সাহায্য করতে একাজ করিনি।
একজন যোগ্য প্রতিদ্বন্দী এনে দেবে আমাক |
ে।
না।
ওদেরকে চেনো না তুমি?
ওরা হচ্ছে ব্ল্যাক ড্রাগনের সদস্য।
ওয়েস্টল্যান্ডের সবচেয়ে দুর্ধর্ষ ডাকাতদল।
আমরা কেউই রেহাই পাবো না।
ফিরে আসবে? হুম।
হয়তো কিছুদিন থেকে যাবো এখানে।
কী করছো?
ফাজলামো বন্ধ করো।
দেখো অবস্থা।
এবার তোমাকে বাগে পেয়ে গেছে।
মারো! না, সে আহত।
আমি তাকে খুন ধন্যবাদ, কিং ক্যানো।
আহা, মরে গেল।
যাক, মজাই লাগলো।
ওহ, বাচ্চুরা ফিরে এসেছে।
পাজির দলেরা কোথায় ছিলে?
আমরা আরেকটা বসতি পেয়েছি।
দারুণ সুরক্ষিত ছিল শহরটা।
আমরা ফিরে ওদের মোকাবেলা করবো।
সবকয়টাকে মেরে ফেলবো।
আমাদের খামোশ! ট্রেমার।
ওখান থেকে ঘুরে আসছো না কেন?
রক্ষীদের ভীতুর ডিম বানিয়ে ছাড়লো।
জি, কিং ক্যানো।
শ্যাং সুং?
তুমি আবার কোথায় হাওয়া হলে?
বু! হুজুর, আপনার পানীয় রেখে যাচ্ছিলাম আমি।
জানি পুরো এক বোতল খেতে পছন্দ করেন আপনি।
হ্যাঁ। হ্যাঁ, বটে।
আহ।
ওহ, দুঃখিত।
যদি আর কোনো আমার হয়ে একটা কাজ করে দাও।
হুকুম করুন।
ট্রেমার'কে অনুসরণ করো।
এক ছোট্ট শহরে যাচ্ছে সে।
হুজুর, এখানে তো অনেক কাজ। আমি মহারাজ যা বলবেন তাই করবো।
হ্যাঁ? হ্যাঁ।
অনেকদিন ধরেই দল ছাড়ার পরিকল্পনা করছে।
লোকদের কীভাবে দেখি তাতো জানোই?
জি, মহারাজ।
হ্যাঁ। যাও।
যা দেখবে তা সত্যি করে আমাকে জানাবে।
আপনার যা মর্জি।
আর বেশিদিন নেই।
আহ! কুয়েই, তোমাকে তো গতকাল দেখলাম না।
কাজে আটকে পড়েছিলাম।
আবারও তোমার কথা জিজ্ঞেস করছিল।
আমি বলেছি তুমি হিজড়া।
দুঃখজনকভাবে তাতেও দমেছে বলে মনে হয় না।
ভদ্রমহিলাগণ অসম্ভব।
ভালোই ফসল নিয়ে এসেছেন দেখছি।
এতো ফল কখনো ফলতে দেখিনি।
এরজন্য প্রচুর পানির প্রয়োজন, অথবা বেশিকিছু শিখিয়েছে আপনাকে, হাহ?
আপনার ট্যাটুটা দেখেছি।
লোকে যা বলে তা কি সত্য?
যে লিন কুয়েই দুনিয়ার সবচেয়ে ভয়ঙ্কর যোদ্ধা ছিল?
এমন গল্প কখনো শুনিনি। দুঃখিত।
এই ছোকরা কি তোমাকে বিরক্ত |
করছে?
না। না, না, না। ভুল হয়ে গেছে।
তাকে অন্যকেউ ভেবেছিলাম।
কখনো শোনেননি, হাহ?
কুয়েই, তুমি কি চাও আমি কী চাও তুমি?
আমি কী চাই?
দুনিয়ার সর্বশ্রেষ্ঠ যোদ্ধা হতে চাই।
যা জানেন তা সব আমাকে শেখান।
নিজেদের শ্রেষ্ঠ প্রমাণ করতে চায় তারা কেবল একটা জিনিসই জানে।
আচ্ছা, সেটা কী?
তারা কিছুই জানে না।
আপনাকে পয়সা দেবো।
অনেক কামিয়েছি আমি, আর তোমার টাকা চাই না আমি।
আমি ব্যস শান্তিতে একা থাকতে চাই।
শান্তি?
শাসন করলেই কেবল শান্তি আসবে।
আরো দোস্ত নিয়ে এসেছো।
দক্ষ লোকের খোঁজে থাকেন ব্ল্যাক ড্রাগনে ভেড়ানোর জন্যে।
তো কী বলো?
দাদাদের সাথে হুকুমত চালাতে চাও?
কুকুর ছানার মতোই বেশি লাগে।
অন্য পথ সবসময়ই খোলা থাকে।
আমার আগের কথাবার্তায় ফিরে যাওয়ার?
হাঁটু গেড়ে বসে ক্ষমা চাইবার।
বেরোও এখান থেকে! তোমাদের লোকদের চাই না ব্ল্যাক ড্রাগন হচ্ছে চোর আর কাপুরুষদের দল।
আমাকে বাধ্য করাতে হবে।
তাকাহাশি?
এখানে না।
সামনে থেকে সরে যাও, বুড়ো।
এটা লড়াইয়ের ময়দান নয়।
সব জায়গাই লড়াইয়ের ময়দান।
আমরা চলে যাবো কথা দিচ্ছি।
আমার সামনে কেউ হাঁটু গেড়ে বসার পরপরই।
হা! এসো, কুয়েই।
তোমাকে সাহায্য করি।
বুড়োদের সাথে লেগে মজা পাস?
আমার সাথে লাগলে কেমন হয়?
লাগলে কিছু মনে করিস না।
অনেক হয়েছে! ভর্তা বানাও! হ্যাঁ! এতেই শিক্ষা হবে।
আমার কাছে ক্ষমা চাইবার কথা তোর।
হুম। তোর যা মর্জি।
এটা একটা শিক্ষা হয়ে থাকুক।
সামনে দাঁড়ানোর মুরোদ কারোরই নেই।
আর তোমরা তাকে কুর্নিশ করবে।
তোমাদের পরিণতিও তাই হবে।
ট্রেমার! প্লিজ, আমাকে সাহায্য করতে দাও।
ধন্য... ধন্যবাদ।
সং। আমার নাম সং।
সাহায্যের জন্য ধন্যবাদ, সং।
ওখানে। বসো।
তোমার অবস্থানে ছিলাম।
তুমি একজন অসাধারণ যোদ্ধা।
তাদের সামনে সবাই নস্যি।
যদিনা যদিনা কী?
ব্যাপারটা বড্ডো বিপজ্জনক।
কথাটা ভুলে যাও প্লিজ, কী?
একটা তলোয়ার আছে।
লোকে বলে ওটার অবিশ্বাস্য শক্তি আছে।
যার সাথে লড়েছো তার চাইতেও বেশি শক্তি।
কিং ক্যানো'র চাইতেও বেশি শক্তি।
আমাকে নিয়ে চলুন।
চ্যাম্পিয়ন হবার কপাল আমার কখনোই হবে না।
যদি ওরকম অস্ত্রের কথা জেনে থাকেন তলোয়ার।
হ্যাঁ। তলোয়ার।
প্লিজ। আমাকে সাহায্য করুন।
অবশ্যই তোমাকে সাহায্য করবো আমি।
এসো।
আমি সব ব্যবস্থা করবো।
আর তারপর, তুমি তোমার পাওয়ার পাবে।
সাথে তোমার প্রতিশোধও।
ওই যে।
ওখানে।
ওই যে।
ওখানে।
এই এই চিহ্নগুলো এই ভাষাটা আমি পড়তে পারছি।
এটা আমার পূর্বপুরুষেরা বানিয়েছিলেন।
এটা আমার নিয়তি।
ধ্যাত্তেরি! এটা খুলছে না।
ব্লাড ম্যাজিক।
এই নাও।
কী করছেন?
সীলে তোমার হাত রাখো।
কী দেখতে পাচ্ছো?
কিছুই না। একদম খালি।
না, না, দাঁড়ান।
একটা আলো দেখা যাচ্ছে।
এটা... এটা উজ্জ্বল হচ্ছে।
হ্যাঁ।
হ্যাঁ, অবশেষে।
সং, সং! আমার চোখ! সং, সাহায্য করুন! সং।
না।
আমার নাম ...শ্যাং সুং।
শ্যাং সুং।
আমি জানি নামটা।
জগতসমূহের মধ্যে সর্বশক্তিশালী।
ক্যানোর আগে।
নিজের অধিকার ছিনিয়ে নেবো।
তোমার আত্মাগুলো আমার।
ইয়েস! এই শক্তি।
এই শক্তি! ক্যানো এবার বুঝবে দাসত্বের মজা।
সবাই বুঝবে।
আর তুমি, কেনশি।
তোমাকে কী করতে পারি?
আমায়. |
.. মেরে ফেলো।
আমি এভাবে বাঁচতে তোমার যা ইচ্ছা।
কেনশি।
কে কী... কী তোমার পরিচয়?
সেন্টো।
আমি তোমারই।
আমায় তোলো আর দেখো।
অসম্ভব।
ওঠো।
ওঠো।
একজন... জাদুকর।
সেন্টো।
আমি... দেখতে পাচ্ছি।
আমি দেখতে পাচ্ছি।
ইয়াহ! কোন সাহসে এলে?
দাঁড়াও।
শ্যাং সুং।
আমি উপায় খুঁজতে গিয়েছিলাম।
ওহ।
আত্মাকূপটা খুঁজে পেয়েছ তাহলে।
বিস্মিত হয়েছ?
এসো এবার।
পাঠিয়েছিলাম বলে ভাবো?
এমন লড়াই আগেও করেছি।
চ্যালেঞ্জের মুখে ফেলবে।
চ্যলেঞ্জ দেখতে চাও?
বেশ।
না! ওহ, স্যরি বন্ধু।
ছিলো না তোমার।
হাহ, খারাপ না।
একটু একটু করে বাড়ছে।
বাজে বকার সময় শেষ।
তোমার আত্মা আমার।
আহহ! ওহ! আহ, ওহ, আহ, আহ! অসম্ভব। তোমার আত্মা আহা বন্ধু।
আমি ওসবের উর্ধ্বে।
ভিন্ন কিছু করবে।
সেটা হবে তুমি।
কিন্তু না।
আবারও আগের মতোই।
তুমি।
তুমি সেই আগের কর্তৃত্ববাজ, অসভ্য জাদুকর সে অন্যদের অবমূল্যায়ন করে।
তুমি আমাকে হারাতে পারবে না! কেউ পারবে না।
আমি এই জগত বানিয়েছি।
আর আমি এটাকে আরও বহুবার বানাবো।
পরবর্তী বারের জন্য শুভকামনা।
কেউই হারাতে পারেনা ক্যানোকে।
কেউ না! ক্যানো! ক্যানো! ক্যানো! না, না শ্যাং সুং আআমার চোখ।
থামো! ওঠো! সুস্থির হয়ে বসো।
কোথায়... কোথায় আমি?
আমার ঘরে।
এই নাও। পান করো।
ধীরেসুস্থে। আরও আছে।
ধন্যবাদ।
আআপনি যেই হোন না কেন।
আমার নাম কুয়াই লিয়াং।
যেমনটা বাজারে করেছিলে।
কুয়াই... লিন কুয়েই।
আমি দুঃখিত পূর্বের আচরণের জন্য।
সাহায্য করায় ধন্যবাদ।
আমি সাহায্য করছি না।
মৃতেরা ছুটে আসতো।
এখানে বিশ্রাম নিতে পারো।
কিন্তু তারপর, চলে যাবে।
তাহলে আর দেরি কেন?
একটা তরবারি নিয়ে এসেছিলাম।
কোথায় সেটা?
তুমি এখনো যথেষ্ট সবল নও।
চাইলে না।
আপনাকে কষ্ট দিতে চাই না।
সাবধানে। সামনে একটা টেবিল।
আমার তরবারি! এটা মূল্যহীন।
সবকিছুই।
এখন থেকে।
আমার পূর্বের চেয়ে অনেক অক্ষম। |
শ্রেষ্ঠ যোদ্ধা হতে চাচ্ছিলে।
এমনটাই বলেছিলে না?
সেটা আগের কথা।
তখন তুমি ছিলে অন্ধ।
তখন, আমি আক্রান্ত হয়েছিলাম।
শ্যাং সুংএর চালের শিকার হয়েছিলাম।
কি অর্থহীন হয়ে পড়েছ?
তাহলে কথাটাই সত্যি।
তুমি কিছু জানো না।
বাচ্চা রয়ে গেছো।
তোমাকে দাফন করতে পারি।
সে আমার সম্মান কেড়ে নিয়েছে।
অনেক কিছু আছে।
যেমন?
বেঁচে থাকা।
টিকে থাকা।
কোথায় যাচ্ছেন?
ভেতরে।
চাইলে আসতে পারো।
ব্যবহার শেখাবো।
বের করতে পারি।
না, তোমাকে শুধু বাঁচতে শেখাবো।
মরতে নয়।
বুঝতে পেরেছ?
এখন বিশ্রাম নাও।
আগামীকাল, প্রশিক্ষণ চলবে।
মুরগিটাকে ধরো।
কীভাবে ধরবো আহ! কথা না বলার মাধ্যমে।
শোনো।
বাতাসের শব্দ শোনো।
শোনো শস্যের মর্মরধ্বনি।
হ্যাঁ।
ওগুলোর প্রয়োজন নেই।
একমাত্র যেটার প্রয়োজন সেটা হচ্ছে এই মুরগি।
দেয়ালে ওটা কী?
দ্যুতি ছড়াচ্ছে।
এটা শক্তিশালী।
একটা অঙ্গীকার।
মাধ্যমে তুমি দেখতে পাও।
কীভাবে জানলেন করে এসেছি আমি।
এটার নাম সেন্টো।
এটা, আমার সাথে কথা বলে।
ফিসফিস করে।
কোনো রকম।
ব্যাখ্যা করো।
কঠিন কিছুটা।
অবয়বটা দেখতে পাবেন।
কিন্তু কিছু একটা আছে।
এটাই সেই... কিছু একটা।
হ্যাঁ, মনে হচ্ছে আমি হেই, স্যুপটাতে কী দিয়েছেন?
ঘুমের ঔষধ।
নাকের ব্যবহার করতে পারতে।
না! ভাই, না! ভাই?
আমি তোমার ভাই নই।
আমিই তুমি।
না! হ্যাঁ।
কুয়াই।
কুয়েই! কুয়াই।
কুয়েই! তুমি নিশ্চয়ই স্বপ্ন দেখছ।
আমি ভাবলাম হয়তো উঠে পড়েছ। ভালো।
আমার সাথে এসো।
প্রস্তুত?
না! আমি কী করছি আসলে?
আমি তরমুজটা ফেলে দেবো।
ছুরিটাকে ডাক দেবে তুমি।
আর এটা যদি কাজ না করে?
চেষ্টা করেই দেখা যাক, নাকি?
ভালোমতো চেষ্টা করে দেখা যাক।
শেষ করে ফেলো। এতে কাজ হচ্ছে না।
তোমার নিজের ওপরে বিশ্বাস নেই।
নিজের ওপর বিশ্বাস?
বিশ্বাস করার মতো তো কিছু নেই আমার মাঝে।
একসময়ে আমি একজন মহান যোদ্ধা ছিলাম।
কেউ আমাকে হারাতে পারত না, কেউ না।
অন্তত এটুকু সম্পদ ছিল আমার।
আর এখন যে সারাদিন মুরগি তাড়া করে ফেরে।
আর এরকমই থাকবে তুমি সবসময়ে।
এজন্যই তুমি ব্যর্থ হচ্ছ।
তোমাকে প্রশিক্ষণ দিতে কেন রাজি হয়েছি জানো?
আমাকে করুণা করে।
না।
কারণ তোমার জায়গায় আমিও ছিলাম একদিন।
নিজেকে এত নিচু মনে হত যে মৃত্যু কামনা করতাম।
আশেপাশের পরিস্থিতিকে দায়ী করে।
আসল পুরুষেরা নিজের পরিস্থিতিকে বদলায়।
ঐ কাঠের টুকরোটাকে তুলে নাও।
আমি পারব না।
তোলো।
ঠিক ভঙ্গীতে দাঁড়াও।
ঠিক ভঙ্গীতে দাঁড়াও! এখনই সব শেষ করে দেবো।
আমার পায়ের শব্দ শোনো।
আমার ঘ্রাণ শোঁখো।
তোমার আশেপাশের বাতাসকে অনুভব করো।
বেশি আওয়াজ করছি না?
ভিনেগারের থেকেও বাজে গন্ধ আসছে না?
তুমি কী হতে পারো, তা নিয়ে ভাবো।
বিষাক্ত কথা আর হয় না।
তুমি বিশ্বাস রাখলেই পারবে।
হাত মেলালেও তুমি পারবে।
তুমি পারবে।
বুঝেছ?
না। তুমি এটায় বিষ মিশিয়েছ।
না, কিন্তু এটা বিষের চেয়েও খারাপ খেতে।
ঘরে বানানো।
তোমাকে একটা কথা জিজ্ঞেস করব।
তোমার নড়াচড়া দেখেছি আমি।
তোমার...শক্তিমত্তা দেখেছি।
তাহলে তুমি কেন ব্ল্যাক ড্রাগনের সামনে হাঁটু গেড়ে বসো?
হ্যাঁ।
তুমি হলে লিন কুয়েই। তুমি চাইলে আমি লিন কুয়েই ছিলাম।
অনেকদিন আগে, ওয় |
েস্টল্যান্ডের আগে এই সবকিছুর আগে এবং সম্মানিত যোদ্ধাদের একদম হয়ে উঠেছিলাম।
তারপর এলো রেভেন্যান্টেরা।
ওরা ছেয়ে ফেলল গোটা শহর, গোটা দেশ।
অনেকে ভেবেছিল এসব করে কোনো লাভ নেই।
কিন্তু আমার গর্ব টিকে ছিল।
লিন কুয়েইকে হারাবে ওরা, ভাবিনি।
রেভেন্যান্টমুক্ত করার চেষ্টা করছিলাম।
কিন্তু ওরা সবখানে ছড়িয়ে ছিল।
এক মৌচাক মৌমাছির মতো।
আমি জানতাম আমরা মারা পড়ব।
কিন্তু আমি ভেবেছিলাম ক্রায়োম্যান্সি কী, জানো?
না।
এক ধরনের ক্ষমতা।
এটা আমার এক ধরনের ক্ষমতা।
এক বরফ ঝড়কে ডেকে আনলাম আমি।
কিন্তু আমি নিয়ন্ত্রণ হারিয়ে ফেলেছিলাম।
স্বপ্নগুলো।
আমার পক্ষে সম্ভব না।
আমি ভুল ভেবেছিলাম।
ঝড়টা শহরটাকে ছিন্নভিন্ন করে দিলো।
রেভেন্যান্টেরা মরল।
নিরীহ মানুষেরা মরল।
আমার গোত্রের লোকেরা মরল।
আমি একাই বেঁচে আছি।
মৃত্যুই কেবল মৃত্যুকে বেছে নেয়।
যে সরীসৃপ নিজেই নিজের লেজ খেয়ে ফেলে।
শপথ নিয়েছিলাম আমি।
কখনো নিয়ন্ত্রণ না হারাবার শপথ নিয়েছিলাম।
যথাযথ কারণ থাকলেও করবে না?
কোনটা যথাযথ কারণ?
আমি নিজেকে থামাতে পারব না।
তারপর ওই ঝড় আবার ফিরে আসবে।
তাই তোমার প্রশ্নের জবাব দিয়ে বলি।
তাহলে আমি হাঁটু গেড়েই থাকব।
আমি দুঃখিত।
আমিও।
ইয়েস! বিজয় আমার! আমি পাখিটা ধরেছি! ভালো। রাতে রাঁধার জন্য প্রস্তুত করো।
কী? না! সিমোনকে না! আরেকটা খুঁজে বের করতে হবে।
ধোঁয়া। কী হয়েছে?
বিপদ।
এই তাহলে অবস্থা।
ওহ, তোমরা লুকানোয় খুঁজে পেতে একটু সময় লাগল।
কাছ থেকে পালাতে চাইছ।
তোমাদেরকে আর লুকিয়ে থাকতে হবে না।
আমি তোমাদের দায়িত্ব নেবো।
হাঁটু গেড়ে বসতে হবে তোমাদের।
খুন করিয়ে ছাড়বে! ওহ! সাহস দেখাচ্ছে ও! এরকম তো আগে দেখিনি! কী হবে, তা জানো, বুড়ো?
আমি কারো সামনে হাঁটু গেড়ে বসব না।
বেশ, আমাকে মেরে ফেলো তাহলে।
কিন্তু আমি একজন মুক্ত মানুষের মতো মরব।
বুক চিতিয়ে মরব।
হাঁ |
টু গেড়ে কাপুরুষের মতো না।
ওহ, আমার পছন্দ হয়েছে তোমাকে।
বুঝেছ বুড়ো, তোমাকে আসলেই পছন্দ হয়েছে।
ব্যাং! স্বাধীনতায় খাজনার চেয়ে বাজনা বেশি।
কী? কী হয়েছে?
ব্ল্যাক ড্রাগন আছে ওখানে।
ওখানকার লোকদেরকে আনুগত্য স্বীকার করিয়েছে তারা।
এসো।
আমরা ওদের ছেড়ে আসতে পারি না।
এভাবে না।
আমরা পারব আর আমরা তাই করব।
না, এটা ঠিক না।
ক্ষমতা আছে যেহেতু।
ওখানে গেলে তুমি মরবে।
যাতে তুমি বাঁচতে পারো, মনে নেই?
মানুষের দরকারে তাদের সাহায্য করতে বলেছ তুমি।
না। আমি সেটা বলতে চাইনি! কোথায় থাকতাম আমি?
এটা তো একই না। আমি পারব না বিষাক্ত আর কিছু নেই।
মানুষ কি নিজের পরিস্থিতি বদলাতে পারে না?
নাকি তোমার সব কথাই মিথ্যা?
আমি তোমাকে ছাড়তে পারি না।
তুমি আমাকে থামাতে পারবে না! আমি লিন কুয়েই নই, মনে নেই?
রেভেন্যান্টদের হাত থেকে বাঁচাতে ব্যর্থ হয়েছ।
না, আমি সেটা বোঝাইনি ভালো। যাও।
যথেষ্ট হয়েছে! ফার্মে ফিরে এসো।
ওদেরকে এড়িয়ে সুন্দর একটা জীবন কাটাবো আমরা।
একটা সুন্দর জীবন?
আমি হ্যাঁ বলতাম।
ভালো পথ শিখিয়েছ।
কিছু করিনি, এ বোধ নিয়ে বাঁচতে পারব না আমি।
কিংবা আরো করুণ পরিণতি হবে ওদের।
তোমার গর্বই তোমার পতন ডেকে আনবে।
সঠিক কাজ করা গর্বের বিষয় না।
মর্যাদার বিষয়।
তুমিই আমাকে দেখিয়েছ সেটা।
আমি আমারটা হারাবো না।
আরে আশ্চর্যl?
অতিথি পেয়ে গেছি আমরা।
লজ্জা পেও না! সামনে এসে দেখা দাও।
নইলে আমি তোমাদের সবাইকে খুন করব।
আরে, এই লোকের বিচি আছে দেখা যায়।
অ্যাই, জ্যারেক।
ওকে মেরে ফেলো।
এভাবে বসে থেকো না! সবাই উঠে দাঁড়াও! অন্ধ বুড়ো, মরার সময় হয়েছে তোর।
না! ওকে মেরো না।
এখনই না।
বেশ, ওটা..
ওটা নতুন, অপ্রত্যাশিত।
তুমি জানো ওটা কত দুর্লভ?
হয়তো ভালোই লাগবে আমার।
ওকে আমাদের সাথে কেটাউনে নিয়ে চলো।
ওকে দেখিয়ে একটা উপযুক্ত শিক্ষা দেয়া যাবে সবাইকে।
মানুষকে অনুপ্রাণিত করা যাবে।
আমি এসেছি, প্রতিজ্ঞা রেখেছি।
তুমি কি আবার নিয়ন্ত্রণ হারিয়ে ফেলেছিলে?
এখনো না।
আউ! কেনশি, এই ছুরির ধার তো অনেক।
দাঁতে কিছু আটকালে এটা কাজে আসবে।
তোমার কী মনে হয়?
হাত দেবার অধিকার নেই তোর! অধিকার শুধু একটাই, মৃত্যু।
এখানেই শেষ হয়ে যাবে, খোকা।
আহ! আরেকটা সুযোগ দিচ্ছি।
তুমি ঐ ছোরাটা চালানো শিখলে কী করে?
ঠিক আছে, এরন! ছেলেটাকে মেরে ফেলো।
ও যেন তিলে তিলে কষ্ট পেয়ে মরে।
আহ! আহ! নাকি আমারই এমন লাগছে?
বালুঝড় উঠেছে?
না তুষারঝড় অনিয়ন্ত্রণযোগ্য এক তুষারঝড়।
জানতে চেয়েছিলে।
ও চলে এসেছে।
ওকে কোনোভাবেই তোমরা আটকাতে পারবে না।
আহ। দারুণ, দারুণ।
যেন শতাব্দীর পর দেখা হল।
এতদিন কোথায় লুকিয়ে ছিলে তুমি?
আহো ভাতিজা আহো! ইয়েস! ইয়েস, ইয়েস! এমন একশনেরই তো অপেক্ষায় ছিলাম আমি।
বাকিদের তুমি সামলাতে পারবে ও বলল।
হাহ? এটার মানে কী?
এই না হলে মজা?
এবার মরার পালা! আমি ওটা করতাম না।
এদিকে আয় শালা।
অনেক সময় লাগালে তুমি।
স্যরি, একটু জালে ফেঁসেছিলাম।
কেউই হারাতে পারেনা ক্যানোকে।
কেউই হারাতে পারেনা ক্যানোকে! না। এটা আমার লড়াই।
হত্যা করো ক্যানো! তুমি কী?
এটাই। কিছুই না।
কিছুই না! আমি কেনশি তাকাহাশি।
আ |
র তুমি শেষ।
ওহ৷ এই যে।
আমাকে হারাতে পারবে ভেবেছ?
নির্দয় কাকে বলে।
এসবের মানে কী?
অবাক লাগছে?
আমি নিজেও অবাক হয়েছিলাম।
সময় আর ইতিহাস পালটে দেওয়া যায়।
তুমি তুমি এসব করেছ?
হ্যাঁ, আমি করেছি।
যেমনটা তাদের পাওয়া উচিত।
ওয়েস্টল্যান্ড? রেভেন্যান্টদের?
ওদের ভয় দেখিয়ে বাগে আনা সোজা।
একঘেয়ে লাগা শুরু হয়েছিল, বুঝলে?
তারপর তুমি এলে।
আবার শুরু করলে কেন?
যখন আশেপাশের সব তছনছ হয়ে যায়।
বন্ধু।
তাহলে, সোজা আঙুলে ঘি উঠবে না।
ভালই লাগে, সত্যিই।
তোমাকে আসলেই আমাকে ভাল লাগে।
একটা কথা বলি।
আর তোমাকে হয়ত আমি রাজা বানিয়ে দেবোউম অ্যান্টার্কটিকার! আমি কারও বশ্যতা স্বীকার করি না।
ধুর্বাল! ক্যানো কোথায়?
ঘুমের দেশে।
ওয়েস্টল্যান্ড এখন স্বাধীন।
রেভেন্যান্টদের মেরে সাফ করে, আমরা না।
না?
তুমি ঠিক বলেছিলে।
অন্যকে সাহায্য করা উচিত।
আমি ভুলে গিয়েছিলাম।
আত্মমর্যাদা কিছুটা হলেও ফিরে পেয়েছি।
ধন্যবাদ।
আমার পাশে থেকে সাহায্য করো।
মনে আছে?
আমি এখনও তা অনুভব করছি।
এটা নিয়ন্ত্রণ করা অসম্ভব।
ও রাখবে।
কী শপথ?
কীসের কথা বলছ?
আমরা সব আবারও শুরু করতে পারি।
গঠন করতে পারি আর ওটা আমি তোমার হাতে ছেড়ে দিলাম।
সময় হয়ে গেছে।
আমি বুঝলাম না।
লিন কুয়েই, তোমার সাম্রাজ্য তুমিই এখন লিন কুয়েই এর প্রতিনিধি।
অন্যদের খুঁজে বের করো।
প্রশিক্ষণ দাও।
আরও অনেক বিপদ আছে সামনে।
তুমি তা সামলাতে পারবে।
গুড রেটিং দেবেন।
আহ!
তোমরা হলে সেই সর্বশেষ অনন্যসাধারণ বসতি...
যারা ব্ল্যাক ড্রাগনের পতাকাতলে আসেনি।
আর যাই শুনে থাকো না কেন,
ব্ল্যাক ড্রাগন তোমাদের রক্ষা করতেই এসেছে,
নিরাপদ রাখতেই এসেছে।
বিনিময়ে তোমাদের শুধু
আনুগত্য স্বীকার করতে হবে...
সাথে সামান্য কর দিতে হবে।
তোমাদের দ্বিধাটা দেখতে পাচ্ছি আমি।
তাই, যিনি তোমাদের রাজি করাবেন
তার সাথে পরিচয় করিয়ে দেই।
ব |
্ল্যাক ড্রাগনের দলপতি।
ওয়েস্টল্যান্ডের অধিপতি।
সবাই কুর্নিশ করো... কিং ক্যানো।
হুজুর...
ভালো কাজ দেখিয়েছো, শ্যাং সুং।
রাতের ভুরিভোজের জন্য
দু'জনকে নিয়ে যাচ্ছ না কেন?
ধন্যবাদ...
মহারাজ।
শুভদিন, ভাইসব।
একটা ছোট্ট গল্প শোনালে কেমন হয়?
একদা, ওয়েস্টল্যান্ড,
রেভেন্যান্টদের গোড়াপত্তনের আগে,
তোমরা সবাই একসাথে
ছোট্ট বাক্সে বসবাস করতে,
স্থূল, বিরক্ত ও উদ্দেশ্যহীন হয়ে।
তারপর, যুদ্ধের সূচনা হলো,
আর তোমরা দুনিয়ার
ছোট্ট এককোণে পালিয়ে এলে।
কিন্তু রেভেন্যান্টরা হানা দিতেই থাকলো।
এখন, তোমাদের সম্পদ অপ্রতুল।
মৃত্যুর ভয়ে দিশেহারা তোমরা।
কিন্তু আমার পতাকাতলে...
তোমরা আবারো উদ্দেশ্য খুঁজে পাবে।
তোমাদের নিরামিষ জীবন তার মানে খুঁজে পাবে।
চিরতরে ওয়েস্টল্যান্ড দখলে নেবার সময় হয়েছে।
তোমাদের কেবল...
আনুগত্য স্বীকার করতে হবে,
বাকিটা আমি সামলে নেবো।
এইতো লক্ষ্মী জনগণ।
ব্ল্যাক ড্রাগনে স্বাগতম!
অনুবাদে সাবটাইটেল হাট
অনুবাদক: আসাদুজ্জামান প্রামাণিক, তামিম ইকবাল,
কুদরতে জাহান জিনিয়া, তাহমিদ শাহরিয়ার সাদমান।
হাহ?
বাংলায় সাবটাইটেলটি ভালো লাগলে
গুড রেটিং দিতে ভুলবেন না।
না! ভাই, না!
হেই, বুড়ো।
কোথায় যাচ্ছ?
এখানে বহুমাইল জুড়ে তো কিছুই নেই।
হাহ? হেই।
কোবরা, কাবাল, দেখো।
সব তরতাজা।
এসব কোথায় পেয়েছ, হাহ?
তুই বয়রা নাকি?
তোর সাথে কথা বলছি।
তোকে খুন করবো আমি।
না, আমাকে বুঝিয়ে বলতে দাও।
আমরা তোমার ক্ষতি করতে চাই না, মুরুব্বি।
শুধু বলো খাবারগুলো কোথায় পেয়েছ,
আর কোথায় নিয়ে যাচ্ছ।
তাহলেই তোমাকে ছেড়ে দেবো।
বেশ। তোমার যা মর্জি।
এখনো বেশি দেরি হয়নি।
কোথায় যাচ্ছিলে তুমি?
কোন ধরনের কাপুরুষ মারের জবাব দেয় না?
যা ইচ্ছে নিয়ে নাও।
সে কোথাও যাচ্ছিলো।
আর জায়গাটা খুঁজে বের করতে চাই আমি।
চলো, রাত হয়ে যাচ্ছে।
এখনই না।
ওই বুড়োটা কোথাও যাচ্ছিলো।
হয়তো লোকটা পাগল।
মরুভূমিতে থাকলে এরকম হয়।
তোমার তো জানার কথা।
কিং ক্যানো'র ধমক শোনার আগেই ফিরে চলো।
যখন মন চাইবে তখন ফিরে যাবো।
কিং ক্যানো মরুক গে!
সাবধানে কথা বলো, কাবাল।
সে অন্যধাতুতে গড়া।
খুব খারাপ, খুব শক্তিশালী কিছুর।
কথাটা মনে রাখলেই ভালো করবে।
দেখো দেখি কারবার?
মার দিয়া কেল্লা।
অবস্থা দেখো সবার।
আমরা কারা কোনো ধারণাই নেই তাদের।
খাবার, বিদ্যুৎ, হ্যাঁ।
ক্যানো খুশিতে গদগদ করবে।
যদি তাকে বলি আরকি।
হেই, ওটার জন্য পয়সা...
জানো, এটা আমাদের সুযোগ হতে পারে।
এই ব্যাপারে তো আগেও কথা বলেছি।
ক্যানো'র খবরদারি ছাড়াই
নিজেদের ইচ্ছেমতো কিছু করা,
তাছাড়া দেখো...
দারুণভাবে লুকানো, খাবারে পরিপূর্ণ।
শহরে যে আবর্জনা খাই তারচেয়ে বহুত ভালো।
মনে হয় না তারা এতো সহজে
আমাদের দখল নিতে দেবে।
এছাড়া আর কী করবে ওরা?
ভাবছ এখানকার কেউ রুখে দাঁড়াবে?
একজনকে চিনি যে দাঁড়াতেও পারে।
উহ, মনে হচ্ছে এক নায়ককে পেয়ে গেছি।
নায়ক? না,
আমি ব্যস একজন প্রতিদ্বন্দী খুঁজছি।
আর, মানে,
না পাওয়া পর্যন্ত
তোমাদের দিয়েই কাজ চালাতে হবে।
এক ছিচকাদুনে ইদুর কিনা
আমাকে কেলাতে চাইছে।
আমি তোমাকে কেলাতে চাই না।
তোমাদের তিনজনকেই কেলাতে চ |
াই আমি।
কোবরা, শালাকে সাইজ করো।
সানন্দে।
তোকে এর মূল্য দিতে হবে।
তোকে খুন করবো আমি!
মস্তবড় ভুল করে ফেললি তুই।
এটাই শেষ ভুল হবে না।
আমি হলে বড়াই করতাম না।
কী করেছ তা বুঝতে পারছ?
শুনুন, আপনাদের সাহায্য করতে একাজ করিনি।
ভাবছিলাম এই শহর হয়তো
একজন যোগ্য প্রতিদ্বন্দী এনে দেবে আমাকে।
না।
ওদেরকে চেনো না তুমি?
ওরা হচ্ছে ব্ল্যাক ড্রাগনের সদস্য।
ওয়েস্টল্যান্ডের সবচেয়ে দুর্ধর্ষ ডাকাতদল।
তুমি যা করেছ,
তাতে ওরা ফিরে আসবে,
আর এইবার,
আমরা কেউই রেহাই পাবো না।
ফিরে আসবে? হুম।
হয়তো কিছুদিন থেকে যাবো এখানে।
কী করছো?
ফাজলামো বন্ধ করো।
দেখো অবস্থা।
এবার তোমাকে বাগে পেয়ে গেছে।
মারো!
না, সে আহত।
আমি তাকে খুন...
ধন্যবাদ, কিং ক্যানো।
আহা, মরে গেল।
যাক, মজাই লাগলো।
ওহ, বাচ্চুরা ফিরে এসেছে।
পাজির দলেরা কোথায় ছিলে?
আমরা আরেকটা বসতি পেয়েছি।
দারুণ সুরক্ষিত ছিল শহরটা।
আমরা ফিরে ওদের মোকাবেলা করবো।
সবকয়টাকে মেরে ফেলবো।
আমাদের...
খামোশ!
ট্রেমার।
এই তিনজনকে নিয়ে
ওখান থেকে ঘুরে আসছো না কেন?
গিয়ে দেখো কে আমার অভিজাত
রক্ষীদের ভীতুর ডিম বানিয়ে ছাড়লো।
জি, কিং ক্যানো।
শ্যাং সুং?
তুমি আবার কোথায় হাওয়া হলে?
বু!
হুজুর, আপনার পানীয় রেখে যাচ্ছিলাম আমি।
জানি পুরো এক বোতল খেতে পছন্দ করেন আপনি।
হ্যাঁ। হ্যাঁ, বটে।
আহ।
ওহ, দুঃখিত।
যদি আর কোনো...
আমার হয়ে একটা কাজ করে দাও।
হুকুম করুন।
ট্রেমার'কে অনুসরণ করো।
টিলার মাঝখানে লুকোনো
এক ছোট্ট শহরে যাচ্ছে সে।
হুজুর, এখানে তো অনেক কাজ। আমি...
মহারাজ যা বলবেন তাই করবো।
হ্যাঁ? হ্যাঁ।
সে আর অন্যরা মিলে
অনেকদিন ধরেই দল ছাড়ার পরিকল্পনা করছে।
আর আমার ক্ষমতার দখল নিতে চাওয়া
লোকদের কীভাবে দেখি তাতো জানোই?
জি, মহারাজ।
হ্যাঁ। যাও।
যা দেখবে তা সত্যি করে আমাকে জানাবে।
আপনার যা মর্জি।
আর বেশিদিন |
নেই।
আহ!
কুয়েই, তোমাকে তো গতকাল দেখলাম না।
কাজে আটকে পড়েছিলাম।
বিধবা রেয়নোন্ডস
আবারও তোমার কথা জিজ্ঞেস করছিল।
আমি বলেছি তুমি হিজড়া।
দুঃখজনকভাবে তাতেও দমেছে বলে মনে হয় না।
ভদ্রমহিলাগণ...
অসম্ভব।
হেই, বুড়ো,
ভালোই ফসল নিয়ে এসেছেন দেখছি।
আমি ওয়েস্টল্যান্ডের সবখানে গিয়েছি,
আর একজায়গায়
এতো ফল কখনো ফলতে দেখিনি।
এরজন্য প্রচুর পানির প্রয়োজন, অথবা...
লিন কুয়েই হয়তো লড়াইয়ের চাইতেও
বেশিকিছু শিখিয়েছে আপনাকে, হাহ?
আপনার ট্যাটুটা দেখেছি।
লোকে যা বলে তা কি সত্য?
যে লিন কুয়েই দুনিয়ার সবচেয়ে ভয়ঙ্কর যোদ্ধা ছিল?
এমন গল্প কখনো শুনিনি। দুঃখিত।
এই ছোকরা কি তোমাকে বিরক্ত করছে?
না। না, না, না। ভুল হয়ে গেছে।
তাকে অন্যকেউ ভেবেছিলাম।
কখনো শোনেননি, হাহ?
কুয়েই, তুমি কি চাও আমি...
কী চাও তুমি?
আমি কী চাই?
আমি, কেনশি তাকাহাশি,
দুনিয়ার সর্বশ্রেষ্ঠ যোদ্ধা হতে চাই।
তাই, আমি চাই আপনি
যা জানেন তা সব আমাকে শেখান।
আমি জানি যারা
নিজেদের শ্রেষ্ঠ প্রমাণ করতে চায়...
তারা কেবল একটা জিনিসই জানে।
আচ্ছা, সেটা কী?
তারা কিছুই জানে না।
শুনুন, বুড়ো,
আপনাকে পয়সা দেবো।
বিভিন্ন শহরে লড়ে
অনেক কামিয়েছি আমি, আর...
তোমার টাকা চাই না আমি।
আমি ব্যস শান্তিতে একা থাকতে চাই।
শান্তি?
কিং ক্যানো এই জমিন
শাসন করলেই কেবল শান্তি আসবে।
ওহ, দেখো,
অপদস্ত হবার জন্য
আরো দোস্ত নিয়ে এসেছো।
জানো,
কিং ক্যানো সবসময়
দক্ষ লোকের খোঁজে থাকেন...
ব্ল্যাক ড্রাগনে ভেড়ানোর জন্যে।
তো কী বলো?
দাদাদের সাথে হুকুমত চালাতে চাও?
কুকুর ছানার মতোই বেশি লাগে।
অন্য পথ সবসময়ই খোলা থাকে।
আমার আগের কথাবার্তায় ফিরে যাওয়ার?
হাঁটু গেড়ে বসে ক্ষমা চাইবার।
বেরোও এখান থেকে!
তোমাদের লোকদের চাই না...
ব্ল্যাক ড্রাগন হচ্ছে চোর আর কাপুরুষদের দল।
কেনশি তাকাহাশি'কে
ক্ষমা প্রার্থনা করাতে চাইলে,
আমাকে বাধ্য করাতে হবে।
তাকাহাশি?
এখানে না।
সামনে থেকে সরে যাও, বুড়ো।
এটা লড়াইয়ের ময়দান নয়।
সব জায়গাই লড়াইয়ের ময়দান।
আমরা চলে যাবো কথা দিচ্ছি।
আমার সামনে কেউ হাঁটু গেড়ে বসার পরপরই।
হা!
এসো, কুয়েই।
তোমাকে সাহায্য করি।
বুড়োদের সাথে লেগে মজা পাস?
আমার সাথে লাগলে কেমন হয়?
লাগলে কিছু মনে করিস না।
অনেক হয়েছে!
ভর্তা বানাও!
হ্যাঁ!
এতেই শিক্ষা হবে।
আমার কাছে ক্ষমা চাইবার কথা তোর।
হুম। তোর যা মর্জি।
এটা একটা শিক্ষা হয়ে থাকুক।
কিং ক্যানো আর ব্ল্যাক ড্রাগনের
সামনে দাঁড়ানোর মুরোদ কারোরই নেই।
প্রস্তুত থাকো,
কারণ মহারাজ শিগগিরই আসবেন,
আর তোমরা তাকে কুর্নিশ করবে।
যদি না করো,
এই গাধার যা হয়েছে
তোমাদের পরিণতিও তাই হবে।
ট্রেমার, ট্রেমার,
ট্রেমার!
প্লিজ, আমাকে সাহায্য করতে দাও।
ধন্য... ধন্যবাদ।
সং। আমার নাম সং।
সাহায্যের জন্য ধন্যবাদ, সং।
ওখানে। বসো।
জানো, আমিও একসময়
তোমার অবস্থানে ছিলাম।
তুমি একজন অসাধারণ যোদ্ধা।
কিন্তু যাদের পাওয়ার আছে,
তাদের সামনে সবাই নস্যি।
যদিনা...
যদিনা কী?
ব্যাপারটা বড্ডো বিপজ্জনক।
কথাটা ভুলে যাও...
প্লিজ, কী?
একটা তলোয়ার আছে।
লোকে বলে ওটার অবিশ্বাস্য শক্তি আছে।
যার সা |
থে লড়েছো তার চাইতেও বেশি শক্তি।
কিং ক্যানো'র চাইতেও বেশি শক্তি।
আমাকে নিয়ে চলুন।
ওরকম ক্ষমতাসম্পন্ন লোকজন থাকতে,
চ্যাম্পিয়ন হবার কপাল আমার কখনোই হবে না।
যদি ওরকম অস্ত্রের কথা জেনে থাকেন...
তলোয়ার।
হ্যাঁ। তলোয়ার।
প্লিজ। আমাকে সাহায্য করুন।
অবশ্যই তোমাকে সাহায্য করবো আমি।
এসো।
আমি সব ব্যবস্থা করবো।
আর তারপর, তুমি তোমার পাওয়ার পাবে।
সাথে তোমার প্রতিশোধও।
ওই যে।
ওখানে।
ওই যে।
ওখানে।
এই... এই চিহ্নগুলো...
এই ভাষাটা...
আমি পড়তে পারছি।
"এই... এই আত্মাকূপেই..."
"তাকাহাশির শক্তির বাস"
এটা আমার পূর্বপুরুষেরা বানিয়েছিলেন।
এটা আমার নিয়তি।
ধ্যাত্তেরি! এটা খুলছে না।
ব্লাড ম্যাজিক।
এই নাও।
কী করছেন?
সীলে তোমার হাত রাখো।
কী দেখতে পাচ্ছো?
কিছুই না। একদম খালি।
না, না, দাঁড়ান।
একটা আলো দেখা যাচ্ছে।
এটা... এটা উজ্জ্বল হচ্ছে।
হ্যাঁ।
হ্যাঁ, অবশেষে।
সং, সং!
আমার চোখ! সং, সাহায্য করুন!
সং।
না।
আমার নাম...
...শ্যাং সুং।
শ্যাং সুং।
আমি জানি নামটা।
এক সময় আমি ছিলাম
জগতসমূহের মধ্যে সর্বশক্তিশালী।
ক্যানোর আগে।
কিন্তু এখন, এই আত্মাগুলোর মাধ্যমে,
নিজের অধিকার ছিনিয়ে নেবো।
তোমার আত্মাগুলো আমার।
ইয়েস!
এই শক্তি।
এই শক্তি!
ক্যানো এবার বুঝবে দাসত্বের মজা।
সবাই বুঝবে।
আর তুমি, কেনশি।
তোমাকে কী করতে পারি?
আমায়... মেরে ফেলো।
আমি এভাবে বাঁচতে...
তোমার যা ইচ্ছা।
কেনশি।
কে...
কী... কী তোমার পরিচয়?
সেন্টো।
আমি তোমারই।
আমায় তোলো আর দেখো।
অসম্ভব।
ওঠো।
ওঠো।
একজন... জাদুকর।
সেন্টো।
আমি... দেখতে পাচ্ছি।
আমি দেখতে পাচ্ছি।
ইয়াহ!
কোন সাহসে এলে?
দাঁড়াও।
এতদিন ধরেই ভাবছিলাম
তুমি কোথায় গিয়েছিলে,
শ্যাং সুং।
আমি...
তোমাকে সরানোর
উপায় খুঁজতে গিয়েছিলাম।
ওহ।
আত্মাকূপটা খুঁজে পেয়েছ তাহলে।
বিস্মিত হয়েছ?
এসো এবার।
তোমাকে কেন নির্বাসনে
প |
াঠিয়েছিলাম বলে ভাবো?
এমন লড়াই আগেও করেছি।
কিন্তু ভেবেছিলাম এবার,
এবার হয়তো আমাকে
চ্যালেঞ্জের মুখে ফেলবে।
চ্যলেঞ্জ দেখতে চাও?
বেশ।
না!
ওহ, স্যরি বন্ধু।
শাসনের কোনো অধিকারই
ছিলো না তোমার।
হাহ, খারাপ না।
কসম খেয়ে বলছি, তোমার দক্ষতা
একটু একটু করে বাড়ছে।
বাজে বকার সময় শেষ।
তোমার আত্মা আমার।
আহহ!
ওহ! আহ, ওহ, আহ, আহ!
অসম্ভব। তোমার আত্মা...
আহা বন্ধু।
আমি ওসবের উর্ধ্বে।
আশা রেখেছিলাম তুমি
ভিন্ন কিছু করবে।
ভেবেছিলাম কেউ আমাকে
চ্যালেঞ্জের মুখে ফেললে,
সেটা হবে তুমি।
কিন্তু না।
আবারও আগের মতোই।
তুমি।
তুমি সেই আগের...
কর্তৃত্ববাজ, অসভ্য জাদুকর...
সে অন্যদের অবমূল্যায়ন করে।
তুমি আমাকে হারাতে পারবে না!
কেউ পারবে না।
আমি এই জগত বানিয়েছি।
আর আমি এটাকে...
আরও বহুবার বানাবো।
পরবর্তী বারের জন্য শুভকামনা।
কেউই হারাতে পারেনা ক্যানোকে।
কেউ না!
ক্যানো! ক্যানো! ক্যানো!
না, না... শ্যাং সুং...
আআমার চোখ।
থামো!
ওঠো!
সুস্থির হয়ে বসো।
কোথায়... কোথায় আমি?
আমার ঘরে।
এই নাও। পান করো।
ধীরেসুস্থে। আরও আছে।
ধন্যবাদ।
আআপনি যেই হোন না কেন।
আমার নাম কুয়াই লিয়াং।
চাইলে আমায় "বুড়ো" বলে ডাকতে পারো,
যেমনটা বাজারে করেছিলে।
কুয়াই... লিন কুয়েই।
আমি দুঃখিত পূর্বের আচরণের জন্য।
সাহায্য করায় ধন্যবাদ।
আমি সাহায্য করছি না।
আমার এলাকায় তুমি মারা গেলে,
মৃতেরা ছুটে আসতো।
সবল হওয়ার আগ পর্যন্ত,
এখানে বিশ্রাম নিতে পারো।
কিন্তু তারপর, চলে যাবে।
তাহলে আর দেরি কেন?
একটা তরবারি নিয়ে এসেছিলাম।
কোথায় সেটা?
তুমি এখনো যথেষ্ট সবল নও।
চাইলে...
না।
আপনাকে কষ্ট দিতে চাই না।
সাবধানে। সামনে একটা...
টেবিল।
আমার তরবারি!
এটা মূল্যহীন।
সবকিছুই।
এখন থেকে।
এই তরবারি থাকলেও,
আমার পূর্বের চেয়ে অনেক অক্ষম।
যখন তোমাকে প্রথম দেখি,
তুমি ছিলে অহংকারে পূর্ণ,
শ্রেষ্ঠ যোদ্ধা হতে চাচ্ছিলে।
এমনটাই বলেছিলে না?
সেটা আগের কথা।
তখন তুমি ছিলে অন্ধ।
তখন, আমি আক্রান্ত হয়েছিলাম।
শ্যাং সুংএর চালের শিকার হয়েছিলাম।
তো দৃষ্টি হারানোর কারণে
কি অর্থহীন হয়ে পড়েছ?
তাহলে কথাটাই সত্যি।
তুমি কিছু জানো না।
বাচ্চা রয়ে গেছো।
যদি আত্মহত্যা করতে চাও,
জলদি করো,
যাতে সূর্যোদয়ের আগেই
তোমাকে দাফন করতে পারি।
সে আমার সম্মান কেড়ে নিয়েছে।
জীবনে সম্মান ছাড়াও
অনেক কিছু আছে।
যেমন?
বেঁচে থাকা।
টিকে থাকা।
কোথায় যাচ্ছেন?
ভেতরে।
চাইলে আসতে পারো।
কাল তোমাকে ইন্দ্রিয়ের
ব্যবহার শেখাবো।
যাতে শ্যাং সুংকে খুঁজে
বের করতে পারি।
না, তোমাকে শুধু বাঁচতে শেখাবো।
মরতে নয়।
বুঝতে পেরেছ?
এখন বিশ্রাম নাও।
আগামীকাল, প্রশিক্ষণ চলবে।
মুরগিটাকে ধরো।
কীভাবে ধরবো... আহ!
কথা না বলার মাধ্যমে।
শোনো।
বাতাসের শব্দ শোনো।
শোনো শস্যের মর্মরধ্বনি।
হ্যাঁ।
ওগুলোর প্রয়োজন নেই।
একমাত্র যেটার প্রয়োজন...
সেটা হচ্ছে এই মুরগি।
দেয়ালে ওটা কী?
দ্যুতি ছড়াচ্ছে।
এটা শক্তিশালী।
একটা অঙ্গীকার।
যা ভেবেছিলাম, তরবারিটার
মাধ্যমে তুমি দেখতে পাও।
কীভাবে জানলেন...
আরও বহু জাদু পার
করে এসেছি আমি।
এটার নাম সেন্টো।
এটা, আমার সা |
থে কথা বলে।
ফিসফিস করে।
এটা ধরলে, দেখতে পাই,
কোনো রকম।
ব্যাখ্যা করো।
কঠিন কিছুটা।
এটা এমন, আপনি যখন আগুনের
দিকে তাকানোর পর চোখ সরিয়ে নেবেন,
এটা চলে যাওয়ার পরও
অবয়বটা দেখতে পাবেন।
এটা এমনই,
কিন্তু কিছু একটা আছে।
এটাই সেই... কিছু একটা।
হ্যাঁ, মনে হচ্ছে...
আমি...
হেই, স্যুপটাতে কী দিয়েছেন?
ঘুমের ঔষধ।
নাকের ব্যবহার করতে পারতে।
না! ভাই, না!
ভাই?
আমি তোমার ভাই নই।
আমিই তুমি।
না!
হ্যাঁ।
কুয়াই।
কুয়েই!
কুয়াই।
কুয়েই!
তুমি নিশ্চয়ই স্বপ্ন দেখছ।
আমি ভাবলাম হয়তো...
উঠে পড়েছ। ভালো।
আমার সাথে এসো।
প্রস্তুত?
না! আমি কী করছি আসলে?
আমি তরমুজটা ফেলে দেবো।
তরমুজটা তোমার মুখে পড়ার আগেই
ছুরিটাকে ডাক দেবে তুমি।
আর এটা যদি কাজ না করে?
চেষ্টা করেই দেখা যাক, নাকি?
ভালোমতো চেষ্টা করে দেখা যাক।
শেষ করে ফেলো। এতে কাজ হচ্ছে না।
এতে কাজ হচ্ছে না কারণ
তোমার নিজের ওপরে বিশ্বাস নেই।
নিজের ওপর বিশ্বাস?
বিশ্বাস করার মতো তো কিছু নেই আমার মাঝে।
একসময়ে আমি একজন মহান যোদ্ধা ছিলাম।
কেউ আমাকে হারাতে পারত না, কেউ না।
পৃথিবীটা দুঃসহ হলেও
অন্তত এটুকু সম্পদ ছিল আমার।
আর এখন...
আমি সামান্য এক অন্ধ লোক,
যে সারাদিন মুরগি তাড়া করে ফেরে।
আর এরকমই থাকবে তুমি সবসময়ে।
এজন্যই তুমি ব্যর্থ হচ্ছ।
তোমাকে প্রশিক্ষণ দিতে কেন রাজি হয়েছি জানো?
আমাকে করুণা করে।
না।
কারণ তোমার জায়গায় আমিও ছিলাম একদিন।
নিজেকে এত নিচু মনে হত যে মৃত্যু কামনা করতাম।
পরে শিখলাম, কেবল শিশুরাই
আশেপাশের পরিস্থিতিকে দায়ী করে।
আসল পুরুষেরা নিজের পরিস্থিতিকে বদলায়।
ঐ কাঠের টুকরোটাকে তুলে নাও।
আমি পারব না।
তোলো।
ঠিক ভঙ্গীতে দাঁড়াও।
ঠিক ভঙ্গীতে দাঁড়াও!
নইলে তোমার প্রিয় তলোয়ারটা নিয়ে
এখনই সব শেষ করে দেবো।
আমার পায়ের শব্দ শোনো।
আমার ঘ্রাণ শোঁখো।
তোমার আশেপাশের বাতাসকে অ |
নুভব করো।
আমি কি একটা মুরগির চেয়েও
বেশি আওয়াজ করছি না?
এই কৃষকের গা থেকে কি
ভিনেগারের থেকেও বাজে গন্ধ আসছে না?
তুমি কী ছিলে তা নিয়ে না ভেবে
তুমি কী হতে পারো, তা নিয়ে ভাবো।
"আমি পারব না" এর চেয়ে
বিষাক্ত কথা আর হয় না।
তুমি বিশ্বাস রাখলেই পারবে।
স্বর্গ আর নরক তোমার বিরুদ্ধে
হাত মেলালেও তুমি পারবে।
তুমি পারবে।
বুঝেছ?
না। তুমি এটায় বিষ মিশিয়েছ।
না, কিন্তু এটা বিষের চেয়েও খারাপ খেতে।
ঘরে বানানো।
তোমাকে একটা কথা জিজ্ঞেস করব।
তোমার নড়াচড়া দেখেছি আমি।
তোমার...শক্তিমত্তা দেখেছি।
তাহলে তুমি কেন...
ব্ল্যাক ড্রাগনের সামনে হাঁটু গেড়ে বসো?
হ্যাঁ।
তুমি হলে লিন কুয়েই। তুমি চাইলে...
আমি লিন কুয়েই ছিলাম।
অনেকদিন আগে, ওয়েস্টল্যান্ডের আগে...
এই সবকিছুর...
আগে...
আমি আমার গোত্রের সবচেয়ে ভয়ঙ্কর
এবং সম্মানিত যোদ্ধাদের একদম হয়ে উঠেছিলাম।
তারপর এলো রেভেন্যান্টেরা।
ওরা ছেয়ে ফেলল গোটা শহর, গোটা দেশ।
অনেকে ভেবেছিল এসব করে কোনো লাভ নেই।
কিন্তু আমার গর্ব টিকে ছিল।
লিন কুয়েইকে হারাবে ওরা, ভাবিনি।
আমরা এক শহরে গিয়ে সেটাকে
রেভেন্যান্টমুক্ত করার চেষ্টা করছিলাম।
কিন্তু ওরা সবখানে ছড়িয়ে ছিল।
এক মৌচাক মৌমাছির মতো।
আমি জানতাম আমরা মারা পড়ব।
কিন্তু আমি ভেবেছিলাম...
ক্রায়োম্যান্সি কী, জানো?
না।
এক ধরনের ক্ষমতা।
এটা আমার এক ধরনের ক্ষমতা।
সেই মুহূর্তে প্রাণভয়ে
এক বরফ ঝড়কে ডেকে আনলাম আমি।
কিন্তু আমি নিয়ন্ত্রণ হারিয়ে ফেলেছিলাম।
স্বপ্নগুলো।
দীর্ঘদিন ধরে ধারণা ছিল,
আমার ভাইয়ের চেয়ে খারাপ কিছু হওয়া
আমার পক্ষে সম্ভব না।
আমি ভুল ভেবেছিলাম।
ঝড়টা শহরটাকে ছিন্নভিন্ন করে দিলো।
রেভেন্যান্টেরা মরল।
নিরীহ মানুষেরা মরল।
আমার গোত্রের লোকেরা মরল।
সব শেষ হবার পর দেখি,
আমি একাই বেঁচে আছি।
আর আমি বুঝলাম,
মৃত্যুই কেবল মৃত্যুকে বেছে নেয়।
এভাবে সহিংসতার চক্র চলতে লাগল,
ব্ল্যাক ড্রাগনের চিহ্নটার মতো,
যে সরীসৃপ নিজেই নিজের লেজ খেয়ে ফেলে।
নিজের ক্ষমতা আর কখনো ব্যবহার না করার
শপথ নিয়েছিলাম আমি।
কখনো নিয়ন্ত্রণ না হারাবার শপথ নিয়েছিলাম।
যথাযথ কারণ থাকলেও করবে না?
কোনটা যথাযথ কারণ?
আমি নিজেকে থামাতে পারব না।
তারপর ওই ঝড় আবার ফিরে আসবে।
তাই তোমার প্রশ্নের জবাব দিয়ে বলি।
হাঁটু গেড়ে যদি আমার আশেপাশের মানুষের
প্রাণ বেঁচে যায়,
তাহলে আমি হাঁটু গেড়েই থাকব।
আমি দুঃখিত।
আমিও।
ইয়েস!
বিজয় আমার!
আমি পাখিটা ধরেছি!
ভালো। রাতে রাঁধার জন্য প্রস্তুত করো।
কী? না! সিমোনকে না!
পেট ভরাতে চাইলে
আরেকটা খুঁজে বের করতে হবে।
ধোঁয়া। কী হয়েছে?
বিপদ।
এই তাহলে অবস্থা।
ওহ, তোমরা লুকানোয় খুঁজে পেতে একটু সময় লাগল।
আমার আর আমার ব্ল্যাক ড্রাগনের
কাছ থেকে পালাতে চাইছ।
কিন্তু এখন থেকে,
তোমাদেরকে আর লুকিয়ে থাকতে হবে না।
তোমরা আমার কাছ থেকে নিরাপত্তা পাবে,
আমি তোমাদের দায়িত্ব নেবো।
বিনিময়ে নতুন রাজার সামনে
হাঁটু গেড়ে বসতে হবে তোমাদের।
ও তো আমাদের সবাইকে
খুন করিয়ে ছাড়বে!
ওহ! সাহস দেখাচ্ছে ও! এরকম তো আগে দেখিনি!
তুমি কারো সামনে হাঁটু গেড়ে না বসলে,
কী হবে, তা জানো, বুড় |
ো?
আমি কারো সামনে হাঁটু গেড়ে বসব না।
বেশ, আমাকে মেরে ফেলো তাহলে।
কিন্তু আমি একজন মুক্ত মানুষের মতো মরব।
বুক চিতিয়ে মরব।
হাঁটু গেড়ে কাপুরুষের মতো না।
ওহ, আমার পছন্দ হয়েছে তোমাকে।
বুঝেছ বুড়ো, তোমাকে আসলেই পছন্দ হয়েছে।
ব্যাং!
আমি বললাম তো,
স্বাধীনতায় খাজনার চেয়ে বাজনা বেশি।
কী? কী হয়েছে?
ব্ল্যাক ড্রাগন আছে ওখানে।
ওখানকার লোকদেরকে আনুগত্য স্বীকার করিয়েছে তারা।
এসো।
আমরা ওদের ছেড়ে আসতে পারি না।
এভাবে না।
আমরা পারব আর আমরা তাই করব।
না, এটা ঠিক না।
আমাদের এ ব্যাপারে কিছু করার
ক্ষমতা আছে যেহেতু।
ওখানে গেলে তুমি মরবে।
আমি তোমাকে এটা শিখিয়েছিলাম,
যাতে তুমি বাঁচতে পারো, মনে নেই?
মানুষের দরকারে তাদের সাহায্য করতে বলেছ তুমি।
না। আমি সেটা...
বলতে চাইনি!
তুমি আমাকে বেছে না নিলে,
প্রশিক্ষণ না দিলে
কোথায় থাকতাম আমি?
এটা তো একই না। আমি পারব না...
"আমি পারব না" এই কথার চেয়ে
বিষাক্ত আর কিছু নেই।
মানুষ কি নিজের পরিস্থিতি বদলাতে পারে না?
নাকি তোমার সব কথাই মিথ্যা?
আমি তোমাকে ছাড়তে পারি না।
তুমি আমাকে থামাতে পারবে না!
আমি লিন কুয়েই নই, মনে নেই?
আর এটা সেই শহর না যেটাকে তুমি
রেভেন্যান্টদের হাত থেকে বাঁচাতে ব্যর্থ হয়েছ।
না, আমি সেটা বোঝাইনি...
ভালো। যাও।
যথেষ্ট হয়েছে!
ফার্মে ফিরে এসো।
ওদেরকে এড়িয়ে সুন্দর একটা জীবন কাটাবো আমরা।
একটা সুন্দর জীবন?
চোখজোড়া থাকলে
আমি হ্যাঁ বলতাম।
কিন্তু তুমি তো আমাকে এর চেয়েও
ভালো পথ শিখিয়েছ।
না। না, অন্যদের সাহায্য করার সামর্থ্য থাকার পরেও
কিছু করিনি, এ বোধ নিয়ে বাঁচতে পারব না আমি।
ওরা খুন হবে, বন্দী হবে,
কিংবা আরো করুণ পরিণতি হবে ওদের।
তোমার গর্বই তোমার পতন ডেকে আনবে।
সঠিক কাজ করা গর্বের বিষয় না।
মর্যাদার বিষয়।
তুমিই আমাকে দেখিয়েছ সেটা।
তুমি তোমারটা হারালেও
আমি আমারটা |
হারাবো না।
আরে আশ্চর্যl?
নিমন্ত্রণ ছাড়াই একজন
অতিথি পেয়ে গেছি আমরা।
লজ্জা পেও না!
সামনে এসে দেখা দাও।
এদেরকে ছেড়ে দাও,
নইলে আমি তোমাদের সবাইকে খুন করব।
আরে, এই লোকের বিচি আছে দেখা যায়।
অ্যাই, জ্যারেক।
ওকে মেরে ফেলো।
এভাবে বসে থেকো না!
সবাই উঠে দাঁড়াও!
অন্ধ বুড়ো, মরার সময় হয়েছে তোর।
না! ওকে মেরো না।
এখনই না।
বেশ, ওটা..
ওটা নতুন, অপ্রত্যাশিত।
তুমি জানো ওটা কত দুর্লভ?
তোমার জীবনের গল্পটা শুনতে
হয়তো ভালোই লাগবে আমার।
ওকে আমাদের সাথে কেটাউনে নিয়ে চলো।
ওকে দেখিয়ে একটা উপযুক্ত শিক্ষা দেয়া যাবে সবাইকে।
মানুষকে অনুপ্রাণিত করা যাবে।
আমি এসেছি, প্রতিজ্ঞা রেখেছি।
তুমি কি আবার নিয়ন্ত্রণ হারিয়ে ফেলেছিলে?
এখনো না।
আউ! কেনশি, এই ছুরির ধার তো অনেক।
দাঁতে কিছু আটকালে এটা কাজে আসবে।
তোমার কী মনে হয়?
অ্যাই শুয়োর, সেন্টোর গায়ে
হাত দেবার অধিকার নেই তোর!
অধিকার? জীবনে আমাদের
অধিকার শুধু একটাই, মৃত্যু।
সেই প্রসঙ্গে একটা কথা বলি,
তোমার অভিযান মনে হয়
এখানেই শেষ হয়ে যাবে, খোকা।
আহ!
আরেকটা সুযোগ দিচ্ছি।
তুমি ঐ ছোরাটা চালানো শিখলে কী করে?
ঠিক আছে, এরন!
ছেলেটাকে মেরে ফেলো।
ও যেন তিলে তিলে কষ্ট পেয়ে মরে।
আহ!
আহ!
জায়গাটা আসলেই কি একটু স্যাঁতসেঁতে,
নাকি আমারই এমন লাগছে?
বালুঝড় উঠেছে?
না...
তুষারঝড়...
অনিয়ন্ত্রণযোগ্য এক তুষারঝড়।
আমাকে কে ছোরা চালাতে শিখিয়েছে
জানতে চেয়েছিলে।
ও চলে এসেছে।
আর তোমরা যদি পুরো স্বর্গনরককেও
এক করে জোট বাঁধো,
ওকে কোনোভাবেই তোমরা আটকাতে পারবে না।
আহ। দারুণ, দারুণ।
যেন শতাব্দীর পর দেখা হল।
এতদিন কোথায় লুকিয়ে ছিলে তুমি?
আহো ভাতিজা আহো!
ইয়েস! ইয়েস, ইয়েস!
এমন একশনেরই তো অপেক্ষায় ছিলাম আমি।
বাকিদের তুমি সামলাতে পারবে ও বলল।
হাহ? এটার মানে কী?
এই না হলে মজা?
এবার মরার পালা!
আমি ওটা করতাম না।
এদিকে আয় শালা।
অনেক সময় লাগালে তুমি।
স্যরি, একটু জালে ফেঁসেছিলাম।
কেউই হারাতে পারেনা ক্যানোকে।
কেউই হারাতে পারেনা ক্যানোকে!
না। এটা আমার লড়াই।
হত্যা করো...
ক্যানো!
ওই তরবারিটা ছাড়া,
তুমি কী?
এটাই। কিছুই না।
কিছুই না!
আমি কেনশি তাকাহাশি।
আর তুমি...
শেষ।
ওহ৷ এই যে।
আমাকে হারাতে পারবে ভেবেছ?
যখন ফিরে আসবো,
তখন বুঝবে,
নির্দয় কাকে বলে।
এসবের মানে কী?
অবাক লাগছে?
আসলে, প্রথমবার দেখার সময়,
আমি নিজেও অবাক হয়েছিলাম।
এটার নাম ক্রনিকার বালুঘড়ি,
আর এ দিয়ে,
সময় আর ইতিহাস পালটে দেওয়া যায়।
তুমি...
তুমি এসব করেছ?
হ্যাঁ, আমি করেছি।
শাং সুং এর মত ওই শয়তানগুলোকে
আমি বানিয়েছি, আমার পায়ে পড়ে রাখতে,
যেমনটা তাদের পাওয়া উচিত।
ওয়েস্টল্যান্ড? রেভেন্যান্টদের?
এত মানুষকে নিয়ন্ত্রন করার চেয়ে,
ওদের ভয় দেখিয়ে বাগে আনা সোজা।
তবে সত্যি বললে,
সবকিছুই কেমন যেন,
একঘেয়ে লাগা শুরু হয়েছিল, বুঝলে?
তারপর তুমি এলে।
তো, বরফের ঝড় ওঠানো
আবার শুরু করলে কেন?
দেরিতে হলেও বুঝতে পারলাম,
বসে থাকার মাঝে কোনো সম্মান নেই,
যখন আশেপাশের সব তছনছ হয়ে যায়।
আমি বলি, 'আমার রূপে পুনর্নিমিত।"
যাই হোক, পরেরবার জন্য শুভকামনা,
বন্ধু।
তাহলে, সোজ |
া আঙুলে ঘি উঠবে না।
ভালই লাগে, সত্যিই।
তোমাকে আসলেই আমাকে ভাল লাগে।
একটা কথা বলি।
হাঁটু গেড়ে বসে
আমার বশ্যতা স্বীকার করে নাও,
আর তোমাকে হয়ত আমি রাজা বানিয়ে দেবো...উম...
অ্যান্টার্কটিকার!
আমি কারও বশ্যতা স্বীকার করি না।
ধুর্বাল!
ক্যানো কোথায়?
ঘুমের দেশে।
ক্যানো যেহেতু অক্কা পেয়েছে,
ওয়েস্টল্যান্ড এখন স্বাধীন।
রেভেন্যান্টদের মেরে সাফ করে, আমরা...
না।
না?
তুমি ঠিক বলেছিলে।
নিজের সামর্থ্য দিয়ে
অন্যকে সাহায্য করা উচিত।
এই কাজটা করতে
আমি ভুলে গিয়েছিলাম।
আর তোমার কারণে,
আত্মমর্যাদা কিছুটা হলেও ফিরে পেয়েছি।
ধন্যবাদ।
তাহলে, ওয়েস্টল্যান্ডের মানুষদের জন্য
আমার পাশে থেকে সাহায্য করো।
আমার ক্ষমতার কথা কী বলেছিলাম
মনে আছে?
আমি এখনও তা অনুভব করছি।
এটা নিয়ন্ত্রণ করা অসম্ভব।
আমি একটা শপথ নিয়েছিলাম,
আমি তা রাখতে না পারলেও,
ও রাখবে।
কী শপথ?
কীসের কথা বলছ?
আমরা সব আবারও শুরু করতে পারি।
আবারও লিন কুয়েই
গঠন করতে পারি... আর...
ওটা আমি তোমার হাতে ছেড়ে দিলাম।
সময় হয়ে গেছে।
আমি বুঝলাম না।
লিন কুয়েই, তোমার সাম্রাজ্য...
তুমিই এখন লিন কুয়েই এর প্রতিনিধি।
অন্যদের খুঁজে বের করো।
প্রশিক্ষণ দাও।
পৃথিবীকে রক্ষা করো,
আরও অনেক বিপদ আছে সামনে।
আমার বিশ্বাস,
তুমি তা সামলাতে পারবে।
অনুবাদক: আসাদুজ্জামান প্রামাণিক, তামিম ইকবাল,
কুদরতে জাহান জিনিয়া, তাহমিদ শাহরিয়ার সাদমান
বাংলায় সাবটাইটেলটি ভালো লাগলে
গুড রেটিং দেবেন।
আমাদের গ্রুপ সাবটাইটেল হাট
পেজ Subtitle Hut
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संध्या तो हो आई, पर रात के अन्धकार के घोर होने में अब भी कुछ विलम्ब था। इसी थोड़े से समय के भीतर किसी भी तरह से हो, कोई न कोई ठौर-ठिकाना करना ही पड़ेगा। यह काम मेरे लिए कोई नया भी न था, और कठिन होने के कारण मैं इससे डरा भी नहीं हूँ। परन्तु, आज उस आम-बाग के बगल से पगडण्डी पकड़ के जब धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगा तो न जाने कैसी एक उद्विग्न लज्जा से मेरा मन भीतर से भर आने लगा। भारत के अन्यान्य प्रान्तों के साथ किसी समय घनिष्ठ परिचय था; किन्तु, अभी जिस मार्ग से चल रहा हूँ, वह तो बंगाल के राढ़-देश का मार्ग है। इसके बारे में तो मेरी कुछ भी जानकारी नहीं है। मगर यह बात याद नहीं आई कि सभी देश-प्रदेशों के बारे में शुरू-शुरू में ऐसा ही अनभिज्ञ था, और ज्ञान जो कुछ प्राप्त किया है वह इसी तरह अपने आप अर्जन करना पड़ा है, दूसरे किसी ने नहीं करा दिया।
असल में, किसलिए उस दिन मेरे लिए सर्वत्र द्वार खुले हुए थे, और आज, संकोच और दुविधा से वे सब बन्द से हो गये, इस बात पर मैंने विचार ही नहीं किया। उस दिन के उस जाने में कृत्रिमता नहीं थी; मगर आज जो कुछ कर रहा हूँ, यह तो उस दिन की सिर्फ नकल है। उस दिन बाहर के अपरिचित ही थे मेरे परम आत्मीय-उन पर अपना भार डालने में तब किसी तरह की हिचकिचाहट नहीं आई; पर वही भार आज व्यक्ति-विशेष पर एकान्त रूप से पड़ जाने से सारा का सारा भार-केन्द्र ही अन्यत्र हट गया है। इसी से आज अनजान अपरिचितों के बीच में से चलने में मेरे हर कदम पर उत्तरोत्तर भारी होते चले जा रहे हैं। उन दिनों की उन सब सुख-दुःख की धारणाओं से आज की धारणा में कितना भेद है, कोई ठीक है! फिर भी चलने लगा। अब तो मेरे अन्दर इस जंगल में रात बिताने का न साहस ही रहा, और न शक्ति ही बाकी रही। आज के लिए कोई आश्रय तो ढूँढ़ निकालना ही होगा।
तकदीर अच्छी थी, ज्यादा दूर न चलना पड़ा। पेड़ के घने पत्तों में से कोई एक पक्का मकान-सा दिखाई दिया। थोड़ी दूर घूमकर मैं उस मकान के सामने पहुँच गया।
"बाबू साहब, चारेक पैसा देंगे?"
"क्यों, किसलिए?"
"भूख के मारे मरा जाता हूँ बाबूजी, कुछ चबेना-अवेना खरीद के खाना चाहता हूँ।"
मैंने पूछा, "तुम मरीज आदमी हो, अंट-संट खाने की तुम्हें मनाई नहीं है?"
"यहाँ से तुम्हें खाने को नहीं मिलता?"
उसने जो कुछ कहा, उसका सार यह है- सबेरे एक कटोरा साबू दिए गये थे, सो कभी के खा चुका। तब से वह गेट के पास बैठा रहता है- भीख में कुछ मिल जाता है तो शाम को पेट भर लेता है, नहीं तो उपास करके रात काट देता है। एक डॉक्टर भी हैं, शायद उन्हें बहुत ही थोड़ा हाथ-खर्च के लिए कुल मिला करता है। सबेरे एक बार मात्र उनके दर्शन होते हैं। और एक आदमी मुकर्रर है, उसे कम्पाउण्डरी से लेकर लालटेन में तेल भरने तक का सभी काम करना पड़ता है। पहले एक नौकर था, पर इधर छह-सात महीने से तनखा न मिलने के कारण वह भी चला गया है। अभी तक कोई नया आदमी भरती नहीं हुआ।
मैंने पूछा, "झाड़ु-आड़ु कौन लगाता है?"
उसने कहा, "आजकल तो मैं ही लगाता हूँ। |
मेरे चले जाने पर फिर जो नया रोगी आयेगा वह लगायगा- और कौन लगायगा?"
मैंने कहा, "अच्छा इन्तजाम है! अस्पताल यह है किसका, जानते हो?"
वह भला आदमी मुझे उस तरफ के बरामदे में ले गया। छत की कड़ी में लगे हुए तार से एक टीन की लालटेन लटक रही थी। कम्पाउण्डर साहब उस सिदौसे ही जलाकर काम खत्म करके अपने घर चले गये हैं। दीवार में एक बड़ा भारी पत्थर जड़ा हुआ है, जिसपर सुनहरी अंगरेजी हरूफों में ऊपर से नीचे तक सन् अंगरेजी तारीख आदि खुदे हुए हैं- यानी पूरा शिलालेख है। जिले के जिन साहब मजिस्ट्रेट ने अपरिसीम दया से प्रेरित होकर इसका शिलारोपण या द्वारोद्धाटन सम्पन्न किया था, सबसे पहले उनका नाम-धाम है, और सबसे नीचे है प्रशस्ति-पाठ। किसी एक राव बहादुर ने अपनी रत्नगर्भा माता की स्मृति-रक्षार्थ जननी-जन्मभूमि पर इस अस्पताल की प्रतिष्ठा कराई है। इसमें सिर्फ माता-पुत्र का ही वर्णन नहीं बल्कि ऊधर्वतन तीन-चार पीढ़ियों का भी पूरा विवरण है। अगर इसे छोटी कुल-कारिका कहा जाय, तो शायद अत्युक्ति न होगी। इसके प्रतिष्ठाता महोदय राज-सरकार की रायबहादुरी के योग्य पुरुष थे, इसमें लेशमात्र भी सन्देह नहीं। कारण रुपये बरबाद करने की ओर से उन्होंने कोई त्रुटि नहीं की। ईंट और काठ तथा विलायती लोहे के बिल चुकाने के बाद अगर कुछ बाकी बचा होगा, तो वह साहब-शिल्पकारों के हाथ से वंग-गौरव लिखवाने में ही समाप्त हो गया होगा। डॉक्टर और मरीजों के औषधि-पथ्यादि की व्यवस्था करने के लिए शायद रुपये भी न बचे होंगे और फुरसत भी न हुई होगी।
मैंने पूछा, "रायबहादुर रहते कहाँ हैं?"
उसने कहा, "ज्यादा दूर नहीं, पास ही रहते हैं।"
"अभी जाने से मुलाकात होगी?"
"जी नहीं, घर पर ताला लगा होगा, घर के सबके सब कलकत्ते रहते हैं।"
मैंने पूछा, "कब आया करते हैं, जानते |
हो?"
असल में वह परदेशी है, ठीक-ठीक हाल नहीं बता सका। फिर भी बोला कि तीनेक साल पहले एक बार आए थे- डॉक्टर के मुँह सुना था उसने। सर्वत्र एक ही दशा है, अतएव दुःखित होने की कोई खास बात नहीं थी।
इधर अपरिचित स्थान में संध्याी बीती जा रही थी और अंधेरा बढ़ रहा था; लिहाजा, रायबहादुर के कार्य-कलापों की पर्यालोचना करने की अपेक्षा और भी जरूरी काम करना बाकी था। उस आदमी को कुछ पैसे देकर मालूम किया कि पास ही चक्रवर्तियों का एक घर मौजूद है। वे अत्यन्त दयालु हैं, उनके यहाँ कम-से-कम रात भर के लिए आश्रय तो मिल ही जायेगा। वह खुद ही राजी होकर मुझे अपने साथ वहाँ ले चला; बोला, "मुझे मोदी की दुकान पर तो जाना ही है, जरा-सा घूमकर आपको पहुँचा दूँगा, कोई बात नहीं।"
चलते-चलते बातचीत से समझ गया कि उक्त दयालु ब्राह्मण-परिवार से उसने भी कितनी ही शाम पथ्यापथ्य संग्रह करके गुप्तरूप से पेट भरा है।
दसेक मिनट पैदल चलकर चक्रवर्ती की बाहर वाली बैठक में पहुँच गया। मेरे पथ-प्रदर्शक ने आवाज दी, "पण्डितजी घर पर हैं?"
कोई जवाब नहीं मिला। सोच रहा था, किसी सम्पन्न ब्राह्मण के घर आतिथ्य ग्रहण करने जा रहा हूँ; परन्तु, घर-द्वार की शोभा देखकर मेरा मन बैठ-सा गया। उधर से कोई जवाब नहीं, और इधर से मेरे साथी के अपराजेय अध्यवसाय का कोई अन्त नहीं। अन्यथा यह गाँव और यह अस्पताल बहुत दिन पहले ही उसकी रुग्ण आत्मा को स्वर्गीय बनाकर छोड़ता। वह आवाज पर आवाज लगाता ही रहा।
सहसा जवाब आया, "जा जा, आज जा। जा, कहता हूँ।"
मेरा साथी किसी भी तरह विचलित नहीं हुआ, बोला, "कौन आये हैं, निकल के देखिए तो सही।"
परन्तु मैं विचलित हो उठा। मानो चक्रवर्ती का परम-पूज्य गुरुदेव घर पवित्र करने अकस्मात् आविर्भूत हुआ हो।
नेपथ्य का कण्ठ-स्वर क्षण में मुलायम हो उठा, "कौन है रे भीमा?"
यह कहते हुए घर-मालिक दरवाजे के पास आये दिखाई दिये। मैली धोती पहने हुए थे, सो भी बहुत छोटी। अन्धकारप्राय संध्यां की छाया में उनकी उमर मैं न कूत सका, मगर बहुत ज्यादा तो नहीं मालूम हुई। फिर उन्होंने पूछा, "कौन है रे भीमा?"
समझ गया कि मेरे संगी का नाम भीम है। भीम ने कहा, "भले आदमी हैं, ब्राह्मण महाराज हैं। रास्ता भूलकर अस्पताल में पहुँच गये थे। मैंने कहा, "डरते क्यों हैं, चलिए, मैं पण्डितजी के यहाँ पहुँचाए देता हूँ, गुरु की सी खातिरदारी में रहिएगा।"
वास्तव में भीम ने अतिशयोक्ति नहीं की, चक्रवर्ती महाशय ने मुझे परम समादर के साथ ग्रहण किया। अपने हाथ से चटाई बिछाकर बैठने के लिए कहा, और तमाखू पीता हूँ या नहीं, पूछकर भीतर जाकर वे खुद ही हुक्का भर लाये।
बोले, "नौकर-चाकर सब बुखार में पड़े हैं- क्या किया जाय!"
सुनकर मैं अत्यन्त कुण्ठित हो उठा। सोचा, एक चक्रवर्ती के घर से निकलकर दूसरे चक्रवर्ती के घर आ फँसा। कौन जानें, यहाँ का आतिथ्य कैसा रूप धारण करेगा। फिर भी हुक्का हाथ में पाकर पीने की तैयारी कर ही रहा था कि इतने में सहसा भीतर से एक तीक्ष्ण कण्ठ का प्रश्न आया, "क्यों जी, कौन |
आदमी आया है?"
अनुमान किया कि यही घर की गृहिणी हैं। जवाब देने में सिर्फ चक्रवर्ती का ही गला नहीं काँपा, मेरा हृदय भी काँप उठा।
उन्होंने झटपट कहा, "बड़े भारी आदमी हैं जी, बड़े भारी आदमी। ब्राह्मण हैं- नारायण। रास्ता भूलकर आ पड़े हैं- सिर्फ रातभर रहेंगे- भोर होने के पहले, तड़के ही चले जाँयगे।"
भीतर से जवाब आया, "हाँ हाँ, सभी कोई आते हैं रास्ता भूलकर। मुँहजले अतिथियों का तो नागा ही नहीं। घर में न तो एक मुट्ठी चावल है, न दाल-खिलाऊँगी क्या चूल्हे की भूभड़?"
मेरे हाथ का हुक्का हाथ में ही रह गया। चक्रवर्तीजी ने कहा, "ओहो, तुम यह सब क्या बका करती हो! मेरे घर में दाल-चावल की कमी! चलो चलो, भीतर चलो, सब ठीक किये देता हूँ।"
चक्रवर्ती-गृहिणी भीतर चलने के लिए बाहर नहीं आई थीं। बोलीं, "क्या ठीक कर दोगे, सुनूँ तो सही? सिर्फ मुट्ठीभर चावल है, सो बच्चों के पेट में भी तो राँधकर डालना है। उन बेचारों को उपास रखकर मैं उसे लीलने दूँगी? इसका खयाल भी न लाना।"
माता धारित्री, फट जा, फट जा! 'नहीं-नहीं' कहके न-जाने क्या कहना चाहता था परन्तु चक्रवर्ती जी के विपुल क्रोध में वह न जाने कहाँ बह गया। उन्होंने 'तुम' छोड़कर फिर 'तू' कहना शुरू किया। और अतिथि-सत्कार के विषय को लेकर पति-पत्नी में जो वार्तालाप शुरू हुआ, उसकी भाषा जैसी थी, गम्भीरता भी वैसी ही थी- उसकी उपमा नहीं मिल सकती। मैं रुपये लेकर नहीं निकला था- जेब में जो थोड़े-से पैसे पड़े थे, वे भी खर्च हो चुके थे। कुरते में सोने के बटन अलबत्ता थे। पर वहाँ कौन किसकी सुनता है! व्याकुल होकर एक बार उठके खड़े होने की कोशिश करने पर चक्रवर्तीजी ने जोर से मेरा हाथ पकड़ लिया और कहा, "आप अतिथि-नारायण हैं। विमुख होकर चले जाँयगे तो मैं गले में फाँसी लगा लूँगा।"
गृहिणी इस |
से रंचमात्र भी भयभीत नहीं हुई, उसी वक्त चैलेद्बज एक्सेप्ट करके बोलीं, "तब तो जी जाऊँ। भीख माँग-मूँगकर अपने बच्चों का पेट भर सकूँगी।"
इधर मेरी लगभग हिताहित-ज्ञान-शून्य होने की नौबत आ पहुँची थी; मैं सहसा कह बैठा, "चक्रवर्तीजी, से न हो तो और किसी दिन सोच-विचार कर धीरे सुस्ते लगाइएगा- लगाना ही अच्छा है- मगर, फिलहाल या तो मुझे छोड़ दीजिए, और न हो तो मुझे भी एक फाँसी की रस्सी दे दीजिए, उसमें लटककर आपको इस आतिथ्य-दाय से मुक्त कर दूँ।"
चक्रवर्तीजी ने अन्तःपुर की तरफ लक्ष्य करके जोर से चिल्लाकर कहा, "अब कुछ शिक्षा हुई? पूछता हूँ, सीखा कुछ?"
जवाब आया, "हाँ।"
और कुछ ही क्षण बाद भीतर से सिर्फ एक हाथ बाहर निकल आया। उसने धम्म से एक पीतल का कलसा जमीन पर धर दिया, और साथ-ही-साथ आदेश दिया, "जाओ, श्रीमन्त की दुकान से, इसे रखकर, दाल-चावल-घी-नामक ले आओ। जाओ। देखना कहीं वह हाथ में पाकर सब पैसे न काट ले।"
चक्रवर्ती खुश हो उठे। बोले, "अरे, नहीं, नहीं, यह क्या बच्चे के हाथ का लडुआ है?"
चट से हुक्का उठाकर दो-चार बार धुऑं खींचने के बाद वे बोले, "आग बुझ गयी। सुनती हो जी, जरा चिलम तो बदल दो, एक बार पीकर ही जाऊँ। गया और आया, देर न होगी।"
यह कहते हुए उन्होंने चिलम हाथ में लेकर भीतर की ओर बढ़ा दी।
बस, पति-पत्नी में सन्धि हो गयी। गृहिणी ने चिलम भर दी, और पतिदेव ने जी भरके हुक्का पिया। फिर वे प्रसन्न चित्त से हुक्का मेरे हाथ में थमाकर कलसा लेकर बाहर चले गये।
चावल आयी, दाल आयी, घी आया, नमक आया, और यथासमय रसोईघर में मेरी पुकार हुई। भोजन में रंचमात्र भी रुचि नहीं थी, फिर भी चुपचाप उठकर उस ओर चल दिया। कारण, आपत्ति करना सिर्फ निष्फल ही नहीं बल्कि 'ना' कहने में खतरे की भी आशंका हुई। इस जीवन में बहुत बार बहुत जगह मुझे बिन-माँगे आतिथ्य स्वीकार करना पड़ा है। सर्वत्र ही मेरा समादर हुआ है यह कहना तो झूठ होगा; परन्तु, ऐसा स्वागत भी कभी मेरे भाग्य में नहीं जुटा था। मगर अभी तो बहुत सीखना बाकी था। जाकर देखा कि चूल्हा जल रहा है, और वहाँ भोजन के बदले केले के पत्तों पर चावल-दाल-आलू और एक पीतल की हँड़िया रक्खी है।
चक्रवर्ती ने बड़े उत्साह के साथ कहा, "बस चढ़ा दीजिए हँड़िया, चटपट हो जायेगा सब। मसूर की खिचड़ी, आलू-भात है ही, मजे की होगी खाने में। घी है ही, गरम-गरम।"
चक्रवर्ती महाशय की रसना सरस हो उठी। परन्तु मेरे लिए यह घटना और भी जटिल हो गयी। मैंने, इस डर से कि मेरी किसी बात या काम से फिर कहीं कोई प्रलय-काण्ड न उठ खड़ा हो, तुरन्त ही उनके निर्देशानुसार हँड़िया चढ़ा दी। चक्रवर्ती-गृहिणी नेपथ्य में छिपी खड़ी थीं। स्त्री की ऑंखों से मेरे अपटु हाथों का परिचय छिपा न रहा। अब तो उन्होंने मुझे ही लक्ष्य करके कहना शुरू किया। उनमें और चाहे जो भी दोष हो, संकोच या ऑंखों का लिहाज आदि का अतिबाहुल्य-दोष नहीं था, इस बात को शायद बड़े से बड़ा निन्दाकारी भी स्वीकार किये बिना न रह सकेगा। उन्होंने कहा, "तुम तो बेटा, राँधना जानते ह |
ी नहीं।"
मैंने उसी वक्त उनकी बात मान ली, और कहा, "जी नहीं।"
उन्होंने कहा, "वे कह रहे थे, परदेसी आदमी हैं, कौन जानेगा कि किसने राँधा और किसने खाया! मैंने कहा, सो नहीं हो सकता, एक रात के लिए मुट्ठीभर भात खिलाकर मैं आदमी की जात नहीं बिगाड़ सकती। मेरे बाप अग्रदानी ब्राह्मण हैं।"
मेरी हिम्मत ही न हुई कि कह दूँ कि मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं, बल्कि इससे भी बढ़कर बड़े-बड़े पाप मैं इसके पहले ही कर चुका हूँ- क्योंकि डर था कि इससे भी कहीं कोई उपद्रव न उठ खड़ा हो। मन में सिर्फ एक ही चिन्ता थी कि किस तरह रात बीतेगी और कैसे इस घर के नागपाश से छुटकारा मिलेगा। लिहाजा, उनके निर्देशानुसार खिचड़ी भी बनाई और उसका पिण्ड-सा बनाकर घी डालकर- उस तोहफे को लीलने की कोशिश भी की। इस असाध्यर को मैंने किस तरह साध्ये या सम्पन्न किया, सो आज भी मुझसे छिपा नहीं है। बार-बार यही मालूम होने लगा कि वह चावल-दाल का पिण्डाकार तोहफा पेट के भीतर जाकर पत्थर का पिण्ड बन गया है।
अध्यवसाय से बहुत कुछ हो सकता है। परन्तु उसकी भी एक हद है। हाथ-मुँह धोने का भी अवसर न मिला, सब बाहर निकल गया! मारे डर के मेरी सिट्टी गुम हो गयी; क्योंकि, उसे मुझे ही साफ करना पड़ेगा, इसमें तो कोई शक नहीं। मगर उतनी ताकत भी अब न रह गयी। ऑंखों की दृष्टि धुँधली हो आयी। किसी तरह मैं इतना कह सका, "चार-छह मिनट में अपने को सँभाले लेता हूँ, फिर सब साफ कर दूँगा।"
सोचा था कि जवाब में न जाने क्या-क्या सुनना पड़ेगा। मगर आश्चर्य है कि उस महिला का भयानक कण्ठ-स्वर अकस्मात् ही कोमल हो गया। वे अंधेरे में से निकलकर मेरे सामने आ गयीं। बोलीं, "तुम क्यों साफ करोगे बेटा, मैं ही सब किये देती हूँ। बाहर के बिछौना तो अभी कर नहीं पाई, तब तक चलो तुम, मेरी ही कोठरी में चलकर लेट |
रहो।"
'ना' कहने का सामर्थ्य मुझमें न था। इसलिए, चुपचाप उनके पीछे पीछे जाकर, उन्हीं की शतछिन्न शय्या पर ऑंख मींचकर पड़ रहा।
बहुत अबेर में जब नींद खुली, तब ऐसे जोर से बुखार चढ़ रहा था कि मुझमें सिर उठाने की भी शक्ति न थी। सहज में मेरी ऑंखों से ऑंसू नहीं गिरते, पर आज, यह सोचकर कि इतने बड़े अपराध की अब किस तरह जवाबदेही करूँगा, खालिस और निरवछिन्न आतंक से ही मेरी ऑंखें भर आयीं। मालूम हुआ कि बहुत बार बहुत-सी निरुद्देश यात्राएँ मैंने की हैं, परन्तु इतनी बड़ी विडम्बना जगदीश्वर ने और कभी मेरे भाग्य में नहीं लिखी। और फिर एक बार मैंने जी-जान से उठने की कोशिश की, किन्तु किसी तरह सिर सीधा न कर सका और अन्त में ऑंख मींचकर पड़ रहा।
आज चक्रवर्ती-गृहिणी से रू-ब-रू बातचीत हुई। शायद अत्यन्त दुःख में से ही नारियों का सच्चा और गहरा परिचय मिला करता है। उन्हें पहिचान लेने की ऐसी कसौटी भी और कुछ नहीं हो सकती, और पुरुष के पास उनका हृदय जीतने के लिए इतना बड़ा अस्त्र भी और कोई नहीं होगा।
मेरे बिछौने के पास आकर वे बोलीं, "नींद खुली बेटा?"
मैंने ऑंखें खोलकर देखा। उनकी उमर शायद चालीस के लगभग होगी- कुछ ज्यादा भी हो सकती है। रंग काला है, पर नाक-ऑंख साधारण भद्र-गृहस्थ-घर की स्त्रियों के समान ही हैं, कहीं भी कुछ रूखापन नहीं, कुछ है तो सिर्फ सर्वांगव्यापी गम्भीर दारिद्य और अनशन के चिह्न-दृष्टि पड़ते ही यह बात मालूम हो जाती है।
उन्होंने फिर पूछा, "अंधेरे में दिखाई नहीं देता बेटा, पर, मेरा बड़ा लड़का जीता रहता तो तुम-सा ही बड़ा होता।"
इसका क्या उत्तर दूँ? उन्होंने चट से मेरे माथे पर हाथ रखकर कहा, "बुखार तो अब भी खूब है।"
मैंने ऑंखें मींच ली थीं। ऑंखें मींचे ही मींचे कहा, "कोई जरा सहारा दे दे, तो शायद, अस्पताल तक पहुँच जाऊँगा- कोई ज्यादा दूर थोड़े ही है।"
मैं उनका चेहरा तो न देख सका, पर इतना तो समझ गया कि मेरी बात से उनका कण्ठस्वर मानो वेदना से भर आया। बोलीं, "दुःख की जलन से कल कई एक बातें मुँह से निकल गयी हैं, इसी से, बेटा, गुस्सा होकर उस जमपुरी में जाना चाहते हो? और तुम जाना भी चाहोगे तो मैं जाने कब दूँगी?" इतना कहकर वे कुछ देर तक चुपचाप बैठी रहीं, फिर धीरे से बोलीं, "रोगी से नियम नहीं बनता बेटा, देखो न, जो लोग अस्पताल में जाकर रहते हैं, उन्हें वहाँ किस-किसका छुआ हुआ नहीं खाना पड़ता है, बताओ? पर उससे जात थोड़े ही जाती है। मैं साबू बार्ली बनाकर दूँ, तो तुम न खाओगे?"
मैंने गरदन हिलाकर जताया कि इसमें मुझे रंचमात्र भी आपत्ति नहीं और सिर्फ बीमार हूँ इसलिए नहीं, अत्यन्त निरोग अवस्था में भी मुझे इससे कोई परहेज नहीं।
अतएव, वहीं रह गया। कुल मिलाकर शायद चारेक दिन रहा। फिर भी उन चार दिनों की स्मृति सहज में भूलने की नहीं। बुखार एक ही दिन में उतर गया, पर बाकी दिनों में, कमजोर होने के कारण, उन्होंने मुझे वहाँ से हिलने भी न दिया। कैसे भयानक दारिद्रय में इस ब्राह्मण-परिवार के दिन कट रहे हैं, और उस दुर्गति को |
बिना किसी कुसूर के हजार-गुना कड़घआ कर रक्खा है समाज के अर्थहीन पीड़न ने। चक्रवर्ती-गृहिणी अपनी अविश्रान्त मेहनत के भीतर से भी जरा सी फुरसत पाने पर, मेरे पास आकर बैठ जाती थीं। सिर और माथे पर हाथ फेर देती थीं। तैयारियों के साथ रोग का पथ्य न जुटा सकती थीं, पर उस त्रुटि को अपने व्यवहार और जतन से पूरा कर देने के लिए कैसी एकाग्र चेष्टा उनमें पाता था।
पहले इनकी अवस्था कामचलाऊ अच्छी थी। जमीन-जायदाद भी ऐसी कुछ बुरी नहीं थी। परन्तु, उनके अल्पबुद्धि पति को लोगों ने धोखा दे-देकर आज उन्हें ऐसे दुःख में डाल दिया है। वे आकर रुपये उधार माँगते थे; कहते थे- हैं तो यहाँ बहुत-से बड़े आदमी, पर कितनों की छाती पर इतने बाल हैं? लिहाजा छाती के उन बालों का परिचय देने के लिए कर्ज करके कर्ज दिया करते थे। पहले तो हाथ चिट्ठी लिखाकर और बाद में स्त्री से छिपाकर जमीन गहने रखकर कर्ज देने लगे। नतीजा अधिकांश स्थलों पर जैसा होता है, यहाँ भी वैसी ही हुआ।
यह कुकार्य चक्रवर्ती के लिए असाध्य् नहीं, इस बात पर मुझे, एक ही रात की अभिज्ञता से, पूरा विश्वास हो गया। बुद्धि के दोष से धन-सम्पत्ति बहुतों की नष्ट हो जाती है, उसका परिणाम भी अत्यन्त दुःखमय होता है, परन्तु यह दुःख समाज की अनावश्यक और अन्धी निष्ठुरता से कितना ज्यादा बढ़ सकता है, इसका मुझे चक्रवर्ती-गृहिणी की प्रत्येक बात से, नस-नस में, अनुभव हो गया। उनके यहाँ सिर्फ दो सोने की कोठरियाँ हैं, एक में लड़के-बच्चे रहते हैं और दूसरी पर बिल्कुयल और बाहर का आदमी होते हुए भी मैंने दखल जमा लिया। इससे मेरे संकोच की सीमा न रही। मैंने कहा, "आज तो मेरा बुखार उतर गया है और आप लोगों को भी बड़ी तकलीफ हो रही है। अगर बाहर वाली बैठक में मेरा बिस्तर कर दें, तो मुझे बहुत सन्तोष हो।"
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ृहिणी ने गरदन हिलाकर जवाब दिया, "सो कैसे हो सकता है बेटा! बादल घिर रहे हैं, अगर वर्षा हुई तो उस कमरे में ऐसी जगह ही न रहेगी जहाँ सिर भी रखा जा सके। तुम अभी कमजोर ठहरे, इतना साहस तो मुझसे न होगा।"
उनके ऑंगन में एक तरफ कुछ पुआल पड़ा था, उस पर मैंने गौर किया था। उसी की तरफ इशारा करके मैंने पूछा, "पहले से मरम्मत क्यों नहीं करा ली? ऑंधी-मेह के दिन तो आ भी गये।"
इसके उत्तर में मालूम हुआ कि मरम्मत कराना कोई आसान बात नहीं। पतित ब्राह्मण होने से इधर का कोई किसान-मजूर उनका काम नहीं करता। आन गाँव में जो मुसलमान काम करने वाले हैं, वे ही घर छा जाते हैं। किसी भी कारण से हो, इस साल वे आ नहीं सके। इसी प्रसंग में वे सहसा रो पड़ीं, बोली, "बेटा, हम लोगों के दुःख का क्या कोई अन्त है? उस साल मेरी सात-आठ साल की लड़की अचानक हैजे में मर गयी; पूजा के दिन थे, मेरे भइया गये थे काशीजी घूमने, सो और कोई आदमी न मिलने से छोटे लड़के के साथ अकेले इन्हीं को मसान जाना पड़ा। सो भी क्या किरिया-करम ठीक से हो सका? लकड़ी तक किसी ने काटने न दी। बाप होकर गङ्ढा खोद के गाड़-गूड़कर इन्हें घर लौट आना पड़ा।" कहते-कहते उनका दबा हुआ पुराना शोक एकबारगी नया होकर दिखाई दे गया। ऑंखें पोंछती हुई जो कुछ कहने लगीं, उसमें मुख्य शिकायत यह थी कि उनके पुरखों में किसी समय किसी ने श्राद्ध का दान ग्रहण किया था- बस यही कसूर हो गया- और श्राद्ध तो हिन्दू का अवश्य कर्त्तव्य है, कोई तो उसका दान लेगा ही, नहीं तो वह श्राद्ध ही असिद्ध और निष्फल हो जायेगा। फिर दोष इसमें कहाँ है? और दोष अगर हो ही, तो आदमी को लोभ में फँसाकर उस काम में प्रवृत्त ही क्यों किया जाता है?
इन प्रश्नों का उत्तर देना जितना कठिन है, इतने दिनों बाद इस बात का पता लगाना भी दुःसाध्यन है कि उन पुरखों की किस दुष्कृति के दण्डस्वरूप उनके वंशधरों को ऐसी विडम्बना सहनी पड़ रही है। श्राद्ध का दान लेना अच्छा है या बुरा, सो मैं नहीं जानता। बुरा होने पर भी यह बात सच है कि व्यक्तिगत रूप से इस काम को वे नहीं करते, इसलिए वे निरपराध हैं। अफसोस तो इस बात का है कि मनुष्य, पड़ोसी होकर, अपने दूसरे पड़ोसी की जीवन-यात्रा का मार्ग, बिना किसी दोष के, इतना दुर्गम और दुःखमय बना दे सकता है, ऐसी हृदयहीन निर्दय बर्बरता का उदाहरण दुनिया में शायद सिर्फ हिन्दू समाज के सिवा और कहीं न मिलेगा।
उन्होंने फिर कहा, "इस गाँव में आदमी ज्यादा नहीं हैं, मलेरिया बुखार और हैजे से आधे मर गये हैं। अब सिर्फ ब्राह्मण, कायस्थ और राजपूतों के घर बचे हैं। हम लोग तो लाचार हैं बेटा, नहीं तो जी चाहता है कि कहीं किसी मुसलमानों के गाँव में जा रहें।"
मैंने कहा, "मगर वहाँ तो जात जा सकती है?"
उन्होंने इस प्रश्न का ठीक जवाब नहीं दिया, बोलीं, "नाते में मेरे एक चचिया-ससुर लगते हैं, वे दुमका गये थे, नौकरी करने, सो ईसाई हो गये थे। उन्हें अब कोई तकलीफ नहीं है।"
मैं चुप रह गया। कोई हिन्दू-धर्म छोड़कर दूसरा धर्म ग्रहण करने को |
मन ही मन उत्सुक हो रहा है, यह सुनकर मुझे बड़ा दुःख होता है। मगर उन्हें सान्त्वना भी देना चाहूँ तो दूँ क्या कहकर? अब तक मैं यही समझता था कि सिर्फ अस्पृश्य नीच जातियाँ ही हिन्दू-समाज में अत्याचार सहा करती हैं, मगर आज समझा कि बचा कोई भी नहीं है। अर्थहीन अविवेचन से परस्पर एक-दूसरे के जीवन को दूभर कर डालना ही मानो इस समाज का मज्जागत संस्कार है। बाद में बहुतों से मैंने पूछा है, और बहुतों ने इस बात को स्वीकार करते हुए कहा है, कि यह अन्याय है, यह गर्हित है, बुरी बात है; फिर भी इसके निराकरण का वे कोई भी मार्ग नहीं बतला पाते। वे इस अन्याय के बीच में से जन्म से लेकर मौत तक चलने के लिए राजी हैं, पर प्रतिकार की प्रवृत्ति या साहस- इन दोनों में से कोई भी बात उनमें नहीं। जानने-समझने के बाद भी अन्याय के प्रतिकार कर नेकी शक्ति जिनमें से इस तरह बिला गयी है, वह जाति अधिक दिनों तक कैसे जीवित रह सकती है, यह सोच-समझ सकना मुश्किल ही है।
तीन दिन के बाद, स्वस्थ होकर, मैं जब सबेरे ही जाने को तैयार हुआ, तो मैंने कहा, "माँ, आज मुझे विदा दीजिए।"
चक्रवर्ती-गृहिणी की दोनों ऑंखों में ऑंसू भर आये। कहा, "दुःखियों के घर बहुत दुःख पाया बेटा, तुम्हें कड़घई बातें भी कम सुननी पड़ीं।"
इस बात का उत्तर ढूँढे न मिला। "नहीं, नहीं सो कोई बात नहीं- मैं बड़े आराम से रहा, मैं बहुत कृतज्ञ हूँ।" इत्यादि मामूली शराफत की बातें कहने में भी मुझे शरम होने लगी। वज्रानन्द की बात याद आयी। उसने एक दिन कहा था, "घर त्याग आने से क्या होता है? इस देश में घर माँ-बहिनें मौजूद हैं, हमारी मजाल क्या है कि हम उनके आकर्षण से बचकर निकल जाँय।" बात असल में कितनी सत्य है!
अत्यन्त गरीबी और कमअक्ल पति के अविचारित रम्य या ऊटपटाँग कार्यकलापों ने इस गृहस |
्थ-घर की गृहिणी को लगभग पागल बना दिया है, परन्तु जब उनको अनुभव हुआ कि मैं बीमार हूँ, लाचार हूँ- तब तो उनके लिए सोचने की कोई बात ही नहीं रह गयी। मातृत्व के सीमाहीन स्नेह से मेरे रोग तथा पराये घर ठहरने के सम्पूर्ण दुःख को मानो उन्होंने अपने दोनों हाथों से एकबारगी पोंछकर अलग कर दिया।
चक्रवर्तीजी कोशिश करके कहीं से एक बैलगाड़ी जुटा लाये। गृहिणी की बड़ी भारी इच्छा थी कि मैं नहा-धो और खा-पीकर जाऊँ, परन्तु धूप और गरमी बढ़ जाने की आशंका से वे ज्यादा अनुरोध न कर सकीं। चलते समय सिर्फ देवी-देवताओं का नाम-स्मरण करके ऑंखें पोंछती हुई बोलीं, "बेटा, यदि कभी इधर आओ, तो एक बार यहाँ जरूर हो आना ।"
उधर जाना भी कभी नहीं हुआ, और वहाँ जरूर हो आना भी मुझसे न बन सका। बहुत दिनों बाद सिर्फ इतना सुना कि राजलक्ष्मी ने कुशारी महाशय के हाथ से उन लोगों का बहुत-सा कर्जा अपने ऊपर ले लिया है।
करीब तीसरे पहर गंगामाटी, घर पर पहुँचा। द्वार के दोनों तरफ कदलीवृक्ष और मंगल-घट स्थापित थे। ऊपर आम्र-पल्लवों के बन्दनवार लटक रहे थे। बाहर बहुत से लोग इकट्ठे बैठे तमाखू पी रहे थे। बैलगाड़ी की आहट से उन लोगों ने मुँह उठाकर देखा। शायद इसी के मधुर शब्द से आकृष्ट होकर और एक साहब अकस्मात् सामने आ खड़े हुए- देखा तो वज्रानन्द हैं। उनका उल्लसित कलरव उद्दाम हो उठा, और तब कोई आदमी दौड़कर भीतर खबर देने भी चला गया। स्वामीजी कहने लगे कि "मैंने आकर सब हाल सबसे कह सुनाया है। तबसे बराबर चारों तरफ आदमी भेजकर तुम्हें ढूँढ़ा जा रहा है- एक ओर जैसे कोशिश करने में कोई बात उठा न रखी गयी, वैसे ही दूसरी ओर दुश्चिन्ता की भी कोई हद नहीं रही। आखिर माजरा क्या था? अचानक कहाँ डुबकी लगा गये थे, बताइए तो? गाड़ीवान छोकरे ने तो जाकर कहा कि आपको वह गंगामाटी के रास्ते में उतारकर चला आया है।"
राजलक्ष्मी काम में व्यस्त थी, उसने आकर पैरों के आगे माथा टेककर प्रणाम किया और कहा, "घर-भर को, सबको तुमने कैसी कड़ी सजा दी है, कुछ कहने की नहीं।" फिर वज्रानन्द को लक्ष्य करके कहा, "मेरा मन जान गया था कि आज ये आयेंगे ही।"
मैंने हँसकर कहा, "द्वार पर केले के थम्भ और घट-स्थापना देखकर ही मैं समझ गया कि मेरे आने की खबर तुम्हें मिल गयी है।" दरवाजे की ओट में रतन आकर खड़ा था। वह चट से बोल उठा, "जी नहीं, इसलिए नहीं- आज घर पर ब्राह्मण-भोजन होगा न, इसीलिए। वक्रनाथ के दर्शन कर आने के बाद से माँ..."
राजलक्ष्मी ने डाँट लगाकर उसे जहाँ का तहाँ रोक दिया, "अब व्याख्या करने की जरूरत नहीं, तू जा, अपना काम देख।"
उसके सुर्ख चेहरे की तरफ देखकर वज्रानन्द हँस दिया, बोला, "समझे नहीं भाई साहब, किसी भी काम में लगे रहने से मन की उत्कण्ठा बहुत बढ़ जाती है। सही नहीं जाती। यह ब्राह्मण-भोजन का आयोजन सिर्फ इसीलिए है। क्यों जीजी, है न यही बात?"
राजलक्ष्मी ने कोई जवाब नहीं दिया, "वह गुस्सा होकर वहाँ से चल दी। वज्रानन्द ने पूछा, "बड़े दुबले-से मालूम पड़ते हो भाई साहब, इस बीच में क्या बात हो |