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लोगों का गुस्सा भड़का हुआ था |
ऐसे में एंडरसन को बाहर भेजना जरूरी लगा और मैंने उसे बाहर भेजने का फैसला किया |
भोपाल गैस कांड में जिला अदालत के फैसले के बाद इस मामले की कई परतें खुलकर सामने आई हैं |
कुछ ऐसी सच्चाई भी सामने आई है जिससे देश की जनता अभीतक अनजान थी |
लेकिन जो सच सामने आया है, उससे एक बार फिर यह बात साबित हो गई है कि मुल्क की जनता जो सरकारें चुनती है, वे सरकारें जनता की न होकर उनकी हैं, जो इनके नेताओं को जेबें भरते हैं |
हजारों हत्याओं के जिम्मेदार शख्स को तत्कालीन कांग्रेस की राज्य और केन्द्र सरकारों ने इस तरह भारत से विदा किया जैसे वह हमारी मासूम जनता का हत्यारा न हो कर राष्ट्र का अतिथि हो |
इस प्रकरण पर प्रणवमुखर्जी ने कांग्रेस की तरफ से जो सफाई दी है कि एंडरसन को भारत से भेजा नहीं जाता तो हिंसा हो सकती थी, बिल्कुल बकवास है |
साफ बात यह है कि अमेरिका का भारतसरकार पर दबाव था और वह उसके दबाव में आ गई |
ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर हमारे मुल्क की सरकारें इतनी कमज़ोर हैं? उनका काम क्या हमारे दुश्मनों की रक्षा करना है? जरा सोचिए, अगर कोई भारतीय अमेरिका में जाकर ऐसा करता तो क्या वह कभी जिंदा भारत लौट सकता था? इसका जवाब जाहिर है कि ना ही होगा |
क्योंकि वहां की सरकारें हमें लूट कर अपने लोगों के हितों की रक्षा करती हैं लेकिन हमारे मुल्क के रहनुमा यहां की जनता की लाशों पर विदेशियों को खुश करते हैं |
वे हमें लूटते हैं हमारे अपनों की मदद से |
कितना क्रूर चेहरा है हमारी सरकारों का कि हमें खुद पर शर्म आनी चाहिए कि हम ही ऐसों को चुनते हैं जो अपने फायदे के लिए हमारी बोली लगाते हैं |
वे परिवार जिनके अपने इस हादसे में खो गए, क्या यह सच्चाई जानकर उन्हें हिन्दुस्तानी होने में फख्र महसूस हो सकेगा? |
स्कूल एजुकेशन के बाद हायर एजुकेशन की दहलीज पर कदम रखते ही स्टूडेंट्स के मन में एक नई उमंग और आंखों में सपने होते हैं |
उन्हें अपने सपने साकार करने के लिए, उड़ान के लिए एक खुला आसमान भी मिलता है |
वे पल भर में सब कुछ पा लेना चाहते हें |
इसीलिए कॉलेजों में एडमिशन की आपाधापी में भी वे पीछे नहीं हटते और एक जगह एडमिशन नहीं मिलने पर दूसरी जगह, तीसरी जगह कोशिश जारी रखते हैं |
हर विकल्प को खंगालना चाहते हैं यही वजह है कि डीयू नहीं तो आईपी, आईपी नहीं तो जामिया, बीए इको नहीं तो बीकॉम ऑनर्स, बीए अंग्रेजी नहीं तो बीए जर्नलिज्म, स्टीफंस नहीं तो हिंदू, हिंदू नहीं तो केएमसी... यानी कहीं तो मुकाम मिलेगा ही |
इस भागमभाग लेकिन आशावादी माहौल में भी कई बार रास्ते बंद होते नजर आते हैं |
वे रास्ते सिस्टम के कारण बंद होते नजर आते हैं |
ऐसा सिस्टम जो वर्षों से लागू है लेकिन उसे बदलने का किसी में न तो साहस है और न ही इच्छा |
अभी हाल ही में मेडिकल एंट्रेंस में घपले की सुगबुगाहट हुई हुआ यूं कि अखबार में विज्ञापन छपा कि किसी भी मेडिकल कॉलेज में एडमिशन चाहिए तो हमसे मिलो |
एक पैरंट्स ने विज्ञापन में दिए नंबर पर संपर्क किया तो मुलाकात का समय तय हो गया |
मुलाकात के लिए पहुंचे तो पांवों तले जमीन खिसक गई क्योंकि सामने थे साउथदिल्ली के एक नामी कोचिंग सेंटर के मालिक जिन्होंने एम्स समेत कई मेडिकल कॉलेजों में एडमिशन के लिए रेट लिस्ट आगे रख दी |
पैरंट्स ने हिम्मत दिखाकर अगली मुलाकात में स्टिंग ऑपरेशन कर डाला लेकिन कोई मामला दर्ज नहीं हुआ |
पुलिस कहती है कि जब पैसे का लेनदेन ही नहीं हुआ तो मामला कैसा |
एम्स समेत जिन संस्थानों का जिक्र आया उन्होंने भी पल्ला झाड़ लिया |
अगर कोई व्यक्ति ऐसे प्रतिष्ठित संस्थानों के नाम पर पैसा वसूल कर रहा है या उनके नाम पर बट्टा लगा रहा है तो क्या इन संस्थानों को ऐतराज नहीं होना चाहिए लेकिन इन्हें नहीं है |
और तो और, उन साहब ने भी नहीं कहा कि स्टिंग ऑपरेशन गलत है या फर्जी है |
अब करें सिस्टम की बात सिस्टम में इतने छेद हैं कि स्टूडेंट्स शंकाओं से भर उठते हैं |
एम्स के टेस्ट में सिर्फ एक लिस्ट जारी होती है जिसमें पास होने वालों का नाम होता है, उनके मार्क्स तक नहीं बताए जाते |
जो फेल हो गए, उन्हें तो पता ही नहीं चलता कि हम कहां फेल हैं क्योंकि उन्हें क्वेश्चन पेपर तक नहीं मिलते |
डीयू के मेडिकल एंट्रेंस में ओएमआर शीट पेंसिल से भरवाई जाती है, बाकी जगह बालपेन से |
आईपी भी क्वेश्चन पेपर नहीं देता और न ही मार्क्स बताता है |
भारत में एजुकेशन सेक्टर की सहायता के लिए दी गई लाखों की रकम में भारी हेराफेरी की रपटों से ब्रिटेन अचंभे में है |
: 2: उसने सोमवार को कहा कि वह करप्शन जरा भी बर्दाश्त नहीं करेगा और मामले की तुरंत जांच शुरू करा दी है |
: 3: डिपार्टमेंटऑफइंटरनैशनलडिवेलमेंट के आंकड़ों के मुताबिक, भारत को ब्रिटेन से मिलने वाली आर्थिक सहायता में 24 पर्सेंट एजुकेशन के लिए होती है |
: 4: यह सहायता 14 साल से कम उम्र के बच्चों के स्कूल प्रोजेक्ट के लिए दी जाती है |
: 5: भारत में करप्शन के बारे में ब्रिटिशमीडिया में आई रपटों के मुताबिक, 34करोड़पाउंड 23अरब28करोड़रुपये का आंकड़ा सामने आया है |
: 6: सर्व शिक्षा अभियान प्रोजेक्ट के लिए तय रकम के ऑडिट में पाया गया कि सातकरोड़पाउंड 4अरब79करोड़रुपये की रकम गायब थी |
: 7: 'दन्यूजऑफदवर्ल्ड' में भारत के ऑडिटर जनरल के हवाले से कहा गया है कि 1करोड़40लाखपाउंड की रकम ऐसे आइटमों और लग्जरी पर खर्च की गई, जिसका स्कूलों से कोई लेना नहीं है |
: 8: रिपोर्ट के मुताबिक, हमने पाया कि देश भर में अधिकारियों ने इस रकम को नई कारें खरीदने में खर्च किया |
: 9: एक मामले में 17,754पाउंड की सहायता राशि को लग्जरी बेड खरीदने में खर्च किया है |
: 10: एक कंप्यूटर 3,803पाउंड में खरीदा गया |
: 11: रपटों के मुताबिक, सहायता राशि का बड़ा हिस्सा ऐसे स्कूलों पर खर्च किया गया, जो वजूद में ही नहीं है |
: 12: जिन इलाकों में बिजली सप्लाई नहीं है, वहां एयर कंडिशनर, फैक्स मशीनों, फोटोकोपियरों और 7,531 कलर टीवी की खरीदारी की गई |
: 13: डेढ़लाखपाउंड एक रहस्यमय बैंक अकाउंट में डाले गए और इसका कोई कारण नहीं बताया गया |
: 14: बिहार के मुजफ्फरपुर में खेतों में पढ़ाया जा रहा है, क्योंकि क्लासरूम रिपेयर करने के लिए दी गई रकम नहीं पहुंची मुजफ्फरपुर में 11लाखपौंड में से 4लाखपौंड ही पहुंचे |
: 15: करप्शन में शामिल एक महिला पर आरोप है कि उसने 60लाखपाउंड की हेराफेरी की |
: 16: इसमें 44हजारपौंड के खर्च पर फिल्म बनाई गई, जिसे उसके बेटे ने डायरेक्ट किया था |
: 17: ऑडिटर हर राज्य का अकाउंट चेक कर रहे हैं, उन्होंने पाया कि 48लाखपौंड खाते से गायब हैं |
: 18: इंटरनैशनल डिवेलपमेंट सेक्रेटरी एंड्रूमिशेल ने कहा कि ब्रिटिश सहायता के इस्तेमाल में भारी भ्रष्टाचार के आरोपों की जो रपटें भारत से मिली है, वे हैरत में डालने वाली हैं |
: 19: ब्रिटेन की नई सरकार करप्शन जरा भी बर्दाश्त नहीं करेगी |
: 20: भारत में एचआरडीमिनिस्ट्री के सूत्रों ने बताया कि सर्व शिक्षा अभियान में फाइनैंस पर नजर रखने के जबरदस्त इंतजाम हैं |
अगर आप अपने देश से प्यार करते हैं और चाहते हैं कि अगले कॉमनवेल्थगेम्स के दौरान राष्ट्र की भद्द न पिटे तो मेरी आपसे एक विनम्र विनती है-आज ही से भगवान से प्रार्थना शुरू कर दें |
गेम्स के लिए जो तैयारी है-चाहे वह वेन्यू हों, कैटरिंग व्यवस्था हो, खेलगांव हों या इन्फ्रास्ट्रक्चर-उन सबका हाल तो आपको मालूम ही होगा |
लेकिन मैं उनके लिए प्रार्थना करने के लिए नहीं कह रहा |
मेरी चिंता है बारिश |
आप प्रार्थना करें जिस किसी भगवान में आपकी आस्था हो कि हे प्रभु, गेम्स के दौरान बारिश को रोके रखना |
जो लोग दिल्ली में रहते हैं, वे आसानी से समझ जाएंगे कि मैं ऐसा क्यों कह रहा हूं |
देश की राजधानी जिसपर सुविधाएं बढ़ाने के नाम पर सारी सरकारें लगातार पैसा लुटा रही हैं, उसकी स्थिति कुछ ऐसी है कि हल्की सी बारिश में भी सारा शहर छोटे-छोटे टापुओं में बदल जाता है |
लेकिन हाल यहां तक सीमित रहे तो भी गनीमत है मुझे तो डर है कि गेम्स के दौरान अगर बारिश हुई तो हालात दिल्ली का एक नया और बेहद घिनौना चेहरा सामने लेकर आएंगे |
ऐसा मैं क्यों कह रहा हूं, इस बारे में नीचे पढ़िए |
पिछले दिनों हमने तय किया कि हमारी साइकिल मंडली उन इलाकों का दौरा करे जहां कॉमनवेल्थगेम्स की तैयारी चल रही है |
हमने खेलों की जगह और उन जगहों तक पहुंचाने वाली सड़कों सभी को अपने दौरे में शामिल किया |
दूसरे शब्दों में सारी दिल्ली हमारी जांच के दायरे में थी |
साइकलिंग का फायदा यह है कि आप धीमे चलते हैं, और इसी कारण आप हर चीज़ को बहुत ही करीब और बारीकी से देख पाते हैं जैसा कि कार या बस से नहीं हो सकता |
इस साइकिल यात्रा के दौरान हमने जो देखा, उसने हमारे सामने एक नंगी हकीकत खड़ी कर दीं |
यह तो हम जानते ही हैं कि दिल्ली में बारिश का पानी सड़कों पर इसलिए जमा हो जाता है कि पानी के नीचे जाने के सारे रास्ते प्लास्टिक की बोतलों, पॉलिथिन की थैलियों और सड़क किनारे के कूड़े़-कर्कट के चलते बंद हो चुके होते हैं |
कारण यह कि जिन स्वीपरों पर इस कूड़े को हटाने की जिम्मेदारी होती है, वे उसे नाली में धकेल कर काम आसान कर लेते हैं |
अब हालत और गंभीर हो चली है |
जगह-जगह निर्माण कार्य के बाद का मलबा पड़ा है, और यह मलबा हर छेद, हर सुराख को बंद कर रहा है |
कहीं-कहीं जमीन के नीचे की मिट्टी सारे इलाके में बिखरी पड़ी है और जो नाला पानी को अंदर ले जाने के लिए बना हुआ था, उसका मुंह इन मलबों के नीचे कहीं बंद पड़ा है |
अब होगा यह कि सड़क बनाने वाले इस सब पर और मिट्टी कंकड़ डालकर बढ़िया चमचमाती सड़क बना देंगे जिन पर वे छेद भी बने होंगे जिनसे बारिश का पानी नीचे जाना चाहिए |
लेकिन उन छेद से पानी जाएगा कहां-नीचे तो सारी नालियों के मुंह बंद पड़े हैं और उन पर टनों मिट्टी पड़ी है |
क्या गुल खिलाएगी गिनती में जाति |
हर दससाल में होने वाली जनगणना के गले में एक बार फिर जाति अटक गई है |
जनगणना में जाति को शामिल करने की मांग आज से दससाल पहले यानी 2001 में जनगणना शुरू होने के पहले भी उठी थी, पर तब इस मांग को बिना किसी दुविधा के खारिज कर दिया गया था और उस पर कोई खास राजनीतिक प्रतिक्रिया भी नहीं हुई थी |
इस बार मामला कुछ अलग है |
जाति के तरफदार |
इस बार जनगणना के साथ राष्ट्रीय पाप्युलेशन रजिस्टर भी बनाया जारहा है |
इसके आधार पर हर नागरिक को परमानेंट आइडेंटीफिकेशन मिलेगा |
यानी जिसकी जो पहचान होगी, वह कुछ दिनों के लिए दस्तावेजबंद होकर तय हो जाएगी |
इसीलिए दससाल पहले जो मांग अधिकतर पिछड़ा वर्ग कमिशनों की सिफारिशों और जनसांख्यिकी के कुछ विद्वानों की मार्फत कमजोर स्वरों में की गई थी, इस बार उसे पिछड़े वर्ग की राजनीति करनेवाली पार्टियां जोरशोर से उठा रही हैं |
यहां तक कि बीजेपी जैसे राष्ट्रीय दल ने भी इसके पक्ष में अपनी राय दी है |
यूपीएसरकार के भीतर भी जाति और जनगणना को जोड़ने के तरफदार मौजूद हैं और समझा जा सकता है कि उनके दबाव के कारण इसके खिलाफ फैसला लेना सरकार के लिए आसान नहीं है |
संख्या पर टिका आरक्षण |
सवाल यह है कि अपनी संख्या कौन जानना चाहता है? केवल वही जिसे संख्या बल के आधार पर किसी तरह के फायदे की उम्मीद हो |
भारतीय लोकतंत्र के संस्थापकों को यह अहसास था |
इसलिए शुरू से ही उनकी नीति संख्या के महत्व को एक हद से ज्यादा न बढ़ने देने की थी |
उन्होंने संख्याओं का इस्तेमाल किया, पर पारंपरिक पहचानों के सेक्युलरीकरण के लिए 1939 के बाद भारत की जनगणनाओं में जाति का उल्लेख करना बंद कर दिया गया था |
आजादी के बाद यह परंपरा बदले हुए परिप्रेक्ष्य में जारी रखी गई |
चूंकि संविधान निर्माताओं ने पूर्व-अछूतों और आदिवासियों की विशेष स्थितियों के मद्देनजर उन्हें उनकी जनसंख्या के मुताबिक राजनीतिक आरक्षण देने का फैसला किया था, इसलिए जनगणना में केवल उनकी संख्या का जिक्र किया गया |
संविधान पिछड़ी जातियों को राजनीतिक आरक्षण देने के पक्ष में नहीं था |
वह उन्हें सिर्फ नौकरियों और स्कूल-कॉलेजों में आरक्षण देनाचाहता था |
उसके लिए गिनती की बजाय शैक्षिक और सामाजिक पिछड़ेपन को आधार बनानाही काफी था |
इसलिए पिछड़ी जातियों को जनगणना में शामिल करने की जरूरत नहीं समझी गई |
आरक्षण, जाति और जनगणना के इस व्यावहारिक त्रिकोण अपनाने के पीछे जो दूरंदेशी थी, उसकी कामयाबी आज आसानी से देखी जा सकती है |
इस सफलता के तीन पहलू हैं: पहला, सरकारी लाभों को बांटने के मकसद से इसके आधार पर जातियों की पारंपरिक पहचान अनुसूचितजाति, अनुसूचितजनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग जैसी सेक्युलर श्रेणियों में बदलने की प्रक्रिया शुरू हुई |
दूसरा, पिछड़ी जातियों ने चुनावी राजनीति के माध्यम से अपने संख्या बल को आधार बना कर आरक्षण प्राप्त किए बिना विधायिकाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व हासिल कर लिया |